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शब्दार्थ
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ARO अनुरादक-बालब्रहाचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी
तीसरा समय निः निर्जरीमाः वह व बंधी पुः स्पर्शी उः उदीरी वेदी नि. निरी में आगापिक काट में अ० अकर्म भ० होवे से वह ते. इनलिये ॥११॥१० प्रमत्त मंयति भं भगवन् १० प्रपत्त संया में वर्तता म० सर्व प०प्रमत्त अ० काल से के. कितना हो० होवे मं० मंडितपुत्र ए एकई जीव प० आश्री ज. जघन्य ए० एक समय उ० उत्कृष्ट दे० देशउजा पु. पूर्वक्रोड णा० विविध जीव प० आश्री स. सर्व काल ॥ १२ ॥ अ. अप्रमत्त मयान भं भगवन् अ० अप्रमत्त सः संयम में व० । वावि भवइ । से तेणटेणं मंडियपुत्ता : एवं बुच्चइ जावं चणं से जीवे सयासमियं,
नो एयइ जाव अंते अंतकिरिया ॥११॥ पमत्त संजयस्सणं भंते ! पमत्तसंजमे वहमाणस्म सवारियणं पमत्तहाकाल। केवचिरं होइ? मंडिया ! एगं जीवं पञ्च जह
णणं एक सनयं, उकोसणं देसृणा पुब्धकोडी ॥ णाणाजीव पटन सत्वदा ॥ १२॥ दमो समय वंदना होती है और तीसरे समय में नीर्जग होती है. इस तरह वच, स्पर्श, उदारणा, वदना, व निना होने में अनागत काल में कर्म रहिन जीव होता है. इस ने अहा पंडित पुत्र ! अयोगी जीव नहीं चलता है यायन उनको अंतक्रिया होती है ना कहा है ॥१७॥ अहो भगवन् : प्रमत्त यत गुण समान में रहने वाला काम भयतीकी सब काल, आश्रित कितनी स्थिति है. ' अह मंडित पुत्र ! एक जीव में आश्रित जयन्य एक समय उन देशऊणी कोडर्ण और बढ़त जीव आश्रीमदा काल देते क्यों कि उनका विरह नहीं होता है वे महा विद क्षेत्र में सब रहते हैं. ॥ १२॥ हो भगवन अनमत संगम
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवायजी मालाममानी *
भावार्थ