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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजीg+
परिहारिय संजतो स खलु ॥ ४ ॥ लोभाणवेदंतो, जो खलु उवसामओव खवओवा ॥ सो सुहुमसंपराओ, अहक्खायाऊणओ किंचि ॥ ४ ॥ उवसंतेण खीणं, मिव जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि ॥ छउमत्थोबां जिणोवा, अहवखाओ संजओ स खलु
॥ ५ ॥ १ ॥ सामाइय संजएणं भंते ! किं सवेदए होज्जा अवेदए होज्जा ? गोयमा! । सवेदएवा होज्जा अवेदएवा होजा ॥ जइ सवेदए होज्जा एवं जहा कसायकुसीले तहेव
णिरवसेसं॥एवं छेदोवट्ठावाणिय संजएवि । परिहारविसुद्धिय संजओ, जहा पुलाओ ॥ स्थापन करता है वह छेदोपस्थापनीय चारित्रवाला कहलाता है. विशुद्ध पांच याम रूप धर्म को तीन करना । से स्पर्शते हुवे जो निरंतर तप का सेवन करते हैं वे परिहार संयमी कहाते हैं. लोभ के सूक्ष्म अणु वेदता हुवा जो रहे वह उपशम या क्षपक श्रेणि पर रहता है और वही यथाख्यात मे किंचित् ऊण सूक्ष्म संपराय कहाता है. उपशांतं अथवा क्षीण मोहनीय कर्म में जो रहता है वह छद्मस्थ या केवली होने पर भी यथाख्यात चारित्रवाला होबे ॥ १ ॥ वेदद्वार, अहो भगवन् ! सामायिक चारित्री क्या सवेदी हो या अवेदी होवे ? अहो गौतम ! सवेदी भी होवे अथवा अवेदी भी होवे क्यों कि सामायिक चारित्र नववे गुणस्थान पर्यंत होता है वहां उपशम व क्षपक दोनों श्रेणी होने से अवेदी हो. यदि सबंदी हो तो कायकुशील निर्ग्रन्थ का जैसे कहा वैसे ही सब. विशेषता रहित कहना. ऐसे ही छदोपस्था ।
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादनी *