________________
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
है सुहुमेहि अपजत्तएहि १, ताहे पजत्तएहि २ वायहिँ अपजतपहिं ३,
ताहे पजत्तएहिं ४, उववातेयव्यो ॥ एवं चेत्र सुहुमं तेउकाइएहिंवि अपज्जत्तएहिं ताई. पजत्तरहिं उबवातयन्नो ॥ २ ॥ अपज्जत्ता सुहुम पुढवीकाइएणं भंते ! इमीसे | २९९२ रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए समोहएत्ता जे भविए मणुसखेते
अपनत्त वादर तेउकाइयत्ताए उववजित्तए सणं भंते ! कति समएणं विग्गहणं हावे. वह किनने समय मे विग्रगति से उत्पन्न हो ? अहो गौतम ! एक समय दो समय यों शेष वैसे ही कहना. यावत् इसलिये एसा कहा गया है. यावत् उत्पन्न होवे. ऐसे ही अपर्याप्त सूक्ष्मा पृथ्वीकाया पूर्व के चरिमान में काल करके पश्चिम के चरिमांत में अपर्याप्त आदर पृथ्वीकाया में उत्पन्न होने का कहना. ऐसे ही उनी के पर्याप्त में उत्पन्न होने का कहना. पेमे हा अपकाया के अपर्यत, चार आलापक कहना. १ सूक्ष्म अपर्यप्ता, २ मूक्ष्म पर्याप्ता.३ बादर अपर्याप्त व ४ बादर पर्यप्त. ऐसे ही सूक्ष्म तेउकाया के पर्याप्त व अपर्याप्त में उत्पन्न होने का कहना. अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्ती के पूर्व के चरिमति में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाया मारणांतिक समुद्धात से काल करके मनुष्य क्षेत्र में अपर्याप्त चादर देउकायापने उत्पन्न होने योग्य होवे तो कितनी समय के विग्र से उत्पन्न होवे ? शेष बैस, ही कहना..
.प्रकोषक-राजविहादुर लाला मुखदवस हायमी बाला प्रसादनी
-
Mara
-