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शब्दार्थ
सूत्र
भावार्थ |
403 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
अ० अन्यतीर्थिक भै० भगवन् ए० ऐसा आ० कहते हैं जा० यावत् प० प्ररूपते हैं जा० जितने रा० राजगृह न० नगर में जी० जीव ए इतने जी० जीव को नो० नहीं च० शक्तिवन्त के कोइ सु० विसुद्धले देवं, एवं हैट्ठिलएहिं अट्ठहिं नजागइ नपासइ, उवरिल्लएहिं चउहिं जाणइपास, ॥ सेवं भंते भंते ति ॥ छट्टए नवमो उदेसो सम्मत्तो ॥ ६ ॥ ९ ॥ * अण्णउत्थियाणं भंते ! एवमाइक्खति जाब परूवंति जावइया रायगिहे पणगरे जीवा एवइयाणं जीवाणं नो चक्किया केइ सुहंवा दुहंवा जाव कोलट्ठिगमायमवि, निप्पाव आत्मा से अवधिज्ञानी को नहीं जान सके व देख सके, ९ अवधिज्ञानी उपयोग सहित आत्मा से विभंग (ज्ञानी देव, देवी या अन्य को जान सके व देख सके, १० विभंग ज्ञानी उपयोग सहित आत्मा से अवधि ( ज्ञानी देव, देवी या अन्य किसी को जान व देख सके, ११ अवधि ज्ञानी उपयोग सहित व रहित आत्मा से विभंग ज्ञानी को जान व देख सके और १२ अवधि ज्ञानी उपयोग सहित व रहित आत्मा से अवधि (ज्ञानीको जान व देखसके यह छ भांगे समदृष्टि आश्री कहे हैं. इनमें से आठ भांगेवाले नहीं जान व नहीं देख सकते हैं. अहो मगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह छठा शतक का नववा उद्देशा पूर्ण हुआ. ॥६॥९॥ *
नवत्रे उद्देशे में अज्ञानिया को जानने का अभाव कहा. अब दशवे उद्देशे में इसकाही स्वरूप कहते हैं. अहो भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि राजगृही नगरी में जितने जीव हैं उन को
छठ्ठा शतकका दशना उद्देशा
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