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शब्दार्थ
रा० राजगृह जा. यावत् ए० ऐसा २० बोले सं० संवत भं• भगवन् अ० अनगार वी० संयोम में जाव कम्मए ॥ ७ ॥ ओरालिय सरीरेणं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? एवं ओगाहण संठाणं गिरवसेस. भाणियव्वं जाब अप्पाबहुगंति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति । दसम सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ १ ॥ +
+ रायगिहे जाव एवं वयासी संवुडस्सणं भंते! अणगारस्स वीइपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाई हुंडक ऐभे दो संस्थान आहारक में समचतुत्र संस्थान, और तेजस कार्माण में छ संस्थान. उदारिक में वैक्रेय आहारक की भजना, तेजस कार्माण की नियमा, वैक्रेय में उदारिक की भजना आहारक नहीं है व तेजस कार्माण की नियमा. आहारक में चक्रेय नहीं उदारिक तेजस व कार्माण की नियमा. तेजप्स में कार्माण की नियमा शेष तीनों की भजना, कार्माण में तेजस की नियमा और तीनों की मज . सब से थोडे आहारक शरीरी इस से चक्रेय शरीरी असंख्यातनु ने उस से उदारिक शरीरी अनंतगुने उस से तेजस कार्माण परस्पर तुल्य विशेषाधिक, अहो भगवन् ! आप के वचन सस हैं. यह दशा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १० ॥१॥ १ प्रथम उद्देशे के अंत में शरीर का अधिकार कहा. • शरीर के योग से क्रिया होती है इसलिये क्रिया का
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजांवहादुर लाला सुखदेवसहाय जी घालाप्रसादजी *
भावार्थ