Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित / संयोजक एवं प्रधान सम्पादक गुवाचार्य श्री मा कार मनि व्यायाप्रताप्तसत्र (मूल अहवा-विवेचन-टिप्पण-पशिष्ट युक्त Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 14 [परमश्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित ] पंचमगणधर भगवत् सुधर्मस्वामि-प्रणीत : पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [भगवतीसूत्र-प्रथम खंड] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पणयुक्त ] सन्निधि उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्रीव्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक 0 युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक-विवेचक-अनुवादक - श्री अमर मुनि [भण्डारी श्री पदमचन्दजी महाराज के सुशिष्य] श्रीचन्द सुराणा 'सरस' प्रकाशक // श्री श्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर, राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्पमाला : प्रन्थाङ्क 14 [श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के प्रथमाचार्य प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी महाराज की जन्म-शताब्दी के अवसर पर विशेष उपहार] -सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मनि श्रीकन्हैयालालजी 'कमल' श्रीदेवेन्द्र मुनि शास्त्रो श्रीरतन मुनि पण्डित श्रीशोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 0 अर्थसौजन्य माननीय सेठ श्रीहोराचन्दजी चोरडिया, 0 सम्प्रेरक मुनि श्रीविनयकुमार 'भीम' श्रीमहेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाणसंवत् 2506 विक्रम सं. 2036 ई.सन 1982 / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (रा ज्यावर–३०५६०१ / मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ _ मूल्य : 50) रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj FIFTH GANADHARA SUDHARMA SWAMI COMPILED : FIFTH ANGA VYAKHYA PRAJNAPTI ( BHAGAVATI SUTRA) First Part (Original Text, with Variant Readings, Hindi Version. Notes, etc. ] Proxicity Up-pravartaka Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Copvener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Editors & Annotators Shri Amarmuni Sri Chand Surana 'Saras" Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Grantbmala Publication No. 14 [An auspicious publication at the Holy occasion of Birth Century of Rev, Acharya Sri Atmaramji Maharaj the first Acharya of Vardhman Sthanakvasi Jain Sramana Sanghal Birth Century of Rev. O Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Mupi Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar O Financial Assistance Shri Seth Hirachandji Chauradiya D Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305901 O Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer--305001 Price : Rs. 50/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जो अपने युग में असाधारण व्यक्तित्व के वैभव से विभूषित थे, जिनागम-निपित विमल साधना का संकल्प हो जिनका एकमात्र साध्य रहा, जिनवाणी के प्रचार-प्रसार एवं जिनशासन के उद्योत के लिए जिनका संयम. जीवन समर्पित रहा, खिनकी शिष्य-प्रशिष्य-परम्परा मे कालानुक्रम से विशाल-विराट रूप धारण किया, जिन्होंने अपने जीवन द्वारा जैन इतिहास के नतम अध्यायों का निर्माण किया. उन परमपूज्य आचार्यश्री धर्मदासजी महाराज के कर-कमलों में सादर सविनय सभक्ति ! ---मधुकर मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगमप्रेमी स्वाध्यायशील पाठकों के कर-कमलों में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' अंग, जो अपनी अनेक विशिष्टताओं के कारण 'भगवती' नाम से प्रख्यात है, समर्पित करते हुए सन्तोष और आनन्द का अनुभव होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति विशालकाय आगम है / प्रस्तुत ग्रंथ उसका प्रथम भाग है, जिसमें पांच शतकों का सनिवेश हुमा है। दूसरा भाग लगभग इतना ही दलदार प्रेस में दिया जा चुका है। इससे अागे का सम्पादन-कार्य चाल है। प्रस्तुत आगम समिति द्वारा अब तक प्रकाशित आगमों में से 14 वां ग्रन्थाङ्क है / इससे पूर्व विपाकश्रुत, नन्दी पौर प्रौपपातिक प्रादि सूत्र प्रकाशित किए जा चुके हैं। यशस्वी साहित्य सर्जक श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री भगवती की प्रस्तावना लिखने वाले थे और वह प्रथम भाग के साथ ही प्रकाशित होने वाली थी, किन्तु स्वास्थ्य अनुकल न होने के कारण प्रस्तावना लिखी नहीं जा सकी। अतएव वह अन्तिम भाग में दी जाएगी। प्रस्तुत प्रागम का अनुवाद एवं सम्पादन पण्डित प्रवर श्रमणसंघीय मुनिवर श्रीपद्मचंदजी म. (भंडारी) के सुयोग्य शिष्य मुनिवर श्री अमरमुनिजी म. तथा श्रीयुत श्रीचंदजी सुराणा ने किया है। मुनिश्री के इस अनुग्रहपूर्ण सहयोग के लिए समिति अतीव प्राभारी है। आगम-प्रकाशन का यह महान भगीरथ कार्य न व्यक्तिगत है, न सम्प्रदायगत / यह समग्र समाज के लिए समान रूप से उपयोगी है। अतएव हमारा यह आशा करना कि समग्र समाज एवं सभी मुनिराजों का हमें समान रूप से हादिक सहयोग प्राप्त होगा, उचित ही है। इसके मद्रण में श्रीमान सेठ हीराचन्दजी चौरड़िया साहब का विशिष्ट आथिक सहकार प्राप्त हया है। उनके प्रति भी हम प्राभारी हैं। आपके अतिरिक्त सभी अर्थसह्योगी सदस्य महानुभावों के प्रति अपनी कृतज्ञताभावना प्रकट करना भी हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं। आगमवेत्ता विद्वानों के सहयोग के बिना भी यह पुण्य-कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता / अतएव हम उन सब विद्वानों के भी ग्राभारी हैं, जिनका प्रत्यक्ष-परोन सह्योग हमें प्राप्त हो रहा है। पागमप्रकाशन समिति प्रकाशित भागमों का मूल्य लागत से भी कम रखती है। अग्निम ग्राहकों में से संघ, शिक्षणसंस्था, पुस्तकालय आदि को 700 रु. में तथा व्यक्तियों को 1000 रु. में सम्पूर्ण बत्तीसी दी जाने वाली है। यह मूल्य लागत की तुलना में बहुत ही कम है। इसके पीछे एकमात्र भावना यही है कि ग्राममों का प्रचारप्रसार अधिक से अधिक हो और भ. महावीर की पावन वाणी से अधिक से अधिक लोग लाभान्वित खेद है कि समाज में आगमज्ञान की वह तीव्र पिपासा दष्टिगोचर नहीं होती। यही कारण है कि अग्रिम ग्राहकों की जितनी संख्या होनी चाहिए, नहीं हो पाई है। हम अर्थसहयोगी सदस्यों से तथा अग्निम ग्राहक महानुभावों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे प्रत्येक कम से कम पांच अग्रिम ग्राहक बना कर समिति के पावन उद्देश्य की पूत्ति में भी सहयोगी बनें / तथा श्रमसंघीय युवाचार्य पण्डितप्रवर मुनिश्री मिश्रीमलजी म. सा. ने जो घोर श्रमसाध्य पवित्रतम उत्तरदायित्व अपने कंधों पर अोढ़ा है उसमें सहभागी बने / रतनचंद मोदी अध्यक्ष जतनराज मेहता चांदमल विनायकिया प्रधानमंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ज्यावर (राज.) मंत्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन सहयोगी सत्कार [भगवती सूत्र जैसे महनीय विशाल प्रागम का सम्पादन-प्रकाशन वास्तव में ही बहुत श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य है। इसका सम्पादन प्रवचन-भूषण श्री अमर मुनिजी महाराज के सान्निध्य में उन्हीं के प्रमुख सहयोग से सम्पन्न हुआ। इसमें गुरुदेव भंडारी श्री पदमचन्दजी महाराज की प्रेरणा सदा कार्य को गति देती रही। साथ ही अन्य साधन जटाने, विद्वानों आदि की व्यवस्था में जो व्यय हुआ, इसका सहयोग निम्न उदार सद्गृहस्थों से प्राप्त हुना, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद 1. श्री भोजराजजी जैन बजाज भोजराज जैन चैरिटेबल ट्रस्ट, भटिंडा (पंजाब) 2. डा. मोतीरायजी जैन (देहली) सुपुत्र-ला. जौहरीमलजी जैन, खेवड़ा (जि. सोनीपत) 3. श्री प्रेमचन्द जैन सी. ए. चंडीगढ़ 4. श्री रामस्वरूपजी अग्रवाल हनुमान राईस मिल्स सफीदो मंडी (हरियाणा) 5. ला. अनन्तराय मलेरीरायजी सफीदो मंडी (हरियाणा) 6. श्री धनपतराय जी जैन श्री गंगानगर (राजस्थान) 7. ला. कबूलचन्द जगमन्दिरलाल जैन पदमपुर मंडी (राज.) 8. श्रीमती चलनी देवी जैन, धर्मत्नी श्री प्रोमप्रकाश जन नरेला मंडी (देहली) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में अर्थसहयोगी माननीय सेठ श्रीहीराचन्दजी सा. चोरडिया [संक्षिप्त परिचय-रेखा] नोखा (चांदावतों का) का चोरडिया-परिवार जितना विशाल है, उतना ही इस परिवार का हृदय विशाल है। आर्थिक दृष्टि से जितना सम्पन्न है, उदारभावना से भी उतना ही सम्पन्न है। सार्वजनिक सेवा, शासन-अभ्युदय और परोपकार के कार्यों में जितना अग्रसर है, उतना ही विनम्र, सौम्य और सरल है। सेठ हीराचन्दजी सा. इस परिवार के वयोवद्ध सम्माननीय सदस्य हैं। आपकी सरलता और गम्भीरता असाधारण है। चोरड़ियाजी का जन्म वि. सं. 1956 की फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को नोखा में हुआ / पिताजी श्रीमान् सिरेमलजी चोरड़िया के आप सुपुत्र हैं / प्रायने श्रीमती सायबकुवरजी की कुक्षि को पावन किया / जब आप केवल 18 वर्ष के थे तभी आपको पितबियोग के दारुण प्रसंग का सामना करना पड़ा। पिताजी के बिछुड़ते ही परिवार का समग्र उत्तरदायित्व प्रापके कन्धों पर ग्रा पड़ा। अापने बड़ी कुशलता, सूझबूझ, धैर्य और साहस से अपने दायित्व का निर्वाह किया। अाज अाप की गणना मद्रास के प्रतिष्ठित व्यवसायियों में की जाती है। आप अपने व्यवसाय-कौशल के कारण अनेक फर्मों के संस्थापक एवं संचालक हैं। आपकी मुख्य फर्म "सिरेमल हीराचन्द फाइनेन्सीयर्स' (साहकार पेट, मद्रास) है। इसके अतिरिक्त निम्नलिखित संस्थानों के भी आप अधिपति हैं (1) सिरेमल हीराचन्द एण्ड कम्पनी (2) इन्टरनेशनल टायर सविस–टायर्स एण्ड बेटरोज डीलर्स, माउन्ट रोड, मद्रास (3) चोरडिया रबर प्रोडक्टस् प्रा. लि. मद्रास व्यवसाय के क्षेत्र में संलग्न और अग्रसर होने पर भी आपका ब्यक्तित्व पूर्ण रूप से उसी के लिए समर्पित नहीं है। आपने उपाजित लक्ष्मी का समाजसेवा एवं परोपकार में व्यय किया है और कर रहे है / मरुभूमि में जल और जलाशय का कितना मूल्य और महत्व है, यह सर्वविदित है। संस्कृतभाषा में जल का एक नाम 'जीवन' है। वास्तव में जल के अभाव में जीवन टिक नहीं सकता। वह जीवन की सर्वोच्च आवश्यकता है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर मापने आज से चालीस वर्ष पूर्व नोखा-निवासियों की सुविधा के लिए कुमां खुदवाया, जिससे सारा गांव ग्राज भी लाभ उठा रहा है। यही नहीं, आपके जन्मग्राम नोखा में ही सिरेमल जोरावरमल प्राइमरी हेल्थसेंटर' के निर्माण में भी आपका विशिष्ट योगदान रहा है। मद्रास में होने वाले प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में आपका सक्रिय एवं सार्थक योगदान रहा है, चाहे वह हाईस्कल हो, जैन कालेज हो या बालिकानों का हाईस्कल हो। मगर अापका सब से महत्त्वपूर्ण और विशेष उल्लेखनीय सेवाकार्य है-हीराचन्द आई हॉस्पिटल नामक नेत्रचिकित्सालय। यह मद्रास के साहकार पेट में अवस्थित है। यह अस्पताल सेठ हीराचन्दजी सा. तथा श्रापके तीन सूपूत्रों--श्रीतेजराजजी, प्रकाशचन्दजी तथा शरबतचन्दजी सा. ने बड़े ही उत्साह के साथ स्थापित किया है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापने अपने परिवार के "सिरेमल हीराचन्द चेरिटेविल ट्रस्ट' द्वारा सात लाख रुपयों की बड़ी राशि लगा कर बनवाया है। यह अस्पताल प्राधनिक साधन-सामग्री से सम्पन्न है। इसमें 15 विस्तर (Beds) हैं, प्राउट पैसेन्ट वार्ड है, अाधुनिक एयरकन्डीशण्ड (वातानुकूलित) आपरेशन थियेटर है तथा स्पेशल वार्ड ग्रादि सभी सुविधाएं हैं। यह अाधुनिक शस्त्रों तथा साज-सामान से सुसज्जित है। इस अस्पताल से प्रतिदिन 75 रोगी लाभ उठा रहे हैं और प्रतिवर्ष 600 आपरेशन होते हैं। विशेष उल्लेखनीय तो यह है कि इस अस्पताल का दैनिक प्रबन्ध सेठ साहब और आपके सुपुत्र स्वयं ही करते हैं / समाजसेवा की उत्कट भावना के अतिरिक्त आपका धार्मिक जीवन भी सराहनीय है। प्रतिदिन सामायिक प्रतिक्रमण करना तो आपका नियमित अनुष्ठान है ही, कई वर्षों से अाप चौविहार भी बरावर कर आपका परिवार खूब भरा-पूरा है ! तीन सुपुत्र, नौ पौत्र, सात प्रपौत्र एवं चार सुपुत्रियां हैं। इस समय आपकी उम्र 82 वर्ष की है, फिर भी आप अपने सात्विक आहार-विहार तथा विचारों की बदौलत स्वस्थ और सक्रिय हैं। संक्षेप में सेठ श्रीहीराचन्दजी सा. पूर्वोपार्जित पुण्य के धनी हैं और भविष्य के लिए भी पुण्य की महानिधि संचित कर रहे हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में आपके विशिष्ट अर्थ-सहयोग के लिए समिति अत्यन्त अाभारी -मन्त्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दष्टात्रों/चिन्तकों, ने "आत्मसत्ता' पर चिन्तन किया है, या प्रात्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ प्रात्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। प्रात्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन अाज अागम/पिटक/वेद/उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैन दर्शन की यह धारणा है कि आत्मा के विकारों-राग द्वेष आदि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो आत्मा की शक्तियां ज्ञान सुख वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं। शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/प्राप्त-पुरुष की बाणी; वचन/कथन/प्ररूपणा-"पागम" के नाम से अभिहित होती है। पागम अर्थात् तत्त्वज्ञान, प्रारम-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र प्राप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थंकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "पागम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह “आगम' का रूप धारण करती है। वही प्रागम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए प्रात्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "ग्रागम' को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्न शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/प्राचारांग-सूत्रकृतांग ग्रादि के अंग-उपांग प्रादि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्ष के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हया तथा इसी प्रोर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब अागमों शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए आगम ज्ञान को हा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक ग्रागमों का ज्ञान स्मृति/श्रति परम्परा पर ही आधा स्मृतिदौर्बल्य ; गृहपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया। मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी / वे तत्पर हए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेत / तभी महान् श्रुतपारगामी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्व-सम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध किया गया। [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः अाज को समन ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हमा। संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा पारम-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी बलभी (सौराष्ट्र) में आचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुा / वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था। आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ होने के बाद प्रागमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संघों के अान्तरिक मतभेद, स्मृतिदुर्वलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से आगमज्ञान की विपूल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक गूरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी / आगमों के अनेक महत्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो नागम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ बाले नहीं होते, उनका सम्यक अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते / इस प्रकार अनेक कारणों से पागम की पावन धारा संकुचित होती गयी / विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया / प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया। प्रागम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब प्रागम-मुद्रण की परम्परा चली तो सूधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चणियाँ, नियुक्तियाँ, टीकार्य प्रादि प्रकाश में आई और उनके आधार पर पाचमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हमा। इसमें भागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई / फलतः प्रागमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी हैं / मेरा अनुभव है, अाज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में प्रागमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है / इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की पागम-श्रुत-सेवा प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। प्रागम-सम्पादत-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है / इस महनीयश्रुत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह आज भले ही श्रदश्य हों पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-ग्रागम श्रुत-सेवी मुनिबरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहेंग। आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन ग्राममों-३२ सुत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं प्रागम ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही मागम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे प्रागमपठन बहत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानवावासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हमा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. के सानिध्य में प्रागमों का अध्ययनअनुशीलन करता था तव पागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित आचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव कियायद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्राय: शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व बत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरूह तो हैं ही। चूकि गुरुदेवश्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क प्रवण थी, अतः वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञानवाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें / उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। इसी अन्तराल में प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्म दिवाकर प्राचार्य श्री प्रात्माराम जी म०, विद्वदरत्न श्री घासीलालजी म. प्रादि मनीषी मुनिवरों ने प्रायमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में स स्तत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक अाम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगमसम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा / किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया / तदपि मागमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी प्रादि के तत्त्वावधान में आगम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य प्राज भी चल रहा है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में प्राचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में नागम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो पागम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देख कर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद की गुंजाइश है / तथापि उनके भम का महत्त्व है / मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० "कमल" प्रागमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनके द्वारा सम्पादित कुछ प्रागमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। __ आगम साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान पं० श्री बेचरदासजी दोशी, विश्रुत-मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष प्रागमों के आधनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं / यह प्रसन्नता का विषय है / इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हुए है। कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं प्रागमों की विशाल व्याख्यायें की जा रही हैं। एक पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक आगमज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यम मार्ग का अनुसरण पावश्यक है। प्रागमों का एक ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो। मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही अागम-संस्करण चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ निश्चय घोषित कर दिया और आगमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. को प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सदगहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हना है, जिनका नामोल्लेख सन्तुष्ट नहीं होगा / आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. "कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री, प्राचार्य श्री मात्मारामजी म० के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०; स्व० विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुवरजी म. की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए., पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी एम. ए., पो-एच. डी. तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुवरजी म० 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालबणिया, सुख्यात विद्वान् पं० श्री शोभाचन्द्र जो भारिल्ल, स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री, डा० छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा "सरस" मादि मनीषियों का सहयोग प्रागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है। इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मु महेन्द्र मनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकूवरजी, महासती श्री मणकारकूवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा-स्रोत स्व० श्रावक चिमनसिंहजी लोढा, स्व. श्री पुखराजजो सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो आता है जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से पागम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है। दो वर्ष के अल्पकाल में ही दस प्रागम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 प्रागमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज प्रादि तपोपूत आत्माओं के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंध के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत प्राचार्य श्री प्रानन्द ऋषिजी म० आदि मुनिजनों के सदभाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ, --- मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) O0 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवतीसूत्र : एकादशांगो का उत्तमांग जैन-आगम-साहित्य में समस्त जैनसिद्धान्तों के मूल स्रोत बारह अंगशास्न माने जाते हैं ( जो 'द्वादशांगी' के नाम से अतीव प्रचलित हैं। इन वारह अंगशास्त्रों में 'दष्टिवाद' नामक अन्तिम अंगशास्त्र विच्छिन्न हो जाने के कारण अब जनसाहित्य के भंडार में एकादश अंगशास्त्र ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। ये अंग 'एकादशांगी' अथवा 'गणिपिटक' के नाम से विश्रुत हैं। जो भी हो, वर्तमान काल में उपलब्ध ग्यारह अंगशास्त्रों में भगवती अथवा 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्र जैन आगमों का उत्तमांग माना जाता है। एक तरह से समस्त उपलब्ध नागमों में भगवती सून सर्वोच्चस्थानीय एवं विशालकाय शास्त्र है। द्वादशांगी में व्याख्याप्रज्ञप्ति पंचम अंगशास्त्र है, जो गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित है। नामकरण और महत्ता वीतराग सर्वज्ञ प्रभु की वाणी अद्भुत ज्ञाननिधि से परिपूर्ण है। जिस शास्त्रराज में अनन्तलब्धिनिधान गगधर गुरु श्रीइन्द्रभूति गौतम तथा प्रसंगवश अन्य श्रमणों आदि द्वारा पूछे गए 36,000 प्रश्नों का श्रमण शिरोमणि भगवान महावीर के श्रीमुख से दिये गए उत्तरों का संकलन-संग्रह है, उसके प्रति जनमासन में श्रद्धाभक्ति और पूज्यता होना स्वाभाविक है। वीतरागप्रभ की वाणी में समग्र जीवन को पावन एवं परिवर्तित करने का अद्भुत सामर्थ्य है, वह एक प्रकार से भागवती शक्ति है, इसी कारण जब भी व्याख्याप्रज्ञप्ति का वाचन होता है तब गणधर भगवान् श्रीगौतमस्वामी को सम्बोधित करके जिनेश्वर भगवान महावीर प्रभु द्वारा व्यक्त किये गए उद्गारों को सुनते ही भावुक भक्तों का मन-मयूर श्रद्धा-भक्ति से गद्गद होकर नाच उठता है / श्रद्धालु भक्तगण इस शास्त्र के श्रवण को जीवन का अपूर्व अलभ्य लाभ मानते हैं। फलतः अन्य अंगों की अपेक्षा विशाल एवं अधिक पूज्य होने के कारण व्याख्याप्रज्ञप्ति के पूर्व 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त होने लगा और शताधिक वर्षों से तो 'भगवती' शब्द विशेषण न रह कर स्वतंत्र नाम हो गया है / वर्तमान में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम ही अधिक प्रचलित है / वर्तमान 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' का प्राकृतभाषा “वियाहपण्णत्ति' नाम है / कहीं-कहीं इसका नाम 'विवाहपग्णत्ति' या 'विवाहपण्णत्ति' भी मिलता है। किन्तु वत्तिकार प्राचार्यश्री अभयदेव सूरि ने 'वियाहपण्णत्ति' नाम को ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित माना है। इसी के तीन संस्कृतरूपान्तर मान कर इनका भिन्न-भिन्न प्रकार से अर्थ किया है व्याख्याप्रज्ञप्ति--गौतमादि शिष्यों को उनके द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में भगवान महावीर के विविध प्रकार से कथन का समग्रतया विशद (प्रकृष्ट) निरूपण जिस ग्रन्थ में हो। अथवा जिस शास्त्र में विविधरूप से भगवान् के कथन का प्रज्ञापत-प्ररूपण किया गया हो / व्याख्या-प्रज्ञाप्ति-व्याख्या करने की प्रज्ञा (बुद्धिकुशलता) से प्राप्त होने वाला अथवा व्याख्या करने में भगवान से गणधर को जिस ग्रन्थ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो, वह श्रतविशेष / [15] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-प्रज्ञात्ति-व्याख्या करने की प्रज्ञापटुता से ग्रहण किया जाने वाला अथवा व्याख्या करने में प्रज्ञ भगवान् से कुछ ग्रहण करना व्याख्या-प्रशात्ति है। इसी प्रकार विवाहप्रज्ञप्ति और बिबाधप्रज्ञप्ति इन दोनों संस्कृत रूपान्तरों का अर्थ भी निम्तोक्त प्रकार से मिलता है-(१) विवाहप्रज्ञप्ति-जिसमें विविध या विशिष्ट प्रवाहों--अर्थप्रवाहों का प्रज्ञापन-प्ररूपण किया गया हो, उस अत का नाम विवाहप्रज्ञप्ति है। (2) विबाधप्रज्ञप्ति-जिस ग्रन्थ में बाधारहित-प्रमाण से अबाधित तत्त्वों का प्ररूपण उपलब्ध हो, वह श्रुतविशेष विवाध-प्रज्ञप्ति है। विषयवस्तु की विविधता विषयवस्तु को दृष्टि से व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में विविधता है। ज्ञान-रत्नाकर शब्द से यदि किसी प्रास्त्र को सम्बोधित किया जा सकता है तो यही एक महान शास्त्रराज हैं। इसमें जैन दर्शन के ही नहीं, दार्शनिक जगत के प्रायः सभी मूलभूत तत्त्वों का विवेचन तो है ही; इसके अतिरिक्त विश्वविद्या की कोई भी ऐसी विधा नहीं है, जिसकी प्रस्तुत शास्त्र में प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से चर्चा न की गई हो। इसमें भूगोल, खगोल, इहलोक-परलोक प्राणिशास्त्र, रसायनशास्त्र, गर्भशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, भगर्भशास्त्र, गणितशास्त्र, ज्योतिष, इतिहास, मनोविज्ञान, पदार्थवाद, अध्यात्मविज्ञान प्रादि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। __ इसमें प्रतिपादित विषयों के समस्त सूत्रों का वर्गीकरण मुख्यतया निम्नोक्त 10 खण्डों में किया जा सकता है-- (1) आचारखण्ड–साध्वाचार के नियम, ग्राहार-विहार एवं पाँच समिति, तीनगुप्ति, क्रिया, कर्म, पंचमहावत यादि से सम्बन्धित विवेकसूत्र, सुसाध, प्रसाध, सुसंयत, असंयत, संघतासंयत आदि के प्राचार के विषय में निरूपण ग्रादि। (2) द्रव्यखण्ड—षद्रव्यों का वर्णन, पदार्थवाद, परमाणुवाद, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, गति, शरीर आदि का निरूपण। (3) सिद्धान्तखण्ड-प्रात्मा, परमात्मा, (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त), केवलज्ञान प्रादि शान, आत्मा का विकसित एवं शुद्ध रूप, जीव, अजीव, पुण्य-पाप, प्रास्रब, संवर, निर्जरा, कर्म, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, क्रिया, कर्मबन्ध एवं कम से विमुक्त होने के उपाय आदि / (4) परलोकखण्ड-देवलोक, नरक आदि से सम्बन्धित समग्र वर्णन; नरक भूमियों के वर्ण, गन्ध. रस, स्पर्श, का तथा नारकों की लेश्या, कर्मबन्ध, आयु, स्थिति, वेदना, आदि का तथा देवलोकों की संख्या, वहाँ की देवदेवियों की विविध जातियां-उपजातियाँ. उनके निवासस्थान, लेश्या, पाय, कर्मबन्ध, स्थिति, सुखभोग, आदि का विस्तृत वर्णन / सिद्धगति एवं सिद्धों का वर्णन / (5) भूगोल-लोक, अलोक, भरतादिक्षेत्र, कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक क्षेत्र, वहाँ रहने वाले प्राणियों की गति, स्थिति, लेश्या, कर्मबन्ध आदि का वर्णन / (6) खगोल----सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे, अन्धकार, प्रकाश, तमस्काय, कृष्णराजि आदि का वर्णन / (7) गणितशास्त्र-एकसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी भंग आदि, प्रवेशनक राशि संख्यात, असंख्यात, अनन्त पल्योपम, सागरोपम, कालचक्र यादि। (8) गर्भशास्त्र-गर्भगतजीव के आहार-विहार, नीहार, अंगोपांग, जन्म इत्यादि वर्णन / [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) चरित्रखण्ड-श्रमण भगवान महावीर के सम्पर्क में आने वाले अनेक तापसों, परिवाजकों, श्रावकश्राविकानों, श्रमणों, निग्रन्थों, अन्यतीथिकों, पाश्र्वापत्यश्रमणों आदि के पूर्वजीवन एवं परिवर्तनोत्तरजीवन का वर्णन / (10) विविध-कुतूहलजनक प्रश्न, राजगृह के गर्म पानी के स्रोत, अश्वध्वनि, देवों की ऊर्ध्व-अधोगमन शक्ति, विविध वैक्रिय शक्ति के रूप, प्राशीविष, स्वप्न, मेघ, वृष्टि आदि के वर्णन / इस प्रकार इस अंग में सभी प्रकार का ज्ञानविज्ञान भरा हुआ है। इसी कारण इसे ज्ञान का महासागर कहा जा सकता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन 'शतक' के नाम से प्रसिद्ध है। यह शत (सयं) का ही रूप है। प्रस्तुन आगम के उपसंहार में 'इक्कचत्तालीस इमं रासी जुम्मसयं समत' ऐसा समाप्तिसूचक पद उपलब्ध होता है। इसमें यह बताया गया है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में 101 शतक थे; किन्तु इस समय केवल 41 शतक ही उपलब्ध होते हैं। इस समाप्तिसूचक पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि 'सव्वाए भगवईए अट्ठतीस सयं सयागं' अर्थात्-- अवान्तरशतकों की संख्या सब शतकों को मिला कर 138 होती है, उद्देशक 1925 होते हैं। ये प्रवान्तरशतक 138 इस प्रकार हैं-प्रथम शतक से बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तरशतक नहीं है 1 ३३वें शतक से ३९वें शतक तक जो 7 शतक हैं, इनमें 12-12 अवान्तर शतक हैं। ४०वें शतक में 21 अवान्तर शतक है। अतः इन 8 शतकों की परिगणना 105 अवान्तरशतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तरशतक रहित 33 शतकों और अवान्तरशतक सहित 105 शतकों को मिलाकर कूल 138 शतक होते हैं। शतक में उद्देशक रूप उपविभाग हैं / उद्देशकों की जो 1925 संख्या बताई गई है, गवेषणा करने पर भी उसका आधार प्राप्त नहीं होता। कुछ शतकों में दस-दस उद्देशक हैं; कुछ में इससे भी अधिक हैं / इकतालीसवें शतक में 196 उद्देशक हैं। नौवें शतक में 34 उद्देशक हैं। शतक शब्द से सौ की संख्या का कोई सम्बन्ध नहीं है, यह अध्ययन के अर्थ में रूढ़ है। 41 शतकों में विभक्त विशालकाय भगवतीसूत्र में श्रमण भगवान महावीर के स्वयं के जीवन की, गणधर मौतम ग्रादि उनके शिष्यवर्ग की, तथा भक्तों, गहस्थों, उपासक-उपासिकायों, अन्यतीथिकों और उनकी मान्यताओं की विस्तृत जानकारी मिलती है। ग्राजीवक संघ के प्राचार्य गोशालक के सम्बन्ध में इसमें विस्तृत और प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है। यत्र-तत्र पुरुषादानीय भगवान् पाश्र्वनाथ के अनुगामी साधु-श्रावकों का तथा उनके चातुर्याम धर्म का एवं वातर्याम धर्म के बदले पंचमहाव्रत रूप धर्म स्वीकार करने का विशद उल्लेख भी प्रस्तुत ग्रागम में मिलता है। इसमें सम्राट कणिक और गणतंत्राधिनायक महाराजा चेटक के बीच जो महाशिलाकण्टक और रथमूशल महासंग्राम हुए, तथा इन दोनों महायुद्धों में जो करोड़ों का नरसंहार हुअा, उसका विस्तात मार्मिक एवं चौंका देने वाला वर्णन भी अंकित है। ऐतिहासिक दृष्टि से प्राजीवक संघ के प्राचार्य मंखली गोशाल, जमालि, शिवराजगि, स्कन्दक परिवाजक, तामली तापस आदि का वर्णन अत्यन्त रोचक है। तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्राविका, मददुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्व के शिष्य कालास्यवेशीपुत्र, तुगिका नगरी के श्रावक आदि प्रकरण बहुत ही मननीय हैं। इक्कीस से लेकर तेईसवें शतक तक वनस्पतियों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह अद्भुत है। पंचास्तिकाय के प्रतिपादन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और ग्राकाशास्तिकाय, ये तीनों अमूर्त होने से अदृश्य हैं, वर्तमान वैज्ञानिकों ने धर्मास्तिकाय को 'ईथर' तत्त्व के रूप में तथा आकाश को 'स्पेस' के रूप में स्वीकार कर लिया है। जीवास्तिकाय भी अमूर्त होने से प्रदश्य है, तथापि शरीर के माध्यम से होने वाली Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्यक्रिया के द्वारा वह दृश्य हैं / पुद्गलास्तिकाय मूतं होने से दृश्य है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में किया गया प्रतिपादन वैज्ञानिक तथ्यों के अतीव निकट है। इसके अतिरिक्त जीव और पुद्गल के संयोग से दृष्टिगोचर होने वाली विविधता का जितना विशद विवरण प्रस्तुत प्रागम में है, उतना अन्य भारतीय दर्शन या धर्मग्रन्थों में नहीं मिलता। आधनिक शिक्षित एवं कतिपय वैज्ञानिक भगवतीसूत्र में उक्त स्वर्ग-नरक के वर्णन को कपोल-कल्पित कहते नहीं हिचकिचाते। उनका प्राक्षेप है कि 'भगवतीसूत्र का प्राधे से अधिक भाग स्वर्ग-नरक से सम्बन्धित वर्णनों से भरा हुआ है, इस ज्ञान का क्या महत्त्व या उपयोग है ?' परन्तु सर्वश-सर्वदर्शी भगवान महावीर ने तथा जैनतत्त्वज्ञों ने स्वर्ग-नरक को सर्वाधिक महत्त्व दिया है, इसके पीछे महान् गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। वह यह है कि यदि प्रात्मा को हम अविनाशी और शाश्वत सत्तात्मक मानते हैं तो हमें स्वर्ग-नरक को भी मानना होगा। स्वर्ग-नरक से सम्बन्धित वर्णन को निकाल दिया जाएगा तो आत्मबाद, कर्मवाद, लोकवाद, क्रियावाद एवं विमुक्तिवाद आदि सभी सिद्धान्त निराधार हो जाएंगे / स्वर्ग-नरक भी हमारे तिर्यग्लोकसम्बन्धी भूमण्डल के सदश ही क्रमशः ऊर्ध्वलोक और अधोलोक के अंग हैं, अतिशय पुण्य और अतिशय पाप से युक्त प्रात्मा को अपने कृतकर्मों का फल भोगने के लिए स्वर्ग या नरक में गए बिना कोई चारा नहीं / अतः सर्वज्ञ-सर्वदशी पुरुष जगत् के अधिकांश भाग से युक्त क्षेत्र का वर्णन किये बिना कैसे रह सकते थे ? भगवतीसूत्र, अन्य जैनागमों की तरह न तो उपदेशात्मक ग्रन्थ है, और न केवल सैद्धान्तिक-ग्रन्थ है / इसे हम विश्लेषणात्मक ग्रन्थ कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इसे सिद्धान्तों का अंकगणित कहा जा सकता है / प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्राइस्टिन का सापेक्षवाद का सिद्धान्त अंकगणित का ही तो चमत्कार है ! गणित ही जगत् के समस्त आविष्कारों का स्रोत है / अत: भगवती में सिद्धान्तों का बहुत ही गहनता एवं सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है। जिसे जनसिद्धान्त एवं कर्म ग्रन्थों या तत्त्वों का अच्छा ज्ञान नहीं है, उसके लिए भगवतीसूत्र में प्रतिपादित तात्त्विक विषयों की थाह पाना और उनका रसास्वादन करमा अत्यन्त कठिन है। इसके अतिरिक्त उस युग के इतिहास-भूगोल, समाज और संस्कृति, राजनीति और धर्म संस्थानों आदि का जो अनुपम विश्लेषण प्रस्तुत पागम में है, वह सर्व-साधारण पाठकों एवं रिसर्च स्कॉलरों के लिए अतीव महत्त्वपूर्ण है। छत्तीस हजार प्रश्नोत्तरों में प्राध्यात्मिक ज्ञान की छटा अद्वितीय है। प्रस्तत प्रागम से यह भी ज्ञात होता है कि उस यग में अनेक धर्मसम्प्रदाय होते हुए भी उन में साम्प्रदायिक रता इतनी नहीं होती थी। एक धर्मतीर्थ के परिणाजक, तापस और मुनि दसरे धर्मतीर्थ के विशिष्ट ज्ञानी या अनुभवी परिव्राजकों तापसों या मुनियों के पास नि:संकोच पहुँच जाते और उनसे ज्ञानचर्चा करते थे, और अगर कोई सत्य-तथ्य उपादेय होता तो वह उसे मुक्तभाव से स्वीकारते थे / प्रस्तुत प्रागम में वर्णित ऐसे अनेक प्रसंगों से उस युग की धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का वास्तविक परिचय प्राप्त होता है। प्रस्तुत आगम में बणित अनेक सिद्धान्त आज विज्ञान ने भी स्वीकृत कर लिये हैं। विज्ञान समर्थित कुछ सिद्धान्त ये हैं--(१) जगत् का अनादित्व (2) बनस्पति में जीवत्व शक्ति, (3) पृथ्वीकाय एवं जलकाय में जीवत्वशक्ति की सम्भावना, (4) पुद्गल और उसका अनादित्व और (5) जीवत्वशक्ति के रूपक आदि / प्रस्तुत पागम में षद्रव्यात्मक लोक (जगत्) को अनादि एवं शाश्वत बताया गया है / आधुनिक विज्ञान भी जगत (जीव-अजीवात्मक) की कब सष्टि हुई ? इस विषय में जैनदर्शन के निकट पहुँच गया है। प्रसिद्ध जीवविज्ञानवेत्ता जे. बी. एस. हाल डेन का मन्तव्य है कि 'मेरे विचार में जगत को कोई आदि नहीं है।' [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार प्रस्तुत प्रागम में बताया गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय में जीवत्वशक्ति है / वे हमारी तरह श्वास लेते और नि:श्वास छोड़ते हैं, आहार आदि ग्रहण करते हैं, उनके शरीर में भी चय-उपचय, हानि-वृद्धि, सुखदुःखात्मक अनुभूति होती है आदि / ' सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्रीजगदीशचन्द्र बोस ने अपने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति क्रोध और प्रेम भी प्रदर्शित करती है। स्नेहपूर्ण व्यवहार से बह पुलकित हो जाती है और घृणापूर्ण दुर्व्यवहार से वह मुरझा जाती है। श्री बोस के प्रस्तुत परीक्षण को समस्त वैज्ञानिक जगत् ने स्वीकृत कर लिया है। प्रस्तुत आगम में वनस्पतिकाय में 10 संज्ञाएँ (माहारसंज्ञा आदि) बताई गई हैं। इन संज्ञाओं के रहते बनस्पति आदि वही व्यवहार अस्पष्ट रूप से करती हैं, जिन्हें मानव स्पष्ट रूप से करता है। इसी प्रकार पृथ्वी में भी जीवत्वशक्ति है, इस सम्भावना की ओर प्राकृतिक चिकित्सक एवं वैज्ञानिक अग्रसर हो रहे हैं। सुप्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक फ्रांसिस अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Ten years under earth' में दशवर्षीय विकट भूगर्भयात्रा के संस्मरणों में लिखते हैं-"मैंने अपनी इन विविध यात्रानों के दौरान पथ्वी के ऐसे-ऐसे स्वरूप देखे हैं, जो आधुनिक पदार्थ विज्ञान के विरुद्ध थे / वे स्वरूप वर्तमान वैज्ञानिक सुनिश्चित नियमों द्वारा समझाए नहीं जा सकते / " अन्त में वे स्पष्ट लिखते हैं तो क्या प्राचीन विद्वानों ने पथ्वी में जो जीवत्व शक्ति की कल्पना की थी, वह सत्य है ?' इसी प्रकार जनदर्शन पानी की एक बूद में असंख्यात जीव मानता है। वर्तमान वैज्ञानिकों ने माइक्रो स्कोप के द्वारा पानी की बूद का सूक्ष्मनिरीक्षण करके अगणित सूक्ष्म प्राणियों का अस्तित्व स्वीकार किया है। जैन जीवविज्ञान इससे अब भी बहत आगे है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने अगणित परीक्षणों द्वारा जनदर्शन के इस सिद्धान्त को निरपवाद रूप से सत्य पाया है कि कोई भी पुद्गल (Matter) नष्ट नहीं होता, वह दूसरे रूप (Form) में बदल जाता है। भगवान् महावीर द्वारा भगवतीसूत्र में पुद्गल की अपरिमेय शक्ति के सम्बन्ध में प्रतिपादित यह तथ्य आधुनिक विज्ञान से पूर्णत: समर्थित है कि 'विशिष्टपूदगलों में, जैसे तैजस पुद्गल में, अंग, बंग, कलिंग आदि 16 देशों को विध्वंस करने की शक्ति विद्यमान है। अाज तो आधनिक विज्ञान ने एटमबम से हिरोशिम साकी नगरों का विध्वंस करके पुदगल ((Matter) की असीम शक्ति सिद्ध कर बताई है। इसी प्रकार नरसंयोग के बिना ही नारी का गर्भधारण, गर्भस्थानान्तरण प्रादि सैकड़ों विषय प्रस्तुत मागम में प्रतिपादित हैं, जिन्हें सामान्य बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, परन्तु आधुनिक विज्ञान ने नुतन शोधों द्वारा परीक्षण करके ऐसे अधिकांश तथ्य स्वीकृत कर लिये हैं, धीरे-धीरे शेष विषयों को भी परीक्षण करके स्वीकृत कर लेगा, ऐमी ग्राशा है। 'समवायांग' में बताया गया है कि अनेक देवों, राजानों एवं राजर्षियों ने भगवान् महावीर से नाना प्रकार के प्रश्न पूछे, उन्हीं प्रश्नों का भगवान ने विस्तृत रूप से उत्तर दिया है। वही व्याख्याप्रज्ञप्ति में अंकित है। 1. प्राचारांग में वनस्पति में जीब होने के निम्नलिखित लक्षण दिये हैं—(१) जाइधम्मयं (उत्पन्न होने का स्वभाव) (2) बडिदधम्मयं (शरीर की वृद्धि होने का स्वभाव), (3) चित्तमंतयं (चैतन्य-सुखदुःखात्मक अनुभवशक्ति), (4) छिन्नं मिलाति (काटने से दुःख के चिह्न-सूखना आदि-प्रकट होते हैं / (5) पाहारगं (पाहार भी करता है ) (6) अणिच्चयं प्रसासयं (शरीर अनित्य प्रशाश्वत है।), (7) चोवच इयं (शरीर में चय-उपचय भी होता है)। [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें स्वसमय-परसमय, जीव-अजीव, लोक-अलोक आदि की व्याख्या की गई है। प्राचार्य अकलंक के अभिमतानुसार इस शास्त्र में 'जीव है या नहीं ?' इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का निरूपण किया गया है। प्राचार्य 'वीरसेन' के कथनानुसार इस पागम में प्रश्नोत्तरों के साथ 96,000 छिन्न-छेदक नयों से प्रज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है / निष्कर्ष यह है कि प्रस्तुत विराट् अागम में एक श्रु तस्कन्ध, 101 अध्ययन, 10000 उद्देशनकाल, 10,000 समुद्देशनकाल, 36,000 प्रश्नोत्तर, 2,88,000 पद और संख्यात अक्षर हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की वर्णन परिधि में अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित बस और अनन्त स्थावर आ जाते हैं / व्यापक विवेचन-शैली भगवतीसूत्र की रचना प्रश्नोत्तरों के रूप में हुई है। प्रश्नकर्तानों में मुख्य हैं-श्रमण भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम / इनके अतिरिक्त मान्दिपुत्र, रोह अनगार, अग्निभूति, वायुभूति आदि / कभी-कभी स्कन्धक आदि कई परिवाजक, तापस एवं पाश्र्वापत्य अनगार आदि भी प्रश्नकर्ता के रूप में उपस्थित होते हैं। कभी-कभी अन्यधर्मतीर्थावलम्बी भी वाद-विवाद करने या शंका के समाधानार्थ प्रा पहुंचते हैं। कभी तत्कालीन श्रमणोपासक अथवा जयंती आदि जैसी श्रमणोपासिकाएं भी प्रश्न पूछ कर समाधान पाती हैं। प्रश्नोतरों के रूप में ग्रथित होने के कारण इसमें कई बार पिष्टपेषण भी हुग्रा है, जो किसी भी सिद्धान्तप्ररूपक के लिए अपरिहार्य भी है, क्योंकि किसी भी प्रश्न को समझाने के लिए उसकी पृष्ठभूमि बतानी भी आवश्यक हो जाती है। जैनागमों की तत्कालीन प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार प्रस्तुत आगम में भी एक ही बात की पुनरावत्ति बहत है , जैसे—प्रश्न का पुनरुच्चारण करना, फिर उत्तर में उसी प्रश्न को दोहराना, पून: उत्तर का उपसंहार करते हुए प्रश्न को दोहराना / उस युग में यही पद्धति उपयोगी रही होगी। एक बात और है-भगवतीसूत्र में विषयों का विवेचन प्रज्ञापना, स्थानांग आदि शास्त्रों की तरह सर्वथा विषयबद्ध, क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित पद्धति से नहीं है और न गौतम गणधर के प्रश्नों का संकलन ही निश्चित क्रम से है। इसका कारण भगवतीसूत्र के अध्येता को इस शास्त्र में अवगाहन करने से स्वतः ज्ञात हो जाएगा कि गौतम गणधर के मन में जब किसी विषय के सम्बन्ध में स्वतः या किसी अन्यतीथिक अथवा स्वतीथिक व्यक्ति का या उससे सम्बन्धित वक्तव्य सुनकर जिज्ञासा उत्पन्न हुई; तभी उन्होंने भगवान महावीर के पास जाकर सविनय अपनी जिज्ञासा प्रश्न के रूप में प्रस्तुत की। अतः संकलनकर्ता श्रीसुधर्मास्वामी गणधर ने उस प्रश्नोत्तर को उसी क्रम से, उसी रूप में प्रथित कर लिया / अतः यह दोष नहीं, बल्कि प्रस्तुत पागम की प्रामाणिकता है। इससे सम्बन्धित एक प्रश्न वृत्तिकार ने प्रस्तुत शास्त्र के प्रारम्भ में, जहां से प्रश्नों की शुरुवात होती है। उठाया है कि प्रश्नकत्ती गणधर श्रीइन्द्रभूतिगौतम स्वयं द्वादशांगी के विधाता हैं, श्रृत के समस्त विषयों के पारगामी हैं, सब प्रकार के संशयों से रहित हैं। इतना ही नहीं, वे सर्वाक्षरसन्निपाती हैं, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यायज्ञान के धारक हैं, एक दृष्टि से सर्वज्ञ-तुल्य हैं, ऐसी स्थिति में संशययुक्त सामान्यजन को भांति उनका प्रश्न पूछना कहाँ तक युक्तिसंगत है ? इसका समाधान स्वयं दत्तिकार ही देते हैं-(१) गौतमस्वामी कितने ही अतिशययुक्त क्यों न हों, छद्मस्थ होने के नाते उनसे भूल होना असम्भव नहीं। (2) स्वयं जानते हुए भी, अपने ज्ञान की अविसंवादिता के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं। (3) स्वयं जानते हुए भी अन्य प्रज्ञानिजनों के बोध के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं। (4) शिष्यों को अपने वचन में विश्वास जमाने के लिए भी प्रश्न पुछा जाना सम्भव है। (5) अथवा शास्त्ररचना को यही पद्धति या प्राचारप्रणाली है। इनमें से एक या अनेक कुछ भी कारण हो, गणधर गौतम का प्रश्न पूछना असंगत नहीं कहा जा सकता / [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति में जो प्रश्नोत्तरशैली विद्यमान है, वह अतिप्राचीन प्रतीत होती है। अचेलकपरम्परा के ग्रन्थ राजवातिक में अकलंक भट्ट ने व्याख्याप्रज्ञप्ति में इसी प्रकार की शैली होने का स्पष्ट उल्लेख किया है।' प्रस्तुत प्रागम में अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गए हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है। भगवान महावीर को जहाँ कहीं कठिन विषय को उदाहरण देकर समझाने की आवश्यकता महसूस हुई, वहाँ उन्होंने दैनिक जीवनधारा से कोई उदाहरण उठा कर दिया है। किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ-साथ वे हेतु का निर्देश भी किया करते थे। जहाँ एक ही प्रश्न के एक से अधिक उत्तर-प्रत्युत्तर होते, वहाँ के प्रश्नकर्ता की दृष्टि और भावना को मद्देनजर रख कर तदनुरूप समाधान किया करते थे। जैसे-रोहक अनगार के प्रश्न के उत्तर में स्वयं प्रतिप्रश्न करके भगवान् ने प्रत्युत्तर दिया है। मुख्य रूप में यह पागम प्राकृत भाषा में या कहीं कहीं शौरसेनी भाषा में सरल-सरस गद्यशैली में लिखा हा है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दष्टि से संग्रहणीय माथाओं के रूप में कहीं-कहीं पद्यभाग भी उपलब्ध होता है। कहीं पर स्वतंत्र रूप से प्रश्नोत्तरों का क्रम है, तो कहीं किसी घटना के पश्चात् प्रश्नोत्तरों का सिलसिला चला है। प्रस्तुत प्रागम में द्वादशांगी-पश्चादवर्ती काल में रचित राजप्रश्नीय, प्रोपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्न व्याकरण एवं नन्दीसूत्र ग्रादि (में वर्णित अमुक विषयों) का अवलोकन करने का निर्देश या उल्लेख देख कर इतिहासवेत्ता विद्वानों का यह अनुमान करना यथार्थ नहीं है कि यह पागम अन्य प्रागमों के बाद में रचा गया है। वस्तुत: जैनागमों को लिपिबद्ध करते समय देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने ग्रन्थ को अनावश्यक बहदता कम करने तथा अन्य सूत्रों में वर्णित विषयों की पुनरावृत्ति से बचने की दृष्टि से पूर्वलिखित आगमों का निर्देश-प्रतिदेश किया है / आगम-लेखनकाल में सभी पागम क्रम से नहीं लिखे गए थे / जो प्रागम पहले लिखे जा चुके थे, उन ग्रागमों में उस विषय का विस्तार से वर्णन पहले हो चुका था, अतः उन विषयों की पुनरावृत्ति न हो, ग्रन्थमुरुत्व न हो, इसी उद्देश्य से श्रीदेवद्धिगणी आदि पश्चाद्वर्ती ग्रागमलेखकों ने इस निर्देशपद्धति का अवलम्बन लिया था। इसलिए यह आगम पश्चादग्रथित है, ऐसा निर्णय नहीं करना चाहिए / वस्तुत: व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गणधर रचित ही है, इसकी मूल रचना प्राचीन हो है। अद्यावधि मुद्रित व्याख्याप्रज्ञप्ति सन् 1918-21 में अभयदेवसूरिकृत वृत्तिसहित व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र धनपतसिंह जी द्वारा बनारस से प्रकाशित हुना। यह 14 वें शतक तक ही मुद्रित हुआ था। वि. सं. 1974-76 में पंण्डित वेचरदास जी दोशी द्वारा सम्पादित एवं टीका का गूजराती में अनदित भगवतीसुत्र छठे शतक तक दो भागों में जिनागम-प्रकाशकसभा बम्बई से प्रकाशित हुआ, तत्पश्चात् गुजरात विद्यापीठ तथा जनसाहित्य प्रकाशन ट्रस्ट अहमदाबाद से सातवें से 41 वें शतक तक दो भागों में पं. भगवानदास दोशी द्वारा केवल मूल का गुजराती अनुवाद होकर प्रकाशित हुआ। 1. 'एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम् ........इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम् / ' -तत्वार्थ राजवातिक अ. 4, सू. 26, पृ. 245 [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् 1938 में श्री गोपालदास जीवाभाई पटेल द्वारा गुजराती में छायानुवाद होकर जैनसाहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से भगवती-सार प्रकाशित हुआ / वि. सं 2011 में श्री मदनकुमार द्वारा भगवतीसूत्र 1 से 20 शतक तक का केवल हिन्दी अनुवाद श्रुतप्रकाशन मन्दिर, कलकत्ता से प्रकाशित हप्रा। इसी प्रकार वीर संवत 2446 में प्राचार्य श्री अमोलक ऋषिजी म. कृत हिन्दी अनुवादयुक्त भगवती सूत्र हैदराबाद से प्रकाशित हुप्रा। सन् 1961 में प्राचार्य घासीलालजी महाराज कृत भगवतीसूत्र-संस्कृतटीका तथा उसके हिन्दी-गुजराती अनुवाद श्वे. स्था. जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट द्वारा प्रकाशित हमा। जैन संस्कृति रक्षकसंघ सैलाना द्वारा प्रकाशित एवं पं. घेवरचन्दजी बांठिया, 'वीरपुत्र' द्वारा हिन्दीअनुवाद एवं विवेचन सहित सम्पादित भगवतीसत्र 7 भागों में प्रकाशित हुआ। सन 1974 में पं. बेचरदास जीवराज दोशी द्वारा सम्पादित 'वियाहपण्णत्तिसुत्तं' मूलपाठ-टिप्पणयुक्त श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित हुया है। इसमें अनेक प्राचीन-नवीन प्रतियों का अवलोकन करके शुद्ध मूलपाठ तथा सूत्रसंख्या का क्रमशः निर्धारण किया गया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के इतने सब मुद्रित संस्करणों में अनेक संस्करण तो अपूर्ण ही रहे, जो पूर्ण हुए उनमें से कई अनपलब्ध हो चके हैं। जो उपलब्ध हैं वे प्राधनिक शिक्षित तथा प्रत्येक विषय का वैज्ञानिक प्राधार ढूढने वाली जैनजनता एवं शोधकर्ता विद्वानों के लिए उपयुक्त नहीं थे। अतः न तो प्रतिबिस्तृत और न अतिसंक्षिप्त हिन्दी विवेचन तथा तुलनात्मक टिप्पणयुक्त भगवतीसूत्र की मांग थी। क्योंकि केवल मूलपाठ एवं संक्षिप्त सार से प्रस्तुत प्रागम के गूढ़ रहस्यों को हृदयंगम करना प्रत्येक पाठक के बस की बात नहीं थी। भगवती के अभिनव संस्करण को प्रेरणा इन्हीं सब कारणों से श्रमणसंघ के युवाचार्य आगममर्मज्ञ पण्डितप्रवर मुनिश्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' ने तथा श्रमणसंघीय प्रथम प्राचार्य आगमरत्नाकर स्व. पूज्य श्रीवात्मारामजी म. की जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में उनके प्रशिष्य जैन विभूषण परमश्रद्धेय गुरुदेव श्री पदमचन्द भण्डारीजी महाराज ने व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का अभिनव सर्वजन ग्राह्य सम्पादन करने की बलवती प्रेरणा दी। इसके पश्चात् इसे प्रकाशित करने का बीड़ा श्रीग्रागमप्रकाशनसमिति, ब्यावर ने उठाया; जिसका प्रतिफल हमारे सामने है। प्रस्तुत सम्पादन की विशेषता / प्रस्तुत सम्पादन की विशेषता यह है कि इसमें पाठों को शुद्धता के लिए श्रीमहावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित शुद्ध मूलपाठ, टिप्पण, सूत्रसंख्या, शीर्षक, पाठान्तर एवं विशेषार्थ से युक्त वियाहपण्णत्तिसुत्तं' का अनुसरण किया गया है। प्रत्येक सूत्र में प्रश्न और उत्तर को पृथक् पृथक पंक्ति में रखा गया है। प्रत्येक प्रकरण के शीर्षक-उपशीर्षक दिये गए हैं, ताकि पाठक को प्रतिपाद्य विषय के ग्रहण करने में आसानी रहे। प्रत्येक परिच्छेद के मूलपाठ देने के बाद सूत्रसंख्या देकर क्रमश: मुलानुसार हिन्दी-अनुवाद दिया गया है। जहाँ कठिन शब्द हैं, या मूल में संक्षिप्त शब्द हैं, वहाँ कोष्ठक में उनका सरल अर्थ तथा कहीं-कहीं पूरा भावार्थ भी दे दिया गया है। शब्दार्थ के पश्चात् विवेच्यस्थलों का हिन्दी में परिमित शब्दों में विवेचन भी दिया गया है। विवेचन प्रसिद्ध वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरिरचित वृत्ति को केन्द्र में रख कर किया गया है। वृत्ति में जहाँ अतिविस्तार है वहाँ उसे छोड़कर सारभाग ही ग्रहण किया गया है। जहाँ मूलपाठ अतिविस्तृत है अथवा पुनरुक्त [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वहाँ विवेचन में उसका निष्कर्षमात्र दे दिया गया है। कहीं-कहीं विवेचन में कठिन शब्दों का विशेषार्थ अथवा विशिष्ट शब्दों की परिभाषाएँ भी दी गई हैं। कहीं-कहीं मूलपाठ में उक्त विषय को युक्ति हेतु पूर्वक सिद्ध करने का प्रयास भी विवेचन में किया गया है। विवेचन में प्रतिपादित विषयों एवं उद्धत प्रमाणों के सन्दर्भ स्थलों का उल्लेख भी पादटिप्पणों (Foot notes) में कर दिया गया है। जहाँ कहीं अावश्यक समझा गया, वहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक एवं अन्यान्य ग्रन्थों के तुलनात्मक टिप्पण भी दिये गए हैं। प्रत्येक शतक के प्रारम्भ में प्राथमिक देकर शतक में प्रतिपादित विषयवस्तु की समीक्षा की गई है, ताकि पाटक उक्त शतक का हार्द समझ सके / भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र विशालकाय पागम है, इसे और अधिक विशाल नहीं बनाने तथा पुनरुक्ति से बचने के लिए हमने संक्षिप्त एवं सारगभित विवेचनशैली रखी है। जहाँ प्रागमिक पाठों के संक्षेपसूचक 'जाब', जहा, एवं आदि शब्द हैं, उनका स्पष्टीकरण प्रायः शब्दार्थ में कर दिया गया है। प्रस्तुत सम्पादन को समृद्ध बनाने के लिए अन्त में हमने तीन परिशिष्ट' दिये हैं-~~-एक में सन्दर्भग्रन्थों की सूची है, दूसरे में पारिभाषिक शब्दकोश, और तीसरे में विशिष्ट शब्दों की अकारादि क्रम से सुची। ये तीनों ही परिशिष्ट अन्तिम खण्ड में देने का निर्णय किया गया है। इस विराट् अागम को हमने कई खण्डों में विभाजित किया है। यह प्रथम खंड प्रस्तुत है। कृतज्ञता-प्रकाशन प्रस्तुत विराटकाय शास्त्र का सम्पादन करने में जिन-जिनके अनुवादों, मूलपाठों, टीकात्रों एवं ग्रन्थों से सहायता ली गई है, उन सब अनुवादकों, सम्पादकों, टीकाकारों एवं ग्रन्थकारों के प्रति हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं। मैं श्रमणसंघीय यूवाचार्यश्री मिश्रीमलजी महाराज एवं मेरे पूज्य गुरुदेव श्री भण्डारी पदमचन्दजी महाराज के प्रति अत्यन्त आभारी हूँ, जिनको प्रेरणा और प्रोत्साहन से हम इस दुरूह, एवं बहत्काय शास्त्र-सम्पादन में अग्रसर हो सके हैं / अागमतत्त्वमनीषी प्रवचनप्रभाकर श्री सुमेरमुनिजी म. एवं विद्वद्वर्य पं० मुनिश्री नेमिचन्द्रजी म० के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ जिन्होंने निष्ठापूर्वक प्रस्तुत ग्रागम-सम्पादनयज्ञ में पूरा सहयोग दिया है। प्रागममर्मज्ञ पं० शोमाचन्दजी भारिल्ल की श्रुतसेवाओं को कैसे विस्मृत किया जा सकता है ?, जिन्होंने इस विराट शास्त्रराज को संशोधित-परिष्कृत करके मुद्रित कराने का दायित्व सफलतापूर्वक पूर्ण किया है। साथ ही हम अपने ज्ञात-अज्ञात सह्योगीजनों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं, जिनकी प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से इस सम्पादनकार्य में सहायता मिली है। प्रस्तुत सम्पादन के विषय में विशेष कुछ कहना उपयुक्त नहीं होगा। सुज्ञ पाठक, विद्वान् शोधकर्ता, आगमरसिक महानुभाव एवं तत्त्वमनीषी साधुसाध्वीगण सम्पादनकला की कसौटी पर कस कर इसे हृदय से अपनाएंगे और इसके अध्ययन-मनन से अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र को समुज्ज्वल बनाएँगे तो हम अपना श्रम सार्थक समझेंगे / सुज्ञेष किं बहना ! --अमरमुनि श्रीचन्द सुराना [ 23 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगम प्रकाशन समिति ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष मद्रास ब्यावर कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष गोहाटी जोधपुर मद्रास उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष ब्यावर मेड़ता सिटी महामन्त्री मन्त्री व्यावर पाली मन्त्री ब्यावर सहमन्त्री कोषाध्यक्ष कोषाध्यक्ष ब्यावर मद्रास नागौर सदस्य 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरडिया 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी 3, श्रीमान् कँवरलालजी बैताला 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख 5. श्रीमान् रतनचन्दजी चोरडिया 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7. श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा 11. श्रीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान् माणकचन्दजी बैताला 20. श्रीमान भंवरलालजी गोठी 21. श्रीमान भंवरलाल जी श्रीश्रीमाल 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरडिया 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरड़िया 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 26. श्रीमान् भवरलालजी मूथा 27. श्रीमान जालमसिंहजी मेड़तवाल सदस्य मद्रास बैंगलोर सदस्य सदस्य ब्यावर इन्दौर सदस्य सदस्य सिकन्दराबाद बागलकोट सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य भरतपुर जयपुर ब्यावर (परामर्शदाता) [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाहपण्णत्तिसुत्तं (भगवईसुत्तं) विषय-सूची परिचय 3-4 वियाहपण्यत्तिसत्त के विभिन्न नाम और उनके निर्वचन 3, प्रस्तुत आगम का परिचय, वर्ध्य विषय, महत्त्व, एवं आकार 4. प्रथम शतक 5-161 प्राथमिक प्रथम शतक गत 10 उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय प्रथम उद्देशक-चलन (सूत्र 1-12) समग शास्त्र-मंगलाचरण 7, मंगलाचरण क्यों और किस लिए? 7, प्रस्तुत मंगलाचरण भाव रूप 7, नमः पद का अर्थ 7, अरहन्ताणं पद के रूपान्तर और विभिन्न अर्थ 8, अर्हन्त 8, अरहोन्तर 8, प्ररथान्त 5, अरहन्त , अरहयत् 8, अरिहंत 8, अरुहन्त 8, सिद्धाणं पद के विशिष्ट अर्थ 8, पायरियाणं पद के विशिष्ट अर्थ 9. उवज्झायाण पद के विशिष्ट अर्थ 9, सब्बसाहणं पद के विशिष्ट अर्थ 9, साधु के साथ 'सर्व' विशेषण लगाने का प्रयोजन 9, 'सच' शब्द के वत्तिकार के अनुसार तीन रूप 10, ‘णमो लोए सव्वसाहणं' पाठ का विशेष तात्पर्य 10, श्रव्य-साधु और सव्यसाधू का अर्थ 10, पाँचों नमस्करणीय और मांगलिक कैसे 10, द्वितीय मंगलाचरण: ब्राह्मी लिपि को नमस्कार--क्यों और कैसे ? 11, शास्त्र की उपादेयता के लिए चार बातें 12. प्रथम शतकः विषयसूची मंगल 12, प्रथम शतक का मंगलाचरण 13, श्रुत भी भाव तीर्थ है 13 / प्रथम उद्देशक : उपोद्घात 13, भगवान महावीर का राजगृह आगमन 13, भगवान महावीर के विशेषण 13, गोतम गणधर की शरीर एवं आध्यात्मिक संपदा का वर्णन 14, राजगह में भगवान महावीर का पदार्पण एवं गौतम स्वामी की प्रश्न पूछने की तैयारी 15, प्रस्तुत शास्त्र किसने, किससे कहा 16, __'चलमाणे चलिए' आदि पदों का एकार्थ-नानार्थ 16, चलन आदि से संबंधित नौ प्रश्नोत्तर 17, (1) चलन, (2) उदीरणा, (3) वेदना, (4) प्रहाण, (5) छेदन, (6) भेदन, (7) दग्ध, (8) मृत, (9) निर्जीर्ण इन नौ के नर्थ 17, तीन प्रकार के घोष 18, उपरोक्त नौ में से चार एकार्थक और पांच भिन्नार्थक 18, चौबीस दंडकगत स्थिति आदि का विचार 18, नरयिक चर्चा 18, नारकों की स्थिति आदि के संबंध में प्रश्नोत्तर 22, स्थिति 22, प्राणमन-प्राणमन तथा उच्छ्वास-निःश्वास 22, नारकों का आहार 22, परिणत, चित, उपचित आदि 23, 'आहार' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त 23, पुदगलों का भेदन 23, पूदगलों [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का चय-उपचय 23, अपवर्तन 23, संक्रमण 23, निधत्त करना 23. निकाचित करना 24, चलितप्रचलित 24, देव-असुरकुमार चर्चा 24, असुरकुमार देवों की स्थिति (प्रायु), श्वास-निःश्वास, प्राहार आदि विषयक प्रश्नोत्तर 24-25, नागकुमार चर्चा 26, सुपर्णकुमार से लेकर स्तनित कुमार देवों के विषय में स्थिति आदि संबंधी प्रालायक 27, नागकुमार देवों की स्थिति के विषय में स्पष्टीकरण 27, पृथ्विीकाय आदि स्थावर चर्चा 27, पंच स्थावर जीवों की स्थिति आदि के विषय में प्रश्नोत्तर 29, पृथ्वीकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति 29, विमात्रा-ग्राहार, विमात्रा श्वासोच्छ्वास 29, व्यापात, 29, स्पर्शेन्द्रिय से आहार कैसे ? 29, शेष स्थाबरों की उत्कृष्ट स्थिति 29, द्वीन्द्रियादि त्रस-चर्चा 29, विकलेन्द्रिय जीवो की स्थिति 31, असंख्यात समय वाला अन्तमुहर्त 31, रोमाहार 31, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के संबंध में पालापक 32, मनुष्य एवं देवादि विषयक चर्चा 32, पंचेन्द्रिय तियन, मनुष्य, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की स्थिति आदि का वर्णन 33, पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति 33, तिर्यचों और मनुष्यों के आहार की अवधि किस अपेक्षा से 33, वैमानिक देवों के श्वासोच्छवास एवं आहार के परिमाण का सिद्धान्त 33, मुहर्त पृथक्त्व उत्कुष्ट और जघन्य 33, जीवों की प्रारंभ विषयक चर्चा 33, चौबीस दंडकों में आरंभ प्ररूपणा 35, सलेश्य जीवों में प्रारंभ प्ररूपणा 35, विविध पहलुओं से प्रारंभी-अनारंभी विचार 35, प्रारंभ का अर्थ 35, अल्पारंभी परारंभी, तदुभयारंभी (उभयारंभी) अनारंभी, शुभ योग, लेश्या और संयत-असंयत शब्दों का अभिप्राय 36, भव की अपेक्षा से ज्ञानादिक की प्ररूपणा 36, भव की अपेक्षा से ज्ञानादि संबंधी प्रश्नोत्तर 36, चारित्र, तप और संयम परभव के साथ नहीं जाते 36, असंवुड-संवुड विषयक सिद्धता की चर्चा 37, असंवत और संवत अनगार के होने आदि से संबंधित प्रश्नोत्तर 38, असंवत और संवत का अभिप्राय 38, दोनों में अन्तर 38, 'सिझद' आदि पाँच पदों का अर्थ और क्रम 38, अंसवत अतगार : चारों प्रकार के बंध का परिवर्धक 39, 'अणा इयं के वत्तिकार के अनुसार चार रूपान्तर और उनका अभिप्राय 39, 'अणवदागं' के तीन रूपान्तर और अर्थ 39, 'दोहमद्ध' के दो अर्थ 39, असंयत जीव की देवगति विषयक चर्चा 39, बाणन्यंतर देवलोक. स्वरूप 40, असंयत जीवों की गति एवं वाणव्यंतर देवलोक 41, कठिन शब्दों की व्याख्या 41, दोनों के देवलोक में अन्तर 41, बाणभ्यंतर शब्द का अर्थ 41, गौतम स्वामी द्वारा प्रदशित बन्दन-बहुमान 41 / द्वितीय उद्देशक-दुःख (सूत्र 1-22) 42-63 उपक्रम 42, जीव के स्वकृत दुःखवेदन सम्बन्धी चर्चा 42, आयुवेदन सम्बन्धी चर्चा 43, स्वकृत दु:ख एवं आयु के वेदन संबंधी प्रश्नोत्तर 43, स्वकृतक कर्मफल भोग सिद्धान्त 43, चौबीस दण्डक म समानत्व चर्चा (नरयिक विषय) 44, नैरयिकों के आहार, शरीर, उच्छ्वास-नि:श्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, आयूष्य के समानत्व-असमानत्व संबंधी प्रश्नोत्तर 44-47, असुरकुमारादि समानत्व चर्चा 47, नागकुमारों से स्तनितकुमार तक समानत्व संबंधी आलापक 47, पृथ्वीकाय प्रारि समानत्व चर्चा 47, विकलेन्द्रिय समानत्व संबंधी आलापक 48, पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों की क्रिया में भिन्नता 48, मनुष्य देव विषयक समानत्व चर्चा 49, चौबीस दण्डक में लेश्या की अपेक्षा समाहारादि विचार 50, नारक आदि चौबीस दण्डकों के संबंध में समाहारादि दशद्वार सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 51, छोटा-बड़ा शरीर आपेक्षिक 51, प्रथम प्रश्न याहार का, किन्तु उत्तर शरीर का 51, अल्पशरीर वाले से महाशरीर वाले का आहार अधिक : यह कथन प्रायिक 51, बड़े शरोर वाले की वेदना और श्वासोच्छ्वास-मात्रा अधिक 51, नारक : अल्पकर्मी एवं महाकर्मी 52, संज्ञिभूतअसंज्ञिभूत के चार अर्थ 52, क्रिया 52, आयु और उत्पत्ति की दृष्टि से नारकों के चार भंग 52, असुर कुमारों का आहार मानसिक 53, असुरकुमारों का आहार और श्वासोच्छ्वास 53 असुरकुमारों के कर्म, वर्ण और लेश्या का [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथनः नारकों से विपरीत 53, पृथ्वीकायिक जीवों का महाशरीर और अल्प शरीर 53, पृथ्वीकायिक जीवों की समान वेदना: क्यों और कैसे ? 53, पथ्वीकायिक जीवों में पांचों क्रियाएँ कैसे ? 54, मनुष्यों के प्राहार की विशेषता 54, कुछ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या 54, सयोग केवली क्रियारहित कैसे 65, लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में समाहारादि विचार 55, जीवों का संसार-संस्थान-काल एवं अल्पबहत्व 55, चार प्रकार का संसार-संस्थान-काल 55, चारों गतियों के जीवों का संसार-संस्थान-काल: भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व 57, संसारसंस्थान-काल सम्बन्धी प्रश्नों का उद्भव क्यों 57, संसार-संस्थान-काल न माना जाए तो? 57, विविध संसारसंस्थान-काल 57, अशुन्यकाल 57, मिश्रकाल 57, शून्य-काल 58, तीनों कालों का अल्पबहत्व 58, तिर्यचों की अपेक्षा अशून्य काल सबसे कम 58, अन्तक्रिया सम्बन्धी चर्चा 58, अन्तक्रिया का अर्थ 58, असंयत भव्य द्रव्यदेव प्रादि सम्बन्धी विचार 58, असंयत भव्य द्रव्यदेव आदि के देवलोक उत्पाद के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर 59, (1) असंयत भव्य द्रव्य देव 59, (2) अविराधित संयमी 60, (3) विराधित संयमी 60, (4) अविराधित संयमासंयमी 60, (5) बिराधित संयमासंयमी 60, (6) असंही जीव 60, (7) तापस 60, (8) कांदर्पिक 60, (9) चरक परिव्राजक 60, (10) किल्विषिक 60, (11) तिर्यच 60, (12) प्राजीविक 61, (13) आभियोगिक 61, (14) दर्शनभ्रष्ट सलिंगी 61, असंजी-आयुष्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 61, असंज्ञी-अायुष्यः प्रकार, उपार्जन एवं अल्पबहुत्व 62, असंही द्वारा आयुष्य का उपार्जन या वेदन ? 62 / तृतीय उद्देशक---कांक्षा-प्रदोष (सूत्र 1-15) 64-80 चौबीस दण्डकों में कांक्षामोहनीयकर्म सम्बन्धी षडद्वार विचार 64, कांक्षामोहनीयवेदन कारण विचार 65, चतुविशति दण्डकों में कांक्षा-मोहनीय का कृत, चित प्रादि छह द्वारों से त्रैकालिक विचार 66, कांक्षामोहनीय 66, कांक्षामोहनीय का ग्रहणः कैसे, किस रूप में 66, कर्मनिष्पादन की क्रिया त्रिकाल-सम्बन्धित 67, चित आदि का स्वरूपः प्रस्तुत सन्दर्भ में 67, उदीरणा आदि में सिर्फ तीन प्रकार का काल 7. उदयप्राप्त कांक्षामोहनीय का वेदन 67, शंका आदि पदों की व्याख्या 67, कांक्षामोहनीय को हटाने का प्रबल कारण 68, 'जिन' शब्द का अर्थ 68, अस्तित्व-नास्तित्व-परिणमन चर्चा 68, अस्तित्व-नास्तित्व की परिणति और गमनीयता आदि का विचार 69, अस्तित्व की अस्तित्व में मोर नास्तित्व को नास्तित्व में परिणतिः व्याख्या 69, वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की विद्यमानता 70, नास्तित्व की नास्तित्व-रूप में परिणतिः व्याख्या 70, पदार्थों के परिणमन के प्रकार 71, गमनीयरूप प्रश्न का प्राशय 71, 'एत्थं' और 'इह प्रश्न सम्बन्धी सूत्र का तात्पर्य 71, कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की परम्परा 71, बन्ध के कारण पूछने का आशय 72, कर्मबन्ध के कारण 73, शरीर का कर्ता कौन ? 73, उत्थान आदि का स्वरूप 73, शरीर से वीर्य की उत्पत्तिः एक समाधान 73, कांक्षामोहनीय की उदीरणा, गहीं प्रादि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 73, कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा, गो, संवर, उपशम वेदन, निर्जरा आदि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 75, उदीरणा: कुछ शंका समाधान 75, गहरे आदि का स्वरूप 76, वेदना और नहीं 76, कर्म सम्बन्धी चतुभंगी 76, चौबीस दण्डकों तथा श्रमणों के कांक्षामोहनीय वेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 77, पृथ्वीकाय कर्मवेदन कैसे करते हैं ? 78, तर्क आदि का स्वरूप 78, शेष दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन 79, श्रमण-निर्ग्रन्थ को भी कांक्षामोहनीय कर्मवेदन 79, ज्ञानान्तर 79, दर्शनान्तर 79, चारित्रान्तर 79, लिंगान्तर 80, प्रवचनान्तर 80, प्रावच निकान्तर 80, कल्पान्तर 80, मार्गान्तर 80, मतान्तर 80, भंगान्तर 80, नयान्तर 80, नियमान्तर 80, प्रमाणान्तर० / [ 27 ] . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक- (कर्म) प्रकृति (सूत्र 1.18) 81-89 कर्मप्रकृतियों से सम्बन्धित निर्देश 81, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध 81, उदीर्ण-उपशान्तमोह जीव के सम्बन्ध में उपस्थान-उपक्रमणादि प्ररूपण 84, मोहनीय का प्रासंगिक अर्थ 83. 'वीरियत्ताए' शब्द का प्राशय, विविध वीर्य 83, उपस्थान क्रिया और अपक्रमण क्रिया 84, मोहनीय कर्म वेदते हुए भी अपक्रमण क्यों ? 84, कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं 84, प्रदेशकर्म 85, अनुभाग कर्म 85, प्राभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ 85, औपक्रमिकी वेदना का अर्थ 86, यथाकर्म, यथा निकरण का अर्थ 86, पापकर्म का आशय 86, पुद्गल, स्कन्ध और जीव के सम्बन्ध में त्रिकाल शाश्वत प्ररूपणा 86, वर्तमान काल को शाश्वत कहने का कारण 87, पुदगल का प्रासंगिक अर्थ 87, छदमस्थ मनुष्य की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर, केवली की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 88, 'छदमस्थ' का अर्थ 89, अाधोऽवधि एवं परमावधि ज्ञान 89 / पंचम उद्देशक-पृथ्वी (सूत्र 1.36) 60-106 चौबीस दण्डकों की आवास संख्या का निरूपण 90, अर्थाधिकार 91, नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि निरूपणपूर्वक प्रथम स्थिति स्थानद्वार 91, (नारकों की) जयन्यादि स्थिति 93, 'समय' का लक्षण 93, अस्सी भंग 94, नारकों के कहाँ, कितने भंग? 94, द्वितीय----अवगाहना द्वार 94, अवगाहना स्थान 95, उत्कृष्ट अवगाहना 95, जधन्य स्थिति तथा जघन्य अवगाहना के भंगों में अन्तर क्यों? 95, ततीय-शरीरद्वार 95, शरीर 96 बैंक्रिय शरीर 96, तैजस शरीर 96, कार्मण शरीर 96, चौथा—संहनन द्वार 96, पांचवां--संस्थान द्वार 97, उत्तर वैक्रिय शरीर 97, छठा-लेश्याद्वार 98, सातवाँ-दष्टिद्वार 98, आठवाँ-ज्ञानद्वार 99, दृष्टि 99, तीनों दृष्टियों वाले नारकों में क्रोधोपयुक्तादि भंग 99, तीन ज्ञान और तीन अज्ञान वाले नारक कौन और कैसे ? 100, ज्ञान और अज्ञान 100, नौवा–योगद्वार 100, दसवाँ-उपयोगद्वार 101, नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपण पूर्वक तौवा एवं दसवाँ योग-उपयोगद्वार 101, योग का अर्थ 101, उपयोग का अर्थ 101, ग्यारहवाँ–लेश्याद्वार लेश्या के सिवाय सातों नरकपथ्वियों में शेष नौ द्वारों में समानता 102, भवनपतियों की क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यक्तापूर्वक स्थिति आदि दस द्वार 102, एकेन्द्रियों की क्रोधोपयुक्त प्ररूपणापूर्वक स्थिति आदि द्वार 102, विकलेन्द्रियों के क्रोधोपयुतादि निरूपणपूर्वक स्थिति आदि विकलान्द्रया क क्राधापयुतादि निरूपणपूर्वक स्थिति आदि दस द्वार 103, तिथंच पंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दस द्वार निरूपण 103, मनुष्यों के क्रोधपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दस द्वार 104, वाणव्यंतरों के क्रोधोपयुक्तयूर्वक दसद्वार 104, भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त आदि भंग निरूपणपूर्वक स्थितिअवगहना आदि दस द्वार प्ररूपण 103, भवनपति देवों की प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न 104, असंयोगी एक भंग 105, द्विक संयोगी छह भंग 195, त्रिक संयोगी बारह भंग 105, चतुःसंयोगी 8 भंग 105, अन्य द्वारों में अन्तर 105, पश्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग 105, विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर 105, तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर 106, मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर 106, चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर 106 / छठा उद्देशक-यावन्त (सूत्र 1-27) 107-120 सूर्य के उदयास्त क्षेत्र स्पर्शादि सम्बन्धी प्ररूपणा 107, सूर्य कितनी दूर से दिखता है और क्यों ? 108, विशिष्ट पदों के अर्थ 109, सूर्य द्वारा क्षेत्र का अबभासादि 109, लोकान्त-अलोकान्तादि स्पर्श प्रषणा 109, लोक-अलोक 110, चौबीस दण्डकों में अठारह-पाप-स्थान-क्रिया-स्पर्श प्ररूपणा 110, प्राणातिपातादि क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्ष 112, कुछ शब्दों की व्याख्या 112, रोह अनगार का वर्णन 112, रोह अनगार और भगवान [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रश्न पूछने की तैयारी 113, रोह अनगार के प्रश्न और भगवान महाबोर के उत्तर 113, इन प्रश्नों के उत्थान के कारण 116, अष्टविध लोकस्थिति का सदष्टान्त निरूपण 116, लोकस्थिति का प्रश्न और उसका यथार्थ समाधान 118, कर्मों के आधार पर जीव 118, जीव और पुदगलों का सम्बन्ध 118, जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध तालाब और नौका के समान 119, सूक्ष्म स्नेहकायपात सम्बन्धी प्ररूपणा 119, 'समा समियं' का दूसरा अर्थ 120 / सप्तम उद्देशक-नरयिक (सूत्र 1-22) 121-131 नारकादि चौबीस दण्डकों के उत्पाद, उद्वर्तन और आहार संबंधी प्ररूपणा 121, प्रस्तुत प्रश्नोत्तर के सोलह दण्डक 123, देश और सर्व का तात्पर्य 123, नैरयिक की नरयिकों में उत्पत्ति कैसे ? 123, पाहार विषयक समाधान का प्राशय 123, देश और अर्द्ध में अन्तर 123, जीवों को विग्रह-अविग्रह गति संबंधी प्रश्नोत्तर 124, विग्रहगति-प्रविग्रहगति की व्याख्या 125, देव का च्यवनानन्तर आयुष्य प्रतिसंवेदन-निर्णय 125, गर्भगत जीव संबंधी वित्रार 126, द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय 131, गर्भगत जीव के माहारादि 131, गर्भगत जीव के अंगादि 131, गर्भगत जीव के नरक या देवलोक में जाने का कारण 131, गर्भस्थ जीव की स्थिति 131, बालक का भविष्यः पूर्वजन्मकृत कर्म पर निर्भर 131 / अष्टम उद्देशक-बाल (सूत्र 1-11) 132-141 एकान्त बाल, पण्डित आदि के आयुष्यबंध का विचार 132, बाल आदि के लक्षण 133, एकान्त बाल मनुष्य के चारों गतियों का बंध क्यों 134, एकान्त पंडित की दो गतियाँ 134, मृगघातकादि को लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा 134, षट्मास की अवधि क्यों ? 138, प्रासन्नवधक 138, पंचक्रियाएँ 138, अनेक बातों में समान दो योद्धानों में जय-पराजय का कारण 138, वीर्यवान और निर्वीर्य 139, जीव एवं चौबीस दण्डकों में सवीर्यत्व-अवीर्यत्व की प्ररूपणा 139, अनन्त वीर्य सिद्ध : अवीर्य कैसे ? 141, शैलेशी शब्द की व्याख्याएँ 141 / नवम उद्देशक-गुरुक (सूत्र 1-28) जीवों के गुरुत्व-लघुत्वादि की प्ररूपणा 142, जीवों का गुरुत्व-लघुत्व 143, चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त क्यों 143, पदार्थों के गुरुत्व-लघुत्व आदि की प्ररूपणा 143, पदार्थों की गुरुता-लघुता आदि का चतुर्भग की अपेक्षा से विचार 145, गुरु-लघु आदि की व्याख्या 145, निष्कर्ष 146, अवकाशान्तर 146, श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर 146, लाघव आदि पदों के अर्थ 147, आयुष्यबंध के संबंध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा 147, मायूष्य बंध करने का अर्थ 148, दो आयुष्य बंध क्यों नहीं? 148, पापित्यीय कालास्यवेषि पुत्र का स्थविरों द्वारा समाधान और हृदयपरिवर्तन 148, कठसेज्जा के तीन अर्थ 152, स्थविरों के उत्तर का विश्लेषण 152, सामायिक आदि का अभिप्राय 152, सामायिक आदि का प्रयोजन 152, गर्दा संयम कैसे ? 152, चारों में प्रत्याख्यान क्रिया : समान रूप से 152, प्राधाकर्म एवं प्रासुकएषणीयादि पाहारसेवन का फल 153, प्रासुक आदि शब्दों के अर्थ 154, बंधइ श्रादि पदों के भावार्थ 154, स्थिर-अस्थिरादि निरूपण 155, 'अथिरे पलोइ' आदि के दो अर्थ 155 / दशम उद्देशक-चलना (सूत्र 1-3) 156-161 चलमान चलित आदि से संबंधित अन्यतीथिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्त निरूपण 156, गौतम स्वामी द्वारा अन्य तीथिकों द्वारा प्रतिपादित नौ बातों की भगवान से पृच्छा 157-158, अन्यतीथिकों [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मिथ्या मतों का निराकरण 159, ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया संबंधी चर्चा 160, ऐपिथिको 160, सांपरायिकी 160, एक जीव द्वारा एक समय में ये दो क्रियाएँ संभव नहीं 161, तरकादि गतियों में जीवों का उत्पाद-विरह काल 161, नरकादि गतियों तथा चौबीस दण्डकों में उत्पाद-बिरह काल 161, नरकादि में उत्पाद-विरह काल 161 / द्वितीय शतक 162-251 द्वितीय शतक का परिचय द्वितीय शतक के दस उद्देशकों का नाम-निरूपण 162 163 प्रथम उद्देशक-- श्वासोच्छवास (सूत्र 2-54) 163-168 एकेन्द्रियादि जीवों में श्वासोच्छ्वास सम्बन्धी प्ररूपणा 163, आगमंति पाणमंति उस्ससंति नीससंति 165, एकेन्द्रिय जीवों के श्वासोच्छ्वास संबंधी शंका क्यों ? 165, श्वासोच्छ्वास-योग्य पुद्गल 165, व्याघातअव्याघात 165, बायुकाय के श्वासोच्छ्वास, पुनरुत्पत्ति, मरण एवं शरीरादि संबंधी प्रश्नोत्तर 165, वायुकाय के श्वासोच्छ्वास-संबंधी शंका-समाधान 167, दूसरी शंका 167, वायुकाय आदि की कायस्थिति 167, वायुकाय का मरण स्पृष्ट होकर ही 167, मृतादो निर्गन्थों के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण 167. 'मृतादी' शब्द का अर्थ 169, ‘णिरुद्धभवे' आदि शब्दों के अर्थ 169, 'इत्थत्तं' शब्द का तात्पर्य 170, पिंगल निग्नन्थ के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिव्राजक 170, स्कन्दक का भगवान को सेवा में जाने का संकल्प और प्रस्थान 173, गौतम स्वामी द्वारा स्कन्दक का स्वागत और वार्तालाप 174, भगवान द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकाओं का समाधान 177, भगवान द्वारा किये गये समाधान का निष्कर्ष 182, विशिष्ट शब्दों के अर्थ 182-183, स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रज्या ग्रहण और निन्थधर्माचरण 183, कठिन शब्दों की व्याख्या 186, स्कन्दक द्वारा शास्त्राध्ययन भिक्षुप्रतिमाऊराधन और गुणरत्न आदि तपश्चरण 186, स्कन्दक का चरित किस वाचना द्वारा अंकित किया गया ? 190, भिक्षुप्रतिमा की आराधना 191, गुणरत्न (गुणरचन) संवत्सर तप 192, उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत : तपोविशेषणों की व्याख्या 192, स्कन्दक द्वारा संलेखना-भावना, अनशन-ग्रहण, समाधिमरण 192, कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ 196, स्कन्दक की गति और मुक्ति के संबंध में भगवत्-कथन 196, विशिष्ट शब्दों की व्याख्या 198 / द्वितीय उद्देशक-समुद्घात (सूत्र 1) 199-202 समुद्घातः प्रकार तथा तत्संबंधी विश्लेषण, 199, समुद्घात 200, आत्मा समुद्घात क्यों करता है ? 200, (1) वेदना समुद्घात 200, (2) कषाय समुद्घात 200, (3) मारणान्तिक समुद्घात 200, (4) वैक्रिय समुद्घात 200, (5) तैजस समुद्घात 201, (6) आहारक समुद्घात 201, (7) केवलिस मुद्धात 201, समुद्घातयन्त्र 202 / तृतीय उद्देशक-पृथ्वी (सूत्र 1) 203-204 सप्त नरकपृथ्वियाँ तथा उनसे सम्बन्धित वर्णन 203, सात पृथ्वियों की संख्या, बाहल्य आदि का वर्णन 204 / [ 30 ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक-इन्द्रिय (सूत्र 1) 205-206 इन्द्रियाँ और उनके संस्थानादि से संबंधित वर्णन 205, संग्रहणी गाथा 205, चौबीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रियों की प्ररूपणा 205, पंचम उद्देशक-निर्ग्रन्थ (सूत्र 1-27) 207-226 देव-परिचारणासम्बन्धी परमतनिराकरण-स्वमत-प्ररूपण 207, देव को परिचारणा सम्बन्धी चर्चा 208, सिद्धान्त-विरुद्ध मत 208, सिद्धान्तानुकल मत 209, उदकगर्भ आदि की काल स्थिति का विचार 209, उदकगर्भः कालस्थिति और पहचान 210, कायभवस्थ 210 योनिभूत रूप में बीज की काल स्थिति 210 मैथुन प्रत्यायिक संतानोत्पत्ति संख्या एवं मैथनसेवन से असयम का निरूपण 210, एक जीव शत-पृथक्त्व जीवों का पुन कसे ? 212, एक जीव के, एक ही भव में शत-सहस्र पृथक्त्व पूत्र कैसे ? 212, मैथुन सेवन से प्रसंयम 212, तुमिका नगरी के श्रमणोपासकों का जीवन 212, कठिन शब्दों के दूसरे अर्थ 214, तु गिका में अनेक गणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण 215, कुत्रिकापण का अर्थ 215, तुगिका-निवासी श्रमणोपासक पाश्वपित्यीय स्थविरों की सेवा में 216, 'कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता' के दो विशेष अर्थ 218, तुगिका के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर 219, देवत्व किसका फल 221, 'व्यवदान' का अर्थ 221, राजगृह में गौतम स्वामी का भिक्षाचर्यार्थ पर्यटन 221, कुछ विशिष्ट शब्दों की व्याख्या 222, स्थविरों की उत्तरप्रदानसमर्थता आदि के विषय में गौतम की जिज्ञासा और भगवान द्वारा समाधान 223 'समिया' आदि पदों की व्याख्या 225, श्रमण-माहन पर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल 225, श्रमण 227, माहन 227, श्रमण-माहन-पयुपासना से अन्त में सिद्धि 227. राजगह का गर्मजल का स्रोत : वैसा है या ऐसा? 227 / 230--231 छठा उद्देशक भाषा (सूत्र 1) भाषा का स्वरूप और उससे संबंधित बर्णन 230, भाषा सम्बन्धी विश्लेषण 230 सप्तम उद्देशक-देव (सूत्र 1-2) 232-233 देवों के प्रकार, स्थान, उपपात, संस्थान प्रादि का वर्णन 232, देवों के स्थान प्रादि 233, वैमानिक प्रतिष्ठान आदि का वर्णन 233 / अष्टम उद्देशक-सभा (सूत्र 1) 234-237 असुरकुमार राजा चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा आदि का वर्णन 234, उत्पातपर्वत प्रादि शब्दों के विशेषार्थ 236, पदमबरवेदिका का वर्णन 236, वनखण्ड का वर्णन 236, उत्पातपर्वत का उपरितल 236, प्रासादावतंसक 236, चमरेन्द्र का सिंहासन 236, विजयदेव सभावत चमरेन्द्र सभावर्णन 237 / नवम उद्देशक द्वीप (समयक्षेत्र) (सूत्र 1) 238-236 समयक्षेत्र संबंधी प्ररूपणा 238, समय क्षेत्र: स्वरूप और विश्लेषण 238, समय क्षेत्र का स्वरूप 238, दशम उद्देशक-अस्तिकाय (सूत्र 1-22) 240-251 अस्तिकाय : स्वरूप, प्रकार विश्लेषण 240, 'अस्तिकाय' का निर्वचन 242, पाँचों का यह क्रम क्यों 242, पंचास्तिकाय का स्वरूप विश्लेषण 242, धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय 242, निश्चय नय का [ 31 ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंतव्य 224, उत्थानादि युक्त जीव द्वारा आत्मभाब से जीव भाव का प्रकटीकरण 245, उस्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं 246, आत्मभाष का अर्थ 246, पर्यव-पर्याय 246, आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निर्णय 246, देश-प्रदेश 247, जीब-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक कथन क्यों ? 247, स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु पुद्गल 247, अरूपी के दस भेद के बदले पाँच भेद ही क्यों ? 247 अद्धासमय 248, अलोकाकाश 248, लोकाकाश 248, धर्मास्तिकाय ग्रादि का प्रमाण 248, धर्मास्तिकाय आदि को स्पर्शना 245, तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय का स्पर्श कितना और क्यों ? 251, तृतीय शतक 253-399 प्राथमिक 252-253 संग्रहणी गाथा 254 प्रथम उद्देशक-विकुर्वणा (सूत्र 2-65) 254-300 प्रथम उद्देशक का उपोद्घात 254, चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि प्रादि तथा विकूर्वणा शक्ति 255, 'गोतम' संबोधन 260, दो दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण 261, विक्रिया-विकुर्वणा 261, वैक्रिय. समुद्घात में रत्नादि औदारिक पुदगलों का ग्रहण क्यों ? 261, 'प्राइण्णे' 'वितिकिछणे' आदि शब्दों के अर्थ 261, चमरेन्द्र प्रादि की विकुर्वणा शक्ति प्रयोग रहित 262, देवनिकाय में दस कोटि के देव 262, अग्रमहिषियाँ 262, वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि तथा बिर्वणाशक्ति 262 वैरोचनेन्द्र का परिचय 264, नागकूमारेन्द्र धरण और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणा शक्ति 264, नागकुमारों के इन्द्र धरणेन्द्र का परिचय 265, शेष भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिष्क देवों के इन्द्रों और उनके अधीनस्थ देव वर्ग की ऋद्धि, विकुणाशक्ति आदि का निरूपण 265 भवनपति देवों के बीस इन्द्र 266, भवन संख्या 266, सामानिक देव-संख्या 266, आत्मरक्षक देव संख्या 266, अग्रमहिषियों की संख्या 266, व्यंतर देवों के सोलह इन्द्र 266, व्यन्तर इन्द्रों का परिवार 266, ज्योतिष्केन्द्र परिवार 266, बैक्रिय शक्ति 267, दो गणधरों की पृच्छा 267, शकेन्द्र, तिष्यक देव तथा शत्र के सामानिक देवों की ऋद्धि, विकुर्वणा शक्ति प्रादि का निरूपण 267, शकेन्द्र का परिचय 270, तिष्यक अनगार की सामानिक देव रूप में उत्पत्ति-प्रक्रिया 271, 'लखे पत्ते अभिसमन्नागते' का विशेषार्थ 271, 'जहेव चमरस्स' का नाशय 271, कठिन शब्दों के अर्थ 271, ईशानेन्द्र कुरुदत्तपुत्र देव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों एवं उनके सामानिकादि देव वर्ष की विकुर्वणा शक्ति प्रादि का प्ररुपण 271, कुरुदत्त पुत्र अनगार के ईशान-सामानिक होने की प्रक्रिया 274, ईशानेन्द्र और शक्रेन्द्र में समानता और विशेषता 275, नागकुमार से अच्युत तक के इन्द्रादि की वैक्रियशक्ति 275, सनत्कुमार देवलोक में देवी कहां से ? 275, देवलोकों के विमानों की संख्या 275, सामानिक देवों की संख्या 275, 'पगिझिय' यादि कठिन शब्दों के अर्थ 276, मोकानगरी से विहार और ईशानन्द्र द्वारा भगवत् वन्दन 276, राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के भगवत्सेवा में प्रागमन-वृत्तान्त का प्रतिदेश 277, कुटाकारशालादृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्र ऋद्धि को तत्शरीरानुप्रविष्ट-प्ररूपणा 277, कूटाकारशाला दृष्टान्त 278, ईशानेन्द्र का पूर्वभवः तामली का संकल्प और प्राणामाप्रवज्या ग्रहण 278, तामलित्ती-ताम्रलिप्ती 282, मौर्यपुत्र तामली 282, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ 282, प्रव्रज्या का नाम प्राणामा रखने का कारण 282, 'प्राणामा' का शब्दश: अर्थ 283, कठिन शब्दों के अर्थ 283, बालतपस्वी तामली द्वारा पादपोपगमन अनशन-ग्रहण 284, संलेखना तप 285, पादपोपगमन अनशन 285, बलिचंचावासी देवगण द्वारा इन्द्र बनने की विनति : तामली तापस द्वारा [ 32 / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वीकार 285, पुरोहित बनने की विनति नहीं 288 देवों की गति के विशेषण 288, 'सपक्खिं सपडिदिसि' की व्याख्या 288, तामली बालतपस्वी की ईशानेन्द्र के रूप में उत्पत्ति 288, तामली तापस की कठोर बाल तपस्या एवं संलेखनापूर्वक अनशन का सुफल 289, देवों में पांच ही पर्याप्तियों का उल्लेख 289, बलि चंचावासी असुरों द्वारा तामली तापस के शव को विडम्बना 289, प्रकुपित ईशानेन्द्र द्वारा भस्मीभूत बलिचंचा देख भयभीत असुरों द्वारा अपराध-क्षमायाचना 290, ईशानेन्द्र के प्रकोप से उत्तप्त एवं भयभीत असुरों द्वारा क्षमायाचना 292, कठिन शब्दों के विशिष्ट अर्थ 293, ईशानेन्द्र की स्थिति तथा परम्परा से मुक्त हो जाने की प्ररूपणा 293, बालतपस्वी को इन्द्रपद प्राप्ति के बाद भविष्य में मोक्ष कैसे ? 294, शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई-नीचाई में अन्तर 294, उच्चता-नीचता या उन्नतता-निम्नता किस अयेक्षा से ? 295, दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार तथा विवाद में सनत्कुमारेन्द्र की मध्यस्थता 295, कठिन शब्दों के विशेषार्थ 298, सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता अादि तथा स्थिति एवं सिद्धि के विषय में प्रश्नोत्तर 298, कठिन शब्दों के अर्थ 299, तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक की संग्रहणी गाथाएँ 300 / द्वितीय उद्देशक-चमर (सूत्र 1-45) द्वितीय उद्देशक का उपोद्घात 301, असुरकुमार देवों का स्थान 301, असुरकुमार देवों का प्रावासस्थान 02, असुरकुमार देवों का यथार्थ आवासस्थान 302, असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक-ऊर्ध्वगमन से सम्बन्धित प्ररूपणा 302, 'असुर' शब्द पर भारतीय धर्मों की दृष्टि से चर्चा 307, कठिन शब्दों की व्याख्या 308, चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्व प्राप्ति तक का वृत्तान्त 308, 'दाणामा पन्वज्जा' का आशय 311, पूरण तापस और पूरण काश्यप 311, सुसुमारपुर--सुसुमारगिरि 312, कठिन शब्दों की व्याख्या 312 चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मकल्प में उत्पात एवं भगवदाश्रय से शकेन्द्रकृत वनपात से मुक्ति 312, शकेन्द्र के विभिन्न विशेषणों की व्याख्या 320, कठिन शब्दों की व्याख्या 320, फैके हुए पुदगल को पकड़ने को देवशक्ति और गमन-सामर्थ्य में अन्तर 320, इन्द्रद्वय एवं वन की ऊर्वादि गति का क्षेत्र-काल की दृष्टि से अल्पबहुत्व 322, संख्येय, तुल्य और विशेषाधिक का स्पष्टीकरण 324. बजभयमुक्त चिन्तित बमरेन्द्र द्वारा भगवत सेवा में जाक क्षमायाचन और नाट्यप्रदर्शन 325, इन्द्रादि के गमन का यन्त्र 325, असुरकुमारों के सौधर्मकल्पपर्यन्त गमन का कारणान्तर निरूपण 327, तब और अब के उर्ध्वगमनकर्ता में अन्तर 328 / तृतीय उद्देशक-क्रिया (सूत्र 1-17) 329-340 क्रियाएँ: प्रकार और तत्सम्बन्धित चर्चा 329, क्रिया 331, पाँच क्रियाओं का अर्थ 331, क्रियाओं के प्रकार की व्याख्या 331, क्रिया और वेदना में क्रिया प्रथम क्यों ?332, श्रमण निग्रंथ की क्रियाः प्रमाद और योग से 332, सक्रिय-अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण 332, तीन दृष्टान्त 336-37, विविध क्रियाओं का अर्थ 337, संरम्भ समारम्भ और प्रारम्भ का क्रम 337, 'दुक्खावणताए' आदि पदों की व्याख्या 337, प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयम के सर्वकाल का प्ररूपण 338, प्रमत्तसंयम का काल एक समय कैसे ? 339, अप्रमत्त संयम का काल एक अन्तर्मुहूर्त क्यों ? 339, चतुर्दशी श्रादि तिथियों को लवणसमुद्रीय वृद्धि हानि का प्ररूपण 339, वृद्धि हानि का कारण 340 / चतुर्थ उद्देशक-यान (सूत्र 1-16) 341--352 भावितात्मा अनगार की बैंक्रियकृत देवी-देव-यानादि गमन तथा वृक्ष-मूलादि को जानने देखने की शक्ति का प्ररूपण 341, प्रश्नों का क्रम 342, मूल आदि दस पदों के द्विकसंयोगी 45 भंग 343, भावितात्मा [33] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनगार 343, 'जाणइ-पासइ' का रहस्य 343, चौभंगी क्यों? 343, बायुकाय द्वारा वक्रियकृत रूप-परिणमन एवं गमन सम्बन्धी प्ररूपणा 343 कठिन शब्दों की व्याख्या 345, बलाहक के रूप-परिणमन एवं गमन की प्ररूपणा 345, निष्कर्ष 347, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों की लेझ्यासम्बन्धी प्ररूपणा 473, एक निश्चित सिद्धान्त 348, तीन सूत्र क्यों ? 348, अन्तिम समय की लेश्या कौन-सी ? 348, लेश्या और उसके द्रव्य 349, भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्बणा शक्ति 349, बाह्य पुद्गलों का ग्रहण आवश्यक क्यों ? 350, विकुर्वणा से मायी की विराधना और अमायी की आराधना 351 मायी द्वारा विक्रिया 352, अमायी विक्रिया नहीं करता 352 / पंचम उद्देशक-'स्त्री' अथवा 'अनगार विकुर्वणा' (सूत्र 1.16) 353-361 भावितात्मा अनगार के द्वारा स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा 356, कठिन शब्दों की व्याख्या 357, भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादि रूपों के अभियोग-सम्बन्धी प्ररूपण 357, अभियोग और वैक्रिय में अन्तर 359, मायी द्वारा विकूर्वणा और अमायी द्वारा अविकुर्वणा का फल 359, विकूर्वणा और अभियोग दोनों के प्रयोक्ता मायी 360, आभियोगिक अनगार का लक्षण 360, पंचम उद्देशक की संग्रहणी गाथाएँ 361 / छठा उद्देशक-नगर अथवा अनगार वीर्यलब्धि (सूत्र 1-15) 362-366 बीर्यलब्धि आदि के प्रभाव से मिथ्यादृष्टि अनगार का नगरारन्तर के रूपों को जानने-देखने की प्ररूपणा यादृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन 394, निष्कर्ष 364, मायी, मिथ्यावृष्टि भावितात्मा अनगार की व्याख्या 364, लधित्रय का स्वरूप 364, कठिन शब्दों की व्याख्या 365. अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन 365, निष्कर्ष 367, भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वण-सामर्थ्य 367, चमरेन्द्र प्रादि इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों की संख्या का निरूपण 368, प्रात्मरक्षक देव और उनकी संख्या 369 / सप्तम उद्देशक-लोकपाल (सूत्र 1-7) 370-381 शक्रन्द्र के लोकपाल और उनके विमानों के नाम 370, सोम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 370, कठिन शब्दों के अर्थ 373, सूर्य और चन्द्र की स्थिति 373, यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 374, यमकायिक आदि की व्याख्या 376, अपत्य रूप से अभिमत पन्द्रह देवों की व्याख्या 376, वरुण लोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 377, वैश्रमण लोकपाल के विमान-स्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन 378, वैश्रमण देव के अन्य नाम 380, कठिन शब्दों की व्याख्या 381 / अष्टम उद्देशक--अधिपति (सूत्र 1-6) 382-386 भवनपति देवों के अधिपति के विषय में प्ररूपण 382. नागकुमार देवों के अधिपति के विषय में पच्छा 382, सुपर्णकुमार से स्तनितकुमार देवों के अधिपतियों के विषय में पालापक 383, आधिपत्य में तारतम्य 383, दक्षिण भवनपति देवों के इन्द्र और उनके प्रथम लोकपाल 383, सोमादि लोकपाल : वैदिक ग्रन्थों में 384, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा 384, वाणव्यंतर देव और उनके अधिपति दो-दो इन्द्र 385, ज्योतिष्क देवों के इन्द्र 386, बैमानिक देवों के अधिपति –इन्द्र एवं लोकपाल 386 / [ 34 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 नवम उद्देशक-इन्द्रिय (सूत्र 1) 387-388 पंचेन्द्रिय-विषयों का अतिदेशात्मक निरूपण 387, जीवाभिगम सूत्र के अनुसार इन्द्रिय विषय-संबंधी विवरण 387 / दशम उद्देशक-परिषद् (सूत्र 1) 386-390 चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषद्-संबंधी प्ररूपणा 389, तीन परिषदें : नाम और स्वरूप 389 / चतुर्थ शतक 391-399 प्राथमिक चतुर्थशतक की संग्रहणी गाथा प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ उद्देशक-ईशान लोकपाल विमान (सूत्र 2-5) 392-363 __ईशानेन्द्र के चार लोकपालों के विमान और उनके स्थान का निरूपण 392 / पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम उद्देशक-ईशान लोकपाल राजधानी (सूत्र 1) ईशानेन्द्र के लोकपालों की चार राजधानियों का वर्णन 394, चार राजधानियों के क्रमश: चार उद्देशककैसे और कौन से 394 / नवम उद्देशक-नैरयिक (सूत्र 1) 395-366 नैरयिकों की उत्पत्ति प्ररूपणा 395, इस कथन का प्राशय 395, कहाँ तक 395 / दशम उद्देशक-लेश्या (सूत्र 1) 367-399 लेश्याओं का परिणमनादि पन्द्रह द्वारों से निरूपण 397, अतिदेश का सारांश 397, पारिणामादि द्वार का तात्पर्य 398 / पंचम शतक 400-522 प्राथमिक 400-401 पंचम शतक की संग्रहणी गाथा 402 प्रथम उद्देशक-रवि (सूत्र 1-27) 402-417 प्रथम उद्देशक का प्ररूपणा स्थान : चम्पा नगरी 402, चम्पा नगरी : तब और अब, 403, जम्बूद्वीप में सूर्यों के उदय-अस्त एवं रात्रि-दिवस से सम्बन्धित प्ररूपणा 403, सूर्य के उदय-अस्त का व्यवहार : दर्शक लोगों की दष्टि की अपेक्षा से 405, सूर्य सभी दिशाओं में गतिशील होते हुए भी रात्रि क्यों? 405, एक ही समय में दो दिशाओं में दिवस कैसे ? 405, दक्षिणाद्ध और उत्तराद्ध का आशय 405, चार विदिशाएँ अर्थात चार कोण 406, जम्बुद्वीप में दिवस और रात्रि का कालमान 406, दिन और रात्रि की कालगणना का सिद्धान्त 406, सूर्य की विभिन्न मण्डलों में गति के अनुसार दिन-रात्रि का परिमाण 409, ऋतु से अवसर्पिणी तक विविध दिशामों और प्रदेशों (क्षेत्रों में अस्तित्व की प्ररूपणा 409, विविध कालमानों की व्याख्या 413, अवतपिणो काल 413, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सपिणी काल 413, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पूष्करार्ध में सूर्य के उदय-अस्त तथा दिवस-रात्रि का विचार 413, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि का परिचय 416 / द्वितीय उद्देशक अनिल (सूत्र.१-१८) 418-426 ईषत्पुरोदात आदि चतुर्विध वायु की दिशा, विदिशा, द्वीप, समुद्र आदि विविध पहलुओं से प्ररूपणा 418, ईषत्पुरोवात आदि चारों प्रकार की वायु के सम्बन्ध में सात पहल 421, द्वीपीय और समुद्रीय हवाएं एक साथ नहीं बहती 422, चतुर्विध वायू बहने के तीन कारण 422, वायुकाय के श्वासोच्छ्वास ग्रादि के सम्बन्ध में चार आलापक 422, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ 423, ओदन, कुल्माष और सुरा की पूर्वावस्था और पश्चादवस्था के शरीर का प्ररूपण 423, पूर्वावस्था की अपेक्षा से 423, पश्चादवस्था की अपेक्षा से 423, लोह आदि के शरीर का उनकी पूर्वावस्था और पश्चादवस्था की दष्टि से निरूपण 424, अस्थि आदि तथा अंगार आदि के शरीर का उनकी पूर्वावस्था और पश्चादवस्था को अपेक्षा से प्ररूपण 424, अंगार आदि चारों अग्निप्रज्वलित ही विवक्षित 425, पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था 425, लवणसमुद्र की स्थिति, स्वरूप आदि का निरूपण 426, लवणसमुद्र की चौडाई आदि के सम्बन्ध में अतिदेशपूर्वक निरूपण 426, जीवाभिगम में लवणसमुद्र सम्बन्धी वर्णन : संक्षेप में 436 / तृतीय उद्देशक-ग्रन्थिका (सूत्र 1-5) 427-431 एक जीव द्वारा एक समय में इहभविक एवं परभविक आयूष्यवेदन विषयक अन्य तीथिक मत निराकरणपूर्वक भगवान् का समाधान 427, जाल की गांठों के समात अनेक जीवों के अनेक प्रायुष्यों की गांठ 428, चौबीस दण्डकों तथा चतुर्विध योनियों की अपेक्षा से प्रायुष्यबन्ध सम्बन्धी विचार 429 / चतुर्थ उद्देशक-~-शब्द (सूत्र 1-36) 432-456 छद्यस्थ और केवली द्वारा शब्द श्रवण-सम्बन्धी सीमा को प्ररूपणा 432, 'ग्राउडिज्जमाणई' पद की व्याख्या 434, कठिन शब्दों की व्याख्या 434, छदमस्थ और केवली के हास्य और प्रौत्सक्य सम्बन्धी प्ररूपणा 434, तीन भंग 436, छास्थ और केवली की निद्रा और प्रचला से सम्बन्धित प्ररूपणा 436, हरिनगमेषी द्वारा गर्भापहरण किये जाने के सम्बन्ध में शंका-समाधान 437, हरिनंग मेषी देव का संक्षिप्त परिचय 438, गर्भसंहरण के चार प्रकारों में से तीसरा प्रकार ही स्वीकार्य 439, कठिन शब्दों की व्याख्या 439, अतिमुक्तककुमार श्रमण की बालचेष्टा तथा भगवान द्वारा स्थविर मुनियों का समाधान 439, भगवान द्वारा पाविष्कृत सुधार का मनोवैज्ञानिक उपाय 441, दो देवों के मनोगत प्रश्न के भगवान द्वारा प्रदत्त मनोगत उत्तर पर गौतम स्वामी का समाधान 441, सात तथ्यों का स्पष्टीकरण 444, प्रतिफलित तथ्य 445, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ 445, देवों को संयत, असंयत एवं संयतासंयत न कहकर नो-संयत कथन-निर्देश 445, देवों के लिए 'नो-संयत' शब्द उपयुक्त क्यों ? 446, देवों की भाषा एवं विशिष्ट भाषा : अर्धमागधी 446, अर्धमागधी का स्वरूप 447, विभिन्न धर्मों की अलग-अलग देवभाषाओं का समावेश अर्धमागधी में 447, केवली और छयस्थ द्वारा अन्तकर, अन्तिम शरीरी चरमकर्म और चरमनिर्जरा को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा 447, चरमकर्म एवं चरमनिर्जरा की व्याख्या 449, प्रमाणः स्वरूप और प्रकार 449, प्रत्यक्ष के दो भेद 449, अनुमान के तीन मुख्य प्रकार 449, उपमान के दो भेद 450, आगम के दो भेद 450, केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जानने-देखने में समर्थ वैमानिक देव 450, निष्कर्ष 451, अनुत्तरोपपातिक देवों का असीम मनोद्रव्य सामर्थ्य और उपशान्त Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहत्व 452, चार निष्कर्ष 453, अनुत्तरोपपातिक देवों का अनन्त मनोद्रव्य-सामर्थ्य 453, अनुत्तरीपपातिक देव उपशान्तमोह हैं 453, अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञानी केवली इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते 454, केवली भगवान का वर्तमान और भविष्य में अवगाहन सामर्थ्य 454, कठिन शब्दों के अर्थ 455, चतुर्दश पूर्वधारी का लब्धिसामर्थ्य-निरूपण 455 उत्करिका भेद : स्वरूप और सामर्थ्य 456, लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत की प्रकरणसंगत व्याख्या 456 / पंचम उद्देशक-छद्मस्थ (सूत्र 1-6) 457----462 छद्मस्थ मानव सिद्ध हो सकता है, या केवलो होकर ? एक चर्चा 457, समस्त प्राणियों द्वारा एवम्भूत अनेबम्भूत बेदन सम्बन्धी प्ररूपणा 457, नर्मफलवेदन के विषय में चार तथ्यों का निरूपण 459, एवम्भूत और अनेवाभूत का रहस्य 459, प्रवसपिणी काल में हर, कुलकर, तीर्थकरादि की संख्या का निरूपण 459, कुलकर 460, चौवीस तीर्थंकरों के नाम 460, चौबीस तीर्थकरों के पिता के नाम 461, चौबीस तीर्थकरों की मातामों के नाम 461, चौबीस तीर्थकरों की प्रथम शिष्याओं के नाम 461, बारह चक्रवर्तियों के नाम 461, चक्रवतियों की माताओं के नाम 461. चक्रवतियों के स्त्री-रत्नों के नाम 461, नौ बलदेवों के नाम 461, नौ वासुदेवों के नाम 461, नी वासुदेवों की माताओं के नाम 462, नो वासुदेवों के पिताओं के नाम 462, नौ वासुदेवों के प्रतिशत्रु-प्रतिवासुदेवों के नाम 462 / छठा उद्देशक-प्रायुष्य (सूत्र 1-20) 463---477 अल्पायु और दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्धों के कारणों का निरूपण 463, अल्पायु और दीर्घायु का तथा उनके कारणों का रहस्य 464, विक्रेता और केता को विक्रेय माल से संबंधित लगने वाली क्रियाएँ 465, छह प्रतिफलित तथ्य 468, मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया 468, कठिन शब्दों के अर्थ 468, अग्निकाय : कब महाकर्मादि से युक्त, कब अल्पकर्मादि से युक्त ? 469, महाकर्मादि या अल्पकर्मादि से युक्त होने का रहस्य 469, कठिन शब्दों की व्याख्या 469, धनुष चलाने वाले व्यक्ति को तथा धनुष से संबंधित जीवों को उनसे लगने वाली क्रियाएँ 450, किसको, क्यों, कैसे और कितनी क्रियाएं लगती हैं ? 471, कठिन शब्दों के अर्थ 472, अन्यतीथिक प्ररूपित मनुष्य समाकीर्ण मनुष्यलोक के बदले नरकसमाकीर्ण नरकलोक की प्ररूपणा एवं नैरयिक विकर्वणा 472, नरयिकों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम का प्रतिदेश 473, विविध प्रकार से प्राधाकर्मादि दोषसेवी साध अनाराधक कैसे ?, अाराधक कैसे ? 474, विराधना और प्राराधना का रहस्य 475, आधाकर्म की व्याख्या 476, गणसंरक्षणतत्पर प्राचार्य-उपाध्याय के संबंध में सिद्धत्व प्ररूपणा 476, एक, दो या तीन भव में मुक्त 476, मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्ध प्ररूपणा 476, कठिन शब्दों को व्याख्या 477 / सप्तम उद्देशक–एजन (सूत्र 1-44) 478-467 परमाणपुदगल-द्विप्रदेशिकादि स्कन्धों के एजनादि के विषय में प्ररूपणा 478, परमाणुपुदगल और स्कन्धों के कंपन आदि के विषय में प्ररूपणा 479, परमाणुयुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक कम्पनादि धर्म 479, विशिष्ट शब्दों के अर्थ 479, परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के विषय में विभिन्न पहलुओं से प्रश्नोत्तर 479, असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक छिन्न-भिन्नता नहीं, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में कादाचित्क छिन्न-भिन्नता 461, परमाणपुदगल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्ध, समध्य आदि एवं तदविपरीत होने के विषय में प्रश्नोत्तर 481, फलित निष्कर्ष 483, सार्ध, समध्य, सप्रदेश, अन, अमध्य और अप्रदेश का अर्थ 483, [ 37 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणु पुद्गल-द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों की परस्पर-स्पर्श-प्ररूपणा 483, स्पर्श के नौ विकल्प 485, सर्व से सर्व के स्पर्श की व्याख्या 486, द्विप्रदेशी और त्रिप्रदेशी स्कन्ध में अन्तर 486, द्रव्य-क्षेत्र-भावगत पुदगलों का काल की अपेक्षा निरूपण 486, द्रव्य-क्षेत्र भावगत पुद्गल 488, विविध पुद्गलों का अन्तरकाल 488, अन्तरकाल की व्याख्या 490, क्षेत्रादि स्थानायु का अल्पबहुत्व 490, द्रव्य स्थानायु का स्वरूप 491, द्रव्य स्थातायु आदि के अल्पबहुत्व का रहस्य 491, चौबीस दण्डक में जीवों के प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपणा 491, प्रारम्भ और परिग्रह का स्वरूप 495, विविध अपेक्षानों से पांच हेतु-अहेतुत्रों का निरूपण 495, हेतु-अहेतु विषयक सूत्रों का रहस्य 496 / अष्टम उद्देशक-निर्ग्रन्थ (सूत्र 1-28) 498--510 पुद्गलों की द्रव्यादि की अपेक्षा सप्रदेशता-प्रप्रदेशता आदि के संबंध में निग्रन्थीपुत्र और नारदपुत्र की चर्चा 498, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादेश का स्वरूप 501, सप्रदेश-ग्रप्रदेश के कथन में सार्द्ध-अन और समध्यअमध्य का समावेश 502, द्रव्यादि की अपेक्षा पुद्गलों की अप्रदेशता के विषय में 502, द्रव्यादि की अपेक्षा पुदगलों की सप्रदेशता के विषय में 502, सप्रदेश-अप्रदेश पुदगलों का अल्पबहत्व 503, संसारी और सिद्ध जीवों की वद्धि हानि और अवस्थिति एवं उनके कालमान की प्ररूपणा 503, चौबीस दण्डकों की वद्धि, हानि और अवस्थित कालमान की प्ररूपणा 504, वृद्धि, हानि और अवस्थिति का तात्पर्य 506, संसारी एवं सिद्ध जीवों में सोपचय प्रादि चार भग एवं उनके कालमान का निरूपण 507, सोपचय प्रादि चार भंगों का तात्पर्य 509, शंका-समाधान 510 / नवम उद्वेशक-राजगृह (सूत्र 1-18) 511-521 राजगह के स्वरूप का तात्त्विक दृष्टि से निर्णय 511, राजगह नगर जीवाजीव रूप 512, चौबीस दण्टक के जीवों के उद्योत, अन्धकार के विषय में प्ररूपणा 512, उद्योत और अन्धकार के कारण : शुभाशुभ पुदगल एवं परिणाम---क्यों और कैसे ? 514, चौबीस दण्डकों में समयादि काल-ज्ञान संबंधी प्ररूपणा 515, निष्कर्ष 516, भान और प्रमाण का अर्थ 517, पापित्य स्थविरों द्वारा भगवान से लोक-संबंधी शंका-समाधन एवं पंचमहावत धर्म में समर्पण 517, पाश्वपित्य स्थविरों द्वारा कृत दो प्रश्नों का प्राशय 519, भगवान द्वारा दिये गये समाधान का प्राशय 519, लोक अनन्त भी है, परित्त भी, इसका तात्पर्य 519, अनन्त जीवघन और परित्त जीवधन 520, चात्म एवं सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत में अन्तर 520, देवलोक और उसके भेदप्रभेदों का निरूपण 520, देवलोक का तात्पर्य 520, भवनवासी देवों के दस भेद 521, वाणव्यन्तर देवों के आठ भेद 521, ज्योतिष्क देवों के पांच भेद 521, वैमानिक देवों के दो भेद 521, उद्देशक की संग्रहणीगाथा 521 / दशम उद्देशक-चम्पा-चन्द्रमा (सूत्र 1) 512 जम्बूद्वीप में चन्द्रमा के उदय-अस्त ग्रादि से सम्बन्धित अतिदेश पूर्वक वर्णन 522, चम्पा-चन्द्रमा 522 / [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं पंचम अंग विद्यालयात सुस्त वियाहपण्णत्तिसुत्तं [भगवई ] पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामिविरचित पञ्चम अङ्ग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [भगवती] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाहपण्णत्तिसुत्तं (भगवईसुत्तं) परिचय * द्वादशांगी में पंचम अंग का नाम 'व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र' है / * इसका वर्तमान में प्रसिद्ध एवं प्रचलित नाम 'भगवती सूत्र' है। * वृत्तिकार ने वियाहपण्णत्ति' शब्द के संस्कृत में पांच रूपान्तर करके इनका पृथक्-पृथक निर्वचन किया है-(१) व्याख्याप्रज्ञप्ति, (2) व्याख्याप्रज्ञाप्ति, (3) न्याख्या-प्रज्ञात्ति, (4) विवाहप्रज्ञप्ति, (5) विबाधप्रज्ञप्ति / व्याख्या-प्रज्ञप्ति-(वि+या+ख्या+प्र+ज्ञप्ति)-जिस ग्रन्थ में विविध प्रकार (पद्धति) से भगवान् महावीर द्वारा गौतमादि शिष्यों को उनके प्रश्नों के उत्तर के रूप में जीव-अजोव प्रादि अनेक ज्ञेय पदार्थों की व्यापकता एवं विशालतापूर्वक को गई व्याख्यानों (कथनों) का श्रीसुधर्मास्वामी द्वारा जम्बूस्वामी अादि शिष्यों के समक्ष प्रकर्षरूप से निरूपण (ज्ञप्ति) किया गया हो। अथवा जिस शास्त्र में विविध रूप से या विशेष रूप से भगवान् के कथन का प्रज्ञापन--प्रतिपादन किया गया हो। अथवा व्याख्याओं-अर्थ-प्रतिपादनाओं का जिसमें प्रकृष्ट ज्ञान (ज्ञप्ति) दिया गया हो, वह 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' है / * व्याख्याप्रज्ञाप्ति-(व्याख्या+प्रज्ञा+आप्ति) और व्याख्याप्रज्ञात्ति-(व्याख्या+प्रज्ञा+आत्ति)व्याख्या (अर्थ-कथन) की प्रज्ञा (प्रज्ञान हेतुरूप बोध) की प्राप्ति (या ग्रहण) जिस ग्रन्थ से हो। अथवा व्याख्या करने में प्रज्ञ (पटु भगवान्) से प्रज्ञ (गणधर) को जिस ग्रन्थ द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो, या ग्रहण करने का अवसर मिले। * विवाहप्रज्ञप्ति---(वि - वाह+प्रज्ञप्ति)-जिस शास्त्र में विविध या विशिष्ट अर्थप्रवाहों या नयप्रवाहों का प्रज्ञापन (प्ररूपण या प्रबोधन) हो।। * विबाधप्रज्ञप्ति-जिस शास्त्र में बाधारहित अर्थात् प्रमाण से अबाधित निरूपण उपलब्ध हो / ' * भावतो अन्य अंगों को अपेक्षा अधिक विशाल एवं अधिक आदरास्पद होने के कारण इसका दूसरा नाम 'भगवती' भी प्रसिद्ध है। * अचेलक परम्परा में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम का उल्लेख है। उपलब्ध व्याख्याप्रज्ञप्ति की शैली गौतम गणधर के प्रश्नों और भगवान् महावीर के उत्तरों के रूप में है, जिसे 'राजवातिक कार' ने भी स्वीकार किया है। 1. व्याख्याप्रज्ञप्ति अभयदेववृत्ति, पत्रांक 1,2,3 2. (क) राजवातिक प्र. 4, सु. 26, पृ. 245, (ख) कषाय-पाहुड भा. 1, पृ. 125 (ग) अभयदेववृत्ति पत्रांक 2 (घ) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. 1, पृ. 187 (ङ) 'शिक्षासमुच्चय' पृ. 104 से 112 में प्रज्ञापारमिता' को 'भगवती' कहा गया है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * समवायांग और नन्दीसूत्र के अनुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति में नाना प्रकार के 36000 प्रश्नों का व्याख्यान (कथन) है; जो कि अनेक देवों, राजाओं, राजर्षियों, अनगारों तथा गणधर गौतम आदि द्वारा भगवान् से पूछे गए हैं / 'कषायपाहुड' के अनुसार प्रस्तुत प्रागम में जीब-अजीव, स्वसमय-परसमय, लोक-अलोक आदि की व्याख्या के रूप में 60 हजार प्रश्नोत्तर हैं। प्राचार्य अकलंक के मतानुसार इसमें 'जीव है या नहीं?' इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का निरूपण है / प्राचार्य वीरसेन के मतानुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रश्नोत्तरों के साथ 16 हजार छिन्नछेदनयों से ज्ञापनीय शुभाशुभ का वर्णन है।" * प्राचीन सूची के अनुसार प्रस्तुत आगम में एक श्रुतस्कन्ध, सौ से अधिक अध्ययन (शतक), दश हजार उद्देशनकाल, दश हजार समुद्देशनकाल, छत्तीस हजार प्रश्नोत्तर तथा 288000 (दो लाख अठासी हजार ) पद एवं संख्यात अक्षर हैं / व्याख्याप्रज्ञप्ति की वर्णन परिधि में अनन्तगम, अनन्त पर्याय, परिमित बस और अनन्त स्थावर आते हैं / * वर्तमान में उपलब्ध 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' में 41 शतक हैं। शतक' शब्द शत (सय) का हो रूप है। प्रत्येक शतक में उद्देशकरूप उपविभाग हैं / कतिपय शतकों में दश-दश उद्देशक हैं, कुछ में इससे भी अधिक हैं / 41 वे शतक में 196 उद्देशक हैं / * प्रत्येक शतक का विषयनिर्देश शतक के प्रारम्भ में यथास्थान दिया गया है। पाठक वहाँ देखें / * प्रस्तुत शास्त्र में भगवान महावीर के जीवन का तथा, उनके शिष्य, भक्त, गृहस्थ, उपासक, अन्यतीथिक गृहस्थ, परिबाजक, आजीवक एवं उनकी मान्यताओं का विस्तृत परिचय प्राप्त होता है / साथ ही उस युग में प्रचलित अनेक धर्म-सम्प्रदाय, दर्शन, मत एवं उनके अनुयायियों को मनोवृत्ति तथा कतिपय साधकों की जिज्ञासाप्रधान, सत्यग्राहो, सरल, साम्प्रदाधिक कट्टरता से रहित उदारवृत्ति भी परिलक्षित होती है। इसमें जैन सिद्धान्त, समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास, भूगोल, गणित आदि सभी विषयों का स्पर्श किया गया है। विश्वविद्या की कोई भी ऐसी विधा नहीं है, जिसकी चर्चा प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से इसमें न हुई हो। अन्य भागमों की अपेक्षा इस में विषय-वस्तु की दृष्टि से विविधता है।' 1. (क) समवायांग सू. 93, नन्दीसूत्र सू. 85,42, (ख) तत्त्वार्थ राजवार्तिक 1120 (ग) कषायपाहड भा. 1. पृ. 125 (घ) जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भा. 1, पृ. 189 2. (क) भगवतीसुत्र प्रवृत्ति, पत्रांक 4 (ख) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा, प्र. 113, (ग) मुत्र कृतांग शीलांक बत्ति पत्रांक 5 3. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भा. 1, पृ. 185 4. (क) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पृ. 125, 126 113 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम सतगं प्रथम शतक प्राथमिक * भगवतीसूत्र का यह प्रथम शतक है / इस शतक में दस उद्देशक हैं। * दस उद्देशकों की विषयानुक्रमणिका इस प्रकार है -(1) चलन, (2) दुःख, (3) कांक्षाप्रदोष, (4) प्रकृति, (5) पृथ्वियाँ, (6) यावन्त, (जितने) (7) नरयिक (8) बाल (6) गुरुक, (10) चलनादि / * प्रथम उद्देशक प्रारम्भ करने से पूर्व शास्त्रकार ने उपर्युक्त विषयसूची देकर श्रुतदेवता को नमस्कार के रूप में मंगलाचरण किया है / * प्रथम उद्देशक में उपोदधात देकर 'चलमाणे चलिए' इत्यादि पदों की एकार्थ-नानार्थ-प्रल्पणा, चौबीस दण्डकों की स्थिति आदि का विचार, जीवों की प्रारम्भ प्ररूपणा, चौबीस दण्डकों की प्रारम्भ प्रपणा, लश्यायुक्त जीवो में प्रारम्भ को प्ररूपणा, भव की अपेक्षा ज्ञानाद प्ररूपणा, प्रसंवृत-संवृतसिद्धिविचार, असंयत जोव देवगतिविचार आदि विषयों का निरूपण किया गया है। * द्वितीय उद्दशक में जीव की अपेक्षा से एकत्व-पृथक्त्व रूप से दु:खवेदन-पायुष्यवेदन-प्ररूपण, चौबीस दण्डकों में समाहारादि सप्त द्वार प्ररूपण, जीवादि की संसारस्थितिकाल के भेदाभेद, अल्पबहत्व-अन्तक्रिया कारकादि निरूपण. दर्शनव्यापन्न पर्याप्तक असंयत-भव्य-देवादि की विप्रति पत्ति विचार, असंज्ञी जीवों के आयु, प्रायुबंध, अल्प-बहुत्व का विचार प्रतिपादित है / * तृतीय उद्देशक में संसारी जीवों के कांक्षामोहनीय कर्म के विषय में विविध पहलुओं से विचार प्रस्तुत किया गया है / .* चतुर्थ उद्देशक में कर्मप्रकृतियों के बन्ध तथा मोक्ष प्रादि का निरूपण किया गया है। * पंचम उद्देशक में नारकी प्रादि 24 दण्डकों की स्थिति, अवगाहना, शरीर, संहनन, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, जान, योग, उपयोग आदि द्वारों को दृष्टि से निरूपण किया गया है। * छरे उद्दशक में सूर्य के उदयास्त के अवकाश, प्रकाश, लोकान्तादि स्पर्शना, क्रिया, रोहप्रश्न, लोकस्थिति, स्नेहकाय आदि का निरूपण किया गया है / * सातवें उद्देशक में नारक आदि 24 दण्डकों के जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, विग्रहगति, गर्भस्थ जीव के आहारादि का विचार प्रस्तुत किया गया है। * पाठवें उद्देशक में बाल, पण्डित और बालपण्डित मनुष्यों के आयुष्यबंध, कायिका दि क्रिया, जय पराजय, हेतु, सवीर्यत्व-अवीर्यत्व की प्ररूपणा है। * नौवें उद्देशक में विविध पहलुओं से जीवों के गुरुत्व-लघुत्व आदि का निरूपण किया गया है। * दसवें उद्दशक में 'चलमान चलित' आदि सिद्धान्तों के विषय में अन्यतैथिक प्ररूपणा प्रस्तुत करके उसका निराकरण किया गया है। * कुल मिला कर समस्त जीवों को सब प्रकार की परिस्थितियों के विषय में इस शतक में विचार किया गया है, इस दृष्टि से यह शतक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। 10 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (भगवतीसूत्र) प्रथम उद्देशक समग्र शास्त्र-मंगलाचरण १-नमो प्ररहताणं ! नमो सिद्धाणं। नमो मायरियाणं / नमो उवझायाणं / नमो लोए सव्वसाहूणं / ' नमो बंभीए लिवीए / १-अर्हन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो / ब्राह्मी लिपि को नमस्कार हो / विवेचन-मंगलाचरण-प्रस्तुत सूत्र में समग्रशास्त्र का भावमंगल दो चरणों में किया गया है / प्रथम चरण में पंच परमेष्ठी नमस्कार और द्वितीय चरण में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार। प्रस्तुत मंगलाचरण क्यों और किसलिए?-शास्त्र सकल कल्याणकर होता है, इसलिए उसकी रचना तथा उसके पठन-पाठन में अनेक विघ्नों की सम्भावनाएँ हैं / अत: शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के तीन कारण बताए गए हैं--- (1) विघ्नों के उपशमन के लिए। (2) अशुभक्षयोपशमार्थ मंगलाचरण में शिष्यवर्ग की प्रवृत्ति के लिए। (3) विशिष्ट ज्ञानी शिष्टजनों की परम्परा के पालन के लिए / प्रस्तुत मंगलाचरण भावमंगलरूप है क्योंकि द्रव्यमंगल एकान्त और अत्यन्त अभीष्टसाधक मंगल नहीं है / यद्यपि भावमंगल स्तुति, नमस्कार, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि कई प्रकार का है, किन्तु र मगल' यादि महामंगलपाठ में जा परमेष्ठीमंगल है, वह लोकोत्तम एवं इन्द्रादि द्वारा शरण्य है, तथा पंचपरमेष्ठी-नमस्कार सर्व पापों का नाशक होने से विघ्नशान्ति का कारण एवं सर्वमंगलों में प्रधान (प्रथम) है / इसलिए उसे सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तर बताकर प्रस्तुत शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। नमः' पद का अर्थ-द्रव्यभाव से संकोच करना होता है। इस दृष्टि से पंचपरमेष्ठी नमस्कार का अर्थ हुया-द्रव्य से दो हाथ, दो पैर और मस्तक, इन पांच अंगों को संकोच कर अर्हन्त आदि 1. कुछ प्रतियों में 'नमो सम्बसाहूर्ण पाठ है। 2. (क) भगवतीसूत्र अभयदेववृत्ति पत्रांक 2 (ख) 'चत्तारि मंगलं-अरिहंतामंगल, सिद्धामंगलं, साहू मंगलं, केबलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।'-अावश्यकसत्र (ग) 'एसो पंच मोक्कारो सम्वपावप्पणासणो। मंगलारणं च सवेसि पठमं हवह मंगलं ।'--.-पावश्यकसत्र (घ) 'सो सम्बसुयरखंधभतरभूओ'-भगवती वृति पत्रांक 2 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पचपरमेष्ठी को नमन करता है, तथा भाव से प्रात्मा को अप्रशस्त परिणति से पृथक करके अर्हन्त आदि के गुणों में लीन करता हूँ।' _ 'अरहताणं' पद के रूपान्तर और विभिन्न अर्थ-प्राकृत भाषा के 'अरहंत' शब्द के संस्कृत में 7 रूपान्तर बताए गए हैं-(१) अर्हन्त, (2) अरहोन्नर, (3) अरथान्त, (8) अरहन्त, (5) अरयत् (6) अरिहन्त और (7) अरुहन्त आदि / क्रमशः अर्थ यों हैं प्रहन्त–वे लोकपूज्य पुरुष, जो देवों द्वारा निर्मित अष्टमहाप्रातिहार्य रूप पूजा के योग्य हैं, इन्द्रों द्वारा भी पूजनीय हैं। अरहोन्तर–सर्वज्ञ होने से एकान्त (रह) और अन्तर (मध्य) को कोई भी बात जिनसे छिपी नहीं है, वे प्रत्यक्षद्रष्टा पुरुष / प्ररथान्त - रथ शब्द समस्त प्रकार के परिग्रह का सूचक है। जो समस्त प्रकार के परिग्रह से और अन्त (मृत्यु) से रहित हैं। अरहन्त अासक्ति से रहित, अर्थात् राग या मोह का सर्वथा अन्न-नाश करने वाले / अरहयत्-तीन राग के कारणभूत मनोहर विषयों का संसर्ग होने पर भी (अष्ट महाप्रातिहार्यादि सम्पदा के विद्यमान होने पर भो) जो परम बोतराग होने से किञ्चिन भी रागभाव को प्राप्त नहीं होते, वे महापुरुष अरहयत् कहलाते हैं / अरिहन्त–समस्त जीवों के अन्तरंग शत्रुभूत मात्मिक विकारों या अष्टविध कर्मों का विशिष्ट साधना द्वारा क्षय करने वाले / अरुहन्त रुह कहते हैं -सन्तान परम्परा को / जिन्होंने कर्मरूपी वीज को जलाकर जन्म-मरण को परम्परा को सर्वथा विनष्ट कर दिया है, वे अरुहन्त कहलाते हैं / _ 'सिद्धाणं' पद के विशिष्ट अर्थ-सिद्ध शब्द के वृत्तिकार ने 6 निर्वचनार्थ किये हैं(१) बंधे हुए (सित) अष्टकर्म रूप ईन्धन को जिन्होंने भस्म कर दिया है, वे सिद्ध हैं, (2) जो ऐसे स्थान में सिधार (गमन कर) चुके हैं, जहाँ से कदापि लौटकर नहीं आते, (3) जो सिद्ध-कृतकृत्य हो त्रुके हैं, (4) जो ससार को सम्यक् उपदेश देकर संसार के लिए मंगलरूप हो चुके है, (5) जो सिद्धनित्य हो चुके हैं, शाश्वत स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, (6) जिनके गुणसमूह सिद्ध-प्रसिद्ध हो चुके हैं। -- - 'दम्वभावसंकोयण पयत्यो नमः' -भगवती वत्तिपत्रांक 3 2. (क) भगबती बृत्ति पत्राक 3 (ख) 'अरिहंति वंदणनमसणाणि, अरिहति पूयसक्कारं / सिद्धिगमणं च अरहा, अरहंता तेण बच्चति / / ' (ग) अढविहंपि य कम्म अरिभूय होइ सयलजीवाणं / तं कम्ममरि हता अरिहंता तेण बुच्चंति ।।—भगवती वृत्ति पत्रांक 3 3. (क) भगवती बत्ति पत्रांक 3 (ख) ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो नि तिसौध मूनि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, य: सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ।।–भगवती वत्ति पत्रांक 4 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] 'पायरियाणं' पद के विशिष्ट अर्थ-वृत्तिकार ने प्राचार्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है(१) आ =मर्यादापूर्वक या मर्यादा के साथ जो भव्य जनों द्वारा, चार्य = सेवनीय हैं, वे प्राचार्य कहलाते हैं, (2) आचार्य वह है जो सूत्र का परमार्थ ज्ञाता, उत्तम लक्षणों से युक्त, गच्छ के मेढीभूत, गण को चिन्ता से मुक्त करने वाला एवं सूत्रार्थ का प्रतिपादक हो, (3) ज्ञानादि पंचाचारों का जो स्वयं ग्राचरण करते हैं, दूसरों को आचरण कराते हैं, वे प्राचार्य हैं। (4) जो (मुक्ति) दूत (प्राचार) की तरह हेयोपोदय के, संघहिताहित के अन्वेषण करने में तत्पर हैं, वे प्राचार्य हैं / ' 'उज्झायाणं' पद के विशिष्ट प्रथं उपाध्याय शब्द के पांच अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं(१) जिनके पास आकर सूत्र का अध्ययन, सूत्रार्थ का स्मरण एवं विशेष अर्थचिन्तन किया जाता है, (2) जो द्वादशांगीरूप स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, (3) जिनके सान्निध्य (उपाधान) से श्रुत का या स्वाध्याय का अनायास ही पाय-लाभ प्राप्त होता है, (4) आय का अर्थ है-इष्टफल / जिनकी सन्निधि (निकटता) हो इष्टफल का निमित्त-कारण हो, (5) प्राधि (मानसिक पीड़ा) का लाभ (प्राय) प्राध्याय है तथैव 'अधो' का अर्थ है-कुबुद्धि, उसको प्राय अध्याय है, जिन्होंने प्राध्याय और अध्याय (कुबुद्धि या दुनि) को उपहत--नष्ट कर दिया है, वे उपाध्याय कहलाते हैं।' 'सव्वसाहणं' पद के विशिष्ट अर्थ–साधु शब्द के भी वृत्तिकार ने तीन अर्थ बताए हैं-- (1) ज्ञानादि शक्तियों के द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं, (2) जो सर्वप्राणियों के प्रति समताभाव धारण करते हैं, किसी पर रागद्वेष नहीं रखते, निन्दक-प्रशंसक के प्रति समभाव रखते हैं, प्राणिमात्र को आत्मवत् समझते हैं, (3) जो संयम पालन करने वाले भव्य प्राणियों की मोक्षसाधना में सहायक वनते हैं, वे साधु कहलाते हैं। साधु के साथ 'सर्व' विशेषण लगाने का प्रयोजन-जसे अरिहन्तों और सिद्धों में स्वरूपतः सर्वथा समानता है, वैसी समानता साधुनों में नहीं होती / विभिन्न प्रकार की साधना के कारण साधुओं के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। साधुत्व की दृष्टि से सब साधु समान हैं, इसलिए वन्दनीय हैं। सव' (सर्व) विशेषण लगाने से सभी प्रकार के, सभी कोटि के साधुओं का ग्रहण हो जाता है, फिर चाहे वे सामायिक चारित्री हों, चाहे छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्परायी हों या यथाख्यातचारित्री, अथवा वह प्रमत्तसंयत हों या अप्रमतसंयत (सातवें से 143 गुणस्थान तक के साधु) हों, या वे पुलाकादि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों में से कोई एक हों, अथवा वे जिनकल्पी, स्थविरकल्पी, प्रतिमाधारी, यथालन्दकल्पी या कल्पातीत हों, अथवा वे प्रत्येकबुद्ध, स्वयंबुद्ध या बुद्धबोधित में से किसी भी कोटि के हों, अथवा भरतक्षेत्र, महाविदेह क्षेत्र, जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड आदि (क) भगवती वृत्ति पत्रांक 3 (ख) 'मुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो, मच्छस्स मेढिभग्रो य / गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्यं वाएइ पायरियो / ' (ग) पंचविहं प्रायारं आयरमाणा तहा पयासंता / अायार दसंता पायरिया तेण वुच्चंति / / -भ. ब. 4 2. (क) भगवती वृत्ति पत्रांक 4 / (ख) बारसंगो जिणक्खायो सज्झा यो कहियो बूहे / तं उवासंति जम्हा उबज्झाया तेण वच्चति / / -भ. व. 4 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [भगवतीसूत्र किसी भी क्षेत्र में विद्यमान हों, सावुत्व की साधना करने वालों को नमस्कार करने की दृष्टि से 'सव्व' विशेषण का प्रयोग किया गया है। सर्व शब्द-प्रयोग अन्य परमेष्ठियों के साथ भी किया जा सकता है। सव्व' शब्द के वत्तिकार ने 1 सार्व, 2 श्रव्य और 3 सव्य, ये तीन रूप बताकर पृथक्-पृथक अर्थ भी बताए हैं। सार्व का एक अर्थ है-समानभाव से सब का हित करने वाले साधु, दूसरा अर्थ है-सब प्रकार के शुभ योगों या प्रशस्त कार्यों की साधना करने वाले साधु, तीसरा अर्थ है-- सार्व अर्थात्-अरिहन्त भगवान् के साधु अथवा अरिहन्त भगवान् की साधना-आराधना करने वाले साधू या एकान्तबादी मिथ्यामतों का निराकरण करके सार्व यानी अनेकान्तवादो आईतमत की प्रतिष्ठा करने वाले साधु सार्वसाधु हैं। णमो लोए सव्वसाहूर्ण पाठ का विशेष तात्पर्य इस पाठ के अनुसार प्रसंगवशात् सर्व शब्द यहाँ एकदेशीय सम्पूर्णता के अर्थ में मान कर इसका अर्थ किया जाता है.-ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य लोक में विद्यमान सर्वसाधुओं को नमस्कार हो। लोकशब्द का प्रयोग करने से किसी गच्छ, सम्प्रदाय, या प्रान्तविशेष की संकुचितता को अवकाश नहीं रहा। कुछ प्रतियों में 'लोए' पाठ नहीं है। श्रव्यसाधु का अर्थ होता है-श्रवण करने योग्य शास्त्रवाक्यों में कुशलसाधु (न सुनने योग्य को नहीं सुनता)। सव्यसाधु का अर्थ होता है-मोक्ष या संयम के अनुकूल (सव्य) कार्य करने में दक्ष / पाँचों नमस्करणीय और मांगलिक कैले ?–अर्हन्त भगवान् इसलिए नमस्करणीय हैं कि उन्होंने आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप शक्तियों को रोकने वाले घातीकर्मों को सर्वथा निमल कर दिया है, वे सर्वज्ञतालाभ' करके संसार के सभी जीवों को कर्मों के बन्धन से मुक्ति पाने का मार्ग बताने एवं कर्मों से मुक्ति दिलाने वाले, परम उपकारी होने से नमस्करणीय हैं एवं उनको किया हया नमस्कार जीवन के लिए मंगलकारक होता है। सिद्ध भगवान् के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और वीर्य आदि गुण सदा शाश्वत और अनन्त हैं। उन्हें नमस्कार करने से व्यक्ति को अपनी आत्मा के निजी गुणों एवं शुद्ध स्वरूप का भान एवं स्मरण होता है, गुणों को पूर्ण रूप से प्रकट करने की एवं प्रात्मशोधन की, आत्मबल प्रकट करने की प्रेरणा मिलती है, अतः सिद्ध भगवान् संसारी आत्माओं के लिए नमस्करणीय एवं सदैव मंगलकारक हैं। आचार्य को नमस्कार इसलिए किया जाता है कि वे स्वयं प्राचारपालन में दक्ष होने के साथ-साथ दूसरों के आचारपालन का ध्यान 1. (क) साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः / समतां वा सर्वभूतेष ध्यायन्तीति साधवः / / (ख) निब्वाणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो / समया सवभएसु, तम्हा ते भावसाहुणो / (ग) असहाए सहायत्त करेंति में संयम करेंतस्स / एएण कारणेणं णमामिऽहं सव्वसाहणं / / (घ) सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वा: सार्वस्य वाहत: साधवः सार्वसाधवः / सर्वान् शुभयोगान साधयन्ति". "" / भगवती बत्ति पत्रांक 3 (च) लोके मनुष्यलोके, न तु गच्छन्ति, ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः / -भगवती बृत्ति पत्रांक 4 (छ) भगवती वृत्ति पत्रांक 5 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [11 प्रथम शतक : उद्देशक-१] रखते हैं और संघ को ज्ञान-दर्शन-चारित्र में स्थिर रखते हैं। इस महान् उपकार के कारण तथा ज्ञानादि मंगल प्राप्त कराने के कारण आचार्य नमस्करणीय एवं मांगलिक हैं। संघ में ज्ञानबल न हो तो अनेक विपरीत और अहितकर कार्य हो जाते हैं। उपाध्याय संघ में ज्ञानबल को सुदृढ़ बनाते हैं। शास्त्रीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान उपाध्याय की कृपा से प्राप्त होता है, इसलिए उपाध्याय महान् उपकारी होने से नमस्करणीय एवं मंगलकारक है / मानव के सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ एवं परमसाधना के ध्येयस्वरूप मोक्ष की साधना-संयम साधना में असहाय, अनभिज्ञ एवं दुर्बल को सहायता देने वाले साधु निराधार के आधार, असहाय के सहायक के नाते परम उपकारी, नमस्करणीय एवं मंगलफलदायक होते हैं / अरिहंत तीर्थकर विशेष समय में केवल 24 होते हैं, आचार्य भी सीमित संख्या में होते हैं, अतः उनका लाभ सबको, सब क्षेत्र और सर्वकाल में नहीं मिल सकता, साधु-साध्वी ही ऐसे हैं, जिनका लाभ सर्वसाधारण को सर्वक्षेत्रकाल में मिल सकता है / पाँचों कोटि के परमेष्ठी को नमस्कार करने का फल एक समान नहीं है, इसलिए 'सवसाहूणं' एक पद से या 'नमो सव्व सिद्धाणं व नमो सम्बसाहणं' इन दो पदों से कार्य नहीं हो सकता / अतः पाँच ही कोटि के परमेष्ठीजनों को नमस्कार-मंगल यहाँ किया गया है।' द्वितीय मंगलाचरण-ब्राह्मी लिपि को नमस्कार-क्यों और कैसे? -अक्षर विन्यासरूप अर्थात्लिपिबद्ध श्रुत द्रव्यश्रुत है; लिपि लिखे जाने वाले अक्षरसमूह का नाम है / भगवान् ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से लिखने के रूप में जो लिपि सिखाई, वह ब्राह्मी लिपि कहलाती है। ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करने के सम्बन्ध में तीन प्रश्न उठते हैं-(१) लिपि अक्षरस्थापनारूप होने से उसे नमस्कार करना द्रव्य मंगल है, जो कि एकान्तमंगलरूप न होने से यहाँ कैसे उपादेय हो सकता है ? (2) गणधरों ने सूत्र को लिपिबद्ध नहीं किया, ऐसी स्थिति में उन्होंने लिपि को नमस्कार क्यों किया ? (3) प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, फिर शास्त्र के लिए यह मंगल क्यों किया गया ? इनका क्रमशः समाधान यों है-प्राचीनकाल में शास्त्र को कण्ठस्थ करने की परम्परा थी, लिपिबद्ध करने की नहीं, ऐसो स्थिति में लिपि को नमस्कार करने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसका आशय वृत्तिकार स्पष्ट करते हैं कि यह नमस्कार प्राचीनकालिक लोगों के लिए नहीं, आधुनिक लोगों के लिए है। इससे यह भी सिद्ध है कि गणधरों ने लिपि को नमस्कार नहीं किया है, यह नमस्कार शास्त्र को लिपिबद्ध करने वाले किसी परम्परानुगामी द्वारा किया गया है। अक्षरस्थापनारूप लिपि अपने ग्राप में स्वतः नमस्करणोय नहीं होती, ऐसा होता तो लाटी, यवनी, तुर्की, राक्षसी आदि प्रत्येक लिपि नमस्करणोय होतो, परन्तु यहाँ ब्राह्मी लिपि ही नमस्करणीय बताई है, उसका कारण है कि शास्त्र ब्राह्मोलिपि में लिपिबद्ध हो जाने के कारण वह लिपि आधुनिकजनों के लिए श्रुतज्ञान रूप भावमंगल को प्राप्त करने में अत्यन्त उपकारी 1. (क) नमस्करणीयता चैषां भीमभवगहनभ्रमण भीतभूतानामनुप मानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोप कारित्वादिति / (ख) नमस्करणीयता चैपामविप्रणाशिज्ञानदर्शन सूखवीर्यादिगुणयुक्ततयास्त्रविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्याना मतीबोपकारहेतुत्वादिति / (ग) नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात / (घ) नमस्यता चैषांसुसम्प्रदायाप्तजिनवचनाध्यापनतो बिनयनेन भव्यानामुपकारित्वात् / (दुः। एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् ।।"--भगवती बत्ति पत्रांक 3-4 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [भगवतीसूत्र है / द्रव्यश्रुत भावश्रुत का कारण होने से संज्ञाक्षररूप (ब्राह्मीलिपिरूप) द्रव्यश्रुत को भी मंगलरूप माना है। बस्तुतः यहाँ नमस्करणीय भावश्रुत ही है, वही पूज्य है। अथवा शब्दनय की दृष्टि से शब्द और उसका कर्ता एक हो जाता है। इस अभेद विवक्षा से ब्राह्मीलिपि को नमस्कार भगवान् ऋषभदेव (ब्राह्मी लिपि के आविष्का) को नमस्कार करना है। अतः मात्र लिपि को नमस्कार करने का अर्थ अक्षरविन्यास को नमस्कार करना लिया जाएगा तो अतिव्याप्ति दोष होगा। यद्यपि प्रस्तुत शास्त्र स्वयं मंगलरूप है, तथापि इस शास्त्र के लिए जो मंगलाचरण किया गया है, वह इस उद्देश्य से कि शिष्यगण शास्त्र को मंगलरूप (श्रुतज्ञानरूप मंगल हेतु) समझ सके / तथा मंगल का ग्रहण उनकी बुद्धि में हो जाए अर्थात् वे यह अनुभव करें कि हमने मंगल किया है।' शास्त्र की उपादेयता के लिए चार बातें-वत्तिकार ने शास्त्र की उपादेयता सिद्ध करने के लिए चार बातें बताई हैं--(१) मंगल, (2) अभिधेय, (3) फल और (4) सम्बन्ध / शास्त्र के सम्बन्ध में मंगल का निरूपण किया जा चुका है, तथा प्रस्तुत शास्त्र के विविध नामों का निर्देश एवं उनकी व्याख्या करके इस शास्त्र का अभिधेय भी बताया जा चुका है। अब रहे फल और सम्बन्ध / अभिधेय सम्बन्धी अज्ञान दूर होकर शास्त्र में जिन-जिन बातों का वर्णन किया गया है, उन बातों का ज्ञान हो जाना, शास्त्र के अध्ययन या श्रवण का साक्षात् फल है। शास्त्र के अध्ययन या श्रवण से प्राप्त हुए ज्ञान का परम्परा से फल मोक्ष है / शास्त्र में जिन अर्थों को व्याख्या की गई है, वे अर्थ वाच्य हैं, और शास्त्र उनका वाचक है। इस प्रकार वाच्य-वाचक भावसम्बन्ध यहाँ विद्यमान है, 'अथवा' इस शास्त्र का यह प्रयोजन है, यह सम्बन्ध (प्रयोज्य-प्रयोजक-भावसम्बन्ध) भी है। प्रथम शतक : विषयसूची मंगल २–रायगिह चलण 1 दुक्खे 2 कंखपरोसे य 3 पगति 4 पुढवीनो 5 / जावंते 6 नेरइए 7 बाले 8 गरुए यह चलणामी 10 // 1 // २-(प्रथम शतक के दस उद्देशकों को संग्रहणी गाथा इस प्रकार है-) (1) राजगृह नगर में "चलन" (के विषय में प्रश्न), (2) दुःख, (3) कांक्षा-प्रदोष, (4) (कर्म) प्रकृति (5) पृथ्वियाँ, (6) यावत् (जितनी दूर से इत्यादि), (7) नैयिक, (8) बाल, (6) गुरुक और (10) चलनादि / विवेचन--प्रथम शतक को विषयसूची–प्रस्तुत सूत्र में प्रथम शतक के दस उद्देशकों का क्रम इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है। इनमें से प्रत्येक का स्पष्टीकरण मागे यथास्थान क्रिया जाएगा। ३-नमो सुयस्स। ३-श्रुत (द्वादशांगी रूप अर्हत्प्रवचन) को नमस्कार हो। 1. (क) एवं तावत्परमेष्ठिनो नमस्कृत्याऽधुनातनजनानांथ तज्ञानस्यात्यन्तोपकारित्वात् / तस्य च द्रव्यभाव श्रतरूपत्वात भावश्रुतस्य द्रव्यश्च तहेतुत्वात् संज्ञाक्षररूपं द्रव्यश्रतं....।'—भग. अ. वृ. पत्रांक 5 ख) 'लेहं लिवीविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिण करेणं / '-- भग. प्र. वत्ति, पत्रांक 5 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 5 - .. .. - .. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ [13 विवेचन प्रथम शतक का मंगलाचरण–यद्यपि शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है, तथापि शास्त्रकार प्रथम शतक के प्रारम्भ में श्रुतदेवतानमस्काररूप विशेष मंगलाचरण करते हैं। प्राचारांग आदि बारह शास्त्र अर्हन्त भगवान् के अंगरूप प्रवचन हैं, उन्हीं को यहाँ 'श्रत कहा गया है / इष्टदेव को नमस्कार करने की अपेक्षा यहाँ इष्टदेव की वाणीरूप श्रत को नमस्कार किया गया है. इसके पीछे प्राशय यह है कि श्रत भी इष्टदेवरूप ही है, क्योंकि अर्हन्त भगवान् जैसे सिद्धों को नमस्कार करते हैं, उसी प्रकार णमो तित्थस्स' (तीर्थ को नमस्कार हो) कह कर परम आदरणीय तथा परम उपकारी होने से श्रुत (प्रवचन या सिद्धान्त)-रूप भावतीर्थ को भी नमस्कार करते हैं। श्रत भी भावतीर्थ है क्योंकि द्वादशांगी-ज्ञानरूप श्रत के सहारे से भव्यजीव संसारसागर से तर जाते हैं, तथा श्रुत अर्हन्त भगवान् के परम केवलज्ञान से उत्पन्न हुआ है, इस कारण इष्टदेवरूप है। गणधर ने श्रुत को नमस्कार किया है उसके तीन कारण प्रतीत होते हैं-(१) श्रुत को महत्ता प्रदर्शित करने हेतु, (2) श्रुत पर भव्यजीवों की श्रद्धा बढ़े एवं (3) भव्य जीव श्रुत का यादर करें, यादरपूर्वक श्रवण करें। प्रथम उद्देशक : उपोद्घात 4-(1) तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था / वरुणनो। तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसौभागे गुणसिलए नाम चेइए होत्था / 4-(1) उस काल (अवसर्पिणी काल के) और उस समय (चौथे आरे-भगवान् महावीर के युग में) राजगह नामक नगर था। वर्णक / (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र में अंकित चम्पानगरी के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए) उस राजगृह नगर के बाहर उत्तर-पूर्व के दिग्भाग (ईशानकोण) में गुणशीलक नामक चैत्य (व्यन्तरायतन) था। वहाँ श्रेणिक (भम्भासार-विम्बसार) राजा राज्य करता था और चिल्लणादेवी उसकी रानी थी। (2) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्राइगरे तित्थगरे सहसंबुद्ध पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपुडरीए पुरिसवरगंधहत्थी लोगणाहे लोगप्पदीवे लोगपज्जोयगरे अभयदये चक्खुदये मग्गदये सरगदये धम्मदेसए धम्मसारही धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाणदसणधरे वियदृछउमे जिणे जावए बुद्ध बोहए मुत्ते मोयए सवण्ण सम्वदरिसी सिवमयलमरुजमणंतमक्खयमव्वाबाहं 'सिद्धिगति' नामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाव समोसरणं / परिसा निग्गया / धम्मो कहियो / परिसा पडिगया। (2) उस काल में, उस समय में (वहाँ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरण कर रहे थे, जो आदि-कर (द्वादशांगीरूप श्रुत के प्रथम कर्ता), तीर्थकर (प्रवचन या संघ के कर्ता) सहसम्बुद्ध (स्वयं तत्त्व के ज्ञाता), पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह (पुरुषों में सिंह की तरह पराक्रमी), पुरुषवर-पुण्डरीक (पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक-श्वेत-कमल रूप), पुरुषवरगन्धहस्ती (पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान), लोकोत्तम, लोकनाथ (तीनों लोकों की आत्माओं के योग-क्षेमकर), (लोकहितंकर) लोक-प्रदीप, लोकप्रद्योतकर, अभयदाता, चक्षुदाता (श्रुतधर्मरूपी नेत्रदाता), मार्गदाता (मोक्षमार्ग-प्रदर्शक), शरणदाता (बाणदाता). (बोधिदाता), धर्मदाता, धर्मोपदेशक, (धर्मनायक), धर्मसारथि (धर्मरथ के सारथि), धर्मवर१. भगवती अभयदेववृत्ति पत्रांक 6 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [ भगवतीसूत्र चातुरन्त-चक्रवर्ती, अप्रतिहत (निराबाध) ज्ञान-दर्शनधर, छमरहित (छलकपट और ज्ञानादि आवरणों से दूर), जिन (रागद्वेषविजेता), ज्ञायक (सम्यक् ज्ञाता), बुद्ध (समन तत्वों को जानकर रागद्वषविजेता), बोधक (दूसरों को तत्त्ववोध देने वाले), मुक्त (बाह्य-प्राभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित), मोचक (दुसरों को कर्मबन्धनों से मुक्त कराने वाले), सर्वज्ञ (समस्त पदार्थों के विशेष रूप से ज्ञाता) सर्वदर्शी (सर्व पदार्थों के सामान्य रूप से ज्ञाता) थे। तथा जो शिव (सर्व बाधाओं से रहित), अचल (स्वाभाविक प्रायोगिक चलन-हेतु से रहित), अरुज (रोगरहित), अनन्त (अनन्तज्ञानदर्शनादियुक्त), अक्षय (अन्तरहित), अव्याबाध (दूसरों को पीड़ित न करने वाले या सर्व प्रकार की बाधामों से विहीन), पुनरागमन रहित सिद्धिगति (मोक्ष) नामक स्थान को सम्प्राप्त करने के कामी (इच्छुक) थे। (यहाँ से लेकर समवसरण तक का वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए।) (भगवान् महावीर का पदार्पण जानकर) परिषद् (राजगृह के राजादि लोग तथा अन्य नागरिकों का समूह भगवान् के दर्शन, वन्दन, पर्युपासन एवं धर्मोपदेश श्रवण के लिए) निकली। (निर्गमन का समग्न वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए)। (भगवान् ने उस विशाल परिषद् को) धर्मोपदेश दिया। (यहाँ धर्मकथा का वर्णन कहना चाहिए)। (धर्मोपदेश सुनकर और यथाशक्ति धर्मधारण करके वह) परिषद् (अपने स्थान को) वापस लौट गई / (यह समग्र वर्णन भी औषपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। (3) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जेटु अंतेवासी इंदभूतो नाम अणगारे गोयमसगोत्ते णं सत्तुस्सेहे समचउरससंठाणसंठिए वज्जरिसभनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे पोराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखितविपुलतेयलेसे चउदसपुब्बी चउनाणोवगए सव्वक्सरसन्निवाती समणस्स भगवतो महावीरस्स प्रदूरसामंते उड्ढं जाणू अहोसिरे काणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (3) उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पास (न बहुत दूर, न बहुत निकट). उत्कुटुकासन से (घुटना ऊंचा किये हुए) नीचे सिर झुकाए हुए, ध्यानरूपी कोठे (कोष्ठ) में प्रविष्ट श्रवण भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार संयम और तप से आत्मा को भावित (वासित) करते हुए विचरण करते थे। वह गौतम-गोत्रीय श्रे, (शरीर से) सात हाथ ऊंचे, समचतुरस्र संस्थान एवं वज्रऋषभनाराच संहनन वाले थे। उनके शरीर का वर्ण सोने के टुकड़े को रेखा के समान तथा पद्म-पराग के समान (गौर) था / वे उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, घोर (परीषह तथा इन्द्रियादि पर विजय पाने में कठोर), घोरगुण (दूसरों द्वारा दृश्चर मूलगुणादि) सम्पन्न, घोरतपस्वी, घोर (कठोर) ब्रह्मचर्यवासो, शरीर-संस्कार के त्यागी थे। उन्होंने विपुल (व्यापक) तेजोलेश्या (विशिष्ट तपस्या से प्राप्त तेजोज्वाला नामक लब्धि) को संक्षिप्त (अपने शरीर में अन्तर्लीन) करली थी, वे चौदह पूर्वो के ज्ञाता और चतुनिसम्पन्न सर्वाक्षरसन्निपाती थे। (4) तए णं से भगवं गोयमे जायसड्ढे जायसंसए जायकोऊहल्ले, उत्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसए उप्पन्नक्कोऊहल्ले, संजायसड्ढे संजायसंसए संजायकोहल्ले, समुप्पन्नसड्ढे समुष्पन्नसंसए समुप्पन्नकोहल्ले उट्टाए उट्ठति / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [15 उठाए उट्ठता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महा. वीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिण पयाहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिण पयाहिणं करेत्ता वंदति, नमसति, नच्चासन्ने नाइवूरे सुस्सूसमाणे अमिमुहे विणएणं पंजलियडे पज्जुवासमाणे एवं वयासी-- (4) तत्पश्चात् जातश्रद्ध (प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले), जातसंशय, जातकुतुहल, संजातश्रद्ध, समुत्पन्न श्रद्धा वाले, समुत्पन्न कुतूहल वाले भगवान् गौतम उत्थान से (अपने स्थान से उठकर) खड़े होते हैं / पर्वक खडे होकर श्रमण गौतम जहाँ (जिस ओर) श्रमण भगवान महावीर हैं. उस (उनके निकट आते हैं। निकट अाकर श्रमण भगवान महावीर को उनके दाहिनी योर से प्रारम्भ करके तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। फिर वन्दन-नमस्कार करते हैं। नमस्कार करके वे न तो बहुत पास और न बहुत दूर भगवान् के समक्ष विनय से ललाट पर हाथ जोड़े हुए भगवान् के वचन सुनना चाहते हुए उन्हें नमन करते व उनको पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले विवेचन-राजगृह में भगवान महावीर का पदार्पण : गौतम स्वामी की प्रश्न पूछने की तैयारीप्रस्तुत चतुर्थ सूत्र से शास्त्र का प्रारम्भ किया गया है / इसमें नगर, राजा, रानी, भगवान् महावीर, परिषद् -समवसरण, धर्मापदेश, गौतमस्वामो तथा उनके द्वारा प्रश्न पूछने की तैयारी तक का क्षेत्र या व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, वह सब भगवती सूत्र में यत्र-तत्र श्री भगवान् महावीर स्वामी से श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न और उनके द्वारा दिये गए उत्तरों की पृष्ठभूमि के रूप में अंकित किया गया है / इस समग्र पाठ में कुछ वर्णन के लिए 'वर्णक' या 'जाव' से अन्य सूत्र से जान लेते की सूचना है, कुछ का वर्णन यहीं कर दिया गया है। इस समग्र पाठ का प्रकार है (1) भगवान् महावीर के युग के राजगृह नगर का वर्णन (2) वहाँ के तत्कालीन राजा श्रेणिक और रानी चिल्लणा का उल्लेख (3) अनेक विशेषणों से युक्त श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह के अासपास विचरण / (4) इसके पश्चात् 'समवसरण' तक के वर्णन में निम्नोक्त वर्णन गभित हैं—(अ) भगवान् के 1008 लक्षणसम्पन्न शरीर तथा चरण-कमलों का वर्णन, (जिनसे वे पैदल विहार कर रहे थे), (प्रा) उनको बाह्य (अष्ट महाप्रातिहार्यरूपा) एवं अन्तरंग विभूतियों का वर्णन, (इ) उनके चौदह हजार साधुओं और छत्तीस हजार आर्यिकाओं के परिवार का वर्णन, (ई) बड़े-छोटे के क्रम से ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक विहार करते हुए राजगृह नगर तथा तदन्तर्गत गुणशीलक चैत्य में पदार्पण का वर्णन, (उ) तदनन्तर उस चैत्य में अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी प्रात्मा को भावित करते जमान हुए और उनका समवसरण लगा। (ए) समवसरण में विविध प्रकार के ज्ञानादि शक्तियों से सम्पन्न साधुओं आदि का वर्णन, तथा असुर कुमार, शेष भवनपतिदेव, व्यन्तरदेव, ज्योतिष्कदेव एवं वैमानिकदेवों का भगवान् के समीप आगमन एवं उनके द्वारा भगवान् की पर्युपासना का वर्णन / 1. 2. राजगह वर्णन-औपपातिक सत्र 1 भगवान के शरीरादि का वर्णन–औपपातिक सूत्र 10,14,15,16,17 देवागमन वर्णन-प्रौपपातिक सूत्र 22 से 26 तक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ भगवतीसूत्र (5) परिषद् के निर्गमन का विस्तृत वर्णन / ' (6) भगवान् महावीर द्वारा दिये गये धर्मोपदेश का वर्णन / ' (7) सभाविसर्जन के बाद श्रोतागण द्वारा कृतज्ञताप्रकाश, यथाशक्ति धर्माचरण का संकल्प, एवं स्वस्थान प्रतिगमन का वर्णन / (8) श्री गौतम स्वामी के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक व्यक्तित्व का वर्णन / (9) श्री गोतमस्वामी के मन में उठे हुए प्रश्न और भगवान् महावीर से सविनय पूछने की तैयारी / प्रस्तुत शास्त्र किसने, किससे कहा ? प्रस्तुत भगवतीमत्र का वर्णन पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी के समक्ष किया था। इसका कारण अावश्यकसूत्र-नियुक्ति में बताया गया है कि सुधर्मास्वामी का ही तीर्थ चला है। अन्य गणधरों की शिष्य परम्परा नहीं चली, सिर्फ सुधर्मास्वामी के शिष्य-प्रशिष्य हुए हैं।" 'चलमाणे चलिए' आदि पदों का एकार्थ-नानार्थ 5. (1) से नणं भंते ! चलमाणे चलिते 11 उदोरिज्जमाणे उदीरिते 2? वेइज्जमाणे वेइए 3 ? पहिज्जमाणे पहीणे 4 ? छिज्जमाणे छिन्ने 5 ? भिज्जपागे भिन्ने 6 ? उज्झमाणे डड्ढे 7 ? मिज्जमाणे मडे 8 ? निज्जारज्जमाणे निज्जिपणे ? हंता गोयमा ! चलमाणे चलिए जाव निजरिज्जमाणे निजिजणे / 5-[1 प्र. हे भदन्त (भगवन्) ! क्या यह निश्चित कहा जा सकता है कि 1. जो चल रहा हो, वह चला ?, 2. जो (कर्म) उदोरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ?, 3. जो (कर्म) वेदा (भोगा) जा रहा है, वह वेदा गया ?, 4, जो गिर (पतित या नष्ट हो) रहा है, वह गिरा (पतित हुया या हटा)?, 5. जो (कर्म) छेदा जा रहा है, वह छिन्न हुया?, 6. जो (कर्म) भेदा जा रहा है, वह भिन्न हुआ (भेदा गया) ?, 7. जो (कर्म) दग्ध हो रहा है, वह दग्ध हुआ ?, 8. जो मर रहा है, वह मरा?, 9. जो (कर्म) निर्जरित हो रहा है, वह निर्जीर्ण हुग्रा ? 1. परिषद निर्गमन वर्णन---ौपपातिक सत्र 27 से 33 तक 2. धर्मकथा वर्णन-ग्रौपपातिक सूत्र 36 3. परिषद् प्रतिगमन वर्णन-प्रौपपातिक सूत्र 35-36-37 चतानी गौतमस्वामी द्वारा प्रश्न पूछने के पांच कारण---(१) अतिशययुक्त होते हए भी छदमस्थ होने के कारण, (2) स्वयं जानते हुए भी ज्ञान की अविसंवादिता के लिए, (3) अन्य अज्ञजनों के बोध के लिए, (4) शिष्यों को अपने बचन में विश्वास बिठाने के लिए, (5) शास्त्ररचना की यही पद्धति होने से / - भगवतीसूत्र वृत्ति, पत्रांक 16 / 5. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 7 से 14 तक का सारांश (ख) वही–पत्रांक ६-"तित्थं च सुहम्मानो, निरवच्चा गणहरा सेसा / " (ग) जम्बूस्वामी द्वारा पृच्छा-'जइ णं भंते ! पंचमस्स अंगस्म विवाहपन्नत्तीए के अटठे पणते ?" -~-ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 17 [1 उ.] हाँ गौतम ! जो चल रहा हो, उसे चला, यावत् निर्जरित हो रहा है, उसे निर्जीर्ण हुया, (इस प्रकार कहा जा सकता है।) (2) एए णं भंते ! नव पदा कि एगट्टा नाणाघोसा नाणावंजणा उदाहु नाणटा नाणाघोसा नाणावंजणा? गोयमा! चलमाणे चलिते 1, उदोरिजमाणे उदीरिते 2, वेइज्जमाणे वेइए 3, पहिज्जमाणे पहोणे 4, एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा उत्पन्नपक्खस्स / छिज्जमाणे छिन्ने 1, भिज्जमाणे भिन्ने 2, डउझमाणे डड्डे 3, मिज्जमाणे मंडे 4, निजरिज्जमाणे निज्जिण्णे 5, एए णं पंच पदा नाणट्ठा नाणाधोसा नाणावंजणा विगतपक्खस्त / !2 प्र.] भगवन् ! क्या ये नौ पद, नानाघोष और नाना व्यजनों वाले एकार्थक हैं ? अथवा नाना घोष वाले और नाना व्यञ्जनों वाले भिन्नार्थक पद हैं ? 2 उ.] हे गौतम ! 1. जो चल रहा है, वह चला; 2. जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ; 3. जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया; 4. और जो गिर (नष्ट हो) रहा है, वह गिरा (नष्ट हुग्रा), ये चारों पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक, नाना-घोष वाले और नाना-व्यन्जनों वाले हैं / तथा 1. जो छेदा जा रहा है, वह छिन्न हुआ, 2. जो भेदा जा रहा है, वह भिन्न हुआ, 3. जो दग्ध हो रहा है, वह दग्ध हुआ; 4. जो मर रहा है, वह मरा; और 5. जो निर्जीर्ण किया जा रहा है, वह निर्जीर्ण हुआ, ये पांच पद विगतपक्ष की अपेक्षा से नाना अर्थ वाले, नाना-घोष वाले और नाना- व्यञ्जनों वाले हैं / विवेचन--चलन प्रादि से सम्बन्धित नौ प्रश्नोत्तर---प्रस्तुत पंचम सूत्र में दो विभाग हैंप्रथम विभाग में कर्मबन्ध के नाश होने की क्रमशः प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रश्न और उनके उत्तर हैं; दूसरे विभाग में इन्हीं 6 कर्मबन्धनाशप्रक्रिया के एकार्थक या नानार्थक होने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर है।' विशेषावश्यकभाष्य में श्रावस्ती में प्रादुर्भूत 'बहरत' नामक निह्नवदर्शन के प्रवर्तक जमालि का वर्णन है / उसका मन्तव्य था कि जो कार्य किया जा रहा है, उसे संपूर्ण न होने तक किया गया', ऐसा कहना मिथ्या है। इस प्रकार के प्रचलित मत को लेकर श्रोगौतमस्वामी द्वारा ये प्रश्न समाधानार्थ प्रस्तुत किए गए। __जो क्रिया प्रथम समय में हुई है, उसने भी कुछ कार्य किया है, निश्चयनय की अपेक्षा से ऐसा मानना उचित है। चलन–कर्मदल का उदयावलिका के लिए चलना / उदीरणा कर्मों की स्थिति परिपक्व होने पर उदय में आने से पहले ही अध्यवसाय विशेष से उन कर्मों को उदयावलिका में खींच लाना / वेदना-उदयावलिका में आए हुए कर्मों के फल का अनुभव करना / प्रहाण प्रात्मप्रदेशों के साथ एकमेक हुए कर्मों का हटना-गिरना / छेदन---कर्म की दीर्घकालिक स्थिति को अपवर्तना द्वारा अल्पकालिक स्थिति में करना / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 14,15 का सारांश 2. विशेषावश्यकभाष्य गा. 2306, 2307 (विशेष चर्चा जमालि प्रसंग में देखें) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ भगवतीसूत्र भेदन बद्ध कर्म के तीव्र रस को अपवर्तनाकरण द्वारा मन्द करना अथवा उद्वर्तनाकरण द्वारा मन्द रस को तीव्र करना / दग्ध-कर्मरूपी काष्ठ को ध्यानाग्नि से जलाकर अकर्म रूप कर देना। मत--पूर्वबद्ध आयुष्यकर्म के पुद्गलों का नाश होना। निर्जी-फल देने के पश्चात् कर्मों का आत्मा से पृथक् होना-क्षीण होना / एकार्थ-जिनका विषय एक हो, या जिनका अर्थ एक हो। घोष–तीन प्रकार के हैं उदात्त (जो उच्चस्वर से वोला जाए), अनुदात्त (जो नीचे स्वर से बोला जाए) और स्वरित (जो मध्यमस्वर से वोला जाए)। यह तो स्पष्ट है कि इन नौ पदों के घोष और व्यञ्जन पृथक्-पृथक हैं। चारों एकार्थक-चलन, उदीरणा, वेदना और प्रहाण, ये चारों क्रियाएँ तुल्यकाल (एक अन्तमुहर्तस्थितिक) की अपेक्षा से, गत्यर्थक होने से तथा एक ही कार्य (केवलज्ञान प्रकटीकरण रूप) की साधक होने से एकार्थक हैं। पाँचों भिन्नार्थक–छेदन, भेदन, दहन, मरण, निर्जरण, ये पाँचों पद वस्तु विनाश की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न अर्थ वाले हैं। तात्पर्य यह है कि छेदन स्थितिबन्ध को अपेक्षा से, भेदन अनुभाग (रस) बन्ध की अपेक्षा से, दहन प्रदेशबन्ध को अपेक्षा से, मरण आयुष्यकर्म निर्जरण समस्त कर्मों की अपेक्षा से कहा गया है / अतएव ये सब पद भिन्न-भिन्न अर्थ के वाचक हैं।' चौबीस दंडकगत स्थिति आदि का विचार-- (नैरयिक चर्चा) 6. (1.1) नेरइयाणं भंते ! केवइकालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दस बाससहस्साई', उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता 6--[1. 1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति (आयुष्य) कितने काल की कही है ? [1. 1. उ.] हे गौतम ! जघन्य (कम से कम) दस हजार वर्ष की, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) तैतीस सागरोपम की कही है। (1.2) नेरइया गं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? जहा ऊसासपदे। [1. 2. प्र.] भगवन् ! नारक कितने काल (समय) में श्वास लेते हैं और कितने समय में श्वास छोड़ते हैं--कितने काल में उच्छ्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं ? [1. 2. उ.] (प्रज्ञापना-सूत्रोक्त) उच्छ्वास पद (सातवें पद) के अनुसार समझना चाहिए। 1. भगवतीसत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 15 से 19 तक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 19 (1.3) नेरइया णं भंते ? प्राहारदी? जहा पण्णवणाए पढमए पाहार उद्देसए तथा भाणियव्यं / ठिति उस्सासाहारे किं वा ऽऽहारैति सम्वनो वा वि / कतिभागं सव्वाणि व कोस व भुज्जो परिणमंति? // 2 // [1. 3. प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक पाहारार्थी होते हैं ? [1. 3. उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के ग्राहारपद (२८व) के प्रथम उद्देशक के अनुसार समझ लेना। गाथार्थ-नारक जीवों की स्थिति, उच्छवास तथा आहार-सम्बन्धी कथन करना चाहिए। क्या वे पाहार करते हैं ? वे समस्त प्रात्मप्रदेशों से ग्राहार करते हैं ? वे कितने भाग का आहार करते हैं या वे सर्व-आहारक द्रव्यों का आहार करते हैं ? और वे अाहारक द्रव्यों को किस रूप में वार-बार परिणमाते हैं। (1.4) नेरइयाणं भंते ! पुवाहारिता पोगला परिणता 1? पाहारिता प्राहारिज्जमाणा पोग्गला परिणता 2 ? प्रणाहारिता पाहारिजिजस्तमाणा पोग्गला परिणया 3 ? प्रणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा पोग्गला परिणया 4 ? गोयमा! नेरइयाणं पुवाहारिता पोग्गला परिणता 1, प्राहारिता प्राहारिमाणा पोग्गला परिणता परिणमंति य 2, अणाहारिता ग्राहारिज्जिासमाणा पोग्गला नो परिणता, परिणमिस्संति 3, अणाहारिया प्रणाहारिज्जिस्समाएगा पोग्गला नो परिणता, नो परिणमिस्संति 4 / [1. 4. प्र.] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए ? पाहारित (ग्राहार किये हुए, तथा (वर्तमान में) अाहार किये जाते हुए पुद्गल परिणत हुए ? अथवा जो पुद्गल अनाहारित (नहीं आहार किये हुए) हैं, वे तथा जो पुद्गल (भविष्य में) आहार के रूप में ग्रहण किये जाएंगे, वे परिणत हुए ? अथवा जो पुद्गल अनाहारित हैं और आगे भी पाहारित (आहार के रूप में) नहीं होंगे, वे परिणत हुए? 1. 4. उ.] हे गौतम! नारकों द्वारा पहले पाहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए; 1. (इसी तरह) आहार किये हुए और ग्राहार किये जाते हुए पुद्गल परिणत हुए परिणत होते हैं, 2. किन्तु नहीं ग्राहार किये हुए (अनाहारित) पुद्गल परिणत नहीं हुए, तथा भविष्य में जो पुद्गल आहार के रूप में ग्रहण किये जाएंगे, वे परिणत होंगे, 3. अनाहारित पुद्गल परिणत नहीं हुए, तथा जिन पुदगलों का पाहार नहीं किया जाएगा, वे भी परिणत नहीं होंगे 4. / (1.5) नेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला चिता० पुच्छा। जहा परिणया तहा चिया वि / एवं उचिता, उदीरिता, वेदिता, निज्जिण्णा / गाहापरिणत चिता उचिता उदोरिता वेदिया य निज्जिण्णा / एक्केक्कम्मि पदम्मी चउबिहा पोग्गला होति // 3 // [1.5 प्र.] हे भगवन् ! नैरयिकों द्वारा पहले आहारित (संगृहोत) पुद्गल चय को प्राप्त [1. 5. उ.] हे गौतम ! जिस प्रकार वे परिणत हुए, उसो प्रकार चय को प्राप्त हुए; उसो प्रकार उपचय को प्राप्त हुए; उदीरणा को प्राप्त हुए, वेदन को प्राप्त हुए तथा निर्जरा को प्राप्त हुए / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [ भगवतीसूत्र गाथार्थ-परिणत, चित, उपचित, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण, इस एक-एक पद में चार प्रकार के पुद्गल (प्रश्नोत्तर के विषय) होते हैं। (1.6) नेरइया णं भंते ! कतिविहा पोग्गला भिज्जति ? गोयमा ! कम्मदध्ववग्गणं अहिकिच्च दुविहा पोग्गला भिज्जति / तं जहा-अणू चेव बादरा चेव 1. नेरइया णं भंते ! कतिविहा पोग्गला चिज्जंति ? गोयमा! आहारदव्यवग्गणं अहिकिच्च दुविहा पोग्गला चिजंति / तं जहा-अणू चेव बादरा चैव 2 / एवं उचिज्जति 3 / नेरइया णं भंते ! कतिविहे पोग्गले उदीरेंति ? गोयमा ! कम्मदच्वागणं अहिकिच्च दुविहे पोग्गले उदोरेति / तं जहा–अणू चेव बादरे चेव 4 / एवं वेदेति 5 / निज्जरेंति 6 / मोट्टिसु 7 / ओयति 8 / प्रोयट्टिस्संति 6 / संकामिसु 10 / संकामेति 11 / संकामिस्संति 12 / निहतिसु 13 / निहत्तेति 14 / निहत्तिस्संति 15 / निकायंसु 16 / निकाएंति 17 / निकाइस्संति 18 / सब्वेसु वि कम्मदव्ववगणमहिकिच्च / गाहा भेदित चिता उचिता उदीरिता वेदिया य निज्जिण्णा / प्रोयट्टण-संकामण-निहत्तण-निकायणे तिविह कालो // 4 // (1. 6. प्र.) हे भगवन् ! नारकजीवों द्वारा कितने प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं ? (1. ६..उ.) गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गल भेदे जाते हैं / वे इस प्रकार हैं-अणु (सूक्ष्म) और बादर (स्थूल) 1 / / (प्र.) भगवन् ! नारक जीवों द्वारा कितने प्रकार के पुद्गल चय किये जाते हैं ? (उ.) गौतम ! आहार द्रव्यवर्गणा को अपेक्षा वे दो प्रकार के पुद्गलों का चय करते हैं, वे इस प्रकार हैं---अणु और बादर 2. ; इसी प्रकार उपचय समझना 3. / (प्र.) भगवन् ! नारक जीव कितने प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? (उ.) गौतम ! कर्मद्रव्यवर्गणा की अपेक्षा दो प्रकार के पुद्गलों की उदीरणा करते हैं / वह इस प्रकार है—अणु और बादर 4 / शेष पद भी इसी प्रकार कहने चाहिए:-वेदते हैं 5, निर्जरा करते हैं 6, अपवर्तन को प्राप्त हुए 7, अपवर्तन को प्राप्त हो रहे हैं 8, अपवर्तन को प्राप्त करेंगे ; संक्रमण किया 10, संक्रमण करते हैं 11, संक्रमण करेंगे 12, निधत्त हुए 13, निधत्त होते हैं 14, निधत्त होंगे 15; निकाचित हुए 16, निकाचित होते हैं 17, निकाचित होंगे 18, इन सव पदों में भी कर्मद्रव्यवर्गणा को अपेक्षा (अणु और बादर पुद्गलों का कथन करना चाहिए।) गाथार्थ-भेदेगए, चय को प्राप्त हुए, उपचय को प्राप्त हए, उदीर्ण हुए, वेदे गए और निर्जीर्ण हुए (इसी प्रकार) अपवर्तन, संक्रमण, निधतन और निकाचन, (इन पिछले चार) पदों में भी तीनों प्रकार काल कहना चाहिए। (1.7) नेरइया णं भत्ते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गेहंति ते कि तीतकालसमए गेहति ? पडुप्पन्नकालसमए गेहंति ? प्रणागतकालसमए गेण्हति ? Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्द शक-१] [ 21 गोयमा ! तो तीतकालसमए गेण्हंति, पडुप्पन्नकालसमए गेण्हंति, नो अणागतकालसमए गेण्हंति 1 / [1.7 प्र.] हे भगवन् ! नारक जीव जिन पुद्गलों को तैजस और कार्मणरूप में ग्रहण करते हैं, उन्हें क्या अतीत काल में ग्रहण करते हैं ? प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) काल में ग्रहण करते हैं ? अथवा अनागत (भविष्य) काल में ग्रहण करते हैं ? _ [1. 7. उ.] गौतम ! अतीत काल में ग्रहण नहीं करते; वर्तमान काल में ग्रहण करते हैं; भविष्यकाल में ग्रहण नहीं करते। (1.8) नेरइया भंते ! जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गहिए उदोरेंति ते कि तोतकालसमयगहिते पोग्गले उदोरेति ? पडुप्पन्नकालसमयघेप्पमाणे पोग्गले उदीरेंति ? गहणसमयपुरेक्खडे पोग्गले उदोरेंति ? गोयमा ! तीयकालसमयगहिए पोग्गले उदोरेंति, नो पडुप्यन्तकालसमयधेपमाणे पोग्गले उदीरेति, नो गहणसमयपुरेक्खडे पोग्गले उदोरेंति 2 / एवं वेदेति 3, निज्जति 4 / _ [1. 8. प्र.| हे भगवन् ! नारक जीव तेजस और कार्मणरूप में ग्रहण किये हुए जिन पुदगलों को उदीरणा करते हैं, सो क्या प्रतीत काल में गहोत पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों को उदीरणा करते हैं ? अथवा जिनका उदयकाल आगे आने वाला है, ऐसे भविष्यकालविषयक पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? 1. 8. उ.] हे गौतम ! वे अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, (परन्तु) वर्तमान काल में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते, तथा प्रागे ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं करते / इसी प्रकार (उदीरणा की तरह) अतीत काल में गृहीत पुद्गलों को वेदते हैं, और उनकी निर्जरा करते हैं। (1.6) नेरइयाणं भंते ! जीवातो कि चलियं कम्मं बंधति ? प्रचलियं कम्मं बंधति ? गोयमा! नो चलियं कम्मं बंधति, प्रचलितं कम्मं बंधति 1) एवं उदीरेंति 2 वेदेति 3 श्रोय. दृति 4 संकाति 5 निहत्तेति 6 निकाएंति 7 / सधेसु णो चलियं, अचलियं / [1. 9. प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीवप्रदेशों से चलित (जो जीवप्रदेशों में अवगाढ़ नहीं है, ऐसे) कर्म को बांधते हैं, या प्रचलित (जीवप्रदेशों में स्थित) कर्म को बांधते हैं ? [1. 9. उ.] गौतम ! (वे) चलित कर्म को नहीं बांधते, (किन्तु) प्रचलित कर्म को बांधते हैं। इसी प्रकार (बंध के अनसार ही वे) अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं, प्रचलित कर्म का ही वेदन करते हैं, अपवर्तन करते हैं, संक्रमण करते हैं, निधत्ति करते हैं और निकाचन करते हैं। इन सब पदों में अचलित (कर्म) कहना चाहिए, चलित (कर्म) नहीं। (1.10) नेरइयाणं भंते ! जीवातो कि चलियं कम्मं निज्जरेंति ? प्रचलियं कम्मं निज्जरेंति ? Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ भगवतीसूत्र गोयमा ! चलिगं कम्मं निज्जरेंति, नो प्रचलियं कम्मं निज्जरेंति 8 / गाहा-- बंधोदय-वेदोव्वट्ट-संकमे तह निहत्तण निकाए / अचलियं कम्मं तु भवे चलितं जीवाउ निज्जरए // 5 // [1. १०.प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीवप्रदेश से चलित कर्म को निर्जरा करते हैं अथवा अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? 1. 10. उ.] गौतम ! (वे) चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते। गाथार्थ-बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन के विषय में प्रचलित कर्म समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए। विवेचन-नारकों की स्थिति आदि के सम्बन्ध के प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत छठे सूत्र के 24 अवान्तर विभाग (दण्डक) करके शास्त्रकार ने प्रथम अवान्तर विभाग में नारकों को स्थिति आदि से सम्बन्धित 10 प्रश्नोत्तर-समूह प्रस्तुत किये हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं-(१) स्थिति, (2) श्वासोच्छ्वास समय, (3) आहार, (4) पाहारित-अनाहारित पुद्गल परिणमन, (5) इन्हीं के चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, और निर्जराविषयक विचार, (6) पाहारकर्म द्रव्यवर्गणा के पुद्गलों के भेदन, चय, उपचय, उदीरणा, वेदना, निर्जरा, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन से सम्बन्धित विचार, (7-8) तैजस-कार्मण के रूप में गहीत पुद्गलों के ग्रहण, उदीरणा, वेदना और निर्जरा की अपेक्षा त्रिकालविषयक विचार, (9-10) चलित-प्रचलित कर्म सम्बन्धी बन्ध, उदीरणा, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन, निकाचन एवं निर्जरा की अपेक्षा विचार / ' स्थिति आत्मारूपी दीपक में प्रायुकर्मपुद्गलरूपी तेल के विद्यमान रहने की सामयिक मर्यादा प्राणमन-प्राणमन तथा उच्छ वास-निःश्वास-यद्यपि याणमन-प्राणमन तथा उच्छ्वासनिःश्वास का अर्थ समान है, किन्तु इनमें अपेक्षाभेद से अन्तर बताने की दृष्टि से इन्हें पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है / प्राध्यात्मिक (आभ्यन्तर) श्वासोच्छ्वास को ग्राणमन-प्राणमन और बाह्य को उच्छवास-निःश्वास कहते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में नारकों के सतत श्वासोच्छवास लेने-छोडने का वर्णन है / नारकों का प्राहार-प्रज्ञापनासूत्र में बताया है कि नारकों का आहार दो प्रकार का होता है-आभोग निर्वतित (खाने की बुद्धि से किया जाने वाला) और अनाभोगनिर्वर्तित (आहार की इच्छा के बिना भी किया जाने वाला) / अनाभोग माहार तो प्रतिक्षण-- सतत होता रहता है, किन्तु आभोगनिर्वत्तित-पाहार को इच्छा कम से कम असंख्यात समय में, अर्थात्---अन्तर्मुहूर्त में होती है / 1. 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 19 से 25 तक का सारांश भगवतीसत्र अ. वत्ति पत्रांक 11 (क) वही, पत्रांक 19, (ख) प्रज्ञापना, उच्छ्वासपद-में--"गोयमा! सययं संतयामेव प्राणति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नौससंति वा / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] [ 23 इसके अतिरिक्त नारकों के आहार का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, दिशा, समय आदि की अपेक्षा से भी विचार किया गया है।' परिणत, चित, उपचित प्रादि-आहार का प्रसंग होने से यहाँ परिणत का अर्थ है—-शरीर के साथ एकमेक होकर आहार का शरीररूप में पलट जाना। जिन पुद्गलों को आहाररूप में परिणत किया है, उनका शरीर में एकमेक होकर शरीर को पुष्ट करता चय (चित) कहलाता है। जो चय किया गया है, उसमें अन्यान्य पुद्गल एकत्रित कर देना उपचय (उपचित) कहलाता है। आहार शब्द यहाँ ग्रहण करने और उपभोग करने (खाने) दोनों अर्थों में प्रयुक्त है। प्रस्तुत में प्रत्येक पद के प्राहार से सम्बन्धित (1) पाहारित, (2) पाहारित-आह्रियमाण, (3) अनाहारितपाहारिष्यमाण, एवं अनाहारित-अनाहारिष्यमाण, इन चारों प्रकार के पुद्गल विषयक चार-चार प्रश्न हैं / पुद्गलों का भेदन-अपवर्त्तनाकरण तथा उद्वर्त्तनाकरण (अध्यवसायविशेष) से तीव, मन्द, मध्यम रस वाले पुद्गलों को दूसरे रूप में परिणत (परिवतित) कर देना / जैसे—तीव को मन्द और मन्द को तीव्र बना देना / पुद्गलों का चय-उपचय-यहाँ शरीर का आहार से पुष्ट होना चय और विशेष पुष्ट होना उपचय है / ये आहारद्रव्यवर्गणा की अपेक्षा जानना चाहिए। अपवर्तन-अध्यवसायविशेष के द्वारा कर्म की स्थिति एवं कर्म के रस को कम कर देना / अपवर्तनाकरण से कर्म की स्थिति आदि कम की जाती है, उद्वर्तनाकरण से अधिक / संक्रमण-कर्म की उत्तरप्रकृतियों का अध्यवसाय-विशेष द्वारा एक दूसरे के रूप में बदल जाना / यह संक्रमण (परिवर्तन) मूल प्रकृतियों में नहीं होता / उत्तरप्रकृतियों में भी प्रायुकर्म की उत्तरप्रकृतियों में नहीं होता तथा दर्शनमोह और चारित्रमोह में भी एक दूसरे के रूप में संक्रमण नहीं होता। निधत्त करना-भिन्न-भिन्न कर्म-पुद्गलों को एकत्रित करके धारण करना / निधत्त अवस्था में उद वर्तना और अपवर्तना. इन दो करणों से ही निधत्त कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है। अर्थात् इन दो करणों के सिवाय किसी अन्य संक्रमणादि के द्वारा जिसमें परिवर्तन न हो सके, कर्म की ऐसी अवस्था को निधत्त कहते हैं। 1. (क) भगवतीसत्र अभय. वत्ति, पत्रांक 20 से 23 तक (ख) देखिये, प्रज्ञापना, ग्राहारपद, पद 28 उद्दे. 1 में भगवतीसूत्र अभय. वत्ति, पत्रांक 24 / (1) पूर्वाहत, (2) आह्रियमाण, (3) आहारिष्यमाण, (4) अनाहत, (5) अनाहियमाण और (6) अनाहारिष्यमाण; इन 6 पदों के 63 भंग होते हैं—एकपदाश्रित 6, द्विकसंयोग से 15, त्रिकसंयोग से 20, चतुष्कसंयोग से 15, पंचकसंयोग से 6 और पटसंयोग से एक / -भगवती. अ. वृत्ति अनुवाद, पृ. 62-63 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] [ भगवतीसूत्र निकाचित करना-निधत्त किये गए कर्मों का ऐसा सूढ़ हो जाना कि, जिससे वे एक-दूसरे से पृथक न हो सके, जिनमें कोई भी करण कुछ भी परिवर्तन न कर सके / अर्थात्-कर्म जिस रूप में बांधे हैं, उसी रूप में भोगने पड़ें, बे निकाचित कर्म कहलाते हैं।' चलित-प्रचलित-जिन अाकाशप्रदेशों में जीवप्रदेश अवस्थित हैं उन्हीं अाकाशप्रदेशों में जो अवस्थित न हों, ऐसे कर्म चलित कहलाते हैं, इससे विपरीत कर्म प्रचलित / / देव (असुरकुमार) चर्चा (2.1) असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठितो पण्णता? जहन्नेणं दस वाससहस्साइ, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / 12.1 प्र.| भगवन् ! असुरकुमारों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [2.1 उ. हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष को और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की है। (2.2) असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा 4 ? गोयमा! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्त पक्खस्स प्राणमंति वा 4 / 2.2 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और कितने समय में निःश्वास छोड़ते हैं ? [2.2 उ.] गौतम ! जघन्य सात स्तोकरूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष (पखवाड़े) से (कुछ) अधिक काल में श्वास लेते और छोड़ते हैं। (2.3) असुरकुमाराणं भंते ! पाहारट्ठी? हंता, पाहारट्ठी। [2.3 प्र.] हे भगवन् ! क्या असुरकुमार पाहार के अभिलाषी होते हैं ? 12.3 उ.] हाँ, गौतम ! (वे) आहार के अभिलाषी होते हैं / (2.4) असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्त श्राहारट्टे समुपज्जइ ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 24-25 2. वही, पत्रांक 28 'प्राणमंति वा' के बाद 'x' का अंक 'पाणमंति वा ऊससंति बा तीससंति बा'; इन शेष तीन पदों का सूचक है। हट्रस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्रस्स जंतूणो / एगे ऊसास-निसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ / / सत्त पाणणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे। लवाणं सतहत्तरिए, एस मुहुने वियाहिए। अर्थात-रोगरहित, स्वस्थ, हृष्टपुष्ट प्राणी के एक श्वासोच्छ्वास (उच्छवास-नि:श्वास) को एक प्राण कहते हैं। सात प्राणों का एक स्तोक होता है, सात स्तोकों का एक लव और 77 लवों का एक मुहर्त होता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 25 प्रथम शतक : उद्देशक-१] गोयमा ! असुरकुमाराणं दुविहे पाहारे पण्णत्ते / तं जहा-प्राभोगनिवत्तिए य, प्रणामोगनिव्वत्तिए य / तत्थ गंजे से प्रणामोगनिव्वत्तिए से अणसमयं अविरहिए पाहारट्टे समुप्पज्जइ / तत्थ गं जे से आभोगनिव्वत्तिए से जहन्नेणं च उत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स प्राहार? समुष्पज्जइ / [2.4 प्र.] हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल में आहार को इच्छा उत्पन्न होती है ? [2.4 उ.] गौतम ! असुरकुमारों का आहार दो प्रकार का कहा गया है। जैसे किआभोगनित्तित और अनाभोग-नित्तित / इन दोनों में से जो अनाभोग-निर्वतित (बुद्धिपूर्वक न होने वाला) आहार है, वह विरहरहित प्रतिसमय (सतत) होता रहता है / (किन्तु) आभोगनिर्वत्तित आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थभक्त अर्थात्-एक अहोरात्र से और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल में होती है। (2.5) असुरकुमारा णं भंते ! कि प्राहारं माहारेंति ? गोयमा! दवप्रो प्रणंतपएसियाई दवाई, खित्त-काल-भावा पण्णवणागमेणं। सेसं जहा नेरइयाणं जाव ते णं तेसि पोग्गला कोसत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! सोइंदियत्ताए 5' सुरूवत्ताए सुवष्णताए इद्वत्ताए इच्छियत्ताए अभिझियत्ताए, उड्ढताए, णो ग्रहत्ताए, सुहत्ताए, णो दुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [2.5 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? [2.5 उ.] गौतम ! द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं / क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से प्रज्ञापनासूत्र का वही वर्णन जान लेना चाहिए, जो नै रयिकों के प्रकरण में कहा गया है। (प्र.) हे भगवन् ! असुरकुमारों द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? (उ.) हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में, सुन्दर रूप में, सु-वर्णरूप में, इष्ट रूप में, इच्छित रूप में, मनोहर (अभिलषित) रूप में, ऊर्ध्वरूप में परिणत होते हैं, अधःरूप में नहीं; सुखरूप में परिणत होते हैं, किन्तु दुःखरूप में परिणत नहीं होते / (2.6) प्रसुरकुमाराणं पुवाहारिया पुग्गला परिणया? असुरकुमाराभिलावेणं जहा नेरइयाणं जाव' / चलियं कम्म निज्जरंति / [2.6 प्र.] हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों द्वारा बाहृत-पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत हुए ? 1. 'इंदियत्ताए' के प्रागे '5' का अंक शेष चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय का सूचक है। 2. असुरकुमारों के विषय में 'चलियं कम्मं निज्जरंति' पर्यन्त शेष प्रश्न प्रज्ञापनामुत्रानुसार नारकों की तरह समझ लेने चाहिए / इसी बात के द्योतक 'जहा' और 'जाव' शब्द हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [ ध्याख्याज्ञप्तिसूत्र [2-6 उ.] गौतम ! असुरकुमारों के अभिलाप में, अर्थात्-नारकों के स्थान पर 'असुरकुमार' शब्द का प्रयोग करके अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं, यहाँ तक सभी पालापक नारकों के समान ही समझने चाहिए। नागकुमार चर्चा (3.1) नागकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाइ दो पलिप्रोवमाई। [3.1 प्र. हे भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [3.1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन = कुछ कम दो पल्योपम की है। (3.2) नागकुमारा णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा 4 ? गोयमा! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहत्तपुहत्तस्स' प्राणमंति वा 4 // [3.2 प्र.] हे भगवन् ! नागकुमार देव कितने समय में श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? [3.2 उ.] गौतम ! जघन्यतः सात स्तोक में और उत्कृष्टतः मुहूर्त-पृथक्त्व में (दो मुहूर्त से लेकर नौ मुहूर्त के अन्दर किसी भी समय) श्वासोच्छ्वास लेते हैं। (3.3) नागकुमारा णं भंते ! प्राहारट्टी? हंता, गोयमा ! पाहारट्ठो। [3.3 प्र.] भगवन् ! क्या नागकुमारदेव आहारार्थी होते हैं ? [3.3 उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं / (3.4) नागकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्ठ समुष्पज्जइ ? गोयमा ! नागकुमाराणं दुविहे पाहारे पण्णत्ते / तं जहा-माभोगनिवत्तिए य अणाभोगनिवत्तिए य / तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए से अणुसमयं अविरहिए प्राहार? समुष्पज्जेइ, तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए, से जहन्नणं च उत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं दिवस-पुहत्तस्स आहारट्रे समुप्पज्जइ। सेसं जहा. असुरकुमाराणं जाव चलियं कम्मं निज्जरेंति, नो प्रचलियं कम्म निज्जरेति / [3.4 प्र.] भगवन् ! नागकुमार देवों को कितने काल के अनन्तर अाहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [3.4 उ.] गौतम ! नागकुमार देवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है-आभागनिर्वत्तित और अनाभोग-नित्तित / इन में जो अनाभोग-निर्वत्तित आहार है, वह प्रतिसमय विरहरहित (सतत) होता है; किन्तु आभोगनिर्वत्तित आहार को अभिलाषा जघन्यतः चतुर्थभक्त {एक अहोरात्र) के पश्चात् और उत्कृष्टतः दिवस-पृथक्त्व (दो दिवस से लेकर नौ दिवस तक), के बाद उत्पन्न होती 1 'पृथक्त्व' शब्द दो से लेकर नौ तक के अर्थ में सिद्धान्त में प्रसिद्ध है / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 27 है / शेष "चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किन्तु प्रचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते"; यहाँ तक सारा वर्णन असुरकुमार देवों की तरह समझ लेना चाहिए। (4-11) एवं सुवष्णकुमाराण वि जाव' थपियकुमाराणं ति / / [4 से 11 तक इसी तरह सुपर्णकुमार देवों से लेकर स्तनितकुमार (ोष सभी भवनपति) देवों तक के भी (स्थिति से लेकर चलित कर्म-निर्जरा तक के) सभी ग्रालापक (पूर्ववत्) कह देने चाहिए। विवेचन भवनपतिदेवों की स्थिति आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-छठे सूत्र के दूसरे अवान्तर विभाग (दण्डक) से (असुरकुमार से) लेकर ग्यारहवें अवान्तर विभाग (दण्डक) तक (स्तनितकुमार पर्यन्त) की स्थिति आदि के सम्बन्ध में नारकों की तरह, क्रमश: प्रश्नोत्तर अंकित हैं। नागकुमारों को स्थिति के विषय में स्पष्टीकरण-मूल पाठ में उक्त नागकुमारों की देशोन दो पल्योपम को उत्कृष्ट स्थिति उत्तर दिशा के नागकुमारों की अपेक्षा से समझनी चाहिए। दक्षिणदिशावर्ती नागकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति डेढ़ पल्योपम को है। पृथिवीकाय प्रादि स्थावर चर्चा (12.1) पुढविक्काइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बावोसं वाससहस्साई। 12.1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल को कही गई है ? [12.1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, और उत्कृष्टः बाईस हजार बर्ष को है। (12.2) पुढविक्काइया केवइकालस्स प्राणमंति वा 4 ? गोयमा ! वेमायाए प्राणमंति वा 4 / 12.2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जोव कितने काल में श्वास नि:श्वास लेते हैं ? [12.2 उ.] गौतम ! (वे) विमात्रा से विविध या विषम काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं, (अर्थात्-~-इनके श्वासोच्छ्वास का समय स्थिति के अनुसार नियत नहीं है।) (12.3) पुढविक्काइया प्राहारट्ठी? हंता, प्राहारट्ठी। [12.3 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जोव ग्राहार के अभिलाषा होते हैं ? [12.3 उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं। (12.4) पुढविक्काइयाणं केवइकालस्स प्राहार8 समुपज्जइ ? गोयमा ! अणुसमयं प्रविरहिए प्राहारट्टे समुप्पज्जइ / 1. यहाँ 'जाव' शब्द सुपर्णकुमार, विद्य त्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधि कुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार, इन शेष 8 भवनपतिदेवों का सूचक है / 2. कहा है-"दाहिणदिवढपलियं, दो देसूणुसरिल्लागं / " Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 12.4 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में याहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? 12.4 उ.] हे गौतम ! (उन्हें) प्रतिसमय विरहरहित निरन्तर पाहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। (12.5) पुढविक्काइया कि प्राहारं पाहारेंति ? गोयमा ! दव्वनो जहा नेरइयाणं जाव निवाघाएणं छद्दिसि ; वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चाउद्दिसि सिय पंचदिसि / वण्णप्रो काल-नील-लोहित-हालिह-सुक्किलाणि। गंधो सुम्मिगंध 2, रसनो तित्त 5, फासपो कक्खड 8' / सेसं तहेव / नाणतं कतिभागं प्राहारेंति ? कइभागं फासादंति? गोयमा ! असंखिज्जइभागं पाहारेति, अणंतभागं फासादेति जाव ते णं तेसि पोग्गला कीससाए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! फासिदियवेमायत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमंति / सेसं जहा नेरइयाणं जाव चलियं कम्म निज्जरेंति, नो प्रचलियं कम्मं निज्जरेति / [12-5 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या (किसका) साहार करते हैं ? [12-5 उ.। गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि (आहारविषयक) सब बातें नैरथिकों के समान जानना चाहिए। यावत् पृथ्वीकायिक जीव व्याघात न हो तो छही दिशामों से आहार लेते हैं। व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशानों से, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं / वर्ण की अपेक्षा से काला, नीला, पीला, लाल, हारिद्र (हल्दी जैसा) तथा शुक्ल (श्वेत) वर्ण के द्रव्यों का आहार करते हैं। गन्ध की अपेक्षा से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध, दोनों गन्ध वाले, रस की अपेक्षा से तिक्त आदि पांचों रस वाले, स्पर्श की अपेक्षा से कर्कश आदि पाठों स्पर्श वाले द्रव्यों का आहार करते हैं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए। सिर्फ भेद यह है--(प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का स्पर्श-प्रास्वादन करते हैं ? (उ.) गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श प्रास्वादन करते हैं / यावत्-"हे भगवन् ! उनके द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ?" हे गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय के रूप में साता-असातारूप विविध प्रकार से बार-बार परिणत होते हैं। (यावत्) यहाँ से लेकर 'अचलित कर्म को निर्जरा नहीं करते'; यहाँ तक का अवशिष्ट सब वर्णन नैरयिकों के समान समझना चाहिए / (13-16) एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / नवरं ठिती वष्णेयव्वा जा जस्स, उस्सासो वेमायाए। [13-16] इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तक के जीवों के विषय में समझ लेना चाहिए / अन्तर केवल इतना है कि जिसकी जितनी स्थिति हो उसकी उतनी 1. '2' अंक से सुरभि दुरभि दो गन्ध का, '5' अंक से तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल (खट्टा) और मधुर, यों पांच रसों का, और '' अंक से----कर्कश, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष आठ प्रकार के स्पर्श का ग्रहण करना चाहिए। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] [26 स्थिति कह देनी चाहिए तथा इन सबका उच्छ्वास भी विमात्रा से विविध प्रकार से जानना चाहिए; (अर्थात्-स्थिति के अनुसार वह नियत नहीं है।) विवेचन-पंच स्थावर जीवों की स्थिति आदि के विषय में प्रश्नोत्तर-छठे सूत्र के अन्तर्गत 12 वें दण्डक से सोलहवें दण्डक तक के पृथ्वीकायादि पांच स्थावर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन किया गया है। पृथ्वीकायिक जीवों को उत्कृष्ट स्थिति खरपृथ्वी की अपेक्षा से 22 हजार वर्ष की कही गई है। क्योंकि सिद्धान्तानुसार स्निग्ध पृथ्वी की एक हजार वर्ष की, शुद्ध पृथ्वी की बारह हजार वर्ष को, बालुका पृथ्वी की 14 हजार वर्ष की, मनःशिला पृथ्वी की 16 हजार वर्ष की, शर्करा पृथ्वी की 18 हजार वर्ष को और खर पृथ्वी की 22 हजार वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति मानो गई है। विमात्रा-प्राहार, विमात्रा श्वासोच्छवास-पृथ्वीकायिक जीवों का रहन-सहन विचित्र होने से उनके आहार की कोई मात्रा–आहार की एकरूपता नहीं है। इस कारण उनमें श्वास की मात्रा नहीं है कि कब कितना लेते हैं / इनका श्वासोच्छ्वास विषमरूप है-विमात्र है। ___ व्याधात-लोक के अन्त में, जहाँ लोक-अलोक की सीमा मिलती है, वहीं व्याघात होना सम्भव है / क्योंकि अलोक में आहार योग्य पुद्गल नहीं होते। प्राहार स्पर्शेन्द्रिय से कैसे --पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीवों के एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय ही होती है, इसलिये ये स्पर्शेन्द्रिय द्वारा आहार ग्रहण करके उसका आस्वादन करते हैं। शेष स्थावरों को उत्कृष्ट स्थिति-पृथ्वीकाय के अतिरिक्त शेष स्थावरों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अप्काय' की 7 हजार वर्ष की, तेजस्काय की 3 दिन की, वायुकाय की 3 हजार वर्ष की, और वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की है / ' द्वीन्द्रियादि स-चर्चा (17. 1) बेइन्दियाणं ठिई भाणियब्धा / ऊसासो वेमायाए / 17.1] द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कह लेनी चाहिए। उनका श्वासोच्छ्वास विमात्रा से (अनियत) कहना चाहिए। (17.2) बेइन्दियाणं पाहारे पुच्छा / अणाभोगनिव्वत्तियो तहेव / तत्थ णं जे से प्राभोगनि. बत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए बेमायाए प्राहार? समुप्पज्जइ / सेसं तहेव जाव अणंतभागं प्रासायंति। [17.2] (तत्पश्चात्) द्वीन्द्रिय जीवों के आहार के विषय में (यों) पृच्छा करनी चाहिए(प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में प्राहार की अभिलाषा होती है ? (उ.) अनाभोगनिर्वतित आहार पहले के ही समान (निरन्तर) समझना चाहिए / जो प्राभोग-निर्वतित आहार है, उसको अभिलाषा विमात्रा से असंख्यात समय वाले अन्तर्मुहूर्त में होती है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। (17.3) बेइन्दिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेव्हंति ते कि सब्बे प्राहारेंति ? नो सव्वे पाहारैति? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 29 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा! बेइन्दियाणं दुविहे आहारे पणत्ते / तं जहा-लोमाहारे पक्खेवाहारे य / जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गिण्हंति ते सव्वे अपरिसेसिए प्राहारेति / जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हति तेसि णं पोग्गलाणं असंखिज्जभागं प्राहारेंति, अणेगाइच णं भागसहस्साई अणासाइज्जमाणाई अफासाइज्जमाणाई विद्ध समागच्छति / १७.३.प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहाररूप से ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका पाहार कर लेते हैं ? अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? [17.3 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का प्राहार दो प्रकार का कहा गया है, जैसे किरोमाहार (रोमों द्वारा खींचा जाने वाला आहार) और प्रक्षेपाहार (कौर, बूद आदि रूप में मुह आदि में डाल कर किया जाने वाला आहार)। जिन पुद्गलों को वे रोमाहार द्वारा ग्रहण करते हैं, उन सबका सम्पूर्ण रूप से आहार करते हैं; जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहाररूप से ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से असंख्यातवाँ भाग आहार ग्रहण किया जाता है, और (शेष) अनेक-सहस्रभाग विना प्रास्वाद किये और बिना स्पर्श किये ही नष्ट हो जाते हैं। . (17.4) एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं प्रणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाणं य कयरे कयरेहितो अध्या वा 41 ? गोयमा ! सम्वत्थो वा पुग्गला प्रणासाइज्जमाणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा / [17.4 प्र.] हे भगवन् ! इन बिना प्रास्वादन किये हुए और बिना स्पर्श किये हुए पुद्गलों में से कौन-से पुद्गल, किन पुद्गलों से अल्प हैं, बहुत हैं, अथवा तुल्य हैं, या विशेषाधिक हैं ? [17.4 उ.] हे गौतम ! प्रास्वाद में नहीं पाए हुए पुद्गल सबसे थोड़े हैं, (जबकि) स्पर्श में नहीं आए हुए पुद्गल उनसे अनन्तगुरगा हैं। (17.5) बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले प्राहारनाए गिण्हंति ते णं सि पुग्गला कीसताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति? ___ गोयमा ! जिभिंदिय-फासिदिय-वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [17.5 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहाररूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनके किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? 17.5 उ.] गौतम ! वे पुद्गल उनके विविधतापूर्वक जिह्वेन्द्रिय रूप में और स्पर्शेन्द्रियरूप में बार-बार परिणत होते हैं। (17.6) बेइंदियाणं भंते ! पुवाहारिया पुग्गला परिणया तहेव जाव' चलियं कम्म निजजरंति। [17.6 प्र.] हे भगवन् ! द्रोन्द्रिय जीवों को क्या पहले आहार किये हुए पुद्गल परिणत 1. यहाँ 'अप्पा वा' के आगे 4 का अंक 'बहया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा' इन शेष तीन पदों का सचक है। 2. यहाँ 'जाव' पद से छठे सूत्र के 1-4 से 1-10 पर्यन्त सूत्रपाठ देखें / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [31 [17.6 उ. ये 'चलित कर्म की निर्जरा करते हैं यहां तक सारा वक्तव्य पहले की तरह समझ लेना चाहिए। [15-16.1 तेइंदिय-चरिदियाणं णाणत्तं ठितीए जाव णेगाइं च णं भागसहस्साई अणाघाइज्जमाणाई' प्रणासाइज्जमाणाइं अफासाइज्जमाणाई विद्ध समागच्छति / [18 / 16.1] त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को स्थिति में भेद है, (शेष सब वर्णन पूर्ववत् है,) यावत् अनेक-सहस्रभाग बिना सूचे, विना चखे तथा बिना स्पर्श किये हो नष्ट हो जाते हैं। {18-19.2] एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं प्रणाघाइज्जमाणाणं 3, पुच्छा। गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा प्रणासाइज्जमाणा प्रणतगुणा, प्रणासाइज्जमाणा अणंतगुणा। / 18 / 16.2 प्र. भगवन् ! इन नहीं सूधे हुए, नहीं चखे हुए और नहीं स्पर्श किये हुए पुदगलों में से कौन किससे थोड़ा, बहत, तुल्य या विशेषाधिक है ? ऐसी पृच्छा करनी चाहिए। [18 // 16-2 उ.] गौतम ! नहीं सूबे हुए पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे अनन्तगुने नहीं चखे हुए पुद्गल हैं, और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल नहीं स्पर्श किये हुए हैं / [18.3] तेइंदियाणं घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। / [18.3] त्रीन्द्रिय जीवों द्वारा किया हुअा आहार प्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है। [16.3] चरिदियाणं चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति। [19.3] चतुरिन्द्रिय जीवों द्वारा किया हुआ आहार चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्दिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के रूप में बार-बार परिणत होता है। विवेचन-विकलेन्द्रिय जीवों की स्थिति मादि का वर्णन-छठे सूत्र के अन्तर्गत 17-18-193 दण्डक के रूप में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति आदि का वर्णन किया गया है। विकलेन्द्रिय जीवों की स्थिति-जधन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट द्वीन्द्रिय को बारह वर्ष की, त्रीन्द्रिय को 49 अहोरात्र को, एवं चतुरिन्द्रिय को छह मास की है / असंख्यातसमयवाला अन्तर्मुहूर्त एक अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होने से वह असंख्येय भेदवाला होता है, इसलिए द्रोन्द्रिय जीवों को प्राभोग याहार की अभिलाषा असंख्यात समय वाले अन्तमुहूर्त के पश्चात् बताई गई है / रोमाहार---वर्षा आदि में स्वतः (प्रोषतः) रोमों द्वारा जो पुद्गल प्रविष्ट हो जाते हैं, उनके ग्रहण को रोमाहार कहते हैं। 1. यहाँ '3' अंक से 'प्रणासाइज्जमाणाणं प्रफासाइज्जमाणाणं' ये दो पद सूचित किये गए हैं। 2. भगवती सूत्र प्रवृत्ति पत्रांक 30 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20, पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं ठिति भाणिऊण ऊसासो वेमायाए। प्राहारो प्रणाभोगनियत्तिप्रो अणुसमयं अविरहियो / पामोगनिम्नतिम्रो जहन्नेणं अंतोमुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स। सेसं जहा चरिदियाणं आव' चलियं कम्मं निज्जरेंति / / [20] पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों को स्थिति कह कर उनका उच्छवास विमात्रा से (विविध प्रकार से-अनियत काल में) कहना चाहिए, उनका अनाभोगनिर्वतित आहार प्रतिसमय विरहरहित (निरन्तर) होता है / आभोगनिर्वतित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त अर्थात् दो दिन व्यतीत होने पर होता है। इसके सम्बन्ध में शेष वक्तव्य 'अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते, यहाँ तक चतुरिन्द्रिय जीवों के समान समझना चाहिए / मनुष्य एवं देवादि विषय [21] एवं मणस्साण वि / नवरं प्राभोगनिव्वत्तिए जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स। सोइंदिय 52 वेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / सेसं तहेव जाव निज्जरेंति / [21] मनुष्यों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही जानना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि उनका ग्राभोग निर्वतित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त में, उत्कृष्ट अष्टमभक्त अर्थात् तीन दिन बीतने पर होता है। पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा गृहीत आहार श्रोवेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, और स्पर्शनेन्द्रिय, इन पांचों इंन्द्रियों के रूप में विमात्रा से बार-बार परिणत होता है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए; यावत् वे 'प्रचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते।' [22] वाणमंतराणं ठिईए नाणत्तं / अवसेसं जहा: नागकुमाराणं / (22] वाणव्यन्तर देवों की स्थिति में भिन्नता (नानात्व) है। (उसके सिवाय) शेष समस्त वर्णन नागकुमारदेवों की तरह समझना चाहिए। [23] एवं जोइसियाण वि / नवरं उस्सासो जहन्नेणं मुहत्तपुहत्तस्स, उककोसेरण वि मुहत्तपुहत्तस्स / प्राहारो जहन्नेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स / सेसं तहेव / [23] इसी तरह ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनका उच्छ्वास जघन्य मुहर्तपृथक्त्व और उत्कृष्ट भो मुहूर्तपृथक्त्व के बाद होता है। उनका आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व के पश्चात् होता है। शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। [24] वेमाणियाणं ठिती माणियन्वा जोहिया। ऊसासो जहन्नेणं मुहत्तपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं / प्राहारो प्राभोगनिबत्तियो जहन्नेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्माणं / सेसं तहेब जाव लिज्जति / |24] वैमानिक देवों को औधिक स्थिति कहनी चाहिए। उनका उच्छ्वास जघन्य मुहर्तपृथक्त्व से, और उत्कृष्ट तैतीस पक्ष के पश्चात् होता है। उनका प्राभोगनिर्वतित आहार जघन्य "जाव' शब्द से छठे सूत्र के 1-2 से 1-10 तक का सुत्रपाठ देखें। 2. यहाँ '5' का अंक पानों इन्द्रियों का सूचक है। यहाँ 'जहा' शब्द सू-६, के 3-2 से लेकर 3-10 तक के पाठ का सूचक है। 4. यहाँ 'जाव' शब्द के लिए सूत्र-६, के 1-4 से 1-10 तक का मूत्रपाठ देखें। م و سه >> Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 33 दिवसपृथक्त्व से और उत्कृष्ट तैतीस हजार वर्ष के पश्चात् होता है। वे 'चलित कर्म को निर्जरा करते हैं. अचलित कर्म को निर्जरा नहीं करते, इत्यादि (यहाँ तक) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् ही समझना चाहिए। विवेचन—पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिक एवं वैमानिक देवों को स्थिति प्रादि का वर्णन-छठे सूत्र के अन्तर्गत चौवीस दण्डकों में से अन्तिम 20 से 24 वें दण्डक के जीवों की स्थिति मादि का निरूपण किया गया है। पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति—प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं तीनों निकायों के देवों का समावेश हो जाता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य की स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। वाणव्यन्तर देवों की स्थिति जघन्य 10 हजार वर्ष की, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। ज्योतिष्क देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम के 5वें भाग को, और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्यापम की है / वैमानिक देवों की औधिक (समस्त वैमानिक देवों की अपेक्षा से सामान्य) स्थिति कही है / औधिक का परिमाण एक पल्योपम से लेकर तैतीस सागरोपम तक है / इसमें जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोक को अपेक्षा से और उत्कृष्ट स्थिति अनुत्तरविमानवासी देवों को अपेक्षा से कही गई है। ___तिर्यचों और मनुष्यों के प्राहार को अवधि : किस अपेक्षा से ? प्रस्तुत में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का आहार षष्ठभक्त (दो दिन) बीत जाने पर बतलाया गया है. वह देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के योगलिक तिर्यञ्चों को तथा ऐसी ही स्थिति (प्रायु) वाले भरत-ऐरवन क्षेत्रीय तियंचयौगलिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों का आहार अष्टमभक्त बीत जाने पर कहा गया है, वह भी देवकुरु-उत्तरकुरु के यौगलिक मनुष्यों को तथा भरत-ऐरवनक्षेत्र में जब उत्सर्पिणोकाल का छठा पारा समाप्ति पर होता है, और अवसर्पिणी काल का प्रथम प्रारा प्रारम्भ होता है, उस समय के मनुष्यों को अपेक्षा से समझना चाहिए। वैमानिक देवों के श्वासोच्छवास एवं प्राहार के परिमाण का सिद्धान्त--यह है कि जिस वैमानिक देव को जितने सागरोपम की स्थिति हो, उसका श्वासोच्छ वास उतने ही पक्ष में होता है, और याहार उतने ही हजार वर्ष में होता है।' इस दृष्टि से यहाँ श्वासोच्छ्वास और आहार का जघन्य परिमाण जघन्य स्थिति वाले वैमानिक देवों की अपेक्षा और उत्कृष्ट परिमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए / ___मुहूर्तपृथक्त्व : जघन्य और उत्कृष्ट--जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व में दो या तीन मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व में पाठ या नौ मुहूर्त समझना चाहिए।' जीवों को प्रारंभ विषयक चर्चा 7. [1/ जीवा णं भंते ! कि अायारंभा? परारंभा? तभयारंभा ? अणारंभा? 1. ''जस्स जाई सामराई तस्स ठिई तत्तिएहि पक्खेहि। उस्सासो देवाणं वाससहस्सेहि आहारो // " 2. भगवतीमत्र अ. वृत्ति पत्रांक 30-31 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [ व्याख्याज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! प्रत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि,' नो अणारंभा। प्रत्थेगइया जीवा नो पायारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, प्रणारंभा। [7-1 प्र.] हे भगवन् ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं, अथवा अनारम्भी हैं ? [7.1 उ.] हे गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं, परारम्भी भी नहीं हैं, और न ही उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति-प्रत्थेगइया जोवा प्रायारंभा वि ? एवं पडिउच्चारेतन्वं / गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-संसारसमावन्नगा य प्रसंसारसमावन्नगा य / तत्य णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा शं नो प्रायारंभा जाव प्रणारंभा / तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुबिहा पण्णत्ता / तं जहा—संजता य, असंजता य / तत्थ गंजे ते संजता ते दुविहा पण्णता / तं जहा-पमत्तसंजता य, अप्पमत्तसंजता या तत्थ पंजे ते अप्पमत्तसंजता तेणं नो मायारंभा, नो परारंभा, जाव प्रणारंमा। तस्य गंजे ते पमतसंजया ते सुभं जोगं पडुच्च नो आयारंभा जाव प्रणारंभा, असुमं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। तत्थ शं जे ते असंजता ते अविति पडुच्च प्रायारंभा वि जाव नो अणारंभा / से तेण?णं गोयमा ! एवं बच्चइ-अत्थेगइया जीवा जाव' प्रणारंभा। 7-2 प्र.) भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न का फिर से उच्चारण करना चाहिए। 7.2 उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक / उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान् न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं और न हो उभयारम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी हैं / जो संसार मापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं.–संयत और असंयत / उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं ; जसे कि-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, वे न तो आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं / जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा न आत्मारम्भी हैं, न परारम्भी हैं, और न उभयारम्भी हैं; किन्तु अनारम्भी हैं / अशुभयोग की अपेक्षा वे आत्मारम्भी भी हैं, परारंभी भी है और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं ! जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा प्रात्मारम्भी हैं, परारम्भी है, उभयारम्भी हैं किन्तु अतारम्भी नहीं हैं। इस कारण (हेतु से) हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कितने ही जीव आत्मारम्भी भी हैं, यावत् अनारम्भी भी हैं। 1. 'वि' (अपि) शब्द पूर्वपद और उत्तरपद के सम्बन्ध को तथा कालभेद से एकाश्रयता या भिन्नाश्रयता सूचित करने के लिए है / जैसे—एक ही जीव किसी समय आत्मा रम्भी, किसी समय परारम्भी और किसी समय तदुभयारम्भी होता है। इसलिए अनारम्भी नहीं होता। भिन्नाश्रयता भिन्न-भिन्न जीवों को अपेक्षा से समझना चाहिए। जैसे कई (असंयती जीव) आत्मारम्भी, कई परारम्भी और कई उभयारम्भी भी होते हैं, इत्यादि / 2. 'जाव' पद के लिए देखिये सू. 7.1 का सूत्रपाठ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 35 चौबीस दंडक में आरंभ प्ररूपणा 8. [1] नेरइया गं भंते ! कि प्रायारंभा? परारंभा? तदुभयारंभा ? अणारंभा ? गोयमा ! नेरइया मायारंभा वि जाब नो अणारंभा। से केपट्टणं? गोयमा ! अविरति पडुच्च से तेणढणं जाव नो अणारंभा। [8-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, उभयारम्भी हैं, या ग्रतारम्भी हैं? 8-1 उ. | गौतम ! नैरयिक जीव आत्मारम्भी भी हैं, परारम्भी भी हैं, और उभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनार भी नहीं हैं / [प्र.) भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? (उ.] हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा से, अविरति होने के कारण (ऐसा कहा जाता है कि) नै रयिक जीव आत्मारम्भी, परारम्भी और उभया रम्भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। [2.20] एवं जाव असुरकुमारा वि, जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया। [8.2 से 20] इसी प्रकार असुरकुमार देवों के विषय में भी जान लेना चाहिए, यावत् तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय तक का भी (आलापक) इसी प्रकार कहना चाहिए। 21] मणुस्सा जहा जीवा / नवरं सिद्धविरहिता भाणियब्वा / |22-24] वाणमंतरा जाव वेमाणिया जधा नेरतिया / 18-21 से 24] मनुष्यों में भी सामान्य जीवों को तरह जान लेना विशेष यह है कि सिद्धों का कथन छोड़कर / वाणव्यन्तर देवों से वैमानिक देवों तक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। सलेश्य जीवों में प्रारंभ प्ररूपणा 6. [1] सलेसा जहा प्रोहिया (सु. 7) / |2| किण्हलेस-नीललेस-काउलेसा जहा ओहिया जीवा, नवरं पमत्त प्रप्पमत्ता न भाणियवा। तेउलेता पम्हलेसा सुस्कलेसा जहा प्रोहिया जीवा (सु. 7), नवरं सिद्धा न भाणियवा / 18-1-2 लेश्यावाले जीवों के विषय में सामान्य (ौधिक) जीवों की तरह कहना चाहिए। कृष्णालेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों की भांति ही सब कथन समझना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि (सामान्य जीवों के आलापक में उक्त) प्रमत्त और अप्रमत्त यहाँ नहीं कहना चाहिए। तेजोलेश्या वालं, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीवों के विषय में भी औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि सामान्य जीवों में से मिद्धों के विषय का कथन यहाँ नहीं करना चाहिए। विवेचन -विविध पहलुत्रों से आरम्भी-अनारम्भी विचार प्रस्तुत तीन पूत्रों (7-8-9) में सामान्य जीवों, चविशतिदण्डकीय जीवों और सलेश्य जीवों की अपेक्षा से आत्मारम्भ, परारम्भ. तदुभयारम्भ अोर अनारम्भ का विचार किया गया है / प्रारम्भ यह जैन पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-ऐसा सावध कार्य करना, या किसी आश्रय में प्रवृत्ति करना, जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचे या उसके प्राणों का घात हो / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रात्मारम्भी-जो स्वयं प्राथवद्वार में प्रवृत्त होता है या प्रात्मा द्वारा स्वयं आरम्भ करता है। परारम्भी-दूसरे को आश्रव में प्रवृत्त करने वाला या दूसरे से प्रारम्भ कराने वाला। तदुभयारम्भी (उभयारंभी)- जो आत्मारम्भ और परारम्भ दोनों करता है / / अनारम्भी-~-जो आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ से रहित हो; या उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना आदि प्रवृत्ति करने वाला संयत / शुभयोग---उपयोगपूर्वक-सावधानतापूर्वक योगों की प्रवृत्ति। लेश्या-कृष्ण आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से आत्मा में उत्पन्न होने वाले परिणाम / ' संयत-प्रसंयत—जो जीव सब प्रकार की बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से तथा विषय-कषाय से निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत और जो इनसे अनिवृत्त हैं तथा आरम्भ में प्रवृत्त हैं, वे असंयत कहलाते हैं / भव की अपेक्षा से ज्ञानादिक की प्ररूपणा 10. [1] इहभविए भंते ! नाणे ? परभविए नाणे ? तदुभयभविए नाणे ? गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे। [10-1 प्र.] हे भगवन् ! क्या ज्ञान इहभविक है ? परभविक है ? या तदुभयभविक है ? [10-1 उ.] गौतम ! ज्ञान इविक भी है, परभविक भी है, और तदुभयभविक भी है। [2] दंसणं पि एवमेव। [10-2] इसी तरह दर्शन भी जान लेना चाहिए। [3] इहभविए भते ! चरित्ते ? परभविए चरित्ते ? तदुभयभविए चरित्त / गोयमा ! इहभविए चरित्त, नो परभविए चरित, नो तदुभयभविए चरित। [10-3 प्र. हे भगवन् ! क्या चारित्र इहभाविक है, परभबिक है या तदुभयभबिक है ? |10-3 उ. गौतम ! चारित्र इहविक है, वह परभविक नहीं है और न तदुभयभविक है। [4] एवं तवे, संजमे। [10-4] इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए / विवेचन--भव की अपेक्षा ज्ञानादिसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम के इहभव, परभव और उभयभव में अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं / ज्ञान और दर्शन दोनों यहाँ वहाँ सर्वत्र रहते हैं, किन्तु चारित्र, तप और संयम इस जीवन तक ही रहते हैं। ये परलोक में साथ नहीं रहते, क्योंकि चारित्र, तप, संयम आदि को जो जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञा ली जाती है, वह इस जीवन के समाप्त होने पर पूर्ण हो जाती है, मोक्ष में चारित्र का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। देवगति प्राप्त होने पर वहाँ संयम आदि सम्भव नहीं हैं। 1. कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यातपरिणामो यात्मनः / स्फटिकस्येव तत्राऽयं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते / / 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 31 से 33 तक भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 33 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१] [ 37 उभयभविक का समावेश परभविक में ही हो जाता है, तथापि उसे पृथक् कहने का आशय यह है कि ज्ञान और दर्शन परतरभविक अर्थात् अगले भव से भी अगले भव में साथ जा सकते हैं / असंवुड-संवुड विषयक सिद्धता की चर्चा 11 [1] असंधुडे णं भंते ! अणगारे किं सिज्झति ? बुज्झति ? मुच्चति ? परिनिवाति ? सबदुक्खाणमंतं करेति ? गोयमा ! नो इण? सम?।। से केण?णं जाव नो अंतं करेइ ? गोयमा ! असंडे अणमारे पाउयवज्जानो सत्त कम्मपगडीयो सिढिलबंधणबद्धारो घणियबंधणबद्धानो पकरेलि, हस्तकालद्वितीयानो दोहकालद्वितीयानो पकरेति, मंदाणुभागानो तिव्वाणुभागानो पकरेति, अपपदेसम्गायो बहुप्पदेसग्गाग्रो पकरेति, प्राउगं च णं कम्म सिय बंधति, सिय नो बंधति, प्रस्सातावेदणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उचिणाति, अणादोयं च णं प्रणवदागं दोहमद्ध चाउरतं संसारकतारं असुपरियट्टइ / से तेग?णं गोयमा ! असंवुडे अणगारे नो सिज्झति 5' / / |11-1 प्र.| भगवन् असंवृत अनगार क्या सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है तथा समस्त दुःखों का अन्त करता है ? [11-1 उ. हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य या ठोक) नहीं है / (प्र.) भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध नहीं होता, यावत् सब दुःखों का अन्त नहीं करता ? (उ.) गौतम ! असंवृत अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेप शिथिलबन्धन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़बन्धन से बद्ध करता है; अल्पकालीन स्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वालो करता है; मन्द अनुभाग बाली प्रकृतियों को तीन अनुभाग वालो करता है अल्पप्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है और प्रायुकर्म को कदाचित् बांधता है, एवं कदाचित नहीं बांधता; असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है; तथा अनादि अनवदग्र-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिवाले संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन-परिभ्रमण करता है: हे गौतम ! इस कारण से असंवत अनगार सिद्ध नहीं होता, यावत समस्त दुःखों का अन्त नहीं करता। [2] संयुड़े णं भंते ! अणगारे सिझति 5? हंता, सिझति जाव२ अंतं करेति / से केण?णं? गोयमा ! संवडे अणगारे ग्राउयवज्जायो सत्त कम्मपगडोश्रो घणियबंधणबद्धानो सिढिलबंधणबद्धाप्रो पकरेति, दोहकालद्वितीयानो ह्रस्सकालद्वितीयानो पकरेति, तिवाणुभागानो मंदाणुभागानो पकरेति, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गामो पकरेति, प्राउयं च णं कम्मं न बंधति, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उचिणाति, अणाईयं च णं प्रणवदग्गं दोहमद चाउरतं संसारकतारं वीतीवति / से तेणढणं गोयमा ! एवं कुच्चइ-संवडे अणगारे सिज्झति जाव अंतं करेति / 1. जहाँ 5 का अंक है---वह 'नो सिझति' नो बुज्झति आदि पांचों पदों की योजना करनी चाहिए। 2. 'जाव' पद से भुज्यन्ते से 'सय्यदुक्खाणमंतं करेति' तक का पाठ समझ लेना चाहिए। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11-2 प्र.] भगवन् ! क्या संवृत अनगार सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [11-2 उ.] हाँ, गौतम ! वह सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों अन्त का करता है। (प्र.) भगवन् ! वह किस कारण से सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है ? (उ.) गौतम ! संवृत अनगार आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष गाढ़बन्धन से बद्ध सात कर्मप्रकृतियों को शिथिलबन्धनबद्ध कर देता है; दीर्घकालिक स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को ह्रस्व (थोड़े) काल की स्थिति वाली कर देता है, तीवरस (अनभाव) वाली प्रकृतियों को मन्द रस वाली कर देता है; बहुत प्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्पप्रदेश वाली कर देता है, और आयुष्य कर्म को नहीं बांधता। वह असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता, (अतएव वह) अनादि-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिकरूप संसार-अरण्य का उल्लंघन कर जाता है। इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि संवृत अनगार सिद्ध हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर देता है। विवेचन–प्रसंवत और संवृत अनगार के सिद्ध होने प्रादि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत सत्र में क्रमश: असंवत और संवत अनगार के सिद्ध. बद्ध, मक्त. परिनित और सर्वदः अनगार के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत और सर्वदुःखान्तकर होने तथा न होने के सम्बन्ध में युक्तिसहित विचार प्रस्तुत किया गया है / प्रसंवृत-जिस साधु ने अनगार होकर भी हिंसादि आश्रवद्वारों को रोका नहीं है / संवत-पाश्रवद्वारों का निरोध करके संवर की साधना करने वाला मुनि संवृत अनगार है / ये छठे गुणस्थान (प्रमत्तसंयत) से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती तक होते हैं। संवृत अनगार दो प्रकार के होते हैं-चरमशरीरी और अचरमशरीरी। जिन्हें दूसरा शरीर धारण नहीं करना पड़ेगा, वे एकभवावतारी चरमशरीरी और जिन्हें दूसरा शरीर (सात-पाठ भव तक) धारण करना पड़ेगा, वे अचरमशरीरी होते हैं। प्रस्तुत सूत्र चरमशरीरी की अपेक्षा से है। परम्परारूप से अचरमशरीरी की अपेक्षा से भी है। दोनों में अन्तर-यद्यपि परम्परा से तो शुक्लपाक्षिक भी मोक्ष प्राप्त करेंगे ही, फिर भी संवृत और असंवृत अनगार का जो भेद किया गया है, उसका रहस्य यह है कि अचरमशरीरी संवत अनगार उसी भव में मोक्ष भले न जाएं मगर वे 7-8 भवों में अवश्य मोक्ष जाएँगे ही। इस प्रकार उनको परम्परा की सीमा 7-8 भवों को ही है / अपार्धपुद्गलपरावर्तन की जो परम्परा अन्यत्र कही गई है, वह विराधक की अपेक्षा से समझना चाहिए / अविराधक अचरमशरीरी संवृत अनगार अवश्य सात-आठ भवों में मोक्ष पाता है, भले ही उसकी चारित्राराधना जघन्य ही क्यों न हो। सिझई' प्रादि पांच पदों का अर्थ और क्रम-चरम भव----अन्तिम जन्म प्राप्त करके जो मोक्षगमनयोग्य होता है, वही सिद्ध (सिद्धि प्राप्त होता है; चरमशरीरी मानव को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते हैं, वुद्ध नहीं / बुद्ध तभी कहेंगे जब केवलज्ञान प्राप्त होगा। जो बुद्ध हो जाता है, उसके केवल भवोपयाही अघातिकर्म शेष रहते हैं, भवोपग्राही कर्म को जब वह प्रतिक्षण छोड़ता है, तब मुक्त कहलाता है। भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण क्षीण करने वाला वह महापुरुष Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 36 प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] कर्मयुद्गलों को ज्यों-ज्यों क्षीण करता जाता है, त्यों-त्यों शीतल होता जाता है, इस प्रकार की शीतलता-शांति प्राप्त करना ही निर्वाणप्राप्त करना है। वही जीव अपने भव के अन्तसमय में जब समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुकता है, तब अपने समस्त दुःखों का अन्त करता है। __असंक्त अनगार : चारों प्रकार के बन्धों का परिवर्धक---कर्मवन्ध के चार प्रकार हैंप्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशवन्ध / इनमें से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं, तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं / असंवृत अनगार के योग अशुभ होते हैं, और कषाय तीव्र / इस कारण वह चारों हो बन्धों में वृद्धि करता है। ___ प्रणाइयं के संस्कृत में चार रूपान्तर वृत्तिकार ने करके उसके पृथक्-पृथक् अर्थ सूचित किये हैं-(१) अनादिकं (जिसकी प्रादि न हो), (2) अज्ञातिकं (जिसका कोई स्व-जन न हो), (3) ऋणातीतं (ऋण से होने वाले दुःख को भी मात करने वाले दुःख को देने वाला) और (4) प्रणातीतं (अतिशय पाप को प्राप्त)। प्रणवदग्गं के संस्कृत में तीन रूपान्तर करके वृत्तिकार ने उसके अनेक अर्थ सूचित किये हैं-(१) अनवदनम--(अवदन अन्त से रहित = अनन्त), (2) अनवनताग्रम्-जिसका अग्र = अन्त, अवनत यानी प्रासन्न (निकट) न हो; और (3) अनवगताग्रम् जिसका अग्र परिमाण , अनवमत हो-पता न चले। दोहमद्ध-अद्ध के दो रूप---अध्व और प्रद ; अर्थ हुए जिसका अध्व (मार्ग) या अद्धा = काल दोर्ष-लम्बा हो। असंयत जोव को देवगति विषयक चर्चा 12. [1] जोवे णं भंते ! असंजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे इतो चुए पेच्चा देवे सिया? गोयमा ! प्रत्थेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया। से केण?णं जाव इतो चुए पेच्या प्रथेगइए देवे सिया, अत्थेगइए नो देवे सिया ? मोयमा ! जे इमे जीवा गामाऽऽगर-नगर-निगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसम-सन्निवेसेसु अकामतण्हाए प्रकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकाम प्रहाणगसेय-अल्ल-मल-पंकपरिदाहेणं अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति, अप्पाणं परिकिलेसइत्ता कालमासे काले किच्चा अन्नतरेसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / 12-13. भगवन् ! असंयत, अविरत, तथा जिसने पापकर्म का हनन एवं त्याग नहीं किया है, वह जीव इस लोक से च्यव (मर) कर क्या परलोक में देव होता है ? [12-1 उ.] गौतम ! कोई जीव देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता / प्र.] भगवन् ! यहाँ से च्यब कर परलोक में कोई जीव देव होता है, और कोई जीव देव नहीं होता; इसका क्या कारण है ? - ----- --- 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 34-35 - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] गौतम ! जो ये जीव ग्राम, आकर (खान), नगर, निगम (व्यापारिक केन्द्र), राजधानो, खेट (खेड़ा), कर्बट (खराब नगर), मडम्ब (चारों ओर ढाई-ढाई कोस तक बस्ती से रहित बस्ती), द्रोणमुख (बन्दरगाह जलपथ-स्थलपथ से युक्त बस्ती), पट्टण (पत्तन–मण्डी, जहाँ देश-देशान्तर से आया हुप्रा माल उतरता है), पाश्रम (तापस ग्रादि का स्थान), सनिवेश (घोष आदि लोगों का आवासस्थान) आदि स्थानों में अकाम तृषा (प्यासा) से, अकाम क्षुधा से, अकाम ब्रह्मचर्य से, अकाम शोत, आतप, तथा डांस-मच्छरों के काटने के दुःख को सहने से अकाम अस्तान, पसीना, जल्ल (धूल लिपट जाना), मैल तथा पंक से होने वाले परिदाह से, थोड़े समय तक या बहुत सम यतक अपने आत्मा (आप) को क्लेशित करते हैं; वे अपने प्रात्मा (आप) को (पूर्वोक्त प्रकार से) क्लेशित करके मृत्यु के समय पर मर कर वाणव्यन्तर देवों के किसी देवलोक में देबरूप से उत्पन्न होते हैं / वाणव्यन्तर देवलोक--स्वरूप |2| केरिसा णं भंते ! तेसि वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णता? गोयमा! से जहानामए इहं असोगवणे इ वा, सत्तवण्णवणे इ वा, चंपगवणे इ वा, चतवणे इवा, तिलगवणे इ वा, लउयवणे ति वा, णिग्गोहवणे इ वा, छतोववणे इ वा, असणवणे इ वा, सणवणे इ वा, अयसिवणे इ वा, कुसुभवणे इ वा, सिद्धत्थवणे इ वा, बंधुजीवगवणे इ वा गिच्चं कुसुमित माइत लवइत थवइय गुलुइत पुच्छित जमलित जुबलित विमित पणमित सुविभत्त पिडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अईव अईव उदसोभेमाणे उबसोभेमाणे चिट्ठति, एवामेव तसि वाणमंतराणं देवाणं देव लोगा जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीपहिं उक्कोसेणं पलिग्रोवमट्टितीहि बहूहि वाणमंतरेहि देवेहि य देवोहि य प्राइण्णा वितिकिण्णा उवत्थडा संथडा फुडा अवगाढगाढा सिरीए प्रतीव प्रतीव उबसोभेमाणा चिट्ठति / एरिसगा गं गोतमा ! तेसि वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता / से तेणगुणं गोतमा ! .एवं बुच्चति-जीवे णं अस्संजए जाव देवे सिया। [12-2 प्र.] भगवन् उन वाणव्यन्तर देवों के देवलोक किस प्रकार के कहे गए हैं ? [12-2 उ.] गौतम ! जैसे इस मनुष्यलोक में नित्य कुसुमित (सदा फूला हुग्रा), मयूरित (मौर-पुष्पविशेष वाला), लवकित (कोंपलों वाला), फूलों के गुच्छों वाला, लतासमूह वाला, पत्तों के गुच्छों वाला, यमल (समान श्रेणी के) वृक्षों वाला, युगलवृक्षों वाला, फल-फूल के भार से नमा हुया, फल-फूल के भार से झुकने को प्रारम्भिक अवस्था वाला, विभिन्न प्रकार को बालों और मंजरियों रूपी मुकुटों को धारण करने वाला अशोकवन, सप्तवर्ण वन, चम्पकवन, आम्रवन, तिलकवृक्षों का वन, तुम्बे की लताओं का वन, वटवृक्षों का वन, छत्रोधवन, अशनवृक्षों का वन, सन (पटसन) वृक्षों का वन, अलसी के पौधों का वन, कुसुम्बवृक्षों का वन, सफेद सरसों का वन, दुपहिया (बन्धुजीवक) वृक्षों का वन, इत्यादि वन शोभा से अतीव-अतीव उपशोभित होता है। इसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों के देवलोक जघन्य दस हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट एक पल्योम की स्थिति वाले एवं वहुत-से बाणव्यन्तरदेवों से और उनकी देवियों से पाकीर्ण-व्याप्त, व्याकोर्ण-विशेष व्याप्त, एक दूसरे पर आच्छादित, परस्पर मिले हुए, स्फुट प्रकाश वाले, अत्यन्त अवगाढ़ श्री-शोभा से प्रतीव-प्रतीव सुशोभित रहते हैं / हे गौतम ! उन वाणव्यन्तर देवों के स्थान--देवलोक इसी प्रकार Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१ ] [ 41 के कहे गए हैं। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि असंयत जीव मर कर यावत् कोई देव होता है और कोई देव नहीं होता / विवेचन असंयत जीवों को गति एवं वाणव्यन्तर देवलोक-प्रस्तुत सूत्र में असंयत जीवों को प्राप्त होने वालो देवगति तथा देवलोकों में भी वाणव्यन्तर देवों में जन्म और उसका कारण एवं वाणव्यन्तरदेवों के प्रावासस्थानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। काठन शब्दों की व्याख्या असंयत-असाधूया संयमराहत अविरत प्राणातिपात आदि पापों से विरतिरूप अतरहित अथवा तप आदि के विषय में जा विशेष रत नहीं है। अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा---(१) जिसने भूतकालीन पापों को निन्दा गहां आदि के द्वारा नष्ट (निराकृत) नहीं किया है. तथा जिसने भविष्यकालीन पापों का प्रत्याख्यान -न्याग नहीं किया है। (2) अथवा जिसने मरणकाल से पूर्व तप आदि के द्वारा पापकर्म का नाश न किया हो, मरणकाल मा जाने पर भी आश्रवनिरोध करके पापकर्म का प्रत्याख्यान न किया हा, (3) अथवा जिसने सम्यग्दर्शन अंगीकार करके पूर्वपापकर्म नष्ट नहीं किये, और सर्वविरति आदि अंगोकार करके ज्ञानावरणीयादि अशुभकर्मों का निरोध न किया हो। अकाम–शब्द यहाँ इच्छा के अभाव का द्योतक है / कर्म निर्जरा की अभिलाषा के विना जो कप्टमहन आदि किया जाय, उससे होने वाली निर्जरा अकामनिर्जरा है / अर्थात् बिना स्वेच्छा या बिना उद्देश्य के भुख, प्यास आदि कष्ट सहना—अकामनिर्जरा है / मोक्षप्राप्ति की कामना-स्वेच्छा या उद्देश्य से ज्ञानपूर्वक जो निर्जरा की जाती है, वह सकामनिर्जरा कहलाती है। दोनों के देवलोक में अन्तर-कई ज्ञानी सकाम निर्जरावाले भी देवलोक में जाते हैं और मिथ्यात्वी अकामनिर्जरा वाले भी, फिर भी दोनों के देवलोकगमन में अन्तर यह है कि अकामनिर्जरा वाले वाणव्यन्तरादि देव होते हैं, जबकि सकामनिर्जरा बाले साधक वैमानिक देवों की उत्तम से उत्तम स्थिति प्राप्त करके मोक्ष को भी पाराधना कर सकते हैं / ____ वाणव्यन्तर शब्द का अर्थ-वनविशेष में उत्पन्न होने अर्थात् बसने और वहीं कोडा करने वाले देव। मेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोतमे समर्ण भगवं महावीरं वदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवमा अप्वाणं भावेमाणे विहरति / // पढमे सते पढमो उह सो॥ हे भगवन् ! 'यह इसी प्रकार है', 'यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर भगवान् गौतम श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करते हैं. नमस्कार करते हैं; वन्दना-नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-गौतम स्वामी द्वारा प्रशित वन्दन-बहुमान -प्रथम उद्देशक के उपसंहार में श्री गौतमस्वामी के द्वारा प्रश्न पूछने से पहले की तरह उत्तर-श्रवण के पश्चात श्रमण भगवान के प्रति कृतज्ञताप्रकाश के रूप में विनय एवं बहुमान प्रदर्शित किया गया है, जो समस्त साधकों के . लिए अनुकरणीय है। / / प्रथम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1 भगवतीमत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 36-37 महावीर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बितिओ उद्देसोः दुक्खे द्वितीय उद्देशक : दुःख उपक्रम१. रा समोसरणं / परिसा निग्गता जाव एवं पदासी-.. १–राजगृह नगर में (भगवान् का) समवसरण हुया / परिषद् (उनके दर्शन-वन्दन-श्रवणार्थ) निकली। यावत् (श्री गौतमस्वामी विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर पर्युपासना करते हुए) इस प्रकार बोलेजीव के स्वकृत-दुःखवेदन सम्बन्धी चर्चा 2. जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेति ? गोयमा ! प्रत्येग इयं वेदेति, अत्थेगइयं नो वेदेति। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ–अत्थेगइयं वेदेति, अस्थगइयं नो वेदेति ? गोयमा ! उदिण्णं वेदेति, अणुदिण्णं नो वेदेति, से तेण?णं एवं बच्चति–अत्थेगइयं वेदेति, प्रत्थेगइयं नो वेदति / एवं चउव्वीस दंडएणं जाव' वेमाणिए / [2-1 प्र. भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत दुःख (कर्म) को भोगता है ? [2-1 उ] गौतम ! किसी को भोगता है, किसी को नहीं भोगता / [2-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि किसी को भोगता है और किसी को नहीं भोगता ? [2-2 उ] गौतम ! उदीर्ण (उदय में पाए) दुःख-दुःखहेतुक कर्म को भोगता है, अनुदीर्ण दुःख-कर्म को नहीं भोगता; इसीलिए कहा गया है कि किसी कर्म को भोगता है और किसी कर्म को नहीं भोगता / 3. जीवा णं भंते सयंकडं दुषखं वेदेति ? गोयमा ! प्रत्येगइयं वेदेति, प्रत्थगइयं णो वेदेति / सेकेणणं? गोयमा ! उदिण्णं वेदेति, नो अणुदिष्णं वेदेति, से तेणढणं एवं जाव वेमाणिया / [3-1 प्र.] भगवन् ! क्या (बहुत-से) जीव स्वयंकृत दु:ख (दुःखहेतुक कर्म) भोगते हैं ? [3-1 उ.] गौतम ! किसी कर्म (दुःख) को भोगते हैं, किसी को नहीं भोगते / [3-2 प्र. भगवन् ! इसका क्या कारण है ? 1. 'जाव' पद से यहाँ नै रयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डक जानना चाहिए। 2. यहाँ 'जाव' पद से दुसरे सूत्र में उक्त 'तेणणं' से लेकर 'वेमाणिया' तक का पाठ समझना / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२ ] [3-2 उ.] गौतम ! उदीर्ण (दुःख-कर्म) को भोगते हैं, अनुदीर्ण को नहीं भोगते इस कारण ऐसा कहा गया है कि किसी कर्म को भोगते हैं, किसी को नहीं भोगते / इसी प्रकार यावत् नैरपिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस (सभी) दण्ड को के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए / आयु-वेदन सम्बन्धो चर्चा 4. जोवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेदेति ? गोयमा ! अगइयं वेदेति जहा दुषखेणं दो दंडगा तहा पाउएण वि दो दंडगा एगत्तपोहत्तिया; एगत्तेणं जाव वेमागिया, पुहत्तेण वि तहेव / [4. प्र. भगवन् ! क्या जीव स्वयंकृत प्रायु को भोगता है ? [4. उ.] हे गौतम ! किसी को भोगता है, किसी को नहीं भोगता / जैसे दुःख-कर्म के विषय में दो दण्डक कहे गए हैं, उसी प्रकार आयुष्य (कर्म) के सम्बन्ध में भी एकवचन और बहुवचन वाले दो दण्डक कहने चाहिए। एकवचन से यावत् वैमानिकों तक कहना, इसी प्रकार बहुवचन से भी (वैमानिकों तक) कहना चाहिए। विवेचन—स्वकृत दुःख एवं प्रायु के वेदनसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-द्वितीय उद्देशक के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ सूत्रों में स्वयंकृत दुःख (कर्म) एवं प्रायुष्य कर्म के वेदन के सम्बन्ध में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर अंकित हैं। स्वकर्तृक कर्म-फल भोग सिद्धान्त-श्री गौतमस्वामी ने जो ये प्रश्न उठाए हैं, इनके पीछे पांच प्रान्त मान्यताओं का निराकरण भित है। उस यग में ऐसी मिथ्या मान्यताएँ प्रचलित थी कि (1) कर्म दूसरा करता है, फल दूसरा भोग सकता है; (2) ईश्वर या किसी शक्ति को कृपा हो तो स्वकृत दुःख जनक अशुभ कर्म का फल भोगना नहीं पड़ता, (3) परमाधार्मिक नरकपाल आदि 'पर' के निमित्त से नारक आदि जीवों को दुःख मिलता है, (4) अथवा वस्त्रभोजनादि पर-वस्तुओं या अन्य व्यक्तियों से मनुष्य को दुःख या सुख मिलता है, और (5) दूसरे प्राणी से आयु ली जा सकती है और दूसरे को दी जा सकती है। अगर दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म (मुख्यतः असातावेदनीय और मायु) का फल यदि दूसरा भोगने लगे तो किये हुए कर्म बिना फल दिये हुए नष्ट हो जाएँगे और जो कर्म नहीं किये हए है, वे गले पड़ जाएंगे। इससे लोकोत्तर व्यवहार जैसे गड़बड़ में पड़ जाएंगे, वैसे लौकिक व्यवहार भी गड़बड़ में पड़ जाएँगे / जैसे—यज्ञदत्त के भोजन करने. नित औषधसेवन करने आदि कर्म से यज्ञदत्त की क्षुधा, निद्रा और व्याधि का क्रमशः निवारण हो जाएगा, परन्तु ऐसा होना असम्भव है / परवस्तु या परव्यक्ति तो सुख या दुःख में मात्र निमित्त बन सकता है, किन्तु वह कर्मकर्ता के बदले में सुख या दुःख नहीं भोग सकता और न ही सुख या दुःख दे सकता है, प्राणी स्वयं ही स्वकृतकर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख भोगता है। आयुष्यकर्म का फल भी एक के बदले दूसरा नहीं भोग सकता। इसलिए स्वकतृक कर्मफल का स्वयं वेदनरूप सिद्धान्त अकाट्य है / ' हाँ, जिस साता-असातावेदनीय आदि या आयुष्यकर्म का फल कदाचित् वर्तमान में नहीं 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 38 / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दिखाई देता, उसका कारण यह है कि वर्तमान में वे कर्म उदय में नहीं आए हुए (अनुदय-अवस्था में) हैं, जब वे उदयावस्था में आते हैं, तभी फल देते हैं। परन्तु स्वकृतकर्म का फल तो चौवीस ही दण्डक के जीवों को अनुभाग से अथवा प्रदेशोदय से भोगना पड़ता है। चौबीस दंडक में समानत्व चर्चा [नैरयिक विषय] 5. [1] नेरइया णं भंते ! सव्वे समाहारा, सव्वे समसरीरा, सव्वे समुस्सास-नीसासा ? गोयमा ! नो इण? सम? / से केण?णं भंते ! एवं बच्चति-नेरइया नो सब्वे समाहारा, नो सम्वे समसरोरा, नो सव्ये समुस्सास-निस्सासा? गोयना! नेरइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा—महासरोरा य अप्पसरोरा य / तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले अाहारेंति, बहुतराए पोग्गले परिणामेंति, बहुतराए पोग्गले उस्ससंति, बहुतराए पोग्गले नीससंति, अभिक्खणं आहारैति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति, अभिक्खणं निस्ससति / तत्थ णं जे ते अप्पसरोरा ते णं प्रपतराए पुग्गले प्राहारेति, अध्यतराए पुग्गले परिणाति, अस्पतराए पोग्गले उस्ससंति, अप्पतराए पोग्गले नोससंति, प्राहच्च प्राहारेति, ग्राहच्च परिणामेति, पाहच्च उस्ससंति, प्राहच्च नीससंति। से तण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ–नेरइया नो सब्बे समाहारा जाव नो सवे समुस्सास-निस्सासा / / [५-१.प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं ? [5. 1. उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य-सम्भव) नहीं है / [प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी नारक जीव समान आहार वाले, समान शरीर वाले, तथा समान उच्छ्वास-नि:श्वास वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं; जैसे कि-महाशरीरी (महाकाय) और अल्पशरीरी (छोटे शरीर वाले)। इनमें जो बड़े शरीर वाले हैं, वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत (प्राहृत) पुद्गलों का परिणमन करते हैं, बहुत पुद्गलों को उच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं और बहत घूदगलों को निःश्वासरूप से छोड़ते हैं तथा वे बार-बार आहार लेते हैं, बार-बार उसे पा रणमाते हैं तथा बारबार उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। तथा जो छोटे शरीर वाले नारक है, बे थोड़े पुदगलों का आहार करते है, थोड़े-से (माहृत) पुद्गलों का परिणमन करते हैं, और थोड़े पुद्गलों को उच्छ्वास रूप से ग्रहण करते हैं, तथा थोड़े-से पुद्गलों को निःश्वास-रूप से छोड़ते हैं। वे कदाचित आहार करते हैं, कदाचित् उसे परिणमाते हैं और कदाचित् उच्छ्वास तथा निःश्वास लेते हैं। इसलिए हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक जीव समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-नि:श्वास वाले नहीं हैं। [2] नेरइया णं भंते ! सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इण8 सम8। से केपट्टणं ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [45 गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णता / तं जहा-धुव्वोववनगा य पच्छोववनगा य / तत्थ गंजे ते पुव्वोववनगा ते णं अष्पकम्मतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं महाकम्मतरागा। से तेणढणं गोयमा ! 0 // 2 // [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान कर्म वाले हैं ? [5-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? [उ.] गौतम! नारकी जीव दो प्रकार के कहे गए है; वह इस प्रकार है-पूर्वोपपन्नक (पहले उत्पन्न हुए) और पश्चादुपपन्नक (पीछे उत्पन्न हए)। इनमें से जो पूर्वोपपन्न क हैं वे अल्पकर्म वाले हैं और जो उनमें पश्चादुपपन्नक है, वे महाकर्म वाले हैं, इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समान कर्म वाले नहीं हैं। [3] नेरइया णं भंते ! सब्वे समवण्णा ? गोयमा ! नो इण? सम? / से केपट्टणं तह चेव ? गोयमा ! जे ते पुन्टोववन्नगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा तहेव से तेण?णं // 3 // [5-3 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समवर्ण वाले हैं ? [5-3 उ.] गौतम ! यह अर्थ (वात) समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.| गौतम! पूर्वोक्त कथनवन् नारक दो प्रकार के है-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक / इनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे विशुद्ध वर्ण वाले हैं, तथा जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे अविशुद्ध वर्ण वाले हैं, इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है। [4] नेरइया णं भंते ! सव्वे समलेसा ? गोयमा ! नो इण सम? / से केणटुणं जाव नो सव्वे समलेसा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णता / तं जहा--पुब्बोक्वनगा य पच्छोववनगा य / तत्थ णं जे ते पुबोववनगा ते णं विसुद्धलेसतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववनगा ते णं अविसुद्धलेसतरागा। से तेण?णं // 4 // [5-4 प्र. भगवन् ! क्या सब नैरयिक समानलेश्या वाले हैं ? [5-4 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से कहा जाता है कि सभी नैयिक समान लेश्या वाले नहीं हैं ? उ.] गौतम ! नै रयिक दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि–पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपत्रक / इनमें जो पूर्वोपपन्नक है, वे विशुद्ध लेश्या वाले और जो इनमें पश्चादुपपन्नक है, वे अविशुद्ध लेश्या वाले हैं, इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समानलेश्या वाले नहीं हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {5] नेरइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा? गोयमा ! नो इग? सम? / से केण?णं ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–सण्णिभूया य असण्णिभूया य / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेयणा, तत्थ णं जे ते प्रसण्णिभूया ते गं अप्पवेयणतरागा / से तेणवणं गोयमा ! 0 // 5 // [5-5 प्र. भगवन् ! क्या सब नारक समान वेदना वाले हैं ? [5-5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! नैरपिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-संज्ञिभूत और असंज्ञिभूत। इनमें जो संज्ञिभूत हैं, वे महावेदना वाले हैं और जो इनमें असंज्ञिभूत हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्पवेदना वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारक समान वेदना वाले नहीं है। [6] नेरइया णं भंते ! सम्वे समकिरिया ? गोयमा ! मो इण8 सम? / से केण?णं? गोयमा ! नेरइया तिविहा पण्णत्ता। तं जहा–सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छट्ठिी। तत्थ णं जे ते सम्माविट्ठो तसि णं चत्तारि किरियानो पण्णत्तानो, तं जहा-प्रारंभिया 1, पारिग्गह्यिा 2, मायावत्तिया 3, अपच्चक्खाण किरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी तेसि णं पंच किरियानो कन्जंति, तं जहा—प्रारंभिया नाव मिच्छादसणवत्तिया। एवं सम्माभिच्छादिट्ठीणं पि। से तेण?णं गोयमा ! 0 // 6 // 15-6 प्र.] हे भगवन् ! क्या सभी नै रयिक समान क्रिया वाले हैं ? [5-6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! नारक तीन प्रकार के कहे गए हैं यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) / इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ कही गई हैं, जैसे किप्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानक्रिया / इनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, उनके पांच क्रियाएँ कही गई हैं, वे इस प्रकार-प्रारम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक / इसी प्रकार सम्यमिथ्यादृष्टि के भी पांचों क्रियाएँ समझनी चाहिए। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सब नारक समानक्रिया वाले नहीं हैं। [7] नेरइया णं भंते ! सम्वे समाउया? सव्वे समोववन्नगा ? गोयमा ! णो इण8 सम8 / से केण?णं? गोयमा ! नेरइया च विवहा पण्णता तं जहा—प्रत्येगइया समाउया समोववन्नगा 1, अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा 2, प्रत्येगइया विसमाउया समोववन्नगा 3, प्रत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा 4 / से तेण?णं गोयमा ! 0 // 7 // Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२ ] [5-7 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आयुष्य वाले हैं और समोपपन्नक-एक साथ उत्पन्न होने वाले हैं? [5-7 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं ? उ.] गौतम ! नारक जीव चार प्रकार के कहे गए हैं। वह इस प्रकार-(१) समायुष्क समोपपन्नक (समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न हुए), (2) समायुष्क विषमोपपन्नक (समान आयु वाले और पहले-पीछे उत्पन्न हुए), (3) विषमायुष्क समोपपन्नक (विषम आयु वाले, किन्तु एक साथ उत्पन्न हुए), और (4) विषमायुष्क-विषमोपपन्नक (विषम आयु वाले और पहले-पीछे उत्पन्न हुए)। इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समान आयु वाले और एक साथ उत्पन्न होने वाले नहीं हैं। असुरकुमारादि समानत्व चर्चा 6. [1] असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा? सव्वे समसरीरा? जहा नेरइया तहा भाणियव्वा / नवरं कम्म-वण्ण-लेसानो परिस्थललेयवाप्रो-पुबोक्वन्तगा महाकम्मतरागा, अविसुद्धवष्णतरागा, अविसुद्धलेसतरागा / पच्छोववन्नगा पसस्था / सेसं तहेव / 6-1 प्र.] भगवन् ! क्या सब असुरकुमार समान आहार वाले और समान शरीर वाले है ? (इत्यादि सब प्रश्न पूर्ववत् करने चाहिए।) के सम्बन्ध में सब वर्णन नैरयिकों के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि-असुरकुमारों के कर्म, वर्ण और लेश्या नैरयिकों से विपरीत कहना चाहिए; अर्थात्-पूर्वोपपन्नक (पूर्वोत्पन्न) असुरकुमार महाकर्म वाले, अविशुद्ध वर्ण वाले और अशुद्ध लेश्या वाले हैं, जबकि पश्चादुपपन्नक (बाद में उत्पन्न होने वाले) प्रशस्त हैं। शेष सब पहले के समान जानना चाहिए। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [6-2] इसी प्रकार (नागकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों (तक) समझना चाहिए। पृथ्वीकायादि समानत्व चर्चा 7. [1] पुढविक्काइयाणं आहार-कम्म-वष्ण-लेसा जहा नेरइयाणं। [7-1] पृथ्वीकायिक जीवों का आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या नैरयिकों के समान समझना चाहिए / [2] पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा ? हंता, समवेयणा / से केण ? गोयमा ! पुढविक्काइया सवे असण्णी प्रसण्णिभूतं अगिदाए वेयणं वेति / से तेणढणं / [7.2 प्र.] भगवन् ! क्या सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं ? [7-2 उ.] हाँ गौतम ! वे समान वेदना वाले हैं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र.) भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी पृथ्वीकायिक जीव समान वेदना वाले हैं ? [उ.] हे गौतम ! समस्त पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और असंज्ञीभूत जो व वेदना को अनिर्धारित रूप से (अनिदा से) वेदते हैं। इस कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले है। [3] पुढविषकाइया णं भंते ! समकिरिया ? हंता, समकिरिया / से केणढोणं? गोयमा ! पुढविक्काइया सवे माईमिच्छादिदो, ताणं नेय तियानो पंच किरियाप्रो कज्जंति, तं जहा-~-प्रारंभिया 1 जाव मिच्छादसणवत्तिया 5 / से तेणटुणं समकिरिया। [7-3 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकाधिक जीव समान क्रिया वाले हैं ? 7-3 उ. हाँ, गौतम ! वे सभी समान क्रिया बाले हैं। [प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं ? | उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक जीव मायो और मिथ्याष्टि हैं। इसलिए उन्हें नियम से पांचों क्रियाएँ लगती हैं। वे पांच क्रियाएँ ये हैं प्रारम्भिको यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्यया। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वोकायिक जीव समानक्रिया वाले हैं। [4] समाउया, समोववन्नगा जहा नेरइया तहा भाणियन्वा / 7-4] जैसे नारक जीवों में समायुष्क और समोपपत्रक आदि चार भंग कहे गए हैं, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों में भी कहने चाहिए। 8. जहा पुढविक्काइया तहा जाव चरिदिया / [8-1] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। 6. [1] पाँचदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया / नाणत्तं किरियासु 9-11 पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के माहारादि के सम्बन्ध में कथन भी नैरयिकों के समान समझना चाहिए; केवल क्रियाओं में भिन्नता है। [2] पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सत्वे समकिरिया ? गोयमा ! जो इण? सम? / से केण?णं ? गोयमा! पाँचदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णता। तं जहा~-सम्मट्ठिी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्टी! तत्थ णं जे ते सम्मदिवो ते दुविहा पण्णता, तं जहा--अस्संजता य, संजताऽसंजता य। तत्थ गंजे ते संजताऽसंजता तेसि णं तिनि किरियाओ कज्जति, तं जहा-प्रारम्भिया 1 पारिग्गहिया 2 मायावतिया 3 / असं जताणं चत्तारि / मिच्छादिट्ठीणं पंच / सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच / [9-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव समानक्रिया वाले हैं ? [9-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] {प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? उ.| गौतम ! पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्या दृष्टि और सम्यगमिथ्या दृष्टि (मिश्र दृष्टि)। उनमें जो सम्यग्दृष्टि है, वे दो प्रकार के हैं, जैसे कि---असंयत और संयतासयत / उनमें जो संयतासयत हैं, उन्हें तोन क्रियाएँ लगती हैं। वे इस प्रकारप्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। उनमें जो असंयत हैं, उन्हें अप्रत्याख्यानो क्रियासहित चार क्रियाएँ लगती हैं। जो मिथ्यादृष्टि हैं तथा सम्यग्मियादृष्टि हैं, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं। मनुष्य-देव विषयक समानत्वचर्चा-- 10. [1] मणुस्सा जहा नेरइया (सु. 5) / नाणतं-जे महासरीरा ते ग्राहच्च प्राहारेति / जे अस्पतरोरा ते अभिक्खणं पाहारेति 4 / सेसं जहा ने रइयाणं जाव वेयणा / [10-1] मनुष्यों का आहारादिसम्बन्धित निरूपण नैरयिकों के समान समझना चाहिए। उनमें अन्तर इतना ही है कि जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुतर पुदगलों का आहार करते हैं, और वे कभी-कभी आहार करते हैं, इसके विपरीत जो अल्पशरोर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का पाहार करते हैं, और बार-बार करते हैं। शेष वेदनापर्यन्त सब वर्णन नारकों के समान समझना चाहिए। [2] मणस्सा णं भते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा! जो इण? सम8। से केणणं ? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा--सम्मट्ठिो मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी। तत्य णं जे ते सम्पट्टिी ते तिविहा पणत्ता, तं जहा-संजता अस्संजता संजतासंजता य। तत्य गं जे ते संजता ते विहा पण्णता, त जहा-सरागसंजता य बोतरागसंजता य / तत्थ णं जे ते वीतरागसंजता ते णं अकिरिया / तत्य गंजे ते सरागसंजता ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पमत्तसंजता य अपमत्तसंजताय / तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजता तेसि णं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जति / तत्थ गंजे ते पमतसंजता तेसि णं दो किरियानो कन्जंति, तं०-प्रारम्भिया य 1 मायावत्तिया य 2 / तत्थ णं जे ते संजतासंजता तेसि णं प्राइल्लामो तिन्नि किरियाओ कज्जति / अस्संजताणं चत्तारि किरियानो कज्जति-प्रार० 4 / मिच्छादिट्रीणं पंच। सम्मामिच्छादिटोणं पंच 5 / [10-2 अ.] "भगवन् ! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ?" [10-2 उ.] "गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.| भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? | उ.] गौतम ! मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं; वे इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, मिथ्यावृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि / उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-संयत, संयतासंयत और असंयत / उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सरागसंयत और वीतरागसंयत / उनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रियारहित हैं, तथा जो इनमें सरागसंयत हैं, वे भी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है। उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं, उन्हें दो क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार---प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया। तथा उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें आदि की तीन क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी ओर मायाप्रत्यया। असंयतों को चार क्रियाएँ लगती हैं.-प्रारम्भिकी, पारियहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानो क्रिया। मिथ्यादष्टियों को पाँचों क्रियाएँ लगती हैं--प्रारम्भिकी, पारिग्रहिको, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया / सम्यमिथ्यादृष्टियों (मिश्रदृष्टियों) को भी ये पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 11. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 6) / नवरं वेयणाए नाणतंमायिमिच्छादिट्ठोउववनगा य अप्पवेदणतरा, अमायिसम्म हिट्ठोउववनगा य महावेयणतरागा भाणियन्दा जोतिस-वेमाणिया। [11] वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के माहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। विशेषता यह कि इनकी वेदना में भिन्नता है / ज्योतिष्क और वैमानिकों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे अल्पवेदना वाले हैं, और जो अमायी सम्यग्दृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे महावेदनावाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए / चौबीस दंडक में लेश्या की अपेक्षा समाहारादि विचार 12. सलेसा णं भंते ! नेरइया सव्वे समाहारगा? श्रोहियाणं, सलेसाणं, सुक्कलेसाणं, एएसिणं तिण्हं एक्को गमो। कण्हलेस-नीललेसाणं पि एक्को गमो, नवरं वेदणाए—मायिमिच्छादिट्ठीउववनगा य, प्रमायिसम्मविट्ठोउववष्णगा य भाणियन्वा / मणुस्सा फिरियासु सराग-वीयराग-पमत्तापमता ण भाणियव्वा / काउलेसाण वि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा प्रोहिए दंडए तहा भाणियव्वा / तेउलेसा पम्हलेसा जस्स अस्थि जहा ओहियो दंडनो तहा भाणियबा, नवरं मणुस्सा सरागा वोयरागा य न भागियव्वा / गाहा--- दुक्खाऽऽउए उदिपणे, आहारे, कम्म-वण्ण-लेसा य / समवेदण समकिरिया समाउए चेव बोद्धव्वा // 1 // [12 प्र.] भगवन् ! क्या लेश्या वाले समस्त नैरयिक समान आहार वाले होते है ? [12 उ.] हे गौतम ! औधिक (सामान्य), सलेश्य, एवं शुक्ललेश्या वाले इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए / कृष्णलेश्या और नीललेश्या वालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, किन्तु उनकी वेदना में इस प्रकार भेद है-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहने चाहिए। तथा कृष्ण लेश्या और नीललेश्या (के सन्दर्भ) में मनुष्यों के सरागसंयत, वीतरागसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (भेद) नहीं कहना चाहिए। तथा कापोतलेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए। भेद यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों को औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए। तेजोलेश्या ओर पद्मलेश्या वालों को भी औधिक दण्डक के समान कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इन मनुष्यों में सराग और वीतराग का भेद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वाले मनुष्य सराग ही होते हैं / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] गाथार्थ-दुःख (कर्म) और आयुष्य उदीर्ण हो तो वेदते हैं। आहार, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य, इन सबकी समानता के सम्बन्ध में पहले कहे अनुसार ही समझना चाहिए। 13. कति णं भंते ! लेसाओ पण्णत्तायो ? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णतायो / तं जहा-लेसाणं बोरो उद्देसनो माणियब्वो जाव इड्डी। 13 प्र.] 'भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? [13 उ.) गौतम ! लेश्याएँ छह कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद (17 बाँ पद) का द्वितीय उद्देशक कहना चाहिए। वह ऋद्धि को वक्तव्यता तक कहना चाहिए। विवेचन-नारक आदि चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में समाहारादि दशद्वार-सम्बन्धी प्रश्नोत्तरपांचवें सूत्र से ११वें मूव तक नारकी से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में निम्नोक्त दम द्वार-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर अंकित किये गए हैं--(१) सम-आहार (2) सम-शरीर, (3) समउच्छ्वास-निःश्वास, (4) समकर्म, (5) समवर्ण, (6) समलेश्या, (7) समवेदना, (8) समकिया, (9) समायुष्क, तथा (10) समोपपन्नक / छोटा-बड़ा शरीर प्रापेक्षिक प्रस्तुत में नैरमिकों का छोटा और बड़ा शरीर अपेक्षा से है। छोटे को अपेक्षा कोई वस्तु बड़ी कहलाती है, और बड़ी को अपेक्षा छोटी कहलाती है। नारकों का छोटे से छोटा शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना है और बड़े से बड़ा 500 धनुष के बराबर है / ये दोनों प्रकार के शरीर भवधारणीय शरीर को अपेक्षा से कहे गए हैं। उत्तरवैक्रिय शरीर छोटे से छोटा अंगुल के संख्यातवें भाग तक और बड़ा से बड़ा शरीर एक हजार धनुष का हो सकता है। प्रथम प्रश्न प्राहार का, किन्तु उत्तर शरीर का इसलिए कहा गया है कि शरीर का परिमाण बताए बिना आहार, श्वासोच्छ्वास आदि को बात सरलतापूर्वक समझ में नहीं आ सकती। अल्प शरीर वाले से महाशरीर वाले का प्राहार अधिक : यह कथन प्रायिक प्रस्तुत कथन अधिकांश (बहुत) को दृष्टि में रखकर कहा गया है / यद्यपि लोक में यह देखा जाता है कि बड़े शरीर वाला अधिक लाता है, और छोटे शरीर वाला कम, जैसे कि हाथी और खरगोश; तथापि कहीं-कहीं यह बात अवश्य देखी जाती है कि बड़े शरीर वाला कम और छोटा शरीर वाला अधिक आहार करता है। योगलिकों का शरीर अन्य मनुष्यों की अपेक्षा बड़ा होता है, लेकिन उनका आहार कम होता है। दूसरे मनुष्यों का शरीर यौगलिकों की अपेक्षा छोटा होता है, किन्तु उनका आहार अधिक होता है / ऐसा होने पर भी प्रायः यह सत्य ही है कि बड़े शरीर वाले का आहार अधिक होता है, कदाचित् नैरयिकों में भी ग्राहार और शरीर का व्यतिक्रम कहीं पाया जाए तो भो बहुतों की अपेक्षा यह कथन होने से निर्दोष है। बड़े शरीर वाले को वेदना और श्वासोच्छवास-मात्रा अधिक-लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि बड़े को जितनी ताड़ना होतो है, उतनी छोटे को नहीं। हाथी के पैर के नीचे और जीव तो प्राय : दब कर मर जाते हैं, परन्तु चोंटी प्रायः बच जाती है। इसी प्रकार महाशरीर वाले नारकों Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को क्षधा की वेदना तथा ताड़ना और क्षेत्र आदि से उत्पन्न पीड़ा भी अधिक होती है, इस कारण उन्हें श्वासोच्छ्वास भी अधिक लेना होता है / नारक : अल्पकर्मी एवं महाकर्मी-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके, उन्होंने नरक का आयुष्य तथा अन्य कर्म बहुत-से भोग लिये हैं, अतएव उनके बहुत-से कर्मों की निर्जरा हो चुकी है, इस कारण बे अल्पकर्मी हैं। जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें प्रायु और सात कर्म बहुत भोगने बाकी हैं, इसलिए वे महाकर्मी (बहुत कर्म वाले) हैं। यह सूत्र समान स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए / यही बात वर्ण और लेश्या (भावलेश्या) के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। संज्ञिभूत-असंज्ञिभूत-वृत्तिकार ने संज्ञिभूत के चार अर्थ बताए हैं-(१) संज्ञा का अर्थ हैसम्यग्दर्शन; सम्यग्दर्शनी जीव को संज्ञी कहते हैं। जिस जीव को संज्ञीपन प्राप्त हुआ, उसे संशिभूत (सम्यग्दृष्टि) कहते हैं। (2) अथवा संज्ञिभूत का अर्थ है-जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था, और अब संज्ञी (सम्यग्दष्टि हो गया है, अर्थात-जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोडकर सम्यग्दष्टि हुआ है, वह संज्ञी संज्ञिभूत कहलाता है / असंज्ञीभूत का अर्थ मिथ्यादृष्टि है / (3) एक आचार्य के मतानुसार संज्ञिभूत का अर्थ संज्ञी पंचेन्द्रिय है। अर्थात्-जो जीव नरक में जाने से पूर्व संज्ञी पंचेन्द्रिय था, उसे संज्ञिभूत कहा जाता है / नरक में जाने से पूर्व जो असंज्ञी था, उसे यहाँ असंज्ञिभूत कहते हैं / अथवा संजिभूत का अर्थ पर्याप्त और असंज्ञिभूत का अर्थ अपर्याप्त है / उक्त सभी अर्थों की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि संज्ञिभूत को नरक में तीव्र वेदना होती है और असंज्ञिभूत को अल्प / संज्ञिभूत (सम्यग्दृष्टि) को नरक में जाने पर पूर्वकृत अशुभ कर्मों का विचार करने से घोर पश्चात्ताप होता है—'अहो ! मैं कैसे घोर संकट में प्रा फंसा ! अर्हन्त भगवान् के सर्वसंकट-निवारक एवं परमानन्ददायक धर्म का मैंने आचरण नहीं किया, अत्यन्त दारुण परिणामरूप कामभोगों के जाल में फंसा रहा, इसी कारण यह अचिन्तित आपदा आ पड़ी है। इस प्रकार की मानसिक वेदना के कारण वह महावेदना का अनुभव करता है। असंज्ञिभूत-मिथ्यादृष्टि को स्वकृत कर्मफल के भोग का कोई ज्ञान या विचार तथा पश्चात्ताप नहीं होता, और न ही उसे मानसिक पीडा होती है। इस कारण असंज्ञितभूत नैरयिक अल्पवेदना का अनुभव करता है। इसी प्रकार संज्ञिभूत यानी संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में तीन अशुभ परिणाम हो सकते हैं. फलतः वह सातवीं नरक तक जा सकता है। जो जीव आगे की नरकों में जाता है, उसे अधिक वेदना होती है / असंज्ञिभूत (नरक में जाने से पूर्व असंज्ञी) जीव रत्नप्रभा के तीव्रवेदनारहित स्थानों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अल्पवेदना होती है / इसी प्रकार संज्ञीभूत अर्थात्-पर्याप्त को महावेदना और असंज्ञीभूत अर्थात् अपर्याप्त को अल्पवेदना होती है। क्रिया-यहाँ कर्मबन्धन के कारण अर्थ में यह शब्द प्रयुक्त है। यद्यपि मिथ्यात्व, अविरति,प्रमाद, कषाय और योग ये पांचों कर्मबन्धन के कारण हैं, तथापि प्रारम्भ और परिग्रह योग के अन्तर्गत होने से प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी क्रिया भी कर्मबन्धन का कारण बनती है। आय और उत्पत्ति की दृष्टि से नारकों के 4 भंग-(१) समायुष्क समोपपन्नक—उदाहरणार्थ-जिन जीवों ने 10 हजार वर्ष की नरकायु बाँधी और वे एक साथ नरक में उत्पन्न हुए; (2) समायुष्क-विषमोपपन्नक-जिन जीवों ने 10 हजार वर्ष की नरकायु बाँधी, किन्तु उनमें से कोई Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [53 जीव नरक में पहले उत्पन्न हुआ, कोई बाद में। (3) विषमायुष्क समोपपन्नक-जिनको आयु समान नहीं है, किन्तु नरक में एक साथ उत्पन्न हुए हों, (4) विषमायुष्क विषमोपपन्नक-एक जीव ने 10 हजार वर्ष की नरकायु आँधी और दूसरे ने 1 सागरोपम को; किन्तु वे दोनों नरक में भिन्न-भिन्न समय में उत्पन्न हुए हों। असुरकुमारों का प्राहार मानसिक होता है। आहार ग्रहण करने का मन होते हो इष्ट, कान्त आदि पाहार के पुद्गल आहार के रूप में परिणत हो जाते हैं / असुरकुमारों का आहार और श्वासोच्छ्वास–पूर्वसूत्र में असुरकुमारों का आहार एक अहोरात्र के अन्तर से और श्वासोच्छ्वास सात स्तोक में लेने का बताया गया था. किन्तु इस सूत्र में बार-बार प्राहार और श्वासोच्छ्वास लेने का कथन है, यह पूर्वापरविरोध नहीं, अपितु सापेक्ष कथन है। जैसे एक असुरकुमार एक दिन के अन्तर से आहार करता है, और दूसरा असुरकुमार देव सातिरेक (साधिक) एक हजार वर्ष में एक बार आहार करता है / अतः सातिरेक एक हजार वर्ष में एक बार प्रहार करने वाले की अपेक्षा एक दिन के अन्तर से पाहार करने वाला बार-बार पाहार करता है, ऐसा कहा जाता है। यही बात श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिए / सातिरेक एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेने वाले असुरकुमार को अपेक्षा साथ स्तोक में श्वासोच्छ्वास लेने वाला असुरकुमार बार-बार श्वासोच्छ्वास लेता है, ऐसा कहा जाता है। असुरकुमार के कर्म, वर्ण और लेश्या का कथन : नारकों से विपरोत---इस विपरीतता का कारण यह है कि पूर्वोपपन्नक असुरकुमारों का चित्त अतिकन्दर्प और दर्प से युक्त होने से वे नारकों को बहुत त्रास देते हैं / त्रास सहन करने से नारकों के तो कर्मनिर्जरा होती है, किन्तु असुरकुमारों के नये कर्मों का बन्ध होता है / वे अपनी क्रूरभावना एवं विकारादि के कारण अपनी अशुद्धता बढ़ाते हैं / उनका पुण्य क्षीण होता जाता है, पापकर्म बढ़ता जाता है, इसलिए वे महाकर्मी होते हैं। उनका वर्ण और लेश्या अशुद्ध हो जाती है / अथवा बद्धायुष्क की अपेक्षा पूर्वोत्पन्न असुरकुमार यदि तिर्यञ्चगति का अायुष्य बाँध चुके हों तो वे महाकर्म, अशुद्ध वर्ण और अशुद्ध लेश्या वाले होते हैं। पश्चादुत्पन्न बद्घायुष्क न हो तो वे इसके विपरीत होते हैं।' पृथ्वीकायिक जीवों का महाशरीर और अल्पशरीर-पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर यद्यपि अंगुल के असंख्यातवें भाग कहा गया है, तथापि अंगुल के असंख्यातवें भाग वाले शरीर में भी तरतमता से असंख्य भेद होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार किसी का शरीर संख्यात भाग हीन है, किसी का असंख्यात भाग हीन है, किसी का शरीर संख्यात भाग अधिक है और किसी का असंख्यात भाग अधिक है। इस चतुःस्थानपतित हानि-वृद्धि की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव अपेक्षाकृत अल्पशरीरी भी होते हैं और महाशरीरी भी। पृथ्वीकायिक जीवों को समानवेदना : क्यों और कैसे?-पृथ्वीकायिक जीव असंज्ञी हैं और वे असंज्ञी जीवों को होने वाली वेदना को वेदते हैं। उसकी बेदना अनिदा है अर्थात् निर्धारणरहित--- अव्यक्त होती है। असंज्ञी होने से वे मूच्छित या उन्मत्त पुरुष के समान बेसुध होकर कष्ट भोगते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं रहता कि कौन पीड़ा दे रहा है ? कौन मारता-काटता है, और किस कर्म के 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति पत्रांक 41 से 43 तक Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उदय से यह वेदना हो रही है ? यद्यपि सुमेरु पर्वत में जो जीव है, उनका छेदन-भेदन नहीं होता, तथापि पृथ्वीकाय का जब भी छेदन-भेदन किया जाता है तब सामान्यतया वैसी ही वेदना होती है, जैसी अन्यत्र स्थित पृथ्वीकायिक जीवों को होती है।' पृथ्वीकायिक जीवों में पाँचों क्रियाएँ कैसे ?-यद्यपि पृथ्वीकायिक जीव बिना हटाए एक स्थान से दूसरे स्थान पर हट भी नहीं सकते, वे सदा अव्यक्त चेतना की दशा में रहते हैं, फिर भी भगवान् कहते हैं कि वे पांचों क्रियाएँ करते हैं। वे श्वासोच्छ्वास और आहार लेते हैं, इन क्रियानों में प्रारम्भ होता है / वास्तव में प्रारम्भ का कारण केवल श्वासादि क्रिया नहीं, अपितु प्रमाद और कषाय से युक्त क्रिया है। यही कारण है कि तेरहवें गणस्थान वाले भी श्वासादि क्रिया करते हैं. तथापि वे आरम्भी नहीं कहलाते / निष्कर्ष यह है कि चाहे कोई जीव चले-फिरे नहीं, तथापि जब तक प्रमाद और कषाय नहीं छूटते, तब तक वह प्रारम्भी है और कषाय एवं प्रमाद के नष्ट हो जाने पर चलने-फिरने की क्रिया विद्यमान होते हुए भी वह अनारम्भी है। सैद्धान्तिक दृष्टि से मायीमिथ्यादृष्टि जीव प्रायः पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक मायाचार करते दिखाई नहीं देते, किन्तु माया के कारण ही वे पृथ्वीकाय में आए हैं। जीव किसी भी योनि में हो, यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो शास्त्र उसे मायी-मिथ्याष्टि कहता है। मायी का एक अर्थ अनन्तानुबन्धी कषाय है, और जहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होता है, वहाँ मिथ्यात्व अवश्यम्भावी है। इस दृष्टि से पृथ्वोकायिक जीवों में प्रारम्भिको आदि पांचों क्रियाएँ होती हैं। मनुष्यों के श्राहार को विशेषता—मनुष्य दो प्रकार के होते हैं--महाशरीरी और अल्पशरीरी। महाशरीरी मनुष्य और नारकी दोनों बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, किन्तु दोनों के पुद्गलों में बहुत अन्तर है / महाशरीरी नारको जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे निःसार और स्यूल होते हैं, जबकि मनुष्य विशेषतः देवकुरु-उत्तरकुरु के भोगभूमिज मनुष्य जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, वे सारभूत और सूक्ष्म होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों का शरीर तीन गाऊ का होता है और उनका आहार अष्टभक्त-अर्थात्-तीन दिन में एक बार होता है, इस अपेक्षा से महाशरीर मनुष्यों को कदाचित् अाहार करने वाले (एक दृष्टि से अल्पाहारी) कहा गया है। जैसे एक तोला चाँदी से एक तोला सोने में अधिक पुद्गल होते हैं, वैसे ही देवकुरु-उतरकुरु के मनुष्यों का आहार दीखने में कम होते हुए भी सारभूत होने से उसमें अल्पशरीरी मनुष्य के प्राहार की अपेक्षा अधिक पुद्गल होते हैं / इस दृष्टि से उन्हें बहुत पुद्गलों का आहार करने वाला कहा गया है। अल्पशरीरी मनुष्यों का पाहार निःसार एवं थोड़े पुद्गलों का होने से उन्हें बार-बार करना पड़ता है। जैसे कि बालक बार-बार ग्राहार करता है। कुछ पारिभाषिक शब्दों को व्याख्या--जो संयम का पालन करता है, किन्तु जिसका संज्वलन कषाय क्षीण या उपशान्त नहीं हुआ, वह सरागसंयत कहलाता है। जिसके कपाय का सर्वथा क्षय या उपशम हो गया है, वह वीतरागसंयत कहलाता है / 1. (क) भगवती अ० वत्ति 50 44 (ख) पुढविक्काइयस्स प्रोगाहणठ्याए चउठाणवडिए' (ग) “अनिदा चित्तविकला सम्यगविवेकविकला वा'-प्रज्ञापना वत्ति पृ० 557 / 'अणिकाए त्ति अविर्धारणया वेदना वेदयन्ति, वेदनामनुभवन्तोऽपि मिथ्याष्टित्त्वात् विमनस्कत्वाद् वा मत्त-मूच्छितादिवत् नावगच्छन्ति'- भगवती सूत्र अ० वृत्ति, प. 44 / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] सयोग केवलो क्रियारहित कैसे-जो महापुरुष कषायों से सर्वथा मुक्त हो गए हैं, वे क्रियाकर्मबन्ध की कारणभूत क्रिया से रहित हैं / यद्यपि सयोगी अवस्था में योग की प्रवृत्ति से होने वाली ईपिथिक क्रिया उनमें विद्यमान है, तथापि वह क्रिया नहीं के बराबर है, इन क्रियानों में उसकी गणना नहीं है। अप्रमत्तसंयत में मायाप्रत्यया क्रिया-इसलिए होती है कि उसमें अभी कषाय अवशिष्ट है। और कषाय के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया कहलाती है। लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में समाहारादि-विचार--प्रस्तुत १२वें सूत्र में छह लेश्यानों के छह दण्डक (पालापक) और सलेश्य का एक दण्डक, इस प्रकार 7 दण्डकों से यहाँ विचार किया गया है / अगले सूत्र में लेश्याओं के नाम गिनाकर उससे सम्बन्धित सारा तात्त्विक ज्ञान प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद के द्वितीय उद्देशक से जान लेने का निर्देश किया गया है। यद्यपि कृष्णलेश्या सामान्यरूप से एक है, तथापि उसके अवान्तर भेद अनेक हैं-कोई कृष्णलेश्या अपेक्षाकृत विशुद्ध होती है, कोई अविशुद्ध; एक कृष्णलेश्या से नरकगति मिलती है, एक से भवनपति देवों में उत्पत्ति होती है, अतः कृष्णलेश्या के तरतमता के भेद से अनेक भेद हैं, इसलिए उनका आहारादि समान नहीं होता। यही बात सभी लेश्याओं वाले जीवों के सम्बन्ध में जान लेनी चाहिए।' जोवों का संसार संस्थान काल एवं अल्पबहुत्व---- 14. जीवस्स णं भंते ! तोतद्धाए प्रादिगुस्स कइविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णते ? गोयमा ! चउविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते / तं जहा–णेरइयसंसारसंचिढणकाले, तिरिक्ख जोणियसंसारसंचिट्ठणकाले, मणुस्ससंसारसंचिठ्ठणकाले, देवसंसारसंचिट्ठणकाले य पण्णत्ते / [१४-प्र.] भगवन् ! अतीतकाल में प्रादिष्ट-नारक आदि विशेषण-विशिष्ट जीव का संसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? [१४-उ.] गौतम ! संसार-संस्थान-काल चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार हैनैरयिकसंसार-संस्थानकाल, तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल, मनुष्य-संसार-संस्थानकाल और देवसंसारसंस्थानकाल / 15. [1] नेरइयसंसारसंचिठ्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले। [15-1 प्र.] भगवन् ! नरयिकसंसार-संस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? (15-1 उ.] गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल / (क) उम्मग्यदेसमो मम्गणासयो गूढहिययमाइल्लो / सढसीलो घससल्लो तिरिया बंधए जीवो।। (ख) भगवती अ० वृत्ति पत्रांक 44 से 46 तक / Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] तिरिक्खजोणियसंसारसंचिठ्ठणकाले पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुन्नकाले य मिस्सकाले य। [15-2 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल कितने प्रकार का कहा गया है ? [15-2 उ. गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—प्रशून्यकाल और मिश्रकाल / [3] मणुस्साण य, देवाण य जहा नेरइयाणं / [15-3] मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल का कथन नारकों के समान समझना चाहिए। 16. [1] एयस्स णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स सुन्नकालस्स असुनकालस्स मीसकालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवे असुनकाले, मिस्सकाले प्रणतगुणे, सुन्नकाले अणंतगुणे / [16-1 प्र. भगवन् ! नारकों के संसारसंस्थानकाल के जो तीन भेद हैं--शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल, इनमें से कौन किससे कम, बहुत, तुल्य विशेषाधिक है ? [16-1 उ.] गौतम ! सबसे कम अशुन्यकाल है, उससे मिश्रकाल अनन्तगुणा है और उसकी अपेक्षा भी शून्यकाल अनन्तगुणा है / [2] तिरिक्खजोणियाणं सवथोवे असुन्नकाले मिस्सकाले अणंतगुणे। [16-2] तिर्यचसंसारसंस्थानकाल के दो भेदों में से सबसे कम अशून्यकाल है और उसकी अपेक्षा मिथकाल अनन्तगुणा है / [3] मणुस्स-देवाण य जहा नेरइयाणं / [16-3] मनुष्यों और देवों के संसारसंस्थानकाल को न्यूनाधिकता (अल्पबहुत्व) नारकों के संसार संस्थानकाल की न्यूनाधिकता के समान ही समझनी चाहिए। 17. एयस्त णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स जाव देवसंसारसंचिट्ठण जाव विसेसाधिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे मगुस्ससंसारसंचिढणकाले, नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, देवसंसारसंचिढणकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोगिय संसारसंचिट्ठणकाले अणंतगुणे। 17. प्र.] भगवन् ! नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों के संसारसंस्थानकालों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? 17. उ.] गोतम ! सबसे थोड़ा मनुष्यसंसारसंस्थानकाल है, उससे नैरयिक संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है, उससे देव संसारसंस्थानकाल असंख्यातगुणा है और उससे तिर्यञ्चसंसारसंस्थानकाल अनन्तगुणा है / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [ 57 विवेचन-चारों गतियों के जीवों का संसार संस्थानकाल : भेद-प्रभेद एवं अल्पबहत्व—प्रस्तुत पांच सूत्रों (13 से 17 तक) में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों प्रकार के जीवों के संसारसंस्थानकाल, उसके भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / संसारसंस्थानकाल सम्बन्धी प्रश्न का उदमव क्यों-किसी को मान्यता है कि पशु मर कर पशु ही होता है, और मनुष्य मर कर मनुष्य, बह देव या नारक नहीं होता। जैसे-गेहूँ से गेहूँ ही उत्पन्न होता है, चना नहीं / हाँ, अच्छी-बुरी भूमि के मिलने से गेहूँ अच्छा-बुरा हो सकता है, इसी प्रकार अच्छे-बुरे संस्कारों के मिलने से मनुष्य अच्छा-बुरा भले ही हो जाए; किन्तु रहता है, मनुष्य हो / इस प्रकार को मान्यतानुसार अनादिभवों में भी जोव एक ही प्रकार से रहता है / इस भ्रान्तमत का निराकरण करने हेतु गोतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है कि यह जीव अनादिकाल से एक योनि से दूसरो योनि में भ्रमण कर रहा है, तो अतोतकाल में जोव ने कितने प्रकार का संसार बिताया है ? ___ संसारसंस्थानकाल–संसार का अर्थ है—एक भव (जन्म) से दूसरे भव में संसरण-गमनरूप क्रिया / उसको संस्थान-स्थिर रहने रूप क्रिया तथा उसका काल (अवधि) संस्थानकाल है। अर्थात्--यह जीव अतीतकाल में कहाँ-कहाँ किस-किस गति में कितने काल तक स्थित रहा ? यही गौतमस्वामी के प्रश्न का प्राशय है / संसारसंस्थान न माना जाए तो-अगर भवान्तर में जीव की गति और योनि नहीं बदलतो, तब तो उसके द्वारा किये हुए प्रकृष्ट पुण्य और प्रकृष्ट पाप निरर्थक हो जाएंगे। शुभ कर्म करने पर भी पशु, पशु ही रहे और करोड़ों पार कर्म करने पर भी मनुष्य, मनुष्य ही बना रहे तो उनके पुण्य और पाप कर्म का क्या फल हुना? ऐसा मानने पर मुक्ति कदापि प्राप्त न हो सकेगी, क्योंकि जो जिस गति या योनि में है, वह वहाँ से आगे कहीं न जा सकेगा; फलत: मुक्ति के लिए किये जाने वाले तपजप-ध्यान आदि अनुष्ठान निष्फल ही सिद्ध होंगे / इसीलिए भगवान् ने बताया कि जीव चार प्रकार के संसार में संस्थित रहा है, कभी नारक, कभी तिर्यञ्च, कभी देव और कभी मनुष्य योनि में इस जीव ने समय बिताया है / त्रिविधिसंसार संस्थानकाल–भगवान् ने संसारसंस्थानकाल तीन प्रकार का बताया है-शून्यकाल, अशून्यकाल और मिश्रकाल / अशून्यकाल-श्रादिष्ट (वर्तमान में नियत अमुक) समय वाले नारकों में से एक भी नारक जब तक मर कर नहीं निकलता और न कोई नया जन्म लेता है, तब तक का काल अशून्यकाल है। अर्थात्-अमुक वर्तमानकाल में सातों नरकों में जितने भी जीव विद्यमान हैं, उनमें से न कोई जीव मरे, न ही नया उत्पन्न हो, यानी उतने के उतने हो जोव जितने समय तक रहें, उस समय को नरक की अपेक्षा प्रशून्यकाल कहते हैं। मिश्रकाल-वर्तमानकाल के इन नारकों में से एक, दो, तीन इत्यादि क्रम से निकलते-निकलते जब तक एक भी नारक शेष रहे, अर्थात्-विद्यमान नारकों में से जब एक का निकलना प्रारम्भ हुआ, तब से लेकर जब तक नरक में एक नारक शेष रहा, तब तक के समय को नरक की अपेक्षा मिथकाल कहते हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र शून्यकाल-वर्तमानकाल के समादिष्ट (नियत) नारकों में से समस्त नारक नरक से निकल जाएँ, एक भी नारक शेष न रहे, और न ही उनके स्थान पर सभी नये नारक पहुँचें तब तक का काल नरक की अपेक्षा शून्यकाल कहलाता है। तिर्यचयोनि में शून्यकाल नहीं है, क्योंकि तिर्यञ्चयोनि में अकेले वनस्पति काय के ही जीव अनन्त हैं, वे सबके सब उसमें से निकलकर नहीं जाते / शेष तीनों गतियों में तीनों प्रकार के संसार संस्थानकाल हैं। तीनों कालों का अल्पबहत्व-प्रशून्यकाल अर्थात विरहकाल की अपेक्षा मिश्रकाल को अनन्तगुणा इसलिए कहा कि अशून्यकाल तो सिर्फ बारह मुहूर्त का है, जब कि मिश्रकाल वनस्पतिकाय में गमन की अपेक्षा अनन्तगुना है। नरक के जीव जब तक नरक में रहें, तभी तक मिश्रकाल नहीं, वरन् नरक के जीव नरक से निकलकर वनस्पतिकाय आदि तिर्यञ्च, तथा मनुष्य, आदि गतियोंयोनियों में जन्म लेकर फिर नरक में प्रावें तब तक का काल मिश्रकाल है / और शून्यकाल मिश्रकाल से भी अनन्तगुणा इसलिए कहा गया है कि नरक के जीव नरक से निकल कर वनस्पति में आते हैं, जिसकी स्थिति अनन्तकाल की है। तिर्यञ्चों को अपेक्षा प्रशून्यकाल सबसे कम है। संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट विरहकाल 12 मुहूर्त का, तीन विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यचपंचेन्द्रिय का अन्तर्मुहूर्त का, पंचस्थावर जीवों में समय-समय में परस्पर एक दूसरे में असंख्यजीव उत्पन्न होते हैं, अत: उनमें विरहकाल नहीं है।'' अन्तक्रिया सम्बन्धी-चर्चा 18. जीवे गं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा? गोयमा ! अस्थगतिए करेज्जा, अत्थेगतिए नो करेज्जा। अंतकिरियापदं नेयन्वं / 18. प्र. हे भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [18. उ.] गोतम ! कोई जोव अन्तक्रिया करता है, कोई जीव नहीं करता / इस सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र का अन्तक्रियापद (२०वाँ पद) जान लेना चाहिए। विवेचन–अन्तक्रिया सम्बन्धी प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में अन्तक्रिया के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। __ अन्तक्रिया-जिस क्रिया के पश्चात् फिर कभी दूसरी क्रिया न करनी पड़े वह, अथवा को का सर्वथा अन्त करने वालो क्रिया अन्तक्रिया है / आशय यह है कि समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्षप्राप्ति की क्रिया हो अन्तक्रिया है। निष्कर्ष यह है कि भव्य जीव हो मनुष्यभव पाकर अन्तक्रिया करता है। असंयतभव्य द्रव्यदेव आदि सम्बन्धी विचार 16. अह भंते ! प्रसंजयवियदवदेवाणं 1, अविराहियसंजमाणं 2, विराहियसंजमाणं 3, अविराहियसंजमासंजमाणं 4, विराहियसंजमासंजमाणं 5, असण्णीणं 6, तावसाणं 7, कंदप्पियाणं 8, - -- - 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 47-48 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम शतक : उद्देशक-२ ] [ 56 चरगपरिवायगाणं , किदिवसियाणं 10, तेरिच्छियाणं 11, प्राजोवियाणं 12, प्राभिनोगियाणं 13, सलिगोणं दंसणवावनगाणं 14, एएसि णं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्त कहिं उववाए पण्णते? __ गोयमा ! प्रासंजतवियदन्यदेवाणं जहन्नणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं उरिमविज्जएसु 1 / अविराहियसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सबसिद्ध विमाणे 2 / विराहियसंजमाणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं सोधम्मे कप्पे 3 / अविराहियसंजमाइसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे 4 / विराहियसंजमासंजमाणं जहन्नेणं भवणवासोसु, उक्कोसेणं जोतिसिएसु / प्रसण्णोणं जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु 6 / प्रवसेसा सव्वे जहन्नेणं भवणवासीसु, उक्कोसगं वोच्छामि-तावसाणं जोतिसिएसु 7 / कंदप्पियाणं सोहम्मे कप्पे 8 / चरग-परिवायगाणं बंभलोए कप्पे / किविसियाणं लंतगे कप्पे 10 / तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे 11 / प्राजोवियाणं अच्चुए कप्पे 12 / प्राभिप्रोगियाणं अच्चए कप्पे 13 / सलिगोणं दसणवावनगाणं उरिमगेवेज्जएसु 14 / _ [16. प्र.] भगवन् ! (1) असंयत भव्यद्रव्यदेव, (2) अखण्डित संयम वाला, (3) खण्डित संयम वाला, (4) अखण्डित संयमासंयम (देशविरति) वाला, (5) खण्डित संयमासंयम वाला, (6) असंज्ञी, (7) तापस, (8) कान्दपिक, (9) चरकपरिव्राजक, (10) किल्विषिक, (11) तिर्यञ्च (12) आजीविक, (13) आभियोगिक, (14) दर्शन (श्रद्धा) भ्रष्ट वेषधारी, ये सब यदि देवलोक में उत्पन्न हों तो, किसका कहाँ उपपात (उत्पाद) होता है ? . [19. उ.] गौतम! असंयतभव्यद्रव्यदेवों का उत्पाद जघन्यतः भवनवासियों में और उत्कृष्टतः ऊपर के अवेयकों में कहा गया है। अखण्डित (अविराधित) संयम बालों का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध विमान में, खण्डित संयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, अखण्डित संयमासंयम का जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में, खण्डित संयमासयम वालों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, असज्ञी जीवों का जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाण-व्यन्तरदेवों में और शेष सबका उत्पाद जघन्य . भवनवासियों में होता है ; उत्कृष्ट उत्पाद आगे बता रहे हैं-नापसों का ज्योतिष्कों में, कान्दापकों का सौधर्मकल्प में, चरकपरिव्राजकों का ब्रह्मलोक कल्प में, किल्वि षिकों का लान्तक कल्प में, तिर्यञ्चों का सहस्रारकल्प में, प्राजोविकों तथा आभियोगिकों का अच्युतकल्प में, और श्रद्धाभ्रष्ट वेषधारियों का ऊपर के अवेयकों तक में उत्पाद होता है / विवेचन----प्रसंयतभव्यद्रव्यदेव श्रादि के देवलोक उत्पाद के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में विविध प्रकार के 14 आराधक-विराधक साधकों तथा अन्य जीवों की देवलोक-उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं / इनका अर्थ इस प्रकार है असंयत भव्यद्रव्यदेव-(१) जो असंयत चारित्रपरिणामशून्य हो, किन्तु भविष्य में देव होने योग्य हो, (2) असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी हो सकता है, किन्तु Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 // [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यह अर्थ यहां संगत नहीं, क्योंकि असंयत भव्य द्रव्य देव का उत्कृष्ट उत्पाद वेयक तक कहा है, जब कि अविरत सम्यग्दृष्टि तो दूर रहे, देशविरतश्रावक (संयमासंयमी) भी अच्युत देवलोक से आगे नहीं जाते। (3) इसी प्रकार असंयत भव्यद्रव्य देव का अर्थ असंयत निह्नव भी ठीक नहीं, क्योंकि इनके उत्पाद के विषय में इसी सूत्र में पृथक् निरूपण है। (4) अतः असंयत भव्यद्रव्यदेव का स्पष्ट अर्थ है—जो साधु-समाचारी और साध्वाचार का पालन करता हो, किन्तु जिसमें प्रान्तरिक (भाव से) साधुता न हो केवल द्रव्यलिंगधारी हो, ऐसा भव्य या अभव्य मिथ्यादृष्टि / यद्यपि असंयत भव्यद्रव्यदेव में महामिथ्यादर्शनरूप मोह की प्रबलता होती है, तथापि जब वह चक्रवर्ती आदि अनेक राजा-महाराजाओं द्वारा साधुओं को वन्दन-नमन, पूजा, सत्कार-सम्मान आदि करते देखता है तो सोचता है कि मैं भी साधु बन जाऊँ तो मेरी भी इसी तरह वन्दना, पूजा-प्रतिष्ठा प्रादि होने लगेगी; फलत: इस प्रकार को प्रतिष्ठामोह की भावना से वह श्रमणव्रत पालन करता है, आत्मशुद्धि के उद्देश्य से नहीं। उसको श्रद्धा प्रव्रज्या तथा क्रियाकलाप पूर्ण है, वह आचरण भी पूर्णतया करता है, परन्तु चारित्र के परिणाम से शून्य होने से असंयत है। अविराधित संयमी-दीक्षाकाल से लेकर अन्त तक जिस का चारित्र कभी भंग न हुआ हो, वह अखण्डित संयमी है / इसे आराधक संयमी भी कहते हैं / विराधित संयमी-इसका स्वरूप अविराधित संयमी से विपरीत है। जिसने महावतों का ग्रहण करके उनका भलीभांति पालन नहीं किया है, संयम की विराधना की है, वह विरााधित संयमी, खण्डित संयमी या विराधक संयमी है। अविराधित संयमासंयमी-जो देशविरति ग्रहण करके अन्त तक अखण्डित रूप से उसका पालन करता है उसे आराधक संयमासंयमी कहते हैं / विराधित संयमासंयमी—जिसने देविरति ग्रहण करके उसका भली भाँति पालन नहीं किया है, उसे विराधित संयमासयमी कहते हैं। असंज्ञी जीव-जिसके मनोलब्धि नहीं है, ऐसा असंज्ञी जीव अकाम-निर्जरा करता है, इस कारण वह देवलोक में जा सकता है / तापस-वृक्ष से गिरे हुए पत्तों आदि को खाकर उदरनिर्वाह करने वाला बाल-तपस्वी / कान्दपिक—जो साधु हंसोड़-हास्यशील हो / ऐसा साधु चारित्रवेश में रहते हुए भी हास्यशील होने के कारण अनेक प्रकार की विदूषक-की-सी चेष्टाएँ करता है। अथवा कन्दर्प अर्थात् कामसम्बन्धी वार्तालाप करने वाला साधु भी कान्दर्पित कहलाता है। चरकपरिवाजक—गेरूए या भगवे रंग के वस्त्र पहनकर धाटी (सामुहिक भिक्षा) द्वारा आजीविका करने वाले त्रिदण्डी, कुच्छोटक आदि अथवा कपिल ऋषि के शिष्य / किल्विषिक-जो ज्ञान, केवली, धर्माचार्य और सब साधुओं का अवर्णवाद करता हैं और पापमय भावना वाला है, वह किल्विषिक साधु है / किल्विषिक साधु व्यवहार से चारित्रवान भी होता है। तिर्यञ्च-देशविरति श्रावकवत का पालन करने वाले घोड़े, गाय आदि। जैसे---नन्दनमणिहार का जीव मेंढक के रूप में श्रावकवती था / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] आजीविक-(१) एक खास तरह के पाखण्डी, (2) नग्न रहने वाले गोशालक के शिष्य (3) लब्धिप्रयोग करके अविवेकी लोगों द्वारा ख्याति प्राप्त करने या महिमा-पूजा के लिए तप और चारित्र का अनुष्ठान करने वाले और (4) अविवेकी लोगों में चमत्कार दिखलाकर अपनी आजीविका उपार्जन करने वाले / प्राभियोगिक-विद्या और मंत्र आदि का या चूर्ण आदि के योग का प्रयोग करना और दूसरों को अपने वश में करना अभियोग कहलाता है। जो साधु व्यवहार से तो संयम का पालन करता है, किन्तु मंत्र, तंत्र, यंत्र, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, चूर्ण आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे को आकर्षित करता है, वशीभूत करता है, वह आभियोगिक कहलाता है। दर्शनभ्रष्टसलिंगी-साधु के वेष में होते हुए भी दर्शनभ्रष्ट-निह्नव दर्शन भ्रष्टस्ववेषधारी है। ऐसा साधक आगम के अनुसार क्रिया करता हुआ भी निह्नव होता है, जिन-दर्शन से विरुद्ध प्ररूपणा करता है, जैसे जामालि / ' असंज्ञी प्रायुष्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर-- 20. कतिविहे णं भंते ! प्रसणियाउए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउम्विहे असण्णिआउए पण्णत्ते / तं जहा–नेरइय-असण्णिप्राउए 1, लिरिक्खजोणिय-प्रसणिप्राउए 2, मणुस्सप्रसणिग्राउए 3, देवप्रसण्णिपाउए 4 / [20. प्र. भगवन् ! असंज्ञी का आयुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? [20. उ.] गौतम ! असंज्ञी का आयुष्य चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार हैनैरयिक-असंज्ञी आयुष्य, तिर्यञ्च-असंज्ञी आयुष्य, मनुष्य-असंज्ञी आयुष्य और देव-असंज्ञी आयुष्य / 21. प्रसण्णी गं भंते 1 जीवे कि नेरइयाउयं पकरेति, तिरिक्ख-जोणियाउयं पकरेइ, मणस्साउयं पकरेइ, देवाउयं पकरेइ ? हता, गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेइ, तिरिक्खजोगियाउयं पि पकरेइ, मणुस्ताउयं पि पकरेइ, देवाउयं पि पकरेइ / नेरइयाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जहभागं पकरेति / तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहन्नेणं अंतोमुहुत, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं पकरेइ / मणुस्साउए वि एवं चेव / देवाउयं पकरेमाणे जहा नेरइया / 1. (क) भगवती सूत्र अ० वत्ति, पत्रांक 49-50 (ख) जो संजो वि एयासु अप्पसत्थासु भावणं कुणइ / सो तबिहेसु गच्छद सुरेसु भइयो चरणहीणो / / णाणस्स केवलोणं धम्मायरियस्त सव्व साहणं / माई अवनवाई किबिसियं भावणं कुणइ / / (घ) कोऊय-भूइकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजोवी / इडिढरसमायगरुग्रो अहियोग भावणं कुणइ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२१-प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव क्या नरक का आयुष्य उपार्जन करता है, तिर्यञ्चयोनिक का आयुष्य उपार्जन करता है, मनुष्य का प्रायुष्य भो उपार्जन करता है या देव का आयुष्य उपार्जन करता है ? [21. उ.] हाँ गौतम! वह नरक का प्रायुष्य भी उपार्जन करता है, तिर्यञ्च का आयुष्य भी उपार्जन करता है, मनुष्य का प्रायुष्य भी उपार्जन करता है और देव का आयुष्य भी उपार्जन करता है। नारक का प्रायुष्य उपार्जन करता हुआ असंजीजीव जघन्य दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है। तिर्यञ्चयोनि का आयुष्य उपार्जन करता हुआ असंञी जीव जघन्य अन्तमुहूर्त का और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है / मनुष्य का आयुष्य भी इतना हो उपार्जन करता है और देव प्रायुष्य का उपार्जन भी नरक के अायुष्य के समान करता है। 22. एयस्स णं भंते ! नेरइयअसणिग्राउयस्स तिरिक्खजोणिय प्रसण्णिमाउयस्स मणुस्सअसण्णिमाउयस्स देवप्रसणिग्राउयस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? | गोयमा ! सव्वत्योवे देवप्रसणिग्राउए, मगुस्सप्रसणिआउए असंखेज्जगुणे, तिरियजोणियअसण्णिग्राउए असंखज्जगुणे, नेरइयग्रसणिआउये असंखेज्जगुणे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति // ।बितिम्रो उद्दे सो समत्तो।। | 22. प्र.] हे भगवन् ! नारक-असंशो-आयुष्य, तिर्यञ्च-असंज्ञी-आयुष्य, मनुष्य-प्रसंज्ञीआयुष्य और देव-असंज्ञी-पायुष्य ; इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [22. उ.] गोतम ! देव-असंजी-आयुष्य सबसे कम है, उसको अपेक्षा मनुष्य-असज्ञो-आयुष्य असंख्यातगुणा है, उससे तिर्यञ्च असंज्ञो-पायुष्य असंख्यात-गुणा है और उससे भी नारक-असंज्ञीआयुष्य असंख्यातगुणा है। 'हे भगवन् ! (जैसा आप फरमाते हैं,) वह इसी प्रकार है, वह इसी प्रकार है।' ऐसा कहकर गौतम स्वामी संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन-असंज्ञी-आयुष्य : प्रकार, उपार्जन एवं अल्पबहुत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों (20-21-22) में असंज्ञो जीव के आयुष्य के प्रकार, उपार्जन और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। असंज्ञी-प्रायुष्य वर्तमानभव में जो जीव विशिष्ट संज्ञा से रहित है, वह परलोक के योग्य जो प्रायुष्य बांधता है, उसे असंज्ञी-आयुष्य कहते हैं। असंज्ञो द्वारा प्रायुष्य का उपार्जन या वेदन? -श्री गौतम स्वामी ने असंज्ञो जोवों के प्रायुष्य के सम्बन्ध में दूसरा प्रश्न उठाया है, जिसका प्राशय यह है कि असंज्ञी जोव मन के अभाव में आयुष्य का उपार्जन कैसे कर सकता है ? अतः नरक, तिर्यञ्च आदि का प्रायुष्य असंज्ञो द्वारा उपार्जन किया जाता है या सिर्फ भोगा (वेदन किया जाता है ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [63 असंज्ञी का प्रायुष्य प्रसंज्ञी द्वारा ही उपजित किया हुआ है। यद्यपि असंज्ञी को मनोलब्धि विकसित न होने से उसे अच्छे-बुरे का भान नहीं होता, मगर उसके आन्तरिक अध्यवसाय को सर्वज्ञ तीर्थकर तो हस्तामलकवत् जानते ही हैं कि वह नरकायु का उपार्जन कर रहा है या देवायु का? जैसे भिक्ष से सम्बन्धित पात्र का भिक्षुपात्र कहते हैं, वैसे ही असंज्ञी से सम्बन्धित आयु को असंज्ञी-आयुष्य कहते हैं। __तिथंच और मनुष्य के आयुष्य को पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग युगलियों की अपेक्षा से समझना चाहिए। // प्रथम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र प्र० वृत्ति, पत्रांक 51 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : कंखपओसे तृतीय उद्देशक : कांक्षा-प्रदोष चौबीस दण्ड कों में कांक्षामोहनीयकर्मसम्बन्धी षड्द्वार-विचार 1. [1] जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हंता, कडे। [1-1. प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का कांक्षामोहनीय कर्म कृतक्रियानिष्पादित (किया हुप्रा) है ? [1-1. उ.] हाँ गौतम ! वह कृत है। [2] से भंते ! कि देसेणं देसे 1?, देसेण सव्वे कडे 2 ?, सम्वेणं देसे कडे 3 ?, सब्वेणं सम्वे फडे 4 ? गोयमा ! नो देसेणं देसे कडे 1, नो देसेणं सव्वे कडे 2, नो सम्वेणं देसे कडे 3, सम्वेणं सम्वे कडे 4 / [1-2. प्र.] भगवन् ! क्या वह देश से देशकृत है, देश से सर्वकृत है, सर्व से देशकृत है अथवा सर्व से सर्वकृत है ? [1-2. उ.] गौतम ! वह देश से देशकृत नहीं है, देश से सर्वकृत नहीं है, सर्व से देशकृत नहीं है, सर्व से सर्वकृत है / 2. [1] नेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्जे कम्मे कडे ? हंता, कडे जाव सम्वेणं कडे 4 / [2] एवं जाव वेमाणियाणं दंडनो भाणियन्बो / [2-1. प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों का कांक्षामोहनीय कर्म कृत है ? [2-1. उ.] हाँ, गौतम कृत, यावत् 'सर्व से सर्वकृत है' इस प्रकार से यावत् चौबीस हो दण्डकों में वैमानिकपर्यन्त पालापक कहना चाहिए।। 3. [1] जोवा णं मते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं करिसु ? हंता, करिसु। [3-1. प्र.] भगवन् ! क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है ? [3-1. उ.] हाँ गौतम ! किया है / [2] तं भंते ! कि देसेणं देसं कारसु ? एतेणं अभिलावेणं दंडओ 1 जाव वेमाणियाणं / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] [65 [3-2. प्र.] 'भगवन् ! क्या वह देश से देशकृत है ?' इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न वैमानिक दण्डक तक करना चाहिए। [3-2. उ.] इस प्रकार 'कहते हैं' यह पालापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त चौवीस ही दण्डकों में आलापक कहना चाहिए। [3] एवं करेंति / एत्थ वि दंडप्रो जाव' वेमाणियाणं / [3-3] इसी प्रकार करते हैं' यह पालापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त चौवीस हो दण्डकों में कहना चाहिए। [4] एवं करेस्संति / एत्थ वि दंडनो जाव वेमाणियाणं / [3-4] इसी प्रकार 'करेंगे' यह पालापक भी यावत् वैमानिकपर्यन्त चौबीस ही दण्उकों में कहना चाहिए। _ [5] एवं चिते-चिणिसु, चिणंति, चिणिस्संति / उचिते-उचिणिसु, उवचिणंति, उवचिणिसंति / उदोरेंसु, उदीरति, उदोरिस्सति / वैदिसु, बेति, वेदिस्संति / निज्जरेंसु, निज्जरैति, निजरिस्संति। गाहा कड चित, उचित, उदीरिया, वेदिया य, निज्जिण्णा। प्रादितिए चउभेदा, तिय भेदा पच्छिमा तिष्णि // 1 // [3-5] इसी प्रकार (कृत के तीनों काल की तरह) चित किया, चय करते हैं, चय करेंगे; उपचित-उपचय किया, उपचय करते हैं, उपचय करेंगे; उदीरणा की, उदोरणा करते हैं, उदीरणा करेंगे; वेदन किया, वेदन करते हैं, वेदन करेंगे; निर्जीर्ण किया, निर्जीर्ण करते हैं, निर्जीर्ण करेंगे; इन सब पदों का चौवीस ही दण्डकों के सम्बन्ध में पूर्ववत् कथन करना (मालापक करना) चाहिए। गाथार्थ—कृत, चित, उपचित, उदीर्ण, वेदित और निर्जीर्ण; इतने अभिलाप यहाँ कहने हैं। इनमें से कृत, चित और उपचित में एक-एक के चार-चार भेद हैं; अर्थात्-सामान्य क्रिया, भूतकाल को क्रिया, वर्तमान काल को क्रिया और भविष्यकाल को क्रिया। पिछले तीन पदों में सिर्फ तीन काल की क्रिया कहनी है। कांक्षामोहनीय-वेदनकारण-विचार 4. जीवा गं भते ! कंखामोहणिज्ज कम्म वेदेति ? हंता, वेदेति / [4. प्र.] 'भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ?' [4. उ.] हाँ गौतम ! वेदन करते हैं। 5. कहं णं भंते ! जीवा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेति ? गोयमा ! तेहि तेहि कारणेहि संकिया कंखिया वितिगिछिया भेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना एवं खलु जोवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति / 1. 'जाव' शब्द से वैमानिकपर्यंत पूर्वोक्त चौबीत दण्डक समझना चाहिए / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] [ व्याख्यानप्तिसून [5. प्र.] 'भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म को किस प्रकार वेदते हैं ?' [5. उ.] गौतम ! उन-उन (अमुक-अमुक) कारणों से शंकायुक्त, कांक्षायुक्त, विचिकित्सायुक्त, भेदसमापन एवं कलुषसमापन होकर; इस प्रकार जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। आराधक-स्वरूप 6. |1] से नणं भंते ! तमेव सच्चं णीसंकं जंजिर्णोह पवेदितं ? हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं गीसंक जं जिणेहि पवेदितं / {6-1. प्र.) "भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों ने निरूपित किया है।' [6-1. उ.] हाँ, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा निरूपित है। [2] से नणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे, एवं पकरेमाणे एवं चिट्ठमाणे, एवं संवरेमाणे प्राणाए पाराहए भवति ? हंता, गोयमा ! एवं मणं धारेमाणे जाव भवति / [6-2. प्र.] 'भगवन् ! (वही सत्य और निःशंक है, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित है) इस प्रकार मन में धारण (निश्चय) करता हुआ, उसी तरह आचरण करता हुआ, यों रहता हुआ, इसी तरह संवर करता हुआ जीव क्या प्राज्ञा का पाराधक होता है ?'. [6-2. उ.] हाँ, गौतम ! इसी प्रकार मन में निश्चय करता हुअा यावत प्राज्ञा का पाराधक होता है। विवेचन--चतुविशतिदण्डकों में कांक्षामोहनीय का कृत, चित प्रादि 6 द्वारों से त्रैकालिक विचार---प्रस्तुत तीन सूत्रों में कांक्षामोहनीय कर्म के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विचार किया गया है। प्रश्नोत्तर का क्रम इस प्रकार है-(१) क्या कांक्षामोहनीय कर्म जीवों का कृत है ? (2) यदि कृत है तो देश से देशकृत, देश से सर्वकृत, सर्व से देशकृत है या सर्व से सर्वकृत है ? (3) यदि सर्व से सर्वकृत है तो नारकी से लेकर वैमानिक तथा चौबीस दण्डकों के जीवों द्वारा कृत है ? कृत है तो सर्व से सर्वकृत है ? इत्यादि, (4) क्या जीवों ने कांक्षामोहनीय कर्म का उपार्जन किया है ? (5) यदि किया है तो वह चौबीस ही दण्डकों में किया है, तथा वह सर्व से सर्वकृत है ? इसी प्रकार करते हैं, करेंगे। (6) इस प्रकार कृत के कालिक पालापक को तरह चित, उपचित, उदोर्ण, वेदित और निर्जीर्ण पद के कांक्षामोहनीयसम्बन्धी त्रैकालिक आलापक कहने चाहिए। कांक्षामोहनीय--जो कर्म जीव को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं ! मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-चारित्र-मोहनीय और दर्शनमोहनीय / यहाँ चारित्र मोहनीय कर्म के विषय में प्रश्न नहीं है / इसीलिए मोहनीय शब्द के साथ 'कांक्षा' शब्द लगाया गया है / कांक्षामोहनीय का अर्थ है-दर्शनमोहनीय / कांक्षा का मूल अर्थ है--अन्यदर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा करना / संशयमोहनीय, विचिकित्सामोहनीय, परपाखण्डप्रशंसामोहनीय आदि कांक्षामोहनीय के अन्तर्गत समझ लेने चाहिए। कांक्षामोहनीय का ग्रहण ? कैसे, किस रूप में ?-कार्य चार प्रकार से होता है-उदाहरणार्थ--- एक मनुष्य अपने शरीर के एक देश--हाथ से वस्त्र का एक भाग ग्रहण करता है, यह एकदेश से एकदेश का ग्रहण करना है / इसी प्रकार हाथ से सारे वस्त्र का ग्रहण किया तो यह एकदेश से सर्व का Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] ग्रहण करना है; यदि समस्त शरीर से वस्त्र के एक भाग को ग्रहण किया तो सर्व से एकदेश का ग्रहण हुआ; सारे शरीर से सारे वस्त्र को ग्रहण किया तो सर्व से सर्व का ग्रहण करना हुआ / प्रस्तुत प्रकरण में देश का अर्थ है---आत्मा का एक देश और एक समय में ग्रहण किये जाने वाले कर्म का एकदेश / अगर अात्मा के एकदेश से कर्म का एकदेश किया तो यह एकदेश से एकदेश की क्रिया की / अगर आत्मा के एकदेश से सर्व कर्म किया, तो यह देश से सर्व की क्रिया हुई। सम्पूर्ण प्रात्मा से कर्म का एकदेश किया, तो सर्व से देश की क्रिया हुई और सम्पूर्ण आत्मा से समग्र कर्म किया तो सर्व से सर्व की क्रिया हुई। गौतम स्वामी के इस चतुर्भगीय प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि गौतम ! कांक्षामोहनीय कर्म सर्व से सर्वकृत है, अर्थात् --समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कांक्षामोहनीय कर्म किया हुआ है। पूर्वोक्त चौभंगी में से यहाँ चौथा भंग ही ग्रहण किया गया है। कर्मनिष्पादन की क्रिया त्रिकाल-सम्बन्धित-कर्म क्रिया से निष्पन्न होता है और क्रिया तीनों कालों से सम्बन्धित होती है, इसलिए त्रिकाल सम्बन्धी क्रिया से कर्म लगते हैं। इसी कारण मोहनीय कर्म के सम्बन्ध में त्रिकालसम्बन्धी प्रश्नोत्तर है। आयुकर्म के सिवाय जब तक किसी कर्म के बन्ध का कारण नष्ट नहीं हो जाता, तब तक उस कर्म का बन्ध होता रहता है / कांक्षामोहनीयकर्म के विषय में भी यही नियम समझना चाहिए। 'चित' प्रादि का स्वरूप : प्रस्तुत सन्दर्भ में-पूर्वोपार्जित कर्मों में प्रदेश और अनुभाग की एक बार वृद्धि करना अर्थात्-संक्लेशमय परिणामों से उसे एक बार बढ़ाना चित (चय किया) कहलाता है। जैसे---किसी आदमी ने भोजन किया उसमें उसे सामान्य क्रिया लगी, किन्तु बाद में वह रागभाव से प्रेरित होकर उस भोजन को प्रशंसा करने लगा, यह चय करना हुमा / बार-बार तत्सम्बन्धी चय करता उपचय (उपचित) कहलाता है। किसी-किसी प्राचार्य के मतानुसार कर्मपुद्गलों का ग्रहण करना 'चय' कहलाता है और अबाधाकाल समाप्त होने के पश्चात् गृहीत कर्मपुद्गलों को वेदन करने के लिए निषेचन (कर्मदलिकों का वर्गीकरण) करना, उदयावलिका में स्थापित करना 'उपचय' कहा जाता है। 'उदीरणा' 'वेदना' और 'निर्जरा' का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। उदोरणा प्रादि में सिर्फ तीन प्रकार का काल-उदीरणा आदि चिरकाल तक नहीं रहते, अतएव उनमें सामान्यकाल नहीं बताया गया है। उदयप्राप्त कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन-प्रस्तुत कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन के प्रश्न को पुनः दोहराने का कारण वेदन के हेतुविशेष (विशिष्ट कारणों) को बतलाना है।' शंका आदि पदों की व्याख्या-वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने अपने अनन्त-ज्ञानदर्शन में जिन तत्त्वों को जान कर निरूपण किया, उन तत्वों पर या उनमें से किसी एक पर शंका करना-'कौन जाने यह यथार्थ है या नहीं ?' इस प्रकार का सन्देह करना शंका है। एकदेश से या सर्वदेश से अन्यदर्शन को ग्रहण करने की इच्छा करना कांक्षा है। तप, जप, ब्रह्मचर्य आदि पालन के फल के विषय में संशय करना विचिकित्सा है। बुद्धि में द्वैधीभाव (बुद्धिभेद) उत्पन्न होना भेसमापन्नता है, अथवा 1. "पुन्वमणियं पि पच्छा जं मण्णइ तत्य कारणं अस्थि / पडिसेहो य अणला हेउविसेसोवलंमोति // " Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनध्यवसाय (अनिश्चितता) को भी भेदसमापन्नता कहते हैं, या पहले शंका या कांक्षा उत्पन्न होने से बुद्धि में भ्रान्ति (विभ्रम) पैदा हो जाना भी भेदसमापन्नता है / जो वस्तु जिनेन्द्र भगवान् ने जैसी प्रतिपादित की है, उसे उसी रूप में निश्चय न करके विपरीत बुद्धि रखना या विपरीत रूप से समझना कलुष-समापन्नता है। कांक्षामोहनीय कर्म को हटाने का प्रबल कारण-कांक्षामोहनीय कर्म के कृत, चय आदि तथा वेदन के कारणों की स्पष्टता होने के पश्चात् इसी सन्दर्भ में अगले सूत्र में श्री गौतमस्वामी उस कर्म को हटाने का कारण पूछते हैं। छद्मस्थतावश जब कभी किसी तत्त्व या जिनप्ररूपित तथ्य के विषय में शंका आदि उपस्थित हो, तब इसी सूत्र—'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं को हृदयंगम कर ले तो व्यक्ति कांक्षामोहनीय कर्म से बच सकता है यौर जिनाज्ञाराधक हो सकता है। जिन—'जिन' किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, वह एक पदवी है, गुणवाचक शब्द है। जिन्होंने प्रकृष्ट साधना के द्वारा अनादिकालीन रागद्वेष, अज्ञान, कषाय आदि समस्त पात्मिक विकारों या मिथ्यावचन के कारणों पर विजय प्राप्त करली हो, वे महापुरुष 'जिन' कहलाते हैं, भले ही वे किसी भी देश, वेष, जाति, नाम आदि से सम्बन्धित हों। ऐसे वीतराग सर्वज्ञपुरुषों के वचनों में किसी को सन्देह करने का अवकाश नहीं है।' अस्तित्व-नास्तित्व-परिणमन चर्चा 7. [1] से नणं भंते ! अस्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ, नस्थित्तं नस्थित परिणमति ? हंता, गोयमा ! जाव परिणमति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, तथा नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है ? [7-1 उ.] हाँ, गौतम ! अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है। [2] जं त भंते ! अथित अस्थित्त परिणमति, नस्थित्त नत्थित्त परिणमति तं कि पयोगसा वीससा ? गोयमा ! फ्योगसा वि तं, वीससा वि तं। [7-2 प्र. भगवन् ! वह जो अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, सो क्या वह प्रयोग (जीव के व्यापार) से परिणत होता है अथवा स्वभाव से (विश्रसा)?' [7-2 उ.] गौतम ! वह प्रयोग से भी परिणत होता है और स्वभाव से भी परिणत होता है। [3] जहा ते भंते ! अस्थित्त अस्थित्ते परिणमइ तहा ते नस्थित नत्थित्त परिणमति ? जहा ते नत्थित्त नत्थित्ते परिणमति तहा ते अत्थित्त अस्थित्ते परिणमति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 52 से 54 तक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] हंता, गोयमा ! जहा मे अस्थित्त अस्थित्ते परिणमति तहा मे नस्थित नत्थित परिणमति, जहा मे नस्थित नस्थित परिणमति तहा मे अस्थित्त अस्थित परिणमति / [7-3 प्र.] 'भगवन् ! जैसे आपके मत से अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है ? और जैसे आपके मत से नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है ?' . [7-3 उ.] गौतम ! जैसे मेरे मत से अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है, उसी प्रकार नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है और जिस प्रकार मेरे मत से नास्तित्व, नास्तित्व में परिणत होता है; उसी प्रकार अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है। [4] से गुणं भंते ! अत्थित्त अस्थित्ते गर्माणज्जं? जहा परिणमइ दो पालावगा तहा गमणिज्जेण वि दो पालावगा माणितव्वा जाव तहा मे अस्थित्त अस्थित्त गमणिज्ज। [7-4 प्र.] 'भगवन् ! क्या अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है ?' [7-4 उ.] हे गौतम ! जैसे–'परिणत होता है', इस पद के पालापक कहे हैं; उसी प्रकार यहाँ 'गमनीय' पद के साथ भी दो पालापक कहने चाहिए; यावत् 'मेरे मत से अस्तित्व, अस्तित्व में गमनीय है।' [5] जहा ते भंते ! एत्थं गणिज्जं तहा ते इहं गमणिज्ज? जहा ते इहं गमणिज्ज तहा ते एत्थं गणिज्ज? हंता, गोयमा ! जहा मे एत्यं गमणिज्जं जाव तहा में एत्थं गमणिज्ज।। [7-5 प्र.] 'भगवन् ! जैसे अापके मत में यहाँ (स्वात्मा में) गमनीय है, उसी प्रकार इह (परात्मा में भी) गमनीय है, जैसे आपके मत में इह (परात्मा में) गमनीय है, उसी प्रकार यहाँ (स्वात्मा में) भी गमनीय है ?' [7-5 उ.] हाँ, गौतम ! जैसे मेरे मत में यहाँ (स्वात्मा में) गमनीय है, यावन् (परात्मा में भी गमनीय है, और जैसे परात्मा में गमनीय है) उसी प्रकार यहाँ (स्वात्मा में) गमनीय है। विवेचन- अस्तित्व-नास्तित्व की परिणति और गमनीयता प्रादि का विचार--प्रस्तुत ७वें सूत्र में विविध पहलुओं-अस्तित्व-नास्तित्व को ओं-अस्तित्व-नास्तित्व की परिणति एवं गमनीयता आदि के सम्बन्ध में चर्चा की अस्तित्व को अस्तित्व में और नास्तित्व को नास्तित्व में परिणति : व्याख्या-अस्तित्व का अर्थ है-जो पदार्थ जिस रूप में विद्यमान है, उसका उसी रूप में रहना / 'अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है, इस सूत्र के दो आशय वृत्तिकार ने बताए हैं-(१) प्रथम प्राशय-द्रव्य एक पर्याय से दूसरे पर्याय के रूप में परिणत होता है, तथापि पर्यायरूप द्रव्य को सदरूप मानना / जैसे - अंगुली की ऋजुतापर्याय वक्रतापर्यायरूप में परिणत हो जाती है, तथापि ऋजुता आदि पर्यायों से अंगुलिरूप द्रव्य का अस्तित्व अभिन्न है; पृथक नहीं / तात्पर्य यह है कि अंगुली आदि का अंगुली प्रादि के रूप में जो सत्त्व (अस्तित्व) है, वह उसी रूप में अंगुली आदि का अंगुली आदि रूप मेंसत्त्वरूप में---वक्रतादि पर्याय रूप में परिणमन होता है. अंगुली में अंगुलित्व कायम रहता है; केवल Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र उसके वक्र, ऋजु आदि रूपान्तर होते हैं। निष्कर्ष यह है--किसी भी पदार्थ को सत्ता किसी भी प्रकार से हो, वही सत्ता दूसरे प्रकार से पूर्वापेक्षा भिन्न प्रकार से हो जाती है। जैसे-मिट्टी रूप पदार्थ की सत्ता सर्वप्रथम एक पिण्डरूप में होती है, वही सत्ता घटरूप में हो जाती है। (2) द्वितीय प्राशय-जो अस्तित्व अर्थात्-सत् (विद्यमान-सत्तावाला) पदार्थ है, वह सत्रूप (अस्तित्वरूप) में परिणत होता है / तात्पर्य यह है कि सत् पदार्थ सदैव सद्रूप ही रहता है विनष्ट नहीं होता-कदापि असत् (शून्यरूप) में परिणत नहीं होता / जिसे विनाश कहा जाता है, वह मात्र रूपान्तर-पर्याय परिवर्तन है, 'असत् होना, या समूल नाश होना नहीं / जैसे-एक दोपक प्रकाशमान है, किन्तु तेल जल जाने या हवा का झोंका लगने से वह बुझ जाता है / आप कहेंगे कि दीपक का नाश हो गया, किन्तु वास्तव में वह प्रकाश अपने मूलरूप में नष्ट नहीं हुआ, केवल पर्याय-परिवर्तन हुआ है / प्रकाशरूप पुद्गल अब अपनी पर्याय पलट कर अन्धकार के रूप में परिणत हो गया है। प्रकाशावस्था और अन्धकारावस्था, इन दोनों अवस्थाओं में दीपकरूप द्रव्य वही है। इसी का नाम है सत् का सद् रूप में ही रहना; क्योंकि सत् धर्मोरूप है और सत्त्व धर्मरूप है, इन दोनों में अभेद है, तभी सत् पदार्थ सत् रूप में परिणत होता है। वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की विद्यमानता केवल अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्न करने से सभी वस्तुएँ एक रूप हो जाती, इसलिए नास्तित्व सम्बन्धी प्रश्न भी किया गया है / जहाँ अस्तित्व है, वहाँ नास्तित्व अवश्य है। इस सत्य को प्रकट करने के लिए नास्तित्व सम्बन्धी प्रश्न भी आवश्यक था। कोई कह सकता है कि एक ही पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व, ये दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म कैसे रह सकते हैं ? परन्तु जैनदर्शन का सिद्धान्त है कि पदार्थ में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म विभिन्न अपेक्षा से विद्यमान हैं, बल्कि अपेक्षाभेद के कारण इन दोनों में विरोध नहीं रहकर, साहचर्य सम्बन्ध हो जाता है / तात्पर्य यह है कि एक ही अपेक्षा से अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों एक पदार्थ में माने जाएँ तो विरोध आता है, किन्तु पृथक-पृथक अपेक्षाओं से दोनों को एक पदार्थ में मानना विरुद्ध नहीं है / जैसे—वस्त्र में अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्तित्व है किन्तु पररूप को अपेक्षा से नास्तित्व है / ऐसा न मानने पर प्रतिनियत विभिन्न पदार्थों की व्यवस्था एवं स्वानुभवसिद्ध पृथक्-पृथक् व्यवहार नहीं हो सकेगा। अतः वस्तु केवल सत्तामय नहीं किन्तु सत्ता और असत्तामय है। यही मानना उचित है। नास्तित्व की नास्तित्व-रूप में परिणति : व्याख्या-इस सूत्र की एक व्याख्या यह है कि जिस वस्तु में जिसकी जिस रूप में नास्ति है, उसकी उसी रूप में नास्ति रहती है / जैसे-अंगुली का अंगूठा आदि के रूप में न होना, अंगुलो का (अगुली की अपेक्षा से) अंगूठा आदि रूप में नास्तित्व है / वह अंगुष्ठादिरूप में नास्तित्व अंगुली के लिए अंगूठा आदि के नास्तित्व में परिणत होता है / सीधे शब्दों में यों कहा जा सकता है जो अंगुली अंगुष्ठादिरूप नहीं है, वह अंगुष्ठादि नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं है कि अंगूठे की अंगूठे के रूप में नास्ति है / जो है, वहीं है, अन्यरूप नहीं है / नास्तित्व नास्तित्वरूप में परिणत होता है, इसके उदाहरण भी वे ही समझने चाहिए क्योंकि स्वरूप से अस्तित्व ही परस्वरूप से नास्तित्व कहलाता है / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] इस सूत्र की दूसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-नास्तित्व का अर्थ- अत्यन्त अभावरूप है / अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व के उदाहरण-गधे के सींग या आकाशपुष्प आदि हैं। अत: जो अत्यन्ताभावरूप नास्तित्व है, वह (गर्दभ शृगादि) अत्यन्ताभाव रूप नास्तित्व में ही रहता है, क्योंकि जो वस्तु सर्वथा असत् होती है, उसका कदापि अस्तित्व (सत्रूपता) हो नहीं सकता। कहा भी है'असत् सद्रूप नहीं होता और सत् असत्रूप नहीं होता।' तीसरी व्याख्या इस प्रकार भी है-धर्मी के साथ धर्म का अभेद होता है, इसलिए अस्तित्व यानी सत् (जो सत् होता है, वह) सत्त्वरूप धर्म में होता है / जैसे- पट पटत्व में ही है / तथा नास्तित्व यानि असत् (जो असत् है, वह) असत्त्वरूप धर्म में ही होता है / जैसे अपट अपटत्व में ही है / पदार्थों के परिणमन के प्रकार -अस्तित्व का अस्तित्वरूप में परिणमन दो प्रकार से होता है-प्रयोग से (जीव के व्यापार से) और स्वभाव से (विश्रसा)। प्रयोग से यथा-कुम्भार की क्रिया से मिट्टी के पिंड का घटरूप में परिणमन / स्वभाव से यथा-सफेद बादल काले बादलों के रूप में किसी को क्रिया के बिना, स्वभावतः परिणत होते हैं। नास्तित्व का नास्तित्वरूप में परिणमन भी दो प्रकार से होता है--प्रयोग से और स्वभाव से / प्रयोग से यथा-घटादि को अपेक्षा से मिट्टी का पिण्ड नास्तित्व रूप है / स्वभाव से यथा—पृच्छाकाल में सफेद बालों में कृष्णत्व का नास्तित्व / गमनीयरूप प्रश्न का आशय-गमनीय का अर्थ है—प्ररूपणा करने योग्य / गमनीयरूप प्रश्न का प्राशय यह है कि पहले जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, वह केवल समझने के लिए है या प्ररूपणा करने योग्य भी है ? _ 'एस्थं' और 'इह प्रश्नसम्बन्धी सूत्र का तात्पर्य - 'एत्थं' और 'इह' सम्बन्धी प्रश्नात्मकसूत्र की तीन व्याख्याएँ वृत्तिकार ने की हैं—(१) 'एत्थं' का अर्थ यहाँ अर्थात्-स्व शिष्य और 'इह' का अर्थ-गृहस्थ या परपाषण्डी आदि / इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि वस्तु की प्ररूपणा आप अपने और पराये का भेद न रखकर स्व-परजनों के लिए समभाव से करते हैं ?, (2) अथवा 'एत्य' का अर्थ है-स्वात्मा और 'इ' का अर्थ है-परात्मा। इसका आशय यह है कि आपको अपने (स्वात्मा) में जैसे सुखप्रियता आदि धर्म गमनीय है, वैसे ही क्या परात्मा में भी गमनीय ---अभीष्ट हैं ?, (3) अथवा 'एत्थं' और 'इहं' दोनों समानार्थक शब्द हैं। दोनों का अर्थ है-~-प्रत्यक्षगम्य, प्रत्यक्षाधिकरणता / इसका आशय यह है-जैसे आपको अपनी सेवा में रहे हुए ये श्रमणादि प्रत्यक्षगम्य हैं, वैसे ही क्या गृहस्थ आदि भी प्रत्यक्षगम्य हैं ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने दिया, उसका प्राशय यह है कि चाहे स्वशिष्य हो या गहस्थादि, प्ररूपणा सबके लिए समान होती है होनी चाहिए।' कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों को परम्परा 8. जीवा णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधति ? हंता, बंधति / 1. (क) भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति, पत्रांक 55-56 (ख) भगवतीसूत्र (टीका-अनुवाद पं. वेचरदासजी) खण्ड 1. पृ. 118 से 120 तक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8 प्र.] भगवन् ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधते हैं ? [8. उ.] हाँ, गौतम ! बांधते हैं / 6. [1] कहं गं भंते ! जोवा कंखामोहणिज्ज कम्मं बंधति ? गोयमा ! पमादपच्चया जोगनिमित्तं च / [6-1 प्र.] भगवन् ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधते हैं ? [6-1 उ.] गौतम ! प्रमाद के कारण और योग के निमित्त से (जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधते हैं)। [2] से णं भंते ! पमादे कियवहे ? गोयमा ! जोगप्पवहे ! [6-2 प्र.] 'भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ?' [9-2 उ.] गौतम ! प्रमाद, योग से उत्पन्न होता है। [3] से गं भंते ! जोगे कियवहे ? गोयमा ! वीरियप्पवहे। [9-3 प्र.] 'भगवन् ! योग किससे उत्पन्न होता है ?' [9-3 उ.] गौतम ! योग, वीर्य से उत्पन्न होता है / [4] से णं भंते वोरिए किपवहे ? गोयमा ! सरीरप्परहे। [9-4 प्र.] 'भगवन् ! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ?' [6-4 उ.] गौतम ! वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। [5] से णं भंते ! सरीरे किपबहे ? गोयमा ! जोवप्पवहे / एवं सति अस्थि उट्ठाणे ति बा, कम्मे ति बा, बले ति वा, वोरिए ति वा, पुरिसक्कार-परक्कमे ति वा / ह-५ प्र.] 'भगवन् ! शरीर किससे उत्पन्न होता है ?' [9-5 उ.] गौतम ! शरीर जीव से उत्पन्न होता है। और ऐसा होने में जीव का उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम होता है। विवेचन--कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों को परम्परा-प्रस्तुत दो सूत्रों में कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध और उसके कारणों की परम्परा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं / बन्ध के कारण पूछने का प्राशय-यदि बिना निमित्त के ही कर्मबन्ध होने लगे तो सिद्धजीवों की भी कर्मबन्ध होने लगेगा, परन्तु होता नहीं है। इसलिए कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारण के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३] कर्मबन्ध के कारण यद्यपि कर्मबन्ध के 5 मुख्य कारण बताए गए हैं, तथापि यहाँ प्रमाद और योग दो कारण बताने का प्राशय यह है कि मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का अन्तर्भाव प्रमाद में हो जाता है। यद्यपि सिद्धान्तानुसार छठे से आगे के गुणस्थानों में प्रमाद नहीं होता, फिर भी जहाँ (दसवें गुणस्थान) तक कषाय है, वहाँ तक सूक्ष्म प्रमाद माना जाता है, स्थूल प्रमाद नहीं। इसलिए वहाँ तक प्रायः मोहनीयकर्म का बन्ध होता है / दसवें गुणस्थान में कषाय अत्यल्प (सूक्ष्म) होने से मोहकर्म का बन्ध नहीं होता है। यों प्रमाद के शास्त्रोक्त पाठ भेदों में इन तीनों के अतिरिक्त और भी कई विकार प्रमाद के अन्तर्गत हैं।' शरीर का कर्ता कौन ?-प्रस्तुत में शरीर का कर्ता जीव को बताया गया है, किन्तु जीव का अर्थ यहाँ नामकर्मयुक्त जीव समझना चाहिए। इससे सिद्ध, ईश्वर या नियति आदि के कर्तृत्व का निराकरण हो जाता है। उत्थान आदि का स्वरूप-अर्ध्व होना, खड़ा होना या उठना उत्थान है। जीव की चेष्टाविशेष को कर्म कहते हैं। शारीरिक प्राण बल कहलाता है / जीव के उत्साह को बीर्य कहते हैं। पुरुष को स्वाभिमानपूर्वक इष्टफलसाधक क्रिया पुरुषकार है और शत्रु को पराजित करना पराक्रम है। शरीर से वीर्य को उत्पत्ति : एक समाधान-वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से वीर्य उत्पन्न होता है, और सिद्ध भगवान् इस कर्म का क्षय कर चुके हैं। किन्तु प्रस्तुत में बताया गया है कि वीर्य की उत्पत्ति शरीर से होती है, ऐसी स्थिति में सिद्ध या अलेश्यो भगवान् वीर्यरहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि सिद्धों के शरीर नहीं होता / इस शंका का समाधान यह है कि वीर्य दो प्रकार के होते हैं-सकरणवीर्य और अकरणवीर्य / सिद्धों में या अलेश्यी भगवान् में प्रकरणवीर्य है, जो प्रात्मा का परिणाम विशेष है, उसका शरीरोत्पन्न वीर्य (सकरण वीर्य) में समावेश नहीं है / अत: यहाँ सकरणवीर्य से तात्पर्य है। कांक्षामोहनीय को उदोरणा, गहीं आदि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 10. [1] से गूणं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अध्पणा चेव संवरेइ ? हंता, गोयमा ! अस्पणा चेव तं चेव उच्चारेयन्वं 3 / [10-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव अपने आपसे हो उस (कांक्षामोहनीय कर्म) को उदीरणा करता है, अपने आप से ही उसकी गर्दा करता है और अपने आप से ही उसका संवर करता है ? [10-1 उ.हाँ, गौतम ! जीव अपने आप से ही उसकी उदीरणा, गर्हा और संवर करता है। 1. (क) भगवतीसूत्र प्र. वत्ति, पत्रांक 56-57 (ख) पमानो य मुणिदेहिं भणिो अट्ठभेयो / अण्णाणं संसपो चेव मिच्छाना तहेव य / / रागदोसो महबभंसो, धम्ममि य अणायरो। जोगाणं दुप्पणिहाणं अटुहा वज्जियवयो॥-भगवती अ. वत्ति पत्रांक 57 में उद्धत / (ग) “मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा: बन्धहेतव:'.-तत्त्वार्थ. प्र.८ सुत्र 1 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र [2] जंतं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ अप्पणा चेव गरहेइ, अप्पणा चेव संवरेइ तं उदिण्णं उदोरेइ 1 अणुदिण्णं उदीरेइ 2 अणुदिण्णं उदीरणामवियं कम्मं उदोरेइ 3 उदयाणंतरपच्छाकडं कम्म उदीरेइ 4? गोयमा ! नो उदिण्णं उदीरेइ 1, नो अणुदिण्णं उदीरेइ 2, अणुदिण्णं उदीरणावियं कम्म उबीरेइ 3, णो उदयाणंतरपच्छाकडं कम्म उदीरेइ 4 / / [10-2 प्र. भगवन् ! वह जो अपने आप से ही उसकी उदीरणा करता है, गर्दा करता है और संवर करता है, तो क्या उदीर्ण (उदय में आए हुए) को उदीरणा करता है ? ; अनुदीर्ण (उदय में नहीं आए हुए) की उदीरणा करता है ?; या अनुदीर्ण उदीरणाभविक (उदय में नहीं आये हुए, किन्तु उदीरणा के योग्य) कर्म की उदीरणा करता है ? अथवा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणा करता है? [10-2 उ.] गौतम ! उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता, अनुदीर्ण की भी उदीरणा नहीं करता, तथा उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की भी उदीरणा नहीं करता, किन्तु अनुदीर्ण-उदीरणाभविक (योग्य) कर्म की उदीरणा करता है। [3] जं तं भंते ! अणुदिण्णं उदोरणाभवियं कम्मं उदीरेइ तं कि उहाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदोरेइ ? उदाहु तं अणुटाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदोरेइ ? गोयमा ! तं उढाणेण वि कम्मेण वि बलेण वि वीरिएण वि पुरिसक्कारपरक्कमेण वि अणुदिण्णं उदोरणावियं कम्मं उदीरेइ, गोतं अणुढाणणं प्रकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरक्कमेणं अणुदिण्णं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरेइ / एवं सति अस्थि उटाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा बोरिए इवा पुरिसरकारपरक्कमे इ वा। [10-3 प्र.] भगवन् ! यदि जीव अनुदीर्ण-उदीरणाभविक को उदीरणा करता है, तो क्या उत्थान से, कर्म से, बल से, बीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से उदीरणा करता है, अथवा अनुत्थान से, अकर्म से, प्रबल से, अवीर्य से और अपुरुषकार-पराक्रम से उदोरणा करता है ? [10-3 उ.] गौतम ! वह अनुदीर्ण-उदीरणा-भविक कर्म की उदीरणा उत्थान से, कर्म से, बल से, वीर्य से और पुरुषकार-पराक्रम से करता है, (किन्तु) अनुत्थान से, अकर्म से, अबल से; अवीर्य से और अपुरुषकार-पराक्रम से उदीरणा नहीं करता / अतएव उत्थान है, कर्म है, बल है, वीर्य है और पुरुषकार पराक्रम है / 11. [1] से नणं भंते ! अप्पणा चेव उवसामेह, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरेइ ? हंता, गोयमा ! एत्थ वि तं चेव माणियब्वं, नवरं अणुदिण्णं उवसामेइ, सेसा पडिसेहेयव्वा तिणि / 11-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह अपने आप से ही (कांक्षा-मोहनीय कर्म का) उपशम करता है, अपने आप से ही गहीं करता है और अपने आप से ही संवर करता है ? Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक 3 ] [ 75 [11-1 उ.J हाँ, गौतम ! यहाँ भी उसो प्रकार 'पूर्ववत्' कहना चाहिए / विशेषता यह है कि अनुदोर्ण (उदय में नहीं आए हुए) का उपशम करता है, शेष तीनों विकल्पों का निषेध करना चाहिए। [2] जंतं भंते ! अदिण्णं उवसामेइ तं कि उट्ठाणेणं जाव पुरिसककारपरक्कमेण वा। [11-2 प्र.} भगवन् ! जीव यदि अनुदीर्ण कर्म का उपशम करता है, तो क्या उत्थान से यावत् पुरुषकार-पराक्रम से करता है या अनुत्थान से यावत् अपुरुषकार-पराक्रम से करता है ?' [11-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना-यावत् पुरुषकार-पराक्रम से उपशम करता है। 12. से नणं भंते ! अप्पणा चेव वेदेइ अप्पणा चेव गरहइ ? एत्थ वि स च्चेव परिवाडी। नवरं उदिण्णं वेएइ, नो अदिग्णं वेएई। एवं जाव पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा। [१२-प्र.] भगवन् क्या जीव अपने आप से ही वेदन करता है और गर्दा करता है ? [१२-उ. गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त समस्त परिपाटी पूर्ववत् समझनी चाहिए / विशेषता यह है कि उदोर्ण को वेदता है, अनुदोर्ण को नहीं वेदता। इसी प्रकार यावत् पुरुषकार पराक्रम से वेदता है, अनुत्थानादि से नहीं वेदता है / 13. से नणं भंते ! अप्पणा चेव निज्जरेति अप्पणा चेव गरहइ ? एत्थ वि स च्चेव परिवाडी। नवरं उदयाणतरपच्छाकडं कम्म निज्जरेइ, एवं जाव परक्कमेइ बा। [१३-प्र.] 'भगवन् ! क्या जीव अपने आप से ही निर्जरा करता है और गर्दा करता है ?' [१३-उ.] गौतम ! यहाँ भो समस्त परिपाटो 'पूर्ववत्' समझनी चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म को निर्जरा करता है। इसी प्रकार यावत् पुरुषकारपराक्रम से निर्जरा और गर्दा करता है / इसलिए उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम हैं। विवेचन-कांक्षामोहनीय कर्म को उदोरणा, गो, संवर, उपशम, वेदन, निर्जरा प्रादि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत चार सूत्रों में कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा आदि के सम्बन्ध में तीन मुख्य प्रश्नोत्तर हैं-(१) उदीरणादि अपने आप से करता है, (2) उदीर्ण, अनुदीर्ण, अनुदीर्णउदोरणाभविक और उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म में से अनुदीर्ण-उदीरणाभविक को अर्थात्-जो उदय में नहीं आया है किन्तु उदीरणा के योग्य है उसकी उदोरणा करता है, (3) उत्थानादि पाँचों से कर्मोदीरणा करता है, अनुत्थानादि से नहीं / इसी के सन्दर्भ में उपशम, संवर, वेदन, गर्हा एवं निर्जरा के विषय में पूर्ववत् तीन-तीन मुख्य प्रश्नोत्तर अंकित हैं / उदीरणा : कुछ शंका-समाधान -(1) जोव काल आदि अन्य को सहायता से उदीरणा आदि करता है, फिर भी जीव को ही यहाँ कर्ता के रूप में क्यों बताया गया है ? इसका समाधान यह है कि जैसे घडा बनाने में कम्हार के अतिरिक्त गधा. दण्ड. चक्र. चीवर. काल प्रा होते हुए भो कुम्हार को ही प्रधान एवं स्वतंत्र कारण होने के नाते घड़े का कर्ता माना जाता है, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वैसे ही कर्म की उदीरणा आदि का प्रधान एवं स्वतंत्र कर्ता जीव को ही समझना चाहिए / (2) उदीरणा के साथ गर्दा और संवरणा (संवर) को रखने का कारण यह है कि ये दोनों उदीरणा के साधन हैं। (3) कर्म की उदीरणा में काल, स्वभाव, नियति, गुरु आदि भी कारण हैं, फिर भी जीव के उत्थान आदि पुरुषार्थ की प्रधानता होने से उदीरणा आदि में आत्मा के पुरुषार्थ को कारण बताया गया है। गर्दा प्रादि का स्वरूप अतीतकाल में जो पापकर्म किया, उनके कारणों को ग्रहण (कर्मबन्ध के कारणों का विचार) करके आत्मनिन्दा करना गहीं है। इससे पापकर्म के प्रति विरक्तिभाव जागृत होता है / गहीं प्रायश्चित्त की पूर्वभूमिका है, और उदीरणा में सहायक है / वर्तमान में किये जाने वाले पापकर्म के स्वरूप को जानकर या उसके कारण को समझकर उस कर्म को रोकना या उसका त्याग-प्रत्याख्यान कर देना संवर है। उदीर्ण (उदय में आए हुए) कर्म का क्षय होता है और जो उदय में नहीं आए हैं, उनके विपाक और प्रदेश का अनुभव न होना-कर्म की ऐसी अवस्था को उपशम कहते हैं। शास्त्रानुसार उपशम अनुदीर्ण कर्मों का विशेषतः मोहनीय कर्म का ही होता है, अन्य कर्मों का नहीं। वेदना और गर्दा—वेदन का अर्थ है-उदय में आए हुए कर्म-फल को भोगना / दूसरे की वेदना दूसरे को नहीं होती, न ही दूसरा दूसरे की वेदना को भोग सकता है / पुत्र की वेदना से माता दुःखी होती है, परन्तु पुत्र को पुत्र की वेदना होती है, माता को अपनी वेदना—मोहममत्व सम्बन्ध के कारण पीड़ा होती है। और यह भी सत्य है, अपनी वेदना को स्वयं व्यक्ति से, समभाव से या गर्हा से भोगकर मिटा सकता है, दूसरा नहीं / वेदना और गर्हा दोनों पदों को साथ रखने का कारण यह है कि सकाम वेदना और सकाम निर्जरा बिना गर्दा के नहीं होती। अतः सकाम वेदना और सकाम निर्जरा का कारण गर्दा है, वैसे संवर भी है / कर्मसम्बन्धी चतुर्भगी-मूल में जो चार भंग कहे हैं, उनमें से तीसरे भंग में उदीरणा, दूसरे भंग में उपशम, पहले भंग में वेदन और चौथे भंग में निर्जरा होती है। शेष सब बातें सब में समान हैं।' निष्कर्ष यह है कि उदय में न आए हुए, किन्तु उदीरणा के योग्य कर्मों की उदीरणा होती है, अतुदीर्ण कर्मों का उपशम होता है, उदीर्ण कर्म का वेदन होता है, और उदयानन्तर पश्चात्कृत (उदय के बाद हटे हुए) कर्म की निर्जरा होती है। 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 58-59 (ख) "अणमेत्तो वि, ण कस्सइ बंधो, परवत्थुपच्चयो भणियो।" (ग) “मोहस्सेवोपसमो खग्रोवसमो चउण्ह घाईणं / उदयक्खयपरिणामा अठगह वि होंति कम्माणं // " (घ) "तइएण उदीरेंति, उवसामेति य पुणो वि बीएणं / वेइंति निज्जरंति य पढमचउत्थेहिं सब्बेऽवि // " Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] [77 चौबोस दण्डकों तथा श्रमणों के कांक्षामोहनीयवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 14. [1] नेरइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएंति ? जहा प्रोहिया जीवा तहा नेरइया जाव थणितकुमारा। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [14-1 उ.] हाँ, गौतम ? वेदन करते हैं। सामान्य (ोधिक) जीवों के सम्बन्ध में जैसे आलापक कहे थे, वैसे ही नैरयिकों के सम्बन्ध में यावत् स्तनितकुमारों (दसवें भवनपति देवों) तक समझ लेने चाहिए। [2] पुढविक्काइया णं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम वेदेति ? हंता, वेदेति। [14-2 प्र.] भगवन् ? क्या पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [14-2 उ,] हाँ, गौतम ! वे वेदन करते हैं / [3] कहं णं भंते ! पुढविक्काइया कंखामोहणिज्ज कम्म बर्देति ? गोयमा ! तेसि णं जोवाणं गो एवं तक्का इ वा सण्णा इ वा पण्णा इ वा मणे इ वा वई ति वा 'अम्हे णं कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेमो' वेदेति पुण ते। [14-3 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिक जीव किस प्रकार कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन करते हैं ? [14-3 उ.] गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन नहीं होता कि 'हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं'; किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं। [4] से णणं भंते ! तमेव सच्चं नोसंकं जंजिर्णोह पवेदियं / सेसं तं चैव जाव पुरिसक्कार-परक्कमेणं ति वा। [14.4 प्र.] भगवन् ! क्या वहो सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है ? [14-4 उ.] हाँ, गौतम ! यह सब पहले के समान जानना चाहिए-अर्थात्-जिनेन्द्रों द्वारा जो प्ररूपित है, वही सत्य और निःशंक (असंदिग्ध) है, यावत्-पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा होती है / [5] एवं जाव चरि दिया। [14-5] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियजीवों तक जानना चाहिए / [6] पंचिदियतिरिक्खजोणिया जाव येमाणिया जहा प्रोहिया जीवा। [14-6] जैसे सामान्य जीवों के विषय में कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों से लेकर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 15. [1] अस्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्नं कम्मं वेदेति ? हंता, अस्थि / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [15-1 प्र.] भगवन् ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? [15-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे भी वेदन करते हैं। [2] कहं णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेति ? गोयमा! तेहि तेहि नाणंतरेहि सणंतरेहि चरितंतरेहि लिगंतरेहि पवयणंतरेहि पावयणंतरेहि कप्पतरोहिं मग्गंतरेहि मतंतरेहि भंगतरेहि नयंतरेहि नियमंतरेहि पमाणंतरेहि संकिया कंखिया वितिकिछिता मेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना, एवं खलु समणा निग्गंया कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति / / [15-2 प्र.] भगवन् ! श्रमण निर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस प्रकार करते हैं ? [15-2 उ.] गौतम ! उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावनिकान्तर कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं। [3] से नणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिहि पवेइयं ? हंता, गोयमा ! तमेव सच्चं नोसंकं जाव पुरिसककारपरक्कमे इ वा / सेवं भंत ! सेवं भंते ! / / तइनो उद्देसो सम्मत्तो 1-3 // [15.3 प्र.] भगवन् ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों ने प्ररूपित किया है ? [15-3 उ.] हाँ, गौतम ! वही सत्य है, नि:शंक है, जो जिन भगवन्तों द्वारा प्ररूपित है, यावत् पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा होती है; (तक सारे ग्रालापक समझ लेने चाहिए।) गौतम–हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यही सत्य है ! विवेचन--चौबीस दण्डकों तथा श्रमण निर्ग्रन्थों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तरप्रस्तुन दो सूत्र में से प्रथम सूत्र में चौबीस दण्डक के जोवों के 6 अवान्तर प्रश्नोत्तरों द्वारा तथा श्रमणनिर्ग्रन्थों के कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। पृथ्वीकाय कर्मवेदन कैसे करते हैं ? --जिन्हें मनोलब्धि प्राप्त नहीं, जो भले-बुरे को पहिचान नहीं कर पाते वे पृथ्वीकायिक जीव कांक्षामोहनीय कर्म का बेदन कैसे करते हैं ? इस प्राशय से श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछा गया है / तर्क आदि का स्वरूप यह इस प्रकार होगा', इस प्रकार के विचार-विमर्श या ऊहापोह को तर्क कहते हैं / संज्ञा का अर्थ है-अर्थावग्रहरूप ज्ञान / प्रज्ञा का अर्थ है-नई-नई स्फुरणा वाला विशिष्ट ज्ञान या बुद्धि / स्मरणादिरूप मतिज्ञान के भेद को मन कहते हैं / अपने अभिप्राय को शब्दों द्वारा व्यक्त करना वचन कहलाता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-३ ] शेष दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन-पृथ्वीकाय की तरह अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक ऐसा ही वर्णन जानना चाहिए / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय से वैमानिक तक समुच्चयजीव के वर्णन की तरह समझना चाहिए / श्रमण-निर्ग्रन्थ को भी कांक्षामोहनीयकर्म-वेदन-श्रमणनिर्ग्रन्थों की बुद्धि आगमों के परिशीलन से शुद्ध हो जाती है, फिर उन्हें कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे हो सकता है ? इस आशय से गौतम स्वामी का प्रश्न है। ज्ञानान्तर--एक ज्ञान से दूसरा ज्ञान / यथा पांच ज्ञान क्यों कहे गये ? अवधि और मनः पर्याय ये दो ज्ञान पृथक क्यों ? दोनों रूपी पदार्थों को जानते हैं, दोनों विकल एवं अतीन्द्रिय हैं, क्षायोपशमिक हैं। फिर भेद का क्या कारण है ? इस प्रकार का संदेह होना / यद्यपि विषय, क्षेत्र, स्वामी आदि अनेक अपेक्षामों से दोनों ज्ञानों में अन्तर है, उसे न समझ कर शंका करने से और शंकानिवारण न होने से कांक्षा, विचिकित्सा और कलुषता आदि पाती है। दर्शनान्तर-सामान्य बोध, दर्शन है / यह इन्द्रिय और मन से होता है / फिर चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, इस प्रकार से दो भेद न करके या तो इन्द्रियदर्शन और मनोदर्शन, यों दो भेद करने थे, या इन्द्रियजन्य और अनिन्द्रियजन्य, यों दो भेद करने थे, अथवा श्रोत्रदर्शन, रसनादर्शन, मनोदर्शन आदि 6 भेद करने चाहिए थे / किन्तु चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन, ये दो भेद करने के दो मुख्य कारण हैं(१) चक्षुदर्शन विशेष रूप से कथन करने के लिए और अचक्षुदर्शन सामान्य रूप से कथन के लिए है / (2) चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी है, शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं / मन अप्राप्यकारी होते हुए भी सभी इन्द्रियों के साथ रहता है / इस प्रकार का समाधान न होने से शंकादि दोषों से ग्रस्त हो जाता है। ___ अथवा 'दर्शन' का अर्थ सम्यक्त्व है। उसके विषय में शंका पैदा होना। जैसे-ौपशमिक और क्षायोपशमिक दोनों सम्यक्त्वों का लक्षण लगभग एक-सा है, फिर दोनों को पृथक-पृथक क बताने का क्या कारण है ? ऐसी शंका का समाधान न होने पर कांक्षामोहनोयकर्म का वेदन करते हैं। इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव को अपेक्षा उदय होता है, जबकि औपशमिक सम्यक्त्व में प्रदेशानुभव हो नहीं होता। इस कारण दोनों को पृथक-पृथक कहा गया है। चारित्रान्तर–चारित्र विषयक शंका होना / जैसे-सामायिक चारित्र सर्वसावधविरति रूप है और महाव्रतरूप होने से छेदोपस्थापनिक चारित्र भी अवद्यविरति रूप है, फिर दोनों पृथक्-पृथक क्यों कहे गए हैं ? इस प्रकार की चारित्रविषयक शंका भी कांक्षामोहनीय कर्मवेदन का कारण बनते है। समाधान यह है कि चारित्र के ये दो प्रकार न किये जाए तो केवल सामायिक चारित्र ग्रहण करने बाले साधु के मन में जरा-सी भूल करते ही ग्लानि पैदा होती कि मैं चारित्रभ्रष्ट हो गया ! क्योंकि उसकी दृष्टि से केवल सामायिक ही चारित्ररूप है। इसलिए प्रथम सामायिक चारित्र ग्रहण करने के बाद दूसरी बार महावतारोपण रूप छेदोषस्थापनीय चारित्र ग्रहण करने पर सामायिक सम्बन्धी थोड़ी भूल हो जाए तो भी उसके महानत खण्डित नहीं होते / इसीलिए दोनों चारित्रों के ग्रहण करने का विधान प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के क्रमशः ऋजुजड़ और वक्रजड़ साधुओं के लिए अनिवार्य बताया गया है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लिंगान्तर-लिंग = वेष के विषय में शंका उत्पन्न होना कि बीच के 22 तीर्थंकरों के साधुओं के लिए तो वस्त्र के रंग ओर परिमाण का कोई नियम नहीं है, फिर प्रथम और अन्तिम तीर्थकर के साधुओं के लिए श्वेत एवं प्रमाणोपेत वस्त्र रखने का नियम क्यों ? इस प्रकार की वेश (लिंग) सम्बन्धी शंका से कांक्षामोहकर्म वेदन होता है। प्रवचनान्तर-प्रवचनविषयक शंका, जैसे-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों ने पांच महाव्रतों का और बीच के 22 तीर्थंकरों ने चार महावतों का प्रतिपादन किया, तीर्थंकरों में यह प्रवचन (वचन) भेद क्यों ? इस प्रकार की शंका होना भी कांक्षामोहकर्मवेदन का कारण है। प्रावनिकान्तर-प्रावनिक का अर्थ है--प्रवचनों का ज्ञाता या अध्येता; बहुश्रुत साधक / दो प्रावचनिकों के प्राचरण में भेद देखकर शंका उत्पन्न होना भी कांक्षामोहवेदन का कार कल्पान्तर-जिनकल्प, स्थविरकल्प आदि कल्पों के मुनियों का प्राचार-भेद देखकर शंका करना कि यदि जिनकल्प कर्मक्षय का कारण हो तो स्थविरकल्प का उपदेश क्यों ? यह भी कांक्षामोहवेदन का कारण है। मार्गान्तर-मार्ग का अर्थ है--परम्परागत समाचारी पद्धति / भिन्न समाचारी देखकर शंका करना कि यह ठीक है या वह ? ऐसी शंका भी कांक्षा मोह वेदन का कारण है / मतान्तर–भिन्न-भिन्न प्राचार्यों के विभिन्न मतों को देखकर शंका करना / भंगान्तर--द्रव्यादि संयोग से होने वाले भंगों को देखकर शंका उत्पन्न होना / नयान्तर--एक ही वस्तु में विभिन्न नयों को अपेक्षा से दो विरुद्ध धर्मों का कथन देखकर शंका होना। नियमान्तर-साधुजीवन में सर्वसावद्य का प्रत्याख्यान होता ही है, फिर विभिन्न नियम क्यों ; इस प्रकार शंकाग्रस्त होना। प्रमाणान्तर-----आगमप्रमाण के विषय में शंका होना। जैसे—सूर्य पृथ्वी में से निकलता दीखता है परन्तु आगम में कहा है कि पृथ्वी से 800 योजन ऊपर संचार करता है, प्रादि / ' / / प्रथम शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 60 से 62 तक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : पगई चतुर्थ उद्देशक : (कर्म-) प्रकृति 1. कति णं भंते ! कम्मपगडोरो पण्णत्तानो ? गोतमा ! प्रढ कम्मपगडोरो पण्णत्तानो / कम्मपगडीए पढमो उद्देसो नेतन्यो जाव अणुभागो सम्मत्तो। गाहा- कति पगडी?१ कह बंधइ?२ कतिहि व ठाणेहिं बंधती पगडी?३। कति वेदेति व पगडी ?4 अणुभागो कतिविहो कस्स? 5 // 1 // [1 प्र.] भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं / यहाँ (प्रजापनासूत्र के) 'कर्मप्रकृति' नामक तेईसवें पद का प्रथम उद्देशक (यावत्) अनुभाग तक सम्पूर्ण जान लेना चाहिए। ___गाथार्थ-कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? जीव किस प्रकार कर्म बांधता है ? कितने स्थानों से कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है ? किस प्रकृति का कितने प्रकार का अतुभाग (रस) है ? विवेचन-कर्मप्रकृतियों से सम्बन्धित निर्देश-प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र का संदर्भ देकर कर्मप्रकृति सम्बन्धी समस्त तत्त्वज्ञान का निर्देश कर दिया है / कर्म और आत्मा का सम्बन्ध–निम्नोक्त शंकायों के परिप्रेक्ष्य में कर्मसम्बन्धी प्रश्न श्री गौतम स्वामी ने उठाए हैं--(१) कर्म आत्मा को किस प्रकार लगते हैं ? क्योंकि जड़ कर्मों को कुछ ज्ञान नहीं होता, वे स्वयं प्रात्मा को लग नहीं सकते, (2) कर्म रूपी हैं, आत्मा अरूपी। अरूपी के साथ रूपी का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यद्यपि प्रत्येक बंधने वाले कर्म की आदि है, किन्तु प्रवाहरूप में कर्मबन्ध अनादिकालीन है। अतः यह कहा जा सकता है कि अनादिकाल से कर्म आत्मा के साथ लगे हुए हैं। कर्म भले जड़ हैं किन्तु जीव के रागादि विभावों के कारण उनका आत्मा के साथ बंध होता है। उन कर्मों के संयोग से प्रात्मा अनादिकाल से ही, स्वभाव से अत्तिक होते हुए भी मूत्तिक हो रहा है / वास्तव में, संसारी प्रात्मा रूपी है उसो को कर्म लगते हैं। इसलिए आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अरूपी और रूपी का सम्बन्ध नहीं है. वरन् रूपी का रूपी के साथ सम्बन्ध है / इस दृष्टि से संसारी आत्मा कर्मों का कर्ता है, उसके किये बिना कर्म नहीं लगते / यद्यपि कोई भी एक कम अनादिकालीन नहीं है और न अनन्तकाल तक आत्मा के साथ रह सकता है / 8 मूल कर्मप्रकृतियों का बंध प्रवाहतः अनादिकाल से होता पा रहा है। राग-द्वेष दो स्थानों से कर्म-बन्ध होने के साथ-साथ वेदन प्रादि भी होता है; अनुभागबन्ध भो / यह सब विवरण प्रज्ञापनासूत्र से जान लेना चाहिए।' 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 63 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उदीर्ण-उपशान्तमोह जीव के सम्बन्ध में उपस्थान-उपक्रमणादि प्ररूपणा 2. [1] जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिण्णेणं उबढाएज्जा ? हंता, उवट्ठाएज्जा। [2.1 प्र.] भगवन् ! (पूर्व-) कृत मोहनीय कर्म जब उदीर्ण (उदय में आया) हो, तब जीव उपस्थान-परलोक की क्रिया के लिए उद्यम करता है ? [2-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह उपस्थान करता है / [2] से भंते ! कि वीरियत्ताए उबढाएज्जा ? अबीरियत्ताए उवढाएज्जा? गोतमा! वीरियत्ताए उवढाएज्जा, नो अवीरियत्ताए उवढाएज्जा / [2-2 प्र.] भगवन् ! क्या जीव वोर्यता-सवीर्य होकर उपस्थान करता है या अवीर्यता से ? [2-2 उ.] गौतम ! जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, अवीर्यता से नहीं करता। [3] जदि वोरियत्ताए उबढाएज्जा कि बालवौरियत्ताए उवट्ठाएज्जा ? पंडितवीरियताए उवढाएज्जा? बाल-पंडितवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा? गोयमा ! बालवीरियत्ताए उवढाएज्जा, जो पंडितवोरियताए उबढाएज्जा, नो बाल-पंडितवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा। [2-3 प्र.] भगवन् ! यदि जीव वीर्यता से उपस्थान करता है, तो क्या बालवीर्य से करता है, अथवा पण्डितवीर्य से या बाल-पण्डितवीर्य से करता है ? [2-3 उ.] गौतम ! वह बालवीर्य से उपस्थान करता है, किन्तु पण्डितवीर्य से या बालपण्डितवीर्य से उपस्थान नहीं करता। 3. [1] जीवे णं भंते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिपणेणं अवक्कमेज्जा ? हंता, अवक्कमेज्जा। [3-1 प्र.] भगवन् ! (पूर्व-) कृत (उपाजित) मोहनीय कर्म जब उदय में आया हो, तब क्या जीव अपक्रमण (पतन) करता है ; अर्थात्-उत्तम गुणस्थान से हीन गुणस्थान में जाता है ? [3-1 उ.] हाँ, गौतम ! अपक्रमण करता है / [2] से भंते ! जाब बालपंडियवीरियत्ताए प्रवक्कमेज्जा 3? गोयमा! बालवीरियत्ताए प्रवक्कमेज्जा, नो पंडियवोरियत्ताए प्रवक्कमेज्जा, सिय बालपंडियवोरियत्ताए प्रवक्कमेज्जा। [3.2 प्र.] भगवन् ! वह बालवीर्य से अपक्रमण करता है, अथवा पण्डितवीर्य से या बालपण्डितवीर्य से? 3-2 उ.] गौतम ! वह बालवीर्य से अपक्रमण करता है, पण्डितवीर्य से नहीं करता; कदाचित् बालपण्डितवीर्य से अपक्रमण करता है। 4. जहा उदिण्णणं दो पालावगा तहा उक्संतेण वि वो पालावगा भाणियब्वा / नवरं उवढाएज्जा पंडितबोरियत्ताए, प्रवक्कमेज्जा बाल-पंडितवोरियत्ताए। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४] [4] जैसे उदीर्ण (उदय में प्राए हुए) पद के साथ दो पालापक कहे गए हैं, वेसे हो 'उपशान्त' पद के साथ दो पालापक कहने चाहिए / विशेषता यह है कि यहाँ जीव पण्डितवीर्य से उपस्थान करता है और अपक्रमण करता है—बालपण्डितवीर्य से / 5. [1] से भंते ! कि प्राताए प्रवक्कमइ ? प्रणाताए प्रवक्कमइ ? गोयमा ! आताए प्रवक्कमइ, णो प्रणाताए अवक्कमइ। [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव आत्मा (स्व) से अपक्रमण करता है अथवा अनात्मा (पर) से करता है ? [5-1 उ.| गौतम ! प्रात्मा से अपक्रमण करता है, अनात्मा से नहीं करता। [2] मोहणिज्जं कम्मं वेदेंमाणे से कहमेयं भंते ! एवं? गोतमा ! पुत्विं से एतं एवं रोयति इदाणि से एयं एवं नो रोयइ, एवं खलु एतं एवं / [5-2 प्र.] भगवन् ! मोहनीय कर्म को वेदता हुआ यह (जीव) इस प्रकार क्यों होता है अर्थात् क्यों अपक्रमण करता है ? [5-2 उ.] गौतम ! पहले उसे इस प्रकार (जिनेन्द्र द्वारा कथित तत्त्व) रुचता है और अब उसे इस प्रकार नहीं रुचता; इस कारण यह अपक्रमण करता है। विवेचन-उदीर्ण-उपशान्त मोहनीय जीव के सम्बन्ध में उपस्थान-प्रपत्रमणादि प्ररूपणाप्रस्तुत चार सूत्रों में विशेषरूप से मोहनीय कर्म के उदय तथा उपशम के समय जीव की परलोक साधन के लिए की जाने वाली (उपस्थान) क्रिया तथा अपक्रमण क्रिया के सम्बन्ध में संकलित प्रश्नोत्तर हैं। मोहनीय का प्रासंगिक अर्थ यहाँ मोहनीय कर्म का अर्थ साधारण मोहनीय नहीं, अपितु 'मिथ्यात्वमोहनीय कर्म' विवक्षित है। श्री गौतमस्वामी का यह प्रश्न पूछने का आशय यह है कि कई अज्ञानी भी परलोक के लिए बहुत उग्र एवं कठोर क्रिया करते हैं अत: क्या वे मिथ्यात्व का उदय होने पर भी परलोक साधन के लिए क्रिया करते हैं या मिथ्यात्व के अनुदय से ? भगवान् का उत्तर स्पष्ट है कि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होने पर भी जीव परलोक सम्बन्धी किया करते हैं। वीरियताए-वीर्य (पराक्रम) का योग होने से प्राणी भी वीर्य कहलाता है। वीर्यता का आशय है वीर्ययुक्त होकर या वीर्यवान् होने से / और उसी वीर्यता के द्वारा वह परलोक साधन की क्रिया करता है / इससे स्पष्ट है कि उस क्रिया का कर्ता जीव ही है, कर्म नहीं / अगर जीव को क्रिया का कर्ता न माना जाए तो उसका फल किसे मिलेगा ? त्रिविध वीर्य-बालवीर्य, पण्डितवीर्य और बालपण्डितवीर्य / जिस जीव को अर्थ का सम्यक बोध न हो और सद्बोध के फलस्वरूप विरति न हो, यानी जो मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी हो, वह बाल है, उसका वीर्य बालवीर्य है / जो जीव सर्वपापों का त्यागी हो; जिसमें विरति हो, जो क्रियानिष्ठ हो, वह पण्डित है, उसका वीर्य पण्डितवीर्य है। जिन त्याज्य कार्यों को मोहकर्म के उदय से त्याग नहीं सका, किन्तु त्यागने योग्य समझता है स्वीकार करता है, वह बालपण्डित है। जैसे Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसका हिंसा को त्याज्य मानना पण्डितपन है, किन्तु अाचरण से उसे न छोड़ना बालपन है जो आंशिक रूप से पाप से हट जाता है वह भी बालपण्डित है। उसका वीर्य बालपण्डितवीर्य कहलाता है। उपस्थान क्रिया और अपक्रमण किया-मिथ्यात्वमोहनीय का उदय होने पर जीव के द्वारा उपस्थान क्रिया बालवीर्य द्वारा ही होती है। उपस्थान की विपक्षी क्रिया- अपक्रमरण है / अपक्रमण क्रिया का अर्थ है-उच्चगुणस्थान से नीचे गुणस्थान को प्राप्त करना। अपक्रमण क्रिया भी बालवीर्य द्वारा होती है। इसका तात्पर्य यह है कि जब जीव के मिथ्यात्व का उदय हो, तब वह सम्यक्त्व से, संयम (सर्वविरति) से, या देशविरति (संयम) से वापस मिथ्यादृष्टि बन जाता है। पण्डितवीर्यत्व से वह अपक्रमण नहीं करता, (वापस लौटता नहीं), कदाचित् चारित्रमोहनीय का उदय हो तो सर्वविरति (संयम) से पतित होकर बालपण्डितवीर्य द्वारा देशविरति श्रावक हो जाता है / वाचा चनान्तर के अनुसार प्रस्तुत में 'न तो पण्डितवीर्य द्वारा अपक्रमण होता है, और न ही वालपण्डितवीर्य द्वारा'; क्योंकि जहाँ मिथ्यात्व' का उदय हो, वहाँ केवल बालवीर्य द्वारा ही अपक्रममा होता है। निए यह है कि मिथ्यात्व मोहकर्मवश जीव अपने ही पुरुषार्थ से गिरता है। मोहनीय की उदीर्ण अवस्था से उपशान्त अवस्था बिलकुल विपरीत है। इसके होने पर जीव पण्डितवीर्य द्वारा उपस्थान करता है ! वाचनान्तर के अनुसार वृद्ध आचार्य कहते हैं-'मोह का उपशम होने पर जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होता. साधु या धावक होता है। उपशान्तमोहवाला जीव जब अपक्रमण करता है, तब बालपण्डितवीर्यता में आता है, बालवीर्यता में नहीं, क्योंकि मोहनीय कर्म उपशान्त होता है, तब जीव बालपण्डितवीर्यता द्वारा संयत अवस्था से पीछे हटकर देशसंयत हो जाता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि नहीं होता। यह अपक्रमण भी स्वयं (आत्मा) द्वारा होता है, दूसरे के द्वारा नहीं। मोहनीय कर्म वेदते हुए भी अपकमण क्यों ? इस प्रश्न के उत्तर का आशय यह है कि क्रमण होने से पूर्व यह जीव, जीवादि नौ तत्त्वों पर श्रद्धा रखता था, धर्म का मूल-अहिंसा मानता था, 'जिनेन्द्र प्रभु ने जैसा कहा है, वही सत्य है' इस प्रकार धर्म के प्रति पहले उसे रुचि थी, लेकिन अब मिथ्यात्वमोहनीय के बेदनवश श्रद्धा विपरीत हो जाने से अर्हन्त प्ररूपित धर्म तथा पहले रुचिकर लगने वाली बातें अब रुचिकर नहीं लगती। तब सम्यग्दृष्टि था, अब मिथ्यादष्टि है। सारांश यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का बन्ध, धर्म आदि पर अरुचि-अश्रद्धा रखने से होता है।' कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं 6. से नणं भते ! नेरइयस्स वा, तिरिक्वजोणियस्स वा, मणसस्स वा, देवस्स वा जे कडे पाये कम्मे, नस्थि णं तस्ल प्रवेदइत्ता मोक्खो ? हंता, गोतमा ! नेरहयस्स वा, तिरिवखजोणियस्स वा, मणुस्सस्स वा, देवस्स वा जे कड़े पाव कम्मे, नस्थि णं तम्स अवेदइत्ता मोक्खो। से केपट्ठणं भते ! एवं वुच्चति नेरइयस्त वा जाव मोक्खो ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 63, 64 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४ ] [85 एवं खलु मए गोयमा ! दुबिहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पदेसकम्मे य, अणुभागकम्मे य / तत्थ णं जं तं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेति, तत्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं प्रत्थेगइयं वेदेति, प्रत्येगइयं नो वेएइ / णायमेतं अरहता, सुतमेत अरहता, विण्णायमेतं अरहता--"इमं कम्मं अयं जीवे प्रभोवगमियाए वेदणाए वेइस्सइ, इमं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेइस्सइ / श्रहाकम्म अधानिकरणं जहा जहा तं भगवता दिद्रुतहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति / से तेणढणं गोतमा ! नेरइयस्स वा 4 जाव मोक्खो। 6 प्र.] भगवन् ! नारक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे (वेदे) बिना क्या मोक्ष (छुटकारा) नहीं होता ? [6 उ.] हाँ गौतम ! नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ने जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं होता। [प्र. भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नारक यावत् देव को कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं होता? [1] गौतम ! मैंने कर्म के दो भेद बताए हैं। वे इस प्रकार हैं—प्रदेशकर्म और अनुभागकर्म / इनमें जो प्रदेशकर्म है, वह अवश्य (नियम से) भोगना पड़ता है, और इनमें जो अनुभागकर्म है, वह कुछ वेदा (भोगा) जाता है, कुछ नहीं वेदा जाता। यह बात अर्हन्त द्वारा ज्ञात है, स्मृत (अनुचिन्तित या प्रतिपादित) है, और विज्ञात है, कि यह जीव इस कर्म को प्राभ्युपगमिक वेदना से वेदेगा और यह जीव इस कर्म को औपक्रमिक वेदना से वेदेगा। बाँधे हुए कर्मों के अनुसार, निकरणों के अनुसार जैसा-जैसा भगवान् ने देखा है, वैसा-वैसा वह विपरिणाम पाएगा। इसलिए गौतम ! इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् किये हुए कर्मों को भोगे बिना नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव का मोक्ष--छुटकारा नहीं है / विवेचन-कृतकर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं प्रस्तुत सूत्र में कृतकर्मफल को अवश्य भोगना पड़ता है, इसी सिद्धान्त का विशद निरूपण किया गया है। _प्रदेशकर्म-जीव के प्रदेशों में ओतप्रोत हुए --दूध-पानी की तरह एकमेक हुए कर्मपुद्गल / प्रदेशकर्म निश्चय ही भोगे जाते हैं। विपाक अर्थात् अनुभव न होने पर भी प्रदेशकर्म का भोग अवश्य होता है। अनुभागकर्म-उन प्रदेशकर्मों का अनुभव में आने वाला रस / अनुभागकर्म कोई वेदा जाता है, और कोई नहीं वेदा जाता / उदाहरणार्थ-जब आत्मा मिथ्यात्व का क्षयोपशम करता है, तब प्रदेश से तो वेदता है, किन्तु अनुभाग से नहीं वेदता / यही बात अन्य कर्मों के विषय में समझनी चाहिए। चारों गति के जीव कृतकर्म को अवश्य भोगते हैं, परन्तु किसी कर्म को विपाक से भोगते हैं और किसी को प्रदेश से भोगते हैं। प्राभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ- स्वेच्छापूर्वक, ज्ञानपूर्वक कर्मफल भोगना है / दीक्षा लेकर ब्रह्मचर्य पालन करना, भूमिशयन करना, केशलोच करना, बाईस परिषह सहना, तथा विविध प्रकार का तप करना इत्यादि वेदना जो ज्ञानपूर्वक स्वीकार की जाती है, वह भी आभ्युपगमिकी वेदना कहलाती है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औपक्रमिकी वेदना का अर्थ है जो कर्म अपना अबाधाकाल पूर्ण होने पर स्वयं ही उदय में पाए हैं, अथवा उदीरणा द्वारा उदय में लाए गए हैं. उन कर्मों का फल अज्ञानपूर्वक या अनिच्छा से भोगना। यथाकर्म, यथानिकरण का अर्थ यथाकर्म यानी जो कर्म जिस रूप में बांधा है, उसी रूप से, और यथानिकरण यानी विपरिणाम के कारणभूत देश, काल आदि करणों की मर्यादा का उल्लंघन न करके। पापकर्म का प्राशय प्रस्तुत में पापकर्म का आशय है --सभी प्रकार के कर्म / यों तो पापकर्म का अर्थ अशुभकर्म होता है, इस दृष्टि से जो मुक्ति में व्याघात रूप हैं, वे समस्त कर्ममात्र ही अशुभ हैं, दुष्ट हैं, पाप हैं / क्योंकि कर्ममात्र को भोगे बिना छुटकारा नहीं है।' पुद्गल, स्कन्ध और जीव के सम्बन्ध में त्रिकाल शाश्वत प्ररूपणा --- 7. एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं भुवि' इति वत्तव्वं सिया ? हता, गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं 'भुवि' इति वत्तवं सिया / (7. प्र.] भगवन् ! क्या यह पुद्गल-परमाणु अतीत, अनन्त (परिमाणरहित), शाश्वत (सदा रहने वाला) काल में था-ऐसा कहा जा सकता है ? [7. उ.] हाँ, गौतम ! यह पुद्गल अतीत, अनन्त, शाश्वतकाल में था, ऐसा कहा जा सकता है। 8. एस णं भते ! पोग्गले पड़प्पन्न सासयं समयं भवति' इति वत्तव्वं सिया ? हंता, गोंयमा ! तं चेव उच्चारेतन्वं / [8. प्र.] भगवन् ! क्या यह पुद्गल वर्तमान शाश्वत-सदा रहने वाले काल में है, ऐसा कहा जा सकता है ? [8. उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है / (पहले उत्तर के समान ही उच्चारण करना चाहिए।) गंभते ! पोग्गले प्रणागतमणतं सासतं समयं 'भविस्मति' इति वत्तन्वं सिया ? हंता, गोयमा ! तं चैव उच्चारतव। . प्र.] हे भगवन् ! क्या यह पुद्गल अनन्त और शाश्वत भविष्यकाल में रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है ? {8. उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा कहा जा सकता है / (उसो पहले उत्तर के समान उच्चारण करना चाहिए। 10. एवं खंधेण वि तिणि पालावगा। [10] इसी प्रकार के 'स्कन्ध' के साथ भी तीन (त्रिकाल सम्बन्धी) पालापक कहने चाहिए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 65. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४ ] [67 11. एवं जीवेण वि तिणि आलावगा भाणितब्बा। [11] इसी प्रकार 'जीव' के साथ भी तीन आलापक कहने चाहिए / विवेचन--पुद्गल, स्कन्ध और जीव के विषय में त्रिकाल शाश्वत प्रादि प्ररूपणा–प्रस्तुत पाँच सूत्रों में पुद्गल अर्थात् परमाणु, स्कन्ध और जीव के भूत, वर्तमान और भविष्य में सदैव होने की प्ररूपणा की गई है। वर्तमानकाल को शाश्वत कहने का कारण- वर्तमान प्रतिक्षण भूतकाल में परिणत हो रहा है और भविष्य प्रतिक्षण वर्तमान बनता जा रहा है, फिर भी सामान्य रूप से, एक समय रूप में, वर्तमानकाल सदैव विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से उसे शाश्वत कहा है। पुद्गल का प्रासंगिक अर्थ यहाँ पुद्गल का अर्थ 'परमाणु' किया गया है। यों तो पुद्गल 4 प्रकार के होते हैं स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु / किन्तु यहाँ केवल परमाणु ही विवक्षित है क्योंकि स्कन्ध के विषय में आगे अलग से प्रश्न किया गया है / छमस्थ मनुष्य को मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 12. छउमस्थे णं भंते ! मणसे तोतमणतं सास समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहि पवयण पाताहि सिज्झिसु बुझिसु जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिसु ? गोतमा ! नो इण? सम? / से केणढणं माते ! एवं वुच्चाइ तं चेव जाव अंतं करेंसु ? गोतमा ! जे केइ अंतकरा वा, अंतिमसरीरिया वा सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा सम्वे ते उप्पन्ननाण-दसणधरा अरहा जिणे केवली भवित्ता ततो पच्छा सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा कति वा करिस्संति वा, से तेण?णं गोतमा! जाव सव्वदुक्खाणमंतं करें। [12. प्र.] भगवन् ! क्या बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवास से और केवल (अष्ट) प्रवचनमाता (के पालन) से सिद्ध हुआ है, बुद्ध हुअा है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करने वाला हुआ है ? [12. उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.) भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि पूर्वोक्त छद्मस्थ मनुष्य ""यावत् समस्त दुःखों का अन्तकर नहीं हुआ ? उ.] गौतम ! जो भी कोई मनुष्य कर्मों का अन्त करने वाले, चरमशरीरी हुए हैं, अथवा समस्त दुःखों का जिन्होंने अन्त किया है, जो अन्त करते हैं या करेंगे, वे सब उत्पन्नज्ञानदर्शनधारी (केवलज्ञानी-केवलदर्शनी), अर्हन्त, जिन, और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध हुए हैं, बुद्ध हुए हैं, मुक्त हुए हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं, और उन्होंने समस्त दुःखों का अन्त किया है, वे ही करते हैं और करेंगे; इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा है कि यावत् समस्त दुःखों का अन्त किया। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. पडुप्पन्न वि एवं चेव, नवरं 'सिज्झति' भाणितव्वं / [13] वर्तमान काल में भी इसी प्रकार जानना / विशेष यह है कि 'सिद्ध होते हैं', ऐसा कहना चाहिए। 14. अशागते वि एवं चेव, नवरं "सिन्झिस्संति' भाणियन्त्र / [14] तथा भविष्यकाल में भी इसी प्रकार जानना / विशेष यह है कि 'सिद्ध होंगे', ऐसा कहना चाहिए। 15. जहा छउमस्थो तहा प्राधोहियो वि, तहा परमाहोहियो वि / तिणि तिण्णि मालावगा भाणियन्दा / [15] जैसा छद्मस्थ के विषय में कहा है, वैसा ही आधोवधिक और परमाधोवधिक के के विषय में जानना चाहिए और उसके तीन-तीन आलापक कहने चाहिए। केवली को मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 16. केवली णं भंते ! मणसे तीतमणंतं सासयं समयं जाव अतं करेंसु ? हंता, सिज्झिसु जाव अंतं करेंसु / एते तिणि पालावगा भाणियन्वा छउमत्थस्स जहा, नवरं सिज्झिसु, सिझति, सिज्झिरसंति / [16 प्र.] भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में केवली मनुष्य ने यावत् सर्व-दुःखों का अन्त किया है ? 16 उ. हाँ गौतम ! वह सिद्ध हमा, यावत् उसने समस्त दु:खों का अन्त किया। यहाँ भी छद्मस्थ के समान ये तीन पालापक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सिद्ध हुग्रा, सिद्ध होता है और सिद्ध होगा, इस प्रकार (त्रिकाल-सम्बन्धी) तीन आलापक कहने चाहिए। 17. से नणं भंते ! तोतमणतं सासयं समयं, पडुत्पन्नं वा सासयं समय, प्रणागतमणतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा, करिस्संति वा सव्वे ते उम्पन्ननाण-दसणधरा परहा जिणे केवली भवित्ता तो पच्छा सिझंति जाव अंतं करेस्संति वा? हंता, गोयमा ! तीतमणं सासतं समयं जाव अंतं करेस्संति वा / 17. प्र.] भगवन् ! बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में, वर्तमान शाश्वत काल में और अनन्त शाश्वत भविष्यकाल में जिन अन्तकरों ने अथवा चरमशरीरी पुरुषों ने समस्त दुःखों का अन्त किया है, करते हैं या करेंगे; क्या वे सब उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवली होकर तत्पश्चात् सिद्ध, बुद्ध आदि होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ? [17. उ.] हाँ, गौतम ! बीते हुए अनन्त शाश्वतकाल में यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। 18. से नणं भंते ! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली 'अलमत्थ ' ति बत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! उत्पन्न नाण-दसणधरे परहा जिणे केवली 'अलमत्थु' ति वत्तवं सिया। सेव' मते ! सेव भंते ! ति० / // चउत्थो उद्देसओ सम्मत्तो // Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-४] [ 59 [18. प्र.] भगवन् ! वह उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारी, अर्हन्त, जिन और केवलो 'अलमस्तु अर्थात्-पूर्ण है, ऐसा कहा जा सकता है ? [18 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न ज्ञानदर्शनधारी, अर्हन्त, जिन प्रोर केवली पूर्ण (अलमस्तु) है, ऐसा कहा जा सकता है / (गो.) 'हे भगवन् ! यह ऐसा ही है, भगवन् ! ऐसा ही है।' विवेचन--छदमस्थ, केवली आदि को मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सात सूत्रों (12 से 18) तक में छद्मस्थ द्विविध अवधिज्ञानी और केवली, चरम शरीरी आदि के सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाणप्राप्त, सर्वदुःखान्तकर होने के विषय में त्रिकाल-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर अंकित हैं। छमस्थ-छद्म का अर्थ है-ढका हुआ। जिसका ज्ञान किसो यावरण से प्राच्छादित हो रहा है-दब रहा है, वह छदमस्थ कहलाता है / यद्यपि अवधिज्ञानी का ज्ञान भी प्रावरण से ढका होता है, तथापि आगे इसके लिए पृथक सूत्र होने से यहाँ छमस्थ शब्द से अधिज्ञानो को छोड़कर सामान्य ज्ञानी ग्रहण करना चाहिए। ___ निष्कर्ष-मनुष्य चाहे कितना हो उच्च संयमी हो, ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान पर पहुँचा हुआ हो, किन्तु जब तक केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त न हो, तब तक वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकता, न हुआ है, न होगा / अवधिज्ञानी, जो लोकाकाश के सिवाय अलोक के एक प्रदेश को भी जान लेता हो, वह उसी भव में मोक्ष जाता है, किन्तु जाता है, केवली होकर ही / प्राधोऽवधि एवं परमावधिज्ञान-परिमित क्षेत्र-काल-सम्बन्धी अवधिज्ञान प्राधोऽवधि कहलाता है, उससे बहुतर क्षेत्र को जानने वाला परम-उत्कृष्ट अवधिज्ञान, जो समस्त रूपी द्रव्यों को जान लेता हो, परमावधिज्ञान कहलाता है।' / / प्रथम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 67. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : पुढवी पंचम उद्देशक : पृथ्वी चौबीस दण्डकों की आवास संख्या का निरूपण--- 1. कति णं भंते ! पुढवीनो पण्णत्तानो ? गोयमा ! सत्त पुढवीनो पण्णत्तायो / तं जहा-रयणप्पमा जाव तमतमा। / [1. प्र.] भगवन् ! (अधोलोक में) कितनी पृथ्वियाँ (नरकभूभियाँ) कही गई हैं ? [1. उ.] गौतम ! सात पृथ्वियां कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-रत्नप्रभा से लेकर यावत् तमस्तमःप्रभा तक। 2. इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कति निरयावाससयसहस्सा पण्णता? गोतमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता / गाहा तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव या सयसहस्सा। तिण्णेगं :पंचूणं पंचेव अणुत्तरा निरया // 1 // [2. प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नारकावास-नैरयिकों के रहने के स्थान कहे गए हैं ? [2. उ.] गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख नारकावास कहे गए हैं / नारकावासों की संख्या बताने वाली गाथा इस प्रकार है गाथार्थ-प्रथम पृथ्वी (नरकभूमि) में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में 5 कम एक लाख और सातवीं में केवल पांच नारकावास हैं। 3. केवतिया णं भंते ! असुरकुमारावाससतसहस्सा पण्णता? एवं चोयट्ठी असुराणं, चउरासीती य होति नागाणं / बावत्तरी सुवण्णाण, वाउकुमाराण छण्णउती // 2 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-थणिय-मग्गीणं / छण्हं पि जुयलगाणं छावत्तरिमो सतसहस्सा // 3 // [3. प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख आवास कहे गये हैं ? [3. उ.] गौतम ! इस प्रकार हैं-असुरकुमारों के चौंसठ लाख ग्रावास कहे हैं / इसी प्रकार नागकुमारों के चौरासी लाख, सुपर्णकुमारों के 72 लाख, वायुकुमारों के 96 लाख, तथा द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार, इन छह युगलकों (दक्षिणवर्ती और उत्तरवर्ती दोनों के 76-76 लाख आवास कहे गये हैं। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [91 4. केवतिया णं भंते ! पुढविक्काइयावाससतसहस्सा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा पुढविक्काइयावाससयसहस्सा पण्णत्ता जाव असंखिज्जा जोदिसियविमाणावाससयसहस्सा पणत्ता / [4. प्र.] भगवन् ! पृथ्विीकायिक जीवों के कितने लाख ग्रावास कहे गए हैं ? |4. उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवास कहे गए हैं। इसी प्रकार (पृथ्वीकाय से लेकर) यावत् ज्योतिष्क देवों तक के असंख्यात लाख विमानावास कहे गए हैं। 5. सोहम्मे गं भंते ! कप्पे कति विमाणावाससतसहस्सा पण्णता? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा पण्णत्ता एवं बत्तीसऽट्ठावीसा बारस अट्ट चउरो सतसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे // 4 // प्राणय-पाणयकप्पे चत्तारि सताऽऽरण-ऽच्चुए तिष्णि / सत्त विमाणसताई चउसु वि एएसु कप्पेसु // 5 // एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए / सतमेगं उरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा // 6 // [5. प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने विमानावास कहे गए हैं ? [5. उ.] गौतम ! वहाँ बत्तीस लाख विमानावास कहे गए हैं। इस प्रकार क्रमश: बत्तीस लाख, अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चार लाख, पचास हजार तथा चालीस हजार, विमानावास जानना चाहिए। सहस्रार कल्प में छह हजार विमानावास है। ग्राणत और प्राणत कल्प में चार सौ, आरण और अच्युत में तीन सौ, इस तरह चारों में मिलकर सात सौ विमान हैं। अधस्तन (नीचले) अवेयक त्रिक में एक सौ ग्यारह, मध्यम (वोच के) मे वेयक विक्र में एक सौ सात और ऊपर के ग्रेवेयक त्रिक में एक सौ विमानावास हैं / अनुत्तर विमानावास पांच ही हैं। विवेचन-चौबीस दण्डकों को आवास संख्या का निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों में नरक पृथ्वियों से लेकर पंच अनुत्तर विमानवासी देवों तक के आवासों की संख्या के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है। 6. पुढवि ष्टुिति 1 प्रोगाहण 2 सरीर 3 संघयणमेव 4. संठाणे 5 / लेसा 6 विट्ठी 7 गाणे 8 जोगुवनोगे -10 य दस ठाणा // 14 // प्रर्थाधिकार सू. 6.] पृथ्वी (नरक भूमि) आदि जीवावासों में 1. स्थिति, 2. अवगाहना, 3. शरीर, 4. संहनन, 5. संस्थान, 6. लेश्या, 7. दृष्टि, 8. ज्ञान, 9. योग और 10 उपयोग इन दस स्थानों (बोलों) पर विचार करना है। नारकों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक प्रथम स्थितिस्थानद्वार 7. इमोसे णं भंते ! रतणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरतियाणं केवतिया ठितिठाणा पण्णता? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! प्रसंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता / तं जहा-जहनिया ठिती, समयाहिया जहानिया ठिई, दुसमयाहिया जहन्निया ठिती जाव असंखेजसमयाहिया जहनिया ठिती, तप्पाउगुक्कोसिया ठिती। [7. प्र] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में के एक-एक नारकवास में रहने वाले नारक जीवों के कितने स्थिति-स्थान कहे गए हैं ? अर्थात् एक-एक नारकावास के नारकों की कितनी उम्र है ? [7. उ.] गौतम ! उनके असंख्य स्थान कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, वह एक समय अधिक, दो समय अधिक-इस प्रकार यावत् जघन्य स्थिति असंख्यात समय अधिक है, तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति भी। (ये सब मिलकर असंख्यात स्थिति-स्थान होते हैं)। 8. इमोसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु एगमगंसि निरयावासंसि जहनियाए ठितीए वट्टमाणा नेर इया कि कोघोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोव उत्ता, लोभोवउत्ता? गोयमा ! सब्वे वि ताव होज्जा कोहोवउत्ता 1, अहवा कोहोव उत्ता य माणोक्उत्ते य 2, ग्रहवा कोहोवउत्ता य, माणोवउत्ता य 3, अहवा कोहोवउत्ता य मायोव उत्ते य 4, अहवा कोहोवउत्ता य मायोक उत्ता य 5, अहवा कोहोवउत्ता य लोभोवउत्ते य 6, अहवा कोहोवउत्ता य लोभोव उत्ता य 7 / श्रहवा कोहोवउत्ता य माणोवउत्ते य मायोवउत्ते य 1, कोहोवउत्ता य माणोबउत्ते य मायोव उत्ताय 2, कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य मायोवउत्ते य 3, कोहोव उत्ता य माणोवउत्ता य मायाउवउत्ता य 4 / एवं कोह-माण-लोभेण विचउ 4 / एवं कोह-माया-लोभेण विचउ 4, एवं 12 / पच्छा माणेण मायाए लोभेण य कोहो भइयत्वो, ते कोहं अमुचता / एवं सत्तावीस भंगा यन्वा। [८.प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में कम से कम (जघन्य) स्थिति में वर्तमान नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ? [8. उ.] गौतम ! वे सभी क्रोधोपयुक्त होते हैं ? अथवा बहुत से नारक क्रोधोपयुक्त और एक नारक मानोपयुक्त होता है 2, अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और बहुत-से मानोपयुक्त होते हैं 3, अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और एक मायोफ्युक्त होते हैं, 4, अथवा बहुत-से क्रोधोपयुक्त और बहुत-से मायोपयुक्त होते हैं 5, अथवा बहुत-से क्रोधोपयुक्त और एक लोभोपयुक्त होता है 6, अथवा बहुत-से क्रोधोपयुक्त और बहुत-से लोभोपयुक्त होते हैं 7 / अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है 1, बहुत-से क्रोधोपयुक्त, एक मानोपयुक्त और बहुत-से मायोपयुक्त होते हैं 2, बहुत-से क्रोधोपयुक्त, बहुत-से मानोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है 3, बहुत-से क्रोधोपयुक्त, बहुत मानोपयुक्त और बहुत मायोपयुक्त होते हैं 4, इसी तरह क्रोध, मान और लोभ, (यों त्रिक्सयोग) के चार भंग क्रोध, माया और लोभ, (यों त्रिसंयोग) के भी चार भंग कहने चाहिए। फिर मान, माया और लोभ के साथ क्रोध को जोड़ने से चतुष्क-संयोगी पाठ भंग Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] कहने चाहिए। इसी तरह क्रोध को नहीं छोड़ते हुए (चतुष्कसंयोगी 8 भंग होते हैं ) कुल 27 भंग समझ लेने चाहिए। 6. इमोसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाधियाए जहन्नट्टितीए वट्टमाणा नेरइया कि कोधोवउत्ता, माणोव उत्ता, मायोव उत्ता लोभोवउत्ता? गोयमा ! कोहोवउत्ते य माणोवउत्ते यमायोवउत्तै य लोभोवउत्ते य 4 / कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य मायोवउत्ता य लोभोवउत्ता य८ / अधवा कोहोवउत्ते य माणोव उत्ते य 10, प्रधवा कोहोवउत्ते य माणोवयुत्ता य 12, एवं असीति भंगा नेयवा एवं जाव संखिज्जसमयाधिया ठिई। असंखेज्जसमयाहियाए ठिईए तप्पाउग्गुक्कोसियाए ठिईए सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा / 19. प्र.] इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में एक समय अधिक जघन्य स्थिति में वर्तमान नारक क्या क्रोधपयुक्त होते हैं, मानोपयुक्त होते हैं, मायोपयुक्त होते हैं अथवा लोभोपयुक्त होते हैं ? [9. उ.] गौतम ! उनमें से कोई-कोई क्रोधोपयुक्त, कोई मानोपयुक्त, कोई मायोपयुक्त और कोई लोभोपयुक्त होता है / अथवा बहुत-से क्रोधोपयुक्त, मानोपयुक्त, मायोपयुक्त और लोभोपयुक्त होते हैं / अथवा कोई-कोई क्रोधोपयुक्त और मानोपयुक्त होता है, या कोई-कोई क्रोधोपयुक्त और बहुत-से मानोपयुक्त होते हैं। [अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और एक मानोपयुक्त या बहुत से क्रोधोपयुक्त और बहुत से मानोपयुक्त होते हैं / ] इत्यादि प्रकार से अस्सी भंग समझने चाहिए / इसी प्रकार यावत् दो समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्येय समयाधिक जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के लिए समझना चाहिए / असंख्येय समयाधिक स्थिति वालों में तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन-नारकों के क्रोधोपयुक्तादिनिरूपणपूर्वक प्रथम स्थितिस्थानद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों में संग्रहणी गाथा के अनुसार रत्नप्रभा पथ्वी के नारकावासों के निवासी नारकों के जघन्य. मध्यम और उत्कृष्ट स्थिति स्थानों की अपेक्षा से क्रोधोपयुक्तादि विविध विकल्प (भंग) प्रस्तुत किये गए हैं / जधन्यादि स्थिति-प्रत्येक नारकावास में रहने वाले नारकों की स्थिति के स्थान भिन्न-भिन्न होने के कारण हैं--किसी की जघन्य स्थिति है, किसी की मध्यम और किसी की उत्कृष्ट / इस प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रतर में नारकों की आयु कम से कम (जघन्य) 10 हजार वर्ष की और अधिक से अधिक (उत्कृष्ट)९० हजार वर्ष की है। जघन्य और उत्कृष्ट के बीच की आयु को मध्यम प्रायू कहते हैं। मध्यम प्राय जघन्य और उत्कृष्ट के समान एक प्रकार की नहीं है। जघन्य: एक समय अधिक की; दो, तीन, चार समय अधिक को यावत संख्येय और असंख्येय समय अधिक की आयु भी मध्यम कहलाती है। यों मध्यम प्रायु (स्थिति के अनेक विकल्प हैं। इसलिए कोई नारक दस हजार वर्ष की स्थिति (जघन्य) वाला, कोई एक समय अधिक 10 हजार वर्ष को स्थिति वाला यों क्रमश: असंख्यात समय अधिक (मध्यम) स्थिति वाला और कोई उत्कृष्ट स्थिति वाला होने से नारकों के स्थितिस्थान असंख्य समय-काल का वह सूक्ष्मतम अंश, जो निरंश है, जिसका दूसरा अंश संभव नहीं है, वह जैनसिद्धान्तानुसार 'समय' कहलाता है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 // [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अस्ती भंग-एक समयाधिक जघन्यस्थिति वाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि 80 भंग इस प्रकार हैं- असंयोगी 8 भंग (चार भंग एक-एक कषाय बालों के, चार भंग बहुत कषाय वालों के), द्विक संयोगी 24 भंग, त्रिकसंयोगी 32 भंग, चतुष्कसंयोगी 16 भंग, यों कुल 80 भंग होते हैं / नारकों के कहाँ, कितने भंग ? –प्रत्येक नरक में जघन्य स्थिति वाले नारक सदा पाये जाते हैं, उनमें क्रोधोपयुक्त नैरयिक बहुत ही होते हैं / अतः उनमें मूलपाठोक्त 27 भंग क्रोधबहुवचनान्त वाले होते हैं / एक समय अधिक से लेकर संख्यात समय अधिक जघन्यस्थिति (मध्यम) वाले नारकों में पूर्वोक्त 80 भंग होते हैं। इनमें क्रोधादि-उपयुक्त नारकों की संख्या एक और अनेक होती है। इस स्थिति वाले नारक कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते। असंख्यात समय अधिक की स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में पूर्वोक्त 27 भंग पाये जाते हैं / इस स्थिति वाले नारक सदा काल पाये जाते हैं और वे बहुत होते हैं।' द्वितीय-अवगाहनाद्वार 10. इमीसे गं भंते ! रतणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवतिया ओगाहाणाठाणा पण्णता / गोयमा! असंखेज्जा प्रोगाहणाठाणा पणत्ता। तं जहा-जनिया प्रोगाहणा, पदेसाहिया जहन्निया प्रोगाहणा, दुप्पदेसाहिया जहन्निया प्रोगाहणा जाव असंखिज्जपदेसाहिया जहन्निया प्रोगाहणा, तप्पाउग्गुक्कोसिया प्रोगाहणा। [10. प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी (प्रथम नरक भूमि) के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में रहने वाले नारकों के अवगाहना स्थान कितने कहे गए हैं ? 10. उ.] गौतम ! उनके अवगाहना स्थान असंख्यात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैंजघन्य अवगाहना (अंगुल के असंख्यातवें भाग), (मध्यम अवगाहना) एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, द्विप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना, यावत् असंख्यात प्रदेशाधिक जघन्य अवमाना, तथा उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना (जिस नारकावास के योग्य जो उत्कृष्ट अवगाहना हो)। 11. इमोसे णं भंते ! रतणप्पभाए पुढवोए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि जहनियाए प्रोगाहणाए बढ़माणा ने रतिया कि कोहोवउत्ता० ? असीति भंगा भाणियन्वा जाव संखिज्जयदे साधिया जहन्निया प्रोगाहणा। असंखेज्जपदे. साहियाए जहन्नियाए प्रोगाणाए बट्टमाणाणं तप्पाउग्गुक्कोसियाए प्रोगाहणाए वट्टमाणाणं नेरइयाणं दोसु वि सत्तावीसं भंगा। (11. प्र.) भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में जघन्य अवगाहना वाले नरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ? [11. उ.] 'गौतम ! जघन्य अवगाहना वालों में अस्सी भंग कहने चाहिए, यावत् संख्यात प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहना वालों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए / असंख्यात-प्रदेश अधिक जघन्य 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 69-70. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] अवगाहना वाले और उसके योग्य उत्कृष्ट अवगाहना वाले, इन दोनों प्रकार के नारकों में सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन-नरयिकों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक द्वितीय अवगाहनास्थान द्वार--प्रस्तुत दो सूत्रों में नारकों के अवगाहनास्थान तथा क्रोधादियुक्तता का विचार किया गया है / अवगाहनास्थान-जिसमें जीव ठहरता है, अवगाहन करके रहता है, वह अवगाहना है / अर्थात-जिस जीव का जितना लम्बा चौड़ा शरोर होता है, वह उसकी अवगाहना है। जिस क्षेत्र में जो जीव जितने प्रकाश प्रदेशों को रोक कर रहता है, उतने आधारभूत परिमाण क्षेत्र को भी अवगाहना कहते हैं। उस अवगाहना के जो स्थान-प्रदेशों की वृद्धि से विभाग हों, वे अवगाहनास्थान होते हैं / उत्कृष्ट अवगाहना-प्रथम नरक की उत्कृष्ट अवगाहना 7 धनुष, 3 हाथ, 6 अंगुल होती है, इससे आगे के नरकों में अवगाहना दुगुनी-दुगुनी होती है / अर्थात् शर्करा प्रभा में 15 धनुष, 2 हाथ, 12 अंगुल को; बालुकाप्रभा में 31 धनुष, 1 हाथ की; पंकप्रभा में 62 धनुष, 2 हाथ की, धूमप्रभा में 125 धनुष को ; तमःप्रभा में 250 धनुष की; तमस्तमःप्रभा में 500 धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। जघन्यस्थिति तथा जघन्य अवगाहना के भंगों में अन्तर क्यों ?-जधन्यस्थितिवाले नारक जब तक जघन्य अवगाहना वाले रहते हैं, तब तक उनकी अवगाहना के 80 भंग ही होते हैं; क्योंकि जघन्य अवगाहना उत्पत्ति के समय ही होती है। जधन्यस्थिति वाले जिन नैरयिकों के 27 भंग कहे हैं, वे जघन्य अवगाहना को उल्लंघन कर चुके हैं, उनकी अवगाहना जघन्य नहीं होती। इसलिए उनमें 27 ही भंग होते हैं। जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यातप्रदेश की अधिक अवगाहना वाले जीव नरक में सदा नहीं मिलते, इसलिए उनमें 80 भंग कहे गए हैं, किन्तु जघन्य अवगाहना से असंख्यातप्रदेश अधिक की अवगाहना वाले जीव, नरक में अधिक ही पाये जाते हैं, इसलिए उनमें 27 भंग होते हैं।' ततीय-शरीरद्वार----- 12. इमोसे गं भंते ! रयण जाव एगमेगसि निरयावासंसि नेरतियाणं कति सरीरया पण्णता? गोयमा ! तिणि सरीरया पण्णत्ता / तं जहा–देउविए तेयए कम्मए / [12 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में बसने वाले नारक जीवों के शरीर कितने हैं ? [12 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 71 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. [1] इमोसे णं भंते ! जाव वेउब्वियसरोरे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोक्उत्ता.? सत्तावीसं भंगा। [2] एतेणं गमेणं तिण्णि सरीरा भाणियन्वा / [13-1 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से प्रत्येक नारकावास में बसने वाले वैक्रियशरीरी नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, (मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ?) [13-1 उ.] गौतम ! उनके क्रोधोपयुक्त प्रादि 27 भंग कहने चाहिए। [13-2] और इस प्रकार शेष दोनों शरीरों (तैजस और कार्मण) सहित तीनों के सम्बन्ध में यही बात (पालापक) कहनी चाहिए / विवेचन–नारकों के क्रोधोपयुक्तादिनिरूपणपूर्वक तृतीय शरीरद्वार-प्रस्तुत द्विसूत्री में नारकीय जीवों के तीन शरीर और उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंगों का निरूपण है। शरीर-शरीर नामकर्म के उदय से होने वाली वह रचना जिसमें प्रात्मा व्याप्त होकर रहती है, अथवा जिसका क्षण-क्षण नाश होता रहता है, उसे शरीर कहते हैं। वैनियशरीर-जिस शरीर के प्रभाव से एक से अनेक शरीर, छोटा शरीर, बड़ा शरीर या मनचाहा रूप धारण किया जा सकता है, उसे वैक्रियशरोर कहते हैं। इसके दो भेद हैं-- भवधारणोय और उत्तरवैक्रिय / नारकों के भवधारणीय वैक्रिय शरीर होता है / तंजसशरीर-आहार को पचाकर खलभाग और रसभाग में विभक्त करने और रस को शरीर के अंगों में यथास्थान पहुँचाने वाला शरीर तेजस कहलाता है। काणर्मशरीर--रागद्वेषादि भावों से शुभाशुभ कर्मवर्गणा के पुद्गलों को संचित करने वाला कार्मण शरोर है।' चौथा-संहननद्वार 14. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवोए जाव नेरइयाणं सरीरगा कि संघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छहं संघयणाणं असंघयणो, नेवट्ठी, नेव छिरा, नेव हारूणि / जे पोग्गला प्रणिट्ठा अकंता अप्पिया असुमा प्रमणुष्णा अमणामा ते तेसिं सरीरसंघातत्ताए परिणति / 14 प्र.। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तोस लाख नारकावासों में से प्रत्येक नारकावास में बसने वाले नै रयिकों के शरीरों का कौन-सा संहनन है ? {14 उ.] गौतम ! उनका शरीर संहननरहित है, अर्थात् उनमें छह संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता। उनके शरीर में हड्डो, शिरा (नस) और स्नायु नहीं होती। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोश और अमनोहर हैं, वे पुद्गल नारकों के शरीर-संघातरूप में परिणत होते हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 72 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [ 97 15. इमोसे गं भंते ! जाव छहं संघयणाणं असंधयणे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोवउत्ता० ? सत्तावीसं भंगा। [15 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में के प्रत्येक नारकावास में रहने वाले और छह संहननों में से जिनके एक भी संहनन नहीं है. वे नैरयिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं अथवा लोभोपयुक्त हैं ? [15. उ.] गौतम ! इनके सत्ताईस भंग कहने चाहिए / पाँचवाँ-संस्थानद्वार 16. इमोसे गं भाते ! रयणप्पभा जाव सरीरया कि संठिता पण्णता ? गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता। तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य / तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हंडसंठिया पण्णत्ता / तत्थ णं उत्तरवेउब्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता / [16 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में के प्रत्येक नारकावास में रहने वाले नैरयिकों के शरीर किस संस्थान वाले हैं ? [16 उ.] गौतम ! उन नारकों का शरीर दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है--भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें जो भवधारणीय शरीर वाले हैं, वे हुण्डक संस्थान बाले होते हैं, और जो शरीर उत्तरवैक्रियरूप हैं, वे भी हुण्डकसंस्थान वाले कहे गए हैं / 17. इमोसे गं जाव हुंडसंठाणे वट्टमाणा नेरतिया कि कोहोवउत्ता० ? सत्तावीसं मंगा। [17 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् हुण्डकसंस्थान में वर्तमान नारक क्या क्रोधोपयुक्त इत्यादि हैं ? [17 उ.] गौतम ! इनके भी क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए / विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक चतुर्थ एवं पंचम संहनन-संस्थानद्वारप्रस्तुत चार सूत्रों (14 से 17 तक) में नारकों के संहनन एवं संस्थान के सम्बन्ध में प्ररूपण करते हुए उक्त संहननहीन एवं संस्थानयुक्त नारकों के क्रोधोपयुक्तादि भंगों की चर्चा की है। उत्तरक्रिय शरीर-एक नारकी जीव दूसरे जीव को कष्ट देने के लिए जो शरीर बनाता है, वह उत्तरवैक्रिय कहलाता है। उत्तरवैक्रिय शरीर सुन्दर न बनाकर नारक हण्डकसंस्थान वाला क्यों बनाते हैं ? इसका समाधान यह है कि उनमें शक्ति की मन्दता है तथा देश-काल प्रादि की प्रतिकूलता है, इस कारण वे शरीर का आकार सुन्दर बनाना चाहते हुए भी नहीं बना पाते, वह बेढंगा ही बनता है / उनका शरीर संहननरहित होता है, इसलिए उन्हें छेदने पर शरीर के पुद्गल अलग हो जाते हैं और पुन: मिल जाते हैं।' 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 72 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून अस्थियों के विशिष्ट प्रकार के ढांचे को संहनन कहते हैं। अस्थियाँ केवल प्रौदारिक शरीर में ही होती हैं और नारकों को औदारिक शरीर होता नहीं है। इस कारण वे संहननरहित कहे गए हैं। छठा-लेश्याद्वार... 18. इमीसे ण मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति लेसानो पण्णतायो ? गोयमा! एक्का काउलेस्सा पण्णत्ता / [18 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नै रयिकों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [18 उ.] गौतम ! उनमें केवल एक कापोतलेश्या कही गई है। 16. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए जाव काउलेस्साए वट्टमाणा० ? सत्तावीसं भंगा। [19 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले कापोतलेश्या वाले नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं, यावत् लोभोपयुक्त हैं ? [19 उ.] गौतम ! इनके भी सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक छठा लेण्याद्वार–प्रस्तुत दो सूत्रों में नारकों में लेश्या का निरूपण तथा उक्त लेश्या वाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग बताये गये हैं। सातवाँ-दृष्टिद्वार 20. इमीसे गं जाव कि सम्मट्ठिी मिच्छट्ठिी सम्मामिच्छट्ठिो ? तिणि वि। [20 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले नारक जीव क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यगमिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) हैं ? [20 उ.] हे गौतम ! वे तीनों प्रकार के (कोई सम्यग्दृष्टि, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई मिश्रदृष्टि) होते हैं। 21. [1] इमोसे णं जाव सम्महसणे वट्टमाणा नेरइया ? सत्तावीसं भंगा। [2] एवं मिच्छद्दसणे वि। [3] सम्मामिच्छदसणे असीति भंगा। [21-1 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में बसने वाले सम्यग्दृष्टि नारक क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त हैं ? Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [99 [21-1 उ.] गौतम ! इनके क्रोधोपयुक्त ग्रादि सत्ताईस भंग कहने चाहिए। [21-2] इसी प्रकार मिथ्या दृष्टि के भी क्रोधोपयुक्त प्रादि 27 भंग कहने चाहिए। [21-3] सम्यमिथ्यादृष्टि के अस्सी भंग (पूर्ववत्) कहने चाहिए / आठवाँ-ज्ञानद्वार--- 22. इमीसे णं भंते ! जाव कि णाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! गाणी वि, अण्णाणी वि / तिणि नाणाणि नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [22 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारक जीब क्या ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? [22 उ.] गौतम ! उनमें ज्ञानी भी हैं, और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें नियमपूर्वक तीन ज्ञान होते हैं, और जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं / 23. [1] इमोसे णं भंते ! जाव आभिणिबोहियणाणे वट्टमाणा० ? सत्तावीसं भंगा। [2] एवं तिणि णाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई भाणियब्वाई। [23-1 प्र.] भगवन ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले ग्राभिनिवोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी) नारकी जीव क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त होते हैं ? 23-1 उ.] गौतम ! उत आभिनिबोधिक ज्ञानवाले नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए। [23-21 इसी प्रकार तीनों ज्ञान वाले तथा तीनों प्रज्ञान वाले नारकों में क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए / विवेचन-नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक सातवाँ-पाठवाँ दृष्टि-ज्ञानद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों में नारकों में तीनों दृष्टियों तथा तीन ज्ञान एवं तीन अज्ञान की प्ररूपणा करके उनमें क्रोधोपयुक्तादि भंगों का प्रतिपादन किया गया है / दृष्टि—जिनको दृष्टि (दर्शन) में समभाव है, सम्यक्त्व है, वे सम्यग्दृष्टि कहलाते हैं / वस्तु के वास्तविक स्वरूप को समझना सम्यग्दर्शन है, और विपरीतस्वरूप समझना मिथ्यादर्शन है। विपरीत बुद्धि दृष्टि वाला प्राणी मिथ्यादृष्टि होता है। जो न पूरी तरह मिथ्यादृष्टि वाला है और न सम्यग्दृष्टि बाला है, वह सम्यमिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि कहलाता है। तीनों दष्टियों वाले नारकों में क्रोधोपयुक्तादि भंग-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में पूर्ववत् 27 भंग होते हैं, किन्तु मिश्रदृष्टि में 80 भंग होते हैं, क्योंकि मिश्रदृष्टि जीव अल्प हैं, उनका सद्भाव काल की अपेक्षा से भी अल्प है / अर्थात्-वे कभी नरक में पाये जाते हैं, कभी नहीं भी पाये जाते। इसी कारण मिश्रदृष्टि नारक में क्रोधादि के 80 भंग पाये जाते हैं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तीन ज्ञान और तीन अज्ञाम वाले नारक कौन और कैसे ?--जो जीव नरक में सम्यक्त्वसहित उत्पन्न होते हैं, उन्हें जन्मकाल के प्रथम समय से लेकर भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है, इसलिए उनमें नियम (निश्चितरूप) से तीन ज्ञान होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि जीव नरक में उतान्न होते हैं, वे यहाँ से संज्ञी या असंजी जीवों में से गए हुए होते हैं। उनमें से जो जीव यहाँ से संज्ञी जीवों में से जाकर नरक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें जन्मकाल से ही विभंग (विपरीत अवधि) ज्ञान होता है / इसलिए उनमें नियमतः तीन अज्ञान होते हैं। जो जीव यहाँ से असंज्ञी जीवों में से जाकर नरक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें जन्मकाल में दो अज्ञान (मति-अज्ञान प्रौर श्रुत-अज्ञान) होते हैं, और एक अन्तमुहूर्त व्यतीत हो जाने पर पर्याप्त अवस्था प्राप्त होने पर विभंगज्ञान उत्पन्न होता है, तब उन्हें तीन अज्ञान हो जाते हैं / इसीलिए उनमें तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से कहे गये हैं / अर्थात्-किसी समय उनमें दो अज्ञान होते हैं, किसी ससय तीन अज्ञान / जब दो अज्ञान होते हैं, तब उनमें क्रोधोपयुक्त आदि 80 भंग होते हैं, क्योंकि ये जीव थोड़े-से होते हैं। ज्ञान और प्रज्ञान-ज्ञान का अर्थ यहाँ सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान समझना चाहिए और अज्ञान का अर्थ ज्ञानाभाव नहीं, अपितु मिथ्याज्ञान, जो कि मिथ्यादर्शनपूर्वक होता है, समझना चाहिए / मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन सम्यग्ज्ञान हैं और मत्यज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन मिथ्याज्ञान हैं।" नौवा-योगद्वार 24. इमोसे गं जाव कि मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? तिणि वि। [24 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारक जीव क्या मनोयोगी हैं, बचनयोगी हैं अथवा काययोगी हैं ? [24 उ.] गौतम ! वे प्रत्येक तीनों प्रकार के हैं; अर्थात् सभी नारक जीव मन, वचन और काया, इन तीनों योगों वाले है। 25. [1] इमीसे णं जाव मणजोए वट्टमाणा कि कोहोवउत्ता ! सत्तावीसं भंगा। [2] एवं वइजोए / एवं कायजोए। [25-1 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले और यावत् मनोयोग में रहने वाले नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त यावत् लोभोपयुक्त हैं ? [25-1 उ.] गौतम ! उनके क्रोधोपयुक्त प्रादि 27 भंग कहने चाहिए। [25-2] इसी प्रकार वचनयोगी और काययोगी के भी क्रोधोपयुक्त आदि 27 भंग कहने चाहिए। 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 72-73 (ख) देखें-नन्दीस्त्र में पांच ज्ञान और तीन अज्ञात का वर्णन / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [ 101 दसवाँ-उपयोगद्वार 26. इमोसे गंजाव नेरइया कि सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि / [26 प्र.) भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक जीव क्या साकारोपयोग से युक्त हैं अथवा अनाकारोपयोग से युक्त हैं ?' [26 उ.] गौतम ! वे साकारोपयोगयुक्त भी हैं और अनाकारोपयोगयुक्त भी हैं। 27. [1] इमीसे णं जाव सागारोवओगे वट्टमाणा कि कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा। [2] एवं प्रणागारोवउत्ते वि सत्तावीसं भंगा / [27-1 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के साकारोपयोगयुक्त नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं; यावत् लोभोपयुक्त हैं ? [27-1 उ.] गौतम ! इनमें क्रोधोपयुक्त इत्यादि 27 भंग कहने चाहिए / [27-1] इसी प्रकार अनाकारोपयोगयुक्त में भी क्रोधोपयुक्त इत्यादि सत्ताईस भंग कहने चाहिए। विवेचन--नारकों का क्रोधोपयुक्त इत्यादि निरूपणपूर्वक नौवाँ एवं दसवाँ योग-उपयोगद्वारप्रस्तुत चार सूत्रों (24 से 27 तक) में नारकों में तीन योग और दो उपयोग बताकर उक्त दोनों प्रकार के नारकों में क्रोधोपयुक्त आदि पूर्वोक्त 27 भंगों का निरूपण किया गया है। योग का अर्थ यहाँ हठयोग आदि नहीं है, किन्तु उसका खास अर्थ हैं-प्रयुजन या प्रयोग / योग का तात्पर्य है -प्रात्मा की शक्ति को फैलाना / वह मन, वचन और काया के माध्यम से फैलाई जाती है। इसलिए इन तीनों की प्रवृत्ति, प्रसारण या प्रयोग को योग कहा जाता है / यद्यपि केवल कार्मणकाययोग में 80 भंग पाये जाते हैं, किन्तु यहाँ सामान्य काययोग की विवक्षा से 27 भंग ही समझने चाहिए। उपयोग का अर्थ-जानना या देखना है। वस्तु के सामान्य (स्वरूप) को जानना अनाकारउपयोग है और विशेष धर्म को जानना साकारोपयोग है / दूसरे शब्दों में, दर्शन को अनाकारोपयोग और ज्ञान को साकारोपयोग कहा जा सकता है।' ग्यारहवां-लेश्याद्वार२८. एवं सत्त वि पुढवीओ नेतत्वाप्रो / णाणत्तं लेसासु / गाहा काऊ य दोसु, ततियाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा, कहा, तत्तो परमकण्हा // 7 // 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 73 (ख) 'आकारो-विशेषांशग्रहणशक्तिस्तेन सहेति साकारः, तद्विकलोनाकारः सामान्यग्राहीत्यर्थः। --भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 73 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [28] रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में दस द्वारों का वर्णन किया है, उसी प्रकार से सातों पृथ्वियों (नरक भूमियों) के विषय में जान लेना चाहिए। किन्तु लेश्याओं में विशेषता है / वह इस प्रकार है गाथार्थ-पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र अर्थान--कापोत और नील, ये दो लेश्याएं हैं, चौथी में नील लेश्या है, पाँचवीं में मिश्र अर्थातनील और कृष्ण, ये दो लेश्याएं हैं, छठी में कृष्ण लेश्या और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या होती है। विवेचन-लेश्या के सिवाय सातों नरकवियों में शेष नौ द्वारों में समानता प्रस्तुत सुत्र में सातों नरकवियों में लेश्या के अतिरिक्त शेष नौ द्वारों का तथा उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भंगों का वर्णन रत्नप्रभापृथ्वो के वर्णन के समान है / भवनपतियों को क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यतापूर्वक स्थिति प्रादि दस द्वार - 26. च उसट्ठोए णं भंते ! असुरकुमारावाससतसहस्सेसु एगमेसि असुरकुमारावाससि असुरकुमाराणं केवतिया ठिइठाणा पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता / तं जहा-जहनिया ठिई जहा नेरतिया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियव्या-सव्वे वि ताव होज्ज लोभोवयुत्ता, अहवा लोभोवयुत्ता य मायोक्उत्ते य, अहबा लोभोवयुत्ता य मायोवयुत्ता य / एतेणं गमेणं नेतन्वं जाव थणियकुमारा, नवरं जाणत्तं जाणितन्वं / [29 प्र.] भगवन् ! चौसठ लाख असुरकुमारावासों में के एक-एक असुरकुमारावास में रहने वाले असुरकुमारों के कितने स्थिति-स्थान कहे गए हैं ? [29 उ.] गौतम ! उनके स्थिति-स्थान असंख्यात कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं---जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि सब वर्णन नैरपिकों के समान जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनमें जहाँ सत्ताईस भंग पाते हैं, वहां प्रतिलोम (विपरीत) समझना चाहिए। वे इस प्रकार हैं -समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप (गम) से जानना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए / विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या अादि में भिन्नता जाननी चाहिए। एकेन्द्रियों की क्रोधोपयुक्तादि प्ररूपणापूर्वक स्थिति प्रादि द्वार ____30. असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढधिकाइयावाससतसहस्सेसु एगमेगसि पुढविकाइयावासंसि पुढबिक्काइयाणं केवतिया ठितिठाणा पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णता / तं जहा-जहनिया ठिई जाव तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिती। [30 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक प्रावास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति-स्थान कहे गये हैं ? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५ ] [ 103 [३०.उ.] गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति, इत्यादि यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति। 31. असंखज्जेसु णं भंते ! पुढविक्काइयावाससतसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासं सि जहन्नठितीए वट्टमाणा पुढविक्काइया कि कोधोवउत्ता, माणोवउत्ता, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता ? ___गोयमा ! कोहोवउत्ता वि माणोवउत्ता वि मायोवउता वि लोभोव उत्ता वि / एवं पुढविक्काइयाणं सत्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं, नवरं तेउलेस्साए असीति भंगा। [३१.प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक पावास में बसने वाले और जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं या लोभोपयुक्त हैं ? [३१.उ.] गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त भी हैं, और लोभोपयुक्त भी हैं। इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है (पृथ्वोकायिकों की संख्या बहुत होने से उनमें एक, बहुल आदि विकल्प नहीं होते / वे सभी स्थानों में बहुत हैं।) विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए / 32. [1] एवं प्राउक्काइया वि / [2] उक्काइय-वाउकाइयाणं सब्वेसु वि ठाणेसु अभंगयौं / [3] वणप्फतिकाइया जहा पुढविषकाइया। [32-1] इसी प्रकार अप्काय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। [32-2] तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है / [32-3] वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए / विकलेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक स्थिति प्रादि दसद्वार 33. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जेहि ठाणेहि ने रतियाणं प्रसीइ भंगा तेहि ठाणेहि असीई चेव / नवरं प्रभहिया सम्मत्ते, आभिणिबोयिनाणे सुयनाणे य, एएहि असोइ भंगा; जेहि ठाणेहि नेरतियाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेसु सम्वेसु अभंगयं / 33] जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं। विशेषता यह है कि सम्यक्त्व (सम्यग्दृष्टि) आभिनिबोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान-इन तीन स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है / तथा जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है, अर्थात्- कोई विकल्प नहीं होते। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दसद्वारनिरूपण 34. पंचिदियतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं जेहि सत्तावीसं भंगा तेहि अभंगय कायन्वं / जत्थ असीति तत्थ असीति चेव / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [34] जैसा नैरयिकों के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों के विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि जिन-जिन स्थानों में नारक-जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन-उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए, और जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन स्थानों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए। मनुष्यों के क्रोधोपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दसद्वार 35. मणुस्सा वि / जेहि ठाणेहि नेरइयाणं असोति भंगा तेहि ठाणेहि मणुस्साण वि असीति भंगा माणियवत्रा / जेसु ठाणेसु सतावोसा तेसु अभंगयं, नवरं मणुस्साणं अभहियं-जहनियाए ठिईए पाहारए य असीति भंगा। [35] नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे गए हैं, उन-उन स्थानों में मनुष्यों के भी अस्सो भंग कहने चाहिए / नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गए हैं उनमें मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि मनुष्यों के जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, और यही नैरयिकों की अपेक्षा मनुष्यों में अधिक है। वाणव्यन्तरों के क्रोधोपयुक्तपूर्वक दसद्वार 36. वाणमंतर-जोदिस-वेमाणिया जहा भवशवासो (सु. 29) नवरं जाणत्तं जाणियध्वं जं जास; जाव' प्रणुत्तरा। सेवं भंते ! सेब भंते ! ति। // पंचमो उद्देसो समत्तो // [36] बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान सम. झना चाहिए। विशेषता यह है कि जो जिसका नानात्व-भिन्नत्व है, वह जान लेना चाहिए, यावत् अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए। ___ 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर यावन् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त प्रादि भंग निरूपणपूर्वक स्थिति-अवगाहनादि दसद्वारप्ररूपण- प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 29 से 36 तक) द्वारा शास्त्रकार ने स्थिति अवगाहना आदि दस द्वारों का प्ररूपण करते हुए उनसे सम्बन्धित क्रोधोपयुक्त आदि भगों का प्रतिपादन किया है। भवनपति देवों को प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न-नरक के जीवों में क्रोध अधिक होता है, वहाँ भवनपति आदि देवों में लोभ की अधिकता होती है / इसीलिए नारकों में जहां 27 भंग-क्रोध, मान, माया, लोभ इस क्रम से कहे गए थे, वहाँ देवों में इससे विपरीत क्रम से कहना चाहिए, यथा-लोभ, माया, मान, और क्रोध / देवों को प्रकृति में लोभ को अधिकता होने से समस्त भंगों में 1. 'जाव' पद से 'सोहम्म-ईसाण' से लेकर 'अत्तरा' (अनुत्तरदेवलोक के देव) तक के नामों की योजना कर लेनी चाहिए। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-५] [105 'लोभ' शब्द को बहुवचनान्त ही रखना चाहिए। यथा-प्रसंयोगी एक भंग-१ सभी लोभी, द्विकसंयोगी 6 भाग-१ लोभी बहुत, मायो एक; 2 लोभी बहुत, मायो बहुत; 3 लोभी बहुत, मानी एक; 4 लोभी बहुत, मानी बहुत; 5 लोभी बहुत, क्रोधी एक और 6 लोभी बहुत, क्रोधी बहुत / त्रिकसंयोगी 12 भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक; 2. लोभी बहुत, मायी एक मानी बहुत; 3. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक; 4. लोभी बहुत, मायो बहुत, मानी बहुत; 5. लोभो बहुत, मायी एक, क्रोधी एक, 6. लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी एक; 7. लोभी बहुत, मायो एक, क्रोधी एक, 8. लोभी बहुत, मायी बहुत, क्रोधी बहुत; 9. लोभी बहुत, मानी एक, कोधी एक, 10 लोभी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत; 11. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी एक और 12. लोभी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत / / चतुःसंयोगी 8 भंग-१. लोभी बहुत, मायी एक, मानी एक, क्रोधी एक ; 2. लोभी बहुत ; मायी एक, मानी एक, क्रोधी बहुत; 3. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी एक, 4. लोभी बहुत, मायी एक, मानी बहुत, क्रोधी बहुत; 5. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधो एक; 6. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी एक, क्रोधी बहुत, 7. लोभो बहुत, मायो बहुत, मानी एक, क्रोधी एक और 8. लोभी बहुत, मायी बहुत, मानी बहुत, क्रोधी बहुत / / अन्य द्वारों में अन्तर-असुरकुमारादि संहननरहित हैं, किन्तु उनके शरीरसंघातरूप से जो पुद्गल परिणमते हैं, वे इष्ट और सुन्दर होते हैं। उनके भवधारणीय शरीर का संस्थान समचतुरस्र होता है; उत्तरवैक्रिय शरीर किसी एक संस्थान में परिणत होता है। तथा असुरकुमारादि में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती हैं। पृथ्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग-इनके स्थितिस्थान आदि दशों ही द्वारों में अभंगक समझना चाहिए। केवल पृथ्वीकायसम्बन्धी लेश्याद्वार में तेजोलेश्या की अपेक्षा 80 भंग होते हैं। एक या अनेक देव देवलोक से च्यवकर पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तब तेजोलेश्या होती है। उनके एकत्वादि के कारण 80 भंग होते हैं। पृथ्वी कायिक में 3 शरीर-(प्रौदारिक, तेजस्, कार्मण), शरीरसंघातरूप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ दोनों प्रकार के पुद्गल परिणमते हैं। इनमें भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रियशरीर भेद नहीं होते / क्रमश: चार लेश्याएं होती हैं / ये हुण्डक संस्थानी, एकान्त मिथ्याष्टि, अज्ञानी (मति-श्रुताज्ञान), केवल काययोगी होते हैं। इसी तरह प्राप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दश ही द्वार समझने चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में देव उत्पन्न नहीं होते, इसलिए तेजोलेश्या और तत्सम्बन्धी 80 भंग नहीं होते / वायुकाय के 4 शरीर (आहारक को छोड़कर) होते हैं / विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर—चूकि विकलेन्द्रिय जीव अल्प होते हैं, इसलिए उनमें एक-एक जीव भी कदाचित् क्रोधादि-उपयुक्त हो सकता है, विकलेन्द्रियों में मिश्रदृष्टि नहीं होती, प्राभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान (अपर्याप्त दशा में) होने से इनमें भी 80 भंग होते हैं। नारकों में जिन-जिन स्थानों में 27 भंगा बतलाए गए हैं, उन-उन स्थानों में विकलेन्द्रिय में अभंगक (भंगों का प्रभाव) कहना चाहिए। इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। ये (विकलेन्द्रिय) सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा ज्ञानी और अज्ञानी, तथा काययोगी और वचनयोगी होते हैं। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर--नारकों में जहाँ 27 भंग कहे गए हैं, वहाँ इनमें अभंगक कहना चाहिए, क्योंकि क्रोधादि-उपयुक्त पंचेन्द्रियतिर्यच एक साथ बहुत पाए जाते हैं, नारकों में जहाँ 80 भंग कहे गए हैं, वहाँ इनमें भी 80 भंग होते हैं। इनमें आहारक को छोड़कर चार शरीर, वज्र ऋषभनाराचादि छह संहनन तथा 6 संस्थान एवं कृष्णादि छहों लेश्याएँ होती हैं। मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर-जिन द्वारों में नारकों के 80 भंग कहे हैं, उनमें मनुष्यों के भी 80 भंग होते हैं। एक समय अधिक जघन्य स्थिति से लेकर संख्यात समय अधिक तक की जघन्य स्थिति में, जघन्य तथा एक प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना से लेकर संख्यातप्रदेशाधिक जघन्य अवगाहना में, और मिश्रदृष्टि में भी नारकों के समान 80 भंग ही होते हैं। जहाँ नारकों के 27 भंग कहे हैं, वहाँ मनुष्यों में अभंगक हैं, क्योंकि मनुष्य सभी कषायों से उपयुक्त बहुत पाए जाते हैं। मनुष्यों में शरीर पांच, संहनन छह, संस्थान छह, लेश्याएँ छह, दृष्टि तीन, ज्ञान पांच, अज्ञान तीन प्रादि होते हैं। आहारक शरीर वाले मनुष्य अत्यल्प होने से 80 भंग होते हैं / केवलज्ञान में कषाय नहीं होता। चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर--भवनपति देवों की तरह शेष तीन देवों का वर्णन समझना / ज्योतिष्क और वैमानिकों में कुछ अन्तर है। ज्योतिष्कों में केवल एक तेजोलेश्या होती है, जबकि वैमानिकों में तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन शुभलेश्याएँ पाई जाती हैं। वैमानिकों में नियमतः तीन ज्ञान, तीन अज्ञान पाए जाते हैं। असंज्ञी जीव ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है / // प्रथम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 73 से 77 तक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'जावंते' छठा उद्देशक : 'यावन्त' सूर्य के उदयास्त क्षेत्र स्पर्शादि सम्बन्धो प्ररूपणा 1. जावतियातो णं भंते ! प्रोवासंतरातो उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, अस्थमंते वि य णं सूरिए तावतियानो चेव अोवासंतरानो चक्खुफासं हन्वमागच्छति ? हंता, गोयमा ! जावतियानो णं ओवासंतराम्रो उदयंते मूरिए चक्खुफासं हब्वमागच्छति प्रथमंते वि सूरिए जाव हव्वमागच्छति / [1 प्र.] भगवन्! जितने जितने अवकाशान्तर से अर्थात्-जितनी दूरी से उदय होता हुआ सूर्य आँखों से शीघ्र देखा जाता है, उतनी ही दूरी से क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी दिखाई देता है ? [1 उ.] हाँ, गौतम ! जितनी दूर से उदय होता हुअा सूर्य आँखों से दीखता है, उतनी ही दूर से अस्त होता सूर्य भी आँखों से दिखाई देता है। 2. जावतियं णं भंते ! खेत्तं उदयंते सूरिए पातवेणं सव्वतो समंता प्रोभासेति उज्जोएति तवेति पभासेति प्रथमते वि य णं सुरिए तावइयं चेव खेत्तं पातवेणं सव्वतो समंता प्रोभासेति उज्जोएति तवेति पभासेति ? हंता, गोयमा ! जावतियं गं खेत्तं जाव पभासेति / [2 प्र.] भगवन् ! उदय होता हुआ सूर्य अपने ताप द्वारा जितने क्षेत्र को सब प्रकार से, चारों ओर से सभी दिशानों-विदिशाओं को प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और अत्यन्त तपाता है, क्या उतने ही क्षेत्र को अस्त होता हुआ सूर्य भी अपने ताप द्वारा सभी दिशाओंविदिशात्रों को प्रकाशित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है और बहुत तपाता है ? [2 उ.] हां, गौतम ! उदय होता हुआ सूर्य जितने क्षेत्र को प्रकाशित करता है, यावत् अत्यन्त तपाता है, उतने ही क्षेत्र को अस्त होता हुआ सूर्य भी प्रकाशित करता है, यावत् अत्यन्त तपाता है। 3. [1] तं भंते ! कि पुढे प्रोभासेति अपुढे प्रोभासे ति ? जाव' छद्दिसि प्रोभासेति / 1. यहाँ 'जाव' शब्द से निम्नोक्त पाठ समझे "गोयमा ! पुढे ओमासेइ नो अपुढे / तं भंते ! ओगाढं ओभासेइ ? अगोगाद ओमासेइ ? गोयमा ! ओगाई ओभासेइ, नो अगोगाढं। एवं अणंतरोगाढं ओभासेइ, नो परंपरोगाढं। तं भंते ! कि अण' ओभासइ ? बायरं ओभाइ ? गोयमा ! अपि ओभासेइ, बायरं पि ओभासेइ / तं भंते ! उड प्रोभासइ, तिरियं ओभासइ, अहे ओभासइ ? गोयमा! उड़द पि, तिरियं पि, अहे वि ओभासइ। तं भंते ! आई ओभासइ मज्झे .ओभासइ अंते ओभासइ ? गोयमा ! आई पि मझे वि अते वि ओभासइ। तं भंते ! सविसए ओभासइ अक्सिए ओभासद? गोयमा ! सविसए ओभासह, नो अविसए। तं भंते ! आणुवि ओभासइ? अणाणव्वि ओभासइ ? गोयमा! आणुम्बि ओभासइ, नो अणापपुब्बिा तं भंते ! कइदिसि ओभासइ ? गोयमा! नियमा छहिसि ति"। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [ व्याख्याप्राप्तसूत्र _ [3-1. प्र.] भगवन् ! सूर्य जिस क्षेत्र को प्रकाशित करता है, क्या वह क्षेत्र सूर्य से स्पृष्टस्पर्श किया हुआ होता है, या अस्पृष्ट होता है ? [3-1. उ.] गौतम ! वह क्षेत्र सूर्य से स्पृष्ट होता है और यावत् उस क्षेत्र को छहों दिशाओं में प्रकाशित करता है। [2] एवं उज्जोवेदि ? तवेति ? पभासेति ? जाव नियमा छद्दिसि / [3-2] इसी प्रकार उद्योतित करता है, तपाता है और बहुत तपाता है, यावत् नियमपूर्वक छहों में दिशात्रों अत्यन्त तपाता है / 4. [1] से नणं भंते ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसइ तावतियं फुसमाणे पुढे ति वत्तव्वं सिया? . हता, गोयमा ! सम्बंति जाव वत्तव्वं सिया। [4-1. प्र.] भगवन् ! स्पर्श करने के काल-समय में सूर्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले (सर्वाय) जितने क्षेत्र को सर्व दिशाओं में सूर्य स्पर्श कर रहा होता है, क्या वह क्षेत्र 'स्पृष्ट' कहा जा सकता है ? [4-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह 'सर्व' यावत् स्पर्श करता हुआ स्पृष्ट ; ऐसा कहा जा सकता है / [2] तं भंते ! कि पुटु फुसति अपुट्ट फुसइ? जाव नियमा छसि / [4-2 प्र.] 'भगवन् ! सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है. या अस्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है ? [4-2 उ.] गौतम ! सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र का स्पर्श करता है, यावत् नियमपूर्वक छहों दिशानों में स्पर्श करता है। विवेचन-सूर्य के उदयास्तक्षेत्रस्पादिसम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों में सूर्य के द्वारा किये जाते हुए क्षेत्रस्पर्श तथा ताप द्वारा उक्त को प्रकाशित, प्रतापित एवं स्पृष्ट करने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। सूर्य कितनी दूर से दिखता है और क्यों ?--सूर्य के 184 मण्डल कहे गये हैं। कर्कसंक्रान्ति में सूर्य सर्वाभ्यन्तर (सब के मध्य वाले) मण्डल में प्रवेश करता है। उस समय वह भरतक्षेत्रवासियों को साधिक 47263 योजन दूर से दीखता है। इतनी दूर से दिखाई देने का कारण यह है कि चक्षु अप्राप्यकारी इन्द्रिय है, यह अपने विषय (रूप) को छुए बिना ही दूर से देख सकती है। अन्य सब इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं / यहाँ चक्खुफासं (चक्षुःस्पर्श) शब्द दिया गया है, उसका अर्थ-आँखों का Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [ 109 स्पर्श होना नहीं, अपितु आँखों से दिखाई देना है। स्पर्श होने पर तो आँख अपने में रहे हए काजल को भी नहीं देख पाती। प्रोभासेइ आदि पदों के अर्थ-प्रोभासेइ-थोड़ा प्रकाशित होता है। उदयास्त समय का लालिमायुक्त प्रकाश अवभास कहलाता है। उज्जोएइ = उद्योतित होता है, जिससे स्थूल वस्तुएँ दिखाई देती हैं / तवेइ तपता है-शीत को दूर करता है, उस ताप में छोटे-बड़े सभी पदार्थ स्पष्ट दिखाई देते हैं / पभासेइ = अत्यन्त तपता है; जिस ताप में छोटी से छोटी वस्तु भी दिखाई देती है। सूर्य द्वारा क्षेत्र का अवभासादि-सूर्य जिस क्षेत्र को अवभासित प्रादि करता है, वह उस क्षेत्र का स्पर्श-अवगाहन करके अवभासित आदि करता है। अनन्तरावगाढ़ को अवभासितादि करता है, परम्परावगाढ़ को नहीं / वह अणु, वादर, :ऊपर, नोचे, तिरछा, आदि, मध्य और अन्त सब क्षेत्र को स्वविषय में, क्रमपूर्वक, छहो दिशाओं में अवभासितादि करता है। इसीलिए इसे स्पृष्ट-क्षेत्रस्पर्शी कहा जाता है।' लोकान्त-प्रलोकान्तादिस्पर्श-प्ररूपणा 5. [1] लोअंते भंते ! अलोअंतं फुप्तति ? प्रलोअंते वि लोअंतं फुसति ? हंता, गोयमा! लोगते अलोगतं फुसति, अलोगते वि लोगतं फुसति / [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या लोक का अन्त (किनारा) अलोक के अन्त को स्पर्श करता है ? क्या अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है ? [5-1 उ.] हाँ, गौतम ! लोक का अन्त अलोक के अन्त को स्पर्श करता है, और अलोक का अन्त लोक के अन्त को स्पर्श करता है / [2] तं भंते ! कि पुट्ट फुसति ? जाव नियमा छद्दिसि फुसति / [5-2 प्र.] भगवन् ! वह जो (लोक का अन्त अलोकान्त को और अलोकान्त लोकान्त को) स्पर्श करता है, क्या वह स्पृष्ट है या अस्पृष्ट है ? [5-2 उ.] गौतम ! यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं में स्पृष्ट होता है। 6. [1] दीवंते भंते ! सागरतं फुसति ? सागरते वि दोवंतं फुसति ? हंता, जाव नियमा छदिसि फुसति / [6-1 प्र.] भगवन् क्या द्वीप का अन्त (किनारा) समुद्र के अन्त को स्पर्श करता है ? और समुद्र का अन्त द्वीप के अन्त को स्पर्श करता है ? [6-1 उ.] हाँ गौतम ! .."यावत्-नियम से छहों दिशाओं में स्पर्श करता है / [2] एवं एतेणं अभिलावेणं उदयंते पोदंत, छिद्दते दूसंतं, छायंते प्रातवंतं ? जाब नियमा छद्दिस फुसति / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 78. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6-2 प्र.] भगवन् ! क्या इसी प्रकार इसी अभिलाप से (इन्हीं शब्दों में) पानी का किनारा, पोत (नौका-जहाज) के किनारे को और पोत का किनारा पानी के किनारे को स्पर्श करता है ? क्या छेद का किनारा वस्त्र के किनारे को और वस्त्र का किनारा छेद के किनारे को स्पर्श करता है ? और क्या छाया का अन्त आतप (धूप) के अन्त को और पातप का अन्त छाया के अन्त को स्पर्श करता है ? [6-2 उ.] हाँ, गौतम ! यावत् नियमपूर्वक छहों दिशाओं को स्पर्श करता है। विवेचन-लोकान्त-अलोकान्तादिस्पर्श-प्ररूपणा प्रस्तुत दो सूत्रों में लोकान्त और अलोकान्त, द्वीपान्त और सागरान्त, जलान्त और पोतान्त छेदान्त और वस्त्रान्त तथा छायान्त और आतपान्त के (छहों दिशात्रों से स्पृष्ट) स्पर्श का निरूपण किया गया है। लोकान्त अलोकान्त से और अलोकान्त लोकान्त से छहों दिशाओं में स्पष्ट है। उसी प्रकार सागरान्त द्वीपान्त को परस्पर स्पर्श करता है। लोक-प्रलोक-जहाँ धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकाय को पूर्णज्ञानियों ने विद्यमान देखा, उसे 'लोक' संज्ञा दी, और जहाँ केवल अाकाश देखा उस भाग को अलोक संज्ञा दी। चौबोस दण्डकों में अठारह-पापस्थान-क्रिया-स्पर्श प्ररूपणा--- 7. [1] अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवातेणं किरिया कज्जति ? हंता, अस्थि / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों द्वारा प्राणातिपातक्रिया की जाती है ? [7-1 उ.] हाँ, गौतम ! की जाती है।। [2] सा भते ! कि पुट्ठा कति ? अपुट्ठा कज्जति ? जाव निव्वाघातेणं छहिसि, वाघातं पडुच्च सिय तिर्दािस, सिय चउर्दािस, सिय पंचदिसि / [7-2 प्र.! भगवन् ! की जाने वाली वह प्राणातिधातक्रिया क्या स्पृष्ट है, या अस्पृष्ट है ? [7-2 उ.] गौतम ! यावत् व्याघात न हो तो छहों दिशाओं को और व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को और कदाचित् पांच दिशात्रों को स्पर्श करती है। [3] सा भते! कि कडा कज्जति ? अकडा कज्जति ? गोयमा! कडा कज्जति, नो अकडा कज्जति / [7-3 प्र] भगवन् ! की जाने वालो क्या वह (प्राणातिपात) क्रिया ‘कृत' है अथवा अकृत ? [7-3 उ.] गौतम ! वह क्रिया कृत है, अकृत नहीं / [4] सा भंते ! कि अत्तकडा कज्जति ? परकडा कज्जति ? तदुभयकडा कज्जति ? गोयमा ! अत्तकडा कज्जति, णो परकडा कज्जति, णो तदुभयकडा कज्जति / 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 78-79 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६ ] [111 [7-4 प्र.] भगवन् ! की जाने वाली वह क्रिया क्या प्रात्मकृत है, परकृत है, अथवा उभयकृत है? [7-4 उ.] गौतम ! वह क्रिया प्रात्मकृत है, किन्तु परकृत या उभयकृत नहीं। [5] सा भते ! कि प्राणुपुम्विकडा कज्जति ? प्रणाणुपुग्विकडा कज्जति ? / गोयमा ! प्राणुपुश्विकडा कज्जति, नो प्रणाणुपुम्विकडा, कज्जति / जा य कडा, जाय कज्जति, जा य कज्जिस्सति सव्वा सा प्राणुपुब्बिकडा, नो प्रणाणुपुस्विकड ति वत्तव्वं सिया / [7-5 प्र.] भगवन् ! जो क्रिया की जाती है, वह क्या प्रानुपूर्वो-अनुक्रमपूर्वक की जाती है, या बिना अनुक्रम से (पूर्व-पश्चात् के बिना) की जाती है ? [7-5 उ.) गौतम ! वह अनुक्रमपूर्वक की जाती है, किन्तु बिना अनुक्रम से नहीं की जाती। जो क्रिया की गई है, या जो क्रिया की जा रही है, अथवा जो क्रिया की जाएगी, वह सब अनुक्रमपूर्वक कुत है। किन्तु बिना अनुक्रमपूर्वक कृत नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। 8. [1] अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं पाणातिवाय किरिया कज्जति ? हंता, अत्थि। [8-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों द्वारा प्राणातिपातक्रिया की जाती है ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! की जाती है। [2] सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जति ? प्रपुट्ठा कज्जति ? जाव नियमा छहिसि कज्जति / [8-2 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, वह स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट की जाती है ? [8-2 उ.] गौतम ! वह यावत् नियम से छहों दिशाओं में की जाती है / [3] सा भंते ! कि कडा कज्जति ? अकडा कज्जति ? तं चेव जाव' नो प्रणाणुपुन्विकड त्ति वत्तव्वं सिया। [8-3 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो क्रिया की जाती है, वह क्या कृत है अथवा अकृत है ? [8-3 उ.] गौतम ! वह पहले की तरह जानना चाहिए, यावत्-वह अनुक्रमपूर्वक कृत है, अननुपूर्वक कुत नहीं; ऐसा कहना चाहिए / 6. जहा नेरइया (सु. 8) तहा एगिदियवज्जा भाणितव्वा जाव वेमाणिया। [9] नैरयिकों के समान एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिकों तक सब दण्डकों में कहना चाहिए। 10. एकिदिया जहा जीवा (सु. 7) तहा भाणियब्धा / . 1. 'जाब' पद से सू. 7-5 में अंकित 'आणन्धिकडा कज्जति' से लेकर ..." ति वत्तब्वं सिया' तक का पाठ समझ लेना चाहिए। 2. 'जाव' पद से द्वीन्द्रियादि से लेकर वैमानिकपर्यन्त का पाठ समझना चाहिए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [10] एकेन्द्रियों के विषय में औधिक (सामान्य) जीवों की भांति कहना चाहिए। 11. जहा पाणादिवाते (सु. 7-10) तहा मुसावादे तहा प्रदिन्नादाणे मेहुणे परिगहे कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले एवं एते अट्ठारस, चउवीसं दंडगा भाणियन्वा / सेवं भंते ! सेवं भते ! ति भगवं गोतमे समणं भगवं जाव विहरति / [11] प्राणातिपात (क्रिया) के समान मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य तक इन अठारह ही पापस्थानों के विषय में चौबीस दण्डक कहने चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है" यों कहकर भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके यावत् विचरते हैं। विवेचन--चौबीस दण्डकों में अष्टादशधापस्थान क्रिया-स्पर्शप्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों में सामान्य जीवों, नैरयिकों तथा शेष सभी दण्डकों में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक की क्रिया के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से प्रश्नोत्तरों का निरूपण है। प्राणातिपातादि किया के सम्बन्ध में निष्कर्ष- (1) जीव प्राणातिपातादि की क्रिया स्वयं करते हैं. वे बिना किये नहीं होती। (2) ये क्रियाएँ मन, वचन या काया से स्पष्ट होती हैं। (3) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, विना किये नहीं लगती। फिर भले ही वह क्रिया मिथ्यात्वादि किसी कारण से की जाएँ, (4) क्रियाएँ स्वयं करने से लगती हैं, दुसरे के (ईश्वर, काल प्रादि के) करने से नहीं लगती, (5) ये क्रियाएँ अनुक्रमपूर्वक कृत होती हैं / कुछ शब्दों की व्याख्या-मोहनीयकर्म के उदय से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे अरति और विषयानुराग को रति कहते हैं। लड़ाई-झगड़ा करना कलह है, असद्भूत दोषों को प्रकट रूप से जाहिर करना 'अभ्याख्यान' और गुप्तरूप से जाहिर करना या पीठ पीछे दोष प्रकट करना पैशुन्य है। दूसरे को निन्दा करना पर-परिवाद है, मायापूर्वक झूठ बोलना मायामृषावाद है, श्रद्धा का विपरीत होना मिथ्यादर्शन है, वही शल्यरूप होने से मिथ्यादर्शनशल्य है।' रोह अनगार का वर्णन 12. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी रोहे नामं अणगारे पगतिभट्टए पगतिमउए पगतिविणीते पगति उवसंते पगति पतणुकोह-माण-माय-लोभे मिदुमद्दवसंपन्ने अल्लोणे भद्दए विणोए समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाण अहोसिरे झाणकोदोवगते संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / तए णं से रोहे नामं प्रणगारे जातसड्ढे जाव' पज्जुवासमाणे एवं वदासी-- |12] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (शिष्य) रोड नामक अनगार थे। वे प्रकृति से भद्र, प्रकृति से मृदु (कोमल), प्रकृति से विनीत, प्रकृति से 1. भगवतीसुत्र अ. वत्ति, पत्रांक 80 2. 'जाव' पद से प्रथम उद्देशक के उपोद्घात में वर्णित श्री गौतमवर्णन में प्रयुक्त 'जायसंसाए जायकोउहले इत्यादि समस्त विशेषणरूप पद यहां समझ लेने चाहिए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६ ] उपशान्त, अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले, अत्यन्त निरहंकारता-सम्पन्न, गुरु समाश्रित (गुरु-भक्ति में लीन), किसी को संताप न पहुँचाने वाले, विनयमूर्ति थे / वे रोह अनगार ऊर्ध्वजानु (घुटने ऊपर करके) और नीचे की ओर सिर झुकाए हुए, ध्यान रूपी कोष्ठक (कोठे) में प्रविष्ट, संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर के समीप विचरते थे। तत्पश्चात् वह रोह अनगार जातश्रद्ध होकर यावत् भगवान् को पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले विवेचन-रोह अनगार और भगवान से प्रश्न पूछने की तैयारी-प्रकृति से भद्र एवं विनीत रोह अनगार उत्कुटासन से बैठे ध्यान कोष्ठक में लीन होकर तत्त्वविचार कर रहे थे, तभी उनके मन में कुछ प्रश्न उद्भूत हुए, उन्हें पूछने के लिए वे विनयपूर्वक भगवान् के समक्ष उपस्थित हुए; यही वर्णन प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत किया गया है / रोह अनगार के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर 13. पूटिव भंते ! लोए ? पच्छा अलोए ? पुटिव अलोए ? पच्छा लोए ? रोहा ! लोए य प्रलोए य पुटिव पेते, पच्छा पेते, दो वि ते सासता भावा, अणाणुयुन्वी एसा रोहा ! / [13 प्र.] भगवन् ! पहले लोक है, और पोछे अलोक है ? अथवा पहले अलोक और पीछे लोक है? / [13 उ.] रोह ! लोक और अलोक, पहले भी हैं और पीछे भी हैं। ये दोनों ही शाश्वतभाव हैं / हे रोह ! इन दोनों में यह पहला और यह पिछला', ऐसा क्रम नहीं है। 14. पुठिय भंते ! जोवा ? पच्छा अजीवा ? पुब्धि प्रजोवा ? पच्छा जोवा ? जहेव लोए य अलोए य तहेव जोवा य अजोवा य / [14 प्र.] भगवन् ! पहले जीव और पीछे अजीव है, या पहले अजीव और पीछे जीव है ? [14 उ.] रोह ! जैसा लोक और प्रलोक के विषय में कहा है, वैसा ही जीवों और अजीवों के विषय में समझना चाहिए। 15. एवं भवसिद्धिया' य अभवसिद्धिया य, सिद्धी प्रसिद्धी, सिद्धा प्रसिद्धा / [15] इसी प्रकार भवसिद्धिक और अभव सिद्धिक, सिद्धि और असिद्धि तथा सिद्ध और संसारी के विषय में भी जानना चाहिए। 16. पुविध भंते ! अंडए ? पच्छा कुक्कुडी ? पुन्धि कुक्कुडो ? पच्छा अंडए ? रोहा! से गं अंडए कतो? भगवं! तं कुक्कुडोतो। 1. भवसिद्धिया ---भविष्यतीति भवा, भव सिद्धिः निर्वत्तियेषां ते, भव्या इत्यर्थः / भविष्य में जिनकी सिद्धि-मुक्ति होगी, वे भव्य भव सिद्धिक होते हैं / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सा णं कुक्कुडी कतो ? भंते ! अंगातो / एवामेव रोहा! से य अंडए सा य कुक्कुडी, पुदिव पेते, पच्छा पेते, दो वेते सासता भावा, प्रणाणुपुव्वी एसा रोहा! [16 प्र.] भगवन् ! पहले अण्डा और फिर मुर्गी है ? या पहले मुर्गी और फिर अण्डा है ? [16 उ.] (भगवान्-) हे रोह ! वह अण्डा कहाँ से आया ? (रोह-) भगवन् ! वह मुर्गी से पाया। (भगवान्-) वह मुर्गी कहाँ से प्राई ? (रोह--) भगवन् ! वह अण्डे से हुई। (भगवान्-) इसी प्रकार हे रोह ! मुर्गी और अण्डा पहले भी है, और पीछे भी है। ये दोनों शाश्वतभाव हैं / हे रोह ! इन दोनों में पहले-पीछे का क्रम नहीं है। 17. पुब्धि भंते ! लोअंते ? पच्छा अलोयंते ? पुर्व प्रलोअंते ? पच्छा लोअंते ? रोहा ! लोअंते य प्रलोभंते य जाव' अणाणु पुन्वी एसा रोहा ! [17 प्र.] भगवन् ! पहले लोकान्त और फिर अलोकान्त है ? अथवा पहले अलोकान्त और फिर लोकान्त है ? [17 उ.] रोह ! लोकान्त और अलोकान्त, इन दोनों में यावन् कोई क्रम नहीं है / 18. पुदिव भंते ! लोअंते ? पच्छा सत्तमे प्रोवासंतरे ? पुच्छा। रोहा ! लोअंते य सत्तमे य ओवासंतरे पुब्धि पेते जाव प्रणाणुपुवी एसा रोहा ! [18 प्र.] भगवन् ! पहले लोकान्त है और फिर सातवाँ अवकाशान्तर है ? अथवा पहले सातवां अवकाशान्तर है और पीछे लोकान्त है ? [18 उ.] हे रोह ! लोकान्त और सप्तम अवकाशान्तर, ये दोनों पहले भी हैं और पीछे भी हैं। इस प्रकार यावत्-हे रोह! इन दोनों में पहले-पीछे का क्रम नहीं है / 16. एवं लोअंते य सत्तमे य तणुवाते / एवं घणवाते, घणोदही, सत्तमा पुढवी / [19] इसी प्रकार लोकान्त और सप्तम तनुबात, इसो प्रकार घनवात, घनोदधि और सातवीं पृथ्वी के लिए समझना चाहिए। 20. एवं लोअंते एककेकेणं संजोएतब्वे इमेहि ठाहि, तं जहाप्रोवास बात घण उदही पुढवी दीवा य सागरा वासा / नेरइयादी अस्थिय समया कम्माइं लेस्साप्रो // 1 // 1. 'जाव' पद से सू. 16 में अंकित 'पुब्बि पेते' से लेकर 'प्रणाणुपुयी एसा रोहा' तक का पाठ समझ लेना चाहिए। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६ | [ 115 दिट्ठी सण पाणा सण्ण सरोरा य जोग उवनोगे। दव्व पदेसा पज्जव श्रद्धा, कि पुब्बि लोयंते ? // 2 // पुदिव भंते ! लोयंते पच्छा सव्वद्धा ? / [20] इस प्रकार निम्नलिखित स्थानों में से प्रत्येक के साथ लोकान्त को जोड़ना चाहिए; यथा-(गाथार्थ-) अवकाशान्तर, वात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष (क्षेत्र), नारक आदि जीव (चौबीस दण्डक के प्राणो), अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य, प्रदेश, पर्याय और काल (अद्धा); क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? अथवा हे भगवन् ! क्या लोकान्त पहले और सद्धिा (मर्व काल) पीछे है ? 21. जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं अलोयंतेण वि संजोएतव्वा सव्वे / [21] जैसे लोकान्त के साथ (पूर्वोक्त) सभी स्थानों का संयोग किया, उसी प्रकार अलोकान्त के साथ इन सभी स्थानों को जोड़ना चाहिए। 22. पुचि भंते ! सत्तमे प्रोवासंतरे ? पच्छा सत्तमे तणुवाते ? एवं सत्तमं ओवासंतरं सवेहि समं संजोएतब्वं जाव' सव्वद्धाए / [22 प्र. भगवन् ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ? [22 उ] हे रोह ! इसी प्रकार सप्तम अवकाशान्तर को पूर्वोक्त सब स्थानों के साथ जोड़ना चाहिए / इसी प्रकार यावत् सर्वाद्धा तक समझना चाहिए। 23. पुदिव भंते ! सत्तमे तणुवाते ? पच्छा सत्तमे घणवाते ? एवं पितहेच नेतन्वं जाव सम्वद्धा। [23 प्र.] भगवन् ! पहले सप्तम तनुवात है और पीछे सप्तम घनवात है ? [23 उ.] रोह ! यह भी उसी प्रकार यावन् सर्वाद्धा तक जानना चाहिए। 24. एवं उवरिल्लं एक्केक्कं संजोयंतणं जो जो हेढिल्लो तं तं छड्डेतेणं नेयन्वं जाव अतीतप्रणागतद्धा पच्छा सव्वद्धा जाव प्रणाणुपुवी एसा रोहा ! सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ! जाव' विहरति। [24] इस प्रकार ऊपर के एक-एक (स्थान) का संयोग करते हुए और नीचे का जो-जो स्थान हो, उसे छोड़ते हुए पूर्ववन् समझना चाहिए, यावत् अतीत और अनागत काल और फिर सद्धिा (सर्वकाल) तक, यावत् हे रोह ! इसमें कोई पूर्वापर का क्रम नहीं होता। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर रोह अनगार तप संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। 1. 'जाव' पद से यहाँ सू. 20 में अंकित गाथाद्वयगत पदों की योजना कर लेनी चाहिए। 2 'जाव' पद 'भगवं महावीरं तिक्त्तो "पज्जुवासमाणे' पाठ का सूचक है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-रोह अनगार के प्रश्न : भगवान महावीर के उत्तर-प्रस्तुत बारह सूत्रों (13 से२४ तक) में लोक-अलोक, जीव-अजीव, भवसिद्धिक-अभवसिद्धक, सिद्धि-असिद्धि, सिद्ध-संसारी, लोकान्त-अलोकान्त, अवकाशान्तर, तनु वात, घनवात, घनोदधि, सप्त पृथ्वी, द्वीप, सागर, वर्ष, नारकी, प्रादि चौबीस दण्डक के जीव, अस्तिकाय, समय, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, संज्ञा, शरीर, योग, उपयोग, द्रव्य प्रदेश और पर्याय तथा काल, इसमें परस्पर पूर्वापर क्रम के संबंध में रोहक अनगार द्वारा पूछे गए प्रश्न और श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रदत्त उत्तर अंकित हैं। इन प्रश्नों के उत्थान के कारण कई मतवादी लोक को बना हुआ, विशेषत: ईश्वर द्वारा रचित मानते हैं, इसी तरह कई लोक आदि को शून्य मानते हैं / जीव-अजीव दोनों को ईश्वरकृत मानते हैं, कई भतवादी जीवों को पंचमहाभूतों (जड़) से उत्पन्न मानते हैं, कई लोग संसार से सिद्ध मानते हैं, इसलिए कहते हैं--पहले संसार हुआ, उसके बाद सिद्धि या सिद्ध हुए / इसी प्रकार कई वर्तमान या भूतकाल को पहले और भविष्य को बाद में हुआ मानते हैं, इस प्रकार तीनों कालों की आदि मानते हैं / विभिन्न दार्शनिक चारों गति के जीवों की उत्पत्ति के संबंध में आगे-पीछे की कल्पना करते हैं / इन सब दृष्टियों के परिप्रेक्ष्य में रोह-अनगार के मन में लोक प्रलोक, जीव-अजीव आदि विभिन्न पदार्थों के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और भगवान् से उसके समाधानार्थ उन्होंने विभिन्न प्रश्न प्रस्तुत किये। भगवान् ने कहा- इन सब में पहले पीछे के क्रम का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि ये सब शाश्वत और अनादिकालीन हैं। इन्हें किसी ने बनाया नहीं है / कर्म आदि का कर्ता आत्मा है किन्तु प्रवाह रूप से वे भी अनादि-सान्त हैं। तीनों ही काल द्रव्यदृष्टि से अनादि शाश्वत है, इनमें भी आगे पीछे का क्रम नहीं होता। अष्टविधलोकस्थिति का सदष्टान्त-निरूपण-- 25. [1] भंते त्ति भगवं गोतमे समणं जाव एवं वदासि-कतिविहा णं भंते ! लोयद्विती पष्णता? ___ गोयमा ! अदुबिहा लोयट्टिती पण्णत्ता। तं जहा--प्रागासपतिद्विते वाते 1, वातपतिद्विते उदही 2, उदहिपतिद्धिता पुढवी 3, पुढ विपतिहिता तस-थावरा पाणा 4, अजीवा जोवपतिहिता 5, जीवा कम्मपतिद्विता 6, अजीवा जीवसंगहिता 7, जीवा कम्मसंगहिता / [25-1 प्र.] 'हे भगवन्' ! ऐसा कह कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् ...." इस प्रकार कहा-भगवन् ! लोक की स्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? [25-1 उ.] 'गौतम ! लोक की स्थिति पाठ प्रकार की कहो गई है। वह इस प्रकार हैआकाश के आधार पर वायु (तनुवात) टिका हुआ है। वायु के आधार पर उदधि है; उदधि के आधार पर पृथ्वी है, बस और स्थावर जीव पृथ्वी के आधार पर हैं; अजीव जीवों के आधार पर टिके हैं; (सकर्मक जीव) कर्म के आधार पर हैं; अजीवों को जीवों ने संग्रह कर रखा है, जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है। 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 81, 82 -- ---- Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथम शतक : उद्देशक-६ ] [ 157 [2] से केणणं भंते ! एवं बुच्चति प्रदविहा जाव जीवा कम्मसंगहिता ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे वस्थिमाडोवेति, वस्थिमाडोवित्ता अपि सितं बंधति, बंधित्ता मज्झे गं गठि बंधति, मज्झे गाँठ बंधित्ता उरिल्लं गठि मुयति, मुइत्ता उवरिल्लं देसं वामेति, उरिल्लं देसं वामेत्ता उरिल्लं पाउयायस्स पूरेति,पूरिता उपि सितं बंधति, बंधित्ता मझिल्लं गठि मुति / से नूणं गोतमा ! से पाउयाए तस्स वाउयायस्स उपि उवरितले चिटुति ? हंता, चिटुति। से तेणढणं जाव जीवा कम्मसंगहिता। [25-2 प्र.] भगवन् ! इस प्रकार कहने का क्या कारण है कि लोक की स्थिति आठ प्रकार की है और यावत् जीवों को कर्मों ने संग्रह कर रखा है ? [25-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष चमड़े की मशक को वायु से (हवा भर कर) फुलावे; फिर उस मशक का मुख बांध दे, तत्पश्चात् मशक के बीच के भाग में गांठ बांधे; फिर मशक का मुह खोल दे और उसके भीतर की हवा निकाल दे; तदनन्तर उस मशक के ऊपर के (खाली) भाग में पानी भरे; फिर मशक का मुख बंद कर दे, तत्पश्चात् उस मशक की बीच की गांठ खोल दे, तो हे गौतम ! वह भरा हुआ पानी क्या उस हवा के ऊपर ही ऊपर के भाग में रहेगा ? (गौतम-) हाँ, भगवान् ! रहेगा। (भगवान्-~-) 'हे गौतम ! इसीलिए मैं कहता हूं कि यावत्-कर्मों को जीवों ने संग्रह कर रखा है। [3] से जहा वा केई पुरिसे वस्थिमाडोवेति, प्राडोवित्ता कडीए बंधति, बंधित्ता प्रस्थाहमतारमपोरुसियंसि उदल प्रोगाहेज्जा। से नणं गोतमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिति ? हंता, चिट्ठति / एवं वा अविहा लोयद्विती पण्णत्ता जाव जीवा कम्मसंगहिता / [25-3 उ.] अथवा हे गौतम ! कोई पुरुष चमड़े की उस मशक को हवा से फुला कर अपनी कमर पर बांध लें, फिर वह पुरुष अथाह, दुस्तर और पुरुष-परिमाण से (जिसमें पुरुष मस्तक तक डूब जाए, उससे) भी अधिक पानी में प्रवेश करे; तो हे गौतम ! वह पुरुष पानी की ऊपरी सतह पर ही रहेगा? (गौतम -) हां, भगवन् ! रहेगा। (भगवान्-) हे गौतम ! इसी प्रकार लोक की स्थिति आठ प्रकार की कही गई है, यावत्-~कर्मों ने जीवों को संगृहीत कर रखा है।। विवेचन - अष्टविध लोकस्थिति का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में लोकस्थिति के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का भगवान् द्वारा दो दृष्टान्तों द्वारा दिया गया समाधान अंकित है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 ] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोकस्थिति का प्रश्न और उसका यथाथ समाधान-कई मतावलम्बी पृथ्वो को शेषनाग पर, शेषनाग कच्छप पर अथवा शेषनाग के फन पर टिकी हुई मानते हैं। कोई पृथ्वी को गाय के सींग पर टिकी हुई मानते हैं, कई दार्शनिक पृथ्वी को सत्य पर आधारित मानते हैं; इन सब मान्यताओं से लोकस्थिति का प्रश्न हल नहीं होता; इसीलिए श्री गौतम स्वामी ने यह प्रश्न उठाया है। भगवान् ने प्रत्यक्ष सिद्ध समाधान दिया है कि सर्वप्रथम आकाश स्वप्रतिष्ठित है। उस पर तनुवात (पतली हवा) फिर घनवात (मोटी हवा), उस पर घनोदधि (जमा हुआ मोटा पानी)और उस पर यह पृथ्वी टिकी हुई है / पृथ्वी के टिकने की तथा पृथ्वी पर उस-स्थावर जीवों के रहने की बात प्रायिक एवं आपेक्षिक है। इस पृथ्वी के अतिरिक्त और भी मेरुपर्वत, आकाश, द्वीप, सागर, देवलोक, नरकादि क्षेत्र हैं, जहाँ जीव रहते हैं। कर्मों के प्राधार पर जीव-निश्चयनय की दृष्टि से जीव अपने ही आधार पर टिके हुए हैं, किन्तु व्यवहारदष्टि से सकर्मक जीवों की अपेक्षा से यह कथन किया गया है। जीव कर्मों से यानी नारकादि भावों से प्रतिष्ठित अवस्थित हैं।" जोव और पुदगलों का सम्बन्ध 26. [1] अस्थि णं भंते ! जीवा य पोग्गला य अन्नमनबद्धा अन्नमनपुट्टा अन्नमनमोगाढा अन्नमनसिणेहपडिबद्धा अन्नमनघडताए चिट्ठति ? हंता, अस्थि। [26-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल परस्पर सम्बद्ध हैं ?, परस्पर एक दूसरे से स्पृष्ट हैं ? , परस्पर गाढ़ सम्बद्ध (मिले हुए) हैं, परस्पर स्निग्धता (चिकनाई) से प्रतिबद्ध (जुड़े हुए) हैं, (अथवा) परस्पर घट्टित (गाढ़) हो कर रहे हुए हैं ? |26-1 उ.] हाँ, गौतम ! ये परस्पर इसी प्रकार रह हुए हैं / [2] से केण?णं भंते ! जाव चिट्ठति ? गोयमा! से जहानामए हरदे सिया पुग्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे बोसट्टमाणे समभरघडताए चिति, आहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदंसि एग महं नावं सदासवं सतछिड्ड प्रोगाहेज्जा / से नणं गोतमा ! सा णावा तेहिं प्रासवद्दारेहिं आपूरमाणो प्रापूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिति ? हंता, चिट्ठति / से तेणढणं गोयमा ! अस्थि णं जीवा य जाव चिट्ठति / [26-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि-यावत् जीव और पुद्गल इस प्रकार रहे हुए हैं ? [26-2 उ.] गौतम ! जैसे--कोई एक तालाव हो, वह जल से पूर्ण हो, पानी से लबालब भरा हुअा हो, पानी से छलक रहा हो और पानी से बढ़ रहा हो, वह पानी से भरे हुए घड़े के समान है। उस तालाब में कोई पुरुष एक ऐसी बड़ी नौका, जिसमें सौ छोटे छिद्र हों (अथवा सदा छेद 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 81-82 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-६] [ 116 बाली) और सौ बड़े छिद्र हों; डाल दे तो हे गौतम ! वह नौका, उन-उन छिद्रों द्वारा पानी से भरती हुई, अत्यन्त भरती हुई, जल से परिपूर्ण, पानी से लबालब भरी हुई, पानी से छलकती हुई, बढ़ती हुई क्या भरे हुए घड़े के समान हो जाएगी ? (गौतम-) हाँ, भगवन् ! हो जाएगी। (भगवन्—) इसलिए हे गौतम ! मैं कहता हूँ यावत् जीव और पुद्गल परस्पर घट्टित हो कर रहे हुए हैं। विवेचन-जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध-प्रस्तुत सूत्र में जीव और पुद्गलों के परस्पर गाढ सम्बन्ध को दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध तालाब और नौका के समान जैसे कोई व्यक्ति जल से परिपूर्ण तालाब में छिद्रों वाली नौका डाले तो उन छिद्रों से पानी भरते-भरते नौका जल में डूब जाती है और तालाब के तलभाग में जा कर बैठ जाती है। फिर जिस तरह नौका और तालाब का पानी एकमेक हो कर रहते हैं, वैसे ही जोव और (कर्म) पुद्गल परस्पर सम्बद्ध एवं एकमेक होकर रहते हैं।' इसी प्रकार संसार रूपी तालाब के पुद्गल रूपी जल में जीव रूपी सछिद्र नौका डूब जाने पर पुद्गल और जीव एकमेक हो जाते हैं / सूक्ष्मस्नेहकायपात सम्बन्धी प्ररूपणा-- 27. [1] अस्थि णं भंते ! सदा समितं सुहुमे सिणेहकाये पवडति ? हंता, अस्थि / [27-1 प्र.] भगवन् ! क्या सूक्ष्म स्नेहकाय (एक प्रकार का सूक्ष्म जल), सदा परिमित (सपरिमाण) पड़ता है ? [27-1 उ.] हां, गौतम ! पड़ता है। [2] से भंते ! कि उड्डे पवडति, अहे पवडति तिरिए पवडति ? गोतमा ! उड्डे वि पवडति, अहे वि पवडति, तिरिए दि पवडति / [27-2 प्र.] भगवन् ! वह सूक्ष्म स्नेहकाय ऊपर पड़ता है, नीचे पड़ता है या तिरछा पड़ता है ? [27-2 उ.] गौतम ! वह उपर (ऊर्ध्वलोक में वर्तुल वैताढ्यादि में) भी पड़ता है, नीचे (अधोलोकग्रामों में) भी पड़ती है और तिरछा (तिर्यग्लोक में) भी पड़ता है / [3] जहा से बादरे प्राउकाए अन्नमन्त्रसमाउत्ते चिरं पि दोहकालं चिट्ठति तहा णं से वि ? नो इण? सम8, से गं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति!०। ॥छट्ठो उद्दे सो समतो // 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 82 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [27-3 प्र.] भगवन् ! क्या वह सूक्ष्म स्नेहकाय स्थूल अकाय की भाँति परस्पर समायुक्त होकर बहुत दीर्घकाल तक रहता है ? [27-3 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; क्योंकि वह (सुक्ष्म स्नेहकाय) शीघ्र ही विध्वस्त हो जाता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह उसी प्रकार है, यों कहकर गौतमस्वामी तपसंयम द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-सूक्ष्मस्नेहकायपात के सम्बन्ध में प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र (27-1/2/3) में सूक्ष्मस्नेह (अप) काय के गिरने के सम्बन्ध में तीन प्रश्नोत्तर अंकित हैं। 'सया समियं' का दूसरा अर्थ-इन पदों का एक अर्थ तो ऊपर दिया गया है। दूसरा अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है-सदा अर्थात्-सभी ऋतुओं में, समित--अर्थात्-रात्रि तथा दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में। काल की विशेषता से वह स्नेहकाय कभी थोड़ा और कभी अपेक्षाकृत अधिक होता है।' / / प्रथम शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 83 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : नेरइए सप्तम उद्देशक : नैरयिक नारकादि चौबीस दण्डकों के उत्पाद, उद्वर्तन और प्राहारसम्बन्धो प्ररूपणा 1. [1] नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे कि देसेणंदेस उववज्जति :1, देसेणंसव्वं उववज्जति 2, सणंदेसं उववज्जति 3, सम्वेणं सव्वं उववज्जति 4 ? गोयमा ! नो देसेणदेसं उबवज्जति, नो देसेणं सम्बं उबवज्जति, नो सन्त्रेणंदेसं उववज्जति, सम्वेणंसवं उववज्जति / [2] जहा नेरइए एवं जाव वेमाणिए / 1 / [1-1 प्र.] 'भगवन् ! नारकों में उत्पन्न होता हुआ नारक जीव एक भाग से एक भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है या एक भाग से सर्व भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है, या सर्वभाग से एक भाग को पाश्रित करके उत्पन्न होता अथवा सब भागों से सब भागों को प्राथय करके उत्पन्न होता है ? [1-1 उ.] गौतम ! नारक जीव एक भाग से एक भाग को प्राश्रित करके उत्पन्न नहीं होता; एक भाग से सर्वभाग को आश्रित करके भी उत्पन्न नहीं होता, और सर्वभाग से एक भाग को आश्रित करके भो उत्पन्न नहीं होता; किन्तु सर्वभाग से सर्वभाग का आश्रित करके उत्पन्न होता है। [1-2] नारकों के समान वैमानिकों तक इसी प्रकार समझना चाहिए।१। 2. [1] नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववजमाणे कि देसेणंदेसं पाहारेति 1, देसेगंसव्वं प्राहारेति 2, सम्वेणंदेसं आहारेति 3, सम्वेणंसव्वं प्राहारेति 4 ? गोयमा ! नो देसेणंदेसं पाहारेति, नो देसेणंसव्वं प्राहारेति, सब्वेण वा देसं प्राहारेति, सब्वेण वा सव्वं प्राहारेति / [2] एवं जाब वेमाणिए / 2 / [2-1 प्र.] नारकों में उत्पन्न होता हुमा नारक जीव क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, एक भाग से सर्वभाग को आश्रित करके अाहार करता है, सर्वभागों से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, अथवा सर्वभागों से सर्वभागों को प्राश्रित करके ग्राहार करता है? [2-1 उ.] गौतम! वह एक भाग से एक भाग को प्राश्रित करके आहार नहीं करता, एक भाग से सर्वभाग को प्राधित करके ग्राहार नहीं करता, किन्तु सर्वभागों से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, अयवा सर्वभागां से सर्व भागों को प्राश्रित करके प्राहार करता है / [2-2] नारकों के समान ही वैमानिकों तक इसी प्रकार जानना। 3. नेरइए णं भंते ! नेरइएहितो उबट्टमाणे किं देसेगंदेसं उध्वट्टति ? जहा उववज्जमाणे (सु. 1) तहेव उम्वट्टमाणे वि दंडगो भाणितव्यो / 3 / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र.] भगवन् ! नारकों में से उद्वर्तमान ---- निकलता हुआ नारक जीव क्या एक भाग से एक भाग को आश्रित करके निकलता (उद्वर्तन करता) है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न करना चाहिए। 3 उ.] गौतम ! जैसे उत्पन्न होते हुए नैरयिक आदि के विषय में कहा था, वैसे ही उद्वर्तमान नै रयिक आदि के (चौबीस ही दण्डकों के विषय में दण्डक कहना चाहिए। 4. [1] नेरइए णं भंते ! नेरदहितो उन्धट्टमाणे कि देसणंदेसं पाहारेति ? तहेव जाव (सु. 2 [1]), सब्वेण वा देसं आहारेति, सम्वेण वा सव्वं प्राहारेति / [2] एवं जाव वेमाणिए / 4 / [4.1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों से उद्वर्तमान नैरयिक क्या एक भाग से एक भाग का आश्रित करके प्राहार करता है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए। |4-1 उ.] गौतम ! यह भी पूर्वसूत्र (2-1) के समान जानना चाहिए; यावत् सर्वभागों से एक भाग को आश्रित करके आहार करता है, अथवा सर्वभागों से सर्वभागों को आश्रित करके माहार करता है। [4-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। 5. [1] नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववन्ने कि देसणंदेस उववन्ने ? एसो वि तहेब जाव सम्वेणंसव्वं उववन्ने। [2] जहा उववज्जमाणे उध्वट्टमाणे य चत्तारि दंडगा तहा उववन्नेणं उबट्टण वि चत्तारि दंडगा भाणियस्वा / सवेणंसव्वं उबन्ने; सध्वेण वा देसं पाहारेति, सव्वेण वा सव्वं श्राहारेति, एएणं अभिलावेणं उववन्ने वि, उव्व? वि नेयब्ध / 8 / [5.1 प्र.] भगवन् ! नारकों में उत्पन्न हुया नैरयिक क्या एक भाग से एक भाग को अाश्रित करके उत्पन्न हुआ है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए। [5.1 उ.] गौतम ! यह दण्डक भी उसी प्रकार जानना, यावत्-सर्वभाग से सर्वभाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है। [5-2] जैसे उत्पद्यमान और उद्वर्तमान के विषय में चार दण्डक कहे, वैसे ही उत्पन्न और उट् वृत्त के विषय में भी चार दण्डक कहने चाहिए। (यथा-'सर्वभाग से सर्वभाग को आश्रित करके उत्पन्न', तथा सर्वभाग से एक भाग को आश्रित करके आहार, या सर्वभाग से सर्वभाग को आश्रित करके पाहार ; इन शब्दों द्वारा उत्पन्न और उवृत्त के विषय में भी समझ लेना चाहिए / 6. नेर इए गं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे कि प्रद्धगद्ध उववज्जति 1 ? अद्धणंसव्वं उववाति 2 ? सम्वेणंबद्ध उववज्जइ 3 ? सव्वेणंसव्वं उववज्जति 4 ? जहा पढमिल्लेणं अट्ट दंडगा तहा प्रद्धण वि अट्ठ दंडगा भाणितव्वा / नवरं हि देसेणंदेसं उववज्जति तहि प्रद्धश्रद्धं ववज्जावेयन्वं, एयं णाणत्तं / एते सम्वे वि सोलस दंडगा भाणियव्वा / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७ ] [ 123 [6 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों में उत्पन्न होता हुआ नारक जोव क्या अद्ध भाग से अद्ध भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या अद्ध भाग से सर्वभाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? अथवा सर्वभाग से अर्द्ध भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है ? या सर्वभाग से सर्वभाग को प्राश्रित करके उत्पन्न होता है ? [6 उ.] गौतम! जैसे पहले वालों के साथ आठ दण्डक कहे हैं, वैसे ही 'अर्द्ध' के साथ भी पाठ दण्डक कहने चाहिए। विशेषता इतनी है कि-जहाँ 'एक भाग से एक भाग को प्राश्रित करके उत्पन्न होता है, ऐसा पाठ आए, वहाँ 'अर्द्धभाग से अद्ध भाग को आश्रित करके उत्पन्न होता है', ऐसा पाठ बोलना चाहिए / बस यही भिन्नता है। ये सब मिल कर कुल सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन–नारक प्रादि चौबीस दण्डकों के उत्पाद, उद्वर्तन और आहार के विषय में प्रश्नोत्तर- नारक आदि जीवों की उत्पत्ति, उद्वर्तन एवं आहार के संबंध में एक देश-सर्वदेश, अथवा अर्धदेश-सर्वदेश विषयक प्रश्नोत्तर प्रस्तुत 6 सूत्रों में अंकित हैं। प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों के 16 दण्डक–देश और सर्व के द्वारा उत्पाद आदि के 8 दण्डक (विकल्प या भंग) इस प्रकार बनते हैं-(१) उत्पन्न होता हुआ, (2) उत्पन्न होता हुअा अाहार लेता है, (3) उद्वर्तमान (निकलता हुआ), (4) उद्वर्तमान आहार लेता है, (5) उत्पन्न हुआ, (6) उत्पन्न हुया आहार लेता है, (7) उद्वत्त (निकलता हुआ) और (8) उद्धृत्त हुना आहार लेता है। इसी प्रकार अर्द्ध और सर्व के द्वारा जीव के उत्पादादि के विषय में विचार करने पर भी पूर्वोक्तवत् पाठ दण्डक (विकल्प) होते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर 16 दण्डक होते हैं। देश और सर्व का तात्पर्य-जीब जब नरक आदि में उत्पन्न होता है, तब क्या वह यहाँ (पूर्वभव) के एकदेश से नारक के एकदेश-अवयवरूप में उत्पन्न होता है ? अर्थात्-उत्पन्न होने वाले जीव का एक भाग ही नारक के एक भाग के रूप में उत्पन्न होता है ? या पूरा जीव पूरे नारक के रूप में उत्पन्न होता है ? यह उत्पत्ति संबंधी प्रश्न का प्राशय है। इसी प्रकार अन्य विकल्पों का आशय भी समझ लेना चाहिए। नैरयिक की नैरयिकों में उत्पत्ति कैसे ?—यद्यपि नारक मरकर नरक में उत्पन्न नहीं होता, मनुष्य और तिर्यञ्च मरकर हो नरक में उत्पन्न हो सकते हैं, परन्तु यह प्रश्न 'चलमाणे चलिए' के सिद्धान्तानुसार है, जो जीव मनुष्य या तिर्यंच गति का प्रायुष्य समाप्त कर चुका है जिसके नरकायु का उदय हो चुका है, उस नरक में उत्पन्न होने वाले जीव की अपेक्षा से यह कथन है / आहार विषयक समाधान का प्राशय- जीव जिस समय उत्पन्न होता है, उस समयजन्म के प्रथम समय- में अपने सर्व प्रात्मप्रदेशों के द्वारा सर्व आहार को ग्रहण करता है / __उत्पत्ति समय के पश्चात् सर्व आत्मप्रदेशों से किन्हीं प्राहार्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, किन्हीं को नहीं; अतः कहा गया है कि सर्वभागों से एक भाग का आहार करता है / देश और अर्द्ध में अन्तर- जैसे मूग में सैकड़ों देश ( अंश या अवयव ) हैं, उसका छोटे से छोटा टुकड़ा भी देश ही कहलाएगा, लेकिन अद्ध भाग तभी कहलाता है, जब उसके बीचों-बीच से दो हिस्से किये जाते हैं / यही देश और अर्द्ध में अन्तर है।' 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 83, 84 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत जीवों की विग्रहगति-अविग्रहगतिसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-- 7. [1] जीव णं भंते ! कि विगहगतिसमावन्नए ? अविग्गहगतिसमावन्नए ? गोयमा ! सिय विगहगतिसमावन्नए, सिय अविम्गहमतिसमावनगे। [2] एवं जाव' वेमाहिए। [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव विग्रगतिसमापन्न-विग्रहगति को प्राप्त होता है, अथवा विग्रहगतिसमापन्न-विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता ? [7-1 उ.] गौतम ! कभी (वह) विग्रहगति को प्राप्त होता है, और कभी विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता। [7-2] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त जानना चाहिए / 8. [1] जीवा णं भंते ! कि विग्गहगतिसमावन्नगा ? अविग्गहगतिसमावनगा ? गोयमा ! विग्गगतिसमावनगा वि, प्रविग्गहगतिसमावन्नगा वि / [2] नेरइया णं भंते ! कि विग्गहमतिसमावनगा ? अविग्गहगतिसमावन्नगा? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा अधिग्गहतिसमावन्नगा 1, प्रहवा प्रविग्गहतिसमावनगा य विगहगतिसमावनगे य 2, प्रहवा प्रविगहातिसमावन्नगा य विग्गहमतिसमावन्नगा य 3, एवं जीव-एगिदियवज्जो तियभंगो। [8-1 प्र. भगवन् ! क्या बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं अथवा विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते ? [8-1 उ. गौतम ! बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त होते हैं और बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त नहीं भी होते / [8-2 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक विग्रहगति को प्राप्त होते हैं या विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते ? [8-2 उ.] गौतम ! (1) (कभी) वे सभी विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते, अथवा (2) (कभी) बहुत से विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते और कोई-कोई विग्रहगति को प्राप्त नहीं होता, अथवा (3) (कभी) बहुत से जीव विग्रहगति को प्राप्त नहीं होते और बहुत से (जीव) विग्रहगति को प्राप्त होते हैं। यों जीव सामान्य और एकेन्द्रिय को छोड़कर सर्वत्र इसी प्रकार तीन-तीन भंग कहने चाहिए। विवेचन-जीवों को विग्रहगति-प्रविग्रहाति-सम्बन्धित प्रश्नोतर-प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा एक जीव, बहुत जीव, एवं नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकों की अपेक्षा से विग्रहगति और अविग्रहगति की प्राप्ति से संबंधित प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं। 1. 'जाव' शब्द यहाँ नैरपिक से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकों का सूचक है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७] [ 125 विग्रहगति-प्रविग्रहगति की व्याख्या सामान्यतया विग्रह का अर्थ होता है-वक्र या मुड़ना, मोड़ खाना / जीव जब एक गति का प्रायुष्य समाप्त होने पर शरीर छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करने हेतु दूसरी गति में जाते समय मार्ग (वाट) में गमन करता (बहता) है, तब उसकी गति दो प्रकार की हो सकती है—विग्रहगति और अविग्रहगति / कोई-कोई जीव जब एक, दो या तीन बार टेढ़ा-मेढ़ा मुड़कर उत्पत्तिस्थान पर पहुँचता है, तब उसकी वह गति विग्रहगति कहलाती है और जब कोई जोव मार्ग में बिना मुड़े (मोड़ खाए सीधा अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाता है तब उसकी उस गति को अविग्रहगति कहते हैं / यहाँ अविग्रहगति का अर्थ ऋजु-सरल गति नहीं लिया गया है, किन्तु विग्रहगति का प्रभाव' अर्थ ही यहाँ संगत माना गया है। इस दा से प्रविग्रहगतिसमापन्न' का अर्थ होता है--विग्रहमति को अप्राप्त (नहीं पाया हुआ), चाहे जैसी स्थिति वालागतिवाला या गतिरहित जीव / अर्थात्-जो जीव किसी भी गति में स्थित (ठहरा हुआ) है, उस अवस्था को प्राप्त जीव अविग्रहगतिसमापन्न है, और दूसरी गति में जाते समय जो जीव मार्ग में गति करता है, उस अवस्था को प्राप्त जीव विग्रहगतिसमापन्न है। इस व्याख्या के अनुसार अविग्रहगतिसमापन्न में ऋजुगति वाले तथा भवस्थित सभी जीवों का समावेश हो जाता है; तथा नारकों में जो अविग्रहगतिसमापन्न वालों की बहुलता बताई है, वह कथन भी संगत हो जाता है, मगर अविग्रहमति का अर्थ केवल ऋजुगति करने से यह कथन नहीं होता। बहुत जीवों की अपेक्षा से-जीव अनन्त हैं। इसलिए प्रतिसमय बहुत से जीव विग्रहगति समापन्न भी होते हैं, और विग्रहगति के अभाव वाले भी होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में अविग्रहगति समापन्न कहा गया है। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय जीव बहुत होने से उनमें सदैव बहुत से विग्रहगति वाले भी पाए जाते हैं और बहुत से विग्रहगति के अभाव वाले भी।' देव का च्यवनानन्तर आयुष्य प्रतिसंवेदन-निर्णय 6. देवे णं भंते ! महिडिए महज्जुतीए महब्बले महायसे महेसक्खे' महाणुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किंचि वि कालं हिरिवत्तियं दुगुलावत्तिय परिस्सहवत्तियं प्राहारं नो पाहारेति; अहे गं प्राहारेति, श्राहारिज्जमाणे ग्राहरिए, परिणामिज्जमाणे परिणामिए, पहोणे य पाउए भवइ, जत्थ उववज्जति तमाउयं पडिसंवेदेति, तं जहा—तिरिक्खजोणियाउयं वा मणुस्साउयं वा ? हंता, गोयमा ! देवे णं महिड्डीए जाव मणुस्साउगं वा। [9 प्र.] भगवन् ! महान् ऋद्धि वाला, महान् छ ति वाला, महान् बल वाला, महायशस्वी, महाप्रभावशाली, (महासामर्थ्य सम्पन्न) मरण काल में च्यवने वाला, महेश नामक देव (अथवा महाप्रभुत्वसम्पन्न या महासौख्यवात् देव) लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परोषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता, फिर याहार करता है और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है / अन्त में उस देव की वहाँ की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए वह देव जहाँ उत्पन्न होता है, वहाँ की आयु भोगता है; तो हे भगवन् ! उसकी वह आयु तिर्यञ्च की समझी जाए या मनुष्य की आयु समझी जाए? 1. (क) 'विग्रहो वक्र तत्प्रधाना गतिविग्रहगतिः ।..'"अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिक :, स्थितो वा। (ख) भगवतीसूत्र अ. टीका, पत्रांक 85-86. 2. महासोक्खे (पाठान्तर). Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 उ.] हां, गौतम ! उस महा ऋद्धि वाले देव का यावत् च्यवन (मृत्यु) के पश्चात तिर्यञ्च का प्रायुष्य अथवा मनुष्य का आयुष्य समझना चाहिए। विवेचन देव का च्यवनानन्तर–प्रायुष्यप्रतिसंवेदन-निर्णय-प्रस्तुत सूत्र में देवगति से च्युत होने के बाद तिर्यञ्च या मनुष्य गति के आयुष्य भोग के संबंध में उठाये गए प्रश्न का समाधान है। चूकि देव मर कर देवगति या नरकगति में नहीं जाता, इसलिए तिर्यञ्च या मनुष्य जिस गति में भी जाता है, वहाँ की आयु भोगता है। गर्भगतजीव-सम्बन्धी विचार 10. जीवे णं भंते ! गम्भ वक्कममाणे कि सइंदिए वक्कमति ? अणिदिए वक्कमइ? गोयमा ! सिय सइंदिए वक्कमइ, सिय प्रणिदिए वक्कमइ / से केणणं? गोयमा ! विदियाई पडुच्च अणिदिए वक्कमति, भाविदियाई पडुच्च सइंदिए बक्कमति, से तेण?णं। [10-1 प्र.] भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, क्या इन्द्रियसहित उत्पन्न होता है अथवा इन्द्रियरहित उत्पन्न होता? [10-1 उ.] गौतम ! इन्द्रियसहित भी उत्पन्न होता है, इन्द्रियरहित भी, उत्पन्न होता है। {10-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? [10-2 उ.] गौतम ! द्रव्येन्द्रियों को अपेक्षा वह बिना इन्द्रियों का उत्पन्न होता है और भावेन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों सहित उत्पन्न होता है, इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है। 11. जीवे णं भते! गभ वक्कममाणे कि ससरीरी वक्कमइ ? असरीरी वक्कमइ ? गोयमा ! सिय ससरीरी वक्कमति, सिय असरोरी वक्कमति / से केण गं? गोयमा ! पोरालिय-वेउब्धिय-पाहारयाई पडुच्च असरीरी वक्कमति, तेया-कम्माई पडुच्च ससरीरी वक्कमति ; से तेण?णं गोयमा ! [11-1 प्र.] भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जोव, क्या शरीर-सहित उत्पन्न होता है, अथवा शरीररहित उत्पन्न होता है ? [11-1 उ.] मौतम ! शरीरसहित भी उत्पन्न होता है, शरीररहित भी उत्पन्न होता है। [11-2 प्र. भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? (11-2 उ.] गौतम ! यौदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों की अपेक्षा शरीररहित उत्पन्न होता है तथा तैजस, कार्मण शरीरों की अपेक्षा शरीरसहित उत्पन्न होता है। इस कारण गौलम ! ऐसा कहा है। 12. जीवे णं भते ! गभं वक्कममाणे तपढमताए किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! माउनोयं पिउसुक्कं तं तदुभयसंसिट्ठ कलुसं किन्विसं तप्यढमताए पाहारमाहारेति / [12 प्र.] भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होते ही जोव सर्वप्रथम क्या अाहार करता है ? [12 उ.] गौतम ! परस्पर एक दूसरे में मिला हुग्रा माता का आर्तव (रज) और पिता का शुक्र (वीर्य), जो कि कलुष और किल्विष है, जीव गर्भ में उत्पन्न होते ही सर्वप्रथम उसका पाहार करता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७] [ 127 13. जीवे णं भते ! गभगए समाणे किमाहारमाहारेति ? गोयमा!जं से माता नाणाविहारो रसविगतोओ पाहारमाहारेति तदेक्कदेसेणं प्रोयमाहारेति / [13 प्र. भगवन् ! गर्भ में गया (रहा) हुमा जीव क्या आहार करता है ? [13 उ.j गौतम ! उसकी माता जो नाना प्रकार की (दुग्धादि) रसविकृतियों का आहार करती है; उसके एक भाग के साथ गर्भगत जीव माता के आर्तव का आहार करता है। 14. जोवस्स णं भते ! गमगतस्स समाणस्स अस्थि उच्चारे इ वा पासवणे इ वा खेले इ वा सिंघाणे इ वा वंते इ वा पित्ते इ वा? णो इगट्ट समट्ठ। से केण?णं? गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जमाहारेति तं चिणाइ तं सोतिदियत्ताए जाव फासिदियत्ताए अद्वि-अदिमिज-केस-मंसु-रोम-तहत्ताए, से तेण?णं। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या गर्भ में रहे हुए जीव के मल होता है, मूत्र होता है, कफ होता है, नाक का मैल होता है, वमन होता है, पित्त होता है ? [14-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है-गर्भगत जीव के ये सब (मलमूत्रादि) नहीं होते हैं। [14-2 प्र.) भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? [14-2 उ.] हे गौतम ! गर्भ में जाने पर जीव जो प्राहार करता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय (कान) के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मज्जा, केश, दाढ़ी-मूछ, रोम और नखों के रूप में परिणत करता है। इसलिए हे गौतम ! गर्भ में गए हुए जीव के मल-मूत्रादि नहीं होते। 15. जीवे णं मते ! गभगते समाणे पभू मुहेणं कावलियं प्राहारं प्राहारित्तए ? गोयमा ! जो इण? समट्ठ। से केणणं ? गोयमा ! जीवे णं गभगते समाणे सव्वतो आहारेति, सव्वतो परिणामेति, सम्वतो उस्ससति, सब्बतो निस्ससति, अभिक्खणं प्राहारेति, अभिक्खणं परिणामेति, अभिक्खणं उसससति, अभिक्खणं निस्ससति, श्राहच्च प्राहारेति, प्राहच्च परिणामेति, पाहच्च उस्ससति, प्राहच्च नीससति / मातुजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी मातुजीवपडिबद्धा पुत्तजीवं कुडा तम्हा आहारेइ, तम्हा परिणामेति, प्रवरा वि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाति, तम्हा उचिणाति; से तेण?णं० जाव नो पभू मुहेणं कावलिकं प्राहारं पाहारित्तए / [15-1 प्र. भगवन् ! क्या गर्भ में रहा हुअा जीव मुख से कवलाहार (ग्रासरूप में आहार) करने में समर्थ है ? {15-1 उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है—ऐसा होना सम्भव नहीं है। [15-2 प्र. भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं ? [15-2 उ.] गौतम ! गर्भगत जीव सब ओर से (सारे शरीर से) आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, सर्वात्मना (सब ओर से) उच्छ वास लेता है, सर्वात्मना निःश्वास लेता है, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बार-बार आहार करता है, बार-बार (उसे) परिणमाता है, बार-बार उच्छवास लेता है, बार-बार निःश्वास लेता है, कदाचित आहार करता है, कदाचित् परिणमाता है, कदाचित् उच्छ वास लेता है, कदाचित् निःश्वास लेता है, तथा पुत्र ( -पुत्री) के जीव को रस पहुँचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो मातृजीवरसहरणी नाम की नाड़ी है वह माता के जीव के साथ सम्बद्ध है और पुत्र (-पुत्री) के जीव के साथ स्पृष्ट-जुड़ी हुई है। उस नाड़ी द्वारा वह (गर्भगत जीव) आहार लेता है और पाहार को परिणमाता है। तथा एक और नाड़ी है, जो पुत्र (-पुत्री) के जीव के साथ सम्बद्ध है और माता के जीव के साथ स्पृष्ट–जुड़ी हुई होती है, उससे (गर्भगत) पुत्र (या पुत्रो) का जीव आहार का चय करता है और उपचय करता है / इस कारण से हे गौतम ! गर्भगत जोब मुख द्वारा कवल रूप आहार को लेने में समर्थ नहीं है। 16. कति णं भते ! मातिअंगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तो मातियंगा पण्णत्ता / तं जहा- मंसे सोणिते मत्थुलुगे। [16 प्र.) भगवन् ! (जीव के शरीर में) माता के अंग कितने कहे गए हैं ? [16 उ.] गौतम ! माता के तीन अंग कहे गए हैं; वे इस प्रकार हैं-(१) मांस, (2) शोणित (रक्त) और (3) मस्तक का भेजा (दिमाग)। 17. कति णं भंते! पितियंगा पण्णत्ता? गोयमा ! तो पेतियंगा पण्णत्ता / तं जहा-अट्ठि अद्धिमिजा केस-मंसु-रोम-नहे / [17 प्र.] भगवन् ! पिता के कितने अंग कहे गए हैं ? [17 उ.] गौतम ! पिता के तीन अंग कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- (1) हड्डी, (2) मज्जा और (3) केश, दाढ़ी-मूछ, रोम तथा नख / 18. अम्मातिए णं भंते ! सरीरए केवइयं कालं संचिति ? गोयमा ! जावतियं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावन्ने भवति एवतियं कालं संचिट्ठति, अहे णं समए समए वोक्कसिज्जमाणे 2 चरमकालसमयसि वोच्छिन्ने भवइ / [18 प्र.] भगवन् ! माता और पिता के अग सन्तान के शरीर में कितने काल तक रहते हैं ? [18 उ.] गौतम ! संतान का भवधारणोय शरीर जितने समय तक रहता है, उतने समय तक वे अंग रहते हैं; और जब भत्रधारणीय शरीर समय-समय पर होन (क्षोण) होता हुआ अन्तिम समय में नष्ट हो जाता है; तब माता-पिता के वे अंग भी नष्ट हो जाते हैं / 16. [1] जोवे णं भंते ! गभगते समाणे नेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! प्रत्थेगाइए उववज्जेज्जा, अस्थगइए नो उववज्जेज्जा। |16-1 प्र.] भगवन् ! गर्भ में रहा हुमा जीव क्या नारकों में उत्पन्न होता है ? [19-1 उ.] गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता / [2] से केणटुणं ? गोयमा ! से णं सन्नो पंचिदिए सवाहि पज्जत्तोहि पज्जत्तए वोरियलद्धीए वेउब्बियलद्धीए पराणीयं प्रागयं सोच्चा निसम्म पदेसे निच्छुभति, 2 वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णित्ता चाउरंगिण सेणं विउब्वइ, चाउरंगिणि सेवं विउम्वेत्ता चाउरंगिणोए सेणाए Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७ ] [ 129 पराणीएणं सद्धि संगाम संगामेड़, से गं जीवे प्रत्थकामए रज्जकामए भोगकामए कामकामए, प्रत्यकंखिए रज्जकंखिए मोगखिए कामखिए, प्रत्पपिवासिते रज्जपिवासिते मोगविवासिए कामपिवासिते, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिए तत्तिम्बनभयसाणे तदटोवउत्ते तदपिता तम्भावणाभाविते एतसि णं अंतरंसि कालं करेज नेरतिएसु उबवजह से तेण?णं गोयमा ! जाय अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए नो उववज्जेज्जा। [19-2 प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [16-2 उ.] गौतम ! गर्भ में रहा हुमा संज्ञो पंचेन्द्रिय और समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त (परिपूर्ण) जीव, वीर्यलब्धि द्वारा, वैक्रियलब्धि द्वारा शत्रुसेना का आगमन सुनकर, अवधारण (विवार) करके अपने आत्मप्रदेशों को गर्भ से बाहर निकालता है, बाहर निकाल कर वैक्रियसमुद्घात से समवहत होकर चतुरंगिणी सेना को विक्रिया करता है। चतुरंगिणी सेना की विक्रया करके उस सेना से शत्रुसेना के साथ युद्ध करता है। वह अर्थ (धन) का कामी, राज्य का कामी, भोग का कामी, काम का कामी, अर्थाकांक्षी, राज्याकांक्षी, भोगाकांक्षी, कामाकांक्षी, (अर्थादि का लोलुप), तथा अर्थ का प्यासा, राज्य का प्यासा, भोग-पिपासु एवं कामपिपासु, उन्हीं चित्त वाला, उन्हीं में मन वाला, उन्हीं में प्रात्मपरिणाम वाला, उन्हीं में अध्यवसित, उन्हीं में प्रयत्नशोल, उन्हीं में सावधानता-युक्त, उन्हीं के लिए क्रिया करने वाला, और उन्हीं भावनाओं से भावित (उन्हीं संस्कारों में ओतप्रोत), यदि उसी (समय के) अन्तर में (दौरान) मृत्यु को प्राप्त हो तो वह नरक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! यावत् कोई जीव नरक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। 20. जीवे णं भंते ! गभगते समाणे देवलोगेसु उववज्जेज्जा! गोयमा ! अस्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए नो उववज्जेज्जा। से केणण? गोयमा ! से गं सन्नी पंचिदिए सम्वाहि पज्जत्तोहि पज्जत्तए तहारूवरस समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निसम्म ततो भवति संवेगजातसड्ढे तिब्बधम्माणुरागरते, से णं जोवे धम्मकामए पुण्णकामए सगकामए मोक्खकामए, धम्मकखिए पुग्णकंखिए सागकंखिए मोक्खकंखिए, धम्मपिवासिए पुण्णपिवासिए सागपिवासिए मोक्खपिवासिए, तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसिते तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदपितकरणे तब्भावणामाविते एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज्ज देवलोएसु उववज्जति; से तेण?णं गोयमा ! / [20-1 प्र.] भगवन् ! गर्भस्थ जीव क्या देवलोक में जाता है ? 20-1 उ.] हे गौतम ! कोई जीव जाता है, और कोई नहीं जाता। [20-2 प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [20-2 उ.] गौतम ! गर्भ में रहा हुना संज्ञो पंचेन्द्रिय और सब पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव, तथारूप श्रमण या माहन के पास एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन सुन कर, अवधारण करके शीघ्र ही संवेग से धर्मश्रद्धालु बनकर, धर्म में तोत्र अनुराग से रक्त होकर, वह धर्म का कामी, पुण्य का कामी, स्वर्ग का कामी, मोक्ष का कामी, धर्माकांक्षी, पुण्याकांक्षी, स्वर्ग का आकांक्षी, मोक्षाकांक्षी तथा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून धर्मपिपासु, पुण्य पिपासु, स्वर्गपिपासु एवं मोक्षपिपासु, उसी में चित्त वाला, उसी में मन वाला, उसी में आत्मपरिणाम वाला, उसी में अध्यवसित, उसी में तीव्र प्रयत्नशील, उसी में सावधानतायुक्त, उसी के लिए अपित होकर क्रिया करने वाला, उसी की भावनाओं से भावित (उसी के संस्कारों से संस्कारित) जीव ऐसे ही अन्तर (समय) में मृत्यु को प्राप्त हो तो देवलोक में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! कोई जीव देवलोक में उत्पन्न होता है और कोई नहीं उत्पन्न होता। 21, जीवे णं भंते ! गम्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा निसीएज्ज वा तुयट्टज वा, मातुए सुवमाणोए सुवति, जागरमाणीए जागरति, सुहियाए सुहिते भवइ, दुहिताए दुहिए भवति ? हंता, गोयमा ! जोवे गं गम्भगए समाणे जाव दुहियाए भवति / [21 प्र.] भगवन् ! गर्भ में रहा हुआ जीव क्या चित-लेटा हुया (उत्तानक) होता है, या करवट वाला होता है, अथवा प्राम के समान कुबड़ा होता है, या खड़ा होता है, बैठा होता है या पड़ा हुया (सोता हुआ) होता है; तथा माता जब सो रही हो तो सोया होता है, माता जब जागती हो तो जागता है, माता के सुखी होने पर सुखी होता है, एवं माता के दुःखी होने पर दुःखी होता है ? [21 उ.] हाँ, गौतम ! गर्भ में रहा हुअा जोब..'यावत्-जब माता दुःखित हो तो दुःखी होता है। 22. अहे णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा पाएहि वा आगच्छति सममागच्छइ तिरियमागच्छइ विणिहायमावज्जति / वणवझाणि य से कम्माई बद्धाइं पुट्टाई निहत्ताई कडाई पट्टविताई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई उदिण्णाई, नो उवसंताई भवंति; तनो भवइ दुस्खे दुवष्णे दुग्गंधे दूर से दुप्फासे प्रणि प्रकंते अप्पिए प्रसुभे अमणण्णे प्रमणामे होणस्सरे दोणस्सरे अणिट्रस्सरे प्रकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुमस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे प्रणादेजवयणे पच्चायाए याऽवि भवति / वण्णवझाणि य से कम्माइं नो बधाई० पसत्थं नेतन्वं जाव प्रादेज्जवयणे पच्चायाए याऽवि भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // सत्तमो उदेसो समत्तो। 22) इसके पश्चात् प्रसवकाल में अगर वह गर्भगत जीव मस्तक द्वारा या पैरों द्वारा (गर्भ से) बाहर आए तब तो ठीक तरह आता है, यदि वह टेढ़ा (आड़ा) हो कर आए तो मर जाता है। गर्भ से निकलने के पश्चात् उस जीव के कर्म यदि अशुभरूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों' अभिसमन्वागत हों, उदीर्ग हों, और उपशान्त न हों, तो वह जीव कुरूप, कुवर्ण (खराब वर्ण वाला) दुर्गन्ध वाला, कुरस वाला, कुस्पर्श बाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम (जिसका स्मरण भी बुरा लगे), हीन स्वर बाला, दीन स्वर वाला, अनिष्ट अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ एवं अमनाम स्वर वाला; तथा अनादेय वचन वाला होता है, और यदि उस जीव के कर्म अशुभरूप में न बँधे हुए हों तो, उसके उपर्युक्त सब बातें प्रशस्त होती हैं, ......... यावत्--वह प्रादेयवचन वाला होता है / ' 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है / ' यों कह कर श्री गौतमस्वामी तप-संयम में विचरण करने लगे। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-७ ] [ 131 विवेचन--गर्भगत जीव सम्बन्धी विचार-प्रस्तुत 13 सूत्रों (सू. 10 से 22 तक) में विविध पहलुओं से गर्भगत जीव से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर अंकित किये गए हैं :-- द्रव्येन्द्रिय-मावेन्द्रिय-इन्द्रिय के दो भेद हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / पोद्गलिक रचनाविशेष को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं / इसके दो प्रकार हैं—नित्ति और उपकरण / इन्द्रियों की प्राकृति को निवृत्ति कहते हैं, और उनके सहायक को उपकरण कहते हैं / भावेन्द्रिय के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग / लब्धि का अर्थ शक्ति है, जिसके द्वारा आत्मा शब्दादि का ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है। उपयोग का अर्थ है ग्रहण करने का व्यापार। जीव जब गर्भ में आता है, तब उसमें शक्तिरूप भावेन्द्रियाँ यथायोग्य साथ ही होती हैं। गर्भगत जीव के माहारादि-गर्भमें पहुँचने के प्रथम समय में माता के ऋतु-सम्बन्धी रज और पिता के वीर्य के सम्मिश्रण को ग्रहण करता है / तत्पश्चात् माता द्वारा ग्रहण किये हुए रसविकारों का एक भाग प्रोज के साथ ग्रहण करता है। गर्भस्थ जीव के मल-मूत्रादि नहीं होते, क्योंकि वह जो भी पाहार ग्रहण करता है उसे श्रोत्रेन्द्रियादि रूप में परिणमाता है / वह कवलाहार नहीं करता, सर्वात्मरूप से प्राहार ग्रहण करता है / रसहरणी नाडी (नाभिका नाल) द्वारा गर्भगत जीव माता के जोब का रस ग्रहण करता है। यह नाडी माता के जीव के साथ प्रतिबद्ध और सन्तान के जीव के साथ स्पष्ट होती है। दूसरी पुत्रजीवरसहरणो द्वारा गर्भस्थ जीव आहार का चय-उपचय करता है। इससे गर्भस्थ जीव परिपुष्टि प्राप्त करता है। यह नाड़ी सन्तान के जीव के साथ प्रतिबद्ध और माता के जीव के साथ स्पृष्ट होती है। गर्भगत जीव के अंगादि-जिन अंगों में माता के आर्तव का भाग अधिक होता है / बे कोमल अंग-मांस, रक्त और मस्तक का भेजा (अवथा मस्तुलग-चर्बी या फेफड़ा) माता के होते हैं, तथा जिन अंगों में पिता के वीर्य का भाग अधिक होता है, वे तीन कठोर अंग-केश, रोम तथा नखादि पिता के होते हैं। शेष सब अंग माता और पिता दोनों के पुद्गलों से बने हुए होते हैं / सन्तान के भवधारणीय शरीर का अन्त होने तक माता-पिता के ये अंग उस शरीर में रहते हैं। गर्भगत जोव के नरक या देवलोक में जाने का कारण धन, राज्य और कामभोग को तीव. लिप्सा और शत्रुसेना को मारने की तीव्र आकांक्षा के वश मृत्यु हो जाय तो गर्भस्थ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव नरक में जाता है और धर्म, पुण्य, स्वर्ग एवं मोक्ष के तीन शुभ अध्यवसाय में मृत्यु होने पर वह देवलोक में जाता है। गर्भस्थ जीव स्थिति-गर्भस्थ जीव ऊपर की ओर मुख किये चित सोता, करवट से सोता है, या आम्रफल की तरह टेढ़ा हो कर रहता है / उसकी खड़े या बैठे रहने या सोने आदि की क्रिया माता को क्रिया पर आधारित है / बालक का भविष्य : पूर्वजन्मकृत कर्म पर निर्भर-पूर्वभव में शुभ कर्म उपाजित किया हुआ जीव यहाँ शुभवर्णादि वाला होता है, किन्तु पूर्वजन्म में अशुभ कर्म उपाजित किया हुमा जीव यहाँ अशुभवर्ण कुरस आदि वाला होता है।' // प्रथम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 86 से 90 तक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : बाले अष्टम उद्देशक : बाल एकान्त बाल, पण्डित प्रादि के आयुष्यबन्ध का विचार--- 1. एगंतवाले गं भंते ! मणस्से कि नेरइयाउयं पकरेति ? तिरिक्खाउयं पकरेति ? मणस्साउय पकरेति? देवाउयं पकरेति ? नेरइयाउय किच्चा नेरइएसु उववज्जति ? तिरियाउयं किच्चा तिरिएसु उववज्जई ? मणस्साउयं किच्चा मगुस्सेसु उववज्जइ ? देवाउयं किच्चा देवलोगेसु उववज्जति ? गोयमा ! एगंतबाले णं मणुस्से नेरइयाउयपि पकरेइ, तिरियाउय पि पकरेइ, मणुयाउयं पिपकरेइ, देवाउयपि पकरेह; रइयाउयपि किच्चा नेरइएसु उबवज्जति, तिरियाउयपि किच्चा तिरिएसु उववज्जति, मणस्साउयपि किच्चा मणुस्सेसु उववज्जति देवाउय पि किच्चा देवेसु उववज्जति / राजगृह नगर में समवसरण हुना और यावत्--श्री गौतम स्वामी इस प्रकार बोले [1 प्र.] भगवन् ! क्या एकान्त-वाल (मिथ्यादृष्टि) मनुष्य, नारक की आयु बांधता है तिर्यञ्च की आयु बांधता है, मनुष्य की आयु बांधता है अथवा देव की प्रायु बांधता है ? तथा क्या वह नरक की आयु बांधकर नैरयिकों में उत्पन्न होता है ; तिर्यञ्च की आयु बांधकर तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। मनुष्य की आयु बांधकर मनुष्यों में उत्पन्न होता है अथवा देव की प्रायु बांध कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? [1 उ.] गौतम ! एकान्त बाल मनुष्य नारक की भी श्रायु बाधता है, तिर्यञ्च की भी आयु बांधता है, मनुष्य की भी प्रायु बांधता है और देव की भी प्रायु बांधता है; तथा नरकायु बांध कर नैरयिकों में उत्पन्न होता है, तिर्यञ्चायु बांधकर तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है, मनुष्यायु बांध कर मनुष्यों में उत्पन्न होता है और देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है / 2. एगंतपंडिए णं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउय पकरेइ ? जाव देवाउय किच्चा देवलोएसु उववज्जति? गोयमा! एगंतपंडिए थे मगुस्से प्राउयं सिय पकरेति, सिय नो पकरेति / जइ पकरेइ नो नेरइयाउय पकरेइ, नो तिरियाउयपकरेइ, नो मणुस्साउयपकरेइ, देवाउयंपकरेति / नो नेर इयाउय किच्चा नेरइएसु उबवज्जइ, णो तिरि०, जो मणुस्सा०, देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति / से केण?णं जाव देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोयमा! एगंतपंडितस्स णं मणुस्सस्स केवलमेव दो गतीओ पन्नाय ति, तं जहा-अंतकिरिया चेव, कप्पोववत्तिया चेव / से तेणणं गोतमा! जाव देवाउय किच्चा देवेसु उवज्जति / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८ ] [ 133 [2 प्र.] भगवन् ! एकान्तपण्डित मनुष्य क्या नरकायु बाँधता है ? या यावत् देवायु बांधता है ? और यावत् देवायु बांध कर देवलोक में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] हे गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य, कदाचित् आयु बांधता है और कदाचित् आयु नहीं बांधता। यदि आयु बांधता है तो देवायु बांधता है, किन्तु नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु नहीं बांधता / वह नरकायु नहीं बांधने से नारकों में उत्पन्न नहीं होता, इसी प्रकार तिर्यञ्चायु न बांधने से तिर्यञ्चों में उत्पत्र नहीं होता और मनुष्यायु न बांधने से मनुष्यों में भी उत्पन्न नहीं होता; किन्तु देवायु बांधकर देदों में उत्पन्न होता है / [प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि""यावत्-देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! एकान्तपण्डित मनुष्य की केवल दो गतियाँ कही गई हैं / वे इस प्रकार हैंअन्तक्रिया और कल्पोपपत्तिका (सौधर्मादि कल्पों में उत्पन्न होना)। इस कारण हे गौतम! एकान्तपण्डित मनुष्य देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है / 3. बालपंडिते गं भंते ! मणुस्से कि नेरइयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोतमा ! नो नेर इयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उबवज्जति / से केणढणं जाव देवाउय किच्चा देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रारिय धम्मिय सुक्यणं सोचा निसम्म देसं उवरमति, देसं नो उवरमइ, देसं पच्चक्वाति, देसं गो पच्चक्खाति; से णं तेणं देसोबरम-देसपच्चक्खाणेणं नो नेरयाउय पकरेति जाव देवाउय किच्चा देवेसु उवधज्जति / से तेण?णं जाव देवेसु उववज्जइ। [3 प्र.] भगवन् ! क्या बालपण्डित मनुष्य नरकायु बांधता है, यावत्-देवायु बांधता है ? और यावत्-देवायु बांधकर देवलोक में उत्पन्न होता है ? [3 उ.] गौतम ! वह नरकायु नहीं बांधता और यावत् (तिर्यञ्चायु तथा मनुष्यायु नहीं बांधता), देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है / _[प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि बालपण्डित मनुष्य यावत् देवायु बांध कर देवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! बालपण्डित मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य तथा धामिक सुवचन सुनकर, अवधारण करके एकदेश से विरत होता है, और एकदेश से विरत नहीं होता / एकदेश से प्रत्याख्यान करता है और एकदेश से प्रत्याख्यान नहीं करता / इसलिए हे गौतम ! देश-विरति और देश-प्रत्याख्यान के कारण वह नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध नहीं करता और यावत्-देवायु बांधकर देवों में उत्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है। विवेचन-बाल, पण्डित आदि के श्रायुबन्ध का विचार प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: एकान्तबाल, एकान्तपण्डित और बाल-पण्डित मनुष्य के आयुष्यबन्ध का विचार किया गया है। बाल प्रादि के लक्षण -मिथ्यादृष्टि और अविरत को एकान्तबाल कहते हैं / बस्ततत्त्व के Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 ] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसून यथार्थ स्वरूप को जानकर जो तदनुसार आचरण करता है, वह 'पण्डित' कहलाता है, और जो वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है, किन्तु अांशिक (एकदेश) प्राचरण करता है, वह बालपण्डित कहलाता है / एकान्तबाल मिथ्यादृष्टि एवं अविरत होता है, एकान्त-पण्डित महाव्रती साधु होता है और बालपण्डित देशविरत श्रमणोपासक होता है / एकान्तबाल मनुष्य के चारों गतियों का प्रायुष्य बन्ध क्यों? -एकान्त बालत्व समान होते हुए भी एक ही गति का आयुष्यबन्ध न होकर चारों गतियों का आयुबन्ध होता है, इसका कारण एकान्तबालजीवों का प्रकृतिवैविध्य है। कई एकान्तबालजीव महारम्भी, महापरिग्रही, असत्यमार्गोपदेशक तथा पापाचारी होते हैं, वे नरकायु या तिर्यञ्चायु का बन्ध करते हैं। कई एकान्तबालजीव अल्पकषायी, अकामनिर्जरा, बालतप आदि से युक्त होते हैं / वे मनुष्यायु या देवायु का बन्ध करते हैं। एकान्तपण्डित को दो गतियाँ-जिनके सम्यक्त्वसप्तक (अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मोहनीयत्रिक इन सात प्रकृतियों) का क्षय हो गया है, तथा जो तद्भवमोक्षगामी हैं, वे आयुष्यबन्ध नहीं करते / यदि इन सातप्रकृतियों के क्षय से पूर्व उनके आयुष्यबन्ध हो गया हो तो सिर्फ एक वैमानिक देवायु का बन्ध करते हैं। इसी कारण एकान्त पण्डित मनुष्य की क्रमश: दो ही गतियाँ कही गई हैं--अन्तक्रिया (मोक्षगति) अथवा कल्पोपपत्तिका (वैमानिक देवगति)।' मगधातकादि को लगने वाली क्रियाओं को प्ररूपणा-- 4. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा 1 दहंसि वा 2 उदगंसि वा 3 दवियंसि वा 4 वलयंसि वा 5 नमसि वा 6 गहणंसि वा 7 गहणविदुरगंसि वा 8 पञ्चतंसि वा पन्वतविदुग्गसि वा 10 वर्णसि वा 11 वणविदुर्गसि वा 12 मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता 'एते मिए' ति काउं अनयरस्स मियस्स वहाए कुड-पासं उद्दाइ, ततो गं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे कच्छंसि वा 12 जाव कूड-पासं उद्दाइ तावं च णं से पुरिसे सिघ तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। से केण भंते ! एवं बच्चति 'सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए ? गोयमा ! जे भविए उद्दवणयाए, जो बंधणयाए, णो मारणयाए, तावं च गं से पुरिसे काइयाए अहिंगरणियाए पादोसियाए तोहि किरियाहि पुढे / जे भविए उद्दवणयाए वि बंधणयाए वि, णो मारणयाए तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिारणियाए पायोसियाए पारियावशियाए चहि किरियाहिं पुढे / जे भविए उद्दवणयाए वि बंधणयाए वि मारणयाए वि तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातिवातकिरियाए पंहि किरियाहि पुट्ठ / से तेण?णं जाव पंचकिरिए। [4 प्र.! भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मृगों का शिकारी, मृगों के शिकार में तल्लीन कोई पुरुष मृगवध के लिए निकला हुआ कच्छ (नदी के पानी से घिरे हुए झाड़ियों वाले स्थान) में, द्रह में, जलाशय में, घास आदि के समूह में, वलय (गोलाकार नदी आदि के पानी से टेढ़े-मेढ़े स्थान) में, अन्धकारयुक्त प्रदेश में, गहन (वृक्ष, लता आदि झुड से सघन वन) में, पर्वत के 1. भगवती सूत्र, प्र. वृत्ति पत्रांक 90-91 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक- ] [ 135 एक भागवर्ती वन में, पर्वत पर पर्वतीय दुर्गम प्रदेश में, वन में, बहुत-से वृक्षों से दुर्गम वन में, 'ये मृग हैं', ऐसा सोच कर किसी मृग को मारने के लिए कूटपाश रचे (गड्डा बना कर जाल फैलाए) तो है भगवन् ! वह पुरुष कितनी क्रियाओं वाला कहा गया है ? अर्थात्--उसे कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [4 उ.] हे गौतम ! वह पुरुष कच्छ में, यावत्-जाल फैलाए तो कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच किया वाला होता है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'वह पुरुष कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है ? उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष जाल को धारण करता है, और मृगों को बांधता नहीं है तथा मृगों को मारता नहीं है, तब तक वह पुरुष कायिकी, प्राधिकरणिकी और प्राषिकी, इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट (तीन क्रियाओं वाला) होता / जब तक वह जाल को धारण किये हुए है और मृगों को बांधता है किन्तु मारता नहीं; तब तक वह पुरुष कायिकी आधिकरणिकी, प्राषिकी, और पारितापनिको, इन चार क्रियाओं से स्पष्ट होता है। जब वह पुरुष जाल को धारण किये हुए है, मृगों को बांधता है और मारता है, तब वह कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिको, इन पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। इस कारण हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित तीन क्रियाओं वाला, कदाचित चार क्रियायों वाला और कदाचित पांचों क्रियाओं वाला कहा जाता है। 5. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गसि वा तगाई ऊपविय ऊस विय प्रगणिकायं निसिरह तावं च णभंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चकिरिए सिय पंचकिरिए / से केणणं? गोतमा! जे भविए उस्सवणयाए तिहि; उस्सवणधाए वि निसिरणयाए वि, नो दहणयाए चाहि: जे भविए उस्सवणयाए वि निसिरणयाए वि दहणयाए वि तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे / से तेणढणं गोयमा ! 0 / [5 प्र.] भगवन् ! कच्छ में यावत्-बनविदुर्ग (अनेक वृक्षों के कारण दुर्गम बन) में कोई पुरुष घास के तिनके इकट्ठ करके उनमें अग्नि डाले तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? [5 उ.] गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष तिनके इकट्ठ करता है, तब तक वह तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है / जब वह तिनके इकट्ठा कर लेता है, और उनमें अग्नि डालता है, किन्तु जलाता नहीं है, तक तक वह चार क्रियाओं वाला होता है। जब वह तिनके इकट्ठ करता है, उनमें प्राग डालता है और जलाता है, तब वह पुरुष कायिकी आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता हैं। इसलिए हे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [ न्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गौतम ! वह (पूर्वोक्त) पुरुष कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियानों वाला एवं कदाचित् पांचों क्रियानों वाला कहा जाता है। 6. पुरिसे णं भते! कच्छसि वा जाव वणविबुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाए गंता 'एए मिये' ति काउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसुनिसिरइ, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए। से केणणं ? गोयमा! जे भविए निसिरणयाए तिहि; जे भविए निसिरणयाए वि विद्धसणयाए वि, नो मारणयाए चहि; जे भविए निसिरणयाए वि विद्धसणयाए वि मारणयाए वि तावं च णं से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहिं पुढे / से लेण? गं गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए। [6 प्र.] भगवन् ! मृगों से आजीविका चलाने वाला, मृगों का शिकार करने के लिए कृतसंकल्प, मृगों के शिकार में तन्मय, मृगवध के लिए कच्छ में यावत् वनविदुर्ग में जाकर 'ये मृग हैं। ऐसा सोचकर किसी एक मृग को मारने के लिए बाण फेंकता है, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है (अर्थात् उसे कितनी क्रिया लगती हैं?) [6 उ.] हे गौतम ! वह पुरुष कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पाँच क्रिया वाला होता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष बाण फैकता है, परन्तु मृग को बेधता नहीं है, तथा मृग को मारता नहीं है, तब वह पुरुष तीन क्रिया वाला है। जब वह बाण फेंकता है और मग बेधता है, पर मृग को मारता नहीं है, तब तक वह चार क्रिया वाला है, और जब वह बाण फैकता है, मृग को बेधता है और मारता है; तब वह पुरुष पाँच क्रिया वाला कहलाता है / हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि 'कदाचित् तीन क्रिया बाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पाँच क्रिया वाला होता है।' 7. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा जाव अन्नयरस्स मियस्स वहाए प्रायतकण्णायतं उसु प्रायामेत्तां चिट्ठिज्जा, अन्ने य से पुरिसे मांगतो प्रागम्म सयपाणिणा असिणा सीसं छिदेज्जा, से य उसू ताए चेव पुवायामणयाए तं मियं विधेज्जा, से णं भंते! पुरिसे कि मियवेरेणं पुढे? पुरिसवेरेणं पुढें! गोतमा ! जे मियं मारेति से मियवेरेणं पुढे, जे पुरिसं मारेइ से पुरिसवेरेणं पुढे / से केणणं भंते ! एवं बच्चइ जाव से पुरिसवेरेणं पुटू ? से नूर्ण गोयमा ! कज्जमाणे कडे, संधिज्जमाणे संधिते, निव्वतिज्जमाणे निव्वत्तिए, निसिरिज्जमाणे निस? त्ति वत्तव्वं सिया ? हंता, भगवं ! कज्जमाणे कडे जाव निसट्ठति वत्तव्वं सिया / से तेण?णं गोयमा! जे मियं मारेति से मियवेरेणं पुढे जे पुरिसं मारेइ से पुरिसवेरेणं पुट्ठ। अंतो छण्हं मासाणं मरइकाइयाए जाव पंचर्चाह किरियाहि पुढे, बाहिं छह मासाणं मरति काइयाए जाव पारितावणियाए चहि किरियाहिं पुट्ठ। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८ ] [ 137 [7 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष, कच्छ में यावत् किसी मृग का वध करने के लिए कान तक ताने (लम्बे किये हुए बाण को प्रयत्नपूर्वक खींच कर खड़ा हो और दूसरा कोई पुरुष पीछे से आकर उस खड़े हुए पुरुष का मस्तक अपने हाथ से तलवार द्वारा काट डाले। वह बाण पहले के खिचाव से उछल कर उस मृग को बींध डाले, तो हे भगवन् ! वह पुरुष मृग के वैर से स्पृष्ट है या (उक्त) पुरुष के वैर से स्पृष्ट है ? __ [7 उ.] गौतम ! जो पुरुष मृग को मारता है, वह मृग के वैर से स्पृष्ट है और जो पुरुष, पुरुष को मारता है, वह पुरुष के वैर से स्पृष्ट है / [प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यावत् वह पुरुष, पुरुष के वैर से स्पृष्ट है ? [उ.] हे गौतम ! यह तो निश्चित है न कि 'जो किया जा रहा है, वह किया हुआ' कहलाता है; 'जो मारा जा रहा है, वह मारा हुआ' 'जो जलाया जा रहा है, वह जलाया हुआ' कहलाता है और 'जो फेंका जा रहा है, वह पका हुआ, कहलाता है ? (गौतम-) हाँ, भगवन् ! जो किया जा रहा है, वह किया हुआ कहलाता है, और यावत्''जो फेंका जा रहा है, वह फैका हुया कहलाता है। (भगवान्–) 'इसलिए इसी कारण हे गौतम ! जो मृग को मारता है, वह मृग के वैर से स्पृष्ट और जो पुरुष को मारता है, वह पुरुष के वैर से स्पृष्ट कहलाता है / यदि मरने वाला छह मास के अन्दर मरे, तो मारने वाला कायिकी आदि यावत् पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है और यदि मरने वाला छह मास के पश्चात् मरे तो मारने वाला पुरुष, कायिकी यावत् पारितापनिकी इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट कहलाता है। 8. पुरिसे गं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिधंसेज्जा, सयपाणिणा वा से प्रसिणा सीसं छिदेज्जा, ततो णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेइ सयपाणिणा वा से प्रसिणा सीसं छिदइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणि. जाब पाणातिवायकिरियाए पंचर्चाह किरियाहिं पुढे, आसन्नवहएण य अणवकखणवत्तिएणं पुरिसवेरेणं पुढे / / [8 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष किसी पुरुष को बरछी (या भाले) से मारे अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काट डाले, तो वह पुरुष कितनी क्रिया वाला होता है ? 8 उ.] गौतम ! जब वह पुरुष उसे बरछी द्वारा मारता है, अथवा अपने हाथ से तलवार द्वारा उस पुरुष का मस्तक काटता है, तब वह पुरुषकायिकी, प्राधिकरणिकी यावत् प्राणातिपातकी इन पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है और वह आसन्नवधक एवं दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला पुरुष, पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है। विवेचन-मगघातकादि को लगने वाली क्रियाओं के सम्बन्ध में विचार–प्रस्तुत पाँच सूत्रों (4 से 8 तक) में मगघातक, पुरुषघातक आदि को लगने वाली क्रियाओं के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं / प्रश्नों का क्रम इस प्रकार है-- Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (1) मृगवध के लिए जाल फैलाने, मगों को बांधने तथा मारने वाले को लगने वाली क्रियाएँ। (2) तिनके इकठ्ठ करके प्राग डालने एवं जलाने वाले को लगने वाली क्रियाएँ / (3) मगों को मारने हेतु बाण फैंकने, बींधने और मारने वाले को लगने वाली क्रियाएँ / (4) बाण को खींचकर खड़े हुए पुरुष का मस्तक कोई अन्य पुरुष पीछे से आकर खड्ग से काट डाले, इसी समय वह बाण उछल कर यदि मृग को बींध डाले तो मृग मारने वाला मृगवैर से स्पृष्ट और पुरुष को मारने वाला पुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, उनको लगने वाली क्रियाएँ। (5) बरछी या तलवार द्वारा किसी पुरुष का मस्तक काटने वाले को लगने वाली क्रियाएँ / षटमास की अवधि क्यों ? --जिस पुरुष के प्रहार से मृगादि प्राणी छह मास के भीतर मर जाए तो उनके मरण में वह प्रहार निमित्त माना जाता है। इसलिए मारने वाले को पाँचों क्रियाएँ लगती हैं, किन्तु वह मृगादि प्राणी छह महीने के बाद मरता है तो उसके मरण में वह प्रहार निमित्त नहीं माना जाता, इसलिए उसे प्राणातिपातिकी के अतिरिक्त शेष चार क्रियाएँ ही लगती हैं। यह कथन व्यवहारनय की दृष्टि से है, अन्यथा उस प्रहार के निमित्त से जब कभी भी मरण हो, उसे पाँचों क्रियाएँ लगती हैं। आसन्नवधक-वरछी या खड्ग से मस्तक काटने वाला पुरुष आसन्नबधक होने के कारण तीन्न वैर से स्पृष्ट होता है / उस वैर के कारण वह उसी पुरुष द्वारा अथवा दूसरे के द्वारा उसी जन्म में या जन्मान्तर में मारा जाता है। पंचक्रियाएँ-(१) कायिकी-काया द्वारा होने वाला सावध व्यापार (2) प्राधिकरणिकीहिंसा के साधन---शस्त्रादि जुटाना, (3) प्राषिकी तीव्र द्वेष भाव से लगने वाली क्रिया, (4) पारितापनिकी-किसी जीव को पीड़ा पहुँचाना, और (5) प्राणातिपातिकी-जिस जीव को मारने का संकल्प किया था, उसे मार डालना / अनेक बातों में समान दो योद्धाओं में जय-पराजय का कारण 6. दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिन्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धि संगाम संगामंति, तत्थ णं एगे पुरिसे पराइणइ एगे पुरिसे पराइज्जइ, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोतमा ! सबोरिए परामिणति, अवोरिए पराइज्जति / से केण?णं जाव पराइज्जति ? मोयमा! जस्स गं वीरियवज्झाई कम्माइं नो बधाई नो पुढाई जाव नो अभिसमन्नागताई, नो उदिष्णाइं, उवसंताई भवंति से गं पुरिसे परायिणति; जस्ल णं वोरियवज्झाई कम्माइं बद्धाइं जाव उविण्णाई, कम्माईनो उपसताई भवंति से गं पुरिसे परायिजति / से तेणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सवोरिए पराजिण इ, प्रवीरिए पराइज्जति ! [9 प्र.] भगवन् ! एक सरोखे, एक सरीखी चमड़ी वाले, समानवयस्क, समान द्रव्य और उपकरण (शस्त्रादि साधन) वाले कोई दो पुरुष परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करें, तो उनमें से एक पुरुष जीतता है और एक पुरुष हारता है; भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति 93,94 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-८ ] | 1 उ.] हे गौतम ! जो पुरुष सवीर्य (वीर्यवान् = शक्तिशाली) होता है, वह जीतता है और जो वीर्यहीन होता है, वह हारता है।। [ प्र. भगवन् ! इसका क्या कारण है यावत्-वीर्यहीन हारता है ? / 3. गौतम ! जिसने वीर्य-विधातक कर्म नहीं बांधे हैं, नहीं स्पर्श किये हैं यावत् प्राप्त नहीं किये हैं, और उसके वे कर्म उदय में नहीं आए हैं, परन्तु उपशान्त हैं, वह पुरुष जोतता है / जिसने वीर्य विघातक कर्म बांधे हैं, स्पर्श किये हैं, यावत् उसके वे कर्म उदय में पाए हैं, परन्तु उपशान्त नहीं हैं, वह पुरुष पराजित होता है / अतएव हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा जाता है कि सवीर्य पुरुष वियजी होता है और वीर्यहीन पुरुष पराजित होता है। विवेचन-दो पुरुषों की अनेक बातों में सदशता होते हुए भी जय-पराजय का कारण प्रस्तुत सूत्र में दो पुरुषों की शरीर, वय, चमड़ी तथा शस्त्रादि साधनों में सदृशता होते हुए भी एक की जय और दूसरे की पराजय होने का कारण बताया गया है / वीर्यवान और नि:र्य-वस्तुतः वीर्य से यहाँ तात्पर्य है,-यात्मिक शक्ति, मनोबल, उत्साह, साहस और प्रचण्ड पराक्रम इत्यादि / जिसमें इस प्रकार का प्रचण्ड वीर्य हो, जो वीर्य विघातक-कर्मरहित हो, वह शरीर से दुर्बल होते हुए भी युद्ध में जीत जाता है, इसके विपरीत भीमकाय एवं परिपुष्ट शरीर वाला होते हुए भी जो निर्वीर्य हो, वीर्यविघातककर्मयुक्त हो, वह हार जाता है / ' जीव एवं चौबीस दण्डकों में सबीयत्व-अवार्यत्व की प्ररूपणा जोवा णं भंते ! कि सवीरिया? अवोरिया ? गोयमा ! सवीरिया वि, प्रवीरिया वि / से केपट्टणं? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णता; तं जहा--संसारसमावनगा य, प्रसंसारसमावनगा य / तत्य जे ते असंसारसमावन्नगा तेणं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया। तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नता; तं जहा-सेलेसिपडिवनगा य, असेलेसिपडिवनगा य / तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिबन्नगा ते णं लाद्धबोरिएणं सवारिया, करणवोरिएणं अवीरिया। तत्थ णं जे ते असेलेसिपीडिवन्नगा ते णं लद्धि. वोरिएणं सवारिया, करणवीरिएणं सवारिया वि अवीरिया वि / से तेगडेणं गोयमा! एवं बुच्चति जोवा दुविहा पण्णता; तं जहा-सबोरिया वि, अवोरिया वि। [10.1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव सवीर्य हैं अथवा अवीर्य हैं ? {10-1 उ.] गौतम ! जीव सवीर्य भी हैं अवीर्य भी है। [10.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? [10-2 उ.] मौतम ! जीव दो प्रकार के हैं-संसारसमापन्नक (संसारी) और असंसारसमापन्नक (सिद्ध)। इनमें जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं, वे अवीर्य (करण वीर्य से रहित) हैं। इनमें जो जीव संसार-समापन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा शैलेशोप्रतिपन्न और अशैलेशोप्रतिपन्न / इनमें जो शैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा अवीर्य हैं / जो अशैलेशोप्रतिपन्न हैं वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा सवोर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 94 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14.] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं / जो अशैलेशीप्रतिपन्न हैं, वे लब्धिवीर्य को अपेक्षा अवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जीव सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी। 11. [1] नेरइया णं भंते ! कि सीरिया ? अवीरिया ? गोयमा ! नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि प्रवीरिया वि। से केपट्टणं? गोयमा ! जेसि णं नेरइयाणंअस्थि उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करणवीरिएण वि सबीरिया, जेसि णं नेरइयाणं नस्थि उदाणे जाव परक्कमे ते णं नेर इया लधिवोरिएणं सीरिया, करणवीरिएणं प्रवीरिया / से तेण?ण / [11-1 प्र. भगवन् ! क्या नारक जीव सवीर्य हैं या अवीर्य ? [11-1 प्र.] गौतम ! नारक जीव लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। [प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [उ.[ 'गौतम ! जिन नरयिकों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम है, वे नारक लब्धिवीर्य और करणवीर्य, दोनों से सवीर्य हैं, और जो नारक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं, वे लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं, किन्तु करणवीर्य से अवीर्य हैं। इसलिए हे गौतम ! इस कारण से पूर्वोक्त कथन किया गया है / [2] जहा नेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया / [11.2] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया गया है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक के जीवों के लिए समझना चाहिए। [3] मणुस्सा जहा प्रोहिया जीवा / नवरं सिद्धवज्जा भाणियव्वा / [11-3] मनुष्यों के विषय में सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए, विशेषता यह है कि सिद्धों को छोड़ देना चाहिए। [4] दाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा नेरइया / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // पढमसए अटुमो उद्दसो समत्तो। 11.4] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान कथन समझना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्री गौतमस्वामी संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे / ' विवेचन-जीवों के सवीर्यत्व-प्रवीर्यत्व सम्बन्धी प्ररूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में सामान्य जीवों तथा नैरयिक आदि से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकों के जीवों के सवीर्य अवीर्य सम्बन्धी निरूपण किया गया है। 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 95. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सतक : उद्देशक-८ ] [141 अनन्तवीर्य सिद्ध : अवीर्य कसे ?-सिद्धों में सकरणवीर्य के अभाव की अपेक्षा से उन्हें अवीर्य कहा गया है; क्योंकि सिद्ध कृतकृत्य हैं, उन्हें किसी प्रकार का पुरुषार्थ करना शेष नहीं है / अकरणवीर्य की अपेक्षा से सिद्ध सवीर्य (अनन्तवीर्य) हैं ही। शैलेशी शब्द की व्याख्याएँ-(१) शीलेश का अर्थ है--सर्वसंवररूपचारित्र में समर्थ (प्रभु) / उसकी यह अवस्था (2) अथवा शैलेश-मेरुपर्वत, उसकी तरह निष्कम्प-स्थिर अवस्था (3) अथवा सैल (शैल)+इसी (ऋषि)-शैल की तरह चारित्र में अविचल ऋषि की अवस्था; (4) सेऽलेसी = सालेश्यी = लेश्यारहित स्थिति / ' / / प्रथमशतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / 1. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 3663-64 पृ. 728 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : गरुए नवम उद्देशक : गरुक जीवों के गुरुत्व-लघुत्वादि को प्ररूपणा 1. कह णं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? गोयमा! पाणातिवातेणं मुसावादेणं अदिष्णा मेहुण० परिग्ग० कोह० माण० माया० लोभ. पेज्ज० दोस० कलह प्रभक्खाण पेसुन्न. रति-प्रति० परपरिवाय० मायामोस० मिच्छादसणल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हब्बमागच्छति / [1 प्र.] भगवन् ! जोव, किस प्रकार शीघ्र गुरुत्व (भारोपन) को प्राप्त होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! प्राणातिपात से, मृषावाद से, अदत्तादान से, मैथुन से, परिग्रह से, क्रोध से, मान से. माया से. लोभ से प्रेय (राग) से देष से. कल से. अभ्याख्यान से. पैशन्य से. रति--परति से, परपरिवाद [परनिन्दा] से, मायामृषा से और मिथ्यादर्शनसल्य से; इस प्रकार हे गौतम ! (इन अठारह ही पापस्थानों का सेवन करने से) जीव शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं। 2. कहं णं भंते ! जीवा लहयत्तं हवमगच्छंति ? गोयमा ! पाणातिवातवेरमणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं हवमागच्छति / [2 प्र.] भगवन् ! जीव किस प्रकार शीघ्र लघुत्व (लघुता = हल्केपन) को प्राप्त करते हैं ? [2 उ.] गौतम ! प्राणातिपात से विरत होने से यावमिथ्यादर्शनशल्य से विरत होने से जीव शीघ्र लघुत्व को प्राप्त होते हैं / 3. एवं प्राकुलोकरेंति,' एवं परित्तीकरेंति / एवं दोहोकरेंति, एवं हस्सोकरेंति / एवं अणुपरियट्ट ति, एवं वीतीवयंति / पसत्या चत्तारि / अप्पसत्था चत्तारि। [3] इस प्रकार जीव प्राणातिपात आदि पापों का सेवन करने से संसार को (कर्मों से) बढ़ाते (प्रचुर करते) हैं, दीर्घकालीन करते हैं, और बार-बार भव-भ्रमण करते हैं, तथा प्राणातिपति आदि पापों से निवृत्त होने से जीव संसार को परिमित (परित) करते (घटाते) हैं, अल्पकालोन (छोटा) करते हैं, और संसार को लांघ जाते हैं। उनमें से चार (ल त्रुत्व, संसार का परित्तीकरण, ह्रस्वीकरण एवं व्यतिक्रमण) प्रशस्त हैं, और चार (गुरुत्व, संसार का वृद्धीकरण (प्रचुरीकरण), दीर्चीकरण, एवं (पुन: पुनः भव-भ्रमण) अप्रशस्त हैं। 1. आकुलोकरेंति = प्रचुरीकुर्वन्ति कर्मभिः / परितोकरेंति = स्तोककुर्वन्ति कर्मभिरेव / दोहोकरेंति = दीर्घ प्रचुरकालं कुर्वन्तीत्यर्थः / हस्सीकरेंति = अल्पकालं कुर्वन्ति / अणुपरियति = पौनःपुन्येन भ्रमन्ति / विश्वयंति = व्यतिअन्ति-व्यतिक्रामन्ति / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९] [143 विवेचन-जीवों का गुरुत्व-लघुत्व प्रस्तुत त्रिसूत्री में जीवों के गुरुत्व-लचुत्व के कारण अष्टादशपापसेवन तथा अष्टादशपाप-विरमण को बताकर साथ ही लघुत्व आदि चार की प्रशस्तता एवं गुरुत्व आदि चार की अप्रशस्तता भी प्रतिपादित की गई है। चार प्रशस्त और चार अप्रशस्त क्यों ?--इन आठों में से लघुत्व, परीतत्व हस्वत्व और व्यतिब्रजन, ये चार दण्डक प्रशस्त हैं; क्योंकि ये मोक्षांग हैं; तथा गुरुत्व, अाकुलत्व, दीर्घत्व और अनुपरिवर्तन, ये चार दण्डक अप्रशस्त हैं, क्योंकि ये अमोक्षांग (संसारांग) हैं।' पदार्थों के गुरुत्व-लघुत्व आदि की प्ररूपणा--- 4. सत्तमे णं भंते ! प्रोवासंतरे किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, अगस्यलहुए ? गोयमा ! नो गरुए, नो लहए, नो गरुघलहुए, अगरुयलहुए। [4 प्र] भगवन् ! क्या सातवाँ अवकाशान्तर गुरु है, अथवा वह लघु है, या गुरुलधु है, अथवा अर [4 उ.] गौतम ! वह गुरु नहीं है, लघु नहीं है, गुरु-लघु नहीं है, किन्तु अगुरुलघु है / 5. [1] सत्तमे गं भंते ! तणवाते कि गरुए, लहुए, गरुपलहुए, अगरुयलहुए ? गोयमा ! नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो अगस्यलहुए। [5-1 प्र.] भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है, लघु है या गुरुलघु हे अथवा अगुरुलधु है ? [5-1 उ.] गौतम ! वह गुरु नहीं है, लधु नहीं है, किन्तु गुरु-लघु हैं; अगुरुलघु नहीं है। [2] एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी। [5-2] इस प्रकार सप्तम धनवात, सप्तम घनोदधि और सप्तम पृथ्वी के विषय में भी जानना चाहिए। [3] मोवासंतराइं सवाई जहा सत्तमे अोवासंतरे (सु. 4) / [5-3] जैसा सातवें अवकाशान्तर के विषय में कहा है, वैसा ही सभी अवकाशान्तरों के विषय में समझना चाहिए / [4] [सेसा] जहा तणुवाए / एवं-पोवास वाय घणउहि पुढवी दोवा य सागरा वासा। [5-4] तनुवात के विषय में जैसा कहा है, वैसा ही सभी धनवात, घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, समुद्र और क्षेत्रों के विषय में भी जानना चाहिए। 6. [1] नेरइया गं भंते ! कि गरुया जाव अगस्यलया ? गोयमा ! नो गल्या, नो लहुया, गरुयलया वि, अगरुयलहुया वि / [6-1 प्र.] भगवन् ! नारक जीव गुरु हैं, लघु हैं, गुरु-लघु हैं या अगुरुल धु हैं ? ---- . .. - 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति. पत्रांक 96 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6-1 उ.] गौतम ! नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु नहीं, किन्तु गुरुलघु हैं और अगुरुलघु _ [2] से केण?णं ? गोयमा / वेउब्विय-तेयाइं पडुच्च नो गल्या, नो लहुया, गरुयलहुया, मो अरुगुयलहुया जीवं च कम्मणं च पडुच्च नो गरुया, नो लहुया, नो गरुयलहुया, अगरुयलहुया। सेतेण?णं० / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! वैक्रिय और तैजस शरीर की अपेक्षा नारक जीव गुरु नहीं हैं, लघु नहीं है, अगुरुल भी नहीं हैं ; किन्तु गुरु-लघु हैं। किन्तु जीव और कार्मणशरीर की अपेक्षा नारक जीव गुरु नहीं हैं, लबु भी नहीं हैं, गुरु-लवु भी नहीं हैं, किन्तु अगुरुल यु हैं। इस कारण हे गौतम! पूर्वोक्त कथन किया गया है। [3] एवं जाव वेमाणिया। नवरं णाणत्तं जाणियव सरीरेहिं / [6-3] इसी प्रकार वैमानिकों (अन्तिम दण्डक) तक जानना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि शरीरों में भिन्नता कहना चाहिए। 7. धम्मत्थिकाये जाव जीवत्यिकाये च उत्थपदेणं / [7] धर्मास्तिकाय से लेकर यावत् (अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और) जीवास्तिकाय तक चौथे पद से (अगुरुल बु) जानना चाहिए। 8. पोग्गलस्थिकाए णं भंते ! किं गरुए, लहुए, गरुयलहुए, प्रगरुयलहुए ? गोयमा ! णो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए वि, अगरुयलहुए वि। से केणट्रेणं? गोयमा ! गरुयलहुयदव्वाइं पडुच्च नो गरुए, नो लहुए, गरुयलहुए, नो प्रगरुपलहुए। अगरुपलहुयदब्वाई पडुच्च नो गरुए, नो लहुए, नो गरुयलहुए, अगरुयलहुए / [8 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय क्या गुरु है, लघु है, गुरुल त्रु है अथवा अगुरुलघु है ? [8 उ.] गौतम ! पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, किन्तु गुरुल है और अगुरुलघु [प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [उ.] गौतम ! गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लवु नहीं है, किन्तु गुरुल है, अगुरुल नहीं हैं / अगुरुलधु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं, लवु नहीं है, न गुरु-लघु है, किन्तु अगुरुलघु है। 6. समया कम्माणि य चउत्थपदेणं / [9] समयों और कर्मों (कार्मण शरीर) को चौथे पद से जानना चाहिए अर्थात्-समय और कार्मण शरीर अगुरुल हैं। 10. [1] कण्हलेसा णं भंते ! कि गरुया, जाव अगल्यलहुया ? गोयमा ! नो गरुया, नो लहुया, गरुयलहुया बि, अगरयलहुया वि / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९ ] [ 145 [10.1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या गुरु है, लघु है ? या गुरुल है अथवा अगुरुल है? [10-1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरुल है और अगुरुल बु भी है। [2] से केण?णं ? गोयमा! दव्वलेसं पडुच्च ततियपदेणं, भावलेसं पडुच्च च उत्थपदेणं / [10-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? [10-2 उ.] गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा तृतीय पद से (अर्थात्-गुरुल त्रु) जानना चाहिए, और भावलेश्या की अपेक्षा चौथे पद से (अर्थात् अगुरुलघु) जानना चाहिए। (3) एवं जाव सुक्कलेसा / [10-3] इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक जानना चाहिए / 11. दिट्टी-दसण-नाण-अण्णाण-सग्णानो चउत्थपदेणं तब्वायो। [11] दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा को भी चतुर्थ पद से (आगुरुल यु) जानना चाहिए। 12. हेछिल्ला चत्तारि सरीरा नेयम्बा ततियएणं पदेणं / कम्मयं च उत्थएणं पदेणं / [12] आदि के चारों शरीरों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस शरीर-को तृतीय पद से (गुरुलघु) जानना चाहिए, तथा कार्मण शरीर को चतुर्थ पद से (अगुरुल यु) जानना चाहिए / 13. मणजोगो वइजोगो चउत्थएणं पदेणं / कायजोगो ततिएणं पदेणं / [13] मनोयोग और बचनयोग को चतुर्थ पद से (अगुरुल घु) और काययोग को तृतीय पद से (गुरुलघु) जानना चाहिए। 14. सागारोवप्रोगो प्रणागारोवोगो चउत्थएणं पदेणं / [14] साकारोपयोग और अनाकारोपयोग को चतुर्थ पद से जानना चाहिए / 15. सव्वदन्वा सम्धपदेसा सम्वपज्जवा जहा पोग्गलस्थिकारो (सु.८)। [15] सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश और सर्वपर्याय पुद्गलास्तिकाय के समान समझना चाहिए। 16. तीतद्धा प्रणागतद्धा सम्वद्धा चउत्थेणं पदेणं / [16] अतीतकाल, अनागत (भविष्य) काल पीर सर्वकाल चौथे पद से अर्थात् अगुरुल जानना चाहिए। विवेचन-पदार्थों को गुरुता-लघुता प्रादि का चतुर्भग की अपेक्षा से विचार प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 4 से 16 तक) में अवकाशान्तर, घनवात, तनुवात आदि विविध पदार्थों तथा चौबीस दण्डक के जीवों, धर्मास्तिकाय आदि पंचास्तिकाय, लेश्या आदि की दृष्टि से गुरुता, लघुना, गुरुलघुता और अगुरुलबुता का विचार प्रस्तुत किया गया है। गुरु-लघु आदि की व्याख्या--गुरु का अर्थ है-भारी / भारी वह वस्तु होती है, जो पानी पर रखने से डूब जाती है। जैसे–पत्थर आदि / लधु का अर्थ है-हल्को। हल्को वह वस्तु है, जो पानी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पर रखने से नहीं डूबती बल्कि ऊर्ध्वगामी हो; जैसे-लकड़ी आदि / तिरछी जाने वाली वस्तु गुरु-लघु है। जैसे-वायु। सभी अरूपी द्रव्य अगुरुलघु हैं; जैसे—आकाश आदि / तथा कार्मणपुद्गल आदि कोई-कोई रूपी पुद्गल चतुःस्पर्शी (चौफरसी) पुद्गल भो अगुरुल होते हैं। अष्टस्पर्शी (अठफरसी) पुद्गल गुरु-लवु होते हैं / यह सब व्यवहारनय की अपेक्षा से है। निश्चयनय की अपेक्षा से कोई भी द्रव्य एकान्तगुरु या एकान्तलघु नहीं है। व्यवहारनय की अपेक्षा से बादरस्कन्धों में भारीपन या हल्कापन होता है, अन्य किसी स्कन्ध में नहीं। निष्कर्ष : निश्चयनय से अमूर्त और सूक्ष्म चतु:स्पर्शी पुद्गल अगुरुल हैं / इनके सिवाय शेष पदार्थ गुरुलधु हैं। प्रथम और द्वितीय भंग शून्य हैं। ये किसी भी पदार्थ में नहीं पाये जाते / हाँ, व्यवहारनय से चारों भंग पाये जाते हैं। ___ अवकाशान्तर चौदह राजू परिमाण पुरुषाकार लोक में नीचे की ओर 7 पृथ्वियाँ (नरक) हैं / प्रथम पृथ्वी के नीचे घनोदधि, उसके नीचे घनवात, उनके नीचे तनुवात है, और तनुवात के नीचे आकाश है। इसी क्रम से सातों नरकपृथ्वियों के नीचे 7 आकाश हैं, इन्हें ही अवकाशान्तर कहते हैं / ये अवकाशान्तर आकाशरूप होने से अगुरुलबु हैं।' श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर 17. से नणं भंते ! लावियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धता समणाणं णिग्गंथाणं पसत्थं ? हंता, गोयमा ! लावियं जाव पसत्थं / [17 प्र.] भगवन् ! क्या लाघव, अल्प इच्छा, अमूर्छा, अनासक्ति (अगृद्धि) और अप्रतिवद्धता, ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? / [17 उ.] हाँ गौतम ! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं। 18. से नणं भंते ! अकोहत्तं प्रमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्गंथाणं पसत्थं ? हंता, गोयमा! अकोहत्तं जाव पसत्थं / [18 प्र.] भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता और अलोभत्व, क्या ये श्रमण निग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? [18 उ.] हाँ गौतम ! क्रोधरहितता यावत् अलोभत्त्व, ये सब श्रमणनिम्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं। 19. से नणं भंते ! कंखा-पदोसे खीणे समणे निगंथे अंतकरे भवति, अंतिमसरीरिए वा, बहमोहे वि य णं पुस्वि विहरिता ग्रह पच्छा संडे कालं करेति तओ पच्छा सिझति 3 जाव अंतं करेइ ? 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 96, 97 (ख) णिन्छयो सव्वमुरु, सम्वलह वा ण विज्जए दव्वं / ववहारमो उ जुज्ज इ, बायरखं सु ण अग्रणेसु // 1 // अगुरुलहू चउम्फासा, अरू विदव्वा य होंति णायव्वा / सेसाओ अट्ठफासा, गुरुलहया णिच्छयणयस्स // 2 // Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-] [ 147 हंता गोयमा ! कखा-पदोसे खोणे जाव अंतं करेति / [19 प्र.] भगवन ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम (चरम) शरीरी होता है ? अथवा पूर्वावस्था में बहुत मोह वाला होकर विहरण करे और फिर संवृत (संवरयुक्त) होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? | [19 उ.] हाँ, गौतम ! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावन् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन-श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर-प्रस्तुत तीन सूत्रों (17 से 19 तक) में से दो सूत्रों में लाघव आदि श्रमणगुणों को श्रमनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त बताया है, शेष तृतीय सूत्र में कांक्षाप्रदोषक्षीणता एवं संबतता से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सर्वदुःखों का अन्तकर होने का निर्देश किया गया है। लाघव मादि पदों के अर्थ लाघव-शास्त्रमर्यादा से भी अल्प उपधि रखना ! अल्पेच्छाआहारादि में अल्प अभिलाषा रखना / अमूर्छा-अपने पास रही हुई उपधि में भी ममत्व (संरक्षणानुबन्ध) न रखना / अगद्धि-आसक्ति का अभाव / अर्थात्-भोजनादि के परिभोगकाल में अनासक्ति रखना / अप्रतिबद्धता-स्वजनादि या द्रव्य-क्षेत्रादि में स्नेह या राग के बन्धन को काट डालना / कांक्षाप्रदोष-अन्यदर्शनों का आग्रह-आसक्ति, अथवा राग और प्रद्वेष / इसका दूसरा नाम कांक्षाप्रद्वेष भी है। जिसका प्राशय है--जिस बात को पकड़ रखा है, उससे विरुद्ध या भिन्न बात पर द्वेष होना।' आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा--- 20. अनउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति एवं भाति एवं पण्णवेति एवं परूवेति---"एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं दो पाउयाई पगरेति, तं जहा—इहभवियाउयं च, परभवियाउगं च / जं समयं इहभावियाउगं पकरेति तं समयं परभवियाउगं पकरेति, जं समयं परभविया उगं पकरेति तं समय इहवियाउगं पकरेइ; इहवियाउगस्स पकरणयाए परभवियाउगं पकरेइ, परभवियाउगस्स पगरणताए इहमवियाउयं पकरेति / एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं दो प्राउयाई पकरेति, तं०इहभविया उयं च, परभवियाउयं च / " से कहमेतं भंते ! एव ? / गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव परभवियाउयं च / जे ते एवमासु मिच्छं ते एबमासु / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाब पवेमि-एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एग पाउगं पकरेति, तं जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा; जं समयं इहवियाउयं पकरेति जो तं समय परभविघाउयं पकरेति, जं समयं परभवियाउयं पकरेइ जो तं समयं इहभवियाउयं पकरेइ; इहवियाउयस्स पकरणताए णो पर भविघाउयं पकरेति, परवियाउयस्स पकरणताए णो इहनवियाउयं पकरेति / एवं खलु एगे जीवे एगणं समएणं एग ग्राउ परेति, तं०-इहमवियाउय बा, परभविधाउयं वा। सेवं भंते ! सेवं भंते! ति भगवंगोयमेज 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 97 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20 प्र. भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार विशेषरूप से कहते हैं, इस प्रकार बताते हैं, और इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता (बाँधता) है / वह इस प्रकार--इस भव का आयुष्य और परभव का प्रायुष्य / जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता है, उस समय इहभव का आयुष्य करता है। इस भव का आयुष्य करने से परभव का प्रायुध्य करता है और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो अायुष्य करता है---इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य / भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ? [20 उ.] गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस भव का प्रायुष्य और परभव का आयुष्य (करता है); उन्होंने जो ऐसा कहा है, वह मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि-एक जीव एक समय में एक प्रायुष्य करता है और वह या तो इस भव का आयुष्य करता है अथवा परभव का आयुष्य करता है / जिस समय इस भव का श्रायुष्य करता है, उस समय परभव का प्रायुष्य नहीं करता और जिस समय परभव का प्रायुष्य करता है, उस समय इस भव का अायुष्य नहीं करता। तथा इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य नहीं करता / इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है—इस भव का आयुष्य अथवा परभव का आयुष्य / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; ऐसा कहकर भगवान् गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र में अन्यमतमान्य आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा प्रस्तुत करके भगवान् के द्वारा प्रतिपादित सैद्धान्तिक प्ररूपणा प्रदर्शित की गई है। प्रायुष्य करने का अर्थ- यहाँ आयुष्य बाँधना है। दो आयुष्यबन्ध क्यों नहीं ?-यद्यपि अायुष्यबन्ध के समय जीव इस भव के आयुष्य को वेदता है, और परभव परभव के आयुष्य को बांधता है, किन्तु उत्पन्न होते हो या इसी भव में एक साथ दो अायुष्यों का बंध नहीं करता; अन्यथा, इस भव में किये जाने वाले दान-धर्म आदि सब व्यर्थ हो जाएंगे।' पापित्यीय कालास्यवेषिपुत्र का स्थविरों द्वारा समाधान और हृदयपरिवर्तन 21. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासाच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते गाम अणगारे जेगेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासो--थेरा सामाइयं ण जाणंति, थेरा सामाइयत्स अट्ठण याणंति, थेरा पच्चक्खाणं ण याति, थेरा पच्चक्खाणस्स अट्टण याणंति, थेरा संजमं ग याणंति, थेरा संजमस्स अट्टण याति, थेरा संवरं ण याणंति, थेरा संवरस्स अट्र ण याणंति, थेरा विवेगं ण याणंति, थेरा विवेगस्स अट्टण याणंति, थेरा विउस्सगं ण याति, थेरा विउस्सग्गस्स अट्टण याणति / 1. भगवती सूत्र, अ. वृत्ति पत्रांक 98, 99 -- Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९ ] | 149 21-1] उस काल (भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण के लगभग 250 वर्ष पश्चात्) और उस समय (भगवान महावीर के शासनकाल) में पाश्र्वापत्यीय (पाश्र्वनाथ की परम्परा के शिष्यानुशिष्य) कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार जहाँ (भगवान् महावीर के) स्थविर (श्रुतवृद्ध शिष्य) भगवान् विराजमान थे, वहाँ गए। उनके पास आकर स्थविर भगवन्तों से उन्होंने इस प्रकार कहा- "हे स्थविरो! आप सामायिक को नहीं जानते, सामायिक के अर्थ को नहीं जानते; आप प्रत्याख्यान को नहीं जानते और प्रत्याख्यान के अर्थ को नहीं जानते; आप संयम को नहीं जानते और संयम के अर्थ को नहीं जानते ; आप संवर को नहीं जानते, संवर के अर्थ को नहीं जानते; हे स्थविरो! आप विवेक को नहीं जानते और विवेक के अर्थ को नहीं जानते हैं, तथा आप व्युत्सर्ग को नहीं जानते और न व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं।" [2] तए णं ते थैरा भगवंतो कालासवेसिययुत्तं धणगारं एवं क्यासी–जाणामो गं अज्जो ! सामाइय, जाणामो गं प्रज्जो ! सामाइयस्स अटुंजाव जाणामो णं प्रज्जो ! विउस्सग्गस्स अट्ठ। [21-2] तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा- "हे आर्य! हम सामायिक को जानते हैं, सामायिक के अर्थ को भी जानते हैं, यावत् हम व्युत्सर्ग को जानते हैं और व्युत्सर्ग के अर्थ को भी जानते हैं। _ [3] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे ते थेरे भगवंते एवं बयासी-जति ण प्रज्जो ! तुन्ने जाणह सामाइयं, जाणह सामाइयस्स अट्ठजाव जाणह विउस्सग्गस्स अट्ठ कि भे अज्जो ! सामाइए ? किं भे अज्जो! सामाइयस्स अट्ठ ? जाव कि भे विउस्सगस्स अट्ठ ? [21-3 प्र.] उसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन' स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! यदि आप सामायिक को (जानते हैं) और सामायिक के अर्थ को जानते हैं, यावत्व्युत्सर्ग को एवं व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं, तो बतलाइये कि (आपके मतानुसार) सामायिक क्या है और सामायिक का अर्थ क्या है ? यावत्........न्युत्सर्ग क्या है और व्युत्सर्ग का अर्थ क्या है ? [4] तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगार एवं वयासी--प्राया णे अज्जो ! सामाइए, प्राया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठ जाव विउस्सग्गरस अट्ठ। |21-4 उ. तब उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कहा कि-हे आर्य ! हमारी आत्मा सामायिक है, हमारी आत्मा सामायिक का अर्थ है ; याव - हमारी आत्मा व्युत्सर्ग है, हमारी आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है। [5] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवते एवं वयासी-जति में प्रज्जो ! आया सामाइए, प्राया सामाइयस्स अट्ठ एवं जाव पाया .विउस्सम्गस्स अट्ठ, अवहट्ट कोह-माणमाया-लोभे किमट्ठ अज्जो ! गरहह ? कालास ! संजमट्टयाए। [21-5 प्र.] इस पर कालास्यवेषिपुत्र, अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा'हे आर्यो ! यदि आत्मा ही सामायिक है, अात्मा ही सामायिक का अर्थ है, और इसी प्रकार यावत् Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रात्मा ही व्युत्सर्ग है तथा प्रात्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गहीं-निन्दा क्यों करते हैं ?' [21-5 उ.] हे कालास्यवेषिपुत्र ! हम संयम के लिए क्रोध आदि को गहीं करते हैं / [6] से भंते ! कि गरहा संजमे ? प्रगरहा संजमे ? कालास. ! गरहा संजमे, नो अगरहा संजमे, गरहा वि य णं सव्वं दोसं पविणेति, सब्ध बालियं परिणाए एवं खुणे प्राया संजमे उवहिते भवति, एवं खुणे प्राधा संजमे उवचिते भवति, एवं खु णे पाया संजमे उवद्विते भवति / [21-6 प्र.] तो 'हे भगवन् ! क्या गर्दा (करना) संयम है या अगहा (करना) संयम है ?' [21-6 उ.] हे कालास्थवेषिपुत्र ! गर्दा (पापों को निन्दा) संयम है, अगर्दा संयम नहीं है / गर्हा सब दोषों को दूर करती है-आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जान कर गर्दा द्वारा दोषनिवारण करता है / इस प्रकार हमारी प्रात्मा संयम में पुष्ट होती है, और इसी प्रकार हमारी प्रात्मा संयम में उपस्थित होती है। 22. [1] एस्थ णं से कालासवेसिययुत्ते अणगारे संबुद्ध थेरे भगवते वंदति णमंसति, 2 एवं क्यासी--एतेसि णं भंते ! पदाणं पुदिव अण्णाणयाए प्रसवणयाए अबोहीए प्रणभिगमेणं अदिट्ठाणं अस्सुताणं अमुताणं अविण्णायाणं अव्वोगडाणं प्रयोच्छिन्नाणं अणिज्जढाणं अणुवधारिताणं एतम? णो सद्दहिते, जो पत्तिए, णो रोइए। इदाणि भंते ! एतेषि पदाणं जाणताए सबणताए बोहोए अभिगमेणं दिट्ठाणं सुताणं मुयाणं विण्याताणं वोगडाणं वाच्छिनाणं पिज्जढाणं उवधारिताणं एतनहुँ सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि / एवमेतं से जहेयं तुन्भे वदह / [22-1] (स्थविर भगवन्तों का उत्तर सुनकर) वह कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और उन्होंने स्थविर भगवन्तों को बन्दना को, नमस्कार किया, बन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'हे भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) पदों को न जानने से, पहले सुने हुए न होने से, बोध न होने से अभिगम (ज्ञान) न होने से, दृष्ट न होने से, विचारित (सोचे हुए) न होने से, सुने हुए न होने से, विशेषरूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद्धृत न होने से, और ये पद अवधारण किये हुए न होने से इस अर्थ में श्रद्धा नहीं की थी, प्रतोति नहीं की थो, रुचि नहीं को थो; किन्तु भगवन् ! अब इन (पदों) को जान लेने से, सुन लेने से, बोध होने से, अभिगम होने से, दृष्ट होने से, चिन्तित (चिन्तन किये हुए) होने से, श्रत (सुने हुए) होने से, विशेष जान लेने से, (आपके द्वारा) कथित हाने से, निणात होने से, उद्धृत हाने से और इन पदों का अवधारण करने से इस अर्थ (कथन) पर मैं श्रद्धा करता हूँ, प्रतोति करता हूँ; रुचि करता हूँ, हे भावन् ! आप जो यह कहते हैं, वह यथार्थ है, वह इसी प्रकार है।' [2] तए गं ते थेरा भगवंतो कालासवेसिययुतं अणगारं एवं वयासो-सहाहि अज्जो ! पत्तियाहि प्रज्जो ! रोएहि अन्जो ! से जहेतं प्रम्हे वदामो। [22-2] तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-हे आर्य! हम जैसा कहते हैं उस पर वैसी हो श्रद्धा करो, आर्य ! उस पर प्रतोति करो, आर्य ! उसमें रुचि रखो।' Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-९] [ 151 23. [1] तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, 2 एवं वदासीइच्छामि गंभंते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामानो धम्मानो पंचमहब्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपजित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [23-1] तत्पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों को वन्दना की, नमस्कार किया, और तब वह इस प्रकार बोले-'हे भगवन् ! पहले मैंने (भ० पार्श्वनाथ का) चातुर्यामधर्म स्वीकार किया है, अब मैं आपके पास प्रतिक्रमणसहित पंचमहावतरूय धर्म स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।' (स्थविर--) 'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसे करो / परन्तु (इस शुभकार्य में) विलम्ब (प्रतिबन्ध) न करो।' [2] तए णं से कालसवेसियपुत्ते अणगारे थेरे भगवते वंदइ नमसइ, बंदित्ता, नमंसित्ता चाउज्जामानो धम्माप्रो पंचमहव्वयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / [23-2] तदनन्तर कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने स्थविर भगवन्तों को बन्दना की, नमस्कार किया, और फिर चातुर्याम धर्म के स्थान पर प्रतिक्रमणसहित पंचमहाव्रत वाला धर्म स्वीकार किया और बिचरण करने लगे। 24. तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि वासाणि सामग्णपरियागं पाउणइ, 2 जस्सट्टाए कोरति नग्गभावे मुण्डभावे अण्हाणयं अदंतधुवणयं अच्छत्तयं अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कटुसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो परघरपवेसो लद्धावलद्धी, उच्चावया गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा अहियासिज्जंति तमट्ठपाराहेइ, 2 चरमेहि उस्सास-नोसासेहिं सिद्ध बुद्ध मुक्के परिनिम्बुडे सन्चदुक्खप्पहोणे। [24] इसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय (साधुत्व) का पालन किया और जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तधावन, छत्रवर्जन, पैरों में जूते न पहनना, भूमिशयन, फलक (पट्ट) पर शय्या, काष्ठ पर शयन, केशलोच, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षार्थ गहस्थों के घरों में प्रवेश, लाभ और अलाभ (सहना) (अभीष्ट भिक्षा प्राप्त होने पर हषित न होना और भिक्षा न मिलने पर खिन्न न होना), अनुकूल और प्रतिकूल, इन्द्रियसमूह के लिए काटकसम चुभने वाले कठोर शब्दादि इत्यादि 22 परीषहों को सहन करना, इन सब (साधनाओं) का स्वीकार किया, उस अभीष्ट प्रयोजन की सम्यक रूप से आराधना की / और वह अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए और समस्त दुःखों से रहित हुए / - विवेचन-पापित्यीय कालास्यवेषिपुत्र का स्थविरो द्वारा समाधान और हृदय-परिवर्तन-- प्रस्तुत चार सूत्रों में पार्श्वनाथ भगवान के शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र अनगार द्वारा भगवान् महावीर के श्रु तस्थविर शिष्यों से सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग एवं इनके अर्थों के सम्बन्ध में की गई शंकानों का समाधान एवं अन्त में कृतज्ञता-प्रकाशपूर्वक विनयसहित सप्रतिक्रमण पंचमहानत धर्म के स्वीकार का वर्णन है / Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'कट्टसेज्जा' के तीन अर्थ-काष्ठशय्या, कष्टशय्या, अथवा अमनोज्ञवसति / स्थविरों के उत्तर का विश्लेषण-स्थविरों का उत्तर निश्चयनय की दृष्टि से है। गुण और गुणो में तादात्म्य-अभेदसम्बन्ध होता है / इस दृष्टि से आत्मा (गुणो) और सामायिक (गुण) अभिन्न हैं / प्रात्मा को सामायिक आदि और सामायिक प्रादि का अर्थ कहना इस (निश्चय) दृष्टि से युक्तियुक्त है। व्यवहारनय की अपेक्षा से प्रात्मा और सामायिक आदि पृथक-पृथक होने से सामायिक आदि का अर्थ इस प्रकार होगा सामायिक-शत्रु-मित्र पर समभाव / प्रत्याख्यान-नवकारसी, पौरसी आदि का नियम करना / संयम-पृथ्वीकायादि जीवों को यतना-रक्षा करना। संवर-पाँच इन्द्रियों तथा मन को वश में रखना। विवेक-विशिष्ट बोध-ज्ञान / व्युत्सर्ग-शारीरिक हलन-चलन बन्द करके उस पर से ममत्व हटाना / इनका प्रयोजन--सामायिक का अर्थ-नये कर्मों का बन्ध न करना, प्राचीन कर्मों की निर्जरा करना / प्रत्याख्यान का प्रयोजन-प्रास्रवद्वारों को रोकना। संयम का प्रयोजन-प्रासबरहित होना / संबर का प्रयोजन-इन्द्रियों और मन की प्रवृत्ति को रोक कर प्रास्रवरहित होना। विवेक का प्रयोजन---हेय का त्याग, ज्ञेय का ज्ञान और उपादेय का ग्रहण करना / व्युत्सर्ग का प्रयोजन-सभी प्रकार के संग से रहित हो जाना / ___ गर्दा संयम कैसे ?--संयम में हेतुरूप होने तथा कर्मबन्ध में कारगरूप न होने से गर्दा संयम है।' चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया : समानरूप से 25. भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमंसति, 2 एवं वदासी-से नणं भंते ! सेद्विस्स य तणुयस्स य किविणस्स य खत्तियस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ ? हंता, गोयमा ! सेस्सि य जाव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जइ। से केणढणं भंते !? गोयमा ! अविरति पडुच्च; से तेणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सेट्ठिस्स य तणु० जाव कज्जई। [25 प्र.] 'भगवन् !' ऐसा कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दन-नमस्कार किया। तत्पचात् (वन्दन-नमस्कार करके) वे इस प्रकार बोले-भगवन् ! क्या श्रेष्ठी (स्वर्णपट्टविभूषित पगड़ी से युक्त पौरजननायक-नगर सेठ, श्रीमन्त) और दरिद्र को, रंक को और क्षत्रिय (राजा) को अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया का अभाव अथवा अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध) समान होती है ? [25 उ.] हाँ, गौतम ! श्रेष्ठी यावत् क्षत्रिय राजा (इन सब) के द्वारा अप्रत्याख्यान क्रिया (प्रत्याख्यान क्रिया का प्रभाव) समान की जाती है; (अर्थात्-अप्रत्याख्यानजन्य कर्मबन्ध भी समान होता है।) 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति पत्रांक 100 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-] [153 [प्र. भगवन् ! ग्राप ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? [उ.] गौतम ! (इन चारों की) अविरति को लेकर, ऐसा कहा जाता है कि श्रेष्ठी और दरिद्र, कृपण (रंक) और राजा (क्षत्रिय) इन सबकी अप्रत्याख्यानक्रिया (प्रत्याख्यानक्रिया से विरति या तज्जन्यकर्मबन्धता) समान होती है। विवेचन-चारों में अप्रत्याख्यानक्रिया समानरूप से---प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि चाहे कोई बड़ा नगरसेठ हो, या दरिद्र, रंक हो या राजा, इन चारों में बाह्य असमानता होते हुए भी अविरति के कारण चारों को अप्रत्याख्यानक्रिया समानरूप से लगती है। अर्थात् सबको प्रत्याख्यानक्रिया के अभावरूप अप्रत्याख्यान (अविरति) क्रिया के कारण समान कर्मबन्ध होता है / वहाँ राजा-रंक आदि का कोई लिहाज नहीं होता।' आधाकर्म एवं प्रासुक-एषणीयादि प्राहारसेवन का फल 26. आहाकम्म णं भुजमाणे समणे निग्गथे कि बंधति ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? कि उचिणाति? गोयमा ! प्राहाकम्मं णं भुजमाणे पाउयवज्जानो सत्त कम्पप्पगडीयो सिढिलबंधणबद्धाम्रो घणियबंधणबद्धामो पकरेइ जाव अणुपरियट्टइ / से केण?णं जाव अणुपरियट्टइ ? गोयमा ! आहाकम्मं गं भुजमाणे प्रायाए धम्म प्रतिक्कमति, प्रायाए धम्म अतिक्कममाणे पुढविक्कायं णावखति जाव तसकायं णावखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई प्राहारमाहारेइ ते वि जीवे नावकखति / से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-माहाकम्मं गं जमाणे पाउयवज्जाप्रो सत्त कम्मपगडीअो जाव प्रणुपरियति / [26 प्र. भगवन् ! प्राधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुमा श्रमणनिर्ग्रन्थ क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय (वृद्धि) करता है, और किसका उपचय करता है ? 26 उ. गौतम ! प्राधाकर्मदोषयुक्त आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमणनिम्रन्थ आयुकर्म को छोड़कर शिथिलबन्धन से बंधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को दृढ़बन्धन से बँधी हुई बना लेता है, यावत्-संसार में बार-बार पर्यटन करता है / प्र] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि, यावत्--वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है? _ [उ.] गौतम ! आधाकर्मी आहारादि का उपभोग करता हुआ श्रमनिर्ग्रन्थ अपने आत्मधर्म का अतिक्रमण करता है। अपने प्रात्मधर्म का अतिक्रमण करता हुअा (साधक) पृथ्वीकाय के 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101 2. 'जान' पद से--सिढिलबंधणबद्धाओघणिय बंधणबद्धाओ पक रेइ, हस्सकालठितियाओ दोहकालाठितियाओ पकरेइ, मंदाणुभावाओ तिव्वावणुभावानो पकरेइ, अप्पपएसगाओ बहुपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च कम्मं सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, अस्सायावेदणज्जच गं कम्म भजो भज्जो उचिणइ, अणाइयं च णं अणवयम्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं,'....यहां तक का पाठ समझना / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के जीवों की अपेक्षा (परवाह) नहीं करता, और यावत्-त्रसकाय के जीवों की चिन्ता (परवाह) नहीं करता और जिन जीवों के शरीरों का वह भोग करता है, उन जीवों की भी चिन्ता नहीं करता। इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि प्राधाकर्मदोषयुक्त आहार भोगता हुआ (श्रमण) आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की शिथिलबद्ध प्रकृतियों को गाढ़बन्धन बद्ध कर लेता है, यावत्-संसार में बार-बार परिभ्रमण करता है। 27. फासुएसणिज्जं णं भंते ! भुजमाणे कि बंधइ जाव उवचिणाइ ? गोयमा ! फासुएसणिज्ज णं भुजमाणे प्राउयवज्जाप्रो सस कम्मपयडीसो घणियबंधणबद्धाम्रो सिढिलबंधणबद्धामो पकरेइ जहा संबुड़े णं ( स०१ उ०१ सु. 11 [2] ), नवरं पाउयं च णं कम्म सिय बंधइ, सिय नो बंधाई / सेसं तहेव जाव वीतीवति / से केण?ण जाव वीतीवयति ? गोयमा ! फासुएसणिज्ज भुजमाणे समणे निम्नथे प्राताए धम्म णाइक्कमति, आताए धम्म अणतिक्कममाणे पुढविक्कायं अवखति जाव तसकायं प्रवखति, जेसि पि य णं जीवाणं सरीराई पाहारेति ते वि जोवे अवकंखति, से तेणटणं जाव बीतीवयति। [27 प्र.] हे भगवन् ! प्रासुक और एषणीय आहारादि का उपभोग करने वाला श्रमणनिर्गन्थ क्या बाँधता है ? यावत् किसका उपचय करता है ? [27 उ. गौतम ! प्रासुक और एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमणनिर्ग्रन्थ, आयुकर्म को छोड़कर सात कर्मों की दृढ़बन्धन से बद्ध प्रकृतियों को शिथिल करता है। उसे संवत अनगार के समान समझना चाहिए / विशेषता यह है कि आयुकर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित् नहीं बांधता / शेष उसी प्रकार समझना चाहिए; यावत् संसार को पार कर जाता है। [प्र.] 'भगवन् ! इसका क्या कारण है कि-यावत्-संसार को पार कर जाता है ?' उ गौतम ! प्रासुक एषणीय आहारादि भोगने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ, अपने आत्मधर्म का उल्लंघन नहीं करता / अपने प्रात्मधर्म का उल्लंघन न करता हुआ वह श्रमणनिग्रन्थ पृथ्वी काय के जीवों का जीवन चाहता है, यावत्-त्रसकाय के जीवों का जीवन चाहता है और जिन जीवों का शरीर उसके उपभोग में आता है, उनका भी वह जीवन चाहता है। इस कारण से हे गौतम ! वह यावत्-संसार को पार कर जाता है। विवेचन–प्राधाकर्मी एवं एषणीय आहारादि-सेवन का फल-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमश आधाकर्मदोषयुक्त एवं प्रासुक एषणीय आहारादि के उपभोग का फल बताया गया है / प्रासुकादिशब्दों के अर्थ प्रासुक-अचित्त, निर्जीव / एषणीय आहार आदि से सम्बन्धित दोषों से रहित / प्राधाकर्म-साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त की जाए अर्थात् सजीव वस्तु को निर्जीव बनाया जाए, अचित्त वस्तु को पकाया जाए, घर मकान आदि बंधवाए जाएँ, वस्त्रादि बनवाए जाएँ, इसे आधाकर्म कहते हैं / 'बंधई' आदि पदों के भावार्थ-बंधइ यह पद प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा से, या स्पृष्टबन्ध को अपेक्षा से है, पकरइ पद स्थितिबन्ध अथवा बद्ध अवस्था को अपेक्षा से है, 'चिणई' पद अनुभागबन्ध Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक- [ 155 की अपेक्षा से अथवा निधत्त अवस्था की अपेक्षा से है। 'उचिणइ' पद प्रदेशबन्ध की अपेक्षा अथवा निकाचित अवस्था की अपेक्षा से है / ' स्थिर-अस्थिरादि-निरूपण-- 28. से नणं भंते ! अथिरे पलोट्टति, नो थिरे पलोदृति प्रथिरे भज्जति, नो थिरे मज्जति; सासए, बालए, बालियत्तं प्रसासयं; सासते पंडिते, पंडितत्तं प्रसासतं? हंता, गोयमा ! अथिरे पलोदृति जाव पंडितत्तं प्रसासतं / सेवं भंते ! सेवं भंते ति जाव विहरति / // नवमो उद्दे सो समतो // [28. प्र] भगवन् ! क्या अस्थिर पदार्थ बदलता है और स्थिर पदार्थ नहीं बदलता है ? क्या अस्थिर पदार्थ भंग होता है और स्थिर पदार्थ भंग नहीं होता ? क्या बाल शाश्वत है तथा बालत्व अशाश्वत है ? क्या पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व प्रशाश्वत है ? [28. उ.] हाँ, गौतम ! अस्थिर पदार्थ बदलता है यावत् पण्डितत्व अशाश्वत है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! ; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं / विवेचन -स्थिर-अस्थिरादि-निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में अस्थिर एवं स्थिर पदार्थों के परि• वर्तन होने, न होने, भंग होने, न होने तथा बाल और पण्डित के शाश्वतत्व एवं बालत्व तथा पण्डितत्व के अशाश्वतत्व की चर्चा की गई है। 'प्रथिरे पलोद्रई' प्रादि के दो अर्थ-व्यवहारपक्ष में पलट जाने वाला अस्थिर होता है। जैसे मिट्टी का ढेला आदि अस्थिर द्रव्य अस्थिर हैं। अध्यात्मपक्ष में कर्म अस्थिर हैं, वे प्रतिसमय जीवप्रदेशों से चलित-पृथक होते हैं / कर्म अस्थिर होने से बन्ध, उदय और निर्जीर्ण आदि परिणामों द्वारा वे बदलते रहते हैं। व्यवहारपक्ष में पत्थर की शिला स्थिर है, वह बदलती नहीं, अध्यात्मपक्ष में आत्मा स्थिर है। व्यवहारपक्ष में तृणादि नश्वर स्वभाव के हैं, इसलिए भग्न हो जाते हैं, अध्यात्मपक्ष में कर्म अस्थिर होने से भग्न हो जाते हैं / जीव का प्रकरण होने से व्यवहारपक्ष में अबोध बच्चे को बाल कहते हैं, अध्यात्मपक्ष में असंयत अविरत को बाल कहते हैं। यह जीव द्रव्य रूप होने से शाश्वत है और बालत्व, पण्डितत्व आदि जीव की पर्याय होने से अशाश्वत हैं / 2 / / प्रथम शतक : नवम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101-102 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 102 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : चलणाओ दशम उद्देशक : चलना चलमान चलित आदि से सम्बन्धित अन्यतीथिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्त निरूपण 1. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति-"एवं खलु चलमाणे प्रचलिते जाव निज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे। दो परमाणुयोग्गला एगयो न साहन्नंन्ति / कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयतो न साहन्नति ? दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नस्थि सिणेहकाए तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयो न साहन्नति / तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नति, कम्हा तिणि परमाणुपोग्गला एगयनो साहन्नति ? तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए तम्हा तिष्णि परमाणुयोग्गला एगयनो साहन्नति / ते भिज्जमाणा दुहा वि तिहा वि कज्जति, दुहा कज्जमाणा एगयो दिवढे परमाणपोग्गले भवति, एगयनो वि दिवड्ढे परमाणुपोग्गले भवति; तिहा कज्जमाणा तिण्णि परमाणुपोग्गला भवंति, एवं जाव चत्तारि, पंच परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नंति, एगयनो साहन्नित्ता दुक्खत्ताए कज्जति, दुषखे वि य णं से सासते सया समितं चिज्जति य अवचिज्जति य / पुवि भासा भासा, भासिज्जमाणी भासा प्रभासा, भासासमयवीतिक्कंतं च णं भासिया भासा भासा; सा कि भासप्रो भासा ? प्रभासनो भासा? प्रभासो णं सा भासा, नो खलु सा भासनो भासा / पुटिव किरिया दुक्खा, कज्जमाणी किरिया अदुक्खा, किरियासमयवोतिक्कतं च णं कडा किरिया दुक्खा; जा सा पुटिव किरिया दुक्खा, कज्जमाणी किरिया अदुक्खा, किरियासमयवीइक्कत च णं कडा किरिया दुक्खा, सा कि करणतो दुक्खा अकरणतो दुक्खा ? प्रकरणओ णं सा दुक्खा, णो खलु सा करणतो दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया। अकिच्चं दुक्खं, अफुसं दुक्खं, अकज्जमाणकडं दुक्खं प्रकटु अक? पाण-भूत-जीव-सत्ता वेदणं वेदेतीति वत्तव्वं सिया"। से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! जंणं ते अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव वेदणं वेदेतीति वतन्वं सिया, जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमासु / अहं पुण गोतमा! एवमाइक्खामि-एवं खलु चलमाणे चलिते जाव निज्जरिज्जमाणे निज्जिग्णे। दो परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नति / कम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयनो साहन्नति ? दोहं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नति, ते भिज्जमाणा दुहा कज्जति, दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले एगयनो परमाणु पोग्गलेभवति / तिण्णि परमाणुपोग्गला एगयनो साहन्नति, कम्हा तिण्णि परमाणुयोग्गला एगयनो साहन्नति ? Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१.] [157 तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा तिणि परमाणुयोग्गला एगयनो साहणंति; ते भिज्जमाणा दुहा वि तिहा वि कज्जति, दुहा कज्जमाणा एगयो परमाणुपोग्गले, एगयो दुपदेसिए खंधे भवति, तिहा कज्जमाणा तिष्णि परमाणुपोग्गला भवंति। एवं जाव चत्तारि पंच परमाणुपोग्गला एगयो साहन्नति, साहनित्ता खंवत्ताए कज्जति, खंधे वि य णं से प्रसासते सया समियं उचिज्जइ य अवचिज्जइ य / पुब्धि मासा प्रभा सा, भासिज्जमाणी मासा भासा, भासासमयवीतिरकंतं च णं भासिता भासा प्रभासा; जा सा पुचि भासा प्रभासा, भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयवोतिक्कंतं च णं भासिता भासा प्रभासा, सा कि भासतो भासा प्रभासनो भासा? भासो गं सा भासा, नो खलु सा अमासनो भासा। पुब्बि किरिया अदुक्खा जहा भासा तहा भाणितव्वा किरिया वि जाव करणतो गं सा दुक्खा, नो खलु सा प्रकरणमो दुक्खा, सेवं वत्तन्वं सिया। किच्चं दुक्खं, फुसं दुक्खं, कज्जमाणकडं दुक्खं कटु कटु पाण-भूत-जीव-सत्ता बेदणं वेदेतीति वत्तव्वं लिया। [1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि'जो चल रहा है, वह अचलित है—चला नहीं कहलाता और यावत्-जो निर्जीर्ण हो रहा है, वह निर्जीर्ण नहीं कहलाता।' __ 'दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते।' दो परमाणुपुद्गल एक साथ क्यों नहीं चिपकते? इसका कारण यह है कि दो परमाणुपुद्गलों में चिपकनापन (स्निग्धता) नहीं होती इसलिए दो परमाणुपुद्गल एक साथ नहीं चिपकते।' 'तीन परमाणुपुद्गल एक दूसरे से चिपक जाते हैं / ' तीन परमाणुपुदगल परस्पर क्यों चिपक जाते हैं ? इसका कारण यह है कि तीन परमाणुपुद्गलों में स्निग्धता (चिकनाहट) होती है। इसलिए तीन परमाणु-पुद्गल आपस में चिपक जाते हैं। यदि तीन परमाणु-पुद्गलों का भेदन (भाग) किया जाए तो दो भाग भी हो सकते हैं, एवं तीन भाग भी हो सकते हैं। अगर तीन परमाणु-पुद्गलों के दो भाग किये जाएँ तो एक तरफ डेढ़ परमाणु होता है और दूसरी तरफ भी डेढ़ परमाणु होता है / यदि तीन परमाणुपुद्गलों के तीन भाग किये जाएँ तो एक-एक करके तीन परमाणु अलग-अलग हो जाते है / इसी प्रकार यावत् चार परमाणु-पुद्गलों के विषय में समझना चाहिए।' 'पाँच परमाणुपुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं और वे दुःखरूप (कर्मरूप) में परिणत होते हैं / वह दुःख (कर्म) भी शाश्वत है, और सदा सम्यक प्रकार से उपचय को प्राप्त होता है और अपचय को प्राप्त होता है।' 'बोलने से पहले की जो भाषा (भाषा के पुद्गल) है, वह भाषा है। बोलते समय की भाषा अभाषा है और बोलने का समय व्यतीत हो जाने के बाद की भाषा, भाषा है।' [प्र.] यह जो बोलने से पहले की भाषा, भाषा है और बोलते समय को भाषा, अभाषा है तथा बोलने के समय के बाद की भाषा, भाषा है; सो क्या बोलते हुए पुरुष की भाषा है या न बोलते हुए पुरुष की भाषा है ?' [उ.] 'न बोलते हुए पुरुष की वह भाषा है, बोलते हुए पुरुष की वह भाषा नहीं है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'करने से जो पूर्व की जो क्रिया है, वह दुःखरूप है, वर्तमान में जो क्रिया की जाती है, वह दुःखरूप नहीं है और करने के समय के बाद की कृतक्रिया भी दुःखरूप है।' [प्र.] वह जो पूर्व की क्रिया है, वह दुःख का कारण है; की जाती हुई क्रिया दुःख का कारण नहीं है और करने के समय के बाद की क्रिया दुःख का कारण है; तो क्या वह करने से दुःख का कारण है या न करने से दुःख का कारण है ? [उ.] न करने से वह दुःख का कारण है, करने से दुःख का कारण नहीं है। ऐसा कहना चाहिए। अकृत्य दुःख है, अस्पृश्य दुःख है, और अक्रियमाण कृत दुःख है। उसे न करके प्राण, भूत, जीव और सत्त्व वेदना भोगते हैं, ऐसा कहना चाहिए। [प्र.] श्री गौतमस्वामी पूछते हैं-'भगवन् ! क्या अन्यतीथिकों का इस प्रकार का यह मत सत्य है ?' [उ.] गौतम ! यह अन्यतीथिक जो कहते हैं यावत् वेदना भोगते हैं, ऐसा कहना चाहिए, उन्होंने यह सब जो कहा है, वह मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि जो चल रहा है, वह 'चला' कहलाता है और यावत् जो निर्जर रहा है, वह निर्जीर्ण कहलाता है। दो परमाणु पुद्गल आपस में चिपक जाते हैं। इसका क्या कारण है ? दो परमाणु पुद्गलों में चिकनापन है, इसलिए दो परमाणु पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। इन दो परमाणु पुद्गलों के दो भाग हो सकते हैं। दो परमाणु पुद्गलों के दो भाग किये जाएँ तो एक तरफ एक परमाणु और एक तरफ ९क परमाणु होता है। तीन परमाणुपुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। तीन परमाणुपुद्गल परस्पर क्यों चिपक जाते हैं ! तीन परमाणुपुद्गल इस कारण चिपक जाते हैं, कि उन परमाणुपुद्गलों में चिकनापन है। इस कारण तीन परमाणु पुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं। उन तीन परमाणुपुद्गलों के दो भाग भी हो सकते हैं.और तीन भाग भी हो सकते हैं। दो भाग करने पर एक तरफ परमाण, और एक तरफ दो प्रदेश वाला एक द्वयणक स्कन्ध होता है। तीन भाग करने पर एक-एक करके तीन परमाणु हो जाते हैं / इसी प्रकार यावत्-चार परमाणु पुद्गल में भी समझना चाहिए / परन्तु तीन परमाणु के डेढ-डेढ (भाग) नहीं हो सकते। पाँच परमाणुपुद्गल परस्पर चिपक जाते हैं और परस्पर चिपककर एक स्कन्धरूप बन जाते हैं / वह स्कन्ध अशाश्वत है और सदा उपचय तथा अपचय पाता है / अर्थात्-वह बढ़ता घटता भी है। बोलने से पहले की भाषा प्रभाषा है; बोलते समय की भाषा भाषा है और बोलने के बाद की भाषा भी प्रभाषा है। [प्र.] वह जो पहले की भाषा अभाषा है, बोलते समय की भाषा भाषा है, और बोलने के बाद की भाषा अभाषा है; सो क्या बोलने वाले पुरुष की भाषा है, या नहीं बोलते हुए पुरुष को भाषा है ? [उ.] वह बोलने वाले पुरुष की भाषा है, नहीं बोलते हुए पुरुष की भाषा नहीं है / (करने से पहले की क्रिया दुःख का कारण नहीं है, उसे भाषा के समान ही समझना चाहिए / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१० ] [159 यावत्--वह क्रिया करने से दुःख का कारण है, न करने से दुःख का कारण नहीं है, ऐसा कहना चाहिए। 'कृत्य दुःख है, स्पृश्य दुःख है, क्रियमाण कृत दुःख है। उसे कर-करके प्राण, भूत, जीव और वेदना भोगते हैं; ऐसा कहना चाहिए। विवेचन--'चलमान चलित' प्रादि-सम्बन्धी अन्यतीथिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों की कतिपय विपरीत मान्यताओं का भगवान् महावीर द्वारा निराकरण करके स्वसिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्यतीथिकों के मिथ्या मन्तव्यों का निराकरण-(१) चलमान कर्म प्रथम क्षण में चलित नहीं होगा तो द्वितीय आदि समयों में भी प्रचलित ही रहेगा, फिर तो किसी भी समय वह कर्म चलित होगा ही नहीं। अतः चलमान चलित नहीं होता, यह कथन प्रयुक्त है। (2) दो परमाणु सूक्ष्म और स्निग्धतारहित होने से नहीं चिपकते, यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि एक परमाणु में भी स्निग्धता होती है, अन्यतीथिकों ने जब डेढ़-डेढ़ परमाणुओं के चिपक जाने की बात स्वीकार की है, तब उनके मत से आधे परमाणु में भी चिकनाहट होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में दो परमाणु भी चिपकते हैं, यही मानना युक्ति-युक्त है। (3) 'डेढ़-डेढ़ परमाणु चिपकते हैं, यह अन्यतीर्थिक-कथन भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि परमाणु के दो भाग हो ही नहीं सकते, दो भाग हो जाएँ तो वह परमाणु नहीं कहलाएगा / (4) 'चिपके हुए पाँच पुद्गल कर्मरूप (दुःखत्वरूप) होते हैं यह कथन भी असंगत है, क्योंकि कर्म अनन्तपरमाणुरूप होने से अनन्तस्कन्धरूप है और पाँच परमाणु तो मात्र स्कन्धरूप ही हैं, तथा कर्म, जीव को आवत करने के स्वभाव वाले हैं, अगर ये पाँच परमाणुरूप ही हों तो असंख्यातप्रदेशवाले जीव को कैसे प्रावृत कर सकेंगे? तथा (5) कर्म (दुःख) को शाश्वत मानना भी ठीक नहीं क्योंकि कर्म को यदि शाश्वत माना जाएगा तो कर्म का क्षयोपशम, क्षय आदि न होने से ज्ञानादि की हानि और वृद्धि नहीं हो सकेगी, परन्तु ज्ञानादि की हानि-वृद्धि लोक में प्रत्यक्षसिद्ध है। अतः कर्म (दु:ख) शाश्वत नहीं है / तथा आगे उन्होंने जो कहा है कि (6) कर्म (दुःख) चय को प्राप्त होता है, नष्ट होता है. यह कथन भी कर्म को शाश्वत मानने पर कैसे घटित होगा ? (7) भाषा की कारणभूत होने से बोलने से पूर्व की भाषा, भाषा है, कह कथन भी अयुक्त तथा प्रौपचारिक है / बोलते समय भाषाको अभाषा कहने का अर्थ हग्रा-वर्तमानकाल व्यवहार का अंग नहीं है, यह कथन भी मिथ्या है। क्योंकि विद्यमानरूप वर्तमानकाल ही व्यवहार का अंग है। भूतकाल नष्ट हो जाने के कारण अविद्यमानरूप है, और भविष्य असद्रप होने से अविद्यमानरूप है, अतः ये दोनों काल व्यवहार के अंग नहीं हैं। (8) बोलने से पूर्व की भाषा को भाषा मानकर भी उसे न बोलते हुए पुरुष की भाषा मानना तो और भी युक्तिविरुद्ध है / क्योंकि अभाषक की भाषा को ही भाषा माना जाएगा तो सिद्ध भगवान् को या जड़ को भाषा को प्राप्ति होगी, जो भाषक हैं, उन्हें नहीं। (9) की जाती हुई क्रिया को दुःखरूप न बताकर पूर्व को या क्रिया के बाद की क्रिया बताना भी अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि करने के समय ही क्रिया सुखरूप या दुःखरूप लगती है, करने से पहले या करने के बाद (नहीं करने से) क्रिया सुखरूप या दुःखरूप नहीं लगती। इस प्रकार अन्यतीथिकों के मत का निराकरण करके भगवान् द्वारा प्ररूपित स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।' 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 102 से 104 तक Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [ न्यास्याप्रज्ञप्तिसून ऐर्यापथिकी और साम्परायिको क्रियासम्बन्धी चर्चा 2. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियानो पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च संपराइयं च / जं समयं इरियावहियं पकरेइ तं समय संपराइयं पकरेइ०, परउत्थियवत्तव्वं' नेयव्वं / / ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं जाव' इरियावहियं वा संपराइयं वा / [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि एक जीक एक समय में दो क्रियाएँ करता है। वह इस प्रकार - ऐपिथिकी और साम्परायिकी। जिस समय (जीव) एपिथिकी क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है, उस समय ऐपिथिको क्रिया करता है / ऐपिथिकी क्रिया करने से साम्परायिकी क्रिया करता है और साम्परायिकी क्रिया करने से ऐपिथिकी क्रिया करता है। इस प्रकार एक जीव, एक समय में दो क्रियाएँ करता है-एक ऐपिथिकी और दूसरी साम्परायिकी। हे भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ? 2 उ.] गौतम ! जो अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं, यावत्--उन्होंने ऐसा जो कहा है, सो मिथ्या कहा है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ कि एक जीव एक समय में एक क्रिया करता है। यहाँ परतीथिकों का तथा स्वसिद्धान्त का वक्तव्य कहना चाहिए। यावत् ऐर्यापथिकी अथवा साम्परायिकी क्रिया करता है। विवेचन-ऐ-पथिको और साम्परायिकी क्रियासम्बन्धी चर्चा---प्रस्तुत (सू० 2) सूत्र में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी, दोनों क्रियाएँ एक समय में होती हैं, या नहीं; इसकी चर्चा अन्यतीथिकों का पूर्वपक्ष देकर प्रस्तुत की गई है। __ ऐपिथिकी-जिस क्रिया में केवल योग का निमित्त हो, ऐसी कषायरहित-वीतरागपुरुष की क्रिया / साम्परायिकी-जिस क्रिया में योग का निमित्त होते हुए भी कषाय की प्रधानता हो ऐसी सकषाय जोव को क्रिया / यही क्रिया संसार-परिभ्रमण का कारण है / पच्चीस क्रियायों में से चौबीस क्रियाएँ साम्परायिकी हैं, सिर्फ एक ऐपिथिकी है / 1. पर उत्यियवत्त -अन्यतीथिकवक्तव्य का पाठ इस प्रकार है " समयं संपराइयं पकरेइत समयं इरियावहियं पकरेइ इरियावहियापकरणताए संपराइयं पकरेह, संपराइययकरणयाए इरियावहियं पकरेइ; एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा इरियावहियं च संपराइयं च ।"-भगवती अ. वृति. 2. स्वसमयवक्तव्यता के सन्दर्भ में 'जान' पदसूचक पाठ "से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा! "जं णं ते अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव संपराइयं च, जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु; अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि 4-- एवं खलु एगे जोवे एगणं समएणं एगं किरियं पकरेइ, तं जहा" -भगवती. अ. वृति. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१० ] [ 161 एक जीव द्वारा एक समय में ये दो क्रियाएं सम्भव नहीं-जीव जब कषाययुक्त होता है, तो कषायरहित नहीं होता और जब कषायरहित होता है, तो सकषाय नहीं हो सकता / दसवें गुणस्थान तक सकषायदशा है। आगे के गुणस्थानों में प्रकषाय-अवस्था है / ऐर्यापथिको अकषाय-अवस्था को किया है, साम्परायिको कषाय-अवस्था को / अतएव एक ही जीव एक ही समय में इन दोनों क्रियाओं को नहीं कर सकता। नरकादि गतियों में जीवों का उत्पाद-विरहकाल 3. निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उबवातेणं पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं धारस मुहुत्ता / एवं वक्कंतीपदं भाणितव्वं निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरति / // समो उद्देसमो समत्तो॥ // पदम सतं समत्तं // पतत. [3 प्र.] भगवन् ! नरकगति, कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ? [3 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहर्त तक नरकगति उपपात से रहित रहती है / इसी प्रकार यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र का सारा) 'व्युत्क्रान्तिपद' कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही है, इस प्रकार कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-नरकादि गतियों तथा चौबीसदण्डकों में उत्पाद-विरहकाल-प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद का अतिदेश करके नरकादि गतियों में जीवों की उत्पत्ति (उपपात = उत्पाद) के विरहकाल की प्ररूपणा की गई है। नरकादि में उत्पाद विरहकाल-प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार विभिन्न गतियों में जोवों के उत्पाद का विरहकाल संक्षेप में इस प्रकार है-पहली नरक में 24 मुहूर्त का, दूसरी में 7 अहोरात्र का, तीसरी में 15 अहोरात्र का, चौथी में 1 मास का, पांचवी में दो मास का, छठी में चार मास का, सातवों में छह मास का विरहकाल होता है। इसी प्रकार तियंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं देवगति में जघन्य एक समय का, उत्कृष्ट 12 मुहूर्त का उत्पादविरहकाल है / पंचस्थावरों में कभी विरह नहीं होता, विकलेन्द्रिय में और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में अन्तर्मुहर्त का तथा संज्ञी-तिर्यञ्च एवं संज्ञी मनुष्य में 12 मुहूर्त का विरह होता है। सिद्ध अवस्था में उत्कृष्ट 6 मास का विरह होता है। इसी प्रकार उद्वर्तना के विरहकाल के विषय में भी जानना चाहिए / ' // प्रथम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / प्रथम शतक सम्पूर्ण 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 106 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 107-108 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइयं सयं द्वितीय शतक परिचय * भगवतीसूत्र का यह द्वितीय शतक है / इसके भो दश उद्देशक हैं / उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) श्वासोच्छ्वास (और स्कन्दक अनगार), (2) समुद्घात, (3) पृथ्वी, (4) इन्द्रियाँ, (5) निर्ग्रन्थ (अथवा अन्यतीर्थिक), (6) भाषा, (7) देव, (8) (चमरेन्द्र-) सभा (या चमरचंचा राजधानी), (9) द्वोष (अथवा समयक्षेत्र), और (10) अस्तिकाय / * प्रथम उद्देशक में एकेन्द्रियों आदि के श्वासोच्छ्वास से सम्बन्धित निरूपण मृतादी अनगार के सम्बन्ध में भवभ्रमण-सिद्धिगमन सम्बन्धी प्ररूपण एवं स्कन्दक अनगार का विस्तृत वर्णन है / * द्वितीय उद्देशक में सप्त समुद्घात के सम्बन्ध में निरूपण है / * तृतीय उद्देशक में सात नरकश्वियों के नाम, संस्थान आदि समस्त जीवों की उत्पत्ति-संभावना सम्बन्धी वर्णन है। * चतुर्थ उद्देशक में इन्द्रियों के नाम, विषय, विकार, संस्थान, बाहल्य, विस्तार, परिमाण, विषय ग्रहण क्षमता आदि का वर्णन है / * पंचम उद्देशक में देवलोक में उत्पन्न भूतपूर्व निग्रंन्थ किन्तु वर्तमान में देव को परिचारणा सम्बन्धी प्रश्नोत्तर, जीवों की गर्भस्थिति सम्बन्धी विचार, तूगिका नगरी के श्रावकों द्वारा तप आदि के फलसम्बन्धी शंका-समाधान, श्रमण-माहन की पर्युपासना का फल, राजगृहस्थित उष्णजल कुण्ड आदि का निरूपण है / * छठे उद्देशक में भाषा के भेद, कारण, उत्पत्ति, संस्थान, भाषापुद्गलों की गतिसीमा, भाषा रूप में गृहीत पुद्गल, उन पुद्गलों के वर्णादि, षड्दिशागत भाषा-ग्रहण, भाषा का अन्तर (व्यवधान), भाषा के माध्यम-काय-वचनयोग तथा अल्पबहुत्व आदि भाषासम्बन्धी वर्णन है / * सातवें उद्देशक में देवों के प्रकार, स्थान, उपपात, प्रतिष्ठान, बाहल्य, उच्चत्व, संस्थान इत्यादि देवसम्बन्धी वर्णन है। * साठवें उद्देशक में चमरेन्द्र (असुरेन्द्र) की सभा, राजधानी, आदि का वर्णन है। * नौवें उद्दे शक में अढाई द्वीप, दो समुद्र के रूप में प्रसिद्ध समयक्षेत्र सम्बन्धी प्ररूपण है / * दशवें उद्देशक में पंचास्तिकाय, उनके नाम, उनमें वर्णगन्धादि, उनकी शाश्वतता-प्रश्वाश्वतता, ___द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव : गुणरूप प्रकारों आदि का सांगोपांग निरूपण है।' 1. (क) भगवतीसूत्र मूलपाठ संग्रहणीगाथा 109, भा. 1, पृ. 73 (ख) भगवतीसूक अ. वृत्ति, पत्रांक 109 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिडयं सयं : द्वितीय शतक द्वितीय शतक के दस उद्देशकों का नामनिरूपण 1. प्राणमति 1 समुग्घाया 2 पुढयो 3 इंविय 4 णियंठ 5 भासा य 6 / देव 7 सभ 8 दीव 6 अस्थिय 10 बीयम्मि सदे दसुद्दे सा॥१॥ [1] द्वितीय शतक के दस उद्देशकों का नाम-निरूपण-(गाथार्थ)-द्वितीय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें क्रमशः इस प्रकार विषय हैं-(१) श्वासोच्छ्वास (और स्कन्दक अनगार), (2) समुद्घात, (3) पृथ्वी, (4) इन्द्रियों, (5) निर्ग्रन्थ, (6) भाषा, (7) देव, (8) (चमरेन्द्र) सभा, (9) द्वीप (समयक्षेत्र का स्वरूप) (10) अस्तिकाय (का विवेचन)। पढमो उद्देसो : आणमति (ऊसास) प्रथम उद्देशक : श्वासोच्छ्वास एकेन्द्रियादि जीवों में श्वासोच्छ्वास सम्बन्धी प्ररूपणा 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्या। वागतो। सामो समोसढे / परिसा निग्गता / धम्मो कहितो। पडिगता परिसा / तेणं कालेणं तेणं समएणं जे? अंतेवासी आव पज्जुवासमाणे एवं वदासी [2] उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए)। (एकदा) भगवान् महावीर स्वामी (वहाँ) पधारे। उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए परिषद् निकली। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सुनकर परिषद् वापिस लौट उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) श्री इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत्-भगवान् को पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले 3. जे इमे भंते ! बेइंदिया तेइंदिया चाउरिदिया पंचिन्दिया जोवा एएसि णं प्राणामं व पाणामं वा उस्सासं वा नीसासं वा जाणामो पासामो। जे इमे पुढविषकाइया जाब वणस्सतिकाइया एगिदिया जोवा एएसि णं प्राणामं वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा णं याणामो ग पासामो, एए वि य पं भंते ! जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति का? हंता, गोयमा ! एए वि य णं जोवा प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति था। [3 प्र.] भगवन् ! ये जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनके प्राभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वासा को और प्राभ्यन्तर एवं बाह्य निःश्वास को हम जानते और देखते हैं, किन्तु जो ये पृथ्वीकाय से यावत् वनस्पतिकाय तक एकेन्द्रिय जीव हैं, उनके प्राभ्यन्तर एवं बाह्य Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याल्याप्रशस्तितून उच्छ्वास को तथा पाभ्यन्तर एवं बाह्य नि:श्वास को हम न जानते हैं, और न देखते हैं। तो हे भगवन् ! क्या ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव प्राभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास लेते हैं तथा प्राभ्यन्तर और बाह्य निःश्वास छोड़ते हैं ? [3 उ.] हाँ, गौतम ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भी पाभ्यन्तर और बाह्य उच्छ्वास लेते हैं और आभ्यन्तर एवं बाह्य नि:श्वास छोड़ते हैं। 4. [1] कि णं भंते ! एते जीवा प्राणमति वा पागमति वा उस्ससंति वा नीससंति का? गोयमा ! व्यतो गं प्रणंतपएसियाई दवाई, खेत्तमो गं असंखेज्जपएसोगाढाई, कालो अन्नय रद्वितीयाई, भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा। [4-1 प्र.] भगवन् ! ये पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव, किस प्रकार के द्रव्यों को बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं ? [4-1 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाले द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यप्रदेशों में रहे हुए द्रव्यों को, काल की अपेक्षा किसी भी प्रकार की स्थिति वाले (एक समय की, दो समय की स्थिति वाले इत्यादि) द्रव्यों को, तथा भाव को अपेक्षा वर्ण वाले, गन्ध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं, तथा निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। [2] जाइं भावो वण्णमंताई प्राण पाण ऊस० नीस० ताई कि एगवण्णाई प्राणमंति वा पाणमंति ऊस० नीस? पाहारगमो नेयव्यो जाव ति-चउ-पंचदिसि / [4-2 प्र.] भगवन् ! वे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव भाव की अपेक्षा वर्ण वाले जिन द्रव्यों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं, क्या वे द्रव्य एक वर्ण वाले हैं ? [4-2 उ.] हे गौतम! जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र के अद्वाईसवें आहारपद में कथन किया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए। यावत् वे तीन, चार, पाँच दिशाओं की ओर से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं / 5. कि णं भंते ! नेरइया प्रा०पा० उ० नी? तं चैव जाव नियमा प्रा० पा० उ० नी० / जीवा एगिदिया वाघाय-निवाघाय भाणियम्वा / सेसा नियमा छहिसि / [5 प्र.] भगवन् ! नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों को बाह्य और प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? [5 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्वकथनानुसार ही जानना चाहिए और यावत्---वे नियम से (निश्चितरूप से) छहों दिशा से पुद्गलों को बाह्य एवं प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक / उद्देशक-१] [165 जीवसामान्य और एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहना चाहिए कि यदि व्याघात न हो तो वे सब दिशाओं से बाह्य और प्राभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के लिए पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से, और कदाचित् पांच दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। शेष सब जीव नियम से छह दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। विवेचन-एकेन्द्रियादि जीवों में श्वासोच्छवास सम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 2 से 5 तक) में एकेन्द्रिय जीवों, नारकों आदि के श्वासोच्छ्वास के सम्बन्ध में शंका-समाधान प्रस्तुत किया गया है। प्राणमंति पाणमंतिउ स्ससंति नीससंति-वत्तिकार ने आण-प्राण और ऊस-नीस इन दोनों-दोनों को एकार्थक माना है। किन्तु प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापनावत्ति में अन्य आचार्य का मत देकर इनमें अन्तर बताया है-मानमंति और प्राणमन्ति ये दोनों अन्तःस्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया के अर्थ में, तथा उच्छ वसन्ति और नि:श्वसन्ति ये दोनों बाह्यस्फुरित उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए—(प्रज्ञापना-म०-वृत्ति, पत्रांक 220) / एकेन्द्रिय जीवों के श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी शंका क्यों?—यद्यपि आगमादि प्रमाणों से पृथ्वीकायादि एकेन्द्रियों में चैतन्य सिद्ध है और जो जीव है, वह श्वासोच्छ्वास लेता ही है, यह प्रकृतिसिद्ध नियम है, तथापि यहाँ एकेन्द्रिय जीवों के श्वासोच्छ्वास सम्बन्धी शंका का कारण यह है कि मेंढक आदि कतिपय जीवित जीवों का शरीर कई बार बहुत काल तक श्वासोच्छ्वास-रहित दिखाई देता है, इसलिए स्वभावत: इस प्रकार की शंका होती है कि पृथ्वीकाय आदि के जीव भी क्या इसी प्रकार के हैं या मनुष्यादि की तरह श्वासोच्छ्वास वाले हैं ? क्योंकि पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों का श्वासोच्छ्वास मनुष्य प्रादि की तरह दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी का समाधान भगवान् ने किया है। वास्तव में, बहुत लम्बे समय में श्वासोच्छ्वास लेने वालों को भी किसी समय में तो श्वासोच्छ्वास लेना ही पड़ता है। श्वासोच्छवास-योग्य पुद्गल-प्रज्ञापनासूत्र में बताया गया है कि वे पुद्गल दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, यावत् पाँच वर्ण वाले होते हैं। वे एक गुण काले यावत् अनन्तगुण काले होते हैं। व्याघात-अव्याघात–एकेन्द्रिय जीव लोक के अन्त भाग में भी होते हैं, वहाँ उन्हें अलोक द्वारा व्याघात होता है। इसलिए वे तीन, चार या पाँच दिशानों से ही श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल ग्रहण करते हैं, किन्तु व्याधातरहित जीव (नैरयिक आदि) सनाड़ी के अन्दर ही होते हैं, अत: उन्हें ब्याधात न होने से वे छहों दिशामों से श्वासोच्छ्वास-पुद्गल ग्रहण कर सकते हैं।" वायुकाय के श्वासोच्छवास, पुनरुत्पत्ति, मरण एवं शरीरादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 6. बाउयाए ण भंते ! बाउयाए चेव प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ? हंता, गोयमा ! वाउयाए णं वाउयाए जाव नोससंति वा। [6 प्र.] हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 101 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 उ.] हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है। 7. [1] वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव प्रणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उदाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाति ? हंता, गोयमा ! आव पच्चायाति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या बायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख वार मर कर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न होता है ? 7-1 उ.] हां, गौतम ! वायुकाय, वायुकाय में ही अनेक लाख बार मर कर पुनः पुनः वहीं उत्पन्न होता है। [2] से भंते किं पुढे उद्दाति ? अपुढे उहाति ? गोयमा ! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे उद्दाइ / [7-2 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय स्वकायशस्व से या परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो (छ) कर मरण पाता है, अथवा अस्पृष्ट (बिना टकराए हुए) ही मरण पाता है ? [7-2 उ: गौतम ! वायुकाय, (स्वकाय के अथवा परकाय के शस्त्र से स्पृष्ट होकर मरण पाता है, किन्तु स्पृष्ट हुए बिना मरण नहीं पाता। [3] से भंते ! कि ससरीरी निक्खमइ, प्रसरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय प्रसरीरी निक्खमइ / से केणढणं भंते ! एवं कुच्चाइ सिय ससरीरी निक्खमह, सिय प्रसरीरी निक्खमइ ? गोयमा ! बाउकायस्स णं चत्तारि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा--पोरालिए घेउविए लेयए कम्मए / ओरालिय-वेउब्धियाई विष्पजहाय तेय-कम्महि निक्खमति, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सिय ससरीरी सिय असरीरी निक्खमइ / [7-3 प्र.] भगवन् ! वायुकाय मर कर (जब दूसरी पर्याय में जाता है, तब) सशरीरी (शरीरसहित) होकर जाता है, या शरीररहित (अशरीरी) होकर जाता है ? [7-3 उ.] गौतम ! वह कथञ्चित् शरीरसहित होकर जाता (निकलता) है, कथंचित् शरीररहित हो कर जा [प्र. भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि वायुकाय का जीव जब निकलता (दूसरी पर्याय में जाता है, तब वह कञ्चित् शरीरसहित निकलता (परलोक में जाता है, कथञ्चित् शरीररहित होकर निकलता (जाता) है ? उ. गौतम ! वायुकाय के चार शरीर कहे गए हैं; वे इस प्रकार -(1) औदारिक, (2) वैक्रिय, (3) तैजस और (4) कार्मण। इनमें से वह ओदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे भव में जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीररहित जाता है और तेजस तथा कार्मण शरीर को साथ लेकर जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीरसहित (सशरीरो) जाता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वायुकाय मर कर दूसरे भव में कथञ्चित् (किसी अपेक्षा से) सशरीरी जाता है भौर कथञ्चित् अशरीरी जाता है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-1] [ 167 विवेचन-वायुकाय के श्वासोच्छवास, पुनरुत्पत्ति, मरण, एवं शरीरादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तरप्रस्तुत दो सूत्रों में वायुकाय के श्वासोच्छ्वास प्रादि से सम्बन्धित जिज्ञासाओं का समाधान अंकित है। वायुकाय के श्वासोच्छ्वास-सम्बन्धी शंका-समाधान सामान्यतया श्वासोच्छ्वास वायुरूप होता है, अतः वायुकाय के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, तेज एवं वनस्पति तो वायुरूप में श्वासोछ्वास ग्रहण करते हैं, किन्तु वायुकाय तो स्वयं वायुरूप है तो उसे श्वासोच्छ्वास के रूप में क्या दूसरे बायु की आवश्यकता रहती है ?, यही इस शंका के प्रस्तुत करने का कारण है। दूसरी शंका-'यदि वायुकाय दूसरी वायु को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है, तब तो दूसरी वायु को तीसरी वायु की, तीसरी को चौथी की आवश्यकता रहेगी। इस तरह अनवस्थादोष प्राजाएगा।' इस शंका का समाधान यह है कि वायुकाय जीव है, उसे दूसरी वायु के रूप में श्वासोच्छ्वास को प्रावश्यकता रहती है, लेकिन ग्रहण की जाने वाली वह दूसरी वायु सजीव नहीं, निर्जीव (जड़) होती है, उसे किसी दूसरे सजीव वायुकाय की श्वासोच्छवास के रूप में आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए अनवस्थादोष नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त यह जो वायुरूप उच्छ्वासनिःश्वास हैं, वे वायुकाय के औदारिक और वैक्रियशरीररूप नहीं हैं, क्योंकि अान-प्राण तथा उच्छ्वास-निःश्वास के योग्य पुद्गल औदारिक शरीर और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा अनन्तगुण-प्रदेशवाले होने से सूक्ष्म हैं, अतएव वे (उच्छ्वास-निःश्वास) चैतन्यवायुकाय के शरीररूप हैं। निष्कर्ष यह कि वह उच्छ्वास-निःश्वासरूप वायु जड़ है, उसे उच्छवास-नि:श्वास की जरूरत नहीं होती। वायुकाय आदि को कायस्थिति-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवपिणी और उत्सर्पिणी तक है तथा वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीपर्यन्त है / वायुकाय का मरण स्पृष्ट होकर ही वायुकाय स्व कायशस्त्र से अथवा परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो (टकरा) कर ही मरण पाता है, अस्पृष्ट होकर नहीं। यह सूत्र सोपक्रमी आयु वाले जीवों की अपेक्षा से है। मतादीनिर्ग्रन्थों के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण 8. [1] मडाई णं भंते ! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्ध भवपवंचे, नो पहीणसंसारे, जो पहोणसंसारवेदणिज्जे, णो वोच्छिण्णसंसारे, णो वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे, नो निद्रियट्रेनो निट्रिय. करणिज्जे पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छति ? हंता, गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव पुणरवि इत्तत्थं हन्नमागच्छइ / [8.1 प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका 1. 'असंखोसप्पिणी-ओस्सप्पिणी उ एंगिदियाण चउण्हं। ता चेव उ अर्णता, वणस्सइए उ बोधवा // ' -संग्रहणी गाथा 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 110 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [ व्याल्याप्राप्तिसूत्र संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ (सिद्धप्रयोजन = कृतार्थ) नहीं हुआ, जिसका कार्य (करणीय) समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष आहार करने वाला) अनगार पुनः मनुष्यभव प्रादि भावों को प्राप्त होता है ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादीनिर्ग्रन्थ फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है। [2] से गं भंते ! कि ति पत्तव्वं सिया ? गोयमा ! पाणे ति बत्तन्वं सिया, भूते ति वत्तव्यं सिया, जीवे ति वत्तवं सिया, सत्ते ति वत्तव्वं सिया, विष्णू ति वत्तव्य सिया, वेदा ति वत्तव्य सिया–पाणे भूए जीवे सत्ते विष्णू वेदा ति वत्तव्य सिया। से केपट्टणं भंते ! पामे ति बत्तव्य सिया जाव घेदा ति वत्तव सिया ? गोयमा ! जम्हा प्राणमइ वा पाणमइ वा उस्ससइ या नीससइ वा तम्हा पाणे त्ति वत्तव सिया। जम्हा भूते भवति मविस्सति य तम्हा भूए ति वत्तव सिया। जम्हा जीवे जोवई जीवत्तं प्राउषं च कम्मं उवनीवइ तम्हा जोवे ति वत्तन्वं सिया जम्हा सत्ते सुभासुभेहि कम्भेहिं तम्हा सत्ते ति बत्तव सिया। जम्हा तित्त-कडुय-कसायंबिल-महुरे रसे जाणइ तम्हा विष्ण ति बत्तन्वं सिया। जम्हा वेदेइ य सुह-दुक्खं तम्हा वेदा ति वत्तहां सिया। से तेण?णं जाव पाणे त्ति वत्तवं सिया जाव वेदा ति बत्तनां सिया। [8-2 प्र.] भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? [8.2 उ.] गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् 'सत्व' कहना चाहिए, कदाचित् 'विज्ञ' कहना चाहिए, वदाचित् 'वेद' कहना चाहिए, और कदाचित् 'प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए। [प्र.] हे भगवन् ! उसे 'प्राण' कहना चाहिए, यावत्--'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या कारण है ? उ. गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और प्राभ्यन्तर उच्छ्वास तथा निःश्वास लेता और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए। वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा (तथा वह होने के स्वभाववाला है) इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए / तथा वह जीव होने से जीता है, जोवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए। वह शुभ और अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, इसलिए उसे 'सत्त्व' कहना चाहिए। वह तिक्त, (तीखा) कटु, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठा, इन रसों का वेत्ता (ज्ञाता) है, इसलिए उसे 'विज्ञ' कहना चाहिए, तथा वह सुख-दुःख का वेदन (अनुभव) करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चाहिए। इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को 'प्राण' यावत्-'वेद' कहा जा सकता है। ___E. [1] मडाई गं भंते ! नियंठ निरुद्ध भवे निरुद्धमवपनंचे जाव निट्ठियटुकरणिज्जे गो पुणरवि इत्तत्थं हव्यमागच्छति ? हंता, गोयमा ! मलाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इत्तत्थं हवमागच्छति / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [166 [2] से णं भंते ! कि ति बत्तवं सिया? गोयमा ! सिद्ध त्ति वत्तव्वं सिया, बुद्ध ति वतव्वं सिया, मुत्ते त्ति वत्तव्वं पारगए त्ति व०, परंपरगए ति व०, सिद्ध बुद्ध मुत्ते परिनिव्वुडे अंतकडे सव्यदुषखप्पहीणे त्ति वत्तव्वं सिया।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, 2 संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [9-1 प्र.] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा मृतादी (प्रासुकभोजी) अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ? [9-1 उ.] हाँ गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता। [9-2 प्र.] हे भगवन् ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निग्रंथ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए? [9-2 उ.] हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्गन्थ को 'सिद्ध' कहा जा सकता है, 'बुद्ध कहा जा सकता है, 'मुक्त' कहा जा सकता है, 'पारगत' (संसार के पार पहुँचा हुआ) कहा जा सकता है, 'परम्परागत' (अनुक्रम से संसार के पार पहुँचा हुआ) कहा जा सकता है / उसे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत् एवं सर्वदुःखप्रहीण कहा जा सकता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं और फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करके विचरण करते हैं। विवेचन--मृतादो निर्ग्रन्थ के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण---प्रस्तुत दो सूत्रों (8 और ह) में प्रासुकभोजी (मृतादी) अनगार के मनुष्यादि भवों में भ्रमण का तथा भवभ्रमण के अन्त का; यों दो प्रकार के निर्ग्रन्थों का चित्र प्रस्तुत किया है / साथ ही भवभ्रमण करने वाले और भवभ्रमण का अन्त करने वाले दोनों प्रकार के मृतादी अनगारों के लिए पृथक्-पृथक् विविध विशेषणों का प्रयोग भी किया गया है। मृतादी-'मडाई' शब्द की संस्कृत छाया 'मृतादी' होती है, जिसका अर्थ है-मृत = निर्जीव प्रासुक, अदी = भोजन करने वाला / अर्थात्-प्रासुक और एषणीय पदार्थ को खाने वाला निर्ग्रन्थ अनगार 'मडाई' कहलाता है / अमरकोश के अनुसार 'मृत' शब्द 'याचित'' अर्थ में है / अतः मृतादी का अर्थ हुआ याचितभोजी। 'णिरुद्धमवें' आदि पदों के अर्थ-णिरुद्धभवे=जिसने आगामी जन्म को रोक दिया है, जो चरमशरीरी है / णिरुद्धभवपवंचे = जिसने संसार के विस्तार को रोक दिया है। पहोणसंसारे 1. 'द्वे याचितायाचितयोः यथासंख्यं मतामते'--अमरकोश, द्वितीयकाण्ड, वैश्यवर्ग, इलो-३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जिसका चतुर्गतिभ्रमणरूप संसार क्षीण को चुका है। पहीणसंसारवेयणिज्जे--जिसका संसारवेदनीय कर्म क्षीण हो चुका है। वोच्छिण्णसंसारे - जिसका चतुर्गतिकसंसार व्यवच्छिन्न हो चुका है। इत्थत्थं = इस अर्थ को अर्थात्-अनेक बार तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकगतिगमनरूप बात को। 'इत्थतं' पाठान्तर भी है, जिसका अर्थ है-मनुष्यादित्व आदि / 'इत्यत्तं' का तात्पर्य आचार्यों ने बताया है कि जिसके कषाय उपशान्त हो चुके हैं, ऐसा जीव भी अनन्त प्रतिपात को प्राप्त होता है। इसलिए कषाय की मात्रा थोड़ी-सी भी शेष रहे, वहाँ तक मोक्षाभिलाषी प्राणी को विश्वस्त नहीं हो जाना चाहिए।' पिंगल निम्रन्थ के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिवाजक 10. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाप्रो नगरानो गुणसिलामो चेइयानो पडिनिक्खभइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। [10] उस काल और उस समय में (एकदा) श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य (उद्यान) से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। 11. तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगला नाम नगरी होत्था / वण्णनो / तोसे णं कयंगलाए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे छत्तपलासए नामं चेइए होत्या। वण्णो / तए णं समणे भगवं महावीरे उप्पण्णनाण-दसणधरे जाव समोसरणं / परिसा निगच्छति / [11] उस काल उस समय में कृतंगला नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औषपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। उस कृतंगला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में छत्रपलाशक नाम का चैत्य था। उसका वर्णन भी (औपपातिक सूत्र के अनुसार) जान लेना चाहिए / वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे / यावत् -- भगवान् का समवसरण (धर्मसभा) हुआ (लगा)। परिषद् (जनता) धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली। 12. तीसे णं कयंगलाए नगरीए प्रदूरसामंते सावत्थी नाम नयरी होत्था। वण्णप्रो / तत्थ णं सावत्थीए नयरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए नामं कच्चायणसगोत्ते परिवायगे परिवसइ, रिउब्वेदजजुब्वेद-सामवेद-अथव्वणवेद इतिहासपंचमाणं निघंटुछट्ठाणं चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए वारए पारए सडंगवी सद्वितंतविसारए संखाणे सिक्खा-कप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे अन्नेसु य बहूसु बंभष्णएसु पारिवायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था। [12] उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी। उसका वर्णन (औपपातिक सूत्र से) जान लेना चाहिए। उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक नाम का परिव्राजक (तापस) रहता था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चार 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति पत्रांक 111 2. 'जाव' शब्द 'अरहा जिणे केवली सबण्ण सम्बदरिसी आगासगएणं छत्तणं' इत्यादि समवसरणपर्यन्त पाठ का सूचक है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [171 वेदों, पांचवें इतिहास (पुराण), छठे निघण्टु नामक कोश का तथा सांगोपांग (अंगों-उपांगों सहित) रहस्यसहित वेदों का सारक (स्मारक स्मरण कराने वाला-भूले हुए पाठ को याद कराने वाला, पाठक), वारक (अशुद्ध पाठ बोलने से रोकने वाला), धारक (पढ़े हुए वेदादि को नहीं भूलने वाला-धारण करने वाला), पारक (वेदादि शास्त्रों का पारगामी), वेद के छह अंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र) का वेत्ता था। वह षष्ठितंत्र (सांख्यशास्त्र) में विशारद था, वह गणितशास्त्र, शिक्षाकल्प (आचार) शास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, निरुक्त (व्युत्पत्ति) शास्त्र और ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में, तथा दूसरे बहुत-से ब्राह्मण और परिव्राजक-सम्बन्धी नीति और दर्शनशास्त्रों में भी अत्यन्त निष्णात था। 13. तत्थ णं सावत्थीए नयरोए पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए परिवसइ / तए णं से पिंगलए णामं णियंठे वेसालियसावए अण्णदा कयाइं जेणेव खंदए कच्चायणसगोत्ते तेणेव उवागच्छइ, 2 खंदगं कच्चायणसगोतं इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! कि सअंते लोके, अणंते लोके 1, सअंते जीवे प्रणते जीवे 2, सयंता सिद्धी अर्णता सिद्धी 3, सअंते सिद्ध अणते सिद्ध 4, केण वा मरणेणं मरमाणे जोवे वडति वा हायति वा 5 ? एतावं ताव प्रायक्वाहि / वुच्चमाणे एवं / [13] उसी श्रावस्ती नगरी में बैशालिक श्रावक-(भगवान् महावीर के वचनों को सुनने में रसिक) पिंगल नामक निर्गन्थ (साधु) था। एकदा वह वैशालिक श्रावक पिंगल नामक निर्ग्रन्थ किसी दिन जहाँ कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक रहता था, वहाँ उसके पास आया और उसने आक्षेप. पूर्वक कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक से पूछा- 'मागध ! (ममधदेश में जन्मे हुए), १-लोक सान्त (अन्त वाला) है या अनन्त (अन्तरहित) है ?, २-जीव सान्त है या अनन्त है ?, ३-सिद्धि सान्त है या अनन्त है ?, ४-सिद्ध सान्त है या अनन्त है ?. ५-किस मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता (संसार बढ़ाता) है और किस मरण से मरता हुआ जीव घटता (संसार घटाता) है ? इतने प्रश्नों का उत्तर दो (कहो)। 14. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते पिंगलएणं णियंठेगं वेसालोसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिछिए भेदसमावन्ने कलुसमावन्ने णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालियसावयस्स किचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणोए संचिट्ठइ / [14] इस प्रकार उस कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक तापस से वैशालिक श्रावक पिंगल निग्रन्थ द्वारा पूर्वोक्त प्रश्न आक्षेपपूर्वक पूछे, तब स्कन्दक तापस ('इन प्रश्नों के ये ही उत्तर होंगे या दूसरे ?' इस प्रकार) शंकाग्रस्त हुआ, (इन प्रश्नों के उत्तर कैसे हूँ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कैसे पाएगा? इस प्रकार की) कांक्षा उत्पन्न हुई; उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई (कि अब मैं जो उत्तर दूं, उससे प्रश्नकर्ता को सन्तोष होगा या नहीं ?); उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ (कि मैं क्या करू?) उसके मन में कालुष्य (क्षोभ) उत्पन्न हुआ (कि अब मैं तो इस विषय में कुछ भी नहीं जानता), इस कारण वह तापस, वैशालिक श्रावक पिंगलनिर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका / अतः चुपचाप रह गया। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15. तए णं से पिंगलए नियंठे वेतालीसावए खंदयं कच्चायणसगोतं वोच्चं पितच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! कि सनंते लोए जाव केण वा मरणेणं मरमाणे जोवे बचइ या हायति वा ? एतावं ताव प्राइक्खाहि वृच्चमाणे एवं।। [15] इसके पश्चात् उस वैशालिक श्रावक पिंगल निन्थ ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो बार, तीन बार भी उन्हीं प्रश्नों का साक्षेप पूछा कि मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? यावत्-किस मरण से मरने से जीव बढ़ता या घटता है ? ; इतने प्रश्नों का उत्तर दो। 16. तए णं से खदए कच्चायणसगोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं घेसालोसावएणं दोच्चं पि तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिनिच्छिए मेदसमावणे कलुसमावन्ने नो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालिसावयस्स किचि वि पमोक्खमक्खाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / [16] जब वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने कात्यायन-गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से दो-तीन बार पुनः उन्हीं प्रश्नों को पूछा तो वह पुनः पूर्ववत् शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन्न तथा कालुष्य (शोक) को प्राप्त हुआ, किन्तु वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का कुछ भी उत्तर न दे सका / अत: चुप होकर रह गया / विवेचन-पिंगलक निग्रंन्य के पांच प्रश्नों से निरुत्तर स्कन्दक परिवाजक-प्रस्तुत सात सूत्रों में मुख्य प्रतिपाद्य विषय श्रावस्ती के पिंगलक निर्ग्रन्थ द्वारा स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष पांच महत्त्वपूर्ण प्रश्न प्रस्तुत करना और स्कन्दक परिव्राजक का शंकित, कांक्षित प्रादि होकर निरुत्तर हो जाना है। इसी से पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ने के लिए शास्त्रकार ने निम्नोक्त प्रकार से क्रमशः प्रतिपादन किया है 1. श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से बाहर अन्य जनपदों में विहार / 2. श्रमण भगवान् महावीर का कृतंगला नगरी में पदार्पण और धर्मोपदेश / 3. कृतंगला की निकटवर्ती श्रावस्ती नगरी के कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक का परिचय। 4. श्रावस्ती नगरी में स्थित वैशालिकश्रवणरसिक पिंगलक निर्गन्थ का परिचय / 5. पिंगलक निन्थ द्वारा स्कन्दक परिव्राजक के समक्ष उत्तर के लिए प्रस्तुत निम्नोक्त पाँच प्रश्न-(१-२-३-४) लोक, जीव, सिद्धि और सिद्ध सान्त है या अन्तरहित और (5) किस भरण से मरने पर जीव का संसार बढ़ता है, किससे घटता है ? 6. पिंगलक निग्न्थ के ये प्रश्न सुनकर स्कन्दक का शंकित, कांक्षित, विचिकित्साग्रस्त, भेदसमापन और कालुष्ययुक्त तथा उत्तर देने में असमर्थ होकर मौन हो जाना। 7. पिंगलक द्वारा पूर्वोक्त प्रश्नों को दो-तीन बार दोहराये जाने पर भी स्कन्दक परिव्राजक के द्वारा पूर्ववत् निरुत्तर होकर मौन धारण करना।' 1. भगवतीसूत्र मूलपाठ-टिप्पणयुक्त (पं. वेचरदास जी संपादित) भा. 1, पृ. 76 से 78 तक Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [173. __नो संचाएइपमोक्खमक्खाइउ-प्रमोक्ष = उत्तर (जिससे प्रश्नरूपी बन्धन से मुक्त हो सके वह-उत्तर) कह (दे) न सका।' बेसालियसावए = विशाला = महावीरजननी, उसका पुत्र वैशालिक भगवान्, उनके वचनश्रवण का रसिक = श्रावक धर्म-श्रवणेक्छुक / 2 स्कन्दक का भगवान् की सेवा में जाने का संकल्प और प्रस्थान 17. तए णं सावत्थीए नयरोए सिंघाडग जाव महापहेसु महया जणसम्महे इ वा जणबूहे इ वा परिसा निग्गच्छद / तए णं तस्स खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स बहणणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म इमेयारूवे प्रज्झथिए चितिए पत्यिए मगोगए संकापे समुपज्जित्था-- 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे, कयंगलाए नयरीए बहिया छत्तपलासए चेइए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तं गच्छामि गं, समणं भगवं महावीरं वदामि नमसामि सेयं खलु में समणं भगवं महावीरं वंदित्ता गमंसित्ता सरकारेत्ता सम्माणित्ता कल्लाणं मंगलं देवतं चेतियं पज्जुवासित्ता इमाइं च णं एयारवाई अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छित्तए' ति कटु एवं संपेहेर, 2 जेणेव परिवायावसहे तेणेव ज्वागच्छइ, 2 ता तिदंडं च कुडियं च कंचणियं च करोडियं च भिसियं च केसरियं च छन्नालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाोय पाउयाप्रो य धाउरत्ताओ य गेहइ, गेहइत्ता परिवायावसहाम्रो पडिनिक्षमई, पडिनिक्खमित्ता तिदंड-कुडिय-कंचणिय-करोडिय-भिसिय-केसरियछन्नालय-अंकुसय-पवित्तय-गणेत्तियहत्थगए छत्तोवाहणसंजुत्ते धाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नगरोए मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। [17] उस समय श्रावस्ती नगरी में जहाँ तीन मार्ग, चार मार्ग, और बहुत-से मार्ग मिलते हैं, वहाँ तथा महापथों में जनता की भारी भीड़ व्यूहाकार रूप में चल रही थी, लोग इस प्रकार बातें कर रहे थे कि 'श्रमण भगवान् महावीरस्वामी कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में पधारे हैं।' जनता (परिषद्) भगवान् महावीर को वन्दना करने के लिए निकली। उस समय बहुत-से लोगों के मुह से यह (भगवान् महावीर के पदार्पण की) बात सुनकर और उसे अवधारण करके उस कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक तापस के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक : 114 2. वही, अ. वृत्ति, पत्रांक 114-115 3. भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 114-115 में यहाँ अन्य पाठ भी उद्धृत है "जणबोले इ वा, जणकलकले इ वा, जणुम्मी इवा, जणुक्क लिया इ वा, जमसन्निवाए इबा, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४–एवं खलु देवाणु प्पिया सवणे 3 आइगरे जाव संपाविउकामे पुवाणुपुब्बि चरमाणे, गामाणुगाम दुइज्जमाणे कयंगलाए नगरीए छत्तपलासर चेइए अहापडिरूवं उग्गहं.....""जाव विहरइ / " Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर कृतंगला नगरी के बाहर छत्रपलाशक नामक उद्यान में तप-संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते (विराजमान) हैं। अत: मैं उनके पास जाऊँ, उन्हें वन्दना-नमस्कार करूं। मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को बन्दना-नमस्कार करके, उनका सत्कार-सम्मान करके, उन कल्याणरूप, मंगल रूप, देवरूप और चैत्यरूप भगवान् महावीर स्वामी की पर्यपासना करूँ, तथा उनसे इन और इस प्रकार के अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों (व्याख्याओं) आदि को पूछ। यो पूर्वोक्त प्रकार से विचार कर वह स्कन्दक तापस, जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ अाया। वहाँ आकर त्रिदण्ड, कुण्डी, रुद्राक्ष की माला (कांचनिका), करोटिका (एक प्रकार की मिट्टी का बर्तन), आसन, केसरिका (बर्तनों को साफ करने का कपड़ा), त्रिगड़ी (छन्नालय), अंकुशक (वृक्ष के पत्तों को एकत्रित करने के अंकुश जैसा साधन), पवित्री (अंगूठी), गणेत्रिका (कलाई में पहनने का एक प्रकार का आभूषण), छत्र (छाता), पगरखी, पादुका (खड़ाऊं), धातु (गैरिक) से रंगे हुए वस्त्र (गेरुए कपड़े), इन सब तापस के उपकरणों को लेकर परिव्राजकों के आवसथ (मठ) से निकला / वहाँ से निकल कर त्रिदण्ड, कुण्डी, कांचनिका (रुद्राक्षमाला), करोटिका (मिट्टी का बना हुआ भिक्षापात्र), भूशिका (आसनविशेष), केसरिका, त्रिगडी, अंकुशक, अंगूठी, और गणेत्रिका, इन्हें हाथ में लेकर, छत्र और पगरखी से युक्त होकर, तथा गेरुए (धातुरक्त) वस्त्र पहनकर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से (बीचोबीच) निकलकर जहाँ कृतंगला नगरी थी, जहाँ छत्रपलाशक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उसी ओर जाने के लिए प्रस्थान किया। विवेचन--स्कन्दक का शंका-समाधानार्थ भगवान् की सेवा में जाने का संकल्प और प्रस्थानप्रस्तुत सूत्र में शंकाग्रस्त स्कन्दक परिव्राजक द्वारा भगवान् महावीर का कृतंगला में पदार्पण सुन कर अपनी पूर्वोक्त शंकाओं के समाधानार्थ उनकी सेवा में जाने के संकल्प और अपने तापसउपकरणों-सहित उस ओर प्रस्थान का विवरण दिया गया है। श्री गौतमस्वामी द्वारा स्कन्दक का स्वागत और परस्पर वार्तालाप 18. [1] 'गोयमा !' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-दच्छिसि णं गोयमा ! पुत्वसंगतियं / [2] कं भंते ! ? खंदयं नाम / [3] से काहे वा? किह वा ? केवच्चिरेण वा? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं 2 सावत्थो नाम नगरी होत्था / वण्णो / तत्थ णं सावत्थीए नगरीए गद्दभालस्स अंतेवासी खंदए णामं कच्चायणसगोत्ते परिव्वायए परिवसइ, तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमगाए / से य प्रदूराइते बहुसंपत्ते श्रद्धाणपडिवन्ने अंतरापहे वट्टइ / प्रज्जेव णं दच्छिसि गोयमा। [4] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं वंदइ नमसइ, 2 एवं वदासी—पहू गं भंते ! खंदए कच्चायणसगोत्ते देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराम्रो प्रणगारियं पव्वइत्तए ? हंता, पभू। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [175 [18-1] (भगवान् महावीर जहाँ विराजमान थे, वहाँ क्या हुआ ? यह शास्त्रकार बताते हैं-) 'हे गौतम!', इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री इन्द्रभूति अनगार को सम्बोधित करके कहा-'गौतम ! (आज) तू अपने पूर्व के साथी को देखेगा।" [18-2] (गौतम-) भगवन् ! मैं (प्राज) किसको देखू गा ?' [भगवान्– गौतम ! तू स्कन्दक (नामक तापस) को देखेगा। [18-3 प्र.] (गौतम-) "भगवन् ! मैं उसे कब, किस तरह से, और कितने समय बाद देखूगा?" [18-3 उ०] 'गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। जिसका वर्णन जान लेना चाहिए | उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक परिव्राजक का शिष्य कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक नामक परिव्राजक रहता था। इससे सम्बन्धित पूरा वृत्तान्त पहले के अनुसार जान लेना चाहिए। यावत्---उस स्कन्दक परिव्राजक ने जहाँ मैं हूँ, वहाँ-मेरे पास पाने के लिए संकल्प कर लिया है। वह अपने स्थान से प्रस्थान करके मेरे पास पा रहा है / वह बहुत-सा मार्ग पार करके (जिस स्थान में हम हैं उससे) अत्यन्त निकट पहुँच गया है / अभी वह मार्ग में चल रहा है / वह बीच के मार्ग पर है / हे गौतम ! तू अाज ही उसे देखेगा।' [18-4 प्र. फिर 'हे भगवन् !' यों कहकर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिवाजक आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर आगार (घर) छोड़कर अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ है ?' [18-4 उ०] 'हाँ, गौतम ! वह मेरे पास अनगार धर्म में प्रवजित होने में समर्थ है / ' 16. जाव च णं समणे भगव महावीरे भगवनो गोयमस्स एयमट्ठ परिकहेइ तावच से खंदए कच्चायणसगोत्ते तं देसं हवमागते / [19] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी भगवान् गौतम स्वामी से यह (पूर्वोक्त) बात कह ही रहे थे, कि इतने में वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक उस स्थान (प्रदेश) में (भगवान् महावीर के पास) शीघ्र आ पहुँचे / 20. [1] तए णं भगव गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं प्रदूरपागयं जाणित्ता खिप्पामेव अन्भुट्ठति, खिप्पामेव पच्चुवगच्छइ, 2 जेणेव खंदए कच्चायणसगोते तेणेव उवागच्छइ, 2 ता खंदयं कच्चायणसगोतं एवं क्यासी.---'हे खंदया !, सागयं खंदया!, सुसागयं खंदया!, अणुरागयं खंदया!, सागयमणुरागयं खंदया ! / से नणं तुमं खंदया ! सायस्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खव पुच्छिए 'भागहा ! कि सअंते लोगे अणते लोगे ? एवं तं चेव' जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए / से नूणं खंदया ! प्रत्थे समत्थे ? हंता अस्थि। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते भगव गोयम एवं वयासी-से केस गं गोयमा ! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अट्ठ मम ताव रहस्सकडे हवभक्लाए, जनो णं तुम जाणसि ? / तए णं से भगव गोयमे खंदयं कच्चायणसगोत्तं एवं बयासी–एवं खलु खंदया! मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे उत्पन्नणाण-वंसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपच्चप्पन्नमणागयवियाणाए सवण्णू सव्वदरिसी जेणं ममं एस अड्डे तव ताव रहस्सफडे हव्वमक्खाए,जनो णं ग्रहं जाणामि खंदया !! [3] तए णं से खंदए फच्चायणसगोते भगव गोयम एवं वयासी-गच्छामो णं पोयमा! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वदामो णमसामो जाव पज्जुवासामो। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [4] तए णं से भगव गोयमे खंदएणं कच्चायणसगोत्तेणं सद्धि जेणेव समणे मग महावीरे तेणेव पहारेत्य गमणयाए। [20-1) इसके पश्चात् भगवान् गौतम कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को पास आया हुआ जानकर शीघ्र ही अपने प्रासन से उठे और शीघ्र ही उसके सामने गए; और जहाँ कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक था, वहाँ आए। स्कन्दक के पास आकर उससे इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक ! स्वागत है तुम्हारा, स्कन्दक! तुम्हारा सुस्वागत है ! स्कन्दक! तुम्हारा प्रागमन अनुरूप (ठीक समय पर-उचित-योग्य हुआ है / हे स्कन्दक ! पधारो ! आप भले पधारे ! (इस प्रकार श्री गौतमस्वामी ने स्कन्दक का सम्मान किया) फिर श्री गौतम स्वामी ने स्कन्दक से कहा-"स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्गन्थ ने तुम से इस प्रकार आक्षेपपूर्वक पूछा था कि हे मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? इत्यादि (सब पहले की तरह कहना चाहिए) / (पांच प्रश्न पूछे थे, जिनका उत्तर तुम न दे सके / तुम्हारे मन में शंका, कांक्षा प्रादि उत्पन्न हुए। यावत्-) उनके प्रश्नों से निरुत्तर होकर उनके उत्तर पूछने के लिए यहाँ भगवान के पास पाए हो / हे स्कन्दक ! कहो, यह बात सत्य है या नहीं ?" स्कन्दक ने कहा-"हाँ, गौतम ! यह बात सत्य है / [20-2 प्र.) फिर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार पूछा-"गौतम ! (मुझे यह बतलानो कि) कौन ऐसा ज्ञानी और तपस्वी पुरुष है, जिसने मेरे मन की गुप्त बात तुमसे शीघ्र कह दी; जिससे तुम मेरे मन की गुप्त बात को जान गए ?" [उ.] तब भगवान् गौतम ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार कहा-'हे स्कन्दक! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक, श्रमण भगवान् महावीर, उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक हैं, अर्हन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, भूत, भविष्य और वर्तमान काल के ज्ञाता हैं, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं; उन्होंने तुम्हारे मन में रही हुई गुप्त बात मुझे शीघ्र कह दी, जिससे हे स्कन्दक ! मैं तुम्हारी उस गुप्त बात को जानता हूँ। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१ ] [ 177 [20-3] तत्पश्चात् कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिबाजक ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-“हे गौतम ! (चलो) हम तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास चलें, उन्हें वन्दना-नमस्कार करें, यावत्-उनकी पर्युपासना करें।" (गौतम स्वामी-) 'हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो। (इस शुभकार्य में) विलम्ब न करो।' [20-4] तदनन्तर भगवान् गौतम स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ जाने का संकल्प किया। विवेचन–श्री गौतमस्वामी द्वारा स्कन्दक परिव्राजक का स्वागत और दोनों का परस्पर वार्तालाप-प्रस्तुत तीन सूत्रों (18 से 20 तक) में शास्त्रकार ने स्कन्दक परिव्राजक से पूर्वापर सम्बद्ध निम्नोक्त विषयों का क्रमश: प्रतिपादन किया है-- 1. श्री भगवान् महावीर द्वारा गौतमस्वामी को स्कन्दक परिव्राजक का परिचय और उसके निकट भविष्य में शीघ्र प्रागमन का संकेत / 2. श्री गौतम स्वामी द्वारा स्कन्दक के निर्ग्रन्थधर्म में प्रवजित होने की पृच्छा और समाधान / 3. श्री गौतमस्वामी द्वारा अपने पूर्वसाथी स्कन्दक परिवाजक के सम्मुख जाकर भव्य स्वागत ! 4. स्कन्दक परिव्राजक और गौतम स्वामी का मधुर वार्तालाप / 5. स्कन्दक द्वारा श्रद्धाभक्तिवश भगवान महावीर की सेवा में पहुँचने का संकल्प, श्री गौतम स्वामी द्वारा उसका समर्थन और प्रस्थान / विशेषार्थ-रहस्सकडं-गुप्त किया हुआ, केवल मन में अवधारित / ' भगवान द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकाओं का समाधान 21. तेणं कालेणं 2 समणे भगव महावीरे वियडभोई याऽवि होत्था। तए णं समणस्स भगवत्रो महाबोरस्स वियडभोगिस्स सरीरयं पोराल सिंगारं कल्लाणं सिधण्णं मंगल्लं सस्सिरीयं अगलंकियविभूतियं लक्खण-वजणगुणोक्वेयं सिरोए प्रतोव 2 उवसोभेमाणं चिटुइ / [21] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर व्यावृत्तभोजी (प्रतिदिन आहार करने वाले) थे। इसलिए व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का शरीर उदार (प्रधान), शृगाररूप, अतिशयशोभासम्पन्न, कल्याणरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, बिना अलंकार के ही सुशोभित, उत्तम लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त तथा शारीरिक शोभा से अत्यन्त शोभायमान था। 22. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवानो महावीरस्त विधडभोगिस्स सरोरयं पोरालं जाव प्रतीव 2 उवसो मेमाणं पासइ, २त्ता हतुट्टचित्तमाणदिए नंदिए पोइमणे परमसोम१. (क) भगवती गुजराती टीकानुवाद (पं. बेघरदास जी) खण्ड 1, पृ. 249-250 (ख) भगवती मूलपाठ टिप्पण (पं. बेचरदासजी) भाग 1, पृ. 80-81 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गस्सिए हरिसवस विसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणप्पयाहिणं करेइ जाव पज्जुवासइ / [22] अतः व्यावत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर के उदार यावत् शोभा से अतीव शोभायमान शरीर को देखकर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को अत्यन्त हर्ष हमा, सन्तोष हा, एवं उसका चित्त आनन्दित हा / वह प्रानन्दित, मन में प्रीतियुक्त परम सौमनस्यप्राप्त तथा हर्ष से प्रफुल्ल हृदय होता हुआ जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट आया / निकट आकर श्रमण भगवान् महावीर की दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगा। 23. 'खंदया !' ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चाय० एवं क्यासी–से नणं तुम खंदया ! सावस्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए 'मागहा ! कि सते लोए अणते लोए ?' एवं तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वभागए। से नूणं खंदया! अयम8 सम?। हंता, अस्थि / (23] तत्पश्चात् 'स्कन्दक !' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिवाजक से इस प्रकार कहा-हे स्कन्दक ! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्गन्थ ने तुमसे इस प्रकार प्राक्षेपपूर्वक पूछा था कि-मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ! प्रादि / (उसने पांच प्रश्न पूछे थे, तुम उनका उत्तर नहीं दे सके, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जान लेना) यावत्--उसके प्रश्नों से व्याकुल होकर तुम मेरे पास (उन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए) शीघ्र पाए हो। हे स्कन्दक ! क्या यह बात सत्य है / / (स्कन्दक ने कहा-) 'हाँ, भगवन् ! यह बात सत्य है।' 24. [1] जे विय ते खंदया ! अयमेयारवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था-कि सते लोए, अणते लोए ? तस्स वि य णं अयम?–एवं खलु मए खंदया ! चरविहे लोए पण्णते, तं जहा-दब्धप्रो खेत्तनो कालो भावनो। दम्वनो णं एगे लोए सअंते / खेत्तओ णं लोए प्रसंज्जालो जोयणकोडाकोडीमो प्रायाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जानो जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं 50, अत्यि पुण से अंते / कालो गं लोए ण कयावि न प्रासी न कयावि न भवति न कयाविन भविस्सति, भुवि च भवति य भविस्सह य, धुवे णियए सासते अक्खए अब्बए प्रबटिए णिच्चे, जस्थि पुण से अंते। भावो लोए प्रणता वण्णपज्जवा गंध० रस० फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अर्णता गरुयलहुयषज्नवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं खंदगा! दवो लोए सोते, खेत्तनो लोए सते, कालतो लोए अणते, मावो लोए अर्णते / 2 वि य ते खंदया ! जान सते जीवे, अणते जीवे ? तस्स वि य णं अयम एवं खलु जाव दवनोगं एगे जीवे सांते / खेत्तो गं जीवे असंखेज्जपएसिए असंखेज्जपनेसोगाढे, अस्थि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१ ] [ 179 पुण से अंते / कालो णं जीवे न कयावि न मासि जाब निच्चे, नत्थि पुणाइ से अंते। भावनो णं जोवे अणंता णाणपज्जवा प्रणेता सणपज्जवा प्रणेता चरित्तपज्जवा अणंता गरुयलहुयपज्जवा प्रशंसा अगस्यलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं दवप्रो जोवे सअंते, खेतम्रो जोवे सते, कालो जावे प्रणते, भावनो जीवे प्रणेते। [3] जे वि य ते खंदया ! पुच्छा। दश्वनो णं एगा सिद्धो सअंता; खेतप्रोणं सिद्धी सं जोयणसयसहस्साई प्रायाम-विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालोसं च जोयणसयसहस्साई तोसं च जोयणसहस्साई दोन्नि य प्रउणापन्ने जोधणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं 10, प्रत्यि पुण से अंते; कालओ गं सिद्धी न कयावि न प्रासि०; भावप्रो य जहा लोयस तहा माणियन्वा / तत्थ दव्वनो सिद्धी सअंता, खेत्तप्रो सिद्धी सांता, कालप्रो सिद्धी प्रणता, मावनो सिद्धी प्रणंता / [4] जे विय ते खंदया ! जाव कि प्रणते सिद्ध ? तं चेव जाव दव्यश्रो णं एगे सिद्ध सते; खेत्तनो णं सिद्ध प्रसंखेज्जपएसिए प्रसंखेज्जपदेसोगाढे, अस्थि पुण से अंते; कालो णं सिद्ध सादोए अपज्जवसिए, नस्थि पुण से अंते; भावमो सिद्ध प्रणंता गाणपज्जवा, प्रणंता सणपज्जवा जाव अणंता अगस्यलहुयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते / से तं दम्वनो सिद्ध सते, खेत्तयो सिद्ध सते, कालो सिद्ध अणंते, भावो सिद्ध प्रणंते / 24-1] (भगवान् ने फरमाया-) हे स्कन्दक! तुम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प, समुत्पन्न हुआ था कि 'लोक सान्त है, या अनन्त ?' उस का यह अर्थ (उत्तर) है-हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार का लोक बतलाया है, वह इस प्रकार हैद्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक / उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है, और अन्त वाला है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोड़ाकोडी योजन तक लम्बा-चौड़ा है असंख्य कोडाकोड़ो योजन को परिधि वाला है, तथा वह अन्तसहित है। काल से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसम लोक नहीं है, ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें लोक न होगा। लोक सदा था, सदा है, और सदा रहेगा / लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अन्त नहीं है / भाव से लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्श-पर्यायरूप है / इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप एवं अनन्त अगुरुलघपर्यायरूप है। उसका अन्त नहीं है। इस प्रकार हे स्कन्दक! द्रव्य-लोक क्षेत्र-लोक अन्तसहित है, काल-लोक अन्तरहित है और भावलोक भी अन्तरहित है। अतएव लोक अन्तसहित भो है और अन्तरहित भी है। [24-2] और हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यह विकल्प उठा था, कि यावत्-'जीव सान्त है या अन्तरहित है ?' उसका भी अर्थ (स्पष्टोकरण) इस प्रकार है-'यावत् द्रव्य से एक जीव अन्तसहित है। क्षेत्र से जीव असंख्य प्रदेश वाला है और असंख्य प्रदेशों का अवगाहन किये हुए है, अतः वह अन्तसहित है / काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें जीव न था, यावत्-जीव नित्य है, अन्तरहित है। भाव से-जीव अनन्त-ज्ञानपर्याय रूप है, अनन्तदर्शनपर्यायरूप है, अनन्तचारित्रपर्यायरूप है, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप है, अनन्त-अगुरुलघुपर्यायरूप है और उसका अन्त नहीं Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (अन्तरहित) है। इस प्रकारद्रव्यजीव और क्षेत्रजीव अन्तसहित है, तथा काल-जीव और भावजीव अन्तरहित है / अतः हे स्कन्दक ! जीव अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है / [24-3] हे स्कन्दक ! तुम्हारे मन में यावत् जो यह विकल्प उठा था कि सिद्धि (सिद्धशिला) सान्त है या अन्तरहित है ? उसका भी यह अर्थ (समाधान) है-हे स्कन्दक ! मैंने चार प्रकार की सिद्धि बताई है / वह इस प्रकार है--द्रव्यसिद्धि, क्षेत्रसिद्धि, कालसिद्धि और भावसिद्धि / १-द्रव्य से सिद्धि एक है, अत: अन्तसहित है। २-क्षेत्र से सिद्धि 45 लाख योजन की लम्बीचौड़ी है, तथा एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनचास योजन से कुछ विशेषाधिक (झाझेरी) है, अतः अन्त सहित है / ३-काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें सिद्धि नहीं थी, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें सिद्धि नहीं है तथा ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें सिद्धि नहीं रहेगी। अत: वह नित्य है, अन्तरहित है। ४-भाव से सिद्धि-जैसे भाव लोक के सम्बन्ध में कहा था, उसी प्रकार है। (अर्थात वह अनन्त वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुरुलघ-अगुरुलघ-पर्यायरूप है तथा अन्तरहित है। इस प्रकार द्रव्यसिद्धि और क्षेत्रसिद्धि अन्तसहित है तथा कालसिद्धि और भावसिद्धि अन्तरहित है। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्धि अन्त-सहित भी है और अन्तरहित भी है। [24-4] हे स्कन्दक ! फिर तुम्हें यह संकल्प-विकल्प उत्पन्न हुअा था कि सिद्ध अन्तसहित हैं या अन्तरहित हैं ? उसका अर्थ (सामाधान) भी इस प्रकार है-(यहाँ सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए) यावत्-द्रव्य से एक सिद्ध अन्तसहित है / क्षेत्र से सिद्ध असंख्यप्रदेश वाले तथा असंख्य आकाश-प्रदेशों का अवगाहन किये हुए हैं, अत: अन्तसहित हैं / काल से—(कोई भी एक) सिद्ध प्रादिसहित और अन्तरहित है। भाव से—सिद्ध अनन्तज्ञानपर्यायरूप हैं, अनन्तदर्शनपर्यायरूप हैं, यावत्अनन्त-अगूरुलघपर्यायरूप हैं तथा अन्तरहित हैं। अर्थात-द्रव्य से और क्षेत्र से सिद्ध अन्तसहित हैं तथा काल से और भाव से सिद्ध अन्तरहित हैं। इसलिए हे स्कन्दक ! सिद्ध अन्तसहित भी हैं और अन्तरहित भी हैं। 25. जे विय ते खंदया! इमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए जाव समुप्पज्जित्था केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे ववृति वा हायति वा ? तस्स वि य णं अयम?-एवं खलु खंदया! मए दुविहे मरणे पणत्ते, तं जहा-बालमरणे य पंडियमरणे य। 25] और हे स्कन्दक ! तुम्हें जो इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, यावत्---संकल्प उत्पन्न हुया था कि कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता है और कौन-से मरण से मरते हुए जीव का संसार घटता है ? उसका भी अर्थ (समाधान) यह है-हे स्कन्दक ! मैंने दो प्रकार के मरण बतलाए हैं। वे इस प्रकार हैं-बालमरण और पण्डितमरण / 26. से कि तंबालमरणे? बालमरणे दुवालसविहे प०, तं जहा-वलयमरणे 1 वसट्टमरणे 2 अंतोसल्लमरणे 3 तम्भवमरणे 4 गिरिपडणे 5 तरुपडणे 6 जलप्पवेसे 7 जलणष्पवेसे 8 विसमक्खणे | सत्थोवाडणे 10 वेहाणसे 11 गद्धप? 12 / इच्छेते णं खंदया! दुवालसविहेणं बालमरणेणं मरमाणे जोवे अणंतेहि नेरइयभवग्गहणेहि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [ 181 अप्पाणं संजोएइ, तिरिय० मणुय० देव 0, प्रणाइयं च णं अगवदग्गं दोहमद्ध चाउरतं संसारफतारं अणुपरियट्टइ, से तं मरमाणे वड्ढइ / से तं बालमरणे / [26] 'बह बालमरण क्या है ?' बालमरण बारह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है---(१) बलयमरण (बलन्मरण---तड़फते हुए मरना), (2) वार्तमरण (पराधीनतापूर्वक या विषयवश होकर रिब रिब कर मरना), (3) अन्तःशल्यमरण (हृदय में शल्य रखकर मरना, या शरीर में कोई तीखा शस्त्रादि घुस जाने से मरना अथवा सन्मार्ग से भ्रष्ट होकर मरना), (4) तद्भवमरण (मरकर उसी भव में पुनः उत्पन्न होना, और मरना), (5) गिरिपतन (6) तरुपतन, (7) जलप्रवेश (पानी में डूबकर मरना), (8) ज्वलनप्रबेश (अग्नि में जलकर मरना), (9) विषभक्षण (विष खाकर मरना), (10) शस्त्रावपाटन (शस्त्राघात से मरना), (11) वहानस मरण (गले में फांसी लगाने या वृक्ष आदि पर लटकने से होने वाला मरण) और (12) गध्रपृष्ठमरण (गिद्ध आदि पक्षियों द्वारा पीठ आदि शरीरावयवों का मांस खाये जाने से होने वाला मरण)। हे स्कन्दक ! इन बारह प्रकार के बालमरणों से मरता हुअा जीव अनन्त बार नारक भवों को प्राप्त करता है, तथा नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इस चातुर्गतिक अनादि-अनन्त संसाररूप कान्तार (वन) में बार-बार परिभ्रमण करता है। अर्थात्-इस तरह बारह प्रकार के बालमरण से मरता हुआ जीव अपने संसार को बढ़ाता है। यह है--वालमरण का स्वरूप / 27. से कि तं पंडियमरणे ? पंडियमरणे दुविहे प०, तं.---पायोवगमणे य भत्तपच्चवाखाणे य / [27] पण्डितमरण क्या है ? पण्डितमरण दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-पादपोषगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर (निश्चल) होकर मरना) और भक्त-प्रत्याख्यान (यावज्जीवन तीन या चारों आहारों का त्याग करने के बाद शरीर की सार संभाल करते हुए जो मृत्यु होती है)। 28. से कि तं पापोवगमणे ? पापोवगमणे दुविहे प०, तं जहा-नीहारिमे य अनीहारिमे य, नियमा अप्पडिकम्मे / से तं पानोवगमणे। [28] पादपोपगमन (मरण) क्या है ? पादपोपगमन दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-निर्हारिम और अनिर्हारिम / यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन-मरण नियम से अप्रतिकर्म होता है। यह है-पादपोपगमन का स्वरूप। 26. से कि तं भत्तच्चक्खाणे? भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पं०, तं जहा-नीहारिमे य अनोहारिमे य, नियमा सपडिकम्मे / से तं भत्तपच्चक्खाणे। [26) भक्तप्रत्याख्यान (मरण) क्या है ? भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार है--निभरिम और Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनि रिम / यह दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान-मरण नियम से सप्रतिकर्म होता है / यह है-भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप / 30. इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणतेहि नेरइयमवग्गहणेहि अप्पाणं विसंजोएइ जाव बीईवयति / से तं मरमाणे हायइ हायइ / से तं पंडियमरणे / [30] हे स्कन्दक ! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हा जीव नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता: यावत... संसाररूपी अटवी को उल्लंघन (पार कर जाता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है। यह है-पण्डितमरण का स्वरूप ! 31. इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जोवे बड्ढइ वा हायति वा / [31] हे स्कन्दक ! इन दो प्रकार (बालमरण और पण्डितमरण) के भरणों से मरते हुए जीव का संसार (क्रमश:) बढ़ता और घटता है / विवेचन-भगवान द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकानों का समाधान प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (21 से 31 तक) में स्कन्दक परिव्राजक के भगवान महावीर के पास जाने से लेकर भगवान् द्वारा उसकी मनोगत शंकाओं का विश्लेषणपूर्वक यथार्थ समाधान पर्यन्त का विवरण प्रस्तुत किया गया है / उसका क्रम इस प्रकार है (1) प्रथम दर्शन में ही स्कन्दक का भगवान के अतीव तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित, चित्त में हर्षित एवं सन्तुष्ट होना तथा भगवान् के प्रति प्रीति उत्पन्न होना। उसके द्वारा भगवान की प्रदक्षिणा, वन्दना, यावत् पर्युपासना करना / (2) भगवान् द्वारा स्कन्दक के समक्ष उसकी मनोगत बातें प्रकट करना; (3) तत्पश्चात् एक-एक करके स्कन्दक की पूर्वोक्त पांचों मनोगत शंकाओं को अभिव्यक्त करते हुए भगवान् द्वारा विश्लेषणपूर्वक अनेकान्त दृष्टि से समाधान करना / __ भगवान् द्वारा किये गये समाधान का निष्कर्ष-(१) लोक द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा अनन्त है। (2) जीव भी इसी प्रकार है / (3-4) यही समाधान सिद्धि और सिद्ध के विषय में है / (5) मरण दो प्रकार के हैं—बालमरण और पण्डितमरण / विविध बालमरणों से जीव संसार बढ़ाता है और द्विविध पण्डितमरणों से घटाता है। ___ नीहारिमे-अनीहारिम-निर्धारिम और अनियरिम, ये दोनों भेद पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान इन दोनों के हैं / निहार शब्द का अर्थ है--बाहर निकलना / निर्हार से जो निष्पन्न हो, वह निर्दारिम है। अर्थात् जो साधु उपाश्रय में ही (पूर्वोक्त दोनों पण्डितमरणों में से किसी एक से) मरण पाता है-अपना शरीर छोड़ता है। ऐसी स्थिति में उस साधु के शव को उपाश्रय से बाहर निकालकर संस्कारित किया जाता है, अतएव उस साधु का उक्त पण्डितमरण 'निहींरिम' कहलाता है / जो साधु अरण्य आदि में ही अपने शरीर को छोड़ता है-पण्डितमरण पाता है। उसके शरीर (शव) को कहीं बाहर नहीं निकाला जाता, अतः उक्त साधु का वैसा पण्डितमरण 'अनिर्झरिम' कहलाता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [ 183 इंगितमरण-यह भी पण्डितमरण है, किन्तु भक्तप्रत्याख्यानमरण का ही विशिष्ट प्रकार होने से उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। अपडिक्कम्मे-सपडिक्कम्मे-अप्रतिकर्म और सप्रतिकर्म, ये क्रमश: पादपोपगमन और भक्त. प्रत्याख्यानमरण के ही लक्षणरूप हैं। पादपोपगमनमरण में चारों प्रकार के आहार का त्याग अनिवार्य है, साथ ही वह नियमतः अप्रतिकर्म-शरीरसंस्काररहित होता है ; जबकि भक्तप्रत्याख्यान सप्रतिकर्मशरीर की सारसंभाल करते हुए होता है। _ विघडभोई-वियट्टमोई : तीन अर्थ—(१) विकट-भोजी- अचित्त भोजी, (2) व्यावृत्तभोजी सूर्य के व्यावृत्त--प्रकाशित होने पर भोजनकर्ता-प्रतिदिन दिवसभोजी और (3) व्यावृत्तभोजी = अनेषणीय आहार से निवृत्त अर्थात् एषणीय आहारभोक्ता / ' स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रवज्याग्रहण और निम्रन्थधर्माचरण ___ 32. [1] एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्ध समणं भगवं महावीरं वदह नमसइ, 2 एवं वदासी–इच्छामि णं भंते ! तुम्भ अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्म निसामेत्तए / [2] अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [32-2] (भगवान महावीर के इन (पूर्वोक्त) वचनों से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ / उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके यों कहा-'भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहता है।' [32-2] हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। 33. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स तोसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ / धम्मकहा माणियव्बा। [33] इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही। (यहाँ धर्मकथा का वर्णन (औपपातिक सत्र के अनुसार) करना चाहिए।) 34. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतु? जाव हियए उट्ठाए उठेइ, 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पद्याहिणं करेइ, 2 एवं वदासी-सहहामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोएमिनं भंते ! निगथं पावयणं, प्रभुठेमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, एवमेयं भंते! , तहमेयं भंते ! , अवितहमेयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, इच्छियमेय भंते !, पडिच्छियमेयं भंते !, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !, से जहेयं तुम्मे वदह त्ति कटु समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 उत्तरपुरस्थिमं दिसोभायं 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्रांक 118, (ख) भगवती. मू. पा. टि. भा. 1, पृ. 81, (ग) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 25. 553 (घ) पाचारांग ध्रु. 1 अ.९ में, उत्तरा. 2 / 4, तथा समवायांग 11 में 'वियड' शब्द का यही अर्थ है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून प्रवक्कमह, 2 तिदंड च कुडियं च जाव धातुरत्तानो य एगते एडेह, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेता जाव नमसित्ता एवं वदासी प्रालिस गं भंते ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, प्रालित्तपलिते णं भते ! लोए जराए मरणेण य / से जहानामए केइ गाहावती अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पसारे मोल्लगरुए तं गहाय प्रायाए एगंतमंतं प्रवक्कमई, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा यहियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सइ / एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि पाया एगे भडे इठे कतै पिए मणन्ने मणामे थेग्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणमए भडकरंडगसमाणे, मा णं सोतं, मा णं उन्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा गं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कटु, एस मे नित्यारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नौसेलाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सइ। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! सयमेव पवावियं, सयमेव मडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव प्रायार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण-करण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खिों / [34] तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्म कथा सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके अत्यन्त हषित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया / तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा-"भगवन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मुझे रुचि है, भगवन् ! निम्रन्थ प्रवचन में (प्रवजित होने के लिए) अभ्युद्यत होता हूँ (अथवा निर्गन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूँ)। हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह त्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् !, यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है। हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है।" यों कह कर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। ऐसा करके उसने उत्तरपूर्व दिशा-भाग (ईशानकोण) में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिये। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा---- 'भगवन् ! वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी अग्नि से यह लोक (संसार) आदीप्त-प्रदीप्त (जल रहा है, विशेष जल रहा) है, वह एकदम जल रहा है और विशेष जल रहा है। जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्प भार (वजन) वाले सामान को पहले बाहर निकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में जाता है। वह यह सोचता है-- (अग्नि में से बचाकर) बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में प्रागे-पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप, एवं साथ चलने वाला (अनुगामीरूप) होगा / इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन् ! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड (सामान) रूप है / यह मुझे इष्ट, कान्त, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [185 प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों (या आभूषणों) के पिटारे के समान है। इसलिए इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख-प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचाएँ, इसे डांस और मच्छर न सताएँ, तथा वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोग और आतंक (प्राणघातक रोग) परीषह और उपसर्ग इसे स्पर्श न करें, इसप्रकार मैं इनसे इसकी बराबर रक्षा करता हूँ। पूर्वोक्त विघ्नों से रक्षित किया हुआ मेरा प्रात्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप और अनुगामीरूप होगा। इसलिए भगवन् ! मैं आपके पास स्वयं प्रवजित होना, स्वयं मुण्डित होना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप स्वयं मुझे प्रवृजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएँ सिखाएं, सूत्र और अर्थ पढ़ाएँ / मैं चाहता हूँ कि आप मुझे ज्ञानादि आचार, गोचर (भिक्षाचरी), विनय, विनय का फल, चारित्र (व्रतादि) और पिण्ड-विशुद्धि आदि करण तथा संयम यात्रा और संयमयात्रा के निर्वाहक पाहारादि की मात्रा के ग्रहणरूप धर्म को कहें।' 35. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पवावेइ जाव धम्ममाइक्खइ–एवं देवाणुपिया! गंतब्वं, एवं चिट्ठियन्वं, एवं निसीतियध्वं, एवं तुट्टियव्वं, एवं भुजियन्वं, एवं भासियत. एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहि भूएहि जोवेहि सत्तेहि संजणं संजमियन्व, अस्सि च जं अट्ठ णो किचि वि पमाइयन्व। [35] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्वयंमेव कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को प्रबजित किया, यावत् स्वयमेव धर्म की शिक्षा दी कि हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार (यतना) से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए, इस प्रकार से उठकर सावधानतापूर्वक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करना चाहिये / इस विषय में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। 36. तए णं से खंदए कच्चायणसगोते समणस्स भगवनो महावीरस्स इमं एयारूव धम्मियं उवएसं सम्म संपडिवज्जति, तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयति, तह तुयट्टइ, तह भुजइ, तह भासइ, तह उट्ठाय 2 पाहि भूएहि जोहि सत्तेहिं संजमेणं संजमइ, अस्सि च णं अट्ठ णो पमायइ। [36] तब कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक मुनि ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पूर्वोक्त धार्मिक उपदेश को भलीभांति स्वीकार किया और जिस प्रकार को भगवान महावीर की आज्ञा थी, तदनुसार श्री स्कन्दक मुनि चलने लगे, वैसे ही खड़े रहने लगे, वैसे ही बैठने, सोने, खाने, बोलने आदि की क्रियाएँ करने लगे; तथा तदनुसार ही प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करने लगे / इस विषय में वे जरा-सा भी प्रमाद नहीं करते थे। 37. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए पायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिद्वारणियासमिए मणसमिए Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभचारी चाई लज्ज धण्णे खंतिखमे जितिदिए सोहिए अणियाणे अप्पुस्सुए प्रबहिल्लेस्से सुसामण्णरए दंते इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरो काउंविइरह। [37] अब वह कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक अनगार हो गए। वह अब ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति, एवं मन:समिति, वचनसमिति और कायसमिति, इन आठ समितियों का सम्यक रूप से सावधानतापूर्वक पालन करने लगे। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति से गुप्त रहने लगे, अर्थात्-मन, वचन और काया को वश में रखने लगे। वे सबको वश में रखने वाले (गुप्त) इन्द्रियों को गुप्त (सुरक्षित = वश में) रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जावान् (संयमी = सरल) धन्य (पुण्यवान् या धर्भधनवान्), क्षमावान्, जितेन्द्रिय, व्रतों आदि के शोधक (शुद्धिपूर्वक श्राचरणकर्ता) निदानरहित (नियाणा न करने वाले), आकांक्षारहित, उतावल से दूर, संयम से बाहर चित्त न रखने वाले, श्रेष्ठ साधुव्रतों में लीन, दान्त स्कन्दक मुनि इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को सम्मुख रखकर विचरण करने लगे, (अर्थात्--निर्ग्रन्थप्रवचनानुसार सब क्रियाएँ करने लगे)। विवेचन–स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रव्रज्याग्रहण एवं निर्गन्य धर्माचरणप्रस्तुत छह सूत्रों (32 से 37 तक) में शास्त्रकार ने स्कन्दक परिव्राजक के द्वारा धर्मकथाश्रवण से लेकर प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ धर्माचरण तक का विवरण प्रस्तुत किया है / यहाँ पूर्वापर सम्बद्ध विषय क्रम इस प्रकार है-स्कन्दक की धर्म-श्रवण की इच्छा, भगवान् द्वारा धर्मोपदेश, निम्रन्थ प्रवचन के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, प्रतिबोध, संसार से विरक्ति, निग्रंथ धर्म में प्रवजित करने के लिए निवेदन, भगवान द्वारा निर्गन्थधर्मदीक्षा, तत्पश्चात् निर्मन्थधर्माचरण से सम्बन्धित समिति-गुप्ति आदि की शिक्षा, आज्ञानुसार शास्त्रोक्त साध्वाचारपूर्वक विचरण इत्यादि / कठिन शब्दों की व्याख्या-पायार-गोयरं =ज्ञानादि प्राचार और गोचर (भिक्षाटन) वेणइयविनय का आचरण या विनयोत्पन्न चारित्र / जाया-मायावत्तियं संयमयात्रा, और आहारादि की मात्रादि वृत्ति, चरण = चारित्र, करण = पिण्डविशुद्धि / अप्पुस्सुए = उत्सुकतारहित / लज्जू = लज्जावान् या रज्जू (रस्सी) की तरह सरल-अवक्र।' 38. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलामो नयरीनो छत्तपलासाओ वेइयानो पडिनिक्खमइ, 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / [38] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से निकले और बाहर (अन्य) जनपदों (देशों) में विचरण करने लगे / स्कन्दक द्वारा शास्त्राध्ययन भिक्षुप्रतिमाऽऽराधन और गुणरत्नादि तपश्चरण-- 36. तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 122, (ख) भगवती टोकानुवाद (प. बंचर.) ण्ड 1, पृ. 253 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-1] [187 समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 एव वयासो-इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उबसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ___ अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेइ / [36] इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शास्त्र अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-'भगवन् ! आपकी प्राज्ञा हो तो मैं मासिकी भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ।' (भगवान्-) हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। शुभ कार्य में प्रतिबन्ध न करो (रुकावट न डालो)। 40. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अन्भणुण्णाए समाणे हट्ट जाव नमंसित्ता मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। [40] तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके अतीव हर्षित हुए और यावत् भगवान् महावीर को नमस्कार करके मासिक भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरण करने लगे। 41. [1] तए णं से खदए अणगारे मासियं भिवखुपडिमं अहासुत्तं महाकप्पं प्रहामग्गं अहातच्च अहासम्म कारण फासेति पालेति सोहेति तोरेति पूरेति किट्टेति अणुपालेइ प्राणाए पाराहेइ, काएण फासित्ता जाव पाराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगवं जाव नमंसित्ता एव वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे दोमासियं भिक्खुपडिम उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध / [2] तं चेव। [41] तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने सूत्र के अनुसार, मार्ग के अनुसार, यथातत्त्व (सत्यतापर्वक), सम्यक प्रकार से स्वीकृत मासिक भिक्षप्रतिमा का काया से स्पर्श किया, पालन किया, उसे शोभित (शुद्धता से आचरण = शोधित) किया, पार लगाया, पूर्ण किया, उसका कीर्तन (गुणगान) किया, अनुपालन किया, और आज्ञापूर्वक अाराधन किया। उक्त प्रतिमा का काया से सम्यक स्पर्श करके यावत् उसका आज्ञापूर्वक अाराधन करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और श्रमण भगवान महावीर को यावत् वन्दन-नमस्कार करके यों बोले-'भगवन् ! आपकी प्राज्ञा हो तो मैं द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा स्वीकार करके विचरण करना चाहता है।' इस पर भगवान् ने कहा- 'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब न करो।' [41-2] तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार ने द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किया। (सभी वर्णन पूर्ववत् कहना), यावत् सम्यक् प्रकार से प्राज्ञापूर्वक पाराधन किया। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 42. एवं तेमासियं चाउम्मासियं पंच-छ-सत्तमा० / पढमं सत्तराइंदियं, दोच्चं सत्तराईदियं, तच्चं सत्तरातिदियं, रातिदियं, एगराइयं / [42] इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पंचमासिकी, पाण्मासिकी एवं सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा की यथावत् आराधना की। तत्पश्चात् प्रथम सप्तरात्रि-दिवस की, द्वितीय सप्त रात्रिदिवस की एवं तृतीय सप्तरात्रि-दिवस की फिर एक अहोरात्रि की, तथा एकरात्रि की, इस तरह बारह भिक्षुप्रतिमानों का सूत्रानुसार यावत् प्राज्ञापूर्वक सम्यक् अाराधन किया। 43. तए णं से खंदए अणगारे एगराइयं भिक्खुपडिम प्रहासुत्तं जाव पाराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 समणं भगवं महावीरं जाव नमंसिता एवं वदासी इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अन्मणुष्णाए समाणे गुगरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध / [43] फिर स्कन्दक अनगार अन्तिम एकरात्रि की भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आकर उन्हें (श्रमण भगवान् महावीर को) वन्दना-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार बोले-'भगवन ! आपकी आज्ञा हो तो मैं 'गुणरत्नसंवत्सर' नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने फरमाया-'तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो; धर्मकार्य में विलम्ब न करो।' 44. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे जाव नमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तं जहा- पदम मासं चउत्थं चउत्थेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणक्कुडए सूराभिमहे पायावणभूमोए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं प्रवाउडेण य। दोच्चं मासं छट्छटठेणं अणिक्खित्तेण० दिया ठाणुक्कुए सूराभिमुहे पायावणभूमीए मायावेमाणे, रति वीरासणेणं अवाउडेण य / एव तच्चं मासं अट्टमं अट्टमेणं, चउत्थं मासं दसमं दसमेणं, पंचमं मासं बारसमं बारसमेणं, छट्ठ मासं चोद्दसम चोइसमेणं, सत्तम मासं सोलसमं 2, अनुमं मासं अट्ठारसमं 2, नवमं मासं बोसतोमं 2, दसम मास बावीसतिम 2, एक्कारसमं मासं चउन्वीसतिमं 2, बारसमं मासं छन्चीसतिम 2, तेरसमं मासं अट्ठावीसतिमं 2, चोदसमं मासं तीसतिमं 2, पानरसमं मासं बत्तीसतिम 2, सोलसमं मासं चोत्तीसतिमं 2, अनिश्वित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे पायावणभूमीए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं अवाउडेणं। [44] तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके यावत् उन्हें वन्दना-नमस्कार करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण स्वीकार करके विचरण करने लगे। जैसे कि-(गुणरत्न संवत्सर तप की विधि) पहले महीने में निरन्तर (लगातार) उपवास (चतुर्थभक्त तपःकर्म) करना, दिन में सूर्य के सम्मुख (मुख) दृष्टि रखकर आतापनाभूमि में उत्कुटुक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [189 प्रासन से बैठकर सूर्य की प्रातापना लेना और रात्रि में अपावृत (निर्वस्त्र) होकर वीरासन से बैठना एवं शीत सहन करना। इसी तरह निरन्तर बेले-बेले (छट्ठ-छट्ठ) पारणा करना / दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख रखकर पातापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शोत सहन करना। इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले-तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौलेचौले (चार-चार उपवास से) पारणा करना / पाँचवें मास में पचौले-पचौले (पांच-पांच उपवास से) पारणा करना / छठे मास में निरन्तर छह-छह उपवास करना। सातवें मास में निरन्तर सात-सात उपवास करना / पाठवे मास में निरन्तर पाठ-पाठ उपवास करना / नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ उपवास करना। दसवें मास में निरन्तर दस-दस उपवास करना / ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारहग्यारह उपवास करना / बारहवें मास में निरन्तर बारह-बारह उपवास करना / तेरहवें मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना / निरन्तर चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास करना / पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना / इन सभी में दिन में उत्कुटुक पासन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में अातापना लेना, रात्रि के समय अपावृत्त (वस्त्ररहित) होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना / 45. तए णं से खंदए प्रणगारे गुणरयणसंबच्छरं तवोकम्मं महासुत्तं महाकप्पं जाव पाराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगव महावीरं वंदई नमसइ, 2 बहि चउत्थ-छट्टष्टुम-दसम-दुवालसेहि मासऽद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [45] तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने (उपर्युक्त विधि के अनुसार) गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण (मासिक उपवास), अर्द्ध मासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। 46. तए णं से खंदए अणगारे तेणं पोरालेणं, विपुलेणं पयत्तेणं पागहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धणेणं मंगल्लेग सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महागुभागेणं तवोक्कम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मसे अद्विचम्मावणद्ध किजिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था, जीवंजीवेण गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्ठइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाति, भासं भासिस्सामीति गिलाति; से जहा नाम ए कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्ततिलभंडगसगडिया इ वा एरंडकट्टसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिग्णा सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिटुइ, एवामेव खंदए वि अणगारे ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, उवचिते तवेणं, अवचिए मंस-सोणितेणं, यासणे विव भासरासिपडिच्छन्ने, तवेणं तेएणं तवतेपासरीए प्रतीव 2 उवसोभेमाणे 2 चिटइ।। [46] इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस (पूर्वोक्त प्रकार के) उदार, विपुल, प्रदत्त (या प्रयत्न), प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त (शोभास्पद), उत्तम, उदग्न Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त), उदात्त (उज्ज्वल), सुन्दर, उदार और महाप्रभावशाली तप:कर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो गए, मांसरहित हो गए, वह (उनका शरीर) केवल हड्डी और चमड़ी से ढका हुमा रह गया / चलते समय हड्डियाँ खड़-खड़ करने लगीं, वे कृश-दुर्बल हो गए, उनको नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं, अब वे केवल जीव (आत्मा) के बल से चलते थे, जोव के बल से खड़े रहते थे, तथा वे इतने दुर्बल हो गए थे कि भाषा बोलने के बाद, भाषा बोलते-बोलते भी और भाषा बोलगा, इस विचार से भी ग्लानि (थकावट) को प्राप्त होते थे, (उन्हें बोलने में भी कष्ट होता था) जैसे कोई सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्ते, तिल और अन्य सूखे सामान से भरी हई गाड़ी हो, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हई गाड़ी हो, या कोयले से भरी हुई गाड़ी हो, सभी गाड़ियाँ (गाड़ियों में भरी सामग्री) धूप में अच्छी तरह सुखाई हुई हों और फिर चलाई जाएँ तो खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती हैं, इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते थे, खड़े रहते थे, तब खड़-खड़ आवाज होती थी। यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गए थे, तथापि बे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और रक्त क्षीण (अत्यन्त कम) हो गए थे, किन्तु राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप और तेज से तथा तप-तेज की शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित हो रहे थे। विवेचन-स्कन्दक द्वारा शास्त्राध्ययन, भिक्षुप्रतिमाऽऽराधन और गुणरत्नादि तपश्चरण-- प्रस्तुत आठ सूत्रों (36 से 46 तक) में निम्रन्थदीक्षा के बाद स्कन्दक अनगार द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना किस-किस प्रकार से की गई थी ?, उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया गया है। इनसे पूर्व के सूत्रों में स्कन्दक द्वारा प्राचरित समिति, गुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, संयम, ब्रह्मचर्य, महाव्रत, आदि चारित्रधर्म के पालन का विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है। इसलिए इन सूत्रों में मुख्यतया ज्ञान, दर्शन और तप की आराधना का विवरण दिया गया है। उसका क्रम इस प्रकार है 1. स्कन्दक ने स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / 2. तत्पश्चात् भगवान् की आज्ञा से क्रमशः मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक, षण्मासिक, सप्तमासिक, फिर प्रथम सप्तरात्रिकी, द्वितीय सप्तरात्रिकी, तृतीय सप्तरात्रिको, एक अहोरात्रिकी, एवं एकरात्रिकी, यों द्वादश भिक्षुप्रतिमा का अंगीकार करके उनकी सम्यक पाराधना की। 3. तत्पश्चात् गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का स्वीकार करके यथाविधि सम्यक् आराधना की तथा अन्य विभिन्न तपस्याओं से आत्मा भावित की। 4. इस प्रकार की प्राभ्यन्तर तपश्चरण पूर्वक बाह्य तपस्या से स्कन्दक अनगार का शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, किन्तु आत्मा अत्यन्त तेजस्वी, उज्ज्वल, शुद्ध एवं अत्यन्त लघुकर्मा बन गयो। स्कन्दक का चरित किस वाचना द्वारा अंकित किया गया?–भगवान् महावीर के शासन में 6 वाचनाएँ थीं। पूर्वकाल में उन सभी वाचनात्रों में अन्य चरितों के द्वारा वे अर्थ प्रकट किये जाते थे, जो प्रस्तुत वाचना में स्कन्दक के चरित द्वारा प्रकट किये गए हैं। जब स्कन्दक का चरित घटित हो गया, तो सुधर्मा स्वामी ने वही अर्थ स्कन्दकचरित द्वारा प्रकट किया हो, ऐसा सम्भव है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [191 भिक्षुप्रतिमा की प्राराधना-निर्ग्रन्थ मुनियों के अभिग्रह (प्रतिज्ञा) विशेष को भिक्षुप्रतिमा कहते हैं / ये प्रतिमाएँ बारह होती हैं, जिनकी अवधि का उल्लेख मूल पाठ में किया है / भिक्षुप्रतिमाधारक मुनि अपने शरीर को संस्कारित करने का तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर देता है। वह अदीनतापूर्वक समभाव से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च-सम्बन्धी उपसर्गों को सहता है। जहाँ कोई जानता हो, वहाँ एक रात्रि और कोई न जानता हो, वहाँ दो रात्रि तक रहे, इससे अधिक जितने दिन तक रहे, उतने दिनों के छेद या तप का प्रायश्चित्त ग्रहण करे / प्रतिमाधारी मुनि चार प्रकार की भाषा बोल सकता है-याचनी, पृच्छनी, अनुज्ञापनी (स्थान आदि की आज्ञा लेने हेतु) और पृष्टव्याकरणी (प्रश्न का उत्तर देने हेतु)। उपाश्रय के अतिरिक्त मुख्यतया तीन स्थानों में प्रतिमाधारक निवास करे-(१)अध: आरामगृह (जिसके चारों ओर बाग हो), (2) अधोविकटगृह (जो चारों ओर से खुला हो, किन्तु ऊपर से आच्छादित हो), और (3) वृक्षमूल गृह / तीन प्रकार के संस्तारक ग्रहण कर सकता है -पृथ्वीशिला, काष्ठशिला या उपाश्रय में पहले से बिछा हुआ तृण या दर्भ का संस्तारक / उसे अधिकतर समय स्वाध्याय या ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। कोई व्यक्ति प्राग लगाकर जलाए या वध करे, मारे-पीटे तो प्रतिमाधारी मुनि को आक्रोश या प्रतिप्रहार नहीं करना चाहिए / समभाव से सहना चाहिए। विहार करते समय मार्ग में मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, सांड या भैंसा अथवा सिंह, व्याघ्र, सूअर आदि हिंस्र पशु सामने आ जाए तो प्रतिमाधारक मुनि भय से एक कदम भी पीछे न हटे, किन्त मग आदि कोई प्राणो डरता हो तो चार कदम पीछे हट जाना चाहिए। प्रतिमाधारी मुनि को शीतकाल में शीतनिवारणार्थ ठंडे स्थान से गर्म स्थान में तथा ग्रीष्मकाल में गर्म स्थान से ठंडे स्थान में नहीं जाना चाहिए, जिस स्थान में बैठा हो, वहीं बैठे रहना चाहिए। प्रतिमाधारी साधु को प्रायः अज्ञात कुल से और प्राचारांग एवं दर्शवकालिक में बताई हुई विधि के अनुसार एषणीय कल्पनीय निर्दोष भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। छह प्रकार की गोचरी उसके लिए बताई है --1. पेटा, 2. अर्धपेटा, 3. गोमूत्रिका, 4. पतंगवीथिका, 5. शंखावर्ता और 6. गतप्रत्यागता ! प्रतिमाधारी साधु तीन समय में से किसी एक समय में भिक्षा ग्रहण कर सकता है-(१) दिन के आदिभाग में (2) दिन के मध्यभाग में और (3) दिन के अन्तिम भाग में। पहली प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक उत्तरोत्तर एक-एक मास की अवधि और एक-एक दत्ति आहार और पानी की क्रमश: बढाता जाए / पाठवीं प्रतिमा सात दिनरात्रि की है, इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करके गाँव के बाहर जाकर उत्तानासन या पाश्र्वासन से लेटना या निषद्यासन से बैठकर ध्यान लगाना चाहिए / उपसर्ग के समय दृढ़ रहे / मल-मूत्रादि वेगों को न रोके / सप्त अहोरात्रि की नौवीं प्रतिमा में ग्रामादि के बाहर जाकर दण्डासन या उत्कुटुकासन से बैठना चाहिए / शेष विधि पूर्ववत् है / सप्त अहोरावि की दसवीं प्रतिमा में ग्रामादि से बाहर जाकर गोदोहासन, वीरासन या अम्बकुब्जासन से ध्यान करे / शेष विधि पूर्ववत् / एक अहोरात्रि की ग्यारहवी प्रतिमा (8 प्रहर की) में चौविहार बेला करके ग्रामादि के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित करके हाथों को घुटने तक लम्बे करके कायोत्सर्ग करे / शेषविधि पूर्ववत् / एक रात्रि को बारहवीं प्रतिमा में चौविहार तेला करके ग्रामादि से बाहर जाकर एक पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि स्थिर करके पूर्ववत् कायोत्सर्ग करना होता है / यद्यपि यह प्रतिमा जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक के ज्ञान वाला कर सकता है, तथापि स्कन्दक मुनि ने साक्षात् तीर्थंकर भगवान की प्राज्ञा से ये प्रतिमाएँ ग्रहण की थीं / पंचाशक में प्रतिमा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ग्रहण करने से पूर्व उतनी अवधि तक उसके अभ्यास करने तथा सबसे क्षमापना करके निःशल्य, निष्कषाय होने का उल्लेख है।' गुणरत्न (गुणरचन) संवत्सर तप-जिस तप में गुणरूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाए वह गुणरत्न संवत्सर तप कहलाता है। अथवा जिस तप को करने में 16 मास तक एक ही प्रकार की निर्जरारूप विशेष गुण की रचना (उत्पत्ति) हो, वह गुणरचन-संवत्सर तप है / इस तप में 16 महीने लगते हैं जिनमें से 407 दिन तपस्या के और 73 दिन पारणे के होते हैं / शेष सब विधि मूलपाठ में है। उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत : तपोविशेषणों की व्याख्या-उदार-लौकिक आशारहित होने से उदार, विपुल–दीर्घकाल तक चलने वाला होने से विपुल, प्रदत्त प्रमाद छोड़कर अप्रमत्ततापूर्वक प्राचरित होने से प्रदत्त तथा प्रगृहीत-बहुमानपूर्वक आचरित होने से प्रगृहीत कहलाता है / उत्तमउत्तम पुरुषसेवित, या तम-अज्ञान से ऊपर / स्कन्दक द्वारा संलेखना-भावना, अनशन-ग्रहण, समाधि-मरण 47. तेणं कालेणं 2 रायगिहे नगरे जाव समोसरणं जाव परिसा पडिगया। [47] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई / यावत् जनता भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर वापिस लौट गई। 48. तए णं तस्स खंदयस्स प्रणगारस्स अण्णया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूबे अज्झस्थिए चितिए जाव (सु. 17) समुप्पज्जिस्था-"एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं मोरालेणं जाव (सु. 46) किसे धमणिसंतए जाते जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, जाव गिलामि, जाव (सु. 46) एवामेव अहं पि ससई गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं अस्थि ता मे उटाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तं जावता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले बौरिए पुरिसक्कारपरक्कमे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहर इ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमलकोमलुम्मिल्लियम्मि प्रहपंडरे पभाए रत्तासीयपकासकिसुय-सुयमुह-गुजऽद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणय रे तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, समणेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे सयमेव पंच महन्वयाणि आरोवेत्ता, समणा य समणीनो य खामेत्ता, तहारूदेहि थेरेहि कडाईहिं सद्धि विपुलं पन्वयं सणियं दुरूहित्ता, मेघधणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढवोसिलावट्टयं पडिले हित्ता, दम्भसंथारयं संथरित्ता, दब्भसंथारोवगयस्सं संलेहणाझसणाभूसियस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स पायोवगयस्स कालं प्रणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 त्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति / 1. (क) दशाशु तस्तकन्ध अ. के अनुसार। (ख) हरिभद्रसूरि रचित पंचाशक, पंचा. 18, गा. 5,7 (ग) विशेषार्थ देखें-ग्रापारदमा 7 (मुनि कन्हैयालालजी कमल) 2. भगवती, अ. बृत्ति, पत्रांक 124-125 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] {193 [48 ] तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पिछले पहर में धर्म-जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय. चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस (पूर्वोक्त) प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली तपःकर्म द्वारा शुष्क, रूक्ष यावत् कृश हो गया हूँ / यावत् मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया, मैं केवल आत्मबल से चलता है और खड़ा रहता हूँ। यहाँ तक कि बोलने के बाद, बोलते समय और बोलने से पूर्व भी मुझे ग्लानि--खिन्नता होती है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह चलते और खड़े रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़-खड़ आवाज होती है। अत: जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम है, जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर सुहस्ती (गन्धहस्ती) की तरह (या भव्यों के लिए शुभार्थी होकर) विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेयस्कर है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कोमल उत्पल कमलों को विकसित करने वाले, क्रमशः पाण्डुरप्रभा से रक्त अशोक के समान प्रकाशमान, टेसू के फूल, तोते की चोंच, गुजा के अर्द्ध भाग जैसे लाल, कमलवनों को विकसित करने वाले, सहस्ररश्मि, तथा तेज से जाज्वल्यमान दिनकर सूर्य के उदय होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके श्रमण भगवान् महावीर की प्राज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का प्रारोपण करके, श्रमण-श्रमणियों के साथ क्षमापना करके कृतादि ( प्रतिलेखना आदि धर्म क्रियाओं में कुशल = 'कृत' या 'कृतयोगी',-'प्रादि पद से धर्मप्रिय, धर्मदढ़, सेवासमर्थ आदि) तथारूप स्थविर साधुओं के साथ विपुलगिरि पर शनैः शनै: चढ़कर, मेघसमूह के समान काले, देवों के अवतरणस्थानरूप पृथ्वो शिलापट्ट की प्रतिलेखना करके, उस पर डाभ (दर्भ) का संथारा (संस्तारक) निछाकर, उस दर्भ संस्तारक पर बैठकर प्रात्मा को संलेखना तथा झोषणा से युक्त करके, आहार-पानी का सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई डाली के समान स्थिर रहकर) संथारा करके, मृत्यु को प्राकांक्षा न करता हुआ विचरण करूं। इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (विचार) किया और रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आकर उन्हें वन्दना-नमस्कार करके यावत् पर्युपासना करने लगे। 46. 'खंदया!' इ समणे भगवं महावीरे खंदयं प्रणगारं एवं वयासी–से नणं तव खंदया ! पुवरत्तावरत जाव (सु. 48) जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव (सु. 17) समुपज्जित्था'एवं खलु अहं इमेणं एयारवेणं पोरालेणं विपुलेणं तं चेव जाव (सु. 48) कालं प्रणवकंखमाणस्त विहरित्तए त्ति कटु' एवं संपेहेसि, 2 कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलते जेणव मम अंतिए तेणेव हत्यमागए / से नूणं खंदया ! अट्ठ सम?? हंता, अस्थि / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [46] तत्पश्चात् 'हे स्कन्दक !' यो सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा- "हे स्कन्दक ! रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा करते हुए तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि इस उदार यावत् महाप्रभावशाली तपश्चरण से मेरा शरीर अब कृश हो गया है, यावत् अब मैं संलेखना-संथारा करके मृत्यु की आकांक्षा न करके Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पादपोपगमन अनशन करूं / ऐसा विचार करके प्रातःकाल सूर्योदय होने पर तुम मेरे पास आए हो। हे स्कन्दक ! क्या यह सत्य है ?" (स्कन्दक अनगार ने कहा-) हाँ, भगवन् ! यह सत्य है / (भगवान्--) हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो; इस धर्मकार्य में विलम्ब मत करो। 50. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अम्भणुष्णाए समाणे हद्वतुढ० जाव हयहियए उट्ठाए उठेइ, 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पाहिणं करेइ जाव' नमंसित्ता सयमेव पंच महच्चयाई प्रारहेइ, 2 त्ता समणे य समणोनो य खामेइ, 2 ता तहारूवेहि थेरेहि कडाऽऽईहि सद्धि विपुलं पव्वयं सणियं 2 दुल्हेइ, 2 मेघघणसनिगासं देवसनिवार्य पुढविसिलावट्टयं पडिलेहेइ, 2 उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, 2 दम्भसंथारयं संथरेइ, 2 दम्मसंथारयं दुरूहेइ, 2 दन्भसंथारोवगते पुरस्थाभिमुहे संपलियकनिसपणे करयलपरिग्गाहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वदासि-नमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, बंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगते, पासउ में भयव तत्थगए इहायं ति कट्ट बंदइ नमसति, 2 एवं वदासी-"पुवि पि मए समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए सब्वे पाणातिवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जा मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणि पि य णं समणस भगवनो महावीरस्स अंतिए सव्व पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए जाव' मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि / एवं सम्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चम्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए / जंपि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं जाव कुसंतु त्ति कटु एवं पिणं चरिमेहि उस्सासनीसालेहि वोसिरामि" त्ति कटु सलेहणाभूसणाझसिए भत्त-पाणपडियाइक्खिए पायोवगए काल प्रणवकखमाणे विहरति / [50] तदनन्तर श्री स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर अत्यन्त हर्षित, सन्तुष्ट यावत् प्रफुल्लहृदय हुए। फिर खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पांच महाव्रतों का प्रारोपण किया। फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, और तथारूप योग्य कृतादि स्थविरों के साथ शनै:शनैः विपुलाचल पर चढ़े। वहाँ मेघ-समूह के समान काले, देवों के उतरने योग्य स्थानरूप एक पृथ्वी-शिलापट्ट की प्रतिलेखना की तथा उच्चार-प्रस्रवणादि परिष्ठापन भूमि की प्रतिलेखना की। 1. यहाँ 'जाव' पद 'बंद' बंदित्ता नमसई पाठ का सूचक है। 2. यहाँ जाव 'पद' 'आइगराणं' से 'संपत्ताणं' तक के पाठ का सूचक है। 3. यहाँ जाव शब्द 'मुसावाए' से लेकर 'मिच्छादसणसल्ल' तक 18 पापस्थानवाचक पदों का सूचक है। 4. 'जाव पद 'मणन्ने मणामे धेज्जे वेसासिए सम्मए बहमए अणमए भंडकरंडगसमाणे इत्यादि द्वितीयान्त पाठ का सूचक है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [195 ऐसा करके उस पृथ्वोशिलापट्ट पर डाभ का संथारा बिछाकर, पूर्वदिशा की ओर मुख करके, पर्यकासन से बैठकर, दसों नख सहित दोनों हाथों को मिलाकर मस्तक पर रखकर, (मस्तक के साथ) दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले-'अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, उन्हें नमस्कार हो / तथा अविचल शाश्वत सिद्ध स्थान को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो / (अर्थात् 'नमोत्थु णं' के पाठ का दो बार उच्चारण किया / ) तत्पश्चात् कहा-वहाँ रहे हुए भगवान् महावीर स्वामी को यहाँ रहा हुआ (स्थित) मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ विराजमान श्रमण भगवान महावीर स्वामी यहां पर रहे हुए मुझ को देखें।' ऐसा कहकर भगवान् को वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-~-'मैंने पहले भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात का त्याग किया था, यावत मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह ही पापों का त्याग किया था। इस समय भी श्रमण भगवात महावीर स्वामी के पास यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह हो पापों का त्याग करता हूँ। और यावज्जीवन के लिए अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करता हूँ। तथा यह मेरा शरीर, जो कि मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय है, यावत् जिसकी मैंने बाधा-पोड़ा, रोग, अातंक, परीषह और उपसर्ग आदि से रक्षा की है, ऐसे शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक व्युत्सर्ग (ममत्व-विसर्जन करता हूँ, यों कहकर संलेखना संथारा करके, भक्त-पान का सर्वथा त्याग करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा की तरह स्थिर रहकर) अनशन करके मृत्यु को आकांक्षा न करते हुए विचरण करने लगे। 51. तए ण से खदए अणगारे समणस्स भगवश्री महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमादियाई एक्कारस्स अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताणं झसित्ता ट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपते प्राणुपुवीए कालगए। 51] इसके पश्चात् स्कन्दक अनगार, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के तथारूप स्थविरों के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन पूरे बारह वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके, एक मास की संलेखना से अपनी आत्मा को संलिखित (सेवित - युक्त) करके साठ भक्त का त्यागरूप अनशन करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके क्रमशः कालधर्म (मरण) को प्राप्त हुए। 52. तए णं ते थेरा भगवतो खंदयं अणगारं कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग करेंति, 2 पत्त चोवराणि गिण्हंति, 2 विपुलाओ पब्बयाओ सणियं 2 पच्चोरहंति, 2 जेणेव समणे भगव महाबीरे तेणेव उवागच्छंति, 2 समर्थ भगवं महावीरं वदंति नमसंति, 2 एवं वदासीएवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे पगइभद्दए पगतिविणीए पगतिउवसंते पगतिपणुकोह-माण-माया-लोभे मिउ-मद्दवसंपन्ने अल्लोणे भइए विणोए / से णं देवाणुप्रिएहि अभYण्णाए समाणे सयमेव पंच महब्वयाणि पारोवित्ता समणे य समणोप्रो य खामेत्ता, अम्हेहि सद्धि विधुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव (सु. 50) अहाणुपुब्बीए कालगए / इमे य से पायारभंडए / [52] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने स्कन्दक अनगार को कालधर्म प्राप्त हुआ जानकर Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनके परिनिर्वाण (समाधिपरण) सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र (चीवर) प्रादि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे उतरे / उतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ भाए / भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा-हे भगवन् ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति के विनीत. स्वभाव से उपशान्त, अल्पक्रोध-मान-माया-लोभ वाले, कोमलता और युक्त, इन्द्रियों को वश में करने वाले. भद्र और विनीत थे, वे आपकी प्राज्ञा लेकर स्वयमेव पंचमहावतों का आरोपण करके, साधुसाध्वियों से क्षमापना करके, हमारे साथ विपूलगिरि पर गये थे, यावत् वे पादपोपगमन संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं / ये उनके धर्मोपकरण हैं। विवेचन---स्कन्दमुनि द्वारा संल्लेखनाभावना, अनशन ग्रहण और समाधिमरण--प्रस्तुत पांच सूत्रों (47 से 51 तक) में स्कन्दमुनि द्वारा संल्लेखनापूर्वक भक्तप्रत्याख्यान अनशन की भावना से लेकर उनके समाधिमरण तक का वर्णन किया गया है। संल्लेखना-संथारा (अनशन) से पूर्वापर सम्बन्धित विषयक्रम इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-(१) धर्म जागरणा करते हुए स्कन्द कमुनि के मन में संल्लेखनापूर्वक पादपोपगगन संथारा करने की भावना, (2) भगवान् से संल्लेखना-संथारा करने की अनुज्ञा प्राप्त की, (3) समस्त साधु-साध्वियों से क्षमायाचना करके योग्य स्थविरों के साथ विपुलाचल पर प्रारोहण, एक पृथ्वीशिलापट्ट पर दर्भसंस्तारक, विधिपूर्वक यावज्जीव संलेखनापूर्वक अनशन ग्रहण किया (4) एक मास तक संल्लेखना-संथारा की आराधना करके समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त हुए। (5) तत्पश्चात् उनके साथी स्थविरों ने उनके अवशिष्ट धर्मोपकरण ले जाकर भगवान को स्कन्दक अनगार की समाधिमरण प्राप्ति की सूचना दी / कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ---फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि= कोमल उत्पलकमलों के विकसित हो जाने पर ! अहापंडुरे पभाए= निर्मल प्रभात हो जाने पर / पाउप्पभायाए = प्रातःकाल / कडाइ-कृत योगी आदि प्रतिलेखनादि या आलोचन-प्रतिक्रमणादि योगों (क्रियाओं) में जो कृत= कुशल हैं, वे कृतयोगी आदि शब्द से प्रियधर्मी या दढ़धर्मी / संपलि अंनिसन्ने = पदमासन (पर्यका. सन) से बैठे हुए / संलेहणाझसणाझसियस्स-जिसमें कषायों तथा शरीर को कृश किया जाता है, वह है संल्लेखना तप, उसकी जोषणा-सेवना से जुष्ट-सेवित अथवा जिसने संल्लेखना तप की सेवा से कर्म क्षपित (भूषित) कर दिये हैं / सद्धिभत्ताई अणसणाए इत्ता= अनशन से साठ भक्त (साठ वार-टंक भोजन) छोड़कर / परिणिध्वाणवत्तियं - परिनिर्वाण = मरण अथवा मृतशरीर का परिष्ठापन / वही जिसमें निमित्त है -वह परिनिर्वाण प्रत्ययिक / ' स्कन्दक की गति और मुक्ति के विषय में भगवत-कथन 53. "भते !' ति भगव गोयमें समणं भगव महावीरं वंदति नमसति, 2 एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहि गए, कहि उववणे? ... .-.-- --- ---- -- - 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्रांक 126 से 129 तक Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [197 'गोयमा !' इसमणे भगव महावीरे भगव गोयम एवं क्यासी - एव खलु गोयमा ! मम अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव से गं मए प्रभणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महत्वयाई प्रारोक्त्तिा तं चेव सब अविसेसियं नेयव्य जाब (सु. 50-51) पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववष्णे। तत्थ ण एगइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिती प० / तत्थ णं खंदधस्स वि देवस्स बावीसं सागरोबमाइं ठिती पणत्ता। [53] इसके पश्चात् भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दनानमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! आपके शिष्य स्कन्दक अनगार काल के अवसर पर कालधर्म को प्राप्त करके कहाँ गए और कहाँ उत्पन्न हुए ?' उ०] गौतम आदि को सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने फरमाया'हे गौतम ! मेरा शिष्य स्कन्दक अनगार, प्रकृतिभद्र यावत विनीत मेरी प्राज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहावतों का ग्रारोपण करके, यावत् संल्लेखना-संथारा करके समाधि को प्राप्त होकर काल के अवसर पर काल करके अच्युतकल्प (देवलोक) में देवरूप में उत्पन्न हुया है। वहाँ कतिपय देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की है / तदनुसार स्कन्दक देव की स्थिति भी वाईस सागरोपम की है। 54. से णं भंते ! खंदए देवे तानो देवलोगानो प्राउक्खएणं भवक्खएणं ठितीखएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहि उक्वजिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुझिहिति मुच्चिहि ति परिनिवाहिति सम्वदुक्खाणमंतं करेहिति / खंदप्रो सनत्तो।। / वितीय सए पढमो उद्दसो समत्तो।। [54] तत्पश्चात् श्री गौतमस्वामी ने पूछा-'भगवन् ! स्कन्दक देव वहाँ की आयु का क्षय, भव का क्षय और स्थिति का क्षय करके उस देवलोक से कहाँ जाएँगे और कहाँ उत्पन्न होंगे?' (उ०] गौतम ! स्कन्दक देव वहाँ की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर महाविदेहवर्ष (क्षेत्र) में जन्म लेकर सिद्ध होंगे, वुद्ध होंगे, मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त करेंगे और सभी दुःखों का अन्त करेंगे। श्री स्कन्दक का जीवनवृत्त पूर्ण हुमा / विवेचन-स्कन्दक को गति और मुक्ति के विषय में भगवत्कथन--प्रस्तुत सूत्रद्वय (5354 सू.) में समाधिमरण प्राप्त स्कन्दकमुनि की भावी गति के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्नों का भगवान् द्वारा प्रदत्त उत्तर अंकित है। भगवान् ने समाधिमरण प्राप्त स्कन्दक मुनि की गति (उत्पत्ति) अच्युतकल्प देवलोक में बताई है तथा वहाँ से महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि मुक्ति गति बताई है / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूब कहिं गए ? कहि उववण्णे ? = कहाँ-किस गति में गए ? कहाँ-किस देवलोक में उत्पन्न हुए ? चयं चइत्ता=चय = शरीर को छोड़कर / 'प्राउक्खएणं, भवक्खएणं ठिइक्खएणं' की व्याख्या--प्राउक्खएणं = अायुष्यकर्म के दलिकों की निर्जरा होने से, भवखएणं = देव भव के कारणभूत गत्यादि (नाम) कर्मों की निर्जरा होने से, ठिइक्खएणं - आयुष्यकर्म भोग लेने से स्थिति का क्षय होने के कारण / ' // द्वितीय शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ उद्देसो : समुग्घाया द्वितीय उद्देशक : समुद्घात समुद्घात : प्रकार तथा तत्सम्बन्धी विश्लेषण 1- कति णं भंते ! समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा! सत्त समुग्घाया पण्णता, तं जहा-छाउमत्थियसमुग्घायावज्ज समुग्घायपदं पव्वं / [तं०-वेदणासमुग्धाए / एवं समुग्घायपदं छातुमत्थियसमुग्घातवज्जं भाणियव जाव वेमाणियाणं कसायसमग्घाया अप्पाबहुयं / अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलोसमुग्धाय जाव सासयमणागयद्ध चिट्ठति / '] // वितीय सए बितीयो उद्दे सो समत्तो।। [1 प्र.] भगवन् ! कितने समुद्घात कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! समुद्घात सात कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) वेदना-समुद्घात् (2) कषाय-समुद्घात, (3) मारणान्तिक-समुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तेजस-समुद्घात, (6) आहारक-समुद्घात और (7) केवलि-समुद्घात / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवाँ समुद्घातपद कहना चाहिए, किन्तु उस में प्रतिपादित छद्मस्थ समुद्घात का वर्णन यहाँ नहीं कहना चाहिए / और इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए, तथा कषाय-समुद्घात और अल्पबहुत्व कहना चाहिए [प्र.] हे भगवन् ! भावितात्मा अनगार के क्या केवली-समुद्घात यावत् समग्न भविष्यकालपर्यन्त शाश्वत रहता है ? [उ.] हे गौतम ! यहाँ भी उपर्युक्त कथनानुसार समुद्घातपद जान लेना चाहिए। (अर्थात्यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घातपद के सू. 2168 से सू. 2176 तक में उल्लिखित सासयमणागयद्ध कालं चिकृति तक का सारा पाठ (वर्णन) समझ लेना चाहिए। विवेचन--समुद्घात : प्रकार तथा तत्सम्बन्धी विश्लेषण- प्रस्तुत उद्देशक में एक ही सूत्र में समुद्घात के प्रकार, उसके अधिकारी, तथा उसके कारणभूत कर्म एवं परिणाम का निरूपण है, किन्तु वह सब प्रज्ञापना सूत्र के 363 पद के अनुसार जानने का यहाँ निर्देश किया गया है / 1. यह पाठ बहुत-सी प्रतियों में है / पं० बेचरदासजी सम्पादित भगवती टीकानुवाद में भी यह पाठ है। 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1 पृ. 237 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुद्घात-वेदना आदि के साथ एकाकार (लीन या संमिश्रित) हुए आत्मा का कालान्तर में उदय में आने वाले (आत्मा से सम्बद्ध) वेदनीय ग्रादि कर्मों को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर प्रबलतापूर्वक घात करना-उनकी निर्जरा करना समुद्घात कहलाता है। आत्मा समद्घात क्यों करता है ? ---जैसे किसी पक्षी को पाँखों पर बहुत धूल चढ़ गई हो, तब वह पक्षी अपनी पाँखें फैला (फड़फड़ा) कर उस पर चढ़ी हुई धूल झाड़ देता है, इसी प्रकार यह प्रात्मा, बद्ध कर्म के अणों को झाड़ने के लिए समदघात नाम की क्रिया करता है। प्रात्मा असंख्यप्रदेशी होकर भी नामकर्म के उदय से प्राप्त शरीर-परिमित होता है। आत्मीय प्रदेशों में संकोचविकासशक्ति होने से जीव के शरीर के अनुसार वे व्याप्त होकर रहते हैं। प्रात्मा अपनी विकास शक्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो सकता है / कितनी ही बार कुछ कारणों से प्रात्मा अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर भी फैलाता है और वापिस सिकोड़ (समेट) लेता है। इसी क्रिया को जैनपरिभाषा में समुद्घात कहते हैं / ये समुद्घात सात हैं / 1. वेदनासमदघात-वेदना को लेकर होने वाले समुद्धात को वेदनासमुद्घात कहते हैं, यह असातावेदनीय कर्मों को लेकर होता है। तात्पर्य यह है कि वेदना से जब जीव पीड़ित हो, तब वह अनन्तानन्त (सातावेदनीय) कर्मस्कन्धों से व्याप्त अपने प्रात्मप्रदेशों को शरीर से बाहर के भाग में भी फैलाता है। वे प्रदेश मुख, उदर आदि के छिद्रों में, तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भरे रहते हैं। तथा लम्बाई-चौड़ाई (विस्तार) में शरोरपरिमित क्षेत्र में व्याप्त होते हैं / जीव एक अन्तर्मुहूर्त तक इस अवस्था में ठहरता है। उस अन्तर्मुहूर्त में वह असातावेदनीय कर्म के प्रचुर पुद्गलों को (उदीरणा से खींचकर उदयापलिका में प्रविष्ट करके वेदता है, इस प्रकार) अपने पर से झाड़ देता (निर्जरा कर लेता) है / इसी क्रिया का नाम वेदनासमुद्घात है। 2. कषायसमुद्धात-क्रोधादि कषाय के कारण मोहनीयकर्म के आश्रित होने वाले समुद्घात को कषायसमुद्घात कहते हैं। अर्थात् तीव्र कषाय के उदय से ग्रस्त जीव जब क्रोधादियुक्त दशा में होता है, तब अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाकर तथा उनसे मुख, पेट ग्रादि के छिद्रों में एवं कान तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तरालों में भर कर शरीर परिमित लम्बे व विस्तत क्षेत्र में व्याप्त होकर जीव अन्तमुहूर्त तक रहता है, उतने समय में प्रचुर कषाय-पुद्गलों को अपने पर से झाड़ देता हैनिर्जरा कर लेता है / वही क्रिया कषायसमुद्घात है। 3. मारणान्तिक-समद्धात-मरणकाल में अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट प्रायुकर्म के प्राश्रित होने वाले समुद्घात को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। आयुष्य (कर्म) भोगते-भोगते जब अन्तर्मुहूर्त भर आयुष्य शेष रहता है, तब अपने प्रात्मप्रदेशों को बाहर निकालता है। वे प्रदेश मुख और उदर के छिद्रों तथा कर्मस्कन्धादि के अन्तराल में भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर की अपेक्षा कम से कम अंगुल के असंख्यात भाग जितनी मोटी और अधिक से अधिक असंख्य योजन मोटी जगह में व्याप्त होकर जीव अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उतने समय में आयुष्यकर्म के प्रभूत पुद्गलों को अपने पर से झाड़ कर आयुकर्म की निर्जरा कर लेता है, इसी क्रिया को मारणान्तिक-समुद्घात कहते हैं। 4. वैक्रिय-समुद्घात–विक्रियाशक्ति का प्रयोग प्रारम्भ करने पर वैक्रियशरीरनामकम के आश्रित होने वाला समुद्घात / वैक्रिय लब्धि वाला जीव अपने जीर्ण प्रायः शरीर को पुष्ट एवं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-२] [201 सुन्दर बनाने की इच्छा से अपने आत्मप्रदेशों को बाहर एक दंड के आकार में निकालता है / उस दण्ड को चोड़ाई प्रोर मोटाई तो अपने शरोर जितनो हो होने देता है, किन्तु लम्बाई : संख्येय योजन करके वह अन्तर्मुहूर्त तक टिकता है और उतने समय में पूर्वबद्व वैक्रियशरीर नामकर्म के स्थूलपुद्गलों को अपने पर से झाड़ देता है और अन्य नये तथा सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है / यही वैक्रिय-समुद्बात है। 5. तेजस्समुद्घात-तपस्वियों को प्राप्त होने वाली तेजोलेश्या (नाम को विभूति) का जब विनिर्गम होता है, तब 'तैजस-समुद्घात' होता है, जिसके प्रभाव से तेजस् शरीर नामकर्म के पुद्गल आत्मा से अलग होकर बिखर जाते हैं। अर्थात्-तेजोलेश्या को लब्धि वाला जीव 7-8 कदम पीछे हटकर घेरे और मोटाई में शरीरपरिमित और लम्बाई में संख्येय योजन परिमित जीवप्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकालकर क्रोध के वशीभूत होकर जीवादि को जलाता है और प्रभूत तेजस् शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। 6. आहारक-समघात-चतुर्दशपूर्वधर साधु का प्राहारक शरीर होता है। आहारक लब्धिधारी साधु आहारक शरीर की इच्छा करके विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमित और लम्बाई में संख्येय योजन परिमित अपने आत्मप्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर पूर्वबद्ध एवं अपने पर रहे हुए प्राहारक-शरीर नामकर्म के पुद्गलों को झाड़ देता (निर्जरा कर लेता) है। 7. केवलि-समुद्घात–अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवली भगवान् के समुद्घात को केवलिसमुद्घात कहते हैं। वह वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म को विषय करता है। अन्तमुहर्त में मोक्ष प्राप्त करने वाले केवलज्ञानी अपने अघाती कर्मों को सम करने के लिए, यानी वेदनीय, नाम, गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति को प्रायुकर्म के बराबर करने के लिए यह समुद्घात करते हैं, जिसमें केवल 8 समय लगते हैं / ' स्पष्टता के लिए पृष्ठ 202 को टिप्पणी देखिए 1. (क) भगवती-सूत्र टीकानुवाद (पं. बेघरदास) भा. 1, पृ. 262 से 264. (ख) प्रज्ञापना, पृ. टीका मलयगिरि. 793-94 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुद्घातयंत्र नाम किसको होते हैं ? कितना समय किस कर्म के कारण से परिणाम Air 1. वेदनासमुद्घात सर्वछद्मस्थ अन्तर्मुहूर्त | असातावेदनीय कर्म से श्रासातावेदनीय कर्मपुदगलों | जीवों को का नाश 2. कषायसमुद्घात कषाय नामक चारित्र- कषायमोहकर्म के पूदगलों मोहनीय कर्म के का नाश कारण 3. मारणान्तिक " " / आयुष्यकर्म के कारण : प्रायुष्यकर्म के पुद्गलों का समुद्घात नाश 4 वैक्रियसमुद्घात नारकों, चारों। " वैक्रिय शरीर नामकर्म वैक्रिय शरीर नामकर्म के प्रकार के देवों, के कारण से पुराने पुद्गलों का नाश और / तियं चपंचेन्द्रियों नये पुद्गलों का ग्रहण एवं छद्मस्थ मनुष्यों को। 5. तैजससमुद्धात व्यन्तर ज्योतिष्क तैजस शरीर नामकर्म तैजस शरीर नामकर्म के देवों, नारकों के कारण से पुदगलों का नाश पंचेन्द्रियतिर्यचों एवं छद्मस्थ मनुष्यों को 6. आहारकसमुद्घात चतुर्दशपूर्वधर | आहारक शरीर नाम- आहारक शरीर नामकर्म के मनुष्यों को कर्म के कारण से पुद्गलों का नाश 7. केवलिसमुद्घात केवलज्ञानी आठ समय | आयुष्य के अतिरिक्त आयुष्य के सिवाय तीन मनुष्यों को तीन अघातीकों के ! अघाती कर्म के पुदगलों कारण का नाश / / द्वितीय शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : पुढवी तृतीय उद्देशक : पृथ्वी सप्त नरकपृथ्वियाँ तथा उनसे सम्बन्धित वर्णन १--कति णं भंते ! पुढवीयो पण्णत्ताओ? जीवाभिगमे नेरइयाणं जो बितिम्रो उद्दसो सो नेयव्यो। पुढवि प्रोगाहित्ता निरया संठाणमेव बाहल्लं / जाव कि सम्वे पाणा उपवनपुवा ? हंता, गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो। ॥बितीय सए तइओ उद्दे सो समत्तो।। [1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में नरयिकों का दूसरा उद्देशक कहा है, उसमें पृथ्वीसम्बन्धी (नरकभूमि से सम्बन्धित) जो वर्णन है, वह सब यहाँ जान लेना चाहिए / वहाँ (पृथ्वियों के भेद के उपरान्त) उनके संस्थान, मोटाई आदि का तथा यावत्-अन्य जो भी वर्णन है, वह सब यहाँ कहना चाहिए। [प्र.] भगवन् ! क्या सब जीव उत्पन्नपूर्व हैं ? अर्थात्-सभी जीव पहले रत्नप्रभा आदि पृश्चियों में उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] हाँ, गौतम ! सभी जीव रत्नप्रभा आदि नरकश्वियों में अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं / यावत्-यहाँ जीवाभिगमसूत्र का पृथ्वी-उद्देशक कहना चाहिए।' विवेचन–सप्त नरक पृथ्वियां तथा उनसे सम्बन्धित वर्णन–प्रस्तुत उद्देशक में एक सूत्र के द्वारा जीवाभिगम सूत्रोक्त नरकपृथ्वियोंसम्बन्धी समस्त वर्णन का निर्देश कर दिया गया है। संग्रहगाथा-जीवाभिगमसूत्र के द्वितीय उद्देशक में पृथ्वियों के वर्णनसम्बन्धी संग्रहगाथा इस प्रकार दी गई है 'पुढवी ओगाहित्ता णिरया, संठाणमेव बाहरुलं / ' विक्खंभ-परिक्खेवो, वण्णो गंधो य फासोय // ' 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 130 / 2. यह आधी गाया मूल पाठ में भी है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अर्थात्--(१) पृश्चियाँ सात हैं, रत्नप्रभा आदि, (2) कितनी दूर जाने पर नरकावास हैं ? रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है, उसमें से एक हजार योजन ऊपर और नीचे छोड़कर बीच के 1,78,000 योजन में 30 लाख नरकावास हैं। शर्कराप्रभा की मोटाई 1,32,000 योजन, बालुकाप्रभा की 1,28,000 योजन, पंकप्रभा की 1,20,000 योजन, धूमप्रभा की 1,18,000 योजन, तमःप्रभा की 1,16,000 योजन, तमस्तमःप्रभा की 1,08.000 योजन है / (3) संस्थान-पावलिका प्रविष्ट नारकों का संस्थान गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण होता है / शेष नारकों का नाना प्रकार का / (4) बाहल्य (मोटाई)-प्रत्येक नरकावास की 3 हजार योजन है। (5) विष्कम्भ परिक्षेप-(लम्बाई-चौड़ाई और परिधि) कुछ नरकावास संख्येय (योजन) विस्तृत है, कुछ असंख्येय योजन विस्तृत हैं। (6) वर्ण-नारकों का वर्ण भयंकर काला, उत्कट रोमांचयुक्त (7) गन्ध---- सर्यादि के मृत कलेवर से भी कई गुनी बुरी गन्ध / (8) स्पर्श-क्षुरधारा, खङ्गधारा प्रादि से भी कई गुना तीक्ष्ण / // द्वितीय शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : इंदिय चतुर्थ उद्देशक : इन्द्रिय इन्द्रियाँ और उनके संस्थानादि से सम्बन्धित वर्णन १-कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच इंदिया पणत्ता, तं जहा–पढमिल्लो इंदियउद्दे सो नेयव्वो, संठाणं बाहल्लं पोहत्तं जाव अलोगो। / वितीय सए चउत्थो उद्देसो समत्तो। [ 1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [ 1 उ.] गौतम ! पांच इन्द्रियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें, इन्द्रियपद का प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। उसमें कहे अनुसार इन्द्रियों का संस्थान, बाहल्य (मोटाई), चौड़ाई, यावत् अलोक (द्वार) तक के विवेचन-पर्यन्त समग्र इन्द्रिय-उद्देशक कहना चाहिए। विवेचन-~-इन्द्रियों और उनके संस्थानादि से सम्बन्धित वर्णन—प्रस्तुत उद्देशक में एक सूत्र में इन्द्रियों से सम्बन्धित समग्र वर्णन के लिए प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रिय पद के प्रथम उद्देशक का निर्देश किया गया है। इन्द्रियसम्बन्धी द्वारगाथा प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रियपद के प्रथम उद्देशक में वर्णित ग्यारह इन्द्रियसम्बन्धित द्वारों की गाथा इस प्रकार है 'संठाणं बाहल्लं पोहत्त कइ-पएस ओगाहे / अप्पाबहु पुट्ठ-पविठ्ठ-विसय-अणगार-माहारे' // 202 // अदाय असी य मणी उडुपारणे तेल्ल फाणिय वसाय / कंबल पूणा थिग्गल दीवोदहि लोगऽलोगे // 203 // अर्थात्-(१) संस्थान (आकारविशेष)--श्रोत्रेन्द्रिय का संस्थान कदम्बपुष्प के आकार का है, चक्षरिन्द्रिय का मसर की दाल या चन्द्रमा के आकार का है, घ्राणेन्द्रिय का संस्थान अतिमुक्तक पुष्पवत् है; रसनेन्द्रिय का संस्थान क्षुरप्र (उस्तरे) के आकार का है और स्पर्शेन्द्रिय का संस्थान नाना प्रकार का है / (2) बाहल्य (मोटाई)-पांचों इन्द्रियों की मोटाई अंगुल के असंख्यातवें भाग है / (3) विस्तार-लम्बाई आदि की तीन इन्द्रियों की लम्बाई अंगुल के असंख्यातवें भाग है। रसनेन्द्रिय की अंगुल-पृथक्त्व (दो से नौ अंगुल तक) तथा स्पर्शेन्द्रिय की लम्बाई अपने-अपने शरीर-प्रमाण है। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (4) कतिप्रदेश–प्रत्येक इन्द्रिय अनन्त प्रदेशी है / (5) अवगाढ–प्रत्येक इन्द्रिय प्रसंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ है / (6) अल्पबहुत्व-सबसे कम अवगाहना चक्षुरिन्द्रिय को, उससे संख्यातगुणी अवगाहना क्रमशः श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय की है और उससे असंख्यातगुणी अवगाहना रसनेन्द्रिय की और उससे भी संख्यातगुणी स्पर्शेन्द्रिय की अवगाहना है। इसी प्रकार का अल्पबहुत्व प्रदेशों के विषय में समझना चाहिए। (7-8) स्पृष्ट और प्रविष्ट-चक्षुरिन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियां स्पृष्ट और प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं। अर्थात्-चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी हैं, शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं / (9) विषय-श्रोत्रेन्द्रिय के 5, चक्षुरिन्द्रिय के 5, घ्राणेन्द्रिय के 2, रसनेन्द्रिय के 5 और स्पर्शेन्द्रिय के 8 विषय हैं। पांचों इन्द्रियों का विषय जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, उत्कृष्ट श्रोत्रेन्द्रिय का 12 योजन, चक्षुरिन्द्रिय का साधिक 1 लाख योजन, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय का ह-६ योजन है / इतनी दूरी से ये स्व विषय को ग्रहण कर लेती हैं। इसके पश्चात्(१०) अनगारद्वार, (11) आहारद्वार, (12) आदर्शद्वार, (13) असिद्वार, (14) मणिद्वार, (15) उदपान (दुग्धपान) द्वार, (16) तैलद्वार, (17) फागितद्वार, (18) वसाद्वार, (19) कम्बलद्वार, (20) स्थूणाद्वार, (21) थिग्गलद्वार, (22) द्वीपोदधिद्वार, (23) लोकद्वार और (24) अलोकद्वार / यों अलोकद्वार पर्यन्त चौबीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रियसम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। ___ इस सम्बन्ध में विशेष विवेचत प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें इन्द्रियपद के प्रथम-उद्देशक से जान लेना चाहिए।' // द्वितीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 131, (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय० वृत्ति, पत्रांक 295 से 308 तक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्दसो : नियंठ पंचम उद्देशक : निग्नन्थ निर्ग्रन्थदेव-परिचारणासम्बन्धी परमतनिराकरण-स्वमतप्ररूपण 1. अण्णउत्यिया णं भंते ! एवमाइक्खंति मासंति पण्णवेति परूवेति एवं खलु नियंठे कालगते समाणे देवन्भूएणं प्रप्पाणणं से णं तत्थ णो अन्ने देवे, नो अग्नेसि देवाणं देवीनों अहिजुजिय 2 परियारेइ 1, को प्रप्पणच्चियानो देवीयो अभिजुजिय 2 परियारेइ 2, अप्पणामेव अध्याणं विउम्विय 2 परियारेइ 3; एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेइ, तं जहा-इस्थिवेदं च पुरिसवेदं च / एवं परउत्थियवत्तव्वया नेयन्वा जाव' इस्थिवेदं च पुरिसवेदं च / से कहमेयं भते ! एवं? गोयमा ! जंगं ते अन्नउस्मिया एवमाइक्खंति जाव इत्यिवेदं च पुरिसवेदं च / जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि भा० प० परू.-एवं खलु नि कालगए समाणे अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति महिडिएसु जाव' महाणुभागेसु दूरगतीसु चिरद्वितीएसु / से गं तस्य देवे भवति महिड्डोए जाव: दस दिसामो उज्जोवेमाणे पभासेमाणे जाव पडिरूवे / से णं तत्थ अन्ने देवे, अन्नेसि देवाणं देवीप्रो अभिजुजिय 2 परियारेइ 1, अप्पणच्चियानो देवीओ अभिजुजिय 2 परियारेइ 2, नो अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय 2 परियारेइ 3; एगे विघणं जीवे एगणं समएणं एग वेदं वेदेइ, तं जहा-इस्थिवेदं वा पुरिसवेदं वा, जं समयं इथिवेदं वेदेइ णो तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जं समयं पुरिसवेयं वेएइ गो तं समयं इस्थिवेयं वेदेइ, इस्थिवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदएणं नो इस्थिवेयं वेएइ / एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एग वेद वेदेइ, तं जहा-इस्थिवेयं वा पुरिसवेयं वा। इत्थी इस्थिवेएणं उदिष्णेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसो पुरिस एणं उदिण्णणं इत्यि पत्थेइ। दो वि ते अन्नमन्नं पत्थेति, तं जहा-इत्थी वा पुरिसं, पुरिसे वा इत्थि / 1. 'जाव' पद निम्नोक्त पाठ का सूचक है---"जं समयं इत्थिवेयं वेएइ, तं समयं पुरिसवेयं वेएइ, जलमयं परिसवेयं केएइ, तं समयं इत्थिदेयं वेएइ, इत्यिवेयस्स वेयणाए पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स वेएमाए इत्थीवेयं.....।' 2. 'जाव' पद से महज्जुइएसु महाबलेसु महासोक्खेसु इत्यादि पाठ समझना चाहिए। 3. 'जाब' पद यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है--'महज्जुइए महाबले महायसे महासोक्खे महाणुभागे हारनिराइय. वच्छे (अथवा वस्थे) कड़यतु डियर्थभियभुए अंगयडलमट्रगडकग्णपीढ़धारी विचित्तहत्याभरणे विचित्तमालामउ. लिमउडे' इत्यादि यावत् रिद्धीए जईये पभाए छायाए अच्चीए तेएणं लेसाए.....। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बताते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि कोई भी निर्ग्रन्थ (मुनि) मरने पर देव होता है और वह देव, वहाँ (देवलोक में) दूसरे देवों के साथ, या दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके या उनका आलिंगन करके, परिचारणा (मैथुन-सेवन) नहीं करता, तथा अपनी देवियों को वश में करके या आलिंगन करके उनके साथ भी परिचारणा नहीं करता। परन्तु वह देव वैक्रिय से स्वयं अपने ही दो रूप बनाता है। (जिसमें एक रूप देव का और एक रूप देवी का बनाता है / ) यों दो रूप बनाकर वह, उस वैक्रियकृत (कृत्रिम) देवी के साथ परिचारणा करता है। इस प्रकार एक जीव एक ही समय में दो वेदों का अनुभव (वेदन) करता है, यथा-स्त्री-वेद का और पुरुषवेद का। इस प्रकार परतीर्थिक की वक्तव्यता कहनी चाहिए, और बह-एक जीव एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद का अनुभव करता है, यहाँ तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह इस प्रकार कैसे हो सकता है ? अर्थात् क्या यह अन्यतीथिकों का कथन सत्य है ? / [1 उ.] हे गौतम ! वे अन्यतोथिक जो यह कहते यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-यावत् स्त्रीवेद और पुरुषवेद; (अर्थात्-एक ही जीव एक समय में दो बेदों का अनुभव करता है;) उनका वह कथन मिथ्या है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ कि कोई एक निम्रन्थ जो मरकर, किन्हीं महद्धिक यावत् महाप्रभावयुक्त, दुरगमन करने की शक्ति से सम्पन्न, दीर्घकाल की स्थिति (प्राय वाले देवलोकों में से किसी एक में देवरूप में उत्पन्न होता है, ऐसे देवलोक में वह महती ऋद्धि से युक्त यावत् दशों दिशाओं में उद्योत करता हुआ, विशिष्ट कान्ति से शोभायमान यावत् अतीव रूपवान् देव होता है। और वह देव वहाँ दूसरे देवों के साथ, तथा दूसरे देवों की देवियों के साथ, उन्हें वश में करके, परिचारणा करता है और अपनी देवियों को वश में करके उनके साथ भी परिचारणा करता है; किन्तु स्वयं वैक्रिय करके अपने दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, (क्योंकि) एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद का ही अनुभव करता है। जब स्त्रीवेद को वेदता (अनुभव करता) है, तब पुरुषवेद को नहीं वेदता; जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय स्त्रीवेद के स्त्रीवेद के उदय होने से पुरुषवेद को नहीं वेदता और पुरुषवेद का उदय होने से स्त्रीवेद को नहीं वेदता / प्रतः एक जीव एक समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, इन दोनों वेदों में से किसी एक वेद को ही वेदता है / जब स्त्रीवेद का उदय होता है, तब स्त्री, पुरुष की अभिलाषा करती है और जब पुरुषवेद का उदय होता है, तब पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है / अर्थात्-(अपने-अपने वेद के उदय से) पुरुष और स्त्री परस्पर एक दूसरे की इच्छा करते हैं। वह इस प्रकार-स्त्री, पुरुष की और पुरुष, स्त्री की अभिलाषा करता है। विवेचन-देव की परिचारणा-सम्बन्धी चर्चा--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों का परिचारणा के सम्बन्ध में असंगत मत देकर, उसका निराकरण करते हुए भगवान् के मत का प्ररूपण किया गया है। सिद्धान्त-विरुद्ध मत-भूतपूर्व निग्रंथ मरकर देव बनता है, तब वह न तो अन्य देव-देवियों के साथ परिचारणा करता है और न निजी देवियों के साथ / वह वैक्रियलब्धि से अपने दो रूप बनाकर परिचारणा करता है और इस प्रकार एक ही समय में स्त्रीवेद और पुरुषवेद, दोनों का अनुभव करता है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [209 सिद्धान्तानुकल मत-वह देव अन्य देव-देवियों तथा निजी देवियों के साथ परिचारणा करता है किन्तु वैक्रिय से अपने ही दो रूप बनाकर परिचारणा नहीं करता, क्योंकि सिद्धान्तत: एक जीव एक समय में एक ही वेद का अनुभव कर सकता है, एक साथ दो वेदों का नहीं / जैसे परस्परनिरपेक्ष–विरुद्ध वस्तुएँ एक ही समय में स्थान पर नहीं रह सकतीं, यथा-अन्धकार और प्रकाश, इसी तरह स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों परस्परविरुद्ध हैं, अतः ये दोनों एक समय में एक साथ नहीं वेदे जाते / ' उदकगर्भ प्रादि की कालस्थिति का विचार 2. उदगगन्भे णं भंते ! 'उदगगम्भे' त्ति कालतो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जनेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / . [2 प्र.] भगवन् ! उदकगर्भ (पानी का गर्भ) उदकगर्भ के रूप में कितने समय तक रहता है ? [2 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक उदकगर्भ उदकगर्भरूप में रहता है। 3. तिरिक्खजोणियगम्भे णं भते ! 'तिरिक्खजोणियगब्भे ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं अट्ठ संवच्छ राई / [3 प्र.] भगवन् ! तिर्यग्योनिकगर्भ कितने समय तक तिर्यग्योनिकगर्भरूप में रहता है ? [3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आठ वर्ष तक तिर्यग्योनिकगर्भ तिर्यग्योनिकगर्भ-रूप में रहता है। 4. मणस्सीगन्भे णं भते ! 'मणुस्सीगम्भे ति कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं बारस संबच्छराई / [4 प्र.] भगवन् ! मानुषीगर्भ, कितने समय तक मानुषीगर्भरूप में रहता है ? [4 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक मानुषीगर्भ मानुषीगर्भरूप में रहता है। 5. काय-भवत्थे गंभते ! 'काय-भवत्थे त्ति कालो केबच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं चउवोसं संवच्छराई / [5 प्र.] भगवन् ! काय-भवस्थ कितने समय तक काय-भवस्थरूप में रहता है ? [5 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौबीस वर्ष तक काय-भवस्थ कायभवस्थ के रूप में रहता है। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 132 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6. मणुस्स-पंचेंदियतिरिक्खजोणियबीए णं माते ! जोणिन्भूए केवतियं कालं संचिट्ठइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं बारस मुहत्ता। [6 प्र.] भगवन् ! मानुषी और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्ची-सम्बन्धी योनिगत बीज (वीर्य) योनिभूतरूप में कितने समय तक रहता है ? [6 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक 'योनिभूत' रूप में रहता है। विवेचन-उदकगर्भ प्रादि की कालस्थिति का विचार–प्रस्तुत पांच सूत्रों (2 से 6 तक) में उदकगर्भ, तिर्यग्योनिकगर्भ, मानुषीगर्भ, काय-भवस्थ एवं योनिभूत बीज की कालस्थिति का निरूपण किया गया है। . उदकगर्भ : कालस्थिति और पहचान-कालान्तर में पानी बरसने के कारणरूप पुद्गलपरिणाम को 'उदकग़र्भ' कहते हैं। उसका अवस्थान (स्थिति) कम से कम एक समय, उत्कृष्टत: छह मास तक होता है / अर्थात्-वह कम से कम एक समय बाद बरस जाता है, अधिक से अधिक छह महीने बाद बरसता है।' 'मार्गशीर्ष और पौष मास में दिखाई देने वाला सन्ध्याराग, मेघ की उत्पत्ति (या कुण्डल से मुक्त मेघ) या मार्गशीर्ष मास में ठंड न पड़ना और पौष मास में अत्यन्त हिमपात होना, ये सब उदकगर्भ के चिह्न है।" काय-भवस्थ-माता के उदर में स्थित निजदेह ( गर्भ के अपने शरीर ) में जन्म (भव) को 'कायभव' कहते हैं, उसी निजकाय में जो पुनः जन्म ले, उसे कायभवस्थ कहते हैं। जैसे-कोई जीव माता के उदर में गर्भरूप में आकर उसी शरीर में बारह वर्ष तक रहकर वहीं मर जाए, फिर अपने द्वारा निर्मित उसी शरीर में उत्पन्न होकर पुनः बारह वर्ष तक रहे। यों एक जीव अधिक से अधिक 24 वर्ष तक काय-भवस्थ' के रूप में रह सकता है। योनिभूतरूप में बीज की कालस्थिति मनुष्य या तिर्यंचपञ्चेन्द्रिय का मानुषी या तिर्यञ्ची की योनि में गया हुअा वीर्य बारह मुहूर्त तक योनिभूत रहता है / अर्थात्-उस वीर्य में बारह मुहूर्त तक सन्तानोत्पादन की शक्ति रहती है। मैथुनप्रत्यायक सन्तानोत्पत्ति संख्या एवं मैथुनसेवन से असंयम का निरूपण 7. एगजीवे णं भाते ! एगमवग्गहणेणं केवतियाणं पुत्तत्ताए हध्वमागच्छति ? गोयमा ! जहन्नेणं इक्कस्त वा दोण्हं वा तिण्हं वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हब्वमागच्छति / [7 प्र.] भगवन् ! एक जीव, एक भव की अपेक्षा कितने जीवों का पुत्र हो सकता है ? 1. पौषे समार्गशीर्षे, सन्ध्यारागोऽम्बुदाः सपरिवेषाः / नात्यर्थ मार्गशिरे शीतं, पौषेऽतिहिमपातः / / 2. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 133 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [211 [7 उ.] गौतम ! एक जीव, एक भव में जघन्य एक जीव का, दो जोवों का अथवा तीन जीवों का, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ तक) जीवों का पुत्र हो सकता है। 8. [1] एगजीवस्स णं भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति / [2] से केणठेणं मते ! एवं बुच्चइ-जाव हवमागच्छंति ? गोयमा! इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नाम संजोए समुप्पज्जइ / ते दुहओ सिणेहं संचिणंति, 2 तत्थ णं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उपकोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्यमागच्छति / से तेणठेणं जाव हव्वमागच्छंति / [8-1 अ.] भगवन् ! एक जीव के एक भव में कितने जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? [8-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक, दो अथवा तीन जीव, और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं / [8-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य एक........."यावत् दो लाख से नौ लाख तक जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न) हो सकते हैं ? [8-2 उ.] हे गौतम ! कर्मकृत (नामकर्म से निष्पन्न अथवा कामोत्तेजित) योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक (सम्भोग निमित्तक) संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह (पुरुष के वीर्य और स्त्री के रक्तरज) का संचय (सम्बन्ध) होता है, फिर उसमें से जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं / हे गौतम ! इसीलिए पूर्वोक्त कथन किया गया है।' 6. मेहणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए प्रसंजमे कज्जइ ? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे रूपनालियं वा बूरनालियं वा तत्तणं कणएणं समभिधसेज्जा / एरिसए णं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / [6 प्र.] भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? 1. आधुनिक शरीर विज्ञान के अनुसार पुरुष के शुक्र में करोड़ों जीवाणु होते हैं, किन्तु वे धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और एक या दो जीवाणु जीवित रहते हैं जो गर्भ रूप में आते हैं। 'कणएणं' कनकः लोहमय: ज्ञेयः / कनक शब्द लोहमयी शलाका अर्थ में समझ लेना चाहिए। भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका भा. 2, पृ. 831 में 'कनकस्य शलाकार्थों लभ्यते' लिखा है। -भग. मु. पा. टि. प. 99 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हई सोने की (या लोहे की) सलाई (डालकर, उस) से बांस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पति से भरी नली को जला (विध्वस्त कर) डालता है, हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', ऐसा कहकर-~~-यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–मैथुन प्रत्यायिक सन्तानोत्पत्ति संख्या एवं मथुनसेवन से असंयम का निरूपण--- प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम दो सूत्रों में यह बताया गया है कि एक जीव के एक जन्म में कितने पुत्र (सन्तान) हो सकते हैं और उसका क्या कारण है ? तीसरे सूत्र में मैथुन-सेवन से कितना और किस प्रकार का असंयम होता है ? यह सोदाहरण बताया गया है। एक जीव शतपृथक्त्व जीवों का पुत्र कैसे ?-गाय आदि की योनि में गया हया शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ तक) सांडों का वीर्य, वीर्य ही गिना जाता है, क्योंकि वह वीर्य बारह मुहत तक वीर्य रूप पर्याय में रहता है। उस वीर्य पिण्ड में उत्पन्न हुअा एक जीव उन सबका (जिनका कि वीर्य गाय की योनि में गया है) पुत्र (सन्तान) कहलाता है। इस प्रकार एक जीव, एक ही भव में शतपथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ) जीवों का पुत्र हो सकता है। अर्थात्-एक जीव के, एक ही भव में उत्कृष्ट नौ सौ पिता हो सकते हैं। एक जीव के, एक ही मव में शत-सहस्रपथक्त्व पुत्र कैसे ?--मत्स्य ग्रादि जब मैथुन सेवन करते हैं तो एक बार के संयोग से उनके शत-सहस्रपृथक्त्व (दो लाख से लेकर नौ लाख तक) जीव पुत्र रूप से उत्पन्न होते हैं और जन्म लेते हैं। यह प्रमाण है---एक भव में एक जीव के उत्कृष्ट शतसहस्रपृथक्त्व पुत्र होने का / यद्यपि मनुष्यस्त्री की योनि में भी बहुत-से जीव उत्पन्न होते हैं किन्तु जितने उत्पन्न होते हैं, वे सब के सब निष्पन्न नहीं होते (जन्म नहीं लेते। मैथन सेवन से असंयम-मैथुनसेवन करते हुए पुरुष के मेहन (लिंग) द्वारा स्त्री की योनि में रहे हुए पंचेन्द्रिय जीवों का विनाश होता है, जिसे समझाने के लिए मूलपाठ में उदाहरण दिया गया है। तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों का जीवन 10. तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाम्रो नगरानो गुणसिलामो चेइयाप्रो पडिनिक्खमइ, 2 बहिया जगदयविहारं विहरति / [10] इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से निकालकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। 11. तेणं कालेणं 2 तुगिया नाम नगरी होत्था / वणो। तीसे गं तुंगियाए नगरीए 1. भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 134 2. बनारस (वाराणसी या काशी) से 80 कोस दूर पाटलीपुत्र (पटना) नगर है, वहाँ से 10 कोस दूर 'तुगिया' नाम की नगरी है। --श्रीसम्मेतशिखर रास Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [213 बहिया उत्तरपुरत्यिमे दिसीभाए पुष्फवतीए नामं चेतिए होत्था / वण्ण नो / तत्थ गं तुगियाए नगरीए बहवे समणोवासया परिवसंति अड्डा दित्ता बिस्थिष्णविपुलभवण-सयणाऽऽसण-जाण-वाहणाइण्णा बहुधण-बहुजायरूब-रयया प्रायोग-पयोगसंपत्ता विच्छड्डियविपुलभत्त-पाणा बहुदासो-दास-गो-महिसगवेल यप्पभूता बहुजणस्स अपरिभूता अभिगतजीवाजीवा उवलद्धपुण्ण-पावा पासव-संवर-निज्जरकिरियाहिकरण-बंधमोक्खकुसला असहेज्जदेवासुर-नाग-सुवण्ण-जवख-रक्खस-किन्नर-किपुरिस-गरुलगंधव-महोरगादिएहिं देवगणेहिं निग्गंथातो पावयणातो अतिक्कमणिज्जा, णिग्गंथे पावणे निस्संकिया निषकखिता निग्वितिगच्छा लट्ठा गहितढा पुच्छितट्ठा अभिगतट्ठा विणिच्छियटा, ट्ठिमिजपेम्माणुरागरत्ता---'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अठे, अयं परमठे, सेसे अणठे,' ऊसियफलिहा अवगुतदुवारा चियत्तंतेउर-घरप्पवेसा, बहूहिं सीलवत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि चाउद्दसऽद्वमुद्दिट्टपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोतह सम्म अणुपालेमाणा, समणे निग्गंथे फासुए उणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पादपुछणणं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगेणं प्रोसहभेसज्जेण य पडिलामेमाणा,' प्रहापरिम्गहिएहि तबोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरति / [11] उस काल उस समय में तुगिया (तू गिका) नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। उस तुगिका नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में पुष्पवतिक नाम का चैत्य (उद्यान) था / उसका वर्णन समझ लेना चाहिए / उस तु'गिकानगरी में बहत-से श्रमणोपासक रहते थे। वे पाढ्य (विपुल धनसम्पत्ति वाले) और दीप्त (प्रसिद्ध या दृप्त-स्वाभिमानी) थे। उनके विस्तीर्ण (विशाल) विपुल (अनेक) भवन थे। तथा वे शयनों (शयन सामग्री), आसनों, यानों (रथ, गाड़ी आदि), तथा वाहनों (बैल, घोड़े आदि) से सम्पन्न थे। उनके पास प्रचुर धन (रुपये आदि सिक्के), बहुत-सा सोना-चाँदी आदि था। वे प्रायोग (रुपया उधार देकर उसके ब्याज आदि द्वारा दुगुना तिगुना अर्थोपार्जन करने का व्यवसाय) और प्रयोग (अन्य कलानों का व्यवसाय) करने में कुशल थे। उनके यहाँ विपुल भात-पानी (खानपान) तैयार होता था, और वह अनेक लोगों को वितरित किया जाता था / उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ (नौकरानियाँ) और दास (नौकर-चाकर) थे; तथा बहुत-सी गायें, भैसे, भेड़ें और बकरियाँ आदि थीं। वे बहुत-से मनुष्यों द्वारा भी अपरिभूत (पराभव नहीं पाते = दबते नहीं) थे। वे जीव (चेतन) और अजीव (जड़) के स्वरूप को भलीभांति जानते थे। उन्होंने पुण्य और पाप का तत्त्व उपलब्ध कर लिया था। वे प्राश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे / (अर्थात्-इनमें से हेय, ज्ञेय और उपादेय को सम्यक् रूप से जानते थे।) बे (किसी भी कार्य में दूसरों से) सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे। (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग, आदि देवगणों के द्वारा नियन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय (विचलित नहीं किये जा सकते थे। वे निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे, तथा विचिकित्सारहित (फलाशंकारहित) थे / उन्होंने शास्त्रों के अर्थों 1. पाठान्तर—'बहूहि सोलवय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण पोसहोववासेहि अप्पाणं भावेमाणा गाउद्दसटुमुद्विद्ध पुणिमासिणीसु अधापरिग्गहितेणं पोसहोववासेणं अपाणं भावेमाणा विहति / ' Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को भलीभांति उपलब्ध कर लिया था, शास्त्रों के अर्थों को (दत्तचित्त होकर) ग्रहण कर लिया था / (शास्त्रों के अर्थों में जहाँ सन्देह था, वहाँ) पूछकर उन्होंने यथार्थ निर्णय कर लिया था। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जान लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जाएँ (नसें) (निर्गन्थप्रवचन के प्रति) प्रेमानुराग में रंगी हुई (व्याप्त) थीं। (इसीलिए वे कहते थे कि-) 'मायुष्मान् बन्धुओ ! यह निर्गन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार्थक) है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ (निरर्थक) हैं।' वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला (पागलभोगल) सदैव ऊँची रहती थी। उनके घर के द्वार (याचकों के लिए) सदा खुले रहते थे / उनका अन्तःपुर तथा परगृह में प्रवेश (अतिधार्मिक होने से) लोकप्रीतिकर (विश्वसनीय) होता था / वे शीलवत (शिक्षाव्रत), गुणव्रत, विरमणबत (अणुव्रत), प्रत्याख्यान (त्यांग-नियम), पौषधोपवास प्रादि का सम्यक् आचरण करते थे, तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इन पर्वतिथियों में (प्रतिमास छह) प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन (आचरण) करते थे। वे श्रमण निर्गन्थों को (उनके कल्पानुसार) प्रासुक (अचित्त) और एषणीय (एषणा दोषों से रहित) अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ (चौकी या बाजोट) फलक (पट्टा या तख्त), शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि प्रतिलाभित करते (देते) थे; और यथाप्रतिगृहीत (अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किये हुए) तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते (जीवनयापन करते थे। विवेचन-तुगिका नगरी के श्रमणोपासकों का जीवन-प्रस्तुत दो सूत्रों (10 और 11) में से प्रथम में श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह से अन्यत्र विहार का सूचन है, और द्वितीय में भगवान् महावीर के तुगिकानगरी निवासी श्रमणोपासकों का जीवन आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, धार्मिक आदि विविध पहलुओं से चित्रित किया गया है। कठिन शब्दों के दूसरे अर्थ-विस्थिण्णविपुल भवण-सयणासण-जाण-वाहणाइण्णे = जिनके घर विशाल और ऊँचे थे, तथा जिनके शयन, आसन, यान और वाहन प्रचुर थे। विच्छडियविउल भत्तपाणा उनके यहाँ बहुत-सा भात-पानी (याचकों को देने के लिए) छोड़ा जाता था। अथवा जिनके यहाँ अनेक लोग भोजन करते थे, इसलिए बहुत-सा भात-पानी बचता था / अथवा जिनके यहाँ विविध प्रकार का प्रचुर खान-पान होता था। असहेज्ज-देवासुर-नाग-सुवण्ण-जवख-रक्खस-किन्नरकिंपुरिस-गरुल-गंधव-महोरगाईएहि-आपत्ति में भी देवादिगणों की सहायता से निरपेक्ष थे, अर्थात्--- 'स्वकृत कर्म स्वयं ही भोगना होगा', इस तत्त्व पर स्थित होने से वे अदीनमनोवृत्ति वाले थे / अथवा परपाषण्डियों द्वारा आक्षेपादि होने पर वे सम्यक्त्व की रक्षा के लिए दूसरों की सहायता नहीं लेते थे, क्योंकि वे स्वयं उनके आक्षेपादि निवारण में समर्थ थे। सुवपण:- अच्छे वर्ण वाले ज्योतिष्क देव / गहल - गरुड़-सुपर्णकुमार / अदिमिज्जपेमाणु रागरत्ता- उनकी हड्डियाँ और उनमें रहा हुआ धातु - मिज्जा, ये सर्वज्ञप्रवचनों पर प्रतीतिरूप कसुम्बे के रंग से रंगे हुए थे / ऊसिप्रफलिहा= अत्यन्त उदारता से अतिशय दान देने के कारण घर में भिक्षुकों के निराबाध प्रवेश के लिए जिन्होंने दरवाजे की अर्गला हटा दी थी। चियत्तं तेउर-घरप्प वेसा = जिनके अन्त:पुर या घर में कोई सत्पुरुष प्रवेश करे तो उन्हें अप्रीति नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें ईर्ष्या नहीं होती। अथवा जिन्होंने दूसरों के अन्त:पुर या घर में प्रवेश करना छोड़ दिया था। अथवा वे किसी के घर में या अन्तःपुर में प्रवेश करें तो अतीव Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [215 धर्मनिष्ठ होने के कारण उसे प्रसन्नता होती थी, शंका नहीं। उद्दिट्ठा- अमावस्या (उद्दिष्टा) / अहिकरण =क्रिया का साधन / ' तुंगिका में अनेक गुणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण 12. तेणं कालेणं 2 पासावञ्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसंपन्ना गाणसंपन्ना दंसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना प्रोयंसी तेयंसी बच्चसो जसंसी जितकोहा जियमाणा जियमाया जियलोभा जियनिद्दा जितिविया जितपरीसहा जीवियासा-मरणमय विप्पमुषका जाव' कुत्तियावणभूता बहुस्सुया बहुपरिवारा, पंचहि अणगारसतेहिं सद्धि संपरिघुडा, अहाणुवि चरमाणा, गामाणुगामं दुइज्जमाणा, सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी, जेणेव पुष्पवतीए चेतिए तेणेव उवागच्छंति, 2 प्रहापडिरूवं उग्गहं प्रोगिण्हित्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति / [12] उस काल और उस समय में पापित्यीय (भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवान् पांच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहाँ तुगिका नगरी थी और जहाँ (उसके बाहर ईशानकोण में) पुष्पवतिक चैत्य (उद्यान) था, वहाँ पधारे / वहाँ पधारते ही यथानुरूप अवग्रह (अपने अनुकूल मर्यादित स्थान की याचना करके आज्ञा) लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे। वे स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी (विशिष्ट प्रभाव युक्त) और यशस्वी थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों को जीत लिया था। वे जीवन (जीने) की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे, यावत् (यहाँ तक कि) वे कुत्रिकापण-भूत (जैसे कुत्रिकापण में तीनों लोकों की आवश्यक समस्त वस्तुएँ मिल जाती हैं, वैसे ही वे समस्त अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति में समर्थ अथवा समस्त गुणों की उपलब्धि से युक्त) थे। वे बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले थे। विवेचन–तुगिका में अनेक गुणसम्पन्न पापित्यीय स्थविरों का पदार्पण–प्रस्तुत सूत्र में अनेक श्रमणगुणों के धनी पार्श्वनाथ-शिष्यानुशिष्य श्रुतवृद्ध स्थविरों का वर्णन किया गया है। कुत्रिकापण=कु-पृथ्वी, त्रिक तीन, आपण = दूकान / अर्थात्-जिसमें तीनों लोक की वस्तुएँ मिलें, ऐसी देवाधिष्ठित दूकान को कुत्रिकापण कहते हैं। बच्चसो वर्चस्वी, व चस्वी (वाग्मी), अथवा वृत्तस्वी (वृत्त-चारित्र रूपी धन वाले)। 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 135-136 2. 'जाव' शब्द से यहाँ स्थविरों के ये विशेषण और समझ लेने चाहिए--"तवष्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा निग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा महवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विज्जा-मंत-वेय-बंभ-नय-नियम-सच्च-सोयप्पहाणा चारुप्पण्णा सोही अणियाणा अप्पुस्सुया अबहि ल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणा कुत्तियावग०" भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 136 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 136-137 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तुंगिकानिवासी श्रमणोपासक पापित्यीय स्थविरों की सेवा में 13. तए णं तु गियाए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-महापहपहेसु जाव' एगदिसाभिमहा णिज्जायंति। [13] तदनन्तर तुंगिकानगरी के शृगाटक (सिंघाडे के आकार वाले त्रिकोण) मार्ग में, त्रिक (तीन मार्ग मिलते हैं, ऐसे) रास्तों में, चतुष्क पथों (चार मार्ग मिलते हैं, ऐसे चौराहों) में तथा अनेक मार्ग मिलते हैं, ऐसे मार्गों में, राजमार्गों में एवं सामान्य मार्गों में (सर्वत्र उन स्थविर भगवन्तों के पदार्पण की) बात फैल गई / जनता एक ही दिशा में उन्हें वन्दन करने के लिए जाने लगी है। 14. तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हद्वतुद्वा जावर सद्दाति, 2 एवं वदासी-एवं खलु देवाणुपिया ! पासावच्चेज्जा थेरा भगवतो जातिसंपन्ना जावमहापडिरूवं उग्गहं उम्गिमिहत्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति / तं महाफलं खलु देवाणुपिया ! तहारूदाणं थेराणं भगवंताणं गाम-गोतस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-बंदण-नमंसणपडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? जाव गणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुपिया! थेरे भगवते व दामो नमसामो जाव' पज्जुवासामो, एवं णं इहभवे वा परभवे वा जावई अणुगामियत्ताए भविस्सतीति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुर्णेति, 2 जेणव सयाई सयाई गिहाई तेणेव उवागच्छंति, 2 हाया कयबलिकम्मा कतकोउयमंगलपायच्छित्ता, सुद्धप्पा साई मंगल्लाई वत्थाई पवराई परिहिया, अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा सहि 2 गेहेहितो पडिनिक्खमंति, 2 ता एगतो मेलायति, 2 पायविहारचारेणं तुगियाए नगरीए मझमझेणं णिग्गच्छंति, 2 जेणेव पुप्फवतीए चेतिए तेणेव उवागच्छंति, 2 थेरे भगवते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति, तं जहा–सचित्ताणं दवाणं विनोसरणताए 1 प्रचित्ताणं दवाणं अविनोसरणताए 2 एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं 3 चक्खुप्फासे अंजलिप्यागहेणं 4 मणसो एगतीकरणेणं 5; जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छंति, 2 1 'जाव' शब्द यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है—'बहुजणसई इ वा जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एबमाइक्खइ 4 एवं खलु देवाणुप्पिया! पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना....... इत्यादि पाठ स. 12 के प्रारम्भ में उक्त पाठ 'विहरंति' तक समझना चाहिए। 2. 'जाब' पद यहाँ निम्नोक्त पाठ-सूचक है--'चित्तमाणंदिा गंदिआ परमाणंदिआ पोइमणा परमसोमसिमा हरिसबसविसप्पमाणहिअया धाराहयमीवसुरहिकुसुमचंचमालइयतणू ऊससियरोमकूवा / ' 3. यहाँ 'जाव' पद 'जातिसंपन्ना' (सू. 12) से लेकर 'अहापडिरूव' तक का वोधक है / 4. 'जाव' पद से यहाँ निम्नोक्त पाठ समझे—'एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुक्यणस्स सवणताए किमंग पुण विउलस्स अत्थस्स गहणयाए।' 5. 'जाव' पद निम्नोक्त पाठ का सूचक है----'सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो।' 6. 'जाव' पद यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है—'हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए।' Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] | 217 तिक्खुतो प्रायाहिण-पयाहिणं करेंति, 2 जाव' तिविहाए पन्जुवासणाए पज्जुवासें ति, तं जहाकाइ० वाइ० माण। तत्य काइयाए-संकुचियपाणि-पाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएण पंजलिउडे पज्जुवासंति / वाइयाए-जं जं भगवं वागरेति 'एवमेयं भंते !, तहमेयं भं० !, प्रवित हमेयं भं०!, असंदिद्धमेयं भं० !, इच्छिय मेयं भं० !, पडिच्छियमेयं भ० !, इच्छियपडिच्छियमे यं भ!, बायाए अपडिकूलेमाणा विणएणं पज्जुवासंति / माणसियाए–संवेग जणयंता तिव्वधम्माणुरागरत्ता विगह-विसोत्तियपरिवज्जियमई अन्नस्थ कत्थइ मणं अकुव्वमाणा विणएणं पज्जुवासंति / [14] जब यह बात तुगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हषित और सन्तुष्ट हुए, यावत् परस्पर एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रियो ! (सुना है कि) भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त, जो कि जातिसम्पन्न आदि विशेषणविशिष्ट हैं, यावत् (यहाँ पधारे हैं) और यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं / हे देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवन्तों के नामगोत्र के श्रवण से भी महाफल होता है, तब फिर उनके सामने जाना, वन्दन-नमस्कार करना, उनका कुशल-मंगल (सुख-साता) पूछना और उनकी पर्युपासना (सेवा) करना, यावत् ......"उनसे प्रश्न पूछ कर अर्थ-ग्रहण करना, इत्यादि बातों के (अवश्य कल्याण रूप) फल का तो कहना ही क्या ? अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब उन स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। ऐसा करना अपने लिए इस भव में तथा परभव में हित-रूप होगा; यावत् परम्परा से (परलोक में कल्याण का) अनुगामी होगा। इस प्रकार बातचीत करके उन्होंने उस बात को एक दुसरे के सामने (परस्पर स्वीकार किया। स्वीकार करके वे सब श्रमणोपासक अपने-अपने घर गए। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म (कौए, कुत्ते, गाय आदि को अन्नादि दिया, अथवा स्नान से सम्बन्धित तिलक, छापा आदि कार्य) किया। (तदनन्तर दुःस्वप्न आदि के फलनाश के लिए) कौतुक और मंगल-रूप प्रायश्चित्त किया / फिर शुद्ध (स्वच्छ), तथा धर्मसभा आदि में प्रवेश करने योग्य (अथवा शुद्ध आत्मानों के पहनने योग्य) एवं श्रेष्ठ वस्त्र पहने / थोड़े-से, (या कम वजन वाले) किन्तु बहुमूल्य आभरणों (प्राभूषणों) से शरीर को विभूषित किया / फिर वे अपने-अपने घरों से निकले, और एक जगह मिले / (तत्पश्चात) वे सम्मिलित होकर पैदल चलते हुए तुगिका नगरी के बीचोबीच होकर निकले और जहाँ पुष्पवतिक चैत्य था, वहाँ आए। (वहाँ) स्थविर भगवन्तों (को दूर से देखते ही, उन) के पास पांच प्रकार के 1. 'जाव' पद से यह पाठ समझना चाहिए-'वंदति णमसंति पच्चासत्ने गाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा।' 2. 'तं जहा' से लेकर 'पज्जुवासंति' तक का पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है / औपपातिक सूत्र से उधत किया हुआ प्रतीत होता है।--"तं जहा—काइयाए वाइयाए माणसिपाए। काइयाए ताव संकुइअग्गहस्थ-पाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। वाइयाए जं जं भगवं वागरेइ एवमेयं भंते ! लहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छिअमेअं भंते ! पडिन्छिअमेअंमते ! इच्छियपाहिच्छियमेयं भंते ! से जहेपं तुम्भे वह अपडिकूलमाणे पज्जुवासति / माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिश्वधम्माणुरागरत्तो पज्जुवासइ / " Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अभिगम करके गए। वे (पांच अभिगम) इस प्रकार हैं-(१) (अपने पास रहे हुए) सचित्त द्रव्यों (फूल, ताम्बूल आदि) का त्याग करना, (2) अचित्त द्रव्यों (सभाप्रवेश योग्य वस्त्रादि) का त्याग न करना–साथ में रखना (अथवा मर्यादित करना); (3) एकशाटिक उत्तरासंग करना (एक पट के बिना सिले हुए वस्त्र-दुपट्टे को (यतनार्थ मुख पर रखना); (4) स्थविर-भगवन्तों को देखते ही दोनों हाथ जोड़ना, तथा (5) मन को एकाग्न करना। __यों पांच प्रकार का अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों के निकट पहुँचे / निकट आकर उन्होंने दाहिनी ओर से तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया यावत् कायिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार से उनकी पर्युपासना करने लगे। वे हाथ-पैरों को सिकोड़ कर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, उनके सम्मुख विनय से हाथ जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं / जो-जो बातें स्थविर भगवान् फरमा रहे थे, उसे सुनकर - 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह तथ्य है, यही सत्य है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह इष्ट है, यह प्रतीष्ट (अभीष्ट) है, हे भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है,' इस प्रकार वाणी से अप्रतिकूल (अनुकल) होकर विनयपूर्वक वाणी से पयू पासना करते हैं तथा मन से (हृदय में) संवेगभाव उत्पन्न करते हए तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह (कलह) और प्रतिकूलता (विरोध) से रहित बुद्धि होकर, मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हुए विनयपूर्वक (मानसिक) उपासना करते हैं। विवेचन-तुगिकानिवासी श्रमणोपासक पार्खापत्यीय स्थविरों की सेवा में--प्रस्तुत दो सूत्रों में शास्त्रकार ने तुगिका के श्रमणोपासकों द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविरमुनियों के दर्शन, प्रवचन-श्रवण, वन्दन-नमन, विनयभक्ति पर्युपासना आदि को महाकल्याणकारक फलदायक समझकर उनके गुणों से प्राकृष्ट होकर उनके दर्शन, वन्दना, पर्युपासना आदि के लिए पहुँचने का वर्णन किया है / इस वर्णन से भगवान् महावीर के श्रमणोपासकों की गुणग्राहकता, उदारता, नम्रता और शिष्टता का परिचय मिलता है। पाश्र्वनाथतीर्थ के साधनों को भी उन्होंने स्वतीर्थीय साधुनों की तरह ही वन्दना-नमस्कार, विनयभक्ति एवं पर्युपासना की थी। साम्प्रदायिकता को गन्ध तक न याने दी। कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता-दो विशेष अर्थ-(१) उन्होंने दुःस्वप्न आदि के दोष निवारणार्थ कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त किया, (2) उन्होंने कौतुक अर्थात् मषी का तिलक और मंगल अर्थात-दही, अक्षत, दुब के अंकुर आदि मांगलिक पदार्थों से मंगल किया और पा पादच्छुप्त = एक प्रकार के पैरों पर लगाने के नेत्र दोष निवारणार्थ तेल का लेपन किया। 15. तए णं ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति, जहा केसिसामिस्स जाव' समणोवासियत्ताए प्राणाए पाराहगे भवंति जाव धम्मो कहिओ। 1. भगवतीसूत्र टीका नुवाद (पं, बेच रदासजी) खण्ड 1, पृ. 287 2. काजल की टिकी-नजर दोष से बचने के लिए लगाई जाती है। 3. 'जाय' पद से यहाँ निम्नोक्त राजप्रश्नीय सूत्र (पृ. १२०)में उल्लिखित केशीस्वामि-कथित धर्मोपदेशादि का वर्णन समझना चाहिए---'तोसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ बेरमणं....""सध्वाओ बहिद्वादाणाओ वेरमणं.......' इत्यादि-भगवती मू. पा. टि. प्र. 103-104 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 219 [15] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परिषद् (धर्मसभा) को केशीश्रमण की तरह चातुर्याम-धर्म (चार याम वाले धर्म) का उपदेश दिया। यावत् वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा (उन स्थविर भगवन्तों की) आज्ञा के आराधक हुए / यावत् धर्म-कथा पूर्ण हुई / तुंगिका के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर 16. तए णं ते समणोवासया थेराणं भगवंताणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव हयहिदया तिवखुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, 2 जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति, 2 एवं वदासी-- संजमे णं भते ! किंफले ? तवे ज भते ! किंफले ? तए णं ते धेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वदासी-संजमे णं अज्जो ! अणण्हयफले, तवे बोदाणफले। [16] तदनन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों से धर्मोपदेश सुनकर एवं हृदयंगम करके बड़े हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् उनका हृदय खिल उठा और उन्होंने स्थविर भगवन्तों की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् (पूर्वोक्तानुसार) तीन प्रकार की उपासना द्वारा उनकी पर्युपासना की और फिर इस प्रकार पूछा [प्र. भगवन् ! संयम का क्या फल है ? भगवन् ! तप का क्या फल है ? [उ.] इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-'हे पार्यो ! संयम का फल अनाश्रवता (पाथवरहितता-संवरसम्पन्नता) है / तप का फल व्यवदान (कर्मों को विशेषरूप से काटना या कर्मपंक से मलिन अात्मा को शुद्ध करना) है। 17. [1] तए णं ते समणोवासया थेरे भगवंते एवं वदासी-जइ णं भाते ! संजमे अणहयफले, तवे वोदाणफले किपत्तियं णं भंते ! देवा देवलोएसु उववज्जति ? [17-1 प्र.] (स्थविर भगवन्तों से उत्तर सुनकर) श्रमणोपासकों ने उन स्थविर भगवन्तों से (पुनः) इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! यदि संयम का फल अनाश्रवता है और तप का फल व्यवदान है तो देव देवलोकों में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ?' [2] तत्थ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी—पुवतवेणं अज्जो! देवा देवलोएसु उववज्जति। [17-2 उ.] (श्रमणोपासकों का प्रश्न सुनकर) उन स्थविरों में से कालिकपुत्र नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहा-'पार्यो ! पूर्वतप के कारण देव देवलोंकों में उत्पन्न होते हैं।' [3] तत्थ गं मेहिले नाम थेरे ते समणोबासए एवं वदासी-पुव्वसंजमेणं अज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जंति। [17-3 उ.] उनमें से मेहिल (मधिल) नाम के स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-'पार्यो ! पूर्व-संयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।' Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4] तत्थ णं प्राणंदरविखए णाम थेरे ते समणोवासए एवं वदासी कम्मियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति / [17-4 उ.] फिर उनमें से प्रानन्दरक्षित नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-'पार्यो ! कमिता (कर्मो की विद्यमानता या कर्म शेष रहने) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। [5] तत्थ णं कासवे गाम थेरे ते समणोवासए एवं बदासी--संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववति, पुन्वतवेणं पुवसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो! देवा देवलोएसु उववति / सच्चे णं एस प्रठे, नो चेव णं प्रातभाववत्तव्वयाए / [17-5 उ.] उनमें से काश्यप नामक स्थविर ने उन श्रमणोपासकों से यों कहा-'पार्यो ! संगिता (द्रव्यादि के प्रति रागभाव- आसक्ति) के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हे आर्यो ! (वास्तव में) पूर्व (रागभावयुक्त) तप से, पूर्व (सराग) संयम से, कमिता (कर्मक्षय न होने से या कमों के रहने) से, तथा संगिता (द्रव्यासक्ति) से, देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं / यह बात (अर्थ) सत्य है। इसलिए कही है, हमने अपना प्रात्मभाव (अपना अहंभाव या अपना अभिप्राय) बताने की दृष्टि से नहीं कही है।' 18. तए गं ते समणोवासया थेरेहिं भगवतेहि इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हद्वतुट्ठा थेरे भगवते वदति नमसंति, 2 पसिणाई पुच्छंति, 2 अट्ठाई उवादियंति, 2 उठाए उठेति, 2 थेरे भगवंते तिक्खुत्तो वंदति णमंसंति, 2 थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुष्फवतियानो चेइयाओ पडिनिक्खमंति, 2 जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। [18] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक, स्थविर भगवन्तों द्वारा (अपने प्रश्नों के) कहे हुए इन और ऐसे उत्तरों को सुनकर बड़े हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए और स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करके अन्य प्रश्न भी पूछते हैं, प्रश्न पूछ कर फिर स्थविर भगवन्तों द्वारा दिये गये उत्तरों (अर्थों) को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वे वहाँ से उठते हैं और तीन बार वन्दना-नमस्कार करते हैं। फिर वे उन स्थविर भगवन्तों के पास से और उस पुष्पवतिक चैत्य से निकलकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस (अपने-अपने स्थान पर) लौट गए। 16. तए णं ते थेरा अन्नया कयाइ तुगियानो पुप्फवतिचेइयानो पडिनिम्गच्छति, 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / [16] इधर वे स्थविर भगवन्त भी किसी एक दिन तुगिका नगरी के उस पुष्पवतिक चैत्य से निकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे। विवेचन-तुगिका के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर-प्रस्तुत पांच सूत्रों (15 से 19 तक) में तुगिका के श्रमणोपासकों द्वारा स्थविरों का धर्मोपदेश सुनकर उनसे सविनय पूछे गये प्रश्नों तथा उनके द्वारा विभिन्न अपेक्षाओं से दिये गये उत्तरों का निरूपण है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] | 221 देवत्व किसका फल ? संयम और तप का फल श्रमणोपासकों द्वारा पूछे जाने पर स्थविरों ने क्रमशः अनाश्रवत्व एवं व्यवदान बताया। इस पर श्रमणोपासकों ने पुन: प्रश्न उठाया--संयम और तप का फल यदि संवर और व्यवदान निर्जरा है तो देवत्व की प्राप्ति कैसे होती है ? इस पर विभिन्न स्थविरों ने पूर्वतप, और पूर्वसंयम को देवत्व का का कारण बताया। इसका आशय है-वीतरागदशा से पूर्व किया गया तप और संयम / ये दोनों (पूर्वतय और पूर्वसंयम) सरागदशा में सेवित होने से देवत्व के कारण है / जबकि पश्चिम तप और पश्चिम संयम रागरहित स्थिति में होते हैं। उनका फल अनाश्रवत्व और व्यवदान है / वास्तव में देवत्व के साक्षात्कारण कर्म और संग (रागभाव) हैं / शुभ कर्मों का पुंज बढ़ जाता है, वह क्षीण नहीं किया जाता, साथ ही संयम आदि से युक्त होते हुए भी व्यक्ति अगर समभाव (संग या आसक्ति) से युक्त है तो वह देवत्व का कारण बनता है। ___ व्यवदान–'दाप्' धातु काटने और दंप शोधन करने अर्थ है, इसलिए व्यवदान का अर्थकर्मों को काटना अथवा कार्यों के कचरे को साफ करना है।' राजगह में गौतम स्वामी का भिक्षाचर्यार्थ पर्यटन 20. तेणं कालेणं 2 रायगिहे नाम नगरे जाव परिसा पडिगया / [20] उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था / वहाँ (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे / परिषद् वन्दना करने गई) यावत् (धर्मोपदेश सुनकर) परिषद् वापस लौट गई / 21. तेणं कालेणं 2 समणस्स भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती-नाम अणगारे जाव संखित्तविउलतेयलेस्से छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरति / [21] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार थे। वे यावत् वे विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में संक्षिप्त (समेट) करके रखते थे। वे निरन्तर छह-छह (बेले-बेले) के तपश्चरण से तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे / 22. तए णं से भगवं गोतम छटुपखमणपारणसि पढ़माए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, ततियाए पोरिसीए प्रतुरियमचवलमसंभ ते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, 2 1. (य.) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 1:8-139 (ख) प्राचार्य ने कहा है पुग्व-तब-संजमा होति रागिणो पच्छिमा अरागस्स / रागो संगो वृत्तो संगा कम्म भवो तेण // (ग) तूलना-सरागसंयम-संयमासयमाऽकामनिर्जराबालतपोसिदेवस्य / '-- .-तत्त्वार्थ सूत्र अ, 6 सूत्र. 20 2. 'जाव' पद सूचक पठि—“गोयमसगोत्तं सत्त स्सेहे समचउरंतसंठाणसंठिए वइरोसहनारायसंधयणे कणगपुलक. निग्धसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततचे तत्ततवे महातवे घोरतबे उराले घोरे पोरगुणे घोरतवस्सी उन्नसरीरे"--औप. पृ. 83 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] { व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, 2 मायणाई पमज्जति, 2 भायणाई उम्गाहेति, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 एवं वदासी-इच्छामि गं भंते ! तुहि अन्भणुग्णाए छट्टक्खमणयारणगंसि रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मनिझमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए / प्रहासुहं देवाणुपिया! मा पडिबंध करेह / [22] इसके पश्चात् छठ (बेले) के पारणे के दिन भगवान् (इन्द्रभूति) गौतमस्वामी ने प्रथम प्रहर (पौरुषी) में स्वाध्याय किया; द्वितीय प्रहर (पौरुषी) में ध्यान ध्याया (किया;) और ततीय प्रहर (पौरुषी) में शारीरिक शीघ्रता-रहित, मानसिक चपलतारहित, आकुलता (हड़बड़ी) से रहित होकर मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखना की; फिर पात्रों और वस्त्रों को प्रतिलेखना को; तदनन्तर पात्रों का प्रमार्जन किया और फिर उन पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए। वहाँ आकर भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया और फिर इस किया—भगवन ! आज मेरे छटठ तप (बले) के पारणे का दिन है। अतः आप से अाज्ञा प्राप्त होने पर मैं राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार, भिक्षाटन करना (भिक्षा लेने के निमित्त जाना) चाहता हूँ / ' (इस पर भगवान् ने कहा-) हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसे करो; किन्तु विलम्ब मत करो।' 23. तए णं भगव गोतमे समणेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे समणस्स भगवान महावीरस्स अंतियानो गुणसिलामो चेतियाओ पडिनिक्खमइ, 2 अतुरितमचवलमसंभ ते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरतो रियं सोहेमाणे 2 जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, 2 रायगिहे नगरे उच्च-नोय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडति / __ [23] भगवान् को आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर के पास से तथा गुणशील चैत्य से निकले। फिर वे त्वरा (उतावली), चपलता (चंचलता) और संभ्रम (आकुलता-हड़बड़ी) से रहित होकर युगान्तर (गाड़ी के जुए धूसर-) प्रमाण दूर (अन्तर) तक की भूमि का अवलोकन करते हुए, अपनी दृष्टि से आगे-आगे के गमन मार्ग का शोधन करते (अर्थात् –ईग्रासमिति-पूर्वक चलते) हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आए। वहाँ (राजगृहनगर में) ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाचरी करने के लिए पर्यटन करने लगे। विवेचन--राजगह में श्री गौतमस्वामी का भिक्षाचयार्थ पर्यटन-प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमश: भगवान् महावीर के राजगह में पदार्पण, श्रीगौतमस्वामी के छट्ठ-छटठ तपश्चरण, तप के पारणे के दिन विधिपूर्वक साधुचर्या से निवृत्त होकर भगवान से भिक्षाटन के लिए अनुज्ञा प्राप्त करने और राजगृह में ईर्या-शोधनपूर्वक भिक्षा प्राप्ति के लिए पर्यटन का सुन्दर वर्णन दिया गया है। इस वर्णन पर से निर्गन्थ साधुत्रों की अप्रमत्ततापूर्वक दैनिक चर्या की झांकी मिल जाती है। कुछ विशिष्ट शब्दों की व्याख्या-घरसमुदाणस्स = घरों में समुदान अर्थात् भिक्षा के लिए। मिक्खाचरियाए = भिक्षाचर्या की विधिपूर्वक / जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए= चलते समय अपने शरीर Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 223 का भाग तथा दृष्टिगोचर होने वाला (मार्ग का) भाग; इन दोनों के बीच का युग-जूआ-धूसर जितना अन्तर (फासला व्यवधान) युगान्तर कहलाता है। युगान्तर तक देखने वाली दृष्टि-- युगान्तरप्रलोकना दृष्टि, उससे, ई = गमन करना।' स्थविरों की उत्तरप्रदानसमर्थता आदि के विषय में गौतम की जिज्ञासा और भगवान् द्वारा समाधान--- 24. तए णं से भगव' गोतमे रायगिहे नगरे जाव (सु. 23) अडमाणे बहुजणसई निसामेति-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुगियाए नगरोए बहिया पुष्फवतीए चेतिए पासावच्चिज्जा थेरा भगनंतो समणोवासएहि इमाइं एतारूवाई वागरणाई पुच्छिया-संजमे णं भंते ! किंफले, तवे गं भंते ! किंफले ? / तए णं ते थेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं वदासी-संजमे थे प्रज्जो ! प्रणाहयफले, तवे वोदाणफले तं चेव जाव (सु. 17) पुवतवेणं पुव्यसंजमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं प्रायभाववत्तव्वयाए" से कमतं मन्ने एवं ? / [24] उस समय राजगृह नगर में (पूर्वोक्त विधिपूर्वक) भिक्षाटन करते हुए भगवान् गौतम ने बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार (शब्द) सुने-हे देवानुप्रिय ! तुगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान (चैत्य) में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य (पार्वापत्यीय) स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के (श्रमण भगवान महावीर के) श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है, भगवन् ! तप का क्या फल है ?' तब (इनके उत्तर में) उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा था-"पार्यो। संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर) है, और तप का फल व्यवदान (कों का क्षय) है। यह सारा वर्णन पहले (सु. 17) की तरह कहना चाहिए, यावत्-हे पार्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कमिता (कर्म शेष रहने से) और संगिता (रागभाव या प्रासक्ति) से देवता देवलोकों में यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने अहंभाव (यात्मभाव) वश यह वात नहीं कही है। तो मैं (गौतम) यह (इस जनसमूह को) बात कैसे मान लू?' 25. [1] तए णं से समणे भगवं गोधमे इमोसे कहाए लट्ठ समाणे जायसड्ढे जाव समुप्पन्नकोतुहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गेहति, 2 रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति, 2 अतुरियं जाव सोहेमाणे जेणेव गुणसिलाए चेतिए जेणेब समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०, 2 सम० भ० महावीरस्स प्रदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमति, एसणमणेसणं झालोएति, 2 भत्तपाणं पडिसेति, 2 समणं म० महावीरं जाव एवं वदासि-"एवं खलु भंते ! अहं तुब्भेहि अभणण्णाते समाणे रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस भिवखायरियाए अडमाणे बहुजणसई निसाममि 'एव खलु देवाणुप्पिया ! तुगियाए नगरीए बहिया पुष्फवईए चेइए पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो समणोवासहि इमाई एतारूवाइं वागरणाइं पुच्छिता-संजमे णं भंते ! किफले ? तवे किंफले ? तं चेव जाव (सु. 17) सच्चे णं एसमठे, णो चेव णं प्राय भाववतन्त्रयाए'। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 140 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [25-1] इसके पश्चात श्रमण भगवान् गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सुनी तो उन्हें [उस बात की जिज्ञासा में श्रद्धा उत्पन्न हुई, और यावत् (उस बात के लिए) उनके मन में कुतहल भी जागा। अतः भिक्षाविधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वे राजगहनगर (की सीमा) से बाहर निकले और अत्वरित गति से यावत् (ईर्यासमितिपूर्वक) ईर्या-शोधन करते हुए जहाँ गुणशीलक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पाए / फिर उनके निकट उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, (भिक्षाचर्या में लगे हुए) एषणादोषों की आलोचना की, फिर (लाया हुआ) आहार-पानी भगवान को दिखाया। तत्पश्चात् श्रीगौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार निवेदन किया"भगवन् ! मैं आपसे प्राज्ञा प्राप्त करके राजगृहनगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा-चर्या की विधिपूर्वक भिक्षाटन कर रहा था, उस समय बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार सुने कि तुगिका नगरी के बाहर (स्थित) पुष्पवतिक नामक उद्यान में पाश्र्वापत्यीय स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन ! संयम का क्या फल है ? और तप का क्या फल है ?' यह सारा वर्णन पहले (सू. 17) की तरह कहना चाहिए; यावत् यह बात सत्य है, इसलिए कही है, किन्तु हमने अहं (अात्म) भाव के वश होकर नहीं कही। [2] "तं पभू गं भंते ! ते थेरा भगवतो तेसि समणोवासयणं इमाई एतारूवाइं वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अप्पभू?, समिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासगाणं इमाई एतारूवाई वागरणाई वागरित्तए? उदाह असमिया ?, प्राउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अणाउज्जिया ?, पलिउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई वागरित्तए ? उदाहु अपलिउज्जिया?, पुवतवेणं प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति, पुरुवसंजमेणं०, कम्मियाए०, संगियाए, पुचतवेणं पुव्वसंजमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति / सच्चे णं एस म8 जो चेव चं प्रायभाववत्तन्वयाए?" / [25-2 प्र.] (यों कहकर श्री गौतम स्वामी ने पूछा-) हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों के प्रश्नों के ये और इस प्रवार के उत्तर देने में समर्थ हैं, अथवा असमर्थ हैं ? भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन् उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में सम्यकरूप से ज्ञानप्राप्त (समित या सम्पन्न) (अथवा श्रमित शास्त्राभ्यासी या अभ्यस्त) हैं, अथवा असम्पन्न या अनभ्यस्त हैं ? (और) हे भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में उपयोग वाले हैं या उपयोग वाले नहीं हैं ? भगवन् ! क्या वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को ऐसा उत्तर देने में परिज्ञानी (विशिष्ट ज्ञानवान्) हैं, अथवा विशेष ज्ञानी नहीं हैं कि सार्यो ! पूर्वतप से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, तथा पूर्वसंयम से, कमिता से और संगिता (आसक्ति) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात सत्य है, इसलिए हम कहते हैं, किन्तु अपने अहंभाव वश नहीं कहते हैं ? [3] पभू गं गोतमा ! ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं इमाइं एयारूवाई वागरणाई Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 225 वागरेत्तए, यो चेव णं अप्पभू, तह चेव नेयम्व अविसेसियं जाव पभू समिया प्राउज्जिया पलि उजिया जाव सच्चे णं एस मढे णो चेव णं प्रायभाववत्तम्बयाए / [25-3 उ.](महावीर प्रभु ने उत्तर दिया-) हे गौतम ! वे स्थविर भगवन्त उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार के उत्तर देने में समर्थ हैं, असमर्थ नहीं; (शेष-सब पूर्ववत् जानना) यावत् वे सम्यक् रूप से सम्पन्न (समित) हैं अथवा अभ्यस्त (अमित) हैं ; असम्पन्न या अनभ्यस्त नहीं ; वे उपयोग वाले हैं, अनुपयोग वाले नहीं; वे विशिष्ट ज्ञानी हैं, सामान्य ज्ञानी नहीं। यह बात सत्य है, इसलिए उन स्थविरों ने कही है, किन्तु अपने अहंभाव के वश होकर नहीं कही। [4] अहं पि गं गोयमा ! एवमाइक्लामि भासेमि पण्णवेमि परूबेमि-पुन्वतवेणं देवा देवलोएसु उववज्जति, पुव्वसंजमेणं देवा देवलोएसु उववज्जति, कम्मियाए देवा देवलोएसु उववज्जंति, संगियाए देवा देवलोएसु उववज्जति, पुब्धतवेणं पुव्वसं जमेणं कम्मियाए संगियाए प्रज्जो ! देवा देवलोएसु उववज्जति; सच्चे णं एस मठे, णो चेव णं प्रायभाववत्तन्वयाए / [25-4 उ.] हे गौतम ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बताता हूँ और प्ररूपणा करता है कि पूर्वतप के कारण से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं. पूर्वसंयम के कारण देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, कमिता (कर्मक्षय होने बाकी रहने) से देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं तथा संगिता (आसक्ति या रागभाव) के कारण देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं / (निष्कर्ष यह है कि) आर्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कमिता और संगिता से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यही बात सत्य है; इसलिए उन्होंने कही है, किन्तु अपनी अहंता प्रदर्शित करने के लिए नहीं कही। विवेचन--स्थविरों को उत्तरप्रदान-समर्थता आदि के विषय में गौतम के प्रश्न और भगवान द्वारा समाधान प्रस्तुत दो सूत्रों (24 और 25) में श्री गौतमस्वामी ने राजगृह में भिक्षाटन करते समय पापित्यीय स्थविरों की ज्ञानशक्ति के सम्बन्ध में जो सुना था, भगवान महावीर से उन्होंने विभिन्न पहलुओं से उनके सम्बन्ध में जिज्ञासावश पूछकर जो यथार्थ समाधान प्राप्त किया था उसका सांगोपांग निरूपण है। समिया' आदि पदों को व्याख्या-समिया - सम्यक्, अथवा समित सम्यक् प्रकार से इत अर्थात् ज्ञात, अथवा श्रमित = शास्त्रज्ञान में श्रम किये हुए अभ्यस्त / प्राउज्जिय = प्रायोगिक उपयोगवान् अर्थात्-ज्ञानी / पलिउज्जियः प्रायोगिक अथवा परियोगिक-परिज्ञानी - सर्वतोमुखी ज्ञानवान् / ' एसणमणेसणं =यतना(एषणा) पूर्वक की हुई भिक्षाचरी में लगे हुए दोष का। श्रमण-माहनपर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल 26. [1] तहारूबणं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किफला पज्जु वासणा ? गोयमा ! सवणफला। [26-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप (जैसा वेश है, तदनुरूप गुणों वाले) श्रमण या माहन की पर्युपासना करने वाले मनुष्य को उसकी पर्युपासना का क्या फल मिलता है ? 1. भगवती मूत्र अ. वृति, पत्रांक 140 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 / / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26-1 उ.] गौतम ! तथारूप श्रमण या माहन के पर्युपासक को उसकी पर्युपासना का फल होता है---श्रवण (सत्-शास्त्र श्रवणरूप फल मिलता है)। / [2] से णं भंते ! सवणे किंफले ? जाणफले / [26-2 अ.] भगवन् ! उस श्रवण का क्या फल होता है ? [26-2 उ.] गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान है। (अर्थात-शास्त्र-श्रवण से ज्ञानलाभ होता है।) [3] से पं भंते ! नाणे किंफले ? विष्णाणफले। [26-3 प्र.] भगवन् ! उस ज्ञान का क्या फल है? [26.3 उ.] गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है (अर्थात् ज्ञान से हेय और उपादेय तत्त्व के विवेक की प्राप्ति होती है !) [4] से णं भंते ! विण्णाणे किफले ? पच्चक्खाणफले। [26.4 प्र.] भगवन् ! उस विज्ञान का क्या फल होता है ? [26.4 उ.] गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान (हेय पदार्थों का त्याग) है / [5] से ण भंते ! पच्चक्खाणे किंफले ? संजमफले। [26-5 प्र.] भगवन् ! प्रत्याख्यान का क्या फल होता है ? [26-5 उ.] गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम (सर्वसावत्या गरूप संयम अथवा पृथ्वीकायादि 17 प्रकार का संयम) है। [6] से गं भते ! संजमे किफले ? अणण्हयफले। |26-6 प्र.] भगवन् ! संयम का क्या फल होता है ? [26-6 उ.] गौतम ! संयम का फल अनाश्रवत्व (संवर-नवीन कर्मों का निरोध) है। [7] एवं अणण्हये तवफले / तवे बोदाणफले / बोदाणे अकिरियाफले / [26-7] इसी तरह अनाश्रवत्व का फल तप है, तप का फल व्यवदान (कर्मनाश) है और व्यवदान का फल अक्रिया है / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 227 [4] से गं भंते ! प्रकिरिया किफला ? सिद्धिपज्जबसाणफला पण्णत्ता गोयमा ! गाहा सवणे जाणे य विण्णाणे पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हये तवे चेव बोदाणे प्रकिरिया सिद्धी // 1 // [26-8 प्र.] भगवन् ! उस प्रक्रिया का क्या फल है ? [26-8 उ.] गौतम ! प्रक्रिया का अन्तिम फल सिद्धि है। (अर्थात्-प्रक्रियता-प्रयोगी अवस्था प्राप्त होने पर अन्त में सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होती है / ) गाथा का अर्थ इस प्रकार है 1. (पर्युपासना का प्रथम फल) श्रवण, 2. (श्रवण का फल) ज्ञान, 3. (ज्ञान का फल) विज्ञान, 4. (विज्ञान का फल) प्रत्याख्यान, 5. (प्रत्याख्यान का फल) संयम, 6. (संयम का फल) अनाश्रवत्व, 7. (अनाश्रवत्व का फल) तप, 8. (तप का फल) व्यवदान, 9. (व्यवदान का फल) अक्रिया, और 10. (प्रक्रिया का फल) सिद्धि है। विवेचन-श्रमण-माहन-पर्युपासना का अनन्तर प्रौर परम्पर फल-प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न विभागों द्वारा श्रमण और माहन को पर्युपासना का साक्षात् फल श्रवण और तदनन्तर उत्तरोत्तर ज्ञानादि फलों के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। श्रमण जो श्रम (आत्मगुणों के लिए स्वयं श्रम या तप), सम (प्राणिमात्र को प्रात्मवत् मानने) और शम (विषय-कषायों के उपशमन) से युक्त हो, वह साधु / ___माहन -जो स्वयं किसी जीव का हनन न करता हो, और दूसरों को 'मत मारो' ऐसा उपदेश देता हो। उपलक्षण से मुलगुणों के पालक को 'माहन' कहा जाता है। अथवा 'माहन' व्रतधारी श्रावक को भी कहते हैं। श्रमण-माहन-पर्युपासना से अन्त में सिद्धि-श्रमणों की सेवा करने से शास्त्र-श्रवण, उससे श्र तज्ञान, तदनन्तर श्रु तज्ञान से विज्ञान-(हेय-ज्ञेय-उपादेय का विवेक) प्राप्त होता है / जिसे ऐसा विशेष ज्ञान होता है, वही पापों का प्रत्याख्यान या हेय का त्याग कर सकता है / प्रत्याख्यान करने से मन, वचन, काय पर या पृथ्वीकायादि पर संयम रख सकता है / संयमी व्यक्ति नये कर्मों को रोक देता है / इस प्रकार का लघुकमी व्यक्ति तप करता है / तप से पूराने कर्मों की निर्जरा (व्यवदान) होती है / यो कर्मों को निर्जरा करने से व्यक्ति योगों का निरोध कर लेता है, योग निरोध होने से क्रिया बिलकुल बंद हो जाती है, और अयोगी (प्रक्रिय) अवस्था से अन्त में मुक्ति (सिद्धि) प्राप्त हो जाती है / यह है-श्रमणसेवा से उत्तरोत्तर 10 फलों की प्राप्ति का लेखा-जोखा ! 1 राजगह का गर्मजल का स्रोत : वैसा है या ऐसा ? 27. अण्ण उस्थिया गं भंते ! एवमाइक्खंति भासेंति पण्णवेति परुति--एवं खलु 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 141 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रायगिहस्स नगरस्स बहिया वेभारस्स पब्बयस्स अहे एत्थ णं महं एगे हरए अप्पे (अधे) पण्णते, प्रणेगाइं जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं नाणादुमसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए जाव पडिरूपे / तत्थ णं बहवे पोराला बलाया संसेयंति सम्मुच्छंति वासंति तव्वतिरित्ते य णं सया समियं उसिणे 2 आउकाए अभिनिस्सवइ / से कहमेतं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं गं ते अण्णउत्थिया एयमाइक्खंति जाव जे ते एवं परूवति मिच्छं ते एवमाइवखंति जाव सव्वं नेयत्वं / प्रहं पुण गोतमा ! एवमाइक्खामि भा० 50 ५०-एवं खलु रायगिहस्स नगरस्स बहिया वेमारस्स पन्वतस्स अदूरसामंते एत्थ णं महातवोक्तीरप्पभवे नाम पासवणे पण्णते, पंच धणुसताणि पायाम-विक्खंमेणं नाणादुमसंडमंडिउसे सस्सिरीए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमति विउक्कमति चयंति उववज्जति तन्वतिरित्ते वि य ण सया समितं उसिणे 2 अाउयाए अमिनिस्सवति-एस णं गोतमा ! महातवोवतीरप्पभवे पासवणे, एस णं गोतमा ! महातवोवतीरप्पभवस्स पासवणस्स अट्रे पण्णत्ते / सेवं भंते ! 2 ति भगवं गोयमें समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति / // बितीय सए पंचमो उद्देसो समत्तो॥ [27 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं कि 'राजगह नगर के बाहर वैभारगिरि के नीचे एक महान् (बड़ा भारी) पानी का ह्रद (कुण्ड) है / उसकी लम्बाई-चौड़ाई (पायाम-विष्कम्भ) अनेक योजन है। उसका अगला भाग (उद्देश) अनेक प्रकार के वृक्षसमूह से सुशोभित है, वह सुन्दर (श्रीयुक्त) है, यावत् प्रतिरूप (दर्शकों की आँखों को सन्तुष्ट करने वाला) है / उस हद में अनेक उदार मेघ संस्वेदित (उत्पन्न होते (गिरते) हैं, सम्भूछित होते (बरसते) हैं। इसके अतिरिक्त (कुण्ड भर जाने के उपरान्त) उसमें से सदा परिमित (समित) गर्म-गर्म जल (अप्काय) झरता रहता है। भगवन् ! (अन्यतीथिकों का) इस प्रकार का कथन कैसा है ? क्या यह (कथन) सत्य है ? [27 उ.] हे गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, और प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर के बाहर...... यावत्..... गर्म-गर्म जल झरता रहता है, यह सब (पूर्वोक्त वर्णन) वे मिथ्या कहते हैं; किन्तु हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बतलाता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ, कि राजगृह नगर के बाहर वैभारगिरि के निकटवर्ती एक महातपोपतीर-प्रभव नामक झरना (प्रस्त्रवण) (बताया गया) है। वह लम्बाई-चौड़ाई में पांच-सौ धनुष है / उसके आगे का भाग (उद्देश) अनेक प्रकार के वृक्ष-समूह से सुशोभित है, सुन्दर है, 1. 'अधे' के स्थान में 'अप्पे पाट ही संगत लगता है, अर्थ होता है आच्य पानी का। 2. वर्तमान में भी यह गर्म पानी का कुण्ड राजगृह में वैभारगिरि के निकट प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वास्तव में यह पर्वत में से झर-झर कर भरने के रूप में ही प्राकर इस कुण्ड में गिरता है। कुण्ड स्वाभाविक नहीं है, यह तो सरकार द्वारा बना दिया गया है। बहुतसे यात्री या पर्यटक आकर धर्मबुद्धि से इसमें नहाते हैं, कई चर्मरोगों को मिटाने के लिए इसमें स्नान करते हैं / इटली के प्रारमिश्रा के निकट भी एक ऐमा झरना है, जिसमें सदियों में गर्म पानी होता है और गर्मियों में बर्फ जैसा ठंडा पानी रहता है। (देखें-संसार के 1500 अद्भत आश्चर्य भाग 2. पृ.१५९)—सं. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [229 प्रसन्नताजनक है दर्शनीय है, रमणीय (अभिरूप) है और प्रतिरूप (दर्शकों के नेत्रों को सन्तुष्ट करने वाला) है / उस झरने में बहुत-से उष्णयोनिक जीव और पुदगल जल के रूप में उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, च्यवते (च्युत होते) हैं और उपचय (वृद्धि) को प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उस झरने में से सदा परिमित गर्म-गर्म जल (अप्काय) भरता रहता है। हे गौतम ! यह महातपोपतीर-प्रभव नामक भरना है, और हे गौतम ! यही महातपोपतीरप्रभव नामक झरने का अर्थ (रहस्य) है / ___ 'हे भगवन ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। विवेचन-राजगह का गर्म जल का स्रोत : वैसा है या ऐसा? प्रस्तत सत्र में राजगह में वैभारगिरि के निकटस्थ उष्णजल के स्रोत के सम्बन्ध में अन्यतीथिकों के मन्तव्य को मिथ्या भगवान् का यथार्थ मन्तव्य प्ररूपित किया गया है। // द्वितीय शतक : पंचम उद्दे शक सम्पूर्ण / / Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्दे सो : भासा छठा उद्देशक : भाषा भाषा का स्वरूप और उससे सम्बन्धित वर्णन 1. से णणं भंते ! 'मन्नामी' ति प्रोधारिणी भासा ? एवं भासापदं भाणियब्वं / / वितीय सए छट्ठो उद्देसो समतो // [1 प्र.] भगवन् ! भाषा अवधारिणी है; क्या मैं ऐसा मान लू ? [1 उ.] गौतम ! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के ग्यारहवें भाषापद का समग्र वर्णन जान लेना चाहिए। विवेचन-भाषा का स्वरूप और उससे सम्बन्धित वर्णन–प्रस्तुत छठे उद्देशक में एक ही मूत्र द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के भाषापद में वर्णित समग्र वर्णन का निर्देश कर दिया गया है। भाषासम्बन्धी विश्लेषण-प्रज्ञापनासूत्र के ११वें भाषापद में अनेक द्वारों से भाषा का पृथक्पृथक् वर्णन किया गया है। यथा-(१) भेद-भाषा के 4 भेद हैं---सत्या, असत्या, सत्या-मृषा (मिश्र) और असत्याऽऽमृषा (व्यवहारभाषा) (2) भाषा का प्रादि (मूल) कारण-जीव है / (३)भाषा को उत्पत्ति-(प्रौदारिक, वैक्रिय तथा अाहारक) शरीर से होती है। (4) भाषा का संस्थान–बज्र के आकार का है। (5) भाषा के पुदगल-लोक के अन्त तक जाते हैं / (6) भाषारूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गल-अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध पुद्गल, असंख्यात आकाशप्रदेशों को अवगाहित पुद्गल; एक समय, दो समय यावत् दस समय संख्यात और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, पांच वर्ण, दो गंध, पाँच रस और 8 स्पों में से 4 स्पर्श (स्निग्ध, रूक्ष, ठंडा, गर्म) वाले पुद्गल, तथा नियमत: छह दिशा के पूदगल भाषा के रूप में गहीत होते हैं। सान्तर-निरन्तर—भाषावर्गणा के पुदगल निरन्तर गृहीत होते हैं, किन्तु सान्तर त्यागे (छोडे) जाते हैं। सान्तर का अर्थ यह नहीं कि बीच में रुक-रुक कर त्यागे जाते हैं, अपितु सान्तर का वास्तविक अर्थ यह है कि प्रथम समय में गृहीत भाषा-पुद्गल दूसरे समय में, तथा दूसरे समय में गृहीत तीसरे समय में त्यागे जाते हैं, इत्यादि / प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, और अन्तिम समय में सिर्फ त्याग होता है; बीच के समयों में निरन्तर दोनों क्रियाएं होती रहती हैं। यही सान्तर-निरन्तर का तात्पर्य है / (8) भाषा को स्थिति-जधन्य एक समय की उत्कृष्ट प्रसंख्येय समय की। (6) भाषा का अन्तर (व्यवधान)-जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। (10) भाषा के पुद्गलों का ग्रहण और त्याग---ग्रहण काययोग से और Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-६ ] [ 231 त्याग वचनयोग से। ग्रहणकाल-जधन्य एक समय, उत्कृष्ट प्रसंख्येय समय, त्यागकाल-जघन्य दो समय, उत्कृष्ट असंख्येय सामयिक अन्तमुहूर्त / (11) किस योग से, किस निमित्त से, कौन सी भाषा-ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से और मोहनीयकर्म के उदय से, वचनयोग से असत्या और सत्या-मृषा भाषा बोली जाती है, तथा ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणोय के क्षयोपशम से सत्य और असत्या मषा-भाषा बोली जाती है, तथा ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय के क्षयोपशम से सत्या और असत्याऽऽमषा (व्यवहार) भाषा वचनयोग से बोली जाती है / (12) भाषकअभाषक-अपर्याप्त-जीव, एकेन्द्रिय, सिद्ध भगवान् और शैलेशो प्रतिपन्न जीव अभाषक होते हैं / शेष सब जीव भाषक होते हैं। (13) अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सत्य भाषा बोलने वाले, उनसे असंख्यातगुने मिश्र भाषा बोलने वाले, उनसे असंख्यातगुना असत्य भाषा बोलने वाले, उनसे असंख्यातगुने व्यवहार भाषा बोलने वाले हैं तथा उनसे अनन्त गुने अभाषक जीव हैं।' // द्वितीय शतक: छठा उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 142 (ख) पण्णवणासुत्तं मूलपाठ पृष्ठ 214-215 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : देव सप्तम उद्देशक : देव देवों के प्रकार, स्थान, उपपात, संस्थान आदि का वर्णन 1. कइ णं भंते ! देवा पण्णता? गोयमा ! चउबिहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-मवणवति-वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया। [1 प्र.] भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / 2. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तव्वया सा भाणियन्वा / उववादेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। एवं सव्वं भाणियन्वं जाव (पण्णवणासुत्तं सु. 177 त : 211) सिद्धगंडिया समत्ता। "कप्पाण पतिद्वाणं बाहल्लुच्चत्तमेव संठाणं / " जीवाभिगमे जो वेमाणियुद्देसो सो भाणियन्दो सम्वो। // बितीय सए सत्तमो उद्देसो समत्तो।। [2 प्र. भगवन् ! भवनवासी देवों के स्थान कहाँ पर कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! भवनवासी देवों के स्थान इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे हैं; इत्यादि देवों की सारी वक्तव्यता प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थान-पद में कहे अनुसार कहनी चाहिए 1 किन्तु विशेषता इतनी है कि यहाँ भवनवासियों के भवन कहने चाहिए / उनका उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है / यह समग्र वर्णन सिद्ध सिद्धगण्डिकापर्यन्त पूरा कहना चाहिए। कल्पों का प्रतिष्ठान (आधार) उनकी मोटाई, ऊँचाई और संस्थान आदि का सारा वर्णन जीवाभिगमसूत्र के वैमानिक उद्देशक पर्यन्त कहना चाहिए / विवेचन-देवों के प्रकार, स्थान, उपपात, संस्थान प्रादि का वर्णन-प्रस्तुत सप्तम उद्देशक के दो सूत्रों के द्वारा देवों के प्रकार, स्थान आदि के तथा आधार, संस्थान आदि के वर्णन को प्रज्ञापना सूत्र एवं जीवाभिगम सूत्र द्वारा जान लेने का निर्देश किया गया है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-७.] [2331 देवों के स्थान प्रादि--प्रज्ञापना सूत्र के दूसरे स्थानपद में भवतवासियों का स्थान इस प्रकार बताया है-रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजना है। उसमें से एक हजारग्योजस। ऊपर और एक हजार योजनानीचे छोडकर बीच में.१ लाख 78 हजार-योजन में भवन हैं। उपपात--भक्तपतियों का उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है। मारणान्लिक समुद्घात की अपेक्षा और स्थान की अपेक्षा के लोक के असंख्येय भाग में ही रहते हैं क्योंकि उनके 7 करोड 72 लाख भवना लोक के असंख्येयःभाग में ही हैं / इसी तरह प्रमुरकुमाररमादि के विश्रामें। [वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, सभी देनों के स्थानों का कथन करना चाहिए। यावता भगवान् के स्थानों का वर्णन करने वाले 'सिद्धगण्डिका' नामक प्रकरण तक कहना चाहिए। वैमानिक-प्रतिष्ठान प्रादि का वर्णन-जीवाभिगमा सूत्र के वैमानिक उद्देशक में कथिस वर्णना संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) प्रतिष्ठान-सौधर्म औरर ईशाना कल्पामें विमानः करें : पृथ्वी : घनदाधिों के आधार पर टिकी हुई है। इससे आगे के तीन घनोंदधि औरश्वात पर प्रतिष्ठित हैं। उसमें आगे के सभी ऊपर के विमान प्रकाश के आधार पर प्रतिष्ठिताहैं। (२)वाहरुमा (मोटाई)) और उच्चाव:- सौधर्म। और ईशान कल्प में विमानों की मोटाई. 2700 योजन और ऊलाई 500 योजन है / / ससदकुमार और: माहेन्द्र कल्प में मोटाई 2600. योजन और ऊँचाई 600 योजता है। ब्रहालोका और लान्लक में टाई 2500. योजन, ऊँचाई 700 योजन है।महाशक और सहस्रारकरूप में मोटाई:२४०००योजन, ऊँचाई 800 योजन है,। आनत, प्राणत, पारण और अच्युत देवलोकों में मोटाई:२३.०.०० योजन ऊँचाई, 900 योजन है। नवग्रे.वेयक के विमानों की मोटाई 22.0.00 योजना और ऊँचाई. 10.00 योजन है।। पंच अनुत्तर विमानों की मोटाई. 21000 योजनः प्रौर ऊँचाइ.११.०० योजना है। (3) संस्थान-.. दो प्रकार के (1) पावलिकाप्रविष्ट और (2), प्रावलिमा बाह्मा। मानिका देनः प्रावलिका-- प्रविष्ट (पंक्तिबद्ध) तीन संस्थानों वाले हैं--वृत्त (गोल)) व्यंसा (त्रिकोण) और चतुरस्त्रा (व एकोण) आवलिकाबाह्य नाना प्रकार के संस्थानों काले हैं। इसी तरह विमानों के प्रमाण, रंगा कारिल/ गनधा आदि का सब.वर्णन जीवाभिगम मूत्र से जान लेना चाहिए। / / द्वितीय शतक : सप्तमाउद्देशक समाप्त 1. (क) भगवती सूत्र अः वृत्ति पत्रांक 142-343. (ख) प्रशापनासूत्र स्थानपद-द्वितीयः पद, पृ..९४ सें:१३७. तकः 2. जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्तिः४, विमान-उद्देशकःस.सूर 09.12 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : सभा अष्टम उद्देशक : सभा असुरकुमार राजा चमरेन्द्र की सुधर्मासभा प्रादि का वर्णन-- 1. कहि णं भंते ! चमरस्स असुररणो सभा सुहम्मा पण्णता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वोईवइत्ता अरुणवरस्स दोवस्स बाहिरिल्लातो वेइघतातो अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसहस्साई भोगाहित्ता एत्थ णं चमरस्स प्रसुररष्णो तिगिछिकूडे नाम उष्पायपवते पण्णते, सत्तरसएक्कवीसे जोयणसते उड्ढे उच्चत्तणं, चत्तारितोसे जोयणसते कोसं च उन्हेणं; गोत्थुभस्स प्रावासपवयस्स पमाणेणं नेयन्वं, नवरं उरिल्लं पमाणं मज्झे भाणियन्वं [मूले दसबावीसे जोयणसते विक्खंमेणं, मझे चत्तारि चउवोसे जोयणसते विवखंभेणं, उरि सत्ततेवीसे जोयणसते विक्खंभेणं; मूले तिणि जोयणसहस्साई दोषिण य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवणं, माझे एग जोयणसहस्सं तिणि प इगुयाले जोयणसए किचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, उरि दोण्णि य जोयणसहस्साहं दोष्णि य छलसीए जोयणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं]'; जाव मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उपि विसाले / मज्झे वरवइरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगणं वणसंडेण य सम्बतो समंता संपरिखित्ते / पउमवरवेइयाए वणसंडस्स य वण्णप्रो। तस्स पंतिगिछिकडस्स उत्पायपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते / वरुणनो। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभागे। एस्थ णं महं एगे पासातडिसए पण्णत्ते प्रडाइज्जाई जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणसयं विवखंभेणं / पासायवण्णो / उल्लोयभूमिवण्णओ / प्रष्टु जोयणाई मणिपेढिया / चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणिय / ____ तस्स णं तिगिछिकूडस्स दाहिणणं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीनो पणतीसं च सतसहस्साई पण्णासं च सहस्साई अरणोदए समुद्दे तिरियं वीरबहत्ता, अहे य रयणध्यभाए पुढवीए चत्तालोसं जोयणसहस्साई भोगाहित्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो चमरचंचा नामं रायहाणी पण्णता, एगं जोयणसतसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं जंबुद्दीवपमाणा। [पागारो दिवड्डजोयणसयं उड्ड उच्चत्तेणं, मूले पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं, उरि अद्धतेरसजोयणा कविसीसगा प्रद्धजोयणायाम कोसं विक्खंभेणं देसूर्ण श्रद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं एगमेगाए बाहाए पंच पंच दारसया. अदाइज्जाई जोयणसयाई१. यह पाठ हमारी मूल प्रति में नहीं है, अन्य प्रतियों में है, अत: इसे कोष्टक में दिया गया है। सम्पादक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उशक-८ ] [235 250 उद्धं उच्चत्तेणं, प्रद्ध–१२५ विक्लमेणं !] प्रोवारियलेणं सोलस जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, पन्नासं जोयणसहस्साई पंच य ससाणउए जोयणसए किचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, सम्वपमानं बेमाणियप्पमाणस्स पद्ध नेयम् / सभा सुहम्मा उसरपुरस्थिमेणं, जिणघर, ततो उपवायसभा हरमो अनिसेय० प्रलंकारो जहा विजयस्स / उववानो संकप्पो प्रभिसेय विभूसणा य ववसाम्रो / अच्चणियं सुहगमो वि य चमर परिवार इड्ढत्तं // 1 // / / बितीय सए अटुमो उद्देसो समत्तो // [1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र, और उनके राजा चमर की सुधर्मा-सभा कहाँ [1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में तिरछे असंख्य द्वीपों और समुद्रों को लांघने के बाद अरुणवर द्वीप पाता है / उस द्वीप की वेदिका के बाहिरी किनारे से प्रागे बढ़ने पर अरुणोदय नामक समुद्र पाता है / इस अरुणोदय समुद्र में बयालीस लाख योजन जाने के बाद उस स्थान में असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत है। उसकी ऊँचाई 1721 योजन है / उसका उद्वेध (जमीन में गहराई) 430 योजन और एक कोस है। इस पर्वत का नाप गोस्तुभ नामक आवासपर्वत के नाप की तरह जानना चाहिए / विशेष बात यह है कि गोस्तुभ पर्वत के ऊपर के भाग का जो नाप है, वह नाप यहाँ बीच के भाग का समझना चाहिए। (अर्थात-तिगिच्छकूट पर्वत का विष्कम्भ मूल में 1022 योजन है, मध्य में 424 योजन है और ऊपर का विष्कम्भ 723 योजन है। उसका परिक्षेप मूल में 3232 योजन से कुछ विशेषोन है, मध्य में 1341 योजन तथा कुछ विशेषोन है और ऊपर का परिक्षेप 2286 योजन तथा कुछ विशेषाधिक है।) वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संकीर्ण (संकड़ा) है और ऊपर फिर विस्तृत है / उसके बीच का भाग उत्तम वज्र जैसा है, बड़े मुकुन्द के संस्थान का-सा आकार है / पर्वत पूरा रत्नमय है, सुन्दर है, यावत् प्रतिरूप है। वह पर्वत एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। (यहाँ वेदिका और वनखण्ड का वर्णन करना चाहिए)। उस तिगिच्छकूट नामक उत्पातपर्वत का ऊपरी भू-भाग बहुत ही सम एवं रमणीय है। (उसका भी वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए।) उस अत्यन्त सम एवं रमणीय ऊपरी भूमिभाग के ठीक बीचोबीच एक महान प्रासादावतंसक (श्रेष्ठ महल) है / उसकी ऊँचाई 250 योजन है और उसका विष्कम्भ 125 योजन है। (यहाँ उस प्रासाद का वर्णन करना चाहिए; तथा प्रासाद के सबसे ऊपर की भूमि (अट्टालिका) का वर्णन करना चाहिए।) पाठ योजन को मणिपोठिका है। (यहाँ चमरेन्द्र के सिंहासन का सपरिवार वर्णन करना चाहिए।) उस तिगिच्छकूट के दक्षिण की ओर अरुणोदय समुद्र में छह सौ पचपन करोड़, पैंतीस लाख, पचास हजार योजन तिरछा जाने के बाद नीचे रत्नप्रभापृथ्वी का 40 हजार योजन भाग अवगाहन Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2236 ] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र करने के पश्चात् यहाँ असुरकुमारों के इन्द्र-राजा चमर को चमरचंचा नाम की राजधानी है। उस राजधानी का आयाम और विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) एक लाख योजन है / वह राजधानी जम्बू द्वीप जितनी है। (उसका प्राकार (कोट) 150 योजन ऊँचा है / उसके मूल का विष्कम्भ 50 योजन है। उसके ऊपरी भाग 'काविष्कम्भ साढ़े तेरह योजन है। उसके कपिशीर्षकों (कंगरों) की लम्बाई प्राधा योजन और विष्कम्भ एक कोस है। कपिशीर्षकों की ऊँचाई आधे योजन से कुछ कम है। उसकी एक-एक भुजा में पांच-पांच सौ दरवाजे हैं। उसकी ऊँचाई 250 योजन है। ऊपरी तल (उवारियल ? घर के पीठबन्ध जैसा भाग) का आयाम और विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) सोलह हजार योजन है / उसका परिक्षेप (धेरा) 50597 योजन से कुछ विशेषोन है। यहाँ समग्र प्रमाण वैमानिक के प्रमाण से आधा समझना चाहिए। उत्तर पूर्व में सुधर्मासभा, जिनगृह, उसके पश्चात् उपपातसभा, हृद, अभिषेक सभा और अलंकारसभा; यह सारा वर्णन विजय की तरह कहना चाहिए। (यह सब भी सौधर्म-वैमानिकों से प्राधे-साधे प्रमाण वाले हैं / ) (गाथार्थ-.) उपपात, (तत्काल उत्पन्न देव का) * संकल्प, अभिषेक, विभूषणा, व्यवसाय, अर्चनिका और सिद्धायतन-सम्बन्धी गम, तथा चमरेन्द्र का परिवार और उसकी ऋद्धिसम्पन्नता ((आदि का वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिए।) विवेचन-असुरकुमार-राज चमरेन्द्र को सुधर्मासमा प्रांदि का वर्णन प्रस्तुत अष्टम उद्देशक में एक सत्र द्वारा अनेक पर्वत, द्वीप समुद्रों के अवगाहन के पश्चात् आने वाली चमरेन्द्र का राजधाना चमरचंचा का विस्तृत वर्णन किया गया है। उत्पातपर्वत आदि शब्दों के विशेषार्थ-तिरछालोक में जाने के लिए इस पर्वत पर पाकर चमर उत्पतन करता-उड़ता है, इससे इसका नाम उत्पात पर्वत पड़ा है। मुकुन्द = मुकुन्द एक प्रकार का वाद्य विशेष है / अभिसेय सभा अभिषेक करने का स्थान / पद्मवरवेदिका का वर्णन-श्रेष्ठ 'पद्मवेदिका की ऊँचाई आधा योजन, विष्कम्भ पांच सौ धनुष्य है, वह सर्वरत्नमयी है / उसका परिक्षेप तिगिच्छकूट के ऊपर के भाग के परिक्षेप जितना है / वनखण्ड वर्णन वनखण्ड का चक्रवाल विष्कम्भ देशोन दो योजन हैं। उसका परिक्षेप पदमवरवेदिका के परिक्षय जितना है। वह काला हैं, काली कान्ति वाला है. इत्यादि / उत्पातपर्वत का ऊपरितल-अत्यन्त सम एवं रमणीय है। वह भूमिभाग मुरज-मुख, मृदंग"पुष्कर या सरोवरतल के समान है; अथवा आदर्श-मण्डल, करतल या चन्द्रमण्डल के समान है। 'प्रासादावतंसक बह प्रासादों में शेखर अर्थात् सर्वोपरि सर्वश्रेष्ठ प्रासाद बादलों की तरह ऊँचा, और अपनी चमक-दमक के कारण हंसता हुआ-सा प्रतीत होता है। वह प्रासाद कान्ति से श्वेत "और प्रभासित है। मणि, स्वर्ण और रत्नों की कारीगरी से विचित्र है / उसका ऊपरी भाग भी सुन्दर है। उस पर हाथी, घोड़े, बैल आदि के चित्र हैं। चमरेन्द्र का सिंहासन-यह प्रासाद के बीच में है। इस सिंहासन के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में तथा उत्तरपूर्व में चमरेन्द्र के 64 हजार सामानिक देवों के 64 हजार भद्रासन हैं। पूर्व में पाँच पटरानियों के 5 भद्रासन सपरिवार हैं। दक्षिण-पूर्व में आभ्यन्तर परिषद् के 24 हजार देवों के 24 हजार, दक्षिण में मध्यमपरिषद् के 28 हजार देवों के 28 हजार और दक्षिण-पश्चिम में बाह्यपरिषद् Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-८ ] [237 के 32 हजार देवों के 32 हजार भद्रासन हैं। पश्चिम में 7 सेनाधिपतियों के सात और चारों दिशाओं में आत्मरक्षक देवों के 64-64 हजार भद्रासन हैं। विजयदेवसभावत् चमरेन्द्रसभावर्णन-(१) उपपात-सभा में तत्काल उत्पन्न हुए इन्द्र को यह संकल्प उत्पन्न होता है कि मुझे पहले क्या और पीछे क्या कार्य करना है ? मेरा जीताचार क्या है ?, (2) अभिषेक-फिर सामानिक देवों द्वारा बड़ी ऋद्धि से अभिषेकसभा में अभिषेक होता है / (3) अलंकार-सभा में उसे वस्त्राभूषणों से अलंकृत किया जाता है। (4) व्यवसाय-सभा में पुस्तक का वाचन किया जाता है, (5) सिद्धायतन में सिद्ध भगवान् के गुणों का स्मरण तथा भाववन्दनपूजन किया जाता है। फिर सामानिक देव आदि परिवार सहित सुधर्मासभा (चमरेन्द्र की) में आते हैं। // द्वितीय शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त // - - --- --- - 1. (क) भगवती अ. वृत्ति पत्रांक 145-146 (ख) जीवांभिगम 521-632 क. आ. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : दीव (समयखेत्त) नवम उद्देशक : द्वोप (समयक्षेत्र) समयक्षेत्र-सम्बन्धी प्ररूपणा 1. किमिदं भंते ! 'समयखेते ति पवुच्चति ? गोयमा ! प्रड्वाइज्जा दीवा दो य समुद्दा-एस णं एवतिए 'समयखेत्ते' त्ति पवुच्चति / 'तत्य गं अयं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुदाणं सम्बन्भंतरए' (जीबाजीवाभि० सू. 124 पत्र 177) एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयव्या जाव अभितरं पुकावरद्ध जोइसविहूर्ण / ॥वितीय सए नवमो उद्देसो समत्तो॥ [1 प्र.] भगवन् ! यह समयक्षेत्र किसे कहा जाता है ? [1 उ.] गौतम ! अढाई द्वीप और दो समुद्र इतना यह (प्रदेश) 'समयक्षेत्र' कहलाता है / इनमें जम्बूद्वीप नामक द्वीप समस्त द्वीपों और समुद्रों के बीचोबीच है। इस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा हुमा सारा वर्णन यहाँ यावत् अाभ्यन्तर पुष्कराद्ध तक कहना चाहिए; किन्तु ज्योतिष्कों का वर्णन छोड़ देना चाहिए। विवेचन--समयक्षेत्र सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत नौवें उद्देशक में एक सूत्र द्वारा समयक्षेत्र के स्वरूप, परिमाण प्रादि का वर्णन जीवाभिगम सूत्र के निर्देशपूर्वक किया गया है / समयक्षेत्र : स्वरूप और विश्लेषण---समय अर्थात् काल से उपलक्षित क्षेत्र 'समयक्षेत्र' कहलाता है। सूर्य की गति से पहचाना जाने वाला दिवस-मासादिरूप काल समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्र में ही है, इससे आगे नहीं है; क्योंकि इससे आगे के सूर्य चर (गतिमान) नहीं हैं, अचर हैं। समयक्षेत्र का स्वरूप-जीवाभिगम सूत्र में मनुष्यक्षेत्र (मनुष्यलोक) के स्वरूप को बताने वाली एक गाथा दी गई है "अरिहंत-समय बायर-विज्ज-णिया बलाहगा अगणी। प्रागर-णिहि-णई-उबराग-णिग्गमे वुड्ढिवयणं च / / " अर्थात्-मानुषोत्तर पर्वत तक मनुष्यक्षेत्र कहलाता है / जहाँ तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक [239 वासुदेव, प्रतिवासुदेव, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका और मनुष्य हैं, वहाँ तक मनुष्यलोंक कहलाता है / जहाँ तक समय, आवलिका आदि काल है, स्थूल विद्य त् है, मेघगर्जन है,मेघों की पंक्ति बरसती है, स्थूल अग्नि है, आकर, निधि, नदी, उपराग (चन्द्र-सूर्यग्रहण) है, चन्द्र, सूर्य, तारों का प्रतिगमन (उत्तरायण) और निर्गमन (दक्षिणायन) है, तथा रात्रि-दिन का बढ़ना-घटना इत्यादि है, वहाँ तक समयक्षेत्र-मनुष्यक्षेत्र है।' // द्वितीय शतक : नवम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 145 (ख) जीवाभिगम सूत्र, क. पा. 792-803 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्दे सो : अस्थिकाय दशम उद्देशक : प्रस्तिकाय अस्तिकाय : स्वरूप प्रकार एवं विश्लेषण--- 1. कति ण भते ! अस्थिकाया पण्णता? ___ गोयमा ! पच अस्थिकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मस्थिकाए अधम्मत्यिकाए पागासस्थिकाए जीवत्यिकाए पोग्गलस्थिकाए ! [1 प्र. भगवन् ! अस्तिकाय कितने कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! अस्तिकाय पांच कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / 2. धम्मस्थिकाए णं भते ! कतिवणे कतिगंधे कतिरसे कतिकासे ? गोयमा ! प्रवणे अगंधे अरसे अफासे प्रावी प्रजीवे सासते प्रवट्टिते लोगदम्वे / से समासतो पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--दन्यतो खेत्ततो कालतो भावतो गुणतो दन्वतो णं धम्मत्यिकाए एगे दव्वे / खेत्ततो गं लोगप्पमाणमेते। कालतो न कदायि न आसि, न कयाइ नस्थि, जाव निच्चे। भावतो. प्रवण्णे प्रगंधे परसे प्रफासे / गुणतो गमणगुणे। [2 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? [2 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित, और स्पर्शरहित है, अर्थात्-धर्मास्तिकाय अरूपी है, अजीव है, शाश्वत है, अवस्थित लोक (प्रमाण) द्रव्य है। संक्षेप में, धर्मास्तिकाय पांच प्रकार का कहा गया है-द्रव्य से (धर्मास्तिकाय), क्षेत्र से (धर्मास्तिकाय), काल से (धर्मास्तिकाय), भाव से (धर्मास्तिकाय) और गुण. से (धर्मास्तिकाय)। धर्मास्तिकाय द्रव्य से एक द्रव्य है, क्षेत्र से धर्मास्तिकाय लोकप्रमाण है; काल की अपेक्षा धर्मास्तिकायः कभी नहीं था, ऐसा नहीं; कभी नहीं है, ऐसा नहीं; और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं; किन्तु वह था, है और रहेगा, यावत् वह नित्य है। भाव की अपेक्षा धर्मास्तिकाय वर्णरहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्शरहित है / गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गतिमुण वाला (मतिपरिणत जीवों और पुद्गलों के गमन में सहायक निमित्त) है। 3. प्रधम्मस्थिकाए वि एवं चेव / नवरं गुणतो ठाणगुणे। [3] जिस तरह धर्मास्तिकाय का कथन किया गया है, उसी तरह अधर्मास्तिकायः के विषयः Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 241 में भी कहना चाहिए ; किन्तु इतना अन्तर है कि अधर्मास्तिकाय गुण की अपेक्षा स्थिति गुण वाला (जीवों-पुद्गलों की स्थिति में सहायक) है। 4. प्रागासस्थिकाए वि एवं चेव / नवरं खेत्तनो णं प्रागासस्थिकाए लोयालोयप्पमाणमेत्ते प्रणंते चेव जाव (सु. 2) गुणग्रो अवगाहणागुणे / [4 आकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि क्षेत्र की अपेक्षा आकाशास्तिकाय लोकालोक-प्रमाण (अनन्त) है और गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है। 5. जीवस्थिकाए गं भते ! कतिवपणे कतिगंधे कतिरसे कइफासे ? गोयमा ! अवणे जाव (सु. 2) प्ररूबी जीवे सासते अवट्रिते लोगदम्वे / से समासमो पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-दव्यतो जाव गुणतो। दवतो णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदब्वाइं। खत्तो लोगप्पमाणमेत्ते। कालतो न कयाइ न पासि जाव (सु. 2) निच्चे / भावतो पुण अवणे अगंधे अरसे अफासे / गुणतो उपयोगगुणे / [5 प्र. भगवन् ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? [5 उ.| गौतम ! जीवास्तिकाय वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरहित है वह यरूपी है, जीव (आत्मा) है, शाश्वत है, अवस्थित (और प्रदेशों की अपेक्षा) लोकद्रव्य (-लोकाकाश के बराबर) है। संक्षेप में, जीवास्तिकाय के पांच प्रकार कहे गए हैं। वह इस प्रकार--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा जीवास्तिकाय / द्रव्य की अपेक्षा-जीवास्तिकाय अनन्त जीवद्रव्यरूप है। क्षेत्र की अपेक्षालोक-प्रमाण है / काल की अपेक्षा-~~-वह कभी नहीं था, ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है। भाव की अपेक्षा-जीवास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श नहीं है / गुण की अपेक्षाजीवास्तिकाय उपयोगगुण वाला है। - 6. पोग्गलस्थिकाए णं भते ! कतिवणे कतिगंधे० रसे० फासे ? गोयमा ! पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्टफासे रूबी अजीवे सासते अदिते लोगदव्वे / से समासओ पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-दव्यतो खेत्तयो कालतो भावतो गुणतो। दन्यतो णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दवाई / खेत्ततो लोगप्पमाणमेत्ते / कालतो न कयाइ न पासि जाव (सु. 2) निच्चे। भावतो वण्णमंते गंध० रस० फासमंते / गुणतो गहणगुणे / [6 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? उ.] गौतम ! पद गलास्तिकाय में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श हैं। वह रूपी है, अजीव है, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य है। संक्षेप में उसके पांच प्रकार कहे गए हैं; Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ऐसा न यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से। द्रव्य की अपेक्षा--पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्यरूप है: क्षेत्र की अपेक्षा-पदगलास्तिकाय लोक-प्रमाण है, काल की अपेक्षा-वह कभी नहीं था त नित्य है। भाव की अपेक्षा वह वर्ण वाला, गन्ध वाला. रस वाला और स्पर्श वाला है / गुण की अपेक्षा—वह ग्रहण गुण वाला है। विवेचन–प्रस्तिकाय : स्वरूप, प्रकार एवं विश्लेषण--प्रस्तुत 6 सूत्रों में अस्तिकाय के पांच भेद एवं उनमें से धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक के स्वरूप एवं प्रकार का निरूपण किया गया है / 'अस्तिकाय' का निर्वचन–'अस्ति' का अर्थ है--प्रदेश और 'काय' का अर्थ है--समूह / अतः अस्तिकाय का अर्थ हुआ----'प्रदेशों का समूह' अथवा 'अस्ति' शब्द त्रिकालसूचक निपात (अव्यय) है / इस दृष्टि से अस्तिकाय का अर्थ हुआ-जो प्रदेशों का समूह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में रहेगा। पांचों का यह क्रम क्यों?-धर्म शब्द मंगल सूचक होने से द्रव्यों में सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय बताया है / धर्मास्तिकाय से विपरीत अधर्मास्तिकाय होने से उसे धर्मास्तिकाय के बाद रखा गया। इन दोनों के लिए आकाशास्तिकाय आधाररूप होने से इन दोनों के बाद उसे रखा गया। प्राकाश की तरह जीव भी अनन्त और अमूर्त होने से इन दोनों तत्त्वों में समानता की दृष्टि से प्राकाशास्तिकाय के बाद जीवास्तिकाय को रखा गया। पुद्गल द्रव्य जीव के उपयोग में आता है, इसलिए जीवास्तिकाय के बाद पुद्गलास्तिकाय कहा गया। पंचास्तिकाय का स्वरूप-विश्लेषण-धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य वर्णादि रहित होने से अरूपी-अमूर्त हैं, किन्तु वे धर्म (स्वभाव) रहित नहीं हैं। धर्मास्तिकायादि द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत हैं, प्रदेशों की अपेक्षा अवस्थित हैं, धर्मास्तिकायादि प्रत्येक लोकद्रव्य (पंचास्तिकायरूप लोक के अंशरूप द्रव्य) हैं / गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गति-गुण वाला है, जैसे मछली आदि के गमन करने में पानी सहायक होता है, वैसे ही धर्मास्तिकाय गतिक्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है। किन्तु स्वयं गतिस्वभाव से रहित है—सदा स्थिर ही रहता है, फिर भी वह गति में निमित्त होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति क्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है, जैसे विधाम चाहने वाले थके हुए पथिक को छायादार वृक्ष सहायक होता है / अवगाहन गुण वाला आकाशास्तिकाय जीवादि द्रव्यों को अवकाश देता है, जैसे बेरों को रखने में कुण्डा प्राधारभूत होता है / जीवास्तिकाय उपयोगगुण (चैतन्य या चित्-शक्ति) वाला है / पुद्गलास्तिकाय ग्रहण-गुण वाला है; क्योंकि औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का ग्रहण (परस्पर सम्बन्ध) होता है। अथवा पुद्गलों का परस्पर में ग्रह्ण-बन्ध होता है / ' धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय--- 7. [1] एगे भते ! धम्मत्यिकायपदेसे 'धम्मत्यिकाए' त्ति वत्तन्वं सिया? गोयमा ! णो इण8 सम? / क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 148 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 243 [7-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात्-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। [2] एवं दोण्णि तिणि चत्तारि पंच छ सत्त अट्ट नव दस संज्जा प्रसंखेज्जा भते ! धम्मत्यिकायप्पदेसा 'धम्मत्यिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! णो इण8 सम?। [7-2 प्र.| भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पांच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? [7-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अर्थात्-धर्मास्तिकाय के असंख्यात-प्रदेशों को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। [3] एगपदेसूणे वि य णं भाते ! धम्मस्थिकाए 'धम्मस्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया ? णो इण? सम?। {7.3 प्र.] भगवन् ! एक प्रदेश से कम धर्मास्तिकाय को क्या 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? [7-3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं; अर्थात्-एक प्रदेश कम धर्मास्तिकाय को भी धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता / [4] से केणठेणं भते ! एवं वुच्चइ 'एगे धम्मस्थिकायपदेसे नो धम्मस्थिकाए त्ति वत्तव्य सिया जाव (सु. 7 [2]) एगपदेसूणे विय णं धम्मत्यिकाए नो धम्मत्थिकाए ति वत्तव्वं सिया ?' से नणं गोयमा ! खंडे चक्के ? सगले चक्के ? भगवं ! नो खंडे चक्के, सगले चक्के / एवं छत्ते चम्मे दंडे दूसे प्रायुहे मोयए। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–एगे धम्नस्थिकायपदेसे नो धम्मस्थिकाए ति वत्तच्च सिया जाव एगपदेसूणे वि य गं धम्मत्यिकाए नो धम्मस्थिकाए त्ति क्त्तव सिया'। [7-4 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश कम हो, वहाँ तक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता ? [7-4 उ.] गौतम ! (यह बतलायो कि) चक्र का खण्ड (भाग या टुकड़ा) चक्र कहलाता है या सम्पूर्ण चक्र चक्र कहलाता है ? (गौतम--) भगवन् ! चक्र का खण्ड चक्र नहीं कहलाता, किन्तु सम्पूर्ण चक्र, चक्र कहलाता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] [ ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (भगवान् --) इस प्रकार छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र और मोदक के विषय में भी जानना चाहिए / अर्थात्-समग्न हों, तभी छत्र आदि कहे जाते हैं, इनके खण्ड को छत्र आदि नहीं कहा जाता / इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को, यावत् जब तक उसमें एक प्रदेश भी कम हो, तब तक उसे, धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। 8. [1] से कि खाई णं भते ! 'धम्मस्थिकाए' त्ति वत्तव्य सिया? गोयमा! असंखेज्जा धम्मस्थिकायपदेसा ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एगम्गहणगहिया, एस णं गोयमा ! 'धम्मस्थिकाए' त्ति वत्तव्य सिया / [8-1 प्र.] भगवन् ! तब फिर यह कहिए कि धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता है ? [8-1 उ.] हे गौतम ! धर्मास्तिकाय में असंख्येय प्रदेश हैं, जब वे सब कृत्स्न (पूरे), परिपूर्ण, निरवशेष (एक भी बाकी न रहे) तथा एकग्रहणगृहीत अर्थात्-एक शब्द से कहने योग्य हो जाएँ, तब उस (असंख्येयप्रदेशात्मक सम्पूर्ण द्रव्य) को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है। [2] एवं प्रहम्मस्थिकाए वि। [8.2] इसी प्रकार 'अधर्मास्तिकाय' के विषय में जानना चाहिए। [3] अागासत्यिकाय-जीवस्थिकाय-पोग्गलस्थिकाया वि एवं चेव। नवरं पदेसा प्रगता भाणियव्वा / सेसं तं चेव / [8-3] इसी तरह आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी जानना चाहिए / विशेष बात यह है कि इन तीनों द्रव्यों के अनन्त प्रदेश कहना चाहिए / बाकी सारा वर्णन पूर्ववत् समझना / विवेचन-धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय-प्रस्तुत दो सूत्रों में उल्लिखित प्रश्नोत्तरों से यह स्वरूप निर्धारित कर दिया गया है कि धर्मास्तिकायादि के एक खण्ड या एक प्रदेश न्यून को धर्मास्तिकायादि नहीं कहा जा सकता, समग्रप्रदेशात्मक रूप को ही धर्मास्तिकायादि कहा जा सकता है। निश्चयनय का मन्तव्य प्रस्तुत में जो यह बताया गया है कि जब तक एक भी प्रदेश कम हो, तब तक वे धर्मास्तिकाय आदि नहीं कहे जा सकते, किन्तु जब सभी प्रदेश परिपूर्ण हों, तभी वे धर्मास्तिकाय आदि कहे जा सकते हैं / अर्थात् जब वस्तु पूरी हो, तभी वह वस्तु कहलाती है, अधूरी वस्तु, वस्तु नहीं कहलाती; यह निश्चयनय का मन्तव्य है। व्यवहारनय की दृष्टि से तो थोड़ी-सी अधूरी या विकृत वस्तु को भी पूरी वस्तु कहा जाता है, उसी नाम से पुकारा जाता है। व्यवहारनय मोदक के टुकड़े या कुछ न्युन अंश को भी मोदक ही कहता है / जिस कुत्ते के कान कट गए हों, उसे भी कुत्ता ही कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का एक भाग विकृत या न्यून हो गया हो, वह वस्तु अन्य वस्तु नहीं हो जाती, अपितु वह वही मूल वस्तु कहलाती है; क्योंकि उसमें उत्पन्न विकृति या न्यूनता मूल वस्तु की पहचान में बाधक नहीं होती। यह व्यवहारनय का मन्तव्य है / जीवास्तिकाय के अनन्तप्रदेशों का कथन समस्त जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। एक जीव Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१०] [245 द्रव्य के प्रदेश असंख्यात ही होते हैं। एक पुद्गल के संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तप्रदेश होते हैं। समस्त पुद्गलास्तिकाय के मिलकर अनन्त (अनन्तानन्त) प्रदेश होते हैं।' उत्थानादियुक्त जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव का प्रकटीकरण 6. [1] जोवे गं मते ! सउढाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कारपरक्कमे प्रायभावेणं जीवभाव उवदंसेतीति वत्तव्व सिया ? हंता, गोयमा ! जीव णं सट्टाणे जाव उवदंसेतीति बत्तव्य सिया। [9-1 प्र. भगवन ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव (अपने उत्थानादि परिणामों) से जीवभाव (चैतन्य) को प्रदर्शित---प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? [9-1 उ.] हाँ, गौतम ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम से युक्त जीव प्रात्मभाव से जीवभाव को उपर्दाशत-प्रकट करता है, ऐसा कहा जा सकता है। [2] से केणठेणं जाव वतन्त्र सिया ? गोयमा ! जोवे गं प्रणतागं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं एवं सुतनाणपज्जवाणं मोहिनाण. पज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाणं मतिअण्णाणपज्जवाणं सुतअण्णाणपज्जवाणं विभ गणाणपज्जवाणं चक्खुदंसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं श्रोहिदसणपज्जवाणं केवलदसणपज्जवाणं उपयोग गच्छति, उवयोगलक्खणे णं जीवे / से तेणटलेणं एवं वुच्चइ--गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाव वत्तव सिया। [1-2 प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि तथारूप जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित करता है, ऐसा कहा जा सकता है ? [9-2 उ.] गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों एवं केवलज्ञान के अनन्त पर्यायों के तथा मतिप्रज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंग (अवधि) अज्ञान के अनन्तपर्यायों के, एवं चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवलदर्शन के अनन्तपर्यायों के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम बाला जीव, आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य स्वरूप) को प्रदर्शित (प्रकट) करता है। विवेचन-जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव का प्रकटीकरण-प्रस्तुत सूत्र में उत्थानादि युक्त संसारी जीवों द्वारा किस प्रकार प्रात्मभाव (शयन-गमनादि रूप आत्मपरिणाम) से चैतन्य (जीवत्व-चेतनाशक्ति) प्रकट (प्रदर्शित) की जाती है ? इस शंका का युक्तियुक्त समाधान अंकित किया गया है। 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 149 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उत्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं --मूलपाठ में 'सउठाणे' आदि जो जीव के विशेषण दिए गए हैं, वे संसारी जीवों की अपेक्षा से दिये गए हैं, क्योंकि मुक्त जीवों में उत्थानादि नहीं होते। 'प्रात्मभाव' का अर्थ है-उत्थान (उठना). शयन, गमन, भोजन, भाषण प्रादि रूप प्रात्मपरिणाम / इस प्रकार के प्रात्मपरिणाम द्वारा जीव का जीवत्व (चैतन्य-चेतनाशक्ति प्रकाशित होता है; क्योंकि जब विशिष्ट चेतनाशक्ति होती है, तभी विशिष्ट उत्थानादि होते हैं। पर्यव-पर्याय-प्रज्ञाकृत विभाग या परिच्छेद को पर्यव या पर्याय कहते हैं, प्रत्येक ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के ऐसे अनन्त-अनन्तपर्याय होते हैं। उत्थान-गयनादि भावों में प्रवर्तमान जीव आभिनिबोधिक आदि ज्ञानसम्बन्धी अनन्तपर्यायरूप एक प्रकार के चैतन्य (उपयोग) को प्राप्त करता है / यही जीवत्व (चैतन्यशक्तिमत्ता) को प्रदर्शित करता है / ' आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निरूपण--- 10. कतिविहे गं मते ! आकासे पण्णते ? गोयमा! दुविहे आगासे पण्णते, तं जहा-लोयाकासे य प्रलोयागासे य / [10 प्र.] भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम! आकाश दो प्रकार का कहा गया है। यथा-लोकाकाश और अलोकाकाश / 11. लोयाकासे गं भंते ! कि जोवा जीवदेसा जोवपदेसा, अजीवा अजीवदेसा प्रजीवपएसा ? गोयमा ! जोवा वि जोवदेसा वि जीवपदेसा वि, अजीवा वि प्रजोवदेसा वि अजीवपदेसा वि / जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेंदिया अणिदिया। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा। जे जोवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा जाव अणिदियपदेसा / जे अजोवा ते दुविहा पण्णता, तं जहा--रूबी य प्ररूवी य / जे रूबीते चाउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा-खंधा खंघदेसा खंधपदेसा परमाणु पोग्गला / जे अरूवी ते पंचविहा पण्णता, तं जहाधम्मत्थिकाए, नोधम्मस्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, अधम्मस्थिकाए, नोप्रधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, श्रद्धासमए / [11 प्र.] भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं ? अजीव के प्रदेश हैं ? [11 उ.] गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव हैं, वे नियमत: (निश्चित रूप से) एकेन्द्रिय हैं, द्वीन्द्रिय हैं, त्रीन्द्रिय हैं, चतुरिन्द्रिय हैं, पंचेन्द्रिय हैं और अनिन्द्रिय हैं / जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं, यावत् अनिन्द्रिय के देश हैं। जो जीव के प्रदेश हैं, वे 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 149 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 247 नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, यावत् अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं यथा-रूपी और अरूपी / जो रूपी हैं, वे चार प्रकार के कहे गए हैं-स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणुपुद्गल / जो अरूपी हैं, उनके पांच भेद कहे गए हैं। वे इस प्रकार --धर्मास्तिकाय, नोधर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय, नो अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश और श्रद्धासमय है / 12. अलोगागासे णं भंते ! कि जीवा ? पुच्छा तह चेव (सु. 11) / गोयमा! नो जोवा जाव नो अजीवप्पएसा। एगे अजोवदधदेसे अगुरुयलहुए प्रणतेहि अगुरुयलयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे / [12 प्र.] भगवन् ! क्या अलोकाकाश में जीव हैं, यावत् अजीवप्रदेश हैं ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा / [12 उ.] गौतम ! अलोकाकाश में न जीव हैं, यावत् न ही अजीवप्रदेश हैं। वह एक अजीवद्रव्य देश है, अगुरुलघु है तथा अनन्त अगुरुलधु-गुणों से संयुक्त है; (क्योंकि लोकाकाश सर्वाकाश का अनन्तवा भाग है, अतः) वह अनन्तभागःकम सर्वाकाशरूप है / विवेचन-आकाशास्तिकाय : भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं उनमें जीव-अजीव आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। देश, प्रदेश-प्रस्तत प्रसंग में देश का अर्थ है—जीव या अजीव के वद्धिकल्पित दो, तीन आदि विभाग : तथा प्रदेश का अर्थ है—जीवदेश या अजीबदेश के बुद्धि कल्पित ऐसे सूक्ष्मतम विभाग, जिनके फिर दो विभाग न हो सकें।। __ जीव-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक कथन क्यों ? - यद्यपि जीव या अजीव कहने से ही क्रमश: जीव तथा अजीव के देश तथा प्रदेशों का ग्रहण हो जाता है, क्योंकि जीव या अजीव के देश व प्रदेश जीव या अजीव से भिन्न नहीं हैं, तथापि इन दोनों (देश और प्रदेश) का पृथक् कथन 'जीवादि पदार्थ प्रदेश-रहित हैं', इस मान्यता का निराकरण करने एवं जीवादि पदार्थ सप्रदेश हैं, इस मान्यता को सूचित करने के लिए किया गया है। __ स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रवेश, परमाणुपुद्गल-परमाणुओं का समूह 'स्कन्ध्र' कहलाता है / स्कन्ध के दो, तीन आदि भागों को स्कन्ध-देश कहते हैं, तथा स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म अंश, जिनके फिर विभाग न हो सकें, उन्हें स्कन्धप्रदेश कहते हैं / 'परमाणु' ऐसे सूक्ष्मतम अंशों को कहते हैं, जो स्कन्धभाव को प्राप्त नहीं हुए-किसी से मिले हुए नहीं--स्वतंत्र हैं। प्ररूपी के दस भेद के बदले पांच भेद ही क्यों ?--अरूपी अजीव के अन्यत्र दस भेद (धर्म, अधर्म, आकाश, इन तीनों के देश और प्रदेश तथा प्रद्धासमय) कहे गए हैं, किन्तु यहाँ पांच ही भेद कहने का कारण यह है कि तीन भेद वाले आकाश को यहाँ आधाररूप माना गया है, इस कारण उसके तीन भेद यहाँ नहीं गिने गए हैं। इन तीन भेदों को निकाल देने पर शेष रहे सात भेद / उनमें भी धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय के देश का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि सम्पूर्ण लोक की Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृच्छा होने से यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध के रूप में पूर्ण का ही ग्रहण किया गया है / इसलिए इन दो भेदों को निकाल देने पर पांच भेद ही शेष रहते हैं। श्रद्धा-समय-अद्धा अर्थात् काल, तद्रूप जो समय, वह अद्धासमय है / अलोकाकाश–में जीवादि कोई पदार्थ नहीं है किन्तु उसे अजीवद्रव्य का एक भाग-रूप कहा गया है, उसका कारण है-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश, ये दो भाग हैं / इस दृष्टि से अलोकाकाश, आकाश (अजीवद्रव्य) का एक भाग सिद्ध हुआ। अलोकाकाश अगुरुल है, गुरुलधु नहीं। वह स्व-पर-पर्यायरूप अगुरुलघु स्वभाव वाले अनन्तगुणों से युक्त है / अलोकाकाश से लोकाकाश अनन्तभागरूप है। दोनों आकाशों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं होते। लोकाकाश–जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की वृत्ति-प्रवृत्ति हो वह क्षेत्र लोकाकाश है / ' धर्मास्तिकाय आदि का प्रमाण 13. [1] धम्मत्यिकाए णं भंते ! केमहालए पाणते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयष्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ताणं चिटुइ / [13-1 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा कहा गया है ? [13-1 उ.) गौतम ! धर्मास्तिकाय लोकरूप है, लोकमात्र है, लोक-प्रमाण है, लोकस्पृष्ट है और लोक को ही स्पर्श करके रहा हुआ है। [2] एवं अधम्मस्थिकाए, लोयाकासे, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। पंच वि एक्कामि लावा। [13-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए / इन पांचों के सम्बन्ध में एक समान अभिलाप (पाठ) है / विवेचन-धर्मास्तिकाय आदि का प्रमाण-प्रस्तुत सूत्र में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय, इन पांचों को लोक-प्रमाण, लोकमात्र, लोकस्पृष्ट एवं लोकरूप प्रादि बताया गया है। लोक के जितने प्रदेश हैं, उतने ही धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। धर्मास्तिकायादि के सब प्रदेश लोकाकाश के साथ स्पृष्ट हैं और धर्मास्तिकायादि अपने समस्त प्रदेशों द्वारा लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। धर्मास्तिकाय आदि को स्पर्शना 14. अहोलोए गंभंते ! धम्मस्थिकायस्स केवतियं फुसति ? गोयमा ! सातिरेगं अद्ध फुसति / [14 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अधोलोक स्पर्श करता है ? 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 150-151 2. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक, 151 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-10 ] 14 उ.] गौतम ! अधोलोक धर्मास्तिकाय के प्राधे से कुछ अधिक भाग को स्पर्श करता है। 15. तिरियलोए णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! असंखेज्जइभागं फुसइ / [15 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को तिर्यग्लोक स्पर्श करता है ? पृच्छा / [15 उ.] गौतम ! तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करता है। 16. उड्ढलोए णं भंते ! * पुच्छा / गोयमा ! देसोणं अद्ध फुसइ / [16 प्र] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने भाग को ऊर्ध्वलोक स्पर्श करता है ? [16 उ.] गौतम ! ऊर्वलोक धर्मास्तिकाय के देशोन (कुछ कम) अर्धभाग को स्पर्श करता है। 17. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी धम्मत्यिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइमागं फुसइ ? संखिज्जे भागे फुसति ? प्रसंखेज्जे भागे फुसति ? सम्वं फुसति ? गोयमा ! णो संखेज्जइभागं फुसति, प्रसंखेज्जइभागं फुसइ, णो संखेज्जे०, णो असंखेज्जे०, नो सव्वं फुसति / [17 प्र.] भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी, क्या धर्मास्तिकाय के संख्यात भाग को स्पर्श करती है या असंख्यात भाग को स्पर्श करती है, अथवा संख्यात भागों को स्पर्श करती है या असंख्यात भागों को स्पर्श करती है अथवा समग्र को स्पर्श करती है ? [17 उ.। गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी, धर्मास्तिकाय के संख्यात भाग को स्पर्श नहीं करती, अपितु असंख्यात भाग को स्पर्श करती है। इसी प्रकार संख्यात भागों को, असंख्यात भागों को या समग्र धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करती / 18. इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही धम्मत्यिकायस्स कि संखेज्जइभाग फुसति?। जहा रयणप्पभा (सु. 17) तहा घणोदहि घणवात-तणुवाया चि / [18 प्र. भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधि, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है ; यावत् समग्र धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? इत्यादि पृच्छा। [18 उ.] हे गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के लिए कहा गया है, उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि के विषय में कहना चाहिये / और उसी तरह घनवात और तनुवात के विषय में भी कहना चाहिए। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. [1] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरे धम्मस्थिकायस्स कि संखेन्जइ. मागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसइ जाव (सु. 17) सन्वं फुसइ। गोयमा ! संखेज्जइभागं फुसइ, णो असंखेज्जेइभाग फुसइ, मोसंखेज्जे०, नो असंखेज्जे०, नो सव्वं फुसइ। [16-1 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, अथवा असंख्येय भाग कोस्पर्श करता है?, यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? [19-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, किन्तु असंख्येय भाग को, संख्येय भागों को, असंख्येय भागों को तथा सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करता / [2] अोवासंतराइं सम्वाई जहा रयणप्पभाए। [16-2] इसी तरह समस्त अवकाशान्तरों के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 20. जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्वया भगिया एवं जाव' अहेसत्तमाए / [20] जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा, वैसे ही यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। 21. [जंबुदीवाइया दीवा, लवणसमुद्दाइया समुद्दा] 2 एवं सोहम्मे कप्पे जाव' ईसिपब्भारापुढवीए / एते सच्चे वि असंखेज्जइ भागं फुसति, सेसा पडिसेहेतब्वा / [21] [तथा जम्बूद्वीप प्रादि द्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र, सौधर्मकल्प से ले कर (यावत् ईषत् प्रागभारा पृथ्वी तक, ये सभी धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं। शेष भागों को स्पर्शना का निषेध करना चाहिए। 22. एवं अधम्मस्थिकाए / एवं लोयागासे वि / गाहा-- पुढबोदही घण तणू कप्पा गेवेज्जऽणुत्तरा सिद्धी। संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा // 1 // // बितीय-सए दसमो उद्देसो समत्तो॥ / बिइयं सयं समतं / / 1. 'जाव' पद से शर्कराप्रभा आदि सातों नरकवियों के नाम समझ लेने चाहिए। 2. वृत्तिकार द्वारा 52 सूत्रों की सूचना के अनुसार यहाँ 'जंबुद्दीवाइया समुद्दा' यह पाठ संगत नहीं लगता, इसलिए प्राकेट में दिया गया है। 3. 'जाव' पद से 'ईशान' से लेकर 'ईषाप्राभारा पृथ्वी' तक समझ लेना चाहिए। . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 251 [22] जिस तरह धर्मास्तिकाय को स्पर्शना कहो, उसी तरह अधर्मास्तिकाय और लोकाकाशास्तिकाय को स्पर्शना के विषय में भी कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है पृथ्वी, घनोदधि, धनवात, तनुवात, कल्प, वेयक, अनुत्तर, सिद्धि (ईषत्प्रारभारा पृथ्वी) तथा सात अवकाशान्त र, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करते है। विवेचन-धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना-प्रस्तुत नौ सूत्रों (14 से 22 तक) में तीनों लोक, रत्नप्रभादि सात प्रथ्वियाँ, उन सातों के धनोदधि, घनवात, तनुवात, अवकाशान्तर, सौधर्मकल्प से ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक धर्मास्तिकायादि के संख्येय, या असंख्येय तथा समग्र आदि भाग के स्पर्श का विचार किया गया है। तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय का स्पर्श कितना और क्यों ? -धर्मास्तिकाय चतुर्दशरज्जुप्रमाण समग्न लोकव्यापी है और अधोलोक का परिमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है। इसलिए अधोलोक धर्मास्तिकाय के प्राधे से कुछ अधिक भाग का स्पर्श करता है। तियग्लोक का परिमाण 1800 योजन है और धर्मास्तिकाय का परिमाण असंख्येय योजन का है। इसलिए तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करता है। ऊर्बलोक देशोन सात रज्जपरिमाण है और धर्मास्तिकाय चौदह रज्जु-परिमाण है / इसलिए ऊर्ध्व लोक धर्मास्तिकाय के देशोन अर्धभाग का स्पर्श करता है। वत्तिकार के अनुसार 52 सूत्र--यहाँ रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी के विषय में पांच-पाँच मूत्र होते हैं (यथा-रत्नप्रभा, उसका घनोदधि, घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर) / इस दृष्टि से सातों पृथ्वियों के कुल 35 सूत्र हुए / बारह देवलोक के विषय में बारह सूत्र, गं वेयकत्रिक के विषय में तीन सूत्र, अनुत्तरविमान और ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी के विषय में दो सूत्र, इस प्रकार सब मिलाकर 35+12+3+2=52 सूत्र होते हैं। इन सभी सूत्रों में--'क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है ?... यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ?' इस प्रकार कहना चाहिए / इस प्रश्न का उत्तर यह है-'सभी अवकाशान्तर धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को और शेष सभी असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं।' अधर्मास्तिकाय प्रौर लोकाकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी तरह सूत्र (पालापक) कहने चाहिए / // द्वितीय शतक : दशम उद्देशक समाप्त // // द्वितीय शतक सम्पूर्ण // 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 152 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का यह तृतीय शतक है / इसमें मुख्यतया तपस्या आदि क्रियाओं से होने वाली दिव्य उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें दस उद्देशक हैं। * प्रथम उद्देशक में मोका नगरी में भगवान् के पदार्पण का उल्लेख करके उसमें उद्देशक-प्रतिपादित विषयों के प्रश्नोत्तर का संकेत किया गया है / तदनन्तर अग्निभूति अनगार द्वारा पूछी गई चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ समस्त प्रमुख देव-देवियों की ऋद्धि, कान्ति, प्रभाव, बल, यश, सुख और वैक्रियशक्ति का, फिर वायुभूति अनगार द्वारा पूछी गई बलीन्द्र एवं उसके अधीनस्थ समस्त प्रमुख देववर्ग की ऋद्धि आदि एवं वैक्रियशक्ति का, तत्पश्चात् पुनः अग्निभूति द्वारा पूछे गए नागकुमारराज धरणेन्द्र तथा अन्य भवनपतिदेवों के इन्द्रों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क के इन्द्रों, शकेन्द्र, तिष्यक सामानिक देव तथा ईशानेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के वैमानिक इन्द्रों की ऋद्धि आदि एवं वैक्रियशक्ति की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् राजगह में इन्द्रभूति गौतम गणधर द्वारा ईशानेन्द्र की दिव्य ऋद्धि वैक्रियशक्ति प्रादि के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भगवान् द्वारा तामली बालतपस्वी का गृहस्थजीवन तथा प्राणामा प्रवज्याग्रहण से लेकर ईशानेन्द्र बनने तक विस्तृत वर्णन किया गया है। फिर तामली तापस द्वारा बलिचंचावासी असुरों द्वारा बलीन्द्र बनने के निदान का अस्वीकार करने से प्रकुपित होकर शव की बिडम्बना करने पर ईशानेन्द्र के रूप में भू. पू. तामली का प्रकोप, उससे भयभीत होकर असुरों द्वारा क्षमायाचना यादि वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्त में, ईशानेन्द्र की स्थिति, मुक्ति तथा शकेन्द्र-ईशानेन्द्र की वैभवसम्बन्धी तुलना, सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि का निरूपण किया गया है / * द्वितीय उद्देशक में असुरकुमार देवों के स्थान, उनके द्वारा अर्ध्व-अधो-तिर्यग्गमन-सामर्थ्य, तत्पश्चात् पूर्वभव में पूरण तापस द्वारा दानामा प्रवज्या से लेकर असुरराज-चमरेन्द्रत्व की प्राप्ति तक का समग्न वर्णन है। उसके बाद भगवदाश्रय लेकर चम रेन्द्र द्वारा शकेन्द्र को छेड़े जाने पर शकेन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति का वृत्तान्त प्रस्तुत है। तत्पश्चात् फैकी हुई वस्तु को पकड़ने तथा शकेन्द्र तथा चमरेन्द्र के ऊर्ध्व-अधः, तिर्यग्गमन-सामर्थ्य-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं / अन्त में, वज्रभयमुक्त चमरेन्द्र द्वारा भगवान् के प्रति कृतज्ञता, क्षमायाचना तथा नाट्यविधि-प्रदर्शन का और असुर कुमार देवों द्वारा सौधर्मकल्पगमन का कारणान्तर बताया गया है / तृतीय उद्देशक में पांच क्रियाओं, उनके अवान्तर भेदों, सक्रिय अक्रिय जीवों को अन्तत्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व के कारणों का वर्णन है, तथा प्रमत्त-अप्रमत्त संयम के सर्वकाल एवं लवणसमुद्रीय हानि-वृद्धि के कारण का प्ररूपण है। Ve Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : प्राथमिक [253 * चतुर्थ उद्देशक में भावितात्मा अनगार की जानने, देखने एवं विकुर्वणा करने की शक्ति की वायुकाय, मेघ आदि द्वारा रूपपरिणमन व गमनसम्बन्धी चर्चा है। चौबीस दण्डकों की लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा है। * पंचम उद्देशक में भावितात्मा अनगार द्वारा स्त्री आदि रूपों की वैक्रिय एवं अभियोगसम्बन्धी चर्चा है। * छठे उद्देशक में मायी मिथ्यादृष्टि एवं अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और दर्शन तथा चमरेन्द्रादि के आत्म-रक्षक देवों की संख्या का प्ररूपण है / * सातवें उद्देशक में शकेन्द्र के चारों लोकपालों के विमानस्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन है / * पाठवें उद्देशक में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अधिपतियों का वर्णन है। * नौवें उद्दे शक में पंचेन्द्रिय-विषयों से सम्बन्धित अतिदेशात्मक वर्णन है / * दस उद्देशक में चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषदा-सम्बन्धी प्ररूपणा है।' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसत्तं (मूल पाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 34 से 36 तक ! (ख) श्रीमद्भगवतीमूत्रम् (टीकानुवाद टिप्पणयुक्त), खण्ड----२, पृ. 1-2 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं सयं-तृतीय शतक संग्रहणी गाथा ततीय शतक को संग्रहणी गाथा-- 1. केरिस विउठवणा 1 चमर 2 किरिय 3 जाणिथि 4-5 नगर 6 पाला य 7 / अहिवति 8 इंदिय 6 परिसा 10 ततियम्मि सते दसुद्देसा // 1 // [1] तृतीय शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें से प्रथम उद्देशक में चमरेन्द्र को विकुर्वणा-शक्ति (विविध रूप करने-बनाने की शक्ति) कैसी है ? इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं, दूसरे उद्देशक में चमरेन्द्र के उत्पात का कथन है / तृतीय उद्देशक में क्रियायों की प्ररूपणा है। चतुर्थ में देव द्वारा विकुक्ति थान को साधु जानता है ? इत्यादि प्रश्नों का निर्णय है। पाँचवें उद्दशक में साधु द्वारा (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके) स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। छठे में नगर-सम्बन्धी वर्णन है। सातवें में लोकपाल-विषयक वर्णन है / आठवें में अधिपति-सम्बन्धी वर्णन है / नौवें उद्देशक में इन्द्रियों के सम्बन्ध में निरूपण है और दसवें उद्देशक में चमरेन्द्र को परिषद् (सभा) का वर्णन है। पढमो उद्देसओ : विउव्वणा [पढमो उद्देसो 'मोया केरिस विउवणा'] प्रथम उद्देशक : विकुर्वणा प्रथम उद्देशक का उपोद्घात 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं मोया नाम नगरी होत्था। वणो / तीसे णं मोयाए नगरोए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमागे णं नंदणे नामं चेतिए होत्था / वपणनो / तेणं कालेणं 2 सामो समोसढे / परिसा निगच्छति / पडिगता परिसा। ]i उस काल उस समय में 'मोका' नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। उस मोका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व के दिशाभाग में, अर्थात्-ईशानकोण में नन्दन नाम का चैत्य (उद्यान) था / उसका वर्णन करना चाहिए / उस काल उस समय में (एकदा) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे / (श्रमण भगवान महावीर का आगमन जान कर) परिषद् (जनता) (उनके दर्शनार्थ) निकली। (भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर) परिषद् वापस चली गई। विवेचन-प्रथम उद्देशक का उपोद्घात-प्रथम उद्देशक कब, कहाँ (किस नगरी में, किस Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 255 जगह), किसके द्वारा कहा गया है ? इसे बताने हेतु भूमिका के रूप में यह उपोद्घात' प्रस्तुत किया गया है। चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ देववर्ग को ऋद्धि प्रादि तथा विकुर्वणा शक्ति 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स दोच्चे अंतेवासी अग्गिभूती नाम अणगारे गोतमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव२ पज्जुवासमाणे एवं वदासी-चमरे गं भंते ! असुरिदे असुर राया केहिड्ढीए ? केमहज्जुतीए ? केमहाबले ? केमहायसे ? केमहासोक्खे ? केमहाणुभागे? केवतिय च णं पभू विकुवित्तए ? / ___ गोयमा ! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिड्ढोए जाव महाणुभागे। से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावासमतसहस्साणं, चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सोणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाण जाव' विहरति / एमहिड्ढोए जाव एमहाणुभागे। एवतियं च णं पभू विकुवित्तए-से जहानामए जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिता, एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिदे असुरराया वेउव्वियसमुग्घातेणं समोहणति, 2 संखेज्जाई जोप्रणाई दंडं निसिरति, तं जहा-रतणाणं जाव' रिटाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेति, 2 ग्रहासुहुमे पोग्गले परियाइयति, 2 दोच्चं पि वेउब्वियससमुग्धाएणं समोहण्णति, 2 पभू गं गोतमा ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहि असुरकुमारेहि देवेहिं देवीहि य प्राइण्णं वितिकिण्णं उपत्थर्ड संथडं फुड प्रवगाढावगाढं करेत्तए / अदुत्तरं च णं गोतमा ! पभू चमरे प्रसुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहि देवेहि देवीहि य पाइण्णे वितिकिपणे उबत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए / एस णं गोतमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो अयमेतारूवे विसए विसय मेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा, विकुन्वति वा, विकुन्विस्सति वा। 1. “चिन्ता प्रकृतसिद्ध यर्थमुपोद्घातं विदुर्बुधाः'-साहित्यकारों द्वारा की गई इस परिभाषा के अनुसार प्रस्तुत (वक्ष्यमाण) अर्थ (बात) को सिद्ध-प्रमाणित करने हेतु किये गये चिन्तन या कथन को विद्वान् उपोद्धात कहते हैं। 2. 'जाव' पद से औषपातिक सूत्र के उत्तरार्द्ध में प्रथम और द्वितीय सूत्र में उक्त इन्द्रभूति गौतम स्वामी के विशेषणों से युक्त पाठ समझना चाहिए। 3. 'जाव' पद से 'चउण्ह लोगपालाणं पंचण्हं अग्गम हिसीणं सपरिवाराण, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्ह अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, चउण्हं चउसट्ठीणं पायरक्खदेवसाहस्सोणं, अन्नेसि च बहुणं चमरचंचारायहाणिवत्थव्वाण देवाण य देवीण य ग्राहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्त भट्टित्त प्राणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाऽऽहयनट्ट-गोय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडप्प-वाइयरवेणं दिव्बाई भोग भोगाई भजमा / यह पाठ समझना चाहिए / 4. 'जाव' पद से 'वइराण वेरुलियागं लोहियक्खाण मसारगल्लाण हंसगम्भाणं पुलयाणं सोगंधियाग जोतीरसाणं अंकाण अंजणाणं रयणाणं जायरूवाणं अंजणपूलयाणं फलिहाणं' यह पाठ समझना चाहिए। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (3 प्र.] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के द्वितीय अन्वेवासी (शिष्य) अग्निभूति नामक अनगार (गणधर) जिनका गोत्र गौतम था, तथा जो सात हाथ ऊँचे (लम्बे) थे, यावत् (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) (भगवान् की) पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले (पूछने लगे)"भगवन् ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? कितनी बड़ी द्युति-कान्ति वाला है ? कितने महान् बल से सम्पन्न है ? कितना महान् यशस्वी है ? कितने महान् सुखों से सम्पन्न है ? कितने महान् प्रभाव वाला है ? और वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?" [3 उ.] गौतम ! असुरों का इन्द्र असुरराज चमर महान् ऋद्धि वाला है यावत् महाप्रभावशाली है। वह वहाँ चौंतीस लास्त्र भवनावासों पर, चौसठ हजार सामानिक देवों पर और तैतोस पास्त्रिशक देवों पर आधिपत्य (सत्ताधीशत्व = स्वामित्व) करता हुआ यावत् विचरण करता है / (अर्थात्--) वह चमरेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् ऐसे महाप्रभाव वाला है तथा उसकी विक्रिया करने की शक्ति इस प्रकार है-हे गौतम ! जैसे--कोई युवा पुरुष (अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (दृढ़तापूर्वक) पकड़ता (पकड़ कर चलता) है, अथवा जैसे-गाड़ी के पहिये (चक्र) की धुरी (नाभि) पारों से अच्छी तरह जुड़ी हुई (आयुक्त = संलग्न) एवं सुसम्बद्ध होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर, बैंक्रिय-समुद्धात द्वारा समवहत होता है, समवहत होकर संख्यात योजन तक लम्बा दण्ड (बनाकर) निकालता है। तया उसके द्वारा रत्नों के, यावत् रिष्ट रत्नों के स्थूल पुद्गलों को झाड़ (गिरा) देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है। फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है। (ऐसी प्रक्रिया से) हे गौतम ! वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, बहुत-से (स्वशरीर प्रतिबद्ध) असुरकुमार देवों और (असुरकुमार-) देवियों द्वारा (इस तिर्यग्लोक में) परिपूर्ण (केवलकल्प) जम्बद्वीप नामक द्वीप को प्राकीर्ण (व्याप्त), व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ करने में समर्थ है (ठसाठस भर सकता है)। हे गौतम ! इसके उपरान्त वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, अनेक असुरकुमार-देव-देवियों द्वारा इस तिर्यग्लोक में भी असंख्यात द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को आकोण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। (अर्थात-चमरेन्द्र अपनी वैक्रिय शक्ति से दूसरे रूप इतने अधिक विकुवित कर सकता है, जिनसे असंख्य द्वीप-समुद्रों तक का स्थल भर जाता है।) हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की (हो सिर्फ) ऐसी (पूर्वोक्त प्रकार की) शक्ति है, विषय है, विषयमात्र है, परन्तु चमरेन्द्र ने इस (शक्ति की) सम्प्राप्ति से कभी (इतने रूपों का) विकुर्वण किया नहीं, न ही करता है, और न ही करेगा। 4. जति णं भंते ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए, चमरस्स गं भंते ! असुरिंदस्स असुररणो सामाणिया देवा केमहिड्ढोया जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो सामाणिया देवा महिड्ढोया जाव महाणुभागा। ते गं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अगमहिसीणं, जाव' दिव्वाई भोगमोगाइं भुजमाणा विहरति / एमहिड्ढोया जाव एवतियं च णं पभू विकुम्वित्तए से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नाभी प्ररयाउत्ता सिया, एवामेव गोतमा ! चमरस्स 1. 'जाव' पद से यहाँ भी मू. 3 की तरह ......."अन्नेसि च चतूर्ण......"दिव्वाई' तक का पाठ समझना / Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 257 प्रसुरिंदस्स असुररणो एगमेगे सामाणिए देवे देउन्वियसमुग्धातेणं समोहण्णइ, 2 जाव दोच्च पि वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, 2 प णं गोतमा! चमरस्स असुरिंदस्स असुररष्णो एगमेगे सामाणिए देवे केवलकप्पं जंबद्दीवं दोवं बहुहि असुरकुमारेहि देहि देवीहि य पाइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथर्ड फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए / अदुत्तरं च णं गोतमा ! पभू चमरस्स प्रसुरिंदस्स असुर. रण्णो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे बाहिं असुरकुमारेहि देहिं देवीहि य प्राइण्णे वितिकिण्णे उवत्थडे संबडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए। एस णं गोतमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुररणो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेतारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, जो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुम्वति वा विकुम्विस्सति वा / [4 प्र. भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर जब (इतनी) ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तब, हे भगवन् ! उस असुरराज असुरेन्द्र चमर के सामानिक देवों की कितनी बड़ी ऋद्धि है, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? [4 उ.] हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव, महतो ऋद्धि वाले हैं, यावत् महाप्रभावशाली हैं। वे वहाँ अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने सामानिक देवों पर तथा अपनीअपनी अनमहिषियों (पटरानियों) पर आधिपत्य (सत्ताधोशत्व-स्वामित्व) करते हुए, यावत् दिव्य (देवलोक सम्बन्धी) भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ये इस प्रकार की बड़ी ऋद्धि वाले हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं 'हे मौतम ! विकुर्वण करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है / जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को (कसकर) पकड़ता (हुअा चलता) है, तो वे दोनों दृढ़ता से संलग्न मालूम होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी (नाभि) पारों से सुसम्बद्ध (आयुक्त संलग्न) होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव इस सम्पूर्ण (या पूर्ण शक्तिमान्) जम्बूद्वीप नामक द्वीप को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा पाकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है / इसके उपरान्त हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, इस तिर्यग्लोक के असंख्य द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है। (अर्थात्-वह इतने रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है कि असंख्य द्वीप-समुद्रों तक का स्थल उन विकुपित देव-देवियों से ठसाठस भर जाए / ) हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक देव में (पूर्वोक्त कथनानुसार) विकुर्वण करने की शक्ति है, वह विषयरूप है, विषयमात्र-शक्तिमात्र है, परन्तु (उक्त शक्ति का प्रयोग करके उसने न तो कभी विकुर्वण किया है, न हो करता है और न ही करेगा। 5. [1] जइ णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुररण्णो सामाणिया देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो तायत्तीसिया देवा केम हिड्ढीया? तायत्तीसिया देवा जहा सामाणिया तहा नेयव्या / Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5-1 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती ऋद्धि से सम्पन्न हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रास्त्रिशक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं ? (यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ?) [5-1 उ.] (हे गौतम ! ) जैसा सामानिक देवों (की ऋद्धि एवं विकूर्वणा शक्ति) के विषय में कहा था, वैसा ही त्रास्त्रिशक देवों के विषय में कहना चाहिए। [2] लोयपाला तहेव / नवरं संखेज्जा दीव-समुद्दा भाणियब्वा / [5-2] लोकपालों के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिए / किन्तु इतना विशेष कहना चाहिए कि लोकपाल (अपने द्वारा वैक्रिय किये हुए असुरकुमार देव-देवियों के रूपों से) संख्येय द्वीप समुद्रों को व्याप्त कर सकते हैं / (किन्तु यह सिर्फ उनकी विकुर्वणाशक्ति का विषय है, विषयमात्र है। उन्होंने कदापि इस बिकुर्वणाशक्ति का प्रयोग न तो किया है, न करते हैं और न ही करेंगे।) 6. जति भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुररणो लोगपाला देवा एमहिड्ढीया जाव एवतियं च णं पभू विकुम्वित्तए, चमरस्स गं भंते ! प्रसुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीनो देवोनो केमाहिड्ढीयानो जाव' केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! चमरस्सणं असुरिंदस्स असुररण्णो अग्गमहिसीनो देवीमो महिढीयानो जाव महाणभागायो। तानो णं तत्थ साणं साणं भवणाणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं महत्तरियाणं, साणं साणं परिसाणं जाव एमहिड्ढीयानो, अन्नं जहा लोगपालाणं (सु. 5 [2]) अपरिसेसं। [6 प्र. भगवन् ! जब असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल ऐसी महाऋद्धि वाले हैं, यावत् वे इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तब असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियाँ (पटरानी देवियाँ) कितनी बड़ी ऋद्धि वाली हैं, यावत् वे कितना विकुर्वण करने में समर्थ हैं ? [6 उ.] गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को अग्नमहिषी-देवियाँ महाऋद्धिसम्पन्न हैं, यावत् महाप्रभावशालिनी हैं / वे अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने एक हजार सामानिक देवों (देवीगण) पर, अपनी-अपनी (सखी) महत्तरिका देवियों पर और अपनी-अपनी परिषदानों पर आधिपत्य (स्वामित्व) करती हुई विचरती हैं; यावत् वे अग्रमहिषियों ऐसी महाऋद्धिवाली हैं। इस सम्बन्ध में शेष सब वर्णन लोकपालों के समान कहना चाहिए / 7. सेवं भंते ! 2 त्ति भगवं दोच्चे गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 जेणेव तच्चे गोयमे वायुभूती प्रणगारे तेणेव उवागच्छति, 2 तच्चं गोयमं वायुभूति प्रणगारं एवं वदासि—एवं खलु गोतमा ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहिड्डीए तं चेव एवं सव्वं अपुट्ठवागरणं नेयध्वं अपरिसेसियं जाव प्रगहिसीणं वत्तव्वया समत्ता। 1. यहाँ 'जाव' पद से 'केमहजुतीयाओं' इत्यादि पाठ स्त्रीलिंग पद सहित समझना / Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-1] [ 259 [7] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' (यों कहकर) द्वितीय गौतम (गोत्रीय) अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार करके जहाँ तृतीय गौतम (गोत्रीय) वायुभूति अनगार थे, वहाँ अाए / उनके निकट पहुँचकर वे, तृतीय गौतम वायुभूति अनमार से यों बोले हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, इत्यादि समग्र वर्णन (चमरेन्द्र, उसके सामानिक, त्रायस्त्रिशक लोकपाल, और अग्रमहिषी देवियों तक का सारा वर्णन) अपृष्ट व्याकरण (प्रश्न पूछे बिना ही उत्तर) के रूप में यहाँ कहना चाहिए। 8. तए णं से तच्चे गोयमे वायुभूती प्रणगारे दोच्चस्स गोतमस्स अगिामूतिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स भा० पं० परू० एतम नो सहहति, नो पत्तियति, नो रोयति; एयम असद्दहमाणे अपत्तियमाणे प्ररोएमाणे उढाए उठूति, 2 जेणेव समणे भगवं महाबोरे तेणेव उवागच्छइ जाव पज्जुवासमाणे एवं क्यासी--एवं खलु भंते ! मम दोच्चे गोतमे अग्गिभूती प्रणगारे एवमाइति भासइ पण्णवेइ परूवेइ–एवं खलु गोतमा ! चमरे असुरिदे असुरराया महिड्डीए जाव महाणुभावे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं एवं तं चेव सवं अपरिसेसं माणियव्वं जाव (सु. 3-6) अग्गमहिसोणं वत्तव्यता समत्ता / से कहमेतं भंते ! एवं? 'गोतमा' दि समणे भगवं महावीरे तच्चं गोतमं वायुभूति प्रणगारं एवं वदासि-जंणं गोतमा! तव दोच्चे गोयमे अग्गिमूती प्रणगारे एवमाइक्खइ ४-"एवं खलु गोयमा ! चमरे 3 महिड्ढीए एवं तं चेव सव्वं जाव अग्गहिसीणं वत्तव्वया समत्ता", सच्चे णं एस मट्ठे, अहं पिणं गोयमा! एवमाइक्खामि भा०प० परू० / एवं खलु गोयमा ! चमरे 3 जाव महिढीए सो चेव बिति यो गमो भाणियवो जाव प्रगामहिसोयो, सच्चे मं एस म / [प्र. ] तदनन्तर अग्निभूति अनगार द्वारा कथित, भाषित, प्रज्ञापित (निवेदित) और प्ररूपित उपर्युक्त बात (अर्थ) पर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार को श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति न हुई, न हो उन्हें रुचिकर लगी। अतः उक्त बात पर श्रद्धा प्रतीति और रुचि न करते हुए वे ततीय गौतम वायुभूति अनगार उत्थान-(शक्ति) द्वारा उठे और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ (उनके पास) पाए और यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भगवन् ! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने मुझ से इस प्रकार कहा, इस प्रकार भाषण किया, इस प्रकार बतलाया और प्ररूपित किया कि-'असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी बड़ी ऋद्धिवाला है, यावत् ऐसा महान् प्रभावशाली है कि वह चौंतीस लाख भवनावासों आदि पर आधिपत्य-स्वामित्व करता हुआ विचरता है।' (यहाँ उसकी अग्रहिषियों तक का शेष सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए;); तो हे भगवन् ! यह बात कैसे है ?' [8 उ.] 'हे गौतम !'इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से इस प्रकार कहा-'हे गौतम ! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने तुम से जो इस प्रकार कहा, भाषित किया, बतलाया और प्ररूपित किया कि 'हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ऋद्धि वाला है ; इत्यादि उसकी अग्रहिषियों तक का समग्र वर्णन (यहाँ कहना चाहिए)। हे गौतम ! ) यह कथन सत्य है / हे गौतम ! मैं भी इसी तरह कहता है, भाषण करता है, बतलाता हैं और प्ररूपित करता हूँ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर महाऋद्धिशाली है, इत्यादि उसकी अग्रमहिषियों तक का समग्र वर्णनरूप द्वितीय गम (मालापक) यहाँ कहना चाहिए। (इसलिए हे गौतम ! द्वितीय गौतम अग्निभूति द्वारा कथित) यह बात सत्य है।' 6. सेवं भंते 2 0 तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 जेणेव दोच्चे गोयमे अग्गिभूती प्रणगारे तेणेव उवागच्छइ, 2 दोच्च गोयम अग्गिभूति प्रणगारं बंदह नमंसति, 2 एयमसम्म विणएणं भुज्जो 2 खामेति / [9] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; (जैसा आप फरमाते हैं) भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, और फिर जहाँ द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार थे, वहां उनके निकट आए। वहाँ प्राकर द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार को वन्दन-नमस्कार किया और पूर्वोक्त बात के लिए (उनकी कही हुई बात नहीं मानी थी, इसके लिए) उनसे सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की / 10. तए णं से दोच्चे गोयमे अग्गिभूई अण. तच्चेणं गो० वायुभूइणा अण० एयमसम्म विणएणं भुज्जो 2 खामिए समाणे उढाए उठेइ, 2 तच्चेणं गो० वायुमूहणा प्रण सद्धि जेणेव समणे भगव० महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगबं०, बंदइ० 2 जाव पज्जुवासए / [10] तदनन्तर द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार उस पूर्वोक्त बात के लिए तृतीय गौतम वायभूति के साथ सम्यक प्रकार से विनयपूर्वक क्षमायाचना कर लेने पर अपने उत्थान से उठे और तृतीय गौतम वायुभूति अनगार के साथ वहाँ आए, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे। वहाँ उनके निकट पाकर उन्हें (श्रमण भगवान् महावीर को) वन्दन-नमस्कार किया, यावत् उनकी पर्युपासना करने लगे। विवेचनचमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ देवों की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति प्रस्तुत आठ सूत्रों (3 से 10 तक) में चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ सामानिक, त्रास्त्रिशक, लोकपाल एवं अनमहि षियों की ऋद्धि, द्युति, बल, यश, सौख्य, प्रभाव एवं विकुर्वणाशक्ति के विषय में अग्निभूति शंकाओं का समाधान अंकित है. साथ ही वायभति गौतम की इस समाधान के प्रति श्रद्धा, अप्रतीति एवं अरुचि होने पर श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूनः समाधान और वायुभूति द्वारा क्षमायाचना का निरूपण है। ___'गौतम'-सम्बोधन-यहाँ ‘इन्द्रभूति गौतम' की तरह अग्निभूति और वायुभूतिगणधर को भी भगवान महावीर ने 'गौतम' शब्द से सम्बोधित किया है, उसका कारण यह है कि भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर अन्तेवासी (पशिष्य) थे, उनमें से प्रथम इन्द्रभति, द्वितीय अग्निभूति और तृतीय वायुभूति थे। ये तीनों ही अनगार सहोदर भ्राता थे / ये गुब्बर (गोवर) ग्राम में गौतम गोत्रीय विप्र श्रीवसुभूति और पृथिवीदेवी के पुत्र थे। तीनों ने भगवान का शिष्यत्व स्वीकार लिया था / तीनों के गौतमगोत्रीय होने के कारण ही इन्हें 'गौतम' शब्द से सम्बोधित किया है, किन्तु Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 261 उनका पृथक्-पृथक व्यक्तित्व दिखलाने के लिए 'द्वितीय' और 'तृतीय' विशेषण उनके नाम से पूर्व लगा दिया गया है। दो दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण---चमरेन्द्र वैक्रियकृत बहुत-से असुरकुमार देव-देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को किस प्रकार ठसाठस भर देता है ? इसे स्पष्ट करने के लिए यहाँ दो दृष्टान्त दिये गये हैं-(१) युवक और युवती का परस्पर संलग्न होकर गमन, (2) गाड़ी के चक्र की नाभि (धुरी) का प्रारों से युक्त होना। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या यों की है-(१) जैसे कोई युवापुरुष काम के वशवर्ती होकर युवती स्त्री का हाथ दृढ़ता से पकड़ता है, (2) जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी चारों ओर पारों से युक्त हो, अथवा 'जिस धुरी में आरे दृढतापूर्वक जुड़े हुए हों। वृद्ध प्राचार्यों ने इस प्रकार व्याख्या की है-जैसे-यात्रा (मेले) आदि में जहाँ बहुत भीड़ होती है, वहाँ युवती स्त्री युवापुरुष के हाथ को दृढ़ता से पकड़कर उसके साथ संलग्न होकर चलती है 1 जैसे वह स्त्री उस पुरुष से संलग्न होकर चलती हुई भी उस पुरुष से पृथक् दिखाई देती है, वैसे ही वैक्रिय. कृत अनेकरूप वैक्रियकर्ता मूलपुरुष के साथ संलग्न होते हुए भी उससे पृथक दिखाई देते हैं / अथवा अनेक आरों से प्रतिबद्ध पहिये की धुरी सघन (पोलाररहित) और छिद्ररहित दिखाई देती है; इसी तरह से वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अपने शरीर के साथ प्रतिबद्ध (संलग्न) वैक्रियकृत अने सुरकुमार देव-देवियों से पृथक् दिखाई देता हुआ इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है / इसी प्रकार अन्य देवों की विकुर्वणाशक्ति के विषय में समझ लेना चाहिए / विक्रिमा-विकुर्वणा-यह जैन पारिभाषिक शब्द है / नारक, देव, वायु, विक्रियालब्धि-सम्पन्न कतिपय मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यच अपने शरीर को लम्बा, छोटा, पतला, मोटा, ऊँचा, नीचा, सुन्दर और विकृत अथवा एकरूप से अनेकरूप धारण करने हेतु जो क्रिया करते हैं, उसे 'विक्रिया' या 'विकर्षणा' कहते हैं / उससे तैयार होने वाले शरीर को 'वैनिय शरीर' कहते हैं। वैक्रिय-समुद्घात द्वारा यह विक्रिया होती है।' वैकियसमुद्घात में रत्नादि प्रौदारिक पुदगलों का ग्रहण क्यों ? इसका समाधान यह है कि वैक्रिय-समुद्घात में ग्रहण किये जाने वाले रत्न आदि पुद्गल औदारिक नहीं होते, वे रत्न-सदृश सारयुक्त होते हैं, इस कारण यहाँ रत्न आदि का ग्रहण किया गया है / कुछ प्राचार्यों के मतानुसार रत्नादि औदारिक पुद्गल भी वैक्रिय-समुद्घात द्वारा ग्रहण करते समय वैक्रिय पुद्गल बन जाते हैं। प्राइण्णे वितिकिण्णे प्रादि शब्दों के अर्थ--मूलपाठ में प्रयुक्त 'आइण्णे' आदि 6 शब्द प्रायः एकार्थक हैं, और अत्यन्त रूप से व्याप्त कर (भर) देता है, इस अर्थ को सूचित करने के लिए हैं; फिर भी इनके अर्थ में थोड़ा-थोड़ा अन्तर इस प्रकार है-पाइण्णं = आकीर्ण-व्याप्त, वितिकिण्णं - 1. (क) भगवतीसूत्र के थोकड़े, द्वितीय भाग पृ. 1 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित पं. बेचरदासजी), खण्ड 2, 5.. (ग) समवायांग-११वाँ ममवाय / 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 154 3. भगवतीसूत्र (टीकानुवादसहित पं. वेचरदासजी), खण्ड 2, पृ. 10 4. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 154 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] { व्याख्याप्रज्ञप्तिसून विशेषरूप से व्याप्त, उवत्थडं = उपस्तीर्ण = आसपास फैला हुआ, संथर्ड = संस्तीर्ण-सम्यक प्रकार से फैला हुअा, फुडं =स्पृष्ट--एक दूसरे से सटा हुआ, अवगाढावगाढं- अत्यन्त ठोस-दृढ़तापूर्वक जकड़े हुए।' चमरेन्द्र आदि की विकुर्वणाशक्ति प्रयोग रहित-यहाँ चमरेन्द्र आदि की जो विकुर्वणाशक्ति बताई गई है, वह केवल शक्तिमात्र है, क्रियारहित विषयमात्र है / चमरेन्द्र आदि सम्प्राप्ति (क्रियारूप) से इतने रूपों की विकुर्वणा किसी काल में नहीं करते / / देवनिकाय में दस कोटि के देव-इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश, पारिषद्य, प्रात्मरक्ष, लोकपाल, अनोक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दस भेद प्रत्येक देवनिकाय में होते हैं, किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश और लोकपाल नहीं होते / दसों में से यहाँ पाँच का उल्लेख अर्थ इस प्रकार हैं-इन्द्र = अन्य देवों से असाधारण अणिमादिगुणों से सुशोभित, तथा सामानिक प्रादि सभी प्रकार के देवों का स्वामी। सामानिक--आज्ञा और ऐश्वर्य (इन्द्रत्व) सिवाय प्रायु, वीर्य, परिवार, भोग-उपभोग आदि में इन्द्र के समान ऋद्धि वाले / त्रास्त्रिश-जो देव मंत्री और पुरोहित का काम करते हैं, ये संख्या में 33 ही होते हैं। लोकपाल आरक्षक के समान अर्थचर, लोक (जनता) का पालन-रक्षण करने वाले / प्रात्मरक्ष =जो अंगरक्षक के समान हैं / ' अग्रमाहिषियाँ-चमरेन्द्र की अग्रमहिषी (पटरानी) देवियां पांच हैं-काली, रावि, रत्नी, विद्युत् और मेधा / महत्तरिया = महत्तरिका-मित्ररूपा देवी / वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति 11. तए णं से तच्चे गो० वायुभूती प्रण० समणं भगवं० वंदइ नमंसद, 2 एवं वदासीजति णं भंते ! चमरे प्रसुरिंदे असुरराया एमहिड्ढीए जाव (सु. 3) एवतियं च णं पभू विकुवित्तए, बली णं भंते ! वइरोर्याणदे वइरोयणराया केहिड्ढोए जाव (सु. 3) केवइयं च णं पभू विकुन्वित्तए ? गोयमा ! बली णं वइरोणिदे वइरोयणराया महिड्डीए जाब (सु. 3) महाणुभागे / से गं तत्थ तीसाए मवणावाससयसहस्साणं, सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा चमरस्स, नवरं चउण्हं सट्ठीणं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नसिं च जाव भुजमाणे विहरति / से जहानामए एवं जहा चमरस्त; णवरं सातिरेगं केवलकप्पं जंबुद्दीवे दोवं ति माणियन्वं / सेसं तहेव जाव विउविस्सति वा (सु. 3) / 1. (क) भगवतीमूत्र विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 2, पृ. 535 (त्र) भगवती. अ. वृ., पत्र 155 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 155 3. (क) भगवतीसूत्र न. वृत्ति, पत्रांक 154 (ख) तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थ सिद्धि टीका, पृ. 175 4. ज्ञाताधर्मकथांग, प्रथम वर्ग, 1 से 5 अध्ययन / पाठान्तर-"तते णं से तच्चे गोतमे वायुभूती अणगारे दोच्चेणं गोयमेणं अग्गिभतिणा अणगारेण सद्वि जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जूबासमाणे एवं क्यासी"-- 6. पाठान्तर"रस तहा बलिरस विनेयन्व; नवरं सातिरेग केवल" / 7. पाठान्तर-'सेसं त चेव णिरवसेसं जयवं, णवरं गाणत्त जाणियब्वं भवणे हि सामाणिएहि, सेवं भंते 2 त्ति तच्चे गोयमे वायुभूति जाब विहरति / " Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [263 {11 प्र.] इसके पश्चात् तीसरे गौतम (-गोत्रीय) वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया, और फिर यों बोले-'भगवन् ! यदि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत इतनी विकुर्वणाशक्ति से सम्पन्न है, तब हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत् वह कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?' (11 उ.] गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि महाऋद्धिसम्पन्न है, यावत् महानुभाग (महाप्रभावशाली) है। वह वहाँ तीस लाख भवनावासों का तथा साठ हजार सामानिक देवों का अधिपति है। जैसे चमरेन्द्र के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है, वैसे बलि के विषय में भी शेष वर्णन जान लेना चाहिए। अन्तर इतना ही है कि बलि वैरोचनेन्द्र दो लाख चालीस हजार आत्मरक्ष देवों का तथा अन्य बहुत-से (उत्तरदिशावासी असुरकुमार देव-देवियों का) आधिपत्य यावत् उपभोग करता हुआ विचरता है। चमरेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति की तरह बलीन्द्र के विषय में भी युवक युवती का हाथ दृढ़ता से पकड़ कर चलता है, तब वे जैसे संलग्न होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी में आरे संलग्न होते हैं, ये दोनों दृष्टान्त जानने चाहिए। विशेषता यह है कि बलि अपनी विकूर्वणा-शक्ति से सातिरेक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप (जम्बद्वीप से कछ अधिक स्थल) को भर देता है / शेष सारा वर्णन यावत् 'विकुर्वणा करेंगे भी नहीं', यहाँ तक पूर्ववत् (उसी तरह) समझ लेना चाहिए। 212. जइ णं भंते ! बली वइरोणिवे वैरोयगराया एमहिड्ढीए जाव (सु. 3) एवइयं च णं पभू विउवित्तए बलिस्स णं वइरोयणस्स सामाणियदेवा केहिड्ढीया ? एवं सामाणियदेवा तावत्तीसा लोकपालऽग्गमहिसोयो य जहा चमरस्स (सु. 4-6), नवरं साइरेगं जंबुद्दीवं जाव एगमेगाए प्रग्गमहिसोए देवीए, इमे वुइए विसए जाव विउव्यिस्संति वा / सेवं भंते ! 2 तच्चे गो० वायुभूती प्रण० समणं भगवं महा० वंदइ ण०, 2 नऽच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ / [12 प्र. भगवन् ! यदि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् उसकी इतनी विकुर्वणाशक्ति है तो उस वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि के सामानिक देव कितनी बड़ी ऋद्धि वाले हैं, यावत् उनकी विकुर्वणाशक्ति कितनी है ? [12 उ.] (गौतम !) बलि के सामानिक देव, त्रास्त्रिशक एवं लोकपाल तथा अग्रमहिषियों की ऋद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति का वर्णन चमरेन्द्र के सामानिक देवों की तरह समझना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी विकुर्वणाशक्ति सातिरेक जम्बूद्वीप के स्थल तक को भर देने की है; यावत् प्रत्येक अग्रमहिषी को इतनी विकुर्वणाशक्ति विषयमात्र कही है; यावत् वे विकुर्वणा करेंगी भी नहीं; यहाँ तक पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / ___हे भगवन् ! जैसा आप कहते हैं, वह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह उसी प्रकार है,' यों कह कर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया और फिर न अतिदूर, और न अतिनिकट रहकर वे यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन-वैरोचनेन्द्र बलि और उसके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि प्रादि तथा विकुर्वणा - -- 1. यह मूत्र (सू. 12) अन्य प्रतियों में नहीं मिलता। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] 1 व्याल्याप्रज्ञप्तिसून शक्ति प्रस्तुत दो सूत्रों (11-12 सू.) में वैरोचनेन्द्र बलि तथा उसके अधीनस्थ देववर्ग सामानिक, त्रास्त्रिश, लोकपाल एवं अग्रमहिषियों की ऋद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर का निरूपण किया गया है। ये प्रश्न वायुभूति अनगार के हैं और उत्तर श्रमण भगवान् महावीर ने दिये हैं। 'वैरोचनेन्द्र का परिचय-दाक्षिणात्य असुरकुमारों की अपेक्षा जिनका रोचन (दीपनकान्ति) अधिक (विशिष्ट) है, वे देव वैरोचन कहलाते हैं। वैरोचनों का इन्द्र वैरोचनेन्द्र है / ये उत्तरदिशावर्ती (औदीच्य) असुरकुमारों के इन्द्र हैं। इन देवों के निवास, उपपातपर्वत, इनके इन्द्र, तथा अधीनस्थ देववर्ग, वैरोचनेन्द्र की पांच अग्रमहिषियों आदि का सब वर्णन स्थानांगसूत्र के दशम स्थान में हैं / बलि वैरोचनेन्द्र की पांच अग्रमहिषियाँ हैं-शुम्भा, निशुम्भा, रंभा, निरंभा और मदना। इन का सब वर्णन प्राय: चमरेन्द्र की तरह है। इसकी विकुर्वणा शक्ति सातिरेक जम्बूद्वीप तक की है, क्योंकि औदीच्य इन्द्र होने से चमरेन्द्र की अपेक्षा वैरोचनेन्द्र बलि की लब्धि विशिष्टतर होती है।' नागकुमारेन्द्र धरण और उसके अधीनस्थ देववर्ग को ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति 13. तए गं से दोच्चे गो० अग्गिभूती अण० समणं भगवं पंदइ०, 2 एवं वदासि–जति णं भंते ! बलो वरोर्याणदे वइरोयणराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विकुवित्तए धरणे णं भंते ! नागकुमारिदे नागकुमारराया केहिड्ढोए जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए ? गोयमा ! धरणे णं नागकुमारिदे नागकुमारराया एमहिड्ढोए जाव से णं तत्य चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं, छहं सामाणियसाहस्सोणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, छण्हं प्रगमहिसीण सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवतोणं, चउवीसाए प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसि च जाव विहरइ। एवतियं च णं पभ विउवित्तए से जहानामए जुवति जुवाणे जाव (सु. 3) पभ केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीव जाव तिरियमसंखेज्जे दोव-समुद्दे बहूहि नागकुमारेहि नागकुमारीहि जाव विउव्विस्सति वा / सामाणिय-तायत्तीस-लोगपालऽग्गमहिसीनो य तहेव जहा चमरस्स (सु. 4-6) / नवरं संखिज्जे दीव-समुद्दे भाणियन्वं / [13 प्र.] तत्पश्चात् द्वितीय गौतम अग्निभूति अन गार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा- 'भगवन् ! यदि वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि इस प्रकार की महाऋद्धि वाला है यावत इतनी विकूर्वणा करने में समर्थ है, तो भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण कितनी बड़ी ऋद्धि वाला है ? यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?' (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 157 (ख) स्थानांग, स्था. 10 (ग) ज्ञातासूत्र, वर्ग 2, अ. 1 से 5 तक (घ) 'विशिष्ट रोचन–दीपनं (कान्तिः) येषामस्ति ते वैराचना प्रौदीच्या असूराः, तेषु मध्ये इन्द्रः परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः / ' ___-भगवती, अ. वृत्ति 157 प., स्था. वृत्ति Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [265 [13 उ.] गौतम ! वह नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणेन्द्र महाऋद्धि वाला है, यावत् वह चवालीस लाख भवनावासों पर, छह हजार सामानिक देवों पर, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों पर, चार लोकपालों पर, परिवार सहित छह अग्रमहिषियों पर, तीन सभाओं (परिषदों) पर, सात सेनाओं पर, सात सेनाधिपतियों पर, और चौबीस हजार प्रात्मरक्षक देवों पर तथा अन्य अनेक दाक्षिणात्य कुमार देवों और देवियों पर आधिपत्य, नेतृत्व, स्वामित्व यावत् करता हुआ रहता है। उसकी विकुर्वणाशक्ति इतनी है कि जैसे युवापुरुष युवती स्त्री के करग्रहण के अथवा गाड़ी के पहिये की धुरी में संलग्न आरों के दृष्टान्त से (जैसे वे दोनों संलग्न दिखाई देते हैं, उसी तरह से) यावत् वह अपने द्वारा वैक्रियकृत बहुत-से नागकुमार देवों और नागकुमारदेवियों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को भरने में समर्थ है और तियग्लोक के संख्येय द्वीप-समूद्रों जितने स्थल को भरने की शक्ति वाला है / परन्तु यावत् (जम्बूद्वीप को या संख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को उक्त रूपों से भरने की उनकी शक्तिमात्र है, क्रियारहित विषय है) किन्तु ऐसा उसने कभी किया नहीं, करता नहीं और भविष्य में करेगा भी नहीं। धरणेन्द्र के सामानिक देव, त्रायस्त्रिशक देव, लोकपाल और अग्रमहिषियों की ऋद्धि आदि तथा वैक्रिय शक्ति का वर्णन चमरेन्द्र के वर्णन की तरह कह लेना चाहिए / विशेषता इतनी ही है कि इन सबकी विकुर्वणाशक्ति संख्यात द्वीप-समुद्रों तक के स्थल को भरने की समझनी चाहिए। विवेचन-नागकुमारेन्द्र धरण और उसके अधीनस्य देववर्ग की ऋद्धि प्रादि तथा विकुर्वणाशक्ति प्रस्तुत सूत्र में नागकुमारेन्द्र धरण और उनके अधीनस्थ देववर्ग सामानिक, नास्त्रिश, लोकपाल और अग्रमहिषियों की ऋद्धि प्रादि का तथा विकुर्वणाशक्ति का वर्णन किया गया है। नागकुमारों के इन्द्र–धरणेन्द्र का परिचय-दाक्षिणात्य नागकुमारों के ये इन्द्र हैं। इनके निवास, लोकपालों का उपपात पर्वत, पाँच युद्ध सैन्य, पांच सेनापति एवं छह अनमहिषियों का वर्णन स्थानांग एवं प्रज्ञापना सूत्र में है। नागकुमारेन्द्र धरण की छह अग्रमहिषियों के नाम इस प्रकार हैंअल्ला, शक्रा, सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा और घनविद्युता।' शेष भवनपति, वारगव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों के इन्द्रों और उनके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि, विकुर्वरणाशक्ति आदि का निरूपण 14. एवं जाव थपियकुमारा, वाणमंतर-जोतिसिया वि। नवरं दाहिणिल्ले सत्वे अग्गीभूती पुच्छति, उत्तरिल्ले सन्वे वाउभूती पुच्छइ / [14] इसी तरह यावत् 'स्तनितकुमारों तक सभी भवनपतिदेवों (के इन्द्र और उनके अधीनस्थ देववर्ग की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणा-शक्ति) के सम्बन्ध में कहना चाहिए / इसी तरह समस्त वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों (के इन्द्र एवं उनके अधीनस्थ देवों की ऋद्धि आदि तथा विकुर्वणाशक्ति) के विषय में कहना चाहिए / विशेष यह है कि दक्षिण दिशा के सभी इन्द्रों के विषय में द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार पूछते हैं और उत्तरदिशा के सभी इन्द्रों के विषय में तृतीय गौतम वायुभूति अनगार पूछते हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र क. आ., पृ. 105-106 (ख) स्थानांग क. पा., पृ. 550, 357, 416 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-शेष भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों के इन्द्रों और उनके अधीनस्थ देववर्ग को ऋद्धि, विकुर्वणा-शक्ति प्रादि-प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार एवं नागकुमार को छोड़कर स्तनितकुमार पर्यन्त शेष समस्त भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों के इन्द्रों तथा उनके अधीनस्थ सामानिक, त्रायस्त्रिश एवं लोकपाल तथा अग्रम हिषियों की ऋद्धि प्रादि तथा विकुर्वणाशक्ति को निरूपण पूर्ववत् बताया है। भवनपति देवों के बोस इन्द्र---भवनपतिदेवों के दो निकाय हैं—दक्षिण निकाय (दाक्षिणात्य) और उत्तरी निकाय (औदीच्य) / वैसे भवनपतिदेवों के दस भेद हैं---असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, पवनकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार, दिशाकुमार. और स्तनित कुमार / इसी जाति के इसी नाम के दस-दस प्रकार के भवनपति दोनों निकायों में होने से बीस भेद हुए। इन बीस प्रकार के भवनपति देवों के इन्द्रों के नाम इस प्रकार हैं-चमर, धरण, वेणुदेव, हरिकान्त, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमित, विलम्ब (विलेव) और घोष (सुघोष)। ये दस दक्षिण निकाय के इन्द्र हैं। बलि, भूतानन्द, वेणुदालि (री), हरिस्सह, अग्निमाणव, (अ) वशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष, ये दस उत्तर निकाय के इन्द्र हैं। प्रस्तुत में चमरेन्द्र, बलीन्द्र, एवं धरणेन्द्र को छोड़ कर अधीनस्थ देववर्ग सहित शेष, 17 इन्द्रों की ऋद्धि-विकुर्वणाशक्ति इत्यादि का वर्णन जान लेना चाहिए / भवन-संख्या-इनके भवनों की संख्या-'चउत्तोसा चउचत्ता' इत्यादि पहले कही हुई दो गाथाओं में बतला दी गई है। सामानिकदेव-संख्या-चमरेन्द्र के 64 हजार और बलीन्द्र के 60 हजार सामानिक है, इस प्रकार असुरकुमारेन्द्रद्वय के सिवाय शेष सब इन्द्रों के प्रत्येक के 6-6 हजार सामानिक हैं / प्रात्मरक्षक देव संख्या-जिसके जितने सामानिक देव होते हैं, उससे चौगुने आत्मरक्षक देव होते हैं। अग्रमाहिषियों को संख्या-चमरेन्द्र और बलीन्द्र के पांच-पांच अग्रमहिषियाँ हैं, प्रागे धरणेन्द्र आदि प्रत्येक इन्द्र के छह-छह अग्रमहिषियाँ हैं। त्रायस्त्रिश और लोकपालों की संख्या नियत है। व्यन्तरदेवों के सोलह इन्द्र-व्यन्तरदेवों के 8 प्रकार हैं-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व / इनमें से प्रत्येक प्रकार के व्यन्तरदेवों के दो-दो इन्द्र होते हैं-एक दक्षिण दिशा का, दुसरा उत्तरदिशा का। उनके नाम इस प्रकार हैं—काल और महाकाल, सूरूप (प्रतिरूप) और प्रतिरूप, पूर्णभद्र और मणिभद्र, भीम और महाभोम, किन्नर और किम्पुरुष, सत्पुरुष और महापुरुष, अतिकाय और महाकाय, गीतरति और गीतयश। व्यन्तर इन्द्रों का परिवार-बाणव्यन्तर देवों में प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार सामानिक देव और इनसे चार गुने अर्थात् प्रत्येक के 16-16 हजार प्रात्मरक्षक देव होते हैं / इनमें त्रास्त्रिश और लोकपाल नहीं होते / प्रत्येक इन्द्र के चार-चार अग्रमहिषियां होती हैं / ज्योतिष्कन्द्र परिवार-ज्योतिष्क निकाय के 5 प्रकार के देव हैं—सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा / इनमें सूर्य और चन्द्र दो मुख्य एवं अनेक इन्द्र हैं। इनके भी प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१) [267 सामानिक देव, 16-16 हजार प्रात्मरक्षक और चार-चार अग्रमहिषियों होती हैं / ज्योतिष्क देवेन्द्रों के त्रास्त्रिश और लोकपाल नहीं होते / वैक्रियशक्ति–इनमें से दक्षिण के देव और सूर्यदेव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भरने में समर्थ हैं, और उत्तरदिशा के देव और चन्द्रदेव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं। दो गणधरों की पृच्छा-इन सब में दक्षिण के इन्द्रों और सूर्य के विषय में द्वितीय गणधर श्री अग्निभूति द्वारा पृच्छा की गई है, जबकि उत्तर के इन्द्रों और चन्द्र के विषय में तृतीय गणधर श्री वायुभूति द्वारा पृच्छा की गई है।" शक्रेन्द्र, तिष्यक देव तथा शक के सामानिक देवों की ऋद्धि, विकुर्वरणाशक्ति प्रादि का निरूपण 15. 'भंते !' ति भगवं दोच्ने गोयमे अग्गिभूती प्रणगारे समणं भगवं म. वंदति नमंसति, 2 एवं क्यासी–जति णं भंते ! जोतिसिदे जोतिसराया एमहिड्ढोए जाव एवतियं च गं पभ विकुन्वित्तए सक्के गं भते ! देविदे देवराया केमहिड्ढोए जाव केवतियं च णं पभू विउवित्तए ? गोयमा! सक्के गं देविदे देवराया महिड्ढोए जाव महाणुभागे। से णं तस्थ बत्तोसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सोणं जावर चउण्हं च उरासोणं प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं अन्नेसि च नाव विहरइ / एमहिड्ढोए जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए / एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियन्वं, नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दोवे दीवे, अवसेसं तं चेव / एस णं गोयमा ! 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 157-158 (ब) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, मू. 6 व 11 का भाष्य पृ. 92 (ग) प्रजापनासूत्र में अंकित गाथाएँ चमरे धरणे तह वेणुदेव-हरिकत-प्रग्गिसोहे य / पुण्गो जलकते वि य अमिय-विलंबे य घोसे य // 6 // बलि-भूयाणंदे / वेणुदालि-हरिस्सहे अग्गिमाणव-वसि? / जलप्पभे अमियवाहणे पहंजणे महाघोसे // 7 // घउमट्टी सट्ठी खलु छच्च सहस्साप्रो असुरवज्जाणं / / मामाणिवागो एए चउगुणा पायरक्खा र // 5 // काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूवं-पुण्णभद्दे य / अमरवइमाणिभ भीमें य तहा महाभीमे // 1 // किण्णर-किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे चैव तह महापुरिसे / प्रइकाय-महाकाय, गीयरई व गीयजसे // 2 // —प्रज्ञापना, क. प्रा. पृ. 108, 91 तथा 112 2. यहाँ जाव शब्द से "ताय तीसाए से अट्टाह अगमहिसोगं सपरिवाराणं चउग्हं लोकपालाणं, तिहं परिसाणं, सत्तहं अणियाणं, सत्ताह अणियाहिवईगं" तक का पाठ जानना चाहिए। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सक्कस्स देविदस्स देवरणो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते णं वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुविसु धा विकुव्वति वा विकुन्विस्सति वा। [15 प्र.] 'भगवन् !' यों संबोधन करके द्वितीय गणधर भगवान् गौतमगोत्रीय अग्निभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा-) 'भगवन् ! यदि ज्योति केन्द्र ज्योतिष्कराज ऐसी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक कितनी महाऋद्धि वाला है और कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [15 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र महान् ऋद्धिवाला है यावत् महाप्रभावशाली है। वह वहाँ बत्तीस लाख विमानावासों पर तथा चौरासी हजार सामानिक देवों पर यावत् (त्रास्त्रिशक देवों एवं लोकपालों पर) तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देवों पर एवं दूसरे बहुत-से देवों पर आधिपत्य स्वामित्व करता हुआ विचरण करता है / (अर्थात-) शकेन्द्र ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। उसकी वैक्रिय शक्ति के विषय में चमरेन्द्र की तरह सब कथन करना चाहिये; विशेष यह है कि वह अपने वैक्रियकृत रूपों से) दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ है; और शेष सब पूर्ववत् है / (अर्थात्-तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने में समर्थ है।) हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक की यह इस रूप की वैक्रियशक्ति तो केवल शक्तिरूप (क्रियारहित शक्ति) है। किन्तु सम्प्राप्ति (साक्षात् क्रिया) द्वारा उसने ऐसी विक्रिया की नहीं, करता नहीं और न भविष्य में करेगा। 16. जइ गं भंते ! सबके देविदे देवराया एमहिड्ढोए जाव एवतियं च णं पभ विकुवित्तए एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए णाम अणगारे पतिभद्दए जाब विणीए छठंछठेणं प्रणिविखतेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई अट्ठ संबच्छराई सामण्णपरियागं पाणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता पालोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सपंसि विमाणंसि उबवायसभाए देवसणिज्जसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतीए प्रोगाहणाए सक्कस्स देविदस्त देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववन्ने। तए णं तीसए देवे बहुगोववन्नमेत्ते समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा-आहार. पज्जत्तीए सरोर० इंदिय० प्राणापाणुपज्जतीए भासा-मणपज्जत्तीए / तए णं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं मयं समाणं सामाणियपरिसोववन्नया देवा करयलपरिम्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मथए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धाविति, 2 एवं वदासि-अहो ! णं देवाणुप्पिएहिं दिवा देविड्ढी, दिव्या देवजुती, दिवे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागते, जारिसिया णं देवाणु पिएहिं दिव्या देविड्ढो दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्त्रागते तारिसिया णं सक्केण देविदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागता, जारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरण्णा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागता तारिसिया णं देवाणुप्पिएहि दिन्या देविड्ढी जाव अभिसमन्ना से णं भाते ! तीसए देवे केमहिड्ढोए जाव केवतियं च णं पभ विकुवित्तए ? Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [269 गोयमा! महिड्ढीए जाव महाणु मागे, से णं तत्थ सयस विमाणस्स, चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिष्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवतीणं, सोलसण्हं प्रायरक्ख देवसाहस्सोणं अन्नेसि च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य जाव विहरति / एमहिड्ढोए जाव एवइयं च णं पभ विकुवित्तए-से जहाणामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा जहेव सक्कस्स तहेव जाव एस णं गोयमा ! तोसयस्स देवस्स अयमेयारूवे बिसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा 3 / [16 प्र.] भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक ऐसी महान् ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकर्वणा करने से समर्थ है, तो आप देवानप्रिय का शिष्य 'तिष्यक' नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुना, पूरे पाठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय (साधु-दीक्षा) का पालन करके, एक मास की संल्लेखना से अपनी प्रात्मा को संयुक्त (जुष्ट-सेवित) करके, तथा साठ भक्त (टंक) अनशन का छेदन (पालन) कर, आलोचना और प्रतिक्रमण करके, मृत्यु (काल) के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके सौधर्मदेवलोक में गया है। वह वहाँ अपने विमान में, उपपातसभा में, देव-शयनीय (देवों की शय्या) में देवदूष्य (देवों के वस्त्र) से ढंके हुए अंगुल के असंख्यात भाग जितनी अवगाहना में देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर तत्काल उत्पन्न हुआ वह तिष्यक देव पांच प्रकार की पर्याप्तियों (अर्थात्-पाहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, पानापान-पर्याप्ति (श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति) और भाषामनःपर्याप्ति से पर्याप्तिभाव को प्राप्त हुआ / तदनन्तर जब वह तिष्यकदेव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका, तब सामानिक परिषद् के देवों ने दोनों हाथों को जोड़कर एवं दसों अंगुलियों के दसों नखों को इकट्ठ करके मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय-शब्दों से बधाई दी। इसके बाद वे इस प्रकार बोले-अहो ! अाप देवानुप्रिय ने यह दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-धु ति (कान्ति) उपलब्ध की है, प्राप्त की है, और दिव्य देव-प्रभाव उपलब्ध किया है, सम्मुख किया है / जैसी दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-कान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है; जैसी दिव्य ऋद्धि दिव्य देवकान्ति और दिव्यप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक ने लब्ध, प्राप्त एवं अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है / (अतः अग्निभूति अनगार भगवान् से पूछते हैं-) भगवन् ! वह तिष्यक देव कितनी महा ऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [16 उ.] गौतम ! वह तिष्यक देव महाऋद्धि वाला है, यावत् महाप्रभाव वाला है। वह वहाँ अपने बिमान पर, चार हजार सामानिक देवों पर, सपरिवार चार अनमहिषियों पर, तीन परिषदों (सभाओं) पर, सात सैन्यों पर, सात सेनाधिपतियों पर एवं सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों पर, तथा अन्य बहत-से वैमानिक देवों और देवियों पर आधिपत्य, स्वामित्व एवं नेतृत्व करता हुआ विचरण करता है / यह तिष्यकदेव ऐसी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] व्याख्याप्रजप्तिसूत्र है, जैसे कि कोई युवती (भय अथवा भीड़ के समय) युवा पुरुष का हाथ दृढ़ता से पकड़ कर चलती है, अथवा गाड़ी के पहिये की धुरी पारों से गाढ़ संलग्न (प्रायुक्त) होती है, इन्हीं दो दृष्टान्तों के अनुसार वह शक्रेन्द्र जितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है। हे गौतम ! यह जो तिष्यकदेव को इस प्रकार की विकुर्वणाशक्ति कही है. वह उसका सिर्फ विषय है, विषयमात्र (क्रियारहित वैक्रियशक्ति) है, किन्तु सम्प्राप्ति (क्रिया) द्वारा कभी उसने इतनी विकुर्वणा की नहीं, करता भी नहीं और भविष्य में करेगा भी नहीं। 17. जति णं भंते ! तीसए देवे एमहिड्ढोए जाव ऐवइयं च णं पम विकुवित्तए, सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरष्णो प्रवसेसा सामाणिया देवा केमहिड्ढीया ? तहेव सव्वं जाव एस णं गोयमा ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो एगमेगस्स सामाणियरस देवस्स इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वंति वा विकुब्धिस्संति वा। [17 प्र. भगवन् ! यदि तिष्यक देव इतनी महाऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति रखता है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के दूसरे सब सामानिक देब कितनी महाऋद्धि वाले हैं यावत् उनकी विकुर्वणाशक्ति कितनी है ? 17 उ.] हे गौतम ! (जिस प्रकार तिष्यकदेव की ऋद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति प्रादि के विषय में कहा), उसी प्रकार शकेन्द्र के समस्त सामानिक देवों की ऋद्धि एवं विकुर्वणा शक्ति प्रादि के विषय में जानना चाहिए, किन्तु हे गौतम ! यह विकूर्वणाशक्ति देवेन्द्र देवराज शक्र के प्रत्येक सामानिक देव का विषय है, विषयमात्र है, सम्प्राप्ति द्वारा उन्होंने कभी इतनी विकुर्वणा की नहीं, करते नहीं, और भविष्य में करेंगे भी नहीं / 18. तायत्तीसय-लोगपाल-प्रग्गमाहिसीणं जहेव चमरस्स। नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अन्नं तं चेव / सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति दोच्चे गोयमे जाव विहरति / [18] शकेन्द्र के त्रायस्त्रिशक, लोकपाल और अग्रमहिषियों (की ऋद्धि, विकुर्वणा शक्ति आदि) के विषय में चमरेन्द्र (के त्रास्त्रिशक प्रादि को ऋद्धि आदि) की तरह कहना चाहिए / किन्तु इतना विशेष है कि वे अपने वैक्रियकृत रूपों से दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीपों को भरने में समर्थ हैं। शेष समग्न वर्णन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। हे 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर द्वितीय गौतम अग्निभूत अनगार यावत् विचरण करते हैं / विवेचन-शक्रन्द्र तथा तिष्यक देव एवं शक के सामानिक देवों आदि की ऋद्धि, विकुर्वना शक्ति प्रादि का निरूपण—प्रस्तुत चार सूत्रों (15 से 18 सू. तक) में सौधर्मदेवलोक के इन्द्र देवराज शक्रेन्द्र तथा सामानिक रूप में उत्पन्न तिष्यकदेव एवं शक्रेन्द्र के सामानिक आदि देववर्ग को ऋद्धि आदि और विकुर्वणाशक्ति के विषय में निरूपण किया गया है। शकेन्द्र का परिचय-देवेन्द्र देवराज शक्र प्रथम सौधर्म देवलोक के वैमानिक देवों का इन्द्र है। प्रज्ञापनासूत्र में इसके अन्य विशेषण भी मिलते हैं, जैसे-वज्रपाणि, पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष (पांच सो मत्री होने से), मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावतवाहन, सुरेन्द्र, आदि / शकेन्द्र के आवासस्थान, विमान, विमानों का आकारवर्णगन्धादि, उसको प्राप्त शरीर, श्वासोच्छ्वास, आहार, लेश्या, ज्ञान अज्ञान, दर्शन-कुदर्शन, उपयोग, Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [271 वेदना, कषाय, समुद्घात, सुख, समृद्धि, वैक्रियशक्ति आदि का समस्त वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में किया तिष्यक अनगार को सामानिक देवरूप में उत्पत्ति-प्रक्रिया-शकेन्द्र की ऋद्धि आदि के विषय में प्रश्नोत्तर के पश्चात् शकेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए अपने पूर्वपरिचित भगवत् शिष्य तिष्यक अनगार के समग्र चरितानुवादपूर्वक प्रश्न करते हैं-द्वितीय गौतम श्री अग्निभूलि अनगार ! तिष्यक अनगार का मनुष्यलोक से देहावसान होने पर देवलोक में देवशरीर की रचना की प्रक्रिया का वर्णन यहाँ शास्त्रकार करते हैं / कर्मबद्ध प्रात्मा (जीव) के तथारूप पुद्गलों से आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि रूप शरीर बनता है / पर्याप्तियाँ छह होते हुए भी यहाँ पाँच पर्याप्तियों का उल्लेख बहुश्रुत पुरुषों के द्वारा भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति को एक मान लेने से किया गया है।' 'लद्ध पत्ते अभिसमस्नागते' का विशेषार्थ--लद्ध-दुसरे (पूर्व) जन्म में इसका उपार्जन किया था, इस कारण लब्ध (मिला, लाभ प्राप्त) हुआ; पत्ते- देवभव की अपेक्षा से प्राप्त हुआ है, इसलिए 'पत्त' शब्द प्रयुक्त है; अभिसमन्नागते = प्राप्त किये हुए भोगादि साधनों के उपभोग (अनुभव) की अपेक्षा से अभिमुख लाया हुआ है / ___'जहेव चमरस्स' का प्राशय-इस पंक्ति से यह सूचित किया गया है कि लोकपाल और अग्रमहिषियों की विकुर्वणाशक्ति 'तिरछे संख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने तक की' कहनी चाहिए। ____ कठिन शब्दों के अर्थ-अणिक्खित्तेणं-निरन्तर (अनिक्षिप्त)। भूसित्ता सेवन करके / जारिसिया= जैसी, तारिसिया = वैसो 4 ईशानेन्द्र, कुरुदत्तपुत्रदेव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों एवं उनके सामानिकादि देववर्ग की ऋद्धि-विकुर्वरणाशक्ति प्रादि का प्ररूपरण 16. 'मते !' ति भगवं तच्चे गोयमे वाउभूती अणगारे भगवं जाव एवं वदासी-जति गं भंते ! सक्के देविबे दवराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए, ईसाणे णं माते ! देविदे देवराया कमहिढीए? एवं तहेव, नवरं साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीव दोवे, अवसेसं तहेव / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र (उ. 4 क. पा.. पृ. १२०-१)-"सक्के इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, वज्जपाणी पुरंदरे सयक्कड सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिण (इट) लोगाहिवई बत्तीस विमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिदे "अाहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वेमाणे जाब विहरइ / " / (ख) जीवाभिगमसूत्र क. पा. पृ. 926 2. (क) भगवती सुत्र अ. वत्ति पत्रांक 159 (ख) भगवतीसूत्र टीका-गुजराती अनुवाद (पं. बेचरदासजी), खण्ड 2, पृ. 19 3. भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 159 4. भगवतो सूत्र हिन्दी विवेचन युक्त (पं. घेवरचन्द जी), भाग 2, पृ. 557 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] 'भगवन् !' यों संबोधन कर तृतीय गौतम भगवान् वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार कहा-(पूछा-) भगवन् ! यदि दवेन्द्र देवराज शक इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देव राज ईशान कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है ?' |19 उ०] (गौतम ! जैसा शक्रेन्द्र के विषय में कहा था,) वैसा ही सारा वर्णन ईशानेन्द्र के विषय में जानना चाहिए / विशेषता यह है कि वह (अपने वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भर देता है / शेष सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 20. जति णं भंते / ईसाणे देविवे देवराया एमहिड्ढीए जाव एबतियं च णं पभ विउवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नाम पगतिभदए जाव विणीए अट्टमं प्रमेण अणिविखतेणं पारणए आयंबिलपरिग्महिएणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिम्भिय 2 सूराभिमुहे पायावणभूमीए प्रातावेमाणे बहुपडिपुणे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए सलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता तोसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कापे सयंसि विमाणंसि जा चेव तीसए वतन्वया स च्चेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि / नवरं सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, प्रवसेसं तं चेव / [20 प्र.] भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है, यावत् वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत विनीत, तथा निरन्तर अट्टम (तेले-तेले) की तपस्या और पारणे में प्रायम्बिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से प्रात्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊँचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके प्रातापना-भूमि में प्रातापना लेने वाला (सख्त धूप को सहने वाला) आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) कुरुदत्तपुत्र अतगार, पूरे छह महीने तक श्रामण्य. पर्याय का पालन करके, अर्द्धमासिक (15 दिन को) संलेखना से अपनी आत्मा को संसेवित (संयुक्त) करके, तीस भक्त (30 टंक) अनशन (संथारे) का छेदन (पालन) करके, आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके (समभावसमाधिपूर्वक) काल (मरण) का अवसर आने पर काल करके, ईशानकल्प में, अपने विमान में, ईशानेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हा है, इत्यादि जो वक्तव्यता, तिष्यक देव के सम्बन्ध में पहले कही है. वही समग्र वक्तव्यता कुरुदत्तपत्र के विषय में भी कहनी चाहिए। (अतः प्रश्न यह है कि वह सामानिक देवरूप में उत्पन्न कुरुदत्तपुत्र देव कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?) [20 उ.] (हे गौतम ! इस सम्बन्ध में सब वक्तव्य पूर्ववत् जानना चाहिए / ) विशेषता यह है कि कुरुदत्तपुत्रदेव की (अपने वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने को विकुर्वणाशक्ति है / शेष समस्त वर्णन उसी तरह ही समझना चाहिए / 21. एवं सामाणिय-तायत्तीस-लोगपाल-अम्गमहिसोणं जाव एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुब्धिसु वा विकुव्वंति वा विकुग्विस्संति वा। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [273 [21] इसी तरह (ईशानेन्द्र के अन्य) सामानिक देव, त्रायस्त्रिशक देव एवं लोकपाल तथा अग्रमहिषियों (की ऋद्धि, विकुर्वणाशक्ति आदि) के विषय में जानना चाहिए। यावत्-हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान को अग्रमहिषियों की इतनी यह विकुर्वणाशक्ति केवल विषय है, विषयमात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा कभी इतना वैक्रिय किया नहीं, करती नहीं, और भविष्य में करेगी भी नहीं, (यहाँ तक सारा पालापक कह देना चाहिए ) / 22. [1] एवं सर्णकुमारे वि, नवरं चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे। [22-1] इसी प्रकार सनत्कुमार देवलोक के देवेन्द्र (की ऋद्धि यादि तथा विकुर्वणाशक्ति) के विषय में भी समझना चाहिए / विशेषता यह है कि (सनत्कुमारेन्द्र की विकुर्वणाशक्ति) सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों जितने स्थल को भरने की है और तिरछे उसकी विकुर्वणाशक्ति असंख्यात (द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने को) है। [2] एवं सामाणिय-तायत्तीस-लोगपाल-अग्गमाहिसीणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे सव्वे विउब्वति / [22-2] इसी तरह (सनत्कुमारेन्द्र के) सामानिक देव, त्रायस्त्रिशक, लोकपाल एवं अग्रमहिषियों को विकुर्वणाशक्ति असंख्यात द्वीप समुद्रों जितने स्थल को भरने की है। (शेष सब बातें पूर्ववत् समझनी चाहिए)। 23. सणंकुमाराम्रो प्रारद्धा उरिल्ला लोगपाला सव्वे वि असंखेज्जे दीव-समुद्दे विउम्वति / [23] सनत्कुमार से लेकर ऊपर के (देवलोकों के) सब लोकपाल असंख्येय द्वीप-समुद्रों (जितने स्थल) को भरने की वैक्रियशक्ति वाले हैं / 24. एवं माहिदे वि / नवरं साइरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे / [24] इसी तरह माहेन्द्र (नामक चतुर्थ देवलोक के इन्द्र तथा उसके सामानिक प्रादि देवों की ऋद्धि आदि) के विषय में भी समझ लेना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों (जितने स्थल को भरने) की विकुर्वणाशक्ति वाले हैं। 25. एवं बंभलोए वि, नवरं अट्ठ केवलकप्पे० / [25] इसी प्रकार ब्रह्मलोक (नामक पंचम देवलोक के इन्द्र तथा तदधीन देववर्ग की ऋद्धि आदि) के विषय में भी जानना चाहिए / विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों (को भरने) की वैक्रियशक्ति (रखते हैं) वाले हैं / 26. एवं लतए वि, नवरं सातिरेगे भट्ट केबलकप्पे / [26] इसी प्रकार लान्तक नामक छठे देवलोक के इन्द्रादि की ऋद्धि आदि के विषय में समझना चाहिए किन्तु इतना विशेष है कि वे सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने की विकुर्वणाशक्ति रखते हैं / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 27. महासुक्के सोलस केवलकप्पे० / [27] महाशुक्र (नामक सप्तम देवलोक के इन्द्रादि) के विषय में इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों (जितने स्थल) को भरने की वैक्रियशक्ति रखते हैं। 28. सहस्सारे सातिरेगे सोलस० / [28] सहस्रार (नामक अष्टम देवलोक के इन्द्रादि) के विषय में भी यही बात है। किन्तु विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने का वैक्रिय-सामर्थ्य रखते हैं। 26. एवं पाणए वि, नवरं बत्तीसं केवल। [26] इसी प्रकार प्राणत (देवलोक के इन्द्र तथा उसके देववर्ग की ऋद्धि आदि) के विषय में भी जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों (जितने क्षेत्र को भरने) की वैक्रियशक्ति वाले हैं। 30. एवं अच्चुए वि, नवरं सातिरेगे बत्तीस केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे / अन्नं तं चेव / सेवं भंते ! सेव भंते ! ति तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमंसति जाव विहरति / [30] इसी तरह अच्युत (नामक बारहवें देवलोक के इन्द्र तथा उसके देववर्ग की ऋद्धि प्रादि) के विषय में भी जानना चाहिए। किन्तु विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बुद्वीपों से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने का वैक्रिय-सामर्थ्य रखते हैं / शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कहकर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार कर यावत् विचरण करने लगे। विवेचन---ईशानेन्द्र, कुरुदत्तपुत्र देव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों तथा उनके सामानिक प्रादि देववर्ग को ऋद्धि-विकुर्वणाशक्ति प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत 12 सूत्रों (16 से 30 सू० तक) में ईशानेन्द्र, ईशानदेवलोकोत्पन्न कुरुदत्तपुत्रदेव, ईशानेन्द्र के सामानिकादि तथा सनत्कुमार से अच्युत देवलोक तक के इन्द्रों तथा उनके सामानिकादि देवों की ऋद्धि प्रादि एवं विकुर्वणाशक्ति के विषय में प्ररूपण किया गया है। कुरुदत्तपुत्र अनगार के ईशान-सामानिक होने की प्रक्रिया-ईशानेन्द्र की ऋद्धि, विकूर्वणाशक्ति आदि के विषय में प्रश्नोत्तर के पश्चात् ईशानेन्द्र के सामानिकदेव के रूप में उत्पन्न हुए प्रश्नकर्ता के पूर्व परिचित कुरुदत्तपुत्र अनगार की ऋद्धि, विकुर्वणाशक्ति आदि के विषय में प्रश्न करना प्रसंगप्राप्त ही है / प्रश्नकर्ता ने अपने परिचित कुरुदत्तपुत्र अनगार की कठोर तपश्चर्या से सामानिक देव पद तथा उससे सम्बन्धित ऋद्धि, विकुर्वणाशक्ति आदि का वर्णन करके सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक की गई तपश्चर्या का महत्त्व भी प्रकारान्तर से प्रतिपादित कर दिया है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [275 ईशानेन्द्र एवं शकेन्द्र में समानता और विशेषता-यद्यपि शकेन्द्र के प्रकरण में कही हुई बहुतसी बातों के साथ ईशानेन्द्र के प्रकरण में कही गई बहुत-सी बातों को समानता होने से ईशानेन्द्र-प्रकरण को शकेन्द्र-प्रकरण के समान बताया गया है, तथापि कुछ बातों में विशेषता है। वह इस प्रकारईशानेन्द्र के 28 लाख विमान, 80 हजार सामानिक देव और 3 लाख 20 हजार प्रात्मरक्षक देव हैं; तथा ईशानेन्द्र की वैक्रियशक्ति सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने की है, जो शकेन्द्र की वैक्रियशक्ति से अधिक है।' सनत्कुमार से लेकर अच्युत तक के इन्द्रादि की क्रियशक्ति-सनत्कुमार देवेन्द्रादि की वैक्रियशक्ति सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों तथा तिरछे असंख्येय द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने की है, माहेन्द्र की सम्पूर्ण चार जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक की, ब्रह्मलोक की सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों को भरने की, लान्तक की सम्पूर्ण आठ जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक की, महाशुक्र की 16 पूरे जम्बूद्वीपों को भरने की, सहस्रार की 16 जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक की, प्राणत की 32 पूरे जम्बूद्वीपों के भरने की और अच्युत की 32 पूरे जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक की है।' ____ सनत्कुमार देवलोक में देवी कहाँ से ? - यद्यपि सनत्कुमार देवलोक में देवी उत्पन्न नहीं होती, तथापि सौधर्म देवलोक में जो अपरिगृहीता देवियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनकी स्थिति समयाधिक पल्योपम से लेकर दस पल्योपम तक की होती है। वे अपरिगहीता देवियाँ सनत्कुमारदेवों की भोग्या होती हैं, इसी कारण सनत्कुमार-प्रकरण के मूलपाठ में 'अम्गमहिसीणं' कहकर अग्रमहिषियों का उल्लेख किया गया है। देवलोकों के विमानों की संख्या-सौधर्म में 32 लाख, ईशान में 28 लाख, सनत्कुमार में 12 लाख, माहेन्द्र में 8 लाख, ब्रह्मलोक में 4 लाख, लान्तक में 50 हजार, महाशुक्र में 40 हजार, सहस्रार में 6 हजार, आनत और प्राणत में 400 तथा प्रारण और अच्युत में 300 विमान हैं। सामानिक देवों की संख्या-पहले देवलोक में 84 हजार, दूसरे में 50 हजार, तीसरे में 72 हजार, चौथे में 70 हजार, पांचवें में 60 हजार, छठे में 50 हजार, सातवें में 40 हजार, आठवें में 30 हजार, नौवें और दसवें में 20 हजार तथा ग्यारहवें और बारहवें देवलोक में 10 हजार सामानिक देव हैं / 1. (क) भगवती सूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 160 (ख) भगवती० टीकानुवादसहित, खं० 2, पृ. 22 2. व्याख्याप्रज्ञप्ति (वियाहपन्नत्तीसुत्त) (मूलपाठ टिप्पण) भा० 1, पृ० 127-128 3. भगवती सूत्र न वृत्ति, पत्रांक 160 4. (क) भगवती सूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 160 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (क० प्रा० पृ० 128) में निम्नोक्त गाथायों से मिलती जुलती गाथाएँ बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा / ग्रारणे बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा // 1 // पण्णासं चत्त छच्चेव सहस्सा लंतक-सुक्क-सहस्सारे / सय चउरो प्राणय-पाणएसु, तिणि प्रारण्णऽच्चु यो // 2 // चउरासीई असीई बावत्तरी सत्तरी य सट्ठी य / / पण्णा चत्तालीसा तीसा बीसा दससहस्सा / / 3 / / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ पगिभिय' आदि कठिन शब्दों के अर्थ--पगिज्भिय = ग्रहण करके-करके / पारद्धा उरिल्ला-से लेकर ऊपर के / ' मोकानगरी से विहार और ईशानेन्द्र द्वारा भगवद्वन्दन---- ___31. तए णं समणे भगवौं महावीरे अन्नया कयाई मोयानो नगरीमो नंदणाम्रो चेतियानो पडिनिक्खमइ, 2 बहिया जणवयविहारं विहरइ / [31] इसके पश्चात् किसी एक दिन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी 'मोका' नगरी के 'नन्दन' नामक उद्यान से बाहर निकलकर (अन्य) जनपद में विचरण करने लगे। 32. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे होत्था। वण्णप्रो। जाव परिसा पज्जुवासइ। [32] उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन औपपातिकसूत्र के नगरी वर्णन के समान जानना चाहिए / (भगवान् वहाँ पधारे) यावत् परिषद् भगवान् को पर्युपासना करने लगी। 33. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे उत्तरड्ढलोगाहिवई प्रदाबीसविमाणावाससयसहस्साहिवई प्ररयंबरवत्थधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे जाव दस दिसाप्रो उज्जोवेमाणे पभासेमाणे ईसाणे कप्पे ईसाणवडिसए विमाणे जहेव रायपसेणइज्जे जाव (राज० पत्र 44-54) दिव्वं वेविड्ढि जाव जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। [33] उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि (हाथ में शूल-त्रिशूल धारक) वृषभ-वाहन (बैल पर सवारी करने वाला) लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से कपोल को जगमगाता हुआ यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करता हुआ ईशानेन्द्र, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान में (रायपसेणीय-राजप्रश्नीय उपांग में कहे अनुसार) यावत् दिव्य देवऋद्धि का अनुभव करता हुआ (भगवान् के दर्शन-वन्दन करने पाया) और यावत् जिस दिशा से आया था उसी दिशा में वापस चला गया। विवेचन-मोका नगरी से विहार और ईशानेन्द्र द्वारा भगवद्वन्दन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (31 से 33 तक) में शास्त्रकार ने तीन बातों का संकेत किया है १-मोकानगरी से भगवान् का बाह्य जनपद में विहार / २-राजगृह ने भगवान् का पदार्पण और परिषद् द्वारा पर्युपासना / 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 160 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] |277 ३-ईशानेन्द्र का भगवान के दर्शन-वंदन के लिए आगमन / ' राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के भगवत्सेवा में प्रागमन-वृत्तान्त का प्रतिदेश—संक्षेप में ईशानेन्द्र के आगमन वृत्तान्त के मुद्दे इस प्रकार हैं (1) सामानिक प्रादि परिवार से परिवृत ईशानेन्द्र ने अवधिज्ञान द्वारा श्रमण भगवान् महावीर को राजगृह में विराजे हुए देख, वहीं से वंदन किया। (2) आभियोगिक देवों को राजगह में एक योजन क्षेत्र साफ करने का आदेश / (3) सेनाधिपति द्वारा सभी देव-देवियों को ईशानेन्द्र की सेवा में उपस्थित होने की घंटारव द्वारा घोषणा। (4) समस्त देव-देवियों से परिवृत होकर एक लाख योजन विस्तृत विमान में बैठकर ईशानेन्द्र भगवद् वंदनार्थ निकला / नन्दीश्वर द्वीप में विश्राम / विमान को छोटा बनाकर राजगृह में विमान से उतर कर भगवान के समवसरण में प्रवेश / भगवान को वंदन-नमस्कार कर पर्यपासना में लीन हुमा। (5) सर्वज्ञ प्रभु की सेवा में गौतमादि महर्षियों को दिव्य नाटकादि विधि दिखाने की इच्छा प्रगट की। उत्तर की अपेक्षा न रखकर वैक्रियप्रयोग से दिव्यमण्डप, मणिपीठिका और सिंहासन बनाए / सिंहासन पर बैठ कर दांए और बाए हाथ से 108-108 देवकुमार-देवकुमारियां निकालीं / फिर वाघों और गीतों के साथ बत्तीस प्रकार का नाटक बतलाया / इसके पश्चात् अपनी दिव्य ऋद्धिवैभव-प्रभाव-कान्ति आदि समेट कर पूर्ववत् अकेला हो गया / (6) फिर अपने परिवार सहित ईशानेन्द्र भगवान् को वंदन-नमस्कार करके वापस अपने स्थान को लौट गया। कूटाकारशालादृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्रऋद्धि की तत्शरीरानुप्रविष्ट-प्ररूपरणा 34. [1] 'भते !' ति भगव गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसति, 2 एवं क्यासीअहो णं माते ! ईसाणे देविदे देवराया महिड्ढीए / ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्या देविड्ढो कहिं गता ? कहि अणुपविट्ठा? गोयमा ! सरीरं गता, सरीरं अणुपविट्ठा / [34-1 प्र०] 'हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-(पूछा-) 'अहो, भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महाऋद्धि वाला है ! भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह (नाटय-प्रदर्शनकालिक) दिव्य देवऋद्धि (अब) कहाँ चली गई ? कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणी युक्त) पृ० 129 2. (क) रायपसेणीयसुत्त पत्र० 44 से 54 तक का सार / (ख) भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्रांक 162-163 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 34-1 उ० गौतम ! (ईशानेन्द्र द्वारा पूर्वप्रदशित) वह दिव्य देवऋद्धि (उसके) शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई है। [2] से केणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चति सरीरं गता, सरोरं अणुपविट्ठा ? गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहश्रो लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तोसे णं कूडागार० जाब (राज. पत्र 56) कूडागारसालादिद्रुतो भाणियन्वो। [34.2 प्र०] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह दिव्य देवऋद्धि शरीर में चली गई और शरीर में प्रविष्ट हो गई? [34-2 उ०] गौतम ! जैसे कोई कूटाकार (शिखर के साकार की) शाला हो, जो दोनों तरफ से लीपी हुई हो, गुप्त हो, गुप्त-द्वारवाली हो, निर्वात हो, वायुप्रवेश से रहित गम्भीर हो, थावत् ऐसी कुटाकारशाला का दृष्टान्त (यहां) कहना चाहिए। विवेचन-कुटाकारशाला के दृष्टान्तपूर्वक ईशानेन्द्र को ऋद्धि की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र में ईशानेन्द्र की पनः अदश्य हई ऋद्धि, प्रभाव एवं दिव्यकान्ति के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा किये गए प्रश्न का भगवान् द्वारा कुटाकारशाला के दृष्टान्तपूर्वक किया गया समाधान है। कुटाकारशाला दृष्टान्त—जैसे (पूर्वोक्त) शिखराकार कोई शाला (घर) हो और उसके पास बहुत-से मनुष्य खड़े हों, इसी बीच आकाश में बादल उमड़ घुमड़कर आ गए हों और बरसने की तैयारी हो, ऐसी स्थिति में वे तमाम मनुष्य वर्षा से रक्षा के लिए उस शाला में प्रविष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार ईशानेन्द्र की वह दिव्य ऋद्धि, देव-प्रभाव एवं दिव्य कांति ईशानेन्द्र के शरीर में प्रविष्ट हो गई। ईशानेन्द्र का पूर्वभव : तामली का संकल्प और प्राणामाप्रवज्या ग्रहण 35. ईसाणेणं भाते ! देविदेणं देवरण्णा सा दिव्या देविड्ढी दिव्या देवजुती दिव देवाणुभागे किण्णालद्ध? किग्णापत्ते? किग्णा अभिसमन्नागए ? के वा एस प्रासि पुन्वभवे ? किणामए वा? किंगोत्ते वा ? कतरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा? किंवा सोच्चा? कि वा दच्चा? कि वा भोच्चा? कि वा किच्चा ? कि वा समायरित्ता? कस्स वा तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि पारियं धम्मियं सुधयणं सोच्चा निसम्म जंणं ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तामलित्ती नाम नगरी होत्था। वपणनो / तत्थ णं तामलित्तीए नगरीए तामली नाम मोरियपुत्ते गाहावती होस्था। अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था / [35 प्र०] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधु ति (कान्ति) और दिव्य देवप्रभाव किस कारण से उपलब्ध किया, किस कारण से प्राप्त किया और किस हेतु से 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 163 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक१] . [ 279 अभिमुख किया? यह ईशानेन्द्र पूर्वभव में कौन था? इसका क्या नाम था, क्या गोत्र था ? यह किस ग्राम, नगर अथवा यावत् किस सन्निवेश में रहता था? इसने क्या सुनकर, क्या (आहारपानी अादि) देकर, क्या (रूखा-सूखा) खाकर, क्या (तप एवं शुभ ध्यानादि) करके, क्या (शीलव्रतादि या प्रतिलेखन-प्रमार्जन आदि धर्मक्रिया का) सम्यक् आचरण करके, अथवा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य (तीर्थकरोक्त) एवं धार्मिक सुवचन सुनकर तथा हृदय में धारण करके (पुण्यपुज का उपार्जन किया,) जिस (पुण्य प्रताप) से देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र ने वह दिव्य देव ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है और अभिमुख की है ? / [35 उ०] हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। उस ताम्रलिप्ती नगरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र (मौर्यवंश में उत्पन्न) गृहपति (गृहस्थ) रहता था। वह धनाढ्य था, दीप्तिमान (तेजस्वी) था, और बहुत-से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय (नहीं दबने वाला दबंग) था / 36. तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावतिस्स अन्नया कयाइ पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जिस्था--"अस्थि ला मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणे फलवित्तिविसेसे जेणाहं हिरणेणं वड्ढामि, सुवणेणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, धन्नेणं वड्ढामि, पुत्तेहि वड्ढामि, पहि बड्ढामि, विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोतिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावतेज्जेणं प्रतीच 2 अभिवड्ढामि, तं कि णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसोक्खयं उव हेमाणे विहरामि ?, तं जाव च णं में मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणो आढाति परियाणइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासइ तावता मे सेयं कल्लं पाउपभाताए रयणीए जाव जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेत्ता विउलं असण-पाण-खातिम सातिम उवक्खडावेत्ता मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणं प्रामंतेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरयणं विउलेणं असणपाण-खातिम-सातिमेणं वत्थ-गंध-मल्ला.ऽलंकारेण य सक्कारेता सम्माणेता तस्सेव मित्त-नाइ-नियगसंबंधिपरियणस्स पुरतो जेटु पुत्तं कुटुबे ठावेत्ता तं मित्त-नाति-णियग-संबंधिपरियणं जेटुपुत्तं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए फव्वज्जाए पन्वइत्तए / पन्वइते विध णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि --'कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंछठेणं प्रणिक्सित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाम्रो पगिम्भिय पगिम्भिय सूराभिमुहस्स प्रातावणभूमीए पायावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि पायावणभूमोतो पच्चोरुभित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता, तं तिसत्तखतो उदएणं पक्खालेत्ता, तो पच्छा पाहारं पाहारित्तए त्ति कटु" एवं संपेहेइ, 2 कल्लं पाउप्यभायाए जाव जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेइ, 2 विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, 2 तो पच्छा हाए कयनलिकम्मे कयकोउमंगलपायच्छिते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहम्घाऽऽभरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए मोयण Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [ व्याख्याप्रजप्तिसूत्र मंडवंसि सुहासणवरगते / तए गं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरिजणेणं सद्धि तं विउलं असण-पाणखातिम-साइमं प्रासादेमाणे वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। [36] तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर अपर (पश्चिम = पिछली) रात्रि-काल के समय कुटुम्ब जागरिका जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति (गृहस्थ) को इस प्रकार का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुमा कि-''मेरे द्वारा पूर्वकृत, पुरातन (दानादि रूप में) सम्यक् आचरित, (तप आदि में) सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कृतकों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक तो विद्यमान है; जिसके कारण मैं हिरण्य (चांदी) से बढ़ रहा हूँ, सुवर्ण (सोने) से बढ़ रहा हूँ, धन से बढ़ रहा हूँ, धान्य से बढ़ रहा हूँ, पुत्रों से बढ़ रहा हूँ, पशुओं से बढ़ रहा हूँ, तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैर शैलज मणिरूप पत्थर, प्रवाल (मूगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन से अधिकाधिक बढ़ रहा हूँ; (अर्थात्---- मेरे घर में पूर्वकृत पुण्यप्रभाव से पूर्वोक्तरूप में सारभूत धनवैभव आदि बढ़ रहे हैं;) तो क्या मैं पूर्वकृत, पुरातन, (दानादिरूप में) समाचरित यावत् पूर्वकृतकर्मों का (शुभकर्मों का फल भोगने से उनका) एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ-इस (क्षय = नाश) की उपेक्षा करता रहूँ ? (अर्थात्-मुझे इतना सुख-साधनों का लाभ है, इतना ही बस मान कर क्या भविष्यकालीन लाभ के प्रति उदासीन बना रहूँ? यह मेरे लिए ठीक नहीं है। अत: जब तक मैं चांदी-सोने यावत् माणिक्य आदि सारभूत पदार्थों के रूप में सुखसामग्री द्वारा दिनानुदिन अतीत-अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वगोत्रीय कुटुम्बोजन, मातृपक्षीय (ननिहाल के) या श्वसूरपक्षीय सम्बन्धी एवं परिजन (दास-दासी आदि), मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप. देवरूप. और चैत्य (संज्ञानवान = समझदार अनुभवी) .रूप मानकर विनयपूर्वक मेरी पर्युपासना सेवा करते हैं; तब तक (मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए।) यही मेरे लिए श्रेयस्कर है / अतः रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात का प्रादुर्भाव होते ही (अर्थात् प्रातःकाल का प्रकाश होने पर) यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं स्वयं अपने हाथ से काष्ठपात्र बनाऊँ और पर्याप्त अशन, पान, खादिम और स्वादिमरूप चारों प्रकार का आहार तैयार करा कर, अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी तथा दास-दासी आदि परिजनों को आमंत्रित करके उन्हें सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार के आहार का भोजन कराऊँ; फिर वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला और आभूषण आदि द्वारा उनका सत्कारसम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके (उसे कुटुम्ब का सारा दायित्व सौंप कर), उन मित्र-ज्ञातिजन-स्वजन-परि. जनादि तथा अपने ज्येष्ठपुत्र से पूछकर, मैं स्वयमेव काष्ठपात्र लेकर एवं मुण्डित होकर 'प्राणामा' नाम की प्रवज्या अंगीकार करू और प्रवजित होते ही मैं इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प = प्रतिज्ञा) धारण करूं कि मैं जीवनभर निरन्तर छट्ट-छट्ट (बेले-बेले) तपश्चरण करूगा और सूर्य के सम्मुख दोनों भुजाएं ऊँची करके प्रातापना भूमि में आतापना लेता (कठोर ताप सहता) हुआ रहूँगा और छट्र (बेले) के पारणे के दिन आतापनाभूमि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र हाथ में लेकर ताम्र. लिप्ती नगरी के ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करके भिक्षाविधि द्वारा शुद्धोदन (अर्थात्-केवल भात) लाऊंगा और उसे 21 बार धोकर खाऊँगा।" इस प्रकार तामली गृहपति ने शुभ विचार किया / Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-1] [ 281 इस प्रकार का विचार करके रात्रि व्यतीत होते ही प्रभात का प्रादुर्भाव होने पर यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्वयमेव लकड़ी का पात्र बनाया। फिर अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार तैयार करवाया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध और उत्तम वस्त्रों को ठीक-से पहने, और अल्पभार तथा बहुमूल्य आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया। तत्पश्चात् भोजन के समय वह तामली गृहपति भोजनमण्डप में पाकर शुभासन पर सुखपूर्वक बैठा / इसके बाद (आमंत्रित) मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी एवं परिजन आदि के साथ उस (तैयार कराए हुए) विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध आहार का आस्वादन करता (चखता) हुमा, विशेष स्वाद लेता हुना, दूसरों को परोसता हुआ भोजन कराता हुआ-और स्वयं भोजन करता हुआ तामली गृहपति विहरण कर रहा था। 37. जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे प्रायंते चोखे परमसुइभूए तं मित्त जाव परियणं विउलेणं असणपाण० 4 पुष्फ-वस्थ-गंध-मल्लाऽलंकारेण व सक्कारेइ, 2 तस्सेव मित्त-नाइ जाव परियणस्स पुरनो जेट्ठ पुत्तं कुटुम्बे ठावेइ, 2 ता तं मित्त-नाइ-णियग-संबंधिपरिजणं जेदुपुत्तं च प्रापुच्छइ, 2 मुण्डे भवित्ता पाणामाए पन्चज्जाए पव्वइए। पच्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ–'कप्पद मे जावज्जीवाए छठेंछद्रेणं जाव पाहारित्तए' त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, 2 ता जावज्जीवाए छठेछठेणं अनिक्खित्तैगं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाम्रो पगिनिभय 2 सूराभिमुहे प्रातावणभूमीए पातावमाणे विहरइ / छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि प्रातावणभूमोमो पच्चोरुभइ, 2 सयमेव दारमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मन्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खारियाए प्रडइ, 2 सुद्धोयणं पडिग्गाहेइ, 2 तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेह, तम्रो पच्छा प्राहारं प्राहारेइ / [37] भोजन करने के बाद उसने पानी से हाथ धोये, और चुल्ल में पानी लेकर शीघ्र प्राचमन (कुल्ला) किया, मुख साफ करके स्वच्छ हया। फिर उन सब मित्र-ज्ञाति-स्वजन-परिजनादि का विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला, अलंकार प्रादि से सत्कारसम्मान किया / फिर उन्हीं मित्रस्वजन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया-(अर्थात्-उसे कुटुम्ब का भार सौंपा)। तत्पश्चात् उन्हीं मित्र-स्वजन प्रादि तथा अपने ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर और मुण्डित हो कर 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की। प्राणामा-प्रव्रज्या में प्रवजित होते ही तामली ने इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया-"प्राज से मेरा कल्प यह होगा कि मैं आजीवन निरन्तर छटु-छट्ट (बेले-बेले) तप करूंगा, यावत् पूर्वकथितानुसार भिक्षा विधि से केवल भात (पके हुए चावल) लाकर उन्हें 21 बार पानी से धोकर उनका आहार करूगा।" इस प्रकार अभिग्रह धारण करके वह तामली तापस यावज्जीवन निरन्तर बेले-बेले तप करके दोनों भुजाएँ ऊँची करके आतापनाभूमि में सूर्य के सम्मुख प्रातापना लेता हुआ विचरण करने लगा। बले के पारणे के दिन प्रातापना भभि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गह-समुदाय से विधिपूर्वक भिक्षा के लिए Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 ] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र घूमता था। भिक्षा में वह केवल भात लाता और उन्हें 21 बार पानी से धोता था, तत्पश्चात् पाहार करता था। विवेचन -- ईशानेन्द्र का पूर्वभव : तामली का संकल्प और प्राणामा प्रवज्या ग्रहण-प्रस्तुत तीन सूत्रों में तीन तथ्यात्मक वृत्तान्त प्रस्तुत किये गये हैं १--ईशानेन्द्र के पूर्वभव के विषय में गौतमस्वामी का प्रश्न / २-तामली गृहपति और उसका प्राणामा प्रवज्याग्रहण का संकल्प / ३--संकल्पानुसार विधिपूर्वक प्राणामा प्रव्रज्याग्रहण और पालन / तामलित्ती-ताम्रलिप्ती- भगवान् महावीर से पूर्व भी यह नगरी बंगदेश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थी / तामली गृहपति के प्रकरण से भी यह बात सिद्ध होती है कि बंगदेश ताम्रलिप्ती के कारण गौरवपूर्ण अवस्था में पहुँचा हुआ था। अनेक नदियाँ होने के कारण जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनों से माल का आयात-निर्यात होने के कारण व्यापार की दृष्टि से तथा सरसब्ज होने से उत्पादन की दष्टि से भी यह समृद्ध था / वर्तमान 'ताम्रलिप्तों' का नाम अपभ्रष्ट होकर 'तामलक' हो गया है, यह कलकत्ता के पास मिदनापुर जिले में है। मौर्यपुत्र-तामली-तामली गृहपति का नाम ताम्रलिप्ती नगरी के आधार पर तामली (ताम्रलिप्त) रखा गया मालूम होता है / मौर्यपुत्र उसका विशेषण है। 'मुर' नाम की कोई प्रसिद्ध जाति थी, जिस के कारण यह वंश 'मोर्य' नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो भी हो, ताम्रलिप्ती के गृहपतियों में मौर्यवंश ख्यातिप्राप्त था।' कठिन शब्दों के विशेष अर्थ--पुव्वरतावरत्तकालसमयंसि = पूर्वरात्र (रात्रि का पहला भाग) और अपररात्र (रात्रि के पिछले भाग के बीच में मध्यरात्रिकाल के समय (शब्दशः अर्थ); अथवा पूर्वरात्रि व्यतीत होने के बाद अपररात्रि (रात्रि के पश्चिम भाग) काल के समय (परम्परागत अर्थ) / अज्झथिए = आध्यात्मिक (आत्मगत अध्यवसाय)-संकल्प / कल्लामफलवित्तिविसे सो= कल्याणकारी फलविशेष / वड्ढामि -(शब्दश:) बढ़ रहा हूँ, (भावार्थ) घर में बढ़ रहा है / किण्णा = किस हेतु (कारण) से / जिमिय भुत्तुत्तरागए जीम (भोजन) करके, भोजनोत्तरकाल में अपने उपवेशनबैठने के स्थान में आ गया। प्रायंते शुद्ध जल से आचमन करके, तथा चोक्खे-भोजन के कण, लेप, छींटे आदि दूर करके मुह साफ किया, और परमसूइन्भूए = अत्यन्त (बिलकुल) शुचिभूत (साफ-सुथरा) प्रव्रज्या का नाम 'प्रारणामा' रखने का कारण 38. से केणठेणं भंते. ! एवं बुच्चइ-पाणामा पच्वज्जा ? गोयमा ! पाणामाए णं पन्चज्जाए पब्वइए समाणे जं जत्थ पासइ इंदं वा खंदं वा रुई वा (क) व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) (टोकानुवाद टिप्पण सहित) (पं. वेचरदासजी) खण्ड 2, पृ. 24 (ख) इससे लगता है चन्द्रगुप्त मौर्य से पूर्व भी मौर्य वंश विद्यमान था -सम्पादक (क) भगवती मूत्र अ. वृत्ति. पत्रांक 163 (ख) भगवती सूत्र विवेचन युक्त (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 576 (ग) व्याख्याप्रज्ञप्ति टीकानूवाद (पं. बेचरदास जी) खण्ड 2 . 41 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयं शतक : उद्देशक-१] [283 सिव वा वेसमणं वा प्रज्ज वा कोट्टकिरियं वा राजं वा जाव सत्थवाहं वा काग वा साणं वा पाणं वा उच्चं पासइ उच्चं पणामं करेति, नीयं पासइ नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासति तस्स तहा पणामं करेइ / से तेण?णं जाव पव्वज्जा / [38 प्र.] भगवन् ! तामली द्वारा ग्रहण की हुई प्रव्रज्या 'प्राणामा' कहलाती है, इसका क्या कारण है ? [38 उ.] हे गौतम ! प्राणामा प्रव्रज्या में प्रवजित होने पर वह (प्रवजित) व्यक्ति जिसे जहाँ देखता है, (उसे वहीं प्रणाम करता है / ) (अर्थात्-) इन्द्र को, स्कन्द (कातिकेय) को, रुद्र (महादेव) को, शिव (शंकर या किसो व्यन्तरविशेष) को, वैश्रमण (कुबेर) को, आर्या (प्रशान्त रूपा पार्वती) को, रौद्ररूपा चण्डिका (महिषासुरमदिनी चण्डी) को, राजा को, यावत् सार्थवाह को, (अर्थात्-राजा, युवराज, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठी एवं सार्थवाह बनजारे को) अथवा कौआ, कुत्ता और श्वपाक = चाण्डाल (आदि सबको प्रणाम करता है।) इनमें से उच्च व्यक्ति को देखता है, उच्च-रीति से प्रणाम करता है, नीच को देखकर नीची रीति से प्रणाम करता है। (अर्थात- जिसे जिस रूप में देखता है, उसे उसी रूप में प्रणाम करता है। इस कारण हे गीत इस प्रव्रज्या का नाम 'प्राणामा' प्रवज्या है। विवेचन–प्रवज्या का नाम 'प्राणामा' रखने का कारण प्रस्तुत सूत्र में तामली गृहपति द्वारा गृहीत प्रव्रज्या को प्राणामा कहने का आशय व्यक्त किया गया है। 'प्राणामा का शब्दशः अर्थ-भी यह होता है जिसमें प्रत्येक प्राणी को यथायोग्य प्रणाम करने की क्रिया विहित हो।' कठिन शब्दों के अर्थ-वेसमणं - उत्तरदिग्पाल-कुबेरदेव / कोट्टकिरियं = महिषासुर को पीटने (कटने की क्रिया वाली चण्डिका। उच्च पूज्य को, नीयं अपूज्य को, उच्चं पणाम - अतिशय प्रणाम, नीयं पणाम अत्यधिक प्रणाम नहीं करता / 1. वर्तमान में भी वैदिक सम्प्रदाय में 'प्राणामा' प्रव्रज्या प्रचलित है। इस प्रकार की प्रवज्या में दीक्षित हए एक सज्जन के सम्बन्ध में 'सरस्वती' (मासिक पत्रिका भाग 13, अंक 1, पृष्ठ 180) में इस प्रकार के समाचार प्रकाशित हुए हैं"..."इसके बाद सब प्राणियों में भगवान की भावना दृढ़ करने और अहंकार छोड़ने के इरादे से प्राणिमात्र को ईश्वर समझकर आपने साष्टांग प्रणाम करना शुरू किया। जिस प्राणी को पाप आगे देखते, उसी के सामने अपने पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते / इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक और गौ से लेकर गधे तक को श्राप साष्टांग नमस्कार करने लगे।" प्रस्तुत शास्त्र में उल्लिखित 'प्राणामा' प्रव्रज्या और 'सरस्वती' में प्रकाशित उपर्युक्त घटना, दोनों की प्रवृत्ति समान प्रतीत होती है। किन्तु ऐसी प्रवृत्ति सम्यग्ज्ञान के प्रभाव की सूचक है / -भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 594 से 2. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्रांक 164 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बालतपस्वी तामली द्वारा पादपोपगमन-अनशन ग्रहरण 36. तए णं से तामलो मोरियपुत्ते तेगं पोरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पाहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव' धमणि संतते जाए यावि होत्था / [39] तत्पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रग्रहीत बाल (अज्ञान) तप द्वारा (अत्यन्त) सूख (शुष्क हो) गया, रूक्ष हो गया, यावत् (इतना दुर्बल हो गया कि) उसके समस्त नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लगा। 40. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अन्नया कयाइ पुश्वरत्तावरत्तकालसमयसि प्रणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चितिए जाव समुप्पजित्था—'एवं खलु अहं इमेणं अोरालेणं विपुलेणं जाव' उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतते जाते, तं अस्थि जा में उठाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तावता मे सेयं कल्लं जाव जलते तामलित्तीए नगरीए दिवाभीय पासंडत्थे य गिहत्थे य युवसंगतिए य परियायसंगतिए य प्रापुच्छित्ता तामलित्तीए नगरीए मज्झमझेगं निग्गच्छित्ता पाउग्गं कुण्डियमादीयं उवकरणं दारुमयं च पडिग्गहयं एगंते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए णियत्तणियमंडल प्रालिहिता संलेहणाभूसणाभूसियस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स पायोवग्यस्त कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ति कटु एवं संपेहेइ / एवं संपेहेत्ता कल्लं जाव जलते जाव प्रापुच्छइ, 2 तामलित्तीए एगते एडेइ जाव भत्त-पाणपडियाइपिखए पापोवगमणं निवन्ने / [40] तदनन्तर किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने के बाद अपररात्रिकाल के समय अनित्य जागरिका अर्थात् संसार, शरीर आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए उस बालतपस्वी तामली को इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन यावत मनोगत संकल्प उत्पन्न हा कि 'मैं इस उदार, विपुल यावत् उदन, उदात्त, उत्तम और महाप्रभावशाली तपःकर्म करने से शुष्क और रूक्ष हो गया हूँ, यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लग गया है / इसलिए जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है, तब तक मेरे लिए (यही) श्रेयस्कर है कि कल प्रात:काल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाऊँ। वहाँ जो दृष्टभाषित (जिनको पहले गृहस्थावस्था में देखा है, जिनके साथ भाषण किया है) व्यक्ति हैं, जो पाषण्ड (वतों में) स्थित हैं, या जो गृहस्थ हैं, जो पूर्वपरिचित (गृहस्थावस्था के परिचित) हैं, या जो पश्चात्परिचित (तापसजीवन में परिचय में प्राए हुए) हैं, तथा जो समकालीन प्रव्रज्या(दीक्षा) पर्याय से युक्त पुरुष हैं, उनसे पूछकर (विचार-विनिमय करके), ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोंबीच से निकलकर पादुका (खड़ाऊं), कुण्डी आदि उपकरणों तथा काष्ठ-पात्र को एकान्त में 1. यहाँ 'जाव' शब्द से ....... 'भुक्खे, निम्मंसे निस्सोणिए किडिकिउियाभूए अढि चम्मावणद्ध किसे' यह पाठ जानना चाहिए। 'जाव' पद से 'सस्सिरीएणं पयत्तणं पग्गहिएणं, कल्लाणेणं सिबेणं धन्नेगं मंगलेणं' इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [285 संलेखना तय माला जाहा पर तनपानमाला वज्जीव प्रत रखकर, ताम्रलिप्ती नगरी के उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) में निवर्तनिक (एक परिमित क्षेत्र विशेष, अथवा निजतनुप्रमाण स्थान) मंडल का आलेखन (निरीक्षण, सम्मान, या रेखा खींच कर क्षेत्रमर्यादा) करके, संल्लेखना तप से प्रात्मा को से वित कर माहार-पानी का सर्वथा त्याग (यावज्जीव अनशन) करके पादपोपगमन संथारा करूं और मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुमा (शान्तचित्त से समभाव में) विचरण करू; मेरे लिए यही उचित है।' यों विचार करके प्रभातकाल होते ही यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर यावत् (पूर्वोक्त-पूर्वचिन्तित संकल्पानुसार सबसे यथायोग्य) पूछा / (विचार विनिमय करके) उस (तामली तापस) ने (ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोंबीच से निकलकर अपने उपकरण) एकान्त स्थान में छोड़ दिये। फिर यावत् आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) किया और पादपोपगमन नामक अनशन (संथारा)अंगीकार किया। विवेचन-बालतपस्वी तामलो द्वारा पादपोपगमन-अनशन-ग्रहण-प्रस्तुत सूत्रद्वय में तामली तापस के बालतपस्वी जीवन के तीन वृत्तान्त प्रतिपादित किये गए हैं—(१) उक्त घोर बालतप के कारण शरीर शुष्क, रूक्ष एवं अन्यन्त कृश हो गया। (2) एक रात्रि के पिछले पहर में क्रमशः विधिवत् संलेखना-संथारा करने का संकल्प किया / (3) संकल्पानुसार तामली तापस अपने परिचितों से पूछकर- उनकी अनुमति लेकर ताम्रलिप्ती के ईशानकोण में संल्लेखनापूर्वक पादपोपगमन अनशन की आराधना में संलग्न हुआ। सर्वथा प्रत्याख्यान साधक काय और कषाय को कृश करने वाला संल्लेखना तप स्वीकार करता है। पादपोपगमन-अनशन-इस अनशन का धारक साधक गिरे हुए पादप (वृक्ष) की तरह निश्चेष्ट होकर आत्मध्यान में मग्न रहता है।' बलिचंचावासी देवगरण द्वारा इन्द्र बनने की विनति : तामली तापस द्वारा अस्वीकार 41. तेणं कालेणं तेणं समएणं बलिचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया यावि होत्था / तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थन्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तालि बालतर्वास्स योहिणा प्राभोयंति, 2 अन्नमन्नं सदावेंति, 2 एवं बयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी अजिंदा अपुरोहिया, अम्हे य पं देवाणुप्पिया ! इंदाधीणा इंदाधिट्टिया इंदाहीणकज्जा। अयं च णं देवाणुप्पिया ! तामलो बालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए नियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाभूसणाभूसिए भत्त-पाणपडियाइक्खिए पायोवगमणं निवन्ने / तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं तालि बालतर्वास्स बलिचंचाए रायहाणीए ठितिपकप्पं पकरावेत्तए" ति कट्ट अन्नमन्नस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति, 2 बलिचंचाए रायहाणीए मज्झमझणं निग्गच्छंति, 2 जेणेव स्यांगवे उप्पायपवए तेणेव उवागच्छंति, 2 वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणति जाव उत्तर वेउविवाई रूवाइं विकुव्वंति, 2 ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए सोहाए सिग्याए दिव्वाए उद्धृयाए देवगतीए तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मज्झमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे 1. भगवतीसूत्र अमेयचन्द्रिका टीका भा. 3 (पू. पासीलालजी म.) पृ. 215 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जेवेव तामलित्ती नगरी जेणेव तामली मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छति, २त्ता तामलिस्स बालतवस्सिस्स उपि सक्खि सपडिदिसि ठिच्चा दिव्वं देविडि दिव्वं देवज्जुति दिव्वं देवाणुमागं दिव्य बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदसैंति, 2 तामलि बालतवस्सि तिक्खुत्तो प्रादाहिणं पदाहिणं करेंति वंदंति नमसंति, 2 एवं वदासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीमो य देवाणप्पियं वंदामो ममंसामो जाव पज्जुवासामो। अम्हं णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया, अम्हे य णं देवाणुपिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहोणकज्जा, तं तुम णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचं रायहाणि प्राढाह परियाणह सुमरह, अट्ठ बंधह, णिदाणं पकरेह, ठितिपकप्पं पकरेह / तए णं तुम्मे कालमासे कालं किच्चा बलिचंचारायहाणीए उवज्जिस्सह, तए णं तुब्भे अम्हं इंवा भविस्सह, लए णं तुम्भे अम्हेहिं सद्धि दिव्वाई भोगमोगाई भुजमाणा विहरिस्सह।" [41] उस काल उस समय में बलिचंचा (उत्तरदिशा के असुरेन्द्र असुरकुमारराज की) राजधानी इन्द्रविहीन और (इन्द्र के अभाव में) पुरोहित से विहीन थी। उन बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने तामली बालतपस्वी को अवधिज्ञान से देखा। देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया, और बुलाकर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! (आपको मालम ही है कि) बलिचंचा राजधानी (इस समय) इन्द्र से विहीन और पुरोहित से भी रहित है। हे देवानुप्रियो ! हम सत्र (अब तक) इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित (रहे) हैं, अपना सब कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है / हे देवानुप्रियो ! (भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नगरी में) यह तामली बालतपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्वदिशाभाग (ईशान कोण) में निवर्तनिक (निवर्तनपरिमित या अपने शरीरपरिमित) मंडल (स्थान) का अालेखन करके, संलेखना तप की आराधना से अपनी प्रात्मा को सेवित करके, आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान कर, पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करके रहा हुआ है। अत: देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि तामली बालतपस्वी को बलिचंचा राजधानी में (इन्द्र रूप में) स्थिति करने (आकर रहने) का संकल्प (प्रकल्प) कराएँ / ' ऐसा (विचार) करके परस्पर एक-दूसरे के पास (इस बात के लिए) वचनबद्ध हुए। फिर (वे सब अपने वचनानुसार) बलिचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत था, वहाँ पाए। वहाँ पाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात से अपने आपको समवहत (युक्त) किया, यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की। फिर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जयिनी, छेक (निपुण) सिंहसदृश, शीघ्र, दिव्य और उद्धृत देवगति से (वे सब) तिरछे असंख्येय द्वीप-समुद्रों के मध्य में होते हए जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, जहाँ ताम्रलिप्ती नगरी थी, जहाँ मौर्यपुत्र तामली तापस था, वहाँ आए, और तामली बालतपस्वी के (ठीक) ऊपर (अाकाश में) चारों दिशाओं और चारों कोनों (विदिशाओं) में सामने खड़े (स्थित) होकर दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्य ति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाटकविधि बतलाई / इसके पश्चात् तामली बालतपस्वी की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, उसे वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! हम बलिचंचा राजधानी के निवासी बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवृन्द प्राप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करते हैं यावत् आपकी पर्युपासना करते हैं / हे देवानुप्रिय ! (इस समय) हमारी बलिचंचा राजधानी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१ ] [287 इन्द्र और पुरोहित से विहीन है। और हे देवानुप्रिय ! हम सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित रहने वाले हैं / और हमारे सब कार्य इन्द्राधीन होते हैं। इसलिए हे देवानुप्रिय ! आप बलिचंचा राजधानी (के अधिपतिपद) का आदर करें (अपनावें) / उसके स्वामित्व को स्वीकार करें, उसका मन में भलीभाँति स्मरण (चिन्तन) करें, उसके लिए (मन में) निश्चय करें, उसका (बलिचंचा राजधानी के इन्द्रपद की प्राप्ति का) निदान करें, बलिचंचा में उत्पन्न होकर स्थिति (इन्द्र रूप में निवास करने का संकल्प (निश्चय) करें। तभी (बलिचंचा राजधानी के अधिपतिपदप्राप्ति का आपका विचार स्थिर हो जाएगा, तब ही) पाप काल (मृत्यु) के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके बलिचंचा राजधानी में उत्पन्न होंगे। फिर पाप हमारे इन्द्र बन जाएँगे और हमारे साथ दिव्य कामभोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे। 42. तए णं से तामलो बालतवस्सो तेहि बलिचंचारायहाणिवत्थव्वहि बहिं असुरकुमारेहि देवेहि य देवोहि य एवं वुत्ते समाणे एयम नो पाढाइ नो परियाणेइ, तुसिणीए संचिट्ठ। [42] जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस तामली बालतपस्वी को इस (पूर्वोक्त) प्रकार से कहा तो उसने उनकी बात का आदर नहीं किया, स्वीकार भी नहीं किया, किन्तु मौन रहा। 43. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवोनो य तालि मोरियपुते दोच्चं पि तच्चं पि तिक्खुत्तो पादाहिणप्पदाहिणं करेंति, 2 जाव अम्हं च णं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिदा जाय ठितिपकप्पं पकरेह, जाव दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे जाव तुसिणीए संचिदुइ। [43] तदनन्तर बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत-से देवों और देवियों ने उस तामली बालतपस्वी को फिर दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके दूसरी बार, तीसरी बार पूर्वोक्त बात कही कि हे देवानुप्रिय ! हमारी बलिचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित है, यावत् आप उसके स्वामी बनकर वहाँ स्थिति करने का संकल्प करिये।' उन असुरकुमार देव-देवियों द्वारा पूर्वोक्त बात दो-तीन बार यावत् दोहराई जाने पर भी तामली मौर्यपुत्र ने कुछ भी जवाब न दिया यावत् वह मौन धारण करके बैठा रहा। 44. तए गं ते बलिचंचारायहाणिवत्थबया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीलो य तामलिणा बालतस्सिणा प्रणाढाइज्जमाणा अपरियाणिज्जमाणा जामेव दिसि पादुन्भूया तामेव दिसि पडिगया। 44] तत्पश्चात् अन्त में जब तामली बालतपस्वी के द्वारा बलिचंचा राजधानी-निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों का अनादर हुआ, और उनकी बात नहीं मानी गई, तब वे (देव-देवीवृन्द) जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए / विवेचन-बलिचंचानिवासी देवगण द्वारा इन्द्र बनने की विनति और तामली तापस द्वारा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अस्वीकार-प्रस्तुत चार सूत्रों (41 से 44 सू. तक) में तामली तापस से सम्बन्धित चार वृत्तान्त प्रतिपादित किये गए हैं-- (1) बलि चंचा राजधानी निवासी असुरकुमार देव-देवीगण द्वारा अनशन लोन तामली तापस को वहाँ के इन्द्रपद की प्राप्ति का संकल्प एवं निदान करने के लिए विनति करने का विचार / (2) तामली तापस की सेवा में पहुंचकर उससे बलिचंचा के इन्द्रपद प्राप्ति का संकल्प और निदान का साग्रह अनुरोध / (3) उनके अनुरोध का तामली तापस द्वारा अनादर और अस्वीकार / (4) तामली तापस द्वारा अनादृत्त होने तथा स्वकीय प्रार्थना अमान्य होने से उक्त देवगण का निराश होकर अपने स्थान को लौट जाना / पुरोहित बनने की विनति नहीं तामली तापस का उक्त देवगण ने पुरोहित बनने की विनति इसलिए नहीं की कि इन्द्र के अभाव में शान्तिकर्मकर्ता पुरोहित हो नहीं सकता था। देवों की गति के विशेषण-उक्किट्ठा = उत्कर्षवती, तुरिया = त्वरावाली गति, चवलाशारीरिक चपलतायुक्त, चंडा= रौद्ररूपा, जइणा = दूसरों की गति को जीतने वाली, छेया = उपायपूर्वकप्रवृत्ति होने से निपुण, सीहा=सिंह की गति के समान अनायास होने वाली, सिग्घा= शीघ्रगामिनी, दिव्या दिव्य-देवों की, उद्ध या = गमन करते समय वस्त्रादि उड़ा देने वाली, अथवा उद्धतसदर्प गति / ये सब देवों की गति (चाल) के विशेषण हैं। सपक्खि सपडिदिसि की व्याख्या--सपक्खि-सपक्ष अर्थात्-जिस स्थल में उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, के सभी पक्ष-पाव (पूर्व आदि दिशाएँ विदिशाएं / ) एकसरीखे हों, वह सपक्ष / सपडिदिसि-जिस स्थान से सभी प्रतिदिशाएं (विदिशाएँ) एक समान हो, वह सप्रतिदिक है। तामली बालतपस्वी को ईशानेन्द्र के रूप में उत्पत्ति-- 45. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे कप्पे अणि अपुरोहिते यावि होत्था / तए णं से तामली बालतवस्सी रिसो बहुपडिपुण्णाई सहि वाससहस्साई परियागं पाउणिता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं सित्ता सवीसं भत्तसयं प्रणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे ईसाणडिसए विमाणे उबवातसभाए देवसयणिज्जसि देवसंतरिते अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्तीए प्रोगाहणाए ईसाणदेविदविरहकालसमयंसि ईसाणदेविदत्ताए उववन्ने / तए णं से ईसाणे देविदे देवराया अहणोववन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, तं जहा--आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए। [45] उस काल और उस समय में ईशान देवलोक (कल्प) इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित भी था / उस समय ऋषि तामली बालतपस्वी, पूरे साठ हजार वर्ष तक तापस पर्याय का पालन करके, दो महीने की संलेखना से अपनी आत्मा को सेवित करके, एक सौ बीस भक्त (टंक) अनशन में काट कर (अर्थात्-१२० बार का भोजन छोड़ कर = दो मास तक अनशन का पालन कर) काल के 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 167 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [289 अवसर पर काल करके ईशान देवलोक के ईशावतंसक विमान में उपपातसभा की देवदूष्य-वस्त्र से आच्छादित देवशय्या में अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना में, ईशान देवलोक के इन्द्र के विरहकाल (अनुपस्थितिकाल) में ईशानदेवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। तत्काल उत्पन्न वह देवेन्द्र देवराज ईशान, आहारपर्याप्ति से लेकर यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति तक, पंचविधि पर्याप्तियों से पर्याप्ति भाव को प्राप्त हुया–पर्याप्त हो गया। विवेचन --तामली बालतपस्वी की ईशानेन्द्र के रूप में उत्पत्ति-प्रस्तुत सूत्र में तामली तापस द्वारा स्वीकृत संलेखना एवं अनशन पूर्ण होने की तथा आयुष्य पूर्ण होने की अवधि बता कर ईशान देवलोक में ईशान-देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन है। तामली तापस की कठोर बाल-तपस्या एवं संलेखनापूर्वक अनशन का सुफल-यहाँ शास्त्रकार ने तामली तापस की साधना के फलस्वरूप उपार्जित पुण्य का फल बताकर यह ध्वनित कर दिया है कि इतना कठोर तपश्चरण अज्ञानपूर्वक होने से कर्मक्षय का कारण न बनकर शुभकर्मोपार्जन का कारण बना। देवों में पांच ही पर्याप्तियों का उल्लेख-इसलिए किया गया है, कि देवों के भाषा और मनः पर्याप्ति एक साथ सम्मिलित बंधती है।३१ बलिचंचावासी असुरों द्वारा तामली तापस के शव की विडम्बना 46. तए णं बलिचंचारायहाणिवत्थन्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीमो य तालि बालतर्वास्स कालगयं जाणिता ईसाणे य कप्पे देविदत्ताए उववन्नं पासित्ता प्रासुरुत्ता कुविया चंडिविकया मिसिमिसेमाणा बलिचंचाए रायहाणोए मझमझेणं निग्गच्छति, 2 ताए उक्क्टिाए जाव जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्तो नयरी जेणेव तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छंति, 2 वामे पाए सुबेणं बंधति, 2 तिक्खुत्तो मुहे उहंति, 2 तामलित्तीए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्कचच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु प्राकड्ढविकदि करेमाणा महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा 2 एवं वदासि-'केस णं भो! से तामली बालतवस्सी सयंगहिलिगे पाणामाए पन्चज्जाए पव्वइए ! केस णं से ईसाणे कप्पे ईसाणे देविदे देवराया' इति कटु तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं होलंति निदंति खिसंति गरिहंति प्रवमन्नति तज्जति तालेति परिवहेंति पन्वति आकड्ढविकढि करेंति, होलेत्ता जाय पाकड्ढविकढिं करेत्ता एगते एडेति, 2 जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। [46| उस समय बलिचंचा-राजधानी के निवासी बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने जब यह जाना कि तामली बालतपस्वी कालधर्म को प्राप्त हो गया है और ईशानकल्प (देवलोक) में वहाँ के देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ है, तो यह जानकर वे एकदम क्रोध से मूढमति हो गए, अथवा शीघ्र क्रोध से भड़क उठे, वे अत्यन्त कुपित हो गए, उनके चेहरे क्रोध से भंयकर उग्र हो गए वे क्रोध की आग से तिलमिला उठे और तत्काल वे सब बलिचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकले, यावत् उत्कृष्ट देवगति से इस जम्बूद्वीप में स्थित भरतक्षेत्र की ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर, जहाँ तामली 31. भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजो) भाग 2, पृ. 587 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बालतपस्वी का शव (मृतशरीर) (पड़ा) था वहाँ आए। उन्होंने (तामली बालतपस्वी के मृत शरीर के) बाएं पैर को रस्सी से बांधा, फिर तीन बार उसके मुख में थूका / तत्पश्चात् ताम्रलिप्ती नगरी के शृगाटकों-त्रिकोण मार्गों (तिराहों) में, चौकों में, प्रांगण में, चतुर्मुख मार्ग में तथा महामार्गों में; अर्थात् ताम्रलिप्ती नगरी के सभी प्रकार के मार्गों में उसके शव (मृतशरीर) को घसीटा; अथवा इधरउधर खींचतान की और जोर-जोर से चिल्लाकर उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहने लगे-- 'स्वयमेव तापस का वेष पहन (ग्रहण) कर 'प्राणामा' प्रवज्या अंगीकार करने वाला यह तामली बालतपस्वी हमारे सामने क्या है ? तथा ईशानकल्प में उत्पन्न हुमा देवेन्द्र देवराज ईशान भी हमारे सामने कौन होता है ?' यों कहकर वे उस तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, (अवहेलना), निन्दा करते हैं, उसे कोसते (खिसा करते हैं, उसकी गर्दा करते हैं, उसकी अवमानना, तर्जना और ताड़ना करते हैं (उसे मारते-पीटते हैं) / उसकी कदर्थना (विडम्बना) और भर्त्सना करते हैं, (उसकी बहत बुरी हालत करते हैं, उसे उठा-उठाकर खुब पटकते हैं। अपनी इच्छानसार उसे इधर-उधर घसीटते (खींचते) हैं। इस प्रकार उस शव की हीलना यावत् मनमानी खींचतान करके फिर उसे एकान्त स्थान में डाल देते हैं / फिर वे जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापस लौट गए। विवेचन-बलिचंचावासी असुरों द्वारा तामली तापस के शव की विडम्बना प्रस्तुत सूत्र में बालतपस्वी तामलो तापस का अनशनपूर्वक मरण हो जाने और ईशान देवलोक के इन्द्र के रूप में उत्पन्न होने पर क्रुद्ध बलिचंचावासी असुरों द्वारा उसके मृतशरीर की की गई विडम्बना का वर्णन है। क्रोध में असुरों को कुछ भी भान न रहा कि इसको प्रतिक्रिया क्या होगी ? प्रकुपिन ईशानेन्द्र द्वारा भस्मीभूत बलिचंचा देख, भयभीत असुरों द्वारा अपराधक्षमायाचना 47. तए णं ईसाणकप्पवासी बहवे वेमाणिया देवा य देवोनो य बलिचंचारायहाणिवत्थन्वएहि बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि देवीहि य तामलिस्स बालतवस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निदिज्जमाणं जाव प्राकड्ढविकड्ढेि कोरमाणं पासंति, 2 श्रासुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देविदे देवराया तेणेव उवागच्छति, 2 करयलपरिग्गहियं वसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु जए विजएणं बद्धाति, 2 एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायहाणिवस्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवी प्रो य देवाणुप्पिए कालगए जाणिता ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उववन्ने पासेत्ता प्रासुरुत्ता जाव एगते एडेंति, 2 जामेव दिसि पाउम्भूया तामेव दिसि पडिगया। [47] तत्पश्चात् ईशानकल्पवासी बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों ने (इस प्रकार) देखा कि बलिचंचा-राजधानी-निवासी बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा तामली बालतपस्वी के मृत शरीर की हीलना, निन्दा और आक्रोशना की जा रही है, यावत् उस शव को मनचाहे ढंग से इधर-उधर घसीटा या खींचा जा रहा है। अतः इस प्रकार (तामली तापस के मृत शरीर की दुर्दशा होती) देखकर वे वैमानिक देव-देवीगण शीघ्र ही क्रोध से भड़क उठे यावत् क्रोधानल से तिलमिलाते (दांत पीसते हुए, जहाँ देवेन्द्र देवराज ईशान था, वहाँ पहुँचे / ईशानेन्द्र के पास पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके 'जय हो, विजय हो' इत्यादि शब्दों से उस (तामली के जीव Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 291 ईशानेन्द्र) को बधाया / फिर वे इस प्रकार बोले- 'हे देवानुप्रिय ! बलिचंचा राजधानी निवासी बहुत से असुर कुमार देव और देवीगण आप देवानुप्रिय को कालधर्म प्राप्त हुए एवं ईशानकल्प में इन्द्र रूप में उत्पन्न हुए देखकर अत्यन्त कोपायमान हुए यावत् आपके मृतशरीर को उन्होंने मनचाहा पाड़ा-टेढ़ा खींच-घसीटकर एकान्त में डाल दिया / तत्पश्चात् वे जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस लौट गए।' 48. तए णं से ईसाणे देविद देवराया तेसि ईसाणकप्पवासीणं बहूणं बेमाणियाणं देवाण य देवोण य अंतिए एयम सोच्चा निसम्म प्रासुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिज्जवरगए तिवलियं मिडि निडाले साहटु बलिचंचं रायहाणि अहे सक्खि सपडिदिसि समभिलोएइ, तए णं सा बलिचंचा रायहाणी ईसाणेणं देविदेणं देवरपणा अहे सक्खि सपडिदिसि समभिलोइया समाणी तेणं दिव्वप्पमावेणं इंगालब्भया मुम्मुरब्भया छारिन्भया तत्तकवेल्लकन्भूया तत्ता समजोइन्भूया जाया यावि होत्था। [40] उस समय देवेन्द्र देवराज ईशान ईशानकल्पवासी बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों से यह बात सुनकर और मन में विचार कर शीघ्र ही क्रोध से पागबबूला हो उठा, यावत् क्रोधाग्नि से तिलमिलाता (मिसमिसाहट करता) हुआ, वहीं देवशय्या स्थित ईशानेन्द्र ने ललाट पर तीन सल (रेखाएँ) डालकर एवं भ्र कुटि तान कर बलिचंचा राजधानी को, नीचे ठीक सामने, (सपक्ष-चारों दिशाओं से बराबर सम्मुख, और सप्रतिदिक् (चारों विदिशात्रों से भी एकदम सम्मुख) होकर एकटक दृष्टि से देखा / इस प्रकार कुपित दृष्टि से बलिचंचा राजधानी को देखने से वह उस दिव्यप्रभाव से जलते हुए अंगारों के समान, अग्नि-कणों के समान, तपी हुई राख के समान, तपतपाती बाल जैसी या तपे हुए गर्म तवे सरीखी, और साक्षात् अग्नि की राशि जैसी हो गई~~जलने लगी। 46. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्यव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीप्रो य तं बलिचंचं रायहाणि इंगालम्भूयं जाव समजोतिब्भूयं पासंति, 2 भोया उत्तस्था सुसिया उचिग्गा संजायभया सव्वनो समंता प्राधावेंति परिधावति, 2 अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा 2 चिट्ठति / [46] जब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने उस बलिचंचा राजधानी को अंगारों सरीखी यावत साक्षात अग्नि को लपटों जैसी देखी तो वे उसे देखकर अत्यन्त भयभीत हुए, भयत्रस्त होकर कांपने लगे, उनका आनन्दरस सूख गया (अथवा उनके चेहरे सूख गए), वे उद्विग्न हो गए, और भय के मारे चारों ओर इधर-उधर भाग-दौड़ करने लगे। (इस भगदड़ में) वे एक दूसरे के शरीर से चिपटने लगे अथवा एक दुसरे के शरीर को प्रोट में छिपने लगे। 50. तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थन्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवोत्रो य ईसाणं देविवं देवरायं परिकुवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो तं दिव्वं देविष्टि दिव्वं देवज्जुति दिन्छ देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खि सपडिदिसि ठिच्चा करयलपरिहियं दसनहं तिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु जएणं विजयेणं वदाविति, 2 एवं वयासी-अहो णं देवाणुप्पिएहि दिवा देविड्डी जाव अभिसमन्नागता, तं विट्ठा णं देवाणुप्पियाणं दिव्वा देविड्डी जाव लद्धा पत्ता Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून अभिसमन्नागया। तं खामेमो णं देवाणुप्पिया!, खमंतु गं देवाणुप्पिया!, खंतुमरिहंति णं देवाणुप्पिया ! , णाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कट्ट एयम8 सम्म विणयेणं भुज्जो 2 खामेंति / [50] ऐसी दुःस्थिति हो गई, तब बलिचंचा-राजधानी के बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने यह जानकर कि देवेन्द्र देवराज ईशान के परिकुपित होने से (हमारी राजधानी इस प्रकार आग-सी तप्त हो गई है); वे सब असुरकुमार देवगण, ईशानेन्द्र (देवेन्द्र देवराज) को उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवप्रभाव, और दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करते हुए देवेन्द्र देवराज ईशान के चारों दिशाओं में और चारों विदिशाओं में ठीक सामने खड़े होकर (ऊपर की ओर मुख करके दसों नख इकट्ठे हों, इस तरह से दोनों हाथ जोड़कर शिरसावर्तयुक्त मस्तक पर अंजलि करके ईशानेन्द्र को जय-विजय-शब्दों (के उच्चारणपूर्वक) बधाने लगे-- अभिनन्दन करने लगे। अभिनन्दन करके वे इस प्रकार बोले-'अहो ! (धन्य है ! ) आप देवानुप्रिय ने दिव्य देव-ऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त को है, और अभिमुख कर ली है ! हमने आपके द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (सम्मुख की हुई) दिव्य देवऋद्धि को, यावत् देवप्रभाव को प्रत्यक्ष देख लिया है। अतः हे देवानुप्रिय ! (अपने अपराध के लिए) हम आप से क्षमा मांगते हैं / आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करें। आप देवानुप्रिय हमें क्षमा करने योग्य हैं। (भविष्य में) फिर कभी इस प्रकार नहीं करेंगे।' इस प्रकार निवेदन करके उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिए विनयपूर्वक अच्छी तरह बार-बार क्षमा मांगी। 51. तते णं से ईसाणे देविदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणीवत्थव्वएहि बहूहि असुरकुमारेहि देहि देवीहि य एयमट्ठ सम्म विणएणं भुज्जो 2 खामिए समाणे तं दिव्वं देविडि जाव तेयलेस्सं पडिसाहरइ / तप्पभिति च णं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्यव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवोनो य ईसाणं देविदं देवरायं पाढंति जाव पज्जुवासंति, ईसाणस्स य देविंदस्स देवरणो प्राणा-उववाय-वयण-निद्दे से चिट्ठति / 51] अब जबकि बलिचंचा-राजधानी-निवासी उन बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों ने देवेन्द्र देवराज ईशान से अपने अपराध के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना कर ली, तब ईशानेन्द्र ने उस दिव्य देव ऋद्धि यावत् छोड़ी हुई तेजोलेश्या को वापस खींच (समेट) ली। हे गौतम ! तब से बलिचंचा-राजधानी-निवासी वे बहुत-से असुरकुमार देव और देवीवन्द देवेन्द्र देवराज ईशान का आदर करते हैं यावत् उसकी पर्युपासना (सेवा) करते हैं। (और तभी से वे) देवेन्द्र देवराज ईशान की आज्ञा और सेवा में, तथा आदेश और निर्देश में रहते हैं। 52. एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविदेणं देवरण्णा सा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया / [52] हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि यावत् इस प्रकार लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत की है। विवेचन-ईशानेन्द्र के प्रकोप से उत्तप्त एवं भयभीत प्रसुरों द्वारा क्षमायाचना-इन छह सूत्रों (47 से 52 सू. तक) में ईशानेन्द्र से सम्बन्धित सात मुख्य वृत्तान्त शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-11 [293 1. असुरकुमार देवगण द्वारा तामली तापस (वर्तमान में ईशानेन्द्र) के शव की होती हुई दुर्दशा देख ईशानकल्पवासी वैमानिकदेवगण ने अत्यन्त कुपित होकर अपने सद्यःजात ईशानेन्द्र को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। 2. सुनकर देवशय्या स्थित कुपित ईशानेन्द्र ने बलिचंचाराजधानी को तेजोलेश्यापूर्ण दृष्टि से देखा / बलिचंचा जाज्वल्यमान अग्निसम तप्त हो गई। 3. बलिचंचा-निवासी असुर अपनी निवासभूमि को अत्यन्त तप्त देख भय त्रस्त होकर कांपने तथा इधर-उधर भागने लगे / 4. ईशानेन्द्र की तेजोलेश्या का प्रभाव असह्य होने से वे मिलकर उससे अनुनय-विनय करने तथा अपने अपराध के लिए क्षमायाचना करने लगे। 5. इस प्रकार असुरों द्वारा की गई क्षमायाचना से ईशानेन्द्र ने करुणा होकर अपनी तेजोलेश्या वापस खींच ली / बलिचंचाराजधानी में शान्ति हो गई। 6. तब से बलिचंचा के असुरगण ईशानेन्द्र का प्रादर-सत्कार एवं विनयभक्ति करने लगे, और उनकी प्राज्ञा, सेवा एवं प्रादेश में तत्पर रहने लगे। 7. भ. महावीर ने गौतम द्वारा ईशानेन्द्र की देवऋद्धि आदि से सम्बन्धित प्रश्न के उत्तर का उपसंहार किया। कठिन शब्दों के विशिष्ट अर्थ-तिवलियं भिउडिनिडालेसाहटु - ललाट में तीन रेखाएं (सल) पड़ जाएं, इस प्रकार से भ्र कुटि चढ़ा कर / तत्तकवेलगभूया = तपे हुए कवेलू (कड़ाही या तवा) या रेत जैसी। तत्तसमजोइयभूया = अत्यन्त तपी हुई लाय, अग्नि की लपट या साक्षात् अग्निराशि या ज्योति के समान / प्राकड्ढ-विकड्ढि करेंति = मनचाहा आड़ा-टेढ़ा या इधर-उधर खींचते या घसीटते हैं / समतुरंगेमाणा-एक दूसरे से चिपटते या एक दूसरे की ओट में छिपते हुए। प्राणा- तुम्हें यह कार्य करना ही है, इस प्रकार का आदेश, उववाय = पास में रहकर सेवा करना, वयूण = प्राज्ञापूर्वक आदेश, निद्देस पूछे हुए कार्य के सम्बन्ध में नियत उत्तर / 2 ईशानेन्द्र की स्थिति तथा परम्परा से मुक्त हो जाने की प्ररूपरणा--- 53. ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! सातिरेगाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता। [53 प्र] भगवन् ! देवेन्द्र देव राज ईशान की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [53 उ.] गौतम ! ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है। 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (ख) (पं. बेचरदासजी) भा. 1, पृ. 136-137 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 167 (ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 588 से 592 तक (ग) श्रीमद्भगवती सूत्र (टीका-अनुवाद सहित) (पं. बेचरदासजी) खण्ड 2, पृ. 45 (घ) भगवती सूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका (पू. घासीलालजी म.) भा. 3, पृ. 265 से 272 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 54. ईसाणे णं भंते ! देविदे देवराया तानो देवलोगानो पाउपखएणं जाव कहिं गच्छहिति ? कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिभिहिति जाव अंतं काहिति / [54 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान देव आयुष्य का क्षय होने पर, वहाँ का स्थितिकाल पूर्ण होने पर उस देवलोक से च्युत होकर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? [54 उ.] गौतम ! वह (देवलोक से च्यव कर) महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् समस्त दुःखों का अन्त करेगा। विवेचन-ईशानेन्द्र की स्थिति और परम्परा से मुक्त हो जाने को प्ररूपणा-प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम में ईशानेन्द्र की स्थिति और दूसरे में स्थिति आयुष्य और भव पूर्ण होने पर भविष्य में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाने की प्ररूपणा है। बालतपस्वी को इन्द्रपद प्राप्ति के बाद भविष्य में मोक्ष कैसे ?--यद्यपि बालतपस्वी होने से तामली मिथ्यात्वी था, किन्तु इन्द्रपद प्राप्ति के बाद सम्यग्दृष्टि (सिद्धान्ततः) हो गया। इस कारण उसका मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया। इसलिए महाविदेह में जन्म लेकर भविष्य में सिद्ध-बुद्ध होने में कोई सन्देह नहीं। शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई-नीचाई में अन्तर--- 55. [1] सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो विमाहितो ईसाणस्स देविदस्स देवरपणो विमाणा ईसि उच्चयरा चेव ईसि उन्नयतरा चेव ? ईसाणस्स वा देविदस्स देवरण्णो विमाणेहितो सक्कस्स विदस्स देवरको विमाणा ईस नीययरा चेव ईसि निण्णयरा चेव ? हंता, गोतमा! सक्कस्स तं चेव सन्छ नेयव्वं / [55-1 प्र] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के विमानों से देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान कुछ (थोड़े-से) उच्चतर-ऊंचे हैं, कुछ उन्नततर हैं ? अथवा देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से देवेन्द्र देवराज शक के विमान कुछ नीचे हैं, कुछ निम्नतर हैं ? [55-1 उ.] हाँ, गौतम ! यह इसी प्रकार है। यहाँ ऊपर का सारा सूत्रपाठ (उत्तर के रूप में) समझ लेना चाहिए / अर्थात्-देवेन्द्र देवराज शक के विमानों से देवेन्द्र देवराज ईशान के विमान कुछ ऊंचे हैं, कुछ उन्नततर हैं, अथवा देवेन्द्र देवराज ईशान के विमानों से देवेन्द्र देवराज शक्र के विमान कुछ नीचे हैं, कुछ निम्नतर हैं। [2] से केणठेणं? गोयमा ! से जहानामए करतले सिया देसे उच्चे देसे उन्नये, देसे णीए देसे निण्णे, से तेणठेणं० / [55-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [55-2 उ.] गौतम ! जैसे किसी हथेली का एक भाग (देश) कुछ ऊंचा और उन्नततर Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [295 तृतीय शतक : उद्देशक-१] होता है, तथा एक भाग कुछ नीचा और निम्नतर होता है, इसी तरह शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों के सम्बन्ध में समझना चाहिए / इसी कारण से पूर्वोक्त रूप से कहा जाता है। विवेचन-शक्केन्द्र और ईशानेन्द्र के विमानों की ऊँचाई-नीचाई में अन्तर–प्रस्तुत सूत्र में करतल के दृष्टान्त द्वारा शकेन्द्र से ईशानेन्द्र के विमानों को किञ्चित् उच्चतर तथा उन्नततर और ईशानेन्द्र से शकेन्द्र के विमानों को कुछ नीचा एवं निम्नतर प्रतिपादन किया गया है। उच्चता-नीचता या उन्नतता-निम्नता किस अपेक्षा से ?-उच्चता और उन्नतता के यहाँ दो अर्थ किये गये हैं--(१) प्रमाण की अपेक्षा से, अथवा प्रासाद की अपेक्षा से विमानों की उच्चता तथा (2) शोभाधिक आदि गुणों की अपेक्षा से अथवा प्रासाद के पीठ की अपेक्षा से उन्नतता समझना चाहिए / तथा इन दोनों के विपरीत नीचत्व और निम्नत्व समझ लेना चाहिए।' यों तो शास्त्रान्तर में दोनों इन्द्रों के विमानों की ऊंचाई 500 योजन कही है, वह सामान्यापेक्षा से समझना चाहिए / दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार तथा विवाद में सनत्कुम्नारेन्द्र की मध्यस्थता 56. [1] पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो अंतियं पाउमवित्तए? हंता, पभू। [56-1 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के पास प्रकट होने (जाने) में समर्थ हैं ? [56-1 उ.] हाँ गौतम ! शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाने में समर्थ है / [2] से णं भते ! कि प्राढायमाणे पभू, अणाढायमाणे पभू ? गोयमा! आढायमाणे पमू, नो प्रणाढायमाणे पभू / [56-2 प्र.] भगवन् ! (जब शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाता है तो) क्या वह आदर करता हुग्रा जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? [56-2 उ ] हे गौतम ! वह उसका (ईशानेन्द्र का) अादर करता हुआ जाता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं। 57. [1] पमू णं माते ! ईसाणे देविदे देवराया सक्कस्स देविवस देवरण्णो अंतियं पाउभवित्तए? हंता, पभू। 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 169 (ख) भगवती सूत्र, प्रमेयचन्द्रिका टीका (हिन्दीगुर्जर भाषानुवादसहित) भा. 3, पृ. 283-284 2. (क) जीवाभिगम सूत्र वृत्ति (स. पृ. 397) (ख) भगवती (टीकानुवाद) प्रथम खण्ड, पृ. 296; भगवती. अ. वृत्ति, पृ. 169 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 [स्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [57-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान, क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होने (जाने) में समर्थ है ? [57-1 उ.] हाँ गौतम ! ईशानेन्द्र, शकेन्द्र के पास जाने में समर्थ है / [2] से भंते ! कि आढायमाणे पभू. प्राणाढायमाणे पभू? गोयमा ! आढायमाणे वि पमू, अणाढायमाणे वि पभू / [57-2 प्र.] भगवन् ! (जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास जाता है तो), क्या वह प्रादर करता हुअा जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? {57.2 उ.] गौतम ! (जब ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र के पास जाता है, तब वह आदर करता हुआ भी जा सकता है, और अनादर करता हुग्रा भी जा सकता है। 58. पभ णं मते ! सक्के देविद देवराया ईसाणं देवि देवरायं सक्खि सपडिदिसि समभिलोएत्तए? ___ जहा पादुम्भवणा तहा दो वि पालावगा नेयम्वा / [58 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के समक्ष (चारों दिशाओं में) तथा सप्रतिदिश (चारों कोनों में = सब ओर) देखने में समर्थ है ? [58 उ.] गौतम ! जिस तरह से पास प्रादुर्भूत होने (जाने) (के सम्बन्ध में दो आलापक कहे हैं, उसी तरह से देखने के सम्बन्ध में भी दो पालापक कहने चाहिए।' 56. पभू णं भाते ! सबके देविदे देवराया ईसाणेणं देविदेणं देवरणा सद्धि प्रालावं वा संलावं वा करेत्तए? हंता, पभू / जहा पादुम्भवणा। [59 प्र.) भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ पालाप या संलाप (भाषण-संभाषण या बातचीत) करने में समर्थ है ? / [59 उ.] हाँ, गौतम ! वह पालाप-संलाप करने में समर्थ है। जिस तरह पास जाने के सम्बन्ध में दो पालापक कहे हैं, (उसी तरह पालाप-संलाप के विषय में भी दो पालापक कहने चाहिए।) 60. [1] अस्थि णं भते ! तेसि सकीसाणाणं देविदाणं देवराईणं किच्चाई करणिज्जाई समुपज्जति ? हंता, अस्थि / [60-1 प्र] भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य (प्रयोजन) और करणीय (विधेय-करने योग्य) समुत्पन्न होते हैं ? Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] |297 [60-1 उ.] हाँ, गौतम ! समुत्पन्न होते हैं। [2] से कहमिदाणि परेंति ? गोयमा ! ताहे चेव ग से सक्के देविदे देवराया ईसाणस्स देविदास देवरण्णो अंतियं पाउन्भवति, ईसाणे णं देविदे देवराया सक्कस्स देविदस्स दे वरण्णो अंतियं पाउन्भवइ-'इति भो ! सक्का! दविदा ! देवराया ! दाहिणड्डलोगाहिवतो !'; 'इति भो ! ईसाणा / देविदा ! देवराया ! उत्तरड्ढलोगाहिवतो!' / 'इति भो इति भो त्ति ते अन्नमन्नस्स किच्चाई करणिज्जाई पच्चणुभवमाणा विहरति / [60-2 प्र.] भगवन् ! जब इन दोनों के कोई कृत्य (प्रयोजन) या करणीय होते हैं, तब वे कैसे व्यवहार (कार्य) करते हैं ? [60-2 उ.] गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब वह (स्वयं) देवेन्द्र देवराज ईशान के समीप प्रकट होता है, और जब देवेन्द्र देवराज ईशान को कार्य होता है, तब वह वयं देवेन्द्र देवराज शक्र के निकट जाता है। उनके परस्पर सम्बोधित करने का तरीका यह है.. 'ऐसा है, हे दक्षिणार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र देवराज शक!' (शकेन्द्र पुकारता है -) 'ऐसा है, हे उत्तरार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान ! (यहाँ), दोनों ओर से 'इति भो-इति भो !' (इस प्रकार के शब्दों से परस्पर) सम्बोधित करके वे एक दूसरे के कृत्यों (प्रयोजनों) और करणीयों (कार्यो) को अनुभव करते हुए विचरते हैं, (अर्थात्-दोनों अपना-अपना कार्यानुभव करते रहते हैं।) 61. [1] अस्थि णं भते! तेसि सक्कोसाणाणं देविदाणं देवराईणं विवादा समुप्पज्जंति ? हंता, अस्थि। [61-1 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान, इन दोनों में विवाद भी समुत्पन्न होता है ? [61-1 3.] 'हाँ, गौतम ! (इन दोनों इन्द्रों के बीच विवाद भी समुत्पन्न) होता है। [2] से कहमिदाणि पकरेंति ? गोयमा ! ताहे चेव णं ते सक्कोसाणा देविदं देवरायाणो सर्णकुमारं देविद देवरायं मणसीकरेंति / तए णं से सणंकुमारे दविंद देवराया तेहिं सक्कोसाहिं विहि देवराईहि मणसीकए समाणे खिप्पामेव सक्कीसाणाणं देविदागं देवराईणं अंतियं पादुन्भवति / जं से बदइ तस्स प्राणाउववाय-वयण-निद्दे से चिट्ठति / [61-2 प्र.] (भगवन् ! जब उन दोनों इन्द्रों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है;) तब वे क्या करते हैं ? [61-2 उ.] गौतम ! जब शकेन्द्र और ईशानेन्द्र में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है, तब वे दोनों, देवेन्द्र देवराज सनत्कुमारेन्द्र का मन में स्मरण करते हैं। देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र द्वारा स्मरण करने पर शीघ्र ही सनत्कुमारेन्द्र देवराज, शकेन्द्र और ईशानेन्द्र के निकट प्रकट होता (आता) है। वह जो भी कहता है, (उसे ये दोनों इन्द्र मान्य करते हैं। ) ये दोनों इन्द्र उसकी प्राज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--दोनों इन्द्रों का शिष्टाचार तथा विवाद में सनत्कुमारेन्द्र को मध्यस्थता--प्रस्तुत छह सूत्रों (56 से 61 सू० तक) में शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के परस्पर मिलने-जुलने, एक दूसरे को आदर देने, एक दूसरे को भलीभांति देखने (प्रेमपूर्वक साक्षात्कार करने), परस्पर वार्तालाप करने तथा पारस्परिक विवाद उत्पन्न होने पर सनत्कुमारेन्द्र को मध्यस्थ बनाकर उसकी बात मान्य करने आदि द्वारा दोनों इन्द्रों के पारस्परिक शिष्टाचार एवं व्यवहार का निरूपण किया गया है / कठिन शब्दों के विशेषार्थ-पाउभवित्तए प्रादुर्भूत-प्रकट होने-माने के लिए / मालावं - पालाप-एक बार संभाषण, संलावं बार-बार संभाषण, किच्चाई = कृत्य अर्थात्-प्रयोजन, करणिज्जाई = करणीय = करने योग्य कार्य / कहमिदाणि पकरेंति = जब कार्य करने का प्रसंग हो, तब वे किस प्रकार से करते हैं ? पच्चणुभवमाणा=प्रत्यनुभव करते हुए अपने-अपने करणीय कार्य का अनुभव करते हुए / इति भो ! ऐसी बात है, जी ! या यह कार्य है, अजी ! 1 'आढायमाणे-अणाढायमाणे' इन दोनों शब्दों का तात्पर्य-यह भी है कि शकेन्द्र की अपेक्षा ईशानेन्द्र का दर्जा ऊँचा है, इसलिए शकेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास तभी जा सकता है जबकि ईशानेन्द्र शक्रेन्द्र को आदरपूर्वक बुलाए / अगर आदरपूर्वक न बुलाए तो वह ईशानेन्द्र के पास नहीं जाता, किन्तु ईशानेन्द्र शकेन्द्र के पास बिना बुलाए भी जा सकता है क्योंकि उसका दर्जा ऊंचा है।' सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि तथा स्थिति एवं सिद्धि के विषय में प्रश्नोत्तर 62. [1] सणंकुमारे णं भाते ! देविंद देवराया किं भवसिद्धिए, प्रभवसिद्धिए ? सम्मट्ठिी, मिच्छट्ठिी ? परित्तसंसारए, अणंतसंसारए ? सुलभवोहिए, दुल्ल भबोहिए? पाराहए, विराहए ? चरिमे प्रचरिमे ? / गोयमा ! सणंकुमारे णं दरिद देवराया भवसिद्धिए नो अभयसिद्धिए, एवं सम्मट्टिी परित्तसंसारए सुलभबोहिए प्राराहए चरिमे, पसत्थं नेयव्वं / [62-1 प्र.] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक है ? ; सम्यग्दृष्टि है, या मिथ्यादृष्टि है ? परित्त (परिमित) संसारी है या अनन्त (अपरिमित) संसारी ?; सुलभबोधि है, या दुर्लभबोधि ?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम? [62-1 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, (मिथ्यादृष्टि नहीं ;) परित्तसंसारी है, (अनन्तसंसारी नहीं;) सुलभबोधि है, (दुर्लभबोधि नहीं;) आराधक है, (विराधक नहीं;) चरम है, (अचरम नहीं।) (अर्थात्- इस सम्बन्ध में सभी) प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए। [2] से केपट्टणं भाते ! ? गोयमा ! सणकुमारे देविंद देवराया बहूणं समणाणं बहूर्ण 1. (क) भगवती सूत्र अ-वृत्ति, पत्रांक 169 (ब) भगबती-विवेचन (पं. घेवरचंदजी), भा. 2, पृ. 598 से 600 तक 2. भगवती सूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका (हिन्दी-गुर्जर भावानुवादयुक्त) भाग 3, पृ. 28 6 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [ 299 समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साविगाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए प्राणुकंपिए निस्सेयसिए हिय-सुह-निस्सेसकामए, से तेण?णं गोयमा ! सणंकुमारे णं भवसिद्धिए जाव नो प्रचरिमे। [62-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? [62-2 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का हितकामी (हितैषी), सुखकामी (सुखेच्छु), पथ्यकामी (पथ्याभिलाषी), अनुकम्पिक (अनुकम्पा करने वाला), निश्रेयसिक (निःश्रेयस = कल्याण या मोक्ष का इच्छुक) है। वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस् का कामी (चाहने वाला) है। इसी कारण, गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवसिद्धिक है, यावत् (चरम है, किन्तु) अचरम नहीं। 63. सणकुमारस्स णं भते ! दोविंदस्स देवरणो केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! सत्त' सागरोवमाणि ठिती पण्णत्ता। [63 प्र. ] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति (आयु) कितने काल की कही गई है ? [63 उ.] गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र की स्थिति (उत्कृष्ट) सात सागरोपम की कही गई है। 64. से णं मते ! तारो देखलोगातो पाउखएणं जाव कहि उबवजिहिति ? गोयमा ! महाविद हे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / सेवं भते ! सेवं भते! // [64 प्र. ] भगवन् ! वह (सनत्कुमारेन्द्र) उस देवलोक से आयु क्षय (पूर्ण) होने के बाद, यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? [64 उ. ] हे गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र उस देवलोक से च्यवकर (आयुष्य पूर्ण कर) महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में, (जन्म लेकर वहीं से) सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' (यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे।) विवेचन-सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता प्रादि, तथा स्थिति एवं सिद्धि के सम्बन्ध में प्रश्नोतर-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 62 से 64 तक) में सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता-अभवसिद्धिकता, सम्यग्दृष्टित्व-मिथ्यादृष्टित्व, परित्तसंसारित्व अनन्तसंसारित्व, सुलभबोधिता-दुर्लभ-बोधिता, विराध कता-पाराधकता, एवं चरमता-अचरमता आदि प्रश्न उठा कर, इनमें से उसके प्रशस्तपदभागी होने के कारण की तथा उसकी स्थिति एवं भविष्य में सिद्धि प्राप्ति से सम्बन्धित सैद्धान्तिक दृष्टि से प्ररूपणा की गई है। कठिन शब्दों के विशेषार्थ--'भवसिद्धिए' = जो भविष्य में सिद्धि = मुक्ति प्राप्त कर लेगा वह भवसिद्धिक होता है / 'सम्मट्टिी' = सम्यग्दृष्टि-जीवादि नौ तत्त्वों पर निर्दोष श्रद्धावान् / 1. तुलना-सप्त सनत्कुमारे' तत्त्वार्थसूत्र, अ. 4, सू. 36 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परित्तसंसारए-जिसका संसारपरिभ्रमण परिमित–सीमित हो गया हो, पाराहए-ज्ञानादि का आराधक / चरिमेजिसका अब अन्तिम एक ही भव शेष रहा हो, अथवा जिसका यह चरमअन्तिम देव भव हो, पत्थकामए = पथ्यकामी, पथ्य का अर्थ है-दुःख से बचना, उसका इच्छुक / हियकामए हितकामी / हित का अर्थ है-सुख की कारणरूप वस्तु / ' तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक की संग्रहरणोगाथाएँ-- 65. गाहाप्रो-छ?ष्टम मासो अद्धमासो बासाइं अट्ठ छम्मासा। तीसग-कुरुदत्ताणं तव भत्तपरिण परियायो॥१॥ उच्चत्त विमाणाणं पादुभव पेच्छणा य संलावे / किच्च विवादुप्पत्ती सर्णकुमारे य भवियत्तं // 2 // मोया समत्ता // तइय सए : पढमो उद्देसो समत्तो // गाथानों का अर्थ-(भावार्थ-इस प्रकार है-) तिष्यक श्रमण का तप छट्ठ-छट्ठ (निरन्तर बेला-बेला) था और उसका अनशन एक मास का था / कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्ठमअट्ठम (निरन्तर तेले-तेले) का था और उसका अनशन था— अर्द्ध मासिक (15 दिन का)। तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की थी, और कुरुदत्तपुत्रश्रमण की थी-छह मास की। (इन दोनों से सम्बन्धित विषय इस उद्दशक में पाया है।) इसके अतिरिक्त (दूसरे विषय पाए हैं, जैसे कि) दो इन्द्रों के विमानों की ऊँचाई, एक इन्द्र का दूसरे के पास आगमन (प्रादुर्भाव) परस्पर प्रेक्षण (अवलोकन), उनका पालाप-संलाप, उनका कार्य, उनमें विवादोत्पत्ति तथा उनका निपटारा, तथा सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता ग्रादि विषयों का निरूपण इस उद्दशक में किया गया है। / मोका समाप्त / / विवेचन--तृतीय शतक के प्रथम उद्देशक की दो संग्रहणी गाथाएँ–यहाँ प्रथम उद्देशक में प्रतिपादित विषयों का संक्षेप में संकेत दो गाथाओं द्वारा दिया गया है। // तृतीय शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका, हिन्दी गुर्जरभाषानुवादयुक्त भा. 3, पृ. 299 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 169 इस उपाक में वर्णित विषयों का निरूपण भगवान ने 'मोका नगरी' में किया था, इसलिए इस उट्टी शक का एक नाम 'मोका' भी रखा गया है। वर्तमान में पटना के निकट 'मोकामा घाट' नामक स्थान है, सम्भव है, बही प्राचीन मोका नगरी हो।सं. 3. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 169 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ उद्देसओ : 'चमरो' द्वितीय उद्देशक : चमर द्वितीय उद्देशक का उपोद्घात 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे होत्या जाव परिसा पज्जुवासइ / [1] उस काल, उस समय में राजगृह नाम का नगर था / यावत् भगवान् वहाँ पधारे और परिषद् पर्युपासना करने लगी। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे प्रसुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सौहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि जाव नट्टविहिं उवद सेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। [2] उस काल, उस समय में चौसठ हजार सामानिक देवों से परिवृत और चमरचंचा नामक राजधानी में, सुधर्मासभा में चमरनामक सिंहासन पर बैठे असुरेन्द्र असुरराज चमर ने (राजगृह में विराजमान भगवान् को अवधिज्ञान से देखा); यावत् नाट्यविधि दिखला कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया / विवेचन--द्वितीय उद्देशक का उपोद घात-द्वितीय उद्देशक की उद्देशना कहाँ से और कैसे प्रारम्भ हुई ? इसका यह उपोद्घात है। इसमें बताया गया है कि राजगृह में भगवान् महावीर विराजमान थे / अपनी सुधर्मा सभा में चमरसिंहासन-स्थित चमरेन्द्र ने वहीं से भगवान् को देखा और अपने समस्त देव परिवार को बुलाकर ईशानेन्द्र की तरह विविध नाटयविधि भगवान महावीर और गौतमादि श्रमणवर्ग को दिखलाई और वापस लौट गया / चमरेन्द्र के इस अागमन से अ दिव्य ऋद्धि आदि पर से कैसे प्रश्नों और उत्तरों का सिलसिला प्रारम्भ होता है ? इसे अगले सूत्रों में बताएँगे। असुरकुमार देवों का स्थान 3. [1] भते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदति नमसति, 2 एवं वदासीअस्थि णं भते ! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! नो इण8 सम? / [3-1 प्र. 'हे भगवन् !' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या असुर कुमार देव इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे रहते हैं ?' Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र [3-1 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात्-असुरकुमार देव रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे निवास नहीं करते / ) [2] एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अस्थि गं भते ! ईसिफभाराए पुढवीए अहे असुरकमारा देवा परिवसंति ? णो इण? समढ़े। [3-2 प्र.] इसी प्रकार यावत् सप्तम (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नीचे भी वे (असुरकुमार देव) नहीं रहते; और न सौधर्मकल्प-देवलोक के नीचे, यावत् अन्य सभी कल्पों (देवलोकों) के नीचे वे रहते हैं। (तब फिर प्रश्न होता है-) भगवन् ! क्या वे असुरकुमार देव ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) पृथ्वी के नीचे रहते हैं ? __[3-2 उ.] (हे गौतम ! ) यह अर्थ (बात) भी समर्थ (शक्य) नहीं / (अर्थात्-ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे भी असुरकुमार देव नहीं रहते।) 4. से कहिं खाई णं भाते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? ___ गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असोउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए, एवं' असुरकुमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [4 प्र.] भगवन् ! तब ऐसा वह कौन-सा स्थान है, जहाँ असुरकुमार देव निवास करते हैं ? 64 उ.] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बीच में (असुरकुमार देव रहते हैं।) यहाँ असुरकुमारसम्बन्धी समस्त वक्तव्यता कहनी चाहिए; यावत् वे (वहाँ) दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरण (अानन्द से जीवनयापन) करते हैं / विवेचन-- असुरकुमार देवों का प्रावासस्थान-प्रस्तुत सूत्रद्वय में असुरकुमार देवों के आवासस्थान के विषय में पूछा गया है और अन्त में भगवान् रत्नप्रभा पृथ्वी के अन्तराल में उनके ग्रावासस्थान होने का प्रतिपादन करते हैं। असुरकुमारदेवों का यथार्थ प्रावासस्थान-प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार रत्नप्रभा का पृथ्वी-पिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन है / उसमें से ऊपर एक हजार योजन छोड़कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग में असुरकुमार देवों के 34 लाख भवनावास हैं। असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक-ऊर्ध्वगमन से सम्बन्धित प्ररूपरणा 5. अत्यि णं भाते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए प० ? हंता, प्रथि। 1. असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता इस प्रकार समझनी चाहिए---"उरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेट्ठा च एगं जोयणसहस्सं बज्जेत्ता मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसदि भवणा बाससयसहस्सा भवतीति अक्खायं" इसका भावार्थ विवेचन में किया जा चका है। -सं. 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र (प्रा. स.) पृ. 89-91 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (टीकानुवाद) (पं. वेचरदासजी) खण्ड 2, पृ. 49 असुरकुमारण दवणं चोसादमवणाः Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक 2] [5 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों का (अपने स्थान से) अधोगमन-विषयक (सामर्थ्य) है? [5 उ.] हाँ, गौतम ! (उनमें अपने स्थान से नीचे जाने का सामर्थ्य) है / 6. केवतिए च णं भते ! पभ ते असुरकुमाराणं देवाणं अहेगतिबिसए पण्णते ? गोयमा ! जाव आहेसत्तमाए पुढवीए, तच्चं पुण पुढवि गता य गमिस्संति य / [6 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों का (अपने स्थान से) अधोगमन-विषयक सामर्थ्य कितना (कितने भाग तक) है ? [6 उ.] गौतम ! सप्तमपृथ्वी तक नीचे जाने की शक्ति उनमें है / (किन्तु वे वहाँ तक कभी गए नहीं, जाते नहीं और जाएँगे भी नहीं) वे तीसरी पृथ्वी (बालुकाप्रभा) तक गये हैं, जाते हैं और जायेंगे। 7. किंपत्तियं णं भते ! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढधि गता य, पमिस्संति य? गोयमा ! पुत्ववेरियस्स वा वेदणउदीरणयाए, पुव्वसंगतियस्स वा वेदणउवसामणयाए / एवं खलु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढवि गता य, गमिस्सति य / [7 प्र.] भगवन् ! किस प्रयोजन (निमित्त या कारण) से असुर कुमार देव तीसरी पृथ्वी तक गये हैं, (जाते हैं,) और भविष्य में जायेंगे ? [7 उ.] हे गौतम ! अपने पूर्व शत्रु को (असाता वेदन भड़काने)-दु:ख देने अथवा अपने पूर्व साथी (मित्रजन) की वेदना का उपशमन करके (दुःख-निवारण कर सुखी बनाने) के लिए असुरकुमार देव तृतीय पृथ्वी तक गये हैं, (जाते हैं,) और जायेंगे। 8. अस्थि णं भते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पण्णते? हंता, अस्थि / [8 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमारदेवों में तिर्यग् (तिरछे) गमन करने का (सामर्थ्य) कहा गया है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! (असुरकुमार देवों में अपने स्थान से तिर्यग्गमन-विषयक सामर्थ्य) है / 9 केवतियं च गंमते ! असुरकमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पण्णत्ते ? गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव-समुद्दा, नंदिस्सरवरं पुण दीवं गता य, गमिस्संति य / [प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों में (अपने स्थान से) तिरछा जाने की कितनी (कहाँ तक) शक्ति है ? [6 उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों में (अपने स्थान से), यावत् असंख्येय द्वीप-समुद्रों तक (तिरछा गमन करने का सिर्फ सामर्थ्य है ;) किन्तु वे नन्दीश्वर द्वीप तक गए हैं, (जाते हैं, और भविष्य में जायेंगे। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 10. किंपत्तियं णं मते ! असुरकुमारा देवा नंदीसरवरदीवं गता य, गमिस्संति य? ___ गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंता एतेति णं जम्मणमहेसु वा निक्खमणमहेसु वा जाणुष्पत्तिमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदीसरवरं दोवं गता य, गमिस्संति य / / [10 प्र. भगवन् ! असुरकुमार देव, नन्दीश्वरवरद्वीप किस प्रयोजन (निमित्त या कारण) से गए हैं, (जाते हैं) और जाएँगे ? [10 उ. हे गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान् (तीर्थकर) हैं, इनके जन्म-महोत्सव में, निष्क्रमण (दीक्षा) महोत्सव में, ज्ञानोत्पत्ति (केवलज्ञान उत्पन्न होने पर महिमा (उत्सव) करने, तथा परिनिर्वाण (मोक्षगमन) पर महिमा (महोत्सव) करने के लिए असुरकुमार देव, नन्दीश्वरवरद्वीप गए हैं, जाते हैं और जाएंगे। 11. अस्थि णं भाते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढं गतिविसए प० ? हंता, अस्थि। [11 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों में (अपने स्थान से) ऊर्ध्व (ऊपर) गमनविषयक सामर्थ्य है ? [11 उ.] हाँ गौतम ! (उनमें अपने स्थान से ऊँचे जाने की शक्ति) है / 12. केवतियं च णं भते ! असुरकुमाराणं देवाणं उड्ढं गतिविसए ? गोयमा ! जाव अच्चुतो कप्पो / सोहम्मं पुण कप्पं गता य, गमिस्संति य / [12 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारदेवों की ऊर्ध्वगमनविषयक शक्ति कितनी है ? [12 उ.] गौतम ! असुरकुमारदेव अपने स्थान से यावत् अच्युतकल्प (बारहवें देवलोक) तक ऊपर जाने में समर्थ हैं / (ऊर्ध्वगमन-विषयक उनकी यह शक्तिमात्र है, किन्तु वे वहाँ तक कभी गए नहीं, जाते नहीं और न जाएँगे।) अपितु वे सौधर्मकल्प (प्रथम देवलोक) तक गए हैं, (जाते हैं) और जाएंगे। 13. [1] किंपत्तियं णं भते ! असुर कुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गता य, गम्मिसंति य ? ___ गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइयवेराणुबंधे। ते णं देवा विकुब्वेमाणा परियारेमाणा वा प्रायरक्खे देवे वित्तासेंति / अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय पायाए एगंतमंतं प्रवक्कमंति / [13-1 प्र.) भगवन् ! असुरकुमारदेव किस प्रयोजन (निमित्त == कारण) से सौधर्मकल्प तक गए हैं. (जाते हैं) और जाएँगे? [13-1 उ.] हे गौतम ! उन (असुरकुमार) देवों का वैमानिक देवों के साथ भवप्रत्ययिक (जन्मजात) वैरानुबन्ध होता है। इस कारण वे देव क्रोधवश वैक्रिय शक्ति द्वारा नानारूप बनाते . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [305 हुए तथा परकीय देवियों के साथ (परिचार) संभोग करते हुए (वैमानिक) आत्मरक्षक देवों को त्रास पहुंचाते हैं, तथा यथोचित छोटे-मोटे रत्नों को ले (चुरा) कर स्वयं एकान्त भाग में चले जाते हैं। [2] अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं अहालहस्सगाई रयणाई? हंता, अस्थि / [13-2 प्र.) भगवन् ! क्या उन (वैमानिक) देवों के पास यथोचित छोटे-मोटे रत्न होते हैं ? {13-2 उ.] हाँ गौतम ! (उन वैमानिक देवों के पास यथोचित छोटे-मोटे रत्न) होते हैं। [3] से कहमिदाणि पकरेंति ? तनो से पच्छा कार्य पन्वहंति / [13-3 प्र.] भगवन् ! (जब वे (असुरकुमार देव) वैमानिक देवों के यथोचित रत्न चुरा कर, भाग जाते हैं, तब वैमानिक देव) उनका क्या करते हैं ? [13-3 उ.] (गौतम ! वैमानिकों के रत्नों का अपहरण करने के पश्चात् वैमानिक देव उनके शरीर को अत्यन्त व्यथा (पीड़ा) पहुँचाते हैं / [4] पभू णं भते ! ते असुरकुमारा देवा तत्थगया चेव समाणा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोग भोगाइं भुजमाणा विहरित्तए ? जो इण? सम?, ते णं तो पडिनियत्तंति, तो पडि नियत्तित्ता इहमागच्छंति, 2 जति णं तानो प्रच्छरायो पाढायंति परियाणंति, पभ गं ते असुरकुमारा देवा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरित्तए, अह णं तानो प्रच्छरानो नो प्राढायंति नो परियाणति णो णं पम ते असुरकुमारा देवा ताहि मच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरित्तए / [13-4 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ (सौधर्मकल्प में) गए हुए वे असुरकुमार देव उन (देवलोक की) अप्सरानों के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगने में समर्थ हैं ? (अर्थात्-वे वहाँ उनके साथ भोग भोगते हुए विहरण कर सकते हैं ?) [13-4 उ. (हे गौतम !) यह अर्थ (ऐसा करने में वे) समर्थ नहीं। वे (असुरकृमार देव) वहाँ से वापस लौट जाते हैं। वहाँ से लौट कर वे यहाँ (अपने स्थान में) आते है। य पदि वे (वैमानिक) अप्सराएँ उनका (असुरकुमार देवों का) आदर करें, उन्हें स्वामीरूप में स्वीकारें तो, वे असुरकुमार देव उन (उध्वंदेवलोकगत) अप्सराओं के साथ दिव्य भोग भोग सकते हैं, यदि वे (ऊपर की) अप्सराएँ उनका आदर न करें, उनका स्वामी-रूप में स्वीकार न करें तो, असुरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ दिव्य एवं भोग्य भोगों को नहीं भोग सकते, भोगते हुए विचरण नहीं कर सकते। [5] एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया घ, गमिस्संति य / Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306]] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [13-5] हे गौतम ! इस कारण से असुरकुमार देव सौधर्मकल्प तक गए हैं, (जाते हैं) और जाएँगे। 14. केवतिकालस्स णं भंते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्म कप्पं गया य, गमिस्सति य? गोयमा ! प्रणताहि प्रोसप्पिणोहि अणताहि उस्सप्पिणीहि समतिक्कताहि, अस्थि णं एस भावे लोयच्छरयभूए समुप्पज्जइ-जंणं असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो / [14 प्र.] भगवन् ! कितने काल में (कितना समय व्यतीत होने पर) असुरकुमार देव ऊर्ध्व-गमन करते हैं, तथा सौधर्मकल्प तक ऊपर गये हैं, जाते हैं और जाएंगे? |14 उ.] गौतम ! अनन्त उत्सपिणी-काल और अनन्त अवसर्पिणी काल व्यतीत होने के पश्चात् लोक में आश्चर्यभूत (आश्चर्यजनक) यह भाव समुत्पन्न होता है कि असुरकुमार देव ऊर्ध्वउत्पतन (गमन) करते हैं, यावत् सौधर्मकल्प तक जाते हैं / 15. किनिस्साए णं माते ! असुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? से जहानामए इह सबरा इ वा बब्बरा इ वा टंकणा इ वा चुच्चुया इ वा पल्हया इ वा पुलिदा इ वा एगं महं रणं वा, गड्ड वा दुग्गं वा दरि वा विसमं वा पन्क्तं वा णीसाए सुमहल्लमवि पासबलं वाहत्यिबलं वा जोहबलं वा धणुबलं वा प्रागलेंति, एवामेव असुरकुमारा वि देवा, णऽनत्थ अरहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भावियप्पणो निस्साए उड्ढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। [15 प्र.] भगवन् ! किसका आश्रय (निश्राय) लेकर असुरकुमार देव ऊर्ध्व-गमन करते हैं, यावत् ऊपर सौधर्मकल्प तक जाते हैं ? / [15 उ.] हे गौतम ! जिस प्रकार यहाँ (इस मनुष्यलोक में) शबर, बर्बर, टंकण (जातीय म्लेच्छ) या चुर्चुक (अथवा भुत्तुय), प्रश्नक अथवा पुलिन्द जाति के लोग किसी बड़े अरण्य (जंगल) का, गड्ढे का, दुर्ग (किले) का, गुफा का, किसी विषम (ऊबड़-खाबड़ प्रदेश या बीहड़ या वृक्षों से ' सघन) स्थान का, अथवा पर्वत का आश्रय ले कर एक महान एवं व्यवस्थित अश्ववाहिनी को, गजवाहिनी को, पैदल (पदाति) सेना को, अथवा धनुर्धारियों की सेना को आकुल-व्याकुल कर देते (अर्थात्-साहसहीन करके जीत लेते) हैं; इसी प्रकार असुर कुमार देव भी एकमात्र अरिहन्तों का या अरिहन्तदेव के चैत्यों का, अथवा भावितात्मा अनगारों का प्राश्रय (निश्राय) ले कर ऊर्ध्वगमन करते (उड़ते) हैं, यावत सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं। 16. सव्वे विणं भते ! प्रसुरकुमारा देवा उड्ढं उप्पयंति जाब सोहम्मो कप्पो ? गोयमा ! णो इण? सम?, महिड्डिया णं असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्यो। [16 प्र.] भगवन् क्या सभी असुरकुमार देव सौधर्मकल्प तक यावत् ऊर्ध्वगमन करते हैं ? Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [307 16 उ. | गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। अर्थात् सभी असुरकुमार देव ऊपर सौधर्मकल्प तक नहीं जा सकते; किन्तु महती ऋद्धिवाले असुरकुमार देव ही यावत् सौधर्मदेवलोक तक ऊपर जाते हैं। 17. एस वि य णं भाते ! चमरे असुरिद असुरकुमारराया उड्ढं उत्पतियपुत्वे जाव सोहम्मो कप्पो? हंता, गोयमा ! एस वि य णं चमरे प्रसुरिंदे असुरराया उड्ढं उत्पतियपुत्वे जाव सोहम्मो कप्पो / [17 प्र.] हे भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरराज चमर भी पहले कभी ऊपर-यावत् सौधर्मकल्प तक ऊर्ध्वगमन कर चुका है ? [17 उ.] हाँ, गौतम ! यह असुरेन्द्र असुरराज चमर भी पहले ऊपर-यावत् सौधर्मकल्प तक ऊर्ध्वगमन कर चुका है / / विवेचन-असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक-ऊर्ध्वगमन-सामर्थ्य से सम्बन्धित प्ररूपणाप्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 5 से 18 तक) में असुरकुमारदेवों के गमन-सामर्थ्य-सम्बन्धी चर्चा निम्नोक्त क्रम से की गई है (1) क्या असुरकुमारदेवों का अधोगमनसामर्थ्य है ? यदि है तो वे नीचे कहाँ तक जा सकते हैं और किस कारण से जाते हैं ? (2) क्या असुरकुमार देवों का तिर्यग्गमन-सामर्थ्य है ? यदि है तो वे तिरछे कहाँ तक और किस कारण से जाते हैं ? (3) क्या असुरकुमार देव ऊर्ध्वगमन कर सकते हैं ? कर सकते हैं तो कहाँ तक कर सकते हैं तथा कहाँ तक करते हैं ? तथा वे किन कारणों से सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं ? क्या वहाँ वे वहाँ को अप्सरामों के साथ दिव्यभोगों का उपभोग कर सकते हैं ? कितना काल बीत जाने पर वे सौधर्मकल्प में गए हैं, जाते हैं, या जाएँगे ? तथा वे किसका पाश्रय लेकर सौधर्मकल्प तक जाते हैं ? क्या चमरेन्द्र पहले कभी सौधर्मकल्प में गया है ? 'असुर' शब्द पर भारतीय धर्मों की दृष्टि से चर्चा -असुर शब्द का प्रयोग वैदिक पुराणों में 'दानव' अर्थ में हुआ है। यहाँ भी उल्लिखित वर्णन पर से 'असर' शब्द इसी अर्थ को सूचित करता है। पौराणिक साहित्य में प्रसिद्ध 'सुराऽसुरसंग्राम' (देव-दानवयुद्ध) भगवती सूत्र में उल्लिखित असरकमारदेवों की चर्चा से मिलता जलता परिलक्षित होता है। यहां बताया गया है कि असरकुमारों और सौधर्मादि सुरों में परस्पर अहिनकुलवत जन्मजातवैर (भवप्रत्ययिक वैरानुबन्ध) होता है। इसो कारण वे ऊपर सौधर्मदेवलोक तक जाकर उपद्रव करते हैं, चोरी करते हैं और वहां की सुरप्रजा को त्रास देते हैं। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्त (मूलपाठ टिप्पण) (पं. बेचरदासजी) भा. 1, पृ. 141 से 143 तक 2. श्रीमद्-भगवती सूत्र (टीकानुवादसहित) (पं. बेच राम जी) खण्ड 2, पृ. 48 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दों की व्याख्या-'प्रहेगतिविसए' -नीचे जाने का विषय = शक्ति / 'पुश्वसंगइयस्स' = पूर्वपरिचित साथियों या मित्रों का / 'वेदण उदीरणयाए-दुःख को उदीरणा करने के लिए। वेदणउवसामणयाए - दुःख का उपशमन करने के लिए। णाणुप्यायमहिमासु = केवलज्ञान कल्याणक की महिमा (महोत्सव) करने के लिए। वित्तासति = त्रास पहुँचाते हैं। श्रहालहुसगाई = यथोचित लघुरूप-छोटे-छोटे अथवा अलघु = वरिष्ठ महान् / कार्य पव्वहंति = शरीर को व्यथित पीड़ित करते हैं / उप्पयंति-- ऊपर उड़ते हैं - जाते हैं / समइक्कंताहि = व्यतीत होने के पश्चात् / लोयच्छरभूए लोक में आश्चर्यभूत आश्चर्यजनक / णिस्साए - निधाय = प्राश्रय से / सुमहल्लमवि = अत्यन्त विशाल / जोहबलं = योद्धानों के बल = सैन्य को / प्रागलेंति = अकुलाते = थकाते हैं / णण्णस्थ = अथवा नान्यत्र = उनके निश्राय के बिना एगंतं = एकान्त, निर्जन / अंतं = प्रदेश / ' उप्पइयपुटिव - पहले ऊपर गया था / 18. अहो णं भंते ! चमरे प्रसुरिंद असुरकुमारराया महिड्डीए महज्जुतीए जाब कहिं पविट्ठा ? कूडागारसालादिद्रुतो भाणियव्यो। [18 प्र.] 'अहो, भगवन् ! (पाश्चर्य है,) असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि एवं महाद्युति वाला है ! तो हे भगवन् ! (नाट्यविधि दिखाने के पश्चात्) उसकी वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव कहाँ गया, कहाँ प्रविष्ट हुमा ?' [18 उ.] (गौतम ! पूर्वकथितानुसार) यहाँ भी कुटाकारशाला का दृष्टान्त कहना चाहिए। (अर्थात्-कटाकारशाला के दृष्ट्रान्तानुसार असुरेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि यावत् दिव्य देवप्रभाव, उसी के शरीर में समा गया; शरीर में ही प्रविष्ट हो गया / ) चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्वप्राप्ति तक का वृत्तान्त 16. चमरेणं भते ! असुरिंदे णं असुररण्णा सा दिव्या देविड्ढो तं चेव किणा लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया?२ एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबद्दोवे 2 भारहे वासे विझगिरिपायमूले बेमेले नाम सन्निवेसे होत्था / वष्णो / तस्थ गं बेभेले सन्निवेसे पूरणे नामंगाहावती परिवसति अड्ढे दित्ते जहा तामलिस्स (उ. 1 सु. 35.37) वत्तव्वया तहा नेतव्वा, नवरं चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहं करेता जाव विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गयं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पन्वज्जाए पवइत्तए। [16 प्र] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि और यावत् वह सब, किस प्रकार उपलब्ध हुई, प्राप्त हुई और अभिसमन्वागत हुई (अभिमुख आई) ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति., पत्रांक 174 2. इस प्रश्न के उत्तर को परिसमाप्ति 44 सूत्र में होती है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ | [ 309 [19 उ.] हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष (क्षेत्र) में, विन्ध्याचल की तलहटी (पादमूल) में 'बेभेल' नामक सन्निवेश था / वहाँ 'पूरण' नामक एक गृहपति रहता था। वह पाढ्य और दीप्त था / यहाँ तामली की तरह 'पूरण' गृहपति की सारी वक्तव्यता जान लेनी चाहिए / (उसने भी समय आने पर किसी समय तामली की तरह विचार करके अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का सारा भार सौंप दिया) विशेष यह है कि चार खानों (पुटकों) वाला काष्ठमय पात्र (अपने हाथ से) बना कर यावत् विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चतुर्विध ग्राहार बनवा कर ज्ञातिजनों आदि को भोजन करा कर तथा उनके समक्ष ज्येष्ठ पुत्र को कूटम्बका भार सापकर यावत् स्वयमेव चार खाना वाले काष्ठपात्र को लेकर मुण्डित हाकर ' कर 'दानामा' नामक प्रव्रज्या अंगीकार करने का (मनोगत संकल्प किया) यावत् तदनुसार प्रव्रज्या अंगीकार की।) 20, पव्वइए वि य णं समाणे तं चेव, जाव पायावणभमीग्रो पच्चोरुभइ पच्चोरुभित्ता सयमेव चउप्पुउयं वारुमयं पडिग्गा गहाय बेभेले सनिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेता 'जं मे पढमे पुडए पडइ कम्पह मे तं पंथिय पहियाणं दलइत्तए, जं मे दोच्चे पुडए पडइ कप्पड़ मे त काक-सुणयाणं दलइत्तए, जं मे तच्चे पुडए पडइ कप्पइ में तं मच्छ-कच्छभाणं दलइत्तए, जं मे चउत्थे पुडए पडइ कप्पइ मे तं अप्पणा पाहारं आहारित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 कल्लं पाउप्पभायाए रयणोए तं चेव निरवसेसं जाव जं से चउत्थे पुडए पडइ तं प्रप्पणा पाहारं प्राहारेइ / [20] प्रजित हो जाने पर उसने पूर्ववणित तामली तापस की तरह सब प्रकार से तपश्चर्या की, पातापना भूमि में प्रातापना लेने लगा, इत्यादि सब कथन पूर्ववत् जानना; यावत् [छद्र (बेले के तप) के पारणे के दिन] वह (पुरण तापस) आतापना भूमि से नीचे उतरा। फिर स्वयमेव चार खानों वाला काष्ठमय पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय से भिक्षा-विधि से भिक्षाचरी करने के लिए घूमा। भिक्षाटन करते हुए उसने इस प्रकार का विचार किया --- मेरे भिक्षापात्र के पहले खाने में जो कुछ भिक्षा पड़ेगी उसे मार्ग में मिलने वाले पथिकों को दे देना है, मेरे (पात्र के दूसरे खाने में जो कुछ (खाद्य वस्तु) प्राप्त होगी, वह मुझे कौत्रों और कुत्तों को दे देनी है, जो (भोज्यपदार्थ) मेरे तीसरे खाने में पाएगा, वह मछलियों और कछुप्रों को दे देना है और चौथे खाने में जो भिक्षा प्राप्त होगी, वह स्वयं आहार करना है। [इस] प्रकार भलीभांति विचार करके कल (दूसरे दिन) रात्रि व्यतीत होने पर प्रभातकालीन प्रकाश होते ही ......यहाँ सव वर्णन पर्ववत कहना चाहिए-यावत बह दोक्षित हो गया.. चौथे खाने में जो भोजन पड़ता है, उसका आहार स्वयं करता है। 21. तए णं से पूरणे बालतवस्सी तेणं अोरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं तं चेव जाव बेभेलस्स सन्निवेलस्स मज्झमझेणं निम्गच्छति, 2 पाउय-कुडियमादीयं उवकरणं च उप्पुडयं च दारुमयं पडिगहयं एगंतमंते एडेइ, 2 बेभेलस्स सन्निवेसस्स दाहिणपुरस्थिमे दिसीमागे अद्धनियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाभूसणाभूसिए भत्त-पाणपडियाइक्खिए पापोवगमणं निवणे / [21] तदनन्तर पूरण बालतपस्वी उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बालतपश्चरण के कारण शुष्क एवं रूक्ष हो गया। यहाँ बीच का सारा वर्णन तामलीतापस की तरह (पूर्ववत्) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जानना चाहिए; यावत् वह (पूरण बालतपस्वी) भी 'बेभेल' सन्निवेश के बीचोंबीच होकर निकला / निकल कर उसने पादुका (खड़ाऊँ) और कुण्डी आदि उपकरणों को तथा चार खानों वाले काष्ठपात्र को एकान्त प्रदेश में छोड़ दिया / फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण (दक्षिणपूर्वदिशाविभाग) में अर्द्धनिर्वर्तनिक मण्डल रेखा खींच कर बनाया अथवा प्रतिलेखित-प्रमाजित किया / यों मण्डल बना कर उसने संलेखना को जूषणा (आराधना) से अपनी आत्मा को से वित (युक्त) किया / फिर यावज्जीवन पाहार-पानी का प्रत्याख्यान करके उस पूरण बालतपस्वी ने पादपोपगमन अनशन (संथारा) स्वीकार किया। 22. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एक्कारसवासपरियाए छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुल्वाणव्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सुसुमारपुरे नगरे जेणेव प्रसोगवणसंडे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढविसिलावट्टए तेणेव उवागच्छामि, 2 असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठम भत्तं पगिण्हामि, दो वि पाए साहट्ट बग्घारियपाणी एगपोग्गलनिविद्वविट्ठी अणिमिसनयणे ईसिपाभारगएणं कारण प्रहापणिहिएहि गहि सबिदिहि गुत्तेहि एगरातियं महापडिम उवसंज्जित्ताणं विहामि / [22] (अब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अपना वृत्तान्त कहते हैं-) हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ अवस्था में था; मेरा दीक्षापर्याय ग्यारह वर्ष का था / उस समय मैं निरन्तर छह-छह (बेले-बेले) तप करता हुमा, संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, पूर्वानुपूर्वी (क्रम) से विचरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम घूमता हुआ, जहाँ सुसुमारपुर नगर था, और जहाँ अशोकवनषण्ड नामक उद्यान था, वहाँ श्रेष्ठ अशोक के नीचे पृथ्वी शिलापट्टक के पास पाया / मैंने उस समय अशोकतरु के नीचे स्थित पृथ्वीशिलापट्टक पर (खड़े होकर) अट्ठमभक्त (तेले का) तप ग्रहण किया / (उस समय) मैंने दोनों पैरों को परस्पर सटा (इकट्ठा कर) लिया / दोनों हाथों को नीचे की ओर लटकाए (लम्बे किये हुए सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर (टिका) कर, निनिमेषनेत्र (प्राँखों की पलकों को न झपकाते हुए) शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, यथावस्थित गात्रों (शरीर के अंगों) से एवं समस्त इन्द्रियों को गुप्त (सुरक्षित) करके एकरात्रिकी महा (भिक्षु) प्रतिमा को अंगीकार करके कायोत्सर्ग किया। 23. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया याऽवि होत्था / तए गं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए प्रत्ताणं झूसेत्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव इंदत्ताए उववन्ने / [23] उस काल और उस समय में चमरचंचा राजधानी इन्द्रविहीन और पुरोहितरहित थी। (इधर) पूरण नामक बालतपस्वी पूरे बारह वर्ष तक (दानामा) प्रव्रज्या पर्याय का पालन करके, एकमासिक संल्लेखना की आराधना से अपनी आत्मा को सेवित करके, साठ भक्त (साठ टंक तक) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 311 अनशन रख कर (आहारपानी का विच्छेद करके), मृत्यु के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके चमरचंचा राजधानी की उपपातसभा में यावत् इन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। 24. तए णं से धमरे असुरिद असुरराया अहुणोवबन्ने पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहाप्राहारपज्जत्तीए जाव भास-मणपज्जत्तीए / [24] उस समय तत्काल उत्पन्न हुअा असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्ति भाव को प्राप्त (पर्याप्त) हुआ। वे पांच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं--पाहारपर्याप्ति से यावत् भाषामनःपर्याप्ति तक / विवेचन--चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्वप्राप्ति तक का वृत्तान्त प्रस्तुत सात सूत्रों में चमरेन्द्र को प्राप्त हुई ऋद्धि आदि के सम्बन्ध में श्री गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का भगवान् द्वारा चमरेन्द्र के पूर्वभव से लेकर इन्द्रत्व प्राप्ति तक वृत्तान्त रूप में कथित समाधान प्रतिपादित है। इस वृत्तान्त का क्रम इस प्रकार है 1. श्री गौतमस्वामी की चमरेन्द्र की ऋद्धि आदि के तिरोहित हो जाने के सम्बन्ध में जिज्ञासा। 2. श्री गौतमस्वामी द्वारा चमरेन्द्र को ऋद्धि आदि की प्राप्ति विषयक प्रश्न / 3. भगवान् द्वारा पूरण गृहपति का गहस्थावस्था से दानामा-प्रव्रज्यावस्था तक का प्रायः तमाली तापस से मिलता जुलता वर्णन / 4. पूरण बालतपस्वी द्वारा प्रव्रज्यापालन, और संलेखना की प्राराधना / 5. उस समय भगवान् का सुसुमारपुर में एकरात्रिकी महाभिक्षुप्रतिमा ग्रहण करके अवस्थान। 6. इन्द्रविहीन चमरचंचा राजधानी में संल्लेखना-अनशनपूर्वक मृत्यु-प्राप्त पूरण बालतपस्वी की इन्द्र के रूप में उत्पत्ति और पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तता। दाणामा पव्वज्जा--दानामा या दानमय्या प्रव्रज्या वह कहलाती है, जिसमें दान देने की क्रिया मुख्य हो। इसका रूपान्तर दानमयो अथवा दानिमा (दान से निर्वृत्त-निष्पन्न)। पूरण तापस की प्रवृत्ति में दान की ही वृत्ति मुख्य है / ' पूरण तापस और पूरण काश्यप-बौद्ध ग्रन्थ 'मज्झिमनिकाय' में 'चुल्लसारोपमसुत्त' और 'महासच्च कसुत्त' में उस समय बुद्धदेव के समकालीन छह धर्मोपदेशकों (तीर्थंकरों) का उल्लेख हैपूरणकाश्यप, मस्करी गोशालक, अजितकेशकम्बल, पकुद्धकात्यायन, संजय वेलठ्ठिपुत्त, निर्गन्थ नातपुत्त (ज्ञातपुत्र)। उनमें से 'परण काश्यप' सम्भवतः तथागत बुद्ध और भगवान महावीर का समसमयिक यही 'पूरण तापस' हो / 'बौद्ध पर्व' में भी 'पूरणकाश्यप' नामक प्रतिष्ठित गृहस्थ का --------- - --- - 1. (क) भगवती सूत्र ग्र० वृत्ति, पत्राक 174 (ख) श्रीमद् भगवतीसूत्र (टोकानुवाद, पं. ब्रेचरदास जी) खण्ड 2 प्र-६१ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 ] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र उल्लेख मिलता है जो अरण्य में चोरों द्वारा वस्त्रादि लूटे जाने से नग्न होकर विरक्त रहने लगा था। उसकी विरक्ति और निःस्पृहता देखकर कहते हैं, उसके 80 हजार अनुयायी हो गए थे।' सुसुमार पुर–सुसुमारगिरि-- बौद्धों के पिटक ग्रन्थों में सुसुमारपुर के बदले सूसुमारगिरि का उल्लेख मिलता है, जिसे वहाँ 'भग्ग' देशवर्ती बताया गया है / सम्भव है, सुसुमारगिरि के पास ही कोई भगदेशवर्ती सुसुमारपुर हो / कठिन शब्दों को व्याख्या-'दो वि पाए साह?'-दोनों पैरों को इकट्ठे-संकुचित करके. जिनमुद्रापूर्वक स्थित होकर / वग्घारियपाणी दोनों भुजाओं को नीचे की ओर लम्बी करके / ईसिंपन्भारगएणं-ईषत् = थोड़ा सा, प्राग्भार = आगे मुख करके अवनत होना। चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मकल्प में उत्पात एवं भगवदाश्रय से शकेन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति 25. तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गए समाणे उड्ढे वोससाए प्रोहिणा प्राभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो। पासइ य तत्थ सक्कं देविद देवरायं मघवं पागसासणं सतक्कतु सहस्सक्खं वज्जपाणि पुरंदरं जावः दस दिसानो उज्जोवेमाणं पभासेमाणं / तोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेसए विमाणे सभाए सुहम्माए सवकसि सोहासणंसि जाव दिन्वाई भोगभोगाई भुजमाणं पासइ, 2 इमेयारूवे अज्झस्थिर चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था- केस ण एस अपत्थियपत्यए दुरंतपंतलक्खणे हिरि-सिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णचाउद्दसे जे णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्वाए दविड़ढीए जाव दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते जाव अभिसमन्नागए उपिप अप्पुस्सुए दिवाई भोगभोगाई भुजगाणे विहरह? एवं संपेहेइ, 2 सामाणियपरिसोववन्नए देवे सद्दावेइ, 2 एवं वयासी-केस णं एस देवाणुपिया ! अपत्थियपत्थए जाव भुजमाणे विहरइ / [25] जब असुरेन्द्र प्रसुरराज चमर (उपर्युक्त) पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया, तब उसने स्वाभाविक (विस्रसा) रूप से ऊपर सौधर्मकल्प तक अवधिज्ञान का उपयोग किया। वहाँ उसने देवेन्द्र देवराज, मघवा, पाकशासन, शतऋतु, सहस्राक्ष, वनापाणि, पुरन्दर शक्र को यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करते हुए देखा / (साथ ही उसने शकेन्द्र को) सौधर्मकल्प में सौधर्मावतंसक विमान में शक नामक सिंहासन पर बैठकर, यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का 1. (क) श्रीमद भगवतीसून (टीकानवादसहित) (पं. बेचरदास जी) खण्ड 2 पृ-५५-५६ (ख) मज्झिमनिकाय में चुल्लस ारोपमसुत्त 30, पृ. 139, महासच चकमुत्त 36, पृ. 172, बौद्धपर्व प्र. 10 पृ-१२७ 2. (क) वही, खण्ड 2, पृ-५६ (ख) मज्झिमनिकाय में अनुमानसुत्त 15 पृ-७०, और मारतज्जनियसुत्त 50, पृ-२२४ 3. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 174 4. 'जाव' शब्द से यह पाठ ग्रहण करना चाहिए— 'दाहिगड्ढलोगाहिबई बत्तीसविमाणसयसहस्साहिबई एरावण वाहणं सुरिदं अरयंबरवत्यधर......"आलइयमालमउड नवहेमचाचित्तचंचलकुडलविलिहिज्जमाणगंडं।" -भगकी. अ. वृति, पत्रांक 174 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ [ 313 उपभोग करते हुए देखा / इसे देखकर चमरेन्द्र के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक (आन्तरिक) चिन्तित, प्राथित एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ कि-अरे ! कौन यह अप्राथित-प्रार्थक (अनिष्ट वस्तु की प्रार्थना-अभिलाषा करने वाला, मृत्यु का इच्छुक), दूर तक निकृष्ट लक्षण वाला तथा लज्जा (ही) और शोभा (श्री) से रहित, हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी को जन्मा हुआ है, जो मुझे इस प्रकार की इस दिव्य देव-ऋद्धि यावत दिव्य देवप्रभाव लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत (अभि समानीत) होने पर भी मेरे ऊपर (सिर पर) उत्सुकता से रहित (लापरवाह) हो कर दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुया विचर रहा है ? इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (आत्मस्फुरण) करके चमरेन्द्र ने अपनी सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों को बुलाया और बुला कर उनसे इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! यह बताओ कि यह कौन अनिष्ट-मृत्यु का इच्छुक है ; यावत् दिव्य एवं भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है ? 26. तए णं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुद्वा० जाव यहियया करयलपरिम्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट जयेणं विजयेणं वद्वाति, 2 एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया ! सक्के देविद द वराया जाव विहरई। [26] असुरेन्द्र असुरराज चमर द्वारा सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहे (पूछे) जाने पर (आदेश प्राप्त होने के कारण वे चित्त में अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए / यावत् हृदय से हृत-प्रभावित (आकषित) होकर उनका हृदय खिल उठा / दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्रित करके शिरसावर्तसहित मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने चमरेन्द्र को जय-विजय शब्दों से बधाई दी / फिर वे इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! यह तो देवेन्द्र देवराज शक्र है, जो यावत् दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है !' 27. तए णं से चमरे असुरिंद असुरराया तेसि सामाणियपरिसोक्वनगाणं देवाणं अंतिए एयम सोच्चा निसम्म प्रासुरुत्ते 8 कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वयासो--'अन्ने खलु भो! से सक्के देविंद देवराया, अन्ने खलु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिड्ढोए खलु से सक्के देविदे देवराया, अप्पिड्ढोए खलु भो ! से चमरे प्रसुरिंद असुरराया। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासादेत्तए' त्ति कट्ट उसिणे उसिणभूए याऽवि होत्था। [27] तत्पश्चात् उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस बात (उत्तर) को सुनकर मन में अवधारण करके वह असुरेन्द्र असुरराज चमर शीघ्र ही क्रुद्ध (लालपीला), रुष्ट, कुपित एवं चण्ड–रौद्र आकृतियुक्त हुआ, और क्रोधावेश में आकर बड़वड़ाने लगा। फिर उसने सामानिकपरिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा- "अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है, और यह असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है ! देवेन्द्र देवराज शक्र तो महाऋद्धि वाला है, जबकि असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्पऋद्धि वाला ही है, (यह सब मैं जानता हूँ, फिर भी मैं इसे कैसे सहन कर सकता हूँ ?) प्रतः हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि मैं स्वयमेव (अकेला ही) उस देवेन्द्र देवराज शक्र को उसके स्वरूप (पद या शोभा) से भ्रष्ट कर दें।' यों कह कर वह चमरेन्द्र (कोपवश) गर्म (उत्तप्त) हो गया, (अस्वाभाविक रूप से) गर्मागर्म (उत्तेजित) हो उठा। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 28. तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया प्रोहि पउंजइ, 2 ममं ओहिणा श्रामोएइ, 2 इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पज्जित्था-'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सुसुमारपुरे नगरे असोगवणसंडे उज्जाणे असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पगिम्हित्ता एगराइयं महापडिम उपसंपज्जित्ताणं विहरति / ते सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं नौसाए सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासादेतए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 सयणिज्जाम्रो प्रभुठेह, 2 ता देवदूसं परिहेइ, 2 उववाय सभाए पुरथिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छइ, 2 जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता फलिहरयणं परामुसइ, 2 एगे प्रबिइए फलिहरयणमायाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए मझमझेणं निग्गच्छइ, 2 जेणेव तिगिछिकूडे उपायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, २त्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णाइ, २त्ता संखेज्जाई जोयणाई जाव उत्तरवे उध्वियं रूवं विकुब्वइ, २त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव पुढविसिलावट्टए जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छति, 2 ममं तिक्खुत्तो श्रादाहिणपदाहिणं करेति, 2 जाव नमंसित्ता एवं वयासी'इच्छामि णं भंते ! तुम्भं नीसाए सक्कं देविदं देवरायं सयमेव अच्चासादित्तए' त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं / दिसिभागं अवक्कमइ, 2 वेउब्वियससुग्घातेणं समोहण्णइ, 2 जाव दोच्च पि वेडब्बियसमुम्घातेणं समोहण्णइ, 2 एग महं घोरं घोरागारं भीमं भीमागारं भासरं भयाणीयं गंभीरं उत्तासणयं कालडरत्तमासरासिसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदि विउब्वइ, 2 अप्फोडेइ, 2 वग्गइ, 2 गज्जइ, 2 हपहेसियं करेइ, 2 हस्थिगुलुगुलाइयं करेइ, 2 रहघणघणाइयं करेइ, 2 पायवद्दरगं करेइ, 2 भूमिचवेडयं दलयइ, 2 सोहणादं नदइ, 2 उच्छोलेति, 2 पच्छोलेति, 2 तिवई छिदइ, 2 वाम भुयं ऊसवेइ, 2 दाहिणहत्थपदेसिणीए य अंगुट्ठनहेण य वितिरिच्छं मुहं विडंबेइ, 2 महया महया सद्दे णं कलकलरवं करेइ, एगे अन्त्रितिए फलिहरयणमायाए उड्ढं वेहासं उच्पतिए, खोभते चेव आहेलोयं, कंपेमाणे व मेइणितलं, साकड्ढ़ते व तिरियलोयं, फोडेमाणे व अंबरतलं, कत्थइ गज्जते, कत्थइ विज्जुयायंते, कथइ वासं वासमाणे, फस्थ रयुग्घायं पकरेमाणे, कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, वाणमंतरे देवे बित्तासेमाणे 2, जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे 2, प्राय रक्खे देवे विपलायमाणे 2, फलिहरयणं अंबरतलंसि वियड्ढमाणे 2, विउन्मावेमाणे 2 ताए उक्किट्ठाए जाब तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुदाणं मझमझेणं वीयोवयमाणे 2, जेणेव सोहम्मे कप्पे, जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव समा सुधम्मा तेणेव उवागच्छइ, 2 एगं पायं पउमवरवेइयाए करेइ, एग पायं सभाए सुहम्माए करेइ, फलिहरयणेणं मह्या 2 सणं तिषखुत्तो इंदकीलं पाउडेति, 2 एवं क्यासी—'कहिं णं भो ! सक्के देविंद देवराया ? कहिं गं तारो चउरासोई सामाणियसाहस्सोयो ? जाव कहिं णं तानो चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खद वसाहस्सी प्रो ? कहिं गं तानो अणेगानो अच्छराकोडीमो ? अज्ज हयामि, अज्ज महेमि, अज्ज व्हेमि, अज्ज ममं अवसानो अच्छरानो वसमुवणमंतु ति कट्ट तं प्रणि8 अकंतं अप्पियं असुभं श्रमणुणं श्रमणामं फरसं गिरं निसिरइ। [28] इसके पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अपने उत्कट क्रोध को सफल Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ | [ 315 करने के लिए) अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे (श्री महावीर स्वामी को) देखा / मुझे देख कर चमरेन्द्र को इस प्रकार आध्यात्मिक (प्रान्तरिक स्फुरणा) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, सुसुमारपुर नगर में, अशोकवनषण्ड नामक उद्यान में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभत्त (तेले का) तप स्वीकार कर एकरात्रिको महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं। अत: मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं श्रमण भगवान् महावीर के निश्राय-आश्रय से देवेन्द्र देवराज शक्र को स्वयमेव (एकाकी ही) अत्याशादित (श्रीभ्रष्ट) करूं।' इस प्रकार (भलीभांति योजनाबद्ध) विचार करके वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा और उठकर उसने देवदूष्य वस्त्र पहना। फिर, उपपातसभा के पूर्वीद्वार से होकर निकला / और जहाँ सुधर्मासभा थी, तथा जहाँ चतुष्पाल (चौप्पाल) नामक शस्त्रभण्डार (प्रहरणकोष) था, वहाँ आया / शस्त्रभण्डार में से उसने एक परिघरत्न उठाया। फिर वह किसी को साथ लिये बिना अकेला ही उस परिघरत्न को लेकर अत्यन्त रोषाविष्ट होता हुआ चमरचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर निकला और ति गिच्छकट नामक उत्पातपर्वत के निकट आया / वहाँ उसने वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजनपर्यन्त का उत्तरवैक्रियरूप बनाया। फिर वह उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से यावत् जहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था, वहाँ मेरे (भगवान् श्रीमहावीर स्वामी के) पास आया। मेरे पास उसने दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की, मुझे वन्दन-नमस्कार किया और तब यों बोला--"भगवन् ! मैं आपके निश्राय (प्राश्रय) से स्वयमेव (अकेला ही) देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।" __ इस प्रकार कह कर (मेरे उत्तर की अपेक्षा रखे बिना ही) वह वहाँ से (सीधा) उत्तरपूर्वदिशाविभाग (ईशानकोण) में चला गया। फिर उसने वैक्रियसमुद्घात किया; यावत् वह दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ / (इस बार) वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर उसने एक महाधोर, घोराकृतियुक्त, भयंकर, भयंकर आकार वाला, भास्वर, भयानक, गम्भीर, त्रासदायक, काली कृष्णपक्षीय अर्धरात्रि एवं काले उड़दों की राशि के समान काला, एक लाख योजन का ऊँचा, महाकाय शरीर बनाया / ऐसा करके वह (चमरेन्द्र) अपने हाथों को पछाड़ने लगा, पैर पछाड़ने लगा, (मेघ की तरह) गर्जना करने लगा, घोड़े की तरह हिनहिनाने (हेषारव करने) लगा, हाथी की तरह किलकिलाहट (चीत्कार) करने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, पैरों को जमीन पर जोर से पटकने लगा, भूमि पर जोर से (हथेलों से) थप्पड़ मारने लगा, सिहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड मारने लगा. (मल्ल की तरह मैदान में) त्रिपदी को छेदने लगा: बांई भुजा ऊँची करने लगा, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे के नख द्वारा अपने मुख को तिरछा फाड़ कर बिडम्बित (टेढ़ामेढ़ा) करने लगा और बड़े जोर-जोर से कलकल शब्द करने लगा। यों करता हुआ बह चमरेन्द्र स्वयं अकेला, किसी को साथ में न ले कर परिघरत्न ले कर ऊपर आकाश में उड़ा। (उड़ते समय अपनी उड़ान से) बह मानो अधोलोक क्षुब्ध करता हुआ, पृथ्वीतल को मानो कंपाता हुमा, तिरछे लोक को खींचता हुमा-सा, गगनतल को मानो फोड़ता हुआ, कहीं गर्जना करता हुआ, कहीं विद्युत् की तरह चमकता हुआ, कहीं वर्षा के समान बरसता हुआ, कहीं धूल का ढेर उड़ाता (उछालता) हुना, कहीं गाढान्धकार का दृश्य उपस्थित करता हुमा, तथा (जाते-जाते) बाणव्यन्तर देवों को त्रास पहुँचाता हुआ, ज्योतिषीदेवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ एवं आत्मरक्षक देवों Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को भगाता हुआ, परिधरत्न को आकाश में घुमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच हो कर निकला। यों निकल कर जिस अोर सौधर्मकल्प (देवलोक) था, सौधर्मावतंसक विमान था, और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा / वहाँ पहुँच कर उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा, और दूसरा पैर सुधर्मा सभा में रखा / फिर बड़े जोर से हुंकार (आवाज) करके उसने परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील (शक्रध्वज अथवा मुख्य द्वार के दोनों कपाटों के अर्गलास्थान) को पीटा (प्रताडित किया) / तत्पश्चात् उसने (जोर से चिल्ला कर) इस प्रकार कहा–'अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहां हैं उसके वे चौरासी हजार सामानिक देव ? यावत् कहाँ है उसके वे तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देव ? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएँ ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ। जो अप्सराएँ मेरे अधीन नहीं हैं, वे अभी मेरी वशतिनी हो जाएँ।' ऐसा करके चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनोहर और कठोर उद्गार निकाले / 26. तए णं से सक्के देविद देवराया तं अणि जाव प्रमणामं अस्सुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं मिडि निडाले साहटु चमरं असुरिद असुररायं एवं वदासी-हं भो! चमरा ! असुरिदा ! असुरराया! अपत्थियपत्थया! जाव होणपुण्णचाउद्दसा ! अज्ज न भवसि, नहि ते सुहमत्यि' त्ति कटु तत्थेव सोहासणवरगते वज्ज परामुसइ, 2 तं जलंतं फुतं तउतउतं उक्कासहस्साई विणिमयमाणं 2, जालासहस्साई पमुचमाण 2, इंगालसहस्साई पविविखरमाणं 2, फुलिंगजालामालासहस्से हि चक्खुविषखेव-दिटिपडिधातं पि पकरेमाणं हुतवहअतिरेगतेयदिपंतं जइणवेगं फुल्लाकसुयसमाणं महब्भयं भयकर चमरस्स असुरिदस्स असुररणो वहाए वज्जं निसिरइ। [29] तदनन्तर (चम रेन्द्र द्वारा पूर्वोक्त रूप से उत्पात मचाये जाने पर) देवेन्द्र देवराज शक (चमरेन्द्र के) इस (उपर्युक्त) अनिष्ट, यावत् अमनोज्ञ और अश्रुतपूर्व (पहले कभी न सुने हुए) कर्णकटु वचन सुन-समझ करके एकदम (तत्काल) कोपायमान हो गया। यावत् क्रोध से (होठों को चबाता हुआ) बड़बड़ाने लगा तथा ललाट पर तीन सल (रेखाएँ) पड़ें, इस प्रकार से भुकृटि चढ़ा कर शक्रेन्द्र असुरेन्द्र असुरराज चमर से यों बोला-हे ! भो (अरे ! ) अप्रार्थित (अनिष्ट-मरण) के प्रार्थक (इच्छुक) ! यावत् हीनपुण्या (अपूर्ण) चतुर्दशी के जन्मे हुए असुरेन्द्र ! असुरराज ! चमर ! आज तू नहीं रहेगा; (तेरा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा) आज तेरी खैर (सुख) नहीं है / (यह समझ ले) यों कह कर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही शकेन्द्र ने अपना वज़ उठाया और उस जाज्वल्यमान, विस्फोट करते हुए, तड़-तड़ शब्द करते हुए हजारों उल्काएँ छोड़ते हुए, हजारों अग्निज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंगों (चिनगारियों) की ज्वालानों से उस पर दृष्टि फैकले ही आँखों के आगे चकाचौंध के कारण रुकावट डालने वाले, अग्नि से अधिक तेज से देदीप्यमान, अत्यन्त वेगवान् खिले हुए टेसू (किंशुक) के फूल के समान लाल-लाल, महाभयावह एवं भयंकर वज्र को असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्दशक-२ | 317 30. तते णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तं जलंतं जाव भयकरं वज्जमभिमहं प्रावयमाणं पासइ, पासित्ता झियाति पिहाइ, पिहाइ झियाइ, झियायित्ता पिहायित्ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालंबहत्थाभरणे उड्ढे पाए अहोसिरे कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणे 2 ताए उक्किट्ठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दोव-समुद्दाणं मज्झमझेगं वीतोक्यमाणे 2 जेणेव जंबद्दीवे दोवे जाव जेणेव असोगवरपायवे जेणेव गमं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, 2 ता भीए भयगग्गरसरे ‘भगवं सरणं' इति बुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाण अंतरंसि झत्ति वेगेणं समोवतिते / [30] तत्पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने जब उस जाज्वल्यमान, यावत् भयंकर वज्र को अपने सामने आता हुआ देखा, तब उसे देख कर ('यह क्या है ?" इस प्रकार मन में) चिन्तन करने लगा, फिर (अपने स्थान पर चले जाने की) इच्छा करने लगा, अथवा (वज्र को देखते ही उसने) अपनी दोनों आँखें मूंद ली और (वहाँ से चले जाने का पुनः) पुनः विचार करने लगा। (कुछ क्षणों तक) चिन्तन करके वह ज्यों ही स्पृहा करने लगा (कि ऐसा अस्त्र मेरे पास होता तो कितना अच्छा होता / ) त्यों ही उसके मुकुट का तुर्रा (छोगा) टूट गया, हाथों के आभूषण (भय के मारे शरीर सूख जाने से) नीचे लटक गए; तथा पैर ऊपर और सिर नीचा करके एवं कांखों में पसीना-सा टपकाता हुआ, वह असुरेन्द चमर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ जम्बूद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, यावत् जहाँ श्रेष्ठ अशोकवृक्ष था, वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक पर जहाँ मैं (श्री महावीरस्वामी) था, वहाँ आया / मेरे निकट प्राकर भयभीत एवं भय से गद्गद स्वरयुक्त चमरेन्द्र-"भगवन् ! आप ही (अब) मेरे लिए शरण हैं" इस प्रकार बोलता हुआ मेरे दोनों पैरों के बीच में शीघ्रता से वेगपूर्वक (फुर्ती से) गिर पड़ा। 31. तए णं तस्स सक्कस्स विदस्स देवरणो इमेयारूबे अज्झथिए जाच समुप्पज्जित्था 'नो खलु पभू चमरे असुरिदे असुरराया, नो खलु समत्थे चमरे प्रसुरिंदे असुरराया, नो खलु विसए चमरस्स असुरिदस्स असुररणो अपणो निस्साए उड्ढं उप्पतित्ता जाव सोहम्मो कप्पो, गन्नत्थ प्ररहते वा, अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भावियप्पागो नीसाए उड्ढं उप्पयति जाव सोहम्मो कप्पो / तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाएं त्ति कटु प्रोहिं पजु जति, 2 ममं ओहिणा प्राभोएति, 2 'हा! हा! अहो ! हतो प्रहमंसि' ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव दिवाए देवगतीए वज्जस्स वीहि अणुगच्छमाणे 2 तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मझमझेणं जाव जेणेब असोगवरपादवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, 2 ममं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरइ / अवियाऽऽई मे गोतमा ! मुट्टिवातेणं केसग्गे वोइत्था / [31] उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का प्राध्यात्मिक (आन्तरिक अध्यवसाय) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्तिवाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न हो असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहन्त भगवन्तों, अर्हन्त भगवान् के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय (निश्राय) लिये विना स्वयं अपने प्राश्रय (निश्राय) से इतना ऊँचा (उठ) कर यावत् सौधर्मकल्प तक आ सके / अत: Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वह असुरेन्द्र अवश्य अरहिन्त भगवन्तों यावत् अथवा किसी भावितात्मा अनगार के आश्रय (निश्राय) से ही इतना ऊपर यावत् सौधर्मकल्प तक पाया है / यदि ऐसा है तो उन तथारूप अर्हन्त भगवन्तों एवं अनगारों की (मेरे द्वारा फेंके हुए वज्र से) अत्यन्त पाशातना होने से मुझे महा:दुख होगा। ऐसा विचार करके शकेन्द्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उस अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे (श्री महावीर स्वामी को) देखा ! मुझे देखते ही (उसके मुख से बरबस ये उद्गार निकल पड़े-) "हा ! हा! अरे रे ! मैं मारा गया !" इस प्रकार (पश्चात्ताप) करके (वह शक्रन्द्र अपने वन को पकड़ लेने के लिए) उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से वज्र के पीछे-पीछे दौड़ा। वज्र का पीछा करता हुया वह शकेन्द्र तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों के बीचोंबीच होता हुअा यावत् उस श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे जहाँ मैं था, वहाँ आया) और वहाँ मुझ से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए (असम्प्राप्त) उस वज्र को उसने पकड़ लिया (वापिस ले लिया)। हे गौतम ! (जिस समय शकेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशान हिलने लगे। 32. तए णं से सक्के देविंद देवराया वज्जं पड़िसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेइ, 2 वंदइ नमसइ, 2 एवं वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्भं नीसाए चमरेणं प्रसुरिंदणं असुररणा सयमेव प्रच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्त असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निस? / तए णं मे इमेयारूवे प्रज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे असुरिद असुरराया तहेव जाव प्रोहि पउंजामि, देवाणुप्पिए प्रोहिणा प्राभोएमि, 'हा ! हा ! अहो ! हतो मो' ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वज्जं पडिसाहरामि, वज्जपडिसाहरणट्ठताए णं इहमागए, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / तं खामेमि णं देवाणुप्पिया !, खमंतु णं देवाणुप्पिया!, खमितुमरहंति णं देवाणुप्पिया!, णाइ भुज्जो एवं पकरणताए" ति कट्ठ मम वंदइ नमसइ, 2 उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं प्रवक्कमइ, 2 वामेणं पादणं तिक्खुत्तो भूमि दलेइ, 2 चमरं असुरिंद असुररायं एवं वदासी-'मुक्को सि णं मो! चमरा ! असुरिंदा! असुरराया! समणस्स भगवनो महावीरस्स पभावेणं, नहि ते दाणि ममानो भयमस्थि' त्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भए तामेव दिसि पडिगए। [32] तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वन को ले कर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! आपका ही आश्रय ले कर स्वयं असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे अपनी श्री से भ्रष्ट करने आया था। तब मैंने परिकुपित हो कर उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के वध के लिए वज्र फेंका था। इसके पश्चात् मुझे तत्काल इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुया कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं इतना समर्थ नहीं है कि अपने ही आश्रय से इतना ऊँचा-सौधर्मकल्प तक आ सके, इत्यादि पूर्वोक्त सब बातें शकेन्द्र ने कह सुनाईं यावत् शकेन्द्र ने आगे कहा-भगवन् ! फिर मैंने अवधिज्ञान का प्रयोग किया / अवधिज्ञान के द्वारा आपको देखा। आपको देखते हो-हा हा ! अरे रे ! मैं मारा Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 319 गया / ' ये उद्गार मेरे मुख से निकल पड़े ! फिर मैं उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से जहाँ प्राप देवानुप्रिय विराजमान हैं, वहाँ आया; और पाप देवानुप्रिय से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को मैंने पकड़ लिया। (अन्यथा, घोर अनर्थ हो जाता !) मैं वज्र को वापस लेने के लिए ही यहाँ सुसुमारपुर में और इस उद्यान में आया हूँ और अभी यहाँ हूँ। अतः भगवन् ! मैं (अपने अपराध के लिए) आप देवानुप्रिय से क्षमा मांगता हूँ। प्राप देवानुप्रिय मुझे क्षमा करें / आप देवानुप्रिय क्षमा करने योग्य (क्षमाशील) हैं। मैं ऐसा (अपराध) पुन: नहीं करूंगा।' यों कह कर शकेन्द्र मुझे वन्दन-नमस्कार करके रपूर्वदिशाविभाग (ईशान कोण) में चला गया। वहाँ जा कर शवेन्द्र ने अपने बांयें पैर को तीन बार भूमि पर पछाड़ा (पटका)। यों करके फिर उसने असुरेन्द्र असुरराज चमर से इस प्रकार कहा-'हे असुरेन्द्र असुरराज चमर ! आज तो तू श्रमण भगवान् महावीर के ही प्रभाव से बच (मुक्त हो) गया है, (जा) अब तुझे मुझ से (किंचित् भी) भय नहीं है; यों कह कर वह शवेन्द्र जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया। विवेचन-चमरेन्द्र द्वारा सौधर्म में उत्पात एवं भगवदाश्रय के कारण शनन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 25 से 32 तक) में चमरेन्द्र द्वारा सौधर्मदेवलोक में जा कर उपद्रव मचाने के विचार से लेकर, भगवान की शरण स्वीकारने से शक्रेन्द्र द्वारा उस के वध के लिए किये गए वज्रपात से मुक्त होने तक का वृत्तान्त दिया गया है / इस वृत्तान्त का क्रम इस प्रकार है (1) पंचपर्याप्तियुक्त होते ही चमरेन्द्र द्वारा अवधिज्ञान से सौधर्मदेवलोक के शवेन्द्र की ऋद्धि सम्पदा आदि देख कर जातिगत द्वेष एवं ईर्ष्या के वश सामानिक देवों से पूछताछ। (2) सामानिक देवों द्वारा करबद्ध हो कर देवेन्द्र शक्र का सामान्य परिचय प्रदान / (3) चमरेन्द्र द्वारा कुपित एवं उत्तेजित होकर स्वयमेव शकेन्द्र को शोभाभ्रष्ट करने का विचार / (4) अवधिज्ञान से भगवान् का पता लगा कर परिघरत्न के साथ अकेले सुसुमारपुर के अशोकवनखंड में पहुँच कर वहाँ अशोकवृक्ष के नीचे विराजित भगवान् की शरण स्वीकार करके चमरेन्द्र ने उनके समक्ष शकेन्द्र को शोभाभ्रष्ट करने का दुःसंकल्प दोहराया। (5) फिर उत्तरवैक्रिय से विकराल रूपवाला महाकाय शरीर बनाकर भयंकर गर्जन-तर्जन, पादप्रहार आदि करते हुए सुधर्मासभा में चमरेन्द्र का सकोप प्रवेश / वहाँ शकेन्द्र और उनके परिवार को धमकीभरे अनिष्ट एवं अशुभ वचन कहे। (6) शकेन्द्र का चमरेन्द्र पर भयंकर कोप, और उसे मारने के लिए शकेन्द्र द्वारा अग्निज्वालातुल्य वज्र-निपेक्ष / (7) भयंकर जाज्वल्यमान वज्र को अपनी ओर आते देख भयभीत चमरेन्द्र द्वारा वज्र से रक्षा के लिए शीघ्रगति से आ कर भगवत् शरण-स्वीकार / (8) शकेन्द्र द्वारा चमरेन्द्र के ऊर्ध्वगमनसामर्थ्य का विचार / भगवदाश्रय लेकर किये गए चमरेन्द्रकृत उत्पात के कारण अपने द्वारा उस पर छोड़े गए वज्र से होने वाले अनर्थ का विचार करके पश्चात्ताप सहित तीव्रगति से वज्र का अनुगमन / (भगवान्) से 4 अंगुल दूर रहा, तभी वज्र को शकेन्द्र ने पकड़ लिया। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) शक्रन्द्र द्वारा भगवान् के समक्ष अपना अपराध निवेदन, क्षमायाचना एवं चमरेन्द्र को भगवदाश्रय के कारण प्राप्त अभयदान / शकेन्द्र द्वारा स्वगन्तव्य प्रस्थान !' शक्कन्द्र के विभिन्न विशेषणों की व्याख्या-मघवं (मघवा) = बड़े-बड़े मेघों को वश में रखने वाला / पासासणं (पाकशासन)=पाक नाम बलवान् शत्रु पर शासन (दमन) करने वाला / सयकडं (शतकृतु) =सौ कृत्यों-अभिग्रहरूप सौ प्रतिमाओं अथवा श्रावक की पंचमप्रतिमारूप सौ प्रतिमाओं (ऋतुओं) का कार्तिक सेठ के भव में धारण करने वाला / सहस्सक्खं (सहस्राक्ष) सौ नेत्रों वाला- इन्द्र के 500 मंत्री होते हैं, उनके 1000 नेत्र इन्द्र के कार्य में प्रयुक्त होते हैं, इस अपेक्षा से सहस्राक्ष कहते हैं / वज्जपाणि (वज्रपाणि) = इन्द्र के हाथ में वज्र नामक विशिष्ट शस्त्र होता है, इसलिए वज्रपाणि / पुरंदरं (पुरन्दर) = असुरादि के पुरों = नगरों का विदारक नाशक / ' कठिन शब्दों की व्याख्या-वीससाए = स्वाभाविक रूप से / आभोइए= उपयोग लगाकर देखा। दुरंतपंतलक्षणे = दुष्परिणाम बाले अमनोज्ञ लक्षणों वाला। हीणपुण्णचाउद्दसे हीनपुण्या- अपूर्णा (टूटती-रिक्ता) चतुर्दशी का जन्मा हुअा / अप्पुस्सुए = उत्सुकता-चिन्ता से रहित-लापरवाह / महाबोंदि-महान् शरीर को। अच्चासादेत्तए = अत्यन्त आशानता = श्रीविहीन करने के लिए / 'पायदद्दरगं करेइ'- भूमि पर पैर पछाड़ता है। उच्छोलेति = अगले भाग में लात मारता है अथवा उछलता है / पच्छोलेति= पिछले भाग में लात मारता है, या पछाड़ खाता है / रयुग्घाय करेमाणधूल को उछालता बरसाता हुा / बेहासं = आकाश को / वियड्ढमाणे = घुमाता हुग्रा / विउभावेमाणे = चमकाता हुआ। परामुसइ स्पर्श किया-उठाया। कत्ति वेगेणं = शीघ्रता सेझटपट, वेग से / केसाम्गे वो इत्था = केशों के आगे का भाग हवा से हिलने लगा। फैके हुए पुद्गल को पकड़ने की देवशक्ति और गमन सामर्थ्य में अन्तर 33. भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति०, 2 एवं वदासि-देवे णं भंते ! महिड्डीए महज्जुतीए जाव महाणुभागे पुन्धामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अणुपरियट्टित्ताणं गिहित्तए? 33. [1] हता, पभू / [33.1 प्र.] 'हे भगवन् !' यों कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दन - नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा) 'भगवन ! महाऋद्धिसम्पन्न, महाद्युतियुक्त यावत् महाप्रभावशाली देव क्या पहले पुद्गल को फेक कर, फिर उसके पीछे जा कर उसे पकड़ लेने में समर्थ है ? [33.1 उ.] हाँ, गौतम ! वह (ऐसा करने में) समर्थ है / 1. बियाहपण्णतिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) (पं० बेचरदाम जी) भा. 1, पृ. 146 से 150 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 174 3. वहीं, पत्रांक 174, 175 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 321 [2] से केणठेणं भंते ! जाव गिरिहत्तए ? गोयमा ! पोग्गले णं खित्ते समाणे पुवामेव सिग्धगती भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिड्डीए पुवि पि य पच्छा वि सीहे सोहगती वेव, तुरिते तुरितगतो चेव / से तेणठेणं जाव पभू गेण्हित्तए। [33-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से देव, पहले फेंके हुए पुद्गल को, उसका पीछा करके यावत् ग्रहण करने में समर्थ है ? [33-2 उ.] गौतम ! जब पुद्गल फेंका जाता है, तब पहले उसकी गति शीघ्र (तीव्र) होती है, पश्चात् उसकी गति मन्द हो जाती है, जबकि महद्धिक देव तो पहले भी और पीछे (बाद में) भी शीघ्र और शीघ्रगति वाला तथा त्वरित और त्वरितगति वाला होता है / अत: इसी कारण से देव, फंके हुए पुद्गल का पीछा करके यावत् उसे पकड़ सकता है। 34. जति णं भंते ! देवे महिडीए जाव अणुरियट्टित्ताणं गेण्हित्तए / कम्हा णं भंते ! सक्केणं देविदेणं देवरण्णा चमरे असुरिदे असुरराया नो संचाइए साहत्थि गेण्हित्तए ? गोयमा ! असुरकुमाराण देवाणं अहेगतिविसए सोहे सोहे चेब, तुरिते तुरिते चेव / उद्धंगतिविसए अप्पे अप्पे चेब, मंदे मंदे चेव / वेमाणियाणं देवाणं उड्ढंगतिविसए सोहे सोहे चेव, तुरिते तुरिते चेव / अहेगतिविसए अप्पे अप्पे चेव, मंद मंदे चेव / जावतियं खेत्तं सक्के देविदे देवराया उड्ढे उम्पति एक्केणं समएणं तं बज्जे दोहिं, जं वउजे दोहि तं चमरे तोहिं, सव्वत्थोवे सक्कस्स देविदस्स देवरणो उड्डलोयकंङए, अहेलोयकंडए संखेज्जगुणे / जावतियं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे प्रोवति एक्केणं समएणं तं सक्के दोहि, जं सक्के दोहि तं वज्जे तोहिं, सब्यस्थोवे चमरस्स असुरिंदस्स असुररणो अहेलोयकंडए, उड्ढलोयकंडए संखेज्जगुणे। एवं खलु गोयमा! सक्केणं देविदेणं देवरण्णा चमरे प्रसुरिदे असुरराया नो संचाइए साहत्यि गेण्हित्तए। [३४-प्र.] भगवन् ! महद्धिक देव यावत् पीछा करके फेंके हुए पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है, तो देवेन्द्र देवराज शक्र अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को क्यों नहीं पकड़ सका? [34 उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों का नीचे गमन का विषय (शक्ति-सामर्थ्य) शोघ्रशीघ्र और त्वरित-त्वरित होता है, और ऊर्ध्वगमन विषय अल्प-अल्प तथा मन्द-मन्द होता है, जबकि वैमानिक देवों का ऊँचे जाने का विषय शीघ्र-शीघ्र तथा त्वरित-त्वरित होता है और नीचे जाने का विषय अल्प-अल्प तथा मन्द-मन्द होता है। एक समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, जितना क्षेत्र (जितनी दूर) ऊपर जा सकता है, उतना क्षेत्र-उतनी दूर ऊपर जाने में बज को दो समय लगते हैं और उतना ही क्षेत्र ऊपर जाने में चमरेन्द्र Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को तीन समय लगते हैं। (अर्थात-) देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्व-लोककण्डक (ऊपर जाने में लगने वाला कालमान) सबसे थोड़ा है, और अधोलोककंडक उसकी अपेक्षा संख्येयगुणा है / एक समय में असुरेन्द्र असुरराज चमर जितना क्षेत्र नीचा जा सकता है, उतना ही क्षेत्र नीचा जाने में शकेन्द्र को दो समय लगते हैं और उतना ही क्षेत्र नीचा जाने में वन को तीन समय लगते हैं / (अर्थात्-) असुरेन्द्र असुरराज चमर का अधोलोककण्डक (नीचे गमन का कालमान) सबसे थोड़ा है और ऊर्वलोककण्डक (ऊँचा जाने का कालमान) उससे संख्येयगुणा है। ___ इस कारण से हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को पकड़ने में समर्थ न हो सका। विवेचन-फैकी हुई वस्तु को पकड़ने की देवशक्ति और गमनसामर्थ्य में अन्तर-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 33-34) में क्रमशः दो तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) फैंके हुए पुद्गल को पकड़ने की शक्ति महद्धिकदेव में है या नहीं ? है तो कैसे है ?, (2) यदि महद्धिक देवों में प्रक्षिप्त पुद्गल को पकड़ने की शक्ति है तो शकेन्द्र चमरेन्द्र को क्यों नहीं पकड़ सका ?' निष्कर्ष-(१) मनुष्य की शक्ति नहीं है कि पत्थर, गैद आदि को फेंक कर उसका पीछा करके उसे गन्तव्य स्थल तक पहुँचने से पहले ही पकड़ सके, किन्तु महद्धिक देवों में यह शक्ति इसलिए है कि क्षिप्त पुद्गल की गति पहले तीन होती है, फिर मन्द हो जाती है, जबकि महद्धिक देवों में पहले और बाद में एक-सी तीव्रगति होती है। (2) असुरकुमार देवों की नीचे जाने में तीव्र गति है, ऊपर जाने में मन्द; जबकि वैमानिक देवों की नीचे जाने में मन्दगति है, ऊपर जाने में तीव्र; इस कारण से शकेन्द्र नीचे जाते हुए चमरेन्द्र को पकड़ नहीं सका / ' इन्द्रद्वय एवं वन की ऊर्वादिगति का क्षेत्रकाल की दृष्टि से अल्पबहत्व 35. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरणो उड्ढं आहे तिरियं च गतिविसयस्स कतरे कतरेहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा? गोयमा ! सम्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविदे देवराया अहे भोवयइ एक्केणं समएणं, तिरिय संखेज्जे भागे गच्छइ, उड्ढं संखेज्जे भागे गच्छद।। [35 प्र.] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्वगमन-विषय, अधोगमन विषय और तिर्यग्गमन विषय, इन तीनों में कौन-सा विषय किन-किन से अल्प है, बहुत (अधिक) है और तुल्य (समान) है, अथवा विशेषाधिक है ? 635 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र एक समय में सबसे कम क्षेत्र नीचे जाता है, तिरछा उससे संख्येय भाग जाता है और ऊपर भी संख्येय भाग जाता है। 36. चमरस्स णं भंते ! असुरिदस्स असुररष्णो उड्ढं अहे तिरियं च गतिविसयस कतरे कतरेहितो प्रप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२ ] [ 323 ___ गोयमा ! सम्वत्योवं खेत्तं चमरे असुरिद असुरराया उड्ढं उपयति एक्केणं समएणं, तिरिय संखेज्जे भागे गच्छइ, अहे संखेज्जे भागे गच्छइ / [36 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के ऊर्ध्वगमन-विषय, अधोगमन विषय और तिर्यगमन विषय में से कौन-सा विषय किन-किन से अल्प, बहुत (अधिक), तुल्य या विशेषाधिक है ? [36 उ.] गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमर, एक समय में सबसे कम क्षेत्र ऊपर जाता है; तिरछा, उससे संख्येय भाग अधिक (क्षेत्र) और नीचे उससे भी संख्येय भाग अधिक जाता है / 37. वज्जं जहा सक्कस्स देविदस्स तहेव, नवरं विसेसाहियं कायव्वं / [37] वज्र-सम्बन्धी गमन का विषय (क्षेत्र), जैसे देवेन्द्र शक्र का कहा है, उसी तरह जानना चाहिए / परन्तु विशेषता यह है कि गति का विषय (क्षेत्र) विशेषाधिक कहना चाहिए। 38. सक्कस्स णं भंते ! विदस्स देवरणो प्रोवयणकालस्स य उपयणकालस्स य कतरे कतरेहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे सक्कस्स देविदस्स दे वरणो उप्पयणकाले, प्रोवयणकाले संखेज्जगुणे। [38 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का नीचे जाने का (अवपतन-) काल और ऊपर जाने का (उत्पतन-काल, इन दोनों कालों में कौन-सा काल, किस काल से अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? [38 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊपर जाने का काल सबसे थोड़ा है, और नीचे जाने का काल उससे संख्येयगुणा अधिक है / 36. चमरस्स वि जहा सक्कस्स, गवरं सम्वत्योवे प्रोवयणकाले, उप्पणकाले संखेज्जगुणे / [39] चमरेन्द्र का गमनविषयक कथन भी शकेन्द्र के समान ही जानना चाहिए; किन्तु इतनी विशेषता है कि चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल सबसे थोड़ा है, ऊपर जाने का काल उससे संख्येयगुणा अधिक है। 40. वज्जल्स पुच्छा। गोयमा ! सव्वस्थोवे उप्पयणकाले, प्रोवयणकाले विसेसाहिए / 640] वज्र (के गमन के विषय में) पृच्छा की (तो भगवान् ने कहा-) गौतम ! वच का ऊपर जाने का काल सबसे थोड़ा है, नीचे जाने का काल उससे विशेषाधिक है। 41. एयस्त णं भंते ! वज्जस्स, वज्जाहिवत्तिस्स, चमरस्स य असुरिंदस्स असुररण्णो ओवयणकालस्स य उप्पयणकालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पे वा 4 ? गोयमा ! सक्कस्स य उप्पयणकाले चमरस्स य प्रोत्यणकाले, एते गं बिणि वि तुल्ला सम्वत्थोवा / सक्कस्स य प्रोक्यणकाले वज्जस्स य उप्पयणकाले, एस णं दोण्ह वि तुल्ले संखेज्ज गुणे। चमरस्स य उपयणकाले बज्जस्स य प्रोवयणकाले, एस णं दोण वि तुल्ले विसेसाहिए / Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [41 प्र.] भगवन् ! यह वज्र, वज्राधिपति-इन्द्र, और असुरेन्द्र असुरराज चमर, इन सब का नीचे जाने का काल और ऊपर जाने का काल; इन दोनों कालों में से कौन-सा काल किससे अल्प, बहुत (अधिक), तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [41 उ.] गौतम ! शक्रन्द्र का ऊपर जाने का काल और चमरेन्द्र का नीचे जाने का काल, ये दोनों तुल्य हैं और सबसे कम हैं / शकेन्द्र का नीचे जाने का काल और वन का ऊपर जाने का काल, ये दोनों काल तुल्य हैं और (पूर्वोक्त काल से) संख्येयगुणा अधिक है। (इसी तरह) चमरेन्द्र का ऊपर जाने का काल और वज का नीचे जाने का काल, ये दोनों काल तुल्य हैं और (पूर्वोक्त काल से) विशेषाधिक हैं। विवेचन---इन्द्रद्वय एवं वज्र की ऊर्वादिगति का क्षेत्र काल को दष्टि से प्रल्प-बहुत्व-प्रस्तुत 7 सूत्रों (सू. 35 से 41 तक) में से प्रथम तीन सूत्रों में इन्द्रादि के ऊपर और नीचे गमन के क्षेत्रविषयक अल्पत्व, बहुत्व, तुल्यत्व और विशेषाधिकत्व का, तथा इनसे आगे के तीन सूत्रों में इन्द्रादि के ऊपर-नीचे गमन के कालविषयक अल्पत्व, बहुत्व, तुल्यत्व और विशेषाधिकत्व का पृथक-पृथक एवं इन्द्रद्वय एवं वज्र इन तीनों के नीचे और ऊपर जाने के कालों में से एक काल से दूसरे के काल के विशेषाधिकत्व, अल्पत्व एवं बहुत्व का सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। संख्येय, तुल्य और विशेषाधिक का स्पष्टीकरण-वाकेन्द्र के नीचे जाने का और ऊपर जाने का क्षेत्र-काल विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है-शकेन्द्र जितना नीचा क्षेत्र दो समय में जाता है, उतना ही ऊँचा क्षेत्र एक समय में जाता है / अर्थात्-नीचे के क्षेत्र की अपेक्षा ऊपर का क्षेत्र दुगना ही चूणिकार ने स्पष्ट किया है कि शकेन्द्र एक समय में नीचे एक योजन तिरछा डेढ योजन और ऊपर दो योजन जाता है। इसी प्रकार शकेन्द्र की ऊर्ध्वगति और चमरेन्द्र की अधोगति बराबर बतलाई गई है, उसका तात्पर्य यह है कि शकेन्द्र एक समय में दो योजन ऊपर जाता है तो चमरेन्द्र भी एक समय में दो योजन नीचे जाता है / किन्तु शकेन्द्र, चमरेन्द्र और वज्र के केवल ऊर्ध्वगति क्षेत्र-काल में तारतम्य है, वह प्रकार समझना चाहिए-शक्रन्द्र एक समय में जितना क्षेत्र ऊपर जाता है, उतना क्षेत्र ऊपर जाने में वज्र को दो समय और चमरेन्द्र को तीन समय लगता है। अर्थात्-शकेन्द्र का जितना ऊर्ध्वगमन क्षेत्र है, उसका त्रिभाग जितना ऊर्ध्वगमन क्षेत्र चमरेन्द्र का है। इसीलिए नियत ऊर्ध्वगमनक्षेत्र विभाग न्यून तीन गाऊ बतलाया गया है / वच की नीचे जाने में गति मन्द होती है, तिरछे जाने में शीघ्रतर और ऊपर जाने में शीघ्रतम होती है। इसलिए वज्र का अधोगमनक्षेत्र त्रिभागन्यून योजन, तिर्यग्गमन क्षेत्र विशेषाधिक दो भाग = त्रिभागसहित तीन गाऊ, और ऊर्ध्वगमनक्षेत्र विशेषाधिक दो भाग-तिर्यकक्षेत्रकथित विशेषाधिक दो भाग-से कुछ विशेषाधिक होता है। चमरेन्द्र एक समय में जितना नीचे जाता है, उतना ही नीचा जाने में इन्द्र को दो समय और वज्र को तीन समय लगते हैं। इस कथनानुसार शकेन्द्र के अधोगमन को अपेक्षा वज्र का अधोगमन त्रिभागन्यून है / शकेन्द्र का अधोगमन का समय और वज्र का ऊर्ध्वगमन का समय दोनों Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 325 समान कहे गये हैं, इसका अर्थ है-शकेन्द्र एक समय में नीचे एक योजन जाता है, तथैव वज्र एक समय में ऊपर एक योजन जाता है।" वज्रभयमुक्त चिन्तित चमरेन्द्र द्वारा भगवत्सेवा में जाकर कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन और नाट्यप्रदर्शन 42. तए णं से चमरे असुरिंद असुरराया वज्जभविष्पमुक्के सक्केणं देविदेणं देवरणा मह्या अवमाणेणं अवमाणिते समाणे चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहतमणसंकप्पे चितासोकसागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टभागोवाते भूमिगतदिट्ठीए झियाति / [42] इसके पश्चात् वज्र-(प्रहार) के भय से विमुक्त बना हुआ, देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा महान् अपमान से अपमानित हुना, चिन्ता और शोक के समुद्र में प्रविष्ट असुरेन्द्र असुरराज चमर, मानसिक संकल्प नष्ट हो जाने से मुख को हथेली पर रखे, दृष्टि को भूमि में गड़ाए हुए आर्तध्यान करता हुआ, चमर चंचा नामक राजधानी में सुधर्मासभा में, चमर नामक सिहासन पर (चिन्तितमुद्रा में बैठा-बैठा) विचार करने लगा। 43. तते गं तं चमरं असुरिदं असुररायं सामाणियपरिसोबयन्नया देवा प्रोहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति, 2 करतल जाव एवं क्यासि-कि णं देवाणुपिया ! अोहयमणसंकप्पा जाव झियायंति ? तए णं से चमरे असुरिद असुर राया ते सामाणियपरिसोबवन्नए द वे एवं वयासी.---'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए समणं भगवं महावीरं मीसाए कटु सक्के दोविद देवराया सयमेव प्रच्चासादिए / तए णं तेणं परिकुवितेणं समाणेणं ममं वहाए वज्जे निसि? / तं भदं णं भवतु देवाणुपिया ! समणस भगवत्रो महावीरस्स जस्सम्हि पभावेण अधिकट्ठ प्रवाहिए अपरिताविए इहमागते, इह समोसढे, इह संपत्ते, इहेव अज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / तं गच्छामो णं देवाणुप्पिा ! समणं भगवं महावीर वंदामो णमंसामो जाव पज्जुबासामो' ति कटु च उसट्ठीए सामाणियसाहस्सोहिं जाव सविड्ढीए जाव जेणेव असोगवरपादवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छई, 2 ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं जाव 1. (क) एगेणं समएणं उवयाइ अहे ण जोयणं, एगणेव समएण तिरिय दिवडढं गच्छद, उडद दो जोयणाशि सक्को / चणिकार, भगवती. अ. वृत्ति, प. 178 (ख) भगवती सूत्र अ. बत्ति पत्रांक 178-179 इन्द्रादि के गमन का यंत्र-- गमनकर्ता | गमनकाल गमनकाल ऊर्ध्व तिर्यक् / अधः शकेन्द्र 1 समय 8 कोश (दो योजन) चमरेन्द्र 1 ममय त्रिभागन्यून 3 कोश / 6 कोश = // योजन त्रिभागन्यून 6 कोश = 1 // योजन त्रिभागसहित 3 कोश 4 कोश (1 योजन) 8 कोश (2 योजन) त्रिभागन्यून 4 कोश-१ योजन वज 1 समय 4 कोश (1 योजन) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नमंसित्ता एवं वदासि—एवं खलु भंते ! मए तुभं नोसाए सक्के दविंद देवराया सयमेव अच्चासादिए जाब तं भदं णं भवतु देवाणुप्पियाणं जस्स म्हि पभावेणं अक्कि? जाव विहरामि / तं खामेमि गं देवाणुप्पिया !' जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, 2 ता जाव बत्तीसइबद्ध नट्टविहि उवद सेइ, 2 जामेव दिति पादुभूए तामेव दिसि पडिगते / [43] उस समय नष्ट मानसिक संकल्प वाले यावत् आर्तध्यान करते हुए असुरेन्द्र असुरराज चमर को, सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों ने देखा तो वे हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोले'हे देवानुप्रिय ! आज आपका मानसिक संकल्प नष्ट हो गया हो, (इस तरह) यावत् क्यों चिन्ता में डूबे हैं ?' इस पर असुरेन्द्र असुरराज चमर ने, उन सामानिक परिषद् में उत्पन्न देवों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! मैंने स्वयमेव (अकेले ही) श्रमण भगवान् महावीर का आश्रय (निश्राय) ले कर, देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने का मनोगत संकल्प किया था। (तदनुसार मैंने सुधर्मा सभा में जा कर उपद्रव किया था।) उससे अत्यन्त कुपित हो कर मुझे मारने के लिए शकेन्द्र ने मुझ पर वज्र फेंका था। परन्तु देवानुप्रियो ! भला हो, श्रमण भगवान् महावीर का, जिनके प्रभाव से मैं अक्लिष्ट (क्लेशरहित), अव्यथित (व्यथा---पीड़ा से रहित) तथा अपरितापित (परिताप-रहित) रहा; और असंतप्त (सुखशान्ति से युक्त) हो कर यहाँ आ पाया हूँ, यहाँ समवसृत हुआ हूँ, यहाँ पहुँचा (सम्प्राप्त हुआ) हूँ और आज यहाँ मौजूद हूँ।' 'अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब चलें और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। (भगवान् महावीर स्वामी ने कहा हे गौतम ! ) यों विचार करके वह चमरेन्द्र अपने चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ, यावत् सर्व-ऋद्धि-पूर्वक यावत् उस श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, जहाँ मैं था, वहाँ मेरे समीप आया / मेरे निकट आकर तीन वार दाहिनी ओर से मेरी प्रदक्षिणा की / यावत् वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-'हे भगवन् ! आपका आश्रय ले कर मैं स्वयमेव (अकेला ही) देवेन्द्र देवराज शक्र को, उसकी शोभा से नष्टभ्रष्ट करने के लिए गया था, यावत् (पूर्वोक्त सारा वर्णन कहना) आप देवानुप्रिय का भला हो, कि जिनके प्रभाव से मैं क्लेश रहित होकर यावत् विचरण कर रहा हूँ / अतः हे देवानुप्रिय ! मैं (इसके लिए) प्रापसे क्षमा मांगता हूँ।' यावत् (यों कह कर वह) उत्तरपूर्वदिशाभाग (ईशानकोण) में चला गया। फिर यावत् उसने बत्तीस-विधा से सम्बद्ध नाट्य विधि (नाटक की कला) दिखलाई / फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस लौट गया / 44. एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदण असुररणा सा दिव्वा दे विड्ढी लद्धा पत्ता जाव अभिसमन्नागया। ठितो सागरोवमं / महाविद हे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / 644] हे गौतम ! इस प्रकार से असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति एवं दिव्य देवप्रभाव उपलब्ध हुआ है, प्राप्त हुआ है और अभिसमन्वागत हुआ है। चमरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम की है और वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् समस्त दु:खों का अन्त करेगा। विवेचन-चिन्तित चमरेन्द्र द्वारा भगवान की सेवा में जाकर कृतज्ञता-प्रदर्शन, क्षमायाचन और नाट्य प्रदर्शन-प्रस्तुत सूत्रत्रय में शास्त्रकार ने चार तथ्यों का निरूपण किया है Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [ 327 (1) वज्रभयमुक्त, किन्तु अपमानित हतप्रभ चमरेन्द्र की चिन्तित दशा / (2) चिन्ता का कारण पूछे जाने पर चमरेन्द्र द्वारा सामानिकों को आपबीती कहना / (3) भगवान महावीर की सेवा में सदलबल पहुँचकर चमरेन्द्र द्वारा कृतज्ञताप्रदर्शन, क्षमायाचन एवं अन्त में नाट्य-प्रदर्शन करके पुनः गमन / (4) चमरेन्द्र की दिव्य ऋद्धि आदि से सम्बन्धित कथन का भगवान् द्वारा उपसंहार; अन्त में, मोक्षप्राप्ति रूप उज्ज्वल भविष्यकथन / ' असुरकुमारों के सौधर्म कल्प पर्यन्त गमन का कारणान्तर निरूपरण 45. कि पत्तियं गंभ ते ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ? गोयमा! तेसि णं देवाणं अहणोववनगाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेयारूवे प्रज्झस्थिए जाव समुपज्जति-अहो ! णं अम्हेहि दिवा दे विड्ढी लद्धा पत्ता जाव अभिलमनागया। जारिसिया णं अम्हेहि दिव्या देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरणा दिब्बा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागया, जारिसिया णं सक्केणं देविदणं देवरण्णा जाव अभिसमन्नागया तारिसिया णं अम्हेहि वि जाव अभिसमन्नागया। तं गच्छामो णं सक्कस्स देविदस्स देवरपणो अंतिथं पाउभवामो, पासामो ता सक्कस्स देविदस्स देवरगणो दिन्यं देविड्ढि जाव अमिसमन्नागयं / पासतु ताव अम्ह वि सक्के विदे देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभिसमण्णागयं, तं जाणामो ताव सक्कस्स देविदस्स देवरपणो दिवं देविड्ढि जाव अभिसमन्नामयं, जाणउ ताव अम्ह वि सक्के दविद देवराया दिव्वं देविड्ढि जाव अभिसमष्णागयं / एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चमरो समत्तो॥ / तइए सए : बिइनो उद्देसनो समत्तो / / [45 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर किस कारण से जाते हैं ? [45 उ.] गौतम ! (देवलोक में) अधुनोत्पन्न (तत्काल उत्पन्न) तथा चरमभवस्थ (च्यवन के लिए तैयार) उन देवों को इस प्रकार का, इस रूप का आध्यात्मिक (आन्तरिक अध्यवसाय) यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-अहो ! हमने दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है, अभिसमन्वागत की है / जैसी दिव्य देवऋद्धि हमने यावत् उपलब्ध की है, यावत् अभिसमन्वागत -की है, वैसी ही दिव्य देव-ऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध को है यावत् अभिसमन्वागत की है, (इसी प्रकार) जैसी दिव्य देवऋद्धि यावत् देवेन्द्र देवराज शक्र ने उपलब्ध की है यावत् 1. वियाहपण्णत्तियुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) (पं. बेचरदासजी) भा. 1 पृ. 153-154 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अभिसमन्वागत की है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि यावत् हमने भी उपलब्ध यावत् अभिसमन्वागत की है / अतः हम जाएँ और देवेन्द्र देवराज शक के निकट (सम्मुख) प्रकट हों एवं देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा प्राप्त यावत अभिसमन्वागत उस दिव्य देवऋद्धि यावत दिव्य देवप्रभाव को देखें; तथा हमारे द्वारा लब्ध, प्राप्त एवं अभिसमन्वागत उस दिव्य देव ऋद्धि यावत दिव्य देवप्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक्र देखें / देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा लब्ध यावत अभिसमन्वागत दिव्य देवऋद्धि यावत दिव्य देवप्रभाव को हम जानें, और हमारे द्वारा उपलब्ध यावत् अभिसमन्वागत उस दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव को देवेन्द्र देवराज शक जानें / हे गौतम ! इस कारण (प्रयोजन) से असुरकुमार देव यावत् सौधर्मकल्प तक ऊपर जाते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। चमरेन्द्र-सम्बन्धी वृत्तान्त पूर्ण हुग्रा / विवेचन-- असुरकुमार देवों के सौधर्मकल्पपर्यन्त गमन का प्रयोजन प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार देवों द्वारा ऊपर सौधर्म देवलोक तक जाने का कारण प्रस्तुत किया गया है। वे शकेन्द्र की देवऋद्धि आदि से चकित होकर उसकी देवऋद्धि आदि देखने-जानने और अपनी देवऋद्धि दिखानेबताने हेतु सौधर्मकल्पपर्यन्त जाते हैं। तब और अब के ऊर्ध्वगमन और गमनकर्ता में अन्तर-पूर्वप्रकरण में असुरकुमार देवों के ऊर्ध्वगमन का कारण भव-प्रत्यायिक वैरानबन्ध (जन्मजात शत्रता) बताया गया था। जबकि इस प्रकरण में ऊर्ध्वगमन का कारण बताया गया है-शकेन्द्र की देवऋद्धि आदि को देखना-जानना तथा अपनो दिव्यऋद्धि आदि को दिखाना-बताना / इसके अतिरिक्त ऊध्र्वगमनकर्ता भी यहाँ दो प्रकार के असुर कुमार देव बताये गए हैं--या तो वे अधुना (तत्काल) उत्पन्न होते हैं, या वे देवभव से च्यवन करने की तैयारी वाले होते हैं।' // तृतीयशतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 181 (ख) भगवतीसूत्र विवेचनयुक्त (पं. घेवरचन्दजी), भा. 2, पृ. 650 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'किरिया' तृतीय उद्देशक : 'क्रिया' क्रियाएँ : प्रकार और तत्सम्बन्धित चर्चा-- 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव अंतेवासी मंडियपुत्ते णाम अणगारे पगतिभद्दए जाव पन्जुवासमाणे एवं वदासी [1] उस काल और उस समय में 'राजगृह' नामक नगर था; यावत् परिषद् (धर्मकथा सुन) बापस चली गई। उस काल और उस समय में भगवान के अन्तेवासी (शिष्य-भगवान महावीर स्वामी के छठे गणधर) प्रकृति (स्वभाव) से भद्र मण्डितपुत्र नामक अनगार यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले 2. कति णं भंते ! किरियाप्रो पण्णत्ताओ ? मंडियपुत्ता ! पंच किरियामो पणत्तायो, तं जहा–काइया अहिगरणिया पासोसिया पारियावणिया पाणातिवातकिरिया। [2 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [2 उ.] हे मण्डितपुत्र ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं--कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया / / 3. काइया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ? मंडिययुत्ता! दुविहा पण्णता, तं जहा--प्रणवश्यकाकिरिया य दुप्पउत्तकायकिरिया य / [3 प्र.] भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] मण्डितपुत्र ! कायिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकारअनुपरतकाय-क्रिया और दुष्प्रयुक्तकाय-क्रिया / 4. अधिगरणिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता? मंडियपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजोयणाहिगरणकिरिया य निव्वत्तणाहिगरणकिरिया य। [4 प्र.] भगवन् ! आधिकरणिको क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [4 उ.] मण्डितपुत्र ! प्राधिकरणिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकारसंयोजनाधिकरण-क्रिया और निर्वर्तनाधिकरण-क्रिया / Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. पावोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-जीवपादोसिया य प्रजीवपादोसिया य / [5 प्र.] भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [5 उ.] मण्डितपुत्र ! प्राद्वेषिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-जीवप्राद्वेषिकी क्रिया और अजीव-प्राद्वेषिकी क्रिया। 6. पारितावणिया णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता ? मंडियपुत्ता ! दुविहा पणत्ता, तं जहा---सहत्थपारितावणिगा य परहस्थपारितावणिगा य / [6 प्र.] भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [6 उ.] मण्डितपुत्र! पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकारस्वहस्तपारितापनिकी और परहस्तपारितापनिकी / 7. पाणातिवातकिरिया णं भंते ! * पुच्छा / मंडियपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सहत्थपाणातिवातकिरिया य परहत्थपाणातिवातकिरिया या [7 प्र] भगवन् ! प्राणातिपात-क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [7 उ.} मण्डितपुत्र ! प्राणातिपात-क्रिया दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकारस्वहस्त-प्राणातिपात-क्रिया और परहस्त-प्राणातिपात-क्रिया / 8. पुन्वि भंते ! किरिया पच्छा वेदणा? पुग्वि वेदणा पच्छा किरिया। मंडियपुत्ता ! पुटिव किरिया, पच्छा वेदणा; णो पुन्वि वेदणा, पच्छा किरिया। [प्र.] भगवन् ! पहले क्रिया होती है, और पीछे वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना होती है, पीछे क्रिया होती है ? [8 उ.] मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया होती है, बाद में बेदना होती है; परन्तु पहले वेदना हो और पीछे क्रिया हो, ऐसा नहीं होता। है. अस्थि णं भंते ! समणाणं निगंथाणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि। [प्र.] भगवन् ! क्या श्रमण-निर्ग्रन्थों के (भी) क्रिया होती (लगती) है ? [6 उ.] हाँ, (मण्डितपुत्र ! उनके भी क्रिया) होती (लगती) है / 10. कहं गं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जद ? मंडियपुत्ता! पमायपच्चया जोगनिमित्तं च, एवं खलु समणाणं निग्गंधाणं किरिया कज्जति / Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] [331 [10 प्र.] भगवन् ! श्रमण निग्रंथों के क्रिया कैसे (किस निमित्त से) हो (लग) जातो है ? [10 उ.] मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग (मन-वचन-काया के व्यापार = प्रवृत्ति) के निमित्त से (उनके क्रिया होती है) / इन्हीं दो कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थों को क्रिया होती (लगती) है। विवेचन--क्रियाएँ : प्रकार और तत्सम्बन्धित चर्चा-प्रस्तुत 10 सूत्रों (1 से 10 सू. तक) में भगवान् और मण्डितपुत्र गणधर के बीच हुआ क्रिया-विषयक संवाद प्रस्तुत किया गया है। इसमें क्रमश: निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है (1) क्रियाएँ मूलतः पांच हैं। (2) पांचों क्रियाओं के प्रत्येक के अवान्तर भेद दो-दो हैं / (3) पहले क्रिया होती है और तत्पश्चात् वेदना; यह जैनसिद्धान्त है। (4) श्रमणनिर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है और वह दो कारणों से होती है-प्रमाद से और योग के निमित्त से। किया—क्रिया के सम्बन्ध में भगवती, प्रज्ञापना, और स्थानांग आदि कई शास्त्रों में यत्र-तत्र प्रचुर चर्चाएँ हैं। भगवतीसूत्र के प्रथमशतक में भी दो जगह इसके सम्बन्ध में विविध पहलुओं से चर्चा की गई है / और वहाँ प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश भी किया गया है, तथापि यहाँ क्रियासम्बन्धी मौलिक चर्चाएं हैं / क्रिया का अर्थ जैनदृष्टि से केवल करना ही नहीं है, अपितु उसका अर्थ है---कर्मबन्ध होने में कारणरूप चेष्टा; फिर वह चेष्टा चाहे कायिक हो, वाचिक हो या मानसिक हो, जब तक जीव क्रियारहित नहीं हो जाता, तब तक कुछ न कुछ२ कर्मबन्धनकारिणी है ही। पांच कियाओं का अर्थ-कायिकी काया में या काया से होने वाली / प्राधिकरणिकीजिससे आत्मा नरकादिदुर्गतियों में जाने का अधिकारी बनता है, ऐसा कोई अनुष्ठान-कार्य, अथवा तलवार, चक्रादि शस्त्र वगैरह अधिकरण कहलाता है। ऐसे अधिकरण में या अधिकरण से होनेवाली किया। प्राषिको-प्रद्वेष (या मत्सर) में या प्रद्वेष के निमित्त से हई अथवा प्रद्वेषरूप क्रिया। पारितापनिको-परिताप–पीडा पहुँचाने से होने वाली क्रिया। प्राणातिपातिकी-प्राणियों के प्राणों के अतिपात (वियोग या नाश) से हुई क्रिया / क्रियाओं के प्रकार की व्याख्या-प्रनुपरतकायक्रिया-प्राणातिपात आदि से सर्वथा अविरत---- त्यागवृत्तिरहित प्राणी की शारीरिकक्रिया। यह क्रिया अविरत जीवों को लगती है / दुष्प्रयुक्तकायक्रिया--दुष्टरूप (बुरी तरह) से प्रयुक्त शरीर द्वारा अथवा दुष्टप्रयोग वाले मनुष्यशरीर द्वारा हुई क्रिया। 1. (क) इसी से मिलता जुलता पाठ-प्रज्ञापनासुत्र 22 एवं ३१वें क्रियापद में देखिये / -प्रज्ञापना म. वृत्ति, आगमोदय 0 पृ. 435-453 (ख) भगवतीसुत्र शतक 1, उद्देशक 8 (ग) स्थानांगसूत्र, स्थान 3 2. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 181 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 181 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून यह क्रिया प्रमत्त संयत को भी प्रमादवश शरीर दुष्प्रयुक्त होने से लगती है। संयोजनाधिकरणक्रिया संयोजन का अर्थ है-जोड़ना / जैसे—पक्षियों और मृगादि पशुत्रों को पकड़ने के लिए पृथक्-पृथक् अवयवों को जोड़कर एक यंत्र तैयार करना, अथवा किसी भी पदार्थ में विष मिलाकर एक मिश्रित पदार्थ तैयार करना संयोजन है। ऐसी संयोजनरूप अधिकरणक्रिया। निर्वर्तनाधिकरणक्रिया = तलवार, बी, भाला आदि शस्त्रों का निर्माण निर्वर्तन है। ऐसी निर्वर्तनरूप अधिकरण क्रिया / जीवप्राषिकीअपने या दूसरे के जीव पर द्वेष करना या द्वेष करने से लगने वाली क्रिया। अजीव प्राषिकी-अजीव (चेतनारहित) पदार्थ पर द्वेष करना अथवा द्वेष करने से होने वाली क्रिया / स्वहस्तपारितापनिकी = अपने हाथ से अपने को, दूसरे को अथवा दोनों को परिताप देना-पीड़ा पहुँचाना। परहस्तपारितापनिको-दूसरे को प्रेरणा देकर या दूसरे के निमित्त से परिताप-पीड़ा पहुँचाना / स्वहस्तप्राणातिपातिकी--अपने हाथ से स्वयं अपने प्राणों का, दूसरे के प्राणों का अथवा दोनों के प्राणों का प्रतिपात-विनाश करना / परहस्तप्राणातिपातिकी दूसरे के द्वारा या दूसरे के प्राणों . का अथवा दोनों के प्राणों का अतिपात करना।' किया और वेदना में क्रिया प्रथम क्यों?क्रिया कर्म की जननी है, क्योंकि कर्म क्रिया से ही बद्ध होते हैं, अथवा जन्य और जनक में अभेद की कल्पना करने से क्रिया ही कर्म है; या जो की जाती है, वह क्रिया-एक प्रकार का कर्म ही है / तथा वेदना का अर्थ होता है-कर्म का अनुभव करना / पहले कर्म होगा, तभी उसकी वेदना--अनुभव (कर्मफल भोग) होगा। अत: वेदन कर्म (क्रिया) पूर्वक होने से न्यायतः क्रिया ही पहले होती है, वेदना उसके बाद / श्रमणनिन्थ की क्रिया:प्रमाद और योग से- सर्वथा विरत श्रमणों को भी प्रमाद और योग के निमित्त से क्रिया लगती है; इसका तात्पर्य यह है कि श्रमण जब उपयोगरहित (यतनारहित अथवा दूसरे शब्दों में, मद, विषयासक्ति, कषाय, निद्रा, विकथा आदि के वश) हो कर गमनादि क्रिया करता है, तब वह क्रिया प्रमादजन्य कहलाती है। तथा जब कोई श्वमण उपयोगयुक्त हो कर गमनादि क्रिया मन-वचन-काय (योग) से करता है तब वह ऐर्यापथिकी क्रिया योगजन्य कहलाती है। सक्रिय-अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण 11. जीवे णं भंते ! सया समियं एयति यति चलति फंदई घट्टइ खुब्भइ उदीरति तं तं भावं परिणमति ? हंता, मंडियपुत्ता ! जोवे गं सया समितं एयति जाव तं तं भावं परिणमति / [11 प्र. भगवन् ! क्या जीव सदा समित (मर्यादित) रूप में कांपता है, विविध रूप में कांपता है. चलता है (एक स्थान से दसरे स्थान जाता है), स्पन्दन क्रिया करता (थोडा या धीमा चलता) है, घट्टित होता (सर्व दिशाओं में जाता--घूमता) है, क्षुब्ध (चंचल) होता है, उदीरित (प्रबलरूप से प्रेरित) होता या करता है; और उन-उन भावों में परिणत होता है ? 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 181-182 2. वही, अ. वृत्ति, पत्रांक 182 3. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 182 (ख) भगवती विवेचन (पं० घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 656 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३] / [11 उ.] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा समित--(परिमित रूप से कांपता है, यावत् उनउन भावों में परिणत होता है। 12. [1] जावं च णं भंते ! से जोवे तया समितं जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति ? जो इण8 सम8। [2] से केणठ्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ-जावं च णं से जीवे सदा समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति ? __ मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समितं जाव परिणमति सावं च णं से जीवे प्रारभति सारभति समारभति, प्रारंभे वट्टति, सारंभे वट्टति, समारंभे वट्टति, प्रारममाणे सारभमाणे समारभमाणे, प्रारंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं भूताणं जीवाणं सत्ताणं दुषखावणताए सोयावणताए जूरावणताए तिप्पावणताए पिट्टावणताए परितावणताए' वट्टति, से तेण?णं मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं एयति जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवति / [12- प्र.] भगवन् ! जब तक जीव समित-परिमत रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत (परिवर्तित) होता है, तब तक क्या उस जीव की अन्तिम-(मरण) समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ? [12-1 उ.] मण्डितपुत्र ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है; (क्योंकि जीव जब तक क्रियायुक्त है, तब तक अन्तक्रिया (क्रिया का अन्तरूप मुक्ति नहीं हो सकती / ) [12-2 प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव समितरूप से सदा कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक उसकी अन्तिम समय में अन्तक्रिया नहीं होती? [12-2 उ.] हे मण्डितपुत्र ! जीव जब तक सदा समित रूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह (जीव) प्रारम्भ करता है, संरम्भ में रहता है, समारम्भ करता है। प्रारम्भ में रहता (वर्तता) है. संरम्भ में रहता (वर्तता) है, और समारम्भ में रहता (वर्तता) है / प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ करता हुना तथा प्रारम्भ में, संरम्भ में, और समारम्भ में, प्रवर्त्तमान जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झराने (विलाप कराने) में, रुलाने अथवा आँसू गिरवाने में, पिटवाने में, (थकाने-हैरान करने में, डरानेधमकाने या त्रास पहुँचाने में) और परिताप (पीड़ा) देने (संतप्त करने) में प्रवृत्त होता (निमित्त बनता) है। इसलिए हे मण्डितपुत्र! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव सदा 1. यहाँ 'किलामणयाए उद्दवणयाए' इस प्रकार का अधिक पाठ मिलता है। इनका अर्थ मूलार्थ में कोष्ठक में दे दिया है।-सं० Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समितरूप से कम्पित होता है, यावत् उन-उन भावों में परिणत होता है, तब तक वह जोव, अन्तिम समय (मरणकाल) में अन्तक्रिया नहीं कर सकता / 13. जोवे गं भंते ! सया समियं नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति ? हता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं जाव नो परिणमति / [१३-प्र.] भगवन् ! जीव, सदैव (शाश्वतरूप से) समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता ? [१३-उ.] हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा के लिए समितरूप से ही कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता / (अर्थात् जीव एकदिन क्रियारहित हो सकता है।) 14. [1] जावं च णं भंते ! से जोवे नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति तावं च णं तस्स जोवस्स अते अंतकिरिया भवति ? हंता, जाव भवति / [14-1 प्र.] भगवन् ! जब वह जीव सदा के लिए समितरूप से कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता; तब क्या उस जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) नहीं हो जाती? [14-1 उ.] हाँ, (मण्डितपुत्र ! ) ऐसे यावत् जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। [2] से केण?णं भंते ! जाव भवति ? मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयति जाव णो परिणमइ तावं च णं से जोवे नो पारमति, नो सारभति, नो समारभति, नो प्रारंभे वट्टइ, णो सारंभे वट्टइ, णो समारंभे वट्टइ, प्रणारभमाणे असारभमाणे असमारभमाणे, प्रारंभे अवट्टमाणे, सारंने प्रवट्टमाणे, समारंभे प्रवट्टमाणे बहूणं पाणाणं 4 अदुक्खावणयाए जाव अपरियावणयाए वट्टइ / [14-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव को यावत् अन्तक्रिया-- मुक्ति हो जाती है ? [14-2 उ.] मण्डितपुत्र! जब वह जीव सदा (के लिए) समितरूप से (भी) कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब वह जीव प्रारम्भ नहीं करता, संरम्भ नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव प्रारम्भ में, संरम्भ में एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है। प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में यावत् परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त (या निमित्त) नहीं होता। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३ ] [ 335 [3] से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जाततेयंसि पक्खिवेज्जा, से नणं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? हंता,मसमसाविज्जइ। - [14-3] (भगवान्-) 'जैसे, (कल्पना करो,) कोई पुरुष सूखे धास के पूले (तृण के मुट्ठ) को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपत्र ! वह सखे घास का पुला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल ज ता है? (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! वह शीघ्र ही जल जाता है। [4] से जहानामए के पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिदु पविखवेज्जा, से नणं मंडियधुत्ता ! से उदयबिदू तत्तंसि अयकवल्ल सि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता, विद्ध समागच्छद। [14-4] (भगवान्-) (कल्पना करो) जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के कड़ाह पर पानी की बूद डाले तो क्या मण्डितपुत्र! तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जलबिन्दु अवश्य ही शीघ्र नष्ट हो जाती है ? (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! वह जलबिन्दु शीघ्र नष्ट हो जाती है। [5] से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे बोसट्टमाणे समभरघउत्ताए चिट्ठति ? हंता चिट्ठति / अहे गं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं नावं सतासवं सच्छिदं प्रोगाहेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तेहि आसवहारेहि प्रापूरेमाणी 2 पुष्णा पुण्णप्यमाणा बोलट्टमाणा बोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? हता, चिति / अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सवतो समंता पासवद्दाराई पिहेइ, 2 नावाउस्सिंचणएणं उदयं उस्सिंचिज्जा, से नणं मंडियपुत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणसि खिप्पामेव उड्ढं उद्दाति ? हंता, उद्दाति / एवामेव मंडियपुत्ता! प्रत्तत्तासंवुडस्स अणगारस्स इरियासमियरस जाव गुत्तबंभयारिस्स, पाउत्तं गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस तुयट्टमाणस्स, पाउत्तं वत्थ-पडिगह-कंबल-पादपुछणं गेण्हमाणस्स, निक्खिवमाणस्स जाव चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया' सुहमा इरियावहिया किरिया कज्जइ। सा पढमसमयबद्धपुट्टा वितियसमयवेतिता ततियसमयनिजरिया, सा बद्धा पुट्टा उदोरिया वेदिया निज्जिण्णा सेयकाले प्रकम्म चावि भवति / से तेणठेणं मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चति–जावं च णं से जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरिया भवति / [14-5] (भगवान्-) (मान लो,) 'कोई एक सरोवर है, जो जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी से भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है ?' (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है / (भगवान्-) अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे छिद्रों वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को उतार दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों (पानी आने के 1. पाठान्तर—वेमाया के स्थान में कहीं 'संपेहाए' पाठ है। जिसका अर्थ है--स्वेच्छा से / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 ] | व्याख्याप्राप्तिसूत्र द्वारों) द्वारा पानी से भरती-भरती जल से परिपूर्ण हो जाती है ? पूर्णमात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से वह लबालब भर जाती है ? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो कर रहती है ? / (मण्डितपुत्र---) हाँ, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से जल से व्याप्त होकर रहती है। यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों ओर से बन्द कर (ढक) दे, और वैसा करके नौका की उलीचनी (पानी उलीचने के उपकरण विशेष) से पानी को उलीच दे (जल के उदय----ऊपर उठने को रोक दे,) तो हे मण्डितपुत्र! नौका के पानी को उलीच कर खाली करते ही क्या वह शीघ्र ही पानी के ऊपर आ जाती है ? (मण्डितपुत्र--) हाँ भगवन् ! (वैसा करने से, वह तुरन्त) पानी के ऊपर आ जाती है / (भगवान् -) हे पण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत हुए, ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त (सुरक्षित), उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, करवट बदलने बाले तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छन रजोहरण (आदि धर्मोपकरणों को सावधानी (उपयोग) के साथ उठाने और रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेष-(आँख की पलक झपकाने) मात्र समय में विमात्रापूर्वक सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया लगती है ! वह (क्रिया) प्रथम समय में बद्ध-स्पष्ट द्वितीय समय में वेदित और तृतीय समय में निर्जीर्ण (क्षीण) हो जाती है। (अर्थात्-) वह बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण क्रिया भविष्यकाल में अकर्मरूप भी हो जाती है। इसी कारण से, हे मण्डितपत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब वह जीव सदा के लिए) समितरूप से भी कम्पित नहीं होता, यावत् उनउन भावों में परिणत नहीं होता, तब अन्तिम समय में (जोवन के अन्त में) उसकी अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। विवेचन–सक्रिय-प्रक्रिय जीवों को अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 11 से 14 तक) में प्रतिपादित किया गया है, कि जब तक जीव में किसी न किसी प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल किया है, तब तक उसकी अन्तक्रिया नहीं हो सकती / सूक्ष्मक्रिया से भी रहित होने पर जीव की अन्तिम समय में अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है / अन्तक्रिया के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने क्रमश: निम्नोक्त तथ्यों का प्ररूपण किया है-(१) जब तक जीव कम्पन, चलन, स्पन्दन, भ्रमण, क्षोभन, उदीरण आदि विविध क्रियाएँ करता है, तब तक उस जीव को अन्तक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि इन क्रियाओं के कारण जीव पाराभ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तमान होकर नाना जीवों को दुःख पहुँचाता एवं पीड़ित करता है। अतः क्रिया से कर्मबन्ध होते रहने के कारण वह अकर्मरूप (क्रियारहित) नहीं हो सकता। (2) जीव सदा के लिए क्रिया न करे, ऐसी स्थिति आ सकती है, और जब ऐसी स्थिति आती है, तब वह सर्वथा क्रियारहित होकर अन्तक्रिया (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। (3) जब क्रिया नहीं होगी तब क्रियाजनित आरंभादि नहीं होगा, और न ही उसके फलस्वरूप कर्मबन्ध होगा, ऐसी अकर्मस्थिति में अन्तक्रिया होगी हो। (4) इसे स्पष्टता से समझाने के लिए दो दृष्टान्त दिये गये हैं--(१) सूखे घास के पूले को अग्नि में डालते ही वह जल कर भस्म हो जाता है (2) तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली गई जल की बूद Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय शतक : उद्देशक-३ ] [337 तुरन्त सूख कर नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार कम्पनादिक्रियारहित मनुष्य के कर्मरूप ईन्धन शुक्लध्यान के चतुर्थ भेदरूप अग्नि में जल कर भस्म हो जाते हैं, सूखकर नष्ट हो जाते हैं। (5) तीसरा दृष्टान्त-जैसे सैकड़ों छिद्रों वाली नौका छिद्रों द्वारा पानी से लबालब भर जाती है, किन्तु कोई व्यक्ति नौका के समस्त छिद्रों को बन्द करके नौका में भरे हुए सारे पानी को उलीच कर बाहर निकाल दे तो वह नौका तुरन्त पानी के ऊपर आ जाती है। इसी प्रकार प्राश्रवरूप छिद्रों द्वारा कर्मरूपी पानी से भरी हुई जीवरूपी नौका को, कोई आत्म-संवत एवं उपयोगपूर्वक समस्त क्रिया करने वाला अनगार आश्रवद्वारों (छिद्रों) को बन्द कर देता है और निर्जरा द्वारा संचित कर्मों को रिक्त कर देता है, ऐसी स्थिति में केवल ऐपिथिको क्रिया उसे लगती है, वह भी प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में उदीरित एवं वेदित हो जाती है और तृतीय समय में वह जीव-प्रदेशों से पृथक् होकर निर्जीर्ण हो जाती है / इस प्रकार की प्रक्रिय-आश्रवरहित अकर्मरूप स्थिति में जोवरूपी नोका ऊपर आकर तैरती है / वह क्रियारहित व्यक्ति संसारसमुद्र से तिर कर अन्तक्रियारूप मुक्ति पा लेता है।' विविध क्रियाओं का अर्थ-एयति–कम्पित होता है। वेयति - विविध प्रकार से कांपता है / चलति- स्थानान्तर करता है, गमनागमन करता है / फंदइ = थोड़ी-सी, धीमी-सी हल-चल करता है / घट्टइ = सब दिशानों में चलता है / खुभइ क्षुब्ध-चंचल होता है या पृथ्वी को क्षुब्ध कर देता है अथवा दूसरे पदार्थ को स्पर्श करता है, उरता है। उदीरति = प्रबलता से प्रेरित करता है, दूसरे पदार्थों को हिलाता है / तं तं भावं परिणमति उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्राकुचन, प्रसारण आदि उस-उस भाव= क्रिया-पर्याय (परिणाम) को प्राप्त होता है। एजन (कम्पन) आदि क्रियाएँ क्रमपूर्वक और सामान्य रूप से सदैव होती है / आरम्भ, संरम्भ प्रौर समारम्भ-क्रम यों है--संरम्भ = पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करने का संकल्प करना, समारम्भ = उन्हें परिताप-संताप देना, तथा प्रारम्न उन जीवों की हिंसा करना। 'दुक्खावणताएं' आदि पदों को व्याख्या-दुक्खावणयाए - मरणरूप या इष्टवियोगादिरूप दुःख पहुँचाने में। सोयावणताए = शोक, चिन्ता या दैन्य में डाल देने में। जरावणताए = झूराने, अत्यन्त शोक के बढ़ जाने से शरीर को जीर्णता-क्षीणता में पहुँचा देने में। तिप्पावणताए - रुलाने या आँसु गिरवाने में। पिट्टावणताए=पिटवाने में। अंतकिरिया= समस्त कर्मध्वंसरूप स्थिति, मुक्ति। तणहत्थय = घास का पूला / मसमसाविज्जइ = जल जाता है। जायतेयंसि = अग्नि में / तत्तंसि प्रयकवल्लंसि = तपे हुए लोहे के कडाह में / बोलट्टमाणा-लबालब भरी हो / वोसट्टमाणा-पानी छलक रहा हो / उड्ढे उद्दाति = ऊपर आ जाती है / अत्तत्तासंखुडस्स-प्रात्मा द्वारा आत्मा में संवृत हुए / पाउत्तं उपयोगयुक्त / तुयट्टमाणस्स- करवट बदलते हए। माया = विमात्रा से-थोड़ी-सी मात्रा से भी। सपेहाय = स्वेच्छा से। सुहमा =सूक्ष्मबंधादिरूप काल वाली / ईरियावहिया-केवल योगों से जनित ईपिथिकी क्रिया। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानवर्ती 1. (क) विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) (पं. बेचरदासजी) भा. 1, पृ. 156 से 158 तक (ख) भगवतीसूत्र (टोकानुवादसहित) पं. बेचरदासजी खण्ड 2, पृ. 76 से 80 तक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वीतरागों में जब तक ऐसी सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया रहती है, तब तक उनके सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है / प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तसंयम के सर्व काल का प्ररूपरण 15. पमत्तसंजयस्त णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य गं पमत्तद्धा फालतो केवच्चिरं होति ? मंडियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा। [15 प्र.] भगवन् ! प्रमत्त-संयम में प्रवर्त्तमान प्रमत्तसंयत का सव मिला कर प्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? [15 उ.] मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशान पूर्वकोटि-(काल प्रमत्तसंयम का काल) होता है। अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल (सर्वाद्धा) (प्रमत्तसंयम का काल) होता है। 16. अप्पमत्तसंजयस्स गं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य गं अप्पमत्तद्धा कालतो केवच्चिरं होति ? . मंडियपुत्ता ! एगजीवं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमुमुत्तं, उक्कोसेणं पुषकोडी देसूणा / णाणाजीवे पडुच्च सम्वद्ध / सेवं भंते ! 2 त्ति भगवं मंडियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे विहरइ / [16 प्र] भगवन् ! अप्रमत्तसंयम में प्रवर्तमान अप्रमत्तसंयम का सब मिला कर अप्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? [16 उ.] मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-(काल अप्रमत्तसंयम का काल) होता है / अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 183 से 185 तक (ख) भगवती विवेचन (पं घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 659 से 665 तक (ग) संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो / आरंभो उद्दवओ, सवनयाणं विसुद्धाणं // 2. 'कालओ' और 'केवच्चिर' ये दो एकार्थक पद देने का तात्पर्य है-कालओ= काल की अपेक्षा, केवच्चिरं - कितने काल तक। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-३ ] [339 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर भगवान् मण्डितपूत्र अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी को बन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार करके वे संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन-प्रमत्तसंयमी और अप्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम एवं अप्रमत्तसंयम के सर्वकाल का प्ररूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः प्रमत्तसंयमी के प्रमत्तसंयम के समग्रकाल का, तथा अप्रमत्तसंयमी के अप्रमत्तसंयम के समग्र काल का, एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा से कथन किया गया है।' प्रमत्तसंयम का काल एक समय कैसे ?–प्रमत्तसंयम प्राप्त करने के पश्चात् यदि तुरन्त एक समय बीतने पर ही प्रमत्तसंयमी की मृत्यु हो जाए, इस अपेक्षा से प्रमत्तसंयमी का जघन्यकाल एक समय कहा है। अप्रमत्तसंयम का काल एक अन्तर्मुहूर्त क्यों ?–अप्रमत्तसंयम का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त इसलिए बताया गया है कि अप्रमत्तगुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है। उपशम श्रेणी करता हुआ जीव बीच में ही काल कर जाए इसके लिए जघन्यकाल अन्तमुहूर्त का बताया है / इसका उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-काल केवलज्ञानी की अपेक्षा से बताया गया है। क्योंकि केवली भी अप्रमत्तसंयत की गणना में आते हैं। छठे गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान अप्रमत्त हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान का अलग-अलग काल अन्त मुहूर्त प्रमाण ही है, अर्थात् प्रमत्तसंयत अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् अप्रमत्तदशा में अवश्य आता है और सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत प्रमत्त-अवस्था में अवश्य आता है / किन्तु दोनों गुणस्थानों का मिलाकर देशोनपूर्व कोटि काल बतलाया गया है / इसका कारण यह है कि संयमी का उत्कृष्ट आयुष्य देशोनपूर्वकोटि का ही है। चतुर्दशी आदि तिथियों को लवरणसमुद्रीय वृद्धि-हानि के कारण का प्ररूपरण 17. 'भंते ! ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, 2 ता एवं वदासिकम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दस-ऽटुमुट्ठिपुण्णमासिणीसु अतिरेयं वड्ढति वा हायति वा ? लवणसमुद्दवत्तव्वया नेयम्वा जाव' लोटिती / जाव लोयाणभावे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / / ततिए सए : तइनो उद्देसो समत्तो // {17 प्र.] 'हे भगवन् ! ' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-(पूछा-) 'भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? 1. वियाहपष्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 158 2. भगवतीसूत्र अ.न, पत्रांक 163 3. 'जाव' शब्द सुचक पाठ-लोयट्रिती / जंणं लवणसमूह जंब्रीवं दीव णो उप्पीलेति / णो चेव णं एगोदगं करेउ / लोयाणुभावे / सेवं भंते ! Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [17 उ.] हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् 'लोकस्थिति' से 'लोकानुभाव' शब्द तक कहना चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-चतुर्दशी श्रादि तिथियों में लवणसमुद्र की वृद्धि-हानि के कारण प्रस्तुत सूत्र में गौतम स्वामी द्वारा पूछे गए लवणसमुद्रीय वृद्धि-हानि के कारण-विषयक प्रश्नोत्तर अंकित हैं। वृद्धि-हानि का कारण-जीवाभिगम सूत्रानुसार चतुर्दशी आदि तिथियों में वायु के विक्षोभ से लवणसमुद्रीय जल में वृद्धि-हानि होती है, क्योंकि लवणसमुद्र के बीच में चारों दिशाओं में चार महापातालकलश हैं, जिनका प्रत्येक का परिमाण 1 लाख योजन है / उसके नीचे के विभाग में वायु है. बीच के विभाग में जल और वाय है और ऊपर के भाग में केवल जल है। इन चार महापातालकलशों के अतिरिक्त और भी 7884 छोटे-छोटे पातालकलश हैं, जिनका परिमाण एक-एक हजार योजन का है, और उनमें भी क्रमशः वायु, जल-वायु और जल हैं। इनमें वायु-विक्षोभ के कारण इन तिथियों में जल में बढ़-घट होती है / दश हजार योजन चौड़ी लवणसमुद्र की शिखा है, तथा उसकी ऊँचाई 16 हजार योजन है, उसके ऊपर आधे योजन में जल की वृद्धि-हानि होती है। अरिहन्त आदि महापुरुषों के प्रभाव से लवणसमुद्र, जम्बुद्वीप को नहीं बुबा पाता। तथा लोकस्थिति या लोकप्रभाव ही ऐसा है।' // तृतीय शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक (ख) जीवाभिगम. सू. 324-325, पत्रांक 304-305 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : जाणं चतुर्थ उद्देशक : यान भावितात्मा अनगार की, वक्रियकृत देवी-देव-यानादि-गमन तथा वृक्ष-मूलादि को जानने-देखने की शक्ति का प्ररूपरण 1. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ? गोयमा ! प्रत्येगइए देवं पासइ, णो जाणं पासइ 1; प्रत्थेगइए जाणं पासइ, नो देवं पासइ 2; अत्थेगइए बेवं पि पासइ, जाणं पि पासइ 3; अत्थेगइए नो देवं पासइ, नो जाणं पासइ 4 / [1 प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए और यानरूप से जाते हुए देव को जानता देखता है ? [1 उ.] गौतम ! (1) कोई (भावितात्मा अनगार) देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; (2) कोई यान को देखता है, किन्तु देव को नहीं देखता; (3) कोई देव को भी देखता है और यान को भी देखता है; (4) कोई न देव को देखता है और न यान को देखता है / 2. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणि जाणइ पासइ? गोयना! एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुई और यानरूप से जाती हुई देवी को जानता-देखता है ? [2 उ.] गौतम ! जैसा देव के विषय में कहा, वैसा ही देवी के विषय में भी जानना चाहिए। 3. प्रणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं सदेवीयं वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाण पासइ? गोयमा ! प्रत्येगइए देवं सदेवीयं पास, नो जाणं पासइ / एएणं प्रमिलावेणं चत्तारि भंगा। [3 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत तथा यानरूप से जाते हुए, देवीसहित देव को जानता-देखता है ? [3 उ.] गौतम ! कोई (भावितात्मा अनगार)देवीसहित देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; इत्यादि चार भंग पूर्ववत् कहने चाहिए / Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 4. [1] अणगारे णं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स कि अंतो पासइ, बाहि पासइ ? चउभंगो। [4-1 प्र. भगवन् ! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के अान्तरिक भाग को (भी) देखता है अथवा (केवल) बाह्य भाग को देखता है ? [4 1 उ.] (हे गौतम !) यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहने चाहिए। [2] एवं कि मूलं पासइ, कंदं पा०? चउभंगो / मूलं पा० खंधं पा०? च उभंगो। [4-2 प्र.] इसी तरह पृच्छा की क्या वह (केवल) मूल को देखता है, (अथवा) कन्द को (भी) देखता है ? तथा क्या वह (केवल) मूल को देखता है, अथवा स्कन्ध को (भी) देखता है ? [4-2 उ.] हे गौतम ! (दोनों पृच्छाओं के उत्तर में) चार-चार भंग पूर्ववत् कहने चाहिए। [3] एवं मूलेणं बीज संजोएयन्वं / एवं कदेण वि समं संजोएयन्वं जाव बीयं / एवं जाव पुष्फेण समं बीयं संजोएयव्वं / 4-3] इसी प्रकार भूल के साथ बीज का संयोजन करके (पूर्ववत् पृच्छा करके उत्तर के रूप में) चार भंग कहने चाहिए / तथा कन्द के साथ यावत् बीज तक (के संयोगी चतुभंग) का संयोजन कर लेना चाहिए / इसी तरह यावत् पुष्प के साथ बीज (के संयोगी-असंयोगी चतुभंग) का संयोजन कर लेना चाहिए / 5. अणगारे णं भंते ! भाविद्यप्पा रुक्खस्स कि फलं पा० बीयं पा०? चउभंगो। [5 प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार वृक्ष के (केवल) फल को देखता है, अथवा बीज को (भी) देखता है ? [5 उ.] गौतम ! (यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से) चार भंग कहने चाहिए। विवेचन—भावितात्मा अनगार की जानने-देखने की शक्ति का प्ररूपण—प्रस्तुत 5 सूत्रों (1 से 5 सू. तक) में भावितात्मा अनगार की देवादि तथा वृक्षादि विविध पदार्थों को जानने-देखने की शक्ति का चतुभंगी के रूप में निरूपण किया है / प्रश्नों का क्रम इस प्रकार है-(१) वैक्रियकृत एवं यानरूप से जाते हुए देव को देखता है ? (2) वैक्रियकृत एवं यानरूप से जातो हुए देवी को देखता है ? (3) वैक्रियकृत एवं यानरूप से जाते हुए देवीसहित देव को देखता है ? (4) वृक्ष के आन्तरिक भाग को देखता है या बाह्य को भी? (6) मूल को देखता है या कन्द को भी, (6) मूल को देखता है या स्कन्ध को भी? (7) इसी तरह क्रमशः मूल के साथ बीज तक का एवं पावन् कन्द के साथ बीज तक का तथा यावत् पुष्प के Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४ ] [ 343 साथ बीज को देखता है ? इत्यादि प्रश्न हैं। सभी के उत्तर में दो-दो पदार्थों के संयोगी चार-चार भंग का संयोजन कर लेना चाहिए।' मूल प्रादि दस पदों के द्विकसंयोगी 45 भंग-मूल आदि 10 पद इस प्रकार हैं--मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल (अकुर), पत्र, पुष्प, फल और बीज / इन दस ही पदों के द्विकसंयोगी 45 भंग इस प्रकार होते हैं-मूल के साथ शेष 6 का संयोजन करने से 9 भंग, फिर कन्द के साथ शेष (आगे के) 8 का संयोजन करने से 8 भंग, फिर स्कन्ध के साथ आगे के त्वचा ग्रादि 7 का संयोग करने से 7 भंग, त्वचा के साथ शाखादि 6 का संयोग करने से 6 भंग, शाखा के साथ प्रवाल आदि 5 का संयोग करने से 5 भंग, प्रवाल के साथ पूष्पादि 4 का संयोग करने से 4 भंग, पत्र के साथ पुष्पादि तीन के संयोग से 3 भंग, पुष्प के साथ फलादि दो के संयोग से दो भंग और फल एवं बीज के संयोग से 1 भंग; यों कुल 45 भंग हुए। इन 45 ही भंगों का उत्तर चौभंगी के रूप में दिया गया है। भावितात्मा अनगार-संयम और तप से जिसकी आत्मा भावित (वासित) है, प्रायः ऐसे अनगारको अवधिज्ञान आदि लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। 'जाणइ-पासई का रहस्य--यहाँ प्रत्येक सूत्रपाठ के प्रश्न में दोनों क्रियाओं—(जानता है, देखता है) का प्रयोग किया गया है, जबकि उत्तर में 'पासई' (देखता है) क्रिया का ही प्रयोग है, इसका रहस्य यह है, कि पासइ पद का अर्थ यहाँ सामान्य निराकार ज्ञान (दर्शन) से है, और जाणइ का अर्थ-विशेष साकार ज्ञान से है। सामान्यत. 'जानना' दोनों में उपयोग रूप से समान है अतः उत्तर में दोनों का 'पासइ' क्रिया से ग्रहण कर लेना चाहिए। चौभंगी क्यों ?क्षयोपशम की विचित्रता के कारण अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। अत:----कोई अवधिज्ञानी सिर्फ विमान (यान) को और कोई सिर्फ देव को, कोई दोनों को और कोई दोनों को नहीं जानता-देखता / इसी कारण सर्वत्र चौभंगी द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों का समाधान किया गया है। वायुकाय द्वारा वैक्रियकृत रूप-परिगमन एवं गमन सम्बन्धी प्ररूपरणा 6. पभू णं भंते ! वाउकाए एगं महं इस्थिरूवं वा पुरिसरूवं वा हस्थिरूवं वा जाणरूवं वा एवं जुग्गं:-गिल्लि-थिल्लि'-सीय-संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ? गोयमा! णो इण? समढें / वाउकाए णं विकुब्वमाणे एगं महं पडागासंठियं रूवं विकुम्वइ / 1. (क) बियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) भा. 1 पृ. 159 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 186 2. भगबतीमूत्र (टीकानुवादसहित) (पं. वेचरदासजी (खण्ड 2), पृ. 86 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 186 4. वर्तमान में सिंहल द्वीप (सिलोन-कोलम्बो) में 'गोल' (गोल्ल) नामक एक तालुका (तहसील है, जहाँ इस जुग्ग (यूग्य-रिक्सा गाडी) का ही विशेष प्रचलन है। -सं० 5. लाट देश प्रसिद्ध अश्व के पलान को अन्य प्रदेशों में 'थिल्लि' कहते हैं। --सं० Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 प्र.] भगवन् ! क्या बायुकाय एक बड़ा स्त्रीरूप या पुरुषरूप, हस्तिरूप अथवा यानरूप, तथा युग्य (रिक्शागाड़ी, अथवा तांगा जैसो सवारी), गिल्ली (हाथी को अम्बाड़ी), थिल्ली (घोड़े का पलान), शिविका (डोली), स्यन्दमानिका (म्याना), इन सबके रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? J6 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात्-वायुकाय उपयुक्त रूपों को विकुर्वणा नहीं कर सकता), किन्तु वायुकाय यदि विकुर्वणा करे तो एक बड़ी पताका के आकार के रूप को विकुर्वणा कर सकता है / 7. [1] पभू णं भंते ! वाउकाए एग महं पड़ागासंठिय रूवं विउवित्ता प्रणेगाइं जोयणाई गमित्तए? हंता, पभू। [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार (संस्थान) जैसे रूप को विकूर्वणा करके अनेक योजन तक गमन करने में समर्थ है ? [7-1 उ.] हाँ (गौतम ! बायुकाय ऐमा करने में) समर्थ है / [2] से भंते ! कि प्रायड्डीए गच्छइ, परिड्डीए गच्छइ ? गोयमा ! प्रातड्डीए गच्छइ, णो परिदीए गच्छइ / [7-2 प्र.! भगवन् ! क्या वह (वायुकाय) अपनी ही ऋद्धि से गति करता है अथवा पर की ऋद्धि से गति करता है ? [7-2 उ.] गौतम ! वह अपनी ऋद्धि से गति करता है, पर की ऋद्धि से गति नहीं करता। [3] जहा प्रायड्ढोए एवं चेव प्रायकम्मणा वि, प्रायप्पनोगेण वि भाणियव्वं / [7-3] जैसे वायुकाय आत्मऋद्धि से गति करता है, वैसे वह प्रात्मकर्म से एवं प्रात्मप्रयोग से भी गति करता है, यह कहना चाहिए / [4] से भंते ! कि ऊसिप्रोदयं गच्छद, पतोदयं गच्छइ ? गोयमा ! ऊसियोदय पि गच्छह, पतोदयं पि गच्छई। [7-4 प्र.] भगवन् ! क्या वह वायुकाय उच्छ्रितपताका (ऊंची-उठी हुई ध्वजा) के प्राकार से गति करता है, या पतित-(पड़ी हुई) पताका के आकार से गति करता है ? [7-4 उ. मौतम ! वह उच्छितपताका और पतित-पताका, इन दोनों के आकार से गति करता है। [5] से भंते ! कि एगोपडागं गच्छइ, दुहनोपडागं गच्छइ ? गोयमा ! एगोपडागं गच्छइ, नो दुहनोपडागं गच्छइ / Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४] [ 345 [7-5 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय एक दिशा में एक पताका के समान रूप बना कर गति करता है अथवा दो दिशाओं में (एक साथ) दो पताकाओं के समान रूप बना कर गति करता है ? [7-5 उ.] गौतम ! वह (वायुकाय), एक पताका समान रूप बना कर गति करता है, किन्तु दो दिशाओं में (एक साथ) दो पताकारों के समान रूप बना कर गति नहीं करता। [6] से भंते ! कि वाउकाए, पडागा ? गोयमा ! वाउकाए णं से, नो खलु सा पडागा। 17-6 प्र.] भगवन् ! उस समय क्या वह वायुकाय, पताका है ? [7-6 उ.] गौतम ! वह वायुकाय है, किन्तु पताका नहीं है। विवेचन-वायुकाय द्वारा वैक्रियकृत रूप परिणमन एवं गमन सम्बन्धी प्ररूपणा प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 6-7) में विविध प्रश्नों द्वारा वायुकाय के वैक्रियकृत रूप तथा उस रूप में गमन करने के सम्बन्ध में निश्चय किया गया है / निष्कर्ष-वायुकाय, एक दिशा में, उच्छितपताका या पतितपताका इन दोनों में से एक बडी पताका की प्राकृति-सा रूप बैंक्रिय-शक्ति से बना कर प्रात्मऋद्धि से. प्रात्मकर्म से तथा प्रात्मप्रयोग से अनेक योजन तक गति करता है। वह वास्तव में वायूकाय होता है, पताका नहीं। कठिन शब्दों की व्याख्या---प्रायडढीए अपनी ऋद्धि-लब्धि-शक्ति से। प्रायकम्मणाअपने कर्म या अपनी क्रिया से / ऊसियोदयं = ऊँची ध्वजा के प्राकार की-सी गति / पततोदयं नीचे गिरी (पड़ी) हुई ध्वजा के आकार की-सी गति / एगो पडाग=एक दिशा में एक पताका के समान / दुहम्रो पडागं = दो दिशाओं में (एकसाथ) दो पताकाओं के समान / 2 बलाहक के रूप-परिगमन एवं गमन की प्ररूपरणा--- 4. पभू णं मते ! बलाहगे एग महं इस्थिरूवं घा जाव संदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए ? हंता, पभू। [8 प्र.] भगवन् ! क्या बलाहक (मेघ) एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका (म्याने) रूप में परिणत होने में समर्थ है ? [उ:] हाँ गौतम ! (बलाहक ऐसा होने में) समर्थ है / 6. [1] पमू णं माते ! बलाहए एगं महं इत्थिरूवं परिणामेत्ता प्रणेगाई जोयणाई गमित्तए ? हंता, पभू। [9.1 प्र.] भगवन् ! क्या बलाहक एक बड़े स्त्रीरूप में परिणत हो कर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है ? [6-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 159-160 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 187 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 ] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र [2] से भते ! कि प्रायड्ढीए गच्छइ, परिड्ढीए गच्छइ ? गोयमा ! नो प्रातिड्ढोए गच्छति, परिड्ढीए गच्छद / [9-2 प्र.] भगवन् ! क्या बह बलाहक प्रात्मऋद्धि से गति करता है या परऋद्धि से गति करता है? [6-2 उ.] गौतम ! वह प्रात्मऋद्धि से गति नहीं करता, परऋद्धि से गति करता है / [3] एवं नो प्रायकम्मुणा, परकम्मुणा / नो आयपयोगेणं, परप्पयोगेणं / [9-3] उसी तरह वह प्रात्मकर्म (स्वक्रिया) से और प्रात्मप्रयोग से गति नहीं करता, किन्तु परकर्म से और परप्रयोग से गति करता है। [4] ऊसितोदयं वा गच्छद पतोदयं वा गच्छइ / [9-4] वह उच्छ्रितपताका अथवा पतित-पताका दोनों में से किसी एक के प्राकार रूप से गति करता है। 10. से भते कि बलाहए, इत्थी ? गोयमा ! बलाहए णं से, जो खलु सा इत्थी / एवं पुरिसे, प्रासे हत्थी / [10 प्र.] भगवन् ! उस समय क्या वह बलाहक स्त्री है ? [10 उ.] हे गौतम ! वह बलाहक (मेघ) है, वह स्त्री नहीं है / इसी तरह बलाहक पुरुष, अश्व या हाथी नहीं है; (किन्तु बलाहक है।) 11. [1] पभू णं भाते ! बलाहए एगं महं जाणरूवं परिणामेत्ता प्रणेगाई जोयणाई गमित्तए ? जहा इस्थिरूवं तहा भाणियव्वं / णवरं एगप्रोचक्कवालं पि, दुहनोचक्कवालं पि भाणियब्बं / [11-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह बलाहक, एक बड़े यान (शकट-गाड़ी) के रूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जा सकता है? [११-१।उ.] हे गौतम ! जैसे स्त्री के सम्बन्ध में कहा, उसी तरह यान के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए / परन्तु इतनी विशेषता है कि वह, यान के एक ओर चक्र (पहिया) वाला होकर भी चल सकता है और दोनों ओर चक्र वाला होकर भी चल सकता है। [2] जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सोया-संदमाणियाणं तहेव / [11-2 प्र. इसी तरह युग्य, गिल्ली, थिल्लि, शिविका और स्यन्दमानिका के रूपों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। विवेचन-बलाहक के रूप-परिणमन एवं गमन को प्ररूपणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 8 से 11 तक) में आकाश में अनेक रूपों में दृश्यमान मेघों के रूपपरिणमन तथा गमन के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४] निष्कर्ष---मेघ (बलाहक) अजीव होने से उनमें विकुर्वणाशक्ति नहीं है. किन्तु स्वभावत: (विस्रसा) रूप-परिणमन मेघों में भी होता है, इसीलिए यहाँ विउवित्तए' शब्द के बदले 'परिणामेत्तए' शब्द दिया है / मेघ स्त्री आदि अनेक रूपों में परिणत होकर, अचेतन होने से आत्म द्ध प्रात्मकर्म और प्रात्मप्रयोग से गति न करके, वाय, देव आदि से प्रेरित होकर (परऋद्धि, परकर्म और परप्रयोग से) अनेक योजन तक गति कर सकता है। विशेष बात यह है कि बलाहक जब यान के रूप में परिणत होकर गति करता है, तब उसके एक ओर भी चक्र रह सकता है, दोनों ओर भी। चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पन्न होने योग्य जीवों को लेश्या-सम्बन्धी प्ररूपरणा 12. जीवे णं भते ! जे भविए मेरइएसु उववज्जित्तए से णं भते ! किलेसेसु उक्वज्जति ? ... गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परियाइता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काउलेसेसु वा / [12] भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन-सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? [12 उ.] गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है / यथा-कृष्णलेश्यावालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्यावालों में। 13. एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भागियव्वा जाव जीवे णं भते ! जे भविए जोतिसिएसु उववज्जित्तए० पुच्छा। गोयमा ! जल्लेसाई दवाइं परियाइता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं० ते उलेस्सेसु / [13] इस प्रकार जो जिसको लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए / यावत् व्यन्तरदेवों तक कहना चाहिए। [प्र.] भगवन् ! जो जीव ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किन लेश्याओं में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वैसी लेश्यावालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि-तेजोलेश्यावालों में / 14. जीवे णं मते ! जे भविए वेमाणिएसु उववज्जित्तए से गं भते ! किलेस्सेसु उबवज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं०-ते उलेस्सेसु वा पम्हलेसेसु वा सुक्कलेसेसु वा। 1. (क) भगवती-सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 166-187 (ख) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 160-161 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! जो जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? 14 उ. गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, उसी लेश्या वालों में वह उत्पन्न होता है। जैसे कि तेजोलेश्या, पदमलेश्या अथवा शुक्ललेश्या वालों में / विवेचन-नारकों से लेकर वैमानिक देवों तक में उत्पन्न होने योग्य जीवों को लेश्या का प्ररूपण-प्रस्तुत सूत्र-त्रय में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक (24 दण्डकों) में से कहीं भीउत्पन्न होने वाले जीव की लेश्या के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। एक निश्चित सिद्धान्त-जैन दर्शन का एक निश्चित सिद्धान्त है कि अन्तिम समय में जिस लेश्या में जीव मरता है, उसी लेश्या वाले जीवों में वह उत्पन्न होता है / इसी दृष्टिकोण को लेकर में नारक, ज्योतिष्क एवं वैमानिक पर्याय में उत्पन्न होने वाले जीवों की लेश्या के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया तो शास्त्रकार ने उसी सिद्धान्तवाक्य को पुनः पुनः दोहराया है—"जल्लेसाई दवाई परिप्राइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जई"जिस लेश्या से सम्बद्ध द्रव्यों को, ग्रहण करके जीव मृत्यु प्राप्त करता है, उसी लेश्या वाले जीवों में उत्पन्न होता है। तीन सूत्र क्यों ? ---इस दृष्टि से पूर्वोक्त सिद्धान्त सिर्फ एक (12 3) सूत्र में बतलाने से ही काम चल जाता, शेष दो सूत्रों को प्रावश्यकता नहीं थी, किन्तु इतना बतलाने मात्र से काम नहीं चलता; यह भी बतलाना आवश्यक था कि किन जीवों में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं ? यथानैरपिकों में कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं, ज्योतिष्कों में एकमात्र तेजोलेश्या और वैमानिकों में तेजो, पद्म एवं शुक्ल, ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं।' अन्तिम समय को लेश्या कौन-सी?—जो देहधारी मरणोन्मुख (म्रियमाण) है, उसका मरण बिलकुल अन्तिम उसी लेश्या में हो सकता है, जिस लेश्या के साथ उसका सम्बन्ध कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक रहा हो / इसका अर्थ है-कोई भी मरणोत्मुख प्राणी लेश्या के साथ सम्पर्क के प्रथम पल में ही मर नहीं सकता, अपितु जब इसकी कोई अमुक लेश्या निश्चित हो जाती है, तभी वह पुराने शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करने जा सकता है / और लेश्या के निश्चित होने में कम से कम अन्तमुहूर्त लगता है। निम्नोक्त तीन गाथाओं द्वारा प्राचार्य ने इस तथ्य का समर्थन किया है-२ समस्त लेश्यानों के परिणत होने के प्रथम समय में किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता, 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) भा. 1, पृ. 161 (ख) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 188 सव्वाहि लेस्साहिं पढमे समयंमि परिणयाहि तु / नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स // 1 // सव्वाहिं लेस्साहिं चरमे समयंमि परिणयाहि तू। नो कस्स वि उववाओ, परे भवे अस्थि जीवस्स // 2 // अंतमुहत्तंमि गए, अंतमुहुतमि सेसए चेव। लेस्साहिं परिणयाहि, जीवा गच्छति परलोयं // 3 // ----भगवती प्रवृत्ति, पत्रांक 188 में उद्धत Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४] [ 346 इसी प्रकार सर्वलेश्याओंके परिणत होने के अन्तिम समय में भी किसी भी जीव का परभव में उपपात (जन्म) नहीं होता, अपितु लेश्याओं के परिणाम को अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जाते हैं।' उपर्युक्त तथ्य मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिए समझना चाहिए क्योंकि उनकी लेश्याएँ बदलती रहती हैं। देवों और नारकों की लेश्या जीवन-पर्यन्त बदलती नहीं, वह एक सी रहती है। अत: कोई भी देव या नारक अपनी लेश्या का अन्त पाने में अन्तर्मुहर्त शेष रहता है, तभी वह काल करता है, उससे पहले नहीं।' लेश्या और उसके द्रव्य-जिसके द्वारा प्रात्मा कर्म के साथ श्लिष्ट होती है, उसे लेश्या कहते हैं। प्रज्ञापना सूत्र (१७वें लेश्यापद) तथा उत्तराध्ययन सूत्र (३४वें लेश्याध्ययन) में लेश्याओं के प्रकार, अधिकारी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, परिणाम, स्थान, लक्षण, स्थिति, गति आदि तथ्यों का विस्तृत वर्णन मिलता है / प्रज्ञापना (मलयगिरि) वृत्ति के अनुसार लेश्या परमाणुपुद्गलसमूह(वगंगा) रूप हैं। ये लेश्या के परमाणु जीव में उद्भूत हुए कषाय को उत्तेजित करते हैं / कषाय वृत्ति का समूल नाश होते ही ये लेश्या के अणु अकिचित्कर हो जाते हैं / कषाय के प्रादुर्भाव के अनुसार लेश्या प्रशस्त हो जाती है। इसीलिए लंश्या को द्रव्य कहा है। भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्वरणाशक्ति 15. अणगारे णं भते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पवयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ? गोयमा ! णो इण? सम? / [15 प्र. भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभारगिरि को उल्लंघ (लांघ) सकता है, अथवा प्रलंघ (विशेषरूप से या बार-बार लांघ) सकता है ? [15 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / 16. अणगारे णं भते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पव्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ? हंता, पभू। [16 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके क्या वैभारगिरि को उल्लंघन या प्रलंघन करने में समर्थ है ? [16 उ.] हाँ गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है। 1. (क) भगवती (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, (प. बेचरदासजी), पृ. 92 (ख) भगवती अ. वृत्ति., पत्रांक 188 2. (क) भगवती. (टीकानुवाद टिप्पणयुक्त) खं. 2, (पं. बेचर.), पृ. 90. (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 188 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. अणगारे णं भते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता जावइयाइं रायगिहे नगरे रूवाई एवइयाई विकुवित्ता वेभारं पम्वषं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू समं वा विसमं करेत्तए, विसमं वा समं करेत्तए? गोयमा! णो इण8 सम8 / [17 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना राजगृह नगर में जितने भी (पशु पुरुषादि) रूप हैं, उतने रूपों की विकुर्वणा करके तथा वैभारपर्वत में प्रवेश करके क्या सम पर्वत को विषम कर सकता है ? अथवा विषमपर्वत को सम कर सकता है ? [17 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ (बान) समर्थ (शक्य) नहीं है / (अर्थात्-बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना भावितात्मा प्रनगार वैसा नहीं कर सकता।) 18. एवं चेव बितिनो वि पालावगो; गवरं परियातित्ता पभू / [18] इसी तरह दूसरा (इससे विपरीत) आलापक भी कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि वह (भावितात्मा अनगार) बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से (रूपों की विकुर्वणा आदि) करने में समर्थ है। विवेचन—भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्वणा शक्ति प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 15 से 18 तक) द्वारा शास्त्रकार ने भावितात्मा अनगार को विक्रियाशक्ति के चमत्कार के सम्बन्ध में निषेध-विधिपूर्वक दो तथ्यों का प्रतिपादन किया है। वह क्रमशः इस प्रकार है (1) वह बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभारगिरि का उल्लंघन-प्रलंघन करने में समर्थ नहीं है। (2) वह बाह्य पुद्गलों (औदारिक शरीर से भिन्न वैक्रिय पुद्गलों) को ग्रहण करके वैभारगिरि (राजगृहस्थित क्रीडापर्वत) का (वैक्रिय प्रयोग से) उल्लंघन-प्रलंघन कर सकता है / (3) वह बाह्य पुद्गलों (वैक्रिय-पुद्गलों) को ग्रहण किये बिना राजगृह स्थित जितने भी पशु-पुरुषादि रूप हैं, उन को विकुर्वणा करके वैभारगिरि में प्रविष्ट होकर उसे, सम को विषम या विषम को सम नहीं कर सकता। (4) बाह्यपुद्गलों को ग्रहण करके वह वैसा करने में समर्थ है।' बाह्यपुद्गलों का ग्रहण प्रावश्यक क्यों?—निष्कर्ष यह है कि बैक्रिय--(बाह्य) पुद्गलों के ग्रहण किये बिना वैक्रिय शरीर की रचना हो नहीं सकती और पर्वत का उल्लंघन करने वाला मनुष्य ऐसे विशाल एवं पर्वतातिकामी वैक्रियशरीर के बिना पर्वत को लांघ नहीं सकता। और वैक्रियशरीर बाहर के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना बन नहीं सकता। इसीलिए कहा गया है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके ही वैभारपर्वतोल्लंघन, विविधरूपों की विकुर्वणा, तथा वैक्रिय करके पर्वत में प्रविष्ट होकर समपर्वत को विषम और विषम को सम करने में वह समर्थ हो सकता है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 162 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 189 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-४ ] विकुर्वणा से माथी की विराधना और अमायी की आराधना 16. [1] से भंते ! कि मायी विकुवति, अमायो विकुम्वइ ? गोयमा ! मायी विकुम्बइ, नो अमाई विकुवति / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या मायी (सकषाय प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अथवा अमायी (अप्रमत्त-कषायहीन) मनुष्य विकुर्वणा करता है ? [19-1 उ.] गौतम ! मायी (प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता। [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नो अमायो विकुम्वइ ? गोयमा ! मायो णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा भोच्चा वामेति, तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अद्वि-अमिजा बहलीभवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवति, जे विय से अहाबादरा पोग्गला ते विय से परिणमंति, तं जहा–सोतिदियत्ताए जाव फासिदियत्ताए, अद्वि-अट्टिमिज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए / श्रमायी णं लू हं पाण-मोयणं भोच्चा भोच्चा णो वामेइ, तस्स गं तेणं लहेणं पाण-भोयणेणं अद्वि-अदिमिजा. पतणभवति, बहले मंस-सोणिए, जे वि य से प्रहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति; तं जहा उच्चारत्ताए पासवणत्ताए जाव' सोणियत्ताए / से तेण?णं जाव नो अमायो विकुबइ। 19-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि मायी अनगार विकुर्वणा करता .. है, अमायो विकुर्वणा नहीं करता ? [16-2 उ.] गौतम ! मायी (प्रमत्त) अनगार प्रणीत (वृतादि रस से सरस-स्निग्ध) पान और भोजन करता है। इस प्रकार बार-बार प्रणीत पान-भोजन करके वह वमन करता है। उस प्रणीत पान-भोजन से उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा सघन (ठोस या गाढ) हो है; उसका रक्त और मांस प्रतनु (पतला-- अगाढ़) हो जाता है। उस भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका उस-उस रूप में परिणमन होता है / यथा--श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप में (उनका परिणमन होता है।); तथा हड्डियों, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु (दाढी-मूछ), रोम, नख, वीर्य और रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं। अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य तो रूक्ष (रूखा-सूखा) पान-भोजन का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष पान-भोजन का उपभोग करके वह वमन नहीं करता। उस रूक्ष पान-भोजन (के सेवन) से उसकी हड्डियाँ तथा हड्डियों को मज्जा प्रतनु (पतली-प्रगाढ) होती है और उसका मांस और रक्त गाढ़ा (घन) हो जाता है। उस पान-भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उस-उस रूप में होता है। यथा--उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), यावत् रक्तरूप में (उनका परिणमन हो जाता है।) अत: इस कारण से अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता; (मायी मनुष्य ही करता है।) 1. 'जाव' शब्द सूचक पाठ इस प्रकार है- खेलत्ताए, सिंधागताए, वैतत्ताए, पित्तत्ताए, पूअत्ताए। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3] मायी णं तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स पाराहणा। [19-3] मायी मनुष्य उस स्थान (अपने द्वारा किये गए वैक्रियकरणरूप प्रवृत्तिप्रयोग) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना (यदि) काल करता है, तो उसके आराधना नहीं होती। (1) अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ प्रत्थि तस्स प्राराहणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति" / / तइय सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो। [16-4] (किन्तु पूर्व मायी जीवन में अपने द्वारा किये गए वैक्रियकरणरूप) उस (विराधना-) स्थान के विषय में पश्चात्ताप (आत्मनिन्दा) करके अमायी (बना हुआ) मनुष्य (यदि) आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके अाराधना होती है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-विकुर्वणा से मायी को विराधना और अमायो की प्राराधना--प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मायी अर्थात् कषाययुक्त प्रमादी विकुर्वणा करके और उक्त वैक्रियकरणरूप दोष की आलोचना-प्रतिक्रमण न करके विराधक होता है; इसके विपरीत वर्तमान में विकुर्वणा न करके पूर्वविवित स्थान का आलोचन-प्रतिक्रमण करके आराधक हो जाता है / मायो द्वारा विक्रिया—जो मनुष्य सरस-स्निग्ध आहार-पानी करके बार-बार वमन-विरेचन करता है, वह मायी--प्रमादी है, क्योंकि वह वर्ण (रूपरंग) तथा बल आदि के लिए प्रणीत भोजनपान तथा वमन करता है / प्राशय यह है कि इस प्रकार इसके द्वारा वैक्रियकरण भी होता है। अमायी विक्रिया नहीं करता-अमायो अकषायित्व के कारण विक्रिया का इच्छुक नहीं होता, इसलिए वह प्रथम तो रूखा सूखा पाहार करता है, तथा वह वमन नहीं करता / यदि उसने पूर्व जीवन में मायी होने से वैक्रियरूप किया था तो उसका आलोचन-प्रतिक्रमण करके अमायो बन गया / इसलिए वह पाराधक हो जाता है।" // तृतीय शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 189 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'इत्थी' अहवा अरणगारविकुम्वरगा' पंचम उद्देशक : 'स्त्री' अथवा 'अनगार-विकुणा' 1. अणगारे णं भते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं इस्थिरूवं का जाव संदमाणियरूवं वा विकुन्वित्तए ? णो इण8 सम?। [१प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बड़े स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [1 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-वह ऐसा नहीं कर सकता।) 2. अणगारे णं भाते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगं महं इस्थिरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विकुवित्तए ? हंता, पभू। [2 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके क्या एक बड़े स्त्रीरूप की यावत् स्यन्दमानिका (डोली) रूप को विकुर्वणा कर सकता है ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके) वह वैसा कर सकता है। 3. [1] प्रणगारे णं भते ! भावियप्पा केवतियाई पनू इस्थिरूवाइं विकुवित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुबई जुवाणे हत्येणं हत्थंसि गेण्हेज्जा, चक्करस या नाभी प्ररगाउत्ता सिया एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वेउब्वियसमग्घाएणं समोहण्णइ जाव पभू णं गोयमा ! प्रणगारे गं भावियप्पा केवलकप्पं जंबुद्दोवं दीवं बहहिं इत्थीरूवेहि प्राइण्णं वितिकिणं जाव एस णं गोयमा ! अणगारस्स भावियप्पणो अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुर्दिवसु वा 3 / [3-1 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, कितने स्त्रीरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है.? [3-1 उ.] हे गौतम! जैसे कोई युवक, अपने हाथ से युवती के हाथ को (भय या काम की विह्वलता के समय दृढ़तापूर्वक) पकड़ लेता है, अथवा जैसे चक्र (पहिये) की धुरी (नाभि) प्रारों से व्याप्त होती है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी वैक्रिय समुद्घात से समवहत होकर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को, बहुत-से स्त्रीरूपों से आकीर्ण (व्याप्त), व्यतिकीर्ण (विशेष रूप से परिपूर्ण) यावत् कर सकता है; (अर्थात्-ठसाठस भर सकता है।) हे गौतम ! भावितात्मा अनगार का यह विषय है, विषयमात्र कहा गया है। उसने इतनी वैक्रिय शक्ति सम्प्राप्त होने पर भी कभी इतनी विक्रिया की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] एवं परिवाडीए नेयम्बं जाव संदमाणिया। [3-2] इस प्रकार परिपाटी से (क्रमश:) यावत् स्यन्दमानिका-सम्बन्धी रूपविकुर्वणा करने तक कहना चाहिए। 4. से जहानामए केइ पुरिसे प्रसिचम्मपायं गहाय गच्छेज्जा एवामेव प्रणगारे णं भावियप्पा असिचम्मपायहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पइज्जा ? हंता, उप्पइज्जा / [4 प्र] (हे भगवन् ! ) जैसे कोई पुरुष (किसी कार्यवश) तलवार और चर्मपात्र (ढाल अथवा म्यान) (हाथ में) ले कर जाता है, क्या उसी प्रकार कोई भावितात्मा अनगार भी तलवार और ढाल (अथ वा म्यान) हाथ में लिये हर किसी कार्यवश (संघ आदि के प्रयोजन से) स्वयं प्राकाश में ऊपर उड़ सकता है ? [4 उ.] हाँ, (गौतम ! ) वह ऊपर उड़ सकता है / 5. अणगारे ण मते ! भावियप्पा केवतियाई पभू असिचम्मपायहत्यकिच्चगयाई रूवाई विउवित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुक्तो जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विउब्बिसु वा 3 / [5 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार (संघादि) कार्यवश तलवार एवं ढाल हाथ में लिये हुए पुरुष के जैसे कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? [5 उ.] गौतम ! जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती के हाथ को (दृढ़तापूर्वक) पकड़ लेता है, यावत् (यहाँ सब पूर्ववत् कहना) (वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है ;) किन्तु कभी इतने वैक्रियकृत रूप बनाये नहीं, बनाता नहीं और बनायेगा भी नहीं / 6. से जहानामए केइ पुरिसे एगोपडागं काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा एगोपडागहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्दवेहासं उच्यतेज्जा ? हंता, गोयमा ! उप्पतेज्जा। [6 प्र.] जैसे कोई पुरुष (हाथ में) एक (एक ओर ध्वजा वाली) पताका लेकर गमन करता है, इसी प्रकार क्या भावितात्मा अनगार भी (संघादि) कार्यवश हाथ में एक (एक ओर ध्वजा वाला) पताका लेकर स्वयं ऊपर आकाश में उड़ सकता है ? [6 उ.] हाँ, गौतम ! वह आकाश में उड़ सकता है / 7. [1] अणगारे गं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू एगोपडागहत्यकिच्चगयाइं रूवाई विकुवित्तए? एवं चेव जाव विकुविसु वा 3 // [7-1 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, [संघादि) कार्यवश हाथ में एक (एक तरफ ध्वजा वाली) पताका लेकर चलने वाले पुरुष के जैसे कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? / Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५ ] [ 355 [7-1 उ.] गौतम ! यहाँ सब पहले की तरह कहना चाहिए, (अर्थात्-वह ऐसे वैक्रियकृत रूपों से समग्र जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है) परन्तु कदापि इतने रूपों को विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। [2] एवं दुहओपडागं पि। [7-2] इसी तरह दोनों ओर पताका लिये हुए पुरुष के जैसे रूपों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 8. से जहानामए केइ युरिसे एगोजण्णोवइतं काउं गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भा० एगप्रोजष्णोवइतकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उच्यतेज्जा ? हंता, उच्यतेज्जा। [8 प्र.) भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करके चलता है, उसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी कार्यवश एक तरफ यज्ञोपवीत धारण किये हुए पुरुष की तरह स्वयं ऊपर आकाश में उड़ सकता है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! उड़ सकता है। 6. [1] प्रणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू एगतोजष्णोवतितकिच्चगयाइं स्वाई विकुवित्तए? तं चेव जाव विकुविसु वा 3 / [9.1 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार कार्यवश एक तरफ यज्ञोपवीत धारण किये हुए पुरुष के जैसे कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? 9-1 उ.] गौतम ! पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए। (अर्थात ऐसे बैक्रियकृत रूपों से वह सारे जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है।) परन्तु इतने रूपों को विकुर्वणा कभी की नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। [2] एवं दुहोजण्णोवइयं पि। [1-2] इसी तरह दोनों ओर यज्ञोपवीत धारण किये हुए पुरुष की तरह रूपों की विकुर्वणा करने के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए / 10. [1] से जहानामए केइ पुरिसे एमग्रोपल्हस्थियं का चिठेज्जा एवामेव अणगारे वि भावियच्या? तं चेव जाव विकुविसु वा 3 / [10-1 प्र] भगवन् ! जैसे कोई पुरुष, एक तरफ पल्हथी (पालथी) मार कर बैठे, इसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी (पल्हथी मार कर बैठे हुए पुरुष के समान) रूप बना कर स्वयं आकाश में उड़ सकता है ? Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [10-1 उ.] हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिए; यावत्--इतने विकुक्तिरूप कभी बनाए नहीं, बनाता नहीं और बनायेगा भी नहीं। [2] एवं दुहश्रोपल्हत्थियं पि। [10-2] इसी तरह दोनों तरफ पल्हथी लगाने वाले पुरुष के समान रूपविकुर्वणा के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। 11. [1] से जहानामए केइ, पुरिसे एगोपलियंकं काउं चिट्ठज्जा ? तं चैव जाव विकुन्विसु वा 3 / [11.1 प्र.] भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ पर्यंकासन करके बैठे, उसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी उस पुरुष के समान रूप-विकुर्वणा करके प्राकाश में उड़ सकता है ? [11.1 उ.] (गौतम ! ) पहले कहे अनुसार जानना चाहिए। यावत्-इतने रूप कभी विकुक्ति किये नहीं, करता नहीं, और करेगा भी नहीं / [2] एवं दुहनोपलियंक पि / [11-2] इसी तरह दोनों तरफ पर्यकासन करके बैठे हुए पुरुष के समान रूप-बिकुर्वणा करने के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए / विवेचन-भावितात्मा अनगार के द्वारा स्त्री प्रादि के रूपों की विकुर्वणा-प्रस्तुत 11 सूत्रों (सू. 1 से 11 तक) में विविध पहलुओं से भावितात्मा अनगार द्वारा स्त्री आदि विविधरूपों को विकुर्वणा करने के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। इन ग्यारह सूत्रों में निम्नोक्त तथ्यों का क्रमश: प्रतिपादन किया गया है 1. भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना स्त्री आदि के रूपों की विकुर्वणा नहीं कर सकता। 2. वह बाह्यपुद्गलों को ग्रहण करके ऐसा कर सकता है / 3. वह इतने स्त्रीरूपों की विकुर्बणा कर सकता है, जिनसे सारा जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाए, किन्तु वह ऐसा कभी करता नहीं, किया नहीं, करेगा भी नहीं। 4. इसी प्रकार स्त्री के अतिरिक्त स्यन्दमानिका तक के रूपों की विकुर्वणा के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। 5. भावितात्मा अनगार (वैक्रियशक्ति से) संघादिकार्यवश तलवार एवं ढाल लेकर स्वयं आकाश में ऊँचा उड़ सकता है / 6. वह वैक्रियशक्ति से तलवार एवं ढाल हाथ में लिए पुरुष जैसे इतने रूप बना सकता है कि सारा जम्बूद्वीप उनसे ठसाठस भर जाए, किन्तु वह त्रिकाल में ऐसा करता नहीं। 7. वह एक तरफ पताका लेकर चलने वाले पुरुष की तरह एक तरफ पताका हाथ में लेकर Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५] [357 स्वयं आकाश में उड़ सकता है, दो तरफ पताका लेकर भी इसी तरह उड़ सकता है, तथा एक तरफ या दो तरफ पताका लिये हुए पुरुष के जैसे इतने रूप बना सकता है, कि जिनसे सम्पूर्ण जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाए, किन्तु वह ऐसा तीन काल में भी करता नहीं। 8. एक या दोनों तरफ यज्ञोपवीत धारण किये हए पुरुष को तरह यज्ञोपवीत धारण करके वह वैक्रियशक्ति से ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है। ऐसे एक तरफ या दोनों तरफ यज्ञोपवीतधारी पुरुष के जैसे इतने रूप बना सकता है कि सारा जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाए, किन्तु वह कदापि ऐसा करता नहीं, किया नहीं, करेगा भी नहीं। 6. एक ओर या दोनों ओर पल्हथी मार कर बैठे हुए पुरुष की तरह वह कार्यवश पल्हथी मार कर बैठा-बैठा वैक्रियशक्ति से ऊपर आकाश में उड़ सकता है, वह ऐसे इतने रूप वैक्रियशक्ति से बना सकता है कि पूरा जम्बूद्वीप उनसे ठसाठस भर जाए।' कठिन शब्दों की व्याख्या-'असिचम्मपाय हत्थकच्चगएण' -- जिसके हाथ में असि (तलवार) और चर्मपात्र (ढाल या म्यान) हो, वह असिचर्मपात्रहस्त है, तथा किच्चगय-संघ आदि के किसी कार्य-प्रयोजनक्श गया हुआ-कृत्यगत है / पलिअंक = पर्यकासन / जग्णोवइयंयज्ञोपवीत / भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादि रूपों के अभियोग-सम्बन्धी प्ररूपण-- 12. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगं महं आसरूवं वा हत्थिरूवं वा सीह-वग्ध-बग-दीविय-अच्छ-तरच्छ-परासररूवं वा अभिजित्तए ? णो इ8 सम?, अणगारे गं एवं बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू / [12 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बड़े अश्व के रूप को, हाथी के रूप को, सिंह, बाघ, भेड़िये (क), चीते (द्वीपिक), रीछ (भालू), छोटे व्याघ्र (तरक्ष) अथवा पराशर (शरभ = अष्टापद) के रूप का अभियोग (अश्वादि के रूप में प्रविष्ट होकर उसके द्वारा क्रिया) करने में समर्थ है ? [12 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात--विद्या, मन्त्र आदि के बल से ग्रहण किये हुए बाह्य पुद्गलों के बिना वह पूर्वोक्त रूपों का अभियोग नहीं कर सकता।) वह भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (पूर्वोक्त रूपों का अभियोग करने में) समर्थ है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त). भा. 1, पृ. 163.164 2. भगवती-सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 3. दीविय = चीता (पाइअसहमहण्णवो पृ. 465) अच्छ- रीछ-माल (पाइप्रसमहणवो पृ. 21) तरच्छ = व्याघ्र विशेष (पाइअसहमहण्णवो पृ. 429) परासर = सरभ या अष्टापद (भगवती, टीकानुनाद खं. 2 पृ. 99) Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. [1] अणगारे णं भते ! भावियपा एगं महं प्रासरूवं वा अभिजु जित्ता [? पभू] अगाई जोयणाई गमित्तए? हंता, पभू। [13-1 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है ? [13-1 उ.] हां, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है। [2] से भंते ! कि प्रायड्ढोए गच्छति, परिड्ढीए गच्छति ? गोयमा ! प्रायड्ढीए गच्छइ, नो परिड्ढोए गच्छइ / [13-2 प्र.] भगवन् ! क्या वह (इतने योजन तक) आत्मऋद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है ? [13-2 उ.] गौतम ! वह आत्म-ऋद्धि से जाता है, परऋद्धि से नहीं जाता। [3] एवं प्रायकम्मुणा, नो परकम्मुणा / प्रायप्पयोगेणं, नो परप्पयोगेणं / [13-3] इसी प्रकार वह अपनी क्रिया (स्वकर्म) से जाता है, परकर्म से नहीं; आत्मप्रयोग से जाता है, किन्तु परप्रयोग से नहीं / [4] उस्सिपोदगं वा गच्छइ पतोदगं वा गच्छइ / [13-4] वह उच्छ्रितोदय (सीधे खड़े) रूप भी जा सकता है और पतितोदय (पड़े हुए) रूप में भी जा 14. [1] से णं माते ! कि प्रणगारे आसे ? गोयमा ! अणगारे णं से, नो खलु से प्रासे / [14-1 प्र.] बह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार, क्या (अश्व की विक्रिया के समय) प्रश्व है ? [14-1 उ.] गौतम ! (वास्तव में) वह अनगार है, अश्व नहीं / [2] एवं जाव परासररूवं वा। [14-2] इसी प्रकार पराशर (शरभ या अष्टापद) तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विवेचन-भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादिरूपों के अभियोगीकरण से सम्बन्धित प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 12 से 14 तक) में भावितात्मा अनगार द्वारा विविध रूपों के अभायोजन के सम्बन्ध में निम्नोक्त तथ्य प्रकट किये गए हैं Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५ ] [359 (1) भावितात्मा अनगार विद्या आदि के बल से बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना अश्वादिरूपों का अभियोजन नहीं कर सकता। (2) अश्वादिरूपों का अभियोजन करके वह अनेकों योजन जा सकता है, पर वह जाता है अपनी लब्धि, अपनी क्रिया या अपने प्रयोग से / वह सीधा खड़ा भी जा सकता है, पड़ा हुआ भी जा सकता है। (3) अश्वादि का रूप बनाया हुआ वह अनमार अश्व आदि नहीं होता, वह वास्तव में अनगार ही होता है / क्योंकि अश्वादि के रूप में वह साधु ही प्रविष्ट है, इसलिए वह साधु है। अभियोग और वैक्रिय में अन्तर-वैक्रिय रूप किया जाता है-वक्रिय लब्धि वा वैक्रियसमूदघात द्वारा ; जबकि अभियोग किया जाता है--विद्या,मन्त्र,तन्त्र आदि के बल से / अभियोग में मन्त्रादि के जोर से अश्वादि के रूप में प्रवेश करके उसके द्वारा क्रिया कराई जाती है। दोनों के द्वारा रूप. परिवर्तन या विविधरूप निर्माण में समानता दिखलाई देती है, परन्तु दोनों की प्रक्रिया में अन्तर है।' मायो द्वारा विकुर्वणा और अमायो द्वारा अविकुर्वरगा का फल 15. [1] से माते ! कि मायी विकूवति ? अमायी विकूवति ? गोयमा ! मायो विकुवति, नो अमायो विकुन्वति / [15-1 प्र.] भगवन् ! क्या मायीं अनगार, विकुर्वणा करता है, या अमायी अनगार करता है ? [15-1 उ.] गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायो अनगार विकुर्वणा नहीं करता। [2] माई गं तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कते कालं करेइ अन्नयरेसु प्राभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। [15-2] मायी अनगार उस-उस प्रकार का विकुर्वण करने के पश्चात् उस (प्रमादरूप 'दोष) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करता है, इस प्रकार वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। [3] अमाई णं तस्स ठाणस्स प्रालोइयपडिक्कते कालं करेइ अन्नयरेसु अणामिनोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उबवज्जइ / सेवं भते 2 ति०। [15-3] किन्तु अमायो (अप्रमत्त) अनगार उस प्रकार को विकुर्वणाक्रिया करने के पश्चात पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमादरूप दोष-स्थान का पालोचन-प्रतिक्रमण करके काल करता है, और वह मर कर अनाभियोगिकदेवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है / 1. (क) विद्यापत्तिमुत्तं (मूलपाठटिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 164-165 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 191 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है / विवेचन--मायो अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा का और अमायी द्वारा कृत अविकुर्वणा का फल-प्रस्तुत पन्द्रहवें सूत्र में मायी अनगार द्वारा कुत विकुर्वणारूप दोष का कुफल और अमायी अनगार द्वारा विकुर्वणा न करने का सुफल प्रतिपादित किया है। विकुर्वणा और अभियोग दोनों के प्रयोक्ता मायो--यद्यपि इससे पूर्वसूत्रों में विकुव्वई' के बदले 'अभिजुजई' का प्रयोग किया गया है, और इन दोनों क्रियापदों का अर्थ भिन्न है, किन्तु यहाँ मूलपाठ में विकुर्वणा के सम्बन्ध में प्रश्न करके उत्तर में जो 'फल' बताया गया है, वह अभियोग क्रिया का भी समझना चाहिए, क्योंकि अभियोग भी एक प्रकार की विक्रिया ही है। दोनों के कर्ता मायो (प्रमादी एवं कषायवान्) साधु होते हैं।' माभियोगिक प्रनगार का लक्षण-उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार “जो साधक केवल वैषयिक सुख (साता), स्वादिष्ट भोजन (रस) एवं ऋद्धि को प्राप्त करने हेतु मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र साधना या विद्या आदि की सिद्धि से उपजीविका करता है, जो औषधिसंयोग (योग) करता है, तथा भूति (भस्म) डोरा, धागा, धूल आदि मंत्रित करके प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना करता है।" ऐसी आभियोगिकी भावना वाला साधु आभियोगिक (देवलोक में महद्धिक देवों की आज्ञा एवं अधीनता में रहने वाले दास या मृत्यवर्ग के समान) देवों में उत्पन्न होता है। ये पाभियोगिक देव अच्युत देवलोक तक होते हैं / इसलिए यहाँ 'अण्णयरेसु' (आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक में) शब्द प्रयोग किया गया है। 1. भगवती सूत्र प्र. वृत्ति पत्रांक 191 2. (क) भगवतीसूत्र (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 99 (ग) मंताजोगं काउं, भूइकम्मं च जे पउंजंति / / साय-रस-इढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ // --उत्तराध्ययन. अ. 26, गा. 262, क. पा. पृ. 1103 -प्रज्ञापनासूत्र पद 20, पृ. 400-406 / * (ग) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 191 (क) गच्छाचारपइना और वृहत्कल्प वृत्ति में भी इसी प्रकार की गाथा मिलती है / (ङ) “एप्राणि गारवट्ठा कुणमाणो प्राभियोगिअं बंधइ / बीअं गारबरहिरो कुव्वं पाराहगत्तं च // " / इन मन्त्र, प्रायोग और कौतुक आदि का उपयोग, जो गौरव (साता-रस-ऋद्धि) के लिए करता है, वह आभियोगिक देवायुरूप कर्म बांध लेता है। दूसरा-अपवादपद भी है, कि जो निःस्पृह, अतिशय ज्ञानी गौरवहेतु से रहित सिर्फ प्रवचन-प्रभावना के लिए इन कौतुकादि का प्रयोग करता है, वह पाराधकभाव को प्राप्त होता है, उच्चगोत्र कर्म बांधता है। -अभिधान राजेन्द्रकोष, भा. 1 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५] [361 पंचम उद्देशक को संग्रहणी गाथाएँ१६. गाहा-इत्थी असो पडागा जण्णोवइते य होइ बोद्धध्वे / पल्हस्थिय पलियंके अभियोगविकुव्वणा मायो // 1 // // तइए सए : पंचमो उद्देसो समत्तो।। (16) संग्रहणीगाथा का अर्थ-स्त्री, असि (तलवार), पताका, यज्ञोपवीत (जनेऊ), पल्हथी, पर्यकासन, इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा-सम्बन्धी वर्णन इस (पंचम) उद्देशक में है / तथा ऐसा कार्य (अभियोग तथा विकुर्वणा का प्रयोग) मायी करता है, यह भी बताया गया है। // तृतीय शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'नगरं' अहवा 'अरणगारवीरियलद्धी' छठा उद्देशक : 'नगर' अथवा 'अनगारवीर्यलब्धि' वीर्यलन्धि आदि के प्रभाव से मिथ्यादृष्टि अनगार का नगरान्तर के रूपों को जाननेदेखने की प्ररूपणा 1 अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी मिच्छविट्ठी वीरियलद्धोए वेउब्वियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए वाणारसि नगरि समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूबाई जाणति पासति ? हंता, जाणइ पासइ। [1 प्र०] भगवन् ! राजगृह नगर में रहा हया मिथ्यादृष्टि और मायी (कषायवान्) भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानल ब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता-देखता है ? 11 उ०] हां, गौतम ! वह (पूर्वोक्त अनगार) उन पूर्वोक्त रूपों को जानता और देखता है / 2. [2] से भते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ ? अन्नहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभाव जाणइ पासइ / [2-1 प्र०] भगवन् ! क्या वह (उन रूपों को) तथाभाव (यथार्थरूप) से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव (अयथार्थ रूप) से जानता-देखता है ? 2-1 उ०] गौतम ! वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानतादेखता है। [2] से केपट्टणं मते ! एवं वुच्चइ 'नो तहाभावं जाणइ पासइ, अन्नहाभावं जाणइ पासइ ?' ___ गोयमा ! तस्स णं एवं भवति–एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रुवाइं जाणामि पासामि, से से दंसणे विवच्चासे भवति, से तेण?ण जाव पासति / [2-2 प्र०] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह तथाभाव से नहीं जानता देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? [2-2 उ०] गौतम ! उस (तथाकथित अनगार) के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाराणसी नगरी में रहे हुए मैंने राजगृहनगर की विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मैं तद्गत (वाराणसी के) रूपों को जानता-देखता हूँ / इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथा भाव से जानता-देखता है।' Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-६ ] 3. अणगारे णं भते! भावियप्पा मायी मिच्छट्ठिी जाव रायगिहे नगरे समोहए, समोहण्णित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणइ पासाइ ? हंता, जाणइ पासइ / तं चेव जाव तस्स णं एवं होइ-एवं खलु अहं वाणारसीए नगरीए समोहए, 2 रायगिहे नगरे रूवाई जाणामि पासामि, से से दसणे विवच्चासे भवति, से तेण?णं जाव अन्नहाभावं जाणइ पासइ / [3 प्र०] भगवन् ! वाराणसी में रहा हुमा मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार, यावत् राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता और देखता है ? 3 उ०] हाँ, गौतम ! वह उन रूपों को जानता और देखता है / यावत्-उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि राजगृह नगर में रहा हुआ मैं वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गत (राजगह नगर के) रूपों को जानता और देखता हूँ / इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है / इस कारण से, यावत्-वह अन्यथाभाव से जानता-देखता है। 4. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायो मिच्छट्ठिी बोरियलद्धीए वेउब्वियलद्धीए विभंगणाणलद्धीए वाणारसि नरि रायगिहं च नगरं अंतरा य एग महं जणवयवग्गं समोहए, 2 वाणारसि नगरि रायगिहं च नगरं तं च अंतरा एग महं जणवयवगं जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / [4 प्र.] भगवन् ! मायी, मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार अपनी वीर्यलब्धि से, वैक्रियल ब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी और राजगह नगर के बीच में एक बड़े जनपद-वर्ग (देशसमूह) की विकुर्वणा करे और वैसा करके क्या उस (वाराणसी और राजगृह के बीच विकुक्ति) बड़े जनपद वर्ग को जानता और देखता है ? [4 उ.] हाँ, गौतम ! वह (उस विकुक्ति बड़े जनपद-बर्ग को) जानता और देखता है / 5. [1] से भते ! कि तहामावं जाणइ पासइ ? अन्नहाभाव जाणइ पासइ ? गोयमा / जो तहाभावं जाणति पासइ, अन्नहाभावं जाणइ पासइ / [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? [5-1 उ.] गौतम ! वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से नहीं जानता-देखता; किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है। 2] से केण?णं जाव पासइ ? गोयमा ! तस्स खलु एवं भवति–एस खलु वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवागे, नो खलु एस महं वोरिपलद्धी वेउम्वियलद्धी विभंगनाणलद्धी इड्ढी जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए, से से दसणे विवच्चासे भवति, से तेण?णं जाव पासति / Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15-2 प्र.] भगवन् ! वह उस जनपदवर्ग को अन्यथाभाव से यावत् जानता-देखता है, इसका क्या कारण है ? [5-2 उ.] गौतम ! उस अनगार के मन में ऐसा विचार होता है कि यह वाराणसी नगरी है. यह राजगह नगर है। तथा इन दोनों के बीच में यह एक बडा जनपदवर्ग मेरी वीर्यलब्धि. वैक्रियलब्धि या विभंगज्ञानलब्धि नहीं है और न ही मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत (सम्मुख लायी हुई) यह ऋद्धि, धुति, यश, बल और पुरुषकार पराक्रम है। इस प्रकार का उक्त अनगार का दर्शन विपरीत होता है / इस कारण से, यावत् वह अन्यथाभाव से जानतादेखता है। विवेचन-मायी मिथ्यादष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 1 से 5 तक) में मायी, मिथ्यादृष्टि, भावितात्मा अनगार द्वारा वीर्य आदि तीन लब्धियों से एक स्थान में रह कर दूसरे स्थान को विकुर्वणा करने और तद्गतरूपों को जानने-देखने के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। निष्कर्ष-राजगृह नगर में स्थित मायी मिथ्यादृष्टि अनगार, वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और विभगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा, अथवा वाराणसीस्थित तथाकथित अनगार राजगृह नगर की विकुर्वणा या वाराणसी और राजगृह के बीच में विशाल जनपदवर्ग की विकुर्वणा करके, तद्गतरूपों को जान-देख सकता है, किन्तु वह जानता-देखता है अन्यथाभाव से, यथार्थभाव से नहीं; क्योंकि उसके मन में ऐसा विपरीत दर्शन होता है कि (1) वाराणसी में रहे हुए मैंने राजगृह की विकुर्वणा की है और मैं तद्गतरूपों को जान देख रहा हूँ, (2) अथवा राजगृह में रहा हुना मैं वाराणसी की विकुर्वणा करके तद्गतरूपों को जान-देख रहा हूँ, (3) अथवा यह वाराणसी है, यह राजगृह है, इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है, यह मेरी वीर्यादिलब्धि नहीं, न ऋद्धि आदि हैं। ___ मायी, मिथ्यावृष्टि, भावितात्मा अनगार की व्याख्या-अनगारगृहवासत्यागी, भावितात्मा = स्वसिद्धान्त (शास्त्र) में उक्त शम, दम आदि नियमों का धारक / मायी का अर्थ यहाँ उपलक्षण से क्रोधादि कषायोंवाला है। इस विशेषण वाला सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, इसलिए यहाँ-मिथ्यादृष्टि' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ है-अन्यतीर्थिक मिथ्यात्वी साधु / यही कारण है कि मिथ्यात्वी होने से उसका दर्शन विपरीत होता है, और वह अपने द्वारा विकुर्वित रूपों को विपरीत रूप में देखता है / उसका दर्शन विपरीत यों भी है कि वह वैक्रियकृत रूपों को स्वाभाविक रूप मान लेता है, तथा जैसे दिड मूढ़ मनुष्य पूर्व दिशा को भी पश्चिम दिशा मान लेता है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि अनगार भी दूसरे रूपों की अन्यथा कल्पना कर लेता है। इसलिए उसका अनुभव, दर्शन और क्षेत्र सम्बन्धी विचार विपरीत होता है। ___ लब्धित्रय का स्वरूप यहाँ जो तीन लब्धियाँ वताई गई हैं, वे इस प्रकार हैं---वीर्यलब्धि, वैत्रियलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि / वीर्यादि तीनों लब्धियाँ विकुर्वणा करने की मुख्य साधन हैं। इनसे 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1 पृ. 165 से 167 तक 2. (क) भगवतीसूत्र (टोकानुवादसहित) खण्ड-2, पृ. 104 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 193 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-६ [ 365 तथाकथित मिथ्यादृष्टि अनगार विकुर्वणा करता है / वीर्यलब्धि से शक्तिस्फुरण करता है, वैक्रिय. लब्धि से वैक्रिय समुद्घात करके विविध रूपों की विकुर्वणा करता है और विभंगज्ञानल ब्धि से राजगुहादिक पशु, पुरुष, प्रासाद आदि विविध रूपों को जानता-देखता है। मिथ्यादृष्टि होने के कारण इसका दर्शन और ज्ञान मिथ्या होता है। कठिन शब्दों की व्याख्या समोहए =विकूर्वणा की / विवच्चासे = विपरीत / जणवयवगं = जनपद = देश का समूह / तहाभावं-जिस प्रकार वस्तु है, उसकी उसी रूप में ज्ञान में अभिसन्धि-- प्रतीति होना तथाभाव है; अथवा जैसा संवेदन प्रतीत होता है, वैसे ही भाव (बाह्य अनुभव) वाला ज्ञान तथाभाव है / ' अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा दिकुर्वणा और उसका दर्शन-- 6. प्रणगारे णं भते ! भावियध्या श्रमायी सम्मट्ठिी वीरियलद्धीए घेउब्वियलडीए प्रोहिनाणलद्धोए रायगिहे नगरे समोहए, 2 वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणइ पासइ ? हंता, जाणति पासति। [6 प्र.] भगवन् ! वाराणसी नगरी में रहा हुअा अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि से, वैक्रियल ब्धि से और अवधिज्ञानल ब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा करके (तद्गत) रूपों को जानता-देखता है ? [6] हाँ (गौतम ! वह उन रूपों को) जानता-देखता है। 7. [1] से भते ! कि तहाभावं जाणइ पासइ ? अन्नहाभाव जाणति पासति ? गोयमा ! तहाभावं जाणति पासति. नो अन्नहाभावं जाणति पासति / [7-1 प्र] भगवन् ! वह उन रूपों को तथाभाव से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता-देखता है। [7-13.] गौतम ! वह उन रूपों को तथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता। [2] से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवति--एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणामि पासामि, से से दसणे अविवच्चासे भवति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति / [7-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथाभाव से उन रूपों को जानता-देखता है, अन्यथाभाव से नहीं। [7-2 उ } गौतम ! उस अनगार के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाराणसी 1. भगवतीसूत्र अभय. वृत्ति, पत्रांक 193 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याज्ञप्तिसूत्र नगरी में रहा हुआ मैं राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता-देखता हूँ।' इस प्रकार उसका दर्शन अविपरीत (सम्यक) होता है / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि वह तथाभाव से जानता-देखता है।) 8. बीनो वि आलावगो एवं चेव, नवरं वाणारसीए नगरीए समोहणावेयवो, रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ पासइ। [8] दूसरा आलापक भी इसी तरह कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि विकुर्वणा वाराणसी नगरी की समझनी चाहिए, और राजगृह नगर में रहकर रूपों को जानता-देखता है, (ऐसा जानना चाहिए।) 6. अणगारे णं भते ! भावियप्पा अमायी सम्मट्टिी वीरियलद्धीए वेउवियलद्धीए प्रोहिणाणलद्धीए रायगिहं नगरं वाणासि च नर्गार अंतरा य एगं महं जणवयवग्गं समोहए, 2 रायगिह नगरं वाणारसि च नर तं च अंतरा एग मह जणवयवांगं जाणइ पास? हंता, जाणइ पासइ / |9 प्र.] भगवन् ! अमायो सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानल ब्धि से, राजगृहनगर और वाराणसी नगरी के बीच में एक बड़े जनपदवर्ग को जानता-देखता है ? [9 उ.] हाँ (गौतम! वह उस जनपदवर्ग को) जानता-देखता है / 10. [1] से भंते ! कि तहामावं जाणइ पासइ ? अन्नहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तहाभावं जाणइ पासइ, गो अन्नहाभावं जाणइ पासइ / [10-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? [10-1 उ.] गौतम ! वह उस जनपदवर्ग को तथाभाव से जानता और देखता है, परन्तु अन्यथा भाव से जानता-देखता। [2] से केपट्ठणं० ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवति-नो खलु एस रायगिहे णगरे, णो खलु एस वाणारसी नगरी, नो खलु एस अंतरा एगे जणवयवग्गे, एस खलु ममं वीरियलद्धी वेउब्वियलद्धी प्रोहिणाणलद्धी इड्ढी जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागए, से से दसणे अविवच्चासे भवति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति-तहाभाव जागति पासति, नो अन्नहाभा जाणति पासति / [10.2 प्र.] भगवन् ! इसका क्या कारण है ? [10-2 उ.] गौतम ! उस अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार के मन में ऐसा विचार Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-६] [ 367 होता है कि न तो यह राजगृह नगर है, और न यह वाराणसी नगरी है, तथा न ही इन दोनों के बीच में यह एक बड़ा जनपदवर्ग है, किन्तु यह मेरी ही वीर्यलब्धि है, वैक्रियलब्धि है और अवधिज्ञानलब्धि है; तथा यह मेरे द्वारा उपलब्ध, प्राप्त एवं अभिमुखसमागत ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम है। उसका वह दर्शन अविपरीत होता है। इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार तथाभाव से जानता-देखता है, किन्तु अन्यथाभाव से नहीं जानता-देखता। विवेचन–अमायी सम्यग्दष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और उसका दर्शन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 6 से 10 तक) में मायी मिथ्यादृष्टि अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा सम्बन्धी सूत्रों की तरह अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा और उसके द्वारा कृत रूपों को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपण किया गया है / निष्कर्ष--वाराणसी नगरी में स्थित अमायी सम्यग्दृष्टि भावितात्मा अनगार, अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियल ब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृहनगर की विकुर्वणा, अथवा राजगृहस्थित तथारूप अनगार वाराणसी नगरी की विकुर्वणा, या राजगृह और वाराणसी के बीच में एक महान् जनपदसमूह की विकुर्वणा करके तद् गत रूपों को तथाभाव (यथार्थभाव) से जान-देख सकता है, क्योंकि उसके मन में ऐसा अविपरीत (सम्यग्) ज्ञान होता है कि-(१)वाराणसी में रहा हुआ मैं राजगह की विकुर्वणा करके तद् गतरूपों को जान-देख रहा हूँ; (2) राजगृह में रहा हुअा मैं वाराणसी नगरी की बिकुर्वणा करके तद्गतरूपों को देख रहा हूँ, (3) तथा न तो यह राजगृह है, और न यह वाराणसी है, और न ही इन दोनों के बीच में यह एक बडा जनपदवर्ग है: अपित मेरी ही वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि है / और हैं-मेरे ही द्वारा अजित, प्राप्त, सम्मुखसमानीत ऋद्धि' आदि / भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वग-सामर्थ्य 11. अणगारे णं मते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महंगामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा विकुवित्तए ? जो इण? समढ़े। [11 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना, एक बड़े ग्रामरूप की, नगररूप की, यावत्-सन्निवेश के रूप की बिकुर्वणा कर सकता है ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। 12. एवं बितिओ वि पालावगो, णवरं बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू / [12] इसी प्रकार दूसरा पालापक भी कहना चाहिए, किन्तु इसमें विशेष यह है कि बाहर के (वैक्रियक) पुद्गलों को ग्रहण करके वह अनगार, उस प्रकार के रूपों को विकुर्वणा कर सकता है / 1. (क) 'वियाह पण्णत्तिसत्त (मूल-पाठ-टिप्पण युक्त) भा. 1 पृ. 167-1.68 (ख) भगवनीमूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणसहित) खण्ड-२ पृ. 103 से 106 तक 2. 'जाव' शब्द यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है “निगमरूदं वा, रायहाणिरूबं वा, खेडरूवं वा, कब्बडरूवं वा, मउंबरूवं वा, दोणमुहरूवं वा पट्टणरूवं वा, आगररूवं वा, आरामरूवं बा, संवाहरूवं वा" -भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक१९३ / Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. अणगारे णं भते ! भावियप्पा केवतियाइं पभू गामरूबाई विकुवित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवीत जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चेव जाव विकुर्दिवसु वा 3 / एवं जाव सन्निवेसरूवं वा। [13 प्र.] 'भगवन् ! भावितात्मा अनगार, कितने प्रामरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ?' [13 उ.] गौतम ! जैसे युवक युवती का हाथ अपने हाथ से दृढ़तापूर्वक पकड़ कर चलता है, इस पूर्वोक्त दृष्टान्तपूर्वक समग्र वर्णन को कहना चाहिए ; (अर्थात वह इस प्रकार के रूपों से सारे जम्बूद्वीप को ठसाठस भर सकता है) यावत्-यह उसका केवल विकुर्वण-सामर्थ्य है, मात्र विषयसामर्थ्य है, किन्तु इतने रूपों की विकुर्वणा कभी की नहीं, (करता नहीं और करेगा भी नहीं / ) इसी तरह से यावत् सन्निवेशरूपों (की विकुर्वणा) पर्यन्त कहना चाहिए / विवेचन—भावितात्मा अनगार द्वारा ग्रामादि के रूपों का विकुर्वणसामर्थ्य--प्रस्तुत तीनों सूत्रों में भावितात्मा अनगार द्वारा ग्राम, नगर आदि से लेकर सन्निवेश तक के रूपों की विकुर्वणा करने के सामर्थ्य के सम्बन्ध में प्ररूपण है। चमरेन्द्र आदि इन्द्रों के प्रात्मरक्षक देवों की संख्या का निरूपण 14. चमरस्स भते ! प्रसुरिदस्स असुररणों कति आयरक्खदेवसाहस्सीनो पण्णत्तामो? गोयमा ! चत्तारि चउसट्ठीग्रो प्रायरक्खदेवसाहसीनो पण्णताओ। ते पं पायरक्खा० वष्णनो' जहा रायप्पसेणइज्जे / [14 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के कितने हजार प्रात्मरक्षक देव हैं ? [14 उ.] गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के चौसठ हजार के चार गुने अर्थात्-दो लाख छप्पन हजार प्रात्मरक्षक देव हैं। यहाँ आत्मरक्षक देवों का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। 15. एवं सबसे सि इंदाणं जस्स जत्तिया अध्यरक्खा ते भाणियन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति०। // तइयसए छट्ठो उद्देसो समत्तो। 1. चमरेन्द्र आदि इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों का वर्णन इस प्रकार है-"सन्नद्धबद्धवम्मियकबया उत्पीलियस रासणपट्रिया विणद्धगेवेज्जा बद्धआविद्धविमलवचिधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसधियाइं वयरामयकोडीणि धणइं अभिगिज्झ पयओ परिमाइयकंडकलावा नीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो एवं चारुचाव-चम्म-दंडखाग-पासपाणिणो नील पीय-रत्त-चारुचाव-चम्म-दंड-खरग-पासबरधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्त यं पत्त यं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिट्रति / --भगवती सूत्र अ. वृत्ति-पत्रांक 193 में समूद्धन / Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-६] [369 [15] सभी इन्द्रों में से जिस इन्द्र के जितने आत्मरक्षक देव हैं, उन सबका वर्णन यहाँ करना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--चमरेन्द्र प्रादि इन्द्रों के प्रात्मरक्षक देवों की संख्या का निरूपण--प्रस्तुत सूत्र में चमरेन्द्र एवं अन्य सभी इन्द्रों के आत्मरक्षक देवों का निरूपण किया गया है। प्रात्मरक्षक और उनकी संख्या-स्वामी की रक्षा के लिए सेवक की तरह, इन्द्र की रक्षा में, उसके पीछे, जो शस्त्रादि से सुसज्ज होकर तत्पर रहते हैं, वे 'आत्मरक्षक देव' कहलाते हैं / प्रत्येक इन्द्र के सामानिक देवों से आत्मरक्षक देवों की संख्या चौगुनी होती है। सामानिक देवों की संख्या इस प्रकार है-चमरेन्द्र के 64 हजार, बलीन्द्र के 60 हजार तथा शेष नागकुमार आदि भवनपतिदेवों के प्रत्येक इन्द्र के 6.6 हजार सामानिकदेव, शकेन्द्र के 84 हजार, ईशानेन्द्र के 80 हजार सनत्कुमारेन्द्र के 72 हजार, माहेन्द्र के 70 हजार, ब्रह्मेन्द्र के 60 हजार, लान्तकेन्द्र के 50 हजार, शक्रेन्द्र के 40 हजार, सहस्रारेन्द्र के 30 हजार, प्राणतेन्द्र के 20 हजार और अच्युतेन्द्र के 10 हजार सामानिक देव होते हैं।' / / तृतीय शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. “चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्साओ असुरवज्जाणं / सामाणिया उ एए चउम्गुणा पायरक्खायो / / 1 / / चउरासीई असीई बावत्तरि सत्तरि य सटठी य / पण्णा तालीसा तीसा वीसा दस महस्सेत्ति // 2 // -भगवती ग्र. दत्ति, पत्रांक 194 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'लोगपाला' सप्तम उद्देशक : लोकपाल शक्रेन्द्र के लोकपाल और उनके विमानों के नाम 1. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी--- [1] राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा (पूछा--) 2. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरण्णो कति लोगपाला पण्णता? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णता, तं जहा–सोमे जमे वरुणे वेसमणे / [2 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! चार लोकपाल कहे गए हैं; वे इस प्रकार हैं-सोम, यम वरुण और वैश्रमण / 3. एतेसि गं भंते ! चउण्हं लोगपालाणं कति विमाणा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा–संझप्पभे वरसि? सतंजले वग्गू / [3 प्र.] भगवन् ! इन चारों लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ? [3 उ.] 'गौतम ! इन चार लोकपालों के चार विमान कहे गए हैं, जैसे कि सन्ध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंज्वल और वल्गु / ' विवेचन-शकेन्द्र के लोकपाल एवं उनके विमानों के नाम-प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में राजगृह नगर में गौतम स्वामी द्वारा पूछा गया प्रश्न है। उसके उत्तर में शक्रेन्द्र के चार लोकपालों तथा उनके चार विमानों का नामोल्लेख किया गया है। सोम-लोकपाल के विमानस्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन 4. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्यो सोमस्स महारष्णो संझप्पभे णाम महाविमाणे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीबे 2 मंदरस्स पब्वयस्त दाहिणेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जामो भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणाई जाव पंच डिसया पण्णत्ता, तं जहा--असीयव.सए सत्तवण्णवडिसए चंपयवडिसए चूयडिसए मज्झे सोहम्मवडिसए / तस्स णं सोहम्मत्र.स यस्स महाविमाणस्स पुरस्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोयणाई वीतीवइत्ता एस्थ गं सक्कस्स देविदस्स देवरग्णो सोमस्स महारण्णो संझपभे नामं महाविमाणे पण्णत्ते Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७ [ 371 अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई प्रायाम-विक्खंभेणं, ऊयालीयं जोयणसयसहस्साई बावण्णं च सहस्साई अटु य अडयाले जोयणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं प० / जा सूरियाभविमाणस्स क्त्तव्वया सा अपरिसेसा भाणियब्वा जाव अभिसेयो नवरं सोमे देवे। [4-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान कहाँ है ? [4-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु सम भूमि भाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप (तारे) आते हैं / उनसे बहुत योजन ऊपर यावत् पांच अवतंसक कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं--अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चम्पकावतंसक, चूतावतंसक और मध्य में सौधर्मावतंसक है। उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पूर्व में, सौधर्मकल्प से असंख्य योजन दूर जाने के बाद, वहाँ पर देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल--सोम नामक महाराज का सन्ध्याप्रभ नामक महाविमान आता है, जिसकी लम्बाई-चौडाई साढे बारह लाख योजन है। उसका परिक्षेष (परिधि) उनचालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस (3952848) योजन से कुछ अधिक है। इस विषय में सूर्याभदेव के विमान की जो वक्तव्यता है, वह सारी वक्तव्यता (राजप्रश्नीयसूत्र में वणित) 'अभिषेक' तक कह लेनी चाहिए / इतना विशेष है कि यहाँ सूर्याभदेव के स्थान में 'सोमदेव' कहना चाहिए। [2] संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स आहे सपक्खिं सपडिदिसि असंखेज्जाइं जोयणसयसहसाइं प्रोगाहित्ता एस्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारष्णो सोमा नाम रायहाणी पण्णत्ता, एग जोयणसयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं जंबुद्दीवपमाणा। [4-2] सन्ध्याप्रभ महाविमान के सपक्ष-सप्रतिदेश, अर्थात्-ठीक नीचे, असंख्य लाख योजन आगे (दूर) जाने पर देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल सोम महाराज की सोमा नाम की राजधानी है, जो एक लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, और जम्बूद्वीप जितनी है / [3] बेमाणियाणं घमाणस्स अद्ध नेयव्य जाव उवरियलेणं सोलस जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पासायाणं चत्तारि परिवाडीमो नेयवानो सेसा नस्थि / [4-3] इस राजधानी में जो किले प्रादि हैं, उनका परिमाण वैमानिक देवों के किले आदि के परिमाण से आधा कहना चाहिए। इस तरह यावत् धर के ऊपर के पीठबन्ध तक कहना चाहिए। घर के पीठबन्ध का आयाम (लम्बाई) और विष्कम्भ (चौडाई) सोलह दजार योजन | उसका परिक्षेप (परिधि) पचास हजार पांच सौ सत्तानवे योजन से कुछ अधिक कहा गया है। प्रासादों की चार परिपाटियाँ कहनी चाहिए, शेष नहीं। [4] सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा-उववाय-वधण-निद्दे से चिट्ठति, तं जहा-सोमकाइया ति वा, सोमदेवयकाइया ति वा, विज्जुकुमारा विज्जकुमारीप्रो, अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीग्रो, बाउकुमारा बाउकुमारीनो, चंदा सूरा गहा नक्खत्ता तारारूवा, जे Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 [व्याख्याप्रप्तिसूत्र यावन्ने तहप्पगारा सत्वे ते तब्भत्तिया तपक्खिया तम्भारिया सक्कस्स देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारगणो प्राणा-उववाय-वयण-निद्दे से चिट्ठति / [4-4] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-सोम महाराज की आज्ञा में, सेवा (उपपात = समीप) में, वचन-पालन में, और निर्देश में ये देव रहते हैं, यथा-सोमकायिक, अथवा सोमदेवकायिक, विद्युत्कुमार-विद्युत्कुमारियाँ, अग्निकुमार-अग्निकुमारियाँ, वायुकुमार-वायुकुमारियाँ, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप; ये तथा इसी प्रकार के दूसरे सब उसकी भक्ति वाले, उसके पक्ष वाले, उससे भरण-पोषण पाने वाले (भृत्य या उसकी अधीनता में रहने वाले) देव उसकी प्राज्ञा, सेवा, वचनपालन और निर्देश में रहते हैं / [5] जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पन्चयस्स दाहिणणं जाई इमाइं समुष्पज्जंति, तं जहा--गहदंडा ति वा, गहमुसला ति वा, गहगज्जिया ति वा, एवं गहजुद्धा तिवा, गहसिंघाडगा ति वा, गहावसच्या इ वा, अम्मा ति वा, अन्भरुक्खा ति वा, संझा इ वा, गंधवनगरा ति वा, उक्कापाया ति वा, दिसीदाहा ति वा, गज्जिया ति वा, विज्जुया ति वा, पंसुवुट्ठी ति वा, जूवेति वा, जक्खालित्तेत्ति वा, धूमिया इ वा, महिया इ वा, रयुग्घाया इ था, चंदोवरागा ति बा, सूरोवरागा ति वा, चंदपरिवेसा ति वा, सूर परिवेसा ति वा, पडिचंदाइ वा, पडिसूरा ति बा, इंदधणू ति वा, उदगमच्छ-कपिहसिय-अमोहपाईणवाया ति वा, पडीणवाता ति वा, जाव संवट्टयवाता ति वा, गामदाहा इ वा, जाव सन्निवेसदाहा ति वा पाणक्खया जणक्खया धणक्खया कुलक्खया बसणभूया अशारिया जे यावन्ने तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारग्णो अण्णाया अदिट्ठा असुया प्रमुया अविण्णाया, तेसि वा सोमकाइयाणं देवाणं। [4-5] इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में जो ये कार्य होते हैं यथा--ग्रहदण्ड, अहमूसल, ग्रहजित, ग्रहयुद्ध, ग्रह-शृंगाटक, ग्रहापसव्य, अभ्र, अभ्रवृक्ष, सन्ध्या, गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिग्दाह, गजित, विद्युत् (बिजली चमकना), धूल की वृष्टि, यूप, यक्षादीप्त, धूमिका, महिका, रजउद्घात, चन्द्रग्रहण (चन्द्रोपराग), सूर्योपराग (सूर्यग्रहण), चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, (सूर्य मण्डल), प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, अथवा उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोघ, पूर्वदिशा का वात और पश्चिमदिशा का वात, यावत् संवर्तक वात, ग्रामदाह यावत् सन्निवेशदाह, प्राणक्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय यावत् व्यसनभुत अनार्य (पापरूप) तथा उस प्रकार के दूसरे सभी कार्य देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल–सोम महाराज से (अनुमान की अपेक्षा) अज्ञात (न जाने हुए), अदष्ट (न देखे हुए), अश्रुत (न सुने हुए), अस्मृत (स्मरण न किये हुए) तथा अविज्ञात (विशेषरूप से न जाने हुए) नहीं होते / अथवा ये सब कार्य सोमकायिक देवों से भी अज्ञात नहीं होते / अर्थात् उनकी जानकारी में ही होते हैं। [6] सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो इमे प्रहावच्चा अभिण्णाया होत्या, तं जहा-इंगालए वियालए लोहियक्खे सणिच्छरे चंदे सूरे सुक्के बुहे बहस्सती राहू / (4-6) देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल–सोम महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभिज्ञात Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७] (जाने-माने) होते हैं जैसे--अंगारक (मंगल), विकालिक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बुध, बृहस्पति और, राहु / [7] सक्कस्स पं देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारपणो सत्तिभागं पलिग्रोवमं ठिती पण्णता / अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिग्रोवमं ठिई पण्णता। एमहिड्ढीए णाव एमहागुभागे सोमे महाराया / [4-7} देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-सोम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की होती है, और उसके द्वारा अपत्यरूप से अभिमत देवों को स्थिति एक पल्योपम की होती है। इस प्रकार सोम महाराज, महाऋद्धि और यावत् महाप्रभाव वाला है / विवेचन-सोम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-प्रस्तुत चतुर्थ सूत्र में शक्रेन्द्र के लोकपाल सोम महाराज के विमान का स्थान, उसके अायाम, विष्कम्भ, परिक्षेप तथा उसकी राजधानी, दुर्ग, पीठबन्ध, प्रासाद आदि का वर्णन किया गया है। साथ ही उसके आज्ञानुवर्ती देववर्ग, जम्बूद्वीपवर्ती मेरुगिरि के दक्षिण में होने वाले कार्यों से सुपरिचित, एवं उसके अपत्य रूप से अभिमत अंगारक प्रादि देवों, तथा सोम महाराज की स्थिति, ऋद्धि आदि का निरूपण भी अंकित है। कठिन शब्दों के अर्थ-वसिया अवतंसक-श्रेष्ठ / वेमाणियाणं पमाणस्स० = वैमानिकों के सौधर्म विमान में रहे हुए किले, महल और द्वार आदि के प्रमाण (माप) से सोम लोकपाल की नगरी के किलों आदि का प्रमाण प्राधा जानना / सोमकाइया=सोम लोकपाल के निकाय के रूप देव / तारारूवातारक रूपदेव / तभत्तिय-सोम की भक्ति--बहुमान करने वाले / तपक्खिय कार्य प्रा पड़ने पर सोम के पक्ष में सहायक / तन्भारिय-सोम से भरण-पोषण पाने वाले अथवा सोमदेव का कार्यभार वहन करने वाले तारिक देव / महदंडा=दण्ड की तरह सीधी पंक्तिबद्ध ग्रहमाला / गह मूसला= मूसल की तरह प्राकृति में बद्ध ग्रह / गहणज्जिया-ग्रह के गति (गमन) करते समय होने वाली गर्जना / गहयुद्धा=ग्रहों का आमने-सामने (उत्तर-दक्षिण में) पंक्तिबद्ध रहना। गहसिंघाडगा=सिंघाड़े के आकार में ग्रहों का रहना / गहावसव्वा = ग्रहों की बाई = प्रतिकूल वक्र चाल / अब्भ = बादल / अन्भरुक्खा = आकाश में बादलों की वृक्ष रूप बनी अाकृतियाँ ! धूमिका= धुम्मस / महिका = प्रोस / चंदोवरागा = चन्द्रग्रहण / सूरोवरागा = सूर्यग्रहण / उदगमच्छा = उदकमत्स्य–इन्द्रधनुष के खण्ड-भाग / कपिहसिय == बिना बादलों के सहसा बिजली चमकना अथवा वानर जैसो विकृत मुखाकृति का हास्य / अमोह = सूर्य के उदयास्त के समय आकाश में खिंच जाने वाली लाल-काली लकीरें अथवा ऊँचे किये हुए गाड़े के आकार जैसी आकाशस्थ सूर्य किरण के विकार से हुई बड़ी-बड़ी लकीरें। पाइणवाया = पूर्वदिशा की हवाएँ, पडीण. वायाइ पश्चिमादि अन्य दिशाओं की हवाएँ / पाणक्खया= बल का क्षय ! जणक्खया - लोक-मरण / वसणबभूया = आपदारूप ; (व्यसनभूत) आफतें / अणारिया=पापमय / अहावच्चा अभिण्णाया= पुत्र के जैसे देव, जो अभिमत वस्तु करने वाले होने से अभिज्ञात होते हैं / अथवा पुत्र की तरह माने हुए Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 {লায়মান सोमदेव = सोम लोकपाल के सामानिक देव / सोमदेवकायिक = सोमदेवों के पारिवार रूप देव / ' सूर्य और चन्द्र की स्थिति-यद्यपि अपत्यरूप से अभिमत सूर्य की स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम और चन्द्र की स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम है, तथापि यहाँ ऊपर की बढ़ी हुई स्थिति की विवक्षा न करके एक पल्योपम कही गई है / 2 . यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-- 5. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्त देवरण्णो जमस्स महारण्णो वरसि? णाम महाविमाणे पण्णत्ते। गोयमा ! सोहम्मडियस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बोईवइत्ता एत्थ णं सक्कस्त विदस्स देवरण्णो जमस्त महारण्णो वरसिद्ध णाम महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव अभिसेश्रो / रायहाणी तहेव जाव पासायपंतोप्रो। [5-1 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-----यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान कहाँ है ? 5-1 उ.] 'गौतम ! सौधर्मावतंसक नाम के महाविमान से दक्षिण में, सौधर्मकल्प से असंख्य हजार योजन आगे चलने पर, देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल यम महाराज का वरशिष्ट नामक महाविमान बताया गया है, जो साढ़े बारह लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, इत्यादि सारा वर्णन सोम महाराज के (सन्ध्याप्रभ) विमान की तरह, यावत् (रायपसेणिय में वर्णित) 'अभिषेक' तक कहना चाहिए / इसी प्रकार राजधानी और यावत् प्रासादों की पंक्तियों के विषय में कहना चाहिए। [2] सक्कस्स गं देविदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा० जाव चिट्ठति, तं जहा-जमकाइया ति का, जमदेवयकाइया इवा, पेयकाइया इ वा, पेयदेवयकाइया ति वा, असुरकुमारा असुरकुमारीयो, कंदप्पा निरयवाला प्रामिनोगा जे यावन्ने तहप्पगारा सम्वे ते तभत्तिगा, तपक्खिता तबमारिया सक्कस्स देविदस्स देबरणो जमस्स महारणो प्राणा जाव चिट्ठति / [5-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल यम महाराज की आज्ञा, सेवा (उपपात), वचनपालन और निर्देश में रहते हैं, यथा-यमकायिक, यमदेवकायिक, प्रेतकायिक प्रेतदेवकायिक, असुर कुमार-असुर कुमारियाँ, कन्दर्प, निरयपाल (नरकपाल), प्राभियोग ; ये और इसी प्रकार के वे सब देव, जो उस (यम) की भक्ति में तत्पर हैं, उसके पक्ष के तथा उससे भरण-पोषण पाने वाले तदधीन भृत्य (भार्य) या उसके कार्यभारवाहक (भारिक) हैं। ये सब यम महाराज की आज्ञा में यावत् रहते 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 196-197 2. (क) भगवतीसूत्र (विवेचनयुक्त) भा. 2 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 714 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 197 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७] [ 375 [3] जंबुद्दोवे 2 मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुपज्जति, तं जहा-डिबा ति वा, डमरा ति वा, कलहा ति वा, बोला ति वा, खारा ति वा, महाजुद्धा ति वा, महासंगामा ति वा, महासत्थनिवडणाति वा, एवं महापुरिसनिवडणा तिवा, महारुधिरनिवडणा इवा, दुभूया ति वा, कुलरोगा ति वा, गामरोगा ति वा, मंडलरोगा ति वा, नगररोगा ति बा, सोसवेयणा इवा, अच्छिवेयणा इ वा, कण्ण-नह-दंतवेयणा इ वा, इंदग्गहा इ वा, खंदगाहा इ वा, कुमारग्गहा०, जक्खग०, भयग्ग०, एगाहिया ति बा, बेहिया ति वा, तेहिया ति वा, चाउत्थया ति वा, उब्वेयगा ति वा, कासा०, खासा इ वा, सासा ति वा, सोसा ति वा, जरा इ वा, दाहा० कच्छकोहा ति वा, अजीरया, पंडुरोया, परिसा इ वा, भगंदला इ वा, हितयसूला ति वा मत्थयसू०, जोणिसू०, पाससू०, कुच्छिसू०, गाममारीति वा, नगर०, खेड०, कब्बड०, दोणमुह०, मडंब०, पट्टण 0, प्रासम०, संवाहक सन्निवेसमारोति वा, पाणक्खया, धणावया, जणक्खया, कुलक्खया, बसणब्भया प्रणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा न ते सक्कस्स देविदस्त देवरण्णो जमस्स महारपणो अण्णाया० 5, तेसि वा जमकाइयाणं देवाणं / [5-3] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य समुत्पन्न होते हैं / यथाडिम्ब (विघ्न), डमर (राज्य में राजकुमारादि द्वारा कृत उपद्रव), कलह (जोर से चिल्ला-चिल्लाकर झगड़ा करना), बोल (अव्यक्त अक्षरों की ध्वनियाँ), खार (परस्पर मत्सर), महायुद्ध, (अव्यवस्थित महारण), महासंग्राम (चक्रव्यूहादि से युक्त व्यवस्थित युद्ध), महाशस्त्रनिपात अथवा इसी प्रकार महापुरुषों की मृत्यु, महारक्तपात, दुर्भूत (मनुष्यों और अनाज आदि को हानि पहुँचाने वाले दुष्ट जीव), कूलरोग (वंश-परम्परागत पैतक रोग), ग्राम-रोग, मण्डलरोग (एक मण्डल में फैलने वाली बीमारी) नगररोग, शिरोवेदना (सिरदर्द), नेत्रपीडा, कान, नख और दांत की पीड़ा, इन्द्रग्रह स्कन्दग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, एकान्त र ज्वर (एकाहिक), द्वि-अन्तर (दूसरे दिन आने वाला बुखार) तिजारा (तीसरे दिन आने वाला ज्वर), चौथिया (चौथे दिन पाने वाला ज्वर), उद्वेजक (इष्ट वियोगादि जन्य उद्वेग दिलाने वाले काण्ड, अथवा लोकोद्वेगकारी चोरी आदि काण्ड), कास (खांसी), श्वास, दमा, बलनाशक ज्वर, (शोष), जरा (बुढ़ापा), दाहज्वर, कच्छ-कोह (शरीर के कक्षादि भागों में सड़ांध), अजीर्ण, पाण्डुरोग (पीलिया), अर्श रोग (मस्सा-बवासीर), भगंदर, हृदयशूल (हृदय-गति-अवरोधक पीड़ा), मस्तकपीड़ा, योनिशूल, पावशूल (कांख या बगल की पोड़ा), कुक्षि (उदर) शूल, ग्राममारी, नगरभारी, खेट, कबंट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टण, आश्रम, सम्बाध और सन्निवेश, इन सबको मारी (मृगीरोग-महामारी), प्राणक्षय, धनक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, व्यसनभूत (विपत्तिरूप) अनार्य (पापरूप), ये और इसी प्रकार के दूसरे सब कार्य देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल-यस महाराज से अथवा उसके यमकायिक देवों से अज्ञात (अनुमान से अज्ञात), अदृष्ट, अश्रुत, अविस्मृत, (या अचिन्त्य) और अविज्ञात (अवधि आदि की अपेक्षा) नहीं हैं। [4] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो जमस्स महारण्णो इमे देवा अहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं जहा Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अंबे 1 अंबरिसे चेव 2 सामे 3 सबले ति यावरे 4 / रुद्दोवरुद्दे 5-6 काले य 7 महाकाले ति यावरे 8 // 1 // असी यह असिपत्ते 10 कुभे 11 वालू 12 बेतरणी ति य 13 / खरस्सरे 14 महाघोसे 15 एए पन्नरसाऽऽहिया / / 2 / / [5-4] देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल–यम महाराज के देव अपत्यरूप से अभिमत (पुत्रस्थानीय) हैं---'अम्ब, अम्बरिष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकाल, असिपत्र, धनुष, कुम्भ, बालू, वैतरणी, खरस्वर, और महाघोष, ये पन्द्रह विख्यात हैं। __[5] सक्कस्स गं देविदस्स देवरगो जमस्स महारणो सत्तिभाग पलिश्रोवमं ठिती पण्णत्ता / अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिनोवमं ठिती पण्णत्ता। एमहिड्ढिए जाव जमे महाराया। 5-5] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-यम महाराज की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है और उसके अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। ऐसी महाऋद्धि वाला यावत् यममहाराज है।। विवेचन-यम लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-प्रस्तुत पाँचवें सूत्र द्वारा शकेन्द्र के द्वितीय लोकपाल यम महाराज के विमान-स्थान, उसका परिमाण, प्राज्ञानुवर्ती देव, उसके द्वारा ज्ञात, श्रुत आदि कार्य, उसके अपत्य रूप से अभिमत देव तथा यम महाराज एवं उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति का निरूपण किया गया है। यमकायिक आदि की व्याख्या-यमलोकपाल के परिवाररूप देव 'यमकायिक', यमलोकपाल के सामानिक देव 'यमदेव' तथा यमदेवों के परिवाररूप देव 'यमदेवकायिक' कहलाते हैं / प्रेतकायिक व्यन्त रविशेष / प्रेतदेवकायिक प्रेतदेवों के सम्बन्धी देव / कंदप्प = अतिक्रीड़ाशील देव (कन्दर्प) प्राभियोगा=अभियोग-आदेशवर्ती अथवा प्राभियोगिक भावनाओं के कारण ग्राभियोगिक देवों में उत्पन्न / अपत्यरूप से अभिमत पन्द्रह देवों की व्याख्या-पूर्वजन्म में कर क्रिया करने वाले, जर परिणामों वाले, सतत पापरत कुछ जीव पंचाग्नि तप आदि अज्ञानतप से किये गए निरर्थक देहदमन से आसुरीगति को प्राप्त, ये पन्द्रह परमाधार्मिक असुर कहलाते हैं / ये तीसरी नरकभूमि तक जा कर नारकी जीवों को कष्ट देकर प्रसन्न होते हैं, यातना पाते हुए नारकों को देखकर ये अानन्द मानते हैं। (1) अम्ब जो नारकों को ऊपर आकाश में ले जा कर छोड़ते हैं, (2) अम्बरीष = 'जो छुरी आदि से नारकों के छोटे-छोटे, भाड़ में पकने योग्य टुकड़े करते हैं; (3) श्याम = ये काले रंग के व भयंकर स्थानों में नारकों को पटकते एवं पीटते हैं; (4) शबल = जो चितकबरे रंग के व नारकों की प्रांतेंनसें एवं कलेजे को बाहर खींच लेते हैं। (5) रुद्र = नारकों को भाला, बर्थी आदि शस्त्रों में पिरो देने वाले रौद्र-भयंकर असूर (6) उपरुद्र = नारकों के अंगोपांगों को फाड़ने वाले अतिभयंकर असुर / (7) काल = नारकों को कड़ाही में पकाने वाले, काले रंग के असुर, (8) महाकाल = 1. (क) भगवती, (टीकानुवाद पं. वेचरदासजी) खण्ड-२, पृ. 116-117 (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्राक 198 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७॥ [377 नारकों के चिकने मांस के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें खिलाने वाले, अत्यन्त काले रंग के असुर; (8) असिपत्र-जो तलवार के आकार के पत्ते वैक्रिय से बना कर नारकों पर गिराते हैं। (10) धनुषजो धनुष द्वारा अर्धचन्द्रादि वाण फेंक कर नारकों के नाक कान आदि बींध डालते हैं, (11) कुम्भजो नारकों को कुम्भ या कुम्भी में पकाते हैं, (12) बाल = वैक्रिय द्वारा निर्मित वज्राकार या कदम्ब पुष्पाकार रेत में नारकों को डाल कर चने की तरह भूनते हैं / (13) वैतरणी = जो रक्त, मांस, मवाद, ताम्बा, शीशा आदि गर्म पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकों को फैक कर तैरने के लिए वाध्य करते हैं, (14) खरस्वर = जो वज्रकण्टकों के भरे शाल्मलि वृक्ष पर नारकों को चढ़ाकर, करुणक्रन्दन करते हुए नारकों को कठोरस्वरपूर्वक खींचते हैं, (15) महाघोष = डर से भागते हुए नारकों को पकड़ कर बाड़े में बन्द कर देते हैं, जोर से चिल्लाते हैं।' वरुणलोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 6. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारणो सयंजले नामं महाविमाणे पण्णते? __गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडिसयस महाविमाणस्स पच्चत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेज्जाई जहा सोमस्स तहा विमाण-रायहाणीग्रो भाणियव्वा जाव पासायडिसया नवरं नामनाणत्तं / 6.1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल-वरुण महाराज का स्वयंज्वल नामक महाविमान कहाँ है ? 6-1 उ.] गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान से पश्चिम में सौधर्मकल्प से असंख्येय हजार योजन पार करने के बाद, वहीं वरुणमहाराज का स्वयंज्वल नाम का महाविमान आता है; इससे सम्बन्धित सारा वर्णन सोममहाराज के महाविमान की तरह जान लेना चाहिए, राजधानी यावत प्रासादावतंसकों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। केवल नामों में अन्तर है। [2] सक्कस्स गं० वरुणस्स महारण्णो इमे देवा प्राणा० जाव चिटुंणि, तं०-वरुणकाइया, ति वा, वरुणदेवयकाइया इ वा, नागकुमारा नागकुमारोश्रो, उदहिकमारा उदहिकुमारीग्रो, थणियकुमारा थणियकुमारीग्रो, जे यावण्णे तहप्पगारा सत्वे ते तम्भतिया जाव चिट्ठति / / [6-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वरुण महाराज के ये देव आज्ञा में यावत रहते हैंबरुणकायिक, वरुणदेव कायिक, नागकुमार-नागकुमारियाँ; उदधिकुमार-उदधिकुमारियाँ स्तनित. कुमार-स्तनितकुमारियाँ ; ये और दूसरे सब इस प्रकार के देव, उनकी भक्तिवाले यावत् रहते हैं। [3] जंबुद्दोवे 2 मदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा–प्रतिवासा ति वा, मंदवासा ति वा, सुवुट्ठी ति वा, दुश्वुट्ठी ति वा, उदभेया ति वा, उदप्पीला इवा, उदवाहा ति वा, पवाहा ति वा, गामवाहा ति वा, जाव सन्निवेसवाहा ति वा, पाणक्खया जाव तेसि वा वरुणकाइयाणं देवाणं / 1. (क) भगवती अ. वृत्ति गवांक 198 (ख) भगवती, (विवेचनयुक्त) (पं-घेवरचन्दजी) भा-२, पृ-७२० Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6-3] जम्बुद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत से दक्षिण दिशा में जो कार्य समुत्पन्न होते हैं, वे इस प्रकार हैं—अतिवर्षा, मन्दवर्षा, सुष्टि, दुर्वृष्टि, उदकोझेद (पर्वत आदि से निकलने वाला झरना), उदकोत्पील (सरोवर आदि में जमा हुई जलराशि), उदवाह (पानी का अल्प प्रवाह), प्रवाह, ग्रामवाह (ग्राम का बह जाना) यावत् सनिवेशवाह, प्राणक्षय यावत् इसी प्रकार के दूसरे सभी कार्य वरुणमहाराज से अथवा वरुणकायिक देवों से अज्ञात प्रादि नहीं हैं। [4] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारणो जाव प्रहावच्चाभिण्णाया होत्या, तं जहा कक्कोडए कद्दमए अंजणे संखवालए पुडे पलासे मोएज्जए दहिमुहे अयंपुले कारिए / [6-4] देवेन्द्र देवराज शक्र के (तृतीय) लोकपाल-~-वरुण महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभिमत हैं / यथा-कर्कोटक (कर्कोटक नामक पर्वत निवासी नागराज), कर्दमक (अग्निकोण में विद्युत्प्रभ नामक पर्वतवासी नागराज), अंजन (वेलम्ब नामक वायुकुमारेन्द्र का लोकपाल), शंखपाल (धरणेन्द्र नामक नागराज का लोकपाल), पुण्ड, पलाश, मोद, जय, दधि-मुख अयंपुल और कातरिक / [5] सक्कस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारण्णो देसूणाई दो पलिप्रोवमाई ठिती पण्णत्ता। अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिप्रोवमं ठिती पण्णत्ता। एम हिड्ढोए जाव वरुणे महाराया। [6-5] देवेन्द्र देवराज शक के तृतीय लोकपाल वरुण महाराज की स्थिति देशोन दो पल्योपम की कही गई है और वरुण महाराज के अपत्यरूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। वरुण महाराज ऐसी महाऋद्धि यावत् महाप्रभाव वाला है। विवेचन-वरुण लोकपाल के विमान-स्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन-प्रस्तुत छठे सूत्र में बरुणलोकपाल के विमान के स्थान, उसके परिमाण, राजधानी, प्रासादावतंसक, वरुण के प्राज्ञानुवर्ती देव अपत्यरूप से अभिमत देव, उसके द्वारा ज्ञात आदि कार्यकलाप एवं उसकी स्थिति आदि का वर्णन किया गया है। वैश्रमरण लोकपाल के विमानस्थान आदि से सम्बन्धित वर्णन 7. [1] कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरणो वेसमणस्स महारण्णो वागणाम महाविमाणे पण्णते। गोयमा ! तस्स पं सोहम्मडिसयस महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा सोमस्स विमाण-रायहाणिबत्तवया तहा नेयम्वा जाव पासायडिसया / [7-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल-वैश्रमण महाराज का वल्गु नामक महाविमान कहां है ? {7-1 उ.] गौतम ! वैश्रमण महाराज का विमान, मौधर्मावतंसक नामक महाविमान के Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-७] [ 379 उत्तर में है / इस सम्बन्ध में सारा वर्णन सोम महाराज के महाविमान की तरह जानना चाहिए; और वह यावत् राजधानी यावत् प्रासादावतंसक तक का वर्णन भी उसी तरह जान लेना चाहिए / [2] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारणो इमे देवा प्राणा-उववाय-वयणनिद्देसे चिट्ठति, तं जहा-वेसमणकाइया ति वा, वेसमण-देवयकाइया ति वा, सुवण्णकुमारा सुवण्णकुमारीओ, दीवकुमारा दीवकुमारीओ, दिसाकमारा दिसाकुमारीनो, वाणमंतरा वाणमंतरीमो, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते तम्भत्तिया जाव चिट्ठति / [7-2] देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज की आज्ञा, सेवा (उपपात-निकट) वचन और निर्देश में ये देव रहते हैं / यथा-वैश्रमणकायिक, वैश्रमणदेवकायिक, सुवर्णकुमार-सुवर्णकुमारियाँ, द्वीपकुमार-द्वीपकुमारियाँ, दिककुमार-दिककुमारियाँ, वाणव्यन्तर देव-वाणव्यन्तर देवियाँ, ये और इसी प्रकार के अन्य सभी देव, जो उसकी भक्ति, पक्ष और भृत्यता (या भारवहन) करते हैं, उसकी प्राशा आदि में रहते हैं / [3] जंबुद्दीवे 2 मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं जाई इमाइं समुप्पज्जति, तं जहा-प्रयागरा इ वा, तउयागरा इ वा, तंबयागरा इ वा, एवं सीसागरा इ वा, हिरण्ण०, सुवण्ण०, रयण 0, क्यरागरा इ वा, वसुधारा तिवा, हिरण्णवाता तिवा, सुवण्णवासा ति वा, रयण, वइर०, ग्राभरण०, पत्ता, पुप्फ०, फल०, बोय०, मल्ल०, वण०, चुण्ण , गंध०, वत्थवासा इ वा, हिरण्णबुट्ठी इ वा, सु०, 20, व०, प्रा०, प०, पु०, फ०, बी०, म०, 20, चुण्ण 0, गंधवुट्ठी०, वत्थवुट्ठी ति वा, भायणबुट्ठी ति वा, खीरवुट्ठी ति वा, सुकाला ति वा, दुक्काला ति वा, अप्पग्घा ति वा, महग्घा ति वा, सुभिक्खा ति वा, दुभिक्खा ति वा, कयविक्कया ति वा, सन्निहि ति वा, सन्निचया ति वा, निही ति वा, णिहाणा ति वा, चिरपोराणाइ वा, पहीणसामियाति वा, पहीणसे तुयाति वा, पहोणमग्गाणि वा, पहोणगोत्तागाराइ वा उच्छन्नसामियाति वा उच्छन्नसेतुयाति वा, उच्छन्नगोत्तागाराति वा सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह-पहेसु नगर-निद्धमणेसु सुसाण-गिरि-कंदर-संति-सेलोवढाण-भवणगिहेसु सम्निविखताई चिट्ठति, ण ताई सक्कस्स देविदस्स देबरणो वेसमगस्त महारण्णो अण्णायाई अदिट्ठाइं असुयाई प्रविन्नायाई, तेसि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं / [7-3] जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दरपर्वत से दक्षिण में जो ये कार्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि-लोहे की खाने, रांगे की खानें, ताम्बे को खानें, तथा शीशे की खाने, हिरण्य (चांदी) की, सुवर्ण की, रत्न की और वज्र की खाने, वसुधारा, हिरण्य की, सुवर्ण की, रत्न को, आभरण की, पत्र की, पुष्प की, फल की, बीज की, माला की, वर्ग की. चूर्ण की, गन्ध की और वस्त्र की वर्षा, भाजन (बर्तन) और क्षीर को वृष्टि, सुकाल, दुष्काल, अल्पमूल्य (सस्ता), महामूल्य (महंगा), सुभिक्ष (भिक्षा की सुलभता), दुर्भिक्ष (भिक्षा की दुर्लभता), क्रय-विक्रय (खरीदना-बेचना) सन्निधि (घी, गुड़ आदि का संचय), सन्निचय (अन्न प्रादि का संचय), निधियाँ (खजाने-कोष), निधान (जमीन में गड़ा हुआ धन), चिर-पुरातन (बहुत पुराने), जिनके स्वामी समाप्त हो गए, जिनकी सारसंभाल करने वाले नहीं रहे, जिनकी कोई खोजखबर (मार्ग) नहीं है, जिनके स्वामियों के गोत्र और प्रागार (घर) नष्ट Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हो गए, जिनके स्वामी उच्छिन्न (छिन्नभिन्न) हो गए, जिनकी सारसंभाल करने वाले छिन्न-भिन्न हो गए, जिनके स्वामियों के गोत्र, और घर तक छिन्नभिन्न हो गए, ऐसे खजाने शृगाटक (सिंगाड़े के आकार वाले) मार्गों में, त्रिक (तिकोने मार्ग), चतुष्क (चौक), चत्वर, चतुर्मुख एवं महापथों, सामान्य मार्गों, नगर के गन्दे नालों में श्मशान, पर्वतगृह गुफा (कन्दरा), शान्तिगृह, शैलोपस्थान (पर्वत को खोद कर बनाए गए सभा-स्थान), भवनगृह (निवास-गृह) इत्यादि स्थानों में गाड़ कर रखा हुआ धन, ये सब पदार्थ देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल वैश्रमण महाराज से अथवा उसके वैश्रमणकायिक देवों से अज्ञात, अदृष्ट (परोक्ष), अश्रुत, अविस्मृत और अविज्ञात नहीं हैं। [4] सक्कस्स गं देविदस्स देवरगणो वेसमणस्स महारणो इमे देवा प्रहावच्चाभिण्णाया होत्था, तं जहा-पुण्णभद्दे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे चक्करक्खे पुण्णरक्खे सम्वाणे सब्बजसे सम्बकामसमिद्ध अमोहे असंगे / [7-4] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल वैश्रमण महाराज के ये देव अपत्यरूप से अभीष्ट हैं; वे इस प्रकार हैं—पूर्णभद्र, मणिभद्र, शालिभद्र, सुमनोभद्र, चक्र-रक्ष, पूर्ण रक्ष, सद्वान, सर्वयश, सर्वकामसमृद्ध, अमोघ और प्रसंग / [5] सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स महारष्णो दो पलिग्रोवमाणि ठिती पण्णत्ता / अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिनोवमं ठिती पण्णत्ता / एमहिड्डीए जाव वेसमणे महाराया। सेव भंते ! सेवं भंते ! तिः / // तइयसते : सत्तमो उद्देसमो समतो॥ [7-5] देवेन्द्र देवराज शक्र के (चतुर्थ) लोकपाल-वैश्रमण महाराज की स्थिति दो पल्योपम की है; और उनके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। इस प्रकार वैश्रमण महाराज बड़ी ऋद्धि वाला यावत् महाप्रभाव वाला है। 'हे भगवन् यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-वैश्रमण लोकपाल के विमानस्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन प्रस्तुत 7 वें सूत्र में शास्त्रकार ने वैश्रमण लोकपालदेव के विमानों की अवस्थिति, उसकी लम्बाई-चौड़ाई-ऊँचाई आदि परिमाण, वैश्रमण लोकपाल की राजधानी, प्रासाद ग्रादि का, तथा वैश्रमण महाराज के आज्ञानुवर्ती भक्ति-सेवा-कार्यभारवहनादि कर्ता देवों का, मेरु पर्वत के दक्षिण में होने वाले धनादि से सम्बन्धित कार्यों की समस्त जानकारी का एवं वैश्रमण महाराज के अपत्यरूप से माने हुए देवों का तथा उसकी तथा उसके अपत्यदेवों की स्थिति आदि का समस्त निरूपण किया गया है / वैश्रमणदेव को लोक में कुबेर, धनद एवं धन का देवता कहते हैं / धन, धान्य, निधि, भण्डार आदि सब इसी लोकपाल के अधीन रहते हैं। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 381 तृतीय शतक : उद्देशक-७] कठिन शब्दों को व्याख्या-हिरण्णवासा = झरम र झरमर बरसती हुई घड़े हुए सोने की या चांदी की वर्षा तथा हिरण्णबुट्ठी-तेजी से बरसती हुई बड़े हुए सोने या चांदी की वर्षा वृष्टि कहलाती है। यही वर्षा और वृष्टि में अन्तर है। सुभिक्खा-दुभिक्खा = सुकाल हो या दुष्काल / 'निहीति वा निहाणाति वा' = लाख रुपये अथवा उस से भी अधिक धन का एक जगह संग्रह करना निधि है, और जमीन में गाड़े हुए लाखों रुपयों के भण्डार या खजाने निधान कहलाते हैं। पहोणसेउयाई = जिसमें धन को सींचने (या बढ़ाने) वाला मौजूद नहीं रहा। पहीणमग्गाणि = इतने पुराने हो गए हैं, कि जिनकी तरफ जाने-आने का मार्ग भी नष्ट हो गया है; अथवा उस मार्ग की ओर कोई जाता-याता नहीं। पहीणगोत्तागाराई = जिस व्यक्ति ने ये धन-भंडार भरे हैं, उसका कोई गोत्रीय सम्बन्धी तथा उसके सम्बन्धी का घर तक अब रहा नहीं।' // तृतीय शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 200 (ख) भगवती, टीकानुवाद युक्त, खण्ड 2, पृ. 120 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'अहिवई' अष्टम उद्देशक : अधिपति भवनपति देवों के अधिपति के विषय में प्ररूपण-- 1. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी-प्रसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कति देवा आहेवच्चं जाव विहरंति ? ___ गोयमा ! दस देवा पाहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा–चमरे असुरिंदे असुरराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे, बली वइरोणिदे वइरोयणराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे / [1 प्र.] राजगृह नगर में, यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! असुरकुमार देवों पर कितने देव प्राधिपत्य करते रहते हैं ?' [1 उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों पर दस देव आधिपत्य करते हुए यावत् रहते हैं / वे इस प्रकार हैं-असुरेन्द्र असुरराज चमर, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण तथा वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण / 2. नागकुमाराणं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! दस देवा प्राहेवच्चं नाव विहरंति, तं जहा–धरणे नागकुमारिदे नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले सेलवाले, संखवाले, भूयाणंदे नागकुमारिदे नागकुमारराया, कालवाले, कोलवाले, संखवाले, सेलवाले। [2 प्र.] भगवन् ! नागकुमार देवों पर कितने देव आधिपत्य करते हुए, यावत् विचरते हैं ? [2 उ.] हे गौतम ! नागकुमार देवों पर दस देव आधिपत्य करते हुए, यावत् विचरते हैं। वे इस प्रकार हैं-नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण, कालपाल, कोलपाल, शंखपाल और शैलपाल / तथा नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द, कालपाल, कोलपाल, शंखपाल और शैलपाल / 3. जहा नागकुमारिदाणं एताए वत्तव्वताए गोयं एवं इमाणं नेयवं सुवष्णकुमाराणं वेणुदेवे, वेणुदाली, चित्ते, विचित्ते, चित्तपक्खे, विचित्तपक्खे / विज्जुकुमाराणं हरिक्त, हरिस्सह, पभ, सुप्पभ, पभकंत, सुप्पभकंत / अग्गिकुमाराणं अम्गिसीहे, अग्गिमाणव, तेउ, तेउसीहे, तेउकते, तेउप्पमे / दोषकुमाराणं पुण्ण, विसिट्ठ, रूय, सुरूय, रूयकत, रूयप्पभ / उदहिकुमाराणं जलकते, जलप्पभ, जल, जलरूय, जलकंत, जलप्पम / दिसाकुमाराणं अमियगति, अमियवाहण, तुरियगति, खिप्पगति, सीहगति, सीहविक्कमगति / वाउकुमाराणं वेलब, पभंजण, काल महाकाला अंजण रिट्ठा / यणियकुमाराणं घोस, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-] [383 महाघोस, पावत्त, वियावत्त, नंदियावत्त, महानंदियावत्त / एवं भाणियव्वं जहा असुरकुमारा / सो० 1 का० 2 चि० 3 50 4 ते 5 रू० 6 ज०७ तु०८ का०६ प्रा० 10 / / __ [3] जिस प्रकार नागकुमारों के इन्द्रों के विषय में यह (पूर्वोक्त) वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार इन (देवों) के विषय में भी समझ लेना चाहिए / सुवर्णकुमार देवों पर-वेणुदेव, वेणुदालि, चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष (का आधिपत्य रहता है।); विद्युत्कुमार देवों पर-हरिकान्त, हरिसिंह, प्रभ, सुप्रभ, प्रभाकान्त और सुप्रभाकान्त (का आधिपत्य रहता है / ); अग्निकुमार देवों पर-अग्निसिंह, अग्निमाणव, तेजस् तेज सिंह तेजस्कान्त और तेज प्रभ (आधिपत्य करते हैं / ); 'द्वीपकुमार'-देवों पर–पूर्ण, विशिष्ट, रूप, रूपांश, रूपकान्त और रूपप्रभ (आधिपत्य करते हैं / ); उदधिकमार देवों पर-जलकान्त (इन्द्रो, जलप्रभ (इन्द्र), जल, जलरूप, जलकान्त और जलप्रभ (का आधिपत्य है।); दिक्कुमार देवों पर अमितगति, अमितवाहन, तूर्य-गति, क्षिप्रगति, सिंहगति और सिंहविक्रमगति (आधिपत्य करते हैं / ); वायुकुमारदेवों पर-वेलम्ब, प्रभजन, काल, महाकाल, अंजन और रिष्ट (का आधिपत्य रहता है।); तथा स्तनितकुमारदेवों पर-घोष, महाघोष, आवर्त, व्यावर्त, नन्दिकावर्त और महानन्दिकावर्त (का आधिपत्य रहता है) / इन सबका कथन असुरकुमारों की तरह कहना चाहिए। दक्षिण भवनपतिदेवों के अधिपति इन्द्रों के प्रथम लोकपालों के नाम इस प्रकार हैं --सोम, कालपाल, चित्र, प्रभ, तेजस् रूप, जल, त्वरितगति, काल और आयुक्त / विवेचन-भवनपतिदेवों के अधिपति के विषय में प्ररूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों में भवनपतिदेवों के असुरकुमार से ले कर स्तनितकुमार तक के भेदों तथा दक्षिण भवनपति देवों के अधिपतियों के विषय में निरूपण किया गया है। आधिपत्य में तारतम्य—जिस प्रकार मनुष्यों में भी पदों और अधिकारों के सम्बन्ध में तारतम्य होता है, वैसे ही यहाँ दशविध भवनपतिदेवों के प्राधिपत्य में तारतम्य समझना चाहिए। जैसे कि असुरकुमार आदि दसों प्रकार के भवनपतियों में प्रत्येक के दो-दो इन्द्र होते हैं, यथा--असुरकुमार देवों के दो इन्द्र हैं--(१) चमरेन्द्र और (2) बलीन्द्र, नागकुमारदेवों के दो इन्द्र हैं- (1) धरगेन्द्र और भूतानन्देन्द्र / इसी प्रकार प्रत्येक के दो-दो इन्द्रों का आधिपत्य अपने अधीनस्थ लोकपालों तथा अन्य देवों पर होता है, और लोकपालों का अपने अधीनस्थ देवों पर आधिपत्य होता है / इस प्रकार आधिपत्य, अधिकार, ऋद्धि, वर्चस्व एवं प्रभाव आदि में तारतम्य समझ लेना चाहिए।' दक्षिण भवनपति देवों के इन्द्र और उनके प्रथम लोकपाल-मूल में भवनपति देव दो प्रकार के हैं----उत्तर दिशावर्ती और दाक्षिणात्य / उत्तरदिशा के दशविध भवनपति देवों के जो जो अधीनस्थ देव होते हैं, इन्द्र से लेकर लोकपाल आदि तक, उनका उल्लेख इससे पूर्व किया जा चुका है। इसके पश्चात् दाक्षिणात्य भवनपति देवों के सर्वोपरि अधिपति इन्द्रों के प्रथम लोकपालों के नाम सूचित किये हैं। इस सम्बन्ध में एक गाथा भी मिलती है 'सोमे य कालवाले य चित्रप्पभ-तेउ तह रुए चेव / जल तह तुरियगई य काले माउत्त पढमा उ / / ' इसका अर्थ पहले आ चुका है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 200 (ख) तत्वार्थ सूत्र के अध्याय 4, सू. ६–'पूर्वयो:न्द्राः' का भाष्य देखिये / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दूसरे ग्रन्थ में यह बताया गया है कि दक्षिण दिशावर्ती लोकपालों के प्रत्येक सूत्र में जो तीसरा और चौथा कहा गया है, वही उत्तरदिशावर्ती लोकपालों में चौथा और तीसरा कहना चाहिए।' सोमादि लोकपाल : वैदिक ग्रन्थों में यहाँ जैसे सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, एक प्रकार के लोकपाल देव कहे गए हैं, वैसे ही यास्क-रचित वैदिकधर्म के प्राचीन ग्रन्थ निरुक्त में भी इनकी व्याख्या प्राकृतिक देवों के रूप में मिलती है। सोम की व्याख्या की गई है-सोम एक प्रकार की औषधि है / यथा-'हे सोम ! अभिषव (रस) युक्त बना हुआ तू स्वादिष्ट और मदिष्टधारा से इन्द्र के पीने के लिए टपक पड़।' 'इस सोम का उपभोग कोई अदेव नहीं कर सकता / ' 'सर्प और ज्वरादिरूप होकर जो प्राणिमात्र का नाश करता है, यह 'यम' है।' 'अग्नि को भी यम कहा गया है। जो आवृत करता-ढकता है, (मेघसमूह द्वारा आकाश को), बह 'वरुण' कहलाता है / वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा 4. पिसायकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! वो देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा काले य महाकाले सुरूवं पडिरूव पुनभद्दे य / अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे // 1 // किन्नर किरिसे खलु सप्युरिसे खलु तहा महापुरिसे / अतिकाय महाकाए गीतरती चेव गोयजसे // 2 // एते वाणमंतराणं देवाणं / [4 प्र.] भगवन् ! पिशाचकुमारों (वाणव्यन्तर देवों) पर कितने देव आधिपत्य करते हुए विचरण करते हैं ? [4 उ.] गौतम ! उन पर दो-दो देव (इन्द्र) आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) काल और महाकाल, (2) सुरूप और प्रतिरूप, (3) पूर्ण भद्र और मणिभद्र, (4) भीम और महाभीम, (5) किन्नर और किम्पुरुष, (6) सत्पुरुष और महापुरुष, (7) प्रति काय और महाकाय, तथा (8) गीतरति और गीतयश / ये सब वाणव्यन्तर देवों के अधिपति-इन्द्र हैं। 5. जोतिसियाणं देवाणं दो देवा प्राहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा-~-चंदे य सूरे य / [5] ज्योतिष्क देवों पर आधिपत्य करते हुए दो देव यावत् विचरण करते हैं / यथा-चन्द्र और सूर्य / 1. भगवती सूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 201 2. (क) 'औषधिः सोमः सुनोतेः यद् एनमभिषुण्वन्ति / ' 'स्वादिष्टया मदिष्ठया पवस्व सोम ! धारया इन्द्राय पातवे सुतः' 'न तस्य अश्नाति कश्चिदेवः / -यास्क निरुक्त पृ. 769-771 (ख) 'यमो यच्छत्तीति सतः' "यच्छति-उपरमयति जीवितात (तस्कर, इ. सर्पज्वरादिरूपो भूत्वा) "सर्व भूतग्रामम् यमः।' 'अग्निरपि यम उच्यते' यास्क निरुक्त पृ. 732-733 (ग) 'वरुणः वृणोति इति, स हि वियद् वृणोति मेघजालेन ।'-यास्क निरुक्त पृ. 712-713 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय शतक : उद्देशक-८] [ 385 6. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु कति देवा अाहेबच्चं जाव विहरति ? गोयमा! दस वेवा नाव विहरंति, तं जहा--सक्के विदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे / ईसाणे देविदे देवराया, सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे। एसा बत्तव्वया सब्बेसु वि कप्पेसु, एते चेव भाणियव्वा / जे य इंदा ते य भाणियन्वा / से भंते सेवं! भंते ति। // तइयसते : अटुमो उद्देसनो समत्तो // [6 प्र.] भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में प्राधिपत्य करते हुए कितने देव विचरण करते हैं ? [6 उ.] गौतम ! उन पर आधिपत्य करते हुए यावत् दस देव विचरण करते हैं। यथादेवेन्द्र देवराज शक्र, सोम, यम, वरुण और वैश्रमण, देवेन्द्र देवराज ईशान, सोम, यम, वरुण, और वैश्रमण / ___ यह सारी वक्तव्यता सभी कल्पों (देवलोकों) के विषय में कहनी चाहिए और जिस देवलोक का जो इन्द्र है, वह कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-वाणयन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर प्राधिपत्य को प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सत्रों में क्रमशः वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों पर आधिपत्य की प्ररूपणा की गई है। __ वाणभ्यन्तर देव और उनके अधिपति दो-दो इन्द्र-चतुर्थ सूत्र में प्रश्न पूछा गया है पिशाचकुमारों के सम्बन्ध में, किन्तु उत्तर दिया गया है—वाणव्यन्तर देवों के सम्बन्ध में / इसलिए यहाँ पिशाचकुमार का अर्थ वाणव्यन्तर देव ही समझना चाहिए। वाणव्यन्तर देवों के 8 भेद हैं—किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच / इन प्रत्येक पर दो-दो अधिपति–इन्द्र इस प्रकार हैं-किन्नर देवों के दो इन्द्र-किन्नरेन्द्र, किम्पुरुषेन्द्र, किम्पुरुष देवों के दो इन्द्र-सत्पुरुषेन्द्र और महापुरुषेन्द्र, महोरगदेवों के दो इन्द्र—अतिकायेन्द्र और महाकायेन्द्र, गन्धर्वदेवों के दो इन्द्रगीतरतीन्द्र और गीतयशेन्द्र, यक्षों के दो इन्द्र--पूर्णभद्रेन्द्र और मणिभद्रेन्द्र, राक्षसों के दो इन्द्र-- भीमेन्द्र और महाभीमेन्द्र, भूतों के दो इन्द्र-सुरूपेन्द्र (अतिरूपेन्द्र) और प्रतिरूपेन्द्र, पिशाचों के दो इन्द्र-कालेन्द्र और महाकालेन्द्र / ' 1. (क) विवाहपण्णत्तिसुत्त (मूल पाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 177 (ख) 'व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः ।'-तत्त्वार्थमूत्र भाष्य अ. 4, सू. 12, पृ. 97 से 99 (ग) 'पूर्वयोडीन्द्रा:'---तत्त्वार्थगूत्र-भाग्य, अ. 4 मू. 6, पृ. 92 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ज्योतिष्क देवों के अधिपति इन्द्रज्योतिष्क देवों में अनेक सूर्य एवं चन्द्रमा इन्द्र हैं। वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में लोकपाल नहीं होते।' वैमानिक देवों के अधिपति–इन्द्र एवं लोकपाल-वैमानिक देवों में सौधर्म से लेकर अच्युतकल्प तक प्रत्येक अपने-अपने कल्प के नाम का एक-एक इन्द्र है / यथा-सौधर्मेन्द्र =शकेन्द्र, ईशानेन्द्र, सनत्कुमारेन्द्र आदि / किन्तु ऊपर के चार देवलोकों में दो-दो देवलोकों का एक-एक इन्द्र है; यथा-. नौवें और दसवें देवलोक-(आणत और प्राणत) का एक ही प्राणतेन्द्र है / इसी प्रकार ग्यारहवें और बारहवें देवलोक-(प्रारण और अच्युत) का भी एक ही अच्युतेन्द्र है / इस प्रकार बारह देवलोकों में कुल 10 इन्द्र हैं। नौ न बेयेकों और पांच अनुत्तर विमानों में कोई इन्द्र नहीं होते / वहाँ सभी 'अहमिन्द्र' (सर्वतन्त्रस्वतंत्र) होते हैं। सौधर्म प्रादि कल्पों के प्रत्येक इन्द्र के आधिपत्य में सोम, यम आदि चार-चार लोकपाल होते हैं, जिनके आधिपत्य में अन्य देव होते हैं / // तृतीय शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त // (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4 सू. 6 का भाज्य, पृ. 92 (ख) 'त्रास्त्रिश-लोकपालवा व्यन्तरज्योतिटका:-तत्त्वार्थसूत्र अ. 4 सु. 5, भाष्य पृ. 92 2. (क) तत्त्वार्थ. भाष्य अ. 4 सू. 6, पृ. 93, (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 201 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : इंदिय नवम उद्देशक : इन्द्रिय पंचेन्द्रिय-विषयों का अतिदेशात्मक निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासी-कतिविहे णं भंते ! इंदियविसए पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे इंदियविसए पण्णत्ते, तं०–सोतिदियविसए, जीवाभिगमे जोतिसियउद्देसो नेयम्वो अपरिसेसो। / तइयसए : नवमो उद्देसमो समत्तो॥ [1 प्र.] राजगृह नगर में यावत् श्रीगौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा--भगवन् ! इन्द्रियों के विषय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? / [1 उ.] गौतम ! इन्द्रियों के विषय पाँच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैंश्रोत्रेन्द्रिय-विषय इत्यादि / इस सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्र में कहा हुआ ज्योतिष्क उद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए। विवेचन-पांच इन्द्रियों के विषयों का अतिदेशात्मक वर्णन-प्रस्तुत सूत्र में जीवाभिगम सूत्र के ज्योतिष्क उद्देशक का अतिदेश करके शास्त्रकार ने पंचेन्द्रिय विषयों का निरूपण किया है। जीवाभिगम सूत्र के अनुसार इन्द्रिय विषय-सम्बन्धी विवरण-- पांच इन्द्रियों के पांच विषय हैं; यथा-श्रोत्रेन्द्रिय-विषय, चक्षुरिन्द्रिय-विषय, घ्राणेन्द्रिय-विषय, रसेन्द्रिय-विषय और स्पर्शेन्द्रियविषय। [प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियविषय-सम्बन्धी पुद्गल-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम! दो प्रकार का कहा गया है / यथा-शुभशब्द परिणाम और अशुभशब्द परिणाम। [प्र. भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी पुद्गल-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सुरूप-परिणाम और दुरूपपरिणाम / [प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय-विषय-सन्बन्धी पुद्गल-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है। [उ.] गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। यथा-सुरभिगन्ध परिणाम और दुरभिगन्ध परिणाम / 1. जीवाभिगम सूत्र प्रतिपति 3, उह शक 2 सू. 191, पृ. 373-374 में इसका वर्णन देखिए / Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र [प्र.] भगवन् ! रसनेन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सुरस-परिणाम और दुर सपरिणाम / [प्र.] भगवन् ! स्पर्शन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी पुद्गल-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है?' __ [उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा--सुखस्पर्श परिणाम और दुःख स्पर्शपरिणाम / दूसरी बाचना में इन्द्रिय-सम्बन्धी सूत्रों के अतिरिक्त उच्चावचसूत्र' और 'सुरभिसूत्र' ये दो सूत्र और कहे गए हैं / यथा [प्र.] 'भगवन् ! क्या उच्चावच (ऊंचे-नीचे) शब्द-परिणामों से परिणत होते हुए पुद्गल 'परिणत होते हैं', ऐसा कहा जा सकता है ? [उ.] हाँ, गौतम, ऐसा कहा जा सकता है'; इत्यादि सब कथन करना चाहिए / [प्र.] भगवन् ! क्या शुभशब्दों के पुद्गल अशुभशब्द रूप में परिणत होते हैं ? उ.] हां, गौतम ! परिणत होते हैं; इत्यादि सब वर्णन यहाँ समझना चाहिए। // तृतीयशतक : नवम उद्देशक समाप्त / 1. (क) जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, मू. 191, पृ. 373-374 (ख) भगवती सूत्र अ. वत्ति, पत्रांक २०१-२०२—'सोइंदियबिसए"..."हंता गोयमा!' इत्यादि। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : परिसा दशम उद्देशक : परिषद् चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषद् सम्बन्धी प्ररूपरणा 1. [1] रायगिहे जाव एवं बयासी- चमरस्स णं भंते ! प्रसुरिदस्स असुररणो कति परिसाम्रो पण्णत्तानो? गोयमा ! तनो परिसाओ पग्णत्तानो तं जहा–समिता चंडा जाता / [1-1 प्र.] राजगह नगर में यावत् श्री गौतम ने इस प्रकार पूछा--भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी परिषदाएँ (सभाएँ) कही गई हैं ? [1-1 उ.] हे गौतम ! उसकी तीन परिषदाएँ कही गई हैं / यथा-समिका (या शमिका या शमिता), चण्डा और जाता। [2] एवं जहाणुपुव्वीए जाव अच्चुनो कप्पो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / / / तइयसए : दसमोद्देसो॥ ॥ततियं सयं समत्तं // [1-2] इसी प्रकार क्रमपूर्वक यावत् अच्युतकल्प तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-असुरराज चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषदा-प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र में भवनपति देवों के असुरेन्द्र से लेकर अच्युत देवलोक के इन्द्र तक की परिषदों का निरूपण किया गया है। तीन परिषदें : नाम और स्वरूप--प्रस्तुत सूत्र में सर्वप्रथम असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदें बताई गई हैं-समिका या शमिका, चण्डा और जाता / जीवाभिगम सूत्र के अनुसार-स्थिर स्वभाव और समता के कारण इसे 'समिका' कहते हैं, स्वामी द्वारा किये गए कोप एवं उतावल को शान्त करने की क्षमता होने से इसे 'शमिका' भी कहते हैं, तथा उद्धततारहित एवं शान्त स्वभाव वाली होने से इसे 'शमिता' भी कहते हैं। शमिका के समान महत्त्वपूर्ण न होने से तथा साधारण कोपादि के प्रसंग पर कपित हो जाने के कारण दुसरी परिषद को 'चण्डा' कहते हैं / गम्भीर स्वभाव न Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होने से निष्प्रयोजन कोप उत्पन्न हो जाने के कारण तीसरी परिषद् का नाम 'जाता है। इन्हीं तीनों परिषदों को क्रमशः आभ्यन्तरा, मध्यमा और बाह्या भी कहते हैं। जब इन्द्र को कोई प्रयोजन होता है, तब वह आदरपूर्वक आभ्यन्तर परिषद् बुलाता और उसके समक्ष अपना प्रयोजन प्रस्तुत करता है। मध्यम परिषद् बुलाने या न बुलाने पर भी आती है। इन्द्र, प्राभ्यन्तर परिषद् में विचारित बातें उसके समक्ष प्रकट कर निर्णय करता है। बाह्य परिषद् बिना बुलाये आती है / इन्द्र उसके समक्ष स्वनिर्णीत कार्य प्रस्तुत करके उसे सम्पादित करने की आज्ञा देता है / असुरकुमारेन्द्र की परिषद् के समान ही शेष नौ निकायों की परिषदों के नाम और काम हैं / व्यन्तर देवों की तीन परिषद् हैंइसा, तुडिया और दृढ़रथा / ज्योतिष्क देवों की तीन परिषदों के नाम-तुम्बा, तुडिया और पर्वा / वैमानिक देवों की तीन परिषदें-शमिका, चण्डा और जाता। इसके अतिरिक्त भवनपति से लेकर अच्युत देवलोक तक के तीनों इन्द्रों की तीनों परिषदों के देव-देवियों की संख्या, उनकी स्थिति आदि का विस्तृत वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जान लेना चाहिए।' // तृतीय शतक : दशम उद्देशक समाप्त। तृतीय शतक सम्पूर्ण 1. (क) जीवाभिगम. प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, पृ. 164-174 तथा 388-390 (ख) भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 202 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थशतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह चतुर्थ शतक है / इस शतक में अत्यन्त संक्षेप में, विशेषतः अतिदेश द्वारा विषयों का निरूपण किया गया है। इस शतक के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ उद्देशक में से प्रथम उद्देशक में ईशानेन्द्र के सोम, यम, वैश्रमण और वरुण लोकपालों के क्रमशः चार विमानों का नामोल्लेख करके प्रथम लोकपाल सोम महाराज के 'सुमन' नामक महाविमान की अवस्थिति एवं तत्सम्बन्धी समग्र वक्तव्यता अतिदेश द्वारा कही गई है। शेष द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ उद्देशक में ईशानेन्द्र के यम, वैश्रमण और वरुण नामक द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ लोकपाल के सर्वतोभद्र, वल्गु और सुवल्गु नामक महाविमान की अवस्थिति, परिमाण आदि का समग्र वर्णन पूर्ववत् अतिदेशपूर्वक किया गया है। * पांचवें, छठे, सातवें और आठवें उद्देशक में ईशानेन्द्र के चार लोकपालों को चार राजधानियों का पूर्ववत् अतिदेशपूर्वक वर्णन है / * नौवें उद्देशक में नैरयिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रज्ञापना-सूत्र के२ लेश्यापद की अतिदेशपूर्वक प्ररूपणा की गई है। * दसवें उद्देशक में लेश्याओं के प्रकार, परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त-संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व आदि द्वारों के माध्यम से प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद के अतिदेशपूर्वक प्ररूपणा की गई है। 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भाग-१, पृ-३६ (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्र (टीकानुबाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ-२ 2. प्रज्ञापनासूत्र के 17 वें लेश्यापद का तृतीय उद्देशक देखिये / 3. प्रज्ञापनासूत्र के 17 वें लेश्यापद का चतुर्थ उद्देशक देखिए / Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं सयं : चतुर्थशतक चतुर्थ शतक को संग्रहणी गाथा 1. चत्तारि विमाणेहि 1-4, चत्तारि य होंति रायहाणीहि 5.8 / नेरइए 6 लेस्साहि 10 य दस उद्दे सा चउत्थसते // 1 // [1] गाथा का अर्थ-इस चौथे शतक में दस उद्देशक हैं / इनमें से प्रथम चार उद्देशकों में विमान-सन्बन्धी कथन किया गया है / पाँचवें से लेकर आठवें उद्देशक तक चार उद्देशकों में राजधानियों का वर्णन है। नौवें उद्देशक में नैरयिकों का वर्णन है और दसवें उद्देशक में लेश्या के सम्बन्ध में निरूपण है। पढम-बिइय-तइय-चउत्था उद्देसा ईसारणलोगपालविमारणारिण __ प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ उद्देशक : ईशानलोकपाल-विमान ईशानेन्द्र के चार लोकपालों के विमान एवं उनके स्थान का निरूपरण 2. रायगिहे नगरे जाब एवं वयासी-ईसाणस्स णं भंते ! देविदास देवरण्णो कति लोगपाला पग्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता, तं जहा-सोमे जमे वेसमणे वरुणे। [2 प्र.] राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा-'भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के कितने लोकपाल कहे गए हैं ? 2 उ.] हे गौतम ! उसके चार लोकपाल कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-सोम, यम, वैश्रमण और वरुण / 3. एतेसि गंभंते ! लोगपालाणं कति विमाणा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा-सुमणे सव्वतोभद्दे वम् सुवम्गू / [3 प्र. भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे गए हैं ?' [3 उ.] गौतम ! इनके चार विमान हैं; वे इस प्रकार हैं सुमन, सर्वतोभद, बल्गु और सुवल्गु / 4. कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविदस्स देवराणो सोमस्स महारणो सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दोवे दीवे मंदरस्स पच्चयस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे णामं कप्पे पण्णते। तत्थ णं जाव पंच बडेंसया पण्णता, तं जहा--अंकव.सए फलिहडिसए रयणवडसए जायरूवडिसए, मज्झे वत्थ ईसाणवर्डसए / तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरथिमेणं Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतक : उद्देशक-१-२०३-४ ] तिरियमसंखेज्जाई जोयणसहस्साई वोतिवतित्ता तत्य गं ईसाणस्स देविदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते, पद्धतेरसजोयण जहा सक्कस्स वत्तव्वता ततियसले' तहा ईसाणस्स वि जाव अच्चणिया समत्ता।। [4 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का 'सुमन' नामक महाविमान कहां है ? [4 उ. गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल से, यावत् ईशान नामक कल्प (देवलोक) कहा है। उसमें यावत् पांच अवतंसक कहे हैं, वे इस प्रकार हैं-अंकावतंसक, स्फटिकावतंसक, रत्नावतंसक, और जातरूपावतंसक ; इन चारों अवतंसकों के मध्य में ईशानावतंसक है। उस ईशानावतंसक नामक महाविमान से पूर्व में तिरछे असंख्येय हजार योजन आगे जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज का 'सुमन' नामक महाविमान है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई साढ़े बारह लाख योजन है / इत्यादि सारी वक्तव्यता तृतीय शतक (सप्तम उद्देशक) में कथित शक्रेन्द्र (के लोकपाल सोम के महाविमान) की वक्तव्यता के समान यहां भी ईशानेन्द्र (के लोकपाल सोम के महाविमान) के सम्बन्ध में यावत-अर्चनिका समाप्तिपर्यन्त कहनी चाहिए / 5. चउण्ह वि लोगपालाणं विमाणे विमाणे उद्देसश्रो। चउसु विमाणेसु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा / नवरं ठितीए नाणतं प्रादि दुय तिभागणा पलिया धणयस्स होंति वो चेव / दो सतिभागा वरुणे पलियमहाबच्चदेवाणं // 1 // . ॥चउत्थे सए पढम-विइय-तइय-च उत्था उद्दसा समत्ता // [5] (एक लोकपाल के विमान की वक्तव्यता जहाँ पूर्ण होती है, वहाँ एक उद्देशक समाप्त होता है।) इस प्रकार चारों लोकपालों में से प्रत्येक के विमान की बक्तव्यता पूरी हो वहाँ एक-एक उद्देशक समझना। चारों (लोकपालों के चारों) विमानों की वक्तव्यता में चार उद्देशक पूर्ण हुए समझना / विशेष यह है कि इनकी स्थिति में अन्तर है। वह इस प्रकार है-आदि के दो-सोम और यम लोकपाल की स्थिति (आयु) त्रिभमन्यून दो-दो पल्योपम की है, वैश्रमण की स्थिति दो पल्योपम की है और वरुण की स्थिति त्रिभागसहित दो पल्योपम की है। अपत्यरूप देवों की स्थिति एक पल्योपम की है। विवेचन-ईशानेन्द्र के चार लोकपालों के विमानों का निरूपण-प्रस्तुत चार उद्देशकों में चार सूत्रों द्वारा ईशानेन्द्र के सोम, यम, वैश्रमण और वरुण लोकपालों के चार विमान, उ का स्थान, तथा चारों लोकपालों की स्थिति का निरूपण किया है। सू. 4 में सोम लोकपाल के सुमन नामक महाविमान के सम्बन्ध में बतला कर प्रथम उद्देशक पूर्ण किया है, शेष तीन उद्देशकों में दूसरे, तीसरे और चौथे लोकपाल के विमान की वक्तव्यता शकेन्द्र के इसी नाम के लोकपालों के विमानों की वक्तव्यता के समान अतिदेश (भलामण) करके एक एक उद्देशक पूर्ण किया। // चतुर्थ शतक : प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. तीसरे शतक का सातवां उद्देशक देखना चाहिए। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम-छट्ठ-सत्तम-अट्ठमा उद्देसा : ईसारणलोगपालरायहारगी पंचम-छष्ट-सप्तम-अष्टम उद्देशक : ईशान-लोकपाल-राजधानी ईशानेन्द्र के लोकपालों की चार राजधानियों का वर्णन१. रायहाणीसु वि चत्तारि उद्देसा भाणियस्वा जाव एमहिड्डीए जाव वरुणे महाराया। // च उत्थे सए पंच-छट्ठ-सत्तम-पट्टमा उद्देसा समत्ता / / [1] चारों लोकपालों की राजधानियों के चार उद्देशक कहने चाहिए। (अर्थात् एक-एक लोकपाल की राजधानी सम्बन्धी वर्णन पूर्ण होने पर एक-एक उद्देशक पूर्ण हुमा समझना चाहिए / इस तरह चारों राजधानियों के वर्णन में चार उद्देशक पूर्ण हुए / यों क्रमश: पांचवें से लेकर आठवाँ उद्देशक) यावत् वरुण महाराज इतनी महाऋद्धि वाले यावत् (इतनी विकुर्वणाशक्ति वाले हैं;) (यहाँ तक चार उद्देशक पूर्ण होते हैं / ) विवेचन-चार उद्देशकों में चार लोकपालों को चार राजधानियों का वर्णन-प्रस्तुत चार उद्देशकों (पांचवें से पाठवें तक) का वर्णन एक ही सूत्र में अतिदेशपूर्वक कर दिया गया है / चार राजधानियों के क्रमशः चार उद्देशक कैसे और कौन-से? जीवाभिगमसूत्र में वर्णित विजय राजधानी के वर्णक के समान चार राजधानियों के चार उद्देशकों का वर्णन इस प्रकार करना चाहिए [प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान के लोकपाल सोम महाराज की सोमा नामक राजधानी कहाँ है ? [ऊ.] हे गौतम ! वह (राजधानी) सुमन नामक महाविमान के ठीक नीचे है; इत्यादि सारा वर्णन इसी प्रकार कहना चाहिए। . इसी प्रकार क्रमश: एक-एक राजधानी के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तरपूर्वक वर्णन करके शेष तीनों लोकपालों की राजधानी-सम्बन्धी एक-एक उद्देशक कहना चाहिए।' // चतुर्थ शतक : पंचम-षष्ठ-सप्तम-अष्टम उद्देशक समाप्त / ............ .. ........ ... .. 1. 'रायहाणीस चत्तारि उहे सा भाणियस्वा', ते चैवम–'कहिं णं भंते ! ईसाणस्स देविवस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो सोमा नाम रायहाणी पण्णता ?' 'गोयमा ! सुमणस्स महाविमाणस्स अहे, सक्खि.......' इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेण जीवाभिगमोक्तविजयराजधानीवर्णकाऽनुसारेण च एकैक उद्देशकोऽध्येतव्यः / -भगवती अ० वृत्ति, पत्रांक 203 (--जीवाभिगम० पृ० 217-219) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नेरइअं नवम उद्देशक : नै रयिक नैरयिकों की उत्पत्तिप्ररूपरणा 1. नेरइए णं भंते ! नेरतिएसु उववज्जइ ? अनेरइए नेरइएसु उबवज्जइ ? पण्णवणाए लेस्सापदे ततिम्रो उद्देसनो भाणियवो जाव नाणाई / // चउत्थे सए नवमो उद्दे सो समत्तो / [1 प्र.] भगवन् ! जो नैरयिक है, क्या कह नैरयिकों में उत्पन्न होता है, या जो अनैरयिक है, वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [1 उ. (हे गौतम ! ) प्रज्ञापनासूत्र में कयित लेश्यापद का तृतीय उद्देशक यहाँ कहना चाहिए, और वह यावत् ज्ञानों के वर्णन तक कहना चाहिए। विवेचन-नैरयिकों में नैरयिक उत्पन्न होता है या प्रनरयिक ? : शंका-समाधान प्रस्तुत सूत्र में नरयिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर शास्त्रकार ने उत्तर में प्रज्ञापना सूत्र के 17 वें लेश्यापद के तृतीय उद्देशक का अतिदेश किया है। वह इस प्रकार है-(प्र.) 'भगवन् ! क्या नैरयिक हो नैरयिकों में उत्पन्न होता है या अनैरयिक नै रयिकों में उत्पन्न होता है ?' (उ.) गौतम ! नैरयिक ही नै रयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता। इस कथन का प्राशय-यहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न होने वाले जोव को तिर्यञ्च या मनुष्य-सम्बन्धी आयु तो यहीं समाप्त हो जाती है, सिर्फ नरकायु ही बंधी हुई होती है। यहाँ मर कर नरक में पहुँचते हुए मार्ग में जो एक-दो आदि समय लगते हैं, वे उसकी नरकायु में से ही कम होते हैं। इस प्रकार नरकगामी जीव मार्ग में भी नरकायु को भोगता है, इसलिए वह नैयिक हो है / ऋजुसूत्रनय को वर्तमानपर्यायपरक दृष्टि से भी यह कथन सर्वथा उचित है कि नैरयिक हो नै रयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नहीं। इसी तरह शेष दण्डकों के जोवों को उत्पत्ति के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए / , कहाँ तक ?-प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद का तीसरा उद्देशक ज्ञानसम्बन्धी वर्णन तक कहना चाहिए / वह वहाँ इस प्रकार से प्रतिपादित है-(प्र.) भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने ज्ञान (क) प्रज्ञापना सूत्र पद 17 उ. 3 (पृ. 287 म. वि.) में देखें-"गोयमा! नेरइए नेरइए उबवजह, नो अणेरइए जेरइएसु उववज्जइ' इत्यादि / (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 205 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाला होता है ?'-(उ.) गौतम! वह दो ज्ञान, तीन ज्ञान या चार ज्ञान वाला होता है। यदि दो ज्ञान हों तो–मति और श्रुत होते हैं, तीन ज्ञान हों तो मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्यायज्ञान होते हैं, यदि चार ज्ञान हों तो मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यायज्ञान होते हैं, इत्यादि जानना चाहिए। // चतुर्थ शतक : नवम उद्देशक समाप्त // 1. (क) कण्हलेस्से ण भंते ! जीवे कइसु (कयरेसु) नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा, तिसु वा, उसु वा नाणेसु होज्जा / दोसु होज्जमाणे ग्राभिणिबोहिन-सुप्रणाणेसु होज्जा, 'इत्यादि / -प्रज्ञापना पद 17 उ-३ (प. 291 म.वि.) (ख) भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक 205 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : लेस्सा दशम उद्देशक : लेश्या लेश्याओं का परिणमनादि पन्द्रह द्वारों से निरूपण 1. से नूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए ? एवं चउत्थो उद्दसत्रो पण्णवणाए चेव लेस्सापदे नेयवो जाव... परिणाम-वण्ण-रस-गंध-सुद्ध-अपसत्थ-संकिलिण्हा गति-परिणाम-पदेसोगाह-वग्गणा-ठाणमध्पबहुं // 1 // सेवं भंते ! सेवं भते! ति०। // चउत्थे सए : दसमो उद्दे सो समत्तो।। // चउत्थं सयं समत्तं / / [1 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या का संयोग पाकर तद्रप और तद्वर्ण में परिणत हो जाती है ? [1 उ.] (हे गौतम!) प्रज्ञापना सूत्र में उक्त लेश्यापद का चतुर्थ उद्देशक यहाँ कहना चाहिए; और वह यावत् परिणाम इत्यादि द्वार-गाथा तक कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है __ परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व; (ये सब बातें लेश्याओं के सम्बन्ध में कहनी चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', (यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं / ) विवेचन-लेश्यानों का परिणमनादि पन्द्रह द्वारों से निरूपण प्रस्तुत सूत्र में एक लेश्या को दूसरी लेश्या का संयोग प्राप्त होने पर वह उक्त लेश्या के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में परिणत होती है या नहीं ? इस प्रश्न को उठाकर उत्तर के रूप में प्रज्ञापना के लेश्यापद के चतुर्थ उद्देशक (परिणामादि द्वारों तक) का अतिदेश किया गया है। वस्तुत: लेश्या से सम्बन्धित परिणामादि 15 द्वारों की प्ररूपणा का अतिदेश किया प्रतिदेश का सारांश-प्रज्ञापना में उक्त मूलपाठ का भावार्थ इस प्रकार है---(प्र.) 'भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या (के संयोग) को प्राप्त करके तद्रप यावत् तत्स्पर्श रूप में बारबार परिणत होती है। . .. है Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धन __इसका तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्यापरिणामी जीव, यदि नीललेश्या के योग्य द्रव्यों, को ग्रहण करके मृत्यु पाता है, तब वह जिस गति-योनि में उत्पन्न होता है; वहां नीलेश्या-परिणामी होकर उत्पन्न होता है क्योंकि कहा है—'जल्लेसाई दवाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उबवज्जई' अर्थात्-'जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव मृत्यु पाता है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है। जो कारण होता है. वही संयोगवश कार्यरूप बन जाता है। जैसे--कारणरूप मिट संयोग से घटादि कार्यरूप बन जाती है, वैसे ही कृष्णलेश्या भी कालान्तर में साधन-संयोगों को पाकर नीललेश्या के रूप में परिणत (परिवर्तित) हो जाती है / ऐसी स्थिति में कृष्ण और नोललेश्या में सिर्फ औपचारिक भेद रह जाता है, मौलिक भेद नहीं। प्रज्ञापना में एक लेश्या का लेश्यान्तर को प्राप्त कर तद् प यावत् तत्स्पर्श रूप में परिणत होने का कारण पूछने पर बताया गया है--जिस प्रकार छाछ का संयोग मिलने दूध अपने मधुरादि गुणों को छोड़कर छाछ के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में परिवर्तित हो जाता है, अथवा जैसे स्वच्छ वस्त्र रंग के संयोग से उस रंग के रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-रूप में परिणत हो जाता है, वैसे ही कृष्णलेश्या भी नीललेश्या का संयोग पा कर तद्र प या तत्स्पर्श रूप में परिणत हो जाती है। जैसे कृष्णलेश्या का नोललेश्या में परिणत होने का कहा, वैसे ही नीललेश्या कापोतलेश्या को, कापोत तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को पाकर उसके रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शरूप में परिणत हो जाती है, इत्यादि सब कहना चाहिए।' पारिणामादि द्वार का तात्पर्य-लेश्यापद के चतुर्थ उद्देशक में परिणामादि 15 द्वारों का यहाँ अतिदेश किया गया है, उसका तात्पर्य यह है-परिणाम द्वार के विषय में ऊपर कह दिया गया है।' वर्णद्वार-कृष्णलेश्या का वर्ण मेघादि के समान काला, नीललेश्या का भ्रमर आदिवत नीला, कापोतलेश्या का वर्ण चरसार (कत्थे) को समान कापोत, तेजोलेश्या का शशक के रक्त के समान लाल. पदमलेश्या का चम्पक पुष्प आदि के समान पीला और शुक्ललेश्या का शंखादि के समान श्वेत है / रसद्वार-कृष्णलेश्या का रस नीम के वक्ष के समान तिक्त (कटु), नीललेश्या का सोंठ आदि के समान तीखा, कापोतलेश्या का कच्चे बेर के समान कसैला, तेजोलेश्या का पके हुए आम के समान खटमोठा, पद्मलेश्या का चन्द्रप्रभा आदि मदिरा के समान तीखा, कसैला और मधुर (तीनों संयुक्त) है, तथा शुक्ललेश्या का रस गुड़ के समान मधुर है / गन्धद्वार--कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्याएँ दुरभिगन्ध वाली हैं, और तेजो, पद्म एवं शुक्ल ये तीन लेश्याएँ सुरभिगन्ध वाली हैं / शुद्ध-प्रशस्त संक्लिष्ट-उष्णादिद्वार-कृष्ण, नील और कापोत, ये तीन लेश्याएँ अशुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, शीत ---- - 1. (क) से गणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए, तावण्णत्ताए, तागंधत्ताए, तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ?' 'हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / ' से केणट्रणं भंते एवं उच्चइ-कण्हलेस्सा"जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ?' 'गोयमा! से जहानामए खीरे दुसि पप्प, सुद्ध वा वत्थे रामं पप्प तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए भुज्जो भज्जो परिणमइ, से एएणट्रेणं गोयमा! एवं उच्चइ-कण्हलेस्सा इत्यादि। --प्रज्ञापना० लेश्यापद 17, उ-४ (ख) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 205 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतक : उद्देशक-१०] और रुक्ष हैं, तथा दुर्गति की कारण हैं / तेजो, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएँ शुद्ध, प्रशस्त, असंक्लिष्ट, उष्ण और स्निग्ध हैं, तथा सुगति की कारण हैं। परिणाम-प्रदेश-वर्गणा- प्रवगाहना. स्थानादि द्वार-लेश्याओं के तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट / इनके भी तीन-तीन भेद करने से नौ इत्यादि भेद होते हैं / प्रत्येक लेश्या अनन्त प्रदेशवाली है। प्रत्येक लेश्या की अवगाहना असंख्यात अाकाश प्रदेशों में है। कृष्णादि छहों लेश्याओं के योग्य द्रव्यवर्गणाएं औदारिक प्रादि वर्गणाओं की तरह अनन्त हैं। तरतमता के कारण विचित्र अध्यवसायों के निमित्त रूप कृष्णादिद्रव्यों के समह असंख्य हैं क्योंकि अध्यवसायों के स्थान भी असंख्य हैं। अल्पबहत्वद्वार-लेश्याओं के स्थानों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है--द्रव्यार्थरूप से कापोतलेश्या के जघन्य स्थान सबसे थोड़े हैं, द्रव्यार्थरूप से नीललेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं, द्रव्यार्थरूप से कृष्ण लेश्या के जघन्य स्थान असंख्यगुथे हैं, द्रव्यार्थरूप से तेजोलेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं और द्रव्यार्थरूप से पद्मलेश्या के जघन्य स्थान उससे असंख्य गुणे हैं और द्रव्यार्थरूप से शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान उससे भी असंख्यगुणे हैं / इत्यादिरूप से सभी द्वारों का वर्णन प्रज्ञापनासूत्रोक्त लेश्याषद के चतुर्थ उद्दे शक के अनुसार जानना चाहिए।' // चतुर्थ शतक : दशम उद्देशक समाप्त // चतुर्थ शतक सम्पूर्ण 1. (क) देखिये--प्रज्ञापना० मलयगिरि टीका, पद 17, उ. 4 में परिणामादि द्वार की व्याख्या / (ख) भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 205-206 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं सयं : पंचम शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र का यह पंचम शतक है / इस शतक में सूर्य, चन्द्रमा, छद्मस्थ एवं केवली की ज्ञानशक्ति, शब्द, आयुष्य वृद्धि-हानि आदि कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है / इस शतक के भी दस उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक के प्ररूपण स्थान-चम्पानगरी का वर्णन करके विभिन्न दिशाओं-विदिशाओं से सुर्य के उदय-अस्त का एवं दिन-रात्रि का प्ररूपण है। फिर जम्बूद्वीप में दिवस-रात्रि कालमान का विविध दिशानों एवं प्रदेशों में ऋतु से लेकर उत्सपिणीकाल तक के अस्तित्व का तथा लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्कराद्ध में सूर्य के उदयास्त आदि का विचार किया गया है। द्वितीय उद्देशक में विविध पहलुओं से चतुविध वायु का, चावल आदि की पूर्व-पश्चादवस्था का, अस्थि, अंगार आदि की पूर्व-पश्चादवस्था का, तथा लवण-समुद्र को लम्बाई-ऊँचाई संस्थान आदि का निरूपण है। ततीय उद्देशक में एक जीव द्वारा एक समय में इह-पर (उभय) भव सम्बन्धी आयुष्यवेदन के मत का निराकरण करके यथार्थ प्ररूपणा तथा चौबीस दण्डकों और चतुर्विध योनियों की अपेक्षा आयुष्य-सम्बन्धी विचारणा की गई है। चतुर्थ उद्देशक में छद्मस्थ और केवली की शब्दश्रवणसम्बन्धी सीमा तथा हास्य-औत्सुक्य, निद्रा, प्रचला सम्बन्धी विचारणा की गई है। फिर हरिणगमैषी देव द्वारा गर्भापहरण का, अतिमुक्तक कुमारश्रमण की बालचेष्टा एवं भगवत्समाधान का, देवों के मनोगत प्रश्न का भगवान् द्वारा मनोगत समाधान का, देवों को 'नो-संयत' कहने का, देवभाषा का, केवली और छमस्थ के अन्तकर आदि का, केवली के प्रशस्त मन-वचन का, उनके मन-वचन को जानने में समर्थ वैमानिक देव का, अनुत्तरोपपातिक देवों के असीम-मनः सामर्थ्य तथा उपशान्तमोहत्व का, केवली के प्रतीन्द्रियप्रत्यक्ष का, अवगाहन सामर्थ्य का तथा चतुर्दशपूर्वधारी के लब्धि-सामर्थ्य का निरूपण है। पंचम उद्देशक में सर्वप्राणियों के एवम्भूत-प्रनेवम्भूत वेदन का, तथा जम्बूद्वीप में हुए कुलकर, तीर्थंकर आदि श्लाध्य पुरुषों का वर्णन है / * * Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : प्राथमिक ] [ 401 * छठे उद्देशक में अल्पायु-दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों का, विक्रेता-क्रेता को किराने से सम्बन्धित लगने वाली क्रियाओं का, अग्निकाय के महाकर्म-अल्पकर्म युक्त होने का, धनुर्धर तथा धनुष-सम्बन्धित जीवों को उनसे लगने वाली क्रियाओं का, नैरयिक विकुर्वणा का, आधाकर्मादि दोषसेवी साधु का, प्राचार्य-उपाध्याय के सिद्धिगमन का तथा मिथ्याभ्याख्यानी के दुष्कर्मबन्ध का प्ररूपण किया गया है। सातवें उद्देशक में परमाणु और स्कन्धों के कम्पन, अवगाहन, प्रवेश तथा सार्धादि का एवं उनके परस्पर स्पर्श का द्रव्यादिगत पुद्गलों की कालापेक्षया स्थिति, अन्तरकाल, अल्पबहुत्व का, चौबीस दण्डक के जीवों के आरम्भ-परिग्रह का पंचहेतु-अहेतु का निरूपण है। * आठवें उद्देशक में द्रव्यादि की अपेक्षा सप्रदेशता-अप्रदेशता की, संसारी एवं सिद्ध जोवों को वृद्धि हानि और अवस्थिति के कालमान की, उनके सोपचयादि की प्ररूपणा है / * नवे उद्देशक में राजगृह-स्वरूप, समस्त जीवों के उद्योत-अन्धकार तथा समयादि कालज्ञान का, पापित्यों द्वारा लोकसम्बन्धी समाधान का एवं देवों के भेद-प्रभेदों का वर्णन है / * दसवें उद्देशक में चम्पा में वणित चन्द्रमा के उदय-अस्त ग्रादि का अतिदेशपूर्वक वर्णन है / ' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा-१ (बिसयाणुककमो) पृ. 36 से 40 (ख) भगवतीमूत्र टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड 2, विषयसूची पृ. 3 से 5 तक Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं सयं : पंचम शतक पंचम शतक की संहग्रणी गाथा 1. चंप रवि 1 प्रणिल 2 गंठिय 3 सद्दे 4 छउमायु 5-6 एयण 7 णियंठे 8 / रायगिह 6 चंपाचंदिमा 10 य दस पंचमम्मि सते // 1 // [1] (गाथा का अर्थ)----पांचवें शतक में ये दस उद्देशक है-प्रथम उद्देशक में चम्पा नगरी में सूर्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। द्वितीय उद्देशक में वायु-सम्बन्धी प्ररूपण है। तृतीय उद्देशक में जालग्रन्थी का उदाहरण देकर तथ्य का निरूपण किया है / चतुर्थ उद्देशक में शब्द-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। पंचम उद्देशक में छद्मस्थ के सम्बन्ध में वर्णन है। छठे उद्देशक में प्रायुष्य की वृद्धि-हानि-सम्बन्धी निरूपण है। सातवें उद्देशक में पुद्गलों के कम्पन का वर्णन है। आठवें उद्देशक में निर्गन्थी-पुत्र अनगार द्वारा पदार्थ-विषयक विचार किया है। नौवें उद्देशक में राजगृह नगर सम्बन्धी पर्यालोचन है और चम्पानगरी में वर्णित चन्द्रमा-सम्बन्धी प्ररूपणा है। पढमो उद्देसओ : रवि प्रथम उद्देशक : रवि प्रथम उद्देशक का प्ररूपरणा-स्थान : चम्पानगरी 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था।' वण्णो / तोसे णं चंपाए नगरीए पुण्णमद्दे नामे चेतिए होत्था।' वण्णओ। सामी समोसढे जाव' परिसा पडिगता। [2] उस काल और समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसका वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। उस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र नाम का चैत्य (व्यन्त रायतन) था / उसका भी वर्णन औषपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। (एक बार) वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे, (समवसरण लगा)"यावत् परिषद् भगवान् को वन्दन करने और उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए गई और यावत् परिषद् वापस लौट गई। विवेचन-प्रथम उद्देशक का प्ररूपण-स्थान : चम्पानगरी-प्रस्तुत सूत्र में प्रथम उद्देशक के उपोद्घात में चम्पानगरी में, पूर्णभद्र नामक व्यन्तरायतन में भगवान् महावीर के पदार्पण, समवसरण, दर्शन-वन्दनार्थ परिषद् का आगमन तथा धर्मोपदेश श्रवण के पश्चात् पुनः गमन आदि 1. चम्पानगरी और पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन औपपातिक सूत्र से जान लेना। 2. यहाँ जाव शब्द से परिषद्-निर्गमन से लेकर प्रतिगमन तक सारा वर्णन पूर्ववत् / Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [ 403 का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया गया है, ताकि पाठक यह स्पष्टतया समझ सकें कि प्रथम उद्देशक में वणित विषयों का निरूपण चम्पानगरी में हुआ था।' चम्पानगरी : तब जौर अब-औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी का विस्तृत वर्णन मिलता है, तदनुसार 'चम्पा' ऋद्धियुक्त, स्तमित एवं समृद्ध नगरी थी। महावीर-चरित्र के अनुसार अपने पिता श्रेणिक राजा की मृत्यु के शोक के कारण सम्राट् कोणिक मगध की राजधानी राजगृह में रह नहीं सकता था, इस कारण उसने वास्तुशास्त्रियों के परामर्श के अनुसार एक विशाल चम्पावृक्ष बाले स्थान को पसंद करके अपनी राजधानी के हेतु चम्पानगरी बसाई। इसी चम्पानगरी में दधिवाहन राजा की पुत्री चन्दनबाला का जन्म हुचा था। पाण्डवकुलभूषण प्रसिद्ध दानवीर कर्ण ने इसी नगरी को अंगदेश की राजधानी बनाई थी। दशवकालिक सूत्र-रचयिता प्राचार्य शय्यंभव सूरि ने राजगह से आए हुए अपने लघुवयस्क पुत्र मनक को इसी नगरी में दीक्षा दी थी और यहीं दशवकालिक सूत्र की रचना की थी। बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी के पांच कल्याणक इसी नगरी में हुए थे। इस नगरी के बंद हुए दरवाजों को महासती सुभद्रा ने अपने शील की महिमा से अपने कलंक निवारणार्थ कच्चे सत की चलनी बांध कर उसके द्वारा कए में से पानी निकाला और तीन दरवाजों पर छींट करा उन्हें खोला था। चौथा दरवाजा ज्यों का त्यों बंद रखा था। परन्तु बाद में वि. सं. 1360 में लक्षणावती के हम्मीर और सुलतान समदीन ने शंकरपुर का किला बनाने हेतु उपयोगी पाषाणों के लिए इस दरवाजे को तोड़ कर इसके कपाट ले लिये थे / वर्तमान में चम्पानगरी चम्पारन कस्बे के रूप में भागलपुर के निकटवर्ती एक जिला है / महात्मा गाँधीजी ने चम्पारन में प्रथम सत्याग्रह किया था / जम्बूद्वीप में सूर्यों के उदय-अस्त एवं रात्रि-दिवस से सम्बन्धित प्ररूपणा 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे गोतमे गोत्तेणं जाव एवं वदासी [3] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी (शिष्य) गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति अनगार थे, यावत् उन्होंने इस प्रकार पूछा 4. जंबुद्दोवे भंते ! दीवे सूरिया उदीण-पादीणमुग्गच्छ पादीण-दाहिणमागच्छति ? पादीण-दाहिणमुगच्छ दाहिण-पडोणमागच्छंति ? दाहिण-पडोणमुगच्छ पड़ीण-उदोणमागच्छंति ? पडीण-उदीणमुग्गच्छ उदोचि-पादीणमागच्छंति ? 1. भगवती सुत्र अ.वत्ति, पत्रांक 207 2. (क) जिनप्रभसू रिरनित 'चम्पापुरीकल्प' (ख) हेमचन्द्राचार्यरचित महावीरचरित्र सर्ग 12, श्लोक 180 से 189 तक (ग) प्राचार्य प्राय्यभवसूरिरचित परिशिष्टपर्व सर्ग 5, श्लोक 68,80, 85 (घ) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 144 3. 'जाव' पद से गौतम स्वामी का समस्त वर्णन एवं उपासनादि कहना चाहिए / Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दोवे सूरिया उदीण-पादोणमुग्गच्छ जाव' उदोचि-पादोणमागच्छति। [4 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य क्या उत्तरपूर्व (ईशान-कोण) में उदय हो कर पूर्वदक्षिण (आग्नेय कोण) में अस्त होते (होने आते) हैं ? अथवा प्राग्नेय कोण में उदय होकर श्चिम (नैऋत्य कोण) में अस्त होते हैं? अथवा नैऋत्य कोण में उदय होकर पश्चिमोत्तर (वायव्यकोण) में अस्त होते हैं, या फिर पश्चिमोत्तर (वायव्य कोण) में उदय होकर उत्तरपूर्व (ईशान कोण) में अस्त होते हैं ? [4 उ.] हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीप में सूर्य उत्तरपूर्व-ईशान कोण में उदित हो कर अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में प्रस्त होते हैं, यावत् (पूर्वोक्त कथनानुसार)...... ईशानकोण में अस्त होते हैं / 5. जदा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणडढे दिबसे भवति तदा णं उत्तरड्ढे दिवसे भवति ? जदा णं उत्तरड्ढे दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं राती भवति? ___ हता, गोयमा ! जदा णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे जाव राती भवति / [5 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है ? और जब जम्बूद्वीप के उत्तरार्द्ध में दिन होता है, तब क्या मेरुपर्वत से पूर्व-पश्चिम में रात्रि होती है ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होता है; अर्थात्--) जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन में होता है, तब यावत् रात्रि होती है। 6. जदा णं भंते ! जंबु० मंदरस्स पन्वयस्स पुरथिमेणं दिवसे भवति तदा णं पच्चस्थिमेश वि दिवसे भवति ? जदा णं पच्चस्थिमेणं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्त उत्तरदाहिणेणं रातो भवति ? हंता, गोयमा! जदा गं जबु० मंदर० पुरस्थिमेणं दिवसे जाव राती भवति / [6 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व में दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी दिन होता है ? और जब पश्चिम में दिन होता है, , तब क्या जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है ? [6 उ.] गौतम ! हाँ, इसी प्रकार होता है; अर्थात् जब जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पूर्व में दिन होता है, तब यावत्-रात्रि होती है। विवेचन जम्बूद्वीप में सर्यों के उदय-अस्त एवं दिवस-रात्रि से सम्बन्धित प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में से दो सूत्रों में जम्बूद्वीपान्तर्गत सूर्यों का विभिन्न विदिशाओं (कोणों) से उदय और अस्त का निरूपण किया गया है, तथा पिछले दो सूत्रों में जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध, उत्तराद्ध, पूर्व-पश्चिम, पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि की अपेक्षा से दिन और रात का प्ररूपण किया गया है। 1. यहाँ 'जाव' पद से सम्पूर्ण प्रश्नगत वाक्य सूचित किया गया है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [405 सूर्य के उदय-प्रस्त का व्यवहार : दर्शक लोगों को दष्टि की अपेक्षा से यहाँ जो दिशा विदिशा या समय की दृष्टि से सूर्य का उदय-अस्त बताया गया है, वह सब व्यवहार दर्शकों की दृष्टि की अपेक्षा से बताया है, क्योंकि समग्न भूमण्डल पर सूर्य के उदय-अस्त का समय या दिशा-विदिशा (प्रदेश) नियल नहीं है / वास्तव में देखा जाए तो सूर्य तो सदैव भूमण्डल पर विद्यमान रहता है, किन्तु जब सूर्य के समक्ष किसी प्रकार की आड़ (ोट या व्यवधान) आ जाती है, तब (उस समय) उस देश (उस दिशा-विदिशा) के लोग उक्त सूर्य को देख नहीं पाते, तब उस देश के लोग इस प्रकार का व्यवहार करते हैं-अब सूर्य अस्त हो गया है / जब सूर्य के सामने किसी प्रकार को आड़ नहीं होती, तब उस देश (दिशा-विदिशा) के लोग सूर्य को देख पाते हैं, और वे इस प्रकार का व्यवहार करते हैं--अब (इस समय) सूर्य उदय हो गया है। एक प्राचार्य ने कहा है—'सूर्य प्रति समय ज्यों-ज्यों आकाश में आगे गति करता जाता है, त्यों-त्यों निश्चित ही इस तरफ रात्रि होती जाती है / इसलिए सूर्य की गति पर ही उदय-अस्त का व्यवहार निर्भर है। मनुष्यों की (दष्टि की अपेक्षा से उदय और प्रस्त दोनों क्रियाएँ अनियत हैं, क्योंकि अपने-अपने देश (दिशा) भेद के कारण कोई किसी प्रकार का और दुसरा किसी अन्य प्रकार का व्यवहार करते हैं / इससे सिद्ध है कि सूर्य आकाश में सब दिशाओं में गति करता है। इस प्ररूपणा के अनुसार इस मान्यता का स्वतः निराकरण हो जाता है कि "सूर्य पश्चिम की ओर के समुद्र में प्रविष्ट होकर पाताल में चला जाता है, फिर पूर्व की ओर के समुद्र पर उदय होता है।" सूर्य सभी दिशाओं में गतिशील होते हुए भी रात्रि क्यों ?-यद्यपि सूर्य सभी दिशाओं (देशों) में गति करता है, तथापि उसका प्रकाश अमुक सीमा तक ही फैलता है, उससे आगे नहीं, इसलिए जगत् में जो रात्रि-दिवस का व्यवहार होता है, वह निर्बाध है। प्राशय यह है कि जितनी सीमा तक जिस देश में सूर्य का प्रकाश, जितने समय तक पहुँचता है, उतनी सीमा तक उस प्रदेश में, उतने समय तक दिवस होता है, शेष सीमा में, शेष प्रदेश में उतने समय रात्रि होती है। इसलिए सूर्य के प्रकाश का क्षेत्र मर्यादित होने के कारण रात्रि-दिवस का व्यवहार होता है। एक ही समय में दो दिशाओं में दिवस कैसे ?–जम्बूद्वीप में सर्य दो हैं, इसलिए एक ही समय में दो दिशाओं में दिवस होता है और दो दिशामों में रात्रि होती है / दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध का प्राशय-यदि यह अर्थ माना जाएगा कि जम्बूद्वीप के उत्तर के सम्पूर्ण खण्ड और दक्षिण के सम्पूर्ण खण्ड में दिवस होता है, तब तो सर्वत्र दिवस होगा, रात्रि कहीं नहीं ; मगर यहाँ उत्तरार्द्ध और दक्षिणार्द्ध के ये अर्थ अभीष्ट न होकर उत्तरदिशा में आया हुआ अमुक भाग 'उत्तरार्द्ध' और दक्षिण दिशा में आया हुआ अमुक भाग 'दक्षिणार्द्ध' अर्थ ही अभीष्ट है। इसी कारण पूर्व और पश्चिम दिशा में रात्रि का होना संगत हो सकता है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 207 (ख) जह-जह समये-समये पुरमो संचरइ भक्खरो गयणे / तह-तह इग्रोऽवि नियमा, जायइ रयणी य भावत्थो / / 1 // एवं च सइ नराणं उदयत्थमणाई होतिऽनिययाई / सयदेसभेए कस्सइ किचि ववदिस्सइ नियमा // 2 / / -भगवती अ, वृत्ति, पत्रांक 207 में उद्धत Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चार विदिशाएँ, अर्थात् चार कोण-उदीण-पाईणं - उत्तर-पूर्व के बीच की दिशा = ईशानकोण ; दाहिण-पडोणं =दक्षिण और पश्चिम के बीच की दिशा = नैऋत्यकोण ; पाईण-दाहिणं - पूर्व और दक्षिण के बीच की दिशा = आग्नेय कोण, तथा पडीण-उदोणं = पश्चिम और उत्तर के बीच की दिशा- वायव्य कोण / ' उदोण = उत्तर दिशा के पास का प्रदेश उदीचीन, तथा पाईण प्राची (पूर्व) दिशा के निकट का प्रदेश-प्राचीन / जम्बूद्वीप में दिवस और रात्रि का कालमान-- 7. अदा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे उक्कोसए अद्वारसमहत्ते दिवसे भवति तदा गं उत्तरड्ढे वि उक्कोसए प्रद्वारसमुहत्ते दिवसे भवति ? जदा गं उत्तरड्ढे उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरस्थिम-पच्चस्थिमेणं जहनिया दुवालसमुहता राती भवति / हंता, गोयमा ! जदा णं जंब० जाव दुवालसमुहुत्ता राती भवति / [7 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप' नामक द्वीप के दक्षिणार्द्ध में उत्कृष्ट अठारह मुहत्तं का दिन होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी उत्कृष्ट (सब से बड़ा) अठारह मुहूर्त का दिन होता है ?, और जब उत्तरार्द्ध में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब क्या जम्बूद्वीप में मन्दर (मेरु) पर्वत से पूर्व-पश्चिम में जघन्य (छोटी से छोटी) बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? [7 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होती है / अर्थात्-.) जब जम्बूद्वीप में, यावत्..." बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। 8. जदा णं जंबु० मंदरस्स पुरथिमेणं उक्कोसए अट्ठारस जाव तदा णं जंबुद्दोवे दोवे पच्चस्थिमेण वि उक्को० अटारसमुहत्ते दिवसे भवति ? जया णं पच्चत्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं भंते ! जंबद्दीवे दीवे उत्तर० दुवालसमुहत्ता जाव रातो भवति ? हंता, गोयमा ! जाव भवति / / [8 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मेरु-पर्वत से पूर्व में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के पश्चिम में भी उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है ?, और भगवन् ! जब पश्चिम में उत्कृष्ट अठारह मुहर्त का दिवस होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के उत्तर में जघन्य (छोटी से छोटी) बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! यह इसी तरह-यावत्..... होता है / 6. जदा णं भंते ! जंबु० दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति ? जदा गं उत्तरे प्रद्वारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं जंबु० मंदरस्स पन्चयस्स पुरस्थिम-पच्चस्थिमेणं सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता रातो भवति ? __ हंता, गोयमा ! जदा णं जंबु० जाय रातो भवति / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 207-208 (ख) भगवती० (विवेचनयुक्त) (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ-७५३ से 756 तक Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [407 [9 प्र.] हे भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में अठारह मुहुर्तानन्तर (मुहूर्त से कुछ कम) का दिवस होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध (उत्तर) में भी अठारह मुहूर्तानन्तर का दिवस होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहर्तानन्तर का दिन होता है, तब क्या जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत से पूर्व पश्चिम दिशा में सातिरेक (कुछ अधिक) बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? [9 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होती है; अर्थात्--) जब जम्बूद्वीप के ....."यावत् रात्रि होती है। 10. जदा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पुरस्थिमेणं अट्ठारसमुहताणतरे दिवसे भवति तदा णं पच्चस्थिमेणं अट्ठारसमहत्ताणतरे दिवसे भवति ? जदा णं पच्चस्थिमेणं अद्वारसमहत्ताणं. तरे दिवसे भवति तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं साइरेगा दुवालसमुहत्ता राती भवति? हंता, गोयमा ! जाव भवति / [10 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मन्दराचल से पूर्व में अठारह मुहानन्तर का दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी अठारह मुहर्त्तानन्तर का दिन होता है ?, और जब पश्चिम में अठारह मुहूर्तानन्तर का दिन होता है, तब क्या जम्बूद्वीप में मेरु-पर्वत से उत्तर दक्षिण में भी सातिरेक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? [10 उ.) हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह) यावत् होती है। 11. एवं एतेणं कमेणं ओसारेयवं-सत्तरसमुहुत्ते दिवसे, तेरस मुहुत्ता राती। सत्तरसमुहत्ताणतरे दिवसे, सातिरेगा तेरसमुहुत्ता राती। सोलसमुहुत्ते दिवसे, चोदसमुहुत्ता राती / सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा चोइसमूहुत्ता राती। पतरसमुहुत्ते दिवसे, पन्नरसमहुत्ता राती / पन्नरसमुहत्ताणंतरे दिवसे, सातिरेगा पन्नरसमुहता राती। चोद्दसमुहुते दिवसे, सोलसमहुत्ता राती। चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे, सातिरेगा सोलसमुहुत्ता रातो। तेरसमुहत्ते दिवसे, सत्तरसमुहुत्ता रातो। तेरसमहत्ताणंतरे दिवसे, सातिरेगा सत्तरसमहत्ता राती। [11] इस प्रकार इस क्रम से दिवस का परिमाण बढ़ाना-घटाना और रात्रि का परिमाण घटाना-बढ़ाना चाहिए / यथा-जब सत्रह मुहूर्त का दिवस होता है, तब तेरह मुहूर्त्त की रात्रि होती है / जब सत्रह मुहूर्तानन्तर का दिन होता है, तब सातिरेक तेरह मुहूर्त की रात्रि होती है / जब सोलह मुहूर्त का दिन होता है, तब चौदह मुहूर्त की रात्रि होती है / जब सोलह मुहूर्तानन्तर का दिन होता है, तब सातिरेक चौदह मुहर्त की रात्रि होती है / जब पन्द्रह मुहर्त का दिन होता है, तब पन्द्रह मुहर्त की रात्रि होती है / जब पन्द्रह मुहूत्तन्तिर का दिन होता है, तब सातिरेक पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है / जब चौदह मुहूर्त का दिन होता, तब सोलह मुहूर्त की रात्रि होती है। जब चौदह मुहूर्तानन्तर का दिन होता है, तब सातिरेक सोलह मुहूर्त की रात्रि होती है। जब तेरह मुहूर्त का दिन होता है, तब सत्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। जब तेरह मुहूर्तानन्तर का दिन होता है, तब सातिरेक सत्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। . Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409 ] [ व्याख्याप्रप्तिसून 12. जदा णं जंबु० दाहिगड्ढे जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरड्ढे वि? जया णं उत्तरड्ढे तया णं जंबुदीवे दीवे मंदरस्स पचयस्स पुरथिमे-पच्चस्थिमे णं उक्कोसिया प्रहारसमुहुत्ता राती भवति ? हंता, गोयमा ! एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव राती भवति / [12 प्र. भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिणार्द्ध में जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी (इसी तरह होता है)? और जब उत्तरार्द्ध में भी इसी तरह होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व और पश्चिम में उत्कष्ट (सबसे बड़ी) अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है ? [12 उ.] हाँ, गौतम ! इसी (पूर्वोक्त) प्रकार से सब कहना चाहिए, यावत्.......रात्रि होती है। 13. जदा णं भंते ! जंब० मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं पच्चत्थिमेण वि०? जया शं पच्चस्थिमेण वि तदा णं जंबु० मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राती भवति ? हंता, गोयमा ! जाव राती भवति / [13 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व में जघन्य (सबसे छोटा) बारह मुहर्त का दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी इसी प्रकार होता है ? और जब पश्चिम में इसी तरह होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के मन्दर-पर्वत के उत्तर और दक्षिण में उत्कृष्ट (सबसे बड़ी) अठारह मुहूर्त को रात्रि होती है ? [13 उ.] हाँ, गौतम ! यह उसी तरह यावत्........ रात्रि होती है। विवेचन-जम्बूद्वीप में दिवस और रात्रि का काल-परिमाण-प्रस्तुत सात सूत्रों में जम्बूद्वीप में दिन और रात का मुहत्तों के रूप में परिमाण बताया गया है। दिन और रात्रि की कालगणना का सिद्धान्त-जैन सिद्धान्त की दृष्टि से दिन और रात्रि मिला कर दोनों कुल 30 मुहूर्त के होते हैं। दक्षिण और उत्तर में दिन और रात्रि का उत्कृष्ट मान 18 मुहूर्त का होगा तो पूर्व और पश्चिम में रात्रि 12 मुहूर्त की होगी / यदि रात्रि पूर्व व पश्चिम में उत्कृष्टतः 18 मुहूर्त की होगी तो दक्षिणार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध में जघन्य 12 मुहूर्त का दिन होगा, इसी तरह पूर्व पश्चिम में जघन्य 12 मुहूत्तं का दिन होगा तो उत्तर एवं दक्षिण में रात्रि उत्कृष्ट 18 मुहूर्त क्षणार्द्ध, उत्तराद्ध अथवा पूर्व और पश्चिम में 18 मूहर्तानन्तर का दिन होगा तो पूर्व और पश्चिम में प्रथवा उत्तर और दक्षिण में रात्रि सातिरेक 12 मुहत्तं की होगी। तात्पर्य यह है कि 30 मुहूर्त अहोरात्र में से दिवस का जितना भाग बढ़ता या घटता है, उतना ही भाग, रात्रि का घटता या बढ़ता जाता है। सूर्य के कुल 184 मण्डल हैं। उनमें से जम्बूद्वीप में 65 और लवणसमुद्र में शेष 116 मण्डल हैं 1 जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल में होता है, तब 18 मुहूर्त का दिन होता है और 12 मुहूर्त की रात्रि होती है। जब सूर्य बाह्यमण्डल से प्राभ्यन्तर मण्डल की ओर पाता है, तब क्रमश: प्रत्येक मण्डल में दिवस बढ़ता जाता है और रात्रि Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [ 409 घटती जाती है; और जब सूर्य आभ्यन्तरमण्डल से बाह्यमण्डल की ओर प्रयाण करता है, तब प्रत्येक मण्डल में डेढ़ मिनट से कुछ अधिक रात्रि बढ़ती जाती है तथा दिन उतना ही घटता जाता है / जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से निकल कर उसके पास वाले दूसरे मण्डल में जाता है, तब मुहर्त के 10 भाग कम अठारह मुहत्तं का दिन होता है, जिसे शास्त्र में 'अष्टादश-मुहर्तानन्तर' कहते हैं, क्योंकि यह समय 18 मुहूर्त का दिन होने के तुरंत बाद में प्राता है। क्रमशः सूर्य की विभिन्न मण्डलों में गति के अनुसार दिन-रात्रि का परिमाण इस प्रकार है (1) दूसरे से 31 वें मण्डल के अर्द्ध भाग में जब सूर्य जाता है, तब दिन 17 मुहूर्त का, रात्रि 13 मुहूर्त की। (2) 32 वें मण्डल के अर्द्ध भाग में जब सूर्य जाता है, तब 1 मुहूर्त के 21 भाग कम 17 मुहूर्त का दिन और रात्रि मुहूर्त के 6, भाग अधिक 13 मुहूर्स / / (3) ३३वें मण्डल से ६१वें मण्डल में जब सूर्य जाता है, तब 16 मुहूर्त का दिन, 14 मुहूर्त की रात्रि। (4) सूर्य जब दूसरे से ९२वें मण्डल के अर्द्धभाग में जाता है, तब 15-15 मुहर्त के दिन और रात्रि। (5) सूर्य जब १२२वें मण्डल में जाता है, तब दिन 14 मुहूर्त का होता है। (6) सूर्य जब 1533 मण्डल के अर्द्धभाग में जाता है तब दिन 13 मुहूर्त का होता है। (7) सूर्य जब दूसरे से सर्व बाह्य १८३वें मण्डल में होता है, तब' ठीक 12 मुहूर्त का दिन और 18 मुहूर्त की रात होती है। ऋतु से लेकर उसपिरगीकाल तक विविध दिशाओं एवं प्रदेशों (क्षेत्रों) में अस्तित्व को प्ररूपरणा--- 14. जया णं भंते ! जंबु० दाहिणड्ढे वासाणं पढमें समए पडिवज्जति तया णं उत्तरड्ढे वि 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 208-209 (ख) भगवती-हिन्दी विवेचनयुक्त (पं. घेवरचन्दजी) भा. 2, पृ. 760-761 (ग) दिन और रात्रि का कालमान-घंटों के रूप में, 11 मुहर्त =1 घंटा 1 मूहर्त = 48 मिनट / यदि सूर्य 1 मण्डल में 48 घंटे रहता हो तो 48 को 10 का भाग करके भाजक संख्या को तिगुनी करने पर जितने घंटे मिनट आवें, उतनी संख्या दिन के माप की होती है। जैसे 48 घंटे सूर्य रहता है तो 48 : 10 = 43 भागशेष = 1 = 30 मिनट / 10:30 करने से 3 सिर्फ रहता है। इस प्रकार 48 को 10 का भाग देने से 4 // घंटे और 3 मिनट पाते हैं। फिर उसे तीन गुणा करने पर 141 घंटे 9 मिनट आते हैं। अभिप्राय यह है कि जब तक सूर्य एक मण्डल में 48 घंटे तक रहता है, वहाँ तक इतने घंटे (141 घंटे, 9 मिनट) का दिन बड़ा होता है। रात्रि के लिए भी यही बात समझना / अर्थात् --इतना बड़ा दिन हो तो रात्रि 9 // घंटे, 6 मिनट की होती है। -भगवतो. टोकानुवाद टिप्पण. खण्ड 2 पृ. 150 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ ? जया णं उत्तरढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थितपच्चस्थिमेणं प्रणतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवज्जति ? हंत, गोयना! जदा णं जंबु० 2 दाहिणड्ढे वासाणं प० स० पडिवज्जति तह चेव जाव पडिवज्जति / [14 प्र.] 'भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में वर्षा (ऋतु) (चौमासे की मौसम) का प्रथम समय होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में वर्षा-ऋतु का प्रथम समय होता है, तब जम्बूद्वीप में मन्दर-पर्वत से पूर्व पश्चिम में वर्षाऋतु का प्रथम समय अनन्तर-पुरस्कृत समय में होता है ? (अर्थात्-जिस समय दक्षिणार्द्ध में वर्षा ऋतु का प्रारम्भ होता है, उसी समय के तुरंत पश्चात् दुसरे समय में मन्दरपर्वत से पूर्व-पश्चिम में वर्षाऋतु प्रारम्भ होती है ?) [14 उ.] 'हाँ, गोतम ! (यह इसी तरह होता है / अर्थात्-) जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय होता है. तब उसी तरह यावत्""होता है / ' 15. जाणं भंते ! जंब० मंदरस्स० पुरथिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जति तयाणं पच्चस्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ ? जया णं पच्चत्यिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं जाव मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणणं अणंतरपच्छाकडसमयसि वासाणं 50 स० पडिबन्ने भवति ? हता, गोयमा! जदा णं जंबु० मंदरस्स प.वयस्स पुरस्थिमेणं एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव पडिबन्ने भवति / [15 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप में मन्दराचल से पूर्व में वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय होता है, तब पश्चिम में भी क्या वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय होता है ? और जब पश्चिम में वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय होता है, तब, यावत्""मन्दरपर्वत से उत्तर दक्षिण में वर्षा (ऋतु) का प्रथम समय अनन्तर-पश्चात्कृत् समय में होता है ? (अर्थात्- मन्दरपर्वत से पश्चिम में वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने के प्रथम समय पहले एक समय में वहाँ (मन्दरपर्वत के) उत्तर-दक्षिण में वर्षा प्रारम्भ हो जाती है ?) [15 उ.] हाँ, गौतम ! (इसी तरह होता है। अर्थात्--) जब जम्बूद्वीप में मन्दराचल से पूर्व में वर्षाऋतु प्रारम्भ होती है, तब पश्चिम में भी इसी प्रकार यावत्-उत्तर दक्षिण में वर्षाऋतु का प्रथम समय अनन्तर-पश्चात्कृत समय में होता है, इसी तरह सारा वक्तव्य कहना चाहिए / 16. एवं जहा समएणं अभिलावो भणियो वासाणं तहा प्रावलियाए ' वि भाणियन्यो 2, 1. पावलिका सम्बन्धी पाठ इस प्रकार कहना चाहिए-'जया णं भंते ! जंबुददीवे दीवे दाहिणडढे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ तयाणं. उत्तरडढे वि, जयाणं उत्तरड्ढे बासाणं पढमा आलिया पडिवज्जइ, तया णं जंबद्दीवे दीवे मंदरस्स पध्वयस्स पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ ?' हंता गोयमा! इत्यादि। इसी प्रकार प्रानपान प्रादि पदों का भी सूत्र पाठ समझ लेना चाहिए। —सं. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [411 प्राणापाणण वि 3, थोवेण वि 4, लवेण वि 5, महत्तण वि 6, अहोरत्तेण वि 7, पक्खेण वि 8, मासेण वि, उउणा वि 10 / एतेसि सव्वेसि जहा समयस्स प्रभिलावो तहा भाणियन्यो / [16] जिस प्रकार वर्षाऋतु के प्रथम समय के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वर्षाऋतु के प्रारम्भ की प्रथम प्रावलिका के विषय में भी कहना चाहिए / इसी प्रकार प्रान-पान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु; इन सबके विषय में भी समय के अभिलाष की तरह कहना चाहिए। 17. जदा णं भंते ! जंबु० दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिबज्जति ? जहेव वासाणं अभिलावो तहेव हेमंताण वि 20, गिम्हाण वि 30 भाणियन्वो जाय उऊ / एवं एते तिग्नि वि / एतेति तीसं पालावगा भाणियव्वा / 17 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी हेमन्तऋतु का प्रथम समय होता है; और जब उत्तरार्द्ध में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय होता है, तब क्या जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व-पश्चिम में हेमन्त ऋतु का प्रथम समय अनन्तर पुरस्कृत समय में होता है ? इत्यादि प्रश्न है। [17 उ.] हे गौतम ! इस विषय का सारा वर्णन वर्षा ऋतु के (अभिलाप) कथन के समान जान लेना चाहिए। इसी तरह ग्रीष्मऋतु का भी वर्णन कह देना चाहिए। हेमन्त ऋतु.और ग्रीष्मऋत् के प्रथम समय की तरह उनको प्रथम आवालका, यावत् ऋतपयन्त सारा वणन कहना चाहिए। इस प्रकार वर्षाऋत, हेमन्त ऋत, और ग्रीष्मऋत; इन तीनों का एक सरीखा वर्णन है। इसलिए इन तीनों के तीस पालापक होते हैं / 18. जया गं भंते ! जंबु० मंदरस्स पब्धयस्स दाहिणड्ढे पढने प्रयणे पडिवज्जति तदा णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ ? जहा समएणं प्रभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियन्वो जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवति / [18 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से दक्षिणार्द्ध में जब प्रथम 'अयन' होता है, तब क्या उत्तराद्धं में भी प्रथम 'अयन' होता है ? [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार 'समय' के विषय में पालापक कहा, उसी प्रकार 'अयन' के विषय में भी कहना चाहिए; यावत् उसका प्रथम समय अनन्तर पश्चात्कृत समय में होता है; इत्यादि सारा वर्णन कहना चाहिए / 16. जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणियन्यो, जुएण वि, वाससतेण वि, वाससहस्सेण वि, वाससतसहस्सेण वि, पुव्वंगेण वि, पुग्वेण वि, सुडियंगेण वि, तुडिएण वि, एवं पुन्बे 2, तुडिए 2, अडडे 2, अववे 2, हूहूए 2, उप्पले 2, पउमे 2, नलिणे 2, अत्यणि उरे 2, प्रउए 2, णउए 2, पउए 2, चूलिया 2, सोसपहेलिया 2, पलिनोवमेण वि, सायरोवमेण वि, माणितम्वो। [16] जिस प्रकार 'अयन' के सम्बन्ध में कहा; उसी प्रकार संवत्सर के विषय में भी कहना Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4121 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत चाहिए; तथैव युग, वर्षशत, वर्षसहस्र, वर्षशतसहस्र, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हुर्कांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनूपुरांग, अर्थना अयुताग, अयूत, नयूतांग, नयूत, प्रयुतांग, प्रयूत, चूलिकांग, चूलिका. शीर्षप्रहेलिकांग. शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम; (इन सब) के सम्बन्ध में भी (पूर्वोक्त प्रकार से) कहना चाहिए। 20. जदा णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे दाहिणड्ढे पढमा प्रोसप्पिणी पडिवज्जति तदा गं उत्तरड्ढे वि पढमा प्रोसप्पिणी पतिवज्जइ ? जता णं उत्तरड्ढे वि पडिवज्जइ तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चस्थिमेणं णेवस्थि प्रोसप्पिणी वस्थि उस्सप्पिणी, प्रवट्टिते णं तत्थ काले पत्रत्ते समकाउसो !? हंता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं जाव समणाउसो ! [20 प्र.] भगवन् ! जब जम्बूद्वीप नामक द्वीप के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणो होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है ? ; और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत के पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती?, उत्सपिणी नहीं होती ? , किन्तु हे आयुष्मान् श्रमणपुंगव ! क्या वहाँ अवस्थित काल कहा गया है ? [20 उ.) हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है / यावत् (श्रमणपुंगव ! तक) पूर्ववत् सारा वर्णन कह देना चाहिए। 21. जहा प्रोसप्पिणीए पालावनो भणितो एवं उस्सप्पिणीए वि भाणितव्यो। [21] जिस प्रकार अवपिणी के विषय में आलापक कहा है, उसी प्रकार उत्सर्पिणी के विषय में भी कहना चाहिए / विवेचन-विविध दिशाओं एवं प्रदेशों (क्षेत्रों) में ऋतु से लेकर उत्सर्पिणी काल तक के अस्तित्व की प्ररूपणा प्रस्तुत सात सूत्रों में वर्षा आदि ऋतुत्रों के विविध दिशाओं और प्रदेशों में अस्तित्व की प्ररूपणा करके अहोरात्र, पानपान, मुहूर्त आदि के अस्तित्व के सम्बन्ध में अतिदेश किया गया है / तदनन्तर अयन, युग, वर्षशत आदि से लेकर सागरोपमपर्यन्त तथा अवसर्पिणी-उत्सपिणी काल तक के पूर्वादि दिशामों तथा प्रदेशों में अस्तित्व का अतिदेशपूर्वक प्ररूपण किया गया है / विविध कालमानों की व्याख्या वासाणं = वर्षाऋतु का, हेमंताणं = हेमन्तऋतु का, गिम्हाण = ग्रीष्मऋतु का / ऋतु भी एक प्रकार का कालमान है। वर्षभर में यों तो 6 ऋतुएँ मानी जाती हैंवसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर / परन्तु यहाँ तीन ऋतुओं का नामोल्लेख किया गया है, इसलिए चार-चार महीने की एक-एक ऋतु मानी जानी चाहिए। अणंतर-पुरक्खडसमयंसि = दक्षिणार्द्ध में प्रारम्भ होने वाली वर्षाऋतु प्रारम्भ की अपेक्षा अनन्तर (तुरन्त पूर्व) भविष्यत्कालीन समय को अनन्तरपुरस्कृत समय कहते हैं। अणंतरपच्छाकडसमयसि = पूर्व और पश्चिम महाविदेह में प्रारम्भ होने वाली वर्षा ऋतु प्रारम्भ की अपेक्षा अनन्तर (तुरंत बाद के) अतीतकालीन समय को अनन्तर पश्चात्कृत समय कहते हैं। समय (अन्यन्त सूक्ष्मकाल) से लेकर ऋतु तक काल के 10 भेद होते हैं-(१) समय, (काल का सबसे छोटा भाग, जिसका दूसरा भाग न हो सके), (2) श्रावलिया Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [413 (असंख्यात समय), (3) प्राणापाण (पानपान = उच्छवास-नि:श्वास, संख्यात पावलिकाओं का एक उच्छवास और इतनी ही पावलिकाओं का एक निःश्वास), (4) थोवं (स्तोक-सात पानप्राणों अथवा प्राणों का एक स्तोक), (5) लवं = (सात स्तोकों का एक लव), (6) मुहत्तं (मुहूर्त = 77 लव, अथवा 3773 श्वासोच्छ्वास, या दो घड़ी अथवा 48 मिनट का एक मुहूर्त), (7) अहोरत्तं--(अहोरात्र-३० मुहर्त का एक अहोरात्र), (8) पक्खं (पक्ष = 15 दिनरात-अहोरात्र का एक पक्ष), (9) मासं (मासदो पक्ष का एक महीना), और उऊ (ऋतु =दो मास की एक ऋतु-मौसम)। अयन से ले कर सागरोपम तक-प्रयणं (अयन - तीन ऋतुओं का एक), संवच्छरं (दो अयन का एक संवत्सर), जुए (युग-पांच संवत्सर का एक युग), वाससतं (बीस युगों का एक वर्षशत), वाससहस्सं (दश वर्षशत का एक वर्ष-सहस्र-हजार), वाससतसहस्सं (100 वर्षसहस्रों का एक वर्षशतसहस्र-एक लाख वर्ष), पुच्वंग (84 लाख वर्षों का एक पूर्वांग), पुवं (84 लाख को 84 लाख से गुणा करने से जितने वर्ष हो, उतने वर्षों का एक पूर्व), तुडियंग (एक पूर्व को 84 लाख से गुणा करने से एक त्रुटितांग), तुडिए (एक त्रुटितांग को 84 लाख से गुणा करने पर एक त्रुटित), इसी प्रकार पूर्व-पूर्व की राशि को 84 लाख से गुणा करने पर उत्तर-उत्तर की समय राशि क्रमशः बनतो है / वह इस प्रकार है-अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका (194 अंकों की संख्या), पल्योपम और सागरोपम (ये दो गणना के विषय नहीं है, उपमा के विषय हैं, इन्हें उपमाकाल कहते हैं ) / ___ अवपिणीकाल-जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर हीन (न्यून) होते जाते हैं, आयु और अवगाहना घटती जाती है, तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार—पराक्रम का क्रमश: ह्रास होता जाता है, पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं एवं शुभ भावों में कमी और अशुभभावों में वृद्धि होती जाती है, उसे अवसपिणी काल कहते हैं / यह काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है / इसके 6 विभाग (आरे) होते हैं। एक प्रकार से यह अर्द्ध कालचक्र है / अवपिणीकाल का प्रथम विभाग अर्थात् पहले पारे के लिए कहा गया है—'पढमा प्रोसप्पिणी'। उत्सपिणीकाल-जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुभ होते हैं, आयु और अवगाहना बढ़ती जाती है; उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार---पराक्रम की उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, तथा पुद्गलों के वर्णादि शुभ होते जाते हैं, अशुभतम भाव क्रमश: अशुभतर, अशुभ, शुभ, शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते हैं, एवं उच्चतम अवस्था आ जाती है, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं / यह काल भो दस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। इसके भी 6 विभाग (पारे) होते हैं, यह भी अर्द्ध कालचक्र कहलाता है / ' लवरणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्क रार्द्ध में सूर्य के उदय-अस्त तथा दिवसरात्रि का विचार 22. [1] लवणे गं भंते ! समुद्दे सूरिया उदोचि-पाईणमुग्गच्छ जच्चेव जंबुद्दीवस्स 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 211 (ख) भगवतीसूत्रम् (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 155. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वत्तव्वता भणिता सच्चेव सव्वा अपरिसेसिता लवणसमुदस्स वि भाणितम्वा, नवरं अभिलावो इमो जाणितब्बो-जता णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदा गं लवणे समुद्दे पुरथिमपत्रचस्थिमेणं राती भवति?' एतेणं अभिलावेणं नेतन्वं [22-1 प्र.] भगवन् ! लवणसमुद्र में सूर्य ईशान कोण में उदय हो कर क्या अग्निकोण में जाते हैं ?; इत्यादि सारा प्रश्न पूछना चाहिए / [22-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में सूर्यों के सम्बन्ध में जो वक्तव्यता कही गई है, वह सम्पूर्ण वक्तव्यता यहाँ लवणसमुद्रगत सूर्यों के सम्बन्ध में भी कहनी चाहिए। विशेष बात यह है कि इस वक्तव्यता में पाठ का उच्चारण इस प्रकार करना चाहिए-'भगवन् ! जब लवगसमुद्र के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है,' इत्यादि सारा कथन उसी प्रकार कहना चाहिए, यावत् तब लवणसमुद्र के पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है।' इसी अभिलाप द्वारा सब वर्णन जान लेना चाहिए। [2] जदा पं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा अोसप्पिणी पडिवज्जति तदा णं उत्तरडढे वि पढमा प्रोसपिणो पडिवज्जइ ? जदा णं उत्तरड्ढे पढमा प्रोसप्पिणी पडिवज्जइ तदा णं लवणसमुद्दे पुरस्थिम-पच्चस्थिमेणं नेवस्थि प्रोसप्पिणी, वथि उस्लप्पिणी समणाउसो ! ? हंता, गोयमा ! जाब समणाउसो ! [22-2 प्र.] भगवन् ! जब लवणसमुद्र के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी (काल) होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी (काल) होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी (काल) होता है, तब क्या लवणसमुद्र के पूर्व-पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती ? उत्सपिणी नहीं होती ? किन्तु हे दीर्घजीवी श्रमणपुगव ! क्या वहां अवस्थित (अपरिवर्तनीय) काल होता है ? [22-2 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होता है / ) और वहां...""यावत् प्रायुष्मान् श्रमणवर ! अवस्थित काल कहा गया है / 23. धायतिसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीचि-पादोणमुगच्छ.....? जहेब जंबुद्दीवस्स वत्तवता भणिता स च्चेव घायइसंडस्स वि भाणितव्वा, नवरं इमेणं अभिलावणं सन्ने पालावगा भाणितव्वा-जता जे भंते ! धातिसंडे दोवे दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदा णं उत्तरड्ढे वि ? जदा णं उत्तरड्ढे वि तदा गं धायइसंडे दीये मंदराणं पम्वताणं पुरस्थिम-पच्चत्यिमेणं राती भवति ? हंता, गोयमा! एवं जाव रातो भवति / [23 प्र.] भगवन् ! धातकोखण्ड द्वीप में सूर्य, ईशानकोण में उदय हो कर क्या अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 23 उ.] हे गौतम ! जिस प्रकार की वक्तव्यता जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कही गई है, उसी प्रकार की सारी वक्तव्यता धातकीखण्ड के विषय में भी कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि इस पाठ का उच्चारण करते समय सभी आलापक इस प्रकार हए Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] . [415 [प्र.] भगवन् ! जब धातकीखण्ड के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है ? और जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है, तब क्या धातकीखण्ड द्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व पश्चिम में रात्रि होती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! यह इसी तरह (होता है / ) यावत् रात्रि होती है। 24. जदा णं भंते ! धायइ संडे दीवे मंदराणं पव्वताणं पुरथिमेणं दिवसे भवति तदा गं पच्चत्थिमेण वि? जदा गं पच्चत्थिमेण वि तवा गं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तरदाहिणणं राती भवति ? हंता, गोयमा ! जाव भवति / एवं एतेणं अभिलावेणं नेयन्वं जाव० / [24 प्र.] भगवन् ! जब धातकीखण्डद्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व में दिन होता है, तब क्या पश्चिम में भी दिन होता है ? और जब पश्चिम में दिन होता है, तब क्या धातकोखण्डद्वीप के मन्दरपर्वतों से उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है ? [24 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होता है,) यावत् (रात्रि) होती है और इसी अभिलाप से जानना चाहिए, यावत् 25. जदा णं भंते ! दाहिणड्ढे पढमा प्रोसप्पिणी तदा णं उत्तरड्ढे, जदा णं उत्तरड्ढे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरथिम-पच्चत्यिमेणं णेवत्थि प्रोसप्पिणी जाव समणाउसो ! ? हंता, गोयमा ! जाव समणाउसो ! [25 प्र.] भगवन् ! जब दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है ? और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसपिगी होती है, तब क्या धातकीखण्ड द्वीप के मन्दरपर्वतों से पूर्व पश्चिम में भी अवसर्पिणी नहीं होती? यावत् उपिणी नहीं होती ? परन्तु प्रायुष्मान् श्रमणवर्य ! क्या वहाँ अवस्थितकाल होता है ? _[25 उ.] हाँ, गौतम ! (यह इसी तरह होता है,) यावत् हे आयुष्मान् श्रमणवर्य ! अवस्थित काल होता है। 26. जहा लवणसमुहस्स वत्तव्यता तहा कालोदस्स वि भाणितम्या, नवरं कालोदस्स नामं माणितव्वं / [26] जैसे लवणसमुद्र के विषय में वक्तव्यता कही, वैसे कालोद (कालोदधि) के सम्बन्ध में भी कह देनी चाहिए। विशेष इतना ही है कि वहाँ लवणसमुद्र के स्थान पर कालोदधि का नाम कहना चाहिए। 27. अभितरपुक्खरद्ध णं भंते ! सूरिया उदीचि-पाईणमुग्गच्छ जहेव धायइसंडस्स वत्तव्यता तहेव अमितरपुक्खरद्धस्स वि भाणितव्वा। नवरं अभिलावो जाणेयन्वो जाव तदा णं अमितर Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पुक्खरद्ध मंदराणं पुरथिम-पच्चस्थिमेणं नेवस्थि प्रोसप्पिणी नेवत्थि उस्सपिणी, अद्विते गं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो! सेवं भंते ! सेवं भंते! ति / // पंचमसतस्स पढमनो उद्देसनो। [27 प्र.] भगवन् ! आभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में सूर्य, ईशानकोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? 27 उ.] जिस प्रकार धातकोखण्ड की वक्तव्यता कही गई, उसी प्रकार ग्राभ्यन्तरपुष्करार्द्ध की वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि धातकीखण्ड के स्थान में प्राभ्यन्तरपुष्करार्द्ध का नाम कहना चाहिए; यावत्---प्राभ्यन्तरपुष्करार्द्ध में मन्दरपर्वतों के पूर्व-पश्चिम में न तो अवपिगी है, और न ही उत्सर्पिणी है, किन्तु हे प्रायुष्मन् श्रमण ! वहाँ सदैव अवस्थित (अपरिवर्तनीय) काल कहा गया है। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! , भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं' यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि तथा पुकरार्द्ध में सूर्य के उदय-प्रस्त एवं दिवस-रात्रि का विचार–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 22 से 27 तक) में लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्करार्द्ध को लेकर विभिन्न दिशाओं की अपेक्षा सूर्योदय तथा दिन-रात्रि-प्रागमन का विचार किया गया है / जम्ब्रद्वीप, लवणसमुद्र आदि का परिचय-जैन भौगोलिक दृष्टि से जम्बूद्वीप 1 लाख योजन का विस्तृत गोलाकार है / जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्र हैं। ये मनुष्यलोक में मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए नित्यगति करते हैं, इन्हीं से काल का विभाग होता है / जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए लवणसमुद्र है, जिसका पानी खारा है। यह दो लाख योजन विस्तृत है / जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र दोनों वलयाकार (गोल) हैं। लवणसमुद्र के चारों ओर धातकोखण्ड द्वीप है। यह चार लाख योजन का वलयाकार है। इसमें 12 सूर्य एवं 12 चन्द्रमा हैं। धातकीखण्ड के चारों ओर कालोद (कालोदधि) समुद्र है, यह 8 लाख योजन का वलयाकार है। कालोद समुद्र के चारों ओर 16 लाख योजन का बलयाकार पुष्करवरद्वीप है। उसके बीच में मानुषोत्तरपर्वत आ गया है, जो अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र के चारों ओर गढ़ (दुर्ग) के समान है तथा चूड़ी के समान गोल है। यह पर्वत बीच में श्रा जाने से पुष्करवर द्वीप के दो विभाग हो गये हैं-(१) प्राभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप और (2) बाह्य पुष्करवरद्वीप / आभ्यन्तर पुष्करवर द्वीप में 72 सूर्य और 72 चन्द्र हैं / यह पर्वत मनुष्यक्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है, इसलिए इसे मानुषोत्तरपर्वत कहते हैं। मानुषोत्तरपर्वत के आगे भी असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, किन्तु उनमें मनुष्य नहीं हैं / निष्कर्ष यह है कि मनुष्यक्षेत्र में जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और अर्द्धपुष्करवर द्वीप; ये ढाई द्वीप और लवणसमुद्र तथा कालोद-समुद्र ये दो Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-१] [417 समुद्र हैं / अढाई द्वीपों और दो समुद्रों की कुल लम्बाई-चौड़ाई 45 लाख योजन है / अढाई द्वीप में कुल 132 सूर्य और 132 चन्द्र हैं, और वे चर (गतिशील) हैं, इससे पागे के सूर्य-चन्द्र प्रचर (स्थिर) हैं / इसलिए अढाई द्वीप-समुद्रवर्ती मनुष्यक्षेत्र या समयक्षेत्र में ही दिन, रात्रि, अयन, पक्ष, वर्ष प्रादि का काल का व्यवहार होता है। रात्रि-दिवस आदि काल का व्यवहार सूर्य-चन्द्र की गति पर निर्भर होने से तथा इस मनुष्यक्षेत्र के आगे सूर्य-चन्द्र के विमान जहाँ के तहाँ स्थिर होने से, वहाँ दिन रात्रि आदि काल व्यवहार नहीं होता।' ॥पंचम शतक : प्रथम उह शक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा. 2, पृ. 773-774 (ख) तत्त्वार्थसूत्र भाष्य अ. 3, मू. 12 से 14 तक, पृ. 83 से 85, तथा प्र. 4, सू. 14-15, पृ. 100 से 103 तक Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ उद्देसओ : 'अरिगल' द्वितीय उद्देशक : 'अनिल' ईषत्पुरोवात आदि चतुर्विध वायु की दिशा, विदिशा, द्वीप, समुद्र आदि विविध पहलुओं से प्ररूपरणा 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी[१] राजगृह नगर में यावत् (श्री गौतमस्वामी ने) इस प्रकार पूछा---- 2. अस्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाता, पत्था वाता, मंदा वाता, महावाता वायंति ? हंता, अस्थि / [2 प्र.] भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात (ोस आदि से कुछ स्निग्ध, या चिकनी व कुछ गीली हवा), पथ्यवात (वनस्पति आदि के लिए हितकर वायु), मन्दवात (धीमे-धीमे चलने वाली हवा), तथा महावात (तीव्रगति से चलने वाली, प्रचण्ड तूफानी वायु, झंझावात, या अन्धड़ उद्दण्ड आँधी आदि) बहती (चलती) हैं ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त वायु (हवाएँ) बहती (चलती) हैं। 3. अस्थि णं भंते ! पुरथिमेणं ईसि पुरेवाता, पस्था वाता, मंदा वाता, महाबाता वायति ? हंता, अस्थि / _ [3 प्र.] भगवन् ! क्या पूर्व दिशा से ईषत्पुरोवात, पश्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं ?' [3 उ.] हाँ, गौतम ! (उपर्युक्त समस्त वायु पूर्व दिशा में) बहती हैं / 4. एवं पच्चत्थिभेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं, उत्तर-पुरस्थिमेणं, पुरथिम-दाहिणेणं, दाहिणपच्चस्थिमेणं, पच्छिम-उत्तरेणं / [4] इसी तरह पश्चिम में, दक्षिण में, उत्तर में, ईशानकोण में, आग्नेयकोण में, नैऋत्यकोण में और वायव्यकोण में (पूर्वोक्त सब वायु बहती हैं / ) 5. जदा णं भंते ! पुरस्थिमेणं ईसि पुरेवाता पत्था वाता मंदा वाता महावाता वायंति तदा णं पच्चस्थिमेण वि ईसि पुरेवाता० ? जया णं पच्चत्यिमेणं ईसि पुरेवाता० तदा गं पुरत्पिमेण वि? हंता, गोयमा ! जदा गं पुरथिमेणं तदा गं पच्चरिथमेण वि ईति, जया णं पचत्थिमेणं तदा णं पुरस्थिमेण वि ईसि / एवं दिसासु / Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [419 [5 प्र] भगवन् ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं, तब क्या पश्चिम में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ बहती हैं ?, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या पूर्व में भी (वे हवाएँ) बहती हैं ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब वे सब पश्चिम में भी बहती हैं, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि बायु बहती हैं, तब वे सब हवाएँ पूर्व में भी बहती हैं / इसी प्रकार सब दिशानों में भी उपर्युक्त कथन करना चाहिए / 6. एवं विदिसासु वि। [6] इसी प्रकार समस्त विदिशाओं में भी उपर्युक्त पालापक कहना चाहिए। 7. अस्थि णं भंते ! दीविच्चया ईसि ? हंता, अस्थि / [7 प्र.] भगवन् ! क्या द्वीप में भी ईषत्पुरोवात श्रादि वायु होती हैं ? [7 उ.] हाँ, गौतम ! होती हैं / 8. अस्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसि ? हंता, अस्थि / [8 प्र.] भगवन् ! क्या समुद्र में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ होती हैं ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! (समुद्र में भी ये सब हवाएँ) होती हैं। 6. [1] जया णं भंते ! दोविच्चया ईसि० तदा णं सामुद्दया वि ईसि०, जदा गं सामुद्दया ईसि० तदा गं दीविच्चया वि ईसि० ? णो इण? सम? / [8-1 प्र.] भगवन् ! जब द्वीप में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं ? और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात प्रादि वायु बहती हैं, तब क्या द्वोपीय ईषत्पुरोवात प्रादि वायु बहती हैं ? [9-1 उ.] हे गौतम ! यह बात (अर्थ) समर्थ (शक्य) नहीं है / [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ‘जदा णं दीविच्चया ईसि णो णं तया सामहया ईसि, जया णं सामदया ईसि णो णं तदा दीविच्चया ईसि ? गोयमा! तेसि णं वाताणं अन्नमन्नस्स विवच्चासेणं लवणे समुद्दे वेलं नातिक्कमति से तेणठेणं जाव वाता वायंति। [9.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि जब द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 ] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र हवाएँ बहती हैं, तब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात प्रादि हवाएँ नहीं बहती, और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ बहती हैं, तब द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ नहीं बहती ? [1-2 उ.] गौतम ! ये सब वायु (हवाएँ) परस्पर व्यत्यासरूप से (एक दूसरे के विपरीत, पृथक्-पृथक् तथा एक दूसरे से साथ नहीं) बहती हैं / (जब द्वीप की ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब समुद्र की नहीं बहती, और जब समुद्र की ईषतपुरोवात प्रादि वायु बहती हैं, तब द्वीप की ये सब वायु नहीं बहतीं। इस प्रकार ये सब हवाएँ एक दूसरे के विपरीत बहती हैं। साथ ही, वे वायु लवणसमुद्र की वेला का उल्लंघन नहीं करतीं। इस कारण यावत् वे वायु पूर्वोक्त रूप से बहती हैं / 10. [1] अस्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाता पत्था वाता मंदा वाता महाबाता वायंति ? हंता, प्रथि। (10.1 प्र.] भगवन् ! (यह बताइए कि) क्या ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती (चलती) हैं। [10-1 उ.] हाँ, गौतम ! (ये सब) बहती हैं। [2] कया णं भंते ! ईसि जाब वायंति ? गोयमा ! जया णं वाउयाए अहारियं रियति तदा णं ईसि जाव वायति / [10.2 प्र.] भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? [10-2 उ.] गौतम ! जब वायुकाय अपने स्वभावपूर्वक गति करता है, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु यावत् बहती हैं। 11. [1] अत्यि णं भंते ! ईसि ? हंता, अस्थि / [11-1 प्र.] भगवान् ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वायु हैं ? [11-1 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। [2] फया गं भंते ! ईसि ? गोतमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ तया णं ईसि / [11-2 प्र.] भगवान् ईषत्पुरोवात श्रादि वायु (और भी) कभी चलती (बहती) हैं ? [11-2 उ.] हे गौतम ! जब वायुकाय उत्तरक्रियापूर्वक (वैक्रिय शरीर बना कर) गति करता है, तब (भी) ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती (चलती) हैं / 12. [1] अस्थि णं भंते ! ईसि ? हंता, अस्थि / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [421 [12-1 प्र.] भगवन् ! ईषत्पुरोवात प्रादि वायु (ही) हैं (न) ?' [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे (सब वायु हो) हैं / [2] कया गं भंते ! ईसि पुरेवाता पत्था वाता. ? गोयमा ! जया णं वाउकुमारा वाउकुमारीग्रो वा अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्टाए बाउकायं उदीरति तया णं ईसि पुरेवाया जाव वायति / [12-2 प्र.] भगवन् ! ईषत्पुरोवात, पथ्यवात आदि (और) कब (किस समय में) चलती [12-2 उ. गौतम ! जब वायुकुमार देव और वायु कुमार देवियाँ, अपने लिए, दूसरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय की उदीरणा करते हैं, तब ईषत्पुरोवात प्रादि वायु यावत् चलती (बहती) हैं। 13. वाउकाए णं भंते ! बाउकायं चेव प्राणमति वा पाणमति वा ? जहा खंदए तहा चत्तारि पालावगा नेयवा-प्रणेगसतसहस्स० / पु? उदाति वा / ससरीरी निक्खमति / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या वायुकाय वायुकाय को ही श्वासरूप में ग्रहण करता है और निःश्वासरूप में छोड़ता है ? [13 उ.] गौतम ! इस सम्बन्ध में स्कन्दक परिवाजक के उद्देशक में कहे अनुसार चार आलापक जानना चाहिए यावत् (1) अनेक लाख बार मर कर, (2) स्पृष्ट हो (स्पर्श पा) कर, (3) मरता है और (4) शरीर-सहित निकलता है / विवेचन-ईवत्पुरोवात श्रादि चतुर्विध वायु की विविध पहलुओं से प्ररूपणा-प्रस्तुत 13 सूत्रों में ईषत्पुरोवात आदि चारों प्रकार के वायु के सम्बन्ध में निम्नलिखित सात पहलुओं से प्ररूपणा की गई है (1) ईषत्पुरोवात आदि चारों प्रकार की वायु चलती हैं / (2) ये सब सुमेरु से पूर्वादि चारों दिशाओं और ईशानादि चारों विदिशाओं में चलती हैं। (3) ये पूर्व में बहती हैं, तब पश्चिम में भी बहती हैं, और पश्चिम में बहती हैं, तब पूर्व में भी। (4) द्वीप और समुद्र में भी ये सब वायु होती हैं। (5) किन्तु जब ये द्वीप में बहती हैं, तब समुद्र में नहीं बहती और समुद्र में बहती हैं, तब द्वीप में नहीं बहतीं, क्योंकि ये सब एक दूसरे से विपरीत पृथक्-पृथक् बहती हैं, लवणसमुद्रीय वेला का अतिक्रमण नहीं करतीं। (6) ईषत्पुरोवात प्रादि वायु हैं, और वे तीन समय में तीन कारणों से चलती हैं-(१) जब Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वायुकाय स्व-स्वभावपूर्वक गति करता है, (2) जब वह उत्तरवैक्रिय से वैक्रिय शरीर बना कर गति करता है, तथा (3) जब वायुकुमार देव-देवीगण स्व, पर एवं उभय के निमित्त वायुकाय की उदीरणा करते हैं। (7) वायुकाय अचित्त हुए वायुकाय को ही श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करताछोड़ता है / द्वीपीय और समुद्रीय हवाएँ एक साथ नहीं बहती द्वीपसम्बन्धी और समुद्रसम्बन्धी वायु परस्पर विपर्यासपूर्वक बहती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि जिस समय अमुक प्रकार की ईषत्पुरोवात आदि वायु चलती है, तब उसी प्रकार की दूसरी ईषत्पुरोवात प्रादि वायु नहीं चलतीं। इसका कारण है-वायु के द्रव्यों का स्वभाव एवं सामर्थ्य ऐसा है कि वह समुद्र की बेला का अतिक्रमण नहीं करती। इसका प्राशय यह भी सम्भव है—नीष्म ऋतु में समुद्र की ओर से आई हुई शीत (जल से स्निग्ध एवं ठंडी) वायु जब चलती हैं, तब द्वीप की जमीन से उठी हुई उष्ण वायु नहीं चलती। शीत ऋतु में जब गर्म हवाएँ चलती हैं, तब वे द्वीप की जमीन से आई हुई होती हैं। यानी जब द्वीपीय उष्णवायु चलती है, तब समुद्रीय शीतवायु नहीं चलती। समुद्र की शीतल और द्वीप की उष्ण दोनों हवाएँ परस्पर विरुद्ध तथा परस्पर उपघातक होने से ये दोनों एक साथ नहीं चलती अपितु उन दोनों में से एक ही वायु चलती है / चतुर्विध वायु के बहने के तीन कारण -(1) ये अपनी स्वाभाविक गति से, (2) उत्तर वैक्रिय द्वारा कृत वैक्रियशरीर से, (3) वायुकुमार देव-देवीगण द्वारा स्व, पर और उभय के लिए उदीरणा किये जाने पर / यहाँ एक ही बात को तीन बार विविध पहलू से पूछे जाने के कारण तीन सूत्रों की रचना की गई है, इसलिए पुनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए। दूसरी वाचना के अनुसार ये तीन कारण पृथक-पृथक् सूत्रों में बताए हैं, वे पृथक-पृथक् प्रकार की वायु के बहने के बताए हैं। यथा-पहला कारण-महावायु के सिवाय अन्य वायुनों के बहने का है। दूसरा कारण-मन्दवायु के सिवाय अन्य तीन वायु के बहने का है। और तीसरा कारण चारों प्रकार की वायु के बहने का है / वायुकाय के श्वासोच्छ्वास प्रादि के सम्बन्ध में चार प्रालायक-(१) स्कन्दक प्रकरणानुसार वायुकाय अचित्त (निर्जीव), वायु को श्वासोच्छवास रूप में ग्रहण-विसर्जन करता है (2) वायुकाय, स्वकाय शस्त्र के साथ अथवा परकायशस्त्र (पंख आदि परनिमित्त से उत्पन्न हुई वायु) से स्पृष्ट होकर मरता है, बिना स्पृष्ट हुए नहीं मरता; (3) वायुकाय अनेक लाख बार मर-मर कर पुनः पुनः उसी वायुकाय में जन्म लेता है। (4) वायुकाय तैजस कार्मणशरीर की अपेक्षा सशरीरी परलोक में जाता है, तथा प्रौदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा अशरीरी होकर परलोक में जाता है / 1. वियाहयण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ टिपप्णयुक्त) भा. 1, पृ.१८८ से 190 तक 2. (क) भगवती सूत्र (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 158 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 212 3. भगवती सूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 212 4. (क) भगवतीसूत्र हिन्दी विवेचनयुक्त भा. 2, पृ. 780 (ख) भगवती (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, प्र-१६० (ग) इस प्रकरण का विस्तृत विवेचन भगवती. शतक 2., उद्देशक 1 सू. तक स्कन्दक प्रकरण में किया गया है। जिज्ञासुयों को वहां से देख लेना चाहिए। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [423 कठिन शब्दों के विशेष प्रर्थ-दीविच्चगा' -द्वीपसम्बन्धी, 'सामना' = सामुद्रिक-समुद्र सम्बन्धी / वायंति = बहती हैं-चलती हैं। अहारियं रियति = अपनी रीति या स्वभावानुसार गति करता है / पु? = स्पृष्ट होकर, स्पर्श पाकर / ' प्रोदन, कुल्माष और सुरा को पूर्वावस्था और पश्चादवस्था के शरीर का प्ररूपण 14. मह भंते ! प्रोदणे कुम्मासे सुरा एते णं किसरीरा ति क्त्तन्वं सिया? गोयमा ! प्रोदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दवे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च वणस्सतिजीवसरीरा, तो पच्छा सस्थातीता सत्थपरिणामिता अगणिज्झामिता अगणिभूसिता अगणिपरिणामिता अणिजीवसरीराइ बत्तव्यं सिया। सुराए य जे दवे दध्वे एए णं पुस्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरोरा, ततो पच्छा सत्यातीता जाव प्रगणिसरोरा ति वत्तन्वं सिया / [14 प्र.] भगवन् ! अब यह बताएं कि ओदन (चावल), कुल्माष (उड़द) और सुरा (मदिरा), इन तीनों द्रव्यों को किन जीवों का शरीर कहना चाहिए ? [14 उ.] गौतम ! प्रोदन, कुल्माष और सुरा में जो घन (ठोस या कठिन) द्रव्य हैं, वे पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पतिजीव के शरीर हैं / उसके पश्चात् जब वे (प्रोदनादि द्रव्य) शस्त्रातीत (ऊखल, मूसल अादि शस्त्रों से कूटे जा कर पूर्वपर्याय से अतिक्रान्त) हो जाते हैं, शस्त्रपरिणत (शस्त्र लगने से नये रूप में परिवर्तित) हो (बदल) जाते हैं; अग्निध्यामित (आग से जलाये गए एवं काले वर्ण के बने हुए), अग्निझूषित (अग्नि से सेवित-तप्त हो जाने से पूर्वस्वभाव से रहित बने हुए) अग्निसेवित और अग्निपरिणामित (अग्नि में जल जाने से नये आकार में परिवर्तित) हो जाते हैं, तब वे द्रव्य अग्नि के शरीर कहलाते हैं। तथा सुरा (मदिरा) में जो तरल पदार्थ है, वह पूर्वभाव प्रज्ञापना को अपेक्षा से अकायिक जोवों का शरीर है, और जब वह तरल पदार्थ (पूर्वोक्त प्रकार से) शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित हो जाता है, तब वह भाग, अग्निकाय—शरीर कहा जा सकता है। विवेचन-चावल, उड़द और मदिरा को पूर्वावस्था और पश्चादवस्था के शरीर का प्ररूपणप्रस्तुत सूत्र में चावल, उड़द, और मदिरा इन तीनों को किस किस जीव का शरीर कहा जाए ? यह प्रश्न उठा कर इनकी पूर्वावस्था और पश्चादवस्था का विश्लेषण करके शास्त्रीय समाधान किया गया है। पूर्वावस्था को अपेक्षा से-चावल, उड़द, और मद्य, इन तीनों में जो घन-ठोस या कठिन द्रव्य हैं, वे भूतपूर्व वनस्पतिकाय के शरीर हैं / मद्य में जो तरल पदार्थ है, वह भूतपूर्व अप्काय के शरीर पश्चादवस्था की अपेक्षा से--किन्तु इन सब के शस्त्र-परिणत, अग्निसेवित, अग्निपरिणामित 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 212 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आदि हो जाने तथा इनके रंगरूप, आकर-रस आदि के बदल जाने से इन्हें भूतपूर्व अग्निकाय के शरीर कहा जा सकता है।' लोह आदि के शरीर का उनको पूर्वावस्था वौर पश्चादवस्था को दृष्टि से निरूपण 15. अह णं भंते ! प्रये तंबे तउए सीसए उवले कट्टिया, एए णं किसरोरा इ वतव्वं सिया? गोयमा ! अए तंबे तउए सोसए उवले कसट्टिया, एए णं पुथ्वभावपण्णवणं पड़च्च पुढविजीवसरीरा, तो पच्छा सत्थातीता जाव अगणिजीवसरोरा ति वत्तन्वं सिया। 15. प्र.। भगवन् ! प्रश्न है लोहा, तांबा, त्रपुष (कलाई या रांगा), शोशा, उपल (जला हुआ पत्थर-कोयला) और कसट्टिका (लोहे का काट–मैल), ये सब द्रव्य किन (जीवों के) शरीर कहलाते हैं ? [15 उ.] गौतम ! लोहा, तांबा, कलई, शीशा, कोयला और लोहे का काट; ये सब द्रव्य पूर्वप्रज्ञापना की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और उसके बाद शस्त्रातीत यावत् शस्त्र-परिणामित होने पर ये अग्नि कायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। अस्थि प्रादि तथा अंगार प्रादि के शरीर का उनकी पूर्वावस्था एवं पश्चादवस्था की अपेक्षा से प्ररूपण 16. ग्रह भंते ! अट्ठी पट्टिन्झामे, चम्मे चम्मज्झामें, रोमे रोमज्झामे, सिंगे सिंगझामे, खुरे खुरज्झामे, नखे नखज्झामे, एते णं किसरीरा ति वत्तव्वं सिया? गोयमा ! अट्ठी चम्मे रोमे सिगे खुरे नहे, एए णं तसपाणजीवसरीरा। अद्विज्झामे चम्मझामे रोमज्झामे सिगल्झामे खुरज्झामे पहज्झामे, एए णं पुन्वभावपण्णवणं पडुच्च तसपाणजीवसरोरा, ततो पच्छा सत्यातीता जाव अगणि० जाव सिया। 16 प्र.] भगवन् ! और ये हड्डी, अस्थिध्याम (अग्नि से दूसरे स्वरूप पर्यायान्तर को प्राप्त हड्डी और उसका जला हुया भाग), चमड़ा, चमड़े का जला हुया स्वरूपान्तरप्राप्त भाग, रोम, अग्निज्वलित रोम, सींग, अग्नि प्रज्वलित विकृत सींग, खुर, अग्निप्रज्वलित खुर, नख और अग्निप्रज्वलित नख, ये सब किन (जीवों) के शरीर कहे जा सकते हैं ? [16 उ.] गौतम ! अस्थि (हड्डी), चमड़ा, रोम, सींग, खुर, और नख ये सब वसजीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और जली हुई हड्डी, प्रज्वलित विकृत चमड़ा, जले हुए रोम, प्रज्वलितरूपान्तरप्राप्त सींग, प्रज्वलित खुर और प्रज्वलित नख; ये सब पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से तो त्रसजीवों के शरीर ; किन्तु उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं / 1. भगवतीसूत्र न. वृत्ति, पत्रांक 213 2. 'कसटिका' का अर्थ भगवती, अवचणि में कसपद्रिका = कसौटी भी किया गया है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [425 17. अह भंते ! इंगाले छारिए, भुसे, गोमए एए णं किस रोरा ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! इंगाले छारिए भसे गोमए एए णं पुवमावपण्णवणाए एगिदियजीवसरीरप्पश्रोगपरिणामिया वि जाव पंचिदियजीवसरीरप्पप्रोगपरिणामिया वि, तो पच्छा सत्यातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। [17 प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न है--अंगार (कोयला, जला हुआ ईंधन या अंगारा) राख, भूसा और गोबर, इन सबको किन जीवों के शरीर कहे जाएँ ? [17 उ.] गौतम ! अंगार, राख, भूसा और गोबर (छाणा) ये सब पूर्व-भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रियजीवों द्वारा अपने शरीर रूप से, प्रयोगों से-- अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर हैं, यावत् (यथासम्भव द्वीन्द्रिय से) पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं, और तत्पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निकाय-परिणामित हो जाने पर वे अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। विवेचन--अस्थि प्रादि तथा अंगार आदि के शरीर का उनको पूर्वावस्था और पश्चादवस्था की अपेक्षा से प्ररूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय में प्रथम हड्डी अादि तथा प्रज्वलित हड्डी आदि एवं अंगार आदि के शरीर के विषय में पूछे जाने पर इनकी पूर्वावस्था और अनन्तरावस्था की अपेक्षा से उत्तर दिये गए हैं। अगार आदि चारों अग्नि प्रज्वलित ही विवक्षित---यहाँ अंगार आदि चारों द्रव्य अग्निप्रज्वलित ही विवक्षित हैं, अन्यथा आगे बताए गए अग्निध्यामित आदि विशेषण व्यर्थ हो जाते हैं।' पूर्वावस्था और अनन्त रावस्था-हड्डी आदि तो भूतपूर्व अपेक्षा से त्रस जीव के और अंगार आदि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर कहे जा सकते हैं, किन्तु बाद की शस्त्रपरिणत एवं अग्निपरिणामित अवस्था की दृष्टि से ये सब अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं। हड्डी आदि तोहीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रि एवं पंचेन्द्रिय जीवों में से किसी भी जीव के तथा नख, खुर, सींग आदि पंचेन्द्रिय जीवों के ही शरीर में होते हैं। इसी प्रकार अंगारा या राख ये दोनों वनस्पतिकायिक हरी लकड़ी के सूख जाने पर बनती है / भूसा भी गेहूँ आदि का होने से पहले एकेन्द्रिय (वनस्पतिकाय) का शरीर ही था, तथा गाय, भैंस आदि पशु जब हरी घास, पत्ती, या गेहूँ, जौ आदि का भूसा खाते हैं, तब उनके शरीर में से वह गोबर के रूप में निकलता है, अत: गोमय (गोबर) एकेन्द्रिय का शरीर ही माना जाता है / किन्तु पंचेन्द्रिय जीवों (पशुओं) के शरीर में द्वीन्द्रियादि जीव चले जाने से उनके शरीर प्रयोग से परिणामित होने से उन्हें द्वीन्द्रियजीव से ले कर पंचेन्द्रियजीव तक का शरीर कहा जा सकता है। लवणसमुद्र की स्थिति, स्वरूप आदि का निरूपण--- 18. लवणे णं भाते ! समुद्दे केवतियं चकवालविवखंभेणं पन्नत्ते? एवं नेयन्वं जाव लोगट्टिती लोगाणुभावे / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 213 2. (क) भगवती. टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त, खण्ड 2, पृ.१६२ (ख) भगवती. अ. वृत्ति. पत्रांक 213 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सेव भते ! सेवं भते ! त्ति भगवं जाव विहरति / // पंचम सए : बिइश्रो उद्देसनो समतो॥ [18 प्र.] भगवन् ! लवणसमुद्र का चऋवाल-विष्कम्भ (सब तरफ़ की चौड़ाई) कितना कहा गया है ? [18 उ.] गौतम ! (लवणसमुद्र के सम्बन्ध में सारा वर्णन) पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् लोकस्थिति लोकानुभाव तक (जीवाभिगमोक्त सूत्रपाठ) कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर भगवान् गौतम स्वामी...... यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-लवणसमुद्र की चौड़ाई आदि के सम्बन्ध में प्रतिदेशपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में जीवाभिगमोक्त सूत्रपाठ का लोकस्थिति-लोकानुभाव-पर्यन्त अतिदेश करके लवणसमुद्र सम्बन्धी निरूपण किया गया है।। जीवाभिगम में लवणसमुद्र-सम्बन्धी वर्णनः संक्षेप में-लवणसमुद्र का संस्थान गोतीर्थ, नौका, सोप-सम्पुट, अश्वस्कन्ध, और वलभी के जैसा, गोल चूड़ी के आकार का है। उसका चक्रवाल लाख योजन का है / तथा 1581136 से कुछ अधिक उसका परिक्षेप (घेरा) है। उसका उद्वेध (ऊँचाई-गहराई) 1 हजार योजन है। इसकी ऊँचाई 16 हजार योजन, सर्वाग्र 17 हजार योजन का है। इतना विस्तृत और विशाल लवण समुद्र से अब तक जम्बूद्वीप क्यों नहीं डूबा, इसका कारण है-भारत और ऐरवत क्षेत्रों में स्वभाव से भद्र, विनीत, उपशान्त, मन्दकषाय, सरल, कोमल, जितेन्द्रिय, भद्र और नम्र अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, चारण, विद्याधर, श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका एवं धर्मात्मा मनुष्य हैं, उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को डुबाता नहीं है, यावत् जलमय नहीं करता यावत् इस प्रकार का लोक का स्वभाव भी है, यहाँ तक कहना चाहिए।' / / पंचम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 214 (ख) जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, सूत्र 173, लवणसमुद्राधिकार पृ-३२४-२५ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : गंठिय तृतीय उद्देशक : ग्रन्थिका एक जीव द्वारा एक समय में इहभाविक एवं परमविक आयुष्य-वेदन विषयक अन्यतीथिक मत निराकरणपूर्वक भगवान् का समाधान 1. अण्णउस्थिया भते ! एवमाइक्खंति मा०प० एवं परूवेति-से जहानामए जालगंठिया सिया प्राणपुब्बिढिया प्रणंतरगढिया परंपरगाढता अन्नमन्नगढिता अन्नमनगुरुयत्ताए अनमनभारियत्ताए अनमनगुरुयसंभारियत्ताए अन्नमनघडताए चिट्ठति, एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु प्राजातिसहस्सेसु बहूई पाउयसहस्साई प्राणुपुधिढियाइं जाव चिट्ठति / एगे वि य णं जोवे एगेणं समएणं दो पाउयाई पडिसंवेदयति, तं जहा-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च; जं समयं इहवियाउयं पडिसंवेदेइ तं समयं परभक्यिाउयं पडिसंवेदेइ, जाव से कहमेयं मते ! एवं ? / गोतमा ! जणं ते अन्नउस्थिया तं चेव जाव परभवियाउयं च; जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–जहानामए जालगंठिया सिया जाव अन्नमनघडताए चिति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहि प्राजातिसहस्सेहि बहूई माउयसहस्साई प्राणुपुश्विगढियाइं जाव चिट्ठति / एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ, तं जहाइहभावियाउयं वा परभविघाउयं वा, जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ नो त समयं पर० पडिसंवेदेति, जं समयं प० नो तं समयं इहवियाउयं 50, इहवियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो परभवियाउध पडिसंवेदेइ, परवियाउयस्स पडिसंवेयणाए नो इहवियाउयं पडिसंवेदेति / एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एगं पाउयं प०, तं जहा-इहमवियाउयं वा, पर भवियाउयं वा / [1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई (एक) जालग्रन्थि (गांठे लगी हुई, जाल) हो, जिसमें क्रम से गांठे दो हुई हो, एक के बाद दूसरी अन्तररहित (अनन्तर) गांठें लगाई हुई हों, परम्परा से गूथी हुई हो, परस्पर गूथी हुई हो, ऐसी वह जालग्रन्थि परस्पर विस्तार रूप से, परस्पर भाररूप से तथा परस्पर विस्तार और भार रूप से, परस्पर संघटित रूप से यावत् रहती है, (अर्थात्--जाल तो एक है, लेकिन उसमें जैसे अनेक गांठे संलग्न रहती हैं) वैसे ही बहुत-से जीवों के साथ क्रमश: हजारों-लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत-से आयुष्य परस्पर क्रमशः गूथे हुए हैं, यावत् परस्पर संलग्न रहते हैं। ऐसी स्थिति में उनमें से एक जीव भी एक समय में दो आयुष्यों को वेदता (भोगता-अनुभव करता है / यथा एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और वही जीव, परभव का भी आयुष्य वेदता है / जिस समय इस भव के आयुष्य का वेदन करता है, उसी समय वह जीव परभव के आयुष्य का भी वेदन करता है; यावत् हे भगवन् ! यह (बात) किस तरह है ? Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [1 उ.] गौतम ! उन अन्यतीथिकों ने जो यह कहा है कि "यावत् एक ही जीव, एक ही समय में इस भव का और पर-भव का-दोनों का आयुष्य (एक साथ) वेदता है, उनका यह सब (पूर्वोक्त) कथन मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि-जैसे कोई एक जाल ग्रन्थि हो और वह यावत् ... परस्पर संघटित [सामूहिक रूप से संलग्न रहती है, इसी प्रकार क्रमपूर्वक बहुत-से सहस्रों जन्मों से सम्बन्धित, बहुत-से हजारों श्रायुष्य, एक-एक जीव के साथ शृखला (सांकल) की कड़ी के समान परस्पर क्रमश: ग्रथित (गूथे हुए) यावत् रहते हैं। (ऐसा होने से) एक जीव एक समय में एक ही आयुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है, जैसे कि या तो वह इस भव का ही आयुष्य वेदता है, अथवा पर भव का ही आयुष्य वेदता है। परन्तु जिस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय परभव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता, और जिस समय परभव के प्रायुष्य का प्रतिसंवेदन करता है, उस समय इस भव के आयुष्य का प्रतिसंवेदन नहीं करता / इस भव के आयुष्य का बेदन करने से परभव का प्रायुष्य नहीं वेदा जाता और के प्रायुष्य का वेदन करने से इस भव का आयुष्य नहीं वेदा जाता / इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही प्रायष्य का वेदन करता है; वह इस प्रकार-या तो इस भव के प्रायष्य का, अथवा परभव के आयुष्य का। विवेचन-एक जीव द्वारा एक समय में इहभविक एवं परभविक प्रायष्य बेदन विषयक प्रत्यतीथिकमनिराकरण पूर्वक भगवान का समाधान-प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों के एक जीव द्वारा एक समय में उभयभविक आयुष्य-वेदन के मत का खण्डन करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित एकभाविक आयुष्य-बेदन का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है / जाल को गांठों के समान अनेक जोवों के अनेक प्रायुष्यों की गांठ--यहां अन्यतीथिकों के द्वारा निरूपित जाल (मछलियां पकड़ने के जाल) की गांठों का उदाहरण देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार जाल एक के बाद एक, क्रमपूर्वक, अन्तर-रहित गांठे देकर बनाया जाता है, और वह जाल उन सब गांठों से गुम्फित-संलग्न रहता है। इसी तरह जीवों ने अनेक भव किये हैं, उन अनेक भवों के अनेक आयुष्य उस जाल की गांठों के समान परस्पर संलग्न हैं; इसलिए एक जीव दो भव का आयुष्य (एक साथ) वेदता है / ' भगवान् ने इस मत को मिथ्या बताया है / उनका प्राशय यह है कि अनेक / जीवों के एक साथ अनेक प्रायुष्यों के या एक जीव के एक साथ दो अायुष्यों के वेदन को सिद्ध करने के लिए अन्यतीथिकों ने जो जालग्रन्थि का दृष्टान्त दिया है, वह अयुक्त है; क्योंकि प्रश्न होता है, वे सब आयुष्य जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर भलीभांति सम्बद्ध हैं या असम्बद्ध ? यदि वे सब आयुष्य जीव के प्रदेशों के साथ भलीभांति सम्बद्ध हैं तो जालग्रन्थि के समान उनको बताना मिथ्या है, क्योंकि वे सब प्रायुष्य तो भिन्न-भिन्न जीवों के साथ सम्बद्ध हैं, इस कारण वे सब पृथक-पृथक होने से उनको जालग्रन्थि की तरह परस्पर संलग्न बताना ठीक नहीं / यदि उनको जालग्नन्थि की तरह बताया जाएगा तो सभी जीवों का सम्बन्ध उन सब आयुष्यों के साथ मानना पड़ेगा, क्योंकि आयष्यों का सीधा सम्बन्ध जीवों के साथ है। इसीलिए जीवों के साथ जालग्रन्थि की तरह परस्पर सम्बन्ध माना जाने पर सभी जीवों द्वारा एक साथ सभी प्रकार के प्रायव्य भोगने का प्रसंग आएगा, जो कि प्रत्यक्षबाधित है, तथा जैसे एक जाल के साथ अनेक ग्रन्थियाँ होती हैं, एक जीव के साथ भी अनेक भवों के आयुष्य का सम्बन्ध होने से एक साथ अनेक गतियों के वेदन का प्रसंग पाएगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है / अत: जालग्रन्थि की तरह एक जीव के साथ दो या अनेक भवों Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-३] [429 के आयुष्य का वेदन मानना युक्तिसंगत नहीं / यदि यह माना जाएगा कि उन अायुष्यों का जीव से साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, तो आयष्य के कारण जो जीवों को देवादि गति में उत्पन्न होना पड़ता है, वह सम्भव न हो सकेगा / अतः जीव और आयुष्य का परस्पर सम्बन्ध तो मानना चाहिए, अन्यथा, जीव और प्रायुष्य का किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने से जीव पर आयुष्य निमित्तक असर जरा भी नहीं होगा / अत: प्रायुष्य और जीव का परस्पर सम्बन्ध शृखलारूप समझना चाहिए / शृखला की कड़ियाँ जैसे परस्पर संलग्न होती हैं, वैसे ही एक भव के आयुष्य के साथ दूसरे भव का प्रायुष्य प्रतिबद्ध है और उसके साथ तीसरे, चौथे, पाँचवें आदि भवों का आयूष्य क्रमशः शृखलावन् प्रतिबद्ध है / तात्पर्य यह है कि इस तरह एक के बाद दूसरे आयुष्य का वेदन होता रहता है, किन्तु एक ही भव में अनेक आयुष्य नहीं भोगे जाते / वर्तमान भव के आयुष्य का वेदन करते समय भावी जन्म के आयुष्य का बंध तो हो जाता है, पर उसका उदय नहीं होता, अतएव एक जीव एक भव में एक ही आयुष्य का वेदन करता है / ' चौबीस दण्डकों तथा चतुर्विध योनियों की अपेक्षा से आयुष्यबन्ध सम्बन्धी विचार 2. जीवे णं भाते ! जे भविए नेरइएसु उवज्जित्तए से णं मते ! कि साउए संकमति, निराउए संकति? गोयमा ! साउए सकर्मात, नो निराउए संकमति / [2 प्र.] भगवन् ! जो जीव नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, क्या वह जीव यहीं से आयुष्य-युक्त होकर नरक में जाता है. अथवा आयुष्य रहित होकर जाता है ? [2 उ.] गौतम ! (जो जीव नै रयिकों में उत्पन्न होने वाला है,) वह यहीं से आयुष्ययुक्त होकर नरक में जाता है, परन्तु आयुष्यरहित होकर नरक में नहीं जाता। 3. से णं भते ! पाउए कहिं कडे / कहि समाइण्णे ? गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे / [3 प्र.] हे भगवन् ! उस जीव ने वह आयुष्य कहाँ बांधा ? और उस प्रायुष्य-सम्बन्धी आचरण कहाँ किया ? [3 उ ] गौतम ! उस (नारक) जीव ने वह आयुष्य पूर्वभव में बाँधा था और उस आयुष्यसम्बन्धी आचरण भी पूर्वभव में किया था / 4 एवं जाव वैमाणियाणं दंडगो / [4] जिस प्रकार यह बात नैर यिक के विषय में कही गई है, इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डकों के विषय में कहनी चाहिए / 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 214 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन भाग 2, पृ. 790 (ग) भगवती सूत्र (टीकानुवाद-टिप्पण) खण्ड 1 में प्रथम शतक, उद्दे. 9, सू. 295 पृ. 204 देखिये / Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. से नणं भाते ! जे जे भविए जीणि उववज्जित्तए से तमाउयं पकरेइ, तं जहा-नेरतियाउयं वा जाव देवाउयं वा ? हंता, गोयमा ! जे जं भविए जोणि उववज्जित्तए से तमाउयं पकरेइ, तं जहा–नेरइयाउयं वा, तिरि०, मणु०, देवाज्यं वा। नेरइयाउथं पकरेमाणे सत्तविहं पकरेइ, तं जहा–रयणप्पभापुढवि रइयाउयं वा जाव आहेसत्तमापुढविनेरइयाउयं वा। तिरिक्खजोणियाउयं परेमाणे पंचविहं पकरेइ, तं जहा---एगिदितिरिक्खजोणियाउयं वा, भेदो सन्चो भाणियन्वो। मणुस्साउयं दुविहं / देवाउयं चविहं / सेवं भते ! सेवं भाते ! ति / // पंचम सए : तइप्रो उद्देसनो // [5 प्र.] भगवन् ! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, क्या वह जीव, उस योनि सम्बन्धी आयुष्य बांधता है ? जैसे कि जो जीव नरक योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, क्या वह नरकयोनि का आयुष्य बांधता है, यावत् देवयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव क्या देवयोनि का आयुष्य बांधता है ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह जीव उस योनिसम्बन्धी आयुष्य को बाँधता है। जैसे कि नरक योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव नरकयोनि का आयुष्य बांधता है, तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव, तिर्यञ्चयोनि का आयुष्य बांधता है, मनुष्य योनि में उत्पन्न होने योग्य जीव मनुष्य योनि का प्रायूष्य बाँधता है यावत देवयोनि में उत्पन्न होने योग्य जीव देवयोनि का आयुष्य बांधता है। जो जीव नरक का आयुष्य बांधता है, वह सात प्रकार की नरकभूमि में से किसी एक प्रकार की नरक भूमि सम्बन्धी आयुष्य बांधता है। यथा-रत्नप्रभा (प्रथम नरक) पृथ्वी का आयुष्य, अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी (सप्तम नरक) का आयुष्य बांधता है / जो जीव तिर्यञ्चयोनि का प्रायुष्य बांधता है, वह पांच प्रकार के तिर्यञ्चों में से किसी एक प्रकार का तिर्यञ्च-सम्बन्धी आयुष्य बांधता है / यथा-एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनि का आयुष्य इत्यादि / तिर्यञ्च के सभी भेदविशेष विस्तृत रूप से यहाँ कहने चाहिए / जो जीव मनुष्य-सम्बन्धी आयुष्य बांधता है, वह दो प्रकार के मनुष्यों में से किसी एक प्रकार के मनुष्य-सम्बन्धी आयुष्य को बांधता है, (यथा-सम्मूच्छिम मनुष्य का, अथवा गर्भज मनुष्य का / ) जो जीव देवसम्बन्धी आयुष्य बांधता है, तो वह चार प्रकार के देवों में से किसी एक प्रकार के देव का आयुष्य बांधता है। (यथा-भवनपति देव का, ' वाणव्यन्तर देव का, ज्योतिष्क देव का अथवा वैमानिक देव का आयुष्य / इनमें से किसी एक प्रकार के देव का आयुष्य बांधता है।) "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् विचरते हैं। विवेचन--चौबीस दण्डकों तथा चतुर्विध योनियों की अपेक्षा से प्रायुष्यबन्ध सम्बन्धी Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-३] [431 विचार-प्रस्तुत चार सूत्रों में मुख्यतया चार पहलुओं से चारों गतियों तथा चौबीसों दण्डकों के जीवों का प्रायुष्यबन्ध-सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किया गया है / वे चार पहलू इस प्रकार हैं (1) नरक से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस ही दण्डकों का दूसरी गति में जाने योग्य जीव आयुष्य सहित होकर दूसरी गति में जाता है / (2) जीव अगली गति में जाने योग्य प्रायुष्य इसी गति में बांध लेता है तथा तद्योग्य पाचरण इसी (पूर्व) गति में करता है / (3) नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चारों में से जो जीव जिस योनि में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह उसी योनि का प्रायुष्य बांध लेता है। (4) नरकयोनि का आयुष्य बांधने वाला सात नरकों में से किसी एक नरक का, तिर्यञ्चयोनि का प्रायुष्य बांधने वाला जीव पांच प्रकार के तिर्यंचों में किसी एक प्रकार के तिर्यञ्च का, एवं मनुष्ययोनि सम्बन्धी प्रायुष्य बांधने वाला जीव दो प्रकार के मनुष्यों में से किसी एक प्रकार के मनुष्य का और देवयोनि का आयुष्य बांधने वाला जीव चार प्रकार के देवों में से किसी एक प्रकार के देव का आयुष्य बांधता है।' / / पंचम शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती प्र० वृत्ति, पत्रांक 215 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्दसओ : 'सह' चतुर्थ उद्देशक : शब्द छदमस्थ और केवली द्वारा शब्द-श्रवरण-सम्बन्धी सीमा की प्ररूपरणा 1. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से प्राउडिज्जमाणाई सद्दाइं सुणेति, तं जहा-संखसदाणि वा, सिंगसदाणि वा, संखियसदाणि वा, खरमूहिसदाणि वा, पोयासदाणि वा, परिपिरियासदाणि वा, पणबसदाणि वा, पडहसदाणि वा, भंभासदाणि वा, होरंभसदाणि वा, भेरिसदाणि वा, झल्लर. सदाणि बा, दुदुभिसदाणिवा, तताणि वा, वितताणिवा, घणाणि वा, झसिराणि वा? हंता, गोयमा ! छउमत्थे णं मणसे पाउडिज्जमाणाई सदाई सुणेति, तं जहा—संखसदाणि या जाव झुसिराणि वा। 1 प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ मनुष्य क्या बजाये जाते हुए वाद्यों (के) शब्दों को सुनता है ? यथा-शंख के शब्द, रणसींगे के शब्द, शंखिका (छोटे शंख) के शब्द, खरमुही (काहली नामक बाजे) के शब्द, पोता (बड़ी काहली) के शब्द, परिपीरिता (सूअर के चमड़े से मढ़े हुए मुख वाले एक प्रकार के बाजे) के शब्द, पणव (ढोल) के शब्द, पटह (ढोलकी) के शब्द, भंभा (छोटी भेरी) के शब्द, झल्लरी (झालर) के शब्द, दुन्दुभि के शब्द, तत (तांत वाले बाजो-वीणा आदि वाद्यों) के शब्द, विततशब्द (ढोल आदि विस्तृत बाजों के शब्द), घनशब्द (ठोस बाजों- कांस्य, ताल आदि वाद्यों के शब्द), शुषिरशब्द (बीच में पोले बाजों-बिगुल, बाँसुरी, बंशी आदि के शब्द); इत्यादि बाजों के शब्दों को। [1 उ.] हाँ गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य बजाये जाते हुए शंख यावत्--शुषिर अादि (पूर्वोक्त) वाद्यों के शब्दों को सुनता है। 2. ताई मते ! कि पुढाई सुणेति ? अपुढाई सुणेति ? गोयमा ! पुट्ठाई' सुणेति, नो अपुट्ठाई सुणेति जाव णियमा छदिसि सुणेति / [2 प्र.] भगवन् ! क्या वह (छद्मस्थ) उन (पूर्वोक्त वाद्यों के) शब्दों को स्पृष्ट होने (कानों से स्पर्श किये जाने-टकराने) पर सुनता है, या अस्पृष्ट होने (कानों से स्पर्श न करने - न टकराने) पर भी सुन लेता है ? [2 उ.] गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य (उन वाद्यों के) स्पृष्ट (कानों से स्पर्श किये गए-टकराए 1. 'पुढाई सुणेति' इस सम्बन्ध में भगवती सूत्र प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक का आहाराधिकार देखना चाहिए / भगवती० (टीकानुवाद टिप्पणयुक्त) खण्ड 1, पृ. 70 से 72 तक / Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [ 433 हुए) शब्दों को सुनता है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनता; यावत् नियम से छह दिशानों से आए हुए स्पृष्ट शब्दों को सुनता है। 3. छउमत्थे णं मते ! मणस्से कि पारगताई सद्दाई सुणेइ ? पारगताई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! प्रारगयाइं सदाई सुणेइ, नो पारगयाइं सदाई सुणेइ / [3 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य पारगत (पाराद्गत–इन्द्रिय विषय के समीप रहे हुए) शब्दों को सुनता है, अथवा पारगत (इन्द्रिय विषय से दूर रहे हुए) शब्दों को सुनता है ? [3 उ.] गौतम ! (छद्मस्थ मनुष्य) पारगत शब्दों को सुनता है, किन्तु पारगत शब्दों को नहीं सुन पाता। 4. [1] जहा गं भते ! छउमत्थे मणुस्से पारगयाइं सदाई सुणेइ, नो पारगयाइं सदाई सुणेइ, तहा णं भते ! केवली कि प्रारगयाइं सदाइं सुणेइ, नो पारगयाइं सदाइं सुणेइ ? गोयमा ! केवलो णं प्रारगयं वा पारगयं वा सव्वदूरमूलमणतियं सदं जाणइ पासइ / [4-1 प्र.] भगवन् ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य प्रारगत शब्दों को सुनता है, किन्तु पारगत शब्दों को नहीं सुनता; वैसे हो, हे भगवन् ! क्या केवली (केवलज्ञानी) भी पारगत शब्दों को ही सुन पाता है, पारगत शब्दों को नहीं सुन पाता ? [4-1 उ.] गौतम ! केवली मनुष्य तो पारगत, पारगत, अथवा समस्त दूरवर्ती (दूर तथा अत्यन्त दूर के) और निकटवर्ती (निकट तथा अत्यन्त निकट के) अनन्त (अन्तरहित) शब्दों को जानता और देखता है। [2] से केणढणं तं चेव केवली णं पारगयं वा जाव पासइ ? गोयमा ! केवली गं पूरस्थिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ; एवं दाहिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ड, अहे मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली. सम्वतो जाण पासह, सबकालं जा पा०, सब्वभावे जाणह केवली, सवभावे पास केवलो, अणते नाणे केलिस्स, अणते दसणे केवलिस्स, निव्वुडे नाणे केवलिस्स,' निम्बुडे सणे केवलिस्स / से तेण?णं जाव पासइ / [4.2 प्र] भगवन् ! इसका क्या कारण है कि केवली मनुष्य पारगत, पारगत, अथवा यावत् सभी प्रकार के (दूरवर्ती, निकटवर्ती) अनन्त शब्दों को जानता-देखता है ? [4-2 उ.] गौतम ! केवली (भगवान् सर्वज्ञ) पूर्व दिशा की मित वस्तु को भी जानतादेखता है, और अमित वस्तु को भी जानता-देखता है। इसी प्रकार दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा की मित वस्तु को भी जानता-देखता है तथा अमित वस्तु को भी जानता-देखता है / केवलज्ञानी सब जानता है और सब देखता है। केवली भगवान् सर्वतः (सब 1. पाठान्तर --निव्वुडे वितिमिरे विसुद्ध' इन तीनों विशेषणों से युक्त पाठ अन्य प्रतियों में मिलता है। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ओर से) जानता-देखता है, केवली सर्वकाल में, सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है / केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) के अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन होता है। केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन निरावरण (सभी प्रकार के प्रावरणों से रहित) होता है / हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि केवली मनुष्य प्रारगत और पारगत शब्दों को, यावत् सभी प्रकार के दूरवर्ती और निकटवर्ती शब्दों को जानता-देखता है / विवेचन-छद्मस्थ और केवली की शब्द-श्रवण-सम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में छदमस्थ और केवली मनष्य के द्वारा शब्दश्रवण के सम्बन्ध में निम्नोक्त तीन तथ्यों का निरूपण किया गया है- (1) छद्मस्थ मनुष्य बजाये जाते हुए शंख आदि वाद्यों के शब्दों को सुनता है / (2) किन्तु वह (छद्मस्थ) उन बजाये हुए वाद्य-शब्दों को कानों से स्पर्श होने पर सुनता है, तथा इन्द्रिय विषय के निकटवर्ती शब्दों को सुन सकता है। (3) केवलज्ञानी आरगत पारगत, निकट-दूर के समस्त अनन्त शब्दों को जानता-देखता है तथा वह सभी दिशाओं से, सब ओर से, सब काल में अपने निरावरण अनन्त-परिपूर्ण-केवलज्ञान केवलदर्शन से सर्वभावों (पदार्थों) को जानता-देखता है। मूल सूत्र में छद्मस्थ के लिए 'सुणेइ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है जब कि केवली के लिए 'जाणइ पासइ' पद का प्रयोग किया है / इस भेद का कारण यह है कि छद्मस्थ जीव कान से शब्द सुनता है किन्तु केवली शब्द को कान से नहीं सुनते, केवलज्ञान-दर्शन से ही जानते-देखते हैं। 'प्राउडिज्जमाणाई पद की व्याख्या-संस्कृत में इस शब्द के दो रूपान्तर होते हैं-(१) आजोड़माना एवं (आजोड्यमानानि) (2) 'पाकुटयमानानि / प्रथमरूपान्तर की व्याख्या इस प्रकार है-मुखादि से प्रासम्बद्ध होते हुए वाविशेष; अर्थात्-मुख के साथ शंख का संयोग होने से, हाथ के साथ ढोल का संयोग होने से, लकड़ी के टुकड़े या डंडे के साथ झालर का संयोग होने से, इसी तरह अन्यान्य पदार्थों के साथ अनेक प्रकार के वाद्यों का संयोग होने से; अथवा बजाने के साधनरूप अनेक प्रकार के पदार्थों के पीटने- कूटने-चोट लगाने अथवा टकराने से बजने वाले अनेक प्रकार के बाजों से / कठिन शब्दों की व्याख्या-पारगयाइं= इन्द्रियों के निकट भाग में स्थित, या इन्द्रियगोचर / पारगयाई= इन्द्रियविषयों से पर, दूर या अगोचर रहे हुए। सव्वदूरमूलमतिय = (1) सर्वथा दूर और मूल = निकट में रहे हुए शब्द को, तथा अनन्तिक अर्थात्-न तो बहुत दूर और न बहुत निकट अर्थात्-मध्यवर्ती शब्दों को, (2) अथवा सर्वदूरमूल यानी अनादि और अन्तरहित शब्दों को। णिन्वुडे नाणे = कर्मों से अत्यन्त निवृत्त होने के कारण निरावरण ज्ञान / ' छदमस्थ और केवली के हास्य और औत्सुक्य सम्बन्धी प्ररूपरणा 5. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा ? उस्सुनाएज्ज वा? हंता, हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा। 1. वियाहपण्पत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 194-195 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 216 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 171 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [435 [5 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य हंसता है तथा (किसी पदार्थ को ग्रहण करने के लिए) उत्सुक (उतावला) होता है ? [5 उ.] गौतम ! हाँ, छद्मस्थ मनुष्य हंसता तथा उत्सुक होता है। 6. [1] जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा उस्सु० तहा णं केवली वि हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा? गोयमा ! नो इण? सम8 / [6-1 प्र.] भगवन् ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य हंसता है तथा उत्सुक होता है, वैसे क्या केवली भी हंसता और उत्सुक होता है ? [6.1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात् छद्मस्थ मनुष्य को तरह केवली न तो हंसता है और न उत्सुक होता है।) [2] से केण?णं भंते ! जाव नो णं तहा केवली हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा? गोयमा ! जं णं जीवा चरित्तमोहणिज्जकम्मस्त उदएणं हसंति वा उस्सुयायति वा, से णं केवलिस्स नथि, से तेणटुणं जाव नो णं तहा केवली हसेज्ज वा, उस्तुयाएज्ज वा / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि केवली मनुष्य (छद्भस्थ को तरह) न तो हंसता है और न उत्सुक होता है ? [6-2 उ.] गौतम ! जीव, चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से हंसते हैं या उत्सुक होते हैं, किन्तु वह (चारित्रमोहनीय कर्म) केवलोभगवान् के नहीं है; (उनके चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय हो चुका है।) इस कारण से यह कहा जाता है कि जैसे छद्मस्थ मनुष्य हंसता है अथवा उत्सुक होता है, वैसे केवलीमनुष्य न तो हंसता है और न ही उत्सुक होता है / 7. जीवे गं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कति कम्मपगडीमो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा / [7 प्र.] भगवन् ! हंसता हुया या उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों (कितने प्रकार के कर्म) को बांधता है ? [7 उ.] गौतम ! (हंसता हुआ या उत्सुक होता हुआ जीव) सात प्रकार के कर्मों को बांधता है, अथवा आठ प्रकार के कर्मों को बांधता है / 8. एवं जाव' वेमाणिए / [8] इसी प्रकार (नैरयिक से लेकर) वैमानिकपर्यन्त चौबीस ही दण्डकों के लिए (ऐसा आलापक) कहना चाहिए / 1. 'जाब' पद यहाँ नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों का सूचक है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___E. पोहत्तिएहि जोवेगिदियवज्जो तियभंगो / [6] जब उपर्युक्त प्रश्न बहुत जीवों को अपेक्षा पूछा जाए, तो उसके उत्तर में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर कर्मबन्ध से सम्बन्धित तीन भंग (विकल्प) कहने चाहिए। विवेचन----छद्मस्थ और केवली के हास्य और प्रौत्सुक्य—प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 5 से 1 तक) में छदमस्थ और केवलज्ञानी मनुष्य के हंसने और उत्सुक (किसी वस्तु को लेने के लिए उतावला) होने के सम्बन्ध में पांच तथ्यों का निरूपण किया गया है 1. छद्मस्थ मनुष्य हंसता भी है और उत्सुक भी होता है / 2. केवली मनुष्य न हंसता है, और न उत्सुक होता है / 3. क्योंकि केवली के चारित्रमोहनीय कर्म का उदय नहीं होता, वह क्षीण हो चका है। 4. जीव (एक जीव) हंसता और उत्सुक होता है, तब सात या आठ प्रकार के कर्म बांध लेता है। 5. यह बात नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस ही दण्डकों पर घटित होती है / 6. जब बहुवचन (बहुत-से जीवों) की अपेक्षा से कहा जाए, तब समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष 19 दण्डकों में कर्मबन्ध सम्बन्धी तीन भंग कहने चाहिए। तीन भंग-पृथक्त्वसूत्रों (पोहत्तिएहि) अर्थात् बहुवचन-सूत्रों (बहुत-से जीवों) की अपेक्षा से पांच एकेन्द्रियों में हास्यादि न होने से 5 स्थावरों के 5 दण्डकों को छोड़कर शेष 16 दण्डकों में कर्मबन्धसम्बन्धी तीन भंग होते हैं-(१) सभी जीव सात प्रकार के कर्म बांधते हैं, (2) बहुत-से जीव 7 प्रकार के कर्म बांधते हैं और एक जीव 8 प्रकार के कर्म बांधता है, (3) बहुत-से जीव 7 प्रकार के कर्मों को और बहुत-से जीव 8 प्रकार के कर्मों को बांधते हैं।' ___आयुकर्म के बन्ध के समय पाठ और जब आयुकर्म न बंध रहा हो, तब सात कर्मों का बन्ध समझना चाहिए। छद्मस्थ और केवली का निद्रा और प्रचला से सम्बन्धित प्ररूपरण 10. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निदाएज्ज वा? पयलाएज्ज वा ? हंता, निदाएज्ज वा, पयलाएज्ज वा। [10 प्र.] भगवन् ! क्या छद् मस्थ मनुष्य निद्रा लेता है अथवा प्रचला नामक निद्रा लेता है ? [10 उ.] हाँ, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य निद्रा लेता है और प्रचला निद्रा (खड़ा खड़ा नींद) भी लेता है। 11. जहा हसेज्ज वा तहा, नवरं दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं निदायंति वा, पयलायति वा / से णं केवलिस्स नस्थि / अन्नं तं चेव / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 217 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [437 [11] जिस प्रकार हंसने (और उत्सुक होने) के सम्बन्ध में (छद्मस्थ और केवली मनुष्य के विषय में) प्रश्नोत्तर बतलाए गए हैं, उसी प्रकार निद्रा और प्रचला-निद्रा के सम्बन्ध में (छद्मस्थ और केवली मनुष्य के विषय में) प्रश्नोत्तर जान लेने चाहिए। विशेष यह है कि छद्मस्थ मनुष्य दर्शनावरणीय कर्म के उदय से निद्रा अथवा प्रचला लेता है, जबकि केवली भगवान के वह दर्शनावरणीय कर्म नहीं है; (उनके दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है / ) इसलिए केवली न तो निद्रा लेता है, न ही प्रचलानिद्रा लेता है। शेष सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 12. जीवे णं भंते ! निदायमाणे वा पयलायमाणे वा कति कम्मपगडीयो बंधति ? गोयमा ! सतविहबंधए वा अटविहबंधए वा / / [12 प्र.] भगवन् ! निद्रा लेता हुअा अथवा प्रचलानिद्रा लेता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों (कितने प्रकार के कर्मों) को बांधता है ? [12 उ.] गौतम ! निद्रा अथवा प्रचला-निद्रा लेता हुआ जीव सात कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है, अथवा पाठ कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है। 13. एवं जाव वेमाणिए। [13] इसी तरह (एकवचन की अपेक्षा से) [नैरयिक से लेकर] वैमानिक-पर्यन्त (चौबीस ही दण्डकों के लिए) कहना चाहिए / 14. पोहत्तिएसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो।' [14] जब उपर्युक्त प्रश्न बहुवचन (बहुत-से जीवों) को अपेक्षा से पूछा जाए, तब (समुच्चय) जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर [शेष 16 दण्डकों में कर्मबन्ध-सम्बन्धी तीन भंग कहने चाहिए। विवेचन-छमस्थ और केवली का निद्रा और प्रचला से सम्बन्धित प्ररूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों में हास्य और औत्सुक्य के सूत्रों की तरह ही सारा निरूपण है / अन्तर केवल इतना ही है कि यहाँ हास्य और औत्सुक्य के बदले निद्रा और प्रचला शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शेष सब पूर्ववत् है / हरिनैगमेषी द्वारा गर्भापहरण किये जाने के सम्बन्ध में शंका-समाधान 15. हरी णं भते ! नेगमेसी सक्कदते इत्थीगम्भं साहरमाणे कि गम्भारो गम्भं साहरति ! गब्भाप्रो जोणि साहरइ ? जोणीतो गब्भं साहरति ? जोणीतो जोणि साहरइ ? गोयमा ! नो गम्भातो गभं साहरति, नो गम्भानो जोणि साहरति, नो जोणीतो जोणि साहरति. परामसिय परामसिय प्रवाबाहेणं अब्बाबाहं जोणीयो गम्भं साहरइ / [15 प्र.] भगवन् ! इन्द्र (हरि)-सम्बन्धी शक्रदूत हरिनैगमेषी देव जब स्त्री के गर्भ का संहरण करता है, तब क्या वह एक गर्भाशय से गर्भ को उठाकर दूसरे गर्भाशय में रखता है ? या गर्भ को लेकर योनि द्वारा दूसरी (स्त्री) के उदर में रखता है ? अथवा योनि से (गर्भ को बाहर Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र निकाल कर दूसरी स्त्री के) गर्भाशय में रखता है ? या फिर योनि द्वारा गर्भ को पेट में से बाहर निकाल कर (वापस उसी तरह) योनि द्वारा ही (दूसरी स्त्री के पेट में) रखता है ? [15 उ.] हे गौतम ! वह हरिनगमेषी देव, एक गर्भाशय से गर्भ को उठा कर दूसरे गर्भाशय में नहीं रखता; गर्भाशय से गर्भ को लेकर उसे योनि द्वारा दूसरी स्त्री के उदर में नहीं रखता; तथा योनि द्वारा गर्भ को (पेट में से) बाहर निकालकर (वापस उसी तरह) योनि द्वारा दूसरी स्त्री के पेट में नहीं रखता; परन्तु अपने हाथ से गर्भ को स्पर्श कर करके, उस गर्भ को कुछ पीड़ा (बाधा) न हो, इस तरीके से उसे योनि द्वारा बाहर निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रख देता है। 16. पभू णं भते! हरिणेगमेसो सक्कस्स दूते इत्थोगभ नहसिरंसि वा रोमकसि वा साहरित्तए वा नोहरित्तए वा ? ___ हता, पभू, नो चेव णं तस्स गम्भस्स किचि वि प्राबाहं वा विवाहं वा उप्याएज्जा, छविच्छेद पुण करेज्जा, एसुहमं च गं साहरिज्ज वा, नीहरिज्ज वा / [16 प्र.] भगवन् ! क्या शक्र का दूत हरिनैगमेषी देव, स्त्री के गर्भ को नखाग्र (नख के सिरे) द्वारा, अथवा रोमकूप (छिद्र) द्वारा गर्भाशय में रखने या गर्भाशय से निकालने से समर्थ है ? [16 उ.] हाँ, गौतम ! हरिनैगमेषी देव उपर्युक्त रीति से कार्य करने में समर्थ है। (किन्तु ऐसा करते हुए) वह देव उस गर्भ को थोड़ी या बहुत, किञ्चित्मात्र भी पीड़ा नहीं पहुँचाता / हाँ, वह उस गर्भ का छविच्छेद (शरीर का छेदन-भेदन) करता है, और फिर उसे बहुत सूक्ष्म करके अंदर रखता है, अथवा इसी तरह अंदर से बाहर निकालता है / विवेचन-हरिनैगमेषी देव द्वारा गर्भापहरण किये जाने के सम्बन्ध में शंका-समाधानसुत्रद्वय (स.१५और 16) में शक्रेन्द्र के दत एवं गर्भापहारक हरिनैगमेषी देव द्वारा गर्भापहरण कैसे. किस तरीके से किया जाता है ? तथा क्या वह नखान और रोमकूप द्वारा गर्भ को गर्भाशय में रखने या उससे निकालने में समर्थ है ? इन दो शंकाओं को प्रस्तुत करके भगवान् द्वारा दिया गया उनका सुन्दर एवं सन्तोषजनक समाधान अंकित किया गया है। हरिनगमेषो देव का संक्षिप्त परिचय–'हरि', इन्द्र को कहते हैं तथा इन्द्र से सम्बन्धित व्यक्ति को भी हरि कहते हैं। इसलिए हरिनैगमेषी का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ (निर्वचन) इस प्रकार किया गया है हरि - इन्द्र के, नैगम = आदेश को जो चाहता है, वह हरिनैगमेषो, अथवा हरि = इन्द्र का नैगमेषी नामक देव / शकेन्द्र की पदाति (पैदल) सेना का वह नायक तथा शदूत है / शक्रेन्द्र की प्रा ने भगवान महावीर की माता त्रिशलादेवी के गर्भ में देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से भगवान् महावीर के गर्भ को संहरण करके स्थापित किया था / यद्यपि यहाँ भगवान् महावीर का नाम मुलपाठ में नहीं दिया है, तथापि हरिनैगमेषी का नाम पाने से यह घटना भ० महावीर से सम्बन्धित होने की संभावना है। वृत्तिकार का कथन है कि अगर इस घटना को भ० महावीर के साथ घटित करना न होता तो 'हरिनैगमेषी' नाम मूलपाठ में न देकर सामान्यरूप से देव का निरूपण किया जाता। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [ 439 भगवतीसूत्र के अतिरिक्त हरिणगमेषी द्वारा गर्भापहरण का वृत्तान्त अन्तकृदशांग में, आचारांग भावना चूलिका में, तथा कल्पसूत्र में भी उल्लिखित है।' गर्भसंहरण के चार प्रकारों में से तीसरा प्रकार ही स्वीकार्य-मूलपाठ में गर्भापहरण के 4 तरीके विकल्परूप में उठाए गए हैं, किन्तु हरिनैगमेषी द्वारा योनि द्वारा गर्भ को निकाल कर दूसरी स्त्री के गर्भाशय में रखना ही उपयोगी और लोकप्रसिद्ध तीसरा तरीका ही अपनाया जाता है, क्योंकि यह लौकिक प्रथा है कि कच्चा (अधूरा) या पक्का (पूरा) कोई भी गर्भ स्वाभाविक रूप से योनि द्वारा ही बाहर पाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-साहरइ = संहरण करता है ; साहरित्तए- संहरण-प्रवेश कराने के लिए / नोह रित्तए = निकालने के लिए / प्राबाहं =थोड़ी-सी बाधा-पीड़ा, विबाहं विशेष बाधा-पीड़ा। अतिमुक्तक कुमारश्रमरण को बालचेष्टा तथा भगवान् द्वारा स्थविर मुनियों का समाधान 17. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी प्रतिमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिमदए जाव विणीए / [17-1] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (समीप रहने वाले = शिष्य) अतिमुक्तक नामक कुमार श्रमण थे। वे प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। [2] तए णं से प्रतिमुत्ते कुमारसमणे प्रनया कयाइ महावुट्ठिकार्यसि निवयमाणंसि कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्टिते विहाराए / [17-2 (दीक्षित होने के पश्चात् वह अतिमुक्तक कुमार श्रमण किसी दिन महावृष्टिकाय (मूसलधार वर्षा) पड़ रही थी, तब कांख (बगल) में अपना रजोहरण तथा हाथ में, भोली में) पात्र लेकर बाहर विहार (स्थण्डिल भूमिका में बड़ी शंका के निवारण) के लिए रवाना (प्रस्थित) हुए (चले)। [3] तए णं से अतिमुत्ते कुमारसमणे वाह्यं वहमाणं पासति, 2 मट्टियापालि बंधति, 2 'नाविया मे 2' माविमो विव णावमयं पडिग्गहक, उदगंसि कट्ट पध्वाहमाणे पन्बाहमाणे प्रभिरमति / 1. (क) अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग 7, पृ. 1194 हरेरिन्द्रस्य नैगममादेमिच्छतीति हरिनैगमेषी, अथवा हरेरिन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवः / (प्राव. म. 2 अ.) (ख) आचारांग अन्तिम भावना-चूलिका। (ग) अन्तकृद्दशांग अ. 7, वर्ग 4, सुलसाप्रकरण (घ) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 174-175. (ङ) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 218 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 218 (ख) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 196 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [17-3] तत्पश्चात् (बाहर जाते हुए) उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण ने (मार्ग में) बहता हुआ पानी का एक छोटा-सा नाला देखा। उसे देखकर उसने उस नाले के दोनों ओर मिट्टी की पाल बांधी। इसके पश्चात् नाविक जिस प्रकार अपनी नौका पानी में छोड़ता है, उसी प्रकार उसने भी अपने पात्र को नौकारूप मानकर, पानी में छोड़ा। फिर 'यह मेरी नाव है, यह मेरी नाव है', यों पात्रीरूपी नौका को पानी में प्रवाहित करते (बहाते-तिराते हुए) क्रीड़ा करने (खेलने) लगे। [4] तं च थेरा प्रदक्खु / जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 एवं वदासीएवं खलु देवाणप्पियाणं अंतेवासी प्रतिमुत्ते णामं कुमारसमणे, से णं भते ! अतिमुत्ते कुमारसमणे कतिहि भवग्गहहि सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ! 'प्रज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वदासी-एवं खलु प्रज्जो! ममं अंतेवासी अतिमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए, से गं अतिमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / तं मा णं अज्जो! तुम्मे अतिमुत्तं कुमारसमणं होलेह निदह खिसह गरहह अवमन्त्रह / तुम्मे णं देवाणुप्पिया ! अतिमुत्तं कुमारसमणं प्रगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवागण्हह, अगिलाए मत्तेणं पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह। प्रतिमुत्ते गं कुमारसमणे अंतकरे चेय, अंतिमसरीरिए चेव / [17-4] इस प्रकार करते हुए उस अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्थविरों ने देखा / स्थविर (अतिमुक्तक कुमारश्रमण को कुछ भी कहे बिना) जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और निकट पाकर उन्होंने उनसे पूछा (कहा) [प्र.) भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) जो अतिमुक्तक कुमारश्रमण है, वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा? [उ.] 'हे पार्यो !' इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उन स्थविरों को सम्बोधित करके कहने लगे-'पार्यो ! मेरा अन्तेवासी (शिष्य) अतिमुक्तक नामक कुमारश्रमण, जो प्रकृति से भद्र यावत् प्रकृति से विनीत है; वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण इसी भव (जन्मग्रहण) से सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा / अतः हे आर्यो! तुम अतिमुक्तक कुमारश्रमण की होलना मत करो, न ही उसे झिड़को (जनता के समक्ष चिढ़ा ग्रो, डांटो या खिसना करो), न ही गर्हा (बदनामी) और अवमानना (अपमान) करो। किन्तु हे देवानुप्रियो ! तुम अग्लानभाव से (ग्लानि-घृणा या खिन्नता लाए बिना) अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्वीकार करो, अग्लान भाव से (संयम में) उसकी सहायता (उपग्रह-उपकार) करो, और अग्लानभाव से प्राहार-पानी से विनय सहित उसकी वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) करो; क्योंकि अतिमुक्तक कुमारश्रमण (इसी भव में सब कर्मों का या संसार का) अन्त करने वाला है, और चरम (अन्तिम) शरीरी है / [5] तए णं ते थेरा भगवंतो समणेणं भगवता महावीरेणं एवं बुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति, अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हंति जाव वेयावधियं करेंति / Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [17-5] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर (तत्क्षण) उन स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर उन स्थविर मुनियों ने अति मुक्तक कुमारश्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार किया और यावत् वे उसको वैयावृत्य (सेवाशुश्रूषा) करने लगे। विवेचन-प्रतिमुक्तक कुमारश्रमण को बालचेष्टा तथा भगवान द्वारा स्थविरों का समाधान प्रस्तुत 17 वें सुत्र के पांच विभागों में अतिमुक्तक कुमारश्रमण द्वारा पात्ररूपी नोका वर्षा के जल में तिराने की बालचेष्टा से लेकर भगवान् द्वारा किये गए समाधान से स्थविरों की अतिमुक्तक मुनि की सेवा में अग्लानिपूर्वक संलग्नता तक का वृत्तान्त दिया गया है। भगवान द्वारा आविष्कृत सुधार का मनोवैज्ञानिक उपाय-यद्यपि अतिमुक्तक कुमारश्रमण द्वारा सचित्त जल में अपने पात्र को नौका रूप मानकर तिराना और क्रीड़ा करना, साधुजीवन चर्या में दोषयुक्त था, उसे देखकर स्थविरमुनियों के मन में अतिमुक्तक श्रमण के संयम के प्रति शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक था। किन्तु एक तो बालसुलभ स्वभाव के कारण अतिमुक्तक मुनि से ऐसा हुआ था, दूसरे वे प्रकृति से भद्र, सरल और विनीत थे, हठाग्रही और अविनीत नहीं थे। इसलिए एकान्त में वात्सल्यभाव से भगवान् ने उन्हें समझाया होगा, तब वे तुरन्त अपनी भूल को मान गए होंगे, और चित प्रायश्चित्त लेकर उन्होंने आत्मशुद्धि भी कर ली होगी। शास्त्र के मूलपाठ में उल्लेख न होने पर भो ‘पगइभदए जाच पगइविणीए' पदों से ऐसी संभावना की जा सकती है / दूसरी ओर-भगवान् ने स्थविरों की मनोदशा अतिमुक्तक के प्रति घृणा, उपेक्षा, अवमानना और ग्ला लानि से युक्त देखी तो उन्होंने स्थविरों को भी वात्सल्यवश सम्बोधित करके अतिमुक्तक के प्रति घृणादि भाव छोड़कर अग्लानभाव से उसकी सेवा करने की प्रेरणा दी। ऐसे मनोवैज्ञानिक उपाय से भगवान् ने दोषयुक्त व्यक्ति को सुधारने का अचूक उपाय बता दिया। साथ ही अतिमुक्तक मुनि में निहित गुणों को प्रकट करके उन्हें भगवान् ने चरमशरीरी एवं भवान्तकर बताया, यह भी स्थविरों को घृणादि से मुक्त करने का ठोस उपाय था / ' 'कुमारश्रमण'-अल्पवय में दीक्षित होने के कारण प्रतिमुक्तक को 'कुमारश्रमण' कहा गया है। दो देवों के मनोगत प्रश्न के भगवान् द्वारा प्रदत्त मनोगत उत्तर पर गौतमस्वामी का मनःसमाधान 18. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्कातो कप्पातो महासामाणातो विमाणातो दो देवा महिड्ढोया जाव' महाणुभागा समणस्स भगवान महावीरस्स अंतियं पाउन्भूता। 18-1] उस काल और उस समय में महाशुक कल्प (देवलोक) से महासामान (महासर्ग या महास्वर्ग) नामक महाविमान (विमान) से दो महद्धिक यावत् महानुभाग देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रादुर्भूत (प्रगट) हुए (पाए)। 1. (क) भगवती. (टीकानुबाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 177-1785 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 219 के अाधार पर 2. पाठान्तर—'महासग्गातो महाविमाणाम्रो' 3. 'जाव' पद से 'महज्जूती' इत्यादि देववर्णन में पाया हया समग्र विशेषणयुक्त पाठ कहना चाहिए / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [ व्याख्याज्ञप्तिसूत्र [2] तए णं ते देवा समणं भगवं महावीरं वदंति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता मणसा चेव इम एतारूवं वागरणं पुच्छंति-कति णं भंते ! देवाणुपियाणं अंतेवासिसयाई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ? तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहि मणसा पुटु, तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासिसताई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / [18-2 प्र.] तत्पश्चात् उन देवों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उन्होंने मन से हो (मन ही मन) (श्रमण भगवान महावीर से) इस प्रकार का ऐसा प्रश्न पूछा---'भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे ?' [18-2 उ.] तत्पश्चात् उन देवों द्वारा मन से पूछे जाने पर श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों को भी मन से ही इस प्रकार का उत्तर दिया-'हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे।' [3] तए णं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुट्ठ मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरिया समाणा हद्वतुट्ठा जाव हहियया समणं भगवं महावीरं वदंति णमंसंति, 2 ता मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति / [18-3] इस प्रकार उन देवों द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर ने भी मन से ही इस प्रकार दिया, जिससे वे देव हर्षित, सन्तुष्ट (यावत्) हृदय वाले एवं प्रफुल्लित हुए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके मन से उनकी शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए अभिमुख होकर यावत् पर्युपासना करने लगे। 16. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती णाम अणगारे जाव अदूरसामंते उड्ढेजाणू जाव विहरति / [16-1j उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् न अतिदूर और न ही प्रतिनिकट उत्कुटुक (उकडू) अासन से बैठे हुए यावत् पर्युपासना करते हुए उनको सेवा में रहते थे / / [2] तए णं तस्स भगवतो गोतमस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुष्पज्जित्था—'एवं खलु दो देवा महिड्ढोया जाव महाणुभागा समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया, तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कयरातो कप्पातो वा सम्गातो वा विमाणातो वा कस्स वा अत्थस्स अट्ठाए इहं हन्वमागता?' तं गच्छामि गं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि जाव' पज्जुवासामि, इमाइं च णं एयारूवाई वागरणाई पुच्छिस्सामि ति कटु एवं संपेहेति, 2 उट्ठाए उट्ठति, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति / 1. 'जाव' शब्द से गौतमस्वामी द्वारा समाचरित आराधना-पर्युपासना सम्बन्धी पूर्वोक्त समग्र वर्णन कहना चाहिए। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ शतक : उद्देशक-४ ] [ 443 [16-2] तत्पश्चात् ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए (प्रचलित ध्यान की समाप्ति होने पर और दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व) भगवान् गौतम के मन में इस प्रकार का इस रूप का अध्यवसाय (संकल्प) उत्पन्न हुआ-निश्चय ही महद्धिक यावत् महानुभाग (महाभाग्यशाली) दो देव, श्रमण भगवान महावीर स्वामो के निकट प्रकट हुए; किन्तु मैं तो उन देवों को नहीं जानता कि वे कौन-से कल्प (देवलोक) से या स्वर्ग से, कौन-से विमान से और किस प्रयोजन से शीघ्र यहाँ पाए हैं ? अतः मैं भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊँ और वन्दना-नमस्कार करू'; यावत् पर्युपासना करू, और ऐसा करके मैं इन और इस प्रकार के उन (मेरे मन में पहले उत्पन्न) प्रश्नों को पूछ / यों श्री गौतम स्वामी ने विचार किया और अपने स्थान से उठे। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए यावत् उनकी पर्युपासना करने लगे। [3] 'गोयमा !' इसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वदासी-से नणं तव गोयमा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेतारूवे अज्झथिए जाव जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए / से नूणं गोतमा ! अट्ठ सम? ? हंता, अस्थि / तं गच्छाहि गं गोतमा ! एते चेव देवा इमाइं एतारूबाई वागरणाई वागरेहिति / [19-3] इसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने गौतम आदि अनगारों को सम्बोधित करके भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-'गौतम ! एक ध्यान को समाप्त करके दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व (ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते समय) तुम्हारे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय (संकल्प) उत्पन्न हुआ कि मैं देवों सम्बन्धी तथ्य जानने के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को सेवा में जा कर उन्हें वन्दन-नमस्कार करू, यावत् उनकी पर्युपासना करू, उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रश्न पूछु, यावत् इसी कारण से जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम मेरे पास शीघ्र पाए हो। हे गौतम ! यही बात है न? (क्या यह अर्थ समर्थ है ?) (श्री गौतम स्वामी ने कहा- हाँ, भगवन् ! यह बात ऐसी ही है।' (इसके पश्चात् भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-) 'गौतम ! तुम (अपनी शंका के निवारणार्थ उन्हीं देवों के पास) जायो / वे देव ही इस प्रकार की जो भी बातें हुई थीं, तुम्हें बताएँगे / ' [4] तए णं भगवं गोतमे समजेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे समणं भगवं महावीरं बंदति मंसति, 2 जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए / [16-4] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर द्वारा इस प्रकार की आज्ञा मिलने पर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और फिर जिस तरफ वे देव थे, उसी ओर जाने का संकल्प किया। [5] तए णं ते देवा भगवं गोतम एज्जमाणं पासंति, 2 हवा जाव हाहदया खिप्पामेव अन्भुट्ठति, 2 खिप्पामेव पच्चवगच्छंति, 2 जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छंति, 2 ता जाव णमंसित्ता एवं वदासी-एवं खलु भते! अम्हे महासुक्कातो कप्पातो महासामाणातो' विमाणातो 1. पाठान्तर-'महासग्गातो महाविमाणातो' / Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 ] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दो देवा महिड्डिया जाष पादुम्मूता, तए णं अम्हे समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो, 2 मणसा चेव इमाई एतारूवाई वागरणाई पुच्छामो-कति गंमते! देवाणुपियाणं अंतेवासिसयाई सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ? तए णं समणे भगवं महावीरे अम्हेहि मणसा पुढे अम्ह मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम सत्त अंतेवासि० जाव अंतं करेहिति / तए णं अम्हे समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढणं मणसा चेव इमं एतास्वं वागरणं वागरिया समाणा समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो, 2 जाव पज्जुवासामो त्ति कटु भगवं गोतमं बंदंति नमंति, 2 जामेव दिसि पाउन्मूता तामेव दिसि पडिगया / [16-5] इधर उन देवों ने भगवान् गौतम स्वामी को अपनी ओर आते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित हुए यावत् , उनका हृदय प्रफुल्लित हो गया; वे शीघ्र ही खड़े हुए, फुर्ती से उनके सामने गए और जहाँ गौतम स्वामी थे, वहाँ उनके पास पहुँचे / फिर उन्हें यावत् वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-'भगवन् ! महाशुक्रकल्प (सप्तम देवलोक) से, महासामान (महासर्ग या महास्वर्ग) नामक महाविमान से हम दोनों महद्धिक यावत् महानुभाग देव यहाँ आये हैं। यहाँ पा कर हमने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया और मन से ही (मन ही मन) इस प्रकार की ये बातें पूछों कि 'भगवन् ! आप देवानुप्रिय के कितने शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेंगे ?' तब हमारे द्वारा मन से ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से (यह प्रश्न) पुछे जाने पर उन्होंने हमें मन से ही इस प्रकार का यह उत्तर दिया--'हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।' 'इस प्रकार मन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा मन से ही प्राप्त करके हम अत्यन्त हृष्ट और सन्तुष्ट हुए यावत् हमारा हृदय उनके प्रति खिच गया / अतएव हम श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दन-नमस्कार करके यावत् उनकी पर्यपासना कर रहे हैं।' यों कह कर उन देवों ने भगवान् गौतम स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया और वे दोनों देव जिस दिशा से आए (प्रादुर्भूत हुए) थे, उसी दिशा में वापस लौट गए। विवेचन-दो देवों के मनोगत प्रश्न के भगवान् द्वारा प्रदत्त मनोगत उत्तर पर गौतम स्वामी का मनःसमाधान-प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा शास्त्रकार वे सात तथ्यों का स्पष्टीकरण किया है (1) दो देवों का अपना जिज्ञासा शान्त करने हेतु भगवान् महावीर की सेवा में आगमन / (2) सिद्ध-मुक्त होने वाले भगवान् के शिष्यों के सम्बन्ध में देवों द्वारा प्रस्तुत मनोगत प्रश्न / (3) उनका मनोगत प्रश्न जान कर भगवान् द्वारा मन से ही प्रदत उत्तर—'मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे।' (4) यथार्थ उत्तर पा कर देव हृष्ट और सन्तुष्ट होकर वन्दन नमस्कार करके पर्युपासना में लीन हुए। (5) गौतम स्वामी के ध्यानपरायण मन में देवों के सम्बन्ध में उठी हुई जिज्ञासा शान्त करने का विचार / (6) भगवान् द्वारा गौतमस्वामी को अपनी जिज्ञासा शान्त करने हेतु देवों के पास जाने का परामर्श Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [445 (7) देवों द्वारा अपने आगमन के उद्देश्य और उसमें प्राप्त सफलता का अथ से इति तक गौतमस्वामी से निवेदन / प्रतिफलित तथ्य---इस समन वृत्तान्त पर से चार तथ्य प्रतिफलित होते हैं(१) देवों की तथा सर्वज्ञ तीर्थंकर को क्रमशः प्रचण्ड मनःशक्ति और प्रात्मशक्ति / (2) सत्य की प्राप्ति होने पर देव हृष्ट-तुष्ट, विनम्र और धर्मात्मा के पर्युपासक बन जाते हैं। (3) सत्यार्थी गौतमस्वामी की प्रबल ज्ञानपिपासा। (4) अपने से निम्नगुणस्थानवर्ती देवों के पास सत्य-तथ्य जानने का भगवान् का परामर्श मान कर विनम्रमूति जिज्ञासुशिरोमणि थी गौतमस्वामी का देवों के पास ममन, और यथार्थमन:समाधान से सन्तोष / ' ___ कठिन शब्दों के विशेष अर्थ-अभणुण्णाए = अाज्ञा प्राप्त होने पर। खिप्पामेव - शीघ्र ही। पहारस्थ गमणाए जाने के लिए मन में धारणा की / एज्जमाणं = पाते हुए / प्रभुति = उठ खड़े होते हैं / पच्चुवागच्छंति = सामने आते हैं / भाणंतरिया ध्यानान्तरिका---एक ध्यान समाप्त करके जब तक दूसरा ध्यान प्रारम्भ न किया जाए उसके बीच का समय / देवों को संयत, असंयत, एवं संयतासंयत न कहकर 'नो-संयत"कथन-निर्देश 20. 'भाते !' त्ति भगवं गोतमे समणं जाव एवं वदासी-देवा गं भ'ते ! 'संजया' ति क्त्त वं सिया ? गोतमा ! णो इगट्ठ सम8। अभक्खाण मेयं देवाणं / [20 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया यावत् इस प्रकार पूछा--'भगवन् ! क्या देवों को 'संयत' कहा जा सकता है ? [20 उ.] 'गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (यथार्थ सम्यक् ) नहीं है, यह (देवों को 'संयत' कहना) देवों के लिए अभ्याख्यान (मिथ्या आरोपित कथन) है। 21. मते ! 'असंजता ति वत्तव्वं सिया ? गोयमा ! णो इण? समट्ठ। णिटुरवयणमेयं देवाणं। [21 प्र.] भगवन् ! क्या देवों को 'असंयत' कहना चाहिए ? [21 ए.] गौतम ! यह अर्थ (भी) समर्थ (सम्यक् अर्थ) नहीं है / देवों के लिए ('देव असंयत हैं') यह (कथन) निष्ठुर वचन है / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 198-199 2. भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 221 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 22. भते ! 'संजयासंजया' ति वत्तवं सिया ? गोयमा ! णो इण? समढे। असम्भूयमेयं देवाणं। [22 प्र.] भगवन् ! क्या देवों को 'संयतासयत' कहना चाहिए? [22 उ.] गौतम ! यह अर्थ (भी) समर्थ नहीं है, देवों को 'संयतासंयत' कहना (देवों के लिए) असद्भूत (असत्य) वचन है। 23. से कि खाति णं भते ! देवा ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! देवा णं 'नोसंजया ति वत्तव्वं सिया। [23 प्र. ] भगवन् ! तो फिर देबों को किस नाम से कहना (पुकारना चाहिए ? [23 उ.] गौतम ! देवों को 'नोसंयत' कहा जा सकता है / विवेचन देवों को संयत, असंयत और संयतासंयत न कह कर 'नोसंयत'-कथन-निर्देशप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 20 से 22 तक) में देवों को संयत, असंयत एवं संयतासंयत न कहने का कारण बताकर चतुर्थ सूत्र में 'नोसंयत' कहने का भगवान् का निर्देश अंकित किया गया है। देवों के लिए 'नोसंयत' शब्द उपयुक्त क्यों ? दो कारण--(१) जिस प्रकार 'मृत' और 'दिबंगत' का अर्थ एक होते हुए भी 'मर गया' शब्द निष्ठुर (कठोर) वचन होने से 'स्वर्गवासी हो गया' ऐसे अनिष्ठुर शब्दों का प्रयोग किया जाता है वैसे ही यहाँ 'असंयत' शब्द के बदले 'नोसंयत' शब्द का प्रयोग किया गया है। (2) ऊपर के देवलोकों के देवों में गति, शरीर, परिग्रह और अभिमान न्यून होने तथा लेश्या भी प्रशस्त तथा सम्यग्दृष्टि होने से कषाय भी मन्द होने तथा ब्रह्मचारी होने के कारण यत्किचित् भावसंयतता उनमें आ जाती है, इन देवों की अपेक्षा से उन्हें 'नोसंयत' कहना उचित है।' देवों की भाषा एवं विशिष्ट भाषा : अर्धमागधी 24. देवा गं मते! कयराए भासाए भासंति? कतरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति ? गोयमा! देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सा वि य णं अद्धमागहा मासा भासिज्जमाणी विसिस्सति / [24 प्र.) भगवन् ! देव कौन-सी भाषा बोलते हैं ? अथवा (देवों द्वारा) बोली जाती हुई कौन-सी भाषा विशिष्टरूप होती है ? [24 उ.] गौतम ! देव अर्धमागधी भाषा बोलते हैं, और बोली जाती हुई वह अर्धमागधी भाषा ही विशिष्टरूप होती है। 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 221 (ख) 'गति-शरीर-परिग्रहाऽभिमानतो होना:-तत्त्वार्थ सूत्र अ. 4, सू-२२ 'परेऽप्रवीचारा:'-तत्वार्थसूत्र, अ. 4, सू. 10 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [ 447 है वह विवेचन--देवों की भाषा एवं विशिष्टरूप भाषा : अर्धमागधी---प्रस्तुत सूत्र में देवों की भाषा-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। अर्धमागधी का स्वरूप-वृत्तिकार के अनुसार जो भाषा मगधदेश में बोली जाती है, उसे मागधी कहते हैं। जिस भाषा में मागधी और प्राकृत आदि भाषाओं के लक्षण (निशान) का मिश्रण हो गया हो, उसे अर्धमागधी भाषा कहते हैं / अर्धमागधी शब्द की व्युत्पत्ति-'मागध्या अर्धम् अर्धमागधी' के अनुसार अर्धमागधी शब्द स्पष्टत: सूचित करता है कि जिस भाषा में प्राधी मागधी भाषा हो और आधी दुसरी भाषाएँ मिश्रित हई हों, वही अर्धमागधी भाषा है। प्राचार्य जिनदास महत्तर ने निशीथचूणि में अर्धमागधी का स्वरूप इस प्रकार बताया है--'मगध देश की आधी भाषा अर्धमागधी है अथवा अठारह प्रकार की देशी भाषा में नियत हुई जो भाषा है, वह अर्धमागधी है / 'प्राकृतसर्वस्व' में महषि मार्कण्डेय बताते हैं, मगधदेश और सूरसेन देश अधिक दूर न होने से तथा शौरसेनी भाषा में पाली और प्राकृत भाषा का मिश्रण होने से तथा मागधी के साथ सम्पर्क होने से शौरसेनी को ही अर्धमागधी' कहने में कोई आपत्ति नहीं। विभिन्न धर्मों की अलग-अलग देवभाषाओं का समावेश अर्धमागधी में वैदिक धर्मसम्प्रदाय ने संस्कृत को देवभाषा माना है। बौद्धसम्प्रदाय ने पाली को. इस्लाम ने अरबी को, ईसाई धर्मसम्प्रदाय ने हिब को देवभाषा माना है। अगर अपभ्रंश भाषा में इन सबको गतार्थ कर दें तो जैनधर्मसम्प्रदाय मान्य देवभाषा अर्धमागधी में इन सब धर्मसम्प्रदायों की देवभाषाओं का समावेश हो जाता है / भ० महावीर के युग में भाषा के सम्बन्ध में यह मिथ्या धारणा फैली हुई थी कि 'अमुक भाषा देवभाषा है, अमुक अपभ्रष्ट भाषा। देवभाषा बोलने से पुण्य और अपभ्रष्ट भाषा बोलने से पाप होता है।' परन्तु महावीर ने कहा कि भाषा का पुण्य-पाप से कोई सम्बन्ध नहीं है / चारित्र-आचरण शुद्ध न होगा तो कोरी भाषा दुर्गति से बचा नहीं सकतीन चित्ता तायए भासा'२ केवली और छमस्थ द्वारा अन्तकर, अन्तिम शरीरी चरमकर्म और चरमनिर्जरा को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा 25. केवली णं भते ! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासइ ? हंता, गोयमा ! जाणति पासति / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्राक 221 (ख) सिद्धहेमशब्दानुशासन, प्र. 8, पाद 4 (ग) भगवतीसूत्र टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड 2 पृ. 182 (घ) निशीथचूणि (लि. भा. पृ. 352) में-'मगहद्धविसयभासानिबद्ध अद्धमागह, अहवा अट्ठारसदेसी भासाणियतं अद्धमागधं / ' (ड) प्राकृत-सर्वस्व (प. 103) में 'शौरसेन्या अदरत्वाद इयमेवार्धमागधी।' (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 182 (ख) 'पद्धमागह' भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह _ 'प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाचभाषा च शौरसेनी च / ___षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रशः / / -भगवती प्र. वृत्ति, पत्रांक 221 (ग) जैनसाहित्य का बहत् इतिहास, भा. 1, पृ. 203 (घ) उत्तराध्ययनसून, प्र. 6, गा. १०-"न चित्ता." Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [25 प्र.] भगवन् ! क्या केवली मनुष्य अन्तकर (कर्मों का या संसार का अन्त करने वाले) को अथवा चरमशरीरी को जानता-देखता है ? [25 उ.] हाँ गौतम ! वह उसे जानता-देखता है।' 26. [1] जहा णं भते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरोरियं वा जाणति पासति तथा गं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति ? गोयमा ! जो इण8 सम?, सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा। [26-1 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार केवली मनुष्य अन्तकर को, अथवा अन्तिमशरीरी को जानता-देखता है, क्या उसी प्रकार छास्थ-मनुष्य भी अन्तकर को अथवा अन्तिमशरीरी को जानतादेखता है ? [26-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, (अर्थात्-केवली की तरह छद्मस्थ अपने ही ज्ञान से नहीं जान सकता), किन्तु छद्मस्थ मनुष्य किसी से सुन कर अथवा प्रमाण द्वारा अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता-देखता है। [2] से कि तं सोच्चा ? सोच्चा णं केवलिस्स वा, केवलिसावयस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स वा, केवलि उवासियाए वा, तप्पक्खियस्स बा, तपक्खियसागस्स वा, तपक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगास वा तप्पक्खियउवासियाए बा / से तं सोच्चा / [26-2 प्र.] भगवन् ! सुन कर (किसीसे सुन कर) का अर्थ क्या है ? (अर्थात्-वह किससे सुन कर जान देख पाता है ? ) [26-2 उ.] हे गौतम ! केवली से, केवली के श्रावक से, केवली की श्राविका से, केवली के उपासक से, केवलो की उपासिका से, केवली-पाक्षिक (स्वयम्बुद्ध) से, केवलीपाक्षिक के श्रावक से, केवली-पाक्षिक की श्राविका से, केवलीपाक्षिक के उपासक से अथवा केवलीपाक्षिक की उपासिका से, इनमें से किसी भी एक से 'सुनकर' छद्मस्थ मनुष्य यावत् जानता और देखता है। यह हुआ 'सोच्चा' = 'सुन कर' का अर्थ / [3] से कि तं पमाणे? पमाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा --पच्चक्खे, अणुमाणे, पोवम्मे, प्रागमे / जहा अणुयोगद्दारे तहा णेयब्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे / [26-3 प्र.] भगवन् (और) वह प्रमाण' क्या है ? कितने हैं ? [26-3 उ.] गौतम! प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-(१) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) औपम्य (उपमान) और (4) आगम / प्रमाण के विषय में जिस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् न अात्मागम, न अनन्तरागम, किन्तु परम्परागम तक कहना चाहिए। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [ 446 27. केवली णं भंते ! चरमकम्म वा चरमनिज्जरं वा जाणति, पासति ? हंता, गोयमा ! जाणति, पासति / [27 प्र.] भगवन् क्या केवली मनुष्य चरम कर्म को अथवा चरम निर्जरा को जान ता-देखता है? [27 उ.] हाँ, गौतम ! केवली चरम कर्म को या चरम निर्जरा को जानता-देखता है। 28. जहा णं भंते ! केवली चरमकम्म वा०, जहा णं अंतकरणं पालावगो तहा चरमकम्मेणं वि अपरिसेसितो यब्वो / {28 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार केवली चरमकर्म को या चरमनिर्जरा को जानता-देखता है, क्या उसी तरह छद्मस्थ भी यावत् जानता-देखता है ? [28 उ.] गौतम ! जिस प्रकार 'अन्तकर' के विषय में आलापक कहा था, उसी प्रकार 'चरमकर्म का पूरा पालापक कहना चाहिए। विवेचन केवली और छमस्थ द्वारा अन्तकर, अन्तिमशरोरी, चरमकर्म और चरमनिर्जरा को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमशः छह तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है--(१) केवली मनुष्य अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता-देखता है, (2) किन्तु छद्मस्थ मनुष्य केवली की तरह पारमार्थिक प्रत्यक्ष से इन्हें नहीं जानता-देखता, वह सुनकर या प्रमाण से जानता देखता है। (3) सुन कर का अर्थ है-केवली, केवली के श्रावक-श्राविका तथा उपासकउपासिका से, और स्वयंबुद्ध, स्वयम्बुद्ध के श्रावक-श्राविका तथा उपासक-उपासिका से / (4) 'प्रमाण द्वारा का अर्थ है-अनुयोगद्वार वर्णित प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से। (5) केवली मनुष्य चरमकर्म और चरमनिर्जरा को प्रात्मप्रत्यक्ष से जानता-देखता है। (6) छदमस्थ इन्हें केवली की जान-देख पाता वह पूर्ववत् सुन कर या प्रमाण से जानता-देखता है।' चरमकर्म एवं चरमनिर्जरा की व्याख्या-शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में जिस कर्म का अनुभव हो, उसे चरमकर्म तथा उसके अनन्तर समय में (शीघ्र ही) जो कर्म जीवप्रदेशों से झड़ जाते हैं, उसे चरम निर्जरा कहते हैं। प्रमाण : स्वरूप और प्रकार-जिसके द्वारा वस्तु का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित परिच्छेद-विश्लेषणपूर्वक ज्ञान किया जाता है, वह प्रमाण है। अथवा स्व (ज्ञानरूप आत्मा) और पर (आत्मा से भिन्न पदार्थ) का व्यवसायी-निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है। अनुयोगद्वार सूत्र में ज्ञानगुणप्रमाण' का विस्तृत निरूपण है। संक्षेप में इस प्रकार है-~ज्ञानगुणप्रमाण के मुख्यतया चार प्रकार हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा और पागम / प्रत्यक्ष के दो भेद-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो-इन्द्रिय प्रत्यक्ष / इन्द्रियप्रत्यक्ष के 5 इन्द्रियों की अपेक्षा से 5 भेद और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन भेद-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान / अनुमान के तीन मुख्य प्रकार-पूर्ववत् शेषवत् और दृष्ट साधर्म्यवत् / घर से भागे हुए पुत्र को उसके पूर्व के निशान (क्षत, व्रण, लांछन, मस, तिल आदि) से अनुमान करके जान लिया जाता है, 1. बियाहपण्णत्तिसुतं (मूल-पाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 200-201 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45..] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वह पूर्ववत् / कार्य, कारण, गुण, अवयव और आश्रय द्वारा किये गए अनुमान से होने वाला ज्ञान शेषवत् / दृष्टसाधर्म्यवत् यथा--एक पुरुष को देख कर अनेक पुरुषों का अनुमान, एक पके चावल को र अनेक चावलों के पकाने का अनमान. सामान्यदष्टवत तथा अनेक पुरुषों के बीच में अपने परिचित विशिष्ट व्यक्ति को जानना विशेषदृष्टवत् है / इसके भी अतीतकालग्रहण, वर्तमानकालग्रहण और अनागतकालग्रहण ये तीन भेद है।। उपमान (उपमा) के दो भेद-साधर्म्य से उपमा, वैधर्म्य से उपमा। साधर्म्य और वैधर्म्य उपमान के भी तीन-तीन भेद हैं-किचित्साधर्म्य, प्रायःसाधर्म्य और सर्वसाधर्म्य, किंचितवैधर्म्य, प्राय:वैधर्म्य और सर्ववैधर्म्य / श्रागम के दो भेद-लौकिक आगम और लोकोत्तर-भागमप्रमाण / ' केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जानने-देखने में समर्थ वैमानिक देव 29. केवली णं भंते ! पणीतं मणं वा, वई वा धारेज्जा ? हंता, धारेज्जा। [29 प्र.] भगवन् ! क्या केवली प्रकृष्ट (प्रणीत = प्रशस्त) मन और प्रकृष्ट वचन धारण करता है ? [26 उ.] हाँ, गौतम ! धारण करता है। 30. [1] जे णं भंते ! केवली पणीयं मणं वा वई वा धारेज्जा तं गं वेमाणिया देवा जाणंति, पासंति ? गोयमा ! प्रत्थेमइया जाणंति पासंति, प्रत्थेगइया न जाणंति न पासंति / [30-1 प्र.) भगवन् ! केवली जिस प्रकार के प्रकृष्ट मन और प्रकृष्ट वचन को धारण करता है, क्या उसे वैमानिक देव जानते-देखते हैं ? . [30-1 उ.] गौतम ! कितने ही (वैमानिक देव उसे) जानते-देखते हैं, और कितने ही (देव) नहीं जानते-देखते। [2] से केणटुणं जाव न जाणंति न पासंति ? गोयमा ! वेमागिया देवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–मायिमिच्छाविष्ट्रिउववनगा य, प्रमायि 1. (क) अनुयोगद्वारसूत्र, ज्ञानगुणप्रमाण-प्रकरण पृ. 211 से 219 तक (ख) भगक्तीसूत्र, (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 183 से 156 तक (म) प्रकर्षेण संशयाऽऽद्यभावस्वभावेन मीयते परिच्छिद्यते बस्तु येन तत्प्रमाणम् // 'स्व-पर-व्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् / ' --रत्नाकरावतारिका 1 परि. (घ) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 222 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [ 451 सम्मदिहिउववनगा य / ' एवं प्रणंतर-परंपर-पज्जताऽपज्जता य उपउत्ता अणुवउत्ता। तत्प णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति / से तेण?णं०, तं चेव / [30-2 प्र.] भगवन् ! कितने ही देव यावत् जानते-देखते हैं, कितने हो नहीं जानते-देखते ; ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? 30-2 उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-मायीमिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न और अमायीसम्यग्दृष्टि रूप से उत्पन्न / [इन दोनों में से जो मायो-मिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे (वैमानिक देव केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को) नहीं जानते-देखते तथा जो अमायी सम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न हुए हैं, वे जानते-देखते हैं / ] [प्र.] भगवन् यह किस कारण से कहा जाता है कि अमायो सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव यावत् जानते-देखते हैं ? [उ.] गौतम ! अमायी सम्यग्दृष्टि वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / इनमें से जो अनन्तरोपपन्न क हैं, वे नहीं जानते-देखते; किन्तु जो परम्परोपपत्रक हैं, वे जानते-देखते हैं / [प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक वैमानिक देव जानते-देखते हैं, ऐसा कहने का क्या कारण है ? [उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त / इनमें से जो पर्याप्त हैं, वे इसे जानते-देखते हैं; किन्तु जो अपर्याप्त वैमानिक देव हैं, वे नहीं जानते-देखते / ] इसी तरह अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक, पर्याप्त अपर्याप्त, एवं उपयोगयुक्त (उपयुक्त)उपयोगरहित (अनुपयुक्त) इस प्रकार के वैमानिक देवों में से जो उपयोगयुक्त (उपयुक्त) वैमानिक देव हैं, वे हो (केवली के प्रकृष्ट मन एवं वचन को) जानते-देखते हैं। इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि कितने ही वैमानिक देव जानते-देखते हैं, और कितने ही नहीं जानते-देखते। विवेचन-केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जानने-देखने में समर्थ वैमानिक देव---प्रस्तुत (30 3) सूत्र में केवली के प्रकृष्ट मन और वचन को कौन-से वैमानिक देव जानते हैं, कौन-से नहीं जानते ? इस विषय में शंका उठाकर सिद्धान्तसम्मत समाधान प्रस्तुत किया गया है / निष्कर्ष-जो वैमानिक देव मायी-मिथ्यादृष्टि हैं, उनको सम्यग्ज्ञान नहीं होता, अमायी 1. वृत्तिकार के अनुसार वाचनान्तर में 'अमायिसम्मविष्टि उदवनगा य, के बाद ‘एवं अणंतर'-तक निम्नोक्त सूत्रपाठ साक्षात् उपलब्ध है तत्थ णं जे ते माइमिच्छाविद्रोउववन्नगा ते न याति न पासंति / तत्थ णं जे ते अमाईसम्मादिदीउबवन्नगा ते णं जाणंति पासंति / से केणणं एवं 0 अमाईसम्मविद्री जाव पा.? गोयमा ! अमाईसम्मदिदी दुविहा पण्णत्ता--अर्णतरोववन्नमा य परंपरोवबन्नगाय। तत्थ अणंतरोववन्नगा न जा०, परंपरोववन्नगा जाणंति / से केपणे भंते ! एवं वृच्चइ, परंपरोववन्नगा जाव जाणंति? गोयमा! परंपरोवबन्नगा विहा पणत्ता-पज्जत्तमा अपज्जत्तगा य। पज्जत्ता जा० / अपज्जत्तगा न जा० / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सम्यग्दृष्टि वैमानिकों में से जो अनन्तरोपपन्नक होते हैं, उन्हें भी ज्ञान नहीं होता, तथा परम्परोपपन्नक वैमानिकों में भी जो अपर्याप्त होते हैं, उन्हें भी ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार जो पर्याप्त वैमानिक देव हैं, उनमें जो उपयोगयुक्त होता है, वही केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जान-देख सकता है, उपयोगरहित नहीं। तात्पर्य यह है कि जो वैमानिक देव अमायी सम्यग्दृष्टि, परम्परोपपनक पर्याप्त एवं उपयोगयुक्त होते हैं, वे ही केवली के प्रकृष्ट मन-वचन को जान-देख सकते हैं। अनुतरौपपातिक देवों का असीम मनोद्रव्य-सामर्थ्य और उपशान्तमोहत्त्व ___31. [1] पमूणं भंते ! अणुत्तरोववातिया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगतेणं केवलिणा सद्धि प्रालावं वा संलावं वा करेत्तए ? हंता, पभू। __ [31-1 प्र.] भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक (अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए) देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, यहाँ रहे हुए केवली के साथ आलाप (एक बार बातचीत) और संलाप (बारबार बातचीत) करने में समर्थ हैं ? [31-1 उ.] गौतम ! हाँ, (वे ऐसा करने में) समर्थ हैं / [2] से केण?णं जाव पमू णं अणुत्तरोववातिया देवा जाव करेत्तए ? गोयमा ! जंणं अणत्तरोववातिया देवा तत्थगता चेव समाणा अट्टवा हे वा पसिणं वा कारणं वा वागरणं वा पुच्छंति, तं णं इहगते केवली अटु वा जाव वागरणं वा वागरेति / से तेण?णं० / [31-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अनुत्तरोपपातिक देव यावत् आलाप और संलाप करने में समर्थ हैं ? [31-2 उ.] हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देव अपने स्थान पर रहे हुए ही, जो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण अथवा व्याकरण (व्याख्या) पूछते हैं, उस (अर्थ, हेतु आदि) का उत्तर यहाँ रहे हुए केवली भगवान् देते हैं। इस कारण से यह कहा गया है कि अनुत्तरोपपातिक देव यावत् आलापसंलाप करने में समर्थ हैं। 32. [1] जेणं भंते ! इहगए चेव केवली अट्ट वा जाव वागरेति तं णं अणुत्तरोववातिया देवा तत्थगता चेव समाणा जाणंति, पासंति ? हंता, जाति पासंति / 32-1 प्र.] भगवन् ! केवली भगवान् यहाँ रहे हुए जिस अर्थ, यावत् व्याकरण का उत्तर देते हैं, क्या उस उत्तर को वहाँ रहे हुए अनुत्तरौपपातिक देव जानते-देखते हैं ? 1. (क) वियाहपण्णत्तिसूत्रं (मूलपाठटिप्पणयुक्त), पृ. 201 (ख) भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 223. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ ] [ 453 [32-1 उ.] हाँ गौतम ! वे जानते-देखते हैं। [2] से केण?णं जाव पासंति ? गोतमा ! तेसि गं देवाणं प्रणतानो मणोदन्यवगणाप्रो लद्धामो पत्तानो अभिसमन्नागतानो भवति / से तेण?णं जं गं इहगते केवली जाय पा० / [32-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से (कहा जाता है कि वहाँ रहे हुए अनुत्तरोपपातिक देव, यहाँ रहे हुए केवली के द्वारा प्रदत्त उत्तर को) जानते-देखते हैं ? [32-2 उ.] गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य-वर्गणा लब्ध (उपलब्ध) हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत (अभिमुख समानीत = सम्मुख की हुई) हैं। इस कारण से यहाँ विराजित केवली भगवान् द्वारा कथित अर्थ, हेतु आदि को वे वहाँ रहे हुए ही जान-देख लेते हैं। 33. अणुत्तरोववातिया णं भंते ! देवा कि उदिण्णमोहा उपसंतमोहा खीणमोहा ? गोयमा ! नो उदिण्णमोहा, उवसंतमोहा, नो खीणमोहा। [33 प्र.] भगवन् ! क्या अनुत्तरोपपातिक देव उदीर्णमोह हैं, उपशान्त-मोह हैं, अथवा क्षीगमोह हैं ? [33 उ.] गौतम ! वे उदीर्ण-मोह नहीं हैं, उपशान्तमोह हैं, क्षीणमोह नहीं है। विवेचन–अनुत्तरोपपातिक देवों का असीम मनोद्रव्यसामर्थ्य और उपशान्तमोहत्व प्रस्तुत त्रिसूत्री में अनुत्तरौपपातिक देवों की विशिष्ट मानसिकशक्ति और उसकी उपलब्धि के कारण का परिचय दिया गया है। चार निष्कर्ष-(१) अनुत्तरोपपातिक देव स्वस्थान में रहे हुए ही यहाँ विराजित केवली के साथ (मनोगत) पालाप-संलाप कर सकते हैं; (2) वे अपने स्थान में रहे हुए यहाँ विराजित केवली से प्रश्नादि पूछते हैं और केवली द्वारा प्रदत्त उत्तर को जानते देखते हैं; (3) क्योंकि उन्हें अनन्त मनोद्रव्यवर्गणा उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुखसमानीत हैं, (4) उनका मोह उपशान्त है, किन्तु वे उदीर्णमोह या क्षीणमोह नहीं हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों का अनन्त मनोद्रव्य-सामर्थ्य अनुत्तरौपपातिक देवों के अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोकनाड़ी (लोकनाड़ी से कुछ कम) है। जो अवधिज्ञान लोकनाड़ी का ग्राहक (ज्ञाता) होता है, वह असीम मनोवर्गणा ग्राहक होता ही है; क्योंकि जिस अवधिज्ञान का विषय लोक का संख्येय भाग होता है, वह भी मनोद्रव्य का ग्राहक होता है, तो फिर जिस अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोकनाड़ी है, वह मनोद्रव्य का ग्राहक हो, इसमें सन्देह ही क्या? इसलिए अनुत्तरविमानवासी देवों का मनोद्रव्यसामर्थ्य असीम है। अनुत्तरौपपातिक देव उपशान्तमोह हैं-अनुत्तरोपपातिक देवों के वेदमोहनीय का उदय उत्कट नहीं हैं, इसलिए वे उदीर्णमोह नहीं हैं; वे क्षीणमोह भी नहीं, क्योंकि उनमें क्षपक श्रेणी का अभाव 1. भवगतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 223 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र है; किन्तु उनमें मैथुन का कथमपि सद्भाव न होने से तथा वेदमोहनीय अनुत्कट होने से वे 'उपशान्तमोह' कहे गए हैं। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञानी केवली इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते 34. [1] केवली णं भंते ! प्रायाहि जाणइ, पासइ ? गोयमा ! णो इण? सम? / [34-1 प्र.] भगवत् ! क्या केवली भगवान् आदानों (इन्द्रियों) से जानते और देखते हैं ? [34-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केणढणं जाव केवली णं श्रायाणेहि न जाणति, न पासति ? गोयमा ! केवली णं पुरस्थिमेणं मियं पि जाणति, अमियं पि जाणइ जाव' निव्वुड़े दसणे केवलिस्स / से तेण?णं० / / ___ [34-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से केवली भगवान् इन्द्रियों (आदानों) से नहीं जानतेदेखते ?' [34-2 उ.] गौतम ! केवली भगवान् पूर्वदिशा में मित (सीमित) भी जानते-देखते हैं, अमित (असीम) भी जानते-देखते हैं, यावत् केवली भगवान् का (ज्ञान और) दर्शन तिरावरण है / इस कारण से कहा गया है कि वे इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते / विवेचन-अतीन्द्रियप्रत्यक्षजानी केवली इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते-प्रस्तुत सूत्र में यह सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है कि केवलज्ञानी का दर्शन और ज्ञान परिपूर्ण एवं निरावरण होने के कारण उन्हें इन्द्रियों से जानने-देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। केवली भगवान् का वर्तमान और भविष्य में अवगाहन-सामर्थ्य 35. [1] केवली णं भंते ! अस्सि समयंसि जेसु प्रागासपदेसेसु हत्थं वा पादं वा बाहं वा ऊरु वा प्रोगाहित्ताणं चिति, पमू णं मते ! केवलो सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव प्रोगाहित्ताणं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! गो इण? सम8। [35-1 प्र.] भगवन् ! केवली भगवान इस समय (वर्तमान) में जिन आकाश-प्रदेशों पर अपने हाथ, पैर, बाहू और उरू (जंघा) को अवगाहित करके रहते हैं, क्या भविष्यकाल में भी वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रह सकते हैं ? / [35-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / 1. 'जाव' शब्द से यहां शतक 5 उ. 4, सू. 4-2 में अंकित पाठ-'एवं दाहिणेणं.."से लेकर निव्वुडे सगे केवलिस्स' तक समझना चाहिए / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-४ } [455 [2] से केपट्टणं मते ! जाव केवली गं अस्सि समयंसि जेसु ागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति नो णं पमू केवली सेयकालसि वि तेसु चेव भागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिद्वित्तए ? __गोयमा ! केलिस्स णं वोरियसजोगद्दध्वताए चलाई उवगरणाई भवंति चलोवगरणट्टयाए य णं केवली प्रस्सि समयंसि जेसु प्रागासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालसि वि तेसु चेव जाव चिद्वित्तए / से तेण?णं जाव वुच्चइ–केवलो णं अस्सि समयंसि जाव चिद्वित्तए ? [35-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि केवली भगवान् इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को यावत् अवगाढ करके रहते हैं, भविष्यकाल में वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को यावत् अवगाढ करके रहने में समर्थ नहीं हैं ?' [35-2 उ.] गौतम ! केवली भगवान का जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होता है, इससे उनके हाथ आदि उपकरण (अंगोपांग) चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होते रहने से वर्तमान (इस) समय में जिन आकाशप्रदेशों में केवली भगवान् अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रहे हुए हैं, उन्हीं प्राकाशप्रदेशों पर भविष्यत्काल में वे हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते / इसी कारण से यह कहा गया है कि केवली भगवान् इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ, पैर यावत् उरू को अवगाहित करके रहते हैं, उस समय के पश्चात् आगामी समय में वे उन्हीं प्राकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते। विवेचन-केवली भगवान का वर्तमान और भविष्य में प्रवगाहनसामर्थ्य प्रस्तुत सूत्र में केवली भगवान् के. अवगाहन-सामर्थ्य के विषय में प्ररूपणा की गई है कि वे वर्तमान समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रहते हैं, भविष्य में उन्हीं अाकाशप्रदेशों को अवगाहित करके रहेंगे ऐसा नहीं है क्योंकि उनका जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होने से उनके अंग चलित होते रहते हैं, इसलिए वे उन्हीं आकाशप्रदेशों को उस समय के अनन्तर भविष्यत्काल में अवगाहित नहीं कर सकते।' कठिन शब्दों के अर्थ-अस्सि समयंसि= इस (वर्तमान) समय में / ऊरु = जंघा / सेयंकालंसि = भविष्यत्काल में। वोरियसजोगसहन्वताएवीर्यप्रधान योग वाला स्व (जीव) द्रव्य होने से / चलोवकरणट्टयाए उपकरण (हाथ आदि अंगोपांग) चल---(अस्थिर) होने के कारण / ' चतुर्दश पूर्वधारी का लब्धि-सामर्थ्य-निरूपण-- 36. [1] पमूण मते ! चोइसपुवी घडामो घडसहस्सं, पडाप्रो पडसहस्सं, कडाप्रो कडसहस्सं, रहाप्रो रहसहस्सं, छत्ताओ छत्तसहस्सं, दंडात्रो दंडसहस्सं अभिनिव्धत्तित्ता उवदंसेत्तए ? हता, पभू। [36-1 प्र.] भगवन् ! क्या चतुर्दशपूर्वधारी (श्रुतकेवली) एक घड़े में से हजार घड़े, एक वस्त्र में से हजार वस्त्र, एक कट (चटाई) में से हजार कट, एक रथ में से हजार रथ, एक छत्र में से हजार छत्र और एक दण्ड में से हजार दण्ड करके दिखलाने में समर्थ हैं ? 1. वियाहपग्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 203 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 224 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [36-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे ऐसा करके दिखलाने में समर्थ हैं / [2] से केपट्टणं पभू चोदसपुवी जाव उवदंसेतए ? गोयमा ! चउद्दसपुधिस्स णं अणंताई दवाई उक्करियामेदेणं मिज्जमाणाई लद्धाई पत्ताई अभिसमन्नागताई भवंति / से तेण?णं जाव उवदंसित्तए / सेवं माते ! सेवं मते ! ति // पंचमे सए : चउत्थो उद्देसनो समत्तो। [33-2 प्र.] भगवन् ! चतुर्दशपूर्वधारी एक घट में से हजार घट यावत् करके दिखलाने (प्रदर्शित करने) में कैसे समर्थ हैं ? __ [36-2 उ.] गौतम ! चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली ने उत्करिका भेद द्वारा भेदे जाते हुए अनन्त द्रव्यों को लब्ध किया है, प्राप्त किया है तथा अभिसमन्वागत किया है। इस कारण से वह उपर्युक्त प्रकार से एक घट से हजार घट प्रादि करके दिखलाने में समर्थ है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-चतुर्दश-पूर्वधारी का लब्धि-सामर्थ्य-प्रस्तुत सूत्र में निरूपण किया गया है कि चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली में श्रुत से उत्पन्न हुई एक प्रकार की लब्धि से उत्करिकाभेद से भिद्यमान अनन्तद्रव्यों के आश्रय द्वारा एक घट, पट, कट, रथ, छत्र और दण्ड से सहस्र घट-पट-कटादि बनाकर दिखला सकने का सामर्थ्य है।' उत्करिका भेद : स्वरूप और विश्लेषण-पुद्गलों को पांच प्रकार से खण्डित (भिन्न-टुकड़ेटुकड़े) किया जाता है। इन्हें 'पुद्गलों के भेद' कहते हैं, वे पांच प्रकार के हैं--(१) खण्डभेद, (2) प्रतरभेद, (3) चूणिकाभेद, (4) अनुतटिका-भेद और (5) उत्करिका भेद / जैसे देले को फेंकने पर उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, इसी तरह लोहे, ताम्बे आदि पुद्गलों के भेद को 'खण्डभेद' कहते हैं / क तह के ऊपर दूसरी तह का होना 'प्रतरभेद' कहलाता है। जैसे—अभ्रक (भोडल) भोजपत्र आदि में प्रतरभेद पाया जाता है। तिल, गेहै आदि के पिस जाने पर भेद होना, 'चणिका-भेद' कहलाता है। तालाब आदि में फटी हुई दरार के समान पुद्गलों के भेद को 'अनुतटिकाभेद' कहते हैं / एरण्ड के बीज के समान पुद्गलों के भेद को 'उत्करिकाभेद' कहते हैं / लब्धप्राप्त और अभिसमन्वागत की प्रकरणसंगत व्याख्या-लब्ध-लब्धिविशेष द्वारा ग्रहण करने योग्य बनाये हुए, प्राप्त =लब्धि-विशेष द्वारा ग्रहण किये हुए, अभिसमन्वागत घटादि रूप से परिणमाने के लिए प्रारम्भ किये हुए। इन तीनों के द्वारा चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली एक घट प्रादि से हजार घट आदि अाहारक शरीर की तरह बनाकर मनुष्यों को दिखला सकता है। // पंचम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) वियाह्पणत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 203 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 224 प्रज्ञापनासूत्र पद 11, भाषापद (पृ. 266 स.) में विस्तृत टिप्पण / (ख) प्रज्ञापना मलयगिरि टीका, पद 11 में संक्षिप्त विवेचन / (ग) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 224 3. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 224 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'छउमत्थ' पंचम उद्देशक : 'छद्मस्थ' छद्मस्थ मानव सिद्ध हो सकता है, या केवली होकर ? : एक चर्चा 1. छउमत्थे गंभ'ते ! मणूसे तोयमणतं सासतं समय केवलेणं संजमेणं० ? जहा पढमसए चउत्थुद्देसे आलावगा तहा नेयव्वं जाव 'प्रलमत्थं त्ति वत्तव्वं सिया। [1 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य शाश्वत, अनन्त, अतीत काल (भूतकाल) में केवल संयम द्वारा सिद्ध हुआ है ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसा ही आलापक यहाँ भी कहना चाहिए; (और वह) यावत् 'अलमस्तु' कहा जा सकता है। यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-छदमस्थ मानव सिद्ध हो सकता है, या केवली होकर ? प्रस्तुत सूत्र में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम द्वारा सिद्ध (मुक्त) हो सकता है या केवली होकर ही सिद्ध हो सकता है। यह प्रश्न उठाकर प्रथम शतकीय चतुर्थ उद्देशक में प्ररूपित समाधान का अतिदेश किया गया है / वहाँ संक्षेप में यही समाधान है कि केवलज्ञानी हुए बिना कोई भी व्यक्ति सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वदुःखान्तकर, परिनिर्वाण प्राप्त, उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधर, जिन, अर्हत् केवली और 'अलमस्तु' नहीं हो सकता।" समस्त प्राणियों द्वारा एवम्भूत-अनेवम्भूतवेदन सम्बन्धी प्ररूपरणा 2. [1] अन्नउत्थिया णं भाते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति सम्वे पाणा सव्वे भूया सध्वे जीवा सन्वे सत्ता एवंभूयं वेवणं वेति, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव वेदेति, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव पवेमि-प्रत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, प्रत्येगइया पाणा भूया जीवा सत्ता प्रणेवंभूयं वेदणं वेदेति / [२-१प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व, एवंभूत (जिस प्रकार कर्म बांधा है, उसी प्रकार) वेदना वेदते (भोगते - अनुभव करते हैं, भगवन् ! यह ऐसा कैसे है ? [2-1 उ.] गौतम ! वे अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवंभूत वेदना वेदते हैं, उन्होंने यह मिथ्या कथन किया है / हे गौतम ! 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति (ख) भगवतीसूत्र प्रथम शतक चतुर्थ उद्देशक, सू. 159 से 163 तक (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) प्रथमखण्ड पृ. 137-138 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मैं यों कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं और कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, अनेवंभूत (जिस प्रकार से कर्म बांधा है, उससे भिन्न प्रकार से) वेदना वेदते हैं / [2] से केण?णं प्रत्येगइया० तं चेव उच्चारेयन्वं / गोयमा ! जे गं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति ते ण पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदंति / जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं वेदेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता प्रणेवभूयं वेदणं वेदेति / से तेणटणं. तहेव / [2-2 प्र] 'भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है, कि कितने ही प्राण भूत आदि एवंभूत और कितने ही अनेवंभूत वेदना वेदते हैं ? [2-2 उ] गौतम ! जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, जिस प्रकार स्वयं ने कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना वेदते हैं (उसी प्रकार उदय में आने पर भोगते-अनुभव करते हैं, वे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एवंभूत वेदना वेदते हैं किन्तु जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, जिस प्रकार कर्म किये हैं, उसी प्रकार वेदना नहीं वेदते (भिन्न प्रकार से वेदन करते हैं) वे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व अनेवंभूत वेदना वेदते हैं / इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि कतिपय प्राण भूतादि एवम्भूत वेदना वेदते हैं और कतिपय प्राण भूतादि अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। 3. [1] नेरतिया णं भते ! कि एवंभूतं वेदणं वेदेति ? अणेवंभूयं वेवणं वेदेति ? गोयमा ! नेरइया णं एवंभूयं पि वेदणं वेदेति, प्रणेवंभूयं पि वेदणं वेदेति / [3-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या एवम्भूत वेदना वेदते हैं, अथवा अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं? 63-1 उ] गौतम ! नैरयिक एवम्भूत वेदना भी वेदते हैं और अनेवम्भूत वेदना भी वेदते हैं। [2] से केपट्टणं० 1 तं चेव / गोयमा ! जे गं ने रइया जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेदेति / जे णं नेरतिया जहा कडा कम्मा णो तहा वेदणं वैर्देति ते गं मेरइया प्रणेवंभूयं वेदणं वेदेति / से तेणढणं० / [3-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? (पूर्ववत् सारा पाठ यहाँ कहना चाहिए / ) [3-2 उ.] गौतम ! जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना वेदते हैं वे एवम्भूत वेदना वेदते हैं और जो नैरयिक अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वेदना नहीं वेदते ; (अपितु भिन्न प्रकार से वेदते हैं; ) वे अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं। 4. एवं जाव वेमाणिया / संसारमंडल नेयव्वं / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-५ [4] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-(दण्डक) पर्यन्त संसार मण्डल (संसारी जीवों के समूह) के विषय में जानना चाहिए। __ विवेचन-समस्त प्राणियों द्वारा एवम्भूत-अनेवम्भूतवेदन-सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों में जीवों द्वारा कर्मफलवेदन के विषय में क्रमश: चार तथ्यों का निरूपण, शास्त्रकार ने किया है (1) अन्यतीथिकों का मत यह है कि सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व एवम्भूत वेदना वेदते हैं। (2) तीर्थंकर भगवन् महावीर का कथन यह है कि यह मान्यता यथार्थ नहीं है / कतिपय जीव एवम्भूत वेदना वेदते हैं और कतिपय जीव अनेवंभूत वेदना वेदते हैं। (3) इसका करण यह है कि जो प्राणी, जैसे कर्म किये हैं उसी प्रकार से असातावेदनीयादि कर्म का उदय होने पर वेदना को वेद (भोग)ते हैं, वे एवम्भूतवेदनावेदक होते हैं, इससे विपरीत जो कर्मबन्ध के अनुसार वेदना का वेदन नहीं करते, वे अनेवम्भूतवेदनावेदक होते हैं / (4) यही प्ररूपणा नैरयिकों के दण्डक से लेकर वैमानिकदण्डक-पर्यन्त समस्त संसारी जीवों के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। एवम्भूतवेदन और अनेवम्भूतवेदन का रहस्य-जिन प्राणियों ने जिस प्रकार से कर्म बांधे हैं, उन कर्मों के उदय में प्राने पर वे उसी प्रकार से असाता आदि वेदना भोग लेते हैं, उनका वह वेदन एवम्भूतवेदनावेदन है, किन्तु जो प्राणी जिस प्रकार से कर्म बांधते हैं, उसी प्रकार से उनके फलस्वरूप वेदना नहीं वेदते, उनका वह वेदन–अनेवम्भूतवेदना बेदन है। जैसे--कई व्यक्ति दीर्घकाल में भोगने योग्य आयुष्य प्रादि कर्मों की उदीरणा करके अल्पकाल में ही भोग लेते हैं, उनका वह वेदन अनेवम्भूत वेदना-वेदन कहलाएगा। अन्यथा, अपमृत्यु (अकालमृत्यु) का अथवा युद्ध आदि में लाखों मनुष्यों का एक साथ एक ही समय में मरण कैसे संगत होगा! आगमोक्त सिद्धान्त के अनुसार जिन जीवों के जिन कर्मों का स्थितिघात, रसघात प्रकृतिसंक्रमण आदि हो जाते हैं, वे अनेवम्भूत वेदना वेदते हैं, किन्तु जिन जीवों के स्थितिघात, रसघात आदि नहीं होते, वे एवम्भूत वेदना वेदते हैं। अवसपिरणीकाल में हर कुलकर तीर्थंकरादि की संख्या का निरूपण [[५.प्र.] जंबुद्दीवे णं भते ! इह भारहे वासे इमोसे उस्सप्पिणीए समाए कइ कुलगरा होत्था ? [5. उ.] गोयमा ! सत्त। [5 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में, इस भारतवर्ष में, इस अवसर्पिणी काल में कितने कुलकर 1. पियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 204 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 225 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! (जम्बूद्वीप में, इस भारतवर्ष में, इस अवसर्पिणी काल में) सात कुलकर हुए हैं। 6. एवं चेव तित्थयरमायरो, पियरो, पढमा सिस्सिणीनो, चक्कवट्टिमायरो, इस्थिरयणं, बलदेवा, वासुदेवा वासुदेवमायरो, पियरो, एएसि पडिसत्तू जहा समवाए णामपरिवाडीए तहा यचा।' सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। ॥पंचम सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो / _ [6] इसी तरह तीर्थंकरों की माता, पिता, प्रथम शिष्याएँ, चक्रवत्तियों की माताएँ, स्त्रीरत्न, बलदेव, वासुदेव, वासुदेवों के माता-पिता, प्रतिवासुदेव आदि का कथन जिस प्रकार 'समवायांगसूत्र में नाम की परिपाटी में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए।] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् विचरने लगे। विवेचन–अवसपिणीकाल में हुए कुलकर-तीर्थकरादि की संख्या का निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों में भरतक्षेत्र में हुए कुलकर तथा तीर्थकरमाता आदि की संख्या का प्रतिपादन समवायांगसूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है। ___ कुलकर अपने-अपने युग में जो मानवकुलों की मर्यादा निर्धारित करते हैं, वे कुलकर कहलाते हैं। वर्तमान अवसर्पिणीकाल में हुए 7 कुलकर ये हैं-(१) विमलवाहन, (2) चक्षुषमान, (3) यशस्वान् (4) अभिचन्द्र (5) प्रसेनजित (6) मरुदेव और (7) नाभि / इनकी भार्याओं के नाम क्रमश: ये हैं-(१) चन्द्रयशा, (2) चन्द्रकान्ता, (3) सुरूपा, (4) प्रतिरूपा, (5) चक्षुष्कान्ता, (6) श्रीकान्ता और (7) मरुदेवी / ___चौबीस तीर्थंकरों के नाम- (1) श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) स्वामी, (2) श्रीअजितनाथ स्वामी (3) श्रीसम्भवनाथस्वामी, (4) श्रीअभिनन्दनस्वामी, (5) श्रीसुमतिनाथस्वामी, (6) श्रीपद्मप्रभ-स्वामी, (7) श्रीसुपार्श्वनाथस्वामी (8) श्रीचन्द्रप्रभस्वामी, (9) श्रीसुविधिनाथस्वामी (पुष्पदन्तस्वामी), (10) श्रीशीतलनाथस्वामी, (11) श्रीश्रेयांसनाथस्वामी, (12) श्रीवासुपूज्यस्वामी, (13) श्रीविमलनाथस्वामी, (14) श्रीअनन्तनाथस्वामी, (15) श्री धर्मनाथस्वामी, (16) श्रीशान्तिनाथस्वामी, (17) श्रीकुन्थुनाथ स्वामी, (18) श्रीअरनाथस्वामी, 1. यह पाठ प्रागमोदय समिति से प्रकाशित भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरीयवृत्ति में नहीं है, वहाँ वृत्तिकार ने इस पाठ का संकेत अवश्य किया है-'अथवा इह स्थाने बाचनान्तरे कुलकर-तीर्थकरादि-वक्तव्यता दृश्यते (अथवा इस स्थान में अन्य वाचना में कुल कर-तीर्थकर आदि की वक्तव्यता दृष्टिगोचर होती है)। यही कारण है कि भगवती. टीकानूवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड 2, पृ. 195, तथा भगवती. हिन्दी विवेचनयुक्त भा. 2, पृ. 836 में यह पाठ और इसका अनुवाद दिया गया है। -सं० Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-५ [461 (16) श्रीमल्लिनाथस्वामी, (20) श्रीमुनिसुव्रतस्वामी, (21) श्रीनमिनाथस्वामी (22) श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) स्वामी, (23) श्रीपार्श्वनाथस्वामी, और (24) श्रीमहावीर (वर्धमान) स्वामी। ___ चौबीस तीर्थंकरों के पिता के नाम-(१) नाभि (2) जितशत्रु, (3) जितारि, (4) संवर, (5) मेघ, (6) धर, (7) प्रतिष्ठ, (8) महासेन, (9) सुग्रीव, (10) दृढ़रथ, (11) विष्ण, (12) वसुपूज्य, (13) कृतवर्मा, (14) सिंहसेन, (15) भानु (16) विश्वसेन, (17) सूर, (18) सुदर्शन, (16) कुम्भ, (20) सुमित्र, (21) विजय, (22) समुद्रविजय, (23) अश्वसेन और (24) सिद्धार्थ / चौबीस तीर्थंकरों की माताओं के नाम-(१) मरुदेवी, (2) विजयादेवी, (3) सेना, (4) सिद्धार्थी (5) मंगला, (6) सुसीमा, (7) पृथ्वी (8) लक्ष्मणा (लक्षणा) (9) रामा, (10) नन्दा, (11) विष्णु, (12) जया, (13) श्यामा, (14) सुयशा, (15) सुव्रता, (16) अचिरा, (17) श्री, (18) देवी, (16) प्रभावती, (20) पद्मा, (21) वप्रा, (22) शिवा, (23) वामा, और (24) त्रिशलादेवी। चौबीस तीर्थंकरों की प्रथम शिष्याओं के नाम-(१) ब्राह्मी, (2) फल्गु (फाल्गुनी), (3) श्यामा, (4) अजिता, (5) काश्यपी, (6) रति, (7) सोमा, (8) सुमना, (5) वारुणी, (10) सुलशा (सुयशा), (11) धारणी, (12) रिणी, (13) धरणीधरा (धरा), (14) पद्मा, (15) शिवा, (16) श्रुति (सुभा), (17) दामिनी (ऋजुका), (10) रक्षिका (रक्षिता), (19) बन्धुमती, (20) पुष्पवती, (21) अनिला (अमिला), (22) यक्षदत्ता (अधिका) (23) पुष्पचूला और (24) चन्दना (चन्दनबाला)। बारह चक्रवतियों के नाम-(१) भरत, (2) सगर, (3) मघवान् (4) सनत्कुमार, (5) शान्तिनाथ, (6) कुन्थुनाथ, (7) अरनाथ, (8) सुभूम, (9) महापद्म, (10) हरिषेण, (11) जय और (12) ब्रह्मदत्त / चक्रवत्तियों की माताओं के नाम (1) सुमंगला, (2) यशस्वती, (3) भद्रा, (4) सुदेवी, (5) अचिरा, (6) श्री, (7) देवी, (8) तारा, (6) ज्वाला, (10) मेरा, (11) वप्रा और (12) चुल्लणी / चक्रवत्तियों के स्त्रीरत्नों के नाम-(१) सुभद्रा, (2) भद्रा, (3) सुनन्दा, (4) जया, (5) विजया, (6) कृष्णश्री, (7) सूर्यश्री, (8) पद्मश्री, (6) वसुन्धरा, (10) देवी, (11) लक्ष्मीमती और (12) कुरुमती। नौ बलदेवों के नाम--(१) अचल, (2) विजय, (3) भद्र, (4) सुप्रभ, (5) सुदर्शन, (6) आनन्द, (7) नन्दन, (8) पद्म, और (9) राम / नौ वासुदेवों के नाम-(१) त्रिपृष्ठ, (2) द्विपृष्ठ, (3) स्वयम्भू, (4) पुरुषोत्तम, (5) पुरुषसिंह, (6) पुरुष-पुण्डरीक, (7) दत्त, (8) नारायण और (8) कृष्ण / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नौ वासुदेवों की माताओं के नाम—(१) मृगावती, (2) उमा, (3) पृथ्वी, (4) सीता, (5) अम्बिका, (6) लक्ष्मीमती, (7) शेषवती, (8) कैकयी और (9) देवकी। नौ वासुदेवों के पितानों के नाम-(१) प्रजापति, (2) ब्रह्म, (3) सोम, (4) रुद्र, (5) शिव, (6) महाशिव, (7) अग्निशिव, (8) दशरथ और (9) वासुदेव / नौ वासुदेवों के प्रतिशत्रु-प्रतिवासुदेवों के नाम-(१) अश्वग्रीव, (2) तारक, (3) मेरक, (4) मधुकैटभ, (5) निशुम्भ, (6) बली, (7) प्रभराज (प्रह्लाद) (5) रावण और (9) जरासन्ध / ' इसके अतिरिक्त समवायांगसूत्र में भूतकालीन और भविष्यकालीन अवसर्पिणी तथा उत्सपिणी के तीर्थंकरों और चक्रवत्तियों आदि के नामों का भी उल्लेख है; यहाँ विस्तारभय से उन्हें नहीं दे रहे हैं। // पंचम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // ------- - -- 1. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भाग 2, पृ. 837 से 839 तक / (ख) समवायोगसूत्र (स. पृ. 150 से 155 तक) (ग) आवश्यक नियुक्ति (प्रारम्भ) (घ) भगवती (टीकानुबाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 195 से 198 तक Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'आउ' छठा उद्देशक : 'प्रायुष्य' अल्पायु और दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों का निरूपण 1. कहं णं भते ! जीवा अध्याउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोतमा ! तिहिं ठाणेहि, तं जहा—पाणे अइवाएत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं असणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जोवा अप्पाउयत्ताए कम्म पकरेंति। [1 प्र.] भगवन् ! जीव अल्पायु के कारणभूत कर्म किस कारण से बांधते हैं ? [1 उ.] गौतम ! तीन कारणों से जीव अल्पायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं-(१) प्राणियों की हिंसा करके, (2) असत्य भाषण करके और (3) तथारूप श्रमग या माहन को अप्रासुक, अनेषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम–(रूप चतुविध प्राहार) दे (प्रतिलाभित) कर / इस प्रकार (तीन कारणों से) जीव अल्पायुष्कफल वाला (कम जीने का कारणभूत) कर्म बांधते हैं / 2. कहं णं माते ! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! तिहिं ठाणेहि-नो पाणे अतिवाइत्ता, नो मुसं वदित्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभत्ता, एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति / [2 प्र.] भगवन् ! जीव दीर्घायु के कारणभूत कर्म कैसे बांधते हैं ? [2 उ.] गौतम ! तीन कारणों से जीव दीर्घायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं—(१) प्राणातिपात न करने से, (2) असत्य न बोलने से, और (3) तथारूप श्रमण और माहन को प्रासुक और एषणीय प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम-(रूप चतुविध आहार) देने से / इस प्रकार (तीन कारणों) से जीव दीर्घायुष्क के (कारणभूत) कर्म का बन्ध करते हैं / 3. कह णं माते ! जीवा असुमदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! पाणे प्रतिवाइत्ता, मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा होलित्ता निदित्ता खिसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता, अन्नतरेणं प्रमणुण्णेणं अपीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा असुभदीहाउपत्ताए फम्म पकरेंति / [3 प्र.] भगवन् ! जीव अशुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म किन कारणों से (कैसे) बांधते हैं ? 3 उ. गौतम ! प्राणियों की हिंसा करके, असत्य बोल कर, एवं तथारूप श्रमण और मान की (जातिप्रकाश द्वारा) हीलना, (मन द्वारा) निन्दा, खिसना (लोगों के समक्ष झिड़कना, बदनाम Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करना), गहीं (जनता के समक्ष निन्दा) एवं अपमान करके, अमनोज्ञ और अप्रीतिकर अशन, पान, खादिम और स्वादिम (रूप चतुर्विध आहार) दे (प्रतिलाभित) करके / इस प्रकार (इन तीन कारणों से) जीव अशुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म बांधते हैं। 4. कहं णं माते ! जीवा सुभदोहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! नो पाणे अतिवातित्ता, नो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, अनतरेणं माण्णणं पीतिकारएणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता, एवं खलु जीवा सुभदोहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति / [4 प्र.] भगवन् ! जीव शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्म किन कारणों से बांधते हैं ? [4 उ.] गौतम ! प्राणिहिंसा न करने से, असत्य न बोलने से, और तथारूप श्रमण या मान को वन्दना, नमस्कार यावत् पर्युपासना करके मनोज्ञ एवं प्रीतिकारक अशन, पान, खादिम और स्वादिम देने (प्रतिलाभित करने) से / इस प्रकार जीव (इन तीन कारणों से) शुभ दीर्घायु का कारणभूत कर्म बांधते हैं। विवेचन-अल्पायु और दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों का निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रमशः अल्पायु, दीर्घायु, अशुभ दीर्घायु और शुभ दीर्घायु के कारणभूत कर्मबन्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। अल्पायु और दीर्घायु का तथा उनके कारणों का रहस्य-प्रथम सूत्र में अल्पायुबन्ध के कारण बतलाए गए हैं। यहाँ अल्प प्रायूदीर्घ आय की अपेक्षा से समझनी चाहिए, क्षल्लकभवग्रहणरूप निगोद की आयु नहीं / अर्थात्-प्रासुक-एषणीय आहारादि लेने वाले मुनि को अप्रासुक-अनेषणीय आहारादि देने से जो अल्प आय का बन्ध होना बताया गया है, उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि दीर्घायु की अपेक्षा जिसकी प्राय थोड़ी है। जैनशास्त्र में पारंगत मुनि किसी सांसारिक ऋद्धि-सम्पत्तियुक्त भोगी पुरुष की अल्प आयु में मृत्यु सुनकर प्रायः कहते हैं इस व्यक्ति ने पूर्व जन्मों में प्राणिवध आदि अशुभ कर्मों का आचरण किया होगा। अत: यहाँ अल्पायु का अर्थ-मानवदीर्धायु की अपेक्षा अल्प आयु पाना है। ___ इससे आगे के सूत्र में दीर्घायुबन्ध के कारणों का निरूपण किया गया है, उनको देखते हुए प्रतीत होता है, यह दीर्घायु भी पूर्ववत् अल्पायु की अपेक्षा दीर्घायु समझनी चाहिए, वह भी सुखरूप शुभ दीर्घायु ही यहाँ विवक्षित है, अशुभ दीर्घायु (कसाई, चोर आदि पापकर्म परायण व्यक्ति की दीर्घाय) नहीं। क्योंकि इस सूत्र में उक्त दीर्घायु के तीन कारणों में से तीसरे कारण में अन्तर है-जैसे तथारूप श्रमण माहन को प्रासुक एषणीय आहार देने से दीर्घायरूप फल मिलता है। किन्तु आगे के दो सूत्रों में शुभ दीर्घायु और अशुभ दीर्घायुरूप फल के दो कारण पूर्व सूत्र निर्दिष्ट कारणों के समान ही हैं। तीसरे और चौथे सूत्र में क्रमशः तथारूप श्रमण-माहन को वन्दन-नमन-पर्युपासनापूर्वक मनोज्ञ-प्रीतिकर आहार देना शुभ दीर्घायु का और तथारूप श्रमण-माहन की हीलना-निन्दा आदि करके उसे अमनोज्ञ एवं अप्रीतिकर आहार देना, अशुभ दीर्घायु का तीसरा कारण बताया गया है।' 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 226-227 --. . ... ... - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६ ] [465 इसके अतिरिक्त अल्प-पायु के जो दो प्रारम्भिक कारण-प्राणातिपात और मृषावाद बताए गए हैं, वे भी यहाँ सभी प्रकार के प्राणातिपात और मृषाबाद नहीं लिए जाते, अपितु प्रसंगोपात्त तथारूप श्रमण को आहार देने के लिए जो वाधाकर्मादि दोषयुक्त श्राहार तैयार किया जाता है, उसमें जो प्राणातिपात होता है उसका, तथा वह दोषयुक्त प्राहार साधु को देने के लिए जो झूठ बोला जाता है कि यह हमने अपने लिए बनाया है, आपको तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिए; इत्यादि रूप से जो मृषावाद होता है, उसका यहाँ ग्रहण किया गया है।' कि आगे के अशुभ-दीर्घायु तथा शुभ दीर्घायु के कारण बताने वाले दो सूत्रों में प्रासुक एषणीय तथा अप्रासुक अनेषणीय का उल्लेख नहीं है / वहाँ केवल प्रीतिकर या अप्रीतिकर आहार देने का उल्लेख है / इसलिए यहां जो प्रीतिपूर्वक मनोज्ञ पाहार, अप्रासुक अनेषणीय दिया जाता है, उसे शुभ अल्पायु-बन्ध का कारण समझना चाहिए, शुभ अल्पायुबन्ध का कारण नहीं। दूसरे सूत्र में दीर्घ-बाय-बन्ध के कारणों का कथन है, वह भी शुभ दीर्घायु समझनी चाहिए जो जीवदया आदि धार्मिक कार्यों को करने से होती है। जैसे कि लोक में दीर्घायुष्क पुरुष को देखकर कहा जाता है, इसने पूर्वजन्म में जीवदयादिरूप धर्मकृत्य किये होंगे। देवगति में अपेक्षाकृत शुभ दीर्घायु होती है / च कि अवहीलना, अवज्ञा मात्सर्य आदि करके दान देने में जो प्राणातिपात एवं मृषावाद की क्रियाएँ देखी जाती हैं, वे नरकगति का कारण होने से अशुभ दीर्घायु हो सकती हैं / अन्य ग्रन्थों में भी इसो तथ्य का समर्थन है। विक्रेता और क्रेता को विक्रेय माल से सम्बन्धित लगने वाली क्रियाएँ 5. गाहावतिस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, तस्स णं मते ! तं भंड अणुगवेसमाणस्स कि प्रारंभिया किरिया कन्जइ ? पारिग्गहिया०, मायावत्तिया०, अपच्चपखा०, मिच्छादसण. ? ____ गोयमा ! प्रारंभिया किरिया कज्जइ, पारि०, माया०, प्रपच्च०; मिच्छादंसकरिया सिय कज्जति, सिय नो कज्जति / अह से भंडे अभिसमन्नागते भवति ततो से पच्छा सव्वानो तातो पयणुई भवति / 1. तथाहि प्राणातिपाताधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त यथा-साधो! स्वार्थ सिद्धमिदं भक्तादि, कल्पनीयं वा, नाशका कार्या'–स्थानांग. टीका 2. (क) अनुस्वय-महावएहि य बालतवो अकामणिज्जराए य / देवाउयं निबंधइ, सम्मदिट्टीय जो जीवो। -भगवती टीका, पत्रांक 226 (ख) समणोवासगस्स लहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं असण-पाण-खाइम साइमेणं पडिलामेमाणस्स कि कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो णिज्जरा कज्जइ। -भगवतीसूत्र, पत्रांक 227 3. 'मिच्छदिट्ठी महारंभपरिग्गहो तिब्बलोभनिस्सीलो / निरयाउयं निबंधइ, पावमई रोद्दपरिणामो // ' -भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 227 में उद्धत Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 प्र.] भगवन् ! भाण्ड (किराने का सामान) बेचते हुए किसी गृहस्थ का वह किराने का माल कोई अपहरण कर (चुरा) ले, फिर उस किराने के सामान की खोज करते हुए उस गृहस्थ को, हे भगवन् ! क्या आरम्भिकी क्रिया लगती है, या पारिग्रहिकी क्रिया लगती है ? अथवा मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यानिकी या मिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी क्रिया लगती है ? [5 उ.] गौतम ! (अपहृत किराने को खोजते हुए पुरुष को) प्रारम्भिको क्रिया लगती है, तथा पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी एवं अप्रत्याख्यानिकी क्रिया भी लगती है, किन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है, और कदाचित् नहीं लगती। (किराने के सामान की खोज करते हुए) यदि चुराया हुया सामान वापस मिल जाता है, तो वे सब (पूर्वोत्त) क्रियाएँ प्रतनु (अल्पहल्की) हो जाती हैं। 6. गाहावतिस्स णं भते ! भंड विक्किणमाणस्स कइए भंडं सातिज्जेज्जा, भंडे य से प्रणवणीए सिया, गाहावतिस्स णं भते ! तापो भडानो कि प्रारंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ? कइयस्स वा तायो भंडायो कि प्रारंभिया किरिया कज्जइ जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! माहायतिस्स तानो भंडाप्रो प्रारंभिया किरिया कज्जइ जाव अपच्चक्खाणिया; मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जइ। कइयस्स गं तारो सवानो पयणुईभवंति। [6 प्र. भगवन् ! किराना बेचने वाले गृहस्थ से किसी व्यक्ति ने किराने का माल खरीद लिया, उस सौदे को पक्का करने के लिए खरीददार ने सत्यंकार (बयाना या साई) भी दे दिया, किन्तु वह (किराने का माल) अभी तक अनुपनीत (ले जाया गया नहीं) है; (बेचने वाले के यहाँ ही पड़ा है / ) (ऐसी स्थिति में) भगवन् ! उस भाण्डविक्रेता को उस किराने के माल से प्रारम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी क्रियाओं में से कौन-सी क्रिया लगती है ? [6 उ.] गौतम ! उस गृहपति को उस किराने के सामान से प्रारम्भिकी से लेकर अप्रत्याख्यानिकी तक चार क्रियाएँ लगती हैं। मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती। खरीददार को तो ये सब क्रियाएँ प्रतनु (अल्प या हल्की) हो जाती हैं / 7. गाहावतिस्स णं भते ! भंडं विविकणमाणस्स जाव भंडे से उवणीए सिया, कइयस्स णं भते ! तानो मडाम्रो कि प्रारंभिया किरिया कज्जति० ? गाहावतिस्स वा तानो भडायो कि प्रारंभिया किरिया कज्जति? गोयमा ! कइयस्स तापो भंडाम्रो हेट्टिल्लामो चत्तारि किरियानो कज्जति, मिच्छादसणकिरिया भयणाए / गाहावतिस्स गं तानो सब्वासो पयणुईभवंति / [7 प्र.] भगवन् ! किराना बेचने वाले ग्रहस्थ के यहाँ से यावत् खरीददार उस किराने के माल को अपने यहाँ ले आया, (ऐसी स्थिति में) भगवन् ! उस खरीददार को उस (खरीदे हुए) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] [467 किराने के माल से प्रारम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यायको तक कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? और उस विक्रेता गृहस्थ को पांचों क्रियानों में से कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [7 उ.] गौतम ! (उपर्युक्त स्थिति में) खरीददार को उस किराने के सामान से आरम्भिको से लेकर अप्रत्याख्यानिकी तक चारों क्रियाएँ लगती हैं: मिथ्यादर्शन-प्रत्यायको क्रिया की भजना है: (अर्थात्--खरीददार यदि मिथ्यादृष्टि हो तो मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है, अगर वह मिथ्यादृष्टि न हो तो नहीं लगती)। विक्रेता गृहस्थ को तो (मिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी क्रिया की भजना के साथ) ये सब क्रियाएँ प्रतनु (अल्प) होती हैं / 8. [1] गाहावतिस्स गंमते ! भंडं जाव धणे य' से अणुवणीए सिया० ? एवं पि जहा 'भंडे उवणोते' तहा नेयव्वं / [8-1 प्र.] भगवन् ! भाण्ड-विक्रेता गहस्थ से खरीददार ने किराने का माल खरीद लिया, किन्तु जब तक उस विक्रेता को उस माल का मूल्यरूप धन नहीं मिला, तब तक, हे भगवन् ! उस खरीददार को उस अनुपनीत धन से कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? (साथ ही) उस विक्रेता को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? __ [8-1 उ.] गौतम ! यह पालापक भी उपनीत भाण्ड (खरोददार द्वारा ले जाए जाने वाले किराने) के पालापक के समान समझना चाहिए। [2] चउत्थो पालावगो'-धणे य से उवणीए सिया जहा पढमो पालावगो 'भंडे य से अणुदणीए सिया' तहा नेयधो / पढम-चउत्थाणं एक्को गमो / बितिय-ततियाणं एक्को गमो / 18-2] चतुर्थ आलापक-यदि धन उपनीत हो तो प्रथम पालापक, (जो कि अनुपनीत भाण्ड के विषय में कहा है) के समान समझना चाहिए। (सारांश यह है कि) पहला और चोथा आलापक समान है, इसी तरह दूसरा और तीसरा आलापक समान है।। विवेचन-विक्रेता और क्रेता को विक्रेय माल से लगने वाली क्रियाएँ-- प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 5 से 8 तक) में भाण्ड-विक्रेता और खरीददार को किराने के माल (भाण्ड)-सम्बन्धी विभिन्न अवस्थानों में लगने वाली क्रियानों का निरूपण किया गया है। 1. धन से सम्बन्धित प्रथम पालापक इस प्रकार कहना चाहिए--- "गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स कइए भंड साइज्जेज्जा, धणे य से अणवणीए सिया, कइयस्स णं ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया काजइ 5 ? गाहावइस्स य ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ 5? गोयमा ! कइयस्स ताओ धणाओ हेट्रिल्लाओ चत्तारि किरियाओ कज्जति, मिच्छादसणकिरिया भयणाए / गाहावइस्स णं ताओ सम्वाओ पताई भवति / " भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 229 1. धन से सम्बन्धित चतुर्थ पालापक इस प्रकार कहना चाहिए “गाहावइस गं भंते ! भंड विश्किणमाणस्स कइए मंडं साइज्जेज्जा धणे य से उवणीए सिया, गाहावइस्स गं भंते ! ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ 5 ? कइयरस वा ताओ धणाओ कि आरंभिया किरिया कज्जइ 5? गोयमा ! गाहावइस्स ताओ धणाओ आरंभिया 5, मिच्छादसणवत्तिया सिय कन्जइ, सिय नो कज्जइ / कइयस्स गं ताओ सम्वाओ पपणुईभवंति"-भगवती अ. वृत्ति, प. 229 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 ] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र छह प्रतिफलित तथ्य-(१) किराना बेचने वाले का किराना (माल) कोई चुरा ले जाए तो उस किराने को खोजने में विक्रेता को प्रारम्भिको आदि 4 क्रियाएँ लगती हैं, परन्तु मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया, कदाचित् लगती है, कदाचित् नहीं लगती / (2) यदि चुराया हुआ किराने का माल वापस मिल जाए तो विक्रेता को ये सब क्रियाएँ मन्द रूप में लगती हैं। (3) खरीददार ने विक्रेता से किराना (माल) खरीद लिया, उस सौदे को पक्का करने के लिए साई भी दे दी, किन्तु माल दूकान से उठाया नहीं, तब तक खरीददार को उस किराने-सम्बन्धी क्रियाएँ हलके रूप में लगती हैं, जबकि विक्रेता को वे क्रियाएँ भारी रूप में लगती हैं / (4) विक्रेता द्वारा किराना खरीददार को सौंप दिये जाने पर वह उसे उठाकर ले जाता है, ऐसी स्थिति में विक्रेता को वे सब सम्भावित क्रियाएँ हलके रूप में लगती हैं, जब कि खरीददार को भारी रूप में। (5) विक्रेता से खरीददार ने किराना खरीद लिया, किन्तु उसका मूल्यरूप धन विक्रेता को नहीं दिया, ऐसी स्थिति में विक्रेता को प्रारम्भिकी आदि चारों क्रियाएँ हलके रूप में लगती हैं, जबकि खरीददार को वे ही क्रियाएँ भारी रूप में लगती हैं। और (6) किराने का मूल्यरूप धन खरीददार द्वारा चुका देने के बाद विक्रेता को धनसम्बन्धी चारों सम्भावित क्रियाएँ भारी-रूप में लगती हैं, जबकि खरीददार को वे सब सम्भावित क्रियाएँ अल्परूप में लगती हैं। क्रियाएँ : कब हल्के रूप में, कब भारी रूप में ?--(1) चुराये हुए माल की खोज करते समय विक्रेता (व्यापारी) विशेष प्रयत्नशील होता है, इसलिए उसे सम्भावित क्रियाएँ भारीरूप में लगती हैं, किन्तु जब व्यापारी को चुराया हुआ माल मिल जाता है, तब उसका खोज करने का प्रयत्न बन्द हो जाता है, इसलिए वे सब सम्भावित क्रियाएं हल्की हो जाती हैं / (2) विक्रेता के यहाँ खरीददार के द्वारा खरीदा हुआ माल पड़ा रहता है, वह उसका होने से तत्सम्बन्धित क्रियाएँ भारीरूप में लगती है, किन्तु खरीददार उस माल को उठाकर अपने घर ले जाता है, तब खरीददार को वे सब क्रियाएँ भारीरूप में और विक्रेता को हल्के रूप में लगती हैं। (3) किराने का मूल्यरूप धन जब तक खरीददार द्वारा विक्रेता को नहीं दिया गया है, तब तक वह धन खरीददार का है, अतः उससे सम्बन्धित क्रियाएँ खरीददार को भारीरूप में और विक्रेता को हल्के रूप में लगती हैं, किन्तु खरीददार खरीदे हुए किराने का मूल्यरूप धन विक्रेता को चुका देता है, उस स्थिति में विक्रेता को उस धनसम्बन्धी क्रियाएँ भारीरूप में, तथा खरीददार को हल्के रूप में लगती हैं / मिथ्यादर्शन-प्रत्ययिकी क्रिया-तभी लगती है, जब विक्रेता या क्रेता मिथ्यादष्टि हो, सम्यग्दृष्टि होने पर नहीं लगती। कठिन शब्दों के अर्थ-विकिणमाणस्स = विक्रय करते हुए / अवहरेज्जा = अपहरण करे (चुरा ले जाए)। सिय कज्जइ= कदाचित् लगती है। पयणुईभवंति प्रतनु-हल्की या अल्प हो जाती हैं / साइज्जेज्जा=सत्यंकार (सौदा पक्का) करने हेतु साई या बयाना दे दे / अभिसमण्णागए = माल वापस मिल जाए। कइयस्स = खरीददार के / गवेसमाणस्स = खोजते-ढूढते हुए / अणुवणीए = अनुपनीत–नहीं ले जाया गया / उवणीए == उपनीत--माल उठाकर ले जाया गया / 2 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 206 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 228 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 225-229 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] [469 अग्निकाय : कब महाकर्मादि से युक्त, कब अल्पकर्मादि से युक्त ? 9. अगणिकाए णं भते! अहुणोज्जलिते समाणे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव भवति / अहे णं समए समए वोक्कसिज्जमाणे वोक्कसिज्जमाणे वोच्छिज्जमाणे चरिमकालसमयंसि इंगालभूते मुम्मरभूते छारियभूते, तो पच्छा प्रप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव, अप्पवेदणतराए चेव भवति ? हंता, गोयमा ! अगणिकाए णं अहणज्जलिते समाणे० तं चेव / [9 प्र. भगवन् ! तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय क्या महाकर्मयुक्त, तथा महाक्रिया, महाश्रव और महावेदना से युक्त होता है ? और इसके पश्चात् समय-समय में (क्षण-क्षण में) क्रमशः कम होता हुा-बुझता हुअा तथा अन्तिम समय में (जब) अंगारभूत, मुर्मुरभूत (भोभर-सा हुआ) और भस्मभूत हो जाता है (तब) क्या वह अग्निकाय अल्पकर्मयुक्त तथा अल्पक्रिया, अल्पाश्रव अल्पवेदना से युक्त होता है ? . [9 उ.] हाँ गौतम ! तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय महाकर्मयुक्त भस्मभूत हो जाता है, उसके पश्चात् यावत् अल्पवेदनायुक्त होता है / विवेचन--अग्निकाय : कब महाकर्मादि से युक्त, कब अल्पकर्मादि से युक्त ?-प्रस्तुत नौवें सूत्र में तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय को महाकर्म, महाक्रिया, महाअाश्रव एवं महावेदना से युक्त तथा धीरे-धीरे क्रमशः अंगारे-सा, मुमुर-सा एवं भस्म-सा हो जाने पर उसे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प-प्राश्रव और अल्प-वेदना से युक्त बताया गया है। महाकर्मादि या अल्पकर्मादि से युक्त होने का रहस्य-तत्काल प्रज्वलित अग्नि बन्ध की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय आदि महाकर्मबन्ध का कारण होने से 'महाकर्मतर' है। अग्नि का जलना क्रियारूप होने से यह महाक्रियातर है। अग्निकाय नवीन कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत होने से यह महाश्रवतय हैं / अग्नि लगने के पश्चात् होने वाली तथा उस कर्म (अग्निकाय से बद्ध कर्म) से उत्पन्न होने वाली पीड़ा के कारण अथवा परस्पर शरीर के सम्बाध (दबने) से होने वाली पीड़ा के कारण वह महावेदनातर है। लेकिन जब प्रज्वलित हुई अग्नि क्रमशः बुझने लगती है, तब क्रमश: अंगार आदि अवस्था को प्राप्त होती हुई वह अल्पकर्मतर, अल्पक्रियातर, अल्पावतर एवं अल्पवेदनातर हो जाती है / बुझते-बुझते जब वह भस्मावस्था को प्राप्त हो जाती है, तब वह कर्मादि-रहित हो जाती है।' __ कठिन शब्दों की व्याख्या-अहणोज्जलिए = अभी-अभी तत्काल जलाया हुआ। बोक्कसिज्जमाणे = अपकर्ष को प्राप्त (कम) होता हुआ। अध्प = अग्नि की अंगारादि अवस्था की अपेक्षा अल्प यानी थोड़ा, तथा भस्म की अपेक्षा अल्प का अर्थ अभाव करना चाहिए।' 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 229 2. वही, पत्रांक 229 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धनुष चलाने वाले व्यक्ति को तथा धनुष से सम्बन्धित जीवों को उनसे लगने वाली क्रियाएँ 10. [1] पुरिसे णं भते ! धणु परामसति, धणु परामुसित्ता उसु परामुसति, उसु परामुसित्ता ठाणं ठाति, ठाणं ठिच्चा पायतकण्णाययं उसुकरेति, प्राययकण्णाययं उसुकरेत्ता उड्ढे वेहासं उसु उम्विहति, 2 ततो णं से उसु उड्ढं वेहासं उविहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई भूयाई जोवाइं सत्ताई अभिहणति वत्तेति लेस्सेति संधाएति संघट्टेति परितावेति किलामेति, ठाणाओ ठाणं संकामेति, जीवितातो ववरोबेति, तए णं भले ! से पुरिसे कतिकिरिए ? ___गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणु परामसति जाव उम्विहति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातिवातकिरियाए, पंचहि किरियाहि पुट्ट / 110-1 प्र] भगवन् ! कोई पुरुष धनुष को स्पर्श करता है, धनुष का स्पर्श करके वह बाण का स्पर्श (ग्रहण) करता है, बाण का स्पर्श करके (धनुष से बाण फेंकने के) स्थान पर से पासनपूर्वक बैठता है, उस स्थिति में बैठकर फेंके जाने वाले बाण को कान तक आयत करे---खींचे, खींच कर ऊँचे आकाश में बाण फैकता है। ऊँचे आकाश में फेंका हुआ वह बाण, वहाँ आकाश में जिन प्राण, भूत, जीव, और सत्त्व को सामने आते हुए मारे (हनन करे) उन्हें सिकोड़ दे, अथवा उन्हें ढक दे, उन्हें परस्पर श्लिष्ट कर (चिपका) दे, उन्हें परस्पर संहत (संघात = एकत्रित) करे, उनका संघट्टा-जोर से स्पर्श करे, उनको परिताप-संताप (पीड़ा) दे, उन्हें क्लान्त करे-थकाए, हैरान करे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकाए, एवं उन्हें जीवन से रहित कर दे, तो हे भगवन् ! उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [10-1 उ.] गौतम ! यावत् वह पुरुष धनुष को ग्रहण करता यावत् बाण को फेंकता है, तावत् वह पुरुष कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, और प्राणातिपातिकी, इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है / [2] जेसि पि य णं जीवाणं सरोरेहितो धणू निवत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे / [10-2] जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष बना (निष्पन्न हुआ) है, वे जीव भी पांच क्रियानों से स्पृष्ट होते हैं। 11. एवं धणुपुढे पंचहि किरियाहिं / जीवा पंचर्चाह / हारू पंचहिं / उसू पंहिं / सरे पत्तणे फले हारू पंचहिं। [11] इसी प्रकार धनुष की पीठ भी पांच क्रियानों से स्पृष्ट होती है / जीवा (डोरी) पांच क्रियाओं से, हारू (स्नायु) पाँच क्रियाओं से एवं बाण पांच क्रियाओं से तथा शर, पत्र, फल और छहारू भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६ ] [471 12. अहे णं से उसू अप्पणो गल्यत्ताए भारियत्ताए गुरुसंभारियत्ताए अहे वोससाए पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव' जीवितातो ववरोवेति, एवं च णं से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से उसू अप्पणो गल्ययाए जाव' ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चहि किरियाहिं पुढे / नेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहि घणू निव्यत्तिए ते वि जीवा चहि किरियाहि / धणुपुढे चउहिं / जीवा चउहि / हारू चहिं / उसू पंचहिं / सरे, पत्तणे, फले, हारू पंचहि / जे वि य से जीवा अहे पच्चोक्यमाणस्स उवग्गहे चिट्ठति ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पंर्चाह किरियाहि पुट्ठा / [12 प्र.] 'हे भगवन् ! जब वह बाण अपनी गुरुता से, अपने भारीपन से, अपने गुरुसंभारता से स्वाभाविकरूप (विस्रसा प्रयोग) से नीचे गिर रहा हो, तब (ऊपर से नीचे गिरता हुआ) वह (बाण) (बीच मार्ग में) प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को यावत् जीवन (जीवित) से रहित कर देता है, तब उस बाण फैकने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [12 उ.] गौतम ! जब वह बाण अपनी गुरुता आदि से नीचे गिरता हुआ, यावत् जीवों को जीवन रहित कर देता है, तब वह बाग फैंकने वाला) पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष बना है, वे जीव भी चार क्रियाओं से, धनुष की पीठ चार क्रियाओं से, जीवा (ज्या = डोरी) चार क्रियाओं से, हारू चार क्रियाओं से, बाण पांच क्रियानों से, तथा शर, पत्र, फल और पहारू पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं / 'नीचे गिरते हुए बाण के अवग्रह में जो जीव आते हैं, वे जीव भी कायिको आदि पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। विवेचन–धनुष चलाने वाले व्यक्ति को तथा धनुष से सम्बन्धित जीवों को उनसे लगने वाली क्रियाएँ-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 10 से 12 तक) में धनुष चलाने वाले व्यक्ति को तथा धनुष के विविध उपकरण (अवयव) जिन-जिन जीवों के शरीरों से बने हैं उनको बाण छटते समय तथा बाण के नीचे गिरते समय होने वाली प्राणि-हिंसा से लगने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया है। किसको, क्यों, कैसे और कितनी क्रियाएँ लगती है ? ---एक व्यक्ति धनुष हाथों में लेता है, फिर वाण उठाता है, उसे धनुष पर चढ़ा कर विशेष प्रकार के आसन से बैठता है, फिर कान तक बाण को खींचता और छोड़ता है। छटा हुआ वह बाण आकाशस्थ या उसकी चपेट में पाए हुए प्राणी के प्राणों का विविध प्रकार से उत्पीडन एवं हनन करता है, ऐसी स्थिति में उस पुरुष को धन में लेने से छोड़ने तक में कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाएँ लगती हैं। इसी प्रकार जिन जीवों के शरीर से धनुष, धनुःपृष्ठ, डोरी, हारू, बाण, शर, पत्र, फल और हारू आदि धनुष एवं धनुष के उपकरण बने हैं उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं। यद्यपि वे इस समय अचेतन हैं तथापि उन जीवों ने मरते समय अपने शरीर का व्युत्सर्ग नहीं किया था, वे अविरति के परिणाम 1. 'जाव' पद यहाँ निम्नोक्त पाठ का सूचक है-- 'भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणति वत्त ति लेस्सेति संघाएति संघति परितावेति किलामेति ठाणाओ ठाणं संकामेति'। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूब (जो कि अशुभकर्म-बन्ध के हेतु हैं) से युक्त थे, इसलिए उन्हें भी पांचों क्रियाएँ लगती हैं / सिद्धों के अचेतन शरीर जीवहिंसा के निमित्त होने पर भी सिद्धों को कर्मबन्ध नहीं होता, न उन्हें कोई क्रिया लगती है, क्योंकि उन्होंने शरीर का तथा कर्मबन्ध के हेतु अविरति परिणाम का सर्वथा त्याग कर दिया था। रजोहरण, पात्र, वस्त्र प्रादि साधु के उपकरणों से जीवदया श्रादि करने से रजोहरणादि के भूतपूर्व जीवों को पुण्यबन्ध नहीं होता, क्योंकि रजोहरणादि के जीवों के मरते समय पुण्यबन्ध के हेतुरूप विवेक, शुभ अध्यवसाय आदि नहीं होते। इसके अतिरिक्त अपने भारीपन आदि के कारण जब बाण नीचे गिरता है, तब जिन जीवों के शरीर से वह बाण बना है, उन्हें पांचों क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि बाणादिरूप बने हुए जीवों के शरीर तो उस समय मुख्यतया जीवहिंसा में प्रवृत्त होते हैं, जबकि धनुष की डोरी, धनुःपृष्ठ आदि साक्षात वधक्रिया में प्रवृत्त न होकर केवल निमित्तमात्र बनते हैं, इसलिए उन्हें चार क्रियाएँ लगती हैं। वीतराग सर्वज्ञ प्रभु ने जैसा अपने ज्ञान में देखा है, वैसा ही कहा है, इसलिए उनके वचन प्रमाण मान कर उन पर श्रद्धा करनी चाहिए।' ___ कठिन शब्दों के अर्थ-परामुसइ = स्पर्श-ग्रहण करता है / उसु - बाण / प्राययकण्णाययं = कान तक खींचा हुआ। वेहासं, आकाश में। उबिहइ = फेकता है / जीवाधनुष की डोरी (ज्या), राहारू = स्नायु, पच्चोवयमाणे = नीचे गिरता हुआ / अन्यतोथिकप्ररूपित मनुष्यसमाकोरम् मनुष्यलोक के बदले नारकसमाकोर्ण नरकलोक की प्ररूपणा एवं नैरयिक-विकुर्वणा 13. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्वंति जाव परूति-से जहानामए जुति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्कस्स वा नामी अरगाउत्ता सिया एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसताई बहुसमाइण्णे मणुयलोए मणुस्सेहिं / से कहमेतं मते ! एवं? गोतमा! जंणं ते अन्नउत्थिया जाव मणुस्सेहि, जे ते एवमाहंसु मिच्छा० / अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसताई बहुसमाइण्णे निरयलोए नेरइएहि / [13 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती का हाथ (कस कर) पकड़े हुए (खड़ा) हो, अथवा जैसे प्रारों से एकदम सटी (जकड़ी) हुई चक्र (पहिये) की नाभि हो, इसी प्रकार यावत् चार सौ-पांच सौ योजन तक यह मनुष्यलोक मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है / भगवन् ! यह सिद्धान्त प्ररूपण कैसे है ? / [13 उ.] हे गौतम ! अन्यतीथियों का यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि चार-सौ, पांच सौ योजन तक नरकलोक, नरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुना है। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 230 2. वही, पत्रांक 230 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] गया 14. नेरइया गंमते ! किं एगत्तं पभू विउवित्तए ? पुहत्तं पभू विकुवित्तए ? जहा जीवाभिगमे' प्रालावगो तहा नेयव्वो जाव दुरहियासं। [12 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एकत्व (एक रूप) की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, अथवा बहुत्व (बहुत से रूपों) को विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? [14 उ.] गौतम ! इस विषय में जीवाभिगमसूत्र में जिस प्रकार आलापक कहा है, उसी प्रकार का पालापक यहाँ भी 'दुरहियास' शब्द तक कहना चाहिए / विवेचन-अन्यतीर्थिक-प्ररूपित मनुष्य समाकीर्ण मनुष्य लोक के बदले नारकसमाकीर्ण नरफलोक प्ररूपणा, एवं नरयिक-विकुर्वणा--प्रस्तुत दो सूत्रों में दो मुख्य तथ्यों का निरूपण किया (2) मनष्योक 400-500 योजन तक ठसाठस मनष्यों से भरा है, अन्यतीथिकों के विभंगज्ञान द्वारा प्ररूपित इस कथन को मिथ्या बताकर नरक लोक नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा है, इस तथ्य की प्ररूपणा की गई है। (2) नैरयिक जीव एकरूप एवं अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं / नरयिकों को विकुर्वणा के सम्बन्ध में जीवाभिगम का प्रतिदेश-जीवाभिगम सूत्र के पालापक का सार इस प्रकार है-रत्नप्रभा आदि नरकों में नैरयिक जीव एकत्व (एकरूप) की भी विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, बहुत्व (बहुत-से रूपों) की भी। एकत्व की विकुर्वणा करते हैं, तब वे एक बड़े मुद्गर या मुसु ढि, करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, नाराच, कुन्त (भाला), तोमर, शूल और लकड़ी यावत् भिडमाल के रूप की विकुर्वणा कर सकते हैं और, जब बहुत्व (बहुत से रूपों) की विकुर्वणा करते हैं, तब मुद्गर से लेकर भिडमाल तक बहुत-से शस्त्रों की विकुर्वणा कर सकते हैं / वे सब संख्येय होते हैं, असंख्येय नहीं / इसी प्रकार वे सम्बद्ध और सदश रूपों की विकुर्वणा करते हैं, असम्बद्ध एवं असदश रूपों की नहीं। इस प्रकार की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर को अभिघात पहुँचाते हुए वेदना की उदीरणा करते हैं / वह वेदना उज्ज्वल (तीव्र), विपुल (व्यापक), प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष (कठोर), निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुर्ग, दुःखरूप और दुःसह होती है / 1. पालापक इस प्रकार है "गोयमा! एगत पि पह विश्वित्तए प्रहत्त' पि पह विवित्तए। एगत विउवमाणे एग महं मोग्गररूवं मुसु ढिएवं बा' इत्यादि / 'पृहत्त विउवमाणे मोगररूवाणि वा' इत्यादि / ताई संखेज्जाई नो असंखेज्जाई। एवं संबद्धाइं२ सरीराइंबिउन्वंति, विउवित्ता अन्नमन्नस्स कायं अभिहणमाणा 2 वेयणं उदीरति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कड्यं फरसं निदरं चंडं तिब्बं दुक्खं दुग्ग दुरहियासं ति" -जीवाभिगम प्र. 3 उ.-२ भगवती अ. वृत्ति, पृ. 231. 2. बियाहपण्णात्तिसुत्त (मूलपाठटिप्पणयुक्त) भा-१ पृ-२०८-२०९ 3. (क) जीवाभिगम सूत्र, प्रतिपत्ति 3, द्वितीय उद्देशक नारकस्वरूपवर्णन, पृ. 117 (ख) भगवती-टीकानुवाद खं. 2, पृ-२०८ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विविध प्रकार से प्राधाकर्मादि दोषसेवी साधु अनाराधक कैसे ?, आराधक कैसे ? 15. [1] 'माहाकम्मं गं प्रणवज्जे ति मणं पहारेत्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स प्रणालोइ. यपडिक्कते कालं करेति नस्थि तस्स पाराहणा। [15-1] 'प्राधाकर्म अनवद्य-निर्दोष है, इस प्रकार जो साधु मन में समझता (धारणा बना लेता) है, वह यदि उस प्राधाकर्म-स्थान की आलोचना (तदनुसार प्रायश्चित्त) एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती। [2] से गं तस्स ठाणस्स पालोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स पाराहणा। ___ [15-2] वह (पूर्वोक्त प्रकार की धारणा वाला साधु) यदि उस (प्राधाकर्म-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है / [3] एतेणं गमेणं नेयवं-कोयकडं ठविया रइयगं कतारभत्तं दुभिक्खभत्तं वद्दलियाभत्तं गिलाणभत्तं सिज्जातरपिडं रायपिंडं / - [15-3] प्राधाकर्म के (पूर्वोक्त) पालापकद्वय के अनुसार ही क्रीतकृत (साधु के लिए खरीद कर लाया हुआ), स्थापित (साधु के लिए स्थापित करके रखा हुआ) रचितक (साधु के लिये विखरे हुए चूरे को मोदक के रूप में बांधा हुआ (ौद्देशिक दोष का भेदरूप), कान्तारभक्त (अटवी में भिक्षुकों के निर्वाह के लिये तैयार किया हुमा माहार), दुर्भिक्षभक्त (दुष्काल के समय भिक्षुओं के लिये तैयार किया हुआ आहार), वर्दलिकाभक्त (आकाश में बादल छाये हों, घनघोर वर्षा हो रही हो, ऐसे समय में भिक्षुओं के लिए तैयार किया हुआ पाहार), ग्लान भक्त (ग्लान--रुग्ण के लिए बनाया हुमा आहार), शय्यातरपिण्ड (जिसकी आज्ञा से मकान में ठहरे हैं, उस व्यक्ति के यहाँ से आहार लेना), राजपिण्ड (राजा के लिए तैयार किया गया आहार), इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विषय में (प्राधाकर्म सम्बन्धी आलापकद्वय के समान ही) प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए। 16. [1] 'प्राहाकम्मं णं प्रणवन्जे' ति बहुजणमझे भासित्ता सयमेव परिजित्ता भवति, से णं तस्स ठाणस्स जाव' अस्थि तस्स पाराहणा। [2] एयं पि तह चेव जाव' रायपिडं / [16-1] प्राधाकर्म अनवद्य (निर्दोष) है, इस प्रकार जो साधु बहुत-से मनुष्यों के बीच में कह (भाषण) कर, स्वयं ही उस प्राधाकर्म-आहारादि का सेवन (उपभोग) करता है, यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके अाराधना नहीं होती, यावत् यदि वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। [16-2] प्राधाकर्मसम्बन्धी इस प्रकार के पालापकद्वय के समान क्रोतकृत से लेकर राजपिण्डदोष तक पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्येक के दो-दो पालापक समझ लेने चाहिए। 1. 'जाव' पद से यहाँ पूर्ववत् 'अणालोइय' का तथा 'आलोइय' का आलापक कहना चाहिए / Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६] [475 17. 'प्राहाकम्मं णं प्रणवज्जे ति सयं अनमन्त्रस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स० एयं तह चेव जाव रायपिडं। [17] 'आधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार कह कर, जो साधु स्वयं परस्पर (भोजन करता है, तथा) दूसरे साधुओं को दिलाता है, किन्तु उस प्राधाकर्म दोष स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके अनाराधना तथा यावत अालोचनादि करके काल करता है तो उसके आराधना होती है / इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर राजपिण्ड तक पूर्ववत् यावत् अनाराधना एवं पाराधना जान लेनी चाहिए। 18. 'ग्राहाकम्म णं प्रणवज्जे' त्ति बहुजणमझे पनवइत्ता भवति, से णं तस्स जाव' अस्थि अाराहणा जाव रायपिडं। [18] 'प्राधाकर्म अनवद्य है', इस प्रकार जो साधु बहुत-से लोगों के बीच में प्ररूपण (प्रज्ञापन) करता है, उसके भी यावत् आराधना नहीं होती, तथा वह यावत् आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, उसके आराधना होती है। ___ इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर यावत् राजपिण्ड तक पूर्वोक्त प्रकार से अनाराधना होती है, तथा यावत् अाराधना होती है। विवेचन-विविध प्रकार से प्राधाकर्मादि दोषसेवी साध अनाराधक कैसे, आराधक कैसे ?प्रस्तुत चार सूत्रों में प्राधाकर्मादि दोष से दूषित आहारादि को निष्पाप समझने वाले, सभा में निष्पाप कहकर सेवन करने वाले, स्वयं वैसा दोषयुक्त आहार करने तथा दूसरे को दिलाने वाले, बहुजन समाज में आधाकर्मादि के निर्दोष होने की प्ररूपणा करने वाले साधु के विराधक एवं पाराधक होने का रहस्य बताया गया है।' विराधना और पाराधना का रहस्य--प्राधाकर्म से लेकर राजपिण्ड तक में से किसी भी दोष का किसी भी रूप में मन-वचन-काया से सेवन करने वाला साधु यदि अन्तिम समय में उस दोषस्थान को आलोचना-प्रतिक्रमणादि किये बिना ही काल कर जाता है तो वह विराधक होता है, आराधक नहीं; किन्तु यदि पूर्वोक्त दोषों में से किसी दोष का किसी भी रूप में सेवन करने वाला साधु अन्तिम समय में उस दोष की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह पाराधक होता है। निष्कर्ष यह है कि दोषों की आलोचना-प्रतिक्रमणादि न करके काल करने वाला साधु विराधक और आलोचना-प्रतिक्रमणादि करके काल करने वाला साधु अाराधक होता है। प्राधाकर्मादि दोष निर्दोष होने की मन में धारणा बना लेना, तथा आधाकर्मादि के विषय में निर्दोष होने की प्ररूपणा करना विपरीतश्रद्धानादिरूप होने से दर्शन-विराधना है। इन्हें विपरीत रूप में जानना ज्ञान-विराधना है / तथा इन दोषों को निर्दोष कह कर स्वयं प्राधाकर्मादि पाहारादि सेवन करना, तथा दूसरों को वैसा दोषयुक्त आहार दिलाना, चारित्रविराधना है। 1. जाव पद से यहाँ 'अणालोइय' इत्यादि पद तथा 'आलोइय' इत्यादि पद कहने चाहिए। 2. वियाहपण्णतिसूत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 209-210 3. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 231 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 / [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राधाकर्म की व्याख्या साधु के निमित्त से जो सचित्त को अचित्त बनाया जाता है, अचित्त दाल, चावल आदि को पकाया जाता है, मकान आदि बनाए जाते हैं, या वस्त्रादि बुनाए जाते हैं, उन्हें प्राधाकर्म कहते हैं।' गणणसंरक्षणतत्पर प्राचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्व-प्ररूपरणा 16. पायरिय-उवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं प्रगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उवागण्हमाणे कतिहि भवग्गहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोतमा ! प्रत्येगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिझति प्रत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिझति, तच्चं पुण भवागहणं नातिक्कमति / [16] भगवन् ! अपने विषय में (सूत्र और अर्थ को वाचना-प्रदान करने में) गण (शिष्यवर्ग) को अग्लान (अखेद) भाव से स्वीकार (संग्रह) करते (अर्थात्-सूत्रार्थ पढ़ाते) हुए तथा अग्लानभाव से उन्हें (शिष्यवर्ग को संयम पालन में) सहायता करते हुए प्राचार्य और उपाध्याय, कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? [16 उ.] गौतम ! कितने ही आचार्य-उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं, कितने ही दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। विवेचन तथारूप प्राचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्वप्ररूपणा—जो आचार्य और उपाध्याय अपने कर्तव्य और दायित्व का भली-भांति वहन करते हैं, उनके सम्बन्ध में एक, दो या अधिक से अधिक तीन भव में सिद्धत्व प्राप्ति की प्ररूपणा की गई है। एक दो या तीन भव में मुक्त-कई आचार्य-उपाध्याय उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, कई देवलोक में जा कर दूसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, और कितने ही देवलोक में जाकर तीसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, किन्तु तीन भव से अधिक भव नहीं करते।' मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्ध-प्ररूपरणा 20. जेणं मते ! परं अलिएणं असंतएणं अभक्खाणेणं अन्मक्खाति तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जे णं परं अलिएणं असंतएणं अभक्खाणेणं अभक्खाति तस्स णं तहप्पगारा चैव कम्मा कन्जंति, जत्थेव शं अभिसमागच्छति तत्थेब णं पडिसंवेदेति, ततो से पच्छा वेदेति / सेवं ते! 2 त्ति० / // पंचमसए : छट्ठो उद्देसमो॥ 1. "आधाकर्म-आधया साधप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकम, वयते वा वस्त्रादिकम, तवाधाकर्म ।"-भगवती.हि. विवेचन, भा. 2, पृ. 860 2. भगवती मूत्र वृत्ति, पत्रांक 232 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-६ 1 [477 20 प्र.] भगवन् ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का आरोप करके असत्य मिथ्यादोषारोपण (अभ्याख्यान) करता है, उसे किस प्रकार के कर्म बंधते हैं ? [20 उ.] गौतम ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का अारोपण करके मिथ्या दोष लगाता है, उसके उसी प्रकार के कर्म बंधते हैं। वह जिस योनि में जाता है, वहीं उन कर्मों को वेदता (भोगता) है और वेदन करने के पश्चात् उनकी निर्जरा करता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरने लगे। विवेचन-मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्धन प्ररूपणा जो व्यक्ति दूसरे पर अविद्यमान या अशोभनीय कार्य करने का दोषारोपण करता है, वह उसी रूप में उसका फल पाता है / इस प्रकार दुष्कर्मबन्ध की प्ररूपणा की गई है। ब्रह्मचर्यपालक को अब्रह्मचारी कहना, यह सद्भूत का अपलाप है, अचोर को चोर कहना असद्भूत दोष का आरोपण है। ऐसा करके किसी पर मिथ्या दोषारोपण करने से इसी प्रकार का फल देने वाले कर्मों कर बन्ध होता है। ऐसा कर्मबन्ध करने वाला वैसा ही फल पाता है। कठिन शब्दों की व्याख्या-अलिएणं = सत्य बात का अपलाप करना / असम्भूएणं असद्भुत = अविद्यमान बात को प्रकट करना / अभक्खाणेणं = अभ्याख्यान = मिथ्यादोषारोपण / ' / / पंचम शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / -- -- -- - -- - - - -- 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 210, (ख) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्रांक 232 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : एयरण सप्तम उद्देशक : एजन परमाणुपुद्गल-द्विप्रदेशिकादि स्कन्धों के एजनादि के विषय में प्ररूपणा 1. परमाणुपोग्गले शं भंते ! एयति यति जाव' तं तं भावं परिणति ? गोयमा ! सिय एयति वेयति जाव परिणमति, सिय णो एयति जाव णो परिणमति / [1 प्र] भगवन् ! क्या परमाणु युद्गल कांपता है, विशेष रूप से कांपता है ? यावत् उस-उस भाव में (विभिन्न परिणामों में) परिणत होता है ? [1 उ.] गौतम ! परमाण पुद्गल कदाचित् कांपता है, विशेष कांपता है, यावत् उस-उस भाव में परिणत होता है; कदाचित् नहीं कांपता, यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होता। 2. [1] दुपदेसिए णं भंते ! खंधे एयति जाव परिणमइ ? गोयमा ! सिय एयति जाव परिणमति, सिय णो एयति जाव णो परिणमति; सिय से एयति, देसे नो एयति / [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या द्विप्रदेशिक स्कन्ध कांपता है, विशेष कांपता है, यावत् उस-उस भाव में परिणत होता है ? [2-1 उ.] हे गौतम ! कदाचित् कम्पित होता है, यावत् परिणत होता है, कदाचित् कम्पित नहीं होता, यावत् परिणत नहीं होता। कदाचित् एक देश (भाग) से कम्पित होता है, एक देश से कम्पित नहीं होता। [2] तिपदेसिए णं भंते ! खंधे एयति ? गोयमा ! सिय एयति 1, सिय नो एयति 2, सिय देसे एयति, नो देसे एयति 3, सिए दसे एयति नो देसा एयंति 4, सिय देसा एयंति नो देसे एयति 5 / ___ [2-2 प्र. भगवन् ! क्या त्रिप्रदेशिक स्कन्ध कम्पित होता है, यावत् परिणत होता है ? [2-2 उ.] गौतम ! कदाचित् कम्पित होता है, कदाचित् कम्पित नहीं होता; कदाचित् एक देश से कम्पित होता है, और एक देश से कम्पित नहीं होता; कदाचित् एक देश से कम्पित होता है, और बहुत देशों से कम्पित नहीं होता; कदाचित् बहुत देशों से कम्पित होता है और एक देश से कम्पित नहीं होता / 1. 'जाव' पद यहाँ 'चलति, दति, खोभति' इन क्रियापदों का सूचक है / Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७ ] [ 479 [3] चउप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयति० ? गोयमा ! सिय एयति 1, सिय नो एयति 2, सिय देसे एयति, जो इसे एयति 3, सिय देसे एयति णो देसा एयंति 4, सिय देसा एयंति नो देसे एयति 5, सिय देसा एयंति नो देसा एयति / [2-3 प्र.] भगवन् ! क्या चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध कम्पित होता है ? 62-3 उ,] गौतम ! कदाचित् कम्पित होता है, कदाचिन् कम्पित नहीं होता; कदाचित् उसका एकदेश कम्पित होता है, कदाचित् एकदेश कम्पित नहीं होता; कदाचित् एकदेश कम्पित होता है, और बहुत देश कम्पित नहीं होते; कदाचित् बहुत देश कम्पित होते हैं और एक देश कम्पित नहीं होता; कदाचित् बहुत देश कम्पित होते हैं और बहुत देश कम्पित नहीं होते। [4] जहा चउप्पदेसिनो तहा पंचपदेसिनो, तहा जाव अणंतपदेसिनो। [2-4] जिस प्रकार चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (प्रत्येक स्कन्ध के लिए) कहना चाहिए। विवेचन-परमाणुपुद्गल और स्कन्धों के कम्पन आदि के विषय में प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र में परमाणुपुद्गल तथा द्विप्रदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध के कम्पन (एजन), विशेष कम्पन, चलन, स्पन्दन, क्षोभण और उस-उस भाव में परिणमन के सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर उसका सैद्धान्तिक अनेकान्तशैली से समाधान किया गया है।' परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक कम्पनादि धर्म-पुद्गलों में कम्पनादि धर्म कादाचित्क हैं। इस कारण परमाणुपुद्गल में कम्पन आदि विषयक दो भंग, द्विप्रदेशिक स्कन्ध में तीन भंग, त्रिप्रदेशिक स्कन्ध में पांच भंग और चतुष्प्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक प्रत्येक स्कन्ध में कम्पनादि के 6 भंग होते हैं। विशिष्ट शब्दों के प्रर्थ-एयति कांपता है। यति = विशेष कांपता है / सिय = कदाचित् / ' परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के विषय में विभिन्न पहलुओं से प्रश्नोत्तर 3. [1] परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा प्रोगाहेज्जा? हंता, प्रोगाहेज्जा। [3-1 प्र] भगवन् ! क्या परमाणु पुद्गल तलवार की धार या क्षुरधार (उस्तरे को धार) पर अवगाहन करके रह सकता है ? [3-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह अवगाहन करके रह सकता है। 1. वियाहपणत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 210-211 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 232 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 // [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] से गं भंते ! तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा? गोतमा ! णो इण8 सम8 नो खलु तत्थ सत्थं कमति / [3-2 प्र.] भगवन् ! उस धार पर प्रवगाहित होकर रहा हुमा परमाणुपुद्गल छिन्न या भिन्न हो जाता है ? [3-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / परमाणुपुद्गल में शस्त्र क्रमण (प्रवेश) नहीं कर सकता। 4. एवं जाव असंखेज्जपएसियो। [4] इसी तरह (द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर) यावत् असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक समझ लेना चाहिए। (निष्कर्ष यह है कि एक परमाणु से असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक किसी भी शस्त्र से छिन्नभिन्न नहीं होता, क्योंकि कोई भी शस्त्र इसमें प्रविष्ट नहीं हो सकता)। 5. [1] अणंतपदेसिए णं भंते ! खंधे प्रसिधारं वा खुरधारं वा प्रोगाहेज्जा ? हंता, प्रोगाहेज्जा। [5-1 प्र. भगवन् ! क्या अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तलवार की धार पर या क्षुरधार पर अवगाह्न करके रह सकता है ? [5-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह रह सकता है / [2] से णं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? गोयमा ! अत्यंगइए छिज्जैज्ज वा भिज्जेज्ज वा, अस्थेगइए नो छिज्जेज्ज वा नो भिज्जेज्ज वा। [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या तलवार की धार को या क्षुरधार को अवगाहित करके रहा हुआ . अनन्तप्रदेशी स्कन्ध छिन्न या भिन्न हो जाता है ? [5-2 उ.] हे गौतम ! कोई अनन्तप्रदेशी स्कन्ध छिन्न या भिन्न हो जाता है, और कोई न छिन्न होता है, न भिन्न होता है। 6. एवं प्रगणिकायस्स मझमझेणं / तहिं गवरं 'झियाएज्जा' माणितन्वं / [6] जिस प्रकार छेदन-भेदन के विषय में प्रश्नोत्तर किये गए हैं, उसी तरह से 'अग्निकाय के बीच में प्रवेश करता है। इसी प्रकार के प्रश्नोत्तर एक परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के कहने चाहिए। किन्तु अन्तर इतना ही है कि जहाँ उस पाठ में सम्भावित छेदन-भेदन का कथन किया है, वहाँ इस पाठ में 'जलता है' इस प्रकार कहना चाहिए। 7. एवं पुक्खलसंवट्टगस्स महामेहस्स मज्झमझेणं / तहि 'उल्ले सिया'। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [481 [7| इसी प्रकार पुष्कर-संवर्तक नामक महामेघ के मध्य में (बीचोंबीच) प्रवेश करता है, इस प्रकार के प्रश्नोत्तर (एक परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के) कहने चाहिए / किन्तु वहाँ सम्भावित 'छिन्न-भिन्न होता है' के स्थान पर यहाँ ‘गोला होता-भीग जाता है,' कहना चाहिए। 8. एवं गंगाए महाण दोए पडिसोतं हव्वमागच्छेज्जा / हि विणिधायमावज्जेज्जा, उदगावत्तं वा उदबिदुवा प्रोगाहेज्जा, से णं तत्थ परियावज्जेज्जा। 8] इसी प्रकार 'गंगा महानदी के प्रतिस्रोत (विपरीत प्रवाह) में वह परमाणुपुद्गल पाता है और प्रतिस्खलित होता है।' इस तरह के तथा 'उदकावर्त या उदक बिन्दु में प्रवेश करता है, और वहाँ वह (परमाणु आदि) विनष्ट होता है,' (इस तरह के प्रश्नोत्तर एक परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक के कहने चाहिए / ) विवेचन--परमाणु पुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से प्रश्नोत्तर-प्रस्तत सत्रों में परमाणपदगल से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के अवगाहन करके रहने, छिन्न-भिन्न होने, अग्निकाय में प्रवेश करने, उसमें जल जाने, पूष्करसंवर्तक महामेघ में प्रवेश करने उसमें भीग जाने, गंगानदी के प्रतिस्रोत में आने तथा उसमें प्रतिस्खलित होने, उदकावर्त या उदकबिन्दु में प्रवेश करने और वहाँ विनष्ट होने के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर, अवगाहन करके रहने और छिन्नभिन्न होने के प्रश्न के उत्तर की तरह ही इन सबके संगत और सम्भावित प्रश्नोत्तरों का अतिदेश किया गया है।' असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक छिन्न-भिन्नता नहीं, अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में कादाचित्क छिन्नभिन्नता-छेदन-दो टुकड़े हो जाने का नाम है और भेदन—विदारण होने या बीच में से चीरे जाने / परमाणपूदगल से लेकर असंख्यप्रदेशी स्कन्ध तक सुक्ष्मपरिणामवाला होने से उसका छेदन-भेदन नहीं हो पाता, किन्तु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध बादर परिणाम वाला होने से वह कदाचित् छेदन-भेदन को प्राप्त हो जाता है, कदाचित् नहीं / इसी प्रकार अग्निकाय में प्रवेश करने तथा जल जाने श्रादि सभी प्रश्नों के उत्तर के सन्बन्ध में छेदन-भेदन प्रादि को तरह होर समझ लेना चाहिए। अर्थात् सभी उत्तरों का स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। परमाणुपुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्ध, समध्य आदि एवं तद्विपरीत होने के विषय में प्रश्नोत्तर-- 6. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सड्ढे समझे सपदेसे ? उदाहु अणड्ढे अमझे अपदेसे ? गोतमा ! अणड्ढे अमज्झे अपदेसे, नो सड्ढे नो समझे नो सपदेसे / [6 प्र. भगवन् ! क्या परमाणु-पुद्गल सार्ध, समध्य और सप्रदेश है, अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? 3. वियाहपण्णत्ति सुत्त, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा-१, पृ. 210-211 4. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 233 का नाम For Private.& Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482] [ पंचम शतक : उद्देशक-७ [6 उ.] गौतम ! (परमाणुपुद्गल) अनार्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है, किन्तु, सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश नहीं है। 10. [1] दुपदेसिए णं भंते ! खंधे कि सम्रद्ध समझे सपदेसे ? उदाह प्रणद्धे प्रमझे प्रपदेसे? गोयमा ! सश्रद्ध अमझे, सपदेसे, जो अणद्ध णो समझे जो अपदेसे / [10-1 प्र.) भगवन् ! क्या द्विप्रदेशिक स्कन्ध साधं, समध्य और सप्रदेश है, अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? [10-1 उ.] गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध सार्ध, अमध्य और सप्रदेश है, किन्तु अनर्ध, समध्य और अप्रदेश नहीं है। [2] तिपदेसिए ण भते ! खंधे 0 पुच्छा। गोयमा ! अणद्ध समझे सपदेसे, नो सप्र णो अमज्झे णो अपदेसे / {10.2 प्र.] भगवन् ! क्या त्रिप्रदेशी स्कन्ध सार्ध, अमध्य और सप्रदेश है, अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश है। [10-2 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध अनर्थ है, समध्य है और सप्रदेश है; किन्तु सार्ध नहीं है, अमध्य नहीं है, और अप्रदेश नहीं है। [3] जहा दुपदेसिनो तहा जे समाते भाणियन्वा। जे विसमा ते जहा तिपएसिश्रो तहा भाणियव्वा / [10-3] जिस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध के विषय में सार्ध आदि विभाग बतलाए गए हैं, उसी प्रकार समसंख्या (बेकी की संख्या) वाले स्कन्धों के विषय में कहना चाहिए। तथा विषमसंख्या एकी--एक की संख्या) वाले स्कन्धों के विषय में त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहे गए अनुसार कहना चाहिए। [4] संखेज्जपदेसिए गं भते ! खंधे कि सगड्ढे 6, पुच्छा? गोयमा ! सिय सप्रद्ध अमाझे सपदेसे, सिय अणड्ढे समझे सपदेसे / [10-4 प्र.] भगवन् ! क्या संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध सार्ध, समध्य और सप्रदेश है, अथवा अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश है ? - [10-4 उ.] गौतम ! वह कदाचित् सार्ध होता है, अमध्य होता है, और सप्रदेश होता है, और कदाचित् अनर्थ होता है, समय होता है और सप्रदेश होता है / [5] जहा संखेज्जपदेसिम्रो तहा असंखेज्जपदेसिनो वि अणंतपदेसिनो वि / [10-5] जिस प्रकार संख्यातप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जान लेना चाहिए। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [483 विवेचन–परमाणुपुदगल से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक के सार्ध, समध्य प्रादि एवं तद्विपरीत होने के विषय में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्रद्वय में परमाणुपुद्गल आदि के सार्थ आदि होने, न होने के विषय में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। फलित निष्कर्ष-परमाणु पुद्गल अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश, होते हैं / परन्तु जो द्विप्रदेशी जैसे समसंख्या (दो, चार, छह, आठ आदि संख्या) वाले स्कन्ध होते हैं, वे सार्थ, अमध्य और सप्रदेश होते हैं, जबकि जो त्रिप्रदेशी जैसे विषम (तीन-पांच, सात, नौ आदि एकी) संख्या वाले स्कन्ध होते हैं वे अनर्ध, समध्य और सप्रदेश होते हैं / इसी प्रकार संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में जो समसंख्यकप्रदेशी होते हैं, वे सार्ध, अमध्य और सप्रदेशी होते हैं, और जो विषमसंख्यक-प्रदेशी होते हैं, वे अनर्द्ध, समध्य और सप्रदेश होते हैं / सार्ध, समध्य, सप्रदेश, अनर्द्ध, अमध्य और प्रप्रदेश-सअड्डे - सार्ध, जिसका बराबर प्राधा भाग हो सके, समझे मध्यसहित-जिसका मध्य भाग हो, सष्पदेसे = जो स्कन्ध प्रदेशयुक्त होता है। प्रणद्ध = जो स्कन्ध अर्धरहित (अनर्द्ध) होता है, अमझे = जिस स्कन्ध के मध्य नहीं होता, और अप्रदेश-प्रदेशरहित / ' परमाणुपुद्गल-द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों की परस्पर स्पर्शप्ररूपरणा 11. [1] परमाणुपोग्गले णं भाते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे कि देसेणं वेसं फुसति 1? देसेणं देसे फुसति 2? देसेणं सव्वं फुसति 3 ? देसेहि देसं फुसति 4 ? देसेहि वेसे फुसति 5 ? सेहि सव्वं फुसति 6 ? सम्वेणं देसं फुसति 7 ? सम्वेणं देसे फुसति 8 ? सव्वेणं सव्वं फुसति है ? गोयमा ! नो देसेणं देसं फुसति, नो देसणं देसे फुसति, नो देसेणं सब्बं फुसति, णो देसेहि देसं फुसति, नो देसेहिं देसे फुसति, नो देसेहि सव्वं फुसति, पो सम्बेणं देसं फुसति, णो सम्वेणं देसे फुसति, सम्वेणं सव्वं फुसति / [11-1 प्र.] भगवन् ! परमाणुपुद्गल, परमाणुपुद्गल को स्पर्श करता हुअा १-क्या एकदेश से एकदेश को स्पर्श करता है ?, २-एकदेश से बहुत देशों को स्पर्श करता है ?, 3. अथवा एकदेश से सबको स्पर्श करता है ?, 4. अथवा बहुत देशों से एकदेश को स्पर्श करता है ?, 5. या बहुत देशों से बहुत देशों को स्पर्श करता है ?, 6. अथवा बहुत देशों से सभी को स्पर्श करता है ?, 7. अथवा सर्व से एकदेश को स्पर्श करता है ?, 8. या सर्व से बहुत देशों को स्पर्श करता है ?, अथवा 6. सर्व से सर्व को स्पर्श करता है ? 11-1 उ.] गौतम ! (परमाणुपुद्गल परमाणपुद्गल को) 1. एकदेश से एकदेश को स्पर्श नहीं करता, 2. एकदेश से बहुत देशों को स्पर्श नहीं करता, 3. एकदेश से सर्व को स्पर्श नहीं करता, 4. बहुत देशों से एकदेश को स्पर्श नहीं करता, 5. बहुत देशों से बहुत देशों को स्पर्श नहीं करता, 6. बहुत देशों से सभी को स्पर्श नहीं करता, 7. न सर्व से एकदेश को स्पर्श करता है, 8. न सर्व से बहुत देशों को स्पर्श करता है, अपितु 6. सर्व से सर्व को स्पर्श करता है / 1. भगवती सूत्र. वत्ति, पत्रांक 233 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] एवं परमाणुपोग्गले दुपदेसियं फुसमाणे सत्तम-णवमेहि फुसति / [11-2] इसी प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता हुआ परमाणु-पुद्गल सातवें (सर्व से एकदेश का) अथवा नौवें (सर्व से सर्व का), इन दो विकल्पों से स्पर्श करता है / [3] परमाणुपोग्गले तिपदेसियं फुसमाणे निप्पच्छिमएहि तिहि फुसति / [11-3] त्रिप्रदेशोस्कन्ध को स्पर्श करता हया परमाणुपुद्गल (उपयुक्त नौ विकल्पों में से) अन्तिम तीन विकल्पों (सातवें, आठवें और नौवें) से स्पर्श करता है / (अर्थात्-७-सर्व से एकदेश को, ८-सर्व से बहुत देशों को और ९-सर्व से सर्व को स्पर्श करता है।) [4] जहा परमाणुपोग्गलो तिपदेसियं कुसाविमो एवं फुसावेयन्वो जाव अणंतपदेसियो / [11-4] जिस प्रकार एक परमाणुपुद्गल द्वारा त्रिप्रदेशीस्कन्ध के स्पर्श करने का पालापक कहा गया है, उसी प्रकार एक परमाणुपुद्गल से चतुष्प्रदेशीस्कन्ध, पंचप्रदेशी स्कन्ध यावत् संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, असंख्यातप्रदेशीस्कन्ध एवं अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक को स्पर्श करने का पालापक कहना चाहिए। (अर्थात्-एक परमाणुपुद्गल अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को तीन विकल्पों से स्पर्श करता है।) 12. [1] दुपदेसिए णं भाते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा ? ततिय-नवमेहि फुसति / [12-1 प्र.) भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध परमाणु पुद्गल को स्पर्श करता हुआ किस प्रकार स्पर्श करता है ? [12-1 उ.] हे गौतम ! (द्विप्रदेशीस्कन्ध परमाणुपुद्गल को) तीसरे और नौवें विकल्प से (अर्थात्-एकदेश से सर्व को, तथा सर्व से सर्व को) स्पर्श करता है। [2] दुपएसियो दुपदेसियं फुसमाणो पढम-तइय-सत्तम-णवमेहि फुसति / [12-2] द्विप्रदेशीस्कन्ध, द्विप्रदेशीस्कन्ध को स्पर्श करता हुआ पहले, तीसरे, सातवें और नौ विकल्प से स्पर्श करता है। [3] दुपएसियो तिपदेसियं फुसमाणो प्रादिल्लएहि य पच्छिल्लएहि य तिहि फुसति, मज्झिमएहि तिहि बि घडिसेहेयव्वं / 12-3] द्विप्रदेशीस्कन्ध, त्रिप्रदेशीस्कन्ध को स्पर्श करता हुआ आदिम तीन (प्रथम, द्वितीय और तृतीय) तथा अन्तिम तीन (सप्तम, अष्टम और नवम) विकल्पों से स्पर्श करता है / इसमें बीच के तीन (चतुर्थ, पंचम और षष्ठ) विकल्पों को छोड़ देना चाहिए। [4] दुपदेसियो जहा तिपदेसियं फुसावितो एवं फुसावेयवो जाव अणंतपदेसियं / Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७ ] [ 455 [12-4] जिस प्रकार द्विप्रदेशीस्कन्ध द्वारा त्रिप्रदेशीस्कन्ध के स्पर्श का पालापक कहा गया है, उसी प्रकार द्विप्रदेशीस्कन्ध द्वारा चतुष्प्रदेशीस्कन्ध, पंचप्रदेशीस्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के स्पर्श का पालापक कहना चाहिए। 1.3. [1] तिपदेसिए णं भते ! खंधे परमाणपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा। ततिय-छट्ठ-नवमेहि फुसति / [13-1 प्र.] भगवन् ! अब त्रिप्रदेशीस्कन्ध द्वारा परमाणुपुद्गल को स्पर्श करने के सम्बन्ध में पृच्छा है। [13-1 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशीस्कन्ध परमाणपुदगल को तीसरे, छठे और नौवें विकल्प से; (अर्थात्-एकदेश से सर्व को, बहुत देशों से सर्व को और सर्व से सर्व को) स्पर्श करता है। [2] तिपदेसियो टुपदेसियं फुसमाणो पढमएणं ततियएणं चउत्थ-छट्ठ-सत्तम-णवमेहि फुसति / [13-2] त्रिप्रदेशी स्कन्ध, द्विप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करता हुआ पहले, तीसरे, चौथे, छठे, सातवें और नौवें विकल्प से स्पर्श करता है। [3] तिपदेसिमो तिपदेसियं फुसमाणो सन्वेसु बिठाणेसु फुसति / {13-3] त्रिप्रदेशीस्कन्ध को स्पर्श करता हुमा त्रिप्रदेशीस्कन्ध पूर्वोक्त सभी स्थानों (नौ ही बिकल्पों) से स्पर्श करता है। [4] जहा तिपदेसिपो तिपदेसियं फुसावितो एवं तिपदेसिनो जाव अणंतपएसिएणं संजोएबच्चो। / जिस प्रकार त्रिप्रदेशोस्कन्ध द्वारा त्रिप्रदेशीस्कन्ध को स्पर्श करने के सम्बन्ध में आलापक कहा गया है, उसी प्रकार त्रिप्रदेशोस्कन्ध द्वारा चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को स्पर्श करने के सम्बन्ध में पालापक कहना चाहिए। तिपदेसियो एवं जाव प्रणंतपएसिश्रो भाणियचो। [13-5] जिस प्रकार त्रिप्रदेशीस्कन्ध के द्वारा स्पर्श के सम्बन्ध में (तेरहवें सूत्र के चार भागों में) कहा गया है, वैसे ही (चतुष्प्रदेशी स्कन्ध से) यावत् (अनन्तप्रदेशीस्कन्ध द्वारा परमाणुपुद्गल से लेकर) अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक को स्पर्श करने के सम्बन्ध में कहना चाहिए। विवेचन-परमाणपुदगल, द्विप्रदेशीस्कन्ध प्रादि को परस्पर स्पर्श-सम्बन्धी प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा परमाणुपुद्गल से लेकर द्विप्रदेशीस्कन्ध, त्रिप्रदेशीस्कन्ध यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध के परस्पर स्पर्श की प्ररूपणा नौ विकल्पों में से अमुक विकल्पों द्वारा की गई है। स्पर्श के नौ विकल्प-(१) एकदेश से एकदेश का स्पर्श, (2) एकदेश से बहत देशों का स्पर्श, (3) एकदेश से सर्व का स्पर्श, (4) बहुत देशों से एक देश का स्पर्श, (5) बहुत देशों से बहुत देशों Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का स्पर्श, (6) बहुत देशों से सर्व का स्पर्श, (7) सर्व से एकदेश का स्पर्श (8) सर्व से बहुत देशों का स्पर्श और (5) सर्व से सर्व का स्पर्श / देश का अर्थ यहाँ भाग है, और 'सर्व' का अर्थ हैसम्पूर्ण भाग / सर्व से सर्व के स्पर्श की व्याख्या सर्व से सर्व को स्पर्श करने का अर्थ यह नहीं है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक हो जाते हैं, परन्तु इसका अर्थ यह है कि दो परमाणु समस्त स्वात्मा द्वारा परस्पर एक दूसरे का स्पर्श करते हैं, क्योंकि दो परमाणुओं में प्राधा आदि विभाग नहीं होते। द्विप्रदेशी और त्रिप्रदेशो स्कन्ध में अन्तर-द्विप्रदेशीस्कन्ध स्वयं अवयवी है, वह किसी का अवयव नहीं है, इसलिए इसमें सर्व से दो (बहुत) देशों का स्पर्श घटित नहीं होता, जबकि त्रिप्रदेशीस्कन्ध में तीन प्रदेशों की अपेक्षा दो प्रदेशों का स्पर्श करते समय एक प्रदेश बाकी रहता है।' द्रव्य-क्षेत्र-भावगत पुद्गलों का काल की अपेक्षा से निरूपरण 14. [1] परमाणुपोग्गले भंते ! कालतो केच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [14-1 प्र.] भगवन् ! परमाणुपुदगल काल की अपेक्षा कब तक रहता है ? [14-1 उ.] गौतम ! परमाणुपुद्गल (परमाणुपुद्गल के रूप में) जघन्य (कम से कम) एक समय तक रहता है, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) असंख्यकाल तक रहता है / [2] एवं जाव अणंतपदेसिनो। [14-2] इसी प्रकार (द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर) यावत् अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक कहना चाहिए। 15. [1] एगपदेसोगाढे णं भंते ! पोग्गले सेए तम्मि वा ठाणे अन्नम्मि वा ठाणे कालनो केवचिरं होइ? गोयमा ! जहन्नेणं एग समय, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जइमागं / [15-1 प्र.] भगवन् ! एक आकाश-प्रदेशावगाढ़ (एक आकाशप्रदेश में स्थित) पुद्गल उस (स्वस्थान में या अन्य स्थान में काल की अपेक्षा से कब तक सकम्प (सेज) रहता है ? [15-1 उ.] गौतम ! (एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्येय भाग तक (उभय स्थानों में) सकम्प रहता है / [2] एवं जाव असंखेज्जपदसोगाढे / [15-2] इसी तरह (द्विप्रदेशावगाढ़ से लेकर) यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ़ तक कहना चाहिए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 234 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [ 487 [3] एगपदेसोगाढे णं भंते ! पोग्गले निरेए कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [15-3 प्र.) भगवन् ! एक प्राकाशप्रदेश में अवगाढ़ पुद्गल काल की अपेक्षा से कब तक निष्कम्प (निरेज) रहता है ? [15-3 उ.] गौतम ! (एक-प्रदेशावगाढ़ पुद्गल) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) असंख्येय काल तक निष्कम्प रहता है / [4] एवं जाव असंखेज्जपदेसोगा। [15-4] इसी प्रकार (द्विप्रदेशावगाढ़ से लेकर) यावत् असंख्येय प्रदेशावगाढ़ तक (के विषय में कहना चाहिए।) 16. [1] एगगुणकालए णं भंते ! पोग्गले कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / [16-1 प्र.] भगवन् ! एकगुण काला पुद्गल काल की अपेक्षा से कब तक (एकगुण काला) रहता है ? [16-1 उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः असंख्येयकाल तक (एकगुण काला पुद्गल रहता है।) [2] एवं जाव अणंतगुणकालए / [16-2} इसी प्रकार (द्विगुणकाले पुद्गल से लेकर) यावत् अनन्तगुणकाले पुद्गल का (पूर्वोक्त प्रकार से) कथन करना चाहिए। 17. एवं वण्ण-गंध-रस-फास. जाव अणंतगुणलुक्खे / [17] इसी प्रकार (एक गुण) वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल के विषय में यावत् अनन्तगुण रूक्ष पुद्गल तक पूर्वोक्त प्रकार से काल की अपेक्षा से कथन करना चाहिए। 18. एवं सुहमपरिणए पोग्गले / [18] इसी प्रकार सूक्ष्म-परिणत (सूक्ष्म-परिणामी) पुद्गल के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 16. एवं बादरपरिणए पोग्गले / ___ [19] इसी प्रकार बादर-परिणत (स्थूल परिणाम वाले) पुद्गल के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 20. सहपरिणते णं भंते ! पुग्गले कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जइभागं / Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20 प्र.) भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गल काल की अपेक्षा से कब तक (शब्दपरिणत) रहता है ? [20 उ.] गौतम ! शब्दपरिणतपुद्गल जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्येय भाग तक रहता है। 21. असहपरिणते जहा एगगुणकालए / [21] जिस प्रकार एकगुण काले पुद्गल के विषय में कहा है, उसी तरह अशब्दपरिणत पुद्गल (की कालावधि) के विषय में (कहना चाहिए। विवेचन-द्रव्य-क्षेत्र-भावगत पुदगलों का काल को अपेक्षा से निरूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने द्रव्यगत, क्षेत्रगत, एवं वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शभावगत पुद्गलों का काल की अपेक्षा से निरूपण किया है। द्रव्य-क्षेत्र-भावगतपुद्गल---प्रस्तुत सूत्रों में 'परमाणुपुद्गल' का उल्लेख करके द्रव्यगत पुद्गल की अोर, एकप्रदेशावगाढ़ आदि कथन करके क्षेत्रगतपुद्गल की ओर, तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श गुणयुक्त, शब्दपरिणत-अशब्दपरिणत, सकम्प-निष्कम्प, एकगुण कृष्ण इत्यादि कथन से भावगत पुद्गल की ओर संकेत किया है। तथा इन सब प्रकार के विशिष्ट पुद्गलों का कालसम्बन्धी अर्थात् पुद्गलों की संस्थितिसम्बन्धी निरूपण है। कोई भी पुद्गल 'अनन्तप्रदेशावगाढ़' नहीं होता, वह उत्कृष्ट असंख्येयप्रदेशावगाढ़ होता है, क्योंकि पुदगल लोकाकाश में ही रहते हैं और लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं / इसी तरह परमाणुपुद्गल उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है, उसके पश्चात् पुद्गलों की एकरूप स्थिति नहीं रहती। विविध पुद्गलों का अन्तरकाल 22. परमाणुपोग्गलस्स णं भते अंतरं कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / [22 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल का काल की अपेक्षा से कितना लम्बा अन्तर होता है ? (अर्थात्-जो पुद्गल अभी परमाणुरूप है उसे अपना परमाणुपन छोड़कर, स्कन्धादिरूप में परिणत होने पर, पुनः परमाणुपन प्राप्त करने में कितने लम्बे काल का अन्तर होता है ?) [22 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्येय काल का अन्तर होता है / 23. [1] दुप्पदेसियस णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं / [22-1 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध का काल की अपेक्षा से कितना लम्बा अन्तर होता है ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 235 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक 7] [489 [23-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का अन्तर होता है ? [2] एवं जाव प्रणंतपदेसिनो। [23-2] इसी तरह (त्रिप्रदेशिकस्कन्ध से लेकर) यावत् अनन्तप्रदेशिकस्कन्ध तक कहना चाहिए / 24. [1] एगपदेसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स सेयस्स अंतरं कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / [24-1 प्र.] भगवन् ! एकप्रदेशावगाढ़ सकम्प पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है ? (अर्थात्-एक अाकाश-प्रदेश में स्थित सकम्प पुद्गल अपना कम्पन बंद करे, तो उसे पुनः कम्पन करने में सकम्प होने में कितना समय लगता है ?) [24-1 उ.] हे गौतम ! जघन्यतः एक समय का, और उत्कृष्टतः असंख्येयकाल का अन्तर होता है / (अर्थात्-वह पुद्गल जब कम्पन करता रुक जाए-अकम्प अवस्था को प्राप्त हो और फिर कम्पन प्रारम्भ करे-सकम्प बने तो उसका अन्तर कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल का है।) [2] एवं जाव प्रसंखेज्जपदेसोगाढे। [24-2] इसी तरह (द्विप्रदेशावगाढ़ सकम्प पुद्गल से लेकर) यावत् असंख्यप्रदेशावगाढ़ तक का अन्तर कहना चाहिए। 25. [1] एगपदेसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स अंतरं कालतो केवचिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जइभागं / [25-1 प्र.] भगवन् ! एकप्रदेशावगाढ निष्कम्प पुद्गल का अन्तर कालतः कितने काल का होता है ? [25-1 उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय का और उत्कृष्टतः श्रावलिका के असंख्येय भाग का अन्तर होता है। [2] एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे / [25-2] इसी तरह (द्विप्रदेशावगाढ निष्कम्प पुद्गल से लेकर) यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ तक कहना चाहिए। 26. वण्ण-गंध-रस-फास-सुहमपरिणय-बादरपरिणयाणं एतेसि जच्चेव संचिटणा तं चेव अंतरं पि भाणियब्वं / _ [26] वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शगत, सूक्ष्म-परिणत एवं बादरपरिणत पुद्गलों का जो संस्थितिकाल (संचिट्ठणाकाल) कहा गया है, वही उनका अन्तरकाल समझना चाहिए। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460] [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 27. सहपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्को सेणं असंखेज्जं कालं / {27 प्र.] भगवन् ! शब्दपरिणत पुद्गल का अन्तर काल को अपेक्षा कितने काल का होता है ? [27 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय का, उत्कृष्टतः असंख्येय काल का अन्तर होता है। 28. असद्दपरिणयस्स गं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जइभागं / [28 प्र. भगवन् ! अशब्दपरिणत पुद्गल का अन्तर कालतः कितने काल का होता है ? [28 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय का और उत्कृष्टतः प्रावलिका के असंख्येय भाग का अन्तर होता है। विवेचन-विविध पुद्गलों का अन्तर-काल-प्रस्तुत सात (सू. 22 से 28 तक) सूत्रों में परमाणपदगल, द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी तक के सामान्य अन्तर-काल तथा सकम्प निष्कम्प वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-सक्ष्म-बादरपरिणत एवं शब्दपरिणत-प्रशब्दपरिणत के विशिष्ट अन्तर काल का निरूपण किया गया है / अन्तरकाल की व्याख्या-एक विशिष्ट पुद्गल अपना वह वैशिष्ट्य छोड़ कर दूसरे रूप में परिणत हो जाने पर फिर वापस उसी भूतपूर्व विशिष्टरूप को जितने काल बाद प्राप्त करता है, उसे ही अन्तरकाल कहते हैं।' क्षेत्रादि-स्थानायु का अल्प-बहुत्व 29. एयस्स णं भंते ! दध्वटाणाउयस्स खेतढाणाउयस्स प्रोगाहणट्ठाणाउयस्स भावट्ठरणाउयस्स कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? __ गोयमा ! सम्वत्थोवे खेत्तट्टाणाउए, प्रोगाहणढाणाउए असंखेज्जगुणे, दबढाणाउए प्रसंखेज्जगुणे, भावढाणाउए असंखेज्जगुणे। खेत्तोगाहण-दव्वे भावट्ठाणाउयं च प्रष्पबहुं / खेत्ते सम्वत्थोवे सेसा ठाणा असंखगुणा // 1 // [29 प्र. भगवन् ! इन द्रव्यस्थानायु, क्षेत्रस्थानायु, अवगाहनास्थानायु और भावस्थानायु; इन सबमें कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है ? / 29 उ.] गौतम ! सबसे कम क्षेत्रस्थानायु है, उससे अवगाहनास्थानायु असंख्येयगुणा है, उससे द्रव्य-स्थानायु असंख्येगुणा है और उससे भावस्थानायु असंख्येयमुणा है / 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 235 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [491 गाथा का भावार्थ-क्षेत्रस्थानायु, अंवगाहना-स्थानायु, द्रव्यस्थानायु और भावस्थानायु; इनका अल्प-बहुत्व कहना चाहिए। इनमें क्षेत्रस्थानायु सबसे अल्प है, शेष तीन स्थानायु क्रमशः असंख्येयगुणा हैं / विवेचन-क्षेत्रादिस्थानायु का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र और तदनुरूप गाथा में क्षेत्र, अवगाहना, द्रव्य और भावरूप स्थानायु के अल्प-बहुत्व को प्ररूपणा की गई है। द्रव्य-स्थानाय प्रादि का स्वरूप-पुद्गल द्रव्य का स्थान--यानी परमाणु, द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध आदि रूप में अवस्थान की आयु अर्थात् स्थिति (रहना) द्रव्यस्थानायु है। एकप्रदेशादि क्षेत्र में पुद्गलों के अवस्थान को क्षेत्रस्थानायु कहते हैं / इसी प्रकार पुद्गलों के प्राधार-स्थलरूप एक प्रकार का प्राकार अवगाहना है, इस अवगाहित किये हुए परिमित क्षेत्र में पुद्गलों का रहना अवगाहनास्थानायु कहलाता है। द्रव्य के विभिन्न रूपों में परिवर्तित होने पर भी द्रव्य के आश्रित गुणों का जो अवस्थान रहता है, उसे भावस्थानायु कहते हैं।' द्रव्यस्थानायु प्रादि के अल्प-बहुत्व का रहस्य-- द्रव्यस्थानायु आदि चारों में क्षेत्र अमूर्तिक होने से तथा उसके साथ पुद्गलों के बंध का कारण 'स्निग्धत्व' न होने से पुद्गलों का क्षेत्रावस्थानकाल (अर्थात्-क्षेत्रस्थानायु) सबसे थोड़ा बताया गया है। एक क्षेत्र में रहा हुआ पुद्गल दूसरे क्षेत्र में चला जाता है, तब भी उसकी अवमाहना वही रहती है, इसलिए क्षेत्रस्थानायु की अपेक्षा अवगाहनास्थानायु असंख्यगुणा है / संकोच-विकासरूप अवगाहना की निवृत्ति हो जाने पर भी द्रव्य दीर्घकाल तक रहता है ; इसलिए अवगाहना-स्थानायु की अपेक्षा द्रव्यस्थानायु असंख्यगुणा है / द्रव्य की निवृत्ति, या अन्यरूप में परिणति होने पर द्रव्य में बहुत से गुणों की स्थिति चिरकाल तक रहती है, सब गुणों का नाश नहीं होता; अनेक गुण अवस्थित रहते हैं, इसलिए द्रव्यस्थानायु की अपेक्षा भावस्थानायु असंख्यगुणा है / चौबीस दण्डकों के जीवों के प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपरणा-- 30. [1] नेरइया णं भंते ! किं सारंभा सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा ! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा णो अपरिग्गहा / / [30-1 प्र] भगवन् ! क्या नैरयिक प्रारम्भ और परिग्रह से सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [30-1 उ.] गौतम ! नैरपिक सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। [2] से केण?णं जाव अपरिगहा ? गोयमा! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्त-प्रचित्त-मोसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति; से तेण?णं तं चेव। 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 236 (ख) भगवती० हिंदी विवेचन, भा. 2, पृ. 883-884 2. (क) भगवती अ. बत्ति, पत्रांक, 236-237 (ख) भगवती० हिन्दी विवेचन, भा. 2, ए. 884 (ग) स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः'-तत्त्वार्थसूत्र न. 5, सू. 32 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [30-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से वे प्रारम्भयुक्त एवं परिग्रह-सहित होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते / [30-2 उ.] गौतम ! नैरयिक पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं, यावत् त्रसकाय का समारम्भ करते हैं, (इसलिए वे आरम्भयुक्त हैं) तथा उन्होंने शरीर परिगृहीत किये (ममत्वरूप से ग्रहण किये-अपनाए हुए हैं, कर्म (ज्ञानावरणीयादिकर्मवर्गणा के पुद्गलरूप द्रव्यकर्म तथा रागद्वेषादिरूप भावकर्म) परिगृहीत किये हुए हैं, और, सचित्त अचित्त एवं मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये (ममत्त्वपूर्वक ग्रहण किये) हुए हैं, इस कारण से हे गौतम ! नरयिक परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। 31. [1] असुरकुमारा णं भंते ! कि सारंमा सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा ! असुरकुमारा सारंभा सपरिगहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। __[31-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार क्या प्रारम्भयुक्त एवं परिग्रह-सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [31-1 उ.] गौतम ! असुरकुमार भी सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। [2] से केण?णं० ? गोयमा ! असुरकुमारा णं पुढविकायं समारंभंति जाब तसकायं समारंभंति, सरोरा परिगहिया भवंति, कम्मा परिगहिया भवंति, मवणा परि० भवंति, देवा देवीग्रो मणुस्सा मणुस्सोमोतिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीनो परिम्गहियानो भवंति, असण-सपण-भंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित्त-प्रचित्त-मीसयाई दब्बाइं परिग्गहियाई भवंति ; से तेण?णं तहेव / / [31-2 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार किस कारण से सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते ? [31-2 उ.] गौतम ! असुरकुमार पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक का समारम्भ करते हैं, तथा उन्होंने शरीर परिगृहीत किये हुए हैं, कर्म परिगृहीत किये हुए हैं, भवन परिगृहीत (ममत्वपूर्वक ग्रहण) किये हुए हैं, वे देव-देवियों, मनुष्य पुरुष-स्त्रियों, तिर्यञ्च नर-मादाओं को परिगृहीत किये हुए हैं, तथा वे अासन, शयन, भाण्ड (मिट्टी के बर्तन या अन्य सामान) मात्रक (बर्तन-कांसो अादि धातुनों के पात्र), एवं विविध उपकरण (कड़ाही, कुड़छी आदि) परिगृहीत किये (ममतापूर्वक संग्रह किये) हुए हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हुए हैं / इस कारण से वे आरम्भयुक्त एवं परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। [3] एवं जाव थणियकुमारा। [31-3] इसी प्रकार (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / 32. एगिदिया जहा नेरइया / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [ 453 [32] जिस तरह नैरयिकों के (सारम्भ-सपरिग्रह होने के) विषय में कहा है, उसी तरह (पृथ्वीकायादि) एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / 33. [1] बेइंदिया णं भंते ! कि सारंभा सपरिग्गहा ? तं चेव जाब सरोरा परिगहिया भवंति, बाहरिया भंडमत्तोषगरणा परि० भवंति, सचित्तअचित्त० जाव भवंति। [33-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या सारम्भ-सपरिग्रह होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [33-1 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव भी प्रारम्भ-परिग्रह से युक्त हैं, वे अनारम्भी-अपरिगृही नहीं हैं। इसका कारण भी वही पूर्वोक्त है। (वे षटकाय का प्रारम्भ करते हैं तथा यावत उन्होंने शरीर परिग्रहीत किये हुए हैं, उनके बाह्य भाण्ड (मिट्टी के बर्तन), मात्रक (कांसे प्रादि धातुओं के पात्र) तथा विविध उपकरण परिगृहीत किये हुए होते हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा. मिश्र द्रव्य भी परिगृहीत किये हुए होते हैं / इसलिए वे यावत् अनारम्भी, अपरिग्रही नहीं होते / [2] एवं जाव चरिदिया। [33-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में कहना चाहिए / 34. पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ? तं चेव जाव कम्मा परिग्गहिया भवति, टंका कूडा सेला सिहरी पाभारा परिम्गहिया भवंति, जल-थल-बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया भवंति, उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल-वप्पिणा परिग्गहिया भवंति, अगड-तडाग-दह-नदोश्रो वावि-पुक्खरिणी-दीहिया गुजालिया सरा सरपंतियानो सरसरपंतियानो बिलपंतियानो परिग्गहियानो भवंति, पाराम-उज्जाणा काणणा वणाई वणसंडाई वणराईयो परिम्गहियानो भवंति, देवउल-सभा-पवा-थूभा खातिय-परिखानो परिग्गहियानो भवंति, पागारट्टालग-चरिया-दार गोपुरा परिग्गहिया भवंति, पासाद-घर-सरण-लेण-प्रावणा परिग्गहिता भवंति, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहा परिगह्यिा भवंति, सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लिथिल्लि-सीय-संदमाणियानो परिगहियात्रो भवंति, लोही-लोहकडाह-कडच्छुया परिग्गहिया भवंति. भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा देवीनो मणुस्सा चित्ताचित्त मणुस्सीमो तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणोप्रो पासण-सयण-खंभ-भंड-सचित्ताचित्त-मोसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति; से तेण?णं० / [34 प्र.] भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यम्योनिक जीव क्या प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त हैं, अथवा प्रारम्भ-परिग्रहरहित हैं ? [34 उ.] गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव, प्रारम्भ-परिग्रह-युक्त हैं, किन्तु आरम्भपरिग्रहरहित नहीं है। क्योंकि उन्होंने शरीर यावत् कर्म परिगृहीत किये हैं / तथा उनके टंक (पर्वत से विच्छिन्न टुकड़ा), कूट (शिखर अथवा उनके हाथी आदि को बांधने के स्थान), शैल (मुण्ड Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पर्वत), शिखरी (चोटी वाले पर्वत), एवं प्राग्भार (थोड़े से झुके पर्वत के प्रदेश) परिगृहीत (ममतापूर्वक ग्रहण किये हुए) होते हैं। इसी प्रकार जल, स्थल, बिल, गुफा, लयन (पहाड़ खोद कर बनाए हुए पर्वतगृह) भी परिगृहीत होते हैं। उनके द्वारा उज्झर (पर्वततट से नीचे गिरने वाला जलप्रपात), निर्भर (पर्वत से बहने वाला जलस्रोत-झरना), चिल्लल (कीचड़ मिला हुआ पानी या जलाशय), पल्लल (प्रल्हाददायक जलाशय) तथा वप्रीग (क्यारियों वाला जलस्थान अथवा तटप्रदेश) परिगृहोत होते हैं। उनके द्वारा कूप, तडाग (तालाब), द्रह (झील या जलाशय), नदी, वापी (चोकोन बावड़ी), पुष्करिणी (गोल बावड़ी या कमलों से युक्त बावड़ी), दीपिका (हौज या लम्बी बावड़ी), सरोवर, सर-पंक्ति (सरोवरश्रेणी), सरसरपंक्ति (एक सरोवर से दूसरे सरोवर में पानी जाने का नाला), एवं बिलपंक्ति (बिलों की श्रेणी) परिग्रहीत होते हैं। तथा आराम (लतामण्डप आदि से सुशोभित परिवार के आमोद-प्रमोद का स्थान), उद्यान (सार्वजनिक बगीचा), कानन (सामान्य वृक्षों से युक्त ग्राम के निकट-वर्ती वन), वन (गाँव से दूर स्थित जंगल), वनखण्ड (एक ही जाति के वृक्षों से युक्त वन), वनराजि (वृक्षों की पंक्ति), ये सब परिगृहीत किये हुए होते हैं। फिर देवकुल (देवमन्दिर), सभा, आश्रम, प्रपा (प्याऊ), स्तंभ (खम्भा या स्तूप), खाई, परिखा (ऊपर और नीचे समान खोदी हुई खाई), ये भी परिगृहीत की होती हैं; तथा प्राकार (किला), अट्टालक (अटारी), या किले पर बनाया हुआ मकान अथवा झरोखा), चरिका (घर और किले के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग), द्वार, गोपुर (नगरद्वार), ये सब परिगृहीत किये होते हैं। इनके द्वारा प्रासाद (देवभवन या राजमहल), घर, सरण (झौंपड़ा), लयन (पर्वतगृह), आपण (दुकान) परिगृहीत किये जाते हैं / शृगाटक (सिंघाड़े के आकार का A त्रिकोण मार्ग), त्रिक (तीन मार्ग मिलते हैं। ऐसा स्थान), चतुष्क (चौक--जहाँ चार मार्ग मिलते हैं); चत्वर (जहाँ सब मार्ग मिलते हों ऐसा स्थान, या प्रांगन), चतुर्मुख (चार द्वारों वाला मकान या देवालय), महापथ (राजमार्ग या चौड़ी सड़क) पारग्रा रथ, यान (सवारी या वाहन), युग्य (युगल हाथ प्रमाण एक प्रकार की पालखी), गिल्ली (अम्बाड़ी), थिल्ली (घोड़े का पलान-काठी), शिविका (पालखी या डोली), स्यन्दमानिका (म्याना या सुखपालकी) आदि परिगृहीत किये होते हैं / लौही (लोहे की दाल-भात पकाने की देगची या बटलोई), लोहे की कड़ाही, कुड़छी आदि चीजें परिग्रहरूप में गृहीत होती हैं। इनके द्वारा भवन (भवनपति देवों के निवासस्थान) भी परिगृहीत होते हैं। (इनके अतिरिक्त) देवदेवियाँ, मनुष्यनर नारियाँ, एवं तिर्यंच नर-मादाएँ, प्रासन, शयन, खण्ड (टुकड़ा), भाण्ड (बर्तन या किराने का सामान) एवं सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य परिग्रहीत होते हैं। इस कारण से ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, किन्तु अनारम्भी-अपरिग्रही नहीं होते / 35. जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियब्वा / [35] जिस प्रकार तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों के (सारम्भ सपरिग्रह होने के) विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। 36. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयम्वा / [36] जिस प्रकार भवनवासी देवों के विषय में कहा, वैसे ही वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के (आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने के) विषय में (सहेतुक) कहना चाहिए / TI Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७ ] [495 विवेचन--चौबीस दण्डकों के जीवों के प्रारम्भपरिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपणाप्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 30 से 36 तक) में नारकों से लेकर वैमानिक तक चौवीस ही दण्डकों के जीवों के आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने को कारणसहित प्ररूपणा विविध प्रश्नोत्तरों द्वारा की गई है। प्रारम्भ और परिग्रह का स्वरूप---प्रारम्भ का अर्थ है- वह प्रवत्ति जिससे किसी भी जीव का उपमर्दन--प्राणहनन होता हो / और परिग्रह का अर्थ है-किसी भी वस्तु या भाव का ममतामूर्छापूर्वक ग्रहण या संग्रह / यद्यपि एके न्द्रिय प्रादि जीव प्रारम्भ करते या परिग्रहयुक्त होते दिखाई नहीं देते, तथापि जब तक जीव द्वारा मन-वचन-काया से स्वेच्छा से आरम्भ एवं परिग्रह का प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं किया जाता, तब तक प्रारम्भ और परिग्रह का दोष लगता ही है, इसलिए उन्हें आरम्भ-परिग्रहयुक्त कहा गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय प्राणियों के भी सिद्धान्तानुसार शरीर, कर्म एवं कुछ सम्बन्धित उपकरणों का परिग्रह होता है, और उनके द्वारा अपने खाद्य, शरीररक्षा आदि कारणों से प्रारम्भ भी होता है। लियंचपंचेन्द्रिय जीवों, मनुष्यों, नारकों, तथा समस्त प्रकार के देवों के द्वारा प्रारम्भ और परिग्रह में लिप्तता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है / यद्यपि मनुष्यों में वीतराग पुरुष, केवली, तथा निग्रन्थ साधुसाध्वी प्रारम्भ-परिग्रह से मुक्त होते हैं, किन्तु यहाँ समग्र मनुष्य जाति की अपेक्षा से मनुष्य को सारम्भ-सपरिग्रह बताया गया है।' विविध अपेक्षानों से पांच हेतु-अहेतुओं का निरूपण 37. पंच हेतू पण्णत्ता, तं जहा-हेतु जाणति, हेतु पासति, हेतु बुज्झति, हेतु अभिसमागच्छति, हेतुं छउमत्थमरणं मरति / [37] पाँच हेतु कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं-(१) हेतु को जानता है, (2) हेतु को देखता (सामान्यरूप से जानता) है, (3) हेतु का बोध प्राप्त करता तात्त्विक श्रद्धान करता है, (4) हेतु का अभिसमागम-अभिमुख होकर सम्यक् रूप से प्राप्त करता है, और (5) हेतुयुक्त छदमस्थमरणपूर्वक मरता है। 38. पंच हेतू पण्णत्ता, तं जहा-हेतुणा जाणति जाव हेतुणा छउमत्थमरणं मरति / [38] पाँच हेतु (प्रकारान्तर से) कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) हेतु (अनुमान) द्वारा (अनुमेय को) सम्यक् जानता है, (2) हेतु (अनुमान) से देखता (सामान्य ज्ञान करता) है; (3) हेतु द्वारा (वस्तु-तत्त्व को सम्यक् जानकर) श्रद्धा करता है, (4) हेतु द्वारा सम्यक्तया प्राप्त करता है, और (5) हेतु (अध्यवसायादि) से छद्मस्थमरण मरता है / 36. पंच हेतू पण्णत्ता, तं जहा हेतुन जाणइ जाव हेतु अण्णाणमरणं मरति / [39] पाँच हेतु (मिथ्यादष्टि की अपेक्षा से) कहे गए हैं। यथा-(१) हेतु को नहीं जानता, (2) हेतु को नहीं देखता (3) हेतु की बोधप्राप्ति (श्रद्धा) नहीं करता, (4) हेतु को प्राप्त नहीं करता, और (5) हेतुयुक्त अज्ञानमरण मरता है / 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 238 (ब) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 216 से 218 तक Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 40. पंच हेतू पण्णत्ता, तं जहा-हेतुणा ण जाणति जाव हेतुणा अण्णाणमरणं मरति / [40] पांच हेतु कहे गए हैं। यथा-(१) हेतु से नहीं जानता, यावन् (5) हेतु से अज्ञानमरण मरता है। 41. पंच आहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउं जाणइ जाव अहे केवलिमरणं मरति / [41] पांच आहेतु कहे गए हैं—(१) अहेतु को जानता है; यावत् (5) अहेतुयुक्त केवलिमरण मरता है। 42. पंच आहेऊ पण्णत्ता, तं जहा–अहेउणा जाणइ जाव अहेउणा केवलिमरणं मरइ। [42] पांच अहेतु कहे गए हैं-(१) अहेतु द्वारा जानता है, यावत् (5) अहेतु द्वारा केवलिमरण मरता है। 43. पंच अहेऊ पण्णत्ता, तं जहा-अहेउं न जाणइ जाव आहेउं छउमत्थमरणं मरइ / [43] पांच अहेतु कहे गए हैं-(१) अहेतु को नहीं जानता, यावत् (5) अहेतुयुक्त छद्मस्थमरण मरता है। 44. पंच आहेऊ पण्णता, तं जहा--अहेउणा न जाणद जाव अहेउणा छउमस्थमरणं मरइ / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // पंचमसए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो / / [44] पांच अहेतु कहे गए हैं--(१) अहेतु से नहीं जानता, यावत् (5) अहेतु से छद्मस्थमरण मरता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कह कर यावत् श्रीगौतमस्वामी विचरण करते हैं / विवेचन-विविध प्रपेक्षानों से पांच हेतु-अहेतुनों का निरूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 37 से 44) द्वारा शास्त्रकार ने भिन्न-भिन्न दृष्टियों से, तथा विभिन्न क्रियाओं की अपेक्षा से पांच प्रकार के हेतुओं और पांच प्रकार के अहेतुओं का तात्त्विक निरूपण किया है। हेतु-अहेतु विषयक सूत्रों का रहस्य–प्रस्तुत आठ सूत्र; हेतु को, हेतु द्वारा; अहेतु को, अहेतु द्वारा इत्यादि रूप से कहे गए हैं। इनमें से प्रारम्भ के चार सूत्र छद्मस्थ की अपेक्षा से और बाद के 4 सूत्र केवली की अपेक्षा से कहे गए हैं / पहले के चार सूत्रों में से पहला-दूसरा सूत्र सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ की अपेक्षा से और तीसरा-चौथा सूत्र मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ की अपेक्षा से है / इन दो-दो सूत्रों में अन्तर यह है कि प्रथम दो प्रकार के व्यक्ति छद्मस्थ होने से साध्य का निश्चय करने के लिए साध्य से अविनाभूत कारण हेतु को अथवा हेतु से सम्यक् जानते हैं, देखते हैं, श्रद्धा करते हैं, साध्यसिद्धि के लिए सम्यक् हेतु प्रयोग करके वस्तुतत्त्व प्राप्त करते हैं, और सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ का मरण हेतुपूर्वक या हेतु से समझ कर होता है, अज्ञानमरण नहीं होता; जबकि आगे के दो Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [ 497 सूत्रों में मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु को सम्यतया नहीं जानता-देखता, न ही सम्यक श्रद्धा करता है, न वह हेतु का सम्यक् प्रयोग करके वस्तुतत्त्व को प्राप्त करता है और मिथ्यादष्टि छद्मस्थ होने के नाते सम्यग्ज्ञान न होने से अज्ञानमरणपूर्वक मरता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु द्वारा सम्यक ज्ञान और दर्शन नहीं कर पाता, न ही हेतु से सम्यक श्रद्धा करता है, न हेतु के प्रयोग से वस्तुतत्त्व का निश्चय कर पाता है, तथा हेतु का प्रयोग गलत करने से अज्ञानमरणपूर्वक ही मृत्यु प्राप्त करता है। इसके पश्चात्-पिछले चार सूत्रों में से दो सूत्रों में केवलज्ञानी की अपेक्षा से कहा गया है कि केवलज्ञानियों को सकलप्रत्यक्ष होने से उन्हें हेतु की अथवा हेतु द्वारा जानने (अनुमान करने) की आवश्यकता नहीं रहती। केवलज्ञानी स्वयं 'अहेतु' कहलाते हैं / अतः अहेतु से ही वे जानते-देखते हैं, अहेतुप्रयोग से ही वे क्षायिक सम्यादृष्टि होते हैं, इसलिए पूर्ण श्रद्धा करते हैं, वस्तुतत्त्व का निश्चय भी अहेतु से करते हैं, और अहेतु से यानी बिना किसी उपक्रम--हेतु से नहीं मरते, वे निरुपक्रमी होने से किसी भी निमित्त से मृत्यु नहीं पाते। इसलिए अहेतु केवलिमरण है उनका / सातवां और पाठवां सूत्र अवधिज्ञानी मनःपर्यायज्ञानी छद्भस्थ की अपेक्षा से है-वे अहेतु व्यवहार करने वाले जीव सर्वथा अहेतु से नहीं जानते, अपितु कथंचित् जानते हैं, कथंचित् नहीं-- जानते-देखते / अध्यवसानादि उपक्रमकारण न होने से अहेतुमरण, किन्तु छद्मस्थमरण (केवलिमरण नहीं होता है।' इन पाठ सूत्रों के विषय में वृत्तिकार अभयदेवसूरि स्वयं कहते हैं-कि "हमने अपनी समझ के अनुसार इन हेतुओं का शब्दश: अर्थ कर दिया है, इनका वास्तविक भावार्थ बहुश्रुत ही जानते हैं।" पंचम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 12. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 239 (ख) 'गमनिकामात्रमेवेदम् अष्टानामपि सूत्राणाम्, भावार्थं तु बहुश्रुता विदन्ति।' -~~-भ. अ. वृत्ति, पत्रांक 239 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : नियंठ अष्टम उद्देशक : निर्ग्रन्थ पुद्गलों की द्रव्यादि की अपेक्षा सप्रदेशता-अप्रदेशता आदि के सम्बन्ध में निर्ग्रन्थीपुत्र और नारदपुत्र की चर्चा 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव परिसा पडिगता। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवान महावीरस्स अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव' विहरति / [1] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर पधारे / परिषद् दर्शन के लिये गई, यावत् धर्मोपदेश श्रवण कर वापस लौट गई। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी (शिष्य) नारदपुत्र नाम के अनगार थे। वे प्रकृतिभद्र थे यावत् प्रात्मा को भावित करते विचरते थे / 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगरओ महावीरस्स अंतेवासी नियंठिपुत्ते णाम प्रणगारे पगति भदए जावर विहरति / [2] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी निर्ग्रन्थीपुत्र नामक अनगार थे / वे प्रकृति से भद्र थे, यावत् विचरण करते थे। 3. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे जेणामेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता नारयपुत्तं अणगारं एवं वदासी-सब्वपोग्गला ते अज्जो ! कि सअड्डा समझा सपदेसा? उदाहु प्रणड्डा समझा अपएसा ? 'प्रज्जो' ति नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वदासी-सव्वपोग्गला मे प्रज्जो ! सअट्टा समझा सपदेसा, नो अणड्ढा अमाझा प्रयएसा। [3 प्र.] एक बार निर्गन्थीपुत्र अनगार, जहाँ नारदपुत्र नामक अनगार थे, वहाँ पाए और उनके पास आकर उन्होंने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार पूछा--(कहा-) हे आर्य! तुम्हारे मतानुसार सब पुद्गल क्या सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, अथवा अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश हैं ? 63 उ. हे आर्य !' इस प्रकार सम्बोधित कर नारदपुत्र अनगार ने निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-आर्य ; मेरे मतानुसार सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं। 1. यहाँ दोनों जगह 'जाब' पद से 'विणीए' इत्यादि पूर्ववणित श्रमण वर्णन कहना चाहिए। 2. यहां 'जाव' शब्द से पूर्वसूचित 'समोस?' तक भगवान् का तथा परिषद् का वर्णन कहना चाहिए। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-८] [ 499 4. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारदपुत्तं अणगारं एवं वदासो-जति णं ते अज्जो ! सम्वपोग्गला सग्रड्ढा समझा सपदेसा, नो अणड्ढा प्रमज्झा अपदेसा; कि दम्बादेसेणं प्रज्जो ! सबपोग्गला सप्रड्ढा समझा सपदेसा, नो अणड्ढा प्रमज्झा अपदेसा ? खेत्तादेसेणं अज्जो ! सव्वपोग्गला सप्रड्ढा समझा सपदेसा? तह चेव / कालादेसेणं 0 तं चेव ? भावादेसेणं अज्जो ! 0 तं चेव ? तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठियुत्तं अणगारं एवं वदासी–दब्वादेसेण वि मे प्रज्जो ! सवपोग्गला सड्ढा समझा सपदेसा, नो अणड्ढा प्रमज्झा अपदेसा; खेत्ताएसेण वि सवपोग्गला सयड्ढा०; तह चेव कालादेसेण वि; तं चैव भावावेसेण वि। [४-प्र.] तत्पश्चात् उन निग्रंन्थीपुत्र अनगार ने नारदपुत्र अनगार से यों कहा-हे आर्य ! यदि तुम्हारे मतानुसार सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं. अनद्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, तो क्या, हे आर्य ! द्रव्यादेश (द्रव्य को अपेक्षा) से वे सर्वपुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं ? अथवा हे आर्य ! क्या क्षेत्रादेश से सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश आदि पूर्ववत हैं ? या कालादेश से सभी पुद्गल उसी प्रकार हैं या भावादेश से समस्त पुद्गल उसी प्रकार हैं ? [४-उ.] तदनन्तर वह नारदपुत्र अनगार, निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार से यों कहने लगे हे आर्य ! मेरे मतानुसार (विचार में), द्रव्यादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध अमध्य और प्रदेश नहीं हैं। क्षेत्रादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध , समध्य आदि उसी तरह हैं, कालादेश से भी वे सब उसी तरह हैं, तथा भावादेश से भी उसी प्रकार हैं / 5. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं प्रणगारं एवं क्यासी–जति णं प्रज्जो ! बव्वादेसेणं सचपोग्गला सड्ढा समझा सपएसा, नो अणड्ढा प्रमझा अपएसा; एवं ते परमाणुपोग्गले वि सड्ढे समझे सपएसे, जो अणड्ढे अमझे अपएसे; जति णं अज्जो! खेत्तादेसेण वि सम्वपोग्गला सन० 3, जाव एवं ते एगपदेसोगाढे वि पोग्गले सड्ढे समज्झे सपदेसे; जति णं प्रज्जो ! कालादेसेणं सबपोग्गला सप्रड्ढा समझा सपएसा; एवं ते एगसमयठितीए वि पोगले 3'; तं चेक जति गं अज्जो! भावादेसेणं सब्वपोग्गला सप्रड्ढा समझा सपएसा 3', एवं ते एगगुणकालए वि पोग्गले सप्रड्ढे 31 तं चेव; अह ते एवं न भवति, तो जं वदति दम्वादेसेण वि सव्वपोग्गला सम०१ 3 नो अणड्ढा अमज्झा प्रपदेसा, एवं खेत्तादेसेण वि, काला०, भावादेसेण वि तं णं मिच्छा। [5 प्र.] इस पर निर्गन्थपुत्र अनगार ने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार प्रतिप्रश्न कियाहे आर्य ! तुम्हारे मतानुसार द्रव्यादेश से सभी पुदगल यदि सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, तो क्या तुम्हारे मतानुसार परमाणुपुद्गल भी इसी प्रकार सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, किन्तु अनर्द्ध, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं ? और हे आर्य ! क्षेत्रादेश से भी यदि सभी पुद्गल सार्द्ध , समध्य और सप्रदेश हैं तो तुम्हारे मतानुसार एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल भी सार्द्ध , समध्य एवं सप्रदेश होने चाहिए ! 1. यहाँ '3' का अंक तथा 'जाव' पद 'सअढा समज्झा सपदेसा' पाठ का सूचक है। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून और फिर हे आर्य ! यदि कालादेश से भी समस्त पुद्गल साद्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, तो तुम्हारे मतानुसार एक समय की स्थिति वाला पुद्गल भी साद्ध, समध्य एवं सप्रदेश होना चाहिए। इसी प्रकार भावादेश से भी हे आर्य ! सभी पुद्गल यदि साद्ध, समध्य और सप्रदेश हैं, तो तदनुसार एकगुण काला पुद्गल भी तुम्हें सार्द्ध, समध्य और सप्रदेश मानना चाहिए / यदि आपके मतानुसार ऐसा नहीं है, तो फिर आपने जो यह कहा था कि द्रव्यादेश से भी सभी पुद्गल सार्द्ध, समध्य और सप्र देश हैं, क्षेत्रादेश से भी उसी तरह हैं, कालादेश से और भावादेश से भी उसी तरह हैं, किन्तु वे अन, अमध्य और अप्रदेश नहीं हैं, इस प्रकार का आपका यह कथन मिथ्या हो जाता है। 6. तए णं से नारयपुत्ते प्रणगारे नियंठिपुत्तं अणगार एवं वदासिनो खलु वयं देवाणुप्पिया! एतम जाणामो पासामो, जति णं देवाणुप्पिया! नो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि गं देवाणुप्पियाणं अंतिए एतम₹ सोच्चा निसम्म जाणित्तए। १६-जिज्ञासा] तब नारदपुत्र अनगार ने निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा-"हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही हम इस अर्थ (तथ्य) को नहीं जानते-देखते (अर्थात्-इस विषय का ज्ञान और दर्शन हमें नहीं है / ) हे देवानुप्रिय ! यदि आपको इस अर्थ के परिकथन (स्पष्टीकरणपूर्वक कहने) में किसी प्रकार की ग्लानि, ऊब या अप्रसन्नता) न हो तो मैं आप देवानुप्रिय से इस अर्थ को सुनकर, अवधारणपूर्वक जानना चाहता हूँ।" 7. तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं प्रणगारं एवं वदासी-दन्वादेसेण वि मे प्रज्जो सत्यपोग्गला सपदेसा वि अपदेसा वि अणंता / खेत्तादेसेण वि एवं चेव / कालादेसेण वि एवं चेव / जे दवतो अपदेसे से खेत्तो नियमा अपदेसे, कालतो सिय सपदेसे सिय अपदेसे, भावनो सिय सपदेसे सिय अपदेसे। जे खेत्तत्रो अपदेसे से दव्वतो सिय सपदेसे सिय अपदेसे, कालतो भयणाए, भावतो भयणाए / जहा खेत्तमो एवं कालतो। भावतो / जे दबतो सपदेसे से खेत्ततो सिय संपदेसे सिय अपदेसे, एवं कालतो भावतो वि / जे खेत्ततो सपदेसे से दवतो नियमा सपदेसे, कालो भयणाए, भावतो भयणाए / जहा दव्वतो तहा कालतो भावतो वि। [७-समाधान] इस पर निन्थीपुत्र अनगार ने नारदपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा (समाधान किया)-हे आर्य ! मेरी धारणानुसार द्रव्यादेश से भी पुद्गल सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं, और वे पुद्गल अनन्त हैं / क्षेत्रादेश से भी इसी तरह हैं, और कालादेश से तथा भावादेश से भी वे इसी तरह हैं / जो पुद्गल द्रव्यादेश से अप्रदेश हैं, वे क्षेत्रादेश से भी नियमत: (निश्चितरूप से) अप्रदेश हैं / कालादेश से उनमें से कोई सप्रदेश होते हैं, कोई अप्रदेश होते हैं और भावादेश से भी कोई सप्रदेश तथा कोई अप्रदेश होते हैं / जो पुद्गल क्षेत्रादेश से अप्रदेश होते हैं, उनमें कोई द्रव्यादेश से सप्रदेश और कोई अप्रदेश होते हैं, कालादेश और भाबादेश से इसी प्रकार की भजना (कोई सप्रदेश और कोई अप्रदेश) जाननी चाहिए। जिस प्रकार क्षेत्र (क्षेत्रादेश) से कहा, उसी प्रकार काल से और भाव से भी कहना चाहिए / जो पुद्गल द्रव्य से सप्रदेश होते हैं, वे क्षेत्र से कोई सप्रदेश और कोई अप्रदेश होते हैं ; इसी प्रकार काल से और भाव से भी वे सप्रदेश और अप्रदेश समझ लेने चाहिए / जो पुद्गल क्षेत्र से सप्रदेश होते हैं; वे द्रव्य से नियमत: (निश्चित हो) सप्रदेश होते हैं, किन्तु काल से Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-८ ] [ 501 तथा भाव से भजना से (विकल्प से-कदाचित् सप्रदेश, कदाचित् अप्रदेश) जानना चाहिए। जैसे (सप्रदेशी पुद्गल के सम्बन्ध में) द्रव्य से (द्रव्य की अपेक्षा से) कहा, वैसे ही काल से (कालादेश से) और भाव (भावादेश) से भी कथन करना चाहिए / 8. एतेसि णं भंते ! योग्गलाणं दव्वादेसेणं खेत्तादेसेणं कालादेसेणं भावादेसेणं सपदेसाण य प्रपदेसाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? नारयपुत्ता ! सव्वथोवा पोग्गला भावादे सेणं अपदसा, कालादे सेणं अपदसा असंखेज्जगुणा, रत्वादेसेणं अपदेसा असंखेज्जगुणा, खेत्तादेसेणं अपदसा प्रसंखेज्जगुणा, खेत्ताद सेणं चेव सपदे सा प्रसंखेज्जगुणा, दव्वाद सेणं सपद सा विसेसाहिया, कालाद सेणं सपदसा विसेसाहिया, भावाद सेणं सपद सा विसेसाहिया। [8 प्र.] हे भगवन् ! (निन्थीपुत्र ! ) द्रव्यादेश से, क्षेत्रादेश से, कालादेश से और भावादेश से, सप्रदेश और अप्रदेश पुद्गलों में कौन किन से कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [उ.] हे नारदपुत्र ! भावादेश से अप्रदेश पुद्गल सबसे थोड़े हैं। उनकी अपेक्षा कालादेश से अप्रदेश पुद्गल असंख्येयगुणा हैं; उनको अपेक्षा द्रव्यादेश से अप्रदेश पुद्गल असंख्येयगुणा हैं और उनकी अपेक्षा भी क्षेत्रादेश से अप्रदेश पुद्गल असंख्येयगुणा हैं। उनसे क्षेत्रादेश से सप्रदेश पुद्गल असंख्यातगुणा हैं, उनसे द्रव्यादेशेन सप्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं, उनसे कालादेशेन सप्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं और उनसे भी भावादेशेन सप्रदेश पुद्गल विशेषाधिक हैं / 6. तए णं से. नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं बंदइ नमसइ, नियंठिपुत्तं अणगारं वंदित्ता नमंसित्ता एतम सम्म विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेति, २त्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / __[6] इसके पश्चात् (यह सुन कर) नारदपुत्र अनगार ने निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार को वन्दन नमस्कार किया। उन्हें (निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार को) वन्दन-नमस्कार करके उनसे इस (अपनी कही हुई मिथ्या) बात के लिए सम्यक् विनयपूर्वक-बार-बार उन्होंने क्षमायाचना को। इस प्रकार क्षमायाचना करके वे (नारदपुत्र अनगार) संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। विवेचन-द्रव्यादि की अपेक्षा पुद्गलों को सप्रदेशता-प्रप्रदेशता के सम्बन्ध में निर्गन्योपुत्र और नारदपुत्र अनगार को चर्चा प्रस्तुत : सूत्रों में भगवान महावीर के ही दो शिष्यों-निर्ग्रन्थीपुत्र और नारदपुत्र के बीच द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से सर्वपुद्गलों को सार्द्धता-अनर्द्धता, समध्यता-अमध्यता और सप्रदेशता-अप्रदेशता के सम्बन्ध में हुई मधुर चर्चा का वर्णन किया गया है।' द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादेश का स्वरूप-द्रव्य की अपेक्षा परमाणुत्व आदि का कथन करना द्रव्यादेश, एकप्रदेशावगाढत्व इत्यादि का कथन करना क्षेत्राद श; एक समय की स्थिति आदि का कथन कालादश और एकगुण काला इत्यादि कथन भावादेश कहलाता है। दूसरे शब्दों में द्रव्यादि की अपेक्षा क्रमशः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावादेश का अर्थ है / 2 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 219 से 221 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 241 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 899 Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्रदेश-अप्रदेश के कथन में सार्द्ध अनर्द्ध और समध्य-प्रमध्य का समावेश–निर्ग्रन्थीपुत्र अनगार ने यद्यपि सप्रदेश-अप्रदेश का ही निरूपण किया है, किन्तु सप्रदेश में सार्द्ध और समध्य का, तथा अप्रदेश में अनर्द्ध और अमध्य का ग्रहण कर लेना चाहिए।' - द्रव्यादि की अपेक्षा पुद्गलों को प्रप्रदेशता के विषय में जो पुद्गल द्रव्य से अप्रदेशपरमाणुरूप है, वह पुद्गल क्षेत्र से एकप्रदेशावगाढ़ होने से नियमत: अप्रदेश है / काल से वह पुद्गल यदि एक समय की स्थिति वाला है तो अप्रदेश है और यदि वह अनेक समय की स्थिति वाला है तो सप्रदेश है / इस तरह भाव से एकगुण काला आदि है तो अप्रदेश है, और अनेकगुण काला आदि है तो सप्रदेश है। जो पुद्गल क्षेत्र को अपेक्षा अप्रदेश (एकक्षेत्रावगाढ़) होता है, वह द्रव्य से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है; क्योंकि क्षेत्र (आकाश) के एक प्रदेश में रहने वाले द्वयणुक आदि सप्रदेश हैं, किन्तु क्षेत्र से वे अप्रदेश हैं; तथैव परमाणु एक प्रदेश में रहने वाला होने से द्रव्य से अप्रदेश है. वैसे ही क्षेत्र से भी अप्रदेश है / जो पुद्गल क्षेत्र से अप्रदेश है, वह काल से कदाचित् अप्रदेश और कदाचित् सप्रदेश इस प्रकार होता है / जैसे-कोई पुद्गल क्षेत्र से एकप्रदेश में रहने वाला है, वह यदि एक समय की स्थिति वाला है तो कालापेक्षया अप्रदेश है, किन्तु यदि वह अनेक समय की स्थिति वाला है तो कालापेक्षया सप्रदेश है / जो पुद्गल क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश है, यदि वह अनेकगुण काला आदि है तो भाव की अपेक्षा अप्रदेश है, किन्तु यदि वह अनेकगुण काला आदि है तो क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेश होते हुए भी भाव की अपेक्षा सप्रदेश है / क्षेत्र से अप्रदेश पुद्गल के कथन की तरह काल और भाव से भी कथन करना चाहिए / यथा- जो पुद्गल काल से अप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और भाव से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है। तथा जो पुद्गल भाव से अप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और काल से कदाचित् सप्रदेश होता है, और कदाचित् अप्रदेश / द्रव्यादि की अपेक्षा पुद्गलों की सप्रदेशता के विषय में जो पुद्गल द्वयणकादिरूप होने से द्रव्य से सप्रदेश होता है, वह क्षेत्र से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है, क्योंकि वह यदि दो प्रदेशों में रहता है तो सप्रदेश है और एक ही प्रदेश में रहता है तो अप्रदेश है। इसी तरह काल से और भाव से भी कहना चाहिए / आकाश के दो या अधिक प्रदेशों में रहने वाला पुद्गल क्षेत्र से सप्रदेश है, वह द्रव्य से भी सप्रदेश ही होता है; क्योंकि जो पुद्गल द्रव्य से अप्रदेश होता है, वह दो आदि प्रदेशों में नहीं रह सकता / जो पुद्गल क्षेत्र से सप्रदेश होता है, वह काल से और भाव से कदाचित् सप्रदेश होता है, कदाचित् अप्रदेश होता है / जो पुद्गल काल से सप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और भाव से कदाचित् सप्रदेश होता है, कदाचित् अप्रदेश होता है / ___ जो पुद्गल भाव से सप्रदेश होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से और काल से कदाचित् सप्रदेश और कदाचित् अप्रदेश होता है / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 241 (ख) भगवती सूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 900 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 241 से 243 तक (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 900-901 Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-] सप्रदेश-प्रप्रदेश पुद्गलों का अल्प-बहुत्व-सबसे थोड़े एक गुणकाला आदि भाव से अप्रदेशी पुद्गल हैं, उनसे असंख्यात गुणा हैं—एक समय की स्थितिवाले-काल से प्रप्रदेशी पुदगल / उनसे असंख्यातगुणा हैं-समस्त परमाणु पुद्गल, जो द्रव्य से अप्रदेशी पुद्गल हैं, उनसे भी असंख्यात गुणे हैं-क्षेत्र से अप्रदेशो पुद्गल, जो एक-एक प्राकाशप्रदेश के अवगाहन किये हुए हैं। उनसे भी असंख्यातगुणे हैं-क्षेत्र से सप्रदेशी पुद्गल, जिनमें द्विप्रदेशावगाढ़ से लेकर असंख्येयप्रदेशावगाढ़ आते हैं / उनसे द्रव्य से सप्रदेशी पुद्गल–अर्थात-द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के पुद्गल विशेषाधिक हैं। उनसे काल से सप्रदेशी पुद्गल-दो समय की स्थिति वाले से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल विशेषाधिक हैं / उनसे भी भाव से सप्रदेशी पुद्गल-दो गुण काले यावत् अनन्तगुणकाले पुद्गल आदि विशेषाधिक हैं।' संसारी और सिद्ध जीवों की वृद्धि हानि और अवस्थिति एवं उनके कालमान की प्ररूपरणा 10. भंते !' ति भगवं गोतमें समणं जाव एवं वदासी-जीवा णं भंते ! कि वड्डंति, हायंति, प्रवटिया ? गोयमा ! जीवा णो वड्दति, नो हायंति, प्रवद्विता / [10 प्र.] 'भगवन् !' यों कह कर भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यावत् इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या जीव बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ? [10 उ.] गौतम ! जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहते हैं / 11. नेरतिया णं भंते ! कि बड्ढंति, हायंति, अद्विता ? गोयमा ! नेरइया वड्ढेति वि, हायंति वि, अवडिया वि। [11 प्र. भगवन् ! क्या नैरयिक बढ़ते हैं, घटते हैं. अथवा अवस्थित रहते हैं ? [11 उ.] गौतम ! नैरयिक बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। 12. जहा नेरइया एवं जाव वेमाणिया / [12] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, इसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त (चौबीस ही दण्डकों के जीवों के विषय में) कहना चाहिए। 13. सिद्धाणं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा बड्ढेति, नो हायंति, अवद्विता वि / [13 प्र.] भगवन् ! सिद्धों के विषय में मेरी पृच्छा है (कि वे बढ़ते हैं, घटते हैं या अवस्थित रहते हैं ?) 1. (क) भगवती० अ. वृत्ति, पत्रांक 243 (ख) भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 901 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13 उ.] गौतम ! सिद्ध बढ़ते हैं, घटते नहीं, वे अविस्थत भी रहते हैं / 14. जीवाणं भंते ! केवतियं कालं प्रवद्विता ? गोयमा ! सम्बद्ध। [14 प्र.] भगवन् ! जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? [14 उ.] गौतम ! सर्वाद्धा (अर्थात्-सब काल में जीव अवस्थित ही रहते हैं)। चौबीस दण्डकों की वृद्धि, हानि और अवस्थित कालमान की प्ररूपरणा 15. [1] नेरतिया णं भंते ! केवतियं कालं वड्ढंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभागं / [15-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक बढ़ते हैं ? [15-1 उ.] गौतम ! नैर यिक जीव जघन्यतः एक समय तक, और उत्कृष्टतः प्रावलिका के असंख्यात भाग तक बढते हैं / [2] एवं हायंति। [15-2] जिस प्रकार बढ़ने का काल कहा है, उसी प्रकार घटने का काल भी (उतना ही) कहना चाहिए। [3] नेरइया गं भंते ! केवतियं कालं अवटिया ! गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता / [15-3 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? [15-3 उ.] गौतम ! (नैरयिक जीव) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त तक (अवस्थित रहते हैं / ) [4] एवं सत्तसु वि पुढवीसु 'वड्ढंति, हायंति' भाणियध्वं / नवरं प्रवद्वितेसु इमं नाणत्तं, तं जहा–रयणप्पभाए पुढवीए अडतालीसं मुहुत्ता, ' सक्करप्पभाए चोद्दस राइंदियाई, वालुयप्पभाए मासं, पंकप्पभाए दो मासा, धूमप्पभाए चत्तारि मासा, तमाए अट्ठ मासा, तमतमाए बारस मासा / [15-4] इसी प्रकार सातों नरक-पृथ्वियों के जीव बढ़ते हैं, घटते हैं, किन्तु अवस्थित रहने के काल में इस प्रकार भिन्नता है / यथा-रत्नप्रभापृथ्वी में 48 मुहूर्त का, शर्कराप्रभापृथ्वी में चौबीस अहोरात्रि का, बालुकाप्रभापृथ्वी में एक मास का, पंकप्रभा में दो मास का, धूमप्रभा में चार मास का, तमःप्रभा में पाठ मास का और तमस्तमःप्रभा में बारह मास का अवस्थान-काल है / 1. रत्नप्रभा आदि में उत्पाद-उद्वर्तन-विरहकाल 24 मुहूर्त आदि बताया गया है, उसके लिए देखें-प्रज्ञापना सूत्र का छठा व्युत्क्रान्ति पद ।सं. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-८ ] [ 505 16. [1] असुरकुमारा वि वढंति हायंति, जहा नेरइया / अवट्ठिता जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्टचालीसं मुहुत्ता। 616-1] जिस प्रकार नैरयिक जीवों की वृद्धि हानि के विषय में कहा है, उसी प्रकार असुरकुमार देवों की वृद्धि-हानि के सम्बन्ध में समझना चाहिए। असुरकुमार देव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट 48 मुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। _[2] एवं दसविहा वि / / [16-2] इसी प्रकार दस ही प्रकार के भवनपतिदेवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति का कथन करना चाहिए। 17. एगिदिया वड्ढंति वि, हायंति वि, प्रवदिया वि / एतेहि तिहि वि जहन्नेणं एक्कं समयं, उनकोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं / [17] एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। इन तीनों (वृद्धि-हानि-अवस्थिति) का काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टः आवलिका का असंख्यातवां भाग (समझना चाहिए।) 18. [1] बेइंदिया बड्ढंति हायंति तहेव अवट्ठिता जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं बो अंतोमुत्ता। [18-1] द्वीन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार बढ़ते-घटते हैं / इनके अवस्थान-काल में भिन्नता इस प्रकार है-ये जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो अन्तमुहूर्त तक अवस्थित रहते हैं। [2] एवं जाव चतुरिदिया। [15-2] द्वीन्द्रिय की तरह त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों तक (का वृद्धि हानि-अवस्थितिकाल) कहना चाहिए। 16. प्रवसेसा सव्वे वड्ढंति, हायति तहेव / अवट्ठियाणं णाणतं इम, तं जहा—सम्मुच्छिम. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुत्ता / गब्भवक्कतियाणं चउन्बीसं महत्ता / सम्मुच्छिममणुस्साणं अटुचत्तालीसं मुहुत्ता। गब्भवतियमणुस्साणं चउब्बीसं मुहुत्ता। वाणमंतर-जोतिस-सोहम्मोसाणेसु अट्टचत्तालीसं मुहुत्ता। सर्णकुमारे अट्ठारस रातिदियाई चत्तालोस य मुहुत्ता / माहिद चउबीसं रातिदियाई, वीस य मुहुत्ता। बंभलोए पंच चत्तालोसं रातिदियाई। संतए न उति रातिदियाई / महासुक्के स? रातिदियसतं / सहस्सारे दो रातिदियसताइ / आणघ-पाणयाणं संखेज्जा मासा / प्रारणऽच्चुयाणं संखेज्जाइं वासाइं / एवं गेवेज्जगदेवाणं / विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं असंखिज्जाईवाससहस्साई। सम्वसिद्ध य पलिग्रोवमस्स संखेज्जतिभागो / एवं भाणिय-वड्दति हायति जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभाग; अवढियाणं जं भणियं / Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16] शेष सब जीव (तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव), बढ़ते-घटते हैं, यह पहले की तरह ही कहना चाहिए / किन्तु उनके अवस्थान-काल में इस प्रकार भिन्नता है, यथा-सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का (अवस्थानकाल) दो अन्तमुहूर्त का; गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योतिकों का चौबीस मुहूर्त का, सम्मूच्छिम मनुष्यों का 48 मुहूर्त का, गर्भज मनुष्यों का चौबीस महतं का. बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देवों का 48 महतं का, सनत्कुमार देव का अठारह महोरात्रि तथा चालीस महत का अवस्थानकाल है। माहेन्द्र देवलोक के देवों का चौबीस रात्रिदिन और बीस मुहूर्त का, ब्रह्मलोकवर्ती देवों का 45 रात्रिदिवस का, लान्तक देवों का 60 रात्रिदिवस का, महाशुक्र-देवलोकस्थ देवों का 160 अहोरात्रि का, सहस्रारदेवों का दो सौ रात्रिदिन का, आनत और प्राणत देवलोक के देवों का संख्येय मास का, पारण और अच्युत देवलोक के देवों का संख्येय वर्षों का अवस्थान-काल है। इसी प्रकार नौ ग्रैवेयक देवों के (अवस्थान-काल के) विषय में जान लेना चाहिए / विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासी देवों का अवस्थानकाल असंख्येय हजार वर्षों का है / तथा सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी देवों का अवस्थानकाल पल्योपम का संख्यातवाँ भाग है। और ये सब जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट प्रालिका के असंख्यातवें भाग तक बढ़तेघटते हैं। इस प्रकार कहना चाहिए, और इनका अवस्थानकाल जो ऊपर कहा गया है, वही है / 20. [1] सिद्धा णं मते ! केवतियं कालं बड्दति ? गोयमा! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ट समया / [20-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक बढ़ते हैं ? [20-1 उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टत: पाठ समय तक सिद्ध बढ़ते हैं। [2] केवतियं कालं प्रवादिया? गोयमा ! जहन्नेणं एककं समय, उक्कोसेणं छम्मासा / [20-2 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? [20-2 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध अवस्थित रहते हैं। विवेचन-संसारी और सिद्ध जीवों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति एवं उनके काल-मान को प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 10 से 20 तक) में समस्त जीवों की वृद्धि, हानि एवं अवस्थिति तथा इनके काल-मान की प्ररूपणा की गई है। वद्धि, हानि और अवस्थिति का तात्पर्य कोई भी जीव जब बहुत उत्पन्न होते हैं और थोड़े मरते हैं, तब 'वे बढ़ते हैं, ऐसा व्यपदेश किया जाता है, और जब वे बहुत मरते हैं और थोड़े उत्पन्न होते हैं, तब वे घटते हैं।' ऐसा व्यपदेश किया जाता है। जब उत्पत्ति और मरण समान संख्या में होता है, अर्थात्-जितने जीव उत्पन्न होते हैं, उतने ही मरते हैं, अथवा कुछ काल तक जीव का जन्म-मरण नहीं होता, तब यह कहा जाता है कि वे अवस्थित हैं।' Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-८ ] [ 507 उदाहरणार्थ-नैरयिक जीवों का प्रवस्थान काल 24 मुहूर्त का कहा गया है / वह इस प्रकार समझना चाहिए-सातों नरकपृथ्वियों में 12 मुहर्त तक न तो कोई जीव उत्पन्न होता है, और न ही किसी जीव का मरण (उद्वर्तन) होता है। इस प्रकार का उत्कृष्ट विरहकाल होने से इतने समय तक नरयिक जीव अवस्थित रहते हैं। तथा दसरे 12 महर्त तक जितने जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, उतने ही जीव वहाँ से मरते हैं, यह भी नैरयिकों का अवस्थानकाल है तात्पर्य यह है कि 24 मुहूर्त तक नैरयिकों को (हानि-वृद्धिरहित) एक परिमाणता होने से उनका प्रवस्थानकाल 24 मुहर्त का कहा गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अवस्थानकाल उत्कृष्ट दो अन्तमुहर्त्त का बताया गया है। एक अन्तर्मुहूर्त तो उनका विरहकाल है। विरहकाल अवस्थानकाल से प्राधा होता है। इस कारण दूसरे अन्तर्मुहूर्त में वे समान संख्या में उत्पन्न होते और मरते हैं। इस प्रकार इनका अवस्थानकाल दो अन्तर्मुहूर्त का हो जाता है।' सिद्ध पर्याय सादि अनन्त होने से उनकी संख्या कम नहीं हो सकती, परन्तु जब कोई जोव नया सिद्ध होता है तब वृद्धि होती है। जितने काल तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता उतने काल तक सिद्ध अवस्थित (उतने के जतने) ही रहते हैं। संसारी एवं सिद्ध जीवों में सोपचयादि चार भंग एवं उनके कालमान का निरूपण 21. जीवा णं भते ! कि सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया ? गोयमा ! जीवा णो सोवचया, नो सावचया, णो सोवचय सावचया, निरुव चयनिरवचया। [21 प्र.] भगवन् ! क्या जीव सोपचय (उपचयसहित) हैं, सापचय (अपचयसहित) हैं, सोपचय-सापचय (उपचय-अपचयसहित) हैं या निरुपचय (उपचयरहित)-निरपचय (अपचयरहित) हैं ? [21 उ.] गौतम ! जीव न सोपचय हैं, और न ही सापचय हैं, और न सोपचय-सापचय हैं, किन्तु निरुपचय-निरपचय हैं / 22. एगिदिया ततियपद, सेसा जोवा च उहि वि पदेहि भाणियन्वा / [22] एकेन्द्रिय जीवों में तीसरा पद (विकल्प-सोपचय-सापचय) कहना चाहिए / शेष सब जीवों में चारों ही पद (विकल्प) कहने चाहिए। 23. सिद्धाणं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा सोवचया, णो सावचया, णो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया / [23 प्र.] भगवन् ! क्या सिद्धः भगवान् सोपचय हैं, सापचय हैं, सोपचय-सापचय हैं या निरुपचय-निरपचय हैं ? 1. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 245 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 911-912 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508] [व्याख्याप्राप्ति सूत्र [23 उ.] गौतम ! सिद्ध भगवान् सोपचय हैं, सापचय नहीं हैं, सोपचय-सापचय भी नहीं हैं, किन्तु निरुपचय-निरपचय हैं / 24. जीवाणं भंते ! केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? गोयमा ! सव्वद्ध। [24 प्र.] भगवन् ! जीव कितने काल तक निरुपचय-निरपचय रहते हैं ? [24 उ.] गौतम ! जीव सर्वकाल तक निरुपचय-निरपचय रहते हैं / 25. [1] रतिया णं भंते ! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणे प्रावलियाए प्रसंखेज्जइभागं / [25-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? [25-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्येय भाग तक नैरयिक सोपचय रहते हैं। [2] केवतियं कालं सावचया ? एवं चेव। [25-2 प्र.] भगवन् ! नैरपिक कितने काल तक सापचय रहते हैं ? [25-2 उ.] (गौतम ! ) उसी प्रकार (सोपचय के पूर्वोक्त कालमानानुसार) सापचय का काल जानना चाहिए। [3] केवतियं कालं सोवचयसावचया ? एवं चेव / [25-3 प्र.] और वे सोपचय-सापचय कितने काल तक रहते हैं ? [25-3 उ.] (गौतम ! ) सोपचय का जितना काल कहा है, उतना ही सोपचय-सापचय का काल जानना चाहिए। [4] केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहत्ता। [25.4 प्र.] नैरयिक कितने काल तक निरुपचय-निरपचय रहते हैं ? [25-4 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक निरुपचय-निरपचय रहते हैं। 26. एगिदिया सवे सोवचयसावचया सम्बद्ध / [26] सभी एकेन्द्रिय जीव सर्व काल (सर्वदा) सोपचय-सापचय रहते हैं। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-८] [501 27. सेसा सव्वे सोवचया वि, सावचधा वि, सोवनयसावचया वि, निरुवचयनिरवचया वि जहन्नेणं एग समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए प्रसंखेजतिभागं प्रवटिहि वक्कंतिकालों' भाणियन्यो। [27] शेष सभी जीव सोपचय भी हैं, सापचय भी हैं, सोपचय-सापचय भी हैं और निरुपचय-निरपचय भी हैं। इन चारों का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रालिकाका असंख्यातवाँ भाग है / अवस्थितों (निरुपचय-निरपचय) में व्युत्क्रान्तिकाल (विरहकाल) के अनुसार कहना चाहिए। 28. [1] सिद्धा गं भंते ! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया / [28-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? [28-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक वे सोपचय रहते हैं। [2] केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / सेवं भते! सेवं भते ! ति० / // पंचमसए : प्रमो उद्देसो॥ [28-2 प्र.] और सिद्ध भगवान्, निरुपचय-निरपचय कितने काल तक रहते हैं ? [28-2 उ.] (गौतम ! ) वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक निरुपचयनिरपचय रहते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे। विवेचन-संसारी और सिद्ध जीवों में सोपचयादि चतुर्भग एवं उनके काल-मान का निरूपणप्रस्तुत पाठ सूत्रों में समुच्चयजीवों, तथा चौबीस दण्डकों व सिद्धों में सोपचयादि के अस्तित्व एवं उनके कालमान का निरूपण किया गया है। सोपचयादि चार भंगों का तात्पर्य-सोपचय का अर्थ है-वृद्धिसहित / अर्थात्-पहले के जितने जीव हैं, उनमें नये जीवों की उत्पत्ति होती है, उसे सोपचय कहते हैं। पहले के जीवों में से कई जीवों के मर जाने से संख्या घट जाती है, उसे सापचय (हानिसहित) कहते हैं / उत्पाद और उद्वर्तन (मरण) द्वारा एक साथ वृद्धि-हानि होती है, उसे सोपचय-सापचय (वृद्धिहानिसहित) कहते हैं, उत्पाद और उद्वर्तन के अभाव से वृद्धि हानि न होना ‘निरुपचय-निरपचय' कहलाता है। - - -.-..-...--.. 1. व्युत्क्रान्ति (विरह) काल के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए 'प्रज्ञापनासूत्र' का छठा 'व्युत्क्रान्ति पद' देखना चाहिए।—सं. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शंका-समाधान—इस प्रकरण से पूर्व सूत्रों में उक्त वृद्धि, हानि और अवस्थिति के ही समानार्थक क्रमशः उपचय, अपचय और सोपचयापचय शब्द हैं, फिर भी इन नये सूत्रों की आवश्यकता इसलिए है कि पूर्वसूत्रों में जीवों के परिमाण का कथन अभीष्ट है, जबकि इन सूत्रों में परिमाण की अपेक्षा बिना केवल उत्पाद और उद्वर्तन इष्ट है। तथा तीसरे भंग में वृद्धि, हानि और अवस्थिति इन तीनों का समावेश हो जाता है।' पंचम शतक : प्रष्टम उद्देशक समाप्त। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 245 (ख) भगवती० हिन्दी विवेचन, भा. 2, पृ. 912-913 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'रायगिह' नवम उद्देशक : 'राजगृह' राजगृह के स्वरूप का तात्त्विक दृष्टि से निर्णय 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव' एवं वयासी--- [1] उस काल और उस समय में""यावत् गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा 2. [1] किमिद भते ! 'नगरं रायगिहं' ति पवुच्चति ? कि पुढवी 'नगरं रायगिह' ति पच्चति ? पाऊ 'नगरं रायगिह' ति पच्चति ? जाव' वणस्सती ? जहा एयणुद्देसए चिदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तब्वता तहा भाणियव्वं नाव सचित्त-अचित्त-मीसयाई दवाई नगरं रागिह ति पच्चति ? गोतमा ! पुढवी वि 'नगरं रायगिह ति पवुच्चति जाव सचित्त-अचित्त-मोसियाई दवाई 'मगरं रायगिह' ति पवुच्चति / [2-1 प्र.] भगवन् ! यह 'राजगृह' नगर क्या है क्या कहलाता है ? क्या पृथ्वी राजगृह नगर कहलाता है ?, अथवा क्या जल राजगृहनगर कहलाता है ? यावत् वनस्पति क्या राजगृहनगर कहलाता है ? जिस प्रकार 'एजन' नामक उद्देशक (पंचम शतक के सप्तम उद्देशक) में पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनि जीवों को (परिग्रह-विषयक) वक्तव्यता कही गई है, क्या उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए ? (अर्थात्-क्या 'कूट' राजगृह नगर कहलाता है ? शैल राजगृह नगर कहलाता है ? इत्यादि); यावत् क्या सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य, (मिलकर) राजगृह नगर कहलाता है ? [2-1 उ.] गौतम ! पृथ्वी भी राजगृहनगर कहलाती है, यावत् सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य (सब मिलकर) भी राजगृहनगर कहलाता है। [2] से केण?णं० ? गोयमा! पुढवी जीवा ति य अजीवा ति य 'नगरं रायगिह' ति पवुच्चति जाव सचित्त 1. 'जाव' शब्द से यहाँ पूर्वसूचित भगवद्वर्णन, नगर-वर्णन, समवसरण-वर्णन एवं परिषद् के आगमन-प्रतिगमन का वर्णन कहना चाहिए। 2. यहाँ 'जान' शन्द 'तेउ-बाउ' पदों का सूचक है। 3. पाँचवें शतक के 7 व उद्देशक (एजन) में वर्णित तिर्यकपञ्चेन्द्रिय वक्तव्यता में टंका, कडा, सेला ग्रादि पदों को यहाँ कहना चाहिए। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रचित्त-मीसियाई दवाई जीवा ति य अजीवा ति य 'नगरं रायगिह' ति पणुच्चति, से तेण?णं तं चेव / [2-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से (पृथ्वी को राजगृहनगर कहा जाता है, "यावत् सचित्त अचित्त-मिश्र द्रव्यों को राजगृहनगर कहा जाता है ?) [2-2 उ.] गौतम ! पृथ्वी जीव-(पिण्ड) है और अजीव-(पिण्ड) भी है, इसलिए यह राजगृह नगर कहलाती है, यावत् सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य भी जीव हैं, और अजीव भी हैं, इसलिए ये द्रव्य (मिलकर) राजगृहनगर कहलाते हैं / हे गौतम ! इसी कारण से पृथ्वी आदि को राजगृहनगर कहा जाता है / विवेचन-राजगृह के स्वरूप का निर्णय : तात्त्विक दृष्टि से-श्री गौतमस्वामी ने प्रायः बहुत से प्रश्न श्रमण भगवान् महावीर से राजगृह में पूछे थे, भगवान् के बहुत-से विहार भी राजगृह में हुए थे / इसलिए नौवें उद्देशक के प्रारम्भ में राजगह नगर के स्वरूप के विषय में तात्त्विक दृष्टि से पूछा गया है। . निष्कर्ष-चूकि पृथ्वी आदि के समुदाय के बिना तथा राजगह में निवास करने वाले मनुष्य पशु-पक्षी आदि के समूह के बिना 'राजगृह' शब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अतः राजगह जीवाजीव रूप है।' चौबीस दण्डक के जीवों के उद्योत-अन्धकार के विषय में प्ररूपरणा-~ 3. [1] से नणं भ ते दिया उज्जोते, राति अंधकारे ? हंता गोयमा ! जाव अंधकारे / [3-1 प्र.] हे भगवन् ! क्या दिन में उद्योत (प्रकाश) और रात्रि में अन्धकार होता है ? [3-1 उ.] हाँ. गौतम ! दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है। / 2] से केपट्टणं०? गोतमा ! दिया सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरिणामे, रति असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे, से तेण?णं० / [4-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ? [3-2 उ.] गौतम ! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं अर्थात् शुभ पुद्गल-परिणाम होते हैं, किन्तु रात्रि में अशुभ पुद्गल अर्थात् अशुभपुद्गल-परिणाम होते हैं / इस कारण से दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है / 4. [1] नेरइयाणं भंते ! कि उज्जोए, अंधकारे ? गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए, अंधयारे / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 246 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-९ [ 513 [4-1 प्र.] भगवन् ! नरयिकों के (निवासस्थान में) उद्योत होता है, अथवा अन्धकार होता है ? [4-1 उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों के (स्थान में) उद्योत नहीं होता, (किन्तु) अन्धकार होता है। [2] से केणढणं० ? गोतमा ! नेरइयाणं असुभा पोग्गला, असुभे पोग्गलपरिणामे, से तेण?णं० / [4-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से नैरयिकों के (स्थान में) उद्योत नहीं होता, अन्धकार होता है ? [4-2 उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों के अशुभ पुद्गल और अशुभ पुद्गल परिणाम होते हैं, इस कारण से वहाँ उद्योत नहीं, किन्तु अन्धकार होता है / 5. [1] असुरकुमाराण मते ! कि उज्जोते, अंधकारे ? गोयमा ! असुरकुमाराणं उज्जोते, नो अंधकारे / [5-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के क्या उद्योत होता है, अथवा अन्धकार होता है ? {5.1 उ.] गौतम ! असुरकुमारों के उद्योत होता है, अन्धकार नहीं होता / [2] से केपट्ठणं? गोतमा ! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला, सुभे पोग्गलपरिणामे, से तेण?णं एवं बुच्चतिः / [5-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है (कि असुरकुमारों के उद्योत होता है, अन्धकार नहीं ?) [5-2 उ] गौतम ! असुरकुमारों के शुभ पुद्गल या शुभ परिणाम होते हैं। इस कारण से कहा जाता है कि उनके उद्योत होता है, अन्धकार नहीं होता। [3] एवं जाव' थणियाणं / [5-3] इसी प्रकार (नागकुमार देवों से लेकर) स्तनितकुमार देवों तक के लिए कहना चाहिए / 6. पुढदिकाइया जाव तेइंदिया जहा नेरइया / [6] जिस प्रकार नैरयिक जीवों के (उद्योत-अन्धकार के) विषय में कथन किया, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर त्रीन्द्रिय जीवों तक के विषय में कहना चाहिए / 1. 'जाव' पद नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक का सूचक है। 2. यहाँ जाव पद पृथ्वीकायादि पाँच स्थावर से लेकर द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय जीवों तक का सूचक है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. [1] चरिदियाणं भते ! कि उज्जोते, अंधकारे ? गोतमा ! उज्जोते वि, अंधकारे वि। [7-1 प्र.) भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों के क्या उद्योत है अथवा अन्धकार है ? [7-1 उ.] गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी है, अन्धकार भी है। [2] से कणद्वैगं० ? गोतमा ! चतुरि दियाणं सुभाऽसुभा पोग्गला, सुभाऽसुभे पोग्गलपरिणामे, से तेण8० / [7-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से चतुरिन्द्रिय जीवों के उद्योत भी है, अन्धकार भी है ? [7-2 उ.] गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ (दोनों प्रकार के) पुद्गल होते हैं, तथा शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाम होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है, कि उनके उद्योत भी है और अन्धकार भी है। 8. एवं जाव' मणुस्साणं / [8] इसी प्रकार (तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय और) यावत् मनुष्यों तक के लिए कहना चाहिए / 6. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा प्रसुरकुमारा। [9] जिस प्रकार असुरकुमारों के (उद्योत-अन्धकार) के विषय में कहा, उसी प्रकार बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन-चौबीस दण्डक के जीवों के उद्योत-अन्धकार के विषय में प्ररूपणा - प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 3 से 6 तक) में नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक के उग्रोत और अन्धकार के सम्बन्ध में कारण-पूर्वक सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है। उद्योत और अन्धकार के कारण : शुभाशुभ पुद्गल एवं परिणाम-क्यों और कैसे ?शास्त्रकार ने दिन में शुभ और रात्रि में अशुभ पुद्गलों का कारण प्रकाश और अन्धकार बतलाया है, इसके पीछे रहस्य यह है कि दिन में सूर्य की किरणों के सम्पर्क के कारण पुद्गल के परिणाम शुभ होते हैं, किन्तु रात्रि में सूर्यकिरण-सम्पर्क न होने से पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है। नरकों में पुद्गलों की शुभता के निमित्तभूत सूर्यकिरणों का प्रकाश नहीं है, इसलिए वहाँ अन्धकार है / पृथ्वीकायिक से लेकर त्रीन्द्रिय तक के जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में हैं, और उन्हें सूर्यकिरणों आदि का सम्पर्क भी है, फिर भी उनमें अन्धकार कहा है, उसका कारण यह है कि उनके चक्षुरिन्द्रिय न होने से दृश्य वस्तु दिखाई नहीं देती, फलत: शुभ पुद्गलों का कार्य उनमें नहीं होता, उस अपेक्षा से उनमें अशुभ पुद्गल हैं; अत: उनमें अन्धकार ही है। चतुरिन्द्रिय जीवों से लेकर मनुष्य तक में शुभाशुभ दोनों पुद्गल होते हैं, क्योंकि उनके आँख होने पर भी जब रविकिरणादि का सद्भाव होता है, तब दृश्य पदार्थों के ज्ञान में निमित्त होने से उनमें शुभ पुद्गल होते हैं, किन्तु 1. यहाँ 'जाव' पद से तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों का ग्रहण करना चाहिए। . Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-९ ] [ 515 रविकिरणादि का सम्पर्क नहीं होता, तब पदार्थज्ञान का अजनक होने से उनमें अशुभ पुद्गल होते हैं। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के रहने के प्राश्रय (स्थान) आदि की भास्वरता के कारण वहाँ शुभ पुद्गल हैं, अतएव अन्धकार नहीं उद्योत है।' चौबीस दण्डकों में समयादि काल-ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपरणा-- 14. [1] अस्थि णं भाते ! नेरइयाणं तत्थगयाणं एवं पण्णायति, तं जहा--समया ति वा प्रावलिया ति वा जावर प्रोसप्पिणी ति वा उस्सपिणी ति बा ? णो इग? सम?। [10-1 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ (नरकक्षेत्र में) रहे हुए नैयिकों को इस प्रकार का प्रज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) होता है, जैसे कि-(यह) समय (है), पावलिका (है), यावत् (यह) उत्सपिणी काल (या) अवपिणी काल (है) ? [10-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात्-वहाँ रहे हुए नैरयिक जीवों को समयादि का प्रज्ञान नहीं होता / ) [2] से केण?णं जाब समया ति वा प्रावलिया ति वा जाव प्रोसप्पिणी ति वा उस्सप्पिणी तिवा? गोयमा ! इह तेसि माणं, इह तेसि पमाणं, इहं तेसि एवं पण्णायति, तं जहा–समया ति वा जाव उस्सप्पिणी ति वा / से तेगणं जाव नो एवं पण्णायति, तं जहा--समया ति वा जाव उस्सप्पिणी तिवा। [10-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से नरकस्थ नैरयिकों को समय, आवलिका, यावत् उत्सपिणी-अवपिणों काल का प्रज्ञान नहीं होता ? [10-2 उ.] गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) समयादि का मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ (मनुष्य क्षेत्र में) उनका (समयादि का) ऐसा प्रज्ञान होता है कि यह समय है, यावत् यह उत्सपिणीकाल है, (किन्तु नरक में न तो समयादि का मान है, न प्रमाण है और न ही प्रज्ञान है।) इस कारण से कहा जाता है कि नरकस्थित नैरयिकों को इस प्रकार से समय, आवलिका यावत् उत्सपिणी-अवसर्पिणी-काल का प्रज्ञान नहीं होता। 11. एवं जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं / [11] जिस प्रकार नरकस्थित नैरयिकों के (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहा गया है; 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 2. यहाँ 'जाव' पद से लव, स्तोक, मूहर्त, दिवस, मास इत्यादि समस्त काल-विभागसूचक अवसर्पिणीपर्यन्त शब्दों का कथन करना चाहिए। 3. 'जाव' पद यहाँ समग्र प्रश्न बाक्य पुनः उच्चारण करने का सूचक हैं / Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसी प्रकार (भवनपति देवों, स्थावर जीवों, तीन विकलेन्द्रियों से ले कर) यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों तक के लिए कहना चाहिए। 12. [1] अस्थि णं मते ! मणुस्साणं इहगताणं एवं पण्णायति, तं जहा—समया ति वा जाव उस्सप्पिणी ति बा? हता, अस्थि / [12-1 प्र.) भगवन् ! क्या यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए मनुष्यों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है कि (यह) समय (है,) अथवा यावत् (यह) उत्सर्पिणीकाल (है) ? [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! (यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान) होता है / [2] से केण? गं० ? गोतमा ! इह तेसि माणं, इह तेसि पमाणं, इहं चेव तेसि एवं पण्णायति, तं जहा-समया ति वा जाय उस्सपिणी ति वा / से तेणढणं० / [12-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? [12-2 उ.] गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) उनका (समयादि का) मान है. यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ उनको उनका (समयादि का) इस प्रकार से प्रज्ञान होता है, यथा-यह समय है, या यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है / इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान होता है / 13. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [13] जिस प्रकार नरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वागव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के (समयादिप्रज्ञान के) विषय में कहना चाहिए। विवेचन–चौबीस दण्डक के जीवों में समयादिकाल के ज्ञानसम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तत चार सूत्रों (सू.१० से 13 तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में से कहाँ-कहाँ किन-किन जीवों को समयादि का ज्ञान नहीं होता, किनको होता है ? और किस कारण से ? यह निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-चौबीस दण्डक के जीवों में से मनुष्यलोक में स्थित मनुष्यों के अतिरिक्त मनुष्यलोकबाह्य किसी भी जीव को समय प्रावलिका आदि का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वहाँ समयादि का मानप्रमाण नहीं होता है / समयादि की अभिव्यक्ति सूर्य की गति से होती है और सूर्य की गति मनुष्यलोक में ही है, नरकादि में नहीं। इसीलिए यहां कहा गया है कि मनुष्यलोक स्थित मनुष्यों को हो समयादि का ज्ञान होता है। मनुष्यलोक से बाहर समयादि कालविभाग का व्यवहार नहीं होता। यद्यपि मनुष्यलोक में कितने ही तियंच-पंचेन्द्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर, और ज्योतिष्कदेव हैं, तथापि वे स्वल्प हैं और कालविभाग के अव्यवहारी हैं, साथ ही मनुष्यलोक के बाहर वे बहुत हैं / अतः उन Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [517 बहुतों की अपेक्षा से यह कहा गया है कि पंचेन्द्रियतिर्यच, भवनपति, वागव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव समय आदि कालविभाग को नहीं जानते / ' मान और प्रमाण का अर्थ-समय, प्रालिका आदि काल के विभाग हैं। इनमें अपेक्षाकृत सूक्ष्म काल 'मान' कहलाता है, और अपेक्षाकृत प्रकृष्ट काल 'प्रमाण' / जैसे—'मुहूर्त' मान है, मुहूर्त की अपेक्षा सूक्ष्म होने से 'लव' 'प्रमाण' है। लव की अपेक्षा स्तोक' प्रमाण है और स्तोक की अपेक्षा 'लव' मान है / इस प्रकार से 'समय' तक जान लेना चाहिए।' पाश्वपित्य स्थविरों द्वारा भगवान से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं पंचमहाव्रत धर्म में समर्पण 14. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वदासी से नणं भते ! असंखेज्जे लोए, अणंता रातिदिया उपज्जिसु वा उप्पज्जंति वा उपज्जिस्संति वा?, विर्गाच्छसु वा विगच्छंति वा विच्छिस्संति वा ?, परित्ता रातिदिया उपज्जिसु वा उप्पज्जति वा उप्पज्जिस्संति वा ? विगच्छिंसु वा 3 ? हंता, प्रज्जो ! असंखेज्जे लोए, अणंता रातिदिया० तं चेव / [14-1 प्र.] उस काल और उस समय में पापित्य (पार्श्वनाथ भगवान के सन्तानीय शिष्य) स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पाए। वहाँ आ कर बे श्रमण भगवान् महावीर से अदूरसामन्त (अर्थात्-न बहुत दूर और न बहुत निकट; अपितु यथायोग्य स्थान पर खड़े रह कर इस प्रकार पूछने लगे-भगवन् ! असंख्य लोक में क्या अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित (नियत परिमाण वाले) रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? [14-1 उ.] हाँ, पार्यो ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप सारा पाठ कहना चाहिए। [2] से केण?णं जाव विगच्छिस्संति वा ? से नूणं भे प्रज्जो ! पासेणं प्ररहया पुरिसादाणीएणं "सासते लोए वुइते अणादीए प्रणवदग्गे परित्ते परिवडे; हेट्ठा वित्थिण्णे, माझे संखित्ते, उपि विसाले, अहे पलियंकसंठिते, मज्झे बरवइरविगहिते, उप्पि उद्धमइंगाकारसंठिते / तसि च णं सासयंसि लोगंसि प्रणादियंसि प्रणवदग्गंसि परित्तसि परिचुडंसि हेढा वित्थिण्णंसि, मज्झे संखितंसि, 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 (ख) 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके', 'तत्कृतः कालविभागः,' 'बहिरवस्थिताः' तत्वार्थ सूत्र अ. 4 सू. 14-15-16 / 2. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 247 Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518] . | व्याख्याप्रप्तिसूत्र उपि विसालसि, अहे पलियंकसंठियंसि, माझे वरवइरविहियंसि, उपि उद्धमइंगाकारसंठियंसि प्रणता जीवघणा उपज्जित्ता उपज्जिता निलीयंति, परिता जीवघणा उपज्जित्ता उपज्जित्ता निलीयंति / से भूए उत्पन्ने विगते परिणए अजोवेहि लोक्कति, पलोक्कइ / जे लोक्कइ से लोए ? 'हंता, भगवं !' / से तेण?णं प्रज्जो! एवं वुच्चति असंखेज्जे तं चेव / [14-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे? [14-2 उ. हे पार्यो ! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय (पुरुषों में ग्राह्य), अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है। इसी प्रकार लोक को अनादि, अनवदन (अनन्त), परिमित, अलोक से परिवृत (घिरा हुग्रा), नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, और ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है। उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवधन उत्पन्न हो-हो कर नष्ट होते हैं और परित्त (नियत = असंख्य) जीवघन भी उत्पन्न हो-हो कर विनष्ट होते हैं। इसीलिए हो तो यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है। यह, अजीवों (अपनी सत्ता को धारण करते, नष्ट होते, और विभिन्न रूपों में परिणत होते लोक के अनन्यभूत पुद्गलादि) से लोकित-निश्चित होता है, तथा यह (भूत आदि धर्म वाला लोक) विशेषरूप से लोकित-निश्चित होता है। 'जो (प्रमाग से) लोकित-अवलोकित होता है, वही लोक है न ?' (पार्वापत्य स्थविर-) हाँ, भगवन् ! (वही लोक है / ) इसी कारण से, हे पार्यो ! ऐसा कहा जाता है कि असंख्य लोक में (अनन्त रात्रिदिवस"""""यावत् परिमित रात्रि-दिवस यावत् विनष्ट होंगे।) इत्यादि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। [3] तप्पमिति च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति 'सव्वष्णु सव्वदरिसि। [14-3] तब से वे पापित्य स्थविर भगवन्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामो को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जानने लगे। 15. [1] तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, 2 एवं वदासीइच्छामो णं भते ! तुम्भं अंतिए चाउज्जामाप्रो धम्मालो पंचमहब्बइयं सप्पडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जिताणं वितरित्तए। [15-1] इसके पश्चात् उन (पाश्र्वापत्य) स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके वे इस प्रकार बोले-'भगवन् चातुर्याम धर्म के बदले हम आपके समीप प्रतिक्रमण सहित पंचमहाव्रतरूप धर्म को स्वीकार करके विचरण करना चाहते हैं। 1. यहाँ 'लोक' के पूर्वसचित समग्र विशेषण कहने चाहिए / Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [519 [2] 'महासुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंधं करेह / ' [15-2 भगवान्-] 'देवानुप्रियो ! जिस प्रकार आपको सुख हो, वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध (शुभ कार्य में ढील या रुकावट) मत करो।' 16. तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जाव' चरिमेहि उस्सासनिस्सासेहि सिद्धा जावरे सव्वदुक्खष्पहीणा, प्रत्थेगइया देवा दे क्लोगेसु उववन्ना। [16] इसके पश्चात् वे पाश्र्वापत्य स्थविर भगवन्त,....."यावत् अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास के साथ सिद्ध हुए यावत् सर्वदुःखों से प्रहीया (मुक्त-रहित) हुए और (उनमें से) कई (स्थविर) देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हुए। विवेचन-पाचपत्य स्थविरों द्वारा भगवान से लोक-सम्बन्धी शंका-समाधान एवं पंचमहाव्रतधर्म में समर्पण प्रस्तुत तीन सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने पार्श्वनाथशिष्य स्थविरों के भगवान् महावीर के पास लोक सम्बन्धी शंका के समाधानार्थ आगमन से लेकर उनके सिद्धिगमन या स्वर्गगमन तक का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। पापित्य स्थविरों द्वारा कृत दो प्रश्नों का प्राशय-(१) स्थविरों द्वारा पूछे गए प्रथम प्रश्न का आशय यह है कि जो लोक असंख्यात प्रदेशवाला है, उसमें अनन्त रात्रि-दिवस (काल), कैसे हो या रह सकते हैं ? क्योंकि लोकरूप आधार असंख्यात होने से छोटा है और रात्रिदिवसरूप प्राधेय अनन्त होने से बड़ा है। अतः छोटे आधार में बड़ा आधेय कैसे रह सकता है ? (2) दूसरे प्रश्न का प्राशय यह है कि जब रात्रिदिवस (काल) अनन्त हैं, तो परित्त कैसे हो सकते हैं ? भगवान द्वारा दिये गए समाधान का प्राशय उपयुक्त दोनों प्रश्नों के समाधान का प्राशय यह है-एक मकान में हजारों दीपकों का प्रकाश समा सकता है, वैसे ही तथाविधस्वभाव होने से असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्त जीव रहते हैं। वे जीव, साधारण शरीर की अपेक्षा एक ही स्थान में, एक ही समय में, प्रादिकाल में अनन्त उत्पन्न होते हैं और अनन्त ही विनष्ट होते हैं। उस समय वह समयादिकाल साधारण शरीर में रहने वाले अनन्तजीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है, तथैव प्रत्येक शरीर में रहने वाले परित्त (परिमित) जीवों में से प्रत्येक जीव में विद्यमान है। क्योंकि वह समयादि काल में जीवों की स्थिति पर्यायरूप है। इस प्रकार काल अनन्त भी हया और परित्त भी हुया / इसी कारण से कहा गया----असंख्यलोक में रात्रिदिवस अनन्त भी हैं, परित भी / इसी प्रकार तीनों काल में हो सकता है। लोक अनन्त भी है, परित्त भी; इसका तात्पर्य भगवान् महावीर ने अपने पूर्वज पुरुषों में माननीय (आदानीय) तीर्थकर पाश्वनाथ के मत का ही विश्लेषण करते हुए बताया कि लोक शाश्वत एवं प्रतिक्षण स्थिर भी है और उत्पन्न, विगत (विनाशी) एवं परिणामी (निरन्वय विनाशी नहीं किन्तु विविधपर्यायप्राप्त) भी है / वह अनादि होते हुए भी अनन्त है। अनन्त (अन्तरहित) होते हुए भी प्रदेशों की अपेक्षा से परित्त (परिमित–प्रसंख्येय) है / 1. 'जाव' पद से यहाँ निर्वाणगामी मुनि का वर्णन करना चाहिए / 2. 'जाब' पद से यहाँ 'बुद्धा परिनिवडा' आदि पद कहने चाहिए / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाद Frti साल अनन्त जीवधन और परित्त जीवघन–अनन्त जीवघन का अर्थ है-परिमाण से अनन्त अथवा जीवसन्तति की अपेक्षा अनन्त / जीवसंतति का कभी अन्त क्ष्मादि साधारण शरीरों की अपेक्षा तथा संतति की अपेक्षा जीव अनन्त हैं / वे अनन्तपर्याय-समूहरूप होने से तथा असंख्येयप्रदेशों का पिण्डरूप होने से घन कहलाते हैं / ये हुए अनन्त जीवधन / तथा प्रत्येक शरीर वाले भूत भविष्यत्काल की संतति की अपेक्षा से रहित होने से पूर्वोक्तरूप से परित्त जीवधन कहलाते हैं / चूकि अनन्त और परित्त जीवों के सम्बन्ध से रात्रि-दिवसरूप कालविशेष भी अनन्त और परित्त कहलाता है / इसलिए अनन्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रिदिवसरूप कालविशेष भी अनन्त हो जाता है और परित्त जीवरूप लोक के सम्बन्ध से रात्रिदिवसरूप कालविशेष भी परित्त हो जाता है। अतः इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है।' चातुर्याम एवं सप्रतिक्रमण पंचमहावत में अन्तर–सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और बहिद्धादान का त्याग चातुर्याम धर्म है, और सर्वथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरमण पंचमहाव्रत धर्म है। बहिद्धादान में मैथन और परिग्रह दोनों का समावेश हो जाता है / इसलिए इन दोनों प्रकार के धर्मों में विशेष अन्तर नहीं है / भरत और ऐरवत क्षेत्र के 24 तीर्थकरों में से प्रथम प्रौर अन्तिम तीर्थंकरों के सिवाय बीच के 22 तीर्थंकरों के शासन में तथा महाविदेह क्षेत्र में चातुर्याम प्रतिक्रमणरहित (कारण होने पर प्रतिक्रमण) धर्म प्रवृत्त होता है, किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासन में सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म प्रवृत्त होता है / १७–काबिहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता ? गोयमा ! चाउम्विहा देवलोगा पणत्ता, तं जहा-भवणवासी-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियभएणं / भवणवासी बसविहा, बाणमंतरा अट्टविहा, जोइसिया पंचविहा, वेमाणिया दुविहा / [17 प्र. भगवन् ! देवगण कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [17 उ.] गौतम ! देवगण चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से (चार प्रकार होते हैं / ) भवनवासी दस प्रकार के हैं / वाणव्यन्तर आठ प्रकार के हैं, ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं और वैमानिक दो प्रकार के हैं। विवेचन देवलोक और उसके भेव-प्रभेदों का निरूपण—प्रस्तुत सूत्र में देवगण के मुख्य चार प्रकार और उनमें से प्रत्येक के प्रभेदों का निरूपण किया गया है। देवलोक का तात्पर्य-प्रस्तुत प्रसंग में देवलोक का अर्थ देवों का निवासस्थान या देवक्षेत्र 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 248-249 (ख) भगवती हिन्दी विवेचन भा. 2 पृ. 925 2. (क) भगवती हिन्दी विवेचन भा. 2 पृ. 927, (ख) भगवती. अ. वत्ति. पत्रांक 249 (ग) सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स पच्छिमस्स य जिणस्स / मज्झिमगाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं / (घ) मूल पाठ के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर एवं अर्हत् पार्श्वनाथ एक हो परम्परा के तीर्थकर हैं, यह तथ्य पावपित्य स्थविरों को ज्ञात न था। इसी कारण प्रथम साक्षात्कार में वे भगवान महावीर के पास प्राकर वन्दना-नमस्कार किये बिना अथवा विनय भाव व्यक्त किये बिना ही उनसे प्रश्न पूछते हैं। --जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा. 1 पृ. 197 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम शतक : उद्देशक-९] [ 521 नहीं, अपितु देव-समूह या देवनिकाय हो यथोचित है; क्योंकि यहां प्रश्न के उत्तर में देवलोक के भेद न बताकर देवों के भेद-प्रभेद बताए हैं / तत्वार्थसूत्र में देवों के चार निकाय बताए गए हैं।' ___भवनवासी देवों के दस भेद - 1. असुरकुमार, 2. नागकुमार, 3. सुवर्ग (सुपर्ण)कुमार, 4. विद्युत्कुमार, 5. अग्निकुमार, 6. द्वीपकुमार, 7. उदधिकुमार, 8. दिशाकुमार, 9. पवनकुमार और 10. स्तनितकुमार। वाणव्यन्तर देवों के पाठ भेद-किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच / ज्योतिष्क देवों के पांच भेद-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे / वैमानिक देवों के दो भेद-कल्पोपपन्न और कल्पातीत / पहले से लेकर बारहवें देवलोक तक के देव 'कल्पोपपन्न' और उनसे ऊपर नौ ग्रेवेयक एवं पंच अनुत्तरविमानवासी देव 'कल्पातीत' कहलाते हैं। किमियं रायगिह ति य, उज्जोए अंधकार-समए य / पासंतिवासि-पुच्छा, राइंदिय देवलोगा य।। उद्देशक की संग्रह-गाथा [18 गाथार्थ] राजगृह नगर क्या है ? दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार क्यों होता है ? समय प्रादि काल का ज्ञान किन जीवों को होता है, किनको नहीं ? रात्रि-दिवस के विषय में पार्वजिनशिष्यों के प्रश्न और देवलोकविषयक प्रश्न ; इतने विषय इस नौवें उद्देशक में कहे गए हैं। // पंचम शतक : नवम उद्देशक समाप्त // 1. (क) 'देवाश्चतुनिकायाः' तत्त्वार्थसूत्र अ. 4 सु. 1 2. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4 सू. 11, 12, 13, 17-18 (ख) भगवती. (हिंदी विवेचन) भा. 2, पृ. 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 929 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'चंपाचं दिमा' दशम उद्देशक : 'चम्पा-चन्द्रमा' [1] तेणं कालेणं तेणं समाएणं चंपा णाम गियरी, जहा पढिमिल्लो उद्देसनो तहा यवो एसो वि, गवरं चंदिमा भाणियन्वा / [1] उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। जैसे (पंचम शतक का) प्रथम उद्देशक कहा है, उसी प्रकार यह उद्देशक भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ 'चन्द्रमा' कहना चाहिए। विवेचन-जम्बूद्वीप में चन्द्रमा के उदय-अस्त प्रादि से सम्बन्धित प्रतिदेशपूर्वक वर्णन-- प्रस्तुत उद्देशक के प्रथम सूत्र में चम्पानगरी में श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित चन्द्रमा का उदय-अस्त-सम्बन्धी वर्णन, पंचम शतक के प्रथम उद्देशक (चम्पा-रवि) में वर्णित सूर्य के उदय-अस्त सम्बन्धी वर्णन का हवाला देकर किया गया है / चम्पा-चन्द्रमा-चन्द्रमा का उदय-अस्त-सम्बन्धी प्ररूपण श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा चम्पा नगरी में किया गया था, इसलिए इस उद्देशक का नाम 'चम्पा-चन्द्रमा' रखा गया है / रवि के बदले चन्द्रमा नाम के अतिरिक्त सारा ही वर्णन सूर्य के उदयास्त वर्णनवत् समझना चाहिए। // पंचम शतक : दशम उद्देशक समाप्त // // पंचम शतक सम्पूर्ण // Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। ___ मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी प्रागमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि __ दसविधे अंतलिबिखते अराज्झाए पग्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्त, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे पोरालिते असज्झातिते, तं जहा—अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उबस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीरग वा चहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिनपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संभाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढ रत्त / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पुब्धण्हे, अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस प्राकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे--- प्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन–यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अतः प्राी से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात—बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो पहर तक अस्वाध्याय काल है। 6 यूपक शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त --कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिकाकृष्ण कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण को सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्घात–वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं / औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी मांस और रुधिर--पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार पास पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15 श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमश: आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनै: स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह–समीपस्थ राजारों में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिक. पूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमानों के पश्चात् पाने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केबलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद / 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूषालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री बर्द्धमान इन्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 6. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धक रणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली ] [527 WWW WWWW 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजो लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मलचंदजी सराणा. मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजो जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजो चोपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री जंवरी३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, लालजी गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंबरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डालिया मेहता, जोधपर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढा. मदास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45 श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री आसूमल एण्ड क०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री ह्रकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजो कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् . 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चोपडा, ब्यावर 6. श्री विजय राजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38 श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 36. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा जोधपुर Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 ] [ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71 श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्त। 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेडतासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया भैरूद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन / सिटी 87. श्री सरदारमलजी एन्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रुणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 13. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, राज- 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी नांदगांव 65. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली ] [526 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर 116. श्रीमती रामकुवरबाई धर्मपत्नी श्रीचांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजो अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर), मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकूवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी मासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड क. बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक ਧਾਈ ਪੀਸ ਕੇ व्याच्या प्राप्तिसूत्र. (मूल अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पीटाटयुक्तो Paaluse only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत पं. श्री दलसुख भाई मालवणिया आचारांग, सूत्रकृतांग (दो-दो भाग), स्थानांग, समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा और अनुत्तरोपपातिक मिले। बहुत-बहुत धन्यवाद! सभी का मद्रण और गैटअप आकर्षक है। सम्पादन-अनुवाद की विशेषता भी है और वह है विवेचन एवं यत्र-तत्र टिप्पणों की। पृथक-पृथक मुनिराजों द्वारा प्रस्तावना भी दी गई है, यह भी विशेषता ध्यान देने योग्य है। अभी तक अनूवाद तो पुज्य अमोलकऋषिजी, श्री डोशीजी के और पू. घासीलालजी के तथा 'अत्थागमे' उपलब्ध थे किन्तु आपके द्वारा सम्पादित अनुवाद सुवाच्य है, यह विशेषता है। परिशिष्ट जो दिए गए हैं, वे भी विद्वानों को उपयोगी होंगे, किन्तु वे पर्याप्त नहीं हैं। उदाहरणार्थ स्थानांग में विशेष नामों की सूची तो दी गई किन्तु पारिभाषिक शब्दों की सूची नहीं दी। यह अत्यन्त जरूरी थी। अन्य आगमों में आपने दी ही है / एकरूपता रहे तो अच्छा / ऐसे काम वार-वार होते नहीं। NEducation international Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 18 [परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित ] पंचम गणधर भगवसुधर्मस्वामि-प्रणीत : पञ्चम अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [भगवतीसूत्र-द्वितीयखण्ड, शतक 6-10] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पणयुक्त ] प्रेरणा 0 उपप्रवर्तक. शासनसेवी स्व० स्वामी श्री व्रजलाल जी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक-सम्पादक श्री अमर मुनि [भण्डारी श्री पदमचन्दजी महाराज के सुशिष्य] श्रीचन्द सुराणा 'सरस' प्रकाशक श्री प्रागम प्रकाशन-समिति, ब्र. .र (राजस्थान) Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला : प्रन्याङ्क 18 [ श्री व स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के प्रथमाचार्य श्री आत्मारामजी महाराज की जन्मशताब्दी के अवसर पर विशेष उपहार ] [सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 0 अर्थसौजन्य श्रीमान् सेठ धनराजी सा, चोरडिया / सम्प्रेरक मनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2509 वि.सं. 2040 ई. सन् 1983 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर--३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक मंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ 0 मूल्य : मूल्य 56) Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All Published at the Holy Remembrandt ottasion of Rev. Guru Sri Joravarma lji Maharaj Com iled by Fifth Ganadhara Sudharma Swami FIFTH ANGA VYAKHYA PRAJNAPTI | Bhagawati Sutra II Part, Shatak 6-10 ] Original Text, Variant Readings, Hindi Version, Notes etc.) Inspiring-Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. Late Swami Sri Brijlalji Maharaj Conveper & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar Yuvacharya Sri Mishrimalji Makenzie Chief Editor Translator & Annotator Shri Amar Muni Sri Chand Surana 'Saras' Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar ( Raj. ) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 18 [ An auspicious at the Holy occasion of Birth-Centuary of Rev. Acharya Sri Atmaramji Maharaj, the first Acharya of V. S. Jain Shramana Sangh ) O Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Managiay Editor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Financial Assistance Shri Seth Anarajji Chauradiya Date of Publication Vir nirvana Samvat 2509 Vikram Samvat 2040, Sept. 1983 Publihers Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price FR$454 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन पूर्वज महापुरुषों के असीम उपकार के लोकोत्तर क्षण से समा स्थानकवासी बैन समाज सदैव ऋणी रहेगा, जिनको उठा तपश्चर्या और ज्ञानगरिमा से जन-जन भलीभाँति परिचित है, जिनशासन को महिमा-द्धि के लिए जिन्होंने अनेकानेक उपसर्ग सहन किय, जिनकी प्रशस्य शिष्य-परम्परा आज भी शासन को शोभा को वद्धिंगत कर रही हैं, उन इतिहास-पुरूष परममहनीय महषि, आचार्यवर्य श्री जीवराजजी महाराज की पावन स्मृति में सादर सविनय समति समर्पित / -मधुकर मुनि Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्रमण भगवान महावीर के पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित यह व्याख्याप्रज्ञप्ति आगम द्वादशांगी में पंचम स्थान पर है। यह ग्रागम न केवल अन्य सभी अंगों की अपेक्षा विशालकाय है, अपितु विविधविषयक भी है / इसका प्रकाशन अनेक खण्डों में ही हो सकता है। उनमें से प्रथम खण्ड, जिसमें प्रथम पांच शतकों का समावेश हुपा है, पूर्व में ग्रन्थाङ्क 14 के रूप में प्रकाशित किया जा चुका है। तत्पश्चात् राजप्रश्नीय (ग्रन्थांक 15), प्रज्ञापनासूत्र प्र. खण्ड (ग्रन्थाक 16) और प्रश्नव्याकरणसूत्र (ग्रन्थांक 17) प्रकाशित किए जा चुके हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति का प्रस्तुत द्वितीय खण्ड 18 वें ग्रन्थांक के रूप में आगमप्रेमी, श्रुतसमाराधक पाठकों के कर-कमलों में पहुंच रहा है, यह निवेदन करते हमें परम हर्ष और सन्तोष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड की भांति द्वितीय खण्ड का सम्पादन एवं अनुवाद भण्डारी मूनि श्री पदमचन्दजी महाराज के सुशिष्य पण्डितप्रवर श्री अमरमुनिजी म. तथा श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस' ने किया है। संशोधन-कार्य विद्वद्वर्य विश्रत श्रुतधर श्रमणसंघ के युवाचार्य पू. श्री मघकर मुनिजी म. एवं पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने किया है। प्रस्तुत द्वितीय खण्ड में छठे से दसवें शतक तक का समावेश हा है। आगे का सम्पादन-अनुवाद-कार्य चाल है और आशा है यथासम्भव शीघ्र हम अगले खण्ड पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर सकेंगे। प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय खण्ड का मुद्रण चाल है और उत्तराध्ययनसत्र शीघ्र प्रेस में दिया जाने वाला है। अन्य प्रागमो पर भी कार्य हो रहा है। प्रस्तुत प्रकाशन-कार्य में जिन-जिन महानुभावों का बौद्धिक एवं प्राथिक सहयोग हमें प्राप्त हो रहा है, उन सभी के प्रति हम अतीव प्राभारी हैं। युवाचार्यश्रीजी तो इस प्रकाशन के प्राणस्वरूप ही हैं। प. श्री अमर मुनिजी म. के प्रति, समस्त प्रर्थसहायकों के प्रति और विशेषत: मेठ श्री अनराजजी सा. चोरड़िया के प्रति, जिनके विशेष आर्थिक सहयोग से प्रस्तुत प्रागम मुद्रित हो रहा है, अतीव प्राभारी हैं। श्रीमान् चोरडियाजी सा का परिचय पृथक रूप में दिया जा रहा है। श्रुतज्ञान के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार की दृष्टि से ग्रन्थों का मूल्य बहुत कम रक्खा जा रहा है और अग्रिम ग्राहकों को 1000) रु. तथा संस्थानों को केवल 700) रु. में सम्पूर्ण बत्तीसी दी जा रही है। वास्तव में नाम मात्र का यह मूल्य है—लागत से भी बहुत कम / फिर भी अग्रिम ग्राहकों की संख्या सन्तोषजनक नहीं है / यह स्थिति आगम-ज्ञान के प्रति समाज के अनुराग एवं लगन की कमी की द्योतक है। हम समस्त अर्थसहयोगी तथा अग्रिम ग्राहक महानुभावों से साग्रह निवेदन करना चाहेंगे कि वे प्रत्येक कम से कम पांच अग्रिम ग्राहक बना कर ज्ञान-प्रचार के इस पवित्र अनुष्ठान में सहभागी बन कर हमारा उत्साह बढ़ाएँ और पूण्य के भागी बने / चांदमल विनायकिया रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष जतनराज मेहता प्रधानमन्त्री श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मन्त्री Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन-सहयोगी-सत्कार भगवतीसूत्र जैसा विशाल आगम सम्पादन-प्रकाशन की दृष्टि से काफी श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य है। इसमें सभी का सहयोग अपेक्षित तथा अभिनन्दनीय है। सम्पादक मुनिश्री के साथ कार्यरत विद्वानों को पारिश्रमिक आदि की व्यवस्था में निम्नलिखित महानुभावों का उदार अर्थसहयोग प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद --- श्री रामेश्वरदासजी जैन (मुवाना वाले) के सुपुत्र श्री ओमप्रकाशजी जैन श्री पवनकुमारजी जैन श्री रमेशचन्द्रजी जैन मे. कुमार इण्टर प्राइजेज A-72, ग्रुप इण्डस्ट्रियल एरिया वजीरपुर, दिल्ली-५२ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगम के विशिष्ट अर्थसहयोगी श्री सेठ अनराजजी चोरडिया [संक्षिप्त जीवन-रेखा प्रागमप्रकाशन के इस परम पावन प्रयास में नोखा (चांदावतों) के बहत चोरडिया परिवार के विशिष्ट योगदान के विषय में पूर्व में भी लिखा जा चुका है। वास्तव में यह योगदान इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसकी जितनी प्रशस्ति की जाए, थोड़ी ही है। श्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, जो अंगभूत आगमों में परिगणित है, श्री अनराजजी सा. चोरडिया के विशेष अर्थ-साहाय्य से प्रकाशित हो रहा है। जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है, श्री चोरडिया जी का जन्म वि. सं. 1981 में नोखा में हुग्रा। प्राप श्रीमान जोरावरमलजी सा. के सुपूत्र हैं / आपके जन्म से प्रापकी माता श्रीमती फलकुवर बाई ने धन्यता का अनुभव किया / श्रीमान् हरकचन्दजी, दुलीचन्दजी और हक्मीचन्दजी आपके भ्राता है। प्राय जैसे पार्थिक समृद्धि से सम्पन्न है, उसी प्रकार पारिवारिक समृद्धि के भी धनी हैं। आपके प्रथम सुपुत्र श्री पृथ्वीराज के राजेन्द्र कुमार और दिनेशकुमार नामक दो पुत्र हैं और द्वितीय पुत्र श्री सुमेरचन्दजी के भी सुरेन्द्रकुमार तथा नरेन्द्रकुमार नाम के दो पुत्र हैं / आपकी दो सुपुत्रियाँ हैं--श्रीमती गुलाबकूवर बाई एवं श्रीमती प्रेमलता बाई। दोनों विवाहित हैं। इस प्रकार सेठ अनाराजजी सा. पारिवारिक दृष्टि से सम्पन्न और सुखी सद्गृहस्थ हैं। चोरडियाजी ते 15 वर्ष की लघवय में ही ब्यावसायिक क्षेत्र में प्रवेश किया और अपनी प्रतिभा तथा अध्यवसाय से उसमें प्रशंसनीय सफलता अजित की। आज आप मद्रास में जे. अनराज चोरडिया फाइनेंसियर के नाम से विख्यात पेढी के अधिपति हैं। आर्थिक समृद्धि की वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में भी आपकी गहरी अभिरुचि है। यही कारण है कि अनेक शैक्षणिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थानों के साथ आप जुड़े हुए हैं और उनके सुचारु संचालन में अपना योग दे रहे हैं। निम्नलिखित संस्थानों के साथ आपका सम्बन्ध हैजैनभवन, मद्रास भूतपूर्व मंत्री एस. एस. जैन एजुकेशनल सोसाइटी, मद्रास, सदस्य कार्यकारिणी स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. जैन ट्रस्ट, नोखा ट्रस्टी भगवान महावीर अहिंसा प्रचार संघ संरक्षक श्री राजस्थानी श्वे. स्था. जैन सेवासंघ संरक्षक श्री श्वे. स्था. जैन महिला विद्यासंघ भू. पू. अध्यक्ष, मन्त्री एवं कोषाध्यक्ष श्री आनन्द फाउंडेशन सदस्य हादिक कामना है कि श्री चोरडियाजी चिरजीबी हों और समाज, साहित्य एवं धर्म के अभ्युदय में अपना योग प्रदान करते रहें। श्री आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि-वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टानों/चिन्तकों ने "आत्मसत्ता' पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है / आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन आज आगमपिटक/वेद उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैन दर्शन की यह धारणा है कि प्रात्मा के विकारों-राग द्वेष आदि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तियाँ ज्ञान/सुख/वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित, उद्भासित हो जाती हैं / शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ प्राप्त-पुरुष की वाणी; वचन/कथन/प्ररूपणा-"पागम" के नाम से अभिहित होती है / आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, प्रात्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र प्राप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह विखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन-पद्धति में धर्म-साधता को स्थापित करते हैं, वे धर्मप्रवर्तक अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थंकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "ग्रागम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "पागम" का रूप धारण करती है / वही आगम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए प्रात्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत हैं / __ "पागम'' को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक' कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समन शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग प्राचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्ष के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवाँ अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं थुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी पोर सनकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब आगमों/शास्त्रों/को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए प्रागम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक प्रागमों का ज्ञान स्मृति श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा। पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव प्रादि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया / महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद-मात्र रह गया। मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान् श्रुतपारगामी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मति-दोष से लुप्त होते आगमज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्व-सम्मति से आगमों को लिपि-बद्ध [11] Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया। जिनवाणी को पस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्ततः आज की समग्र ज्ञान-पिपासू प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हुा / संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रबहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात प्राचीन नगरी वलभी (सौराष्ट्र) में प्राचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ। बैसे जैन प्रागमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / अाज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संघों के आन्तरिक मतभेद, स्मृतिदुर्वलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस प्रादि अनेकानेक कारणों से प्रागम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते। इस प्रकार अनेक कारणों से प्रागम को पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुन: चाल हा। किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान प्रागमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया / आगम-प्रभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया / उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत्-प्रयासों से प्रागमो की प्राचीन चणियाँ, नियुक्तियाँ, टीकाय आदि प्रकाश में आई और उनके प्राधार पर प्रागमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हया। इसमें पागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई। फलतः आगमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है। जनता में प्रागमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागत हो रही है। इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी प्रागमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की प्रागम-धत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। ग्रागम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों एवं पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह आज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं। स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के प्रभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-पागम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहेंगे। अाज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों--३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अदभत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं पागमज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही अागम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे आगमपठन बहत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासो-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हया / [12] Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रात:स्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. के सान्निध्य में प्रागमों का अध्ययनअनुशीलन करता था तब आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्राचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-बाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव किया---- यद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरुह तो हैं ही / चूकि गुरुदेवश्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अत: वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञान वाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासु जन लाभ उठा सकें। उनके मन को यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बन कर अवश्य रह गया / इसो अन्तराल में आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्मदिवाकर प्राचार्य श्री आत्माराम जी म., विद्वदरत श्री घासीलाल जी म. प्रादि मनीषी मुनिवरों ने आगमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती यादि भाषाओं में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगमसम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा / किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि आगमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में आगम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य आज भी चल रहा है / वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में प्राचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में आगम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो आगम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद को गुंजाइश है, तथापि उनके श्रम का महत्त्व है। मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल'' प्रागमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं उनके द्वारा सम्पादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। यागम-साहित्य के वयोवद्ध विद्वान पं० श्री शोभा चन्द्रजी भारिल्ल, विश्रुत मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष प्रागमों के आधुनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं / यह प्रसन्नता का विषय है। इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हुए है। कहीं आगमों का मुल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं। एक पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल। सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक प्रागमज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यममार्ग का अनुसरण आवश्यक है। प्रागमो का ऐसा एक संस्करण होना चाहिए जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो। मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रख कर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की = [13] Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी, सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान् महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ निश्चय घोषित कर दिया और आगमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में स्व. गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है / साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सद्गृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुन्मा है, जिनका नामोल्लेख किये विना मन सन्तुष्ट नहीं होगा। आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी म० शास्त्री, प्राचार्य श्री आत्मारामजी म. के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वदरत्न श्री ज्ञानमुनिजी म., स्व. विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुवरजी म० की हासती दिव्यप्रभाजी एम. ए., पी-एच. डी.; महासती मतिप्रभाजी तथा विदुषी महासती श्री उमरावकवरजी म० अर्चना', विश्रत विद्वान श्री दलसूखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री, डा० छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा 'सरस" आदि मनीषियों का सहयोग प्रागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है। इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनय कुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुवरजी, महासती श्री झणकारकुवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणास्रोत स्व० श्रावक चिमनसिहजी लोढ़ा, तथा श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो पाता है, जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से प्रागम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है / चार वर्ष के इस अल्पकाल में ही सत्तरह पागम-ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 अागमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ विश्वास है कि परम श्रद्धय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज ग्रादि तपोपूत प्रात्मानों के शभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत आचार्य श्री प्रानन्दऋषिजी म. ग्रादि मुनिजनों के सदभाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ, -मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति अध्यक्ष मद्रास कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष ब्यावर गोहाटी जोधपुर मद्रास उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष ब्यावर महामन्त्री मन्त्री मेड़ता सिटी व्यावर पाली मन्त्री सहमन्त्री ब्यावर कोषाध्यक्ष ब्यावर कोषाध्यक्ष मद्रास सदस्य नागौर 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरडिया 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी 3. श्रीमान् कँवरलालजी बैताला 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख 5. श्रीमान् रतनचन्दजी चोरडिया 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7. श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा 11 श्रीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरडिया 3. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान् माणकचन्दजी बैताला 20. श्रीमान भंवरलालजी गोठी 21. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरड़िया 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरडिया 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरडिया 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 26. श्रीमान् भंवरलालजी मूथा 27. श्रीमान जालमसिंहजी मेड़तवाल सदस्य मद्रास सदस्य बैंगलौर सदस्य ब्यावर इन्दौर सदस्य सदस्य सिकन्दराबाद सदस्य बागलकोट सदस्य मद्रास सदस्य दुर्ग सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य भरतपुर जयपुर सदस्य (परामर्शदाता) व्यावर Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाहपण्णत्तिसुत्तं (भगवईसुत्तं) विषय-सूची छठा शतक 3-105 प्राथमिक छठे शतकगत उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय छठे शतक की संग्रहणी गाथा प्रथम उद्देशक-वेदना (सूत्र 2-14) ____ महावेदना एवं महानिर्जरा युक्त जीवों का निर्णय विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा 5, महावेदना और महानिर्जरा की व्याख्या 8, क्या नारक महावेदना और महानिर्जरा वाले नहीं होते ? , विशोध्य कर्म के चार विशेषणों की व्याख्या 6, चौवीस दण्डकों में करण की अपेक्षा साता-असाता-वेदना की प्ररूपणा 6, चार करणों का स्वरूप 11, जीवों में वेदना और निर्जरा से संबन्धित चतुभंगी का निरूपण 11, प्रथम उद्देशक को संग्रहणी गाथा 12 / द्वितीय उद्देशक-प्राहार (सूत्र 1) 13-14 जीवों के प्राहार के सम्बन्ध में अतिदेशपूर्वक निरूपण 13, प्रज्ञापना में वणित आहार संवन्धी वर्णन की संक्षिप्त झांकी 13 / तृतीय उद्देशक महाश्रय (सूत्र 1-26) तृतीय उद्देशक की संग्रहणी गाथायें 15, प्रथम द्वार–महाकर्मा और अल्पकर्मा जीव के प्रदगल-बध-भेदादि का दृष्टान्तद्वय पूर्वक निरूपण 15, महाकर्मादि की व्याख्या 17, द्वितीय द्वारवस्त्र में पुद्गलोपचयवत् समस्त जीवों के कर्मपुद्गलोपचय प्रयोग से या स्वभाव से ? एक प्रश्नोत्तर 18, तृतीय द्वार–वस्त्र के पुद्गलोपचयवत् जीवों के कर्मोपचय की सादि-सान्तता आदि का विचार 16, जीवों का कर्मोपचय सादि-सान्त, अनादि-सान्त एवं अनादि-अनन्त क्यों और कैसे ? 20, तृतीय द्वार–वस्त्र एवं जीवों की सादि-सान्तता आदि चतुभंगी प्ररूपणा 21, नरकादिगति की सादिसान्तता 22, सिद्ध जीवों की सादि-अनन्तता 22, भवसिद्धिक जीवों की अनादि-सान्तता 22, चतुर्थ द्वार---अष्ट कर्मों की बन्धस्थिति आदि का निरूपण 22, बंधस्थिति 23, कर्म की स्थिति: दो प्रकार को 24, प्रायुष्यकर्म के निषेककाल और अबाधाकाल में विशेषता 24, वेदनीयकर्म की स्थिति 24, पांचवें से उन्नीसवें तक पन्द्रह द्वारों में उक्त विभिन्न विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से कर्मबन्ध-प्रबन्ध का निरूपण 24, अष्टविधकर्मबन्धक-विषयक प्रश्न क्रमशः पन्द्रह द्वारों में [17] Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31, पन्द्रह द्वारों में प्रतिपादित जीवों के कर्मबन्ध-प्रबन्ध विषयक समाधान का स्पष्टीकरण 32, पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 35, वेदकों के अल्प बहुत्व का स्पष्टीकरण 36, संयतद्वार से चरमद्वार तक का अल्पबहुत्व 36 / चतुर्थ उद्देशक–सप्रदेश (सूत्र 1-25) 37-52 कालादेश से चौवीस दण्डक के एक-अनेक जीवों की सप्रदेशता-अप्रदेशता का निरूपण 37, आहारक आदि से विशेषित जीवों में सप्रदेश-अप्रदेश-वक्तव्यता 38, सप्रदेश आदि चौदह द्वार 42, कालादेश की अपेक्षा जीवों के भंग 42, समस्त जीवों में प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान के होने, जानते, करने तथा आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में प्ररूपणा 50, प्रत्याख्यान-ज्ञानसूत्र का प्राशय 52, प्रत्याख्यान-करणसूत्र का प्राशय 52, प्रत्याख्यानादि निर्वर्तित प्रायुष्यबंध का आशय 52. प्रत्याख्यानादि से सम्बन्धित संग्रहणी गाथा 52 / पंचम उद्देशक-तमस्काय (सूत्र 1-43) तमस्काय के सम्बन्ध में विविध पहलुत्रों से प्रश्नोत्तर 53, तमस्काय की संक्षिप्त रूपरेखा 57, कठिन शब्दों की व्याख्या 58, विविध पहलुओं से कृष्णराजियों के प्रश्नोत्तर 58, तमस्काय और कृष्णराजि के प्रश्नोत्तरों में कहाँ सादृश्य, कहाँ अन्तर ? 62, कृष्णराजियों के आठ नामों की व्याख्या 63, लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देव-स्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी आदि का विचार 63, विमानों का अवस्थान 66, लोकान्तिक देवों का स्वरूप 66, लोकान्तिक विमानों का संक्षिप्त निरूपण 67 / छठा उद्देशक-भव्य (सूत्र 1-8) 68-72 चौवीस दण्डकों के प्रावास, विमान आदि की संख्या का निरूपण 68, चौवीस दण्डकों के समुद्घात-समवहत जीव की आहारादि प्ररूपणा 66, कठिन शब्दों के अर्थ 72 / सप्तम उद्देशक-शालि (सूत्र 1-6) कोठे आदि में रखे हुए शालि आदि विविध धान्यों की योनिस्थिति-प्ररूपणा *73, कठिन शब्दों के अर्थ 74, मुहूर्त से लेकर शीर्षप्रहेलिका-पर्यन्त गणितयोग्य काल-परिमाण 74, गणनीय काल 75, पल्योपम, सागरोपम आदि औपमिक काल का स्वरूप और परिमाण 76, पल्यापम का स्वरूप और प्रकार (उद्धारपल्योपम, अद्धापल्योपम, क्षेत्रफल्योपम) 78, सागरोपम के प्रकार * (उद्धारसागरोपम, अद्धासागरोपम, क्षेत्रसागरोपम) 76, सुषमसुषमाकालीन भारतवर्ष के भाव. आविर्भाव का निरूपण 80 / अष्टम उद्देशक-पृथ्वी (सूत्र 1-36) रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्व देवलोकों में गृह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व और कर्तृत्व की प्ररूपणा 82, वायुकाय, अग्निकाय आदि का अस्तित्व कहाँ है, कहां नहीं ? 86, महामेघ-सस्वेदनवर्षणादि कहाँ कौन करते हैं ? 86, जीवों के प्रायुष्यबन्ध के प्रकार एवं जाति-नाम-निधत्तादि बारह दण्डकों की चौवीस दण्डकीय जीवों में प्ररूपणा 86, षविध आयुष्यबन्ध की व्याख्या 88, आयुष्य जात्यादि नामकर्म से विशेषित क्यों ? 88, आयुष्य और बन्ध दोनों में अभेद 86, नामकर्म से [18] Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषित 12 दण्डकों की व्याख्या 86, लवणादि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण 89, लवणसमुद्र का स्वरूप 60, अढाई द्वीप और दो समुद्रों से बाहर के समुद्र 60, द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों का निर्देश 61, ये द्वीप-समुद्र उद्धार, परिमाण और उत्पाद वाले 61 / / नवम उद्देशक-कर्म (सूत्र 1-13) 62--68 ज्ञानावरणीयबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्ध-प्ररूपणा 62, बाह्य पुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव की एक वर्णादि के पुद्गलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन-सामर्थ्य 6.2, विभिन्न वर्णादि के 25 पालापक सुत्र 65, पांच वर्गों के 10 द्विकसंयोगी पालापक सत्र 65. दो गंध का एक पालापक 65, पांच रस के दस पालापक सूत्र 95, आठ स्पर्श के चार आलापक सूत्र 65, अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या युक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले देवादि को जानने-देखने की प्ररूपणा 65, तीन पदों के बारह विकल्प 67 / दशम उद्देशक-अन्यतीर्थी (सूत्र 1-15) 91-105 ___ अन्यतीथिक-मतनिराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्व जीवों के सुख-दुःख को अणमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपणा 66, दृष्टान्त द्वारा स्वमत-स्थापना 100, जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बन्ध में अनेकान्तशैली में प्रश्नोत्तर 100, दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य 102, जीव कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता, इसका तात्पर्य 102, एकान्त दुःखवेदन रूप अन्यतीथिक मत निराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुख-दुःखादि वेदन-प्ररूपणा 102, समाधान का स्पष्टीकरण 103, चौबीस दण्डकों में प्रात्म-शरीरक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलाहार प्ररूपणा 104, केवली भगवान् का आत्मा द्वारा ज्ञान-दर्शन सामर्थ्य 104, दसवें उद्देशक की संग्रहणी गाथा 105 / सप्तम शतक 106-204 प्राथमिक 106 __सप्तम शतकगत दस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय सप्तम शतक की संग्रहणी गाथा 108 प्रथमउद्देशक आहार (सूत्र 2-20) 108-123 जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपणा 108, परभवगमनकाल में आहारकअनाहारक रहस्य 106, सल्पिाहारता : दो समय में 106. लोक के संस्थान का निरूपण 110, लोक का संस्थान 110, श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को लगने वाली क्रिया 111, साम्परायिक क्रिया लगने का कारण 111. श्रमणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान 111, अहिंसावत में अतिचार नहीं लगता 112, श्रमण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को लाभ 112, चयति क्रिया के विशेष अर्थ 113, दानविशेष से बोधि और सिद्धि की प्राप्ति 114, निःसंगतादि कारणों से कर्म रहित (मुक्त) जीव की (ऊर्व) गति-प्ररूपणा 114, अकर्म जीव की गति के छह कारण 116, दुःखी को दुःख की स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा 117, दुःखी और अदु:खी की मीमांसा 117, उपयोगरहित गमनादि [16] Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण 118, 'बोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य 116, 'अहासुत्तं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ 116, अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ 116, अंगारादि दोषों का स्वरूप 122, क्षेत्रातिक्रान्त का भावार्थ 123, कुक्कुटी-अण्ड प्रमाण का तात्पर्य 123, शस्त्रातीतादि को शब्दशः व्याख्या 123, नवकोटि-विशुद्ध का अर्थ 123, उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष 123 / द्वितीय उद्देशक-विरति (सूत्र 1-38) 124-136 सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप 124, सप्रत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान का रहस्य 125, प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण 126, प्रत्याख्यान की परिभाषाएँ 127, दशविध सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप 127, अपश्चिम मारणान्तिक संल्लेखना जोषणा-आराधनता की व्याख्या 126, जीव और चौवीस दण्डकों में मूलगुण-उत्तरगुण प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी की वक्तव्यता 126, मूलोत्तर गुणप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी जीव, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों में अल्पबहुत्व 130, सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा अप्रत्याख्यानी का जीवों तथा चौवीस दण्डकों में अस्तित्व और अल्पबहुत्व 131, जीवों तथा चौवीस दण्डकों में संयत प्रादि तथा प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 133, जीवों को शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैली से निरूपण 135 / तृतीय उद्देशक-स्थावर (सूत्र 1-24) 137-146 बनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहार काल एवं सर्व महाकाल की वक्तव्यता 137, प्रावट और वर्षा ऋतु में बनस्पतिकायिक सर्वमहाहारी क्यों? 138, ग्रीष्मऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हुए भी वनस्पतियाँ पत्रित-पुष्पित क्यों ? 138, बनस्पतिकायिक मूल जीवादि से स्पृष्ट मूलादि के पाहार के संबन्ध में सयुक्तिक समाधान 138, वृक्षादि रूप वनस्पति के दस प्रकार 136, मूलादि जीवों से व्याप्त मूलादि द्वारा पाहारग्रहण 136, आलू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व और विभिन्न जीवत्व की प्ररूपणा 136, 'अनन्त जीवा विविहसत्ता' को व्याख्या 136, चौवीस दण्डकों में लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मत्व और महाकर्मत्व की प्ररूपणा 140, सापेक्ष कथन का प्राशय 141, ज्योतिष्क दण्डक में निषेध का कारण 141, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पथक्त्व का निरूपण 141, वेदना और निर्जरा की व्याख्या के अनुसार दोनों के पथक्त्व की सिद्धि 145, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का निरूपण 146, अव्युच्छित्तिनयार्थता व्युच्छित्तिनयार्थता का अर्थ 146 / चतुर्थ उद्देशक-जीव (सूत्र 1-2) 147-148 षविध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में वक्तव्यता 147, षडविध संसारसमापनक जीवों के सम्बन्धों में जीवाभिगमसूत्रोक्त तथ्य 148 / पंचम उद्देशक-पक्षी (सूत्र 1-2) खेचर-पंचेन्द्रिय जीवों के योनिसंग्रह आदि तथ्यों का अतिधेशपूर्वक निरूपण 146, खेचरपंचेन्द्रिय जीवों के योनिसंग्रह के प्रकार 150, जीवाभिगमोक्त तथ्य 150 / [20] Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक-आयु (सूत्र 1-37) 151-163 चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आयुष्यबन्ध और आयुष्यवेदन के सम्बन्ध में प्ररूपणा 151. चौवीस दण्डकवी जीवों के महावेदना-अल्पवेदना के सम्बन्ध में प्ररूपणा 152, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में अनाभोगनिर्वतित आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा 154, आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित आयुष्य 154, समस्त जीवों के कर्कश-अकर्कश वेदनीयकर्मबन्ध का हेतुपूर्वक निरूपण 154, कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबन्ध कैसे और कब? 156, चौवीस दण्डक वर्ती जीवों के साताअसातावेदनोय कर्मबन्ध और उनके कारण 156, दुःषम-दुःषमकाल में भारतवर्ष, भारतभमि एवं भारत के मनुष्यों के प्राचार (प्राकार) और भाव का स्वरूप-निरूपण 157, छठे पारे के मनुष्यों के पाहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के प्राचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन 161 / / सप्तम उद्देशक-अनगार (सूत्र 1.28) 164-173 संवत एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को लगने वाली क्रिया की प्ररूपणा 164, विविध पहलुनों से काम-भोग एवं कामी-भोगी के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 165, क्षीणभोगी छद्मस्थ अधोऽवधिक परमावधिक एवं केवली मनुष्यों में भोगित्व-प्ररूपणा 169, भोग भोगने में असमर्थ होने से हो भोगत्यागी नहीं 170, असंज्ञी और समर्थ (संज्ञी) जीवों द्वारा प्रकामनिकरण और प्रकामनिकरण वेदन का सयुक्तिक निरूपण 171, असंज्ञी और संज्ञी द्वारा प्रकाम-प्रकाम निकरण वेदन क्यों और कैसे ? 173 / अष्टम उद्देशक-छद्भस्थ (सूत्र 1-6) 174-178 संयमादि से छद्मस्थ के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का निषेध 174, हाथी और कुंथुए के समान जीवत्व की प्ररूपणा 174, राजप्रश्नीयसूत्र में समान जीवत्व की सदृष्टान्त प्ररूपणा 175, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसकी निर्जरा सुखरूप 175, संज्ञानों के दस प्रकार–चौवीस दण्डकों में 175, संज्ञा की परिभाषाएँ 176, संज्ञाओं की व्याख्या 176, नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ 176, हाथी और कुंथुए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा 177, प्राधाकर्मसेबी साधु को कर्मबन्धादि निरूपणा 177 ! नवम उद्देशक असंवृत (सूत्र 1-24) 176-164 असंवत अनगार द्वारा इहगत बाह्यपुद्गल ग्रहणपूर्वक विकुर्वण-सामर्थ्य-निरूपण 176 'इहगए' 'तत्थगए' एवं 'अन्नत्थगए' का तात्पर्य 180, महाशिलाकण्टकसंग्राम में जय-पराजय का निर्णय 180, महाशिलाकण्टकसंग्राम के लिये कणिक राजा की तैयारी और अठारह गणराजाओं पर विजय का वर्णन 181 महाशिलाकण्टकसंग्राम उपस्थित होने का कारण 183, महाशिलाकण्टकसंग्राम में कणिक की जीत कसे हुई ? 183, महाशिलाकण्टकसंग्राम के स्वरूप, उसमें मानवविनाश और उनकी मरणोत्तर गति का निरूपण 184, रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का तथा उसमें मृत मनुष्यों की संख्या, गति आदि का निरूपण 185, ऐसे युद्धों में सहायता क्यों? 187, 'संग्राम में मृत मनुष्य देवलोक में जाता है', इस मान्यता का खण्डनपूर्वक स्वसिद्धान्त-मंडन 187, वरुण की देवलोक में और उसके मित्र की मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अंत में दोनों की महाविदेह में सिद्धि का निरूपण 163 1 [21] Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम उद्देशक-अन्ययूथिक (सूत्र 1-22) 165-204 अन्यतीथिक कालोदायी की पंचास्तिकाय-चर्चा और सम्बुद्ध होकर प्रव्रज्या स्वीकार 165, कालोदायी के जीवन-परिवर्तन का घटनाचक्र 166, जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमश: पाप-कल्याण-फल-विपाक संयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण 166, अग्निकाय को जलाने और बुझाने वालों में से महाकर्म प्रादि और अल्पकर्मादि से संयुक्त कौन और क्यों ? 201, अग्नि जलाने वाला महाकर्म आदि से युक्त क्यों ? 203, प्रकाश और ताप देने वाले अचित्त प्रकाशमान पुद्गलों की प्ररूपणा 203, सचित्तवत् अचित्त तेजस्काय के पुद्गल 204, कालोदायी द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिपूर्वक निर्वाणप्राप्ति 204 / अष्टम शतक 205-422 प्राथमिक 205 अष्टम शतकगत दस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय अष्टम शतक को संग्रहणी गाथा 207 प्रथम उद्देशक-पुद्गल (सूत्र 2-61) 207-244 पुद्गलपरिणामों के तीन प्रकारों का निरूपण 207, परिणामों की दृष्टि से तीनों पुद्गलों का स्वरूप 207, मित्रपरिणत पूदगलों के दो रूप 208, नौ दण्डकों द्वारा प्रयोग-परिणत पदगलों का निरूपण 208, विवक्षाविशेष से नौ दण्डक (विभाग) 223, द्वीन्द्रियादि जीवों की अनेकविधता 223, पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद 223, कठिन शब्दों के विशेष अर्थ 223, मिश्र-परिणतपूदगलों का नी दण्डकों द्वारा निरूपण 224, विस्रसा-परिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेद का निर्देश 224, मन-वचन-काया की अपेक्षा विभिन्न प्रकार से प्रयोग-मिश्र-विनसा से एक द्रव्य के परिणमन की प्ररूपणा 225, प्रयोग को परिभाषा 235, योगों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप 235, प्रयोगपरिणतः तीनों योगों द्वारा 236, प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ का स्वरूप 236, प्रारम्भ सत्यमनःप्रयोग आदि का अर्थ 236, दो द्रव्य सम्बन्धी प्रयोग-मिश्र-विरसा परिणत पदों के मनोयोग प्रादि के संयोग से निष्पन्न भंग 237, प्रयोगादि तीन पदों के छह भंग 239, विशिष्ट-मनःप्रयोगपरिणत के पांच सौ चार भंग 236, पूर्वोक्त विशेषण युक्त वचनप्रयोगपरिणत के भी 504 भंग, 236, औदारिक आदि कायप्रयोगपरिणत के 166 भंग 239, दो द्रव्यों के त्रियोगसम्बन्धी मिश्रपरिणत भंग 240, विस्रसापरिणत द्रव्यों के भंग 240, तीन द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोग-मिश्र-विस्रसा परिणत पदों के भंग 240, तीन पदों के विद्रव्यसम्बन्धी भंग 241, सत्यमन:प्रयोगपरिणत आदि के भंग 241, मिश्र और विस्रसापरिणत के भंग 241, चार आदि द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोगादिपरिणत पदों के संयोग से निष्पन्न भंग 241, चार द्रव्यों सम्बन्धी प्रयोग-परिणत आदि तीन पदों के भंग 243, पंच द्रव्य संबन्धी और पांच से आगे के भंग 243, परिणामों की दृष्टि से पुद्गलों का अल्पबहुत्व 243, सबसे कम और सबसे अधिक पुद्गल 244 / [ 22 ] Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक--काशीविष (सूत्र 1-162) 245-264 __आशीविषः दो मुख्य प्रकार और उनके अधिकारी तथा विष-सामर्थ 245, आशीविष और उसके प्रकारों का स्वरूप 246, जाति-पाशीविषयुक्त प्राणियों का विषसामर्थ्य 250, छद्मस्थ द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के अविषय और केवली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषयभूत दस स्थान 250, छदमस्थ का प्रसंगवश विशेष अर्थ 250, ज्ञान और प्रज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद का निरूपण 251, पांच ज्ञानों का स्वरूप 253, प्राभिनिबोधिकज्ञान के चार प्रकारों का स्वरूप 253, अर्थावग्रहव्यंजनावग्रह का स्वरूप 254, अवग्रह आदि की स्थिति और एकार्थक नाम 254, श्रुतादि ज्ञानों के भेद 254, मति-अज्ञान आदि का स्वरूप और भेद 254, ग्रामसंस्थित आदि का स्वरूप 254, पौधिक चौवीस दण्डकवर्ती तथा सिद्ध जीवों में ज्ञान-अज्ञान-प्ररूपणा 254, नैरयिकों में तीन ज्ञान नियमत:, तीन अज्ञान भजनात: 257, तीन विकलेन्द्रिय जीवों में दो ज्ञान 257, गति आदि पाठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-अज्ञानी-परूपणा 257, गति आदि द्वारों के माध्यम से जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान की प्ररूपणा 264, नौवें लब्धिद्वार की अपेक्षा से ज्ञानी--अज्ञानी की प्ररूपणा 266, लब्धि की परिभाषा 275, लब्धि के मुख्य भेद 275, ज्ञानलब्धि के भेद 275, दर्शनलब्धि के तीन भेद : उनका स्वरूप 275, चारित्रलब्धि: स्वरूप और प्रकार 275, चारित्राचारित्रलब्धि का अर्थ 276, दानादि लब्धियाँ: एक एक प्रकार की 276, ज्ञानलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान और अज्ञान को प्ररूपणा 276, अज्ञानलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा 277, दर्शनलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान-अज्ञान-प्ररूपणा 277, चारित्रलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा 277, चारत्राचारित्रलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान-अज्ञान-प्ररूपणा 277, दानादि चार लब्धियों वाले जीवों में ज्ञः -अज्ञान-प्ररूपणा 278, वीर्यलब्धि वाले जीवों में ज्ञान-अज्ञान-प्ररूपणा 278, इन्द्रियलब्धि वाले जीवों में ज्ञान-अज्ञान प्ररूपणा 278, दसवें उपयोगद्वार से लेकर पन्द्रहवें आहारकद्वार तक के जीवों में ज्ञान और प्रज्ञान की प्ररूपणा 276, उपयोगद्वार 283, योगद्वार 283, लेश्याहार 283, कपायद्वार 284, वेदद्वार 284, पाहारकद्वार 284, सोलहवें विषयद्वार के माध्यम से द्रव्यादि की अपेक्षा ज्ञान और प्रज्ञान का निरूपण 284, ज्ञानों का विषय 286, तीन अज्ञानों का विषय 288, ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण 288, ज्ञानी का ज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल 286, त्रिविध अज्ञानियों का तद्र प अज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल 290, पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का परस्पर अंतरकाल 260, पांच ज्ञानी और तीन अज्ञानी जीवों का अल्पबहुत्व 260, ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का परस्पर सम्मिलित अल्पबहुत्व 261, बीसवें पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों की प्ररूपणा 261, ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों का अल्पबहुत्व 261, पर्याय : स्वरूप, प्रकार एवं परस्पर अल्पबहुत्व 263, पर्यायों के अल्पबहुत्व की समीक्षा 263 / / तृतीय उद्देशक वृक्ष (सूत्र 1-8) 265-266 संख्यातजीविक, असंख्यातजीविक और अनन्तजीविक वृक्षों का निरूपण 265, संख्यातजीविक, असंख्यातजीविक और अनन्तजीविक का विश्लेषण 296, छिन्न कछुए आदि के टुकड़ों के बीच का जीवप्रदेश स्पृष्ट और शस्त्रादि के प्रभाव से रहित 297, रत्नप्रभादि पृथ्वियों के चरमत्वअचरमत्व का निरूपण 268, चरम-अचरम-परिभाषा 266, चरमादि छह प्रश्नोत्तरों का प्राशय 266 / [23] Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक-क्रिया (सूत्र 1-2) क्रियाएँ और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों आदि का निर्देश 300, क्रिया की परिभाषा 300, कायिकी ग्रादि क्रियाओं का स्वरूप और प्रकार 300 / पंचम उद्देशक-आजीव (सूत्र 1-15) 302-311 सामायिकादि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान या स्त्री आदि परकीय हो जाने पर भी उसके द्वारा स्वममत्ववश अन्वेषण 302, सामायिकादि साधना में परकीय पदार्थ स्वकीय क्यों ? 304, श्रावक के प्राणातिपात आदि पापों के प्रतिक्रमण-संवर-प्रत्याख्यान-सम्बन्धी विस्तृत भंगों की श्रावक को प्रतिक्रमण, संवर और प्रत्याख्यान करने के लिये प्रत्येक के 46 भंग 308, आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, प्राचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता 306, आजीविकोपासकों का प्राचार-विचार 310, श्रमणोपासकों की विशेषता 310, कर्मादान और उसके प्रकारों की व्याख्या 310, देवलोकों के चार प्रकार 311 / छठा उद्देशक-प्रासुक (सूत्र 1-26) 312-326 तथारूप श्रमण, माहन या असंयत आदि को प्रासक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहार देने का श्रमणोपासक को फल 312, 'तथारूप' का आशय 313, मोक्षार्थ दान ही यहाँ विचारणीय 313, 'प्रासुक-अप्रासुक', 'एषणीय-अनेषणीय' की व्याख्या 313, 'बहुत निर्जरा, अल्पतर पाप' का प्राशय 313, गृहस्थ द्वारा स्वयं या स्थविर के निमित्त कहकर दिये गए पिण्ड, पात्र आदि की उपभोगमर्यादा-प्ररूपणा 314, परिष्ठापन विधि 315, स्थण्डिल-प्रतिलेखन-विवेक 315, विशिष्ट शब्दों की व्याख्या 316, अकृत्यसेवी, किन्तु प्राराधनातत्पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी की आराधकता की विभिन्न पहलुओं से सयुक्तिक प्ररूपणा 316, दृष्टान्तों द्वारा आराधकता की पुष्टि 320, पाराधक-विराधक की व्याख्या 321, जलते हुए दीपक और घर में जलने वाली वस्तु का निरूपण 321, अगार का विशेषार्थ 321, एक जीव या बहुत जीवों की परकीय (एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली) क्रियाओं का निरूपण 322, अन्य जीव के औदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का प्राशय 325, किस शरीर की अपेक्षा कितने पालापक ? 326 / सप्तम उद्देशक –'प्रदत्त' (सूत्र 1-25) 327-334 __ अन्यतीथिकों के साथ अदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णन 327, अन्यतोथिकों की भ्रान्ति 330. स्थविरों पर अत्यतीथिकों द्वारा पुन: प्राक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद 331, अन्यतीथिकों की भ्रान्ति 333, गतिप्रवाद और उसके पांच भेदों का निरूपण 333, गतिप्रपात के पाँच भेदों का स्वरूप 334 / अष्टम उद्देशक-'प्रत्यमीक' (सूत्र 1-47) 335-358 गुरु-गति-समूह-अनुकम्पा-श्रुत-भाव-प्रत्यनीक-भेद-प्ररूपणा 315, प्रत्यनीक 336, गुरु-प्रत्यनीक का स्वरूप 336, गति-प्रत्यनीक का स्वरूप 336, समूह-प्रत्यनीक का स्वरूप 336, अनुकम्प्यप्रत्यनीक का स्वरूप 337 त-प्रत्यनीक का स्वरूप 337, भाव-प्रत्यनीक का स्वरूप 337, [24] Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार, उनकी मर्यादा और व्यवहारानुसार प्रवृत्ति का फल 337, व्यवहार का विशेषार्थ 338, पागम आदि पंचविध व्यवहार का स्वरूप 338, पूर्व-पूर्व व्यवहार के अभाव में उत्तरोत्तर व्यवहार आचरणीय 336, अन्त में फलश्रुति के साथ स्पष्ट निर्देश 336, विविध पहलुओं से ऐपिथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित प्ररूपणा 336, बन्ध : स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार 344, ऐपिथिक कर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश 345, त्रैकालिक ऐपिथिक कर्मबन्ध-विचार 345, ऐपिथिक कर्मबन्ध-विकल्प चतुष्टय 346, ऐपिथिक कर्म बन्धांश सम्बन्धी चार विकल्प 348, साम्परायिक कर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, वन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश 347, साम्परायिक कर्मबन्ध-सम्बन्धी त्रैकालिक विचार 347, साम्परायिक कर्मबन्धक के विषय में सादि-सान्त आदि 4 विकल्प 348, बावीस परीषहों का अष्टविध कर्मों में समवतार तथा सप्तविधबन्धकादि के परीषहों की प्ररूपणा 348, परीषह : स्वरूप और प्रकार 352, सप्तविध प्रादि बन्धक के साथ परीषहों का साहचर्य 352, उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यों की दूरी और निकटता के प्रतिभास आदि की प्ररूपणा 353, सूर्य के दूर और निकट दिखाई देने के कारण का स्पष्टीकरण 356, सूर्य की गति : अतीत, अनागत या वर्तमान क्षेत्र में ? 357, 7, सूर्य किस क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है ? 357, सूर्य की ऊपर-नीचे और तिरछे प्रकाशित आदि करने की सीमा 357, मानुषोत्तरपर्वत के अंदर-बाहर के ज्योतिष्क देवों और इन्द्रों का उपपात-विरहकाल 357 / नवम उद्देशक-बन्ध (सूत्र 1-..126) 356-401 बन्ध के दो प्रकार : प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध 356, विस्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद और स्वरूप 356, त्रिविध-अनादि विस्रसाबन्ध का स्वरूप 361, त्रिविध-सादि विनसाबन्ध का स्वरूप 361, अमोघ शब्द का अर्थ 362, बन्धन-प्रत्यायिक बन्ध का नियम 362, प्रयोगबन्ध : प्रकार, भेद-प्रभेद तथा उनका स्वरूप 362, प्रयोगबन्ध : स्वरूप और जीवों की दृष्टि से प्रकार 366, शरीरप्रयोगबन्ध के प्रकार एवं प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से निरूपण 367, औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के आठ कारण 374, प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के दो रूपः सर्वबन्ध, देशबन्ध 374, उत्कृष्ट देशबन्ध 374, क्षुल्लक भवग्रहण का प्राशय 375, औदारिकशरीर के सर्वबन्ध और देशबन्ध का अन्तर-काल 375, प्रौदारिक शरीर के देशबन्ध का अन्तर 375. प्रकारान्तर से प्रौदारिकशरीरबन्ध का अन्तर 375, पुद्गलपरावर्तन आदि की व्याख्या 376, औदारिकशरीर के बन्धकों का अल्पबहुत्व 376, वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से तत्सम्बन्धित विचारणा 376, वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध के नौ कारण 384, वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के रहने की कालसीमा 384, बैंक्रियशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर 384, वैक्रियशरीर के देश-सर्वबन्धकों का अल्पवहुत्व 385, पाहारकशरीरप्रयोगबन्ध का विभिन्न पहलुओं से निरूपण 385, आहारक शरीरप्रयोगबन्ध के अधिकारी 387, प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध की कालावधि 387, आहारशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर 3.7, आहारकशरीरप्रयोगबन्ध के देश-सर्वबन्धकों का अल्पबहुत्व 387, तैजसशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से निरूपण 388, तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का स्वरूप 286, कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध का भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दृष्टियों से निरूपण 386, कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध : स्वरूप, भेद-प्रभेदादि एवं कारण 365, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के [25] Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण 365, ज्ञानावरणीयादि अष्ट-कर्मणशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं 365, आयुकर्म के देशबन्धक 365, कठिन शब्दों की व्याख्या 365, पांच शरीरों के एक दूसरे के साथ बन्धक-प्रबन्धक की चर्चा-विचारणा 366, पांच शरीरों में परस्पर बन्धक-प्रबन्धक 400, तैजसकार्मणशरीर का देशबन्धक औदारिकशरीर का बन्धक और प्रबन्धक कैसे ? 400, औदारिक आदि पांच शरीरों के देश-सर्वबन्धकों एवम् प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 400, अल्पबहुत्व का कारण 401 / वशम उद्देशक--आराधना (सूत्र 1-61) 402- 422 श्रुत और शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से भगवान् द्वारा अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण 402, अन्यतीथिकों का श्रुत-शीलसम्बन्धी मत मिथ्या क्यों ? 403, व त-शील की चतुर्भगी का प्राशय 404, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्याराधना का फल 405, अाराधना : परिभाषा, प्रकार और स्वरूप 408, आराधना के पूर्वोक्त प्रकारों का परस्पर सम्बन्ध 408, रत्नत्रय की त्रिविध आराधनाओं का उत्कृष्ट फल 406, पुद्गल-परिणाम के भेद-प्रभेदों का निरूपण 406, पुद्गलपरिणाम की व्याख्या 410, पुद्गलास्तिकाय के एक देश से लेकर अनन्त प्रदेश तक अष्टविकल्पात्मक प्रश्नोत्तर 410, किसमें कितने भंग ? 411, लोकाकाश के और प्रत्येक जीव के प्रदेश 412, लोकाकाशप्रदेश और जीवप्रदेश की तुल्यता 412, आठ कर्मप्रकृतियाँ, उनके अविभाग-परिच्छेद और आवेष्टितपरिवेष्टित समस्त संसारी जीव 412. अविभाग-परिच्छेद की व्याख्या 414, आवेष्टित-परिवेष्टित के विषय में विकल्प 415, आठ कमों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता 415, 'नियमा' और 'भजना' का अर्थ 416, किसमें किन-किन कर्मों की नियमा और भजना 416, ज्ञानावरणीय से 7 भंग 416, दर्शनावरणीय से 6 भंग 416, वेदनीय से 5 भंग 420, मोहनीय से 4 भंग 420, आयुष्यकर्म से 3 भंग 420, नामकर्म से दो भंग 420, गोत्रकर्म से एक भंग 420, संसारी और सिद्धजीव के पुद्गली और पुद्गल होने का विचार 420, पुद्गली एवं पुद्गल की व्याख्या 422 / नवम शतक 423-575 प्राथमिक 423 नवम शतकगत चौतीस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय नौवें शतक की संग्रहणी गाथा 425 प्रथम उद्देशक-जम्बूद्वीप (सूत्र 2-3) 425-426 . मिथिला में भगवान का पदार्पण : अतिदेशपूर्वक जम्बूद्वीप निरूपण 425 सधुव्वावरेणं व्याख्या 426, चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ 426, जम्बूद्वीप का आकार 426 / द्वितीय उद्देशक ---ज्योतिष (सूत्र 1-5) 427-426 __जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि की संख्या 427, जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश 428, नव य सया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का प्राशय 426, सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि ज्योतिष्कों का अतिदेश 426 / [26] Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय से तीसवाँ उद्देशकः -अन्तद्वीप (सूत्र 1-3) 430-432 ___ उपोद्धात 430, एकोरक आदि अट्ठाईस अन्तीपक मनुष्य 430, अन्तर्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य 431, जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश 431, अन्तपिक मनुष्यों का आहार-विहार आदि 431, वे अन्तर्वीप कहाँ ? 432, छप्पन अन्तर्वीप 432 / इकतीसवाँ उद्देशक - प्रश्रुत्वाकेबली (सूत्र 1-44) 433-457 उपोद्घात 433, केवली यावत् केवली-पाक्षिक उपासिका से धर्मश्रवणलाभालाभ 433, केवली इत्यादि शब्दों का भावार्थ 434, असोच्चा धम्म लभेज्जा सवणयाए तथा नाणावरणिज्जाणं .."खग्रोवसमे का अर्थ 434, केवली आदि से शुद्धबोधि का लाभालाभ 434. केबली आदि से शद्ध अनगारिता का ग्रहण-अग्रण 435, केवली आदि से ब्रह्मचर्य-बास का धारण-अधारण 436, केवली आदि से शुद्ध संयम का ग्रहण-अग्रहण 437, केवली आदि से शुद्ध संवर का आचरण-अनाचरण 438, केवली अादि से ग्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान-उपार्जन 438, केवली आदि से ग्यारह बोलों की प्राप्ति और अप्राप्ति 440, केवली आदि से विना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमश: अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया 442, 'तस्स छट्ट-छ?णं': प्राशय 443, समुत्पन्न विभंगज्ञान की शक्ति 443, विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया 443, पूर्वोक्त अवधिज्ञानी में लेश्या, ज्ञान आदि का निरूपण 444, साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ 447, वज्रऋषभनाराच-संहनन ही क्यों ? 447, सवेदी आदि का तात्पर्य 447, प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही क्यों? 447, उक्त अवधिज्ञानी को केवलज्ञान-प्राप्ति का क्रम 447, चारित्रात्मा अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों का प्रभाव 448, मोहनीयकर्म का नाश, शेष घाति कर्मनाश का कारण 448, केवलज्ञान के विशेषणों का भावार्थ 448, असोच्चा केवली द्वारा उपदेश-प्रव्रज्यासिद्धि आदि के सम्बन्ध में 446, असोच्चा केवली का आचार-विचार, उपलब्धि एवं स्थान 450, सोच्चा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 451, 'असोच्चा' का अतिदेश 451. केवली आदि से सन कर अवधिज्ञान की उपलब्धि 452, केवली आदि से सुन कर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को अवधिज्ञानप्राप्ति को प्रक्रिया 452, तथारूप अवधिज्ञानी में लेश्या, योग, देह आदि 452, सोच्चा केवली द्वारा उपदेश, प्रव्रज्या, सिद्धि प्रादि के सम्बन्ध में 454, सोच्चा अवधिज्ञानी के लेश्या प्रादि का निरूपण 456, असोच्चा से सोच्चा अवधिज्ञानी की कई बातों में अन्तर 456 / बत्तीसवाँ उद्देशक-गांगेय (सूत्र 1-56) 458-507 उपोद्घात 458, चौवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर-उपमात-उद्वर्तन-प्ररूपणा 458, उपपातउद्वर्तन : परिभाषा 460, सान्तर और निरन्तर 460, एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु 460, प्रवेशनक : चार प्रकार 460, नैरयिक-प्रवेशनक निरूपण 461, नैरयिक-प्रवेशनक सात ही क्यों ? 461, एक नैरयिक के प्रवेशनक-भंग 461, एक नैरयिक के असंयोगी सात प्रवेशनक-भंग 461, दो नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग 461, तीन नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग 463, चार नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 466, चार नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग 471, पंच नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 471. पंच नैरयिकों के द्विकसंयोगी भंग 474, पांच नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग 474, पांच नैरयिक के चतु:संयोगी भंग 475, पंच नरयिकों के पंचसंयोगी भंग 476, पांच नैरयिकों के समस्त भंग 477, छह [27] Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 477, एक संयोगी 7 भंग 476, द्विकसंयोगी 105 भंग 479, त्रिकसंयोगो 350 भंग 479, चतुःसंयोगी 350 भंग 479, पंचसंयोगी 105 भंग 479, पसंयोगी 7 भंग 480, सात नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 480, सात नरयिकों के असंयोगी 7 भंग 481, द्विकसंयोगी 126 भंग 481, त्रिकसंयोगी 525 भंग 481, चतु:संयोगी 700 भंग 481, पंचसंयोगी 315 भंग 481, षट्संयोगी 42 भंग 481, सप्तसंयोगी एक भंग 481, पाठ नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 481, असयोगी भंग 482, द्विकसंयोगी 147 भंग 482, त्रिकसंयोगी 735 भंग 482, चतुःसंयोगी 1225 भंग 482, पंचसंयोगी 735 भंग 483, षट्संयोगी 147 भंग 483, सप्तसंयोगी 7 भंग 483, नौ नै रयिकों के प्रवेशनकभंग 483, नौ नैरयिकों के असंयोगी भंग 483, द्विकसंयोगी 168 भंग 483, त्रिकसंयोगी 980 भंग 484, चतुष्कसंयोगी 1660 भंग 494, पंचसंयोगी 1470 भग 484, षट्संयोगी 362 भंग 484, सप्तसंयोगी 28 भंग 484, दस नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 484, दस नैरयिकों के असंयोगी भंग 485, द्विकसंयोगी 186 भंग 485, त्रिकसंयोगी 1260 भग 485, चतुष्कसंयोगी 2640 भंग 485, पंचसंयोगी 2646 भंग 485, षट्संयोगी 882 भंग 485, सप्तसंयोगी 84 भंग 485, संख्यात नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 486, संख्यात का स्वरूप 488, असंयोगी 7 भंग 488, द्विकसंयोगी 231. भंग 488, त्रिकसंयोगी 735 भंग 488, चतुः संयोगी 1085 भंग 486, पंचसंयोगी 861 भंग 486, षट्संयोगी 357 भंग 486, सप्तसंयोगी 61 भंग 486, असंख्यात नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 486, उत्कृष्ट नैरपिक-प्रवेशनक प्ररूपणा 460, रत्नप्रभादि नैरयिक प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 462, तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 463, उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक प्ररूपणा 494, एकेन्द्रियादि तिर्यञ्चप्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 465, मनुष्य-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 465, उत्कृष्ट रूप से मनुष्य-प्रवेशनक-प्ररूपणा 467, मनुष्य-प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 467, देव-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 498, उत्कृष्ट रूप से देव-प्रवेशनक-प्ररूपणा 466, भवनवासी आदि देवों के प्रवेशनकों का अल्पबहत्व 488, नारकतिर्यञ्च-मनुष्य-देव प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 500, चौवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर उपपादउद्वर्तनप्ररूपणा 500, प्रकारान्तर से चौवीस दण्डकों में उत्पाद-उद्वर्तना-प्ररूपणा 501, सत ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य 503, सत् में ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य 503, गांगेय सम्मतसिद्धान्त के द्वारा स्वकथन की पुष्टि 503, केवलज्ञानी आत्मप्रत्यक्ष से सब जानते हैं 503, केवलज्ञानी द्वारा समस्त स्व-प्रत्यक्ष 504, नैरयिक प्रादि की स्वयं उत्पत्ति : रहस्य और कारण 504-505, भगवान के सर्वज्ञत्व पर श्रद्धा और पंचमहाव्रत धर्म-स्वीकार 507 / / तेतीसवाँ उद्देशक-कुण्डग्राम (सूत्र 1-112) 508-568 __ ऋषभदत्त और देवानन्दा : संक्षिप्त परिचय 508, ऋषभदत्त ब्राह्मणधर्मानुयायी था या श्रमणधर्मानुयायी ? 506, भगवान् की सेवा में वन्दना-पर्युपासनादि के लिए जाने का निश्चय 506, ब्राह्मणदम्पती की दर्शनवन्दनार्थ जाने की तैयारी 510, पांच अभिगम क्या और क्यों ? 513, देवानन्दा की मातृवत्सलता और गौतम का समाधान 513, ऋषभदत्त द्वारा प्रव्रज्याग्रहण एवं निर्वाणप्राप्ति 515, देवानन्दा द्वारा साध्वी-दीक्षा और मूक्ति-प्राप्ति 516. (जमालि-चरित जमालि और उसका भोग-वैभवमय जीवन 518, भगवान् का पदार्पण सुनकर दर्शन-वन्दनादि के लिये गमन 516, जमालिद्वारा प्रवचन-श्रवण और श्रद्धा तथा प्रव्रज्याकी अभिव्यक्ति 522. माता-पिता से दीक्षा की [28] Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुज्ञा का अनुरोध 523, प्रव्रज्या का संकल्प सुनते ही माता शोकमग्न 525, माता-पिता के साथ विरक्त जमालि का संलाप 526, जमालि को प्रव्रज्याग्रहण की अनुमति दी 536, जमालि के प्रवज्याग्रहण का विस्तृत वर्णन 537-553, भगवान की बिना प्राज्ञा के जमालि का पृथक् विहार 554, जमालि अनगार का श्रावस्ती में और भगवान का चंपा में विहरण 555, जमालि अनगार के शरीर में रोगातंक की उत्पत्ति 556, रुग्ण जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध-स्फुरणा और प्ररूपणा 557, कुछ श्रमणों द्वारा जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार, कुछ के द्वारा अस्वीकार 558, जमालि द्वारा सर्वज्ञता का मिथ्या दावा 556, गौतम के दो प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ जमालि का भगवान् द्वारा सद्धान्तिक समाधान 560, मिथ्यात्वग्रस्त जमालि की विराधकता का फल 562, किल्विषिक देवों में उत्पत्ति का भगवत्समाधान 563, किल्विषिक देवों के भेद, स्थान एवं उत्पत्तिकारण 564, किल्विषिक देवों में जमालि की उत्पत्ति का कारण 566, स्वादजयी अनगार किल्विषिक देव क्यों ? 567, जमालि का भविष्य 567 / चौतीसवाँ उद्देशक-पुरुष (सूत्र 1-25) 566-575 पुरुष और नोपुरुष का घातक, उपोद्घात, पुरुष के द्वारा अश्वादिघात सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 566, प्राणिघात के सम्बन्ध में सापेक्ष सिद्धान्त 571, घातक व्यक्ति को वैरस्पर्श की प्ररूपणा 571, एकेन्द्रिय जीवों की परस्पर श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा 572, पृथ्वीकायि कादि द्वारा पृथ्वीकायिकादि को श्वासोच्छ्वास करते समय क्रिया-प्ररूपणा 573, वायुकाय को वृक्षमूलादि कंपाने-गिराने संबधी क्रिया 575 / / 576 दशम शतक 576-626 प्राथमिक दशम शतकगत चौतीस उद्देशकों के विषयों का संक्षिप्त परिचय दशम शतक के चौतीस उद्देशकों को संग्रहगाथा 578 प्रथम उद्देशक-दिशाओं का स्वरूप (सूत्र 2-16) 576-585 दिशात्रों का स्वरूप 576, दिशाएँ : जीव-अजीव रूप क्यों ? 576, दिशात्रों के दस भेद 580, दिशाओं के ये दस नामान्तर क्यों ? 581, दश दिशाओं की जीव-अजीव सम्बन्धी वक्तव्यता 581, दिशा-विदिशाओं का आकार एवं व्यापकत्व 582, आग्नेयी विदिशा का स्वरूप 583, जीवदेश सम्बन्धी भंगजाल 583, शेष दिशा-विदिशाओं की जीव-अजीव प्ररूपणा 584, शरीर के भेद-प्रभेद तथा सम्बन्धित निरूपण 584 / द्वितीय उद्देशक-संवृत अनगार (सूत्र 1-6) 586-563 वीचिपथ और अवीचिपथ स्थित संवृत अनगार को लगने वाली क्रिया 586, ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया के अधिकारी 587, वीयीपंथे : चार रूप : चार अर्थ 587, अवीयीपंथे : चार रूप : चार अर्थ 587, योनियों के भेद-प्रभेद, प्रकार एवं स्वरूप 587, योनि का [26] Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वचनार्थ 588, योनि के सामान्यतया तीन प्रकार 588, प्रकारान्तर से योनि के तीन भेद 586, अन्य प्रकार से योनि के तीन भेद 589, उत्कृष्टता-निकृष्टता की दृष्टि से योनि के तीन प्रकार 586, चौरासी लाख जीवयोनियाँ 586, विविध वेदना : प्रकार एवं स्वरूप 586, प्रकारान्तर से त्रिविध वेदना 560, वेदना के पुनः तीन भेद हैं 560, वेदना के दो भेद 560, वेदना के दो भेद : प्रकारान्तर से 560, मासिक भिक्षुप्रतिमा की वास्तविक पाराधना 561, भिक्षुप्रतिमा : स्वरूप और प्रकार 561, अकृत्यसेवी भिक्षु : कब अनाराधक कब आराधक ? 562, पाराधकविराधक भिक्षु की छह कोटियां 563 / तृतीय उद्देशक---आत्मऋद्धि (सूत्र 1-16) 564-601 देवों की देवावासों की उल्लंघनशक्ति : अपनी और दूसरी 564, देवों का मध्य में से होकर गमनसामर्थ्य 565, विमोहित करने का तात्पर्य 567, देव-देवियों का एक दूसरे के मध्य में से होकर गमनसामर्थ्य 567, दौड़ते हुए अश्व के 'खु-खु' शब्द का कारण 566, प्रज्ञापनीभाषा : मृषा नहीं 596, बारह प्रकार की भाषाओं का लक्षण 600 / चतुर्थ उद्देशक-श्यामहस्ती (सूत्र 1-14) 602-606 श्यामहस्ती अनगार : परिचय एवं प्रश्न का उत्थान 602, चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव : अस्तित्व, कारण एवं सदैव स्थायित्व 603, त्रास्त्रिश देवों का लक्षण 605, बलीन्द्र के प्रायस्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन 606, धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र-पर्यन्त के त्रायस्त्रिशक देवों की नित्यता का निरूपण 607, शकेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के प्रायस्त्रिशक : कौन और कैसे ? 607, बायस्त्रिशक देव : किन देवनिकायों में ? 601 / पंचम उद्देशक---अग्रमहिषी वर्णन (सूत्र 1-35) 610-623 उपोद्घात : स्थविरों द्वारा पृच्छा 610, अपनी सुधर्मा सभा में चमरेन्द्र की मैथुननिमित्तक भोग की असमर्थता 611, चमरेन्द्र के सोमादि लोकपालों का देवी-परिवार 612, बलीन्द्र एवं उसके लोकपालों का देवी-परिवार 614, धरणेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार 615, भूतानन्दादि भवनवासी इन्द्रों तथा उनके लोकपालों का देवी-परिवार 616, व्यन्तरजातीय देवेन्द्रों के देवीपरिवार आदि का निरूपण 617, व्यंतरजातीय देवों के 8 प्रकार 616, इन आठों के प्रत्येक समुह के दो-दो इन्द्रों के नाम 620, चन्द्र-सूर्य-ग्रहों के देवी-परिवार आदि का निरूपण 620, शक्रेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार 621, ईशानेन्द्र तथा उसके लोकपालों का देवी-परिवार 622 / छठा उद्देशक-सभा (सूत्र 1-2) 624-625 सूर्याभ के अतिदेशपूर्वक शकेन्द्र तथा उसकी सुधर्मा सभा आदि का वर्णन 624 / सात-चौतीस उद्देशक-उत्तरवर्ती अन्तर्वीप (सूत्र 1) 626 उत्तरदिशावर्ती अट्ठाईस अन्तर्वीप (जीवाभिगमसूत्र के अनुसार) 626 / // समाप्तिसूचक // [30] Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं पंचम अंग वियाहपण्णत्तिसुत्तं भिगवई] द्वितीय खण्ड पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं पञ्चमम् प्रणम् व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् [भगवती] Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ट सयं : छठा शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवतीसूत्र के इस शतक में वेदना, आहार, महाश्रव, सप्रदेश, तमस्काय, भव्य, शाली, पृथ्वी, कर्म एवं अन्ययूथिकवक्तव्यता आदि विषयों पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। * इस छठे शतक में भी पूर्ववत् दस उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक में महावेदना और महानिर्जरा में प्रशस्तनिर्जरा वाले जीव को विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा श्रेष्ठ सिद्ध किया गया है, तत्पश्चात् चतुविधकरण की अपेक्षा जीवों के साता-असाता वेदन की प्ररूपणा की गई है और अन्त में, जीवों में वेदना और निर्जरा से सम्बन्धित चतुभंगी की प्ररूपणा की गई है। * द्वितीय उद्देशक में जीवों के प्राहार के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक वर्णन किया गया है। तृतीय उद्देशक में महाकर्म आदि से युक्त जीव के साथ पुद्गलों के बन्ध, चय, उपचय और अशुभ रूप में परिणमन का तथा अल्पकर्म आदि से युक्त जीव के साथ पुद्गलों के भेद-छेद, विध्वंस आदि का तथा शुभरूप में परिणमन का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण है, द्वितीय द्वार में वस्त्र में पुद्गलोपचयवत् प्रयोग से समस्त जीवों के कर्म-पुद्गलोपचय का, तृतीयद्वार में जीवों के कर्मोपचय को सादिसान्तता का, जीवों की सादिसान्तता आदि चतुर्भगी का, चतुर्थद्वार में अष्टकर्मों की बन्धस्थिति आदि का, पंचम द्वार से उन्नीसवें द्वार तक स्त्री-पुरुषनपुंसक आदि विभिन्न विशिष्ट कर्मबन्धक जीवों की अपेक्षा से अष्टकर्म प्रकृतियों के बन्धअबन्ध का विचार किया गया है / और अन्त में, पूर्वोक्त 15 द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण है। * चतुर्थ उद्देशक में कालादेश की अपेक्षा सामान्य चौबीस दण्डकवर्ती जीव, आहारक, भव्य, संज्ञी, लेश्यावान्, दृष्टि, संयत, सकषाय, सयोगी, उपयोगी, सवेदक, सशरीरी, पर्याप्तक आदि विशिष्ट जोवों में 14 द्वारों के माध्यम से सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व का निरूपण किया गया है। अन्त में, समस्त जीवों के प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होने, जानने, करने और आयुष्य बांधने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। * पंचम उद्देशक में विभिन्न पहलुओं से तमस्काय और कृष्णराजियों के सम्बन्ध में सांगोपांग वर्णन है, अन्त में लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देवपरिवार, विमानसंस्थान आदि का वर्णन है। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * छठे उद्देशक में चौबीस दण्डकों के आवास, विमान आदि की संख्या का, तथा मारणान्तिक / समुद्घातसमवहत जीव के आहारादि से सम्बन्धित निरूपण किया गया है / * सातवें उद्देशक में कोठे आदि में रखे हुए शालि आदि विविधधान्यों की योनि स्थिति की तथा मुहूत्र्त से लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त गणितयोग्य कालपरिमाण की और पल्योपम-सागरोपमादि औपमिककाल की प्ररूपणा की गई है। अन्त में सुषमसुषमाकालीन भारत के जीव-अजीबों के भावादि का वर्णन किया गया है / * प्राठवें उद्देशक में रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्वदेवलोकों में गह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व. कर्तृत्व-की, जीवों के आयुष्यबन्ध एवं जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों की, लवणादि असंख्य द्वीप-समुद्रों के स्वरूप एवं प्रमाण की तथा द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के साथ अन्यकों के बन्धका, बाह्यपुद्गल-ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव के द्वारा एकवर्णादि के पुद्गलों के अन्यवर्णादि में विकुर्वण-परिणमनसम्बन्धी सामर्थ्य का, तथा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यायुक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यावाले देवादि को जानने-देखने के सामर्थ्य का निरूपण किया गया है। दश उद्देशक में अन्यतीथिक मत-निराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोकवर्ती सर्वजीवों के सुख-दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की स्वमतप्ररूपणा, जीव के स्वरूपनिर्णय से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी, एकान्त दुःखवेदनरूप अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदनप्ररूपणा तथा जीवों द्वारा आत्मशरीरक्षेत्रावगाढ-पुद्गलाहार की प्ररूपणा की गई है। अन्त में, केवली के प्रात्मा द्वारा ही ज्ञान-दर्शन-सामर्थ्य की प्ररूपणा की गई है।' DO 1. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, 'अनुक्रमणिका' पृ-५ से 7 तक (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठटिप्पणयुक्त) भा. 1 'विसयाणुक्कमो' पृ. 40 से 44 तक Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ट सयं : छठा शतक छठे शतक की संग्रहणीगाथा 1. बेयण 1 पाहार 2 महस्सवे य 3 सपदेस 4 तमुयए 5 भविए 6 / साली 7 पुढवी 8 कम्मऽनउस्थि 6-10 दस छट्ठगम्मि सते // 1 // [1. गाथा का अर्थ-] 1. वेदना, 2. पाहार, 3. महाश्रव, 4. सप्रदेश, 5. तमस्काय, 6. भव्य 7. गाली, 8. पृथ्वी, 6. कर्म और 10. अन्ययूथिक-वक्तव्यता; इस प्रकार छठे शतक में ये दस उद्देशक हैं। पढमो उद्देसओ : 'वेयरण' प्रथम उद्देशक : वेदना महावेदना एवं महानिर्जरायुक्त जीवों का निर्णय विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा 2. से नणं भंते ! जे महावेदणे से महानिज्जरे ? जे महानिज्जरे से महावेदणे ? महावेदणस्स य अप्पवेदणास य से सेए जे पसत्यनिज्जराए ? हंता, गोयमा ! जे महावेदणे एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! क्या यह निश्चित है कि जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा बाला है और जो महानिर्जरावाला है, वह महावेदना वाला है ? तथा क्या महावेदना वाला और अल्पवेदना वाला, इन दोनों में वही जीव श्रेयात् (श्रेष्ठ) है, जो प्रशस्तनिर्जरा वाला है ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! जो महावेदना वाला है, इत्यादि जैसा ऊपर कहा है, इसी प्रकार समझना चाहिए। 3. [1] छट्ठी-सत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु नेरइया महावेदणा ? हंता, महावेदणा। [3-1 प्र.] भगवन् ! क्या छठी और सातवीं (नरक-) पृथ्वी के नैरयिक महावेदना वाले हैं ? [3-1 उ.] हां गौतम ! वे महावेदना वाले हैं / [2] ते णं भंते ! समर्णेहितो निग्गंहितो महानिज्जरतरा ? गोयमा! णो इण8 समट्ठ। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3-2 प्र. भगवन् ! तो क्या वे (छठी-सातवीं नरकभूमि के नैरयिक) श्रमण-निर्गन्थों की अपेक्षा भी महानिर्जरा वाले हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात्-छठी-सातवीं नरक के नैरयिक, श्रमण-निर्ग्रन्थों की अपेक्षा महानिर्जरा वाले नहीं हैं / ) 4. से केणढणं भंते ! एवं बुच्चति जे महावेदणे जाव पसत्थनिज्जराए (स. 2) ? गोयमा ! से जहानामए दुवे वत्थे सिया, एगे वत्थे कद्दमरागरते, एगे वत्थे खंजणरागरते। एतेसि गं गोयमा ! दोण्हं वत्थाणं कतरे वत्थे दुधोयतराए चेव, दुबामतराए चेव, दुपरिकम्मतराए चेव ? कयरे वा वत्थे सुधोयतराए चेव, सुवामतराए चेत्र, सुपरिकम्मतराए चेव, जे वा से वत्थे कद्दमरागरते? जे वा से वत्थे खंजणरागरते? भगवं ! तत्थ णं जे से वत्थे कद्दमरागरते से णं वत्थे दुधोयतराए चेव दुवामतराए चेव दुप्परिकम्मतराए चेव / एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकताई चिक्कणीकताई सिलिट्टीकताई खिलीभूताइं भवंति; संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो महानिज्जरा, जो महापज्जवसाणा भवति / से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणों प्राउडेमाणे महता महता सद्देणं महता महता घोसेणं महता महता परंपराधातेणं नो संचाएति तोसे अहिगरणोए प्रहाबायरे वि पोग्गले परिसाडिसए। एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाइं जाव नो महापज्जवसाणा भवंति / भगवं ! तत्थ जे से बत्थे खंजणरागरते से णं वत्थे सुधोयतराए वेव सुवामतराए चेव सुपरिकम्मतराए चेव / एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं ग्रहाबायराई कम्माई सिढिलोकताई निद्विताई कडाई विप्परिणामिताई खिप्पामेव विद्धत्थाई भवंति जावतियं तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति / से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिध्यामेव मसमसाविज्जति ? हंता, मसमसाविज्जति / एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबादराई कम्माइं जाब महापज्जवसाणा भवति / से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि प्रयकवल्लसि उदगबिंदू जाव हंता, विद्ध समागच्छति / एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं जाव महापज्जवसाणा भवंति / से तेण?णं जे महावेदणे से महानिज्जरे जाव निजराए।' [4 प्र.] भगवन् ! तब यह कैसे कहा जाता है, कि जो महावेदना वाला है, वह महानिर्जरा वाला है, यावत् प्रशस्त निर्जरा वाला है ? 1. यहां 'जाव' शब्द से 'जे महानिज्जरे से महावेदणे, महावेदणस्स य अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसस्थनिज्जराए' / यह पाठ समझना चाहिए। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१] [4 उ.] गौतम ! (मान लो,) जैसे दो वस्त्र हैं। उनमें से एक कर्दम (कीचड़) के रंग से रंगा हुआ है और दूसरा वस्त्र खंजन (गाड़ी के पहिये के कीट) के रंग से रंगा हुआ है / गौतम ! इन दोनों वस्त्रों में से कौन-सा वस्त्र दुधौंततर (मुश्किल से धुल सकने योग्य), दुर्वाम्यतर (बड़ी कठिनाई से काले धब्बे उतारे जा सकें, ऐसा) और दुष्परिकर्मतर (जिस पर मुश्किल से चमक लाई जा सके तथा चित्रादि बनाये जा सकें, ऐसा) है और कौन-सा वस्त्र सुधौततर (जो सरलता से धोया जा सके), सुवाम्यतर (आसानी से जिसके दाग़ उतारे जा सके), तथा सुपरिकर्मतर (जिस पर चमक लाना और चित्रादि बनाना सुगम) है; कर्दमराग-रक्त या खंजनरागरक्त ? (गौतम स्वामी ने उत्तर दिया-) भगवन् ! उन दोनों वस्त्रों में से जो कर्दम-रंग से रंगा हुआ है, वही (वस्त्र) दुधौंततर, दुर्वाम्यतर एवं दुष्परिकर्मतर है। (भगवान् ने इस पर फरमाया-) 'हे गौतम ! इसी तरह नैरयिकों के पाप-कर्म गाढीकृत (गाढ बंधे हुए), चिक्कणीकृत (चिकने किये हुए), श्लिष्ट (निधत्त) किये हुए एवं खिलीभूत (निकाचित किये हुए) हैं. इसलिए वे सम्प्रगाढ वेदना को वेदते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं हैं तथा महापर्यवसान वाले भी नहीं हैं। अथवा जैसे कोई व्यक्ति जोरदार आवाज के साथ महाघोष करता हुया लगातार जोर-जोर से चोट मार कर एरण को (हथौड़े से) कूटता-पीटता हुआ भी उस एरण (अधिकरणी) के स्थूल पुद्गलों को परिशटित (विनष्ट) करने में समर्थ नहीं हो सकता; इसी प्रकार हे गौतम ! नैरयिकों के पापकर्म गाढ़ किये हुए हैं;"यावत् इसलिए वे महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले नहीं हैं। (गौतमस्वामी ने पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर पूर्ण किया-) 'भगवन् ! उन दोनों वस्त्रों में से जो खंजन के रंग से रंगा हुआ है, वह वस्त्र सुधौततर, सुवाम्यतर और सुपरिकर्मतर है।' (इस पर भगवान् ने कहा-) हे गौतम ! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रन्थों के यथाबादर (स्थूलतर स्कन्धरूप) कर्म, शिथिलीकृत (मन्द विपाक वाले), निष्ठितकृत (सत्तारहित किये हुए) विपरिणामित (विपरिणाम वाले) होते हैं / (इसलिए वे) शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। जितनी कुछ (जैसी-कैसी) भी वेदना को वेदते हए श्रमण-निर्ग्रन्थ महानिर्जरा पीर महापर्यवसान वाले होते हैं।' (भगवान् ने पूछा-) हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूले (तृणहस्तक) को धधकती हुई अग्नि में डाल दे तो क्या वह सूखे घास का पूला धधकती आग में डालते ही शीघ्र जल उठता है ? (गोतम स्वामी ने उत्तर दिया-) हाँ भगवन् ! वह शीघ्र ही जल उठता है / (भगवान् ने कहा-) हे गौतम ! इसी तरह श्रमण-निन्थों के यथाबादर कर्म शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं, यावत् वे श्रमणनिर्गन्थ महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले होते हैं / (अथवा) जैसे कोई पुरुष, अत्यन्त तपे हुए लोहे के तवे (या कड़ाह) पर पानी की बूंद डाले तो वह यावत् शीघ्र ही विनष्ट हो जाती है, इसी प्रकार, हे गौतम ! श्रमण निग्रन्थों के यथाबादरा कर्म भी शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं और वे यावत् महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाले होते हैं। इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है, यावत् वही श्रेष्ठ है जो प्रशस्तनिर्जरा वाला है। Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन–महावेदना एवं महानिर्जरा वाले जीवों के विषय में विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा निर्णयप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 2 से 4 तक) में महावेदनायुक्त एवं महानिर्जरायुक्त कौन-से जीव हैं, और वे क्यों है ? इस विषय में विविध साधक-बाधक दृष्टान्तों द्वारा निर्णय दिया गया है / महावेदना और महानिर्जरा की व्याख्या-उपसर्ग आदि के कारण उत्पन्न हुई विशेष पीड़ा महावेदना और कर्मों का विशेष रूप से क्षय होना महानिर्जरा है। महानिर्जरा और महापर्यवसान का भी महावेदना और महानिर्जरा की तरह कार्यकारण भाव है / जो महानिर्जरा वाला नहीं होता, वह महापर्यवसान (कर्मों का विशेष रूप से सभी ओर से अन्त करने वाला) नहीं होता / क्या नारक महावेदना और महानिर्जरा वाले नहीं होते ?--मूल पाठ में इस प्रश्न को उठा कर समाधान मांगा है कि नैरयिक महावेदना वाले होते हुए महानिर्जरा वाले होते हैं या श्रमण निग्रन्थ ? भगवान् ने कीचड़ से रंगे और खंजन से रंगे, वस्त्रद्वय के दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि जो महावेदना वाले होते हैं, वे सभी महानिर्जरा वाले नहीं होते। जैसे नारक महावेदना वाले होते हैं, उन्हें अपने पूर्व कृत गाढ़बन्धनबद्ध निधत्त-निकाचित कमों के फलस्वरूप महावेदना होती है, परन्तु वे उसे समभाव से न सहकर रो रो कर, विलाप करते हुए सहते हैं, जिससे वह महावेदना महानिर्जरा रूप नहीं होती, बल्कि अल्पतर, अप्रशस्त, अकामनिर्जरा होकर रह जाती है। इसके विपरीत भ. महावीर जैसे श्रमणनिर्ग्रन्थ बड़े-बड़े उपसर्गों व परीषहों के समय समभाव से सहन करने के कारण महानिर्जरा और वह भी प्रशस्त निर्जरा कर लेते हैं। इस कारण वेदना महती हो या अल्प, उसे समभाव से सहने वाला ही भगवान् महावीर की तरह प्रशस्त महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाला हो जाता है। श्रमण-निर्ग्रन्थों के कर्म शिथिलबन्धन वाले होते हैं, जिन्हें वे शीघ्र ही स्थितिघात और रसघात आदि के द्वारा विपरिणाम वाले कर देते हैं / अत एव वे शीघ्र विध्वस्त हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में दो दृष्टान्त दिये गए हैं--सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही तथा तपे हुए तवे पर पानी की बूद डालते ही वे दोनों विनष्ट हो जाते हैं; वंसे हो श्रमणों के कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। निष्कर्ष—यहाँ उल्लिखित कथन—'जो महावेदना वाला होता है, वह महानिर्जरा वाला होता है किसी विशिष्ट जीव की अपेक्षा से समझना चाहिए, नैरयिक आदि क्लिष्ट कर्म वाले जीवों की अपेक्षा से नहीं / तथा जो महानिर्जरा वाला होता है, वह महावेदनावाला होता है, यह कथन भी प्रायिक समझना चाहिए क्योंकि सयोगीकेवली-नामक तेरहवें गुणस्थान में महानिर्जरा होती है, परन्तु महावेदना नहीं भी होती, उसकी वहाँ भजना है। निष्कर्ष यह है कि जिनके कर्म सुधौतवस्त्रवत् सुविशोध्य होते हैं, वे महानुभाव कैसी भी वेदना को भोगते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। विशोध्य कर्म के चार विशेषणों को व्याख्या-गाढीकयाई-जो कर्म डोरी से मजबूत बांधी हुई सूइयों के ढेर के समान आत्मप्रदेशों के साथ गाढ बंधे हुए हैं, वे गाढीकृत हैं। चिक्कणीकयाई = मिट्टी के चिकने बर्तन के समान सूक्ष्म-कर्मस्कन्धों के रस के साथ परस्पर गाढ बन्ध वाले, दुर्भेद्य कर्मों को चिकने किये हुए कर्म कहते हैं। सिलिट्ठीकयाई = रस्सी से दृढ़तापूर्वक बांध कर आग में तपाई हुई सुइयों का ढेर जैसे परस्पर चिपक जाता है, वे सुइयाँ एकमेक हो जाती हैं, उसी तरह Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१] जो कर्म परस्पर एकमेक-शिलष्ट हो (चिपक) गए हैं, ऐसे निधत्त कर्म। खिलोभूयाई-खिलीभूत कर्म, वे निकाचित कर्म होते हैं, जो बिना भोगे, किसी भी अन्य उपाय से क्षीण नहीं होते / ' चौबीस दण्डकों में करण की अपेक्षा साता-असाता-वेदन की प्ररूपरणा 5. कतिविहे गं भंते ! करणे पण्णते ? गोतमा ! चउब्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे बइकरणे कायकरणे कम्मकरणे / [5 प्र.] भगवन् ! करण कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [5 उ.] गौतम ! करण चार प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-मन-करण, वचनकरण, काय-करण और कर्म-करण / 6. रइयाणं भंते ! कतिविहे करणे यण्णत्ते ? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा–मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे / एवं पंचेंदियाणं सन्वेसि चउब्धिहे करणे पण्णत्ते। एगिदियाणं दुविहे-कायकरणे घ कम्मकरणे य। विगलेंदियाणं वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे / [6 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के कितने प्रकार के करण कहे गए हैं ? [6 उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों के चार प्रकार के करण कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैंमन-करण, वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण / इसी प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार प्रकार के करण कहे गए हैं / एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के करण होते हैं-कायकरण और कर्मकरण / विकलेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार के करण होते हैं, यथा-वचन-करण, काय-करण और कर्मकरण / 7. [1] नेरइया गंमते ! किं करणतो वेदणं वेदेति ? अकरणतो वेदणं वेति ? गोयमा ? नेरइया णं करणो वेदणं वेदेति, नो अकरणो वेदणं वेदेति / [7-1 प्र.] 'भगवन् ! नैरयिक जीव करण से प्रसातावेदना वेदते हैं अथवा प्रकरण से अमालावेदना वेदते हैं ? [7-1 उ.] गौतम ! नै रयिक जीव करण से असातावेदना वेदते हैं, अकरण से असातावेदना नहीं वेदते / [2] से केणटुणं. ? गोयमा ! नेरइयाणं चउदिवहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे / इच्चेएणं चउविहेणं असुभेणं करणेणं नेरइया करणतो असायं वेदणं वेदेति, नो अकरणतो, से तेणणं / 1. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्रांक 251 (ख) भगवती, हिन्दी विवेचन भा. 2 पृ. 936 से 938 तक Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [7-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [7-2 उ.] गौतम ! नैरयिक जीवों के चार प्रकार के करण कहे गए हैं, जैसे कि मन-करण, वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण / उनके ये चारों ही प्रकार के करण अशुभ होने से वे (नैरयिक जीव) करण द्वारा असातावेदना वेदते हैं, अकरण द्वारा नहीं। इस कारण से ऐसा कहा गया है कि नै रयिक जीव करण से असातावेदना वेदते हैं, अकरण से नहीं। 8. [1] असुरकुमारा गं कि करणतो, प्रकरणतो ? गोयमा ! करणतो, नो प्रकरणतो / [8-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव क्या करण से साताबेदना वेदते हैं, अथवा अकरण से ? [8-1 उ.] गौतम ! असुरकुमार करण से सातावेदना वेदते हैं, अकरण से नहीं / [2] से केपट्टणं० ? गोयमा ! असुरकुमाराणं चउक्विहे करणे पणते, तं जहा-मणकरणे वइकरणे कायकरणे कम्मकरणे। इच्चेएणं सुभेणं करणेणं प्रसुरकुमारा णं करणतो सायं वेदणं वेदेति, नो अकरणतो। [8-2 प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [8-2 उ.] गौतम ! असुरकुमारों के चार प्रकार के करण कहे गए हैं / यथा--मनकरण, वचन-करण, काय-करण और कर्म-करण / असुरकुमारों के ये चारों करण शुभ होने से वे (असुर. कुमार) करण से सातावेदना वेदते हैं, किन्तु अकरण से नहीं / 6. एवं जाव थणियकुमारा। [6] इसी तरह (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / 10. पुढविकाइयाणं एस चेव पुच्छा। नवरं इच्चेएणं सुभासुभेणं करणेणं पुढचिकाइया करणतो बेमायाए वेदणं वेति, नो प्रकरणतो। [10 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव करण द्वारा वेदना वेदते हैं, या प्रकरण द्वारा ? [10 उ. गौतम ! पृथ्वी कायिक जीव करण द्वारा वेदना बेदते हैं, किन्तु अकरण द्वारा नहीं / विशेष यह है कि इनके ये करण शुभाशुभ होने से ये करण द्वारा विमात्रा से (विविध प्रकार से) वेदना वेदते हैं; किन्तु प्रकरण द्वारा नहीं / अर्थात--पृथ्वीकायिक जीव शुभकरण होने से सातावेदना वेदते हैं और कदाचित् अशुभ करण होने से असाता बेदना वेदते हैं / 11. पोरालियसरीरा सम्वे सुभासुभेणं वेमायाए / [11] औदारिक शरीर वाले सभी जीव अर्थात्-पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय और मनुष्य, शुभाशुभ करण द्वारा विमात्रा से वेदना (कदाचित् सातावेदना और कदाचित असातावेदना) वेदते हैं। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१] [11 12. देवा सुभेणं सातं / [12] देव (चारों प्रकार के देव) शुभ करण द्वारा सातावेदना वेदते हैं / विवेचन-चौबीस दण्डकों में करण की अपेक्षा साता-सातावेदन को प्ररूपणा-प्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 5 से 12 तक) में करण के चार प्रकार बता कर समस्त संसारी जीवों में इन्हीं शुभाशुभ करणों के द्वारा साता-असातावेदना के वेदन की प्ररूपणा की गई है। चार करणों का स्वरूप-वेदना का मुख्य कारण करण है, फिर चाहे वह शुभ हो या अशुभ / मनसम्बन्धी, वचन-सम्बन्धी, काय-सम्बन्धी और कर्म विषयक ये चार करण होते हैं संक्रमण प्रादि में निमित्तभूत जीव के वीर्य को कर्मकरण कहते हैं।' जीवों में वेदना और निर्जरा से सम्बन्धित चतुभंगी का निरूपरण ___13. [1] जीवा गं भंते ! कि महावेदणा महानिज्जरा ? महावेदणा अप्पनिज्जरा ? प्रत्यवेदणा महानिज्जरा? अप्पवेदणा अध्पनिज्जरा? गोयमा ! प्रत्येगइया जीवा महावेदणा महानिज्जरा, प्रत्थेगइया जीवा महावेयणा अप्पनिज्जरा, प्रत्येगइया जीवा अप्पवेदणा महानिज्जरा, प्रत्थेगइया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा / [13-1 प्र.] भगवन् ! जीव, (क्या) महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, अथवा अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? [13-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, कई जीव अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं तथा कई जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। [2] से केपट्टणं०? गोयमा ! पडिमापडिवनए प्रणगारे महावेदणे महानिज्जरे। छठ्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अल्पनिज्जरा / सेलेसि पडिबन्नए अगगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे / अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। [13-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [13-2 उ.] गौतम ! प्रतिमा-प्रतिपन्न (प्रतिमा अंगीकार किया हुआ) अनगार महावेदना और महानिर्जरा वाला होता है। छठी-सातवीं नरक-पृथ्वियों के नैरयिक जीव महावेदना वाले, किन्तु अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 252 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाले होते हैं / और अनुत्तरोपपातिक देव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं। विवेचन-जीवों में वेदना और निर्जरा से सम्बन्धित चतुभंगी का निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में जीवों में वेदना और निर्जरा की चतुभंगी की सहेतुक प्ररूपणा की गई है। चतुभंगी--(१) महावेदना और महानिर्जरा वाले, (2) महावेदना-अल्पनिर्जरा वाले, (3) अल्पवेदना-महानिर्जरा वाले और (4) अल्पवेदना-अल्पनिर्जरा वाले जीव / ' प्रथम उद्देशक को संग्रहणी गाथा१४. महावेदणे य बस्थे कद्दम-खंजणमए य प्रधिकरणी / तणहत्थेऽयकवल्ले करण महावेदणा जीवा // 1 // सेवं भंते ! सेवं भते! तिः / // छट्ठसयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥ [१४-गाथा का अर्थ-] महावेदना, कर्दम और खंजन के रंग से रंगे हुए वस्त्र, अधिकरणी (एरण), घास का पूला (तृणहस्तक), लोहे का तवा या कड़ाह, करण और महावेदना वाले जीव इतने विषयों का निरूपण इस प्रथम उद्देशक में किया गया है। हे भगवन् यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; इस प्रकार कह कर यावत् श्रीगौतमस्वामी विचरण करने लगे। // छठा शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा-१, पृ. 233 Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'आहार' द्वितीय उद्देशक : 'पाहार' जीवों के आहार के सम्बन्ध में अतिदेशपूर्वक निरूपण 1. रायगिहं नगरं जाव एवं वदासी-ग्राहारुद्देसो जो पण्णवणाए सो सम्बो निरवसेसो नेयव्यो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥छ8 सए : बोप्रो उद्देसो समत्तो। [1] राजगृह नगर में""यावत् भगवान महावीर ने इस प्रकार फरमाया-यहाँ प्रज्ञापना सूत्र (के 28 वें आहारपद) में जो (प्रथम) पाहार-उद्देशक कहा है, वह सम्पूर्ण (निरवशेष) जान लेना चाहिए। है भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; (यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे।) विवेचन-जीवों के प्राहार के सम्बध में अतिदेशपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत उद्देशक के इसी . सूत्र के द्वारा प्रज्ञापनासूत्रणित आहारपद के प्रथम उद्देशक का अतिदेश करके जीवों के आहारसम्बन्धी वर्णन करने का निरूपण किया है। प्रज्ञापना में वर्णित श्राहारसम्बन्धी वर्णन की संक्षिप्त झांकी-प्रज्ञापनासूत्र के 28 वें आहार पद के प्रथम उद्देशक में क्रमश: उक्त 11 अधिकारों में वर्णित विषय ये हैं--- 1. पृथ्वीकाय आदि जीव जो आहार करते हैं, वह सचित्त है, अचित्त है या मिश्र है ? 2. नैरयिक आदि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ? इस पर विचार / 3. किन जीवों को कितने-कितने काल से, कितनी-कितनी बार अाहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? 4. कौन-से जीव किस प्रकार के पुद्गलों का आहार करते हैं ? 5. आहार करने वाला अपने समन शरीर द्वारा प्रहार करता है, या अन्य प्रकार से ? इत्यादि प्रश्न / 6. आहार के लिये लिये हुए पुद्गलों के कितने भाग का पाहार किया जाता है ? इत्यादि चर्चा | 7. मुंह में खाने के लिए रखे हुए सभी पुद्गल खाये जाते हैं या कितने ही गिर जाते हैं। इसका स्पष्टीकरण / Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8. खायी हुई वस्तुएँ किस-किस रूप में परिणत होती हैं ? इसकी चर्चा / / 6. एकेन्द्रियादि जीवों के शरीरों को खाने वाले जीवों से सम्बन्धित वर्णन / 10. रोमाहार से सम्बन्धित विवेचन / 11. मन द्वारा तृप्त हो जाने वाले मनोभक्षी देवों से सम्बन्धित तथ्यों का निरूपण / ' प्रज्ञापना सूत्र के 28 वें पद के प्रथम उद्देशक में इन ग्यारह अधिकारों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, विस्तार भय से यहाँ सिर्फ सूचना मात्र दी है, जिज्ञासु उक्त स्थल देखें। ॥छठा शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / ज्ञापना स्त्र के 28 वें प्राहारपद के प्रथम उहे शक में वर्णित 11 अधिकारों की संग्रहणी गाथाएँ सचित्ताऽऽहारट्ठी केवति-कि बाऽवि सव्वतो चेव / कतिभाग-सब्बे खलू-परिणामे व बोद्धब्वे // 1 // एगिदियसरीरादी-लोमाहारो तहेव मणभक्खी। एतेसिं तु पदाणं विभावणा होति कातव्वा // 2 // (ख) भगवती सूत्र टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त, खण्ड 2, पृ. 260 से 268 तक / (ग) विशेष जिज्ञासुओं को इस विषय का विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के 28 वें पद के प्रथम उद्देशक में देखना चाहिए। सं. Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'महासव' तृतीय उद्देशक : 'महाश्रव' तृतीय उद्देशक की संग्रहणो गाथाएँ 1. बहुकम्म 1 वत्थपोग्गल पयोगसा वोससा य 2 सादीए 3 / कम्मदिति-त्थि 4-5 संजय 6 सम्मद्दिट्ठी 7 य सण्णी 8 य // 1 // भविए 6 सण 10 पज्जत्त 11 भासय 12 परित्त 13 नाण 14 जोगे 15 य / उवोगा-हारग 16-17 सुहम 18 चरिम 16 बंधे य, अप्पबहुं 20 // 2 // [1] 1. बहुकर्म, 2. वस्त्र में प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से (विश्रसा) पुद्गल, 3. सादि (आदि सहित), 4. कर्मस्थिति, 5. स्त्री, 6. संयत, 7. सम्यग्दृष्टि, 8. संज्ञी, 6. भव्य, 10. दर्शन, 11. पर्याप्त, 12. भाषक, 13. परित्त, 14. ज्ञान, 15. योग, 16. उपयोग, 17, आहारक, 18. सूक्ष्म, 19. चरम-बन्ध और 20. अल्पबहुत्त्व, (इन बीस विषयों का वर्णन इस उद्देशक में किया गया है। प्रथमद्वार-महाकर्मा और अल्पकर्मा जीव के पुद्गल-बन्ध-भेदादि का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपरण 2. [1] से नणं भंते ! महाकम्मरस महाकिरियस्स महासवस्स महावेदणस्स सवतो पोग्गला बज्झति, सम्वो पोग्गला चिज्जति, सव्वानो पोग्गला उवचिज्जति, सया समितं च णं पोग्गला बज्झति, सया समितं पोग्गला चिज्जति, सया समितं पोग्गला उचिज्जति, सया समितं च णं तस्स प्राया दुरूवत्ताए दुवग्णत्ताए दुगंधताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए प्रणित्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए प्रसुभत्ताए प्रमणुण्णताए अमणामत्ताए प्रणिच्छियत्ताए अभिजिझयत्ताए, अहताए, नो उद्धृत्ताए, दुक्खत्ताए, नो सुहत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ ? हंता, गोयमा ! महाकम्मस्स तं चेव / [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या निश्चय ही महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाश्रव वाले और महावेदना वाले जीव के सर्वतः (सब दिशाओं से, अथवा सभी ओर से और सभी प्रकार से) पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वतः (सब ओर से) पुद्गलों का चय होता है ? सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का बन्ध होता है ? सदा सतत पुदगलों का चय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसका आत्मा (सशरीर जीव) दुरूपता में, दुर्वर्णता में, दुर्गन्धता में, दुःरसता में, दुःस्पर्शता में, अनिष्टता (इच्छा से विपरीतरूप) में, अकान्तता (असुन्दरता), अप्रियता, अशुभता (अमंगलता) अमनोज्ञता और अमनोगमता (मन से भी अस्मरणीय Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रूप) में, अनिच्छनीयता (मनोप्सित रूप) में, अनभिध्यितता (प्राप्त करने हेतु प्रलोभता) में, अधमता में, अनूलता में, दुःख रूप में,...असुखरूप में बार-बार परिणत होता है ? 2-1 उ.] हाँ, गौतम ! महाकर्म वाले जीव के""यावत् ऊपर कहे अनुसार ही यावत् परिणत होता है। [2] से केण?ण? गोयमा ! से जहानामए वत्थस्स महतस्स वा धोतस्स वा तंतुम्गतस्स वा प्राणुषुवीए परिभुज्जमाणस्स सम्वनो पोग्गला बज्झति, सम्वनो पोग्गला चिज्जंति जाव परिणमंति, से तेण?णं / [2.2 प्र.] (भगवन् ! ) किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? |2.2 उ.] गौतम ! जैसे कोई अहत (जो पहना गया-परिभुक्त न हो), धौत (पहनने के बाद धोया हुआ), तन्तुगत (हाथ करघे से ताजा बुन कर उतरा हुआ) वस्त्र हो, वह वस्त्र जब क्रमशः उपयोग में लिया जाता है, तो उसके पुद्गल सब पोर से बंधते (संलग्न होते हैं, सब ओर से चय होते हैं, यावत् कालान्तर में वह वस्त्र मसोते जैसा अत्यन्त मैला और दुर्गन्धित रूप में परिणत हो जाता है। इसी प्रकार महाकर्म वाला जीव उपर्युक्त रूप से यावत् असुखरूप में बार-बार परिणत होता है। 3. [1] से नूर्ण भंते ! अप्पकम्मस्स अप्पकिरियस्स अप्पासवस्स अपवेदणस्स सव्वानो पोग्गला भिज्जंति, सवग्रो पोग्गला छिज्जति, सम्वनो पोग्गला विद्ध संति, सवनो पोग्गला परिविद्धसंति, सया समितं पोग्गला भिज्जति छिज्जति विद्ध संति परिविद्ध संति, सया समितं च णं तस्स प्राया सुरूवत्ताए पसत्थं नेयन्वं जाव' सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुज्जो 2 परिणमंति ? हंता, गोयमा ! जाव परिणमंति / [3-1 प्र.] भगवन् ! क्या निश्चय ही अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्प पाश्रव वाले और अल्पवेदना वाले जीव के सर्वत: (सब ओर से) पुद्गल भिन्न (पूर्व सम्बन्ध विशेष को छोड़ कर अलग) हो जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छिन्न होते (टूटते) जाते हैं ? सर्वत: पुद्गल विध्वस्त होते जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल समग्ररूप से ध्वस्त हो जाते हैं ? , क्या सदा सतत पुद्गल भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते हैं ? क्या उसका प्रात्मा बाह्य आत्मा = शरीर) सदा सतत सुरूपता में यावत् सुखरूप में और अदुःखरूप में बार-बार परिणत होता है ? (पूर्वसूत्र में अप्रशस्त पदों का कथन किया है, किन्तु यहाँ सब प्रशस्त-पदों का कथन करना चाहिए।) [3-1 उ.] हाँ, गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव का यावत् ऊपर कहे अनुसार ही यावत् परिणत होता है। 1. 'जाव' पद यहाँ निम्नलिखित पदों का सूचक है-'सुवष्णताए सुगंधत्ताए सुरसत्ताए सुफासत्ताए इटुसाए कंतताए पिपत्ताए सुभत्ताए मगुण्णत्ताए मणामसाए इच्छिपत्ताए अभिजिशपताए उड्डत्ताए, नो अहत्ताए, सुहताए / Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] [17 2] से केण?णं० ? गोयमा ! से जहानामए वत्थरस जल्लियस्स वा पंकितस्प्त वा मइलियरस का रइल्लियस्स वा प्रागुपुन्धीए परिकम्मिन्जमाणस सुद्धणं वारिणा धोवमाणस्स सम्वतो पोग्गला भिज्जंति जाव परिणमंति, से तेण?णं०। [3-2 प्र] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [3-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई मैला (जल्लित), पंकित (कीचड़ से सना), मैलसहित अथवा धूल (रज) से भरा वस्त्र हो और उसे शुद्ध (साफ) करने का क्रमश: उपक्रम किया जाए, उसे पानी से धोया जाए तो उस पर लगे हुए मैले-अशुभ पुद्गल सब अोर से भिन्न (अलग) होने लगते हैं, यावत् उसके पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, (इसी तरह अल्पकर्म वाले जीव के विषय में भी पूर्वोक्त रूप से सब कथन करना चाहिए / ) इसी कारण से, (हे गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव के लिए कहा गया है कि वह""यावत् बारबार परिणत होता है / ) विवेचन–महाकर्मी और अल्पकर्मो जीव के पुद्गल-बंध-भेदादि का दृष्टान्तद्वयपूर्वक निरूपण--प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमश: महाकर्म प्रादि से युक्त जीव के सर्वतः सर्वदा-सतत पुद्गलों के बन्ध, चय, उपचय एवं अशुभरूप में परिणमन का तथा अल्प कर्म आदि से युक्त जीव के पुद्गलों का भेद, छेद, विध्वंस आदि का तथा शुभरूप में परिणमन का दो वस्त्रों के दृष्टान्तपूर्वक निरूपण किया गया है। निष्कर्ष एवं प्राशय-जो जीव महाकर्म, महाकिया, महाश्रव और महावेदना से युक्त होता है, उस जीव के सभी ओर से सभी दिशाओं अथवा प्रदेशों से कर्मपुद्गल संकलनरूप से बंधते हैं, बन्धनरूप से चय को प्राप्त होते हैं, कर्मपुद्गलों की रचना (निषेक) रूप से उपचय को प्राप्त होते हैं / अथवा कर्मपुद्गल बन्धनरूप में बंधते हैं, निधत्तरूप से उनका चय होता है, और निकाचितरूप से उनका उपचय होता है। ___ जैसे नया और नहीं पहना हुआ स्वच्छ वस्त्र भी बार-बार इस्तेमाल करने तथा विभिन्न अशुभ पुद्गलों के संयोग से मसोते जैसा मलिन और दुर्गन्धित हो जाता है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकार के दुष्कर्मपुद्गलों के संयोग से आत्मा भी दुरूप के रूप में परिणत हो जाती है। दूसरी ओर-जो जीव अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव और अल्पवेदना से युक्त होता है, उस जीव के कर्मपुद्गल सब अोर से भिन्न, छित्र, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते जाते हैं / और जैसे मलिन, पंकयुक्त, गंदा और धूल से भरा वस्त्र क्रमशः साफ करते जाने से, पानी से धोये जाने से उस पर संलग्न मलिन पुद्गल छूट जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं, और अन्त में वस्त्र साफ, स्वच्छ, चमकीला हो जाता है, इसी प्रकार कर्मों के संयोग से मलिन अात्मा भो तपश्चरणादि द्वारा कर्मपुद्गलों के झड़ जाने, विध्वस्त हो जाने से सुखादिरूप में प्रशस्त बन जाती है। __ महाकर्मादि की व्याख्या-जिसके कर्मों की स्थिति आदि लम्बी हो, उसे महाकर्म वाला, जिसकी कायिकी आदि क्रियाएँ महान् हों, उसे महानिया वाला, कर्मबन्ध के हेतुभूत मिथ्यात्वादि Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जिसके महान् (गाढ़ एवं प्रचुर) हों उसे, महाश्रववाला, तथा महापीड़ा वाले को महावेदना वाला कहा गया है। द्वितीय द्वार-वस्त्र में पुद्गलोपचयवत् समस्त जीवों के कम पुद्गलोपचय प्रयोग से या स्वभाव से ? एक प्रश्नोत्तर 4. वत्थस्स गं भते ! पोग्गलोवचए कि पयोगसा, वीससा ? गोयमा ! पयोगसा वि, वीससा वि। [4 प्र.] भगवन् ! वस्त्र में जो पुद्गलों का उपचय होता है, वह क्या प्रयोग (पुरुष-प्रयत्न) से होता है, अथवा स्वाभाविक रूप से (विश्रसा) ? [4 उ.] गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है, स्वाभाविक रूप से भी होता है। 5. [1] जहा णं भाते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पयोगसा वि, वीससा वि तहा णं जीवाणं कम्मोवचए कि पयोगसा, बोससा ? गोयमा ! ! पयोगसा, नो वोससा। [5-1 प्र०] भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलों का उपचय प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से होता है, तो क्या उसी प्रकार जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय भी प्रयोग से और स्वभाव से होता है ? [3-1 उ.] गौतम ! जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग से होता है, किन्तु स्वाभाविक रूप से नहीं होता। [2] से केण? 0? गोयमा ! जीवाणं तिविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा.-मणप्पयोगे वइपयोगे कायप्पयोगे य / इच्चेतेणं तिविहेणं पयोगेणं जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा / एवं सम्वेसि पंचेंदियाणं तिबिहे पयोगे माणियन्वे। पुढविक्काइयाणं एगविहेणं पयोगेणं, एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं / विगलिदियाणं दुविहे पयोगे पण्णत्ते, तं जहा-वइपयोगे य, कायप्पयोगे य / इच्चेतेणं दुविहेणं पयोगेणं कम्मोक्चए पयोगसा, नो वोससा / से एएग8 णं जाव नो वीससा / एवं जस्स जो पयोगो जाव वेमाणियाणं / [5-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [5-2 उ.] गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं-मनःप्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग / इन तीन प्रकार के प्रयोगों से जीवों के कर्मों का उपचय कहा गया है। इस प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार का प्रयोग कहना चाहिए / पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पति 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 253 (ख) भगवती. (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 270 से 272 तक Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [19 कायिक (एकेन्द्रिय पंचस्थावर) जीवों तक के एक प्रकार के (काय) प्रयोग से (कर्मपुद्गलोपचय होता है।) विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के प्रयोग होते हैं, यथा-वचन-प्रयोग और काय-प्रयोग / इस प्रकार उनके इन दो प्रयोगों से कर्म (पुद्गलों) का उपचय होता है / अतः समस्त जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक-रूप से नहीं / इसी कारण से कहा गया है कि "यावत् स्वाभाविक रूप से नहीं होता। इस प्रकार जिस जीव का जो प्रयोग हो, वह कहना चाहिए / यावत् वैमानिक तक (यथायोग्य) प्रयोगों से कर्मोपचय का कथन करना चाहिए। विवेचन-वस्त्र में पुद्गलोपचय की तरह, समस्त जीवों के कर्मपुद्गलोपचय प्रयोग से या स्वभाव से ? प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्र में पुद्गलोपचय की तरह जीवों के कार्मोपचय उभयविध न होकर प्रयोग से ही होता है, इसकी सकारण प्ररूपणा की गई है। 'पयोगसा'—प्रयोग से-जीव के प्रयत्न से और वीससा-विश्रसा का अर्थ है-विना ही प्रयत्न के-स्वाभाविक रूप से। निष्कर्ष-संसार के समस्त जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय प्रयोग-स्वप्रयत्न से होता है, स्वाभाविक रूप (काल, स्वभाव, नियति आदि) से नहीं ! अगर ऐसा नहीं माना जाएगा तो सिद्ध जीव योगरहित हैं, उनके भी कर्मपुद्गलों का उपचय होने लगेगा, परन्तु यह सम्भव नहीं / अतः कर्मपुद्गलोपचय मन, वचन और काया इन तीनों प्रयोगों में से किसी एक, दो या तीनों से होता है, यही युक्तियुक्त सिद्धान्त है।' तृतीय द्वार-वस्त्र के पुद्गलोपचयवत् जीवों के कर्मोपचय को सादि-सान्तता आदि का विचार 6. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए कि सादीए सपज्जवसिते ? सादीए अपज्जवसिते? अणादीए सपज्जवसिते? अणादीए अपज्जवसिते ? गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिते, नो सादीए अपज्जवसिते, नो प्रणादीए सपज्जवसिते, नो प्रणादीए अपज्जवसिते / [6 प्र.] भगवन् ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि सान्त है, सादि अनन्त है, अनादि सान्त है, अथवा अनादि अनन्त है ? [6 उ.] गौतम ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि सान्त होता है, किन्तु न तो वह सादि अनन्त होता है, न अनादि सान्त होता है और न अनादि अनन्त होता है। 7. [1] जहा णं भंते ! वस्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपज्जवसिते, नो सादीए अपज्जवसिते, नो अणादीए सपज्जवसिते, नो अणादोए अपज्जवसिते तहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए सपज्जवसिते, अत्थे० प्रणाईए सपज्जवसिए, प्रत्थे० प्रणाईए अपज्जवसिए, नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिते / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 254 (ख) भगवती. (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 274 Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [7-1 प्र.] हे भगवन् ! जिस प्रकारव स्त्र में पुद्गलोपचय मादि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त नहीं है, क्या उसी प्रकार जीवों का कर्मोपचय भी सादि-सान्त है, सादि-अनन्त है, अनादि-सान्त है, अथवा अनादि-अनन्त है ? [7-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि-सान्त है, कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, और कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है, किन्तु जीवों का कर्मोपचय सादि-अनन्त नहीं है। [2] से केण?णं० ? गोयमा ! इरियावहियाबंधयस्स कम्मोवचए साईए सप० / भवसिद्धियस्स कम्मोवचए प्रणादीए सपज्जवसिते / अभवसिद्धियस्स कम्मोवधए अणाईए अपज्जवसिते / से तेण?णं० / ' [7-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है ? [7-2 उ.] गौतम ! ईपिथिक-बन्धक का कर्मोपचय सादि-सान्त है, भवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, अभवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। इसी कारण से, हे गौतम ! उपयुक्त रूप से कहा गया है। विवेचन-जीवों के कर्मोपचय की सादि-सान्तता का विचार–प्रस्तुत सूत्रद्वय में द्वितीय द्वार के माध्यम से वस्त्र के पुद्गलोपचय की सादि-सान्तता आदि के विचारपूर्वक जीवों के कर्मोपचय की सादि-सान्तता आदि का विचार प्रस्तुत किया गया है। जीवों का कर्मोपचय सादि-सान्त, अनादि-सान्त, एवं अनादि-अनन्त क्यों और कैसे ?–मूलपाठ में ईपिथिकबन्धकर्ता जीव की अपेक्षा से उक्त जीव का कर्मोपचय सादि-सान्त बताया गया है। ज्ञातव्य है कि ईर्यापथिक बन्ध क्या है ? और उसका बन्धकर्ता जोव कौन है ? कर्मबन्ध के मुख्य दो कारण हैंएक तो क्रोधादि कषाय और दूसरा-मन-वचन-काया की प्रवृत्ति / जिन जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण नहीं हुआ है, उनको जो कर्मबन्ध होता है, वह सब साम्परायिक (काषायिक) कहलाता है, और जिन जीवों का कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो चुका है, उनकी हलन-चलन आदि सारी प्रवृत्तियाँ यौगिक (मन वचन काया योग से जनित) होती हैं। योगजन्य कर्म को ही ऐर्यापथिक कर्म कहते हैं अर्थात् ईर्यापथ (गमनादि क्रिया) से बन्धनेवाला कर्म ऐपिथिक कर्म है। दूसरे शब्दों में जो कर्म केवल हलन-चलन आदि शरीरादियोगजन्य प्रवृत्ति से बन्चता है, जिसके बन्ध में कषाय कारण नहीं होता वह ऐर्यापथिक कर्म है / ऐर्यापथिक कर्म का बन्धकर्ता ऐर्यापथिकबन्धक कहलाता है। सैद्धान्तिक दृष्टि से उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली को ऐपिथिक कर्म-बन्ध होता है। यह कर्म इस अवस्था से पहले नहीं बन्धता, इस अवस्था की अपेक्षा से इस कर्म की आदि है, अतएव इसका सादित्व है, किन्तु अयोगी (आत्मा की प्रक्रिय) अवस्था में अथवा उपशमश्रेणी से गिरने पर इस कर्म का बन्ध नहीं होता, इस कर्म का अन्त हो जाता है, इस दृष्टि से इसका सान्तत्व है। भवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादिसान्त है / भवसिद्धिक कहते हैं-सिद्ध (मुक्त) होने 1. यहाँ का पूरक पाठ इस प्रकार है---'तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ अत्ये० जोवाणं कम्मोबचए सादोए जाव] नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए।' Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] [21 योग्य भव्यजीव को / भव्यजीवों के सामूहिक दष्टि से कर्मबन्ध की कोई आदि नहीं है--प्रवाहरूप से उनके कर्मोपचय अनादि हैं, किन्तु एक न एक दिन वे कर्मों का सर्वथा अन्त करके सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करेंगे, इस अपेक्षा से उनका कर्मोपचय सान्त है। अभवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। अभवसिद्धिक कहते हैंअभव्य जीवों को; जिनके कर्मों का कभी अन्त नहीं होगा, ऐसे अभव्य-जीवों के कर्मोपचय की प्रवाहरूप से न तो ग्रादि है, और न अन्त है।' तृतीयद्वार-वस्त्र एवं जीवों को सादि-सान्तता आदि चतुर्भगोप्ररूपरणा 8. वत्थे गं भंते ! कि सादीए सपज्जवसिते ? चतुभंगो। गोयमा ! वत्थे सादीए सपज्जवसिते, अवसेसा तिणि वि पडिसेहेयब्वा / [8 प्र.] भगवन् ! क्या वस्त्र सादि सान्त है ? इत्यादि पूर्वोक्त रूप से चार भंग करके प्रश्न करना चाहिए। [8 उ.] गौतम ! बस्त्र सादि-सान्त है; शेष तीन भंगों का बस्त्र में निषेध करना चाहिए / __E. [1] जहा णं भंते ! वस्थे सादीए सपज्जवसिए० तहा णं जीवा कि सादीया सपज्जवसिया? चतुभंगो, पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिया सादीया सप०, चत्तारि वि भाणियन्वा / [61 प्र.] भगवन् ! जैसे वस्त्र सादि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त नहीं है, अनादि-सान्त नहीं है और न अनादि-अनन्त है, वैसे जीवों के लिए भी चारों भंगों को ले कर प्रश्न करना चाहिए-अर्थात् (भगवन् ! क्या जीव सादि-सान्त हैं, सादि-अनन्त हैं, अनादि सान्त हैं अथवा अनादि-अनन्त हैं ?) [9-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीव सादिसान्त हैं, कितने ही जीव सादि-अनन्त हैं, कई जीव अनादि-सान्त हैं और कितनेक अनादि-अनन्त हैं / (इस प्रकार जीव में चारों ही भंग कहने चाहिए) [2] से केण?णं०? गोयमा ! मेरतिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा गतिरागति पडुच्च सादीया सपज्जवसिया। सिद्धा गति पडुच्च सादीया अपजदसिया। भवसिद्धिया लाद्ध पडुच्च अणादीया संपज्जवसिया / प्रभवसिद्धिया संसारं पडुच्च प्रणादोया अपज्जवसिया भवंति / से तेण?णं० / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [1-2 उ.] गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, गति और आगति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं; सिद्धगति की अपेक्षा से सिद्धजीव सादि-अनन्त हैं; लब्धि की अपेक्षा भवसिद्धिक जीव अनादि सान्त हैं और संसार की अपेक्षा प्रभवसिद्धिक जीव अनादि-अनन्त हैं। 3. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 255 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त), खण्ड 2, पृ. 274 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--वस्त्र एवं जीवों को सादि-सान्तता प्रादि को प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्र की सादि-सान्तता बता कर जीवों की सादि-सान्तता आदि चतुभंगी का प्ररूपण किया गया है / नरकादि गति की सादिसान्तता-नरकादिगति में गमन की अपेक्षा उसकी सादिता है और वहाँ से निकलने रूप आगमन की अपेक्षा उसकी सान्तता है। सिद्धजीवों की सादि-अनन्तता-यों तो सिद्धों का सद्भाव सदा से है। कोई भी काल या समय ऐसा नहीं था और न है, तथा न रहेगा कि जिस समय एक भी सिद्ध न हो, सिद्ध-स्थान सिद्धों से सर्वथा शून्य रहा हो / अतएव सामूहिक रूप से तो सिद्ध अनादि हैं, रोह अनगार के प्रश्न के उत्तर में यही बात बताई गई है। किन्तु एक सिद्ध जीव की अपेक्षा से सिद्धगति में प्रथम प्रवेश के कारण सभी सिद्ध सादि हैं। प्रत्येक सिद्ध ने किसी नियत समय में भवभ्रमण का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त किया है। इस दृष्टि से सिद्धों का सादिपन सिद्ध होता है / इसी तरह प्रत्येक जीव पहले संसारो था, भव का अन्त करने के पश्चात् वह सिद्ध हुआ है, किन्तु सिद्धपर्याय का कभी अन्त न होने के कारण सिद्धों को अनन्त भी कहा जा सकता है / यों सिद्धों की अनन्तता सिद्ध होती है। ___ भवसिद्धिक जीवों की अनादिसान्तता-भवसिद्धिक जीवों के भव्यत्वलब्धि होती है, जो सिद्धत्व प्राप्ति तक रहती है। इसके बाद हट जाती है। इस दृष्टि से भवसिद्धिकों को अनादि-सान्त कहा है / ' चतुर्थद्वार-अष्ट कर्मों को बन्धस्थिति आदि का निरूपरग 10. कति णं भंते ! कम्मपगडीपो पण्णत्तानो ? गोधमा ! अट्ट कम्मप्पगडीप्रो पण्णत्तानो, तं जहा–णाणावरणिज्ज दंसणावरणिज्ज जाव' अंतराइयं / [10 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [10 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं, वे इस प्रकार हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय यावत् अन्तराय / 11. [1] माणावरणिज्जस्त णं भंते ! कम्मस्स केवलियं कालं बंधठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं तोसं सागरोबमकोडाकोडोप्रो, तिणि य वाससहस्साई प्रबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठिती कम्मनिसेश्रो / [11-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को बन्धस्थिति कितने काल की कही गई है ? [11-1 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है / अबाधाकाल जितनो स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति-~-कर्मनिषेधकाल जानना चाहिए। 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति (ख) भगवती. (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त, खण्ड 2, पृ-२७५ (ग) देखो, भगवती, टीकानुवाद प्रथमखण्ड, शतक 1 उ. 6 में रोह अनगार के प्रश्न / 2. 'जाव' शब्द वेदनीय से अन्तराय तक के कर्मों का सूचक है। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३ [ 23 [2] एवं दरिसणावरणिज्ज पि / [11-2] इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी जानना चाहिए। [3] वेदणिज्जं जह० दो समया, उक्को० जहा नाणावरणिज्ज / [11-3] वेदनीय कर्म को जघन्य (बन्ध.) स्थिति दो समय की है, उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की जाननी चाहिए। [4] मोहणिज्जं जह० अंतोमहत्तं, उक्को सत्तरि सागरोवमकोडाकोडोयो, सत्त य वाससहस्साणि प्रबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसेगो। [11-4] मोहनीय कर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट 70 कोडाकोड़ी सागरोपम की है / सात हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्म-स्थिति--कर्मनिषेककाल जानना चाहिए। [5] आउगं जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उक्को० लेत्तीसं सागरोवमाणि पुन्वकोडिति भागमभहियाणि, कम्मट्टिती कम्ममिसे यो। [11-5] आयुष्यकर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक तेतीस सागरोपम की है / इसका कर्मनिषेक काल (तेतीस सागरोपम का तथा शेष) अबाधाकाल जानना चाहिए / [6] नाम-गोयाणं जह० अट्ठ मुहत्ता, उक्को० वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि य वाससहस्साणि प्रवाहा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेओ / [11-6] नामकर्म और गोत्र कर्म की बन्धस्थिति जघन्य पाठ मुहूर्त की, और उत्कृष्ट 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। इसका दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है। उस अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति-कर्मनिषेककाल होता है / [7] अंतरायं जहा नाणावरणिज्ज / [11-7] अन्तराय-कर्म के विषय में ज्ञानावरणीय कर्म की तरह (बन्धस्थिति आदि) समझ लेना चाहिए। विवेचन-पाठ कर्मों को बन्धस्थिति प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय में आठ कर्मों की जघन्य-उत्कृष्ट बन्धस्थिति, अबाधाकाल एवं कर्मनिषेककाल का निरूपण किया गया है। बन्धस्थिति-कर्मवन्ध होने के बाद वह जितने काल तक रहता है, उसे बन्धस्थिति कहते हैं। अबाधाकाल-बाधा का अर्थ है-कर्म का उदय / कर्म का उदय न होना, 'अबाधा' कहलाता है / कर्मबन्ध से लेकर जबतक उस कर्म का उदय नहीं होता, तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं / अर्थात्कम का बन्ध और कर्म का उदय इन दोनों के बीच के काल को अबाधाकाल कहते हैं। कर्मस्थितिकर्मभिषेक-काल-प्रत्येक कर्म बन्धने के पश्चात् उस कर्म के उदय में आने पर अर्थात् उस कर्म का अबाधाकाल पूरा होने पर कर्म को वेदन (अनुभव) करने के प्रथम समय से लेकर बन्धे हुए कर्म Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दलिकों में से वेदनयोग्य-भोगनेयोग्य कर्मदलिकों की एक प्रकार की रचना होती है उसे कर्म-निषेक कहते हैं। प्रथम समय में बहुत अधिक कर्मनिषेक होता है, द्वितीय-तृतीय समय में उत्तरोत्तर विशेष हीन होता जाता है / निषेक तब तक होता रहता है, जब तक वह बन्धा हुअा कर्म प्रारमा के साथ (कर्मबन्धस्थिति तक) टिकता है।' कर्म की स्थिति : दो प्रकार को एक तो, कर्म के रूप में रहना, और दूसरे, अनुभव, (वेदन) योग्य कर्म रूप में रहना / कम जब से अनुभव (वेदन) में आता है, उस समय की स्थिति को अनुभव योग्य कर्मस्थिति जानना। अर्थात्-कम की कुल स्थिति में से अनुदय का काल (अबाधाकाल) बाद करने पर जो स्थिति शेष रहती है, उसे अनभव योग्य कर्मस्थिति समझना / कर्म की स्थिति जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की होती है, उतने सौ वर्ष तक वह कर्म, अनुभव (वेदन) में आए बिना आत्मा के साथ अकिचित्कर रहता है / जैसे--मोहनीय कर्म की 70 कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति हैं, उसमें से 70 सौ (7000) वर्ष तक तो वह कर्म यों ही अकिंचित्कर पड़ा रहता है। वही कर्म का अबाधाकाल है / उसके पश्चात् वह मोहनीय कर्म उदय में आता है, तो 7 हजार वर्ष कम 70 कोड़ी कोड़ी सागरोपम तक अपना फल भुगताता रहता है, उस काल को कर्मनिषेककाल कहते हैं / निष्कर्ष यह है-कर्म को सम्पूर्ण स्थिति में से अबाधाकाल को निकाल देने पर बाकी जितना काल बचता है, वह उसका निषेक (बाधा-) काल है। आयुण्यकर्म के निषेककाल और अबाधाकाल में विशेषता—सिर्फ अायुष्यकर्म का निषेक काल 33 सागरोपम का और अबाधाकाल पूर्व कोटि का त्रिभागकाल है। वेदनीय कर्म को स्थिति—जिस वेदनीय कर्म के बन्ध में कषाय कारण नहीं होता, केवल योग निमित्त होते हैं, वह वेदनीय कर्म बन्ध की अपेक्षा दो समय की स्थिति वाला है। वह प्रथम समय में बन्धता है, दूसरे समय में वेदा जाता है; किन्तु सकषाय बन्ध की स्थिति की अपेक्षा वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति 12 महूर्त को होती है।' पांचवें से उन्नीसवें तक पन्द्रह द्वारों में उक्त विभिन्न विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से कर्मबन्ध-प्रबन्ध का निरूपण-- 12. [1] नाणावरणिज्ज गं भंते ! कम्मं कि इत्थी बंधति, पुरिसो बंधति, नपुंसमो बंधति, गोइत्थी-नोपुरिसो-नोनपुसो बंधइ? गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, न सो वि बंधइ, नोइत्थी-नोपुरिसो-नोनपुसयो सिय बंधइ, सिय नो बंधइ / [१२-१प्र.] 'भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या स्त्री बांधती है ? पुरुष बांधता है, अथवा नपुंसक बांधता है ? अथवा नो-स्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक (जो स्त्री, पुरुष या नपुंसक न हो, वह) बांधता है ? 1. (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2 पृ-२७६-२७७ (ख) शिवशर्म प्राचार्य कृत कर्मप्रकृति (उपा. यशोविजयकृत टीका) निषेकप्ररूपणा पृ.८० 2. (क) पंचसंग्रह गा-३१-३२, भा. प्रा. पृ 176. (ख) भगवतीसूत्र (टीकाऽनुवाद टिप्पणयुक्त) खण्ड 2 पृ-२७७-२७८ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] [ 25 [12-1 उ. गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को स्त्री भी बांधती है, पुरुष भी बांधता है और नपुंसक भी बांधता है, परन्तु जो नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक होता है, वह कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता। [2] एवं प्राउगवज्जाम्रो सत्त कम्मपगडोयो / [12-2] इस प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों के विषय में समझना चाहिए। 13. प्राउगं गं भंते ! कम्म कि इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, नपुंसपो बंधइ ?0 पुच्छा। गोयमा ! इत्थी सिय बंधइ, सिय नो बंधइ, एवं तिणि वि भाणियव्वा / नोइत्थी-नोपुरिसोनोनसनो न बंधइ। [13 प्र.] भगवन् ! आयुष्यकर्म को क्या स्त्री बांधती हैं, पुरुष बांधता है, नपुसक बांधता है अथवा नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक बांधता है ? [13 उ.] 'गौतम ! आयुष्यकर्म स्त्री कदाचित् बांधती है और कदाचित् नहीं बांधती। इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में भी कहना चाहिए। नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुंसक आयुष्यकर्म को नहीं बाँधता।' 14. [1] गाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्मं कि संजते बंधइ, असंजते०, संजयासंजए बंधइ, नोसंजए-नोप्रसंजए-नोसंजयासंजए बंधति ? __ गोयमा ! संजए सिय बंधति सिय नो बंधति, असंजए बंधइ, संजयासंजए वि बंधइ, नोसंजएनोअसंजए नोसंजयासंजए न बंधति / [14.1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या संयत बांधता है, असंयत बांधता है, संयतासंयत बांधता है अथवा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत बांधता है ? [14-1 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को) संयत कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता, किन्तु असंयत बांधता है, संयतासंयत भी बांधता है, परन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नहीं बांधता / [2] एवं प्राउगवज्जानो सत्त वि। [14-2] इस प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों के विषय में समझना चाहिए। [3] प्राउगे हेछिल्ला तिणि भयणाए, उरिल्ले ण बंधइ / (14-3] अायुष्यकर्म के सम्बन्ध में नीचे के तीन-संयत, असंयत और संयतासंयत के लिए भजना समझनी चाहिए। (अर्थात्-कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते ) नोसंयतनोग्रसंयत-नोसंयतासंयत आयुष्यकर्म को नहीं बांधते / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [ व्याख्याप्राप्तिसूब 14. [1] पाणावरणिज्ज णं म ते ! कम्मं कि सम्मट्टिी बंधइ, मिच्छट्टिी बंधइ, सम्मामिच्छट्टिी बंधइ ? गोयमा ! सम्मट्ठिी सिय बंधइ सिय नो बंधइ, मिच्छट्ठिी बंधइ, सम्मामिच्छट्ठिी बंधइ / [15-1 प्र.J भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या सम्यग्दृष्टि बांधता है, मिथ्यादृष्टि बांधता है अथवा सम्यग्-मिथ्यादृष्टि बांधता है ? [15-1 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को) सम्यग्दृष्टि कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता, मिथ्यादृष्टि बांधता है और सम्यमिथ्यादृष्टि भी बांधता है / [2] एवं प्राउगवज्जानो सत्त वि। [15-2] इसी प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों के विषय में समझना चाहिए / [3] पाउगे हेट्टिल्ला दो भयणाए, सम्मामिच्छट्ठिी न बंधइ / [15-3] आयुष्यकर्म को नीचे के दो-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि-भजना से बांधते हैं (अर्थात्-कदाचिद् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / ) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (सम्यग्-मिथ्यादृष्टि अवस्था में) नहीं बांधते / / 16. [1] जाणावरणिज्जं कि सण्णी बंधइ, असण्णी बंधई, नोसम्णोनोअसण्णी बंधइ? गोयमा! सग्णी सिय बंधइ सिय नो बंधइ, असण्णी बंधइ, नोसणीनोअसण्णी न बंधइ / [16-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या संज्ञी बांधता है, असंज्ञी बांधता है अथवा नोसंज्ञी-नो असंज्ञी बांधता है ? [16-1 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को) संज्ञी कदाचित् बांधता है, और कदाचित् नहीं बांधता / असंज्ञी बांधता है, और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं बांधता / [2] एवं वेदणिज्जाऽऽउगवज्जानो छ कम्मध्पगडीयो। [16-2] इस प्रकार वेदनीय और आयुष्य को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] वेदणिज्जं हेडिल्ला दो बंधति, उरिल्ले भयणाए / अाउगं हेडिल्ला दो भयणाए, उरिल्ले न बंधइ। [16-3] वेदनीय कर्म को संज्ञी भी बांधता है और असंज्ञो भी बांधता है, किन्तु नोसंज्ञी नो असंज्ञी कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता / आयुष्यकर्म को नीचे के दो-संज्ञी और असंज्ञी जीव भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आयुष्य कर्म को नहीं बांधते / Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३] 17. [1] पाणावरणिज्ज कम्म कि भवसिद्धीए बंधइ, प्रभवसिद्धीए बंधइ, नोभवसिद्धीएनोप्रभवसिद्धीए बंधति ? गोयमा ! भवसिद्धीए भयणाए, अभवसिद्धीए बंधति, नोभवसिद्धीएनोप्रभवसिद्धीए ण बंधइ / [17-1 प्र.) भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या भवसिद्धिक बांधता है, अभवसिद्धिक बांधता है अथवा नोभवसिद्धिक-नो प्रभवसिद्धिक बांधता है ? [17-1 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को) भवसिद्धिक जीव भजना से (कदाचित बांधता है, कदाचित् नहीं) बांधता है / अभवसिद्धिक जीव बांधता है और नोभवसिद्धिक-तो अभवसिद्धिक जीव नहीं बांधता / [2] एवं प्राउगवन्जानो सत्त वि / [17-2] इस प्रकार प्रायुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] आउगं हैटिल्ला दो भयणाए, उरिल्लो न बंधइ / [17-3] प्रायुष्यकर्म को नीचे के दो (भवसिद्धिक-भव्य और अभवसिद्धिक-अभव्य) भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं। ऊपर का (नोभवसिद्धिक-नो अभवसिद्धिक) नहीं बांधता। 18. [1] णाणावरणिज्जं कि चपखुदंसणी बंधति, प्रचक्खुदंस०, प्रोहिदंस०, केवलदं ? गोयमा ! हेदिल्ला तिणि भयणाए, उरिल्ले | बंधइ / [18-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानाबरणीय कर्म को क्या चक्षुदर्शनी बांधता है, अचक्षुदर्शनी बांधता है, अवधिदर्शनी बांधता है अथवा केवलदर्शनी बांधता है ? 18.1 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को) नीचे के तीन (चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी) भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं किन्तु-केवलदर्शनी नहीं बांधता। [2] एवं वेदणिज्जवज्जानो सत्त वि। ___ [18-2] इसी प्रकार वेदनीय को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। [3] वेदणिज्ज हेछिल्ला तिष्णि बंधति, केवलदसणी भयणाए / [18.3] वेदनीयकर्म को निचले तीन (चक्षुदर्शनी, प्रचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी) बांधते हैं, किन्तु केवलदर्शनी भजना से (कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं) बांधते हैं / 16. [1] जाणावरणिज्ज कम्मं कि पज्जत्तनो बंधइ, अपज्जत्तनो बंधइ, नोपज्जत्तएनोपज्जत्तए बंधइ? Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! पज्जत्तए भयणाए, अपज्जत्तए बंधई, नोपज्जत्तएनोअपज्जत्तए न बंधइ / [19-1 प्र.] भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म को पर्याप्तक जीव बांधता है, अपर्याप्त जीव बांधता है अथवा नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव बांधता है ? [16-1 उ.] गौतम! (ज्ञानावरणीय कर्म को) पर्याप्तक जीव भजना से बांधता है; (कदाचित् बांधता हैं, कदाचित् नहीं) अपर्याप्तक जीव बांधता है और नो-पर्याप्तक-नो-अपर्याप्तक जीव नहीं बांधता। [2] एवं प्राउगवज्जायो। [16-2] इस प्रकार आयुष्यकर्म के सिवाय शेष सात कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] पाउगं हेढिल्ला दो भयणाए, उरिल्ले ण बंधइ / [16-3] आयुष्यकर्म को निचले दो (पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीव) भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं / नोपर्याप्त-अपर्याप्त नहीं बांधता / 20. [1] नाणावरणिज्जं कि भासए बंधइ, प्रभासए? गोयमा ! दो वि भयणाए। [20-1 प्र.] भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म को भाषक जीव बांधता है, या अभाषक जीव बांधता है ? [20-1 उ.] गौतम ! ज्ञातावरणीय कर्म को दोनों-भाषक और प्रभाषक भजना से (कदचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं। [2] एवं वेदणिज्जवज्जानो सत्त / [20-2] इसी प्रकार वेदनीय को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिये। [3] वेदणिज्जं भासए बंधइ, अभासए भयणाए / [20-3] वेदनीय कर्म को भाषक जीव बांधता है, प्रभाषक जीव कदाचित् बाधता है, कदाचिद् नहीं बांधता / 21. [1] गाणावरणिज्ज कि परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ, नोपरित्तेनोअपरित्ते बंधइ ? गोयमा ! परित्ते भयणाए, अपरित्ते बंधई, नोपरितेनोअपरित्ते न बंधइ / 21-1 प्र.] भगवत् ! क्या परित्त जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है, अपरित्त जीव बांधता है, अथवा नोपरित्त-नोअपरित्त जीव बांधता है ? Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३ ] { 21 [21-1 उ.] गौतम ! परित्त जीव ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता, अपरित्त जीव बांधता है और नोपरित्त-नोअपरित्त जीव नहीं बांधता / [2] एवं प्राउगवज्जायो सत्त कम्मपगडीयो / [21-2] इस प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] पाउए परित्तो वि, अपरित्तो वि भयणाए / नोपरित्तोनोअपरित्तो न बंधई। [21-3] आयुष्यकर्म को परित्तजीव भी और अपरित्तजीव भी भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं; नोपरित्त-नोअपरित्तजीव नहीं बाँधते / 22. [1] णाणावरणिज्जं फम्म कि प्राभिणिबोहियनाणी बंधइ, सुयनाणी०, ओहिनाणी०, मणपज्जवनाणी०, केवलनाणी बं? गोधमा ! हेटिल्ला चत्तारि भयणाए, केवलनाणी न बंध / [22-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी बांधता है, श्रुतज्ञानी बांधता है, अवधिज्ञानी बांधता है, मनःपर्यवज्ञानी बांधता है अथवा केवलज्ञानी बांधता है ? (22-1 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को निचले चार (ग्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवशानी) भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं; केवलज्ञानी नहीं बांधता। [2] एवं वेदणिज्जबज्जानो सत्त वि। [22-2] इसी प्रकार वेदनीय को छोड़कर शेष सातों कर्म-प्रकृतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। [3] वेदणिज्ज हेडिल्ला चत्तारि बंधति, केवलनाणी भयणाए / [22-3] वेदनीय कर्म को निचले चारों (आभिनिबोधिकज्ञानी से लेकर मन:पर्यवज्ञानी तक) बांधते हैं; केवलज्ञानी भजना से (कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं) बांधता है। 23. पाणावरणिज्जं कि मतिघण्णाणी बंधइ, सुय०, विभंग ? गोयमा ! प्राउगवज्जापो सत्त वि बंधति / पाउगं भयणाए / [23 प्र.] भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म को मति-अज्ञानी बांधता है, श्रुत-अज्ञानी बांधता है या विभगई धता है? [23 उ.] गौतम ! आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्म-प्रकृतियों को ये (तीनों प्रकार के अज्ञानी) बांधते हैं / आयुष्यकर्म को ये तीनों कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / 24. [1] णाणावरणिज्जं कि मशजोगी बंधइ, वय०, काय, अजोगी बंधन ? Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! हेटिल्ला तिणि भयणाए, अजोगी न बंधइ / [24-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञातावरणीय कर्म को क्या मनोयोगी, बांधता है, वचनयोगी बांधता है, काययोगी बांधता है, या अयोगी बांधता है ? [24-1 उ.] गौतम! (ज्ञानावरणीय कर्म को) निचले तीन-(मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी) भजना से (कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं) बांधते हैं; अयोगी नहीं बांधता / [2] एवं वेदणिज्जवज्जायो। __ [24-2] इसी प्रकार वेदनीय को छोड़कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] वेदणिज्ज हेछिल्ला बंधंति, अजोगी न बंधा [24-3] वेदनीय कर्म को मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी बांधते हैं; अयोगी नहीं बांधता। 25. गाणावरणिज्जं कि सागारोवउत्ते बंधइ, अणागारोवउत्ते बंधइ? गोयमा ! अट्ठसु वि भयणाए / [25 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय (आदि अष्टविध) कर्म को क्या साकारोपयोग वाला बांधता है या अनाकारोपयोग वाला बांधता है ? [25 उ.] गौतम ! (साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त दोनों प्रकार के जीव) आठों कर्मप्रकृतियों को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / 26. [1] पाणावरणिज्जं कि प्राहारए बंधइ, अणाहारए बंधइ ? गोयमा ! दो वि मयणाए। [26-1 प्र.] भगवन् ! क्या ज्ञानावरणीय कर्म आहारक जीव बांधता है या अनाहारक जीव बांधता है ? [26-1 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म को आहारक और अनाहारक, दोनों प्रकार के जीव, कदाचित् बांधते हैं और कदाचित् नहीं बांधते / [2] एवं वेदणिज्ज-प्राउगवज्जाणं छण्हं / / [26-2] इसी प्रकार वेदनीय और आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष छहों कर्मप्रकृतियों के विषय में समझ लेना चाहिए। [3] वेदणिज्ज प्राहारए बंधति, प्रणाहारए भयणाए। पाउगं प्राहारए भयणाए, अणाहारए न बंधति / Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३1 26-3] आहारक जीव वेदनीय कर्म को बाँधता है, अनाहारक कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं बांधता / (इसी प्रकार) आयुष्यकर्म को आहारक कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता; अनाहारक नहीं बांधता। 27. [1] णाणावरणिज्जं कि सुहमे बंधह, बादरे बंधइ, नोसुहमेनोवादरे बंधइ ? गोयमा ! सुहमे बंधइ, बादरे भयणाए, नोसुहुमेनोबादरे न बंधई / [27-1 प्र.} भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या सूक्ष्म जीव बांधता है, बादर जीव बांधता है, अथवा नो-सूक्ष्म-नो बादर जीव बांधता है ? [27-13.] गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म को सूक्ष्म जीव बांधता है, बादर जीव भजना से (कदाचित् बांधता है. कदाचित् नहीं) बांधता है, किन्तु नोसूक्ष्म-नोबादर जीव नहीं बांधता। [2] एवं अाउगवज्जानो सत्त वि / [27-2) इसी प्रकार आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्म-प्रकृतियों के विषय में कहना चाहिए। [3] पाउए सुहमे बादरे मयणाए, नोसुहुमेनोबादरे ण बंधइ / / [27-3] आयुष्यकर्म को सूक्ष्म और बादरजीव कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते, नोसूक्ष्म-नोबादर जीव नहीं बांधता। 28. णाणावरणिज्जं कि चरिमे बंधति, अचरिमे बं० ? गोयमा! अट्ट वि भयणाए। [28 प्र.] भगवन् ! क्या ज्ञातावरणीय (आदि अष्टविध) कर्म को चरमजीव बांधता है, अथवा अचरमजीव बांधता है ? [28 उ ] गोतम ! चरम और अचरम; दोनों प्रकार के जीव, आठों कर्मप्रकृतियों को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / विवेचन-विभिन्न विशिष्ट जीवों को अपेक्षा से अष्टकर्मप्रकृतियों के बन्ध-प्रबन्ध को प्ररूपणा–प्रस्तुत 17 सूत्रों (सू. 12 से 28 तक) में पाँचवें द्वार से उन्नीसवें द्वार तक के माध्यम से स्त्री, पुरुष, नपुसक, नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक आदि विविध विशिष्ट जीवों की अपेक्षा से अष्ट कर्मों के बन्ध-प्रबन्ध के विषय में सैद्धान्तिक निरूपण किया गया है। अष्टविधकर्मबन्धक-विषयक प्रश्न क्रमशः पन्द्रह द्वारों में ---प्रस्तुत पन्द्रह द्वारों में जिन जीवों के विषय में जिस-जिस द्वार में कर्मबन्धविषयक प्रश्न पूछा गया है, वे क्रमश: इस प्रकार हैं-- (1) पंचम द्वार में स्त्री, पुरुष, नपुसक और नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक जीव, (2) छठे द्वार में--- संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयात-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव ; (3) सप्तम द्वार में— सम्यग्दृष्टि, मिथ्याइष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव, (4) अष्टम द्वार में संज्ञी, असंज्ञी, नोसंजीनोअसंज्ञी जीव, (5) नवम द्वार में-- भवसिद्धिक अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोग्रभवसिद्धिक जीव, Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) दशमद्वार में-चक्षुदर्शनी,अचक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव ; (7) ग्यारहवें द्वार में - पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव; (8) बारहवें द्वार में भाषक और प्रभाषक जीव, (6) तेरहवें द्वार में परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त जीव, (10) चौदहवें द्वार में-ग्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानो, मन:पर्यायज्ञानी और केवलज्ञानी जीव तथा मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी विभंगज्ञानी जीव; (11) पन्द्रहवे द्वार में-मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीव; (12) सोलहवें द्वार में--साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीव; (13) सत्रहवें द्वार में- आहारक और अनाहारक जीव; (14) अठारहवें द्वार में सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर जीव ; और (15) उन्नीसवे द्वार में-चरम और अचरम जीव / ' पन्द्रह द्वारों में प्रतिपादित जीवों के कर्म-बन्ध-प्रबन्धविषयक समाधान का स्पष्टीकरण(१) स्त्रीद्वार--स्त्री, पुरुष और नपुसक ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं। जिस जीव के स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुसकत्व से सम्बन्धित वेद (कामविकार) का उदय नहीं होता, किन्तु केवल स्त्री, पुरुष या नपुसक का शरीर है, उसे अपगतवेद या नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक जीव कहते हैं / वह अनिवृत्ति बादर सम्परायादि गुणस्थानवर्ती होता है। इनमें से अनिवृत्तिबादर सम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक होता है, क्योंकि वह सात या छह कर्मों का बन्धक होता है। उपशान्तमोहादि गुणस्थानव” (नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म के प्रबन्धक होते हैं, क्योंकि ये चारों (उपशान्तमोह से अयोगीके वली) गुणस्थान वाले जीव केवल एकविध वेदनीय कर्म के बंधक होते हैं। इसीलिए कहा गया है -- नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक ज्ञानावरणीय कर्म को भजना (विकल्प) से बांधता है। और यह (वेदरहित) जीव अायुष्यकर्म को तो बांधता ही नहीं है, क्योंकि निवृत्ति-बादरसम्पराय से लेकर अयोगी केवलीगुणस्थान तक में आयुष्यबन्ध का व्यवच्छेद हो जाता है। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी जीव आयुष्यकर्म को एक भव में एक ही बार बांधता है, वह भी आयुष्य का बन्धकाल होता है, तभी आयुष्यकर्म बांधता है / जब मायुष्य-बन्ध काल नहीं होता, तब आयुष्य नहीं बांधता। इसलिए कहा गया है ये तीनों प्रकार के जीव प्रायुष्यकर्म को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / (2) संयतद्वार--सामायिक, छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसम्पराय, इन चार संयमों में रहने वाला संयत जीव ज्ञानावरणीय को बांधता है, किन्तु यथाख्यात संयमवर्ती संयत जीव उपशान्तमोहादि वाला होने से ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधता; इसीलिए कहा गया हैसंयत भजना से ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है, किन्तु असंयत (मिथ्यादृष्टि प्रादि जीव) और संयतासंयत (पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत) जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं / जबकि नोसंयतनो-असंयत-नोसंयतासंयत (अर्थात्-सिद्ध) जीव न तो ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं और न ही आयुष्यादि अन्य कर्म। क्योंकि उनके कर्मबंध का कोई कारण नहीं रहता। संयत, असंयत और संयतासंयत, ये तीनों पूर्ववत् अायुष्यबन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, अन्यथा नहीं बांधते / (3) सम्यग्दृष्टिहार—सम्यग्दष्टि के दो भेद हैं सराग-सम्यग्दृष्टि और वीतराग-सम्यग्दृष्टि / जो वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, क्योंकि वे तो केवल एकविध वेदनीय कर्म के बन्धक हैं, जबकि सरागसम्यग्दृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं। इसीलिए कहा 1. बियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 237 से 242 तक Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [33 है–सम्यग्दृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता। मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि तो ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं। सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव आयुष्यकर्म को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते; इस कथन का आशय यह है कि अपूर्वकरणादि सम्यग्दृष्टि जीव आयुष्य को नहीं बांधते, जबकि इनसे भिन्न चतुर्थ आदि गुणस्थानों वाले सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि जीव पूर्ववत् अायुष्यबन्धकाल में आयुष्य को बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते / सम्यगमिथ्यादष्टि जीवों में (मिश्रदृष्टि अवस्था में) आयुष्य बांधने के अध्यवसाय-स्थानों का अभाव होने से ये प्रायुष्य बांधते ही नहीं हैं। (4) संजीद्वार-मन-पर्याप्ति वाले जीवों को संज्ञी कहते हैं। वीतरागसंज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, जबकि सरागसंज्ञी जीव इसे बांधते हैं, इसीलिए कहा गया है-संज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता, किन्तु मनःपर्याप्ति से रहित असंज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं। नोसंजी-नोअसंज्ञी जीवों के तीन भेद होते हैंसयोगी केवली, अयोगी केवली और सिद्ध भगवान, इनके ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के कारण न होने से ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते / अयोगीकेवली और सिद्ध भगवान् के सिवाय शेष सभी संज्ञी जीव एवं असंज्ञी जीव वेदनीय कर्म को बांधते हैं। इसलिए यह कहना युक्तिसंगत है कि नोसंज्ञी-नो प्रसंजी जीव वेदनीय कर्म भजना से बांधते हैं। तथा पूर्वोक्त आशयानुसार संज्ञी और असंज्ञो, ये दोनों आयुष्यकर्म को भजना से बांधते हैं / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आयुष्यकर्म को बांधते ही नहीं हैं। (5) भवसिद्धिकद्वार-जो भवसिद्धिक वीतराग होते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, किन्तु जो भवसिद्धिक सराग होते हैं, वे इस कर्म को बांधते हैं, इसीलिए कहा गया है-भवसिद्धिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं। अभवसिद्धिक तो ज्ञानाबरणीय कर्म बाँधते ही हैं, जबकि नोभवसिद्धिक-नोत्रभवसिद्धिक (सिद्ध) जीव ज्ञानावरणीय कर्म एवं आयुष्यकर्मादि को नहीं बाँधते / भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक ये दोनों आयुष्यकर्म को पूर्वोक्त आशयानुसार कदाचित् बाँधते हैं, कदाचित् नहीं बाँधते। (6) दर्शनद्वार-चक्षदर्शनी, अचक्षदर्शनी और अवधिदर्शनी, यदि छमस्थवीतरागी हों तो ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, क्योंकि वे केवल बेदनीयकर्म के बन्धक होते हैं। ये यदि सरागीछद्मस्थ हों तो इसे बांधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ये तीनों ज्ञानाबरणीय कर्म को भजना से बाँधते हैं / भवस्थकेवलीदर्शनी और सिद्धकेवलीदर्शनी, इन दोनों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का हेतु न होने से, ये दोनों इसे नहीं बाँधते / चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनो छद्मस्थ वीतरागी और सरागी वेदनीय कर्म को बाँधते ही हैं। केवलदर्शनियों में जो सयोगी केवली हैं, वे वेदनीयकर्म बाँधते हैं, किन्तु अयोगी केवली नहीं बाँधते / इसलिए कहा गया है कि केवलदर्शनी वेदनीयकर्म को भजना से बाँधते हैं। (7) पर्याप्तकद्वार--जिस जीव ने उत्पन्न होने के बाद अपने योग्य आहार-शरीरादि पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हों, वह पर्याप्तक और जिसने पूर्ण न की हो, वह अपर्याप्तक कहलाता है। अपर्याप्तक जीव ज्ञानावरणीयादि सात कर्म बाँधते हैं। पर्याप्तक जीवों के दो भेद-वीतराग और सराग। इनमें से वीतरागपर्याप्तक ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते, सरागपर्याप्तक बाँधते हैं, इसीलिए कहा गया है कि पर्याप्त भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यानी सिद्ध जीव ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मों को नहीं बाँधते / पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों आयुष्यबन्ध के काल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है कि ये दोनों प्रायुष्य बन्ध भजना से करते हैं / (8) भाषकद्वार--भाषालब्धि वाले को भाषक और भाषालब्धि से विहीन को 'प्रभाषक' कहते हैं / भाषक के दो भेद-वीतरागभाषक और सरागभाषक / वीतरागभाषक ज्ञानावरणीय कम नहीं बाँधते, सरागभाषक बाँधते हैं / इसीलिए कहा गया कि भाषक जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं / अभाषक के चार भेद-अयोगी केवली, सिद्ध भगवान्, विग्रहगतिसमापन्न और एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिकादि के जीव / इनमें से आदि के दो तो ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बाँधते, किन्तु पिछले दो बाँधते हैं। प्रादि के दोनों अभाषक वेदनीय कर्म को नहीं बाँधते, जबकि पिछले दोनों वेदनीय कर्म बांधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि प्रभाषक जीव ज्ञानावरणीय और वेदनीयकर्म भजना से बाँधते हैं। भाषकजीव (सयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक के भाषक भी) वेदनीय कर्म बाँधते हैं। (6) परित्तद्वार-एक शरीर में एक जीव हो उसे परित्त कहते हैं, अथवा अल्प-सीमित संसार वाले को भी परित्त जीव कहते हैं। परित्त के दो प्रकार-वीतरागपरित्त और सरागपरित्त / वीतरागपरित्त ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधता, सरागपरित्त बाँधता है। इसीलिए कहा गया है कि परित्तजीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है / जो जीव अनन्त जीवों के साथ एक शरीर में रहता है, ऐसे साधारण कायवाले जीव को 'अपरित्त' कहते हैं, अथवा अनन्त संसारी को अपरित्त कहते हैं। दोनों प्रकार के अपरित्त जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। नोपरित्त-नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म नहीं बांधते / परित्त और अपरित्त जीव आयुष्यबन्ध-काल में आयुष्य बांधते हैं, किन्तु दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है...परित्त और अपरित्त भजना से आयुष्य बांधते हैं। (10) ज्ञानद्वार-प्रथम के चारों ज्ञान वाले वीतराग-अवस्था में ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, सराग अवस्था में बांधते हैं। इसीलिए इन चारों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के विषय में भजना कही गई है। प्राभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों वाले वेदनीय कर्म को बांधते हैं, क्योंकि छद्मस्थ वीतराग भी वेदनीय कर्म के बन्धक होते हैं / केवलज्ञानी वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं, क्योंकि सयोगी केवली वेदनीय के बन्धक तथा अयोगी केवली और सिद्ध वेदनीय के प्रबन्धक होते हैं / (11) योगद्वार--मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये तीनों सयोगी जब 11 वें, 12 वें, 13 वें गुणस्थानवर्ती होते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते, इनके अतिरिक्त अन्य सभी सयोगी जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। इसीलिए कहा गया कि सयोगी जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं / अयोगी के दो भेद-अयोगी केवली और सिद्ध / ये दोनों ज्ञानावरणीय, वेदनीयादि कर्म नहीं बांधते, किन्तु सभी सयोगी जीव वेदनीयकम के बन्धक होते हैं, क्योंकि सयोगी केवली गुणस्थान तक सातावेदनीय का बन्ध होता है / (12) उपयोगद्वार--सयोगी जीव और अयोगी जीव, इन दोनों के साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) ये दोनों उपयोग होते हैं / इन दोनों उपयोगों में वर्तमान सयोगी जीव, ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मप्रकृतियों को यथायोग्य बांधता है और अयोगी जीव नहीं बांधता, क्योंकि अयोगी Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [35 जीव पाठों कर्मप्रकृतियों का प्रबन्धक होता है। इसीलिए साकारोपयोगी और निराकारोपयोगी दोनों में प्रष्ट कर्मबन्ध की भजना कही है। (13) आहारकद्वार-आहारक के दो प्रकार-वीतरागी और सरागी। वीतरागी आहारक ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, जबकि सरागी आहारक इसे बांधते हैं / इसी प्रकार अनाहारक के चार भेद होते हैं-विग्रहगति-समापन्न, समुद्घातप्राप्त केवली, अयोगीकेवली और सिद्ध / इनमें से प्रथम बांधते हैं, शेष तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते / इसीलिए कहा गया है-आहारक की तरह अनाहारक भी ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं। प्राहारक जोव (सयोगी केवलो तक) वेदनीय कर्म को बांधते हैं, जबकि अनाहारकों में से विग्रहगतिसमापन और समुद्धातप्राप्त केवली ये दोनों अनाहारक वेदनीय कर्म को बांधते हैं, अयोगी केवली और सिद्ध अनाहारक इसे नहीं बांधते / इसीलिए कहा गया है कि अनाहारकजीव वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं। सभी प्रकार के अनाहारक जीव आयुष्यकर्म के प्रबंधक हैं, जबकि आहारक जीव प्रायुष्यबन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते / (14) सूक्ष्मद्वार-सूक्ष्मजीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंधक है। बादर जीवों के दो भेदवीतराग और सराग। वीतराग बादरजीव ज्ञानावरणीयकर्म के प्रबन्धक हैं, जबकि सराग बादर जीव इसके बन्धक हैं। नोसूक्ष्म-नोबादर अर्थात्-सिद्ध ज्ञानावरणीयादि सभी कर्मों के प्रबन्धक हैं। सुक्ष्म और बादर दोनों आयुष्यबन्धकाल में आयुष्यकर्म बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं। इसीलिए इनका प्रायुष्य कर्मबन्ध भजना से कहा गया है। (15) चरमद्वार---चरम का अर्थ है-जिसका अन्तिम भव है या होने वाला है। यहाँ 'भव्य' को 'चरम' कहा गया है / अचरम का अर्थ है-जिसका अन्तिम भव नहीं होने वाला है अथवा जिसने भवों का अन्त कर दिया है। इस दष्टि से अभव्य और सिद्ध को यहाँ 'अचरम' कहा गया है। चरम जीव यथायोग्य पाठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है और जब चरमजीव अयोगी-अवस्था में हो, तब नहीं भी बांधता / इसीलिए कहा गया है कि चरमजीव आठों कर्मप्रकृतियों को भजना से बांधता है। जिसका कभी चरमभव नहीं होगा—ऐसा अभव्य-अचरम तो आठों प्रकृतियों को बांधता है, और सिद्ध अचरम (भवों का अन्तकर्ता) तो किसी भी कर्मप्रकृति को नहीं बांधता / इसीलिए कहा गया कि अचरम जीव आठों कर्म प्रकृतियों को भजना से बांधता है।' पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा-- 26. [1] एएसि णं भंते ! जीवाणं इथिवेदगाणं पुरिसवेदाणं नपुसगवेदगाणं अवेदगाण यकयरे 2 प्रापा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थिवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा प्रणतगुणा, नपुसगवेदगा प्रणतगुणा। [29-1 प्र.] हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुसकवेदक और अबेदक ; इन जीवों में से कौन किससे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 256 से 259 तक Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26-1 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदक हैं, उनसे संख्येयगुणा स्त्रीवेदक जीव हैं, उनसे अनन्तगुणा अवेदक हैं और उनसे भी अनन्तगुणा नपुसकवेदक हैं / [2] एतेसि सर्वसि पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयवाई जाव' सम्वत्योवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // छट्ठसए : तइयो उद्देसो समतो // [29.2] इन (पूर्वोक्त) सर्व पदों (संयतादि से लेकर चरम तक चतुर्दश द्वारों में उक्त पदों) का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। (संयत पद से लेकर) यावत् सबसे थोडे अचरम जीव हैं, और उनसे अनन्तगुणा चरम जीव हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। विवेचन-पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा-तीसरे उद्देशक के अन्तिम सूत्र में सर्वप्रथम स्त्रीवेदकादि (पंचमद्वार) जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण करके इसी प्रकार से अन्य 14 द्वारों में उक्त चरमादिपर्यन्त जीवों के अलाबहुत्व का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। वेदकों के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण-यहाँ पुरुषवेदक जीवों की अपेक्षा स्त्रीवेदक जीवों को संख्यातगुणा अधिक बताने का कारण यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक हैं, नर मनुष्य की अपेक्षा नारी सत्ताईस गुणी और सत्ताईस अधिक हैं और तिर्यञ्च नर की अपेक्षा तिर्यञ्चनी तीन गुणी और तीन अधिक हैं। स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अवेदकों को अनन्त गुणा बताने का कारण यह है कि अनिवृत्तिबादरसम्परायादि वाले जीव और सिद्ध जीव अनन्त हैं, इसलिए वे स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं / अवेदकों से नपुसकवेदी अनन्त इसलिए हैं कि सिद्धों की अपेक्षा अनन्तकायिक जीव अनन्तगुणा हैं, जो सब नपुसक हैं। संयतद्वार से चमरद्वार तक का अल्पबहुत्व.---उपयुक्त अल्पबहुत्व की तरह ही संयतद्वार से चरमद्वार तक 14 ही द्वारों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद में उक्त वर्णन की तरह कहना चाहिए। यहाँ अचरम का अर्थ सिद्ध-अभव्यजीव लिया गया है और चरम का अर्थ भव्य / अतएव अचरम जीवों की अपेक्षा चरम जीव अनन्तगुणित कहे गए हैं। / / छठा शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. जाव' पद यहाँ 29-1 सू. के प्रश्न की तरह 'संजय से लेकर चरिम-अचरिम तक प्रश्न और उत्तर का ___ संयोजन कर लेने का सूचक है।। 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 260 (ख) प्रज्ञापना. तृतीयपद, 81 से 111 पृ. तक Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'सपएस' ____चतुर्थ उद्देशक : सप्रदेश कालादेश से चौबीस दण्डक के एक-अनेक जीवों को सप्रदेशता-अप्रदेशता की प्ररूपरणा 1. जीवे णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसे, प्रपदेसे ? गोयमा! नियमा सपदेसे / [1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव कालादेश (काल की अपेक्षा) से सप्रदेश है या अप्रदेश है ? [1 उ.] गौतम ! कालादेश से जीव नियमतः (निश्चित रूप से) सप्रदेश है। 2. [1] नेरतिए णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसे, अपदेसे ? गोंयमा! सिय सपदेसे, सिय अपदेसे / [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव कालादेश से सप्रदेश है या अप्रदेश है ? [2-1 उ.] गौतम ! एक नैरयिक जीव कालादेश से कदाचित् सप्रदेश है और कदाचित् अप्रदेश है। [2] एवं जाव' सिद्ध / [2-2 प्र.] इस प्रकार यावत् एक सिद्ध-जीव-पर्यन्त कहना चाहिए / 3. जीवा णं भंते ! कालादेखणं कि सपदेसा, अपदेसा ? गोयमा ! नियमा सपदेसा। [3 प्र.] भगवन् ! कालादेश की अपेक्षा बहुत जीव (अनेक जीव) सप्रदेश हैं या अप्रदेश हैं ? [3 उ.] गौतम ! अनेक जीव कालादेश की अपेक्षा नियमतः सप्रदेश हैं / 4. [1] नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं कि सपदेसा, अपदेसा? गोयमा! सव्वे वि ताव होज्ज सपदेसा, अहह्वा सपदेसा य अपदेसे य, प्रहवा सपदेसा य अपदेसा य / [4-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव (बहुत-से नैरयिक) कालादेश की अपेक्षा क्या सप्रदेश हैं या अप्रदेश हैं ? 1. 'जाव' पद यहाँ भवनपति से लेकर वैमानिकदेवपर्यन्त दण्डकों का सूचक है / Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4.1 उ. गौतम ! (नैरयिकों के तीन विभाग हैं-) 1. सभी (नैरयिक) सप्रदेश हैं, 2. बहुत-से सप्रदेश और एक अप्रदेश हैं, और 3. बहुत-से सप्रदेश और बहुत-से अप्रदेश हैं / [2] एवं जाव' थणियकुमारा। [4-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / 5. [1] पुढ विकाइया गं भंते ! कि सपदेसा, अपदेसा? गोयमा! सपदेसा वि, अपदेसा वि / [5-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश हैं या अप्रदेश हैं ? [5-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव सप्रदेश भी हैं, अप्रदेश भी हैं / [2] एवं जाव वणप्फतिकाइया / [5-2] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए / 6. सेसा जहा मेरइया तहा जाव' सिद्धा। [6] जिस प्रकार नैरयिक जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार सिद्धपर्यन्त शेष सभी जीवों के लिए कहना चाहिए / आहारक आदि से विशेषित जीवों में सप्रदेश-अप्रदेश-वक्तव्यता____७. [1] पाहारगाणं जीवेर्गेदियवज्जो तियभंगो। [7-1] जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष सभी प्राहारक जीवों के लिए तीन भंग कहने चाहिए-यथा (1) सभी सप्रदेश, (2) बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, और (3) बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश। [2] अणाहारगाणं जीवेगिदियवज्जा छन्भंगा एवं भाणियवा-सपदेसा का, अपएसा वा, प्रहवा सपदेसे य अपदेसे य, अहवा सपदेसे य अपदेसा य, प्रहवा सपदेसा य अपदेसे य, प्रहवा सपदेसा य अपदेसा य / सिद्धहि तियभंगो। [7-2] अनाहारक जीवों के लिए एकेन्द्रिय को छोड़कर छह भंग इस प्रकार कहने चाहिएयथा-(१) सभी सप्रदेश, (2) सभी अप्रदेश, (3) एक सप्रदेश और एक अप्रदेश, (4) एक सप्रदेश और बहुत प्रप्रदेश, (5) बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, और (6) बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश / सिद्धों के लिए तीन भंग कहने चाहिए। 1. 'जाव' पद यहाँ 'असुरकूमार' से लेकर 'स्तनितकुमार' तक का सूचक है। 2. 'जाव' पद से यहाँ प्रकायिक' से लेकर वनस्पतिकायिक' तक समझना / 3. 'जाव' पद से वैमानिक पर्यन्त के दण्डकों का ग्रहण समझ लेना चाहिए। Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [39 .. 8. [1] भवसिद्धीया प्रभवसिद्धीया जहा प्रोहिया। [--1] भवसिद्धिक (भव्य) और अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों के लिए प्रोधिक (सामान्य) जीवों की तरह कहना चाहिए। [2] नोभवसिद्धियनोप्रभवसिद्धिया जीव-सिद्ध हि तियभंगो। [8-2] नोभव सिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक जीव और सिद्धों में (पूर्ववत्) तीन भंग कहने चाहिए। दिओ तियभंगो। [6-1] संज्ञी जीवों में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए। [2] असण्णोहिं एगिदियवज्जो तियभंगो / नेरइय-देव-मणुएहि छन्भंगा। [6-2] असंज्ञी जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए / नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए। [3] नोसणि-नोनसणिणो जीव-मणुय-सिद्ध हि तियभंगो। [6-3] नोसंज्ञी-नो असंज्ञी, जीव, मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए / 10. [1] सलेसा जहा प्रोहिया। कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा जहा प्राहारमो, नवरं जस्स अस्थि एयायो / तेउलेस्साए जीवादियो लियभंगो, नवरं पुढविकाइएसु प्राउ-वणप्फतीसु छन्भंगा। पम्हलेस-सुक्कलेस्साए जोवाइलो तियभंगो। [10-1] सलेश्य (लेश्या वाले) जीवों का कथन, औधिक जीवों की तरह करना चाहिए / कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या वाले जीवों का कथन पाहारक जीव की तरह करना चाहिए / किन्तु इतना विशेष है कि जिसके जो लेश्या हो, उसके वह लेश्या कहनी चाहिए। लेजोलेश्या में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए; किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में छह भंग कहने चाहिए। पदमलेश्या और शुक्ललेश्या में जीवादिक तीन भंग कहने चाहिए। [2] प्रलेसेहिं जीव-सिद्ध हि तिय गो, मणुएसु छम्भ गा / [10-2] अलेश्य (लेश्यारहित) जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए, तथा अलेश्य मनुष्यों में (पूर्ववत्) छह भंग कहने चाहिए / 11. [1] सम्मट्ठिोहि जीवाइनो तियम गो। विलिदिएसु छन्भगा। [11-1] सम्यग्दृष्टि जीवों में जीवादिक तीन भंग कहने चाहिए / विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिए। [2] मिच्छट्ठिीहिं एगिदियवज्जो तियभगो। [11-2] मिथ्यादृष्टि जीवों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए / Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [3] सम्मामिच्छट्ठिीहिं छभगा। [11-2] सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में छह भंग कहने चाहिए / 12. [1] संजतेहिं जीवाइनो तियभगो / [12-1] संयतों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। [2] असंजतेहिं एगिदियवज्जो तियभंगो। [12-2] असंयतों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए / [3] संजतासंजतेहिं तियभगो जीवादियो। [12-3] संयतासंयत जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। [4] नोसंजयनोप्रसंजयनोसंजतासंजत जीव-सिद्धहि तियभगो। [12-4] नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए / 13. [1] सकसाईहि जीवादियो तियभगो / एगिदिएसु अभंगकं / कोहकसाईहि जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। देवेहि छभगा। माणकसाई मायाकसाई जीवेगिदियवज्जो तियभगो / नेरतियदेवेहि छन्भगा / लोभकसायीहि जोगिदियवज्जो तियभगो। नेरतिएसु छन्भगा। [13-1] सकषायी (कषाययुक्त) जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। एकेन्द्रिय (सकषायी) में अभंगक (तीन भंग नहीं, किन्तु एक भंग) कहना चाहिए। क्रोधकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए। मानकषायी और मायाकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए। नैरयिकों और देवों में छह भंग कहने चाहिए। लोभकषायी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए / नैरयिक जीवों में छह भंग कहने चाहिए / [2] अकसाई जीव-मणुएहि सिद्धहिं तियभगो। [13-2] अकषायी जीवों, जीव, मनुष्य और सिद्धों में तीन भंग कहने चाहिए। 14. [1] प्रोहियनाणे प्राभिणिबोहियनाणे सुयनाणे जीवादियो तियमंगो। विलिदिएहि छन्भगा / प्रोहिनाणे मणपज्जवणाणे केवलनाणे जीवादियो तियभंगो। [14-1] औधिक (समुच्चय) ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए / विकलेन्द्रियों में छह भंग कहने चाहिए। अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। [2] प्रोहिए अण्णाणे मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे एगिदियवज्जो तियभंगो। विभागणाणे जीवादियो तियभंगो। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [41 . [14-2] पौघिक (समुच्चय) अज्ञान, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान में एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए / विभंगज्ञान में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। 15. [1] सजोगी जहा प्रोहिओ। मणजोगी वयजोगी कायजोगी जीवादिलो तियभंगो, नवरं कायजोगी एगिदिया तेसु प्रभगकं / [15-1] जिस प्रकार औधिक जीवों का कथन किया, उसी प्रकार सयोगी जीवों का कथन करना चाहिए / मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए। विशेषता यह है कि जो काययोगी एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक (अधिक भंग नहीं, केवल एक भंग) होता है / [2] प्रजोगी जहा अलेसा। [15-2] अयोगी जीवों का कथन अलेश्यजीवों के समान कहना चाहिए। 16. सागारोवउत्त-प्रणागारोवउहि जीवेगिदियवज्जो तियभगो। [16] साकार उपयोग वाले और अनाकार उपयोग वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहने चाहिए। 17. [1] सवेयगा य जहा सकसाई / इस्थिवेयग-पुरिसवेदग-नयुसगवेदगेसु जीवादियो तियभगो, नवरं नपुसगवेदे एंगिदिएसु प्रमंगयं / 17-1] सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिए / स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी जीवों में जीवादि तीन भंग कहने चाहिए / विशेष यह है कि नपुसकवेद में जो एकेन्द्रिय होते हैं, उनमें अभंगक (अधिक भंग नहीं, किन्तु एक भंग) है / [2] अदेयगा जहा प्रकसाई / [17-2] जैसे अकषायी जीवों के विषय में कथन किया, वैसे ही अवेदक (वेदरहित) जीवों के विषय में कहना चाहिए। 18. [1] ससरीरी जहा प्रोहियो / पोरालिय-उब्वियसरीरीणं जीवएगिदियवज्जो तियभंगो। पाहारगसरोरे जीव-मणुएसु छब्भ गा / तेयग-कम्मगाणं जहा प्रोहिया / [18-1] जैसे औधिक जीवों का कथन किया, वैसे ही सशरीरी जीवों के विषय में कहना चाहिए / औदारिक और वैक्रियशरीर वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए / आहारक शरीरबाले जीवों में जीव और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए। तेजस और कार्मण शरीर वाले जीवों का कथन औधिक जीवों के समान कहना चाहिए। [2] असरीरेहि जीव-सिद्ध हि तियभगो। [18-2] अशरीरी, जीव और सिद्धों के लिए तीन भंग कहने चाहिए। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. [1] पाहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए प्राणापाणपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभगो। भासामणपज्जत्तीए जहा सण्णी। [16-1] आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छवास-पर्याप्ति बाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग कहने चाहिए / भाषापर्याप्ति और मन:पर्याप्ति वाले जीवों का कथन संशीजीवों के समान कहना चाहिए। [2] पाहारअपज्जत्तीए जहा अणाहारगा। सरीरप्रपज्जत्तीए इंदियनपज्जत्तीए प्राणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, नेरइय-देव-मणुएहि छन्भगा। भासामणअपज्जत्तीए जीवादिनो तिय गो, णेरइय-देव-मणुएहि छम्भगा। [16-2] ग्राहारअपर्याप्ति वाले जीवों का कथन अनाहारक जीवों के समान कहना चाहिए। शरीर-अपर्याप्ति, इन्द्रिय-अपर्याप्ति और श्वासोच्छवास-अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ तीन भंग कहने चाहिए / (अपर्याप्तक) नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए / भाषाअपर्याप्ति और मन:-अपर्याप्ति वाले जीवों में जीव आदि तीन भंग कहने चाहिए / नैरथिक, देव और मनुष्यों में छह भंग जानने चाहिए / 20. गाहा-सपदेसाऽऽहारग भविय सणि लेस्सा दिट्ठी संजय कसाए / गाणे जोगुवनोगे वेदे य सरीर पज्जत्ती // 1 // [20. संग्रहणी गाथा का अर्थ---] सप्रदेश, आहारक, भव्य, संजी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति, इन चौदह द्वारों का कथन ऊपर किया गया है। विवेचन-आहारक अादि जीवों में सप्रदेश-प्रप्रदेश-वक्तव्यता--प्रस्तुत बीस सूत्रों में (सू. 1 से 20 तक) आहारक आदि 14 द्वारों में सप्रदेश-अप्रदेश की दृष्टि से विविध भंगों की प्ररूपणा की गई है। सप्रदेश प्रादि चौदह द्वार--(१) सप्रदेशद्वार-कालादेश का अर्थ है- काल की अपेक्षा से / विभागरहित को अप्रदेश और विभागसहित को सप्रदेश कहते हैं / समुच्चय में जीव अनादि है, इसलिए उसकी स्थिति अनन्त समय की है। इसलिए वह सप्रदेश है / जो जिस भाव (पर्याय) में प्रथमसमयवर्ती होता है, वह काल की अपेक्षा अप्रदेश और एक समय से अधिक दो-तीन-चार आदि समयों में वर्तने वाला काल की अपेक्षा सप्रदेश होता है।' कालादेश की अपेक्षा जीवों के भंग-जिस नैरयिक जीव को उत्पन्न हुए एक समय हुया है, वह कालादेश से अप्रदेश है, और प्रथम समय के पश्चात् द्वितीय-तृतीयादिसमयवर्ती नैरयिक सप्रदेश है / इस प्रकार प्रौधिक जोव, नैरयिक आदि 24 और सिद्ध के मिलाकर 26 दण्डकों में एकवचन को 1. जो जस्स पढमसमए बट्टइ. भावस्स सो उ अपएसो / अण्णम्मि बट्टमाणो कालाएसेण सपएसो // 1 / / —भगवती प्रवृत्ति, पत्रांक 261 में उद्धत Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४] लेकर कदाचित् प्रप्रदेश, कदाचित् सप्रदेश, ये दो-दो भंग होते हैं / इन्हीं 26 दण्डकों में बहुवचन को लेकर विचार करने पर तीन भंग होते हैं (1) उपपातविरहकाल में पूर्वोत्पन्न जीवों की संख्या असंख्यात होने से सभी सप्रदेश होते हैं, अतः वे सव सप्रदेश हैं। (2) पूर्वोत्पन्न नैरयिकों में जब एक नया नैरयिक उत्पन्न होता है, तब उसकी प्रथम समय की उत्पत्ति की अपेक्षा से वह 'अप्रदेश' कहलाता है। इसके सिवाय बाकी नैरयिक जिनकी उत्पत्ति को दो-तीन-चार प्रादि समय हो गए हैं, वे सप्रदेश' कहलाते हैं / तथा (3) एक-दो-तीन आदि नैरयिकजीव एक समय में उत्पन्न भी होते हैं, उसी प्रमाण में मरते भी हैं, इसलिए वे सब 'अप्रदेश' कहलाते हैं, तथा पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान जीव बहुत होने से वे सब सप्रदेश भी कहलाते हैं। इसीलिए मूलपाठ में नैरयिकों के क्रमशः तीन भंगों का संकेत है। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियजीवों में दो भंग होते हैं-वे कदाचित् सप्रदेश भी होते हैं, और कदाचित अप्रदेश भी। द्वीन्द्रियों से लेकर सिद्धपर्यन्त पूर्ववत् (नैरयिकों की तरह) तीन-तीन भंग होते हैं / 2. आहारकद्वार-पाहारक और अनाहारक शब्दों से विशेषित दोनों प्रकार के जीवों के प्रत्येक के एकवचन ओर बहुवचन को लेकर क्रमश: एक-एक दण्डक यानी दो-दो दण्डक कहने चाहिए / जो जीव विग्रहगति में या केवली समुद्घात में मनाहारक होकर फिर पाहारकत्व को प्राप्त करता है, वह आहारककाल के प्रथम समय वाला जीव 'अप्रदेश' और प्रथम समय के अतिरिक्त द्वितीय-तृतीयादि समयवर्ती जीव सप्रदेश कहलाता है। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है-कदाचित् कोई सप्रदेश और कदाचिन् कोई अप्रदेश होता है / इसी प्रकार सभी अादिवाले (शुरु होने वाले) भावों में एकवचन में जान लेना चाहिए / अनादि वाले भावों में तो सभी नियमत: सप्रदेश होते हैं / बहुवचन वाले दण्डक में भी इसी प्रकार-कदाचित् सप्रदेश भी और कदाचित् अप्रदेश भी होते हैं। जैसेआहारकपने में रहे हुए बहुत जीव होने से उनका सप्रदेशत्व है, तथा बहुत-से जीव विग्रहगति के पश्चात प्रथम समय में तुरन्त ही अनाहारक होने से उनका अप्रदेशत्व भी है। इस प्रकार पाहारक जीवों में सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व ये दोनों पाये जाते हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय (पृथ्वीकायिक - ग्रादि) जीवों के लिए भी कहना चाहिए। सिद्ध अनाहारक होने से उनमें आहारकत्व नहीं होता है / अत: सिद्ध पद और एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकादि जीवों में मूलपाठोक्त तीन भंग (1. सभी सप्रदेश, अथवा 2. बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश, अथवा 3. बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहने चाहिए / अनाहारक के भी इसी प्रकार एकवचन-बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए / विग्रहगतिसमापन्न जीव, समुद्घातगत केवली, अयोगी केवली और सिद्ध, ये सब अनाहारक होते हैं / ये जब अनाहारकत्व के प्रथम समय में होते हैं तो 'अप्रदेश' और द्वितीयतृतीय आदि समय में होते हैं तो 'सप्रदेश' कहलाते हैं / बहुवचन के दण्डक में जीव और एकेन्द्रिय को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इन दोनों पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग पाया जाता है; क्योंकि इन दोनों पदों में विग्रहगति-समापन्न अनेक जीव सप्रदेश और अनेक जीव अप्रदेश मिलते हैं। नैरयिकादि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों में थोड़े जीवों की उत्पत्ति होती है / अतएव 1. एगो व दो व तिण्णि व संखमसंखा च एगसमएम् / उबवज्जते वइया, उब्वटुंता वि एगेव // 2 // -भगवती० प्र० वृत्ति, पत्रांक 261 में उद्धृत Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनमें एक-दो आदि अनाहारक होने से छह भंग संभवित होते हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। यहाँ एकवचन की अपेक्षा दो भंग नहीं होते, क्योंकि यहाँ बहुवचन का अधिकार चलता है। सिद्धों में तीन भंग होते हैं, उनमें सप्रदेशपद बहुवचनान्त ही सम्भवित है। 3. भव्यद्वार-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक, इन दोनों के प्रत्येक के दो-दो दण्डक हैं, जो औधिक (सामान्य) जीव-दण्डक की तरह हैं। इनमें भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीव, नियमत: सप्रदेश होता है। क्योंकि भव्यत्व और अभव्यत्व का प्रथम समय कभी नहीं होता। ये दोनों भाव अनादिपारिणामिक हैं / नैरयिक आदि जीव, सप्रदेश भी होता है, अप्रदेश भी / बहुत जीव तो सप्रदेश ही होते हैं / नैरयिक आदि जीवों में तीन भंग होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग होता है / क्योंकि ये बहुत संख्या में ही प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। यहाँ भव्य और अभव्य के प्रकरण में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध जीव न तो भव्य कहलाते हैं, न अभव्य / वे नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक होते हैं। अतः नोभवसिद्धिकनोप्रभवसिद्धिक जीवों में एकवचक और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। इसमें जीवपद और सिद्धपद, ये दो पद ही कहने चाहिए; क्योंकि नैरयिक आदि जीवों के साथ नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिक' विशेषण लग नहीं सकता। इस दण्डक के बहुवचन की अपेक्षा तीन भंग मूलपाठ में बताए हैं। 4. संजीद्वार-संज्ञी जीवों के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं / बहुवचन के दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग होते हैं, यथा-(१) जिन संजी जीवों को बहुत-सा समय उत्पन्न हुए हो गया है, वे कालादेश से सप्रदेश हैं (2) उत्पादविरह के बाद जब एक जीव की उत्पत्ति होती है, तब उसको प्रथम समय की अपेक्षा 'बहुत जीव सप्रदेश और एक जीव अप्रदेश' कहा जाता है, और (3) जब बहुत जीवों की उत्पत्ति एक ही समय में होती है, तब 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यों कहा जाता है / इस प्रकार ये तीन भंग सभी पदों में जान लेने चाहिए। किन्तु इन दो दण्डकों में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें 'संज्ञी' विशेषण सम्भव ही नहीं है। असंज्ञीजीवों में एकेन्द्रियपदों को छोड़कर दूसरे दण्डक में ये ही तीन भंग कहने चाहिए / पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में सदा बहुत जीवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए उन पदों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग सम्भव है / नैरयिकों से ले कर व्यन्तर देवों तक असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं, वे जब तक संशी न हों, तब तक उनका असंज्ञीपन जानना चाहिए / नैरयिक आदि में असंज्ञीपन कादाचित्क होने से एकत्व एवं बहुत्व की सम्भावना होने के कारण मूलपाठ में 6 भंग बताए गए हैं। संज्ञो प्रकरण में ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें असंजीपन सम्भव नहीं है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी विशेषण वाले जीवों के दो दण्डक कहने चाहिए। उसमें बहवचन को लेकर द्वितीय दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्ध में उपर्युक्त तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि उनमें बहुत-से अवस्थित मिलते हैं। उनमें उत्पद्यमान एकादि सम्भव हैं। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के इन दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध, ये तीन पद ही कहने चाहिए; क्योंकि नैरयिकादि जीवों के साथ 'नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी' विशेषण घटित नहीं हो सकता। 5. लेश्याहार–सलेश्य जीवों के दो दण्डकों में जीव और नैरयिकों का कथन औधिक दण्डक के समान करना चाहिए, क्योंकि जीवत्व की तरह सलेश्यत्व भी अनादि है, इसलिए इन दोनों में Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 02 छठा शतक : उद्देशक-४] [ 45 किसी प्रकार की विशेषता नहीं है, किन्तु इतना विशेष है कि सलेश्य प्रकरण में सिद्ध पद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध अलेश्य होते हैं / कृष्ण-नील-कापोतलेश्यावान् जीव और नैरयिकों के प्रत्येक के दो-दो दण्डक आहारक जीव की तरह कहने चाहिए ! जिन जीव एवं नैरयिकादि में जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। जैसे कि कृष्णादि तीन लेश्याएँ, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में नहीं होतीं / सिद्धों में तो कोई भी लेश्या नहीं होती। तेजोलेश्या के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। बहुवचन की अपेक्षा द्वितीय दण्डक में जीवादिपदों के तीन भंग होते हैं / पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में 6 भंग होते हैं, क्योंकि पृथ्वी कायादि जीवों में तेजोलेश्यावाले एकादिदेव-(पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान दोनों प्रकार के) पाए जाते हैं। इसलिए सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व के एकत्व और बहुत्व का सम्भव है। तेजोलेश्याप्रकरण में नैरयिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, विकलेन्द्रिय और सिद्ध, ये पद नहीं कहने चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। और शुक्ललेश्या के दो-दो दण्डक कहने चाहिए। दूसरे दण्डक में जीवादि पदों में तीन भंग कहने चाहिए / पद्म-शुक्ललेश्याप्रकरण में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वैमानिक देव ही कहने चाहिए; क्योंकि इनके सिवाय दूसरे जीवों में ये लेश्याएं नहीं होती। अलेश्य जीव के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डकों में जीव, मनुष्य और सिद्ध पद का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि दूसरे जीवों में अलेश्यत्व संभव नहीं है / इनमें जीव और सिद्ध में तीन भंग और मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए; क्योंकि अलेश्यत्व प्रतिपन्त (प्राप्त किये हुए) और प्रतिपद्यमान (प्राप्त करते हुए) एकादि मनुष्यों का सम्भव होने से सप्रदेशत्व में और अप्रदेशत्व में एकवचन और बहुवचन सम्भव है। 6. दृष्टिद्वार-सम्यग्दृष्टि के दो दण्डकों में सम्यग्दर्शनप्राप्ति के प्रथम समय में अप्रदेशत्व है, और बाद के द्वितीय-तृतीयादि समयों में सप्रदेशत्व है। इनमें दूसरे दण्डक में जीवादिपदों में पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए। विकलेन्द्रियों में पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान एकादि सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव पाए जाते हैं, इस कारण इनमें 6 भंग जानने चाहिए। अतः सप्रदेशत्व और अप्रदेशत्व में एकत्व और बहुत्व संभव है / एकेन्द्रिय सर्वथा मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनमें सम्यग्दर्शन न होने से सम्यग्दृष्टिद्वार में एकेन्द्रियपद का कथन नहीं करना चाहिए / मिथ्यादृष्टि के एकवचन और बहुवचन से दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से दूसरे दण्डक में जीवादि पदों के तीन भंग होते हैं; क्योंकि मिथ्यात्व-प्रतिपन्न (प्राप्त) जीव बहत है और सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने के बाद मिथ्यात्व को प्रतिपद्यमान एक जीव भी संभव है। इस कारण तीन भंग होते हैं। मिथ्यादष्टि के प्रकरण में एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक ही भंग पाया जाता है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में अवस्थित और उत्पद्यमान बहुत होते हैं / इस (मिथ्यादृष्टि-) प्रकरण में सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें मिथ्यात्व नहीं होता / सम्यगमिथ्यादृष्टि जीवों के एकवचन और बहुवचन, ये दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन के दण्डक में 6 भंग होते हैं; क्योंकि सम्यगमिथ्यादष्टित्व को प्राप्त और प्रतिपद्यमान एकादि जीव भी पाए जाते हैं / इस सम्यमिथ्यादृष्टिद्वार में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्ध जीवों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें सम्यमिथ्यादृष्टित्व असम्भव है। 7. संयतद्वार–'संयत' शब्द से विशेषित जीवों में तीन भंग कहने चाहिए। क्योंकि संयम को प्राप्त बहुत जीव होते हैं, संयम को प्रतिपद्यमान एकादि जीव होते हैं, इसलिए तीन भंग घटित होते हैं / संयतद्वार में केवल दो ही पद कहने चाहिए-जीवपद और मनुष्यपद, क्योंकि दूसरे जीवों में Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संयतत्व का अभाव है। असंयत जीवों के एकवचन और बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए। उनमें से बहुवचन सम्बन्धी द्वितीय दण्डक में तीन भंग होते हैं, क्योंकि असंयतत्व को प्राप्त बहुत जीव होते हैं, तथा संयतत्व से भ्रष्ट होकर असंयतत्व को प्राप्त करते हुए एकादि जीव होते हैं, इसलिए उनमें तीन भंग घटित हो सकते हैं / एकेन्द्रिय जीवों में पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'- यह एक ही भंग पाया जाता है। इस असंयतप्रकरण में 'सिद्धपद' नहीं कहना चाहिए; क्योंकि सिद्धों में असंयतत्व नहीं होता। 'संयतासंयत' पद में भी एकवचन-बहुवचन को लेकर दो दण्डक कहने चाहिए / उनमें से दूसरे दण्डक में बहुवचन की अपेक्षा पूर्वोक्त तीन भंग कहने चाहिए; क्योंकि संयतासंयतत्व-देशविरतिपन को प्राप्त बहुत जीव होते हैं; और उससे भ्रष्ट होकर या असंयम का त्याग कर संयतासंयतत्व को प्राप्त होते हुए एकादि जीव होते हैं। अत: तीन भंग घटित होते हैं। इस संयतासंयतद्वार में भी जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, ये तीन पद ही कहने चाहिए। पदों के अतिरिक्त अन्य जीवों में संयतासंयतत्व नहीं पाया जाता। नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत द्वार में जीव और सिद्ध, ये दो पद ही कहने चाहिए, भंग भी पूर्वोक्त तीन होते हैं। 8. कषायद्वार-सकषायी जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं, यथा--(१) सकषायी जीव, सदा अवस्थित होने से सप्रदेश होते हैं-~-यह प्रथम भंग; (2) उपशमश्रेणी से गिर कर सकषायावस्था को को प्राप्त होते हए एकादि जीव पाए जाते हैं इसलिए 'बहत सप्रदेश और एक अप्रदेश' यह दूसरा भंग तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह तीसरा भंग / नैरयिकादि में तीन भंग पाए जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अभंग है-अर्थात् उनमें अनेक भंग नहीं, किन्तु 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है; क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में बहुत जीव 'अवस्थित' और बहुत जीव 'उत्पद्यमान' पाए जाते हैं / सकषायी द्वारा में 'सिद्ध पद' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध कषायरहित होते हैं / इसी तरह क्रोधादि कषायों में कहना चाहिए / क्रोधकषाय के एकवचन-बहुवचन दण्डकद्वय में से दूसरे दण्डक में बहुवचन से जीवपद में और पृथ्वीकायादि पदों में बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह एक भंग ही कहना चाहिए; क्योंकि मान, माया और लोभ से निवृत्त हो कर क्रोधकषाय को प्राप्त होते हुए जीव अनन्त होने से यहाँ एकादि का सम्भव नहीं है, इसलिए सकषायी जीवों की तरह तीन भंग नहीं हो सकते / शेष (एकवचन) में तीन भंग कहने चाहिए। देवपद में देवों सम्बन्धी तेरह ही दण्डकों में छह भंग कहने चाहिए; क्योंकि उनमें क्रोधकषाय के उदय वाले जीव अल्प होने से एकत्व और बहुत्व, दोनों संभव हैं; अतः सप्रदेशत्व-अप्रदेशत्व दोनों संभव हैं। मानकषाय और मायाकषाय वाले जीवों के भी एकवचन-बहुवचन को लेकर दण्डकद्वय क्रोधकषाय की तरह कहने चाहिए। उनमें से दूसरे दण्डक में नैरयिकों और देवों में 6 भंग होते हैं, क्योंकि भान और माया के उदय वाले जीव थोड़े ही पाए जाते हैं। लोभकषाय का कथन, क्रोधकषाय की तरह करना चाहिए / लोभकषाय के उदय वाले नैरयिक अल्प होने से उनमें 6 भंग पाए जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि देवों में लोभ बहुत होता है, और नैरयिकों में क्रोध अधिक / इसलिए क्रोध, मान और माया में देवों के 6 भंग और मान, माया और लोभ में नैरयिकों के 6 भंग कहने चाहिए। अकषायी द्वार के भी एकवचन और बहुवचन ये दण्डकद्वय होते हैं। उनमें से दूसरे दण्डक में जीव, मनुष्य और सिद्धपद में तीन भंग कहने चाहिए। इन तीन पदों के सिवाय अन्य दण्डकों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि दूसरे जीव अकषायी नहीं हो सकते / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [47 ____E. ज्ञानद्वार-मत्यादि भेद से अविशेषित औधिक (सामान्य) ज्ञान में तथा मतिज्ञान और श्रतज्ञान में एकवचन और बहवचन को लेकर दो दण्डक होते हैं। दूसरे दण्डक में जीवादि पदों के तीन भंग कहने चाहिए। यथा-प्रोधिकज्ञानी, मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी सदा अवस्थित होने से वे सप्रदेश हैं, यह एक भंग, मिथ्याज्ञान से निवृत्त होकर मात्र मत्यादिज्ञान को प्राप्त होने वाले एवं श्रुत-अज्ञान से निवृत्त होकर श्रुतज्ञान को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाए जाते हैं, इसलिए, तथा मति-अज्ञाव से निवृत्त होकर मतिज्ञान को प्राप्त होने वाले बहुत सप्रदेश और एकादि अप्रदेश', यह दूसरा भंग तथा 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश', यह तीसरा भंग होता है / विकलेन्द्रियों में सास्वादन सम्यक्त्व होने से मत्यादिज्ञान वाले एकादि जीव पाए जाते हैं, इसलिए उनमें 6 भंग घटित हो जाते हैं। यहाँ पृथ्वीकायादि जीव तथा सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें न नहीं होते। इसी प्रकार अवधिज्ञान आदि में भी तीन भंग सम्भव है। विशेषता यह है कि अवधिज्ञान के एकवचन-बहुवचन-दण्डकद्वय में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए। मनःपर्यवज्ञान के उक्त दण्डकद्वय में जीव और मनुष्य का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि इनके सिवाय अन्यों को मनःपर्यवज्ञान नहीं होता। केवलज्ञान के उक्त दोनों दण्डकों में भी मनुष्य और सिद्ध का ही कथन करना चाहिए, क्योंकि दूसरे जीवों को केवलज्ञान नहीं होता। मति आदि अज्ञान से अविशेषित सामान्य (प्रोधिक) अज्ञान, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान, इनमें जीवादि पदों में तीन भंग घटित हो जाते हैं, यथा- (1) ये सदा अवस्थित होते हैं, इसलिए 'सभी सप्रदेश' यह प्रथम भंग हया, (2-3) अवस्थित के सिवाय जब दूसरे जीव, ज्ञान को छोड़ कर मति-अज्ञानादि को प्राप्त होते हैं, तब उनके एकादि का सम्भव होने से दूसरा और तीसरा भंग भी घटित हो जाता है / एकेन्द्रिय जीवों में 'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश' यह एक ही भंग पाया जाता है। सिद्धों में तीनों अज्ञान असम्भव होने से उनमें अज्ञानों का कथन नहीं करना चाहिए / विभंगज्ञान में जीवादि पदों में मति-अज्ञानादि की तरह तीन भंग कहने चाहिए। इसमें एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सिद्धों का कथन नहीं करना चाहिए। 10. योगद्वार-सयोगी जीवों के एक-बहुवचन-दण्डकद्वय औधिक जीवादि की तरह कहने चाहिए / यथा-सयोगी जीव नियमतः सप्रदेशी होते हैं। नैरयिकादि सयोगी तो सप्रदेश और प्रदेश दोनों होते हैं, किन्तु बहुत जीव सप्रदेश ही होते हैं। इस प्रकार नैरयिकादि सयोगी में तीन भंग होते हैं, एकेन्द्रियादि सयोगीजीवों में केवल तीसरा हो भंग पाया जाता है / यहाँ सिद्ध का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे अयोगी होते हैं। मनोयोगी, अर्थात् तीनों योगों वाले संज्ञी जीव, वचनयोगी अर्थात् एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष सभी जीव, और काययोगो, अर्थात् एकेन्द्रियादि सभी जीव / इनमें जीवादि पद में तीन भंग होते हैं। जब मनोयोगी आदि जीव अवस्थित होते हैं, तब उनमें 'सभी सप्रदेश', यह प्रथम भंग पाया जाता है। और जब अमनोयोगीपन छोड़कर मनोयोगीपन आदि में उत्पत्ति होती है, तब प्रथमसमयवर्ती अप्रदेशत्व की दृष्टि से दूसरे दो भंग पाए जाते हैं। विशेष यह है-काययोगी में एकेन्द्रियों में अभंगक है, अर्थात्-उनमें अनेक भंग न होकर सिर्फ एक ही भंग होता है-'बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश'। तीनों योगों के दण्डकों में यथासम्भव जीवादिपद कहने चाहिए; किन्तु सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए। अयोगोद्वार का कथन अलेश्यद्वार के समान कहना चाहिए। अतः इसके दूसरे दण्डक में अयोगी जीवों में, जीव और सिद्धपद में तीन भंग और अयोगी मनुष्य में छह भंग कहने चाहिए। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 11. उपयोगद्वार-साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी नैरयिक आदि में तीन भंग तथा जीवपद और पृथ्वीकायादिपदों में एक ही भंग (बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहना चाहिए / इन दोनों उपयोगों में से किसी एक में से दूसरे उपयोग में जाते हुए प्रथम समय में अप्रदेशत्व और इतर समयों में सप्रदेशत्व स्वयं घटित कर लेना चाहिए। सिद्धों में तो एकसमयोपयोगीपन होता है, तो भी साकार और अनाकार उपयोग की बारंबार प्राप्ति होने से सप्रदेशत्व और एक बार प्राप्ति होते से अप्रदेशत्व होता है। इस प्रकार साकार-उपयोग को बारंबार प्राप्त ऐसे बहुत सिद्धों की अपेक्षा एक भंग (सभी सप्रदेश), उन्हीं सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार साकारोपयोग को प्राप्त एक सिद्ध की अपेक्षा-'बहुत सप्रदेश और एक अप्रदेश', यह दूसरा भंग तथा बारंबार साकारोपयोग-प्राप्त बहत सिद्धों की अपेक्षा एवं एक बार साकारोपयोगप्राप्त बहत सिद्धों की अपेक्षा—'बहत बहत अप्रदेश' यह ततीय भंग समझना चाहिए। अनाकार उपयोग में बारंबार अनाका प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा प्रथम भंग, उन्हीं सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार अनाकारोपयोग प्राप्त एक सिद्ध जीव की अपेक्षा द्वितीय भंग, और बारंबार अनाकारोपयोग प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा तथा एक बार अनाकारोपयोग प्राप्त बहुत सिद्धों की अपेक्षा तृतीय भंग समझ लेना चाहिए। 12. वेदद्वार-सवेदक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान करना चाहिए। सवेदक जीवों में भी जीवादि-पद में वेद को प्राप्त बहुत जीवों और उपशमश्रेणी से गिरने के बाद सवेद अवस्था को प्राप्त होने वाले एकादि जीवों की अपेक्षा तीन भंग घटित होते हैं / एकेन्द्रियों में एक ही भंग तथा स्त्रीवेदक आदि में तीन भंग पाए जाते हैं। जब एक वेद से दूसरे वेद में संक्रमण होता है, तब प्रथम समय में अप्रदेशत्व और द्वितीय प्रादि समयों में सप्रदेशत्व होता है, यों तीन भंग घटित होते हैं। नसकवेद के एकवचन-बहवचन रूप दण्डकद्वय में तथा एकेन्द्रियों में बहत सप्रदेश और बहत अप्रदेश, यह एक भंग पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद के दण्डकों में देव, पंचेन्द्रिय तियं च एवं मनुष्य ही कहने चाहिए। सिद्धपद का कथन तीनों वेदों में नहीं करना चाहिए। अवेदक जीवों का कथन अकषायो की तरह करना चाहिए। इसमें जीव, मनुष्य और सिद्ध ये तीन पद ही कहने चाहिए / इनमें तीन भंग पाए जाते हैं। 13. शरीरद्वार सशरीरी के दण्डकद्वय में औधिकदण्डक के समान जीवपद में सप्रदेशत्व ही कहना चाहिए। क्योंकि सशरीरीपन अनादि है। नैरयिकादि में सशरीरत्व का बाहुल्य होने से तीन भंग और एकेन्द्रियों में केवल तृतीय भंग ही कहना चाहिए। औदारिक और वैक्रियशरीर वाले जीवों में जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में बहत्व के कारण केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है; क्योंकि जीवपद और एकेन्द्रिय पदों में प्रतिक्षण प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान जीव बहुत पाए जाते हैं। शेष जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं, क्योंकि उनमें प्रतिपन्न बहुत पाए जाते हैं। एक औदारिक या एक वैक्रिय शरीर को छोड़ कर दूसरे औदारिक या दूसरे वैक्रिय शरीर को प्राप्त होने वाले एकादि जीव पाए जाते हैं। औदारिक शरीर के दण्डकद्वय में नैरयिकों और देवों का कथन तथा वैक्रियशरीर के दण्डकद्वय में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय जीवों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि नारकों और देवों के औदारिक तथा (वायुकाय के सिवाय) पृथ्वीकायादि में वैक्रियशरीर नहीं होता। वैक्रियदण्डक में एकेन्द्रिय पद में जो तृतीय भंग-(बहुत सप्रदेश और बहुत अप्रदेश) कहा गया है, वह असंख्यात वायुकायिक जीवों में प्रतिक्षण होने वाली वैक्रियक्रिया की अपेक्षा से कहा गया है। यद्यपि वैक्रियलब्धिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य अल्प Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४] [46 होते हैं, तथापि उनमें जो तीन भंग कहे गए हैं, वे वैक्रियावस्था वाले अधिक संख्या में हैं, इस अपेक्षा से सम्भवित हैं। इसके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों में एकादि जीवों को वैक्रियशरीर की प्रतिपद्यमानता जाननी चाहिए / इसी कारण तीन भंग घटित होंगे। आहारकशरीर की अपेक्षा जीव और मनुष्यों में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं, क्योंकि आहारक-शरीर जीव और मनुष्य पदों के सिवाय अन्य जीवों में न होने से प्राहारकशरोरी थोड़े होते हैं। तेजस और कार्मण शरीर का कथन औधिक जीवों के समान करना चाहिए। औधिक जीव सप्रदेश होते हैं, क्योंकि तैजसकार्मणशरीर-संयोग अनादि है। नै रयिकादि में तीन भंग और एकेन्द्रियों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए / इन सशरीरादि दण्डकों में सिद्धपद का कथन नहीं करना चाहिए / (सप्रदेशत्वादि से कहने योग्य) अशरीर जीवादि में जीवपद और सिद्धपद ही कहना चाहिए; क्योंकि इनके सिवाय दुसरे जीवों में अशरीरत्व नहीं पाया जाता / इस तरह अशरीरपद में तीन भंग कहने चाहिए। 14. पर्याप्तिद्वार-जीवपद और एकेन्द्रियपदों में प्राहारपर्याप्ति प्रादि को प्राप्त तथा पाहारादि की अपर्याप्ति से मुक्त होकर आहारादिपर्याप्ति द्वारा पर्याप्तभाव को प्राप्त होने वाले जीव बहुत हैं, इसलिए इनमें 'बहत सप्रदेश और बहत अप्रदेश', यह एक ही भंग होता है; शेष जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं / यद्यपि भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति, ये दोनों पर्याप्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं, तथापि बहुश्रुत महापुरुषों द्वारा सम्मत होने से ये दोनों पर्याप्तियाँ एक-रूप मान ली गई हैं। अतएव भाषामनःपर्याप्ति द्वारा पर्याप्त जीवों का कथन संज्ञी जीवों की तरह करना चाहिए / इन सब पदों में तीन भंग कहने चाहिए / यहाँ केवल पंचेन्द्रिय पद ही लेना चाहिए / आहार-अपर्याप्ति दण्डक में जीवपद और पृथ्वीकायिक नादि पदों में बहुत सप्रदेश-बहुत अप्रदेश'—यह एक ही भंग कहना चाहिए। क्योंकि आहारपर्याप्ति से रहित विग्रहगतिसमापन्न बहुत जीव निरन्तर पाये जाते हैं / शेष जीवों में पूर्वोक्त 6 भंग होते हैं, क्योंकि शेष जीवों में आहारपर्याप्तिरहित जीव थोड़े पाए जाते हैं / शरीर-अपर्याप्ति-द्वार में जोवों और एकेन्द्रियों में एक भंग एवं शेष जीवों में तीन भंग कहने चाहिए, क्योंकि शरीरादि से अपर्याप्त जीव कालादेश को अपेक्षा सदा सप्रदेश ही पाये जाते हैं, अप्रदेश तो कदाचित् एकादि पाये जाते हैं / नैरयिक, देव और मनुष्यों में छह भंग कहने चाहिए / भाषा और मन की पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव वे हैं, जिनको जन्म से भाषा और मन की योग्यता तो हो, किन्तु उसकी सिद्धि न हुई हो / ऐसे जीव पंचेन्द्रिय हो होते हैं / अतः इन जीवों में और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में भाषामन-अपर्याप्ति को प्राप्त बहुत जोव होते हैं, और इसकी अपर्याप्ति को प्राप्त होते हुए एकादि जीव ही पाए जाते हैं। इसलिए उनमें पूर्वोक्त तीन भंग घटित होते हैं / नैरयिकादि में भाषा-मन:-अपर्याप्तकों की अल्पतरता होने से उनमें एकादि सप्रदेश और प्रप्रदेश पाये जाने से पूर्वोक्त 6 भंग होते हैं / इन पर्याप्ति-अपर्याप्ति के दण्डकों में सिद्धपद नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धों में पर्याप्ति और अपर्याप्ति नहीं होती। इस प्रकार 14 द्वारों को लेकर प्रस्तुत सूत्रों पर वृत्तिकार ने सप्रदेश-अप्रदेश का विचार प्रस्तुत किया है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 261 से 266 तक (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन युक्त) भा. 2, पृष्ठ 984 से 995 तक / Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समस्त जीवों में प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान के होने, जानने, करने तथा प्रायुष्यबन्ध के सम्बन्ध में प्ररूपरणा--- 21. [1] जीवा णं मते ! कि पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणाऽच्चकवाणी वि / [21-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव प्रत्यास्थानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? __[21-1 उ.] गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। [2] सध्वजीवाणं एवं पुच्छा। गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी जाव चरिदिया, सेसा दो पडिसेहेयव्वा / पंचेंदियतिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणो वि / मणुस्सा तिणि वि / सेसा जहा नेरतिया। _[21-2 प्र. इसी तरह सभी जीवों के सम्बन्ध में प्रश्न है (कि वे प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ?) [21-2 उ.] गौतम ! नैरयिकजीव अप्रत्याख्यानी हैं, यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक अप्रत्याख्यानी हैं, इन जीवों (नैरयिक से लेकर चतरिन्द्रिय जीवों तक) में शेष दो भंगों (प्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी) का निषेध करना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च प्रत्याख्यानी नहीं हैं, किन्तु अप्रत्याख्यानी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। मनुष्य तीनों भंग के स्वामी हैं / शेष जीवों का कथन नै रयिकों की तरह करना चाहिए। 22. जीवा णं भते ! कि पच्चक्खाणं जाणति, अपच्चक्खाणं जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति? गोयमा! जे पंचेंदिया ते तिणि वि जाणंति, अक्सेसा पच्चक्खाणं न जाणंति / [22 प्र.] भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यान को जानते हैं, अप्रत्याख्यान को जानते हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानते हैं ? [22 उ.] गौतम ! जो पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, वे तीनों को जानते हैं। शेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते, (अप्रत्याख्यान को नहीं जानते और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को भी नहीं जानते / ) 23. जीवा णं भते ! कि पच्चक्खाणं कुब्बति अपच्चक्खाणं कुवंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं कुव्यंति? जहा प्रोहिया तहा कुब्धणा। Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-४ ] [23 प्र.] भगवन् ! क्या जोव प्रत्याख्यान करते हैं, अप्रत्याख्यान करते हैं, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं ? 123 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रौघिकदण्डक कहा है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान करने के विषय में कहना चाहिये / 24. जोवा णं भते ! कि पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया, अपच्चक्खाणनि०, पच्चक्खाणापच्चक्खाणनि? गोयमा! जीवा य वेमाणिया य पच्चक्खागणिवत्तियाउया तिणि वि / अवसेसा अपच्चक्खाणनिवत्तियाउया। [24 प्र.] भगवन ! क्या जीव, प्रत्याख्यान से निर्तित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निर्वतित आयष्य वाले हैं अथवा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से नितित प्रायष्य वाले हैं? (अर्थात -क्या जीवों का आयुष्य प्रत्याख्यान से बंधता है, अप्रत्याख्यान से बंधता है या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से बंधता है ?) [24 उ.] गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं, और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं / शेष सभी जीव, अप्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं। विवेचन–समस्त जीवों के प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होने, जानने और प्रायुष्य बांधने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत 4 सूत्रों में समस्त जीवों के प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से सम्बन्धित पांच तथ्यों का निरूपण क्रमशः इस प्रकार किया गय (1) जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं, प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी भी हैं। (2) नैरयिकों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीव तक तथा भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अप्रत्याख्यानी हैं / तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं, तथा मनुप्य प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी तीनों हैं। (3) पंचेन्द्रिय के सिवाय कोई भी जीव प्रत्याख्यानादि को नहीं जानते हैं। (4) समुच्चय जोव और मनुष्य प्रत्याख्यानादि तीनों ही करते हैं, तिर्थञ्च पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं और शेष 22 दण्डक के जीव सिर्फ अप्रत्याख्यान करते हैं--(प्रत्याख्यान नहीं करते / ) (5) समुच्चय जीव और वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले जीव प्रत्याख्यान आदि तीनों भंगों में आयुष्य बांधते हैं, शेष 23 दण्डक के जीव अप्रत्याख्यान में आयुष्य बांधते हैं।" 1. (क) वियाहपण्यत्तिसुत्तं (भू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 246 (ख) भगवतीसूत्र के थोकडे, द्वितीय भाम, थो. नं. 50, पृ. 70-71 Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विशेषार्थ-प्रत्याख्यानी-सर्वविरत, प्रत्याख्यानवाला / अप्रत्याख्यानी = अविरत, प्रत्याख्यानरहित / प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी = देशविरत (किसी अंश में प्राणातिपातादि पाप से निवृत्त और किसी अंश में अनिवृत्त / ) प्रत्याख्यान-ज्ञानसूत्र का प्राशय-प्रत्याख्यानादि तीनों का सम्यग्ज्ञान तभी हो सकता है, जब उस जीव में सम्यग्दर्शन हो / इसलिए नारक, चारों निकाय के देव, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय प्रौर मनुष्य, इन 16 दण्डकों के समनस्क-संज्ञी एवं सम्यग्दष्टि पंचेन्द्रिय जीव ही ज्ञपरिज्ञा से प्रत तीनों को सम्यक् प्रकार से जानते हैं, शेष अमनस्क-प्रसंशी एवं मिथ्यादष्टि (पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी, एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय) प्रत्याख्यानादि तीनों को नहीं जानते / यही इस सूत्र का प्राशय है। प्रत्याख्यानकरणसूत्र का प्राशय--प्रत्याख्यान तभी होता है, जबकि वह किया—स्वीकार किया जाता है / सच्चे अर्थों में प्रत्याख्यान या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान वही करता है, जो प्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानता हो। शेष जीव तो अप्रत्याख्यान ही करते हैं / यह इस सूत्र का प्राशय है। प्रत्याख्यानादि निर्तित प्रायुष्यबन्ध का प्राशय-प्रत्याख्यान आदि से आयुष्य बांधे हुए को प्रत्याख्यानादि-निर्वर्तित श्रायुष्यबन्ध कहते हैं। प्रत्याख्यानादि तीनों आयुष्यबन्ध में कारण होते हैं। वैसे तो जीव और वैमानिक देवों में प्रत्याख्यानादि तीनों वाले जीवों की उत्पत्ति होती है। किन्तु प्रत्याख्यान वाले जीवों की उत्पत्ति प्रायः वैमानिकों में, एवं अप्रत्याख्यानी अविरत जीवों की उत्पत्ति प्रायः नरयिक आदि में होती है।' प्रत्याख्यानादि से सम्बन्धित संग्रहणी गाथा 25. गाथापच्चखाणं 1 जाणइ 2 कुब्वति 3 तेणेव आउनिध्यत्ती 4 / सपदेसुद्देसम्मि य एमेए दंडगा चउरो / / 2 // सेवं भते ! सेवं भते ! त्तिः / ॥छ8 सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो। [25 गाथार्थ-] प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का जानना, करना, तीनों का (जानना, करना), तथा आयुष्य की निर्वृति, इस प्रकार ये चार दण्डक सप्रदेश (नामक चतुर्थ) उद्देशक में कहे गए हैं। / छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृति. पत्रांक 266.267 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन भा. 2, पृ. 297-999 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'तमुए' पंचम उद्देशक : तमस्काय तमस्काय के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से प्रश्नोत्तर 1. [1] किमियं मते ! तमुक्काए ति पवुच्चइ ? किं पुढवी तमुक्काए त्ति पवुच्चति, पाऊ तमुक्काए त्ति पवुच्चति ? - गोयमा ! नो पुढबी तमुक्काए ति पवुच्चति, प्राऊ तमुक्काए ति पयुच्चति / [1-1 प्र.] भगवन् ! 'तमस्काय' किसे कहा जाता है ? क्या 'तमस्काय' पृथ्वी को कहते हैं या पानी को? [1-1 उ.] गौतम ! पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, किन्तु पानी 'तमस्काय' कहलाता है / [2] से केणगं? गोयमा ! पुढविकाए णं प्रत्येगइए सुभे देसं पकासेति, प्रत्थेगइए देसं नो पकासेइ, से तेण?णं० / [1-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, किन्तु पानी तमस्काय कहलाता है ? [1-2 उ.) गौतम ! कुछ पृथ्वीकाय ऐसा शुभ है, जो देश (अंश या भाग) को प्रकाशित करता है और कुछ पृथ्वीकाय ऐसा है, जो देश (भाग) को प्रकाशित नहीं करता। इस कारण से पृथ्वी तमस्काय नहीं कहलाती, पानी ही तमस्काय कहलाता है। 2. तमुक्काए णं भते ! कहि समुट्टिए ? कहि सन्निद्विते ? गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेज्जे दोव-समुद्दे वोतियइत्ता अरुणवरस्स दीक्स्स बाहिरिल्लायो वेतियंतायो अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसहस्साणि प्रोगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताप्रो एकपदेसियाए सेढोए इत्थ गं तमुक्काए समुट्टिए; सत्तरस एक्कबोसे जोयणसते उड्ढे उप्पतित्ता तो पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे पवित्थरमाणे सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिदे चत्तारि वि कप्पे प्रावरित्ताणं उड्ढं पि य णं जाव बंभलोगे कप्पे रिटुक्मिाणपत्थडं संपत्ते, एत्थ णं तमुक्काए सन्निट्टिते। [2 प्र.] भगवन् ! तमस्काय कहाँ से समुत्थित (उत्पन्न प्रारम्भ) होता है और कहाँ जाकर सन्निष्ठित (स्थित या समाप्त) होता है ? [2 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के बाहर तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के बाद अरुणवर द्वीप की बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणोदय समुद्र में 42,000 योजन अवगाहन करने (जाने) पर वहाँ के ऊपरो जलान्त से एक प्रदेश वाली श्रेणी पाती है, यहीं से तमस्काय समुत्थित (उठा-प्रादुर्भूत हुआ) है। वहाँ से 1721 योजन ऊँचा जाने के बाद तिरछा विस्तृत से विस्तृत होता हुअा, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र, इन चार देवलोकों (कल्पों) को प्रावृत (आच्छादित) करके उनसे भी ऊपर पंचम ब्रह्मलोककल्प के रिष्टविमान नामक प्रस्तट (पाथड़े) तक पहुँचा है और यहीं तमस्काय सन्निष्ठित (समाप्त या संस्थित) हुपा है / 3. तमुक्काए णं भते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिते, उप्पि कुक्कुडगपंजरगसंठिए पणते / [3 प्र.] भगवन् ! तमस्काय का संस्थान (आकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [3 उ. गौतम! तमस्काय नीचे तो मल्लक (शराव या सिकोरे) के मूल के आकार का है और ऊपर कुक्कुंटपंजरक अर्थात् मुर्गे के पिंजरे के आकार का कहा गया है। 4. तमुक्काए णं भते केवतियं विक्खंभेणं ? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा! दुबिहे पण्णते, तं जहा-संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडे य / तस्य णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं 50 / तस्थ गंजे से असंखिज्जवित्यडे से असंक्खेज्जाई जोंयणसहस्साई विवखंभेणं, असंखेज्जाई जोयण. सहस्साई परिक्खेवेणं / [4 प्र.] ! भगवन् ! तमस्काय का विष्कम्भ (विस्तार) और परिक्षेप (घेरा) कितना कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! तमस्काय दो प्रकार का कहा गया है--एक तो संख्येयविस्तृत और दूसरा असंख्येयविस्तृत / इनमें से जो संख्येय विस्तुत है, उसका विष्कम्भ संख्येय हजार योजन है और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन है। जो तमस्काय असंख्येय विस्तृत है, उसका विष्कम्भ असंख्येय हजार योजन है और परिक्षेप भी असंख्येय हजार योजन है। 5. तमुक्काए गंभ ते ! केमहालए प०? गोधमा ! अयं णं जंबद्दोवे 2 जाव' परिक्खेवेणं पण्णत्ते / देवे णं महिड्ढोए जाबर 'इणामेव इणामेव' ति कटु केवलकप्पं जबद्दोवं दो तिहि अच्छरानिवाएहि तिसत्तखतो अणपरियट्टित्ताणं 1. जात्र पद यहाँ इस पाठ का गुचक्र है--"अयं जंबुद्दोवे गामं दोवे दीव-समुद्दाणं अतिरिए सम्बखुड्डाए बट्ट तेल्ला पूयसंठाणसंठिते, व रहचक्कवालसंठाणसंठिते, व पुक्खरकणियासंठाणसंठिते, बट्ट पडिपुण्णचंद संठाणसंठिते एक्कं जोषणसयसहस्सं आयामविवखंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिण्णि य कोसे अदावीसं च धणसयं तेरस अंगुलाई अद्ध गुलकं च किचिविसे साहियं परिक्खेवेणं"। -जीवाभिगम प्रतिपत्ति 3, जम्बूद्वीपप्रमाण कथन प. 1775. 2. 'जाव' पद यहाँ--'महज्जुईए महाबले महाजसे महेसक्खे महाणुभागे' इन पदों का सूचक है। 3. अच्छरानिवाएहि.---चुटकी बजाने जितने समय में / Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५ ] [ 55 हव्वमागच्छिज्जा। से गं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे जाब एकाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासे वीतीवएज्जा, अत्थेगइयं तमुक्कायं वीतीवएज्जा, प्रत्थेगइयं तमक्कायं नो वीतीवएज्जा / एमहालए णं गोतमा ! तमक्काए पन्नत्ते / [5 प्र.] भगवन् ! तमस्काय कितना बड़ा कहा गया है ? [5 उ. गौतम ! समस्त द्वीप-समुद्रों के सर्वाभ्यन्तर अर्थात्-बीचोंबीच यह जम्बूद्वोप है। यावत् यह एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाइस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है / कोई महाऋद्धि यावत् महानुभाव वाला देव--'यह चला. यह चला'; यों करके तोन चुटकी बजाए, उतने समय में सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस आ जाए, इस प्रकार की उत्कृष्ट और त्वरायुक्त यावत् देव की गति से चलता हुआ देव यावत् एक दिन, दो दिन, तीन दिन चले, यावत् उत्कृष्ट छह महीने तक चले तब जाकर कुछ तमस्काय को उल्लंघन कर पाता है, और कुछ तमस्काय को उल्लंघन नहीं कर पाता। हे गौतम ! तमस्काय इतना बड़ा (महालय) कहा गया है। 6. अस्थि गं भंते ! तमुकाए गेहा तिवा, गेहावणा ति वा ? णो इण? समट्ठ। [6 प्र.] भगवन् ! तमस्काय में गृह (घर) हैं, अथवा गृहापण (दूकाने) हैं ? [6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 7. अस्थि पं भंते ! तमुकाए गामा ति वा जाव सन्निसा ति वा? णो इण? समट्ठ। [7 प्र. भगवन् ! तमस्काय में ग्राम हैं यावत् अथवा सन्निवेश हैं ? [7 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 8. [1] अस्थि णं भंते ! तमुक्काए पोराला बलाहया संसेयंति,, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? हंता, अस्थि / [8-1 प्र. भगवन् ! क्या तमस्काय में उदार (विशाल) मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा है / [2] तं भंते ! कि देवो पकरेति, असुरो पफरेति ? नागो पकरेति ? गोयमा ! देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, णागो वि पकरेति / [8-2 प्र.] भगवन् ! क्या उसे (मेघ-संस्वेदन-सम्मूर्च्छन-वर्षण) देव करता है. असुर करता है या नाग करता है [7-2 उ ] हाँ, गौतम ! (ऐसा) देव भी करता है, असुर भी करता है और नाग भी करता है। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 9. [1] अस्थि णं भंते ! तमुकाए बादरे थणियसद्दे, बायरे विज्जुए ? हंता, अस्थि / [9-1 प्र.) भगवन् ! तमस्काय में क्या बादर स्तनित शब्द (स्थूल मेघगर्जन) है, क्या बादर विद्युत् है ? [9-1 उ.] हाँ, गौतम ! है। [2] तं भंते ! कि देवो पकरेति 3 ? तिण्णि वि पकरेंति। [9-2 प्र.] भगवन् ! क्या उसे देव करता है, असुर करता है या नाग करता है ? [9-2 उ.] गौतम ! तीनों ही करते हैं / (अर्थात्-देव भी करता है, असुर भी करता है और नाग भी करता है।) 10. अस्थि णं भंते ! तमकाए बादरे पुढविकाए, बादरे अगणिकाए ? णो तिण8 सम?', णन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं / [10 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय में बादर पृथ्वीकाय है और बादर अग्निकाय है ? [10 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह निषेध विग्रहगतिसमापन के सिवाय समझना / (अर्थात्--विग्रहगतिसमापन्न बादर पृथ्वी और बादर अग्नि हो सकती है / ) 11. अस्थि णं भ ते ! तमुकाए चंदिम-सूरिय-गहगण-गक्खत्त-तारारूवा? णो तिण8 सम8. पलिपस्सतो पुण अत्यि।। [11 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय में चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वे (चन्द्रादि) तमस्काय के परिपार्श्व में (आसपास) हैं भी। 12. अस्थि णं भते ! तमकाए वंदामा ति वा, सूरामा ति वा? णो ति? समवे, कादूसणिया पुण सा / / [12 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय में चन्द्रमा की आभा (प्रभा) या सूर्य को प्राभा है ? [12 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु तमस्काय में (जो प्रभा है, वह) कादूषणिका (अपनी आत्मा को दूषित करने वाली ) है। 13. तमुक्काए णं भते ! केरिसए वष्णेणं पण्णते ? गोयमा ! काले कालोभासे गंभीरलोमहरिसजणणे भीमे उत्तासणए परमकिण्हे वगेणं पण्णत्ते / देवे विणं अत्थेगतिए जे णं तप्पढमताए पासित्ताणं खुभाएज्जा, अहे णं अभिसमागच्छेज्जा, ततो पच्छा सोहं सोहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव वीतीवएज्जा। - [13 प्र.] भगवन् ! तमस्काय वर्ण से कैसा है ? [13 उ.] गौतम ! तमस्काय वर्ण से काला, काली कान्ति बाला, गम्भीर (गहरा), रोमहर्षक (रोंगटे खड़े करने वाला), भीम (भयंकर), उत्त्रासजनक और परमकृष्ण कहा गया है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५ ] कोई देव भी उस तमस्काय को देखते ही सर्वप्रथम तो क्षुब्ध हो जाता है। कदाचित् कोई देव तमस्काय में अभिसमागम (प्रवेश) करे भी तो प्रवेश करने के पश्चात् वह शीघ्राति-शीघ्र त्वरित गति से झटपट उसे पार (उल्लंघन) कर जाता है। 14. तमुकायस्स णं भंते ! कति नामज्जा पण्णता? गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-तमे ति वा, तमुकाए ति वा, अंधकारे इवा, महंधकारे इ वा, लोगंधकारे इ वा, लोगतमिस्से इ वा, देवंधकारे तिवा, देवंत मिस्ले ति वा, देवारपणे ति वा, देववू हे ति वा, देवफलिहे ति वा, देवपडिक्खो ति वा, अरुणोदए ति वा समुद्दे / [14 प्र.] भगवन् ! तमस्काय के कितने नाम (नामधेय) कहे गए हैं ? 14 उ.] गौतम ! तमस्काय के तेरह नाम कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(२) तम, (2) तमस्काय, (3) अन्धकार, (4) महान्धकार, (5) लोकान्धकार, (6) लोकतमित्र, (7) देवान्धकार, (8) देवतमिस्र, (6) देवारण्य, (10) देवव्यूह, (11) देवपरिघ, (12) देवप्रतिक्षोभ (13) अरुणोदक समुद्र। 15. तमुकाए गंमते ! किं पुढविपरिणामे प्राउपरिणामे जीवपरिणामे पोग्गलपरिणाम? गोयमा ! नो पुढविपरिणामे, प्राउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि। [15 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय पृथ्वी का परिणाम है, जल का परिणाम है, जीव का परिणाम है अथवा पुद्गल का परिणाम है ? [15 उ.] गौतम ! तमस्काय पृथ्वी का परिणाम नहीं है, किन्तु जल का परिणाम है, जीव का परिणाम भी है और पुद्गल का परिणाम भी है। 16. तमुकाए णं भते! सव्वे पाणा भूता जीवा सत्ता पुढ विकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुवा? हंता, गोयमा ! असई अदुवा प्रणतखुत्तो, णो चेव णं बादरपुढविकाइयत्ताए वा, बादरअगणिकाइयत्ताए वा। [16 प्र.] भगवन् ! क्या तमस्काय में सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व-पृथ्वीकायिक रूप में यावत् त्रसकायिक रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? _[16 उ ] हाँ, गौतम ! (सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, तमस्काय में) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं; किन्तु बादर पृथ्वीकायिक रूप में या बादर अग्निकायिक रूप में उत्पन्न नहीं हुए हैं। विवेचनतमस्काय के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुन्नों से प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत 16 सूत्रों (सू. 1 से 16 तक) में विभिन्न पहलुओं से तमस्काय के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर उनका समाधान किया गया है / तमस्काय को संक्षिप्त रूपरेखा-तमस्काय का अर्थ है-अन्धकारमय पुद्गलों का समूह / तमस्काय पृथ्वीरज:स्कन्धरूप नहीं, किन्तु उदकरजःस्कन्धरूप है। क्योंकि जल अप्रकाशक होता है, और तमस्काय भी अप्रकाशक है। दोनों (अप्काय और तमस्काय) का समान स्वभाव होने से तमस्काय का परिणामी कारण अप्काय ही हो सकता है, क्योंकि वह प्रकाय का ही परिणाम है। तमस्काय एकप्रदेशश्रेणीरूप है, इसका अर्थ यही है कि वह समभित्ति वाली श्रेणीरूप है। एक Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकाश-प्रदेश की श्रेणीरूप नहीं / फिर तमस्काय का संस्थान मिट्टी के सकोरे के (मूल का) आकारसा या ऊपर मुर्गे के पिंजरे-सा है / वह दो प्रकार का है--संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत / पहला जलान्त से प्रारम्भ होकर संख्येय योजन तक फैला हुआ है, दूसरा असंख्येय योजन तक विस्तृत और असंख्येय द्वीपों को घेरे हुए है / तमस्काय इतना अत्यधिक विस्तृत है कि कोई देव 6 महीने तक अपनी उत्कृष्ट शीघ्र दिव्यगति से चले तो भी वह संख्येय योजन विस्तृत तमस्काय तक पहुँचता है, असंख्येय योजन विस्तृत तमस्काय तक पहुँचना बाकी रह जाता है। तमस्काय में न तो घर है, और न गृहापण है और न ही ग्राम, नगर, सन्निवेशादि हैं, किन्तु वहाँ बड़े-बड़े मेघ उठते हैं, उमड़ते हैं, गर्जते हैं, बरसते हैं / बिजली भी चमकती है। देव, असुर या नागकुमार ये सब कार्य करते हैं / विग्रहगतिसमापन बादर पृथ्वी या अग्नि को छोड़ कर तमस्काय में न बादर पृथ्वीकाय है, न बादर अग्निकाय / तमस्काय में चन्द्र-सूर्यादि नहीं हैं, किन्तु उसके आस-पास में हैं, उनकी प्रभा तमस्काय में पड़ती भी है, किन्तु तमस्काय के परिणाम से परिणत हो जाने के कारण नहीं जैसी है। तमस्काय काला, भयंकर काला और रोमहर्षक तथा त्रासजनक है / देवता भी उसे देखकर घबरा जाते हैं / यदि कोई देव साहस करके उसमें घुस भी जाए तो भी वह भय के मारे कायगति से अत्यन्त तेजी से और मनोगति से अतिशीघ्र बाहर निकल जाता है / तमस्काय के तम आदि तेरह सार्थक नाम हैं। तमस्काय पानी, जीव और पुद्गलों का परिणाम है, जलरूप होने के कारण वहाँ बादर वायु, वनस्पति और त्रसजीव उत्पन्न होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य जीवों का स्वस्थान न होने के उन की उत्पत्ति तमस्काय में सम्भव नहीं है / ' कठिन शब्दों की व्याख्या-बलाहया संसेयंति सम्मुच्छंति, वासं वासंति =महामेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, अर्थात्---तज्जनित पुद्गलों के स्नेह से सम्मूच्छित होते (उठते-उमड़ते) हैं, क्योंकि मेघ के पुद्गलों के मिलने से ही उनकी तदाकाररूप से उत्पत्ति होती है, और फिर वर्षा होती है। 'बादर विद्य त्' यहाँ तेजस्कायिक नहीं है, अपितु देव के प्रभाव से उत्पन्न भास्वर (दीप्तिमान्) पुद्गलों का समूह है ! पलिपस्सतो परिपार्श्व में प्रासपास में। उत्तासणए उग्र त्रास देने वाला / खुभाएज्जा =क्षुब्ध हो जाता है, घबरा जाता है। अभिसमागच्छेज्जा प्रवेश करता है। उववण्णपुवा-पहले उत्पन्न हो चुके / असई अदुवा प्रणंतवखुत्तो-अनेक बार अथवा अनन्त बार / देववूहे = चक्रव्यूह्वत् देवों के लिए भी दुर्भेद्य व्यूहसम / देवयरिघ =देवों के गमन में बाधक परिध-परिखा की तरह / ' विविध पहलुओं से कृष्णराजियों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 17. कति णं भते! कण्हराईनो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ट कण्हराईप्रो पण्णत्तानो। [17 प्र.] भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी कही गई हैं ? [17 उ.] गौतम ! कृष्णराजियाँ पाठ हैं / 18. कहि णं माते ! एयानो अट्ठ कण्हराईनो पण्णत्तानो ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 268 से 270 तक (ख) बियापण्णत्तिसुत्त (मू. पा. टि) भा. 1, पृ. 247 से 250 तक 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 268 से 270 तक Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम्पटाराजी स्थापना छठा शतक : उद्देशक-५] [59 __ गोयमा ! उप्पि सणकुमार-माहिदाणं कप्पाणं, होटव' बंभलोगे कप्पे रिटू विमाणपत्थडे, एत्थ णं अक्खाडग-समचउरंससंठाणसंठियाप्रो अट्ठ कण्हराईनो पण्णतामो, तं जहा–पुरथिमेणं दो, पच्चस्थिमेणं दो, दाहिणणं दो, उत्तरेणं दो। पुरथिमम्भतरा कहराई दाहिणबाहिरं फहराई पुट्ठा, दाहिणभंतरा कण्हराई पच्चत्यिमबाहिरं कण्हराई पुट्टा, पच्चस्थिमन्भतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्ठा, उत्तरऽभतरा कण्हराई पुरस्थिमबाहिरं कम्हराई पुट्ठा। दो पुरथिमपच्चस्थिमाओ बाहिरामो कण्हराईनो छलंसाप्रो, दो उत्तरदाहिणबाहिरामो कण्हराईयो तंसानो, दो पुरस्थिमपच्चत्थिमानो अभितरामो कण्हराईयो चउरंसाप्रो, दो उत्तरदाहिणालो अन्भितरामो कण्हराईओ चउरंसायो। पुवावरा छलंसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा। अभंतर चउरसा सव्वा वि य कण्हराईश्रो // 1 // [18 प्र.] भगवन् ! ये आठ कृष्णराजियां कहाँ हैं ? कोला राखी - सुप्रतिएटाभ [18 उ.] गौतम ! ऊपर सनत्कुमार चनको माग (तृतीय) और माहेन्द्र (चतुर्थ) कल्पों (देवलोकों) पर और नीचे ब्रह्मलोक (पंचम) देवलोक के परिष्ट नामक विमान के (तृतीय) प्रस्तट (पाथड़े) से नीचे, (अर्थात्) इस स्थान में, अखाड़ा (प्रेक्षास्थल) के आकार की समचतुरस्र (सम चौरस) संस्थान-बाली पाठ कृष्णराजियां हैं। / यथा--पूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण में दो PARTICIN r और उत्तर में दो / पूर्वाभ्यन्तर अर्थात्-- पूर्वदिशा W antato की पाभ्यन्तर कृष्णराजि दक्षिण दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श की (सटी) हुई है। दक्षिण दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि ने पश्चिम दिशा MOTI की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया हुआ है / पश्चिम दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि ने उत्तर दिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श किया हना है, और उत्तर दिशा की प्राभ्यन्तर कृष्णराजि पूर्वदिशा की बाह्य कृष्णराजि को स्पर्श की हुई है। पूर्व और पश्चिम दिशा की दो बाह्य कृष्णराजियाँ षडंश (षटकोण) हैं, उत्तर और दक्षिण की दो बाह्य कृष्णराजियाँ व्यत्र (त्रिकोण) हैं; पूर्व और पश्चिम को दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुरस्त्र (चतुष्कोण-चौकोन) हैं, इसी प्रकार उत्तर और दक्षिण की दो आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ भी चतुष्कोण ६.सुराभन Hal चतरकोण माराव षट्कोण कृपयाराण गतिमा "क्टकोटा कृष्णराखणे ३.वरोचन चतुएकोष मराठी 2.अचिमाली गाथार्थ-] "पूर्व और पश्चिम की कृष्णराजि षट्कोण हैं, तथा दक्षिण और उत्तर की बाह्य कृष्णराजि त्रिकोण हैं। शेष सभी प्राभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुष्कोण हैं।" 1. हन्वि का स्पष्ट अर्थ है-नीचे / कुछ प्रतियों में परिवर्तित पाठ 'हटि' 'हेटिंछ' भी मिलता है। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. कण्हराईश्रोणं भते! केवतियं प्रायामेणं, केवतियं विक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ताश्रो? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई प्रायामेणं संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्खं भेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्तानो। [19 प्र.] भगवन् ! कृष्णराजियों का आयाम (लम्बाई), विष्कम्भ (विस्तार-चौड़ाई) और परिक्षेप (घेरा=परिधि) कितना है ? [19 उ.] गौतम ! कृष्णराजियों का आयाम असंख्येय हजार योजन है, विष्कम्भ संख्येय हजार योजन है और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन कहा गया है / 20. कण्हराईनो णं भते ! केमहालियानो पण्णत्तानो ? गोयमा! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे जाव प्रद्धमासं बीतीवएज्जा / अत्थेगतियं कण्हराई वीतीवएज्जा, प्रत्येगइयं कण्हराइं जो वीतीवएज्जा / एमहालियानो णं गोयमा ! कण्हराईनो पण्णत्तानो। [20 प्र.] भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी बड़ी कही गई हैं ? [20 उ.] गौतम ! तीन चुटकी बजाए, उतने समय में इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके पा जाए-इतनी शीघ्र दिव्यगति से कोई देव लगातार एक दिन, दो दिन, स तक चले. तब कहीं वह देव किसी कृष्णराजि को पार कर पाता है, और किसी कृष्णराजि को पार नहीं कर पाता / हे गौतम ! कृष्ण राजियाँ इतनी बड़ी हैं / 21. अस्यि णं भते ! कण्हराईसु गेहा ति वा, गेहावणा ति वा ? नो इगट्टे सम?। {21 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में गृह हैं अथवा गृहापण हैं ? [21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / 22. अस्थि णं भते ! कण्हराईसु गामा ति वा० ? णो इग8 सम8। [22 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में ग्राम आदि हैं ? [22 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात्-कृष्णराजियों में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश नहीं हैं / ) 23. [1] अस्थि णं माते ! काह० ओराला बलाहया सम्मुच्छंति 3 ? हंता, अस्थि / [23-1 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में उदार (विशाल) महामेध संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूछित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? __ [23-1 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णराजियों में ऐसा होता है। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५ ] [2] तं भते ! कि देवो पकरेति 3 ? गोयमा ! देवो पकरेति, नो असुरो, नो नागो य / [23-2 प्र.] भगवन् ! क्या इन सबको देव करता है, असुर (कुमार) करता है अथवा नाग (कुमार) करता है ? [23-2 उ.] गौतम ! (वहाँ यह सब) देव ही करता है, किन्तु न असुर (कुमार) करता है और न नाग (कुमार) करता है। 24. अस्थि णं भाते ! कण्हराईसु बादरे थणियसद्दे ? जहा पोराला (सु. 23) तहा। [24 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में बादर स्तनितशब्द है ? [24 उ.] गौतम ! जिस प्रकार से उदार मेघों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार इनका भी कथन करना चाहिए / (अर्थात्-कृष्णराजियों में बादर स्तनितशब्द है और उसे देव करता है, किन्तु असुरकुमार या नागकुमार नहीं करता।) 25. अस्थि णं भते ! कण्हराईसु बादरे प्राउकाए बादरे अगणिकाए बायरे वणप्फतिकाए ? णो इण8 सम8, णऽण्णस्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं / [25 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय है ? [25 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / यह निषेध विग्रहगतिसमापन्न जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिये है। 26. अस्थि णं भंते ! 0 चंदिमसरिय० 450 ? यो इण। [26 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में चन्द्रमा, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [26 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-ये वहाँ नहीं हैं / ) 27. अस्थि णं कण्ह० चंदामा ति वा 2 ? को इण8 समट्ठ। [27 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में चन्द्र की कान्ति या सूर्य की कान्ति (आभा) है ? [27 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 28. कण्हराईओणं भते ! केरिसियानो वणेणं पन्नत्ताओ? गोयमा ! कालाओ जाव' खिप्पामेव वीतीवएज्जा। [28 प्र.] भगवन् ! कृष्ण राजियों का वर्ण कैसा है ? 1. 'जाव' पद यहाँ सू. 13 के निम्नोक्त पाठ का सूचक है—'कालावभासाओ गंभीरलोमहरिसजणणाओ भीमाओ उत्तासणाओ परमकिण्हाओ वण्णणं पण्णत्ताओ, देवे वि अत्थेगतिए जे णं तप्पढमयाए पासित्ताणं खुभाएज्जा, अहे णं अभिसमागच्छेज्जा, तओ पच्छा सोहं सीहं तुरियं तुरियं तत्थ खिप्पामेव बीतीवएज्जा। Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [28 उ.] गौतम ! कृष्णराजियों का वर्ण काला है, यह काली कान्ति वाली है, यावत् परमकृष्ण (एकदम काला) है। तमस्काय की तरह अतीव भयंकर होने से इसे देखते ही देव क्षुब्ध हो जाता है; यावत् अगर कोई देव (साहस करके इनमें प्रविष्ट हो जाए, तो भी वह) शीघ्रगति से झटपट इसे पार कर जाता है। 26. कण्हराईणं भते ! कति नामधेज्जा पण्णता? गोयमा! अट्ठ नामधेज्जा पण्णता, तं जहा—कण्हराई ति वा, मेहराई ति वा, मघा इ वा, माघवती तिवा, वातफलिहे ति था, वातपलिक्खोभे इ वा, देवलिहे इ वा, देवपलिक्खो ति वा। [26 प्र] भगवन् ! कृष्णराजियों के कितने नाम कहे गए हैं ? [19 उ.] गौतम ! कृष्णराजियों के पाठ नाम कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) कृष्णराजि, (2) मेघराजि, (3) मघा, (4) माघवती, (5) वातपरिघा, (6) वातपरिक्षोभा, (7) देवपरिधा और (8) देवपरिक्षोभा। 30. कण्हाईप्रोणं भंते ! किं पुढविपरिणामानो, प्राउपरिणामाप्रो, जीवपरिणामानो, पुग्गलपरिणामाप्रो ? गोयमा! पुढविपरिणामानो, नो पाउपरिणामाग्रो, जीवपरिणामानो वि, पुग्गलपरिणामानो वि। [30 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियाँ पृथ्वी के परिणामरूप हैं, जल के परिणामरूप हैं. या जीव के परिणामरूप हैं, अथवा पुद्गलों के परिणामरूप हैं ? 30 उ.] गौतम ! कृष्णराजियाँ पृथ्वी के परिणामरूप हैं, किन्तु जल के परिणामरूप नहीं हैं, वे जीव के परिणामरूप भी हैं और पुद्गलों के परिणामरूप भी हैं / 31. कण्हराईसुणं भते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता उववन्नवा? हता, गोयमा! असई अदुवा अणतखुत्तो, नो चेव णं बादराउकाइयत्ताए, बादरप्रमणिकाइयत्ताए, बादरवणस्सतिकाइयत्ताए वा। ___ [31 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णराजियों में सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? [31 उ.] हाँ, गौतम ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व कृष्णराजियों में अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु बादर अप्कायरूप से, बादर अग्निकायरूप से और बादर वनस्पतिकायरूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं। विवेचन-विभिन्न पहलुओं से कृष्णराजियों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत पन्द्रह सूत्रों (सू. 17 से 31 तक) में तमस्काय की तरह कृष्णराजियों के सम्बन्ध में विभिन्न प्रश्न उठाकर उनके समाधान प्रस्तुत कर दिये गए हैं। तमस्काय और कृष्णराज के प्रश्नोत्तरों में कहाँ सादृश्य, कहाँ अन्तर?... तमस्काय और Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५] कृष्णराजि के प्रश्नों में लगभग सादृश्य है, किन्तु उनके उत्तरों में तमस्कायसम्बन्धी उत्तरों से कहींकहीं अन्तर है। यथा-कृष्णराजियाँ 8 बताई गई हैं। इनके संस्थान में अन्तर है / इनका आयाम और परिक्षेप असंख्येय हजार योजन है, जबकि विष्कम्भ (चौड़ाई विस्तार) संख्येय हजार योजन है / ये तमस्काय से विशालता में कम हैं, किन्तु इनकी भयंकरता तमस्काय जितनी ही है। कृष्णराजियों में ग्रामादि या गहादि नहीं हैं। वहाँ बड़े-बड़े मेघ हैं, जिन्हें देव बनाते हैं, गर्जाते व बरसाते हैं। वहाँ विग्रहगतिसमापन्न बादर अप्काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय के सिवाय कोई बादर अप्काय, अग्निकाय या वनस्पतिकाय नहीं है। वहाँ न तो चन्द्रादि हैं, और न चन्द्र, सूर्य की प्रभा है। कृष्णराजियों का वर्ण तमस्काय के सदृश ही गाढ़ काला एवं अन्धकारपूर्ण है / कृष्णराजियों के 8 सार्थक नाम हैं। वास्तव में, ये कृष्णराजियाँ अप्काय के परिणामरूप नहीं हैं, किन्तु सचित्त और अचित्त पृथ्वी के परिणामरूप हैं, इसलिए कहा जा सकता है कि ये जीव और पुद्गल, दोनों के विकाररूप हैं। बादर अप्काय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय को छोड़कर अन्य सब जीव एक बार ही नहीं, अनेक बार और अनन्त बार कृष्णराजियों में उत्पन्न हो चुके हैं।' कृष्णराजियों के प्राठ नामों की व्याख्या-कृष्णराजि = काले वर्ण की पृथ्वी और पुदगलों के परिणामरूप होने से काले पुद्गलों की राजि = रेखा / मेघराजि= काले मेघ की रेखा के सदश / मधा छठी नरक के समान अन्धकार वाली / माघवती - सातवी नरक के समान माढान्धकार वाली। वातपरिघा = अांधी के समान सघन अन्धकार वाली और दुर्लध्य / वातपरिक्षोभा आंधी के समान अन्धकार वाली और क्षोभजनक / देवपरिघा=देवों के लिए दुलंघ्य / देवपरिक्षोभा=देवों के लिए क्षोभजनक / 2 लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देव-स्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी आदि का विचार ___32. एयासि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं असु प्रोवासंतरेसु अट्ठ लोगतिविमाणा पण्णता, तं जहा--प्रच्ची अच्चिमाली वइरोयणे पभंकरे चंदाभे सूराभे सुक्कामे सुपतिट्टाभे, मन्झे रिट्ठाभे। [32] इन (पूर्वोक्त) पाठ कृष्णराजियों के पाठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिक विमान हैं / यथा-(१) अचि, (2) अचिमाली, (3) वैरोचन, (4) प्रभंकर, (5) चन्द्राभ, (6) सूर्याभ, (7) शुक्राभ, और (8) सुप्रतिष्ठाभ / इन सबके मध्य में रिष्टाभ विमान है। 33. कहि गंमते! अच्ची विमाणे 50 ? गोयमा ! उत्तरपुरस्थिमेणं / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भाग 1, पृ. 251 से 253 (ख) भगवती अ. वृत्ति पत्रांक 271 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 271 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [33 प्र.) भगवन् ! अचि विमान कहाँ है ? [33 उ.] गौतम ! अचि विमान उत्तर और पूर्व के बीच में है। 34. कहि णं भते ! अच्चिमाली विमाणे प०? गोयमा ! पुरस्थिमेणं / [34 प्र] भगवन् ! अचिमाली विमान कहाँ है ? [34 उ.] गौतम ! अचिमाली विमान पूर्व में है / 35. एवं परिवाडीए नेयवं जाव' कहि गंभते ! रिविमाणे पण्णते? गोयमा ! बहुमज्झदेसमागे / [35 प्र.] इसी क्रम (परिपाटी) से सभी विमानों के विषय में जानना चाहिए / यावत्-हे भगवन् ! रिष्ट विमान कहाँ बताया गया है ? [35 उ.! गौतम ! रिष्ट विमान बहुमध्यभाग (सबके मध्य) में बताया गया है। 36. एतेसु णं असु लोगतियविमाणेसु अविहा लोगंतिया देवा परिवति, तं जहा-- सारस्सयमातिच्चा वही वरुणा घ गद्दतोया य / तुसिया अब्बाबाहा अगिच्चा चेव रिट्ठा य // 2 // [36] इन आठ लोकान्तिक विमानों में अष्टविध (आठ जाति के) लोकान्तिक देव निवास करते हैं। वे (आठ प्रकार के लोकान्तिक देव) इस प्रकार हैं—(१) सारस्वत, (2) अादित्य, (3) वह्नि, (4) वरुण, (5) गर्दतोय, (6) तुषित, (7) आग्नेय और (8) रिष्ट देव (बीच में)। 37. कहिणं भंते ! सारस्सता देवा परिवसंति ? गोयमा ! अच्चिम्मि विमाणे परिवति / [37 प्र.] भगवन् ! सारस्वत देव कहाँ रहते हैं ? [37 उ.] गौतम ! सारस्वत देव अचि विमान में रहते हैं / 38. कहि णं भंते ! प्रादिच्चा देवा परिवसंति ? गोयमा ! अच्चिमालिम्मि विमाणे / [38 प्र.] भगवन् ! आदित्य देव कहाँ रहते हैं ? [38 उ.] गौतम ! आदित्य देव अचिमाली विमान में रहते हैं / 39. एवं नेयव्वं जहाणुपुब्बीए जाव कहि णं माते ! रिट्ठा देवा परिवसंति ? गोयमा / रिटुम्मि विमाणे / 1, 'जाब' पद से यहाँ वैरोचन से लेकर सुप्रतिष्ठाभ विमान तक की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५] [ 65 [39 प्र.] इस प्रकार अनुक्रम से यावत् रिष्ट विमान तक जान लेना चाहिए कि भगवन् ! रिष्ट देव कहाँ रहते हैं ? [36 उ.] गौतम ! रिष्ट देव रिष्ट विमान में रहते हैं। 40. [1] सारस्सय-मादिच्चाणं भते ! देवाणं कति देवा, कति देवसता पण्णता? गोयमा ! सत्त देवा, सत्त देवसया परिवारो पण्णत्तो। [40-1 प्र.] भगवन् ! सारस्वत और आदित्य, इन दो देवों के कितने देव हैं और कितने सौ देवों का परिवार कहा गया है ? [40-1 उ.] गौतम ! सारस्वत और आदित्य, इन दो देवों के सात देव (स्वामी = अधिपति) हैं और इनके 700 देवों का परिवार है / [2] वाही-वरुणाणं वेवाणं चउद्दस देवा, चउद्दस देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। [40-2] वह्नि और अरुण, इन दो देवों के 14 देव स्वामी और 14 हजार देवों का परिवार कहा गया है। [3] गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा, सत्त देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो। - [40-3] गर्दतोय और तुषित देवों के 7 देव स्वामी और 7 हजार देवों का परिवार कहा गया है। [4] अवसेसाणं नव देवा, नव देवसया परिवारो पण्णत्ता। पढमजुगलम्मि सत्त उ सयाणि बीयम्मि चोदस सहस्सा / ततिए सत्त सहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु // 3 // [40-4] शेष (अव्याबाध, आग्नेय और रिष्ट, इन) तीनों देवों के नौ देव स्वामी और 100 देवों का परिवार कहा गया है। (गाथार्थ-) प्रथम युगल में 700, दूसरे युगल में 14,000 देवों का परिवार, तीसरे युगल में 7,000 देवों का परिवार और शेष तीन देवों के 600 देवों का परिवार है / 41. [1] लोगंतिगविमाणा णं माते ! किंपतिद्विता पण्णता? गोयमा ! वाउपतिट्ठिया पण्णत्ता / [41-1 प्र.] भगवन् ! लोकान्तिकविमान किसके आधार पर रहे हुए (प्रतिष्ठित) हैं ? [41-1 उ.] गौतम ! लोकान्तिकविमान, वायुप्रतिष्ठित (वायु के आधार पर रहे हुए) हैं। [2] एवं नेयव्वं-'विमाणाणं पतिद्वाणं बाहल्लुच्चत्तमेव संठाणे' / बंभलोयवत्तव्वया नेयम्वा जाव हंता गोयमा ! प्रति अदुवा प्रणतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए / . Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [41-2] इस प्रकार-जिस तरह विमानों का प्रतिष्ठान, विमानों का बाहल्य, विमानों की ऊँचाई और विमानों के संस्थान आदि का वर्णन; जीवाभिगमसूत्र के देव-उद्देशक में ब्रह्मलोक की वक्तव्यता में कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए, यावत्-हो, गौतम ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ अनेक बार और अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु लोकान्तिकविमानों में देवरूप में उत्पन्न नहीं हुए। 42. लोगंतिमविमाणेसु लोगतियवेवाणं माते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! अटु सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। [42 प्र.] भगवन् ! लोकान्तिकविमानों में कितने काल की स्थिति कही गई है ? [42 उ.] गौतम ! लोकान्तिकविमानों में पाठ सागरोपम की स्थिति कही गई है। 23. लोगतिगविमाहि णं भाते ! केवतिय अबाहाए लोगते पण्णते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई प्रबाहाए लोगते पण्णत्ते / से भते ! सेवं भते! ति० / ॥छट्ठ सए : पंचमो उद्देसमो समत्तो॥ [43 प्र.] भगवन् ! लोकान्तिकविमानों से लोकान्त कितना दूर है ? [43. उ.] गौतम! लोकान्तिकविमानों से असंख्येय हजार योजन दूर लोकान्त कहा गया है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' इस प्रकार कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विषेचन-लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देवस्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी प्रादि का वर्णन प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 32 से 43 तक) में लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमानादि का वर्णन किया गया है। विमानों का अवस्थान---पूर्व विवेचन में लोकान्तिक देवों के विमानों के अवस्थान का रेखाचित्र दिया गया है। लोकान्तिक देवों का स्वरूप-ये देव ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के पास रहते हैं, इसलिए इन्हें लोकान्तिक कहते हैं / अथवा ये उदयभावरूप लोक के अन्त (करने में) रहे हुए हैं, क्योंकि ये सब स्वामी देव एकभवावतारी (एक भव के पश्चात् मोक्षगामी) होते हैं, इसलिए भी इन्हें लोकान्तिक कहते हैं / लोकान्तिक विमानों से असंख्यात योजन दूरी पर लोक का अन्त है और सभी जीव लोकान्तिक विमानों में पृथ्वीकायादि रूप में अनेक बार, यहाँ तक कि अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, किन्तु देवरूप से तो वहाँ एक बार ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि लोकान्तिक विमानों में देवरूप से उत्पन्न Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-५] [67 होने वाले जीव नियमत: भव्य होते हैं और एक भवपश्चात् मोक्षगामी होते हैं। इसलिए देवरूप से यहाँ अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न नहीं हुए।' लोकान्तिक विमानों का संक्षिप्त निरूपण-जीवाभिगमसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार इनके विमान वायुप्रतिष्ठित हैं / इनका बाहल्य (मोटाई) 2500 योजन व ऊँचाई 700 योजन होती है। जो विमान प्रावलिकाप्रविष्ट होते हैं, वे वृत्त (गोल) व्यंस (त्रिकोण), या चतुरस्र (चतुष्कोण) होते हैं, किन्तु ये विमान प्रालिकाप्रविष्ट नहीं होते, इसलिए इनका आकार नाना प्रकार का होता है। इन विमानों का वर्ण लाल, पीला और श्वेत होता है, ये प्रकाशयुक्त, दृष्ट वर्ण-गन्धयुक्त, एवं सर्वरत्नमय होते हैं। इन विमानों के निवासी देव समचतुरस्र-संस्थानवाले, पद्मलेश्यायुक्त एवं सम्यग्दृष्टि होते हैं। / छठा शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 272 2. (क) जीवाभिगमसूत्र द्वितीय वैमानिक उद्देशक, पृ. 394 से 406 तक (दे. ला.) (ख) प्रज्ञापनासूत्र दूसरा स्थानपद, ब्रह्मलोकदेवस्थानाधिकार, पृ. 103 (प्रा. स.) (ग) भगवतीसून अ. वत्ति, पनांक 272 Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'भविए' छठा उद्देशक : भव्य चौबीस दण्डकों के प्रावास, विमान आदि की संख्या का निरूपण 1. [1] कति णं भंते ! पुढवीनो पण्णत्तानो ? गोयमा ! सत्त पुढवीश्रो पण्णत्तामओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव' तमतमा / [1-1 प्र.] भगवन् ! पृश्चियाँ कितनी कही गई हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! पृथ्वियां सात कही गई हैं। यथा-रत्नप्रभा यावत् [शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा] तमस्तमःप्रभा। [2] रयणप्पमादीणं प्रावासा भाणिधन्वा जावर आहेसत्तमाए / एवं जे जत्तिया आवासा ते भाणियब्वा / [1-2] रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी तक, जिस पृथ्वी के जितने आवास हों, उतने कहने चाहिए। 2. जाव कति णं भते ! अणुत्तरविमाणा पण्णता ? गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता, तं जहा–विजए जाव सम्वसिद्ध / [2 प्र.] भगवन् ! यावत् (भवनवासी से लेकर अनुत्तरविमान तक) अनुत्तर विमान कितने कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! पांच अनुत्तरविमान कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-विजय, वैजयन्त जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमान / विवेचन-चौवीस दण्डकों के प्रावास, विमान आदि की संख्या का निरूपण—प्रस्तुत सूत्रद्वय में से प्रथम सूत्र में नरकपृथ्वियों की संख्या तथा उस-उस पृथ्वी के आवासों की संख्या का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / द्वितीय सूत्र में अध्याहृतरूप में भवनवासी से लेकर नौ ग्रं वेयक तक के आवासों व विमानों की संख्या का तथा प्रकटरूप में अनुत्तरविमानों की संख्या का निरूपण किया गया है। - .-- 1. यहां 'जाव' पद सक्करप्पभा इत्यादि शेष पृथ्वियों तक का सूचक है। 2. यहाँ भी 'जाव' पद रत्नप्रभा से लेकर सप्तम पृथ्वी (तमस्तमःप्रभा) तक का सूचक है / 3. यहाँ 'जाब' पद से 'भवनवासी' से अनुत्त रबिमान से पूर्व तक का उल्लेख समझना चाहिए। 4. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 256 Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-६ ] चौवीस दण्डकों के समुद्घात-समवहत जीव को आहारादि प्ररूपरणा 3. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहते, समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नतरंसि निरयावासंसि नेर इयत्ताए उववज्जित्तए से णं भते ! तत्थगते चेव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं बा बंधेज्जा? गोयमा ! प्रत्थेगइए तत्थगते चेव प्राहारेज्ज बा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज, प्रत्थेगइए ततो पडिनियति, इहमागच्छति, ग्रामच्छित्ता दोच्चं वि मारणंतियसमुग्धाएण समोहणति, समोहणित्ता इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववज्जित्ता ततो पच्छा प्राहारेज्ज वा परिणामेज्ज वा सरीरं वा बंधेज्जा / [3-1 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुना है और समवहत हो कर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से किसी एक नारकावास में नरायक रूप म उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! क्या वह वहाँ जा कर आहार करता है? आहार को परिणमाता है ? और शरीर बांधता है ? [3-1 उ.] गौतम ! कोई जीव वहाँ जा कर ही प्राहार करता है, श्राहार को परिणमाता है या शरीर बांधता है; और कोई जीव वहाँ जा कर वापस लौटता है, वापस लौट कर यहाँ प्राता है / यहाँ आ कर वह फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात द्वारा समवहत होता है / समवहत हो कर इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से किसी एक नारकावास में नैरयिकरूप से उत्पन्न होता है / इसके पश्चात् पाहार ग्रहण करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है / [2] एवं जाव आहेसत्तमा पुढवी। [3-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी तक कहना चाहिए। 4. जीवे णं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, 2 जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अनतरंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारत्ताए उबज्जित्तए / जहा नेरइया तहा भाणियवा जाव' थणियकुमारा। [4 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुया है और समवहत हो कर असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से किसी एक आवास में उत्पन्न होने के योग्य है; क्या वह जीव वहाँ जा कर ही आहार करता है ? उस पाहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [4 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में, यावत स्तनितकूमारों तक कहना चाहिए। 5. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमग्घाएणं समोहए, 2 जे भविए असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! मंदरस्स पवयस्स पुरस्थिमेणं केवतियं गच्छेज्जा, केवतियं पाउरोज्जा ? 1. यहाँ 'जाव' पद से असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त सभी भवनवासियों के नाम कहने चाहिए / Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! लोयंत गच्छेज्जा, लोयंतं पाउणिज्जा। [5-1 प्र.] भगवन् ! जो जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है, और समवहत हो कर असंख्येय लाख पृथ्वीकायिक प्रावासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक प्रावास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! वह जीव मंदर (मेरु) पर्वत से पूर्व में कितनी दूर जाता है ? और कितनी दूरी को प्राप्त करता है ? [5-1 उ.] हे गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है और लोकान्त को प्राप्त करता है / [2] से गं भंते ! तत्थगए चेव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज वा, सरोरं वा बंधेज्जा ? गोयमा ! प्रत्थेगइए तत्थगते चेष आहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरीरं वा बंधेज्ज, प्रत्थेगइए ततो पडिनियत्तति, 2 ता इहमागच्छ६, २त्ता दोच्च पि मारणतियसमग्घाएणं समोहणति, २त्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागमेत्तं वा संखेजतिभागमेत्तं वा, वालग्गं वा, वालग्गपुहुत्तं वा एवं लिक्खं जूयं जावं अंगुलं जाव' जोयणकोडि वा, जोयणकोडाकोडि वा, संखेज्जेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्सेसु, लोगते वा एगपदेसियं सेटिं मोत्तूण असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए उववज्जेत्ता तो पच्छा प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज्जा। [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीव, वहाँ जा कर ही प्राहार करता है, प्राहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [5-2 उ.] गौतम ! कोई जीव, वहाँ जा कर ही पाहार करता है। उस आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है; और कोई जीव वहां जा कर वापस लौटता है, वापस लौट कर यहाँ पाता है; यहाँ आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है / समवहत हो कर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्येयभाग मात्र, या संख्येयभागमात्र, या बालान, अथवा बालाग्र-पृथक्त्व (दो से नौ तक बालान), इसी तरह लिक्षा, यूका, यव, अंगुल यावत् करोड़ योजन, कोटा-कोटि योजन, संख्येय हजार योजन और असंख्येय हजार योजन में, अथवा एक प्रदेश श्रेणी को छोड़ कर लोकान्त में पृथ्वीकाय के असंख्य लाख आवासों में से किसी आवास में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होता है और उसके पश्चात् प्राहार करता है, उस आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है। [3] जहा पुरस्थिमेणं मंद रस्स पव्वयस्स पालावगो मणिग्रो एवं दाहिणणं, पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ड, प्रहे। [5-3] जिस प्रकार मेरुपर्वत की पूर्वदिशा के विषय में कथन किया (पालापक कहा) गया है, उसी प्रकार से दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 1. यहाँ 'जाव' पद विहत्यि वा रयणि वा कुच्छि वा धण' वा कोसौं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्स या जोयणसयसहस्स' वा' पाठ का सूचक है। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-६] [71 6. जहा पुढधिकाइया तहा एगिदियाणं सध्वेसि एक्केकस्स छ पालावगा भाणियब्वा / [6] जिस प्रकार पृथ्वी कायिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार से सभी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में कहना चाहिए / एक-एक के छह-छह आलापक कहने चाहिए। 7. जीवे गं भंते ! मारणंतियसमुग्घातेणं समोहते, 2 ता जे भविए असंखेज्जेसु बेइंगियावाससयसहस्सेसु मन्नतरंसि बेइंदियावासंसि बेइंदियत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! तत्थगते चेव जहा नेरइया / एवं जाव अणसरोववातिया / [7 प्र.] भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात से गमवहत हुया है और समवहत होकर द्वीन्द्रिय जीवों के असंख्येय लाख आवासों में से किसी एक प्रावास में द्वीन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने वाला है ; भगवन् ! क्या वह जीव वहाँ जा कर ही आहार करता है, उस आहार को परिणमाता है, और शरीर बांधता है ? [7 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों के लिए कहा गया, उसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तरौपपातिक देवों तक सब जीवों के लिए कथन करना चाहिए / 8. जीवे गं भंते ! मारणंतियसमुग्धातेणं समोहते, 2 जे भविए एवं पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महाविमाणेसु अन्नयरंसि अनुत्तरविमाणंसि अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववज्जित्तए, से गं भंते ! तत्थगते चेव जाव प्राहारेज्ज वा, परिणामेज्ज वा, सरोरं वा बंधेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / / / छ8 सए छट्टो उद्देसो समतो।। 8 प्र.] हे भगवन् ! जो जीव' मार गान्तिक समुद्घात से समवहत हुमा है और समवहत हो कर महान् से महान् महाविमानरूप पंच अनुत्तरविमानों में से किसी एक अनुत्तर विमान में अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न होने वाला है, क्या वह जीव वहाँ जा कर ही पाहार करता है, आहार को परिणमाता है और शरीर बांधता है ? [उ.] गौतम ! पहले कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए, ""यावत् पाहार करता है, उसे परिणमाता है और शरीर बांधता है। हे भगवन ! यह इसो प्रकार है, भगवन् यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–चौवीस दण्डकों में मारणान्तिकसमुद्घातसमवहत जीव को माहारादि-प्ररूपणाप्रस्तुत छह सूत्रों में यह शंका प्रस्तुत की गई है कि नार कदण्डक से लेकर अतुत्तरोपपातिक देवों तक मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर जिस गति-योनि में जाना हो, तो वहाँ जाकर आहार करता है, परिणमाता है, शरीर बांधता है, या और तरह से ? इसका समाधान किया गया है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राशय-जो जोव मारणान्तिक समुद्घात करके नरकावासादि उत्पत्तिस्थान पर जाते हैं, उस दौरान उनमें से कोई एक जीव, जो समुद्घात-काल में ही मरणशरण हो जाता है, वह वहाँ जाकर वहाँ से अथवा समुद्धात से निवृत्त होकर वापस अपने शरीर में आता है और दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात करके पुन: उत्पत्तिस्थान पर प्राता है; फिर प्राहारयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, तत्पश्चात् ग्रहण किये हुए उन पुद्गलों को पचा कर उनका खलरूप और रसरूप विभाग करता है। फिर उन पुद्गलों से शरीर की रचना करता है। जीव लोकान्त में जाकर उत्पत्तिस्थान के अनुसार अंगुल के असंख्येयभागमात्र आदि क्षेत्र में समुद्धात द्वारा उत्पन्न होता है। यद्यपि जीव लोकाकाश के असंख्येयप्रदेशों में अवगाहन करने के स्वभाव वाला है, तथापि एकप्रदेशश्रेणी के असंख्येय प्रदेशों में उसका अवगाहन संभव नहीं है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है। इसीलिए यहाँ मूलपाठ में कहा गया है-'एगपदेसियं सेदि मोतूण' अर्थात्-एकप्रदेशवाली श्रेणी को छोड़ कर / ' कठिन शब्दों के अर्थ पडिनियत्तति-वापस लौटता है / लोयंत = लोक के अन्त में जाकर / पाउणिज्जा प्राप्त करता है। // छठा शतक : छठा उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 2, पृ. 1030 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 273-274 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 273 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'साली' सप्तम उद्देशक : 'शाली' कोठे आदि में रखे हुए शाली आदि विविध धान्यों की योनि-स्थिति-प्ररूपरणा-- 1. अह गंमते ! सालोणं बीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एतेसि णं पन्नाणं कोढाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्ताणं प्रोलिताणं लित्ताणं पिहिताणं मुदियाणं लंछियाणं केवतियं कालं जोणी संचिति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि संबच्छराई, तेण पर जोणी पमिलाति, तेण परं जोणी पविद्धसति, तेण परं बीए अबीए भवति, तेण परं जोणिवोच्छेदे पन्नत्ते समणाउसो! / [प्र.] भगवन ! शाली (कमल आदि जातिसम्पन्न चावल), ब्रीहि (सामान्य चावल), गोधम (गेहूँ), यव (जौ) तथा यवयव (विशिष्ट प्रकार का जौ), इत्यादि धान्य कोठे में सुरक्षित रखे हों, बांस के पल्ले (छबड़े) में रखे हों, मंच (मचान) पर रखे हों, माल में डालकर रखे हों, (बर्तन में डाल कर) गोबर से उनके मुख उल्लिप्त (विशेष प्रकार से लीपे हुए) हों, लिप्त हों, ढंके हुए हों, (मिट्टी आदि से उन बर्तनों के मुख) मुद्रित (छंदित किये हुए) हों, (उनके मुंह बंद करके) लांछित (सील लगाकर चिह्नित) किये हुए हों; (इस प्रकार सुरक्षित किये हुए हों) तो उन (धान्यों) की योनि (अंकुरोत्पत्ति में हेतुभूत शक्ति) कितने काल तक रहती है ? [1 उ.] हे गौतम ! उनकी योनि कम से कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिक से अधिक तीन वर्ष तक कायम रहती है। उसके पश्चात् उन (धान्यों) की योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वंस को प्राप्त हो जाती है, फिर वह बीज, अबीज हो जाता है / इसके पश्चात् हे श्रमणायुष्मन् ! उस योनि का विच्छेद हुमा कहा जाता है / 2. अह भंते ! कलाय-मसूर-तिल-मुग्ग-मास-निफाव-कुलस्थ-मालिसंदग-सईण-पलिमंथगमादोणं एतेसि णं धन्नाणं? जहा सालीणं तहा एयाण वि, नवरं पंच संवच्छराई / सेसं तं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! कलाय, मसूर, तिल, मूग, उड़द, बाल (बालोर), कुलथ, आलिसन्दक (एक प्रकार का चौला), तुअर (सतीण = अरहर), पलिमंथक (गोल चना या काला चना) इत्यादि (धान्य पूर्वोक्त रूप से कोठे आदि में रखे हुए हों तो इन) धान्यों की (योनि कितने काल तक कायम रहती है ?) [2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार शाली धान्य के लिए कहा, उसी प्रकार इन धान्यों के लिए भी कहना चाहिए। विशेषता इतनी ही है कि यहाँ उत्कृष्ट पांच वर्ष कहना चाहिए। शेष सारा वर्णन उसी तरह समझना चाहिए / Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. अह भंते ! प्रयास-कुसुभग-कोद्दव-कंगु-वरग-रालग-कोदूसग-सण-सरिसव-मूलगबीयमादीणं एतेसि गं धन्नाणं? एताणि वि तहेब, नवरं सत्त संबच्छराई / सेसं तं चेव / [3 प्र.] हे भगवन् ! अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव (कोदों), कांगणी, बरट (बंटी), राल, सण, सरसों, मूलक बीज (एक जाति के शाक के बीज) अादि धान्यों की योनि कितने काल तक कायम रहती है ? [3 उ.] (हे गौतम ! जिस प्रकार शाली धान्य के लिए कहा,) उसी प्रकार इन धान्यों के लिए भी कहना चाहिए। विशेषता इतनी ही है कि इनकी योनि उत्कृष्ट सात वर्ष तक कायम रहती है / शेष वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। विवेचन-कोठे आदि में रखे हए शाली आदि विविध धान्यों की योनि-स्थिति-प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों में शाली आदि, कलाय आदि, तथा अलसी आदि विविध धान्यों की योनि के कायम रहने के काल का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष तीनों सूत्रों में उल्लिखित शालि आदि धान्यों की योनि की जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त है, और उत्कृष्ट स्थिति शालि आदि की तीन वर्ष है, कलाय आदि द्वितीयसूत्रोक्त धान्यों की पांच वर्ष है और अलसी आदि तृतीय सूत्रोक्त धान्यों की सात वर्ष है।' कठिन शब्दों के अर्थ-पल्लाउत्ताणं = पल्य यानी बांस के छबड़े में रखे हुए, मंचाउत्ताणं = मंच पर रखे हुए, माला-उत्ताणं =माल-मंजिल पर रखे हुए, मुद्दियाणं मुद्रित छाप कर बंद किये हुए। मुहूर्त से लेकर शीर्ष-प्रहेलिका-पर्यन्त गरिणतयोग्य काल-परिमाण-- 4. एगमेगस्स णं भंते ! मुहत्तस्स केवतिया ऊसासद्धा वियाहिया ? गोंयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा प्रावलिय त्ति पवुच्चइ, संखेज्जा प्रावलिया ऊसासों, संखेज्जा प्रावलिया निस्सासो। हट्ठस्स प्रणवगल्लस्स निरुवकिट्ठस्स जंतुणो / एगे ऊसासनीसासे, एस पाणु त्ति वुच्चति // 1 // सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाई से लवे / लवाणं सत्तहत्तरिए एस मुत्ते वियाहिते // 2 // तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेवतरि च ऊसासा। एस मुहुनो दिट्ठो सम्वेहि अणंतनाणीहिं // 3 // [4 प्र.] भगवन् ! एक-एक मुहूर्त के कितने उच्छ्वास कहे गये हैं ? 1. वियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा-१, पृ. 258-259 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 274 Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा : शतक : उद्देशक-७) [75 [4 उ.] गौतम ! असंख्येय समयों के समुदाय की समिति के समागम से अर्थात् असंख्यात 'उच्छ्वास' होता है और संख्येय प्रावलिका का एक 'नि:श्वास होता है। गाथाओं का अर्थ-] हृष्टपुष्ट, वृद्धावस्था और व्याधि से रहित प्राणी का एक उच्छ्वास और एक नि:श्वास-(ये दोनों मिल कर) एक 'प्राण' कहलाते हैं / / 1 / / सात प्राणों का एक 'स्तोक' होता है / सात स्तोकों का एक 'लव' होता है / 77 लवों का एक मुहर्त कहा गया है / / 2 / / अथवा 3773 उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है, ऐसा समस्त अनन्तज्ञानियों ने देखा है // 3 / / 5. एतेणं मुहत्तपमाणेणं तीसमुहत्तो अहोरत्तो, पणरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिणि उऊ अयणे, दो प्रयणा संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाई बाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साई वाससतसहस्सं, चउरासीति वाससतसहस्साणि से एगे पुथ्वंगे, चउरासीति पुब्वंगसयसहस्साइं से एगे पुब्बे, एवं तुडिअंगे तुडिए, अडडंगे अडडे, प्रक्वंगे अववे, हूहोंगे हूहए, उप्पलंगे उम्पले, पउमंगे पउमे, नलिणंगे नलिणे, प्रत्थनिउरंगे अत्यनिउरे, अउगंगे प्रउए, पउअंगे पउए य, नउअंगे नउए य, चूलिअंगे चूलिया य, सोसपहेलिअंगे सीसपहेलिया। एताव ताव गणिए / एताव ताव गणियस्त विसए / तेण परं प्रोवमिए / [5] इस मुहूर्त के अनुसार तीस मुहूर्त का एक 'अहोरात्र होता है / पन्द्रह 'अहोरात्र' का एक 'पक्ष' होता है। दो पक्षों का एक 'मास' होता है / दो 'मासों की एक 'ऋतु' होती है। तीन ऋतुनो का एक 'अयन होता है। दो अयन का एक 'सवत्सर (वर्ष) होता है। पांच सवत्सर का एक 'युग' होता है / बीस युग का एक वर्षशत (सौ वर्ष) होता है / दस वर्षशत का एक वर्षसहस्र' (एक हजार वर्ष) होता है। सौ वर्ष सहस्रों का एक 'वर्षशतसहस्र' (एक लाख वर्ष) होता है। चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग होता है / चौरासी लाख पूर्वांग का एक 'पूर्व' होता है / 84 लाख पूर्व का एक 84 लाख से गुणा करने से उत्तरोत्तर राशियाँ बनती हैं / वे इस प्रकार हैं-अटटांग, अटट, अवनांग, अवव, हुहूकांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनुपूरांग, अर्थनुपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका / इस संख्या तक गणित है / यह गणित का विषय है / इसके बाद औपमिक काल है (उपमा का विषय है--उपमा द्वारा जाना जाता है, गणित (गणना) का नहीं)। विवेचन- महर्स से लेकर शीर्ष-प्रहेलिकापर्यन्त गणितयोग्य काल-परिमाण-प्रस्तुत सूत्रद्वय में 46 भेद वाले गणनीय काल का परिमाण बतलाया गया है / गणनीय काल—जिस काल की संख्या के रूप में गणना हो सके, उसे गणनीय या गणितयोग्य काल कहते हैं / काल का सूक्ष्मतम भाग समय होता है / असंख्यात समय की एक प्रावलिका होती है। 256 प्रावलिका का एक क्षुल्लकभवग्रहण होता है। 17 से कुछ अधिक क्षुल्लकभव ग्रहण का एक उच्छवास-निःश्वासकाल होता है / इसके आगे की संख्या स्पष्ट है। सबसे अन्तिम गणनीय काल 'शीर्ष प्रहेलिका' है, और जो 164 अंकों की संख्या है / यथा-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७६ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 73561975666406218166848080183296 इन 54 अंकों पर 140 बिन्दियां लगाने से शीर्षप्रहेलिका संख्या का प्रमाण होता है / यहाँ तक का काल गणित का विषय है / इसके अागे का काल औपमिक है। अतिशय ज्ञानी के अतिरिक्त साधारण व्यक्ति उस को गिनती करके उपमा के बिना ग्रहण नहीं कर सकते, इसलिए उसे 'उपमेय' या 'औपमिक काल कहा गया है।' पल्योपम, सागरोपम आदि औपमिककाल का स्वरूप और परिमारण 6. से किं तं प्रोवमिए? प्रोवमिए दुविहे पण्णते, तं जहा–पलिनोवमे य, सागरोवमे य / [6 प्र.] भगवन् ! वह औपमिक (काल) क्या है ? . [6 उ.] गौतम ! औपमिक काल दो प्रकार कहा गया है / वह इस प्रकार है-पल्योपम और सागरोपम / 7. से कि तं पलिभोवमे ? से कि तं सागरोवमे ? सत्येण सुतिक्खेण वि छेत्तु मेत्त च जं किर न सक्का / तं परमाणु सिद्धा वदंति प्रादि पमाणाणं // 4 // अणताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसहिया ति वा, सहसहिया ति वा, उड्ढरेणू ति वा, तसरेणू ति वा, रहरेणू ति वा, वालग्गे ति वा, लिक्खा ति वा, जूया ति वा, जवमझे ति वा, अंगुले ति वा / अट्ट उस्साहसण्हियाओ सा एगा सहसहिया, अट्ठ सहसहियाप्रो सा एगा उड्ढरेणू, अट्ठ उड्डरेणूमो सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूगो सा एगा रहरेणू अट्ठ रहरेणूग्रो से एगे देवकुरु-उत्तरकुरुगाणं मणूसाणं वालग्गे, एवं हरिवास-रम्मग-हेमवत-एरण्णवताणं पुवविवेहाणं मणूसाणं अट्ठ वालगा स एगा लिक्खा, अट्ट लिक्खागो सा एगा जूया, अटु जयालो से एगे जवमझे, अट्ठ जवमझा से एगे अंगुले, एतेणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाणि पादो, बारस अगुलाई विहत्थी, चउव्वीसं अंगुलाणि रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी, छण्णउति अंगुलाणि से एगे दंडे ति वा, धणू ति वा, जूए ति वा, नालिया ति वा, अक्खे ति वा, मुसले ति बा, एतेणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाई जोयणं, एतेणं जोयणप्पमाणेणं जे पल्ले जोयणं पायामविक्खंभेणं, जोयणं उड्ड उच्चत्तेणं तं तिउणं सविसेसं परिरएणं / से णं एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय उक्कोसं सत्तरत्तप्परूढाणं संसह सन्निचिते भरिते बालग्गकोडीणं, ते णं वालग्गे नो अग्गी दहेज्जा, नो वातो हरेज्जा, नो कुत्थे ज्जा नो परिविद्ध सेज्जा, नो पूतिताए हव्वमागच्छेज्जा / ततो णं वाससते वाससते गते एगमेगं वालग्गं प्रवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खोणे नीरए निम्मले निट्टिते निल्लेवे प्रवडे विसुद्ध भवति / से तं पलिग्रोवमे / गाहा-- 1. भगवतीमूत्र (हिन्दी विवेचन युक्त) भा. 2, पृ. 1035-1036 Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-७ ] |77 एतेसि पल्लाणं कोडाफोडी हवेज्ज दसगुणिया / तं सागरोवमस्स तु एक्कस्स भवे परीमाणं // 5 // [7 प्र.] भगवन् ! 'पल्योपम' (काल) क्या है ? तथा 'सागरोपम' (काल) क्या है ? 7i उ.] हे गौतम ! जो सुतीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा भी छेदा-भेदा न जा सके, ऐसे परम-अण (परमाण) को सिद्ध (ज्ञानसिद्ध केवली) भगवान् समस्त प्रमाणों का आदिभूत प्रमाण कहते हैं। ऐसे अनन्त परमाणुपुद्गलों के समुदाय की समितियों के समागम से एक उच्छ्लक्ष्ण श्लक्षिाका, श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका, ऊर्ध्वरेणु, वसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लिक्षा, यूका, यवमध्य और अंगुल होता है / पाठ उच्छलक्ष्ण-श्लक्ष्णिका के मिलने से एक श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका होती है। पाठ श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका के मिलने से एक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु मिलने से एक त्रसरेणु, पाठ त्रसरेणुगों के मिलने से एक रथरेण और पाठ रयरेणुओं के मिलने से देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालात्र होता है, तथा देवकर और उत्तरकर क्षेत्र के मनुष्यों के पाठ बालानों से हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के मनूष्यों का एक बालाग्र होता है / हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के आठ बालानों से हैमवत और ऐरावत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हैमवत और ऐरावत के मनुष्यों के पाठ बालानों से पूर्व विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / पूर्वविदेह के मनुष्यों के पाठ बालानों से एक लिक्षा (लोख), आठ लिक्षा से एक यूका (ज), पाठ यूका से एक यवमध्य और पाठ यवमध्य से एक अंगुल होता है। इस प्रकार के छह अंगुल का एक पाद (पैर), बारह अंगुल की एक वितस्ति (बेत), चौबीस अंगुल का एक हाथ, अड़तालीस अंगुल की एक कुक्षि, छियानवे अंगुल का दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष अथवा मूसल होता है / दो हजार धनुष का एक गाऊ होता है और चार गाऊ का एक योजन होता है / इस योजन के परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा (ऊपर में ऊँचा), तिगुणो से अधिक परिधि वाला एक पल्य हो, उस पत्य में एक दिन के उगे हुए, दो दिन के उगे हुए, तीन दिन के उगे हुए, और अधिक से अधिक सात रात्रि के उगे हुए करोड़ों बालान, किनारे तक ऐसे ठूस-ठूस कर भरे हों, संनिचित (इकट्ठ) किये हों, अत्यन्त भरे हों, कि उन बालानों को अग्नि न जला सके और हवा उन्हें उड़ा कर न ले जा सके; वे बालाग्न सड़ें नहीं, न ही परिध्वस्त (नष्ट) हों, और न ही वे शीघ्र दुर्गन्धित हों। इसके पश्चात् उस पल्य में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक बालाग्र को निकाला जाए / इस क्रम से तब तक निकाला जाए, जब तक कि वह पल्य क्षीण हो, नीरज हो, निर्मल हो, निष्ठित (पूर्ण) हो जाए, निर्लेप हो, अपहृत हो और विशुद्ध (पूरी तरह खाली)हो जाए / उतने काल को एक 'पल्योपमकाल' कहते हैं / (सागरोपमकाल के परिमाण को बताने वाली गाथा का अर्थ इस प्रकार है- इस पल्योपम काल का जो परिणाम पर बतलाया गया है, वैसे दस कोटाकोटि (गुणे) पल्योपमों का एक सागरोपम-कालपरिमाण होता है / 8. एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीग्रो कालो सुसमसुसमा 1, तिणि सागरोवमकोडाकोडोप्रो कालो सुसमा 2, दो सागरोवमकोडाकोडीनो कालो सुसमदूसमा 3, एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा 4, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा 5, एक्कवीसं बाससहस्साई कालो दूसमवूसमा 6 / पुणरवि उस्सपिणीए एक्कवीसं Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] [न्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाससहस्साई कालो दूसमदूसमा 1 / एक्कवीसं वाससहस्साई जाव' चत्तारि सागरोवमकोडाकोडोलो कालो सुसमसुसमा 6 / दस सागरोवमकोडाकोडीनो कालो प्रोसप्पिणी। दस सागरोवमकोडाकोडीयो कालो उस्सपिणी / बीसं सागरोवमकोडाकोडीमो कालो प्रोसप्पिणी य उस्सप्पिणी य / (8) इस सागरोपम-परिमाण के अनुसार चार कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमसुषमा पारा होता है; तीन कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमा प्रारा होता है; दो कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमदुःषमा पारा होता है: बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक दु:षमसुषमा नारा होता है। इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषम पारा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषमदुःषमा पारा होता है। इसी प्रकार उत्सपिणीकाल में पुनः इक्कीस हजार वर्ष परिमित काल का प्रथम दुःषम-दुःषमा पारा होता है। इक्कीस हजार वर्ष का द्वितीय दुःषम पारा होता है, बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम काल का तीसरा दुःषम-सुषमा पारा होता है, दो कोटाकोटि सागरोपमकाल का चौथा सुषम-दुःषमा आरा होता है। तीन कोटाकोटि सागरोपमकाल का पांचवाँ सुषम पारा होता है और चार कोटाकोटि सागरोपमकाल का छठा सुषम-सुषमा पारा होता है। इस प्रकार (कुल) दस कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणीकाल होता है और दस कोटाकोटि सागरोपम काल का ही उत्सर्पिणीकाल होता है। यों बीस कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणी-उत्सपिणी-कालचक्र होता है / विवेचन--औपमिककाल का परिमाण--प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथमसूत्र में पल्योपम एवं सागरोपम काल का परिमाण तथा द्वितीय सूत्र में अवसपिणी-उत्सर्पिणी रूप द्वादश आरे सहित कालचक्र का परिमाण बताया गया है। पल्योपम का स्वरूप और प्रकार यहाँ जो पल्योपम का स्वरूप बतलाया गया है, वह व्यवहार प्रद्धापल्योपम का स्वरूप बताया गया है। पल्योपम के मुख्य तीन भेद हैं—(१) उद्धारपल्योपम, (2) अद्धापल्योपम और (3) क्षेत्रपल्योपम / उद्धारपल्योपम आदि के प्रत्येक के दो प्रकार हैं-व्यवहार उद्धारपल्योपम एवं सूक्ष्म उद्धारपल्योपम, व्यवहार अद्धापल्योपम एवं सूक्ष्म अद्धापल्योपम, तथा व्यवहार क्षेत्रपल्योपम एवं सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम / __ उद्धारपल्योपम-उत्सेधांगुल परिमाण से एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े और एक योजन ऊँचे-गहरे गोलाकार कुए में देवकुरु-उत्तरकूरु के यौगलिकों के मुण्डित मस्तक पर एक दिन के, दो दिन के यावत् 7 दिन के उगे हुए करोड़ों बालानों से उस कप को यों ठूस ठूस कर भरा जाए कि वे बालाग्र न तो आग से जल सकें और न ही हवा से उड़ सकें / फिर उनमें से प्रत्येक को एकएक समय में निकालते हुए जितने समय में वह कुआ सर्वथा खाली हो जाए, उस कालमान को व्यावहारिक उद्धार पल्योपम कहते हैं। यह पल्योषम संख्यात समयपरिमित होता है। इसी तरह उक्त बालान के असंख्यात अदृश्य खण्ड किये जाएँ, जो कि विशुद्ध नेत्र वाले छद्मस्थ पुरुष के दृष्टिगोचर होने वाले सूक्ष्म पुद्गलद्रव्य के असंख्यातवें भाग एवं सूक्ष्म पनक के शरीर से असंख्यातगुणा 1. 'जाव' पद यहाँ अवसर्पिणीकाल को गणना की तरह ही उत्सर्पिणीकाल-गणना का बोधक है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-७ ] हों। उन सूक्ष्म बालाग्रखण्डों से वह कूप ठस-ठूस कर भरा जाए और उनमें से एक-एक बालाग्रखण्ड प्रतिसमय निकाला जाये। यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुंपा खाली हो जाए, उसे सूक्ष्म उद्धारपत्योपम कहते हैं / इसमें संख्यातवर्षको टिपरिमित काल होता है। ___ अद्धापल्योपम-उपर्युक्त रीति से भरे हुए उपर्युक्त परिमाण वाले कूप में से एक-एक बालाग्र सौ-सौ वर्ष में निकाला जाए / इस प्रकार निकालते-निकालते जितने काल में वह कुपा सर्वथा खाली हो जाए. उसे व्यवहार 'प्रद्धापल्योपम' कहते हैं। यह अनेक संख्यातवर्षकोटिप्रमाण होता है / यदि यही कुपा उपर्युक्त सूक्ष्म बालाग्रखण्डों से भरा हो और उनमें से प्रत्येक बालाग्रखण्ड को सौ-सौ वर्ष में निकालते-निकालते जितने काल में बह कुआ खाली हो जाए, उसे सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम कहते हैं। इसमें असंख्यातवर्षकोटिप्रमाण काल होता है। क्षेत्रपल्योपम-उपर्युक्त परिमाण का कप उपयुक्त रीति से बालानों से भरा हो, उन बालानों को जितने अाकाशप्रदेश स्पर्श किये हुए हैं, उन स्पर्श किये हुए आकाशप्रदेशों में से प्रत्येक को (बौद्धिक कल्पना से) प्रति समय निकाला जाए / इस प्रकार उन छुए हुए प्राकाशप्रदेशों को निकालने में जितना समय लगे, वह व्यवहार क्षेत्रपल्योपम है। इसमें असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणीपरिमाण काल होता है / यदि यही कुपा बालाग्र के सूक्ष्मखण्डों से लूंस-ठूस कर भरा जाए, तथा उन बालाग्रखण्डों से छुए हुए एवं नहीं छुए हुए सभी आकाप्रदेशों में से प्रत्येक आकाशप्रदेश को प्रतिसमय निकालते हुए सभी को निकालने में जितना काल लगे, वह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम है / इसमें भी असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीपरिमाणकाल होता है, किन्तु इसका काल व्यवहार क्षेत्रपल्योपम से असंख्यात गुणा है। सागरोपम के प्रकार—पल्योपम की तरह सागरोपम के तीन भेद हैं और प्रत्येक भेद के दो-दो प्रकार हैं। उद्धारसागरोपम के दो भेद हैं—व्यवहार और सूक्ष्म / दस कोटाकोटि व्यवहार उद्धारपल्योपम का एक व्यवहार उद्धारसागरोपम होता है / दस कोटाकोटि सुक्ष्म उद्धारपल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है / ढाई सूक्ष्म उद्धारसागरोपम या 25 कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म उद्धारपल्योपम में जितने समय होते हैं, उतने ही लोक में द्वीप और समुद्र हैं। . अद्धासागरोपम के भी दो भेद हैं--व्यवहार और सूक्ष्म / दस कोडाकोड़ी व्यवहार अद्धापल्योपम का एक व्यवहार प्रद्धासागरोपम होता है और दस कोडाकोड़ी सूक्ष्म अद्धापल्योपम का एक सूक्ष्म प्रद्धासागरोपम होता है। जीवों की कर्म स्थिति, कायस्थिति और भवस्थिति तथा कारों का परिमाण सूक्ष्म प्रद्धापल्योपम और सूक्ष्म श्रद्धासागरोपम से मापा जाता है। क्षेत्रसागरोपम के भी दो भेद हैं- व्यवहार और सूक्ष्म / दस कोड़ा-कोड़ी व्यवहार क्षेत्रपल्योपम का एक व्यवहार क्षेत्रसागरोपम होता है, और दस कोड़ाकोड़ी सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का एक सूक्ष्म सागरोपम होता है। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम एवं सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम से दृष्टिवाद में उक्त द्रव्य मापे जाते हैं।' 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 277 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचनयुक्त) भाग-२, 1040-1041 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [ ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुषमसुषमाकालीन भारतवर्ष के भाव-आविर्भाव का निरूपण 6. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे इमोसे प्रोसरिफणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमढपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए प्रागारभावपडोगारे होत्था ? गोतमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहानामए प्रालिंगपुक्खरे ति वा, एवं उत्तरकुरुवत्तन्वया' नेयम्वा जाव प्रासयंति सयंति / तीसे णं समाए भारहे वासे तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहि बहवे उराला कुद्दाला जाव कुसविकुसविसुद्ध रुक्खमूला जाव छविहा मणूसा अणुसज्जित्था, तं०--- पम्हगंधा 1 मियगंधा 2 अममा 3 तेयली 4 सहा 5 सणिचारी 6 / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥छ8 सए : सत्तमो सालिउद्देसो समत्तो॥ [6 प्र.] भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ-प्राप्त इस अवसर्पिणीकाल के सुषम-सुषमा नामक पारे में भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) के आकार (प्राचार-) भाव-प्रत्यवतार (प्राचारों और पदार्थों के भाव-पर्याय-अवस्था) किस प्रकार के थे ? [9 उ.] गौतम ! (उस समय) भूमिभाग बहुत सम होने से अत्यन्त रमणीय था / जैसे-कोई मुरज (प्रालिंग-तबला) नामक वाध का चर्ममण्डित मुखपट हो, वैसा बहुत ही सम भरतक्षेत्र का भूभाग था। इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरु की वक्तव्यता के समान, यावत् बैठते हैं, सोते हैं, यहां तक वक्तव्यता कहनी चाहिए। उस काल (अवसर्पिणी के प्रथम पारे) में भारतवर्ष में उन-उन देशों के उन-उन स्थलों में उदार (प्रधान) एवं कुद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे; यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे / यथा- (1) पद्मगन्ध वाले, (2) मृग (कस्तूरी के समान) गन्ध वाले, (3) अमम (ममत्वरहित), (4) तेजतली (तेजस्वी एवं रूपवान्), (5) सहा (सहनशील) और शनैश्चर (उत्सुकतारहित होने से धोरे-धीरे गजगति से चलने वाले) थे। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। 1. जीवाभिगम सूत्र में उक्त उत्तरकुरुवक्तव्यता इस प्रकार है--'मुइंगपुक्खरे इवा, सरतले इ वा-सरस्तलं सर एव, करतले इ वा-करतलं कर एव, इत्यादीति / एवं भूमिसमताया भूमिभागगततृण-मणोनां वर्णपञ्चकत्य, सुरभिगन्धस्य, मृदुस्पर्शस्य, शुभशब्दस्य, वाप्यादीनां वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनामुत्पातपर्वताद्याश्रितानां हंसासनादीनां लतागृहादीनां शिलापट्टकादीनां च वर्णको वाच्यः / तदन्ते चैतद् दृश्यम्-तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओ य आसयंति सयंसि चिट्ठति निसीयंसि तुपट्ठति / इत्यादि'-जीवाभिगम म. वृति / 2. 'जाव' शब्द से कयमाला णट्टमाला इत्यादि तथा वृक्षों के नाम-"उद्दालाः कोहाला: मोद्दालाः कृतमालाः नृत्तमालाः वृत्तमाला: दन्तमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमाला: श्वेतमालाः नाम द्रमगणाः" समझ लें। (पत्र 264-2) / जाव शब्द मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि का सूचक है। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-७ ] [81 . विवेचन-सुषमसुषमाकालीन भारतवर्ष के जीवों-अजीवों के भाव-निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में सुषमसुषमा नामक अवसर्पिणीकालिक प्रथम बारे में मनुष्यों एवं पदार्थों की उत्कृष्टता का वर्णन किया गया है / कठिन शब्द-उत्तमढपत्ताए-आयुष्यादि उत्तम अवस्था को प्राप्त / तेलि =तेजवाले और रूप वाले। / छठा शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती अ. यत्ति, पत्रांक 277-278 (ख) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 2 उत्तरकुरुवर्णन प. 262 से 288 तक Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'पुढवी' अष्टम उद्देशक : 'पृथ्वी' रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्वदेवलोकों में गृह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व और कर्तृत्व की प्ररूपरणा 1. कइ णं माते ! पुढवीओ पण्णत्तायो ? गोयमा ! अट्ठ पुढवीनो पण्णताओ, तं जहा–रयणप्पभा जाव ईसीपभारा। [1 प्र.] भगवन् ! कितनी पृथ्वियाँ कही गई हैं ?' [1 उ.] गौतम ! आठ पृथ्वियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-(१) रत्नप्रभा, (1) शर्कराप्रभा (3) बालुकाप्रभा, (4) पंकप्रभा, (5) धूमप्रभा, (6) तमःप्रभा, (7) महातमःप्रभा और (8) ईषत्प्रारभारा। 2. अत्थि गं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए अहे गेहा ति वा गेहावणा ति बा ? गोयमा ! णो इण? सम8 / / [2 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे गृह (घर) अथवा गृहापण (दुकानें) हैं ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे गृह या गृहापण नहीं हैं।) 3. अस्थि णं भते ! इमोसे रयणप्पभाए अहे गामा ति वा जाव सन्निवेसा ति वा? नो इण8 सम8। [3 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? [3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्--रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश नहीं हैं।) 4. अस्थि णं भते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाहया संसेयंति, सम्मुच्छंति, वासं वासंति ? हंता, अस्थि / [4 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभाषथ्वी के नीचे महान् (उदार) मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? [4 उ.] हाँ गौतम ! (वहाँ महामेध संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूच्छित होते हैं और वर्षा भी बरसाते) हैं। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक i63 5. तिणि वि परिति—देवो विपकरेति, असुरो वि प०, नागो विप० / [5] ये सब कार्य (महामेघों को संस्वेदित एवं सम्मूच्छित करने तथा वर्षा बरसाने का कार्य). ये तीनों करते हैं—देव भी करते ते, असुर भी करते हैं और नाग भी करते हैं। 6. अत्यि णं भते ! इमोसे रयण बादरे थणियसद्दे ? हंता, अस्थि / [6 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में बादर (स्थूल) स्तनितशब्द (मेघगर्जना की आवाज) है? 7. तिणि वि पकरेंतिा [6-7 उ.] हां, गौतम ! बादर स्तनितशब्द है, जिसे (उपर्युक्त) तीनों ही करते हैं / 8. अस्थि णं भते ! इमोसे रयणघ्यभाए अहे बादरे अगणिकाए ? गोयमा ! नो इण? सम?, नऽन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं। [8 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय है ? [8 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / यह निषेध विग्रह-गतिसमापन्नक जीवों के सिवाय (दूसरे जीवों के लिए समझना चाहिए / ) 6. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयण अहे चंदिम जाव तारारूवा ? नो इण8 सम8। [6 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 10. अस्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्यभाए पुढवीए चंदामा ति वा 2 / णो इण? सम?। _ [10 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में चन्द्राभा (चन्द्रमा का प्रकाश), सूर्याभा (सूर्य का प्रकाश) आदि हैं ? [10 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 11. एवं दोच्चाए वि पुढवीए भाणियव्वं / [11] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सभी बातें) दूसरी पृथ्वी (शर्कराप्रभा) के लिए भी कहना चाहिए। 12. एवं तच्चाए वि भाणियन्वं, नवरं देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, णो णागो पकरेति / Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [12] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सब बातें) तीसरी पृथ्वी (बालुकाप्रभा) के लिए भी कहना चाहिए / इतना विशेष है कि वहाँ देव भी (ये सब) करते हैं, असुर भी करते हैं, किन्तु नाग (कुमार) नहीं करते। 13. चउत्थीए वि एवं, नवरं देवो एक्को पक रेति, नो असुरो०, नो नागो पकरेति / [13] चौथी पृथ्वी में भी इसी प्रकार सब बातें कहनी चाहिए / इतना विशेष है कि वहाँ देव ही अकेले (यह सब) करते हैं, किन्तु असुर और नाग नहीं करते हैं। 14. :एवं हेदिल्लासु सब्बासु देवो एवको पकरेति / [14] इसी प्रकार नीचे की (पांचवीं, छठी और सातवीं नरक) सब पृथ्वियों में केवल देव ही (यह सब कार्य) करते हैं, (असुरकुमार और नागकुमार नहीं करते / ) 15. अस्थि णं भंते ! सोहम्मोसाणाणं कप्पाणं अहे गेहा इ वा 2 ? नो इण8 सम? / [15 प्र.] भगवन् ! क्या सौधर्म और ईशान कल्पों (देवलोकों) के नीचे गृह अथवा गृहापण हैं ? [15 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 16. अस्थि णं भंते ! * उराला बलाया ? हंता, अस्थि। [16 प्र.] भगवन् ! क्या सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे महामेघ (उदार बलाहक) हैं ? [16 उ.] हाँ, गौतम ! (वहाँ महामेघ) हैं। 17. देवो पकरेति, असुरो विपकरेइ, नो नानो पकरेइ / [17] (सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे पूर्वोक्त सब कार्य (बादलों का छाना, मेघ उमड़ना, वर्षा बरसाना आदि) देव करते हैं, असुर भी करते हैं, किन्तु नागकुमार नहीं करते।। 18. एवं थणियसद्दे वि। [18] इसी प्रकार वहाँ स्तनितशब्द के लिए भी कहना चाहिए / 16. अस्थि णं भंते ! 0 बादरे पुढविकाए, बादरे अगणिकाए ? नो इण8 सम?, नऽन्नत्य विग्गहगतिसमावन्न एणं / [16 प्र. भगवन् ! क्या वहाँ (सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे) बादर पृथ्वी काय और बादर अग्निकाय है ? [19 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। यह निषेध विग्रहगति-समापन्न जीवों के सिवाय दूसरे जीवों के लिए जानना चाहिए / Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-८] [85 20. अत्थि णं भंते ! चंदिम ? णो इण8 सम?। 20. प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? [20 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 21. अस्थि पं भंते ! गामाइ वा०? णो इण8 सम8। [21 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? [21 उ ] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 22. अस्थि गं भंते ! चंदाभा ति वा 2 ? गोयमा ! णो इण? सम? / [22 प्र.] भगवन् ! क्या यहाँ चन्द्राभा, सूर्याभा आदि हैं ? [22 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 23. एवं सणंकुमार-माहिदेसु, नवरं देवो एगो पक रेति / [23] इसी प्रकार सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकों में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि वहाँ (यह सब) केवल देव ही करते हैं / 24. एवं बंभलोए वि। [24] इसी प्रकार ब्रह्मलोक (पंचम देवलोक) में भी कहना चाहिए / 25. एवं बंमलोगस्स उरि सहि देवो पकरेति / [25] इसी तरह ब्रह्मलोक से ऊपर (पंच अनुत्तर विमान देवलोक तक) सर्वस्थलों में पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिए / इन सब स्थलों में केवल देव ही (पूर्वोक्त कार्य) करते हैं / 26. पुच्छियब्वे य बादरे पाउकाए, बादरे तेउकाए, बायरे वणस्सतिकाए / अन्नं तं चेव / गाहा तमुकाए कप्पपणए अगणी पुढवी य, अगणि पुढवीसु / पाऊ-तेउ-वणस्तति कप्पुरिम-कण्हराईसु // 1 // [26 प्र. 3] इन सब स्थलों में बादर अप्काय, बादर अग्निकाय, और बादर वनस्पतिकाय के विषय में प्रश्न (पृच्छा) करना चाहिए / उनका उत्तर भी पूर्ववत् कहना चाहिए।) अन्य सब बातें पूर्ववत् कहनी चाहिए। [गाथा का अर्थ- तमस्काय में और पांच देवलोकों तक में अग्निकाय और पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए / रत्नप्रभा आदि नरकश्चियों में अग्निकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चाहिए / इसी तरह पंचम कल्प-देवलोक से ऊपर सब स्थानों में तथा कृष्णराजियों में अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिए। विवेचन-रत्नप्रभादि पश्वियों तथा सर्व देवलोकों में गृह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व प्रादि की प्ररूपणा–प्रस्तुत 26 सूत्रों में रत्नप्रभादि सातों पृथ्वियों तथा सौधर्मादि सर्व देवलोकों के नीचे तथा परिपाव में गृह, गृहापण, महामेघ, वर्षा, मेघगर्जन, बादर अग्निकाय, चन्द्रादि पांचों ज्योतिष्क, चन्द्रसूर्याभा, बादर अपकाय, बादर पृथ्वीकाय, बादर वनस्पतिकाय आदि के अस्तित्व एवं वर्षादि के कर्तृत्व से सम्बन्धित विचारणा की गई है। वायुकाय, अग्निकाय प्रादि का अस्तित्व कहाँ है, कहाँ नहीं ?–रत्नप्रभादि पृथ्वियों के नीचे बादर पृथ्वीकाय और बादर अग्निकाय नहीं है, किन्तु वहाँ घनोदधि आदि होने से अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय है / सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में बादर पृथ्वीकाय नहीं है। क्योंकि वहाँ उसका स्वस्थान न होने से उत्पत्ति नहीं है / तथा सौधर्म, ईशान उदधिप्रतिष्ठित होने से वहाँ बादर अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का सदभाव है। इसी तरह सनत्कुमार और माहेन्द्र में तमस्काय होने से वहाँ बादर अप्काय और वनस्पतिकाय का होना सुसंगत है / तमस्काय में और पांचवें देवलोक तक बादर अग्निकाय और बादर पृथ्वीकाय का अस्तित्व नहीं है। शेष तीन का सद्भाव है। बारहवें देवलोक तक इसी तरह जान लेना चाहिए / पांचवें देवलोक से ऊपर के स्थानों में तथा कृष्णराजियों में भी बादर अप्काय, तेजस्काय और वनस्पतिकाय का सद्भाव नहीं है, क्योंकि उनके नीचे वायुकाय का ही सद्भाव है। महामेघ-संस्वेदन-वर्षणादि कहाँ, कौन करते हैं ? दूसरी पृथ्वी की सीमा से आगे नागकुमार नहीं जाते, तथा तीसरी पृथ्वी की सीमा से आगे असुरकुमार नहीं जाते; इसलिए दूसरी नरकपृथ्वी दन-वर्षण-गर्जन आदि सब कार्य देव और असुरकुमार करते हैं, तथा चौथी पथ्वी के नीचे-नीचे सब कार्य केवल देव ही करते हैं / सौधर्म और ईशान देवलोक के नीचे तक तो चमरेन्द्र की तरह असुरकुमार जा सकते हैं, किन्तु नागकुमार नहीं जा सकते, इसलिए इन दो देवलोकों के नीचे देव और असुरकुमार ही करते हैं, इस से आगे सनत्कुमार से अच्युत देवलोक तक में केवल देव ही करते हैं। इससे आगे देव की जाने की शक्ति नहीं है और न ही वहाँ मेघ आदि का सद्भाव है।' जीवों के आयुष्यबन्ध के प्रकार एवं जाति-नामनिधत्तादि बारह दण्डकों की चौबीस दण्डकीय जीवों में प्ररूपरणा 27. कतिविहे णं भंते ! पाउयबंधे पण्णत्ते ? गोयमा ! छबिहे पाउयबंधे पण्णत्ते, तं जहा-जातिनाननिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ठितिनामनिहत्ताउए प्रोगाहणानामनिहत्ताउए पदेसनामनिहत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 279 (ख) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 329 (ग) तत्त्वार्थसूत्र अ. 3 सू. 1 से 6 तक भाष्यसहित, पृ. 64 से 74 तक (घ) सूत्रकृतांग श्रु-१, अ-५, निरयविभक्ति Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-७] [87 [27 प्र] भगवन् ! आयुष्यबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [27 उ.] गौतम ! प्रायुष्यबन्ध छह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-(१) जातिनामनिधत्तायु, (2) गतिनामनिधत्तायु, (3) स्थितिनामनिधत्तायु, (4) अवगाहनानामनिधत्तायु, (5) प्रदेशनामनिधत्तायु और (6) अनुभागनामनिधत्तायु / 28. एवं दंडओ' जाव वेमाणियाणं। [17] यावत् वैमानिकों तक दण्डक कहना चाहिए। 29. जीवा णं भंते ! कि जातिनामनिहत्ता गतिनामनिहत्ता जाव अणुभागनामनिहत्ता ? गोतमा ! जातिनामनिहत्ता वि जाव अणुभागनामनिहत्ता वि / [26 प्र.] भगवन् ! क्या जीव जातिनामनिधत्त हैं ? गतिनामनिधत्त हैं ? अथवा यावत् अनुभागनामनिधत हैं ? [29 उ.] गौतम ! जीव जातिनामनिधत्त भी हैं, यावत् अनुभागनामनिधत्त भी हैं / 30. दंडो जाव वेमाणियाणं / [30] यह दण्डक यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 31. जीवा णं भंते ! कि जातिनामनिहिताउया जाव अणुभागनामनिहित्ताउया ? गोयमा! जातिनामनिहत्ताउया वि जाव अणुभागनामनिहित्ताउया वि / (31 प्र.] भगवन् ! क्या जीव जातिनामनिधत्तायुष्क हैं, यावत् अनुभागनामनिधत्तायुष्क हैं ? [31 उ.] गौतम ! जीव, जातिनामनिधत्तायुष्क भी हैं, यावत् अनुभागनामनिधत्तायुष्क भी हैं। 32. दंडअो जाय वेमाणियाणं / [32] यह दण्डक यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 33. एवमेए दुवालस दंडगा भाणियव्वा-जीवा णं भंते ! कि जातिनामनिहत्ता 1, जातिनामनिहत्ताउया० 2, जीवा णं भते ! कि जातिनामनिउत्ता 3, जातिनामनि उत्ताउया० 4, जातिगोयनिहत्ता 5, जातिगोयनिहत्ताउया 6, जातिगोत्तनिउत्ता 7, जातिगोतनिउत्ताउया 8, जातिणामगोत्तनिहत्ता 6, जातिणामगोयनिहत्ताउया 10, जातिणामगोयनि उत्ता 11, जीवा णं भंते ! कि जातिनामगोनिउत्ताउया जाव अणुभागनामगोतनिउत्ताउया 12 ? गोतमा ! जातिनामगोयनिउत्ताउया वि जाव अणुभागनामगोत्तति उत्ताउया वि। 1. 'जाव' पद से नै रयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त दण्डक समझे। 2. 'जाव' पद से 'ठिति-ओगाहणा-पएस' आदि पद निहत्त' पदान्त समझ लेने चाहिए। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [33 प्र.] इस प्रकार ये बारह दण्डक कहने चाहिए [प्र.] भगवन् क्या जीव, जातिनामनिधत्त है ?, जातिनामनिधत्तायु है ?, क्या जीव, जातिनामनियुक्त हैं ?, जातिनामनियुक्तायु हैं ?, जातिगोत्रनिधत्त है ?, जातिगोत्रनिधत्तायु हैं ?, जातिगोत्रनियुक्त हैं ?, जातिगोत्रनियुक्तायु हैं ?, जातिनामगोत्र-निधत्त हैं ?, जातिनामगोत्रनिधत्तायु हैं ?, भगवन् ! क्या जीव जातिनामगोत्रनियुक्तायु हैं ? यावत् अनुभागनाम गोत्रनियुक्तायु हैं ? [33 उ.] गौतम ! जीव, जातिनामनिधत्त भी हैं, यावत् अनुभागनामगोत्रनियुक्तायु भी हैं। 34. दंडनो जाव वेमाणियाणं / [34] यह दण्डक यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विवेचन--जीवों के प्रायुष्यबन्ध के प्रकार एवं जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों को चौबीस दण्डकीय जीवों में प्ररूपणा प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 27 से 34 तक) में जीवों के प्रायुष्यबन्ध के 6 प्रकार, तथा चौबीस ही दण्डक के जीवों में जातिनामनिधत्तादि बारह दण्डकों-बालापकों की प्ररूपणा की गई है। षड्विध श्रायुष्यबन्ध की व्याख्या-(१) जातिनामनिधत्तायु-एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पांच प्रकार की जाति है, तद्रूप जो नाम (अर्थात्-जातिनाम रूप नाम कर्म को एक उत्तरप्रकृति अथवा जीव का एक प्रकार का परिणाम), वह जातिनाम है। उसके साथ निधत्त (निषिक्त या निषेक को–प्रतिसमय अनुभव में पाने के लिए कर्मपुद्गलों की रचना को--प्राप्त) जो प्रायु, उसे जातिनामनिधत्तायु कहते हैं। (2) मतिनामचित्तायु एवं (3) स्थितिनामनिधत्तायु-नैरयिक आदि चार प्रकार की गति' कहलाती है / अमुक भव में विवक्षित समय तक जीव का रहना स्थिति' कहलाती है। इस रूप आयु को क्रमशः 'गतिनामनिधत्तायु' और 'स्थितिनामनिधत्तायु' कहते हैं। / प्रस्तत सत्र में जातिनाम, गतिनाम और अवगाहनानाम का ग्रहण करने से केवल जाति, गति और अवगाहनारूप नामकर्मप्रकृति का कथन किया गया है। तथा स्थिति, प्रदेश और अनुभाग का ग्रहण होने से पूर्वोक्त प्रकृतियों की स्थिति आदि कही गई है। यह स्थिति जात्यादिनाम से सम्बन्धित होने से नामकर्म रूप ही कहलाती है। इसलिए यहाँ सर्वत्र 'नाम' का अर्थ 'नामकर्म' ही घटित होता है, अर्थात्-स्थितिरूप नाम-कर्म जो हो, वह स्थितिनाम' उसके साथ जो निधत्तायु, उसे 'स्थितिनामनिधत्तायु कहते हैं / (4) अवगाहनानामनिधत्तायु-जीव जिसमें अवगाहित होतारहता है, उसे 'अवगाहना' कहते हैं, वह है-औदारिक आदि शरीर / उसका नाम अवगाहनानाम, अथवा अवगाहनारूप जो परिणाम / उसके साथ निधत्तायु 'अवगाहनानामनिधत्तायु' कहलाती है / (5) प्रदेशनामनिधत्तायु-प्रदेशों का अथवा आयुष्यकर्म के द्रव्यों का उस प्रकार का नाम- परिणमन, वह प्रदेशनाम; अथवा प्रदेशरूप एक प्रकार का नामकर्म, वह है-- प्रदेशनाम ; उसके साथ निधतायु, 'प्रदेशनामनिधत्तायु' कहलाती है। (6) अनुभागनामनिधत्तायु-अनुभाग अर्थात् आयुष्य कर्म के द्रव्यों का विपाक, तद्रूप जो नाम (परिणाम), वह है- अनुभागनाम अथवा अनुभागरूप जो नामकर्म वह है-अनुभागनाम / उसके साथ निधत्त जो प्रायु, वह 'अनुभागनामनिधत्तायु' कहलाती है। __ आयुष्य जात्यादिनामकर्म से विशेषित क्यों ? --यहाँ आयुष्यबन्ध को विशेष्य और जात्यादि नामकर्म को विशेषण रूप से व्यक्त किया गया है, उसका कारण यह है कि जब नारकादि अायुष्य Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-] का उदय होता है, तभी जात्यादि नामकर्म का उदय होता है। अकेला आयुकर्म ही नैरयिक आदि का भवोपग्राहक है / इसीलिए यहाँ आयुष्य को प्रधानता बताई गई है। प्रायूष्य और बन्ध दोनों में अभेद-यद्यपि प्रश्न यहाँ आयुष्यबन्ध के प्रकार के विषय में है, किन्तु उत्तर है-आयुष्य के प्रकार का; तथापि आयुष्य बन्ध इन दोनों में अव्यतिरेक-अभेदरूप है / जो बन्धा हुया हो, वही आयुष्य, इस प्रकार के व्यवहार के कारण यहाँ आयुष्य के साथ बन्ध का भाव सम्मिलित है / नामकर्म से विशेषित 12 दण्डकों की व्याख्या-(१) जातिनाम-निधत्त प्रादि-जिन जीवों ने जातिनाम निषिक्त किया है, अथवा विशिष्ट बन्धवाला किया है, वे जीव 'जातिनामनिधत्त' कहलाते हैं / इसी प्रकार गतिनामनिधत्त, स्थितिनामनिधत्त, अवगाहनानामनिधत्त, प्रदेशनामनिधत्त, और अनुभागनामनिधत्त, इन सबकी व्याख्या जान लेनी चाहिए। (2) जातिनामनिधत्तायु-जिन जोवों ने जातिनाम के साथ आयुष्य को निधत्त किया है, उन्हें 'जातिनामनिधत्तायु' कहते हैं / इसी तरह दूसरे पदों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए / (3) जातिनामनियुक्त-जिन जीवों ने जातिनाम को नियुक्त (सम्बद्ध निकाचित) किया है, अथवा वेदन प्रारम्भ किया है, वे। इसी तरह दूसरे पदों का अर्थ जान लेना चाहिए। (4) जातिनामनियुक्त-मायु-जिन जीवों ने जातिनाम के साथ आयुष्य नियुक्त किया है, अथवा उसका वेदन प्रारम्भ किया है, वे / इसी प्रकार अन्य पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिए / (5) जातिगोत्रनिधत्त-जिन जीवों ने एकेन्द्रियादिरूप जाति तथा गोत्र एकेन्द्रियादि जाति के योग्य नीचगोत्रादि को निधत्त किया है, वे / इसी प्रकार अन्य पदों का अर्थ भो समझ लेना चाहिए / (6) जातिगोत्रनिधत्तायु-जिन जीवों ने जाति और गोत्र के साथ आयुष्य को निधत्त किया है, वे / इसी प्रकार अन्य पदों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। (7) जातिगोत्रनियुक्तजिन जीवों ने जाति और गोत्र को नियुक्त किया है, वे / (8) जातिगोनियुक्तायु-जिन जीवों ने जाति और गोत्र के साथ प्रायुष्य को नियुक्त कर लिया है, वे। इसी तरह अन्य पदों का अर्थ भी समझ लें। (8) जातिनाम-गोत्र-निधत्त-जिन जीवों ने जाति, नाम अ निधत्त किया है, वे / इसी प्रकार दूसरे पदों का अर्थ भी जान लें / (10) जाति-नाम-गोत्रनिधत्तायुजिन जीवों ने जाति, नाम और गोत्र के साथ प्रायुष्य को निधत्त कर लिया है, वे / इसी प्रकार अन्य पदों का अर्थ भी जान लेना चाहिए (11) जाति-नाम-गोत्र-नियुक्त-जिन जीवों ने जाति, नाम और गोत्र को नियुक्त किया है, वे। इसी प्रकार दूसरे पदों का अर्थ भी समझ लें / (12) जातिनाम-गोत्र-नियुक्तायु-जिन जीवों ने जाति, नाम और गोत्र के साथ प्रायुष्य को नियुक्त किया है, वे / इसी तरह अन्य पदों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए।' लवरणादि असंख्यात-द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण--- 35. लवणे णं भाते ! समुद्दे कि उस्सिपोदए, पत्थडोदए, खुभियजले, अखुभियजले ? गोयमा! लवणे णं समुद्दे उस्सियोदए, नो पत्थडोदए; खुभियजले, नो प्रखुभियजले / एत्तो 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 280-281 (क) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा-२, पृ. 1053 से 1056 तक / Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राढत्तं जहा जीवाभिगमे जाव' से तेण० गोयमा ! बाहिरया णं दीव-समुद्दापुण्णा पुष्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति, संठाणतो एगविहि विहाणा, वित्थरो प्रणेगविहिविहाणा, दुगुणा दुगुणप्पमाणतो जाव अस्सि तिरियलोए प्रसंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो!। _[35 प्र.] भगवन् ! क्या लवणसमुद्र, उच्छ्रितोदक (उछलते हुए जल वाला) है, प्रस्तृतोदक (सम जलवाला) है, क्षुब्ध जल वाला है अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ? [35 उ.] गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक है, किन्तु प्रस्तृतोदक नहीं है; वह क्षुब्ध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जल वाला नहीं है / यहाँ से प्रारम्भ करके जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, इसी प्रकार से जान लेना चाहिए; यावत् इस कारण, हे गौतम ! बाहर के (द्वीप-) समुद्र पूर्ण, पूर्णप्रमाण वाले, छलाछल भरे हुए, छलकते हुए और समभर घट के रूप में, (अर्थात्-परिपूर्ण . भरे हुए घड़े के समान), तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले हैं; द्विगुण-द्विगुण विस्तार वाले हैं; (अर्थात्-अपने पूर्ववर्ती द्वीप से दुगुने प्रमाण वाले हैं) यावत् इस तिर्यकुलोक में असंख्येय द्वीप-समुद्र हैं / सबसे अन्त में 'स्वयम्भूरमणसमुद्र' है। हे श्रमणायुष्मन् ! इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे गए हैं। विवेचन-लवणादि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण–प्रस्तुत सूत्र में लवणसमुद्र से लेकर असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के स्वरूप एवं प्रमाण का निरूपण किया गया है / लवणसमद्र का स्वरूप-लवणसमुद्र की जलवद्धि ऊर्ध्वदिशा में 16000 योजन से कुछ अधिक होती है, इसलिए यह उछलते हए जल वाला है:सम जल बाला (प्रस्ततोदक) नहीं / था उसमें महापातालकलशों में रही हुई वायु के क्षोभ से वेला (ज्वार) पाती है, इस कारण लवणसमुद्र का पानी क्षुब्ध होता है, अतएव वह अक्षुब्धजल वाला नहीं है / अढाई द्वीप और दो समुद्रों से बाहर के समुद्र-बाहर के समुद्रों के वर्णन के लिए मूलपाठ में जीवाभिगम सूत्र का निर्देश किया है। संक्षेप में, वे समुद्र क्षुब्धजल वाले नहीं, अक्षुब्ध जल वाले हैं, तथा वे उछलते हुए जल वाले नहीं, अपितु समजल वाले हैं, पूर्ण, पूर्ण प्रमाण, यावत् पूर्ण भरे हुए घड़े के समान हैं / लवणसमुद्र में महामेघ संस्वेदित, सम्मूच्छित होते हैं, वर्षा बरसाते हैं, किन्तु बाहर समुद्रों में ऐसा नहीं होता। बाहरी समुद्रों में बहुत-से उदकयोनि के जीव और पुद्गल उदकरूप में अपक्रमते हैं, व्युत्क्रमते हैं, च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं / इन सब समुद्रों का संस्थान समान है किन्तु विस्तार की अपेक्षा ये पूर्व-पूर्व द्वीप से दुगने-दुगने होते चले गए हैं / 1. 'जाव' पद से यह पाठ जानना चाहिए-“पवित्थरमाणा 2 बहुउप्पलपउसकुमुयनलिणसुभगसोगंधियडरीय महापुडरीयसतपत्रासहस्सपत्तकेसरफुल्लोवडया उब्भासमाणवीडया।" 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 282 (क) भगवतीसूत्र (टीकातुवादटिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 334-335 (ख) जीवाभिगमसूत्र वृत्तिसहित प्रतिपत्ति 3, पत्रांक 320-321 (ग) तत्त्वार्थसूत्र सभाष्य, प्र. 3, सू. 8 से 13 तक Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-८] [61 द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों का निर्देश-- . 36. दीव-समुद्दा माते ! केवतिया नामधेज्जेहि पण्णता? गोयमा! जावतिया लोए सुभा नामा, सुभा रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा एवतिया णं दीव-समुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णता / एवं नेयव्वा सुभा नामा, उद्धारो परिणामो सम्वजीवाणं / सेवं भते ! सेवं भते ! त्ति। ॥छ8 सए : अट्ठमो उद्देसमो समत्तो॥ [36 प्र.] भगवन् ! द्वीप-समुद्रों के कितने नाम कहे गए हैं ? [36 उ.] गौतम ! इस लोक में जितने भी शुभ नाम हैं, शुभ रूप, शुभ रस, शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श हैं, उतने ही नाम द्वीप-समुद्रों के कहे गए हैं। इस प्रकार सब द्वीप-समुद्र शुभ नाम वाले जानने चाहिए / तथा उद्धार, परिणाम और सर्व जीवों का (द्वोपों एवं समुद्रों में) उत्पाद जानना चाहिए। ' 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् श्री गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विवेचन द्वीपों समुद्रों के शुभनामों का निर्देश-प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। द्वीप-समुद्रों के शुभ नाम-ये समुद्र बहुत-से उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुन्दर एवं सुगन्धित पुण्डरीक-महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, केशर एवं विकसित पद्मों आदि से युक्त हैं। स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि सुशब्द, पीतादि सुन्दर रूपवाचक शब्द, कपूर आदि सुगन्धवाचक शब्द, मधुररसवाचक शब्द तथा नवनीत आदि मृदुस्पर्शवाचक शब्द जितने भी इस लोक में हैं, उतने ही शुभ नामों वाले द्वीप-समुद्र हैं। ये द्वीप-समुद्र उद्धार, परिणाम और उत्पाद वाले-ढाई सूक्ष्म उद्धार सागरोपम, या 25 कोड़ा-कोड़ी सूक्ष्म उद्धार पल्योपम में जितने समय होते हैं, उतने लोक में द्वीप समुद्र हैं, ये द्वीपसमुद्र पृथ्वी, जल, जीव और पुद्गलों के परिणाम वाले हैं, इनमें जीव पृथ्वीकायिक से यावत् त्रसकायिक रूप में अनेक या अनन्त वार पहले उत्पन्न हो चुके हैं। 3 / छठा शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 282 (ख) जीवाभिगम. सबत्तिक पत्र-३७२-३७३ (ग) तत्त्वार्थ. अ. 3, सू. 7 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'कम्म' नवम उद्देशक : कर्म ज्ञानावरणीयबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्ध-प्ररूपरणा--- 1. जीवे गं भते ! णाणावरणिज्नं कम्मं बंधमाणे कति कम्मष्पगडीमो बंधइ ? गोयमा! सत्तविहबंधए वा, प्रदविहबंधए वा, छविहबंधए का / बंधुद्दे सो पण्णवणाए नेयम्यो। [1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ जीव कितनी कर्म-प्रकृतियों को बांधता है ? [1 उ.] गौतम ! सात प्रकृतियों को बांधता है, आठ प्रकार को बांधता है अथवा छह प्रकृतियों को बांधता है / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का बन्ध-उद्देशक कहना चाहिए। विवेचन-ज्ञानावरणीय बन्ध के साथ अन्यकर्मबन्धप्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र में ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के साथ-साथ अन्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को प्ररूपणा की गई है। स्पष्टीकरण-जिस सथय जीव का आयुष्यबन्धकाल नहीं होता, उस समय वह ज्ञानावरणीय को बांधते समय प्रायुष्यकर्म को छोड़कर सात कर्मों को बांधता है, आयुष्य के बन्धकाल में पाठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है, किन्तु सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान की अवस्था में मोहनीय कर्म और आयुकर्म को नहीं बांधता, इसलिए वहाँ ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुआ जीव छह कर्मप्रकृतियों को बांधता है।' बाह्यपुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव को एक वर्णादि के पुदगलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वरण एवं परिगमन-सामर्थ्य - 2. देवे णं भते ! महिटीए जावमहाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियादिइत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउवित्तए? 1. (क) भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 283 (ख) प्रज्ञापनासुत्र, पद 24, बन्धोद्दशक (मु. पा. टि.) विभाग 1, 5.385 से 387 तक (ग) प्रज्ञापनासूत्रीय बन्धोद्देशक का सारांश--- (प्र.) भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुना नैरयिक ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? (उ.) गौतम ! वह या तो पाठ प्रकार के कर्म को बांधता है या सात प्रकार के कर्म बांधता है। इसी प्रकार यावत वैमानिक तक कहना। विशेष यह है कि जैसे समुच्चय जीव के लिए कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए कहना; कि वह पाठ, सात या छह प्रकृतियों को बांधता है। -प्रज्ञापना पद 24, बन्धोद्देशक 2. 'नाव' पद से सूचित पाठ-"महज्जुइए महाबले महाजसे महेसक्खे (महासोक्खे-महासरखे) महागुभागे" जीवाभिगमसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 109 Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-९] गोयमा ! नो इण8०। [2.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महानुभाग देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले और एक रूप (एक आकार वाले) (स्वशरीरादि) की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 3. देवे णं भते ! बाहिरए पोग्गले परियादिइत्ता पभू ? हंता, पभू / [3 प्र.] भगवन् ! क्या वह देव बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (उपर्युक्त रूप से) विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [3 उ.] हाँ गौतम ! (वह ऐसा करने में) समर्थ है / 4. से गंभ ते ! कि इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति, तत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुव्वति, अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विउन्नति ? __ गोयमा! नो इहगते पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति, तस्थगते पोग्गले परियादिइत्ता विकुव्वति, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विउव्वति / [4 अ.] भगवन् ! क्या वह देव इहगत (यहाँ रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है अथवा तत्रगत (वहाँ-देवलोक में रहे हुए) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है या अन्यत्रगत (किसी दूसरे स्थान में रहे हुए ) पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? [4 उ. गौतम ! वह देव, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता, वह वहाँ (देवलोक में रहे हुए तथा जहाँ विकुर्वगा करता है, वहाँ) के पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं करता / / 5. एवं एतेणं गमेणं जाव एगवणं एगरूवं, एगवणं अणेगरूवं, प्रणेगवण्णं एगरूवं, अणेगवण्णं अणेगरूवं, चउण्हं चउभंगो। [5] इस प्रकार इस गम (आलापक) द्वारा विकुर्वणा के चार भंग कहने चाहिए (1) एक वर्ण बाला, एक आकार (रूप) वाला, (2) एक वर्ण वाला अनेक प्राकार वाला, (3) अनेक वर्ण वाला और एक आकार वाला, तथा (4) अनेक वर्ण बाला, और अनेक आकार वाला। (अर्थात्वह इन चारों प्रकार के रूपों को विकुर्वित करने में समर्थ है।) 6. देवे णं मते ! महिडीए जाव महाणभागे बाहिरए पोग्गले अपरियादिइत्ता पमू कालगं पोग्गलं नोलगपोग्गलत्ताए परिणामित्तए ? नोलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामित्तए ? गोयमा ! नो इ8 सम8, परियादितित्ता पभू / [6 प्र.] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महानुभाग वाला देव, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना काले पुद्गल को नीले पुद्गल के रूप में, और नीले घुद्गल को काले पुद्गल के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 उ.] गौतम ! (बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना) यह अर्थ समर्थ नहीं है; किन्तु बाहरी पुद्गलों को ग्रहण करके देव वैसा करने में समर्थ है। 7. से गं भाते ! कि इहगए पोग्गले० तं चेव, नवरं परिणामेति ति भाणियन्वं / [7 प्र.] भगवन् ! वह देव इहगत, तत्रगत या अन्यत्रगत पुद्गलों में से किन) को ग्रहण करके वैसा करने में समर्थ है ? [7 उ.] गौतम ! वह इहगत और अन्यत्रगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा नहीं कर सकता, किन्तु तत्र (देवलोक-) गत पुद्गलों को ग्रहण करके वैसा परिणत करने में समर्थ है / [विशेष यह है कि यहाँ विकुक्ति करने में' के बदले 'परिणत करने में कहना चाहिए / ] 8. [1] एवं कालगपोग्गलं. लोहियपोग्गलत्ताए। [2] एवं कालएण जाव' सुक्किलं / [8-1.] इसी प्रकार काले पुद्गल को लाल पुद्गल के रूप में (परिणत करने में समर्थ है।) [8-2.] इसी प्रकार काले पुद्गल के साथ यावत् शुक्ल पुद्गल तक समझना। 6. एवं गोलएणं जाव सुक्किलं / [9] इसी प्रकार नीले पुद्गल के साथ यावत् शुक्ल पुद्गल तक जानना / 10. एवं लोहिएणं जाव सुविकलं / [10] इसी प्रकार लाल पुद्गल को यावत् शुक्ल तक (परिणत करने में समर्थ है।) 11. एवं हालिद्दएणं जाव सुक्किलं / [11] इसी प्रकार पीले पुद्गल को यावत् शुक्ल तक (परिणत करने में समर्थ है; यों कना चाहिए।) 12. एवं एताए परिवाडीए गंध-रस-फास० कक्खडफासपोग्गलं मउयफासपोग्गलत्ताए / एवं दो दो गल्य-लहुय 2, सीध-उसिण 2, णिद्ध-लुक्ख 2, वण्णाइ सव्वत्थ परिणामेइ / पालावगा य दो दोपोग्गले अपरियादिइत्ता, परियादिइत्ता। [12] इसी प्रकार इस क्रम (परिपाटी) के अनुसार गन्ध, रस और स्पर्श के विषय में भी समझना चाहिए / यथा-(यावत्) कर्कश स्पर्शवाले पुद्गल को मृदु (कोमल) स्पर्शवाले (पुद्गल में परिणत करने में समर्थ है।) इसी प्रकार दो-दो विरुद्ध गुणों को अर्थात् गुरु और लयु, शीत और उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, वर्ण आदि को वह सर्वत्र परिणमाता है / 'परिणमाता है' इस क्रिया के साथ यहाँ इस प्रकार दो-दो पालापक कहने चाहिए; यथा--(१) पुद्गलों को ग्रहण करके परिणमाता है, (2) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना नहीं परिणमाता / 1. 'जाव' पद से यहां सर्वत्र मागे-मागे के सभी वर्ण जान लेने चाहिए। Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-९] [ 95 . विवेचन–बाह्य पुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव को एक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के पुद्गलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन सामर्थ्य प्रस्तुत 11 सूत्रों में महद्धिक देव के द्वारा बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्णादि के पुद्गलों को एक या अनेक अन्य वर्णादि के रूप में विकुक्ति अथवा परिमित करने के सामर्थ्य के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-महद्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके उत्तरवैक्रियरूप बना सकता (विकुर्वणा करता) है और फिर दूसरे स्थान में जाता है, किन्तु इगत अर्थात्-प्रश्नकार के समीपस्थ क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को तथा अन्यत्रगत-प्रज्ञापक के क्षेत्र और देव के स्थान से भिन्न क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा नहीं कर सकता। विभिन्न वर्णादि के 25 पालापकसूत्र-मूलपाठ में उक्त अतिदेशानुसार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के आलापकसूत्र इस प्रकार बनते हैं... (1) पांच वर्षों के 10 द्विकसंयोगी घालायकसूत्र-(१) काले को नीलरूप में, (2) काले को लोहितरूप में, (3) काले को हारिद्ररूप में, (4) काले को शुक्लरूप में, (5) नीले को लोहितरूप में, (6) नील को हारिद्ररूप में, (7) नीले को शुक्लरूप में, (8) लोहित को हारिद्ररूप में, (6) लोहित को शुक्लरूप में, तथा (11) हारिद्र को शुक्लरूप में परिणमा सकता है। (2) दो गंध का एक पालापकसूत्र-(१) सुगन्ध को दुर्गन्धरूप में, अथवा दुर्गन्ध को सुगन्धरूप में। (3) पांच रस के दस पालापकसूत्र---(१) तिक्त को कटुरूप में, (2) तिक्त को कषायरूप में, (3) तिक्त को अम्लरूप में, (5) तिक्त को मधुररूप में, (5) कटु को कषायरूप में, (6) कटु को अम्लरूप में, (7) कटु को मधुर रूप में, (8) कषाय को अम्लरूप में, (9) कषाय को मधुररूप में, और (10) अम्ल को मधुररूप में परिणमा सकता है। 4) पाठ स्पर्श के चार पालापकसत्र-(१) गुरु को लघुरूप में अथवा लघ को गहरूप में, (2) शीत को उष्णरूप में या उष्ण को शीतरूप में, (3) स्निग्ध को रूक्षरूप में या रूक्ष को स्निग्धरूप में, और (4) कर्कश को कोमलरूप में या कोमल को कर्कशरूप में परिणमा सकता है / अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यायुक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यावाले देवादि को जाननेदेखने की प्ररूपरणा 13. [1] अविसुद्धलेसे णं भंते ! देवे असमोहतेणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं देवि अन्नयर जाणति पासति ? णो इण? समट्ठ / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या अविशुद्ध लेश्यावाला देव असमवहत-(उपयोगरहित) प्रात्मा 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 283 2. भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड-२, पृ. 339 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से अविशुद्ध लेश्यावाले देव को या देवी को या अन्यतर को (-इन दोनों में से किसी एक को) जानता और देखता है ? [13-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। 12) एवं अविसुद्धलेसे. असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं० ? नो इण8 सम8२। अविसुद्धलेसे० समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ? नो इण? सम8३ / अविसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ? नो इण8 सम₹४। अविसुद्धलेसे० समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं० ? णो इण8 सम? 5 // अविसुद्धलेसे समोहयासमोहतेणं० विसुद्धलेसं देवं० ? नो इण? सम8६ / विसुद्धलेसे० असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देव० ? नो इण? सम8७। विसुद्धलेसे० असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ? नो इण8 सम8 / विसुद्धलेसे णं भंते ! देवे समोहएणं० प्रविसुद्धलेसं देवं० जाणइ० ? हंता, जाणइ० 6 / एवं विसुद्धलेसे० समोहएणं० विसुद्धलेसं देवं० जाणइ० ? हता, जाणइ० 10 / विसुद्धलेसे० समोहयासमोहएणं प्रप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं जाणइ 2 ? हंता, जाणइ० 11 // विसुद्धलेसे० समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ?हंता, जागई० 12 // एवं हेटिल्लएहि अहि न जाणइ न पासइ, उरिल्लएहिं चहि जाणइ पासइ / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥छ? सए : नवमो उद्देसो समत्तो॥ [13-2] २-इसी तरह अविशुद्ध लेश्यावाला देव अनुपयुक्त (असमवहत) अात्मा से, विशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को या अन्यतर को जानता और देखता है ? 3. अविशुद्ध लेश्यावाला देव उपयुक्त प्रात्मा से अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 4. अविशुद्ध लेश्यावाला देव उपयुक्त प्रात्मा से विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 5. अविशुद्ध लेश्यावाला देव उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 6. अविशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 7. विशुद्ध लेश्यावाला देव, अनुपयुक्त प्रात्मा द्वारा, अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 1-2. इन दो चिह्नों के अन्तर्गत पाठ इस वाचना की प्रति में नहीं है, वाचनान्तर की प्रति में है, ऐसा वृत्तिकार का मत है। -सं. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-९] [ 97 8. विशुद्ध लेश्यावाला देव, अनुपयुक्त आत्मा द्वारा, विशुद्ध लेश्यावाले, देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? [आठों प्रश्नों का उत्तर] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-नहीं जानता-देखता।) [6 प्र.] भगवन् ! विशुद्ध लेश्यावाला देव क्या उपयुक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? [9 उ.] हाँ गौतम ! ऐसा देव जानता और देखता है। [10 प्र.] इसी प्रकार क्या विशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्त आत्मा से विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? [10 उ.] हाँ गौतम ! वह जानता-देखता है / [11 प्र.] विशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से, अविशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? / [12 प्र.] विशुद्ध लेश्यावाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से, विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? 11-12 उ.] हाँ गौतम ! वह जानता और देखता है। यों पहले (निचले) जो पाठ भंग कहे गए हैं, उन आठ भंगों वाले देव नहीं जानते-देखते / किन्तु पीछे (ऊपर के) जो चार भंग कहे गए हैं, उन चार भंगों वाले देव, जानते और देखते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यायुक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्यावाले देवादि को जानने-देखने सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र में मुख्यतया 12 विकल्पों द्वारा देवों द्वारा देव, देवी एवं अन्यतर को जानने-देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। तीन पदों के बारह विकल्प (1) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव अनुपयुक्त आत्मा से अशुद्धलेश्यावाले देवादि को......" (2) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव अनुपयुक्त प्रात्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को....... (3) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्त आत्मा से अविशुद्धलेश्यावाले देवादि को........ (4) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्त प्रात्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को...... (5) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से अविशुद्धलेश्यावाले देवादि को..... (6) अविशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्तानुपयुक्त प्रात्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को...... (7) विशुद्धलेश्यायुक्त देव अनुपयुक्त प्रात्मा से अविशुद्धलेश्यावाले देवादि को...... (8) विशुद्धलेश्यायुक्त देव अनुपयुक्त आत्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को ....... (9) विशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्त आत्मा से अविशुद्धलेश्यावाले देवादि को... (10) विशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्त आत्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को ....... Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (11) विशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से अविशुद्धलेश्यावाले देवादि को." (12) विशुद्धलेश्यायुक्त देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से विशुद्धलेश्यावाले देवादि को...... अविशुद्धलेश्यावाले देव विभंगज्ञानी होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त 6 विकल्पों में उक्त देव मिथ्यादृष्टि होने के कारण देव-देवी आदि को नहीं जान-देख सकते। तथा सातवें-पाठवें विकल्प में उक्त देव अनुपयुक्तता के कारण जान-देख नहीं पाते / किन्तु अन्तिम चार विकल्पों में उक्त देव एक तो, सम्यग्दृष्टि हैं, दुसरे उनमें से 8वें, 103 विकल्पों में उक्त देव उपयुक्त भी है, तथा 11, १२वें विकल्प में उक्त देव उपयुक्तानुपयुक्त में उपयुक्तपन सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञान का कारण है / इसलिए पिछले चारों विकल्प वाले देव, देवादि को जानते-देखते हैं।' ॥छठा शतक : नवम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 284 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा. 2, पृ. 1066 Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्दसओ : 'अन्नउत्थी' दशम उद्देशक : अन्यतीर्थी अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्व जीवों के सुखदुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपरणा 1. [1] अन्नउत्थिया गंभंते ! एवमाइक्खंति जाव परुति-जावतिया रायगिहे नयरे जीवा एवतियाणं जीवाणं तो चक्किया केइ सुहं वा दुहं वा जाव कोलढिगमातमवि निष्कावमातमवि कलममायमवि मासमायमवि मुग्गमातमवि जूयामायमवि लिक्खामायमवि अभिनिवदृत्ता उवदंसित्तए, से कहमेयं माते ! एवं? मोयमा ! जंणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोतमा ! एबमाइक्खामि जाव परूवेमि सम्वलोए वि य णं सबजीवाणं णो चक्किया केइ सुहं वा तं चेव जाव उवदंसित्तए। [1-1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर में जितने जीव हैं, उन सबके दुःख या सुख को बेर की गुठली जितना भी, बाल (निष्पाव नामक धान्य) जितना भी, कलाय (गुवार के दाने या काली दाल अथवा मटर या चावल) जितना भी, उड़द के जितना भी, मूग-प्रमाण, यूका (जू) प्रमाण, लिक्षा (लोख) प्रमाण भी बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता / भगवन् ! यह बात यों कैसे हो सकती है ? [1-1 उ.] गौतम ! जो अन्यतीथिक उपर्युक्त प्रकार से कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि (केवल राजगृह नगर में ही नहीं) सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष उपयुक्तरूप से यावत् किसी भी प्रमाण में बाहर निकाल कर नहीं दिखा सकता। [2] से केण?णं० ? गोधमा ! अयं णं जंबहीवे 2 जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते / देवे गं महिडोए जाव महाणुभागे एग महं सविलेवणं गंधसमुम्गगं गहाय तं वदालेति, तं अवदालित्ता जाव इणामेव कटु केवलकप्पं जंबुद्दीव 2 तिहिं अच्छरानिवातेहिं तिसत्तहुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हवमागच्छेज्जा, से नणं गोतमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दोवे 2 तेहि धाणपोग्गलेहि फुडे ? हंता, फुडे। चक्किया णं गोतमा ! केइ तेसि धाणपोग्गलाणं कोलद्वियमायमवि जाव उवदं सित्तए ? णो इण? सम8 / से तेण?णं जाव उवदंसेत्तए। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [1-2 प्र] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [1-2 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि 3 लाख 16 हजार दो सौ 27 योजन, 3 कोश, 128 धनुष और 13 अंगुल से कुछ अधिक है / कोई महद्धिक यावत् महानुभाग देव एक बड़े विलेपन वाले गन्धद्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाड़े और उघाड़ कर तीन चटकी बजाए, उतने समय में उपयूक्त जम्बूद्वीप की 11 बार परिक्रमा करके वापस शीघ्र आए तो हे गौतम ! (मैं तुम से पूछता हूँ-) उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं ? (गौतम-) हाँ भगवन् ! वह स्पृष्ट हो गया / [भगवान्---] हे गौतम ! कोई पुरुष उन गन्धपुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, यावत् लिक्षा जितना भी दिखलाने में समर्थ है ? [गौतम--] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [भगवान्---] हे गौतम ! इसी प्रकार जीव के सुख-दुःख को भी बाहर निकाल कर बतलाने में, यावत् कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है। विवेचन–अन्यतीथिकमत-निराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्वजीवों के सुख-दुःख को प्रणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र में राजगृहवासी जीवों के सुख-दुःख को लिक्षाप्रमाण भी दिखाने में असमर्थता की अन्यतीथिकप्ररूपणा का निराकरण करते हुए सम्पूर्ण लोक में सर्वजीवों के सुख दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की सयुक्तिक भगवद्-मत प्ररूपणा प्रस्तुत की गई है। दृष्टान्त द्वारा स्वमत-स्थापना-जैसे गन्ध के पुद्गल मूर्त होते हुए भी अतिसूक्ष्म होने के कारण अमूर्ततुल्य हैं, उन्हें दिखलाने में कोई समर्थ नहीं, वैसे ही समग्र लोक के सर्वजीवों के सुखदुःख को भी बाहर निकाल कर दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है।' जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बन्ध में अनेकान्त शैली में प्रश्नोत्तर 2. जीवे णं मते ! जोवे ? जीवे जीवे ? गोयमा! जोवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे / [2 प्र. भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है या चैतन्य जीव है ? [2 उ.] गौतम ! जीव तो नियमतः (निश्चित रूप से) जीव (चैतन्य स्वरूप है) और जीव (चैतन्य) भी निश्चितरूप से जीवरूप है। 3. जीवे गंभते ! नेरइए ? नेरइए जीवे? गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए / [3 प्र.) भगवन् ! क्या जीव नैरयिक है या नैरयिक जीव है ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 285 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१०] [101 [3 उ.] गौतम ! नैरयिक तो नियमतः जीब है, और जीव तो कदाचित् नैरयिक भी हो सकता है, कदाचित् नैरयिक से भिन्न भी हो सकता है। 4. जीवे णं भते ! असुरकुमारे ? असुरकुमारे जीवे ? गोतमा ! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय असुरकुमारे, सिय णो असुरकुमारे। [4 प्र.] भगवन् ! क्या जीव, असुरकुमार है या असुरकुमार जीव है ? [4 उ.] गौतम ! असुरकुमार तो नियमतः जीव है, किन्तु जीव तो कदाचित् असुरकुमार भी होता है, कदाचित् असुरकुमार नहीं भी होता / 5. एवं वंडमो यध्वो जाव वेमाणियाणं / [5] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डक (आलापक) कहने चाहिए / 6. जीवति भते ! जीवे ? जीवे जीवति ? गोयमा ! जीवति ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवति, सिय नो जीवति / [6 प्र.] भगवन् ! जो जीता-प्राण धारण करता है, वह जीव कहलाता है, या जो जीव है, वह जीता-प्राण धारण करता है ? [6 उ.] गौतम ! जो जीता-प्राण धारण करता है, वह तो नियमतः जीव कहलाता है, किन्तु जो जीव होता है, वह प्राण धारण करता (जीता) भी है और कदाचित् प्राण धारण नहीं भी करता। 7. जीवति भते ! नेरतिए ? नेरतिए जीवति ? गोयमा ! नेरतिए ताव नियमा जीवति, जीवति पुण सिय नेरतिए, सिय अनेरइए / [7 प्र.] भगवन् ! जो जीता है, वह नैरयिक कहलाता है, या जो नरयिक होता है, वह जीता-प्राण धारण करता है ? [7 उ.] गौतम ! नैरयिक तो नियमतः जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी होता है, और अनैरयिक भी होता है। 8. एवं दंडो नेयम्वो जाय वेमाणियाणं / [8] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक (पालापक) कहने चाहिए / 6. भवसिधीए णं भते ! नेरइए ? नेरइए भवसिधीए ? गोयमा ! भवसिद्धीए सिय नेरइए, सिय अनेरइए / नेरतिए वि य सिय भवसिद्धीए, सिय प्रभवसिद्धीए। [6 प्र] भगवन् ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक होता है, या जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है ? Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] गौतम ! जो भवसिद्धिक (भव्य) होता है, वह नैरयिक भी होता है, और अनैरयिक भी होता है। तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक भी होता है और अभवसिद्धिक भी होता है। 10. एवं वंडपो जाब वेमाणियाणं / [10] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक (बालापक) कहने चाहिए / विवेचन-जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बन्ध में अनेकान्तशैली में प्रश्नोत्तरप्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 2 से 10 तक) में जीव के सम्बन्ध में निम्तोक्त अंकित किये गए हैं--- 1. जीव नियमत: चैतन्यरूप है और चैतन्य भी नियमतः जीव-स्वरूप है। 2. नैरयिक नियमतः जीव है, किन्तु जीव कदाचित् नैरयिक और कदाचित् अनैरयिक भी हो सकता है। 3. असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक नियमत: जीव हैं, किन्तु जीव कदाचित् असुरकुमारादि होता है, कदाचित् नहीं भी होता। 4. जो जीता (प्राण धारण करता) है, वह निश्चय ही जीव है, किन्तु जो जीव होता है, वह (द्रव्य-) प्राण धारण करता है और नहीं भी करता। 5. नैरयिक नियमतः जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी हो सकता है, अनैरयिक भी / यावत् वैमानिक तक यही सिद्धान्त है। 6. जो भवसिद्धिक होता है, वह नै रयिक भी होता है, अनैरयिक भी। तथा जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है, अभवसिद्धिक भी।' दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य-दूसरे प्रश्न में जो दो बार जीवशब्द का प्रयोग किया गया है, उसमें से एक जीव शब्द का अर्थ 'जीव' (चेतन-धर्मीद्रव्य) है, जबकि दूसरे जीवशब्द का अर्थ चैतन्य (धर्म) है / जीव और चैतन्य में अविनाभाव, सम्बन्ध बताने हेतु यह समाधान दिया गया है। अर्थात-जो जीव है, वह चैतन्यरूप है और जो चैतन्यरूप है, वह जीव है। 'जीव, कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता; इसका तात्पर्य-अजीव के तो प्रायुष्यकर्म न होने से वह प्राणों को धारण नहीं करता, किन्तु जीवों में भी जो संसारी जीव हैं, वे ही प्राणों धारण करते हैं, किन्तु जो सिद्ध जीव हैं, वे जीव होते हुए भी द्रव्यप्राणों को धारण नहीं करते / इस अपेक्षा से कहा गया है-जो जीव होता है, वह जीता (प्राण धारण करता) भी है, नहीं भी जीता। एकान्तदुःखवेदनरूप अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदनप्ररूपरणा-- 11. [1] अन्नउस्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति--"एवं खलु सम्वे पाणा सवे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेति से कहमेतं माते ! एवं ? 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त [मूलपाठ टिप्पणयुक्त] भा. 1, पृ. 270-271 2. भगवती० अ. वृत्ति, पत्रांक 286 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१०] [103 गोतमा! जंणं ते अन्न उत्थिया जाव मिच्छ ते एवमाहंसु / अहं पुण गोतमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-प्रत्येगइया पाणा भूया जोवा सत्ता एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, ग्राहच्च सातं / अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतसातं वेदणं वेति, प्राहच्च असायं वेयणं वेदेति / अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता वेमाताए वेयणं वेयंति, प्राहच्च सायमसायं / [11-1 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि सभी प्राग, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्तदुःखरूप वेदना को वेदते (भोगते- अनुभव करते हैं, तो भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? [11-1 उ.] गौतम ! अन्यतीथिक जो यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं / हे गोतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ--कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्व, एकान्त दुःखरूप वेदना वेदते हैं, और कदाचित् साता (सुख) रूप वेदना भी वेदले हैं; कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, एकान्त साता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं और कदाचित् असाता (दुःख) रूप वेदना भी वेदते हैं; तथा कितने ही प्राण, भूत, जीव और सत्त्व विमात्रा (विविध प्रकार) से वेदना वेदते हैं; (अर्थात्--) कदाचित् सातारूप और कदाचित् असातारूप (बेदना वेदते हैं / ) [2] से केण?णं ? गोयमा ! नेरइया एगंतदुक्खं वेयणं वेयंति, पाहच्च सातं। भवणवति-वाणमंतर-जोइसवेमाणिया एगतसातं वेदणं वेदेति, पाहच्च असायं / पुढविक्काइया जाव मणुस्सा बेमाताए वेदणं धेर्देति, पाहच्च सातमसातं / से तेणढणं० / [11-2 प्र.। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कथन किया जाता है ? [11-2 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव, एकान्तदुःखरूप वेदना वेदते हैं, और कदाचित् सातारूप वेदना भी वेदते हैं / भवनपति, वाणब्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक एकान्तसाता (सुख) रूप वेदना वेदते हैं, किन्तु कदाचित् असातारूप वेदना भी वेदते हैं। तथा पृथ्वीका यिक जीवों से लेकर मनुष्यों पर्यन्त विमात्रा से (विविध रूपों में) बेदना वेदते हैं। (अर्थात ) कदाचित् सुख और कदाचित दुःख वेदते हैं / इसी कारण से, हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है। विवेचन-एकान्तदुःखवेदनरूप अन्यतीथिकमत-निराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुखदुःखादिवेदना-प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों की सब जीवों द्वारा एकान्तदुःखवेदन की मान्यता का खण्डन करते हुए अनेकान्तशैली से दुःखबहुल सुख, सुखबहुल दुःख एवं सुख-दुःखमिश्र के वेदन का निरूपण किया गया है। समाधान का स्पष्टीकरण-नैरयिक जीव एकान्त दुःख वेदते हैं, किन्तु तीर्थंकर भगवान के जन्मादि कल्याणकों के अवसर पर कदाचित् सुख भी बेदते हैं / देव एकान्तसुख वेदते हैं, किन्तु पारस्परिक आहनन (संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष आदि) में, तथा प्रिय वस्तु के वियोगादि में असाता वेदना भी वेदते हैं / पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर मनुष्यों तक के जीव किसी समय सुख और किसी समय दुःख, कभी सुख-दुःख-मिश्रित वेदना वेदते हैं।' 1. भगवती० अ० वृत्ति, पत्रांक 286 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौबीस दण्डकों में आत्म-शरीरक्षेत्रावगाढ़पुदगलाहार प्ररूपणा 12. नेरतिया गं भते ! जे पोग्गले प्रत्तमायाए श्राहारेति ते किं प्रायसरीरक्खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ? प्रणतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए श्राहारेति ? परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए प्राहारेंति ? गोतमा ! प्रायसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए प्राहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोगले प्रत्तमायाए प्राहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे। [12 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, जिन पुद्गलों का आत्मा (अपने) द्वारा ग्रहणते-पाहार करते हैं, क्या वे आत्म-शरीर क्षेत्रावगाढ़ (जिन आकाशप्रदेशों में शरीर है, उन्हीं प्रदेशों में स्थित) पुद्गलों को प्रात्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? या अनन्तरक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं ? अथवा परम्परक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को प्रात्मा द्वारा करते हैं ? [12 उ.] गौतम ! वे आत्म-शरीर-क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं, किन्तु न तो अनन्तर क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं और न ही परम्पर. क्षेत्रावगाढ़ पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं / 13. जहा नेरइया तहा जाब बेमाणियाणं दंडश्रो / [13] जिस प्रकार नैरयिकों के लिए कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त दण्डक (आलापक) कहना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकों में प्रात्मशरीरक्षेत्रावगाढ़पुद्गलाहार-प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों द्वारा शास्त्रकार ने समस्त संसारी जीवों के द्वारा प्राहाररूप में ग्रहण योग्य पुद्गलों के सम्बन्ध में प्रश्न उठा कर स्वसिद्धान्तसम्मत निर्णय प्रस्तुत किया है। निष्कर्ष-जीव स्वशरीरक्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों को आत्मा द्वारा ग्रहण करते हैं, किन्तु स्वशरीर से अनन्तर और परम्पर क्षेत्र में रहे हुए पुद्गलों का प्रात्मा द्वारा आहार नहीं करता।' केवली भगवान का प्रात्मा द्वारा ज्ञान-दर्शनसामर्थ्य 14, [1] केवली णं भते ! प्रायाणेहि जाणति पासति ? गोतमा ! नो इण8०। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या केवली भगवान् इन्द्रियों द्वारा जानते-देखते हैं ? [14-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं. ? गोयमा ! केवली णं पुरस्थिमेणं मितं पि जाणति अमितं पि जाति जाव निम्बुडे सणे केलिस्स, से तेण?णं / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 286 Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा शतक : उद्देशक-१० ] [105 . [14-1 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? / [14-2 उ.] गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में मित (परिमित) को भी जानते हैं और अमित को भी जानते हैं; यावत् केवली का (ज्ञान और) दर्शन निवृत्त, (परिपूर्ण, कृत्स्न और निरावरण) होता है / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है। विवेचन केवली भगवान का प्रात्मा द्वारा ही ज्ञान-दर्शन-सामर्थ्य-इस सम्बन्ध में इसी शास्त्र के पंचम शतक, चतुर्थ उद्देशक में विशेष विवेचन दिया गया है / दसवे उद्देशक को संग्रहणी गाथा--- 15. गाहा ___ जीवाण सुहं दुक्खं जोवे जीवति तहेव भविया य / एगंतदुक्खवेदण अत्तमायाय केवली // 1 // सेवंमते! सेवं भते! ति० / ॥छ8 सए : दसमो उद्देसनो समत्तो। ॥छट्ठसतं समत्तं // [15 गाथार्थ-] जीवों का सुख-दुःख, जीव, जीव का प्राणधारण, भव्य, एकान्त दुःख-वेदना, आत्मा द्वारा पुद्गलों का ग्रहण और केवली, इतने विषयों पर इस दसवें उद्दे शक में विचार किया गया है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। . ॥छठा शतक : दशम उद्देशक समाप्त / छठा शतक सम्पूर्ण Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं सयं : सप्तम शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के सप्तम शतक में प्राहार, विरति, स्थावर, जीव आदि कुल दश उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक में जीव के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल का, लोकसंस्थान का, श्रमणो पाश्रय में बैठे हुए सामायिकस्थ श्रमणोपासक को लगने वाली क्रिया का, श्रमणोपासक के व्रत में अतिचार लगने के शंकासमाधान का, श्रमण-माहन को प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को लाभ का, नि:संगतादि कारणों से कर्मरहित जीव की उर्ध्वगति का, दु:खी को दुःख की स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों का, अनुपयुक्त अनगार को लगने वाली क्रिया का, अंगारादि पाहार दोषों के अर्थ का निरूपण किया गया है। * द्वितीय उद्देशक में सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी के स्वरूप का, प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का, जीव और चौबीस दण्डकों में मूल-उत्तरगुण प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी का, मूलगुण प्रत्याख्यानी आदि में अल्पबहत्व का, सर्वतः और देशतः मल-उत्तरगण-प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी के चौबीस दण्डकों में अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व का, संयत आदि एवं प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व तथा अल्पबहुत्व का एवं जीवों की शाश्वतता-अशाश्वतता का निरूपण किया गया है / * तृतीय उद्देशक में वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहार एवं सर्वमहाहार के काल की, वान स्पतिकादिक मूल जीवादि से स्पष्ट मूलादि की, पालू आदि अनन्तकायत्व एवं पृथक्कायत्व की, जीवों में लेश्या की अपेक्षा अल्प-महाकर्मत्व की, जीवों में वेदना और निर्जरा के पृथक्त्व की, और अन्त में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता की प्ररूपणा की गई है। * चतुर्थ उद्देशक में संसारी जीवों के सम्बन्ध में जीवाभिगम के अतिदेशपूर्वक वर्णन है। * पंचम उद्देशक में पक्षियों के विषय में योनिसंग्रह, लेश्य प्रादि 11 द्वारों के माध्यम से विचार किया गया है। छठे उद्देशक में जीवों के आयुष्यबन्ध और प्रायुष्यवेदन के सम्बन्ध में, जीवों की महावेदना-- अल्पवेदना के सम्बन्ध में, जीवों के अनाभोगनिर्वतित-पायुष्य तथा कर्कश-अकर्कश-वेदनीय, साता-असातावेदनीय के सम्बन्ध में प्रतिपादन किया गया है, अन्त में, छठे बारे में भारत, भारतभूमि, भारतवासी मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों के प्राचार-विचार एवं भाव-स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। * सातवें उद्देशक में उपयोगपूर्वक गमनादि करने वाले अनगार की क्रिया की, कामभोग एवं कामीभोगी के स्वरूप की, छद्मस्थ, अवधिज्ञानी एवं केवली आदि में भोगित्व की, असंज्ञी व समर्थ जीवों द्वारा अकाम एवं प्रकामनिकरण को प्ररूपणा की गई है। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : प्राथमिक 1 [107 पाठवें उद्देशक में केवल संयमादि से सिद्ध होने के निषेध की, हाथी और कुथुए के समान जीवत्व की, नैरयिकों की 10 वेदनाओं की, हाथी और कुथुए में अप्रत्याख्यान-क्रिया की समानता की प्ररूपणा है / नौवें उद्देशक में असंवत अनगार द्वारा विकुर्वणासामर्थ्य का, तथा महाशिलाकण्टक एवं रथमूसल संग्राम का सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया गया है / दशवे उद्देशक में कालोदायी द्वारा पंचास्तिकायचर्चा और सम्बुद्ध होकर प्रव्रज्या स्वीकार से लेकर संल्लेखनापूर्वक समाधिमरण तक का वर्णन है / ' 1. वियाहपण्णत्ति सुत्त, विसमाणुक्कमो 44 से 48 तक Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं सयं : सप्तम शतक सप्तम शतक की संग्रहणी गाथा-- 1. प्राहार 1 विरति 2 थावर 3 जीवा 4 पक्खी 5 य पाउ 6 अणगारे 7 // छउमत्थ 8 असंवुड 9 अन्नउत्थि 10 दस सत्तमम्मि सते // 1 // [1 गाथा का अर्थ--] 1. आहार, 2. विरति, 3. स्थावर, 4. जीव, 5. पक्षी, 6. आयुष्य, 7. अनगार, 8. छद्मस्थ, 6. असंवृत और 10. अन्यतीथिक ; ये दश उद्देशक सातवें शतक में हैं। पढमो उद्देसओ : 'आहार' प्रथम उद्देशक : 'पाहार' जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपरणा 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वदासी-- [2] उस काल और उस समय में, यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर से) इस प्रकार पूछा___३. [1] जीवे गं भंते ! के समयमणाहारए भवति ? गोयमा ! पढमे समए सिय आहारए, सिय प्रणाहारए / बितिए समए सिय प्राहारए, सिय प्रणाहारए / ततिए समए सिय प्राहारए, सिय प्रणाहारए / चउत्थे समए नियमा प्राहारए।। [3-1 प्र.] भगवन् ! (परभव में जाता हुआ) जीव किस समय में अनाहारक होता है ? [3-1 उ.] गौतम! (परभव में जाता हुआ) जीव, प्रथम समय में कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है; द्वितीय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, तृतीय समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है; परन्तु चौथे समय में नियमतः (अवश्य) आहारक होता है / [2] एवं दंडनो / जीवा य एगिदिया य चउत्थे समए / सेसा ततिए समए / [3-2] इसी प्रकार नै रयिक आदि चौवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। सामान्य जीव और एकेन्द्रिय ही चौथे समय में आहारक होते हैं / इनके सिवाय शेष जीव, तीसरे समय में आहारक होते हैं। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्दशक-१] [109 4. [1] जीवे गं भंते ! के समयं सम्वप्पाहारए भवति ? गोयमा ! पढमसमयोववन्नए वा, चरमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वापाहारए भवति / [4-1 प्र.] भगवन् ! जीव किस समय में सबसे अल्प आहारक होता है ? [4-1 उ.] गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय में अथवा भव (जीवन) के अन्तिम (चरम) समय में जीव सबसे अल्प आहार वाला होता है / [2] दंडनो भाणियन्वो जाव वेमाणियाणं / [4-2] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त चोवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। विवेचन-जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपणा-द्वितीय सूत्र से चतुर्थ सूत्र तक जीव के अनाहारकत्व और सर्वाल्पाहारकत्व की प्ररूपणा चौवीस ही दण्डकों की अपेक्षा से की गई है। परभवगमनकाल में प्राहारक-प्रनाहारक रहस्य-सैद्धान्तिक दृष्टि से एक भव का आयुष्य पूर्ण करके जीव जब ऋजुगति से परभव में (उत्पत्तिस्थान में) जाता है, तब परभवसम्बन्धी आयुष्य के प्रथम समय में ही आहारक होता है, किन्तु जब (वक्र) विग्रहगति से जाता है, तब प्रथम समय में वक्र मार्ग में चलता हुआ वह अनाहारक होता है, क्योंकि उत्पत्तिस्थान पर न पहुँचने से उसके आहरणाय पूदगला का अभाव होता है। तथा जब एक वक्र (मोड़) से दो समय में उत्प तब पहले समय में अनाहारक और द्वितीय समय में आहारक होता है. जब दो वक्रों (मोडों से तीन समय में उत्पन्न होता है, तब प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है, तीसरे में आहारक होता है, और जब तीन बक्रों से चार समय में उत्पन्न होता है, तब तीन समय तक अनाहारक और चौथे में नियमतः आहारक होता है / तीन मोड़ों का क्रम इस प्रकार होता है-सनाड़ी से बाहर विदिशा में रहा हआ कोई जीव, जब अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी से बाहर की दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह अवश्य ही प्रथम एक समय में विश्रेणी से समश्रेणी में आता है। दूसरे समय में प्रसनाड़ी में प्रविष्ट होता है, तृतीय समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है और चौथे समय में लोकनाड़ी से बाहर निकलकर उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होता है। इनमें से पहले के तीन समयों में तीन वक्र समश्रेणी में जाने से हो जाते हैं। जब सनाड़ी से निकल कर जीव बाहर विदिशा में ही उत्पन्न हो जाता है तो चार समय में चार वक्र भी हो जाते हैं, पांचवें समय में वह उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है। ऐसा कई आचार्य कहते हैं। जो नारकादि त्रस, सजीवों में ही उत्पन्न होता है, उसका गमनागमन सनाड़ी से बाहर नहीं होता, अतएव वह तीसरे समय में नियमतः आहारक हो जाता है / जैसे--कोई मत्स्यादि. भरतक्षेत्र के पूर्वभाग में स्थित है, वह वहाँ से मरकर ऐरक्तक्षेत्र के पश्चिम भाग में नीचे नरक में उत्पन्न होता है, तब एक ही समय में भरतक्षेत्र के पूर्व भाग से पश्चिम भाग में जाता है, दूसरे समय में ऐरवत क्षेत्र के पश्चिम भाग में जाता है और तीसरे समय में नरक में उत्पन्न होता है / इन तीन समयों में से प्रथम दो में वह अनाहारक और तीसरे समय में आहारक होता है। सर्वाल्पाहारता : दो समयों में उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ग्रहण करने का हेतभूत शरीर अल्प होता है, इसलिए उस समय जीव सर्वाल्पाहारी होता है, तथा अन्तिम समय में प्रदेशों के Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संकुचित हो जाने एवं जीव के शरीर के अल्प अवयवों में स्थित हो जाने के कारण जीव सर्वाल्पाहारी होता है। अनाभोगनिर्वतित पाहार की अपेक्षा से यह कथन किया गया है। क्योंकि अनाभोगनिवर्तित आहार बिना इच्छा के अनुपयोगपूर्वक ग्रहण किया जाता है / वह उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक प्रतिसमय सतत होता है, किन्तु आभोगनिवतित आहार नियत समय पर और इच्छापूर्वक ग्रहण किया हुआ होता है।' लोक के संस्थान का निरूपण-- 5. किसंहिते णं भंते ! लोए पण्णते ? गोयमा / सुपतिढिगसंठिते लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विस्थिपणे जाव उपि उद्धनुइंगाकारसंठिते / तसि च णं सासयंसि लोगंसि हेढा विस्थिणसि जाव उम्पि उद्धमुइंगाकारसंठितंसि उत्पन्ननाणदेसणधरे रहा जिणे केवली जीवे वि जाणति पासति, अजीवे वि जाति पासति / ततो पच्छा सिझति जाव अंतं करेति / [5 प्र.] भगवन् ! लोक का संस्थान (प्राकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठिक (सकोरे) के आकार का कहा गया है। वह नीचे विस्तीर्ण (चौड़ा) है और यावत् ऊपर ऊर्ध्व मृदंग के आकार का है। ऐसे नीचे से विस्तृत यावत् ऊपर ऊर्वमृदंगाकार इस शाश्वत लोक में उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक, अहन्त, जिन, केवली, जीवों को भी जानते और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं। इसके पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। - विवेचन-लोक के संस्थान का निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में लोक के आकार का उपमा द्वारा निरूपण किया गया है। . लोक का संस्थान-नीचे एक उलटा सकोरा (शराव) रखा जाए, फिर उस पर एक सीधा और उस पर एक उलटा सकोरा रखा जाए तो लोक का संस्थान बनता है। लोक का विस्तार नीचे सात रज्जूपरिमाण है / ऊपर क्रमश: घटते हुए सात रज्जू की ऊँचाई पर एक रज्जू विस्तृत है। तत्पश्चात् उत्तरोत्तर क्रमशः बढ़ते हुए साढ़े दस रज्जू की ऊँचाई पर 5 रज्जू और शिरोभाग में 1 रज्जू विस्तार है / मूल (नीचे) से लेकर ऊपर तक की कुल ऊँचाई 14 रज्जू है। ___लोक को प्राकृति को यथार्थ रूप से समझाने के लिए लोक के तीन विभाग किये गए हैंअधोलोक, तिर्थक्लोक और ऊर्वलोक / अधोलोक का आकार. उलटे सकोरे (शराव) जैसा है, तिर्यकलोक का प्राकार झालर या पूर्ण चन्द्रमा जैसा है और ऊधर्वलोक का आकार ऊर्व मृदंग जैसा है। 1. भगनतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 287-288 2. भगवतो. (हिन्दीविवेचन युक्त) भाग-३, पृ. 1082 Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-1] [111 श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमरणोपासक को लगने वाली क्रिया 6. [1] समणोवासगस्स णं भंते ! समाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स तस्स गं भंते ! कि ईरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जति ? गोतमा! नो इरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / 6-1 प्र.] भगवन ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ साधुओं के उपासक = श्रावक) को क्या ऐपिथिको क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी किया लगती है ? [6.1 उ.] गौतम ! उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती। [7 से केण?णं जाव संपराइया ? गोयमा ! समणोवासयस्स गं सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स प्राया अहिकरणी भवति / आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो ईरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / से तेणट्ठणं जाव संपराइया० / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी (कषाय के साधन से युक्त) होती है। जिसकी प्रात्मा अधिकरण का निमित्त होती है, उसे ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है। हे गौतम ! इसी कारण से (कहा गया है कि उसे) यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है। विवेचन-श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को लगने वाली क्रियाप्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपाश्रयासीन सामायिकधारी श्रमणोपासक को साम्परायिक क्रिया लगने की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। साम्परायिक क्रिया लगने का कारण-जो व्यक्ति सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में नहीं बैठा हुआ है, उसे तो साम्परायिक क्रिया लग सकती है, किन्तु इसके विपरीत जो सामायिक करके श्रमणो. पाश्रय में बैठा है, उसे ऐपिथिक क्रिया न लग कर साम्परायिक क्रिया लगने का कारण है, उक्त श्रावक में कषाय का सद्भाव / जब तक ग्रात्मा में कषाय रहेगा, तब तक तन्निमित्तक साम्परायिक क्रिया लगेगी, क्योंकि साम्परायिक क्रिया कषाय के कारण लगती है / पाया अहिकरणी भवति-उसका प्रात्मा=जीव अधिकरण-हल, शकट आदि, कषाय के नाश्रयभत अधिकरण वाला है। श्रमरणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान 7. समणोवासगस्स गं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पच्चपखाते भवति, पुढविसमारंभे 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 289 Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र अपच्चक्खाते भवति, से य पुढवि खणमाणे अन्नयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, से णं भंते ! तं वतं प्रतिचरति ? णो इण8 समट्ट, नो खलु से तस्स अतिवाताए प्राउट्टति / [7 प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही त्रस-प्राणियों के समारम्भ (हनन) का प्रत्याख्यान कर लिया हो, किन्तु पृथ्वीकाय के समारम्भ (वध) का प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उस श्रमणोपासक से पृथ्वी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसके व्रत (वसजीववध-प्रत्याख्यान) का उल्लंघन होता है ? [7 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं; क्योंकि वह (श्रमणोपासक) त्रसजीव के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। 8. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव वणस्सतिसमारंभे पच्चक्खाते, से य पुढवि खणमाणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेज्जा, से णं मते ! तं वतं अतिचरति ? णो इण8 सम?, नो खलु से तस्स प्रतिवाताए आउटति / [8 प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही वनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हो,) (किन्तु पृथ्वी के समारम्भ का प्रत्याख्यान न किया हो,) पृथ्वी को खोदते हुए (उसके हाथ से) किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो (कट) जाए, तो भगवन् ! क्या उसका व्रत भंग होता है ? [8 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह श्रमणोपासक उस (वनस्पति) के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। विवेचन–श्रमणोपासक के व्रतप्रत्याख्यान में दोष लगने को शंका का समाधान--प्रस्तुत सूत्रद्वय में त्रसजीवों या वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का त्याग किये हुए व्यक्तियों को पृथ्वी खोदते समय किसी अस जीव का या वनस्पतिकाय का हनन हो जाने से स्वीकृत व्रतप्रत्याख्यान में अतिचार लगने का निषेध प्रतिपादित किया गया है / अहिंसावत में अतिचार नहीं लगता-त्रसजीववध का या वनस्पतिकायिक-जीववध का प्रत्याख्यान किये हुए श्रमणोपासक से यदि पृथ्वी खोदते समय किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए अथवा किसी वृक्ष की जड़ कट जाए तो उसके द्वारा गृहीत व्रत-प्रत्याख्यान में दोष नहीं लगता, क्योंकि सामान्यतः देश विरति श्रावक के संकल्पपूर्वक आरम्भी हिंसा का त्याग होता है, इसलिए जिन जीवों की हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया है, उन जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने में जब तक वह प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसका व्रतभंग नहीं होता / ' श्रमरण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमरणोपासक को लाभ 6. समणोवासए णं भते ! तहालवं समणं वा माहणं का फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलानेमाणे कि लभति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 289 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ ] [113 गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलामेमाणे तहास्वस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहि उप्पाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलमति / [प्र.] भगवन् ! तथारूप (उत्तम) श्रमण और माहन को प्रासुक (अचित्त), एषणीय (भिक्षा में लगने वाले दोषों से रहित) अशन, पान, खादिम और स्वादिम (चविध प्राहार) द्वारा प्रतिलाभित करते (बहराते-विधिपूर्वक देते हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? [उ.] गौतम ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणो. पासक, तथारूप श्रमण या माहन को समाधि उत्पन्न करता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला श्रमणोपासक उसी समाधि को स्वयं प्राप्त करता है। 10. समणोवासए गंमते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलामेमाणे कि चयति ? गोयमा! जीवियं चयति, दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लभ लभति, बोहि मुज्झति ततो पच्छा सिझति जाव अंतं करेति / [10 प्र.] भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग (या संचय) करता (देता) है ? [10 उ.] गौतम ! वह श्रमणोपासक जीवित (जीवननिर्वाह के कारणभूत जीवितवत् अन्नपानादि द्रव्य) का त्याग करता--(देता) है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है, बोधि (सम्यग्दर्शन) का बोध प्राप्त (अनुभव) करता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध (मुक्त) होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन–श्रमण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को लाभप्रस्तुत सूत्रद्वय में श्रमण या माहन को आहार देने वाले श्रमणोपासक को प्राप्त होने वाले लाभ एवं विशिष्ट त्याग-संचयलाभ का निरूपण किया गया है। चति क्रिया के विशेष प्रर्थ-मूलपाठ में पाए हए 'चयति' क्रिया पद के फलितार्थ के रूप में शास्त्रकार ने श्रमणोपासक को होने वाले 8 लाभों का निरूपण किया है 1. अन्नपानी देना-जीवनदान देना है, अतः वह जीवन का दान (त्याग) करता है। 2. जीवित की तरह दुस्त्याज्य अन्नादि द्रव्य का दुष्कर त्याग करता है। 3. त्याग का अर्थ अपने से दूर करना-विरहित करना भी है। अत: जीवित की तरह जीवित को अर्थात् कर्मों की दीर्घ स्थिति को दूर करता ह्रस्व करता है / 4. दुष्ट कर्म-द्रव्यों का संचय=दुश्चय है, उसका त्याग करता है / 5. फिर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेदरूप दुष्कर कार्य को करता है। 6. इसके फलस्वरूप दुर्लभ-- अनिवृत्तिकरणरूप दुर्लभ वस्तु को उपलब्ध करता है अर्थात् चय = उपार्जन करता है। 7. तत्पश्चात् बोधि का लाभ चय= उपार्जन = अनुभव करता है। Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 / [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8. तदनन्तर परम्परा से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् समस्त कर्मों-दुःखों का अन्त (त्याग) कर देता है / / दान विशेष से बोधि और सिद्धि की प्राप्ति-अन्यत्र भी अनुकम्पा, अकामनिर्जरा, बालतप, दानविशेष एवं विनय से बोधिगुण प्राप्ति का, तथा कई जीव उसी भव में सर्वकर्मविमुक्त होकर मुक्त हो जाते हैं, और कई जीव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर तीसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं, यह उल्लेख मिलता है। निःसंगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव को (ऊर्ध्व) गति-प्ररूपरगा--- 11. अस्थि णं मते ! अकम्मस्स गती पण्णायति ? हंता, अस्थि। [11 प्र.] भगवन् ! क्या कर्मरहित जीव की गति होती (स्वीकृत की जाती) है ? [11 उ.] हाँ गौतम ! अकर्म जीव की गति होती-स्वीकार की जाती है। 12. कहं गं माते ! अकम्मास गती पण्णायति ? गोयमा! निस्संगताए 1 निरंगणताए 2 गतिपरिणामेणं 3 बंधणछेयणताए 4 निरिंधणताए 5 पुचपभोगेणं 6 अकम्मस्स गती पण्णायति / [12 प्र.] भगवन् ! अकर्म जीव की गति कैसे होती है ? [12 उ.] गौतम ! नि:संगता से, नीरागता (निरंजनता) से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद (विच्छेद) हो जाने से, निरिन्धनता--(कर्मरूपी इन्धन से मुक्ति) होने से, और पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है। 13. [1] कहं गं भते ! निस्संगताए 1 निरंगणताए 2 गतिपरिणामेणं 3 बंधणछेयणताए 4 निरिंधणताए 5 पुवप्पनोगेणं 6 अफामस्स गती पण्णायति ? गो० ! से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तु निच्छिद्द निरुवहतं प्राणुपुवीए परिकम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दम्भेहि य कुसेहि य वेढेति, बेठित्ता अहिं मट्टियालेोह लिपति, 2 उण्हे दलयति, भूई भूई सुक्कं समाणं प्रत्थाहमतारमपोरिसिसि उदगंसि पक्षिवेज्जा, से नणं गोयमा! से तुबे तेसि अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं गुरुयत्ताए मारियत्ताए सलिलतलमतिवतित्ता अहे घरणितलपतिद्वाणे भवति ? हंता, भवति / अहे गं से तुबे तेसि अट्टाहं मट्टियालेवाणं परिक्खएणं धरणितलतिवतित्ता उपि सलिलतलपतिढाणे भवति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 289 2. 'अणु कंपऽकामणिज्जरबालतवे दाण विगए' इत्यादि तथा 'केई तेणेव भवेण निस्बुया सम्वकम्मो मुक्का / केई तइयभवेणं सिज्झिस्संति जिणसगासे // 1 // --भगवती. अ-वत्ति प. 289 में उद्धत Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [ 115 हता. भवति / एवं खलु गोयमा ! निस्संगताए निरंगणताए गतिपरिणामेणं प्रकम्मस्स गती पण्णायति / तेरा [13-1.] भगवन् ! निःसंगता से, नीरागता से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद होने से, निरिन्धनता से और पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति कैसे होती है ? / [13-1 उ.] गौतम ! जैसे, कोई पुरुष एक छिद्ररहित और निरुपहत (बिना फटे-टूटे) सूखे तुम्बे पर क्रमशः परिकर्म (संस्कार) करता-करता उस पर डाभ (नारियल की जटा) और कुश लपेटे / उन्हें लपेट कर उस पर आठ बार मिट्टी के लेप लगा दे, फिर उसे (सूखने के लिए) धूप में रख दे / बार-बार (धप में देने से) अत्यन्त सखे हए उस तम्बे को अथाह, अतरय न जा सके), पुरुष-प्रमाण से भी अधिक जल में डाल दे, तो हे गौतम ! वह तुम्बा मिट्टी के उन आठ लेपों से अधिक भारी हो जाने से क्या पानी के उपरितल (ऊपरी सतह) को छोड़ कर नीचे पृथ्वीतल पर (पैदे में) जा बैठता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ, भगवन् ! वह तुम्बा नीचे पृथ्वीतल पर जा बैठता है। (भगवान् ने पुनः पूछा-) गौतम ! (पानी में पड़ा रहने के कारण) आठों ही मिट्टी के लेपों के (गलकर) नष्ट हो (उतर) जाने से क्या वह तुम्बा पृथ्वीतल को छोड़ कर पानी के उपरितल पर आ जाता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ, भगवन् ! वह पानी के उपरितल पर आ जाता है / (भगवान्-) हे गौतम ! इसी तरह नि:संगता (कर्ममल का लेप हट जाने) से, नीरागता से एवं गतिपरिणाम से कर्मरहित जीव की भी (ऊर्व) गति होती (जानी या मानी) जाती है। [2] कहं णं भते ! बंधणछेदणत्ताए अकम्मस्स गती पण्णता ? गोयमा! से जहानामए कलसिबलिया ति वा, मुग्गसिबलिया तिवा, मासिबलिया ति वा, सिबलिसिबलिया ति बा, एरंडामजिया ति वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी फुडित्ताणं एगंतमंतं गच्छइ एवं खलु गोयमा!। [13-2 प्र.] भगवन् ! बन्धन का छेद हो जाने से अकर्मजीव की गति कैसे होती है ? [13-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई मटर की फली, मूग को फली, उड़द की फली, शिम्बलिसेम की फली, और एरण्ड के फल (बीज) को धूप में रख कर सुखाए तो सूख जाने पर वह फटता है और उसमें का बीज उछल कर दूर जा गिरता है, हे गौतम ! इसी प्रकार कर्मरूप बन्धन का छेद हो जाने पर कर्मरहित जीव की गति होती है / [3] कहणं भते / निरिधणताए अकम्मस्स गती ? गोयमा! से जहानामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ड वीससाए निवाघातेणं गतो यवत्तति एवं खलु गोतमा!। - [13-3 प्र.] भगवन् ! इन्धनरहित होने (निरिन्धनता) से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [ व्याख्याप्रशप्तिसूत्र [13-3 उ.] गौतम ! जैसे इन्धन से छूटे (मुक्त) हुए धूए की गति किसी प्रकार की रुकावट (व्याघात) न हो तो स्वाभाविक रूप से (विश्रसा) ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मरूप इन्धन से रहित होने से कर्म रहित जीव की गति (ऊपर की ओर) होती है। [4] कहं गं भते ! पुव्यप्पयोगेणं प्रकम्मस्स गती पण्णता ? गोतमा ! से जहानामए कंडस्स को दंडविध्यमुक्कस्स लक्खाभिमुही निवाघातेणं गतो यवत्तति एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए घुध्वप्पयोगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता। [13-4 प्र.] भगवन् ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? [13-4 उ.] गौतम ! जैसे-धनुष से छूटे हुए बाण की गति बिना किसी रुकावट के लक्ष्याभिमुखी (निशान की ओर) होती है, इसी प्रकार, हे गौतम ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है। इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि निःसंगता से नीरागता से यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की (ऊर्ध्व) गति होती है / विवेचन-निःसंगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव की (ऊर्ध्वगति-प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 11 से 13 तक) में असंगता आदि हेतुओं से दृष्टान्तपूर्वक कर्मरहित मुक्त जीव की गति को प्ररूपणा की गई है। अकर्मजीव की गति के छह कारण-(१) निःसंगता = निर्लेपता / जैसे तुम्बे पर डाभ और कुश को लपेट कर मिट्टी के आठ गाढे लेप लगाने के कारण जल पर तैरने के स्वभाव वाला तुम्बा भी भारी होने से पानी के तले बैठ जाता है किन्तु मिट्टी के लेप हट जाने पर वह तुम्बा पानी के ऊपरी तल पर आ जाता है, वैसे ही प्रात्मा कर्मों के लेप से भारी हो जाने से नरकादि अधोगमन करता रहता है, किन्तु कर्मलेप से रहित हो जाने पर स्वतः ही ऊर्ध्वगति करता है / (2) नीरागता-मोहरहितता। मोह के कारण कर्मयुक्त जीव भारी होने से ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता, मोह सर्वथा दूर होते ही वह कर्मरहित होकर ऊर्ध्वगति करता है। (3) गतिपरिणाम-जिस प्रकार तिर्यग्वहन स्वभाव वाले वायु के सम्बन्ध से रहित दीपशिखा स्वभाव से ऊपर की ओर गमन करती है, वैसे ही मुक्त (कर्मरहित) आत्मा भी नानागतिरूप विकार के कारणभूत कर्म का अभाव होने से ऊर्ध्वगति स्वभाव होने से ऊपर की ओर ही गति करता है। (4) बन्धछेद - जिस प्रकार बीजकोष के बन्धन के टूटने से एरण्ड आदि के बीज की ऊर्ध्वगति देखी जाती है, वैसे ही मनुष्यादि भव में वांधे रखने वाले गति-जाति नाम आदि समस्त कर्मों के बन्ध का छेद होने से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति जानी जाती है / (5) निरिन्धनता-जैसे इन्धन से रहित होने से धुआ स्वभावत: ऊपर की ओर गति करता है, वैसे ही कर्मरूप इन्धन से रहित होने से अकर्म जीव की स्वभावतः ऊर्ध्वगति होती है। (6) पूर्वप्रयोग-मूल में धनुष से छूटे हुए बाण की निराबाध लक्ष्याभिमुख गति का दृष्टान्त दिया गया है / दूसरा दृष्टान्त यह भी है जैसे कुम्हार के प्रयोग से किया गया हाथ, दण्ड और चक्र के संयोगपूर्वक जो चाक घूमता है, वह चाक उस प्रयत्न (प्रयोग) के बन्द होने पर भी पूर्वप्रयोगवश संस्कारक्षय होने तक घूमता है, इसी प्रकार संसारस्थित आत्मा ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जो अनेक Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [117 वार प्रणिधान किया है, उसका अभाव होने पर भी उसके आवेशपूर्वक मुक्त (कर्मरहित) जीव का गमन निश्चित होता है।' दुःखी को दुःख को स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपरणा 14. दुक्खी मते ! दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे / [14 प्र.] भगवन् ! क्या दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट (बद्ध या व्याप्त) होता है अथवा अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है ? [14 उ.] गौतम ! दुःखी जीव ही दुःख से स्पृष्ट होता है, किन्तु अदु:खी (दुःखरहित) जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। 15. [1] दुषखी मते ! नेरतिए दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरतिए दुखणं फुडे / [14-1 प्र. भगवन् ! क्या दु:खी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है ? [15-1 उ.] गौतम ! दुःखी नैरयिक हो दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। [2] एवं दंडमो जाव वेमाणियाणं / [15-2] इसी तरह वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। [3] एवं पंच दंडगा नेयव्वा-दुक्खी दुक्खेणं फुडे 1 दुक्खी दुक्खं परियादिति 2 दुक्खी दुक्खं उदीरेति 3 दुक्खी दुक्खं वेदेति 4 दुक्खी दुक्खं निज्जरेति 5 / [15-3] इसी प्रकार के पांच दण्डक (आलापक) कहने चाहिए यथा-(१) दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, (2) दुःखी दुःख का परिग्रहण करता है, (3) दुःखी दुःख को उदीरणा करता है, (4) दुःखी दुःख का वेदन करता है और (5) दुःखी दुःख की निर्जरा करता है। विवेचन-दुःखी को दुःख की स्पष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्रद्वय में दुःखी जीव ही दुःख का स्पर्श, ग्रहण, उदीरण, वेदन और निर्जरण करता है, अदुःखी नहीं, इस सिद्धान्त की मीमांसा की गई है। दुःखी और अदुःखी की मीमांसा--यहाँ दु:ख के कारणभूत कर्म को दुःख कहा गया है। इस दृष्टि से कर्मवान जीव को दुःखी और अकर्मवान् (सिद्ध भगवान्) को अदु:खी कहा गया है / अतः जो दुःखी (कर्मयुक्त) है, वही दुःख (कर्म) से स्पृष्ट-बद्ध होता है, वही दुःख (कर्म) को ग्रहण (निधत्त) 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 290, (ख) तत्त्वार्थभाष्य, अ. 10, सू. 6 पृ. 228-229 (ग) 'पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः। तत्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि, अ. 10, सू 6. Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करता है, दु:ख (कर्म) की उदीरणा करता है, वेदन भी करता है / और वह (कर्मवान्) स्वयं ही स्व-दुःख (कर्म) की निर्जरा करता है / अतः अकर्मवान् (अदुःखी-सिद्ध) में ये 5 बातें नहीं होती।' उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण-- 16. [1] अणगारस्स णं भाते ! प्रणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा; अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पावपुछणं गेहमाणस्स वा, निक्खिकमाणस वा, तस्स गं भते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जति ? संपराइया किरिया कज्जति ? गो. ! नो ईरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / [16.1 प्र.] भगवन् ! उपयोगरहित (अनायुक्त) गमन करते हुए, खड़े होते (ठहरते) हुए, बैठते हुए, या सोते (करवट बदलते) हुए, और इसी प्रकार बिना उपयोग के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन (प्रमानिका या रजोहरण) ग्रहण करते (उठाते) हुए या रखते हुए अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? [16-1 उ, गौतम ! ऐसे (पूर्वोक्त) अनगार को ऐपिथिक क्रिया नहीं लगती, साम्परायिक क्रिया लगती है। [2] से के?णं ? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोमा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जति, नो संपराइया किरिया कज्जति / जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा प्रवोच्छिन्ना भवंति तस्स गं संपराइया किरिया कज्जति, नो इरियावहिया। अहासुत्तं रियं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जति / उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति, से णं उस्सुत्तमेव रियति / से तेण?णं० / [16-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [16.2 उJ गौतम ! जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न (अनुदित उदयावस्थारहित) हो गए, उसी को ऐपिथिको क्रिया लगती है, उसे साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। किन्तु जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ, (ये चारों) व्युच्छिन्न (अनुदित) नहीं हुए, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती / सूत्र (आगम) के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है / उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाला अनगार, सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करता है / हे गौतम ! इस कारण से कहा गया है कि उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है। विवेचन-उपयोगरहित गमनादि-प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण-प्रस्तुत 16 वें सूत्र में उपयोगशून्य होकर गमानादि क्रिया करने वाले अनगार को ऐपिथिकी नहीं, साम्परायिकी क्रिया लगती है, इसका युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है / 1. भगवतोसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 291 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ ] [ 119 'वोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य-मूलपाठ में जो 'बोच्छिन्ना' शब्द है, उसके 'अनुदित' और 'क्षीण' ये दोनों अर्थ युक्तिसंगत लगते हैं, क्योंकि ऐापथिकी क्रिया ११वें, १२वें और १३वें गणस्थान में पाई जाती है, और 12, १३वें गुणस्थान में कषाय का सर्वथा क्षय हो जाता है / जबकि ११वें गुणस्थान में कषाय का क्षय नहीं होकर उसका उपशम होता है, अर्थात्-कषाय उदयावस्था में नहीं रहता / इस दृष्टि से 'वोच्छिन्न' शब्द के यहाँ 'क्षीण और अनुदित' दोनों अर्थ लेने चाहिए।' 'अहासुतं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ—'अहासुतं का सामान्य अर्थ है- 'सूत्रानुसार', परन्तु यहाँ ऐपिथिक क्रिया की दृष्टि से विचार करते समय 'अहासुत्तं' का अर्थ होगा--यथाख्यात चारित्रपालन की विधि के सूत्रों (नियमों) के अनुसार क्योंकि ११वें से १३वें गुणस्थानवर्ती यथाख्यातचारित्री को ही ऐर्यापथिक क्रिया लगती है। इसलिए यथाख्यातचारित्री अनगार ही 'अहासुत्तं' प्रवृत्ति करने वाले कहे जा सकते हैं / १०वें गुणस्थान तक के अनगार सूक्ष्मसम्परायी (सकषायी) होने के कारण अहासुत्तं (यथाख्यात-क्षायिक चारित्रानुसार) प्रवृत्ति नहीं करते, इसलिए उन्हें क्षयोपशम जन्य चरित्र के अनुसार कषायभावयुक्त प्रवृत्ति करने के कारण साम्परायिक क्रिया लगती है / अत: यहाँ 'उत्सूत्र' का अर्थ श्रुतविरुद्ध प्रवृत्ति करना नहीं, अपितु, यथाख्यात चारित्र के विरुद्ध प्रवृत्ति करना होता है। अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त, तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ 17. अह भंते ! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुद्रुस्स पाणभोयणस्स के प्र? पण्णते? गोयमा ! जे णं निग्गंथे या निग्गंधी या फासुएसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिगाहिता मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रज्झोववन्ने प्राहारं प्राहारेति एस णं गोयमा! सइंगाले पाण-भोयणे / जे णं निागथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिगाहित्ता महयाप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेति एस गं गोयमा ! सधूमे पाणमोयणे। जे णं निग्गंथे वा 2 जाव पडिग्गाहित्ता गुणुप्पायणहेतु अन्नदन्वेणं सखि संजोएत्ता प्राहारमाहारेति एस गं गोयमा ! संजोयणादोस? पाण-भोयणे / एस णं गोतमा ! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुटुस्स पाण-भोयणस्स अट्ठ पण्णत्ते। __[17. प्र] भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पान-भोजन (अाहारपानी) का क्या अर्थ कहा गया है ? [17 उ.] गौतम! जो निग्रंथ (साधु) अथवा निर्ग्रन्थी (साध्वी) प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप आहार ग्रहण करके उसमें मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त (अध्युपपन्न = मोह में एकाग्रचित्त) होकर आहार करते हैं, हे गौतम ! यह अंगार दोष से दूषित आहार-पानी कहलाता है। जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिमस्वादिम रूप पाहार ग्रहण करके, उसके प्रति अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक, क्रोध से खिन्नता करते हुए आहार 1. भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भाग-३, पृ. 1095 2. श्रीभगवती उपक्रम, पृष्ठ 59 Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करते हैं, तो हे गौतम ! यह धूम-दोष से दूषित आहार-पानी कहलाता है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक यावत् आहार ग्रहण करके गुण (स्वाद) उत्पन्न करने हेतु दूसरे पदार्थों के साथ संयोग करके आहार-पानी करते हैं, हे गौतम ! वह आहारपानी संयोजनादोष से दूषित कहलाता है / हे गौतम ! यह अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पानभोजन का अर्थ कहा गया है। 18. अह भंते ! वीतिगालस्स वीयधुमस्स संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स के अट्ठ पण्णते? . गोयमा ! जे णं णिग्गंथे वा 2 जान पडिगाहेत्ता अमुच्छिते जाव प्राहारेति एस णं गोपमा ! वोतिगाले पाण-भोयणे / जे णं निग्गंथे वा 2 जाव पडिगाहेत्ता णो महताअप्पत्तियं जाव आहारेति, एस णं गोयमा ! वीतधमे पाण-भोयणे / जे णं निग्गंथे वा 2 जाव पडिगाहेता जहा लद्धतहा प्राहारं आहारेति एस णं गोतमा ! संजोयणादोसविप्पमुक्के पाण-भोयणे / एस णं गोतमा! वीतिगालस्स वीतधूमस्स संजोयणादोस विष्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स अट्ठ पण्णत्ते / [18 उ.] भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष, इन तीन दोषों से मुक्त (रहित) पानभोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? | [18 उ.] गौतम ! जो निम्रन्थ या निर्गन्धी प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम. स्वादिमरूप चतुर्विध आहार को ग्रहण करके मूर्छारहित यावत् आसक्तिरहित होकर पाहार करते हैं, हे गौतम ! यह अंगारदोषरहित पान-भोजन कहलाता है। जो निर्ग्रन्थ या निनन्थी यावत् अशनादि को ग्रहण करके अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक यावत् आहार नहीं करता है, हे गौतम ! यह धम दोषरहित पानभोजन है। जो निर्ग्रन्थ या निग्रंथो यावत् अशनादि को ग्रहण करके, जैसा मिला है, वैसा ही आहार कर लेते हैं, (स्वादिष्ट बनाने के लिए उसमें दूसरे पदार्थों का संयोग नहीं करते,) तो हे गौतम ! यह संयोजनादोषरहित पान-भोजन कहलाता है। हे गौतम ! यह अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित एवं संयोजनादोषविमुक्त पान-भोजन का अर्थ कहा गया है। ते! खेत्तातिकंतस्स कालातिमकंतस्स मम्गातिक्तस्स पमाणातिक्तस्स पाणभोयणस्स के अट्ट पणते ? गोयमा ! जे गं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं असण-पाण-खाइम-साइमं अणुगते सूरिए पडिग्गाहिता उगते सूरिए आहारं पाहारेति एस णं गोतमा ! खेत्तातिपकते पाण भोयणे / जे णं निग्गंथे बा 2 जाव० साइमं पढमाए पोरिसीए पडिगाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवायणावेत्ता आहार ग्राहारेति एस णं गोयमा ! कालातिक्कते पाण-भोयणे / जे णं निम्गंथे वा 2 जाव० सातिमं पडिगाहित्ता परं अद्धजोयणमेराए वीतिक्कमावेत्ता प्राहारमाहारेति एस णं गोयमा! मग्गातिक्कते पाण-भोयणे / जे णं निग्गंथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्जं जाव सातिम पडिगाहित्ता परं बत्तीसाए कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ताणं कवलाणं पाहारमाहारेति एस णं गोतमा! पमाणातिक्कते पाण-भोयणे / अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालसकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले प्राहारमाहारेमाणे प्रवड्डोमोयरिया, सोलसकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले पाहारमाहारेमाणे दुभागष्पत्ते, Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [ 121 चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेते जाव प्राहारमाहारेमाणे प्रोमोदरिया, बत्तीस कुक्कुडिअंडगप्पभाणमेत्ते कवले प्राहारमाहारेमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एक्केण वि गासेणं ऊणगं आहारमाहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामरसभोई इति वत्तवं सिया / एस गं गोयमा! खेतातिककंतस्स कालातिक्कतस्स मरगातिक्कंतस्स पमाणातिक्कंतस्स पाण-भोयणस्स अट्ठ पणण्णत्ते / [19 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिकान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पानभोजन का क्या अर्थ है ? [19 उ.] गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय प्रशन-पान-खादिमस्वादिमरूप चतुर्विध आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं, तो हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त पान-भोजन कहलाता है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् चतुर्विध आहार को प्रथम प्रहर (पौरुषी) में ग्रहण करके अन्तिम प्रहर (पौरुषी) तक रख कर सेवन करते हैं, तो हे गौतम ! यह कालातिक्रान्त पान-भोजन कहलाता है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् चतुर्विध आहार को ग्रहण करके प्राधे योजन (वो कोस) की मर्यादा (सीमा) का उल्लंघन करके खाते हैं, तो हे गौतम ! यह मार्गातिक्रान्त पान-भोजन कहलाता है। जो निर्गन्ध या निग्रंथी प्रासक एवं एषणीय यावत् पाहार को ग्रहण करके कुक्कूटीअण्डक (मुर्गी के अंडे के) प्रमाण बत्तीस कवल (कौर या ग्रास) की मात्रा से अधिक (उपरान्त) आहार करता है, तो हे गौतम ! यह प्रमाणातिक्रान्त पानभोजन कहलाता है। कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण पाठ कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु 'अल्पाहारी' कहलाता है। कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण बारह कवल की मात्रा में प्राहार करने वाला साधु अपार्द्ध अवमोदरिका (किंचित् न्यून अर्ध ऊनोदरी) वाला होता है। कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण सोलह कवल की मात्रा में प्राहार करने वाला साधु द्विभागप्राप्त आहार वाला (अर्धाहारी) कहलाता है / कुक्कुटीअण्डकप्रमाण चौबीस कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु ऊनोदरिका वाला होता है / कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण बत्तीस कवल की मात्रा में प्राहार करने वाला साधु प्रमाणप्राप्त (प्रमाणोपेत) आहारी कहलाता है / इस (बत्तीस कवल) से एक भी ग्रास कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ 'प्रकामरसभोजी' (अत्यधिक मधुरादिरसभोक्ता) नहीं है, यह कहा जा सकता है / हे गौतम ! यह क्षेत्रातिकान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का अ 20. अह भंते ! सत्यातीतस्स सस्थपरिणामितस्स एसियस्स वेसियस्स सामुदाणियस्स पाणभोयणस्स के प्र? पण्णत्ते ? | गोयमा ! जे णं निग्गथे वा निग्गंथी वा निक्खित्तसत्थमुसले ववगतमाला-वण्णगविलेवणे क्वगतचुप-चइय-चत्तदेहं जीवविप्पजढं अकयमकारियमसंकप्पियमणाहूतमकीतकडमणुविट्ठ नवकोडीपरिसुद्ध दसदोसविप्पमुषकं उगम-उप्पायणेसणासुपरिसुद्ध बीतिगालं वोतधूमं संजोयणादोसविष्पमुक्कं असुरसुरं अचवच प्रदुतमविलंबितं अपरिसाडि अक्खोवं-जण-वणाणुलेवणभूतं संयमजातामायावत्तियं संजमभारवहणट्ठयाए बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं पाहारमाहारेति; एस णं गोतमा ! सत्थातीतस्स सस्थपरिणापितस्स जाव पाण-भोयणस्स प्र? पम्नते। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // सत्तम सए : पढमो उद्देसो समत्तो। [20 प्र.] भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित, सामुदायिक भिक्षारूप पान-भोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? _ [20 उ.] गौतम ! जो निम्रन्थ या निर्ग्रन्थी शस्त्र और मूसलादि का त्याग किये हुए हैं, पुष्प-माला और चन्दनादि (वर्णक) के विलेपन से रहित हैं, वे यदि उस आहार को करते हैं, जो (भोज्य वस्तु में पैदा होने वाले) कृमि आदि जन्तुषों से रहित, जीवच्युत और जीवविमुक्त (प्रासुक), है, जो साधु के लिए नहीं बनाया गया है, न बनवाया गया है, जो असंकल्पित (प्राधाकर्मादि दोष रहित) है, अनाहूत (आमंत्रणरहित) है, अक्रीतकृत (नहीं खरीदा हुआ) है, अनुद्दिष्ट (औद्देशिक दोष से रहित) है, नवकोटिविशुद्ध है, (शंकित आदि) दस दोषों से विमुक्त है, उद्गम (16 उद्गमदोष) और उत्पादना (16 उत्पादन) सम्बन्धी एषणा दोषों से रहित सुपरिशुद्ध है, अंगारदोषरहित है, धूमदोषरहित है, संयोजनादोषरहित है। तथा जो सुरसूर और चपचप शब्द से रहित, बहुत शीघ्रता और अत्यन्त विलम्ब से रहित, पाहार का लेशमात्र भी छोड़े बिना, नीचे न गिराते हुए, गाड़ी की धुरी के अंजन अथवा घाव पर लगाए जाने वाले लेप (मल्हम) की तरह केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और संयम-भार को वहन करने के लिए, जिस प्रकार सर्प बिल में (सीधा) प्रवेश करता है, उसी प्रकार जो आहार करते हैं, तो हे गौतम ! वह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित यावत् पान भोजन का अर्थ है। 'हे भगवन् ! यह इस प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; (यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त, तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 17 से 20 तक) में अंगार, धूम और संयोजनादोष से युक्त तथा मुक्त पान-भोजन का क्षेत्र, काल, मार्ग, और प्रमाण को अतिक्रान्त पानभोजन का एवं शस्त्रातीतादि पानभोजन का अर्थ प्ररूपित किया गया है। अंगारादि दोषों का स्वरूप—साधु के द्वारा गवेषणैषणा और ग्रहणैषणा से लाए हुए निर्दोष आहार को साधुओं के मण्डल (मांडले) में बैठकर सेवन करते समय ये दोष लगते हैं, इसलिए इन्हें ग्रासैषणा (मांडला या मंडल) के पांच दोष कहते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) अंगार-सरस स्वादिष्ट आहार में आसक्त एवं मुग्ध होकर आहार की या दाता की प्रशंसा करते हुए खाना / इस प्रकार आहार पर मूर्छा रूप अग्नि से संयम रूप ईन्धन कोयले (अंगार) की तरह दूषित हो जाता है / (2) धूम-नीरस या अमनोज्ञ आहार करते हुए पाहार या दाता की निन्दा करना। (3) संयोजनास्वादिष्ट एवं रोचक बनाने के लिए रसलोलुपतावश एक द्रव्य के साथ दूसरे द्रव्यों को मिलाना / (4) अप्रमाण - शास्त्रोक्तप्रमाण से अधिक आहार करना और (5) अकारण साधु के लिए 6 कारणों से पाहार करने और 6 कारणों से छोड़ने का विधान है, किन्तु उक्त कारणों के बिना केवल बलवीर्यवृद्धि के लिए आहार करना / इन 5 दोषों में से १७-१८वे सूत्रों में अंगार, धूम और Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [ 123 संयोजना दोषों से युक्त और रहित की व्याख्या की गई है / शेष दो 19 और 203 सूत्र में प्रमाणातिक्रान्त और संयमयात्रार्थ तथा संयमभारवहनार्थ के रूप में गतार्थ कर दिया है।' __ क्षेत्रातिकान्त का भावार्थ---यहाँ क्षेत्र का अर्थ सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्र अर्थात्-दिन है, इसका अतिक्रमण करना क्षेत्रातिक्रान्त है। ___ कुक्कुटी-प्रण्डप्रमाण का तात्पर्य-आहार का प्रमाण बताने के लिए 'कुक्कुटो-अण्डकप्रमाण' शब्द दिया दिया है / इसके दो अर्थ होते हैं—(१) कुक्कुटी के अंडे के जितने प्रमाण का एक कवल, तथा (2) जीवरूपी पक्षी के लिए प्राश्रयरूप होने से यह गंदी अशुचिप्राय काया 'कुकुटी' है, इस कुकुटी के उदरपूरक पर्याप्त आहार को कुकुटी-अण्डकप्रमाण कहते हैं / शस्त्रातीतादि को शब्दश: व्याख्या-शस्त्रातीत = अग्नि आदि शस्त्र से उत्तीर्ण, सत्यपरिणामित शस्त्रों से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श अन्यरूप में परिणत किया हुआ, अर्थात्-अचित्त किया हआ। एसियस्स-एषणीय-गवेषणा आदि से गवेषित / वेसियस्स विशेष या विविध गवेषणा, ग्रहणेषणा एवं ग्रासैषणा से विशोधित अथवा वैषिक अर्थात् मुनिवेष-मात्र देखने से प्राप्त / सामवाणियरस = गहसमुदायों से उत्पादनादोष से रहित भिक्षाजीविता / नवकोटिविशुद्ध का अर्थ-(१) किसी जीव की हिंसा न करना, (2) न कराना, (3) न ही अनुमोदन करना, (4) स्वयं न पकाना, (5) दूसरों से न पकवाना, (6) पकानेवालों का अनुमोदन न करना, (7) स्वयं न खरीदना, (8) दूसरों से न खरीदवाना, और (9) खरीदनेवाले का अनुमोदन न करना / इन दोषों से रहित आहारादि नवकोटिविशुद्ध कहलाते हैं।' उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष-शास्त्र में प्राधाकर्म आदि 16 उद्गम के, धात्री, दूती आदि 16 उत्पादना के, एवं शंकित आदि 10 एषणा के दोष बताए हैं। उनमें से प्रथम वर्ग के दोष दाता से, द्वितीय वर्ग के साधु से और तृतीय वर्ग के दोनों से लगते हैं। / / सप्तक शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / (ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 3, पृ. 1098 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्रांक 292, 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 292 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 293 4. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 294 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन पृ. 1103 (ख) पिण्डनियुक्ति, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थ / Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'विरति' द्वितीय उद्देशक : विरति सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप 1. [1] से नूणं भंते ! सध्यपाहिं सव्वमूतेहि सव्वजोवेहि सव्वसहि ‘पच्चक्खाय' इति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति ? दुपच्चक्खायं भवति ? गोतमा ! सव्वपाहिं जाव सव्वसहि 'पच्चक्खाय' इति वदमाणस्स सिय सुपच्चक्खातं भवति, सिय दुपच्चक्खातं भवति / [1-1 प्र.] हे भगवन् ! 'मैंने सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव, और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? [1-1 उ.] गौतम ! 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है / [2] से केण? णं भंते ! एवं बुच्चा 'सम्बयाणेहि जाव सिय दुपच्चक्खातं भवति ?' गोतमा! जस्स णं सम्वयाणेहि जाव सम्वसत्तेहि 'पच्चक्खाय' इति वदमाणस्स गो एवं अभिसमन्त्रागतं भवति 'इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा' तस्स गं सव्वपाहि जाव सध्वसत्तेहि पच्चक्खायं इति वदमाणस्स नो सुपच्चक्खायं भवति, दुपच्चक्खायं भवति / एवं खलु से दुपच्चक्खाई सम्वपाहि जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खाय' इति वदमाणो नो सच्चं भासं भासति, मोसं भासं भासइ, एवं खलु से मुसायाती सवाहि जाव सव्वसहि तिविहं तिबिहेणं अस्संजयविरयपडिहयपच्चयखायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगतदंडे एगंतबाले यावि भवति / जस्स णं सवपाहि जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खाय' इति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागतं भवति 'इमे जोवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा' तस्स णं सन्वपाहि जाव सम्वसत्तेहि पच्चक्खाये इति वदमाणस्स सुपच्चक्खायं भवति, नो दुपच्चक्खायं भवति / एवं खलु से सुपच्चक्खाई सम्वपाहि जाव सव्यसत्तेहि पच्चकवायं इति वयमाणे सच्चं भासं भासति, नो मोसं मासं भासति, एवं खलु से सच्चवादी सव्वपाणेहि जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजविरयपडिहयपच्चखायपावकम्मे अकिरिए संवुडे [एगंतप्रदंडे] एगंतपंडिते यावि भवति / से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव सिय दुपच्चक्खायं भवति / [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान-उच्चारण करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है ? Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] [ 125 [१-उ.] गौतम ! 'मैंने समस्त प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले जिस पुरुष को इस प्रकार (यह) अभिसमन्वागत (ज्ञात =अवगत नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं'; उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है / साथ ही, 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाला वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष सत्यभाषा नहीं बोलता; किन्तु मृषाभाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी सर्व प्राण यावत् समस्त सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से असंयत (संयमरहित), अविरत (हिंसादि से अनिवृत्त या विरतिरहित), पापकर्म से अप्रतिहत(नहीं रुका हुमा) और पापकर्म का अप्रत्याख्यानी (जिसने पापकर्म का प्रत्याख्यान- त्याग नहीं किया है), (कायिकी आदि) क्रियाओं से युक्त (सक्रिय), असंवृत (संवररहित), एकान्त दण्ड (हिंसा) कारक एवं एकान्तबाल (अज्ञानी) है। 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों को हिंसा का प्रत्याख्यान किया है,' यों कहने वाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, और ये स्थावर हैं, उस (सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का मैंने त्याग किया है, यों कहने वाले) पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं है। मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहता हुआ वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषा बोलता है, मृषाभाषा नहीं बोलता। इस प्रकार वह सप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्व प्राण यावत सत्त्वों के प्रा तीन योग से संयत, विरत है। (अतीतकालीन) पापकर्मों को (पश्चात्ताप-यात्मनिन्दा से) उसने प्रतिहत (घात) कर (या रोक) दिया है, (अनामत पापों को) प्रत्याख्यान से त्याग दिया है, वह अक्रिय (कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियाओं से रहित) है, संवृत (आस्रवद्वारों को रोकने वाला, संवरयुक्त) है, (एकान्त अदण्डरूप है) और एकान्त पण्डित है। इसीलिए, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। विवेचन--सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का रहस्य बताया गया है / सुप्रत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान का रहस्य-किसी व्यक्ति के केवल मुह से ऐसा बोलने मात्र से ही प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं हो जाता कि 'मैंने समस्त प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) कर दिया है;' किन्तु इस प्रकार बोलने के साथ-साथ अगर वह भलीभांति जानता है कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है और वह सत्यभाषी, संयत, विरत प्रादि भी होता है, किन्तु अगर उसे जीवाजीवादि के विषय में समीचीन ज्ञान नहीं होता तो केवल प्रत्याख्यान के उच्चारण से वह न तो सुप्रत्याख्यानी होता है, न ही सत्यभाषी, संयत, विरत आदि। इसीलिए दशवैकालिक में कहा गया है.---'पढमं नाणं, तपो दया।' ज्ञान के अभाव में कृत प्रत्याख्यान का यथावत् परिपालन न होने से वह दुष्प्रत्याख्यानी रहता है, सुप्रत्याख्यानी नहीं होता।' ति तीन करण, 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 295, (ब) देखिये, इसके समर्थन में दशवकालिक सु., अ. 4, गाथा-१० से 13 तक Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 / [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूव प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण 2. कतिविहे गं भंते ! पच्चक्खाणे पण्णते? गोयमा! दुविहे पच्चक्खाणे पण्णते, तं जहा--मूलगुणपञ्चक्खाणे | उत्तरगुणपच्चखाणे य / [2 प्र.] भगवन् ! प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [2 उ.] गौतम ! प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार है—(१) मूलगुणप्रत्याख्यान और (2) उत्तरगुणप्रत्याख्यान / 3. मूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णते, तं जहा—सवमूलगुणपच्चवखाणे य देसमूलगुणपच्चवखाणे य / [3] भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [3 उ.] गौतम ! (मूलगुणप्रत्याख्यान) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार(१) सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान और (2) देशमूलगुणप्रत्याख्यान / 4. सव्वमूलगणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-सम्बातो पाणातिवातातो वेरमणं जाय सव्वातो परिग्गहातो वेरमणं / [4 प्र.] भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! (सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है—(१) सर्व-प्राणातिपात से विरमण, (2) सर्व-मषावाद से विरमण, (6) सर्व-अदत्तादान से विरमण, (4) सर्व-मैथुन से विरमण और (5) सर्व-परिग्रह से विरमण / 5. वेसमूलगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिबिहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा--थूलातो पाणातिवातातो वेरमणं जाव थूलातो परिग्गहातो वेरभणं। [5 प्र.] भगवन् ! देशमूलगुगप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! (देशमूलगुणप्रत्याख्यान) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारस्थूल प्राणातिपात से विरमण यावत् स्थूल परिग्रह से विरमण / 6. उत्तरगणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं०-सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणे य, देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे य / [6 उ.] भगवन् ! उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [6 उ.] गौतम ! (उत्तरगुणप्रत्याख्यान) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार(१) सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान और (2) देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान / Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] [127 7. सम्वुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दसविहे पण्णत्ते, तं जहाप्रणागतं 1 अतिक्कतं 2 कोडीसहितं 3 नियंटियं 4 चेव / सागारमणागारं 5-6 परिमाणकडं 7 निरवसेसं 8 // 1 // साकेयं 6 चेव प्रद्धाए 10, पच्चक्खाणं भवे दसहा / [7 प्र. भगवन् ! सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [7] गौतम ! सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यान दस प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार(१) अनागत, (2) अतिक्रान्त, (3) कोटिसहित, (4) नियंत्रित, (5) साकार (सागार), (6) अनाकार (अनागार), (7) परिमाणकृत, (8) निरवशेष, (6) संकेत और (10) अद्धाप्रत्याख्यान / इस प्रकार (सर्वोत्तरगुण-) प्रत्याख्यान दस प्रकार का होता है / 8. देसुत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा—दिसिव्वयं 1 उपभोग-परीभोगपरिमाणं 2 अणत्थदंडवेरमणं 3 सामाइयं 4 देसावगासियं 5 पोसहोववासो 6 अतिहिसंविभागो 7 अपच्छिममारणंतियसलेहणा असणाऽऽराहणता / [8 प्र.] भगवन् ! देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! (देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यान) सात प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) दिग्वत (दिशापरिमाणवत), (2) उपभोग-परिभोगपरिणाम, (3) अनर्थदण्डविरमण, (4) सामायिक, (5) देशावकाशिक, (6) पौषधोपवास, और (7) अतिथि-संविभाग तथा अपश्चिम मारणान्तिक-संलेखना-जोषणा-पाराधना / विवेचन--प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 2 से 8 तक) में प्रत्याख्यान के मूल और उत्तर भेदों-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / परिभाषाएँ-चारित्ररूप कल्पवृक्ष के मूल के समान प्राणातिपातविरमण आदि 'मूलगुण' कहलाते हैं, मूलगुणविषयक प्रत्याख्यान (त्याग-विरति) 'मूलगुणप्रत्याख्यान' कहलाता है। वृक्ष की शाखा के समान मूलगुणों की अपेक्षा, जो उत्तररूप गुण हों, वे 'उत्तरगुण' कहलाते हैं, और तद्विषयक प्रत्याख्यान 'उत्तरगुण-प्रत्याख्यान' कहलाता है। सर्वथा मूलगुणप्रत्याख्यान 'सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान' और देशतः (अंशत:) मूलगुणप्रत्याख्यान 'देशमूलगुणप्रत्याख्यान' कहलाता है। सर्वविरत मुनियों के सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान और देशविरत श्रावकों के देशमूलगुणप्रत्याख्यान होता है।' दशविध सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप--(१) अनागत-भविष्य में जो तप, नियम या प्रत्याख्यान करना है, उसमें भविष्य में बाधा पड़ती देखकर उसे पहले ही कर लेना / (2) प्रतिकान्त-- 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 2969 - Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [ व्याख्याप्राप्तिसूब पहले जिस तप, नियम, व्रत-प्रत्याख्यान को करना था, उसमें गुरु, तपस्वी, एवं रुग्ण की सेवा आदि कारणों से बाधा पड़ने के कारण उस तप, व्रत-प्रत्याख्यान आदि को बाद में करना, (3) कोटिसहित-- जहाँ एक प्रत्याख्यान की समाप्ति तथा दूसरे प्रत्याख्यान की आदि एक ही दिन में हो जाए। जैसेउपवास के पारणे में आयम्बिल आदि तप करना / (4) नियंत्रित--जिस दिन जिस प्रत्याख्यान को करने का निश्चय किया है, उस दिन रोगादि बाधानों के आने पर भी, उसे नहीं छोड़ना, नियमपूर्वक करना / (5) साकार (सागार)-जिस प्रत्याख्यान में कुछ प्रागार (छूट या अपवाद) रखा जाय / उन प्रागारों में से किसी आगार के उपस्थित होने पर त्यागी हुई वस्तु के त्याग का काल पूरा होने से पहले ही उसे सेवन कर लेने पर भी प्रत्याख्यान-भंग नहीं होता। जैसा-नवकारसी, पौरसी प्रादि / (6) अनाकार (अनागार)-जिस प्रत्याख्यान में 'महत्तरागार' आदि कोई आगार न हों। 'अनाभोग' और 'सहसाकार' तो उसमें होते ही हैं / (7) परिमाणकृत-दत्ति, कवल (ग्रास), घर, भिक्षा या भोज्यद्रव्यों की मर्यादा करना / (8) निरवशेष-प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का सर्वथा प्रत्याख्यान-त्याग करना। (8) संकेतप्रत्याख्यान-अंगूठा, मुट्ठी, गांठ आदि किसी भी वस्तु के संकेत को लेकर किया जाने वाला प्रत्याख्यान / (10) प्रद्धाप्रत्याख्यान-प्रद्धा अर्थात् काल विशेष को नियत करके जो प्रत्याख्यान किया जाता है / ' जैसेपोरिसी, दो पोरिसी, मास, अर्द्ध मास आदि। सप्तविध देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप-(१) दिव्रत-पूर्वादि छहों दिशाओं की गमनमर्यादा करना, नियमित दिशा से आगे प्रास्रव-सेवन का त्याग करना / (2) उपमोग-परिमोगपरिमाणवत-उपभोग्य (एक बार भोगने योग्य-भोजन और परिभोग्य (बार-बार भोगे जाने योग्य वस्त्रादि) वस्तुओं (26 बोलों) की मर्यादा करना / (3) अनर्थदण्डविरमणवत अपध्यान, प्रमाद, हिंसाकारीशस्त्रप्रदान, पापकर्मोपदेश, आदि निरर्थकनिष्प्रयोजन हिसादिजनक कार्य अनर्थदण्ड हैं, उनसे निवृत्त होना / (4) सामायिकवत--सावद्य व्यापार (प्रवृत्ति) एवं आत-रौद्रध्यान को त्याग कर धर्मध्यान में तथा समभाव में मनोवृत्ति या आत्मा को लगाना। एक सामायिक की मर्यादा एक मुहूर्त की है। सामायिक में बत्तीस दोषों से दूर रहना चाहिए। (5) देशाधकाशिकवत-दिग्नत में जो दिशाओं की मर्यादा का तथा पहले के स्वीकृत सभी व्रतों की मर्यादा का दैनिक संकोच करना, मर्यादा के उपरान्त क्षेत्र में आस्रवसेवन न करना, मर्यादितक्षेत्र में जितने द्रव्यों की मर्यादा की है, उसके उपरान्त सेवन न करना। (6) पौषधोपवासरत-एक दिन-रात (पाठ पहर तक) चतुर्विध आहार, मैथुन, स्नान, शृगार आदि का तथा समस्त सावध व्यापार का त्याग करके धर्मध्यान में लीन रहना; पौषध के अठारह दोषों का त्याग करना। (7) अतिथिसंविभागवत--उत्कृष्ट अतिथि महावती साधुओं को उनके लिए कल्पनीय अशनादि चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, पीठ (चौकी), फलक (पढ़ा), शय्या, संस्तारक, औषध, भैषज, ये 14 प्रकार की वस्तुएँ निष्कामबुद्धिपूर्व प्रात्मकल्याण की भावना से देना, दान का संयोग न मिलने पर भी भावना रख एवं जघन्य अतिथि को भी देना।२ दिग्वत आदि तीन को गुणव्रत और सामायिक आदि 4 व्रतों को शिक्षाक्त भी कहते हैं। .-. -- 1. देखिये, इन दस प्रत्याख्यानों के लक्षण को सूचित करने वाली गाथाएँ–भगवती. अ. वृत्ति, पृ. 296, 297 2. (क) उपासकदशांग अ. वृत्ति, (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा-३, पृ. 1118 से 1120 तक Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२ ] [ 129 अपश्चिम मारणान्तिक-संल्लेखना-जोषणा-आराधनता को व्याख्या-यद्यपि प्राणियों का आवीचिमरण प्रतिक्षण होता है, परन्तु यहाँ उस मरण की विवक्षा नहीं की गई है, किन्तु समग्र आयु की समाप्तिरूप मरण की विवक्षा है। अपश्चिम अर्थात् जिसके पीछे कोई संल्लेखनादि कार्य करना शेष नहीं, ऐसी अन्तिम मारणान्तिक (प्रायुष्यसमाप्ति के अन्त---मरणकाल में) की जाने वाली शरीर और कषाय आदि को कृश करने वाली तपस्याविशेष 'अपश्चिम-मारणान्तिक संल्लेखना' है / उसको जोषणा---स्वीकार करने की आराधना अखण्डकाल (ग्रायु:समाप्ति) तक करना अपश्चिम-मारणान्तिक-संल्लेखना-जोषणा-आराधना है। यहाँ दिग्वतादि सात गुण अवश्य देशोत्तरगुणरूप हैं, किन्तु संल्लेखना के लिए नियम नहीं है, क्योंकि यह देशोत्तरगुणवाले के लिए देशोत्तरगुणरूप और सर्वोत्तरगुण वाले के लिए सर्वोत्तरगुणरूप है। तथापि देशोत्तरगुणवाले को भी अन्तिम समय में यह अवश्यकरणीय है, यह सूचित करने के लिए देशोत्तरगुण के साथ इसका कथन किया गया है।' जीव और चौबीस दण्डकों में मूलगुरण-उत्तरगुरणप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी-वक्तव्यता 6. जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी वि, उत्तरगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि / [6 प्र.] भगवन् ! क्या जीव, मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं, अथवा अप्रत्याख्यानी हैं ? [6 उ.] गौतम ! जीव (समुच्चयरूप में) मूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं। 10. मेरइया णं भंते ! कि मूलगुणपच्चक्खाणी० ? पुच्छा। मोतमा ! नेरइया नो मूलगुणपच्चक्खाणी, नो उत्तरगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी / [10 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकजीव, मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं या अप्रत्याख्यानी हैं ? [10 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव, न तो मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, और न उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं, किन्तु अप्रत्याख्यानी हैं। 11. एवं जाव चरिदिया। [11 प्र.] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों पर्यन्त कहना चाहिए / 12. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जीवा (सू. 6) / [12] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के विषय में (समुच्चय-प्रोधिक) जीवों की तरह कहना चाहिए। 13. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया (सू. 10) / 1. भगवती अ. वृत्ति, पांक 297 Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के सम्बन्ध में नैरयिक जीवों की तरह / कथन करना चाहिए। -ये सब अप्रत्याख्यानी हैं / विवेचन-जीव और चौबीस दण्डकों में मूलगण-उत्तरगुणप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी. वक्तव्यता-प्रस्तुत 5 सूत्रों (6 से 13 तक) में समुच्चयजीवों तथा नैरयिकों से ले कर वैमानिक तक के जीवों में मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी के अस्तित्व की पृच्छा करके उसका समाधान किया गया है। निष्कर्ष नैरयिकों, पंचस्थावरों, तीन विकलेन्द्रिय जीवों, तथा वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों में मूलगुणप्रत्याख्यानी या उत्तरगुणप्रत्याख्यानी नहीं होते, बे सर्वथा अप्रत्याख्यानी होते हैं / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों में तीनों ही विकल्प पाए जाते हैं। किन्तु तिर्यचों में मात्र देशप्रत्याख्यानी ही हो सकते हैं। मूलोत्तरगुरणप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी जीव, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों में अल्पबहुत्व 14. एतेसि गं भंते ! जीवाणं मूलगुणपच्चक्खाणोणं जाव अपच्चक्खाणोण य कतरे कतरेहितो जाव बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चरखाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अणंतगुणा। 14 प्र.] भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी, इन जीवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [14 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, (उनसे) उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्येय गुणा हैं, और (उनसे) अप्रत्याख्यानी अनन्तगुणा हैं / 15. एतेसि णं भते ! पं.दियतिरिक्खजोणियाणं० पुच्छा। गोयमा ! सव्वस्थोवा जीवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपच्चक्खाणी, उत्तरगुणपच्चखाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखिज्जगुणा / [15 प्र.] भगवन् ! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी आदि (पूर्वोक्त) जीवों में पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव कीन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? / [15. उ] गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे उत्तरगुणप्रत्याख्यानी असंख्य गणा हैं, और उनसे अप्रत्याख्यानी असंख्यगृणा हैं। 16. एतेसि गं भाते ! मणुस्साणं मूलगुणपच्चक्खाणीणं० पुच्छा। गोयमा ! सव्वथोवा मणुस्सा मूलगुणपच्चपखाणी, उत्तरगुणपच्चक्खाणी संखेज्ज गुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] [131 [16 प्र.] भगवन् ! इन मूलगुणप्रत्याख्यानी आदि जीवों में मनुष्य कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? [16 उ.] गौतम ! मूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे थोड़े हैं, उनसे उत्तरगुणप्रत्याख्यानी संख्यातगुणा हैं और उनसे अप्रत्याख्यानी मनुष्य असंख्यातगुणा हैं / विवेचन मूलगुण--उत्तरगुणप्रत्याख्यानी एवं अप्रत्याख्यानी जीवों, पंचेन्द्रिय तिथंचों और मनुष्यों में अल्पबहुत्व को प्ररूपणा–प्रस्तुत तीन सूत्रों (14 से 16 तक) में मूलगुणप्रत्याख्यानी प्रादि समुच्चयजीवों, तियं चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक का विचार किया गया है। निष्कर्ष-अप्रत्याख्यानी ही सबसे अधिक हैं. समुच्चय जीवों में वे अनन्तगुणे हैं, तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों और मनुष्यों में असंख्यातगुणे हैं / सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुरणप्रत्याख्यानी तथा अप्रत्याख्यानी का जीवों तथा चौबीसदण्डकों में अस्तित्व तथा अल्पबहुत्व 17. जीवा णं भते ! किं सवमूलगुणपच्चक्खाणी ? देशमूलगुणपच्चक्खाणी? अपच्चखाणी? गोयमा ! जीवा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि। [17 प्र.] भगवन् ! क्या जीव, सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं या अप्रत्याख्यानी हैं ? [17 उ.] गौतम ! जीव (समुच्चय में), सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं / 18. नेरइयाणं पुच्छा। गोयमा ! नेरतिया नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणो, नो देसमूलगुणपच्चवखाणी, अपच्चश्खाणी। [18 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों के विषय में भी यही प्रश्न है / [18 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव, न तो सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, और न ही देशमूलगुण प्रत्याख्यानी हैं, वे अप्रत्याख्यानी हैं। 16. एवं जाव चारिदिया। [16] इसी तरह यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त कहना चाहिए। 20. पंचेंदियतिरिक्खपुच्छा। गोयमा ! पंचेदियतिरिक्खा नो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि। [20 प्र. पंचेन्द्रियतिर्यञ्चजीवों के विषय में भी यही प्रश्न है / Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20 उ.] गौतम ! पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं / 21. मणुस्सा जहा जीवा / [21] मनुष्यों के विषय में (औधिक) जीवों की तरह कथन करना चाहिए / 22. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा नेरइया। _ [22] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। 23. एतेसि ण भते ! जीवाणं सम्बमूलगुणपच्चक्खाणीणं देसमूलगुणपच्चक्खाणीणं अपच्चखाणोण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोंवा जीवा सवमूलगुणपच्चक्खागो / एवं अप्पाबहुगाणि तिणि वि जहा पढमिल्लए दंडए (सु. 14-16), नवरं सव्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया देसमूलगुणपच्चक्खागो, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा / [23 प्र.] भगवन् ! इन सर्वमूलप्रत्याख्यानी, देशमूलप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कोन किन से अल्प, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [23 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सर्वमूलप्रत्याख्यानी जीव हैं, उनसे असंख्यातगुणे देशमूलप्रत्याख्यानी जीव हैं, और अप्रत्याख्यानी जीव उनसे अनन्तगुणे हैं / इसी प्रकार तीनों-ौधिक जीवों, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों-का अल्प-बहुत्व प्रथम दण्डक में कहे अनुसार कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि देशमूलगुणप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सबसे थोड़े हैं और अप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रियतिथंच उनसे असंख्येय-गुणे हैं / 24. जीवा णं भंते ! कि सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणो ? देसुत्तरगुणपच्चक्खाणी? अपच्चक्खाणी ? गोयमा ! जीवा सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणी वि, तिणि वि / [24 प्र.] भगवन् ! जीव क्या सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यानी हैं, देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यानी है अथवा अप्रत्याख्यानी हूँ ? | [24 उ.) गौतम ! जीव सर्व-उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देश-उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं / (अर्थात्--) तीनों प्रकार के हैं / 25. पंचेदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव / [25] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का कथन भी इसी तरह करना चाहिए / 26. सेसा अपच्चक्रवाणी जाव वेमाणिया / [26] वैमानिकपर्यन्त शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं / Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२ ] 27. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणी०, प्रप्पाबहुगाणि / तिणि वि जहा पढमे दंडए (सु. 14-16) जाव मसाणं / [27 प्र.| भगवन् ! इन सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी एवं अप्रत्याख्यानी जोवों में से कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? [27 उ.] गौतम ! इन तीनों का अल्पबहुत्व प्रथम दण्डक (सू. 14-16) में कहे अनुसार यावत् मनुष्यों तक जान लेना चाहिए / विवेचन -सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानो तथा अप्रत्याख्यानी जीवों का तथा चौबीस वण्डकों में अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व-~-प्रस्तुत 11 सूत्रों (सू. 17 से 27 तक) में सर्वतः देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी समुच्चय जीवों तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीवों के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान केवल मनुष्य में ही होता है, देशमुलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच दोनों ही हो सकते हैं, तथा शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय कदाचित् अप्रत्याख्यानी भी होते हैं। सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और तियंच पंचेन्द्रिय हो सकते हैं / शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं / अतः सबसे थोड़े सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, उनसे अधिक देशमूलगुणप्रत्याख्यानी जीव हैं, और सबसे अधिक अप्रत्याख्यानी हैं।' जीवों और चौबीस दण्डकों में संयत आदि तथा प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व को प्ररूपरणा 28. जीवा गं भंते ! कि संजता ? असंजता ? संजतासंजता? गोयमा ! जीवा संजया वि०, तिष्णि वि, एवं जहेव पण्णवणाए तहेव भाणियन्वं जाव वेमाणिया / अप्पाबहुगं तहेव (सु. 14-16) तिण्ह वि भाणियब्वं / [28 प्र. भगवन् ! क्या जीव संयत हैं, असंयत हैं, अथवा संयतासंयत हैं ? [28 उ.] गौतम ! जीव संयत भी हैं, असंयत भी हैं और संयतासंयत भी हैं। इस तरह प्रज्ञापना सूत्र ३२वें पद में कहे अनुसार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए और अल्पबहुत्व भी तीनों का पूर्ववत् (सू. 14 से 16 तक में उक्त) कहना चाहिए / 26. जीवा गं भंते ! कि पच्चवखाणी? अपच्चक्खाणी ? पच्चक्खाणापच्चक्खाणी ? गोतमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, एवं तिणि वि / [29 प्र.] भगवन् ! क्या जीव प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं, अथवा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? ___---- 1. वियाहाण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 281 से 283 तक Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26 उ.] गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं / अर्थात् तीनों प्रकार के हैं / 30. एवं मगुस्साण वि। [30] इसी प्रकार मनुष्य भी तीनों ही प्रकार के हैं / 31. पंचिदियतिरिक्खजोणिया प्रादिल्लविरहिया / [31] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव प्रारम्भ के विकल्प से रहित हैं, (अर्थात् बे प्रत्याख्यानी नहीं हैं), किन्तु अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं। 32. सेसा सवे अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया / [32] शेष सभी जीव यावत् वैमानिक तक अप्रत्याख्यानी हैं। 33. एतेसि णं भंते ! जीवाणं पच्चक्खाणीणं जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! लवस्थोवा जीवा पच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चवखाणी प्रसंखेज्जगुणा, अपच्च. खाणी प्रणंतगुणा / [33 प्र.] भगवन् ! इन प्रत्याख्यानी आदि जीवों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं? [33 उ.] गौतम ! सबसे अल्प जीव प्रत्याख्यानी हैं, उनसे प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी असंख्येयगुणे हैं और उनसे अप्रत्याख्यानी अनन्तगुणे हैं / 34. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया सव्यत्थोवा पच्चक्खाणापच्चक्खाणी अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा। [34] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों में प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़े हैं, और उनसे असंख्यातगुणे अप्रत्याख्यानी हैं। 35. मणुस्सा सम्वत्योवा पच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणो संखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा। [35] मनुष्यों में प्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे थोड़े हैं, उनसे संख्येयगुणे प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं और उनसे भी असंख्येयगुणे अप्रत्याख्यानी हैं। विवेचन-संयत प्रादि तथा प्रत्याख्यानी प्रादि के जीवों तथा चौवीस दण्डकों में अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 28 से 35 तक) में जीवों तथा चौवीस दण्डकों में संयत-असंयत-संयतासंयत तथा प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी-प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैली से निरूपण--- 36. [1] जीवा णं भंते ! कि सासता? असासता ? गोयमा ! जीवा सिय सासता, सिय प्रसासता। [36-1] भगवन् ! क्या जीव शाश्वत हैं या प्रशाश्वत हैं ? [36-1 उ.] गौतम ! जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं। [2] से केणगुण भंते ! एवं बुच्चइ 'जीवा सिय सासता, सिय प्रसासता ? गोतमा! दवट्ठताए सासता, भावयाए प्रसासता / से तेण?णं गोतमा! एवं वुच्चइ जाव सिय असासता। [36-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं ? [36-2 उ.] गौतम ! द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत हैं, और भाव (पर्याय) की दृष्टि से जीव अशाश्वत हैं / हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा गया है कि जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं। 37. नेरइया णं भंते ! कि सासता? असासता? एवं जहा जोवा तहा नेरइया वि / [37 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत हैं ? [37 उ.] जिस प्रकार (ोधिक) जीवों का कथन किया था, उसी प्रकार नरयिकों का कथन करना चाहिए। 38. एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासता। सेवं भंते ! सेवं भंते / त्तिक / // सत्तम सए : वितिम्रो उद्देसश्रो समत्तो।। [38] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों के विषय में कथन करना चाहिए कि वे जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरने लगे। विवेचन-जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैलो से प्ररूपण- प्रस्तुत तीन सूत्रों में जीवों एवं चौवीस दण्डकों के विषय में शाश्वतता-प्रशाश्वतता का विचार स्याद्वादशैली में प्रस्तुत किया गया है। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध्याख्याप्राप्तिसूत्र प्राशय-द्रव्याथिकनय की दृष्टि से जीव (जीवद्रव्य) शाश्वत है, किन्तु विभिन्न गतियों एवं योनियों में परिभ्रमण करने और विभिन्न पर्याय धारण करने के कारण पर्यायाथिक-नय की दृष्टि से वह प्रशाश्वत है।' यद्यपि कोई एक नैरयिक शाश्वत नहीं है, क्योंकि तेतीस सागरोपम से अधिक काल तक कोई भी जीव नैरयिक पर्याय में नहीं रहता, किन्तु जगत् नैरयिक जीवों से शून्य कभी नहीं होता, अतएव संतति की अपेक्षा से उन्हें शाश्वत कहा गया है। // सप्तम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 6. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति पत्रांक 299 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'थावर' तृतीय उद्देशक : 'स्थावर' वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहारकाल एवं सर्वमहाकाल की वक्तव्यता 1. वणस्सतिकाइया णं भते ! के कालं सम्वष्पाहारगा वा सव्वमहाहारगा वा भवंति ? गोयमा ! पाउस-वरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सतिकाइया सव्वमहाहारगा भवंति, तदाणंतरं च णं सरदे, तयाणंतरं च णं हेमंते, तदाणंतरं च णं वसंते, तदाणंतरं च गं गिम्हे / गिम्हासु णं वणस्सतिकाइया सव्वघ्पाहारगा भवंति / [1 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव किस काल में सर्वाल्पाहारी (सबसे थोड़ा आहार करने वाले) होते हैं और किस काल में सर्वमहाहारी (सबसे अधिक आहार करने वाले) होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! प्रावट (पावस) ऋतु (श्रावण और भाद्रपद मास) में तथा वर्षा ऋतु (आश्विन और कार्तिक मास) में वनस्पतिकायिक जीव सर्वमहाहारी होते हैं। इसके पश्चात् शरद् ऋतु में, तदनन्तर हेमन्त ऋतु में, इसके बाद वसन्त ऋतु में और तत्पश्चात् ग्रीष्म ऋतु में बनस्पतिकायिक जीव क्रमश: अल्पाहारी होते हैं / ग्रीष्म ऋतु में वे सर्वाल्पाहारी होते हैं। 2. जति गंभते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सवप्पाहारगा भवंति, कम्हा गं भते ! गिम्हासु बहवे वणस्सतिकाइया पत्तिया पुफिया फलिया हरितगरेरिज्जमाणा सिरीए अतीव प्रतीव उवसोमेमाणा उवसोमेमाणा चिट्ठति ? ___ गोयमा! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पुग्गला य वणस्सतिकाइयत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उववज्जंति, एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु बहवे वणस्सतिकाइया पत्तिया पुफिया जाव चिट्ठति। _[2 प्र.] भगवन् ! यदि ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव सर्वाल्पाहारी होते हैं, तो बहुतसे वनस्पतिकायिक ग्रीष्मऋतु में पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले, हरियाली से देदीप्यमान (हरेभरे) एवं श्री (शोभा) से अतीव सुशोभित कैसे होते हैं ? [2 उ.] हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से उष्णयोनि वाले जीव और पुद्गल वनस्पतिकाय के रूप में उग (उत्पन्न हो जाते हैं, विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं, और विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। हे गौतम ! इस कारण से ग्रीष्म ऋतु में बहुत-से वनस्पतिकायिक पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले यावत् सुशोभित होते हैं / विवेचन-वनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहारकाल एवं सर्वमहाहारकाल को वक्तव्यता-- उद्देशक के प्रारम्भिक इन दो सूत्रों में वनस्पतिकायिक जीव किस ऋतु में सर्वमहाहारी और किस ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हैं, और क्यों ? यह सयुक्तिक निरूपण किया गया है / Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रावट और वर्षा ऋतु में वनस्पतिकायिक सर्वमहाहारी क्यों ?-छह ऋतुओं में से इन दो ऋतुओं में वनस्पतिकायिक जीव सर्वाधिक आहारी होते हैं, इसका कारण यह है कि इन ऋतुओं में वर्षा अधिक बरसती है, इसलिए जलस्नेह की अधिकता के कारण वनस्पति को अधिक आहार मिलता है। ग्रीष्म ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हुए भी वनस्पतियाँ पत्रित-पुष्पित क्यों ?--ग्रीष्म ऋतु में जो वनस्पतियाँ पत्र, पुष्प, फलों से युक्त हरीभरी दिखाई देती हैं, इसका कारण उस समय उष्णयोनिक जीवों और पुद्गलों के उत्पन्न होने, बढ़ने आदि का सिलसिला चालू हो जाना है / ' वनस्पतिकायिक मूलजीवादि से स्पृष्ट मूलादि के आहार के सम्बन्ध में सयुक्तिक समाधान---- 3. से नणं भंते ! मूला मूलजोवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा जाव बीया बीयजीवकुडा? हंता, गोतमा ! मूला मूलजीवफुडा जाव बीया बीयजीवकुडा। [3 प्र.J भगवन् ! क्या वनस्पतिकाय के मूल, निश्चय ही मूलजीवों से स्पृष्ट (व्याप्त) होते हैं, कन्द, कन्द के जीवों से स्पृष्ट होते हैं, यावत् वीज, बोज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं ? 3 उ.] हाँ गौतम ! मूल, मूल के जीवों से स्पृष्ट होते हैं, यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पष्ट होते हैं। __4. जति णं भंते ! मूला मूलजीवफुडा जाव: बीया बीयजीवफुडा, कम्हा णं भते / वणस्सतिकाइया प्राहारेति ? कम्हा परिणामेंति ? ____ गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा पुढविजीवडिबद्धा तम्हा प्राहारेंति, लम्हा परिणामेंति / कंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपडिबद्धा तम्हा प्राहारेति, तम्हा परिणामेति / एवं जाव बीया बोयजीवफुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा पाहारेंति, तम्हा परिणामेति / [4 प्र.] भगवन् ! यदि मूल, मूलजीवों से स्पृष्ट होते हैं. यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं, तो फिर, भगवन् ! बनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार से (कैसे) आहार करते हैं, और किस तरह से उसे परिणमाते हैं ? [4 उ.] गौतम ! मूल, मुल के जीवों से व्याप्त (स्पृष्ट) हैं और वे पृथ्वी के जीव के साथ सम्बद्ध (संयुक्त–जुड़े हुए) होते हैं, इस तरह से वनस्पतिकायिक जीव शाहार करते हैं, और उसे परिणमाते हैं। इसी प्रकार कन्द, कन्द के जीवों के साथ स्पृष्ट (व्याप्त) होते हैं और मूल के जीवों से 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 300 2. 'मूलजीवफुडा' का अर्थ-मूल के जीवों से स्पृष्ट-व्याप्त है। 3. 'जाव' शब्द कन्द से लेकर बीज तक के पदों का, सूचक है। यथा-'खंधा, खंधजीवफुडा, तया, साला, पवाला, पत्ता, पुष्फा, फला, बीया।' Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३ | सम्बद्ध (जुड़े हुए) रहते हैं। इस प्रकार यावत् बीज, बीज के जीवों से व्याप्त (स्पृष्ट) होते हैं, और वे फल के जीवों के साथ सम्बद्ध रहते हैं। इससे वे आहार करते और उसे परिणमाते हैं / विवेचन-वनस्पतिकायिक मूलजीवादि से स्पृष्ट मूलादि के प्राहार के सम्बन्ध में सयुक्तिक समाधान-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 3 और 4) में वनस्पतिकाय के मूल आदि अपने-अपने जीव के साथ स्पृष्ट-व्याप्त होते हुए कैसे आहार करते हैं ? इसका युक्तिसंगत समाधान प्रस्तुत किया गया है। वक्षादिरूप वनस्पति के दस प्रकार-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज। ___मूलादि जीवों से व्याप्त मूलादि द्वारा प्राहारग्रहण-मूलादि, अपने-अपने जीवों से व्याप्त होते हुए भी परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं --जैसे मूल पृथ्वी से, कन्द मूल से, स्कन्ध कन्द से, त्वचा स्कन्ध से शाखा त्वचा से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, फल पुष्प से और बीज फल से सम्बद्ध-परिबद्ध होता है, इस कारण परम्परा से मूलादि सब एक दूसरे से जुड़े हुए होने से अपनाअपना आहार ले लेते हैं / और उसे परिणमाते हैं।' पालू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्तजीवत्व और विभिन्नजीवत्व की प्ररूपणा 5. अह भंते ! पालुए मूलए सिंगवेरे हिरिली सिरिली सिस्सिरिलो किटिया छिरिया छोरविरालिया कण्हकं वज्जकंदे सूरणकंदे खिलूडे भद्दमुस्था पिंडहलिद्दा लोहीणो हथिहमगा (थिरुगा) मुग्गकण्णी अस्सकण्णी सीहकण्णी सोहंढी मुसुढी, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते प्रणतजोवा विविहसत्ता ? हंता, गोयमा ! प्रालुए मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता। [5 प्र.] अब प्रश्न यह है 'भगवन् ! आलू, मूला, शृगबेर (अदरख), हिरिली, सिरिली, सिस्सिरिली, किट्टिका, छिरिया, छीरविदारिका, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खिलूड़ा, (आर्द्र-) भद्रमोथा, पिंडहरिद्रा (हल्दी की गांठ), रोहिणी, हुथीहू, थिरुगा, मुद्गकर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिहण्डो, मुसुण्ढी, ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, क्या वे सब अनन्त जीववाली और विविध (पृथक्-पृथक) जीववाली हैं। [5 उ.J हाँ गौतम ! आल, मूला, यावत् मुसुण्ढी; ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, वे सब अनन्तजीव वाली और विविध (भिन्न-भिन्न) जीववाली हैं / विवेचन-पाल, मूला प्रादि वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व और विभिन्न जीवत्व की प्ररूपणाप्रस्तुत पंचम सूत्र में आलू, मूला आदि तथा इसी प्रकार की भूमिगत मूलवाली अनन्तकायिक वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व तथा पृथक् जीवत्व की प्ररूपणा की गई है। 'अनन्त जीवा विविहसत्ता' की व्याख्या--आलू आदि अनन्तकाय के प्रकार लोकरूढ़िगम्य हैं, भिन्न-भिन्न देशों में ये उन-उन नामों से प्रसिद्ध हैं, इनमें अनन्त जीव हैं, तथा विविध सत्त्व (पृथक चेतनावाले) हैं अथवा वर्णादि के भेद से ये विविध प्रकार के हैं, अथवा एक स्वरूप या एककायिक होते हुए भी इन में अनन्त जीवत्व है, इस दृष्टि से विविध यानी विचित्र कर्मों के कारण 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 300 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इनकी पृथक्-पृथक् सत्ता-चेतना है। अथवा जिनके विविध अर्थात् विचित्र विधा-प्रकार या भेद हैं, वे भी विविध सत्त्व हैं।' चौवीस दण्डकों में लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मत्व और महाकर्मत्व की प्ररूपणा 6. [1] सिय भंते ! कण्हलेसे नेरतिए अप्पकम्मतराए, नीललेसे नेरतिए महाफम्मतराए ? हंता, गोयमा ! सिया / [6-1 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्मवाला और नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्मवाला होता है ? [6-1 उ.] हाँ, गौतम ! कदाचित् ऐसा होता है। [2] से केणगुणं भंते ! एवं वच्चति 'कण्हलेसे नेरतिए अप्पकम्मत राए, नीललेसे नेरतिए महाफम्मतराए ? गोयमा ! ठिति पडुच्च, से तेण?ण गोयमा ! जाव महाकम्मतराए। [6-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं, कि कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्मवाला होता है और नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्मवाला होता है ? [6-2 उ.] गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि यावत् (नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित्) महाकर्म वाला होता है। 7. [1] सिय मते ! नीललेसे नेरतिए अप्पकम्मतराए, काउलेसे नेरतिए महाकम्मतराए ? हंता, सिया। [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्मवाला होता है और कापोतलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्मवाला होता है ? [7-1 उ.] हाँ गौतम ! कदाचित् ऐसा होता है / / [2] से केण?णं भते ! एवं वुच्चति 'नोललेसे अप्पकम्मतराए, काउलेसे नेरतिए महाकम्म तराए गोयमा ! ठिति पडुच्च, से तेढणं गोयमा जाव महाकम्मतराए / [7-2 प्र.] भगवन् ! आप किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्मवाला होता है और कापोतलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्मवाला होता है ? [7-2 उ.] गौतम ! स्थिति की अपेक्षा ऐसा कहता हूँ कि यावत् (कापोतलेश्या वाला नैरयिक कदाचित्) महाकर्मवाला होता है। 8. एवं असुरकुमारे वि, नवरं तेउलेसा अमहिया / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 300 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३] [141 [8] इसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी कहना चाहिए, परन्तु उनमें एक तेजोलेश्या अधिक होती है। (अर्थात्-उनमें कृष्ण, नील, कापोत और तेजो, ये चार लेश्याएँ होती हैं / ) 1. एवं जाव वेमाणिया, जस्स जति लेसाओ तस्स तति भाणियधारो। जोतिसियस्स न भणति / जाव सिय भते ! पम्हलेसे वेमाणिए प्रष्यकम्मतराए, सुक्कलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता, सिया। से केणढणं० सेसं जहा नेरइयस्स जाव महाकम्मतराए। [6] इसी तरह यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिए। जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी कहनी चाहिए, किन्तु ज्योतिष्क देवों के दण्डक का कथन नहीं करना चाहिए। (प्रश्नोत्तर की संयोजना इस प्रकार यावत् वैमानिक तक कर लेनी चाहिए, यथा-) [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या वाला वैमानिक कदाचित् अल्प कर्म वाला और शुक्ललेश्या वाला वैमानिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! कदाचित् होता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? [3.] (इसके उत्तर में) शेष सारा कथन नैरयिक की तरह यावत् 'महाकर्मवाला होता हैं'; यहाँ तक करना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकों में लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मत्व-महाकर्मस्व-प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 6 से 1 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिक दण्डक तक के जीवों में लेश्या के तारतम्य का सयुक्तिक निरूपण किया गया है / सापेक्ष कथन का प्राशय-सामान्यतया कृष्णलेश्या बाला जीव महाकर्मी और नीललेश्यावाला जीव उससे अल्पकर्मी होता है, किन्तु आयष्य की स्थिति की अपेक्षा से कृष्णलेश्यी जीव अल्पकर्मी और नीललेश्यी जीव महाकर्मी भी हो सकता है। उदाहरणार्थ-सप्तम नरक में उत्पन्न कोई कृष्णलेश्यो नैरयिक है, जिसने अपने आयुष्य की बहुत-सी स्थिति क्षय कर दी है, इस कारण उसने बहुत-से कर्म भी क्षय कर दिये हैं, किन्तु उसकी अपेक्षा कोई नीललेश्यी नैरयिक दस सागरोपम की स्थिति से पंचम नरक में अभी तत्काल उत्पन्न हुआ है, उसने अपने आयुष्य की स्थिति अभी अधिक क्षय नहीं की। इस कारण पूर्वोक्त कृष्णलेश्यी नैरयिक की अपेक्षा इस नीललेश्यी के कर्म अभी बहुत बाकी हैं / इस दृष्टि से नीललेश्यी कृष्णलेश्यो की अपेक्षा महाकर्मवाला है। ___ज्योतिष्क दण्डक में निषेध का कारण-ज्योतिष्क देवों मेंयह सापेक्षता घटित नहीं हो सकती, क्योंकि उनमें केवल एक तेजोलेश्या होती है। दूसरी लेश्या न होने से उसे दूसरी लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मी या महाकर्मी नहीं कहा जा सकता।' चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण 10. [1] से नणं भते ! जावेदणा सा निज्जरा ? जानिज्जरा सा वेदणा ? गोयमा ! णो इण? समट्ठ। 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 301 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [10.1 प्र] भगवन् ! क्या वास्तव में, जो वेदना है, वह निर्जरा कही जा सकती है ? और जो निर्जरा है, वह वेदना कही जा सकती है ? [10-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केगणं भंते ! एवं बुच्चइ 'जा वेयणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा'? गोयमा ! कम्मं वेदणा, णोकम्मं निज्जरा / से तेणढणं गोयमा ! जाव न सा वेदणा / [10-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं कही जा सकती, और जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं कही जा सकती ? [10-2 उ.] गौतम ! वेदना कर्म है और निर्जरा नोकर्म है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं कही जा सकती / / 11. [1] नेरतियाणं भाते ! जा वेदणा सा निज्जरा ? जा निज्जरा सा वेदणा? गोयमा! णो इण? सम?। [11-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों की जो वेदना है, उसे निर्जरा कहा जा सकता है, और जो निर्जरा है, उसे वेदना कहा जा सकता है ? [11-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं भते ! एवं बुच्चति नेरइयाणं जा वेदणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा? गोतमा ! नेरइयाणं कम्मं वेदणा, णोकम्मं निज्जरा। से तेणढणं गोतमा ! जाव न सा वेयणा। / [11-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नैरयिकों की जो वेदना है, उसे निर्जरा नहीं कहा जा सकता, और जो निर्जरा है, उसे वेदना नहीं कहा जा सकता ? [11-2 उ.] गोतम ! नैरयिकों की जो वेदना है, वह कम है और जो निर्जरा है, वह नोकर्म है। इस कारण से, हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् जो निर्जरा है, उसे वेदना नहीं कहा जा सकता। 12. एवं जाव वेमाणियाणं / [12] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त (चौबीस ही दण्डकों में) कहना चाहिए / 13. [1] से नूर्ण भंते ! जं वेसु तं निरिसु ? जं निजरिसु तं वेसु ? णो इण? समट्ठ। [13-1 प्र.] भगवन् ! जिन कर्मों का वेदत कर (भोग) लिया, क्या उनको निर्जीर्ण कर लिया और जिन कर्मों को निर्जीर्ण कर लिया, क्या उनका वेदन कर लिया ? Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३] [143 [13-1 उ.] गौतम ! यह बात (अर्थ) समर्थ (शक्य) नहीं है / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति 'जं वेसु नो तं निज्जरेंसु, जं निज्जरेंसु नो तं वेसु' ? गोयमा ! कम्मं वेदेंसु, नोकम्म निरिसु, से तेणटुणं गोयमा ! जाब नो तं वेदेंसु / [13-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जिन कर्मों का बेदन कर लिया, उनको निर्जीर्ण नहीं किया, और जिन कर्मों को निर्जीर्ण कर लिया, उनका बेदन नहीं किया ? |13-2 उ.] गौतम ! वेदन किया गया कर्मों का, किन्तु निर्जीर्ण किया गया है-नोकर्मों को; इस कारण से, हे गौतम ! मैंने कहा कि यावत्....."उनका वेदन नहीं किया। 14. नेरतिया णं भंते ! जं वेदेसु तं निरिसु ? एवं नेरइया वि / [14 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीवों ने जिस कर्म का वेदन कर लिया, क्या उसे निर्जीर्ण कर लिया? [14 उ.पहले कहे अनुसार नैरयिकों के विषय में भी जान लेना चाहिए। 15. एवं जाब बेमाणिया। [15] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त चौवीस ही दण्डक में कथन करना चाहिए। 16. [1] से नूणं भंते ! जं वेदेति तं निजरिति, जं निज्जरेंति तं वेदेति ? गोयमा ! नो इण? सम8 / [16-1 प्र.) भगवन् ! क्या वास्तव में जिस कर्म को वेदते हैं, उसकी निर्जरा करते हैं, और जिसकी निर्जरा करते हैं, उसको वेदते हैं ? [16-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] से केण?णं भंते ! एवं धुच्चति जाव 'नो तं वेदेति' ? गोतमा ! कम्मं वेदेति, नोकम्मं निज्जरेंति / से तेणढणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति / [16-2 प्र. भगवन् ! यह आप किस कारण से कहते हैं कि जिसको वेदते हैं, उसकी निर्जरा नहीं करते और जिसकी निर्जरा करते हैं, उसको वेदते नहीं हैं ? [16-2 उ.] गौतम ! कर्म को वेदते हैं, और नोकर्म को निर्जीर्ण करते हैं / इस कारण से हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि यावत् जिसको निर्माण करते हैं, उसका वेदन नहीं करते। 17. एवं नेरइया वि जाव वेमाणिया। [17] इसी तरह नैरयिकों के विषय में जानना चाहिए। यावत् वैमानिकपर्यन्त चौवीस ही दण्डकों में इसी तरह कहना चाहिए / 18. [1] से नूर्ण भंते ! जं वेदिस्संति तं निज्जरिस्संति ? जं निजरिस्संति तं वेदिस्संति ? गोयमा ! गो इण? सम8 / Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [18-1 प्र.] भगवन् ! क्या वास्तव में, जिस कर्म का वेदन करेंगे, उसकी निर्जरा करेंगे, और जिस कर्म की निर्जरा करेंगे, उसका वेदन करेंगे? [18-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं जाव 'जो तं वेदिस्संति' ? गोयमा ! कम्मं बेदिस्संति, नोकम्मं निजरिस्संति / से तेण?णं जाव नो तं निजरि (वेदि) स्संति / [18-2 प्र] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यावत् उसका वेदन नहीं करेंगे? [18-2 उ.] गौतम ! कर्म का वेदन करेंगे, नोकर्म की निर्जरा करेंगे / इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जिसका वेदन करेंगे, उसकी निर्जरा नहीं करेंगे, और जिसको निर्जरा करेंगे, उसका वेदन नहीं करेंगे। 16. एवं नेरतिया वि जाव वैमाणिया। _ [16] इसी तरह नैरयिकों के विषय में जान लेना चाहिए / यावत् वैमानिकपर्यन्त चौवीस ही दण्डकों में इसी तरह कहना चाहिए। 20. [1] से गुणं भते ! जे वेदणासमए से निज्जरासमए, जे निज्जरासमए से वेदणासमए ? गोयमा ! नो इण? समठ्ठ / [20-1 प्र.] भगवन् ! जो वेदना का समय है, क्या वह निर्जरा का समय है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय है ? [20-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं माते ! एवं वुच्चति 'जे वेदणासमए न से णिज्जरासमए, जे निज्जरासमए न से वेदणासमए ? गोयमा ! जं समयं वेति नो तं समयं निज्जरेंति, जं समयं निज्जरेंति नो तं समयं वेदेति; अन्नम्मि समए वेदेति, अन्नम्मि समए निज्जरेंति; अन्ने से वेदणासमए, अन्ने से निज्जरासमए / से तेण?णं जाव न से वेदणासमए / [20-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है ? [20-2 उ.] गौतम ! जिस समय में वेदते हैं, उस समय निर्जरा नहीं करते, और जिस समय निर्जरा करते हैं, उस समय वेदन नहीं करते / अन्य समय में वेदन करते हैं और अन्य समय में निर्जरा करते हैं / वेदना का समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है। इसी कारण से, हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि "यावत् निर्जरा का जो समय है, वह वेदना का समय नहीं है। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३] [145 21. [2] नेरतियाणं भते! जे वेदणासमए से निज्जरासमए ? जे निज्जरासमए से वेदणासमए ? गोयमा ! जो इण? समनै। [21-1 3.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों का जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय है ? [21-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / / [2] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'नेरइयाणं जे वेदणासमए न से निज्जरासमए, जे निज्जरासमए न से वेदणासमए ?' गोयमा ! नेरइया जं समयं वेदेति णो तं समयं निज्जरेंति, जं समयं निज्जरति नो तं समयं वेदेति; अन्नम्मि समए वेदेति, अन्नम्मि समए निज्जरेंति; अन्ने से वेदणासमए, अन्ने से निज्जरासमए / से तेण?णं जाव न से वेधणासमए / [21-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नैरयिकों के जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं है, और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है ? [21-2 उ. गौतम ! नैरयिक जीव, जिस समय में वेदन करते हैं, उस समय में निर्जरा नहीं करते, और जिस समय में निर्जरा करते हैं, उस समय में वेदन.नहीं करते / अन्य समय में वे वेदन करते हैं और अन्य समय में निर्जरा करते हैं। उनके वेदना का समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है। इस कारण से, मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है। 22. एवं जाव वेमाणियाणं / [22] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त चौवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। विवेचन--चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण—प्रस्तुत 13 सूत्रों (सू. 10 से 22 तक) में विभिन्न पहलुओं से सामान्य जीव में, चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के पृथक्त्व का तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण किया गया है। वेदना और निर्जरा की व्याख्या के अनुसार दोनों के पृथक्त्व की सिद्धि-उदयप्राप्त कर्म को भोगना 'वेदना' कहलाती है और जो कर्म भोग कर क्षय कर दिया गया है, उसे निर्जरा कहते हैं। वेदना कर्म की होती है। इसी कारण वेदना को (उदयप्राप्त) कर्म कहा गया है, और निर्जरा को नोकर्म (कर्माभाव)। तात्पर्य यह है कि कार्मण वर्गणा के पुद्गल सदैव विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे सदा कर्म नहीं कहलाते / कषाय और योग के निमित्त से जीव के साथ बद्ध होने पर ही उन्हें 'कर्म' संज्ञा प्राप्त होती है और वेदन के अन्तिम समय तक वह संज्ञा रहती है। निर्जरा होने पर वे पुद्गल 'कर्म' नहीं रहते, अकर्म हो जाते हैं / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 302 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का निरूपण 23. [1] रतिया मते ! कि सासया, असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय प्रसासया / 23-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव शाश्वत हैं या प्रशाश्वत हैं ? [23-1 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं। [2] से केण?ण भते ! एवं बुच्चइ 'नेतिया सिय सासया, सिय प्रसासया' ? गोयमा! अब्बोच्छितिनयट्ठताए सासया, वोच्छित्तिणयट्ठयाए प्रसासया। से तेण?णं जाव सिय प्रसासया। [23-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नैरयिक जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं ?' _ [23-2 उ.] गौतम ! अव्युच्छित्ति (द्रव्याथिक) नय की अपेक्षा से नैरयिक जीव शाश्वत हैं और व्युच्छित्ति (पर्यायाथिक) तय की अपेक्षा से नैरयिक जीव अशाश्वत हैं। इस कारण से, हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि नैरयिक जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं / 24. एवं जाव वेमाणियाणं जाव सिय प्रसासया। सेवं मते ! सेवं भत! ति। // सत्तम सए : तइनो उद्देसमो समत्तो / / [24] इसी प्रकार यावत् वैमानिकदेव-पर्यन्त कहना चाहिये कि वे कथञ्चित् शाश्वत हैं और कञ्चित् प्रशाश्वत् हैं। यावत् इसी कारण से मैं कहता हूँ कि वैमानिक देव कञ्चित् शाश्वत हैं, कथञ्चित् अशाश्वत हैं।' भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् / यह इसी प्रकार है, इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों (23 और 24) में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता और प्रशाश्वतता का सापेक्षिक कथन किया गया है। अव्युच्छित्तिनधार्थता ब्युच्छित्तिमयार्थता का अर्थ-प्रव्युच्छित्ति (ध्र बता) प्रधान नय अव्युच्छित्ति नय है, उसका अर्थ है-द्रव्य, अर्थात्-द्रव्याथिक नय की अपेक्षा और व्युच्छित्ति प्रधान जो नय है, उसका अर्थ है-पर्याय, अर्थात-पर्यायाथिक नय की अपेक्षा / द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ शाश्वत हैं और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ अशाश्वत हैं।' // सप्तम शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 302 Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'जीवा' चतुर्थ उद्देशक : 'जीव' षड्विध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में वक्तव्यता-- 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी [1] राजगृह नगर में यावत् (श्री गौतमस्वामी ने) श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा 2. फतिबिहा णं भते ! संसारसमावन्नगा जीवा पण्णता ? गोयमा ? छवियाहा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। [संग्रहणी गाथा—जीवा छब्धिह पुढवी जीवाण ठिती, भवद्विती काए। निल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत मिच्छत्ता // ]' सेवं भंते ! सेवं भंते ति ! // सत्तम सए : चउत्थो उद्दे सो समत्तो / [2 प्र.] भगवन् ! संसारसमापन्नक (संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! संसारसमापन्नक जीव, छह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं(१) पृथ्वीकायिक, (2) अप्कायिक, (3) तेजस्कायिक, (4) वायुकायिक, (5) वनस्पतिकायिक एवं (6) सकायिक / इस प्रकार यह समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र के तिर्यञ्चसम्बन्धी दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया पर्यन्त कहना चाहिए / [संग्रहणी गाथा का अर्थ-जीव के छह भेद, पृथ्वीकायिक जीवों के छह भेद, पृथ्वीकायिक आदि जीवों की स्थिति, भवस्थिति, सामान्यकायस्थिति, निर्लेपन, अनगारसम्बन्धी वर्णन सम्यक्त्वक्रिया और मिथ्यात्वक्रिया / ] ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—षड्विध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्रानुसार वक्तव्यता१. यह संग्रहणी गाथा वाचनान्तर में है, वृत्तिकार ने वृत्ति में इसे उद्धृत करके इसकी व्याख्या भी की है। देखें-भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 302-303 Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रस्तुत चतुर्थ उद्देशक के दो सूत्रों में संसारी जीवों के भेद तथा जीवाभिगमसूत्रोक्त उनसे सम्बन्धित वर्णन का निर्देश किया है। .. संसारी जीवों के सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्रोक्त तथ्य-जीवाभिगमसूत्र में तिर्यञ्च के दूसरे उद्देशक में जो बातें हैं, उनकी झांकी संग्रहणीगाथा में दे हो दी है। (1) संसारी जीवों के 6 भेदों का उल्लेख कर दिया है। तत्पश्चात् (2) पृथ्वीकायिक जीवों के 6 भेद-इलक्षणा, शुद्धपृथ्वी, बालुकापृथ्वी, मनःशिला, शर्करापृथ्वी, और खरपृथ्वी। इन सबकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति श्लक्ष्णा की 1 हजार वर्ष, शुद्धपृथ्वी को 12 हजार वर्ष, बालुका की 14 हजार वर्ष, मनःशिला की 16 हजार वर्ष, शर्करापृथ्वी की 18 हजार वर्ष और खरपृथ्वी की 22 हजार वर्ष की है / (3) स्थिति–नारकों और देवों को जघन्य 10 हजार वर्ष, उत्कृष्ट 33 सागरोपम की है। तिर्यंच और मनुष्य की जघन्य अन्तमुहर्त की, उत्कृष्ट 3 पल्योपम की। इसी तरह अन्य जीवों की भवस्थिति प्रज्ञापनासूत्र के चतुर्थ स्थितिपदानुसार जान लें। (4) निलेपन-तत्काल उत्पन्न पृथ्वीकायिक जीवों को प्रतिसमय एक-एक निकालें तो जघन्य असंख्यात अवपिणी-उत्सपिणी काल में और उत्कृष्ट भी असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल में निर्लेप (रिक्त) होते हैं, इत्यादि प्रकार से सभी जीवों का निर्लेपन कहना चाहिए / (5) अनगार-जो कि अविशुद्ध लेश्यावाला अवधिज्ञानी है, उसके देव-देवी को जानने सम्बन्धी 12 पालापक कहने चाहिए। (6) अन्यतीथिकोंद्वारा एक समय में सम्यक्त्व-मिथ्यात्व क्रियाद्वय करने की प्ररूपणा का खण्डन, एक समय में इन परस्पर विरोधी दो क्रियाओं में से एक ही क्रिया का मण्डन है / इस प्रकार सांसारिक जीव सम्बन्धी वक्तव्यता है।' // सप्तम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 302-303, (ख) जीवाभिगमसूत्र, तिर्यञ्च सम्बन्धी उद्देशक 2, 5-139 सू. 100 से 104 तक (ग) प्रज्ञापनासूत्र चतुर्थ स्थितिपद Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'पक्खी' पंचम उद्देशक : 'पक्षी' खेचर-पंचेन्द्रिय जीवों के योनिस ग्रह आदि तथ्यों का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण. 1. रायगिहे जाव एवं वदासी. ___ [1] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा - 2. खहचरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणीसंगहे पण्णते ? गोयमा ! तिबिहे जोणीसंगहे पण्णते, तं जहा-अंडया पोयया सम्मुच्छिमा। एवं जहा जीवाभिगमे जाव नो चेव गं ते विमाणे वीतीवएज्जा / एमहालया गं गोयमा ! ते विमाणा पण्णत्ता। [संग्रहगाथा-'जोणीसंगह लेसा दिदी णाणे य जोग-उवनोगे। उबवाय-द्विइ-समुग्घाय-चवण-जाइ-कुल-विहीरो / ' सेवं भते ! सेवं भते ! त्ति० / // सत्तम सए : पंचमो उद्दे सो समतो / / [2 प्र.] हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [2 उ.] गौतम ! ( खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों का) योनिसंग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-अण्डज, पोतज और सम्मूच्छिम / इस प्रकार (आगे का सारा वर्णन) जीवाभिगमसूत्र में कहे अनुसार यावत् 'उन विमानों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, हे गौतम ! वे विमान इतने महान् (बड़े) कहे गए हैं। यहाँ तक कहना चाहिए। [संग्रहगाथा का अर्थ---योनिसंग्रह, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्घात, च्यवन और जाति-कुलकोटि / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे। 1. यह संग्रहगाथा वाचनान्तर में है, वृत्तिकार ने इसे वृत्ति में उद्धृत की है, और इसकी व्याख्या भी की है। -देखें---भगवती. अ. वत्ति, पत्रांक 303 Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-खेचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रियजीवों के योनिसंग्रह आदि तथ्यों का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत पंचम उद्देशक के दो सूत्रों में खेचर पंचेन्द्रियजीवों के योनिसंग्रह, तथा जीवाभिगमसूत्र निर्देशानुसार इनसे सम्बन्धित अन्य तथ्यों का निरूपण किया गया है। खेचर पंचेन्द्रिय जीवों के योनिसंग्रह के प्रकार-उत्पत्ति के हेतु को योनि कहते हैं, तथा अनेक का कथन एक शब्द द्वारा कर दिया जाए, उसे संग्रह कहते हैं। खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अनेक होते हुए भी उक्त तीन प्रकार के योनिसंग्रह द्वारा उनका कथन किया गया है। अण्डज-अंडे से उत्पन्न होने वाले मोर, कबूतर, हंस आदि / पोतज-जरायु (जड़-जेर) बिना उत्पन्न होने वाले चिमगादड़ आदि / सम्मूच्छिम-माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले, मेंढक आदि जीव / ' जीवाभिगमोक्त तथ्य-जीवाभिगम सूत्रानुसार खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच में लेश्या 6, दृष्टि-३, ज्ञान-३ (भजना से), अज्ञान-३ (भजना से), योग-३, उपयोग-२ पाये जाते हैं। सा गति से आते हैं, और चारों गतियों में जाते हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग है। केवलीसमुद्घात और आहारसमुद्घात को छोड़कर इनमें पांच समुद्घात पाए जाते हैं / इनकी बारह लाख कुलकोड़ी है। इस प्रकरण में अन्तिम सूत्र विजय, वैजयन्त, जयन्त, और अपराजित का है / इन चारों का विस्तार इतना है कि यदि कोई देव नौ प्रकाशान्तर प्रमाण (8507401 योजन) का एक डग भरता हुआ छह महीने तक चले तो किसी विमान के अन्त को प्राप्त करता है, किसी विमान के अन्त को नहीं। जीवाभिगम से विस्तृत वर्णन जान लेना चाहिए / // सप्तम शतक : पंचम उददेशक समाप्त / चारों 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 303 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 303, (ख) जीवाभिगमसूत्र सू. 96 से 99 तक, पत्रांक 131 से 138 तक Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'आउ' छठा उद्देशक : आयु चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आयुष्यबन्ध और आयुष्यवेदन के सम्बन्ध में प्ररूपरणा 1. रायगिहे जाव एवं वदासी [1] राजगृह नगर में (गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) यावत् इस प्रकार पूछा 2. जीवे गंभ ते! जे भविए नेरइएसु उवज्जित्तए से णं भते ! कि इहगते नेरतियाउयं पकरेति ? उववज्जमाणे नेरतियाउयं पकरेति ? उववन्ने नेरइयाउयं पकरेति ? गोयमा ! इहगते नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववज्जमाणे नेरइयाउयं पकरेइ, नो उववन्ने नेरडयाउयं पकरेह / [2 प्र.] भगवन् ! जो जीव नारकों (नरयिकों) में उत्पन्न होने योग्य है, भगवन् ! वह क्या इस भव में रहता हुमा नारकायुष्य बांधता है, अथवा वहाँ (नरक में) उत्पन्न होता हुआ नारकायुष्य बांधता है या फिर (नरक में) उत्पन्न होने पर नारकायुष्य बांधता है ? [2 उ.] गौतम ! वह (नरक में उत्पन्न होने योग्य जीव) इस भव में रहता हुआ ही नारकायुष्य बांध लेता है, परन्तु नरक में उत्पन्न हुअा नारकायुष्य नहीं बांधता और न नरक में उत्पन्न होने पर नारकायुष्य बांधता है। 3. एवं असुरकुमारेसु वि। [3] इसी प्रकार असुरकुमारों के (आयुष्यबन्ध के) विषय में कहना चाहिए। 4. एवं जाव वेमाणिएसु। [4] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। 5. जीवे गं भते ! जे भविए नेरतिएसु उवज्जित्तए से णं भंते ! कि इहगते नेरतियाउयं पडिसंवेदेति ? उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेति ? उववन्ने नेरइयाउयं डिसंवेदेति ? गोयमा ! णो इहाते नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववज्जमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेति, उववन्ने वि नेरइयाउयं पडिसंवेदेति / [5 प्र.] भगवन् ! जो जीव नारकों में उत्पन्न होने वाला है, भगवन् ! क्या वह इस भव में रहता हुप्रा नरकायुष्य का वेदन (प्रतिसंवेदन) करता है, या वहाँ उत्पन्न होता हुआ नरकायुष्य का वेदन करता है, अथवा वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् नरकायुष्य का वेदन करता है ? Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! वह (नरक में उत्पन्न होने योग्य जीव) इस भव में रहता हुआ नरकायुष्य का वेदन नहीं करता, किन्तु वहाँ उत्पन्न होता हुआ वह नरकायुष्य का वेदन करता है, और उत्पन्न होने के पश्चात् भी नरकायुष्य का वेदन करता है। 6. एवं जाव वेमाणिए। [6] इस प्रकार यावत् वैमानिक तक चौवीस दण्डकों में (आयुष्यवेदन का) कथन करना चाहिए / विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आयुष्यबन्ध . और आयुष्यवेदन के सम्बन्ध में प्ररूपणा-नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों में से जो जीव जिस गति में उत्पन्न होने वाला है, वह यहाँ रहा हुआ ही उस भव का आयुष्यवेदन कर लेता है, या वहाँ उत्पन्न होता हुया करता है, अथवा वहाँ उत्पन्न होने के बाद अायुष्यबन्ध या आयुष्यवेदन करता है ? इस विषय में सैद्धान्तिक समाधान प्रस्तुत किया गया है। चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के महावेदना-अल्पवेदना के सम्बन्ध में प्ररूपरणा 7. जीवे णं भते ! जे भविए नेरतिएसु उवज्जित्तए से णं मते ! कि इहगते नहावेदणे ? उववज्जमाणे महावेदणे ? उववन्ने महावेदणे ? / ___ गोयमा ! इहगले सिय महावेयणे, सिय अपवेदणे; उववज्जमाणे सिय महावेधणे, सिय अप्पवेदणे ; अहे णं उववन्ने भवति ततो पच्छा एगंतदुक्खं वेदणं वेदेति, प्राहच्च सातं / [7 प्र.] भगवन् ! जो जीव नारकों में उत्पन्न होने वाला है, भगवन् ! क्या वह यहाँ (इस भव में) रहता हुआ ही महावेदना वाला हो जाता है, या नरक में उत्पन्न होता हुआ महावेदना वाला होता है, अथवा नरक में उत्पन्न होने के पश्चात् महावेदना वाला होता है ? [7 उ.] गौतम ! वह (नरक में उत्पन्न होने वाला जीव) इस भव में रहा हुआ कदाचित् महावेदना वाला होता है, कदाचित् अल्पवेदना वाला होता है। नरक में उत्पन्न होता हुआ भी कदाचित् महावेदना वाला और कदाचित् अल्पवेदना वाला होता है; किन्तु जब नरक में उत्पन्न हो जाता है, तब वह एकान्तदुःखरूप वेदना वेदता है, कदाचित् सुख (साता) रूप (वेदना वेदता है।) 8. [1] जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उवज्जित्तए पुच्छा। गोयमा! इहगते सिय महावेदणे, सिय अप्पवेदणे; उववज्जमाणे सिय महावेदणे, सिय अप्पवेदणे; अहे णं उववन्ने भवति ततो पच्छा एगतसातं वेदणं वेदेति, प्राहच्च असातं / [8-1 प्र.) भगवन् ! जो जीव असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाला है, (उसके सम्बन्ध में भी) यही प्रश्न है / [8-1 उ.] गौतम ! (जो जीव असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाला है,) वह यहाँ (इस भव में) रहा हुमा कदाचित् महावेदना वाला और कदाचित् अल्पवेदना वाला होता है; वहाँ उत्पन्न होता हुमा भी वह कदाचित् महावेदना वाला और कदाचित् अल्पवेदना वाला होता है, किन्तु जब Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [153 वह वहाँ उत्पन्न हो जाता है, तब एकान्तसुख (साता) रूप वेदना वेदता है, कदाचित् दुःख (असाता) रूप वेदना वेदता है। [2] एवं जाब थणियकुमारेसु / [8-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 6. जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाएसु उववज्जित्तए पुच्छा। गोयमा ! इहगए सिय महावेदणे, सिय अपवेदणे; एवं उववज्जमाणे वि; आहे गं उववन्ने भवति ततो पच्छा वेमाताए वेदणं वेदेति / [प्र.] भगवन् ! जो जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य है, (उसके सम्बन्ध में भी) यही पृच्छा है। [9 उ.] गौतम ! वह (पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य) जीव इस भव में रहा हुआ कदाचित् महावेदनायुक्त और कदाचित् अल्पवेदनायुक्त होता है, इसी प्रकार वहाँ उत्पन्न होता हुआ भी वह कदाचित् महावेदना और कदाचित् अल्पवेदना से युक्त होता है और जब वहाँ उत्पन्न हो जाता है, तत्पश्चात् वह विमात्रा (विविध प्रकार) से वेदना वेदता है। 10. एवं जाव मणुस्सेसु / [10] इसी प्रकार का कथन यावत् मनुष्यपर्यन्त करना चाहिए / 11. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेसु (सु. 8[1]) / [11] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में (अल्पवेदना-महावेदना-सम्बन्धी) कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के महावेदना-अल्पवेदना के सम्बन्ध में प्ररूपणानारकादि दण्डकों में उत्पन्न होने योग्य जीव क्या यहाँ रहता हुआ, वहाँ उत्पन्न होता हुआ या वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् महावेदना वाला होता है ? इस प्रकार के प्रश्नों का सापेक्षशैली से प्रस्तुत पंचसूत्री (सू. 7 से 11 तक) में समाधान किया गया है। निष्कर्ष--नरकोत्पन्नयोग्य जीव यहाँ रहा हुआ कदाचित् महावेदना और कदाचित् अल्पवेदना से युक्त होता है, वहाँ उत्पन्न होता भी इसी तरह होता है, किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के बाद नरकपालादि के असंयोगकाल में या तीर्थंकरों के कल्याणक-अवसरों पर कदाचित् सुख के सिवाय एकान्त दुःख ही भोगता है / दस भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव पूर्वोक्त दोनों अवस्थाओं में पूर्ववत् होते हैं, किन्तु वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् प्रहारादि के प्रा पड़ने के सिवाय कदाचित् दुःख के सिवाय एकान्तसुख ही भोगते हैं, पृथ्वीकाय से लेकर मनुष्यों तक के जीव पूर्वोक्त दोनों अवस्थाओं में पूर्ववत् ही होते हैं, किन्तु उस-उस भव में उत्पन्न होने के पश्चात् विविध प्रकार (विमात्रा) से वेदना वेदते हैं।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 290-291 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में अनाभोगनिर्वतित प्रायुष्यबन्ध को प्ररूपरणा 12. जीवा णं भंते ! कि प्राभोगनिवत्तियाउया ? अणाभोगनिवत्तिताउया ? गोयमा ! नो प्राभोगनिन्वत्तिताउया, अणाभोगनिव्वत्तिताउया। [12 प्र.] भगवन् ! जीव, आभोगनिर्वतित आयुष्य वाले हैं या अनाभोगनिर्वतित आयुष्य वाले हैं ? __ [12 उ.] गौतम ! जीव, आभोगनिर्वर्तित आयुष्य वाले नहीं हैं, किन्तु अनाभोगनिवर्तित आयुष्य वाले हैं। 13. एवं नेरइया वि। [13] इसी प्रकार नैरयिकों के (आयुष्य के) विषय में भी कहना चाहिए / 14. एवं जाव वेमाणिया। [14] यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी तरह कहना चाहिए / विवेचन–चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में अनाभोगनिर्वतित आयुष्यबन्ध को प्ररूपणा–प्रस्तुत त्रिसूत्री में चतुर्विशति दण्डकों के जीवों में ग्राभोगनिर्तित आयुष्य-बन्ध का निषेध करके अनाभोग. निर्वतित आयुष्य-बन्ध की प्ररूपणा की गई है। प्राभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित प्रायुष्य-समस्त सांसारिक जीव अनाभोगपूर्वक (अजानपने में = न जानते हुए) आयुष्य बांधते हैं, वे आभोगपूर्वक (जानपने में = जानते हुए) आयुष्य बन्ध नहीं करते। समस्त जीवों के कर्कश-अकर्कश-वेदनीय कर्मबन्ध का हेतुपूर्वक निरूपरण 15. अस्थि णं भंते ! जीवा गं कक्कसवेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अस्थि। [15 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के कर्कश वेदनीय (अत्यन्त दुःख से भोगने योग्य-कठोर वेदना वाले) कर्म बंधते हैं ? [15 उ.] हाँ, गौतम ! बंधते हैं। 16. कहं णं भंते ! जीवा णं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! पाणातिवातेणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं कक्कसवेदणिज्जा कम्मा कज्जति / [16 प्र.] भगवन् ! जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [16 उ.] गौतम ! प्राणातिपात से यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं। Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक ; उद्देशक-६! [155 17. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं कसबेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? एवं चेव / [17 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं ? [17 उ.] हाँ, गौतम ! पहले कहे अनुसार बंधते हैं / 18. एवं जाव वैमाणियाणं / [18] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 16. अस्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कति ? हंता, अस्थि। [16 प्र. भगवन् ! क्या जीवों के अकर्कशवेदनीय (सुखपूर्वक भोगने योग्य) कर्म बंधते हैं ? [16 उ.] हाँ गौतम ! बंधते हैं। 20. कहं णं भंते ! जीवाणं प्रकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा ! पाणातिवातवेरमणेणं जाव परिगहवरमणेणं कोहविवेगेणं जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कसवेदणिज्जा कम्मा कज्जति / [20 प्र.] भगवन् ! जीवों के प्रकर्कशवेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [20 उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरमण से यावत् परिग्रह-विरमण तक से, इसी तरह क्रोधविवेक से (लेकर) यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक से (जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं 1) हे गौतम ! इस प्रकार से जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं। 21. अस्थि णं भंते ! नेरतियाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! णो इण? सम? / [21 प्र] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों के अकर्कशवेदनीय कर्म बंधते हैं ? [21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। (अर्थात्-नैरयिकों के अकर्कशवेदनीय कर्मों का बन्ध नहीं होता!) 22. एवं जाव बेमाणिया / नवरं मणुस्साणं जहा जीवाणं (सु. 16) / [22] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / परन्तु मनुष्यों के विषय में इतना विशेष है कि जैसे औधिक जीवों के विषय में कहा गया है, वैसे ही सारा कथन करना चाहिए। विवेचन -समस्त जीवों के कर्कश-प्रकर्कश वेदनीय कर्मबन्ध का हेतुपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 15 से 22 तक) में समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के कर्कशवेदनीय नाय कमबन्ध के सम्बन्ध में सहेतुक निरूपण किया गया है। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबन्ध कैसे, और कब ?..-जीवों के कर्कशवेदनीय कर्म बंध जाते हैं, उनका पता तब लगता है, जब वे उदय में आते हैं, भोगने पड़ते हैं, क्योंकि कर्कशवेदनीय कर्म भोगते समय अत्यन्त दुःखरूप प्रतीत होते हैं। जैसे स्कन्दक आचार्य के शिष्यों ने पहले किसी भव में कर्कशवेदनीय कर्म बांधे थे। अकर्कशवेदनीय कर्म भोगने में सुखरूप प्रतीत होते हैं, जैसे कि भरत चक्री आदि ने बांके थे / कर्कशवेदनीय को बांधने का कारण 18 पापस्थानक-सेवन और अकर्कशवेदनीय-कर्मबन्ध का कारण इन्हीं 18 पापस्थानों का त्याग है / नरकादि जीवों में प्राणातिपात आदि पापस्थानों से विरमण न होने से वे अकर्कशवेदनीय-कर्मबन्ध नहीं कर सकते।' चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के साता-असाता वेदनीय कर्मबन्ध और उनके कारण 23. अस्थि गं भंते ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अस्थि / [23 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं ? [23 उ.] हाँ, गौतम ! बंधते हैं। 24. कहं गं भंते ! जोवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कति ? गोयमा! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जान सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरितावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति / / [24 प्र.] भगवन् ! जीवों के सातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [24 उ.] गौतम ! प्राणों पर अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों के प्रति अनुकम्पा करने से और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से; तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक (दैन्य) उत्पन्न न करने से, (शरीर को सुखा देने वाली) चिन्ता (विषाद या खेद) उत्पन्न न कराने से, विलाप एवं रुदन करा कर प्रांसू न बहवाने से, उनको न पीटने से, उन्हें परिताप न देने से (जोबों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं।) हे गौतम ! इस प्रकार से जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं। 25. एवं नेतियाण वि। [25] इसी प्रकार नैरयिक जीवों के (भी सातावेदनीय कर्मबन्ध के) विषय में कहना चाहिए। 26. एवं जाव वैमाणियाणं ! [26] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। 27. अस्थि णं भंते ! जीवाणं असातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता, अस्थि। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 305 Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-] / 157 [27 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के असातावेदनीय कर्म बंधते हैं ? [27 उ.] हाँ गौतम ! बंधते हैं। 28. कहं णं भंते ! जीवाणं अस्सायावेणिज्जा कम्मा कज्जति ? गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परपरितावणयाए, बहूर्ण पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणताए सोयणयाए जाव परितावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असातावेदणिज्जा कम्मा कज्जति / [28 प्र.] भगवन् ! जीवों के असातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? [28 उ.] गौतम ! दूसरों को दुःख देने से, दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न करने से, जीवों को विषाद या चिन्ता उत्पन्न करने से, दूसरों को रुलाने या विलाप कराने से, दूसरों को पीटने से और जीवों को परिताप देने से, तथा बहुत-से प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों को दुःख पहुँचाने से, शोक उत्पन्न करने से यावत् उनको परिताप देने से (जीवों के असातावेदनीय कर्मबन्ध होता है / ) हे गौतम इस प्रकार से जीवों के प्रसातावेदनीय कर्म बंधते हैं। 26. एव नेरतियाण वि। [26] इसी प्रकार नैरयिकजीवों के (असातावेदनीय कर्मबन्ध के विषय में समझना चाहिए। 30. एव जाव देमाणियाणं / [30] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त (असातावेदनीयबन्धविषयक) कथन करना चाहिए। विवेचन--चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के साता-प्रसातावेदनीय कर्मबन्ध और उनके कारणप्रस्तुत पाठ सूत्रों (23 से 30 तक) में समस्त जीवों के सातावेदनीय एवं असातावेदनीय कर्मबन्ध तथा इनके कारणों का निरूपण किया गया है / कठिन शब्दों के प्रर्थ---असोयणयाए= शोक उत्पन्न न करने से / अजरणयाए जिससे शरीर छीजे, ऐसा विषाद या शोक पैदा न करने से / प्रतिप्पणयाए-आंसू बहैं, इस प्रकार का विलाप या रुदन न कराने से / अपिट्टणयाए मारपीट न करने से / ' दुषमदुषमकाल में भारतवर्ष, भारतभूमि एवं भारत के मनुष्यों के प्राचार (आकार) और भाव के स्वरूप-निरूपरण __31. जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणोए दुस्समदुस्समाए समाए उत्तमकदुपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सति ? गोयमा! काले भविस्सति हाहाभूते भंभाभूए कोलाहलभूते, समयाणुभावणं य णं खरफल्सधूलिमहला दुविसहा बाउला भयंकरा बाता संवट्टमा य बाइंति, इह अभिषखं धूमाहिति य दिसा 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 305 Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समंता रयस्सला रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा, समयलुक्खयाए घणं अहियं चंदा सोतं मोच्छंति, अहियं सूरिया तवइस्संति, अदुत्तरं च णं अभिक्षणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा खत्तमेहा (खट्टमेहा) अग्गिमेहा विज्जुमेहा विसमेहा प्रसणिमेहा अपिणिज्जोदगा वाहिरोगवेदणोदोरणापरिणामसलिला प्रमणुग्णपाणियगा चंडानिलपयतिक्खधारानिवायपउरं वासं वासिहिति / जेणं भारहे वासे गामागरनगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसमगतं जणवयं, चउप्पयगवेलए खयरे य पक्खिसंघे, गामा:रगणपयारनिरए तसे पाणे बहुप्पगारे, रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पञ्चग-हरितोसहि-पवालं. कुरमादीए य तणवणस्सतिकाइए विद्ध सेहिति / पन्वय-गिरि-डोंगरुत्थल-भट्टिमादीए य वेयड्ढगिरिवज्जे विरावेहिति / सलिलबिल-गड्ड-दुग्ग-विसमनिण्णुन्नताई गंगा-सिंध-वज्जाइं समीकरेहिति / [31 प्र.] भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल का दुःषमदुःषम नामक छठा पारा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब भारतवर्ष का आकारभाव-प्रत्यवतार (आकार या आचार और भावों का आविर्भाव) कैसा होगा? [31 उ.] गौतम ! वह काल हाहाभूत (मनुष्यों के हाहाकार से युक्त), भंभाभूत (दु:खात पशनों के भां-भां शब्दरूप प्रार्तनाद से युक्त) तथा कोलाहलभूत (दू:खपीडित पक्षियों के कोलाहल से युक्त) होगा / काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन (धूमिल), असह्य, व्याकुल (जीवों को व्याकुल कर देने वाली), भयंकर वात (हवाएँ) एवं संवर्तक वात (हवाएँ) चलेंगी। इस काल में यहाँ बारबार चारों ओर से धूल उड़ने से दिशाएँ रज (धूल) से मलित, और रेत से कलुषित, अन्धकारपटल से युक्त एवं आलोक से रहित होंगी। समय (काल) की रूक्षता के कारण चन्द्रमा अत्यन्त शीतलता (ठंडक) फेंकेंगे; सूर्य अत्यन्त तपेंगे। इसके अनन्तर बारम्बार बहुत से खराब रस वाले मेघ, विपरीत रसवाले मेघ, खारे जलवाले मेघ, खत्तमेघ (खाद के समान पानी वाले मेघ), (अथवा खट्टमेघ = खट्ट पानी वाले बादल), अग्निमेघ (अग्नि के समान गर्मजल वाले मेघ), विद्युत्मेष (बिजली सहित मेघ), विषमेघ (जहरीले पानी वाले मेघ), अनिमेघ (ोले--गड़े बरसाने वाले या वज्र के समान पर्वतादि को चूर-चूर कर देने वाले मेघ), अपेय(न पीने योग्य) जल से पूर्ण मेघ (अथवा तृषा शान्त न कर सकने वाले पानी से युक्त मेघ), व्याधि, रोग और वेदना को उत्पन्न करने (उभाड़ने) वाले जल से युक्त तथा अमनोज्ञ जल वाले मेघ, प्रचण्ड वायु के थपेड़ों (प्राघात) से आहत हो कर तीक्ष्ण धाराओं के साथ गिरते हुए प्रचुर वर्षा बरसाएँगे ; जिससे भारतवर्ष के ग्राम, प्राकर (खान), नगर, खेड़े, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख (बन्दरगाह), पट्टण (व्यापारिक मंडियों) और पाश्रम में रहने वाले जनसमूह, चतुष्पद (चौपाये जानवर), खग (आकाश-चारी पक्षीगण), ग्रामों और जंगलों में संचार में रत सप्राणी तथा अनेक प्रकार के वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लताएँ, बेलें, घास, दूब, पर्वक (गन्ने आदि), हरियाली, शालि आदि धान्य, प्रवाल और अंकुर आदि तृणवनस्पतियाँ, ये सब विनष्ट हो जाएँगी / वैताव्यपर्वत को छोड़ कर शेष सभी पर्वत, छोटे पहाड, टीले, डूगर, स्थल, रेगिस्तान बंजरभूमि (भाठा-प्रदेश) आदि सबका विनाश हो जाएगा। गंगा और सिन्धु, इन दो नदियों को छोड़ कर शेष नदियाँ, पानी के झरने, गड्ढ़े, (सरोवर, झील आदि), (नष्ट हो जाएँगे), दुर्गम और विषम (ऊँची-नीची) भूमि में रहे हुए सब स्थल समतल क्षेत्र (सपाट मैदान) हो जाएंगे। 32. तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स बासस्स भूमीए केरिसए पायारभावपडोयारे भविस्सति ? Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [159 गोयमा ! भूमी मविस्सति इंगालभूता मुम्मुरभूता छारियभूता वल्लयभूया तत्तसमजोतिभूया धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणगबहुला चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दुनिषकमा यावि भविस्सति / [32 प्र.] भगवन् ! उस समय भारतवर्ष की भूमि का आकार और भावों का आविर्भाव (स्वरूप) किस प्रकार का होगा? [32 उ.] गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगारभूत (अंगारों के समान), मुर्मुरभूत (गोबर के उपलों की अग्नि के समान), भस्मीभूत (गर्म राख के समान), तपे हुए लोह के कड़ाह के समान, तप्तप्राय अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली, बहुत शैवाल (अथवा पांच रंग की काई) वाली, चलने जितने बहुत कीचड़ बाली होगी, जिस पर पृथ्वीस्थित जीवों का चलना बड़ा ही दुष्कर हो जाएगा। 33. तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुयाणं करिसए प्रायारभाव-पडोयारे भविस्सति ? गोयमा ! मणुया मविस्सति दुरूवा दुवण्णा दुगंधा दूरसा दूफासा, अणिट्ठा अकंता जाव अमणामा, होणस्सरा दोणस्सरा अणिट्ठस्सरा जाव अमणामस्सरा, अणादिज्जवयण-पच्चायाता निल्लज्जा कूड-कवड-कलह-वह-बंध-बेर-निरया मज्जादातिक्कमप्पहाणा अकज्जनिच्चुज्जता गुरुनियोगविणयरहिता य विकलरूवा परूढनह-केस-मंसुरोमा काला खरफासभामवण्णा फुट्टसिरा कविलपलियकैसा बहण्हारसंपिणद्धबुद्द सणिज्जरूवा संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा जरापरिणत व्व थेरगनरा पविरलपरिसडियदंतसेढी उन्भउघडमुहा विसमनयणा वकनासा वकवलीविगतमेसणमुहा कच्छूकसराभिभूता खरतिक्खनक्खकंडूइय-विक्खयतणू दुइ-किडिभ-सिज्झफुडियफरूसच्छवी चित्तलंगा टोलगति-विसम-संधिबंधणउपकुडुअटिगविभत्तदुब्बलाकुसंधयणकुप्पमाणकुसंठिता कुरुवा कुद्वाणासणकुसेज्जकुभोइणो प्रसुइणो अणेगवाहिरिपोलियंगमंगा खलंतिविन्भलगती निरुच्छाहा सत्तपरिवज्जिया विगतचेटुनद्वतया अभिवखणं सीय-उण्ह-खर-फरुस-वातविज्झडियमलिणपंसुरउग्गुडितंगमंगा बहुकोह-माण-माया बहुलोमा असुहदुक्खमागी प्रोसन्न धम्मसण्णा-सम्मतपरिभट्ठा उक्कोसेणं रणिपमाणमेत्ता सोलसबीसतियासपरमाउसा पुत्त-णतुपरियालपणयबहुला गंगा-सिधूम्रो महानदीयो वेयड्डं च पन्चयं निस्साए बहुतरि णिगोदा बीयंबीयामेत्ता बिलवासिणो भविस्संति / [33 प्र.] भगवन् ! उस समय (दुःषमदुःषम नामक छठे आरे) में भारतवर्ष के मनुष्यों का आकार या प्राचार और भावों का आविर्भाव (स्वरूप) कैसा होगा? [33 उ.] गौतम ! उस समय में भारतवर्ष के मनुष्य अति कुरूप, कुवर्ण, कुगन्ध, कुरस और कुस्पर्श से युक्त, अनिष्ट, अकान्त (कान्तिहीन या अप्रिय) यावत् अमनोगम, हीनस्वर वाले, दीनस्वर वाले, अनिष्टस्वर वाले यावत् अमनाम स्वर वाले, अनादेय और अप्रतीतियुक्त वचन वाले, निर्लज्ज, कूट-कपट, कलह, वध (मारपीट), बन्ध, और वैरविरोध में रत, मर्यादा का उल्लंघन करने में प्रधान (प्रमुख), अकार्य करने में नित्य उद्यत, गुरुजनों (माता-पिता आदि पूज्यजनों) के आदेशपालन, और विनय से रहित, विकलरूप (बेडौल सुरत शक्ल) वाले; बढ़े हुए नख, केश, दाढ़ी, मूछ और रोम वाले, Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कालेकलटे, अत्यन्त कठोर श्यामवर्ण के बिखरे हुए बालों वाले, पीले और सफेद केशों वाले, बहुत-सी नसों (स्नायुओं) से शरीर बंधा हुआ होने से दुर्दर्शनीय रूप वाले, संकुचित (सिकुड़े हुए) और वलीतरंगों (झुरियों) से परिबेष्टित, टेढ़ेमेढ़े अंगोपांग वाले, इसलिए जरापरिणत वद्धपुरुषों के समान प्रविरल (थोड़े-से) टूटे और सड़े हुए दांतों वाले, उद्भट घट के समान भयंकर मुख वाले, विषम नेत्रों वाले, टेढ़ी नाक वाले तथा टेढ़े मेढ़े एवं झुर्रियों से विकृत हुए भयंकर मुख वाले, एक प्रकार की भयंकर खुजली (पांव=पामा) बाले, कठोर एवं तीक्ष्ण नखों से खुजलाने के कारण विकृत बने हुए; दाद, एक प्रकार के कोढ़ (किडिभ), सिध्म (एक प्रकार के भयंकर कोढ वाले, फटी हुई कठोर चमड़ी वाले, विचित्र अंग वाले, ऊंट आदि-सी गति (चाल) वाले, (बुरी आकृति वाले), शरीर के जोड़ों के विषम बंधन वाले, ऊँची-नीची विषम हड्डियों एवं पसलियों से युक्त, कुगठनयुक्त, कुसंहनन वाले, कुप्रमाणयुक्त विषम संस्थानयुक्त, कुरूप, कुस्थान में बढ़े हुए शरीर वाले, कुशय्या वाले (खराब स्थान में शयन करने वाले), कुभोजन करने वाले, विविध व्याधियों से पीड़ित, स्खलित (लड़खड़ाती चाल) वाले, उत्साहरहित, सत्त्वरहित, विकृत चेष्टा वाले, तेजोहीन, बारबार शीत, उष्ण, तीक्ष्ण और कठोर वात से व्याप्त (संत्रस्त), रज आदि से मलिन अंग वाले अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ से युक्त, अशुभ दु:ख के भागी, प्रायः धर्मसंज्ञा और सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट, होंगे / उनको अवगाहना उत्कृष्ट एक रत्निप्रमाण (एक मुड हाथ भर) होगी। उनका आयुष्य (प्रायः) सोलह वर्ष का और अधिक-से-अधिक बीस वर्ष का (परमायुष्य) होगा / वे बहुत से पुत्रपौत्रादि परिवार वाले होंगे और उन पर उनका अत्यन्त स्नेह (ममत्व या मोहयुक्त प्रणय) होगा / इनके 72 कुटुम्ब (निगोद) बीजभूत (आगामी मनुष्यजाति के लिए बीजरूप) तथा बीजमात्र होंगे। ये गंगा और सिन्धु महानदियों के बिलों में और वैताढ्य पर्वत की गुफाओं का प्राश्रय लेकर निवास करेंगे। विवेचन-दुःषमदुःषमकाल में भारतवर्ष, भारत-भूमि एवं भारत के मनुष्यों के आचार (प्राकार) और भाव का स्वरूप-निरूपण प्रस्तुत सूत्र में विस्तार से अवसर्पिणी के छठे आरे के दुःषमदुः षमकाल में भारतवर्ष के, भारत-भूमि की, एवं भारत के मनुष्यों के आचार-विचार एवं आकार तथा भावों के स्वरूप का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-छठे बारे में भरतक्षेत्र की स्थिति अत्यन्त संकटापन्न, भयंकर, हृदय-विदारक, अनेक रोगोत्पादक, अत्यन्त शीत, ताप, वर्षा आदि से दुःसह्य एवं वनस्पतिरहित नीरस सूखी-रूखी भूमि पर निवास के कारण असह्य होगी। भारतभूमि अत्यन्त गर्म, धूलभरी, कीचड़ से लथपथ एवं जीवों के चलने में दुःसह होगी। भारत के मनुष्यों की स्थिति तो अत्यन्त दुःखद, असह्य, कषाय से रंजित होगी। विषम-बेडौल अंगों से युक्त होगी।' कठिन शब्दों के विशेष अर्थ-उत्तमकट्टपत्ताए उत्कट अवस्था-पराकाष्ठा या परमकष्ट को प्राप्त / दुन्विसहा = दुःसह, कठिनाई से सहन करने योग्य / वाउल = व्याकुल / वाया-संवट्टगा य वाहितिसंवर्तक हवाएँ चलेंगी। धूमाहिति =धूल उड़ती होने से / रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा - रज से मलिन होने से अन्धकार के पटल जैसी, नहीं दिखाई देने वाली। चंडानिलपहयतिक्खधारानिवायपउरं वासं वासिहिति = प्रचण्ड हवाओं से टकराकर अत्यन्त तीक्ष्ण धारा के साथ गिराने से प्रचुर 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग-१, पृ. 293-294 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [161 वर्षा बरसाएँगे / डोंगर - छोटे पर्वत / दुणिक्कमा=दुर्निक्रम–मुश्किल से चलने योग्य / अणादेज्जबयणा=जिनके वचन स्वीकार करने योग्य न हों। मज्जायातिक्कमप्यहाणा= मर्यादा का उल्लंघन करने में अग्रणी / गुरुनियोगविणयरहिता=गुरुजनों के आदेश पालन एवं विनय से रहित / फुट्टसिरा खड़े या बिखरे केशों वाले / कबिल-पलियकेसा= कपिल (पीले) एवं पलित (सफेद) केशों वाले। उभडघडमुहा= उद्भट- (विकराल) घटमुख जैसे मुखबाले / बंकवलोविगतभेसणमुहा = टेढ़ेमेढ़े झुरियों से व्याप्त (विकृत) भीषणमुख वाले / कच्छूकसराभिमूता कक्छू (पाँव) के कारण खाजखुजली से आक्रान्त / टोलगति =ऊँट के समान गति वाले, अथवा ऊँट के समान बेडोल आकृति वाले। खलंतबिम्भलगती = स्खलनयुक्त विह्वल गति वाले। प्रोसन्नं - बहुलता से, प्रायः / णिगोदा= कुटुम्ब / पुत्त-णत्तुपरियालपणयबहला-पुत्र-नाती आदि परिवार वाले एवं उनके परिपालन में अत्यन्त ममत्व वाले / ' छठे पारे के मनुष्यों के आहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के प्राचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन 34. ते णं भंते ! मणुया कमाहारमाहारेहिति ? गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा-सिंधूत्रो महानदीपो रहपहवित्थारानो अक्खसोतप्पमाणमित्तं जलं वोज्झिहिति, से वि य णं जले बहुमच्छ-कच्छभाइण्णे णो चेव शं प्राउबहुले भविस्सति / तए गं ते मण्या सूरोग्गमणमुहत्तंसि य सूरत्थमणमुहत्तंसि य बिलेहितो निद्वाहिति, विहितो निद्धाइत्ता मच्छ-कच्छभे थलाई गाहेहिति, मच्छ-कच्छभे थलाई गाहेत्ता सीतातवतत्तएहिं मच्छकच्छएहि एक्कवीसं वाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्संति / / [34 प्र.] भगवन् ! (उस दुषमदुःषमकाल के) मनुष्य किस प्रकार का प्राहार करेंगे ? [34 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में गंगा और सिन्धु महानदियाँ रथ के मार्गप्रमाण विस्तार वाली होंगी। उनमें अक्षस्रोतप्रमाण (रथ की धुरी के प्रवेश करने के छिद्र जितने भाग में पा सके उतना) पानी बहेगा। वह पानी भी अनेक मत्स्य, कछुए आदि से भरा होगा और उसमें भी पानी बहुत नहीं होगा / वे बिलवासी मनुष्य सूर्योदय के समय एक मुहूर्त और सूर्यास्त के समय एक मूहर्त (अपने-अपने) बिलों से बाहर निकलेंगे। बिलों से बाहर निकल कर वे गंगा और सिन्ध नदियों में से मछलियों और कछुआ आदि के सिन्ध नदियों में से मछलियों और कछओं आदि को पकड कर जमीन में गाड़ेंगे। इस प्रकार गाड़े हुए मत्स्य-कच्छपादि (रात की) ठंड और (दिन की) धूप से सिक जाएँगे / (तब वे शाम को गाड़े हुए मत्स्य प्रादि को सुबह और सुबह के गाड़े हुए मत्स्य आदि को शाम को निकाल कर खाएँगे / ) इस प्रकार शीत और आतप से पके हुए मत्स्य-कच्छपादि से इक्कीस हजार वर्ष तक जीविका चलाते हुए (जीवननिर्वाह करते हुए) वे विहरण (जीवनयापन) करेंगे। 35. ते गं भते ! मणुया निस्सीला णिगुणा निम्मेरा निष्पचक्खाणपोसहोववासा उस्सन्न मंसाहारा मच्छाहारा खोदाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छहिति ? कहि उववजिहिंति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 306 से 306 तक Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! प्रोसन्नं नरग-तिरिक्ख-जोणिएसु उववजिहिति / [35 प्र.] भगवन् ! वे (उस समय के) शीलरहित, गुणरहित, मर्यादाहीन, प्रत्याख्यान (त्याग-नियम) और पोषधोपवास से रहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी (अथवा मधु का आहार करने वाले अथवा भूमि खोद कर कन्दमूलादि का आहार करने वाले) एवं कुणिमाहारी (मृतक का मांस खाने वाले) मनुष्य मृत्यु के समय मर (काल) कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? [35 उ.] गौतम ! वे (पूर्वोक्त प्रकार के) मनुष्य मर कर प्रायः (नरक और तिर्यञ्चगति में जाएँगे, और) नरक एवं तिर्यञ्च-योनियों में उत्पन्न होंगे। 36, ते णं भाते ! सोहा बग्घा विगा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा णिस्सीला तहेव जाब कहि उवजिहिति ? गोयमा ! प्रोसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उबवजिहिति / [36 प्र.] भगवन् ! (उस काल और उस समय के) निःशील यावत् कुणिमाहारी सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िये), द्वीपिक (चीते, अथवा गेंडे), रोछ (भालू), तरक्ष (जरख) और शरभ (गेंडा) आदि (हिंस्र पशु) मृत्यु के समय मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? [36 उ.] गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होंगे। 37. ते णं मते ! ढंका कंका विलका मदुगा सिही णिस्सीला ? तहेव जाव प्रोसन्न नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववजिहिति / सेव भते ! सेव भंते ! ति। // सत्तम सए : छुट्टो उसनो समत्तो॥ [37 प्र.) भगवन् ! (उस काल और उस समय के) निःशील आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त ढंक (एक प्रकार के कौए), कंक, विलक, मद्गुक (जलकाक-जलकौए), शिखी (मोर) (आदि पक्षी मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ?) 37 उ.] गौतम ! (वे उस काल के पूर्वोक्त पक्षीगण मर कर) प्रायः नरक एवं तिर्यच योनियों में उत्पन्न होंगे। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन--छठे भारे के मनुष्यों के साहार तथा मनुष्य-पशुपक्षियों के प्राचार प्रादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 34 से 37 तक) में से प्रथम में छठे आरे के मनुष्यों की प्राहारपद्धति का तथा प्रागे के तीन सूत्रों में क्रमश: उस काल के निःशीलादि मानवों, पशुओं एवं पक्षियों को मरणोपरान्त गति-योनि का वर्णन किया गया है। निष्कर्ष-उस समय के मनुष्यों का आहार प्रायः मांस, मत्स्य और मृतक का होगा। मांसाहारी होने से वे शील, गुण, मर्यादा, त्याग-प्रत्याख्यान एवं व्रत-नियम आदि धर्म-पुण्य से नितान्त Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-६] [163 विमुख होंगे। मत्स्य आदि को जमीन में गाड़ कर, फिर उन्हें सूर्य के ताप और चन्द्रमा की शीतलता से सिकने देना ही उनकी आहार पकाने की पद्धति होगी / इस प्रकार की पद्धति से 21 हजार वर्ष तक जीवनयापन करने के पश्चात् वे मानव अथवा वे पशु-पक्षी आदि मर कर नरक या तियंञ्चगति में उत्पन्न होंगे। ___ कठिन शब्दों के विशेषार्थ-अक्खसोतप्पमाणमेतं- रथ की धुरी टिकने के छिद्र जितने प्रमाणभर / वोज्झिहिति= बहेंगे / निद्धाहिति = निकलेंगे। णिम्मेरा- कुलादि की मर्यादा से हीन, नंगधडंग रहने वाले / // सप्तम शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (भूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 295-296 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 309 Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : अरणगार सप्तम उद्देशक : अनगार संवृत एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को लगने वाली क्रिया को प्ररूपणा 1. संवुडस्स गंभ से अणगारस्स पाउत्तं गच्छमाणस्स जाव पाउत्तं तुयट्टमाणस्स, पाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं गिण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं मते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जति ? संपराइया किरिया कज्जति ? गोतमा ! संवडस्स गं अणगारस्स जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कति, णो संपराइया किरिया कज्जति / [1-1 प्र.] भगवन् ! उपयोगपूर्वक चलते-बैठते, यावत् उपयोगपूर्वक करवट बदलते (सोते) तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन (रजोहरण) आदि ग्रहण करते और रखते हुए उस संवृत (संवरयुक्त) अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? [1-1 उ.] गौतम ! उपयोगपूर्वक गमन करते हुए यावत् रखते हुए उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। [2] से के गट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ 'संवुडस्स गं जाव नो संपराइया किरिया कज्जति' ? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जति तहेब जाव उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति, से गं अहासुत्तमेव रोयति; से तेण?णं गोतमा ! जाव नो संपराइया किरिया कज्जति / / [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि यावत् उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? [1-2 उ.] गौतम! (वास्तव में) जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न (अनुदय प्राप्त अथवा सर्वथा क्षीण) हो गए हैं, उस (11-12-13 3 गुणस्थानवर्ती अनगार) को ही ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, क्योंकि वही यथासूत्र (यथाख्यात-चारित्र सूत्रों-नियमों के अनुसार) प्रवृत्ति करता है / इस कारण से, हे गौतम ! उसको यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। विवेचन-संवृत एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को लगने वाली क्रिया की प्ररूपणा–पूर्ववत् (शतक 61 उद्दे. 1 के सूत्र 16 के अनुसार) यहाँ भी संवृत एवं उपयोगपूर्वक Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-७] [ 165 यथासूत्र प्रवृत्ति करने वाले अकषायी अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगने की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। विविध पहलुओं से काम-भोग एवं कामो-भोगी के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा 2. रूबी मते ! कामा ? अरूवी कामा ? गोयमा ! रूबी कामा समणाउसो ! , नो प्ररूवी कामा / [2 प्र.] भगवन् ! काम रूपी हैं या अरूपी हैं ? [2 उ.] आयुष्मन श्रमण ! काम रूपी हैं, अरूपी नहीं हैं। 3. सचित्ता मते ! कामा ? अचित्ता कामा ? गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा। [3 प्र.] भगवन् ! काम सचित्त हैं अथवा अचित्त हैं ? [3 उ.] गौतम ! काम सचित्त भी हैं और काम अचित्त भी हैं। 4. जीवाभंते ! कामा ? अजीवा कामा ? गोतमा ! जीवा वि कामा, अजीवा विकामा। [4 प्र.] भगवन् ! काम जीव हैं अथवा अजीव हैं ? [4 उ.] गौतम ! काम जीव भी हैं और काम अजीव भी हैं। 5. जीवाणं भते! कामा ? अजीवाणं कामा ? गोयमा ! जीवाणं कामा, नो प्रजीवाणं कामा। [5 प्र.] भगवन् ! काम जीवों के होते हैं या अजीवों के होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! काम जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते। 6. कतिविहा गंमते ! कामा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा कामा पण्णत्ता, तं जहा-सहा घ, रूवा य / [6 प्र.] भगवन् ! काम कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [6 उ.] गौतम ! काम दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) शब्द और (2) रूप / 7. रुवी भते ! भोगा? अरूवो भोगा? गोयमा ! रूपी भोगा, नो अरूवी भोगा। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [7 प्र.] भगवन् ! भोग रूपी हैं अथवा अरूपी हैं ? [7 उ.] गौतम ! भोग रूपो होते हैं, वे (भोग) प्ररूपी नहीं होते। 8. सचित्ता मते ! भोगा ? अचित्ता भोगा? गोयमा ! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा। [8 प्र.] भगवन् ! भोग सचित्त होते हैं या अचित्त होते हैं ? [8 उ.] गौतम ! भोग सचित्त भी होते हैं और भोग अचित्त भी होते हैं। 6. जीवा भते ! भोगा? * पुच्छा। गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। [6 प्र.] भगवन् ! भोग जीव होते हैं या अजीव होते हैं। [6 उ.] गौतम ! भोग जीव भी होते हैं और भोग अजीव भी होते हैं / 10. जीवाणं भते ! भोगा? अजीवाणं भोगा? गोयमा ! जीवाणं मोगा, नो अजीवाणं भोगा। [10 प्र. भगवन् ! भोग जीवों के होते हैं या अजीवों के होते हैं ? [10 उ.] गौतम ! भोग जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते / 11. कतिविहा गं भंते ! भोगा पण्णता? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तं जहा-गंधा, रसा, फासा। [11 प्र.] भगवन् ! भोग कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [11 उ.] गौतम ! भोग तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—(१) गन्ध, (2) रस और (3) स्पर्श / 12. कतिविहा णं भते ! कामभोगा पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पण्णत्ता, तं जहा-सहा रूवा गंधा रसा फासा / [12 प्र.] भगवन् ! काम-भोग कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [12 उ.] गौतम ! काम-भोग पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श। 13. [1] जीवा णं मते ! कि कामी ? भोगी? गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि / [13-1 प्र.] भगवन् ! जीव कामी हैं अथवा भोगी हैं ? Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-७] [167 [13-1 उ.] गौतम जोव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। [2] से केणढणं भते! एवं वुच्छति 'जीवा कामी वि, भोगी वि' ? गोयमा ! सोइंदिय-क्लिदियाई पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई पडुच्च भोगी / से तेण?णं गोयमा ! जाव भोगी वि। [13-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं ? 13-2 उ.] गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षरिन्द्रिय की अपेक्षा से जीव कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से जीव भोगी हैं। इस कारण से, हे गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। 14. नेरइया णं भते ! किं कामी ? भोगी? एवं चेव / [14 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीव, कामी हैं अथवा भोगी हैं ? / [14 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव भी पूर्ववत् कामी भी हैं, भोगी भी हैं / 15. एवं जाव थणियकुमारा। [15] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 16. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढविकाइया नो कामी, भोगी। [16-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में भी यही प्रश्न है। [16.1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, कामी नहीं हैं, किन्तु भोगी हैं। [2] से केण?णं जाव भोगी ? गोयमा ! फासिदियं पडुच्च, से तेण?णं जाव भोगी। [16-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि पृथ्वीकायिक जीव कामी नहीं, किन्तु भोगी हैं ? [16-2 उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीव भोगी हैं / इस कारण से, हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव यावत् भोगी हैं। [3] एवं जाव वणस्सतिकाइया / [16-3] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए / 17. [1] बेइंदिया एवं चेव / नवरं जिभिदिय-फासिदियाइं पडुच्च / Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [17-1] इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीव भी भोगी हैं, किन्तु विशेषता यह है कि वे जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा भोगी हैं। [2] तेइंदिया वि एवं चेव / नवरं घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाई पड्डुच्च / [17-2] त्रीन्द्रिय जीव भी इसी प्रकार भोगी हैं, किन्तु विशेषता यह है कि वे घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से भोगी हैं। [3] चरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! चरिदिया कामी वि भोगी वि। {17-3 प्र.! भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में प्रश्न है कि वे कामी हैं अथवा भोगी हैं ! [17-3 उ.] गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। [4] से केण?णं जाव भोगी वि? गोयमा! चक्विदियं पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-कासिदियाई पडुच्च भोगी / से तेणढणं जाव भोगी वि। [17-4 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं ? [17-4 उ.] गौतम ! (चतुरिन्द्रिय जीव) चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा से कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की अपेक्षा से भोगी हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं / 18. अवसेसा जहा जीवा जाव वेमाणिया। [18] शेष वैमानिक-पर्यन्त सभी जीवों के विषय में औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए कि वे कामी भी हैं, भोगी भी हैं।। 19. एतेसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं नोकामीणं, नोभोगीणं, भोगीण य कतरे कतरेहितो जाव बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा कामभोगी, नोकामी नोभोगी अणंतगुणा, भोगी प्रणतगुणा / [16 प्र.] भगवन् ! काम-भोगी, नोकामी नोभोगी और भोगी, इन जीवों में से कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? [19 उ.] गीतम ! कामभोगी जोव सबसे थोड़े हैं, नोकामी-नोभोगी जीव उनसे अनन्तगुणे हैं और भोगी जीव उनसे अनन्तगणे हैं। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्द शक-७ ] [169 विवेचन-विविध पहलुत्रों से काम-भोग एवं कामी-भोगी के स्वरूप और उनके प्रल्पबहत्त्व की प्ररूपणा–प्रस्तुत अठारह सूत्रों (सू. 2 से 16 तक) में विविध पहलुओं से काम, भोग, कामी-भोगी जीवों के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व से सम्बन्धित सिद्धान्तसम्मत प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है। निष्कर्ष-जिनकी कामना-अभिलाषा तो की जाती हो किन्तु जो विशिष्ट शरीरस्पर्श के द्वारा भोगे न जाते हों, वे काम हैं, जैसे---मनोजशब्द, संस्थान तथा वर्ण काम हैं / रूपी का अर्थ है-जिनमें रूप या मूर्तता हो / इस दृष्टि से काम रूपी हैं, क्योंकि उनमें पुदगलधर्मता होने से वे मूर्त हैं। समनस्क प्राणी के रूप की अपेक्षा से काम सचित्त हैं और शब्दद्रव्य की अपेक्षा तथा असंज्ञी जीवों के शरीर के रूप की अपेक्षा से वे अचित्त भी हैं। यह सचित्त और अचित्त शब्द विशिष्ट चेतना अथवा संज्ञित्व तथा विशिष्टचेतनाशून्यता अथवा असंज्ञित्व का बोधक है / जीवों के शरीर के रूपों की अपेक्षा से काम से काम जीव हैं और शब्दों तथा चित्रित पतली. चित्र आदि की अपेक्षा से काम अजीव भी हैं / कामसेवन के कारणभूत होने से वे जीवों के ही होते हैं, अजीवों में काम का अभाव है। जो शरीर से भोगे जाएँ, वे गन्ध, रस और स्पर्श 'भोग' कहलाते हैं / वे भोग पुदगल धर्मी होने से मूर्त हैं, अतः रूपी हैं, अरूपी नहीं। किन्हीं संज्ञीजीवों के गन्धादिप्रधान शरीरों की अपेक्षा से भोग सचित्त हैं और असंज्ञीजीवों के गन्धादिविशिष्ट शरीरों की अपेक्षा अचित्त भी हैं। जीवों के शरीर तथा अजीव द्रव्य विशिष्टगन्धादि की अपेक्षा से भोग, जीव भी है, अजीव भी। चतुरिन्द्रिय और सभी पंचेन्द्रिय जीव काम-भोगी हैं, वे सबसे थोड़े हैं। उनसे नोकामीनोभोगी अर्थात् सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं और भोगी जीव-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, और त्रीन्द्रिय जीव उनसे अनन्तगुणे हैं क्योंकि वनस्पतिकाय के जीव अनन्त हैं।' क्षीणभोगी छद्मस्थ, अधोऽवधिक, परमावधिक एवं केवली मनुष्यों में भोगित्व-प्ररूपणा 20. छउमत्थे गं भंते ! मणुस्से जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से नूर्ण भंते ! से खोणभोगी नो पभू उदाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए, से नूर्ण भंते ! एयम एवं वयह ? गोयमा ! जो इण? सम8, पभू णं से उट्ठाणेण वि कम्मेण वि बलेण वि वोरिएण वि पुरिसक्कारपरक्कमेण वि अन्नयराई विपुलाई भोगमोंगाई भुजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिच्चयमाणे महानिज्जरे महापजनवसाणे भवति / [20 प्र.] भगवन् ! ऐसा छद्मस्थ मनुष्य, जो किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होने वाला है, भगवन् ! वास्तव में, क्षीणभोगी (अन्तिम समय में दुर्बल शरीर वाला होने से) उत्थान, कर्म बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम के द्वारा विपुल और भोगने योग्य भोगों को भोगता हुया विहरण (जीवनयापन) करने में समर्थ नहीं है ? भगवन् ! क्या आप इस अर्थ (तथ्य) को इसी तरह कहते हैं ? 20 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह (देवलोक में उत्पत्तियोग्य क्षीणशरीरी भी) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम द्वारा किन्हीं विपुल एवं भोग्य भोगों को 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 310-311 Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (यत्किचित् रूप में, मन से भी) भोगने में समर्थ है / इसलिए वह भोगी भोगों का (मन से) परित्याग करता हुआ ही महानिर्जरा और महापर्यवसान (महान् शुभ अन्त) वाला होता है। 21. प्राहोहिए णं भंते ! मणुस्ते जे भविए अन्नयरेसु देवलोएसु०, / एवं चेव जहा छउमत्थे जाव महापज्जवसाणे भवति / [21 प्र.] भगवन् ! ऐसा अधोऽवधिक (नियत क्षेत्र का अवधिज्ञानी) मनुष्य, जो किसी देवलोक में उत्पन्न होने योग्य है, क्या वह क्षीणभोगी उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम द्वारा विपुल एवं भोग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? [21 उ.] (हे गौतम ! )......." इसके विषय में उपर्युक्त छद्मस्थ के समान ही कथन जान लेना चाहिए; यावत् (भोगों का परित्याग करता हुआ ही वह महानिर्जरा और) महापर्यवसान वाला होता है। 22. परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव अंतं करेत्तए, से नणं भंते ! से खीण मोगी। सेसं जहा छउमथस्स। [22 प्र.] भगवन् ! ऐसा परमावधिक (परम अवधिज्ञानी) मनुष्य जो उसी भवग्रहण से (जन्म में) सिद्ध होने वाला यावत् सर्व-दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह क्षीणभोगी यावत् भोगने योग्य विपुल भोगों को भोगने में समर्थ है ? [22 उ.] (हे गौतम ! ) इसका उत्तर भी छद्मस्थ के लिये दिये हुए उत्तर के समान समझना चाहिए। 23. केवली गं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं० / एवं चेव जहा परमाहोहिए जाव महापज्जवसाणे भवति / [23 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्य भी, जो उसी भव में सिद्ध होने वाला है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह विपुल और भोग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? [24 उ. (हे गौतम !) इसका कथन भी परमावधिज्ञानी की तरह करना चाहिए, या यावत् वह महानिर्जरा और महापर्यवसान बाला होता है। विवेचन-क्षीणभोगी छमस्थ, अधोंऽवधिक, परमावधिक, एवं केवली मनुष्यों में भोगित्वप्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 20 से 23 तक) में अन्तिम समय में क्षीणदेह छद्मस्थादि मनुष्य भोग भोगने में असमर्थ होने से भोगी कैसे कहे जा सकते हैं ? इस प्रश्न का सिद्धान्तसम्मत समाधान प्रतिपादित किया गया है। भोग भोगने में असमर्थ होने से ही भोगत्यागी नहीं-भोग भोगने का साधन शरीर होने से उसे यहाँ भोगी कहा गया है। तपस्या या रोगादि से जिसका शरीर अशक्त और क्षीण हो गया है, उसे 'क्षीणभोगी' कहते हैं। देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होने वाला छद्मस्थ मनुष्य मरणासन्न अवस्था Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-७j [ 171 में अत्यन्त क्षीणभोगी दुर्बल होने से अन्तिम समय में जीता हुआ भी उत्थानादि द्वारा किन्हीं भोगों को भोगने में जब असमर्थ है, तब वह भोगी कैसे कहलाएगा? उसे भोगत्यागी कहना चाहिए; यह 21 वें सुत्रके प्रश्न का प्राशय है। इसका सिद्धान्तसम्मत उत्तर दिया गया है कि ऐसा दर्बल मानव भी अन्तिम अवस्था में जीता हुआ भी (मन एवं वचन से) भोगों को भोगने में समर्थ होता है। अतएव वह भोगी ही कहलाएगा, भोगत्यागी नहीं। भोगत्यागी तो वह तब कहलाएगा, जब भोगों (स्वाधीन अथवा अस्वाधीन समस्त भोग्य भोगों) का मन-वचन-काया तीनों से परित्याग कर देगा। ऐसी स्थिति में वह भोग-त्यागी मनुष्य निर्जरा करता है, उससे भी देवलोकगति प्राप्त करता है अथवा महानिर्जरा एवं महापर्यवसान वाला होता है। नियतक्षेत्रविषयक अवधिज्ञान वाला अधोऽवधिक कहलाता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञानवाला परमावधिज्ञानी चरमशरीरी होता है, और केवलज्ञानी तो चरमशरीरी है ही। इन की भोगित्व एवं भोगत्यागित्व सम्बन्धी प्ररूपणा छद्मस्थ की तरह ही है / असंज्ञी और समर्थ (संजी) जीवों द्वारा अकामनिकरण और प्रकामनिकरण वेदन का सयुक्तिक निरूपण 24. जे इमे भते ! असणिणो पाणा, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया छट्ठा य एगइया तसा, एते णं अंधा मूढा तमं पविट्ठा तमपडलमोहजालपलिच्छन्ना अकामनिकरणं वेदणं वेतीति वत्तव्य सिया? हंता, गोयमा ! जे इमे प्रसणिणो पाणा जाव वेदणं वेतीति बत्तव्य सिया। [24 प्र.] भगवन् ! ये जो असंज्ञी (अमनस्क) प्राणी हैं, यथा--पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और. वनस्पतिकायिक; ये पांच (स्थावर) तथा छठे कई सकायिक (सम्मूच्छिम) जीव हैं, जो अन्ध (अन्धों की तरह प्रज्ञानान्ध) हैं, मूढ़ (मोहयुक्त होने से तत्वश्रद्धान के अयोग्य) हैं, तामस (अज्ञानरूप अन्धकार) में प्रविष्ट की तरह हैं, (ज्ञानावरणरूप) तम:पटल और (मोहनीयरूप) मोहजाल से प्रतिच्छन्न (आच्छादित) हैं, वे अकाम निकरण (अज्ञान रूप में) वेदना वेदते हैं, क्या ऐसा कहा जा सकता है ? _ [24 उ.] हां गौतम ! जो ये असंज्ञो प्राणी पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और छठे कई त्रसकायिक (सम्मूच्छिम) जीव हैं, यावत्""ये सब अकामनिकरण बेदना वेदते हैं, ऐसा कहा जा सकता है। 24. अत्यि भाते ! पभू वि प्रकामनिकरण वेदणं वेदेति ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक तुलना कीजिए वत्थ-गंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य / अच्छंदा जे न भुजंति, न से 'चाइ' त्ति वच्चाई।। 2 / / जे य कंते पिए भोए लद्ध वि पिठिकूव्वई। साहीणे चयइ भोए, से हु 'चाइ' त्ति बुच्चई / / ३॥-दशवकालिक सूत्र अ. 2, गा. 2-3 2. अकामनिकरणं-जिसमें अकाम अर्थात वेदना के अनुभव में अमनस्क होने से अनिच्छा ही निकरण = कारण है, वह अकामनिकरण है; यह अजानकारणक है / तावरणरूप) तमः Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हंता, गोयमा ! अस्थि / [25 प्र.] भगवन् ! क्या ऐसा होता है कि समर्थ होते हुए भी जीव, अकामनिकरण (अज्ञानपूर्वक-अनिच्छापूर्वक) वेदना को वेदते हैं ? [25 उ.] हाँ, गौतम ! वेदते हैं। 26. कहं गं भते ! पभू वि प्रकामनिकरणं वेदणं वेदेति ? गोतमा ! जे णं णो पभू विणा पदीवेणं अंधकारंसि रूवाई पासित्तए, जे गं नो पभू पुरतो रूबाई अणिज्झाइत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पमू मग्गतो रुवाइं प्रणवयक्खित्ता णं पासित्तए, जे शं नो पभू पासतो रूवाई अणवलोएत्ता णं पासित्तए, जे णं नो पभू उड्ढं रूवाई प्रणालोएत्ता गं पासित्तए, जे गं नो पभू अहे रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, एस गं गोतमा ! पभू वि अकामनिकरणं वेदणं वेदेति / [26 प्र.] भगवन् ! समर्थ होते हुए भी जीव, अकामनिकरण वेदना को कैसे वेदते हैं ? / 26 उ.] गौतम ! जो जीव समर्थ होते हुए भी अन्धकार में दीपक के बिना रूपों (पदार्थों) को देखने में समर्थ नहीं होते, जो अवलोकन किये बिना सम्मुख रहे हुए रूपों (पदार्थों) को देख नहीं ण किये बिना पोछे (पीठ के पीछे) के भाग को नहीं देख सकते, अवलोकन किये बिना अगल-बगल के (पार्श्वभाग के दोनों ओर के) रूपों को नहीं देख सकते, पालोकन किये बिना ऊपर के रूपों को नहीं देख सकते और न पालोकन किये बिना नीचे के रूपों को देख सकते हैं, इसी प्रकार हे गौतम ! ये जीव समर्थ होते हुए भी अकामनिकरण वेदना वेदते हैं। 27. अस्थि णं भते ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेदेति / हंता, अत्यि। [२७.प्र.] भगवन् ! क्या ऐसा भी होता है कि समर्थ होते हुए भी जीव, प्रकामनिकरण, (तीन इच्छापूर्वक) वेदना को वेदते हैं ? [27 उ.] हाँ, गौतम ! वेदते हैं। 28. कहं णं माते ! पभू वि पकामनिकरणं' वेदणं वेदेति ? गोयमा ! जे णं नो पमू समुहस्स पारं गमित्तए, जे णं नो पमू समुहस्स पारगताई रूवाई पासित्तए, जे णं नो पभू देवलोगं गमित्तए, जे शं नो पभू देवलोगगताई रूवाई पासित्तए एस णं गोयमा ! पभू वि पकामनिकरणं वेदणं वेति / सेवं भते ! सेवं भते ! ति। // सत्तमसए : सत्तमो उद्दसश्रो समत्तो॥ 1. पकामनिकरणं-प्रकाम-अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति न होने से प्रकृष्ट अभिलाषा ही जिसमें निकरण-कारण है, वह प्रकामनिकरण है। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [173 सप्तम शतक : उद्देशक-७] [28 प्र.] भगवन् ! समर्थ होते हुए भी जीव, प्रकामनिकरण वेदना को किस प्रकार वेदते हैं ? [28 उ. गौतम ! जो समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं हैं, जो समुद्र के पार रहे हुए रूपों को देखने में समर्थ नहीं हैं, जो देवलोक में जाने में समर्थ नहीं हैं, और जो देवलोक में रहे हुए रूपों को देख नहीं सकते; हे गौतम ! वे समर्थ होते हुए भी प्रकामतिकरण वेदना को वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्रसंज्ञो और समर्थ (संजी) जीवों द्वारा प्रकामनिकरण एवं प्रकामनिकरणवेदन का सयुक्तिक निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 24 से 28 तक) में असंज्ञी एवं समर्थ जीवों द्वारा अकामनिकरण वेदन का तथा समर्थ जीवों द्वारा प्रकामनिकरणवेदन का सयुक्तिक निरूपण किया गया है। असंज्ञी और संज्ञो द्वारा प्रकाम-प्रकामनिकरण वेदन क्यों और कैसे ?–असंज्ञी जीवों के मन न होने से वे इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति या विचारशक्ति के अभाव में सुखदुख:रूप वेदना अकामनिकरण रूप में (अनिच्छा से, अज्ञानतापूर्वक) भोगते हैं। संज्ञी जीव समनस्क होने से देखने-जानने में अथवा ज्ञानशक्ति और इच्छाशक्ति में समर्थ होते हुए भी अनिच्छापूर्वक (अकामनिकरण) अज्ञानदशा में सुखदुःखरूप वेदन करते हैं। जैसे—देखने को शक्ति होते भी अन्धकार में रहे हुए पदार्थों को दीपक के बिना मनुष्य नहीं देख सकता, इसी प्रकार आगे-पीछे, अगल-बगल, ऊपर नीचे रहे हुए पदार्थों को देखने की शक्ति होते हुए भी मनुष्य उपयोग के बिना नहीं देख सकता; वैसे ही समर्थ जीव के विषय में समझना चाहिए। संज्ञी (समनस्क) जीवों में इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति होते हुए भी उसे प्रवृत्त करने का सामर्थ्य नहीं है, केवल उसको तीव्र अभिलाषा है, इस कारण वे प्रकामनिकरण (तीव्र इच्छापूर्वक) वेदना वेदते हैं। जैसे- समुद्रपार जाने की, समुद्रपार रहे हुए रूपों को देखने की, देवलोक में जाने की तथा वहाँ के रूपों को देखने की शक्ति न होने से जीव तीव्र अभिलाषापूर्वक वेदना वेदते हैं, वैसे ही यहाँ समझना चाहिए / निष्कर्ष-असंज्ञी जीव इच्छा और ज्ञान की शक्ति के अभाव में अनिच्छा से अज्ञानपूर्वक सुखदुःख वेदते हैं। संज्ञी जीव इच्छा और ज्ञानशक्ति से युक्त होते हुए भी उपयोग के बिना अनिच्छा से और अज्ञानपूर्वक सुख-दुःख वेदते हैं, और ज्ञान एवं इच्छाशक्ति से युक्त होते हुए भी प्राप्तिरूप सामर्थ्य के अभाव में मात्र तीवकामनापूर्वक वेदना वेदते हैं।' // सप्तम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती० अ. वत्ति, पत्रांक 312, (ख) भगवती (गुजराती अनुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 3, पृ. 26 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदमो उद्देसओ : 'छउमत्थ' अष्टम उद्देशक : 'छद्मस्थ संयमादि से छमस्थ के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का निषेध 1. छउमस्थे णं मते ! मणूसे तीयमणतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं० ? एवं जहा पढमसते चउत्थे उद्देसए (सू० 12-18) तहा भाणियध्वं जाव अलमत्थु / 1 प्र.भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य, अनन्त और शाश्वत अतीतकाल में केवल संयम द्वारा, केवल संवर द्वारा, केवल ब्रह्मचर्य से, तथा केवल अष्टप्रवचनमाताओं के पालन से सिद्ध हुआ है, बुद्ध हुआ है, यावत् उसने सर्व दुःखों का अन्त किया है ? [1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / इस विषय में प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक (सू. 12-18) में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार यहाँ यावत् 'अलमत्थु पाठ तक कहना चाहिए। विवेचन--संयमादि से छद्मस्य के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का निषेध-प्रस्तुत प्रथम सूत्र में भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में उक्त पाठ के अतिदेशपूर्वक निषेध किया गया है कि केवल संयम आदि से अतीत में कोई छद्मस्थ सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हुअा, अपितु केवली होकर ही सिद्ध होते हैं, यह निरूपण है / फलितार्थ-प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशकोक्त पाठ का फलितार्थ यह है कि भूत, वर्तमान और भविष्य में जितने जीव सिद्ध, बुद्ध मुक्त हुए हैं, होते हैं, होंगे, वे सभी उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त, जिन, केवली होकर ही हुए हैं, होते हैं, होंगे। उत्पन्न ज्ञान-दर्शनधारक अरिहन्त, जिन केवली को ही अलमत्थु (पूर्ण) कहना चाहिये।' हाथी और कुथुए के समानजीवत्व की प्ररूपरणा 2. से पूर्ण भंते ! हत्यिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे ? हता, गोयमा ! हस्थिस्स य कुथुस्स य एवं जहा रायपसेणहज्जे जाव खुड्डियं वा, महालियं वा, से तेण?णं गोयमा ! जाव समे चेव जोवे / [2 प्र. भगवन् ! क्या वास्तव में, हाथी और कुन्थुए का जीव समान है ? [2 उ.] हाँ गौतम ! हाथी और कुन्थुए का जीव समान है / इस विषय में रायपसेणीय (राजप्रश्नीय) सूत्र में कहे अनुसार यावत् 'खुड्डियं वा महालियं वा' इस पाठ तक कहना चाहिए। हे गौतम ! इसी कारण से हाथी और कुथुए का जीव समान है। 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भाग 3, पृ. 1183 Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-८] [175 विवेचन-हाथी और कुन्थए के समान जीवत्व की प्ररूपणा-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में रायपसेणीय सूत्रपाठ के अतिदेशपूर्वक हाथी और कुन्थुए के समजीवत्व की प्ररूपणा को गई है / राजप्रश्नीय सूत्र में समान जीवत्व की सदृष्टान्त प्ररूपणा हाथी का शरीर बड़ा और कुथुए का छोटा होते हुए भी दोनों में मूलतः आत्मा (जीव) समान है, इसे सिद्ध करने के लिए राजप्रश्नीय सूत्र में दीपक का दृष्टान्त दिया गया है / जैसे—एक दीपक का प्रकाश एक कमरे में फैला हुआ है, यदि उसे किसी बर्तन द्वारा ढंक दिया जाए तो उसका प्रकाश बर्तन-परिमित हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव हाथी का शरीर धारण करता है तो वह (आत्मा) उतने बड़े शरीर में व्याप्त रहता है और जब कुथुए का शरीर धारण करता है तो उसके छोटे-से शरीर में (आत्मा) व्याप्त रहता है / इस प्रकार केवल छोटे-बड़े शरीर का ही अन्तर रहता है जीव में कुछ भी अन्तर नहीं है / सभी जीव समान रूप से असंख्यात प्रदेशों वाले हैं। उन प्रदेशों का संकोच-विस्तार मात्र होता है। चौबीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसको निर्जरा सुखरूप--- 3. नेरइयाणं भते ! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कन्जति, जे य कज्जिस्सति सम्वे से दुक्खे ? जे निज्जिणे हंता, गोयमा ! नेरइयाणं पावे कम्मे जाव सुहे। [3 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, जो किया जाता है और जो किया जाएगा, क्या वह सब दुःखरूप है और उनके द्वारा) जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सुख [3 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, यावत् वह सब दुःखरूप है और (उनके द्वारा) जिन (पापकर्मों) की निर्जरा की गई है, वह सब सुखरूप है। 4. एवं जाव वेमाणियाणं। [4] इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों में जान लेना चाहिए। विवेचन-चौबीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसकी निर्जरा सुखरूप—प्रस्तुत सूत्रद्वय में नैरयिकों से वैमानिक-पर्यन्त सब जीवों के लिए पापकर्म दुख :रूप और उसकी निर्जरा सुखरूप बताई गई है। निष्कर्ष-पापकर्म संसार-परिभ्रमण का कारण होने से दुःखरूप है, और पापकर्मों की निर्जरा सुखस्वरूप मोक्ष का हेतु होने से सुखरूप है।' सुख और दुःख के कारण को यहाँ सुख-दुःख कहा गया है / संज्ञाओं के दस प्रकार-चौबीस दण्डकों में कति णं भते! सण्णाश्रो पण्णत्तामो? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 313, (ख) भगवती (हिन्दी-विवेशन) भा. 3, पृ. 1185 Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! दस सण्णासो पण्णत्ताओ, तं जहा--प्राहारसण्णा 1 भयसण्णा 2 मेहुणसण्णा 3 परिग्गहसण्णा 4 कोहसण्णा 5 माणसण्णा 6 मायासण्णा 7 लोभसण्णा 8 पोहसण्णा लोगसण्णा 10 / [5 प्र.] भगवन् ! संज्ञाएँ कितने प्रकार की कही गई हैं ? [5 उ.] गौतम ! संज्ञाएँ दस प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) आहारसंज्ञा, (2) भयसंज्ञा, (3) मैथुनसंज्ञा, (4) परिग्रहसंज्ञा, (5) क्रोधसंज्ञा, (6) मानसंज्ञा, (7) मायासंज्ञा, (8) लोभसंज्ञा, (6) लोकसंज्ञा और (10) प्रोघसंज्ञा / 6. एवं जाव वेमाणियाणं / [6] वैमानिकपर्यन्त चौबीस दण्डकों में ये दस संज्ञाएँ पाई जाती हैं। विवेचन-संज्ञानों के दस प्रकार : चौबीस दण्डकों में प्रस्तुत पंचम सूत्र में प्राहार संज्ञा आदि 10 प्रकार की संज्ञाएँ चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में बताई गई हैं। संज्ञा की परिभाषाएँ-संज्ञान या प्राभोग अर्थात्-एक प्रकार की धुन को या मोहनीयादि कर्मोदय से आहारादि प्राप्ति की इच्छाविशेष को संज्ञा कहते हैं, अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन या मानसिक ज्ञान भी संज्ञा है। अथवा जिस क्रिया से जीव की इच्छा जानी जाए. उस क्रिया को भी संज्ञा कहते हैं। संज्ञाओं की व्याख्या--(१) प्राहारसंज्ञा-क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि अाहारार्थ पुद्गल-ग्रहणेच्छा; (2) भय संज्ञा–भयमोहनीय के उदय से व्याकुलचित पुरुष का भयभीत होना, कांपना, रोमांचित होना, घबराना आदि; (3) मैथुनसंज्ञा-पुरुषवेदादि (नोकषायरूप वेदमोहनीय) के उदय से, स्त्री आदि के अंगों को छुने, देखने आदि की तथा तज्जनित कम्पनादि, जिससे मैथुनेच्छा अभिव्यक्त हो; (4) परिग्रहसंज्ञा--लोभरूप कषायमोहनीय के उदय से आसक्तिपूर्वक्त सचित्त-अचित्तद्रव्यग्रहणेच्छा; (5) क्रोधसंज्ञा-क्रोध के उदय से आवेश, दोष रूप परिणाम एवं नेत्र लाल होना, कांपना, मुह सूखना आदि क्रियाएँ / (6) मानसंज्ञा-मान के उदय से अहंकारादिरूप परिणाम; (7) मायासंज्ञा-माया के उदय से दुर्भावनावश दूसरों को ठगना, धोखा देना आदि; (8) लोभसंज्ञा--लोभके उदय से सचित्त-अचित्तपदार्थ-प्राप्ति की लालसा; (8) अोघसंज्ञा–मतिज्ञानावरण प्रादि के क्षयोपशमसे शब्द और अर्थ का सामान्यज्ञान: अथवा धन ही धन में बिना उपयोग के की गई प्रवत्ति, और (10) लोकसंज्ञा-सामान्य रूप से ज्ञात वस्तू को विशेष रूप से जानना, अथवा लोकरूढि या लोकदृष्टि के अनुसार प्रवृत्ति करना लोकसंज्ञा है / ' ये दसों संज्ञाएँ न्यूनाधिक रूप से सभी छद्मस्थ संसारी जीवों में पाई जाती हैं / नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ 6. नेरइया दसविहं वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-सीतं उसिणं खुहं पिवासं कंडु परज्झं जरं दाहं भयं सोगं / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 314 Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम : शतक : उद्देशक-] [ 177 [7] नैरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। वह इस प्रकार-- (1) शीत, (2) उष्ण, (3) क्षुधा, (4) पिपासा (5) कण्डू (खुजली), (6) पराधीनता, (7) ज्वर, (8) दाह, (6) भय और (10) शोक / विवेचन नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ-प्रस्तुत सूत्र में शीत आदि दस वेदनाएँ, जो नैरयिकों को प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं, बताई गई हैं। हाथी और कुथए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा 8. [1] से नूणं भते ! हथिस्स य कुथुस्स य समा चेव अपच्चक्खाणकिरिया कज्जति ? हंता, गोयमा ! हस्थिस्स य कुयुस्स य जाव कज्जति / [8-1 प्र] भगवन् क्या वास्तव में, हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है ? [8-1 उ] हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। [2] से केण?णं मते ! एवं बुच्चइ जाव कज्जति ? गोयमा ! प्रदिरति पडुच्च / से तेज? जाव कज्जति / 18-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा प्राप किस कारण से कहते हैं कि हाथी और कुथुए के यावत् क्रिया समान लगती है ? [8-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा से हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। विवेचन-हाथी और कुथुए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र में हाथी और कुन्थुए को अविरति की अपेक्षा से अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान रूप से लगने की / प्ररूपणा की गई है, क्योंकि अविरति का सद्भाव दोनों में समान है। प्राधाकमसेवी साधु को कर्मबन्धादि-निरूपणा ___. प्राहाकम्मं णं भंते ! भुजमाणे कि बंधति ? कि पकरेति ? कि चिणाति ? कि उवचिणाति ? __ एवं जहा पढमे सते नवमे उद्दसए (सू. 26) तहा भाणियन्वं जाव सासते पंडिते, पंडितत्तं असासयं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० ! ॥सत्तमसए : अट्ठमो उद्देसनो समतो॥ [1 प्र.] भगवन् ! आधाकर्म (आहारादि) का उपयोग करने वाला साधु क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [9 उ.] गौतम ! प्राधाकर्म अाहारादि का उपभोग करने वाला साध प्रायुष्यकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को, यदि वे शिथिल बन्ध से बंधी हुई हों तो, गाढ बंध वाली करता है, यावत् बार-बार संसार-परिभ्रमण करता है / इस विषय का सारा वर्णन प्रथम शतक के नौवें उद्देशक (सू. 26) में कहे अनुसार-यावत् 'पण्डित शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है' यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्राधाकर्मसेवी साधु को कर्मबन्धादि निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में प्रथम शतक के 8 वें उद्देशक के अतिदेशपूर्वक प्राधाकर्मदोषसेवन का दुष्फल बताया गया है / प्राधाकर्म-पाहार, पानी आदि कोई भी पदार्थ जो साधु के निमित्त बनाए जाएँ, वे प्राधाकर्मदोष युक्त हैं / इसका विशेष विवरण प्रथम शतक के नौवें उद्देशक से जान लेना चाहिए / // सप्तम शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'असंवुड' नवम उद्देशक : 'असंवृत' असंवृत अनगार द्वारा इहगत बाापुद्गलग्रहरणपूर्वक विकुर्वरण-सामर्थ्य-निरूपण 1. प्रसंवडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियादिइत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउवित्तए? णो इण? सम?। [1 प्र.] भगवन् ! क्या असंवृत (संवररहित = प्रमत्त) अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना, एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [1 उ.] (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है। 2. असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियादिइत्ता पभू एगवणं एगरूवं जाव हंता, पभू / [2 प्र.] भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है / 3. से भंते ! कि इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विउन्धइ ? तत्थगए पोग्गले परियादिवत्ता विउब्वइ ? अन्नत्थगए पोमाले परियादिइत्ता विउवइ ? गोयमा ! इहगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुम्वइ, नो तत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुब्बई, नो प्रनत्थगए पोग्गले जाव विकुम्वइ / [3 प्र.] भगवन् ! वह असंवृत अनगार यहाँ (मनुष्य-लोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, या वहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्बणा करता है, अथवा अन्यत्र रहे पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? __ [3 उ.] गौतम ! वह यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, किन्तु न तो वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, और न ही अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है। 4. एवं एगवण्णं प्रणेगरूवं चउभंगो जहा छट्ठसए नवमे उद्देसए (सू. 5) तहा इहावि भाणियव्वं / नवरं अणगारे इहगए चेव पोग्गले परियादिइत्ता विकुम्वइ / सेसं तं चैव जाव लुक्खपोग्गलं निद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हंता, पभू / से भंते ! कि इंहगए पोग्गले परियादिइत्ता जाव (सू. 3) नो अन्नत्थगए पोग्गले परियादिइत्ता विकुवई। [4] इस प्रकार एकवर्ण एकरूप, एकवर्ण अनेकरूप, अनेकवर्ण एकरूप और अनेकवर्ण अनेकरूप; यों चौभंगी का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नौवें उद्देशक (सू. 5) में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि यहाँ रहा हुआ मुनि, यहाँ रहे हुए गलों को ग्रहण करके बिकुर्वणा करता है। शेष सारा वर्णन उसी के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् '[प्र.] भगवन् ! क्या रूक्ष पुद्गलों को स्निग्ध पुद्गलों के रूप में परिणत करने में समर्थ है ? [उ.] हाँ, गौतम ! समर्थ है। [प्र.] भगवन् ! क्या वह यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके यावत् (सू. 3) अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण किये बिना विकुर्वणा करता है ?' यहां तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रसंवत प्रमगार के विकर्वण-सामर्थ्य का निरूपण—प्रस्तुत सूत्रचतुष्टय में असंवृत अनगार के विकुर्वण-सामर्थ्य का छठे शतक के नौवें उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-वैक्रियल ब्धिमान असंवत अनगार यहाँ रहे हुए बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके ही एकवर्ण-एकरूप, एकवर्ण-अनेकरूप, अनेकवर्ण-एकरूप या अनेकवर्ण-अनेकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है, अन्यथा नहीं / इसी प्रकार वह यहाँ रहा हुआ, यहाँ रहे हुए बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है, यहाँ तक कि वर्ण की तरह गन्ध, रस, स्पर्श आदि के विविध विकल्प भी उसके विकूर्वणा-सामर्थ्य की सीमा में हैं, जिनका कथन छठे शतक के नौवें उद्देशक की तरह यहाँ भी कर लेना चाहिए।' निष्कर्ष यह है कि वर्ण के 10, गंध का 1, रस के 10, और स्पर्श के चार, यों 25 भंग एवं पहले के चार भंग मिला कर कुल 29 भंग होते हैं। ___'इहगए', 'तत्थगए' एवं 'अनस्थगए' का तात्पर्य-प्रश्नकर्ता गौतम स्वामी हैं, अतः उनकी अपेक्षा 'इहगए' का अर्थ 'मनुष्यलोक में रहा हुमा' ही करना संगत है / 'तत्थगए' का अर्थ है-वैक्रिय करके वह अनगार जहाँ जाएगा, वह स्थान और 'अनत्थगए' का अर्थ है-उपर्युक्त दोनों स्थानों से भिन्न स्थान / तात्पर्य यह है कि जिस स्थान पर रह कर अनगार वैक्रिय करता है, वहाँ के पुद्गल 'इहगत' कहलाते हैं। वैक्रिय करके जिस स्थान पर जाता है, वहाँ के पुदगल 'तत्रगत' कहलाते हैं; और इन दोनों स्थानों से भिन्न स्थान के पुदगल 'अन्यत्रगत हैं। देव तो 'तत्रगत' अर्थात-देवलोकगत पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय कर सकता है, लेकिन अनगार तो मध्य लोकगत होने के कारण 'इहगत' अर्थात्-मनुष्यलोकगत पुद्गल को ही ग्रहण करके विक्रिया कर सकता है / 2 / महाशिलाकण्टक संग्राम में जय-पराजय का निर्णय 5. गायमेतं प्ररहता, सुयमेतं अरहया, विष्णायमेत प्ररहया, महासिलाकंटए संगामे महा. सिलाकंटए संगामे / महासिलाकंटए गं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जयित्था ? के पराजइत्था ? 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 303 (ख) भगवतीसूत्र के थोकड़े, द्वितीय भाग, थोकड़ा नं. 67, पृ. 125 2. भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक 315 Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [181 गोयमा ! बज्जी विदेहपुत्ते जइत्था, नव मल्लई नव लेच्छई कासी-कोसलगा-अट्ठारस वि गणरायाणो पराजइत्था। [5 प्र.] अर्हन्त भगवान् ने यह जाना है, अर्हन्त भगवान् ने यह सुना है-अर्थात्-सुनने की तरह प्रत्यक्ष देखा है, तथा अर्हन्त भगवान् को यह विशेष रूप से ज्ञात है कि महाशिलाकण्टक संग्राम महाशिलाकण्टक संग्राम ही है / (अतः प्रश्न यह है कि) भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम चल रहा (प्रवर्त्तमान) था, तब उसमें कौन जीता और कौन हारा? [5 उ.] गौतम ! वज्जी (वज्जीगण का अथवा वज्री इन्द्र और) विदेहपुत्र कूणिक राजा जीते, नो मल्लकी और नौ लेच्छकी, जो कि काशी और कौशलदेश के 18 गणराजा थे, वे पराजित महाशिलाकण्टक-संग्राम के लिए कूरिणक राजा की तैयारी और अठारह गरगराजाओं पर विजय का वर्णन 6. तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटगं संगाम उद्वितं जाणित्ता कोड बियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! उदाई हस्थिरायं परिकप्पेह, हय-गय-रह-जोहकलियं चातुरंगिणि सेणं सन्नाहेह, सन्नाहेत्ता जाव मम एतमाणत्तियं खियामेव पच्चपिणह / [6] उस समय में महाशिलाकण्टक-संग्राम उपस्थित हुया जान कर कूणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (आज्ञापालक सेवकों) को बुलाया / बुला कर उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही 'उदायी' नामक हस्तिराज (पट्टहस्ती) को तैयार करो, और अश्व, हाथी, रथ और योद्धानों से युक्त चतुरंगिणी सेना सन्नद्ध (शस्त्रास्त्रादि से सुसज्जित) करो और ये सब करके यावत् (मेरी आज्ञानुसार कार्य करके) शीघ्र ही मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो। 7. तए णं ते कोड बियपुरिसा कूणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा जाव' अंजलि कटु 'एवं सामी ! तह' त्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति, पडिसुणित्ता खिप्पामेव छेयायरियोवएसमतिकप्पणाविकप्पेहि सुनिउणेहिं एवं जहा उववातिए जाव भीमं संगामियं अउज्झ उदाइं हस्थिरायं परिकति हय-गय-जाव सन्नाति, सन्नाहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवा०, तेणेव 2 करयल० कूणियम्स रण्णो तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। [7] तत्पश्चात् कणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् मस्तक पर अंजलि करके (आज्ञा शिरोधार्य करके)-हे स्वामिन् ! 'ऐसा ही होगा, जैसी प्राज्ञा'; यों कह कर उन्होंने विनयपूर्वक वचन (प्राज्ञाकथन) स्वीकार किया / वचन स्वीकार करके निपुण प्राचार्यों के उपदेश से प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण बुद्धि-कल्पना के सुनिपुण विकल्पों से युक्त तथा औपपातिकसूत्र में कहे गए विशेषणों से युक्त यावत् भीम (भयंकर) संग्राम के योग्य उदार (प्रधान अथवा योद्धा के बिना अकेले ही टक्कर लेने वाले) उदायी नामक हस्तीराज (पट्टहस्ती) को सुसज्जित किया। साथ ही घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना भी (शस्त्रास्त्रादि 1. जाव शब्द 'हठ्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया नंदिया पीइमणा' इत्यादि पाठ का सूचक है। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से) सुसज्जित की / सुसज्जित करके जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ उसके पास पाए और करबद्ध होकर उन्होंने कूणिक राजा को उसकी उक्त प्राज्ञा वापिस सौंपी-आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न हो जाने की सूचना दी। 8. तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवा,, 2 चा मज्जणघरं अणुप्पविसति, मज्जण० 2 हाते कतबलिकम्मे कयकोतुयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सन्नद्धबद्धवम्मियकवए उत्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्धगेवेज्जविमलवरबद्धचिधपट्ट गहियायुहप्पहरणे सकोरेटमल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं च उचामरवालवीइतंगे मंगलजयसद्दकतालोए एवं जहा उववातिए जाब उवागच्छित्ता उदाइं हस्थिरायं दुरूढे / [8] तत्पश्चात् कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया, उसने स्नानगृह में प्रवेश किया / फिर स्नान किया, स्नान से सम्बन्धित मर्दनादि बलिकर्म किया, फिर प्रायश्चित्तरूप (विघ्ननाशक) कौतुक (मषी-तिलक आदि) तथा मंगल किये / समस्त प्राभूषणों से विभूषित हुना। सन्नद्धबद्ध (शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित) हुना, लोहकवच को धारण किया, फिर मुड़े हुए धनुर्दण्ड को ग्रहण किया / गले के आभूषण पहने और योद्धा के योग्य उत्तमोत्तम चिह्नपट बांधे। फिर आयुध (गदा प्रादि शस्त्र) तथा प्रहरण ( भाले आदि शस्त्र) ग्रहण किये। फिर कोरण्टक पुष्पों की माला सहित छत्र धारण किया तथा उसके चारों ओर चार चामर ढुलाये जाने लगे। लोगों द्वारा मांगलिक एवं जय-विजय शब्द उच्चारण किये जाने लगे। इस प्रकार कुणिक राजा औपपातिकमूत्र में कहे अनुसार यावत् उदायो नामक प्रधान हाथो पर आरूढ हुआ। 6. तए णं से कूणिए नरिदे हारोत्थयसुकयरतियवच्छे जहा उववातिए जाव सेयवरचामराहि उद्धव्वमाणीहिं उधुव्वामणोहि हय-गय-रह-पवरजोहकलिताए चातुरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिडे महया भडचडगरवंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, लेणेव उवागच्छित्ता महासिलकंटयं संगाम पोयाए, पुर प्रो य से सक्के देविवे देवराया एग महं अभेज्जकवयं बहरपडिरूवगं विउम्वित्ताणं चिट्ठति / एवं खलु दो इंदा संगाम संगामेंति, तं जहा-देविदे य मणुइंदे य, एगहत्थिणा वि णं पनू कूणिए राया पराजिणित्तए / [6] इसके बाद हारों से आच्छादित वक्षःस्थल वाला कणिक जनमन में रति-प्रीति उत्पन्न करता हुआ औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् श्वेत चामरों से बार-बार बिंजाता हुअा, अश्व, हस्ती, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत्त (घिरा हुआ), महान् सुभटों के विशाल समूह से व्याप्त (परिक्षिप्त) कूणिक राजा, जहाँ महाशिलाकण्टक संग्राम (होने जा रहा) था, वहाँ प्राया। वहाँ पाकर वह महाशिलाकण्टक संग्राम में (स्वयं) उतरा। उसके आगे देवराज वेन्द्र शक्रबजप्रातरूपक (वन के समान) अभद्य एक महान कवच को विकूवणा करके खड़ा हआ। इस प्रकार (उस युद्धक्षेत्र में मानो) दो इन्द्र संग्राम करने लगे; जैसे कि-एक देवेन्द्र (शक) और दूसरा मनुजेन्द्र (कणिक राजा) / अब कणिक राजा केवल एक हाथी से भी (शत्रुपक्ष की सेना को) पराजित करने में समर्थ हो गया। Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 183 10. तए णं से कूणिए राया महासिलाकंटक संगाम संगामेमाणे नव मल्लई, नव लेच्छा, कासी कोसलगा प्रद्वारस वि गणरायाणो हयमहियपवरबीरधातियविवडियचिधधय-पडागे किच्छप्पाणगते दिसो दिसि पडिसेहेत्था / [10] तत्पश्चात उस कणिक राजा ने महाशिलाकण्टक संग्राम करते हए, नौ मल्लको और नौ लेच्छकी; जो काशी और कोशल देश के अठारह गणराजा थे, उनके प्रवरवीर योद्धाओं को नष्ट किया, घायल किया और मार डाला / उनकी चिह्नांकित ध्वजा-पताकाएँ गिरा दीं। उन बीरों के प्राण संकट में पड़ गए, अतः उन्हें युद्धस्थल से दसों दिशाओं में भगा दिया (तितर-बितर कर दिया)। विवेचन-महाशिलाकण्टक संग्राम के लिए कणिकराजा की तैयारी और अठारह गणराजाओं पर विजय का वर्णन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू-६ से 10 तक) में कणिकराजा को संग्राम के लिए तैयारी से लेकर अठारह गणराजाओं पर विजय का वर्णन है। महाशिलाकण्टक संग्राम उपस्थित होने का कारण यहाँ मूलपाठ में इस संग्राम के उपस्थित होने का कारण नहीं दिया है, किन्तु वृत्तिकार ने 'औपपातिक' 'निरयावलिका' आदि सूत्रों में समागत वर्णन के अनुसार संक्षेप में इस युद्ध का कारण इस प्रकार दिया है -चम्पानगरो में कूणिक राजा राज्य करता था / हल्ल और विहल्ल नाम के उसके दो छोटे भाई थे। उन दोनों को उनके पिता श्रेणिक राजा ने अपने जीवनकाल में उनके हिस्से का एक से चालक गन्धहस्ती और अठारहसरा वंकचूड़ हार दिया था। ये दोनों भाई प्रतिदिन से चानक गन्धहस्ती पर बैठ कर गंगातट पर जल क्रीड़ा और मनोरंजन करते थे / उनके इस आमोद-प्रमोद को देखकर कणिक की रानी पद्मावती को अत्यन्त ईर्ष्या हुई। उसने कणिक राजा को हल्ल-विहल्ल कुमार से सेचानक हाथी ले लेने के लिए प्रेरित किया। कणिक ने हल्ल-विहल्ल कुमार से सेचानक हाथी मांगा। इस पर उन्होंने कहा-'यदि आप हाथी लेना चाहते हैं तो हमारे हिस्से का राज्य दे दीजिए।' किन्तु कुणिक उनकी न्यायसंगत बात की परवाह न करके बारबार हाथी मांगने लगा। इस पर दोनों भाई कुणिक के भय से भागकर अपने हाथी और अन्त:पुर सहित वैशाली नगरी में अपने मातामह चेटक राजा की शरण में पहुँचे। कणिक ने नाना के पास दूत भेजकर हल्ल-विहल्ल कुमार को सौंप देने का सन्देश भेजा। किन्तु चेटक राजा ने हल्ल-विहल्ल को नहीं सौंपा / पुनः कणिक ने दूत के साथ सन्देश भेजा कि यदि आप दोनों कुमारों को नहीं सौंपते हैं तो युद्ध के लिए तैयार हो जाइए। चेटक राजा ने न्यायसंगत बाल कही, उस पर कणिक ने कोई विचार नहीं किया। सीधा ही युद्ध में उतरने के लिए तैयार हो गया। यह था महाशिलाकण्टक युद्ध का कारण / ' महाशिलाकण्टक संग्राम में कणिक को जीत कैसे हुई ? चेटक राजा ने भी देखा कि कणिक युद्ध किये बिना नहीं मानेगा। और जब उन्होंने सुना कि कूणिक ने युद्ध में सहायता के लिए 'काल' आदि विमातृजात दसों भाइयों को चेटक राजा के साथ युद्ध करने के लिए बुलाया है, तब उन्होंने भी शरणागत की रक्षा एवं न्याय के लिए अठारह गणराज्यों के अधिपति राजाओं को अपनी-अपनी 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 316 (ख) औपपातिकसूत्र पत्रांक 62, 66, 72 (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन युक्त) भाग-३, पृ-११९६ से 1198 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूब सेनासहित बुलाया / वे सब ससैन्य एकत्रित हुए। दोनों ओर की सेनाएँ युद्धभूमि में प्रा डटी / घोर संग्राम शुरू हुआ। चेटक राजा का ऐसा नियम था कि वे दिन में एक ही वार एक ही बाण छोड़ते, और उनका छोड़ा हुआ बाण कभी निष्फल नहीं जाता था। पहले दिन कणिक का भाई कालकुमार सेनापति बनकर युद्ध करने लगा, किन्तु चेटक राजा के एक ही बाण से वह मारा गया। इससे कृणिक को सेना भाग गई। इस प्रकार दस दिन में चेटकराजा ने कालकुमार आदि दसों भाइयों को मार गिराया / ग्यारहवें दिन कूणिक की बारी थी। कणिक ने सोचा-'मैं भी दसों भाइयों की तरह चेटकराजा ने आगे टिक न सकूगा / मुझे भी वे एक ही बाण में मार डालेंगे।' अतः उसने तीन दिन तक युद्ध स्थगित रखकर चेटकराजा को जीतने के लिए अष्टमतप (तेला) करके देवाराधना की / अपने पूर्वभव के मित्र देवों का स्मरण किया, जिससे शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र दोनों उसकी सहायता के लिए आए। शवेन्द्र ने कूणिक से कहा-चेटकराजा परम श्रावक है, इसलिए उसे मैं मारूंगा नहीं, किन्तु तेरी रक्षा करूगा। अतः शक्रेन्द्र ने कणिक की रक्षा करने के लिए वज्र सरीखे अभेद्य कवत्र की विकुर्वणा की और चमरेन्द्र ने महाशिलाकण्टक और रथ मूसल, इन दो संग्रामों की विकुर्वणा की। इन दोनों इन्द्रों की सहायता के कारण कणिक की शक्ति बढ़ गयी। वास्तव में इन्द्रों की सहायता से ही महाशिलाकण्टक संग्राम में कूणिक की विजय हुई, अन्यथा, विजय में संदेह था।' महाशिलाकण्टक संग्राम के स्वरूप, उसमें पानवविनाश और उनकी मरणोत्तरगति का निरूपण 11. से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति 'महासिलाकंटए संगामे महासिलाकंटए संगा' ! गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ पासे वा हत्थी वा जोहे वा सारही वा तणेण वा कोण वा पत्तेण वा सक्कराए वा अभिहम्मति सव्वे से जाणति 'महासिलाए अहं अभिहते महासिलाए अहं अभिहते'; से तेण?णं गोयमा ! महासिलाकंटए संगामे महासिलाकंटए संगामे / [11 प्र.] भगवन् ! इस 'महाशिलाकण्टक' संग्राम को महाशिलाकण्टक संग्राम क्यों कहा जाता है ? [11 उ.] गौतम ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम हो रहा था, तब उस संग्राम में जो भो घोड़ा, हाथी, योद्धा या सारथि आदि तृण से, काष्ठ से, पत्ते से या कंकर आदि से पाहत होते, वे सब ऐसा अनुभव करते थे कि हम महाशिला (के प्रहार) से मारे गए हैं। (अर्थात्-महाशिला हमारे ऊपर आ पड़ी है।) हे गौतम ! इस कारण से इस संग्राम को महाशिलाकण्टक संग्राम कहा जाता है। 12. महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसतसाहस्सीग्रो वहियाप्रो ? गोयमा ! चउरासोति जणसतसाहस्सीओ बहियारो। [12 प्र.] भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम हो रहा था, तब उसमें कितने लाख मनुष्य मारे गए? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक 317 (ख) प्रौपपातिक सूत्र, पत्रांक 66 Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९ ] [185 [12 उ.] गौतम ! महाशिलाकण्टक-संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। 13. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा सारुट्ठा परिकुविया समरवाहिया अणुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गता ? कहिं उववन्ना? गोयमा ! श्रोसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना। [13 प्र.] भगवन् ! शीलरहित यावत् प्रत्याख्यान एवं पौषधोवास से रहित, रोष (आवेश) में भरे हुए, परिकुपित, युद्ध में घायल हुए और अनुपशान्त वे (युद्ध करने वाले) मनुष्य मृत्यु के समय मर कर कहाँ गए, कहाँ उत्पन्न हुए ? [13 उ.] गौतम ! ऐसे मनुष्य प्राय: नरक और तिर्यञ्चयोनियों में उत्पन्न हुए हैं। विवेचन--महाशिलाकण्टक-संग्राम के स्वरूप, उसमें मानवविनाश एवं उनकी मरणोत्तरगति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 11 से 13 तक) में महाशिलाकण्टक के स्वरूप तथा उसमें मृत मानवों की संख्या एवं उनकी गति के विषय में किये गए प्रश्नों का समाधान अंकित किया गया है। फलितार्थ-युद्ध में धन, जन, संस्कृति और संतति के विनाश के अतिरिक्त सबसे बड़ी हानि शासकों द्वारा अपने अहंपोषण, राज्यविस्तार, वैभवप्राप्ति या ईर्ष्या को चरितार्थ करने के लिए युद्ध में झोंके हुए सैनिकों के अज्ञानवश, आवेशवश एवं त्याग-प्रत्याख्यानरहित मरण के कारण दुर्गति की प्राप्ति, मानव जैसे अमूल्य जन्म की असफलता है। रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का, तथा उसमें मृत मनुष्यों की संख्या, गति आदि का निरूपण 14 णायमेतं प्ररया, सुतमेतं अरहता, विण्णायमेतं प्ररहता रहमुसले संगामे रहमुसले संगामे / रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के पराजइत्था ? गोयमा ! वज्जो विदेहयुत्ते चमरे य प्रसुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई नव लेच्छई पराजइत्था। [14 प्र.] भगवन् ! अर्हन्त भगवान ने जाना है, इसे प्रत्यक्ष किया है और विशेषरूप से जाना है कि यह रथमूसलसंग्राम है। (अत: मेरा प्रश्न यह है कि) भगवन् ! यह रथमूसलसंग्राम जब हो रहा था, तब कौन जीता, कौन हारा ? [14 उ.] हे गौतम (वज्जी गण या वंश का विदेहपुत्र या) वनी-इन्द्र और विदेहपुत्र (कणिक) एवं असुरेन्द्र असुरराज चमर जीते और नौ मल्लको और नौ लिच्छवी (ये अठारह गण) राजा हार गए। 15. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उद्वितं०, सेसं जहा महासिलाकंटए. नवरं भूताणंदे हस्थिराया जाव रहमसलं संगामं सोयाए, पुरतो य से सक्के देविवे देवराया / एवं तहेव जाव चिट्ठति, मागतोय से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं प्रायस किढिणपडिरूवर्ग विउवित्ताणं Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चिट्ठति, एवं खलु तप्रो इंदा संगाम संगामेति, तं जहा-देविदे मणुइंदे असुरिंदे य / एगहत्यिणा विणं पभू कूणिए रामा जइत्तए तहेव जाव दिसो दिसि पडिसेहेत्था / [15] तदनन्तर रथमूसल-संग्राम उपस्थित हुया जान कर कुणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया। इसके बाद का सारा वर्णन महाशिलाकण्टक की तरह यहाँ कहना चाहिए / इतना विशेष है कि यहाँ ‘भूतानन्द' नामक हस्तिराज (पदहस्ती) है / यावत वह कणिक राजा रथमूसलसंग्राम में उतरा। उसके आगे देवेन्द्र देवराज शक्र है, यावत् पूर्ववत् सारा वर्णन कहना चाहिए। उसके पोछे असुरेन्द्र असुरराज चमर लोह के बने हुए एक महान् किठिन (बांसनिर्मित तापस पात्र) जैसे कवच की वि कुर्वणा करके खड़ा है। इस प्रकार तीन इन्द्र संग्राम करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं / यथा-देवेन्द्र (शक), मनुजेन्द्र (कणिक) और असुरेन्द्र (चमर)। अब क्रूणिक केवल एक हाथी से सारी शत्रु-सेना को पराजित करने में समर्थ है / यावत् पहले कहे अनुसार उसने शत्रु राजाओं (की सेना) को दसों दिशाओं में भगा दिया। 16. से केणढणं भंते ! एवं बुच्चति 'रहमुसले संगामे रहमसले संगामे ? गोयमा ! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे प्रणासए असारहिए अणारोहए समुसले महताजणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्टकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सब्बतो समंता परिधाविस्था; से तेण?णं जाव रहमुसले संगामे / ___ [16 प्र.] भगवन् ! इस 'रथमूसलसंग्राम' को रथमूसलसंग्राम क्यों कहा जाता है ? [16 उ ] गौतम ! जिस समय रथमूसलसंग्राम हो रहा था, उस समय अश्वरहित, सारथिरहित और योद्धाओं से रहित एक रथ केवल मूसलसहित, अत्यन्त जनसंहार, जनवध, जन-प्रमर्दन और जनप्रलय (संवर्तक) के समान रक्त का कीचड़ करता हुआ चारों ओर दौड़ता था। इसी कारण से उस संग्राम को 'रथमूसलसंग्राम' यावत् कहा गया है। 17. रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कति जणसयसाहसीनो वहियाप्रो ? गोयमा ! छण्णउति जणसयसाहस्सीनो बहियाप्रो। [17 प्र.] भगवन् ! जब रथमूसलसंग्राम हो रहा था, तब उसमें कितने लाख मनुष्य मारे गए? [17 उ.] गौतम ! रथमूसलसंग्राम में छियानवे लाख मनुष्य मारे गए। 18. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव (सु. 13) उववन्ना ? गोयमा ! तत्थ णं दस साहस्सोमो एगाए मच्छियाए कुच्छिसि उववन्नामो, एगे देवलोगेसु उववन्ने, एगे सुकुले पच्चायाते, अवसेसा प्रोसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना / [18 प्र.] भगवन् ! निःशील (शीलरहित) यावत् वे मनुष्य मृत्यु के समय मरकर कहाँ गए, कहाँ उत्पन्न हुए? Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 187 [18 उ.] गौतम ! उनमें से दस हजार मनुष्य तो एक मछली के उदर में उत्पन्न हुए, एक मनुष्य देवलोक में उत्पन्न हुमा, एक मनुष्य उत्तम कुल (मनुष्यगति) में उत्पन्न हुअा, और शेष प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनियों में उत्पन्न हुए हैं। 16. कम्हा णं भंते ! सक्के देविदे देवराया, चमरे प्रसुरिदे असुरकुमारराया कूणियस्स रणो साहज्जं दल इत्था? गोयमा ! सक्के देविदे देवराया पुब्वसंगतिए, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगतिए, एवं खलु गोयमा ! सक्के देविदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रण्णो साहज्ज दल इत्था / [19 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर, इन दोनों ने कणिक राजा को किस कारण से सहायता (युद्ध में सहयोग) दी ? [19 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक तो कुणिक राजा का पूर्वसंगतिक (पूर्वभवसम्बन्धी--- कार्तिक सेठ के भव में मित्र) था, और असुरेन्द्र असुरकुमार राजा चमर, कूणिक राजा का पर्यायसंगतिक (पूरण नामक तापस की अवस्था का साथी) मित्र था / इसीलिए, हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र और असुरेन्द्र असुरराज चमर ने कूणिक राजा को सहायता दी। विवेचन-रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का तथा उसमें मत मनुष्यों की संख्या, गति प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 14 से 16 तक) में रथमूसलसम्बन्धी सारा वर्णन प्रायः पूर्वसूत्रोक्त महाशिलाकण्टक की तरह ही किया गया है / ऐसे युद्धों में सहायता क्यों ?—इन महायुद्धों का वर्णन पढ़ कर एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्द्र जैसे सम्यग्दृष्टिसम्पन्न देवाधिपतियों ने कणिक की अन्याययुक्त युद्ध में सहायता क्यों को ? इसी प्रश्न को शास्त्रकार ने उठाकर उसका समाधान दिया है। पूर्वभवसांगतिक और पर्यायसांगतिक होने के कारण ही विवश होकर इन्द्रों तक को सहायता देने हेतु प्राना पड़ता है / 'संग्राम में मृत मनुष्य देवलोक में जाता है, इस मान्यता का खण्डनपूर्वक स्वसिद्धान्तमण्डन 20. [1] बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एबमाइक्खति जाव परूवेति-एवं खलु बहवे मणुस्सा अन्नतरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति / से कहमेतं भंते ! एवं ? __ गोयमा ! जंणं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव उववत्तारो नवंति, जे ते एवमासु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि [20-1 प्र.] भगवन् ! बहुत-से (धर्मोपदेशक या पौराणिक) लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-अनेक प्रकार के छोटे-बड़े (उच्चावच) संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए (अभिमुख रहकर लड़ते हुए) पाहत हुए एवं घायल हुए बहुत-से मनुष्य मृत्यु के समय मर कर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं / भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20-1 उ.] गौतम ! बहुत-से मनुष्य, जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, कि संग्राम में मारे गए मनुष्य, देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहने वाले मिथ्या कहते हैं / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ "[2] एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नाम नगरी होत्था / वण्णग्रो / तस्थ णं वेसालीए णगरीए वरुणे नामं णागनत्तुए परिवसति प्रड्डे जाव अपरिभूते समणोवासए अभिगतजीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे छठेछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं प्रप्पाणं भावेमाणे विहरति / " [20-2] गौतम ! उस काल और उस समय में वैशाली नाम की नगरी थी / उसका वर्णन औपपातिकसूत्रोक्त (चम्पानगरी की तरह) जान लेना चाहिए। उस वैशाली नगरी में 'वरुण' नामक नागनप्तृक (नाग नामक गृहस्थ का नाती =दौहित्र या पौत्र) रहता था। वह धनाढ्य यावत् अपरिभूत (किसी के आगे न दबने वाला—दबंग) व्यक्ति था / वह श्रमणोपासक था, और जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था, यावत वह आहारादि द्वारा श्रमण-निर्ग्रन्थों को हुआ तथा निरन्तर छठ-छठ की (बेले की) तपस्या द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता था। [3] तए णं से वरुणे जागनत्तुए अन्नया कयाई रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं बलाभियोगेणं रहमुसले संगामे प्राणत्ते समाणे छट्ठभत्तिए, अहमभत्तं अणुवति, अट्ठमभत्तं अणुवता कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, सहावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया ! चातुग्घंटे प्रासरहं जुत्तामेव उवढाबेह हयगय रहपवर जाव सन्नाहेत्ता मम एतमाणत्तियं पच्चपिणह / [20-3] एक बार राजा के अभियोग (आदेश) से, गण के अभियोग से तथा बल (बलवानजबर्दस्त व्यक्ति) के अभियोग से वरुण नागनप्तक (नत्तुपा) को रथमूसलसंग्राम में जाने की आज्ञा दी गई / तब उसने षष्ठभक्त (बेले के तप) को बढ़ाकर अष्ट भक्त (तेले का) तप कर लिया / तेले की तपस्या करके उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया / और बुलाकर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! चार घंटों वाला अश्वरथ, सामग्रीयुक्त तैयार करके शीघ्र उपस्थित करो। साथ ही अश्व, हाथी, रथ और प्रवर योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो, यावत् यह सब सुसज्जित करके मेरी अाज्ञा मुझे वापस सौंपो। "[4] तए गं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवट्ठावेंति, हय-गय-रह जाव सन्नाति, सन्नाहित्ता जेणेव वरुणे नागनत्तुए जाव पच्चप्पिति / 20-4] तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उसकी आज्ञा स्वीकार एवं शिरोधार्य करके यथाशीघ्र छत्रसहित एवं ध्वजासहित चार घंटाओं वाला अश्वरथ, यावत् तैयार करके उपस्थित किया / साथ ही घोड़े, हाथी, रथ एवं प्रवर योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को यावत् सुसज्जित किया / और ऐसा करके यावत् वरुण नागनत्तुपा को उसकी आज्ञा वापिस सौंपी। [5] तए णं से वरुणे नागनत्तुए जेणेव मज्जणधरे तेशेव उवागच्छति जहा कुणियो (सु. 8) जाव पायच्छिते सव्वालंकारविभूसिते सन्नद्धबद्ध० सकोरेंटमल्लदामेणं जाव धरिज्जमाणेणं Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 186 अणेगगणनायग जाव दूयसंधिवाल. सद्धि संपरिबुडे मज्जणघरातो पडिनिक्खमति, पडिनिक्वमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव चातुघंटे प्रासरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चातुघंट प्रासरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता हय-गय-रह जाव संपरिबुडे महता भडचडपर० जाव परिक्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुसलं संगामं प्रोयाते। [20-5] तत्पश्चात् वह वरुण नागनातक, जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया। इसके पश्चात् यावत् कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त (विघ्ननाशक) किया, सर्व अलंकारों से विभूषित हुआ, कवच पहना, कोरंटपुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, इत्यादि सारा वर्णन कुणिक राजा की तरह कहना चाहिए। फिर अनेक गणनायकों, दूतों और सन्धिपालों के साथ परिवृत होकर वह स्नानगृह से बाहर / निकल कर बाहर की उपस्थानशाला में आया और सुसज्जित चातुर्घण्ट अश्वरथ पर पारूढ हुप्रा / रथ पर पारूढ हो कर अश्व, गज, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना के साथ, यावत् महान् सुभटों के समूह से परिवृत होकर जहाँ रथमूसल-संग्राम होने वाला था, वहाँ आया। वहाँ आकर वह रथमूसल-संग्राम में उतरा / "[6] तए णं से वरुणे णागनत्तुए रहमुसलं संगामं ओयाते समाणे प्रयमेयारूवं अभिग्गाह अभिगिण्हइ–कम्पति मे रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स जे पुब्धि पहणति से पडिहणित्तए, श्रवसेसे नो कप्पतीति / अयमेतारूवं अभिग्गहं अभिगिहित्ता रहमुसलं संगाम संगामेति / [20-6] उस समय रथमूसल-संग्राम में प्रवृत्त होने के साथ ही वरुण नागनप्तक ने इस प्रकार इस रूप का अभिग्रह (नियम) किया-मेरे लिए यही कल्प (उचित नियम) है कि रथमूसल संग्राम में युद्ध करते हुए जो मुझ पर पहले प्रहार करेगा, उसे ही मुझे मारना (प्रहत करना) है, (अन्य) व्यक्तियों को नहीं / इस प्रकार यह अभिग्रह करके वह रथमूसल-संग्राम में प्रवृत्त हो गया। __ "[7] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तयस्स रहमुसलं संगाम संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए सरिसत्तए सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हन्वमागते / [20-7] उसी समय रथमूसल-संग्राम में जूझते हुए वरुण नाग-नप्तक के रथ के सामने प्रतिरथी के रूप में एक पुरुष शीघ्र ही पाया, जो उसी के सदृश, उसी के समान त्वचा वाला था, उसी के समान उम्र का और उसी के समान अस्त्र-शस्त्रादि उपकरणों से युक्त था। ____[8] तए णं से पुरिसे वरुणं णागणतुयं एवं वयासी-पहण भो ! वरुणा ! णागणत्तुया ! पहण भो ! वरुणा ! णागणत्तुया ! तए णं से वरुणे पागणसुए तं पुरिसं एवं वदासिनो खलु में कप्पति देवाणुप्पिया ! पुखि प्रहयस्स पहणित्तए, तुमं चेव पुब्वं पहणाहि / [20-8] तब उस पुरुष ने वरुण नागनपतृक को इस प्रकार (ललकारते हुए) कहा-'हे वरुण नागनत्तुना ! मुझ पर प्रहार कर. अरे, वरुण नागनत्तुमा ! मुझ पर वार कर!" इस पर वरुण नागनत्तुप्रा ने उस पुरुष से यों कहा- "हे देवानुप्रिय ! जो मुझ पर प्रहार न करे, उस पर पहले प्रहार करने का मेरा कल्प (नियम) नहीं है / इसलिए तुम (चाहो तो) पहले मुझ पर प्रहार करो।" Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र "fe.] तए णं से पुरिसे वरुणेणं णागणतुएणं एवं वृत्ते समाणे प्रासुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणु परामुसति, परामुसित्ता उसु परामसति, उसुपरामुसित्ता ठाणं ठाति. ठाणं ठिच्चा पायतकण्णायतं उसुकरेति, प्रायतकण्णायतं उसु करेता वरुणं णागणत्तयं गाढप्पहारीकरेति / [20-9] तदनन्तर वरुण नागनत्तुमा के द्वारा ऐसा कहने पर उस पुरुष ने शीघ्र ही क्रोध से लालपीला हो कर यावत् दांत पीसते हुए (मिसमिसाते हुए) अपना धनुष उठाया। फिर बाण उठाया। फिर धनुष पर यथास्थान बाण चढाया। फिर अमुक ग्रासन से अमक स्थान पर स्थित होकर धनुष को कान तक खींचा / ऐसा करके उसने वरुण नागनत्तुमा पर गाढ़ प्रहार किया। "[10] तए णं से वरुणे णागणत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढपहारीकए समाणे प्रासुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणु परामसति, धणु परामुसित्ता उसुपरामुसति, उसु परामुसित्ता प्रायतकण्णायतं उसुकरेति, प्रायतकण्णायतं उसुकरेत्ता तं पुरिसं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियातो ववरोवेति / [20-10] इसके पश्चात् उस पुरुष द्वारा किये गए गाढ़ प्रहार से घायल हुए वरुण नागनत्तुआ ने शीघ्र कुपित होकर यावत् मिसमिसाते हुए धनुष उठाया। फिर उस पर बाण चढ़ाया और उस बाण को कान तक खींचा। ऐसा करके उस पुरुष पर छोड़ा। जैसे एक ही जोरदार चोट से पत्थर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार वरुण नागनतृक ने एक ही गाढ़ प्रहार से उस पुरुष को जीवन से रहित कर दिया / "[11] तए णं से वरुणे नागणत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकते समाणे प्रत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्ट तुरए निगिण्हति, तुरए निगिहित्ता रहं परावत्तेइ, 2 ता रहमुसलातो संगामातो पडिनिक्खमति, रहमुसलामो संगामातो पडिमिक्खमेत्ता एगंतमंतं प्रवक्कमति, एगंतमंतं प्रवक्कमित्ता तुरए निगिण्हति, निगिहित्ता रहं ठवेति, 2 ता रहातो पच्चोरुहति, रहातो पच्चोरहित्ता रहाम्रो तुरए मोएति, 2 तुरए विसज्जेति, विसज्जित्ता दम्भसंथारगं संथरेति, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहति, दम्भसं० दुरुहिता पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयल जाय कटु एवं बयासो-नमोऽत्थु णं अरहताणं जाव संपत्ताणं / नमोऽत्थ णं समणस्स भगवनो महावीरस्स प्राइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स / वदामि गं भगवतं तस्थगतं इहगते, पासउ मे से भगवं तत्थगते; जाव वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासीपुवि पिणं मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं थूलए पाणातिवाते पच्चक्खाए जावज्जीवाए एवं जाव थूलए परिमाहे पच्चक्खाते जावज्जीवाए, इयाणि पि णं अहं तस्सेव भगवतो महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणातिवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, एवं जहा खंदनी (स० 2 उ०१ सु० 50) जाव एतं पि णं चरिमेहि उस्साह-णिस्सासेहिं 'वोसिरिस्सामि' ति कट्ट सन्नाहपट्ट मुयति, सन्नाहपट्ट मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते प्राणुपुवीए कालगते / [20-11] तत्पश्चात् उस पुरुष के गाढ़ प्रहार से सख्त घायल हुमा वरुण नागनतृक अशक्त, अबल, अवीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम से रहित हो गया। अत: 'अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा ऐसा Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९] [ 191 समझकर उसने घोड़ों को रोका, घोड़ों को रोक कर रथ को वापिस फिराया और रथमूसलसंग्रामस्थल से बाहर निकल गया। संग्रामस्थल से बाहर निकल कर एकान्त स्थान में प्राकर रथ को खड़ा किया / फिर रथ से नीचे उतर कर उसने घोड़ों को छोड़ कर विजित कर दिया। फिर दर्भ (डाभ) का संथारा (बिछौना) बिछाया और पूर्वदिशा की ओर मुह करके दर्भ के संस्तारक पर पर्यकासन से बैठा / और दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहा- अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, नमस्कार हो। मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर स्वामी को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले यावत् सिद्धगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं। यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ (दूर स्थान पर) रहे हुए भगवान् को वन्दन करता हूँ। वहाँ रहे हुए भगवान् मुझे देखें / इत्यादि कहकर यावत उसने बन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--पहले मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान किया था, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान किया था, किन्तु अब मैं उन्हीं अरिहन्त भगवान् महावीर के पास (साक्षी से) सर्व प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त प्रत्याख्यान करता हूँ। इस प्रकार स्कन्दक की तरह (अठारह ही पापस्थानों का सर्वथा प्रत्याख्यान कर दिया। फिर इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छवास के साथ व्युत्सर्ग (त्याग) करता हूँ, यों कह कर उसने सन्नाहपट (कवच) खोल दिया। कवच खोल कर लगे हुए बाण को बाहर खींचा। बाण शरीर से बाहर निकाल कर उसने आलोचना की, प्रतिक्रमण किया, और समाधि-यूक्त होकर मरण प्राप्त किया। "[12] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे प्रत्थामे अबले जाव अधारणिज्जमिति कटु वरुणं नागनत्तुयं रहमुसलातो संगामातो पडिनिक्खममाणं पासति, पासित्ता तुरए निगिण्हति, तुरए निगिहित्ता जहा वरुणे नागनत्तुए जाव तुरए विसज्जेति, विसज्जित्ता दन्भसंथारगं दुरुहति, दब्भसंधारगं दुरुहित्ता पुरत्याभिमुहे जाव अंजलि कटु एवं वदासी-जाई गं भंते ! मम थियबालवयंसस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स सीलाई वताई गुणाई वेरमणाई पच्चक्खाणपोसहोववासाइं ताई णं मम पि भवंतु ति कट्ट सन्नाहपट्ट मुयइ, सन्नाहपट्ट मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति, सल्लुद्धरणं करेत्ता प्राणुपुवीए कालगते / [20-12] उस वरुण नागनत्तुपा का एक प्रिय बालमित्र भी रथमूसलसंग्राम में युद्ध कर रहा था। वह भी एक पुरुष द्वारा प्रबल प्रहार करने से घायल हो गया। इससे अशक्त, अबल, यावत् पुरुषार्थ-पराक्रम से रहित बने हुए उसने सोचा- अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा / जब उसने बरुण नागनत्तुमा को रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर निकलते हुए देखा, तो वह भी अपने रथ को वापिस फिरा कर रथमूसलसंग्राम से बाहर निकला, घोड़ों को रोका और जहाँ वरुण नागनत्तुग्रा ने घोड़ों को रथ से खोलकर विसर्जित किया था, वहाँ उसने भी घोड़ों को विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ के संस्तारक को बिछा कर उस पर बैठा। दर्भसंस्तारक पर बैठकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके यावत् दोनों हाथ जोड़ कर यों बोला--'भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण नागनप्तक के जो शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हैं, वे सब मेरे भी हों, इस प्रकार कह कर उसने कवच खोला। कवच खोलकर शरीर में लगे हुए बाण को बाहर निकाला। इस प्रकार करके वह भी क्रमश: समाधियुक्त होकर कालधर्म को प्राप्त हुआ। Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] / व्याख्याप्रशप्तिसूत्र "[13] तए णं तं वरुणं नागणत्तयं कालगयं जाणित्ता प्रहासन्निहितहि वाणमंतरेहि देवेहि दिवे सुरभिगंधोदगवासे वुट्ट, दसद्धवणे कुसुमे निवाडिए, दिव्वे य गोयगंधव्यनिनादे कते यावि होत्था। [20-13] तदनन्तर उस वरुण नागनत्तुआ को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर निकटवर्ती बाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धितजल की वृष्टि की, पांच वर्ण के फूल बरसाए और दिव्यगीत एवं गन्धर्व-निनाद भी किया। __ "[14] तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स तं दिव्यं देविड्डि दिन्वं देवजुई विम्वं देवाणुभाग सुणित्ता य पासित्ता य बहुजणो अनमन्नम्स एबमाइक्खइ जाव पल्वेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! बहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो अवंति"। [20-14] तब से उस वरुण नागनत्तमा की उस दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति और दिव्य देवप्रभाव को सुन कर और जान कर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि–'देवानुप्रियो ! जो संग्राम करते हुए बहुत-से मनुष्य मरते हैं, यावत् वे देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।" विवेचन--'संग्राम में मत्य प्राप्त मनव्य देवलोक में जाता है इस मान्यता का खण्डन-प्रस्तत 20 वें सूत्र में वरुण नागनत्तुआ का प्रत्यक्ष उदाहरण दे कर 'युद्ध में मरने वाले सभी देवलोक में जाते हैं' इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण और भ्रान्त धारणा का कारण अंकित किया है / फलितार्थ- भगवान महावीर के युग में एक मान्यता यह थी कि युद्ध में मरने वाले-वीरगति पाने वाले--स्वर्ग में जाते हैं। इसी मान्यता की प्रतिच्छाया भगवद्गीता (अ. 2, श्लोक 32, 37) में इस प्रकार से है यदच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् / सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ ! लभन्ते युद्धमीदृशम् // 32 // हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् / तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय ! युद्धाय कृतनिश्चयः // 37 / / अर्थात्- 'हे अर्जुन ! अनायास ही (युद्ध के कारण) स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है / सुखी क्षत्रिय ही ऐसे युद्ध करने का लाभ पाते हैं। ___यदि युद्ध में मर गए तो मर कर स्वर्ग पायोगे, और अगर विजयी बन गए तो पृथ्वी का उपभोग (राजा बन कर) करोगे। इसलिए हे कुन्तीपुत्र ! कृतनिश्चय हो करके युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' प्रस्तुत सूत्र में वरुण नागनत्तुआ और उसके बालमित्र का उदाहरण प्रस्तुत करके भगवान् ने इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण कर दिया कि केवल संग्राम करने से या युद्ध में मरने से किसी को स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु अज्ञानपूर्वक तथा त्याग-व्रत-प्रत्याख्यान से रहित होकर असमाधिपूर्वक मरने से प्राय: नरक या तिर्यंचगति ही मिलती है / अतः संग्राम करने वाले को संग्राम करने से अथवा उसमें मरने से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता, अपितु न्यायपूर्वक संग्राम करने के बाद जो संग्रामकर्ता अपने Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९ ] [ 193 दुष्कृत्यों के लिए पश्चात्ताप करता है, आलोचन, प्रतिक्रमण करके शुद्ध हो कर समाधिपूर्वक मरता है, वही स्वर्ग में जाता है। वरुण को देवलोक में और उसके मित्र की मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अन्त में दोनों की महाविदेह में सिद्धि का निरूपरण 21. वरुणे णं भंते ! नागनत्तुए कालमासे कालं किच्चा कहिं गते ? कहि उववन्ने ? ___ गोयमा ! सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिग्रोवमा ठिती पण्णत्ता। तत्थ गं वरुणस्य वि देवस्स चत्तारि पलिग्रोवमा ठिती पण्णत्ता। [२१-प्र.] भगवन् वरुण नागनत्तुआ मृत्यु के समय में कालधर्म पा कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? [२१-उ. गौतम ! वह सौधर्मकल्प (देवलोक) में अरुणाभ नामक विमान में देवरूप में उत्पन्न हुअा है / उस देवलोक में कतिपय देवों की चार पल्योपम की स्थिति (मायु) कही गई है / अतः वहाँ वरुण-देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। 22. से णं भंते ! वरुण देवे तानो देवलोगातो पाउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं० ? जाब महाविदेहे वासे सिन्झिहिति जाब अंतं काहिति / / [२२-प्र.] भगवन् ! वह वरुण देव उस देवलोक से आयु-क्षय होने पर, भव-क्षय होने पर तथा स्थिति-क्षय होने पर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? [२२-उ.] गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। 23. वरुणस्स णं भंते जागणतयस्स पियबालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गते ? कहि उववन्ने ? गोयमा ! सुकुले पच्चायाते। [२३-प्र. भगवन् ! बरुण नागनत्तुमा का प्रिय बालमित्र काल के अवसर पर कालधर्म पा कर कहाँ गया?, कहाँ उत्पन्न हुआ ? [२३-उ ] गौतम ! वह सुकुल में (मनुष्यलोक में अच्छे कुल में) उत्पन्न हुआ है। 24. से गं भंते ! ततोहितो प्रणतरं उवट्टित्ता कहि गच्छिहिति ? कहि उवज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / --. 1. (क) वियाहपपत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 307 का टिप्पण (ख) जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भा-१, पृ. 203 (ग) भगवद्गीता अ. 2, श्लो. 32, 37 Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // सत्तमसए : नवमो उद्देसो समत्तो / / [२४-प्र.] भगवन् ! वह (वरुण का बालमित्र) वहाँ से (आयु आदि का क्षय होने पर) काल करके कहाँ जाएगा ?, कहाँ उत्पन्न होगा? [२४-उ.] गौतम ! वह भी महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर, गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे। विवेचन-वरुण की देवलोक में और उसके मित्र को मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अन्त में दोनों को महाधिवेह से सिद्धि का निरूपण-पूर्वोक्त दोनों पाराधक योद्धाओं के उज्ज्वल भविष्य का इन चार सूत्रों द्वारा प्रतिपादन किया गया है / निष्कर्ष-रथमूसलसंग्राम में 66 लाख मनुष्य मारे गए। उनमें से एक वरुण नागनत्तमा देवलोक में गया और उसका बालमित्र मनुष्यगति में गया, शेष सभी प्राय: नरक या नियंचगति के मेहमान बने / // सप्तम शतक : नवम उद्देशक समाप्त / Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'अन्नउत्थिय' दशम उद्देशक : 'अन्ययूथिक' अन्यतीथिक कालोदायी की पंचास्तिकाय चर्चा और सम्बुद्ध होकर प्रव्रज्या स्वीकार 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्या / वण्णो / गुणसिलए चेइए / वण्णो / जाव पुढविसिलापट्टए / [1] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था / उसका वर्णन भी समझ लेना चाहिए / यावत् (एक) पृथ्वीशिलापट्टक था। उसका वर्णन। 2. तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स प्रदरसामंते बहवे अन्नउस्थिया परिवसंति; तं जहाकालोदाई सेलोदाई सेवालोदाई उदए णामुदए नम्मुदए अन्नवालए सेलवालए संखवालए सुहत्थो गाहावई। [2] उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत-से अन्यतीर्थी रहते थे / यथा---कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति / 3. तए णं तेसि अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाई एगयो सहियाणं समुवागताणं सन्निविट्ठाणं सन्निसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समध्यज्जित्था-"एवं खलु समणे णातपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्यिकायं जाव भागासस्थिकायं / तत्थ णं समणे णातपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए पण्णवेति, तं०-धम्मस्थिकायं अधम्मस्थिकार्य प्रगासस्थिकार्य पोग्गलस्थिकायं / एगं च समणे णायपुत्ते जीवत्थिकार्य अरूविकायं जीवकायं पन्नवेति / तत्थ णं समणे णायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अरूविकाए पन्नवेति, तं जहा-धम्मस्थिकायं प्रधम्मत्थिकार्य प्रागास स्थिकायं जीवस्थिकायं / एगं च णं समणे णायपुत्ते पोग्गलस्थिकार्य रूविकायं प्रजीवकायं पन्नवेति / से कहमेतं मन्ने एवं ? / [3] तत्पश्चात् किसी समय वे सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर पाए, एकत्रित हुए और सुखपूर्वक भलीभाँति बैठे / फिर उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप प्रारम्भ हुा-'ऐसा (सुना) है कि श्रमण ज्ञातपुत्र (महावीर) पांच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं; यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय / इनमें से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र 'अजीव-काय' बताते हैं / जैसे कि-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / एक जीवास्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र 'अरूपी' और जीवकाय बतलाते हैं। उन पांच अस्तिकायों में से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपीकाय बतलाते हैं। जैसे किधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय / केवल एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपोकाय और अजीवकाय कहते हैं / उनकी यह बात कैसे मानी जाए? Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 4. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए समोसढे जाव परिसा पडिगता। [4] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् गुणशीलक चैत्य में पधारे, वहाँ उनका समवसरण लगा / यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुनकर) वापिस चली गई। 5. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती गामं प्रणगारे गोतमगोत्ते णं जहा बितियसते नियंठद्देसए (श०२ उ०५ सू० 21.23) जाव भिक्खायरियाए अडमाणे प्रहापज्जत्तं भत्त-पाणं पडिग्गाहित्ता रायगिहातो जाव अतुरियनचवलमसंभंते जाव रियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेसि अनउस्थियाणं अदूरसामंतेणं बीइवयति / [5] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, दूसरे शतक के निर्मन्थ उद्देशक में कहे अनुसार भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करते हुए यथापर्याप्त आहार-पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से यावत् त्वराहित, चपलतारहित, सम्भ्रान्ततारहित, यावत् ईर्यासमिति का शोधन करते-करते अन्यतीथिकों के पास से होकर निकले। 6. [1] तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं प्रदूरसामंतेणं वोइवयमाणं पासंति, पासेत्ता अन्नमन्नं सहाति, अन्नमन्नं सहावेत्ता एवं बयासी-"एवं खलु देवाणपिया! अम्हं इमा कहा अविष्पकडा, अयं च णं गोतमे अम्ह प्रदूरसामंतेणं वीतीवयति, त सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं गोतम एयम पुच्छित्तए" ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता भगवं गोतमं एवं वदासी-एवं खलु गोयमा ! तव धम्मारिए धम्मोवदेसए समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मस्थिकायं जाव प्रागासस्थिकाय, तं चेव रूविकायं अजीवकायं पण्णवेति, से कहमेयं भंते ! गोयमा! एवं ? [6-1] तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने भगवान् गौतम को थोड़ी दूर से जाले हए देखा / देखकर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया। बुला कर एक दूसरे से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि (पंचास्तिकाय सम्बन्धी) यह बात हमारे लिए अप्रकट-~~-अज्ञात है / यह (इन्द्रभूति) गौतम हमसे थोड़ी ही दूर पर जा रहे हैं / इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमारे लिए गौतम से यह अर्थ (बात) पूछना श्रेयस्कर है; ऐसा विचार करके उन्होंने परस्पर (एक दूसरे से) इस सम्बन्ध में परामर्श किया / परामर्श करके जहाँ भगवान् गौतम थे, वहाँ उनके पास पाए / पास आ कर उन्होंने भगवान् गौतम से इस प्रकार पूछा [प्र.] हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं / जैसे कि-धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय / यावत् 'एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय और अजीवकाय कहते हैं'; यहाँ तक (पहले की हुई) अपनी सारी चर्चा उन्होंने गौतम से कही / फिर पूछा-'हे भदन्त गौतम ! यह बात ऐसे कैसे है ?' Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०] [2] तए णं से भगवं गोतमे ते अन्नउस्थिए एवं क्यासी--"नो खलु वयं देवाणपिया ! अस्थिभावं 'नस्थिति वदामो, नस्थिभावं 'अस्थि ति वदामो / अम्हे गं देवाणुपिया ! सव्वं अत्थिभावं 'प्रत्यो' ति वदामो, सव्वं नस्थिभावं 'नत्थी' ति बदामो। तं चेदसा खलु तुम्भे देवाणुप्पिया! एतमट्ठ सयमेव पच्चविक्खह" त्ति कटु ते अन्न उत्थिए एवं वदति / एवं वदित्ता जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे० एवं जहा नियंठद्देसए (श० 2 उ०५ सू० 25 [1]) जाव भत्त-पाणं पडिसेति, भत्त-पाणं पडिसेत्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता मच्चासन्ने जाव यज्जुवासति / [6-2 उ.] इस पर भगवान् गौतम ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! हम अस्तिभाव (विद्यमान) को नास्ति (नहीं है), ऐसा नहीं कहते, इसी प्रकार 'ना नास्तिभाव' (अविद्यमान स्त (है) ऐसा नहीं कहते / हे देवानप्रियो ! हम सभी अस्तिभावों को अस्ति (है), ऐसा कहते हैं और समस्त नास्तिभावों को नास्ति (नहीं है), ऐसा कहते हैं। अतः हे देवानुप्रियो ! आप स्वयं अपने ज्ञान (अथवा मन) से इस बात (अर्थ) पर अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करिये।' इस प्रकार कह कर श्री गौतमस्वामी ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-जैसा भगवान् बतलाते हैं, वैसा ही है। इस प्रकार कह कर श्री गौतमस्वामी गुणशीलक चैत्य में जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पाए / और द्वितीय शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक (सू-२५-१) में बताये अनुसार यावत् आहार-पानी(भक्त-पान) भगवान् को दिखलाया / भक्तपान दिखला कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया / वन्दन-नमस्कार करके उनसे न बहुत दूर और न बहुत निकट रह कर यावत् उपासना करने लगे। 7. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महाकहापडिवन्ने यावि होत्था, कालोदाई य तं देसं हवभागए। [7] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर महाकथा-प्रतिपन्न (बहुत-से जनसमुह को धर्मोपदेश देने में प्रवत्त) थे। उसी समय कालोदायी उस स्थल (प्रदेश) में आ पहुँचा। 8. 'कालोदाई ति समणे भगव महाबोरे कालोदाई एवं वदासी—"से नणं ते कालोदाई ! अन्नया कयाई एायो सहियाणं समुवागताणं सन्निविट्ठाणं तहेव (सू०३) जाव से कहमेतं मन्ने एवं? से नणं कालोदाई ! अत्थे सम? ? हंता, अस्थि / तं सच्चे णं एसम8 कालोदाई !, अहं पंच अस्थिकाए पण्णवेमि, तं जहा---धम्मस्थिकायं जाव पोग्गलस्थिकार्य / तत्थ णं अहं चत्वारि अस्थिकाए अजीवकाए पण्णवेमि तहेव जाव एगं च गं अहं पोग्गलस्थिकायं रूविकायं पण्णवेमि"। [8] 'हे कालोदायी !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने कालोदायी से इस प्रकार पूछा--'हे कालोदायी ! क्या वास्तव में, किसी समय एक जगह सभी साथ आए हुए और एकत्र सुखपूर्वक बैठे हुए तुम सब में पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार हुअा था कि यावत् 'यह बात कैसे मानी जाए?' हे कालोदायिन् ! क्या यह बात यथार्थ है ?' (कालोदायी-) 'हाँ, यथार्थ है। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (भगवान--) 'हे कालोदायी ! पंचास्तिकायसम्बन्धी यह बात सत्य है / मैं धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय-पर्यन्त पंच अस्तिकाय की प्ररूपणा करता हैं। उनमें से चार अस्तिकायों को मैं अजीवकाय बतलाता हूँ 1 यावत् पूर्व कथितानुसार एक पुद्गलास्तिकाय को मैं रूपीकाय (अजीवकाय) बतलाता हूँ। 6. तए णं से कालोदाई समणं भगवं महावीरं एवं वदासी--एयंसि णं भंते ! धम्मस्थिकायसि अधम्मत्थिकार्यसि प्रागासस्थिकासि अरूविकासि अजीवकायसि चक्किया केइ आसइत्तए वा सइत्तए वा चिद्वित्तए वा निसोदित्तए वा तुट्टित्तए वा ? ___णों इण? समट्ट कालोदाई ! / एगसि णं पोग्गलत्थिकायंसि रूविकायंसि अजीवकार्यसि चक्किया केइ प्रासइत्तए वा सइत्तए वा जाय तुट्टित्तए वा। [प्र.] तब कालोदायी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा---'भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इन प्ररूपी अजीवकायों पर कोई बैठने, सोने, खड़े रहने, नीचे बैठने यावत् करवट बदलने, आदि क्रियाएँ करने में समर्थ है ?' [उ ] हे कालोदायिन् ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / एक पुद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है, जिस पर कोई भी बैठने, सोने, या यावत् करवट बदलने, प्रादि क्रियाएँ करने में समर्थ है। 10, एयंसिणं भंते ! पोग्गलस्थिकासि रूविकासि अजीवकासि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जंति ? णो इण? सम8 कालोदाई ! / [10 प्र.] भगवन् ! जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त करने वाले (अशुभफलदायक) पापकर्म, क्या इस रूपीकाय और अजीवकाय को लगते हैं ? क्या इस रूपोकाय और अजीवकायरूप पुद्गलास्तिकाय में पापकर्म लगते हैं ? [10 उ.] कालोदायिन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / (अर्थात्-रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाय को, जीवों को पापफलविपाकयुक्त करने वाले पापकर्म नहीं लगते / ) 11. एयंसि णं जीवस्थिकासि अरूविकासि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्जति? हता, कज्जति। [11 प्र.] (भगवन् ! ) क्या इस अरूपी (काय) जीवास्तिकाय में जीवों को पापफलविपाक से युक्त पापकर्म लगते हैं ? [11 उ.] हाँ (कालोदायिन् ! ) लगते हैं। (अर्थात्-अरूपी जीवास्तिकाय में ही जीव पापफलकर्म से संयुक्त होते हैं / ) Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०] [199 12. एत्थ णं से कालोदाई संबद्ध समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए धम्मं निसामित्तए एवं जहा खंदए (श० 2 उ०१ सू० 32.45) तहेव पन्वइए, तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरति / [12] (भगवान द्वारा समाधान पाकर) कालोदायी सम्बुद्ध (बोधि को प्राप्त) हमा। फिर उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया / बन्दन-नमस्कार करके उसने इस प्रकार कहा- 'भगवन् ! मैं आपसे धर्म-श्रवण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने उसे धर्म-श्रवण कराया ! फिर जैसे स्कन्दक ने भगवान से प्रव्रज्या अंगीकार की थी (श. 2 उ. 1 सू. 32-45) वैसे ही कालोदायी भगवान् के पास प्रबजित हुआ। उसी प्रकार उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया;...... यावत् कालोदायी अनगार विचरण करने लगे। विवेचन--अन्यतीथिक कालोदायी की पंचास्तिकायचर्चा और सम्बद्ध होकर प्रव्रज्यास्वीकार-प्रस्तुत उद्देशक के प्रारम्भ से लेकर 12 सूत्रों में कालोदायी का अनगार के रूप में प्रवजित होने तक का घटनाक्रम प्रतिपादित किया गया है / कालोदायी के जीवनपरिवर्तन का घटनाचक-(१) कालोदायी आदि अन्यतीथिक साथियों का पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में वार्तालाप, (2) श्री गौतमस्वामी को पास से जाते देख, पंचास्तिकाय सम्बन्धी भगवान् की मान्यता के सम्बन्ध में उनसे पूछा, (3) उन्होंने कालोदायी आदि की पञ्चास्तिकाय-सम्बन्धी मान्यता भगवत्सम्मत बताई, (4) जिज्ञासावश कालोदायी ने भगवान् का साक्षात्कार करके पुन: समाधान प्राप्त किया, पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में अन्य प्रश्न किये, (5) संतोषजनक उत्तर पाकर वह सम्बोधि-प्राप्त हुआ, (6) भगवान् से उसने धर्म-श्रवण की इच्छा प्रकट की, धर्मोपदेश सुना, स्कन्दक की तरह संसारविरक्त होकर प्रवजित हुआ, (7) कालोदायी अनगार ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विचरण करने लगा।' जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमशः पाप-कल्याण-फल-विपाकसंयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण 13. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाई रायगिहातो नगरातो गुणसिल० पडिमिक्खमति, 2 बहिया जणवयविहारं विहरइ / [13] किसी समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करते हुए विचरण करने लगे। 14. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे, गुणसिलए चेइए। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगता / [14] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था / (नगर के बाहर) गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा / यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 312 से 315 तक Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15. तए णं से कालोबाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागन्छई, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासि-अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कति ? हंता, अस्थि / [15 प्र.] तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त पाप-कर्म लगते हैं ? [15 उ.] हाँ, (कालोदायिन् ! ) लगते हैं / 16. कहं गं भंते ! जीवाणं पाया कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कज्ज्जति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्ध अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुजेज्जा, तस्स गं भोयणस्स प्रावाते भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स० 6 उ० 3 सु०२ [1]) जाव भुज्जो भज्जों परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाते भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग० जाव कज्जति / [16 प्र.] भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ? [16 उ.] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली (हांडी, तपेली या देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन का सेवन करता है। वह भोजन उसे आपात (ऊपर-ऊपर से या प्रारम्भ) में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के महाश्रव नामक तृतीय उद्देशक (सू. 2-1) में कहे अनुसार यावत् बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है / हे कालोदायिन् ! इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते, दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ परिणाम पाते हैं। हे कालोदायिन् ! इस प्रकार से जीवों के पापकर्म अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं। 17. अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति ? हंता, कज्जति। [17 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण (शुभ) कर्म कल्याणफल विपाक सहित होते हैं ? [17 उ.] हाँ, कालोदायिन् ! होते हैं। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०] [201 . 18. कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाब कज्जति ? कालोदाई ! से जहानामए केइ पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्ध अट्ठारसवंजणाकुलं प्रोसहसम्मिस्सं मोयणं भुजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स प्रावाते णो भदए भवति, तो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुदण्णत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवातवेरमणे जाब परिगहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जान सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमइ; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कज्जंति / [18 प्र.] भगवन् ! जीवों के कल्याणकर्म, कल्याणफलविपाक से संयुक्त कैसे होते हैं ? [18 उ.] कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ (सुन्दर) स्थाली (हांडी, तपेली यां देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त औषधमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्तु बाद में परिणत होता-होता जब वह सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में यावत् सुख (या शुभ) रूप में बार-बार परिणत होता है, तब वह दुःखरूप में परिणत नहीं होता; इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिए प्राणातिपातविरमण यावत परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक (क्रोधत्याग) यावत मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसके पश्चात् उसका परिणमन होते-होते सुरूपत्व रूप में, सुवर्णरूप में उसका परिणाम यावत् सुखरूप होता है, दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के कल्याण (पुण्य) कर्म कल्याणफल विपाक-संयुक्त होते हैं। विवेचन-जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमशः पापकल्याणफलविपाक-संयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत छह सूत्रों में कालोदायी अनगार द्वारा पापकर्म और कल्याणकर्म के फल से सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान् द्वारा दिया गया दृष्टान्तपूर्वक समाधान प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्ष जिस प्रकार सर्वथा सुसंस्कृत एवं शुद्ध रीति से पकाया हुआ विषमिश्रित भोजन खाते समय बड़ा रुचिकर लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब वह अत्यन्त अप्रीतिकर, दुःखद और प्राणविनाशकारक होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पापकर्म करते समय जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु उनका फल भोगते समय वे बड़े दुःखदायी होते हैं / औषधयुक्त भोजन करना कष्टकर लगता है, उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसका परिणाम हितकर, सुखकर और प्रारोग्यकर होता है / इसी प्रकार प्राणातिपातादि से विरति कष्टकर एवं अरुचिकर लगती है, किन्तु उसका परिणाम अतीव हितकर और सुखकर होता है।' अग्निकाय को जलाने और बुझानेवालों में से महाकर्म आदि और अल्पकर्मादि से संयुक्त कौन और क्यों ? 16 [1] दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धि अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 326 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एतेसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कतरे पुरिसे महाकम्मतराए बेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव ? कतरे वा पुरिसे प्रष्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेदणतराए चेव ? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति ? __ कालोदाई ! तत्थ गंजे से पुरिसे प्रगणिकायं उज्जालेति से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव / तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निम्बावेति से गं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अपवेयणतराए चेव / [16-1 प्र.] भगवन् ! (मान लीजिए) समान उम्र के यावत् समान ही भाण्ड, पात्र और उपकरण वाले दो पुरुष, एक दूसरे के साथ अग्निकाय का समारम्भ करें; (अर्थात-) उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलाए और एक पुरुष अग्निकाय को बुझाए; तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौन-सा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महा-आश्रव बाला और महावेदना र कोन-सा पुरुष अल्पकर्म वाला, अल्पक्रिया बाला, अल्प-प्राश्रब बाला और अल्पवेदना वाला होता है ? (अर्थात्--दोनों में से जो अग्नि जलाता है, वह महाकर्म आदि वाला होता है, या जो प्राग बुझाता है, वह महाकर्मादि युक्त होता है ?) [16-1 उ.] हे कालोदायिन् ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है; और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चह-तत्य गंजे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव' ? कालोदाई ! तस्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति से गं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारभति, बहुत रागं प्राउकायं समारभति, प्रपतरागं तेउकायं समारभति, बहुत रागं वाउकायं समारभति, बहुत रागं वणस्सतिकार्य समारभति, बहुतरागं तसकार्य समारभति / तत्थ णं जे से पुरिसे प्रगणिकायं निव्वादेति से णं पूरिसे अप्पतरागं पृढविक्कायं समारभति, अप्प० प्राउ०, बहतरागं तेउवकायं समारभति, अप्पतरागं वाउकायं सभारभइ, अप्पतरागं वणस्सतिकायं समारभइ, अप्पतरागं तसकायं समारभइ / से तेणढणं कालोदाई ! जाव अप्पवेदणतराए चेव / [19-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह महाकर्म वाला आदि होता है और जो अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि होता है ? [19-2 उ.] कालोदायिन् ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पृथ्वीकाय का बहत समारम्भ (वध) करता है, अप्काय का बहत समारम्भ करता है, तेजस काय का अल्प संमारंभ करता है, वायु काय का बहुत समारंभ करता है; वनस्पतिकाय का बहुत समारम्भ करता है और त्रसकाय का वहत समारम्भ करता है; और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह पृथ्वीकाय का अल्प समारम्भ करता है, अप्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का अल्प समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का अल्प समारम्भ करता है एवं त्रसकाय का भी अल्प समारम्भ करता है; किन्तु अग्नि काय का बहुत समारम्भ करता है। इसलिए Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१०। [203 हे कालोदायिन् ! जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला आदि है और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि है। विवेचन-अग्निकाय को जलाने और बुझाने वालों में महाकर्म प्रादि और अल्पकर्म प्रादि से संयुक्त कौन और क्यों?—प्रस्तुत सुत्र (16) में कालोदायी द्वारा पूछे गए पूर्वोक्त प्रश्न का भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान अंकित है / / अग्नि जलाने वाला महाकर्म प्रादि से युक्त क्यों ?--अग्नि जलाने से बहुत-से अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है, उनमें से कुछ जीवों का विनाश भी होता है / अग्नि जलाने वाला पुरुष अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सभी कायों का विनाश (महारम्भ) करता है। इसलिए अग्नि जलाने वाला पुरुष ज्ञानावरणीय आदि महाकर्म उपार्जन करता है, दाहरूप महाक्रिया करता है, कर्मबन्ध का हेतुभूत महा-आश्रव करता है और जीवों को महावेदना उत्पन्न करता है; जबकि अग्नि बुझाने वाला पुरुष एक अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सब कायों का अल्प प्रारम्भ करता है / इसलिए वह जलाने वाले पुरुष की अपेक्षा अल्प-कर्म, अल्प-क्रिया, अल्प-पाश्रव और अल्प-वेदना से युक्त होता है।' प्रकाश और ताय देने वाले अचित्त प्रकाशमान पुद्गलों को प्ररूपरणा-- 20. अस्थि णं भंते ! अचित्ता वि पोगला प्रोभासेंति उज्जोवेति तवेति पभार्सेति ? हंता, अस्थि / [20] भगवन् ! क्या अचित्त पुद्गल भी अवभासित (प्रकाशयुक्त) होते (करते) हैं, वे वस्तुओं को उद्योतित करते हैं, ताप करते हैं (या स्वयं तपते) हैं और प्रकाश करते हैं ? [20 उ.] हाँ कालोदायिन् ! अचित्त पुद्गल भी यावत् प्रकाश करते हैं / 21. कतरे णं भंते ! ते अचित्ता पोग्गला प्रोभासंति जाव पभासंति ? __कालोदाई ! कुद्धस्स प्रणगारस्स तेयलेस्सा निसट्टा समाणो दूरं गंता दूरं निपतति, देसं गता देसं निपतति, जहि हि च णं सा निपतति तहि तहि च गं ते अचित्ता वि पोग्गला प्रोभासेंति जाव पभाति / एते णं कालोदायी ! ते अचित्ता वि पोग्गला प्रोभासेंति जाव पभाति / [21 प्र.] भगवन् ! अचित्त होते हुए भी कौन-से पुद्गल अवभासित होते या करते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं ? [21 उ.] कालोदायिन् ! क्रुद्ध (कुपित) अनगार की निकली हुई तेजोलेश्या दूर जाकर उस देश में गिरती है, जाने योग्य देश (स्थल) में जाकर उस देश में गिरती है। जहाँ वह गिरती है, वहाँ अचित्त पुद्गल भी अवभासित (प्रकाशयुक्त) होते या करते हैं यावत् प्रकाश करते हैं / विवेचन--प्रकाश और ताप देने वाले प्रचित्त प्रकाशमान पुद्गलों की प्ररूपणा प्रस्तुत दो सूत्रों में स्वयं प्रकाशमान अचित्त प्रकाशक, तापकर्ता एवं उद्योतक पुद्गलों की प्ररूपणा की गई है। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 327 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सचित्तवत अचित्त तेजस्काय के प्रदगल-सचित्त तेजस्काय के पुदगल तो प्रकाश, ताप, उद्योत प्रादि करते ही हैं, वे अवभासित यावत् प्रकाशित भी होते ही हैं, किन्तु अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते एवं प्रकाश, ताप, उद्योत आदि करते हैं, यह इस सूत्र का प्राशय है / कुपित साधु द्वारा निकाली हुई तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं।' कालोदायी द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिपूर्वक निर्वाणप्राप्ति 22. तए णं से कालोदाई अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहि चउत्थ-छ??म जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते (स० 1 उ०६ सु० 24) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / . ॥सत्तमे सए : दसमो उद्देसो समत्तो॥ // सत्तमं सतं समत्तं // [22] इसके पश्चात् वह कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। बन्दन-नमस्कार करके बहुत-से चतुर्थ (भक्त-प्रत्याख्यान = उपवास), षष्ठ (भक्तप्रत्याख्यान == दो उपवास-बेला), अष्टम (भक्त-प्रत्याख्यान = तेला) इत्यादि तप द्वारा यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे; यावत् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक (सू. 24) में वणित कालास्यवेषी पुत्र की तरह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' विवेचन-कालोदायी अनगार द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिमरणपूर्वक निर्वाणप्राप्ति--प्रस्तुत सूत्र में कालास्यवेषी पुत्र को तरह कालोदायी अनगार के भी अन्तिम संल्लेखनासाधना आदि के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होने का निरूपण किया गया है। // सप्तम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / / / सप्तम शतक सम्पूर्ण // 1. भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक 327 Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं सयं : अष्टम शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अष्टम शतक में पुद्गल, आशीविष, वृक्ष, क्रिया, आजीव, प्रासुक, अदत्त, प्रत्यनीक, बन्ध और पाराधना; ये दस उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में परिणाम की दृष्टि से पुद्गल के तीन प्रकारों का, नौ दण्डकों द्वारा प्रयोगपरिणत पुद्गलों का, फिर मिश्रपरिणत पुद्गलों का तथा विस्रसापरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेद का निरूपण है। तत्पश्चात्-मन-वचन-काया की अपेक्षा विभिन्न प्रकार से प्रयोग, मिश्र और विनसा से एक, दो, तीन, चार आदि द्रव्यों के परिणमन का वर्णन है। फिर परिमाणों की दृष्टि से पुद्गलों के अल्पबहुत्व की चर्चा है / * द्वितीय उद्देशक में आशीविष, उसके दो मुख्य प्रकार तथा उसके अधिकारी जीवों एवं उनके विष-सामर्थ्य का निरूपण है। तत्पश्चात् छद्मस्थ द्वारा सर्वभाव से ज्ञान के अविषय और वली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषय के 10 स्थानों का, ज्ञान-अज्ञान के स्वरूप एवं भेद-प्रभेद का, औधिक जीवों, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों एवं सिद्धों में ज्ञान-अज्ञान का प्ररूपण, गति आदि 8 द्वारों की अपेक्षा लब्धिद्वार, उपयोगादि बीस द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-अज्ञानी का प्ररूपण एवं ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। * ततीय उद्देशक में संख्यातजीविक, असंख्यातजीविक और अनन्तजीविक वृक्षों का, छिन्नकच्छप प्रादि के टुकड़ों के बीच का जीवप्रदेश स्पृष्ट और शस्त्रादि के प्रभाव से रहित होने का एवं रत्न प्रभादि पृथ्वियों के चरमत्व-अचरमत्व आदि का निरूपण किया गया है। * चतुर्थ उद्देशक में क्रियाओं और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों आदि का अतिदेशपूर्वक निर्देश है। * पंचम उद्देशक में सामायिक आदि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान स्वकीय न रहने पर भी स्वकीयत्व का, तथा श्रमणोपासक के व्रतादि के लिए 46 भंगों का, तथा आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता का वर्णन है, अन्त में चार प्रकार के देवलोकों का निरूपण है। छठे उद्देशक में तथारूप श्रमण या माहन को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहारदान का श्रमणोपासक को फल-प्राप्ति का, गृहस्थ के द्वारा स्वयं एवं स्थविर के निमित्त कह कर दिये गए पिण्ड-पात्रादि की उपभोगमर्यादा का निरूपण है तथा अकृत्यसेबी किन्तु आराधनातत्पर निर्गन्थ-निर्गन्थी की विभिन्न पहलुओं से आराधकता की सयुक्तिक प्ररूपणा है / तत्पश्चात् जलते दीपक तथा घर में जलने वाली वस्तु का विश्लेषण है, और एक जीव या बहुत जीवों को परकीय एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली क्रियाओं का निरूपण है। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून * सप्तम उद्देशक में अन्यतीथिकों के द्वारा प्रदत्तादान को लेकर स्थविरों पर आक्षेप एवं स्थविरों द्वारा प्रतिवाद का निरूपण है / अन्त में गति प्रवाद (प्रपात) के पांच भेदों का निरूपण है / अष्टम उद्देशक में मुण, गति, समूह, अनुकम्पा, श्रुत एवं भावविषयक प्रत्यनीकों के भेदों का, निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार का, विविध पहलुओं से ऐयापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध का, 22 परीषहों में से कौन-सा परिषह किस कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, तथा सप्तविधबन्धक आदि के परीषहों का निरूपण है। तदनन्तर उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यो की दूरी और निकटता के प्रतिभासादि का एवं मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों व इन्द्रों के उपपातबिरहकाल का वर्णन है। नवम उद्देशक में विस्त्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का, प्रयोगबन्ध, शरीर-प्रयोगबन्ध एवं पंच शरीरों के प्रयोगबन्ध का सभेद निरूपण है / पंच शरीरों के एक दूसरे के बन्धक प्रबन्धक की चर्चा तथा औदारिकादि पांच शरीरों के देश-सर्वबन्धकों एवं बन्धकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है। * दशम उद्देशक में श्रुत-शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से अन्यतीथिक-मतनिराकरण पूर्वक स्वसिद्धान्त का ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्याराधना के फल का, तथा पुद्गलपरिणाम के भेद-प्रभेदों का, एवं पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक के अष्ट भंगों का निरूपण है। अन्त में अष्ट कर्मप्रकृतियाँ, उनके अविभागपरिच्छेद, उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीवों की एवं कर्मों के परस्पर सहभाव को वक्तव्यता है।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) विषयसूची Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदुमं सयं : अष्टम शतक अष्टम शतक को संग्रहणी गाथा 1. पोग्गल 1 प्राप्तीविस 2 रुख 3 किरिय 4 श्राजीव 5 फासुगमदत्त 6-7 / पडिणीय 8 बंध 6 पाराहणा य 10 बस अट्टमम्मि सते // 1 // [1. गाथार्थ] 1. पुद्गल, 2. आशीविष, 3. वृक्ष, 4. क्रिया, 5. आजीव, 6. प्रासुक, 7. अदत्त, 8. प्रत्यनीक, 6. बन्ध और 10. आराधना, आठवें शतक में ये दस उद्देशक हैं। पढमो उद्देसओ : 'पोग्गल' प्रथम उद्देशक : 'पुद्गल' पुद्गलपरिणामों के तीन प्रकारों का निरूपण--- 2. रायगिहे जाव एवं वदासि-- [२-उपोद्धात] राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा 3. कतिविहा णं भंते ! पोग्गला पण्णता? गोयमा ! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा--पयोगपरिणता मीससापरिणता वीससापरिणता। [३-प्र.} भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [३-उ.] गौतम ! पुद्गल तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) प्रयोग-परिणत, (2) मिश्र-परिणत और (3) विस्रसा-परिणत / / विवेचन--पुदगल परिणामों के तीन प्रकारों का निरूपण-प्रस्तुत सूत्र में परिणाम (परिणति) की दृष्टि से पुद्गल के तीन प्रकारों का निरूपण किया गया है। परिणामों को दृष्टि से तीनों पुद्गलों का स्वरूप-(१) प्रयोग-परिणत-जीव के व्यापार (क्रिया) से शरीर आदि के रूप में परिणत पुद्गल, (2) मिश्र-परिणत--प्रयोग और विस्रसा (स्वभाव) इन दोनों द्वारा परिणत पुद्गल और (3) विखसा-परिणत-विरसा यानी स्वभाव से परिणत पुद्गल / Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [ व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र मिश्रपरिणत पुद्गलों के दो रूप---(१) प्रयोग-परिणाम को छोड़े बिना स्वभाव से (वित्रसा) परिणामान्तर को प्राप्त मृतकलेवर आदि पुद्गल मिश्रपरिणत कहलाते हैं; अथवा (2) विस्रसा (स्वभाव) से परिणत औदारिक आदि वर्गणाएँ, जब जीव के व्यापार (प्रयोग) से औदारिक आदि शरीररूप में परिणत होती हैं, तब वे मिश्रपरिणत कहलाती हैं, जब कि उनमें प्रयोग और विस्रसा, दोनों परिणामों की विवक्षा की गई हो। विस्रसापरिणाम को छोड़कर अकेले प्रयोग-परिणामों की विवक्षा हो, तब उक्त वर्गणाएँ प्रयोग-परिणत ही कहलाएँगी। नौ दण्डकों द्वारा प्रयोग-परिणत पुद्गलों का निरूपणप्रथम दण्डक 4. पयोगपरिणता णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा पण्णता, तं जहा-एगिदियपयोगपरिणता बेइंदियफ्योगपरिणता जाव चिदियपयोगपरिणता। [४-प्र.] भगवन् ! प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [४-उ.] गौतम ! (प्रयोग-परिणत पुद्गल) पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-- (1) एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत, (2) द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत, (3) त्रीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत, (4) चतुरिन्द्रिय-प्रयोग-परिणत, (5) पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / 5. एगिदियपयोगपरिणता णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचविहा, तं जहा–पुढविक्काइयएंगिदियपयोगपरिणता जाव वणस्सतिकाइयएगिदियपयोगपरिणता। [५-प्र.) भगवन् ! एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [५-उ.] गौतम ! (एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-पृथिवीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल, यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत पुद्गल / 6. [1] पुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणता णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमपुढविक्काइयएगिदियफ्योगपरिणता य बादरपुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणता य / [6-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [6-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोग-परिणत पुद्गल और बादरपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 328 Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [209 [2] प्राउक्काइयएगिदियपयोगपरिणता एवं चेव / [6-2] इसी प्रकार अप्कायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल भी दो प्रकार के (सूक्ष्म और बादर-रूप से) कहने चाहिए / [3] एवं दुयनो मेदो जाव वणस्सतिकाइया य / [6-3] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल तक के प्रत्येक के दो दो भेद (सूक्ष्म पोर बादर-रूप से) कहने चाहिए। 7. [1] बेइंदियपयोगपरिणताणं पुच्छा / गोयमा! अणेगविहा पण्णता / [7-1 प्र.] भगवन् ! अब द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल के प्रकारों के विषय में पृच्छा है। [7-1 उ.] गौतम ! वे (द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) अनेक प्रकार के कहे गए हैं। [2] एवं तेइंदिय-चरिदियपयोगपरिणता वि। [7-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों और चतुरिन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार (अनेक विध) के विषय में जानना चाहिए। 8. पंचिदियपयोगपरिणताणं पुच्छा। गोयमा ! चतुब्बिहा पण्णत्ता, तं जहानेरतियपंचिदियपयोगपरिणता, तिरिक्ख०, एवं मणुस्स०, देवचिदियः / [८-प्र.] अब (गौतमस्वामी की) पृच्छा पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के (प्रकार के) विषय में है। [८-उ.] गौतम ! (पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) नारक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग परिणत पुद्गल, (2) तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल, (3) मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और (4) देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / 6. नेरदयचिदियपयोग० पुच्छा / ___ गोयमा! सत्तविहा पण्णता, तं जहा-रतणप्पभापुढविनेरइयचिदियपयोगपरिणता वि जाव प्रसत्तमपुढविनेरइयचिवियफ्योगपरिणता वि। [९-प्र.] (सर्वप्रथम) नरयिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के (प्रकार के) विषय में (गौतमस्वामी की) पृच्छा है। [E-उ.] गौतम ! (नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत-पुद्गल) सात प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-रत्नप्रभापृथ्वी-नरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् अध सप्तमा (तमस्तमा)पृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 [च्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र 10. [1] तिरिक्खजोणियपंचिदियपयोगपरिणताणं पुच्छा। ___ गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जलचरचिदियतिरिक्खजोणिय० थलचरतिरिक्खजोणियचिदिय० खहचरतिरिक्खचिदियः / [10.1 प्र.] अब प्रश्न है--तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के (प्रकार के) विषय में। [10-1 उ.] गौतम ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल..तीन प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-(१) जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल, (2) स्थल चर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और (3) खेंचर तिर्य,योनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [2] जलयरतिरिक्खजोणियपोग० पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मुच्छिमजलचर० गम्भवतियजलचर० / [10-2 प्र.] भगवन् ! जलचर तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [10-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-(१) सम्मूच्छिम जलचरतिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और (2) गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [3] थलचरतिरिक्ख० पुच्छा। गोयमा! दुधिहा पण्णता, तं जहा-चउप्पदथलचर० परिसप्पथलचर० / [10-3 प्र.] भगवन् ! स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [10-3 उ.] गौतम ! (स्थलचरतियञ्च-योनिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुदगल) दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यच्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और परिसर्पस्थलचर-तिर्यञ्चयोनिकपचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [4] चउप्पदयलचर पुच्छा / गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा सम्मुच्छिमचउप्पदथलचर० गम्भवतियचउपयथलचर० / [10-4 प्र] अब मेरा प्रश्न है कि चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के हैं ? [10-4 उ.] गौतम ! वे (पूर्वोक्त पुद्गल) दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार सम्मूच्छिम चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और गर्भज-चतुष्पद-स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [211 अष्टम शतक : उद्देशक-१] [5] एवं एतेणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पण्णता, तं जहा-उरपरिसप्पा य, भयपरिसप्पा य। [10-5] इसी प्रकार अभिलाप (पाठ) द्वारा परिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियप्रयोग-परिणत पुद्गल भी दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-उरःपरिसर्प-स्थलचर-तियंञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और भुजपरिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [6] उरपरिसप्पा दुविहा पण्णता, तं जहा-सम्मुच्छिमा य, गम्भवक्कंतिया य / [१०-६](पूर्वोक्त चतुष्पदस्थलचर सम्बन्धी पुद्गलवत्) उर:परिसर्प (सम्बन्धी प्रयोगपरिणत पुद्गल) भी दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा—सम्मूच्छिम (उरःपरिसर्पसम्बन्धी पुद्गल) और गर्भज (उर:परिसर्प-सम्बन्धी पुद्गल)। [7] एवं भुयपरिसप्पा वि। [10-7] इसी प्रकार भुजपरिसर्प-सम्बन्धी पुद्गल के भी दो भेद समझ लेने चाहिए। [8] एवं खहचरा वि। [10-8] इसी तरह खेचर (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियसम्बन्धी पुद्गल) के भी पूर्ववत् (सम्मूच्छिम और गर्भज) दो भेद कहे गए हैं। 11. मणुस्सपंचिदियफ्योग पुच्छा / गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा--सम्मुच्छिममणुरूस० गम्भवतियमणुस्स० / [11 प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [11 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-सम्मूच्छिममनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुदगल / 12. देवचिदियपयोग० पुच्छा। गोयमा ! चविहा पन्नता, तं जहा—भवणवासिदेवचिदियपयोग० एवं जाव वेमाणिया। [12 प्र.] भगवन् ! देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत-पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [12 उ.] गौतम! वे चार प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियप्रयोग-परिणत पुद्गल, यावत् वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / .13. भवणवासिदेवपंचिदिय० पुच्छा। . गोयमा ! इसविहा पण्णसा, तं जहा -असुरकुमार० जाब थणियकुमार० / Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रं [13 प्र.] भगवन् ! भवनवासी-देवपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? _[13 उ] वै (भवनवासीदेवसम्बन्धी-प्रयोग-परिणत पुद्गल) दस प्रकार के कहे गए हैं / यथा-असुरकुमार-देव-प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् स्तनितकुमार-देव-प्रयोग-परिणत पुद्गल / 14. एवं एतेणं प्रभिलावेणं अट्ठविहा वाणमंतरा पिसाया जाव गंधव्या। [14] इसी प्रकार इसी अभिलाप (पाठ) से आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव (प्रयोग-परिणत पुद्गल) कहने चाहिए। यथा-पिशाच (वाणव्यन्तरदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल) से यावत् गन्धर्व(वाण० देव ०-प्रयोग-परिणत पुद्गल) तक / 15. जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा—चंदविमाणजोतिसिय० जाय ताराविमाणमोतिसियदेव० / [15] (इसी प्रकार के अभिलापवत्) ज्योतिष्कदेवप्रयोग-परिणत पुद्गल भी पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार–चन्द्रविमानज्योतिष्कदेव (-प्रयोग-परिणत) यावत् ताराविमान-ज्योतिष्कदेव(-प्रयोग-परिणत पुद्गल)। 16. [1] वेमाणिया दुविहा पणत्ता, तं नहा-कप्पोवग० कप्पातीतगवेमाणिय० / [16-1] वैमानिकदेव(-प्रयोग-परिणत पुद्गल) के दो प्रकार कहे गए हैं। यथा--कल्पोपपन्नक वैमानिकदेव(-प्रयोग-परिणत पुद्गल) और कल्पातीत-वैमानिकदेव (-प्रयोग-परिणत पुद्गल) / [2] कप्पोवगा दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोहम्मकप्पोषग० नाव अच्चयकप्पोवगवेमाणिया। [16-2] कल्पोपपत्रक वैमानिक देव० बारह प्रकार के कहे गए हैं / यथा-सौधर्म कल्पोपपन्नक से यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक देव तक / (इन बारह प्रकार के वैमानिक देवों से सम्बन्धित प्रयोग-परिणत पुद्गल 12 प्रकार के होते हैं / ) [3] कप्पातीत० दुविहा पण्णता, तं जहा-वेज्जगकप्पातीतवे० अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवे। [16-3] कल्पातीत वैमानिकदेव दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-वेयक-कल्पातीतवैमानिकदेव और अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव / ( इन्हीं दो प्रकार के कल्पातीत वैमानिकदेवों से सम्बन्धित प्रयोग-परिणत-पुद्गल दो प्रकार के कहने चाहिए / ) [4] गेवेज्जगकप्पातीतगा नवविहा पणत्ता, तं जहा-हेटिमहेट्ठिमगेवेज्जगकप्पातीतगा नाव उरिमउरिमगेविज्जगकप्पातीतया। [16-4] ग्रेवेयककल्पातीत वैमानिकदेवों के नौ प्रकार कहे गए हैं। यथा-अधस्तनअधस्तन (सबसे नीचे की त्रिक में नीचे का) ग्रं वेयक कल्पातीत वैमानिक देव यावत् उपरितन Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [213 उपरितन (सबसे ऊपर की त्रिक में सबसे ऊपर वाले ग्रे वेयक-कल्पातीत-वैमानिक-देव / (इन्हीं नामों से सम्बन्धित प्रयोग-परिणत-पुद्गलों के नौ प्रकार कह देने चाहिए।) [5] अणुत्तरोषवाइयकष्यातीतगवेमाणियदेवर्षांचवियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला काविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पणत्ता, तं जहा-विजयप्रणुत्तरोववाइय० जाव परिणया जाव सम्वद्धसिद्धप्रणुतरोषवाइयदेवचिदिय जाव परिणता / 1 दंडगो। [16-5 प्र.] भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतवैमानिक-देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [16-5 उ.] गौतम ! वे (अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवसम्बन्धी प्रयोग-परिणत पुद्गल) पांच प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-विजय-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीतवैमानिकदेवपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीतवैमानिकदेव-पंचेन्द्रियप्रयोग-परिणत पुद्गल / प्रथम दण्डक पूर्ण हुमा। द्वितीय दण्डक 17. [1] सुहमपुढविकाइयएगिवियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइबिहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता / तं जहा—पज्जत्तगसुहमपुढविकाइय जाय परिणया य अपज्जत्तगसुहमपुठविकाइय जाव परिणया य / [केई प्रपज्जत्तगं पढम मणति, पच्छा पज्जत्तगं] / [17-1 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? 617-1.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / कई प्राचार्य अपर्याप्तक (वाले प्रकार) को पहले और पर्याप्तक (वाले प्रकार) को बाद में कहते हैं। [2] बादरपुढविकाइयएगिदिय० ? एवं चेव / [17-2] इसी प्रकार बादर-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल के भी (उपर्युक्तवत्) दो भेद कहने चाहिए। 18. एवं जाव वणस्सइकाइया / एक्केक्का दुविहा-सुहुमा य बादरा य, पज्जत्तगा प्रपज्जत्तगाय माणियब्वा / [18] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक (एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) तक प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद और फिर इन दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद (वाले प्रयोगपरिणत पुद्गल) कहने चाहिए। Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. [1] बंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा / गोयमा! दुविहा पण्णता, तं जहा--पज्जत्तगदियपयोगपरिणया य, अपज्जत्तग जाव परिणया य / [19-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [16-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-पर्याप्तक द्वीन्द्रिय-प्रयोगपरिणत पुद्गल और अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [2] एवं तेइंदिया वि। [16-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में भी जान लेना चाहिए। [3] एवं चरिदिया वि। [19-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 20. [1] रयणप्पभापुढविनेरइय० पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जतगरयणप्पभापुढवि जाव परिणया य, अपज्जत्तग जाव परिणया य। [20-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? 20-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक रत्नप्रभापथ्वी नैरयिक-प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक रत्नप्रभा-नरयिक-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [2] एवं जाव आहेसत्तमा। [20-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमीपृथ्वी नरयिक-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार (प्रत्येक के दो-दो) के विषय में कहना चाहिए। 21. [1] सम्मुच्छिमजलचरतिरिक्ख० पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-पज्जत्तग० अपज्जतग० / एवं गमवक्कतिया वि। [21-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम-जलचर-तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? 21-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-पर्याप्तक सम्मूच्छिम जलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक सम्मूच्छिम-जलचर-तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहे गए हैं। अष्टभ शतक : उद्देशक-१] [215 इसी प्रकार गर्भज-जलचरसम्बन्धी प्रयोगपरिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में जान लेना चाहिए। [2] सम्मुच्छिमचउप्पदथलचर० / एवं चेव / एवं गम्भवक्कंतिया य / * [21-2] इसी प्रकार सम्मूच्छिम चतुष्पदस्थलचरसम्बन्धी प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में तथा गर्भज चतुष्पदस्थलचर सम्बन्धी प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रकार के विषय में भी जानना चाहिए। [3] एवं जाव सम्मुच्छिमखहयर० गब्भवतिया य एक्केके पज्जत्तगा य अपज्जतगा य भाणियवा। [21-3] इसी प्रकार यावत् सम्मच्छिम खेचर और गर्भज खेचर से सम्बन्धित प्रयोगपरिणत पुद्गलों के प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो-दो भेद कहने चाहिए। 22. [1] सम्मुच्छिममणुस्सपंचिदिय० पुच्छा। गोयमा! एगविहा पनत्ता-अपज्जत्तगा चेव / [22-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के [22-1 उ.] गौतम ! वे एक प्रकार के कहे गए हैं / यथा--अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम मनुष्यपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [2] गम्भवतियमणुस्सपंचिदिय० पुच्छा / गोयमा! दुविहा पण्णता, तं जहा-पज्जत्तगगम्भवक्कंतिया वि, अपज्जत्तगगम्भवतिया वि। [22-2 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [22-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार–पर्याप्तक-गर्भज-मनुष्यपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल / 23. [1] असुरकुमार भवणवासिदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा---पज्जत्तमप्रसुरकुमार० प्रपज्जत्तगप्रसुर० / [23.1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासीदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [23-1 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा--पर्याप्तक असुरकुमार-भवनबासीदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासीदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल / [2] एवं जाव थणियकुमारा पज्जत्तगा अपज्जत्तमा य। [23-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार भवनवासीदेव तक प्रयोग-परिणत पुद्गलों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद कहने चाहिए। Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 24. एवं एतेणं अभिलावेणं दुएणं भेदेणं पिसाया य जाव गंधवा, चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पोवगा जाव प्रचुमो, हिटिमहिटिमोविज्जकापातीत जाव उवरिमउवरिमगेविज्ज०, विजयप्रणुत्तरो० जाव अपराजिय० / [24] इसी प्रकार इसी अभिलाप से पिशाचों से लेकर यावत् गन्धर्वो तक (आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के तथा चन्द्र से लेकर तारा-पर्यन्त (पांच प्रकार के ज्योतिष्कदेवों के प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के एवं सौधर्मकल्पोपपन्नक से यावत् अच्युतकल्पोपपन्नक तक के और प्रधस्तन-अधस्तन ग्रंवेयककल्पातीत से लेकर उपरितन-उपरितन ग्रेवेयक कल्पातीत देव प्रयोग-परिणत पुद्गलों के, एवं विजय-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत से यावत् अपराजित-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत देव-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद कहने चाहिए। 25. लव्वदृसिद्धकप्पातीय० पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा-पज्जत्तगसव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरो० अपज्जत्तगसवट जाव परिणया वि / 2 दंडगा। [25 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के कितने प्रकार हैं ? [25 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्तक सर्वार्थ सिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीतदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गल / दूसरा दण्डक पूर्ण हुप्रा। तृतीय दण्डक 26. जे अपज्जत्तासुहमपुढवीकाइयएगिदियपयोगपरिणया से पोरालिय-तेया-कम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, जे पज्जत्तासुहुम० जाव परिणया ते पोरालिय-तेया-कम्मगसरीरप्पयोगपरिणया। एवं जाव चरिदिया पज्जत्ता। नवरं जे पज्जत्तगबादरवाउकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते पोरालियवे उच्चिय-तेया-कम्मसरीर जाव परिणता। सेसं तं चेव / / [26] जो पुद्गल अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकाय-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पथ्वीकाय-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी औदारिक, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्याप्तक तक के (प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में) जानना चाहिए। परन्त विशेष इतना है कि जो पदगल पर्याप्त-बादर-वायुकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / (क्योंकि वायुकाय में वैक्रिय शरीर भी पाया जाता है / ) शेष सब पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार जानना चाहिए / Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] 217 27. [1] जे अपज्जत्तरयणप्पभाविनेरइयचिदियपयोगपरिणया ते वेउन्विय-तथा-कम्मसरोरप्पयोगपरिणया / एवं पज्जत्तया वि। [27-1] जो पुद्गल अपर्याप्त-रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / इसी प्रकार पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वीनर यिकपंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / [2] एवं जाव अहेसत्तमा। [27.2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक-प्रयोग-परिणत-पुद्गलों तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 28. [1] जे अपज्जत्तगसम्मुच्छिमजलचर जाव परिणया ते ओरालिय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया। एवं पज्जत्तगा वि / [28-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-जलचर-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के सम्बन्ध में जानना चाहिए / [2] गमवक्कंतिया अपज्जत्तथा एवं चेव / [28-2] गर्भज-अपर्याप्तक-जलचर-(प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। [3] पज्जत्तयाणं एवं चेव, नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं / {28-3] गर्भज-पर्याप्तक-जलचर-(प्रयोग-परिणत-पुद्गलों) के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिए / विशेष यह है कि उनको पर्याप्तक बादर वायुकायिकवत् चार शरीर (-प्रयोगपरिणत) कहना चाहिए। [4] एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पद-उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पखहयरेसु वि चत्तारि पालावगा भाणियव्वा / [28-4] जिस तरह जलचरों के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प एवं खेचरों (के प्रयोग-परिणतपुद्गलों) के भी चार-चार पालापक कहने चाहिए। 26. [1] जे सम्मुच्छिममणुस्साँचदियपयोगपरिणया ते पोरालिय-तेया-कम्मासरीर जाय परिणया। [29-1] जो पुद्गल सम्मूच्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं / [2] एवं गम्भवक्कतिया दि अपज्जत्तगा वि / Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [29-2] इसी प्रकार अपर्याप्तक गर्भज-मनुष्य-(पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में भी कहना चाहिए। [3] पज्जत्तगा वि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि पंच भाणियवाणि / [29-3] पर्याप्तक गर्भज-मनुष्य-(पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में भी (सामान्यतया) इसी तरह कहना चाहिए / विशेषता यह है कि इनमें (औदारिक से लेकर कार्मण तक) पंचशरीर-(प्रयोग-परिणत पुद्गल) कहना चाहिए। 30. [1] जे अपज्जत्तगा असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव / एवं पज्जत्तगा वि / [30-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक असुरकुमार-भवनवासीदेव-प्रयोगपरिणत हैं, उनका पालापक नैरयिकों की तरह कहना चाहिए / पर्याप्तक-असुरकुमारदेव-प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। [2] एवं दुयएणं भेदेणं जाव थणियकुमारा। [30-2] यावत् स्तनितकुमारपर्यन्त पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों में, इसी तरह कहना चाहिए। 31. एवं पिसाया जाव गंधवा, चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव अच्चुनो, हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज्ज जाव उरिमउवरिमगेधेज्ज०, विजय-अणुत्तरोववाइए जाव सम्वसिद्ध अणु०, एक्केपकेणं दुयो भेदो भाणियन्बो जाव जे पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धप्रणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते वेउदिवय-तेया-कम्मासरीरपयोगपरिणया / दंडगा 3 / [31] इसी तरह पिशाच से लेकर गन्धर्व वाणव्यन्तर-देव, चन्द्र से लेकर ताराविमानपर्यन्त ज्योतिष्क-देव और सौधर्मकल्प से लेकर यावत् अच्युतकल्प-पर्यन्त तथा अधःस्तन-अधःस्तन वेयक कल्पातीतदेव से लेकर उपरितन-उपरितन में वेयककल्पातीत देव तक एवं विजय-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीतदेव से ले कर यावत् सर्वार्थसिद्ध कल्पातीत वैमानिकदेवों तक पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों भेदों में वैक्रिय, तैजस और कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत पुद्गल कहने चाहिए ! चतुर्थ दण्डक 32. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणता ते कासिदियपयोगपरिणया। [32-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणत हैं। [2] जे पज्जत्तासुहमपुढविकाइया० एवं चेव / [32-2] जो पुद्गल पर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणत हैं। [3] जे अपज्जत्ताबादरपुढविक्काइया० एवं चेव / Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [219 [32-3] जो अपर्याप्त बादर पृथ्वोकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल हैं, वे भी इसी प्रकार समझने चाहिए। [4] एवं पज्जत्तगा वि। [32-4] पर्याप्तक बादरपृथ्वोकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल भी इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत समझने चाहिए। [5] एवं चउक्कएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया / [32-5] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त-प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक इन चार-चार भेदों में स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कहने चाहिए। 33. [1] जे अपज्जताबेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदिय-फासिदियपयोगपरिणया। [33.1] जो पुद्गल अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय प्रयोगपरि [2] जे पज्जत्ताबेइंदिया एवं चेव / _[33-2] इसी प्रकार पर्याप्तक-द्वीन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल भी जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं। [3] एवं जाव चरिदिया, नवरं एक्केवक इंदियं वड्ढेयव्यं / [33-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक (पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों में) कहना चाहिए। किन्तु एक-एक इन्द्रिय बढ़ानी चाहिए (अर्थात्-त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल स्पर्श-जिह्वाघ्राणेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, और चतुरिन्द्रिय-प्रयोगपरिणत पुद्गल स्पर्श-जिह्वा-घ्राण-चक्षुरिन्द्रिय प्रयोगपरिणत हैं।) 34. [1] जे प्रपज्जत्तारयणप्पभापुढविनेरइयचिदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय-क्खिदियघाणिदिय-जिम्मिदिय-फासिदियपयोगपरिणया। [34-1] जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा (ग्रादि) पृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिह्वन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं। [2] एवं पज्जत्तगा वि। [34-2] इसी प्रकार पर्याप्तक (रत्नप्रभादिपृथ्वी नैरयिक-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल के विषय में भी पूर्ववत् (पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत) कहना चाहिए / 35. एवं सन्वे भाणियबा तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जे पज्जत्तासम्वट्ठसिद्धप्रणुत्तरोवाइय जाय परिणया ते सोइंदिय-चविखदिय जाव परिणया। दंडगा 4 / Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [35] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, इन सबके विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिककल्पतीतदेव-प्रयोग-परिणत हैं, वे सब श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। पंचम दण्डक 36. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदियोरालिय-तेय-कम्सासरीरप्पयोगपरिणया ते फासिदियपयोगपरिणया / जे पज्जत्तासुहुम० एवं चेव / [36-1] जो पुद्गल अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय औदारिक-तैजस-कार्मण-शरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। [2] बादर० अपज्जता एवं चेव / एवं पज्जत्तगा वि / [36-2] अपर्याप्तबादरकायिक एवं पर्याप्तबादर पृथ्वीकायिक-औदारिकादि शरीरत्रय प्रयोगपरिणत पुद्गल के विषय में भी इस प्रकार कहना चाहिए। 37. एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जति इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियन्वाणि जाव जे पज्जत्तासम्वसिद्धप्रणतरोबवाइय जाव देवचिदिय-वेउविवय-तेया-कम्मासरीरपयोगपरिणया ते सोइंदिय-क्सिदिय जाव फासिदियपयोगपरिणया। दंडगा५ / [37] इस प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जिस जीव के जितनी इन्द्रियां और शरीर हों, उसके उतनी इन्द्रियों तथा उतने शरीरों का कथन करना चाहिए / यावत् जो पुद्गल पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतदेव पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं / छठा दण्डक 38. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढबिकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते षण्णतो कालवण्णपरिणया वि, नील०, लोहिय०, हालिद्द०, सुक्किल० / गंधतो सुम्भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि। रसतो तित्तरसपरिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कसायरसप०, अंबिलरसप०, महुररसप० / फासतो कक्खडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि० / संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्ट० तंस० चउरंस० प्रायतसंठाणपरिणया वि / __ [38-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण, नीले वर्ण, रक्तवर्ण, पीत (हारिद्र) वर्ण एवं श्वेतवर्ण रूप से परिणत हैं, गन्ध से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध रूप से परिणत हैं, रस से तीखे, कटु, काषाय (कसैले), खट्ट और मीठे इन पांचों रसरूप में परिणत हैं, स्पर्श से कर्कशस्पर्श यावत् रूक्षस्पर्श के रूप में परिणत हैं और संस्थान से परिमण्डल, वृत्त, व्यंस (तिकोन), चतुरस्त्र (चौकोर) और आयत, इन पांचों संस्थानों के रूप में परिणत हैं। Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [221 [2] जे पज्जत्तासुहुमपुढवि० एवं चेव / [38-2] जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं, उन्हें भी इसी प्रकार वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-संस्थानरूप में परिणत जानना चाहिए। 36. एवं जहाऽऽणुपुवीए नेयम्वं जाव जे पज्जत्तासम्वसिद्धप्रणुत्तरोवधाइय जाव परिणता ते वणतो कालवण्णपरिणया वि जाव प्रायतसंठाणपरिणया वि / दंडगा 6 / [39] इसी प्रकार क्रमशः सभी (पूर्वोक्त विशेषण-विशिष्ट जीवों के प्रयोग-परिणत पुद्गलों) के विषय में जानना चाहिए। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक देवपंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीरप्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण रूप में यावत् संस्थान से पायत संस्थान तक परिणत हैं। सप्तम दण्डक 40. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढवि. एगिदियोरालिय-तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते वण्णमो कालवण्णपरि० जाव आययसंठाणपरि० वि / [40-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् आयत-संस्थान-रूप में भी परिणत हैं। [2] जे पज्जतासुहुमपुढवि० एवं चेव / [[40-2] इसी प्रकार पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरप्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी तरह वर्णादि-परिणत हैं। 41. एवं जहाऽऽणुपुधीए नेयव्वं जस्स जति सरीराणि जाच जे पज्जत्तासबट्टसिद्धप्रणुत्तरोदवाइयदेवचिदियवेडविय-तेया-कम्मासरीर जाव परिणया ते वण्णो कालवण्णपरिणया वि जाव प्रायतसंठाणपरिणया वि / दंडगा 7 // [41] इस प्रकार यथानुक्रम से (सभी जीवों के विषय में जानना चाहिए। जिसके जितने शरीर हों, उतने कहने चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध अनुसरौपपातिक देव-पंचेन्द्रियवैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीर प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत् संस्थान से आयतसंस्थानरूप में परिणत हैं / अष्टम दण्डक 42. [1] जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदिवफासिदियपयोगपरिणया ते बण्णो कालवण्णपरिणया जाव प्राययसंठाणपरिणया वि। [42-1] जो पुद्गल अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में परिणत हैं, यावत् संस्थान से आयत-संस्थान के रूप में परिणत हैं। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] जे पज्जत्तासुहमपुढवि० एवं चेव / [42-2] जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग परिणत हैं, वे भी इसी प्रकार जानने चाहिए / 43. एवं जहाऽऽणुपुवीए जस्स जति इंदियाणि तस्स तति भाणियव्याणि जाव जे पज्जत्तासम्वसिद्धप्रणुत्तर जाव देवचिदियसोइंदिय जाब फासिदियपयोगपरिणया वि ते वण्णो कालवण्णपरिणया जाव आघयसंठागपरिणया वि / दंडगा / [43] इसी प्रकार अनुक्रम से पालापक कहने चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितनी इन्द्रियां हों उतनी कहनी चाहिए। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक देवपंचेन्द्रिय-श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत् संस्थान से प्रायत संस्थान के रूप में परिणत हैं। नौवाँ दण्डक 44. [1] जे प्रपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदियानोरालिय-तेया-कम्मासरीरफासिदियपयोगपरिणया ते वरुण ग्रो कालवण्णपरिणया वि जाव प्रायतसंठाणप० वि / [44-1] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरीरस्पर्शन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् संस्थान से प्रायतसंस्थान के रूप में परिणत हैं / [2] जे पज्जत्तासुहुभपुढवि० एवं चेव / [44-2] जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिक-तैजस-कार्मणशरोरस्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे भी इसी तरह (पूर्ववत्) जानने चाहिए। 45. एवं जहाऽऽणुपुवीए जस्स जति सरीराणि इंदियाणि य तस्स तति भाणियवाणि जाव जे पज्जतासवदसिद्ध प्रणुत्त रोववाइया जाव देवपंचिदिय-वेउब्धिय-तेया-कम्मासोइंदिय जाव फासिदियपयोगपरि० ते वणनो कालवण्णपरि० जाव प्राययसंठाणपरिणया वि / एवं एए नव दंडगा। [45] इसी प्रकार अनुक्रम से सभी आलापक कहने चाहिए / विशेषतया जिसके जितने शरीर और इन्द्रियां हों, उसके उतने शरीर और उतनी इन्द्रियों का कथन करना चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्तकसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-शरीर तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में यावत् संस्थान से प्रायत संस्थान के रूपों में परिणत हैं। इस प्रकार ये नौ दण्डक पूर्ण हुए। विवेचन-नौ दण्डकों द्वारा प्रयोग-परिणत पुदगलों का निरूपण---प्रस्तुत 42 सूत्रों (सू. 4 से 45 तक) नौ दण्डकों की दृष्टि से प्रयोग-परिणत पुद्गलों का निरूपण किया गया है। Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [223 विवक्षाविशेष से नौ दण्डक (विभाग)-प्रयोगपरिणत पुद्गलों को विभिन्न पहलुओं स समझाने के लिए शास्त्रकार ने नौ दण्डकों द्वारा निरूपण किया है। प्रथम दण्डक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक जीवों की विशेषता से प्रयोगपरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेदों का कथन है / (2) द्वितीय दण्डक में उन्हीं जीवों में से एकेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर ये दो-दो भेद करके फिर इन सूक्ष्म और बादर के तथा आगे के सब जीवों (यानी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक) के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो-दो भेद (अपर्याप्तक भेद वाले सम्मच्छिम मनुष्य को छोड़कर) प्रयोग-परिणत पुद्गलों के किये गए हैं। (3) तृतीय दण्डक में पूर्वोक्त विशेषणयुक्त पृथ्वीकायिक से लेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त सभी जीवों के औदारिक आदि पांच में से यथायोग्य शरीरों की अपेक्षा से प्रयोगपरिणत पूद्गलों का कथन किया गया है। (4) चतुर्थ दण्डक में पूर्वोक्त शरीरादि विशेषणयुक्त एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय सर्वार्थसिद्ध जीवों तक के यथायोग्य इन्द्रियों की अपेक्षा से प्रयोगपरिणत-पुद्गलों का कथन किया गया है / (5) पंचम दण्डक में औदारिक आदि पांच शरीर और स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियों की सम्मिलित विवक्षा से समस्त जीवों के यथायोग्य प्रयोग-परिणत पुद्गलों का कथन है / (6) छठे दण्डक में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से पूर्वोक्त समस्त विशेषणयुक्त सर्व जीवों के प्रयोग-परिणत पुद्गलों का कथन है / (7) सप्तम दण्डक में औदारिक आदि शरीर और वर्णादि की अपेक्षा से पुद्गलों का कथन है। (8) अष्टम दण्डक में इन्द्रिय और वर्णादि को अपेक्षा से पदगलों का कथन है। और (8) नवम दण्डक में शरीर, इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से जीवों के प्रयोगपरिणत पुदगलों का कथन किया गर द्वीन्द्रियादि जीवों की अनेकविधता-मूलपाठ में कहा गया है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतरिन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं। जैसे कि द्वीन्द्रिय में लट, गिडोला, अल : सीप, कौडी, कृमि आदि अनेक प्रकार के जोव हैं, श्रीन्द्रिय में जू, लीख, चीचड़, माकण (खटमल), चींटी, मकोड़ा आदि अनेक प्रकार के जीव हैं, और चतुरिन्द्रिय में मक्खी, मच्छर, भौंरा, भृगारी आदि अनेकविध जीव हैं ; उनको बताने हेतु ही यहाँ अनेकविधता का कथन किया गया है। पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद--मुख्यतया इनके चार भेद हैं-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव / विवेक्षा विशेष से इनके अनेक अवान्तर भेद हैं / ' कठिन शब्दों के विशेष प्रर्थ-सम्मुच्छिमा--सम्मूच्छिम-माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले तिर्यंच और मनुष्य / गम्भवपकंतिया-गर्भव्युत्क्रान्तक-गर्भ से उत्पन्न होने वाले / परिसपा-परिसर्प---रेंग कर चलने वाले जीव / उरपरिसम्प---उरःपरिसर्प-पेट से रेंग कर चलने वाले जीव / भुयपरिसप्प = भुजपरिसर्प-भुजा के सहारे से चलने वाले / थलयर-स्थलचर-भूमि पर चलने वाले जीव / खहयरा खेचर--(आकाश में) उड़ने वाले पक्षी / प्रमिलावणं = अभिलापपाठ से। गेवेज्जग = वेयक देव / कप्पोवगा = कल्पोपपन्नक देव = जहाँ इन्द्रादि अधिकारी और उनके अधीनस्थ छोटे-बड़े आदि का व्यवहार है। कप्पातीत = कल्पातीत--जहाँ अधिकारी-अधीनस्थ जैसा कोई भेद नहीं है, सभी स्वतंत्र एवं अहमिन्द्र हैं। अणुत्तरोववाइयं = अनुत्तरौपपातिक-सर्वोत्तम 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 331-332 Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवलोक में उत्पन्न हुए देव / पोरालिय = प्रौदारिक शरीर / तेया =तैजस शरीर / वेउब्विय = वैक्रिय शरीर / कम्मग = कार्मण शरीर / बट्ट= वृत्त-गोल / तंस = श्यत्र-त्रिकोण / चउरंस = चतुरस्त्र. चौकोर (चतुष्कोण) / तित्तरस = तिक्त-तीखा रस / अंबिल = आम्ल--खट्टा। कसाय = कसैला। जहाणुपुवीए = यथाक्रम से / ' मिश्रपरिणत-पुद्गलों का नौ दण्डकों द्वारा निरूपण 46. मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता ? गोयमा! पंचविहा पण्णता, तं जहा---एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिदियमीसापरिणया। [46 प्र.] भगवन् ! मिश्रपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [46 उ.] गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय-मिश्रपरिणत पुद्गल यावत् पंचेन्द्रियमिश्रपरिणत पुद्गल / 47. एगिदियमीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! एवं जहा पयोगपरिणएहि नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहि वि नव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसे सं, नवरं अभिलायो 'मीसापरिणया' भाणियन्वं, सेसं तं चेव, जाव जे पज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरो० जाव प्राययसंठाणपरिणया वि।। [47 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय मिश्रपुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [47 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रयोगपरिणत पुद्गलों के विषय में नौ दण्डक कहे गए हैं, उसी प्रकार मिश्र-परिणत पुद्गलों के विषय में भी नौ दण्डक कहने चाहिए; और सारा वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए। विशेषता यह है कि प्रयोग-परिणत के स्थान पर मिश्र-परिणत कहना चाहिए। शेष समस्त वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक हैं; वे यावत् आयत-संस्थानरूप से भी परिणत हैं। विवेचन-मिश्रपरिणत पुद्गलों का नौ दण्डकों द्वारा निरूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 46-47) में प्रयोगपरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेद की तरह मिश्रपरिणत पुद्गलों के भी भेद-प्रभेद का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / / विस्रसापरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेदों का निर्देश 48. वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा पण्णता, तं जहा-बष्णपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया / जे बण्णपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-कालवण्णपरिणया जाव सुश्किल्लवण्णपरिणया। जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णता, तं जहा-सुबिभगंधपरिणया वि, दुग्भिगंधपरिणयादि। 1. (क) भगवतीसूत्र (गुजराती अनुवादयुक्त) खण्ड-३, पृ. 42 से 46 तक (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचनयुक्त) भाग-३, पृ. 1236 से 1252 तक Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१ ] [225 एवं जहा पष्णवणाए' तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणम्रो प्रायतसंठाणपरिणया ते वण्णमो कालवण्ण- . परिणया वि जाव लुक्खफासपरिणया वि। [48 प्र.] भगवन् ! विस्रसा-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [48 उ.] गौतम ! पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-वर्णपरिणत, गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत / जो पुद्गल वर्ण-परिणत हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा--काले वर्ण के रूप में परिणत यावत् शुक्ल वर्ण के रूप में परिणत पुद्गल / जो गन्धपरिणत पुद्गल हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-सुरभिगन्धपरिणत और दुरभिगन्धपरिणत पुद्गल / इस प्रकार प्रागे का सारा वर्णन जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र (के प्रथम पद) में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिए; यावत् जो पुद्गल संस्थान से आयतसंस्थान-परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में भी परिणत हैं, यावत् (स्पर्श से) रूक्ष-स्पर्शरूप में भी परिणत हैं। विवेचन--विसापरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेदों का निर्देश-प्रस्तुत सूत्र में विस्त्रसापरिणत (स्वभाव से परिणाम को प्राप्त) पुदगलों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से तथा इन वर्गादि के परस्पर मिश्र होने पर विकल्प की विवक्षा से प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेश-पूर्वक अनेक भेदप्रभेदों का निर्देश किया गया है / मन-वचन-काया की अपेक्षा विभिन्न प्रकार से प्रयोग-मिश्र-विरसा से एक द्रव्य के परिगमन की प्ररूपरणा-- . 46. एगे भंते ! दवे किं पयोगपरिणए ? मीसापरिणए ? बीससापरिणए ? गोयमा ! पयोगपरिणए वा, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा / [49 प्र.] गौतम ! एक द्रव्य क्या प्रयोग-परिणत होता है, मिश्रपरिणत होता है अथवा विस्रसा-परिणत होता है ? [46 उ.] गौतम ! एक द्रव्य, प्रयोग-परिणत होता है, अथवा मिश्रपरिणत होता है, अथवा बिस्रसा-परिणत होता है। 50. जदि पयोगपरिणए कि मणप्पयोगपरिणए ? वइप्पयोगपरिणए ? कायप्पयोगपरिणए ? गोयमा ! मणप्पयोगपरिणए वा, वइपयोगपरिणए वा, कायप्पयोगपरिणए वा। [50 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह मनःप्रयोगपरिणत होता है, वचन-प्रयोग-परिणत होता है अथवा कायप्रयोग-परिणत होता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रथमपद सूत्र 10 [1-2] (महा. विद्या.) 2. (क) बियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 326 (ख) प्रज्ञापनासूत्र, प्रथमपद, सूत्र 10 [1-2] Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [50 उ.] गौतम ! वह मनःप्रयोगपरिणत होता है या वचन-प्रयोग-परिणत होता है अथवा कायप्रयोगपरिणत होता है। 51. जदि मणप्पअरेगपरिणए कि सच्चमणप्पयोगपरिणए ? मोसमणप्पयोग ? सच्चामोसमणप्पयो० ? असच्चामोसमणप्पयो ? गोयमा ! सच्चमणप्पयोगपरिणए वा, मोसमणप्पयोग० वा, सच्चामोसमणप्प०, प्रसच्चामोसमणप्प० वा। [51 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य मन:प्रयोग-परिणत होता है तो क्या वह सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है, अथवा मृषा-मन:प्रयोगपरिणत होता है, या सत्य-मृषा-मनःप्रयोग-परिणत होता है, या असत्यामृषा-मनःप्रयोग-परिणत होता है ? [51 उ.] गौतम ! वह सत्यमन:प्रयोगपरिणत होता है, अथवा मृषामन:प्रयोगपरिणत होता है, या सत्य-मृषामन:प्रयोगपरिणत होता है या फिर असत्यामृषामनःप्रयोग-परिणत होता है / 52. जदि सच्चमणध्वनोगप० कि प्रारंभसच्चमणप्पयो ? अणारंभसच्चमणप्पयोगपरि० ? सारंभसच्चमणप्पयोग ? असारंभसच्चमण ? समारंमसच्चमणप्पयोगपरि०? असमारंभसच्चमणध्पयोगपरिणए? गोयमा ! प्रारंभसच्चमणप्पप्रोगपरिणए वा जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए वा। {52 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है तो क्या वह आरम्भसत्य मनःप्रयोग-परिणत होता है, अनारम्भ-सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है, सारम्भ-सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है, असारम्भ-सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है, समारम्भ-सत्यमन:प्रयोगपरिणत होता है अथवा असमारम्भ-सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है ? [52 उ.] गौतम ! वह प्रारम्भ-सत्यमन:प्रयोगपरिणत होता है, अथवा यावत् असमारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है / / 53. [1] दि मोसमणप्पयोगपरिणए कि प्रारंभमोसमणप्पयोगपरिणए बा ? एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेण वि / [53-1 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, मृषामनःप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह आरम्भ-मृषामनःप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् असमारम्भ-मृषामनःप्रयोग-परिणत होता है ? [53-1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) सत्यमनःप्रयोग-परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार (पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) मृषामनःप्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिए। [2] एवं सच्चामोसमणप्पयोगपरिणए वि / एवं असच्चामोसमणप्पयोगेण वि। [53-2] इसी प्रकार (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) सत्यमृषा-मनःप्रयोग-परिणत के विषय में भी तथा इसी प्रकार असत्य-मृषामनःप्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिए। Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक- 1] 227 54. जदि बइप्ययोगपरिणए कि सच्च वइप्पयोगपरिणए मोसवयप्पयोगपरिणए ? / एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा क्यप्पयोगपरिणए वि जाव असमारंभवयप्पयोगपरिणए वा। [54 प्र. भगवन् ! यदि एक द्रव्य, वचनप्रयोग-परिणत होता है तो, क्या वह सत्यवचनप्रयोग-परिणत होता है, मृषावचन-प्रयोग-परिणत होता है, सत्यमृषा-वचन-प्रयोग-परिणत होता है अथवा असत्यामृषा-वचन-प्रयोग-परिणत होता है ? {५४-उ.] गौतम ! जिस प्रकार (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) मनःप्रयोगपरिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वचन-प्रयोग-परिणत (पूर्वोक्त-सर्व-विशेषणयुक्त) के विषय में भी कहना चाहिए; यावत् वह असमारम्भ-वचन-प्रयोग-परिणत भी होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। 55. जदि कायप्पयोगपरिणए कि पोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए 1 ? पोरालियमीसासरीरकायप्पयो० 2? वेउब्वियसरीरकायप्प० 3? वेउब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए 4 ? प्राहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए 5 ? अाहारकमीसासरीरकायापयोगपरिणए 6 ? कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए 7? गोथमा ! पोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए वा जाव कम्मासरीरकायप्पनोगपरिणए वा। [५५-प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह औदारिक शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, औदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, वैक्रियशरीरकायप्रयोग-परिणत होता है, वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, आहारकशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, आहारकमिश्र-कायप्रयोग-परिणत होता है अथवा कार्मणशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [५५-उ.] गौतम! वह एक द्रव्य, औदारिकशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् वह कार्मणशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है / 56. जदि पोरालियसरीरकायप्पनोगपरिणए कि एगिदियोरालियसरीरकायप्प प्रोगपरिणए एवं जाव पंचिदियोरालिय जाव परि० ? गोयमा ! एगिदियोरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा बेदिय जाव परिणए वा जाव पंचिदिय जाव परिणए वा। [५६-प्र. भगवन् ! यदि एक द्रव्य, औदारिकशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-काय-प्रयोगपरिणत होता है, या द्वीन्द्रिय-औदारिक-शरीर-काय-प्रयोगपरिणत होता है अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है ? [56-3.] गौतम ! वह एक द्रव्य, एकेन्द्रिय औदारिकशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है, या द्वीन्द्रिय-प्रौदारिकशरोर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पञ्चेन्द्रिय-औदारिक-शरीरकायप्रयोग-परिणत होता है / Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [व्याख्याप्राप्तिसून 57. जदि एगिदियोरालियसरीरकायप्पओगपरिणए कि पुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए जाव वणस्सइकाइयएगिदियोरालियसरीरकायप्पनोगपरिणए वा ? गोयमा! पुढविक्काइयएगिदिय जाव पयोगपरिणए वा जाव वणस्सइकाइयगिदिय जाव परिणए वा। [५७-प्र.] भगवन् ! जो एक द्रव्य, एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है; क्या वह पथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् बह वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-श्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [५७-उ.] हे गौतम ! वह पृथ्वी कायिक-एकेन्द्रिय-ौदारिकशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिक-शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है। 58. जदि पुढविकाइयएगिदियोरालियसरीर जाव परिणए कि सुहमपुढविकाइय जाव परिणए ? बादरपुढविष्काइयएगिदिय जाब परिणए ? गोयमा ! सुहुमपुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए बा, बादरपुढविक्काइय जाव परिणए वा। [५८-प्र.] भगवन् ! यदि वह एक द्रव्य, पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय औदारिक शरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, तो क्या वह सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-ग्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा बादरपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-ौदारिक-शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [५८-उ.] गौतम ! वह सूक्ष्मपृथ्वी कायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग परिणत होता है अथवा बादरपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है। 56. [1] जदि सुहुमपुढविकाइय जाव परिणए कि पज्जत्तसुहमपुढवि जाव परिणए ? अपज्जत्तसुहुमपुढवी जाव परिणए ? / गोयमा! पज्जत्तसुहमपुढ विकाइय जाव परिणए वा, अपज्जत्तसुहमपुढयिकाइय जाव परिणए वा। [56-1 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वी कायिक-एकेन्द्रिय-ौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [56-1 उ.] गौतम ! यह पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-ौदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, या वह अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-शरीर-कायप्रयोग-परिणत भी होता है। [2] एवं बादरा वि। [56-2] इसी प्रकार बादर-पृथ्वीकायिक (-एकेन्द्रिय-प्रौदारिक-शरीर-काय-प्रयोग-परिणत एक द्रव्य) के विषय में भी (पर्याप्त-अपर्याप्त प्रकार) समझ लेना चाहिए। Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [226 [3] एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कयो मेदो। [56-3] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक सभी के चार-चार भेद (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त) के विषय में (पूर्ववत्) कथन करना चाहिए / 60. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं दुयम्रो भेदो-पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य / [60] इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के दो-दो भेद -पर्याप्तक और अपर्याप्तक (से सम्बन्धित प्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत एक द्रव्य) के विषय में कहना चाहिए। 61. जदि पंचिदियोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि तिरिक्खजोणियचिदियनोरालियसरीरकायप्पप्रोगपरिणए ? मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए ? गोयमा ! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा, मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए वा / [६१-प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा मनुष्यपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है ? [61 उ.] गौतम ! या तो वह तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर-काय-प्रयोगपरिणत होता है, अथवा वह मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है / 62. जइ तिरिक्ख जोणिय जाव परिणए कि जलचरतिरिक्खजोणिय जाव परिपए वा? थलचर० ? खहचर० ? एवं चउक्कानो मेदो जाव खहचराणं / - [६२-प्र.) भगवन् ! यदि एक द्रव्य, तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर-काय-प्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह जलचर-तियंञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-ौदारिकशरीर-काय-प्रयोग-परिणत होता है, स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-काय-प्रयोगपरिणत होता है, अथवा खेचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [62-3.] गौतम ! वह जलचर, स्थलचर और खेचर, तीनों प्रकार के तिर्यञ्चपंचेन्द्रियऔदारिकशरीर-कायप्रयोग से परिणत होता है, अतः यावत् खेचरों तक पूर्ववत् प्रत्येक के चार-चार भेदों (सम्मूच्छिम, गर्भज, पर्याप्तक और अपर्याप्तक) (के औदारिकशरीर काय प्रयोग-परिणत) के विषय में कहना चाहिए / 63. जदि मणुस्सपंचिदिय जाव परिणए कि सम्मुच्छिममणुस्साँचदिय जाव परिणए ? गन्भवतियमणुस्स जाव परिणए? गोयमा ! दोसु वि। [६३-प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, मनुष्यपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह सम्मूच्छिममनुष्य-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [६३-उ.] गौतम ! वह दोनों प्रकार के (सम्मूच्छिम अथवा गर्भज) मनुष्यों के औदारिकशरीर-कायप्रयोग से परिणत होता है। 64. जदि गम्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए कि पज्जत्तगम्भवतिय जाव परिणए ? अपज्जत्तगम्भवक्कंतियमणुस्सपंचिदियोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ? गोयमा ! पज्जत्तगम्भवक्कंतिय जाव परिणए वा, अपज्जतगमवक्फतिय जाव परिणए / 1 / [६४-प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक-शरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह पर्याप्त-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [६४-उ.] गौतम ! वह पर्याप्त-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-गर्भजमनुष्यपंचेन्द्रिय-ौदारिकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है / 65. जदि पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियोरालियमोसासरीरकायप्पप्रोगपरिणए ? बेइंदिय जाव परिणए जाव पंचेंदियोरालिय जाव परिणए ? ___ गोयमा ! एगिदियोरालिय एवं जहा पोरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं पालावगो भणियो तहा ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगपरिणएण वि पालावगो भाणियव्यो, नवरं बायरवाउबकाइयगम्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणिय-गम्भवक्कंतियमणुस्साण य एएसिणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं, सेसाणं अपज्जत्तगाणं / 2 / [६५-प्र.] यदि एक द्रव्य, औदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह एकेन्द्रिय-औदारिकमिश्र-शरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, द्वीन्द्रिय-औदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-औदारिक-मिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है ? [65 उ.] गौतम ! वह एकेन्द्रिय-प्रौदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोग परिणत होता है, अथवा द्वीन्द्रिय-औदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-यौदारिकमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है। जिस प्रकार पहले औदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत के आलापक कहे हैं, उसी प्रकार औदारिकमिथ-कायप्रयोग-परिणत के भी पालापक कहने चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादरवायुकायिक, गर्भज पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक और गर्भज मनुष्यों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के विषय में और शेष सभी जीवों के अपर्याप्तक के विषय में कहना चाहिए। 66. जदि वेउब्वियसरीरकायप्पयोगपरिणए कि एगिदियवेउब्वियसरीरकायप्पनोगपरिणए जाव पंचिदियवेउब्वियसरोर जाव परिणए ? गोयमा ! एगिदिय जाव परिणए वा पंचिदिय जाव परिणए। [66 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है तो क्या वह एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोग-परिणत होता है ? Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [ 231 [66 उ.] गौतम ! वह, एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है / 67. जब एगिदिय जाव परिणए कि दाउबकाइयएगिदिय जाव परिणए ? प्रवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणते ? गोयमा! बाउबकाइयएगिदिय जाव परिणए, नो अवाउक्काइय जाव परिणते / एवं एएणं अभिलावेणं जहा प्रोगाहणसंठाणे' वेउठिवयसरोरं भणियं तहा इह वि भाणियन्वं जाव पाजत्तसम्घटसिद्धप्रणुतरोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिदियवे उस्वियसरीरकायापोगपरिणए वा, अपज्जत्तसम्वट्ठसिद्ध जाव कायप्पयोगपरिणए वा / 3 / 67 प्र.] भगवन् ! यदि वह एक द्रव्य, एकेन्द्रियवैक्रियशरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अवायुकायिक (वायुकायिक जीवों के अतिरिक्त) एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है? [67 उ.] गौतम ! वह एक द्रव्य, वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, किन्तु अवायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत नहीं होता। (क्योंकि वायुकाय के सिवाय अन्य किसी एकेन्द्रिय में वैक्रियशरीर नहीं होता।) इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के 'अवगाहना संस्थान' नामक इक्कीसवें पद में वैक्रियशरीर (-कायप्रयोग-परिणत) के विषय में जैसा कहा है, (उसी के अनुसार) यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् पर्याप्त-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा वह अपर्याप्तक-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैत्रिय शरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है। 68. जदि वेउम्वियमीसासरीरकायपयोगपरिणए कि एगिदियमोसासरीरकायपोगपरिणए वा जाव पंचिदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ? एवं जहा वेउस्वियं तहा मोसगं पि, नवरं देव-नेरइयाणं प्रपज्जत्तगाणं, सेसाणं पज्जत्तगाणं तहेव, जाव नो पज्जत्तसव्वदसिद्ध अणुत्तरो जाव प०, अपज्जतसव्वदसिद्धप्रणुत्तरोववातियदेवपंचिदियवेउब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए / 4 / [68 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, वै क्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह एकेन्द्रिय-वैक्रिय मिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय-वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत होता है ? [68 उ.] गौतम ! जिस प्रकार वैक्रियशरीर-कायप्रयोग-परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिए। परन्तु इतना विशेष है कि वैक्रिय मिश्रशरीर-कायप्रयोग देवों और नैरयिकों के अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिए / शेष 1. प्रज्ञापनासूत्र पद 21 --अवगाहनासंस्थानपद पृ. 321 से 349 तक, सू. 1474-1565 (म. वि.) Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] (মাসকিন सभी पर्याप्त जीवों के विषय में कहना चाहिए, यावत् पर्याप्त-सर्वार्थ सिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीतवैमानिक-देव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग-परिणत नहीं होता, किन्तु अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए)। 66. जदि श्राहारगसरीरकायप्पनोगपरिणए कि मणुस्साहारगसरीरफायप्पयोगपरिणए ? अमणुस्साहारग जाव 10? एवं जहा प्रोगाहणसंठाणे जाव इढिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिष्ट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय जाव परिणए, नो प्रशिढिपत्तपमत्तसंजयसम्माद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय जाव प० / 5 / [66 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, आहारकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह मनुष्याहारकशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अमनुष्य पाहारकशरीर- कायप्रयोग-परिणत होता है ? 69 उ.] गौतम ! इस सम्बन्ध में जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अवगाहनासंस्थान नामक (इक्कीसवें) पद में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए: यावत ऋद्धि-प्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य आहारकशरीर कायप्रयोगपरिणत होता है, किन्तु अनुद्धिप्राप्त (आहार कलब्धि को अप्राप्त)-प्रमतसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क मनुष्याहारकशरीर-कायप्रयोग-परिणत नहीं होता / 70. जदि प्राहारगमोसासरीरकायप्पयोगप० कि मणुस्साहारगमीसासरीर० ? एवं जहा पाहारगं तहेव मीसगं पि निरवसेसं भाणियब्वं / 6 / / [70 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य आहारकमिश्रशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह मनुष्याहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अमनुष्याहारक-शरीर-कायप्रयोग परिणत होता है ? [70 उ०] गौतम ! जिस प्रकार आहारकशरीरकायप्रयोग-परिणत (एक द्रव्य) के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार आहारकमि शरीर-काय-प्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिए। 71. दि कम्मासरोरकायप्पनोगव०कि एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगप० जाव पचिदियकम्मासरीर जाव प०? गोयमा! एगिदियकम्मासरीरकायप्पनो० एवं जहा प्रोगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इहावि जाव पज्जत्तसव्वदृसिद्धप्रणुत्तरोववाइयदेवचिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए वा, अपज्जत्तसब्वट्ठसिद्ध अणु० जाव परिणए वा / 7 / [71 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, कार्मणशरीर-काय प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह एकेन्द्रिय-कार्मणशरीर-काय प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रियकार्मणशरीर-कायप्रयोगपरिणत होता है ? Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [233 [71 उ.] हे गौतम ! बह एकेन्द्रियकार्मणशरीरकायप्रयोग-परिणत होता है, इस सम्बन्ध में जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के (इक्कीसवें) अवगाहनासंस्थान-पद में कार्मण के भेद कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए; यावत् पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेवपंचेन्द्रिय-कार्मणशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिककल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-कार्मणशरीर-कायप्रयोग-परिणत होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए)। 72. जइ मोसापरिणए कि मणमीसापरिणए ? वयमीसापरिणए ? कायमीसापरिणए ? गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वयमोसापरिणते वा कायमीसापरिणए वा / [72 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, मिश्रपरिणत होता है, तो क्या वह मनोमिश्रपरिणत होता है, या वचनमिश्रपरिणत होता है, अथवा कायमिश्रपरिणत होता है ? [72 उ.] गौतम ! वह मनोमिश्रपरिणत भी होता है, वचनमित्रपरिणत भी होता है, या काय मिश्र-परिणत भी होता है / 73. जादि मणमीसापरिणए कि सच्चमणमीसापरिणए ? मोसमणमीसापरिणए ? जहा पयोगपरिणए तहा मोसापरिणए वि माणियध्वं निरवसेसं जाव पज्जत्तसम्वसिद्धअणुतरोववाइय जाव देवपंचिदियकम्मासरीरगमोसापरिणए वा, अपज्जत्तसवसिद्धप्रणु० जाव कम्मासरीरमौसापरिणए वा। {73 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य मनोमिश्रपरिणत होता है, तो क्या वह सत्यमनोमिश्रपरिणत होता है, मृषामनोमिश्र-परिणत होता है, सत्यमृषामनोमिश्रपरिणित होता है, अथवा असत्यामृषामनोमिश्रपरिणत होता है ? 73 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रयोग-परिणत एक द्रव्य के सम्बन्ध में कहा गया है, उसी प्रकार मिश्रपरिणत एक द्रव्य के विषय में कहना चाहिए यावत् पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोयपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय कार्मण-शरीर-कामिश्र-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध --अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवपंचेन्द्रियकार्मणशरीर-कायमिश्र-परिणत होता है। 74. जदि वीससापरिणए कि वष्णपरिणए गंधपरिणए रसपरिणए फासपरिणए संठाणपरिणए ? गोयमा ! वष्णपरिणए वा गंधपरिणए वा रसपरिणए वा फासपरिणए वा संठाणपरिणए वा। [74 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, विरसा (स्वभाव से) परिणत होता है, तो क्या वह वर्णपरिणत होता है, गन्धपरिणत होता है, रसपरिणत होता है, स्पर्श परिणत होता है, अथवा संस्थानपरिणत होता है ? [74 उ.] गौतम ! वह वर्णपरिणत होता है, या गन्धपरिणत होता है, अथवा रसपरिणत होता है, या स्पर्शपरिणत होता है, या वह संस्थानपरिणत होता है। Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___75. जदि वण्णपरिणए कि कालवण्णपरिणए नील जाव सुक्किलवण्णपरिणए ? गोयमा ! कालवण्णपरिणए वा जाव सुक्किलवण्णपरिणए वा। [75 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, वर्णपरिणत होता है तो क्या वह काले वर्ण के रूप में परिणत होता है, अथवा नीलवर्ण के रूप में परिणत होता है, अथवा यावत् शुक्लवर्ण के रूप में परिणत होता है ? [75 उ.] गौतम ! वह काले वर्ण के रूप में परिणत होता है, अथवा यावत् शुक्लवर्ण के रूप में परिणत होता है। 76. दि गंधपरिणए कि सुबिभगंधपरिणए ? दुबिभगंधपरिणए ? गोयमा ! सुब्मिगंधपरिणए वा, दुन्भिगंधपरिणए वा / [76 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य गन्ध-परिणत होता है तो क्या वह सुरभिगन्ध रूप में परिणत होता है, अथवा दुरभिगन्धरूप में परिणत होता है ? [76 उ.] गौतम ! वह सुरभिगन्धरूप में परिणत होता है, अथवा दुरभिगन्ध रूप में परिणत होता है। 77, जइ रसपरिणए कि तित्तरसपरिणए 5 पुच्छा ? गोयमा ! तित्तरसपरिणए वा जाव महुररसपरिणए वा। [77 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, रसरूप में परिणत होता है, तो क्या वह तोखे (चरपरे) रस के रूप में परिणत होता है, अथवा यावत् मधुररस के रूप में परिणत होता है ? [77 उ.] गौतम ! वह तीखे रस के रूप में परिणत होता है, अथवा यावत् मधुररस के रूप में परिणत होता है / 78. जइ फासपरिणए कि कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए ? गोयमा ! कक्खडफासपरिणए वा जाव लुक्खफासपरिणए वा। [78 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, स्पर्शपरिणत होता है तो क्या वह कर्कशस्पर्शरूप में परिणत होता है, अथवा यावत् रूक्षस्पर्शरूप में परिणत होता है ? [78 उ.] गौतम ! वह कर्कशस्पर्शरूप में परिणत होता है, अथवा यावत् रूक्षस्पर्शरूप में परिणत होता है। 76. जइ संठाणपरिणए० पुच्छा ? गोयमा! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव प्राययसंठाणपरिणए वा। [76 प्र.] भगवन् ! यदि एक द्रव्य, संस्थान-परिणत होता है, तो क्या वह परिमण्डलसंस्थानरूप में परिणत होता है, अथवा यावत् आयत-संस्थानरूप में परिणत होता है ? Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [235 {76 उ.] गौतम ! वह द्रव्य परिमण्डल-संस्थानरूप में परिणत होता है, अथवा यावत् प्रायत-संस्थानरूप में परिणत होता है। विवेचन-मन-वचन-काय की अपेक्षा विभिन्न प्रकार से, प्रयोग से, मिश्र से, और विलसा से एक द्रव्य के परिणमन की प्ररूपणा–प्रस्तुत 31 सूत्रों (सू. 46 से 79 तक) में मन, वचन और काया के विभिन्न विशेषणों और प्रकारों के माध्यम से एक द्रव्य के प्रयोग-परिणाम की, फिर मिश्रपरिणाम की और अन्त में वर्णादि की दृष्टि से विस्रसापरिणाम की अपेक्षा से प्ररूपणा की गई है। प्रयोग को परिभाषा--मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं अथवा वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में होने वाले परिस्पन्दन (कम्पन या हलचल) को भी योग कहते हैं, इसी योग को यहाँ 'प्रयोग' कहा गया है / योगों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप-मालम्बन के भेद से प्रयोग के तीन भेद हैं -मनोयोग, वचनयोग और काययोग / ये ही मुख्य तीन योग हैं। फिर इनके अवान्तर भेद क्रमशः इस प्रकार हैं--सत्यमनोयोग, असत्य (मृषा) मनोयोग, सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग और असत्यामृषा (व्यवहार) मनोयोग। इसी प्रकार-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यमृषा (मिश्र) वचनयोग, और असत्यामृषावचनयोग / इसी प्रकार-औदारिकयोग, औदारिकमिश्रयोग, वैक्रिययोग, वैक्रियमिश्रयोग, पाहारकयोग, पाहारकमिश्रयोग और कार्मणयोग / इस प्रकार 4 मनोयोग के, 4 वचनयोग के और 7 काययोग के यों कुल मिलाकर योग के 15 भेद हुए। इनका स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है-(१) सत्यमनोयोग मन का जो व्यापार सत् (सज्जनपुरुषों या साधुओं या प्राणियों) के लिए हितकर हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जाना वाला हो, अथवा सत्यपदार्थों या सत्तत्त्वों (जीवादि तत्वों) के प्रति यथार्थ विचार हो / (2) असत्यमनोयोग-सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की तरफ ले जाने रूप प्राणियों के लिए अहितकर विचार अथवा 'जीवादि तत्त्व नहीं हैं' इसका मिथ्याविचार / (3) सत्यमषामनोयोग-व्यवहार से ठीक होने पर भी जो विचार निश्चय से पूर्ण सत्य न हो / (4) प्रसत्या-मषामनोयोग-जो विचार अपने आप में सत्य और असत्य दोनों ही त , केवल वस्तस्वरूपमात्र दिखाया जाए / (5) सत्यवचनयोग, (6) असत्यवचनयोग, (7) सत्यमषावचनयोग और (8) असत्यामषावचनयोग, इनका स्वरूप मनोयोग के समान ही समझना चाहिए। मनोयोग में केवल बिचारमात्र का ग्रहण है और वचनयोग में वाणी का ग्रहण है। वाणी द्वारा भावों को प्रकट करना वचनयोग है। (1) औदारिफशरीरकाययोग-काय का अर्थ है--समूह / औदारिकशरीर, पुद्गलस्कन्धों का समूह होने से काय है। इससे होने वाले व्यापार को औदारिकशरीर-काययोग कहते हैं / यह योग मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है। (2) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग-औदारिक के साथ कार्मण, वैक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिकशरीरधारी जीवों को होता है / वैक्रियलब्धिधारी मनुष्य और तिर्यञ्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिकमिश्र शरीर होता है। इसी तरह लब्धिधारी मुनिराज जब पाहारक Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसून शरीर बनाते हैं, तब आहारकमिश्रकाययोग होता है, किन्तु जब वे आहारक शरीर से निवृत्त होकर मूल शरीरस्थ होते हैं, तब औदारिकमिश्रकाय योग का प्रयोग होता है। केवली भगवान् जब केवली समुद्घात करते हैं, तब दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्रकाययोग का प्रयोग होता है। (3) वैक्रियकाययोग-वैक्रियशरीर द्वारा होने वाली वीर्यशक्ति का व्यापार / यह मनुष्यों और तिर्यञ्चों के बैंक्रियलब्धिबल से वैक्रियशरीर धारण कर लेने पर होता है / देवों और नारकों के वैक्रियकाययोग 'भवप्रत्यय' होता है / / (4) वैक्रियमिश्रकाययोग-वैत्रिय और कार्मण, अथवा वैक्रिय और प्रौदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को 'वैक्रियमिश्रकाययोग' कहते हैं। वैक्रिय और कार्मणसम्बन्धी वैक्रिय मिश्रकाययोग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक रहता है। वैक्रिय और प्रौदारिक, इन दो शरीरों सम्बन्धी वैक्रियमिश्रकाययोग, मनुष्यों और तिर्यंचों में तभी पाया जाता है, जब वे लब्धिबल से वैक्रिय शरीर का प्रारम्भ करते हैं। वैक्रियशरीर का त्याग करने में वैक्रियमिश्र नहीं होता, किन्तु औदारिकमिश्र होता है। (5) पाहारककाययोग-केवल आहारक शरीर की सहायता से होने वाला वीर्यशक्ति का व्यापार 'आहारककाययोग' होता है / (6) प्राहारकमिश्रकाययोग--आहारक और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को आहारकमिश्रकाययोग कहते हैं। आहारक-शरीर को धारण करने के समय अर्थात् उसे प्रारम्भ करने के समय तो आहारकमिश्रकाययोग होता है और उसके त्याग के समय औदारिकमिश्रकाययोग होता है / / (7) कार्मणकाययोग-केवल कार्मण शरीर की सहायता से वीर्यशक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, उसे कार्मणकाययोग कहते हैं। यह योग विग्रहगति में तथा उत्पत्ति के समय अनाहारक अवस्था में सभी जीवों में होता है। केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में केवली भगवान् के होता है। कार्मण काययोग की तरह तैजसकाययोग, इसलिए पृथक् नहीं माना कि तैजस और कार्मण दोनों का सदैव साहचर्य रहता है। वीर्यशक्ति का व्यापार भी दोनों का साथ-साथ होता है, इसलिए कार्मणकाययोग में ही तैजसकाययोग का समावेश हो जाता है / प्रयोग-परिणत: तीनों योगों द्वारा काययोग द्वारा मनोवर्गणा के द्रव्यों को ग्रहण करके मनोयोग द्वारा मनोरूप से परिणमाए हुए पुद्गल 'मनःप्रयोगपरिणत' कहलाते हैं। काययोग द्वारा भाषाद्रव्य को ग्रहण करके वचनयोग द्वारा भाषारूप में परिणत करके बाहर निकाले जाने वाले पुद्गल 'वचन-प्रयोग-परिणत' कहलाते हैं। औदारिक आदि काययोग द्वारा ग्रहण किये हुए औदारिकादि वर्गणाद्रव्यों को औदारिकादि शरीररूप में परिणमाए हों, उन्हें 'कायप्रयोगपरिणत' कहते हैं। प्रारम्भ, संरम्भ और समारम्भ का स्वरूप-जीवों को प्राण से रहित कर देना 'प्रारम्भ' है, किसी जीव को मारने के लिए मानसिक संकल्प करना संरम्भ (सारम्भ) कहलाता है। जीवों को परिताप पहुँचाना समारम्भ कहलाता है। जीवहिंसा के प्रभाव को अनारम्भ कहते हैं / प्रारम्भसत्यमनःप्रयोग आदि का अर्थ-प्रारम्भ कहते हैं, जीवोपघात को, तद्विषयक सत्य Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [ 237 प्रारम्भसत्य है, और प्रारम्भसत्यविषयक मनःप्रयोग को प्रारम्भसत्यमनःप्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार संरम्भ, समारम्भ और अनारम्भ को जोड़कर तदनुसार अर्थ कर लेना चाहिए।' दो द्रव्य सम्बन्धी प्रयोग-मिश्र-वित्रसापरिणत पदों के मनोयोग आदि के संयोग से निष्पन्न भंग 80. दो भंते ! दन्वा कि पयोगपरिणया? मीसापरिणया ? वीससापरिणया ? गोयमा ! परोगपरिणया वा 1 / मोसापरिणया वा 2 / बोससापरिणया वा 3 / अहवेगे पप्रोगपरिणए, एगे मीसापरिणए 4 / अहवेगे पयोगप०, एगे वीससापरि० 5 / अहवेगे मोसापरिणए, एगे वीससारिणए, एवं 6 / [८०-अ.] भगवन् ! दो द्रव्य, क्या प्रयोगपरिणत होते हैं, मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा विस्त्रसापरिणत होते हैं ? [८०-उ.] गौतम ! वे प्रयोगपरिणत होते हैं, या मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा विस्रसापरिणत होते हैं, अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है और दूसरा मिश्रपरिणत होता है; या एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है और दूसरा द्रव्य विस्रसापरिणत होता है; अथवा एक द्रव्य मिश्रपरिणत होता है और दूसरा विसापरिणत होता है। 81. जदि पनोगपरिणया कि मणप्पयोगपरिणया? वइपयोग? कायप्पयोगपरिणया? गोयमा ! मणप्पयोगपरिणता वा 1 / बइप्पयोगप० 2 / कायप्पयोगपरिणया वा 3 / अहवेगे मणप्पयोगपरिणते, एमे वयप्पयोगपरिणते 4 / अहवेगे मणप्पयोगपरिणए, एगे कायप्पप्रोगपरिणए / अहवेगे वयष्पयोगपरिणते, एगे कायप्पप्रोगपरिणते 6 / [८१-प्र.] यदि वे दो द्रव्य प्रयोगपरिणत होते हैं, तो क्या मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या वचनप्रयोग-परिणत होते हैं अथवा कायप्रयोग-परिणत होते हैं ? [८१-उ.] गौतम ! वे (दो द्रव्य) या तो (1) मनःप्रयोगपरिणत होते हैं, या (2) वचनप्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा (3) काय-प्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा (4) उनमें से एक द्रव्य मन:प्रयोगपरिणत होता है और दूसरा वचन-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा (5) एक द्रव्य मनःप्रयोगपरिणत होता है और दूसरा काय-प्रयोगपरिणत होता है या (6) एक द्रव्य वचन-प्रयोगपरिणत होता है और दूसरा कायप्रयोग परिणत होता है / 82. जदि मणप्पयोगपरिणता कि सच्चमणप्पयोगपरिणता? असच्चमणप्पयोगप०? सच्चा. मोसमणप्पयोगप० ? असच्चाऽमोसमणप्पयोगप० ? गोयमा! सच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असच्चामोसमणप्पयोगपरिणया वा। अहवेगे सच्चमणप्पयोगपरिणए, एगे मोसमणप्पोगपरिणए 1 / अहवेगे सच्चमणप्पओगपरिणते, एगे सच्चामोसमणप्पनोगपरिणए 2 / अहवेगे सच्चमणप्पप्रोगपरिणए, एगे असच्चामोसमणप्पयोगपरिणए. 3 / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 335.336 Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अहवेगे मोसमणप्पयोगपरिणते, एगे सच्चामोसमणप्पयोगपरिणते 4 / प्रहवेगे मोसमणप्पयोगपरिणते, एगे असच्चामोसमणप्पयोगपरिणते 5 / प्रहवेगे सच्चामोसमणप्पयोगपरिणते, एगे असच्चामोसमणप्पप्रोगपरिणते 6 / [८२-प्र.] भगवन् ! यदि वे (दो द्रव्य) मनःप्रयोगपरिणत होते हैं, तो क्या सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, या असत्य-मनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा सत्य मृषामनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या असत्यामृषा-मनःप्रयोगपरिणत होते हैं ? [82-3.] गौतम ! वे (दो द्रव्य) (1-4) सत्यमन:प्रयोगपरिणत होते हैं, यावत् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होते हैं; (5) या उनमें से एक द्रव्य सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है और दूसरा मृषामनःप्रयोगपरिणत होता है, अथवा (6) एक द्रव्य सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है, और दूसरा सत्यमृषामनःप्रयोग-परिणत होता है, या (7) एक द्रव्य सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होता है; अथवा (8) एक द्रव्य मृषामनःप्रयोग-परिणत होता है, और दुसरा सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होता है: या (9) एक द्रव्य मषामनःप्रयोग-परिणत होता है और दुसरा असत्यामृषा-मनःप्रयोगपरिणत होता है अथवा (10) एक द्रव्य सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणत होता है, और दूसरा असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होता है। 83. जइ सच्चमणप्योगपरिणता कि प्रारंभसच्चमणप्पयोगपरिणया जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणता ? गोयमा! आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणया वा। प्रहवेगे प्रारंभसच्चमणप्पयोगपरिणते, एगे अणारंभसच्चमणप्पयोगपरिणते / एवं एएणं गमएणं बुयसंजो. एणं नेयव्वं / सब्वे संयोगा जत्थ जत्तिया उठेति ते भाणियव्वा जाव सम्वट्ठसिद्धग त्ति / [८३-प्र] भगवन् ! यदि वे (दो द्रव्य) सत्यमन:प्रयोग-परिणत होते हैं तो क्या वे प्रारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं या अनारम्भसत्यमनःप्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा संरम्भ (सारम्भ) सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, या असंरम्भ (असारम्भ) सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा समारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं या असमारम्भसत्यमनःप्रयोग परिणत होते हैं ? [८३-उ.] गौतम ! वे दो द्रव्य (1-6) भारम्भसत्यमनःप्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा यावत् असमारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं; अथवा एक द्रव्य प्रारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है और दूसरा अनारम्भसत्य-मनःप्रयोग-परिणत होता है। इसी प्रकार इस गम (पाठ) के अनुसार द्विकसंयोगी भंग करने चाहिए / जहाँ जितने भी द्विकसंयोग हो सकें, उतने सभी यहाँ कहने चाहिए यावत् सर्वार्थसिद्ध बैमानिक देव-पर्यन्त कहने चाहिए / 84. जदि मोसापरिणता कि मणमीसापरिणता ? एवं मीसापरिणया वि। [८४-प्र.] भगवन् ! यदि वे (दो द्रव्य) मिश्रपरिणत होते हैं तो मनोमिश्रपरिणत होते हैं ?, (इत्यादि पूर्ववत् प्रयोगपरिणत वाले प्रश्नों की तरह यहाँ भी सभी प्रश्न उपस्थित करने चाहिए / ) Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [239 [८४-उ.] जिस प्रकार प्रयोग-परिणत के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार मिश्रपरिणत के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। 85. जदि वीससापरिणया कि वण्णपरिणया, गंधपरिणता ? | एवं वोससापरिणया वि जाव अहवेगे चउरंससंगणपरिणते, एगे प्राययसंठाणपरिणए वा / [८५-प्र ] भगवन् ! यदि दो द्रव्य विस्रसा-परिणत होते हैं, तो क्या वे वर्णरूप से परिणत होते हैं, गंधरूप से परिणत होते हैं, (अथवा यावत् संस्थानरूप से परिणत होते हैं ?) [८५-उ.] गौतम ! जिस प्रकार पहले कहा गया है, उसी प्रकार विस्रसापरिणत के विषय में कहना चाहिए, यावत् एक द्रव्य, चतुरस्त्रसंस्थानरूप से परिणत होता है, एक द्रव्य आयत संस्थान से परिणत होता है। विवेचन-दो-द्रव्यसम्बन्धी प्रयोग-मिश्र-वित्रसापरिणत पदों के मनोयोग आदि के संयोग से निष्पन्न भंग-प्रस्तत छह सत्रों (स. 80 से 85 तक) में दो द्रव्यों से सम्बन्धित विभिन्न विशेषणयुक्त मनोयोग आदि के संयोग से प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत पदों के विभिन्न भंगों का निरूपण किया गया है। प्रयोगादि तीन पदों के छह भंग-दो द्रव्यों के सम्बन्ध में प्रयोगादि तीन पदों के असंयोगी 3 भंग और द्विकसंयोगी 3 भंग, यों कुल छह भंग होते हैं। विशिष्ट-मनःप्रयोगपरिणत के पांच सौ चार भंग-सर्वप्रथम सत्यमनःप्रयोगपरिणत, असत्यमनःप्रयोगपरिणत आदि 4 पदों के असंयोगी 4 भंग और द्विकसंयोगी 6 भंग, इस प्रकार कुल 10 भंग होते हैं। फिर प्रारम्भ-सत्यमनःप्रयोग आदि छह पदों के असंयोगी 6 भंग और विकसंयोगी 15 भग होते हैं। इस प्रकार आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणत (द्रव्यद्वय) के 6+15-21 भं इसी प्रकार अनारम्भ सत्यमनःप्रयोग आदि शेष 5 पदों के भी प्रत्येक के इक्कीस-इक्कीस भंग होते हैं। यों सत्यमनःप्रयोगपरिणत के प्रारम्भ, अनारम्भ, संरंभ, असंरंभ, समारम्भ, असमारम्भ, इन 6 पदों के साथ कुल 214 6 = 126 भंग हुए। इसी प्रकार सत्यमनःप्रयोगपरिणत की तरह असत्यमन:प्रयोगपरिणत, सत्यमषामन :प्रयोगपरिणत, असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत, इन तीन पदों के भी प्रारम्भ आदि 6 पदों के साथ प्रत्येक के पूर्ववत् एक सो छठवीस-एक सौ छब्बीस भंग होते हैं। अतः मनःप्रयोगपरिणत के सत्यमन:प्रयोगपरिणत, असत्यमनःप्रयोगपरिणत आदि विशेषणयुक्त चारों पदों के कुल 12644 = 504 भंग होते हैं। पूर्वोक्त विशेषणयुक्त वचनप्रयोगपरिणत के भो 504 भंग-जिस प्रकार मनःप्रयोगपरिणत के उपयुक्त 504 भंग होते हैं उसी प्रकार वचनप्रयोगपरिणत के भी 504 भंग होते हैं। सर्वप्रथम सत्यवचनप्रयोग के प्रारम्भसत्य आदि 6 पदों के प्रत्येक के 21-21 भंग होने से 126 भंग होते हैं / फिर असत्यवचनप्रयोग आदि शेष तीन पदों के भी प्रारम्भ आदि 6 पदों के साथ प्रत्येक के 126-126 भंग होने से कुल 126 x 4 =504 भंग होते हैं। औदारिक प्रादि कायप्रयोगपरिणत के 166 भंग-ग्रौदारिकशरीरकायप्रयोग-परिणत आदि 7 पद हैं, इनके असंयोगी 7 भंग और द्विकसंयोगी 21 भंग, यों कुल 7+21=28 भंग एक पद के होते हैं / सातों पदों के कुल 2847 = 196 भंग कायप्रयोगपरिणत के होते हैं / Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दो द्रव्यों के त्रियोगसम्बन्धी मिश्रपरिणत भंग-इस प्रकार मनःप्रयोगपरिणत सम्बन्धी 504, वचनप्रयोगपरिणत सम्बन्धी 504 और कायप्रयोगपरिणत सम्बन्धी 196, यों कुल 1204 भंग प्रयोगपरिणत के होते हैं। जिस प्रकार प्रयोगपरिणत दो द्रव्यों के कुल 1204 भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार मिश्र-परिणत दो द्रव्यों के भी कुल 1204 भंग समझने चाहिए। वित्रसा-परिणत द्रव्यों के भंग-जिस रीति से प्रयोगपरिणत दो द्रव्यों के भंग कहे गए हैं, उसी रीति से विस्रसापरिणत दो द्रव्यों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान इन पांच पदों के विविधविशेषणयुक्त पदों को लेकर असंयोगी और द्विकसंयोगी भंग भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए।' तीन द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोग-मिश्र-वित्रसापरिणत पदों के भंग-- 86. तिषिण भंते ! दवा कि पयोगपरिणता ? मीसापरिणता ? वीससापरिणता? गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा 1 / अहवेगे पयोगपरिणए, दो मीसापरिणता 1 / अहवेगे पयोगपरिणए, दो वोससापरिणता 2 / अहवा दो पयोगपरिणया, एगे मीसापरिणए 3 / प्रहवा दो पयोगपरिणता, एगे वीससापरिणते 4 / प्रहवेगे मोसापरिणए, दो बोससापरिणता 5 / अहवा दो मीसलापरिणता, एगे वीससापरिणते 6 / अहवेगे पयोगपरिणते, एगे मोसापरिणते, एगे वोससापरिणते 7 / [८६-प्र.] भगवन् ! तीन द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत होते हैं, मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा वित्रसापरिणत होते हैं ? [८६-उ.] गौतम ! तीन द्रव्य या तो प्रयोगपरिणत होते हैं, या मिश्न-परिणत होते हैं, अथवा वित्रसापरिगत होते हैं, या एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, और दो द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं, या एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, और दो द्रव्य विस्त्रसा-परिणत होते हैं; अथवा दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और एक द्रव्य मिश्र-परिणत होता है, अथवा दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं, और एक द्रव्य वित्रसापरिणत होता है; अथवा एक द्रव्य मिश्रपरिणत होता है और दो द्रव्य विस्रसा-परिणत होते हैं, अथवा दो द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं, और एक द्रव्य विस्रसा-परिणत होता है; या एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, एक द्रव्य मिश्रपरिणत होता है और एक द्रव्य विस्त्रसा-परिणत होता है। 87. जदि पयोगपरिणता कि मणप्पयोगपरिणया? वइप्पयोगपरिणता? कायप्पयोगपरिणता? गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया वा० एवं एक्कगसंयोगो, दुयसंयोगो तियसंयोगो य भाणियब्रो / [८७-प्र.] भगवन् ! यदि वे तीनों द्रव्य प्रयोगपरिणत होते हैं, तो क्या मनःप्रयोगपरिणत होते हैं, या वचनप्रयोगपरिणत होते हैं अथवा वे कायप्रयोगपरिणत होते हैं ? [८७-उ.] गौतम ! वे (तीन द्रव्य) या तो मनःप्रयोगपरिणत होते हैं, या वचनप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा कायप्रयोगपरिणत होते हैं। इस प्रकार एकसंयोगी (असंयोगो), द्विकसंयोगी और त्रिकसंयोगी भंग कहने चाहिए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 337-338 Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [241 88. जदि मणप्पयोगपरिणता कि सच्चमणप्पयोगपरिणया 4 ? गोयमा ! सच्चमणपयोगपरिणया वा जाव प्रसच्चामोसमणप्पयोगपरिणया वा 4 / प्रहवेगे सच्चमणप्पयोगपरिणए, दो मोसमणप्पयोगपरिणया एवं दुयसंयोगो, तियसंयोगो भाणियन्यो / एत्थ वि तहेव जाव अहवा एगे तंससंठाणपरिणए वा एगे चउरंससंठाणपरिणए वा एगे माययसंठाणपरिणए वा। [88 प्र.] भगवन् ! यदि तीन द्रव्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या वे सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, असत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न है। [88 उ.] गौतम ! वे (विद्रव्य) सत्यमनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा यावत् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा उनमें से एक द्रव्य सत्यमनःप्रयोगपरिणत होता है, और दो द्रव्य मृषामनःप्रयोगपरिणत होते हैं; इत्यादि प्रकार से यहां भी द्विकसंयोगी भंग कहने चाहिए। तीन द्रव्यों के प्रयोग-परिणत की तरह ही मिश्रपरिणत और विस्रसा-परिणत के भंग कहने चाहिए यावत् अथवा एक त्र्यंस (त्रिकोण) संस्थानरूप से परिणत हो, एक समचतुरस्त्र-संस्थानरूप से परिणत हो और एक आयत-संस्थानरूप से परिणत हो, यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-तीन द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोग-मिश्र-विस्त्रसापरिणत पदों के भंग-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 86 से 88 तक) में तीन द्रव्यों के मन, वचन और काय की अपेक्षा, प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत इन तीन पदों के विविध भंगों का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। तीन पदों के त्रिद्रव्यसम्बन्धी भंग-प्रयोगपरिणत आदि तीन पदों के असंयोगी तीन, द्विकसंयोगी छह, और त्रिकसंयोगी एक भंग होता है / कुल भंग 10 होते हैं। सत्यमन:प्रयोगपरिणत प्रादि के भंग-सत्यमनःप्रयोगपरिणत प्रादि 4 पद हैं, इनके असंयोगी (एक-एक) चार भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग, और त्रिकसंयोगी 4 भंग होते हैं। यों कुल 4+12+4= 20 भंग हुए। इसी प्रकार मृषामनःप्रयोगपरिणत के भी 4 भंग समझने चाहिए। इसी रीति से वचनप्रयोगपरिणत और कायप्रयोगपरिणत के भंग समझ लेने चाहिए। मिश्र और विस्त्रसापरिणत के भंग-प्रयोगपरिणत की तरह मिश्रपरिणत के और विस्रसापरिणत के भी (वर्णादि के भेदों को लेकर) भंग कहने चाहिए।' चार आदि द्रव्यों के मन-वचन-काया की अपेक्षा प्रयोगादिपरिणत पदों के संयोग से निष्पन्न भंग 89. चत्तारि भंते ! दव्या कि पयोगपरिणया 3? गोयमा ! पयोगपरिणया वा, मौसापरिणया वा, वीससापरिणया वा / अहवेगे पप्रोगपरिणए, तिणि मोसापरिणया 1 / प्रहवा एगे पयोगपरिणए, तिणि वीससापरिणया 2 / अहवा दो पयोगपरिणया, दो मोसापरिणया 3 / प्रहवा दो पयोगपरिणया, दो वीससापरिणया 4 / अहवा तिष्णि 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 339 Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून पभोगपरिणया, एगे मीससापरिणए 5 / अहवा तिणि पन्नोगपरिणया, एगे वोससापरिणए 6 / अहवा एगे मोससापरिणए, तिणि वीससापरिणया 7 / अहवा दो मौसापरिणया, दो बीससापरिणया 8 / अहवा तिणि मीसापरिणया, एगे बीससापरिणए / अहवेगे पयोगपरिणए एगे मीसापरिणए. दो वीससापरिणया 1; अहवेगे पयोगपरिणए, दो मोसापरिणया, एगे वोससापरिणए 2; अहवा दो पयोगपरिणया, एगे मीसापरिणए, एगे वोससापरिणए 3 / [86 प्र.] भगवन् ! चार द्रव्य क्या प्रयोग-परिणत होते हैं, या मिश्रपरिणत होते हैं, अथवा वित्रसापरिणत होते हैं ? 89 उ.] गौतम ! वे (चार द्रव्य) (1) या तो प्रयोगपरिणत होते हैं, (2) या मिश्र-परिणत होते हैं, (3) अथवा विस्रसापरिणत होते हैं, (4) अथवा एक द्रव्य प्रयोगपरिणत होता है, तीन मिश्रपरिणत होते हैं, या (5) एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है और तीन विस्रसा-परिणत होते हैं, (6) अथवा दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और दो मिश्रपरिणत होते हैं, (7) या दो द्रव्य प्रयोगपरिणत होते हैं और दो विस्रसारिणत होते हैं; अथवा (8) तीन द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और एक द्रव्य मिश्रपरिणत होता है; (8) अथवा तीन द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और एक द्रव्य विस्रसापरिणत होता है; अथवा (10) एक द्रव्य मिश्र-परिणत होता है और तीन द्रव्य विस्त्रसापरिणत होते हैं, अथवा (11) दो द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं और दो द्रव्य विस्रसापरिणत होते हैं, अथवा (12) तीन द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं और एक द्रव्य विस्रसापरिणत होता है, अथवा (13) एक प्रयोगपरिणत होता है, एक मिश्रपरिणत होता है और दो विसापरिणत होते हैं, अथवा (14) एक प्रयोग-परिणत होता है, दो द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं और एक द्रव्य विस्रसापरिणत होता है, अथवा (15) दो द्रव्य प्रयोगपरिणत होते हैं, एक मिश्रपरिणत होता है और एक वित्रसापरिणत होता है। 60. जदि पयोगपरिणया कि मणप्पयोगपरिणया 3? एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेज्जा प्रसंखेज्जा अणंता य दब्बा भाणियन्वा / दुयासंजोएणं, तियासंजोगेणं जाव दससंजोएणं बारससंजोएणं उवजु जिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उट्ठति ते सत्वे भाणियवा। एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणीहामि तहा उवजु जिऊण भाणियब्वा जाव असंखेज्जा / अणंता एवं चेव, नवरं एक्कं पदं अभहियं जाव अहवा अणंता परिमंडलसंठाणपरिणता जाव अणंता प्राययसंठाणपरिणया। [60 प्र.] भगवन् ! यदि चार द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं तो क्या वे मन:प्रयोगपरिणत होते हैं, या वचनप्रयोगपरिणत होते हैं, अथवा कायप्रयोगपरिणत होते हैं ? [60 उ.] गौतम ! ये सब तथ्य पूर्ववत् कहने चाहिए। तथा इसी क्रम से पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस, यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्त द्रव्यों के विषय में कहना चाहिए / द्विकसंयोग से, त्रिकसंयोग से, यावत दस के संयोग से, बारह के संयोग से; जहाँ जिसके जितने संयोगी भंग बनते हों, उतने सब भंग उपयोगपूर्वक कहने चाहिए। ये सभी संयोगी भंग आगे नौवें शतक के . Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [ 243 बत्तीसवें प्रवेशनक नामक उद्देशक में जिस प्रकार हम कहेंगे, उसी प्रकार उपयोग लगाकर यहाँ भी कहने चाहिए; यावत् अथवा अनन्त द्रव्य परिमण्डल-संस्थानरूप से परिणत होते हैं, यावत् अनन्त द्रव्य आयत-संस्थानरूप से परिणत होते हैं / विवेचन-चार प्रादि द्रव्यों के मन-वचन-काय को अपेक्षा प्रयोगादि परिणत के संयोग से होने वाले भंग प्रस्तुत सूत्रद्वय में चार प्रादि द्रव्यों के प्रयोगादि परिणामों के निमित्त से होने वाले भंगों का कथन किया गया है। चार द्रव्यों सम्बन्धी प्रयोग-परिणत प्रादि तीन पदों के भंग–चार द्रव्यों के प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत प्रादि तीन पदों के असंयोगी 3 भंग, द्विकसंयोगी ह भंग और त्रिकसंयोगी 3 भंग होते हैं। इस तरह ये सभी मिलकर 3 18+3 =15 भंग होते हैं। पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार इनसे आगे के भंगों के लिए पूर्वोक्त क्रम से संस्थानपर्यन्त यथायोग्य भंगों की योजना कर लेनी चाहिए। पंचद्रव्यसम्बन्धी और पांच से प्रागे के भंग-पांच द्रव्यों के असंयोगी तीन भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग और त्रिकसंयोगी 6 भंग, यों कुल 3+12+6= 21 भंग होते हैं / इस प्रकार पांच, छह, यावत् अनन्त द्रव्यों के भी यथायोग्य भंग बना लेने चाहिए। सूत्र के मूलपाठ में 11 संयोगी भंग नहीं बतलाया गया है; क्योंकि पूर्वोक्त पदों में 11 संयोगी भंग नहीं बनता। नौवें शतक के ३२वें उद्देशक में गांगेय अनगार के प्रवेशनक सम्बन्धी भंग बताए गए हैं, तदनुसार यहाँ भी उपयोग लगाकर भंगों की योजना कर लेनी चाहिए।' परिणामों की दृष्टि से पुद्गलों का अल्पबहुत्व 61. एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं वीससापरिणयाण य कतरे कतरोहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया, मोसापरिणया अणंतगुणा, बीससापरिणया अणंतगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥अट्टम सए : पढमो उद्देसमो समतो॥ [61 प्र. भगवन् ! प्रयोग-परिणत, मिश्र-परिणत और विलसा-परिणत, इन तीनों प्रकार के पुद्गलों में कौन-से (पुद्गल), किन (पुद्गलों) से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [91 उ.] गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं, और उनसे विस्रसापरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं। * 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; ऐसा कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 339 Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन परिणामों को वृष्टि से पुद्गलों का अल्प बहुत्व प्रस्तुत अन्तिमसूत्र में तीनों परिणामों की दृष्टि से पुद्गलों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। सबसे कम और सबसे अधिक पुद्गल-मन-वचन-कायरूप योगों से परिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, क्योंकि जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अल्पकालिक है। प्रयोगपरिणत पुद्गलों से मिश्रपरिणतपुदगल अनन्तगूणे हैं, क्योंकि प्रयोगपरिणामकृत प्राकार को न छोड़ते हुए विस्त्रसापरिणाम द्वारा परिणामान्तर को प्राप्त हुए मृतकलेवरादि अवयवरूप पुद्गल अनन्तानन्त हैं और बिस्रसापरिणत तो उनसे भी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि जीव द्वारा ग्रहण न किये जा सकने योग्य परमाणु आदि पुद्गल अनन्तगुणे हैं।' // अष्टम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 340 Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'आसीविसे' द्वितीय उद्देशक : 'प्राशीविष' प्राशीविष : दो मुख्य प्रकार और उनके अधिकारी तथा विष-सामर्थ्य-- 1. कतिविहा णं भंते ! प्रासीविसा पण्णता! गोयमा ! दुविहा प्रासीविसा पन्नत्ता, तं जहा-जातिप्रासीविसा य कम्मनासीविसा य / [1] भगवन् ! पाशीविष कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! आशीविष दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-जाति-आशीविष और कर्म-पाशीविष। 2. जातिप्रासोविसा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! चउविहा पणत्ता, तं जहा–विच्छुयजातिमासीविसे, मंडुवकजातिमासीविसे, उरगजातिप्रासीविसे, मणुस्सजातियासीविसे / [2 प्र.] भगवन् ! जाति-प्राशीविष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? / 2 उ.] गौतम ! जाति-पाशीविष चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे कि-(१) वृश्चिकजाति-पाशीविष, (2) मण्डूकजाति-पाशीविष, (3) उरगजाति-पाशीविष और (4) मनुष्यजातिमाशीविष / 3. विच्छ्यजातिप्रासीविसस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! पभू णं विच्छयजातिप्रासीविसे अद्धभरहपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं विसद्वमाणि पकरेत्तए / विसए से विसट्टयाए, नो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा 1 / [3 प्र.] भगवन् ! वृश्चिकजाति-आशीविष का कितना विषय कहा गया है ? (अर्थात् वृश्चिकजाति-आशीविष का सामर्थ्य कितना है ?) [3 उ.] गोतम ! वृश्चिकजाति-पाशीविष, अर्द्धभरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विषयुक्त-विषेला करने या विष से व्याप्त करने में समर्थ है। इतना उसके विष का सामर्थ्य है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा अर्थात् क्रियात्मक प्रयोग द्वारा उसने न ऐसा कभी किया है, न करता है और न कभी करेगा। 4. मंडुक्कजातिप्रासीविसपुच्छा। गोयमा ! पभू णं मंडुक्कजातिप्रासीविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसणं विसपरिगयं / सेसं तं चेव, नो चेव जाव करेस्संति वा 2 / Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! मण्डूकजाति-आशीविष का कितना विषय है ? [4 उ.] गौतम ! मण्डकजाति-पाशीविष अपने विष से भरतक्षेत्र-प्रमाण शरीर को विदलित करने एवं व्याप्त करने में समर्थ है / शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् (यह उसका सामर्थ्य मात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति से उसने कभी ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं / 5. एवं उरगजातिप्रासीविसस्स वि, नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं / सेसं तं चेव, नो चेव जाव करेस्संति वा 3 / [5] इसी प्रकार उरगजाति-प्राशीविष के सम्बन्ध में जानना चाहिए / इतना विशेष है कि वह जम्बूद्वीप-प्रमाण शरीर को विष से युक्त एवं व्याप्त करने में समर्थ है। यह उसका सामर्थ्यमात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति से उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। 6. मणुस्सजातिप्रासीविसस्स वि एवं चेच, नवरं समयखेत्तप्पमाणमेतं बोंदि विसेणं विसपरिगयं / सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा 4 // [6] इसी प्रकार मनुष्यजाति-पाशीविष के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वह समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र= ढाई द्वीप) प्रमाण शरीर को विष से विदलित एवं व्याप्त कर सकता है, किन्तु यह उसका सामर्थ्य मात्र है, सम्प्राप्ति द्वारा कभी ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं। 7. जदि कम्मआसोविसे कि नेरइयकम्मप्रासोविसे, तिरिक्खजोणियकम्मश्रासोविसे, मणुस्सकम्मप्रासोविसे, देवकम्मासीविसे ? गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरिक्खजोगियकम्मासीविसे वि, मणस्सकम्मासीविसे वि, देवकम्मासीविसे वि। {7 प्र.] भगवन् ! यदि कर्म-आशीविष है तो क्या वह नैरयिक-कर्म-पाशीविष है, या तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-ग्राशीविष है अथवा मनुष्य-कर्म-आशीविष है या देव-कर्म-प्राशीविष है ? [7 उ.] गौतम ! नैरयिक-कर्म-प्राशीविष नहीं, किन्तु तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-प्राशीविष है, मनुष्य-कर्म-पाशीविष है और देव-कर्म-आशीविष है / 8. जदि तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कि एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासोविसे ? जाव पंचिदियतिरिक्खिजोणियकम्मासीविसे ? गोयमा! नो एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव नो चतुरिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे / [प्र.] भगवन् ! यदि तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-ग्राशीविष है, तो क्या एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिककर्म-आशीविष है अथवा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-प्राशीविष है ? Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [247 [8 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-कर्मआशीविष नहीं, परन्तु पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-आशीविष है। 6. जदि पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे कि सम्मच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियकामासौविसे ? गम्भवयकतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ? एवं जहा वेब्वियसरीरस्स मेदो जाव पज्जत्तासंखेज्जवासाउयगम्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेज्जवासाउय जाच कम्मासौविसे / [प्र.] भगवन् ! यदि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है तो क्या सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है या गर्भज पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-कर्म-पाशीविष है ? [6 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीरपद में वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए / यावत् पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयुष्य वाला गर्भज कर्मभूमिज पंचेन्द्रियतियंञ्जयोनिक-कर्म-पाशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला यावत् कर्म-प्राशीविष नहीं होता। 10. जदि मणस्सकामासोविसे कि सम्मच्छिममणुस्सकम्मासीविसे ? गम्भवतियमणुस्सकम्मालीविसे? गोयमा! णो सम्मुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे, गम्भवक्कंतियमणुस्सकम्मासीविसे, एवं जहा वेउब्वियसरीरं जाव पज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसकम्मासीबिसे, नो अपज्जता जाव कम्मासीविसे / [10 प्र.] भगवन् ! यदि मनुष्य-कर्म-प्राशीविष है, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्य-कर्माशीविष है, या गर्भज मनुष्य-कर्म-प्राशीविष है ? [10 उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम मनुष्य-कर्म-प्राशीविष नहीं होता, किन्तु गर्भज मनुष्यकर्म-आशीविष होता है / प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीरपद में वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार जीव-भेद कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य-कर्म-आशीविष होता है; परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले यावत् कर्म-आशीविष नहीं होता। 11. जवि देवकम्मासोविसे कि भवणवासीदेवकम्भासीविसे जाव वेमाणियदेवकम्मासौविसे ? गोयमा! भवणवासिदेवकम्मासीविसे, वाणमंतरदेव०, जोतिसिय०, बेमाणियदेवकम्मासीविसे वि। [11 प्र.] भगवन् ! यदि देव-कर्माशीविष होता है, तो क्या भवनवासी देव-कर्माशीविष होता है; अथवा यावत् वैमानिकदेव-कर्म-आशीविष होता है ? [11] गौतम ! भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चारों प्रकार के देवकर्म-ग्राशी विष होते हैं। Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 12. जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे कि असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे? ____ मोयमा! असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे वि जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे वि। [12 प्र.] भगवन् ! यदि भवनवासी देव-कर्म-प्राशीविष होता है तो क्या असुरकुमार भवनवासी देव-कर्म-पाशीविष होता है, अथवा यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव-कर्म-प्राशीविष होता है ? [12 उ.] गौतम ! असुरकुमार भवनवासी देव-कर्म-पाशीविष होता है, यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव भी कर्म-पाशीविष होता है / 13. जह असुरकुमार जाव कम्मासीविसे कि पज्जत्तप्रसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे ? अपज्जत्तसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे ? गोयमा ! नो पज्जत्तनसुरकुमार जाव कम्मासीविसे, अपज्जत्तप्रसुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासौविसे / एवं जाव थणियकुमाराणं / [13 प्र.] भगवन् ! यदि असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव-कर्म-नाशी विष है तो क्या पर्याप्त असुरकुमारादि भवनवासी देव-कर्म-आशीविष है या अपर्याप्त असुरकुमारादि भवनवासी देव-कर्म-आशीविष है ? [13 उ.] गौतम ! पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव-कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव-कर्म-प्राशीविष है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। 14. जदि वाणमंतरदेवकम्मासीविसे कि पिसायवाणमंतर ? एवं सम्वेसि पि अपज्जत्तगाणं / [14 प्र.] भगवन् ! यदि वाणव्यन्तरदेव-कर्म-प्राशीविष है, तो क्या पिशाच वाणव्यन्तरदेव-कर्माशीविष है, अथवा यावत् गन्धर्व वाणव्यन्तरदेव-कर्माशीविष है ? / [14 उ.] गौतम ! वे पिशाचादि सर्व वाणव्यन्तरदेव अपर्याप्तवस्था में कर्माशीविष हैं। 15. जोतिसियाणं सवेसि अपज्जतगाणं / [15] इसी प्रकार सभी ज्योतिष्कदेव भी अपर्याप्तावस्था में कर्माशीविष होते हैं / 16. जदि वेमाणियदेवकम्मासीविसे कि कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासोविसे ? कप्पातीतवेमाणियदेवकम्मासोविसे ? गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, नो कप्पातीतवेमाणियदेवकम्मासीविसे / [16 प्र.] भगवन् ! यदि वैमानिकदेव कर्माशीविष हैं तो क्या कल्पोपपन्नक वैमानिक देवकर्माशीविष है, अथवा कल्पातीत वैमानिक देव-कर्म-पाशीविष है ? Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [249 [16 उ.] गौतम! कल्पोपपन्नक वैमानिकदेव कर्म-प्राशीविष होता है, किन्तु कल्पातीत वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं होता। 17. जति कप्योवगवेमाणियदेवकम्मासोविसे कि सोधम्मकप्पोव० जाव कम्मासीविसे जाव अच्चुयकप्पोवग जाव कम्मासीविसे ? गोयमा! सोधम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासोविसे वि, नो प्राणयकप्पोवग जाव नो अच्चुतकप्पोवगवेमाणियदेव० / [17 प्र.] भगवन् ! यदि कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष होता है तो क्या सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष होता है, अथवा यावत् अच्युत कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-प्राशीविष होता है ? [17 उ.] गौतम ! सौधर्म-कल्पोपपन्नक वैमानिकदेव यावत् सहस्रार कल्पोपपन्नक वैमानिक देव-पर्यन्त कर्म-नाशीविष होते हैं, परन्तु मानत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्म-पाशीविष नहीं होता। 18. जदि सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासीविसे कि पज्जत्तसोधम्मकप्पोवगवेमाणिय अपज्जत्तगसोहम्मग? गोयमा ! नो पज्जत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणिय०, अपज्जत्तसोधम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे / [18 प्र.] भगवन् ! यदि सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष है तो क्या पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-आशीविष है अथवा अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-प्राशीविष है ? __ [18. उ.] गौतम ! पर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त सौधर्मकल्पोपपन्न वैमानिकदेव कर्म-प्राशी विष है। 16. एवं जाव नो पज्जत्तसहस्सारकप्पोवगवेमाणिय जाव कम्मासोविसे, अपज्जत्तसहस्सारकप्पोवग जाव कम्मासीविसे / _ [16] इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्न वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं, किन्तु अपर्याप्त सहस्रार-कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष है / विवेचन--प्राशीविष, दो मुख्य प्रकार और उनके अधिकारी प्रस्तुत 16 सूत्रों (सू. 1 से 19 तक) में आशीविष, उसके मुख्य दो प्रकार, जाति-आशीविष और कर्म-ग्राशीविष के अधिकारी जीवों का निरूपण किया गया है। आशीविष और उससे प्रकारों का स्वरूप-प्राशी का अर्थ है-दाद (दंष्ट्रा): जिन जीवों की दाढ़ में विष होता है, वे 'नाशीविष' कहलाते हैं / आशीविष प्राणी दो प्रकार के होते हैं-जातिआशीविष और कर्म-पाशीविष / सांप, बिच्छ, मेंढक आदि जो प्राणी जन्म से ही आशीविष होते हैं, Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वे जाति-पाशीविष कहलाते हैं और जो कर्म यानी शाप आदि क्रिया द्वारा प्राणियों का विनाश करते हैं, वे कर्म-पाशीविष कहलाते हैं ! पर्याप्तक तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसी गुण के कारण प्राशीविष-लब्धि प्राप्त हो जाती है / ये जीव प्राशीविष-लब्धि के स्वभाव से शाप दे कर दूसरे का नाश करने की शक्ति पा लेते हैं / आशीविषलब्धि वाले जीव से आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते / जिन्होंने पूर्वभव में आशीविषलब्धि का अनुभव किया था, अतः पूर्वानुभूतभाव के कारण वे कर्म-पाशीविष होते हैं / अपर्याप्त अवस्था में ही वे आशीविषयुक्त होते हैं। जाति-पाशीविषयुक्त प्राणियों का विषसामर्थ्य-जाति-प्राशीविष-वाले प्राणियों के विष का जो सामर्थ्य बताया है, वह विषयमात्र है। उसका आशय यह है-जैसे किसी मनुष्य ने अपना शरीर अर्द्ध भरतप्रमाण बनाया हो, उसके पैर में यदि बिच्छू डंक मारे तो उसके मस्तक तक उसका विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार भरतप्रमाण, जम्बूद्वीपप्रमाण और ढाईद्वीपप्रमाण का अर्थ समझना चाहिए / छद्मस्थ द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के अविषय और केवली द्वारा सर्वभावेन ज्ञान के विषयभूत दस स्थान 20. दस ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं न जाणति न पासति, तं जहा-धम्मत्यिकायं 1 अधम्मस्थिकायं 2 अागासस्थिकायं 3 जीवं प्रसरीरपडिबद्धं 4 परमाणपोग्गलं 5 सदं 6 गंधं 7 वातं प्रयं जिणे भविस्सति वा ण वा भविस्सइ (अयं सम्वदुक्खाणं अंतं करेस्सति का न वा करेस्सइ 10 / [20] छद्मस्थ पुरुष इन दस स्थानों (बातों) को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता / वे इस प्रकार हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (2) अधर्मास्तिकाय, (3) आकाशास्तिकाय, (4) शरीर से रहित (मुक्त) जीव, (5) परमाणुपुद्गल, (6) शब्द, (7) गन्ध, (8) वायु, (9) यह जीव जिन होगा या नहीं ? तथा (10) यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं ? 21. एयाणि चेव उत्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सब्वभावेणं जाणति पासति, तं जहा—धम्मस्थिकायं 1 जाव करेस्सति वा न वा करेस्सति 10 / [21] इन्हीं दस स्थानों (बातों) को उत्पन्न (केवल) ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त-जिनकेवली ही सर्वभाव से जानते और देखते हैं। यथा-धर्मास्तिकाय यावत्-'यह जीव समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं?' विवेचन–सर्वभाव (पूर्णरूप) से छास्थ के ज्ञान के प्रविषय और केवली के ज्ञान के विषय रूप दस स्थान--प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र (सू.२०) में उन दस स्थानों (पदार्थो) के नाम गिनाए गये हैं, जिन्हें छद्मस्थ सर्वभावेन जान और देख नहीं सकता, द्वितीय सूत्र में उन्हीं दस का उल्लेख किया गया है, जिन्हें केवलज्ञानी सर्वभावेन जान और देख सकते हैं / छद्मस्थ का प्रसंगवश विशेष अर्थ-यों तो छद्मस्थ का सामान्य अर्थ है-केवलज्ञानरहित, 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 341-342 Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ [251 किन्तु यहाँ छद्मस्थ का विशेष अर्थ है-अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानरहित; क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान धर्मास्तिकाय आदि को अमूर्त होने से नहीं जानता-देखता, किन्तु परमाणु आदि जो मूर्त हैं, उन्हें वह जान-देख सकता है, क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान का विषय सर्व मूर्तद्रव्य हैं / यदि यह शंका की जाए कि ऐसा छमस्थ भी परमाणु आदि को कथंचित् जानता है, सर्वभाव से (समस्त पर्यायों से) नहीं जानता-देखता, जबकि मूलपाठ में कहा गया है सर्वभाव से नहीं जानतादेखता / इसका समाधान यह है कि यदि छद्मस्थ का ऐसा अर्थ किया जाएगा, तब तो छद्मस्थ के लिए सर्वभावेत अज्ञेय दस संख्या का नियम नहीं रहेगा, क्योंकि ऐसा छमस्थ घटादि पदार्थों को भी अनन्त पर्यायरूप से जानने में असमर्थ है। अतः 'सव्वभावेणं' (सर्वभाव से) का अर्थ साक्षात् (प्रत्यक्ष) करने से इस सूत्र का अर्थ संगत होगा कि अवधि आदि विशिष्टज्ञान-रहित छद्मस्थ, धर्मास्तिकाय आदि दस वस्तुओं को प्रत्यक्षरूप से नहीं जानता-देखता। उत्पन्नज्ञान-दर्शनधारक, अरिहन्त जिन-केवली, केवलज्ञान से इन दस को सर्वभावेन अर्थात्-साक्षातरूप से जानते-देखते हैं।' ज्ञान और प्रज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद का निरूपण 22. कतिविहे गं भंते ! नाणे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-प्राभिणिबोहियनाणे सुयनाणे प्रोहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे। [22 प्र.] भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? [22 उ.] गौतम ! ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) आभिनिबोधिकज्ञान, (2) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान, (4) मनःपर्यवज्ञान और (5) केवलज्ञान / 23. [1] से कि तं प्राभिणिबोहियनाणे ? प्राभिणिबोहियनाणे चतुब्बिहे पण्णते, तं जहा---उग्गहो ईहा अवाप्रो धारणा / [23-1 प्र.] भगवन् ! प्राभिनिबोधिकज्ञान कितने प्रकार का (किस रूप का) कहा गया है ? [23-1 उ.] गौतम ! प्राभिनिबोधिकज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय (अपाय) और (4) धारणा / / [2] एवं जहा रायप्पसेणइए जाणाणं भेदो तहेव इह वि भाणियन्वो जाव से तं केवलनाणे। [23-2] जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में ज्ञानों के भेद कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए, यावत् 'यह है वह केवलज्ञान'; यहाँ तक कहना चाहिए। 24. अण्णाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? / गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा–मइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगनाणे / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 342 Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [24 प्र.] भगवन् ! अज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? [24 उ.] गौतम ! अज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है--(१) मतिअज्ञान, (2) श्रुत-अज्ञान और (3) विभंगज्ञान / 25. से कि तं मइअण्णाणे ? मइअण्णाणे चउबिहे पणत्ते, तं जहा--उग्गहो जाव धारणा। [25 प्र. भगवन् ! मति-अज्ञान कितने प्रकार का है ? [25 उ.] गौतम ! मति-अज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है--- (1) अवग्रह, (2) ईहा, (3) अवाय और (4) धारणा / 26. [1] से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा----प्रत्थोग्गहे य बंजणोग्गहे य / [26-1 प्र.] भगवन् ! वह अवग्रह कितने प्रकार का है ? [26-1 उ.] गौतम ! अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। [2] एवं जहेव प्रामिणबोहियनाणं तहेव, नवरं एगट्टियवज्ज जाव नोइंदियधारणा, से तं धारणा / से तं मतिअण्णाणे / [26-2] जिस प्रकार (मन्दीसूत्र में) प्राभिनिवोधिकज्ञान के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए / विशेष इतना ही है कि वहाँ प्राभिनिबोधिकज्ञान के प्रकरण में अवग्रह आदि के एकाथिक (समानार्थक) शब्द कहे हैं, उन्हें छोड़कर यावत्---'नोइन्द्रिय-धारणा है', यह हुआ धारणा का स्वरूप यहाँ तक कहना चाहिए / यह हुआ मति-अज्ञान का स्वरूप / 27. से कि तं सुयप्रणाणे? सुतअण्णाणे जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छद्दिट्टिएहि जहा नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा। से तं सुयमन्नाणे। [27 प्र.] भगवन् ! श्रुत-अज्ञान किस प्रकार का कहा गया है ? [27 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नन्दीसूत्र में कहा गया है-~-'जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्ररूपित है'; इत्यादि यावत्-सांगोपांग चार वेद तक श्रुत-अज्ञान है / इस प्रकार श्रुत-अज्ञान का वर्णन पूर्ण हुआ। 28. से कि तं विभंगनाणे? विभंगनाणे अणेगविहे पण्णते, तं जहा--गामसंठिए नगरसंठिए जाव संनिवेससंठिए दीवसंठिए Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२) [253 समुहसंठिए वाससंठिए वासहरसंठिए पब्वयसंठिए रुक्खसंठिए थभसंठिए यसंठिए गयसंठिए नरसंठिए किन्नरसंठिए किपुरिससंठिए महोरगसंठिते गंधव्वसंठिए उसभसंठिए पसु-पसय-विहग-वानरणाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते। [28 प्र.] भगवन् ! वह विभंगज्ञान किस प्रकार का कहा गया है ? [28 उ.] गौतम ! विभंगज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार हैग्रामसंस्थित (ग्राम के आकार का), नगरसंस्थित (नगराकार) यावत् सन्निवेशसंस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, वर्ष-संस्थित (भरतादि क्षेत्र के प्राकार), वर्षधरसंस्थित (क्षेत्र की सीमा करने वाले पर्वतों के आकार का), सामान्य पर्वत-संस्थित, वृक्षसंस्थित, स्तूपसंस्थित, हयसंस्थित (अश्वाकार), गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित, किम्पुरुषसंस्थित, महोरगसंस्थित, गन्धर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित (बैल के आकार का), पशु, पशय (अर्थात्-दो खुरवाले जंगली चौपाये जानवर), विहग (पक्षी), और वानर के आकार वाला है / इस प्रकार विभंगज्ञान नाना संस्थानसंस्थित (आकारों से युक्त) कहा गया है। विवेचन-ज्ञान और प्रज्ञान के स्वरूप तथा भेद-प्रभेद का निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 22 से 28 तक) में ज्ञान और प्रज्ञान के स्वरूप तथा नन्दीसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र के अतिदेशपूर्वक दोनों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / पांच ज्ञानों का स्वरूप (1) प्राभिनिबोधिक इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रहे हुए पदार्थ का अर्थाभिमुख (यथार्थ) निश्चित (संशयादि रहित) बोध (ज्ञान) आभिनिबोधिक है। इसका दूसरा नाम मतिज्ञान भी है। (2) श्रुतज्ञान-श्रुत अर्थात् श्रवण किये जाने वाले शब्द के द्वारा (वाच्यवाचक सम्बन्ध से) तत्सम्बद्ध अर्थ को इन्द्रिय और मन के निमित्त से ग्रहण कराने वाला भावश्रुतकारणरूप बोध श्रुतज्ञान कहलाता है / अथवा इन्द्रिय और मन की सहायता से श्रुत-ग्रन्थानुसारी एवं मतिज्ञान के अनन्तर शब्द और अर्थ के पर्यालोचनपूर्वक होने वाला बोध श्रुतज्ञान है। (3) अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मूर्तद्रव्यों को ही जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा नीचे-नीचे विस्तृत वस्तु का अवधान-परिच्छेद जिससे हो उसे अवधिज्ञान कहते हैं। (4) मनःपर्यवज्ञान-मनन किये जाते हुए मनोद्रव्यों के पर्याय-आकार विशेष को--संजीजीवों के मनोगत भावों को इन्द्रिय और मन को सहायता के बिना प्रत्यक्ष जानना / (1) केवलज्ञानकेवल = एक, मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती सर्वद्रव्य-पर्यायों का य गपत, शुद्ध, सकल, असाधारण एवं अनन्त हस्तामलकवत् प्रत्यक्षज्ञान / आमिनिबोधिज्ञान के चार प्रकारों का स्वरूप (१)अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ के योग्य देश में रखने पर दर्शन के बाद (विशेष रहित सामान्य रूप से सर्वप्रथम होने वाला पदार्थ का ग्रहण (बोध)(२) / ईहा-अवग्रह से जाने गए पदार्थ के विषय में संशय को दूर करते हुए उसके विशेष धर्म की विचारणा करना / (3) अवाथ-ईहा से ज्ञात हुए पदार्थों में यही है, अन्य नहीं; इस प्रकार से अर्थ का निश्चय करना। (4) धारणा–अवाय से निश्चित अर्थ को स्मृति आदि के रूप में धारण कर लेना, ताकि उसकी विस्मृति न हो। Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह का स्वरूप...अर्थावग्रह पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को कहते हैं। इसमें पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का अस्पष्ट ज्ञान होता है। इसकी स्थिति एक समय की है। अर्थावग्रह से पहले उपकरणेन्द्रिय द्वारा इन्द्रियसम्बद्ध शब्दादि विषयों का अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है / इसकी जघन्य स्थिति प्रावलिका के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो से नौ श्वासोच्छ्वास की है / व्यञ्जनावग्रह 'दर्शन' के बाद चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होता है। तत्पश्चात् इन्द्रियों का पदार्थ के साथ सम्बन्ध होने पर यह कुछ है', ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है, वही अर्थावग्रह है। अवग्रह प्रादि को स्थिति और एकार्थक नाम-अवग्रह की एक समय की, ईहा की अन्तर्मुहूर्त की, अवाय की अन्तमुहूर्त की और धारणा की स्थिति संख्यातवर्षीय प्रायु वालों की अपेक्षा संख्यात काल को और असंख्यातवर्षीय आयुवालों की अपेक्षा असंख्यातकाल की है। अवग्रह आदि चारों के प्रत्येक के पांच-पांच एकार्थक नाम नन्दीसूत्र में दिये गए हैं। चारों के कुल मिलाकर बीस भेद हैं। श्रु तादि ज्ञानों के भेद-नन्दीसूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि 14 भेद हैं, अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय, ये दो भेद हैं, मनःपर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति, ये दो भेद हैं / केवलज्ञान एक ही है, उसका कोई भेद नहीं है। मति-प्रज्ञान आदि का स्वरूप और भेद-मिथ्यादृष्टि के मतिज्ञान को मति-अज्ञान कहते हैं, अर्थात्---सामान्य मति सम्यग्दृष्टि के लिए मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिए मति-अज्ञान है / इसी तरह अविशेषित श्रुत, सम्यग्दष्टि के लिए श्रुतज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिए श्रुत-अज्ञान है / मिथ्या अवधिज्ञान को विभंगज्ञान कहते हैं / ज्ञान में अवग्रह आदि के जो एकार्थक नाम कहे गए हैं, उन्हें यहाँ अज्ञान के प्रकरण में नहीं कहना चाहिए। विभंगज्ञान का शब्दशः अर्थ इस प्रकार भी होता है—जिसमें विरुद्ध भंग-वस्तुविकल्प उठते हों, अथवा अवधिज्ञान से विरूप-विपरीत-मिथ्या-भंग (विकल्प) वाला ज्ञान। ग्रामसंस्थित प्रादि का स्वरूप-ग्राम का अवलम्बन होने से वह विभंगज्ञान ग्रामाकार (ग्रामसंस्थित) कहलाता है, इसी प्रकार अन्यत्र भी ऊहापोह कर लेना चाहिए।' औधिक, चौवीस दण्डकवर्ती तथा सिद्ध जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपरणा 26. जीवा णं भंते ! कि नाणी, अन्नाणो ? गोयमा ! जीवा नाणी वि, अन्नाणो वि / जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी, अत्थेगतिया तिनाणी, अत्थेगतिया चउनाणी, प्रत्थगतिया एगनाणी / जे दुलाणी ते प्राभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य / जे तिन्नाणी ते प्रामिणिबोहियनाणी सुतनाणी ओहिनाणी, प्रहवा प्रामिणिबोहियणाणी सुतणाणी मणपज्जवनाणी / जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी सुतणाणी प्रोहिणाणी मणपज्जवणाणी। जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी / जे अण्णाणी ते प्रत्थेगतिया दुअण्णाणी, अत्थेगतिया ) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 344-345 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन युक्त) भाग 3, पृष्ठ 1302 से 1304 तक Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [255 तिअण्णाणी / जे दुअण्णाणी ते मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य / जे तिअण्णाणी ते मतिप्रणाणी सुयप्रणाणी विभंगनाणी / [26 प्र.] भगवन् ! जीव ज्ञानी है या अज्ञानी है ? [26 उ.] गौतम ! जीव ज्ञानी भी है और अज्ञानी भी है / जो जीव ज्ञानी हैं, उनमें से कुछ जीव दो ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव तीन ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव चार ज्ञान वाले हैं और कुछ जीव एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं / जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं, अथवा आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी होते हैं / जो चार ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रु तज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं / जो एक ज्ञान वाले हैं, वे नियमत: केवलज्ञानी हैं। जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें कुछ जीव दो अज्ञान वाले हैं, कुछ तीन अज्ञान वाले होते हैं। जो जीव दो अज्ञान वाले हैं, वे मति-अज्ञानी और श्रत-अज्ञानी हैं; जो जीव तीन अज्ञान वाले हैं, वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। 30. नेरइया णं भंते ! कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि / जे नाणी ते नियमा तिन्नाणी, तं जहा-प्राभिणिबोहि० सुयनाणी प्रोहिनाणी / जे अण्णाणी ते प्रत्थेगतिया दुअण्णाणी, अत्थेगतिया तिअण्णाणी / एवं तिष्णि अण्णाणाणि भयणाए। [30 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [30 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। उनमें जो ज्ञानी हैं, वे नियमत: तीन ज्ञान वाले है, यथा-प्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रु तज्ञानी और अवधिज्ञानी / जो अज्ञानी हैं, उनमें से कुछ दो अज्ञानवाले हैं, और कुछ तीन अज्ञान वाले हैं। इस प्रकार तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। भंते किनाणी अण्णाणी? जहेव नेरइया तहेव तिणि नाणाणि नियमा. तिष्णि य अण्णाणाणि भयणाए। (31-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [31-1 उ.] गौतम ! जैसे नैरयिकों का कथन किया गया है, उसी प्रकार असुरकुमारों का भी कथन करना चाहिए / अर्थात् जो ज्ञानी हैं, बे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे भजना (विकल्प) से तीन अज्ञान वाले हैं। [2] एवं जाव थपियकुमारा। [31-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए। 32. [1] पुढविक्काइया णं भंते ! कि नाणी अण्णाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी-मतिमण्णाणी य, सुतअण्णाणी य। [32.1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [32-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। वे नियमत: दो अज्ञान वाले हैं; यथा--मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी। Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] एवं जाव वणस्सइकाइया / [32-2] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए। 33. [1] बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! गाणी वि, अण्णाणी वि / जे नाणी ते नियमा दुण्णाणी, तं जहा-- आभिणिबोहियनाणी य सुयणाणी य / जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी-प्राभिणिबोहियअण्णाणी य सुयप्रणाणी य। [33-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [33-1 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियमतः दो ज्ञान वाले हैं, यथा-मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी / जो अज्ञानी हैं, नियमत: दो अज्ञान वाले हैं, यथा-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी। [2] एवं तेइंदिय-चरिदिया वि। [33-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी कहना चाहिए। 34. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि अण्णाणी वि / जे नाणी ते प्रत्धेगतिया दुष्णाणी, प्रत्यंगतिया तिन्नाणी / एवं तिण्णि नाणाणि तिणि अण्णाणाणि य भयणाए / [34 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [34 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं, उनमें से कितने ही दो ज्ञान वाले हैं और कई तीन ज्ञान वाले हैं। इस प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के) तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 35. मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच नाणाणि तिण्णि अण्णाणाणि य भयणाए / [35] जिस प्रकार औधिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार मनुष्यों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 36. वाणमंतरा जहा नेरइया / [36] वागव्यन्तर देवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। 37. जोतिसिय-वेमाणियाणं तिणि नाणा तिणि अन्नाणा नियमा। [37] ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 257 38. सिद्धा णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! गाणी, नो अण्णाणी / नियमा एगनाणी केवलनाणी / [38 प्र.) भगवन् ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [38 उ.] गौतम ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं / वे नियमतः एक-केवलज्ञान वाले हैं। विवेचन--ौधिक जीवों, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों एवं सिधों में ज्ञान और प्रज्ञान की प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (सू-२६ से 38 तक) में प्रोधिक जीवों, नरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में पाये जाने वाले ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा की गई है / नैरयिकों में तीन ज्ञान नियमतः, तीन अज्ञान भजनातः-सम्यग्दृष्टि नैरयिकों में भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है, इसलिए वे नियमतः तीन ज्ञान वाले होते हैं। किन्तु जो अज्ञानी होते हैं, उनमें कितने ही दो अज्ञान वाले होते हैं, जब कोई असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नरक में उत्पन्न होता है, तब उसके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इस अपेक्षा से नारकों में दो अज्ञान कहे गए हैं। जो मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय नरक में उत्पन्न होता है, तो उसको अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है / अत: इस अपेक्षा से नारकों में तीन अज्ञान कहे गए हैं। तीन विकलेन्द्रिय जीवों में दो ज्ञान--द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ने या तिर्यञ्च ने पहले आयुष्य बांध लिया है, वह उपशम-सम्यक्त्व का वमन करता हुआ उनमें (द्वी-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में) उत्पन्न होता है / उस जीव को अपर्याप्त दशा में सास्वादनसम्यग्दर्शन होता है, जो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह प्रावलिका तक रहता है; तब तक सम्यग्दर्शन होने के कारण वह ज्ञानी रहता है, उस अपेक्षा से विकलेन्द्रियों में दो ज्ञान बतलाए हैं / इसके पश्चात् तो वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाने से अज्ञानी हो जाता है।' गति आदि पाठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-अज्ञानी-प्ररूपरणा 39. निरयगतिया णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? गोयमा ! नाणो वि, अण्णाणी वि / तिणि नाणाई नियमा, तिणि प्रमाणाई भयणाए / [39 प्र.] भगवन् ! निरयगतिक (नरकगति में जाते हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [39 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं, और जो अज्ञानी हैं, वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। 40. तिरियर्गातया णं भंते ! जीधा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा! दो नाणा, दो अन्नाणा नियमा। [40 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चगतिक ( तिर्यञ्चगति में जाते हुए ) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 345 Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र [40 उ.] गौतम ! उनमें नियमतः दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। 41. मणुस्सगतिया णं भंते ! जीवा कि नाणी, अनाणी ? गोयमा ! तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। [41 प्र.] भगवन् ! मनुष्यगतिक (मनुष्यगति में जाते हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी है ? [41 उ.] गौतम ! उनके भजना (विकल्प) से तीन ज्ञान होते हैं, और नियमतः दो अज्ञान होते हैं। 42. देवगतिया जहा निरयगतिया। [42] देवगतिक जीवों में ज्ञान और अज्ञान का कथन निरयगतिक जीवों के समान समझना चाहिए। 43. सिद्धगतिया णं भंते ! // जहा सिद्धा (सु. 30) / 1 / / [43 प्र.] भगवन् ! सिद्धगतिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी है ? [43 उ.] गौतम ! उनका कथन सिद्धों की तरह करना चाहिए। अर्थात्-वे नियमतः एक केवलज्ञान वाले होते हैं / (प्रथमद्वार) 44. सइंदिया णं भंते ! जोवा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [44 प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय वाले) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [44 उ.] गौतम ! उनके चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 45. एगिदिया णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा पुढविक्काइया। [45 प्र.] भगवन् ! एक इन्द्रिय वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [45 उ.] गौतम ! इनके विषय में पृथ्वीका यिक जीवों (सू. 27 में कथित) की तरह कहना चाहिए। 46. बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदियाणं दो नाणा, दो अण्णाणा नियमा / [46] दो इन्द्रियों, तीन इन्द्रियों और चार इन्द्रियों वाले जीवों में दो ज्ञान या दो अज्ञान नियमतः होते हैं। 47. पंचिदिया जहा सइंदिया। [47] पांच इन्द्रियों वाले जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों की तरह करना चाहिए / Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [259 48. अणिदिया णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सिद्धा (सु. 38) / 2 / [48 प्र.] भगवन् ! अनिन्द्रिय (इन्द्रियरहित) जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? [48 उ.] गौतम ! उनके विषय में सिद्धों (सू. 38 में कथित) की तरह जानना चाहिए / (द्वितीय द्वार) 46. सकाइया णं भंते ! जीवा कि माणी अन्नाणी ? गोयमा ! पंच नाणाणि तिणि अन्नाणाई भयणाए / [49 प्र.] भगवन् ! सकायिक (कायासहित) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [49 उ.] गौतम ! सकायिक जीवों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 50. पुढविकाइया जाब वणस्सइकाइया नो नाणी, अण्णाणी / नियमा दुअण्णाणी; तं जहामतिअण्णाणी य सुय अण्णाणी य / " [50] पृथ्वीकायिक से यावत् वनस्पतिकायिक जीव तक ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं / वे नियमतः दो अज्ञान (मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान) वाले होते हैं। 51. तसकाइया जहा सकाइया (सु. 46) / {51] त्रसकायिक जीवों का कथन सकायिक जीवों के समान [सू. 49] समझना चाहिए / 52. अकाइया णं भंते ! जीवा कि नाणी? जहा सिद्धा (सु. 38) / 3 / [52 प्र.] भगवन् ! अकायिक (कायारहित) जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? {52 उ.] गौतम ! इनके विषय में सिद्धों की तरह जानना चाहिए। (तृतीयद्वार) 53. सुहुमा णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा पुढविकाइया (सु. 50) / {53 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [53 उ. गौतम ! इनके विषय में पृथ्वीकायिक जीवों (सू. 50 में कथित) के समान कथन करना चाहिए। 54. बादरा णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सकाइया (सु. 46) / [54 प्र.] भगवन् ! बादर जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26.] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [54 उ.] गौतम ! इनके विषय में सकायिक जीवों (सू. 49 में कथित) के समान कहना चाहिए। 55. नोसुहमानोबादरा णं भंते ! जीवा० ? जहा सिद्धा (सु. 38) / 4 / [55 प्र.] भगवन् ! नो-सूक्ष्म-नो-बादर जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [55 उ.] गौतम ! इनका कथन सिद्धों की तरह समझना चाहिए। (चतुर्थ-द्वार) 56. पज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी० ? जहा सकाइया (सु. 46) / [56 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [56 उ.] गौतम ! इनका कथन सकायिक (सू. 49 में कथित) जीवों के समान जानना चाहिए। 57. पज्जत्ता णं भंते ! नेरतिया कि नाणी० ? तिणि नाणा, तिणि अण्णाणा नियमा / [57 प्र] भगवन् ! पर्याप्तक नैरियक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [57 उ.] गौतम ! इनमें नियमतः तीन ज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं / 58. जहा नेरइया एवं जाव थपियकुमारा। [58] पर्याप्त नैरियक जीवों की तरह यावत् पर्याप्त स्तनितकुमार तक में ज्ञान और अज्ञान का कथन करना चाहिए / 56. पुढविकाइया जहा एगिदिया। एवं जाव चतुरिदिया / [59] (पर्याप्त) पृथ्वीकायिक जीवों का कथन एकेन्द्रिय जीवों (सू. 45 में कथित) की तरह करना चाहिए / इसी प्रकार यावत् (पर्याप्त) चतुरिन्द्रिय (अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) तक समझना चाहिए। 60. पज्जत्ता गं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया कि नाणी. अण्णाणी ? तिणि नाणा, तिणि अण्णाणा भयणाए। [60 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [60 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं / 61. मणुस्सा जहा सकाइया (सु. 48) / Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [261 . [61] पर्याप्त मनुष्यों के सम्बन्ध में कथन सकायिक जीवों (सू. 46 में कथित) की तरह करना चाहिए। 62. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया (सु. 57) / [62] पर्याप्त वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों (सू. 57) की तरह समझना चाहिए / 63. अपज्जत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणो 2? तिषिण नाणा, तिणि अण्णाणा भयणाए। [63 प्र. भगवन् ! अपर्याप्तक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [63 उ. उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 64. [1] अपज्जत्ता णं भंते ! नेतिया कि नाणी, अन्नाणी ? तिणि नाणा नियमा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। [64-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त नैरयिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [64-1 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान नियमत: होते हैं अथवा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [64-2] नैरयिक जीवों की तरह यावत् अपर्याप्त स्तनितकुमार देवों तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए। 65. पुढविक्काइया जाव वणस्सतिकाइया जहा एगिदिया। [65] (अपर्याप्त) पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक का कथन एकेन्द्रिय जीवों की तरह करना चाहिए। 66. [1] बेंदिया णं० पुच्छा। दो नाणा, दो अण्णाणा णियमा / [66-1 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त द्वीन्द्रिय ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [66.1 उ.] गौतम ! इनमें दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान नियमतः होते हैं। [2] एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / [66-2] इसी प्रकार यावत् (अपर्याप्त) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक जानना चाहिए। 67. अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा कि नाणी, अनाणी ? तिणि नाणाई भयणाए, दो प्राणाणाई नियमा। Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262) [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [67 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक मनुष्य ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [67 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान भजना से होते हैं और दो अज्ञान नियमतः होते हैं / 68. वाणमंतरा जहा नेरतिया (सु. 64) / [68] अपर्याप्त वाणव्यन्तर जीवों का कथन नैरयिक जीवों की तरह (सू. 64 के अनुसार) समझना चाहिए। 66. अपज्जत्तगा जोतिसिय-वेमाणिया पं० ? तिणि नाणा, तिन्नि अण्णाणा नियमा। [66 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त ज्योतिष्क और वैमानिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [66 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। 70. नोपज्जत्तगनोप्रपज्जत्तगाणं भंते ! जीवा कि नाणो ? जहा सिद्धा (सु. 38) / 5 / [70 प्र.] भगवन् ! नो-पर्याप्त-नो-अपर्याप्त जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [70 उ.] गौतम ! इनका कथन सिद्ध जीवों (सू. 38) के समान जानना चाहिए। (पंचम द्वार) 71, निरयभवत्था णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणो ? जहा निरयगतिया (सु. 36) / [71 प्र.] भगवन् ! निरय-भवस्थ (नारक-भव में रहे हुए) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [71 उ.] गौतम! इनके विषय में निरयगतिक जीवों के समान (सू. 39 के अनुसार) कहना चाहिए। 72. तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी ? तिणि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए / {72 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चभवस्थ जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [72 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 73. मणुस्सभवस्था गं? जहा सकाइया (सु. 46) / [73 प्र.] भगवन् ! मनुष्यभवस्थ जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [73 उ.] गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों की तरह (सू. 46 के अनुसार) करना चाहिए। Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] 74. देवभवस्था णं भंते !? जहा निरयभवत्था (सु. 71) / [74 प्र.] भगवन् ! देवभवस्थ जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [74 उ.] गौतम ! निरयभवस्थ जीवों के समान (सू. 71 के अनुसार) इनके विषय में कहना चाहिए। 75. अभवत्था जहा सिद्धा (सु. 38) / 6 / [75] अभवस्थ जीवों के विषय में सिद्धों की तरह (सू. 38 के अनुसार) जानना चाहिए। (छठा द्वार) 76. भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी० ? जहा सकाइया (सु. 46) / [76 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [76 उ.] गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों के समान (सू. 46 के अनुसार) जानना चाहिए। 77. प्रभवसिद्धिया पं० पुच्छा। गोयमा ! नो नाणी; अण्णाणी, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [77 प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [77 उ.] गौतम ! ये ज्ञानी नहीं, किन्तु अज्ञानी हैं। इनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 78. नोभवसिद्धियनोप्रभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा० ? जहा सिद्धा (सु. 38) / 7 / [78 प्र.] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नो-प्रभवसिद्धिक जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? [78 उ.] गौतम ! इनके सम्बन्ध में सिद्ध जीवों के समान (सू. 38 के अनुसार) कहना चाहिए। (सप्तम द्वार) 79. सण्णी पं० पुच्छा। जहा सइंदिया (सु. 44) / [79 प्र.] भगवन् ! संज्ञीजीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [76 उ.] गौतम ! सेन्द्रिय जीवों के कथन के समान (सू. 44 के अनुसार) इनके विषय में कहना चाहिए। 80. असण्णी जहा बेइंदिया (सु. 46) / . [80] असंज्ञी जीवों के विषय में द्वीन्द्रिय जीवों के समान (सू. 46 के अनुसार) कहना चाहिए। Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] [ মায়ামবিল 81. नोसण्णोनोअसण्णी जहा सिद्धा (सु. 38) / 8 / [81] नो-संज्ञी-नो-असंज्ञी जीवों का कथन सिद्ध जीवों की तरह (सू. 38 के अनुसार) जानना चाहिए। (अष्टम द्वार) विवेचन-गति प्रादि पाठ द्वारों की अपेक्षा ज्ञानी-प्रज्ञानी प्ररूपणा-प्रस्तुत 43 सूत्रों (सू. 36 से 81 तक) में गति, इन्द्रिय, काय, सूक्ष्म, पर्याप्त, भवस्थ, भवसिद्धिक एवं संजी, इन आठ द्वारों के माध्यम से उन-उन गति आदि वाले जीवों में सम्भवित ज्ञान या अज्ञान की प्ररूपणा की गति प्रावि द्वारों के माध्यम से जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान की प्ररूपणा-(१) गतिद्वार--गति की अपेक्षा पांच प्रकार के जीव हैं--नरकगतिक, तिर्यचगतिक, मनुष्यगतिक, देवगतिक और सिद्धगतिक / निरयगतिक जीव वे हैं, जो यहाँ से मर कर नरक में जाने के लिए विग्रहगति (अन्तरालगति) में चल रहे हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य, जो नरक में जाने वाले हैं, वे यदि सम्यग्दृष्टि हों तो ज्ञानी होते हैं, क्योंकि उन्हें अवधिज्ञान भवप्रत्यय होने के कारण विग्रहगति में भी होता है, और नरक में नियमतः उन्हें तीन ज्ञान होते हैं। यदि वे मिथ्यादष्टि हों तो वे अज्ञानी होते हैं, उनमें से नरकगामी यदि असंज्ञी पंचेद्रियतिथंच हो तो विग्रहगति में अपर्याप्त अवस्था तक उसे विभंगज्ञान नहीं होता, उस समय तक उसे दो अज्ञान ही होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय नरकगामी को विग्रहगति में भी भवप्रत्ययिक विभंगज्ञान होता है, इसलिए निरयगतिक में तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं। तिर्यंचगतिक जीव वे हैं जो यहाँ से मर कर तिर्यंचगति में जाने के लिए विग्रहगति में चल रहे हैं। उनमें नियम से दो ज्ञान या दो अज्ञान इसलिए बताए हैं कि सम्यग्दष्टि जीव अवधिज्ञान ने के बाद मति-श्रुतज्ञानसहित तिर्यंचगति में जाता है। इसलिए उसमें नियमतः दो ज्ञान होते हैं, तथा मिथ्यादष्टि जीव विभंगज्ञान से गिरने के बाद मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञानसहित तिर्यंचगति में जाता है। इसलिए नियमतः उसमें दो अज्ञान होते हैं। मनुष्यगति में जाने के लिए जो विग्रहगति में चल रहे हैं, वे मनुष्यगतिक कहलाते हैं। मनुष्यगति में जाते हुए जो जीव ज्ञानी होते हैं, उनमें से कई तीर्थकर की तरह अवधिज्ञानसहित मनुष्यगति में जाते हैं, उनमें तीन ज्ञान होते हैं, जबकि अवधिज्ञानरहित मनुष्यगति में जाने वालों में दो ज्ञान होते हैं। इसीलिए यहाँ तीन ज्ञान भजना से कहे गए हैं / जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे विभंगज्ञानरहित ही मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें दो अज्ञान नियम से कहे गए हैं / देवगति में जाते हुए विग्रहगति में चल रहे जीवों का कथन नैरयिकों की तरह (नियमतः तीन ज्ञान अथवा भजना से तीन अज्ञान वाले) समझना चाहिए। सिद्धगतिक जीवों में तो केवल एक ही ज्ञान--केवलज्ञान होता है। (2) इन्द्रियद्वार-सेन्द्रिय का अर्थ है-इन्द्रिय वाले जीव-यानी इन्द्रियों से काम लेने वाले जीव / सेन्द्रिय ज्ञानी जीवों को 2, 3, या 4 ज्ञान होते हैं; यह बात लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए क्योंकि उपयोग की अपेक्षा तो सभी जीवों को एक समय में एक ही ज्ञान होता है। केवलज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान है, वह सेन्द्रिय नहीं है। अज्ञानी सेन्द्रिय जीवों को तीन अज्ञान भजना से होते हैं. किन्हीं को दो और किन्हीं को तीन अज्ञान होते हैं। एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि होने से अज्ञानी ही होते हैं, उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं। तीन विकलेन्द्रियों में दो अज्ञान तो नियमतः होते हैं, किन्तु सास्वादनगुणस्थान होने की अवस्था में दो ज्ञान भी होने सम्भव हैं / अनिन्द्रिय (इन्द्रियों के उपयोग से रहित) जीव तो केवलज्ञानी ही होते हैं। उनमें एकमात्र केवलज्ञान पाया जाता है। (3) कायद्वार--सकायिक कहते हैं-औदारिक आदि शरीरयुक्त जीव को अथवा Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 265 पृथ्वीकायिक आदि 6 कायसहित को। वे केवली भी होते हैं। अत: सकायिक सम्यग्दष्टि में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि सकायिक हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं। जो षटकायों में से किसी भी काय में नहीं हैं, या जो औदारिक आदि कायों से रहित हैं, ऐसे अकायिक जीव सिद्ध होते हैं, उनमें सिर्फ केवलज्ञान ही होता है। (4) सूक्ष्मद्वार-सूक्ष्म जीव पृथ्वीकायिकवत् मिथ्यादृष्टि होने से उन में दो अज्ञान होते हैं। बादर जीवों में केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः सकायिक की तरह उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / (5) पर्याप्तद्वार–पर्याप्तजीव केवलज्ञानी भी होते हैं, अतः उनमें सकायिक जीवों के समान भजना से 5 ज्ञान और 3 अज्ञान पाए जाते हैं। पर्याप्त नारकों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियमत: होते हैं, क्योंकि असंज्ञी जीवों में से आए हुए अपर्याप्त नारकों में ही विभंगज्ञान नहीं होता, मिथ्यात्वी पर्याप्तकों में तो होता ही है / इसी प्रकार भवनपति एवं वाणव्यन्तर देवों में समझना चाहिए / पर्याप्त विकलेन्द्रियों में नियम से दो अज्ञान होते हैं। पर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचों में 3 ज्ञान और 3 अज्ञान भजना से होते हैं, उसका कारण है, कितने ही जीवों को अवधिज्ञान या विभंगशान होता है, कितनों को नहीं होता / अपर्याप्तक नैरयिकों में तीन ज्ञान नियम से और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय आदि जोवों में सास्वादन सम्यग्दर्शन सम्भव होने से उनमें दो ज्ञान और शेष में दो अज्ञान पाए जाते हैं। अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में तीर्थकर प्रकृति को बाँधे हुए जीव भी होते हैं, उनमें अवधिज्ञान होना सम्भव है, अत: उनमें तीन ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। मिथ्यादष्टि मनुष्यों को अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इसलिए उनमें नियमतः दो अज्ञान होते हैं / अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों में जो असंज्ञी जीवों में से पाकर उत्पन्न होता है, उसमें अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान का प्रभाव होता है, शेष में प्रवधिज्ञान या विभंगज्ञान नियम से होता है, अत: उनमें नैरयिकों के समान तीन ज्ञान वाले, या दो अथवा तीन अज्ञान वाले होते हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में संज्ञी जीवों में से ही प्राकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान या विभंगज्ञान अवश्य होता है / अत: उनमें नियमतः तीन ज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं। नो-पर्याप्त-नो-अपर्याप्त जीव सिद्ध होते हैं, वे पर्याप्तअपर्याप्त नामकर्म से रहित होते हैं / अतः उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / (6) भवस्थद्वारनिरयभवस्थ का अर्थ है-नरकगति में उत्पत्तिस्थान को प्राप्त / इसी प्रकार तियं च भवस्थ आदि पदों का अर्थ समझ लेना चाहिए। निरयभवस्थ का कथन निरयगतिकवत् समझ लेना चाहिए। (7) भवसिद्धिकद्वार-भवसिद्धिक यानी भव्य जीव जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनमें सकायिक की तरह 5 ज्ञान भजना से होते हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव सदैव मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं, अत: उनमें तीन अज्ञान की भजना है। ज्ञान उनमें होता ही नहीं। (8) संजीद्वार-संज्ञी जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों की तरह है, अर्थात्- उनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। असंज्ञी जीवों का कथन द्वीन्द्रिय जीवों के समान है, अर्थात्अपर्याप्त अवस्था में उनमें सास्वादन सम्यग्दर्शन की सम्भावना होने से दो ज्ञान भी पाए जाते हैं। अपर्याप्त अवस्था में तो उनमें नियमत: दो अज्ञान होते हैं।' अन्यद्वार-इससे प्रागे लब्धि आदि बारह द्वार अभी शेष हैं। लब्धिद्वार में लब्धियों के भेदप्रभेद आदि का वर्णन विस्तृत होने से इस पाठ से अलग दे रहे हैं। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नौ लब्धिद्वार की अपेक्षा से ज्ञानो-प्रज्ञानी की प्ररूपरणा--- 82. कतिविहा णं भंते ! लद्धी पण्णता? गोयमा! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं जहा-नाणलद्धी 1 सणलद्धि 2 चरित्तलद्धी 3 चरित्ताचरितलद्धी 4 दाणलद्धी 5 लाभलद्धी 6 भोगलद्धी 7 उवभोगलद्धी 8 वीरियलद्धी 6 इंदियलद्धी 10 / [82 प्र.] भगवन् ! लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [82 उ.] गौतम ! लब्धि दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-(१) ज्ञानलब्धि, (2) दर्शनलन्धि, (3) चारित्रलब्धि, (4) चारित्राचारित्रलब्धि, (5) दानलब्धि, (6) लाभलब्धि, (7) भोगलब्धि, (8) उपभोगल ब्धि, (6) वीर्यलब्धि और (10) इन्द्रियलब्धि / 83. णाणलद्धी गंभंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा! पंचविहा पण्णता, तं जहा-प्राभिणिबोहियणाणलद्धी जाव केवलणाणलद्धी। [83 प्र.] भगवन् ! ज्ञानलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [83 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार की कही गई है। यथा-आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि यावत् केवलज्ञानलब्धि / 84. अण्णाणलद्धी णं भंते ! कतिविहा पणता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा---मइअण्णाणलद्धी सुतअण्णाणलद्धी विभंगनाणलद्धी। [84 प्र.] भगवन् ! अज्ञानलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [84 उ.] गौतम ! अज्ञानलब्धि तीन प्रकार की कही गई है। यथा--मति-अज्ञानलब्धि, श्रुत-अज्ञानलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि / 85. सणलद्धी गं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोधमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--सम्मइसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी सम्मामिच्छादसणलद्धी। [85 प्र.] भगवन् ! दर्शनलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [85 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार सम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि और सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि / 86. चरित्तलद्धी णं भंते ! कतिविहा पणत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा--सामाइयचरित्तलद्धी छेदोवढावणियलद्धी परिहारविसुद्धलद्धी सुहमसंपरायलद्धी प्रहक्खायचरित्तलद्धी। [86 प्र.] भगवन् ! चारित्रलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [267 [86 उ.] गौतम ! चारित्रलन्धि पांच प्रकार की कही गई है / बह इस प्रकार-सामायिकचारित्रलब्धि, छेदोपस्थापनिकलब्धि, परिहारविशुद्धलब्धि, सूक्ष्मसम्परायल ब्धि और यथाख्यातचारित्रलब्धि / 57. चरित्ताचरित्तलखी णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा! एगागारा पण्णत्ता। [८७-प्र.] भगवन् ! चारित्राचारित्रलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [८७-उ.] गौतम ! वह एकाकार (एक प्रकार की) कही गई है। 86. एवं जाव उवभोगलद्धी एगागारा पण्णता / [88] इसी प्रकार दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, ये सब एक-एक प्रकार की कही गई हैं। 86. वीरियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-बालबीरियलद्धी पंडियवोरियलद्धी बालपंडियवोरिय लद्धी। ८९-प्र.) भगवन् ! वीर्यलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [८९-उ.] गौतम ! वीर्यलब्धि तीन प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार–बालवीर्यलब्धि, पण्डितवीर्यलब्धि और बाल-पण्डितवीर्यलब्धि / 10. इंदियलद्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा पण्णता, तं जहा--सोतिदियलद्धी जाव फासिदियलद्धी। [60 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [60 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार--श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि : 61. [1] नाणलद्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी; प्रथेगतिया दुनाणी / एवं पंच नाणाई भयणाए। [61.1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [19-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही दो ज्ञान वाले होते हैं / इस प्रकार उनमें पांच ज्ञान भजना (विकल्प) से पाए जाते हैं / [2] तस्स अलरीया गं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणो ? गोयमा ! नो नाणो, अण्णाणी; अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिणि अण्णाणाणि भयणाए / Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [61-2 प्र.] भगवन् ! ज्ञानलब्धिरहित (अज्ञानलब्धि वाले) जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [61-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं अज्ञानी हैं। उनमें से कितने ही जीव दो अज्ञान वाले (और कितने ही तीन अज्ञान वाले) होते हैं / इस प्रकार उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 62. [1] आमिणिवोहियणाणलधिया णं भंते ! जीवा किं नाणो, अण्णाणी? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी; अत्थेगतिया दुष्णाणी, चत्तारि नाणाई भयणाए / [92-1 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [92-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं ! उनमें से कितने ही जीव दो ज्ञान वाले, कितने ही तीन ज्ञान वाले और कितने ही चार ज्ञान वाले होते हैं। इस तरह उनमें चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। [2] तस्स अलधिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अण्णाणी ? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा एगनाणो-केवलनाणो / जे अण्णाणी ते प्रत्थेगतिया दुअन्नाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। [92-2 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि-रहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [92-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी / जो ज्ञानी हैं, वे नियमत: एकमात्र केवलज्ञान वाले हैं, और जो अज्ञानी हैं, वे कितने ही दो अज्ञान वाले एवं कितने ही तीन अज्ञान वाले हैं / अर्थात्-उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 63. [1] एवं सुयनाणलद्धीया वि। [63-1] श्रुतज्ञानलन्धि वाले जीवों का कथन प्राभिनिबोधिक ज्ञानलब्धि वाले जीवों के समान करना चाहिए। [2] तस्स अलद्धीया वि जहा आभिणिबोहियनाणस्स अलद्धीया / [93-2] एवं श्रुतज्ञानलब्धिरहित जीवों का कथन आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धिरहित जीवों की तरह जानना चाहिए। 64. [1] ओहिनाणलद्धोया पं० पुच्छा ? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी, अत्थेगतिया तिणाणो, प्रत्थेगतिया चउनाणी / जे तिणाणी ते प्राभिणिबोहियनाणी सुयनाणी प्रोहिनाणी / जे चउनाणी ते प्राभिणिबोहियनाणी सुतणाणी प्रोहिणाणी मणपज्जवनाणी। [64-1 प्र.] भगवन् ! अवधिज्ञानलब्धियुक्त जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [94-1 उ.] गौतम ! अवधिज्ञानल ब्धियुक्त जीव ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कतिपय तीन ज्ञान वाले हैं और कई चार ज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे ग्राभिनिबोधिक ज्ञान, Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] श्रु तज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं, और जो चार ज्ञान से युक्त हैं, वे साभिनिबोधिक ज्ञान, श्रु तज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं। [2] तस्स अलद्धीया गं भंते ! जीवा कि नाणी ? गोयमा ! नाणो वि, अण्णाणी वि / एवं प्रोहिनाणवज्जाइं चत्तारि नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। [94-2 प्र.] भगवन् ! अवधिज्ञानलब्धि से रहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [94-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। इस तरह उनमें अवधिज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 65. [1] मणपज्जवनाणलधिया गं० पुच्छा। गोयमा! जाणो, णो अण्णाणी / अत्थेगतिया तिणाणि, प्रत्यातिया चउनाणी। जे तिणाणी ते प्राभिणिबोहियनाणी सुतणाणी मणपज्जवणाणी। जे चउनाणी ते प्राभिणिबोहियनाणी सुयनाणी प्रोहिनाणी मणपज्जवनाणी। [65.1 प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? [95-1 उ.] गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही तीन ज्ञान वाले हैं और कितने ही चार ज्ञान वाले हैं ! जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्र तज्ञान और मनःपर्यायज्ञान वाले हैं, और जो चार ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान वाले हैं / [2] तस्स अलद्धोया गं० पुच्छा। गोयमा ! गाणी वि, अण्णाणो वि, मणपज्जवणाणवज्जाइं चत्तारि गाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। [65.2 प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानलब्धि से रहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [65.2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। उनमें मनःपर्यवज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / 66. [1] केवलनाणलधिया णं भंते ! जीवा कि नाणो, अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी / नियमा एगणाणी-केवलनाणी। F96-1.] भगवन् ! केवलज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [96-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। वे नियमत: एकमात्र केवलज्ञान वाले हैं / [2] तस्स अलधिया पं० पुच्छा। गोयमा! नाणी वि. अण्णाणि वि। केवलनाणवज्जाईचत्तारियाणाई, तिणि अण्णाजाई मयणाए। Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 ] . | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [66-2 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानलब्धिरहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [96-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / उनमें या तो केवलज्ञान को छोड़ कर शेष 4 ज्ञान और 3 अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / 67. [1] अण्णाणलधिया णं० पुच्छा। गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी; तिण्णि अण्णाणाई भयणाए / [97-1 प्र.] भगवन् ! अज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? [97-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं। उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। [2] तस्स अलद्धिया गं० पुच्छा। गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी / पंच नाणाई भयणाए। [17-2 प्र.] भगवन् ! अज्ञानल ब्धि से रहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [97-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं / 18. जहा अण्णाणस्स लधिया अलधिया य भणिया एवं मइअण्णाणस्स, सुयप्रणाणस्स य लधिया प्रलद्धिया य भाणियन्या / [98] जिस प्रकार अज्ञानलब्धि और अज्ञानलब्धि से रहित जीवों का कथन किया है, उसी प्रकार मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञानलब्धि वाले तथा इन लब्धियों से रहित जीवों का कथन करना चाहिए। 66. विभंगनाणलधियाणं तिणि अण्णाणाई नियमा। तस्स अलधियाणं पंच नाणाई भयणाए / दो घण्णाणाई नियमा। [99] विभंगज्ञान-लब्धि से युक्त जीवों में नियमत: तीन अज्ञान होते हैं और विभंगज्ञानलब्धिरहित जीवों में पांच ज्ञान भजना से और दो अज्ञान नियमत: होते हैं। 100. [1] दंसणलधिया गं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि / पंच नाणाई, तिष्णि अण्णाणाई भयणाए। [100-1 प्र.] भगवन् ! दर्शनलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [100-1 उ] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी। उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। भंते ! जीवा कि नाणी अन्नाणी? गोयमा ! तस्स अलधिया नस्थि / Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [271 [100-2 प्र.] भगवन् ! दर्शनलब्धिरहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [100-2 उ.] गौतम ! दर्शनलब्धिरहित जीव कोई भी नहीं होता। 101. [1] सम्मईसणलधियाणं पंच नाणाई भयणाए / [101-1] सम्यग्दर्शनलब्धि प्राप्त जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / [2] तस्स अद्धियाणं तिणि अण्णाणाई भयणाए। [101-2] सम्यग्दर्शनलब्धिरहित जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 102. [1] मिच्छादसणलधिया णं भंते ! 0 पुच्छा। तिणि अण्णाणाई भयणाए / [102-1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? / 102-1 उ.] गौतम ! उनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं / [2] तस्स अलधियाणं पंच नाणाई, तिणि य अण्णाणाई भयणाए। [102-2] मिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीवों में 5 ज्ञान और 3 अज्ञान भजना से होते हैं / 103. सम्मामिच्छादसणलधिया अलधिया य जहा मिच्छादसणलद्धी अलद्धी तहेव भाणियग्वं / [103] सम्यग्मिथ्यादर्शन (मिश्रदर्शन) लब्धिप्राप्त जीवों का कथन मिथ्यादर्शनलब्धि. युक्त जीवों के समान जानना चाहिए, और सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीवों का कथन मिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीवों के समान समझना चाहिए। 104. [1] चरित्तलधिया गं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा! पंच नाणाई भयणाए। [104-1 प्र.] भगवन् ! चारित्रलब्धियुक्त जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [104-1 उ.] गौतम ! उनमें पांच ज्ञान भजना से होते हैं / [2] तस्स अलधियाणं मणपज्जवनाणवज्जाई चत्तारि नाणाई, तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए। [104-2] चारित्रलब्धिरहित जीवों में मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 105. [1] सामाइयचरित्तलद्धिया गं भंते ! जोवा कि नाणी, अन्नाणी? गोयमा ! नाणी, केवलवज्जाइं चत्तारि नाणाई भयणाए। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [105-1 प्र.] भगवन् ! सामायिकचारित्रलब्धिमान् जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? [105-1 उ.] गौतम! वे ज्ञानी होते हैं। उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान भजना से होते हैं। [2] तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई तिण्णि य अण्णाणाई भयणाए। [105-2] सामायिकचारित्रलब्धिरहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 106. एवं जहा सामाइयचरित्तद्धिया अलधिया य भणिया एवं जाव अहक्खायचरित्तलधिया अलधिया य भारिणयव्वा, नवरं अहक्खायचरित्तलधियाणं पंच नाणाई भयणाए / [106] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातचारित्रलब्धि वाले जीवों तक का कथन सामायिकचारित्रलब्धियुक्त जीवों के समान करना चाहिए। इतना विशेष है कि यथाख्यातचारित्रलब्धिमान् जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। इसी तरह यावत् यथाख्यातचारित्रलब्धिरहित जीवों तक का कथन सामायिकचारित्रलब्धिरहित जीवों के समान करना चाहिए / 107. [1] चरित्ताचरित्तल द्धिया णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी / प्रत्यंगतिया दुण्णाणी, अत्थेगतिया तिपणाणी / जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य, सुयनाणी य / जे तिनाणी ते प्राभि० सुतना० प्रोहिनाणी य। [107-1 प्र.] भगवन् ! चारित्राचारित्र (देशचारित्र) लब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? [107-1 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कई दो ज्ञान वाले, कई तीन ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान बाले होते हैं, वे आभितिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं, जो तीन ज्ञान वाले होते हैं, वे आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी होते हैं। [2] तस्स अलद्धीयाण पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [107-2] चारित्राचारित्रलब्धिरहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। 108. [1] दाणलद्धियाणं पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। [108-1] दानलब्धिमान् जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। [2] तस्स अलद्धीया गं० पुच्छा। गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी नियमा। एगनाणी-केवलनाणी। [108-2 प्र.] भगवन् ! दानलब्धिरहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [108-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें नियम से एकमात्र केवलज्ञान होता है। Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 273 106. एवं जाव वोरियस्स लद्धी अलद्धी य भाणियव्वा / [106] इसी प्रकार यावत् वीर्यलब्धियुक्त और वीर्यलब्धिरहित जीवों का कथन करना चाहिए। 110. [1] बालवीरियलद्धियाणं तिणि नाणाई तिणि अण्णाणाई भयणाए / [110-1] बालवीर्यलब्धियुक्त जीवों में तीन ज्ञान और तीन प्रज्ञान भजना से पाए जाते हैं। [2] तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए / [110-2] बालवीर्यलब्धिरहित जीवों में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। 111. [1] पंडियवीरियलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए। [111-1] पण्डितवीर्यलब्धिमान् जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं / [2] तस्स अलधियाणं मणपज्जधनाणवज्जाइं गाणाई, अण्णाणाणि तिण्णि य भयणाए। [111-2] पण्डितवीर्यलब्धिरहित जीवों में मनःपर्यवज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 112. [1] बालपंडियवीरियलधिया णं भंते ! जीवा ? तिण्णि नाणाई भयणाए। [112-1 प्र.] भगवन् ! बाल-पण्डित-वीर्यलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? [112-1 उ.] गौतम ! उनमें तीन ज्ञान भजना से होते हैं / [2] तस्स अलधियाणं पंच नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई भयणाए। [112-2] बालपण्डितवीर्यलब्धि-रहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 113. [1] इंदियलद्धिया णं भंते ! जोवा कि नाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! चत्तारि णाणाई, तिण्णि य अन्नाणाई भयणाए / [113-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धिमान् जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [113-1 उ.] गौतम ! उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं / [2] तस्स अलधिया पं० पुच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी नियमा / एगनाणी-केवलनाणी / |113-2 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [113-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। वे नियमतः एकमात्र केवलज्ञानी होते हैं। Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 114. [1] सोइंदियलधियाणं जहा इंदियलद्धिया (सु. 113) / [114-1] श्रोत्रेन्द्रियलब्धियुक्त जीवों का कथन इन्द्रियलब्धिवाले जीवों की तरह (सू. 113 के अनुसार) करना चाहिए। [2] तस्स अलधिया गं० पुच्छा। गोयमा! नाणी वि अण्णाणी वि / जे नाणी ते प्रत्येगतिया दुनाणी, अत्यंगतिया एगन्नाणी। जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी / जे एगनाणी ते केवलनाणी। जे अण्णाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा--मइअण्णाणी य, सुतअण्णाणी य / [114-2 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [114-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं / जो ज्ञानी होते हैं, उनमें से कई दो ज्ञान वाले होते हैं, और कई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले होते हैं, वे प्राभिनिबोधिकज्ञानी और श्रतज्ञानी होते हैं। जो एक ज्ञान वाले होते हैं, वे केवलज्ञानी होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, वे नियमतः दो अज्ञानवाले होते हैं / यथा-मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान / 115. चक्खिदिय घाणिदियाण लधियाणं अलधियाण य जहेव सोइंदियस्स (सु. 114) / [115] चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 114 की तरह) करना चाहिए / चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रियलब्धिरहित जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रियल ब्धिरहित जीवों के समान करना चाहिए। 116. [1] जिभिदियलधियाणं चत्तारि गाणाई, तिण्णि य अण्णाणाणि भयणाए / [116-1] जिह्वन्द्रियलब्धि बाले जीवों में चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। [2] तस्स अलधिया नं० पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी चि / जे नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलनाणी / जे अण्णाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य, सुतमन्नाणो य। [116-2 प्र.] भगवन् ! जिह्वन्द्रियल ब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [116-2 उ.] गौतम वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं, वे नियमतः एकमात्र केवलज्ञान वाले होते हैं, और जो अज्ञानी होते हैं, वे नियमत: दो अज्ञान वाले होते हैं, यथा--मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान / 117. फासिदियलधियाणं अलधियाणं जहा इंदियलधिया य अलधिया य (सु. 113) / [117] स्पर्शेन्द्रियलब्धि-युक्त जीवों का कथन इन्द्रियलब्धि वाले जीवों के समान (सू. 113 के अनुसार) करना चाहिए। (अर्थात् उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / ) Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ [ 275 स्पर्शेन्द्रियलब्धिरहित जीवों का कथन इन्द्रियलब्धिरहित जीवों के समान (सू. 113 के अनुसार) करना चाहिए / (अर्थात्-उनमें एकमात्र केवलज्ञान होता है।) (नवम द्वार समाप्त) विवेचन-लब्धिद्वार की अपेक्षा से ज्ञानी-अज्ञानी की प्ररूपणा-प्रस्तुत नवम द्वार में लब्धिद्वार के प्रारम्भ से पूर्व लब्धि के दस प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेद का कथन करके ज्ञानादिलब्धि में ज्ञानीअज्ञानी को सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है। लब्धि की परिभाषा-ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षय या क्षयोपशम से आत्मा में ज्ञानादि गुणों को उपलब्धि (लाभ या प्रकट)होना लब्धि है / यह जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द भी है। लन्धि के मुख्य भेद-ज्ञानादि दश हैं। (1) ज्ञानलब्धि-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से आत्मा में मतिज्ञानादि गुणों का लाभ होना / (2) दर्शनलब्धि-सम्यक, मिथ्या या मिश्र-श्रद्धानरूप अात्मा का परिणाम प्राप्त होना दर्शनलब्धि है। (3) चारित्र रित्रलब्धि-चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयादि से होने वाला परिणाम चारित्रलब्धि है। (4) चारित्राचारित्रलब्धिअप्रत्याख्यानी चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मा का देशविरतिरूपरिणाम चारित्राचारित्रलब्धि है / (5) दानलब्धि-दानान्त राय के क्षय या क्षयोपशम से होने वाली लब्धि / (6) लाभलब्धि-लाभान्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से होने वाली लब्धि / (7) भोगलब्धि-भोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि को भोगलब्धि कहते हैं। (8) उपभोगलब्धिउपभोगान्त राय के क्षयादि से होने वाली लब्धि उपभोगलब्धि है। (8) वीर्यलब्धि-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से होने वाली लब्धि / (10) इन्द्रियलब्धि-मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से तथा जातिनामकर्म एवं पर्याप्तनामकर्म के उदय से होने वाली लब्धि / ज्ञानलब्धि-ज्ञान के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयादि से प्रात्मा में ज्ञानगुण का लाभ प्रकट होना / ज्ञानलब्धि के 5 और इसके विपरीत अज्ञानल ब्धि के तीन भेद बताये गए हैं। दर्शनलब्धि के तीन भेद : उनका स्वरूप-(१) सम्यग्दर्शनलब्धि-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से प्रात्मा में होने वाला परिणाम / सम्यग्दर्शन हो जाने पर मतिअज्ञान आदि भी सम्यग्ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। (2) मिथ्यादर्शनलब्धि-अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और कुगुरु में गुरुबुद्धिरूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान-मिथ्यात्व के अशुद्ध पुद्गलों के वेदन से उत्पन्न विपर्यासरूप जीव-परिणाम को मिथ्यादर्शनलब्धि कहते हैं / (3) सम्यगमिथ्या (मिश्र) दर्शनलब्धि-मिथ्यात्व के अर्धविशुद्ध पुद्गल के वेदन से एवं मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न मिश्ररुचि-मिश्ररूप (किञ्चित् अयथार्थ तत्व श्रद्धानरूप) जीव के परिणाम को सम्यमिथ्यादर्शनल ब्धि कहते हैं। चारित्रलब्धि : स्वरूप और प्रकार-चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयादि से होने वाले विरति-रूप परिणाम को, अथवा अन्य जन्म में गृहीत कर्ममल के निवारणार्थ मुमुक्ष आत्मा के सर्वसावध-निवत्तिरूप परिणाम को चारित्रलब्धि कहते हैं। (1) सामायिकचारित्रलब्धि-सर्वसावधव्यापार के त्याग एवं निरवद्यव्यापारसेवनरूप-रागद्वेषरहित आत्मा के क्रियानुष्ठान के लाभ को सामायिकचारित्रलब्धि कहते हैं। सामायिक के दो भेद हैं--इत्वरकालिक और यावत्कथिक / इन दोनों के कारण Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सामायिकचारित्रलब्धि के भी दो भेद हो जाते हैं। (2) छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि---जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद करके महाव्रतों का उपस्थापन-आरोपण होता है, तद्रूप अनुष्ठान-लाभ को छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि कहते हैं। यह दो प्रकार का है-निरलिचार और सातिचार / इनके कारण छेदोपस्थापनीयचारित्रलब्धि के भी दो भेद हो जाते हैं। (3) परिहारविशुद्धिचारित्रलब्धि-जिस चारित्र में परिहार (तपश्चर्या-विशेष) से आत्मशुद्धि होती है, अथवा अनेषणीय आहारादि के परित्याग से विशेषतः प्रात्मशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। इस चारित्र में तपस्या का कल्प अठारह मास में परिपूर्ण होता है। इसकी लम्बी प्रक्रिया है। निविश्यमानक और निविष्टकायिक के भेद से परिहारविशुद्धिचारित्र दो प्रकार का होने से परिहारविशुद्धिचारित्रलब्धि भी दो प्रकार की है। (4) सूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि-जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् सूक्ष्म (संज्वलन) लोभकषाय शेष रहता है, उसे सूक्ष्म-सम्परायचारित्र कहते हैं, ऐसे चारित्र के लाभ को सूक्ष्म-सम्परायचारित्रलब्धि कहते हैं। इस चारित्र के विशुद्धयमान और संक्लिश्यमान ये दो भेद होने से सूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि भी दो प्रकार की है। (5) यथाख्यातचारित्रलब्धि कषाय का उदय न होने से, अकषायी साधु का प्रसिद्ध चारित्र 'यथाख्यातचारित्र' कहलाता है। इसके स्वामियों के छद्मस्थ और केवली ऐसे दो भेद होने से यथाख्यातचारित्रलब्धि दो प्रकार की है। चारित्राचारित्रलब्धि का अर्थ है-देशविरतिलब्धि / यहाँ मूलगुण, उत्तरगुण तथा उसके भेदों की विवक्षा नहीं की है, किन्तु अप्रत्याख्यानकषाय के क्षयोपशमजन्य परिणाममात्र की विवक्षा की गई है। इसलिए यह लब्धि एक ही प्रकार की है। दानादिलब्धियाँ : एक-एक प्रकार की-दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि तथा उपभोगलब्धि के भी भेदों की विवक्षा न करने से ये लब्धियाँ भी एक-एक प्रकार की कही गई हैं। वीर्यलब्धि-बीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रकट होने वाली लब्धि वीर्यलब्धि है। उसके तीन प्रकार हैं-(१) बालवीर्यलब्धि-जिससे बाल अर्थात् संयमरहित जीव की असंयमरूप प्रवृत्ति होती है, वह बालवीर्यलब्धि है। (2) पण्डितवीर्यलब्धि--जिससे संयम के विषय में प्रवृत्ति होती हो। (3) बाल-पण्डितवीर्यलब्धि-जिससे देशविरति में प्रवृत्ति होती हो, उसे बालपण्डितवीर्यलब्धि कहते हैं। ज्ञानलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा-ज्ञानलब्धिमान् जीव सदा ज्ञानी और अज्ञानलब्धिवाले (ज्ञानलब्धिरहित) जीव सदा अज्ञानी होते हैं / आभिनिबोधिकज्ञानलब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, इसका कारण यह है कि केवली के आभिनिबोधिक ज्ञान नहीं होता / मतिज्ञान की अलब्धि वाले जो ज्ञानी हैं, वे एकमात्र केवलज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञानयुक्त होते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञान की लब्धि और अलब्धि वाले जीवों के विषय में समझना चाहिए / अवधिज्ञान वालों में तीन ज्ञान (मति, श्रुत और अवधि) अथवा चार ज्ञान (केवलज्ञान को छोड़कर) होते हैं। अवधिज्ञान की अलब्धिवाले जो ज्ञानी होते हैं, उनमें दो ज्ञान (मति और श्रुत) होते हैं, या तीन ज्ञान (मति, श्रुत, और मनःपर्यव ज्ञान होते हैं, या फिर एक ज्ञान (केवलज्ञान) होता है। जो अज्ञानी हैं, उनमें दो अज्ञान (मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान) या तीनों अज्ञान होते हैं / मनःपर्यायज्ञानलब्धिवाले जीवों में या तो तीन ज्ञान (मति, श्रुत और मन:पर्याय ज्ञान) या फिर 4 ज्ञान (केवलज्ञान को छोड़कर) होते हैं। मनःपर्यायज्ञान को अलब्धिवाले जीवों में जो ज्ञानी हैं, उनमें दो ज्ञान (मति और श्रुत) वाले, या तीन ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि) वाले हैं, या फिर Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [ 277 एक ज्ञान (केवलज्ञान) वाले हैं। इनमें जो अज्ञानी हैं, वे दो या तीन अज्ञान वाले हैं। केवलज्ञानलब्धिवाले जीवों में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है, केवलज्ञान की अलब्धिवाले जीवों में जो ज्ञानी हैं उनमें प्रथम के दो ज्ञान, या प्रथम के तीन ज्ञान अथवा मति, श्रत और मन:पर्यव ज्ञान के चार ज्ञान होते हैं; जो अज्ञानी हैं, उनमें दो या तीन अज्ञान होते हैं। अज्ञानलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान और प्रज्ञान की प्ररूपणा--अज्ञानल ब्धिमान् जीवों में भजना से तीन अज्ञान (कई प्रथम के दो अज्ञान वाले और कई तीन अज्ञान वाले) होते हैं। अज्ञानलब्धिरहित जीवों में भजना से 5 ज्ञान पाए जाते हैं। मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान की लब्धि वाले जीवों में पूर्ववत् 3 प्रज्ञान भजना से पाए जाए हैं / तथा मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान की अलब्धि वाले जीवों में पूर्ववत् 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। विभंगज्ञान को लब्धि वाले अज्ञानी जीवों में नियमत: तीन अज्ञान होते हैं। विभंगज्ञान की प्रलब्धि वाले ज्ञानी जीवों में पांच ज्ञान भजना से और अज्ञानी जीवों में नियमतः प्रथम के दो अज्ञान पाए जाते हैं / दर्शनलब्धि युक्त जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा कोई भी जीव दर्शनलब्धि से रहित नहीं होता / दर्शन के तीन प्रकारों (सम्यक्, मिथ्या और मिश्र) में से कोई-न-कोई एक दर्शन जीव में होता ही है। सम्यग्दर्शनब्धि वाले जीवों में 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। सम्यग्दर्शनलब्धि रहित (मिथ्यादृष्टि या मिश्रदृष्टि) जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। मिथ्यादर्शनलब्धि वाले जीव अज्ञानी ही होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। मिथ्यादर्शनलब्धिरहित जीव या तो सम्यग्दष्टि होंगे या मिश्रदृष्टि होंगे। यदि वे सम्यग्दष्टि होंगे तो उनमें 5 ज्ञान भजना से होंगे और मिश्रदष्टि होंगे तो उनमें तीन अज्ञान भजना से होंगे। सभ्यमिथ्यादर्शनलब्धि और अलब्धि वाले जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा मिथ्यादर्शनल ब्धि और अलब्धिवाले जीवों की तरह समझनी चाहिए। चारित्रलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा चारित्रलब्घि वाले जीव ज्ञानी ही होते हैं। 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, क्योंकि केवली भगवान भी चारित्री होते हैं। चारित्र अलब्धिवाले जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें भजना से 4 ज्ञान (मनःपर्यायज्ञान को छोड़कर) होते हैं, क्योंकि असंयती सम्यग्दृष्टि जीवों में पहले के दो या तीन ज्ञान होते हैं, और सिद्धभगवान् में केवलज्ञान होता है / सिद्धों में चारित्रलब्धि या अलब्धि नहीं है, वे नोचारित्री-नो-अचारित्री होते हैं। चारित्रलब्धिरहित, जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। सामायिक आदि चार प्रकार के चारित्रलब्धियुक्त जीव ज्ञानी और छद्मस्थ ही होते हैं, इसलिए उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान को छोड़ कर) भजना से पाये जाते हैं / यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों में होता है। इनमें से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव छमस्थ होने से उनमें आदि के 4 ज्ञान होते हैं और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानवी जीव केवली होते हैं, अत: उन में केवल 5 वां ज्ञान (केवलज्ञान) होता है / इसलिए कहा गया है कि यथाख्यातचारित्रलब्धियुक्त जीवों में 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। चारित्राचारित्रलब्धियुक्त जीवों में ज्ञान-अज्ञान प्ररूपणा-इस लब्धि वाले जीव सम्यग्दष्टि ज्ञानी होते हैं, इसलिए उनमें तीन ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, क्योंकि तीर्थकर आदि जीव जब तक पूर्ण चारित्र ग्रहण नहीं करते, तब तक वे जन्म से लेकर दीक्षाग्रहण करने तक मति, श्रुत और अवधिज्ञान से सम्पन्न होते हैं / चारित्राचारित्रलब्धिरहित जीव, जो असंयत सम्यग्दृष्टि व ज्ञानी हैं, उनमें Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सम्यग्ज्ञान होने से 5 ज्ञान भजना से पाए जाते हैं, इनमें जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। दानादि चार लब्धियों वाले जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा-दानान्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली दानलब्धि से युक्त जो ज्ञानी जीव (सम्यग्दृष्टि, देशवती, महाव्रती एवं केवली) हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं / दानलब्धि वाले जो अज्ञानी जीव हैं, उनमें तीन अज्ञान पाए जाते हैं / दान आदि लब्धिरहित जीव सिद्ध होते हैं, यद्यपि उनके दानान्तराय आदि पांचों अन्तराय कर्मों का क्षय हो चुका होता है, तथापि वहाँ दातव्य आदि पदार्थ का अभाव होने से, तथा दान ग्रहणकर्ता जीवों के न होने से और कृतकृत्य हो जाने के कारण किसी प्रकार का प्रयोजन न होने से उनमें दान आदि की लब्धि नहीं मानी गई है। उनमें नियम से एकमात्र केवलज्ञान होता है / अतः दानलब्धि और अलब्धि वाले जीवों की तरह लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, और वीर्यलब्धि तथा इनकी अलब्धि वाले जीवों का कथन करना चाहिए। वोर्यलब्धि बाले जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा-बालवीर्यलब्धि वाले जीव असंयत अविरत होते हैं। उनमें से जो सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव हैं, उनमें तीन ज्ञान भजना से और जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। बालवीर्यलब्धिरहित जीव सर्वविरत, देशविरत और सिद्ध होते हैं, अतः उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। पण्डितवीर्यलब्धि-सम्पन्न जीव ज्ञानी ही होते हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। मनःपर्यवज्ञान पण्डितवीर्यलब्धि वाले जीवों में ही होता है। पण्डितवीर्यलब्धिरहित जीव असंयत, देशसंयत और सिद्ध होते हैं। इनमें से असंयत जीवों में पहले के तीन ज्ञान या तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं, देशसंयत में प्रथम के तीन ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और सिद्ध जीवों में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / सिद्ध जीवों में पण्डितवीर्यलब्धि नहीं होती, क्योंकि अहिंसादि धर्मकार्यों में सर्वथा प्रवृत्ति करना पण्डितवीर्य कहलाता है, और ऐसी प्रवृत्ति सिद्धों में नहीं होती / बाल-पण्डितवीर्यलब्धि वाले देशसंयत जीव होते हैं, उनमें प्रथम के तीन ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। बाल-पण्डितबीर्यलब्धिरहित जीव असंयत, सर्वविरत और सिद्ध होते हैं, इनमें पांच ज्ञान अथवा तीन अज्ञात भजना से पाए जाते हैं / इन्द्रियलब्धि वाले जीवों में ज्ञान-प्रज्ञान-प्ररूपणा-इन्द्रियलब्धि वाले ज्ञानी जीवों में प्रथम के चार ज्ञान भजना से होते हैं, इनमें केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानी इन्द्रियों का उपयोग नहीं करते / इन्द्रियलब्धियुक्त अज्ञानी जीवों में तीन प्रज्ञान भजना से पाए जाते हैं / इन्द्रियलब्धिरहित जीव एकमात्र केवलज्ञानी होते हैं, उनमें सिर्फ एक केवलज्ञान पाया जाता है। श्रोत्रेन्द्रियलब्धि, चक्षुरिन्द्रियलब्धि और घ्राणेन्द्रियलब्धि वाले और अलब्धिवाले जीवों का कथन इन्द्रियलब्धि और अलब्धि वाले जीवों की तरह करना चाहिए / अर्थात्- श्रोत्रेन्द्रिय आदि लब्धिरहित जो ज्ञानी जीव हैं, उनमें दो या एक ज्ञान होता है / जो ज्ञानी हैं, उनमें सास्वादनसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त अवस्था में दो ज्ञान पाये जाते हैं, जो एक ज्ञान वाले हैं, उनमें सिर्फ केवलज्ञान होता है; क्योंकि श्रोत्रादि इन्द्रियोपयोगरहित होने से श्रोत्रादि इन्द्रियलब्धिरहित हैं। श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित अज्ञानी जीवों में प्रथम के दो अज्ञान पाए जाते हैं। चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय लब्धिमान् जो पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के अतिरिक्त) और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। विकलेन्द्रियों में श्रोत्रेन्द्रियल ब्धिवत् दो ज्ञान व दो अज्ञान पाए जाते हैं। चक्षुरिन्द्रियलब्धिरहित जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा केवली होते हैं, एवं प्राणेन्द्रियलब्धिरहित जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और केवली Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [279 होते हैं, उनमें से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन के सद्भाव में पूर्व के दो ज्ञान, और उसके अभाव में प्रथम के दो अज्ञान पाए जाते हैं। केवलियों में सिर्फ एक केवलज्ञान होता है / जिह्वन्द्रियलब्धिवाले जीवों में चार ज्ञान या तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। जिह्वन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान और जो अज्ञानी हैं, वे एकेन्द्रिय हैं, उनमें (विभंगज्ञान के सिवाय) दो अज्ञान नियमतः होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में सास्वादनसम्यग्दर्शन का अभाव होने से उनमें ज्ञान नहीं होता। स्पर्शेन्द्रियलब्धि और अलब्धिवाले जीवों का कथन, इन्द्रियलब्धि और अलब्धिवाले जीवों की तरह करना चाहिए / अर्थात् लब्धिमान् जीवों में चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) और तीन अज्ञान भजना से होते हैं और अलब्धिमान् जीव केवली होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान होता है।' दसमें उपयोगद्वार से लेकर पन्द्रहवें प्राहारकद्वार तक के जीवों में ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा 118. सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी ? पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए / [118 प्र.] भगवन् ! साकारोपयोग-युक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [118 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं, जो ज्ञानी होते हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और जो अज्ञानी होते हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 116. प्राभिणिबोहियनाणसाकारोवउत्ता णं भंते ! * ? चत्तारि णाणाई भयणाए। [119 प्र.) भगवन् ! आभिनिबोधिक-ज्ञानसाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [116 उ.] गौतम ! उनमें चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। 120. एवं सुतमाणसागारोवउत्ता वि।। [120] श्रुतज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 121. ओहिनाणसागारोवउत्ता जहा प्रोहिनाणलधिया (सु. 64 [1]) / [121] अवधिज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन अवधिज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 64-1 के अनुसार) करना चाहिए। 122. मणपज्जवनाणसागारोवजुत्ता जहा मणपज्जवनाणलधिया (सु. 65 [1]) / _ [122] मनःपर्यवज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन मनःपर्यवज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 65-1 के अनुसार) करना चाहिए / 123. केवलनाणसागारोवजुत्ता जहा केवलनाणलधिया (सु. 66 [1]) / [123] केवलज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन केवलज्ञानलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 66.1 के अनुसार) समझना चाहिए / (अर्थात्-उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही पाया जाता है।) 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 350 से 354 तक Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 124. मइआण्णाणसागारोवउत्ताणं तिणि अण्णाणाई भयणाए / [124] मति-अज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / 125. एवं सुतअण्णाणसागारोवउत्ता वि। [125] इसी प्रकार श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन करना चाहिए / 126. विभंगनाणसागारोवजुत्ताणं तिणि अण्णाणाई नियमा। [126] विभंगज्ञान-साकारोपयोग-युक्त जीवों में नियमत: तीन अज्ञान पाए जाते हैं / 127. अणागारोवउत्ता गं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणो ? पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई मयणाए / [127 प्र.] भगवन् ! अनाकारोपयोग वाले जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [127 उ.] गोतम ! अनाकारोपयोग-युक्त जीव ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। उनमें पांच ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / 128. एवं चक्खुदंसण-अचलदसणप्रणागारोवजुत्ता वि, नवरं चत्तारि णाणाई, तिपिण अण्णाणाई भयणाए। [128] इसी प्रकार चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग-युक्त जीवों के विषय में समझ लेना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से होते हैं / 126. प्रोहिदसणअणागारोवजुत्ता गं० पुच्छा। गोयमा! नाणी वि अण्णाणी वि। जे नाणो ते प्रत्येगतिया तिन्नाणी, अरथेगतिया चउनाणी। जे तिन्नाणी ते प्राभिणिजोहिय० सुतनाणी प्रोहिनाणी। जे च उणाणी ते प्राभिणिवोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी / जे अन्नाणी ते नियमा तिअण्णाणी, तं जहा--मइअण्णाणी सुतअण्णाणी विभंगनाणी / [126 प्र.] भगवन् ! अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग-युक्त जीव ज्ञानी होते हैं अथवा अज्ञानी ? [126 उ.] गौतम! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी होते हैं, उनमें कई तीन ज्ञान वाले होते हैं और कई चार ज्ञान वाले होते हैं। जो तीन ज्ञान वाले होते हैं, वे पाभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी होते हैं और जो चार ज्ञान वाले होते हैं, वे ग्राभिनिबोधिकज्ञान से लेकर यावत मनःपर्यवज्ञान तक वाले होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, उनमें नियमतः तीन अज्ञान पाए जाते हैं; यथा-मति-अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान / 130. केवलदसणसणागारोवजुत्ता जहा केवलनाणलधिया (सु. 66 [1]) / 10 / . [130] केवलदर्शनअनाकारोपयोगयुक्त जीवों का कथन केवलज्ञानलब्धियुक्त जीवों के समान (सू. 66.1 के अनुसार) समझना चाहिए। (दशम द्वार) . Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 281 131. सजोगी णं भंते ! जीवा कि नाणी ? जहा सकाइया (सु. 46) / [131 प्र.] भगवन् ! सयोगी जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? 131 उ.] गौतम ! सयोगी जीवों का कथन सकायिक जीवों के समान (सू. 46 के अनुसार) समझना चाहिए। 132. एवं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी वि। 6132] इसी प्रकार मनोयोगी, बचनयोगी और काययोगी जीवों का कथन भी समझना चाहिए। 133. अजोमी जहा सिद्धा (सु. 38) / 11 / [133] अयोगी (योग-रहित) जीवों का कथन सिद्धों के समान (सू. 38 के अनुसार) समझना चाहिए। (ग्यारहवां द्वार) 134. सलेस्सा णं भंते !.? जहा सकाइया (सु. 46) / [134 प्र.] भगवन् ! सलेश्य (लेश्या वाले) जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [134 उ.] गौतम ! सलेश्य जीवों का कथन सकायिक जीवों के समान (सू. 49 के अनुसार) जानना चाहिए। 135. [1] कण्हलेस्सा णं भंते ! 0? जहा सइंदिया। (सु. 44) / [135-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यावान् जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [135-1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या वाले जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों के समान (सू. 44 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] एवं जाव पम्हलेसा / [135-2] इसी प्रकार नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या वाले जीवों का कथन करना चाहिए। 136. सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा (सु. 134) / [136] शुक्ललेश्या वाले जीवों का कथन सलेश्य जीवों के समान (सू. 134 के अनुसार) समझना चाहिए। 137. अलेस्सा जहा सिद्धा (सु. 38) / 12 / [137] अलेश्य (लेश्यारहित) जीवों का कथन सिद्रों के समान (सू. 38 के अनुसार) जानना चाहिए। (बारहवां द्वार) Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 138. [1] सकसाई गं भंते ! * ? जहा सइंदिया (सु. 44) / [138-1 प्र] भगवन् ! सकषायी जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? [138-1 उ.] गौतम ! सकषायी जीवों का कथन से न्द्रिय जीवों के समान (सू. 44 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] एवं जाव लोहकसाई / [138-2] इसी प्रकार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 136. प्रकसाई णं भंते ! कि गाणी० ? पंच नाणाई, भयणाए / 13 / [136 प्र.] भगवन् ! अकषायी (कषायमुक्त) जीव ज्ञानी होते हैं, अथवा अज्ञानी ? [136 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें पांच ज्ञान भजना से पाए जाते हैं। __ (तेरहवां द्वार) 140. [1] सवेदगा णं भंते ! * ? जहा सइंदिया (सु. 44) / [140-1 प्र.] भगवन् ! सवेदक (वेदसहित) जीव ज्ञानी होते हैं, अथवा अज्ञानी ? [140-1 उ.] गौतम ! सवेदक जीवों का कथन सेन्द्रिय जीवों के समान (सू. 44 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] एवं इस्थिवेदगा वि / एवं पुरिसवेयगा। एवं नपुंसकवे० / [140-2] इसी तरह स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक और नपुसकवेदक जीवों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। 141. अवेदगा जहा अकसाई (सु. 136) / 14 / [141] अवेदक (वेदरहित) जीवों का कथन अकषायी जीवों के समान (सू. 136 के अनुसार) जानना चाहिए। (चौदहवाँ द्वार) 142. पाहारगा णं भंते ! जीवा ? जहा सकसाई (सु. 138), नवरं केवलनाणं पि / [142 प्र.] भगवन् ! आहारक जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [142 उ.] गौतम ! आहारक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान (सू. 138 के अनुसार) जानना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि उनमें केवलज्ञान भी पाया जाता है / 143. अणाहारगाणं भंते ! जीवा कि नाणी, अण्णाणी? मजपज्जवनाणवज्जाइनाणाई, अन्नाणाणि य तिणि भयणाए / 15 / Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [283 [143 प्र.] भगवन् ! अनाहारक जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [143 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं, उनमें मन:पर्यवज्ञान को छोड़ कर शेष चार ज्ञान पाए जाते हैं; और जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। (पन्द्रहवां द्वार) विवेचन-दसवें उपयोगद्वार से पन्द्रहवें प्राहारक द्वार तक के जीवों में ज्ञान और प्रज्ञान की प्ररूपणा प्रस्तुत 26 सूत्रों (सू. 118 से 143 तक) में उपयोग, योग, लेश्या, कषाय, वेद और आहार इन छह प्रकार के विषयों से सहित और रहित जीवों में पाए जाने वाले ज्ञान और अज्ञान की प्ररूपणा की गई है। 10. उपयोगद्वार-उपयोग एक तरह से ज्ञान ही है, जो जीव का लक्षण है, जीव में अवश्य पाया जाता है। इसके दो प्रकार हैं-साकार-उपयोग और निराकार-उपयोग / साकार का अर्थ है-- विशेषतासहित बोध / उसका उपयोग, अर्थात्--ग्रहण-व्यापार, साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) कहलाता है। साकारोपयोग-यूक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के होते हैं। ज्ञानी जीवों में से कुछ जीवों में दो, कुछ जीवों में तीन, कुछ जीवों में चार और कुछ जीवों में एकमात्र केवलज्ञान होता है; इस तरह ऐसे जीवों में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। इनका कथन यहां ज्ञानल ब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए, उपयोग की अपेक्षा से तो एक समय में एक ही ज्ञान अथवा एक हो अज्ञान होता है। इनमें जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान आदि साकारोपयोग के भेद हैं / आभिनिबोधिक आदि से युक्त साकारोपयोग वाले जीवों में ज्ञान-अज्ञान का कथन उपर्युक्त वर्णनानुसार उस-उस ज्ञान या अज्ञान की लब्धि वाले जीवों के समान जानना चाहिए। अनाकारोपयोग-जिस ज्ञान में प्राकार अर्थात्---जाति, गुण, क्रिया आदि स्वरूपविशेष का प्रतिभास (बोध) न हो, उसे अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) कहते हैं / अनाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं / ज्ञानी जीवों में लब्धि की अपेक्षा पांच ज्ञान भजना से और अज्ञानी जीवों में लब्धि की अपेक्षा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन बाले जीव केवली नहीं होते, इसलिए चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन-ग्रनाकारोपयोग-युक्त जीवों का कथन अनाकारोपयोगयुक्त जीवों के समान जानना चाहिए। अर्थात् उनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / अवधिदर्शन-अनाकारोपयोगयुक्त जीव ज्ञानी और अज्ञानी दो तरह के होते हैं, क्योंकि दर्शन का विषय सामान्य है / सामान्य अभिन्नरूप होने से दर्शन में ज्ञानी और अज्ञानी भेद नहीं होता / अतः इसमें कई तीन या चार ज्ञान वाले होते हैं, अथवा नियमतः तीन अज्ञान वाले होते हैं / ११-योगद्वार-सयोगी जीव अथवा मनोयोगी, बचनयोगी और काययोगी जीवों का कथन सकायिक जीवों के समान समझना चाहिए / चूकि केवली भगवान् में भी मनोयोगादि होते हैं, इसलिए इनमें (सम्यग्दृष्टि आदि में) पांच ज्ञान भजना से होते हैं / तथा मिथ्यादृष्टि सयोगी या पृथक्पृथक् योग वाले जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अयोगी (सिद्ध भगवान् और चतुर्दश गुणस्थानवर्ती केवली) जीवों में एकमात्र एक केवलज्ञान होता है। १२-लेश्याद्वार-लेश्यायुक्त (सलेश्य) जीवों में ज्ञान-अज्ञान की प्ररूपणा सकषायी जीवों के समान है, उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से समझने चाहिए। चूकि केवलीभगवान् भी शुक्ललेश्या होने से सलेश्य होते हैं, इसलिए उनमें पंचम केवलज्ञान होता है। कृष्ण, नील, कापोत, तेज और पद्मलेश्या वाले जीवों में ज्ञान-अज्ञान की प्ररूपणा सेन्द्रिय जीवों के समान है, अर्थात Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं। शुक्ललेश्या वाले जीवों का कथन सलेश्य जीवों की तरह करना चाहिए / अलेश्य जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / १३-कषायद्वार--सकषायी या क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवों में ज्ञान-प्रज्ञानप्ररूपणा सेन्द्रिय के सदृश है, अर्थात्-उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से होते हैं / अकषायो छद्मस्थ-वीतराग और केवली दोनों होते हैं / छद्मस्थ वीतराग (11-12 गुणस्थानवर्ती) में प्रथम के चार ज्ञान भजना से पाए जाते हैं और केवली (13-14 गुणस्थानवर्ती) में एकमात्र केवलज्ञान ही पाया जाता है। इसीलिये अकषायी जीवों में पांच ज्ञान भजना से बताए गए हैं / १४-वेदद्वार-सवेदक पाठवें गुणस्थान तक के जीव होते हैं / उनका कथन सेन्द्रिय के समान है, अर्थात्- उनमें केवलज्ञान को छोड़ कर शेष चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / अवेदक (वेदरहित) जीवों में ज्ञान ही होता है, अज्ञान नहीं / नौवें अनिवृत्तिबादर नामक गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अवेदक होते हैं। उनमें से बारहवें गूणस्थान तक के जीव छदमस्थ होते हैं, अत: उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) भजना से पाए जाते हैं. तथा तेरहवेंचौदहवें गुणस्थानवी जीव केवली होते हैं, इसलिए उनके सिर्फ एक पंचम ज्ञान-केवलज्ञान होता है, इसी दृष्टि से कहा गया है कि 'अवेदक में पांच ज्ञान पाए जाते हैं।' १५-याहारकद्वार-यद्यपि प्राहारक जीव में ज्ञान-अज्ञान का कथन कषायी जीवों के समान (चार ज्ञान एवं तीन अज्ञान भजना से) बताया गया है, तथापि केवलज्ञानी भी आहारक होते हैं, इसलिए आहारक जोवों में भजना से पांच ज्ञान अथवा तीन अज्ञान कहने चाहिए। मन:पर्यवज्ञान आहारक जीवों को ही होता है। इसलिए अनाहारक जीवों में मनःपर्यवज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / विग्रहगति, केवली-समुद्घात और अयोगीदशा में जीव अनाहारक होते हैं। शेष अवस्था में जीव आहारक होते हैं। अनाहारक जीवों को प्रथम के तीन ज्ञान अथवा तीन अज्ञान विग्रहगति में होते हैं / अनाहारक केवली को केवलीसमुद्घातदशा में या अयोगी दशा में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / इसो दृष्टि से अनाहारक जोवों में चार ज्ञान (मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर) और तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं। सोलहवें विषयद्वार के माध्यम से द्रव्यादि की अपेक्षा ज्ञान और अज्ञान का निरूपण 144. प्राभिणिबोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासतो चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो / बवतो णं प्राभिणिबोहियनाणी प्रादेसेणं सव्वदव्वाई जाति पासति / खेत्ततो प्राभिणिबोहियणाणी प्रादेसेणं सव्वं खेत्तं जाणति पासति / एवं कालतो वि / एवं भावनो वि / [144 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय कितना व्यापक कहा गया है ? - [114 उ.] गौतम ! वह (आभितिबोधिक ज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का बताया गया है / यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से आभिनिबोधिक ज्ञानी आदेश (सामान्य) से सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है, क्षेत्र से प्राभिनिबोधिकज्ञानी सामान्य-(रूप) से सभी क्षेत्र को जानता और देखता है, इसी प्रकार काल से भी और भाव से भी जानना चाहिए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 355, 356 Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [ 285 145. सुतनाणस्स गं भंते ! केवतिए विसए पणते ? गोयमा ! से समासो चतुबिहे पण्णते, तं जहा-दन्यतो खेत्ततो कालतो भावतो / दन्यतो णं सुतनाणी उवयुले सम्वदन्वाइं जाणति पासति / एवं खेत्ततो वि, कालतो वि। भावतो गं सुयनाणी उवजुत्ते सम्वभावे जाणति पासति / [145 प्र.] भगवन् ! श्रुतज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? [145 उ.] गौतम ! वह (श्रुतज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से, उपयोगयुक्त (उपयुक्त) श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है। क्षेत्र से, श्रुतज्ञानी उपयोगसहित सर्वक्षेत्र को जानता-देखता है। इसी प्रकार काल से भी जानना चाहिए। भाव से उपयुक्त (उपयोगयुक्त) श्रुतज्ञानी सर्वभावों को जानता और देखता है। 146. प्रोहिनाणसणं भंते ! केवतिए विसए पणते ? गोयमा ! से समासो चतुम्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दन्यतो खेत्ततो कालतो भावतो। दव्यतो गं प्रोहिनाणो रूविदवाई जाणति पासति जहा नंदीए जाव भावतो। [146 प्र.] भगवन् ! अवधिज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? [146 उ.] गौतम ! वह (अवधिज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का है। वह इस प्रकार-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से अवधिज्ञानी रूपीद्रव्यों को जानता और देखता है / (तत्पश्चात् क्षेत्र से, काल से और भाव से) इत्यादि वर्णन जिस प्रकार नन्दीसूत्र में किया गया है, उसी प्रकार यावत् 'भाव' पर्यन्त वर्णन करना चाहिए। 147. मणपज्जवनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा ! से समासनो चविहे पण्णत्ते, तं जहा–दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो। दव्यतो णं उज्जुमती आणते प्रणतपदेसिए जहा नंदीए जाव भावो। [147 प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? [147 उ.] गौतम! वह (मन:पर्यवज्ञान-विषय) संक्षेप में चार प्रकार का है। वह इस प्रकार-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य से, ऋजुमति-मनःपर्यवज्ञानी (मनरूप में परिणत) अनन्तप्रादेशिक अनन्त (स्कन्धों) को जानता-देखता है, इत्यादि जिस प्रकार नन्दीसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् 'भावतः' तक कहना चाहिए / 148. केवलनाणस्स गंभंते ! केवतिए विसए पण्णते? गोयमा ! से समासम्रो चतुविहे पण्णत्ते, तं जहा–दम्वतो खेत्ततो कालतो भावतो। दवतो णं केवलनाणी सम्वदन्वाइं जाणति पासति / एवं जाव भावप्रो / [148 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? [148 उ.] गौतम ! वह (केवलज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता और देखता है / इस प्रकार यावत् भाव से केवलज्ञानी सर्वभावों को जानता और देखता है / Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 146. महमन्त्राणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नते? गोयमा ! से समासतो चतुविहे पण्णत्ते, तं जहा–दध्वतो खेत्ततो कालनो भावतो। दम्वतो णं मइअनाणी मइनाणपरिगताई दवाई जाणति पासति / एवं जाव भावतो मइनन्नाणी मइमन्नाणपरिगते भावे जाणति पासति / [149 प्र.] भगवन् ! मति-अज्ञान (मिथ्यामतिज्ञान) का विषय कितना कहा गया है ? [149 उ.] गौतम ! वह (मति-अज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार---द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से, मति-अज्ञानी, मति-अज्ञान-परिगत (मति-अज्ञान के विषयभूत) द्रव्यों को जानता और देखता है। इसी प्रकार यावत् भाव से मतिअज्ञानी मति-अज्ञान के विषयभूत भावों को जानता और देखता है / 150. सुतअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पग्णते? गोयमा! से समासतो चम्विहे पण्णत्ते, तं जहा-दबतो खेत्ततो कालतो भावतो। दन्वतो णं सुयअन्नाणी सुतअन्नाणपरिगयाइं दवाइं आघवेति पण्णवेति परवेइ / एवं खेत्ततो कालतो / भावतो णं सुयअन्नाणी सुतअन्नाणपरिगते भावे प्राघवेति तं चेव / [150 प्र.भगवन् ! श्रुत-प्रज्ञान (मिथ्याश्रुतज्ञान) का विषय कितना कहा गया है ? [150 उ.] गौतम ! वह (श्रुत-अज्ञान का विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / द्रव्य से. श्रत-अज्ञानी श्रतभूत द्रव्यों का कथन करता है, उन द्रव्यों को बतलाता है, उनकी प्ररूपणा करता है। इसी प्रकार क्षेत्र से और काल से भी जान लेना चाहिए। भाव की अपेक्षा श्रुत-अज्ञानी श्रुत-अज्ञान के विषयभूत भावों को कहता है, बतलाता है, प्ररूपित करता है / 151. विभंगणाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते? गोयमा! से समासतो चतुरिवहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वतो खेततो कालतो भावतो। दवतो णं विभंगनाणी विभंगणाणपरिगयाइं दवाई जापति पासति / एवं जाव भावतो णं विभंगनाणो विभंगनाणपरिगए भावे जाणति पासति / 16 / [151 प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? [151 उ.] गौतम ! वह (विभंगज्ञान-विषय) संक्षेप में चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयगत द्रव्यों को जानता और देखता है। इसी प्रकार यावत् भाव को अपेक्षा विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयगत भावों को जानता और देखता है। (विषयद्वार) विवेचन---ज्ञान और प्रज्ञान के विषय की प्ररूपणा–प्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 144 से 151 तक) में विषयद्वार के माध्यम से पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विषय का निरूपण किया गया है। ज्ञानों का विषय--(१) आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय द्रव्यादि चारों अपेक्षा से कहाँ तक Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [287 व्याप्त है ? इस ज्ञान की सीमा द्रव्यादि की अपेक्षा कितनी है ? यही बताना यहाँ अभीष्ट है / द्रव्य का अर्थ है-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य, क्षेत्र का अर्थ है-द्रव्यों का आधारभूत आकाश, काल का अर्थ है-द्रव्यों के पर्यायों की स्थिति और भाव का अर्थ है-प्रौदयिक आदि भाव अथवा द्रव्य के पर्याय / इनमें से द्रव्य की अपेक्षा आभिनिबोधिक ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि सर्व द्रव्यों को आदेश से-प्रोघरूप (सामान्य रूप) से जानता है, उसका आशय यह है कि वह द्रव्यमात्र सामान्यतया जानता है, उसमें रही हुई सभी विशेषताओं से (विशेषरूप से) नहीं जानता / अथवा आदेश का अर्थ है-- श्रुतज्ञानजनित संस्कार। इनके द्वारा अवाय और धारणा की अपेक्षा जानता है, क्योंकि ये दोनों ज्ञानरूप हैं। तथा अवग्रह और ईहा दर्शनरूप हैं, इसलिए प्रवग्रह और ईहा से देखता है / श्रुतज्ञानजन्य संस्कार से लोकालोकरूप सर्वक्षेत्र को देखता है। काल से सर्वकाल को और भाव से प्रौदयिक आदि पांच भावों को जानता है / (2) श्रुतज्ञानी (सम्पूर्ण दस पूर्वधर प्रादि श्रुतकेवली) उपयोगयुक्त हो कर धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों को विशेषरूप से जानता है, तथा श्रुतानुसारी अचक्षु (मानस) दर्शन द्वारा सभी अभिलाप्य द्रव्यों को देखता है / इसी प्रकार क्षेत्रादि के विषय में भी जानना चाहिए। भाव से उपयोगयुक्त श्रुतज्ञानी औदयिक आदि समस्त भावों को अथवा अभिलाप्य (वक्तव्य) भावों को जानता है / यद्यपि श्रुत द्वारा अभिलाप्य भावों का अनन्तवां भाग ही प्रतिपादित है, तथापि प्रसंगानूप्रसंग से अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के विषय हैं / इसलिए उनको अपेक्षा 'श्रुतज्ञानी सर्वभावों को (सामान्यतया) जानता है' ऐसा कहा गया है। (3) अवधिज्ञान का विषय-द्रव्य से--अवधिज्ञानी जघन्यत: तेजस और भाषा द्रव्यों के अन्तरालवर्ती सूक्ष्म अनन्त पुद्गलद्रव्यों को जानता है, उत्कृष्टतः बादर और सूक्ष्म सभी पुदगल द्रव्यों को जानता है। अवधिदर्शन से देखता है। क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्यतः के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है, उत्कृष्टत: समग्र लोक और लोक-सदश असंख्येय खण्ड अलोक में हों तो उन्हें भी जान-देख सकता है। काल से-अवधिज्ञानी जघन्यत: पावलिका के असंख्यातवें भाग को तथा उत्कृष्टतः असंख्यात उत्सपिणी, अवपिणी अतीत, अनागत काल को जानता और देखता है / यहाँ क्षेत्र और काल को जानने का तात्पर्य यह है कि इतने क्षेत्र और काल में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है / भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः आधारद्रव्य अनन्त होने से अनन्त भावों को जानता-देखता है, किन्तु प्रत्येक द्रव्य के अनन्त भावों (पर्यायों) को नहीं जानता-देखता। उत्कृष्टत: भी वह अनन्त भावों को जानता-देखता है। वे भाव भी समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग-रूप जानने चाहिए। (4) मनःपर्यवज्ञान का विषय- मनःपर्यवज्ञान प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति / सामान्यग्राही मनन-मति या संवेदन के दो को ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान कहते हैं / जैसे—'इसने घड़े का चिन्तन किया है, इस प्रकार के अध्यवसाय का कारणभूत (सामान्य कतिपय पर्याय विशिष्ट) मनोद्रव्य का ज्ञान या ऋज-सरलमति वाला ज्ञान / द्रव्य से--ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी ढाई द्वीप-समुद्रान्तर्वर्ती संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवों द्वारा मनोरूप से परिणमित मनोवर्गणा के अनन्त परमाण्वात्मक (विशिष्ट एक परिणामपरिणत) स्कन्धों को मनःपर्यायज्ञानावरण की क्षयोपशमपटुता के कारण साक्षात् जानता-देखता है / परन्त जीवों द्वारा चिन्तित घटादिरूप पदार्थों को मनःपर्यायज्ञानी प्रत्यक्षतः नहीं जानता किन्त उसके मनोद्रव्य के परिणामों की अन्यथानुपपत्ति से (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन बिना घटित नहीं हो सकता, इस तरह के अन्यथानुपपत्तिरूप अनुमान से) जानता है। इसीलिए यहाँ 'जाणई' के बदले 'पासइ' (देखता है) कहा गया है। विपुल का अर्थ है-अनेक विशेषग्राही / अर्थात्-अनेक विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 'विपुलमतिमनःपर्यायज्ञान' कहते हैं / जैसे- इसने घट का चिन्तन किया है, वह घट द्रव्य से-सोने का बना हुआ है, क्षेत्र से-पाटलिपुत्र का है, काल से-नया है या वसन्त ऋतु का है, और भाव सेबड़ा है, अथवा पीले रंग का है / इस प्रकार की विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्यों को विपुलमति जानता है। अर्थात्-ऋजुमति द्वारा देखे हुए स्कन्धों की अपेक्षा विपुलमति अधिकतर, वर्णादि से विस्पष्ट, उज्ज्वलतर और विशुद्धतर रूप से जानता-देखता है। क्षेत्र से-ऋजुमति जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्टत: मनुष्यलोक में रहे हुए संजीपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता-देखता है; जबकि विपुलमति उससे ढाई अंगुल अधिक क्षेत्र में रहे हुए जीवों के मनोगत भावों को विशेष प्रकार से विशुद्धतर रूप से स्पष्ट रूप से जानता-देखता है। तात्पर्य यह है कि ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानी क्षेत्र से उत्कृष्टत: अधोदिशा में-रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन तल के नीचे के क्षुल्लक प्रतरों, ऊर्ध्वदिशा में ज्योतिषी देवलोक के उपरितल को, तथा तिर्यग्दिशा में मनुष्यक्षेत्र में जो ढाई द्वीप-समुद्रक्षेत्र हैं, 15 कर्मभूमियां हैं, तथा छप्पन अन्तद्वीप हैं, उनमें रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय वों के मनोगत भावों को जानता-देखता है। विपुलमति क्षेत्र से समग्र ढाई द्वीप, व दो समुद्रों को विशुद्ध रूप से जानता-देखता है / काल से--ऋजुमति जघन्यत: पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने अतीत-अनागत काल को जानता-देखता है, जबकि विपुलमति इसी को स्पष्टतररूप से निर्मलतर जानता-देखता है / भाव से-ऋजुमति समस्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता-देखता है, जबकि विपूलमति इन्हें ही विशुद्धतर-स्पष्टतररूप से जानता-देखता है। (5) केवलज्ञान का विषयकेवलज्ञान के दो भेद हैं--भवस्थकेवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान / केवलज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को युगपत् जानता-देखता है / तीन अज्ञानों का विषय-मति-अज्ञानी मिथ्यादर्शनयुक्त अवग्रह आदि रूप तथा औत्पात्तिकी आदि बुद्धि रूप मति-अज्ञान के द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से जानता-देखता है। श्रुत-अज्ञानी श्रत-अज्ञान (मिथ्याष्टि-परिगृहीत लौकिक श्रुत या कुप्रावनिक श्रुत) से गृहीत (विषयीकृत) द्रव्यों को कहता है, बतलाता है, प्ररूपण करता है। विभंगज्ञानी विभंगज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जानता है और अवधिदर्शन से देखता है।' ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहत्व का निरूपण 152. गाणी णं भंते ! 'णाणि' ति कालतो केवच्चिरं होतो? गोयमा ! नाणी दुविहे पणत्ते, तं जहा-सादीए का अपज्जवसिते, सादीए वा सपज्जवसिए / तत्थ पंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं छावट्टि सागरोवमाइं सातिरेगा। [152 प्र] भगवन् ! ज्ञानी 'ज्ञानी' के रूप में कितने काल तक रहता है ? [152 उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित (सान्त) ज्ञानी हैं, वे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक, और उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक ज्ञानीरूप में रहते हैं। 153. प्राभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहियणाणि ति०? / - .. .. ...- . 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 357 से 360 तक (ख) मन्दीसूत्र, ज्ञानप्ररूपणा Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२ ] [ 289 एवं नाणो, प्राभिणिबोहियनाणी जाव केवलनाणी, अन्नाणी, महअन्नाणो, सुतग्रन्नाणी, विभंगनाणी; एएसि दसह वि संचिटणा जहा कायठितीए / 17 // [153 प्र.] भगवन् ! अाभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक-ज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [153 उ.] गौतम ! ज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी यावत् केवलज्ञानी, अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी, इन दस का अवस्थितिकाल (प्रज्ञापनासूत्र के अठारहवें) कायस्थितिपद में कहे अनुसार जानना चाहिए / (कालद्वार) 154. अंतरं सब्वं जहा जीवाभिगमें // 18 // [154] इन सब (दसों) का अन्तर जीवाभिगमसूत्र के अनुसार जानना चाहिए / (अन्तरद्वार) 155. अप्पाबहुगाणि तिणि जहा बहुवत्तव्वताए / 19 / [155] इन सबका अल्पबहुत्व (प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय-) बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानना चाहिए। (अल्पबहुत्वद्वार) विवेचन-ज्ञानो और अज्ञानी के स्थितिकाल, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण -प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 152 से 155 तक) में कालद्वार (17) अन्तरद्वार (18) और अल्पबहुत्वद्वार (16) के माध्यम से ज्ञानी और अज्ञानी के स्थितिकाल, पारस्परिक अन्तर और उनके अल्पबहत्व का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। ज्ञानी का ज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-ज्ञानी के दो प्रकार यहाँ बताए गए हैं-सादिअपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / प्रथम ज्ञानी ऐसे हैं, जिनके ज्ञान की आदि तो है, पर अन्त नहीं। ऐसे ज्ञानी केवल ज्ञानी होते हैं। केवलज्ञान का काल सादि-अनन्त है, अर्थात केवलज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता / द्वितीय ज्ञानी ऐसा है, जिसको आदि भी है, अन्त भी है / ऐसा ज्ञानी मति आदि चार ज्ञान वाला होता है। मति प्रादि चार ज्ञानों का काल सादि-सपर्यवसित है / इनमें से मति और श्रुतज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक अन्तर्मुहूर्त है / अवधि और मनःपर्यवज्ञान का जघन्य स्थितिकाल एक समय है। आदि के तीनों ज्ञानों का उत्कृष्ट स्थितिकाल कुछ अधिक 66 सागरोपम है। मनःपर्यवज्ञान का उत्कृष्ट स्थितिकाल देशोन करोड़पूर्व का है। अवधिज्ञान का जघन्य स्थिति काल एक समय का इसलिए बताया है कि जब किसी विभंगज्ञानी को सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अबधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इसके पश्चात शीघ्र ही दूसरे समय में यदि वह अवधिज्ञान से गिर जाता है तब अवधिज्ञान केवल एक समय ही रहता है। मनःपर्यायज्ञानी का भी अवस्थितिकाल जघन्य एक समय इसलिए बताया है कि अप्रमत्तगुणस्थान में स्थित किसी संयत (मुनि) को मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है, और तुरंत ही दूसरे समय में नष्ट हो जाता है / मनःपर्यायज्ञानी का उत्कृष्ट अवस्थितिकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष का इसलिए बताया है कि किसी पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य ने चारित्र अंगीकार किया। चारित्र अंगीकार करते ही उसे मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हो जाए और यावज्जीवन रहे, तो उसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून कोटिवर्ष घटित हो जाता है। Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र त्रिविध अज्ञानियों का तद्र प अज्ञानी के रूप में अवस्थितिकाल-अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी ये तीनों स्थितिकाल की दृष्टि से तीन प्रकार के हैं -(1) अनादि-अपर्यवसित (अनन्त), अभव्यों का होता है। (2) अनादि-सपर्यवसित (सान्त), जो भव्यजीवों का होता है / और (3) सादि-सपर्यवसित (सान्त), जो सम्यग्दर्शन से पतित जीवों का होता है। इनमें से जो सादि-सान्त हैं, उनका जघन्य अवस्थितिकाल अन्तर्मुहर्त का है; क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल अनन्त काल है, क्योंकि कोई जीव सम्यग्दर्शन से पतित होकर अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल व्यतीत कर अथवा वनस्पति आदि में अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणी व्यतीत करके अनन्तकाल के पश्चात् पुनः सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है / विभंगज्ञान का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय है; क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् उसका दूसरे समय में विनष्ट होना सम्भव है। इसका उत्कृष्ट स्थितिकाल किञ्चित् न्यून पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का है, क्योंकि कोई मनुष्य कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विभंगज्ञानी बना रह कर सातवें नरक में उत्पन्न हो जाता है, उसकी अपेक्षा से यह कथन है।' पांच ज्ञानों और तीन अज्ञानों का परस्पर प्रन्तरकाल-एक बार ज्ञान अथवा अज्ञान उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए और फि वार उत्पन्न हो तो दोनों के बीच का काल अन्तरकाल कहलाता है / यहाँ पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के अन्तर के लिए जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश किया गया है / वहाँ इस प्रकार से अन्तर बताया गया है आभिनिबोधिक ज्ञान का काल से पारस्परिक अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टत: अनन्तकाल तक का या कुछ कम अपार्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल का है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए / केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता। मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक 66 सागरोपम का है। विभंगज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल (वनस्पतिकाल जितना) है। पांच ज्ञानी और तीन अज्ञानी जीवों का अल्पबहत्व-पांच ज्ञान और तीन अज्ञान से युक्त जीवों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापतासूत्र में बताया गया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है-सबसे अल्प मनःपर्यायज्ञानी हैं। क्योंकि मनःपर्यायज्ञान केवल ऋद्धिप्राप्त संयतों को ही होता है / उनसे असंख्यात गुणे अवधिज्ञानी हैं; क्योंकि अवधिज्ञानी जीव चारों गतियों में पाए जाते हैं। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य और विशेषाधिक हैं। इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कई पंचेन्द्रिय और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादन सम्यग्दर्शन हो) आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं। ग्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर साहचर्य होने से दोनों ज्ञानी तुल्य हैं। इन सभी से सिद्ध अनन्तगुणे होने से केवलज्ञानी जीव अनन्तगुणे हैं / तीन अज्ञानयुक्त जीवों में सबसे थोड़े विभंगज्ञाती हैं, क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रियजीवों को ही होता है। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रियजीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे अनन्त हैं, परस्पर तुल्य भी हैं, क्योंकि इन दोनों का परस्पर साहचर्य है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 361 (ख) प्रज्ञापनासूत्र 18 वा कायस्थितिपद (महावीर विद्यालय), पृ. 304-317 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 361 (ख) जीवाभिगमसूत्र (अन्तरदर्शक पाठ) सू. 263, पृ. 455 (आगमो.) Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 291 ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का परस्पर सम्मिलित अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े मन:पर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं / उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक और परस्पर तुल्य हैं। उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि देव और नारकों से मिथ्यादृष्टि देव-नारक असंख्यातगुणे हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष सभी जीवों से सिद्ध अनन्तगुणे हैं। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुणे हैं, और वे परस्पर तुल्य हैं; क्योंकि साधारण वनस्पतिकायिकजीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं।' बीसवें पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों को प्ररूपरणा 156, केवतिया णं भंते ! प्रानिणिबोहियणाणपज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता प्राभिणिबोहियणाणपज्जवा पण्णत्ता। [156 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय कितने कहे गए हैं ? [156 उ.] गोतम ! प्राभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। 157. [1] केवतिया णं भंते ! सुतनाणपज्जवा पण्णत्ता ? एवं चेव। [157-1 प्र.] भगवन् ! श्रुतज्ञान के पर्याय कितने कहे गए हैं ? [176-1 उ.] गौतम ! श्रुतज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [2] एवं जाव केवलनाणस्स / [157-2] इसी प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गए हैं। 158. एवं मतिमन्नाणस्स सुतमलाणस्स / [158] इसी प्रकार मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गए हैं। 156. केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता / 201 [156 प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञान के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [156 उ.] गौतम ! विभंगज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। (पर्यायद्वार) ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों का अल्पबहुत्व 160. एतेसि गं भंते ! प्राभिणिबोहियनाणपज्जवाणं सुयनाणपज्जवाणं प्रोहिनाणपज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 362 (ख) प्रज्ञापनासूत्र तृतीय बहुवक्तव्यपद, सू. 212, 334, पृ. 80 से 111 तक Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! सध्वत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा, प्रोहिनाणपज्जवा अणतगुणा, सुतनाणपज्जवा अणंतगुणा, प्राभिणिबोहियनाणपज्जवा अणंतगुणा, केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा / [160 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान के पर्यायों में किनके पर्याय, किनके पर्यायों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [160 उ.] गौतम ! मन:पर्यायज्ञान के पर्याय सबसे थोड़े हैं। उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं / उनसे प्राभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं और उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं / 161. एएसिणं भंते ! मइअन्नाणपज्जवाणं सुतमन्नाणपज्जवाणं विभंगनाणपज्जवाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा विभंगनाणपज्जवा, सुतप्रन्नाणपज्जवा अणंतगुणा, मतिअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा। [161 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यायों में, किनके पर्याय, किनके पर्यायों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [161 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े विभंगज्ञान के पर्याय हैं। उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं और उनसे मति-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। 162. एएसि गं भंते ! आभिणिबोहियणाणपज्जवाणं जाव केवलनाणपज्जवाणं मइअन्नाणपज्जवाणं सुयअन्नाणपज्जवाणं विभंगनाणपज्जवाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणयज्जक्नाणपज्जवा, विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा, ओहिणाणपज्जवा अणंतगुणा, सुतअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा, सुतनाणपज्जवा विसेसाहिया, मइअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा, प्राभिणिबोहियनाणपज्जवा विसेसाहिया, केवलनाणपज्जवा प्रणंतगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / ॥पटुम सए : बितिम्रो उद्देसनो समत्तो / / [162 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) आभिनिबोधिकज्ञान-पर्याय यावत् केवलज्ञान पर्यायों तक में तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यायों में किसके पर्याय, किसके पर्यायों से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [162 उ. गौतम ! सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञान के पर्याय हैं / उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्त गुणे हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं / उनसे मति-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। उनसे मतिज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं और केवलज्ञान के पर्याय उनसे अनन्तगुणे हैं। . Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-२] [ 293 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-ज्ञान और प्रज्ञान के पर्यायों का तथा उनके अल्पबहुत्व का प्ररूपण--प्रस्तुत 7 सूत्रों (सू. 156 से 162 तक) में पर्यायद्वार के माध्यम से ज्ञान और अज्ञान की पर्यायों तथा उनके अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / पर्याय : स्वरूप, प्रकार एवं परस्पर अल्पबहुत्व-भिन्न-भिन्न अवस्थानों के विशेष भेदों को 'पर्याय' कहते हैं / पर्याय के दो भेद हैं-स्वपर्याय और पर-पर्याय / क्षयोपशम की विचित्रता से मतिज्ञान के अवग्रह आदि अनन्त भेद होते हैं, जो स्वपर्याय कहलाते हैं। अथवा मतिज्ञान के विषयभूत ज्ञेयपदार्थ अनन्त होने से उन ज्ञेयों के भेद से ज्ञान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं / इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं / अथवा केवलज्ञान द्वारा मतिज्ञान के अंश (टुकड़े) किये जाएँ तो भी अनन्त अंश होते हैं। इस अपेक्षा से भी मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। मतिज्ञान के सिवाय दूसरे पदार्थों के पर्याय 'परपर्याय' कहलाते हैं। मतिज्ञान के स्वपर्यायों का बोध कराने में तथा परपर्यायों से उन्हें भिन्न बतलाने में प्रतियोगी रूप से उनका उपयोग है। इसलिए वे मतिज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं। श्रुतज्ञान के भी स्वपर्याय और परपर्याय अनन्त हैं। उनमें से श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुतअनक्षरश्रुत आदि भेद स्वपर्याय कहलाते हैं, जो अनन्त हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण तथा श्रुतज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त होने से श्रुतज्ञान के (श्रतानुसारी बोध के) भेद भी अनन्त हो जाते हैं। अथवा केवलज्ञान द्वारा श्रुतज्ञान के अनन्त अंश होते हैं, वे भी उसके स्वपर्याय ही हैं। उनसे भिन्न पदार्थों के विशेष धर्म, श्रुतज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं / अवधिज्ञान के स्वपर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि उसके भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिक), इन दो भेदों के कारण, उनके स्वामी देव और नारक तथा मनुष्य और तिर्यञ्च के, असंख्येय क्षेत्र और काल के भेद से, अनन्त द्रव्य-पर्याय के भेद से एवं केवलज्ञान द्वारा उसके अनन्त अंश होने से अवधिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं। इसी प्रकार मन:पर्याय और केवलज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त होने से तथा उनके अनन्त अंशों की कल्पना आदि से अनन्त स्वपर्याय होते हैं / पर्यायों के अल्पबहुत्व की समीक्षा- यहाँ जो पर्यायों का अल्पबहुत्व बताया गया है, वह स्वपर्यायों की अपेक्षा से समझना चाहिए; क्योंकि सभी ज्ञानों के स्वपर्याय और परपर्याय मिलकर समुदित रूप से परस्पर तुल्य हैं। सबसे अल्प मनःपर्यायज्ञान के पर्याय इसलिए हैं कि उसका विषय केवल मन ही है। मनःपर्यायज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय द्रव्य और पर्यायों की अपेक्षा अनन्तगुण होने से अवधिज्ञान के पर्याय उससे अनन्तगुणे हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं। क्यों कि उसका विषय रूपी-अरूपीद्रव्य होने से वे अनन्तगुणे हैं। उनसे पाभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे हैं, क्योंकि उनका विषय अभिलाप्य और अनभिलाप्य पदार्थ होने से वे उनसे अनन्तगुणे हैं, और केवलज्ञान के पर्याय उनसे अनन्तगुणे इसलिए हैं कि उसका विषय सर्वद्रव्य और सर्वपर्याय हैं / इसी प्रकार अज्ञानों के भी अल्पबहुत्व की समीक्षा कर लेनी चाहिए। ज्ञान और प्रज्ञान के पर्यायों के सम्मिलित अल्पबहुत्व में सबसे अल्प मन:पर्यायज्ञान के पर्याय हैं, उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्तगुण हैं, क्योंकि उपरिम (नवम) वेयक से लेकर नीचे Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 / [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तम नरक तक में और असंख्य द्वीप समुद्रों में रहे हुए कितने ही रूपी द्रव्य और उनके कतिपय पर्याय विभंगज्ञान के विषय हैं, और वे मनःपर्यायज्ञान के विषयापेक्षया के अनन्तगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अवधिज्ञानपर्याय अनन्तगुणे इसलिए हैं कि उसका विषय समस्त रूपी द्रव्य और प्रत्येक के द्रव्य असंख्यपर्याय हैं / उनसे श्रुत-अज्ञान के पर्याय अनन्तगुणा यों हैं कि श्रुत-अज्ञान के विषय सभी मूर्त-अमूर्त द्रव्य एवं सर्वपर्याय हैं / तदपेक्षा श्रुतज्ञानपर्याय विशेषाधिक यों हैं कि श्रुत-प्रज्ञान-अगोचर कतिपय पदार्थों को भी श्रुतज्ञान जानता है। तदपेक्षया मति-अज्ञानपर्याय अनन्तगुणे यों हैं कि उसका विषय अनभिलाप्यवस्तु भी है। उनसे मतिज्ञान के पर्याय विशेषाधिक यों हैं कि मति-अज्ञान के अगोचर कितने ही पदार्थों को मतिज्ञान जानता है और उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्तगुणे इसलिए हैं कि केवलज्ञान सर्वकालगत समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों को जानता है।' // अष्टम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 362 से 364 तक Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'रुक्खा' तृतीय उद्देशक : 'वृक्ष' संख्यातजीविक, असंख्यातजीविक और अनन्तजीविक वृक्षों का निरूपण 1. कतिविहा गं भंते ! रुक्खा पण्णता ? गोयमा ! तिबिहा रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा–संखेज्जजीविया असंखेज्जजीविया अणंतजीविया / [1 प्र.] भगवन् ! वृक्ष कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1] गौतम ! वृक्ष तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) संख्यात जीव वाले, (2) असंख्यात जीव वाले और (3) अनन्त जीव वाले / 2. से कि तं संखेज्जजीविया ? संखेज्जजीविया अणेगविहा पणत्ता, तं जहा-ताले तमाले सक्कलि तेतलि जहा पण्णवणाए जाव नालिएरी, जे यावन्ने तहप्पगारा / से तं संखेज्जजीविया। [2 प्र.] भगवन् ! संख्यात जीव वाले वृक्ष कौन-से हैं ? [2 उ.] गोतम ! संख्यात जीव वाले वृक्ष अनेकविध कहे गए हैं। जैसे-ताड़ (ताल), तमाल, तक्कलि, तेतलि इत्यादि, प्रज्ञपनासूत्र (के पहले पद) में कहे अनुसार यावत् नारिकेल (नारियल) पर्यन्त जानना चाहिए / ये और इनके अतिरिक्त इस प्रकार के जितने भी वृक्षविशेष हैं, वे सब संख्यात जीव वाले हैं / यह हुआ संख्यात जीव वाले वृक्षों का वर्णन / 3. से कि तं असंखेज्जजीविया ? असंखेज्जनोविया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--एगढ़िया य बहुबोयगा य / [3 प्र.] भगवन् ! असंख्यात जीव वाले वृक्ष कौन-से हैं ? [3 उ.] गौतम ! असंख्यात जीव वाले वृक्ष दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-एकास्थिक (एक गुठली-बीज वाले) और बहुबीजक (बहुत बीजों वाले)। 4. से किं तं एगट्टिया? एगढिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-निबंबजंबु एवं जहा पण्णवणापए जाव फला बहुबीयगा / से तं बहुवीयगा / से तं असंखेन्जजीविया / [4 प्र.] भगवन् ! एकास्थिक वृक्ष कौन-से हैं ? [4 उ.] गौतम ! एकास्थिक (एक गुठली या बीज वाले) वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-नीम, आम, जामुन ग्रादि / इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र (के प्रथम पद) में कहे अनुसार यावत् Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 ] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'बहुबीज वाले फलों' तक कहना चाहिए। इस प्रकार यह बहुबीजकों का वर्णन हुा / और (इसके साथ ही) असंख्यात जीव वाले वृक्षों का वर्णन भी पूर्ण हुआ। 5. से कि तं प्रणतजीविया? श्रणंतजीविया प्रणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा–पालुए मूलए सिंगबेरे एवं जहा सत्तमसए (स० 7 उ० 3 सु० 5) जाव सीउंढी मुसुढी, जे यावन्ने तहप्पकारा / से तं प्रणतजीविया / [5 प्र.] भगवन् ! अनन्त जीव वाले वृक्ष कौन-से हैं ? [5 उ.] गौतम ! अनन्त जीव वाले वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं। जैसे—आलू, मूला, शृगबेर (अदरख) ग्रादि / इस प्रकार भगवतीसूत्र के सप्तम शतक के तृतीय उद्देशक में कहे अनुसार, यावत् 'सिउंढी, मुसुढी' तक जानना चाहिए। ये और इनके अतिरिक्त जितने भी इस प्रकार के अन्य वृक्ष हैं, उन्हें भी (अनन्त जीव वाले) जान लेना चाहिए। यह हुमा उन अनन्त जीव वाले वृक्षों का कथन / विवेचन--संख्यातजीविक, असंख्यातजीविक और अनन्तजीविक वृक्षों का निरूपण-प्रस्तुत तृतीय उद्देशक के प्रारम्भिक पांच सूत्रों में वृक्षों के तीन प्रकार का और फिर उनमें से प्रत्येक प्रकार के वृक्षों का परिचय दिया गया है। संख्यातजीविक, असंख्यातजोविक और अनन्तजीविक का विश्लेषण-जिन में संख्यात जीव हों उन्हें संख्यातजीविक कहते हैं, प्रज्ञापना में दो गाथाओं द्वारा नालिके री तक, इनके नामों का उल्लेख किया गया है ताल तमाले तेतलि, साले य सारकल्लाणे / सरले जायइ केयइ कलि तह चम्मरुक्खे य // 1 // भुयरुवखे हिगुरुक्खे य लवंगरुक्खे य होइ बोद्धव्वे / पूयफली खज्जूरी बोधवा नालियेरो य // 2 // अर्थात्-ताड़, तमाल, तेतलि (इमली), साल, सारकल्याण, सरल, जाई, केतकी, कदली (केला) तथा चर्मवृक्ष, भुर्जवृक्ष, हिंगुवृक्ष और लवंगवृक्ष, पूगफली (पूगीफल-सुपारी), खजूर, और नारियल के वृक्ष संख्यातजीविक समझने चाहिए। असंख्यात जीव वाले (असंख्यातजीविक) मुख्यतया दो प्रकार के हैं ---एकास्थिक और बहुबीजक / जिन फलों में एक ही बीज (या गुठली) हो वे एकास्थिक और जिन फलों में बहुत-से बीज हों, वे बहुबीजक-अनेकास्थिक कहलाते है / प्रज्ञापनासूत्र में एकास्थिक के कुछ नाम इस प्रकार दिये गए हैं 'निबंब-जम्बुकोसंच साल अंकोल्लपीलु सल्लूया। सल्लइमोयइमालुय बउलपलासे करंजे य॥१॥ अर्थात्-नीम, आम, जामुन, कोशाम्ब, साल, अंकोल्ल, पीलू, सल्लूक, सल्लकी, मोदकी, मालुक, बकुल, पलाश और करंज इत्यादि फल एकास्थिक जानने चाहिए / बहुबीजक फलों के प्रज्ञापनासूत्र में उल्लिखित नाम इस प्रकार हैं Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-३ ] अस्थिय-तेंदु-कविठे-अंबाउग-माउलुगविल्ले य / प्रामलग-फणस-दाडिम प्रासोठे उंबर-वडे य // अस्थिक, तिन्दुक, कविठ्ठ, आम्रातक, मातुलुग (बिजौरा), बेल, आँवला, फणस (अनन्नास), दाडिम, अश्वत्थ, उदुम्बर और बट, ये बहुबीजक फल हैं। अनेकजीविक फलदार वृक्षों के भी प्रज्ञापना में कुछ नाम इस प्रकार गिनाए हैं एएसि मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदावि खंधावि तयावि, सालावि पचालावि, पत्ता पत्तेयजीविया पुप्फा प्रणेगजीविया फला बहुबोयगा।" इन (पूर्वोक्त) वृक्षों के मूल भी असंख्यातजीविक हैं। कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल (नये कोमल पत्ते), पत्ते प्रत्येकजीवी हैं, फूल अनेकजीविक हैं, फल बहुबीज वाले हैं।' छिन्न कछुए आदि के टुकड़ों के बीच का जीवप्रदेश स्पृष्ट और शस्त्रादि के प्रभाव से रहित 6. [1] अह भंते ! कुम्मे कुम्मावलिया, गोहे गोहावलिया, गोणे गोणावलिया, मस्से मण्णुस्सावलिया, महिसे महिसावलिया, एएसि णं दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपदेसेहि फुडा ? हंता, फुडा। [6-1 प्र.] भगवन् ! कछुआ, कछुओं की श्रेणी (कूर्मावली), गोधा (गोह), गोधा की पंक्ति (गोधावलिका), गाय, गायों की पंक्ति, मनुष्य, मनुष्यों की पंक्ति, भैंसा, भैसों की पंक्ति, इन सबके दो या तीन अथवा संख्यात खण्ड (टुकड़े) किये जाएँ तो उनके बीच का भाग (अन्तर) क्या जीवप्रदेशों से स्पृष्ट (व्याप्त--छुपा हुआ) होता है ? [6-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह (बीच का भाग जीवप्रदेशों से) स्पृष्ट होता है। [2] पुरिसे णं भंते ! ते अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा, सलागाए वा कट्टेण वा किलिचेण वा प्रामुसमाणे वा सम्मुसमाणे वा प्रालिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजातेण प्राच्छिदेमाणे वा विच्छिमाणे वा, अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसि जीवपदेसाणं किचि प्राबाहं वा बाबाहं वा उपायइ ? छविच्छेदं वा करेइ ? जो इगठे समठे, नो खलु तत्थ सस्थं संकमति / [6.2 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष उन कछुए आदि के खण्डों के बीच के भाग को हाथ से, पैर से अंगुलि से, शलाका (सलाई) से, काष्ठ से या लकड़ी के छोटे-से टुकड़े से थोड़ा स्पर्श करे, विशेष स्पर्श करे, थोड़ा-सा खींचे या विशेष खींचे या किसी तीक्ष्ण शस्त्रजात (शस्त्रसमूह) से थोड़ा 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 364-365 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (महावीर विद्यालय०) पद 1, सूत्र 47, गाथा 37-38 (ग) प्रज्ञापनासूत्र (महावीर विद्यालय०) पद 1, सूत्र 40, गाथा 13-14-15 Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छेदे अथवा विशेष छेदे अथवा अग्निकाय से उसे जलाए तो क्या उन जीवप्रदेशों को थोड़ी या अधिक बाधा (पीड़ा) उत्पन्न कर पाता है अथवा उसके किसी भी अवयव का छेद कर पाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (अर्थात् वह जरा-सी भी पीड़ा नहीं पहुँचा / और त अंगभंग कर सकता है।): क्योंकि उन जीवप्रदेशों पर शस्त्र (आदि) का प्रभाव नहीं होता। विवेचन-छिन्न कछुए प्रावि के टुकड़ों के बीच का जीवप्रवेश स्पृष्ट और शस्त्रादि के प्रभाव से रहित-प्रस्तुत सूत्र (सू. 6) में दो तथ्यों का स्पष्ट निरूपण किया गया है (1) किसी भी जीव के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर भी उसके बीच के भाग कुछ काल तक जीवप्रदेशों से स्पृष्ट रहते हैं, तथा (2) कोई भी व्यक्ति जीवप्रदेशों को हाथ आदि से छुए, खींचे या शस्त्रादि से काटे तो उन पर उसका कोई असर नहीं होता।' रत्नप्रभादि पृथ्वियों के चरमत्व-अचरमत्व का निरूपण 7. कति णं भंते ! पुढवीनो पण्णत्तानो ? गोयमा! अट्ट पुढवीनो पन्नत्तानो, तं जहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा पुढवी, ईसियभारा [7 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियाँ कितनी कही गई हैं ? {7 उ.] गौतम ! पृथ्वियाँ आठ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-रत्नप्रभापृथ्वी यावत् अधःसप्तमा (तमस्तमा) पृथ्वी और ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला)। 8. इमाणं भंते ! रयणप्पभापुढवी कि चरिमा, अचरिमा ? चरिमपदं निरवसेसं भाणियन्वं जाव वेमाणिया णं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा प्रचरिमा ? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोतमे० / ॥अट्टमसए : तइओ उद्देसनो समत्तो। [8 प्र.] भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम (प्रान्तवर्ती-अन्तिम) है अथवा अचरम (मध्यवर्ती) है ? [उ.] (गौतम ! ) यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का समग्र चरमपद (10 वाँ) कहना चाहिए; यावत(प्र.) भगवन् ! वैमानिक स्पर्शचरम से क्या चरम हैं, अथवा अचरम हैं ? (उ.) गौतम ! वे चरम भी हैं और अचरम भी हैं / (यहाँ तक कहना चाहिए / ) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; (यों कहकर भगवान् गौतम यावत् विचरण करते हैं / ) 1. वियाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 353 Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-३ } 1299 .. विवेचन–रत्नप्रभादि पृथ्वियों के चरमत्व-अचरमत्व का निरूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 7-8) में दो तथ्यों का निरूपण किया गया है-आठ पृथ्वियों का और रत्नप्रभादि पृध्वियों के चरमत्वअचरमत्व का। चरम-अचरम-परिभाषा-चरम का अर्थ यहाँ प्रान्त या पर्यन्तवर्ती (अन्तिम सिरे पर रहा हुया) है / यह अन्तर्वार्तत्व अन्य द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। जैसे--पूर्वशरीर की अपेक्षा से चरमशरीर कहा जाता है / अचरम का अर्थ है-अप्रान्त यानी मध्यवर्ती / यह भी आपेक्षिक है / जैसे कि कहा जाता है—अन्यद्रव्य की अपेक्षा यह अचरम द्रव्य है अथवा अन्तिम शरीर की अपेक्षा यह मध्य शरीर है।' चरमादि छह प्रश्नोत्तरों का प्राशय-प्रज्ञापनासूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के सम्बन्ध में 6 प्रश्न और उनके उत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। यथा--रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अचरम है, (एकवचन को अपेक्षा से) चरम हैं या अचरम हैं (बहुवचन की अपेक्षा से) अथवा चरमान्त प्रदेश हैं, या अचरमान्त प्रदेश हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है-रत्नप्रभापृथ्वी न तो चरम है, न अचरम है, न वे (पृथ्वियाँ) चरम हैं, और न अचरम हैं, न ही चरमान्तप्रदेश (उसका भूभाग प्रान्तवर्ती) है, न ही अचरमान्तप्रदेश है / रत्नप्रभा में चरमत्व (एकवचन-बहुवचन दोनों दृष्टियों से) इसलिए घटित नहीं हो सकता कि चरमत्व आपेक्षिक है, अन्यापेक्ष है और अन्य पृथ्वी का वहाँ अभाव होने से रत्नप्रभा चरम नहीं है। और अचरमत्व भी उसमें तब घटित हो, जब बीच में कोई दूसरी पृथ्वी हो, वह भी नहीं है / इसलिए रत्नप्रभा अचरम भी नहीं है / रत्नप्रभापृथ्वी असंख्यात प्रदेशावगाढ़ है किन्तु पास में या मध्य में दूसरी पृथ्वी के प्रदेश न होने से वह न तो चरमान्तप्रदेश है और न अचरमान्त / 2 / / अष्टम शतकः तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 365 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 366, (ख) प्रज्ञापना. पद 10, (म. विद्या.) सू.७७४-८२९, पृ. 193-208 Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : किरिया चतुर्थ उद्देशक : क्रिया' क्रियाएँ और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों आदि का निर्देश 1. रायगिहे जाव एवं वदासी[१ उद्देशक का उपोद्घात राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा२. कति णं भंते ! किरियानो पण्णत्तानो ? गोयमा! पंच किरियानो पण्णत्तामो, तं जहा—काइया अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियव्यं जाव मायावत्तियानो किरियानो विसेसाहियारो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे० / / / अट्ठमसए : चउत्थो उद्देसश्रो समत्तो॥ [2 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [2 उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं / वे इस प्रकार (1) कायिकी, (2) प्राधिकरणिकी, (3) प्राषिकी, (4) पारितापनिको और (5) प्राणातिपातिकी। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का (बाईसवाँ) समग्र क्रियापद कहना चाहिए; यावत् 'मायाप्रत्ययिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं;'- यहाँ तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-क्रियाएँ और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेदों प्रादि का निर्देश प्रस्तुत उद्देशक के सूत्रद्वय में मुख्य क्रियाओं और उनसे सम्बन्धित भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निर्देश किया गया है / क्रिया की परिभाषा-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा को अथवा दुर्व्यापारविशेष को जैन. दर्शन में क्रिया कहा गया है। कायिकी प्रादि क्रियानों का स्वरूप और प्रकार--कायिकी के दो प्रकार-१. अनुपरतकायिकी (हिंसादि सावद्ययोग से देशतः या सर्वत: अनिवृत्त-अविरत जीवों को लगने वाली), और 2. दुष्प्रयुक्तकायिकी..कायादि के दुष्प्रयोग से प्रमत्तसंयत को लगने वाली क्रिया)। प्राधिक 1. संयोजनाधिकरणिको (पहले से बने हुए अस्त्र-शस्त्रादि हिंसा के साधनों को एकत्रित कर तैयार Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-४ ] [301 रखना) तथा 2. निर्वर्तनाधिकरणिकी (नये अस्त्र-शस्त्रादि बनाना) / प्राषिको-(स्वयं का, दूसरों का, उभय का अशुभ-द्वेषयुक्त चिन्तन करना), पारितापनिको (स्व, पर और उभय को परिताप उत्पन्न करना) और प्राणातिपातिकी (अपने पापके, दूसरों के या उभय के प्राणों का नाश करना)। कायिकी आदि पांच-पांच करके पच्चीस क्रियाओं का वर्णन भी मिलता है। इसके अतिरिक्त इन पांचों क्रियाओं का अल्प-बहुत्व भी विस्तृत रूप से प्रज्ञापना में प्रतिपादित किया गया है।" // अष्टम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 367 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचनयुक्त) भा. 3, पृ. 1374 Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'आजीव' पंचम उद्देशक : 'प्राजीव' सामायिकादि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान या स्त्री आदि परकीय हो जाने पर भी उसके द्वारा स्वममत्ववश अन्वेषग 1. रायगिहे जाव एवं वदासी [1. उद्देशक का उपोद्घात] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर से) इस प्रकार पूछा--- 2. प्राजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं वदासि समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अवहरेज्जा, से णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे कि सभंडं अणुगवेसति ? परायगं भंडं अणुगवेसइ ? गोयमा ! सभंडं अणुगवेसति नो परायगं भंडं अणुगवेसेति / [2.] भगवन् ! आजीविकों (गोशालक के शिष्यों) ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा कि 'सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए किसी श्रावक के भाण्ड-वस्त्र आदि सामान को कोई अपहरण कर ले जाए, (और सामायिक पूर्ण होने पर उसे पार कर) वह उस भाण्ड-वस्त्रादि सामान का अन्वेषण करे तो क्या वह (श्रावक) अपने सामान का अन्वेषण करता है या पराये (दूसरों के) सामान का अन्वेषण करता है ? [2 प्र.[ गौतम ! वह (श्रावक) अपने ही सामान (भाण्ड) का अन्वेषण करता है, पराये सामान का अन्वेषण नहीं करता। 3. [1] तस्स में भंते ! तेहिं सीलन्वत-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं से भंडे प्रभंडे भवति ? हंता, भवति / [3-1 प्र.] भगवन् ! उन शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए श्रावक का वह अपहृत भाण्ड (सामान) उसके लिए तो अभाण्ड हो जाता है ? (अर्थात् सामायिक आदि की साधनावस्था में वह सामान उसका अपना रह जाता है क्या?) 3-1 उ.] हाँ, गौतम, (शीलवतादि के साधनाकाल में) वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है। [2] से केणं खाइ णं अट्ठणं भंते ! एवं बच्चति 'सभंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंड अणुगवेसई'? Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] गोयमा ! तस्स णं एवं भवति--णो मे हिरणे, नो में सुवणे नो मे कंसे, नो मे दूसे, नो मे विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणमादीए संतसारसावदेज्जे, ममत्तभावे पुण से अपरिणाते भवति, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'सभंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ / [3-2 प्र.] भगवन् ! (जब वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता? [3-2 उ.] गौतम ! सामायिक आदि करने वाले उस श्रावक के मन में हिरण्य (चांदी) मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य (कांसी के बर्तन आदि सामान) मेरा नहीं है, वस्त्र मेरे नहीं हैं तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (मूगा) एवं रक्तरत्न (पद्मरागादि मणि) इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य मेरा नहीं है। किन्तु (उन पर) ममत्वभाव का उसने प्रत्याख्यान नहीं किया है। इसी कारण से, हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरों के भाण्ड (सामान) का अन्वेषण नहीं करता। 4. समणोवासगस्त णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ जायं चरेज्जा, से गं भंते ! कि जायं चरइ, मजायं चरइ? गोयमा ! जायं चरइ, नो प्रजायं चरइ / [4 प्र.] भगवन् ! सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए धावक की पत्नी के साथ कोई लम्पट व्यभिचार करता (भोग भोगता) है, तो क्या वह (व्यभिचारी) जाया (श्रावक की पत्नी) को भोगता है, या अजाया (श्रावक की स्त्री को नहीं, दूसरे की स्त्री) को भोगता है ? [4 उ.] गौतम ! वह (व्यभिचारी पुरुष) उस श्रावक की जाया (पत्नी) को भोगता है, अजाया (श्रावक के सिवाय दूसरे की स्त्री को) नहीं भोगता। 5. [1] तस्स गं भंते ! तेहि सीलब्धय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि सा जाया अजाया भव? हंता, भवइ। [5-1 प्र.] भगवन् ! शीलवत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास कर लेने से क्या उस श्रावक की वह जाया 'ग्रजाया' हो जाती है ? [5-1 उ.] हाँ, गौतम ! (शीलव्रतादि की साधनावेला में) श्रावक की जाया, अजाया हो जाती है। [2] से केणं खाइ णं अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ० 'जायं चरइ, नो अजायं चरइ' ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माता, णो मे पिता, णो मे माया, णो मे भगिणी, णो मे भज्जा, णो मे पुत्ता, णो मे धता, नो मे सुण्हा, पेज्जबंधणे पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ, से तेणठेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5-2 प्र.] भगवन् ! (जब शीलवतादि-साधनाकाल में श्रावक की जाया 'अजाया' हो जाती है, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह लम्पट उसको जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता। 5-2 उ.7 गौतम ! शीलवतादि को अंगीकार करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे होते हैं कि 'माता मेरी नहीं हैं, पिता मेरे नहीं हैं, भाई मेरा नहीं है, वह्न मेरी नहीं है, भार्या मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं, पुत्री मेरी नहीं है, पुत्रवधू (स्नुषा) मेरी नहीं है; किन्तु इन सबके प्रति उसका प्रेम (प्रेय) बन्धन टूटा नहीं (अव्यवच्छिन्न) है। इस कारण, हे गौतम! मैं कहता हूँ कि वह पुरुष उस श्रावक की जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता। विवेचन–सामायिकादि साधना में उपविष्ट श्रावक का सामान या स्त्री प्रादि स्वकीय हो न रहने पर भी उसके प्रति स्वममत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों में सामायिक आदि में बैठे हुए श्रमणोपासक का सामान अपना न होते हुए भी अपहृत हो जाने पर ममत्ववश स्वकीय मान कर अन्वेषण करने की वृत्ति सूचित की गई है। सामायिकादि साधना में परकीय पदार्थ स्वकीय क्यों ?--सामायिक, पौषधोपवास आदि अंगीकार किये हुए श्रावक ने यद्यपि वस्त्रादि सामान का त्याग कर दिया है, यहाँ तक कि सोना, चांदी, अन्य धन, घर, दूकान, माता-पिता, स्त्री, पुत्र आदि पदार्थों के प्रति भी उसके मन में यही परिणाम होता है कि ये मेरे नहीं हैं, तथापि उसका उनके प्रति ममत्व का त्याग नहीं हुआ है, उनके प्रति प्रेमबन्धन रहा हुआ है, इसलिए वे वस्त्रादि तथा स्त्री आदि उसके कहलाते हैं।' श्रावक के प्राणातिपात आदि पापों के प्रतिक्रमण, संवर-प्रत्याख्यान-सम्बन्धी विस्तृत भंगों को प्ररूपरणा-- 6. [1] समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव धूलए पाणातिवाते अपच्चक्खाए भवइ, से गं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेति ? गोयमा ! तीतं पडिक्कमति, पडुप्पन्नं संवरेति, अणागतं पच्चक्खाति / [6-1 प्र. भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने (पहले) स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान नहीं किया, वह पीछे उसका प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? [6-1 उ.] गौतम ! अतीत काल में किये हुए प्राणातिपात का प्रतिक्रमण करता है (उक्त पाप की निन्दा, गो, आलोचनादि करके उससे निवृत्त होता है) तथा वर्तमानकालीन प्राणातिपात का संवर (निरोध) करता है, एवं अनागत (भविष्यत्कालीन) प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता (उसे न करने की प्रतिज्ञा लेता) है / [2] तीतं पडिक्कममाणे कि तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति 1, तिविहं दुविहेणं पडिक्कमति 2, तिविहं एगविहेणं पडिक्कमति 3, दुविहं तिविहेणं पडिक्कमति 4, दुविहं दुविहेणं पडिक्कमति 5, दुविहं एगविहेणं पडिक्कमति 6, एक्कविहं तिविहेणं पडिक्कमति 7, एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कमति 8, एक्कविहं एगविहेणं पडिक्कमति है ? गोयमा ! तिविहं वा तिविहेणं पडिक्कमति, तिविहं वा दुविहेणं पडिक्कमति तं चेव जाव 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 368 Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक- 1 [305 एक्कविहं वा एक्कविहेणं पडिक्कमति / तिविहं वा तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति, न कारवेति, करतं गाणुजाणति, मणसा वयसा कायसा 1 / तिविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेति, न कारवेति, करेंतं माणुजाणति, मणसा बयसा 2; अहवा न करेति, न कारवेति, करेंतं नाणुजाणति, मणसा कायसा 3; अहवा न करेइ, न कारवेति, करेंतं णाणुजाति, वयसा कायसा 4 / तिविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेति, न कारवेति, करेंतं णाणुजाणति, मणसा 5; अहवा न करेइ, ण कारवेति, करेंतं णाणुजाणति, वयसा 6; अहवा न करेति, न कारवेति, करेंत पाणुजाणति, कायसा 7 / दुविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेति, मण सा वयसा कायसा 8; प्रहवा न करेति, करतं नाणुजाणइ, मणसा वयसा कायसा ; अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ; मणमा वयसा काय सा 10 / दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेति न कारवेति, मणसा वयसा 11; अहवा न करेति, न कारवेति, मणसा कायसा 12; अहवा न करेति, न कारवेति, वयसा कायसा 13; अहवा न करेति, करेंतं नाणजाणइ, मणसा क्यसा 14; अहवा न करेति, करेंतं नाणुजाणइ, मणसा कायसा 15; अहवा न करेति, करेंतं नाणुजाणति, वयसा कायसा 16; अहवा न कारवेति, करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा 17; अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ, मणसा कायसा 18; अहवा न कारवेति, करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा 19 / दुविहं एक्कविहेणं पडियकममाणे न करेति, न कारवेति, मणसा 20; प्रहबा न करेति, न कारवेति वयसा 21; अहवा न करेति, न कारवेति कायसा 22; प्रहवा न करेति, करतं नाणजाणइ, मणसा 23; अहवा न करेइ, करेंतं नाणुजाणति, वयसा 24; अहवा न करेइ, करेंतं नाणुजाणइ, कायसा 25; अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ, मणसा 26; प्रहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ, वयसा 27; प्रहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ, कायसा 28 / एगविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति मणसा वयसा कायसा 26; प्रहवा न कारवेइ मणसा बयसा कायसा 30; प्रहह्वा करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा कायसा 31; एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न करेति मणसा वयसा 32; अहवा न करेति मणसा कायसा 33; अहवा न करेइ वयसा कायसा 34; प्रहवा न कारवेति मणसा वयसा 35; अहवा न कारवेति मणसा कायसा 36; ग्रहवा न कारवेइ क्यसा कायसा 37; अहवा करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा 38; अहवा करतं नाणुजाणति मणला कायसा 39; अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा 40 / एक्कविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेति मणसा 41; अहवा न करेति वयसा 42; अहवा न करेति कायसा 43; प्रहवा न कारवेति मणसा 44; प्रहवा न कारवेति वयसा 45; अहवा न कारवेइ कायसा 46; अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा 47; अहवा करत नाणुजाणति वयसा 48; अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा 46 / [6-2 प्र.] भगवन् ! अतीतकालीन प्राणातिपात आदि का प्रतिक्रमण करता हुआ श्रमणोपासक, क्या 1. त्रिविध-त्रिविध (तीन करण, तीन योग से), 2. त्रिविध-द्विविध (तीन करण, दो योग से), 3. विविध-एक विध (तीन करण, एक योग से) 4. द्विविध-त्रिविध (दो करण, तीन योग से), 5. द्विविध-द्विविध (दो करण, दो योग से), 6. द्विविध-एकविध (दो करण, एक योग से), 7. एकविध-त्रिविध (एक करण, तीन योग से), 8. एकविध-द्विविध (एक करण, दो योग से) अथवा 6. एकविध एकविध (एक करण, एक योग से) प्रतिक्रमण करता है ? Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6-2 उ.] गौतम ! वह त्रिविध-त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, अथवा त्रिविध-द्विविध प्रतिक्रमण करता है, अथवा यावत् एकविध-एकविध प्रतिक्रमण करता है। 1. जब वह त्रिविध-त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करते हुए का अनुमोदन करता नहीं मन से, वचन से और काया से / 2. जब त्रिविध-द्विविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं, और करते हुए का अनुमोदन नहीं करता, मन से और वचन से; 3. अथवा वह स्वयं करता नहीं, कराता नहीं और अनुमोदन नहीं करता, मन से और काया से; 4. या वह स्वयं करता, कराता और अनुमोदन करता नहीं, वचत से और काया से। 5. जब त्रिविध एकविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं नहीं करता, न दूसरे से करवाता है और न करते हुए का अनुमोदन करता है, मन से, 6. अथवा स्वयं नहीं करता, दूसरे से नहीं करवाता और करते हुए का अनुमोदन नहीं करता, वचन से; अथवा ७–स्वयं नहीं करता, दूसरे से नहीं कराता और करते हुए का अनुमोदन नहीं करता है; काया से / ८-जब द्विविध-त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन, वचन और काया से, ९-अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मनवचन-काया से १०-अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन, वचन और काया से। जब द्विविध-द्विविध प्रतिक्रमण करता है, तब-११-स्वयं नहीं करता, दूसरों से करवाता नहीं, मन और वचन से; १२-अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन और काया से, अथवा १३--स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, वचन और काया से; अथवा 14-- स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से ; अथवा १५-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से; अथवा १६-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन और काया से / अथवा १७-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से, अथवा १५-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से; अथवा १९-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन और काया से / जब द्विविध-एकविध प्रतिक्रमण करता है, तब २०–स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, मन से; अथवा २१–स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, वचन से; अथवा 22- स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, काया से / अथवा 23 स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से ; अथवा २४-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से; अथवा २५--स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से / अथवा २६-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से; अथवा २७-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से; अथवा २८-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से / / जब एकविध-त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, तब २६–स्वयं करता नहीं, मन, वचन और काया से ; अथवा ३०-दूसरों से करवाता नहीं, मन, वचन और काया से ; अथवा ३१-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन, वचन और काया से / Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] [307 जब एकविध-द्विविध प्रतिक्रमण करता है, तब ३२---स्वयं करता नहीं, मन और वचन से; अथवा 33- स्वयं करता नहीं, मन और काया से; अथवा ३४-स्वयं करता नहीं, वचन और काया से; अथवा ३५--दूसरों से करवाता नहीं, मन और वचन से; अथवा ३६-दूसरों से करवाता नहीं, मन और काया से; अथवा ३७-दूसरों से करवाता नहीं, वचन और काया से ! अथवा ३८-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और वचन से; अथवा ३६-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से; अथवा ४०--करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन और काया से / जब एकविध-एकविध प्रतिक्रमण करता है, तब ४१–स्वयं करता नहीं, मन से; अथवा ४२-स्वयं करता नहीं, वचन से; अथवा ४३-स्वयं करता नहीं. काया से: अथवा 44--- से करवाता नहीं, मन से; अथवा ४५-दूसरों से करवाता नहीं, वचन से; अथवा ४६-दूसरों से करवाता नहीं, काया से; अथवा ४७-~-करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, मन से; अथवा ४८करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, वचन से; अथवा ४९--करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से। [3] पडप्पन्न संवरमाणे कि तिविहं तिविहेणं संवरेइ ? एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगूणपण्णं भंगा भणिया एवं संवरमाणेण वि एगणपण्णं भंगा माणियन्या। __ [6-3 प्र.] भगवन् ! प्रत्युत्पन्न (वर्तमानकालीन) संवर करता हुमा श्रावक क्या त्रिविधविविध संवर करता है ? इत्यादि समग्र प्रश्न पूर्ववत् यावत् एकविध-एकविध संवर करता है ? [6-3 उ.] गौतम ! प्रत्युत्पन्न का संबर करते हुए श्रावक के पहले कहे अनुसार (त्रिविधविविध से लेकर एकविध-एकविध तक) उनचास (46) भंग (जो प्रतिक्रमण के विषय में कहे गए हैं, वे ही) संवर के विषय में कहने चाहिए / [4] प्रणागतं पच्चक्खमाणे कि तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ ? एवं ते चेव भंगा एगूणपण्णं भाणियव्या जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा। [6-4 प्र.] भगवन् ! अनागत (भविष्यत्) काल (के प्राणातिपात) का प्रत्याख्यान करता हुआ श्रावक क्या त्रिविध-त्रिविध प्रत्याख्यान करता है ? इत्यादि समग्र प्रश्न पूर्ववत् / [6-4 उ.] गौतम ! पहले (प्रतिक्रमण के विषय में) कहे अनुसार यहाँ भी उनचास (49) भंग कहने चाहिए; यावत् 'अथवा करते हुए का अनुमोदन नहीं करता, काया से;'–यहाँ तक कहना चाहिए। 7. समणोवासगस्स गं भंते ! पुवामेव थूलमुसावादे अपच्चवखाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पच्चाइक्खमाणे? एवं जहा पाणाहवातस्स सीयालं भंगसतं (147) भणितं तहा मुसावादस्स वि भाणियव्वं / _[7 प्र. भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया, किन्तु पीछे वह स्थूल मृषावाद (असत्य) का प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? [7 उ. गौतम ! जिस प्रकार प्राणातिपात के (अतीत के प्रतिक्रमण, वर्तमान के संवर और भविष्य के प्रत्याख्यान; यों त्रिकाल) के विषय में कुल 4643=147 (एक सौ सैंतालीस) भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार मृषावाद के सम्बन्ध में भी एक सौ सैंतालीस भंग कहने चाहिए। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8. एवं अदिण्णादाणस्स वि / एवं थूलगस्स मेहुणस्स वि / थूलगस्स परिग्गहस्स वि जाव प्रहया करेंतं नाणजाण कायसा। [8] इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान के विषय में, स्थूल मैथुन के विषय में एवं स्थूल परिग्रह के विषय में भी पूर्ववत् प्रत्येक के एक सौ सैंतालीस-एक सौ संतालीस त्रैकालिक भंग कहने चाहिए; यावत्-'अथवा पाप करते हुए का अनुमोदन नहीं करता, काया से ;' यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन श्रावक के प्राणातिपात प्रादि पापों के प्रतिक्रमण-संवर-प्रत्याख्यान सम्बन्धी भंगों की प्ररूपणा प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 6 से 8 तक) में प्राणातिपात आदि पापों के स्थूल रूप से प्रतिक्रमण करने, संवर करने और प्रत्याख्यान करने की विधि के रूप में प्रत्येक के 46-46 भंग बताए गए हैं। श्रावक को प्रतिक्रमण, संवर और प्रत्याख्यान करने के लिए प्रत्येक के 46 भंग-तीन करण हैं-करना, कराना और अनुमोदन करना, तथा तीन योग हैं—मन, वचन और काया / इनके संयोग से विकल्प नौ और भंग उननचास होते हैं। उनकी तालिका इस प्रकार है-- विकल्प करण योग | भंग विवरण तीन / एक 3 दो / कृत, कारित, अनुमोदित का मन, वचन, काया से निषेध कृत, कारित, अनुमोदित का मन-वचन से, मन-काय से, बचन-काया से निषेध कृत-कारित-अनुमोदित मन से, वचन से, काया से निषेध कृत-कारित का, कृत-अनुमोदित का और कारित-अनुमोदित का मनवचन-काय से निषेध कृत-कारित, कृत-अनुमोदित और कारित-अनुमोदित का मन-वचन से, मन-काया से और वचन-काया से निषेध कृत-कारित का मन से, वचन से, काया से ; कृत-अनुमोदित का मन-वचनकाया से; कारित-अनुमोदित का भी इसी प्रकार निषेध कृत का मन-वचन-काया से; कारित का मन-वचन-काया से और अनुमोदित का मन-वचन-काया से निषेध कृत का मन-वचन से, मन-काया से, वचन-काया से / कारित का | एक | दो | मन-वचन से, मन-काया से और वचन-काया से, इसी प्रकार अनुमोदित | का निषेध | एक एक | | कृत का मन से, वचन से, काया से / कारित का भी इसी तरह और अनू मोदित का भी इसी तरह निषेध / कुल भंग =46 | तीन | 3 Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] भूतकाल के प्रतिक्रमण, वर्तमानकाल के संवर और भविष्य के लिए प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा, इस प्रकार तीनों काल की अपेक्षा 49 भंगों को 3 से गुणा करने पर 147 भंग होते हैं। ये स्थूलप्राणातिपात-विषयक हुए / इसी प्रकार स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह, इन प्रत्येक के 147-147 भंग होते हैं। यों पांचों अणुव्रतों के कुल भंग 735 होते हैं / श्रावक इन 49 भंगों में से किसी भी भंग से यथाशक्ति प्रतिक्रमण, संवर या प्रत्याख्यान कर सकता है / तीन करण तीन योग से संवर या प्रत्याख्यानादि श्रावकप्रतिमा स्वीकार किया हुआ श्रावक कर सकता है।' आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता 6. एए खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, नो खलु एरिसगा प्राजीवियोवासगा भवंति / [6] श्रमणोपासक ऐसे होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक ऐसे नहीं होते। 10. प्राजीवियसमयस्स णं अयमठे पण्णत्ते-अक्खीणपडिभोइणो सब्वे सत्ता, से हंता छेत्ता भत्ता लुपित्ता विलुपित्ता उद्दवइत्ता प्राहारमाहारेति / {10] आजीविक (गोशालक) के सिद्धान्त का यह अर्थ (तत्त्व) है कि समस्त जीव अक्षीणपरिभोजी (सचित्ताहारी) होते हैं। इसलिए वे (लकड़ी प्रादि से) हनन (ताड़न) करके, (तलवार आदि से) काट कर, (शूल आदि से) भेदन करके, (पंख आदि को) कतर (लुप्त) कर, (चमड़ी आदि को) उतार कर (विलुप्त करके) और विनष्ट करके खाते (आहार करते) हैं। 11. तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा नवंति, तं जहा-ताले 1 तालपलंचे 2 उविहे 3 संविहे 4 प्रवविहे 5 उदए 6 नामुदए 7 णम्मुदए 8 अणुवालए 6 संखवालए 10 अयंबुले 11. कायरए 12 / [11] ऐसी स्थिति (संसार के समस्त जीव असंयत और हिंसादिदोषपरायण हैं, ऐसी परिस्थिति) में आजीविक मत में ये बारह आजीविकोपासक हैं-(१) ताल, (2) तालप्रलम्ब, (3) उद्विध, (4) संविध, (5) अवविध (6) उदय, (7) नामोदय, (8) नर्मोदय, (6) अनुपालक, (10) शंखपालक, (11) अयम्बुल पीर (12) कातरक / 12. इच्चेते दुवालस प्राजोवियोवासगा अरहंतदेवतागा अम्मा-पिउसुस्सूसगा; पंचफलपडिक्कता, तं जहा–उंबरेहि, वडेहि, बोरेहि सतरेहिं पिलंहिपलंडु-ल्हसण-कंद-मूलविवज्जगा प्रणिलंछिएहि अणक्कभिन्नहि गोहि तसपाणविवज्जिएहि चित्तेहि वित्ति कप्पेमाणे विहरंति / [12] इस प्रकार ये बारह आजीविकोपासक हैं। इनका देव अरहंत (स्वमत-कल्पना से गोशालक अर्हत) है। वे माता-पिता की सेवा-शुश्रुषा करते हैं। वे पांच प्रकार के फल नहीं खात (पांच फलों से विरत हैं ।)वे इस प्रकार-उदुम्बर(गुल्लर) के फल, वड़ के फल, बोर, सतर (शहतूत) के फल, पीपल (प्लक्ष) फल तथा प्याज (पलाण्डु), लहसुन, कन्दमूल के त्यागी होते हैं। तथा 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 370-371 Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनिलांछित (खस्सो-वधिया न किये हए), और नाक नहीं नाथे हुए बैलों से त्रस प्राणी की हिंसा से रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हुए विहरण (जीवनयापन) करते हैं / 13. 'एए वि ताव एवं इच्छति, किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति ?' जेसि नो कप्पति इमाइं पण्णरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा, कारवेत्तए वा, करेंतं वा अन्नं न समणुजाणेत्तए, तं जहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे माडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिज्जे रसवाणिज्जे विसवाणिज्जे जंतपोलणकम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सर-दह-तलायपरिसोसणया असतीपोसणया। [13] जब इन आजीविकोपासकों को यह अभीष्ट है, तो फिर जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? ; (क्योंकि उन्होंने तो विशिष्टतर देव, गुरु और धर्म का आश्रय लिया है !) जो श्रमणोपासक होते हैं, उनके लिए ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से कराना, और करते हुए का अनुमोदन करना कल्पनीय (उचित) नहीं हैं / वे कर्मादान इस प्रकार हैं-(१) अंगारकर्म (2) वनकर्म, (3) शाकटिक कर्म, (5) भाटीकर्म, (6) स्फोटक कर्म, (7) दन्तवाणिज्य, () लाक्षावाणिज्य, (6) रसवाणिज्य, (10) विषवाणिज्य, (11) यंत्रपीडन कर्म, (12) निलांछनकर्म, (13) दावाग्निदापनता, (14) सरो-ह्रद-तडागशोषणता, (15) असतीपोषणता / 14. इच्चेते समणोवासगा सुक्का सुक्काभिजातीया भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति / [14] ये श्रमणोपासक शुक्ल (पवित्र), शुक्लाभिजात (पवित्र कुलोत्पन्न) हो कर काल (मरण) के समय मृत्यु प्राप्त करके किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। विवेचन-प्राजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार और श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता--प्रस्तुत पांच सूत्रों में आजीविकोपासकों के सिद्धान्त, नाम, आचार-विचार आदि तथ्यों का निरूपण करके श्रमणोपासकों की उनसे विशेषता बताई गई है। श्राजीविकोपासकों का प्राचार-विचार-गोशालक मंखलीपुत्र के शिष्य आजीविक कहलाते हैं। गोशालक के समय में उसके ताल, तालप्रलम्ब ग्रादि बारह विशिष्ट उपासक थे / वे उदुम्बर आदि पांच प्रकार के फल तथा अन्य कुछ फल नहीं खाते थे। जिन बैलों को बधिया नहीं किया गया है, और नाक नाथा नहीं गया है, उनसे अहिंसक ढंग से व्यापार करके वे जीविका चलाते थे। श्रमणोपासकों की विशेषता-पूर्वोक्त 46 भंगों में से यथेच्छ भंगों द्वारा श्रमणोपासक अपने व्रत, नियम, संवर, त्याग, प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करते हैं, जबकि ग्राजीविकोपासक इस प्रकार से हिंसा आदि का त्याग नहीं करते, न ही वे कर्मादान रूप पापजनक व्यवसायों का त्याग करते हैं; श्रमणोपासक तो इन 15 कर्मादानों को सर्वथा त्याग करता है, वह इन हिंसादिमूलक व्यवसायों को अपना ही नहीं सकता। यही कारण है कि ऐसा श्रमणोपासक चार प्रकार के देवलोकों में से किसी एक देवलोक में उत्पन्न होता है; क्योंकि वह जीवन और जीविका दोनों से पवित्र, शुद्ध और निष्पाप होता है, और उसे विशिष्ट देव, गुरु, धर्म की प्राप्ति होती है।' कर्मादान और उसके प्रकारों की व्याख्या---जिन व्यवसायों या कर्मो (आजीविका के कार्यों) 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 371-372, (ख) योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्तिप्रकाश 4 Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५ ] [311 से ज्ञानावरणीय आदि अशुभकर्मों का विशेषरूप से बन्ध होता है, उन्हें अथवा कर्मबन्ध के हेतुओं को कर्मादान कहते हैं। श्रावक के लिए कर्मादानों का आचरण स्वयं करना, दूसरों से कराना या करते हुए का अनुमोदन करना, निषिद्ध है। ऐसे कर्मादान पन्द्रह हैं(१) इंगालकम्मे (अंगारकर्म) अंगार अर्थात् अग्निविषयक कर्म यानी अग्नि से कोयले बनाने और उसे बेचने-खरीदने का धंधा करना। (2) वणकम्मे (वनकर्म) जंगल को खरीद कर वृक्षों, पत्तों आदि को काट कर बेचना, (3) साडीकम्मे (शाकटिककर्म) गाड़ी, रथ, तांगा, इक्का आदि तथा उसके अंगों को बनाने और बेचने का धंधा करना। (4) भाडोकम्मे (माटोकर्म) बैलगाड़ी आदि से दूसरों का सामान एक जगह भाड़े से ले जाना, किराये पर बैल, घोड़ा आदि देना, मकान आदि बना-बनाकर किराये पर देना, इत्यादि धंधों से आजीविका चलाना / (5) फोडीकम्मे (स्फोटकर्म) सुरंग ग्रादि बिछाकर विस्फोट करके जमीन, खान आदि खोदने-फोड़ने का धंधा करना / (6) दंतवाणिज्जे (दन्तवाणिज्य) पेशगी देकर हाथीदांत आदि खरीदने, बनाने व उनसे बनी हुई वस्तुएँ बेचने आदि का धंधा करना / (7) लक्खवाणिज्जे (लाक्षावाणिज्य) लाख का क्रय-विक्रय करके आजीविका करना। (8) केसवाणिज्जे (केशवाणिज्य) केश वाले जीवों का अर्थात्-गाय, भैंस आदि को तथा दास-दासी प्रादि को खरीद-बेचकर व्यापार करना। (6) रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)--मदिरा आदि नशीले रसों को बनाने-बेचने आदि का धंधा करना / (10) विसवाणिज्जे (विषवाणिज्य)-विष (अफीम, संखिया आदि जहर) बेचने का धंधा करना / (11) जंतपीलणकम्मे (यंत्रपीडनकर्म)-तिल, ईख आदि पीलने के कोल्हू, चरखी आदि का धंधा करना यंत्रपीड़नकर्म है / (12) निल्लंछणकम्मे (निाछनकर्म)-बैल, घोड़े आदि को खसी (बधिया) करने का धंधा। (13) दवम्गिदावणया (दावाग्निदापनता)-खेत आदि साफ करने के लिए जंगल में आग लगाना-लगवाना / (14) सर-दह-तलायसोसणया (सरोह्रद-तड़ाग-शोषणता) सरोवर, ह्रद या तालाब आदि जलाशयों को सुखाना / और (15) प्रसईजगपोसणया (प्रसतीजनपोषणता) कुलटा, व्यभिचारिणी या दुश्चरित्र स्त्रियों का अड्डा बनाकर उनसे कुकर्म करवा कर आजीविका चलाना अथवा दुश्चरित्र स्त्रियों का पोषण करना। अथवा पापबुद्धिपूर्वक मुर्गा-मुर्गी, सांप, सिंह, बिल्ली आदि जानवरों को पालना-पोसना / देवलोकों के चार प्रकार 15. कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णता? गोयमा! चउठिवहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासि-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। ॥अट्ठमसए : पंचमो उद्देसनो समत्तो॥ [15 प्र.] भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [15 उ.] गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे गए हैं। यथा--भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कहकर यावत् विचरते हैं। // अष्टम शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो उद्देसओ : 'फासुगं' छठा उद्देशक : 'प्रासुक' तथारूप श्रमरण, माहन या असंयत आदि को प्रासुक-अप्रासुक, एषरणीय-अनेषणीय आहार देने का श्रमरणोपासक को फल 1. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं यडिलामेमाणस्स किं कज्जति ? गोयमा! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, नस्थि य से पावे कम्मे कज्जति / [1 प्र.] भगवन् ! तथारूप (श्रमण के वेष तथा तदनुकूल गुणों से सम्पन्न) श्रमण अथवा माहन को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? [1 उ.] गौतम ! वह (ऐसा करके) एकान्त रूप से निर्जरा करता है। उसके पापकर्म नहीं होता। 2. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाण जाव पडिलाभमाणस्स कि कज्जइ ? गोयमा! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ / [2 प्र. भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक एवं अनेषणीय आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? [2 उ.] गौतम ! उसके बहुत निर्जरा होती है, और अल्पतर पापकर्म होता है। 3. समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं अस्संजयअविरयपडिहयपच्चकवायपावकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण वा प्रणेसणिज्जेण वा असण-पाण जाय कि कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नथि से काई निज्जरा कज्जइ / [3 प्र.] भगवन् ! तथारूप असंयत, अविरत, पापकर्मों का जिसने निरोध और प्रत्याख्यान नहीं किया; उसे प्रासुक या अप्रासुक, एषणीय या अनेषणीय प्रशन-पानादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या फल प्राप्त होता है ? [3 उ.] गौतम ! उसे एकान्त पापकर्म होता है, किसी प्रकार की निर्जरा नहीं होती। विवेचन-तथारूप श्रमण, माहन या असंयत प्रादि को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय पाहार देने का श्रमणोपासक को फल-प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: तीन तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) तथारूप श्रमण या ब्राह्मण को प्रासुक-एषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासक को Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६) [313 एकान्त: निर्जरा-लाभ, (2) तथारूप श्रमण या माहन को अप्रासुक-अनेषणीय आहार देने वाले श्रमणोपासक को बहत निर्जरालाभ और अल्प पापकर्म: तथा (3) तथारूप असंयत, अविरत. आदि विशेषणयुक्त व्यक्ति को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहार देने से एकान्त पापकर्म की प्राप्ति, निर्जरालाभ बिलकुल नहीं। तथारूप' का आशय-पहले और दूसरे सूत्र में 'तथारूप' का आशय है-जैनागमों में वणित श्रमण के वेश और चारित्रादि श्रमणगुणों से युक्त / तथा तीसरे सूत्र में असंयत, अविरत आदि विशेषणों से युक्त जो 'तथारूप' शब्द है, उसका आशय यह है कि उस-उस अन्यतीरि योगी, संन्यासी, बाबा आदि, जो असंयत, अविरत, तथा पापकर्मों के निरोध और प्रत्याख्यान से रहित हैं, उन्हें गुरुबुद्धि से मोक्षार्थ पाहार-दान देने का फल सूचित किया गया है।' मोक्षार्थ दान हो यहाँ विचारणीय प्रस्तुत तीनों सूत्रों में निर्जरा के सद्भाव और प्रभाव की दृष्टि से मोक्षार्थ दान का ही विचार किया गया है। यही कारण है कि तीनों ही सूत्रपाठों में 'पडिलामेमाणस्स' शब्द है, जो कि गुरुबुद्धि से-मोक्षलाभ की दृष्टि से दान देने के फल का सूचक है, अभावग्रस्त, पीडित, दु:खित, रोगग्रस्त या अनुकम्पनीय (दयनीय) व्यक्ति या अपने पारिवारिक, सामाजिक जनों को औचित्यादि रूप में देने में पडिलाभे' शब्द नहीं पाता, अपित वहाँ 'दलयह' या 'दलेज्जा' शब्द आता है। प्राचीन आचार्यों का कथन भी इस सम्बन्ध में प्रस्तुत है मोक्खत्थं जं दाणं, तं पइ एसो विही समक्खायो / अणुकंपादाणं पुण जिणेहि, न कयाइ पडिसिद्ध / अर्थात्--यह (उपर्युक्त) विधि (विधान) मोक्षार्थ जो दान है, उसके सम्बन्ध में कही गई है, किन्तु अनुकम्पादान का जिनेन्द्र भगवन्तों ने कदापि निषेध नहीं किया है / तात्पर्य यह है कि अनुकम्पापात्र को दान देने या प्रौचित्यदान आदि के सम्बन्ध में निर्जरा की अपेक्षा यहाँ चिन्तन नहीं किया जाता अपितु पुण्यलाभ का विशेषरूप से विचार किया जाता है। 'प्रासुक-अप्रासुक,' 'एषणीय-अनेषणीय' को व्याख्या-प्रासुक और अप्रासुक का अर्थ सामान्यतया निर्जीव (अचित्त) और सजीव (सचित्त) होता है तथा एषणीय का अर्थ होता है-आहार सम्बन्धी उद्गमादि दोषों से रहित-निर्दोष और अनेषणीय-दोषयुक्त-सदोष / / / _ 'बहुत निर्जरा, अल्पतर पाप' का प्राशय-वैसे तो श्रमणोपासक अकारण ही अपने उपास्य तथारूप श्रमण को अप्रासक और अनेषणीय आहार नहीं देगा और न तथारूप श्रमण अप्रासुक और अनेषणीय आहार लेना चाहेंगे, परन्तु किसी अत्यन्त गाढ कारण के उपस्थित होने पर यदि श्रमणोपासक अनुकम्पावश तथारूप श्रमण के प्राण बचाने या जीवनरक्षा की दृष्टि से अप्रासुक और अनेषणीय आहार या औषध आदि दे देता है, और साधु वैसी दुःसाध्य रोग या प्राणसंकट की परिस्थिति में अप्रासुक-अनेषणीय भी अपवादरूप में ले लेता है, बाद में प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने की उसकी भावना है, तो ऐसी परिस्थिति में उक्त विवेकी श्रावक को 'बहुत निर्जरा और अल्प पाप' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 360-361 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा., 3 पृ-१३९४ 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 373-374, (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3, पृ. 1395 Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होता है। बिना ही कारण के यों ही अप्रासुक-अनेषणीय आहार साधु को देने वाले और लेने वाले दोनों का अहित है।' गृहस्थ द्वारा स्वयं या स्थविर के निमित्त कह कर दिये गए पिण्ड, पात्र आदि की उपभोग-मर्यादा-प्ररूपरणा 4. [1] निगथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठ केइ दोहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा--एगं पाउसो! अप्पणा भुजाहि, एगं थेराणं वलयाहि, से य तं पिडं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसियन्वा सिया, जत्थेव अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेवाऽणुप्पदायब्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिले पडिलेहेत्ता, पमज्जित्ता परिढावेतब्वे लिया। [4.1] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने को (बहरने) की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गहस्थ दो पिण्ड (खाद्य पदार्थ) ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे—'आयूष्मन श्रमण ! इन दो पिण्डों (दो लड्ड, दो रोटी या दो अन्य खाद्य पदार्थों) में से एक पिण्ड पाप स्वयं खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना / (इस पर) वह निर्ग्रन्थ श्रमण उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले और (स्थान पर आ कर) स्थविरों को गवेषणा करे / गवेषणा करने पर उन स्थविर मुनियों को जहाँ देखे, वहीं वह पिण्ड उन्हें दे दे। यदि गवेषणा करने पर भी स्थविरमुनि कहीं न दिखाई दें (मिलें) तो वह पिण्ड स्वयं न खाए और न ही दूसरे किसी श्रमण को दे, किन्तु एकान्त, अनापात (जहाँ आवागमन न हो), अचित्त या बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके वहाँ (उस पिण्ड को) परिष्ठापन करे (परठ दे)। [2] निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिउवायपडियाए प्रणपविलू केति तिहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा--एगं पाउसो ! प्रप्पणा भजाहि, दो थेराणं दलयाहि, से य ते पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसेयन्वा, सेसं तं चेव जाव परिद्वावेयवे सिया। [4-2] गृहस्थ के घर में ग्राहार ग्रहण करने के विचार से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ को कोई गृहस्थ तीन पिण्ड ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे-'प्रायष्मन श्रमण ! (इन तीनों में से) एक पिण्ड आप स्वयं खाना, और (शेष) दो पिण्ड स्थविर श्रमणों को देना।' (इस पर वह निन्थ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले। तत्पश्चात् वह स्थविरों की गवेषणा करे। गवेषणा करने पर जहाँ उन स्थविरों को देखे, वहीं उन्हें वे दोनों पिण्ड दे दे। गवेषणा करने पर भी वे कहीं दिखाई न दें तो शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए, यावत् स्वयं न खाए, परिष्ठापन करे (परठ दे)। [3] एवं जाव दहि पिडेहि उवनिमंतेज्जा, नवरं एग पाउसो! अप्पणा भुजाहि, नव थेराणं दलयाहि. सेसं तं चेव जाव परिहावेतवे सिया। [4-3] इसी प्रकार गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निम्रन्थ को यावत् दस पिण्डों को ग्रहण करने 1. "संथरणम्मि असुद्ध दोण्ह वि गेण्हदितयाणऽहियं / आउरदिदतेणं तं चेव हियं असंथरणे॥" --भगवती. अ. वत्ति, पत्रांक 373 Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ ] [315 के लिए कोई गृहस्थ उपनिमंत्रण दे--'पायुष्मन् श्रमण ! इनमें से एक पिण्ड आप स्वयं खाना और शेष नौ पिण्ड स्थविरों को देना;' इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना; यावत् परिष्ठापन करे (परठ दे) / 5. [1] निग्गंथं च णं गाहावइ जाव केइ दोहि पडिग्गहेहि उवनिमंतेज्जा---एगं पाउसो! अप्पणा परिभुजाहि, एग थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गाहेज्जा, तहेव जाव तं नो अप्पणा परिभुजेउजा, नो अन्नेसि दावए / सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयवे सिया। _[5-1] निग्रन्थ यावत् गृहपति-कुल में प्रवेश करे और कोई गृहस्थ उसे दो पात्र (पतद्ग्रह) ग्रहण करने (बहरने) के लिए उपनिमंत्रण करे--'अायुष्मन् श्रमण ! (इन दोनों में से) एक पात्र का आप स्वयं उपयोग करना और दूसरा पात्र स्थविरों को दे देना।' इस पर वह निग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर ले / शेष सारा वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए, यावत् उस पात्र का न तो स्वयं उपयोग करे, और न दूसरे साधुनों को दे; शेष सारा वर्णन पूर्ववत् समझना, यावत् उसे परठ दे / [2] एवं जाव दसहि पडिग्गहेहि / [5-2] इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिण्ड के समान कहना चाहिए। 6. एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया एवं गोच्छग-रयहरण-चोलपट्टग-कंबल-लट्ठी-संथारगवत्तवया य भाणियव्वा जाव दसहि संथारएहि उनिमंतेज्जा जाव परिहावेयध्वे सिया। [6] जिस प्रकार पात्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही, उसी प्रकार गुच्छक (पूजनी), रजोहरण, चोलपट्टक, कम्बल, लाठी, (दण्ड) और संस्तारक (बिछौना या बिछाने का लम्बा आसन-संथारिया) की वक्तव्यता कहनी चाहिए, यावत् दस संस्तारक ग्रहण करने के लिए उपनिमंत्रण करे, यावत् परठ दे, (यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए)। विवेचन-गृहस्थ द्वारा दिये गए पिण्ड, पात्र प्रादि की उपमोग-मर्यादा-प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को दिये गए पिण्ड, पात्र प्रादि के उपभोग करने की विधि बताई गई है। निष्कर्ष-गृहस्थ ने जो पिण्ड, पात्र, गुच्छक, रजोहरण आदि जितनी संख्या में जिसको उपभोग करने के लिए दिए हैं, उसे ग्रहण करने वाला साधु उसी प्रकार स्थविरों को वितरित कर दे, किन्तु यदि वे स्थविर ढूढ़ने पर भी न मिले तो उस वस्तु का उपयोग न स्वयं करे और न ही दूसरे साधु को दे, अपितु उसे विधिपूर्वक परठ दे। परिष्ठापनविधि-किसी भी वस्तु को स्थण्डिल भूमि पर परिष्ठापन करने के लिए मूलपाठ में स्थण्डिल के 4 विशेषण दिये गए हैं--एकान्त, अनापात, अचित्त और बहुप्रासुक / तथा उस पर परिष्ठापनविधि मुख्यतया दो प्रकार से बताई है-प्रतिलेखन और प्रमार्जन / ' स्थण्डिल-प्रतिलेखन-विवेक-परिष्ठापन के लिए स्थण्डिल कैसा होना चाहिए? इसके लिए शास्त्र में 10 विशेषण बताए गए है—(१) प्रनापात-प्रसंलोक (जहाँ स्वपक्ष-परपक्ष वाले लोगों में से 1. वियाहपण्णत्तिगुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 361-362 Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] [ व्याख्याप्राप्तिसूत्र किसी का भी आवागमन न हो, न ही दृष्टिपात हो), (2) अनुपधातक (जहाँ संयम की, किसी जीव की एवं आत्मा की विराधना न हो), (3) सम (भूमि ऊबड़खाबड़ न होकर समतल हो), (4) अशुषिर (पोली या थोथी भूमि न हो), (5) अचिरकालकृत (जो भूमि थोड़े ही समय पूर्व दाह आदि से अचित्त हुई हो), (6) विस्तीर्ण (जो भूमि कम से कम एक हाथ लम्बी-चौड़ी हो), (7) दूरावगाढ (जहां कम से कम चार अंगुल नीचे तक भूमि अचित्त हो), (8) अनासन्न (जहाँ गाँव या बागबीचा आदि निकट में न हो) (6) बिलजित (जहाँ चूहे आदि के बिल न हों), (10) स-प्राण-बीजरहित (जहाँ द्वीन्द्रियादि सप्राणी तथा गेहूं आदि के बीज न हों)। इन दस विशेषणों से युक्त स्थण्डिल भूमि में साधु उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) आदि वस्तु परठे।' विशिष्ट शन्दों को व्याख्या-पिंडवायपडिवाए'—पिण्ड = भोजन का पात–निपतन मेरे पात्र में हो, इसकी प्रतिज्ञा = बुद्धि से। 'उनिमंतेज्ज' = भिक्षो! ये दो पिण्ड ग्रहण कीजिए, इस प्रकार कहे। नो अन्नेसि दावए - दूसरों को न दे या दिलाये, क्योंकि गृहस्थ ने वह पिण्ड आदि विवक्षित स्थविर को देने के लिए दिया है, अन्य किसी को देने के लिए नहीं। अन्य साधु को देने या स्वयं उसका उपभोग करने से अदत्तादानदोष लगने की सम्भावना है। अकृत्यसेवी, किन्तु आराधनातत्पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी की आराधकता की विभिन्न पहलुओं से सयुक्तिक प्ररूपरणा --- 7. [1] निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविठेणं प्रनयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति-इहेब ताव अहं एयरस ठाणस्स पालोएमि पडिक्कमामि निदामि गरिहामि विउट्टामि विसोहेमि अकरणयाए अन्भुठेमि, प्रहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जामि, तो पच्छा थेराणं अंतियं पालोएस्सामि जाव तवोकम्म पडिज्जिस्सामि / से य संपदिए, प्रसंपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! कि धाराहए विराहए ? गोयमा! पाराहए, नो विराहए। [7-1 प्र.] गृहस्थ के घर पाहार ग्रहण करने की बुद्धि से प्रविष्ट निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्य (मूलगुण में दोषरूप किसी अकार्य) स्थान (बात) का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि प्रथम मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, (प्रात्म-) निन्दा (पश्चात्ताप) और गर्दी करू; (उसके अनुबन्ध का) छेदन करू, इस (पाप-दोष से) विशुद्ध बन, 1. (क) अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए / आवायमसंलोए, आवाए चेव होई संलोए // 1 // अणावायमसंलोए 1 परस्सऽणुवघाइए 2 / समे 3 असिरे 4 यावि अचिरकालकर्याम्म 5 य // 2 // वित्थिपणे 6 दूरमोगाढे 7 पासण्णे 8 बिलवज्जिए 9 / तसपाण-बीयरहिए, 10 उच्चाराईणि बोसिरे // 3 // --उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 24 (ख) भगवती. अ वृत्ति, पत्रांक 375 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 374-375 Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ / [ 317 पुनः ऐसा अकृत्य न करने के लिए अभ्युद्यत (प्रतिज्ञाबद्ध) होऊँ; और यथोचित प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लू / तत्पश्चात् स्थविरों के पास जाकर आलोचना करूंगा, यावत् प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लूगा / (ऐसा विचार कर) वह निम्रन्थ, स्थविरमुनियों के पास जाने के लिए रवाना हुआ; किन्तु स्थविरमुनियों के पास पहुँचने से पहले ही वे स्थविर (वातादिदोष के प्रकोप से) मूक हो जाएँ (बोल न सके अर्थात् प्रायश्चित्त न दे सके) तो हे भगवन् ! वह निर्गन्थ प्राराधक है या विराधक है ? [7-1 उ.] गौतम ! वह (निर्गन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। [2] से य संपढिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव अमुहे सिया, से गं भंते ! कि पाराहए, विराहए? गोयमा ! पाराहए, नो विराहए। [7-2 प्र.] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्काल स्वयं आलोचनादि कर लिया, यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म भी स्वीकार कर लिया,) तत्पश्चात् स्थविरमुनियों के पास (आलोचनादि करके यावत् तपःकर्म स्वीकार करने हेतु) निकला, किन्तु उनके पास पहुँचने से पूर्व ही वह निग्रन्थ स्वयं (वातादि दोषवश) मूक हो जाए, तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? [7-2 उ.] गौतम ! वह (निर्गन्थ) आराधक है, विराधक नहीं / [3] से य संपढ़िए, प्रसंपत्ते थेरा य कालं करेज्जा, से णं भंते ! कि पाराहए विराहए ? गोयमा ! पाराहए, नो विराहए। [7-3 प्र.] (उपर्युक्त प्रकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ स्वयं आलोचनादि करके यथोचित प्रायश्चित्त रूप तप स्वीकार करके) स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि के लिए रवाना हुआ, किन्तु उसके पहुँचने से पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर (दिवंगत हो) जाएं, तो हे भगवन् ! वह निग्रन्थ आराधक है विराधक ? [7-3 उ. गौतम ! वह निम्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं / [4] से य संपट्टिए प्रसंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेज्जा, से णं भंते ! कि पाराहए विराहए? गोयमा ! पाराहए, नो विराहए। [7-4 प्र. भगवन् ! (उपर्युक्त अकृत्य-सेवन करके तत्काल स्वयं पालोचनादि करके) वह निम्रन्थ स्थविरों के पास आलोचनादि करने के लिए निकला, किन्तु वहाँ पहुँचा नहीं, उससे पूर्व ही स्वयं काल कर जाए तो हे भगवन् ! वह निर्ग्रन्थ आराधक है या विराधक ? [7-4 उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5] से य संपढ़िए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं पाराहए विराहए ? गोयमा! पाराहए, नो विराहए। [7-5 प्र.] उपर्युक्त अकृत्यसेवी निर्ग्रन्थ ने तत्क्षण आलोचनादि करके स्थविर मुनिवरों के पास आलोचनादि करने हेतु प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुँच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि (वातादिदोषक्श) मूक हो जाएँ, तो हे भगवन् ! बह निनन्थ पाराधक है या विराधक ? [7-5 उ.] गौतम ! वह (निर्ग्रन्थ) आराधक है, विराधक नहीं। [6.8] से य संपट्टिए संपत्ते अघ्पणा य० / एवं संपत्तण वि चत्तारि पालावगा भाणियन्वा जहेव असंपत्तेणं / [7-67 / 8] (उपर्युक्त अकृत्यसेवी मुनि स्वयं पालोचनादि करके स्थविरों की सेवा में पहुँचते ही स्वयं मूक हो जाए, (इसी तरह शेष दो विकल्प हैं-स्थविरों के पास पहुँचते ही वे स्थविर काल कर जाएँ, या स्थविरों के पास पहुँचते ही स्वयं निम्रन्थ काल कर जाए;) जिस प्रकार असंप्राप्त (स्थविरों के पास न पहुंचे हुए) निर्ग्रन्थ के चार आलापक कहे गए हैं, उसी प्रकार सम्प्राप्त निर्गन्थ के भी चार आलापक कहने चाहिए। यावत् (चारों आलापकों में) वह निग्नन्थ पाराधक है, विराधक नहीं। 8. निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्खतेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति--इहेव ताव अहं / एवं एत्थ वि, ते चेव अट्ठ पालावगा भाणियन्वा जाव नो विराहए। [8] (उपाश्रय से) बाहर विचारभूमि (नीहारार्थ स्थण्डिलभूमि) अथवा विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) की ओर निकले हुए निर्गन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो, तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार हो कि 'पहले मैं स्वयं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करू, यावत् यथार्ह प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर लू, इत्यादि पूर्ववत् सारा वर्णन यहाँ कहना चाहिए / यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से असम्प्राप्त और सम्प्राप्त दोनों के (प्रत्येक के स्थविरमूकत्व, स्वमूकत्व, स्थविरकाल प्राप्ति और स्वकालप्राप्ति, यों चार-चार आलापक होने से) आठ आलापक कहने चाहिए। यावत् वह निग्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं; यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए। 6. निम्गंथेग य गामाणगामं दूइज्जमाणेणं अन्नयरे अकिच्चट्टाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति–इहेव ताव अहं० / एस्थ वि ते चेव अट्ठ प्रालावगा भाणियव्वा जाव नो विराहए। [6] ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी निर्ग्रन्थ द्वारा किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन हो गया हो और तत्काल उसके मन में यह विचार स्फुरित हो कि 'पहले मैं यहीं इस अकृत्य की आलोचनादि करू; यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार करू; इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / यहाँ भी पूर्ववत् पाठ पालापक कहने चाहिए, यावत् वह निम्रन्थ आराधक है, विराधक नहीं, यहाँ तक समग्न पाठ कहना चाहिए। Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ ] [ 316 10. [1] निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अनयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स पालोएमि जाव तवोकम्म पडिवज्जामि तम्रो पच्छा पवत्तिणीए अंतियं पालोएस्सामि जाव परिवज्जिस्सामि, सा य संपट्ठिया प्रसंपत्ता, पत्तिणी य प्रमुहा सिया, साणं भंते ! कि आराहिया, विराहिया ? गोयमा ! पाराहिया, नो बिराहिया / [10-1 प्र.] गृहस्थ के घर में आहार ग्रहण करने (पिण्डपात) की बुद्धि से प्रविष्ट किसी निर्गन्थी (साध्वी) ने किसी प्रकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, किन्तु तत्काल उसको ऐसा विचार स्फुरित हुअा कि मैं स्वयमेव पहले यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना कर लू, यावत् प्रायश्चित्तरूप तपःकर्म स्वीकार कर ल। तत्पश्चात् प्रवर्तिनी के पास पालोचना कर लगी यावत् तपःकर्म स्वीकार कर लूगी। ऐसा विचार कर उस साध्वी ने प्रतिनी के पास जाने के लिए प्रस्थान किया, प्रवर्तिनी के पास पहुँचने से पूर्व ही वह प्रवर्तिनी (वातादिदोष के कारण) मुक हो गई, (उसकी जिह्वा बंद हो गई-बोल न सकी), तो हे भगवन् ! वह साध्वी पाराधक है या विराधक ? [10-1 उ.] गौतम ! वह साध्वी प्राराधिका है, विराधिका नहीं / [2] साय संपदिया जहा निग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं निग्गंथीए वि तिष्णि पालावगा माणियन्वा जाव प्राराहिया, नो विराहिया। [10-2] जिस प्रकार संप्रस्थित (आलोचनादि के हेतु स्थविरों के पास जाने के लिए रवाना हुए) निर्ग्रन्थ के तीन गम (पाठ) उसी प्रकार सम्प्रस्थित (प्रवर्तिनी के पास आलोचनादि हेतु रवाना हुई) साध्वी के भी तीन गम (पाठ) कहने चाहिए, यावत् वह साध्वी पाराधिका है, विराधिका नहीं, यहाँ तक सारा पाठ कहना चाहिए / 11. [1] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पाराहए, नो विराहए? "गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं उणालोमं वा गयलोमं वा सणलोमं वा कप्पासलोमं वा तणसूयं वा दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेज्जा, से नूर्ण गोयमा ! छिज्जमाणे छिन्ने, पक्खिपमाणे पक्खित्ते, उज्झमाणे दड्ढे ति वत्तम्बं सिया? हंता भगवं ! छिज्जमाणे छिन्ने जाव दड्ढे त्ति वत्तव्वं सिया। hon ho k [11-1 प्र.] भगवन् ! किस कारण से प्राप कहते हैं, कि वे (पूर्वोक्त प्रकार के साधु और साध्वी) पाराधक हैं, विराधक नहीं ? [11-1 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष एक बड़े ऊन (भेड़) के बाल के या हाथी के रोम के अथवा सण के रेशे के या कपास के रेशे के अथवा तण (घास) के अग्रभाग के दो, तीन या संख्यात टुकड़े करके अग्निकाय (आग) में डाले तो हे गौतम ! काटे जाते हुए वे (टुकड़े) काटे गए, अग्नि में ले जाते हुए को डाले गए, या जलते हुए को जल गए, इस प्रकार कहा जा सकता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ भगवन् ! काटते हुए काटे गए, अग्नि में डालते हुए डाले गए और जलते हुए जल गए; यों कहा जा सकता है / Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ " [2] से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा धोतं वा तंतुग्गयं वा मंजिट्ठादोणीए पक्खि. वेज्जा, से नूर्ण गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उविखत्ते, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, रज्जमाणे रत्ते त्ति वत्तवं सिया? हता, भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्ते त्ति वत्तवं सिया। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पाराहए, नो विराहए"। [11-2] भगवान् का कथन-अथवा जैसे कोई पुरुष बिलकुल नये (नहीं पहने हुए), या धोये हुए, अथवा तंत्र (करघे) से तुरंत उतरे हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण (पात्र) में डाले तो हे गौतम ! उठाते हुए वह वस्त्र उठाया गया, डालते हुए डाला गया, अथवा रंगते हुए रंगा गया, यों कहा जा सकता है ? गौतम स्वामी-] हाँ, भगवन् उठाते हुए वह वस्त्र उठाया गया, यावत् रंगते हुए रंगा गया, इस प्रकार कहा जा सकता है / भगवान्--] इसी कारण से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि (आराधना के लिए उद्यत हुए साधु या साध्वी) पाराधक हैं, विराधक नहीं। विवेचन-अकृत्यसेवी किन्तु आराधनातत्पर निग्रंथ-निर्गन्थी की विभिन्न पहलुनों से प्राराधकता की सयुक्तिक प्ररूपणा प्रस्तुत पांच सूत्रों में प्रकृत्यसेवी किन्तु सावधान तथा क्रमश: स्थविरों व प्रवतिनी के समीप आलोचनादि के लिए प्रस्थित साधु या साध्वी की आराधकता का सदृष्टान्त प्ररूपण किया गया है। निष्कर्ष-किसी साधु या साध्वी से भिक्षाचरी जाते, स्थंडिल भूमि या विहारभूमि (स्वाध्यायभूमि) जाते या ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए कहीं भी मूलगुणादि में दोषरूप किसी अकृत्य का सेवन हो गया हो, किन्तु तत्काल वह विचारपूर्वक स्वयं पालोचनादि करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाता है, और अपने गुरुजनों के पास आलोचनादि करके प्रायश्चित्त लेने हेतु प्रस्थान कर देता है, किन्तु संयोगवश पहुँचने से पूर्व ही गुरुजन मूक हो जाते हैं, या काल कर जाते हैं, अथवा स्वयं साधु या साध्वी मुक हो जाते हैं या काल कर जाते हैं, इसी तरह पहुँचने के बाद भी इन चार अवस्था थानों में से कोई एक अवस्था प्राप्त होती है तो वह साध या साध्वी आराधक है, विराधक नहीं। कारण यह है कि उस साधु या साध्वी के परिणाम गुरुजनों के पास आलोचनादि करने के थे, और वे इसके लिए उद्यत भी हो गए थे, किन्तु उपयुक्त 8 प्रकार की परिस्थितियों में से किसी भी परिस्थितिवश वे पालोचनादि न कर सके, ऐसी स्थिति में 'चलमाणे चलिए' इत्यादि पूर्वोक्त भगवत्सिद्धान्तानुसार वे आराधक ही हैं, विराधक नहीं।' दष्टान्तों द्वारा प्राराधकता की पुष्टि-भगवान ने "चलमाणे चलिए" के सिद्धान्तानुसार ऊन. सण, कपास आदि तन्तयों को काटने, आग में डालने और जलाने का तथा नये धोए हए वस्त्र को मंजीठ के रंग में डालने और रंगने का सयुक्तिक दृष्टान्त देकर आराधना के लिए उद्यत साधक को आराधक सिद्ध किया है। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, 376 (ख) भगवती. हिन्दीविवेचनयुक्त भा. 3, पृ. 1405 Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक 6 ] [ 321 आराधक विराधक की व्याख्या--आराधक का अर्थ यहाँ मोक्षमार्ग का पाराधक तथा भाव शुद्ध होने से शुद्ध है। जैसे कि मृत्यु को लेकर कहा गया है-आलोचना के सम्यक् परिणामसहित कोई साधु गुरु के पास आलोचनादि करने के लिए चल दिया है, किन्तु यदि बीच में ही वह साधु (पालोचना करने से पूर्व ही) रास्ते में काल कर गया, तो भी वह भाव से शुद्ध है।' स्वयं आलोचनादि करने वाला वह साधु गीतार्थ होना सम्भव है। तीन पाठ (गम)-(१) पाहारग्रहणार्थ गृहस्थगृह-प्रविष्ट, (2) विचारभूमि आदि में तथा (3) ग्रामानुग्राम-विचरण में / जलते हुए दीपक और घर में, जलने वाली वस्तु का निरूपरण 12. पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स कि पदोवे झियाति, लट्टी झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाइ, दीवचंपए झियाइ, जोती झियाइ ? गोयमा ! नो पदीवे झियाइ, जाव नो दीवचंपए झियाइ, जोती झियाइ। [12 प्र.] भगवन् ! जलते हुए दीपक में क्या जलता है ? क्या दीपक जलता है ? दीपयष्टि (दीवट) जलती है ? बत्ती जलती है ? तेल जलता है ? दीपचम्पक (दीपक का ढक्कन) जलता है, या ज्योति (दीपशिखा) जलती है ? / [12 उ.] गौतम ! दीपक नहीं जलता, यावत् दीपक का ढक्कन भी नहीं जलता, किन्तु ज्योति (दीपशिखा) जलती है। 13. अगारस्स गं भंते ! झियायमाणल्स कि अगारे झियाइ, कुड्डा झियायंति, कडणा झियायंति, धारणा झियायंति, बलहरणे झियाइ, वंसा झियायंति, मल्ला झियायंति, बग्गा झियायंति, छित्तरा झियायंति, छाणे झियाति, जोती झियाति ? गोयमा ! नो अगारे झियाति, नो कुड्डा झियाति, जाव नो छाणे झियाति, जोती झियाति / [13 प्र.] भगवन् ! जलते हुए घर (आगार) में क्या जलता है ? क्या घर जलता है ? भीतें जलती हैं ? टाटी (खसखस आदि की टाटी या पतली दीवार) जलती हैं ? धारण (नीचे के मुख्य स्तम्भ) जलते हैं ? बलहरण (मुख्य स्तम्भ-धारण पर रहने वाली प्राडी लम्बी लकड़ी बल्ली) जलता है ? बांस जलते हैं ? मल्ल (भीतों के आधारभूत स्तम्भ) जलते हैं ? वर्ग (बांस आदि को बांधने वाली छाल) जलते हैं ? छित्वर (बांस आदि को ढकने के लिए डाली हुई चटाई या छप्पर) जलते हैं ? छादन (छाण-दर्भादियुक्त पटल) जलता है अथवा ज्योति (अग्नि) जलती है ? [13 उ.] गौतम ! घर नहीं जलता, भीतें नहीं जलती, यावत् छादन नहीं जलता, किन्तु ज्योति (अग्नि) जलती है। विवेचन-जलते हुए दीपक और घर में, जलने वाली वस्तु का विश्लेषण प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 12-13) में दीपक और घर का उदाहरण दे कर इनमें वास्तविक रूप में जलने वाली वस्तुदीपशिखा और अग्नि बताई गई है। ___अगार का विशेषार्थ-अगार से यहाँ घर ऐसा समझना चाहिए जो कुटी या झोंपड़ीनुमा हो / 1. "पालोयणा-परिणनो सम्म संपट्ठियो गुरुसगासे / जइ मरइ अंतरे च्चिय तहावि सुद्धोति भावाप्रो ॥"-भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 376 Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एक जीव या बहुत जीवों को परकीय (एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली) क्रियाओं का निरूपण 14. जीवे णं भंते ! प्रोरालियसरीरामो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिए पंचकिरिए, सिय अकिरिए। [.14 प्र.) भगवन् ! एक जीव (स्वकीय औदारिक शरीर से, परकीय) एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [14 उ.] मौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला, कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है और कदाचित् अक्रिय भी होता है / 15. नेरइए णं भंते ! पोरालियसरीराओ कतिकिरिए ? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए सिए पंचकिरिए / [15 प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक जीव, दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [15 उ.} गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है / 16. असुरकुमारे णं भंते ! अोरालयसरीरानो कतिकिरिए ? एवं चेव / [16 प्र.] भगवन् ! एक असुरकुमार, (दूसरे के) एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [16 उ.] गौतम ! पहले कहे अनुसार (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला) होता है। 17. एवं जाव वेमाणिय, नवरं मणुस्से जहा जीवे (सु. 14) / [17] इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक कहना चाहिए। परन्तु मनुष्य का कथन औधिक जीव की तरह जानना चाहिए। 18. जीचे णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए जाब सिय अकिरिए। [18 प्र.] भगवन् ! एक जीव (दूसरे जीवों के) औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [18 उ.] गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया बाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला, तथा कदाचित् अक्रिय (क्रियारहित) भी होता है। Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६ ] [ 323 16. नेरइए णं भंते ! पोरालियसरोरेहितो कतिकिरिए ? एवं एसो जहा पढमो दंडनो (सु. 15-17) तहा इमो वि अपरिसेसो भाणियन्वो जाव बेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जोवे (सु. 18) / _[16 प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक जीव, (दूसरे जीवों के) औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [16 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम दण्डक (सू. 15 से 17) में कहा गया है उसी प्रकार यह दण्डक भी सारा का सारा यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए; परन्तु मनुष्य का कथन सामान्य (औधिक) जीवों की तरह (सू. 18 में कहे अनुसार) जानना चाहिए / 20. जीवा णं भंते ! पोरालियसरीरामो कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया / [20 प्र.) भगवन् ! बहुत-से जीव, दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? _ [20 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं, तथा कदाचित् अक्रिय भी होते हैं / / 21. नेरइया णं भंते ! प्रोरालियसरीरामो कतिकिरिया ? __ एवं एसो वि जहा पढमो दंडगो (सु. 15-17) तहा भाणियन्वो जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा (सु. 20) / [21 प्र.] भगवन् ! बहुत-से नैरयिक जीव, दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया बाले होते हैं ? [21 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम दण्डक (सू. 15 से 17 तक) में कहा गया है, उसी प्रकार यह (दण्डक) भी यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए / विशेष यह है कि मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह (सू. 18 के अनुसार) जानना चाहिए / 22. जीवा गं भंते ! पोरालियसरीरेहितो कतिकिरिया ? गोधमा ! तिकिरिया वि, चकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि। 22 प्र.] भगवन् ! बहुत-से जीव, दूसरे जीवों के औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [22 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले और कदाचित् अक्रिय भी होते हैं। 23. नेरइया णं भंते ! पोरालियसरीरेहितो कइकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि। Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] व्याख्याप्रप्तिसूत्र [23 प्र.] भगवन् ! बहुत-से नैरयिक जीव, दूसरे जीवों के प्रौदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [23 उ. गौतम ! वे तीन क्रिया वाले भी, चार क्रिया वाले भी और पांच क्रिया वाले भी होते हैं। 24. एवं जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा (सु 22) / [24] इसी तरह यावत् वैमानिक-पर्यन्त समझना चाहिए। विशेष इतना ही है कि मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह (सू. 22 में कहे अनुसार) जानना चाहिए। 25. जीवे णं भंते ! वेउब्वियसरीराम्रो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउ किरिए, सिप अकिरिए। [25 प्र.] भगवन् ! एक जीव, (दूसरे एक जीव के) वैक्रियशरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? {25 उ.] गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् क्रियारहित होता है। 26. नेरइए णं भंते ! वेउब्वियसरीरामो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए। [26 प्र.] 'भगवन् ! एक नैरयिक जीव, (दूसरे एक जीव के) वैक्रिय शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है। 27. एवं जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे (सु 25) / [27] इस प्रकार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए। किन्तु मनुष्य का कथन औधिक जीव की तरह (सू. 25) कहना चाहिए। 28. एवं जहा पोरालियसरीरेणं चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउध्वियसरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियन्वा, नवरं पंचकिरिया न भण्णइ, सेसं तं चेव / [28] जिस प्रकार औदारिकशरीर की अपेक्षा चार दण्डक कहे गए, उसी प्रकार वैक्रियशरीर की अपेक्षा भी चार दण्डक कहने चाहिए / विशेषता इतनी है कि इसमें पंचम क्रिया का कथन नहीं करना चाहिए / शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। 26. एवं जहा वे उब्वियं तहा आहारगं पि, तेयगं पि, कम्मगं पि भाणियव्वं / एक्केक्के चत्तारि दंडगा भाणियन्या जाव वेमाणिया गं भंते ! कम्मगसरीरेहितो कइकिरिया? Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-६] गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // अट्ठमसए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो / [29] जिस प्रकार वैक्रियशरीर का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक, तैजस और कार्मण शरीर का भी कथन करना चाहिए। इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार दण्डक कहने चाहिए, यावत्-(प्रश्न-) 'भगवन् ! बहुत-से वैमानिक देव (परकीय) कार्मण शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ?' (उत्तर) 'गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं'; यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् / यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; (यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करते हैं।) ___ विवेचन—एक जीव या बहत जीवों को परकीय एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली क्रियाओं का निरूपण-प्रस्तुत 16 सूत्रों (मू. 14 से 26 तक) में औधिक एक या बहुत जीवों तथा नैरपिक से लेकर वैमानिक तक एक या बहुत जीवों को, परकीय एक या बहुत-से औदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से होने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया है। अन्य जीव के प्रौदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का प्राशय-कायिकी आदि पांच क्रियाएँ हैं, जिनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है / जब एक जीव, दूसरे पृथ्वी कायादि जीव के शरीर की अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ होती हैं-कायिकी, आधिकारणिकी और प्राषिकी / क्योंकि सराग जीव को कायिकक्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी तथा प्राषिकी क्रिया अवश्य होती है, क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरण रूप और प्रद्वेषयुक्त होती है। प्राधिकरणिकी, प्राषिकी और कायिकी, इन तीनों क्रियाओं का अविनाभावसम्बन्ध है / जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके प्राधिकरणिको और प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती हैं, जिस जीव के ये दो क्रियाएँ होती हैं, उसके कायिकी क्रिया भी अवश्य होती है। पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी क्रिया में भजना (विकल्प) है; जब जीव, दूसरे जीव को परिताप पहुँचाता है अथवा दूसरे के प्राणों का घात करता है, तभी क्रमशः पारितापनिकी अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। अत: जब जीव, दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ होती हैं, क्योंकि पारितापनिकी क्रिया में पहले की तीन क्रियाओं का सद्भाव अवश्य रहता है / जब जीव, दूसरे जीव के प्राणों का घात करता है, तब उसे पांच क्रियाएँ होती हैं। क्योंकि प्राणातिपातिको क्रिया में पूर्व की चार क्रियाओं का सद्भाव अवश्य होता है। इसीलिए मूलपाठ में जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रिया वाला कहा गया है / जीव कदाचित् अक्रिय भी होता है, यह बात वीतराग अवस्था की अपेक्षा से कही गई है, क्योंकि उस अवस्था में पांचों में से एक भी क्रिया नहीं होती। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 377 "जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ, तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कज्जइ, जस्स अहिंगरणिया किरिया कज्जइ, तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जई।" "जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ, तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जइ, सिय नो कज्जई" इत्यादि। -प्रज्ञापनामुत्र क्रियापद Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 ] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नैरयिक जीव, जब औदारिकशरीरधारी पृथ्वीकायादि जीवों का स्पर्श करता है, तब उसके तीन क्रियाएँ होती हैं; जब उन्हें परिताप उत्पन्न करता है, तब चार और जब उनका प्राणघात करता है, तब पांच क्रियाएँ होती हैं / नैरयिक जीव अक्रिय नहीं होता, क्योंकि वह वीतराग नहीं हो सकता / मनुष्य के सिवाय शेष 23 दण्डकों के जीव अक्रिय नहीं होते। किस शरीर की अपेक्षा कितने पालापक ?-औदारिक शरीर की अपेक्षा चार दण्डक (पालापक)-(१) एक जीव को, परकीय एक शरीर की अपेक्षा, (2) एक जीव को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा, (3) बहुत जीवों को परकीय एक शरीर की अपेक्षा और (4) बहुत जीवों को, बहुत जीवों के शरीर की अपेक्षा। इसी तरह शेष चार शरीरों के भी प्रत्येक के चार-चार दण्डकपालापक कहने चाहिए। प्रौदारिक शरीर के अतिरिक्त शेष चार शरीरों का विनाश नहीं हो सकता। इसलिए वैक्रिय, तेजस, कार्मण और आहारक इन चार शरीरों की अपेक्षा जीव कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है / किन्तु पांच क्रिया वाला नहीं होता / अतः वैत्रिय आदि चार शरीरों की अपेक्षा प्रत्येक के चौथे दण्डक में, 'कदाचित्' शब्द नहीं कहना चाहिए / नरकस्थित नैरयिक जीव को मनुष्यलोकस्थित आहारक शरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला बताया गया है, उसका रहस्य यह है कि नैरयिकजीव ने अपने पूर्वभव के शरीर का विवेक (विरति) के अभाव में व्युत्सजन नहीं किया (त्याग नहीं किया), इसलिए उस जीव द्वारा बनाया हुश्रा वह (भूतपूर्व) शरीर जब तक शरीरपरिणाम का सर्वथा त्याग नहीं कर देता, तब तक अंशरूप में भी शरीर परिणाम को प्राप्त वह शरीर, पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा 'घतघट' न्याय से (घी निकालने पर भी उसे भूतपूर्व घट को अपेक्षा 'घी का घड़ा' कहा जाता है, तद्वत् ) उसी का कहलाता है / अतः उस मनुष्यलोकवर्ती (भूतपूर्व) शरीर के अंशरूप अस्थि (हड्डी) आदि से माहारकशरीर का स्पर्श होता है, अथवा उसे परिताप उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से नैरयिक जीव आहारकशरीर की अपेक्षा तीन या चार क्रिया वाला होता है। इसी प्रकार देव आदि तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिए। तैजस, कार्मण शरीर की अपेक्षा जीवों को तीन या चार क्रिया वाला बताया है। वह औदारिकादि शरीराश्रित तैजस-कार्मण शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि केवल तैजम या कार्मण शरीर को परिताप नहीं पहुँचाया जा सकता। / / अष्टम शतक : छठा उद्देशक समाप्त // . Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'अदत्ते' सप्तम उद्देशक : 'प्रदत्त' अन्यतीथिकों के साथ अदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णन 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे। वण्णो / गुणसिलए चेइए। वण्णमो, जाव पुढविसिलावट्टयो / तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्न उत्थिया परिवति / [1] उस काल और उस समय में राजगह नामक नगर था। उसका वर्णन औपपातिकसूत्र के नगरीवर्णन के समान जान लेना चाहिए। वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था। उसका वर्णक / यावत् पृथ्वी शिलापट्टक था। उस गुणशीलक चैत्य के आसपास (न बहुत दूर, न बहुत निकट) बहुत-से अन्यतीर्थिक रहते थे। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे प्रादिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया। [2] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर धर्मतीर्थ की आदि (स्थापना) करने वाले यावत् समवसृत हुए (पधारे) यावत् धर्मोपदेश सुनकर परिषद् वापिस चली गई। 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपला कुलसंपन्ना जहा बिलियसए (स. 2 उ. 5 सु. 12) नाव जीवियासामरणभयविप्पमुक्का समणस्स भगवश्री महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोषगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा जाब विहरति / [3] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के बहुत-से शिष्य स्थविर भगवन्त जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न इत्यादि दूसरे शतक में वर्णित गुणों से युक्त यावत् जीवन की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे। वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न अतिदूर, न प्रतिनिकट ऊर्ध्व जानु (घुटने खड़े रख कर), अधोशिरस्क (नीचे मस्तक नमा कर) ध्यानरूप कोष्ठ को प्राप्त होकर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे / ___ 4. तए णं ते अन्नउत्थिया जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं क्यासी-तुम्भे गं प्रज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजयप्रविरयसपडिहय जहा सत्तमसए बितिए उद्देसए (स. 7 उ. 2 सु. 1 [2]) जाव एगंतबाला यावि भवइ / [4] एक बार वे अन्यतीथिक, जहाँ स्थविर भगवन्त थे, वहाँ आए / उनके निकट आकर वे स्थविर भगवन्तों से यों कहने लगे-'हे आर्यो ! तुम त्रिविध-त्रिविध (तीन करण, तीन योग से) असंयत, अविरत, अप्रतिहतपापकर्म (पापकर्म के अनिरोधक) तथा पापकर्म का प्रत्याख्यान नहीं किये Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हुए हो'; इत्यादि जैसे सातवें शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 1-2) में कहा गया है, तदनुसार कहा; यावत् तुम एकान्त बाल (अज्ञानी) भी हो। 5. तए गं ते थेरा भगवंतो ते अन्न उत्थिए एवं वयासी—केणं कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे तिविह तिविहेणं अस्संजयविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [5 प्र.] इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'पार्यो ! किस कारण से हम विविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हैं ? 6. तए णं ते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासो-तुम्भे प्रज्जो ! अदिन्नं गेहह, प्रदिन्नं भुजह, अदिन्नं सातिज्जह / तए णं तुन्भे अदिन्नं गेण्हमाणा, अदिन्नं भुजमाणा, अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवह / [6 उ.] तदनन्तर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-हे आर्यो ! तुम अदत्त (किसी के द्वारा नहीं दिया हुमा) पदार्थ ग्रहण करते हो, अदत्त का भोजन करते हो और अदत्त का स्वाद लेते हो, अर्थात्-अदत्त (ग्रहणादि) की अनुमति देते हो। इस प्रकार अदत्त का ग्रहण करते हुए, अदत्त का भोजन करते हुए, और अदत्त को अनुमति देते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो / 7. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केणं कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुजामो, अदिन्नं सातिरजामो, तए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा, जाव अदिन्नं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवामो ? [7 प्र.] तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'पार्यो ! हम किस कारण से (क्योंकर या कैसे) अदत्त का ग्रहण करते हैं, अदत्त का भोजन करते हैं, और प्रदत्त की अनुमति देते हैं, जिससे कि हम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् अदत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हैं ? 8. तए ण ते अन्नत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासो-तुम्हाणं प्रज्जो ! दिज्जमाणे अदिन्ने, पडिगहेज्जमाणे अपडिग्गहिए, निसिरिज्जमाणे प्रणिसळे, तुम्भे णं अज्जो ! दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ गं अंतरा केइ अवहरिज्जा, गाहावइस्स गं तं, नो खलु तं तुम्भं, तए णं तुम्मे अदिन्नं गेण्हह जाव प्रदिन्नं सातिज्जह, तए णं तुम्भे अदिन्नं गेल्हमाणा जाव एगंतबाला यावि भवह / 8 उ. इस पर उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा- हे पार्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ, 'नहीं दिया गया', ग्रहण किया जाता हुआ, 'ग्रहण नहीं किया गया', तथा (पात्र में) डाला जाता हुया पदार्थ, 'नहीं डाला गया;' ऐसा कथन है; इसलिए हे आर्यो ! तुमको दिया जाता हुया पदार्थ, जब तक पात्र में नहीं पड़ा, तब तक बीच में से ही कोई उसका अपहरण कर ले तो तुम कहते हो--'वह उस गृहपति के पदार्थ का अपहरण हुआ;' 'तुम्हारे पदार्थ का अपहरण हुआ,' ऐसा तुम नहीं कहते / इस कारण से तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् अदत्त की अनुमति देते हो; अतः तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो। Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७ ] [329 6 तए गं ते थेरा भगवंतो ते अनउस्थिए एवं वयासी-नो खलु प्रज्जो ! अम्हे प्रदिन्नं गिहामो, प्रदिन्नं भुजामो, प्रदिन्नं सातिजामो, अम्हे णं प्रज्जो ! दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुजामो, दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा दिन्नं भुजमाणा दिन्नं सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तमसए (स. 7 उ. 2 सु. 1 [2]) जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। [9. प्रतिवाद]—यह सुनकर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-- 'पार्यो ! हम अदत्त का ग्रहण नहीं करते, न अदत्त को खाते हैं और न ही प्रदत्त की अनुमति देते हैं। हे पार्यो ! हम तो दत्त (स्वामी द्वारा दिये गए) पदार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त भोजन को खाते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इसलिए हम दत्त का ग्रहण करते हुए, दत्त का भोजन करते हुए और दत्त की अनुमति देते हुए त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, पापकर्म के प्रतिनिरोधक, पापकर्म का प्रत्याख्यान किये हुए हैं। जिस प्रकार सप्तमशतक (द्वितीय उद्देशक सू. 1) में कहा है, तदनुसार हम यावत् एकान्तपण्डित हैं।' 10. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! तुम्हे दिन्नं गेहह जाव दिन्नं सातिज्जह, तए णं तुम्भे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया यावि भवह ? [10. वाद-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा–'तुम किस कारण (कैसे या किस प्रकार) दत्त का ग्रहण करते हो, यावत् दत्त की अनुमति देते हो, जिससे दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् तुम एकान्तपण्डित हो ?' 11. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं क्यासी~अम्हे णं अज्जो ! दिज्जमाणे दिन्ने, पडिगहेज्जमाणे पडिग्गहिए, निसिरिजमाणे निसठे। अम्हं णं प्रज्जो ! दिज्जमाणं पडिग्गहगं प्रसंपत्तं एल्थ णं अंतरा केइ प्रबहरेज्जा, अम्हंणं तं, णो खलु तं गाहावइस्स, तए णं प्रम्हे दिन्नं गेहामो दिन्नं भुजामो, दिन्नं सातिज्जामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा जाव दिन्नं सातिज्जमाणा तिधिहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो। तुब्भे गं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह / 11. प्रतिवाद]-इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'पार्यो ! हमारे सिद्धान्तानुसार-दिया जाता हुआ पदार्थ, 'दिया गया'; ग्रहण किया जाता हुमा पदार्थ 'ग्रहण किया और पात्र में डाला जाता हुआ पदार्थ 'डाला गया' कहलाता है। इसीलिए हे आर्यो ! हमें दिया जाता हुमा पदार्थ हमारे पात्र में नहीं पहुँचा (पड़ा) है, इसी बीच में कोई व्यक्ति उसका अपहरण कर ले तो 'वह पदार्थ हमारा अपहृत हुना' कहलाता है, किन्तु 'वह पदार्थ गृहस्थ का अपहृत हुआ,' ऐसा नहीं कहलाता / इस कारण से हम दत्त का ग्रहण करते हैं, दत्त आहार करते हैं और दत्त की ही अनुमति देते हैं। इस प्रकार हम दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत् एकान्तपण्डित हैं, प्रत्युत, हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो / Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 12. तए णं ते प्रश्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवामो ? [12 प्र.] तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा-प्रार्यो ! हम किस कारण से (कैसे) त्रिविध-त्रिविध""यावत् एकान्तबाल हैं ? 13. तए गं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासो-तुन्भे गं प्रज्जो ! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुजह, अदिन्नं साइज्जह, तए णं प्रज्जो ! तुम्मे अदिन्नं गे० जाव एगंतबाला यावि भवह / 13 उ.] इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-आर्यो ! तुम लोग अदत्त का ग्रहण करते हो, अदत्त भोजन करते हो, और अदत्त की अनुमति देते हो; इसलिए हे आर्यो ! तुम अदत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्तबाल हो। 14. तए णं ते अन्नउस्थिया ते थेरे भगवंते एवं क्यासी–केण कारणेणं प्रज्जो ! अम्हे प्रदिन्नं गेण्हामो जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [14 प्रतिवाद] तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा--- पार्यो ! हम क्योंकर अदत्त का ग्रहण करते हैं यावत् जिससे कि हम एकान्तबाल हैं ? 15. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउथिए एवं बयासी-तुब्मे णं प्रज्जो! दिज्जमाणे प्रदिन्ने तं चेव जाव गाहावइस्स णं तं, जो खलु तं तुम्भ, तए णं तुम्ने अदिन्नं गेहह, तं चेव जाव एगंतबाला यावि भवह। [15 प्रत्युत्तर]--यह सुन कर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहाआर्यो! तुम्हारे मत में दिया जाता हुया पदार्थ नहीं दिया गया' इत्यादि कहलाता है, यह सारा वर्णन पहले कहे अनुसार यहाँ करना चाहिए; यावत् वह पदार्थ गृहस्थ का है, तुम्हारा नहीं; इसलिए तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, यावत् पूर्वोक्त प्रकार से तुम एकान्तबाल हो। विवेचन-अन्यतीथिकों के साथ प्रदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णनप्रस्तुत 15 सूत्रों में अत्यतीथिकों द्वारा स्थविरों पर अदत्तादान को लेकर एकान्तबाल के आक्षेप से प्रारम्भ हुआ विवाद स्थविरों द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए प्रत्युत्तर तक समाप्त किया गया है। अन्यतीथिकों की भ्रान्ति-अन्यतीथिकों ने इस भ्रान्ति से स्थविर मुनियों पर आक्षेप किया था कि श्रमणों का ऐसा मत है कि दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया, ग्रहण किया जाता हुमा, नहीं ग्रहण किया गया और पात्र में डाला जाता हुया पदार्थ, नहीं डाला गया; माना गया है / किन्तु जब स्थविरों ने इसका प्रतिवाद किया और उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण 'चलमाणे चलिए' के सिद्धान्तानुसार किया, तब वे अन्यतीथिक निरुत्तर हो गए, उलटे उनके द्वारा किया गया आक्षेप उन्हीं के गले पड़ गया। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भाग 1 Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७ ] [331 ‘दिया जाता हया' वर्तमानकालिक व्यापार है, और 'दत्त' भूतकालिक है, अत: वर्तमान और भूत दोनों अत्यन्त भिन्न होने से दीयमान (दिया जाता हुआ) दत्त नहीं हो सकता, दत्त ही 'दत्त' कहा जा सकता है, यह अन्यतीथिकों की भ्रान्ति थी। इसी का निराकरण करते हुए स्थविरों ने कहा-'हमारे मत से क्रियाकाल और निष्ठाकाल, इन दोनों में भिन्नता नहीं है। जो 'दिया जा रहा है, वह 'दिया ही गया' समझना चाहिए / 'दीयमान' 'प्रदत्त' है, यह मत तो अन्यतीथिकों का है, जिसे स्थविरों ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया था।' स्थविरों पर अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्राक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद 16. तए णं ते अनउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह / [16 अन्य प्राक्षेप]- तत्पश्चात् उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से कहाआर्यो ! (हम कहते हैं कि) तुम ही त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो! 17. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी—केण कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? [17 प्रतिप्रश्न]-इस पर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से (पुनः) पूछाआर्यो ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध यावत् एकान्तबाल हैं ? 18. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जों ! रीयं रोयमाणा पुढवि पेच्चेह अभिहणह वत्तेह लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावेह किलामेह उवद्दवेह, तए णं तुभे पुढवि पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय जाब एगंतबाला यावि भवह / [18 आक्षेप-तब उन अन्यतीथिकों ने स्थविर भगवन्तों से यों कहा-"पार्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (आक्रान्त करते) हो, हनन करते हो, पादाभिघात करते हो, उन्हें भूमि के साथ श्लिष्ट (संर्षित) करते (टकराते) हो; उन्हें एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे करते हो, जोर से स्पर्श करते हो, उन्हें परितापित करते हो, उन्हें मारणान्तिक कष्ट देते हो, और उपद्रवित करते-मारते हो। इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।" / 16. तए णं ते थेरा भगवंतों ते अन्नउथिए एवं वयासो-नो खलु अज्जो ! अम्हे रोयं रीयमाणा पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव उवहवेमो, अम्हे णं प्रज्जो ! रीयं रीयमाणा कायं वा जोगं वा रियं वा पडुच्च देसं वेसेणं वयामो, पएस पएसेणं वयामो, तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएसं पएसेणं वयमाणा नो पुढवि पेच्चेमो अभिहणामो जाव उबद्दवेमो, तए णं अम्हे पुढवि अपेच्चमाणा अणमिहणेमाणा जाव अणुवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुम्मे णं प्रज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव बाला यावि भवह / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 381 Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 19 प्रतिवाद] तब उन स्थविरों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा- "मार्यो ! हम गमन करते हुए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते (कुचलते) नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं। हे पार्यो ! हम गमन करते हुए काय (अर्थात्-शरीर के लधुनीति-बड़ीनीति आदि कार्य) के लिए, योग (अर्थात्---ालान आदि की सेवा) के लिए, ऋत (अर्थात्-सत्य अप्कायादि-जीवसंरक्षणरूप संयम) के लिए एक देश (स्थल) से दूसरे देश (स्थल) में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हैं / इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल में और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते, यावत् उनको मारते नहीं / इसलिए पृथ्वीकाधिक जीवों को नहीं दबाते हुए, हनन न करते हुए यावत् नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत, यावत् एकान्तपण्डित हैं / किन्तु हे प्रार्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्तबाल हो।" 20. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवते एवं वयासी-केणं कारणेणं अन्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? 20 प्रतिप्रश्न ---इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा"मार्यो ! हम किस कारण त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हैं ?" 21. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउस्थिए एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! रीयं रीयमाणा पुढवि पेच्चेह जाव उवहवेह, तए णं तुम्भे पुढवि पेच्चमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह। 21 प्रत्युत्तर] तत्र स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से यों कहा-"आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वोकायिक जीवों को दबाते हो, यावत् मार देते हो। इसलिए पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए, यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्तबाल हो।" 22. तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं प्रज्जो ! गम्ममाणे अगते, वीतिक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते? [22 प्रत्याक्षेप–इस पर वे अन्यतीथिक उन स्थविर भगवन्तों से यों बोले-हे आर्यो! तुम्हारे मत में गच्छन् (जाता हुआ), अगत (नहीं गया) कहलाता है; जो लांधा जा रहा है, वह नहीं लांघा गया, कहलाता है, और राजगृह को प्राप्त करने (पहुँचने) की इच्छा वाला पुरुष असम्प्राप्त (नहीं पहुँचा हुआ) कहलाता है। 23. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नास्थिए एवं वयासी-नो खलु प्रज्जो ! अम्हं गम्ममाणे अगए, वीइक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते, अम्हंणं प्रज्जो ! गम्ममाणे गए, वोतिक्कमिज्जमाणे वीतिक्कते रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते, तुभं णं अप्पणा चेव गम्भमाणे अगए वोतिक्कमिज्जमाणे प्रवीतिक्कते रायगिहं नगरं जाव प्रसंपत्ते। [23 प्रतिवाद] तत्पश्चात् उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहाआर्यो ! हमारे मत में जाता हुप्रा (गच्छन्), अगत (नहीं गया), नहीं कहलाता, व्यतिक्रम्यमाण (उल्लंघन किया जाता हुआ), अव्यतिक्रान्त (उल्लंघन नहीं किया) नहीं कहलाता। इसी प्रकार Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-७] [333 राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असंप्राप्त नहीं कहलाता। हमारे मत में तो, आर्यो ! 'गच्छन्' 'गत'; 'व्यतिक्रम्यमाण' 'व्यतिक्रान्त'; और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति सम्प्राप्त कहलाता है। हे आर्यो ! तुम्हारे ही मत में 'गच्छन्' 'अगत', 'व्यतिक्रम्यमाण' 'अव्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला असम्प्राप्त कहलाता है। 24. तए ण ते थेरा भगवंतो ते अन्नउथिए एवं पडिहणेति, पडिहणित्ता गइपवायं नाममज्झयणं पन्नवइंसु। [24] तदनन्तर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों को प्रतिहत (निरुत्तर) किया और निरुत्तर करके उन्होंने गतिप्रपात नामक अध्ययन प्रह विवेचन–स्थविरों पर अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्राक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत 9 सूत्रों (सू. 16 से 24) में अन्यतीथिकों द्वारा पुनः प्रत्याक्षेप से प्रारम्भ होकर यह चर्चा स्थविरों द्वारा भ्रान्तिनिवारणपूर्वक प्रतिवाद में समाप्त होती है / ___ अन्यतीथिकों को भ्रान्ति-पूर्व चर्चा में निरुत्तर अन्यतोथिकों ने पुनः भ्रान्तिवश स्थविरों पर आक्षेप किया कि आप लोग ही असंयत यावत् एकान्तबाल हैं, क्योंकि आप गमनागमन करते समय पृथ्वीकायिक जीवों की विविध रूप से हिंसा करते हैं, किन्तु सुलझे हुए विचारों के निर्ग्रन्थ स्थविरों ने धैर्यपूर्वक उनकी इस भ्रान्ति का निराकरण किया कि हम लोग काय, योग और ऋत के लिए बहुत ही यतनापूर्वक गमनागमन करते हैं, किसी भी जीव की किसी भी रूप में हिंसा नहीं करते। इस पर पूनः अन्यतीथिकों ने प्राक्षेप किया कि आपके मत से गच्छन् अगत, व्यतिक्रम्यमाण अव्यतिक्रान्त और राजगृह को सम्प्राप्त करना चाहने वाला असम्प्राप्त कहलाता है। इसका प्रतिवाद स्थविरों ने किया और आक्षेपक अन्यतीर्थिकों को ही उनकी भ्रान्ति समझा कर निरुत्तर कर दिया। __'देश' और 'प्रदेश' का अर्थ -- भूमि का बृहत् खण्ड देश है और लघुतर खण्ड प्रदेश है।" गतिप्रवाद और उसके पांच भेदों का निरूपण 25- कविहे गं भंते ! गइप्पवाए पण्णते? गोयमा ! पंचविहे गइम्पवाए पण्णत्ते, तं जहा-पयोगगती ततगती बंधणछेयणगती उववायगती विहायगती / एत्तो प्रारम्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियब्वं, जाव से तं विहायगई। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // अट्ठमसए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ [25 प्र.]-भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? [25 उ.]-गौतम ! गतिप्रपात पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-प्रयोगगति, ततगति, बन्धन-छेदनगति, उपपातगति और विहायोगति / 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 381 Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334j [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यहाँ से प्रारम्भ करके प्रज्ञापनासूत्र का सोलहवाँ समग्र प्रयोगपद कहना चाहिए; यावत् 'यह विहायोगति का वर्णन हुआ'; यहाँ तक कथन करना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे। विवेचन-गतिप्रपात और उसके पांच प्रकारों का निरूपण प्रस्तुत सूत्र में गतिप्रपात या गतिप्रवात और उसके 5 प्रकारों का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / गतिप्रपात के पांच भेदों का स्वरूप-गतिप्रपात या गतिप्रवाद एक अध्ययन है, जिसका प्रज्ञापनासूत्र के सोलहवें प्रयोगपद में विस्तृत वर्णन है। वहाँ इन पांचों गतियों के भेद-प्रभेद और उनके स्वरूप का निरूपण किया गया है / संक्षेप में पांचों गतियों का स्वरूप इस प्रकार है (1) प्रयोगगति-जीव के व्यापार से अर्थात्---१५ प्रकार के योगों से जो गति होती है, उसे प्रयोगगति कहते हैं / यह गति यहाँ क्षेत्रान्तरप्राप्तिरूप या पर्यायान्तरप्राप्तिरूप समझनी चाहिए। (2) ततगति-विस्तृत गति या विस्तार वाली गति को ततगति कहते हैं / जैसे कोई व्यक्ति ग्रामान्तर जाने के लिए रवाना हुआ, परन्तु ग्राम बहुत दूर निकला, वह अभी उसमें पहुँचा नहीं; उसकी एक-एक पैर रखते हुए जो क्षेत्रान्तरप्राप्तिरूप गति होती है, वह ततगति कहलाती है। इस गति का विषय विस्तृत होने से इसे 'ततगति' कहा जाता है। (3) बन्धन-छेदनगति-बन्धन के छेदन से होने वाली गति / जैसे शरीर से मुक्त जीव की गति होती है / (4) उपपातगति-उत्पन्न होने रूप गति को उपपातगति कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैंक्षेत्र-उपपात, भवोपपात, और नो-भवोपपात / नारकादिजीव और सिद्धजीव जहाँ रहते हैं, वह अाकाश क्षेत्रोपपात है, कर्मों के वश जीव नारकादि भवों (पर्यायों) में उत्पन्न होते हैं, वह भवोपपात है। कर्मसम्बन्ध से रहित अर्थात् नारकादिपर्याय से रहित उत्पन्न होने रूप गति को नो-भवोपपात कहते हैं / इस प्रकार की गति सिद्ध जीव और पुद्गलों में पाई जाती है। (5) विहायोगति-प्राकाश में होने वाली गति को विहायोगति कहते हैं।' // अष्टम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती सूत्र अ. बृत्ति, पत्रांक 381 (ख) प्रज्ञापनासूत्र पद 16 (प्रयोगपद), पत्रांक 325 Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'पडिरपीए' अष्टम उद्देशक : 'प्रत्यनोक' गुरु-गति-समूह-अनुकम्पा-श्रुत भाव-प्रत्यनीक-भेद-प्ररूपरणा 1. रायगिहे नयरे जाव एवं वयासो [1] राजगृह नगर में (गौतम स्वामी ने) यावत् (श्रमण भगवान महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा 2. गुरू णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता? __ गोयमा! तो पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा--प्रायरियपडिणोए उवज्झायपडिणीए थेरपडिणोए। |2 प्र. भगवन् ! गुरुदेव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक (द्वेषी या विरोधी) कहे गए हैं ? 2 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) आचार्य-प्रत्यनीक, (2) उपाध्याय-प्रत्यनीक और (3) स्थविर-प्रत्यनीक / 3. गई णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता ? गोयमा! तो पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहोलोगपडिणोए। |3 प्र.। भगवन् ! गति की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [3 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) इहलोक-प्रत्यनीक, (2) परलोक-प्रत्यनीक, और (3) उभयलोक-प्रत्यनीक / 4. समूहं गं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णता? गोयमा ! तो पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा–कुलपडिणीए गणपडिणीए संघपडिणीए / [4 प्र] भगवन् ! समूह (श्रमणसंघ) की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [4 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) कुल-प्रत्यनीक, (2) गणप्रत्यनीक और (3) संघ-प्रत्यनीक / 5. अणुकंपं पडुच्च० पुच्छा। गोयमा ! तो पडिणीया पण्णता, तं जहा-तस्सिपडिणीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए / [5 प्र.] भगवन् ! अनुकम्प्य (साधुओं) की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) तपस्वी-प्रत्यनीक, (2) ग्लान-प्रत्यनीक और (3) शैक्ष (नवदीक्षित)-प्रत्यनीक / 6. सुर्य णं भंते ! पडुच्च० पुच्छा / गोयमा ! तो पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-सुत्तपडिणीए अत्थपडिगोए तदुभयपडिणीए / [6 प्र] भगवन् ! श्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [6 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) सूत्रप्रत्यनीक, (2) अर्थप्रत्यनीक और (3) तदुभयप्रत्यनीक / 7. भावं गं भंते ! पडुच्च० पुच्छा। गोयमा ! तो पडिणीया पण्णता, तं जहा-नाणपडिणीए दंसणपडिणीए चरित्तपजिणीए / [7 प्र.] भगवन् ! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [7 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं ? वे इस प्रकार--(१) ज्ञान-प्रत्यनीक, (2) दर्शन-प्रत्यनीक और (3) चारित्र-प्रत्यनीक / विवेचन---गुरु-गति-समूह-अनुकम्पा-श्रुत-भाव की अपेक्षा प्रत्यनीक के भेदों को प्ररूपणाप्रस्तुत सात सूत्रों में क्रमश: गुरु अादि को लेकर प्रत्येक के तीन-तीन प्रकारों का निरूपण किया गया है। प्रत्यनीक-प्रतिकूल आचरण करने वाला विरोधी या द्वेषी प्रत्यनीक कहलाता है / गुरु-प्रत्यनीक का स्वरूप---गुरुपद पर आसीन तीन महानुभाव होते हैं-आचार्य, उपाध्याय और स्थविर / अर्थ के व्याख्याता प्राचार्य, सूत्र के दाता उपाध्याय तथा वय, श्रुत और दीक्षापर्याय की अपेक्षा वृद्ध व गीतार्थ साधु स्थविर कहलाते हैं। प्राचार्य, उपाध्याय और स्थविर मुनियों के जाति आदि से दोष देखने, अहित करने, उनके वचनों का अपमान करने, उनके समीप रहने, उनके उपदेश का उपहास करने, उनकी वैयावृत्य न करने आदि प्रतिकूल व्यवहार करने वाले इनके 'प्रत्यनीक' कहलाते हैं। गति-प्रत्यनीक का स्वरूप--मनुष्य आदि गति की अपेक्षा प्रतिकूल आचरण करने वाले गतिप्रत्यनीक कहलाते हैं / इहलोक-मनुष्य पर्याय का प्रत्यनीक वह होता है, जो पंचाग्नि तप करने वाले की तरह अज्ञानतापूर्वक इन्द्रिय-विषयों के प्रतिकुल आचरण करता है / परलोक- जन्मान्तर-प्रत्यनीक वह होता है, जो परलोक सुधारने के बजाय केवल इन्द्रियविषयासक्त रहता है। उभयलोकप्रत्यनीक वह होता है, जो दोनों लोक सुधारने के बदले चोरी आदि कुकर्म करके दोनों लोक बिगाड़ता है, केवल भोगविलासतत्पर रहता है / ऐसा व्यक्ति अपने कुकृत्यों से इहलोक में भी दण्डित होता है, परभव में भी दुर्गति पाता है / ___समूह-प्रत्यनीक का स्वरूप-यहाँ साधुसमुदाय को अपेक्षा तीन प्रकार के समूह बताए हैंकुल, गण और संव। एक प्राचार्य की सन्तति 'कुल', परस्पर धर्मस्नेह सम्बन्ध रखने वाले तीन कुलों का समूह 'गण' और ज्ञान-दर्शन-चारित्रगुणों से विभूषित समस्त श्रमणों का समुदाय 'संघ' कहलाता Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [337 है / कुल गण या संघ के विपरीत आचरण करने वाले क्रमशः कुलप्रत्यनीक, गण-प्रत्यनीक और संघप्रत्यनीक कहलाते हैं। अनुकम्ध्य-प्रत्यनीक का स्वरूप-अनुकम्पा करने योग्य--अनुकम्प्य साधु तीन हैं-तपस्वी, ग्लान (रुग्ण) और शैक्ष / इन तीन अनुकम्प्य साधुनों को माहारादि द्वारा सेवा नहीं करके इनके प्रतिकूल आचरण या व्यवहार करने वाले साधु क्रमशः तपस्वी-प्रत्यनीक, ग्लान-प्रत्यनीक और शैक्षप्रत्यनीक कहलाते हैं। श्रुतप्रत्यनीक का स्वरूप-श्रुत (शास्त्र) के विरुद्ध कथन, प्रचार, अवर्णवाद प्रादि करने वाला, शास्त्रज्ञान को निष्प्रयोजन अथवा शास्त्र को दोषयुक्त बताने वाला श्रुतप्रत्यनीक है / श्रुत तीन प्रकार का होने के कारण श्रुतप्रत्यनीक के भो क्रमश: सूत्रप्रत्यनीक अर्थप्रत्यनीक और तदुभयप्रत्यनीक, ये तीन भेद हैं। भाव-प्रत्यनीक का स्वरूप-क्षायिकादि भावों के प्रतिकूल प्राचरणकर्ता भावप्रत्यनीक है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीन भाव हैं। इन तीनों के विरुद्ध आचरण, दोषदर्शन, अवर्णवाद आदि करना क्रमशः ज्ञानप्रत्यनीक, दर्शनप्रत्यनीक और चारित्रप्रत्यनीक है। निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार, उनकी मर्यादा और व्यवहारानुसार प्रवृत्ति का फल 8. कइविहे गं भंते ! ववहारे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा—प्रागम-सुत-प्राणा-धारणा-जीए / जहा से तस्थ प्रागमे सिया, प्रागमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। णो य से तत्थ प्रागमे सिया; जहा से तस्य सुते सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा / णो वा से तत्थ सुए सिया; जहा से तत्थ प्राणा सिया, प्राणाए ववहारं पट्टवेज्जा / णो य से तत्थ प्राणा सिया; जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा / जो य से तत्थ धारणा सिया; जहा से तस्थ जोए सिया जीएणं बवहारं पटुवेज्जा। इच्चेएहि पंचहि वबहारं पट्टवेज्जा, तं जहा–प्रागमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं / जहा जहा से प्रागमे सुए प्राणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेज्जा। [8 प्र] भगवन् ! व्यवहार कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार - (1) आगमव्यवहार, (2) श्रुतव्यवहार, (3) आज्ञाव्यवहार, (4) धारणाव्यवहार और (5) जीतव्यवहार / इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जिस साधू के पास आगम (केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्व का ज्ञान) हो, उसे उस आगम से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करना चाहिए। जिसके पास आगम न हो, उसे श्रुत से व्यवहार चलाना चाहिए / जहाँ श्रुत न हो वहाँ आज्ञा से उसे व्यवहार चलाना चाहिए / यदि प्राज्ञा भी न हो तो जिस प्रकार की धारणा हो, उस धारणा से व्यवहार चलाना चाहिए। कदाचित् धारणा न हो तो जिस प्रकार का जीत हो, उस 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 382 Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीत से व्यवहार चलाना चाहिए / इस प्रकार इन पांचों पागम, श्रुत, प्राज्ञा, धारणा और जीत से (साधु-साध्वी को) व्यवहार चलाना चाहिए। जिसके पास जिस-जिस प्रकार से पागम, श्रुत, आज्ञा धारणा और जीत, इन पांच व्यवहारों में से जो व्यवहार हो, उसे उस उस प्रकार से व्यवहार चलाना (प्रवृत्ति-निवृत्ति करना) चाहिए। 6. से किमाह भंते ! भागमबलिया समणा निग्गंथा ? इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहि तहिं अणिस्सियोवस्सितं सम्म ववहरमाणे समणे निग्गंथे प्राणाए पाराहए भवइ / [9 प्र.] भगवन् ! अागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थ (पूर्वोक्त पंचविध व्यवहार के विषय में) क्या कहते हैं ? [9 उ.] (गौतम !) इस प्रकार इन पंचविध व्यवहारों में से जब-जब और जहाँ-जहाँ जो व्यवहार संभव हो, तब-तब और वहां-वहाँ उससे, अनिधितोपाश्रित (राग अौर द्वष से रहित) हो कर सम्यक् प्रकार से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करता हुआ श्रमण निर्गन्थ (तीर्थंकरों की) आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार एवं उनकी मर्यादा-प्रस्तुत दो सूत्रों में साधु-साध्वी के लिए साधुजीवन में उपयोगी पंचविध व्यवहारों तथा उनकी मर्यादा का निरूपण किया गया है। व्यवहार का विशेषार्थ—यहाँ प्राध्यात्मिक जगत् में व्यवहार का अर्थ मुमुक्षुओं की यथोचित सम्यक् प्रवृत्ति-निवृत्ति है, अथवा उसका कारणभूत जो ज्ञानविशेष है, उसे भी व्यवहार कह सकते हैं। आगम आदि पंचविध व्यवहार का स्वरूप-(१) प्रागमव्यवहार-जिससे वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो, उसे 'पागम' कहते हैं / केवलज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नौ पूर्व का ज्ञान 'आगम' कहलाता है / आगमज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहारप्रागमव्यवहार कहलाता है / (2) श्रुत-व्यवहार-शेष आचारप्रकल्प आदि ज्ञान 'श्रुत' कहलाता है। श्रुत से प्रवर्तित व्यवहार श्रुतव्यवहार है / यद्यपि पूर्वो का ज्ञान भी श्रुतरूप है, तथापि अतीन्द्रियार्थविषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण एवं सातिशय ज्ञान होने से उसे 'मागम' की कोटि में रखा गया है। (3) प्राज्ञा-व्यवहार-दो गीताथ साधु अलग-अलग दूर देश में विचरते हैं, उनमें से एक का जंघाबल क्षीण हो जाने से विहार करने में असमर्थ हो जाए, वह अपने दूरस्थ गीतार्थसाधु के पास अगीतार्थसाधू के माध्यम से अपने अतिचार या दोष आगम को सांकेतिक गढ भाषा में लिखकर भेजता है, और गूढभाषा में कही हुई या लिखी हुई आलोचना सुन-जान कर वे गीतार्थमुनि भी संदेशवाहक मुनि के माध्यम से उक्त अतिचार के प्रायश्चित्त द्वारा की जाने वाली शुद्धि का संदेश आगम की गूढभाषा में ही कह या लिखकर देते हैं / यह आज्ञाव्यवहार का स्वरूप है। (4) धारणाव्यवहार-किसी गीतार्थ मुनि ने या गुरुदेव ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा से वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना धारणाव्यवहार है। धारणाव्यवहार प्रायः प्राचार्य-परम्परागत होता है / (5) जीतव्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र (पुरुष) और प्रतिसेवना का तथा संहनन, और धैर्य श्रादि की हानि का विचार करके जो प्रायश्चित्त दिया जाए वह जीतव्यवहार है / अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा प्राचरित, Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [ 339 असावद्य, आगम से अबाधित एवं निर्धारित मर्यादा को भी जीतव्यवहार कहते हैं / कारणवश किसी गच्छ में शास्त्रोक्त से अधिक प्रायश्चित्त प्रवृत्त हो गया हो, उसका अनुसरण करना भी जीतव्यवहार है। पूर्व-पूर्व व्यवहार के प्रभाव में उत्तरोत्तर व्यवहार प्राचरणीय-मूलपाठ में स्पष्ट बता दिया है कि 5 व्यवहारों में से व्यवहर्ता मुमुक्षु के पास यदि आगम हो तो उसे आगम से, उसमें भी केवलज्ञानादि पूर्व-पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर से व्यवहार चलाना चाहिए / प्रागम के अभाव में श्रुत से, श्रुत के अभाव में प्राज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से और धारणा के अभाव में जीतव्यवहार से प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहार करना चाहिए।' अन्त में फलश्रुति के साथ स्पष्ट निर्देश-जब-जब, जिस-जिस अवसर में, जिस-जिस प्रयोजन या क्षेत्र में, जो-जो व्यवहार उचित हो, तब-तब उस-उस अवसर में, उस-उस प्रयोजन या क्षेत्र में, उस-उस व्यवहार का प्रयोग अनिश्रित-समस्त ग्राशंसा-यशःकीर्ति, ग्राहारादिलिप्सा से रहित तथा अनुपाश्रित-वैयावृत्य करने वाले शिष्यादि के प्रति सर्वथा पक्षपातरहित हो कर (अथवा रागआसक्ति और द्वष से रहित होकर) करना चाहिए। तभी वह भगवदाज्ञाराधक होगा। विविध पहलुत्रों से ऐपिथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित प्ररूपरणा 10. काविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे बंधे पन्नते, तं जहा-इरियावहियाबंधे य संपराइयबंधे य / [10 प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-ईपिथिकबन्ध और साम्परायिकबन्ध / 11. इरियावहियं णं भंते ! कम्म कि नेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिो बंधइ, तिरिक्खजोणिणो बंधइ, मणुस्सो बंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ ? गोयमा ! नो नेरइनो बंधइ, नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, नो देवो बंधइ, नो देवी बंधइ, पुवपडिवन्नए पडुच्च मणुस्सा य, मणुस्सोयो य बंधति, पडिवज्जमाणए पहुच्च मगुस्सो वा बंधइ 1, मणुस्सो वा बंधइ 2, मणुस्सा वा बंधति 3, मणस्सीग्रो वा बंधति 4, अहवा मणुस्सो य भणुस्सी य बंधइ 3, अहवा मणुस्सो य मणुस्सीयो य बंधंति 6, अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधंति 7, प्रहवा मणुस्सा य मणुस्सोप्रो य बंधंति 8 / [11 प्र.] भगवन् ! ईर्यापथिककर्म क्या नैरयिक बांधता है, या तिर्यञ्चयोनिक बांधता है, या तिर्यञ्चयोनिक स्त्री बांधती है, अथवा मनुष्य बांधता है, या मनुष्य-स्त्री (नारी) बांधती है, अथवा देव बांधता है या देवी बांधती है ? [11 उ.] गौतम ! ईर्यापथिककर्म न नैरयिक बांधता है, न तिर्यञ्चयोनिक बांधता है, न तिर्यञ्चयोनिक स्त्री बांधती है, न देव बांधता है और न ही देवी बांधती है, किन्तु पूर्वप्रतिपन्नक की 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 384 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 385 Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [ व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र अपेक्षा इसे मनुष्य पुरुष और मनुष्य स्त्रियां बांधती हैं। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा मनुष्य-पुरुष बांधता है अथवा मनुष्य स्त्री बांधती है, अथवा बहुत-से मनुष्य-पुरुष बांधते हैं या बहुत-सी मनुष्य स्त्रियाँ बांधती हैं, अथवा एक मनुष्य और एक मनुष्य-स्त्री बांधती है, या एक मनुष्य-पुरुष और बहुत-सी मनुष्य-स्त्रियाँ बांधती हैं, अथवा बहुत-से मनुष्य पुरुष और एक मनुष्य-स्त्री बांधती है, अथवा बहुत-से मनुष्य-नर और बहुत-सी मनुष्य-नारियां बांधती हैं / 12. तं भंते ! कि इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, नपुसगो बंधंति, इत्थीयो बंधति, पुरिसा बंधंति, नपुसगा बंधति ? नोइत्थी-नोपुरिसो-नोनपुंसगो बंधइ ? गोयमा ! नो इत्थी बंधइ, नो पुरिसो बंधइ जाव नो नपुंसपो बंधइ / पुवपडिबन्नए पडुच्च अवगयवेदा बंधति, पडिचज्जमाणए य पडुच्च अवगयवेदो वा बंधति, अवगयवेदा वा बंधति / [12 प्र.] भगवन् ! ऐपिथिक (कर्म) बन्ध क्या स्त्री बांधती है, पुरुष बांधता है, नपुंसक बांधता है, स्त्रियाँ बांधती हैं, पुरुष बांधते हैं या नपुंसक बांधते हैं, अथवा नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक बांधता है ? [12 उ.] गौतम ! इसे स्त्री नहीं बांधती, पुरुष नहीं बांधता, नपुंसक नहीं बांधता, स्त्रियाँ नहीं बांधतीं, पुरुष नहीं बांधते और नपुसक भी नहीं बांधते, किन्तु पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा वेदरहित (बहु) जीव बांधते हैं, अथवा प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वेदरहित (एक) जीव बांधता है या (बहु) वेदरहित जीव बांधते हैं। 13. जइ भंते ! अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा वा बंधति तं भंते ! किं इत्थीपच्छाकडो बंधइ 1, पुरिसपच्छाकडो बंधइ 2, नपुंसकपच्छाकडो बंधइ 3, इत्थीपच्छाकडा बंधति 4, पुरिसपच्छाकडा वि बंधति 5, नपुसगपच्छाक डा वि बंधति 6, उदाहु इत्थिपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधति 4, उदाहु इत्थीपच्छाकडो य णपुसगपच्छाकडो य बंधइ 4, उदाहु पुरिसपच्छाकडो य ग सगपच्छाकडो य बंधइ 4, उदाहू इस्थिपच्छाकड़ो य पूरिसपच्छाकडो य णसगपच्छाकडो य भाणियन्वंद, एवं एते छन्बोसं भंगा 26 जाव उदाहु इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुसकपच्छाकडा य बंधति ? गोयमा! इस्थिपच्छाकडो वि बंधइ 1, पुरिसपच्छाकडो वि बंधइ 2, नपुंसगपच्छाकडो वि बंधइ 3, इत्थीपच्छाकडा वि बंधति 4, पुरिसपच्छकडा वि बंधति 5, नपुसकपच्छाकडा वि बंधति 6, प्रहवा इत्थीपच्छाक डो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ 7, एवं एए चेव छन्वीसं भंगा भाणियन्वा जाव अहवा इस्थिपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधति / [13 प्र.] भगवन् ! यदि वेदरहित एक जीव अथवा वेदरहित बहुत जीव ऐपिथिक (कर्म) बन्ध बांधते हैं तो क्या १-स्त्री-पश्चात्कृत जीव (जो जीव भूतकाल में स्त्रीवेदी था, अब वर्तमान काल में प्रवेदी हो गया है) बांधता है, अथवा २–पुरुष-पश्चात्कृत जीव (जो जीव पहले पुरुषवेदी था, अब अवेदी हो गया है) बांधता है; या ३-नपुंसक-पश्चात्कृत जीव (जो पहले नपुसकवेदी था, अब अवेदी हो गया है) बांधता है ? अथवा ४-स्त्रीपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या ५--पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या ६-नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं ? अथवा ७-एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव और एक पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधता है, या ८-एक स्त्री-पश्चात्कृत जीव Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [341 बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या ६-बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव और एक पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा १०-बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव और बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते है, या ११-एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव और एक नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधता है या १२एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा १३-~बहुत स्त्रीपश्चात् कृत जीव और एक नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, या १४-बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा १५--एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, या १६-एक पुरुष-पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा १७--बहत पूरुषपश्चातकृत जीव और एक नपुसकपश्चातकृत जीव बांधता है, अथवा १८–बहुत पुरुषपश्चातकृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं ? या फिर 14- एक स्त्रीपश्चातकृत जीव, एक पुरुषपश्चातकृत जीव और एक नपू त जीव बांधता है, अथवा २०-एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव, एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या २१-एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुसक्रपश्चात्कृत जीव बांधता है ? अथवा २२–एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या २३–बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा २४–बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या २५–बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात् कृत जीव बांधता है, अथवा २६--बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं? [13 उ.] गौतम ! ऐपिथिक कर्म (1) स्त्रीपश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (2) पुरुषपश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (3) नपुसकपश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (4) स्त्री पश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं, (5) पुरुषपश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं, (6) नपुसकपश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं, अथवा (7) एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव और एक पुरुषपश्चात्कृत जीव भी बांधता है अथवा यावत् (26) बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं। इस प्रकार (प्रश्न में कथित) छन्वीस भंग यहाँ (उत्तर में ज्यों के त्यों) कह देने चाहिए। 14. तं भंते ! कि बंधी बंधई बंधिस्सइ 1, बंधी बंधइ न बंधिस्सइ 2, बंधी न बंध बंधिस्सइ 3, बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ 4, न बंधी बंधइ बंधिस्सइ 5, न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ 6, न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ 7, न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ? गोयमा ! भवागरिसं पडुच्च प्रत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ। प्रत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ / एवं तं चेव सव्वं जाब प्रत्थेगतिए न बंधी न बंधड़ न बंधिस्सइ / महणागरिसं पडुच्च प्रत्येगतिए बंधी, बंधह, बंधिस्सइ, एवं जाव प्रस्थेगतिए न बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ / णो चेव णं न बंधी, बंधइ, न बंधिस्सइ / अत्थेगतिए न बंधी, न बंधइ, बंधिस्सइ / अत्थेगतिए न बंधी, न बंधइ, न बधिस्सइ / [14 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने (ऐपिथिक कर्म) १-बांधा है, बांधता है और बांधेगा, Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अथवा २–बांधा है, बांधता है, नहीं बांधेगा, या ३–बांधा है, नही बांधता है, बांधेगा, अथवा ४बांधा है, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा, या ५–नहीं बांधा, बांधता है, बांधेगा, अथवा 6 नहीं बांधा, बांधता है, नहीं बांधेगा, या 7 नहीं बांधा, नहीं बांधता, बांधेगा ८-न बांधा, न बांधता है, न बांधेगा? [14 उ.] गौतम ! भवाकर्ष की अपेक्षा किसी एक जीव ने बांधा है, बांधता है और बांधेगा; किसी एक जीव ने बांधा है, बांधता है और नहीं बांधेगा; यावत् किसी एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा। इस प्रकार (प्रश्न में कथित) सभी (पाठों) भंग यहाँ कहने चाहिए। ग्रहणाकर्ष की अपेक्षा (1) किसी एक जीव ने बांधा, बांधता है, बांधेगा; (2) किसी एक जीव ने बांधा, बांधता है, नहीं बांधेगा; (3) बांधा, नहीं बांधता है, वांधेगा; (4) बांधा, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा; (5) किसी एक जीव ने नहीं बांधा, बांधता है, यहाँ तक (यावत्) कहना चाहिए / इसके पश्चात् छठा भंग नहीं बांधा, बांधता नहीं है, बांधेगा; नहीं कहना चाहिए / (तदनन्तर सातवां भंग)-किसी एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता है, बांधेगा और पाठवां भंग एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा, (कहना चाहिए / ) 15. तं भंते ! कि साईयं सपज्जवसियं बंधइ, साईयं अपज्जवसियं बंधइ, प्रणाईयं सपज्जबसियं बंध, प्रणाईयं अपज्जवसियं बंध? गोयमा ! साईयं सपज्जवसियं बंधइ, नो साईयं अपज्जवसियं बंधइ, नो प्रणाईयं सपज्जवसियं बंधइ, नो अणाईयं अपज्जवसियं बंधइ / [15 प्र.] भगवन् ! जीव ऐपिथिक कर्म क्या सादि-सपर्यवसित बांधता है या सादिअपर्यवसित बांधता है, अथवा अनादि-सपर्यवसित बांधता है या अनादि-अपर्यवसित बांधता है ? [15 उ.] गौतम ! जीव ऐर्यापथिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधता है, किन्तु सादि-अपर्यवसित नहीं बांधता, अनादि-सपर्यवसित नहीं बांधता और न अनादि-अपर्यवसित बांधता है। 16. तं भंते ! कि देसेणं देसं बंधह, देसेणं सम्वं बंधइ, सम्वेणं देसं बंधइ, सवेणं सव्वं बंधइ ? गोयमा ! नो देसणं देसं बंधई, णो देसेणं सव्वं बंधइ, नो सम्वेणं देसं बंधइ, सव्वेणं सव्वं बंधइ। [16 प्र.] भगवन् ! जीव ऐर्यापथिक कर्म देश से आत्मा के देश को बांधता है, देश से सर्व को बांधता है, सर्व से देश को बांधता है या सर्व से सर्व को बांधता है ? [16 उ.] गौतम ! वह ऐर्यापथिक कर्म देश से देश को नहीं बाँधता, देश से सर्व को नहीं बांधता, सर्व से देश को नहीं बांधता, किन्तु सर्व से सर्व को बांधता है / 17. संपराइयं णं भंते ! कम्म कि नेरइयो बंधइ, तिरिक्खजोणीओ बंधइ, जाव देवी बंधइ ? गोयमा ! नेरइयो वि बंधइ, तिरिक्खजोणीग्रो वि बंधइ, तिरिक्खजोणिणी वि बंधइ, मणुस्सो वि बंधइ, मणुस्सी वि बंधइ, देवो वि बंधइ, देवी वि बंधइ / [17 प्र.] भगवन ! साम्परायिक कर्म नैरयिक बांधता है, तिर्यञ्च बांधता है, तिर्यञ्चस्त्री (मादा) बांधती है, मनुष्य बांधता है, मनुष्य-स्त्री बांधती है, देव बांधता है या देवी बांधती है ? Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [343 [17 उ.] गौतम ! नैरयिक भी बांधता है, तिर्यञ्च भी बांधता है, तिर्यञ्च-स्त्री (मादा) भो बांधती है, मनुष्य भी बांधता है, मानुषी भी बांधती है, देव भी बांधता है और देवी भी बांधती है। 18. तं भंते ! कि इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, तहेव जाव नोइत्यीनो-पुरिसोनो-नसओ बंधइ ? गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, जाव नपुंसगो वि बंधइ / अहवेए य अवगयवेदो य बंधइ, अहवेए य प्रवगयवेया य बंधति / / [18 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म क्या स्त्री बांधती है, पुरुष बांधता है, यावत् नोस्त्रीनोपुरुष-नोनपुंसक बांधता है ? [18 उ.] गौतम ! स्त्री भी बांधती है, पुरुष भी बांधता है, नपुंसक भी बांधता है, अथवा बहुत स्त्रियां भी बांधती हैं, बहुत पुरुष भी बांधते हैं और बहुत नपुसक भी बांधते हैं, अथवा ये सब और अवेदी एक जीव भी बांधता है, अथवा ये सब और बहुत अवेदी जीव भी बांधते हैं / 16. जइ भंते ! अवगयवेदो य बंधइ अवगयवेदा य बंधति तं भंते ! कि इत्थीपच्छाकडो बंधइ, पुरिसपच्छाकडो? एवं जहेव इरियावहियाबंधगस्स तहेव निरवसेसं जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य, पुरिसपच्छाकडा य, नपुसगपच्छाकडा य बंधति / [19 प्र.] भगवन ! यदि वेदरहित एक जीव और वेदरहित बहुत जीव साम्परायिक कर्म बांधते हैं तो क्या स्त्रीपश्चात्कृत जीव बांधता है या पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधता है ? इत्यादि प्रश्न (सू. 13 के अनुसार) पूर्ववत् कहना चाहिए। [16 उ.] गौतम ! जिस प्रकार ऐपिथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में छव्वीस भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् (26) बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं; यहां तक कहना चाहिए। 20. तं भंते ! कि बंधी बंधइ बंधिस्सइ 1; बंधी बंधइन बंधिस्सइ 2, बंधी न बंधई, बंधिस्सइ 3; बंधी न बंधइ, न बंधिस्सइ 4 ? ___ गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ 1; प्रथेगतिए बंधी बंधइ, न बंधिस्सइ 2; प्रत्थेगतिए बंधी न बंधइ, बंधिस्सह 3; प्रथेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ 4 / [20 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म (1) किसी जीव ने बांधा, बांधता है, और नांधेगा? (2) बांधा, बांधता है और नहीं बांधेगा? (3) बांधा, नहीं बांधता है और बांधेगा? तथा (4) बांधा, नहीं बांधता है, और नहीं बांधेगा? / [20 उ.] गौतम ! (1) कई जीवों ने बांधा, बांधते हैं, और बांधेगे; (2) कितने ही जीवों ने बांधा, बांधते हैं, और नहीं बांधेगे; (3) कितने ही जोवों बांधा है, नहीं बांधते हैं, और बांधेगे; (4) कितने हो जीवों ने बांधा है, नहीं बांधधते हैं, और नहीं बाधेगे / Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 21. तं भंते ! किं साईयं सपज्जवसियं बंधइ ? पुच्छा तहेव / गोयमा ! साईयं वा सपज्जवसियं बंधइ, प्रणाईयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणाईयं वा अपज्जवसियं बंधइः णो चेव गं साईयं अपज्जवसियं बंधइ / [21 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधते हैं ? इत्यादि (सू. 15 के अनुसार) प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए। . [21 उ.] गौतम ! साम्परायिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-अपर्यवसित बांधते हैं; किन्तु सादि-अपर्यवसित नहीं बांधते / 22. तं भंते ! कि देसेणं देसं बंधइ ? एवं जहेव इरियाहियाबंधगस्स जाव सवेणं सव्वं बंधइ / [22 प्र.] भगवन् ! साम्परायिक कर्म देश से आत्मदेश को बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न, (सू. 16 के अनुसार) पूर्ववत् करना चाहिए। [22 उ} गौतम ! जिस प्रकार ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में कहा गया है, उसी प्रकार साम्परायिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए, यावत् सर्व से सर्व को बांधते हैं / विवेचन-विविध पहलुप्रों से ऐपिथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित निरूपणप्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 10 से 22 तक) में ऐर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में निम्नोक्त छह पहलुओं से विचारणा की गई है-- 1. ऐर्यापथिक या साम्परायिक कर्म चार गतियों में से किस गति का प्राणी, बांधता है ? 2. स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि में से कौन बांधता है ? 3. स्त्रीपश्चात्कृत, पुरुषपश्चात्कृत, नपुंसकपश्चात्कृत, एक या अनेक प्रवेदी में से कौन अवेदी बांधता है ? 4. दोनों कर्मों के बांधने की त्रिकाल सम्बन्धी चर्चा। 5. सादिसपर्यवसित आदि चार विकल्पों में से कैसे इन्हें बांधता है ? 6. ये कर्म देश से आत्मदेश को बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्नोत्तर / बन्ध : स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार-जैसे शरीर में तेल आदि लगाकर धूल में लोटने पर उस व्यक्ति के शरीर पर धूल चिपक जाती है, वैसे ही मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है, तब जिस आकाश में यात्मप्रदेश होते हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त तद्-तद्-योग्य कर्मपुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बद्ध हो जाते हैं। दूध-पानी की तरह कर्म और प्रात्मप्रदेशों का एकमेक होकर मिल जाना बन्ध है। बेड़ी आदि का बन्धन द्रव्यबन्ध है, जबकि कर्मों का बन्ध भावबन्ध है / विवक्षाविशेष से यहाँ कर्मबन्ध के दो प्रकार कहे गए हैं-ऐर्यापथिक और साम्परायिक / केवल योगों के निमित्त से होने वाले सातावेदनीय रूप बन्ध को ऐपिथिककर्मबन्ध कहते हैं। जिनसे चतुर्गतिकसंसार में परिभ्रमण हो, उन्हें सम्पराय-कषाय कहते हैं, सम्परायों (कषायों) के निमित्त से होने वाले कर्मबन्ध को साम्परायिककर्मबन्ध कहते हैं। यह प्रथम से दशम गुणस्थान तक होता है / Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक ; उद्देशक-८ ] [345 ऐपिथिककर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश-(१) स्वामीऐर्यापथिककर्म का बन्ध नारक, तिर्यञ्च, और देवों को नहीं होता, यह केवल मनुष्यों को ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें (उपशान्तमोह), बारहवें (क्षीणमोह) और तेरहवें (सयोगीकेवली) गुणस्थानवी मनुष्यों को ही होता है। ऐसे मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों ही होते हैं। जिसने पहले ऐर्यापथिककर्म का बन्ध किया हो, अर्थात्—जो ऐपिथिक कर्मबन्ध के द्वितीय-तृतीय आदि समयवर्ती हो, उसे पूर्वप्रतिपन्न कहते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा इसे बहुत-से मनुष्य नर और बहुत-सी मनुष्य नारियाँ बांधती हैं; क्योंकि ऐसे पूर्वप्रतिपन्न स्त्री और पुरुष बहुत होते हैं / और दोनों प्रकार के केवली (स्त्रीकेवली और पुरुषकेवली) सदा पाए जाते हैं। इसलिए इसका भंग नहीं होता। जो जीव ऐपिथिक कर्मबन्ध के प्रथम समयवर्ती होते हैं, वे 'प्रतिपद्यमान' कहलाते हैं। इनका विरह सम्भव है। इसलिए एकत्व और बहुत्व को लेकर इनके (स्त्री और पुरुष के) असंयोगी 4 भंग और द्विकसंयोगी 4 भंग, यों कुल 8 भंग बनते हैं। ऐपिथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में जो स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि को लेकर प्रश्न किया गया है, वह लिंग को अपेक्षा समझना चाहिए, वेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि ऐपिथिक कर्मबन्धकर्ता जीव उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी ही होते हैं। इसीलिए इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया हैअपगतवेद-वेद के उदय से रहित जीव ही इसे बांधते हैं। पूर्वप्रतिपन्नक अवेदी जीव सदा बहुत होते हैं. इसलिए उनके विषय में बहवचन ही दिया गया है, जबकि प्रतिपद्यमान अवेदी जीव में विरह होने से एकत्व प्रादि की सम्भावना के कारण एकवचन और बहवचन दोनों विकल्प कहे गए हैं। जो जोव गतकाल में स्त्री था, किन्तु अब वर्तमानकाल में अबेदी हो गया है, उसे स्त्रीपश्चात्कृत कहते हैं, इसी तरह 'पुरुषपश्चात्कृत' और 'नपुंसकपश्चात्कृत' का अर्थ भी समझ लेना चाहिए / इन तीनों की अपेक्षा से यहाँ वेदरहित एक जीव या अनेक जीवों के द्वारा ऐर्यापथिककर्मबन्धसम्बन्धी 26 भंगों को प्रस्तुत करके प्रश्न किया है। इनमें असंयोगी 6 भंग, द्विकसंयोगी 12 भंग और त्रिकसंयोगी 8 भंग हैं / इस प्रश्न का उत्तर भी 26 भंगों द्वारा दिया गया है / कालिक ऐपिथिक कर्मबन्ध-विचार—इसके पश्चात ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के सम्बन्ध में भूत, वर्तमान और भविष्य काल-सम्बन्धी प्राठ भंगों द्वारा प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर भवाकर्ष और 'ग्रहणाकर्ष' की अपेक्षा दिया गया है। अनेक भवों में उपशमश्रेणी की प्राप्ति द्वारा ऐपिथिक कर्मपुद्गलों का आकर्ष-ग्रहण करना 'भवाकर्ष' है और एक भव में ऐर्यापथिक कर्मपुद्गलों का ग्रहण करना, 'ग्रहणाकर्ष' है। भवाकर्ष की अपेक्षा यहाँ 8 भंग उत्पन्न होते हैं उनका आशय क्रमश: इस प्रकार है---१. प्रथम भंग-बांधा था, बांधता है, बांधेगा, यह भवाकर्षापेक्षया उस जीव में पाया जाता है, जिसने गतकाल (किसी पूर्वभव) में उपशमश्रेणी की थी, उस समय ऐर्यापथिक कर्म बांधा था; वर्तमान में उपशम श्रेणी करता है, उस समय इसे बांधता है और आगामी भव में उपशमश्रेणी करेगा, उस समय इसे बांधेगा। 2. द्वितीय भंग-बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा-यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशमश्रेणी की थी और ऐर्यापथिक कर्म बांधा था, वर्तमान में क्षपक श्रेणी में इसे बांधता है और फिर इसी भव में मोक्ष चला जाएगा, इसलिए आगामी काल में नहीं बांधेगा। 3. तृतीय भंग-बांधा था, नहीं बांधता है, बांधेगा---यह भंग उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभत्र में उपशमश्रेणी की थी, उसमें बांधा था, वर्तमान भव में श्रेणी नहीं Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करता, अत: यह कर्म नहीं बांधता और भविष्य में उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी करेगा, तब बांवेगा। 4. चौथा भंग-बांधा था, नहीं बांधोता है, नहीं बांधोगा', यह उस जीव में पाया जाता है, जो वर्तमान में चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान है। उसने गतकाल (पूर्वकाल) में बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्यकाल में भी नहीं बांधेगा / 5. पंचम भंग--'नहीं बांधा, बांधता है, बांधेगायह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशमश्रेणी नहीं की थी, अत: ऐपिथिक कर्म नहीं बांधा था, वर्तमान भव में उपशमश्रेणी में बांधता है, आगामी भव में उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी में बांधेगा। 6. छठा भंग-'नहीं बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा' यह भंग उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशमश्रेणी नहीं की थी, अतः नहीं बांधा था, वर्तमानभव में क्षपक श्रेणी में बांधता है, इसी भव में मोक्ष चला जाएगा, इसलिए अागामी काल (भव) में नहीं बांधेगा। 7. सप्तम भंग-नहीं बांधा था, नहीं बांधता है, बांधेगा' यह भंग उस जीव में पाया जाता है, जो जीव भव्य है, किन्तु भूतकाल में उपशमश्रेणी नहीं की, इसलिए नहीं बांधा था, वत काल में भी उपशमश्रेणी नहीं करता, इसलिए नहीं बांधता, किन्तु आगामीकाल में उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी करेगा, तब बांधेगा। 5. अष्टमभंग-'नहीं बांधा था, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा यह भंग अभन्यजीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में ऐर्यापथिककर्म नहीं बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में भी नहीं बांधेगा, क्योंकि अभव्य जीव ने उपशमश्रणी या क्षपकश्रेणी नहीं की, न करता है, और न ही करेगा / एक ही भव में ऐपिथिक कर्म पुदगलों के ग्रहणरूप 'ग्रहणाकर्ष' की दृष्टि से -1. प्रथमभंग-उस जीव में पाया जाता है, जिसने इसी भव में भूतकाल में उपशमश्रणी या क्षपकश्रेणी के समय ऐपिथिककर्म बांधा था, वर्तमान में बांधता है, भविष्य में बांधेगा। 2. द्वितीयभंग-तेरहवें गुणस्थान में एक समय शेष रहता है, उस समय पाया जाता है, क्योंकि उसने भूतकाल में बांधा था, वर्तमानकाल में बांधता है, और आगामीकाल में शैलेशी अवस्था में नहीं बांधेगा। 3. तृतीयभंग-का स्वामी वह जीव है, जो उपशमश्रेणी करके उससे गिर गया है / उसने उपशमश्रेणी के समय ऐर्यापथिक कर्म बांधा था, अब वर्तमान में नहीं बांधता और उसी भव में फिर उपशमश्रणी करने पर बांधेगा; क्योंकि एक भव में एक जीव दो बार उपशमश्रणी कर सकता है। 4. चौथाभंग-चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में पाया जाता है। सयोगीअवस्था में उसने ऐर्यापथिक कर्म बांधा था; किन्तु एक समय पश्चात ही चौदहवें गुणस्थान की प्राप्ति हो जाने पर शैलेशी अवस्था में नहीं बांधता, तथा आगामीकाल में नहीं बांधेगा। 5. पांचवांभंग-उस जीव में पाया जाता है, जिसने आयुष्य के पूर्वभाग में उपशमश्रेणी आदि नहीं की, इसलिए नहीं बांधा, वर्तमान में श्रेणी प्राप्त की है, इसलिए बांधता है और भविष्य में भी बांधेगा। 6. छठाभंग-शून्य है। यह किसी भी जोव में नहीं पाया जाता, क्योंकि छठाभंग है-नहीं बांधा, बांधता है, नहीं बांधेगा / प्रथम की दो बातें तो किसी जीव में सम्भव हैं, लेकिन 'नहीं बांधेगा' यह बात एक ही भव में नहीं पाई जा सकती। 7. सप्तमभंग भव्यविशेष की अपेक्षा से है / 6. अष्टमभंग—अभव्य की अपेक्षा से है। ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध-विकल्प चतुष्टय–यहाँ सादि-सान्त, सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त इन चार विकल्पों को लेकर ऐर्यापथिक कर्म- बंधकर्ता के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है, जिसके उत्तर में कहा गया है—प्रथम विकल्प-सादि-सान्त में ही ऐपिथिक कर्मबन्ध होता है, शेष तीन विकल्पों में नहीं। Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-] [347 जीव के साथ ऐयापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी चार विकल्प—इसके पश्चात् चार-विकल्पों द्वारा ऐर्यापथिक कर्मबन्धांश सम्बन्धी प्रश्न उठाया गया है / उसका आशय यह है-(१) देश से देशबन्ध--जीव-प्रात्मा के एक देश से, कर्म के एक देश का बन्ध, (2) देश से सर्वबन्ध–जीव के एक देश से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध, (3) सर्व से देशबन्ध-सम्पूर्ण जीव प्रदेशों से कर्म के एक देश का बन्ध, और (4) सर्व से सर्वबन्ध सम्पूर्ण-जीव प्रदेशों से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध–इनमें से चौथे विकल्प से ऐर्यापथिककर्म का बन्ध होता है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है, शेष तीन विकल्पों से जीव के साथ कर्म का बन्ध नहीं होता। साम्परायिक कर्मबन्ध : स्वामी, कर्ता, बाधकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धाश-बन्धस्वामीकषाय निमित्तक कर्मबन्धरूप साम्परायिक कर्मबन्ध के स्वामी के विषय में प्रथम प्रश्न में सात विकल्प उठाए गए हैं, उनमें से (1) नैरयिक, (2) तिर्यंच, (3) तिर्यंची, (4) देव और (5) देवी, ये पांच तो सकषायी होने से सदा साम्परायिकबन्धक होते हैं, (6) मनुष्य-नर और (7) मनुष्य-नारी ये दो सकषायो अवस्था में साम्परायिक-कर्मबन्धक होते हैं, अकषायी हो जाने पर साम्परायिकबन्धक नहीं होते। बन्धकर्ता-द्वितीय प्रश्न में साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता के विषय में एकत्वविवक्षित और बहुत्वविवक्षित स्त्री, पुरुष, नपुसक आदि को लेकर सात विकल्प उठाए गए हैं, जिसके उत्तर में कहा गया है—एकत्वविवक्षित और बहुत्वविवक्षित स्त्री, पुरुष और नपुंसक, ये 6 सदैव साम्परायिक कर्मबन्धकर्ता होते हैं, क्योंकि ये सब सवेदी हैं / अवेदी कादाचित्क (कभी-कभी) पाया जाता है, इसलिए वह कदाचित् साम्परायिक कर्म बांधता है। तात्पर्य यह है-स्त्री आदि पूर्वोक्त छह साम्परायिक कर्म बांधते हैं, अथवा स्त्री आदि 6 और वेदरहित एक जीव (क्योंकि वेदरहित एक जीव भी पाया जाता है, इसलिए) साम्परायिक कर्म बांधते हैं, अथवा पूर्वोक्त स्त्री प्रादि छह और वेदरहित बहुत जीव (क्योंकि वेदरहित जीव बहुत भी पाए जा सकते हैं, इसलिए) साम्परायिक कर्म बांधते हैं। तीनों वेदों का उपशम या क्षय हो जाने पर भी जीव जब तक यथाख्यात नहीं करता, तब तक वह वेदरहित जीव साम्परायिक बन्धक होता है / यहाँ पूर्व प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की विवक्षा इसलिए नहीं की गई है कि दोनों में एकत्व और बहुत्व पाया जाता है, तथा वेदरहित हो जाने पर साम्परायिक बन्ध भी अल्पकालिक हो जाता है। साम्परायिक कर्मबन्धक के भी ऐर्यापथिक कर्मबन्धक की तरह 26 भंग होते हैं / वे पूर्ववत् समझ लेने चाहिए। साम्परायिक कर्मबन्ध-सम्बन्धी कालिक विचार-काल की अपेक्षा ऐर्यापथिक कर्मबन्ध सम्बन्धी 8 भंग प्रस्तुत किये गए थे, लेकिन साम्परायिक कर्मबन्ध अनादि काल से है। इसलिए भतकाल सम्बन्धी जो 'ण बन्धी-नहीं बांधा' इस प्रकार के 4 भंग हैं, वे इसमें नहीं बन सकते / जो 4 भंग बन सकते हैं, उनका प्राशय इस प्रकार है-१-'प्रथम भंग-बांधा था, बांधता है, बांधेगा'-यह भंग यथाख्यातचारित्र-प्राप्ति से दो समय पहले तक सर्वसंसारी जोवों में पाया जाता है, क्योंकि भूतकाल में उन्होंने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में बांधते हैं और भविष्य में भी यथाख्यातचारित्र-प्राप्ति के पहले तक बांधेगे। यह प्रथम भंग अभव्यजीव की अपेक्षा भी घटित हो सकता है। २-द्वितीय भंग-बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा-यह भंग भव्य जीव की अपेक्षा से है। मोहनीयकर्म के क्षय से पहले उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में बांधता है, और आगामीकाल में मोहक्षय की अपेक्षा नहीं बांधेगा / ३-ततीय भंग-बांधा था, नहीं बांधता, बांधोगा यह भंग उपशम Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 ] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रेणो प्राप्त जीव को अपेक्षा है। उपशमश्रेणी करने के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में उपशान्तमोह होने से नहीं बांधता और उपशम श्रेणी से गिर जाने पर आगामीकाल में पुनः बांधेगा। ४.-चतर्थ भंग-बांधा था, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा'—यह भंग क्षपकणी -प्राप्त क्षीणमोह जीव की अपेक्षा से है। मोहनीयकर्मक्षय के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में मोहनीयकर्म का क्षय हो जाने से नहीं बांधता और तत्पश्चात् मोक्ष प्राप्त हो जाने से अागामी काल में नहीं बांधेगा।" साम्परायिक कर्मबन्धक के विषय में सादि-सान्त प्रादि 4 विकल्प---पूर्ववत् सादि-सपर्यवसित (सान्त) ग्रादि 4 विकल्पों को लेकर साम्परायिक कर्मबन्ध के विषय में प्रश्न उठाया गया है / इन चार भंगों में से सादि-अपर्यवसित-(अनन्त) को छोड़ कर शेष प्रथम, तृतीय और चतुर्थ भंगों से जीव साम्परायिक कर्म बांधता है। जो जीव उपशम श्रेणी से गिर गया है और आगामी काल में पुन उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणी को अंगीकार करेगा, उसकी अपेक्षा प्रथम भंग घटित होता है। जो जीव प्रारम्भ में ही क्षपकश्रेणी करने वाला है, उसकी अपेक्षा अनादि-सपर्यवसित नामक तृतीय भंग घटित होता है, तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनादि-प्रपर्यवसित नामक चतुर्थ भंग घटित होता है। सादिअपर्यवसित नामक दूसरा भंग किसी भी जीव में घटित नहीं होता। यद्यपि उपशमश्रेणी से भ्रष्ट जीव सादिसाम्परायिकबन्धक होता है, किन्तु वह कालान्तर में अवश्य मोक्षगामी होता है, उस समय उसमें साम्परायिक कर्म का व्यवच्छेद हो जाता है, इसलिए अन्तरहितता उसमें घटित नहीं होती। बावीस परीषहों का अष्टविध कर्मों में समवतार तथा सप्तविधबन्धकादि के परोषहों को प्ररूपरणा 23. कइ णं भंते ! कम्मपयडीयो पण्णत्तायो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीनो पण्णत्ताश्रो, तं जहा~णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [23 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [23 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं / यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 24. कद णं भंते ? परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहा—दिगिछापरीसहे 1, पिवासापरीसहे 2, जाव दसणपरीसहे 22 // [24 प्र.] भगवन् ! परोषह कितने कहे गए हैं ? [24 उ.] गौतम ! परीषह बावीस कहे गए हैं। वे इस प्रकार-१. क्षुधा-परीषह, 2. पिपासा-परीषह यावत् २२---दर्शन-परोषह। 25. एए णं भंते ! बावीसं परोसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ? गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोधरंति, तं जहा-नाणावरणिज्जे, वेयणिज्जे, मोहणिज्जे, अंतराइए। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 385 से 387 तक 2. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 388 Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८ | [349 [25 प्र. भगवन् ! इन बावीस परीषहों का किन कर्मप्रकृतियों में समवतार (समावेश) हो जाता है ? [25 उ.) गौतम ! चार कर्मप्रकृतियों में इन 22 परीषहों का समवतार होता है / वे इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय / 26. नाणावरणिज्जे गं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा-पण्णापरीसहे नाणपरीसहे (अन्नाण परीसहे) य / [26 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? [26 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म में दो परीषहों का समवतार होता है। यथा--प्रज्ञापरीषह और ज्ञानपरीषह (अज्ञानपरीषह)। 27. वेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परोसहा समोयरंति ? गोयमा ! एक्कारस परीसहा समोयरंति, तं जहा पंचेव प्राणुयुधी, चरिया, सेज्जा, वहे य, रोगे य / तणफास जल्लमेव य एक्कारस वेदणिज्जम्मि // 1 // [27 प्र.] भगवन् ! वेदनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? [27 उ.] गौतम ! वेदनीय कर्म में ग्यारह परीषहों का समवतार होता है। वे इस प्रकार हैं.-अनुक्रम से पहले के पांच परीषह (क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, उष्णपरीषह और दंश-मशकपरीषह), चर्यापरीषह, शय्यापरीषह, वधपरीषह, रोगपरीषह, तृणस्पर्शपरीषह और जल्ल (मल) परीषह / इन ग्यारह परीषहों का समवतार वेदनीय कर्म में होता है। 28. [1] सणमोहणिज्जे गं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एगे दंसणपरोसहे समोयरइ / [28-1 प्र.] भगवन् ! दर्शन-मोहनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? [28-1 उ.] गौतम ! दर्शनमोहनीय कर्म में एक दर्शनपरीषह का समवतार होता है। [2] चरित्तमोहणिज्जे गं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! सत परीसहा समोयरंति, तं जहा अरती अचेल इत्थी निसोहिया जायणा य प्रक्कोसे / सक्कारपुरक्कारे चरितमोहम्मि सत्तेते // 2 // [28-2 प्र.] भगवन् ! चारित्रमोहनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? [28.2 3 ] गौतम ! चारित्रमोहनीय कर्म में सात परीषहों का समवतार होता है। वह इस प्रकार - अतिपरीषह, अचेलपरीषह, स्त्रीपरीषह, निषद्यापरीषह, याचनापरीषह, आक्रोशपरीषह और सत्कार-पुरस्कारपरीषह। इन सात परीषहों का समवतार चारित्रमोहनीय कर्म में होता है। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 26. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? गोयमा ! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ। [26 प्र.] भगवन् ! अत्तरायकर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? [26 उ.] गौतम ! अन्तरायकर्म में एक अलाभपरीषह का समवतार होता है / 30. सत्तविहबंधगस्स अंभंते ! कति परीसहा पण्णता ? गोयमा ! बाबीसं परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेदेइ-जं समयं सोयपरीसहं वेदेति णोतं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरोसहं वेदेइ णो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ / जं समय चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं निसोहियापरीसहं वेदेति, जं समयं निसोहियापरीसहं वेदेइ णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ / 30 प्र.] भगवन् ! सप्तविधबन्धक (सात प्रकार के कर्मों को बांधने वाले) जीव के कितने परीषह बताए गए हैं ? [30 उ.] गौतम ! उसके बावीस परीषह कहे गए हैं। परन्तु वह जीव एक साथ बीम परीषहों का वेदन करता है; क्योंकि जिस समय वह शीतपरीषह वेदता है, उस समय उष्णपरीषह का वेदन नहीं करता; और जिस समय उष्णपरीषह का वेदन करता है, उस समय शीतपरीषह का वेदन नहीं करता / तथा जिस समय चर्यापरीषह का बेदन करता है, उस समय निषद्यापरीषह का वेदन नहीं करता और जिस समय निषद्यापरीषह का वेदन करता है, उस समय चर्यापरीषह का वेदन नहीं करता। 31. अदविहबंधगस्स णं भंते ! कति परीसहा पण्णता ? गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता० एवं (सु. 30) अविहबंधगस्स / [31 प्र.] भगवन् ! आठ प्रकार कर्म बाँधने वाले जीव के कितने परीषह कहे गए हैं ? [31 उ.] गौतम ! उसके बावीस परीषह कहे गए हैं / यथा-क्षुधापरीषह, पिपासापरीषह, शीतपरीषह, दशमशक-परीषह यावत् अलाभपरीषह। किन्तु वह एक साथ बीस परीषहों को बेदता है। जिस प्रकार सप्तविधबन्धक के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार (सू. 30 के अनुसार) अष्टविधबन्धक के विषय में भी कहना चाहिए। 32. छविहबंधगस्स शं भंते ! सरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णता? गोयमा ! चोइस परीसहा पण्णत्ता, बारस पुण वेदेइ-जं समयं सोयपरोसहं वेदेइ णो तं समय उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ / जं समयं चरियापरीसहं वेदेति गो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ, जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेइ। 32 प्र.] भगवन् ! छह प्रकार के कर्म बांधने वाले सराग छद्मस्थ जीव के कितने परीषह कहे गए हैं ? . Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [ 351 [32 उ.] गौतम ! उसके चौदह परीपह कहे गए हैं; किन्तु वह एक साथ बारह परीषह वेदता है / जिस समय शीतपरीषह वेदता है, उस समय उष्णपरीषह का वेदन नहीं करता; और जिस समय उष्णपरीषह का वेदन करता है, उस समय शीतपरीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्यापरीषह का वेदन करता है, उस समय शय्यापरोषह का वेदन नहीं करता; और जिस समय शय्यापरीषह का वेदन करता है, उस समय चर्यापरीषह का वेदन नहीं करता। 33. [1] एक्कविहबंधगस्स णं भंते ! वीयरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! एवं चेव जहेव छविहबंधगस्स / [33-1 प्र.] भगवन् ! एकविधबन्धक वीतराग-छद्मस्थ जीव के कितने परीषह कहे [33-1 उ.] गौतम ! षड्विधबन्धक के समान इसके भी चौदह परीषह कहे गए हैं, किन्तु बह एक साथ बारह परीषहों का वेदन करता है / जिस प्रकार षड्विधबन्धक के विषय में कहा है, उसी प्रकार एकविधबन्धक के विषय में समझना चाहिए / [2] एगविहबंधगस्स णं भंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस कति परीसहा पण्णता ? गोयमा ! एक्कारस परोसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेह / सेसं जहा छविहबंधगस्स। [33-2 प्र.] भगवन् ! एकविधबन्धक सयोगी-भवस्थ केवली के कितने परीषह कहे गए हैं ? 133-2 उ.] गौतम ! इसके ग्यारह परीषह कहे गए हैं, किन्तु वह एक साथ नौ परीषहों का वेदन करता है / शेष समग्र कथन षड्विधबन्धक के समान समझ लेना चाहिए। 34. प्रबंधगस्त णं भंते ! अजोगिभवत्थ केलिस्स कति परीसहा पण्णता? गोयमा ! एषकारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरीसह वेदेति नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेइ / जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेति, जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ नो तं समयं चरियापरीसहं वेदेई। [३४-प्र.] भगवन् ! प्रबन्धक अयोगी-भवस्थ-केवली के कितने परीषह कहे गए हैं ? [34 उ. गौतम ! उसके ग्यारह परीषह कहे गए हैं। किन्तु वह एक साथ नौ परीषहों का वेदन करता है / क्योंकि जिस समय शीतपरीषह का वेदन करता है, उस समय उष्णपरीषह का वेदन नहीं करता; और जिस समय उष्णपरीषह का वेदन करता है, उस समय शीतपरीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्या-परीषह का वेदन करता है, उस समय शय्या-परीषह का वेदन नहीं करता और जिस समय शय्या-परीषह का वेदन करता है, उस समय चर्या-परीषह का वेदन नहीं करता। विवेचन-~-बावीस परीषहों की अष्टकर्मों में समावेश की तथा सप्तविधबन्धक प्रादि के परीषहों को प्ररूपणा प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 23 से 34 तक) में बावीस परीषहों के सम्बन्ध में दो तथ्यों का निरूपण किया गया है - (1) किस कर्म में कितने परीषहों का समावेश होता है ? अर्थात् किस-किस Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्म के उदय से कौन-कौन से परीषह उत्पन्न होते हैं ? तथा (2) सप्तविधबन्धक, षड्विधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकविधबन्धक और प्रबन्धक आदि में कितने-कितने परीषहों की सम्भावना है। परोषह : स्वरूप और प्रकार-आपत्ति आने पर भी संयममार्ग से भ्रष्ट न होने, तथा उसमें स्थिर रहने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक, मानसिक कष्ट साधु, साध्वियों को सहन करने चाहिए, वे 'परीषह' कहलाते हैं। ऐसे परीषह 22 हैं / यथा-(१) क्षुधापरीषह - भूख का कष्ट सहना, संयममर्यादानुसार एषणीय, कल्पनीय निर्दोष आहार न मिलने पर जो क्षुधा का कष्ट सहना होता है, उसे क्षुधापरीषह कहते हैं। (2) पिपासापरीषह-प्यास का परीषह, (3) शीतपरीषह--ठंड का परीषह, (4) उष्णपरीषह-गर्मी का परीषह (5) दंश-मशकपरीषह-डांस, मच्छर, खटमल, ज', चींटी आदि का परीषह, (6) अचेलपरीषह-वस्त्राभाव, वस्त्र की अल्पता या जीर्णशीर्ण, मलिन आदि अपर्याप्त वस्त्रों के सद्भाव में होने वाला परीषह, (7) अरतिपरीषह-संयममार्ग में कठिनाइयाँ, असुविधाएँ, एवं कष्ट आने पर अरति-अरुचि या उदासी या उद्विग्नता से होने वाला कष्ट, (8) स्त्रीपरीषह --स्त्रियों से होने वाला कष्ट, साध्वियों के लिए पुरुषों से होने वाला कष्ट, (यह अनुकूल परीषह है।) (8) चर्यापरीषह-ग्राम, नगर आदि के विहार से या पैदल चलने से होने वाला कष्ट, (10) निषद्या या निशीथिका परोषह-स्वाध्याय आदि करने को भूमि में तथा सूने घर आदि में ठहरने से होने वाले उपद्रव का कष्ट, (11) शय्यापरीषह-रहने के (आवास-) स्थान की प्रतिकूलता से होने वाला कष्ट, (12) प्राक्रोशपरीषह-कठोर, धमकीभरे वचन, या डाट-फटकार से होने वाला, (13) वधपरोषह-मारने-पीटने आदि से होने वाला कष्ट, (14) याचनापरीषह-भिक्षा माँग कर लाने में होने वाला मानसिक कष्ट, (15) अलाभपरीषह-भिक्षा आदि न मिलने पर होने वाला कष्ट, (16) रोगपरीषह-रोग के कारण होने वाला कष्ट, (17) तृणस्पर्शपरीषह–चास के बिछौने पर सोने से शरीर में चुभने से या मार्ग में चलते समय तृणादि पैर में चुभने से होने वाला कष्ट, (18) जल्लपरीषह-कपड़ों या तन पर मैल, पसीना पादि जम जाने से होने वाली ग्लानि, (16) सत्कार-पुरस्कारपरीषह-जनता द्वारा सम्मानसत्कार, प्रतिष्ठा, यश, प्रसिद्धि प्रादि न मिलने से होने वाला मानसिक खेद अथवा सत्कार-सम्म मिलने पर गर्व अनुभव करता, (20) प्रज्ञापरीषह-प्रखर अथवा विशिष्टबुद्धि का गर्व करना, (21) ज्ञान या अज्ञान परीषह-विशिष्ट ज्ञान होने पर उसका अहंकार करना, ज्ञान (बुद्धि) की मन्दता होने से मन में दैन्यभाव आना, और (22) प्रदर्शन या दर्शन परीषह-दूसरे मत वालों की ऋद्धि-वृद्धि एवं चमत्कार-पाडम्बर आदि देख कर सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त से विचलित होना या सर्वज्ञोक्त तत्त्वों के प्रति शंकाग्रस्त होना। चार कर्मों में बावीस परीषहों का समावेश-कर्म प्रकृतियां मूलतः पाठ हैं। उनमें से 4 कर्मो-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय में 22 परीषहों का समावेश होता है / इसका तात्पर्य यह है कि इन चार कर्मों के उदय से पूर्वोक्त 22 परीषह उत्पन्न होते हैं / प्रज्ञापरीषह और ज्ञान या अज्ञान परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होते हैं / वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा श्रादि 11 परीषह होते हैं। इन परीषहों के कारण पीड़ा उत्पन्न होना-वेदनीय कर्म का उदय है / मोहनीय कर्म के उदय से 8 परीषह होते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से प्रदर्शन या दर्शन परीषह और चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अति, अचेल आदि 7 परीषह होते हैं और अन्त रायकर्म के उदय से अलाभ परीषह होता है। सप्तविध प्रादि बन्धक के साथ परीषहों का साहचर्य-प्रायुकर्म को छोड़कर शेष 7 अथवा प्रायुलंधकाल में 8 कर्मों को बांधने वाले जीव के सभी 22 परीषह हो सकते हैं; किन्तु ये वेदते हैं--- Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८) [ 353 अधिक-से-अधिक एक साथ बीस परीषह, क्योंकि शीत और उष्ण, चर्या और निषद्या अथवा चर्या और शय्या ये दोनों परस्पर विरुद्ध होने से एक का ही एक समय में अनुभव होता है / षड्विधबन्धक सराग छमस्थ के 14 परीषह बताए गए हैं। वे मोहनीय कर्मजन्य 8 परीषहों के सिवाय समझने चाहिए। किन्तु उनमें वेदन हो सकता है 12 परीषहों का ही / पूर्वोक्त रीति से चर्या और शय्या, या चर्या और निषद्या अथवा शीत और उष्ण दोनों का एक साथ बेदन नहीं होता। एक वेदनीय कर्म के बन्धक छद्मस्थ वीतराग (ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती) जीव के भी 14 परीषह मोहनीयकर्म के ८परीषहों को छोड़ कर) होते हैं, किन्तु वे वेदते हैं अधिक-से-अधिक 12 परीषह ही / तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी भवस्थ केवलो एकविध बन्धक के और चौदहवें गुणस्थानवर्ती प्रबन्धक प्रयोगी भवस्थ केबली के एकमात्र वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले 11 परीषह (जो कि पहले बताए गए हैं) होते हैं, किन्तु उनमें से एक साथ 6 का ही वेदन पूर्वोक्त रीत्या संभव है।' उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यों की दूरी और निकटता के प्रतिभास प्रादि की प्ररूपरगा 35. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, मतियमुहुतंसि मूले य दूरे य दोसंति, प्रथमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उगमणमुहत्तंसि दूरे य तं चेव जाव प्रथमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दोसंति / [35 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में क्या दो सूर्य, उदय के मुहूर्त (समय) में दूर होते हुए भी निकट (मूल में) दिखाई देते हैं, मध्याह्न के मुहूर्त (समय) में निकट (मूल) में होते हुए दूर दिखाई देते हैं और अस्त होने के मुहूर्त (समय) में दूर होते हुए भी निकट (मूल में) दिखाई भी देते हैं ? 35 उ.] हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, इत्यादि यावत् अस्त होने के समय में दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं। 36. जंबुद्दीवे गं भंते ! दोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि य मज्झतियमुहत्तंसि य, प्रथमणमुहतंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं ? हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे गं दीवे सूरिया उग्गमण जाव उच्चत्तेणं / [36 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय में, मध्याह्न के समय में और अस्त होने के समय में क्या सभी स्थानों पर (सर्वत्र) ऊँचाई में सम हैं ? [36 उ.] हाँ, गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में रहे हुए दो सूर्य * यावत् सर्वत्र ऊँचाई में सम हैं। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 389 से 392 तक (ख) तत्वार्थसूत्र अ. 9 Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 37. जइ गं भंते ! जंबुद्दोवे दीये सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि य मज्झतियमुहत्तंसि य अस्थमणमुहत्तंसि जाव उच्चत्तेणं से केणं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ 'जंबुद्दीवे गं दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव प्रस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ? गोयमा ! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दोसंति, लेसाभितावेणं मज्झतियमुहुत्तसि मूले य दूरे य दीसंति, लेस्सापडियाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जंबुद्दीवे गं दीवे सूरिया उम्गमणमहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अस्थमण जाव दीसंति / [37 प्र. भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय, मध्याह्न के समय और प्रस्त के समय सभी स्थानों पर (सर्वत्र) ऊँचाई में समान हैं तो ऐसा क्यों कहते हैं, कि जम्बूद्वीप में दो सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, यावत् अस्त के समय में दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? [37 उ.] गौतम ! लेश्या (तेज) के प्रतिघात से सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं / मध्याह्न में लेश्या (तेज) के अभिताप से पास होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं और अस्त के समय तेज के प्रतिघात से दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं / इस कारण से, हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी पास में दिखाई देते हैं, यावत् अस्त के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं। 38. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे सूरिया कि तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुत्पन्न खेत्तं गच्छति, प्रणागयं खेत्तं गच्छति ? गोयमा ! णो तीयं खेत्तं गच्छति, पड़प्पन्नं खेत्तं गच्छति, यो अणागयं खेत्तं गच्छति / [38 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, क्या अतीत क्षेत्र की ओर जाते हैं, वर्तमान क्षेत्र को पोर जाते हैं, अथवा अनागत क्षेत्र की ओर जाते हैं ? [38 उ ] गौतम ! वे अतीत क्षेत्र की ओर नहीं जाते, अनागत क्षेत्र की ओर भी नहीं जाते, वर्तमान क्षेत्र की ओर जाते हैं / 39. जंबुद्दीवे णं बोवे सूरिया कि तीयं खेत्तं प्रोभासंति, पडुप्पन्न खेत्तं ओभासंति, अणागयं खेत्तं प्रोभासंति ? गोयमा ! नो तीयं खेत्तं प्रोमासंति, पडुप्पन्न खेत्तं प्रोभासंति, नो प्रणागयं खेत्तं प्रोभासंति / [36 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, क्या अतीत क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं या अनागत क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? [39 उ.] गौतम ! वे अतीत क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते, और न अनागत क्षेत्र को ही प्रकाशित करते हैं, किन्तु वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं। 40. तं भंते ! कि पुढें ओभासंति, अपुढें प्रोभासंति ? गोयमा ! पुढे श्रोभासंति, नो अपुढें प्रोभासंति जाब नियमा छसि / Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-] [40 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, स्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? 40 उ.] गौतम ! वे स्पष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, अस्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते; यावत् नियमत: छहों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं / 41. जंबुद्दोवे गं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोति ? एवं चेव जाव नियमा छद्दिसि / [41 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, क्या अतीत क्षेत्र को उद्योतित करते हैं ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए। [41 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए; यावत् नियमत: छह दिशाओं को उद्योतित करते हैं। 42. एवं तवेंति, एवं भासंति जाव नियमा छद्दिसि / [42] इसी प्रकार तपाते हैं; यावत् छह दिशा को नियमतः प्रकाशित करते हैं। 43. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जइ, पड़प्पन्ने खित्ते किरिया कज्जइ, प्रणागए खेत किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो तीए खेत्ते किरिया कज्जइ, पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ, णो अगागए खेत्ते किरिया कज्जई। [43. प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्यों को क्रिया क्या अतीत क्षेत्र में की जाती है ? वर्तमान क्षेत्र में ही की जाती है अथवा अनागत क्षेत्र में की जाती है ? 143 उ.] गौतम ! अतीत क्षेत्र में क्रिया नहीं की जाती, और न अनागत क्षेत्र में क्रिया की जाती है, किन्तु वर्तमान क्षेत्र में क्रिया की जाती है / 44. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जति, अपुट्ठा करनइ ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जति जाव नियमा छद्दिसि / [44 प्र.] भगवन् ! वे सूर्य स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट ? [44 उ.} गौतम ! वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं, अस्पृष्ट क्रिया नहीं करते; यावत् नियमतः छहों दिशाओं में स्पृष्ट क्रिया करते हैं। 45. जंबुद्दीवे गं भंते ! दोवे सूरिया केवतियं खेतं उड्ढं तवंति, केवतियं खेतं आहे तवंति, केवतियं खेतं तिरियं तवंति ? गोयमा ! एग जोयणसयं उड्ढे तवंति, प्रद्वारस जोयणसयाई अहे तवंति, सोयालीसं जोयणसहस्साई दोणि तेवढे जोयणसए एकवीसं च सदिमाए जोयणस्स तिरियं तवति / Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रप्तिसूत्र [45 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य कितने ऊँचे क्षेत्र को तपाते हैं, कितने नीचे क्षेत्र को तपाते हैं, और कितने तिरछे क्षेत्र को तपाते हैं ? [45 उ.] गौतम ! वे सौ योजन ऊँचे क्षेत्र को तप्त करते हैं, अठारह सौ योजन नीचे के क्षेत्र को तप्त करते हैं, और सैंतालीस हजार दो सौ तिरसठ योजन तथा एक योजन के साठिया इक्कीस भाग (472632) तिरछे क्षेत्र को तप्त करते हैं। विवेचन-उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यो की दूरी और निकटता के प्रति मास आदि की प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 35 से 45 तक) में जम्बूद्वीपस्थ सूर्य-सम्बन्धी दूरी और निकटता आदि निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है १-सूर्य उदय और अस्त के समय दूर होते हुए भी निकट तथा मध्याह्न में निकट होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं। २-उदय, अस्त और मध्याह्न के समय सूर्य ऊँचाई में सर्वत्र समान होते हुए भी लेश्या (तेज) के अभिताप से उदय-अस्त के समय दूर होते हुए भी निकट तथा मध्याह्न में निकट होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं। ३-दो सूर्य, अतीत-अनागत क्षेत्र को नहीं, किन्तु वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित और उद्योतित करते हैं / वे अतीत-अनागत क्षेत्र की ओर नहीं, वर्तमान क्षेत्र की ओर जाते हैं। ४-वे स्पष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, अस्पृष्ट क्षेत्र को नहीं; यावत् नियमतः छहों दिशाओं को प्रकाशित तथा उद्योतित करते हैं। ५–सूर्यों की क्रिया प्रतीत-अनागत क्षेत्र में नहीं, वर्तमान क्षेत्र में की जाती है / ६-वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं, अस्पृष्ट नहीं, यावत् छहों दिशाओं में स्पृष्ट क्रिया करते हैं। ७--वे सूर्य सौ योजन ऊँचे क्षेत्र को, 1800 योजन नीचे के क्षेत्र को, तथा 472633. योजन तिरछे क्षेत्र को तप्त करते हैं / सर्य के दूर और निकट दिखाई देने के कारण का स्पष्टीकरण—सूर्य समतल भूमि से 800 योजन ऊँचा है, किन्तु उदय और अस्त के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा निकट दृष्टिगोचर होता है, इसका कारण यह है कि उस समय उसका तेज मन्द होता है / मध्याह्न के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा दूर मालूम होता है, इसका कारण यह है कि उस समय उसका तीन तेज होता है। इन्हीं कारणों से सूर्य निकट और दूर दिखाई देता है। अन्यथा उदय, अस्त और मध्याह्न के समय सूर्य तो समतल भूमि से 800 योजन ही दूर रहता है। सर्य को गति : अतीत, अनागत या वर्तमान क्षेत्र में ? ---यहाँ क्षेत्र के साथ अतीत, अनागत और वर्तमान विशेषण लगाए गए हैं / जो क्षेत्र अतिक्रान्त हो गया है, अर्थात्—जिस क्षेत्र को सूर्य पार कर गया है, उसे 'अतीतक्षेत्र' कहते हैं। जिस क्षेत्र में सूर्य अभी गति कर रहा है, उसे 'वर्तमानक्षेत्र' कहते हैं, और जिस क्षेत्र में सूर्य गमन करेगा, उसे 'अनागतक्षेत्र' कहते हैं / सूर्य न अतीत क्षेत्र में गमन करता है, न ही अनागतक्षेत्र में गमन करता है, क्योंकि अतीत क्षेत्र अतिक्रान्त हो चुका है और अनागतक्षेत्र अभी पाया नहीं है, इसलिए वह वर्तमान क्षेत्र में ही गति करता है। Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८ [357 सूर्य किस क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है ?--सुर्य अतीत और अनागत तथा अस्पृष्ट और अनवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त नहीं करता, परन्तु वर्तमान, स्पष्ट और अवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है; अर्थात् ---इसी क्षेत्र में क्रिया करता है, अतीत, अनागत अादि में नहीं। सूर्य की ऊपर, नीचे और तिरछे प्रकाशित प्रादि करने की सीमा-सूर्य अपने विमान से सौ योजन ऊपर (ऊर्ध्व) क्षेत्र को तथा 800 योजन नीचे के समतल भूभाग से भी हजार योजन नीचे अधोलोक ग्राम तक नीचे के क्षेत्र को और सर्वोत्कृष्ट (सबसे बड़े) दिन में चक्षुःस्पर्श की अपेक्षा 472631 योजन तक तिरछे क्षेत्र को उद्योतित, प्रकाशित और तप्त करते हैं।' मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों और इन्द्रों का उपपात-विरहकाल 46. अंतो गं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-ताराख्वा ते गं भंते ! देवा कि उड्डोववन्नगा? जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा / . [46 प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप देव हैं, वे क्या ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ? [46 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यावत् -- 'उनका उपपात-विरहकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है'; यहाँ तक कहना चाहिए / 47. बहिया णं भंते ! माणुसुत्तरस्स० जहा-जीवाभिगमे जाव इंदवाणे णं भंते ! केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पन्नत्ते? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // अट्टमसए : अट्ठमो उद्देसो समत्तो // [47 प्र.] भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत के बाहर जो चन्द्रादि देव हैं, वे ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न [47 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्- [प्र.] भगवन् ! इन्द्रस्थान कितने काल तक उपपात-विरहित कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः छह मास बाद दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न होता है / इतने काल तक इन्द्रस्थान उपपात-विरहित होता है';-यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है. भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 393 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ टिप्पणयुक्त), पृ. 377-378 Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर-बाहर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों का उपपातविरहकाल प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में मानुषोत्तर-पर्वत के अन्दर के ज्योतिष्क देवों एवं इन्द्रों के उपपातविरहकाल का और द्वितीयसूत्र में मानुषोत्तरपर्वत के बाहर के ज्योतिष्कदेवों एवं इन्द्रों के उपपातविरहकाल का जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण है।' / / अष्टमशतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) वियाहपष्णत्तिसुत्त', (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 378.379. (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 393-394 (ग) जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति 3, पत्रांक 345-346 (भागमोदय. (I) (प्र.). "कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा चारोववन्नगा चारटुिइया गइरइया गइसमावन्नगा ? (उ.) गोयमा ! ते णं देवा नो उड्ढोबवन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, चारोववन्नगा, नो चारट्रिइया, गइरइया गइसमावन्नगा' इत्यादि / (II) (प्र.) इंदवाणे भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं?, (उ.) मोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समय उपकोसेणं छम्मास ति।' (III) .....(प्र.).."जे चन्दिम.""तेणं भंते ! कि उड्ढोववन्नगा? (उ.) गोयमा ! ते गं देवा नो उडढोबबन्नगा, नो कप्पोववन्नगा, विमाणोववन्नगा, नो चारोववन्नगा चारदिइया, नो गइरइया, नो गइसमावन्नगा' इत्यादि। Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'बंध' नवम उद्देशक : 'बन्ध बन्ध के दो प्रकार : प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध 1. काविहे गं भंते ! बंधे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा---पयोगबंधे य, वीससीबंधे य / [1 प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध / विवेचन-बन्ध के दो प्रकार : प्रयोगबन्ध और विस्त्रसाबन्ध-प्रयोगबन्ध--जो जीव के प्रयोग से अर्थात् मन, वचन और कायारूप योगों की प्रवृत्ति से बन्धता है। विस्रसाबन्ध-जो स्वाभाविक रूप से बन्धता है / बन्ध का अर्थ यहाँ पुद्गलादिविषयक सम्बन्ध है।' विस्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद और स्वरूप 2. वीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-साईयवीससाबंधे य प्रणाईयवोससाबंधे य / [2 प्र.] भगवन् ! विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [2 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा--(१)सादिक विस्त्रसाबन्ध और (2) अनादिक विस्रसाबन्ध / 3. अणाईयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पणते, तं जहा-धम्मस्थिकायअन्तमन्नप्रणादीयवोससाबंधे, अधम्मस्थिकाय. अन्तमन्नअणादीयवीससाबंधे, पागासस्थिकायअन्नमन्नणादीयवीससाबंधे। [3 प्र.] भगवन् ! अनादिक विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? (3 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार—(१) धर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादिक विस्रसाबन्ध (2) अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य-अनादि-वित्रसाबन्ध, और (3) आकाशास्तिकाय का अन्योन्य अनादिक विस्रसाबन्ध / 4. धम्मत्थिकायप्रन्नमन्नणादीयवीससाबंधे णं भंते ! कि देसबंधे सव्वबंधे? गोधमा ! देशबंधे, नो सन्वबंधे / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 394 Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय का अन्योन्य-अनादि-विस्रसाबन्ध क्या देशबन्ध है या सर्वबन्ध है ? [4 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध है, सर्वबन्ध नहीं / 5. एवं अधम्मस्थिकायअन्नमनप्रणादीयवीससाबंधे वि, एवं प्रागासस्थिकायअन्नमनप्रणादीयबोससाबंधे वि। [5] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के अन्योन्य-अनादि-विस्रसाबन्ध एवं आकाशास्तिकाय के अन्योन्य-अनादि-विस्रसाबन्ध के विषय में भी समझ लेना चाहिए। (अर्थात् --ये भी देशबन्ध हैं, सर्वबन्ध नहीं।) 6. धम्मस्थिकायअन्नमन्नप्रणाईयवीससाबंधे णं भंते ! कालमो केवच्चिर होइ? गोयमा ! सम्वद्ध। [6 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय का अन्योन्य-अनादि-विस्रसाबन्ध कितने काल तक रहता है ? [6 उ.] गौतम ! सर्वाद्धा (सर्वकाल = सर्वदा) रहता है। 7. एवं अधम्मस्थिकाए, एवं प्रागासस्थिकाये / [7] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य-अनादि-विससाबन्ध एवं नाकाशास्तिकाय का अन्योन्य-अनादि-विस्रसाबन्ध भी सर्वकाल रहता है / 8. सादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-बंधणपच्चइए भायणपच्चइए परिणामपच्चइए। [8 प्र.] भगवन् ! सादिक-विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है। जैसे—(१) बन्धन-प्रत्ययिक, (2) भाजनप्रत्ययिक और (3) परिणामप्रत्ययिक / 6. से कि तं बंधणपच्चइए ? बंधणपच्चइए, जं णं परमाणुपुग्गला दुपएसिय-तिपएसिय-जाव-दसपएसिय-संखेज्जपएसियअसंखेज्जपएसिय-अणंतपएसियाणं खंधाणं वेमायनिद्धयाए वेमायलुक्खयाए वेमायनिद्ध-लुक्खयाए बंधणपच्चइएणं बंधे समुष्पज्ज इ जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / से तं बंधणपच्चइए / [9 प्र.] भगवन् ! बन्धन-प्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबन्ध किसे कहते हैं ? [6 उ.] गौतम ! परमाणु, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावत् दशप्रदेशिक, संख्यातप्रदेशिक, असंख्यातप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक पुद्गल-स्कन्धों का विमात्रा (विषममात्रा) में स्निग्धता से, विमात्रा में रूक्षता से तथा विमात्रा में स्निग्धता-रूक्षता से वन्धन-प्रत्ययिक बन्ध समुत्पन्न होता है। वह जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टत: असंख्येय काल तक रहता है / यह हुमा बन्धन-प्रत्यायिक सादि-विस्रसाबन्ध का स्वरूप / Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] 10. से कि तं भायणपच्चइए ? भायणपच्चइए, जं णं जुण्णसुरा-जुण्णगुल-जुण्णतंदुलाणं भायणपच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / से तं भायणपच्चइए। [10 प्र.] भगवन् ! भाजन-प्रत्यायक-सादि-विस्रसाबन्ध किसे कहते हैं ? [10 उ.] गौतम ! पुरानो सुरा (मदिरा), पुराने गुड, और पुराने चावलों का भाजनप्रत्ययिक-सादि-वित्रसाबन्ध समुत्पन्न होता है / वह जघन्यतः अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्टतः संख्यात काल तक रहता है / यह है भाजन-प्रत्ययिक-सादि-विस्त्रसाबन्ध का स्वरूप / 11. से कि तं परिणामपच्चइए ? परिणामपच्चइए, जं णं अब्भाणं अन्भरुक्खाणं जहा ततियसए (स. 3 उ. 7 सु. 4 [5]) जाव अमोहाणं परिणामपच्चइएणं बंधे समुपज्जइ जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / से तं परिणामपच्चइए / से तं सादीयवीससाबंधे / से तं वोससाबंधे। [11 प्र.] भगवन् ! परिणामप्रत्ययिक-सादि-विस्रसाबन्ध किसे कहते हैं ? {11 उ.] गौतम ! (इसी शास्त्र के तृतीय शतक उद्देशक 7 सू. 4-5) में जो बादलों (अभ्रों) का, अभ्रवृक्षों का यावत् अमोधों आदि के नाम कहे गए हैं, उन सबका, परिणाम-प्रत्ययिक (सादि-वित्रसा) बन्ध समुत्पन्न होता है। वह बन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः छह मास तक रहता है। यह हुआ परिणाम-प्रत्यायिक-सादि-विस्रसाबन्ध का स्वरूप / और यह हुअा विस्रसाबन्ध का कथन / विवेचन-विस्रसाबन्ध के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप--प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 2 से 11 तक) में विस्रसाबन्ध के सादि-अनादिरूप दो भेद, तत्पश्चात् अनादिविस्रसाबन्ध के तीन और सादि विस्रसाबन्ध के तीन भेदों के प्रकार और स्वरूप का निरूपण किया गया है / त्रिविध अनादि विलसाबन्ध का स्वरूप --धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय की अपेक्षा से अनादि विस्रसाबन्ध तीन प्रकार का कहा गया है / धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का उसी के दूसरे प्रदेशों के साथ सांकल और कड़ी की तरह जो परस्पर एक देश से सम्बन्ध होता है, वह धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिविस्रसाबन्ध कहलाता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के वित्रसाबन्ध के विषय में समझना चाहिए / धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह देशबन्ध होता है, नीरक्षीरवत् सर्वबन्ध नहीं, क्योंकि यदि सर्वबन्ध माना जाएगा तो एक प्रदेश में दूसरे समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाने से धर्मास्तिकाय एक प्रदेशरूप ही रह जाएगा, असंख्यप्रदेश रूप नहीं रहेगा; जो कि सिद्धान्त से प्रसंगत है / अत: धर्मास्तिकाय आदि तीनों का परस्पर देशबन्ध ही होता है, सर्वबन्ध नहीं। त्रिविध-सादिविस्त्रसाबन्ध का स्वरूप-सादिविस्रसाबन्ध के बन्धनप्रत्ययिक, भाजन-प्रत्ययिक और परिणामप्रत्ययिक, ये तीन भेद कहे गए हैं। बन्धन अर्थात् विवक्षित स्निग्धता आदि गुणों के निमित्त से परमाणुओं का जो बन्ध सम्पन्न होता है, उसे बन्धनप्रत्यायिक बन्ध कहते हैं, भाजन का अर्थ है-प्राधार / उसके निमित्त से जो बन्ध सम्पन्न होता है, वह भाजतप्रत्ययिक है। जैसे-धड़े में Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रखी हुई पुरानी मदिरा गाढ़ी हो जाती है, पुराने गुड़ और पुराने चावलों का पिण्ड बंध जाता है, वह भाजनप्रत्ययिकबन्ध कहलाता है। परिणाम अर्थात् रूपान्तर (हो जाने) के निमित्त से जो बन्ध होता है, उसे परिणाम-प्रत्ययिक बन्ध कहते हैं।' अमोघ शब्द का अर्थ-सूर्य के उदय और अस्त के समय उसकी किरणों का एक प्रकार का आकार 'प्रमोघ' कहलाता है। बन्धन-प्रत्यायिकबन्ध का नियम-सामान्यतया स्निग्धता और रूक्षता से परमाणुओं का बन्ध होता है। किस प्रकार होता है ? इसका नियम क्या है ? यह समझ लेना आवश्यक है। एक आचार्य ने इस विषय में नियम बतलाते हुए कहा है--समान स्निग्धता या समान रूक्षता वाले स्कन्धों का बन्ध नहीं होता, विषम स्निग्धता या विषम रूक्षता में बन्धन होता है। स्निग्ध का द्विगुणादि अधिक स्निग्ध के साथ तथा रूक्ष का द्विगुणादि अधिक रूक्ष के साथ बन्ध होता है / स्निग्ध का रूक्ष के साथ जघन्यगुण को छोड़ कर सम या विषम बन्ध होता है / अर्थात एकगुण स्निग्ध या एकगुण रूक्षरूप जघन्य गुण को छोड़ कर शेष सम या विषम गुण वाले स्निग्ध या रूक्ष का परस्पर बन्ध होता है। सम स्निग्ध का सम स्निग्ध के साथ तथा सम रूक्ष का सम रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता / उदाहरणार्थ एकगुण स्निग्ध का एकगुण स्निग्ध के साथ अथवा एकगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता है। दोगुण स्निग्ध का दोगुण स्निग्ध के साथ या तीनगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु चारगुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है। जिस प्रकार स्निग्ध के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार रूक्ष के विषय में समझ लेना चाहिए। एकगुण को छोड़ कर परस्थान में स्निग्ध और रूक्ष के परस्पर सम या विषम में दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं। यथा-एकगुण स्निग्ध का एकगुण रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु द्वयादि गुणयुक्त रूक्ष के साथ बन्ध होता है, इसी तरह द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष अथवा त्रिगुणरूक्ष के साथ बन्ध होता है / इस प्रकार सम और विषम दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं।' प्रयोगबन्ध : प्रकार, भेद-प्रभेद तथा उनका स्वरूप-- 12. से कि तं पयोगबंधे ? पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अणाईए वा अपज्जवसिए 1, सादीए वा अपज्जवसिए 2, सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से अणाईए अपज्जवसिए से णं अटण्हं जीवभज्झपएसाणं / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 395 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3, पृ. 1473 2. (क) वही, पत्रांक 395 (ख) समनिद्धयाए बन्धो न होई, समलुक्खयाए वि ण होई। वेमायनिद्धलुक्खत्तररोण बन्धो उ खंधाणं // 1 // निद्धस्स निदण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं / निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो, जहस्तवज्जो विसमो समो वा // 2 // - भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 395 में उद्धृत [ग] स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः / न जघन्यगुणानाम् / गुणमाम्ये सदृशानाम् / बन्धे समाधिको पारिणामिकौ च / .-तत्त्वार्थसूत्र, अ. 5 सू. Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 363 तत्थ वि अंतिण्हं तिण्हं प्रणाईए अपज्जवसिए. सेसाणं साईए / तत्थ णं जे से सादीए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं / तत्थ गंजे से साईए सपज्जवसिए से णं चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा- आलाधणबंध अल्लियावणबंध सरीरबंधे सरीरप्पयोगबंधे / [12 प्र.] भगवन् ! प्रयोगबन्ध किस प्रकार का है ? [12 उ.] गौतम ! प्रयोगबन्ध तीन प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित, (2) सादि-अपर्यवसित अथवा (3) सादि-सपर्यवसित / इनमें से जो अनादि-अपर्यवसित है, वह जीव के आठ मध्यप्रदेशों का होता है। उन आठ प्रदेशों में भी तीन-तीन प्रदेशों का जो बन्ध होता है, वह अनादि-अपर्यवसित बन्ध है। शेष सभी प्रदेशों का सादि (-अपर्यवसित) बन्ध है / इन तीनों में से जो सादि-अपर्यवसित बन्ध है, तथा इनमें से जो सादि-सपर्यवसित बन्ध है, वह चार प्रकारका कहा गया है / यथा-(१) पालापनबन्ध, (2) अल्लिकापन-(आलीन) बन्ध, (3) शरीरबन्ध और (4) शरीर-प्रयोग-बन्ध / 13. से कि तं पालावणबंध ? आलावणबंधे, जं गं तणभाराण वा कटुभाराण वा पत्तभाराण वा पलालभाराण वा वेल्ल. भाराण वा वेत्तलया-वाग-वरत्त-रज्जु-वल्लि-कुस-दम्भमादिरहि आलावणबंधे समुप्पज्जइ; जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / से तं पालावणबंधे। [13 प्र.] भगवन् ! पालापनबन्ध किसे कहते हैं ? [13 उ.] गौतम ! तृण (घास) के भार, काष्ठ के भार, पत्तों के भार, पलाल के भार और बेल के भार, इन भारों को बेंत की लता, छाल, वरत्रा (चमड़े की बनी मोटी रस्सी - बरत), रज्जु (रस्सी) बेल, कुश और डाभ (नारियल की जटा) आदि से बांधने से पालापनबन्ध समुत्पन्न होता है। यह बन्ध जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः संख्येय काल तक रहता है / यह आलापनबन्ध का स्वरूप है। 14. से कि तं अल्लियावणबंधे ? अल्लियावणबंधे चविहे पन्नत्ते, तं जहा--लेसणाबंधे उच्चयबधे समुच्चयबंधे साहणणाबंधे / [14 प्र.] भगवन् ! अल्लिकापन (प्रालीन) वन्ध किसे कहते हैं ? [14 उ.] गौतम ! आलीनबन्ध चार प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार–श्लेषणाबन्ध, उच्चयबन्ध, समुच्चयबन्ध और संहननबन्ध / 15. से कि तं लेसणाबंध? लेसणाबंधे, जं णं कुड्डाणं कुट्टिमाणं खंभाणं पासायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छुहा-चिखल्ल-सिलेस-लक्ख-महुसित्थमाइहि लेसणएहिं बंध समुपज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं। से तं लेसणाबंधे। [15 प्र.] भगवन् ! श्लेषणाबन्ध किसे कहते हैं ? Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] व्याख्याप्राप्तसूत्र [15 उ.] गौतम ! श्लेषणाबन्ध इस प्रकार का है जो कुडयों (भित्तियों) का, कुट्टिमों (प्रांगन के फर्श) का, स्तम्भों का, प्रासादों का, काष्ठों का, चर्मों (चमड़ों) का, घड़ों का, वस्त्रों का, और चटाइयों (कटों) का; चूना, कीचड़, श्लेष (गोंद आदि चिपकाने वाले द्रव्य, अथवा वज्रलेप), लाख, मोम आदि श्लेषण द्रव्यों से बन्ध सम्पन्न होता है, वह श्लेषणाबन्ध कहलाता है / यह बन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है / यह श्लेषणाबन्ध का कथन हुआ। 16. से कि तं उच्चयबंधे ? उच्चयबंधे, जं णं तणरासोण वा कटरासीण वा पत्तरासीण वा तुसरासीण वा भुसरासीण वा गोमयरातीण वा अवगररासीण वा उच्चएणं बंधे समप्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमहत्त, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / से तं उच्चयबंधे। [16 प्र.] भगवन् ! उच्चयबन्ध किसे कहते हैं ? [16 उ.] गौतम ! तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, तुषराशि, भूसे का ढेर, गोबर (या उपलों) का ढेर अथवा कूड़े-कचरे का ढेर, इन का ऊँचे ढेर (पुज-संचय) रूप से जो बन्ध सम्पन्न होता है, उसे 'उच्चयबन्ध' कहते हैं / यह बन्ध जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः संख्यातकाल तक रहता है। इस प्रकार उच्चयबन्ध का कथन किया गया है। 17. से कि तं समुच्चयबंधे ? समुच्चयबंधे, जं गं अगड-तडाग-नदी-दह-वावी-पुक्खरणी-दोहियाणं गुजालियाणं सरा सरपंतिमाणं सरसरपंतियाणं बिलपंतियाणं देवकुल-सभा-पवा-यूभ-खाइयाणं फरिहाणं पागार-ऽट्टालगचरिय-दार-गोपुर-तोरणाणं पासाय-घर-सरण-लेग-प्रावणाणं सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्महमहापहमादीणं छुहा-चिखल्ल-सिलेससमुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / से तं समुच्चयबंधे। [17 प्र.] भगवन् ! समुच्चयबन्ध किसे कहते हैं ? [17 उ.] गौतम ! कुमा, तालाब, नदी, द्रह, वापी (बावड़ी), पुष्करिणी (कमलों से युक्त वापी), दीपिका, गुजालिका, सरोवर, सरोवरों की पंक्ति, बड़े सरोवरों की पंक्ति, बिलों की पंक्ति, देवकुल (मन्दिर), सभा, प्रपा (प्याऊ), स्तूप, खाई, परिखा (परिधा), प्रांकार (किला या कोट), क (अटारी, किले पर का कमरा या गढ़), चरक (गढ़ और नगर के मध्य का मार्ग), द्वार गोपुर, तोरण, प्रासाद (महल), घर, शरणस्थान, लयन (गृहविशेष), आपण (दुकान), शृगाटक (सिंघाड़े के आकार का मार्ग), त्रिक (तिराहा), चतुष्क (चौराहा), चत्वरमार्ग, (चौपड़-बाजार का मार्ग), चतुर्मुख मार्ग और राजमार्ग (बड़ी और चौड़ी सड़क) आदि का चूना, (गीली) मिट्टी, कीचड़, एवं श्लेष (वज्रलेप आदि)के द्वारा समुच्चयरूप से जो बन्ध समुत्पन्न होता है, उसे 'समुच्चयबन्ध' कहते हैं। उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयकाल की है। इस प्रकार समुच्चयबन्ध का कथन पूर्ण हुआ। Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] 365 18. से कि तं साहणणाबंधे ? साहणणाबंधे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–देससाहणणाबंधे य सव्वसाहणणाबंधे य / [18 प्र.] भगवन् ! संहननबन्ध किसे कहते हैं ? / [18 उ ] गौतम ! संहननबन्ध दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार----(१) देशसंहननबन्ध और (2) सर्वसंहननबन्ध / 16. से कि तं देससाहणणाबंधे ? देससाहणणाबंधे, जं णं सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणिया-लोही-लोहकडाह-कडच्छुप-प्रासण-सयण-खंभ-भंड-मत्त-उवगरणमाईणं देससाहणणाबंधे समुपज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज कालं / से तं देससाहणणाबंधे / {16 प्र.] भगवन् ! देशसंहननबन्ध किसे कहते हैं ? [16 उ.] गौतम ! शकट (गाड़ी), रथ, यान (छोटी गाड़ी), युग्य वाहन (दो हाथ प्रमाण वेदिका से उपशोभित जम्पान =पालखी), गिल्लि (हाथी को अम्बाड़ी), थिल्लि (पलाण), शिविका (पालखी), स्यन्दमानी पुरुष प्रमाण वाहन विशेष, म्याना), लोढ़ी, लोहे की कड़ाही, कुड़छो, (चमचा बड़ा या छोटा), प्रासन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड (मिट्टी के बर्तन), पात्र, नाना उपकरण आदि पदार्थों के साथ जो सम्बन्ध सम्पन्न होता है, वह देशसंहननबन्ध है। वह जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त तक और उत्कृष्टत: संख्येय काल तक रहता है। यह है देशसंहननबन्ध का स्वरूप / 20. से किं तं सव्वसाहणणाबंधे ? सव्वसाहणणाबंधे, से णं खीरोदगमाईणं / से तं सव्वसाहणणाबधे। से तं साहणणाबंधे / से तं अल्लियावणबंधे। [20 प्र.] भगवन् ! सर्वसंहननबन्ध किसे कहते हैं ? [20 उ.] गौतम ! दूध और पानी आदि की तरह एकमेक हो जाना सर्वसंहननबन्ध कहलाता है / इस प्रकार सर्वसंहननबन्ध का स्वरूप है / यह आलीनबन्ध का कथन हुआ। 21. से कि तं सरीरबंधे ? सरीरबंधे दुविहे पण्णते, तं जहा-पुवप्पयोगपच्चइए य पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए / [21 प्र.] भगवन् ! शरीरबन्ध किस प्रकार का है ? [21 उ.] गौतम ! शरीरबन्ध दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) पूर्वप्रयोगप्रत्ययिक और (2) प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्ययिक / 22. से किं तं पुवप्पप्रोगपच्चइए ? पुन्वपओगपच्चइए, जंणं नेरइयाणं संसारत्थाणं सधजीवाणं तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहनमाणाणं जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्पज्जइ / से तं पुत्वपयोगपच्चइए। Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [22 प्र.] भगवन् ! पूर्वप्रयोग-प्रत्ययिक-शरीरबन्ध किसे कहते हैं ? [22 उ.] गौतम ! जहाँ-जहाँ जिन-जिन कारणों से समुद्घात करते हए नैरयिक जीवों और संसारस्थ सर्वजीवों के जीवप्रदेशों का जो बन्ध सम्पन्न होता है, वह पूर्वप्रयोगबन्ध कहलाता है / यह है पूर्वप्रयोग-प्रत्यायिकबन्ध / 23. से कि तं पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए ? पडप्पन्नप्पयोगपच्चइए, ज णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्धारण समोहयस्स, ताओ समुग्घायानो पडिनियत्तमाणस्स, अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेया-कम्माणं बंधे समुष्पज्जइ / कि कारणं ? ताहे से पएसा एगत्तीगया भवंति ति / से तं पडुप्पन्नप्पयोगपच्चइए / से तं सरीरबंधे / [23 प्र.] भगवन् ! प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्ययिक किसे कहते हैं ? [23 उ.] गौतम ! केवलीसमुद्घात द्वारा समुद्घात करते हुए और उस समुद्घात से प्रतिनिवृत्त होते (वापस लौटते) हुए बीच के मार्ग (मन्थानावस्था) में रहे हुए केवलज्ञानी अनगार के तैजस और कार्मण शरीर का जो बन्ध सम्पन्न होता है, उसे प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रयायक-बन्ध कहते हैं / [प्र.] (तैजस और कार्मण शरीर के बन्ध का) क्या कारण है ? [उ.] उस समय (यात्म) प्रदेश एकत्रीकृत (संघातरूप) होते हैं, जिससे (तैजस-कार्मण-शरीर का) बन्ध होता है। यह हुआ, उस प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकबन्ध का स्वरूप / यह शरीरबन्ध का कथन हुआ। विवेचन-प्रयोगबन्ध : प्रकार और भेद-प्रभेद तथा उनका स्वरूप-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 12 से 23 तक) में प्रयोगबन्ध के तीन भंग तथा सादि-सपर्यवसित बन्ध के चार भेद एवं उनके प्रभेद और स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रयोगबन्ध : स्वरूप और जीवों की दृष्टि से प्रकार जीव के व्यापार से जो बन्ध होता है, वह प्रयोगबन्ध कहलाता है। प्रयोगबन्ध के तीन विकल्प हैं--(१) अनादि-अपर्यवसित-जीव के असंख्यात प्रदेशों में से मध्य के पाठ (रुचक) प्रदेशों का बन्ध अनादि-अपर्यवसित है। जब केवली समुद्घात करते हैं, तब उनके प्रदेश समग्रलोकव्यापी हो जाते हैं, उस समय भी वे आठ प्रदेश तो अपनी स्थिति में ही रहते हैं। उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। उनकी स्थापना इस प्रकार है-- 1. नीचे ये चार प्रदेश हैं, और इनके ऊपर चार प्रदेश हैं / इस प्रकार स 8 प्रदेशों का बन्ध है। पूर्वोक्त 8 प्रदेशों में भी प्रत्येक प्रदेश का अपने पास रहे हए दो प्रदेशों के साथ तथा ऊपर या नीचे रहे हुए एक प्रदेश के साथ, इस प्रकार तीन-तीन प्रदेशों के साथ भी अनादिअपर्यवसित बन्ध है। शेष सभी प्रदेशों का सयोगी अवस्था तक सादि-सपर्यवसित नामक तीसरा विकल्प है, तथा सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सादि-अपर्यवसित बन्ध है। प्रस्तुत चार भंगों (विकल्पों) में से दूसरे भंग (अनादि-सपर्यवसित) में बन्ध नहीं होता। सादि-सपर्यवसित बन्ध के चार भेद हैं--(१) पालापनबन्ध-(रस्सी आदि से घास आदि को बांधना), (2) प्रालीनबन्ध-(लाख आदि एक श्लेष्य पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ बन्ध होना), (3) शरीरबन्ध - (समुद्घाल करते समय विस्तारित और संकोचित जीव-प्रदेशों के सम्बन्ध से तैजसादि शरीर-प्रदेशों का सम्बन्ध होना), और (4) शरीरप्रयोगबन्ध-(औदारिकादि शरीर की Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [367 प्रवृत्ति से शरीर के पुद्गलों को ग्रहण करने रूप बन्ध) : इसके पश्चात् आलीनबन्ध के श्लेषणादिबन्ध के रूप में 4 भेद तथा उनका स्वरूप मूलपाठ में बतला दिया गया है / संहननबन्ध : दो रूप-विभिन्न पदार्थों के मिलने से एक प्रकार का पदार्थ बन जाना, संहननबन्ध है / पहिया, जुना आदि विभिन्न अवयव मिलकर जैसे गाड़ी का रूप धारण कर लेते हैं, वैसे ही किसी वस्तु के एक अंश के साथ, किसी अन्य वस्तु के अंश रूप से सम्बन्ध होना-जुड़ जाना, देश-संहननबन्ध है और दूध-पानी की तरह एकमेक हो जाना, सर्व-संहननबन्ध है / / शरीरबन्ध : दो भेद-वेदना, कषाय-यादि समुद्घातरूप जीवव्यापार से होने वाला जीवप्रदेशों का बन्ध, अथवा जीवप्रदेशाश्रित तैजस-कार्मणशरीर का बन्ध पूर्वप्रयोग-प्रत्ययिक शरीरबन्ध है, तथा वर्तमानकाल में केवली समुद्धात रूप जीवव्यापार से होने वाला तैजस-कार्मणशरीर का बन्ध, प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्यायकबन्ध है।" शरीरप्रयोगबन्ध के प्रकार एवं प्रौदारिकशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से निरूपरण 24. से कि तं सरीरप्रयोगबंधे ? सरीरप्पयोगबधे पंचविहे पन्नते, तं जहा-ओरालियसरीरप्पओगबधे वेउब्वियसरीरप्पनोगबधे प्राहारगसरीरप्पनोगबधे तेयासरीरप्पयोगबंधे कम्मासरीरप्पयोगबंधे / [24 प्र.] भगवन् ! शरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [24 उ.] गौतम ! शरीरप्रयोगबन्ध पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है(१) प्रौदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, (2) वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध, (3) आहारकशरीरप्रयोगबन्ध, (4) तैजसशरीरप्रयोगबन्ध और (5) कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध / 25. पोरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा~-एगिदियोरालियसरीरप्पयोबधे बेइंदियोरालियसरीरप्पयोगबधे जाव पंचिदियनोरालियसरीरप्पयोगबंधे। [25 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [25 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध, (2) द्वीन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध, (3) श्रीन्द्रिय औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध, (4) चतुरिन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध और (5) पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध / 26. एगिदियोरालियसरीरप्पयोगबधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविक्काइयएगिदियोरालियसरीरप्पयोगधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेदा जहा प्रोगाहणसंठाणे पोरालियसरीरस्स तहा भाणियन्वा जाब पज्जत्तगब्भ 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 394 Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वक्कंतियमणुस्सचिदियोरालियसरीरप्पयोगधे य अपज्जत्तगम्भवक्कंतियमणूसपंचिदियोरालियसरीरप्पयोगधे य। [26 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय औदारिक-शरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [26 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध इत्यादि / इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा जैसे प्रज्ञापनासूत्र के (इक्कीसवें) 'अवगाहना-संस्थान-पद' में औदारिक शरीर के भेद कहे गए हैं, वैसे यहाँ भी यावत्--'पर्याप्त-गर्भज-मनुष्य-पञ्चेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध और अपर्याप्त गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध' तक कहना चाहिए। 27. पोरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! बीरियसजोगसद्दब्वयाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडुच्च ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मस्स उदएणं पोरालियसरीरप्पयोगबधे / [27 प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? 27 उ.] गौतम ! सवीर्यता, संयोगता और सद्रव्यता से, प्रमाद के कारण, कर्म, योग, भव और आयुष्य प्रादि हेतुओं की अपेक्षा से औदारिक-शरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 28. एगिदियोरालियसरीरप्पयोगधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? एवं चेव / [28 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [28 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त-कथनानुसार यहाँ भी जानना चाहिए। 26. पुढविककाइयएगिदियोरालियसरीरप्पयोगबध एवं चेव / [26 प्र.] इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के विषय में कहना चाहिए। 30. एवं जाव वणस्सइकाइया / एवं बेइंदिया / एवं तेइंदिया / एवं चरिदिया। [30] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध तथा द्वीन्द्रियश्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध तक कहना चाहिए / 31. तिरिक्खजोणियपंचिदियोरालियसरीरप्पयोगबघेणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? एवं चेव / [31 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [31 उ.] गौतम ! (इस विषय में भी) पूर्वोक्त कथनानुसार जानना चाहिए / Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [369 32. मणुस्सपंचिदियोरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! वीरियसजोगसद्दम्वयाए पमादपच्चया जाव आउयं च पडुच्च मणुस्सपंचिदियपोरालियसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं मगुस्सपंचिदियोरालियस रोरपनोगबधे / [32 प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगवन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [32 उ.] गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता से, तथा प्रमाद के कारण यावत् आयुष्य की अपेक्षा से एवं मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिकरारीर-नामकर्म के उदय से 'मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध' होता है / 33. पोरालियसरीरप्पयोगबधणं भंते ! कि देसबधे, सबबंध? गोयमा ! देसबध वि सम्वबध वि / [33 प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध या सर्वबन्ध है ? [33 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध भी है, और सर्वबन्ध भी है। 34. एगिदियोरालियसरीरपयोगबंध णं भंते ! कि देतबंध सबबधे? एवं चेव। [34 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध है या सर्वबन्ध है ? [34 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त कथनानुसार यहाँ भी जानना चाहिए / 35. एवं पुढविकाइया [35] इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के विषय में समझना चाहिए। 36. एवं जाव मणुस्सपंचिदियोरालियसरीरप्पयोगबध णं भंते ! कि देसबधे, सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबध वि, सम्बबंध वि / [36] इसी प्रकार यावत-[प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिकशरोर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध है या सर्वबन्ध है ? [उ.] गौतम ! वह देशबन्ध भी है और सर्वबन्ध भी है'–यहाँ तक कहना चाहिए। 37. ओरालियसरीरप्पयोगबघ पां भंते ! कालमो केवच्चिरं होइ ? गम्यमा ! सम्बबंध एक्कं समयं; देसबंध जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिणि पलियोवमाइं समयूणाई। [37 प्र.] भगवन् ! औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध काल की अपेक्षा, कितने काल तक रहता है ? [37 उ.] गौतम ! सर्वबन्ध एक समय तक रहता है और देशबन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः एक समय कम तीन पल्योपम तक रहता है / Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र 38. एगिदियोरालियसरीरप्पयोगधे गं भंते ! कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सवध एक्कं समयं; देसबधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समऊणाई। [38 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध कालत: कितने काल तक रहता है ? [38 उ.] गौतम ! सर्वबन्ध एक समय तक रहता है और देशबन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः एक समय कम 22 हजार वर्ष तक रहता है। 36. पुढविकाइयएगिदिय० पुच्छा। ___ गोयमा ! सव्वधे एक्कं समयं, देसबधे जहन्नेणं खड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समऊणाई। वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध कालत: कितने काल तक रहता है ? [39 उ.] गौतम ! (वह) सर्वबन्ध एक समय तक रहता है और देशबन्ध जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लक भव-ग्रहण पर्यन्त तथा उत्कृष्टतः एक समय कम 22 हजार वर्ष तक रहता है। 40. एवं सन्वेसि सन्यबंधो एक्कं समयं, देसबंधो जेसि नत्थि वेउब्वियसरीरं तेसि जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूर्ण, उक्कोसेणं जा जस्स उषकोसिया ठिती सा समऊणा कायव्वा / जेसि पुण अस्थि वेउब्वियसरीरं तेसि देसबधो जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा कायब्वा जाव मणुस्साणं देसबधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिषिण पलिओवमाइं समयूणाई। [40] इस प्रकार सभी जीवों का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है। जिनके वैक्रियशरीर नहीं है, उनका देशबन्ध जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लक भवग्रहण-पर्यन्त और उत्कृष्टत: जिस जीव की जितनी उत्कृष्ट आयुष्य-स्थिति है, उससे एक समय कम तक रहता है। जिनके वैक्रिय शरीर है, उनके देशबन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः जिसकी जितनी (आयुष्य) स्थिति है, उसमें से एक समय कम तक रहता है। इस प्रकार यावत् मनुष्यों का देशबन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः एक समय कम तीन पल्योपम तक जानना चाहिए। 41. प्रोरालियसरीरबधंतरं णं भंते ! कालो केवच्चिरं होइ / गोयमा ! सबबधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवरगहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई पुवकोडिसमयाहियाई। देसबंधतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं तिसमयाहियाई। [41 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर के बन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [41 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहणपर्यन्त है और उत्कृष्टतः समयाधिक पूर्वकोटि तथा तेतीस सागरोपम है / देशबन्ध का ग्रन्तर जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः तीन समय अधिक तेतीस सागरोपम है / Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [371 42. एगिदियोरालिय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबघतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई / देसबध तरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं / [42 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक-शरीर-बन्ध का अन्तर कितने काल का है ? [42 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लक भव-ग्रहणपर्यन्त है और उत्कृष्टतः एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है। देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। 43. पुढ विक्काइयएगिदिय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधतरं जहेब एगिदियस्स तहेब भाणियब्वं; देसबंध तरं जहन्ने एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिष्णि समया। 43 प्र.| भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरबन्ध का अन्तर कितने काल [43. उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय का कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए / देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः तीन समय का है / 44. जहा पुढविषकाइयाणं एवं जाव घरिदियाणं बाउक्काइयवज्जाणं, नवरं सवबंध तरं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायवा। बाउक्काइयाणं सध्यबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई समयाहियाई। देसबंधतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [44] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का शरीरबन्धान्तर कहा गया है, उसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़ कर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों का शरीरबन्धान्तर कहना चाहिए; किन्तु विशेषतः उत्कृष्ट सर्वबन्धान्तर जिस जीव की जितनी (प्रायुष्य) स्थिति हो, उससे एक समय अधिक कहना चाहिए। (अर्थात्--सर्वबन्ध का अन्तर समयाधिक आयुष्यस्थिति-प्रमाण जानना चाहिए।) वायुकायिक जीवों के सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण और उत्कृष्टतः समयाधिक तीन हजार वर्ष का है / इनके देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। 45. पंचिदियतिरिक्खजोणियोरालिय० पुच्छा। सन्वबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुब्दकोडी समयाहिया, देशबंधतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं। [45 प्र.] भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-औदारिकशरीरबन्ध का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? [45 उ.] गौतम ! इनके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः तीन समय कम क्षुल्लकभव-ग्रहण है Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और उत्कृष्टतः समयाधिक पूर्वकोटि का है। देशबन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों का कहा गया, उसी प्रकार सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का कहना चाहिए। 46. एवं मणुस्साण वि निरवसेसं भाणियन्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमहत्तं / [46] इसी प्रकार मनुष्यों के शरीरबन्धान्तर के विषय में भी पूर्ववत यावत--'उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त का है'--यहाँ तक सारा कथन करना चाहिए / 47. जीवस्स णं भंते ! एगिदियत्ते गोएगिदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिदियोरालिय. सरीरप्पओगबधतरं कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा! सम्वब'धतरं जहन्नेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई तिसमयूशाई, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमबमहियाई; देसबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्रहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई / [47 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रियावस्थागत जीव (एकेन्द्रियत्व को छोड़ कर) नो-एकेन्द्रियावस्था (किसी दूसरी जाति) में रह कर पुनः एकेन्द्रियरूप (एकेन्द्रियजाति) में आए तो एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [47 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव का) सर्वबन्धान्तर जघन्यतः तीन समय कम दो क्षुल्लक भवग्रहण काल और उत्कृष्टत: संख्यात वर्ष-अधिक दो हजार सागरोपम का होता है / 48. जीवस्स णं भंते ! पुढविकाइयत्ते नोपुढविकाइयत्ते पुणरवि पुढविकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियोरालियसरीरप्पयोगबंध तरं कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सब्वबधतरं जहन्नेणं दो खुड्डाई भवगहणाई तिसमयऊणाई; उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंता उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणीनो कालो, खेत्तनो प्रणेता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइमागो। देसबंधतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं अणंत कालं जाव प्रावलियाए असंखेज्जइभागो। [48 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-अवस्थागत जीव नो-पृथ्वीकायिक-अवस्था में (पृथ्वीकाय को छोड़ कर अन्य किसी काय में) उत्पन्न हो (वहाँ रह) कर, पुनः पृथ्वीकायिकरूप (पृथ्वीकाय) में आए, तो पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [48 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव का) सर्वबन्धान्तर जघन्यतः तीन समय कम दो क्षुल्लकभव अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गल-परावर्तन हैं। वे पुद्गल-परावर्तन प्रावलिका के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। (अर्थात्-पावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गल परावर्तन हैं।) देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः समयाधिक क्षुल्लकभव-ग्रहण काल और उत्कृष्टत: अनन्तकाल,......" यावत्-'श्रावलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण पुद्गल-परावर्तन है'; यहाँ तक जानना चाहिए। Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [373 46. जहा पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइयवज्जाणं जाव मणुस्साणं / वणस्सइकाइयाणं दोणि खुड्डाई एवं चेव; उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं, असंखिज्जाम्रो उस्सप्पिणि-श्रोसप्पिणीम्रो कालो, खेत्तमो असंखेज्जा लोगा / एवं देसबध तरं पि उक्कोसेणं पुढवीकालो। [49] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का प्रयोगबन्धान्तर कहा गया है, उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जोवों को छोड़ कर यावत् मनुष्यों के प्रयोगबन्धान्तर तक (सभी जीवों के विषय में) समझना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों के सर्ववन्ध का अन्तर जघन्यतः काल की अपेक्षा से तीन समय कम दो क्षुल्लकभव-ग्रहणकाल, और उत्कृष्टत: असंख्येयकाल है, अथया असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है, क्षेत्रत: असंख्येय लोक है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जघन्यतः समयाधिक क्षल्लकभवग्रहण तक का है, और उत्कृष्टत: पृथ्वीकायिक स्थितिकाल तक है, (अर्थात्असंख्येय उत्सपिणी-अवसर्पिणी काल यावत् असंख्येय लोक है।) 50. एएसि णं भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबधगाणं सवबंधगाणं प्रबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्बत्थोवा जीवा पोरालियसरीरस्स सवबधगा प्रबधगा विसेसाहिया, देसबंधगा प्रसंखेज्जगुणा। [50 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहत (अधिक), तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [50 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े (अल्प) औदारिक शरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, उनसे प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, और उनसे असंख्यात गुणे देशबन्धक जीव हैं। विवेचन शरीरप्रयोगबन्ध के प्रकार एवं प्रौदारिकशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से निरूपण-प्रस्तुत 27 सूत्रों (सू. 24 से 50 तक) में शरीरप्रयोगबन्ध के विषय में निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है 1. औदारिक आदि के भेद से शरीरप्रयोगबन्ध 5 प्रकार का है। 2. एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध पांच प्रकार का है। 3. एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक 5 प्रकार के हैं। 4. द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त गर्भज मनुष्य तक औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध समझना चाहिए। 5. समस्त जीवों के औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध वीर्य, योग, सद्व्य एवं प्रमाद के कारण कर्म, योग, भव और आयुष्य को अपेक्षा औदारिकशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से होता है। 6. समस्त जीवों के औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध देशबन्ध भी है, सर्वबन्ध भी। 7. समस्त जीवों के औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध की कालतः स्थिति की सीमा / 8. समस्त जीवों के सर्व-देशबन्ध की अपेक्षा कालतः औदारिकशरीरबन्ध के अन्तर-काल की सीमा। Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 9. समस्त जीवों द्वारा अपने एकेन्द्रियादि पूर्वरूप को छोड़ कर अन्य रूपों में उत्पन्न हो या रह कर, पुनः उसी अवस्था (रूप) में आने पर औदारिकशरीर-प्रयोगबन्धान्तर-काल की सीमा / 10. औदारिकशरीर के देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों का अल्प-बहुत्व / प्रौदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के पाठ कारण-जिस प्रकार प्रासादनिर्माण में द्रव्य, वीर्य, संयोग, योग, (मन-वचन-काया का व्यापार), शुभकर्म (का उदय), प्रायुष्य, भव (तिर्यंच-मनुष्यभव) और काल (तृतीय-चतुर्थ-पंचम आरा), इन कारणों की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार औदारिकशरीरबन्ध में भी निम्नोक्त 8 कारण अपेक्षित हैं-(१) सवीर्यता-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न शक्ति, (2) सयोगता-योगायुक्तता (3) सद्रव्यता-जीव के तथारूप औदारिकशरीरयोग्य तथाविध पुद्गलों--(द्रव्यों) की विद्यमानता (४)प्रमाद-शरीरोत्पत्तियोग्य विषय-कषायादि प्रमाद; (५)कर्मतिर्यञ्चमनुष्यादि जातिनामकर्म, (6) योग-काययोगादि; (7) भवतिर्यञ्च एवं मनुष्य का अनुभूयमान भव, और (8) मायुष्य-तिर्यञ्च और मनुष्य का प्रायुष्य / इन 8 कारणों से उदयप्राप्त औदारिकशरीरप्रयोग-नामकर्म से औदारिकशरीर-प्रयोग-बन्ध होता है / प्रस्तुत प्रसंग में मूल प्रश्न है-औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध के कारणभूत कर्मोदय के सम्बन्ध में, अतः इस प्रश्न का उत्तर तो यही होना चाहिए--ौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से यह होता है; किन्तु मूलपाठ में जो 8 कारण बताए हैं, वे इस मुख्य कारण-नामकर्म के सहकारी कारण हैं, जो औदारिक शरीरप्रयोगबन्ध में आवश्यक हैं; यही इस सूत्र का आशय है।। प्रोदारिकशरीर-प्रयोगबन्ध के दो रूप : सर्वबन्ध, देशबन्ध-जिस प्रकार घृतादि से भरी हुई एवं अग्नि से तपी हुई कड़ाही में जब मालपूना डाला जाता है, तो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल ग्रहण करता (खींचता) है, तत्पश्चात् शेष समयों में वह घृतादि को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है; उसी प्रकार यह जीव जब पूर्वशरोर को छोड़ कर अन्य शरीर को धारण करता है, तब प्रथम समय में उत्पत्तिस्थान में रहे हुए उस शरीर के योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है। इस प्रकार का यह बन्ध–'सर्वबन्ध' है। तत्पश्चात् द्वितीय आदि समयों में शरीरयोग्य पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है; अत: यह बन्ध देशबन्ध है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि औदारिकशरीरप्रयोगबन्ध सर्वबन्ध भी होता है, देशबन्ध भी / जो सर्वबन्ध होता है, वह केवल एक समय का होता है / मालपूए के पूर्वोक्त दृष्टान्तानुसार जब वायुकायिक या मनुष्यादि जीव वैक्रियशरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के वाद औदारिकशरीर का एक समय तक सर्वबन्ध करता है, तत्पश्चात् दूसरे समय में वह देशबन्ध करता है। दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाए तो इस अपेक्षा से देशबन्ध जघन्य एक समय का होता है। औदारिकशरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति तीन पल्योपम की है। उसमें से जीव प्रथम समय में सर्वबन्धक और उसके बाद एक समय कम तीन पल्योपम तक देशबन्धक रहता है। इस दृष्टि से समस्त जीवों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति के अनुसार एक समय तक वे सर्वबन्धक और फिर देशबन्धक रहते हैं / जैसेएकेन्द्रिय जीवों को उत्कृष्ट आयुस्थिति 22 हजार वर्ष की है। उसमें से 1 समय तक वे सर्वबन्धक और फिर 1 समय कम 22 हजार वर्ष तक वे देशबन्धक रहते हैं। उत्कृष्ट देशबन्ध-जिसकी जितनी उत्कृष्ट प्रायुष्यस्थिति होती है, उसका देशबन्ध उसमें एक समय कम होता है। जैसे-अप्काय की 7000 वर्ष, तेजस्काय को 3 अहोरात्र, वनस्पतिकाय की Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९]] [375 10000 वर्ष, द्वीन्द्रिय की 12 वर्ष, त्रीन्द्रिय की 49 दिन, चतुरिन्द्रिय की 6 मास की उत्कृष्ट आयुस्थिति होती है। क्षुल्लक-भवग्रहण का प्राशय-अपनी-अपनी काय और जाति में जो छोटे-से-छोटा भव हो, उसे क्षुल्लकभव कहते हैं। एक अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्म निगोद के 65536 क्षुल्लकभव होते हैं, एकश्वासोच्छ्वास में 17 से कुछ अधिक क्षुल्लकभव होते हैं। पृथ्वीकाय के एक मुहूर्त में 12824 क्षल्लकभव होते हैं। अप्काय से चतरिन्द्रिय जीवों तक का देशबन्ध जघन्य 3 समय कम क्षल्लकभव ग्रहण तक है / क्योंकि उनमें भी वैक्रियशरीर नहीं होता। औदारिक शरीर के सर्वबन्ध और देशबन्ध का अन्तर-काल--समुच्चय जीवों की अपेक्षा औदारिक शरीरबन्ध का सामान्य अन्तर–सर्वबन्ध का अन्तर--तीन समय कम मल्लकभव ग्रहण पर्यन्त बताया है, उसका प्राशय यह है कि कोई जीव तीन समय की विग्रहगति से औदारिकशरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो वह विग्रहगति के दो समय में अनाहारक रहता है, और तीसरे समय में सर्वबन्धक होता है। यदि क्षुल्लकभव तक जीवित रह कर मृत्यु को प्राप्त हो गया और प्रौदारिक शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ तो वहाँ पहले समय में वह सर्वबन्धक होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का सर्वबन्ध के साथ जघन्य अन्तर तीन समय कम क्षुल्लकभवग्रहण होता है। उत्कृष्ट अन्तर समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम का बताया है, उसका आशय यह है कि कोई जीव मनुष्य आदि गति में अविग्रहमति से पाकर उत्पन्न हुआ। वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबन्धक रहा / तत्पश्चात् पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, वहाँ से वह 33 सागरोपम की स्थितिवाला नैरयिक हुग्रा, अथवा अनुत्तरविमानवासी सर्वार्थसिद्ध देव हुआ। वहाँ से च्यव (या मर) कर वह तीन समय की विग्रहगति द्वारा आकर औदारिकशरीरधारी जीव हुआ। वह जीव विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में औदारिकशरीर का सर्वबन्धक रहा / विग्रहगति में जो वह अनाहारक दो समय तक रहा था, उनमें से एक समय पूर्वकोटि के सर्वबन्धक के स्थान में डाल दिया जाए तो वह पूर्वकोटि पूर्ण हो जाती है, उस पर एक समय अधिक बचा हुआ रहता है। यों सर्वबन्ध का परस्पर उत्कृष्ट अन्तर एक समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम होता है। औदारिक शरीर के देशबन्ध का अन्तर-जघन्य एक समय है, क्योंकि देशबन्धक मर कर अविग्रह से प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर पुनः द्वितीयादि समयों में देशबन्धक हो जाता है / इस प्रकार देशबन्धक का देशबन्धक के साथ अन्तर जघन्यतः एक समय का होता है। उत्कृष्टत: अन्तर तीन समय अधिक 33 सागरोपम का है। क्योंकि देशबन्धक मर कर 33 सागरोपम को स्थिति के नैरयिकों या देवों में उत्पन्न हो गया। वहाँ से च्यवकर तीन समय की विग्रहगति से औदारिक शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार विग्रहमति में दो समय तक अनाहारक रहा, तीसरे समय में सर्वबन्धक हुप्रा और फिर देशबन्धक हो गया। इस प्रकार देशबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर 3 समय अधिक 33 सागरोपम का घटित होता है। आगे के तीन सूत्रों में एकेन्द्रियादि का कथन करते हुए प्रौदारिकशरीरबन्ध का अन्तर विशेषरूप से बताया गया है / / प्रकारान्तर से प्रौदारिकशरीरबन्ध का अन्तर-कोई एकेन्द्रिय जीव तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हुआ, तो वह विग्रहगति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में सर्वबन्धक हुआ। फिर तीन समय कम क्षुल्लकभव-प्रमाण आयुष्य पूर्ण करके एकेन्द्रिय के सिवाय Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र द्वीन्द्रियादि जाति में उत्पन्न हो जाय तो वहाँ भी क्षुल्लकभव की स्थिति पूर्ण करके अविग्रहगति द्वारा पुनः एकेन्द्रिय जाति में उत्पन्न हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्धक रहता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है। कोई पृथ्वीकायिक जीव, अविग्रहगति द्वारा हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्धक होता है / वहाँ 22,000 वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण करके मर कर त्रसकायिक जीवों में उत्पन्न हो, और वहाँ भी संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोषम की उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्ण करके पुन: एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो तो वहाँ प्रथम समय में वह सर्वबन्धक होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर संख्यातवर्षाधिक दो हजार सागरोपम होता है। कोई पृथ्वीकायिक जीव मर कर पृथ्वीकायिक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए और वहाँ से मर कर पुन: पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो तो उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लकभव होता है। उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्तकाल-अनन्त उत्सपिंगो-अवसर्पिणोप्रमाण काल होता है / अर्थात्-अनन्तकाल के समयों में उत्सर्पिणी-अवपिणी काल के समयों का अपहार किया (भाग दिया जाए तो अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी काल होता है। क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक है, इसका तात्पर्य है-अनन्त काल के समयों में लोकाकाश के प्रदेशों द्वारा अपहार किया जाए, तो अनन्तलोक होते हैं। वनस्पतिकाय को कायस्थिति अनन्तकाल की है, इस अपेक्षा से सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है / यह अनन्तकाल असंख्य पुद्गलपरावर्तन-प्रमाण है / पुद्गलपरावर्तन प्रादि की व्याख्या-दस कोटाकोटि अद्धा पल्योपमों का एक सागरोपम होता है। दस कोटाकोटि सागरोपमों का एक प्रवपिणीकाल होता है; और इतने ही काल का एक उत्सपिणीकाल होता है / ऐसी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का एक पुद्गलपरावर्तन होता है। असंख्यात समयों की एक प्रावलिका होती है। उस प्रावलिका के असंख्यात समयों का जो असंख्यातवां भाग है उसमें जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्तन यहाँ लिये गए हैं। इनकी संख्या भी असंख्यात हो जाती है, क्योंकि असंख्यात के असंख्यात भेद हैं। प्रौदारिकशरीर के बन्धकों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सर्वबन्धक जीव इसलिए हैं कि वे उत्पत्ति के समय ही पाए जाते हैं। उनसे प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति में और सिद्धगति में जीव अबन्धक होते हैं / उनसे देशबन्धक इसलिए असंख्यातगुणे हैं कि देशबन्ध का काल असंख्यातगुणा है।' वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से तत्सम्बन्धित विचारणा 51. वेउब्वियसरीरप्पयोगबघेणं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुबिहे पन्नत्ते, तं जहा-एगिदियवेउरिवयसरीरप्पयोगबध य, पंचिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबधेय। [51 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [51 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) एकेन्द्रिय वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध और (2) पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 400 से 403 तक Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [377 52. जइ एगिदियवेउब्धियसरीरप्पयोगबंधे कि वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे, प्रवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वे उब्क्यिसरीरभेदो तहा भाणियन्वो जाव पज्जत्तसन्धसिद्ध अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवचिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तसन्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव पयोगबंधे य / [52 प्र.] भगवन् ! यदि एकेन्द्रिय-वैक्रिय-शरीर प्रयोगबन्ध है, तो क्या वायुकायिक एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध है अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध है ? [52 उ.] गौतम ! इस प्रकार के अभिलाप द्वारा (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना संस्थानपद में वैक्रियशरीर के जिस प्रकार भेद कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी यावत- 'पर्याप्तसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध और अपर्याप्तसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध' तक कहना चाहिए / 53. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! वीरियसजोगसव्वयाए जाव प्राउयं वा लद्धि वा पडुच्च वेउब्धियसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे। [53 प्र] भगवन् ! वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [53 उ.] गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्व्यता, यावत् आयुष्य अथवा लब्धि की अपेक्षा तथा वैक्रियशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से वैक्रियशरीरप्रयोग-बन्ध होता है / 54. वाउक्काइयएगिदियवेउम्बियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! वीरियसजोगसद्दव्वयाए तं चेव जाव लद्धि वा पडुच्च बाउक्काइयएगिदियवेउन्विय जाव बंधे। यक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [54 उ.] गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्व्यता यावत्-आयुष्य और लब्धि की अपेक्षा से तथा वायुकायिक-एकेन्द्रिय-बै क्रियशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से वायुकायिक एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध होता है। 55. [1] रयणप्पभापुढविनेरइयचिदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! बीरियसजोगसव्वयाए जाव पाउयं वा पडुच्च रयणप्पभापुढवि० जाव बंधे / [55-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 375] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [55-1 उ.] गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्रव्यता यावत्--आयुष्य की अपेक्षा से तथा रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध होता है / [2] एवं जाव अहेसत्तमाए। [55-2] इसी प्रकार यावत्-अधःसप्तम नरक-पृथ्वी तक कहना चाहिए / 56. तिरिक्खजोणियपंचिदियवेउब्वियसरीर० पुच्छा। गोयमा ! बीरिय० जहा वाउक्काइयाणं / [56 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियवैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [56 उ.] गौतम ! सवीर्यता यावत्-पआयुष्य और लब्धि को लेकर तथा तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-शरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से वह होता है / 57. मणुस्सपचिदियवेउब्धिय ? एवं चेव। [57 प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [57 उ.] गौतम ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) जान लेना चाहिए ! 58. [1] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउध्विय० ? जहा रयणपभापुढविनेरइया / [58-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [58-1 उ.] गौतम ! इसका कथन भी रत्नप्रभापृथ्वीनरयिकों की तरह समझना चाहिए / [2] एवं जाब थणियकुमारा। [58-2] इसी प्रकार यावत्--स्तनितकुमार-भवनवासी देवों तक कहना चाहिए। 56. एवं वाणमंतरा। [56] इसी प्रकार वाण-व्यन्तर देवों के विषय में भी रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिकों के समान जानना चाहिए। 60. एवं जोइसिया। [60] इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों के विषय में जानना चाहिए। Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 379 61. [1] एवं सोहम्मकप्पोवगया वेमाणिया / एवं जाव अच्चुय० / [61-1] इसी प्रकार (रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिकों के समान) सौधर्मकल्पोपपन्नक वैमानिक देवों यावत्-अच्युत-कल्पोपपन्नक वैमानिक देवों तक के विषय में जानना चाहिए। [2] गेवेज्जकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव / [61-2] अवेयक-कल्पातीत वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए। [3] अणुत्तरोववाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव / [61-3] अनुत्तरौषपातिक-कल्पातीत-वैमानिक देवों के विषय में भी पूर्ववत् जान लेना चाहिए। 62. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देशबंधे, सब्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि, सन्धबंधे वि। [62 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध है अथवा सर्वबन्ध है ? [62 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध भी है, सर्वबन्ध भी है। 63. वाउक्काइयगिदिय० ? एवं चेव / [63 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध है अथवा सर्वबन्ध है ? [63 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / 64. रयणप्पभायुढविनेरइय० ? एवं चेव / [64 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध है या सर्वबन्ध ? [64 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / 65. एवं जाव अणुत्तरोववाइया / [65] इसी प्रकार यावत्-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवों तक समझना चाहिए। 66. वेउब्बियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालमो केवच्चिर होइ ? गोयमा ! सव्वबंधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया। देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई। [66 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध, कालतः कितने काल तक रहता है ? [66 उ.] गौतम ! इसका सर्वबन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो समय तक Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रहता है और देशबन्ध जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। 67. वाउक्काइयएगिदियउदिवय० पुच्छा। गोयमा ! सवबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [67 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध कितने काल तक रहता है ? [67 उ.] गौतम ! इसका सर्वबन्ध जघन्यत: एक समय और उत्कृष्टतः दो समय तक रहता है, तथा देशबन्ध जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / 68. [1] रयणप्पभापुढविनेरइय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं समऊणं। [68-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध कितने काल तक रहता है ? [68-1 उ.] गौतम ! इसका सर्वबन्ध एक समय तक रहता है, और देशबन्ध, जघन्यतः तीन समय कम दस हजार वर्ष तक तथा उत्कृष्टतः एक समय कम एक सागरोपम तक रहता है। [2] एवं जाव अहेसत्तमा / नवरं देसबंधे जस्स जा जहनिया ठितो सा तिसमयूणा कायव्वा, जा च उक्कोसिया सा समयूणा / [68-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरकपृथ्वी तक जानना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि जिसकी जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उसमें तीन समय कम जघन्य देशबन्ध तथा जिसकी जितनी उत्कृष्ट (अायु-) स्थिति हो, उसमें एक समय कम उत्कृष्ट देशबन्ध जानना चाहिए। 69. पंचिदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं / [66] पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य का कथन वायुकायिक के समान जानना चाहिए। 70. असुरकुमार-नागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं, नवरं जस्स जा ठिई सा भाणियन्वा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सवबंधे एक्कं समयं; देसबंधे जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोवमाइं तिसमयूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई। [70] असुरकुमार, नागकुमार, यावत्-अनुत्तरौपपातिक देवों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि जिसकी जितनी स्थिति हो, उतनी कहनी चाहिए, यावत्--- अनुत्तरौपपातिक देवों का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है तथा देशबन्ध जघन्य तीन समय कम इकतीस सागरोपम और उत्कृष्ट एकसमय कम तेतीस सागरोपम तक का होता है। 71. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालमो केवच्चिरं होइ? गोयमा! सब्यबंधतरं जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतानो जाव प्रावलियाए असंखेज्जइमागो / एवं देसबंधंतरं पि। Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [381 [71 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कालत: कितने काल का होता है ? [71 उ.] गौतम! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्तकाल है-अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी यावत्-आवलिका के असंख्यातवें भाग के समयों के बराबर पुद्गलपरावर्तन तक रहता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए / 72. वाउक्काइयवेउब्वियसरीर० पुच्छा। गोयमा! सन्धबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइमागं / एवं देसबंधतरं पि। [72 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [72 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए / 73. तिरिक्खजोणियाँचदियवे उब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणे पुत्र कोडीयुहत्तं / एवं देसबंधंतरं पि। [73 प्र. भगवन् ! तियंञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [73 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूत्तं और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व का होता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए / 74. एवं मणूसस्स वि। [74] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी (पूर्ववत्) जान लेना चाहिए। 75. जीवस्स गं भंते ! वाउकाइयत्ते नोवाउकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइयएगिदियवेउब्विय० पुच्छा। गोयमा ! सव्वबंधतरं जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं अणतं कालं, वणस्सइकालो। एवं देसबंधतरं पि। [75 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक अवस्थागत जीव (वहाँ से मर कर) वायुकायिक के सिवाय अन्य काय में उत्पन्न हो कर रहे, और फिर वह वहाँ से मर कर पुनः वायुकायिक जीवों में उत्पन्न हो तो उसके वायुकायिक-एकेन्द्रिय-वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [75 उ.] गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यत: अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल-वनस्पतिकाल तक होता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जान लेना चाहिए / 76. [1] जीवस्स गं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते णोरयणप्पभापुढवि० पुच्छा। गोयमा! सव्वबंधतरं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देसबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं; उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सइकालो। Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [76-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिकरूप में रहा हुआ जीव, (वहाँ से मर कर) रत्नप्रभापृथ्वी के सिवाय अन्य स्थानों में उत्पन्न हो, और (वहाँ से मर कर) पुनः रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिकरूप से उत्पन्न हो तो उस रत्नप्रभानरयिक-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [76-1 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव के वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के) सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। [2] एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं जा जस्स ठिती जहनिया सा सव्वबंधंतरे जहन्नेणं अंतोमहत्तमाहिया कायवा, सेसं तं चेव / [76-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरकपथ्वी तक जानना चाहिए / विशेष इतना है कि सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर जिस नैरयिक की जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उससे अन्तमुहूर्त अधिक जानना चाहिए / शेष सर्वकथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / 77. पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साण जहा वाउकाइयाणं / [77] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों और मनुष्यों के सर्वबन्ध का अन्तर वायुकायिक के समान जानना चाहिए। 78. असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं एएसि जहा रयणप्पभागाणं, नवरं सवबंधंतरे जस्स जा ठिती जहन्निया सा अंतोमुत्तमम्भहिया कायम्बा, सेसं तं चेव / [78] [इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमार यावत् सहस्रारदेवों तक के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि जिसकी जो जघन्य (प्रायु-) स्थिति हो, उसके सर्वबन्ध का अन्तर, उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिए / शेष सारा कथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / 79. जीवस्स गं भंते ! आणयदेवत्ते नोप्राणय० पुच्छा। गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारससागरोबमाई वासपुहत्तममहियाई; उक्कोसेणं प्रणतं कालं, वणस्सइकालो। देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं; उक्कोसेणं प्रणतं कालं, वणस्सइकालो / एवं जाव अच्चुए; नवरं जस्स जा ठिती सा सव्वबंधंतरे अहानेणं वासपुहत्तममहिया कायव्वा, सेसं तं चेव / [76 प्र.] भगवन् ! अानत देवलोक में देवरूप से उत्पन्न कोई देव, (वहाँ से च्यव कर) आनत देवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए, (फिर वहाँ से मर कर) पुनः प्रानत देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हो, तो उस पानतदेव के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 383 [79 उ.] गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध के अंतर का काल जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकाल का होता है। इसी प्रकार यावत् अच्युत देवलोक तक के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर जानना चाहिए / विशेष इतना ही है कि जिसकी जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, सर्वबंधान्तर में उससे वर्षपृथक्त्व-अधिक समझना चाहिए / शेष सारा कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए / 50. गेवेज्जकप्पातीय० पुच्छा। गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमम्भहियाई; उक्कोसेणं प्रणंतं कालं, वणस्सइकालो / देसबंधतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [80 प्र.] भगवन् ! वेयककल्पातीत वैक्रिय-शरीर-प्रयोगबंध का अंतर कितने काल का होता है ? [80 उ.] गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व-अधिक 22 सागरोपम का है और उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्टतः वनस्पतिकाल का होता है। 81. जीवस्स णं भंते ! अणुतरोववातिय० पुच्छा। गोयमा ! सन्वबंधतरं जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोक्माई वासपुहत्तम हयाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई / देसबंधतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई। [81 प्र.] भगवन् ! कोई अनुत्तरोपपातिकदेवरूप में रहा हुअा जीव वहाँ से च्यव कर, अनुत्तरोपपातिकदेवों के अतिरिक्त किन्हीं अन्य स्थानों में उत्पन्न हो, और वहाँ से मरकर पुनः अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हो, तो उसके वैक्रियशरीर-प्रयोगबंध का अंतर कितने काल का होता है ? [81 उ.] गौतम ! उसके सर्वबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व-अधिक इकतीस सागरोपम का और उत्कृष्टतः संख्यातसागरोपम का होता है। उसके देशबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व का और उत्कृष्टत: संख्यात सागरोपम का होता है / 82. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्धियसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया वा? गोयमा ! सवस्थोवा जीवा वे उब्बियसरीरस्स सम्वबंधगा, देसबंधगा प्रसंखेज्जगुणा, प्रबंधगा अणंतगुणा / [82 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में, कौत किनसे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [82 उ.] गौतम ! इनमें सबसे थोड़े वैक्रियशरीर के सर्वबन्धक जीव हैं; उनसे देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से उससे सम्बन्धित विचारणा–प्रस्तुत 31 सूत्रों (सू. 52 से 12 तक) में वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद, इसके कारणभूत कर्मोदयादि, इसका देशबन्धत्व-सर्वबन्धत्व-विचार, इसके प्रयोगबन्धकाल की सीमा, प्रयोगबन्ध का अन्तरकाल, प्रकारान्तर से प्रयोगबन्धान्तर, तथा इनके देश-सर्वबन्धक के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। क्रियशरीरप्रयोगबन्ध के नौ कारण-औदारिकशरीरबन्ध के सवीर्यता, सयोगता आदि आठ कारण तो पहले बतला दिये गए हैं, वे ही 8 कारण वैक्रियशरीरबन्ध के हैं, नौवां कारण हैलब्धि / वैक्रियकरणलब्धि वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों की अपेक्षा से कारण बताई गई है। अर्थात्-इन तीनों के वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध नौ कारणों से होता है, जबकि देवों और नारकों के पाठ कारणों से ही वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध होता है; क्योंकि उनका वैक्रियशरीर भवप्रत्ययिक होता है। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के रहने को कालसीमा-बैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध भी दो प्रकार से होता है---देशबन्ध और सर्वबन्ध / वैक्रियशरीरी जीवों में उत्पन्न होता हुअा या लब्धि से वैक्रियशरीर बनाता हुआ कोई जीव प्रथम एक समय तक सर्वबन्धक रहता है। इसलिए सर्वबन्ध जघन्य एक समय तक रहता है। किन्तु कोई औदारिक शरीर वाला जीव वैक्रियशरीर धारण करते समय सर्वबन्धक होकर फिर मर कर देव या नारक हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्ध करता है, इस दृष्टि से वैक्रियशरीर के 'सर्वबन्ध' का उत्कृष्टकाल दो समय का है। औदारिक शरीरी कोई जीव, वैक्रियशरीर करते हुए प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर द्वितीय समय में देशबन्धक होता है और तुरंत ही मरण को प्राप्त हो जाए तो देशबन्ध जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट एक समय कम 33 सागरोपम का है; क्योंकि देवों और नारकों में उत्कृष्टस्थिति में उत्पद्यमान जीव प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर शेष समयों (33 सागरोपम में एक समय कम तक) में वह देशबन्धक ही रहता है। वायुकाय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य के वैक्रियशरीरीय देशबन्ध की स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। नैरयिकों और देवों के वैक्रियशरीरीय देशबन्ध की स्थिति जघन्य तीन समय कम 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम की होती है। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर-प्रौदारिकशरीरी वायुकायिक कोई जीव वैक्रियशरीर का प्रारम्भ करे तथा प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर मृत्यु प्राप्त करे, उसके पश्चात् वायुकायिकों में उत्पन्न हो तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियशक्ति उत्पन्न नहीं होती। इसलिए वह अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त होकर वैक्रियशरीर करता है, तब सर्वबन्धक होता है। इसलिए सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त होता है। औदारिकशरीरी कोई वायुकायिक जोव वैक्रियशरीर करे, तो उसके प्रथमसमय में वह सर्वबन्धक होता है। इसके बाद देशबन्धक होकर मरण को प्राप्त करे तथा औदारिकशरीरी वायुकायिक में पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल बिता कर अवश्य वैक्रियशरीर करता है / उस समय प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है, इसलिए सर्वबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है। रत्नप्रभापृथ्वी का दस हजार वर्ष की स्थितिवाला नैरयिक उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है। वहाँ से काल करके गर्भजपंचेन्द्रिय में अन्तर्मुहुर्त रह कर पुनः रत्नप्रभापृथ्वी में Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [385 उत्पन्न होता है, तब प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है। इसीलिए इसके सर्वबन्धक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त अधिक 10 हजार वर्ष होता है / मानतकल्प का अठारह सागरोपम की स्थिति वाला कोई देव, उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है। वहाँ से च्यव कर वर्षपृथक्त्व (दो वर्ष से नौ वर्ष तक) आयुष्यपर्यंत मनुष्य में रह कर पुन: उसी प्रानतकल्प में देव होकर प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है / इसलिए सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व-अधिक 18 सागरोपम का होता है / अनुत्तरौषपातिक देवों में सर्वबन्ध और देशबन्ध का अन्तर संख्यात सागरोपम है क्योंकि वहाँ से ज्यवकर जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण नहीं करता। इसके अतिरिक्त वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के देशबन्ध और सर्वबन्ध का अन्तर मूलपाठ में बतलाया गया है, वह सुगम है। उसकी घटना स्वयमेव कर लेनी चाहिए। वैकियशरीर के देश-सर्वबन्धकों का अल्पवहत्य-क्रियशरीरप्रयोग के सर्वबन्धक जीव सबसे अल्प हैं, क्योंकि उनका काल अल्प है। उनसे देशबन्धक असंख्यातगुणे हैं ; क्योंकि सर्वबन्धकों की अपेक्षा देशबन्धकों का काल असंख्यातगुणा है। उनसे वैक्रियशरीर के प्रबन्धक जीव अनन्तगुणे इसलिए हैं कि सिद्धजीव और वनस्पतिकायिक आदि जीव, जो वैक्रियशरीर के प्रबन्धक हैं, उनसे अनन्तगुणे हैं।' आहारकशरीरप्रयोगबन्ध का विभिन्न पहलुओं से निरूपण---- 83. पाहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। [83 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [83 उ.] गौतम ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध एक प्रकार का (एकाकार) कहा गया है / 84. [1] जइ एमागारे पण्णत्ते कि मगुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? कि अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? गोयमा! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगधे, नो अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे / [84-1 प्र.] भगवन् ! पाहारकशरीर-प्रयोगबन्ध एक प्रकार का कहा गया है, तो वह मनुष्यों के होता है अथवा अमनुष्यों (मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों) के होता है ? [84-1 उ.] गौतम ! मनुष्यों के आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है, अमनुष्यों के नहीं होता। [2] एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाय इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगगब्भवतियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, णो अणिढिपत्तपमत्त जाक पाहारगसरीरप्पयोगबंधे / वृत्ति, पत्रांक 406 से 409 तक। Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र [84-2] इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) 'अवगाहना-संस्थानपद' में कहे अनुसार; यावत्-ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिजगर्भज-मनुष्य के प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है, परन्तु अनुद्धिप्राप्त (ऋद्धि को अप्राप्त), प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज-मनुष्य के नहीं होता है / 85. पाहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! बीरियसजोगसद्दब्बयाए जाव लाद्ध पडुच्च आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मस्स उदएणं प्राहारगसरीरप्पयोगबंधे। [85 प्र.] भगवन् ! याहारकशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [85 उ.] गौतम! सवीर्यता, सयोगता और सद्रव्यता, यावत् (आहारक-) लब्धि के निमित्त से, आहारकशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से आहारकशरीरप्रयोगबन्ध होता है / 86. पाहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे, सन्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि, सम्वबंधे वि। [86 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध होता है, अथवा सर्वबन्ध होता है ? [86 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध भी होता है, सर्वबन्ध भी होता है / 87. पाहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! सध्वबंधे एक्कं समयं देसबंधे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [87 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर-प्रयोगबन्ध, कालतः कितने काल तक रहता है ? [87 उ.] गौतम ! आहारकशरीरप्रयोगबन्ध का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है; देशबन्ध जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। 88, प्राहारगसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतो, हुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-प्रणंतानो प्रोसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालो, खेत्तमो अणंता लोया; अवड्डपोग्गलपरियटें देसूणं / एवं देस बंधतरं पि / [88 प्र.] भगवन् ! आहारक-शरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [88 उ.] गौतम ! इसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्यतः अन्तमुहर्त और उत्कृष्टत: अनन्तकाल; कालतः अनन्त-उत्सपिणी-अवसपिणीकाल होता है, क्षेत्रतः अनन्तलोक देशोन (कुछ कम) अपार्ध (अर्द्ध) पुद्गलपरावर्तन होता है / इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जानना चाहिए / 86. एएसि गं भंते ! जीवाणं पाहारगसरीरस्स देसबधगाणं, सम्बबधगाणं, प्रबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [387 गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा पाहारगसरीरास सव्वबंधगा, देसबंधगा संखेज्जगुणा, प्रबंधगा प्रणतगुणा / [89 प्र.] भगवन् ! आहारकशरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में कौन किनसे कम, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [89 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े आहारकशरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, उनसे देशबन्धक संख्यातगुणे हैं और उनसे प्रबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं / विवेचन-पाहारकशरोरप्रयोगबन्ध का विभिन्न पहलुओं से निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 83 से 16 तक) में आहारकशरीरप्रयोगबन्ध, उसका प्रकार, उसकी कालावधि, उसका अन्तरकाल, उसके देश-सर्वबन्धकों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध के अधिकारी-केवल मनुष्य ही हैं। उनमें भी ऋद्धि (लब्धि)प्राप्त, प्रमत्त-संयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्त, संख्यातवर्ष की आयु वाले, कर्मभूमि में उत्पन्न, गर्भज मनुष्य ही होते हैं। पाहारकशरोरप्रयोगबन्ध की कालावधि--इसका सर्वबन्ध एक समय का ही होता है, और देशबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त मात्र ही है, क्योंकि इसके पश्चात् आहारकशरीर रहता ही नहीं है / उस अन्तर्मुहूर्त के प्रथम समय में सर्वबन्ध होता है, तदनन्तर देशबन्ध / प्राहारकशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर-माहारकशरीर को प्राप्त हुआ जीव, प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त तक आहारकशरीरी रहकर पुनः अपने मूल औदारिकशरीर को प्राप्त हो जाता है। वहाँ अन्तर्मुहुर्त रहने के बाद पुनः संशयादि-निवारण के लिए उसे आहारकशरीर बनाने का कारण उत्पन्न होने पर पुन: प्राहारकशरीर बनाता है; और उसके प्रथम समय में वह सर्वबन्धक ही होता है। इस प्रकार सर्वबन्ध का अन्तर अन्तमुहूर्त का होता है। यहाँ इन दोनों अन्तमुहत्तों को एक अन्तमुहर्त की विवक्षा करके एक अन्तमुहर्त बताया गया है। तथा उत्कृष्ट अन्तर काल की अपेक्षा अनन्तकाल का-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का है और क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक-अपापुद्गलपरावर्तन का होता है। देशबन्ध के अन्तर के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। प्राहारकशरीर-प्रयोगबन्ध के देश-सर्वबन्धकों का अल्पबहुत्व-याहारकशरीर के सर्वबन्धक इसलिए सबसे कम बताए हैं कि उनका समय अल्प ही होता है। उनसे देशबन्धक संख्यातगुणे इसलिए बताए हैं कि देशबन्ध का काल बहुत है। वे संख्यातगुणे ही होते हैं, असंख्यातगुणे नहीं; क्योंकि मनुष्य ही संख्यात हैं। इस कारण आहारकशरीर के देशबन्धक भी असंख्यातगुणे नहीं हो सकते। उनसे प्रबन्धक अनन्तगण इसलिए बताए हैं कि आहारकशरीर केवल मनुष्यों के, उनमें भी किन्हीं संयतजीवों के और उनके भी कदाचित् ही होता है, सर्वदा नहीं / शेष काल में वे जीव (स्वयं) तथा सिद्ध जीव तथा वनस्पतिकायिक आदि शेष सभी मनुष्येतर जीव पाहारकशरीर के अबंधक होते हैं और वे उनसे अनन्तगुणे हैं।' 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 409 Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तेजसशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुनों से निरूपण 60. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे, बेइंदिय०, तेइंदिय०, जाव पंचिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे / [10 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [90 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-एकेन्द्रिय-तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, द्वीन्द्रिय-तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध, त्रीन्द्रिय-तैजसशरीरप्रयोगबन्ध, चतुरिन्द्रिय-तेजसशरीरप्रयोगबन्ध और पंचेन्द्रिय-तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध / 61. एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा प्रोगाहणसंठाणे जाव पज्जत्तसव्वसिद्ध अणुत्तरोषवाइय. कप्पातीयवेमाणियदेवचिदियतेयासरीरप्पयोगबंध य अपज्जत्तसन्यसिद्धप्रणुत्तरोववाइय० जाव बंधे य। [91 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [61 उ.] गौतम! इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा जैसे—(प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहनासंस्थानपद में भेद कहे हैं, वैसे यहाँ भी यावत्---पर्याप्त-सर्वार्थ सिद्ध-अनुत्तरोपपातिककल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध और अपर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिककल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रिय-तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध; यहाँ तक कहना चाहिए / 62. तेयासरीरप्पयोगबंध णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा! बीरियसजोगस हव्वयाए जाव प्राज्यं वा पडुच्च तेयासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पयोगबंधे। [62 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [९२-उ.] गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता, यावत् आयुष्य के निमित्त से, तथा तैजस शरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से तैजस शरीर-प्रयोगबन्ध होता है / 63. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे सव्वबंधे ? गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। [13 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध होता है, अथवा सर्वबन्ध होता है ? [93 उ.] गौतम ! देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं होता। 64. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! दुविहे पण्णते, तं जहा-~-प्रणाईए वा अपज्जवसिए, अणाईए वा सपज्जवसिए / Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [ 389 [64 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध कालतः कितने काल तक रहता है ? [94 उ.] गौतम ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध (कालतः) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) अनादि-अपर्यवसित और (2) अनादि-सपर्यवसित / 65. तेयासरीरप्पयोगबंधतरं गं भंते ! कालो केवच्चिर होइ ? गोयमा ! प्रणाईयस्स अपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं, प्रणाईयस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं। [65 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर, कालतः कितने काल का होता है ? [95 उ. गौतम ! (इसके कालत: दो प्रकारों में से) न तो अनादि-अपर्यवसित तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर है और न ही अनादि सपर्यवसित तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर है। 66. एएसि णं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स प्रबंधगा, देसबंधगा अणंतगुणा / [96 प्र.] भगवन् ! तेजसशरीर के इन देशबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन, किससे कम, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [96 उ.] गौतम ! तैजस-शरीर के प्रबन्धक जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे देशबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। विवेचन तेजसशरीरप्रयोगबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से विचारणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (नू. 60 से 16 तक) में पूर्ववत् विभिन्न पहलुओं से तैजसशरीरप्रयोगबन्ध से सम्बन्धित विचारणा की गई है। तेजसशरीरप्रयोगबन्ध का स्वरूप-तैजसशरीर अनादि है, इसलिए इसका सर्वबन्ध नहीं होता। तैजसशरीरप्रयोगबन्ध अभव्यजीवों के अनादि-अपर्यवसित (अन्तरहित) होता है, जबकि भव्य जीवों के अनादि-सपर्यवसित (सान्त) होता है। तेजसशरीर सर्व संसारी जीवों के सदैव रहता है, इसलिए तैजसशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर नहीं होता / तैजसशरीर के अबन्धक केवल सिद्धजीव ही होते हैं, शेष सभी संसारी जीव इसके देशबन्धक हैं, इस दृष्टि से सबसे अल्प इसके अबन्धक बतलाए गए हैं, उनसे अनन्तगुणे देशबन्धक इसलिए बताए गए हैं, कि शेष समस्त संसारी जीव सिद्धजीवों से अनन्तगुणे हैं।' कार्मरणशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दृष्टियों से निरूपए 67. कम्मासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! अविहे पण्णत्ते, तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। [67 प्र.] भगवन् ! कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? - 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 410 Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [67 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणीयकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध, यावत्-अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध / 68. पाणावरणिज्जकम्मासरोरपयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए गाणंतराएणं णामपदोसेणं गाणच्चासादणाए गाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं गाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे। [98 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [68 उ.] गौतम ! ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता या विरोध) करने से, ज्ञान का निह्नव (अपलाप) करने से, ज्ञान में अन्तराय देने से, ज्ञान से प्रद्वेष करने (ज्ञान के दोष निकालने) से, ज्ञान को अत्यन्त प्राशातना करने से, ज्ञान के अविसंवादन-योग से, तथा ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है / 6. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयो गबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा ! दंसणपडिणीययाए एवं जहा णाणावरणिज्ज, नवरं 'दंसग' नाम घेत्तन्वं जाव सणविसंवादणाजोगेणं दरिसणावरणिज्जफम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं जाव प्पप्रोगबंधे / [99 प्र.] भगवन् ! दर्शनावरणीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [96-.] गौतम ! दर्शन की प्रत्यनीकता से, इत्यादि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के कारण कहे गए हैं, उसी प्रकार दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के भी कारण जानने चाहिए। विशेष अन्तर इतना ही है कि यहाँ ('ज्ञान' के स्थान में) 'दर्शन' शब्द कहना चाहिए; यावत्-'दर्शन-बिसंवादन-योग से, तथा दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से दर्शनावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है'; यहाँ तक कहना चाहिए। 100. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं? गोयमा! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समा-उ (छठ्ठ) सिए जाव अपरियावणयाए (स. 7 उ. 6 सु. 24) सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मा जाव पयोगबंधे / [100 प्र.] भगवन् ! सातावेदनीयकर्मशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [100 उ.] गौतम ! प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों (चार स्थावर जीवों) पर अनुकम्पा करने से इत्यादि, जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के) सातवें शतक के दुःषम नामक छठे उद्देशक (सू. 24) में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत्-प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को परिताप उत्पन्न न करने से तथा सातावेदनीय-कर्मशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से सातावेदनीय-कर्मशरीरप्रयोगबन्ध होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [361 101. प्रस्सायावेणिज्ज पुच्छा। __ गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्तमसए दुस्समा-उ (छठ्ठ) देसए जाव परियावणयाए (स. 7 उ. 6 सु. 28) प्रस्सायावेयणिज्जकम्मा जाय पयोगबंधे / [101 प्र.] भगवन् ! असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [101 उ. गोतम ! दूसरे जीवों को दुःख पहुँचाने से, उन्हें शोक उत्पन्न करने से इत्यादि ; जिस प्रकार (भगवतीसूत्र के) सातवें शतक के 'दुःषम' नामक छठे उद्देशक (के सूत्र 28) में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत्-उन्हें परिताप उत्पन्न करने से तथा असाताबेदनीय-कर्म-शरीरप्रयोगनामकर्म के उदय से असातावेदनीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है; यहाँ तक कहना चाहिए / 102. मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोग० पुच्छा। गोयमा ! तिव्वकोहयाए तिब्बमाणयाए तिब्वमायाए तिव्बलोभाए तिव्यवसणमोहणिज्जयाए तिब्वचरितमोहणिज्जयाए मोहणिज्जकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे / [102 प्र.] भगवन् ! मोहनीय-कर्मशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [102 उ.] गौतम ! तीव्र क्रोध से, तीव्र मान से, तीव्र माया से, तीव्र लोभ से, तीन दर्शनमोहनीय से और तीव्र चारित्रमोहनीय से तथा मोहनीय कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, मोहनीय-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध होता है / 103. नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे जे भंते ! पुच्छा० / गोयमा ! महारंभयाए महापरिग्गयाए पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेण नेर इयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीर० जाव पयोगबधे / [103 प्र.] भगवन् ! नैरयिकायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [१०३-उ.] गौतम ! महारम्भ करने से, महापरिग्रह से, पञ्चेन्द्रिय जीवों का वध करने से और मांसाहार करने से, तथा नैरयिकायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, नैरयिकायुष्यकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 104. तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीरप्पयोग० पुच्छा / गोयमा ! माइल्लयाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतूल-कूडमाणेणं तिरिक्वजोणियकम्मासरीर जाव पयोगबंधे। [104 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-प्रायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [104 उ.] गौतम ! माया करने से, निकृति (परवंचनार्थ चेष्टा या माया को छिपाने हेतु दूसरी गूढ़ माया) करने से, मिथ्या बोलने से, खोटा तौल और खोटा माप करने से, तथा तिर्यञ्चयोनिक-पआयुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से तिर्यञ्चयोनिक-आयुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध होता है। Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392] [ व्याख्याप्राप्तिसून 105. मणुस्सम्राउयकम्मासरीर० पुच्छा। गोयमा ! पगइमद्दयाए पगाविणीययाए साणकोसयाए प्रमच्छरिययाए मणुस्साउयकम्मा० जाव पयोगबंधे। [105 प्र.] भगवन् ! मनुष्यायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [105 उ.] गौतम ! प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता (नम्रता) से, दयालुता से, अमत्सरभाव से तथा मनुष्यायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, मनुष्यायुष्य-कार्मणशरीर. प्रयोगबन्ध होता है / 106. देवाउयकम्मासरीर० पुच्छा / गोयमा ! सरागसंजमेणं संजमासजमेणं बालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाउयकम्मासरीर० जाय पयोगबंधे। [१०६-प्र.] भगवन् ! देवायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [१०६-उ.] गौतम ! सराग-संयम से, संयमासंयम (देशविरति) से, बाल (अज्ञानपूर्वक) तपस्या से तथा अकामनिर्जरा से, एवं देवायुष्य-कार्मणशरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से, देवायुष्यकार्मणशरीर-प्रयोगवन्ध होता है। 107. सुभनामकम्मासरीर० पुच्छा / गोयमा ! काय उज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। [107 प्र.] भगवन् ! शुभनाम-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [107 उ.] गौतम ! काया की ऋजुता (सरलता) से, भावों की ऋजुता से, भाषा की ऋजुता (सरलता) से तथा अविसंवादनयोग से एवं शुभनाम-कार्मणशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से शुभनाम-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 108. असुभनामकम्मासरीर० पुच्छा / गोयमा ! कायमणज्जुययाए भावप्रणुज्जुययाए भासप्रणुज्जुययाए विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्मा० जाव पयोगबंध। [108 प्र.] भगवन् ! अशुभनाम-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [108 उ.] गौतम ! काया की वक्रता से, भावों की वक्रता से, भाषा को वक्रता (अनृजुता) से तथा विसंवादन-योग से एवं अशुभनाम-कार्मणशरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से अशुभनामकार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 106. उच्चागोयकम्मासरीर० पुच्छा। गोयमा ! जातिग्रमदेणं कुलप्रमदेणं बलप्रमदेणं रूवामदेणं तवनमदेणं सुयश्रमदेणं लामअमदेणं इस्सरियप्रमदेणं उच्चागोयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [363 [106 प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्र-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [106 उ.] गौतम ! जातिमद न करने से, कुलमद न करने से, बलमद न करने से, रूपमद न करने से, तपोमद न करने से, श्रुतमद (ज्ञान का मद) न करने से, लाभमद न करने से और ऐश्वर्यमद न करने से तथा उच्चगोत्र-कार्मण-शरीरप्रयोग-नामकर्म के उदय से उच्चगोत्रकार्मणशरीरप्रयोगवन्ध होता है। 110. नीयागोयकम्मासरीर० पुच्छा। गोयमा ! जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीयागोयकम्मासरीर० जाव पयोगबंधे। [110 प्र.] भगवन् ! नीचगोत्र-कार्मण-शरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [110 उ.] गौतम ! जातिमद करने से, कुलमद करने से, बलमद करने से, रूपमद करने से, तपोमद करने से, श्रुतमद करने से, लाभमद करने से और ऐश्वर्यमद करने से तथा नीचगोत्र-कार्मणशरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय से नीचगोत्र-कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध होता है। 111. अंतराइयकम्मासरीर० पुच्छा। गोयमा ! दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगतराएणं उवभोगंतराएणं बोरियंतराएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरध्ययोगबंधे। [111] भगवन् ! अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? [111] गौतम ! दानान्तराय से, लाभान्तराय से, भोगान्तराय से, उपभोगान्तराय से और वीर्यान्तराय से, तथा अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगनामकर्म के उदय से अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध होता है। 112. [1] गाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे सवबंधे ? गोयमा ! देसबंधे, णो सव्यबंधे। [112-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध क्या देशबन्ध है अथवा सर्वबन्ध है ? [112-1 उ.] गौतम ! वह देशबन्ध है, सर्वबन्ध नहीं है / [2] एवं जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पनोगबंधे। [112-2] इसी प्रकार यावत् अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध तक जानना चाहिए। 113. णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--प्रणाईए सपज्जवसिए, अणाईए अपज्जयसिए वा, एवं जहा तेयगसरीरसंचिट्ठणा तहेव / Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [113 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध कालतः कितने काल तक रहता है ? [113 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध (काल की अपेक्षा से) दो प्रकार का कहा गया है। यथा--अनादि-सपर्यवसित और अनादि-अपर्यवसित / जिस प्रकार तैजस शरीर प्रयोगबन्ध का स्थितिकाल (सू. 94 में) कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। 114. एवं जाव अंतराइयकम्मरस / [114] इसी प्रकार यावत्-अन्तराय-कर्म-(कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के स्थितिकाल) तक कहना चाहिए। 115. णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधतरं गं भंते ! कालमो केवच्चिर होइ ? गोयमा! अणाईयस्स० एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव / [115 प्र.) भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [115 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के कालतः) अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित (इन दोनों रूपों) का अन्तर नहीं होता / जिस प्रकार तैजसशरीरप्रयोगबन्ध के अन्तर के विषय में कहा गया था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / 116. एवं जाव अंतराइयस्स / [116] इसी प्रकार यावत्--अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध के अन्तर तक समझना चाहिए। 117. एएसि णं भंते ! जोधाणं नाणावरणिज्जस्स देसबंधगाणं, प्रबंधगाण घ कयरे कयरेहितो० ? जाव प्रप्याबहुगे जहा तेयगस्स / [117 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर के इन देशबन्धक और अबन्धक जीवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [117 उ ] गौतम ! जिस प्रकार तैजसशरीरप्रयोगबंध के देशबन्धकों एवं प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / 118. एवं प्राउयवज्ज जाव अंतराइयस्स / [118] इसी प्रकार आयुष्य को छोड़ कर यावत् अन्तराय-कार्मणशरीर-प्रयोगबंध के देशबन्धकों और अबन्धकों के अल्पबहुत्व के विषय में कहना चाहिए / 116. अाउथस्स पुच्छा। गोयमा! सबथोवा जीवा पाउयस्स कम्मस्स देसबंधगा, प्रबंधगा संखेज्जगुणा। [116 प्र.] भगवन् ! आयुष्य कार्मण शरीर-प्रयोगबंध के देशबन्धक और प्रबन्धक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 395 [119 उ.] गौतम ! प्रायुष्यकर्म के देशबन्धक जीव सबसे थोड़े हैं, उनसे प्रबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। विवेचन–कार्मणशरोर-प्रयोगबन्ध का भेद-प्रभेदों की अपेक्षा विभिन्न दष्टियों से निरूपणप्रस्तुत 23 सूत्रों (सू. 67 से 116 तक) में कार्मणशरीर के ज्ञानावरणीयादि आठ भेदों को लेकर उस-उस कर्म के भेद की अपेक्षा प्रयोगबन्ध की पूर्ववत् विचारणा की गई है। कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध : स्वरूप, भेद-प्रभेदादि एवं कारण---आठ प्रकार के कर्मों के पिण्ड को कार्मणशरीर कहते हैं / ज्ञानावरणीय-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध आदि पाठों के वे ही कारण बताए हैं जो उन-उन कर्मों के कारण हैं / जैसे-ज्ञानावरणीय के 6 कारण हैं, वे ही ज्ञानावरणीय कार्मणशरीरप्रयोगबन्ध के हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। ___ ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण इन दोनों कर्मों के कारण समान हैं, सिर्फ ज्ञान और दर्शन शब्द का अन्तर है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय बताए गए हैं, उनमें ज्ञानप्रत्यनोकता, दर्शनप्रत्यनीकता आदि का ज्ञान और ज्ञानीपुरुष, तथा दर्शन और दर्शनीपुरुष की प्रत्यनीकता आदि अर्थ समझना चाहिए। ज्ञानावरणीयादि अष्ट-कार्मणशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं-देशबन्ध के ही तैजसशरीरप्रयोगबन्ध की तरह अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित ये दो भेद हैं। इन दोनों का अन्तर नहीं है / पायुकर्म के देशबन्धक-आयुष्यकर्म के देशबन्धक सबसे थोड़े हैं और अबन्धक उनसे संख्यातगुण हैं; क्योंकि प्रायुष्यबन्ध का समय बहुत ही थोड़ा है, और अबन्ध का समय उससे बहुत अधिक है। यह सूत्र अनन्तकायिक जीवों की अपेक्षा से है। वहाँ अनन्तकायिक जीव संख्यातजीवित ही है / उनमें आयुष्य के अबन्धक देशबन्धकों से संख्यातगुण ही होते हैं / यद्यपि सिद्धजीव, जो आयुष्य के प्रबन्धक हैं, उन्हें भी इसमें सम्मिलित कर लिया जाए तो भी वे देशवन्धकों से संख्यातगुण ही होते हैं, क्योंकि सिद्ध आदि अवन्धक अनन्त जीव भी अनन्तकायिक आयुष्यबन्धक जीबों के अनन्तवें भाग ही होते हैं। जीव जिस समय प्रायुष्यकर्म के बन्धक होते हैं, उस समय उन्हें सर्वबन्धक इसलिए नहीं कहा गया है कि जिस प्रकार औदारिकशरीर को बांधते समय जीव प्रथम समय में शरीरयोग्य सब पुद्गलों को एक साथ खींचता है, उस प्रकार अविद्यमान समग्र अायु प्रकृति को नहीं बांधता, इसलिए पायुकर्म का सर्वबन्ध नहीं होता।' कठिन शब्दों की व्याख्या-जाणनिह्रवणयाए=ज्ञान की-श्रुत की या श्रुतगुरुषों की निह्नवता (अपलाप) से / पाणंतराएण =ज्ञान-श्रुत में अन्तराय-शास्त्र-ज्ञान के ग्रहण करने आदि में विघ्न डालना / नाणपत्रोसेणं-ज्ञान-श्रुतादि या ज्ञानवानों के प्रति प्रद्वेष-अप्रीति से / नाणऽच्चासायणाएज्ञान या ज्ञानियों की अत्यन्त पाशातना हीलना से | नाणविसंवायणाजोगेणं = विसंवादन का अर्थ है-अतिशय ज्ञानियों द्वारा और रूप में प्रतिपादित तथ्य को अन्यथा कहना या विपरीत प्ररूपणा करना / ज्ञान या ज्ञानियों के प्रतिपादित तथ्यों में दोषदर्शन रूप अन्यथा व्यापार / तद्रूप योग-ज्ञानविसंवादन योग से / दसणपडिणीययाए - दर्शन चक्षुर्दर्शनादि की प्रत्यनीकता से / तिव्वदंसण१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 411-412 Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मोहणिज्जयाए-तीव्र मिथ्यात्व-तीव दर्शनमोहनीय के कारण से / तिब्वचरित्तमोहणिज्जयाए = यहाँ कषाय से अतिरिक्त नोकषायरूप चारित्रमोहनीय का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि तीव्रक्रोधादिवश कषायचारित्रमोहनीय के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है / साणुक्कोसयाए= अनुकम्पायुक्तता से।' पांच शरीरों के एक दूसरे के साथ बन्धक-प्रबन्धक की चर्चा-विचारणा 120. [1] जस्स णं भंते ! पोरालियसरीरस्स सम्वबंधे से भंते ! बेउब्बियसरीरस्स किं बंधए, प्रबंधए? गोयमा ! नो बंधए, प्रबंधए / [120-1 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिकशरीर का सर्वबन्ध है, क्या वह जीव वैक्रियशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? [120-1 उ.] गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है / [2] पाहारगसरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा ! नो बंधए, प्रबंधए / [120-2 प्र.] भगवन् ! (जिस जीव के औदारिकशरीर का सर्वबन्ध है) क्या वह जीव आहारकशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? [120-2 उ.] गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है / [3] तेयासरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा ! बंधए, नो प्रबंधए। [120-3 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिक शरीर का सर्वबन्ध है, क्या वह जीव तैजसशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? [120-3 उ.] गौतम ! वह बन्धक है, प्रबन्धक नहीं / [4] जइ बंधए कि देसबंधए, सव्वबंधए? गोयमा ! देस बंधए, नो सन्चबंधए। [120.4 प्र.] भगवन् ! यदि वह तैजसशरीर का बन्धक है, तो क्या वह देशबन्धक है या सर्ववन्धक ? [120-4 उ.] गौतम ! वह देशबन्धक है, सर्वबन्धक नहीं। [5] कम्मासरीरस्स कि बंधए, अबंधए ? जहेव तेयगस्स जाव देसबंधए, नो सव्वबंधए / [120-5 प्र.) भगवन् ! औदारिकशरीर का सर्वबन्धक जीव कार्मणशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? 1. भगवतीसूत्र प्र वृत्ति, पत्रांक 411-412 Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम्म शतक : उद्देशक-९ ] [ 397 [120-5 उ.] गौतम ! जैसे तैजसशरीर के विषय में कहा है, वैसे यहाँ भी, यावत्-देशबन्धक है, सर्वबन्धक नहीं, यहाँ तक कहना चाहिए। 121. जस्स पं भंते ! पोरालियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स कि बंधए, अबंधए ? गोयमा! नो बंधए, प्रबंधए / [121 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिकशरीर का देशबन्ध है, भगवन् ! क्या वह वैक्रियशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? 122. एवं जहेव सबबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स / [122] जिस प्रकार सर्वबन्धक के विषय में (उपर्युक्त) कथन किया, उसी प्रकार देशबन्ध के विषय में भी यावत्-कर्मणशरीर तक कहना चाहिए। 123. [1] जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधे से गं भंते ! पोरालियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए ? गोयमा ! नो बंधए, प्रबंधए / / [123-1 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वैक्रियशरीर का सर्वबन्ध है, क्या वह औदारिकशरीर का बन्धक है या अबन्धक ? [123-1 उ.] गौतम ! वह बन्धक नहीं, प्रबन्धक है / [2] पाहारगसरीरस्स एवं चेव / [123-2] इसी प्रकार पाहारकशरीर के विषय में कहना चाहिए। [3] तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव पोरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियन्वं जाव देसबंधए, नो सम्बबंधए। [123-3] तैजस और कार्मणशरीर के विषय में जैसे औदारिकशरीर के साथ कथन किया है, वैसा ही कहना चाहिए, यावत्-वह देशबन्धक है, सर्ववन्धक नहीं, यहाँ तक कहना चाहिए। 124. [1] जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! पोरालियसरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा ! नो बंधए, प्रबंधए / [124-1 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वैक्रियशरीर का देशबन्ध है, क्या वह औदारिकशरीर का बन्धक है, अथवा प्रबन्धक है ? [124-1 उ.] गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है / [2] एवं जहा सव्वबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेण वि माणियन्वं जाब कम्मगस्स / Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 1 [ ध्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र [124-2] इसी प्रकार जैसे वैक्रियशरीर के सर्वबन्ध के विषय में कहा गया, वैसे ही यहाँ भी देशबन्ध के विषय में यावत्-कार्मणशरीर तक कहना चाहिए। 125. [1] जस्स गं भंते ! पाहारगसरीरस्स सन्धबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा ! तो बंधए, प्रबंधए / [125-1 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के आहारकशरीर का सर्वबन्ध है, वह जीव औदारिकशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? [125-1 उ.] गौतम ! वह बन्धक है, अबन्धक नहीं / [2] एवं वेउब्वियस्स वि / [125-2] इसी प्रकार वैक्रियशरीर के विषय में कहना चाहिए। [3] तेया-कम्माणं जहेब ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियन्वं / [125-3] तैजस और कार्मणशरीर के विषय में जैसे औदारिकशरीर के साथ कहा, वैसे यहाँ (आहारकशरीर के साथ) भी कहना चाहिए। 126. जस्स णं भंते पाहारगसरीरस्स देसबंधे से गं भंते ! पोरालियसरीरस्स० ? एवं जहा पाहारगसरीरस्स सध्यबंधेणं भणियं तहा देसबंधण वि भाणियध्वं जाव कम्मगस्स। [126 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के प्राहारकशरीर का देशबन्ध है, वह प्रौदारिकशरीर का बन्धक है या अबन्धक ? [126 उ.] गौतम ! जिस प्रकार आहारकशरीर के सर्वबन्ध के विषय में कहा, उसी प्रकार उसके देशबन्ध के विषय में भी यावत्-कार्मणशरीर तक कहना चाहिए। 127. [1] जस्स णं भंते ! तेयासरीरस्स देसबंधे से गं भंते ! ओरालियसरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा ! बंधए वा प्रबंधए वा। [127-1 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के तेजसशरीर का देशबन्ध है, वह औदारिकशरीर का बन्धक है या अबन्धक ? [127-1 उ.] गौतम ! वह बन्धक भी है, अबन्धक भी है। [2] जइ बंधए कि देसबंधए, सम्वबंधए ? गोयमा ! देसबंधए वा, सव्वबंधए वा / [127-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह औदारिकशरीर का बन्धक है, तो वह क्या देशबन्धक है अथवा सर्वबन्धक है ? Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [399 [127-2 उ.] गौतम ! वह देशबन्धक भी है, सर्वबन्धक भी है / [3] उब्वियसरीरस्स कि बंधए, अबंधए ? एवं चेव। [127-3 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर का बन्धक जीव वैक्रियशरीर का बन्धक है अथवा प्रबन्धक ? [127-3 उ.] गौतम ! पूर्ववक्तव्यानुसार समझना चाहिए। [4] एवं प्राहारगसरीरस्स वि / [127-4] इसी प्रकार आहारकशरीर के विषय में भी जानना चाहिए। [5] कम्मगसरीरस्स कि बंधए, प्रबंधए ? गोयमा! बंधए, नो प्रबंधए / [127-5 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर का बन्धक जीव कार्मणशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक? [127-5 उ.] गौतम ! बह बन्धक है, अबन्धक नहीं / [6] जइ बंधए कि देसबंधए, सव्वबंधए ? गोयमा ! देसबंधए, नो सम्वबंधए / [127-6 प्र. भगवन् ! यदि वह कार्मणशरीर का बन्धक है तो देश बन्धक है या सर्वबन्धक? [127-6 उ.] गौतम ! वह देशबन्धक है, सर्वबन्धक नहीं / 128, जस्स णं भंते ! कम्मगसरीरस्स देसबंधए से णं भंते ! पोरालियसरीरस्स? जहा तेयगस्स वत्तवया भणिया तहा कम्मगल्स वि भाणियचा जाव तेयासरीरस्स जाव देसबंधए, नो सब्यबंधए। [128 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कार्मणशरीर का देशबन्ध है, वह औदारिकशरीर का बन्धक है या प्रबन्धक ? [128 उ.] गौतम ! जिस प्रकार तैजसशरीर की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार कार्मणशरीर की भी, यावत्-'तैजसशरीर' तक यावत्-देशबन्धक है, सर्वबन्धक नहीं, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन--पांचों शरीरों के एक-दूसरे के साथ बन्धक-प्रबन्धक की चर्चा-विचारणा–प्रस्तुत 9 सूत्रों (सू. 120 से 128 तक) में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पांचों शरीरों के परस्पर एक दूसरे के साथ बन्धक-प्रबन्धक तथा देशबन्ध-सर्वबन्ध की चर्चा-विचारणा की Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पांच शरीरों में परस्पर बन्धक-प्रबन्धक-औदारिक और वैक्रिय, इन दो शरीरों का परस्पर एक साथ बन्ध नहीं होता, इसी प्रकार औदारिक और आहारकशरीर का भी एक साथ बन्ध नहीं होता। अतएव औदारिकशरीरबन्धक जीव वैक्रिय और आहारक का प्रबन्धक होता है, किन्तु तेजस और कार्मणशरीर का औदारिकशरीर के साथ कभी विरह नहीं होता। इसीलिए वह इनका देशबन्धक होता है। इन दोनों शरीरों का सर्वबन्ध तो कभी होता ही नहीं। तजस कार्मणशरीर का देशबन्धक औदारिकशरीर का बन्धक और प्रबन्धक कैसे?-तैजसशरीर और कार्मणशरीर का देशबन्धक जीव औदारिकशरीर का बन्धक भी होता है, अबन्धक भी, इसका प्राशय यह है कि विग्रहगति में वह अबन्धक होता है तथा वैक्रिय में हो या आहारक में, तब भी वह औदारिकशरीर का प्रबन्धक ही रहता है, और शेष समय में बन्धक होता है। उत्पत्ति के प्रथम समय में वह सर्वबन्धक होता है, जबकि द्वितीय आदि समयों में वह देशबन्धक हो जाता है। इसी प्रकार कार्मणशरीर के विषय में भी समझना चाहिए। शेष शरीरों के साथ बन्धक-प्रबन्धक आदि का कथन सुगम है. स्वयमेव घटित कर लेना चाहिए।' औदारिक आदि पांच शरीरों के देश-सर्वबन्धकों एवं प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व को प्ररूपरगा-- 129. एएसिणं भंते ! जीवाणं पोरालिय-वेउन्विय-पाहारग-तेया-कम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सम्वबंधगाणं प्रबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोधमा ! सम्वत्थोवा जीवा प्राहारगसरीरस्स सव्वबंधगा 1 / तस्स चेव देसबंधगा संखेज्जगुणा 2 / वेउब्वियसरीरस्स सम्वबंधगा असंखेज्जगुणा 3 / तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा 4 / तेया-कम्मगाणं दुण्ह वि तुल्ला प्रबंधगा अणंतगुणा 5 / ओरालियसरीरस्स सवबंधगा अणंतगुणा 6 / तस्स चेव प्रबंधगा विसेसाहिया 7 / तस्स चेव देसबंधगा असंखेज्जगुणा 8 / तेया-कम्मगाणं देसबंधगा विसे साहिया है। वेउब्वियसरीरस्स प्रबंधगा विसेसाहिया 10 / प्राहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया 11 / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥अट्ठमसए : नवमो उद्देसनो समतो॥ [129 प्र.] भगवन् ! इन औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर के देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में कौन किनसे कम, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [126 उ.] गौतम ! (1) सबसे थोड़े अाहारकशरीर के सर्वबन्धक जीव हैं, (2) उनसे उसी (पाहारकशरीर) के देशबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं, (3) उनसे वैक्रियशरीर के सर्वबन्धक असंख्यातगुणे हैं, (4) उनसे वैक्रियशरीर के देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं, (5) उनसे तेजस और कार्मण, इन दोनों शरीरों के प्रबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं, ये दोनों परस्पर तुल्य हैं। (6) उनसे औदारिकशरीर के सर्वबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं, (7) उनसे प्रौदारिकशरीर के प्रबन्धक जीव 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक 423 Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९ ] [401 विशेषाधिक हैं, (8) उनसे उसी (औदारिकशरीर) के देशबन्धक असंख्यातगुणे हैं, (6) उनसे तेजस और कार्मणशरीर के देशबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। (10) उनसे वैक्रियशरीर के प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं और (11) उनसे आहारकशरीर के प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्रौदारिकादि शरीरों के देश-सर्वबन्धकों और प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणाप्रस्तुत सूत्र में पांचों शरीरों के बन्धकों-प्रबन्धकों में जो जिससे अल्प, अधिक, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं, उनकी प्ररूपणा की गई है। अल्पबहुत्व का कारण-(१) पाहारकशरीर चौदहपूर्वधर मुनि के ही होता है, वे भी विशेष प्रयोजन होने पर ही आहारकशरीर धारण करते हैं। फिर सर्वबन्ध का काल भी सिर्फ एक समय का है, अतएव आहारकशरीर के सर्वबन्धक सबसे अल्प हैं। (2) उनसे आहारकशरीर के देशबन्धक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि देशबन्ध का काल अन्तमुहर्त है। (3) उनसे वैक्रियशरीर के सर्वबन्धक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि आहारकशरीरधारी जीवों से वैक्रियशरीरी असंख्यातगुणे अधिक हैं। (4) उनसे वैक्रियशरीरधारी देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सर्वबन्ध से देशबन्ध का काल असंख्यातगुणा है / अथवा प्रतिपद्यमान सर्वबन्धक होते हैं, और पूर्वप्रतिपन्न देशबन्धक ; अत: प्रतिपद्यमान की अपेक्षा पूर्वप्रतिपन्न असंख्यातगुणे हैं। (5) उनसे तैजस और कार्मणशरीर के प्रबन्धक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि इन दोनों शरीरों के अबन्धक सिद्ध भगवान् हैं, जो वनस्पतिकायिक जीवों के सिवाय शेष सर्व संसारी जीवों से अनन्तगुणे हैं। (6) उनसे औदारिकशरीर के सर्वबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव भी औदारिकशरीरधारियों में हैं, जो कि अनन्त हैं। (7) उनसे औदारिकशरीर के प्रबन्धक जीव इसलिए विशेषाधिक हैं, कि विग्रहगतिसमापनक जीव तथा सिद्ध जीव सर्वबन्धकों से बहुत हैं / (8) उनसे औदारिकशरीर के देशबन्धक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि विग्रहगति के काल को अपेक्षा देशबन्धक का काल असंख्यातगुणा है। (9) उनसे तैजस-कार्मणशरीर के देशबन्धक विशेषाधिक हैं, क्योंकि सारे संसारी जीव तैजस और कार्मण शरीर के देशबन्धक होते हैं। इनमें विग्रहगतिसमापन्नक, औदारिक सर्वबन्धक और वैक्रियादि-बन्धक जीव भी आ जाते हैं। अतः औदारिक देशबन्धकों से ये विशेषाधिक बताए गए हैं। (10) उनसे वैक्रियशरीर के प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि वैक्रियशरीर के बन्धक प्रायः देव और नारक हैं। शेष सभी संसारी जोव और सिद्ध भगवान् वैक्रिय के अबन्धक ही हैं, इस अपेक्षा से वे तैजसादि देशबन्धकों से विशेषाधिक बताए गए हैं। (11) उनसे आहारकशरीर के प्रबन्धक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वैक्रिय तो देव-नारकों के भी होता है, किन्तु आहारकशरीर सिर्फ चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के होता है। इस अपेक्षा से प्राहारकशरीर के प्रबन्धक विशेषाधिक कहे गए हैं।' / / अष्टम शतक : नवम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 414 Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'आराहणा' दशम उद्देशक : 'आराधना श्रुत और शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से भगवान् द्वारा अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी 1. [उद्देशक का उपोद्घात] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा 2. अन्नउत्थिया गं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति--एवं खलु सील सेयं 1, सुयं सेयं 2, सुयं सेयं सील सेयं 3, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहासीलसंपन्ने णामं एगे, जो सुयसंपन्ने 1; सुयसंपन्ने नाम एगे, नो सीलसंपन्ने 2; एगे सोलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि 3, एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने 4 / तत्थ गंजे से पढमे पुरिसजाए से गं पुरिसे सोलवं, असुयवं, उवरए, अविण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं, सुयवं अणुवरए, विण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं, सुयवं, उवरए, विणायधम्मे, एसणं गोयमा ! मए पुरिसे सम्वाराहए पण्णत्ते / तत्थ गंजे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं, असुतवं अणुवरए, अविण्णायधम्मे एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सम्वविराहए पण्णत्ते। [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत प्ररूपणा करते हैं—(१) शील ही श्रेयस्कर है; (2) श्रुत ही श्रेयस्कर है, (3) (शीलनिरपेक्ष ही) श्रुत श्रेयस्कर है, अथवा (श्रुतनिरपेक्ष ही) शील श्रेयस्कर है; अत: हे भगवन् ! यह किस प्रकार सम्भव है ? [2 उ.] गौतम ! अत्यतीथिक, जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् उन्होंने जो ऐसा कहा है वह मिथ्या कहा है। गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ। मैंने चार प्रकार के पुरुष कहे हैं। वे इस प्रकार १–एक व्यक्ति शीलसम्पन्न है, किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है / Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [403 २.-एक व्यक्ति श्रुतसम्पन्न है, किन्तु शीलसम्पन्न नहीं है / ३–एक व्यक्ति शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है / ४–एक व्यक्ति न शीलसम्पन्न है और न श्रुतसम्पन्न है / (1) इनमें से जो प्रथम प्रकार का पुरुष है, वह शोलवान है, परन्तु श्रुतवान् नहीं / वह (पापादि से) उपरत (निवृत्त) है, किन्तु धर्म को विशेषरूप से नहीं जानता / हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने देश-आराधक कहा है ! (2) इनमें से जो दूसरा पुरुष है, वह पुरुष शीलवान् नहीं, परन्तु श्रुतवान् है। वह (पापादि से) अनुपरत (अनिवृत्त) है, परन्तु धर्म को विशेषरूप से जानता है / हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने देश-विराधक कहा है। (3) इनमें से जो तृतीय पुरुष है, वह पुरुष शीलवान् भी है और श्रुतवान् भी है / वह (पापादि से) उपरत है और धर्म का भी विज्ञाता है। हे गौतम ! इस पुरुषको रुष को मैंने सर्व-आराधक कहा है। (4) इनमें से जो चौथा पुरुष है, वह न तो शीलवान् है और न श्रुतवान् है / वह (पापादि से) अनुपरत है, धर्म का भी विज्ञाता नहीं है / गौतम ! इस पुरुष को मैंने सर्व-विराधक कहा है / विवेचन–श्रुत और शील की प्राराधना एवं विराधना की दृष्टि से भगवान द्वारा अन्यतोथिकमत निराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तप्ररूपण-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में अन्यतीथिकों की श्रुत-शील सम्बन्धी एकान्त मान्यता का निराकरण करते हुए भगवान् द्वारा प्रतिपादित श्रुत-शील की आराधनाविराधना-सम्बन्धी चतुभंगी रूप स्वसिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है / अत्यतीथिकों का श्रत-शोलसम्बन्धी मत मिथ्या क्यों?—(१) कुछ अन्यतीथिक यों मानते हैं कि शील अर्थात् क्रियामात्र ही श्रेयस्कर है, श्रुत अर्थात् -ज्ञान से कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि वह आकाशवत् निश्चेष्ट है / वे कहते हैं-पुरुषों के लिए क्रिया ही फलदायिनी है, ज्ञान फलदायक नहीं है / खाद्यपदार्थों के उपयोग के ज्ञान मात्र से हो कोई सुखी नहीं होता / (2) कुछ अन्यतीथिकों का कहना है कि ज्ञान (श्रुत) हो श्रेयस्कर है / ज्ञान से ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है / क्रिया से नहीं / ज्ञानरहित क्रियावान् पुरुष को अभीष्ट फलसिद्धि के दर्शन नहीं होते। जैसा कि वे कहते हैं--- पुरुषों के लिए ज्ञान ही फलदायक है, क्रिया फलदायिनी नहीं होती; क्योंकि मिथ्याज्ञानपूर्वक क्रिया करने वाले को अनिष्टफल की ही प्राप्ति होती है / (3) कितने ही अन्यतीथिक परस्पर निरपेक्ष श्रुत और शील को श्रेयस्कर मानते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान क्रियारहित भी फलदायक है, क्योंकि क्रिया उसमें गौणरूप से रहती है, अथवा क्रिया ज्ञानरहित हो तो भी फलदायिनी है, क्योंकि उसमें ज्ञान गौणरूप से रहता है। इन दोनों में से कोई भी एक, पुरुष की पवित्रता का कारण है / उनका आशय यह है कि मुख्य-वृत्ति से शील श्रेयस्कर है, किन्तु श्रुत भी उसका उपकारी होने से गौणवृत्ति से श्रेयस्कर है। अथवा श्रत मुख्यवृत्ति से पीर शील गौणवत्ति से श्रेयस्कर है। प्रथम के दोनों मत एकान्त होने से मिथ्या हैं और तीसरे मत में मुख्य-गौणवृत्ति का आश्रय ले कर जो प्रतिपादन किया गया है, वह भी युक्तिसंगत और सिद्धान्तसम्मत नहीं है क्योंकि श्रुत और शील दोनों पृथक्-पृथक् या गौण-मुख्य न रह कर समुदित रूप में साथ-साथ रहने पर हो मोक्षफलदायक होते हैं / इस सम्बन्ध में Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404]] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दोनों पहियों के एक साथ जुड़ने पर ही रथ चलता है तथा अन्धा और पंगु दोनों मिल कर ही अभीष्ट नगर में प्रविष्ट हो सकते हैं। ये दो दृष्टान्त दे कर वृत्तिकार श्रुत और शील दोनों के एक साथ समायोग को ही अभीष्ट फलदायक मानते हैं।' श्रुत-शील की चतुर्भगी का प्राशय---(१) प्रथम भंग का स्वामी शीलसम्पन्न है, श्रुतसम्पन्न नहीं, उसका आशय यह है कि वह भावतः शास्त्रज्ञान प्राप्त किया हुआ या तत्त्वों का विशेष ज्ञाता नहीं है, अत: स्वबुद्धि से ही पापों से निवृत्त है। मूलपाठ में उक्त 'अविण्णायधम्म' पद से यह स्पष्ट होता है, कि जिसने धर्म को विशेष रूप नहीं जाना, वह (अविज्ञातधर्मा) साधक मोक्ष-मार्ग को देशत:--अंशतः अाराधना करने वाला है। अर्थात--जो चारित्र की श्राराधना करता है, किन्तु विशेषरूप से ज्ञानवान् नहीं है (उससे ज्ञान की आराधना विशेष रूप से नहीं होती।) अथवा स्वयं अगीतार्थ है, इसलिए गीतार्थ के निश्राय में रहकर तपश्चर्यारत रहता है / इस भंग का स्वामी मिथ्यादृष्टि नहीं, किन्तु सम्यग्दृष्टि है। (2) दूसरे भंग का स्वामी शीलसम्पन्न नहीं, किन्तु श्रुतसम्पन्न है, वह पापादि से अनिवृत्त है, किन्तु धर्म का विशेष ज्ञाता है। इसलिए उसे यहाँ देशविराधक कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्न-त्रय जो मोक्षमार्ग है, उसमें से तृतीय भागरूप चारित्र की विराधना करता है, अर्थात्-प्राप्त हुए चारित्र का पालन नहीं करता, अथवा चारित्र को प्राप्त ही नहीं करता। इस भंग का स्वामी अविरतिसम्यग्दृष्टि है, अथवा प्राप्त चारित्र का अपालक श्रुतसम्पन्नसाधक है। (3) तृतीय भंग का स्वामी शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी। वह उपरत है तथा धर्म का भी विशिष्ट ज्ञाता है। अतः वह सराधक है; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय-मोक्षमार्ग की सर्वथा पाराधना करता है। (4) चतुर्थ भंग का स्वामी शील और श्रुत दोनों से रहित है / वह अनुपरत है और धर्म का विज्ञाता भी नहीं ; क्योंकि श्रुत (सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन) से रहित पुरुष न तो विज्ञातधर्मा हो सकता है और न ही सम्यकचारित्र की आराधना कर सकता है। इसलिए रत्नत्रय का विराधक होने से वह सर्वविराधक माना गया है / 1. (क) भगवती सूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 417-418 (ख) क्रियेव फलदा पुला न ज्ञानं फलदं मतम् / स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् // 1 // विज्ञप्तिः फलदा पुसा, न क्रिया फलदा मता / मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् // 2 // (ग) 'जानक्रियाभ्यां मोक्षः।' 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' ---तत्त्वार्थसूत्र अ.१.स.१ (घ) नाणं पयासयं, सोहयो तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हंपि समानोगे मोक्खो जिणसासणे भणियो। (ड) संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ / अंधो य पंग य बणे समिच्चा,ते संपउत्ता नगरं पविट्रा / / 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 418 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3, पृ. 1541-1542 Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१०] [405 ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्ट-मध्यमजघन्याराधना का फल 3. कतिविहा णं भंते ! प्राराहणा पण्णता? गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णता, तं जहा-नाणाराहणा दंसणाराहणा चरित्ताराहणा। 3 प्र.] भगवन् ! पाराधना कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] गौतम ! आराधना तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-(१) ज्ञानाराधना, (2) दर्शनाराधना और (3) चारित्राराधना / 4. जाणाराहणाणं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा! तिविहा पण्णता, तं जहा–उक्कोसिया मज्झिमिया जहन्ना / [4 प्र.] भगवन् ! ज्ञानाराधना तीन प्रकार की कही गई है ? [4 उ.] गौतम ! ज्ञानाराधना तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-(१) उत्कृष्ट, (2) मध्यम और (3) जघन्य / 5. बंसणाराहणा णं भंते !.? एवं चेव तिविहा वि। [5 प्र.] भगवन् ! दर्शनाराधना कितने प्रकार की कही गई है ? [5 उ.] गौतम ! दर्शनाराधना भी इसी प्रकार तीन प्रकार की कही गई है। 6. एवं चरिताराहणा वि। [6] इसी प्रकार चारित्राराधना भी तीन प्रकार की कही गई है। 7. जस्स गं भंते ! उक्कोसिया जाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा ? जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया णाणाराहणा? गोयमा! जस्स उक्कोसिया जाणाराहणा तस्स दंसणाराहणा उक्कोसिया वा अजहन्न। उक्कोसिया वा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा जहन्ना वा अजहन्नमणुक्कोसा वा। [7 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, और जिस जीव के उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है ? 7i उ.] गौतम ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, उसके दर्शनाराधना उत्कृष्ट या मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) होती है। जिस जीव के उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, उसके उत्कृष्ट, जघन्य या मध्यम ज्ञानाराधना होती है / Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [व्याख्याप्राप्तिसून 8. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया गाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरिताराहणा? जस्सुक्कोसिया चरिताराहणा तस्सुक्कोसिया जाणाराहणा? जहा उक्कोसिया गाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा उक्कोसिया णाणाराहणा य चरित्ताराहणा य भाणियन्वा / [8 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है और जिस जीव के उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है ? [8 उ.] गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना और दर्शनाराधना के विषय में कहा, उसी प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना और उत्कृष्ट चारित्राराधना के विषय में भी कहना चाहिए। 6. जस्स णं भंते ! उक्कोसिया सणाराहणा तस्सुक्कोसिया चरिताराहणा? जस्सुक्कोसिया चरित्ताराणा तस्सुक्कोसिया दंसणाराहणा? गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा जहन्ना वा अजहन्नमणुक्कोसा वा, जस्स पुण उक्कोसिया चरिताराहणा तस्स सणाराहणा नियमा उक्कोसा। [प्र.] भगवन् ! जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, क्या उसके उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, और जिसके उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है ? उ.] गौतम ! जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, उसके उत्कृष्ट, मध्यम या जघन्य चारित्राराधना होती है और जिसके उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, उसके नियमत: (अवश्यमेव) उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है / 10. उक्कोसियं णं भंते ! णाणाराहणं पाराहेत्ता कतिहि भवग्गहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति ? ___गोयमा ! प्रत्येगइए तेणेव भवगहणेणं सिझति जाव अंतं करेति / अत्यंगतिए दोच्चेणं भवग्गणेणं सिझति जाव अंतं करेति / अत्थेगतिए कप्योवएसु वा कप्पातीएसु वा उववज्जति / [10 प्र.] भगवन् ! ज्ञान की उत्कृष्ट पाराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? [10 उ.] गौतम ! कितने ही जीव उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं, यावत् सभी दु:खों का अन्त कर देते हैं, कितने ही जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं; कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। 11. उक्कोसियं णं भंते ! दसणाराहणं पाराहेत्ता कतिहि भवग्गहणेहि ? एवं चेव। [11 प्र.] भगवन् ! दर्शन को उत्कृष्ट पाराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मष्टम शतक : उद्देशक-१०] [407 11 उ.] गौतम ! (जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के फल के विषय में कहा है, उसी प्रकार उत्कृष्ट दर्शनाराधना के (फल के) विषय में समझना चाहिए। 12. उक्कोसियं णं भंते ! चरित्ताराहणं पाराहेत्ता ? एवं चेव / नवरं प्रत्थेगतिए कप्पातीएसु उववज्जति / [12 प्र.] भगवन् ! चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? [12 उ.] गौतम ! उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के (फल के) विषय में जिस प्रकार कहा था उसी प्रकार उत्कृष्ट चारित्राराधना के (फल के) विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि कितने ही जीव (इसके फलस्वरूप) कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। 13. मज्झिमियं णं भंते ! जाणाराहणं पाराहेत्ता कतिहि भवग्गहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोयमा ! प्रत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणणं सिभइ जाच अंतं करेति, तच्चं पुण भवग्रहणं नाइक्कमइ / [13 प्र.] भगवन् ! ज्ञान की मध्यम-आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त कर देता है ? [13 उ.] गौतम ! कितने ही जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं; वे तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। 14. मज्झिमियं णं भंते ! दंसणाराहणं पाराहेत्ता ? एवं चेव / [14 प्र.] भगवन् ! दर्शन की मध्यम आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [14 उ.] गौतम ! जिस प्रकार ज्ञान की मध्यम अाराधना के (फल के) विषय में कहा, उसी प्रकार दर्शन की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहना चाहिए / 15. एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि / [15] इसी (पूर्वोक्त) प्रकार से चारित्र की मध्यम आराधना के (फल के) विषय में कहना चाहिए। 16. जहन्नियं णं भंते ! नाणाराहणं पाराहेत्ता कतिहि भवागहणेहि सिज्झति जाव अंतं करेति? गोयमा ! प्रत्थेगतिए तच्चे णं भवम्गहणणं सिज्मद जाव अंतं करेइ, सत्त-ट्टभवग्गहणाई पुण नाइयकम। Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [ज्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! ज्ञान को जघन्य आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [16 उ.] गौतम ! कितने ही जीव तीसरा भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दु:खों का अन्त करते हैं; परन्तु सात-पाठ भव का अतिक्रमण नहीं करते / 17. एवं दसणाराहणं पि। [17] इसी प्रकार जघन्य दर्शनाराधना के (फल के) विषय में समझना चाहिए। 18. एवं चरित्ताराहणं पि। [18] इसी प्रकार जघन्य चारित्राराधना के (फल के) विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन–ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्टमध्यम-जघन्याराधना का फल--प्रस्तुत 16 सूत्रों (सू. 3 से 18 तक) में रत्नत्रय की प्राराधना और उनके पारस्परिक सम्बन्ध तथा उनके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट फल के विषय में निरूपण किया गया है। पाराधना : परिभाषा, प्रकार और स्वरूप-ज्ञानादि की निरतिचार रूप से अनुपालना करना प्राराधना है। आराधना के तीन प्रकार हैं-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना / पांच प्रकार के ज्ञान या ज्ञानाधार श्रुत (शास्त्रादि) की, काल, विनय, बहुमान आदि पाठ ज्ञानाचार-सहित निर्दोष रीति से पालना करना ज्ञानाराधना है / शंका, कांक्षा आदि अतिचारों को न लगाते हुए, नि:शंकित, निष्कांक्षित आदि पाठ दर्शनाचारों का शुद्धतापूर्वक पालन करते हुए दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व की आराधना करना, दर्शनाराधना है। सामायिक आदि चारित्रों अथवा समिति-गुप्ति, व्रत-महाव्रतादि रूप चारित्र का निरतिचार-विशुद्ध पालन करना चारित्राराधना है। ज्ञानकृत्य एवं ज्ञानानुष्ठानों में उत्कृष्ट प्रयत्न करना उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है / इसमें चौदह पूर्व का ज्ञान पा जाता है। मध्यम प्रयत्न करना मध्यम ज्ञानाराधना है, इसमें ग्यारह अंगों का ज्ञान आ जाता है। और जघन्य (अल्पतम) प्रयत्न करना जघन्य ज्ञानाराधना है। इसमें अष्टप्रवचनमाता का ज्ञान आ जाता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र की आराधना में उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य प्रयत्न करना उनकी उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य आराधना है। उत्कृष्ट दर्शनाराधना में क्षायिकसम्यक्त्व, मध्यम दर्शनाराधना में उत्कृष्ट क्षायोपशमिक या औपशमिक सम्यक्त्व और जघन्य दर्शनाराधना में जघन्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है। उत्कृष्ट चारित्राराधना में यथाख्यात चारित्र, मध्यम चारित्राराधना में सूक्ष्मसम्पराय और परिहारविशुद्धि चारित्र तथा जघन्य चारित्राराधना में सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनिक चारित्र पाया जाता है / अाराधना के पूर्वोक्त प्रकारों का परस्पर सम्बन्ध-उत्कृष्ट ज्ञानाराधक में उत्कृष्ट और मध्यम दर्शनाराधना होती है, किन्तु जघन्य दर्शनाराधना नहीं होती, क्योंकि उसका वैसा ही स्वभाव है / उत्कृष्ट दर्शनाराधक में ज्ञान के प्रति तीनों प्रकार का प्रयत्न सम्भव है, अतः पूर्वोक्त तीनों प्रकार की ज्ञानाराधना भजना से होती है। जिसमें उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, उसमें चारित्राराधना उत्कृष्ट या मध्यम होती है, क्योंकि उत्कृष्ट ज्ञानाराधक में चारित्र के प्रति तीनों प्रकार का प्रयत्न भजना से होता है। जिसकी उत्कृष्ट दर्शनाराधना होती है, उसमें तीनों प्रकार की चारित्राराधना भजना से Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१०] [409 होती है। क्योंकि उत्कृष्ट दर्शनाराधक में चारित्र के प्रति तीनों प्रकार का प्रयत्न अविरुद्ध है / जहाँ उत्कृष्ट चारित्राराधना होती है, वहाँ उत्कृष्ट दर्शनाराधना अवश्य होती है, क्योंकि उत्कृष्ट चारित्र उत्कृष्ट दर्शनानुगामी होता है / रत्नत्रय की त्रिविध पाराधनाओं का उत्कृष्ट फल-उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना वाले कतिपय साधक उसी भव में तथा कतिपय दो (बीच में एक देव और एक मनुष्य का) भव ग्रहण करके मोक्ष जाते हैं। कई जीव कल्पोपपन्न या कल्पातीत देवलोकों में, विशेषत: उत्कृष्ट चारित्राराधना वाले एकमात्र कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। मध्यम ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना वाले कई जीव जघन्य दो भव ग्रहण करके उत्कृष्टतः तीसरे भव में (बीच में दो भव देवों के करके) अवश्य मोक्ष जाते हैं। इसी तरह जघन्यतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करने वाले कतिपय जीव जधन्य तीसरे भव में, उत्कृष्टतः सात या पाठ भवों में अवश्यमेव मोक्ष जाते हैं। ये सात भव देवसम्बन्धी और पाठ भव चारित्रसम्बन्धी, मनुष्य के समझने चाहिए।' पुद्गल-परिणाम के भेद-प्रभेदों का निरूपण 19. कतिविहे गं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णते ? गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा--वण्णपरिणामे 1 गंधपरिणामे 2 रसपरिणामे 3 फासपरिणामे 4 संठाणपरिणामे 5 / [16 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? . [16 उ.] गौतम ! पुद्गलपरिणाम पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) वर्ण-परिणाम, (2) गन्ध-परिणाम, (3) रस-परिणाम, (4) स्पर्श-परिणाम और (5) संस्थानपरिणाम। 20. वण्णपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-कालवण्णपरिणामे जाव सुकिल्लवण्णपरिणामे / [20 प्र.] भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [20 उ] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा—कृष्ण (काला) वर्ण-परिणाम यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण-परिणाम / 21. एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामें पंचविहे, फासपरिणामे अट्टविहे / [21] इसी प्रकार के अभिलाप द्वारा गन्धपरिणाम दो प्रकार का, रसपरिणाम पांच प्रकार का और स्पर्शपरिणाम पाठ प्रकार का जानना चाहिए। 22. संठाणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचबिहे पण्णत्ते, तं जहा--परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव प्राययसंठाणपरिणामे / [22 प्र.] भगवन् ! संस्थान-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 419-420 Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून [22 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-परिमण्डलसंस्थानपरिणाम, यावत् अायतसंस्थान-परिणाम / विवेचन-पुद्गल-परिणाम के भेद-प्रभेदों का निरूपण-प्रस्तुत चार सूत्रों में पुद्गलपरिणाम के वर्णादि पांच प्रकार एवं उनके भेदों का निरूपण किया गया है। पुद्गल-परिणाम की व्याख्या–पुद्गल का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में रूपान्तर होना पुद्गलपरिणाम है। इसके मूल भेद पांच और उत्तरभेद पच्चीस हैं।' पुद्गलास्तिकाय के एकप्रदेश से लेकर अनन्तप्रदेश तक अष्टविकल्पात्मक प्रश्नोत्तर-- 23. एगे भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसे कि दवं 1, दबदेसे 2, दवाई 3, दवदेसा 4, उदाहु दव्वं च दन्वदेसे य 5, उदाहु दन्वं च दव्वदेसा य 6, उदाहु दवाइं च दव्वदेसे य 7. उदाहु दन्वाइं च दव्वदेसा य 8 ? गोयमा ! सिय दवं, सिय दव्वदेसे, नो दवाई, नो दवदेसा, नो दव्वं च दन्वदेसे य, जाव नो दवाइंच दम्वदेसाय। 23 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश (1) द्रव्य है, (2) द्रव्य-देश है (3) बहुत द्रव्य हैं, अथवा (4) बहुत द्रव्य-देश हैं ? अथवा (5) एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश है, या (6) एक द्रव्य और बहुत द्रव्य-देश हैं, अथवा (7) बहुत द्रव्य और एक द्रव्यदेश है, या (8) बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश हैं ? [23 उ.] गौतम ! वह कथञ्चित् एक द्रव्य है, कथञ्चित् एक द्रव्यदेश है, किन्तु वह बहुत द्रव्य नहीं, न बहुत द्रव्यदेश है, एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश भी नहीं, यावत् बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश भी नहीं। 24. दो भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा कि दव्वं दव्वदेसे० पुच्छा तहेव ? गोयमा ! सिय दव्वं 1, सिय दवदेसे 2, सिय दवाई 3, सिय दव्वदेसा 4, सिय दव्वं च दधदेसे य 5, नो दवं च दव्वदेसा य 6, सेसा पडिले हेयन्या / [24 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश क्या एक द्रव्य हैं, अथवा एक द्रव्यदेश हैं ? इत्यादि (पूर्वोक्त अष्टविकल्पात्मक) प्रश्न / [24 उ.] गौतम ! 1. कथंचित् द्रव्य हैं, 2. कञ्चित् द्रव्यदेश हैं, 3. कथंचित् बहुत द्रव्य हैं, 4. कथंचित् बहुत द्रव्यदेश हैं, और 5. कथंचित् एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश हैं; परन्तु 6. एक द्रव्य और बहुत द्रव्य देश नहीं, 7. बहुत द्रव्य और एक द्रव्यदेश नहीं तथा 8. बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश नहीं हैं / (अर्थात्-प्रथम के 5 भंगों के अतिरिक्त शेष भंगों का निषेध करना चाहिए।) 25. तिणि भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा कि दव्वं, दम्वदेसे० पुच्छा। गोयमा ! सिय दवं 1, सिय दम्वदेसे 2, एवं सत्त भंगा भाणियच्या, जाव सिय दवाइंच दव्वदेसे य: नो वव्वाइं च दव्वदेसा य / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 420 Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [411 [25 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, क्या एक द्रव्य हैं अथवा एक द्रव्यदेश हैं ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न / [25 उ.] गौतम ! 1. कथञ्चित् एक द्रव्य हैं, 2. कथञ्चित् एक द्रव्यदेश हैं; इस प्रकार यावत्-'कथञ्चित् बहुत द्रव्य और एक द्रव्यदेश है ; किन्तु बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश नहीं हैं'; यहां तक (पूर्वोक्त) सात भंग कहने चाहिए। 26. चत्तारि भंते ! पोग्गल स्थिकायपएसा कि दव्वं० पुच्छा। गोयमा ! सिय दव्वं 1, सिय दव्वदेसे 2, अट्ठ वि भंगा माणियव्वा जाव सिय दव्वाई च ददवदेसा य 8 / [26 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के चार प्रदेश क्या एक द्रव्य हैं या एक द्रव्यदेश हैं ? इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न.... / [26 उ.] गौतम ! कञ्चित् एक द्रव्य है, कञ्चित् एक द्रव्यदेश हैं, इत्यादि पाठों ही भंग, यावत् 'कथञ्चित् बहुत द्रव्य हैं और बहुत द्रव्यदेश हैं, यहाँ तक कहने चाहिए। 27. जहा चत्तारि भणिया एवं पंच छ सत्त जाव असंखेज्जा। [27] जिस प्रकार चार प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार पांच, छह, सात यावत् असंख्य प्रदेशों तक के विषय में कहा 28. अणंता भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा कि दवं? एवं चेव जाव सिय दवाइं च दव्वदेसा य / [28 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के अनन्तप्रदेश क्या एक द्रव्य हैं या एक द्रव्यदेश हैं ? इत्यादि (पूर्वोक्त अष्टविकल्पात्मक) प्रश्न"। [28 उ.] गौतम ! पहले कहे अनुसार यहाँ भी यावत्-'कथंचित् बहुत द्रव्य हैं, और बहुत द्रव्यदेश हैं'; यहाँ तक आठों ही भंग कहने चाहिए। विवेचन-पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक के विषय में अष्टविकल्पीय प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 23 से 28 तक) में पुद्गलास्तिकाय के एकप्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक के विषय में अष्टविकल्पात्मक प्रश्नोत्तर प्ररूपित हैं। किसमें कितने भंग ?..-प्रस्तुत सूत्रों में पुद्गलास्तिकाय के विषय में 8 भंग उपस्थित किये गए हैं, जिनमें द्रव्य और द्रव्यदेश के एकवचन और बहुवचन-सम्बन्धी असंयोगी चार भंग हैं और द्विकसंयोगी 4 भंग हैं / जब दूसरे द्रव्य के साथ उसका सम्बन्ध नहीं होता, तब वह द्रव्य (गुणपर्याययोगी) है और जब दूसरे द्रव्य के साथ उसका सम्बन्ध होता है, तब वह द्रव्यदेश (द्रव्याक्यव) है। पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश में प्रदेश एक ही है, इसलिए उस में बहुवचनसम्बन्धी दो भंग और द्विकसंयोगी चार भंग, ये 6 भंग नहीं पाए जाते / पुद्गलास्तिकाय के द्विप्रदेशिकस्कन्ध रूप से परिणत दो प्रदेशों में उपर्युक्त 8 भंगों में से पहले-पहले के पांच भंग पाए जाते हैं और पुद्गलास्तिकाय के त्रिप्रदेशिकस्कन्धरूप से परिणत तीन प्रदेशों में पहले-पहले के सात भंग पाए जाते हैं / चार प्रदेशों Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में आठों ही भंग पाए जाते हैं। चारप्रदेशी से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशी पुद्गलास्तिकाय तक में प्रत्येक में आठ-पाठ भंग पाए जाते हैं।' लोकाकाश के और प्रत्येक जीव के प्रदेश 26. केवतिया णं भंते ! लोयागासपएसा पण्णता ? गोयमा ! प्रसंखेज्जा लोयागासपएसा पण्णत्ता। [26 प्र] भगवन् ! लोकाकाश के प्रदेश कितने कहे गए हैं ? [26 उ.] गौतम ! लोकाकाश के असंख्येय प्रदेश कहे गए हैं / 30. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवपएसा पण्णत्ता? गोयमा ! जावतिया लोगागासपएसा एगमेगस्स गं जीवस्स एवतिया जीवपएसा पण्णता / [30 प्र] भगवन् ! एक-एक जीव के कितने-कितने जीवप्रदेश कहे गए हैं ? [30 उ.] गौतम ! लोकाकाश के जितने प्रदेश कहे गए हैं, उतने ही एक-एक जीव के जीवप्रदेश कहे गए हैं। विवेचन-लोकाकाश के प्रौर प्रत्येक जीव के प्रदेश---प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम (सू. 26) सूत्र में लोकाकाश के प्रदेशों का तथा द्वितीय (सू. 30) सूत्र में एक-एक जीव के प्रदेशों का निरूपण किया गया है। लोकाकाशप्रदेश और जीवप्रदेश को तुल्यता-लोक असंख्यातप्रदेशी है, इसलिए उसके प्रदेश असंख्याता हैं। जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं / जब जीव, केवलीसमुद्घात करता है, तब वह आत्मप्रदेशों से सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर देता है; अर्थात्-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीवप्रदेश अवस्थित हो जाता है। आठ कर्मप्रकृतियां, उनके अविभागपरिच्छेद और प्रावेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव 31. कति णं भंते ! कम्मपगडीमो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [31 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [31 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं / यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 32. [1] नेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीयो पण्णत्तानो ? गोयमा! अट्ठ। [32-1 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? [32-1 उ.] गौतम ! (उनके) आठ कर्मप्रकृतियां (कही गई है।) 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 421 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 21 Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-10] [413 [2] एवं सब्वजीवाणं अट्ठ कम्मपगडोश्रो ठावेयन्वानो जाव वेमाणियाणं / [32-2] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के आठ कर्मप्रकृतियों की प्ररूपणा करनी चाहिए। 33. नाणावरणिज्जस्स गं भंते ! कम्मरस केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णता ? गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। [33 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं ? [33 उ.] गौतम ! उसके अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं / 34. नेरइयाणं भंते ! गाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवतिया अविभागलिच्छेया पण्णता ? गोयमा ! प्रणंता अविभागपलिच्छेदा पणत्ता। [34 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के ज्ञानावरणीयकर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं? [34 उ.] गौतम ! उनके अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं। 35. एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अगंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता। [35 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं ? [35 उ.] गौतम ! अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहे गए हैं / 36. एवं जहा पाणावरणिज्जस्स प्रविभागपलिच्छेदा भणिया तहा प्र?ण्ह वि कम्मपगडोणं माणियव्वा जाव वेमाणियाणं अंतराइयस्स / [36] जिस प्रकार (सभी जीवों के) ज्ञानावरणीय कर्म के (अनन्त) अविभाग-परिच्छेद कहे हैं, उसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त सभी जीवों के यावत् अन्तराय कर्म तक पाठों कर्मप्रकतियों के [प्रत्येक के अनन्त-अनन्त) अविभाग-परिच्छेद कहने चाहिए। 37. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहि अविमागपलिच्छेदेहि यावेढियपरिवेदिए सिया ? गोयमा ! सिय प्रावेढियपरिवेढिए, सिय नो प्रावेढियपरिवेढिए। जइ प्रावेढियपरिवेढिए नियमा अणतेहि। [37 प्र. भगवन ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अवि. भाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है ? [37 उ.] हे गौतम ! वह कदाचित् आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, कदाचित् प्रावेष्टित. परिवेष्टित नहीं होता। यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है तो वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से होता है। Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 38. एगमेगस्स गंभंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहि अविभागपलिच्छेदेहि प्रावेढियपरिवेढिते ? / गोयमा! नियमा अणतेहिं / [38 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव का प्रत्येक जीवप्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है ? [38 उ.] गौतम ! वह नियमतः अनन्त अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है। 36. जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स / नवरं मणूसस्स जहा जोवस्म / [39] जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए; परन्तु विशेष इतना है कि मनुष्य का कथन (औधिक-सामान्य) जीव की तरह करना चाहिए। 40. एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिज्जस्स कम्मरस केवतिएहि ? एवं जहेब नाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो माणियन्वो जाव वेमाणियस्स। [40 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव-प्रदेश दर्शनावरणीयकर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है ? [40 उ.] गौतम ! जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में दण्डक कहा गया है, वैसे यहाँ भी उसी प्रकार वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 41. एवं जाव अंतराइयस्म भाणियब्वं, नवरं वेयणिज्जस्स आउयस्स नामस्स गोयस्स, एएसि चउण्ह वि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणियव्वं, सेसं तं चेव / [41] इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म-पर्यन्त कहना चाहिए / विशेष इतना ही है कि वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन चार कर्मों के विषय में जिस प्रकार नैरयिक जीवों के लिए कथन किया गया है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए / शेष सब वर्णन पूर्वोक्त कथनानुसार कहना चाहिए। विवेचन--पाठ कर्मप्रकृतियां, उनके अविभागपरिच्छेद और उनसे प्रावेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव-प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 31 से 41 तक) में क्रमश: पाठ कर्मप्रकृतियों, उनसे बद्ध समस्त संसारी जोव, तथा उनके अष्ट कर्मप्रकृतियों के अनन्त-अनन्त अविभागपरिच्छेद, तथा उन अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित समस्त संसारी जीव का निरूपण किया गया है। अविभाग-परिच्छेद की व्याख्या–परिच्छेद का अर्थ है-अंश और अविभाग का अर्थ हैजिसका विभाग न हो सके / अर्थात्-केवलज्ञानी की प्रज्ञा द्वारा भी जिसके विभाग–अंश न किये जा सकें, ऐसे सूक्ष्म (निरंश) अंश को अविभाग-परिच्छेद कहते हैं। दूसरे शब्दों में (कर्म-) दलिकों की अपेक्षा से परमाणुरूप निरंश अंश को अविभाग-परिच्छेद कहा जा सकता है / ज्ञानावरणीय कर्म के Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [415 अनन्त अविभाग-परिच्छेद कहने का अर्थ है-ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान के जितने अंशों ---भेदों को आवृत करता है, उतने ही उसके अविभाग-परिच्छेद होते हैं, और ज्ञानावरणीयकर्मदलिकों की अपेक्षा वे उसके कर्म परमाणुरूप अनन्त होते हैं। प्रत्येक संसारी जीव (मनुष्य के सिवाय) 8 कर्मों में से प्रत्येक कर्म के अनन्त-अनन्त परमाणुओं (अविभाग-परिच्छेदों) से युक्त होता है, तथा उनसे आवेष्टित-परिवेष्टित (अर्थात् गाढरूप से--चारों ओर से लिपटा हुग्रा-बद्ध) होता है। प्रावेष्टित-परिवेष्टित के विषय में विकल्प-ौधिक(सामान्य) जीव-सूत्र में कदाचित् ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग-परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित न होने की जो बात कही गई है, वह केवली की अपेक्षा से कही गई है; क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसी प्रकार केवलियों के दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म का भी क्षय हो चुका है, अत: इन घातीकर्मों द्वारा केवलज्ञानियों की आत्मा को ये कर्म आवेष्टित-परिवेष्टित नहीं करते / वेदनोय, आयु, नाम और गोत्र, ये चारों कर्म अघातिक हैं, अतः इनके विषय में मनुष्यपद में कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि ये चारों जैसे छद्मस्थों के होते हैं, वैसे केवलियों के भी होते हैं। सिद्ध भगवान में नहीं होते; इसलिए जीव-पद में इस विषयक भजना है, किन्तु मनुष्यपद में नहीं, क्योंकि केवली भी मनुष्यगति और मनुष्यायु का उदय होने से मनुष्य ही हैं।' आठ कर्मों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता 42, जस्त णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं, जस्स दंसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं? गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स दसणावरणिज्ज नियमा अस्थि, जस्स गं दरिसणावरणिज्जं तस्स वि नाणावरणिज्ज नियमा अस्थि / [42 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके क्या दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है ? [42 उ.] हाँ गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियमतः दर्शनावरणीय कर्म है और जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उनके नियमतः ज्ञानावरणीय कर्म भी है। 43. जस्स णं भंते ! गाणावरणिज्जं तस्स वेणिज्ज, जस्स वेणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं? गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि, जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स णाणावरणिज्जं सिय अस्थि, सिय नथि। [43 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके वेदनीय कर्म है, और जिस जीव के वेदनीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है ? [43 उ.] गौतम ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियमत: वेदनीय कर्म है; किन्तु जिस जीव के वेदनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 422 Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं, जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावर. णिज्ज? गोयमा ! जस्स नाणावरणिन्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि / [44 प्र] भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके मोहनीय कर्म है, और जिसके मोहनीय कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? [44 उ.] गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता; किन्तु जिसके मोहनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म नियमतः होता है / 45. [1] जस्स णं भंते ! गाणावरणिज्जं तस्स पाउयं० ? एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा पाउएण वि समं भाणियव्वं / [45-1 प्र.] भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है, और जिसके आयुष्य कर्म है, क्या उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? [45-1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार वेदनीय कर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) कहा गया, उसी प्रकार आयुष्यकर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) कहना चाहिए। [2] एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं / [45-2] इसी प्रकार नामकर्म और गोत्रकर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) भी कहना चाहिए। [3] अंतराइएण वि जहा दरिसणावरणिज्जेण समं तहेव नियमा परोप्परं भाणियब्वाणि 1 / [45-3] जिस प्रकार दर्शनावरणीय के साथ (ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में) कहा, उसी प्रकार अन्तराय कर्म के साथ (ज्ञानावरणीय के विषय में) भी नियमतः परस्पर सहभाव कहना चाहिए। 46. जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्ज, जस्त वेयणिज्जं तस्स दरिसणावरणिज्जं? जहा नाणावरणिज्ज उवरिमेहि सहि कम्मेहि समं भणियं तहा दरिसणावरणिज्जं पि उरिमेहि छहि कम्मे हि समं भाणियध्वं जाव अंतराइएणं 2 / [46 प्र] भगवन् ! जिसके दर्शनावरणीय कर्म है, क्या उसके वेदनीय कर्म होता है, और जिस जीव के वेदनीय कर्म है, क्या उसके दर्शनावरणीय कर्म होता है ? [46 उ.] गौतम ! जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का कथन ऊपर के सात कर्मों के साथ किया गया उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का भी ऊपर के छह कर्मों के साथ यावत् अन्तराय कर्म तक कथन करना चाहिए / Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [ 417 47. जस्त णं भंते ! वेयणिज्जं तस्म मोहणि जं, जस्प मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्ज ? __ गोयमा ! जस्त वेणिज्ज तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्ज तस्स वेणिज्ज नियमा अस्थि / [47 प्र.] भगवन ! जिस जोव के वेदनोयकर्म है, क्या उसके मोहनीयकर्म है, और जिस जीव के मोहनीयकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [47 उ.] गौतम ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके मोहनीयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता, किन्तु जिस जोव के मोहनीयकर्म है, उसके वेदनीयकर्म नियमत: होता है। 48. जस्स णं भंते ! वेणिज्ज तस्स पाउयं० ? एवं एयाणि परोप्परं नियमः। [48 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके आयुष्यकर्म है, और जिसके आयुष्य कर्म है क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [.48 उ.] गौतम ! ये दोनों कर्म नियमतः परस्पर साथ-साथ होते हैं / 46. जहा पाउएण समं एवं नामेण वि, गोएण वि समं भाणियव्वं / [46] जिस प्रकार प्रायुष्यकर्म के साथ (बेदनीय कर्म के विषय में) कहा, उसी प्रकार नाम और गोत्रकर्म के साथ भी (वेदनीयकर्म के विषय में) कहना चाहिए। 50. जस्त णं भंते ! बेणिज्जं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा। गोयमा! जस्स वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्यि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेणिज्जं नियमा अस्थि३। [50 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, क्या उसके अन्तरायकर्म है, और जिसके अन्तरायकर्म है, क्या उसके वेदनीयकर्म है ? [50 उ.] गौतम ! जिस जीव के वेदनीयकर्म है, उसके अन्तरायकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता, परन्तु जिसके अन्तरायकर्म होता है. उसके वेदनीयकर्म नियमत:होता है। 51. जस्स णं भंते ! मोहणिज्ज तस्स पाउयं, जस्स प्राउयं तस्स मोहणिज्जं? गोयमा ! जस्स मोहणिज्जं तस्स पाउयं नियमा अस्थि, जस्स पुण पाउयं तस्स पुण मोहणिज्जं सिय प्रत्यि सिय नस्थि / [51 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के मोहनीयकर्म होता है, क्या उसके आयुष्यकर्म होता है, और जिसके आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके मोहनीयकर्म होता है ? [51 उ.] गौतम ! जिस जीव के मोहनीयकर्म है, उसके आयुष्यकर्म अवश्य होता है, जिसके प्रायुण्यकर्म है, उसके मोहनोयकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता / Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 / [ व्याख्थाप्रज्ञप्तिसूत्र 52. एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियन्वं 4 / [52] इसी प्रकार नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म के विषय में भी कहना चाहिए। 53. जस्स णं भंते ! पाउयं तस्स नामं० ? पुच्छा। गोयमा ! दो वि परोप्परं नियमं / [53 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के आयुष्यकर्म होता है, क्या उसके नामकर्म होता है, और जिसके नामकर्म होता है, क्या उसके प्रायुष्यकर्म होता है ? [53 उ.] गौतम ! ये दोनों कर्म परस्पर नियमत: होते हैं। 54. एवं गोतेण वि समं भाणियन्वं / [54] (आयुष्यकर्म के विषय में) गोत्रकर्म के साथ भी इसी प्रकार कहना चाहिए / 55. जस्स णं भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं? पुच्छा। गोयमा ! जस्स प्राउयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नस्थि जस्स पुण अंतराइयं तस्स पाउयं नियमा 5 / [55] भगवन् ! जिस जीव के आयुष्य कर्म होता है, क्या उसके अन्त राय कर्म होता है, और जिसके अन्तरायकर्म है, उसके अायुष्यकर्म होता है ? [55 उ.] गौतम ! जिसके प्रायुष्यकर्म होता है, उसके अन्तरायकर्म कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता, किन्तु जिस जीव के अन्तरायकर्म होता है, उसके प्रायुध्यकर्म अवश्य होता है / 56. जस्स णं भंते! नामं तस्स गोयं, जस्स णं गोयं तस्स णं नामं? गोयमा ! जस्स णं णाम तस्स णं नियमा गोयं, जस्स णं गोयं तस्स णं नियमा नामगोयमा ! दो वि एए परोप्परं नियमा। __ [56 प्र] भगवन् ! जिस जीव के नामकर्म होता है, क्या उसके गोत्रकर्म होता है, और जिसके गोत्रकर्म होता है, उसके नामकर्म होता है ? 56 उ.] गौतम ! जिसके नामकर्म होता है, उसके गोत्रकर्म अवश्य होता है, और जिसके गोत्रकर्म होता है, उसके नामकर्म भी अवश्य होता है। ये दोनों कर्म सहभावी हैं। 57. जस्स णं भंते ! गामं तस्स अंतराइयं.? पुच्छा / गोयमा ! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नाम नियमा अस्थि 6 / 57 प्र.] भगवन् ! जिसके नामकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायकर्म होता है, और जिसके अन्तरायकर्म होता है, उसके नामकर्म होता है ? [57 उ.] गौतम ! जिस जीव के नामकर्म होता है, उसके अन्तराय कर्म होता भी है, नहीं भी होता किन्तु जिसके अन्तरायकर्म होता है, उसके नामकर्म नियमत: होता है / Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१० ] [ 419 58. जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा। गोयमा ! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमा अस्थि 7 / __ [58 प्र.) भगवन् ! जिसके गोत्रकर्म होता है, क्या उसके अन्तरायकर्म होता है, और जिस जीव के अन्तराय कर्म होता है, क्या उसके गोत्रकर्म होता है ? [58 उ.] गौतम ! जिसके गोत्रकर्म है, उसके अन्तरायकर्म होता भी है, और नहीं भी होता, किन्तु जिसके अन्तरायकर्म है, उसके गोत्रकर्म अवश्य होता है। विवेचन-कर्मों के परस्पर सहभाव को वक्तव्यता-प्रस्तुत 17 सूत्रों (सू. 42 से 58 तक) में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का अपने से उत्तरोत्तर कर्मों के साथ नियम से होने अथवा न होने का विचार किया गया है / नियमा' और 'भजना' का अर्थ-ये दोनों जैनागमीय पारिभाषिक शब्द हैं / नियमा का अर्थ है-नियम से, अवश्य, और भजना' का अर्थ है—विकल्प से, कदाचित होना, कदाचित न होना। प्रस्तुत प्रकरण में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की अपेक्षा से 8 कर्मों की नियमा और भजना समझना चाहिए। किसमें किन-किन कर्मों की नियमा और भजना-मनुष्य में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातीकर्मों की भजना है (क्योंकि केवली के ये चार घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं), जबकि वेदनीय, प्रायष्य, नाम और गोत्रकर्म की नियमा है। शेष 23 दण्डकों में आठ कर्मों की नियमा है / सिद्ध भगवान् में कर्म होते ही नहीं। इस प्रकार पाठ कर्मों की नियमा और भजना के कूल 28 भंग समुत्पन्न होते हैं। यथा--ज्ञानावरणीय से 7, दर्शनावरणीय से 6, वेदनीय से 5, मोहनीय से 4, आयुष्य से 3, नामकर्म से 2, और गोत्रकर्म से 1 / ' ज्ञानावरणीय से 7 भंग - (1) ज्ञानावरणीय में दर्शनावरणीय की नियमा और दर्शनावरणीय में ज्ञानावरणीय की नियमा, (2) ज्ञानावरणीय में वेदनीय की नियमा, किन्तु वेदनोय में ज्ञानावरणीय की भजना, (3) ज्ञातावरणीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में ज्ञानावरणीय की नियमा, (4) ज्ञानावरणीय में आयुष्यकर्म की नियमा, किन्तु आयुष्यकर्म में ज्ञानावरणीय को भजना, (5) ज्ञानावरणीय में नामकर्म को नियमा, किन्तु नामकर्म में ज्ञानावरणीय को भजना, (6) ज्ञानावरणीय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्त गोत्रकर्म में ज्ञानावरणीय की भजना तथा (7) ज्ञानावरणीय में अन्तरायकर्म की नियमा। दर्शनावरणीय से 6 भंग-(८) दर्शनावरणीय में वेदनीय की नियमा, किन्तु वेदनीय में दर्शनावरणीय की भजना, (6) दर्शनावरणीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में दर्शनावरणीय की नियमा, (10) दर्शनावरणीय में आयुष्यकर्म की नियमा, किन्तु आयष्यकर्म में दर्शनावरणीय की भजना, (11) दर्शनावरणीय में नामकर्म को नियमा किन्तु नामकर्म में दर्शनावरणीय में की भजना, (12) दर्शनावरणोय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्तु गोत्रकर्म में दर्शनावरणीय की भजना और (13) दर्शनावरणीय में अन्तरायकर्म की नियमा, तथैव अन्तरायकर्म में दर्शनावरणीय की नियमा। Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वेदनीय से 5 भंग—(१४) वेदनीय में मोहनीय की भजना, किन्तु मोहनीय में वेदनीय की नियमा, (15) वेदनीय में आयुष्य की नियमा, तथैव प्रायुध्य कर्म में वेदनीय को नियमा, (16) वेदनीय में नामकर्म की नियमा, तथैव नामकर्म में वेदनीय की नियम, (17) वेदनीय में गोत्रकर्म की नियमा, तथैव गोत्रकर्म में वेदनीय की नियमा, (18) वेदनीय में अन्तरायकम की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में वेदनीय की नियमा। मोहनीय से 4 भंग--(१९) मोहनीय में आयुष्य की नियमा, किन्तु आयुष्यकर्म में मोहनीय की भजना, (20) मोहनीय में नामकर्म को नियमा, किन्तु नामकर्म में मोहनीय की भजना, (21) मोहनीय में गोत्रकर्म की नियमा, किन्तु गोत्रकर्म में मोहनीय की भजना, (22) मोहनीय में अन्तरायकर्म को नियमा, किन्तु अन्तराय कर्म में मोहनीय की भजना। प्रायुष्यकर्म से 3 भंग--(२३) आयुष्यकर्म में नामकर्म की नियमा, तथैव नामकर्म में आयुष्यकर्म को नियमा, (24) आयुष्यकर्म में गोत्रकर्म की नियमा तथैव गोत्रकर्म में आयुष्यकर्म की नियमा, (25) आयुष्यकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में आयुष्यकर्म की नियमा / नामकर्म से दो भंग--(२६) नामकर्म में गोत्रकर्म की नियमा तथैव गोत्रकर्म में नामकर्म की नियमा, (27) नामकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तराय कर्म में नामकर्म की भजना / गोत्रकर्म से एक भंग-(२८) गोत्रकर्म में अन्तरायकर्म की भजना, किन्तु अन्तरायकर्म में गोत्रकर्म की नियमा। इस प्रकार पाठ कर्मों के नियमा और भजना से परस्पर सहभाव की घटना कर लेनी चाहिए।' संसारी और सिद्ध जीव के पुद्गली और पुद्गल होने का विचार 56. [1] जीवे णं भंते ! कि पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि। [56-1 प्र.] भगवन् ! जीव पुद्गली है अथवा पुद्गल है। [56-1 उ] गौतम ! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी। [2] से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले बि' ? गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडो, करेणं करी एवामेव-- गोयमा ! जीवे वि सोइंदिय-चक्खि दिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फालिदियाई पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले, से तेणठेशं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जीवे पोग्गली वि पोग्गले वि'। [59-2 प्र] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जोब पुद्गली भी है और पुद्गल भी है ? [59-2 उ.] गौतम ! जैसे किसी पुरुष के पास छत्र हो उसे छत्री, दण्ट हो उसे दण्डी, 1. भगवती सुत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 424 - - -- ---- Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम शतक : उद्देशक- 10 [421 घट होने से घटी, पट होने से पटो, एवं कर होने से करी कहा जाता है, इसी तरह, हे गौतम ! जीव श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-जिह्वन्द्रिय-स्पर्श न्द्रिय-( स्वरूप पुद्गल वाला होने से ) की अपेक्षा से 'पुद्गली' कहलाता है, तथा स्वयं जीव की अपेक्षा 'पुद्गल' कहलाता है। इस कारण से हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि जोब पुद्गली भी है और पुद्गल भी है। 60 [1] नेर इए णं भंते ! कि पोग्गली. ? एवं चेव / [60.1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव पुद्गली है, अथवा पुद्गल है ? [60-1 उ.] गौतम ! उपर्युक्त सूत्रानुसार यहाँ भी कथन करना चाहिए। [2] एवं जाव वेमागिए / नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तइ वि माणियन्वाई। [60.2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए, किन्तु साथ ही, जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी इन्द्रियां कहनी चाहिए। 61, [1] सिद्धे णं भंते ! कि पोग्गली, पोग्गले ? गोयमा ! नो पोग्गली, पोग्गले / |61-1 प्र.] भगवन् ! सिद्धजीव पुद्गली हैं या पुद्गल हैं ? [61-1 उ.] गौतम ! सिद्धजीव पुद्गली नहीं किन्तु पुद्गल हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चइ जाव पोग्गले ? गोयमा ! जीवं पडुच्च, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिद्धे नो पोग्गलो, पोग्गले' / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / अनुमसए : दसमो उद्देसमो समत्तो।। / समत्तं प्रढम सयं // [61-2 प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं, कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं ? [62-2 उ.! गौतम ! जीव की अपेक्षा सिद्धजीव पुद्गल हैं; (किन्तु उनके इन्द्रियां न होने से वे पुद्गली नहीं हैं ; ) इस कारण से मैं कहता हूँ कि सिद्धजीव पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन—संसारी एवं सिद्ध जीव के पुदगली तथा पुदगल होने का विचार–प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रमश: जीव, चतुर्विंशति दण्डकवर्ती जीव एवं सिद्ध भगवान् के पुद्गली या पुदगल होने के सम्बन्ध में सापेक्ष विचार किया गया है / Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पुद्गली एवं पुदगल की व्याख्या--प्रस्तुत प्रकरण में 'पुद्गली' उसे कहते हैं, जिसके श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय अादि पुद्गल हों / जैसे-घट, पट, दण्ड, छत्र आदि के संयोग से पुरुष को घटी, पटी, दण्डी एवं छत्री कहा जाता है, वैसे ही इन्द्रियोंरूपी पुद्गलों के संयोग से औधिक जीव तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को 'पुद्गली' कहा गया है। सिद्ध जीवों के इन्द्रियरूपी पुद्गल नहीं होते, इसलिए वे 'पुद्गली' नहीं कहलाते / जीव को यहाँ जो 'पुद्गल' कहा गया है, वह जीव की संज्ञा मात्र है। यहाँ 'पुद्गल' शब्द से 'रूपी अजीव द्रव्य' ऐसा अर्थ नहीं समझना चाहिए। वृत्तिकार ने जीव के लिए 'पुद्गल' शब्द को संज्ञावाची बताया है।' // अष्टम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / // अष्टम शता 1. भगवती सूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 424 Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं सयं : नवम शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का यह नौवां शतक है। * इसमें जम्बूद्वीप, चन्द्रमा आदि, अन्त:पज असोच्चा केवली, गांगेय-प्रश्नोत्तर, ऋषभदत्त देवानन्दाप्रकरण, जमालि अनगार, एवं पुरुषहन्ता आदि से सम्बद्ध प्रश्नोत्तर आदि विषयों के प्रतिपादक चौंतीस उद्देशक हैं। * प्रथम उद्देशक में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र का अतिदेश करके जम्बुद्वीप का स्वरूप, उसका प्राकार, लम्बाई-चौडाई, उसमें स्थित भरत-ऐरावत. हैमवत-रण्यवत. हरिवर्ष-रम्यकवर्ष एवं महा विदेहक्षेत्र तथा इनमें बहने वाली हजारों छोटी-बड़ी नदियों का संक्षेप में उल्लेख किया गया है / * द्वितीय उद्देशक में जम्बूद्वीप में स्थित विविध द्वीप-समुद्रों तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि का जीवा भिगमसूत्र के अनुसार संक्षिप्त वर्णन किया गया है। * तृतीय से तीसवें उद्देशक तक में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मेरुगिरि के दक्षिण में स्थित ‘एकोरुक' अन्तद्वीप का स्वरूप, लम्बाई-चौड़ाई, परिधि का वर्णन है, तथा इसी क्रम से शेष 27 अन्तर्वीपों के नाम, स्वरूप, अवस्थिति, लम्बाई-चौड़ाई एवं परिधि आदि के वर्णन के लिए जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश किया गया है / एकोरुक से लेकर शुद्धदन्त तक इन 28 अन्तीपों के प्रत्येक के नाम से एक-एक उद्देशक है / उसमें रहने वाले मनुष्यों का वर्णन है। * इकतीसवें उद्देशक में केवली आदि दशविध साधकों से सुने बिना (असोच्चा) ही धर्मश्रवण, बोधिलाभ, अनगारधर्म में प्रव्रज्या, शुद्ध ब्रह्मचर्यवास, शुद्ध संयम, शुद्ध संवर, पंचविध ज्ञान की प्राप्ति-अप्राप्ति, तदनन्तर असोच्चाकेवली द्वारा उपदेश, प्रव्रज्या-प्रदान, अवस्थिति, निवास, संख्या, योग, उपयोग आदि का वर्णन है / अन्त में, सोच्चा केवली के विषय में भी इसी प्रकार के तथ्य बतलाए गए हैं। * बत्तीसवें उद्देशक में पार्श्वनाथ-संतानीय गांगेय अनगार के द्वारा भगवान से चौबीसदण्डकवर्ती जीवों के सान्तर-निरन्तर उत्पाद, उद्वर्तन, तथा प्रवेशनकों के विविधसंयोगी भंगों का विस्तृत रूप से वर्णन है / तत्पश्चात्, इन्हीं जीवों के सत् से, सत् में तथा सत् में से उत्पाद तथा उद्वर्त्तन का, तथा स्वयं उत्पन्न होने का वर्णन है / अन्त में, गांगेय अनगार को भगवान् महावीर की सर्वज्ञता और सर्वदशिता पर पूर्णश्रद्धा और विनयभक्तिपूर्वक अपने पूर्वस्वीकृत चातुर्यामधर्म के बदले पंचमहाव्रतयुक्त धर्म स्वीकार करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाने का वर्णन है / * तेतीसवें उद्देशक के दो विभाग हैं, इसके पूर्वार्द्ध में ब्राह्मणकुण्ड निवासी ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी का वर्णन है / सर्वप्रथम ऋषभदत्त ब्राह्मण के गुणों का परिचय दिया गया है / Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ] [ भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तदनन्तर देवानन्दा के भी गुणों का संक्षिप्त वर्णन है। तत्पश्चात् ऋषभदत्त ने ब्राह्मणकुण्ड में भगवान् महावीर के पदार्पण की बात सुनकर उनका वन्दन ---नमन, पर्युपासना एवं प्रवचनश्रवण करने का विचार किया / सेवकों से रथ तैयार करवा कर पति-पत्नी दोनों पृथक-पृथक् रथ में बैठ कर भगवान् की सेवा में पहँचे / भगवान् को देख कर देवानन्दा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धारा बहने लगी आदि घटना से गौतम स्वामी के मन में उठे हुए प्रश्न का समाधान भगवान् ने कर दिया कि "देवानन्दा मेरी माता है / " तत्पश्चात् ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी के भगवान से प्रव्रज्या लेने, शास्त्राध्ययन एवं तपश्चर्या करने तथा अन्त में दोनों के मोक्ष प्राप्त करने का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् उत्तरार्द्ध में जमालि के चरित का वर्णन है / क्षत्रियकुण्ड निवासी क्षत्रियकुमार जमालि की शरीरसम्पदा, वैभव, सुखभोग के साधनों से परितृप्ति आदि के वर्णन के पश्चात् एक दिन भगवान् महावीर का पदार्पण सुन कर उनके दर्शन-वन्दनादि के लिए प्रस्थान का, प्रवचनश्रवण के अनन्तर संसार से विरक्ति का, फिर माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा प्रदान करने के अनुरोध का एवं माता-पिता के साथ विरक्त जमाली के लम्बे पालाप-संलाप का, फिर अनुमति प्राप्त होने पर प्रव्रज्याग्रहण का विस्तृत वर्णन है। तत्पश्चात् भगवान् की बिना प्राज्ञा के जमालि के पृथक विहार, शरीर में महारोग उत्पन्न होने का, शय्यासंस्तारक बिछाने के निमित्त से स्फूरित सिद्धान्तविरुद्ध प्ररूपणा का, सर्वज्ञता का मिथ्या दावा, गौतम के दो प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ जमालि की विराधना का एवं किल्विषिक देवों में उत्पत्ति का सविस्तार वर्णन है / दोनों के निवास के पीछे 'कुण्डग्राम' नाम होने से इस उद्देशक का नाम कुण्डग्राम दिया गया है। * चौंतीसवें उद्देशक में पुरुष के द्वारा अश्वादि घात सम्बन्धी, तथा घातक को वैरस्पर्श सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है / इसके पश्चात् एकेन्द्रिय जीवों के परस्पर श्वासोच्छ्वास सम्बन्धी क्रिया सम्बन्धी तथा वायुकाय को वृक्षमूलादि कंपाने-गिराने की क्रिया सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है / * कुल मिलाकर प्रस्तुत शतक में भगवान के अनेकान्तात्मक अनेक सिद्धान्तों का सुन्दर ढंग से निरूपण किया गया है। Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं सयं : नवम शतक नौवें शतक को संग्रहणी गाथा----- 1. जंबुद्दीवे 1 जोइस 2 अंतरदीवा 30 असोच्च 31 गंगेय 32 / कुंअग्गामे 33 पुरिसे 34 नवमम्मि सय म्मि चोतीसा // 1 // [1. गाथार्थ-] 1. जम्बूद्वीप, 2. ज्योतिष, 3 से 30 तक (अट्ठाईस) अन्तर्वीप, 31. अश्रुत्वा (- केवली इत्यादि), 32. गांगेय (अनगार), 33. (ब्राह्मण-) कुण्डग्राम और 34. पुरुष (पुरुषहन्ता इत्यादि)। (इस प्रकार) नौवें शतक में चौंतीस उद्देशक हैं। विवेचन-जम्बूद्वीप-जिसमें जम्बूद्वीप-विषयक वक्तव्यता है / अन्तरदीवा-तीसरे उद्देशक से लेकर तीसवें उद्देशक तक, अट्ठाईस उद्देशकों में 28 अन्तीपों के मनुष्यों का वर्णन एक साथ ही किया गया है / अश्रुत्वा-इस उद्देशक में बिना ही धर्म सुने हुए एवं सुने हुए केवली तथा उनसे सम्बन्धित साधकों का निरूपण है। पुरुष--इस चौंतीसवें उद्देशक में पुरुष को मारने वाले इत्यादि के विषय में वक्तव्यता है।' पढमो उद्देसओ : जंबुद्दीवे प्रथम उद्देशक : जम्बूद्वीप मिथिला में भगवान् का पदार्पण : अतिदेशपूर्वक जम्बूद्वीपनिरूपण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला नाम नगरी होत्था / वणो। माणिभद्दे चेइए / वष्णयो / सामी समोसढे। परिसा निग्गया। धम्मो कहियो। जाव भगवं गोयमे पज्जुवासमाणे एवं वयासी-- [2. उपोद्घात] उस काल और उस समय में मिथिला नाम की नगरी थी। (उसका) वर्णन (यहाँ समझ लेना चाहिए)। वहाँ माणिभद्र नाम का चैत्य था / उसका भी वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए / स्वामी (श्रमण भगवान् महावीर) का समवसरण हुप्रा / (उनके दर्शन-वन्दन आदि करने के लिए) परिषद् निकली। (भगवान् ने) धर्म कहा-धर्मोपदेश दिया, यावत् भगवान् गौतम ने पर्युपासना करते हुए (भगवान् महावीर से) इस प्रकार पूछा-- 1. भगवतीसूत्र वृत्ति, पत्र 435 Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. कहि णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे ? किसंठिए णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे ? एवं जंबुद्दीवपण्णत्तो' भाणिय व्या जाव एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दोवे चोद्दस सलिलासयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवंतीति मक्खाया। सेवं भंते ! सेवं भंते ति। / / नवम सए : पढ़मो उद्देसमो समत्तो।। [3 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप कहाँ है ? (उसका) संस्थान (आकार) किस प्रकार का है ? [3 उ.] गौतम ! इस विषय में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में कहे अनुसार यावत्-इसी तरह जम्बूद्वीप नामक द्वीप में पूर्वसहित अपर (समुद्रगामी) चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ हैं, ऐसा कहा गया है; (यहाँ तक) कहना चाहिए। विवेचन--सपुव्वावरेणं व्याख्या--पूर्वसमुद्र और अपर (पश्चिम) समुद्र की ओर जा कर उनमें गिरने वाली नदियाँ / / चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार इस प्रकार हैं--- 1. भरत और ऐरवत में गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तवती, इन चार नदियों की प्रत्येक की चौदह-चौदह हजार सहायक नदियाँ हैं / 2. हेमवत और ऐरण्यवत में-रोहित, रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकला इन चारों की, प्रत्येक की अट्ठाईस अट्ठाईस हजार नदियाँ हैं / ___3. हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में-हरि, हरिकान्ता, नरकान्ता, नारीकान्ता, इन चारों को, प्रत्येक की छप्पन छप्पन हजार नदियाँ हैं। 4. महाविदेह में--शीता और शीतोदा की प्रत्येक की 5 लाख 32 हजार नदियाँ हैं / ये कुल मिला कर 1456000 नदियाँ होती हैं / जम्बूद्वीप का आकार-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार---जम्बूद्वीप सब द्वीपों के मध्य में सबसे छोटा द्वीप है / इसकी आकृति तेल का मालपूया, रथचक्र, पुष्करणिका, तथा पूर्ण चन्द्र की-सी गोल है / यह एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है।' नवम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. पाठान्तर --- 'जहा जंबुद्दोषपन्नत्तीए तहा यवं जोइसविहूणं / जाव-"खंडा जोयण वासा पध्वय कूडा य तित्थ सेढीओ। विजय इह सलिलाओ य पिंडए होति संगहणी // " --भगवती. अ. वृत्ति में इसकी व्याख्या भी मिलती है ।--सं. 2. भगवतो. वृत्ति, पत्र 425. 3. वही, पत्र 425 4. 'अयं णं जंबुद्दीवे दीवे "वट्ट तेल्लपूयसंठाणसंठिए, बट्ट रहबक्कबालसंठाणसं ठिए, बट्ट पुक्खरकन्निया संठाणसंठिए वट्ट पडिपुग्नचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते / " -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प. 15.1-308 / Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : जोइस द्वितीय उद्देशक : ज्योतिष 1. रायगिहे जाव एवं क्यासी [1) राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-- जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों में चन्द्र प्रादि की संख्या 2. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे केवइया चंदा पभासिसु वा पभासेंति या पभासिस्संति वा ? एवं जहा' जीवाभिगमे जाव—'नव य सया पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं' / सोभं सोभिसु सोभिति सोभिस्संति। 2 प्र. भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे? [2 उ. गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा है, उसी प्रकार जानना चाहिए, यावत् --एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोडाकोड़ी तारों के समूह शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे'; यहाँ तक जानना चाहिए / ___3. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिसु वा पभासिति का पभासिस्संति वा ? एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ। [3 प्र. भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे? [3 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र में कहा है, उसी प्रकार तारों के वर्णन तक जानना चाहिए। 4. धायइसंडे कालोदे पुक्खरवरे अभितरपुक्खरद्ध मणुस्सखेते, एएसु सम्वेसु जहा' जोवाभिगमे जाव'एग ससीपरिवारो तारागणकोडिकोडोणं / ' --- 1. जीवाभिगम-मूलपाठ-—जाव--एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई --जीवाभिगम सू. 153, पत्र 303 2. देखिये-जीवाभिगमसूत्र पत्र 303, मू. 155 में / पंचम प्रश्न के उत्तर में—संखेज्जा चंदा पभासिसु बा पभासंति वा पभासिस्संति वा इत्यादि। जीवाभिग 3. देखिये-जीवाभिगम में—सु.१७५-१७७ पत्र 327-35 / Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4] धातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्करवरद्वीप आभ्यन्तर पुरकरार्द्ध और मनुष्यक्षेत्र; इन सब में जीवाभिगमसूत्र के अनुसार, यावत्- "एक चन्द्र का परिवार कोटाकोटी तारागण (सहित) होता है" (यहाँ तक जानना चाहिए)। 5. पुक्खरद्धगं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ? एवं सब्वेसु दीव-समुद्देसु जोतिसियाणं भाणियन्वं जाव सयंभूरमणे जाव सोभं सोभिसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ति। // नवम सए : बीमो उद्देसओ समत्तो // 9-2 // [5 प्र.] भगवन् ! पुष्करार्द्ध समुद्र में कितने चन्द्रों ने प्रकाश किया, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे? 5 उ.] (जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में) समस्त द्वीपों और समुद्रों में ज्योतिष्क देवों का जो वर्णन किया गया है, उसी प्रकार, यावत्-स्वयम्भूरमण समुद्र में यावत् शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे; (वहाँ तक कहना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है; (यों कह कर यावत् भगवान् गौतम विचरते हैं / ) विवेचन-जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश-प्रस्तुत द्वितीय उद्देशक में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पूष्करवरद्वीप आदि सभी द्वीप-समूद्रों में मुख्यतया चन्द्रमा की संख्या के विषय में तथा गौणरूप से सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं की संख्या के विषय में प्रश्न किये हैं। उनके उत्तर में जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक का अतिदेश किया गया है। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार--मुख्यतया चन्द्रमा की संख्या- जम्बूद्वीप में 2, लवणसमुद्र में 4, धातकीखण्डद्वीप में 12, कालोदसमुद्र में 42, पुष्करवरद्वीप में 144, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में 72 तथा मनुष्यक्षेत्र में 132, एवं पुष्करोदसमुद्र में संख्यात हैं। इसके अनन्तर मनुष्यक्षेत्र के बाहर के वरुणवरद्वीप एवं वरुणोदसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में यथासम्भव संख्यात एवं असंख्यात चन्द्रमा हैं। इसी प्रकार इन सब में सूर्य, नक्षत्र, ग्रह तथा ताराओं की संख्या भी जीवाभिगम सूत्र से जान लेनी चाहिए / इतना विशेष है कि मनुष्यक्षेत्र में जो भी चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्क देव हैं, वे सब चर हैं, जब कि मनुष्यक्षेत्र के बाहर के सब अचर (स्थिर) हैं / ' कुछ कठिन शब्दों के अर्थ-पभासिसु प्रकाश किया / सोभंसोभिसु = शोभा की या सुशोभित हुए। 1. जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, वृत्ति, सू. 153, 155. 175-77, पत्र 300, 303, 327-335 2. (क) भगवती. खण्ड 3, (भगवानदास दोशी) प्र. 126 (ख) भगवती. वृत्ति, पत्र 427 Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-२ ] [ 429 नव य सया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का आशय-सू. 2 में 'जाव' शब्द से आगे और 'नव, शब्द से पूर्व' एगं च सयसहस्सं तेतीसं खलु भवे सहस्साई यह पाठ होना चाहिए, तभी यह अर्थ संगत हो सकता है कि 'एक लाख' तेतीस हजार नौ सौ पचास कोटाकोटि तारागण.....। सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि ज्योतिष्कों का अतिदेश-~-पाँचवें सूत्र में पुष्कराद्ध द्वीप में चन्द्र-संख्या के प्रश्न के उत्तर में अतिदेश किया गया है कि इस प्रकार सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्रमा ही नहीं, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह एवं ताराओं (समस्त ज्योतिष्कदेवों) की संख्या जीवाभिगमसूत्र से जान लेनी चाहिए / // नवम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) जीवाभिगमसूत्र 153, पत्र 300 (ख) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 427 2. (क) जीवाभिगमसूत्र सु. 175-77 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 42 Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तईआइया तीसंता उद्देसा : अंतरदीवा तृतीय से तीसवें उद्देशक तक : अन्तीप उपोद्घात 1. राहगिहे जाव एवं वयासी [1. उपोद्घात] राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछाएकोरुक आदि अट्ठाईस अन्तपिक मनुष्य 2. कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोख्यमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पन्नते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं एवं जहा जीवाभिगमे' जाव सुद्धदंतदीवे जाव देवलोगपरिग्गहा गं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो ! / [2 प्र.] भगवन् ! दक्षिण दिशा का 'एकोरुक' मनुष्यों या ‘एकोरुकद्वीप' नामक द्वीप कहाँ बताया गया है ? 2 उ. गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में [चुल्ल हिमवन्त नामक वर्षधर पर्वत के पूर्व दिशागत चरमान्त (किनारे) से उत्तर-पूर्वदिशा (ईशानकोण) में तीन सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर वहाँ दक्षिणदिशा के "एकोरक' मनुष्यों का 'एकोरुक' नामक द्वीप है। हे गौतम ! उस द्वीप की लम्बाई-चौड़ाई तीन सौ योजन है और उसकी परिधि (परिक्षेप) नौ सौ उनचास योजन से कुछ कम है / बह द्वीप एक पावरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से वेष्टित (घिरा हा) है / इन दोनों (पद्मवरवेदिका और वनखण्ड) का प्रमाण और वर्णन जीवाभिगनसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के प्रथम उद्देशक के अनुसार इसी क्रम से यावत् शुद्धदन्तद्वीप तक का वर्णन(जान लेना चाहिए / ) यावत्-हे आयुष्यमन् श्रमण ! इन द्वीपों के मनुष्य देवगलिगामी कहे गए हैं-यहाँ तक का वर्णन जान लेना चाहिए / 3. एवं अट्ठावीसं पि अंतरदीवा सएणं सएणं आयाम-विक्खंभेणं भाणियव्वा, नवरं दीवे दीवे उद्देसओ / एवं सब्वे वि अट्ठावीसं उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। नवम सए : तइयाइआ तीसंता उद्देसा समत्ता // 9. 3-30 // 1. देखिये --जीवाभिगम सूत्र सू. 109-12, पत्र 144-156 (भागमो०) __ "अधिक पाठ—दाहिणणं चुल्लाहमवंतस्स वासहरपन्बयस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहस्स उत्तरपुरस्थिमेणं दिसिमागेणं तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणस्साणं एगोरुपदीवे नाम दीवे पण्णत्त, 'तं गोयमा !' तिनि जोयणसयाई आयामविक्खं भेणं, णव एक्कूणवन्ने जोयणसए किचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पनत्त / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य बणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित, दोण्ह दि पमाणं वन्नो य, एवं एएणं कमेणं ... / " भगवती. अ. वत्ति पत्र 428 Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३-३०] [ 431 [3] इस प्रकार अपनी-अपनी लम्बाई-चौड़ाई के अनुसार इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों का वर्णन कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ एक-एक द्वीप के नाम से एक-एक उद्देशक कहना चाहिए / इस प्रकार ये सब मिल कर इन अट्ठाईस अन्तर्वीपों के अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। _हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर भगवान् गौतम यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--अन्तर्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य---ये द्वीप लवणसमुद्र के अन्दर होने से 'अन्तर्वीप' कहलाते हैं। इनके रहने वाले मनुष्य अन्तीपक कहलाते हैं। यों तो उत्तरवर्ती और दक्षिणवर्ती समस्त अन्तर्दीप छप्पन होते हैं, परन्तु 'दाहिणिल्लाण' कह कर दक्षिणदिशावर्ती अन्तीपों के सम्बन्ध में ही प्रश्न है और वे 28 हैं। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं१. एकोरुक, 2. प्राभासिक, 3. लांगलिक, 4. वैषाणिक, 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण 7. गोकर्ण, 8. शष्कुलीकर्ण, 6. आदर्शमुख, 10. मेण्ढमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख, 13. अश्वमुख, 14. हस्तिमुख, 15. सिंहमुख, 16. व्याघ्रमुख, 17. अश्वकर्ण, 18. सिंहकर्ण, 16. अकर्ण, 20. कर्णप्रावरण, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युन्मुख, 24. विद्युद्दन्त, 25. घनदन्त, 26. लष्ट दन्त, 27, गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त द्वीप। इन्हीं अन्तर्वीपों के नाम पर इनके रहने वाले मनुष्य भी इसी नाम वाले कहलाते हैं तथा एकोरुक आदि 28 अन्तर्वीपों में से प्रत्येक अन्तर्वीप के नाम से एक-एक उद्देशक है।' जीवाभिगमसूत्र का अतिदेश-'जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण में' इतना मूल में कह कर मागे जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश किया गया है, कई प्रतियों में--"चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स . ...."सव्वनो समंता संपरिक्खिते; दोण्ह वि पमाणं वण्णयो य, एवं एएणं कमेणं;" इत्यादि जो पाठ मिलता है, वह भगवतीसूत्र का मूलपाठ नहीं है, जीवाभिगमसूत्र का है। इसी कारण हमने कोष्ठक में उसका अर्थ दे दिया है। यहाँ इतना ही मूलपाठ स्वीकृत किया है-"एवं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे ... / " जीवाभिगम के पाठ में वेदिका, वनखण्ड, कल्पवृक्ष, मनुष्य-मनुष्यणी का वर्णन किया गया है। __ अन्तर्वीपक मनुष्यों का आहार-विहार आदि-अन्तर्वीपक मनुष्यों में आहारसंज्ञा एक दिन के अन्तर से उत्पन्न होती है / वे पृथ्वीरस, पुष्प और फल का आहार करते हैं। वहाँ की पृथ्वी का स्वाद खांड जैसा होता है। वृक्ष ही उनके घर होते हैं। वहाँ ईट-चने आदि के मकान नहीं होते / उन मनुष्यों की स्थिति पल्योपम के असंख्यावे भाग होती है। छह मास आयुष्य शेष रहने पर वे एक साथ पुत्र-पुत्रीयुगल को जन्म देते हैं / 81 दिन तक उनका पालन-पोषण करते हैं। तत्पश्चात् मर कर वे 1. (क) भगवती. (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1577 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 428 (ग) पण्णवणासुत्त पद 1, भा. 1, (महावीर विद्यालय) मू. 95, पृ. 55 2. (क) विहायपणत्तिसुक्तं, मूलपाठ टिप्पण (म. वि.) भा. 1, पृ. 408 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 428 Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवगति में उत्पन्न होते हैं। इसीलिए कहा गया है - 'देवलोकपरिग्गहा' अर्थात् वे देवगतिगामी होते हैं।' वे अन्तर्वीप कहाँ ? ---जीवाभिगमसूत्र के अनुसार-जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र और हैमवत की सीमा बाँधने वाला चुल्ल हिमवान पर्वत है / वह पर्वत पूर्व और पश्चिम में लवणसमुद्र को स्पर्श करता है / इसी पर्वत के पूर्वी और पश्चिमी किनारे से लवणसमुद्र में, चारों विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में तीन-तीन सौ योजन आगे जाने पर एकोरुक आदि एक-एक करके चार अन्तींप आते हैं / ये द्वीप गोल हैं / इनकी लम्बाई-चौड़ाई तीन-तीन सौ योजन की है, तथा प्रत्येक की परिधि 946 योजन से कुछ कम है। इन द्वीपों से आगे 400-400 योजन लवणसमुद्र में जाने पर चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े हयकर्ण प्रादि पाँचवाँ, छठा, सातवाँ और आठवाँ, ये चार द्वीप पाते हैं / ये भी गोल हैं। इनकी परिधि 1265 योजन से कुछ कम है। इसी प्रकार इन से आगे क्रमश: पांच सौ, छह सौ, सात सौ, पाठ सौ एवं नौ सौ योजन जाने पर क्रमश: 4-4 द्वीप पाते हैं, जिनके नाम पहले बता चुके हैं। इन चार-चार अन्तर्वीपों की लम्बाईचौड़ाई भी क्रमश: पांच सौ से लेकर नौ सौ योजन तक जाननी चाहिए। ये सभी गोल हैं। इनकी परिधि तीन गुनी से कुछ अधिक है / इसी प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में ये 28 अन्तर्वीप हैं / छप्पन अन्तर्वीप-जिस प्रकार चुल्ल हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में 28 अन्तर्वीप कहे गए हैं, इसी प्रकार शिखरी पर्वत की चारों विदिशाओं में भी 28 अन्तर्वीप हैं, जिनका वर्णन इसी शास्त्र के 10 वे शतक के 7 वें से लेकर 34 वें उद्देशक तक 28 उद्देशकों में किया गया है / उन अन्तर्दीपों के नाम भी इन्हीं के समान हैं / कठिन शब्दों के अर्थ-दाहिणिल्लाणं = दक्षिण दिशा के / चरिमंताओ= अन्तिम किनारे से / उत्तर-पुरथिमेणं = ईशानकोण = उत्तरपूर्व दिशा से / ओगोहित्ता = अवगाहन करने (आगे जाने) पर / एगूणवण्णे = उनचास / किचिक्सेिसूणे = कुछ कम / परिक्खेवेणं = परिधि (घेरे) से युक्त। सव्वओ समंता = चारों ओर / संपरिक्खित्ते परिवेष्टित, घिरा हुा / सएणं = अपने / // नवम शतक : तीसरे से तीसवें उद्देशक तक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 429 (ख) विहायपणत्तिमुत्तं भा. 1, पृ. 408 2. (क) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उ. 1, पृ. 144 से 156 तक / (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 429 / 3. भगवती. शतक 10, उ. 7 से 34 तक मूलपाठ / 4. (क) भगवती. (पं, घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1577 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 429 Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगत्तीसइमो उद्देसओ : 'असोच्चा केवली' इकतीसवाँ उद्देशक : अश्रुत्वा केवली उपोद्घात 1. रायगिहे जाव एवं क्यासी {1 उपोद्घात- राजगृह नगर में यावत् (गौतमस्वामी ने भगवान् महावीरस्वामी से) इम प्रकार पूछाकेवली यावत् केवली पाक्षिक उपासिका से धर्मश्रवणलाभालाभ 2. [1] असोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा केवलिसावगस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाए वा तप्पविखयरस वा तप्पक्खियसावगरस वा तपक्खिय तपस्वियसावगस्स वा तप्यक्खियसावियाए वा तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपणतं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा अत्थेगइए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपगणतं धम्म नो लभेज्जा सनणयाए / 2-1 प्र. भगवन् ! के वली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवलो के उपासक, केवली की उपासिका, केवल-पाक्षिक (स्वयम्बुद्ध), केवलि-पाक्षिक के श्रावक, केवलि-पाक्षिक की श्राविका, केवलि-पाक्षिक के उपासक, केबलि-पाक्षिक की उपासिका, (इनमें से किसी) से विना सुने ही किमी जीव को केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ होता है ? [2-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका (इन दस) से सूने विना ही किमी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ होता है और किसी जीव को नहीं भी होता / [2] से केणठेणं भंते ! एवं कुच्चइ-असोच्चा णं जाव नो लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कड़े भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-तं चेव जाव नो लभेज्ज सवणयाए। [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका (इन दस) से सुने बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ होता है और किसी को नहीं भी होता ? Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 2-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, उसको केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका (इन) में से किसी से सुने बिना ही केवलि-प्ररूपित धर्म लाभ होता है और जिस जीब ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया हना है, उसे केवली यावत केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सूने विना केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ नहीं होता। हे गौतम ! इसी कारण ऐसा कहा गया कि यावत् किसी को धर्म-श्रवण का लाभ होता है और किसी को नहीं होता। विवेचन--केवली इत्यादि शब्दों का भावार्थ केवलिस्स—जिन अथवा तीर्थकर / केवलिश्रावक-जिसने केवली भगवान् से स्वयमेव पूछा है, अथवा उनके बचन सुने हैं, वह / केवलिउपासक केवली की उपासना करने वाले अथवा केवली द्वारा दूसरे को कहे गए वचन को सुनकर बना हुआ उपासक भक्त / केवलि-पाक्षिक-केवलि-पाक्षिक अर्थात् स्वयम्बुद्धकेवली / / ___ असोच्चा धम्म लभेज्जा सवणयाए—(उपर्युक्त दस में से किसी के पास से) धर्मफलादिप्रतिपादक वचन को सुने विना ही अर्थात्--स्वाभाविक धर्मानुराग-वश होकर ही (केवलिप्ररूपित) श्रुत-चारित्ररूप धर्म सुन पाता है, अर्थात्---श्रावणरूप से धर्म-लाभ प्राप्त करता है। प्राशय यह है कि वह धर्म का बोध पाता है / नाणावरणिज्जाणं "खओवसमे-ज्ञानावरणीयकर्म के मतिज्ञानावरणीय आदि भेदों के कारण तथा मतिज्ञानावरण के भी अवग्रहादि अनेक भेद होने से यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया गया है / क्षयोपशम शब्द का प्रयोग करने के कारण यहाँ मतिज्ञानावरणीयादि चार ज्ञानावरणीय कर्म ही ग्राह्य हैं, केवलज्ञानावरण नहीं, क्योंकि उसका क्षयोपशम नहीं, क्षय ही होता है / पर्वतीय नदी में लुढकते-लुढकते गोल बने हुए पाषाणखण्ड की तरह किसी-किसी के स्वाभाविक रूप से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम हो जाता है। ऐसी स्थिति में इन दस में से किसी से विना सुने हो धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है / धर्मश्रवणलाभ में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। केवली प्रादि से शुद्धबोधि का लामालाभ--- 3. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहि बुज्झज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्यंगतिए केवलं बोहि बुझज्जा, अत्थेगइए केवलं बोहि गो बुज्झज्जा। 13-1 प्र. भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने विना ही क्या कोई जीव शुद्धबोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त कर लेता है ? [3-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कई जीव शुद्ध बोधि प्राप्त कर लेते हैं और कई जीव प्राप्त नहीं कर पाते / 1. भगवती. अ, बृत्ति, पत्र 43: 2. बही, पत्र 432 3. वहीं, पत्र 432 Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१ ] [435 [2] से केणठेणं भंते ! जाब नो बुज्झज्जा ? गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाव केवलं बोहिं बुज्झज्जा, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाब केवलं बोहि णो बुझज्जा, से तेणठेणं जाव णो बुझेज्जा / |3-2 प्र.| भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि यावत् शुद्ध बोधि प्राप्त नहीं कर पाते ? |3-2 उ. हे गौतम ! जिस जीन ने दर्शनावरणीय (दर्शन-मोहनीय) कर्म का क्षयोपशम किया है, वह जीव केवली यावत् केवलि-पाक्षिक उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध बोधि प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस जीव ने दर्शनावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, उस जीव को केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने विना शुद्ध बोधि का लाभ नहीं होता। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् किसी को सुने बिना शुद्ध बोधिलाभ नहीं होता। विवेचन-शुद्ध बोधिलाभ सम्बन्धी प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि केवली आदि दस साधकों से धर्म सुने विना ही शुद्ध बोधिलाभ उसी को होता है, जिसने दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किया हो, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम नहीं किया, उसे शुद्ध बोधिलाभ नहीं होता।' कतिपय शब्दों के भावार्थ केवलं बोहि बुझज्जा केवल = शुद्ध बोधि = शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है = अनुभव करता है / दरिसणावरणिज्जाणं कम्माण = यहाँ 'दर्शनावरणीय' से दर्शनमोहनीय कर्म का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बोधि, सम्यग्दर्शन का पर्यायवाची शब्द है। अतः सम्यग्दर्शन (बोधि) का लाभ दर्शनमोहनीयकर्म क्षयोपशमजन्य है। केवली आदि से शुद्ध प्रनगारिता का ग्रहण-अग्रहण 4. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पविखय उवासियाए वा केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइज्जा, अत्थेगतिए केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पच्चएज्जा। [4-1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने विना ही क्या कोई जीव केवल मुण्डित हो कर अगारवास त्याग कर अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [4-1 उ. | गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने विना ही कोई जीव मुण्डित होकर अगारवास छोड़कर शुद्ध या सम्पूर्ण अनगारिता में प्रवजित हो पाता है, और कोई प्रव्रजित नहीं हो पाता। 1. भगवती. अ. वृत्ति का निष्कर्ष, पत्र 432 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 432 Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] से केणछैणं जाव नो पन्वएज्जा ? गोयमा ! जस्स ण धम्मतराइयाणं खओवसमे कडे भवति से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवएज्जा, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव मुडे भवित्ता जाव णो पम्वएज्जा, से तेणठेणं गोयमा ! जाव नो पच्चएज्जा / [4-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से यावत् कोई जीव प्रवजित नहीं हो पाता? 4-2 उ.] गौतम ! जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम किया हुआ है. वह जीव केवली आदि से सुने बिना ही मुण्डित होकर अगारवास से अनगारधर्म में प्रवजित हो जाता है, किन्तु जिस जीव के धर्मान्तरायिक कर्मों का क्षयोपशम नहीं हुआ है, वह मुण्डित होकर अगारवास से अनमा रधर्म में प्रवजित नहीं हो पाता। इसी कारण से हे गौतम ! यह कहा गया है कि यावत् वह (कोई जीव) प्रव्रज्या ग्रहण नहीं कर पाता। विवेचन- केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वएज्जा : भावार्थ--मुण्डित होकर गृहवासत्याग करके शुद्ध या सम्पूर्ण प्रनगारिता में प्रबजित हो पाता है, अर्थात् अनगारधर्म में दीक्षित हो पाता है।' धम्मतराइयाणं कम्माणं.-..धर्म में अर्थात चारित्र अंगीकाररूप धर्म में अन्तराय-विध वाले कर्म धर्मान्तरायिक कर्म अर्थात्-वीर्यान्तराय एवं विविध चारित्रमोहनीय कर्म / केवली आदि से ब्रह्मचर्य-वास का धारण-अधारण 5. [1] असोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा। [5-1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवास धारण कर पाता है ? [5-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण लेता है और कोई नहीं कर पाता / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चइ जाव नो आवसेज्जा? गोयमा ! जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे के डे भवइ से णं असोच्चा केलिस्स वा जाव केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव नो आवसेज्जा, से तेणठेणं जाव नो आवसेज्जा / 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 433 2. वही, पत्र 433 Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१ / [ 437 [5.2. प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कोई जीव धारण नहीं कर पाला? |5-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण कर लेता है किन्तु जिस जीव ने चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह जीव यावत् शुद्ध ब्रह्मचर्यवास को धारण नहीं कर पाता / इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् वह धारण नहीं कर पाता / विवेचन-चारित्रावरणीय कर्म--यहाँ वेद नोकषायमोहनीयरूप चारित्रावरणीयकर्म विशेष रूप से ग्रहण करने चाहिए ; क्योंकि मैथुनविरमण रूप ब्रह्मचर्यवास के विशेषतः आवारक कर्म वे ही हैं।' केवली आदि से शुद्ध संयम का ग्रहण-अग्रहण 6. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स जाब उवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। {6.1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम-यतना करता है ? [6-1 उ.) हे गौतम ! केवली यावत् केवल-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम---यतना करता है और कोई जीव नहीं करता। [2] से केण ठेणं जाव नो संजमेज्जा? गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से पं असोच्चा केवलिस्स वा जाव नो संजमेज्जा, से तेणछैणं गोयमा ! जाव अत्थेगतिए नो संजमेज्जा। [6.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यावत् कोई जीव शुद्ध संयम द्वारा संयम--- यतना करता है और कोई जीव नहीं करता? 6.2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया हुआ है, वह केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका से सुने बिना ही शुद्ध संयम द्वारा संयम--यतना करता है, किन्तु जिसने यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध सयम द्वारा सयम-यतना नहीं करता। इसीलिए हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से कहा गया है। विवेचन केवलेण संजमेणं संजमेज्जा-शुद्ध संयम अर्थात्-चारित्र ग्रहण अथवा पालन करके संयम---यतना करता है-अर्थात् संयम में लगने वाले अतिचार का परिहार करने के लिए 1. भगवती. अ. वृत्ति , पत्र 433 Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यतनाविशेष करता है / जयणावरणिज्जाणं कम्मापं०--यतनावरणीय कर्म से चारित्रविशेषविषयक वीर्यान्तरायरूप कर्म समझना चाहिए।' केवली आदि से शुद्ध संवर का प्राचरण-अनाचरण--- 7. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा ? गोयमा ! असोच्चा णं केबलिस्स जाव अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं जाव नो संवरेज्जा / [7-1 प्र.] भगवन् ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-श्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव शुद्ध संवर द्वारा संवृत होता है ? {7-1 उ.] गौतम ! केवली यावत् केलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव शुद्ध संवर से संवृत नहीं होता। [2] से केणठेणं जाव नो संवरेज्जा ? गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओबसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवाइ से णं असोच्चा केबलिस्स वा जाव नो संवरेज्जा, से तेणठेणं जाव नो संवरेज्जा। [7-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई जीव केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध संवर से संवृत होता है और कोई जीव यावत् नहीं होता? [7-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने विना ही, यावत् शुद्ध संवर से संवृत हो जाता है, किन्तु जिसने अध्यवसानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, वह जीव केवली आदि से सुने बिना यावत् शुद्ध संवर से संवत नहीं होता / इसी कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि यावत् शुद्ध संवर से संवत नहीं होता / विवेचन-केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा-शुद्ध संवर से संवत होता है, अर्थात्-पाश्रवनिरोध करता है। अज्शवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं---संवर शब्द से यहाँ शुभ अध्यवसायवृत्ति विवक्षित है। वह भावचारित्र रूप होने से तदावरणक्षयोपशम-लभ्य है, इसलिए अध्यवसानावरणीय शब्द से यहाँ भावचारित्रावरणीय कर्म समझने चाहिए / केवली प्रादि से प्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान-उपार्जन-अनुपार्जन 8. [1] असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं आभिणि. बोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा / -. - ----- -- - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 433 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 433 -..-.-. Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [439 [8-1 प्र.] भगवन् ! केवली आदि से सुने विना ही क्या कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है ? [8-1 उ.] गौतम ! केवली आदि से सुने बिना कोई जीव शुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान प्राप्त करता है और कोई जीव यावत् नहीं प्राप्त करता। [2] से केणठेणं जाव नो उप्पाडेन्जा? गोयमा ! जस्स गं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से गं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा, से तेणठेणं जाव नो उप्पाडेज्जा / [8.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से यावत् नहीं प्राप्त करता? [8-2 उ.] गौतम ! जिस जीव ने आभिनिबोधिक-ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है, वह केवली आदि से सुने बिना ही शुद्ध प्राभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है, किन्तु जिसने प्राभिनिबोधिक-ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम नहीं किया है, वह केवली आदि से सुने बिना शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान का उपार्जन नहीं कर पाता / हे गौतम ! इसीलिए कहा जाता है कि कोई जीव यावत् शुद्ध आभिनिबोधिकज्ञान उपार्जन कर लेता है और कोई नहीं कर पाता। 9. असोच्चा णं भंते ! केवलि जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा ? एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स वत्तन्वया भणिया तहा सुयनाणस्स वि भाणियन्वा, नवरं सुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियन्वे / [9 प्र.] भगवन् ! केवली प्रादि से सुने विना हो क्या कोई जीव श्रुतज्ञान उपार्जन कर लेता है ? [6 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार प्राभिनिबोधिकज्ञान का कथन किया गया, उसी प्रकार शुद्ध श्रुतज्ञान के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि यहाँ श्रुतज्ञानावरणीयकर्मों का क्षयोपशम कहना चाहिए। 10. एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियन्वं; नवरं ओहिणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियब्वे / [10] इसी प्रकार शुद्ध अवधिज्ञान के उपार्जन के विषय में कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ अवधिज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम कहना चाहिए / 11. एवं केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, नवरं मणपज्जवणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियब्वे / [11] इसी प्रकार शुद्ध मनःपर्ययज्ञान के उत्पन्न होने के विषय में कहना चाहिए / विशेष इतना ही है कि मनःपर्ययज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम का कथन करना चाहिए। Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 12. असोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेज्जा ? एवं चेव, नवरं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए भाणियब्बे, सेसं तं चेव / से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा। [12 प्र.] भगवन् ! केवली आदि से सुने बिना ही क्या कोई जीव केवलज्ञान उपार्जन कर लेता है ? 12 उ.] पूर्ववन् यहाँ भी कहना चाहिए / विशेष इतना ही है कि यहाँ केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय कहना चाहिए / शेष सब कथन पूर्ववत् है / इसीलिए हे गौतम ! यह कहा जाता है कि यावत् केवलज्ञान का उपार्जन करता / विवेचन-आभिनिबोधिक आदि ज्ञानों के उत्पादन के सम्बन्ध में--निष्कर्ष यह है कि श्राभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान, इन पाँच ज्ञानों का उपार्जन केवली आदि से सुने बिना भी वही कर सकता है, जिसके उस-उस ज्ञान के प्रावरणरूप कर्मों का क्षयोपशम तथा क्षय हो गया हो, अन्यथा नहीं कर सकता। केवली आदि से ग्यारह बोलों को प्राप्ति और अप्राप्ति 13 [1] असोच्चा णं भंते ! केलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए व केवलिपनत्तं धम्म लभेजा सवणयाए 1?, केवलं बोहि बुझज्जा 2 ? केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा 3 ?, केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा 4 ?, केवलेण संजमेण संजमेज्जा 5 ?, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा 6 ?, केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा 7 ?, जाव केवल मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा 10?, केवलनाणं उप्पाडेज्जा 11?, गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए 1, अत्थेगतिए केवलं बोहिं बुझज्जा, अत्थेगतिए केवलं बोहि णो बुज्झज्जा 2; अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवएज्जा, अत्थेगतिए जाव नो पन्वएज्जा 3; अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवास नो आवसेज्जा 4; अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा 5; एवं संवरेण वि 6; अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए जाव नो उप्पाडेज्जा 7; एवं जाव' मणपज्जवनाण 8-9-10; अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा 11 / 13-1 प्र. भगवन ! केवली यावत् केवलि-पाक्षिक-उपासिका (इन दस) के पास से धर्मश्रवण किये बिना ही क्या कोई जीव केवलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण-लाभ करता है; शुद्ध 1. 'जाव' शब्द से यहाँ 'श्रुतज्ञान' और 'अवधिज्ञान' पद जोड़ना चाहिए। Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] बोधि (सम्यग्दर्शन) प्राप्त करता है, मुण्डित हो कर अंगारबास मे शुद्ध अनगारिता को स्वीकार करता है, शुद्ध ब्रहाचर्यवास धारण करता है, शुद्ध संयम द्वारा संयम --यतना करता है, शुद्ध संवर से संवृत होता है, शुद्ध प्राभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करता है, यावत् शुद्ध मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान उत्पन्न करता है? 13-1 उ.) गौतम ! केवली यावत केबलि-पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ही कोई जीव के बलि-प्ररूपित धर्म-श्रवण का लाभ पाता है, कोई जीव नहीं पाता , कोई जीव शुद्ध बोधिलाभ प्राप्त करता है, कोई नहीं प्राप्त करता : , कोई जीव मुण्डित हो कर अगारवास से शुद्ध अनगारधर्म में प्रवजित होता है और कोई प्रजित नहीं होना , कोई जीव शुद्ध ब्रह्मचर्यवाम को धारण करता है और कोई नहीं धारण करता 4, कोई जीव शुद्ध संयम से संयम ----यतना करता है और कोई नहीं करता 5, कोई जीव शुद्ध सवर से संबन होता है और कोई जीत्र संबत नहीं होता 6, इसी प्रकार कोई जीव आभिनिवोधिकज्ञान का उपार्जन करता है और कोई उपार्जन नहीं करता 7, कोई जीव यादत मन पर्यवज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता 8-1-10, कोई जीव केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई नहीं करता 11 / [2] से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चइ असोच्चा णं तं चेव जाव अस्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा? __ गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ 1, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ 2, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ 3, एवं चरित्तावरणिज्जाणं 4, जयणावरणिज्जाणं 5, अज्ज्ञवसाणावरणिज्जाणं 6, आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं 7, जाव मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ 8-910, जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं जाव खए नो कडे भवइ 11, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाद' केवलिपन्नतं धम्मं नो लभेज्जा सवणयाए, केवलं बोहि नो बुज्झज्जा जाब केवलनाणं नो उम्पाडेज्जा / जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कड़े भवति 1, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमे कडे भवइ 2, जस्स णं धम्मंतराइयाणं 3, एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ 11, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए 1, केवलं बोहि बुज्झज्जा 2, जाव केवलणाणं उप्पाडेज्जा 11 / 13-2 प्र. भगवन् ! इस (पूर्वोक्त) कथन का क्या कारण है कि कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण-लाभ करता है, यावत् केवलज्ञान का उपार्जन करता है और कोई यावत् केवलज्ञान का नहीं करता? 113-2 उ.| गौतम ! (1) जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्म का अयोपशम नहीं किया, (2) जिस जीव ने दर्शनावरणीय (दर्शनमोहनीय) कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (3) धर्मान्तरायिक 1 जाव' शब्द से यहाँ 'श्रतान' और 'अवधिज्ञान' पद जोड़ना चाहिए / Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (4) चारित्रावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (5) यतनावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (6) अध्यबसानाबरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (7) प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (8 से 10) इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, तथा (11) केवलज्ञानावरणीयकर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवली आदि से धर्मश्रमण किये विना धर्म-श्रवणलाभ नहीं पाते. शुद्धबोधिलाभ का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाते। (1) जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (2) जिसने दर्शनावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (3) जिसने धर्मान्तरायिककर्मों का क्षयोपशम किया है, (4-11) यावत् जिसने केवलज्ञानावरणीयकर्मों का क्षय किया है, वह केवली आदि से धर्मश्रवण किये विना ही केवालप्ररूपित धर्म-श्रवण लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधिलाभ का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान को उपाजित कर लेता है। विवेचन-ग्यारह बोलों की प्राप्ति किसको और किसको नहीं ? केवलज्ञानी आदि दस में से किसी से शुद्ध धर्म-श्रवण किये बिना ही कौन व्यक्ति केबलि-प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ पाता, शुद्ध सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान उपार्जित करता है ? इसके उत्तर में प्रस्तुत सूत्र (सं. 13) में उन-उन कर्मों का क्षयोपशम तथा क्षय करने वाले व्यक्ति को उस-उस बोल की प्राप्ति बताई गई है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के उन-उन आवारक कमों का क्षयोपशम या क्षय नहीं होता. वह उस-उस बोल की प्राप्ति से वंचित रहता है। केवली प्रादि से विना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमशः अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया 14. तस्स णं छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभयाए पगइउवसंतयाए पगतिपयणुकोह-माणमाया-लोभयाए मिउमद्दवसंपन्नयाए अल्लोणताए भइताए विणीतताए अण्णया कयाइ सुभेणं अज्शवसागणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहि विसुज्झमाणोहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गण-गवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई जाणइ पासइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुष्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरित्तं पडिबज्जइ, चरित्तं परिवज्जित्ता लिगं पडिवज्जइ, तस्त णं तेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिहायमार्गाह परिहायमाहि, सम्मइंसणपज्जर्वेहि परिवड्डमाणेहि परिबट्टमाह से विभंगे अन्नाणे सम्मतपरिम्गाहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ / {14} निरन्तर छठ-छठ (वेले-बेले ) का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में प्रातापना लेते हुए उस (विना धर्मश्रवण किए केवलज्ञान तक प्राप्त करने वाले) जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [443 लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से नथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभगज्ञानाबरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक प्रज्ञान उत्पन्न होता है / फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगजान द्वारा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है। उस उत्पन्न हुए विभगज्ञान से बह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है / वह पाषण्डस्थ, सारम्भी (आरम्भयुक्त), सपरिग्रह (परिग्रही) और संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है। (तत्पश्चात) वह (विभंगज्ञानी) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके श्रमणधर्म पर रुचि करता है, श्रमणधर्म पर रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है। चारित्र अंगीकार करके लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है / तब उस (भूतपूर्व विभंगज्ञानी) के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमश: क्षीण होते-होते और सम्यग-दर्शन के पर्याय क्रमश: बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विवेचन–'तस्स छठंछट्टण' : आशय-जो व्यक्ति केवली आदि से विना सुने हो केबलज्ञान उपार्जन कर लेता है, ऐसे किसी जोव को किस क्रम से प्रवधिज्ञान प्राप्त होता है, उसकी प्रक्रिया यहाँ बताई गई है / 'छट्टछट्ठणं' यहाँ यह बताने के लिए कहा गया है कि प्राय: लगातार बेले-बेले की तपस्या करने वाले बालतपस्वी को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है।' ईहायोहमग्गणगवेसणं : ईहा- विद्यमान पदार्थों के प्रति ज्ञानचेष्टा / अपोह—'यह घट है, पट नहीं, इस प्रकार विपक्ष के निराकरणपूर्वक बस्तुतत्व का विचार / मार्गण-अन्वयधर्म-पदार्थ में विद्यमान गुणों का पालोचन (विचार)। गवेषण---व्यतिरेक (धर्म) का निराकरण रूप पालोचन (विचार) समुत्पन्न विभंगजान की शक्ति प्रस्तूत सूत्र में बताया गया है कि वह बालतपस्वी विभंगज्ञान प्राप्त होने पर जीवों को भी कथंचित् ही जानता है, साक्षात् नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी मूर्तपदार्थों को ही जान सकता है, अमूर्त को नहीं। इसी प्रकार पाषण्डस्थ यानी व्रतस्थ, प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होने से महान् सक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और अल्पमात्रा में परिणामों की विशुद्धि होने से परिणामविशुद्धिमान् जनों को भी जानता है / विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया- इससे पूर्व प्रकृतिभद्रता, विनम्रता, कषायों की उपशान्तता, कामभोगों में अनासक्ति, शुभ अध्यवसाय एवं सुपरिणाम आदि के कारण विभंगज्ञानी होते हुए भी परिणामों की विशुद्धि होने से सर्वप्रथम सम्यक्त्वप्राप्ति, फिर श्रमणधर्म पर रुचि, चारित्र को अंगीकार और फिर साधुवेष को स्वीकार करता है / सम्यक्त्वप्राप्ति किस प्रकार होती है ? इसको प्रक्रिया बताने के लिए अन्त में पाठ दिया गया है-"विभंगे अण्णाणे सम्मत्त . ..--..---- 1. भगवती. अ. वृत्ति , पत्र 433 2. वही अ. वृत्ति पत्र 43 3 3. वहीं अ. वृत्ति, पत्र 433 Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिग्गहिए। उसका प्राशय यह है कि चारित्र प्राप्ति से पहले वह भूतपूर्व विभंगज्ञानी सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। उसके बाद की प्रक्रिया है---श्रमणधर्म की रुचि, चारित्रधर्मस्वीकार, बेशग्रहण आदि, जो कि मूलपाठ में पहले बता दी गई है / ' अणिक्खित्तणं' आदि शब्दों का भावार्थ-अणिखित्तेणं लगातार बीच में छोड़े बिना। पगिज्झिय-रख कर / आयावणभूमीए-पातायना लेने के स्थान में / पगइपतणुकोह..---प्रकृति से, स्वभाव से ही पनले क्रोधादि कषाय / मिउमद्दवसंपण्णयाए—अत्यन्त मृदुता-कोमलता से सम्पन्न होने के कारण / अल्लोणयाए-अलीनता-अनासक्ति = कामभोगों के प्रति गद्ध रहितता / अण्णया कयाविअन्य किसी समय / परिहायमाणेहि = परिक्षीण होते हुए / परिवड्ढमाणेहि = बढ़ते-बढ़त / ओही परावत्तइ-अवधिज्ञान में परिवत्तित हो जाता है / 2 / पूर्वोक्त अवधिज्ञानी में लेश्या, ज्ञान प्रादि का निरूपण 15. से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? / गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा-तेउलेस्साए पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए / [25 प्र. भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी लेश्याओं में होता है ? | 15 उ. | गौतम ! वह तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है / यथा--१. तेजोलश्या, 2. पद्मलेश्या और 3. शुक्ललेल्या / / 16. से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु, आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा / [16 प्र. भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञानों में होता है ? [16 उ.] गौतम ! वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है। 17. [1] से णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा? गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा / [17-1 प्र. भगवन् ! वह सयोगी होता है, या प्रयोगी ? 117-1 उ. गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता। [2] जई सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा? गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा। [17-2 प्र. भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनोयोगी होता है. वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? |17-2 उ.] गौतम ! वह मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है और काययोगी भी होता है। 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 433-434 2. वही. पत्र 436 Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1445 नवम शतक : उद्देशक-३१) 18. से णं भंते ! कि सागारोबउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते होज्जा ? गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा / (18 प्र. भगवन् ! वह साकारोपयोग-युक्त होता है, अथवा अनाकारोपयोग-युक्त होता है ? [18 उ. गौतम ! वह साकारोपयोग-युक्त भी होता है और अनाकारोपयोग-युक्त भी होता है। 19. से गं भंते ! कयरम्मि संघयणे होज्जा? गोयमा ! वइरोसभनारायसंघयणे होज्जा / [16 प्र. भगवन् ! वह किस संहनन में होता है ? [16 उ.| गौलम ! वह वज्रऋषभनाराचसहनन वाला होता है। 20. से गं भंते ! कयरम्मि संठाणे होज्जा? गोयमा ! छहं संठाणाणं अन्नयरे संठाणे होज्जा / |20 प्र. भगवन् ! वह किस संस्थान में होता है ? [20 उ. गौतम ! बह छह संस्थानों में से किसी भी संस्थान में होता है। 21. से णं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं सत्त रयणी, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होज्जा / 21 प्र. भगवन् ! वह कितनी ऊँचाई वाला होता है ? [21 उ.] गौतम ! वह जघन्य सात हाथ (रनि) और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष उँचाई वाला होता है। 22. से णं भंते ! कयरम्मि आउए होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं सातिरेगट्ठावासाउए, उक्कोसेणं पुन्चकोडिआउए होज्जा। [22 प्र.] भगवन् ! वह कितनी प्रायुष्य वाला होता है ? {22 उ. गौतम ! वह जघन्य साधिक आठ वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि प्रायुष्य वाला होता है। 23. [1] से णं भंते ! कि सवेदए होज्जा, अवेदए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो अवेदए होज्जा। [23.1 प्र. भगवन् ! वह सवेदी होता है या अवेदी ? [23-1 उ.] गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं होता। [2] जइ सवेदए होज्जा कि इत्थीवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, नपुसंगवेदए होज्जा, पुरिसन सगवेदए होज्जा ? गोयमा ! नो इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए वा होज्जा, नो नपुंसगवेदए होज्जा, पुरिसनयुसगवेदए बा होज्जा। Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र |23-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है अथवा नपुसकवेदी होता है, या पुरुष-नपुसक ( कृत्रिम नपुसक-) वेदी होता है ? / |23-2 उ.] गौतम ! वह स्त्रीवेदी नहीं होता, पुरुषवेदी होता है, नपुसकवेदी नहीं होता, किन्तु पुरुष-नपु सकवेदी होता है / 24. [1] से णं भंते ! कि सकसाई होज्जा, अकसाई होज्जा ? गोयमा ! सकसाई होज्जा, नो अकसाई होज्जा। {24-1 प्र.] भगवन् ! क्या वह (अवधिज्ञानी) सकषायी होता है, अथवा अकषायी होता है ? {24.1 उ.] गौतम ! वह सकषायी होता है, अकषायी नहीं होता। [2] जइ सकसाई होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा। [24-2 प्र.! भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है, तो वह कितने कषायों वाला होता है ? [24-2 उ.] गौतम ! वह संज्वलन क्रोध, माल, माया और लोभ ; इन चार कषायों से युक्त होता है। 25. [1] तस्स गं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा यण्णत्ता। [25-1 प्र.] भगवन् ! उसके कितने अध्यवसाय होते हैं ? [25-1 उ.] गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय होते है। [2] ते णं भंते ! कि पसत्था अप्पसत्था ? गोयमा ! पसत्था, नो अप्पसत्था। [25-2 प्र.] भगवन् ! उसके वे अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? [25-2 उ.] गौतम ! वे प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते। विवेचन- अवधिज्ञानी के सम्बन्ध में प्रश्न-ये प्रश्न जो लेश्या, ज्ञान, योग, उपयोग आदि के सम्बन्ध में किये गए हैं, वे उसके सम्बन्ध में किये गए हैं जो पहले विभंगज्ञानी था, किन्तु पूर्वोक्त प्रक्रियापूर्वक शुद्ध अध्यवसाय एवं शुद्ध परिणाम के कारण सम्यक्त्व प्राप्त करके अवधिज्ञानो हुआ और श्रमणधर्म में दीक्षित होकर चारित्र ग्रहण कर चुका है / " 'तिसु विसुद्धलेसासु होज्ज'–प्रशस्त भावलेश्या होने पर ही सम्यक्त्वादि प्राप्त होते हैं, अप्रशस्त लेश्याओं में नहीं।। तिसु..." णाणेसु होज्ज-विभंगज्ञानी को सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसके मति-प्रज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभगज्ञान, ये तोनों अज्ञान, (मति-श्रुतावधि-) ज्ञानरूप में परिणत हो जाते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 435 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [447 नवम शतक : उद्देशक-३१] णो अजोगी होज्ज–अवधिज्ञानी को अवधिज्ञान काल में अयोगी-अवस्था प्राप्त नहीं होती। सागारोवउत्ते वा–विभंगज्ञान से निवृत्त होने वाला अवधिज्ञानी, दोनों उपयोगों में से किसी भी एक उपयोग में प्रवृत्त होना है। साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ- साकारोपयोग अर्थात् ज्ञान और अनाकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग से पूर्व होने वाला दर्शन (निराकार ज्ञान)। वज्रऋषभनाराच-संहनन ही क्यों ? यहाँ जो अवधिज्ञानी के लिए वज्रऋषभनारात्रसंहनन का कथन किया गया है, वह आगे प्राप्त होने वाले केवलज्ञान की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति बज्रऋषभनाराच-सहनन बालों को ही होती है। सवेदी आदि का तात्पर्य विभंगज्ञान से अवधिज्ञान काल में साधक सवेदी होता है, क्योंकि उस दशा में उसके वेद का क्षय नहीं होता / विभंगज्ञान से अवधिज्ञान प्राप्त करने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया का स्त्री में स्वभावतः अभाव होता है। अतः सवेदी में वह पुरुषवेदी एवं कृत्रिमनपुसकवेदी होता है। सकसाई होज्ज-विभंगज्ञान एवं अवधिज्ञान के काल में कषायक्षय नहीं होता, किन्तु संज्वलनकषाय होता है, क्योंकि विभगज्ञान के अवधिज्ञान में परिणत होने पर वह अवधिज्ञानी साधक जब चारित्र अंगीकार कर लेता है, तब उसमें संज्वलन के ही क्रोधादि चार कषाय होते हैं। प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही क्यों ?--विभगज्ञान से अबधिज्ञान की प्राप्ति अप्रशस्त अध्यवसाय वाले को नहीं होती, इसलिए अबधिज्ञानी में प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही होते हैं। उक्त अवधिज्ञानी को केवलज्ञान-प्राप्ति का क्रम 26. से णं पसत्थेहि अज्झवसाणेहि वट्टमाणे अणंतेहि नेरइयभवग्गोहतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणतेहि तिरिक्खजोणिय जाव विसंजोएइ, अणतेहिं मणुस्सभवग्गणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अणतेहिं देवभवागहहितो अप्पाणं विसंजोएइ, जाओ वि य से इमाओ नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवगतिनामाओ उत्तरपयडीओ तासि च णं उवगहिए अणताणुबंधी कोह-माण-मायालोभे खवेइ, अणंताणबंधी कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ / संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवित्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दरिसणावरणिज्ज पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कटु कम्मरयविकरणकर अपुवकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाधाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाण-दसणे समुप्पज्जति / / |26| वह अवधिज्ञानी बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से, अनन्त नैरयिकभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त (-विमुक्त) कर लेता है, अनन्त तिर्यञ्चयोनिक भवों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है, अनन्त मनुष्यभव-ग्रहणों से अपनी आत्मा को विसंयुक्त कर लेता है और अनन्त देव-भवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है / जो ये नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवगति नामक चार उत्तर (कर्म-) प्रकृतियाँ हैं, उन प्रकृतियों के अाधारभूत (उपमहीत) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है / अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके अप्रत्याख्यानकषाय-क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करता है, अप्रत्याख्यान कोधादि कषाय का क्षय करके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है ; प्रत्याख्यानावरण क्रोधादिकषाय का क्षय करके सज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। संज्वलन के क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करके पंचविध (पांच प्रकार के) ज्ञानावरणोयकर्म, नवविध (नौ प्रकार के) दर्शनावरणीयकर्म, पंचविध अन्तरायकर्म को तथा मोहनीयकर्म को कटे हुए ताइवृक्ष के समान बना कर, कर्मरज को बिखेरने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, घातरहित, आवरणरहित. कृत्स्न (सम्पूर्ण), प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन (एक साथ) उत्पन्न होता है / / विवेचन-चारित्रात्मा अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों का प्रभाव-प्रस्तुत में केवलज्ञानप्राप्ति का क्रम बताया गया है कि सर्वप्रथम प्रशस्त अध्यवसायों के प्रभाव से नरकादि चारों गतियों के भविष्यकालभावी अनन्त भवों से अपनी आत्मा को वियुक्त कर लेता है. फिर गतिनामकर्म की चारों तरकादि गतिरूप उत्तरकर्मप्रकृतियों के कारणभूत अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन कषाय का क्षय कर लेता है। कषायों का सर्वथा क्षय होते ही ज्ञानावरणीयादि चार घानिक कर्मों का क्षय कर लेता है / इन चारों के क्षय होते ही अनन्त, अव्याघात परिपूर्ण, निरावरण केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है।' मोहनीयकर्म का नाश, शेष घाति कर्मनाश का कारण प्रस्तुत मूत्र में ज्ञानावरणीयादि तीनों कर्मों का उत्तरप्रकुतियों सहित क्षय पहले बताया है, किन्तु मोहनीयकर्म के क्षय हुए बिना इन तीनों कों का क्षय नहीं होता। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए यहाँ कहा गया है'तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कटटु', इसका भावार्थ यह है कि जिस प्रकार ताडवृक्ष का मस्तक सूचि भेद (सूई से या सूई की तरह छिन्न-भिन्न) करने से वह सारा का सारा वृक्ष क्षीण हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीयकर्म का क्षय होने पर शेष घातिकर्मों का भी क्षय हो जाता है / अर्थात् –मोहनीयकर्म को शेष प्रकृतियों का क्षय करके साधक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनों कर्मों को सभी प्रकृतियों का क्षय कर देता है। केवलज्ञान के विशेषणों का भावार्थ-केवलज्ञान विषय की अनन्तता के कारण अनन्त है। केवलज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए वह अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान है / वह दीवार, भीत आदि के व्यवधान के कारण प्रतिहत (स्खलित) नहीं होता--किसी भी प्रकार की कोई भी रुकावट उसे रोक नहीं सकती, इसलिए वह 'नियाघात' है / सम्पूर्ण आवरणों के क्षय होने पर उत्पन्न 1. (क) विवाहपरणनिमुत्तं ('मूल' टिप्पण) भा. 1 पृ. 416 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 435 2. यथा हि तालमस्तविनाशक्रियाऽवश्यम्भावि-तालविनाशा एवं माहनीयकर्मविनाशक्रियाऽप्यवाभाविशेषकर्म विनाश नि / अाह च-- नस्तकमूचिविनाशे, तालस्य यथा ध्र वो भवति नाशः / तद्वत् कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम् // 1 // -भगवती. अ. अत्ति, पत्र 436 Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [449 होने से वह 'निरावरण' है / सकल पदार्थों का ग्राहक होने से वह 'कृत्स्न' होता है / अपने सम्पूर्ण अंशों से युक्त उत्पन्न होने से वह 'प्रतिपूर्ण' होता है / केवलदर्शन के लिए भी यही विशेषण समझ लेने चाहिए।' असोच्चा केवली द्वारा उपदेश-प्रवज्या सिद्धि प्रादि के सम्बन्ध में-- 27. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म आघवेज्जा वा पण्णवेज्जा वा परवेज्जा वा? नो इणठे समठे, गन्नत्थ एगणाएग वा एगवागरणेण वा / 27 प्र. | भगवन् ! वे असोच्चा केवलो, केबलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं अथवा प्ररूपणा करते हैं ? [27 उ. | गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / वे (केवल) एक ज्ञात (उदाहरण) के अथवा एक (व्याकरण) प्रश्न के उत्तर के सिवाय अन्य (धर्म का) उपदेश नहीं करते। 28. से पं भंते ! पवावेज्ज वा मुडावेज्ज वा ? गो इणठे समझें, उवदेसं पुण करेज्जा / (28 प्र. भगवन् ! वे असोच्चा केवली (किसी को) प्रजित करते हैं या मुण्डित करते हैं ? (28 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। किन्तु उपदेश करते (कहते ) है (कि तुम अमुक के पास प्रव्रज्या ग्रहण करो।)। 29. से णं भंते ! सिज्झति जाव अंतं करेति ? हंता, सिज्झति जाव अंतं करेति / 26 प्र. भगवन् ! (क्या असोच्चा केवली) सिद्ध होते हैं यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं ? [26 उ.] हाँ गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं / 30, से णं भंते ! कि उड्ढ होज्जा, अहो होज्जा, तिरिय होज्जा ? गोयमा! उड्ढं वा होज्जा, अहो वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा / उड्ढं होज्जमाणे सद्दावइवियडावइ-गधावइ-मालवंतपरियाएसु बट्टवेयपव्वएसु होज्जा, साहरणं पडुच्च सोमणसवणे बा पंडगवणे वा होज्जा / अहो होज्जमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होज्जा / तिरिय होज्जमाणे पण्णरससु कम्मभूमोसु होज्जा, साहरणं पडुच्च अढाइज्जदीव-समुद्दत. देषकदेसभाए होज्जा। (30 प्र. भगवन् ! वे असोच्चा केवली ऊर्ध्व लोक में होते हैं , अधोलोक में होते हैं या तिर्यक्लोक में होते हैं ? 1. भगवती स्त्र भा.४ (पं. घेवरचन्द जी), पृ. 1604 Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {30 उ. गौतम ! वे ऊर्ध्वलोक में भी होते हैं, अधोलोक में भी होते हैं और तिर्यगलोक में भी होते हैं। यदि ऊर्ध्वलोक में होते हैं तो शब्दापाती, विकटापाती, गन्धापाती, और माल्यवन्त नामक वृत्त (वैताढ्य) पवंतों में होते है तथा सहरण की अपेक्षा सौमनसवन में अथवा पाण्डुकवन में होते हैं। यदि अधोलोक में होते हैं तो गर्ता (अधोलोक ग्रामादि) में अथवा गुफा में होते हैं * तथा संहरण की अपेक्षा पातालकलशो में अथवा भवनवासी देवों के भवनों में होते हैं। यदि तिर्यग्लोक में होते हैं तो पन्द्रह कर्मभूमि में होते हैं तथा संहरण की अपेक्षा अढाई द्वीप और समुद्रों के एक भाग में होते हैं। 31, ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस / से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वच्चइ 'असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केबलिपगणतं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, अत्थेगतिए असोच्चा णं केवलि जाव नो लभेज्जा सवणयाए जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा। [31 प्र.] भगवन् ! वे असोच्चा केवली एक समय में कितने होते हैं ? 31 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट दस होते हैं / | उपसंहार—| इसलिए हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि केवली यावत् केलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मश्रवण किये बिना ही किसी जीव को केवलिप्ररूपित धर्म-श्रवण प्राप्त होता है और किसी को नहीं होता; यावत् कोई जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर लेता है और कोई जोव केवलज्ञान उत्पन्न नहीं कर पाता / विवेचन---असोच्चा केवली का आचार-विचार, उपलब्धि एवं स्थान-२७ से 31 सूत्र तक प्रस्तुत पाँच सूत्रों में असोच्चा केवली से सम्बन्धित निम्नोक्त प्रश्नों के उत्तर हैं-(१) वे केवलिप्ररूपित धर्म कहते, बतलाते या प्रेरणा करते हैं ?, (2) वे किसी को प्रवजित या मुण्डित करते हैं ?, (3) वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं. यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ?, (4) वे ऊर्ध्व, अधो या तिर्यग्लोक में कहाँ-कहाँ होते हैं ?, (5) वे एक समय में कितने होते हैं ? ' आघवेज्ज-शिष्यों को शास्त्र का अर्थ ग्रहण कराते हैं, अथवा अर्थ-प्रतिपादन करके सत्कार प्राप्त कराते हैं। पनवेज्ज---भेद बताकर या भिन्न-भिन्न करके समझाते हैं। परूवेज्ज -उपपत्तिकथनपूर्वक प्ररूपण करते हैं। पवावेज्ज मुडावेज्ज-रजोहरण आदि द्रव्योष देकर प्रजित (दीक्षित) करते हैं, मस्तक का ___ लोच करके मुण्डित करते हैं। -------- 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मुलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 416-417 Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [451 उवएसं पुण करेजन-किसी दीक्षार्थी के उपस्थित होने पर 'अमुक के पास दीक्षा लो' केवल इतना सा उपदेश करते हैं।' सद्दावह इत्यादि पदों का आशय-शब्दापाती. विकटापाती गन्धापाली और माल्यबन्त, ये स्थान जम्बुद्वीपप्रजप्ति के अनुसार क्षेत्रसमास के अभिप्राय से क्रमश: हैमवत. ऐरण्यवत, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्र में हैं। सोमणसवणे पंडगवणे---मेरुपर्वत पर सौमनसवन तीसरा और पाण्डुकवन चौथा वन है / ' सोच्चा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर--- 32. सोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तपक्खियउवासियाए वा केवलियष्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! सोच्चा णं केलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म० / एवं जा चेव असोच्चाए वत्तव्यया सा चेव सोच्चाए वि भाणियन्वा, नवरं अभिलावो सोच्चेति / सेसं तं देव निरवसेसं जाव 'जस्स गं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स ण केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से ग सोच्चा केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलिपण्णत धम्म लभिज्ज सवणयाए, केवलं बोहि बुझज्जा जाय केवलनाणं उप्पाउन्जा (सु. 13 [2]) / |32 प्र. | भगवन् ! केवली यावत् केवली-पाक्षिक की उपासिका से (धर्मप्रतिपादक वचन) श्रवण कर क्या कोई जीव केवलिप्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है ? [32 उ.] गौतम ! केवली यावत् केबलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्म-वचन सुनकर कोई जीव केलिप्ररूपित धर्म का बोध प्राप्त करता है और कोई जीव प्राप्त नहीं करता। इस विषय में जिस प्रकार असोच्चा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार 'सोच्चा' की वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ सर्वत्र सोच्चा' ऐसा पाठ कहना चाहिए / शेष सभी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए यावत् जिसने मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम किया है तथा जिसने केवलज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय किया है, वह केवली यावत् केबलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मवचन सुनकर केवलिप्ररूपित धर्म-बोध (श्रवण) प्राप्त करता है. शुद्ध बोधि (सम्यग्दर्शन) का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान प्राप्त करता है। विवेचन ----'असोच्चा' का अतिदेश—जैसे केवली आदि के वचन बिना सुने ही जिन्हें सम्यगबोध से लेकर पावत् केवलज्ञान तक प्राप्त होता है, यह कहा गया है, उसी प्रकार केवली आदि से 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 436 आघवेज्ज ति या ग्राहयेच्छिापान, अर्धापयेद् वा-प्रतिपादनत: पूजां प्रापयेत् / पनवेज्जत्ति-प्रज्ञापयत----भेदभणनतो बोध येद वा / परवेज्ज त्ति---उपपत्तिकधनतः / 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 436 Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धर्मश्रवण करने वाले जीव को भी सम्यग्बोध से लेकर यावत् केवलज्ञान (तक) उत्पन्न होता है / 'असोच्चा' को लेकर जो पाठ था उसी पाठ का ‘सोच्चा' के सभी प्रकरण में अतिदेश किया गया है।' केवली आदि से सुन कर अवधिज्ञान की उपलब्धि-. 33. तस्स णं अट्टमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ। से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाइं जाणइ पासइ। |33] (केवली आदि से धर्म-वचन सुन कर मम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को) निरन्तर तेले-तेले (अट्ठम-अट्टम) तपःकर्म से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए प्रकृतिभद्रता आदि (पूर्वोक्त) गुणों से यावत् ईहा, अपोह, मागण एवं गवेषण करते हुए अवधिज्ञान समुत्पन्न होता है। वह उस उत्पत्र अवधिज्ञान के प्रभाव से जघन्य अंगुल के असंख्यातव भाग और उत्कृष्ट अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता और देखता है। विवेचन केवली आदि से सुनकर सम्यग्दर्शनादिप्राप्त जीव को अवधिज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रियाबिना सूने अवधिज्ञान प्राप्त करने वाले जीव को पहले विभंगज्ञान प्राप्त होता है, फिर सम्यक्त्वादि प्राप्त होने पर वही विभगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो जाता है, जब कि सुन कर अवधिज्ञान प्राप्त करने वाला जीव बेले के बदले निरन्तर तेले की तपस्या करता है / प्रकृतिभद्रता आदि गुण तथा उसमे ईहादि के कारण अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है / जिसके प्रभाव से उत्कृष्टतः अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को जानता-देखता है / 2 फिर वह सम्यक्त्व, चारित्र, साधुवेष आदि से केवलज्ञान भी प्राप्त कर लेता है / तथारूप अवधिज्ञानी में लेश्या, योग, देह आदि 34. से णं भंते कतिसु लेस्सासु होज्जा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा—कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए / [34 प्र. भगवन् ! वह (तथारूप अवधिज्ञानी जीव), कितनी लेश्याओं में होता है ? {34 उ.] गौतम ! वह छहो लेश्याओं में होता है। यथा----कृष्णलेश्या यावत् शुक्लले श्या / 35. से णं भंते ! कतिसु गाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा / तिसु होज्जमाणे आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा, च उसु होज्जमाणे आभिणिबोहिय नाण-सुयनाण-ओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा। [35 प्र] भंते ! वह (तथारूप अवधिज्ञानी जीव) कितने ज्ञानों में होता है ? / 35 उ.] गौतम ! वह तीन या चार ज्ञानों में होता है / यदि तीन ज्ञानों में होता है, तो 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, '43 = 2. भगवती. अ. दृत्ति, पत्र 43 Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [453 . आभिनिबोधिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में होता है। यदि चार ज्ञान में होता है तो प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में होता है। 36. से णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? एवं जोगो उवओगो संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च एयाणि सव्वाणि जहा असोच्चाए (सु. 17-22) तहेव भाणियब्वाणि / [36 प्र.] भगवन् ! वह (तथारूप अवधिज्ञानी) सयोगी होता है अथवा अयोगी होता है ? (आदि प्रश्न यावत् आयुष्य तक) |36 उ. | गौतम ! जैसे 'असोच्चा' के योग, उपयोग, सहनन, संस्थान, ऊँचाई और आयुष्य के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ (सोच्चा के) भी योगादि के विषय में कहना चाहिए / 37. [1] से णं भंते कि सवेदए० पुच्छा / गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा / [37.1 प्र.] भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सवेदी होता है अथवा अवेदी? 137- १उ.। गौतम ! वह सवेदी होता है अथवा अवेदी भी होता है। [2] जइ अवेदए होज्जा कि उबसंतवेयए होज्जा, खीणवेयए होज्जा ? गोयमा ! नो उवसंतवेदए होज्जा, खीणवेदए होज्जा। [37-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह अवेदी होता है तो क्या उपशान्तवेदी होता है अथवा क्षीणवेदी होता है [37-2 उ.] गौतम ! वह उपशान्तवेदी नहीं होता, क्षीणवेदी होता है / [3] जइ सबेदए होज्जा कि इत्थीवेदए होज्जा० पुच्छा। गोयमा इत्थीवेदए वा होज्जा, पुरिसवेदए वा होज्जा, पुरिसनषु सगवेदए वा होज्जा / [37-3 प्र.] भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है पुरुषवेदी होता है, नपुंसकवेदी होता है, अथवा पुरुष-नपु सकवेदी होता है ? 37-3 उ. | गौतम ! वह स्त्रीवेदी भी होता है या पुरुषवेदी होता है अथवा पुरुषनपुंसकवेदी होता है। 38. [1] से णं भंते ! सकसाई होज्जा ? अकसाई होज्जा ? गोयमा ! सकसाई वा होज्जा, अकसाई वा होज्जा / |38-1 प्र. भगवन् ! वह अवधिज्ञानी सकषायी होता है अथवा अकषायी होता है ? [38-1 उ.] गौतम ! वह सकधायी होता है अथवा अकषायी भी होता है। [2] जइ अकसाई होज्जा कि उवसंतकसाई होज्जा, खोणकसाई होज्जा ? गोयमा ! नो उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा। Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [38-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह अकषायी होता है तो क्या उपशान्तकषायी होता है या क्षीणकषायी ? [38-2 उ. गौतम ! वह उपशान्तकषायी नहीं होता, किन्तु क्षीणकषायो होता है / [3] जइ सकसाई होज्जा से गं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु वा, तिसु वा, दोसु वा, एक्कम्मि वा होज्जा। चउसु होज्जमाणे चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा, तिसु होज्जमाणे तिसु संजलणमाण-माया-लोभेसु होज्जा, दोसु होज्जमाणे दोसु संजलणमाया-लोभेसु होज्जा, एगम्मि होज्जमाणे एगम्मि संजलणे लोभे होज्जा। |38-3 प्र. भगवन् ! यदि वह सकषायी होता है तो कितने कषायो में होता है ? 138-3 उ.| गौतम ! वह चार कषायों में, तीन कषायों में, दो कषायों में अथवा एक कषाय मे होता है। यदि वह चार कषायो मे होता है, तो सज्वलन क्रोध, मान में होता है। यदि तीन कषायों में होता है तो संज्वलन मान, माया और लोभ में होता है। यदि वह दो कषायों में होता है तो संज्वलन माया और लोभ में होता है और यदि वह एक कषाय में होता है तो एक संज्वलन लोभ में होता है। 36, तस्स णं भंते ! केवतिया अज्ावसाणा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा, एवं जहा असोच्चाए (सु. 25-26) तहेव जाव केबलवरनाण-दंसणे समुप्पज्जइ (सु. 26) / 136 प्र.] भंते ! उस (तथारूप) अवधिज्ञानी के कितने अध्यवसाय बताए गए हैं ? {36 उ.] गौतम ! उसके असंख्यात अध्यवसाय होते हैं / जिस प्रकार (सू.२५, 26 में) असोच्चा केवली के अध्यवमाय के विषय में कहा गया, उसी प्रकार यहाँ भी ‘सोच्चा केवली' के लिए यावत् उसे केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। सोच्चा केवली द्वारा उपदेश, प्रवज्या, सिद्धि आदि के सम्बन्ध में 40. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म आधविज्जा वा, घरूविज्जा वा ? हंता, आधविज्ज वा, पण्णवेज्ज वा, परवेज्ज वा। |40 प्र.| भते ! वह 'सोच्चा केवली' केवलि-प्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं या प्ररूपित करते हैं ? 40 उ. हाँ गौतम ! वे केवलि-प्ररूपित धर्म कहते हैं. बतलाते हैं और उसकी प्ररूपणा भी कहते हैं। 41. [1] से णं भंते ! पवावेज्ज वा मुडावेज्ज वा ? हंता, गोयमा ! पवावेज्ज वा, मुडावेज्ज वा / [41-1 प्र| भगवन् ! वे सोच्चाकेवली किसी को प्रव्रजित करते हैं या मुण्डित करते हैं ? |41-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे प्रवजित भी करते हैं, मुण्डित भी करते हैं। Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [2] तस्स णं भंते ! सिस्सा वि पवावेज्ज वा, मुडावेज्ज वा ? हंता, पवावेज्ज वा मुडावेज्ज वा / 642-2 प्र. भगवन् ! उन सोच्चाकेवली के शिष्य किसी को प्रवजित करते हैं या मूण्डित करते हैं ? [41-2 उ.] हाँ गौतम ! उनके शिष्य भी प्रवजित करते हैं और मुण्डित करते हैं। [3] तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि पवावेज्ज वा मुडावेज्ज वा ? हंता, पवावेज्ज वा मडावेज्ज वा / 41-3 प्र. भगवन् ! क्या उन श्रुत्वाकेवली के प्रशिष्य भी किसी को प्रवजित और मुण्डित करते हैं ? [41-3 उ.] हाँ गौतम ! उनके प्रशिष्य भी प्रव्रजित करते हैं और मुण्डित करते हैं / 42. [1] से णं भंते ! सिज्झति बुज्झति जाव अंतं करेइ ? हंता, सिज्झाइ जाव अंतं करेइ / |42-1 प्र. भगवन् ! वे श्रुत्वाकेवली सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ? [42-1 उ.] हाँ गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं / [2] तस्स णं भंते ! सिस्सा वि सिझति जाव अंतं करेंति ? हंता, सिझंति जाव अंतं करेंति / [42-2 प्र भंते ! क्या उन सोच्चाकेवली के शिष्य भी सिद्ध होते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ? [42-2 उ.] हाँ, गौतम ! वे भी सिद्ध, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। [3] तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि सिझति जाव अंत करेंति ? एवं चेव जाव अंतं करेंति / [42-3 प्र. भगवन् ! क्या उनके प्रशिष्य भी सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ? 42-3 उ. हां, गौतम ! वे भी सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। 43. से णं भंते ! कि उड्ढं होज्जा ? जहेव असोच्चाए (सु. 30) जाव तदेक्कदेसभाए होज्जा। [43 प्र. भंते ! वे सोच्चाकेवली ऊर्ध्वलोक में होते हैं, अधोलोक में होते हैं और तिर्यग्लोक में भी होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 43 उ. हे गौतम ! जैसे (सू. 30 में) असोच्चाकेवली के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए / यावत् वे अढाई द्वीप-समुद्र के एक भाग में होते हैं, यहाँ तक कना चाहिए / 44. ते ण भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ? गोयमा! जहन्नेण एकको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं–१०८ / से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव केवलिउवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाण नो उप्पाडेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरइ। // नवमसयस्स इगतीसइमो उद्देसो // (44 प्र.] भगवन् ! वे सोच्चाकेवली एक समय में कितने होते हैं ? [44 उ.! गौतम / वे एक समय में जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट एक सौ आठ होते हैं। उपसंहार-1 इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि केवली यावत् केवलि-पाक्षिक की उपासिका से धर्मप्रतिपादक वचन सुन कर यावन् कोई जीव केवलज्ञान-केबलदर्शन प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-सोच्चा अवधिज्ञानी के लेश्या आदि का निरूपण----सू. 34 से 44 तक में तथारूप अवधिज्ञानी के लेश्या, ज्ञान, योग, उपयोग, संघयण, संठाण, उच्चत्व, आयुष्य, वेद, कषाय, अध्यवसान, उपदेश, प्रव्रज्यादान, सिद्धि, स्थान एवं एक समय में कितनी संख्या आदि के सम्बन्ध में असोच्चाकेवली के क्रम से ही प्रतिपादन किया गया है। असोच्चा से सोच्चा अबधिज्ञानी की कई बातों में अन्तर-(१) लेश्या-असोच्चा अवधिज्ञानी में तीन ही विशुद्ध लेश्याएं बताई गई हैं, जबकि सोच्चा अवधिज्ञानी में छह लेश्याएं बताई गई हैं। उसका रहस्य यह है कि यपि तीन प्रशस्त भावलेश्या होने पर ही अवधिज्ञान प्राप्त द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से वह सम्यक्त्व श्रुत की तरह छह लेश्याओं में होता है, क्योकि सोच्चाकेवली का अधिकार होने से मनुष्य ही उसका अधिकारी है। इसलिए उक्त लेश्या वाले द्रव्यों तथा उनकी परिणति की अपेक्षा से छह लेश्याओं का कथन किया गया है। (2) ज्ञान-तेले-तेले की विकट तपस्या करने वाले माधु को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है और अवधिज्ञानी में प्रारम्भिक दो ज्ञान (मति-श्रुतज्ञान) अवश्य होने से उसे तीन ज्ञानों मे बतलाया गया है। जो मन पर्यायज्ञानी होता है, उसके अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर अवधिज्ञानी चार ज्ञानों से युक्त हो जाता है। (3) वेद--- यदि अक्षीणवेदी को अवधिज्ञान की उत्पत्ति हो तो वह सवेदक होता है, उस समय या तो वह स्त्रीवेदी तथापि 1. वियाहपण्णत्तिसत्तं भा.१ (मलपाठ-टिप्पण), पृ. 418-420 Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [ 457 होता है या पुरुषवेदी अथवा पुरुषनपुंसकवेदी होता है और अवेदी को अवधिज्ञान होता है तो वह क्षीणवेदी को होता है, उपशान्तवेदी को नहीं होता, क्योंकि आगे इसी अवधिज्ञानी के केवलज्ञान की उत्पत्ति का कथन विवक्षित है / (4) कषाय-कषायक्षय न होने की स्थिति में अवधिज्ञान प्राप्त होता है तो वह जीव सकषायी होता है और कषायक्षय होने पर अवधिज्ञान होता है तो अकषायी होता है। यदि अक्षीणकषायी अवधिज्ञान प्राप्त करता है तो चारित्रयुक्त होने से चार संज्वलन कषायों में होता है, जब क्षपकश्रेणिवर्ती होने से संज्वलन क्रोध क्षीण हो जाता है, तब अवधिज्ञान प्राप्त होता है, तो संज्वलनमानादि तीन कषाय युक्त होता है, जब क्षपकणि की दशा में संज्वलन क्रोध-मान क्षीण हो जाता है तो संज्वलन माया-लोभ से युक्त होता है और जब तीनों क्षीण हो जाते हैं तो वह अवधिज्ञानी एकमात्र संज्वलन लोभ से युक्त होता है।' // नवम शतक : इकतीसवाँ उद्देशक समाप्त / 1 भगवती. अ वत्ति, पत्र 438 Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमो उद्देसओ : 'गंगेय' बत्तीसवाँ उद्देशक : 'गांगेय' उपोद्घात-- 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नगरे होत्था। वण्णओ। दूतिपलासे चेइए / सामी समोसढे / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ / परिसा पडिगया। [1] उस काल, उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था / (उसका वर्णन जान लेना चाहिए)। बहाँ द्युतिपलाश नाम का चैत्य (उद्यान) था। (एक बार) वहाँ भगवान् महावीरस्वामी (पधारे), (उन) का समवसरण लगा। परिषद् बन्दन के लिये निकली। (भगवान् ने) धर्मोपदेश दिया / परिषद् वापिस लौट गई / 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासानच्चिज्जे गंगेए नाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवाच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी [2] उस काल उस समय में पापित्य (पुरुषादानीय भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य) गांगेय नामक अनगार थे। जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वे पाए और श्रमण भगवान् महावीर के न अतिनिकट और न अतिदूर खड़े रह कर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछाचौवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर-उपपात-उद्वर्तन-प्ररूपणा-- 3. संतरं भंते ! नेरइया उववज्जति, निरंतरं नेरइया उववज्जति ? गंगेया ! संतरं पि नेरइया उववज्जंति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जति / [3 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सान्तर (सामयिक व्यवधान सहित) उत्पन्न होते हैं या निरन्तर (लगातार-बीच में समय के व्यवधानबिना) उत्पन्न होते हैं? [3 उ.] हे गांगेय ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। 4. [1] संतरं भंते ! असुरकुमारा उवधज्जंति, निरंतरं असुरकुमारा उववज्जति ? गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववज्जंति, निरंतरं पि असुरकुमारा उववज्जति / [4-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? [4-1 उ.] गांगेय ! वे सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [4-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [ 459 5. [1] संतरं भंते ! पुढविकाइया उववज्जति, निरंतरं पुढविकाइया उववज्जति ? गंगेया ! नो संतरं पुढविकाइया उपवति, निरंतरं पुढविकाइया उववज्जंति / [5-1 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [5-1 उ.] गांगेय ! पृथ्वी कायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते; निरन्तर उत्पन्न होते हैं / [2] एवं जाव वणस्सइकाइया। [5-2] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक जानना चाहिए / 6. बेइंदिया जाव वेमाणिया, एते जहा रइया / / [6] द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर यावत् वैमानिक देवों तक नैरयिकों के समान (उत्पत्ति) जानना चाहिए। 7. संतरं भंते ! नेरइया उन्वटेंति, निरंतर नेरइया उव्वति ? गंगेया ! संतरं पि नेरइया उव्वति , निरंतरं पि नेरइया उन्वति / 17 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव सान्तर उत्तित होते (मरते) हैं या निरन्तर ? [7 उ.] गांगेय ! नैरयिक जीव सान्तर भी उत्तित होते हैं और निरन्तर भी। 8. एवं जाव थणियकूमारा / [8] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक (के उद्वर्तन के सम्बन्ध में) जानना चाहिए / 9. [1] संतरं भंते ! पुढविक्काइया उव्वटंति० ? पुच्छा है। गंगेया ! णो संतरं पुढविक्काइया उव्वति, निरंतरं पुढविक्काइया उन्वति / [6-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्तित होते हैं या निरन्तर ? [1-1 उ.] गांगेय ! पृथ्वीकायिक जीवों का उद्वर्तन (मरण) सान्तर नहीं होता, निरन्तर होता रहता है। [2] एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं, निरंतरं उव्वति / {6-2] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक (के उद्वर्तन के विषय में) जानना चाहिए / ये सान्तर नहीं, निरन्तर उत्तित होते हैं। 10, संतरं भंते ! बेइंदिया उब्वटेंति, निरंतरं बैंदिया उन्वति ? गंगेया ! संतरं पि बेइंदिया उन्वदंति, निरंतरं पि बेइंदिया उव्वति / [10 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों का उद्वर्त्तन (मरण) सान्तर होता है या निरन्तर ? [10 उ.] गांगेय ! द्वीन्द्रिय जीवों का उद्वर्तन सान्तर भी होता है और निरन्तर भी। 11. एवं जाव वाणमंतरा। [11] इसी प्रकार यावत् वाणव्यन्तर तक जानना चाहिए। Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 [प्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र 12. संतरं भंते ! जोइसिया चयंति० ? पुच्छा। गंगेया ! संतरं पि जोइसिया चयंति, निरंतरं पि जोइसिया चयंति / [12 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों का च्यवन (मरण) सान्तर होता है या निरन्तर ? [12 उ.] गांगेय ! ज्योतिष्क देवों का च्यवन सान्तर भी होता है और निरन्तर भी / 13. एवं जाव वेमाणिया वि। [13] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (च्यवन के सम्बन्ध में) जान लेना चाहिए / विवेचन-उपपात-उद्वर्तन : परिभाषा—जीवों के जन्म या उत्पत्ति को उपपात और मरण या च्यवन को उद्वर्तन कहते हैं / वैमानिक और ज्योतिष्क देवों का मरण 'च्यवन' कहलाता है। नारकादि का मरण उद्वर्त्तन / सान्तर और निरन्तर-जीवों की उत्पत्ति आदि में समय आदि काल का अन्तर (व्यवधान) हो तो वह 'सान्तर' कहलाता है, जिसको उत्पत्ति आदि में समय आदि काल का अन्तर (व्यवधान) नहीं होता, वह निरन्तर' कहलाता है / एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु--ये जीव प्रतिसमय उत्पन्न होते और प्रतिसमय मरते हैं / इसलिए उनकी उत्पत्ति और उद्वर्तन सान्तर नहीं, निरन्तर होता है। एकेन्द्रिय के सिवाय शेष सभी जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु में अन्तर सम्भव है। इसलिए वे सान्तर एवं निरन्तर, दोनों प्रकार से उत्पन्न होते और मरते हैं।' पासावच्चिज्जे-पार्वापत्य अर्थात्--पार्श्वनाथ भगवान् के सन्तानीय-शिष्यानुशिष्य / प्रवेशनक : चार प्रकार-- 14. कइविहे णं भंते ! पवेसणए पण्णते? .. गंगेया ! चउब्धिहे पवेसणए पण्णत्ते, तं जहा–नेरइयपवेसणए तिरिक्खजोणियपवेसणए मणुस्सपवेसणए देवपवेसणए। [14 प्र.भगवन् ! प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [14 उ.] गांगेय ! प्रवेशनक चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) नैरयितप्रवेशनक (2) तिर्यग्योनिक-प्रवेशनक, (3) मनुष्य-प्रवेशनक और (4) देव-प्रवेशनक / विवेचन–प्रवेशनक-एक गति से दूसरी गति में प्रवेश करना-जाना, प्रवेशनक है। अर्थात्-एक गति से मर कर दूसरी गति में उत्पन्न होना प्रवेशनक कहलाता है। गतियाँ चार होने से प्रवेशनक भी चार प्रकार का ही है। --- -- -- - - - 1. भगवतीसूत्र (अर्थ-विवेचन) भा 4 (पं घेवरचंदजी), पृ 1617 2 वही, पृ 1617 3. गत्यन्तरादुवृत्तस्य विजातीयगतो जीवस्य प्रवेशनं उत्पाद इत्यर्थः / -~भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 442 Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [461 नवम शतक : उद्देशक-३२] नरयिक-प्रवेशनक निरूपण 15. नेरइयपवेसणए गं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा--रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए। [15 प्र.] भगवन् ! नैरपिक-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [15 उ.] गांगेय ! (नैरयिक-प्रवेशनक) सात प्रकार का कहा गया है, जैसे कि रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक-प्रवेशनक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक-प्रवेशनक / विवेचन-नैरयिक-प्रवेशनक सात ही क्यों ? ---नरक सात हैं और नैयिक जीव रत्नप्रभा आदि नरकों में से किसी भी एक नरक में उत्पन्न होता है, अतः उसके सात ही प्रवेशनक हो सकते हैं / यथा-रत्नप्रभा-प्रवेशनक, शर्कराप्रभा-प्रवेशनक आदि / ' एक नरयिक के प्रवेशनक-भंग 16. एगे भंते ! नेरइए नेरइयपवेसणए णं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होम्जा, सक्करप्पभाए होज्जा, जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 // |16 प्र. भते ! क्या एक नैरयिक जीव नैरयिकप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुआ रत्नप्रभापृथ्वी में होता है, या शर्कराप्रभा-पृथ्वी में होता है अथवा यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी में होता है ? [16 उ.] गांगेय ! वह नैरयिक रत्नप्रभा-पृथ्वी में होता है, या यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी में होता है। विवेचन-एक नैरथिक के असंयोगी सात प्रवेशनक भंग–यदि एक नारक रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्पन्न (प्रविष्ट) हो तो उसके सात विकल्प होते हैं। जैसे कि--(१) या तो वह रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है, (2) या शर्कराप्रभा-पृथ्वी में, (3 से 7) या इसी तरह आगे एक-एक पृथ्वी में यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है / इस प्रकार असंयोगी सात भंग होते हैं / उत्कृष्ट प्रवेशनक के सिवाय सभी नरकभूमियों में असंयोगी सात ही विकल्प होते हैं। दो नरयिकों के प्रवेशनक भंग-- 17. दो भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणए णं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा / / अहवा एगे रयणप्पभाए हुज्जा, एगे सक्करप्पभाए होज्जा 1 / अह्वा एगे रयणप्पभाए, एगे बालुयप्पभाए होज्जा 2 / जाव एगे रयणप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 3-4-5-6 / अहवा एगे 1. वियाहपण्णतिसुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 422 2 (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 442 (ख) भगवती. (पं. घेवरचंदजी) भा. 4, पृ. 1619. Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा 7 / जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 8-6-10-11 / अहवा एगे बालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होज्जा 12 / एवं जाव अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 13-14-15 / एवं एक्केक्का पुढवी छड्डेयव्वा जाव अहवा एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 16-17-18-19-20-21 / [17 प्र. भगवन् ! दो नै रयिक जीव, नैयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में ? [17 उ.] गांगेय ! वे दोनों (1) रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, अथवा (2-7) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं / अथवा (1) एक रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है और एक शर्कराप्रभापृथ्वी में / अथवा (2) एक रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है, और एक वालुकाप्रभापृथ्वी में (3-4-5-6) / अथवा यावत् एक रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है, और एक अधःसप्तमपृथ्वी में / (अर्थात्-एक रत्नप्रभापृथ्वी में और एक पंकप्रभापृथ्वी में, एक रत्नप्रभापृथ्वी में और एक धूमप्रभापृथ्वी में, एक रत्नप्रभापृथ्वी में और एक तमःप्रभापृथ्वी में, या एक रत्नप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है / इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ छह विकल्प होते हैं। (7) अथवा एक शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है और एक बालुकाप्रभा में, अथवा (8-6-10-11) यावत् एक शर्कराप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है और एक अधःसप्तम पृथ्वी में / (अर्थात्-एक शर्कराप्रभा में और एक पंकप्रभा में; एक शर्कराप्रभा में और एक धूमप्रभा में; एक शर्कराप्रभा में और एक तमःप्रभा में; अथवा एक शर्कराप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में उत्पन्न होता है / इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ पांच विकल्प हुए / ) (12) अथवा एक बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में उत्पन्न होता है; (13-14-15) अथवा इसी प्रकार यावत् एक बालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है / (अर्थात्-अथवा एक बालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में; या एक बालुकाप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में उत्पन्न होता है। इस प्रकार बालुकाप्रभा के साथ चार विकल्प हुए)। (16-17-18-16-20-21) इसी प्रकार (पूर्व-पूर्व की) एक-एक पृथ्वी छोड़ देनी चाहिए; यावत् एक तमःप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में उत्पन्न होता है / (अर्थात् --एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में ; एक पंकप्रभा में और एक तम:प्रभा में या एक पंकप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में, यों तीन विकल्प पंकप्रभा के साथ तथा एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में या एक धूमप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में ; यों दो विकल्प धूमप्रभा के साथ तथा एक तमःप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में उत्पन्न होता है, यों एक विकल्प तमःप्रभा के साथ होता है)। विवेचन-दो नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग-दो नै रयिकों के कुल प्रवेशनक-भंग 28 होते हैं / जिनमें से एक-एक नरक में दोनों नैरयिकों के एक साथ उत्पन्न होने की अपेक्षा से 7 भंग होते हैं। दो नरकों में एक-एक नैरयिक की एक साथ उत्पत्ति होने की अपेक्षा से द्विकसंयोगी कुल 21 भंग होते हैं, जिनमें रत्नप्रभा के साथ 6, शर्कराप्रभा के साथ 5, बालुकाप्रभा के साथ 4, पंकप्रभा के साथ 3, Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . नवम शतक : उद्देशक-३२] [463 धूमप्रभा के साथ 2 और तमःप्रभा के साथ 1; इस प्रकार कुल मिलाकर 21 भंग होते हैं / दो नै रयिकों के असंयोगी 7 और द्विकसंयोगी 21, ये दोनों मिला कर कुल 28 भंग (विकल्प) होते हैं।' तीन नरयिकों के प्रवेशनक-भंग 18. तिणि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणए णं पविसमाणा कि रणयप्पभाए होज्जा जाद अहेसत्तमाए होज्जा? गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसतमाए वा होज्जा / 7 // अहवा एगे रयणप्पभाए, दो सक्करप्पभाए होज्जा 1 / जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, दो अहेसत्तमाए होज्जा, 2-3-4-5-6 / अहवा दो रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए होज्जा 1 / जाव अहवा दो रयणप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 2-3-4-5.6=12 // अहवा एगे सक्करप्पभाए, दो बालुयप्पभाए होज्जा 1 / जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए, दो अहेसतमाए होज्जा, 2-3-4-5 = 17 / अहवा दो सक्करप्पभाए, एगे वालयप्पभाए होज्जा 1 / जाव अहवा दो सक्करपभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 2-3-4-5= 22 / एवं जहा सक्करप्पभाए वत्तन्धया भणिया तहा सव्वपुढवीणं भाणियव्या, जाव अहवा दो तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा / 4-4, 3-3, 2-2, 1-1, = 42 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए होज्जा 1 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होज्जा 2 / जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगेसक्करप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 3-4-5 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा 6 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा 7 / एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 8-9 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा 10 / जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 11-12 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे धूमप्यभाए, एगे तमाए होज्जा 13 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 14 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 15 // अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होज्जा 16 / अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा 17 / जाब अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 1819 / अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा 20 / जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा, 21-22 / अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 23 / अहवा एगे सक्करप्पभाए, एगे धूमप्प०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 24 / अहया एगे सक्करप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 25 / अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए होज्जा 26 / अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पमाए, एगे तमाए 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 442, (ख) भगवती. भा. 4 (पं घेवरचंदजी), पृ 1621 Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होज्जा 27 / अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 28 / अहवा एगे वालयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 29 / अहवा एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमपभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 30 / अहवा एगे वालयप्पभाए. एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 31 / अहवा एगे पंकप्पमाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 32 / अहवा एगे पंकप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 33 / अहवा एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 34 / अहवा एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 35 / 84 / [18 प्र.] भगवन् ! तीन नैरयिक नै रयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? [18 उ.] गांगेय ! वे तीन नैरयिक (एक साथ) रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तम में उत्पन्न होते हैं / (1) अथवा एक रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में; अथवा (2-3-4-5-6) यावत् एक रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। (इस प्रकार 1-2 का रत्नप्रभा के साथ अनुक्रम से दूसरे नरकों के साथ संयोग करने से छह भंग होते हैं)। (1) अथवा दो नैरयिक रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में उत्पन्न होते है / (2-3-4-56) अथवा यावत् दो जीव रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस प्रकार 2-1 के भी पूर्ववत् 6 भंग होते हैं)। (1) अथवा एक शर्कराप्रभा में और दो बालुकाप्रभा में होते हैं, (2-3-4-5) अथवा यावत् एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ 1-2 के पांच भंग होते हैं। (1) अथवा दो शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है, अथवा (2-3-4-5) यावत् दो शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होता है। (इस प्रकार 2-1 के पूर्ववत् पांच भंग होते हैं)। जिस प्रकार शर्कराप्रभा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार सातों नरकों की वक्तव्यता, यावत दो तमःप्रभा में और एक तमस्तम:प्रभा में होता है, यहाँ तक जानना चाहिए / (इस प्रकार 6+6+ 5+5=22 तथा 4-4, 3-3, 2-2, 1-1 = कुल 42 भंग हुए) अथवा (1) एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रा में और एक बालुकाप्रभा में (2) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है / अथवा (3-4-5) यावत् एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा के साथ 5 विकल्प होते हैं / ) अथवा (6) एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। (7) अथवा एकरत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है / (8-6) इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। इस प्रकार रत्नप्रभा और बालुकाप्रभा के साथ 4 विकल्प होते हैं / Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [ 465 अथवा (10) एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धमप्रभा में होता है; (11-12) यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / ( इस प्रकार वालुकाप्रभा को छोड़ने पर रत्नप्रभा और पंकप्रभा के साथ तीन विकल्प होते हैं / ) अथवा (13) एक रत्नप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है; (14) अथवा एक रत्नप्रभा में एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार पंकप्रभा को छोड़ देने पर, रत्नप्रभा और धूमप्रभा के साथ दो विकल्प होते हैं / ) (15) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (धूमप्रभा को छोड़ देने पर यह एक विकल्प होता है / ) इस प्रकार रत्नप्रभा के 5+4+3+2+1= 15 विकल्प होते हैं। (16) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है; (17) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है; (18-19) यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के साथ चार विकल्प होते हैं / ) (20) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है; (21-22) यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार बालुकाप्रभा को छोड़ देने पर शर्कराप्रभा और पंकप्रभा के साथ तीन विकल्प होते हैं।) (23) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है। (24) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस प्रकार पंकप्रभा को छोड़ देने पर, शर्कराप्रभा और धूमप्रभा के साथ दो विकल्प होते हैं / ) (25) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस प्रकार धूमप्रभा को छोड़ देने पर एक विकल्प होता है। यों शर्कराप्रभा के साथ 4+3+2+1=10 विकल्प होते हैं / ) (26) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है / (27) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तम:प्रभा में होता है; (28) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। अथवा (26) एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (30) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (31) अथवा एक बालूकाप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार बालुकाप्रभा के साथ 3+2+1= 6 विकल्प होते हैं।) (32) अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तम:प्रभा में होता है / (33) अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (यों पंकप्रभा और धूमप्रभा के साथ दो विकल्प होते हैं।) (34) अथवा एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार पंकप्रभा के साथ 2+1=3 विकल्प होते हैं / ) Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (35) अथवा एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस तरह धूमप्रभापृथ्वी के साथ एक विकल्प होता है / ) (र. १५+श. १०+वा. ६+-पं. 3 धू. 1, यो त्रिकसंयोगी कुल भंग 35 होते हैं / ) विवेचन--तीन नरयिकों के नरकप्रवेशनकभंग-यदि तीन जीव नरक में उत्पन्न हों तो उनके असंयोगी (एक-एक) भंग 7, द्विक संयोगी 42 और त्रिक संयोगी 35, ये सब मिल कर 84 भंग होते हैं / जो ऊपर बतला दिए गए हैं / ' चार नरयिकों के प्रवेशनकभंग 19. चत्तारि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणए णं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ? पुच्छा / गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा हाज्जा 7 / अहवा एगे रयणप्पभाए, तिणि सक्करप्पभाए होज्जा 1 / अहवा एगे रयणप्पभाए, तिपिण बालुयप्पभाए होज्जा 2 / एवं जाव' अहवा एगे रयणप्पभाए, तिम्णि अहेसत्तभाए होज्जा 3-6 / अहवा दो रयणप्पभाए, दो सक्करप्पभाए होज्जा 1, एवं जाव' अहवा दो रयणप्पभाए, दो अहेसत्तमाए होज्जा 2-6 = 12 / ___ अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा 1 / एवं जाव अहवा तिणि रयणप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-6- 18 / अहवा एगे सक्करप्पभाए, तिणि वालुयप्पभाए होज्जा 1, एवं जहेव रयणप्पभाए उपरिमाहि समं चारियं तहा सक्करप्पभाए वि उरिमाहिं समं चारियव्वं 2-15= 33 / एवं एककेक्काए समं चारेयत्वं जाव अहवा तिणि तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 15-15= अहवा एगे रयणप्यभाए, एगे सक्करप्पमाए, दो बालुयप्पभाए होज्जा 1 / अहवा एगे रयण . --. -- -.. 1. भगवती--अ. वत्ति. पत्र 442 2. 'जाव' पद से-'अहवा एगे रयणप्पभाए, तिणि पंकप्पभाए होज्जा 3 / अहवा एगे रयणप्पभाए, तिणि धूमप्प भाए होज्जा 4 // अहवा एगे रयणप्पभाए, तिष्णि तमध्यभाए होज्जा 5 / ' इस प्रकार तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भंग समझना चाहिए। 3. इसी प्रकार 'जाव' पद से---'अहवा दो रयणप्पभाए, दो वालुयप्पभाए होज्जा, 2 / अहवा दो रयणप्पभाए, दो __पंकप्पभाए होज्जा 3 / अहवा दो रयणप्पभाए, दो घूमप्पभाए होज्जा 4 / अहवा दो रयणप्पभाए, दो तमाए होज्जा।' इस प्रकार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम भंग समझना चाहिए। 4. एवं 'जाब' पद से--'अहवा तिणि रयणप्पभाए, एये वालुयप्पभाए 2 / अहवा तिण्णि रयणपभाए, एगे पंकल्प भाए 3 / अहवा तिण्णि रयणप्पभाए, एगे धूमप्पभाए 4 / अहवा तिष्णि रयणप्पभाए, एगे तमाए 5 / ' इस प्रकार द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम भंग समझना / Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ [ 467 प्पभाए, एगे सक्कर०, दो पंकप्पभाए होज्जा 2 / एवं जाव एगे रयणप्पभाए, एगे सक्कर०, दो अहेसत्तमाए होज्जा 3-4-5 // अहवा एगे रणय०, दो सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए होज्जा 1 / एवं जाव अहवा एगे रयण, दो सक्कर०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-3-4-5 = 10 / अहवा दो रयण०, एगे सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए होज्जा 1 =11 / एवं जाव अहवा दो * रयण, एगे सक्कर०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5= 15 / अहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, दो पंकप्पभाए होज्जा 1 =16 / एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालय०, दो अहेसत्तमाए होज्जा 2-3-4 = 19 / एवं एएणं गमएणं जहा तिण्हं तियजोगो तहा भाणियन्बो जाव अहवा दो धूमप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 105 / ___अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालुयप्पभाए, एगे पंकप्पभाए होज्जा 1 / अहवा एगे रयणपभाए, एगे सक्कर०, एगे वालय०, एगे धूमप्पभाए होज्जा 2 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे वालुय०, एगे तमाए होज्जा 3 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्करप्पभाए, एगे वालयप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे धूमप्पभाए 1=5 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंकप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 2-6 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3-7 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे सक्कर०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 1 =8 / अहवा एगे रयण०, एमे सक्कर०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-9 / अहवा एगे रयण०, एगै सक्करप्पभाए, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1 = 10 / अहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूमप्पभाए होज्जा 1-11 / अहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे तमाए होज्जा 2-12 / अहबा एगे रयण०, एगे बालुय०, एगे पंक०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3-13 / प्रहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 1-14 / अहवा एगे रयणप्पभाए, एगे वालुय०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-15 / अहवा एगे रयण०, एगे वालय०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1-16 / अहवा एगे रयण०, एमे पंक०, एगे धम०, एगे तमाए होज्जा 1-17 / अहवा एगे रयण०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-18 / अहवा एगे रयण०, एगे पंक०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1-19 / अहवा एगे रयण 0, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1.20 / अहवा एगे सकर०, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूमप्पभाए होज्जा 1-21 / एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाओ चारियव्वाओ जाव अहवा एगे सक्कर०, एगे धम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 10-30 / अहवा एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 1.--.31 / अहवा एगे बालुय०, एगे पंक०, एगे धूमप्पभाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2-32 / अहवा एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3-33 / अहवा एगे वालुय०, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4-34 / अहवा एगे पंक०, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1-35 / Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 / | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! नैरयिकप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए चार नैरयिक जीव क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] 'गांगेय ! वे चार नै रयिक जीव रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार असंयोगी सात विकल्प और सात ही भंग होते हैं / ) (द्विकसंयोगी तिरेसठ भंग)--- (1) अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं; (2) अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन बालुकाप्रभा में होते हैं; (3-4-5-6) इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ 1-3 के 6 भंग होते हैं।) (7) अथवा दो रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं; (8-6-10-11-12) इसी प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (यों रत्नप्रभा के साथ 2-2 के छह भंग होते हैं।) (13) अथवा तीन रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है; (14-18) इसी प्रकार यावत अथवा तीन रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमपथ्वी में होता है। इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ 3-1 के 6 भंग होते हैं / यो रत्नप्रभा के साथ कुल भंग 6+6+6=18 हुए / ) (1) अथवा एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं / जिस प्रकार रत्नप्रभा का आगे की नरकपृथ्वियों के साथ संचार (योग) किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा का भी उसके पागे की नरकों के साथ संचार करना चाहिए। (इस प्रकार शकराप्रभा के साथ 1-3 के 5 भंग, 2-2 के 5 भंग, एवं 3-1 के 5 भंग, यों कुल मिलाकर 15 भंग हुए।) इसी प्रकार आगे की एक-एक (बालुकाप्रभा पंकप्रभा, आदि) नरकवियों के साथ योग करना चाहिए। (इस प्रकार बालुकाप्रभा के साथ भी 1-3 के 4, 2-2 के 4 और 3-1 के 4 यों कुल 12 भंग पंकप्रभा के साथ 1-3 के 3, 2-2 के 3 और 3-1 के 3, यों कुल 6 भंग, तथा धमप्रभा के साथ 1-3 के 2, 2-2 के 2, और 3-1 के 2, तथा तमःप्रभा के साथ 1-3 का 1, 2-2 का १और 3-1 का 1 होता है। यावत अथवा तीन तमःप्रभा में और एक तमस्तम प्रभा में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए / (इस प्रकार द्विकसंयोगी कुल 63 भंग हए।) (त्रिकसंयोगी 105 भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दं बालुकाप्रभा में होते हैं। (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं / (3-4-5' इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते (इस प्रकार 1-1-2 के पाँच भंग हुए / ) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में दो शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है; (2 से 5 इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में दो शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होत है / इसी प्रकार 1-2-1 के भी पांच भंग हुए। (1) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ 1 [ 469 (2 से 5) इसी प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार 2-1-1 के पाँच भंग हुए।) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं / इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं (2-3-4) / (इस प्रकार रत्नप्रभा और बालुकाप्रभा के साथ 4 भंग होते हैं / ) इसी प्रकार के अभिलाप द्वारा जैसे तीन नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार चार नरनिकों के भी त्रिकसंयोगी भंग जानना चाहिए; यावत् दो धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक तमस्तमःप्रभा में होता है / (इस प्रकार त्रिकसंयोगी कुल 105 भंग हुए।) (चतुःसंयोगी 35 भंग-) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकपभा में होता है / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है, (3) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है। (4) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक अध:सप्तम पृथ्वी में होता है / (ये चार भंग हुए।) / (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धमप्रभा में होता है / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (3) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है / (इस प्रकार ये तीन भंग हुए।) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार ये दो भंग हुए / ) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अध:सप्तम पृथ्वी में होता है / (यह एक भंग हुआ / ) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धमप्रभा में होता है। (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में एक पंकप्रभा में और एक होता है। (3) अथवा एक रत्न में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमपृश्वी में होता है / (ये तीन भंग हुए।) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है। (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है / (ये दो भंग हुए।)। (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (यह एक भंग हुआ।) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (ये दो भंग होते हैं।) Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470] শ্ৰাক্তামনি (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (यह एक भंग) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक धमप्रभा में एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (यह एक भंग हुप्रा / इस प्रकार रत्नप्रभा के संयोग वाले 4+3+2+1+3+2+1+2+1+1 - 20 भंग होते हैं / ) (1) अथवा एक शर्कराप्रभा में एक बालुकाप्रभा में एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। जिस प्रकार रत्नप्रभा का उससे आगे की पृथ्वियों के साथ संचार (योग) किया उसी प्रकार शर्कराप्रभा का उससे आगे की पृथ्चियों के साथ योग करना चाहिए यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तम:प्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार शर्कराप्रभा के संयोग वाले 10 भंग होते हैं / ) (1) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (2) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (3) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अध सप्तमपृथ्वी में होता है / (इस तरह बालुकाप्रभा के संयोग वाले 4 भंग हुए।) (1) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है अथवा एक पंकप्रभा में एक धूमप्रभा में, एक तम:प्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / इस प्रकार सब मिल कर चतुःसंयोगी भंग 20+10+4+ 1 = 35 होते हैं / तथा चार नैर्रायक, प्राश्रयी असंयोगी 7, द्विकसंयोगी 63, त्रिकसंयोगी 105 और चतुःसंयोगी 35, ये सब 210 भंग होते हैं / ) विवेचन-चार नरयिकों के प्रवेशनक भंग-चार नैरपिकों के 1-3, 2-2,3-1 इस प्रकार के द्विकसंयोगी भंग तीन होते हैं। उनमें से रत्नप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों का संयोग करने से 1-3 के 6, 2-2 के 6, और 3-1 के 6, यो 18 भंग हुए / इसी प्रकार शर्कराप्रभा के साथ पूर्वोक्त तीनों विकल्पों के 5+5+5= 15 भंग, इसी प्रकार बालुकाप्रभा के साथ पूर्वोक्त तीनों विकल्पों के 4+4+4=12, भंग होते हैं / तथा पंकप्रभा के साथ पूर्वोक्त तीनों विकल्प भी 3+3+3= भंग, एवं धूमप्रभा के साथ 2+2+2% 6 भंग तथा तमःप्रभा के साथ 1+1+1=3 भंग होते हैं। सभी मिलकर द्विकसंयोगी 63 भंग बताए गए। उनमें से रत्नप्रभा के साथ संयोग वाले 18 भंग ऊपर बता दिये गए हैं / इसी प्रकार शर्कराप्रभा के साथ आगे की पृथ्वियों का योग करने से 1-3 के 5 भंग होते हैं / यथा---एक शर्कराप्रभा में और तीन बालुकाप्रभा आदि में होते हैं / इसी तरह 2-2 के भी पाँच भंग होते हैं-दो शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा आदि में होते हैं / यों शर्कराप्रभा के साथ संयोग वाले 5 भंग हुए / इसी प्रकार 3-1 के भी शर्कराप्रभा के संयोग वाले 5 भंग होते हैं / यथा--तीन शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा आदि में होता है / इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ संयोग वाले कुल 15 भंग हुए / बालुकाप्रभा के साथ आगे की पृथ्वियों का संयोग करने से 4 भंग होते हैं, जो मूल पाठ में बतला दिये हैं / उन्हें पूर्वोक्त तीन विकल्पों से गुणा करने पर कूल 4+4+4= 12 भंग होते हैं / इसी प्रकार पंकप्रभा के साथ आगे की पृथ्वियों का संयोग करने पर तथा तीन विकल्पों से गुणा करने पर कुल 6 भंग होते हैं / इसी प्रकार धूमप्रभा के साथ 6 भंग तथा तमःप्रभा के साथ 3 भंग होते हैं / यों उत्तरोत्तर आगे की पृथ्वियों के साथ संयोग करने से ऊपर Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [471 बताए अनुसार रत्नप्रभा के 18 शर्कराप्रभा के 15, बालुकाप्रभा के 12, पंकप्रभा के 6, धूमप्रभा के 6 और तमःप्रभा के 3, ये कुल मिला कर चार नैरयिकों के द्विसंयोगी 63 भंग होते है / चार नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग----१०५ होते हैं। यथा चार नैरयिकों के 1-1-2, 1-2-1 और 2-1-1 ये तीन भंग एक विकल्प के होते हैं, इनको रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा के साथ बालुकाप्रभा आदि आगे की पृथ्वियों के साथ संयोग करने पर 5 विकल्प होते हैं। पूर्वोक्त तीन भंगों के साथ गुणा करने पर 15 भंग होते हैं / इसी प्रकार इन तीन भंगों द्वारा रत्नप्रभा और वालुकाप्रभा का आगे की पृथ्वियों के साथ संयोग करने से कुल 12 भंग होते हैं / रत्नप्रभा और पंकप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों का संयोग करने पर कुल ह भंग होते हैं / रत्नप्रभा और धूमप्रभा का संयोग करने पर 6 भंग, तथा रत्नप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं। इस प्रकार रत्नप्रभा के संयोग वाले कुल भंग 15+12+6+6+3= 45 होते हैं। पूर्वोक्त तीन विकल्पों द्वारा शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के साथ संयोग करने पर 12, शर्कराप्रभा और पंकप्रभा के साथ संयोग करने पर , शर्कराप्रभा और धमप्रभा के साथ संयोग करने पर 6, तथा शर्कराप्रभा और तमःप्रभा का संयोग करने पर 3 भंग होते हैं / इस प्रकार शर्कराप्रभा के साथ संयोग वाले कुल भंग 12+6+6+3 =30 होते हैं। पूर्वोक्त तीन विकल्पों द्वारा बालुकाप्रभा और पंकप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों का संयोग करने पर 6, बालुकाप्रभा और धमप्रभा के साथ 6 तथा बालुकाप्रभा और तमःप्रभा के साथ सयोग करने से 3 भंग होते हैं। इस प्रकार बालूकाप्रभा के साथ संयोग वाल कूल भंग 6+6+3= 18 होते हैं / पूर्वोक्त तीन विकल्पों द्वारा पंकप्रभा और धूमप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों का संयोग करने पर ह, पंकप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग वाले 3 भंग होते हैं / यों पंकप्रभा के संयोग वाले कूल भंग +3-12 होते हैं। पूर्वोक्त तीन विकल्पों द्वारा पंकप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग करने पर तीन भंग होते हैं / पूर्वोक्त तीन विकल्पों के द्वारा धमप्रभा और तमःप्रभा के साथ संयोग वाले 3 भंग होते हैं / इस प्रकार त्रिकसंयोगी समस्त भंग 45+30+18+ +3 = 105 होते हैं।' उपर्युक्त पद्धति से चार नैरयिकों के चतुःसंयोगी 35 भंग होते हैं, जिनका उल्लेख मूलपाठ में कर दिया है / यों चार नैयिकों की अपेक्षा से असंयोगी 7, द्विकसंयोगी 63, त्रिकसंयोगी 105 और चतु:संयोगी 35, यो कुल 210 भंग होते हैं / पंच नरयिकों के प्रवेशनकभंग 20. पंच भंते ! मेरइया नेरइयप्पवेसणए णं पविसमाणा कि रयणप्पमाए होज्जा ? पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / पाँच नरयिकों के द्विसंयोगी भंग अहवा एगे रयण०, चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा 1 / जाव अहवा एगे रयण०, चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा 6 / अहवा दो रयण तिष्णि सक्करप्पभाए होज्जा 1-7 / एवं जाव अहवा दो 1. (क) वियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा-१, पृ. 424 से 426 तक (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 442 Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रयणप्पभाए, तिणि अहेसत्तमाए होज्जा 6=12 / अहवा तिण्णि रयण०, दो सक्करप्पभाए होज्जा 1.13 / एवं जाव अहेसत्तमाए होज्जा 6 = 18 / अहवा चत्तारि रयण, एगे सक्करप्पभाए होज्जा 1-19 / एवं जान अहवा चत्तारि रयण, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 6 -- 24 / अहवा एगे सक्कर०, चत्तारि बालुयप्पभाए होज्जा 1 / एवं जहा रमणप्यभाए समं उवरिभपुढबीओ चारिमाओ तहा सक्करप्पभाए वि समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 20 / एवं एक्केक्काए समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 84 / पाँच नैरयिकों के त्रिसंयोगी भंग ___ अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, तिण्णि वालुप्पभाए होज्जा 1 / एवं जाव अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, तिणि अहेसत्तमाए होज्जा 5 / अहवा एगे रयण, दो सक्कर०, दो वालुयप्पभाए होज्जा 1-6 / एवं जाव अहवा एगे रयण 0, दो सक्कर०, दो अहेसत्तमाए होज्जा 5.10 / अह्वा दो रयणप्यभाए, एगे सकरप्पभाए, दो वालयप्पभाए होज्जा 1-11 / एवं जाव अहवा दो रयणग्यभाए, एगे सक्करप्पभाए, दो अहेसत्तमाए होज्जा 5-15 / अहवा एगे रयण०, तिण्णि सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए होज्जा 1-16 / एवं जाव अहवा एगे रयण, तिणि सक्कर०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5.20 / अहवा दो रयण, दो सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए होज्जा 1-21 / एवं जाव दो रयण, दो सक्कर०, एगे अहेसत्तमाए 5-25 / अहवा तिण्णि रयण०,एगे सक्कर०, एगे बालुयप्पभाए होज्जा 1.26 / एवं जाव अहवा तिष्णि रयण, एगे सक्कर०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5-30 / अहवा एगे रयण०, एगे वालय०, तिण्णि पंकप्पभाए होज्जा 1-31 / एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तियसंजोगो भणितो तहा पंचण्ह वितियसंजोगो भाणियन्वो; नवरं तत्थ एगो संचारिज्जइ, इह दोण्णि, सेसं तं चेव, जाव अहवा तिणि धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 210 / पंच नैरयिकों के चतुःसंयोगी भंग अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे वालुय०, दो पंकप्पभाए होज्जा 1 / एवं जाव अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर० एगे वालुय०, दो अहेसत्तमाए होज्जा 4 / अहवा एगे रयण० एगे सक्कर दो वालय०, एगे पंकप्पषभाए होज्जा 1-5 / एवं जाव अहेसत्तमाए 4-8 / अहवा एगे रयण०, दो सश्करप्पभाए, एगे वालुय०, एगे पंकप्पभाए होज्जा 1-9 / एवं जाव अहवा एगे रयण०, दो सक्कर०, एगे वालुय०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4-12 / अहवा दो रयण०, एगे सक्कर०, एगे वालय०, एगे पंकप्पभाए होज्जा 1-13 / एवं जाव अहवा दो रयण०, एगे सक्कर०, एगे वालप०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4-16 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, दो धूमप्यभाए होज्जा 1-17 / एवं जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो भणिओ तहा पंचण्ह वि चउक्कसंजोगो भाणियब्वो, नवरं अभहियं एगो संचारेयनो, एवं जाब अहवा दो पंक०, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 140 / __ अहवा 1-1-1-1-1 एगे रथण०, एगे सक्कर, एगे वालय, एगे पंक०, एगे धूमप्पभाए होज्जा 1 / प्रहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे बालुय०, एगे पंक०, एगे तमाए होज्जा 2 / प्रहवा एगे Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ ] [473 रयण, जाव एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे वालुयप्पभाए, एगे धूमप्पभाए, एगे तमाए होज्जा 4 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे बालुय०, एगे धूमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे वालय 0, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 6 / अह्वा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 7 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा 8 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, एगे पंक०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 9 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, एगे धूम०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 10 / अहवा एगे रयण०, एगे वालय०, एगेपंक०, एगे धूम०, एगे तमाए होज्जा 11 / अहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 12 / अहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 13 / अहवा एगे रयण, एगे वालुय०, एग धूम०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 14 / अहवा एगे रयण०, एगे पंक०, जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 15 / अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय० जाव एगे तमाए होज्जा 16 / अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 17 / अहवा एगे सक्कर०, जाव एगे पंक०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 18 / अहवा एगे सक्कर०, एगे वालुय०, एगे धूम०, एगे तमाए, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 19 / अहवा एगे सक्कर०, एगे पंक०, जाव एगे अहेससमाए होज्जा 20 / अहवा एगे वालय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 21 / 462 / 20 प्र. भगवन् ! पांच नैरयिक जीव, नैयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पृच्छा / [20 उ.] गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं / (इस प्रकार असंयोगी सात भंग होते हैं।) (द्विकसंयोगी 84 भंग-) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा में होते हैं; (2-6) यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तम-पृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार रत्नप्रभा के साथ 1-4 शेष पृथ्वियों का योग करने पर 6 भंग होते हैं / (1) अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं; (2-6) इसी प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (यों 2-3 से 6 भंग होते हैं / ) (1) अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं। 2-6 इसी प्रकार यावत् अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (यों 3-2 से 6 भंग होते हैं 1) (1) अथवा चार रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है, (2-6) यावत् अथवा चार रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार 4-1 से 6 भंग होते हैं / यो रत्नप्रभा के साथ शेष पृथ्वियों के संयोग से कुल चौवीस भंग होते हैं / ) (1) अथवा एक शर्कराप्रभा में और चार बालुकाप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा के साथ (1-4, 2-3, 3-2 और 4-1 से आगे की पृथ्वियों का संयोग किया, उसी प्रकार शर्कराप्रभा Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के साथ संयोग करने पर बीस भंग (5+5+5+5=-20) होते हैं / यावत् अथवा चार शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। इसी प्रकार बालुकाप्रभा आदि एक-एक पृथ्वी के साथ आगे की पृथ्वियों का (1-4; 2-3, 3-2 और 4-1 से) योग करना चाहिए; यावत् चार तमःप्रभा में और एक अधःसप्तम-पृथ्वी में होता है। विवेचन—पांच नैरयिकों के द्विकसंयोगी भंग- इसके 4 विकल्प होते हैं यथा---१-४, 2-3, 3-2, और 4-1 / रत्नप्रभा के द्विकसंयोगो 6 भंगों के साथ 4 विकल्पों का गुणा करने पर 24 भंग होते हैं / शर्कराप्रभा के साथ 5 भंगों से 4 विकल्पों का गुणा करने पर 20, बालुकाप्रभा के साथ१६, पंकप्रभा के साथ 12, धूमप्रभा के साथ 8 और तमःप्रभा के साथ 4 भंग होते / इस प्रकार कूल 24.20+16+12+ +4= 84 भंग द्विकसंय (त्रिकसंयोगी 210 भंग-) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन बालुकाप्रभा में होते हैं / इसी प्रकार यावत्-अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन अध:सप्तम पृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार एक, एक और तीन के रत्नप्रभा-शर्कराप्रभा के साथ संयोग से पांच भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और दो बालुकाप्रभा में होते हैं; इसी प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (इस प्रकार एक, दो, दो के संयोग से पांच भंग होते हैं / ) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो बालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तम पृथ्वी में होते हैं। (यों दो, एक, दो के संयोग से 5 भंग होते हैं।) अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में, और एक बालुकाप्रभा में होता है। इसी प्रकार यावत अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्करा प्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस प्रकार एक, तीन, एक के संयोग से पांच भंग होते हैं।) अथवा दो रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है। इसी प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा, दो शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (इस प्रकार दो, दो एक के संयोग से 5 भंग हुए) अथवा तीन रत्नप्रभा में एक शर्कस प्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है / इस प्रकार यावत् तीन रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (यों 3-1-1 के संयोग से 5 भंग होते हैं / विवेचन--पांच नैरयिकों के त्रिक संयोगी भंग-त्रिकसंयोगी विकल्प 6 होते हैं / यथा१-१-३, 1-2-2, 2-1-2, 1-3-1, 2-2-1, और 3-1-1 ये 6 विकल्प / प्रत्येक नरक के साथ 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 444 Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [475 संयोग होने से प्रत्येक के 5-5 भंग होते हैं / यों 745-35 भंग हुए / इन 35 भंगों को 6 विकल्पों के साथ गुणा करने से 3546=210 भंग कुल होते हैं।' अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और तीन पंकप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार चार नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार पांच नैरयिकों के भी त्रिकसंयोगी भंग जानना चाहिए / विशेष यह है कि वहाँ 'एक' का संचार था, (उसके स्थान पर) यहाँ दो का संचार करना चाहिए। शेष सब पूर्ववत जान लेना चाहिए; यावत अथवा तीन धमप्रभा में, एक तमःप्रभा में, और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है; यहाँ तक कहना चाहिए। त्रिकसंयोगी भंग- इनमें से रत्नप्रभा के संयोग वाले 60, शर्कराप्रभा के संयोग वाले 60, बालुकाप्रभा के संयोगवाले 36, पंकप्रभा के संयोग बाले 18, और धूमप्रभा के संयोग वाले 6 भंग होते हैं / ये सभी 60+60.36, + 18+ 6 = 210 भंग विकसंयोगी होते हैं / (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं, इसी प्रकार (2-4) यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (यों 1-1-1-2 के संयोग से चार भंग होते हैं / ) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, दो बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है / इसी प्रकार (2-4) यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, दो बालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्बी में होता है। (यों 1-1-2-1 के संयोग से चार भंग होते हैं।) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार (2-4) यावत् एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में एक बालुकाप्रभा में, और एक अध:सप्तमपृथ्वी में होता है / (यों 1-2-1-1 के संयोग से चार भंग होते हैं।) (1) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होते हैं / इसी प्रकार यावत् (2-4) अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (यों 2-1-1-1 के संयोग से 4 भंग होते हैं / ) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और दो धूमप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार चार नैरयिक जीवों के चतुःसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार पांच नैरयिक जीवों के चतु:संयोगी भंग कहना चाहिए, किन्तु यहाँ एक अधिक का संचार (संयोग) करना चाहिए / इस प्रकार यावत् दो पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए / (ये चतुःसंयोगी 140 भंग होते हैं)। विवेचन—पांच नैरयिकों के चतुःसंयोगी भंग-चतुःसंयोगी 4 विकल्प होते हैं, यथा--१-११-२, 1-1-2-1, 1-2-1-1, और 2-1-1-1 / सात नरकों के चतुःसंयोगी पैतीस भंग होते हैं। इन पंतीस को 4 से गुणा करने पर कुल 140 भंग होते हैं। यथा-रत्नप्रभा में संयोग वाले 80, 1. भगवती अ. वृत्ति सूत्र 444 2. भगवती. भाग 4, (पं, घेवर चन्दजी), पृ. 1643 Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शर्कराप्रभा के संयोग वाले 40, बालुकाप्रभा के संयोग वाले 16 और पंकप्रभा के संयोग वाले 4, ये सभी मिलकर पंच नैरयिकों के चतुःसंयोगी 140 भंग होते हैं। (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, और एक तमःप्रभा में होता है, (3) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (4) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (5) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराग्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (6) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में एक बालुकाप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (7) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (8) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धमप्रभा में और एक अध:सप्तमपृथ्वी में होता है / (6) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (10) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तम:प्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (11) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (12) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (13) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में एक पंकप्रभा में, एक तम प्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (14) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (15) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (16) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमःप्रभा में होता है / (17) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तम पृथ्वी में होता है। (18) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (16) एक शर्कराप्रमा में, एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (20) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (21) अथवा एक बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / विवेचन-पंच नैरयिकों के पंचसंयोगी भंग-पंच नै रयिकों का पंचसंयोगी विकल्प एवं भंग 1-1-1-1-1 एक ही होता है इस प्रकार सात नरकों के पंचसंयोगी 21 ही विकल्प और 21 ही भंग होते हैं। जिनमें से रत्नप्रभापृथ्वी के संयोग वाले 15, शर्कराप्रभा के संयोग बाले 5 और Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२) [477 बालुकाप्रभा के संयोग वाला 1 भंग होता है। यों सभी मिलकर 15+5+1=21 भंग पंचसंयोगी होते हैं।" पांच नैरयिकों के समस्त भंग-पाँच नैरयिक जीवों के असंयोगी 7, द्विक्संयोगी 84, त्रिकसंयोगी 210, चतु:संयोगी 140 और पंचसंयोगी 21, ये सभी मिलकर 7 84+210+ 140+21 = 462 भंग होते हैं। छह नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 21. छछभंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणए णं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा० ? पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयण, पंच सक्करप्पभाए वा होज्जा 1 / अहवा एगे रयण०, पंच वालुयप्पभाए वा होज्जा 2 / जाव अहवा एगे रयण, पंच अहेसत्तमाए होज्जा 6 / अहवा दो रयण, चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा 1-7 / जाव अहवा दो रयण, चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा 6-12 / अहवा तिणि रयण, तिणि सक्कर० 1.13 / एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं दुयासंजोगो तहा छह वि भाणियन्वो, नवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयन्वो जनव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 105 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, चत्तारि वाल यप्पभाए होज्जा 1 / अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, चत्तारि पंकप्पभाए होज्जा 2 / एवं जाव अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा 5 / अहवा एगे रयण, दो सक्कर०, तिग्णि वालुयप्पभाए होज्जा 6 / एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा छह वि भाणियन्वो, नवरं एक्को अभहिओ उच्चारेयचो, सेसं तं चेव / 350 / चउक्कसंजोगो वि तहेव / 350 / / पंचगसंजोगो वि तहेव, नवरं एक्को अभहिओ संचारेयवो जाव पच्छिमो भंगो-अहवा दो वालुय०, एगे पंक०, एगे धूम०, एगे तम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा / 105 / अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० जाव एगे तमाए होज्जा 1, अहवा एगे रयण जाव एगे धूम०, एगे अहेसत्तमाए होज्जा 2, अहवा एगे रयण जाव एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा 3, अहवा एगे रयण जाव एगे वालय० एगे धूम० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 4, अहवाएगे रयण एगे सक्कर० एगे पंक० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 5, अहवा एगे रयण० एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 6, अहवा एगे सस्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा 7 / 924 / --.-..-..--. .- , ------- - - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 444 2 भगवती. अ वत्ति, पत्र 444 Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 21 प्र.] भगवन् ! छह नैरयिक जीव, नैरयिक प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [21 उ.) गांगेय ! वे रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार ये असंयोगी 7 भंग होते हैं।) (द्विकसंयोगी 105 भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच शर्कराप्रभा में होते हैं। (2) अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच बालुकाप्रभा में होते हैं। अथवा (3-6) यावत् एक रत्नप्रभा में और पांच अध सप्तमपृथ्वी में होते हैं / (1) अथवा दो रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा होते हैं, अथवा (2-6) यावत् दो रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (1) अथवा तीन रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं / इस क्रम द्वारा जिस प्रकार पांच नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार छह नै रथिकों के भी कहने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ एक अधिक का संचार करना चाहिए, यावत् अथवा पांच तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (त्रिकसंयोगी 350 भंग)-(१) एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार बालुकाप्रभा में होते हैं / (2) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्करप्रभा में और चार पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् (3-5) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (6) अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और तीन बालुकाप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार पांच नैरयिक जीवों के त्रिकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार छह नै रयिक जीवों के भी त्रिकसंयोगी भंग कहने चाहिए। विशेष इतना ही है कि यहाँ एक का संचार अधिक करना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए / (इस प्रकार विकसंयोगी कुल 350 भंग हुए।) (चतुष्कसंयोगी 350 भंग)--जिस प्रकार पांच नैरयिकों के चतुष्कसंयोगी भंग कहे गए, उसी प्रकार छह नैरयिकों के चतुःसंयोगी भंग जान लेने चाहिए / (पंचसंयोगी 105 भंग)-पांच नैरयिकों के जिस प्रकार पंचसंयोगी भंग कहे गए, उसी प्रकार छह नै रयिकों के पंचसंयोगी भंग जान लेने चाहिए, परन्तु इसमें एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिए / यावत् अन्तिम भंग (इस प्रकार है-) दो बालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (इस प्रकार पंचसंयोगी कुल 105 भंग हुए।) (षट्संयोगी 7 भंग)-(१) अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, यावत् एक तमःप्रभा में होता है, (2) अथवा एक रत्नप्रभा में, यावत् एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (3) अथवा एक रत्नप्रभा में, यावत् एक पंकप्रभा में, एक तमःप्रभा में और एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (4) अथवा एक रत्नप्रभा में, यावत् एक बालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (5) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (6) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / (7) अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, यावत् एक अध सप्तमपृथ्वी में होता / Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबम शतक : उद्देशक-३२] [479 विवेचन-छह नरयिकों के प्रवेशनक भंग-प्रस्तुत सू. 21 में छह नैरयिकों के प्रवेशनक भंगों का विवरण दिया गया है। एक संयोगी 7 भंग-प्रत्येक नरक में 6 नैरयिकों का प्रवेशनक होने से सात नरकों के असंयोगी भंग 7 हुए। द्विकसंयोगी 105 भंग-द्विकसंयोगी विकल्प 5 होते हैं-यथा-१-५, 2-4, 3-3, 4-2, और 5-1 / इन पांच विकल्पों को १-रत्नप्रभा-शर्कराप्रभा, २-रत्नप्रभा-बालुकाप्रभा, ६--रत्नप्रभा-पंकप्रभा. 4-- रत्नप्रभा-धमप्रभा, ५---रत्नप्रभा-तम:प्रभा और ६–रत्नप्रभातम स्तमःप्रभा, इन 6 से गुणाकार करने पर 645 =30 भंग रत्नप्रभा के संयोग वाले हुए / इसी प्रकार शर्कराप्रभा के संयोग वाले 25 भंग होते हैं, बालुकाप्रभा के संयोग वाले 20, पंकप्रभा के संयोग वाले 15, धूमप्रभा के संयोग बाले 10 और तमःप्रभा के संयोग वाले 5 भंग होते हैं / ये सभी मिलकर 30+25+20+1+10+5=105 भंग होते हैं / / त्रिकसंयोगी 350 भंग-त्रिकसंयोगी विकल्प 10 होते हैं, यथा--१-१-४, 1-2-3, 2-1-3, 1-3-2, 2-2-2, 3-1-2, 1-4-1, 2-3-1, 3-2-1 और 4-1-1 / इन 10 विकल्पों को रत्नप्रभा के संयोग वाले र. श. बा., र. श. पं., र. श. धू., र. श. त, र. श, अधः, र. बा. पं., र. बा. धू, र. बा. त., र. वा. अधः, र. पं. धू., र. पं. त., र. पं. अधः, र. धू. त., र. धू. अधः, र. त. अधः, 15 भंगों से गुणा करने पर 150 भंग होते हैं / इसी तरह 10 विकल्पों को शर्कराप्रभा के संयोग वाले-श. बा. पं., श. बा. धू., श. बा. त., श. बा. अधः, श. पं. धू., श. पं. त., श. पं. अधः, श. धू. तम., श. धू. अधः, श. त. अधः, इन 10 भंगों के साथ गुणा करने पर 100 भंग होते हैं / बालुकाप्रभा के संयोग बाले-बा. पं. धू., बा. पं. त., बा. पं. अधः, वा. धू. त., बा. धू. अधः, बा. त. अधः, इन 6 भंगों को 10 विकल्पों से गुणा करने पर 60 भंग होते हैं। इसी प्रकार पंकप्रभा के संयोग बाले-पं. धू. त., पं. धू. अधः, पं. त. अधः, इन 3 भंगों के साथ 10 विकल्पों को गुणा करने से 30 भंग होते हैं / धुमप्रभा के संयोग बाला सिर्फ एक भंग ध. त. अधः, होता है / इसे 10 विकल्पों के साथ गुणा करने से 10 भंग होते हैं। इस प्रकार ये सभी मिल कर 150+100+60 + 30+10 = 350 भंग त्रिकसंयोगी होते हैं। चतुःसंयोगी 350 भंग-चतुःसंयोगी विकल्प भी 10 होते हैं / यथा—१-१-१-३, 1-1-2-2, 1-2-1-2, 2-1-1-2, 1-1-3-1, 1-2-2-1, 2-1-2-1, 1-3-1-1, 2-2-1-1 और 3-1-1-1 / इन दस विकल्पों को रत्नप्रभा आदि के संयोग वाले पूर्वोक्त 35 भंगों के साथ गुणाकार करने पर 350 भंग होते हैं। पंचसंयोगो 105 भंग--पंचसंयोगी 5 विकल्प होते हैं / यथा--१-१-१-१-२, 1-1-1.2-1, 1-1-2-1-1, 1-2-1-1-1, 2-1-1-1-1 / इन 5 विकल्पों को रत्नप्रभा के संयोग वाले (र. श. बा. पं. धू., र. श. बा. पं. त., र. श. बा. प. अधः, र. श. बा. धू. त., र. श. बा. धू. अधः, (र. श. बा. त. अधः, र. श. पं, धू. त., र. श. पं. धू. अधः, र. श. पं. त. अधः, र. श. धू. त. अधः, र. बा. पं. धू. तम., र. बा. पं. धू. अधः, र. बा. पं. त. अधः, र. बा. धू. त. अध:, र. शं. धू. त. अधः. इन 15 भंगों के साथ गुणा करने पर 75 भंग होते हैं। इसी प्रकार शर्कराप्रभा के संयोग Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाले-श. बा. पं. धू. त., श, या. पं. धू. अधः, श. बा. पं. त. अधः, श. बा. धू. त. अधः, ग. पं. धू, त. अधः, इन 5 भंगों को पूर्वोक्त 5 विकल्पों के साथ गुणा करने पर 25 भंग होते हैं। इसी तरह वालुकाप्रभा के बा. पं. धू. त. अधः, इस एक भंग के साथ 5 विकल्पों को गुणा करने पर 5 भंग होते हैं / ये सभी मिलकर 75+25+5= 105 भंग पंचसंयोगी होते हैं / षद संयोगी 7 भंग-६ नैरयिकों का षट्संयोगी एक ही विकल्प होता है, उसके द्वारा सात नरकों के पटसंयोगी 7 भंग होते हैं / इस प्रकार 6 नैरयिक जीवों के असंयोगी 7 भंग, द्विकसंयोगी 105, त्रिकसयोगी 350, चतुष्कसंयोगी 350, पंचसंयोगी 105 ओर षट्संयोगी 7, ये सब मिलकर 624 प्रवेशनक भंग होते हैं। सात नरयिकों के प्रवेशनकभंग 22. सत्त भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा / गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयणप्पभाए, छ सक्करप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्ताह वि भाणियन्वं नवरं एगो अब्भहियो संचारिज्जइ / सेसं तं चेव / तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तगह वि भाणियन्वो, नवरं एक्केको अहिओ संचारेयन्वो जाव छक्कगसंजोगो / प्रहवा दो सबकर० एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० जाब एगे अहेसत्तमाए होज्जा 1 / 1716 / [22 प्र. भगवन् ! सात नैरयिक जीव, नैयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हए क्या रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [22 उ. गांगेय ! वे सातों नैरयिक रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार असंयोगी 7 भंग होते हैं / ) (द्विकसंयोगी 126 भंग)- अथवा एक रत्नप्रभा में और छह शर्कराप्रभा में होते हैं। इस क्रम से जिस प्रकार छह नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार सात नैरयिक जीवों के भी द्विकसंयोगी भंग कहने चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ एक नैयिक का अधिक संचार करना चाहिए / शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। जिस प्रकार छह नैरयिकों के त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षट्संयोगी भंग कहे, उसी प्रकार सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी आदि भंगों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेषता इतनी है कि यहाँ एक-एक नैरयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिए / यावत्-पटसंयोगी का अन्तिम भंग इस प्रकार कहना चाहिए--अथवा दो शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (यहाँ तक जानना चाहिए / ) 1. (क) वियाहपणत्तिसुत्तं, भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 431-433 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 445 Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२ ] [401 सप्तसंयोगी एक भंग ----अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। विवेचन---सात नैरयिकों के असंयोगी 7 भंग-नरक सात हैं, प्रत्येक नरक में सातों नैरयिक प्रवेश करते हैं, इसलिए 7 भंग हुए। द्विकसंयोगी 126 भंग-द्विकसंयोगी 6 विकल्प होते हैं, यथा-१-६, 2-5, 3-4, 4-3, 5-2, 6-1 / इन 6 विकल्पों के साथ रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 21 भंगों का गुणाकार करने से 126 भंग द्विकसंयोगी होते हैं / त्रिकसंयोगी 525 भंग-सात नैरयिकों के त्रिकसंयोगी 15 विकल्प होते हैं / यथा-१-१-५. 1-2-4, 2-1-4, 1-3-3, 2-2-3, 3-1-3, 1-4-2, 2-3-2, 3-2-2, 4-1-2, 1-5-1, 2-4-1, 3-3-1,4-2-1 और 5-1-1 / इन 15 विकल्पों को पूर्वोक्त त्रिकसंयोगी 35 विकल्पों के साथ गुणा करने से कुल 525 भंग होते हैं चतुःसंयोगी 700 भंग-चतुःसंयोगी 20 विकल्प होते हैं। यथा-१-१-१-४, 1-1-4-1, 1-4-1.1, 4-1-1-1, 1-1-2-3, 1-1-3-2, 1-3-1-2, 3-1-1-2, 1-2-1-3, 2-1-1-3, 3-2-1-1, 2-3-1-1, 2-2-2-1, 2-1-2-2, 1-2-2-2, 2-2-1-2, 1-2-3-1, 1-3-2-1, 2-1-3-1 और 3-1-2-1 / इन 20 विकल्पों को पूर्वोक्त 35 भंगों के साथ गुणाकार करने पर चतुःसंयोगी कुल 700 भंग होते हैं। पंचसंयोगी 315 भंग-इसके 15 विकल्प होते हैं। यथा-- -1-1-1-1-3, 1-1-1-3-1 इत्यादि / इन 15 विकल्पों को रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 21 भंगों के साथ गुणाकार करने पर पंचसंयोगी भंगों की कुल संख्या 315 होती है। . षट्संयोगी 42 भंग--षट्संयोगी विकल्प 6 होते हैं। यथा--१-१-१-१-१-२, 1-1-1-12.1, 1-1-1-2-1-1, 1-1-2-1-1-1, 1-2-1-1-1-1, 2-1-1-1-1-1 / इन 6 विकल्पों के साथ रत्नप्रभादि के संयोग से जनित 7 भंगों का गुणाकार करने पर षट्सयोगी भंगों की कुल संख्या 42 होती है। सप्तसंयोगी एक भंग..१-१-१-१-१-१-१ इस प्रकार सप्तसंयोगी एक हो भंग होता है। इस प्रकार सात नैरपिकों के नरकप्रवेशनक में एकसयोगी 7, द्विकसंयोगी 126, त्रिकसंयोगी 525, चतुष्कसंयोगो 700, पंचसंयोगी 315, षट्संयोगी 42 और सप्तसंयोगी 1; यों कुल मिलाकर 1716 भंग होते हैं।' आठ नरयिकों के प्रवेशनकभंग 23. अट्ट भंते ! नेरतिया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / 1. (क) विवाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा 1, पृ. 434-435 (ख) भगवती अ. बत्ति, पत्र 445 Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अहवा १+७एगे रयण सत्त सक्करप्पभाए होज्जा 1 / एवं यासंजोगो जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तण्हं भणिओ तहा अट्टण्ह वि भाणियव्वो, नवरं एक्केको प्रभहिरो संचारेयव्वो / सेसं तं चेव जाव छक्कसंजोगस्स / अहवा 3+1+1+1+1+ 1 तिणि सक्कर० एगे वालुय० जाक एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयण जाव एगे तमाए दो अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयण जाव दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, एवं संचारेयव्वं जाव अहवा दो रयण० एगे सक्कर० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा / 3003 / (23 प्र.] भगवन् ! पाठ नैरयिक जीव, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / अथवा एक रत्नप्रभा में और सात शर्कराप्रभा में होते हैं, इत्यादि ; जिस प्रकार सात नयिकों के द्विकसंयोगी विकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी और षट्संयोगी भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार आठ नैरयिकों के भी द्विकसंयोगी आदि भंग कहने चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि एक-एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिए। शेष सभी षट्संयोगी तक पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिए / अन्तिम भंग यह है-अथवा तीन शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, यावत् एक तमःप्रभा में और दो अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (2) अथवा एक रत्नप्रभा में यावत दो तमःप्रभा में और अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। इसी प्रकार सभी स्थानों में संचार करना चाहिए / यावत्---अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। विवेचन--पाठ नैरयिकों के असंयोगी भंग सिर्फ 7 होते हैं। द्विकसंयोगी 147 भंग-इसके सात विकल्प होते हैं। यथा-१-७, 2-6, 3-5, 4-4, 5-3, 6-2, 7-1 / इस सात विकल्पों के साथ सात नरकों के 21 भंगों का गुणाकार करने पर कुल 147 भंग होते हैं। त्रिकसंयोगी 735 भंग--इसके 21 विकल्प होते हैं। यथा--१-१-६, 1-2-5, 1-3-4, 1-4-3, 1.5-2, 1-6-1, 6-1-1, 5-2-1, 2-1-5, 2-2-4, 2-3-3, 2-4-2, 2-5-1, 3-1-4, 3-2-3, 3-4-1, 3-3-2, 4-2-2, 4-3-1, 4-1-3, और 5-1-2 / इन 21 विकल्पों के साथ सात नरकों के त्रिकसंयोगी (पूर्वोक्तवत्) 35 भंगों का गुणाकार करने पर कुल 735 भंग होते हैं / ___ चतुःसंयोगी 1225 भंग-इसके 35 विकल्प होते हैं / यथा--१-१-१-५, 1-1-2-4, 1.2-1-4, 2-1-1-4, 1-1-3-3, 1-2-2-3, 2-1-2-3, 1-3-1-3, 2.2.1-3, 3-1-1-3, 1-1.4.2, 1-2-3-2, 2-1-3-2, 1-3-2-2, 2-2-2-2, 3-1-2.2, 1-4-1-2, 2-3-1-2, 3-2-1-2, 4-1-1-2, 1-1-5-1, 1-2-4-1, 2-1-4-1, 1-3-3-1, 2-2-3-1, 3-1-3-1, 1-4-2-1, 2-3-2-1, 3-2-2-1, 4-1-2-1, 1-5-1-1, 2-4-1-1, 3-3-1-1, 4-2-1-1 और 5-1-1-1 / इन 35 विकल्पों के साथ चतुःसंयोगी पूर्वोक्त 35 भंगों का गुणाकार करने पर कुल 1225 भंग होते हैं। For Private.& Personal Use Only Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२॥ पंचसंयोगी 735 भंग--इसके विकल्प 35 होते हैं। यथा--१-१-१-१-४ इत्यादि क्रम से पूर्वापरसंख्या के चालन से 35 विकल्प पूर्ववत् होते हैं। उन्हें सात नरकपदों से जनित 21 भंगों के साथ गुणा करने से कुल भंगों की संख्या 735 होती है / षट्संयोगी 147 भंग-इसके 21 विकल्प होते हैं / यथा--१-१-१-१-१-३ इत्यादि क्रम से पूर्वापर संख्याचालन से 21 विकल्प / इनके साथ सात नरकों के संयोग से जनित 7 भंगों का गुणा करने से कुल भंगों की संख्या 147 होती है। सप्तसंयोगी 7 भंग---इनके 7 विकल्प होते हैं / यथा-१-१-१-१-१-१-२, 1-1-1-1-12-1, 1-1-11-2-1-1, 1-1-1-2-1-1-1, 1-1-2-1-1-1-1, 1-2-1-1-1-1-1, 2-1-1-1-11-1 / इन सात विकल्पों का प्रत्येक नरक के साथ संयोग करने से केवल 7 भंग होते हैं। इस प्रकार आठ नै रयिकों के नरकप्रवेशनक के असंयोगी 7 भंग, द्विकसंयोगी 147, त्रिकसंयोगी 735, चतुष्क संयोगो 1225, पंचसंयोगी, 735, षट्संयोगी 147 और सप्तसंयोगी 7 भंग-कुल मिला कर सब भंग 3003 होते / / नौ नरयिकों के प्रवेशनकभंग 24. नव भंते ! नेतिया नेरतियपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा 1-8 एगे रयण 0 अट्ठ सक्करप्पभाए होज्जा / एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य / जहा अटण्हं भणियं तहा नवण्हं पि भाणियव्वं, नवरं एक्केको अभहिलो संचारेयचो, सेसं तं चेव / पच्छिमो आलावगो-हवा तिण्णि रयण० एगे सक्कर० एगे वालय जाव एगे अहेसत्तमाए वा होज्जा / 5005 // 24 प्र. भगवन् ! नौ नैरयिक जीव, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 24 उ. हे गांगेय ! वे नौ नैरयिक जीव रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और आठ शर्कराप्रभा में होते हैं; इत्यादि जिस प्रकार अष्ट नैरयिकों के द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुष्कसंयोगी, पंचसंयोगी, षट्सयोगी और सप्तसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार नौ नै रयिकों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि एक-एक नैरयिक का अधिक संचार करना चाहिए। शेष सभी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए। अंतिम भंग इस प्रकार है अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है। विवेचन--नौ नैरयिकों के असंयोगी भंग--सात होते हैं। द्विकसंयोगी 168 भंग-इनके 1-8, 2-7, 3.6, 4-5, 6-3, 5-4, 7-2, 8-1 ये 8 विकल्प 1 (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 446 (ख) बियापण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा 1, पृ, 436 Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र होते हैं / इन 8 विकल्पों को सात नरकों के संयोग से जनित 21 भगों से गुणा करने पर कुल भंगों की संख्या 168 होती है। त्रिकसंयोगी 980 भंग---इसके 28 विकल्प होते हैं / यथा-१-१-७, 2-3-4, 4-1-4, 1-2-6, 2-4-3, 4-2-3, 1-3-5, 2-5-2, 4-3-2, 1-4-4, 2-6-1, 4-4-1, 1-5-3, 3-1-5, 5-1-3, 1-6-2, 3-2-4, 5-2-2, 1-7-1, 3-3-3, 5-3-1, 2-1-6, 3-4-2, 6-1-2, 2-2-5, 3-5-1, 6.2-1 और 7-1-1 / / इन 28 विकल्पों को सात नरकों के संयोग से जनित 35 भंगों के साथ गुणा करने पर कुल भंगों की संख्या 680 होती है। चतुष्कसंयोगो 1960 भंग-इसके 1-1-1-6 इस प्रकार चतुःसंयोगी 56 विकल्प होते हैं / इन्हें सात नरकों के संयोग से जनित (पूर्वोक्त) 35 भंगों के साथ गुणाकार करने पर कुल भंगों की संख्या 1660 होती हैं। पंचसंयोगी 1470 भंग-इसके पंचसंयोगी 1-1-1-1-6 इत्यादि प्रकार से 70 विकल्प होते हैं। इन्हें सात नरकों के संयोग से जनित 21 भंगों के साथ गुणा करने पर कुल भंगों की संख्या 1470 होती हैं। षटसंयोगी 392 भंग.--.इसके 1-1-1-1-1-4 इत्यादि प्रकार से 56 विकल्प होते हैं। इन विकल्पों को सात नरकों के संयोग से जनित 7 भंगों के साथ गुणा करने पर कुल 362 भग होते हैं। सप्तसंयोगी 28 भंग--इसके 1-1-1-1-1-1-3 इत्यादि प्रकार से 28 विकल्प होते हैं, इनका सात नरकों में से प्रत्येक के साथ संयोग करने से केवल 28 भंग ही होते हैं / ___ इस प्रकार नौ नैरधिकों के नरकप्रवेशनक के एक-संयोगी (असंयोगी) 7 भंग, द्विकसंयोगी 168, त्रिकसंयोगी 680, चतुष्कसंयोगी 1660, पंचसंयोगी 1470, पटसंयोगी–३६२, और सप्तसंयोगी 28 भंग, ये सब मिलाकर 5005 भंग हुए।' दश नैरयिकों के प्रवेशनकभंग----- 25. दस भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा 1 + 9 एगे रयणप्पभाए, नव सक्करप्पभाए होज्जा। एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा नवण्ह, नवरं एक्केवको अभहिओ संचारेयन्वो। सेसं तं चेव / अपच्छिमश्राला अहवा 4+1+1+1+1+1+1, चत्तारि रयण, एगे सक्करप्पनाए जाव एगे आहेसत्तमाए होज्जा / 8008 / [25 प्र.] भगवन् ! दस नैरयिकजीव, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [25 उ.] गांगेय ! वे दस नैरयिक जीव, रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। 1. (क) वियाहपरणतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) भा. 1, पृ. 437 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 446 Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [485 __अथवा एक रत्नप्रभा में और नौ शर्कराप्रभा में होते हैं; इत्यादि जिस प्रकार नौ नैरयिक जीवों के द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतुःसंयोगी, पंचसंयोगी, षट्संयोगी एवं सप्तसंयोगी भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार दस नैरयिक जीवों के भी (द्विकसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी) कहने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ एक-एक ने रयिक का अधिक संचार करना चाहिए, शेष सभी भंग पूर्ववत् जानने चाहिए / उनका अन्तिम पालापक (भंग) इस प्रकार है अथवा चार रत्नप्रभा में, एक शकंराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमपृथ्वी में होता है / विवेचन.. दस नरयिकों के असंयोगी भंग- केवल सात होते हैं। द्विकसंयोगी 189 भंग-इनके 6 विकल्प होते हैं / यथा 1-6, 2-8, 3-7, 4-6, 5-5 6-4, 7-3, 8-2, 6-1 / इन 6 विकल्पों के साथ सात नरकों के संयोग से जनित 21 भंगों को गुणा करने पर कुल 189 भंग त्रिकसंयोगी 1260 भंग-इनके 36 विकल्प होते हैं। यथा-१-१-८, 1-2-7, 1-3-6, 1-4-5, 1-5-4, 1-6-3, 1-7-2, 1-8-1, 2-7-1, 2-6-2, 2-5-3, 2-4-4, 2-3-5, 2-2-6, 2-1-7,3-6-1, 3-5-2, 3-4-3, 3-3-4, 3-2-5, 3-1-6, 4-5-1, 4-4-2, 4-3-3, 4-2-4, 4-1-5, 5-4-1, 5-3-2, 5-2-3, 5-1-4, 6-3-1, 6-2-2, 6-1-3, 7-2-1, 7-1-2, और 8-1-1 / इन 36 विकल्पों को, सात नरकों के संयोग से जनित पूर्वोक्त 35 भगों के साथ गुणा करने पर कुल 1260 भंग होते हैं। चतुष्कसंयोगी 2940 भंग-इनके 1-1-1-7 इत्यादि प्रकार से अंकों के परस्पर चालन से 84 विकल्प होते हैं। इन 84 विकल्पों को सात नरकों क संयोग से पूर्वोक्त प्रकार से जनित 35 भगों के साथ गुणाकार करने पर कुल भंगों की संख्या 2640 होती है / पंचसंयोगी 2646 भंग-इनके 1-1-1-1-6 इत्यादि प्रकार से अंकों के परस्पर चालन से 126 विकल्प होते हैं / इन 126 विकणों को सात नरकों के संयोग से (पूर्ववत् ) जनित 21 भंगों के साथ गुणा करने पर 126 x 21 = 2646 कुल भंग होते हैं। षटसंयोगी 882 भंग-इनके 1-1-1-1-1-5 इत्यादि प्रकार से अंकों के परस्पर चालन करने से 126 विकल्प होते हैं / इन 126 विकल्पों को सान नरकों के संयोग से जनित 7 भंगों के साथ गुणा करने पर भंगों की कुल संख्या 882 होती है। सप्तसंयोगी 84 भंग-इनके 1-1-1-1-1-1-4 इत्यादि प्रकार से अंकों के परस्पर चालन से 84 विकल्प होते हैं। इन्हें सात नरकों के समुत्पन्न एक भंग के साथ गुणाकार करने पर 84 भंग कुल होते हैं। इस प्रकार दस नैरयिकों के नरकप्रवेशनक के असंयोगी 7 भंग, द्विकर्मयोगी 186, त्रिकसंयोगी 1260, चतुष्कसंयोगी 2640, पंचसंयोगी 2646, षट्सयोगी 882 और सप्तसंयोगी 84 भंग, ये सभी मिल कर दस नैरयिक जीवों के कुल 8008 भंग होते हैं।' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा-१, पृ-४३८ (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 447 Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संख्यात नैरयिकों के प्रवेशनकभंग-- 26. संखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा० पुच्छा / गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा दो रयण, संखेज्जा सक्करप्पमाए वा होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयण 0, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा तिणि रयण, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयन्को जाव अहवा दस रयण, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दस रयण०, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा संखेज्जा रयण, संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा; जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा एगे सक्कर, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा; एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमपुढवीहिं समं चारिया एवं सक्करप्पभाए वि उरिमपुढवोहि समं चारेयव्वा / एवं एक्केक्का पुढवी उरिमपुढवीहि समं चारेयवा जाव अहवा संखेज्जा तमाए, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / 231 / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, संखेज्जा बालु यप्पभाए होज्जा / अहवा एगे रयण, एगे सक्कर०, संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा / जाब अहवा एगे रयण०, एगे सक्कर०, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा एगे रयण०, दो सक्कर०, संखेज्जा वालुयप्यभाए होज्जा। जाव अहवा एगे रयण, दो सक्कर०, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा एगे रयण, तिणि सक्कर०, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एक्केवको संचारेयवो। अहवा एगे रयण, संखेज्जा सक्कर, संखेज्जा वालयप्पभाए होज्जा; जाव अहवा एगे रयण, संखेज्जा बालय०, संखेज्जा असत्तमाए होज्जा / अहवा दो रयण, संखेज्जा सक्कर०, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा। जाव अहवा दो रयण, संखेज्जा सक्कर०, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा तिणि रयण०, संखेज्जा सक्कर, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं एक्केक्को रयणप्पभाए संचारेयम्वो, जाव अहवा संखेज्जा रयण०, संखेज्जा सक्कर०, संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा; जाव अहवा संखेज्जा रयण, संखेज्जा सक्कर०, संखेज्जा असत्तमाए होज्जा / श्रहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, संखेज्जा पंकप्यभाए होज्जा; जाव अहवा एगे रयण०, एगे वालुय०, संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / अहवा एगे रयण, दो बालुय०, संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा / एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो चउक्कसंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा दसण्हं तहेव भाणियब्वो। पच्छिमो पालावगो सतसंजोगस्स–अहवा संखेज्जा रयण०, संखेज्जा सक्कर०, जाव संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा / 3337 / 26 प्र. भगवन् ! संख्यात नरयिक जीव, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 26 उ.] गांगेय ! संख्यात नैरयिक रत्नप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (ये असंयोगी 7 भंग होते हैं / ) Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] (1) अथवा एक रत्नप्रभा में होता है, और संख्यात शर्क राप्रभा में होते हैं, (2-6) इसी प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (ये 6 भंग हुए / ) (1) अथवा दो रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं (2-6) इसी प्रकार यावत् दो रत्नप्रभा में, और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (ये भी 6 भंग हुए।) (1) अथवा तीन रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं। इसी प्रकार इसी क्रम से एक-एक नारक का संचार करना चाहिए। यावत् दस रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं / इस प्रकार यावत् अथवा दस रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। अथवा संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं / इस प्रकार यावत् संख्यात रत्नप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। ___ अथवा एक शर्कराप्रभा में, और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी का शेष नरक पृथ्वियों के साथ संयोग-क्रिया उसी प्रकार शर्कराप्रभा-पृथ्वी का भी आगे की सभी नरक-पृथ्वियों के साथ संयोग करना चाहिए। इसी प्रकार एक-एक पृथ्वी का आगे की नरक-पृथ्वियों के साथ संयोग करना चाहिए यावत् अथवा संख्यात तमःप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (इस प्रकार विकसंयोगी भंगों की कुल संख्या 231 हुई / ) (1) अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / थवा एक रत्नप्रभा में. एक शर्कराप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में होते हैं। इसी प्रकार यावत् (3-5) एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / यावत्-... अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इसी क्रम से एक-एक नारक का अधिक संचार करना चाहिए। अथवा एक रत्नप्रभा में संख्यात शर्कराप्रभा और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में संख्यात बालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधः सप्तमपृथ्वी में होते हैं। अथवा तीन रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात वालुकाप्रभा में होते हैं / इस प्रकार इस क्रम से रत्नप्रभा में एक-एक नै रयिक का संचार करना चाहिए, यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं। यावत् अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / अथवा एक रत्नप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में होते हैं / यावत्अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अथवा एक रत्नप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और संख्यात पंकप्रभा में होते हैं / इसी प्रकार इसी क्रम से त्रिकसंयोगी, चतुष्कसंयोगी, यावत् सप्तसंयोगी भंगों का कथन, दस नैरयिकसम्बन्धी भंगों के समान करना चाहिए / अन्तिम भंग (मालापक) जो सप्तमयोगी है, यह है--अथवा संख्यात रत्नप्रभा में, संख्यात शर्कराप्रभा में यावत् संख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। विवेचन -संख्यात का स्वरूप -प्रागमिक परिभाषानुसार यहाँ ग्यारह से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या को संख्यात कहा गय __असंयोगो 7 भंग-प्रत्येक नरक के साथ संख्यात का संयोग होने से असंयोगी या एकसंयोगी 7 भंग होते हैं। द्विकसंयोगी 231 भंग-द्विकसंयोगी में संख्यात के दो विभाग किये गए हैं, इसलिए एक और संख्यात, दो और संख्यात, यावत् दस और संख्यात तथा संख्यात और संख्यात इस प्रकार एक विकल्प के 11 भंग होते हैं। ये विकल्प रत्नप्रभादि पृथ्वियों के साथ आगे की पृथ्वियों का संयोग करने पर एक से लेकर संख्यात तक ग्यारह पदों का संयोग करने से और शर्कराप्रभादि पृथ्वियों के साथ केवल 'संख्यात' पद का संयोग करने से बनते हैं। रत्नप्रभादि पूर्व-पूर्व की प्रश्चियों के साथ संख्यात पद का संयोग और मागे-आगे की पृथ्वियों के साथ एकादि पदों का संयोग करने से जो भंग होते हैं, उनकी विवक्षा यहाँ नहीं की गई है / अर्थात् एक रत्नप्रभा में और संख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं, तथा एक रत्नप्रभा में और संख्यात बालुकाप्रभा में होते हैं / यही क्रम यहां अभीप्ट है, न कि संख्यात रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होते हैं, संख्यात रत्नप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होते हैं, इत्यादि ऋम से भंग करना अभीष्ट नहीं है / पूर्वसूत्रों में भी यही क्रम ग्रहण किया गया है। यहाँ भी पहले को नरकपृथ्वियों के साथ एकादि संख्या का और आगे-आगे की नरकपृथ्वियों के साथ संख्यात राशि का संयोग करना चाहिए / इसमें आगे-मागे की नरकवियों के साथ वाली संख्यात राशि में से एकादि संख्या को कम करने पर भी संख्याता राशि की संख्यातता कायम रहती है। इनमें से रत्नप्रभा के एक से लेकर संख्यात तक 11 पदों का और शेष प्रवियों के सा से 'संख्यात पद का संयोग करने से 66 भग होते हैं / शर्कराप्रभा का शेष नरकपृथ्वियों के साथ संयोग करने से 5 विकल्प होते हैं। उन 5 विकल्पों को एकादि ग्यारह पदों से गुणा करने पर शर्कराप्रभा के संयोग वाले कुल 55 भंग होते हैं / इसी प्रकार बालुकाप्रभा के संयोगवाले 44 भंग. पंकप्रभा के संयोग बाले 33 भंग, धूमप्रभा के संयोग वाले 22 भंग और तमःप्रभा के संयोगवाले 11 भग होते हैं / ये सभी मिलकर द्विकसंयोगी 66+55+44+33+22+ 11 = 231 भंग होते हैं / त्रिकसंयोगी 735 भंग--त्रिकसंयोगी में 21 विकल्प होते हैं / यथा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, और संख्यात बालुकाप्रभा में, यह प्रथम विकल्प है / अब पहली नरक में 1 जीव और तीसरी नरक में संख्यात जीव, इस पद को कायम रखकर दूसरी नरक में अनुक्रम से संख्या का विन्यास किया जाता है। अर्थात-दो से लेकर दस तक की संख्या का तथा 'संख्यात' पद का याग करने से कुल 11 भंग होते हैं / तथा इसके बाद दूसरी और तीसरी पृथ्वी में संख्यात पद को कायम Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [489 रखकर पहली पृथ्वी में दो से लेकर दस तक एवं संख्यात पद का संयोग करने पर दस भंग होते हैं / ये सब मिलकर 21 भंग होते हैं। इन 21 विकल्पों के साथ पूर्वोक्त सात नरकों के विकसंयोगी 35 भंगों को गुणा करने पर त्रिकसंयोगी कुल 735 भंग होते हैं / चतुःसंयोगी 1085 भंग-पहले की चार नरकपृथ्वियों के साथ क्रमश: 1-1-1 और संख्यात इस प्रकार प्रथम भंग होता है / इसके बाद पूर्वोक्त क्रम से तीसरी नरक में, दो से लेकर संख्यात पद तक का संयोग करने से दूसरे 10 विकल्प बनते हैं / इसी प्रकार दूसरी नरकपृथ्वी में और प्रथम नरकपृथ्वी में भी दो से लेकर संख्यात पद तक का संयोग करने से बीस विकल्प होते हैं। ये सभी मिल कर 31 विकल्प होते हैं / इन 31 विकल्पों के साथ सात नरकों के चतु:संयोगी पूर्वोक्त 35 विकल्पों को गुणा करने पर कुल 1085 भंग होते हैं / पंचसंयोगी 861 भंग-प्रथम की पाँच नरकभूमियों के साथ 1-1-1-1 और संख्यात, इस क्रम से पहला भंग होता है / इसके पश्चात् पूर्वोक्त क्रम से चौथी नरकभूमि में अनुक्रम से दो से लेकर संख्यात-पद तक का संयोग करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, दूसरी और पहली नरकपृथ्वी में भी दो से लेकर संख्यात-पद तक का संयोग करना चाहिए / इस प्रकार सब मिल कर पंचसंयोगी 41 भंग होते हैं / उनके साथ पूर्वोक्त 7 नरक सम्बन्धी पंचसंयोगी 21 पदों का गुणा करने से कुल 861 भंग होते हैं। षट्संयोगी 357 भंग-घट्संयोग में पूर्वोक्त क्रमानुसार 51 भंग होते हैं / उनके साथ सात नरकों के षट्संयोगी पूर्वोक्त 7 पदों का गुणा करने से कुल 357 भंग होते हैं। सप्तसंयोगी 61 भंग-पूर्वोक्त रीति से 61 भंग समझने चाहिए / इस प्रकार संख्यात नयिक जीवां--प्राश्रयी 7+231+735+1085+861+357+61 = 3337 231+ 735+ 1085+861+357261 = 3337 कुल' भंग होते हैं। असंख्यात नरयिकों के प्रवेशनकभंग 27. असंखेज्जा भंते ! नैरइया नेरइयपवेसणएण० पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा 7 / अहवा एगे रयण, असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा / एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखिज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण विभाणियब्बो, नवरं असंखेज्जानो अब्भहियो भाणियव्यो, सेसं तं चेव जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो पालावगो---अहवा असंखेज्जा रयण असंखेज्जा सक्कर० जाव असंखेज्जा प्रसत्तमाए होज्जा। [27 प्र] भगवन् ! असंख्यात नैरयिक, नैरयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [27 उ.] गांगेय ! वे रत्नप्रभा में होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं, अथवा एक रत्नप्रभा में और असंख्यात शर्कराप्रभा में होते हैं / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ--टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 440 (ख) भगवती. विवेचनयुक्त (पं घेवरचन्दजी) भा. 4, प. 1660-1661 Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जिस प्रकार संख्यात नैरयिकों के द्विकसंयोगी यावत् सप्तसंयोगी भंग कहे, उसी प्रकार असंख्यात के भी कहना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि यहाँ 'असंख्यात' यह पद कहना चाहिए। (अर्थात्-बारहवाँ असंख्यात पद कहना चाहिए 1) शेष सभी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए। यावत्-ग्रान्तम पालापक यह है--अथवा असंख्यात रत्नप्रभा में, असंख्यात शर्कराप्रभा में यावत् असंख्यात अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। विवेचन-असंख्यात पद के एकसंयोगी भंग--सात होते हैं। द्विकसंयोगी से सप्तसंयोगी तक भंग-असंख्यातपद के द्विकसंयोगो 252, त्रिकसंयोगी 805, चतुष्कसंयोगी 1160. पंचसंयोगी 645, षट्संयोगी 362 एवं सप्तसंयोगी 67 भंग होते हैं, इस प्रकार असंख्यात नैरयिकों के नैरयिकप्रवेशनक के कुल मिलाकर 3658 भंग होते हैं।' उत्कृष्ट नैरयिक-प्रवेशनक-प्ररूपणा 28. उक्कोसा णं भंते ! नेरइया नेरतियपवेसणएणं० पुच्छा ? गंगेया ! सब्वे वि ताव रयणप्पभाए होज्जा 7 / * अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य होज्जा / अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा, जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए य होज्जा। अहवा रयणप्पभाए ये सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा। एवं जाव अहवा रयण, सक्करप्पभाए य अहेसत्तमाए य होज्जा 5 / अहवा रयण०, वालुय०, पंकप्पभाए य होज्जा; जाव अहवा रयण०, वालुय, अहेसत्तमाए य होज्जा 4 / अहवा रयण०, पंकप्पभाए य, धूमाए य होज्जा। एवं रयणपभं अमुयंतेसु जहा तिण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयण०, तमाए य, अहेसत्तमाए य होज्जा 15 / अहवा रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुय०, पंकप्पभाए य होज्जा। अहवा रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुय०, धूमप्पभाए य होज्जा; जाव अहवा रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुय, अहंसत्तमाए य होज्जा 4 / अहवारयण०, सक्कर०. पंक०, धमष्पभाए य होज्जा। एवं र अमुयंतेसु जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो तहा भाणियध्वं जाव अहवा रयण, धूम०, तमाए, अहेसत्तमाए होज्जा 20 / अहवा रयण, सक्कर०, वालुय०, पंक०, धूमप्पभाए य होज्जा 1 / अहवा रयणप्पभाए जाव पंक०, तमाए य होज्जा 2 / अहवा रयण० जाय पंक०, अहेसतमाए य होज्जा 3 / अहवा रयण०, सक्कर०, वालुय०, धूम०, तमाए य होज्जा 4 / एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्हं पंचकसंजोगो तहा भागियध्वं जाव अहवा रयण०, पंकप्पभा, जाव अहेसमाए होज्जा 15 / अहवा रयण, सक्कर०, जाव धूमपभाए, तमाए य होज्जा 1 / अहवा रयण, जाव धूम०, अहेसत्तमाए य होज्जा 2 / अहवा रयण०, सक्कर०, जाव पंक०, तमाए य, अहेसत्तमाए य होज्जा 3 / अहवा रयण, सक्कर०, वालुय०, धूमप्पभाए, तमाए, अहेसत्तमाए होज्जा 4 / अहवा रयण, 1. वियाहाणत्तिसुतं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 440 Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [491 सक्कर०, पंक० जाव अहेसत्तमाए य होज्जा 5 / अहवा रयण०, बालुय०, जाध अहेसत्तमाए होज्जा 6 / अहवा रयणप्पभाए य, सक्कर, जाव एअहेसत्तमाए होज्जा 1 / [28 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीव नै रयिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए उत्कृष्ट पद में क्या रत्नाप्रभा में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [28 उ.] गांगेय ! उत्कृष्टपद में सभी नै रयिक रत्नप्रभा में होते हैं। (द्विकसंयोगी 6 भंग)-(१) अथवा रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा में होते हैं। (2) अथवा रत्नप्रभा और बालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् (3-6) रत्नप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (त्रिकसंयोगी 15 भंग)-(१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में होते हैं / इस प्रकार यावत् (2-5) रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (6) अथवा रत्नप्रभा वालुकाप्रभा और पंकप्रभा में होते हैं। यावत् (7-6) अथवा रत्नप्रभा, वालुकाप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (10) अथवा रत्नप्रभा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं। जिस प्रकार रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए तीन नैरयिक जीवों के त्रिकसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / यावत् (15) अथवा रत्नप्रभा, तम:प्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (चतुःसंयोगी 20 भंग)-(१) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा और पंकप्रभा में होते हैं, (2) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं / यावत् (4) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (5) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, पंकप्रभा और धूमप्रभा, में होते हैं / रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए जिस प्रकार चार नैरयिक जीवों के चतःसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए, यावत् (20) अथवा रत्नप्रभा धमप्रभा, तम:प्रभा और अधःसप्तमपथ्वी में होते हैं। (पंचसंयोगी पन्द्रह भंग) (1) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में होते हैं / (2) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा और तम:प्रभा में होते हैं / (3) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (4) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा धूमप्रभा और तमःपृथ्वी में होते हैं / रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए जिस प्रकार 5 नैरयिक जीवों के पंचसंयोगी भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए, अथवा यावत् (15) रत्नप्रभा, पंकप्रभा यावत् अधःसप्तमपथ्वी में होते हैं। (षट्संयोगी 6 भंग-) (1) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा यावत् धूमप्रभा और तमःप्रभा में होते हैं / (2) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा यावत् धूमप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (3) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा यावत् पंकप्रभा, तमःप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (4) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, धूमप्रभा, तम प्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (5) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, पंकप्रभा, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / (6) अथवा रत्नप्रभा, बालुकाप्रभा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं। (सप्तसंयोगी एक भंग--) (1) अथवा रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में होते हैं / इस प्रकार उत्कृष्ट पद के सभी मिल कर चौसठ (6+15+20+1+6+1=64) भंग होते हैं। Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-उत्कृष्ट पद में नरयिकप्रवेशनक भंग-उत्कृष्ट पद में सभी नैरयिक रत्नप्रभा में होते हैं / इसलिए रत्नप्रभा का प्रत्येक भंग के साथ संयोग होता है। द्विकसंयोगी 6 भंग--१.२, 1-3. 1-4, 1-5, 1-6, 1-7 ये 6 भंग होते हैं। त्रिकसंयोगी 15 भंग-१-२-३, 1-2-4, 1-2-5, 1-2-6, 1-2-7, 1-3-4, 1-3-5, 1-3-6, 1-3-7, 1-4-5, 1-4-6, 1-4-7, 1-5-6, 1-5-7, और 1-6-7 / चतुष्कसंयोगी 20 भंग---१-२-३-४, 1-2-3-5, 1-2-3-6, 1-2-3-7, 1-2-4-5, 1-24-6, 1-2-4-7, 1-2-5-6, 1-2-5-7, 1-2-6-7, 1-3-4-5, 1-3-4-6, 1-3-4-7, 1-3-5-6, 1-3-5-7, 1-3-6-7, 1-4-5-6, 1-4-5-7, 1-4-6-7 और 1-5-6-7 / पंचमसंयोगी 15 भंग---१-२-३-४-५, 1-2-3-4-6, 1-2-3-4-7, 1-2-3-5-6, 1-2-35-7, 1-2-3-6-7, 1-2-4-5-6, 1-2-4-5-7, 1-2-4-6-7, 1-2-5-6-7, 1-3-4-5-6, 1-3-45-7, 1-3-4-6-7, 1-3-5-6-7 और 1-4-5-6-7 / षट्संयोगी 6 भंग–१-२-३-४-५-६, 1-2-3-4-5-7, 1-2-3-4-6-7, 1-2-3-5-6-7, 1-2-4-5-6-7 और 1-3-4-5-6-7 / सप्तसंयोगी 1 भंग-१-२-३-४-५-६-७ / ' रत्नप्रभादि नरयिक प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 29. एयस्स गं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणगस्स सक्करप्पभापुढवि० जाव अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिए वा ? गंगेया! सव्वत्थोवे अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए, तमापुढविनेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे, एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे। [26 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकप्रवेशनक, शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैयिकप्रवेशनक, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकप्रवेशनक हैं, इनमें से कौन प्रवेशनक, किस प्रवेशनक से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [26 उ. गांगेय ! सबसे अल्प अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक-प्रवेशनक हैं, उनसे तमःप्रभापृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक असंख्यातगुण हैं। इस प्रकार उलटे क्रम से, यावत् रत्नप्रभा-पृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक असंख्यातगुण हैं / विवेचन--अधःसप्तम पृथ्वी में जाने वाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनकी अपेक्षा तमःप्रभा में जाने वाले संख्यातगुण हैं / इस प्रकार विपरीत क्रम से एक-एक से आगे के असंख्यातगुणे हैं / कठिन शब्दों का भावार्थ-एयस्स णं इनमें से / पडिलोमगं--प्रतिलोम-विपरीत क्रम से / 1. वियाहपणतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, 5.441-442 2. भगवती. विवेचन, (वं. घेवरचंदजी) भा. 4, पृ. 1666. 3. भगवती. विवेचन भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 1666. Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम शतक : उद्देशक 32] [493 तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 30. तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गंगेया ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए। 30 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [30 उ.] गांगेय ! वह पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा---एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकप्रवेशनक यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक / 31. एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसणएणं पविसमाणे किं एगिदिएसु होज्जा जाव पंचिदिएसु होज्जा ? गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिदिएसु वा होज्जा। [31 प्र. भगवन् ! एक तिर्यञ्चयोनिक जीव, तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुश्रा क्या एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है अथवा यावत् पंचेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ? [31 उ.] गांगेय ! एक तिर्यञ्चयोनिक जीव, एकेन्द्रियों में होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता है / / 32. दो भंते ! तिरिक्खजोणिया० पुच्छा। गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिदिएसु वा होज्जा 5 / अहवा एगे एगिदिएसु होज्जा एगे बेइंदिएसु होज्जा / एवं जहा नेरइयपवेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणए वि भाणियन्वे जाव असंखेज्जा। [32 प्र.) भगवन् ! दो तिर्यञ्चयोनिक जीव, तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [32 उ.] गांगेय ! एकेन्द्रियों में होते हैं, अथवा यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं / अथवा एक एकेन्द्रिय में और एक द्वीन्द्रिय में होता है। जिस प्रकार नै रयिक जीवों के विषय में कहा, उसी प्रकार तियंञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में भी कहना चाहिए। यावत्- असंख्य तिर्यञ्चयोनिक-प्रबेशनक तक कहना चाहिए। विवेचन---तिर्यञ्चों के प्रवेशनक और उनके भंग-तिर्यञ्च एकेन्द्रिय भी होते हैं और पंचेन्द्रिय भी होते हैं / इसलिए उनका प्रवेशनक भी पाँच प्रकार का बताया गया है। इसी प्रकार एक तिर्यञ्चयोनिक जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक में तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुया उत्पन्न होता है / तीन से लेकर असंख्यात तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक-भंग-तीन से लेकर असंख्यात तिर्यञ्चयोनिक जीवों के प्रवेशनक नैरयिकों के तीन से लेकर असंख्यात तक के प्रवेशनक के समान जानने 1. विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 442-443. Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494] [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र चाहिए / अन्तर इतना ही है, कि नैरयिक जीव सात नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं, जबकि तिर्यञ्चजीव एकेन्द्रियादि पाँच स्थानों में उत्पन्न होते हैं। इसलिए भंगों की संख्या में भिन्नता है / यह बुद्धिमानों को स्वयं ऊहापोह करके जान लेना चाहिए / यद्यपि एकेन्द्रिय जीव (वनस्पति व निगोद की अपेक्षा से) अनन्त उत्पन्न होते हैं, किन्तु उपर्युक्त प्रवेशनक का लक्षण असंख्यात तक ही घटित हो सकता है / इसलिए असंख्यात तक ही प्रवेशनक कहे गये हैं।' शंका-समाधान-मूलपाठ में 'एक जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है, यह बतलाया गया, किन्तु सिद्धान्तानुसार एक जीव एकेन्द्रियों में कदापि उत्पन्न नहीं होता, वहाँ (वनस्पतिकाय की अपेक्षा तो) प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, ऐसी स्थिति में उपर्युक्त शास्त्रवचन के साथ कैसे संगति हो सकती है ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं—विजातीय देवादि भव से निकल कर जो वहाँ (एकेन्द्रिय भव) में उत्पन्न होता है, उस एक जीव की अपेक्षा से एकेन्द्रिय में एक जीव का प्रवेशनक सम्भव है / वास्तव में प्रवेशनक का अर्थ ही यह है कि विजातीय देवादिभव से निकल कर विजातीय भव में उत्पन्न होना / सजातीय जीव सजातीय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक नहीं कहलाता, क्योंकि वह (सजातीय) तो एकेन्द्रिय जाति (सजातीय) में प्रविष्ट है ही। अर्थात्-एकेन्द्रिय जीव मर कर एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, वह प्रवेशनक की कोटि में नहीं पाता। और जो अनन्त उत्पन्न होते हैं, वे तो एकेन्द्रिय में से ही हैं। एक और दो तिर्यञ्चयोनिक जीवों का प्रवेशनक---एक जीव अनुक्रम से एकेन्द्रियादि पाँच स्थानों में उत्पन्न हो तो उसके पाँच भंग होते हैं। दो जीव भी एक-एक स्थान में साथ उत्पन्न हों तो उनके भी पाँच भंग ही होते हैं / और द्विकसंयोगी 10 भंग होते हैं / उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक प्ररूपणा 33. उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोगिया० पुच्छा / गंग या ! सब्वे वि ताव एगेंविएसु वा होज्जा। अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिएसु वा होज्जा / एवं जहा नेरतिया चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयव्वा / एगिदिया अमुयंतेसु दुयासंजोगो तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो उवउज्जिऊण भाणियव्वो जाव अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिय जाव पंचिदिएसु वा होज्जा / |33 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में पृच्छा / [33 उ.] गांगेय ! ये सभी एकेन्द्रियों में होते हैं / अथवा एकेन्द्रिय और द्वीन्द्रियों में होते हैं। जिस प्रकार रयिक जीवों में संचार किया गया है, उसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक के विषय में भी संचार करना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों को न छोड़ते हुए द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी, चतु:संयोगी और पंचसंयोगी भंग उपयोगपूर्वक कहने चाहिए; यावत् अथवा एकेन्द्रिय जीवों में द्वीन्द्रियों में, यावत् पंचेन्द्रियों में होते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 451. 2. बही, अ. वत्ति, पत्र 451. 3. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1670. Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [495 विवेचन–एकेन्द्रियों में उत्कृष्टपद-प्रवेशनक-एकेन्द्रिय जीव प्रतिसमय अत्यधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं, इसलिए एकेन्द्रियों में ये सभी होते हैं।' द्विकसंयोगी से पंचसंयोगी तक भंग----प्रसंगवश यहाँ उत्कृष्टपद से द्विकसंयोगी चार प्रकार के, त्रिकसंयोगी छह प्रकार के, चतुःसंयोगी चार प्रकार के और पंचसंयोगी एक ही प्रकार के होते हैं / ' एकेन्द्रियादि तिर्यञ्चप्रवेशनकों का अल्पबहुत्व ___34. एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणयस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? गंग या ! सव्वस्थोवे पंत्रिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए, चरिदियतिरिषखजोणियप० विसेसाहिए, तेइंदिय०, विसेसाहिए, बेइंदिय० विसेसाहिए, एगिदियतिरिक्ख० विसेसाहिए। [34 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक से लेकर यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक तक में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? (34 उ.] गांगेय ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक हैं, उनसे चतुरिन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक विशेषाधिक हैं और उनसे एकेन्द्रिय-तियंञ्चयोनिक-प्रवेशनक विशेषाधिक हैं। विवेचन-तिर्यञ्च-प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व-विपरीत क्रम से अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के प्रवेशनक से एकेन्द्रिय तिर्यञ्च-प्रवेशनक तक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। मनुष्य-प्रवेशनक :प्रकार और भंग-- 35. मणुस्सपवेसणए गं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? गंग या ! दुबिहे पणत्ते, तं जहा सम्मुच्छिममगुस्सपवेसणए, गम्भवक्कंतियमणुस्सपवेसणए य। [35 प्र.] भगवन् ! मनुष्यप्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [35 उ.] गांगेय ! मनुष्यप्रवेशनक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार--- (1) सम्मूच्छिम मनुष्यप्रवेशनक और (2) गर्भजमनुष्य-प्रवेशनक / 36. एगे भंते ! मणुस्से मणुस्सपवेसणए गं पविसमाणे किं सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा, गन्भवतियमणुस्सेसु होज्जा? गंगया! सम्मुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा। 1. भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 451. 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 451 3. वियाहपत्तिसुतं. (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1 पृ. 443. Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [36 प्र.] भगवन् ! मनुष्यप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हमा एक मनुष्य क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होता है, अथवा गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? [36 उ.] हे गांगेय ! वह या तो सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होता है अथवा गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होता है / 37. दो भंते ! मणुस्सा० पुच्छा। गंगया ! सम्मुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गम्भवक्केतियमणुस्सेसु वा होज्जा। अहवा एगे सम्मुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, एगे गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा। एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियब्वे जाव दस / [37 प्र.] भगवन् ! दो मनुष्य, मनुष्य-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि (पूर्ववत् ) प्रश्न / [37 उ.] गांगेय ! दो मनुष्य या तो सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अथवा गर्भज मनुष्यों में होते हैं। अथवा एक सम्मूच्छिम मनुष्यों में और एक गर्भज मनुष्यों में होता है / इस क्रम से जिस प्रकार नैरयिक-प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार मनुष्य-प्रवेशनक भी कहना चाहिए / यावत् दस मनुष्यों तक कहना चाहिए। 38. संखेज्जा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा। गंगेया ! सम्मुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा गम्भवक्कैतियमणुस्सेसु वा होज्जा। अहवा एगे सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा, संखेज्जा गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा / अहवा दो सम्मुच्छिममगुस्सेसु होज्जा, संखेज्जा गम्भवक्कैतियमणुस्सेसु होज्जा / एवं एक्केक्कं ओसारितेसु जाव अहवा संखेज्जा सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा, संखेज्जा गम्भवक्कंतियमगुस्सेसु होज्जा। [38 प्र.] भगवन् ! संख्यात मनुष्य, मनुष्यप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [38 उ.! गांगेय ! वे सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं, अथवा गर्भज मनुष्यों में होते हैं / अथवा एक समूच्छिम मनुष्यों में होता है और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं / अथवा दो सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक बढ़ाते हुए यावत् संख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं / 39. असंखेज्जा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा / गंगेया ! सम्बे वि ताव सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा। अहवा असंखेज्जा सम्मुच्छिममणुस्सेसु, एगे गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा। अहवा असंखेज्जा सम्मुच्छिमणुस्सेसु, दो गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा / एवं जाव असंखेज्जा सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा, संखेज्जा गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा। [36 प्र.] भगवन् ! असंख्यात मनुष्य, मनुष्यप्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए, इत्यादि प्रश्न / [36 उ. गांगेय ! वे सभी सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं / अथवा असंख्यात सम्मूच्छिम Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [ 497 मनुष्यों में होते हैं और एक गर्भज मनुष्यों में होता है / अथवा असंख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और दो गर्भज मनुष्यों से होते हैं / अथवा इस प्रकार यावत् असंख्यात सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं और संख्यात गर्भज मनुष्यों में होते हैं / विवेचन--मनुष्य-प्रवेशनक के प्रकार और भंग-मनुष्य-प्रवेशनक के दो प्रकार हैं--सम्भूच्छिममनुष्य-प्रवेशनक और गर्भज-मनुष्य-प्रवेशनक / इन दोनों की अपेक्षा एक से लेकर संख्यात तक भंग पूर्ववत् समझना चाहिए / संख्यातपद में द्विकसंयोगी भंग पूर्ववत् 11 ही होते हैं / असंख्यातपद में पहले बारह विकल्प बताए गए हैं, लेकिन यहाँ 11 ही विकल्प (भंग) होते हैं; क्योंकि यदि सम्मूच्छिम मनुष्यों में असंख्यातपन की तरह गर्भज मनुष्यों में भी असंख्यातपन होता, तभी बारह भंग बन सकते थे, किन्तु गर्भज मनुष्य असंख्यात नहीं होते / अतएव उनके प्रवेशनक में असंख्यातपन नहीं हो सकता / अतः असंख्यातपद के संयोग से भी 11 ही विकल्प होते हैं।' उत्कृष्टरूप से मनुष्य-प्रवेशनक-प्ररूपणा-- 40. उक्कोसा भंते ! मणुस्सा० पुच्छा। गंगेया ! सव्वे वि ताव सम्मुच्छिममणुस्सेसु होज्जा / अहवा सम्मुच्छिममणुस्सेसु य गम्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा / |40 प्र. भगवन् ! मनुष्य उत्कृष्ट रूप से किस प्रवेशनक में होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {40 उ. | गांगेय ! बे सभी सम्मूच्छिम मनुष्यों में होते हैं / अथवा सम्मूच्छिम मनुष्यों में और गर्भज मनुष्यों में होते हैं। विवेचन-उत्कृष्टपद में प्रवेशनक-विचार-उत्कृष्टपद में सम्मूच्छिम-मनुष्य-प्रवेशनक कहा गया है, क्योंकि सम्मूच्छिम मनुष्य ही असंख्यात हैं / इसलिए उनके प्रवेशनक भी असंख्यात हो सकते हैं। मनुष्य-प्रवेशनकों का अल्प-बहुत्व 41. एयस्स गं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सपवेसणगस्स गम्भवक्कंतियमणुस्तपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए का? गंगेया ! सम्वत्थोवे गम्भवतियमणुस्सपवेसणए, सम्मुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेज्जगुणे / 41 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम-मनुष्य-प्रवेशनक और गर्भज-मनुष्य-प्रवेशनक, इन (दोनों में) से कौन किस से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? 41 उ.] गांगेय ! सब से थोड़े गर्भज-मनुष्य-प्रवेशनक हैं, उनसे सम्मूच्छिम-मनुष्य प्रवेशनक असंख्यातगुणे हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 453 2. भगवती, अ. वत्ति पत्र 453 Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन–अल्पबहुत्व-सम्मूच्छिम मनुष्य असंख्यात होने से गर्भज-मनुष्य-प्रवेशनक से उन (सम्मूच्छिम-मनुष्यों) के प्रवेशनक असंख्यातगुणे अधिक हैं।' देव-प्रवेशनक : प्रकार और भंग 42. देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा-भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणियदेवपवेसणए / [42 प्र.] भगवन् ! देव-प्रवेशनक कितने प्रकार का कहा गया है ? [42 उ.] गांगेय ! वह चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) भवनवासीदेव-प्रवेशक, (2) वाणव्यन्तर-देव-प्रवेशनक, (3) ज्योतिष्क-देव-प्रवेशनक और (4) वैमानिकदेव-प्रवेशनक। 43. एगे भंते ! देवे देवपवेसणए णं पविसमाणे किं भवणवासीसु होज्जा वाणमंतर. जोइसिय-वेमाणिएसु होज्जा? गंगेया! भवणवासीसु वा होज्जा बाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसुवा होज्जा। [43 प्र.] भगवन् ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुया क्या भवनवासी देवों में होता है, वाणव्यन्तर देवों में होता है, ज्योतिष्क देवों में होता है अथवा वैमानिक देवों में होता है ? [43 उ.] गांगेय ! एक देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करता हुया, भवनवासी देवों में होता है, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों में होता है / 44. दो भंते ! देवा देवपवेसणए० पुच्छा। गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा / अह्वा एगे भवणवासीसु, एगे वाणमंतरेसु होज्जा। एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियब्वे जाव असंखिज्ज ति। [44 प्र.] भगवन् ! दो देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए क्या भवनवासी देवों में, इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [44 उ.] गांगेय ! वे भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, या ज्योतिष्क देवों में होते हैं, अथवा वैमानिक देवों में होते हैं / अथवा एक भवनवासी देवों में होता है, और एक वाणव्यन्तर देवों में होता है / जिस प्रकार तिर्यञ्चयोंनिक-प्रवेशनक कहा, उसी प्रकार देवप्रवेशनक भी कहना चाहिए, यावत् असंख्यात-देव-प्रवेशनक तक कहना चाहिए। विवेचन-देव-प्रवेशनक-प्ररूपणा-देव-प्रवेशनक के चार प्रकार कहे गए हैं, जो पागमों में प्रसिद्ध हैं / एक देव या दो देव भवनपति देवों में, वाणव्यन्तर देवों में, ज्योतिष्क देवों में या बैमानिक देवों में से किन्हीं में उत्पन्न हो सकते हैं। द्विकसंयोगी भंगों की संख्या तिर्यञ्चयोनिक जीवों की तरह ही समझनी चाहिए / देवों की संख्या 4 ही होती है, यह विशेष है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 453 Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [ 499 तीन से लेकर असंख्यात तक के प्रवेशनक-भंग---देवों के प्रवेशनक-भंग 3 से असंख्यात तक तियंचों के प्रवेशनक-भंग के समान समझने चाहिए।' उत्कृष्टरूप से देव-प्रवेशनक-प्ररूपणा 45. उक्कोसा भंते ! 0 पुच्छा। गंगेया ! सव्वे वि ताव जोइसिएसु होज्जा। अहवा जोइसिय-भवणवासीसु य होज्जा। अहवा जोइसिय-वाणमंतरेसु य होज्जा। अहवा जोइसिय-वेमाणिएसु य होज्जा / अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य होज्जा। अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वेमाणिएसु य होज्जा / अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य बेमाणिएसु य होज्जा / अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा / [45 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्टरूप से देव, देव-प्रवेशनक द्वारा प्रवेश करते हुए किन देवों में होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [45 उ.] गांगेय ! वे सभी ज्योतिष्क देवों में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क और भवनवासी देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिष्क और बाणब्यन्तर देवों में होते हैं. अथवा ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में होते हैं / अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी और वैमानिक देवों में होते हैं, अथवा ज्योतिष्क, वाणव्यन्तर और वैमानिक देवों में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क, भवनवासो, वाणव्यन्तर और वैमानिक देवों में होते हैं। विवेचन-उत्कृष्ट देव-प्रवेशनक-प्ररूपणा--ज्योतिष्क देवों में जाने वाले जीव बहुत होते हैं। इसलिए उत्कृष्टपद में कहा गया है कि ये सभी ज्योतिष्क देवों में होते हैं / द्विकसंयोगी 3 भंग-ज्यो. वाण., ज्यो. वै., या ज्यो. भ. देवों में / त्रिकसंयोगी 3 भंग--ज्यो. भ. वा., ज्यो. भ. ब., एवं ज्यो. वा. वै. / चतुष्कसंयोगी एक भंग ज्योतिष्क, भ., वा. वैमा. / भवनवासी आदि देवों के प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व 46. एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवपवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स जोइसियदेवपवेसणगस्स वेमाणियदेवपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? गंगेया ! सम्बत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवणवासिदेवपवेसणए असंखेज्जगुणे, काणमंतरदेवपवेसणए असंखेज्जगुणे, जोइसियदेवपवेसणए संखेज्जगुणे। 1. वियाहपण्णत्तिसुत (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 445 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 445 Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [46 प्र.1 भगवन् ! भवनवासीदेव-प्रवेशनक, वाणव्यन्त रदेव-प्रवेशनक, ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक और वैमानिकदेव-प्रवेशनक, इन चारों प्रवेशनकों में से कौन प्रवेशनक किस प्रवेशनक से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [46 उ.] गांगेय ! सबसे थोड़े वैमानिकदेव-प्रवेशनक हैं, उनसे भवनवासीदेव-प्रवेशनक असंख्यातगुणे हैं, उनसे वाणव्यन्तरदेव-प्रवेशनक असंख्यातगुणे हैं और उनसे ज्योतिष्कदेव-प्रवेशनक संख्यातगुण हैं। विवेचन-चारों देव-प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व-वैमानिकदेव सबसे कम होते हैं, और उनमें जाने वाले (प्रवेशनक) जीव भी सबसे थोड़े होते हैं, इसीलिए अल्पबत्व में पारस्परिक तुलना की दृष्टि से कहा गया है कि वैमानिकदेव-प्रवेशनक सबसे अल्प है।' नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व--- 47. एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्ख० मणुस्स० देवपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? गंग या! सव्वत्थोवे मणुस्सपवेसणए, नेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे, देवपवेसणए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियपवेसणए असंखेज्जगुणे / [47 प्र.] भगवन् ! इन नैरयिक-प्रवेशनक, तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक, मनुष्य-प्रबेशनक और देव-प्रवेशनक, इन चारों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [47 उ.] गांगेय ! सबसे अल्प मनुष्य-प्रवेशनक है, उससे नैरयिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा है, और उससे देव-प्रवेशनक असंख्यातगुणा है, और उससे तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा विवेचन-चारों गतियों के जीवों के प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व--सबसे अल्प मनुष्य-प्रवेशनक हैं, क्योंकि मनुष्य सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में ही हैं, जो कि बहुत ही अल्प है। उससे नैयिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि नरक में जाने वाले जीव असंख्यातगुण हैं / इसी प्रकार देव-प्रवेशनक और तिर्यञ्चयोनिक-प्रबेशनक के विषय में समझना चाहिए / 2 / / चौबीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर उपपाद-उद्वर्तनप्ररूपणा-- 48. संतरं भंते ! नेरइया उववज्जंति ? निरंतर नेरइया उववज्जति ? संतरं असुरकुमारा उववज्जति ? निरंतरं असुरकुमारा जाव संतरं वेमाणिया उववज्जति ? निरंतरं वेमाणिया उववज्जति ? संतरं नेरइया उध्वटंति ? निरंतरं नेरतिया उव्वटंति ? जाव संतरं वाणमंतरा उच्चति ? निरंतरं वाणमंतरा उन्वट्टति ? संतरं जोइसिया चयंति ? निरंतरं जोइसिया चयंति ? संतरं वेमाणिया चयंति ? निरंतरं वेमाणिया चयंति ? .- .... -----..- . . . 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 453 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 453 Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [501 गंगेया ! संतरं पि नेरतिया उववज्जति, निरंतरं पि नेरतिया उववज्जति जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जति, निरंतरं पि थणियकुमारा उववज्जति / नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जंति, निरंतरं पुढविष्काइया उववज्जति; एवं जाव वणस्सइकाइया। सेसा जहा नेरइया जाव संतरं पि वेमाणिया उबवज्जति, निरंतरं पि वेमाणिया उववज्जति / संतरं पि नेरइया उव्वति, निरंतरं पि नेरइया उन्वटेंति; एवं जाव धणियकुमारा। नो संतरं पुढविवकाइया उन्वटेंति, निरंतर पुढविक्काइया उन्वति; एवं जाव वणस्सइकाइया। सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलावो, जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयति / [48 प्र.! भगवन् ! नैरयिक सान्तर (अन्तरसहित) उत्पन्न होते हैं या निरन्तर (लगातार) उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर ? यावत् वैमानिक देव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? (इसी तरह) नैरयिक का उद्वर्तन सान्तर होता है अथवा निरन्तर ? यावत् वाणव्यन्तर देवों का उद्वर्तन सान्तर होता है या निरन्तर ? ज्योतिष्क देवों का सान्तर च्यवन होता है या निरन्तर ? वैमानिक देवों का सान्तर च्यवन होता है या निरन्तर? / * 48 उ.] हे गांगेय ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी, यावत् स्तनितकुमार सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते, परन्तु निरन्तर ही उत्पन्न होते हैं / इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं / शेष सभी जीव नै रयिक जीवों के समान सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी, यावत् वैमानिक देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। नैरयिक जीव सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं, निरन्तर भी। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / पृथ्वीकायिक जीव सान्तर नहीं उद्वर्तते, निरन्तर उद्वतित होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक कहना चाहिए। शेष सभी जीवों का कथन नैरचिकों के समान जानना चाहिए / इतना विशेष है कि ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव च्यवते हैं, ऐसा पाठ (अभिलाप) कहना चाहिए यावत् वैमानिक देव सान्तर भी च्यवते हैं और निरन्तर भी। विवेचन--शंका-समाधान यहाँ शंका उपस्थित होती है कि नैरयिक आदि की उत्पत्ति के सात्तर-निरन्तर आदि तथा उद्वर्तनादि का कथन प्रवेशनक-प्रकरण से पूर्व किया ही था, फिर यहाँ पुनः सान्तर-निरन्तर अादि का कथन क्यों किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ पुनः सान्तर आदि का निरूपण नारकादि सभी जीवों के भेदों का सामुदायिक रूप से सामूहिक उत्पाद एवं उद्वर्तन की दृष्टि से किया गया है।' प्रकारान्तर से चौबीस दण्डकों में उत्पाद-उद्वर्तना-प्ररूपणा 49. सओ भंते ! नेरतिया उववज्जति ? असओ भंते ! नेरइया उववज्जंति ? गंगेया ! सओ नेरइया उवधज्जति, नो असओ नेरइया उववज्जंति / एवं जाव बेमाणिया। - -- - - . .. . - -.... 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 455 Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [46 प्र.] भगवन् ! सत (विद्यमान) नैरयिक जीव उत्पन्न होते हैं या असत (अविद्यमान) नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [46 उ.] गांगेय ! सत नै रयिक उत्पन्न होते हैं, असत. नैरयिक उत्पन्न नहीं होते / इसी प्रकार यावत वैमानिक तक जानना चाहिए। 50, सओ भंते ! नेरतिया उन्चति, असओ नेरइया उव्वति ? गंगेया! सतो नेरइया उव्वति, नो असओ नेरइया उब्बति / एवं जाव वेमाणिया, नवरं जोइसिय-वेमाणिएसु 'चयंति' भाणियन्वं / [50 प्र.] भगवन् ! सत् नैरयिक उद्वर्त्तते हैं या असत नैरयिक उद्वर्त्तते हैं ? |50 उ.] गांगेय ! सत नैरयिक उद्वर्तते हैं, किन्तु असत. नैरयिक उद्वतित नहीं होते। इसी प्रकार यावत वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए / विशेष इतना ही है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए 'च्यवते हैं, ऐसा कहना चाहिए। 51. [1] सओ भंते ! नेरइया उववज्जति, असओ नेरइया उववज्जति ? सओ असुरकुमारा उववज्जति जाव सतो वेमाणिया उववज्जति, असतो वेमाणिया उववज्जति ? सतो नेरतिया उव्वति, असतो नेरइया उन्वटेंति ? सतो असुरकुमारा उव्वटंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, असतो वैमाणिया चयंति ? गंगेया ! सतो नेरइया उववज्जंति, नो असओ नेरइया उववज्जति, सओ असुरकुमारा उववज्जति, नो असतो असुरकुमारा उववज्जंति, जाव सओ वेमाणिया उववज्जति, नो असतो वेमाणिया उववज्जति / सतो नेरतिया उव्वति, नो असतो नेरइिया उबट्टति; जाव सतो वैमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया० / [51-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं या असत् नैरायकों में उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमार देव, सत् असुरकुमार देवों में उत्पन्न होते हैं या असत असुरकुमार देवों में ? इसी प्रकार यावत सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं या असत् वैमानिकों में ? तथा सत नैरयिकों में से उदवर्त्तते हैं या अंसत् नैरयिकों में से ? सत् असुरकुमारों में से उद्वर्त्तते हैं यावत् सत वैमानिकों में से च्यवते हैं या असत् वैमानिकों में से च्यवते हैं ? 51-1 उ.] गांगेय ! नैरयिक जीव सत् नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु असत् नै रयिकों में उत्पत्र नहीं होते / सत् असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं, असत् असुरकुमारों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् वैमानिकों में नहीं। (इसी प्रकार) सत् नैरयिकों में से उद्वर्तते हैं, असत् नैरयिकों में से नहीं / यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं / [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति; जाव सओ वैमाणिया चयंति, नो असओ बेमाणिया चयंति ? Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [503 से नणं गंगेया! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए, अणाईए अणवयग्गे जहा पंचमे सए (स० 5 उ०९ सु० 14 [2]) जाब जे लोक्कइ से लोए, से तेणठेणं गंगेया! एवं युच्चइ जाय सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति / [51-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक सत् नैयिकों में उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं। इसी प्रकार यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं ? |51-2 उ. गांगेय ! निश्चित ही पुरुषादानीय अरह (अर्हन्) श्रीपार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत, अनादि और अनन्त कहा है इत्यादि, पंचम शतक के नौवें उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत्-जो अवलोकन किया जाए, उसे लोक कहते हैं / इस कारण हे गांगेय ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। _ विवेचन--सत् ही उत्पन्न होने आदि का रहस्य-सत् अर्थात्-द्रव्यार्थतया विद्यमान नैरयिक आदि ही नैरयिक प्रादि में उत्पन्न होते हैं, सर्वथा असत् (अविद्यमान) द्रव्य तो कोई भी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह तो गधे के सींग के समान असत् है / इन जीवों में सत्व (विद्यमानत्व या अस्तित्व) जीवद्रव्य की अपेक्षा से, अथवा नारक-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि भावी नारक-पर्याय की अपेक्षा से द्रव्यतः नारक ही नारकों में उत्पन्न होते हैं / अथवा यहाँ से मर कर नरक में जाते समय विग्रहगति में नरकायु का उदय हो जाने से वे जीव भावनारक हो कर ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं।' सत्र में हो उत्पन्न होने आदि का रहस्य-जो जोव नरक में उत्पन्न होते हैं, पहले से उत्पन्न हुए सत् नैरयिकों में समुत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिकों में नहीं, क्योंकि लोक शाश्वत होने से नारक आदि जोवों का सदैव सद्भाव रहता है। र गांगेय सम्मतसिद्धान्त के द्वारा स्वकथन को पुष्टि भगवान महावीर ने 'लोक शाश्वत है' ऐसा पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने भी फरमाया है, यह कह कर गांगेय-मान्य सिद्धान्त के द्वारा स्वकथन की पुष्टि की है। केवलज्ञानी प्रात्मप्रत्यक्ष से सब जानते हैं - 52. [1] सयं भंते ! एतेवं जाणह उदाहु असयं ? असोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा 'सतो नेरइया उववज्जति, नो असतो मेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति, नो असओ वेमाणिया चयंति? गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं; असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा; 'सतो नेरइया उववज्जंति, नो असओ नेरइया उववज्जति, जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 455 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 455 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 455 Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [52-1 प्र.] भगवन् ! आप स्वयं इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा अस्वयं जानते हैं ? तथा बिना सुने ही इसे इस प्रकार जानते हैं, अथवा सुनकर जानते हैं कि 'सत् नैयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक नहीं ? यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवन होता है, असत् वैमानिकों में से नहीं ?' [52-1 उ.] गांगेय ! यह सब इस रूप में मैं स्वयं जानता हूँ, अस्वयं नहीं। तथा बिना सुने ही मैं इसे इस प्रकार जानता हूँ, सुनकर ऐसा नहीं जानता कि सत् नैरयिक उत्पन्न होते हैं, असत् नैरयिक नहीं, यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति ? गंगेया ! केवली णं पुरथिमेणं मियं पि जाणइ, अमियं पि जाणइ, दाहिणणं एवं जहा सदुहेसए (स० 5 उ० 4 सु० 4 [2]) ' जाव निव्वुडे नाणे केवलिस्स, से ते गट्टेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति। [52-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है, कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि, (पूर्वोक्तवत्) यावत् सत् वैमानिकों में से च्यवते हैं, असत् वैमानिकों में से नहीं ? / [52-2 उ.] गांगेय ! केवलज्ञानी पूर्व (दिशा) में मित (मर्यादित) भी जानते हैं, अमित (अमर्यादित) भी जानते हैं / इसी प्रकार दक्षिण (दिशा) में भी जानते हैं। इस प्रकार शब्द-उद्देशक (भगवती. श. 5, उ. 4, सू. 4-2) में कहे अनुसार कहना चाहिए / यावत् केवली का ज्ञान निरावरण होता है, इसलिए हे गांगेय ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि मैं स्वयं जानता हूँ, इत्यादि, यावत् असत् वैमानिकों में से नहीं च्यवते / विवेचन—केवलज्ञानी द्वारा समस्त स्व-प्रत्यक्ष-प्रस्तुत सूत्र 52 में बताया गया है कि भगवान् की अतिशय ज्ञानसम्पदा को सम्भावना करते हुए गांगेय ने जो प्रश्न किया है, उसके उत्तर में भगवान ने कहा- 'मैं अनुमान आदि के द्वारा नहीं, किन्तु स्वयं-पात्मा द्वारा जानता हूँ, तथा दूसरे पुरुषों के वचनों को सुनकर अथवा आगमत: सुनकर नहीं जानता, अपितु विना सुने हीप्रागमनिरपेक्ष होकर स्वयं, 'यह ऐसा है' इस प्रकार जानता है, क्योंकि केवलज्ञानी का स्वभाव पारमार्थिक प्रत्यक्ष रूप केवलज्ञान द्वारा समस्त वस्तुसमूह को प्रत्यक्ष (साक्षात्) करने का होता है। अतः भगवान् द्वारा केवलज्ञान के स्वरूप और सिद्धान्त का स्पष्टीकरण किया गया है / 2 कठिन शब्दों का भावार्थ-सयं---स्वतः प्रत्यक्षज्ञान / असयं-अस्वयं, परतः ज्ञान / अमियं-अपरिमित / नरयिक प्रादि की स्वयं उत्पत्ति 53. [1] सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति / / [53-1 प्र. हे भगवन् ! क्या नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं उत्पन्न होते हैं ? 1. देखिए–भगवती सूत्र श. 5, उ. 4, सु. 4-2 में 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 455 Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [505 [53-1 उ.] गांगेय ! नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववज्जति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए, असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवागेणं, असुभाणं कम्माणं फल विवागणं सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति, नो प्रसयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति, से तेणठेणं गंगेया ! जाव उववज्जति / [53.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि यावत् अस्वयं नहीं उत्पन्न होते ? [53-2 उ.] गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुता के कारण, कर्मों के भारीपन से, कर्मों के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, अशुभ कर्मों के उदय से, अशुभ कर्मों के विपाक से तथा अशुभ कर्मों के फलपरिपाक से, नैरयिक, नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं (परप्रेरित) उत्पन्न नहीं होते / इसी कारण से हे गांगेय ! यह कहा गया है कि नैरयिक नैरयिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते / विवेचन नैरयिकों आदि को स्वयं उत्पत्ति-रहस्य और कारण प्रस्तुत पांच सूत्रों (53 से 57 तक) में नरयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डकों के जीवों की स्वयं उत्पत्ति बताई गई है, अस्वयं यानो पर-प्रेरित नहीं। इस सैद्धान्तिक कथन का रहस्य यह है, कतिपय मतावलम्बी मानते हैं कि 'यह जीव अज्ञ है, अपने लिए सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ है। ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है। जैनसिद्धान्त से विपरीत इस मत का यहाँ खण्डन हो व कर्म करने में जैसे स्वतंत्र है, उसी प्रकार कर्मों का फल भोगने के लिए वह स्वयं स्वर्ग या नरक में जाता है, किन्तु ईश्वर के भेजने से नहीं जाता / ' 54. [1] सयं भंते ! असुरकुमारा० पुच्छा / गंगेया! सयं असुरकुमारा जाव उववज्जति, नो असयं असुरकुमारा जाव उववति / [54-1 प्र.] भंते ! असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं या अस्वयं ? इत्यादि पृच्छा / 154-1 उ. गांगेय ! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केणटठेणं तं चेव जाव उववज्जति ? गंगेया! कम्मोदएणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धोए, सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभरणं कम्माणं फलविवागणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जंति / से तेणछैणं जाव उववज्जति / एवं जाव थणियकुमारा। 1. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा / / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 455 / Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [54-2 प्र. भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि यावत् अस्वयं उत्पन्न नहीं होते ? (54-2 उ.] हे गांगेय ! कर्म के उदय से, (अशुभ) कर्म के अभाव से, कर्म की विशोधि से, कमों की विशुद्धि से, शुभ कर्मों के उदय से, शुभ कर्मों के विपाक से, शुभ कर्मों के फलविपाक से असुरकुमार, असुरकुमारों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते / इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है / इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। 55. [1] सयं भंते ! पुढ विक्काइया० पुच्छा। गंगेया ! सयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, नो असयं पुढविक्काइया जाव उववज्जति / [55.1 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, या अस्वय उत्पन्न होते हैं ? [55-1 उ.] गांगेय ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं यावत् उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। [2] से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव उववज्जति ? गंगेया ! कम्मोदएणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारित्ताए, सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं, सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं पुढविकाइया जाव उववज्जति, नो असयं पुढविकाइया जाव उववति / से तेण→णं जाव उववज्जति / [55.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि पृथ्वी कायिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, इत्यादि? [55-2 उ.] गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्मों की गुरुता से, कर्म के भारीपन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभाशुभ कर्मों के उदय से, शुभाशुभ कमों के विपाक से, शुभाशुभ कर्मों के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिए हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है / 56. एवं जाव मणुस्सा। [56] इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए। 57. वाणमंतर-जोइ सिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा / से तेणट्टेणं गंगेया ! एवं बुच्चइसयं वेमाणिया जाव उववज्जंति, नो असयं जाव उववज्जति / [57] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी जानना चाहिए / इसी कारण से, हे गांगेय ! मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। ___ जीवों की नारक, देव आदि रूप में स्वयं उत्पत्ति के कारण-(१) कर्मोदयवश, (2) कर्मों की गुरुता से, (3) कर्मों के भारीपन से, (4) कर्मों के गुरुत्व और भारीपन की अतिप्रकर्षावस्था से, Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [507 (5) कर्मों के उदय से, (6) विपाक से (यानी कर्मों के फलभोग) से, अथवा यथाबद्ध रसानुभूति से, फलविपाक से-रस की प्रकर्षता से / ' उपर्युक्त शब्दों में किञ्चित् अर्थभेद है अथवा ये शब्द एकार्थक हैं / अर्थ के प्रकर्ष को बतलाने के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है / भगवान के सर्वज्ञत्व पर श्रद्धा और पंचमहावत धर्म स्वीकार--- 58. तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ सवण्ण सव्वदरिसी। 58] तब से अर्थात इन प्रश्नोत्तरों के समय से गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में पहचाना / 56. तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-इच्छामि णं भो! तुभ अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहब्बइयं एवं जहा कालासवेसिययुत्तो (स० 1 उ० 9 सु० 23-24) तहेव भाणियब्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // गंगेयो समत्तो // 9. 32 // [56] इसके पश्चात् गांगेय अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया। उसके बाद इस प्रकार निवेदन किया-- ___ भगवन् ! मैं आपके पास चातुर्यामरूप धर्म से (-धर्म के बदले) पंचमहाव्रतरूप धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। इस प्रकार सारा वर्णन प्रथम शतक के नौवें उद्देशक में कथित कालास्यवेषिकपुत्र अनगार के समान जानना चाहिए। यावत् गांगेय अनगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत सर्वदुःखों से रहित बने / हे भगवन् यह इसी प्रकार है ! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! विवेचन भगवान के सर्वज्ञत्व पर श्रद्धा और पंचमहायत धर्म का स्वीकार प्रस्तुत दो सूत्रों (58-56) में यह प्रतिपादन किया गया है कि जब गांगेय अनगार को भगवान के सर्वज्ञत्व एवं सर्वदर्शित्व पर विश्वास हो गया, तब उन्होंने भगवान से चातुर्यामधर्म के स्थान पर पंचमहाव्रतरूप धर्म स्वीकार किया और क्रमश: सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। / नवम शतकः बत्तीसवाँ उद्देशक समाप्त / / 03 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 455 2. वही, अ वृत्ति, पत्र 455 3. भगवतीसूत्र श. 1, उ. 9, सू. 23-24 में देखिये। Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमो उद्देसो : तेतीसवाँ उद्देशक कुडग्गामे : कुण्डग्राम ऋषभदत्त और देवानन्दा संक्षिप्त परिचय 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुडग्गामे नयरे होत्था। वण्णओ। बहुसालए चेतिए / वण्णओ। [1] उस काल और उस समय में ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन नगरवर्णन के समान समझ लेना चाहिए। वहाँ बहुशाल नामक चैत्य (उद्यान) था। उसका वर्णन भी (औपपातिकसूत्र से) करना चाहिए / 2. तत्थ णं माहणकुडग्गामे नयरे उसभदत्ते नाम माहणे परिवसति–अड्ढे दित्ते वित्ते जाव' अपरिभूए / रिउवेद-जजुवेद-सामवेद-अथव्वणवेद जहा खंदओ (स० 2 उ० 1 सु० 12) जाव अन्नेसु य बहुसु बंभण्णएसु नएसु सुपरिनिट्ठिए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्धपुण्ण-पावे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [2] उस ब्राहाणकुण्डग्राम नगर में ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। वह प्राय (धनवान्), दीप्त (तेजस्वी), प्रसिद्ध, यावत् अपरिभूत था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद में निपुण था / (शतक 2, उद्देशक 1, सू. 12 में कथित) स्कन्दक तापस की तरह वह भी ब्राह्मणों के अन्य बहुत से नयों (शास्त्रों) में निष्णात था। वह श्रमणों का उपासक, जीव-अजीव मादि तत्त्वों का ज्ञाता, पुण्य-पाप के तत्त्व को उपलब्ध (हृदयंगम किया हुग्रा), यावत् प्रात्मा को भावित करता हुआ विहरण (जीवन-यापन) करता था। ____3. तस्स णं उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा नाम माहणी होत्था, सुकुमालपाणि-पाया जाव पियदसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्ण-पावा जाव विहरइ / [3] उस ऋषभदत्त ब्राह्मण की देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी (धर्मपत्नी) थी। उसके हाथ-पैर सुकुमाल थे, यावत् उस का दर्शन भी प्रिय था। उसका रूप सुन्दर था। वह श्रमणोपासिका थी, जीव-अजीव आदि तत्त्वों की जानकार थी तथा पुण्य-पाप के रहस्य को उपलब्ध की हुई थी, यावत् विहरण करती थी। विवेचन--ब्राह्मणकुण्ड यह 'क्षत्रियकुण्ड' के पास ही कोई कस्बा था / ब्राह्मणों की बस्ती अधिक होने से इसका नाम ब्राह्मणकुण्ड पड़ गया / 2 1. जाव पद से सूचित पाठ-'विच्छिन्नविउलभवण-सयणासण जाव वाहणाइन्ने' इत्यादि / 2. भगवतीसूत्र तृतीय खण्ड (गुजरात विद्यापीठ) पृ. 162 Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [509 ऋषभदत्त ब्राह्मणधर्मानुयायी था या श्रमणधर्मानुयायो ?—इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त पहले ब्राह्मण-संस्कृति का अनुगामी था, इसी कारण उसे चारों वेदों का ज्ञाता तथा अन्य अनेक ब्राह्मणग्रन्थों का विद्वान् बताया है। किन्तु बाद में भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानीय मुनियों के सम्पर्क से वह श्रमणोपासक बना / श्रमणधर्म का तत्त्वज्ञ हुआ / ' ___कठिन शब्दों का अर्थ परिवसइ = निवास करता था, रहता था। वित्त प्रसिद्ध / अपरिभूएअपरिभूत = किसी से नहीं दबने वाला, दबंग / बंभण्णएसुब्राह्मण-संस्कृति की नीति (धर्म) में। सुपरिणिहिए = परिपक्व, मॅजा हुया / भगवान को सेवा में बन्दना-पर्युपासनादि के लिए जाने का निश्चय 4. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामो समोसढे / परिसा जाव पज्जुवासति / [4] उस काल और उस समय में (श्रमण भगवान् महावीर) स्वामी वहाँ पधारे / समवसरण लगा / परिषद् यावत पर्युपासना करने लगी। 5. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमोसे कहाए लद्धछे समाणे हट जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवाणदं माहणि एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्ण सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केण जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जाव बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरति / तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नाम-गोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सबणयाए किमंग पुण विउलस्स अटुस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पज्जुबासामो। एयं गं इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणगामियत्ताए भविस्सइ / [5] तदनन्तर इस (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पदार्पण को) बात को सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुअा, यावत् हृदय में उल्लसित हुया और जहाँ देवानन्दा ब्राह्मणी थी, वहाँ पाया और उसके पास आकर इस प्रकार बोला हे देवानुप्रिये ! धर्म की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर प्राकाश में रहे हुए चक्र से युक्त यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं, यावत् बहुशालक नामक चैत्य (उद्यान) में योग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरण करते हैं। हे देवानुप्रिये ! उन तथारू, अरिहन्त भगवान् के नाम-गोत्र के श्रवण से भी महाफल प्राप्त होता है, तो उनके सम्मुख जाते, वन्दन-नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और पर्युपासना करने आदि से होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या ! एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महान् फल होता है, तो फिर विपुल अर्थ को ग्रहण करने से महाफल हो, इसमें तो कहना ही क्या है ! इसलिए हे देवानुप्रिये ! हम चलें और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमन करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। यह कार्य हमारे लिए इस भव में तथा परभव में 1. भगवतीसूत्र : अर्थागम (हिन्दी) द्वितीय खण्ड पृ. 839 2. भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दी ) पृ. 1690 Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हित के लिए, सुख के लिए, क्षमता (--संगतता) के लिए, निःश्रेयस के लिए और प्रानुगामिकता (:-शुभ अनुबन्ध) के लिए होगा / 6. तए णं सा देवाणंदा माहणी उसमदतेणं माहणेणं एवं वृत्ता समाणी हट जाव हियया करयल जाव कटु उसमदत्तस्स माहणस्स एयमझें विणएणं पडिसुणेइ / / तत्पश्चात् ऋषभदत्त ब्राह्मण से इस प्रकार का कथन सुन कर देवानन्दा ब्राह्मणी हृदय में अत्यन्त हर्षित यावत् उल्लसित हुई और उसने दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके ऋषभदत्त ब्राह्मण के कथन को विनयपूर्वक स्वीकार किया। विवेचन-भगवान महावीर की सेवा में दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का निश्चय–प्रस्तुत सू. 4 से 6 तक में भगवान महावीर का ब्राह्मण कुण्ड में पदार्पण, ऋषभदत्त द्वारा हर्षित होकर देवानन्दा को शुभ समाचार सुनाया जाना तथा भगवान् के नाम-गोत्र श्रवण, अभिगमन, वन्दन-नमन, पृच्छा, पर्युपासना, वचनश्रवण, ग्रहण आदि का माहात्म्य एवं फल बताकर दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का विचार प्रस्तुत करना, तथा इस कार्य को हितकर, सुखकर, श्रेयस्कर एवं परम्परानुगामी बताना; यह सब सुनकर देवानन्दा द्वारा हर्षित होकर सविनय समर्थन एवं दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने का दोनों का निश्चय क्रमशः प्रतिपादित किया गया है।' __कठिन शब्दों के अर्थ इमीसे कहाए लद्ध? समाणे = यह (–श्रमण भगवान महावीर के कुण्डग्राम में पदार्पण को) बात जान कर / हदुतुटुचित्तमार्णदिया = अत्यन्त हृष्ट-प्रसन्न, सन्तुष्टचित्त एवं आनन्दित / आगासगएणं चक्केणं आकाशगत चक्र(धर्मचक्र) से युक्त / अहापडिरूवं अपने कल्प के अनुरूप / खमाए =क्षमतासंगतता के लिए / आणुमहमियत्ताए = प्रानुगामिकता अर्थात् - परम्परा से चलने वाले शुभ अनुबन्ध के लिए। ब्राह्मणदम्पती की दर्शनवन्दनार्थ जाने की तैयारी 7. तए णं से उसभदत्ते भाहणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ कोड बियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासो-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्त-जोइय-समखुर-वालिधाण-समलिहियसिंगएहिं जंबूणयामयकलावजुत्तपइविसिट्टएहि रययामयघंटसुत्तरज्जयवरकंचणनस्थपग्गहोगविरहि नोलप्पलकयामेलएहि पवरगोणजुवाणएहि नाणामणिरयणघंटियाजालपरिगयं सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगपसत्यसुविरचितनिम्मियं पवरलक्खगोववेयं धम्मियं जाणप्यवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उपद्ववित्ता मम एयमाणत्तियं पच्चघिणह। 7) तत्पश्चात् उस ऋषभदत्त ब्राह्मण ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र चलने वाले, प्रशस्त, सदृशरूप वाले, समान खुर और पूछ वाले, एक समान सींग वाले, स्वर्णनिर्मित कलापों (ग्राभूषणों) से युक्त, उत्तम गति (चाल) वाले, चांदी की * घंटियों से युक्त, स्वर्णमय नाथ (नासारज्जु) द्वारा बांधे हुए, नील कमल की कलंगी वाले दो उत्तम युवा 1. वियाहपज्जतिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 450 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 459 (ख) भगवती. खण्ड 3 (गु. विद्यापीठ), पृ. 162 Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [511 नवम शतक : उद्देशक-३३] बैलों से युक्त, अनेक प्रकार की मणिमय घंटियों के समूह से व्याप्त, उत्तम काष्ठमय जुए (धूसर) और जोत की उत्तम दो डोरियों से युक्त, प्रवर (श्रेष्ठ) लक्षणों से युक्त धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) शोघ्र तैयार करके यहाँ उपस्थित करो और इस प्राज्ञा को वापिस करो अर्थात् इस प्राज्ञा का पालन करके मुझे सूचना करो। 8. तए णं ते कोडुबियपुरिसा उसमदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव हिण्या करयल एवं वयासो-सामो ! 'तह त्ताणाए विणएणं क्यणं जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्त० जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवद्ववेत्ता जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणति / [8] जब ऋषभदत ब्राह्मण ने उन कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार कहा, तब वे उसे सुन कर अत्यन्त हषित यावत हृदय में आनन्दित हुए और मस्तक पर अंर्जाल करके इस प्रकार कहा - स्वामिन् ! आपकी यह आज्ञा हमें मान्य है-तथाऽस्तु (ऐसा ही होगा) / इस प्रकार कह कर विनयपूर्वक उनके वचनों को स्वीकार किया और (ऋषभदत्त की आज्ञानुसार) शीघ्र ही द्र तगामी दो बैलों से युक्त यावत् श्रेष्ठ धामिक रथ को तैयार करके उपस्थित किया; यावत् उनकी आज्ञा के पालन की सूचना दी। 9. तए णं से उसभदत्ते माहणे हाए जाव अपमहग्याभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, साओ गिहाओ पडिनिक्खभित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे / [6] तदनन्तर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण स्नान यावत् अल्पभार (कम वजन के) और महामूल्य वाले प्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किये हुए अपने घर से बाहर निकला। घर से बाहर निकल कर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेष्ठ धामिक रथ था, वहाँ आया / पाकर उस रथ पर आरूढ़ हुआ। 10. तए णं सा देवाणंदा माहणी' हाया जाव अप्पमहाघाभरणालंकियसरीरा बहूहि खुज्जाहि चिलाइयाहि जाव' अंतेउराओ निग्गच्छति; अंतेउराओ निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुढ़ा। वाचनान्तर में देवानन्दा-वर्णक-...'अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छिता वरपादपत्तने. उरमणिमेहलाहाररइयचियकडगखुड्डागएगावलीकंठसुत्तउरत्थगेयेज्जसोणिसुत्तगणाणामणिरयणभूसणविराइयंगी चोणंसुयवस्थपवरपरिहिया दुगुल्लसुकुमालउत्तरिज्जा सम्वोउयसुरभिकुसुमरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभरण भूसियंगी कालागुरुधवविया सिरीसमाणवेसा।' अ. वृति पत्रांक 459. 2. 'जाव' पद से निम्नलिखित पाठ समझना चाहिए-बामणियाहिं वडहियाहि बब्बरियाहि पओसियाहि ईसिगणि याहि वासगणियाहि जोहि ('जोणि'प्रत्य०) याहि पल्हवियाहि ल्हासियाहि लसियाहिं आरबीहि दमिलाहि सिंहलीहि पुलिंदीहि पक्कणीहि बहलोहि मुरुडीहिं सबरोहि पारसीहि नाणादेसिविदेसपरिपिडियाहिं सदेसनेवत्यहियवेसाहि इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं कुसलाहिं विणीयाहिं, युक्ता इति गम्यते / Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 10 तब देवानन्दा ब्राह्मणी ने भी (अन्तःपुर में) स्नान किया, यावत् अल्पभार वाले महामूल्य आभूषणों से शरीर को सुशोभित किया। फिर बहुत सी कुब्जा दासियों तथा चिलात देश की दासियों के साथ यावत् अन्त:पुर से निकली। अन्तःपुर से निकल कर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहाँ श्रेष्ठ धार्मिक रथ खड़ा था, वहाँ आई / उस श्रेष्ठ धार्मिक रथ पर आरूढ़ हुई। विवेचन-भगवान के दर्शन-वन्दनादि के लिए जाने को तैयारी प्रस्तुत सू. 7 से 10 तक चार सूत्रों में क्रमशः कौटुम्बिक पुरुषों को श्रेष्ठ धार्मिक रथ को तैयार करके शीघ्र उपस्थित करने की आज्ञा दी, उन्होंने प्राज्ञा शिरोधार्य की और शीघ्र धार्मिक रथ तैयार करके प्रस्तुत किया। तदनन्तर ऋषभदत्त ब्राह्मण तथा देवानन्दा ब्राहाणी पृथक्-पृथक् स्नानादि से निवृत्त होकर वेशभूपा से सुसज्जित हुए और धार्मिक रथ में बैठे / ' कठिन शब्दों के अर्थ-कोडुबियपुरिसा = कौटुम्बिक पुरुष (सेवक' या कर्मचारी)। सद्दावेइ = बुलाए / खिप्पामेव = शीघ्र ही / लहुकरणजुत्ता - शीन गति करने वाले उपकरणों-साधनों से युक्त / समखुर-वालिधाण = समानखुर और पूछ वाले / समलिहिसिगे समान चित्रित सांगोंवाले / जंबूणयमयकलावजुत्त = जाम्बूनद-स्वर्ण से बने हुए कलापों व कण्ठ के आभूषणों से युक्त / परिविसिट्ठ हि = प्रतिविशिष्ट प्रधानरूप से फुर्तीले / रययामयघंट = चांदी की घंटियों से युक्त / सुत्तरज्जुयवरकंचणनत्थपरगहोग्गहियएहि - सोने के डोरी (सूत्र) की नाथ (नासारज्जु) से बंधे हुए / णीलुप्पलकयामेलएहि = नील कमल की कलंगी से युक्त / पवरगोणजुवाणएहि = जवान श्रेष्ठ बैलों से / सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगपसत्य-सुविरचितनिम्मियं = उत्तम काष्ठ के जुए और जोत की रस्सियों से सुनियोजित / पवरलक्खणोववेयं = उत्कृष्ट लक्षणों से युक्त / जुत्तामेव जोत कर / उवट्टवेह = उपस्थित करो / एयमाणत्तियं = इस आशा को / पच्चप्पिणह =प्रत्यर्पण करो-वापिस लौटायो। तहत्ति-तथास्तु-ऐसा ही होगा। खुज्जाहि-कुब्जा दासियों के साथ। चिलाइयाहि = चिलात (किरात) देश में उत्पन्न दासियों के साथ / ' 11. तए णं से उसभदते माहणे देवाणंदाए माहणीए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिवुडे माहणकुडग्गामं नगरं मज्झमज्भेणं निम्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवाईच्छत्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ, 2 धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, 2 समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तं जहा-सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए एवं जहा बिइयसए (स० 2 उ० 5 सु० 14) जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ / [11] इसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानन्दा ब्राह्मणी के साथ श्रेष्ठ धार्मिक रथ पर चढा हुअा अपने परिवार से परिवृत्त होकर ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के मध्य में होता हुआ 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 452 2. (क) भगवती. अ. त्ति, पत्र 459 (ख) भगवती. तृतीय खण्ड (गुजरात विद्यापीठ), प. 163 Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] निकला और बहुशालक नामक उद्यान में पाया / वहाँ तीर्थंकर भगवान के छत्र प्रादि अतिशयों को देखा / देखते ही उसने श्रेष्ठ धार्मिक रथ को ठहराया और उस श्रेष्ठ धर्म-रथ से नीचे उतरा। रथ से उतर कर वह श्रमण भगवान महावीर के पास पांच प्रकार के अभिगमपूर्वक गया। वे पांच अभिगम इस प्रकार हैं--(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग करना इत्यादि; द्वितीय शतक (के पंचम उद्देशक सू. 14) में कहे अनुसार यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना से उपासना करने लगा। 12. तए णं सा देवाणंदा माहणी धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता० बहुयाहि खुज्जाहिं जाव' महत्तरगवंदपरिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा-सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए 1 प्रचित्ताणं दम्वाणं अविमोयणयाए 2 विणयोणयाए गायलट्ठीए 3 चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं 4 मणस्स एगत्तीभावकरणेणं 5 / जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महाबीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उसमदत्तं माहणं पुरओ कटु ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासइ / [12] तदनन्तर बह देवानन्दा ब्राह्मणी भी धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी और अपनी बहुत-सी दासियों आदि यावत् महत्तरिका-वृन्द से परिवृत हो कर श्रमण भगवान् महावीर के सम्मुख पंचविध अभिगमपूर्वक जाने लगी / वे पाँच अभिगम इस प्रकार हैं--(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग करना, (2) अचित्त द्रव्यों का त्याग न करना, अर्थात् वस्त्र आदि को व्यवस्थित ढंग से धारण करना, (3) विनय से शरीर को अवनत करना (नीचे झुकाना), (4) भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ना, (5) मन को एकाग्न करना / इन पांच अभिग्रहों द्वारा जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ वह आई और उसने भगवान् को तीन बार आदक्षिण (दाहिनी ओर से) प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार के बाद ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे करके अपने परिवार सहित शुश्रूषा करती हुई, नमन करती हुई, सम्मुख खड़ी रह कर विनयपूर्वक हाथ जोड़ कर उपासना करने लगी। विवेचन -पांच अभिगम क्या और क्यों?-त्यागी महापुरुषों के पास जाने की एक विशिष्ट मर्यादा को शास्त्रीय परिभाषा में अभिगम कहते हैं / वे पाँच प्रकार के हैं परन्तु स्त्री और पुरुष के लिए तीसरे अभिगम में अन्तर है। श्रावक के लिए है—-एक पट वाले दुपट्टे का उत्तरासंग करना, जबकि श्राविका के लिए है--विनय से शरीर को झुकाना / साधु-साध्वियों के पास जाने के लिए इन पांच अभिगमों का पालन करना आवश्यक है। देवानन्दा की मातृवत्सलता और गौतम का समाधान 13. तए णं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया पप्फुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिवित्तिया धाराहयकलंबग पिव समूससियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी देहमाणी चिट्ठति / / 1. "जाव' पद से यह पाठ--चेडियाचक्कवालवरिसधर-थेरकंचुइज्ज-महत्तरयवंदपरिक्खिता। 2. भगवती भा 4 पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1700 Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13] तदनन्तर उस देवानन्दा ब्राह्मणी के पाना चढ़ा (अर्थात्-उसके स्तनों में दूध आ गया)। उसके नेत्र हर्षाश्र ओं से भीग गए / हर्ष से प्रफुल्लित होती हुई उसकी बाहों को वलयों ने रोक लिया। (अर्थात्---उसकी भुजाओं के कड़े-बाजूबंद तंग हो गए)। हर्षातिरेक से उसकी कञ्चुकी (कांचली) विस्तीर्ण हो गई / मेघ की धारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान उसका शरीर रोमाञ्चित हो गया। फिर वह श्रमण भगवान् महावीर को अनिमेष दृष्टि से (टकट की लगाकर) देखती रही। 14. 'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किं णं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया तं चेव जाव रोमकवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्टीए देहमाणी देहमाणी चिट्टइ ? 'गोयमा !' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी मम अम्मगा, अहं णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए / तेणं एसा देवाणंदा माहणी तेणं पुन्वपुत्तसिणेहाणुरागेणं आगयपण्हया जाव समूससियरोमकूवा मम अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी देहमाणी' चिट्ठइ / [14] (यह देखकर) भगवान् गौतम ने, 'भगवन् !' यों कह कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन नमस्कार किया। उसके पश्चात् इस प्रकार [प्रश्न पूछा-भन्ते ! इस देवानन्दा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध कैसे निकल पाया? यावत् इसे रोमांच क्यों हो पाया ? और यह आप देवानुप्रिय को अनिमेष दृष्टि से देखती हुई क्यों खड़ी है ? उ.] 'गौतम !' यों कह कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! देवानन्दा ब्राह्मणी मेरी माता है। मैं देवानन्दा का प्रात्मज (पुत्र) हैं / इसलिए देवानन्दा को पूर्व-पुत्रस्नेहानुरागवश दूध आ गया, यावत् रोमाञ्च हुआ और यह मुझे अनिमेष दृष्टि से देख रही है। विवेचन-देवानन्दा माता और पुत्रस्नेह-भगवान महावीर को देखते ही देवानन्दा के स्तनों से दुग्धधारा फूट निकली, रोमांच हो गया / हर्ष से नेत्र प्रफुल्लित हो गए और वह भगवान् महावीर की ओर अपलक दष्टि से देखने लगी / इस विषय की गौतमस्वामी की शंका का समाधान करते हुए भगवान् ने रहस्योद्घाटन किया-देवानन्दा मेरी माता है। प्रथम गर्भाधानकाल में मैं उसके गर्भ में रहा, इसलिए पुत्रस्नेह रूप अनुरागवश यह सब होना स्वाभाविक है / 2 ___ कठिन शब्दों का अर्थ-प्रागयपण्हया-अागतप्रश्रवा स्तनों में दूध आ गया / पप्फुयलोयणाप्रस्फुटितलोचना हर्ष से नयन विकसित हो गए / संवरियवलयबाहा= हर्ष से फूलती हुई बांहों को बाजूबंदों ने रोका। कंचुयपरिक्खिता- कंचुकी विस्तृत हो गई। धाराहयकलंबगंपिव = मेघधारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान / समूससियरोमकूवारोमकूप विकसित हो गए / अम्मगा-अम्मा = माता / अतए == आत्मज--पुत्र / देहमाणी = देखती हुई। ----- . . . ..-. 1. 'देहमाणी' के बदले 'पेहमाणी' पाठ अन्तकृत् प्रादि शास्त्रों में अधिक प्रचलित है। अर्थ दोनों का समान है / 2. भगवती. भा. 4 (पं घेव०), पृ. 1700 3. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 460 Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [515 ऋषभदत्त द्वारा प्रवज्याग्रहण एवं निर्वाणप्राप्ति 15. तए णं समणे भगवं महावीरे उसमदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए य माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव' परिसा पडिगया। [15] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी तथा उस अत्यन्त बड़ी ऋषिपरिषद् आदि को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापस चली गई / 16. तए णं से उसमदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुठे उट्ठाए उठेड, उट्ठाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया० जाव नमंसित्ता एवं वयासी-'एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते !' जहा खंदओ (स०२ उ० 1 सु० 34) जाव 'से जहेयं तुभे वदह' ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति, सयमेव पंचमृद्रियं लोयं करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं क्यासी-आलिते णं भले ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, एवं जहा खंदओ (स० 2 उ०१ सु० 34) तहेब पच्चइओ जाव सामाइयमाइयाई इक्कारस अंगाई अहिज्जह जाव बहूहि चउत्थ-छ?-मुट्ठम-दसम जाब विचितहि तबोकम्मेहि प्रप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणइ, पाणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताणं भूसेति, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसित्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेति, सट्टि भत्ताई अणसणाए छेवेत्ता जस्सट्टाए कीरति नग्गभावो जाय तमळं आराहेइ, 2 जाव सम्वदुक्खप्पहीणे / [16. इसके पश्चात् वह ऋषभदत्त ब्राह्मण, श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म-श्रवण कर और उसे हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट होकर खड़ा हुआ / खड़े होकर उसने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमन करके इस प्रकार निवेदन किया--'भगवन् ! आपने कहा, वैसा ही है, आपका कथन यथार्थ है भगवन् !' इत्यादि (दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक सू. 34 में) स्कन्दक तापस-प्रकरण में कहे अनुसार ; यावत्-जो आप कहते हैं, वह उसी प्रकार है।' इस प्रकार कह कर वह (ऋषभदत्त ब्राह्मण) ईशान कोण (उत्तरपूर्व दिशा भाग) में गया / वहाँ जा कर उसने स्वयमेव आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये / फिर स्वयमेव पंचमुष्टि केशलोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास आया। भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा--भगवन् ! (जरा और मरण से) यह लोक चारों ओर से प्रज्वलित हो रहा है, भगवन् ! यह लोक चारों ओर से अत्यन्त जल रहा है, इत्यादि 1. 'जाव' पद से यहाँ---'मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, अणेगसयाए अणगसयविंदपरिवाराए,' इत्यादि पाठ समझना चाहिए। 2. पाठान्तर-आलितपलित णं भंते ! लोए जराए मरणेण य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओं। Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कह कर (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक, सू. 34 में) जिस प्रकार स्कन्दक तापस की प्रवज्या का प्रकरण है, तदनुसार (ऋषभदत्त ब्राह्मण ने) प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत बहत-से उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (षष्ठभक्त), तेला (अष्टमभक्त). चौला (दशमभक्त) इत्यादि विचित्र तप:कर्मों से प्रात्मा को भावित करते हुए, बहत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (श्रमण-दीक्षा) का पालन किया और (अन्त में) एक मास की संल्लेखना से प्रात्मा को संलिखित करके साठ भक्तों का अनशन से छेदन किया और ऐसा करके जिस उद्देश्य से नग्नभाव (निर्ग्रन्थत्वसंयम) स्वीकार किया, यावत् उस निर्वाण रूप अर्थ की नाराधना कर ली, यावत् वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त एवं सर्वदुःखों से रहित हुए। विवेचन-भगवान का धर्मोपदेश-श्रवण एवं दीक्षाग्रहण-मू. 15-16 में भगवान् की धर्मकथा सुनकर संसारविरक्त होकर ऋषभदत्त के द्वारा दीक्षाग्रहण, शास्त्राध्ययन, तपश्चरण, और अन्त में संल्लेखना-संथारापूर्वक, समाधिमरण की प्राराधनापूर्वक सिद्ध-बुद्ध-मुक्तदशा की प्राप्ति / यह जीवन का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया गया है।' कठिन शब्दों के अर्थ---इसिपरिसाए-क्रान्तदर्शी साधक मुनियों की सभा; ज्ञानी होते हैं, वे ऋषि हैं।' आलित्ते पलिते-प्रादीप्त- चारों ओर से जल रहा है। प्रदीप्त - विशेष रूप से जल रहा है। सामण्णपरियायं = श्रमणत्व-दीक्षा को। अत्ताणं झूसित्ता = अपनी आत्मा पर पाए हुए कर्मावरणों को भस्म करके आत्मा को शुद्ध करके अथवा संल्लेखना से प्रात्मा के साथ लगे हुए कषायों को कुश करके / सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेता = साठ टंक के चतुर्विध पाहाररूप भोजन के त्याग के रूप में अनशन (यावज्जीवन आहारत्याग) से छेदन (कर्मों को छिन्न-भिन्न करके या मोहनीयादि घाति-अघाति सर्व कर्मों का क्षय) करके / नग्गभाव = नग्नभाव का तात्पर्य निर्ग्रन्थभाव है / विचित्तेहिं तवोकम्मेहि-विविध प्रकार की तपश्चर्याओं से / 3 देवानन्दा द्वारा साध्वी-दीक्षा और मुक्ति प्राप्ति 17. तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठा० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासी-- एवमेयं भंते !, तहमेयं भंते, एवं जहा उसभदत्तो (सु०१६) तहेव जाव धम्ममाइक्खियं / [17] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्म सुन कर एवं हृदयंगम करके वह देवानन्दा ब्राह्मणी अत्यन्त हृष्ट एवं तुष्ट (आनन्दित एवं सन्तुष्ट) हुई और श्रमण भगवान् महावीर की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोली-भगवन् ! आपने 1. भगवती. (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 453 2. पश्यन्तीति ऋषयः ज्ञानिनः / भग. अ. वृ., पत्र 460 3. (क) भगवती. न वृत्ति, पत्र 460 (ख) भगवती, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1702-1703 Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३) [517 जैसा कहा है, वसा ही है, भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है / इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त ने (सू.१६ में) प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए निवेदन किया था, वैसे ही विरक्त देवानन्दा ने भी निवेदन किया; यावत्-धर्म कहा'; यहाँ तक कहना चाहिए। 18. तए गं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माणि सयमेव पवावेति, सयमेव मुंडावेति, सयमेव अज्जचंदणाए अज्जाए सोसिणित्ताए दलयइ / [18] तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयमेव प्रजित कराया, स्वयमेव मुण्डित कराया और स्वयमेव आर्यचन्दना आर्या को शिष्यारूप में सौंप दिया। 19 तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा देवाणंदं माहणि सयमेव पवावेति, सयमेव मुडावेति, सयमेव सेहावेति, एवं जहेब उसमदत्तो तहेव अज्जचंदणाए अज्जाए इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्म संयडिवज्जइ-तमाणाए तहा गच्छइ जाव संजमेणं संजमति / [16] तत्पश्चात् आर्य चन्दना प्रार्या ने देवानन्दा ब्राह्मणी को स्वयं प्रबजित किया, स्वयं मेव मुण्डित किया और स्वयमेव उसे (संयम की) शिक्षा दी / देवानन्दा (नवदीक्षित साध्वी) ने भी ऋषभदत्त के समान इस प्रकार के धार्मिक (श्रमणधर्मपालन सम्बन्धी) उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और वह उनकी (आर्या चन्दनबाला की) आज्ञानुसार चलने लगी, यावत् संयम (-पालन) में सम्यक् प्रवृत्ति करने लगी। 20. तए णं सा देवाणंदा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / सेसं तं चेव जाव सव्वदुक्खप्पहीणा / [20] तदनन्तर अार्या देवानन्दा ने आर्य चन्दना प्रार्या से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / शेष सभी वर्णन पूर्ववत् है; यावत् वह देवानन्द प्रार्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त और समस्त दुःखों से रहित हुई। विवेचन देवानन्दाः प्रवजित और मुक्त--ऋषभदत्त ब्राह्मण की तरह देवानन्दा को भी संसार से विरक्ति हुई, उसने भी भगवान् के समक्ष अपनी दीक्षाग्रहण की इच्छा व्यक्त की / योग्य समझ कर भगवान् ने उसे दीक्षा दी / साध्वी चन्दनबाला को शिष्या के रूप में सौंपी / आर्या चन्दना ने उसे शिक्षित किया, शास्त्राध्ययन कराया। देवानन्दा ने भी विविध तप किए और अन्त में संल्लेखना-संथारापूर्वक-समाधिपूर्वक शरीर त्याग किया और मुक्ति प्राप्त की। इस पाठ से श्रमण-संस्कृति का संयम एवं तप द्वारा कर्मक्षय करके मुक्त होने का सिद्धान्त स्पष्ट अभिव्यक्त होता है / वैदिक-संस्कृति-निरूपित, संयम में पुरुषार्थ किये बिना ही भगवान् द्वारा स्वर्गमोक्ष प्रदान कर देने का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है / (सू. 18 में) भगवान् महावीर द्वारा देवानन्दा को प्रजित-मुण्डित करने के उपरान्त पुनः (सू. 16 में) आर्या चन्दना द्वारा प्रवजित-मुण्डित करने का उल्लेख स्पष्ट करता है कि भ. महावीर ने स्वयं प्रजित-मुण्डित नहीं करके प्रार्या चन्दना से प्रजितमुण्डित कराया और उसे शिष्या के रूप में सौंपा / आर्या चन्दना ने भगवदाज्ञा से उसे प्रवजित-मुण्डित किया। Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518} व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जमालि-चरित जमालि और उसका भोग-वैभवमय जीवन 21. तस्स णं माहणकुडग्गामस्स नगरस्स पच्चस्थिमेणं, एत्थ पं खत्तियकुंडग्गामे नामं नगरे होत्था / वष्णओ। [21] उस ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर से पश्चिम दिशा में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था। उसका यहाँ वर्णन समझ लेना चाहिए / 22. तत्थ ण खत्तियकुडग्गामे नयरे जमाली नाम खत्तियकुमारे परिवसति, अड्ढे दित्ते जाव अपरिभूए उपि पासायवरगए फुट्टमाहि मुइंगमत्थरहिं बत्तीसतिबद्धहि नाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उबनच्चिज्जमाणे उवनच्चिज्जमाणे उवगिज्जमाणे उगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे पाउस-वासारत्त-सरद-हेमंत-वसंत-गिम्हपज्जते छप्पि उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे माणेमाणे कालं गालेमाणे इवें सद्द-फरिस-रस-रूब-गधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरइ / 22] उस क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। वह आढ्य (धनिक), दीप्त (तेजस्वी) यावत् अपरिभूत था / वह जिसमें मृदंग वाद्य की स्पष्ट ध्वनि हो रही थी, बत्तीस प्रकार के नाटकों के अभिनय और नत्य हो रहे थे, अनेक प्रकार तरुणियों द्वारा सम्प्रयुक्त नृत्य और गुणगान (गायन) बार-बार किये जा रहे थे, उसकी प्रशंसा से भवन गंजाया जा रहा था, खशियां मनाई जा रही थी. ऐसे अपने उच्च श्रेष्ठ प्रासाद-भवन में प्रावट (पावस), वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म, इन छह ऋतुओं में अपने वैभव के अनसार आनन्द (उत्सव) मनाता हुआ, समय बिताता हुआ, मनुष्यसम्बन्धी पांच प्रकार के इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वाले कामभोगों का अनुभव करता हुअा रहता था। विवेचन-जमालि और उसका भोगमय जीवन—प्रस्तुत दो सूत्रों में जमालि कौन था, किस नगर का था, उसके पास वैभव और भोगसुखों का अम्बार किस प्रकार का लगा हुअा था, यह वर्णन किया गया है / 'जमालि' भगवान् महावीर का जामाता था, ऐसा उल्लेख तथा जमालि के म के नाम का उल्लेख मूल में या वृत्ति में कहीं भी नहीं किया गया है।' कठिन शब्दों के अर्थ--पच्चस्थिमेणं = पश्चिम दिशा में, उपि पासायवरगए = ऊपर के या उन्नत (उच्च) श्रेष्ठ प्रासाद में रहता हुआ / फुट्टमाणेहि मुइंगमत्थरहि - मृदंग के मस्तक (सिर) पर अत्यन्त शीघ्रता से पीटने से स्पष्ट आवाज कर रहे थे / उवनचिज्जमाणे - नृत्य किये जा रहे थे / उवगिज्जमाणे = गीत गाए जा रहे थे / उवलालिज्जमाणे - प्रशंसा से फुलाया (लड़ाया) जा 1. वियाह रणत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1 पृ 45.5 Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [519 रहा था। माणेमाणे = मनाया जाता हुआ / कालं गालेमाणे = समय बिताता हुआ / बत्तीसतिबद्धहि नाडएहि = बत्तीस प्रकार के अभिनयों अथवा नाटक के पात्रों से सम्बद्ध नाटक / ' भगवान का पदार्पण सुन कर दर्शन-वन्दनादि के लिए गमन-- 23. तए णं खत्तियकुडग्गामे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर जाव' बहुजणसद्दे इ वा जहा उववाइए आव एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समगे भगवं महावीरे आइगरे जाव सव्वष्णू सव्वदरिसी माहणकुडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ। तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाव' एगाभिमुहे खत्तियकुडग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छंति, निम्गच्छित्ता जेणेव माहणकुडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए एवं जहा उववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति / 23. उस दिन क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में शृगाटक, त्रिक, चतुष्क और चत्वर यावत् महापथ पर बहुत-से लोगों का कोलाहल हो रहा था, इत्यादि सारा वर्णन जिस प्रकार औपपातिकसूत्र में है, उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए; यावत् बहुत-से लोग परस्पर एक-दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् बता रहे थे कि 'देवानुप्रियो! आदिकर (धर्म-तीर्थ की आदि करने वाले) यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर, इस ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान (चैत्य) में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं / अतः हे देवानुप्रियो ! तथारूप अरिहन्त भगवान् के नाम, गोत्र के श्रवण-मात्र से महान् फल होता है; इत्यादि वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् वह जनसमूह तीन प्रकार की पर्युपासना करता है / 24. तए णं तस्स जमालिस्त खत्तियकुमारस्स तं महया जणसई वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था--कि णं अज्ज खत्तिय 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 462 2. 'जाव' पद सूचित पाठ..'चउम्मुहमहापह-पहेसु'-अ व. 3. पीपपातिक सूत्र गत पाठ संक्षेप में.----."जणबहे इया जणबोले इबा जणकलकले ति वा जणुम्मी इ वा जणुवक लिया इवा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खाइ एवं भासई।" 4. 'जाव' शब्द निदिष्ट पाठ-"उग्गहं ओगिण्हति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अपाणं भावेमाणे।" 5. 'जाव' शब्द सूचक पाठ--"नामगोयस्स वि सबरण्याए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-गमंसण-पडिपुच्छण-पज्जु वासणयाए ?, एगस्स वि आयरियस्स सुवधणस्त सवणयाए, किमंग पूण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?, तं गच्छामो ण देवाणप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो, एयं णे पेच्चमवे हियाए सुहाए खमाए णिस्सेअसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटटु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं खत्तिया भडा अप्पेगइया बंदणवत्तियं एवं पूअणवत्तियं सकारवत्तियं सम्माणबत्तियं कोउहलबत्तियं, अप्पेगइया 'जीयमेय' ति कटु।" 6. 'जाव' शब्द सूचित पाठ---"तेणामेय उवागच्छति, तेणामेव उवागांच्छता छत्ताइए तित्थयराइसए पासंति, जाण वाहणाई ठाइति / " 7. 'जाब' शब्द से सूचित पाठ-"चितिए पथिए मणोगए संकप्पे।" Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520] घ्यिाख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कुडग्गामे नगरे इंदमहे इ वा, खंदमहे इ वा, मुगुदमहे इ वा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ बा, कूवमहे इ वा, तडागमहे इ वा, नइमहे इ वा, दहमहे इ वा, पच्चयमहे इ वा, रुक्खमहे इ वा, चेइयमहे इ था, थूभनंहे इ वा, जं गं एए बहवे उग्गा भोगा राइना इक्खागा गाया कोरवा खत्तिया खत्तियपुत्ता भडा भडपुत्ता सेणावई 2 पसत्थारो 2 लेच्छई 2 माहणा 2 इन्भा 2 जहा उववाइए जाव' सत्थवाहप्पभिइओ व्हाया कयबलिकम्मा जहा उववाइए जाव निग्गच्छति ? एवं संपेहेइ, एवं संपेहिता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, कंचुइज्जपुरिसं सहावेत्ता एवं क्यासि-कि णं देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तियकुडग्गामे नगरे इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छंति ? 24] तब बहुत-से मनुष्यों के शब्द और उनका परस्पर मिलन (सन्निपात) सुन और देख कर उस क्षत्रियकुमार जमालि के मन में विचार यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ— 'क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में इन्द्र का उत्सव है ?, अथवा स्कन्दोत्सव है ?, या मुकुन्द (वासुदेव) महोत्सव है ? नाग का उत्सव है, यक्ष का उत्सब है, अथवा भूतमहोत्सव है ? या किसी कूप का, सरोवर का, नदी का या द्रह का उत्सव है ?, अथवा किसी पर्वत का, वृक्ष का, चैत्य का अथवा स्तूप का उत्सव है ?, जिसके कारण ये बहत-से उग्र (उनकूल के क्षत्रिय), भोग (भोगकूल या भोजकूल के क्षत्रिय), राजन्य. इक्ष्वाकु (कुलीन). ज्ञात (कुलीन), कौरव्य क्षत्रिय, क्षत्रियपत्र, भट (योद्धा), भटपूत्र, सेनापति, सेनापतिपुत्र, प्रशास्ता एवं प्रशास्तृपुत्र, लिच्छवी (लिच्छवीगण के क्षत्रिय), लिच्छवीपुत्र, ब्राह्मण (माहण), ब्राह्मणपुत्र एवं इभ्य (श्रेष्ठी) इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् सार्थवाह-प्रमुख, स्नान आदि करके यावत् बाहर निकल रहे हैं ? इस प्रकार विचार करके उसने कंचुकीपुरुष (सेवक) को बुलाया और उससे पूछा--"हे देवानुप्रियो ! क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बाहर इन्द्र ग्रादि का कोई उत्सव है, जिसके कारण यावत् ये सब लोग बाहर जा रहे हैं ?' 25. तए णं से कंचुइज्जपुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वृत्त समाणे हद्वतुटु० समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल० जमालि खत्तियकुमारं जएणं विजएणं बहावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी—'णो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज खत्तियकुडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा जाव' निग्गच्छति / एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सव्वष्णू सव्वदरिसी माहणकुडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरति, तए णं एए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया बंदणवत्तियं जाव' निम्गच्छति / 1. 'जाव' शब्द से सूचित पाठ-"माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छई अग्ने य बहवे राईसर-तलवर-माउंबिय-कोई बिध-इभ-सेट्रि-सेणाबद।" 2 'जाव' शब्द से सुचित पाठ-"कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालाकडा।" 3. 'जाब' शब्द से सूचित पाठ—'अप्येगइया पूअणवत्तियं एवं सरकारवत्तिय सम्माणवत्तियं कोउहल्लयत्तिय असुयाई सुणिस्सामो, सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो, मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पवइस्सामो, अप्पेगइया हयगया एवं गय-रह-सिमिया-संकमाणियागया, अप्पेगइया पार्यावहारचारिणो पुरिसवगुरापरिक्खिता •महता विकसीहणायबोलकलकलरवेण समुद्दरवभूयं पिब करेमाणा खत्तिय डग्गामस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं।" Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [221 125] तब जमालि क्षत्रियकुमार के इस प्रकार कहने पर वह कंचुकी पुरुष अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुअा। उसने श्रमण भगवान् महावीर का (नगर में) प्रागमन जान कर एवं निश्चित करके हाथ जोड़ कर जय-विजय-ध्वनि से जमालि क्षत्रियकुमार को बधाई दी। तत्पश्चात् उसने इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रिय ! प्राज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बाहर इन्द्र आदि का उत्सव नहीं है, जिसके कारण यावत् लोग नगर से बाहर जा रहे हैं, किन्तु हे देवानुप्रिय ! आदिकर यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी थमण भगवान् महावीर स्वामी ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशाल नामक उद्यान में अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरते हैं; इसी कारण ये उग्रकुल, भोगकुल आदि के क्षत्रिय आदि तथा और भी अनेक जन वन्दन के लिए यावत् जा रहे हैं।' 26. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुबियपुरिसे सद्दावइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउघंट आसरहं जुत्तामेव उवटवेह, उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / [26] तदनन्तर कंचुकी पुरुष से यह बात सुन कर और हृदय में धारण करके जमालि क्षत्रियकुमार हर्षित एवं सन्तुष्ट हुा / उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार कहा-- . 'देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही चार घण्टा वाले अश्वरथ को जोत कर यहाँ उपस्थित करो और मेरी इस प्राज्ञा का पालन करके निवेदन करो!' 27. तए गं ते कोडुबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पच्चपिणंति / [27] तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालि के इस आदेश को सुन कर तदनुसार कार्य करके यावत् निवेदन किया। 28. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे जेणेव मज्जणधरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता हाए कयबलिकम्मे जहा' उववाइए परिसा-बण्णओ तहा भाणियव्वं जाव चंदणोक्खित्तगायसरोरे सव्वालंकारविभूसिए मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, मज्जणघराओ पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता चाउघंटे आसरहं दुरूहेइ, चाउघंटं आसरहं दुरूहित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भडचडफरपहकरवंदपरिक्खित्ते खत्तियकुडग्गामं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हेइ, तुरए निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, रहं ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहति, रहाओ पच्चोरुहित्ता पुप्फ-तंबोलाउहमादीयं वाहणाओ य विसज्जेइ, वाहणाओ विसज्जित्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, एगसाडियं उत्तरासंगं करेत्ता आयते चोखे परमसुइन्भूए अंजलिमलियहत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेत्ता जाव तिविहाए पन्जुवासणाए पज्जुवासेइ / 1. औपपातिक सूत्र में परिषद् वर्णन-~"अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर माउंबिय-कोड विय-मंति-महामंति गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेटि-[सेणावइ-] सत्थवाह-दूय-संधिवाल सद्धि संपरिवुडे / " Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [28] तदनन्तर वह जमालि क्षत्रियकुमार, जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया और वहाँ आकर उसने स्नान किया तथा अन्य सभी दैनिक क्रियाएँ की, यावत् शरीर पर चन्दन का लेपन किया; समस्त आभूषणों से विभूषित हुआ और स्नानगृह से निकला आदि सारा वर्णन तथा परिषद् का वर्णन, जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में है, उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए। फिर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहाँ सुसज्जित चतुर्घण्ट अश्वरथ था, वहाँ वह आया / उस अश्वरथ पर चढ़ा / कोरण्टपुष्प की माला से युक्त छत्र को मस्तक पर धारण किया हुआ तथा बड़े-बड़े सुभटों, दासों, पथदर्शकों आदि के समूह से परिवृत हुग्रा वह जमालि क्षत्रियकुमार क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के मध्य में से होकर निकला और ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर के बाहर जहाँ बहुशाल नामक उद्यान था, वहाँ पाया / वहाँ घोड़ों को रोक कर रथ को खड़ा किया, तब वह रथ से नीचे उतरा। फिर उसने पुष्प, ताम्बूल, प्रायुध (शस्त्र) आदि तथा उपानह (जते) वहीं छोड़ दिये। एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग (उत्तरीय धारण) किया। तदनन्तर पाचमन किया हुआ और अशुद्धि दूर करके अत्यन्त शुद्ध हुआ जमालि मस्तक पर दोनों हाथ जोड़े हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास पहुँचा / समीप जाकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, यावत् त्रिविध पर्युपासना की / विवेचन—जमालि : भगवान महावीर की सेवा में--प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 23 से 28 तक) में क्षत्रियकुमार जमालि ने जनता के मुख से नगर के स्थान-स्थान पर चर्चा सुनी। उसके मन में जानने की उत्सूकता पैदा हई / कंचकी से पूछने पर पता चला कि भ. महावीर ब्राहाणकूण्डग्राम में पधारे हैं। जमालि ने सेवकों को बुला कर धर्मरथ तैयार करने का आदेश दिया। रथ पर आरूढ़ होकर बड़े ठाठबाठ से क्षत्रियकुण्डग्राम से ब्राह्मणकुण्डग्राम के बाहर भ. महावीर के पास आया और वन्दनापर्युपासना करने लगा।' ___ कठिन शब्दों के अर्थ-सिंघाडग = सिंघाड़े के आकार का मार्ग / तिय-तिराहा / चसक्क = चौक या चौराहा / चच्चर = चत्वर, चार से अधिक रास्ते जहाँ से निकलें, वह स्थान / चाउघंट-चार घण्टों वाला। खंधमहे---स्कन्ध-महोत्सब / प्रागमण-गहियविणिच्छएअागमन की जानकारी का निश्चय करके / चंदणोक्खित्तगायसरीरे = शरीर पर चन्दन लेपन किया हुआ / सकोरंटमल्लदामेणं छत्तणं = कोरण्टपुष्प को माला लगे हए छत्र को। जमालि द्वारा प्रवचन-श्रवरण और श्रद्धा तथा प्रव्रज्या की अभिव्यक्ति-- 29. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तोसे य महतिमहालियाए इसि० जाव धम्मकहा जाव परिसा पडिगया / [26] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीरस्वामी ने उस क्षत्रियकुमार जमालि को तथा उस बहुत बड़ी ऋषिगण आदि की परिषद् को यावत् धर्मोपदेश दिया / धर्मोपदेश सुन कर यावत् परिषद् वापस लौट गई / 1. वियापण्णत्ति (मु. पा. टि.) भा. १,पृ. 456-458 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र,४६२-४६३ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [523 30. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ जाव उट्ठाए उठेइ, उट्ठाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-सद्दहामि गं भंते ! निगथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाब से जहेवं तुन्भे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मा-पियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं / |30| तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास से धर्म सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान महावीरस्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् बन्दन-नमन किया और इस प्रकार कहा-- "भगवन् ! मैं निग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ। भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रुचि है। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार चलने के लिए अभ्युद्यत हुआ हूँ / भन्ते ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन तथ्य है, सत्य (अवितथ) है; भगवन् ! यह असंदिग्ध है, यावत् जैसा कि आप कहते हैं। किन्तु हे देवानुप्रिय ! (प्रभो ! ) मैं अपने माता-पिता को (घर जाकर) पूछता हूँ और उनकी अनुज्ञा लेकर (गृहवास का परित्याग करके) आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित हो कर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रदजित होना चाहता हूँ।" (भगवान् ने कहा-) "देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, / " विवेचन-जमालि द्वारा प्रवचन-श्रवण, श्रद्धा और प्रव्रज्यासंकल्प-प्रस्तुत दो सूत्रों (26-30 सू.) में वर्णन है कि जमालि भगवदुपदेश सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ, उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने विनयपूर्वक अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ अनगारधर्म में दोक्षित होने को अभिलाषा व्यक्ति को / भगवान् ने उसकी बात सुन कर इच्छानुसार कार्य करने का परामर्श दिया।' ___ अभुट्ठमि आदि पदों का भावार्थ-अभुमि = मैं अभ्युद्यत (तत्पर) हूँ। अवितह = अवितथ - सत्य / तहमेयं = यह तथ्य-यथार्थ है / असंदिद्ध-संदेहरहित है / 'श्रद्धा' आदि पदों का भावार्थ-श्रद्धा-तर्करहित विश्वास, प्रतीति- तर्क और युक्तिपूर्वक / विश्वास, रुचि- श्रद्धा के अनुसार चलने की इच्छा / अभ्युत्थानेच्छा = निग्रन्थ-प्रवचनानुसार प्रवृत्ति के लिए उद्यत होने की इच्छा / 2 माता-पिता से दीक्षा की अनुज्ञा का अनुरोध 31. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता तमेव चाउघंटे सरहं दुरूहेइ, दुहिता समणस्स 1. वियाहप. (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 458.459 2. भगवती. भा. 4 (पं. घे.) 5. 1712, 1715 Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524] [ আসলিল भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालानो चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरंट जाव धरिज्जमाणेणं महया भडचडगर जाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुडगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता खत्तियकुडग्गामं नगरं मझमझणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तुरए निगिहिइ, तुरए निगिहित्ता रहं ठवेइ, रहे ठवेत्ता रहाओ पच्चोरहइ, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अभितरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खल अम्म ! ताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। [31] जब श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से इस (पूर्वोक्त) प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ / उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया। फिर उस चार घंटा वाले प्रश्वरथ पर ग्रारूढ हना और रथारूढ हो का भगवान् महावीर के पास से, बहुशाल नामक उद्यान से निकला, यावत् मस्तक पर कोरंटपुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए महान् सुभटों इत्यादि के समूह से परिवत होकर जहाँ क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था, वहाँ पाया। वहाँ से वह क्षत्रियकुण्डग्राम के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया / वहाँ पहुँचते ही उसने घोड़ों को रोका और रथ को खड़ा कराया। फिर वह रथ से नीचे उतरा और आन्तरिक (अन्दर की) उपस्थानशाला में, जहाँ कि उसके माता-पिता थे, वहाँ पाया / आते ही (माता-पिता के चरणों में नमन करके) उसने जय-विजय शब्दों से बधाया, फिर इस प्रकार कहा 'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर प्रतीत हुआ है।' 32. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं धयासि–धन्ने सि णं तुमं जाया !, कयत्थे सि णं तुम जाया, कयपुण्णे सि णं तुमं जाया!, कालखणे सिणं तुम जाया !, जंणं तुमे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य ले धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। _ [32] यह सुन कर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तू धन्य है ! बेटा ! तू कृतार्थ हुआ है / पुत्र ! तू कृतपुण्य (भाग्यशाली) है / पुत्र ! तू कृतलक्षण है कि तूने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुझे इष्ट, विशेष प्रकार से अभीष्ट और रुचिकर लगा है। 33. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो दोच्च पि एवं वयासी–एवं खलु मए अम्म ! तानो! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते जाव अभिरुइए। तए णं अहं अम्म ! ताओ! संसारभउविग्गे, भीए जम्मण-मरणेणं, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ! तुम्भेहि अब्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए / [33] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि ने दूसरी बार भी अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर से वास्तविक धर्म सुना, जो मुझे इष्ट, अभीष्ट Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [525 और रुचिकर लगा, इसलिए हे माता-पिता ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हो गया हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हुअा हूँ / अत: मैं चाहता हूँ कि आप दोनों की प्राज्ञा प्राप्त होने पर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर गृहवास त्याग करके अनगार धर्म में प्रवजित होऊँ। विवेचन-जमालि द्वारा संसारविरक्ति एवं दीक्षा की अनुमति का संकेत-भगवान् महावीर से धर्मोपदेश सुन कर जमालि सीधे माता-पिता के पास पाया। उनके समक्ष भगवान् के धर्म-प्रवचन की प्रशंसा की और उसके प्रभाव से स्वयं को वैराग्य उत्पन्न हुआ है, इसलिए माता-पिता से दीक्षा को प्राज्ञा देने का अनुरोध किया / यह सू. 31 से 33 तक वर्णन है।' संसारभउधिग्गे आदि पदों का भावार्थ संसारभउद्विग्गे = जन्म-मरण रूप संसार के भय से संवेग प्राप्त हुअा है / अभणुण्णाए समाणे-आपके द्वारा अनुज्ञा प्रदान होने पर / ' प्रव्रज्या का संकल्प सुनते ही माता शोकमग्न 34. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता तं अणिठें प्रकंतं अप्पियं प्रमणुष्णं अमणामं असुयपुव्वं गिरं सोच्चा निसम्म सेयागयरोमकूवपगलंतषिलोणगत्ता सोगभरपर्ववियंगमंगी नित्तेया दोणविमणक्यणा करयलमलिय व कमलमाला तक्खणओलुगदुब्बलसरीरलायन्नसुन्ननिच्छाया गयसिरीया पसिदिलभूसणपडतखुण्णियसंचुणियधवलवलयपग्भट्ठउत्तरिज्जा मुच्छावसणटुचेतगुरुई सुकुमालविकिण्णकेसहत्था परसुणियत्त ब्व चंपगलता निव्वत्तमहे व इंदलट्ठी विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि 'धस' ति सवंगेहि सन्निवडिया। [34] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की माता उसके उस (पूर्वोक्त) अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय और अश्रतपर्व (प्राघातकारक) वचन सुनकर और अवधारण करके (शोकमग्न हो गई / ) रोमकूप से बहते हुए पसीने से उसका शरीर भीग गया / शोक के भार से उसके अंग-अंग कांपने लगे। (चेहरे की कान्ति) निस्तेज हो गई / उसका मुख दीन और उन्मना हो गया / हथेलियों से मसली हुई कमलमाला की तरह उसका शरीर तत्काल मुर्मा गया एवं दुर्बल हो गया / वह लावण्यशून्य, कान्तिरहित और शोभाहीन हो गई / (उसके शरीर पर पहने हुए) आभूषण ढीले हो गए। उसके हाथों की धवल चूड़ियाँ (वलय) नीचे गिर कर चूर-चूर हो गई / उसका उत्तरीय वस्त्र (प्रोढना) अंग से हट गया / मूर्छावश उसकी चेतना नष्ट हो गई / शरीर भारी-भारी हो गया / उसकी सुकोमल केशराशि विखर गई / वह कुल्हाड़ी से काटी हुई चम्पकलता की तरह एवं महोत्सव समाप्त होने के बाद इन्द्रध्वज (दण्ड) की तरह शोभाविहीन हो गई। उसके सन्धिबन्धन शिथिल हो गए और वह एकदम धस करती हुई (धड़ाम से) सारे ही अंगों सहित धरती के फर्श पर गिर पड़ी। विवेचन दीक्षा की बात सुनकर शोकमग्न माता-जमालिकुमार (पुत्र) की प्रव्रज्या ग्रहण करने की बात सुनते ही मोह-ममत्ववश माता की जो अवस्था हुई और वह मूच्छित हो कर गिर पड़ी, इसका वर्णन प्रस्तुत सूत्र में है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त, (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 459 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 467 Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दों का अर्थ--अमणाम=मन के विपरीत, अनिच्छनीय / प्रसुयपुत्वं पहले कभी नहीं सुनी हुई / सेयागय-रोमकूव-पगलंत-विलोणगत्ता- रोमकूपों में से झरते हए पसीने से शरीर तरबतर हो गया / सोगभरपवेवियंगमंगी = शोक के भार से अंग-अंग कांपने लगे। नित्तया = निस्तेज (मुआई हुई) / दोणविमणवयणा= उसका मुख दीन एवं विमन (उदास) हो गया। करयलमलिय व्ब कमलमाला हथेलियों से मदित की हुई कमलमाला के समान ! तक्खणअोलुग्ग-दुबल-सरीर-लायन्न-सुन्न-निच्छाया = उसी क्षण जिसका शरीर ग्लान एवं दुर्बल, लावण्य से शून्य एवं प्रभारहित हो गया / गयसिरिया = वह श्री (शोभा)-रहित हो गई। पसिढिल-भूसणपडत-खुण्णिय-संचुण्णिय-धवलवलय-पभट्ठ--उत्तरिज्जा = उसके आभूषण ढीले हुए, बेत वलय (कंगन) गिरकर चूर-चूर हो गए, शरीर से उत्तरीयवस्त्र (प्रोढना) सरक गया / मुच्छावसणढ़-चेतगुरुई = मूर्छावश उसकी चेतना (संज्ञा) नष्ट होने से शरीर भारी हो गया। सुकुमाल-विकिरणकेसहत्था = उसकी कोमल केशराशि बिखर गई / परसु-णियत्त व्व चंपगलता–कुल्हाड़ी से काटी हुई चंपा की बेल की तरह / निव्वत्तमहे व्व इंदलट्टी = जो महोत्सब पूर्ण हो गया हो उसके इन्द्रध्वज (दण्ड) के समान / विमुक्कसंधिबंधणा = शरीर के संधिबन्धन ढीले हो गए / कोट्टिमतलं सि= प्रांगन (कुट्टिम) के तल (फर्श) पर / ' माता-पिता के साथ विरक्त जमालि का संलाप--- 35. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोत्तियाए तुरियं कंचमगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधारापसिच्चमानिन्ववियगायलट्ठी उवखेवगतालियंटवीयणगणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालि खत्तियकुमारं एवं बयासी तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इठे कंते पिए मणुष्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीविऊसविये हिययनंदिजणणे उंबरपुष्फ पिव दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुम्भं खणमवि विप्पयोग, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो; तओ पच्छा अम्हेहि कालगहि समाहि परिणयवये वडिय कुलवंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि / 35] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की व्याकुलतापूर्वक इधर-उधर गिरती हुई माता के शरीर पर शीघ्र ही दासियों ने स्वर्ण कलशों के मुख से निकली हुई शीतल एवं निर्मल जलधारा का सिंचन करके शरीर को स्वस्थ किया / फिर (बांस के बने हुए) उत्क्षेपकों (पंखों) तथा ताड़ के पत्तों से बने पंखों से जलकणों (फुहारों) सहित हवा की। तदनन्तर (मूर्छा दूर होते ही) अन्तःपुर के परिजनों ने उसे आश्वस्त किया। (मूच्र्छा दूर होते ही) रोती हुई, क्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई, एवं विलाप करती हुई माता क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहने लगी--पुत्र ! तू हमारा इकलौता ही पुत्र है, (इसलिए) तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, 1. भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 1716-171 Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [527 मनोज्ञ है, मनसुहाता, है, आधारभूत है विश्वासपात्र है, (इस कारण) तू सम्मत, अनुमत और वहुमत है। तु प्राभूषणों के पिटारे (करण्डक) के समान है, रत्नस्वरूप है, रत्नतुल्य है, जीवन या जीवितोत्सव के समान है, हृदय को आनन्द देने वाला है; उदुम्बर (गलर) के फूल के समान तेरा नाम-श्रवण भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! इसलिए है पुत्र ! तेरा क्षण भर का वियोग भी हम नहीं चाहते / इसलिए जब तक हम जीवित रहें, तब तक तू घर में ही रह / उसके पश्चात् जब हम (दोनों) कालधर्म को प्राप्त (परलोकवासी) हो जाएँ, तेरी उम्र भी परिपक्व हो जाए, (और तब तक) कुलवंश की वृद्धि का कार्य हो जाए, तब (गृह-प्रयोजनों से) निरपेक्ष हो कर तू गृहवास का त्याग करके श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर अनगारधर्म में प्रवजित होना / विवेचन-माता की मूच्र्छा दूर होने पर जमालि के प्रति उद्गार-प्रस्तुत सूत्र में यह वर्णन है कि दासियों ने माता की मूच्र्छा विविध उपचारों से दूर की / परिजनो ने सान्त्वना दी, किन्तु फिर भी मोह-ममतावश जमालि को समझाने लगी कि हमारे जीवित रहने तक तुम दीक्षा मत लो।' कठिन शब्दों का अर्थ-ससंभमोयत्तियाए--घबराहट के कारण छटपटाती हुई या गिरती हई / कंचभिगारमुहविणिग्मय-सीयलजल-विमलधारा-पसिच्चमाण-निव्वविय-गायलट्ठी–सोने के कलश के मुख से निकलती हुई शीतल एवं विमल जलधारा से सिंचन करने से देह (गात्रयष्टि) स्वस्थ हुई / उक्खेवग-तालियंट-बीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं----उत्क्षेपक (बांस से निर्मित पखे) तथा ताड़ के पंखे से पानी के फुहारों से युक्त हवा करने से / अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी अन्तःपुर के परिजन से आश्वस्त की गई। कंदमाणी-चिल्लाती हुई। वेसासिए विश्वासपात्र / थेज्जे-स्थिरता के योग्य / सम्मए—अनेक कार्यों में सम्मति देने योग्य / अणुमए—कार्य के अनुरूप या कार्य में विधात आने के बाद सलाह देने योग्य / बहुमए-बहुत से कार्यों में मान्य या वहुमान्य / रयणं - रत्नरूप या (मनो) रंजक है / जीवियऊसविये--जीवित-उत्सवरूप अथवा जीवन के उच्छ्वास .(प्राण) रूप / अच्छाहि-रहो या ठहरो। परिणयवये-परिपक्व अवस्था होने पर ।वडियकुलवंसतन्तुकज्जम्मि-कुलवंशरूप तन्तु-पुत्रपौत्रादि से कुलवंश की वृद्धि का कार्य होने पर। णिरत्यक्खे-- गृहस्थकार्यों से निरपेक्ष होने पर। 36. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहा विणं तं अम्म ! ताप्रो ! ज णं तुम्भे मम एवं वदह 'तुमंसि गं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इठे कंते तं चेव जाव पन्वइहिसि', एवं खलु अम्म! तानो! माणुस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-भरण-रोग-सारीर-माणसपकामदुक्खवेयण-बसण-सतोववाभिभूए अधुवे अणितिए प्रसासए संशभरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिदुसन्निभे सुविणगदंसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिच्चे सडण-पडण-विद्ध सणधम्मे पुटिव वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियचे भविस्सइ, से केस गं जाणइ अम्म ! तायो ! के पुब्बि गमणयाए ? के -. --.-...-...--. . ..... - ..... - 1. वियापण्यत्ति. (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 460 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 468 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 468 Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि गं अम्म ! तारो! तुम्भेहि अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव पब्वइत्तए / [36] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि-हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इण्ट, कान्त आदि हो, यावत् हमारे कालगत होने पर प्रवजित होना, इत्यादि; (उस विषय में मुझे यह कहना है कि) माताजी ! पिताजी ! यों तो यह मनुष्य-जीवन जन्म, जरा, मृत्यु, रोग तथा शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों की वेदना से और सैकड़ों व्यसनों (कप्टों) एवं उपद्रवों से ग्रस्त है / अध्रव; (चंचल) है, अनियत है, अशाश्वत है, सन्ध्याकालीन बादलों के रंग-सदृश क्षणिक है, जल-बुद्बुद के समान है. कुश की नोक पर रहे हुए जलबिन्दु के समान है, स्वप्नदर्शन के तुल्य है, विद्युतलता की चमक के समान चचल और अनित्य है। सड़ने, पड़ने, गलने और विध्वंस होने के स्वभाव वाला है। पहले या पीछे इसे अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा / अतः हे माता-पिता ! यह कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा (मरेगा) और कौन पीछे जाएगा? इसलिए हे माता-पिता ! मैं चाहता हूँ कि अापकी अनुज्ञा मिल जाए तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुडित होकर यावत् प्रव्रज्या अंगीकार कर लू। विवेचन--जमालि के वैराग्यसूचक उद्गार--प्रस्तुत में जमालि ने माता-पिता के समक्ष विविध उपमाओं द्वारा जीवन की क्षणभंगुरता एवं अनित्यता का सजीव चित्र खींचा है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अणेगजाईजरा-मरण-रोग-सारीर-माणस-पकाम-दुक्खयणवसण-सतोक्दवाभिभूए-अनेक जन्म, जरा, मृत्यु. रोग, शरीर एवं मन सम्बन्धी अत्यन्त दुखों की वेदना और सैकड़ों व्यसनों (कष्टों) एवं उपद्रवों से अभिभूत (ग्रस्त) है / संझम्भरागसरिस--संध्या. कालीन मेघों के रंग जैसा है / जलबुब्बुदसमाणे = जल के बुलबुलों के समान / सुविणगदंसणोक्मेस्वप्न-दर्शन के तुल्य / विजुलयाचंचले-विद्युत-लता की चमक के समान चंचल है / सडण-पडग-विद्धसणधम्मे--सड़ने, पड़ने, और विध्वंस होने के धर्म-स्वभाव वाला है। प्रवस्सविप्पजहियब्वे भविस्सइ–अवश्य ही छोड़ना पड़ेगा / ' 37. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी--इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवं लक्खण वंजण-गुणोववेयं उत्तमबल-वीरिय-सत्तजुत्तं विणाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खमं विविहबाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तलटुचिदियपडु, पढमजोवणत्थं अणेगउत्तमगुणेहि जुत्तं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! नियगसरीररूवसोहग्गजोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूयनियगसरीररूवसोभग्गजोवणगुणे अम्हेहि कालगहि समाहि परिणयवये वडियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पम्वइहिसि / 1. वियाहपण्णत्तिसूतं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 461 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 468 Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [37] यह बात सुन कर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहाहे पुत्र ! तुम्हारा यह शरीर विशिष्ट रूप, लक्षणों, व्यंजनों (मस, तिल आदि चिह्नों) एवं गुणों से युक्त है, उत्तम बल, वीर्य और सत्त्व से सम्पन्न है, विज्ञान में विचक्षण है, सौभाग्य-गुण से उन्नत है, कुलीन (अभिजात) है, महान् समर्थ (क्षमतायुक्त) है, विविध व्याधियों और रोगों से रहित है, निरुपहत, उदात्त, मनोहर और पांचों इन्द्रियों की पटुता से युक्त है तथा प्रथम (उत्कृष्ट) यौवन अवस्था में है, इत्यादि अनेक उत्तम गुणों से युक्त है / इसलिए, हे पुत्र ! जब तक तेरे शरीर में रूप, सौभाग्य और यौवन आदि उत्तम गुण हैं, तब तक तू इनका अनुभव (उपभोग) कर / इन सब का अनुभव करने के पश्चात् हमारे कालधर्म प्राप्त होने पर जब तेरी उम्र परिपक्व हो जाए और (पुत्रपौत्रादि से) कलवंश की वद्धि का कार्य हो जाए तब (गहस्थ-जीवन से) निरपेक्ष हो कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्डित हो कर अगारवास छोड़ कर अनगारधर्म में प्रवजित होना। विवेचन-माता-पिता के द्वारा जमालि को गहस्थाश्रम में रखने का पुनः उपाय-प्रस्तुत सूत्र में जमालि को यह समझाया गया है कि इतने उत्कृष्ट गुणों से युक्त शरीर और यौवन आदि का उपयोग करके बुढ़ापे में दीक्षित होना / ' ___ कठिन शब्दों का भावार्थ-पविसिगुरूवं-विशिष्ट रूप / अभिजाय-महक्खम-अभिजात (कुलीन) है और महती क्षमताओं से युक्त है / निरुवह्य-उदत्त-लट्ठ-पंचिदियपडु-निरुपहत, उदात्त, सुन्दर (लष्ट) एवं पंचेन्द्रिय-पटु है / पढमजोवणत्थं--उत्कृष्ट यौवन में स्थित है / अणुहोहि == अनुभव कर (उपभोग कर)। गियगसरीररूव-सोभग्ग-जोवण्णगुणे = अपने शरीर के रूप, सौभाग्य, यौवन प्रादि गुणों का। 38. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासो-तहा विणं तं अम्म ! तामो! जं गं तुम्भे ममं एवं वदह 'इमं च णं ते जाया ! सरीरगं० तं चेव जाव पन्वइहिसि एवं खलु अम्म ! तापो! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविहवाहिसयसनिकेतं अट्टियकढुट्टियं छिरा-हारजालोणद्ध-संपिणद्ध मट्टियभंडं व दुब्बलं असुइसंकिलिट्ठ अणिटुवियसन्चकालसंठप्पयं जराकुणिमजज्जरधरं व सड़ण-पडण-विद्धसणधम्म पुन्धि वा पच्छा वा अवस्स-विष्पजहियवं भविस्सइ, से केस णं जाणति अम्म ! तात्रों ! के पुटिव ? तं चेव जाव पव्वइत्तए / [38] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता! अापने मुझे जो यह कहा कि पुत्र! तेरा यह शरीर उत्तम रूप आदि गुणों से युक्त है, इत्यादि, यावत् हमारे कालगत होने पर तू प्रबजित होना / (किन्तु) हे माता-पिता! यह मानव-शरीर दु:खों का घर (आयतन) है, अनेक प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का निकेतन है, अस्थि-(हड्डी) रूप काष्ठ पर खड़ा हुअा है, नाड़ियों और स्नायुओं के जाल से वेष्टित है, मिट्टी के बर्तन के समान दुर्बल (नाजुक) है / अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (बुरी तरह दूषित) है, इसको टिकाये (संस्थापित) रखने के लिए सदैव इसकी संभाल (व्यवस्था) रखनी पड़ती है, यह सड़े हुए शव के समान और जीर्ण घर के 1. वियाहपण्णतिसुत्त (मु. पा. टि.) भा. 1, पृ. 461 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 469 Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समान है, सड़ना, पड़ना और नष्ट होना, इसका स्वभाव है / इस शरीर को पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पडेगा; तब कौन जानता है कि पहले कौन जाएगा और पीछे कौन? इत्यादि सारा वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्-इसलिए मैं चाहता हूँ कि आपकी अाशा प्राप्त होने पर मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं। विवेचन-जमालि द्वारा शरीर की अस्थिरता, दुःख एवं रोगादि की प्रचुरता का निरूपणप्रस्तुत 38 वें सूत्र में जमालि द्वारा शारीर की अनित्यता, दुःख, व्याधि, रोग इत्यादि से सदैव ग्रस्तता ग्रादि का वर्णन करके पुन: दीक्षा को प्राज्ञा-प्रदान करने के लिए माता-पिता से निवेदन है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-दुक्खाययणं-दु:खायतन-दुःखों का स्थान / विविवाहि-सयसन्निकेयं सैकड़ों विविध व्याधियों का निकेतन = घर / अद्विय-कट्टियं-अस्थिरूपी काष्ठ पर उत्थित -खड़ा किया हुआ है / छिरा-हारू-जाल-प्रोणद्ध-संपिगद्ध-शिरात्रों-नाड़ियों के जाल से वेष्टित और अच्छी तरह ढंका हुआ / मट्टियभंडं व दुब्बलं-मिट्टी के बर्तन की तरह कमजोर (टूटने वाला) है / असुइसंकिलिट्ठ--अशुचि (गंदगी) से संक्लिष्ट (दूषित या व्याप्त) है / प्रणिद्वविय-सवकाल-संठप्पयं-- अनस्थापित (टिकाऊ न) होने से सदा टिकाए रखना पड़ता है। जराकुणिम-जज्जरघर---जीर्ण शव और जीर्ण घर के समान / ' 39. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासो-इमानो य ते जाया ! विपुलकुलबालियानो कलाकुसलसम्धकाललालियसुहोचियाश्रो मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाम्रो मंजुलमियमहरभणियविहसियविप्पेक्खियगतिविलासचिट्ठियविसारदाओ अविकलकुलसोलसालिणीप्रो विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगब्भवयभाविणीयो मणाणुकूलहियइच्छियानो अट्ठ तुज्झ गुणवल्लभाओ उत्तमानो निच्चं भावाणुरत्तसव्वंगसुदरोश्रो भारियाओ, तं भुजाहि ताव जाया ! एताहिं सद्धि विउले माणुस्सए कामभोगे, तनो पच्छा भुत्तभोगी विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हेहि कालगएहिं जाव पव्वइहिसि / [39] तब क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने उससे इस प्रकार कहा-पुत्र! ये तेरी गुणवल्लभा, उत्तम, तुझमें नित्य भावानुरक्त, सर्वांगसुन्दरी आठ पत्नियाँ हैं, जो विशाल कुल में उत्पन्न बालिकाएँ (नवयौवनाएँ) हैं, कलाकुशल हैं, सदैव लालित (लाड़-प्यार में रही हुई) और सुखभोग के योग्य हैं। ये मार्दवगण से युक्त. निपुण, विनय-व्यवहार (उपचार) में कुशल एवं विचक्षण हैं। ये मंजुल, परिमित और मधुर भाषिणी हैं / ये हास्य, विप्रेक्षित (कटाक्षपात), गति, विलास और चेष्टानों में विशारद हैं। निर्दोष कुल और शील से सुशोभित हैं, विशुद्ध कुलरूप वंशतन्तु की वृद्धि करने में समर्थ एवं पूर्णयौवन वाली हैं / ये मनोनुकल एवं हृदय को इष्ट हैं। अतः हे पुत्र! तू इनके साथ मनुष्यसम्बन्धी विपुल कामभोगों का उपभोग कर और बाद में जब तू भुक्तभोगी हो जाए 1. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (म. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ.४६१ 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 469 3. अधिक पाठ—“सरित्तयाओ सरिव्वयाओ सरिसलावण्णरूवजोठवणगुणोवयेयाओ सरिसएहितो कुलेहितो आणिए ल्लियाओ।" Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] और विषय-विकारों में तेरी उत्सुकता समाप्त हो जाए, तब हमारे कालधर्म को प्राप्त हो जाने पर यावत् तू प्रजित हो जाना / विवेचन-माता-पिता द्वारा भुक्तभोगी होने के बाद दीक्षा लेने का अनुरोध-प्रस्तुत सूत्र में माता-पिता द्वारा जमालि को समझाया गया है कि तू अपनी इन पाठ सर्वगुणसम्पन्ना सर्वांगसुन्दरी पत्नियों के साथ मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का उपभोग करके भुक्तभोगी होने के पश्चात् दीक्षित होना / कठिन शब्दों का भावार्थ-विपुलकुलबालियानो-विशाल कुल की बालाएँ / कलाकुसल. सव्वकाललालिय-सुहोचियाओ--कलाओं में दक्ष, सदैव लाड़प्यार में पली एवं सुखशील / मद्दबगुणजुत्त-निउण-विणप्रोवयारपंडिय-वियवखणाओ--- मृदुता के गुणों से युक्त, निपुण एवं विनयव्यवहार में पण्डिता तथा विचक्षणा हैं। मंजुल-मिय-महुर-भणिय-विहसिय-विप्पेविखय-गति-विलासचिट्ठिय-विसारदाप्रो-मंजुल, परिमित एवं मधुरभाषिणी हैं ; हास्य, प्रेक्षण, गति (चाल), विलास एवं चेष्टानों में विशारद हैं। अविकलकुलसीलसालिणीप्रो-निर्दोष कुल और शील से सुशोभित हैं। विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धण-पगन्भ-वय-भाविणीप्रो-विशुद्ध कुल की वंश-परम्परा रूपी तन्तु को बढ़ाने वाली एवं प्रगल्भ-पूर्ण यौवन वय वाली हैं। मणाणुकूल-हियइच्छियाओ= मनोनुकल हैं और हृदय को अभीष्ट हैं / भावाणुरत्तसव्वंगसुन्दरीओ---ये तेरी भावनाओं में अनुरक्त हैं और सर्वांगसुन्दरी हैं। विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले-विषय-विकारों (विकृतों) सम्बन्धी उत्सुकता क्षीण हो जाने पर / 40. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं क्यासी-तहा विणं तं अम्म ! तानो! जं णं तुम्भे मम एवं वयह 'इमाओ ते जाया ! विपुलकुल० जाव पब्वइहिसि' एवं खलु अम्म ! ताओ! माणुस्सगा कामभोगा' उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-पूय-सुक्क-सोणियसमुभवा अमणुण्णदुरूव-मुत्त-पूइयपुरीसपुण्णा भयगंधुस्सासअसुभनिस्सासा उध्वेयणगा बीभच्छा अप्पकालिया लहुसगा कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेस-किच्छदुक्खसज्झा अबुहजणसेविया सदा साहुगरहणिज्जा अणंतसंसारवद्धणा कडुयफलविवागा चुलि व्व अमुच्चमाण दुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविघा, से केस पं. जाणति अम्म ! ताओ ! के पुब्बि गमणयाए ? के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्म! ताओ ! जाव पव्वइत्तए। [40] माता-पिता के पूर्वोक्त कथन के उत्तर में जमालि क्षत्रियकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा--हे माता-पिता ! तथापि आपने जो यह कहा कि विशाल कुल में उत्पन्न तेरी ये आठ पत्नियां हैं, यावत् भुक्तभोग और वृद्ध होने पर तथा हमारे कालधर्म को प्राप्त होने पर दीक्षा लेना, किन्तु माताजी और पिताजी ! यह निश्चित है कि ये मनुष्य-सम्बन्धी कामभोग अशुचि (अपवित्र) और अशाश्वत हैं,] मल (उच्चार), मूत्र, श्लेष्म (कफ), सिंघाण (नाक का मैल-लीट), वमन, पित्त, मवाद (पूति), शुक्र और शोणित (रक्त या रज) से उत्पन्न होते हैं, ये अमनोज्ञ और दुरूप (असुन्दर) 1. वियाहपष्णतिसुत्तं (मू. पा, हि.), भा. 1, पृ. 462 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 470 3. अधिक पाठ--"असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा / " Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मूत्र तथा दुर्गन्धयुक्त विष्ठा से परिपूर्ण हैं ; मृत कलेवर के समान गन्ध वाले उच्छ्वास एवं अशुभ नि:श्वास से युक्त होने से उद्वेग (ग्लानि) पैदा करने वाले हैं / ये बीभत्स हैं, अल्पकालस्थायी हैं, तुच्छस्वभाव के हैं, कलमल (शरीर में रहा हुमा एक प्रकार का अशुभ द्रव्य) के स्थानरूप होने से दुःखरूप हैं और बहु-जनसमुदाय के लिए भोग्यरूप से साधारण हैं, ये अत्यन्त मानसिक क्लेश से तथा गाढ शारीरिक कष्ट से साध्य हैं / ये अज्ञानी जनों द्वारा ही सेवित हैं, साधु पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय (गर्हणीय) हैं, अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले हैं, परिणाम में कटु फल वाले हैं, जलते हुए घास के पूले के समान (एक वार लग जाने के बाद) कठिनता से छूटने वाले तथा दुःखानुबन्धी हैं, सिद्धि (मुक्ति) गमन में विघ्नरूप हैं / अतः हे माता-पिता ! यह भी कौन जानता है कि हममें से कौन पहले जाएगा, कौन पीछे ? इसलिए हे माता-पिता ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। विवेचन- कामभोगों से विरक्ति-सम्बन्धी उद्गार-जमालि ने प्रस्तुत सूत्र में काम भोगों की बीभत्सता, परिणाम में दुःखजनकता, संसारपरिवर्धकता बताई है।' कठिन शब्दों का भावार्थ पूइयपुरीसपुण्णा-मवाद अथवा दुर्गन्धित विष्ठा से भरपूर हैं / मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासा-उव्वेयणगा-- मृतक-सी गन्ध वाले उच्छ्वास और अशुभ निःश्वास से उद्वेगजनक हैं / लहुसगा--लघु-हलकी कोटि के हैं / कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा-शरीरस्थ अशुभ द्रव्य के रहने से दुःखद हैं और सर्वजनसाधरण हैं / परिकिलेस-किच्छदुक्खसज्मा-परिक्लेशमानसिक क्लेश तथा गाढ़ शरीरिक दुःख से साध्य हैं / चुडलि व्व अमुच्चमाण-घास के प्रज्वलित पूले के समान बहुत कष्ट से छूटने वाले हैं / दुवखाणुबंधिणो –परम्परा से दुःखदायक हैं / 2 'कामभोग' शब्द का प्राशय यहाँ 'कामभोग' शब्द से उनके आधारभूत स्त्रीपुरुषों के शरीर का ग्रहण करना अभिप्रेत है। 41. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं वयासी-इमे य ते जाया ! अज्जयपज्जय-पिउपज्जयागए सुबहुहिरणे य सुवणे य कसे य दूसे य विउलधणकणग० जाव संतसारसावएज्जे अलाहि जाव आसत्तमानो कुलवंसानो पकामं दातु, पकामं भोत्तु, पकामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए इडिसक्कारसमुदए, तो पच्छा अणुहूयकल्लाणे वड्डियकुलवंसतंतु जाव पन्वइहिसि। _[41] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! तेरे पितामह, प्रपितामह और पिता के प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, उत्तम वस्त्र (दूष्य), विपुल धन, कनक यावत् सारभूत द्रव्य विद्यमान है / यह द्रव्य इतना है कि सात पीढ़ी (कुलवंश) तक प्रचुर (मुक्त हस्त से) दान दिया जाय. पुष्कल भोगा जाय, और बहुत-सा बांटा जाय, तो भी पर्याप्त है (समाप्त नहीं हो सकता) / अतः हे पुत्र ! मनुष्य-सम्बन्धी इस विपुल ऋद्धि और 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त, (मूलपाठटिप्पण) भा. 1, पृ. 462 2. भगवती. अं० वृत्ति, पत्र 470 3. वही, पत्र 470 ; 'यह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि / ' 4. 'जाव' पद सूचित पाठ-"रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्यबाल-रत्तरयणमाइए।" Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक- 33] सत्कार (सत्कार्य) समुदाय का अनुभव कर / फिर इस कल्याण (सुखरूप पुण्यफल) का अनुभव करके और कुलवंशतन्तु की वृद्धि करने के पश्चात् यावत् तू प्रवजित हो जाना ! 42. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरी एवं क्यासी तहा--वि णं तं अम्म ! ताओ ! जं गं तुझे ममं एवं वदह–'इमे य ते जाया! अज्जग-पज्जग० जाव पवइहिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! हिरण्णे य सुवण्णे य जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मच्चुसाहिए दाइयसाहिए अग्गिसामन्ने जाव दाइयसामन्ते अधुवे अणितिए असासए पुटिव वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियब्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ० तं चेव जाव पव्व इत्तए। 42] इस पर क्षत्रियकुमार जमालि ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! आपने जो यह कहा कि तेरे पितामह, प्रपितामह आदि से प्राप्त द्रव्य के दान, भोग आदि के पश्चात् यावत् प्रवज्या ग्रहण करना आदि, किन्तु हे माता-पिता ! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् सारभूत द्रव्य अग्निसाधारण, चोर-साधारण, राज-साधारण, मृत्यु-साधारण, एवं दायाद-साधारण (अधीन) है, तथा अग्नि-सामान्य यावत् दायाद-सामान्य (अधीन) है। यह (धन) अध्र व है, अनित्य है और प्रशाश्वत है / इसे पहले या पीछे एक दिन अवश्य छोड़ना पड़ेगा / अतः कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा और कौन पीछे जाएगा? इत्यादि पूर्ववत् कथन जानना चाहिए; यावत् आपकी आज्ञा प्राप्त हो जाए तो मेरी दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा है। विवेचन- माता-पिता द्वारा द्रव्य के वान भोगादि का प्रलोभन और जमालि द्वारा धन की पराधीनता और अनित्यता का कथन-~-प्रस्तुत ४१-४२वे सूत्र में माता-पिता द्वारा प्रचुर धन के उपयोग का प्रलोभन दिया गया है, जबकि जमालि ने धन के प्रति वैराग्यभाव प्रदर्शित किया है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अज्जय-आर्य-पितामह, पज्जय प्रार्य प्रपितामह, पिउपज्जय-पिता के प्रपितामह / दूसे-~-दूष्य बहुमूल्य वस्त्र / संतसारसाधएज्जे-स्वायत्त विद्यमान सारभूत स्वापतेय-धन 1 आसत्तमाओ कुलवंसाओ-सात कुलवंशों (पीढ़ी) तक / अलाहि-पर्याप्त / पकामं प्रचुर / परिभाएउ -विभाजित करने के लिए / अग्गिसाहिए-अग्नि द्वारा साधारण या साध्य नष्ट हो जाने वाला / दाइय = वन्धु आदि भागीदार / सामन्ने सामान्य साधारण / 43. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्म-तानो जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि बहि प्राघवणाहि य पग्णवणाहि य सन्नवणाहि य विष्णवणाहि य आवित्तए वा पण्णवित्तए वा सन्नवित्तए वा विष्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुब्वेवणकरीहि पण्णवाहि पण्णवेमाणा एवं वयासी--एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सम्वदुक्खाणमंतं करेंति, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा, वाल्याकवले इव निरस्साए, गंगा वा महानदी पडिसोयगमणयाए, महासमुद्दे वा भुजाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियग्वं, गरुयं 1. वियापण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 463 2. भगवतो अ. वृत्ति, पत्र 470 3. आवश्यकसूत्रगत पाठ-"सल्लगसणे "सिद्धिमग्गे "मूत्तिमम्गेनिज्जाणमम्गे"निमाणमग्गे "अवितहे .."अविसंधि सम्बदुक्खप्पहीणमागे एत्यं ठिया जीवा सिज्झंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिस्वायंति।" Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534] [व्याख्याप्रजाप्तिसूत्र लंबेयध्वं, असिधारगं वतं चरियन्वं, नो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए इ वा, उद्देसिए इ वा, मिस्सजाए इवा, अज्झोयरए इ वा, पूइए इ वा, कीए इवा, पामिच्चे इ वा, अच्छेज्जे इवा, अणिसट्टे इवा, अभिहडे इ वा, कतारभत्ते इ वा, दुभिक्खभत्ते इ वा, गिलाणभत्ते इ वा, वलियाभत्ते इ वा, पाहुणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिडे इ वा, रायपिडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, बीयभोयणे इ वा, हरियभोयणे इ वा, भुत्तए वा. पायए वा / तुमं सि च णं जाया ! सुहसमुयिते णो चेव णं दुहसमुयिते, नालं सीयं, नालं उगह, नालं खुहा, नालं पिवासा, नालं चोरा, नालं वाला, नालं दंसा, नालं मसगा, नालं बाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइए विविहे रोगायके परीसहोवसग्गे उदिण्णे अहियासेत्तए / तं नो खल जाया! अम्हे इच्छामो तजभ खणमवि विप्पयोग, तं अच्छाहि ताब जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तो पच्छा अम्हेंहिं जाव पव्वइहिसि / 43] जब क्षत्रियकुमार जमालि को उसके माता-पिता विषय के अनुकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा कहने, बतलाने और समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुए, तब विषय के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाली उक्तियों से इस प्रकार कहने लगे हे पत्र ! यह निर्ग्रन्थप्रवचन सत्य, अनुत्तर, (अद्वितीय, परिपूर्ण न्याययुक्त, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग और निर्वाणमार्गरूप है। यह अवितथ (असत्यरहित, असंदिग्ध) आदि अावश्यक के अनुसार यावत् (सर्वदु:खों का अन्त करने वाला है / इसमें तत्पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं / परन्तु यह (निर्गन्थधर्म) सर्प की तरह एकान्त (चारित्र पालन के प्रति निश्चय) दृष्टि वाला है, छुरे था खड्ग आदि तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त (तीक्ष्ण) धार वाला है। यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है। वालु (रेत) के कोर (ग्रास) की तरह स्वादरहित (नीरस) है / गंगा आदि महानदी के प्रतिस्रोत (प्रवाह के सम्मुख) गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के समान पालन करने में अतीव कठिन है। (निग्नन्थधर्म पालन करना) तीक्ष्ण (तलवार की तीखी) धार पर चलना है ; महाशिला को उठाने के समान गुरुतर भार उठाना है / तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान व्रत का आचरण करना (दुष्कर) है। हे पूत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ये बातें कल्पनीय नहीं हैं। यथा--(१) आधार्मिक, (2) प्रौदेशिक, (3) मिश्रजात, (4) अध्यवपूरक, (5) पूतिक (पूतिकर्म), (6) क्रीत, (7) प्रामित्य, (8) अछेद्य, (6) अनिसृष्ट, (10) अभ्याहृत, (11) कान्तारभक्त, (12) दुभिक्षभक्त, (१३)ग्लानभक्त, (14) वर्दलिकाभक्त, (15) प्राघूर्णकभक्त, (16) शय्यातरपिण्ड और (17) राजपिण्ड, (इन दोषों से युक्त आहार साधु को लेना कल्पनीय नहीं है।) इसी प्रकार मूल, कन्द, फल, बीज और हरित-हरी वनस्पति का भोजन करना या पीना भी उसके लिए अकल्पनीय है 1 हे पुत्र ! तू सुख में पला, सुख भोगने योग्य है, दुःख सहन करने योग्य नहीं है। तू (अभी तक) शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा को तथा चोर, व्याल (सर्प आदि हिंस्र प्राणियों), डांस, मच्छरों के उपद्रव को एवं वात, पित्त, कफ एवं सन्निपात सम्बन्धी अनेक रोगों के आतंक को और उदय में पाए हुए परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करने में समर्थ नहीं है / हे पुत्र ! हम तो क्षणभर भी तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते / अतः पूत्र ! जब तक हम जीवित हैं, तब तक त गहस्थवास में रह / उसके बाद हमारे Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [535 कालगत हो जाने पर, यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना / विवेचन-माता-पिता द्वारा निग्रन्थधर्माचरण को दुष्करता का प्रतिपादन-क्षत्रियकुमार जमालि को जब उसके माता-पिता विविध युक्तियों आदि द्वारा समझा नहीं सके, तब निरुपाय होकर वे निर्ग्रन्थ-प्रवचन (धर्म) की भयंकरता, दुष्करता, दुश्चरणीयता आदि का प्रतिपादन करते हैं। प्रस्तुत सूत्र में यही वर्णन है / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-नो संचाएंति-समर्थ नहीं हुए। विसयाणुलोमाहि-शब्दादि विषयों के अनुकूल / आघवणाहि --सामान्य उक्तियों से, पण्णवणाहि-प्रज्ञप्तियों विशेष उक्तियों से, सन्नवणाहि—संज्ञप्तियों-. विशेष रूप से समझाने-बुभाने से, विण्णवणाहि-विज्ञप्तियों से प्रेमपूर्वक अनुरोध करने से / संजमभयुब्वेवणकरोहि-संयम के प्रति भय और उद्वेग पैदा करने वाली / अहीव एगंतदिट्ठीए-जैसे सर्प की एक ही (आमिषग्रहण की) ओर दृष्टि रहती है, वैसे ही निर्गन्थप्रवचन में एकमात्र चारित्रपालन के प्रति एकान्तदृष्टि होती है। तिक्खं कमियब्वं-खड्गादि तीक्ष्णधारा पर चलना / गरुयं लंबेयन्वं-महाशिलावत् गुरुतर (महाव्रत) भार उठाना / असिधारगं वतं चरियव्वं तलवार की धार पर चलने के समान व्रताचरण करना होता है। __ अाधामिक प्रादि का भावार्थ--प्राधाकर्मिक-किसी खास साधु के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना / औद्देशिक-सामान्यतया याचकों और साधुओं के उद्देश्य से आहारादि तैयार करना / मिश्रजात-अपने और साधुनों के लिए एक साथ पकाया हुअा अाहार। अध्यवपूरक-साधुओं का आगमन सुन कर अपने बनते हुए भोजन में और मिला देना / पूतिकर्म-शुद्ध आहार में प्राधाकर्मादि का अंश मिल जाना / क्रोत-साधू के लिए खरीदा हुअा आहार / प्रामित्य. साधु के लिए उधार लिया हुया आहारादि / पाछेद्य-किसी से जबरन छीन कर साधु को आहारादि देना / अनिःसष्ट किसी वस्तु के एक से अधिक स्वामी होने पर सबकी इच्छा के बिना देना। अभ्याहृत-साधु के सामने लाकर आहारादि देना / कान्तारभक्त-वन में रहे हुए भिखारी आदि के लिए तैयार किया हुआ पाहारादि / दुर्भिक्षभक्त दुष्काल पीड़ित लोगों को देने के लिए तैयार किया हुअा आहारादि / ग्लानभक्त-रोगियों के लिए तैयार किया हुअा आहारादि / वादलिकाभक्त दुर्दिन या वर्षा के समय भिखारियों के लिए तैयार किया हा आहारादि / प्राधर्णकभक्त पाहनों के लिए बनाया हुया आहारादि / शय्यातरपिण्ड---साधुअों को मकान देने वाले के यहाँ का आहार लेना / राजपिण्ड---राजपिण्ड--राजा के लिए बने हुए आहारादि में से देना / 'सुहसमुयिते' आदि पदों के अर्थ----सुहसमुयिते--सुख में संवद्धित-पला हुअा अथवा सुख के योग्य (समुचित) / वाला-व्याल (सर्प) आदि हिंस्र जन्तुओं को / सेभिय-श्लेष्म सम्बन्धी / सन्निवाइए—सन्निपातजन्य / अहियासेत्तए--- सहन करने में / उदिण्ण-उदय में आने पर / 44. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं क्यासी—तहा विणं तं अम्म ! ताओ! जं णं तुम्भे ममं एवं बदह-एवं खलु जाया! निग्गथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव 1. विथापण्णलिसुत्त [मू. पा. टि.भा 1, पृ. 463 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 471 3. भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 471 Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाव पव्वइहिसि / एवं खलु अम्म ! ताओ ! निग्गंथे पावयणे कोवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगपरम्मुहाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे, पागयजणस्स, धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ ! तुभेहि अन्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए / [44] तब क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता को उत्तर देते हुए इस प्रकार कहा हे माता-पिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, अद्वितीय है, यावत् तू समर्थ नहीं है इत्यादि यावत् बाद में प्रवजित होना; किन्तु हे माता-पिता ! यह निश्चित है कि क्लीबों (नामर्दो), कायरों, कापूरुषों तथा इस लोक में पासक्त और परलोक से पराछ मुख एवं विषयभोगों की तृष्णा वाले पुरुषों के लिए तथा प्राकृतजन (साधारण व्यक्ति) के लिए इस निर्ग्रन्थप्रवचन (धर्म) का आचरण करना दुष्कर है। परन्तु धीर (साहसिक), कृतनिश्चय एवं उपाय में प्रवृत्त पुरुप के लिए इसका आचरण करना कुछ भी दुष्कर नहीं है / इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप मुझे (प्रवज्याग्रहण की) आज्ञा दे दें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षा ले लूं। विवेचन-- जमालि के द्वारा उत्साहपूर्ण उत्तर-जमालि क्षत्रियकुमार ने माता-पिता के द्वारा निर्गन्थधर्म-पालन की दुष्करता का उत्तर देते हुए कहा कि संयमपालन कायरों के लिए कठिन है, वीरों एवं दृढनिश्चय पुरुषों के लिए नहीं। अतः आप मुझे दीक्षा को प्राज्ञा प्रदान करें।' कठिन शब्दों का भावार्थ-कीवाणं क्लीब (मन्द संहनन वाले) लोगों के लिए / कापुरिसाणं-डरपोक मनुष्यों के लिए / इहलोगपडिबद्धाणं- इस लोक में आबद्ध-आसक्त / पागयजणस्स प्राकृतजन-साधारण मनुष्य के लिए / दुरणुचरे–माचरण करना दुष्कर है / धीरस्स--- धीर-साहसिक पुरुष के लिए / निच्छियस्स--यह अवश्य करना है, इस प्रकार के दृढ़ निश्चय वाले। ववासियस्स व्यवसित-उपाय में प्रवृत्त के लिए / करणयाए -संयम का आचरण करना / जपालि को प्रवज्याग्रहण की अनुमति दी 45. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो जाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकलाहि य बहूहि य आघवणाहि य पण्णवणाहि य सन्नवणाहि य विष्णवणाहि य प्राघवेत्तए वा जाव विष्णवेत्तए वा ताहे अकामाई चेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स निक्खमणं अणुमनित्था। 45] जब क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता विषय के अनुकूल और विषय के प्रतिकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा उसे समझा-बुझा न सके, तब अनिच्छा से उन्होंने क्षत्रियकुमार जमालि को दोक्षाभिनिष्क्रमण (दीक्षाग्रहण) की अनुमति दे दी। 1. वियाहपत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण), भा. 1, पृ. 464 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 472 (ख) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1731 Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [537 विवेचन–निरुपाय माता-पिता द्वारा जमालि को दीक्षा की अनुमति प्रस्तुत सूत्र 45 में यह निरूपण किया गया है कि जमालि के माता-पिता जब अनुकूल और प्रतिकूल युक्तियों, तर्को, हेतुओं एव प्रेमानुरोधों से समझा-बुझा चुके और उस पर कोई प्रभाव न पड़ा, तब निरुपाय होकर उन्होंने दीक्षाग्रहण करने की अनुमति दे दी। कठिन शब्दों के भावार्थ प्रकामाई-अनिच्छा से, अनमने भाव से / निक्खमणं अणुमनित्था-दीक्षा ग्रहण करने के लिए अनुमति दी। जमालि के प्रवज्याग्रहण का विस्तृत वर्णन 46. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खत्तियकुडग्गामं नगरं सभितरबाहिरियं प्रासियसम्मज्जिओवलित्तं जहा उववाइए जाव पच्चप्पिणंति / 46] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के अन्दर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाइबुहार कर जमीन की सफाई करके उसे लिपायो, इत्यादि प्रौपपातिक सूत्र में अंकित वर्णन के अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी। 47. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्च पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासो.--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महन्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह / / 47] इसके पश्चात क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा भी उन कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही जमालि क्षत्रियकुमार के महार्थ, महामूल्य, महाहं (महान् पुरुषों के योग्य) और विपुल निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करो। 48. तए णं ते कोड बियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणति / [48 | इस पर कौटुम्बिक पुरुषो ने उनकी प्राज्ञानुसार कार्य करके अाज्ञा वापस सौंपी। विवेचन --कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा नगर की सफाई एवं निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी प्रस्तुत तीन सूत्रों (46 से 48 तक) में जमालि के पिता ने दोक्षा की आज्ञा देने के बाद नगर को पूर्ण साफसुथरा बनाने का और दीक्षाभिषेक की विधिवत् तैयारी का कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया, जिसका पालन उन्होंने किया / 1. वियाहपषणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 464 2. भगवती अ. वृति, पत्र 472 3. उववाई मूत्र के अनुसार पाठ इस प्रकार है--"सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्त सित्तडयसम्मदरत्यंतरावणवीहियं....."मंचाइमंचकलिअं माणाविहरागउच्छियज्झय-पडागाइपडागमंडियं,... इत्यादि / " –औपपातिक सूत्र पत्र 61, सू. 29 4. विवाहपण्णत्तिसूत्तं (म. पा. टिप्पण) भा.१, पृ. 465 Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दों का भावार्थ-- सभितरबाहिरियं-भीतर के सहित बाहर का / आसिय = पानी से सींचो (छिड़काव करो) / सम्मज्जिय-झाडू आदि से सफाई करो। उवलितं- लीपना / महत्थं-- महाप्रयोजन वाला / महग्धं महामूल्यवान / महरिहं - महान पुरुषों के योग्य या महापूज्य / निक्खमणाभिसेय-निष्क्रमणाभिषेक सामग्री को / उवट्ठवेह----उपस्थित करो या तैयार करो / 46. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पिघरो सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहं निसीयावेंति, निसीयावेत्ता अट्टसएणं सोवणियाणं कलसाणं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे' जाव अट्ठसएणं भोमिज्जाणं कलसाणं सविड्डीए जाव' रवेणं मह्या महया निवखमणाभिसेगेणं अभिरिचइ, निवखमणाभिसेगेण अभिसिचित्ता करयल जाव जएणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-भण जाया ! कि देमो? किं पयच्छामो ? किणा वा ते अट्ठो? [46] इसके पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार के माता-पिता ने उसे उत्तम सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बिठाया ! फिर एक सौ आठ सोने के कलशों से इत्यादि जिस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र में कहा है, तदनुसार यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से सर्वऋद्धि (ठाठबाठ) के साथ यावत् (वाद्यों के) महाशब्द के साथ निष्क्रमणाभिषेक किया। निष्क्रमणाभिषेक पूर्ण होने के बाद (जमालिकुमार के माता-पिता ने) हाथ जोड़ कर जय. विजय-शब्दों से उसे बधाया। फिर उन्होंने उससे कहा- 'पुत्र! बताओ, हम तुम्हें क्या दे ? तुम्हारे किस कार्य में क्या, (सहयोग) द ? तुम्हारा क्या प्रयोजन है ?' 50. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-इच्छामि णं अम्म ! ताओ ! कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहं च आणि कासवगं च सद्दाविउं / [50] इस पर क्षत्रिय कमार जमालि ने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! मैं कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र मंगवाना चाहता हूँ और नापित को बुलाना चाहता हूँ / 51. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्त पिया कोड बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिरिघरानो तिणि सयसहस्साई गहाय सयसहस्सेण सयसहस्सेणं कुत्तियावणाश्रो रयहरणं च पडिग्गहं च आणेह, सयसहस्सेणं च कासवगं सद्दावेह / 1. भगवती. अ. वनि.,पत्र 476 2. राजप्रश्नीयसूत्रानुसार पाठ यह है--"अट्टसएणं सुबष्णमयाण कलसाणं, अदृसएणं रुपमयाणं कलसाणं, असएण मणिमयाणं कलसाण, अदुसरणं मुबष्ण-रुपमयाणं कलसाणं, अटुसएणं सुबण्ण-मणिमयाणं कलसाणं, अट्टसएणं साप-मणिमयाणं कलसाणं, अट्टसएणं सुबण्ण-रुप्प-मणिमयाणं कलसाणं / " --रायपसेण इज्ज (गुर्जर ग्रन्थ) पृ. 241-242 कण्डिका१३५ 3. 'जाब' शब्दसूचित पाठ--- "सबजुईए""सब्बबलेणं""सब्वसमृदएणं सबरवेणं "सम्वविभूईए'"सम्वविभूसाए ..."सव्वसंभमेण "सम्वयुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सम्वडियसहसनिनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं मया समुदएणं महया बरतुडिय-जमगसमगप्पवाइएणं."संख-पणव-पडह-भेरि-मल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरयमुइंग-दुदुहिनिग्धोसनाइय।"-भगवती. अ व. Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [51| तब क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा"देवानुप्रियो ! शीघ्र ही श्रीघर (भण्डार) से तीन लाख स्वर्ण मुद्राएँ (सोनया) निकाल कर उनमें से एक-एक लाख सोनैया दे कर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र ले प्रानो तथा (शेष) एक लाख सोनैया देकर नापित को बुलायो।" 52. तए णं ते कोड बियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सिरिघरानो तिण्णि सयसहस्साई तहेव जाव कासवगं सहावैति / 52/ क्षत्रियकुमार जमालि के पिता को उपर्युक्त प्राज्ञा सुन कर वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत ही हर्षित एवं संतुष्ट हुए / उन्होंने हाथ जोड़ कर यावत् स्वामी के वचन स्वीकार किये और शीघ्र ही श्रीघर (भण्डार) से तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ निकाल कर कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए तथा नापित को बुलाया। विवेचन-निष्क्रमणाभिषेक तथा दीक्षा के उपकरणादि की मांग-प्रस्तुत सु. 46 से 52 तक में जमालि के माता-पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा उसका निष्क्रमणाभिषेक कराया और फिर जमालि की इच्छानुसार रजोहरण, पात्र मंगवाए और नापित को बुलाया / ' निष्क्रमणाभिषेक---दीक्षा के पूर्व प्रवजित होने वाले व्यक्ति का माता-पिता आदि द्वारा स्वर्ण आदि के कलशों से अभिषेक (मस्तक पर जलसिंचन करके स्नान) कराना निष्क्रमणाभिषेक है / कठिन शब्दों का विशेषार्थ सिरिघरानो-श्रीधर भण्डार से / कासवगं= नापित को। भोजिज्जाणं-मिट्टी से बने हुए / सम्विड्डीएसमस्त छत्र आदि राजचिह्नरूप ऋद्धिपूर्वक / पयच्छामोविशेषरूप से क्या दें ? कुत्रिकापण----कुत्रिक, अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों पृश्चियों में संवित वस्तु मिलने वाली देवाधिष्ठित दुकान / ' 53. तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुबियपुरिसेहिं सहाविते समाणे हठे तुझे पहाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता करयल० जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं वद्धावेइ, जएणं विजएणं वद्वावित्ता एवं वयासो-संदिसंतु णं देवाणुपिया ! जे भए करणिज्ज / 53] फिर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के आदेश से कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा नाई को बुलाए जाने पर वह बहुत ही प्रसन्न और तुष्ट हुआ / उसने स्नानादि किया, यावत् शरीर को अलंकृत किया, फिर जहाँ क्षत्रियकुमार जमालि के पिता थे, वहाँ आया और उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया, फिर इस प्रकार कहा--'हे देवानुप्रिय ! मुझे करने योग्य कार्य का आदेश दीजिये / " 1. वियाह्मणत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 465-466 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 476. Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 54. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी-तुमं गं देवाणुप्पिया ! जमालिस खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे आगकेसे कप्पेहि। [54] इस पर क्षत्रियकमार जमालि के पिता ने उस नापित से इस प्रकार कहा--हे देवानुप्रिय ! क्षत्रिय कुमार जमालि के निष्क्रमण के योग्य अग्रकेश (सिर के आगे-आगे के बाल) चार अगुल छोड़ कर अत्यन्त यत्न पूर्वक काट दो। 55. तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हट्टतुठे करयल जाव एवं सामी! तहत्तागाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्य-पादे पक्खालेइ, सुरभिणा गंधोदएणं हत्थ-पादे पखालित्ता सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तीए मुहं बंधइ, मुहं बंधित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवण्जे निवखमणपा उम्गे अगकेसे कप्पेइ / [55] क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के द्वारा यह आदेश दिये जाने पर वह नापित अत्यन्त हर्षित एवं तुष्ट हुआ और हाथ जोड़ कर यावत् (इस प्रकार) बोला--"स्वामिन् ! आपकी जैसी आज्ञा है, वैसा ही होगा;" इस प्रकार उसने विनयपूर्वक उनके वचनों को स्वीकार किया। फिर सुगन्धित गन्धोदक से हाथ-पैर धोए, पाठ पट वाले शुद्ध वस्त्र से मुंह बांधा और अत्यन्त यत्नपूर्वक क्षत्रियकुमार जमालि के निष्क्रमणयोग्य अग्रकेशों को चार अंगुल छोड़ कर काटा। विवेचन--नापित द्वारा जमालि का अग्रकेशकर्तन = प्रस्तुत तीन सत्रों में जमालि के पिता द्वारा नाई को बुला कर जमालि के निष्क्रमणयोग्य अग्रकेश काटने का आदेश देने पर वह बहुत प्रसन्न हुआ और विनयपूर्वक आदेश शिरोधार्य करके नहा-धोकर शुद्ध वस्त्र मुंह पर बांध कर यत्नपूर्वक उसने जमालि कुमार के अग्रकेश काटे / ' कठिन शब्दों का विशेषार्थ-संदिसंतु- आदेश दीजिए, बताइए / परेणं जत्तेणं = अत्यन्त यत्नपूर्वक / णिक्खमणपाडग्गे अम्गकेसे दीक्षित होने वाले व्यक्ति के आगे के केश चार अंगुल छोड़ कर काटे जाते थे, ताकि गुरु अपने हाथ से उनका लुञ्च न कर सकें, इसे निष्क्रमणयोग्य केशकर्तन कहा जाता था। कप्पेहि-काटो। अट्ठपडलाए पोत्तीए-आठ पटल (परत या तह) वाली पोतिका (मुखवस्त्रिका) से / 56. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलवखणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ, अग्गकेसे पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ, सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेत्ता अम्गेहि वरेहि गंधेहि मल्लेहि अच्चेति, अच्चित्ता सुद्धवत्थेणं बंधेइ, सुद्धवत्थेणं बंधिता रयणकरंउगंसि पविखवति, पविखवित्ता हार-वारिधार-सिंदुवार-छिन्नमुत्तालिपगासाई सुवियोगदूसहाई अंसूई विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी एवं क्यासी-एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहूसु तिहोसु य पव्वणीसु य उस्सवेसु य जपणेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सति इति कटु ओसीसगमूले ठवेति / 1. वियाहपष्णत्तिसुत्तं भा. 1 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 466. 2. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 476 (ख) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचंदजी), प्र. 737 Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [541 56] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने शुक्लवर्ण के या हंस-चिह्न वाले वस्त्र की चादर (शाटक) में उन अग्रकेशों को ग्रहण किया / फिर उन्हें सुगन्धित गन्धोदक से धोया, फिर प्रधान एवं श्रेष्ठ गन्ध (इत्र) एवं माला द्वारा उनका अचंन किया और शुद्ध वस्त्र में उन्हे बांध कर रत्नकरण्डक (रत्नों के पिटारे) में रखा / इसके बाद जमालिकुमार की माता हार, जलधारा, सिन्दुवार के पुष्पों एवं टूटी हुई मोतियों की माला के समान पुत्र के दुःसह (असह्य) वियोग के कारण आंसू बहानी हुई इस प्रकार कहने लगी...."ये (जमालि कुमार के अग्रकेश) हमारे लिए बहुत-सी तिथियों, पर्वो, उत्सवों और नागपूजादिरूप यज्ञों तथा (इन्द्र-) महोत्सवा दिरूप क्षणों में क्षत्रियकुमार जमालि के अन्तिम दर्शनरूप होंगे".-ऐसा विचार कर उन्हें अपने तकिये के नीचे रख दिया। विवेचन-माता ने जमालिकुमार के अनकेश सुरक्षित रखे-प्रस्तुत सूत्र में जमालिकुमार के उन अग्रकेशों को अचित करके रत्नपिटक में सुरक्षित रखने का वर्णन है। साथ ही यह बताया गया है कि उन्हें सुरक्षित रखने का कारण माता की ममता है कि भविष्य में जमालि के ये केश ही उसके दर्शन या स्मृति के प्रतीक होंगे।' कठिन शब्दों का भावार्थ-पडिच्छइ-ग्रहण किये। हंसलक्खणणं पडसाइएणं-हंस के समान श्वेत अथवा हंसचिह्न वाले पट-गाटक-वस्त्र की चादर अथवा पल्ले में / पक्खिवति-रखे। अम्गेहि-प्रधान (अग्र)। वरेहि- श्रेष्ठ / सिदवार सिन्दवार (निर्गुण्डी) के सफेद फूल / छिन्नमुत्तावलिप्यगासाई-टूटी हुई मुक्तावली (मोतियों की माला) के समान / तिहीसु- तिथियों-मदनत्रयोदशी आदि तिथियों में, पव्वणीसु--कार्तिक पूणिमा अादि पों में / उस्सवेसु--प्रियजनों के संगमादि समारोहों में। जग्णेसु.--नागपूजा आदि यज्ञों में / छणेसु---इन्द्रमहोत्सवादिरूप क्षणोंअवसरों पर। अपच्छिमे दरिसणे अन्तिम दर्शन / प्रोसीसगमूले तकिये के नीचे / ठवेति-रख देती है। 57. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो दुच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति, दुच्चं पि उत्तरावक्कमणं सोहासणं रयावित्ता जमालि खत्तियकुमारं सेयापीतहिं कलसेहिं पहाणेति, से० 23 पम्हसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाइं लहेति, सुरभीए गंधकासाइए गायाई लहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपति, गायाई अलिपित्ता नासानिस्सासवायबोझ चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं यलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियंतकम्मं महरिहं हंसलक्षणं पडसाडगं परिहिति, परिहित्ता हारं पिणद्धति, 2 अद्धहारं पिणद्धति, अ० पिणद्धित्ता एवं जहा सूरिया. भस्स अलंकारो तहेब जाव चित्तं रयणसंकडुक्कडं मउड़ पिणद्धति, कि बहुणा? गंथिम-बेढिम-पूरिमसंघातिमेणं चउब्विहणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेंति / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 467 2. [क] भगवती. अ. वत्ति, पत्र 477 (ख) भगवती भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 1337 3. पूरा पाठ-'सेयापीतएहि कलसेहि हाणेत्ता।" 4. राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव के अलंकार का वर्णन--"एगावलि पिणद्धति, एवं मुक्तावलि कणगालि रयणावलि अगयाइं केऊराई कउगाई तुडियाई कडिसुत्तयं दसमुद्दयार्णतय बच्छसुत्त मुरवि कंठमुरवि पालवं कुडलाई चूडामणि / " -भगवती. अ. व. 477, पत्र; रायप्पसेणइज्ज (गुर्जर.) पृ. 251-252 कण्डिका 137 Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [57 / इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने दूसरी बार भी उत्तरदिशाभिमुख सिंहासन रखवाया और क्षत्रियकुमार जमालि को श्वेत और पीत (चांदी और सोने के) कलशों से स्नान करवाया। फिर रुएँदार सुकोमल गन्धकाषायित सुगन्धियुक्त वस्त्र (तौलिये या अंगोछे) से उसके अंग (मात्र) पोंछे / उसके बाद सरस गोशीर्षचन्दन का गात्रों पर लेपन किया। तदनन्तर नाक के नि:श्वास की वायु से उड़ जाए, ऐमा बारीक, नेत्रों को पालादक (या अाकर्षक) लगने वाला, सुन्दर वर्ण और कोमल स्पर्श से युक्त, घोड़े के मुख की लार से भी अधिक कोमल, श्वेत और सोने के तारों से जड़ा हुया, महामुल्यवान् एव हंस के चिह्न से युक्त पटशाटक (रेशमी वस्त्र) पहिनाया। फिर हार (अठारह लड़ी वाला हार) एवं अर्द्ध हार (नवसरा हार) पहिनाया। जैसे राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव के अलकारों का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए, यावत् विचित्र रत्नों से जटित मुकुट पहनाया। अधिक क्या कहें ! ग्रन्थिम (गथी हुई), वेष्टिम (लपेटी हुई), पूरिम-पूरी हुई-भरी हुई और संघातिम (परस्पर संघात की हुई) रूप से तैयार की हुई चारों प्रकार की मालानों से कल्पवृक्ष के समान उस जमालिकुमार को अलंकृत एवं विभूषित किया गया / विवेचन--वस्त्राभूषणों से सुसज्जित : जमालिकुमार- प्रस्तुत 57 वे सूत्र में वर्णन है-दीक्षाभिलाषी जमालिकुमार को उसके माता-पिता द्वारा स्नानादि करवा कर बहुमूल्य वस्त्रों और सोने चांदी आदि के आभूषणों से सुसज्जित किया गया / ' कठिन शब्दों का विशेषार्थ--उत्तरावक्कमणं उत्तराभिमुख-उत्तरदिशा की ओर / रयाति--रचवाया या रखवाया। सेयापीतएहि-श्वेत (चांदी) और पीत (सोने) के / पम्हलसकमालाए-रोएदार मुलायम वस्त्र (तौलिये) से / गायाइं लहेंति-शरीर पोंछा / अलिपति-लेपन किया। नासा-निस्सास-वायवोभ नासिका के श्वास से उड जाए ऐसा बारीक / चक्खहरं-नेत्रों को प्रानन्द देने वाला, आकर्षक / हयलालापेलवातिरेगं घोड़े के मह की लार से भी अधिक नरम / कणगखचितंतकम्भं—जिसके किनारों पर सोने के तार जड़े हुए थे / पिणद्धति - धारण कराया / रयणसंकडुक्कडं---रत्नों से जटित / पूरिम-पिरोई हुई। संघातिम ---परस्पर जोड़े हुए। मल्लेणं = माला से / 58. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासि-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अपेगखंभसयसनिविट्ठ लीलद्वियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ जाव मणिरयणघंटियाजालपरिखित्तं पुरिससहस्तवाहणीयं सीयं उवद्ववेह, उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। 1. वियाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 467 2. भगवती भा. 4 (पं. घेवरचन्द), पृ. 1740 3. राजप्रश्नीय में वणित विमानवर्णन यह है.---"ईहामिय-उसम-तुरग-नर-मगर-वालग-विहग-किनार-हरु-सरम चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्त,"""खंभुग्गरवाइरवेइयापरिगताभिरामं .."विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्त पिव,""अच्चीसहस्समालिणीयं, 'रूवगसहस्सकलियं, भिसमाणं "भिभिसमाणं, चक्थुलोयणलेसं, "सुहफास सस्सिरीयरूवं घंटावलिचलियमहरमणहरस्सर, सुहं कंस दरिसणिज्नं निउगोवियमिसिमिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित...." -रायप्पसेणइज्जसुत्त (गुर्जर.) पृ. 155. के. 97 Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [543 [58] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही अनेक सैकड़ो खभों से युक्त, लीलापूर्वक खड़ी हुई पुतलियों वाली, इत्यादि, राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित विमान के समान यावत्-मणि-रत्नों की घंटियों के समूह से चारों ओर से घिरी हुई, हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने योग्य शिविका (पालकी) (तैयार करके) उपस्थित करो और मेरी इस आज्ञा का पालन करके मुझे पुनः निवेदन करो। 59. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति / [59] इस आदेश को सुन कर कौटुम्बिक पुरुषों ने उसी प्रकार की शिविका तैयार करके यावत् (उन्हें) निवेदन किया। 60. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं वत्थालंकारेण मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउबिहेणं अलंकारेण अलंकारिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सोहासणाओ अब्भुट्ठति, सोहासणाभो अब्भुठेत्ता सोयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सोयं दुल्हइ, दुरू हित्ता सीहासगवरंसि पुरत्थाभिमुहे सनिसचणे। [60 तत्पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और प्राभरजालंकार इन चार प्रकार के अलंकारों से अलंकृत होकर तथा प्रतिपूर्ण अलंकारों से सुसज्जित हो कर सिंहासन से उठा / वह दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ा और श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुंह करके आसीन हुआ। 61. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्म माया व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुपदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ, सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणवरंसि सन्निसण्णा / [61] फिर क्षत्रियकुमार जमालि को माता स्नानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत करके हंस के चिह्न वाला पटशाटक लेकर दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ी और जमालिकुमार की दाहिनी ओर श्रेष्ठ भद्रासन पर बैठी।। 62. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मधाई पहाया जाव सरीरा रयहरणं च पडिग्रहं च गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ, सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि सग्निसणा। [62 तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि को धायमाता ने स्नानादि किया, यावत् शरीर को अलंकृत करके रजोहरण और पात्र ले कर दाहिनी ओर से (अथवा शिविका की प्रदक्षिणा करती हुई) शिविका पर चढ़ी और क्षत्रियकुमार जमालि के बाई ओर श्रेष्ठ भद्रासन पर बैठी / / 63. तए गं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्टप्रो एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय जाव' रूवजोव्वर्णावलासकलिया सुंदरथण हिम-रयत-कुमुद कुदेदुप्पगास सकोरेटमल्लदामं 1. 'जाव' पद-सूचित पाठ-"संगय-गय-हसिय-भणिय-चिट्ठिय-विलास-संलावुल्लावनिउणजुत्तो-वयारकुसला।" -प्र.व. 2. "सूदरथण इत्यनेन" "सुबरमण-जहण वयण-कर-चरण-णयण-लायष्ण-रूब-जोठवणगुणोववेय ति।" -- अ.. Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं धारेमाणो धारेमाणी चिट्ठति / / 63, फिर क्षत्रियकुमार जमालि के पृष्ठभाग में (पोछे) शृगार के घर के समान, सुन्दर वेष वाली. मुन्दर गतिवाली, यावत् रूप और यौवन के विलास से युक्त तथा सुन्दर स्तन, जघन (जांघ), बदन (मुख), कर, चरण, लावण्य, रूप एव यौवन के गुणों से युक्त एक उत्तम तरुणी हिम (बर्फ), रजत (चादो), कुमुद, कुन्दपुष्प एवं चन्द्रमा के समान, कोरण्टक पुष्प को माला से युक्त, श्वेत छत्र (प्रातपत्र) हाथ में लेकर लोला-पूर्वक धारण करती हुई खड़ी हुई / 64. तए णं तस्स जमालिस्स उभयोपासि दुवे वरतरुणीसो सिंगारागारचार जाव कलियामो नाणामणि-कणग-रयण-विमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाम्रो चिल्लियाओ संखक-कुंदेंदु-दगरयअमयमयिफेणपुंजसन्निकासाओ चामराम्रो गहाय सलील बीयमाणीओ वीयमाणोओ चिट्ठति / 164 तदनन्तर जमालिकुमार के दोनों (दाहिनी तथा बाई) ओर शृगार के घर के समान, सुन्दर वेष वाली यावत् रूप-यौवन के विलास से युक्त दो उत्तम तरुणियां हाथ में चामर लिए हुए लीलासहित दुलाती हुई खड़ी हो गई। वे चामर अनेक प्रकार की मणियो, कनक, रत्नों तथा विशुद्ध एवं महामूल्यवान् तपनीय (लाल स्वर्ण) से निर्मित उज्ज्वल एव विचित्र दण्ड वाले तथा चमचमाते हुए (देदीप्यमान) थे और शंख, अंकरत्न, कुन्द-(मोगरा के) पुष्प, चन्द्र, जलबिन्दु, मथे हुए अमृत के फैन के पुज के समान श्वेत थे। 65. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स उत्तरपुरथिमेणं एगा बरतरुणी सिंगारागार जाव कलिया सेयं रयतामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिगारं गहाय चिट्ठइ / [65 | और फिर क्षत्रियकुमार जमालि के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में शृगार के गृह के समान, उत्तम वेष वाली यावत् रूप, यौवन और विलास से युक्त एक श्रेष्ठ तरुणी पवित्र (शुद्ध) जल से परिपूर्ण , उन्मत्त हाथी के महामुख के आकार के समान श्वेत रजतनिर्मित कलश (भ गार) (हाथ में) लेकर खड़ी हो गई। 66. तए ण तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरथिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागार जाव कलिया चित्तं कणगदंडं तालयंडं गहाय चिट्ठति / 66| उसके बाद क्षत्रियकुमार जमालि के दक्षिणपूर्व (प्राग्नेय कोण) में शृगार गृह के तुल्य यावत् रूप यौवन और विलास से युक्त एक श्रेष्ठ युवती विचित्र स्वर्णमय दण्ड वाले एक ताड़पत्र के पंखे को लेकर खड़ी हो गई। विवेचन--जमालिकुमार परिजनों आदि सहित शिविकारूढ हुआ प्रस्तुत सात सूत्रों (60 से 66 सू. तक) में जमालिकुमार तथा उसकी माता, धायमाता तथा अन्य तरुणियों के शिविका पर चढ़ कर यथास्थान स्थित हो जाने का वर्णन है।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 468-461 / Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [545 कठिन शब्दों का विशेषार्थ सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी : दो अर्थ-(१) शिविका की प्रदक्षिणा करते हुए, (2) दक्षिण की ओर से शिविका पर चढ़ी। पुरत्थाभिमुहे पूर्व की ओर मुख करके / सष्णिसण्णे-बैठा / भद्दासणवरंसि-उत्तम भद्रासन पर। 'केसालंकारेणं' इत्यादि का भावार्थ-केश, वस्त्र, माला और आभूषणों को यथास्थान साजसज्जा से युक्त किया। पडिग्गहपात्र / वामे पामे -बाएं पार्श्व में। पिटुमो-पृष्ठभाग में-पीठ के पीछे। सिंगारागार-शृगार का घर, अथवा शृमारप्रधान प्राकृति। विलासकलिया-विलास-नेत्रजनितविकार से युक्त / कणग-पीला सोना। तवणिज्ज-लाल सोना। महरिह-महामूल्य / सन्निकासाओ-समान / पगासं-समान। आयवत्तं-छत्र / सलील--लीला सहित / धारेमाणी-धारण करती हुई / वीयमाणोप्रो- ढुलाती हुई। संगय-गय = संगत-व्यवस्थित गति (चाल) इत्यादि / विमलसलिलपुण्णं-- जल से पूर्ण / मत्तगय-महामुहाकितिसमाणं--उन्मत्त गज के मुख को स्वच्छ प्राकृति के समान / भिगारं-कलश या झारी / उत्तरपुरस्थिमेणं-उत्तर-पूर्व दिशा में / दाहिणपुरथिमेणं-दक्षिणपूर्व दिशा (आग्नेयकोण) में। चित्तं कणगदंडं-विचित्र स्वर्णमय दण्ड (हत्थे) वाले। तालयंट ताड़पत्र के पंखे को। 67. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, कोडुबियपुरिसे सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सरिसयं सरित्तयं सरिन्वयं सरिसलावष्ण-रूवजोवणगुणोधवेयं एगाभरणवसणगहियनिज्जोयं कोडुबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह / [67] इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले, समान वय वाले, समान लावण्य, रूप और यौवन-गुणों से युक्त, एक सरीखे आभूषण, वस्त्र और परिकर धारण किये हुए एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुलायो / ' 68. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं सरित्तयं जाव सद्दावेति / [68] तब वे कौटुम्बिक पुरुष स्वामी के आदेश को यावत् स्वीकार करके शीघ्र ही एक सरीखे, समान त्वचा वाले यावत् एक हजार श्रेष्ठ कौटुम्बिक तरुणों को बुला लाए / 69. तए णं ते कोडुबियपुरिस (? तरुणा) जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणो कोडुबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हद्वतु४० व्हाया क्यबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता एगाभरण. वसणगहियनिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता करयल जाव बद्धावेत्ता एवं क्यासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहि करणिज्ज / " -. -.. 1. (क) भगवती. भा. 4 (पं. धेवरचन्दजी), पृ. 1740 - 1742 (ख) भग. अ. वृ., पत्र 478 Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [66] जमालि क्षत्रियकुमार के पिता के (आदेश से) कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाये हुए वे एक हजार तरुण सेवक हर्षित और सन्तुष्ट हो कर, स्नानादि से निवृत्त हो कर बलिकर्म, कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके एक सरीखे आभूषण और वस्त्र तथा वेष धारण करके जहाँ जमालि क्षत्रियकुमार के पिता थे, वहाँ आए और हाथ जोड़ कर यावत उन्हें जय-विजय शब्दों से बधा कर इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! हमें जो कार्य करना है. उसका आदेश दीजिए। 70. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कोडुबियवरतरुणसहस्सं एवं वदासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया ! हाया कयबलिकम्मा जाव गहियनिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकमारस्स सीयं परिवहह। [70] इस पर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने उन एक हजार तरुण सेवकों को इस प्रकार कहा--हे देवानुप्रियो ! तुम स्नानादि करके यावत् एक सरीखे वेष में सुसज्ज होकर जमालिकुमार की शिविका को उठाओ। 71. तए णं ते कोडुबियपुरिसा (? तरुणा) जमालिस्स खत्तियकुमारस्स जाव पडिसुणेत्ता व्हाया जाव गहियनिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति / [1] तब वे कौटुम्बिक तरुण क्षत्रिय कुमार जमालि के पिता का आदेश शिरोधार्य करके स्नानादि करके यावत् एक सरीखी पोशाक धारण किये हुए (उन तरुण सेवकों ने) क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका उठाई। विवेचन-कौटुम्बिक तरुणों को शिविका उठाने का आदेश-प्रस्तुत 5 सूत्रों (67 से 71 तक) में जमा लिकुमार के पिता द्वारा एक हजार तरुण सेवकों को बुलाकर शिविका उठाने का आदेश देने और उनके द्वारा उसका पालन करने का वर्णन है / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-एगाभरण-वसण-गहिय-निज्जोया-एक-से आभरणों और वस्त्रों का (निर्योग) परिकर धारण किये हुए / अट्ठमंगलगा-आठ-आठ मंगल (मंगलमय वस्तुएँ)। गगणतलमणुलिहतो-आकाशतल को स्पर्श करने वाली / 72. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगलगा पुरनो अहाणपुब्बीए संपट्टिया, तं०-सोस्थिय सिरिवच्छ जाव दप्पणा' / तदणंतरं च णं पुण्णकलभिगारं जहा उववाइए जाव गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया। एवं जहा" उववाइए तहेव भाणियव्वं जाव आलोयं च करेमाणा 'जय जय' सई च 1. वियाहपत्तिसुतं, भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 469-470 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 479 3. 'जाव' पद सूचित पाठ-"नंदियावत्त-बद्धमाणग-भद्दासण-कलस-मच्छ।" अ.व. 4. प्रौपपातिक सूत्र में पाठ इस प्रकार है-"दिवा य छत्तपडागा'...."सचामरादंसरइयआलोयदरिसणिज्जा बाउबविजयवेजयंती य ऊसिया गगणतलमण लिहती।" –औपपातिकमूत्र, कुणिकनृपतिनिर्गमनवर्णन पृ, 69 प्रथमपार्श्व सू. 31 / 5. पौषपातिक सूत्र में वणित पाठ इस प्रकार है-- "तयाणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं, पलबकोरंटमल्लदामो वसोहियं चंदमंडलनिभं समृसियं विमलमायवत्त पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउयाजुगसमाउत्त". बहुकिंकरकम्मगरपुरिसपायत्तपरिक्खित्त'पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं / तयाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम शतक : उद्देशक-३३] [5.47 पउंजमाणा पुरओ अहाणपुवीए संपट्टिया। तदणंतरं च णं बहवे उग्गा भोगा जहा' उववाइए जाव महापुरिसबगुरा परिक्खिता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरो य मग्गओ य पासओ य अहाणुपुष्वोए संपट्टिया। [72] हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने योग्य उस शिविका पर जब जमालि क्षत्रियकुमार प्रादि सब प्रारूढ हो गए, तब उस शिविका के प्रागे-पागे सर्वप्रथम ये आठ मंगल अनुक्रम से चले, यथा-(१) स्वस्तिक, (2) श्रीवत्स, (3) नन्द्यावर्त्त, (4) वर्धमानक, (5) भद्रासन, (6) कलश, (7) मत्स्य और (8) दर्पण / इन आठ मंगलों के अनन्तर पूर्ण कलश चला; इत्यादि, औपपातिकसूत्र के कहे अनुसार यावत् गगनतलत्रुम्बिनी वैजयन्ती (ध्वजा) भी आगे यथानुक्रम से रवाना हुई। इस प्रकार जैसे औपपातिक सूत्र में कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए; यावत् आलोक करते हुए और जय-जयकार शब्द का उच्चारण करते हुए अनुक्रम से आगे चले / इसके पश्चात् बहुत से उग्रकुल के, भोगकुल के क्षत्रिय, इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् महापुरुषों के वर्ग से परिवृता होकर क्षत्रियकुमार जमालि के आगे, पीछे और आसपास चलने लगे / 73. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया व्हाए कतबलिकम्मे जाव विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं उधुम्वमाणीहि उद्धवमाणोहि हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणोए सेणाए सद्धि संपरिवुडे महया भड-चडगर जाय परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ पिट्ठो अणुगच्छइ / -- -....-- . . . . .. . -. - कुतग्गाहा चामरगाहा पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगरगाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा कूवयग्गाहा हडप्पगाहा पुरओ जहाणपुच्चोए संपट्रिया / तयाणंतरं च बहये दंडिणो मुणिणो सिहंडिणो जडिणो"पिच्छिणो हासकरा"डमरकरा""दवकरा' 'चाडकरा, कंम्पिया कोक्कूइआ"."वायंता व गायता यहासंता य भासिता य सासिता य"सावेता य रक्खंता य""" - औपपातिक सूत्र 31-32, प. 64, 74 / एतच्च वाचनान्तरे प्रायः साक्षाद् दृश्यते एव / तथेदमपरं तनवाधिकम तयाणंतरं च णं जच्चाणं वरमल्लिहाणाणं चंचुच्चियललियपुलयविक्कमबिलासियगईणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं थासगअमिलाणचमरगंडपरिमंडियकडीणं असयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुथ्वोए संपट्टियं / तयाणंतरं च णं ईसिदंताणं ईसिमताणं ईसिउन्नविसालधबलदंताणं कंचणकोसीपविदंतोक्सोहियाणं असयं गयकलहाणं पुरओ अहाणपुरवीए संपद्रियं / तयाणंतरं च णं सच्छताणं सज्मयाण सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराण सखिखिणीहेमजालपेरंतपरि विखत्तागं सनंदिघोसाणं हेमवचित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तवारगाणं सुसंविद्धचक्कमंडलधुराणं कालायससुकयनेमिजंतकम्माणं आइनवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं सरसतबत्तीसतोणपरिमंडियाणं सकंकड़व.सगाणं सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं अनुसये रहाणं पुरओ अहाणघुवीए संपद्रियं / तयाणंतरं च असि-सत्तिकोत-तोमर-सूल-लउड-भिडिमाल-धणु-बाणसज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणपुबीए संपद्रियं / तयाणंतरं च णं बहवे राईसर-तलवर-कोड बिय-माइंबिय-इन्भ-सेट्टि-सेणावइ-सस्थवाहपभिइओ अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया अप्पेगइया रहगया पुरओ अहाणुपुग्वीए संपट्ठिया / 1. औषपातिक सूत्र में यह पाठ इस प्रकार है--"राइना खत्तिया इक्खागा नाया कोरम्या।" -~ीपपातिक सू. 27 प. 58-59 Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548] ग्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र [73] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने स्नान आदि किया / यावत् वे विभूषित होकर उत्तम हाथी के कंधे पर चढ़े और कोरण्टक पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, श्वेत चामरों से बिजाते हुए, घोड़े, हाथी, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर तथा महासुभटों के समुदाय से घिरे हुए यावत् क्षत्रियकुमार के पीछे-पीछे चल रहे थे। 74. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा आसव (वा) रा, उभओ पासि गागा णागवरा, पिटुओ रहा रहसंगेल्ली। [74] साथ ही उस जमालि क्षत्रियकुमार के आगे बड़े-बड़े और श्रेष्ठ धुड़सवार तथा उसके दोनों बगल (पार्व) में उत्तम हाथी एवं पीछे रथ और रथसमूह चल रहे थे। विवेचन–शिविका के आगे-पीछे एवं आसपास चलने वाले मंगलादि एवं जनवर्ग—प्रस्तुत सूत्रों में यह वर्णन है कि सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका पर सबके प्रारूढ़ होने पर उसके आगे-आगे अष्ट मंगल, छत्र, पताका, चामर, विजयवैजयन्ती आदि तथा क्रमश: पीठ, सिंहासन तथा अनेक किंकर, कर्मकर, एवं यष्टि, भाला, चामर, पुस्तक, पीठ, फलक, वीणा, कुतप (कुप्पी) आदि लेकर चलने वाले एवं उनके पीछे दण्डी, मुण्डी, शिखण्डी, जटो, पिच्छी, हास्यादि करने वाले लोग गाते-बजाते, हंसते-हंसाते चले जा रहे थे। निष्कर्ष यह कि जमालिकुमार की शिविका के साथ-साथ अपार जनसमूह चल रहा था। ___उसके पीछे जमालिकुमार के पिता चतुरंगिणी सेना एवं भटादिवर्ग के साथ चल रहे थे। उनके पीछे श्रेष्ठ घोड़े, घुड़सवार, उत्तम हाथी, रथ तथा रथसमुदाय चल रहे थे / ' 75. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अब्भुग्गभिगारे पग्गहियतालियंटे ऊसवियसेतछत्ते पवीइतसेतचामरबालवीयणीए सव्विड्डीए जाव' णादितरवेणं खत्तियकुडग्गाम नगरं मझमझेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। [75] इस प्रकार (दीक्षाभिलाषी) क्षत्रियकुमार जमालि सर्व ऋद्धि (ठाठबाठ) सहित यावत् बाजे-गाजे के साथ (वाद्यों के निनाद के साथ) चलने लगा। उसके आगे कलश और ताड़पत्र का पंखा लिये हुए पूरुष चल रहे थे / उसके सिर पर श्वेत छत्र धारण किया हुआ था। उसके दोनों ओर श्वेत चामर और छोटे पंखे बिजाए जा रहे थे। [इनके पीछे बहुत-से लकड़ी, भाला, पुस्तक यावत् वीणा आदि लिये हुए लोग चल रहे थे। उनके पीछे एक सौ आठ हाथी प्रादि, फिर लाठी, खड्ग, भाला आदि, लिये हुए पदाति (पैदल चलने वाले)-पुरुष तथा उनके पीछे बहुत-से युवराज, धनाढ्य, 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 471-472 2 'जाव' पद सूचित पाठ-"तयाणंतरं च णं बहवे दिग्गाहा कुतग्गाहा जाब पुत्थयग्गाहा जाव वीणगाहा / तयाणंतरं च णं असयं गयाणं अटुसयं तुरगाणं अट्ठसयं रहाणं / तयाणंतरं च णं लउड-असि-कौतहत्थाणं बहूणं पायताणीणं पुरओ संपट्टियं / तयाणंतरं च णं बहवे राईसर-तलवर जाव सत्यवाहपभिइओ पुरओ संपट्टिया जाव पादितरवेणं / --प्रौषपातिक सू 32, पत्र 73 Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३) यावत् सार्थवाह प्रभृति तथा बहुत-से लोग यावत् गाते-बजाते, हंसते-खेलते चल रहे थे।] (इस प्रकार) क्षत्रियकुमार जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के मध्य में से होकर जाता हुआ, ब्राह्मणकुण्डग्राम के बाहर जहाँ बहुशालक नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उस ओर गमन करने लगा। विवेचन--जमालिकुमार का सर्वऋद्धि सहित भगवान् को ओर प्रस्थान—प्रस्तुत सू. 75 में अत्यन्त ठाठबाठ, राजचिह्नों एवं सभी प्रकार के जनवर्ग के साथ भगवान महावीर की सेवा में ब्राह्मणकुण्ड को अोर विरक्त जमालिकुमार के प्रस्थान का वर्णन है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अभुग्गभिगारे-मागे कलश सिर पर ऊँचा उठाए हुए / पग्गहियतालियंटे ताड़पत्र के पंखे लिये हुए। ऊसवियसेतछत्ते - ऊंचा श्वेत छत्र धारण किया हुया | पवोइत-सेत-चामर-बालवीयणीए-श्वेत चामर और छोटे पखे दोनों ओर बिजाते हुए / णादितरवेणं-वाद्यों के शब्द सहित / पहारेत्थ गमणाए—गमन करने लगा 2 76. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुडग्गाम नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छमाणस्स सिंघाडग-तिग-चउक्क जाव' पहेसु बहवे अस्थिया जहा उववाइए जाव अभिनंदता य अभित्थुणता य एवं क्यासी-जय जय गंवा ! धम्मेणं, जय जय गंदा ! तवेणं, जय जय गंदा! भई ते, अभिग्गेहिं गाण-दसण-चरित्तमुत्तमेहि अजियाई जिणाहि इंदियाई, जियं च पालेहि समणधम्म, जियविग्यो वि य वसाह तं देव ! सिद्धिमझे, णिहणाहि य राग-दोसमले तवेणं धितिधणियबद्धकच्छ, माहि अट्टकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं, अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च धीर ! तिलोक्करंगमज्झे, पावय वितिमिरमणुतरं केवलं च गाणं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिट्टेणं सिद्धिमम्गेणं अकुडिलेणं, हंता परीसहचमु, अभिभविय गामकंटकोवसग्गा णं, धम्मे ते अविग्घमत्थु / त्ति कट्ठ अभिनंदति य अभिथुणंति य / 76] जब क्षत्रियकुमार जमालि क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के मध्य में से होकर जा रहा था, तब शृगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्गों पर बहुत-से अर्थार्थी (धनार्थी), कामार्थी इत्यादि लोग, औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार इष्ट, कान्त, प्रिय अादि शब्दों से यावत् अभिनन्दन एवं स्तुति करते हुए इस प्रकार कहने लगे—'हे नन्द (आनन्ददाता)! धर्म द्वारा तुम्हारी जय हो ! हे नन्द ! तप के 1. वियाहपग्णात्तिसुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 472 2. भगवती. भा. 4 (. घेवरचन्दजी), पृ. 1746 3. 'जाव' पद सूचित पाठ-—'चच्चर-चउम्मुह-महापह / ' 4. प्रौपपातिक सूत्र में वणित पाठ यावत अभिनंदता, तक- "कामस्थिया भोगस्थिया लाभत्थिया इडिसिया किट्रि सिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया बद्धमाणा पुसमाणवा ताहिं इवाहिं कंताहि पियाहिं मणणाहि मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपाहायणिज्जाहिं मिय-महुर-ांभीरगाहियाहिं अट्ठसइयाहिं ताहिं अपुणरुत्ताहि बग्गूहि अणवरयं अभिनंदंता य।" --ग्रीपपातिक सु. 32, पत्र 73 Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55011 [ ध्याख्याप्रज्ञप्तिसून द्वारा तुम्हारी जय हो ! हे नन्द ! तुम्हारा भद्र (कल्याण) हो ! हे देव ! अखण्ड उत्तम ज्ञान-दर्शनचारित्र द्वारा (अब तक) अविजित इन्द्रियों को जीतो और विजित श्रमणधर्म का पालन करो / हे देव ! विघ्नों को जीत कर सिद्धि (मुक्ति) में जाकर बसो! तप से धैर्य रूपी कच्छ को अत्यन्त दृढतापूर्वक बांध कर राग-द्वेष रूपी मल्लों को पछाड़ो ! उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा अष्टकर्मशत्रुओं का मर्दन करो! हे धोर ! अप्रमत्त होकर त्रैलोक्य के रंगमंच (विश्वमण्डप) में आराधनारूपी पताका ग्रहण करो (अथवा फहरा दो) और अन्धकार रहित (विशुद्ध प्रकाशमय) अनुतर केवलज्ञान को प्राप्त करो! तथा जिनवरोपदिष्ट सरल (अकुटिल) सिद्धिमार्ग पर चल कर परमपदरूप मोक्ष को प्राप्त करो ! परीषह-सेना को नष्ट करो तथा इन्द्रियग्राम के कण्टकरूप (प्रतिकूल) उपसर्गों पर विजय प्राप्त करो ! तुम्हारा धर्माचरण निर्विघ्न हो !" इस प्रकार से लोग अभिनन्दन एवं स्तुति करने लगे। विवेचन--विविध जनों द्वारा जमालिकुमार को आशीर्वाद, अभिनन्दन एवं स्तुति–प्रस्तुत सू. 76 में निरूपण है कि क्षत्रियकुण्ड से ब्राह्मणकुण्ड जाते हुए जमालिकुमार को मार्ग में बहुत-से धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, कापालिक, भाण्ड, मागध, भाट आदि ने विविध प्रकार से अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद दिया, उसका अभिनन्दन एवं स्तवन किया / ' विशेषार्थ-अजियाइं जिणाहि-नहीं जीती हुई (इन्द्रियों) को जीतो। अभग्गेहि-अखण्ड / जिहणाहि-नष्ट करो। गंदा धम्मेण - धर्म से बढ़ो। गंदा–जगत् को प्रानन्द देने वाले। धितिधणियबद्धकच्छे-धैर्य रूपी कच्छे को दृढ़ता से बांध कर / महाहि-मर्दन करो। हराहि : दो अर्थ- (1) ग्रहण करो, (2) फहरा दो। तिलोक्करंगमज्झे-त्रिलोकरूपी रंगमंडप में। पायय-प्राप्त करो। परि सहचमु-परीषहरूपी सेना को / अभिभविय गामकंटकोवसम्गा--इन्द्रियग्रामों के कंटक रूप प्रतिकूल उपसर्गों को हरा कर / अविग्घमत्थु-निर्विघ्न हो। 77. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्से हि पिच्छिज्जमाणे पिच्छिज्जमाणे एवं जहा उबवाइए कूपिओ जाव जिग्गच्छति, तिगच्छित्ता जेणेव माहणकुडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छह, तेणेव उवागन्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सबाहिणि सीयं ठवेइ, ठवित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ / 1. वियाहपत्तिगुतं भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 472-473 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 481-482 3. प्रोपपातिकसूत्रगत पाठ-बयणमालासहस्सेहिं अभिथुन्यमाणे अभियुबमाणे, हिययमालासहस्सेहिं अभिनं विज्ज माणे अभिनंदिज्जमाणे"", मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे विच्छिष्पमाणे , कंति-रूव-सोहग्गजोवणगुणेहिं पस्थिज्जमाणे पस्थिज्जमाणे...", अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे दाइज्जमाणे, वाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पच्छिमाणे पडिच्छमाणे, भवभित्तिसहस्साई समइच्छमाणे समइन्छमाणे, तंती-तल-ताल-गीयवाइयरबेणं " महुरेणं मणहरेणं 'जय जय' सवदुग्धोसमीसएणं मंजुमंजुणा घोसेणं अपडिबुज्दामाणे कंदरगिरिविवरकूहर-गिरिवर-पासादुद्धघणभवण-देवकुल-सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-आरामुज्जाण-काणण-सभ-पप्पदेसभागे-देसभागे समइच्छमाणे कंदर-दरि-कुहर-विवर-गिरि-पायारऽट्राल-चरिय-दारगोउर-पासाय-दुधार-भवण-देवकुल-आरामुज्जाण-काणण-सभ-पएसे पडिसुयासयसहस्ससंकुले करेमाणे करेमाणे", हयहेसिय-स्थिगुलुगुलाइअ-रहघणघणाइय-सहमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमहुरेणं पूरतो अंबर, Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [551 [77] तब औषपातिकसूत्र में वणित कणिक के वर्णनानुसार क्षत्रियकुमार जमालि (दीक्षार्थी के रूप में) हजारों (व्यक्तियों) को नयनावलियों द्वारा देखा जाता हुआ यावत् (क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचोंबीच होकर) निकला / फिर ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहुशालक नामक उद्यान के निकट आया और ज्यों ही उसने तीर्थकर भगवान के छत्र आदि अतिशयों को देखा, त्यों ही हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली उस शिविका को ठहराया और स्वयं उस सहस्रपुरुषवाहिनी शिविका से नीचे उतरा। 78. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छइ; तेणेव उवागच्छित्ता, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी--- एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इठे कते जाय किमंग पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पले इ वा पउमे इ वा जाव' सहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संबुड्ढे गोवलिप्पति पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे काहि जाए भोगेहि संवुड्ढे गोवलिप्पइ कामरएणं पोवलिप्पइ भोगरएणं गोवलिप्पइ मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणेणं, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउचिग्गे, भीए जम्मण-मरणेणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयइ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सोसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया सोसभिक्खं / [78] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि को आगे करके उसके माता-पिता, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उपस्थित हुए और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तोन वार प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा--- भगवन् ! यह क्षत्रियकुमार जमालि, हमारा इकलौता, इप्ट, कान्त और प्रिय पुत्र है / यावत्-इसका नाम सुनना भी दुर्लभ है तो दर्शन दुर्लभ हो, इसमें कहना ही क्या ! जैसे कोई कमल (उत्पल), पद्म या यावत् सहस्रदलकमल कीचड़ में उत्पन्न होने और जल में संवद्धित (बड़ा) होने पर भी पंकरज से लिप्त नहीं होता, न जलकण (जलरज) से लिप्त होता है, इसी प्रकार क्षत्रियकुमार जमालि भी काम में उत्पन्न हमा, भोगों में संवद्धित (बड़ा) हा; किन्तु काम में रचमात्र भी लिप्त (ग्रासक्त) नहीं हया और न ही भोग के अशमात्र से लिप्त (ग्रासक्त) हुआ और न यह मित्र, ज्ञाति, निज-सम्बन्धी, स्वजनसम्बन्धी और परिजनों में लिप्त हुआ है। हे देवानुप्रिय ! यह संसार-(जन्म-मरणरूप) भय से उद्विग्न हो गया है, यह जन्म-मरण (के चक्र) के भय से भयभीत हो चुका है। अतः आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर, अगारवास समंता सुयंधवरकुसुमधुण्ण-उग्विद्धवासरेणुमइलं णमं करते कालागुरु-पवर कुदुरुक्क-तुरुक्क-घूवनिक्हेण जीवलोयं इव वासयंते", समंतओ खुभियचकवालं.", पउरजण-बाल-बुड्डपमुइयतुरियपहावियविउलाउलबोलबहुलं नभं करेंते "त्तियकुडग्गामस्स नयरस्स मज्झमाझेणं।" -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 480-482, प्रौपपातिकसूत्र सू. 31-32, पत्र 68.75 1. 'जाब' पद मूचित पाठ-कुमुदे इ वा नलिणे इ वा सुभगे इ वा सोगंधिए इ वा इत्यादि / -भगवती. अ. वृत्ति पत्र 483 Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 552] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छोड़ कर अनगार धर्म में प्रवजित हो रहा है / इसलिए हम ग्राप देवानुप्रिय को यह शिष्यभिक्षा देते हैं / आप देवानुप्रिय इस शिष्य रूप भिक्षा को स्वीकार करें / विवेचन --दीक्षार्थी जमालिकुमार भगवान के चरणों में सपित--प्रस्तुत दो (77-78) सत्रों में वर्णन कि शिविका द्वारा जमालिकमार के भगवान की सेवा में पहुँचने / पर उसके मातापिता ने भगवान् के चरणों में शिष्य भिक्षा के रूप में समर्पित किया। 1 / 79. तए णं समणे भगवं महावीरे तं जमालि खत्तियकुमारं एवं क्यासी-अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं / [6] इस पर श्रमण भगवान् महावीर ने उस क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा-- "हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु (धर्मकार्य में) विलम्ब मत करो।" 80. लए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुळे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं प्रोमुयइ। [80 भगवान् के ऐसा कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हर्षित और तुष्ट हुआ; तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् वन्दना नमस्कार कर, उत्तर-पूर्वदिशा (ईशानकोण) में गया / वहाँ जा कर उसने स्वयं ही आभूषण, माला और अलंकार उतार दिये / 81. तते णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणं पडसाडएणं आभरण-मल्लालंकारं पडिच्छति, पडिच्छित्ता हार-वारि जाब विणिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी जमालि खत्तियकुमार एवं वयासो-'घडियन्वं जाया !, जइयत्वं जाया !, परक्कमियन्वं जाया!, अस्सि च णं अछे जो पमायेतव्वं' ति कटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा-पियरो समणं भगवं महावीरं वदंति णमंसंति, बंदित्ता णमंसित्ता, जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। 81] तत्पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार की माता ने उन आभूषणों, माला एवं अलंकारों को हंस के चिह्न वाले एक पटशाटक (रेशमी वस्त्र) में ग्रहण कर लिया और फिर हार, जलधारा इत्यादि के समान यावत् प्रांसू गिराती हुई अपने पुत्र से इस प्रकार बोली-हे पूर्व ! संयम में चेष्टा करना, पुत्र ! संयम में यत्न करना; हे पुत्र ! संयम में पराक्रम करना। इस (संयम के विषय में जरा भी प्रमाद न करना / इस प्रकार कह कर क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गए। विवेचन -- भगवान द्वारा दीक्षा की स्वीकृति, माता द्वारा जमालि को संयमप्रेरणा प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 76 से 81 तक) में भ. महावीर द्वारा जमालि की दीक्षा की स्वीकृति के संकेत, 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 1, पृ. 474 2. 'जाव' पद द्वारा सूचित पार -- धारा-सिंदुबार-छिनमुत्तालिपयासाई अंमूणि / -..प्र. वृ. Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] जमालि द्वारा प्राभूषणादि के उतारे जाने तथा माता द्वारा संयम में पुरुषार्थ करने की प्रेरणा का वर्णन किया गया है / ' कठिन पदों के विशेषार्थ-नयणमालासहस्सेहि पिच्छिज्जमाणे-हजारों नेत्रों द्वारा देखा जाता हुमा / संवुड्ढे-संवर्धित हुआ, बड़ा हुआ। पंक-रएणं-कीचड़ के लेशमात्र से / काम-रएणंकामरूप रज से या काम के अंशमात्र से अथवा कामानुराग से / सीसभिक्खं-शिष्यरूप भिक्षा / ओमयइ---उतारता है / घडियव्वं संयम पालन की चेष्टा करना / जइयन्वं--संयम में यत्न करना / परक्कमियन्वं--पराक्रम करना। णो पमायेतव्वं--प्रमाद न करना / विणिम्मुयमाणी-विमोचन करती हुई / भोगेहि---गन्ध-रस-स्पर्शों में / कामेहि शब्दादि रूप कामों में / 82. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता एवं जहा उसभदत्तो (सु. 16) तहेव पव्वइओ, नवरं पंचहिं पुरिससएहि सद्धि तहेव सन्वं जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जेत्ता ब्रहहिं चउत्थ-छट्ठ-ऽट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहि विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / [82] इसके पश्चात् जमालिकुमार ने स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया, फिर श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुआ और ऋषभदत्त ब्राह्मण (सू. 16 में वणित) की तरह भगवान् के पास प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेषता यह है कि जमालि क्षत्रियकुमार ने 500 पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है, यावत् जमालि अनगार ने फिर सामायिक प्रादि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत-से उपवास, बेला (छ8), तेला (अट्ठम), यावत् अर्द्धमास, मासखमण (मासिक) इत्यादि विचित्र तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा। - जमालिकुमार की प्रव्रज्या, अध्ययन और तपस्या जमालिकुमार ने स्वयं लोच किया, भगवान् से अपनी विरक्त दशा निवेदन करके पांच सौ पुरुषों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रव्रज्याग्रहण के बाद जमालि अगनार ने 11 अंगशास्त्रों का अध्ययन तथा अनेक प्रकार का तपश्चरण किया, जिसका उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में है / 4 / 'पंचमुद्वियं' आदि पदों का विशेषार्थ-पंचमुट्टियं - पांचों अंगुलियों की मुट्ठी बांध कर लोच करना पंचमुष्टिक लोच कहलाता है / अप्पाणं भावेमाणे-आत्मभावों में रमण करता हुआ अथवा आत्मचिन्तन-यात्मभावना करता हुया / तवोकम्मेहि-तपःकर्मों से- तपश्चर्याओं से / .. ...... -... 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं [मू. पा. टिप्पण} भा. 1, पृ. 474-475 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 484 3. 'जहा उसमदत्तो' द्वारा सूचित पाठ-तणामेव उवागच्छद, उवागजिछत्ता समणं भगवं महाबोरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, 2 बंबइ नमसइ, बंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित गंभंते ! लोए इत्यादि / --श. 9, उ. 33, सू. 16 4. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 475 Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 1 ( च्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भगवान् को बिना प्राज्ञा के जमालि का पृथक् विहार 83. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समागे पंचहि अणगारसहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। [83] तदनन्तर एक दिन जमालि अनगार श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-भगवन् ! आपकी आज्ञा प्राप्त होने पर मैं पांच सौ अनगारों के साथ इस जनपद से बाहर (अन्य जनपदों में) विहार करना चाहता हूँ। 84. तए णं से समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमढें णो आढाइ, णो परिजाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / [84] यह सुन कर श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार की इस बात (मांग) को आदर (महत्त्व) नहीं दिया, न स्वीकार किया / वे मौन रहे। 85. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पितच्चं पि एवं क्यासी-- इच्छामि गं भंते ! तुब्भेहिं अब्भगुण्णाए समाणे पंचहि अणगारसहिं सद्धि जाव विहरित्तए। [85] तब जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर से दूसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा --भंते ! आपकी आज्ञा मिल जाए तो मैं पांच सौ अनगारों के साथ अन्य जनपदों में विहार करना चाहता हूँ। 86. तए गं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि तच्च पि एयमढ़णो आढाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / [86] जमालि अनगार के दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कहने पर श्रमण भगवान् महावीर ने इस बात का आदर नहीं किया, यावत् वे मौन रहे / 87. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पंचहि अणगारसहिं सद्धि बहिया जणयविहारं विहर। [7] तब (ऐसी स्थिति में) जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया और फिर उनके पास से बहुशालक उद्यान से निकला और फिर वह पांच सौ अनगारों के साथ बाहर के (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगा। विवेचन--गुरु-आज्ञा विना जमालि अनगार का विचरण—प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 83 से 87 तक) के वर्णन से प्रतीत होता है कि जमालि अनगार द्वारा पांच-सौ अनगारों को लेकर सर्वत्र विचरण को महत्त्वाकांक्षा एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान् द्वारा उसके स्वतन्त्र विचरण के पीछे अहंकार, महत्त्वाकांक्षा एवं अधैर्य के प्रादुर्भाव होने की और भविष्य में देव-गुरु आदि के विरोधी वन जाने की Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] संभावना देख कर स्वतन्त्र विहार की अनुज्ञा नहीं दी गई। किन्तु इस बात की अवहेलना करके जमालि अनगार भगवान् महावीर से पृथक् विहार करने लगे।' विशेषार्थ---बहिया जणवयविहारं-बाहर के जनपदों में विहार / णो आढाइ-आदर (महत्त्व) नहीं किया / णो परिजागाइ- अच्छा नहीं जाना या स्वीकार नहीं किया 1 तुसिणीए संचिट्ठइ -- मौन रहे / अंतियाओ - पास से / सद्धि-साथ / जमालि अनगार का श्रावस्ती में और भगवान का चंपा में विहरण 88. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम गयरी होत्था। वण्णओ। कोटुए चेइए। वण्णओ। जाव वणसंडस्स। [88J उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (जान लेना चाहिए) वहाँ कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका भी वर्णन, यावत् वनखण्ड तक (जान लेना चाहिए)। 89. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नबरी होत्था। वणओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णश्रो / जाव पुढविसिलावट्टयो / [6] उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसका वर्णन (प्रोपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए / ) वहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था। उसका वर्णन (समझ लेना चाहिए) यावत् उसमें पृथ्वीशिलापट्ट था। 90. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिबुडे पुवाणुपुचि चरभाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव कोट्टए चेइए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उरिगाहति, अहापडिरूवं उम्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर। [6] एक वार वह जमालि अनगार, पांच सौ अनगारों के साथ संपरिवृत होकर अनुक्रम से विचरण करता हया और ग्रामानुग्राम विहार करता हा श्रावस्ती नगरी में जहाँ कोष्ठक उद्यान था, वहाँ आया और मुनियों के कल्प के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप के द्वारा प्रात्मा को भावित करता हुमा विचरण करने लगा। ___ 91. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पुग्वाणुपुयि चरमाणे जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छद; तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिएहति, अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / [11] उधर श्रमण भगवान् महावीर भी एक बार अनुक्रम से विचरण करते हुए, यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पानगरी थी और पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे; तथा 1. 'भाविदोषत्वेनोपेक्षणीयत्वादस्येति / ' -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486, (ख) भगवती. भा. 4 (10 घेवरचन्दजी), पृ. 1753 3. देखो "उववाइअसतं' में नगरी और पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन। ---उव. पत्र 1-1 और 4-2 Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रमणों के अनुरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे थे। विवेचन-श्रावस्ती में जमालि और चम्पा में भगवान महावीर-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 88 से 61 तक) में जमालि का भगवान् महावीर से पृथक् विहार करके श्रावस्ती में पहुँचने का तथा भगवान् महावीर का चम्पा में पधारने का वर्णन है / ' विशेषार्थ-प्रहापडिरूवं-मुनियों के कल्प के अनुरूप / उग्गह-अवग्रह- यथापर्याप्त आवास स्थान तथा पट्ट-चौकी आदि की याचना करके ग्रहण करना / जमालि अनगार के शरीर में रोगातंक को उत्पत्ति 92. लए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहि अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पतेहि य लहेहि य तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइक्कतेहि य सीतएहि य पाण-भोयणेहि अन्नया कयाइ सरीरगंसि विउले रोगातके पाउन्भूए-उज्जले तिउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे, पित्तज्जरपरिगतसरीरे दाहवक्कतिए यावि विहरइ। [12] उस समय जमालि अनगार को अरस, विरस, अन्त, प्रान्त, रूक्ष और तुच्छ तथा कालातिक्रान्त और प्रमाणातिकान्त एवं ठंडे पान (पेय पदार्थो) और भोजनों (भोज्य पदार्थो) (के सेवन) से एक बार शरीर में विपुल रोगातंक उत्पन्न हो गया / वह रोग उज्ज्वल. विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःख रूप, दुर्ग (कष्टसाध्य), तीव्र और दुःसह था। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त होने के कारण दाह से युक्त हो रहा था। विवेचन-जमालि, महारोगपीड़ित-जमालि अनगार को रूक्ष, अन्त, प्रान्त, नीरस आदि प्रतिकल माहार-पानी करने के कारण महारोग उत्पन्न हो गया, जिसके फलस्वरूप उसके सारे शरीर में जलन एवं दाहज्वर के कारण असह्य पीड़ा हो उठी। कठिन शब्दों का भावार्थ-अरसेहि-हींग आदि के बघार विना का, विना रसवाले बेस्वाद / विरसेहि-पुराने होने से खराब रस वाले--विकृत रस वाले। अन्तेहिं अरस होने से सब धान्यों से रट्टी (अन्तिम) धान्य-वाल, चने आदि। पंतेहि-बचा-खचा बासी आहार / लहेहि = रूक्ष / तुच्छेहि-थोड़े-से, या हल्की किस्म के / कालाइक्कतेहिः दो अर्थ-जिसका काल व्यतीत हो चुका हो ऐसा आहार, अथवा भूख-प्यास का समय बीत जाने पर किया गया आहार / पमाणाइक्कतेहि-भूखप्यास की मात्रा के अनुपात में जो आहार न हो। सीतएहि ठंडा पाहार। विउले--विपुल समस्त शरीर में व्याप्त / पाउन्भूए-उत्पन्न हुआ / रोगातके--रोग--व्याधि और आतंक-पीडाकारी या उपद्रव / उज्जले-उत्कट ज्वलन-(दाह) कारक, या स्पष्ट / पगाढे-तीव या प्रबल / कक्कसेकठोर या अनिष्टकारी / चंडे --रौद्र-भयंकर / दुक्खे--दुःखरूप / दुग्गे-कष्टसाध्य / दुरहियासे--- 1. वियाहपण्णत्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा० 1, पृ० 476 2 भगवती सुत्र, तृतीय खण्ड (पं० भगवानदास दोशी), पृ० 179 3. वियाहपश्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 476 Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [557 दुस्सह / पित्तज्जरपरिगयसरीरे-पित्तज्वर से व्याप्त शरीर वाला। दाहवक्कतिए-दाह (जलन) उत्पन्न हुअा।' रुग्ण जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध-स्फुरणा और प्ररूपणा 93. तए णं से जमाली प्रणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिगंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगं संथरेह / 63] वेदना से पीड़ित जमालि अनगार ने तब (अपने साथी) श्रमण-निर्गन्थों को बुला कर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! मेरे सोने (शयन) के लिए तुम संस्तारक (बिछौना) बिछा दो। 94. तए णं ते समणा जिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमझें विणएणं पडिसुति, पडिसुणेता जमालिस्स अणगारस्त सेज्जासंथारगं संथरेंति / [4] तब श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अन गार को यह बात विनय-पूर्वक स्वीकार की और जमालि अनगार के लिए बिछौना बिछाने लगे। 95. तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोच्चं पि समणे निमाथे सद्दावेइ, सहावित्ता दोच्चं पि एवं वयासी ममं देवाणुप्पिया ! सेज्जासंथारए कि कडे ? कज्जा ? तए ण ते समणा निग्गंथा जमालि अणगारं एवं वयासी-जो खलु देवाणुपियाणं सेज्जासंथारए कडे, कज्जति। [65] किन्तु जमालि अनगार प्रबलतर वेदना से पीडित थे, इसलिए उन्होंने दुबारा फिर श्रमण-निर्गन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार पूछा--देवानप्रियो ! क्या मेरे सोने के लिए संस्तारक (बिछौना) बिछा दिया या बिछा रहे हो? इसके उत्तर में श्रमण-निर्गन्थों ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय के सोने के लिए बिछौना (अभी तक) बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है। 96. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-जं णं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीरिज्जमाणे उदीरिए जाव निजरिज्जमाणे णिज्जिणे' तं णं मिच्छा, इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे, संश्ररिज्जमाणे असंथरिए, जम्हा गं सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिज्जमाणे असंथरिए तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अणिज्जिणे / एवं संपेहेइ; एवं संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ; समणे निग्गंथे सद्दावेत्ता एवं बयासी-जं णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ--एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सव्वं जाव णिज्जरिज्जमाणे अणिज्जिण्णे। [96] श्रमणों को यह बात सुनने पर जमालि अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय (निश्चयात्मक विचार) यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 486 Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558] [व्याख्याप्रशप्तिसून प्ररूपणा करते हैं कि चलमान चलित है, उदीर्यमाण उदीरित है, यावत् निर्जीयमाण निर्जीर्ण है, यह कथन मिथ्या है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष दीख रहा है कि जब तक शय्या-संस्तारक बिछाया जा रहा है, तब तक वह बिछाया गया नहीं है, (अर्थात्-) बिछौना जब तक 'बिछाया जा रहा हो', तब तक वह 'बिछाया गया' नहीं है / इस कारण 'चलमान' 'चलित' नहीं, किन्तु 'प्रचलित' है, यावत् 'निर्जीर्यमाण' ीिर्ण' नहीं, किन्तु 'अनिर्जीणं' है। इस प्रकार विचार कर श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'चलमान' 'चलित' (कहलाता) है; (इत्यादि पूर्ववत् सब कथन करना) यावत् (वस्तुतः) निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं, किन्तु अनिर्जीर्ण है। विवेचन--जमालि को शय्यासंस्तारक के निमित्त से सिद्धान्त-विरुद्ध स्फुरणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 63 से 16 तक) में निरूपण है कि प्रबलवेदनाग्रस्त जमालि अनगार के आदेश पर श्रमण बिछौना बिछाने लगे / अभी बिछाने का कार्य समाप्त नहीं हुआ था, तभी जमालि के पुनः पूछने पर उन्हें कहा कि बिछौना बिछा नहीं, बिछाया जा रहा है, इस पर से जमालि को सिद्धान्त-विरुद्ध एकान्त कि भगवान महावीर का 'चलमान' को 'चलित' कहने का सिद्धान्त मिथ्या है; मेरा सिद्धान्त यथार्थ है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष है कि जो बिछौना बिछाया जा रहा है, उसे 'बिछाया गया नहीं कहा जा सकता है।' विशेषार्थ- बलियतरं वेयणाए अभिभूए--प्रबलतर वेदना से अभिभूत / सेज्जासंथारगं-शयन के लिए संस्तारक (बिछौना) / कज्जमाणे अकडे-जो क्रियमाण है, वह कृत नहीं। संथरिज्जमाणे असंथरिए-बिछाया जारहा है, वह बिछाया गया नहीं है / कुछ श्रमणों द्वारा जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार, कुछ के द्वारा अस्वीकार 97. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमट्ठ सद्दहंति पत्तियंति रोयंति / अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमढें णो सद्दहति णो पत्तियंति णो रोयंति / तत्थ णं जे ते समणा निगंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमझें सद्दहति पत्तियंति रोयंति ते णं जमालि चेव अणगारं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति / तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमझें णो सद्दहंति णो पत्तियंति णो रोयंति ते णं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुचि चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव चंपानयरी जेणेव पुष्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता वंदंति, णमंसंति 2 समणं भगवं महावोरं उवसंपज्जित्ताणं विहरति / [17] जमालि अनगार द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर यावत् प्ररूपणा किये जाने पर कई श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि को तथा कितने ही श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की। उनमें से जिन श्रमण-निर्गन्थों ने जमालि अनगार 1. वियाहपण्णत्ति. भा. 1, मू. पा. टि., पृ. 477 2. भगवती. अ. वत्ति, पब 486-487 Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] की इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि की, वे जमालि अनगार को प्राश्रय करके (निश्राय में) विचरण करने लगे और जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, वे जमालि अनगार के पास से, कोष्ठक उद्यान से निकल गए और अनुक्रम से विचरते हुए एवं नामानुग्राम विहार करते हुए, चम्पा नगरी के बाहर जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पहुँचे / उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दनानमस्कार करके वे भगवान् का आश्रय (निश्राय) स्वीकार कर विचरने लगे। विवेचन-जमालि के सिद्धान्त का स्वीकार : अस्वीकार-प्रस्तुत सूत्र 18 में बताया गया है कि जमालि की जिनवचन विरुद्ध प्ररूपणा पर जिन साधुओं ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की, वे उसके पास रहे और जिन साधुनों ने जमालि-प्रतिपादित सिद्धान्त पर श्रद्धा न की, वे वहाँ में विहार करके भगवान् की सेवा में लौट गए। 'चलमान चलित': भगवान का सिद्धान्त है इसका सयुक्तिक विवेचन भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में कर दिया गया है / जमालि अनगार ने इस सिद्धान्त के विरुद्ध एकान्तदृष्टि से प्ररूपणा की, इसलिए यह सिद्धान्त अयथार्थ है। इसका विशेष विवेचन विशेषावश्यकभाष्य विशेषार्थ-चलमाणे चलिए-'जो चल रहा हो, वह 'चला।' उवसंपज्जित्ताणं-आश्रय करके (निश्राय में)। अत्थेगइया--कोई-कोई-कितने ही। जमालि द्वारा सर्वज्ञता का मिथ्या दावा 98. तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विष्पमुक्के हो जाए अरोए बलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोयाओ चेइयाओ पडिनिवखमइ, पडिनिमित्ता पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं क्यासी-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था भवेत्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवरकंता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कते, अहं णं उत्पन्नणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते। [18] तदनन्तर किसी समय जमालि अनगार उस (पूर्वोक्त) रोगातंक से मुक्त और हृष्ट (पुष्ट) हो गया, तथा नीरोग और बलवान् शरीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, उनके 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा० 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ० 478 2. (क) भगवतीसूत्र प्रथमखण्ड, श० 1, (युवाचार्य श्री मधुकरमुनि), पृ.१६-१७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, निह्नववाद (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 487-488 3. भगवती० भा० 4 (पं० घेवरचन्दजी), पृ० 1757 Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पास पाया / बह भगवान् महावीर से न तो अत्यन्त दूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर भगवान् से इस प्रकार कहने लगा--जिस प्रकार प्राप देवानुप्रिय के बहुत-से शिष्य छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में ही (गुरुकुल से) निकल कर विचरण करते हैं, उस प्रकार मैं छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में निकल कर विचरण नहीं करता; मैं उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन को धारण करने वाला अर्हत्, जिन, केवली हो कर केवली-(अवस्था में निकल कर केवली-) विहार से विचरण कर रहा हूँ, अर्थात् मैं केवली हो गया हूँ। विवेचन केवलज्ञानी होने का झूठा दावा--प्रस्तुत सू. 68 में यह निरूपण किया गया है कि जमालि अनगार स्वस्थ एवं सशक्त होने पर श्रावस्ती से भगवान् के पास चंपा पहुँचा और उनके समक्ष अपने आपको केवलज्ञान प्राप्त होने का दावा करने लगा।' कठिन शब्दों का भावार्थ - हट हृष्टपुष्ट / बलियसरीरे- शरीर से बलिष्ठ / छउमत्थाबक्कमणेणं अवक्कंते - छमस्थ - असर्वज्ञ रूप से अपक्रमण (अर्थात् गुरुकुल से निकल कर विचरण करते हैं / केवलिप्रवक्कमणेणं अवक्कते-सर्वज्ञ (केवली) रूप से अपक्रमण करके विचर रहा हूँ।* गौतम के दो प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ जमालि का भगवान द्वारा सैद्धान्तिक समाधान--- ___ 99. तए णं भगवं गोयमे जमालि अणणारं एवं क्यासि-जो खलु जमालो! केवलिस्स गाणे वा दसणे वा सेलसि वा थंभंसि वा थभंसि वा आवरिज्जइ वा णिवारिज्जइ वा / जइ णं तुमं जमाली! उप्पन्नणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते तो णं इमाइं दो वागरणाई वागरेहि, 'सासए लोए जमाली! असासए लोए जमाली ! ? सासए जीवे जमाली ! असासए जीवे जमाली! ? [16] इस पर भगवान् गौतम ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा-हे जमालि ! केवली का ज्ञान या दर्शन पर्वत (शैल), स्तम्भ अथवा स्तुप (आदि) से अवरुद्ध नहीं होता और न इनसे रोका जा सकता है। तो हे जमालि ! यदि तुम उत्पन्न - केवलज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत, जिन और केवली हो कर केवली रूप से अपक्रमण (गुरुकुल से निर्गमन) करके विचरण कर रहे हो तो इन दो प्रश्नों का उत्तर दो-(१) जमालि ! लोक शाश्वत है या अशाश्वत है? एवं (2) जमालि! जीव शाश्वत है अथवा अशाश्वत है ? 100. लए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था, यो संचाएति भगवओ गोयमस्स किचि वि पमोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीए संचिट्ठइ। 1, वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 1 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 478 2. (क) भगवती, भा. 4 (पं वेवरचन्दजी), प्र. 1759 (ख) छउमत्थावक्कमणेणं ति-छद्मस्थानां सतामपक्रमणं-- गुरुकुलान्निर्गमन छदमस्थापक्रमणं तेन / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 488 Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक 33] [561 [100] भगवान् गौतम द्वारा इस प्रकार (दो प्रश्नों के) जमालि अनगार से कहे जाने पर वह (जमालि) शंकित एवं कांक्षित हुआ, यावत् कलुषित परिणाम बाला हुआ / वह भगवान् गौतमस्वामी को (इन दो प्रश्नों का) किञ्चित् भी उत्तर देने में समर्थ न हुअा / (फलतः) वह मौन होकर चुपचाप खड़ा रहा / 101. 'जमाली' ति समणे भगवं महावीरे जमालि अणगारं एवं वयासी-अस्थि णं जमाली ! ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था जे णं पभू एवं बागरणं वागरित्तए जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुमं / सासए लोए जमाली ! जंणं कयादि णासि ण, कयावि ण भवति ण, न कदावि ण भविस्सइ; भुवि च, भवइ य, भविस्सइ य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवढिए णिच्चे / असासए लोए जमाली! जओ ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भक्त्तिा ओसप्पिणी भवइ / सासए जीवे जमाली! जंणं न कयाइ णासि जाव णिच्चे / असासए जीवे जमाली ! जंण नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भक्त्तिा देवे भवइ। [101] (तत्पश्चात) श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगार को सम्बोधित करके यों कहा-जमालि ! मेरे बहुत-से श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तेवासी (शिष्य) छद्मस्थ (असर्वज्ञ) हैं जो इन प्रश्नों का उत्तर देने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जिस प्रकार मैं हूँ, फिर भी (जिस प्रकार तुम अपने आपको सर्वज्ञ अर्हत जिन और केवली कहते हो ;) इस प्रकार की भाषा वे नहीं बोलते / जमालि ! लोक शाश्वत है, क्योंकि यह कभी नहीं था, ऐसा नहीं है; कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और कभी न रहेगा, ऐसा भी नहीं है; किन्तु लोक था, है और रहेगा / यह ध्र व, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय अवस्थित और नित्य है। (इसी प्रकार) हे जमालि ! (दुसरी अपेक्षा से) लोक अशाश्वत (भी) है, क्योंकि अवपिणी काल होकर उत्सपिणी काल होता है, फिर उत्सपिणी काल (व्यतीत) होकर अवसर्पिणी काल होता है। हे जमालि ! जीव शाश्वत है; क्योंकि जीव कभी (किसी समय) नहीं था, ऐसा नहीं है ; कभी नहीं है , ऐसा नहीं और कभी नहीं रहेगा. ऐसा भी नहीं है; इत्यादि यावत् जीव नित्य है। (इसी प्रकार) हे जमालि ! (किसी अपेक्षा से) जीव अशाश्वत (भी) है, क्योंकि वह नै रयिक होकर तिर्यञ्चयोनिक हो जाता है, तिर्यञ्च योनिक होकर मनुष्य हो जाता है और (कदाचित्) मनुष्य हो कर देव हो जाता है। विवेचन-गौतम द्वारा प्रस्तुत दो प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ-जमालि का भगवान् समाधान-प्रस्तत सत्रों में यह प्रतिपादन किया गया है कि जमालि नगार के सर्वज्ञता के दावे को असत्य सिद्ध करने हेत गौतमस्वामी केवलज्ञान का स्वरूप बताकर दो प्रश्न प्रस्तुत करते हैं। जिसका उत्तर न देकर जमालि मौन हो जाता है। फिर भ. महावीर उसे सर्वज्ञता का झूठा दावा न करने के लिए समझाकर उसे लोक और जीव की शाश्वतता-अशाश्वतता समझाते हैं।' 1. वियाहपणत्तिसुत्तं भा. 1 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 479 Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भगवान् ने लोक को कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत बताया है, इसी प्रकार जीव को भी कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत सिद्ध किया है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-कलुससमावन्ने कालुष्य से युक्त / सेलसि-शैल-पर्वत से / थूभंसि--स्तूप से / आवरिज्जइ-आवृत होता है / णिवारिज्जइ-रोका जाता है / वागरणाई वागरेहि-व्याकरणों----प्रश्नों का व्याकरण - समाधान या उत्तर दो। णो संचाएति-समर्थ नहीं होता / पमोक्ख-उत्तर या समाधान / एयप्पगारं—इस प्रकार की / अव्वए-अव्यय / अवट्ठिए--- अवस्थित 2 मिथ्यात्वग्रस्त जमालि को विराधकता का फल 102. तए णं से जमाली अणगारे समस्स भगवओ महावीरस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमट्ठ णो सद्दहइ णो पत्तियइ णो रोएइ, एयमझें असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ, दोच्चं पि आयाए अवक्कमित्ता बहूहि असम्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसे हि य अपाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे बहूई वासाइं सामग्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेइ, अ० भूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमठितीएसु देवकिब्बिसिएसु देवेसु देवकिबिसियत्ताए उववन्ने। [102] श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा जमालि अनगार को इस प्रकार कहे जाने पर, यावत् प्ररूपित करने पर भी उसने (जमालि ने) इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की और श्रमण भगवान महावीर की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ जमालि अनगार दूसरी बार भी स्वयं भगवान् के पास से चला गया / इस प्रकार भगवान् से स्वयं पृथक् विचरण करके जमालि ने बहुत-से असद्भूत भावों को प्रकट करके तथा मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (हठाग्रहों) से अपनी आत्मा को, पर को तथा उभय (दोनों) को भ्रान्त (गुमराह) करते हुए एवं मिथ्याज्ञानयुक्त करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन किया। अन्त में अर्द्धमास (15 दिन) की संलेखना द्वारा अपने शरीर को कृश करके तथा अनशन द्वारा तीस भक्तों का छेदन (त्याग) करके, उस स्थान (पूर्वोक्त मिथ्यात्वगत पाप) की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय में काल (मृत्यु प्राप्त) करके लान्तक कल्प (देवलोक) में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देवरूप में उत्पन्न हुना। विवेचन-भगवदवचनों पर अश्रद्धालु मिथ्यात्वग्रस्त जमालि की मति-गति - प्रस्तुत सू. 102 में प्रतिपादन किया गया है कि भगवान् महावीर द्वारा सद्भावनावश समझाने एवं सत्सिद्धान्त बताने पर भी जमालि मिथ्यात्वग्रस्त होने के कारण मिथ्या प्ररूपणा करने लगा, उसने जनता 1. पियापण्णत्तिसुत्तं मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 479 2. भगवतीसूत्रम् तृतीय खण्ड (पं भगवानदास दोशी), 181 Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] [563 को अज्ञान के अन्धेरे में धकेला / फलतः अन्तिम समय में उक्त पाप का पालोचन-प्रतिक्रमण न करने से मर कर लान्तक कल्प में किल्विषी देव हुआ।' कठिन शब्दों का भावार्थ- आयाए-अपने आप, स्वयमेव / अवक्कमइ-चला गया / असम्भावभावणाहि असद्भावों की उद्भावनाओं से--प्रकट करने से / मिच्छत्ताभिणिवेसेहिमिथ्यात्व के अभिनिवेशों से (असत्य के दृढ़ हठाग्रह से) वुग्गाहेमाणे-भ्रान्त (गुमराह) करता हुआ या सिद्धान्तविरुद्ध हटाग्रह युक्त करता हुआ। चुप्पाएमाणे--विरुद्ध (मिथ्या) ज्ञानयुक्त या दुर्विदाध करता हुआ / अणालोइय-पडिक्कते -- आलोचना और प्रतिक्रमण नहीं करने से अताणं असेइ---अपने शरीर को झोंक दिया। तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता- अनशन से तीस वार के भोजन का छेदन करते (भोजन से सम्बन्ध काटते हुए)।... किल्विषिक देवों में उत्पत्ति का भगवत्समाधान-- 103. तए णं से भगवं गोयमे जमालि अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी कुसिस्से जमाली णामं अणगारे, सेणं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उववन्ने ? 'गोयमा' दिसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी--एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी कुसिस्से जमालो नाम अणगारे से णं तदा मम एवं आइक्खमाणस्स 4 एयमढं णो सद्दहइ गो पत्तियइ णो रोएइ, एयम→ असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे दोच्च पि मम अंतियाओ पायाए अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहि असम्भावुभावाहि तं चेव जाव देवकिब्बिसियत्ताए उववन्ने। [103) तदनन्तर जमालि अनगार को कालधर्म प्राप्त हुअा जान कर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर के पास आए और भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-[प्र०] भगवन् ! यह निश्चित है कि जमालि अनगार आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य था / भगवन् ! वह जमालि अनगार काल के समय काल करके कहाँ गया है, कहाँ उत्पन्न हुआ है ? [उ०] हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् / वामी से इस प्रकार कहा गौतम ! मेरा अन्तेवासी जमालि नामक अनगार वास्तव में कृशिष्य था / उस समय मेरे द्वारा (ससिद्धान्त) कहे जाने पर यावत् प्ररूपित किये जाने पर उसने मेरे कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की थी। उस (पूर्वोक्त) कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करता हया दूसरी बार भी वह अपने आप मेरे पास से चला गया और बहुत-से असद्भावों के प्रकट करने से, इत्यादि पूर्वोक्त कारणों से यावत् वह काल के समय काल करके किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न हुमा है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 479 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 489 (ख) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1762 Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564]] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-जमालि की गति के विषय में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सू. 103 में जमालि अनगार को मृत्यु के बाद गौतमस्वामी के द्वारा उसकी उत्पत्ति और गति के विषय में पूछे जाने पर भगवान् ने उसका समाधान किया है। सिद्धान्त-निष्कर्ष--इस पाठ से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि कोई साधक चाहे जितनी ऊँची क्रिया करे, कठोर चारित्रपालन करे, किन्तु यदि उसकी दृष्टि एवं मति मिथ्यात्वग्रस्त हो गई है, अज्ञानतिमिर से व्याप्त है, मिथ्याभिनिवेशवश वह मिथ्यासिद्धान्त को पकड़े हुए है, सरलता और जिज्ञासापूर्वक समाधान पाने की रुचि उसमें नहीं है, तो वह देवलोक में जाने पर भी निम्नकोटि का देव बनता है और संसारपरिभ्रमण करता है।' किल्विषिक देवों के भेद, स्थान एवं उत्पत्तिकारण 104. कतिविहा गं भंते ! देवकिदिबसिया पण्णत्ता? गोयमा! तिबिहा देवकि बिसिया पण्णत्ता, तं जहा--तिपलिओवमट्टिईया, तिसागरोवमट्ठिईया, तेरससागरोवमट्टिईया। [104 प्र.] भगवन् ! किल्बिषिक देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [104 उ. गौतम ! किल्विषिक देव तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) तीन पल्योपम की स्थिति वाले, (2) तीन सागरोपम की स्थिति वाले और (3) तेरह सागरोपम की स्थिति वाले। 105. कहि णं भंते ! तिपलिग्रोवमद्वितीया देवकिदिबसिया परिवसंति ? गोयमा ! उपि जोइसियाणं, हिट्टि सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु, एत्थ गं तिपलिग्रोवट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति / [105 प्र.] भगवन् ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले कित्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? [105 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के ऊपर और सौधर्म-ईशान कल्पों (देवलोकों) के नीचे तीन पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। 106. कहि णं भंते ! तिसागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति ? गोयमा! उपि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, हिट्टि सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु, एत्य गं तिसागरोवमट्टिईया देवकिब्बिसिया परिवसंति / / 106 प्र.) भगवन् ! तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव कहाँ रहते हैं ? / 106 उ. गौतम! सौधर्म और ईशान कल्पों के ऊपर तथा सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के नीचे तीन सागरोपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। 107. कहि णं भंते ! तेरससागरोवमदुिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उष्पि बंभलोगस्स कप्पस्स, हिटि लंतए कप्पे, एत्थ णं तेरससागरोवदिईया देवकिब्बिसिया देवा परिवसंति / - - - - - - -- --- 1. वियाहाण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ. 480 Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेव शतक : उद्देशक-३३1 [107 प्र.] भगवन् ! तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहाँ रहते हैं ? [107 उ.] गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर तथा लान्तक कल्प के नीचे तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देव: 108. देवकिब्बिसिया णं भंते ! केसु कम्मादाणेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति ? गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपतिणीया, संघपडिणीया, प्रायरिय-उवभायाणं अयसकरा अवष्णकरा अकित्तिकरा बहिं असम्भावभावाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं च परं च उभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिब्बिसिएसु देवकिब्बिसियत्ताए उववत्तारो भवंति; तं जहा-तिपलिओवमष्ट्रितीएसु वा तिसागरोवमद्वितीएसु वा तेरससागरोवमट्टितीएसु वा / [108 प्र.] भगवन् ! किन कर्मों के आदान (ग्रहण या निमित्त) से किल्विषिक देव, किल्विषिक देव के रूप में उत्पन्न होते हैं ? [108 उ.] गौतम ! जो जीव प्राचार्य के प्रत्यनीक (द्वषी या विरोधी) होते हैं, उपाध्याय के प्रत्यनीक होते हैं, कुल, गण और संघ के प्रत्यनीक होते हैं तथा आचार्य और उपाध्याय का अयश (अपयश) करने वाले, अवर्णवाद बोलने वाले और अकीर्ति करने वाले हैं तथा बहुत से असत्य भावों (विचारों या पदार्थों) को प्रकट करने से, मिथ्यात्व के अभिनिवेशों (कदाग्रहों) से, अपनी आत्मा को, दूसरों को और स्व-पर दोनों को भ्रान्त और दुर्बोध करने वाले बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके उस अकार्य (पाप)-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना काल के समय काल करके निम्तोक्त तीन में (से) किन्हीं किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव रूप में उत्पन्न होते हैं। जैसे कि-(१) तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, (2) तीन सागरोपम की स्थिति वालों में अथवा (3) तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में / 109. देवकिबिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववज्जति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवभवम्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिझति बुज्झति जाव अंतं करेंति / अत्थेगइया अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियति / [106 प्र.] भगवन् ! किल्विषिक देव उन देवलोकों से आयु का क्षय होने पर, भवक्षय होने पर और स्थिति का क्षय होने के बाद व्यवकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? . [106 उ.] गौतम ! कुछ किल्विषिक देव, नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के चार-पांच भव करके और इतना संसार-परिभ्रमण करके तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध - मुक्त होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं और कितने ही किल्विषिक देव अनादि, अनन्त और दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार (संसार रूपी अटवी) में परिभ्रमण करते हैं। Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লিয়ামসুল विवेचन-किल्विषिक देव : प्रकार, निवास एवं उत्पत्तिकारण प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 104 से 106 तक) में किल्विषिक देवों के प्रकार, उनके निवासस्थान और उनके किल्विषिक रूप में उत्पन्न होने के कारण बताए गए हैं / अन्त में किल्विषिक देवों की अनन्तर गति का निरूपण किया गया है। __कठिन शब्दों का अर्थ-उप्पि---ऊपर, हिदि-नीचे। पडिणीया-प्रत्यनीक--- शत्रु या विद्वषी / अवण्णकरा-निन्दा करने वाले / अणुपरिट्टित्ता-परिभ्रमण करके / दीहमद्ध-दीर्घमार्ग रूप / चाउरंतसंसारकंतार-चार गतियों वाले संसाररूप महारण्य को। अणवदागं-अनन्त / कम्मादाणेसु-कर्मों के आदान = कारण से / उववत्तारो-उत्पन्न होते हैं / किल्विषिक देव : स्वरूप और गतिविषयक समाधान-किल्विषिक देव उन्हें कहते हैं, जो पाप के कारण देवों में चाण्डालकोटि के देव होते हैं / वे देवसभा में चाण्डाल की तरह अपमानित होते हैं / देवसभा में जब कुछ बोलने के लिए मुह खोलते हैं तो महद्धिक देव उन्हें अपमानित करके बिठा देते हैं, बोलने नहीं देते / कोई देव उनका आदर-सत्कार नहीं करता। सु. 106 में जो यह कहा गया है कि किल्विषिक देव, नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव के 4-5 भव ग्रहण करके मोक्ष जाते हैं, यह सामान्य कथन है। वस्तुतः देव और नारक भर कर तुरन्त देव और नारक नहीं होते / वे वहाँ से मनुष्य या लिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं, इसके पश्चात् देवों या नारकों में उत्पन्न हो सकते हैं। किल्विषिक देवों में जमालि की उत्पत्ति का कारण 110. जमाली गं भंते ! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लहाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीवी उबसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी? हता, गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी / [110 प्र.] भगवन् ! क्या जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, रूक्षाहारी, तुच्छाहारी, अरसजीवी, विरसजीवी यावत् तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी और विविक्तजीवी था ? [110 उ०] हाँ, गौतम ! जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था / 111. जति णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली प्रणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोबमहितीएसु देवकिब्बिसिएसु देवेसु देवकिब्बिसियत्ताए उववन्ने ? 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 480-481 2. भगवती. (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4. पृ. 1765-1766 3. वही, भा. 4, पृ. 1768 Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३३ ] [ 567 गोयमा ! जमाली गं अणगारे प्रायरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए जाव बुग्गाहेमाणे दुप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति, तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव उववन्ने / [111 प्र. भगवन् ! यदि जमालि अनगार अरसाहारी, विरसाहारी यावत् विविक्तजीवी था, तो काल के समय काल करके वह लान्तककल्प में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में क्यों उत्पन्न हया ? [111 उ.] गौतम ! जमालि अनगार प्राचार्य का प्रत्यनीक (द्वषी), उपाध्याय का प्रत्यनीक तथा प्राचार्य और उपाध्याय का अपयश करने वाला और उनका अवर्णवाद करने वाला था, यावत् वह मिथ्याभिनिवेश द्वारा अपने आपको, दूसरों को और उभय को भ्रान्ति में डालने वाला और दुर्विदग्ध (मिथ्याज्ञान के अहंकार वाला) बनाने वाला था, यावत् बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिक संलेखना से शरीर को कृश करके तथा तीस भक्त का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) कर उस अकृत्यस्थान (पाप) की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही, उसने काल के समय काल किया, जिससे वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्बिषिक देवरूप में उत्पन्न हुआ। विवेचन-स्वादजयी अनगार किल्विषिक देव क्यों ? -- प्रस्तुत दो सूत्रों (110-111) में श्री गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर कि जमालि जैसा स्वादजयी, प्रशान्तात्मा एवं तपस्वी अनगार लान्तककल्प में किल्विषिक देवों में क्यों उत्पन्न हया? भगवान् ने उस पावृत रहस्य को र पष्टरूप से खोल कर रख दिया है कि इतना त्यागी, तपस्वी होने पर भी देव-गुरु का द्वषी, मिथ्याप्ररूपक एवं मिथ्यात्वग्रस्त होने से किल्विषिकदेव हुआ / ' कठिन शब्दों का विशेषार्थ--- उपसंतजीवी- जिसके जीवन में कषाय उपशान्त हो या अन्तर्वति से शान्त / पसंतजीवी-बहिर्वत्ति से प्रशान्त जीवन वाला। विवित्तजीवो-पवित्र और स्त्री-पशु-नपुसकसंसर्गरहित एकान्त जीवन वाला।' जमाली का भविष्य - 112. जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोयाओ पाउक्खएणं जाव कहि उवजिहिति ? गोयमा ! जाव पंच तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता ततो पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥जमाली समतो // 9.33 // 1. वियापण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 1, पृ० 481 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 490 Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [112 प्र.] भगवन् ! वह जमालि देव उस देवलोक से आयु क्षय होने पर यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? [112 उ.] गौतम ! तिर्यञ्च योनिक, मनुष्य और देव के पांच भव ग्रहण करके और इतना संसार-परिभ्रमण करके तत्पश्चात् वह सिद्ध होगा, बुद्ध होगा यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन--जमालि को परम्परा से सिद्धिगति-प्राप्ति- प्रस्तुत सु. 112 में जमालि के भविष्य के विषय में पूछे जाने पर भगवान् ने भविष्य में तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के 5 भव ग्रहण करने के पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का कथन किया है।' शंका-समाधान-यहाँ शंका उपस्थित होती है कि भगवान् सर्वज्ञ थे और जमालि के भविष्य में प्रत्यनीक होने की घटना को जानते थे, फिर भी उसे क्यों प्रवजित किया? इसका समाधान वत्तिकार इस प्रकार करते हैं-अवश्यम्भावी भवितव्य को महापुरुष भी टाल नहीं सकते अथवा इसी प्रकार ही उन्होंने गुणविशेष देखा होगा। अर्हन्त भगवान् अमूढलक्षी होने से किसी भी क्रिया में निष्प्रयोजन प्रवृत्त नहीं होते। // नवम शतक : तेतीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // D 1. वियाहपण्णत्तिसृत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 481 2. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 490 Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्तीसइमो उद्देसो : पुरिसे चौंतीसवाँ उद्देशक : पुरुष पुरुष और नोपुरुष का घातक उपोद्घात 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वदासी [1] उस काल और उस समय में राजगृह नगर था / वहाँ भगवान गौतम ने यावत् भगवान् से इस प्रकार पूछा-- पुरुष के द्वारा प्रश्वादिघात सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 2. [1] पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणति, नोपुरिसं हणति ? गोयमा ! पुरिसं पि हणति, नोपुरिसे वि हणति / [2-1 प्र.] भगवन् कोई पुरुष, पुरुष की घात करता हुआ क्या पुरुष की ही घात करता है अथवा नोपुरुष (पुरुष के सिवाय अन्य जीवों) की भी घात करता है ? 2-1 उ.] गौतम ! वह (पुरुष) पुरुष की भी घात करता है और नोपुरुष की भी धात करता है। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ 'पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ' ? गोतमा ! तस्स णं एवं भवइ--‘एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि' से णं एगं पुरिसं हणमाणे प्रणेगे जीवे हणइ / से तेणळेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ 'पुरिसं पि हणइ नोपुरिसे वि हणति'। [2.2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वह पुरुष की भी घात करता है, नोपुरुष की भी घात करता है ? / [2-2 उ.] गौतम ! (घात करने के लिए उद्यत) उस पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं एक ही पुरुष को मारता हूँ; किन्तु वह एक पुरुष को मारता हुअा अन्य अनेक जीवों को भी मारता है / इसी दृष्टि से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वह घातक, पुरुष को भी मारता है और नोपुरुष को भी मारता है।। 3. [3] पुरिसे णं भंते ! प्रासं हणमाणे कि आसं हणइ, नोमासे वि हणइ ? गोयमा! प्रासं पि हणई, नोमासे वि हणइ। [3-1 प्र. | भगवन् ! अश्व को मारता हुअा कोई पुरुष क्या अश्व को ही मारता है या नोप्रश्व (अश्व के सिवाय अन्य जीवों को भी) मारता है ? [3.1 उ.] गौतम ! वह (अश्वघात के लिए उद्यत पुरुष) अश्व को भी मारता है और नोअश्व अश्व के अतिरिक्त दूसरे जीवों) को भी मारता है / Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] से केपट्टेणं ? अट्ठो तहेव / [3-2 प्र. भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? [3-2 उ.] गौतम ! इसका उत्तर पूर्ववत् समझना चाहिए। 4. एवं हस्थि सीहं वग्धं जाय चिल्ललगं। [4] इसी प्रकार हाथी, सिंह, व्याघ्र (बाघ) यावत् चित्रल तक समझना चाहिए। 5. [1] पुरिसे णं भंते ! अन्नयरं तसपाणं हणमाणे कि अन्नयरं तसपाणं हणइ, नोअन्नयरे तसे पाणे हणइ ? गोयमा ! अन्नयरं पि तसपाणं हणइ, नोअन्नयर वि तसे पाणे हणइ / [5-1 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष किसी एक त्रस प्राणी को मारता हुअा क्या उसी त्रसप्राणी को मारता है, अथवा उसके सिवाय अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है ? (5.1 उ.] गौतम ! वह उस सप्राणी को भी मारता है और उसके सिवाय अन्य त्रसप्राणियों को भी भारता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चई 'अन्नयर पितसपाणं [हति] नोअन्नयरे वि तसे पाणे हणई? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइएवं खलु अहं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणामि, से णं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ / से तेण?णं गोयमा! तं चेव / एए सव्वे वि एक्कगमा / [5.2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वह पुरुष उस सजीव को भी मारता है और उसके सिवाय अन्य त्रसजीवों को भी मार देता है। [5-2 उ.] गौतम ! उस त्रसजीव को मारने वाले पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं उसी त्रसजीव को मार रहा हूँ, किन्तु वह उस त्रसजीव को मारता हुआ, उसके सिवाय अन्य अनेक त्रसजीवों को भी मारता है। इसलिए, हे गौतम ! पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए / इन सभी का एक समान पाठ (पालापक) है। 6. [1] पुरिसे गं भंते ! इसि हणमाणे कि इसि हणइ, नोइसि हणइ ? गोयमा ! इसि पि हणइ नोइसि पि हणइ / [6-1 प्र. भगवन् ! कोई पुरुष, ऋषि को मारता हुआ क्या ऋषि को ही मारता है, अथवा नोऋषि (ऋषि के सिवाय अन्य जीवों) को भी मारता है ? [6-1 उ.] गौतम ! वह (ऋषि को मारने वाला पुरुष) ऋषि को भी मारता है, नोऋषि को भी मारता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव नोइसि पि हणइ ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइएवं खलु अहं एग इसि हणामि, से णं एग इसि हणमाणे अणंते जीवे हणइ से तेणोणं निक्खेवओ। Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवम शतक : उद्देशक-३४] [571 [6-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है कि ऋषि को मारने वाला पुरुष ऋषि को भी मारता है और नोऋषि को भी ? 6-2 उ.] गौतम ! ऋषि को मारने वाले उस पुरुष के मन में ऐसा विचार होता है कि मैं एक ऋषि को मारता हूँ; किन्तु वह एक ऋषि को मारता हुआ अनन्त जीवों को मारता है / इस कारण हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। विवेचन-प्राणिघात के सम्बन्ध में सापेक्ष सिद्धान्त ---(1) कोई व्यक्ति किसी पुरुष को मारता है तो कभी केवल उसी पुरुष का वध करता है, कभी उसके साथ अन्य एक जीव का और कभी अन्य जीवों का वध भी करता है, यों तीन भंग होते हैं, क्योंकि कभी उस पुरुष के आश्रित जू, लीख, कृमि-कीड़े आदि या रक्त, मवाद आदि के आश्रित अनेक जीवों का वध कर डालता है / शरीर को सिकोड़ने-पसारने आदि में भी अनेक जीवों का वध संभव है। (2) ऋषि का घात करता हुआ व्यक्ति अनन्त जीवों का घात करता है, यह एक ही भंग है। इसका कारण यह है कि ऋषि-अवस्था में वह सर्वविरत होने से अनन्त जीवों का रक्षक होता है, किन्तु मर जाने पर वह अविरत होकर अनन्त जीवों का घातक बन जाता है / अथवा जीवित रहता हुअा ऋषि अनेक प्राणियों को प्रतिबोध देता है, वे प्रतिबोधप्राप्त प्राणी क्रमशः मोक्ष पाते हैं / मुक्त जीव अनन्त संसारी प्राणियों के अघातक होते हैं। अतः उन अनन्त जीवों की रक्षा में जीवित ऋषि कारण है / इसलिए कहा गया है कि ऋषिघातक व्यक्ति अन्य अनन्त जीवों की घात करता है।' घातक व्यक्ति को वरस्पर्श की प्ररूपणा 7. [1] पुरिसे णं भते ! पुरिसं हणमाणे कि पुरिसवेरेणं पुढें, नोपुरिसवेरेणं पुढें ? . गोयमा ! नियमा ताव पुरिसवेरेणं पुढें 1, अहवा पुरिसवेरेण य णोपुरिसवेरेण य पुढे 2, अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि य पुढे 3 // [7-1 प्र.] भगवन् ! पुरुष को मारता हुआ कोई भी व्यक्ति क्या पुरुष-वैर से स्पृष्ट होता है, अथवा नोपुरुष-वैर (पुरुष के सिवाय अन्य जीव के साथ वेर) से स्पृष्ट भी होता है ? [7-1 उ.] गौतम ! वह व्यक्ति नियम से (निश्चित रूप से) पुरुषवैर से स्पृष्ट होता ही है / अथवा पुरुषवैर से और नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, अथवा पुरुषवर से और नोपुरुषवैरों (पुरुषों के अतिरिक्त अनेक जीवों के वैर) से स्पृष्ट होता है। _[2] एवं आसं, एवं जाव चिल्ललगं जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य णोचिल्ललगवेरेहि य पुढे / 7-2] इसी प्रकार अश्व से लेकर यावत् चित्रल के विषय में भी जानना चाहिए; यावत् अथवा चित्रलवैर से और नोचित्रल-वैरों से स्पृष्ट होता है।। 8. पुरिसे णं भंते ! इसि हणमाणे कि इसिवेरेणं पुछे, णोइसिवेरेणं पुढे ? गोयमा! नियमा ताव इसिवेरेणं पुढे 1, अहवा इसिवेरेण य जोइसिवेरेण य पुढे 2, अहवा इसिवेरेण य नोइसिवेरेहि य पुठे 3 / / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति 491 (ख) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 1776 Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ [8 प्र.] भगवन् ! ऋषि को मारता हुआ कोई पुरुष, क्या ऋषिवर से स्पृष्ट होता है, या नो ऋषिवैर से स्पृष्ट होता है ? [8 उ.] गौतम ! बह (ऋषिघातक) नियम से ऋषिवैर और नोऋषि-वैरों से स्पृष्ट होता है। विवेचन-घातक व्यक्ति के लिए वैरस्पर्शप्ररूपणा-(क) पुरुष को मारने वाले व्यक्ति के लिए वैरस्पर्श के तीन भंग होते हैं - (1) वह नियम से पुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (2) पुरुष को मारते हुए किसी दूसरे प्राणी का वध करे तो एक पुरुषवैर से और एक नोपुरुषवैर से स्पृष्ट होता है, (3) यदि एक पुरुष का वध करता हुना, अन्य अनेक प्राणियों का वध करे तो वह पुरुषवर से और अन्य अनेक नोपुरुषवरों से स्पृष्ट होता है। हस्ती, अश्व आदि के सम्बन्ध में भी सर्वत्र ये ही तीन भंग होते हैं / (ख) सोपक्रम आयुवाले ऋषि का कोई वध करे तो वह प्रथम और तृतीय भंग का अधिकारी बनता है / यथा-वह ऋषिवैर से तो स्पृष्ट होता ही है, किन्तु जब सोपक्रम आयु वाले अचरमशरीरी ऋषि का पुरुष का वध होता है तब उसकी अपेक्षा से यह तीसरा भंग कहा गया है।' एकेन्द्रिय जीवों की परस्पर श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा 9. पुढविकाइये णं भंते ! पुढविकायं चेव आणमति वा पाणमति वा ऊससति वा नीससति वा ? हंता, गोयमा ! पुढविक्काइए पुढविक्काइयं चेव प्राणमति वा जाव नीससति वा। [6 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को प्राभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को प्राभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है और छोड़ता है / 10. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणमति वा जाव नीससति वा? हंता, गोयमा ! पुढविक्काइए आउक्काइयं प्राणमति वा जाव नीससति वा। [10 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [10 उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव को (आभ्यन्तर और बाह श्वासोच्छ्वास के रूप में) ग्रहण करता और छोड़ता है। 11. एवं तेउक्काइयं बाउक्काइयं / एवं वणस्सइकाइयं / [11] इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव को भी यावर ग्रहण करता और छोड़ता है। 12. आउक्काइए गं भंते ! पुढविक्काइयं आणति वा पाणमति वा० ? एवं चेव / 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 491 Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३४] [12 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? [12 उ.] गौतम ! पूर्वोक्तरूप से ही जानना चाहिए / 13. आउक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं चेव प्राणमति वा० ? एवं चेव / [13 प्र.] भगवन् ! प्रकायिक जीव, अप्कायिक जीव को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [13 उ.] (हाँ, गौतम ! ) पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए / 14. एवं तेउ-बाउ-वणस्सइकाइयं / [14] इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में भी जानना चाहिए। 15. तेउक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइयं आणमति वा ? एवं जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणमति वा० ? तहेव / |15 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव पृथ्वीकायिकजीवों को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव को आभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? [15 उ.] (गौतम ! ) यह सब पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए / विवेचन--एकेन्द्रिय जीवों की श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत सात सूत्रों (6 से 15 तक) में बताया गया है कि पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक र वनस्पतिकायिक जीवों को श्वासोच्छवास रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं। इसी प्रकार अप्कायिकादि चारों स्थावर जीव भी पृथ्वीकायिकादि पांचों स्थावर जीवों को श्वासोच्छ्वास रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं / इन पांचों के 25 पालापक (सूत्र) होते हैं / जैसे वनस्पति एक के ऊपर दूसरी स्थित हो कर उसके तेज को ग्रहण कर लेतो है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि भी अन्योन्य सम्बद्ध होने से उस रूप में श्वासोच्छ्वास (प्राणापान) आदि कर लेते हैं।' आणमति पाणमति : भावार्थ-प्राभ्यन्तर श्वास और उच्छ्वास लेता है। ऊससति नीससति - बाह्य श्वास और उच्छ्वास ग्रहण करते-छोड़ते हैं। 3 पृथ्वीकायिकादि द्वारा पृथ्वीकायिकादि को श्वासोच्छवास करते समय क्रिया-प्ररूपणा 16. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमाणे वा कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। 1. (क) भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1781 (ख) भगवती. अ, वृत्ति, पत्र 492 2. बही, पत्र 492 3. वहीं, पत्र 492 Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीव को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। 17. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आगममाणे वा० ? एवं चेव / [17 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीवों को प्राभ्यन्तर एवं बाह्य श्वासोच्छवास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया बाले होते हैं ? [17 उ.] हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से ही जानना चाहिए / 18. एवं जाव वणस्सइकाइयं / [18] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए / 19. एवं आउक्काइएण वि सव्वे वि भाणियन्वा / [16] इसी प्रकार अप्कायिक जीवों के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि सभी का कथन करना चाहिए। 20. एवं तेउक्काइएण वि। [20] इसी प्रकार तेजस्कायिक के साथ भी पृथ्वीकायिक आदि का कथन करना चाहिए। 21. एवं वाउक्काइएण वि। [21] इसी प्रकार वायुकायिक जीवों के साथ भी पृथ्वी कायिक आदि का कथन करना चाहिए। 22. वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा० ? पुच्छा। गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए। [22 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों को आभ्यन्तर और बाह्य श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? 22 उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित पांच क्रिया वाले होते हैं। विवेचन-श्वासोच्छ्वास में क्रियाप्ररूपणा-पृथ्वीकायिकादि जीव पृथ्वीकायिकादि जीवों को श्वासोच्छवासरूप में ग्रहण करते हुए, छोड़ते हुए, जब तक उनको पीड़ा उत्पन्न नहीं करते, तब तक कायिकी आदि तीन क्रियाएँ लगती हैं, जब पीड़ा उत्पन्न करते हैं तव पारितापनिकी-सहित चार क्रियाएँ लगती हैं और जब उन जीवों का वध करते हैं तब प्राणातिपातिकी सहित पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 1. (क) पांच क्रियाएँ इस प्रकार हैं-(१) कायिकी, (2) प्राधिकरणिकी, (3) प्राद्वेषिकी, (4) पारितापनिकी और (5) प्राणातिपातिकी। (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 492 Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक : उद्देशक-३४] [575 वायुकाय को वृक्षमूलादि कंपाने-गिराने संबंधी क्रिया 23. वाउक्काइए णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। [23 प्र. भगवन् ! वायुकायिक जीव, वृक्ष के मूल को कंपाते हुए और गिराते हुए कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [23 उ.) गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार किया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। 24. एवं कंदं / [24] इसी प्रकार कंद को कंपाने आदि के सम्बन्ध में जानना चाहिए। 25. एवं जाव बोयं पचालेमाणे वा० पुच्छा। गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // चउत्तीसइमो उद्देसो समत्तो // 9. 34 // ॥नवमं सतं समत्तं // 9 // [25 प्र.} इसी प्रकार यावत् बीज को कंपाते या गिराते हुए आदि की क्रिया से सम्बन्धित प्रश्न / |25 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले, कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-वायुकायिकों द्वारा वृक्षादि कम्पन-पातन-सम्बन्धी क्रिया-वायुकायिक जीव वृक्ष के मूल को तभी कम्पित कर सकते हैं या गिरा सकते हैं, जब कि वृक्ष नदी के किनारे हो और उसका मूल पृथ्वी से ढंका हुना न हो। शंका-समाधान-- वृक्ष के मूल को गिराने मात्र से पारितापनिकी सहित तीन क्रियाएँ वायुकायिकजीवों को कैसे लग सकती हैं ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं- 'अचेतनमूल की अपेक्षा से तीन क्रियाएँ सम्भव हैं।' / नवम शतक : चौतीसवाँ उद्देशक समाप्त // नवम शतक समाप्त। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 492 Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं सयं : दशम शतक प्राथमिक * भगवतीसूत्र के दसवें शतक में कुल चौतीस उद्देशक हैं, जिनमें मनुष्य जीवन से तथा दिव्य जीवन से सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन किया गया है / * दिशाएँ, मानव के लिए ही नहीं; समस्त संजीपंचेन्द्रिय जीवों के लिए अत्यन्त मार्गदर्शक बनती हैं, विशेषत: जल, स्थल एवं नभ से यात्रा करने वाले मनुष्य को अगर दिशाओं का बोध न हो तो वह भटक जाएगा, पथभ्रान्त हो जाएगा / जिस श्रावक ने दिशापारमाणवत अंगीकार किया हो, उसके लिए तो दिशा का ज्ञान अतीव ही आवश्यक है। प्राचीनकाल में समुद्रयात्री कुतुबनुमा (दिशादर्शक-यंत्र) रखते थे, जिसकी सूई सदैव उत्तर की ओर रहती है। योगी जन रात्रि में ध्र व तारे को देखकर दिशा ज्ञात करते हैं। इसीलिए श्रीगौतमस्वामी ने भगवान से प्रथम उद्देशक में दिशाओं के स्वरूप के विषय में प्रश्न किया है कि वे कितनी हैं ? वे जीवरूप हैं या अजीवरूप ? उनके देवता कौन-कौन से हैं जिनके आधार पर उनके नाम पड़े हैं? दिशाओं को भगवान् ने जोवरूप भी बताया है, अजीवरूप भी। विदिशाएँ जीवरूप नहीं, किन्तु जीवदेश, जीवप्रदेश रूप हैं तथा रूपी अजीवरूप भी हैं, अरूपी अजीवरूप भी हैं, इत्यादि वर्णन पढ़ने से यह स्पष्ट प्रेरणा मिलती है कि प्रत्येक साधक को दिशाओं में स्थित जीव या अजीव को किसी प्रकार से प्राशातना या असंयम नहीं करना चाहिए / अन्तिम दो सूत्रों में शरीर के प्रकार एवं उससे सम्बन्धित तथ्यों का अतिदेश किया है। * द्वितीय उद्देशक में कषायभाव में स्थित संवत अनगार को विविध रूप देखते हुए साम्परायिकी और अकषायभाव में स्थित को ऐर्यापथिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक प्रतिपादन है / साथ ही योनियों और वेदनाओं के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का तथा मासिक भिक्षुप्रतिमा की वास्तविक अाराधना का दिग्दर्शन कराया गया है / इसके पश्चात् अकृत्यसेवी भिक्षु की आराधनाअनाराधना का सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया है। यह उद्देशक साधकों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण व प्रेरक है। ततीय उद्देशक में देवों और देवियों की एक दुसरे के मध्य में होकर गमन करने की सहज शक्ति और अपरा शक्ति | वैक्रियशक्ति] का निरूपण किया गया है। 18 वें सत्र में दौड़ते हुए घोड़े की खू-खू ध्वनि का हेतु बताया गया है और अन्तिम 16 व सूत्र में असत्यामृषाभाषा के 12 प्रकार बता कर उनमें से बैंठे रहेंगे, सोयगे, खड़े होंगे आदि भाषा को प्रज्ञापनी बताकर भगवान् ने उसके मृषा होने का निषेध किया है / * चतुर्थ उद्देशक के प्रारम्भ में गणधर गौतमस्वामी से श्यामहस्ती अनगार के त्रास्त्रिशक देवों के अस्तित्व हेतु तथा सदाकाल स्थायित्व के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं / अन्त में गौतम Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : प्राथमिक] [577 / उग्रविन्द्र स्वामी के प्रश्न के उत्तर में स्वयं भगवान बताते हैं कि द्रव्याथिक नय से त्रास्त्रिशक देव प्रवाहरूप से नित्य हैं, किन्तु पर्यायाथिक नय से व्यक्तिगत रूप से पुराने देवों का च्यवन हो जाता है, उनके स्थान पर नये वायस्त्रिशक देब जन्म लेते हैं / त्रायस्त्रिंशक देव बनने के जो कारण बताए हैं, उनसे दो बातें स्पष्ट होती हैं—[१] जो भवनपति देवों के इन्द्रों के त्रास्त्रिशक देव हुए, में पहले रा श्रमणोपासक थे, किन्तु बाद में शिथिलाचारी मादी बन गए तथा अन्तिम समय में संल्लेखना-संथारा के समय आलोचना-प्रतिक्रमणादि नहीं किया, तथा [2] जो वैमानिक देवेन्द्रों के त्रास्त्रिशक देव हुए, वे पूर्वजन्म में पहले और पोछे उविहारी शुद्धाचारी श्रमणोपासक रहे और अन्तिम समय में संलेखना-संथारा के दौरान उन्होंने आलोचना, प्रतिक्रमणादि करके आत्मशुद्धि कर ली / इस समग्र पाठ से यह स्पष्ट है कि वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रास्त्रिशक देव नहीं होते / / * पंचम उद्देशक में चमरेन्द्र आदि भवनवासी देवेन्द्रों तथा उनके लोकपालों का, पिशाच आदि व्यन्तरजातीय देवों के इन्द्रों की, चन्द्रमा सूर्य एवं ग्रहों की एवं शक्रेन्द्र तथा ईशानेन्द्र की अग्रम हिषियों की संख्या, प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार की संख्या एवं अपने-अपने नाम के अनुरूप राजधानी एवं सिंहासन पर बैठकर अपनी-अपनी सुधर्मा सभा में स्वदेवीवर्ग के साथ मैथन निमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का निरूपण किया है। * छठे उद्देशक में शक्रेन्द्र की सौधर्मकल्प स्थित सुधर्मा सभा की लम्बाई-चौड़ाई, विमानों की संख्या तथा शक्रेन्द्र के उपपात, अभिषेक, अलंकार, अर्चनिका, स्थिति, यावत् आत्मरक्षक इत्यादि परिवार के समस्त वर्णन का अतिदेश किया गया है / अन्तिम सूत्र में शक्रेन्द्र की ऋद्धि, द्युति, यश, प्रभाव, स्थिति, लेश्या, विशुद्धि एवं सुख आदि का निरूपण भी अतिदेशपूर्वक किया गया है। * सातवें से चौतीसवें उद्देशक तक में उत्तरदिशावर्ती 28 अन्तर्वीपों का निरूपण भी जीवा = __जोवाभिगम सूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है।' * कुल मिलाकर पूरे शतक में मनुष्यों और देवों की आध्यात्मिक, भौतिक एवं दिव्य शक्तियों का निर्देश किया गया है। 1. बियाहपत्तिसुत्तं, विसयाणुक्कमो पृ. 37-38 Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं सयं : दशम शतक संग्रहणी-गाथार्थ दशम शतक के चौतीस उद्देशकों को संग्रहगाथा-- 1. दिस 1 संवुडअणगारे 2 अाइड्ढी 3 सामहत्थि 4 देवि 5 सभा 6 / उत्तर अंतरदोवा 7-34 दसमम्मि सम्मि चोत्तीसा // 1 // [1] दसवें शतक के चौतीस उद्देशक इस प्रकार हैं --- (1) दिशा, (2) संवृत अनगार, (3) प्रात्मऋद्धि, (4) श्यामहस्ती, (5) देवी, (6) सभा और (7 से 34 तक) उत्तरवर्ती अन्तर्वीप / विवेचन- दशम शतक के चोंतीस उद्देशक-प्रस्तुत सूत्र (2) में दसवें शतक के चौतीस उद्देशकों का नामोल्लेख किया गया है। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--(१) प्रथम उद्देशक में दिशात्रों के सम्बन्ध में निरूपण है / (2) द्वितीय उद्देशक में संवत अनगार आदि के विषय में निरूपण है। (3) तृतीय उद्देशक में देवावासों को उल्लंघन करने में देवों की आत्मऋद्धि (स्वशक्ति) का निरूपण है / (4) चतुर्थ उद्देशक में श्रमण भगवान महावीर के 'श्यामहस्ती' नामक शिष्य के प्रश्नों से सम्बन्धित कथन है। (5) पंचम उद्देशक में चमरेन्द्र आदि इन्द्रों की देवियों (अग्रमहिपियों) के सम्बन्ध में निरूपण है। (6) छठे उद्देशक में देवों की सुधर्मा सभा के विषय में प्रतिपादन है और 7 वें से 34 वें उद्देशक में उत्तरदिशा के 28 अन्तर्वीपों के विषय में 28 उद्देशक हैं। OD 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 492 Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक 'दिस' : दिशाओं का स्वरूप उपोद्घात 2. रायगिहे जाव एवं वदासी-- [2] राजगह नगर में गौतम स्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) यावत् इस प्रकार पूछादिशाओं का स्वरूप 3. किमियं भंते ! पाईणा ति पवुच्चति ? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव / [3 प्र.] भगवन् ! यह पूर्व दिशा क्या कहलाती है ? [3 उ.] गौतम ! यह जीवरूप भी है और अजीवरूप भी है / 4. किमियं भंते ! पडीणा ति पवुच्चति ? गोयमा! एवं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! यह पश्चिम दिशा क्या कहलाती है ? [4 उ.] गौतम ! यह भी पूर्वदिशा के समान जानना चाहिए / 5. एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्डा, एवं अहा वि / [5] इसी प्रकार दक्षिण दिशा, उत्तर दिशा, ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशा के विषय में भी जानना चाहिए। विवेचन--दिशाएँ : जीव-अजीवरूप क्यों? प्रस्तुत तीन सूत्रों (3-4-5) में पूर्वादि छहों दिशाओं के स्वरूप के सम्बन्ध में गौतमस्वामी द्वारा पूछे जाने पर भगवान् ने उन्हें जीवरूप भी बताया है, अजी वरूप भी। पूर्व प्रादि सभी दिशाएँ जीवरूप इसलिए हैं कि उनमें एकेन्द्रिय आदि जीव रहे हुए हैं और अजीवरूप इसलिए हैं कि उनमें अजीव (धर्मास्तिकायादि) पदार्थ रहे हुए हैं।' पूर्व दिशा का 'प्राची' और पश्चिम दिशा का 'प्रतीची' नाम भी प्रसिद्ध है।। दसरे दार्शनिकों—विशेषतः नैयायिक-वैशेषिकों ने दिशा को द्रव्यरूप माना है, कई दर्शनपरम्पराओं में दिशाओं को देवतारूप मान कर उनकी पूजा करने का विधान किया है / तथागत बुद्ध ने द्रव्यदिशाओं की अपेक्षा भावदिशाओं की पूजा का स्वरूप बताया है / किन्तु भगवान् महावीर ने पूर्वोक्त कारणों से इन्हें जीव-अजीवरूप बताया है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 493 2. (क) पृथिव्यपतेजोवाय्बाकाशकालदिगात्ममनांसि नवव / तर्कसंग्रह, सू. 2 (ख) सिंगालसुत्त जातक Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दिशाओं के दस भेद 6. कति णं भंते ! दिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरथिमा 1 पुरस्थिमदाहिणा 2 दाहिणा 3 दाहिणपच्चत्थिया 4 पच्चस्थिमा 5 पच्चत्थिमुत्तरा 6 उत्तरा 7 उत्तरपुरस्थिमा 8 उड्डा 9 अहा 10 / [6 प्र.] भगवन् ! दिशाएँ कितनी कही गई हैं ? [6 उ.] गौतम ! दिशाएँ दस कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) पूर्व, (2) पूर्व-दक्षिण (आग्नेयकोण), (3) दक्षिण, (4) दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण), (5) पश्चिम, (6) पश्चिमोत्तर (वायव्यकोण), (7) उत्तर, (8) उत्तरपूर्व (ईशानकोण), (6) अर्ध्वदिशा और (10) अधोदिशा / विवेचन--दश दिशाओं के नाम प्रस्तुत छठे सूत्र में दश दिशात्रों के नामों का उल्लेख किया गया है। पूर्वसूत्रों में 6 दिशाएं बताई गई थी। इसमें चार विदिशाओं के 4 कोणों (पूर्वदक्षिण, दक्षिणपश्चिम, पश्चिमोत्तर, एवं उत्तरपूर्व) को जोड़ कर 10 दिशाएँ बताई गई हैं।' दिशाओं का यन्त्र उत्तर ईशान वायव्य। पश्चिम S ऊर्ध्व एवं अधः नैऋत्य आग्नेय दक्षिण दश दिशानों के नामान्तर 7. एयासि णं भंते ! दसण्हं दिसाणं कति णामधेज्जा पण्णता ? गोयमा! दसनामधज्जा पणत्ता.तं जहा इंदग्गेयी 1-2 जम्मा य 3 नेरती 4 वारुणी 55 वायवा 6 / सोमा 7 ईसाणी या 8 विमला य 9 तमा य 10 बोधवा // 2 // [7 प्र.] भगवन् ! इन दस दिशानों के कितने नाम कहे गए हैं ? [7 उ. गौतम ! (इनके) दस नाम हैं / वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ] - (1) ऐन्द्री (पूर्व), (2) प्राग्नेयी (अग्निकोण), (3) याम्या (दक्षिण), (4) नैऋती (नैऋत्यकोण), (5) वारुणी (पश्चिम), (6) वायव्या (वायव्य कोण), (7) सौम्या (उत्तर), (8) ऐशानी (ईशानकोण), (6) विमला (ऊर्वदिशा) और (10) तमा (अधोदिशा)। ये दस (दिशात्रों के) नाम समझने चाहिए / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 485 Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-१] [ 581 विवेचन-दिशाओं के ये दस नामान्तर क्यों ? प्रस्तुत 7 वें सूत्र में दिशाओं के दूसरे नामों का उल्लेख किया गया है / पूर्वदिशा (ऐन्द्री) इसलिए कहलाती है क्योंकि उसका स्वामी (देवता) इन्द्र है। इसी प्रकार अग्नि, यम, नैऋति, वरुण, वायु, सोम और ईशान देवता स्वामी होने से इन दिशाओं को क्रमशः आग्नेयी, याम्या, नैती, वारुणी, वायव्या, सौम्या और ऐशानी कहते हैं / ऊर्वदिशा प्रकाश-युक्त होने से उसे 'विमला' कहते हैं और अधोदिशा अन्धकारयुक्त होने से उसे 'तमा' कहते हैं।' दश दिशाओं की जीव-अजीव सम्बन्धी वक्तव्यता 8. इंदा णं भंते ! दिसा कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपदेसा? गोयमा ! जीवा वि, तं चेव जाव अजीवपएसा वि / जे जीवा ते नियम एगिदिया बेइंदिया जाव पंचिदिया, अणिदिया / जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा / जे जीवपएसा ते नियम एगिदियपएसा जाव अणिदियपएसा। जे अजीवा, ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- रूविअजीवा य, अरूविअजीवा य / जे रूविअजोवा ते चउन्विहा पण्णत्ता, तं जहा-खंधा 1 खंधदेसा 2 खंधपएसा 3 परमाणुपोग्गला 4 / जे अरूविधजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-नो धम्मस्थिकाये, धम्मस्थिकायस्स देसे 1 धम्मत्थिकायस्स पदेसा 2; नो अधम्मस्थिकाये, अधम्मस्थिकायस्स देसे 3 अधम्मस्थिकायस्स पदेसा 4; नो आगासस्थिकाये, आगासथिकायस्स देसे 5 आगासस्थिकायस्स पदेसा 6 अद्धासमये 7 / [8 प्र.] भगवन् ! ऐन्द्री (पूर्व) दिशा जीवरूप है, जीव के देशरूप है, जीव के प्रदेशरूप है, अथवा अजीवरूप है, अजीव के देशरूप है या अजीव के प्रदेशरूप है ? . [8 उ.] गौतम ! वह (ऐन्द्रो दिशा) जीवरूप भी है, इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् वह अजीवप्रदेशरूप भी है। उसमें जो जीव हैं, वे नियमत: एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, यावत् पंचेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय (केवलज्ञानी) हैं / जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीव के देश हैं, यावत् अनिन्द्रिय जीव के देश हैं। जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमत: एकेन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं, यावत् अनिन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं / उसमें जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा-रूपी अजीव और अरूपी अजीव / रूपी अजीवों के चार भेद हैं / यथा (1) स्कन्ध, (2) स्कन्धदेश, (3) स्कन्धप्रदेश और (4) परमाणुपुद्गल / जो अरूपी अजीव हैं, वे सात प्रकार के हैं। यथा-(१) (स्कन्धरूपसमन) धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश है, (2) धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, (3) (स्कन्धरूप) अधर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश है, (4) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, (5) (स्कन्धरूप) अाकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु अाकाशास्तिकाय का देश है; (6) आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं और (7) अद्धासमय अर्थात् काल है / 1. इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री। अग्निर्देवता यस्याः साऽग्नेयी / ........"ईशानदेवता ऐशानी विमलतया विमला। तमा रात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः। -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 493 Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-दिशा-विदिशात्रों का आकार एवं व्यापकत्व -पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ये चारों महादिशाएँ गाड़ी (शकट) की उद्धि (प्रोढण) के आकार की हैं और आग्नेयी, नैऋती, वायव्या और ऐशानी ये चार विदिशाएँ मुक्तावली (मोतियों की लड़ी) के आकार की हैं / ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा रुचकाकार हैं, अर्थात् मेरुपर्वत के मध्यभाग में 8 रुचकप्रदेश हैं, जिनमें से चार ऊपर की ओर और चार नीचे की ओर गोस्तनाकार हैं। यहाँ से दस दिशाएँ निकलो हैं / पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, ये चारों दिशाएँ मूल में दो-दो प्रदेशी निकली हैं और आगे दो-दो प्रदेश की वृद्धि होती हुई लोकान्त तक एवं प्रलोक में चली गई हैं। लोक में असंख्यात प्रदेश तक और अलोक में अनन्त प्रदेश तक बढ़ी हैं। इसलिए इनकी प्राकृति गाड़ी के प्रोढण के समान है / चारों विदिशाएँ एक-एक प्रदेश वाली निकली हैं और लोकान्त तक एकप्रदेशी ही चली गई हैं / ऊर्ध्व और अधोदिशा चार-चार प्रदेशी निकली हैं और लोकान्त तक एवं अलोक में भी चली गई हैं / पूर्वदिशा जीवादिरूप है किन्तु वहाँ समग्र धर्मास्तिकायादि नहीं, किन्तु धर्म, अधर्म एवं आकाश का एक देशरूप और र असंख्यप्रदेशरूप हैं तथा अद्धा-समयरूप है। इस प्रकार अरूपी अजीवरूप सात प्रकार की पूर्वदिशा है।' 9. अग्गेयी णं भंते ! दिसा कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा० पुच्छा। गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि / जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा। अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे 1, अहवा एगिदियदेसा बेइंदियस्स देसा 2, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा 3 / अहवा एगिदियदेसा य तेइंदियस्स देसे, एवं चेव तियभंगो भाणियव्यो। एवं जाव अणिदियाशं तियभंगो / जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा। अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियस्स पदेसा, अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पएसा / एवं आदिल्लविरहिओ जाव अणिदियाणं।। जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--रूविअजीवा य अरूविअजीवा य। जे रूविअजीवा ते चविहा पण्णत्ता, तं जहा–खंधा जाव' परमाणुयोग्गला 4 / जे अरूविअजीचा ते सतविधा पण्णता, तं जहा--नो धम्मत्थिकाये, धम्मस्थिकायस्स देसे 1 धम्मस्थिकायस्स पदेसा 2; एवं अधम्मत्थिकायस्स वि 3.4; एवं आगासस्थिकायस्स वि जाव आगासस्थिकायस्स पदेसा 5-6; अद्धासमये 7 / [प्र.| भगवन् आग्नेयी दिशा क्या जीवरूप है, जीवदेशरूप है, अथवा जीवप्रदेशरूप है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! वह (आग्नेयीदिशा) जीवरूप नहीं, किन्तु जीव के देशरूप है, जीव के प्रदेशरूप भी है, तथा अजीवरूप है और अजीव के प्रदेशरूप भी है। इसमें जीव के जो देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश है 1, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश एवं द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं 2, 1. “सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि / मुत्तावलीव चउरो दो चेव य होति रुयनिभे // -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 494 2. 'जाव' पद-सूचित पाठ-"खंधदेसा, खंधपएसा / " Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-१] [583 . अथवा एकेन्द्रियों के बहुत देश और बहत द्वीन्द्रियों के बहुत देश हैं 3. (ये तीन भंग हैं, इसी प्रकार) एकेन्द्रियों के बहुत देश और एक त्रीन्द्रिय का एक देश है 1, इसी प्रकार से पूर्ववत् त्रीन्द्रिय के साथ तीन भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय तक के भी क्रमश: तीन-तीन भंग कहने चाहिए / इसमें जीव के जो प्रदेश हैं, वे नियम से एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं / अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय के बहत प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और बहत द्वीन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं / इसी प्रकार सर्वत्र प्रथम भंग को छोड़ कर दो-दो भंग जानने चाहिए; यावत् अनिन्द्रिय तक इसी प्रकार कहना चाहिए। अजीवों के दो भेद हैं। यथा--रूपी अजीव और अरूपी अजीव / जो रूपी अजीव हैं, वे चार प्रकार के हैं। यथा स्कन्ध से लेकर यावत परमाणु पुद्गल तक / अरूपी अजीव सात प्रकार के हैं। यथा-धर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु धर्मास्तिकाय का देश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय नहीं, किन्तु अधर्मास्तिकाय का देश, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय नहीं, किन्तु आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और अद्धासमय (काल)। (विदिशाओं में जीव नहीं है, इसलिए सर्वत्र देश-प्रदेश-विषयक भंग होते हैं।) __ आग्नेयो विदिशा का स्वरूप-आग्नेयी विदिशा जीवरूप नहीं है, क्योंकि सभी विदिशाओं की चौड़ाई एक-एक प्रदेशरूप है। वे एकप्रदेशी ही निकली हैं और अन्त तक एकप्रदेशी ही रही हैं और एक प्रदेश में समग्न जीव का समावेश नहीं हो सकता, क्योंकि जीव की अवगाहना असंख्यप्रदेशात्मक है।" जीवदेश सम्बन्धी भंगजाल-एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से प्राग्नेयी दिशा में नियमतः एकेन्द्रिय देश तो होते ही हैं। अथवा एकेन्द्रिय सकललोकव्यापी होने से और द्वीन्द्रिय अल्प होने से कहीं एक की भी संभावना है। इसलिए कहा गया—एकेन्द्रियों के बहुत देश और एक द्वीन्द्रिय का देश, इस प्रकार द्विकसंयोगी प्रथम भंग हुमा / यो तीन भंग होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के . साथ तीन-तीन भंग होते हैं / 10. जम्मा गं भंते ! दिसा कि जीवा? जहा इंदा (सु. 8) तहेव निरवसेसं / (10 प्र.] भगवन् ! याम्या (दक्षिण)-दिशा क्या जीवरूप है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [10 उ.] (गौतम ! ) ऐन्द्रीदिशा के समान सभी कथन (सू. 8 में उक्त) जानना चाहिए / 11. नेरई जहा अग्गेयी (सु. 9) / [11] नैऋती विदिशा का (एतद्विषयक समग्र) कथन (सू. 6 में उक्त) आग्नेयी विदिशा के समान जानना चाहिए। 12. वारुणी जहा इंदा (सु. 8) / [12] वारुणी (पश्चिम)-दिशा का (इस सम्बन्ध में कथन) (सू. 8 में उक्त) ऐन्द्रीदिशा के समान जानना चाहिए। 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 494 2 वही, पत्र 494 Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. वायव्वा जहा अग्गेयी (सु. 9) / [13] वायव्या विदिशा का कथन अाग्नेयी के समान है / 14. सोमा जहा इंदा। [14] सौम्या (उत्तर)-दिशा का कथन ऐन्द्रीदिशा के समान जान लेना चाहिए / 15. ईसाणी जहा अग्गेयो। [15] ऐशानी विदिशा का कथन आग्नेयी के समान जानना चाहिए / 16. विमलाए जीवा जहा अग्गेईए, अजीवा जहा इंदाए / [16] विमला (ऊर्ध्व)-दिशा में जीवों का कथन आग्नेयी के समान है तथा अजीवों का कथन ऐन्द्री दिशा के समान है। 17. एवं तमाए वि, नवरं अरूवी छन्विहा / अद्धासमयो न भण्णति / [17] इसी प्रकार तमा (अधोदिशा) का कथन भी जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि तमादिशा में प्ररूपी-अजीव के 6 भेद ही हैं, वहाँ अद्धासमय नहीं है। अतः अद्धासमय का कथन नहीं किया गया। शेष दिशा-विदिशाओं की जीव-अजीवप्ररूपणा—सु. 10 से 17 तक पाठ सूत्री मानरूापत तथ्य का निष्कर्ष यह है कि शेष तीनों दिशाओं का जीव-अजीव सम्बन्धी कथन पूर्वदिशा के समान जानना चाहिए और शेष तीनों विदिशाओं का जीव-अजीव सम्बन्धी कथन आग्नेयीदिशा के समान जानना चाहिए / ऊर्ध्वदिशा में जीवों का कथन आग्नेयी के समान तथा अजीव-सम्बन्धी कथन ऐन्द्री के समान जानना चाहिए। तमा (अधो)-दिशा का भी जीव-अजीव-सम्बन्धी कथन ऊर्ध्वदिशावत् है किन्तु वहाँ गतिमान् सूर्य का प्रकाश न होने से अद्धासमय का व्यवहार सम्भव नहीं है। अतः वहाँ अद्धासमय (काल) नहीं है / यद्यपि ऊर्ध्वदिशा में भी गतिमान् सूर्य का प्रकाश न होने से प्रद्धासमय का व्यवहार संभव नहीं है, तथापि मेरुपर्वत के स्फटिक काण्ड में गतिमान् सूर्य के प्रकाश का संक्रमण होता है / इसलिए वहाँ समय का व्यवहार सम्भव है।' शरीर के भेद प्रभेद तथा सम्बन्धित निरूपण 18. कति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरोरा पण्णत्ता, तं जहा–ओरालिए जाव कम्मए / [18 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [18 उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गए हैं / यया-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 494 Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाम शतक : उद्देशक-१] [ 585 19, पोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पाणते? एवं ओगाहणसंठाणपदं निरक्सेसं भाणियचं नाव अप्पाबहुगं ति।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥दसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो // 10-1 / / [16 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [16 उ.] (गौतम !) यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के (२१वें) अवगाहन-संस्थान-पद में वर्णित समस्त वर्णन यावत् अल्पबहुत्व तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! विवेचन–शरीर : प्रकार तथा अवगाहनादि----प्रस्तुत दो सूत्रों (18-19) में शरीर सम्बन्धी प्ररूपणा प्रज्ञापनासूत्र के 21 वें अवगाहनसंस्थानपद का अतिदेश करके की गई है। वहाँ शरीर के औदारिक प्रादि 5 प्रकार, उनका संस्थान (प्राकार), प्रमाण, पुदगलचय, शरीरों का पारस्परिक संयोग, द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ, तथा अल्पबहुत्व एवं शरीरों की अवगाहना आदि द्वारों के माध्यम से विस्तृत वर्णन किया गया है / वही समग्र वर्णन अल्पबहुत्व तक यहाँ करना चाहिए।' // दशम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र : अवगाहन-संस्थानपद, 21, सू. 1474-1566, पृ. 328-349 (महा. जै. विद्यालय) (ख) संग्रहगाथा--कइ 1 संठाण 2 पमाणं 3, पोपलचिणणा 4 सरीरसंजोगो 5 / ___दव्व-पएसऽपबहुं 6 सरीरोगाहणाए य // 1 // --भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 495 Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक संवुडअणगारे : संवत अनगार उपोद्घात 1. रायगिहे जाव एवं क्यासी। [1] राजगृह में (श्रमण भगवान् महावीर से) यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा--- वीचिपथ और प्रवीचिपथ स्थित संवृत अनगार को लगने वाली क्रिया 2. [1] संवुडस्स गं भंते ! अणगारस्स वीयो पंथे ठिच्चा पुरओ स्वाइं निज्झायमाणस्स, मग्गतो रुवाई अवयक्खमाणस्स, पासतो रूवाई अवलोएमाणस्स, उड्ढे रूबाइं ओलोएमाणस्स, अहे स्वाइं पालोएमाणस्स तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जा ? गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयो पंथे ठिच्चा जाय तस्स णं णो इरियाहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ / [2-1 प्र.] भगवन् ! वीचिपथ (कषायभाव) में स्थित होकर सामने के रूपों को देखते हुए, पीछे रहे हुए रूपों को देखते हुए, पार्ववर्ती (दोनों बगल में) रहे हए रूपों को देखते हुए, ऊपर के (ऊर्वस्थित) रूपों का अवलोकन करते हुए एवं नीचे के (अधःस्थित) रूपों का निरीक्षण करते हुए संवृत अनगार को क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? [2-1 उ.] गौतम ! वीचिपथ (कषायभाव) में स्थित हो कर सामने के रूपों को देखते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए संवृत अनगार को ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है / [2] से केणट्टेणं भंते ! एवं चुच्चइ-संवुड० जाच संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा एवं जहा सत्तमसए पढमोद्देसए (स. 7 उ. 1 सु. 16. [2]) जाव से गं उत्सुत्तमेव रोयति, से तेणठेणं जाव संपराइया किरिया कज्जति / [2-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि वीचिपथ में स्थित".""यावत् संवृत अनगार को यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐपिथिको क्रिया नहीं लगती? [2-2 उ.] गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया एवं लोभ व्युच्छिन्न हो गए हों, उसी को ऐपिथिकी क्रिया लगती है; इत्यादि (संवृत अनगारसम्बन्धी) सब कथन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार, यावत्-यह संवृत अनगार सूत्रविरुद्ध (उत्सूत्र) आचरण करता है। यहां तक जानना चाहिए। इसी कारण से हे गौतम ! कहा गया कि यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है। Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशम शतक : उद्देशक-२] [587 3. [1] संवृहस्स णं भंते ! प्रणगारस्स अवोयो पंथे ठिच्चा पुरतो रुवाई निज्शायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ० ? पुच्छा / गोयमा ! संबड० जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जा / [3-1 प्र.] भगवन् ! अवीचिपथ (अकषायभाव) में स्थित संवृत अनगार को सामने के रूपों को निहारते हुए यावत् नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए क्या ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? ; इत्यादि प्रश्न / [3-1 उ.] गौतम अकषाय भाव में स्थित संवृत अनगार को उपर्युक्त रूपों का अवलोकन करते हुए ऐपिथिकी क्रिया लगती है, (किन्तु) साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चा ? जहा सत्तमसए सत्तमुद्देसए (स. 7 उ. 7 सु. 1 [2]) जाव से गं अहासुत्तमेव रीयति, से तेणठेणं जाव नो संपराइया किरिया कज्जा / [3-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! सप्तम शतक के सप्तम उद्देशक में वर्णित (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हों)--ऐसा जो संवृत अनगार यावत् सूत्रानुसार आचरण करता है; (उसको ऐपिथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं।) इसी कारण मैं कहता हूँ, यावत् साम्परायिक क्रिया नहीं लगती। ऐपिथिको और साम्परायिको क्रिया के अधिकारी-सप्तम शतक में प्रतिपादित जैनसिद्धान्त का अतिदेश करके यहां बताया गया है कि जो आगे-पीछे के, अगल-बगल के एवं ऊपर-नीचे के रूपों का अवलोकन करते हुए चलता है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न नहीं हुअा है, ऐसे सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले संवत अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है, किन्तु जिसका कषायभाव व्युच्छिन्न हो गया है यावत् जो सूत्रानुसार प्रवृत्ति करता है, उस संवृत अनगार को ऐर्यापथिको क्रिया लगती है। -2 वीयोपंथे : चार रूप : चार अर्थ-(१) वोचि (मतः)पये--वीचि का यहाँ अर्थ है--सम्प्रयोग, ग्रतः भावार्थ हुआ-कषाओं और जीव का सम्बन्ध / वीचिमान् का अर्थ कषायवान् के और पथे का अर्थ 'मार्ग में' है। (2) विचिपथे--विचिर् धातु पृथभाव अर्थ में है / अतः भावार्थ हुअा जो यथाख्यातसंयम से पृथक होकर कषायोदय के मार्ग में है। (3) विचितिपथे-जो रागादि विकल्पों के विचिन्तन के पथ में है, और (4) विकृतिपथे-~जिस स्थिति में सरागता होने से विरूपा कृति-क्रिया है, उस विकृति के मार्ग में। अवीयोपथे- चाररूप : चार अर्थ-(१) अवीचिपथे-अकषाय सम्बन्ध वाले मार्ग में, (2) अविचिपथे- यथाख्यातसंयम से अपृथक मार्ग में, (2) अविचितिपथे-रागादि विकल्पों के 1.2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 495 का सारांश Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588] [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र अविचिन्तन पथ में और (4) अविकृतिपथे-अविकृतिरूप पथ में यानी वीतराग होने से जिस पथ में क्रिया अविकृत हो।' 'पुरओ' आदि शब्दों का भावार्थ-पुरओ-आगे के / निज्झायमाणस्स-निहारते या चिन्तन करते हुए / मगओ---पीछे के / अवयक्खमाणस्स-अवकांक्षा--अपेक्षा करते हुए, या प्रेक्षण करते हुए / अवलोएमाणस्स-अवलोकन करते हुए। संपराइया--साम्परायिकी-कषाय सम्बन्धी / उस्मुत्तमेव रीयति-उत्सूत्र-सूत्रविरुद्ध ही चलता है। महासुतं यथासूत्र--सूत्रानुसार / ईरियावहिया किरिया-ऐपिथिकी क्रिया, जो केवल योगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया हो / रे योनियों के भेद-प्रभेद प्रकार एवं स्वरूप 4. कतिविधा णं भंते ! जोणी पण्णता? गोयमा ! तिविहा जोणी पणत्ता, तं जहा- सोया उसिणा सीतोसिणा / एवं जोगीपयं निरवसेसं भाणियध्वं / [4 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--शीत, उष्ण, शीतोष्ण / यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र का नौवाँ) योनिपद सम्पूर्ण कहना चाहिए। विवेचन-योनिसम्बन्धी निरूपण-प्रस्तुत चौथे सूत्र में योनि के प्रकार, भेदोपभेद, संख्या, वर्णादि का विवरण जानने के लिए प्रज्ञापनासूत्रगत योनिपद का अतिदेश किया गया है / योनि का निर्वचनार्थ--योनिशब्द 'यु मिश्रणे' धातु से निष्पन्न हुमा है। अतः इसका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ हुआ--जिसमें तैजस-कार्मणशरीर वाले जीव औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्ध-समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, उसे योनि कहते हैं / योनि के सामान्यतया तीन प्रकार-प्रस्तुत मूल पाठ में योनि तीन प्रकार की बताई गई है-शीत, उष्ण, शीतोष्ण। शीतस्पर्श के परिणाम वाली शीतयोनि, उष्णस्पर्श के परिणाम वाली उष्णयोनि और उभय-स्पर्श के परिणाम वाली शीतोष्णयोनि कहलाती है। प्रज्ञापना के योनिपद के अनुसार नारकों की शीत और उष्ण दो प्रकार की योनियाँ हैं, देवों और गर्भज जीवों की शीतोष्ण योनियाँ हैं / तेजस्काय की उष्णयोनि होती है तथा शेष जीवों के तीनों प्रकार की योनियाँ होती हैं। 1. वही, अ. वृत्ति, पत्र 496 2. वहीं, पत्र 496 3. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 488.489 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (म. जे. विद्यालय) 9 वा योनिपद, सू. 738-73, पृ. 190-92 4. 'युवन्ति-तजस-कार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरीरयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति झीवा यस्यां सा योनिः / ' --भगवती. प. पू., पत्र 496 Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशम शतक : उद्देशक-२] [589 प्रकारान्तर से योनि के तीन भेद-इस प्रकार हैं-सचित्त (जीव-प्रदेशों से सम्बन्धित) अचित्त (सर्वथा जोवरहित) और मिश्र / नारकों और देवों की योनियाँ अचित्त होती हैं। गर्भज जीवों की सचित्ताचित्त (अंशतः जीवप्रदेश-सहित और अंशतः जीवप्रदेश-रहित) योनि होती है और शेष जीवों की तीनों प्रकार की योनि होती है। अन्य प्रकार से योनि के तीन भेद-ये हैं--संवृत (जो उत्पत्तिस्थान ढंका हुआ-गुप्त हो, वह), विवृत (जो उत्पत्तिस्थान खुला हुआ हो, बह), एवं संवृत-विवृत (जो कुछ ढंका हुआ और कुछ खुला हुआ हो, वह) योनि / नारकों, देवों और एकेन्द्रिय जीवों के संवतयोनि, गर्भज जीवों के संवतविवृतयोनि और शेष जीवों के विवृतयोनि होती है। उत्कृष्टता-निकृष्टता की दृष्टि से योनि के तीन प्रकार ----कूर्मोन्नता (कछुए की पीठ की तरह उन्नत), शंखावर्ता-(शंख के समान पावर्त वाली) और वंशीपत्रा-(बांस के दो पत्तों के समान सम्पुट मिले हुए हों)। चक्रवर्ती की पटरानी श्रीदेवी की शंखावर्ती योनि / तीर्थकर, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों की माता के कर्मोन्नता योनि तथा शेष समस्त संसारी जीवों की माता के वंशीपत्रा योनि होती है।' . चौरासी लाख जीवयोनियाँ-वास्तव में योनि कहते हैं—जीवों के उत्पत्तिस्थान को / वह योनि प्रत्येक जीवनिकाय के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार की है / यथा--पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय की प्रत्येक की 7-7 लाख योनियाँ हैं, प्रत्येक बनस्पतिकाय की 10 लाख, साधारण वनस्पतिकाय की 14 लाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की प्रत्येक की 4-4 लाख और मनुष्य की 14 लाख योनियों हैं। ये सब मिला कर 84 लाख योनियाँ होती है / यद्यपि व्यक्तिभेद की अपेक्षा से अनन्त जीव होने से जीवयोनियों की संख्या अनन्त होती है, किन्तु यहाँ समान वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली योनियों को जातिरूप से सामान्यतया एक योनि मानी गई है / इस दृष्टि से योनियों की कुल 84 लाख जातियाँ (किस्में) हैं।' विविध वेदना : प्रकार एवं स्वरूप 5. कतिविधा णं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णत्ता, तं जहा–सीता उसिणा सीतोसिणा। एवं वेदणापदं माणितव्वं जाव.. नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं घेवणं वेदेति, सुहं वेदणं वेति, अदुक्खमसुहं वेदणं वेति ? गोयमा ! दुक्खं पि घेवणं वेदेति, सुहं पि वेदणं वेदेति, अनुक्खमसुहं पि वेदणं वेति / [5 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? 1. (क) प्रज्ञापना. 9 वा योनिपद (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 496-497 2. भगवती. विवेचन (पं. घेदरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1795 "समवल्याई समेया पहषो वि जोणिभेयलक्खा उ / सामण्णा घेति ह एक्कजोगीए गहणेगं // " Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59.] [ म्यान्याप्राप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है / यथा-शीता, उष्णा और शीतोष्णा / इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण पैतीसवाँ वेदनापद कहना चाहिए; यावत्-[प्र.] 'भगवन्! क्या नैरयिक जीव दु:बरूप वेदना वेदते हैं, या सुखरूप वेदना वेदते हैं, अथवा अदु:ख-असुखरूप वेदना वेदते हैं ? |उ.] हे गौतम ! नैरयिक जीव दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदना भो वेदते हैं और अदुःख-असुखरूप वेदना भी वेदते हैं। विवेचन-वेदनापद के अनुसार वेदना-निरूपण-प्रस्तुत 5 वें सूत्र में प्रज्ञापनासूत्रगत वेदनापद का अतिदेश करके बेदना सम्बन्धी समग्र निरूपण का संकेत किया गया है। वेदना : स्वरूप और प्रकार-जो वेदी (अनुभव की) जाए उसे वेदना कहते हैं / प्रस्तुत में वेदना के तीन प्रकार बताए गए हैं-शीतवेदना, उष्णवेदना और शीतोष्णवेदना / नरक में शीत और उष्ण दोनों प्रकार की वेदना पाई जाती है। शेष असुरकुमारादि से वैमानिक तक 23 दण्डकों में तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती हैं / दूसरे प्रकार से वेदना 4 प्रकार की है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः / पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध से जो वेदना होती है वह द्रन्यवेदना, नरकादि क्षेत्र से सम्बन्धित वेदना क्षेत्रवेदना, पंचमारक एवं षष्ठारक सम्बन्धी वेदना कालवेदना, शोक-क्रोधादिसम्बन्धजनित वेदना भाववेदना है / समस्त संसारी जीवों के ये चारों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं। प्रकारान्तर से त्रिविधवेदना-शारीरिक, मानसिक और शारीरिक-मानसिक वेदना / 16 दण्डकवर्ती समनस्क जीव तीनों प्रकार की वेदना बेदते हैं। जबकि पांच स्थावर एवं तीन विकलेन्द्रिय इन 8 दण्डकों के असंज्ञी जीव शारीरिक वेदना वेदते हैं। वेदना के पुनः तीन भेद हैं-सातावेदना, असातावेदना और साता-असाता वेदना / चौवीस दण्डकों में इन तीनों प्रकार की वेदना पाई जाती हैं / वेदना के पुन: तीन भेद हैं--दुःखा, सुखा और अदुःखसुखा वेदना / तीनों प्रकार की वेदना चौवीस ही दण्डकों में पाई जाती हैं। साता-प्रसाता तथा सुखा-दुःखा वेदना में अन्तर यह है कि साता-असाता क्रमश: उदयप्राप्त वेदनीयकर्म-पुद्गलों की अनुभवरूप वेदनाएँ हैं, जबकि सुखा-दुःखा दूसरे के द्वारा उदीर्यमाण वेदनीय के अनुभवरूप वेदनाएँ हैं / _वेदना के दो भेद-अन्य प्रकार से भी हैं / यथा-आभ्युपगमिकी और प्रौपक्रमिकी। स्वयं कष्ट को स्वीकार करके वेदी जाने वाली आभ्युपगमिकी वेदना है, यथा-केशलोच आदि तथा औपक्रमिकी वेदना वह है, जो स्वयं उदीर्ण (उदय में आई हुई, ज्वरादि) वेदना होती है, अथवा जिसमें उदीरणा करके उदय में लाई वेदना का अनुभव किया जाता है / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य में दोनों प्रकार की वेदनाएँ होती हैं, शेष बाईस दण्डकों में एकमात्र औपक्रमिकी वेदना होती है। वेदना के दो भेद : प्रकारान्तर से—निदा और अनिदा। विवेकसहित जो वेदी जाए वह निदावेदना है और विवेकपूर्वक न वेदी जाए वह अनिदावेदना है। नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य ये 14 दण्डकों के जीव दोनों प्रकार की वेदनाएँ वेदते हैं। इनमें जो संज्ञीभूत 1. (क) वियाहपत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 489 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (म. जे. विद्यालय) 35 वां वेदनापद, सू. 2054-84, पृ. 424- 27 / 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 497 (ख) प्रज्ञापना, 35 वां वेदनापद Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बशम शतक : उद्देशक-२] [591 हैं, वे निदा और जो असंज्ञीभूत हैं वे अनिदा वेदना वेदते हैं----यथा-असंज्ञीभूत पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रिय / ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के दो प्रकार हैं--मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि / मायी मिथ्या दृष्टि अनिदावेदना वेदते हैं और अमायी सम्यग्दृष्टि निदा वेदना बेदते हैं।' वेदनासम्बन्धी विस्तृत वर्णन प्रज्ञापनागत वेदनापद में है / मासिक मिरुप्रतिमा की वास्तविक पाराधना-- 6. मासियं णं भंते ! भिक्खुपडिम पडियन्नस्स प्रणगारस्स निच्चं वोसट्टे काये चियत्ते देहे, एवं मासिया भिवखुपडिमा निरवसेसा भाणियव्वा जहा दसाहिं जाव आराहिया भवति / [6 प्र.] भगवन् ! मासिक भिक्षप्रतिमा जिस अनगार ने अंगीकार की है तथा जिसने शरीर (के प्रति ममत्व) का त्याग कर दिया है और (शरीरसंस्कार आदि के रूप में) काया का सदा के लिए व्युत्सर्ग कर दिया है, इत्यादि दशाश्रुतस्कन्ध में बताए अनुसार मासिक भिक्षु-प्रतिमा सम्बन्धी समग्र वर्णन (बारहवीं भिक्षुप्रतिमा तक) करना चाहिए, यावत् (तभी) पाराधित होती है, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन-भिक्षुप्रतिमा की वास्तविक आराधना--यहाँ छठे सूत्र में मासिक भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किये हुए भिक्षु की भिक्षुप्रतिमाऽऽराधना के विषय में दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा का हवाला देकर यह बताया है कि ऐसा भिक्षु स्नानादि शरीरसंस्कार के त्याग के रूप में काया का व्युत्सर्ग कर देता है तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर देता है, ऐसी स्थिति में जो कोई परिषह या देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकृत उपसर्ग उत्पन्न होते हैं, उन्हें सम्यक प्रकार से सहता है, स्थान से विचलित न होकर क्षमाभाव धारण कर लेता है, दीनता न लाकर तितिक्षा करता है, समभाव से मन-वचन-काया से सहता है, तो उसकी भिक्षुप्रतिमा पाराधित होती है / भिक्षुप्रतिमा : स्वरूप और प्रकार साधु की एक प्रकार की प्रतिज्ञा (अभिग्रह) विशेष को भिक्षुप्रतिमा कहते हैं। यह बारह प्रकार की है। पहली से लेकर सातवी प्रतिमा तक क्रमश: एक मास से लेकर सात मास की हैं / आठवीं, नौवीं और दसवीं प्रतिमा प्रत्येक सात-अहोरात्र की होती हैं / ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्र की और बारहवीं भिक्षुप्रतिमा केवल एक रात्रि की होती है। इसका विस्तृत वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में है। भावार्थ-दोस?काए-स्नानादि शरीरसंस्कार त्याग कर काम का व्युत्सर्ग कर दिया। चहत्ते देहे-(१) कोई भी व्यक्ति मारे-पीटे या शरीर पर प्रहार करे तो भी निवारण न करे, इस प्रकार से शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर दिया हो, अथवा चियत्ते-देह को धर्मसाधन के रूप में प्रधानता से मान कर / / 1. (क) बही 35 वां वेदनापद (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 497 2. (क) दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं साधुप्रतिमादशा पत्र, 44-46 / (मणिविजयग्रन्थमाला-प्रकाशन) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 498 3. (क) वही, पत्र 498 (ख) भगवती. विवेचन भा. 4 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 1799 4. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 498 Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 592] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अकृत्यसेवी भिक्षु : कब अनाराधक, कब पाराधक ? 7. [1] भिक्खू य अनयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा। [7-1] कोई भिक्षु किसी प्रकृत्य (पाप) का सेवन करके, यदि उस अकृत्यस्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर (मर) जाता है तो उसके अाराधना नहीं होती। [2] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा। [7-2] यदि वह भिक्षु उस सेवित अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है / 8. [1] भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं भवति पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयरस ठाणस आलोएस्सामि जाव पडिवज्जिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कते जाव नस्थि तस्स माराहणा। 8.1] कदाचित् किसी भिक्ष ने किसी प्रकृत्यस्थान का सेवन कर लिया, किन्तु बाद में उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि मैं अपने अन्तिम समय में इस प्रकृत्यस्थान को पालोचना करूंगा यावत् तपरूप प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा; परन्तु वह उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाए, तो उसके आराधना नहीं होती। [2] से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा। [8-2] यदि वह (अकृत्यस्थानसेवी भिक्षु) अालोचन और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो उसके आराधना होती है / 9. [1] भिक्खू य अन्नयर अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता, तस्स णं एवं भवति–'जइ ताव समणीवासगा वि कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उपवत्तारो भवंति किमंग पुण अहं अणपन्नियदेवत्तणं पिनो लभिस्सामि ?' त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा। [6-1] कदाचित् किसी भिक्षु ने किसी प्रकृत्यस्थान का सेवन कर लिया हो और उसके बाद उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो कि श्रमणोपासक भी काल के अवसर पर काल करके किन्हों देवलोकों में देवरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अणपनिक देवत्व भी प्राप्त नहीं कर सकंगा?, यह सोच कर यदि वह उस अकृत्य स्थान की प्रालोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके पाराधना नहीं होती। [2] से गं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥वसमे सए बीओ उद्देसओ समत्तो // 10-2 // Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-२] [1-2] यदि वह (अकृत्यसेवी साधु) उस अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके अाराधना होती है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! हे भगवन् ! यह उसी प्रकार है। विवेचन--आराधक-विराधक भिक्षु-प्रस्तुत तीन सूत्रों (7-8-6) में आराधक और विराधक भिक्षु की 6 कोटियां बताई गई हैं.. (1) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करने वाला : अनाराधक (विराधक)। (2) अकृत्यस्थान का सेवन करके आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल करने वाला : आराधक / (3) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में अालोचनादि करके प्रायश्चित्त स्वीकार करने की भावना करने वाला वाला, किन्तु आलोचना-प्रतिक्रमण किये विना ही काल करने वाला : अनाराधक / (4) अकृत्यस्थानसेवी, अन्तिम समय में पालोचनादि करने का भाव और पालोचना प्रतिक्रमण करके काल करने वाला : पाराधक / (5) अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्त कर लूंगा, इस भावना से आलोचनादि किये विना ही काल करने वाला : अनाराधक / (6) अकृत्यस्थानसेवी, श्रमणोपासकवत् देवगति प्राप्ति की भावना, किन्तु आलोचनादि करके काल करने वाला : पाराधक।' // दशम शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्ण त्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 489-490 Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक प्राइड्ढी : आत्मऋद्धि देव को उल्लंघनशक्ति उपोद्घात 1. रायगिहे जाव एवं वदासि--- - [1] राजगृह नगर में (श्री गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से) यावत् इस प्रकार पूछादेवों की देवावासों को उल्लंघनशक्ति : अपनी और दूसरी 2. आइड्डीए पं भते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई बीतिक्कते तेण परं परिड्डीए ? हंता, गोयमा ! आइडीए णं०, तं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! देव क्या आत्मऋद्धि (अपनी शक्ति) द्वारा यावत् चार-पांच देवावासान्तरों का उल्लंघन करता है और इसके पश्चात् दूसरी शक्ति द्वारा उल्लंघन करता है ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! देव प्रात्मशक्ति से यावत् चार-पांच देवावासों का उल्लंघन करता है पोर उसके उपरान्त दूसरी (वैक्रिय) शक्ति (पर-ऋद्धि) द्वारा उल्लंघन करता है / 3. एवं असुरकुमारे वि / नवरं असुरकुमारावासंतराई, सेसं तं चेव / _ [3] इसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी समझ लेना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि वे असुरकुमारों के आवासों का उल्लंघन करते हैं। शेष पूर्ववत् जानना चाहिए / 4. एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे / [4] इसी प्रकार इसी अनुक्रम से यावत् स्तनितकुमारपर्यन्त जानना चाहिए। 5. एवं वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए जाव तेण परं परिड्ढोए / [5] इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-पर्यन्त जानना चाहिए। यावत् वे आत्मशक्ति से चार-पांच अन्य देवावासों का उल्लंघन करते हैं; इसके उपरान्त पर ऋद्धि (स्वाभाविक शक्ति से अतिरिक्त दूसरी वैक्रियशक्ति) से उल्लंघन करते हैं / विवेचन-आत्मऋद्धि और परऋद्धि से देवों की उल्लंघनशक्ति-प्रस्तुत 4 सूत्रों (2 से 5 तक) में गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने यह बताया है कि सामान्य देव, यहाँ तक कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव प्रात्मऋद्धि (स्वकीय स्वाभाविकशक्ति) से अपनी-अपनी जाति के चार-पांच अन्य देवावासों का उल्लंघन कर सकते हैं, इसके उपरान्त वे परऋद्धि यानि स्वाभाविक शक्ति के अतिरिक्त दूसरी (वैक्रिय) शक्ति से उल्लंघन करते हैं।' 1. वियाहपण्णत्ति. (मू. पा, टि.), भा. 2, पृ. 490 Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-३] [595 कठिन शब्दों का भावार्थ-आइडीए--स्वकीय शक्ति से.अथवा जिसमें आत्मा की (अपनी) ही ऋद्धि है, वह आत्मऋद्धिक होकर / परिड्डोए–पर (दूसरी-वैक्रिय) शक्ति से / वीइक्कते-उल्लंघन करता है / देवावासंतराई–देवावास विशेषों को।' देवों का मध्य में से होकर गमनसामर्थ्य 6. अप्पिड्डीए णं भंते ! देवे महिड्डीयस्स देवस्स मज्झमझेणं वीतीवइज्जा ? जो इणढे समझें। [6 प्र.] भगवन्! क्या अल्पऋद्धिक (अल्पशक्तियुक्त) देव, महद्धिक (महाशक्ति वाले) देव के बीच में हो कर जा सकता है ? [6 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / (वह, महद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर नहीं जा सकता।) 7. [1] समिड्डीए णं भंते ! देवे समिडीयस्स देवस्स मज्झमझेणं बीतीवएज्जा ? णो इणठे समझें / पमत्तं पुण वीतीवएज्जा। [7-1 प्र.] भगवन् ! समद्धिक (समान शक्ति वाला) देव समद्धिक देव के बीच में से हो कर जा सकता है ? . [7-1 उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है; परन्तु यदि वह (दूसरा समद्धिक देव) प्रमन्न (असावधान) हो तो (बीचोंबीच हो कर) जा सकता है। [2] से णं भंते ! कि विमोहित्ता पभू, अविमोहित्ता पभू ? गोयमा ! विमोहेत्ता पभू, नो अविमोहेत्ता पभू / [7-2 प्र.] भगवन्! क्या वह देव, उस (सामने वाले सद्धिक देव) को विमोहित करके जा सकता है या विमोहित किये विना जा सकता है ? - [7-2 उ.] गौतम ! वह देव, सामने वाले समद्धिक देव को विमोहित करके जा सकता है, विमोहित किये विना नहीं जा सकता। [3] से भंते ! किं पुटिव विमोहेता पच्छा वीतीवएज्जा ? पुटिव वीतीवएत्ता पच्छा विमोहेज्जा? ___ गोयमा ! पुन्धि विमोहेत्ता पच्छा बीतीवएज्जा, गोवि वीतीवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा। [7.3 प्र.] भगवन् ! क्या वह देव, उस देव को पहले विमोहित करके बाद में जाता है, या पहले जा कर बाद में विमोहित करता है ? [7-3 उ.] गौतम ! वह देव, पहले उसे विमोहित करता है और बाद में जाता है, परन्तु पहले जा कर बाद में विमोहित नहीं करता / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 499 Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रे 8. [1] महिडीए णं भंते ! देवे अप्पिड्डीयस्स देवस्स मज्झमझेणं वीतीवएज्जा ? हंता, बीतीवएज्जा। [8-1 प्र.] भगवन् ! क्या महद्धिक देव, अल्पऋद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर जा सकता है ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम! जा सकता है / [2] से भंते ! कि विमोहित्ता पभू, अविमोहित्ता पभू? गोयमा ! विमोहित्ता बि पभू, अविमोहित्ता वि पभू / [8-2 प्र.] भगवन् ! वह महद्धिक देव, उस अल्पऋद्धिक देव को विमोहित करके जाता है, अथवा विमोहित किये बिना जाता है ? [8-2 उ.] गौतम! वह विमोहित करके भी जा सकता है और विमोहित किये बिना भी जा सकता है। [3] से भंते ! कि पुचि विमोहेत्ता पच्छा बीतीवइज्जा ? पुचि वीतीवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा? गोयमा ! पुटिव वा विमोहित्ता पच्छा बीतीवएज्जा, पुटिव वा वीतीवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा / [8-3 प्र.] भगवन् ! वह महद्धिक देव, उसे पहले विमोहित करके बाद में जाता है, अथवा पहले जा कर बाद में विमोहित करता है? [8-3 उ.] गौतम! वह महद्धिक देव, पहले उसे बिमोहित करके बाद में भी जा सकता है और पहले जा कर बाद में भी विमोहित कर सकता है / 9. [1] अप्पिड्ढोए गं भंते ! असुरकुमारे महिड्डीयस्स असुरकुमारस्स मज्झमझेणं बीतीवएज्जा? णो इणठे समझें। [1-1 प्र.] भगवन् ! अल्प-ऋद्धिक असुरकुमार देव, महद्धिक असुरकुमार देव के बीचोंबीच हो कर जा सकता है ? [9-1 उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं / [2] एवं असुरकुमारेण वि तिण्णि आलावगा भाणियब्वा जहा ओहिएणं देवेणं भणिता। [6-2] इसी प्रकार सामान्य देव के पालापकों की तरह असुरकुमार के भी तीन पालापक कहने चाहिए। [3] एवं जाव थणियकुमारेणं / [6-3] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक तीन-तीन आलापक कहना चाहिए / Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-३] [597 10. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएणं एवं चेव (सु. 9) / [10] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार (सू. 6 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन-अल्पद्धिक, महद्धिक और सद्धिक देवों का एक दूसरे के मध्य में हो कर गमनसामर्थ्य प्रस्तुत पांच सूत्रों (6 से 10 तक) में मध्य में हो कर गमनसामर्थ्य के विषय में मुख्यतया 4 पालापक प्रस्तुत किये गए हैं--(१) अल्प ऋद्धिक देव महद्धिक देव के साथ, (2) समद्धिक समद्धिक के साथ (3) महद्धिक देव का अल्पद्धिक देव के साथ और (4) अल्पद्धिक चारों जाति के देवों का स्व-स्व जातीय महद्धिक देवों के साथ / इन सूत्रों का निष्कर्ष यह है कि अद्धिक देव महद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर नहीं जा सकते / महद्धिक देव अपद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर उसे पहले या पीछे बिमोहित करके या विमोहित किये बिना भी जा सकते हैं। सद्धिक सद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर पहले उसे विमोहित करके जा सकता है, बशर्ते कि जिसके बीचोंबीच होकर जाना है, वह असावधान हो / ' विमोहित करने का तात्पर्य-विमोहित का यहाँ प्रसंगवश अर्थ है--विस्मित करना, अर्थात् महिका (धूअर) आदि के द्वारा अन्धकार करके मोह उत्पन्न कर देना / उस अन्धकार को देख कर सामने वाला देव विस्मय में पड़ जाता है कि यह क्या है ? ठीक उसी समय उसके न देखते हुए ही बीच में से निकल जाना, विमोहित करके निकल जाना कहलाता है / देव-देवियों का एक दूसरे के मध्य में से होकर गमन सामर्थ्य 11. अप्पिड्डीए णं भंते ! देवे महिड्डीयाए देवीए मज्झमझेणं बीतीवएज्जा ? जो इणठे समठे। [11 प्र.] भगवन्! क्या अल्प-ऋद्धिक देव, महद्धिक देवी के मध्य में हो कर जा सकता है ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 12. समिडीए णं भंते ! देवे समिडीयाए देवीए मज्झमझेण ? एवं तहेव देवेण य देवीए य दंडओ भाणियब्वो जाव मागियाए। 12 प्र.] भगवन् ! क्या सद्धिक देव, सद्धिक देवी के बीचोंबीच हो कर जा सकता है ? [12 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से (सू. 7 के अनुसार) देव के साथ देवी का भी दण्डक यावत् वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 13. अप्पिड्डिया णं भंते ! देवो महिड्डीयस्स देवस्स मज्झमझेणं० ? एवं एसो वि तइयो दंडओ भाणियब्यो जाव महिडिया वेमाणिणी अप्पिवियस्स वेमाणियस्स मज्झमझिणं वीतीवएज्जा? हंता, वीतीवएज्जा। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 499 2. वही, पत्र 499 Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 [ বায়ােসলি [13 प्र.] भगवन् ! अल्प-ऋद्धिक देवी, महद्धिक देव के मध्य में से हो कर जा सकती है ? [13 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। इस प्रकार यहाँ भी यह तीसरा दण्डक कहना चाहिए यावत्-(प्र.) भगवन् ! महद्धिक वैमानिक देवी, अल्प-ऋद्धिक वैमानिक देव के बीच में से होकर जा सकती है ? [उ.] हां, गौतम ! जा सकती है। 14. अप्पिड्डीया गं.भंते ! देवी महिड्डियाए देवीए मज्झमझेणं वीतीवएज्जा ? णो इणठे समठे। [14 प्र.] भगवन् ! अल्प-ऋद्धिक देवी महद्धिक देवी के मध्य मेंहोकर जा सकती है ? [14 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 15. एवं समिडिया देवी समिड्डियाए देवीए तहेव / [15] इसी प्रकार सम-ऋद्धिक देवी का सम-ऋद्धिक देवी के साथ (सू. 7 के अनुसार) पूर्ववत् आलापक कहना चाहिए। 16. महिड्डिया देवी अप्पिड्डियाए देवीए तहेव / [16] महद्धिक देवी का अल्प-ऋद्धिक देवी के साथ (सू. 8 के अनुसार) आलापक कहना चाहिए। 17. एवं एक्केके तिग्णि तिणि आलावगा भाणियन्वा जाव माहिडीया णं भंते ! वेमाणिणी अप्पिड्डीयाए वेमाणिणीए मज्झमझेणं वीतीवएज्जा ? हंता, वीतीवएज्जा। सा भंते ! कि विमोहिता पभू? तहेब जाव पुयि वा वोइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा / एए चत्तारि दंडगा। [17] इसी प्रकार एक-एक के तीन-तीन पालापक कहने चाहिए; यावत्---(प्र.) भगवन् ! वैमानिक महद्धिक देवी, अल्प-ऋद्धिक वैमानिक देवी के मध्य में होकर जा सकती है ? [उ. हाँ गौतम ! जा सकती है। यावत..--(प्र.) क्या वह मद्धिक देवी, उसे विमोहित करके जा सकती है या विमोहित किए बिना भी जा सकती है ? तथा पहले विमोहित करके बाद में जाती है, अथवा पहले जा कर बाद में विमोहित करती है ? (उ.) हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए, यावत्-पहले जाती है और पीछे भी विमोहित करती है; तक कहना चाहिए / इस प्रकार के चार दण्डक कहने चाहिए। __ विवेचन--महद्धिक-सद्धिक-अल्पद्धिक देव-देवियों का एक दूसरे के मध्य में से गमनसामर्थ्य प्रस्तुत 7 सूत्रों (11 से 17 तक) में पूर्ववत् गमनसामर्थ्य के विषय में 7 पालापक प्रस्तुत किये गए हैं / यथा-(१) अल्पद्धिक देव का महद्धिक देवी के साथ, (2) सद्धिक देव का सद्धिक देवी के साथ, (सभी जातियों के देवों का स्व-स्वजातीय देवियों के साथ), (3) अल्प-ऋद्धिक देवी का महद्धिक देव के साथ, (4) महद्धिक चतुनिकायगत देवी अल्प-ऋद्धिक चारों जाति के देवों के साथ, (5) अल्प-ऋद्धिक देवी महद्धिक देवी के साथ, (6) सम-ऋद्धिक देवी समद्धिक देवी के साथ, और (7) महद्धिक देवी का अल्प-ऋद्धिक देवी के साथ 1 (यावत् भवनपति से वैमानिक तक महद्धिक देवियों Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-३] का अल्पद्धिक देवियों के साथ ) / इन सबका निष्कर्ष यह है कि जैसे पहले अल्प-ऋद्धिक, महद्धिक और समद्धिक देवों के विषय में कहा है, वैसे ही देव-देवियों के तथा देवियों-देवियों के विषय में भी कहना चाहिए। शेष सभी पूर्ववत् समझना चाहिए।' दौड़ते हुए अश्व के 'खु-खु' शब्द का कारण 18. प्रासस्स गं भंते ! धावमाणस्स कि 'खु खु' त्ति करेइ ? गोयमा ! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगयस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कड़ए नामं वाए समुट्ठइ, जे णं आसस्स धावमाणस्स 'खु खु' त्ति करेति / [18 प्र.] भगवन् ! दौड़ता हुआ घोड़ा 'खु-खु' शब्द क्यों करता है ? [18 उ.] गौतम ! जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके हृदय और यकृत् के बीच में कर्कट नामक वायु उत्पन्न होती है, इससे दौड़ता हुआ घोड़ा 'खु-खु' शब्द करता है। विवेचन-घोड़े की खु-खु आवाज : क्यों और कहाँ से ? --प्रस्तुत सूत्र 18 में दौड़ते हुए घोडे की 'खु-खु' आवाज का कारण हृदय और यकृत के बीच में कर्कटवायु का उत्पन्न होना बताया है। कठिन शब्दों का भावार्थ--आसस्स-अश्व के / धावमाणस्स--दौड़ते हुए। जगयस्सयकृत =(लीवर---पेट के दाहिनी ओर का अवयव विशेष, प्लीहा) के / यियस्स- हृदय के / कक्कडए-कर्कट / समुट्ठइ-उत्पन्न होता है / 3 प्रज्ञापनी भाषा : मृषा नहीं१९. अह भंते ! प्रासइस्सामो सइस्सामो चिहिस्सामो निसिइस्सामो तुट्टिस्सामो, आमंतणि 1 आणमणी 2 जायणि 3 तह पुच्छणी 4 य पण्णवणी 5 / पच्चक्खाणी भासा 6 भासा इच्छाणुलोमा य 7 // 1 // अणभिग्गहिया भासा 8 भासा य अभिग्गहम्मि बोधव्या 9 / संसयकरणी भासा 10 वोयड 11 मन्बोयडा 12 चेव // 2 // पण्णवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा ? हंता, गोयमा ! आसइस्सामो० तं चेव जाव न एसा भासा मोसा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // दसमे सए तइओ उद्देसो समत्तो // 10. 3 // -- . 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 499 (ख) भगवती (विवेचन) पृ. 186, भा. 4 2. वियाहपण तिसूत्तं (म. पा. टिप्पणयुक्त), भा. 2, 5. 493 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 499 Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! 1. आमंत्रणी, 2. प्राज्ञापनी, 3. याचनी, 4. पच्छनी, 5. प्रज्ञापनी, 6. प्रत्याख्यानी, 7. इच्छानुलोमा, 8. अनभिगृहीता, 6. अभिगृहीता, 10. संशयकरणी, 11. व्याकृता और 12. अव्याकृता, इन बारह प्रकार की भाषाओं में 'हम पाश्रय करेंगे, शयन करेंगे, खड़े रहेंगे, बैठेंगे, और लेटेंगे' इत्यादि भाषण करना क्या प्रज्ञापनी भाषा कहलाती है और ऐसी भाषा मृषा (असत्य) नहीं कहलाती है ? [16 उ.] हाँ, गौतम ! यह (पूर्वोक्त) प्राश्रय करेंगे, इत्यादि भाषा प्रज्ञापनी भाषा है, यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है / है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है !' ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-'प्राश्रय करेंगे' इत्यादि भाषा की सत्यासत्यता का निर्णय प्रस्तुत सू. 16 में लौकिक व्यवहार की प्रवृत्ति का कारण होने से आमंत्रणी आदि 12 प्रकार की असत्यामृषा (व्यवहार) भाषाओं में से 'पाश्रय करेंगे' इत्यादि भाषा प्रज्ञापनी होने से मृषा नहीं है, ऐसा निर्णय दिया गया है। बारह प्रकार की भाषाओं का लक्षण-मूलतः चार प्रकार की भाषाएँ शास्त्र में बताई गई हैं / यथा-सत्या, मृषा (असत्या), सत्यामृषा और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा / प्रज्ञापनासूत्र के ग्यारहवें भाषायद में असत्यामषाभाषा के 12 भेद बताए हैं, जिनका नामोल्लेख मूलपाठ में है। उनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं (1) आमंत्रणी-किसी को आमंत्रण-सम्बोधन करना / जैसे-हे भगवन् ! (2) प्राज्ञापनी-दूसरे को किसी कार्य में प्रेरित करने वाली / यथा-बैठो, उठो आदि / (3) याचनी याचना करने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा / जैसे—मुझे सिद्धि प्रदान करें। (4) पच्छनी-अज्ञात या संदिग्ध पदार्थों को जानने के लिए पृच्छा व्यक्त करने वाली। जैसे 'इसका अर्थ क्या है ?' (5) प्रज्ञापनी-उपदेश या निवेदन करने के लिए प्रयुक्त की गई भाषा / जैसे--मृषा वाद अविश्वास का हेतु है / अथवा ऐसे बैठेंगे, लेटेंगे इत्यादि। (6) प्रत्याख्यानी-निषेधात्मक भाषा। जैसे–चोरी मत करो। अथवा मैं चोरी नहीं करूंगा। (7) इच्छानुलोमा--दूसरे की इच्छा का अनुसरण करना अथवा अपनी इच्छा प्रकट करना / (8) अनभिग्रहीता-प्रतिनियत (निश्चित) अर्थ का ज्ञान न होने पर उसके लिए बोलना। (9) अभिग्रहीता--प्रतिनियत अर्थ का बोध कराने वाली भाषा / (10) संशयकरणी-अनेकार्थवाचक शब्द का प्रयोग करना / 1. विपाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 493 Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-३ ] [601 (11) व्याकृता-स्पष्ट अर्थवाली भाषा / (12) अव्याकृता अस्पष्ट उच्चारण वाली या गंभीर अर्थ वाली भाषा / 'हम पाश्रय करेंगे', इत्यादि भाषा यद्यपि भविष्यकालीन है, तथापि वर्तमान सामीप्य होने से प्रज्ञापनी भाषा है, जो असत्य नहीं है।' // दशम शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 499-500 Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक सामहत्थी : श्यामहस्ती उपोद्घात - 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था / वण्णओ। दूतिपलासए चेतिए / सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। [1] उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका यहाँ वर्णन समझ लेना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था। (एक बार) वहाँ श्रमण भगवान महावीर का समवसरण हुआ। यावत् परिषद् आई और वापस लौट गई। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूती नाम अणगारे जाव उड्दजाण जाव विहरई। [0] उस काल और उस समय में, (वहाँ श्रमण भगवान महावीर की सेवा में) श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति (गौतम) नामक अनगार थे। वे ऊर्वजानु यावत् विचरण करते थे। 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अणगारे पगतिभद्दए जहा रोहे जाव उड्ढंजाणू जाव विहरति / |3] उस काल और उस समयं में श्रमण भगवान महावीर के एक अन्तेवासी (शिष्य) थेश्यामहस्ती नामक अनगार / वे प्रकृतिभद्र, प्रकृतिविनीत, यावत् रोह अनगार के समान उर्ध्व जानु, यावत् विचरण करते थे। 4. तए णं से सामहत्थी अणगारे जायसड्ढे जाव उढाए उठेति, उ० 2 जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 भगवं मोयमं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी [4] एक दिन उन श्यामहस्ती नामक अनगार को श्रद्धा, संशय, विस्मय आदि उत्पन्न हुए / यावत वे अपने स्थान से उठे और उठ कर जहाँ भगवान गौतमस्वामी विराजमान थे, वहाँ पाए / भगवान् गौतमस्वामी के पास आकर वन्दना-नमस्कार कर यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछने लगे विवेचनश्यामहस्ती अनगार : परिचय एवं प्रश्न का उत्थान–प्रस्तुत 4 सूत्रों में बताया गया है कि उस समय श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर में द्युतिपलाश नामक उद्यान में विराजमान थे। उनके पट्टशिष्य इन्द्रभूति गौतमस्वामी भी उन्हीं की सेवा में थे। वहीं भगवान् महावीर की सेवा में उनके एक शिष्य श्यामहस्ती थे, जो प्रकृति से भद्र, नम्र एवं विनीत थे / एक Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-४] दिन श्यामहस्ती अनगार के मन में कुछ प्रश्न उठे। उनके मन में श्री गौतमस्वामी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति जागी। उद्भूत प्रश्नों का समाधान पाने के लिए उनके कदम बढ़े और जहाँ गौतमस्वामी थे, वहाँ आकर उन्होंने वन्दना-- नमस्कारपूर्वक सविनय कुछ प्रश्न पूछे / श्यामहस्ती अनगार के प्रश्न होने से इस उद्देशक का नाम भी श्यामहस्ती है।' ___ कठिन शब्दार्थ-पगतिभद्दए–प्रकृति से भद्र / जायसड्ढे श्रद्धा उत्पन्न हुई। चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव : अस्तित्व, कारण एवं सदैव स्थायित्व 5. [1] अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा ? हंता, अत्थि। [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के प्रायस्त्रिशक देव हैं ? [5-1 उ.] हाँ, (श्यामहस्ती ! चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव) हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति--चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररणोतावत्तीसगा देवा, तावत्तोसगा देवा ? एवं खलु सामहत्थी! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी नामं नगरी होत्था / वष्णो / तत्थ णं कायंदीए नयरीए तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाऽजीवा उवलद्धपुग्ण-पावा जाव विहरति / तए णं ते तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासया पुन्धि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तो पच्छा पासत्था पासथविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणंति, पा० 2 अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं असेंति, झू० 2 तोसं भत्ताई अणसणाए छेति, छे० 2 तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना। 5-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असुरकुमारों के राजा असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [5-2 उ.] हे श्यामहस्ती ! (असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव होने का) कारण इस प्रकार है-उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नाम की नगरी थी। उसका वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिए / उस काकन्दी नगरी में (एक दूसरे के) सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक (श्रावक) रहते थे / वे धनाढ्य यावत् अपरिभूत थे / वे जीव-अजीव के ज्ञाता एवं पुण्यपाप को हृदयंगम किये हुए विचरण (जीवन-यापन) करते थे। एक समय था, जब वे परस्पर सहायक गहपति श्रमणोपासक पहले उग्र (उत्कृष्ट-प्राचारी), उग्र-विहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्त तत्पर त् वे पाश्वस्थ, पाश्वस्थावहारी, अवसत्र, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथान्छन्द और यथाच्छन्दविहारी हो गए। बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक 1. वियाहपण्णत्तिसुतं (मू. पा. टि.), भा. 2, पृ. 493-494 2. भगवती. अ, ब, पत्र 502 Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604] [व्याध्याप्रज्ञप्तिसूत्र संलेखना द्वारा शरीर को (अपने आप को) कृश करके तथा तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) करके, उस (प्रमाद-) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के अवसर पर काल कर वे (तीसों ही) असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के नास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए हैं। [3] जप्पभिति च णं भंते ! ते कायंदगा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोबासगा चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसदेवत्ताए उववन्ना तप्पभिति च णं भंते ! एवं वुच्चति 'चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा' ? / [5-3 प्र. (श्यामहस्ती गौतमस्वामी से—) भगवन् ! जब से वे काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिश-देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के (ये) तेतीस देव त्रायस्त्रिशक देव हैं ? (क्या इससे पहले उसके त्रास्त्रिशक देव नहीं थे ?) 6. तए थे भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिते कखिए वितिगिछिए उढाए उठेइ, उ०२ सामहस्थिणा अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वं० 2 एवं वदासी [6] तब श्यामहस्ती अनगार के द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी शंकित, कांक्षित एवं विचिकित्सित (अतिसंदेहास्त) हो गए / वे वहाँ से उठे और श्यामहस्ती अनगार के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीरस्वामी विराजमान थे, वहाँ पाए / तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा 7. [1] अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, हस्थि / [7.1 प्र.] (गौतमस्वामी ने भगवान् से-) भगवन् ! क्या असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [7-1 उ.] हाँ, गौतम हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ, एवं तं चैव सव्वं (सु. 5.2) भाणियब्वं, जाव तावत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा / 7.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् (5-2 के अनुसार) प्रश्न / 7i-2 उ.] उत्तर में पूर्वकथित त्रास्त्रिशक देवों का समस्त वृत्तान्त कहना चाहिए यावत् वे ही (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक मर कर) चमरेन्द्र के त्रास्त्रिश देव के रूप में उत्पन्न हुए। [3] भंते ! तप्पभिति च णं एवं बुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा? Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-४ ] जो इण→ समठे, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कदायि नासी, न कदायि न भवति, जाव निच्चे अन्वोच्छित्तिनय?ताए / अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / [7-3 प्र.] भगवन् ! जब से वे (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के) त्रास्त्रिशक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ? (क्या इस से पूर्व उसके त्रायस्त्रिशक देव नहीं थे?) [7-3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं ; (अर्थात्-ऐसा सम्भव नहीं है) असुरराज असुरेन्द्र चमर के वायस्त्रिशक देवों के नाम शाश्वत कहे गए हैं। इसलिए किसी समय नहीं थे, या नहीं है / ऐसा नहीं, और कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं। यावत् अव्युच्छित्ति (द्रव्याथिक) नय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, (किन्तु पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से) पहले बाले च्यवते हैं, और दूसरे उत्पन्न होते हैं / (उनका प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता।) विवेचन-असुरेन्द्र के वार्यास्त्रशक देवों को नित्यता-अनित्यता का निर्णय प्रस्तुत तीन सूत्रों (5-6-7) में बताया गया है कि श्यामहस्ती अनगार द्वारा असुरराज चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के अस्तित्व तथा त्रास्त्रिशक होने के कारणों के सम्बन्ध में गौतमस्वामी से पूछा / गौतमस्वामी ने उनका पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाया। किन्तु जब श्यामहस्ती ने यह पूछा कि क्या इससे पूर्व असुरेन्द्र के वास्त्रिशक देव नहीं थे ? इस पर विनम्र गौतमस्वामी ने भगवान महावीर के चरणों में जा कर अपनी इस शंका को प्रस्तुत करके समाधान प्राप्त किया कि द्रव्याथिकनय की दृष्टि ये त्रायस्त्रिशक देव शाश्वत एवं नित्य हैं, किन्तु पर्यायाथिकनय की दृष्टि से पूर्व के वायस्त्रिशक देव प्रायु समाप्त होने पर च्यवन कर जाते हैं, उनके स्थान पर नये त्रास्त्रिशक देव उत्पन्न होते हैं / परन्तु त्रायस्त्रिशक देवों का प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता।' 'उम्गा' आदि शब्दों का भावार्थ- उग्गा-भाव से उदात्त या उदारचरित / उग्गविहारीउदार प्राचार वाले / संविग्गा-मोक्षप्राप्ति के इच्छुक अथवा संसार से भयभीत / संविग्गविहारी मोक्ष के अनुकूल आचरण करने वाले। पासस्था-पाशस्थ शरीरादि मोहपाश में बंधे हुए, या पार्श्वस्थ-ज्ञानादि से बहिर्भत / पासस्थविहारी-मोहपाशग्रस्त होकर व्यवहार करने वाले अथवा ज्ञानादि से बहिर्भूत प्रवृत्ति करने वाले / ओसन्ना-उत्तर प्रचार का पालन करने में आलसी / ओसन्नविहारी—जीवनपर्यन्त शिथिलाचारी / कुसीला-ज्ञानादि प्राचार की विराधना करने वाले / कुसोलविहारी-जीवनपर्यन्त ज्ञानादि प्राचार के विराधक। अहाछंदा-अपनी इच्छानुसार सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले / अहाछंद विहारी--जीवनपर्यन्त स्वच्छन्दाचारी / आस्त्रिश देवों का लक्षण जो देव मंत्री और पुरोहित का कार्य करते हैं, वे त्रास्त्रिशक 1. वियाहपण्णत्तिसुतं (मूल पाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 494-495 2. भगवती. अ. अति, पत्र 502 Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कहलाते हैं, ये तेतीस की संख्या में होते हैं।' सहाया : दो रूप : दो अर्थ—(१) सहायाः-परस्पर सहायक / (2) स भाजा:-परस्पर प्रीतिभाजन / / बलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन 8. [1] अस्थि णं भंते ! बलिस्स वइरोणिदस्स वइरोयणरणो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, हस्थि / [8-1 प्र.] भगवन् ! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के श्रायस्त्रिशक देव हैं ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति बलिस्स वइरोर्याणदस्स जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे विन्भेले णामं सग्निवेसे होत्था। वण्णओ। तत्थ णं वेभेले सनिवेसे जहा चमरस्स जाव उववन्ना। जप्पभितिं च णं भंते ! ते विभेलगा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा बलिस्स बइरोणिदस्स वइरोयणरण्णो सेसं तं चेव (सु.७ [2]) जाव निच्चे अव्वोच्छित्तिनयट्टयाए / अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / [8-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के तेतीस त्रास्त्रिशक देव हैं ? [8-2 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में बिभेल नामक एक सन्निवेश था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार करना चाहिए। उस बिभेल सन्निवेश में परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक थे ; इत्यादि जैसा वर्णन चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशकों के लिए (5-2 में) किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए, यावत्--वे त्रायस्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। [प्र.] भगवन् ! जब से वे बिभेलसन्निवेशनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक बलि के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [उ.) (इसके उत्तर में) शेष सभी वर्णन (सू. 7-2 के अनुसार) पूर्ववत् जानना चाहिए ; यावत्--वे अव्युच्छित्ति (द्रव्याथिक)-नय की अपेक्षा नित्य हैं। (किन्तु पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से) पुराने (त्रायस्त्रिशक देव) च्यवते रहते हैं, (उनके स्थान पर) दूसरे (नये) उत्पन्न होते रहते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचनबलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता-अनित्यता का निर्णय प्रस्तुत 8 वें सूत्र में वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रास्त्रिशक देवों के अस्तित्व, उत्पत्ति एवं द्रव्याथिकनय की 1. 'श्रास्त्रिशा—मंत्रिविकल्पा: ।'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 502 2. (क) सहाया:-परस्परेण सहायकारिणः ।वही, पत्र 502 (ख) सभाजा:-परस्परं प्रीतिभाजः ।-वियाहप. मू. पा. टि., भा., 25. 494 Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वशम शतक : उद्देशक-४] [607 दृष्टि से नित्यता और पर्यायाथिक-दष्टि से व्यक्तिगत रूप से अनित्यता किन्तु प्रवाहरूप से अविच्छिन्नता का प्रतिपादन पूर्वसूत्रों के अतिदेश द्वारा किया गया है / ' धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र-पर्यन्त के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता का निरूपण--- 9. [1] अस्थि णं भंते ! धरणस्स नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, अस्थि / [6-1 प्र.) भगवन् ! क्या नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रास्त्रिशक देव हैं ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! हैं / [2] से केणठेणं जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णते, जं न कदायि नासी, जाव अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण के त्रास्त्रिशक देव हैं ? [1-2 उ. गौतम ! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के त्रास्त्रिशक देवों के नाम शाश्वत कहे गये हैं। वे किसी समय नहीं थे, ऐसा नहीं है; 'नहीं रहेंगे'—ऐसा भी नहीं; यावत् पुराने च्यवते हैं और (उनके स्थान पर) नये उत्पन्न होते हैं। (इसलिए प्रवाहरूप से वे अनादिकाल से हैं / 10. एवं भूयाणंदस्स वि / एवं जाव महाघोसस्स / [10] इसी प्रकार भूतानन्द इन्द्र, यावत् महाघोष इन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों के विषय में जानना चाहिए। विवेचन-धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र तक के त्रायस्त्रिशक देवों की नित्यता-सूत्र 6 एवं 10 में प्रतिपादित है / शक्रेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के त्रास्त्रिशक : कौन और कैसे ? 11. [1] अस्थि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो० पुच्छा। हंता, अस्थि / [11-1 प्र. भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र शक के त्रास्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [11-1 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। [2] से केणट्टेणं जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे वालाए नामं सन्निवेसे होत्था / वण्णओ। तत्थ णं वालाए सन्निवेसे तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा जहा चमरस्स जाब विहरति / तए णं ते तावत्तीसं सहाया गाहावतो समणोवासगा पुवि पि पच्छा वि उग्गा 1. बियाहपपत्तिमुत्तं (मूलपाठ टिप्पण). भा. 2, पृ. 895 ----- Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उम्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति, झू० 2 सढि भत्ताई अणसणाए छेदेति, छे० 2 आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववन्ना। जप्पभिति च णं भंते ! ते वालागा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाव अन्ने उववज्जति / (11-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि देवेन्द्र देवराज शक्र के त्रास्त्रिशक देव हैं ? 11-2 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में बालाक (अथवा पलाशक) सन्निवेश था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस वालाक सनिवेश में परस्पर सहायक (अथवा प्रीतिभाजन) तेतीस गृहपति श्रमणोपासक रहते थे, इत्यादि सब वर्णन चरमेन्द्र के त्रास्त्रिशकों (सू. 5-1-2) के अनुसार करना चाहिए; यावत् विचरण करते थे। वे तेतीम परस्पर सहायक गृहस्थ श्रमणोपासक पहले भी और पीछे भी उग्र, उपविहारो एवं संविग्न तथा संविनविहारी होकर बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना से शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन करके, अन्त में आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल के अवसर पर समाधिपूर्वक काल करके यावत् शक्र के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए / 'भगवन् ! जब से वे बालाक निवासी परस्परसहायक गृहपति श्रमणोपासक शक के त्रास्त्रिशकों के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से शक के त्रास्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न एवं उसके उत्तर में शेष समग्र वर्णन, यावत् पुराने च्यवते हैं और नये उत्पन्न होते हैं; यहाँ तक चरमेन्द्र के समान कहना चाहिए। 12. अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स० / एवं जहा सक्कस्स, नवरं चंपाए नगरोए जाव उववन्ना। जप्पिभिति च णं भंते ! चंपिच्चा तावत्तीसं सहाया० सेसं तं चेव जाव अन्ने उववज्जति / [12 प्र. उ.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न का उत्तर शकेन्द्र के समान जानना चाहिए / इतना विशेष है कि ये तेतीस श्रमणोपासक चम्पानगरी के निवासी थे, यावत् ईशानेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। (इसके पश्चात्) जब से ये चम्पानगरी निवासी तेतीस परस्पर सहायक श्रमणोपासक त्रास्त्रिशक बने, इत्यादि (प्रश्न और उसके उत्तर में) शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए, यावत् पुराने च्यवते हैं और नये (अन्य) उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 13. [1] अस्थि णं भंते ! सणंकुमारस्स देविदस्स देवरणो० पुच्छा / हता, अस्थि / [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [13-1 उ.] हाँ गौतम हैं / [2] से केणठेणं० ? जहा धरणस्स तहेव / [13-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न तथा उसके उत्तर में जैसे धरणेन्द्र के विषय में कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिए / Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-४] [609 14. एवं जाव पाणतस्स / एवं अच्चुतस्स जाव अन्ने उववज्जति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // दसमस्स चउत्थो // 10. 4 // [14] इसी प्रकार यावत् प्राणत (देवेन्द्र) तक के त्रास्त्रिशक देवों के विषय में जान लेना चाहिए और इसी प्रकार अच्युतेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के सम्बन्ध में जानना चाहिए, यावत् पुराने च्यवते हैं और (उनके स्थान पर) नये (त्रास्त्रिश देव) उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-शकेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के नास्त्रिशक देवों की नित्यता प्रस्तुत 4 सूत्रों (11 से 14 तक) में पूर्वोक्त सत्रों का प्रतिदेश करके शवेन्द्र से अच्यतेन्द्र तक 12 प्रकार के कल्पों के वैमानिक देवेन्द्रों के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन किया है / प्रायः सभी का वर्णन एक-सा है / केवल त्रायस्त्रिशकों के पूर्वजन्म में उग्र, उपविहारी, संविग्न एवं संविग्नविहारी श्रमणोपासक थे और अन्तिम समय में इन्होंने संलेखना एवं अनशनपूर्वक एवं पालोचनाप्रायश्चित्त करके प्रात्मशुद्धिपूर्वक समाधिमरण (पण्डितमरण) प्राप्त किया था।' त्रास्त्रिशक देव : किन देवनिकायों में ?–देवों के 4 निकाय हैं-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / इनमें से वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों में त्रास्त्रिशक नहीं होते, किन्तु भवनपति एवं वैमानिक देवों में होते हैं / इसीलिए यहां भवनपति और वैमानिक देवों के प्रायस्त्रिशक देवों का वर्णन है / // दशम शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 8. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 496-497 9, भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1819 Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : पंचम उद्देशक ... देवी : अग्रमहिषीवर्णन उपोद्घात 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया। ... [1] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था / वहां गुणशीलक नामक उद्यान था। (वहाँ श्रमण भगवान् महावीरस्वामो का समवसरण हुा / ) यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर) लौट गई। .. 2, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अट्ठमें सए सत्तमुद्देसए (स. 8 उ. 7. सु. 3) जाव विहरति / ... [2] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीरस्वामी के बहुत-मे अन्तेवासी (शिष्य) स्थविर भगवान् जातिसम्पन्न " इत्यादि विशेषणों से युक्त थे, आटवें शतक के सप्तम उद्देशक के अनुसार अनेक विशिष्ट गुणसम्पन्न, यावत् विचरण करते थे। ..3. तए णं ते थेरा भगवंतो . जायसट्टा जायसंसया जहा गोयमसामी जाव पज्जुबासमाणा एवं वदासी- .. .-....... : . ... ... ... ... :: [3] एक बार उन स्थविरों (के मन) में (जिज्ञासायुक्त) श्रद्धा और शंका उत्पन्न हुई। अतः वे गौतमस्वामी की तरह, यावत् (भगवान् की) पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछने लगे विवेचन स्थविरों द्वारा पृच्छा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में इस उद्देशक की उत्थानिका प्रस्तुत करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि एक बार जब भगवान् महावीर राजगृहस्थित गुणशीलक उद्यान में विराजमान थे, तब उनके शिष्यस्थविरों के मन में कुछ जिज्ञासाएँ उत्पन्न हुई। उनका समाधान पाने के लिए उन्होंने अपनी प्रश्नावलो क्रमश: भगवान् महावीर के समक्ष सविनय प्रस्तुत की / ' 4. चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररणो कति अग्गम हिसीओ पन्नताओ? अज्जो ! पंच अग्गमहिसीनो पन्नताओ, तं जहा—काली रायी रयणी विज्जू मेहा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए अटुट्ठ देवीसहस्सा परिवारो पन्नत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई अष्ट देवीसहस्साई परियारं विउवित्तए / एकामेव सपुब्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा, से तं तुडिए / |4 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी अग्रमहिषियाँ (पटरानियांमुख्यदेवियाँ) कही गई हैं ? 1. बियाहाणतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 497 Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [611. दशम शतक : उद्देशक-५] [4 उ.] पार्यो ! (चमरेन्द्र की) पांच अग्रम हिषियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार--(१) काली, (2). राजी, (3) रजनी, (4) विद्युत् और (5) मेघा। इनमें से एक-एक अग्रमहिषी का आठ-नाठ हजार देवियों का परिवार कहा गया है / * एक-एक देवी (अग्रमहिषी), दूसरी पाठ-पाठ हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है / इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर (पांच अग्रमहिषियों का परिवार) चालीस हज़ार देवियाँ हैं / यह एक त्रुटिक (वर्ग) हुआ / विवेचन-चमरेन्द्र को अग्रमहिषियों का परिवार--प्रस्तुत चौथे सूत्र में चमरेन्द्र की 5 अग्रमहिषियों तथा उनके प्रत्येक के 8-8 हजार देवियों का परिवार तथा कुल 40 हजार देवियाँ बताई गई हैं। इन सबका एक बर्ग (त्रुटिक) कहलाता है / कठिन शब्दार्थ अगमहिसी अग्रमहिषी (पटरानी या प्रमुख देवी) अट्ठदेवीसहस्साईपाठ-पाठ हजार देवियाँ / ' .. अपनी सुधर्मा सभा में चमरेन्द्र को मथुननिमित्तक भोग को असमर्थता 5. [1] पभू गं-भंते ! चमरे असुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए समाए सुहम्माए चमरंसि सोहासणंसि तुडिएणं सद्धि दिब्धाई भोगभोगाइं जमाणे ब्रिरित्तए? :: णो इणळे समझें। . . . . . [5-1. प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर अपुनी चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा : में चमर नामक सिंहासन पर बैठ कर (पूर्वोक्त) त्रुटिक (स्वदेवियों के परिवार) के साथ भोग्य दिव्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? . : [5-1: उ..] (हे प्रार्थो ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइनो पभू चमरे असुरिदे चमरचंचाए रायहाणीएं जावे विहरित्तए ? "अज्जो ! चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचचाए रायहाणीए सभाएं सुहम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु : बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिठ्ठति, जाओणे चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररणो अन्नेसि च बहणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जायो नमसणिज्जाओ पूणिज्जाओं सक्कारणिज्जॉो सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पन्जुवासणिज्जानो भवंति, तेसि पणिहाए नो पभू; से तेणठेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ - नो पभू चमरे असुरिंदे जाव राया चमरचंचाए जाव विहरित्तए।" [5-2. प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में यावत् भोग्य दिव्य भोगों को भोगने में समर्थ नहीं है. ? : |5-2. उ.] आर्यो ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की चमरचंचा नामक राजधानी की सुधर्मासभा में माणवक चैत्यस्तम्भ में, वज्रमय (हीरों के) गोल डिब्बों में जिन भगवान् की बहुत-सी अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो कि असुरेन्द्र असुरकुमारराज के लिए तथा अन्य बहुत-से असुरकुमार देवों 1. भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, पृ. 1821 Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणोय, पूजनीय, सत्कारयोग्य एवं सम्मानयोग्य हैं / वे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप एवं पर्युपासनीय हैं। इसलिए उन (जिन भगवान् की अस्थियों) के प्रणिधान (सान्निध्य) में वह (असुरेन्द्र, अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में) यावत् भोग भोगने में समर्थ नहीं है। इसीलिए हे आर्यो ! ऐसा कहा गया है कि असुरेन्द्र यावत् चमर, चमरचंचा राजधानी में यावत् दिव्य भोग भोगने में समर्थ नहीं है। [3] पभू णं अज्जो ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सोहिं तावत्तीसाए जाय अन्नेहि य बहूहि असुरकुमारेहि देवेहि य देवोहि य द्धि संपरिबुडे महयाऽहय जाव' भुजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारिद्धीए; नो चेव णं मेहुणवत्तियं / [5-3. उ.] परन्तु हे आर्यो ! वह असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर, अपनी चमरचंचा राजधानी की सुधर्मासभा में चमर नामक सिंहासन पर बैठ कर चौसठ हजार सामानिक देवों, त्रायस्त्रिशक देवों और दूसरे बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत होकर महानिनाद के साथ होने वाले नाटय, गीत, वादित्र आदि के शब्दों से होने वाले (राग-रंग रूप) दिव्य भोग्य भोगों का केवल परिवार की ऋद्धि से उपभोग करने में समर्थ है, किन्तु मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं। विवेचन--समरेन्द्र सुधर्मा सभा में मैथुननिमित्तक भोग भोगने में असमर्थ प्रस्तुत पाँचवें सूत्र में सुधर्मासभा में मैथुन-निमित्तक भोग भोगने की चमरेन्द्र की असमर्थता का सयुक्तिक प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दों का भावार्थ-वइरामएसु-वज्रमय (हीरों के बने हुए), मोलवट्टसमुग्गएमवृत्ताकार गोल डिब्बों में। जिणसकहाओ-जिन भगवान् की अस्थियाँ / अच्चणिज्जा-अर्चनीय / पज्जुवासणिज्जाओ-उपासना करने योग्य / पणिहाए--प्रणिधान-सान्निध्य में। मेहगवसियंमैथुन के निमित्त / परियारिद्धोए—परिवार की ऋद्धि से अर्थात्- अपने देवी परिवार की स्त्री शब्दश्रवण-रूपदर्शनादि परिचारणा रूप आदि से / ' चमरेन्द्र के सोमादि लोकपालों का देवी-परिवार 6. चमरस्स गं भंते ! असुरिवस्स असुरकुमाररण्णो सोमस्स महारगणो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ? अज्जो! सत्तारि अग्गम हिसीनो पन्नताओ, तं जहा—कणगा कणगलया चित्तगुत्ता वसुधरा / तत्थ ण एगमेगाए देवीए एगमेगं देविसहस्सं परिवारो पनत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नं एगमेगं देविसहस्सं परिवार विउवित्तए / एवामेव चत्तारि देविसहस्सा, से तं तुडिए / 1. 'जाव' पद सूचित पाठ-"नट्टगीयवाइयतंतोतलतालतुडियघणमुइंगपटुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई ति"। अ.व. व्याख्या. पत्र 506 2. विहायपणत्तिसुत्तं (मूल पाठ टिप्पण) भा. 2, पृ. 498 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 505-506 Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-५] [613 [6 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के लोकपाल सोम महाराज की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [6 उ.] पार्यो ! उनके चार अग्रमहिषियों हैं। यथा--कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता और वसुन्धरा। इनमें से प्रत्येक देवी का एक-एक हजार देवियों का परिवार है। इनमें से प्रत्येक देवी, एक-एक हजार देवियों के परिवार को विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिल कर चार हजार देवियाँ होती हैं / यह एक त्रुटिक (देवी-वर्ग) कहलाता है / 7. पभू णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए समाए सुहम्माए सोमंसि सोहासणंसि तुडिएणं० ? अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा सूरियाभस्स,' सेसं सं वेब जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / [7 प्र.] भगवन् ! क्या असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर का लोकपाल सोम महाराजा, अपनी सोमा नामक राजधानी की सुधर्मासभा में, सोम नामक सिंहासन पर बैठ कर अपने उस त्रुटिक (देवियों के परिवारवर्ग) के साथ भोग्य दिव्य-भोग भोगने में समर्थ है ? [7 उ.] (हे आर्यो ! ) जिस प्रकार असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के सम्बन्ध में कहा गया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए, परन्तु इसका परिवार, राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णित सूर्याभदेव के परिवार के समान जानना चाहिए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् वह सोमा राजधानी की सुधर्मा सभा में मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। 8. चमरस्स गं भंते ! जाव रण्णो जमस्स महारणो कति अगमहिसीओ.? एवं चेव, नवरं जमाए रायहाणीए सेसं जहा सोमस्स / [8 प्र.] भगवन् ! चमरेन्द्र के यावत् लोकपाल यम महाराजा की कितनी अग्रम हिषियाँ हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। 8 उ. (आर्यो ! ) जिस प्रकार सोम महाराजा के सम्बन्ध में कहा है, उसी प्रकार यम महाराजा के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि यम लोकपाल की राजधानी यमा है / शेष सब वर्णन सोम महाराजा के समान जानना चाहिए। 9. एवं वरुणस्स वि, नवरं वरुणाए रायहाणीए / [9] इसी प्रकार (लोकपाल) वरुण महाराजा का भी कथन करना चाहिए। विशेष यही है कि वरुण महाराजा की राजधानी का नाम वरुणा है / (शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / ) 10. एवं वेसमणस्स वि, नवरं वेसमणाए रायहाणीए। सेसं तं चेव जाव णो चेवणं मेहणवत्तियं / [10] इसी प्रकार (लोकपाल) वैश्रमण महाराजा के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वैधमण की राजधानी वैश्रमणा है / शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत'वे वहाँ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। ----- .... 1. यहाँ राजप्रश्नीयसूत्रगत सूर्याभदेव का वर्णन जान लेना चाहिए Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614) व्याख्याप्रप्तिसूत्रं विवेचन- चमरेन्द्र के चार लोकपालों का देवीपरिवार तथा सुधर्मासभा में भोगअसमर्थता-प्रस्तुत 5 सूत्रों (6 से 10 तक) में चमरेन्द्र के चारों लोकपालों (सोम, यम, वरुण, वैश्रमण) की अनमहिषियों तथा तत्सम्बन्धी देवीवर्ग की संख्या का, निरूपण किया गया है। साथ ही अपनी-अपनी राजधानी को सुधर्मा सभा में बैठ कर अपने देवीवर्ग के साथ सबकी, मैथुननिमित्तक भोग की असमर्थता बताई गई है। सबकी राजधानी और सिंहासन का नाम अपने-अपने नाम के अनुरूप है। बलीन्द्र एवं उसके लोकपालों का देवीपरिवार . .11. बलिस्सणं भंते ! वइरोणिदस्स० पुच्छा / प्रज्जो! पंच अग्गमाहिसीनो पनत्तानो, तं जहा-सुभा निसुभा रंभा निरंभा मयणा तत्थ पं.एगमेगाए देवीए.अट्ट० सेसंजहा चमरस्स; नवरं बलिचंचाए सयहाणोए परियारो जहा मोउद्देसए (स.उन 1 सु. 11-12),2 सेसं तं चेव, जाव मेहणवत्तियं .. . .... .. ..... ... ... ... . ... . .. ........ [11 प्र.] भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनरांज बली की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? 11 उ. पार्यो ! (बलीन्द्र की) पाँच अग्रमहिषियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं-शुम्भा, निशुम्भा, रम्भा, निरम्भा और मदना। इनमें से प्रत्येक, देवी (अग्रमहिषी) के आठ-पाठ हजार देवियों का परिवार है; इत्यादि शेष समग्र वर्णन चमरेन्द्र के देवीवर्ग के समान जानना चाहिए / विशेष इतना है कि बलीन्द्र की राजधानी बलिचंचा है। इनके परिवार का वर्णन तृतीय शतक के प्रथम मोक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए / शेष संब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए; ' यावत्- वह (सुधर्मा सभा में) मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। ' :: ... . 12. बलिस्स णं भंते ! वइरोणिदस्स वइरोयणरणो सोमस्स महारणो कति अग्गम हिसीओ पन्नत्तानो ? अज्जो! चत्तारि प्रगहिसीओ पन्नत्तानो, तं जहा–मीणगा सुभद्दा विजया असणी। तत्थ से एगमेगाए देवीए० सेसं जहा चमरसोमस्स, एवं जाव वेसमणस्स। [12 प्र.] भगवन् ! वैरोचनेन्द्र: वैरोचतराज बलि के लोकपाल सोम महाराजा की कितनी अनमहिषियाँ हैं ? [12 उ.] पार्यो ! (सोम महाराजा की), चार अग्नहिषियाँ हैं ? वे इस प्रकार-(१) मेनका, (2.) सुभद्रा, (3) विजया और (4). प्रशनी। इनकी एक-एक देवी का परिवार आदि समग्र चमरेन्द्र के लोकपाल सोम के समान जानना चाहिए / इसी प्रकार यावत् वैरोचनेन्द्र बलि के लोकपाल वैश्मण तक सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-वैरोचनेन्द्र एवं उनके चार लोकपालों की अग्रहिषियों आदि का वर्णन-प्रस्तुत दो (11-12) सूत्रों में वैरोचनेन्द्र बली एवं पूर्वोक्त नाम के चार लोकपालों को अग्रमहिषियों तथा 1. वियाहमणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 498-499 2. यहाँ भगवतीसुत्र के शतक 3 उ, 1 के 'मोका' उद्देशक में उल्लिखित वर्णन समझ लेना चाहिए Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-५] [615 उनके देवी-परिवार का वर्णन है, साथ ही उनकी अपनी-अपनी राजधानी को सुधर्मा सभा में अपने देवो बर्ग के साथ उनकी मैथुननिमित्तक असमर्थता का भी अतिदेश किया गया है।' -:.:.:.: धरणेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार . 13. धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिदस्स नागकुमाररणो कति अग्गहिसीनो पन्नत्ताओ? प्रज्जो ! छ अगमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा--अला' मक्का सतेरा सोयामणी इंदा घणविज्जुषा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए छ च्छ देविसहस्सा परियारो पन्नत्तो। पभू णं तानो एगमेंगा देवी अन्नाई छ च्छ देविसहस्साई परियारं विउवित्तए / एवामेव सयुव्वावरेणं छत्तीस देविसहस्सा, से तं तुडिए। .. [13 प्र.] भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? [13 उ.] पार्यो ! (धरणेन्द्र की) छह अग्रमहिषियाँ हैं / यथा--(१) अला (इला), (2) मक्का (शुक्रा), (3) सतारा, (4) सौदामिनी (5) इन्द्रा और (6) घनविद्यत / उनमें से प्रत्येक अनमहिषी के छह-छह हजार देवियों का परिवार कहा गया, है / इनमें से प्रत्येक देवी (अनमहिषी), अन्य छह-छह हज़ार देवियों के परिवार की विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर छत्तीस हजार देवियों का यह त्रुटिक (वर्ग) कहा गया है / ..... ....... .., 14. पभू णं भंते ! धरणे ? सेसं तं चेव, नवरं धरणाए- रायहाणीए धरणंसि सोहाससि सम्रो परियारो,3 सेसंतं चेव / ... . . ... . .. ____14 प्र] भगवन् ! क्या धरणेन्द्र- (सुधर्मासभा में देवीपरिवार के साथ) यावत् भोग भोगने में समर्थ है ? इत्यादि प्रश्न / .... [14 उ.] पूर्ववत् समग्र कथन, जालना चाहिए। विशेष इतना ही है कि (धरणेन्द्र की) राजधानी धरणा में धरण नामक सिंहासन पर बैठ कर) स्वपरिवार ....." शेष सब वर्णन पूर्ववत समझना चाहिए। ... 15. धरणस्त णं भंते ! नागकुमारिदस्स कालवालस्स लोगपालस्त महारण्णो कति अग्गमहिसोओ पन्नत्ताओ ? प्रज्जो ! चत्तारि अगमहिसोओ पन्नताओ; तं जहा–असोगा विमला सुम्पभा सुदंसणा / तस्थ णं एगमेगाए० अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं / एवं सेसाणं तिण्ह वि लोगपालाणं / . .:: [15 प्र. भगवत् ! नागकुमारेन्द्र धरण के लोकपाल कालबाल नामक महाराजा की कितनी अग्रहिषियों हैं ..:-:.:. :::: .. :: .. . ........................ ? : 1. विद्यापणतिमत्त (मलपांत टिप्पणयक्त) भा. २.प४९९ 2. पाठान्तर-दूसरी प्रति में 'अला' के स्थान में 'इला', तथा 'मक्का' के स्थान में 'सुक्का' पाठ मिलता है। 3. धरणेन्द्र का स्वपरिवार---इस प्रकार है-"हिं सामाणियसाहस्सीहि, तायत्तीसाए तायत्तीसाए, चहि लोग• पालेहि, हि अगमहिसोहि सहि अणिएहि, सहि अणिया हिवईहिं चउवीसाए आयरक्खसाहस्सीहि अन्नेहि य बहूहिं नागकुमारेहि देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिवडेत्ति / " ---जीवाभिगमसूत्र, भगवती. अ. वत्ति, पत्र 506 Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [15 उ.] आर्यो ! (धरणेन्द्र के लोकपाल कालवाल की) चार अग्रहिषियाँ हैं / यथा--- अशोका, विमला, सुप्रभा और सुदर्शना / इनमें से एक-एक देवी का परिवार आदि वर्णन चमरेन्द्र के लोकपाल के समान समझना चाहिए। इसी प्रकार (धरणेन्द्र के) शेष तीन लोकपालों के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन-धरणेन्द्र तथा उसके चार लोकपालों का देवीपरिवार तथा सुधर्मासभा में भोगअसमर्थता को प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (13-14-15) में धरणेन्द्र तथा उसके लोकपालों की अग्रमहिषियों सहित देवीवर्ग की संख्या तथा सुधर्मा सभा में उनकी भोग-असमर्थता का प्रतिपादन किया गया है।' भूतानन्दादि भवन वाप्ती इन्द्रों तथा उनके लोकपालों का देवीपरिवार 16. भूमाणंदस्स गं भंते ! पुच्छा / प्रज्जो ! छ अग्गमहिसीओ पन्नत्तानो, तं जहा---रूया रूयंसा मुख्या रुयगावती रूयकता रूयप्पभा / तत्थ गं एगमेगाए देवीए० अबसेसं जहा धरणस्स / [16 प्र.] भगवन् ! भूतानन्द (भवनपतीन्द्र) को कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [16 उ.] पार्यो ! भूतानन्द की छह अग्रमहिषियां हैं। यथा-रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, रूपकान्ता और रूपप्रभा। इनमें से प्रत्येक देवी -- अग्रमहिषी के परिवार आदि का तथा शेष समस्त वर्णन धरणेन्द्र के समान जानना चाहिए। 17. भूयाणंदस्स गं भंते ! नागवित्तस्स० पुच्छ।। अजो! चत्तारि अगम हिसीओ पन्नत्ताओ,, तं जहा-सुणंदा सुभद्दा सुजाया सुमणा / तत्थ णं एगमेगाए देवीए० अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं / एवं सेसाणं तिण्ह वि लोगपालाणं / [17 प्र.] भगवन् ! भूतानन्द के लोकपाल नागवित्त के कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? इत्यादि पृच्छा / [17 उ.] पार्यो ! (नागवित्त की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार--सुनन्दा, सुभद्रा, सुजाता और सुमना / इसमें प्रत्येक देवी के परिवार प्रादि का शेष वर्णन चमरेन्द्र के लोकपाल के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार शेष तीन लोकपालों का वर्णन भी (चमरेन्द्र के शेष तीन लोकपालों के समान) जानना चाहिए / 18. जे दाहिणिल्ला इंदा तेसि जहा धरणस्स / लोगपालाणं पि तेसि जहा धरणलोगपालाणं / उत्तरिल्लाणं इंदाणं जहा भूयाणंदस्स / लोगपालाण वि तेसि जहा भूयाणंदस्स लोगपालाणं / नवरं इंदाणं सम्वेसि रायहाणीओ, सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, परियारो जहा मोउद्देसए (स. 3 उ. 1 सु. 14) / 2 लोगपालाणं सम्वेसि रायहाणीओ सोहासणाणि य सरिसनामगाणि, परियारो जहा चमरलोगपालाणं / नानादिया। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टिप्पण) भा. 2, पृ. 500 2. देखिये---भगवतीसूत्र शतक 3, मोका नामक प्रथम उद्देशक, सू. 14 Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-५]] [617 18] जो दक्षिणदिशावर्ती इन्द्र हैं, उनका कथन धरणेन्द्र के समान तथा उनके लोकपालों का कथन धरणेन्द्र के लोकपालों के समान जानना चाहिए। उत्तरदिशावर्ती इन्द्रों का कथन भूतानन्द के समान तथा उनके लोकपालों का कथन भी भूतानन्द के लोकपालों के समान जानना चाहिए / विशेष इतना है कि सब इन्द्रों की राजधानियों और उनके सिंहासनों का नाम इन्द्र के नाम के समान जानना चाहिए / उनके परिवार का वर्णन भगवती सूत्र के तीसरे शतक के प्रथम मोक उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए। सभी लोकपालों की राजधानियों और उनके सिंहासनों का नाम लोकपालों के नाम के सदृश जानना चाहिए तथा उनके परिवार का वर्णन चमरेन्द्र के लोकपालों के परिवार के वर्णन के समान जानना चाहिए। विवेचन---भूतानन्द, दक्षिण-उत्तरवर्ती इन्द्र एवं उनके लोकपालों के देवी-परिवार का वर्णन प्रस्तुत तीन सूत्रों (16-17-18) में अतिदेशपूर्वक किया गया है / प्रायः सारा वर्णन समान है, केवल राजधानियों, सिंहासनों तथा व्यक्तियों के नामों में अन्तर है। राजधानियों और सिंहासनों के नाम प्रत्येक इन्द्र के अपने-अपने नाम के अनुसार हैं। सुधर्मासभा में प्रत्येक इन्द्र की अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक असमर्थता भो साथ-साथ ध्वनित कर दी है।' व्यन्तरजातीय देवेन्द्रों के देवी-परिवार प्रादि का निरूपण 19. [1] कालस्स णं भंते ! पिसायिदस्स पिसायरण्णो कति अग्गमहिसोपो पन्नताओ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा- कमला कपलप्पभा उप्पला सुदंसणा / तत्थ णं एगमेगाएदेवीए एगमेगं देविसहस्सं, सेसं जहा चमरलोगपालाणं / परियारो तहेव, नवरं कालाए रायहाणीए कालंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव / [16-1 प्र.] भगवन् ! पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [16-1 उ.] पार्यो ! (कालेन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / यथा-कमला, कमलप्रभा, उत्पला और सुदर्शना / इनमें से प्रत्येक देवी (अग्रमहिषी) के एक-एक- हजार देवियों का परिवार है। शेष समग्र वर्णन चमरेन्द्र के लोकपालों के समान जानना चाहिए एवं परिवार का कथन भी उसी के परिवार के सदृश करना चाहिए / विशेष इतना है कि इसके 'काला' नाम की राजधानी और काल नामक सिंहासन है / शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। [2] एवं महाकालस्स वि। [16-2] इसी प्रकार पिशाचेन्द्र महाकाल का एतद्विषयक बर्णन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 20. [1] सुरुवस्स गं भंते ! भूइंदस्स भूयरन्नो पुच्छा / प्रज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा- रूवबती बहुरूवा सुरुवा सुभगा / तत्थ णं एगमेगाए० सेसं जहा कालस्स / [20-1 प्र.] भगवन् ! भूतेन्द्र भूतराज सुरूप की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? 1. वियाहपमणत्तिसुत्तं, (मू. पा. टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 500-501 Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20-1 उ.] पार्यो ! (सुरूपेन्द्र भूतराज की) चार अग्रहिषियाँ हैं / यथा--रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा और सुभगा। इनमें से प्रत्येक देवी (अग्नमहिषी) के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिए। [2] एवं पडिरूवगस्स वि / [20-2] इसी प्रकार प्रतिरूपेन्द्र के (देवी-परिवार प्रादि के) विषय में भी जानना चाहिए / 21. [1] पुण्णभहस्सणं शंते ! क्खिदस्स० पुच्छा / अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीनो पन्नत्ताओ, तं जहा---पुण्णा बहुपुत्तिया उत्तमा तारया / तत्थ णं एगमेगाए० सेसं जहा कालस्स० / [21-1 प्र.] भगवन् यक्षेन्द्र यक्षराज पूर्णभद्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [21-1 उ.] पार्यो ! (पूर्णभद्रेन्द्र की) चार अग्रहिषियाँ हैं। यथा—पूर्णा, बहुपुत्रिका, उत्तमा और तारका / इनमें प्रत्येक देवी (अनमहिषी) के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिए। [2] एवं माणिभद्दस्स वि। [21-2] इसी प्रकार माणिभद्र (यक्षेन्द्र) के विषय में भी जान लेना चाहिए / 22. [1] भीमस्स णं भंते ! रसिदस्स० पुच्छा / अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्तानो, तं जहा-पउमा पउमावती कणगा रयणप्पभा / तत्थ णं एगमेगा० सेसं जहा कालस्स / [22-1 प्र. भगवन् ! राक्षसेन्द्र राक्षसराज भीम के कितनी अग्रहिषियाँ कही गई हैं ? [22-1 उ.) आर्यो ! (भीमेन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-पद्मा, पद्मावती, कनका और रत्नप्रभा। इनमें से प्रत्येक देवी (अग्रमहिषी) के परिवार आदि का वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिए। . [2] एवं महाभीमस्स बि / [22-2] इसी प्रकार महाभीम (राक्षसेन्द्र) के विषय में भी जान लेना चाहिए। 23. [1] किन्नरस्स गं भंते ! 0 पुच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा---बडेंसा केतुमती रतिसेणा रतिप्पिया / तत्थ पं० सेसं तं चेव / [23-1 प्र.] भगवन् ! किन्नरेन्द्र की कितनी अग्रमाहिषियाँ हैं ? 23-1 उ.] प्रायों ! (किन्नरेन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार हैं-१. अवतंसा, 2. केतुमती, 3. रतिसेना और 4. रतिप्रिया / इनमें से प्रत्येक अनमहिषी के देवी-परिवार के विषय में पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए। [2] एवं किपुरिसस्स वि / [23.2] इसी प्रकार किम्पुरुषेन्द्र के विषय में कहना चाहिए। 24. [1] सप्पुरिसस्स f0 पुच्छा / प्रज्जो! चत्तारि अम्गमाहिसीनो पन्नलायो, तं जहा... रोहिणी नवमिया हिरो पुष्फवती / तत्थ णं एगमेगा०, सेसं तं चेव / [24-1 प्र.] भगवन् ! सत्पुरुषेन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-५] [619 [24-1 उ.] पार्यो ! (सत्पुरुषेन्द्र की) चार अग्रमहिषयाँ हैं / यथा-१. रोहिणी, 2, नवमिका, 3. ही और 4. पुष्पवती / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए। [2] एवं महापुरिसस्स वि। [24-2] इसी प्रकार महापुरुषेन्द्र के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 25. [1] अतिकायस्स णं भंते ! 0 पुच्छा / अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीनो पन्नत्ताओ, तं जहा भयगा भयगवती महाकच्छा फूडा। तत्थ णं, सेसं तं चेव / [25-1 प्र. भगवन् ! अतिकायेन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [25.1 उ.] पार्यो ! (अतिकायेन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं। यथा-१. भुजगा, 2. भुजगवती, 3. महाकच्छा और 4. स्फुटा। इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए। [2] एवं महाकायस्स वि। [25-2] इसी प्रकार महाकायेन्द्र के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 26. [1] गीतरतिस्स णं भंते ! 0 पुच्छा / अज्जो ! चत्तारि अगम हिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-सुघोसा विमला सुस्सरा सरस्सती / तत्थ णं०, सेसं तं चेव / [26-1 प्र.] भगवन् ! गीतरतीन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [26-1 उ.] आर्यो ! (गीतरतीन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार--१. सुघोषा, 2. विमला, 3. सुस्वरा और 4. सरस्वती। इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। [2] एवं गीयजसस्स वि / सवेसि एतेसि जहा कालस्स, नवरं सरिसनामियाओ रायहाणीओ सोहासणाणि य / सेसं तं चेव / / [26-2] इसी प्रकार गीतयश-इन्द्र के विषय में भी जान लेना चाहिए। इन सभी इन्द्रों का शेष सम्पूर्ण वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिए। राजधानियों और सिंहासनों का नाम इन्द्रों के नाम के समान है। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् (एक सरीखा) है / विवेचन- व्यन्तरदेवों को विविध जाति के इन्द्रों का देवीपरिवार आदि वर्णन–प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 16 से 26 तक) में पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्रहिषियों तथा उनकी देवियों की संख्या एवं अपनी-अपनी सुधर्मा सभा में उनकी अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का अतिदेश किया गया है।' व्यन्तरजातीय देवों के 8 प्रकार--(१) पिशाच, (2) भूत, (3) यक्ष, (4) राक्षस, (5) किन्नर, (6) किम्पुरुष, (7) महोरग, एवं (8) गन्धर्व / / 1. बियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 501-502 2 (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, सू.१२ : व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गान्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः / Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इन आठों के प्रत्येक समूह के दो-दो इन्द्रों के नाम-(१) पिशाच के दो इन्द्र- काल और महाकाल, (2) यक्ष के दो इन्द्र-पूर्णभद्र और माणिभद्र, (3) भूत के दो इन्द्र-सुरूप और प्रतिरूप; (4) राक्षस के दो इन्द्र-भीम और महाभीम, (5) किन्नर के दो इन्द्र–किन्नर और किम्पुरुष, (6) किम्पुरुष के दो इन्द्र--सत्पुरुष और महापुरुष, (7) महोरग के दो इन्द्र---अतिकाय और महाकाय तथा (8) गान्धर्व के दो इन्द्र --गीतरति और गीतयश / ' इनके प्रत्येक के चार-चार अग्रमहिषियाँ हैं और प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार की संख्या एक-एक हजार है / अर्थात्-प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार देवी-वर्ग है / इन इन्द्रों को प्रत्येक की राजधानी और सिंहासन का नाम अपने-अपने नाम के अनुरूप होता है। ये सभी इन्द्र अपनोअपनी सुधर्मासभा में अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग नहीं भोग सकते / / चन्द्र-सूर्य-ग्रहों के देवीपरिवार आदि का निरूपण 27. चंदस्स णं भंते ! जोतिसिदस्स जोतिसरणो० पुच्छा / अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पत्नत्ताओ, तं जहा- चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा / एवं जहा जीवाभिगमे जोतिसियउद्देसए तहेव / [27 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [27 उ.] आर्यो ! ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं(१) चन्द्रप्रभा, (2) ज्योत्स्नाभा, (3) अचिमाली एवं (4) प्रभंकरा / शेष समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए। 28. सूरस्स वि सूरप्पभा प्रायवाभा अच्चिमाली पभंकरा। सेसं तं चेव जाव नो चेवणं मेहुणवत्तियं / [28] इसी प्रकार सूर्य के विषय में भी जानना चाहिए। सूर्येन्द्र की चार अग्रमहिषिया ये हैं--सूर्यप्रभा, पातपाभा, अचिमाली और प्रभंकरा / शेष सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए; यावत् वे अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में सिंहासन पर बैठ कर अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। 29. इंगालस्स णं भंते ! महग्गहस्स कति अग्ग० पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया। तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, सेसं जहा चंदस्स / नवरं इंगालवडेंसए विमाणे इंगालगंसि सीहासणंसि / सेसं तं चेव / 26 प्र.] भगवन् ! अंगार (मंगल) नामक महाग्रह की कितनी अग्रहिषियाँ हैं ? [26 उ.] पार्यो ! (अंगार-महाग्रह की) चार अग्रहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार --(1) विजया, (2) वैजयन्ती, (3) जयन्ती और (4) अपराजिता / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन चन्द्रमा के देवी-परिवार के समान जानना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि इसके विमान 1. वियाहपष्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 501-502 2. वही, पृ. 502 3. देखिये-जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उ. 2, सु. 202-4, पत्र 375-85 (पागमोदय.) / Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशम शतक : उद्देशक-५ ] [621 का नाम अंगारावतंसक और सिंहासन का नाम अंगारक है, (जिस पर बैठ कर यह देवी-परिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग नहीं भोग सकता) इत्यादि शेष समग्रवर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / 30. एवं वियालगस्स वि। एवं अट्ठासीतीए वि महागहाणं भाणियव्वं जाव भाव के उस्ल / नवरं वसगा सीहासणाणि य सरिसनामगाणि / सेसं तं चेव / [30] इसी प्रकार व्यालक नामक ग्रह के विषय में भी जानना चाहिए / इसी प्रकार 88 महाग्रहों के विषय में यावत्-भावकेतु ग्रह तक जानना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि अवतंसकों और सिंहासनों का नाम इन्द्र के नाम के अनुरूप है / शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचनचन्द्र, सूर्य और ग्रहों की देवियों को संख्या- प्रस्तुत 4 सूत्रों (27 से 30 तक) में चन्द्र, सूर्य, अंगारक, व्यालक आदि 88 महाग्रहों की अग्रमहिषियों तथा देवी-परिवार आदि का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है।' शकेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार 31. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरग्णो० पुच्छा। अज्जो! अट्ठ अग्गहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा----पउमा सिवा सुयो अंजू अमला अच्छा नवमिया रोहिणी। तत्थ णं एगमेगाए देवीए सोलस सोलस देविसहस्सा परियारो पन्नत्तो / पभू गं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस सोलस देविसहस्सा परियारं विउवित्तए / एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देविसयसहस्सं, से तं तुडिए / [31 प्र.| भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? 31 उ.] पार्यो ! (शकेन्द्र की) आठ अग्रमहिषियाँ हैं। यथा—(१) पदमा, (2) शिवा, (3) श्रेया, (4) अज , (5) अमला, (6) अप्सरा, (7) नवमिका और (8) रोहिणी। इनमें से प्रत्येक देवी (अग्नमहिषी) का सोलह-सोलह हजार देवियों का परिवार कहा गया है। इनमें से प्रत्येक देवी सोलह-सोलह हजार देवियों के परिवार को विकुर्वणा कर सकती है / इस प्रकार पूर्वापर सब मिला कर एक लाख अट्ठाईस हजार देवियों का परिवार होता है / यह एक त्रुटिक (देवियों का वर्ग) कहलाता है / 32. पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धि सेसं जहा चमरस्स (सु. 6-7) / नवरं परियारो जहा मोउद्देसए (स. 3 उ. 1 सु. 15) / [32 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, सौधर्मकल्प (देवलोक) में, सौधर्मावतंसक विमान में, सुधर्मासभा में, शक्र नामक सिंहासन पर बैठ कर अपने (उक्त) त्रुटिक के साथ भोग भोगने में समर्थ है ? [32 उ.] पार्यो ! इसका समग्र वर्णन चमरेन्द्र के समान (सू. 6-7 के अनुसार) जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि इसके परिवार का कथन भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के 'मोका' नामक प्रथम उद्देशक (सू. 15) के अनुसार जान लेना चाहिए / 33. सक्कस्स णं देविंदस्स देबरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अगमहिसीओ० पुच्छा। प्रज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीनो पन्नत्ताओ, तं जहा-रोहिणी मदणा चित्ता सोमा। तत्थ णं 1. वियाहपण्ण त्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणायुक्त), भा. 2, पृ. 502-503 Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एगमेगा०, सेसं जहा चमरलोगपालाणं (सु. 8-13) / नवरं सयंपभे विमाणे सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव / एवं जाव' वेसमणस्स, नवरं विमाणाई जहा ततियसए (स. 3 उ. 7 [33 प्र.! भावन् ! देवेन्द्र देवराज शक के लोकपाल सोम महाराजा की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? |33 उ. पार्यो ! (लोकपाल सोम महाराजा की) चार अग्रमहिषियां हैं। वे इस प्रकार(१) रोहिणी, (2) मदना, (3) चित्रा और (4) सोमा / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन चमरेन्द्र के लोकपालों के समान (सू. 8-13 के अनुसार) जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि स्वयम्प्रभ नामक विमान में सुधर्मासभा में, सोम नामक सिंहासन पर बैठ कर यावत् मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् वैश्रमण लोकपाल तक का कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि इनके विमान आदि का वर्णन (भगवती.) तृतीयशतक के सातवें उद्देशक (सू. 3) में कहे अनुसार जानना चाहिए / विवेचन शक्नेन्द्र तथा उसके लोकपालों की देवियों आदि का वर्णन प्रस्तुत तीन सूत्रों में शक्रेन्द्र की अग्नमहिषियों तथा उनके अधीनस्थ कुलदेवियों के परिवार का एवं सुधर्मासभा में उनके साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का प्रतिपादन किया गया है / ईशानेन्द्र तथा उसके लोकपालों का देवी-परिवार 34. ईसाणस्स णं भंते ! 0 पुच्छा। अज्जो! अट्ठ अग्गहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहाकण्हा कण्हराई रामा रामरक्खिया बसू वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुधरा / तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा सक्कस्स। [34 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [34 उ.] पार्यो ! ईशानेन्द्र को आठ अग्रम हिषियाँ हैं / यथा--(१) कृष्णा, (2) कृष्णराजि, (3) रामा, (4) रामरक्षिता, (5) वसु, (6) वसुगुप्ता, (7) वसुमित्रा, (8) वसुन्धरा / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी की देवियों के परिवार आदि का शेष समस्त वर्णन शकेन्द्र के समान जानना चाहिए। 35. ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स सोमस्स महारण्णो कति० पुच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमाहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा.-पुढवी राती रयणी विज्जू / तत्थ पं०, सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं / एवं जाव वरुणस्स, नवरं विमाणा जहा चउत्थसए (स. 4 उ. 1 सु. 3) / सेसं तं चेव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। // दसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो / / 1. 'जाव' पद से यहाँ 'यम, वरुण' समझना चाहिए 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 503 Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-५] 35 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र ईशान के लोकपाल सोम महाराजा की कितनी अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? [35 उ. आर्यो ! (सोम लोकपाल की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / यथा--पृथ्वी, रात्रि, रजनी और विद्युत् / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषो को देवियों के परिवार आदि शेष समग्र वर्णन शक्रेन्द्र के लोकपालों के समान है / इसी प्रकार यावत् वरुण लोकपाल तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनके विमानों का वर्णन चौथे शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए / शेष पूर्ववत्, यावत्-वह मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर आर्य स्थविर यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-ईशानेन्द्र एवं उसके लोकपालों का देवी-परिवार—प्रस्तुत दो सूत्रों (34-35) में ईशानेन्द्र (द्वितीय देवलोक के इन्द्र) तथा उसके लोकपालों की अग्रमहिषियों आदि का वर्णन पूर्वसूत्र का अतिदेश करके किया गया है / चूँकि वैमानिक देवों में केवल पहले और दूसरे देवलोक तक ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं / इसलिए यहाँ प्रथम और द्वितीय देवलोक के इन्द्रों और उनके लोकपालों की अग्रमहिषयों का वर्णन किया गया है / ' // दशम शतक: पंचम उद्देशक समाप्त / / - - - ---- 1. भगवती. विवेचन (6. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1831 Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो उद्देस ओ : छठा उद्देशक सभा : सभा (शवेन्द्र की सुधर्मा सभा) 1. कहि पं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरणो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणेणं इमोसे रयणप्पभाए एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंच बडेंसगा पन्नता, तं जहा–असोगव.सए जाव' माझे सोहम्मव.सए। से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई प्रायाम-विक्वंभेणं / एवं जह सूरियाभे तहेव माणं तहेव उववातो। सक्कस्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स / 1 // अलंकार अच्चणिया तहेव जाव आयरक्ख त्ति, दो सागरोवमाई ठिती। [1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक की सुधर्मासभा कहाँ है ? [1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूभाग से अनेक कोटाकोटि योजन दूर ऊँचाई में सौधर्म नामक देवलोक में सुधर्मा सभा है ; इस प्रकार सारा वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार जानना, यावत् पांच अवतंसक विमान कहे गए हैं; यथा-अशोकावतंसक यावत् मध्य में सौधर्मावतंसक विमान है / वह सौधर्मावतंसक महाविमान लम्बाई और चौड़ाई में साढ़े बारह लाख योजन है। - [गाथार्थ-1 (राजप्रश्नीय सूत्रगत) सूर्याभविमान के समान विमान-प्रमाण तथा उपपात, अभिषेक, अलंकार तथा अर्चनिका, यावत् प्रात्मरक्षक इत्यादि सारा वर्णन सूर्याभदेव के समान जानना चाहिए / उसकी स्थिति (आयु) दो सागरोपम की है। 2. सक्के णं भंते ! देविदे देवराया केमहिडीए जाव केमहासोक्खे ? गोयमा! महिड्डीए जाव महासोक्खे, से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणवाससयसहस्साणं जाव विहरति, एमहिडीए जाव' एमहासोक्खे सक्के देविदे देवराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥दसमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 10.6 // 1. जाब पद सूचित पाठ-"सत्तवण्णवडसए चंपयव.सए चूयव.सए।" अ, बृ. 2. जाव पद सूचित पाठ—'केमहज्जुइए केमहाणभागे केमहायसे केमहाबले त्ति / " अ. वृ. 3. जाव पद सूचित पाठ--- "चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं अटण्हं अग्गमहिसोणं नाव अन्नेसि च बहूर्ण जाव देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव करेमाणे पालेमाणे ति।" ----अ. ब. Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक : उद्देशक-६] [2 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र कितनी महती ऋद्धि वाला यावत् कितने महान् सुख वाला है ? 2 उ.] गौतम ! वह महा-ऋद्धिशालो यावत् महासुख-सम्पन्न है। वह वहाँ बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है; यावत् विचरता है। देवेन्द्र देवराज शक्र इस प्रकार को महाऋद्धि-सम्पन्न और महासुखी है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !'; इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन–सूर्याभ के अतिदेशपूर्वक शकेन्द्र तथा उसको सुधर्मासभा आदि का वर्णन-राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव का विस्तृत वर्णन है। यहाँ शकेन्द्र के उपपात आदि के वर्णन के लिए उसी का अतिदेश किया गया है। अतः इसका समग्र वर्णन सूर्याभदेववत् समझना चाहिए / यहाँ पिछले सूत्र में सूर्याभदेववत् शक्र को ऋद्धि, सुख, द्युति आदि का वर्णन किया गया है।' / दशम शतक : छठा उद्देशक समाप्त // DO 1. (क) राजप्रश्नीयसूत्र (गुर्जरग्रन्थ.) पृ. 152-54 (ख) वियाहप. (मू. पा. टि.), भा, 2, पृ.५०४ Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमाइ-चोत्तीसइम पज्जंता उद्देसा सातवें से चौतीसवें तक के उद्देशक उत्तर-अंतरदीवा : उत्तरवर्ती (अट्ठाईस) अन्तर्वीप 1. कहिं गं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोख्यमणुस्साणं एगोरुयदीवे नाम दीवे पन्नत्ते? एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीयो त्ति / एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियन्वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // दसमे सए सत्तमाइ-चोत्तीसइम पज्जंता उद्देसा समत्ता // 10.7-34 // ॥दसमं सयं समत्तं // [1 प्र.] भगवन् ! उत्तरदिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों का एकोरुकद्वीप नामक द्वीप कहाँ है ? [1 उ.] गौतम! एकोरुकद्वीप से लेकर यावत् शुद्धदन्तद्वीप तक का समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र में कहे अनुसार जानना चाहिए। (प्रत्येक द्वीप के सम्बन्ध में एक-एक उद्देशक है।) इस प्रकार अट्ठाईस द्वीपों के ये अट्ठाईस उद्देशक कहने चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है !', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-उत्तरदिशावर्ती अट्ठाईस अन्तर्वीप-प्रस्तुत सूत्र में उत्तरदिग्वर्ती अट्ठाईस अन्तर्वीपों का निरूपण जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक किया गया है / इससे पूर्व नौवें शतक के तीसरे से तीसवें उद्देशक तक में दक्षिणदिशा के अन्तर्वीपों का वर्णन किया जा चुका है। प्रस्तुत दशम शतक के 7 वें से 34 3 उद्देशक तक में उत्तरदिशा के अन्तर्वीपों का निरूपण किया गया है, जो दक्षिणदिग्वर्ती अन्तर्वीपों के ही समान है / 28 नाम भी समान हैं।' // दशम शतक : सातवें से चौतीसवें उद्देशक तक सम्पूर्ण // // दशम शतक सम्पूर्ण // 1. (क) वियाहपण्णतिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 505 (ख) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 1, पत्र 144-56 (पागमोदय.) में विस्तत वर्णन देखिये Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्थ० प्राचार्यप्रवर श्री आत्माराजो म० द्वारा सम्पादित नन्दोसूत्र से उद्घत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति प्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्यों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वर विद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्काबाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्धाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा—अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोबराते, सूरोवराते, पउने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिप्रपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निगगंथाण वा निग्गंथोण वा, चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढ रत्ते / कम्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पुव्वण्हे, अवरण्हे, पप्रोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तोस अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। २.दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण को हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सो लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत्-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 ] [अनध्यायकाल गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर-गर्जन होने पर, या वादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त कहलाता है / अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज उद्घात–वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि - मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है / 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है / Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल / [626 18. पतन-किसो बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. प्रौदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्त्राध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28, चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूणिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ो पोछ / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पोछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ो आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। D Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणो, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदजी मामड़, मदुरान्तकम् / 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री प्रार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर ड़िया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मी चन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य / ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री प्रार. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा. 8. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 6. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [631 WWWWW 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, . श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मुथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपूर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादल चंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री जंवरी३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, लाल जी गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भवरलालजो माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंबरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्रा ताराचदजा कवलचदजा कणावट, जाधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्थ 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेडतासिटी सांड, जोधपुर 2. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम - 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632] [ सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री ओकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया - मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50, श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री माँगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया भैरू दा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एन्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलाल जी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 89. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, राज- 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी नांदगांव 65. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 16. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 17. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव . Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [633 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलो 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालज 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127 श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमल जो धनराजजो मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी प्रासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ जा तातड़, . Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत ......श्रीस्थानांगसूत्र ज्ञानसम्पदा का अखूट भण्डार है। कहीं पुरुषों के चार प्रकार बता कर मनुष्य को मनुष्य बनने की कला सिखाई जा रही है तो कहीं वृक्षों के चार प्रकार बता कर मनुष्यों को गुण-ग्रहण का आदर्श पाठ पढ़ाया जा रहा है। हमारे वीतराग पाचायों के उपकार सचमुच अनुपम हैं। """ग्रन्थमाला की लड़ी की कड़ी में श्रीस्थानांगसूत्र का अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुवाद की भाषा बड़ी सरल है, सुबोध है, सुगम है / साधारण से साधारण व्यक्ति भी उसे हृदयंगम कर सकता है। शैली बड़ी ही रोचक है / सभी कुछ सुन्दर बन पड़ा है। परमश्रद्धेय युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी महाराज ने अपने तत्त्वावधान में इस अनुवाद-कार्य को सम्पन्न करवाया है, यह सब के लिए सौभाग्य की बात है। मैं आदरास्पद युवाचार्यश्री को सरस्वती के महामन्दिर की इस श्रुतसेवा के लिए साधुवाद देता हूँ। -(जैनभूषण) ज्ञान मुनि For Private & Personal use only www.jalnelibrary.org Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागमप्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित प्रागम 1. आचारांगसूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) सम्पादक-श्री श्रीचन्दजी सुराना मूल्य 30) 2. आचारांगसूत्र (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) सम्पादक-श्री श्रीचन्दजी सुराना मूल्य 35) 3. उवासगदसाओ सम्पादक-डा. छगनलालजी शास्त्री मूल्य 25) 4. ज्ञाताधर्मकथा सम्पादक--श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल मूल्य 45) 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र सम्पादक-डॉ. साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी एम. ए., पी-एच. डी. मूल्य 25) 6. अनुत्तरोपपातिकदशांगसूत्र सम्पादक-डॉ. साध्वी श्री मुक्तिप्रभाजी एम.ए., पी-एच. डी. मूल्य 16) 7. स्थानांगसूत्र सं-स्व० पं. श्री हीरालालजी शास्त्री मूल्य 50) 8. समवायांगसूत्र सं-स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री मूल्य 25) 9. सूत्रकृतांगसूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) सं.-श्री श्रीचन्दजी सुराना मूल्य 45) 10. सूत्रकृत्तांगसूत्र (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) सं.-श्री श्रीचन्दजी सुराना मूल्य 25) 11. विपाकसूत्र अनु.--पं. रोशनलालजी जैन सं.-पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल मूल्य 25) 12. नन्दीसूत्र सम्पादक-श्री कमला जैन 'जीजी' एम.ए. अनु.—विवेचक-जैन साध्वी श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' मूल्य 28) 13. औषपातिकसूत्र सम्पादक-डॉ. छगनलालजी शास्त्री मूल्य 25) 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसत्र (प्रथम खण्ड) सम्पादक-श्री अमरमुनिजी श्री श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' मूल्य 50) 15. राजप्रश्नीयसूत्र सम्पादक-वाणीभूषण श्री रतनमुनिजी मूल्य 30) 16. प्रज्ञापनासूत्र (प्रथम खण्ड) सम्पादक-श्री ज्ञानमुनिजी म. सा. मूल्य 45) 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु.-मुनि श्री प्रवीणऋषिजी सम्पादक-श्री पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल मूल्य 35) मुद्रणाधीन प्रज्ञापनासूत्र (द्वितीय खण्ड) 0 उत्तराध्ययनसूत्र श्री आगमप्रकाशन समिति के सदस्यों एवं अग्रिम ग्राहकों को आगम प्रकाशित होते ही भेज दिये जाते हैं। सदस्यता की राशिश्री संघ या संस्थागत सदस्यता 700) व्यक्तिगत सदस्यता 1000) सम्पर्क-सूत्र श्री आगमप्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राज.) 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(स्व०) युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक-सम्पादक . श्री अमर मुनिजी [भण्डारी श्री पदमचन्दजी म. के सुशिष्य] श्रीचन्द सुराणा 'सरस' मुख्य सम्पादक 7 पं. शोमाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्यमाला : प्रथाङ्क 22 / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' अर्थ-सहयोग श्रीमान सेठ एस० रिखबचन्द चोरडिया 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2511 वि. सं. 2041 ई. सन् 1985 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर--३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ कारवाधिवपमेलापये 86 Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rey. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Compiled by Fifth Gandhar Sudharma Swami FIFTH ANGA VYAKHYAPRAJNAPTI SUTRA Bhagwati Sutra-III Part, Shatak 11-19] Original Text, Hindi Version, Notes etc. ) Tospiring Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Coorener & Founder Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar? Translator & Annotator Shri Amar Muni Sri Chand Surana 'Saras' Chief Editor Pt. Shobha Chandra Bharill Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj) Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 22 O Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Financial Assistance Sri Seth S. Rikhab Chand Choradiya n Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2511 Vikram Samvat 2041; April, 1985 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) India Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Piely R$ 6:16 | -- Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जो जन जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र आचार्यवर्य भी अयमलजी महाराज के उत्तराधिकारी-द्वितीय पट्टधर थे, जिन्होंने जिनशासन को प्रभावना में बहुमूल्य योगदान दिया अपनी मधर वाणी और आचार-व्यवहार से, जिनको काव्य मय ऐतिहासिक एवं पौराणिक रचनाएँ माल भी धर्मप्रिय जनों को रुचि को परितोष प्रदान करती हैं, जिनका साधनामय जीवन स्वयं ही आध्यात्मिक प्रेरणा का पावन सोत रहा, उन महामना महर्षि आचार्य श्री रायचन्द्रजी महाराज को पवित्र स्मति में सादर सविनय समति समर्पित Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय व्याख्याप्रज्ञप्ति का द्वादशाङ्गी में यद्यपि पांचवां स्थान है तथापि वर्तमान में उपलब्ध आगमों में यह सब से अधिक विशाल आगम है। विशालता के साथ इसमें विषयों का वैविध्य भी ऐसा है कि एक-एक शतक, यहां तक कि एक-एक उद्देशक में भी पृथक-पृथक विषयों का कहीं-कहीं प्रतिपादन किया गया है / व्याख्याप्रज्ञप्ति के दो खण्ड पूर्व में प्रकाशित किए जा चुके हैं। तीसरा खण्ड पाठकों के कर-कमलों में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें ग्यारहवें से उन्नीसवें शतक तक का समावेश हुमा है / आशा है अगले खण्ड में शेष भाग का समावेश कर यथासंभव शीघ्र जिज्ञासु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकेगा। जैसा कि पाठकों को विदित है, इस खण्ड का भी अनुवाद मुनिराज श्री पदमचन्दजी महाराज के विद्वान् शिष्य पं. र. श्री अमरचन्द्रजी म. ने किया है। आगम प्रकाशन-समिति इस महत्त्वपूर्ण सहयोग के लिए दोनों मुनिराजों के प्रति अत्यन्त आभारी है। हम अपने समस्त अर्थसहयोगी महानुभावों के प्रति भी कृतज्ञ हैं, जिनके उदार सहयोग से आगमप्रकाशन का यह परम पावन प्रयास चाल हुमा और अग्रसर हो रहा है। प्रस्तुत ग्रागम के प्रकाशन में श्रीमान सेठ एस. रिखबचन्दजी सा, चोरड़िया का विशिष्ट आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, अतः उनका आभार स्वीकार करना भी हम अपना कर्त्तव्य मानते हैं। सम्पादन-सहयोगी महानुभाव भी, जिनकी नामावली अलग दी जा रही है, हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं / आशा है भविष्य में भी इसी प्रकार आगमप्रेमी धर्मनिष्ठ महानुभावों का सहयोग प्राप्त होता रहेगा। समिति ने पागम प्रकाशन का कार्य स्व. श्रद्धय पंडितप्रवर यूवाचार्य मुनिश्री मिश्रीमलजी म. सा. की प्रागमज्ञान के अधिकाधिक प्रचार-प्रसार की पावनतम भावना से प्रेरित होकर प्रारंभ किया था। प्राज युवाचार्यश्रीजी हमारे मध्य विद्यमान नहीं हैं। किन्तु उन महापुरुष की भावना को सफल बनाने में आप सबका सहयोग प्राप्त होना आवश्यक है और वह इस रूप में कि यागमों के ग्राहक अधिक से अधिक बनें / प्रत्येक उपाश्रय और ग्रन्थालय में ये पहंचें, जिससे समाज में सैद्धान्तिक ज्ञान की चेतना जागत हो। प्राशा है पाठकगण इसके लिए प्रयत्नशील होंगे। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष जतनराज मेहता प्रधान मंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति व्यावर (राज.) चांदमल विनायकिया मंत्री Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन-सहयोगी-सत्कार से विशाल आगम का सम्पादन-प्रकाशन वास्तव में बहुत ही श्रमसाध्य और व्ययसाध्य कार्य है। इसका सम्पादन प्रवचनभूषण श्री अमर मुनिजी के सान्निध्य में उन्हीं के प्रमुख सहयोग से सम्पन्न हुमा / इसमें गुरुदेव भंडारी श्री पदम चन्दजी म. की प्रेरणा सदा कार्य को गति देती रही। साथ ही अन्य साधन जुटाने, विद्वानों आदि की व्यवस्था में जो व्यय हुमा, उसका सहयोग नि.लि. उदार सद्गृहस्थों से प्राप्त हुआ, तदर्थ हार्दिक धन्यवाद / 1. सुश्रावक श्री प्रात्मारामजी जैन कुरुक्षेत्र (अम्बाला) 2. श्री शान्तिकुमार अजयकुमार जैन रूपनगर (दिल्ली) Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगम-प्रकाशन के सहयोगी श्रीमान सेठ एस. रिखबचन्दजी चोरडिया [जीवन-रेखा] अकबर इलाहाबादी का एक प्रसिद्ध शेर है सातप को खुदापत कहो. प्रातप खुदा नहीं . लेकिन खुदा के नूर से, आतप जुदा नहीं। आशय यह है कि मनुष्य ईश्वर नहीं है किन्तु उसमें ईश्वरीय गुण अवश्य हैं और यही ईश्वरीयगुण-- दया, सत्यनिष्ठा, सेवा-भावना, उदारता और परोपकारवृत्ति मनुष्य को मनुष्य के रूप में, या कहें कि ईश्वर के पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। स्वर्गीय रिखबचन्दजी चोरडिया सच्चे मानव थे। उनका जीवन मानवीय सदगुणों से अोतप्रोत था। सेवा और परोपकारवत्ति उनके मन के कण-कण में रमी थी। आपने अपने पुरुषार्थ-बल से विपुल लक्ष्मी का उपार्जन किया और पवित्र मानवीय भावना से जन-जन के हितार्थ एवं धर्म तथा समाज की सेवा के लिए उस लक्ष्मी का सदुपयोग भी किया। वे अाज हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके सद्गुणों की सुवास हमारे मन-मस्तिष्क को आज भी प्रफुल्लित कर रही है / अापका जन्म नोखा (चांदावतों का) के प्रसिद्ध चोरडिया परिवार में हवा / ग्रापके पिता श्री सिमरथमलजी सा. चोरडिया स्थानकवासी, जैन समाज के प्रमुख श्रावक तथा प्रसिद्ध पुरुष थे। आपकी माता श्री गट्ट बाई भी बड़ी धर्मनिष्ठ, सेवाभावी और सरलात्मा श्राविका थी। इस प्रकार माता-पिता के सुसंस्कारों में पले-पुसे श्रीमान् रिखबचन्दजी भी सेवा, सरलता, उदारता तथा मधुरता को मूत्ति थे / श्रीमान् सिमरथमलजी सा. के चार सुपुत्र थे (1) श्री रतनचन्दजी सा. चोरडिया (2) श्री बादलचन्दजी सा. चोरडिया (3) श्री सायर चन्दजी सा. चोरडिया (4) श्री रिखबचन्दजी सा. चोरडिया मद्रास में प्रापका फाइनेन्स का प्रमुख व्यापार था / अापने सदैव मधुरता एवं प्रामाणिकता के साथ, न्याय-नीतिपूर्वक व्यवसाय किया। पापकी धर्मपत्नी श्रीमती उमरावकवर बाई बड़ी धर्मशीला श्राविका हैं / सन्त-सतियों की सेवा में सदा तत्पर रहती हैं और सन्तान में धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण करने में दक्ष हैं। Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रिखबचन्दजी सा. के तीन सुपुत्र हैं-१. श्री शान्तिलालजी, 2. श्री उत्तमचन्दजी और 3. श्री कैलाशचन्दजी / एक सुपुत्री श्री चपलाकंबर बाई हैं। . प्राय: देखा गया है कि संसार में दुर्जनों की अपेक्षा सत्पुरुष-सज्जन अल्पजीवी होते हैं / श्री रिखबचन्दजी सा. पर भी यह नियम घटित हुमा। आप 43 वर्ष की अल्प आयु में ही हमें छोड़कर स्वर्गवासी हो गए। हृदयगति रुक जाने से आपका अवसान हो गया। आपने अपनी अल्प आयु में भी समाज की महत्त्वपूर्ण सेवा की। अनेकानेक संस्थानों को दान दिया। जो भी आपके द्वार पर प्राता, निराश होकर नहीं लौटता था। आप स्व. पूज्य स्वामीजी श्रीब्रजलालजी महाराज तथा स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज के परम निष्ठावान भक्त थे। आगम प्रकाशन के महान भगीरथ-कार्य में भी आपश्री का सहकार मिलता रहा है। प्रस्तुत प्रागम के प्रकाशन में विशिष्ट सहयोग आपसे प्राप्त हया है। मद्रास का आपका पता-- एस. रिखबचन्द एण्ड सन्स, रामानुज अय्यर स्ट्रीट, साउकार पेट, मद्रास-६०००७९ ---मंत्री आगमप्रकाशनसमिति, ब्यावर (राज.) [10] Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठांक 6-23 ग्यारहवाँ शतक प्राथमिक-बारह उद्देशकों का परिचय 3, संग्रहणीमाथार्थ 5, बारह उद्देशकों का स्पष्टीकरण 5, एकार्थक उत्पलादि का पृथक् ग्रहण क्यों ? 5 प्रथम उद्देशक : उत्पल (उत्पलजीव चर्चा) बत्तीस द्वारसंग्रह 6-1. उत्पातद्वार 6, 2. परिमाणद्वार 7, 3. अपहारद्वार 8, उत्पल जीव की अपेक्षा से अपहारद्वार 8, 4. उच्चत्वद्वार 8, 5-8. ज्ञानावरणीयादि-बन्ध-वेद-उदयउदीरणाद्वार 8, उत्पलजीव के बन्धक-प्रबन्धक, वेदक-अवेदक उदयी अनुदयी, उदीरक-अनूदीरक सम्बन्धी विचार 10, ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंध आदि क्यों और कैसे ? 10, एक अनेक जीब बन्धक आदि कैसे ? 10, वेदक एवं उदोरक भंग 10, 9. लेश्या द्वार 10, उत्पलजीवों में लेश्याएं 11, लेश्याओं के भंगजाल का नक्शा 11, असंयोगी 8 भंग 11, द्विकसंयोगी 24 भंग 11, त्रिकसंयोगी 32 भंग 11, चतु:संयोगी 16 भंग 12, 10-13 दृष्टि-ज्ञान-योगउपयोगद्वार 12, उत्पलजीवों में दृष्टि, ज्ञान, योग एवं उपयोग की प्ररूपणा 13, 14-15-16, वर्ण-रसादि-उच्छवासक-ग्राहारकद्वार 13, उत्पलजीवों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श 14, उच्छवास-निश्वास 14, असंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी भंग 15, आहारक-अनाहारक 15, 17-18-19 विरतिद्वार, क्रियाद्वार और बन्धकद्वार 15, 20-21 संज्ञाद्वार और कवायद्वार 16, 22-25 तक स्त्रीवेदादिवेदक-अन्धक-संज्ञी-इन्द्रियद्वार 17, 26-27 अनुबन्ध-संवेधद्वार 18, उत्पलजीव का अनुबन्ध और कायसंवेध 20, 28-31 तक ग्राहार-स्थिति-समुद्घात उद्वर्तनाद्वार 20 उत्पलजीवों के आहार, स्थिति, समुद्घात और उद्वर्तन विषयक प्ररूपणा 22, नियमतः छह दिशाओं से आहार क्यों? 22, अनन्तर उद्वर्तन कहाँ और क्यों ? समस्त संसारी जीवों का उत्पल के मुलादि में जन्म 23 द्वितीय उद्देशक : शालूक (के जीव की चर्चा) शालूक जीव सम्बन्धी वक्तव्यता 24 तृतीय उद्देशक : पलाश (के जीवसम्बन्धी चर्चा) उत्पलोद्देशक के समान प्रायः सभी द्वार 25 चतुर्थ उद्देशक : कुमिक (के जीव सम्बन्धी) तृतीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक कुभिक वर्णन 27 पंचम उद्देशक : नाडीक जीव सम्बन्धी चर्चा नालिक-नाडीक वनस्पति का स्वरूप 28 Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ उद्देशक : पद्म (जीव सम्बन्धी) पद्म के जीव का समग्न वर्णन 29 सप्तम उद्देशक : कणिका-जीव वर्णन कणिका-एक वनस्पतिविशेष 30 अष्टम उद्देशक : नलिन जीव सम्बन्धी प्रायः एक समान आठ उद्देशक 31 नौवाँ उद्देशक : शिव राषि शिव 32, शिव राजा का दिकप्रोक्षिक-तापस-प्रव्रज्या ग्रहण 33, दिक-चक्रवाल तपःकर्म का लक्षण 35, शिवकुमार का राज्याभिषेक और आशीर्वचन 36, शिवराजर्षि का दीक्षा-ग्रहण 37, दिशाप्रोक्षणतापस चर्या का वर्णन 38, शिवराजर्षि द्वारा चार छट्टखमण द्वारा दिशाप्रोक्षण 40, विभगजान प्राप्त होने पर राजर्षि का अतिशयज्ञान का दावा और जनवितर्क 40, भगवान द्वारा असंख्यात द्वीप-समुद्रप्ररूपणा 42, गौतम स्वामी द्वारा शिवराजषि को उत्पन्न ज्ञान का भगवान से निर्णय 43, द्वीप-समुद्रगत वर्षादि की परस्परबद्धता 43, भगवान का निर्णय सुनकर जनता द्वारा सत्यप्रचार 45, शिवराजर्षि के विभंगज्ञान के नाश का कारण 46, शिवराजषि द्वारा निनन्थप्रवज्याग्रहण और सिद्धिप्राप्ति 46, सिद्ध होने वाले जीवों का संहननादिनिरूपण 48 दसवाँ उद्देशक : लोक लोक और उसके मुख्य प्रकार 50, द्रव्यलोक 50, क्षेत्रलोक 50, काल-लोक 50, भावलोक 50, त्रिविध क्षेत्रलोक-प्ररूपणा 51, लोक और प्रलोक के संस्थान की प्ररूपणा 51, अधोलोकादि में जीव-अजीवादि की प्ररूपणा 53, अधोलोकादि के एक प्रदेश में जीवादि की प्ररूपणा 54, त्रिविध क्षेत्रलोक-प्रलोक में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से जीवाजीव द्रव्य 56, लोक की विशालता की प्ररूपणा 57, अलोक की विशालता का निरूपण 59, प्राकाशप्रदेश पर परस्पर सम्बद्ध जीवों का निरावाध अवस्थान 60, नर्तकी के दृष्टान्त से जीवों के प्रात्मप्रदेशों को निराबाध सम्बद्धता 61, बत्तीस प्रकार के नाट्य की व्याख्या 62, एक प्राकाशप्रदेश में जघन्य-उत्कृष्ट जीवप्रदेशों एवं सर्व जीवों का अल्प-बहुत्व 63 ग्यारहवाँ उद्देशक : काल काल और उसके चार प्रकार 65, प्रमाणकालप्ररूपणा 65, उत्कृष्ट दिन और रात्रि कब ? 68, समान दिवस-रात्रि 68, जघन्य दिवस और रात्रि 68, यथायुनिवृत्तिकाल प्ररूपणा 68, मरणकाल-प्ररूपणा 69, अद्धाकाल-प्ररूपणा 69, पल्योपम सागरोपम का प्रयोजन 70, उपमाकाल : स्वरूप और प्रयोजन 70, नैरयिक प्रादि समस्त संसारी जीवों की स्थिति की प्ररूपणा 70, पल्योपम-सागरोपम-क्षयोपचयसिद्धि हेतु दृष्टान्तपूर्वक प्ररूपणा 70, पल्योपम-सागरोपम के क्षयअपचय की सिद्धि के लिए सूदर्शन श्रेष्ठी की कथा 70, प्रभावती का वास गह-शय्या-सिंह-स्वप्नदर्शन 71, रानी द्वारा स्वप्ननिवेदन तथा स्वप्नफल कथनविनति 74, प्रभावती द्वारा स्वप्नफल [12] Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार और स्वप्नजागरिका 77, कौटुम्विक पुरुषों द्वारा उपस्थानशाला की सफाई और सिंहासनस्थापन 77, बल राजा द्वारा स्वप्नपाठक प्रामंत्रित 78, स्वप्नपाठकों से स्वप्न-कथन और उनके द्वारा समाधान 80, विमान और भवन 82, राजा द्वारा स्वप्नपाठक सत्कृत एवं रानी को स्वप्नफल सुना कर प्रोत्साहन 82, स्वप्नफल श्रवणानन्तर प्रभावती द्वारा यत्नपूर्वक गर्भरक्षण 83, पुवजन्म, दासियों द्वारा बधाई और राजा द्वारा उन्हें प्रीतिदान 85, पुत्रजन्ममहोत्सव एवं नामकरण का वर्णन 86, महाबल का पंच धात्रियों द्वारा पालन एवं तारुण्यभाव 89, बल राजा द्वारा राजकूमार के लिए प्रासादनिर्माण 90, आठ कन्यानों के साथ विवाह 90. नव वधुओं को प्रीतिदान 91, धर्मघोष अनगार का पदापंण, परिषद् द्वारा पर्युपासना 94, महाबल द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण 95, महाबल अनगार का अध्ययन, तपश्चरण, समाधिमरण एवं स्वर्गगमन 96, पूर्वभव का रहस्य खोल कर पल्योपमादि के क्षय-उपचय की सिद्धि 97 बारहवाँ उद्देशक : आलभिका नगरी (में प्ररूपणा) पालभिका नगरो के श्रमणोपासकों की देवस्थितिविषयक जिज्ञासा एवं ऋषिभद्र के उत्तर के प्रति अश्रद्धा 99, भगवान् द्वारा समाधान से सन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्र से क्षमायाचना 100, ऋषिभद्र के भविष्य के सम्बन्ध में कमान 102. मुद्गल परिव्राजक 104, विभंगज्ञानी मुद्गल द्वारा अतिशय ज्ञान की घोषणा और जनप्रतिक्रिया 104, भगवान द्वारा सत्यासत्य का निर्णय 105, मुदगल परिवाजक द्वारा निर्गन्थप्रव्रज्याग्रहण एवं सिद्धिप्राप्ति 106 बारहवां शतक प्राथमिक उद्देशक-परिचय 108, दश उद्देशकों के नाम 110. 110 प्रथम उद्देशक : शंख (और पुष्कली श्रमणोपासक) शख और पुष्कली का संक्षिप्त परिचय 110, भगवान का श्रावस्ती में पदार्पण, श्रमणोपासकों द्वारा धर्मकथाश्रवण 111, शंख श्रमणोपासक द्वारा पाक्षिक पौषधार्थ श्रमगोपासकों को भोजन तैयार कराने का निर्देश 112, प्राहार तैयार कराने के बाद शंख को बुलाने के लिए पुष्कली का गमन 115, गहागत पुष्कली के प्रति शंखपत्नी द्वारा स्वागत-शिष्टाचार और प्रश्नोत्तर 116, पौषधशाला में स्थित शंख को पूष्कली द्वारा प्रहार करते हए पौषध का आमंत्रण और उसके द्वारा अस्वीकार 116, पुष्कली कथित वृत्तान्त सुनकर श्रावकों द्वारा खाते-पीते पौषधानपालन 117, शंख एवं अन्य श्रमणोपासक भगवान् की सेवा में 118, भगवान् का उपदेश और शंख श्रमणोपासक की निन्दादि न करने की प्रेरणा 119, भगवान द्वारा विविध जागरिका-प्ररूपणा 121, शंख द्वारा क्रोधादिपरिणामविषयक प्रश्न और भगवान् द्वारा उत्तर 122, श्रमणोपासकों द्वारा शंखश्रावक से क्षमायाचना, स्वगृहगमन 124, शंख की मुक्ति के विषय में गौतम का प्रश्न, भगवान का उत्तर 124 Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 द्वितीय उद्देशक : जयन्ती (श्रमणोपासिका) जयन्ती श्रमणोपासिका और तत्संबंधित व्यक्तियों का परिचय 126, जयन्ती श्रमणोपासिका : उदयननप-मगावती देवी सहित सपरिवार भगवान् की सेवा में 127, कर्म गुरुत्व-लघुत्व संबंधी जयन्तीप्रश्न और भगवत्समाधान 131, भवसिद्धिक जीवों के विषय में परिचर्चा 131, सुप्तत्व-जागतत्व, सबलत्व-दुर्बलत्व एवं दक्षत्व-पालसित्व के साधुताविषयक प्रश्नोत्तर 133, इन्द्रियवशात जीवों का बन्धादि दुष्परिणाम 137, जयन्ती द्वारा प्रव्रज्याग्रहण और सिद्धि गमन 137. तृतीय उद्देशक : पृथ्वी सात नरक-पृथ्वियाँ–ताम-गोत्रादिवर्णन 139 चतुर्थ उद्देशक : पुद्गल दो परमाण-पुदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 140, तीन परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभागनिरूपण 140, चार परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभागनिरूपण 141, पांच परमाण-पुदगलोंका संयोग-विभाग-निरूपण 141, छह परमाण-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 142, सात परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 143, माठ परमाणु-पुद्गलों का संयोगविभाग-निरूपण 144, नौ पदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 145, दस परमाण-पूदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 148, संख्यात परमाण-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 151, असंख्यात परमाणु-पुद्गलों का संयोग विभाग-तिरूपण 153, अनन्त परमाणु-पुद्गलों के संयोग-विभाग-निष्पन्न भंग-प्ररूपणा 155, परमाण-पद्गलों का पुदगलपरिवर्त्त और उसके प्रकार 157, एकत्वदृष्टि से चौबीस दण्डकों में चौबीस दण्डकवर्ती जीवत्व के रूप में प्रतीतादि सप्तविध पद्गलपरिवर्त प्ररूपणा 161, सप्तविध पद्गल परिवत्तों का निर्वर्तनाकाल-निरूपण 168, सप्तविध पद्गल परिवत्तों के निस्पत्तिकाल का अल्पबहुत्व 168, सप्तविध पुदगल परिवत्र्तों का अल्पबहुत्व 170 पंचम उद्देशक : अतिपात प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-प्ररूपणा 171, अठारह पापस्थान-विरमण में वर्णादि का अभाव 174, चार बुद्धि, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पाँच के विषय में वर्णादिप्ररूपणा 175, अवकाशान्तर, तनुवात-घनवात-घनोदधि, पृथ्वी आदि के विषय में वर्णादिप्ररूपणा 176, चौवीस दण्डकों में वर्णादिप्ररूपणा 178, धर्मास्तिकाय से लेकर ग्रद्धाकाल तक में वर्गादिप्ररूपणा 179, गर्भ से प्रागमन के समय जीव में वर्णादिप्ररूपणा 182, कमों से जीव का विविध रूपों में परिणमन 182. 171 183 छठा उद्देशक : राहु राह : स्वरूप, नाम और विमानों के वर्ण तथा उनके द्वारा चन्द्रग्रसन के भ्रम का निराकरण 153, ध्र वराहु और पर्वराहु का स्वरूप एवं दोनों द्वारा चन्द्र को प्रावत-अनावत करने का कार्यकलाप 186, चन्द्र को शशि-सश्री और सूर्य को आदित्य कहने का कारण 188, Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 चन्द्र और सूर्य को अग्रमहिषियों का वर्णन 189, चन्द्र-सूर्य के कामभोग सुखानुभव का निरूपण 189 सप्तम उद्देशक : लोक का परिमाण लोक का परिमाण 192, लोक में परमाणमात्र प्रदेश में भी जीव के जन्म-मरण से अरिक्तता को दृष्टान्तपूर्वक प्ररूपणा 192, चौबीस दण्डकों की आवाससंख्या का अतिदेशपूर्वक निरूपण 194, एक जीव या अनेक जीवों के चौबीस दण्डक बत्ती पावासों में विविध रूपों में अनन्तश: उत्पन्न होने की प्ररूपणा 194, एक जीव या अनेक जीवों के माता-पिता आदि के, शत्रु आदि के, राजादि के तथा दासादि के रूप में अनन्तशः उत्पन्न होने की प्ररूपणा 196 आठवाँ उद्देशक : नाग महद्धिक देव की नाग, मणि, वृक्ष में उत्पत्ति, महिमा और सिद्धि 101, शीलादिरहित बानरादि का नरकगामित्वनिरूपण 203 201 नवम उद्देशक : देव 205 देवों के पांच प्रकार और स्वरूपनिरूपण-भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव, 205, पंचविध देवों की उत्पत्ति का सकारण निरूपण 207, पंचविध देवों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण 210, पंचविध देवों की वैक्रिय शक्ति का निरूपण 212, पंचविध देवों की उद्धर्तना का निरूपण 213, स्व-स्वरूप में पंचविध देवों को संस्थिति का निरूपण 215, पंचविध देवों के अन्तरकाल का निरूपण 216, पंचविध देवों का अल्पबहुत्व 218, भवनवासी ग्रादि देवों का अल्पबहुत्व 218 दशम उद्देशक : आत्मा 220 आत्मा के आठ प्रकार 220, द्रव्यात्मा प्रादि पाठों का परस्पर सहभाव-असहभाव निरूपण 221, प्रात्माओं का अल्पबहुत्व 226, प्रात्मा संबंधी विविध प्रश्नोत्तर 229, परमाणु द्विप्रदेशी त्रिप्रदेशी ग्रादि पुदगल-स्कन्ध संबंधी भंग 232 तेरहवां शतक 241 प्राथमिक-दस उद्देशकों का परिचय 239, दस उद्देशकों के नाम 241 प्रथम उद्देशक : पृथ्वी नरकपृथ्वियाँ, रत्नप्रभा के नरकावासों की संख्या और उनका विस्तार 241, रत्नप्रभा के संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों से उद्वर्तना सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर 245, शर्कराप्रभादि छह पृथ्वियों के नरकावासों की संख्या तथा संख्यात-असंख्यात योजन विस्तृत नरकों में उत्पत्ति, उदवर्तना तथा सत्ता की संख्या का निरूपण 250, संख्यात-असंख्यात योजन विस्तृत नरकों में सम्यग्-मिथ्या-मिश्रदृष्टि नैरयिकों के उत्पाद उद्वर्तना एवं अविरहितविरहित की प्ररूपणा 253 [15] Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 271 द्वितीय उद्देशक : देव चतुर्विध देवप्ररूपणा 258, भवनपति देवों के प्रकार, असुरकुमार एवं उनके विस्तार की प्ररूपणा 258, संख्यात-असंख्यात विस्तत भवनपति-प्रावासों में विविध-विशेषण-विशिष्ट असुर कुमारादि से सम्बन्धित उनपचास प्रश्नोत्तर 259, वाणव्यन्तर देवों की प्राबाससंख्या, विस्तार, उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता की प्ररूपणा 261, ज्योतिष्क देवों की विमानावाससंख्या. विस्तार एवं विविध-विशेषण-विशिष्ट की उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा 262, कल्पनासी, प्रैवेयक एवं अनुत्तर देवों की विमानावाससंख्या, विस्तार, उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा 262, चतुर्विध देवों के संख्यात-असंख्यात विस्तत प्रावासों में सम्यादष्टि प्रादि के उत्पाद, उदवर्तन एवं सत्ता की प्ररूपमा 260, एक लेश्यावाले का दूसरी लेश्या वाले देवों में उत्पाद-निरूपण 268 तृतीय उद्देशक : अनन्तर चौबीस दण्डकों में अनन्तराहारादि यावत् परिचारणा की प्ररूपणा 270 चतुर्थ उद्देशक : नरकपृथिवियाँ द्वार गाथाएं तथा सात प्रथ्वियाँ 271, द्वार---प्रथम नैरयिक-नरकावासों की संख्यादि अनेक पदों से परस्पर तुलना 271, द्वितीय द्वार (सात पृथ्वियों के नैयिकों की एकेन्द्रिय जीव) पृथ्वीस्पर्शानुभव प्ररूपणा 273, तृतीय प्रणिधिद्वार-सात पृध्वियों की मोटाई आदि की प्ररूपणा 274, चतुर्थ निरयान्तद्वार--सात पृथ्वियों के निकटवर्ती एकेन्द्रियों को महाकर्म अल्पमतादि प्ररूपणा 274, पंचमद्वार--लोक-त्रिलोक का आयाम-मध्यस्थान निरूपण 275, छठा दिशा, विदिशाप्रवहादि द्वार-ऐन्द्री आदि दस दिशा-विदिशात्रों का स्वरूपनिरूपण 277, सप्तम प्रवर्तनद्वार-लोक-पंचास्तिकायविरूपण 279, आठवां अस्तिकायस्पर्शनद्वारपंचास्तिकायप्रदेश-प्रद्धासमयों का परस्पर जघन्योत्कृष्ट प्रदेश-स्पर्शनानिरूपण 283 नौवाँ अवगाहनाद्वार---प्रस्तिकाय-प्रद्धासमयों का परस्पर विस्तृत प्रदेशावगाहनानिरूपण 297, दसवाँ जीवावगाढतार---पांच एकेन्द्रियों का परस्पर अवगाहन निरूपण 304, ग्यारहवाँ अस्ति-प्रदेश-लिषीदनद्रार- धर्माधर्माका शास्तिकायों पर बैठने प्रादि का दृष्टान्तपूर्वक निषेधनिरूपण 305, बारहवां द्वार--...बहसम, सर्वसंक्षिप्त-विग्रह-विग्रहिक लोक का निरूपण 307, तेरहवां द्वार-लोकसंस्थान-लोकसंस्थाननिरूपण 308. माधोलोक-तिर्यकलोक-ऊर्वलोक के अल्पबहुत्व का निरूपण 309 छठा उद्देशक : उपपात (आदि) चौवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर उपपात-उद्वर्तननिरूपण 311, चरमचंच आवास का वर्णन एवं प्रयोजन 311 / उदायननरेशवृत्तान्त 314, भगवान् का राजगृहनगर से विहार, चम्पापुरी में पदार्पण 314, उदायननप, राजपरिवार, वीतिभयनगर आदि का परिचय 314, पौषधरत उदायन नप का भगवदवन्दनादि-अध्यवसाय 316, भगवान का वीतिभयनगर में पदार्पण, उदायन द्वारा प्रव्रज्याग्रहण का संकल्प 317, स्वपुत्र कल्याणकांक्षी उदायन नप द्वारा अभीचिकुमार के बदले अपने भानजे का राज्याभिषेक 318, केशी राजा से अनुमत उदायन नृप के द्वारा त्याग Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्यपूर्वक प्रवज्याग्रहण, मोक्षगमन 321, राज्य-अप्राप्ति निमित्त से वैरानुबद्ध अभीचिकुमार का वोतिभयनगर छोड़ कर चम्पानगरी में निवास 323, श्रमणोपासक धर्मरत अभीचिकुमार को वैरविषयक आलोचन-प्रतिक्रमण न करने से असुरकुमारत्वप्राप्ति 324, देवलोकच्यवनानन्तर अभीचि को भविष्य में मोक्षप्राप्ति 325 सातवां उद्देशक : भाषा भाषा के आत्मत्व, रूपित्व, अचित्तत्व, अजीवत्व का निरूपण 326, भाषा-जीवों की, अजीवों की नहीं 326, बोलते समय ही भाषा, अन्य समय में नहीं 326, भाषा-भेदन बोलते समय ही 327, चार प्रकार की भाषा 327, मनः आत्मा मन नहीं, जीव का है 329, मन के चार प्रकार 330, काय आत्मा है या अन्य ? रूपी-अरूपी है, सचित्त-अचित्त है, जीव-अजीव है ? 330, जीव-अजीव दोनों कायरूप 331, त्रिविध जीवस्वरूप को लेकर कायनिरूपण-कायभेदनिरूपण 331, काया के सात भेद 331, मरण के पांच प्रकार 334, आबीचिमरण के भेदप्रभेद और स्वरूप 334. अवधिमरण के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप 337, प्रात्यन्तिकमरण के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप 337, बालमरण के भेद और स्वरूप 338, पण्डितमरण के भेद और स्वरूप 339 आठवाँ उद्देशक : कर्मप्रकृति 341 प्रज्ञापना के प्रति देशपूर्वक कर्मप्रकृतिभेदादिनिरूपण 341 342 नवम उद्देशक : अनगार में केयाघटिका (वक्रियशक्ति) रस्सी बंधी घड़िया, स्वर्णादिमंजूषा, वाँस आदि की चटाई, लोहादिभार लेकर चलनेवाले व्यक्तिसम भावितात्मा अनगार की बैक्रियशक्ति 342, चमचेड़-यज्ञोपवीत-जलौका-बीजबीजसमुद्रवायस आदि की क्रियावत् भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति 344, चक्र, छत्र, चर्म, रत्नादि लेकर चलने वाले पुरुषवत् भावितात्मा अनगार की विकर्वणशक्तिनिरूपण 346, कमलनाल तोड़ते हुए चलने वाले पुरुषवत् अनगार को विक्रियाशक्ति 347, मणालिका, बनखण्ड एवं पूष्पकरिणी बना कर चलने की वैक्रियाक्तिनिरूपण 347, मायी (प्रमादी) द्वारा विकुर्वगा, अप्रमादी द्वारा नहीं 349 चौदहवां शतक प्राथमिक उद्दे शक परिचय 351, उद्देशकों के नाम 355 प्रथम उद्देशक चरम (-परम के मध्य को गति आदि) भावितात्मा अनगार की चरम-परम मध्य में गति, उत्पत्तिप्ररूपणा 356, चौबीस दण्डकों में शीघ्रगतिविषयक प्ररूपणा 357, चौबीस दण्डकों में अनन्तरोपपन्नकादिप्ररूपणा 359, अनन्तरोपपन्न कादि चौबीस दण्डकों में आयूष्यबंध-प्ररूपणा 360, चौबीस दण्डकों में अनन्तर निर्गतादि-प्ररूपणा 361, अनन्तर निर्गतादि चौबीस दण्डकों में आयुष्यबन्ध्र-प्ररूपणा 362 , [ 17 ] Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीस दण्डकों में अनन्तर खेदोपपन्नादि अनन्तर खेदनिर्गतादि एवं प्रायूष्यबन्ध की प्ररूपणा 363 वितीय उद्देशक : उन्माद (प्रकार, अधिकारी) 372 354 उन्मादः प्रकार, स्वरूप और चौबीस दण्डकों में सहेतुक प्ररूपणा 365, स्वाभाविक वृष्टि और देवकृतवृष्टि का सहेतुक निरूपण 368, ईशान देवेन्द्रादि चतुर्विधदेवकृत तमस्काय का सहेतुक निरूपण 369 तृतीय उद्देशक : महाशरीर द्वारा अनगार आदि का व्यतिक्रमण भावितात्मा अनगार के मध्य में से होकर जाने का देव का सामर्थ्य-असामर्थ्य 372, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कारादि विनय-प्ररूपणा 373, अल्पद्धिक-महद्धिक-समद्धिक देव-देवियों के मध्य में से व्यतिक्रमनिरूपण 375, जीवाभिगमसूत्रातिदेशपूर्वक नैरयिकों के द्वारा बीस प्रकार के परिणामानुभव का प्रतिपादन 377 चतुर्थ उद्देशक : पुद्गल (आदि के परिणाम) त्रिकालवी विविध स्पर्शादिपरिणत प्रदगल की वर्णादिपरिणाम प्ररूपणा 379, जीव के त्रिकालापेक्षी सूखी दु:खी ग्रादि विविध परिणाम 380, परमाण-पूगल शाश्वतता-प्रशाश्वतता एवं चरमता-अचरमता का निरूपण 381, परिणाम: प्रज्ञापनातिदेशपूर्वक भेद-प्रभेद निरूपण 386 पञ्चम उद्देशक : अग्नि संग्रहणी-गाथा 384, चौबीस दण्डकों की अग्नि में होकर गमन-विषयक प्ररूपणा 384, चौबीस दण्डकों में शब्दादि दस स्थानों में इष्टानिष्ट स्थानों की प्ररूपणा 388, महद्धिक देव का तिर्यक पर्वतादि उल्लंघन-प्रलंघनसामर्थ्य-असामर्थ्य 390 छठा उद्देशक : किमाहार (आदि) चौबीस दण्डकों में आहारपरिणाम, योनिक-स्थितिनिरूपण 392, चौबीस दण्डकों में वीचिद्रव्यअवो चिद्रव्याहार-प्ररूपणा 393, शकेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक देवेन्द्रों के दिव्य भोगों की उपभोग पद्धति 393 सातवाँ उद्देशक संश्लिष्ट भगवान द्वारा गौतम स्वामी को इस भव के बाद अपने समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का प्राश्वासन 398, अनुत्तरीपपातिक देवों की जानने-देखने की शक्ति को प्ररूपणा 399, छह प्रकार का तुल्य 400, द्रव्यतुल्यनिरूपण 400, क्षेत्रतुल्यनिरूपण 401, कालतुल्यनिरूपण 401, भवतुल्यनिरूपण 402, भावतुल्यनिरूपण 402, संस्थानतुल्यनिरूपण 404 अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक पाहाराध्यवसायप्ररूपणा 405, लबसप्तम देव : स्वरूप एवं दृष्टान्तपूर्वक कारणनिरूपण 406, अनुत्तरोपपातिक देव : स्वरूप, कारण और उपपातहेतुक कर्म 408 .. 392 398 [18] Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 अष्टम उद्देशक : (विविध पृथ्वियों का परस्पर) अन्तर रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभार पृथ्वी एवं प्रलोक पर्यन्त परस्पर अबाधान्तर की प्ररूपणा 410. शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका के भावी भवों की प्ररूपणा 413, अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य पाराधक हुए 415, अम्बड परिव्राजक को दो भवों के अनन्तर मोक्षप्राप्ति की प्ररूपणा 415, अव्याबाध देवों की अव्याबाधता का निरूपण 416, शिर काट कर कमण्डल में डालने की शक्रेन्द्र की वैश्यि शक्ति 417, जभक देवों का स्वरूप, भेद, स्थिति 418 421 नौवाँ उद्देशक : भावितात्मा अनगार भावितात्मा अनगार की ज्ञान संबंधी और प्रकाशपुद्गलस्कन्ध सम्बन्धी प्ररूपणा 421, चौबीस दण्डकों में प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट प्रादि पुद्गलों की प्ररूपणा 422, महद्धिक वैक्रियशक्तिसम्पन्न देव की भाषासहस्रभाषणशक्ति 424, सूर्य का अन्वर्थ तथा उनकी प्रभादि के शुभत्व की प्ररूपणा 424 श्रामण्य-पर्याय-सुख की देवसुख के साथ तुलना 425. बसवाँ उद्देशक : केवली केवली एवं सिद्ध द्वारा छदमस्थादि को जानने-देखने का सामर्थ्य निरूपण 428. केवली और सिद्धों द्वारा भाषण, उनमेष-निमेषादि क्रिया-प्रक्रिया की प्ररूपणा 429, केवली द्वारा नरकपथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभार पृथ्वी तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने की प्ररूपणा 430. 428 पन्द्रहवां शतक : गोशालकचरित प्राथमिक-४३३, मध्य मंगलाचरण 435, श्रावस्ती निवासी हालाहल का परिचय एवं गोशालक का निवास 435, गोशालक का छह दिशाचरों को अष्टांगमहानिमित्त शास्त्र का उपदेश एवं सर्वज्ञादि अपलाप 436, गोशालक की वास्तविकता जानने की गौतम स्वामी की जिज्ञासा, भगवान द्वारा समाधान 438, गोशालक के माता-पिता का परिचय तथा भद्रा माता के गर्भ में प्रागमन 439, शरवण सनिवेश में गोबहल ब्राह्मण की गोशाला में मखलि-भद्रा का निवास, गोशालक का जन्म और नामकरण 440, यौवनवयप्राप्त गोशालक द्वारा स्वयं मखबत्ति 441, गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृत्तान्त : भगवान् के श्रीमुख से 442, विजय गाथापति के गृह में भगवत्पारणा, पंचद्रव्य प्रादुर्भाव, गोशालक द्वारा प्रभावित होकर भगवान् का शिष्य बनने का वृत्तान्त 443, द्वितीय से चतुर्थ मासखमण के पारणे तक का वृत्तान्त, भगवान के अतिशय से पुनः प्रभावित गोशालक द्वारा शिष्यताग्रहण 446, तिल के पौधे को लेकर भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने को गोशालक की कुचेष्टा 450, वैश्यायन के साथ गोशालक की छेड़खानी, उसके द्वारा [19] Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेजोलेश्याप्रहार, गोशालकरक्षार्थ भगवान् द्वारा शीतलेश्या द्वारा प्रतीकार 452, भगवान द्वारा तेजोलेश्या शमन का वृत्तान्त तथा गोशाला को तेजोलेश्याविधि का कथन 454, गोशालक द्वारा भगवान के साथ मिथ्यावाद, एकान्त परिवत्यपरिहारवाद की मान्यता और भगवान् से पृथक् विचरण 456, गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति, अहंकारवश जिनप्रलाप एवं भगवान् द्वारा स्ववक्तव्य का उपसंहार 458, भगवान् द्वारा अपने-गोशालक के-अजिनत्व का प्रकाशन सुन कर कुभारिन की दुकान पर कुपित गोशालक का ससंघ जमघट 459, गोशालक द्वारा प्रर्थलोलुप वणिक-वर्ग-विनाशदृष्टान्त-कथनपूर्वक प्रानन्द स्थविर को भगवत्विनाशकथनचेष्टा 460, मोशालक के साथ हुए वार्तालाप का निवेदन, गोशालक के तप-तेज का निरूपण, श्रमणों को उसके साथ प्रतिवाद न करने का भगवत्संदेश 467, गोशालक के साथ धर्मचर्चा न करने का प्रानन्दस्थविर द्वारा भगवदादेश-निरूपण 470, भगवान के समक्ष गोशालक द्वारा अपनी ऊटपटांग मान्यता का निरूपण 471, भगवान द्वारा गोशालक को चोर के दृष्टान्तपूर्वक स्वभ्रान्तिनिवारण-निर्देश 477, भगवान् के प्रति गोशालक द्वारा अवर्णवादमिथ्यावाद 478, गोशालक को स्वकर्तव्य समझाने वाले सर्वानुभूति अनगार का गोशालक द्वारा भस्मीकरण 478, गोशालक द्वारा भगवान के किये गये अवर्णवाद का विरोध करने वाले सुनक्षत्र अनगार का समाधिपूर्वक मरण 450, गोशालक को भगवान् का उपदेश, ऋद्ध गोशालक द्वारा भगवान पर फेंकी हई तेजोलेश्या से स्वयं का दहन 481, ऋद्ध गोशालक की भगवान् के प्रति मरण घोषणा, भगवान द्वारा प्रतिवादपूर्वक गोशालक के अन्धकारमय भविष्य का कथन 482, श्रावस्ती के नागरिकों द्वारा गोशालक के मिथ्यावादी और भगवान के सम्यग्वादी होने का निर्णय 483, निग्रन्थ श्रमणों को गोशालक के साथ धर्मचर्चा करने का भगवान् का आदेश 484, निम्रन्थों की धर्मचर्चा में गोशालक निरुत्तर, पीडा देने में असमर्थ, प्राजीविक स्थविर भगवान की निश्राय में 485, गोशालक की दुर्दशानिमित्तकविविध चेष्टाएँ 487, भगवत्प्ररूपित गोशालक की तेजोलेश्या की शक्ति 488, निजपापप्रच्छादनार्थ गोशालक द्वारा अष्ट चरम एवं पानक-अपानक की कपोलकल्पित मान्यता का निरूपण 489, अयंपुल का सामान्य परिचय, हल्ला के आकार की जिज्ञासा का उद्भव, गोशालक से प्रश्न पूछने का निर्णय, किन्तु गोशालक की उन्मन्तवत् दशा देख अयं पुल का वापिस लौटने का उपक्रम 492, अयंपुल की डगमगाती श्रद्धा स्थिर हुई, गोशालक से समाधान पाकर सन्तुष्ट, गोशालक द्वारा बस्तुस्थिति का प्रलाप 493, प्रतिष्ठालिप्सावश गोशालक द्वारा शानदार मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 496, सम्यक्त्वप्राप्त गोशालक द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 497, आजीविक स्थविरों द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक गुप्त मरणोत्तर क्रिया करके प्रकट में प्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तरक्रिया 499, भगवान का मेंढिक ग्राम में पदार्पण, रोगाकान्त होने से लोकप्रवाद 500, अफवाह सुन कर सिंह अनगार को शोक, भगवान द्वारा सन्देश पाकर सिह अनगार का उनके पास आगमन 502, रेवती गाथापत्नी का दान 504, सुनक्षत्र अनगार की भावी गति-उत्पत्ति संबंधी निरूपण 509 गोशालक का भविष्य 510, गोशालक देवभव से लेकर मनुष्यभवतक : विमलवाहन राजा के रूप में 510, सुमंगल अनगार की भावी गति : सर्वार्थसिद्ध विमान एवं मोक्ष 517, गोशालक के भावी दीर्घकालीन भवम्रमण का [ 20 ] Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्दर्शन 518, गोशालक का अन्तिम भव-महाविदेश क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ केवली के रूप में .. मोक्षगमन 525. सोलहवां शतक प्राथमिक उद्देशकपरिचय 528, सोलहवें शलक के उद्देशकों के नाम 530 प्रथम उद्देशक : अधिकरणी अधिकरणी में वायूकाय की उत्पत्ति और विनाश संबंधी निरूपण 531, अंगार कारिका में अग्निकाय की स्थिति का निरूपण 532, तप्त लोहे को पकड़ने में किया संबंधी प्ररूपणा 532, जीव और चौबीस दण्डकों में अधिकरणी-अधिकरण, साधिकरणी-निरधिकरणी आदि तथा आत्मप्रयोगनिर्वतित आदि अधिकरण संबंधी प्ररूपणा 534, शरीर, इन्द्रिय एवं योगों को बांधते हुए जीवों के विषय में अधिकरणी-अधिकरणविषयक प्ररूपणा 537 द्वितीय उद्देशक : जरा जीवों और चौबीस दण्डकों में जरा और शोक का निरूपण 541. शकेन्द्र द्वारा भगवत-दर्शन. प्रश्नकरण एवं अवग्रहानुज्ञाप्रदान 542, जीव और चौबीस दण्डकों में चेतनकृत कर्म की प्ररूपणा 546 531 548 ततीय उद्देशक : कर्म अष्ट कर्मप्रकृतियों के वेदावेद आदि का प्रज्ञापना के प्रति देशपूर्वक निरूपण 548, कायोत्सर्ग स्थित अनगार के अर्स-छेदक को तथा अनगार को लगने वाली क्रिया 549 चतुर्थ उद्देशक : यावतीय तपस्वी श्रमणों के जितने कर्मों को खपाने में नैरयिक लाखों करोड़ों वर्षों में भी असमर्थ, 552 पंचम उद्देशक : गंगदत्त शक्रेन्द्र के पाठ प्रश्नों का भगवान द्वारा उत्तर 556, शक्रन्द्र के शीघ्र चले जाने का कारण: महाशुक्र सम्यग्दृष्टिदेव के तेज आदि की असहनशीलता--भगवत्कथन 557, सम्यग्दृष्टि गंगदत्त द्वारा मिथ्यादृष्टि देव को उक्त सिद्धान्तसम्मत तथ्य का भगवान् द्वारा समर्थन, धर्मोपदेश एवं भव्यत्वादि कथन 559, गंगदत्त की दिव्य ऋद्धि आदि के संबंध में प्रश्न : भगवान द्वारा पूर्वभव वत्तान्तपूर्वक विस्तत समाधान 562, गंगदत्त देव की स्थिति तथा भविष्य में मोक्षप्राप्ति 565 छठा उद्देशक : स्वप्नदर्शन स्वप्नदर्शन के पांच प्रकार 566, सूप्तजागृत अवस्था में स्वप्नदर्शन का निरूपण 567, जीवों तथा चौवीस दण्डकों के सुप्त, जागृत एवं सुप्त-जागृत का निरूपण 567, संवृत आदि में तथारूप स्वप्नदर्शन की तथा इनमें सुप्त आदि की प्ररूपणा 568, स्वप्नों और महास्वप्नों की संख्या का निरूपण 569, तीर्थकरादि महापुरुषों की माताओं को गर्भ में तीर्थकरादि के आने पर दिखाई देने वाले महास्वप्नों की संख्या का निरूपण 570, भगवान महावीर को छम [21] Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 581 स्थावस्था को अन्तिम रात्रि में दीखे 10 स्वप्न और उनका फल 572, एक-दो भव में मुक्त होने वाले व्यक्तियों को दिखाई देने वाले 14 प्रकार के स्वप्नों का संकेत 575, गन्ध के पुद्गल बहते हैं 578 सातवाँ उद्देशक : उपयोग प्रज्ञापनासूत्र--अतिदेशकपूर्वक उपयोग के भेद-प्रभेद 580. अष्टम उद्देशक : लोक लोक के प्रमाण का तथा लोक के विविध चरमान्तों में जीवा-जीवादि का निरूपण 581, नरक से लेकर वैमानिक एवं ईषत-प्रारभार तक पूर्वादि चरमान्तों में जीवाजीवादि का निरूपण 584, वष्टिनिर्णयार्थ करादि के संकोचन-प्रसारण में लगने वाली क्रियाएँ 587, महद्धिक देव का लोकान्त में रहकर अलोक में अवयवसंकोचन-प्रसारण असामर्थ्य 588 नौवाँ उद्देशक : बलि (वैरोचनेन्द्रसभा) बलि-वैरोचनेन्द्रसभा की सुधर्मा सभा से संबंधित वर्णन 590 दसवाँ उद्देशक : अवधिज्ञान प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक अवधिज्ञान का वर्णन 592 ग्यारहवाँ उद्देशक : द्वीपकुमार संबंधी वर्णन द्वीपकुमार देवों की पाहार, श्वासोच्छवासादि की समानता-असमानता का वर्णन 593, द्वीपकुमारों में लेश्या की तथा लेश्या एवं ऋद्धि के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 593 बारहवां उद्देशक : उदधिकुमार संबंधी वक्तव्यता उदधिकुमारों में पाहारादि की समानता-असमानता का निरूपण 595 तेरहवाँ उद्देशक : दिशाकुमार संबंधी वक्तव्यता दिशाकुमारों में प्राहारादि की समानता-असमानता संबंधी वक्तव्यता 596 चौदहवां उद्देशकः स्तनितकुमार संबंधी वक्तव्यता स्तनितकुमारों में ग्राहारादि की समानता-असमानता संबंधी वक्तव्यता 597 592 595 596 597 सत्तरहवाँ शतक प्राथमिक उद्देशकपरिचय 598, सत्तरहवें शतक का मंगलाचरण 600, उद्देशकों के नामों की प्ररूपणा 600 601 प्रथम उद्देशकः कुजर (आदि संबंधी बसव्यता) उदायी और भूतानन्द हस्तिराज के पूर्व और पश्चात भवों के निर्देशपूर्वक सिद्धिगमन-प्ररूपणा 601, ताड़ फल को हिलाने गिराने ग्रादि से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रिया 602, [22] Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्ष के मूल कन्द आदि को हिलाने से संबंधित जीवों को लगने वाली क्रिया 604, शरीर, इन्द्रिय और योग : प्रकार तथा इनके निमित्त से लगने वाली क्रिया 605, षडविध भावों का अनुयोगद्वार के प्रतिदेशपूर्वक निरूपण 697 609 द्वितीय उद्देशकः संजय संयत आदि जीवों के तथा चौवीस दण्डकों के सयुक्तिक धर्म, अधर्म एवं धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा-विचारणा 609, अन्यतीथिकमत के निराकरणपूर्वक श्रमणादि में, जीवों में तथा चौवीस दंडकों में बाल, पण्डित और बाल-पण्डित की प्ररूपणा 611, प्राणातिपात आदि में वर्तमान जीव और जीवात्मा को भिन्नता के निराकरणपूर्वक जैनसिद्धान्तसम्मत जीव और आत्मा की कथंचित अभिन्नता का प्रतिपादन 613, रूपी अरूपी नहीं हो सकता, न अरूपी रूपी हो सकता है 615 तृतीय उद्देशकः शैलेशी 618 शैलेशी अवस्थापन्न अनगार में परप्रयोग के बिना एजनादि-निषेध 618, एजना के पांच भेद 618, द्रव्यैजनादि पांच एजनाओं की चारों गतियों की रष्टि से प्ररूपणः 619, चलना और उसके भेद-प्रभेदों का विरूपण 620, शरीरादि-चलना के स्वरूप का सयुक्तिक निरूपण 621, संवेग, निर्वेदादि उनचास पदों का अन्तिम फल-सिद्धि 623 625 630 चतुर्थ उद्देशकः क्रिया (ग्रादि से सम्बंधित चर्चा) जीव और चौवीस दण्डकों में प्राणातिपात ग्रादि पाँच क्रियाओं की प्रारूपणा 625, समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा से जीव और चौवीस दण्डकों में प्राणातिपातादिक्रियानिरूपण 627, जीव और चौवीस दण्डकों में दुःख, दुःखवेदन, वेदना-वेदन का प्रात्मकृतत्वनिरूपण ६२पंचम उद्देशकः ईशानेन्द्र (की सुधर्मा सभा) ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा का स्थानादि की दृष्टि से निरूपण 630 छठा उद्देशक : पृथ्वीकायिक (मरणसमुद्घात) मरणसमुद्घात करके सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति एवं पुदगलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 631 634 सातवा उ शक : पृथ्वीकायिक सौधर्मकल्पादि में मरणसमुद्घात द्वारा सप्त नरकों में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वी कायिक जीव को उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 634 अष्टम उद्देशक : (अधस्तन) अपकायिकसंबंधी रत्नप्रभा में मरणसमुदघात करके सौधर्मकल्पादि में उत्पन्न होने योग्य अपकायिक जीव की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 635 [23] Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 637 638 639 641 नौवाँ उद्देशक : (ऊर्ध्व लोकस्थ) अप्कायिक सौधर्मकल्प में मरणसमुद्घात करके सप्त नरकादि में उत्पन्न होने योग्य प्रकायिक जीव की उत्पत्ति और पुद्गल ग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 636 दसवाँ उद्देशक : वायुकायिक (वक्तव्यतर) रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य वायुकायिक जीव पहले उत्पन्न होते हैं या पहले पुद्गल ग्रहण करते हैं ? 637 ग्यारहवाँ उद्देशक : (ऊर्ध्ववायुकायिक) सौधर्मकल्प में मरणसमुद्घात करके सप्त नरकादि पृथ्वियों में उत्पन्न होने योग्य वायुकाय की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में प्रथम क्या ? 638 बारहवाँ उद्देशक ; एकेन्द्रिय जीवों में आहारादि की समता-विषमता एकेन्द्रिय जीवों में समाहार आदि सप्तद्वार निरूपण 639, एकेन्द्रियों में लेश्या की तथा लेश्या एवं ऋद्धि की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 639 लेरहवा उद्देशक : नाग (कुमार संबंधी वक्तव्यता) नागकुमारों में समाहारादि सप्त द्वारों की तथा लेश्या की अपेक्षा से अल्पबहत्वप्ररूपणा 641. चौवाँ उद्देशक : सुवर्ण (कुमार संबंधी वक्तव्यता) सुवर्णकुमारों में समाहार आदि सप्त द्वारों की तथा लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 642. पन्द्रहवाँ उद्देशक : विद्य त्कुमार (संबंधी वक्तव्यता) विद्युत्कुमारों में समाहार आदि की एवं लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 643. सोलहवाँ उद्देशक : वायुकुमार (संबंधी बक्तव्यता) वायुकुमारों में समाहारादि सप्त द्वारों तथा लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणा 644. सत्तरहवाँ उद्देशक : अग्निकुमार (संबंधी वक्तव्यता) अग्निकुमारों में समाहारादि तथा लेश्या एवं अल्पबहुत्यादि प्ररूपणा 644. अठारहवां शतक प्राथमिक उद्देशकपरिचय 646, अठारहवें शतक के उद्देशकों का नामनिरूपण 648. प्रथम उद्देशक : प्रथम प्रथम-अप्रथम 649, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्ध में जीवत्व-सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथमत्वअप्रथमत्व 649, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में पाहारकत्व-अनाहारकत्व की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण 650. भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक तथा नोभवसिद्धिक-नोप्रभव 642 644 649 [ 24 ] Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धिक के विषय में भवसिद्धित्वादि दृष्टि से प्रथम-अप्रथम प्ररूपणा 652, जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में संज्ञी, असंझी, मोसंजो-नोअसंज्ञी भाव से अपेक्षा की प्रथमत्व-अप्रथम व निरूपण 653, सलेश्यी, कृष्णादिलेश्यो एवं अलेश्यी जीव के विषय में सलेश्यादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 654, सम्पप्टि, मिध्याप्टि एवं मिश्रदृष्टि जीवा के विषय में एक-बहवचन से सम्यग्दृष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रथमत्व-प्रथमत्व निरूपण 55. जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व से संयतभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-प्रथमत्व निरूपण 656, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व की दृष्टि से यथायोग्य कषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 657, जीव, चौवीम दण्डक और मिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य ज्ञानो-अज्ञानोभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 658, जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को लेकर यथायोग्य सयोगीअयोगीभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वकथन 659, जोव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से साकारोपयोग-अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्व कथन 660, जीव, चौबीम दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से सवेद-ग्रवेद भाव की अपक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 660. जीव चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य सशरीर-शरीरभाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-प्रथमत्वनिपण 661, जीव चौबीम दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य पर्याप्तभाव को अपेक्षा में प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 661, प्रथमत्व-अप्रथमत्व लक्षण निरूपण 662, जीय, पौवीस दण्डक और सिद्धों में पूर्वोक्त चौदह द्वारों के माध्यम से जीवभावादि की अपेक्षा से, एकवचन बहवचन मे यथयोग्य चरमस्व-गाच रमत्वनिरूपण 66 द्वितीय उ शक : विशाख विशाखानगरी में भगवान का समवसरण 669, शकेन्द्र का भगवान के सानिध्य में प्रागमन और नाट्य प्रदर्शित करके पुन: प्रतिगमन 669, गौतम द्वारा शन्द्र के पूर्वभव सम्बन्धी प्रश्न. भगवान द्वारा कार्तिक श्रेष्ठी के रूप में परिचयात्मक उत्तर 670, मुनिसुव्रत स्वामी से धर्मश्रवण और प्रवज्याग्रहण की इच्छा 671, एक हजार पाठ व्यापारियों सहित (कार्तिक श्रेष्ठी) का) दीक्षाग्रहण तथा संयमसाधन 678, कातिक मतगार द्वारा अध्ययन, तप, संलेखनापूर्वक ममाधिमरण एवं सौधर्मेन्द्र के रूप में उत्पत्ति 676 तृतीय उद्देशक : माकन्दिक माकन्दीपुत्र द्वारा पूछे गये कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिकों को मनुष्यभवानन्तर सिद्धगति सम्बन्धी प्रश्न के भगवान द्वारा उत्तर, माकन्दीपुत्र द्वारा तथ्यप्रकाशन पर संदिग्ध श्रमण निग्रन्थों का भगवान द्वारा समाधान, उनके द्वारा क्षमापना 678, चरम निर्जरा-पूदगलों सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 681, बन्ध के मुख्य दो भेदों के भेद-प्रभेदों का तथा चौवीस दण्डको सर्व जानावरणीयादि प्रष्टविध कर्म की अपेक्षा भावबन्ध के प्रकार का निरूपण 685, जीव एवं चौवीस दण्डकों द्वारा किए गए, किए जा रहे तथा किए जाने वाले पापक्रमों के नानारत का रष्टान्तपूर्वक निरूपण 687, चौवीस दण्डको डाग आहार रूप में गहीत पदगलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाणनिरूपण 689 Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य उद्देशक : प्राणातिपात जीव और अजीव द्रव्यों में से जीवों के लिए परिभोग्य-अपरिभोग्य द्रव्यों का निरूपण 691, कषाय : प्रकार तथा तत्सम्बद्ध कार्यों का कषायपद के अतिदेशपूर्वकनिरूपण 693, युग्म : . कृतयुग्मादि चार और स्वरूप 693, चौवीस दण्डक, सिद्ध और स्त्रियों में कृतयुग्मादिराशिप्ररूपणा 694, अन्ध कवह्नि जीवों में अल्प बहुत्व-परिमाणनिरूपण 196 पंचम उद्देशक : असुर एक निकाय के दो देवों में दर्शनीयता-प्रदर्शनीयता आदि के कारणों का निरूपण 798, चौबीस दण्डकों में स्वदण्डकवर्ती दो जीवों में महाकर्मत्व-अल्पकर्मत्वादि के कारणों का निरूपण 700, चौवीस दण्डकों में वर्तमानभव और ग्रामामीभव की अपेक्षा प्रायुष्यवेदन का निरूपण 401, चतुर्विध देवनिकायों में देवों की स्वेच्छानुसार विकर्वणाकरण-प्रकरण सामर्थ्य के कारणों का निरूपण 702 छट्ठा उद्देशक : गुड़ (आदि के वर्णादि) फाणित-गुड़, भ्रमर, शुक-पिच्छ, रक्षा, मंजीठ आदि पदार्थों में व्यवहार-निश्चयनय की दृष्टि से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्ररूपणा 704, परमाण पदगल एवं द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि में वर्ण-गन्ध-रस स्पर्शनिरूपण 705 708 सप्तम उद्देशक : केवली केवली के यक्षाविष्ट होने तथा दो सावध भाषाएं बोलने के अन्यतीथिक आक्षेप का भगवान् द्वारा निराकरणपूर्वक यथार्थ समाधान 701, उपधि एवं परिग्रह : प्रकार त्रय तथा नैरयिकादि में उपधि एवं परिग्रह की यथार्थ प्ररूपणा 710, प्रणिधान : तीन प्रकार का नैरथिकादि में प्रणिधान को प्ररूपणा 712, दुष्प्रणिधान एवं सुप्रणिधान के तीन-तीन भेद तथा नैरयिकादि में दुष्प्रणिधान-सुप्रणिधान-प्ररूपणा 713, अन्यतीथिकों द्वारा भगत्प्ररूपित प्रस्तिकाय के विषय में पारस्परिक जिज्ञासा 614, राजगृह में भगवत्पदार्पण सुनकर मद्र क श्रावक का उनके दर्शनवन्दनार्थ प्रस्थान 614, मद्र क को भगवद्दर्शनार्थ जाते देख अत्यतीथिकों को उससे पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी चर्चा करने की तैयारी, उनके प्रश्न का मद्रक द्वारा अकाट्य युक्तिपूर्वक उत्तर 715, मद्रक द्वारा अत्यतीथिकों को दिये गए युक्तिसंगत उत्तर की भगवान् द्वारा प्रशंसा, मद्र क द्वारा धर्मश्रवण करके प्रतिगमन 619, गौतम द्वारा पूछे गए मद्रक की प्रव्रज्या एवं मुक्ति से सम्बद्ध प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान 720, महद्धिक देवों द्वारा संग्राम निमित्त सहम्ररूपविकुर्वणा सम्बन्धी प्रश्नों का समाधान 721, उन छिन्न शरीरों के अन्तर्गतभाग को शस्त्रादि द्वारा पीडित करने की असमर्थता 721, देवासुर-संग्राम में प्रहरण-विकुर्वणा-निरूपण 722, महद्धिक देवों का लवणसमुद्रादि तक चक्कर लगाकर पाने का सामर्थ्य-निरूपण 723 आठवां उद्देशक : अनगार भावितारमा अनगार के पैर के नीचे दबे कुक्टादि के कारण ईर्यापथिक क्रिया का सकारण निरूपण 728, भगवान् का जनपद-विहार, राजगृह में पदार्पण और गुणशील चैत्य में निवास [26] Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 740 729, अन्यतीथिकों द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों पर हिंसापरायणता, असंयतता एवं एकान्त बालत्य के आक्षेप का गौतम स्वामी द्वारा समाधान. भगवान द्वारा उक्त यथार्थ उत्तर की प्रशंसा 629, छद्मस्थ मनुष्य द्वारा परमाण द्विप्रदेशिकादि को जानने और देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा 730, अवधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी और केवली द्वारा परमाण से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानने-देखने के सामर्थ का निरूपण 734. नवम उद्देशक : नरयिकादि चौवीस दण्डकों में भव्यद्रव्यमबंधित प्रश्न का यथोचित युक्तिपूर्वक समाधान 736, चौबीस दंडकों में भव्य-द्रव्यनै रयिकादि की स्थिति का निरूपण 738. दशम उद्देशक : भावितात्मा अनगार के लब्धिसामर्थ्य से ग्रसि-क्षरधारा-अवगाहनादि का अतिदेशपूर्वक निरूपण 740, परमाण द्विप्रदेशिक प्रादि स्कन्ध तथा वस्ति का वायुकाय से परस्पर स्पर्शास्पर्श निरूपण 741, सात नरक, बारह देवलोक, पांच अनुतरविमान तथा ईषत्पारभारा पृथ्वी के नीचे परस्पर बद्धादि पुदगल द्रव्यों का निरूपण 742, वाणिज्य ग्रामनिवासी सोमिल बाह्मण द्वारा पूछे गए यात्रादि संबंधी चार प्रश्नों का भगवान् द्वारा समाधान 744, सरिसब-भक्ष्या भक्ष्य विषयक सोमिल-प्रश्न का भगवान् द्वारा यथोचित उत्तर 747, मास एवं कुलत्था के भक्ष्याभक्षय-विषयक सोमिल प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान 748, सोमिल द्वारा पूछे गए एक, दो अक्ष्य, अव्यय, अवस्थित तथा अनेक भूत-भावभविक आदि तात्त्विक प्रश्नों का समाधान 750, मोमिल द्वारा श्रावकधर्म का स्वीकार 751, सोमिल के प्रबजित होने आदि के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का भगवान द्वारा समाधान 751. उन्नीसवां शतक 754 प्रथम उद्देशक : प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक लेश्यातत्त्व निरूपण 756, द्वितीय उद्देशक : एक लेश्या वाले मनुष्य से दूसरी लेश्या वाले गर्भ की उत्पत्ति विषयक निरूपण 758, तृतीय उद्देशक : 759 759 बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिक जीव से संबंधित प्ररूपणा 759, बारह द्वारों के माध्यम से अप-तेजो-बाय-बनस्पतिकायिकों में प्ररूपणा 764, एकेन्द्रिय जीवों की जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना की अपेक्षा अल्पबहत्व 765, एकेन्द्रिय जीवों में सूक्ष्म-सूक्ष्मतरनिरूपणा 767, एकेन्द्रिय जीवों में बादर-बावरतरतिरूपण 768, पृथ्वीकाय की महाकायता का निरूपण 369, पृथ्वीशरीर की महती शरीरावगाहना 770, एकेन्द्रिय जीवों की अनिष्टतर वेदनानुभूति का सदृष्टान्त निरूपण 772. [27] Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782 785 चतुर्थ उद्देशक : महाश्रव नारकों में महारवादि पदों की प्ररूपमा 774, असुरकमारों से लेकर वैमानिकों तक महास बादि चारों पदों की प्ररूपणा 777. पंचम उद्देशक : चरम (परमवेदनादि) चरम और अचरम आधार पर चौवीस दण्डकों में महाकर्मत्व-अल्पकर्मत्व प्रादि का निरूपण 771, वेदनाः दो प्रकार तथा उसका चौबीस दण्डकों में निरूपण 781. ठा उद्देशक : द्वीप (समुद्र-वक्तव्यता) ___ जीवाभिगमसूत्रनिरिट द्वीप-समुद्र संबंधी वक्तव्यता 782. सप्तम उद्देशक : भवन (विमानावास संबंधी) चविध देवों के भवन-नगर-विमानावास-संख्यादि निरूपण 785. अष्टम उद्देशक : निवृत्ति जीवनिर्वत्ति के भेदाभेद का निरूपण 788, कर्म. शरीर इन्द्रिय प्रादि 18 बोलों की निति के भेदसहित चौवीस दण्डकों में निरूपण 789. नौवाँ उद्देशक : करण द्रव्यादि पंचविध करण और नैरयिकादि में उनकी प्ररूपणा 797, शरीरादि करणों के भद और चौवीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा 798, प्राणातिपात-करण : पांच भेद, चौवीस दण्डका में निरूपण 799, पुद्गलकरण: भेद-प्रभेद-निरूपण 699 दसवाँ उद्देशक : वाण व्यन्तदेरव बाणच्यन्तरी में सामाहारादि-हार-निरूपण 801 ७५द Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं पंचमं अंगं वियाहपण्णत्तिसुत्तं भगवई] तृतीय खण्ड पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं पञ्चममङ्गम् व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रम् [भगवती Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं सयं : ग्यारहवां शतक সাথমিক * यह भगवतीसूत्र का ग्यारहवां शतक है। इसके 12 उद्देशक हैं। * जीव और कर्म का प्रवाहरूप से अनादिकालीन सम्बन्ध है / जिनके कर्मों का क्षय हो जाता है, वे सिद्ध हो जाते हैं। परन्तु सभी जीव कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते / विशेषतः एकेन्द्रिय जीव, जिनकी चेतना अल्पविकसित होती है, वे कर्मबन्ध, उसके कारण और बन्ध से मुक्त होने के उपाय को नहीं जानते / उनके द्रव्यमन नहीं होता। ऐसी स्थिति में एक शंका सहज ही उठती है, जो कर्मबन्ध को जानता ही नहीं, जिनके जीवन में मनुष्य या पंचेन्द्रिय जीवों (पशु-पक्षी आदि) की तरह प्रकटरूप में शभ-प्रशभ कर्म होता दिखाई नहीं देता. फिर उन जीवों के कर्मबन्ध कैसे हो जाता है ? बहुसंख्यक जनों की इसी शंका का निवारण करने हेतु उत्पल आदि एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, बन्ध, योग, उपयोग, लेश्या, पाहार आदि कर्मबन्ध से सम्बन्धित 32 द्वारों के माध्यम से प्रथम उत्पल से लेकर आठवें नलिन उद्देशक तक में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। उन्हें पढ़ने से जीव और कर्म के सम्बन्ध का स्पष्ट परिज्ञान हो जाता है तथा विभिन्न जीवों में इनकी उपलब्धि का अन्तर भी स्पष्टतः समझ में आ जाता है। * नोवें उद्देशक में शिव राजा का दिशाप्रोक्षक तापसजीवन अंगीकार करने का रोचक वर्णन दिया गया है। उसके पश्चात् प्रकृतिभद्रता तथा बालतप आदि के कारण उन्हें विभंगज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिसे भ्रान्तिवश वे अतिशयज्ञान समझ कर झूठा प्रचार एवं दावा करने लगते हैं। किन्तु भगवान महावीर द्वारा उनके उक्त ज्ञान के विषय में सम्यक निर्णय दिये जाने पर उनके मन में जिज्ञासा होती है। वे भगवान् के पास पहुँच कर समाधान पाते हैं और निम्रन्थमुनिजीवन अंगीकार कर लेते हैं। अंगशास्त्राध्ययन, तपश्चरण तथा अन्तिम समय में संलेखनासंथारा करके समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करके वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। शिवराजषि के जीवन में उतार-चढ़ाव से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जीवकर्मबन्धन को काटने का वास्तविक उपाय न जानने से, सम्यग्दर्शन न पाने से सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से वंचित रहता है / किन्तु सम्यग्दर्शन पाते ही ज्ञान और चारित्र भी सम्यक हो जाते हैं और जीव कर्म का सर्वथा क्षय कर देता है / दसवें उद्देशक में लोक का स्वरूप, द्रव्यादि चार प्रकार, क्षेत्रलोक तथा उसके भेद-प्रभेद, अधोलोकादि का संस्थान तथा अधोलोकादि में जीव, जीवप्रदेश हैं, अजीव, अजीव प्रदेश हैं, इत्यादि प्रश्नोत्तर हैं तथा समुच्चय रूप से जीव-अजीव प्रादि के विषय में प्रश्नोत्तर हैं। फिर लोक-अलोक में जीव-अजीव द्रव्य तथा वर्णादि पुद्गलों के अस्तित्व संबंधी प्रश्नोत्तर हैं। अन्त में लोक और अलोक कितना-कितना बड़ा है ? इसे रूपक द्वारा समझाया गया है / अन्त में एक Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकाशप्रदेश में एकेन्द्रिय जीवादि के परस्पर सम्बद्ध रहने की बात नर्तकी के दृष्टान्त द्वारा समझाई गई है / इस प्रकार लोक के सम्बन्ध में स्पष्ट प्ररूपणा की गई है / ग्यारहवें उद्देशक के पूर्वार्द्ध में काल और उसके चार मुख्य प्रकारों का वर्णन है / फिर इन चारों का पृथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है। प्रमाणकाल में दिन और रात का विविध महीनों में विविध प्रमाण बताया गया है। उत्तरार्द्ध में पल्योपम और सागरोपम के क्षय और उपचय को सिद्ध करने के लिए भगवान् ने सुदर्शनश्रेष्ठी के पूर्वकालीन मनुष्यभव एवं फिर देवभव में पंचम ब्रह्मलोक कल्प की 10 सागरोपम की स्थिति का क्षय-अपचय करके पूनः मनुष्यभव प्राप्ति का विस्तृत रूप से उदाहरण जीवनवृत्तात्मक प्रस्तुत किया है। अन्त में सुदर्शनश्रेष्ठी को जातिस्मरणज्ञान होने से उसकी श्रद्धा और संविग्नता बढ़ी और वह निग्नन्थ प्रव्रज्या लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुअा, इसका वर्णन है। / बारहवे उद्देशक में दो महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किए हैं—(१) पूर्वाद्धं में ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक का, जिसने देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति यथार्थ रूप में बताई थी, परन्तु आलभिका के श्रमणोपासकों ने उस पर प्रतीति नहीं की, तब भगवान् ने उनका समाधान कर दिया। (2) उत्तरार्द्ध में मुद्गल परिव्राजक का जीवन-वृत्तान्त है, जो लगभग शिवराजर्षि के जीवन जैसा ही है। इन्होंने भी सच्चा समाधान पाने के बाद निर्ग्रन्थ-प्रव्रज्या लेकर अपना कल्याण किया / वे कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो गए। Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसं सयं : ग्यारहवां शतक [1- संग्रह-गाथार्थ ...] 1. उप्पल 1 सालु 2 पलासे 3 कुंभी 4 नालीय 5 पउम 6 कण्णीय 7 // नलिण 8 सिव 6 लोग 10 कालाऽऽलभिय 11-12 दस दो य एक्कारे // 1 // ग्यारहवें शतक के बारह उद्देशक इस प्रकार हैं--(१) उत्पल, (2) शालूक, (3) पलाश, (4) कुम्भी, (5) नाडीक, (6) पद्म, (7) कणिका, (8) नलिन, (6) शिवराजर्षि, (10) लोक, (11) काल और (12) पालभिक / विवेचन-बारह उद्देशकों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत सूत्र 1 में ग्यारहवें शतक के 12 उद्देशकों के नाम क्रमश: दिये गए हैं / इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है---(१) उत्पल के जीव के सम्बन्ध में चर्चा-विचारणा, (2) शालूक के जीवों से सम्बन्धित विचार, (3) पलाश के जीवों के सम्बन्ध में चर्चा, (4) कुम्भिक के जीवों के सम्बन्ध में चर्चा, (5) नाडीकजीव-सम्बन्धी चर्चा, (6) पद्मजीवसम्बन्धी चर्चा, (7) कणिकाजीवविषयक चर्चा (8) नलिनजीव-सम्बन्धी चर्चा, (6) शिवराजषि का जीवन-वृत्त, (10) लोक के द्रव्यादि के आधार से भेद, (11) सुदर्शन के कालविषयक प्रश्नोत्तर एवं महाबल चरित्र तथा (12) पालभिका में प्ररूपित ऋषिभद्र तथा पुद्गलपरिव्राजक की धर्मचर्चा और समर्पण। एकार्थक उत्पलादि का पथक ग्रहण क्यों ? - यद्यपि उत्पल, पद्म, नलिन आदि शब्दकोश के अनुसार एकार्थक हैं, तथापि रूढिवशात् इन सब को विशिष्ट मान कर पृथक्-पृथक् ग्रहण किया है।' 1. (क) वियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ 506 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 511. Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक उप्पल : उत्पल (उत्पलजीव-चर्चा) [2- द्वार-संग्रह-गाथाएँ] 2. उववाओ 1 परिमाणं 2 अवहारुच्चत्त 3-4 बंध 5 वेदे 6 य / उदए 7 उदीरणाए 8 लेसा 9 दिट्ठी 10 य नाणे 11 5 // 2 // जोगुवोगे 12-13 वण्ण-रसमाइ 14 ऊसासगे 15 य आहारे 16 / विरई 17 किरिया 18 बंधे 19 सण 20 कसायिस्थि 21-22 बंधे 23 य // 3 // सणिदिय 24-25 अणुबंधे 26 संवेहाऽऽहार 27-28 ठिइ 29 समुग्घाए 30 / चयणं 31 मूलादीसु य उववाओ सम्बजीवाणं 32 // 4 // 1. उपपात, 2. परिमाण, 3. अपहार, 4. ऊँचाई (अवगाहना), 5. बन्धक, 6. वेद, 7. उदय, 8. उदीरणा, 6. लेश्या, 10, दृष्टि, 11. ज्ञान, 12. योग, 13. उपयोग, 14. वर्ण-रसादि, 15. उच्छवास, 16. आहार, 17. विरति, 18. किया, 16. बन्धक, 20. संज्ञा, 21. कषाय, 22. स्त्रोवेदादि, 23. बन्ध, 24. संज्ञी, 25. इन्द्रिय, 26. अनुबन्ध, 27. संवेध, 28. आहार, 26. स्थिति, 30. समुद्घात, 31. च्यवन और 32. सभी जीवों का मूलादि में उपपात / विवेचन-बत्तीद्वारसंग्रह-प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में क्रमशः तीन गाथानों में द्वितीय उद्देशक में प्रतिपाद्य विषयों का नामोल्लेख किया गया है। . ये संग्रहगाथाएँ अन्य प्रतियों में मूल में नहीं पाई जातीं। अभयदेवीय वृत्ति में ये वाचनान्तर कह कर उद्धत की गई हैं। बन्धक शब्द यहाँ दो बार प्रयुक्त किया गया है, प्रथम बंधक द्वार में एक जीव कर्म-बन्धक है या अनेक जीव कर्मबन्धक ? इसकी चर्चा है / द्वितीय बन्धक द्वार में सप्तविध बन्धक हैं या अष्टविधबन्धक ? यह चर्चा है। तीसरे बन्धद्वार में स्त्री वेदबन्धक हैं, पुरुषवेदबन्धक या नपुंसकवेदबन्धक ? इसको चर्चा है।' 1. उयपातद्वार 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी [3] उस काल और उस समय में राजगह नामक नगर था / वहाँ पर्युपासना करते हुए गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 4. उप्पले णं भंते ! एगपत्तए कि एगंजीवे अणेगजीवे ? गोयमा ! एगजीवे, नो अगजीवे / तेण परं जे अन्ने जोवा उववज्जति ते णं णो एगजोवा, अणेगजीवा। 1. वियाहपण त्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 506 Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [7 [4. प्र.] भगवन् ! एक पत्र वाला उत्पल (कमल) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला? [4. उ.] गौतम ! एक पत्र वाला उत्पल एक जीव वाला है, अनेक जीव वाला नहीं। उसके उपरान्त जब उस उत्पल में दूसरे जीव (जीवाश्रित पत्र प्रादि अवयव) उत्पन्न होते हैं, तब वह एक जीव वाला नहीं रह कर अनेक जीव वाला बन जाता है / / विवेचन--उत्पत्तः एकजीवी या अनेकजीवी?प्रस्तुत चतुर्थ सूत्र में बताया गया है कि उत्पल जब एक पत्ते वाला होता है तब उसकी वह अवस्था किसलय अवस्था से ऊपर की होती है। जब उसके एक पत्र से अधिक पत्ते उत्पन्न हो जाते हैं तब वह अनेक जीव वाला हो जाता है।' 5. ते णं भंते ! जीवा कतोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उक्वज्जति, मणुस्से हितो उववज्जंति, देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरतिएहितो उबवजंति, तिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति, मणुस्सेहितो वि उववज्जति, देवेहितो वि उववज्जंति / एवं उववाओ भाणियन्वो जहा वक्कंतीए वसतिकाइयाणं जाव ईसाणो ति। [दारं 1] / [5 प्र.] भगवन् ! उत्पल में वे जीव कहाँ से पा कर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नै रयिकों से आ कर उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या देवों में से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे जीव नारकों से पा कर उत्पन्न नहीं होते, वे तिर्यञ्चयोनिकों से भी आ कर उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी और देवों से भी पा कर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र से छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार-वनस्पतिकायिक जीवों में यावत् ईशान-देवलोक तक के जीवों का उपपात होता है। [ प्रथम द्वार] विवेचन-उत्पल जीवों की अपेक्षा से प्रथम उपपातद्वार ----प्रस्तुत पंचम सूत्र में उत्पल जीवों की उत्पत्ति तीन गतियों से बताई गई है--तियंच से, मनुष्य से और देव से। वे नरकगति से आकर . उत्पन्न नहीं होते। 2. परिमाणद्वार 6. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति / [दारं 2] [6 प्र.] भगवन् ! उत्पलपत्र में वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे जीव एक समय में जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कृष्टतः संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। [-द्वितीय द्वार] 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 511-512 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 507 Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-- उत्पल जीव की अपेक्षा से द्वितीय परिमाणद्वार–प्रस्तुत छठे सूत्र में बताया गया है कि वे जीव कम से कम एक समय में एक, दो या तीन, और अधिक से अधिक संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 3. अपहारद्वार 7. ते णं भंते ! जीवा समए समए अबहीरमाणा अवहीरमाणा केवतिकालेमं अवहोरंति ? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। [वारं 3] / [7 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव एक-एक समय में एक-एक निकाले जाएं तो कितने काल में पूरे निकाले जा सकते हैं ? [7 उ.] गौतम ! यदि बे असंख्यात जीव एक-एक समय में एक-एक निकाले जाएँ और उन्हें असंख्य उत्सर्पिणी और अवसपिणी काल तक निकाला जाय तो भी वे पूरे निकाले नहीं जा सकते / -तृतीय द्वार विवेचन-उत्पल जीव को अपेक्षा से अपहारद्वार---प्रस्तुत सप्तम पूत्र में यह प्ररूपणा की गई है कि यदि उत्पल के असंख्यात जीव प्रतिसमय एक-एक के हिसाब से निकाले जाएँ और वे असंख्य उत्सपिणी-अवपिणीकालपर्यन्त निकाले जाते रहें तो भी पूरे नहीं निकाले जा सकते / तात्पर्य यह है कि असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी कालों में जितने समय हैं, उनसे भी अधिक संख्या उन जीवों की है। 4 उच्चत्वद्वार 8. तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं। [दारं 4] / - प्र.] भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम ! उन जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक हजार योजन होती है। -चतुर्थ द्वार] विवेचन ---उत्पल जीवों को अवगाहना--अवगाहना का अर्थ है—ऊँचाई। उत्पलजीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन है। जो तथाविध समुद्र, गोतीर्थ आदि में उत्पन्न उत्पल की अपेक्षा से कही गई है।' 5 सेर तक-ज्ञानावरणीयादि-बन्ध-वेद-उदय-उदीरणाद्वार-- 9. ते गं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा, अबंधगा? गोयमा! नो अबंधगा, बंधए वा बंधगा वा। एवं जाव अंतराइयस्स / नवरं आउयस्स पुच्छा / गोयमा ! बंधए वा 1, अबंधए वा 2, बंधगा वा 3, अबंधगा वा 4, अहवा बंधए य प्रबंधए य 5, अहबा बंधए य अबंधगा य 6, अहवा बंधगा य प्रबंधगे य 7, अहवा बंधगा य प्रबंधगा य 8, एते अट्ठ भंगा। [दारं 5] / 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 512 Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यारहवां शतक : उद्देशक-१] प्र.] भगवन् ! वे (उत्पल के) जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक हैं या प्रबन्धक ? उ. गौतम ! वे ज्ञानावरणीय कर्म के प्रबन्धक नहीं; किन्तु एक जीव बन्धक है, अथवा अनेक जीव बन्धक हैं। इस प्रकार (आयुष्यकर्म को छोड़ कर) यावत् अन्तराय कर्म (के बन्धकप्रबन्धक) तक समझ लेना चाहिए। [प्र. विशेषतः (वे जीव) प्रायुष्य कर्म के बन्धक हैं, या प्रवन्धक ? ; यह प्रश्न है / उ. | गौतम ! (1) उत्पल का एक जीव बन्धक है, (2) अथवा एक जीव प्रबन्धक है, (3) अथवा अनेक जीव बन्धक हैं, (4) या अनेक जीव प्रबन्धक हैं, (5) अथवा एक जीव बन्धक है, और एक प्रबन्धक है, (6) अथवा एक जीव बन्धक और अनेक जीव प्रबन्धक हैं, (7) या अनेक जीव बन्धक हैं और एक जीव अबन्धक है, एवं (8) अथवा अनेक जीव बन्धक हैं और अनेक जीव प्रबन्धक हैं। इस प्रकार ये पाठ भंग होते हैं / ---पंचम द्वार 10. ते णं भंते ! जोवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि वेदगा, अवेदगा? गोयमा! नो अवेदगा, वेदए वा घेदगा वा / एवं जाव अंतराइयस्स। 110 प्र. भगवन् ! वे (उत्पल के) जीव ज्ञानावरणीय कर्म के वेदक हैं या अवेदक ? |10 उ. गौतम ! वे जीव अवेदक नहीं, किन्तु या तो (एक जीव हो तो) एक जीव वेदक है और (अनेक जीव हों तो), अनेक जीव वेदक हैं। इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म (के वेदकअवेदक) तक जानना चाहिए। 11. ते णं भंते ! जीवा कि सातावेदगा, असातावेदगा? गोयमा! सातावेदए वा, असातावेयए था, अट्ठ भंगा। [दारं 6] / 111 प्र.] भगवन् ! वे (उत्पल के) जीव सातावेदक हैं या असातावेदक ? [11 उ.] गौतम ! एक जीव सातावेदक है, अथवा एक जीव असातावेदक है, इत्यादि पूर्वोक्त आठ भंग जानने चाहिए। [-छठा द्वार 12. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्त कम्मस्स कि उदई, अणुदई ? गोयमा! नो अणुदई, उबई वा उदइणो वा / एवं जाव अंतराइयस्स / [दारं 7] / [12 प्र. भगवन् ! वे (उत्पल के) जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय वाले हैं या अनुदय वाले ? [12 उ.] गौतम ! वे जीव अनुदय वाले नहीं हैं, किन्तु (एक जीव हो तो) एक जीव उदय वाला है, अथवा (अनेक जीव हों तो) वे (सभी) उदय वाले हैं। इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म तक समझ लेना चाहिए। सातवाँ द्वार] 13. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मरस कि उदीरगा, अणुदीरगा? गोयमा ! नो अणुदीरगा, उदीरए वा उदीरगा वा। एवं जाव अंतराइयस्त / नवरं वेदणिज्जाउएसु अट्ट भंगा। [दारं 8] / |13 प्र. भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदीरक हैं या अनुदीरक ? [13 उ.] गौतम ! वे अनुदीरक नहीं; किन्तु (यदि एक जीव हो तो) एक जीव उदीरक है, अथवा (यदि अनेक जीव हों तो) अनेक जीव उदीरक हैं / इसी प्रकार यावत् अन्तराय कर्म (के उदी Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रक–अनुदीरक) तक जानना चाहिए; परन्तु इतना विशेष है कि वेदनीय और आयुप्य कर्म (के उदीरक) मे पूर्वोक्त पाठ भंग कहने चाहिए। [-अाठवाँ द्वार] विवेचन-उत्पलजीव के अष्टकर्म बन्धक-अबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयी-अनुदयी, उदीरक -अनुदीरक सम्बन्धी विचार–प्रस्तुत 5 सूत्रों (6 से 13 तक) में उत्पलजीवों के ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म के बन्धक-प्रबन्धक, वेदक-अवेदक, उदयो-अनुदयो एवं उदीरक-अनुदीरक होने के सम्बन्ध में भगवान् का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। ज्ञानावरणीयादि कर्मों के बंध प्रादि क्यों और कैसे ? —जैनेतर दर्शनिक या अन्य यूथिक प्रायः यह समझते हैं कि उत्पल (कमल) का जीव एकेन्द्रिय होने से उसमें संज्ञा (समझने-सोचने की बुद्धि) नहीं होती, द्रव्यमन न होने से वह कोई विचार कर नहीं सकता। ऐसी स्थिति में वह ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध, वेदन, उदय या उदीरणा कैसे कर सकता है ? इसी हेतु से प्रेरित हो कर पहले से आठवे उद्देशक तक श्री गौतमस्वामी ने ये बधादिविषयक प्रश्न उठाए हों और भगवान् ने इनका अनेकान्त दृष्टि से उत्तर दिया हो, ऐसा सम्भव है / भगवान् के उत्तरों से ध्वनित होता है कि एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों में अन्तश्चेतना (भावसंज्ञा) तथा भावमन होता है, जिसके कारण वे चाहे विकसित चेतना वाले न हों, परन्तु मिथ्यात्वदशा में होने से विपरीतदिशा में सोच कर भी ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध कर लेते हैं। बे कर्मों को वेदते भी हैं, उदय वाले भी होते हैं और उदीरणा भी विपरीत दिशा में कर लेते है।। एक-अनेक जीव बंधक आदि कैसे ? उत्पल के प्रारम्भ में जब उसके एक ही पत्ता होता है, तब एक ही जीव होने से एक जीव ज्ञानावरणीय प्रादि कमों का बन्धक होता है, परन्तु जब उसके अनेक पत्ते होते हैं तो उसमें अनेक जीव होने से अनेक जीव बन्धक होते हैं / प्रायुष्यकर्म तो पूरे जीवन में एक ही बार बंधता है, उस बन्धकाल के अतिरिक्त, जीव आयुष्यकर्म का प्रबन्धक होता है / इसलिए आयुष्यकर्म के बन्धक और प्रबन्धक की अपेक्षा से आठ भंग होते हैं, जिनमें चार असयोगी और चार द्विकसंयोगी होते हैं।' वेदक एवं उदीरक भंग-वेदकद्वार में एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो भंग होते हैं, परन्तु सातावेदनीय और असातावेदनीय की अपेक्षा से पूर्वोक्त पाठ भंग होते हैं / उदीरणाद्वार में छह कर्मों में प्रत्येक में दो-दो भंग होते हैं, किन्तु वेदनीय और आयुष्य कर्म के पूर्वोक्त पाठ भंग होते हैं / 2 6. लेश्याद्वार 14. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा? गोयमा ! कण्हलेस्से वा जाव तेउलेस्से वा, कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा, अहवा कण्हलेस्से य नीललेस्से य, एवं एए दुयासंजोग-तियासंजोग-चउक्कसंजोगेण य असोति भंगा भवंति / [दारं 9] / _ [14 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव, कृष्णलेश्या वाले होते हैं, नीललेश्या वाले होते हैं, या कापोतलेश्या वाले होते हैं, अथवा तेजोलेश्या वाले होते हैं ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 512 2. वही, अ. वत्ति, पत्र 512 Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [ 11 [14 उ. गौतम ! एक जीव कृष्णलेश्या वाला होता है, यावत् एक जीव तेजोलेश्या वाला होता है। अथवा अनेक जीव कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले अथवा तेजोलेश्या वाले होते हैं / अथवा एक कृष्णलेश्या वाला और एक नीललेश्या वाला होता है / इस प्रकार ये द्विकसंयोगी, विकसंयोगी और चतुःसंयोगी सब मिला कर 80 भंग होते हैं। [--नौवाँ द्वार) विवेचन उत्पलजीवों में लेश्याएं उत्पल वनस्पतिकायिक होने से उसमें पहले से पाई जाने वाली चार लेश्याओं (कृष्ण,नील, कापोत और तेजोलेश्या) के विविध 80 भंगों की प्ररूपणा प्रस्तुत 14 वे सूत्र में की गई है। लेश्याओं के भंगजाल का नक्शा असंयोगी 8 भंग 1. एक कृष्ण . 2. अनेक कृष्ण. 3, एक नील. 4. अनेक नील. 5. एक कापो. 6. अनेक कापो. 7. एक तेजो. 8. अनेक तेजो. द्विकसंयोगी 24 भंग 1. ए. कृष्ण, एक नील. 2. ए. कृ., अनेक नील. 3. अ. कृ., ए. नी. 4. अ. कृ., अ. नी. 5. एक कृ., ए. कापो. 6. ए. कृ., अने. कापो. 7. अ. कृ., ए. कापो. 8. अ. कृ., अ. कापो. 6. ए. कृष्ण., ए. तेजो. 10. ए. कृ., अ. तेजो. 11. अ. कृ., ए. तेजो. 12. अ. कृ., अ. तेजो. 13. ए. नील. एक कापो. 14. ए. नील., अ. कापो. 15. अ. नील., ए. कापो. 16. अ, नील., अ. कापो. 17. ए. नी., ए. तेजो. 18. ए. नी., अ. तेजो. 16. अ. नी., ए. तेजो. . 20. अ. नी., अ. तेजो. 21. ए. का., ए. तेजो. 22. ए. का., अ. तेजो. 23. अ. का., एक तेजो. 24. अ. का., अ. ते. त्रिकसंयोगी 32 भंग 6. अ. कृ., ए. नी., अ. का. 7. अ. कृ; अ. नी., ए. का. 8. अ. कृ., अ. नी., अ. का. 6. ए. कृ., ए. नी., ए. ते. 10. ए. कृ., ए. नी., अ. ते. 1. ए. कृ., ए. नी., ए. का. 2. ए. कृ., ए. नी., अ. का. 3. ए. कृ., अ. नी; ए. का. 4. ए. कृ., अ. नी., अ. का. 5. अ. कृ., ए. नी., ए. का. Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [ख्याख्याप्राप्तिसूत्र 11. ए. कृ., अ. नी., ए. ते. 12. ए. कृ., अ. नी., अ ते. 13. अ. कृ., ए. नी., ए. ते. 14. अ. कृ., ए. नी., अ. ते. 15. अ. कु., अ. नी., अ. ते. 16. अ. कृ., अ. नी., ए. ते. 17. ए. कृ., ए. का., ए. ते. 18. ए. कृ., ए. का., अ. 16. ए. कृ., अ. का., अ. ते. 20. ए. कृ., अ. का., अ. ते. 21. अ. कृ., ए. का., ए. ते. 22. अ. कृ., ए. का., अ.ते. 23. अ. कृ., अ. का., ए. ते. 24. अ. कृ., अ. का., अ. का. 25. ए. नी., ए. का., ए. ते. 26. ए. नी., ए. का., अ. ते. 27. ए. नी., अ. का., ए, ते. 28. ए. नी., अ. का., अ. ते. 26. अ. नी., ए. का., ए. ते. 30. अ. नी., ए. का., अ.ते. 31. अ. नील, अ. का., ए. ते. 32. अ. नी., अ. का., अ. ते. चतुःसंयोगी 16 भंग to 1. ए. कृ., ए. नी., ए. का., ए. ते. 2. ए. कृ., ए. नी., ए. का., अ. ते. 3. ए. कृ., ए. नी., अ. का., ए. ते. 4. ए. कृ., ए. नी., अ. का., अ. ते. 5. ए. कृ., अ. नी., ए. का., ए. ते. 6. ए. कृ., अ. नी., ए. का., अ. ते. 7. ए. कृ., अ. नी., अ. का., ए. ते. 8. ए. कृ., अ.नी., अ. का., अ.ते. 6. अ. कृ., ए. नी., ए. का., ए. तेजो. 10. अ. कृ., ए. नी., ए. का., अ.ते. 11. अ. कृ., ए. नी., अ. का., ए. ते. 12. अ. कृ., ए. नी., अ. का., अ.ते. 13. अ. कृ., अ. नी., ए. का., ए. ते. 14. अ. कृ., अ. नी., ए. का., अ. ते. 15. अ. कृ., अ. नी., अ. का., ए. ते. 16. अ. कृ., अ. नी., अ. का., अ.ते. इस प्रकार असंयोगी 8, द्विकसंयोगी 24, त्रिकसंयोगी 32 और चतुःसंयोगी 16 भंग, मिला कर कुल 80 भंग होते हैं।' 10 से १३-दृष्टि-ज्ञान-योग-उपयोग द्वार 15. ते णं भंते ! जीवा कि सम्महिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! नो सम्मट्टिी, नो सम्मामिच्छट्टिी, मिच्छादिट्ठी का मिच्छादिद्विणो वा। [दारं 10] / [15 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यग्-मिथ्या. दृष्टि हैं ? [15 उ.] गौतम ! वे सम्यग्दृष्टि नहीं, सम्यग्-मिथ्यादृष्टि भी नहीं, वह मात्र मिथ्यादृष्टि है, अथवा वे अनेक भी मिथ्या दृष्टि हैं। [-दशम द्वार 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा.४, पृ. 1852-1854 Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] 16. तेणं भंते! जीवा किनाणी, प्रानाणी? ahe गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी वा अन्नाणिणो वा / [दारं 11] / [16 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव ज्ञानी हैं, अथवा अज्ञानी हैं ? [16 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, किन्तु वह एक अज्ञानी है अथवा वे अनेक भी अज्ञानी -ग्यारहवाँ द्वार) 17. ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, णो वहजोगी, कायजोगी वा कायजोगिणो वा / [दारं 12] / [17 प्र. भगवन् ! वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? [17 उ.] गौतम ! वे मनोयोगी नहीं हैं, न वचनयोगी हैं, किन्तु वह एक हो तो काययोगी है और अनेक हों तो भी काययोगी है / [-बारहवाँ द्वार 18. ते गं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोबउत्ते वा अणागारोबउत्ते वा, अट्ठ भंगा। [दारं 13] / [18 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव साकारोपयोगी हैं, अथवा अनाकारोपयोगी हैं ? / [18 उ.] गौतम ! वे साकारोपयोगी भी होते हैं और अनाकारोपयोगी भी होते हैं / इसके पूर्ववत् पाठ भंग कहने चाहिए / -तेरहवाँ द्वार विवेचन--उत्पलजीवों में दृष्टि, ज्ञान, योग एवं उपयोग को प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (15 से 18 तक) में उत्पलजीवों में दृष्टि आदि की प्ररूपणा की गई है। उत्पल-जीव एकान्त मिथ्यावृष्टि और अज्ञानी होते हैं, एकेन्द्रिय होने से उनके मन और वचन नहीं होते, इसलिए काययोग ही होता है। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग–५ ज्ञान और 3 प्रज्ञान को साकारोपयोग तथा चार दर्शन को अनाकारोपयोग कहते हैं / ये दोनों सामान्यतया उत्पलजीवों में होते हैं।' १४-१५-१६-वर्णरसादि-उच्छ्वासक-ग्राहारक द्वार 19. तेंसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवण्णा कतिरसा कतिगंधा कतिफासा पन्नत्ता ? * गोयमा ! पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, अट्ठफासा पन्नत्ता। ते पुण अप्पणा अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पन्नत्ता। [दारं 14] / 1. भगवती. विवेचन भा, 4, (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1854 Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. प्र.| भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों का शरीर कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला है ? 16 उ.] गौतम ! उनका (शरीर) पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाला है। जीव स्वयं वर्ण, गन्ध, रम और स्पर्श-रहित है। -चौदहवाँ द्वार] 20. ते णं भंते ! जीवा कि उस्सासा, निस्सासा, नोउस्सासनिस्सासा? गोयमा ! उस्सासए वा 1, निस्सासए वा 2, नोउस्सासनिस्सासए वा 3, उस्सासगा वा 4, निस्सासगा वा 5, नोउस्सासनिस्सासगा वा 6, अहवा उस्सासए य निरसासए य 4 (7-10), अहवा उस्सासए य नोउस्सासनिस्सासए य 4 (11-14), अहवा निस्सासए य नोउस्सासनीसासए य 4 (15-18), अहवा उस्सासए य नीसासए य नोउस्सासनिस्सासए य-अट्ठ भंगा (19-26), एए छन्वीसं भंगा भवंति / [दारं 15] / 20 प्र.] भगवन् ! वे (उत्पल के) जीव उच्छ्वासक हैं, नि:श्वासक हैं, या उच्छ्वासकनिःश्वासक हैं ? 20 उ.] गौतम ! (उनमें से) १-कोई एक जीव उच्छवासक है, या २--कोई एक जीव निःश्वासक है, अथवा ३---कोई एक जीव अनुच्छ्वासक-निःश्वासक है, या ४-अनेक जीव उच्छ्वासक हैं, ५---या अनेक जीव निःश्वासक हैं, अथवा ६–अनेक जीव अनुच्छ्वासक-निःश्वासक हैं, (7-10) अथवा एक उच्छ्वासक है और एक नि:श्वासक है; इत्यादि / (11-14) अथवा एक उच्छ्वासक और एक अनुच्छ्वासक-निःश्वासक है; इत्यादि / (15-18) अथवा एक निःश्वासक और एक अनुच्छ्वासक-निःश्वासक है, इत्यादि। (16-26) अथवा एक उच्छ्वासक, एक निःश्वासक और एक अनुच्छ्वासक-निःश्वासक है इत्यादि पाठ भंग होते हैं। ये सब मिलकर 26 भंग होते [-पन्द्रहवाँ द्वार] 21. ते णं भंते ! जीवा कि आहारगा, अणाहारगा? गोयमा ! ' प्राहारए वा अणाहारए वा, एवं अट्ठ भंगा। [दारं 16] / / 21 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव पाहारक हैं या अनाहारक हैं ? [21 उ.] गौतम ! (वे सब अनाहारक नहीं; ) कोई एक जीव प्राहारक है, अथवा कोई एक जोव अनाहारक है; इत्यादि आठ भंग कहने चाहिए। [-सोलहवाँ द्वार] विवेचन-उत्पलजीवों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-उत्पल के शरीर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं, किन्तु उनका प्रात्मा (जीव) वर्णादि से रहित है। क्योंकि वह अमूर्त है। उच्छवास-निःश्वास–पर्याप्त अवस्था में सभी जीवों के उच्छ्वास और निःश्वास होते हैं, 1. अधिक पाठ –'नो अणाहारगा।' Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [15 परन्तु अपर्याप्त अवस्था में जीव अनुच्छ्वासक-निःश्वासक होता है। अतः उच्छ्वासक-निःश्वासक द्वार के 26 भंग होते हैं / वे इस प्रकार--- असंयोगी 6 भंग 1, एक उच्छ्वासक 2. एक नि:श्वासक 3. एक अनुच्छ्वासक-निःश्वासक 4. बहुत उच्छ्वासक 5. बहुत निःश्वासक 6. बहत अनच्छ्वासक-नि:श्वासक द्विकसंयोगी 12 भंग 1. ए. उ., ए. नि. 2. ए. उ., ब. ति. उ., ए. नि. 4. ब. उ., व. नि. 5. ए. उ., ए. नोउ 6. ए. उ., ब. नोउ. 7. ब. उ., ए. नोउ. 8. ब. उ., व. नोउ. 6. ए. नि., ए. नोड. 10. ए. नि., ब. नोउ. 11. ब. नि. ए. नोउ. / 12. ब. नि., ब. नोउ. त्रिकसंयोगी 8 भंग أ م 1. ए. उ., ए. नि., ए. नोउच्छ्वासक निश्वासक 2. ए. उ., ए. नि., ब. नोउ. . ए. उ., व. नि., ए. नोउ० 4. ए. उ., ब. नि., ब नोउ० 5. ब. उ., ए. नि., ए. नोउ० 6. ब. उ., ए. नि., ब. नोउ० 7. ब. उ., ब. नि., ए. नोउ० 8. व. उ., ब. नि. ब. नोउ० لله / __ आहारक-अनाहारक--विग्रहगति में जीव अनाहारक होता है, शेष समय में आहारक / इस लिए आहारक-अनाहारक के 8 भंग कहे गए हैं। वे पूर्ववत् समझ लेने चाहिए।' १७-१८-१९-विरतिद्वार, क्रियाद्वार और बन्धकद्वार 22. ते णं भंते ! जीवा कि विरया, अविरया, विरयाविरया ? गोयमा ! नो विरया, नो विरयाविरया, अविरए वा अविरता वा / [दारं 17] / 122 प्र.] भगवन् ! क्या वे उत्पल के जीव विरत (सर्वविरत) हैं, अविरत हैं या विरताविरत [22 उ.] गौतम ! वे उत्पल-जीव न तो सर्वविरत हैं और न विरताविरत हैं, किन्तु एक जीव अविरत है अथवा अनेक जीव भी अविरत है। [-सत्रहवाँ द्वार] 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 512-513 / (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1856 Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्यानप्तिसूत्र 23. ते णं भंते ! जोवा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा / [दारं 18] / [23 प्र.] भगवन् ! क्या वे उत्पल के जीव सक्रिय हैं या अक्रिय हैं ? [23 उ.] गौतम ! वे अक्रिय नहीं हैं, किन्तु एक जीव भी सक्रिय है और अनेक जीव भी सक्रिय हैं। -अठारहवाँ द्वार 24. ते णं भंते ! जीवा कि सतविहबंधगा, अविहबंधगा ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए बा, अट्ठ भंगा। [दारं 19] / (24 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव सप्तविध (सात कर्मों के) बन्धक हैं या अष्टविध अाठों ही कर्मों के) बन्धक हैं ? [24 उ. | गौतम ! वे जीव सप्तविधवन्धक हैं या अष्टविधबन्धक हैं / यहाँ पूर्वोक्त आठ भंग कहने चाहिए / [--उन्नीसवाँ द्वार विवेचन-विरत, अविरत, विरताविरत-विरत का अर्थ यहाँ हिंसादि 5 पाश्रवों से सर्वथा विरत है / अविरत का अर्थ है---जो सर्वथा विरत न हो और विरताविरत का अर्थ है-जो हिंसादि 5 प्राश्रबों से कुछ अंशों में विरत हो, शेष अंशों में अविरत हो, इसे देशविरत भी कहते हैं। उत्पल के जीव सर्वथा अविरत होते हैं / वे चाहे बाहर से हिंसादिसेवन करते हुए दिखाई न देते हों, किन्तु वे हिंसादि का त्याग मन से, स्वेच्छा से, स्वरूप समझबूझ कर नहीं कर पाते, इसलिए अविरत हैं। सक्रिय या प्रक्रिय ?--मुक्त जीव अक्रिय हो सकते हैं। सभी संसारी जीव मक्रिय-क्रियायुक्त होते हैं। बन्ध : अष्टविध एवं सप्तविध का तात्पर्य-आयुष्यकर्म का बन्ध जीवन में एक ही बार होता है, इसलिए जब आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं करता, तब सप्तविधबन्ध करता है, जब अायुकर्म का भी बन्ध करता है, तब अष्टविध बन्ध करता है। इसी दृष्टि से इसके 8 भंग पूर्ववत् होते हैं।' २०-२१----संज्ञाद्वार और कषायद्वार 25. ते णं भंते ! जीवा कि आहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता, मेहुणसन्नोवउत्ता, परिग्गहसन्नोवउत्ता? गोयमा ! आहारसम्णोवउत्ता वा, असोतो भंगा। [दारं 20] / 25 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव आहारसंजा के उपयोग वाले हैं, या भयसंज्ञा के उपयोंग बाले हैं, अथवा मैथुनसंज्ञा के उपयोग वाले हैं, या परिग्रहसंज्ञा के उपयोग वाले हैं ? - -- 1. वियाहपण्णत्तिसत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 510 Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१ ] [17 [25 उ.] गौतम ! वे पाहारसंज्ञा के उपयोग वाले हैं, इत्यादि (लेश्याद्वार के समान) अस्सी भंग कहना चाहिए / 26. ते णं भंते ! जीवा कि कोहकसायो, माणकसायो, मायाकसायी, लोभकसायी ? गोयमा ! असोती भंगा। [दारं 21] / [26 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव क्रोधकषायी है, मानकषायी हैं, मायाकषायी हैं अथवा लोभकषायी हैं ? [26 उ.] गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त 80 भंग कहना चाहिए। विवेचन-संज्ञाद्वार और कषायद्वार-उत्पलजीवों में चार संज्ञाओं और चार कषायों के लेश्याद्वार के समान 80 भंग होते हैं ! 22 से 25 तक-स्त्रीवेदादि-वेदक-बन्धक-संज्ञी-इन्द्रिय द्वार 27. ते गं भंते ! जीवा कि इस्थिवेदगा, पुरिसवेदगा, नपुसगवेदगा? गोयमा ! नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुसकवेदए वा नपुंसगवेदगा वा / [दार 22] / [27 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव स्त्रीवेदी हैं, पुरुषवेदी हैं या नपुसकवेदी हैं ? 27 उ.) गौतम ! वे स्त्रीवेद वाले नहीं, पुरुषवेद वाले भी नहीं, परन्तु एक जीव भी नपु सकवेदो है और अनेक जीव भी नपुसकवेदी हैं / 28. ते णं भंते ! जोवा कि इस्थिवेदबंधगा, पुरिसवेदबंधगा, नपुंसगबेदबंधगा? गोयमा ! इत्थिवेदबंधए वा पुरिसवेदबंधए वा नपुंसगवेदबंधए वा, छन्वीसं भंगा। [दारं 23] / 28 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव स्त्रीवेद के बन्धक हैं, पुरुषवेद के बन्धक हैं या नपुसकवेद के बन्धक हैं ? [28 उ.] गौतम ! वे स्त्रीवेद के बन्धक हैं, या पुरुषवेद के बन्धक हैं अथवा नपुसकवेद के बन्धक है / यहाँ उच्छ्वासद्वार के समान 26 भंग कहने चाहिए। -22 वाँ, 23 वाँ द्वार] 29. ते णं भंते ! जीवा कि सण्णी, असणी ? गोयमा! नो सण्णी, असण्णो वा असणिणो वा / [दारं 24] / [26 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव संज्ञी हैं या असंज्ञी ? [26 उ.] गौतम ! वे संज्ञी नहीं, किन्तु एक जीव भी असंज्ञी है और अनेक जीव भो असंज्ञी हैं। Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 30. ते णं भंते ! जीवा कि सइंदिया, अणिदिया ? गोयमा ! नो अणिदिया, सईदिए वा सइंदिया वा / [दारं 25] / [30 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव सेन्द्रिय हैं या अनिन्द्रिय ? 30 उ.] गौतम ! वे अनिन्द्रिय नहीं, किन्तु एक जीव सेन्द्रिय है और अनेक जीव भी सेन्द्रिय हैं। --24 वाँ, 25 वाँ द्वार] विवेचन-उत्पल जीवों के वेद, वेदबन्धन, संजी और इन्द्रिय की प्ररूपणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (27 से 30 तक) में इन चार द्वारों द्वारा उत्पल जीवों के नपुंसकवेदक, त्रिवेदबन्धक, असंज्ञी एवं सेन्द्रिय होने की प्ररूपणा की गई है। २६.२७-अनुबन्ध-संवैध-द्वार 31. से णं भंते ! 'उप्पलजीवे ति कालओ केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [दारं 26] / [31 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव उत्पल के रूप में कितने काल तक रहता है ? 31 उ.] गौतम ! वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः असंख्यात काल तक रहता है। [-छन्वीसवाँ द्वार 32. से गं भंते ! उप्पलजीये 'पुढविजीवे' पुणरवि 'उप्पलजीवे' त्ति केवतियं काल से हवेज्जा ? केवतियं कालं गतिराति करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई / कालादेसेणं जहन्नेगं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं असंखेज कालं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। [32 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, पृथ्वीकाय में जाए और पुनः उत्पल का जीव बने, इस प्रकार उसका कितना काल व्यतीत हो जाता है? कितने काल तक गमनागमन (गति-प्रागति) करता रहता है ? [32 उ.] गौतम ! वह उत्पलजीव भवादेश (भव की अपेक्षा) से जघन्य दो भव (ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट असंख्यात भव (ग्रहण) करता है (अर्थात्---उतने काल तक गमनागमन करता है।) कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (गमनागमन करता है / ) (अर्थात्--- इतने काल तक) वह रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। 33. से गं भंते ! उप्पलजीवे आउजीवे ? एवं चेव / Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [19 [33 प्र.) भगवन् ! वह उत्पल का जीव, अप्काय के रूप में उत्पन्न होकर पुन: उत्पल में अाए तो इसमें कितना काल व्यतीत हो जाता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है ? |33 उ. | गौतम! जिस प्रकार पृथ्वीकाय के विषय में कहा, उसी प्रकार भवादेश से और कालादेश से अप्काय के विषय में कहना चाहिए / 34. एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियब्वे / [34] इसी प्रकार जैसे—(उत्पलजीव के) पृथ्वीकाय में गमनागमन के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वायुकाय जीव तक के विषय में कहना चाहिए। 35. से गं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीवे, से वणस्सइजीवे पुणरवि उपलजोवे त्ति केवतियं कालं से हवेज्जा, केवतियं कालं गतिराति करेज्जा ? . गोयमा भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं प्रणतं कालं-तरकालो, एवतियं काल से हवेज्जा, एवइयं कालं गइरागई करेज्जा / [35 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, वनस्पति के जोव में जाए और वह (वनस्पतिजीव) पुन: उत्पल के जीव में आए, इस प्रकार वह कितने काल तक रहता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है ? [25 उ.] गौतम ! भवादेश से वह (उत्पल का जीव) जघन्य दो भव (ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट अनन्त भव (-ग्रहण) करता है / कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल (तरुकाल) तक रहता है / (अर्थात्-) इतने काल तक वह उसी में रहता है, इतने काल तक वह गति-प्रागति करता रहता है। 36. से णं भंते ! उप्पलजोवे बेइंदियजीवे, बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजोवे त्ति केवतियं कालं से हवेज्जा ? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाइं / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिराति करेज्जा। |36 प्र.] भगवन् ! वह उत्पल का जीव, द्वीन्द्रियजीव पर्याय में जा कर पुन: उत्पलजीव में आए (उत्पन्न हो), तो इसमें उसका कितना काल व्यतीत होता है ? कितने काल तक गमनागमन करता है? 36 उ.] गौतम ! वह जीव भवादेश से जघन्य दो भव (-ग्रहण) करता है, उत्कृष्ट संख्यात भव (-ग्रहण) करता है / कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात काल व्यतीत हो जाता है / (अर्थात् --) इतने काल तक वह उसमें रहता है / इतने काल तक वह गति-प्रागति करता है। Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 [ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 37. एवं तेइंवियजीवे, एवं चरिदियजीवे वि। |37] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव के विषय में भी जानना चाहिए। 38. से गं भंते ! उप्पलजीवे पंचेदियतिरिक्खजोणियजीवे, पाँचदियतिरिक्खसोणियजोवे पुणरवि उप्पलजोवे त्ति पुच्छा० / गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवागहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुप्ता, उक्कोसेणं पुत्वकोडिपुहत्तं / एवतियं कालं से हवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। [38 प्र.] भगवन् ! उत्पल का वह जीब, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकजीब में जा कर पुनः उत्पल के जीव में पाए तो इसमें उसका कितना काल व्यतीत होता है ? वह कितने काल तक गमनागमन करता रहता है ? [38 उ.] गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव (-ग्रहण) करता है और उत्कृष्ट पाठ भव (चार तियंचपंचेन्द्रिय के और चार भव उत्पल के) (-ग्रहण) करता है। कालादेश से, जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक रहता है। इतना काल वह उसमें व्यतीत करता है / इतने काल तक गति-प्रागति करता है। 39. एवं मणुस्सेण वि समं जाब एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा / [दारं 27] / [36] इसी प्रकार मनुष्ययोनि के विषय में भी जानना चाहिए। यावत् इतने काल तक उत्पल का वह जीव गमनागमन करता है। [--सत्ताईसवाँ द्वार] विवेचन----उत्पलजीव का अनुबन्ध और कायसंवेध प्रस्तुत 6 सूत्रों (31 से 36 तक) में उत्पलजीव के अनुबन्ध और संवेध के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। ___ अनुबन्ध और कायसंवेध-उत्पल का जीव उत्पल के रूप में उत्पन्न होता रहे, उसे अनुबन्ध कहते हैं और उत्पल का जीब पृथ्वीकायादि दूसरे कायों में उत्पन्न हो कर पुन: उत्पल रूप में उत्पन्न हो, इसे कायसंवेध कहते हैं। प्रस्तुत 8 सूत्रों (32 से 36 तक) में उत्पलजीव के संबंध का निरूपण दो प्रकार से भवादेश और कालादेश की अपेक्षा से किया गया है / अर्थात् उत्पल का जीव भव की अपेक्षा से कितने भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से कितने काल तक गमनागमन करता है, इसकी प्ररूपणा की गई है।' 28 से 31 तक आहार-स्थिति-समुद्घात-उद्वर्तना-द्वार 40. ते णं मंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ? 1. भगवती. विवेचन भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1863 Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [21 गोयमा ! दध्वो अणंतपदेसियाई दव्वाई०, एवं जहा आहारुद्देसए' वणस्सतिकाइयाणं प्राहारो तहेव जाव सध्वप्पणयाए आहारमाहारेंति, नवरं नियम छद्दिसि, सेसं तं चेव / [दारं 28] / [40 प्र.] भगवन् ! वे उत्पल के जीव किस पदार्थ का आहार करते हैं ? [40 उ.] गौतम ! वे जीव द्रव्यतः अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का प्राहार करते हैं इत्यादि, जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें पद के आहार-उद्देशक में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार के विषय में कहा है, यावत्-वे सर्वात्मना (सर्वप्रदेशों से) आहार करते हैं, यहाँ तक सब कहना चाहिए / विशेष यह है कि वे नियमतः छह दिशा से आहार करते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। अट्ठाइसवाँ द्वार 41. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई / [दारं 29] / [41 प्र.] भगवन् ! उन उत्पल के जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [41 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। [-उनतीसवाँ द्वार] 42. तसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाता पन्नता? गोयमा ! सो समुग्धायारे पन्नता, तं जहा-वेदणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए / [दारं 30] / [42 प्र.] भगवन् ! उन (उत्पल के) जीवों में कितने समुद्धात कहे गए हैं ? [42 उ.] गौतम ! उनमें तीन समुद्घात कहे गए हैं / यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात / 43. ते णं भंते ! जीवा मारणतियसमुग्घाएणं कि समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / [43 प्र.] भगवन् ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? [43 उ.] गौतम ! (वे उत्पल के जीव मारणान्तिकसमुद्घात द्वारा) समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / - -- -- 1. देखिये प्रज्ञापमासूत्र भा. 1, पद 20, उ.१, प्र.३९५, सूत्र 1813 (महावीर जैन विद्यालय) 2. समुद्घात के लिए देखो-प्रज्ञापना. पद 36, पत्र 558 Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उध्वट्टित्ता कहिं गच्छति ?, कहि उवबजंति ?, कि नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववजति ? एवं जहा बक्कंतीए' उवट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियव्वं / [दारं 31] / |44 प्र. भगवन् ! वे उत्पल के जीव मर (उद्वर्तित हो) कर तुरन्त कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? अथवा तियंञ्चयोनिकों . में उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होते हैं ? [44 उ. | गौतम ! (उत्पल के जीवों की अनन्तर उत्पत्ति के विषय में) प्रज्ञापना सूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिक पद के उद्वर्तना-प्रकरण में वनस्पतिकायिकों के वर्णन के अनुसार कहना चाहिए। -तीसवाँ इकतीसवाँ द्वार विवेचन –उत्पलजीवों के माहार, स्थिति, समुद्घात और उद्वर्तन विषयक प्ररूपणाप्रस्तुत 5 सूत्रों (40 से 44 तक) में उत्पलजीवों के अाहारादि के विषय में प्ररूपणा की गई है / नियमतः छह दिशा से आहार क्यों ?.-पृथ्वीकायिक आदि जीव सूक्ष्म होने से निष्कुटों (लोक के अन्तिम कोणों) में उत्पन्न हो सकते हैं. इसलिए वे कदाचित तीन, चार या पाँच पाहार लेते हैं तथा नियाघात की अपेक्षा से छहों दिशाओं से आहार लेते हैं। किन्त उत्पल के बादर होने से वे निष्कुटों में उत्पन्न नहीं होते, इसलिए वे नियमतः छहों दिशाओं से पाहार करते हैं।' ___अनन्तर उदवर्तन कहाँ और क्यों ? ----उत्पल के जीव वहाँ से मर कर तुरन्त मनुष्यगति या तिर्यञ्चगति में जन्म लेते हैं, देवगति या नरकगति में उत्पन्न नहीं होते / 45. अह भंते ! सव्वपाणा सबभूया सव्वजीवा सन्चसत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंदत्ताए उप्पल नालताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरताए उप्पलकष्णियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुवा? हंता, गोयमा ! अति अदुवा अणंतखुत्तो। [दारं 32] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥एक्कारसमे सए पढमो उप्पलुद्देसओ समत्तों // 11. 1 // [45 प्र. भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि सभी प्राण, सभी भूत, समस्त जीव और समस्त सत्व; क्या उत्पल के मूलरूप में, उत्पल के कन्दरूप में, उत्पल के नालरूप में, उत्पल के पत्ररूप में, उत्पल के केसररूप में, उत्पल की कणिका के रूप में तथा उत्पल के थिभुग के रूप में इससे (उत्पलपत्र में उत्पन्न होने से पहले उत्पन्न हुए हैं ? |45 उ.] हाँ, गौतम ! (सभी प्राण, भूत, जीव और सत्व, इससे पूर्व) अनेक बार अथवा अनन्तबार (पूर्वोक्तरूप से उत्पन्न हुए है।) [-बत्तीसवाँ द्वार 1. देखिये प्रज्ञापनासूत्र बृत्ति पद 6, पत्र 204 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 513 3. वही, पत्र 513. Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१] [23 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर गौतमस्वामी, यावत् विचरण करते हैं। विवेचन समस्त संसारी जीवों का उत्पल के मूलादि में जन्म प्रस्तुत सूत्र 45 में बताया गया है कि कोई भी संसारी जीव ऐसा नहीं है, जो वर्तमान में जिम गति-योनि में है, उसमें या उससे भिन्न 84 लाख जीवयोनियों में इससे पूर्व अनेक या अनन्त बार उत्पन्न न हुआ हो / इसी दृष्टि से भगवान् ने कहा कि समस्त जीव उत्पल के मूल, कन्द, नाल आदि के रूप में अनेक या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं ; इसी जन्म में वे उत्पन्न हुए हों, ऐसी बात नहीं है।'' कठिन शब्दों का भावार्थ उववन्नपुवा--उत्पन्नपूर्द-पहले उत्पन्न हए / कपिणयत्ताए--- कणिका–बीजकोश के रूप में। थिभुगत्ताए या थिभगत्ताए-थिभुग वे हैं जिनमें से पत्ते निकलते हैं, पत्तों का उत्पत्तिस्थान / ' 00 // एकादश शतक : उद्देशक प्रथम समाप्त / / 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1866 2. (क) बही, भा. 4, पृ. 1864 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 113 Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक सालु : शालूक (के जोव-सम्बन्धी) 1. सालुए भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? गोयमा ! एगजीवे, एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियवा जाव अणंतखुत्तो / नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // एक्कारसमे सए बीओ उद्देसो समत्तो // 11. 2 // [1 प्र. भगवन् ! क्या एक पत्ते वाला शालक (उत्पल-कन्द) एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला है ? [1 उ.] गौतम ! वह (एक पत्र वाला शालूक) एक जीव वाला है; यहाँ से ले कर यावत् अनन्त बार उत्पत्र हुए हैं; तक उत्पल-उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष इतना हो है कि शालू क के शरीर को अवगाहना जघन्य अगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व की है। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए / ___ 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! यह इसी प्रकार है !' यों कह कर गौतमस्वामी, यावत् विचरते हैं। विवेचन.. शालक जोव सम्बन्धी वक्तव्यता-प्रस्तुत सूत्र में शालक (उत्पलकन्द) के जीव के सम्बन्ध में सारी वक्तव्यता पूर्व उद्देशक के 32 द्वारों का अतिदेश कर के बताई है। केवल अवगाहना की प्ररूपणा में अन्तर है। शेष सभी --उपपात, परिमाण, अपहार, बंध, वेद, उदय, उदीरणा, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग आदि सभी द्वारों की प्ररूपणा समान है / // ग्यारहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. बियाहपषणत्तिसूतं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 513 Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक पलासे : पलाश (के जीवसम्बन्धी) 1. पलासे ण भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं उप्पलुद्देसगवत्तश्वया अपरिसेसा भाणितम्या / नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / देवा एएसु न उववति / लेसासु ते णं भंते ! जोवा कि कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा ? गोयमा ! कण्हलेस्सा या, नीललेस्सा था, काउलेस्सा वा, छब्बीस मंगा। सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / ॥एक्कारसमे सए तइओ उद्देसनो समत्तो // 11.3 // [1 प्र.] भगवन् ! पलाशवृक्ष (प्रारम्भ में) एक पत्ते वाला (होता है, तब वह) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला ? [1 उ. गौतम ! (इस विषय में भी) उत्पल-उद्देशक की सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष इतना है कि पलाश के शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग हैं और उत्कृष्ट गव्यूति-(गाऊ)-पृथक्त्व है। देव च्यव कर पलाशवृक्ष में उत्पन्न नहीं होते / लेश्याओं के विषय में - [प्र. भगवन् ! वे (पलाशवृक्ष के) जीव क्या कृष्णलेश्या वाले होते हैं, नीललेश्या वाले होते हैं या कापोतलेश्या वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले होते हैं। इस प्रकार यहाँ उच्छ्वासक द्वार के समान 26 भंग होते हैं। शेष सब पूर्ववत् है / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! , भगवन् ! यह इसी प्रकार है !' ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन-उत्पलोद्देशक के समान प्रायः सभी द्वार-पलाशवृक्ष के जीव में अवगाहना, उत्पत्ति और लेश्या इन तीन द्वारों को छोड़ कर शेष सभी द्वार उत्पलजीव के समान हैं, इस प्रकार का अतिदेश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। अवगाहना-पलाश की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूति-पृथक्त्व है, यानी दो गाऊ (4 कोस) से लेकर नौ गाऊ तक की है। गाऊ या गव्यूति दो कोस' को कहते हैं। 1. गव्यूतिः कोशयुगम्-अमरकोष Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तेजोलेश्या और देवोत्पत्ति नहीं--देव तेजोलेश्यायुक्त होते हैं, इसलिए प्रशस्त वनस्पति जो तेजोलेश्यायुक्त होती है, उसी में वे उत्पन्न होते हैं। पलाश प्रशस्त वनस्पति नहीं है, इसमें तेजोलेश्या नहीं होती। तीन अप्रशस्त लेश्याएं ही पाई जाती हैं, जिनके 26 अग उच्छ्वासक द्वार के समान होते हैं।' // ग्यारहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 514, Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक कुभी : कुम्भिक (के जीवसम्बन्धी) 1. कुभिए गं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियव्वे, नवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं / सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // एक्कारसमे सए चउत्थो उद्देसो समत्तोः॥११.४॥ [1 प्र.] भगवन् ! एक पत्ते वाला कुम्भिक (वनस्पतिविशेष) एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पलाश (जीव) के विषय में, तीसरे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / इतना विशेष है कि कुम्भिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व (दो वर्ष से नौ वर्ष तक) की है। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-तृतीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक कुम्भिकवर्णन--प्रस्तुत सूत्र में केवल स्थिति को छोड़ कर शेष कुम्भिक का सभी वर्णन पलाशजीव के समान बताया गया है। // ग्यारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 00 Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्दसओ : पंचम उद्देशक नालीय : नालिक (नाडीक-जीवसम्बन्धी) 1. नालिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं कुभिउद्देसगवतन्वया निरवसेसा भाणियन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // एक्कारसमे सए पंचमो उद्देसो समत्तो // 11. 5 // [1 प्र.] भगवन् एक पत्ते वाला नालिक (नाडोक), एक जीव वाला है या अनेक जीव वाला? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कुम्भिक उद्देशक में कहा है, वही सारी वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे। विवेचन-नालिक : नाडीक वनस्पति का स्वरूप-जिसके फल नाडी या नाली की तरह होते हैं, ऐसा वनस्पतिविशेष नाडीक या नालिक होता है।' / / ग्यारहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 00 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र ५११-नाडीवद्यस्य फलानि स नांडीको वनस्पतिविशेषः Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : छठा उद्देशक पउम : पद्म (जीव सम्बन्धी) 1. पउमे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया निरवसेसा भाणियव्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥एक्कारसमे सए छट्ठो उद्देसप्रो समत्तो // 11. 6 // [1 प्र.] भगवन् ! एक पत्र वाला पद्म, एक जीव वाला होता है या अनेक जीव वाला? [1 उ.] गौतम ! उत्पल-उद्देशक के अनुसार इसकी सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–पद्म के जीव का समग्र वर्णन उत्पलसम्बन्धी द्वारवत्-प्रस्तुत सूत्र में उत्पलोद्देशक के अतिदेशपूर्वक पद्मजीव सम्बन्धी उल्लेख किया गया है। यद्यपि उत्पल और पद्म कमल के ही पर्यायवाची शब्द हैं, तथापि यहाँ नीलकमल-विशेष को पद्म कहा गया है। / / ग्यारहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : सप्तम उद्देशक कण्णीय : कणिका (के जीव सम्बन्धी) 1. कण्णिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ? एवं चेव निरवसेसं भाणियन्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥एक्कारसमे सए सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 11.7 / / [1 प्र.] भगवन् ! एक पत्ते वाली कणिका (वनस्पति) एक जीव वाली है या अनेक जीव वाली? [1 उ.] गौतम ! इसका समग्र वर्णन उत्पलउद्देशक के समान करना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–कणिका : एक वनस्पतिविशेष-वृत्तिकार के अनुसार कणिका का एक अर्थ बीजकोश है / कनेर का वृक्ष भी संभव है, जिसमें पत्ते और फूल लगते हैं।' // ग्यारहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 513 Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : अष्टम उद्देशक नलिण : नलिन (के जीव सम्बन्धी) 1. नलिणे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजोवे, अणेगजीवे ? एवं चेव निरयसेसं जाव अगंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // एक्कारसमे सए अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 11.8 // __ [1 प्र.] भगवन् ! एक पत्ते वाला नलिन (कमल-विशेष) एक जीव वाला होता है, या अनेक जीव वाला ? [1 उ.] गौतम ! इसका समग्र वर्णन पूर्ववत् उत्पल उद्देशक के समान करना चाहिए; * यावत् सभी जीव अनन्त वार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--प्रायः एक समान आठ उद्देशक—प्रथम उद्देशक 'उत्पल' से लेकर आठवें 'नलिन' उद्देशक तक उत्पलादि अाठ वनस्पतिकायिक जीवों का 32 द्वार के माध्यम से वर्णन किया गया है। इनमें पारस्परिक अन्तर बताने वाली तीन गाथाएँ वृत्तिकार ने उद्धृत की हैं। यथा--- सालंमि धणुपुहत्तं होइ पलासे य गाउययुहत्तं / जोयणसहस्समाहियं अबसेसाणं तु छण्हंपि // 1 // कुम्भीए नालियाए वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धव्वा / दसवाससहस्साई प्रवसेसाणं तु छण्हं पि // 2 // कुभीए नालियाए होति पलासे य तिणि लेसाओ। चत्तारि उ लेसाओ, अवसेसाणं तु पंचण्हं // 3 // अर्थ-शालक की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व और पलाश की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व होती है। शेष उत्पल, नलिन, पद्म, कुम्भिक, कणिका और नालिक को उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजल से कुछ अधिक होती है / / 1 / / कुम्भिक और नालिक की उत्कृष्ट स्थिति वर्षपृथक्त्व है। शेष 6 को उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष की होती है / / 2 / / / कुम्भिक, नालिक और पलाश में पहले की तीन लेश्याएँ और शेष पाँच में चार लेश्याएँ होती है / / 3 / / ग्यारहवां शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. ति. पत्र 514 (ख) भगवती. विवेचन, भा. 4, (पं. घेवर.) प्र. 1873 Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : नौवाँ उद्देशक "सिव' : शिव राजर्षि 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे नामं नगरे होत्था / वण्णओ।' [1] उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। 2. तस्स णं हस्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे एस्थ णं सहसंबवणे नामं उज्जाणे होत्था। सम्वोउयपुष्फफलसमिद्ध रम्मे गंदणवणसनिगासे सुहसीयलच्छाए मणोरमे सादुफले अकंटए पासादीए जाव पडिरूवे / _[2] उस हस्तिनापुर नगर के बाहर उत्तरपूर्वदिशा (ईशानकोण) में सहस्त्राम्रवन नामक उद्यान था। वह सभी ऋतुओं के पुष्पों और फलों से समृद्ध था / रम्य था, नन्दनवन के समान सुशोभित था / उसकी छाया सुखद और शीतल थी। वह मनोरम, स्वादिष्ठ फलयुक्त, कण्टकरहित, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) था। 3. तत्थ णं हस्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था, महताहिमवंत / वण्णओ / / [3] उस हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था / वह महाहिमवान् पर्वत के समान श्रेष्ठ था, इत्यादि राजा का समस्त वर्णन कहना चाहिए / 4. तस्स गं सिवस्स रण्णो धारिणी नामं देवी होत्था, सुकुमालपाणियाया० / वण्णो / ' [4] शिव राजा की धारिणी नाम को देवी (पट रानी) थी / उसके हाथ-पैर अतिसुकुमाल थे, इत्यादि रानी का वर्णन यहाँ करना चाहिए। 5. तस्स णं सिवस्स रण्णो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दए नाम कुमारे होत्था, सुकुमाल. जहा सूरियकते आव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरति / [5] शिव राजा का पुत्र और धारिणी रानी का अंगजात 'शिवभद्र' नामक कुमार था। उसके हाथ-पैर अत्यन्त सुकुमाल थे / कुमार का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र में कथित सूर्यकान्त राजकुमार 1. हस्तिनापुर नगर के वर्णन के लिए देखिये-औषपातिकसूत्र 2. राजा के वर्णन के लिए देखिये--प्रोपपातिकसूत्र, सू. 6, पत्र 11 (भागमोदय०) 3. रानी के वर्णन के लिए देखिये-ौपचातिक सूत्र, सू. 6, प. 12 (पागमोदय०) 4. कुमार के वर्णन के लिए देखिये--राजप्रश्नीयसूत्र कण्डिका 144, पृ. 276, (गुर्जरग्रन्थ०) Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ शतक : उद्देशक-९] [33 के समान समझना चाहिए, यावत् वह कुमार राज्य, राष्ट्र, बल (सैन्य), वाहन, कोश, कोठार, पुर, अन्तःपुर और जनपद का स्वयमेव निरीक्षण (देखभाल) करता हुआ रहता था / विवेचन--शिव राजा से सम्बन्धित परिचय प्रस्तुत 5 सूत्रों (1 से 5 तक) में शिवराजा से सम्बन्धित 5 वातों का अतिदेशपूर्वक परिचय दिया गया है--(१) हस्तिनापुर नगर का वर्णन, (2) सहस्राम्रवन उद्यान का वर्णन, (3) शिव राजा का वर्णन, (4) शिव राजा को पटरानी धारिणी का वर्णन और (5) राजकुमार शिवभद्र-वर्णन / कठिन शब्दों का अर्थ- सम्बोउयपुष्फफलसमिद्ध-सभी ऋतुओं के पुष्पों एवं फलों से समृद्ध / गंदणवणसन्निगासे- नन्दनवन के समान / सादुफले-स्वादिष्ठ फल वाला। महताहिमवंत-महान् हिमवान् पर्वत के समान / प्रत्तए-पात्मज-पुत्र / पच्चुवेक्खमणे देखभाल करता हुआ / ' शिवराजा का दिक्प्रोक्षिक-तापस-प्रवज्याग्रहण-संकल्प 6. लए णं तस्स सिवस्स रणो अन्नया कदायि पुटवरतावरत्तकालसमयंसि रज्जधुरं चिते. माणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाब समुप्पज्जित्था-"अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं जहा तामालस्स (स. 3 उ. 1 सु. 36) जाव पुत्तेहि वड्डामि, पसूहि वड्डामि, रज्जेणं बड्डामि, एवं रठेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वहामि, विपुलधण-कणग-रयण० जाव संतसारसावदेज्जेणं प्रतीव अतीव अभिवढामि, तंकि णं अहं पुरा पोराणाणं जाव एगंतसोक्खयं उवेहमाणे विहरामि ? तं जाव ताव अहं हिरण्णेणं वड्डामि तं चेव जाव अभिवड्ढामि, जावं च मे सामंतरायाणो वि वसे बति, ताक्ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलते सुबहुं लोहीलोहकडाकडुच्छ्यं तंबियं तावसभंडथं घडावेत्ता, सिवभई कुमारं रज्जे ठावित्ता, तं सुबहु लोहोलोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तावसभंडयं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहा होत्तिया पोत्तिया जहा उववातिए जान' कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति / तत्थ णं जे ते दिसापोक्खियतावसा तेसि अंतियं मुडे भवित्ता दिसापोक्खिततावसत्ताए पव्वइत्तए / पन्वइते वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि.--. कप्पति मे जावज्जीवाए छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालएणं तबोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय जाव विहरित्तए" त्ति कटु; एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते सुबहुं 1. भगवती. विवेचन, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी) / पृ. 1874 2. इसके लिए देखिये भगवतीसत्र शतक 3, उ.१, स. 36 3. देखिये औषपातिकमूत्र सू. 38 पत्र 90 प्रागमोदयः में पाठ--.'कोत्तिया जन्नई सड़ई थालई हुंबउटा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मज्जगा निमज्जगा संपक्खाला दक्षिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधममा मिगलुद्धया हथितावसा उद्दडगा दिसापोक्खिणो वकवासिणो चेलवासिणो जलवासिणो रुखमूलिया अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंद-मूल तय-पत्त-पुप्फ-फलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाहि पंचम्गितावेहि इंगालसोल्लियं कंसोल्लियं ति / 4. श्रीषपातिकसूत्र के अतिदेश वाले इस पाठ का अनुवाद / कोष्ठक दे कर दे दिया गया है। - सं. Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोहोलोह जाव घडावित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, को० स० 2 एवं वदासी-खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! हस्थिणापुरं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसिय जाय तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / 6] तदनन्तर एक दिन राजा शिव को रात्रि के पिछले पहर में (पूर्वरात्रि के बाद अपर रात्रि काल में) राज्य की धुरा-कार्यभार का विचार करते हुए ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि यह मेरे पूर्व-पुण्यों का प्रभाव है, इत्यादि तीसरे शतक के प्रथम उद्दे शक में वर्णित तामलि-तापस के वृत्तान्त के अनुसार विचार हुआ- यावत् मैं पुत्र, पशु, राज्य, राष्ट्र, बल (सैन्य), वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर इत्यादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ। प्रचुर धन, कनक, रत्न यावत् सारभूत द्रव्य द्वारा अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ। तो क्या मैं पूर्वपुण्यों के फलस्वरूप यावत् एकान्तसुख' का उपभोग करता हुअा विचरण करू ? अतः अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि जब तक मैं हिरण्य प्रादि से वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूँ, यावत् जब तक सामन्त राजा आदि भी मेरे वश में (अधीन) हैं तब तक कल प्रभात होते ही जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं बहुत-सी लोढ़ी, लोहे की कडाही, कुडछी और ताम्बे के बहुत-से तापसोचित उपकरण (या पात्र) बनवाऊँ और शिवभद्र कुमार को राज्य पर स्थापित (राजगद्दी पर बिठा)करके और पूर्वोक्त बहुत-से लोहे एवं ताम्बे के तापसोचित भांड-उपकरण ले कर, उन तापसों के पास जाऊँ जो ये गंगातट पर वानप्रस्थ तापस हैं; जैसे कि-अग्निहोत्री, पोतिक (वस्त्रधारी) कौत्रिक (पृथ्वी पर सोने वाले ) याज्ञिक, श्राद्धी (श्राद्धकर्म करने वाले), खप्परधारी (स्थालिक), कुण्डिकाधारी श्रमण, दन्त-प्रक्षालक, उन्मज्जक, सम्मज्जक, निमज्जक, सम्प्रक्षालक, ऊर्ध्वकण्डक, अधःकण्डक, दक्षिणकलक, उत्तरकलक, शंखधमक (शंख फूक कर भोजन करने वाले), कूलधमक (किनारे पर खड़े होकर आवाज करके भोजन करने वाले), मगलुब्धक, हस्तीतापस, जल से स्नान किये बिना भोजन नहीं करने वाले, पानी में रहने वाले, वायु में रहने वाले, पट-मण्डप में रहने वाले, बिलवासी, वृक्षमूलवासी, जलभक्षक, वायुभक्षक, शैवालभक्षक, मूलाहारी, कन्दाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, फलाहारी, बीजाहारी, सड़ कर टूटे या गिरे हुए कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल खाने वाले, दण्ड ऊँचा रख कर चलने वाले, वृक्षमूलनिवासी, मांडलिक, वनवासी, दिशाप्रोक्षी, आतापना से पंचाग्नि ताप तपने वाले (अपने शरीर को अंगारों से तपा कर काष्ठ-सा बना देने वाले) इत्यादि औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् जो अपने शरीर को काष्ठ-सा बना देते हैं। उनमें से जो तापस दिशाप्रोक्षक हैं, उनके पास मुण्डित हो कर मैं दिक्प्रोक्षक-तापस-रूप प्रव्रज्या अंगीकार करूँ। प्रबजित होने पर इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण करूं कि बावज्जीवन निरन्तर (लगातार) छठ-छठ (बेले-बेले) की तपस्या द्वारा दिक्चक्रवाल तपःकर्म करके दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर रहना मेरे लिए कल्पनीय है; इस प्रकार का शिव राजा ने विचार किया। . और फिर दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अनेक प्रकार की लोढ़ियाँ, लोहे की कड़ाही अादि तापसोचित भण्डोपकरण तैयार कराके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहाहे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर जल का छिड़काव करके स्वच्छ, (सफाई) कराओ, इत्यादि ; यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की आज्ञानुसार कार्य करवा कर राजा से निवेदन किया / विवेचन -शिव राजा का तापसप्रव्रज्या लेने का संकल्प और तयारी प्रस्तुत छठे सूत्र में Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [35 प्रतिपादित किया गया है कि शिव राजा ने धन-धान्य आदि की वृद्धि एवं अपार समृद्धि प्रादि देख कर अपने पूर्वकृत-पुण्यफल का विचार किया और उसके फलभोग की अपेक्षा नवीन पुण्योपार्जन करने हेतु दिशाप्रोक्षक-तापरादीक्षा लेने और तापसोचित उपकरण जुटाने का संकल्प किया और फिर तदनुसार नगर की सफाई कराने का आदेश दिया / ' कठिन शब्दों का अर्थ-रज्जधुरं-राज्य का भार / कडुच्छ्यं-कुड़छी / कोत्तिया—कौत्रिकभूमिशायी। थालई खप्परधारी। हुंबउट्ठा कण्डीधारी। दंतुक्खलिया-फलभोजी। उम्मज्जगाएक बार पानी में डुबकी लगा कर स्नान करने वाले। संपखाला-सम्प्रक्षालक-मिट्टी रगड़ कर नहाने वाले / दक्षिणकूलगा-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले / संखधमगा-शंख फूंक कर भोजन करने वाले / कूलधमगा-किनारे रह कर शब्द करने वाले / हत्थितावसा-हस्तितापस (हाथी को मार बहुत दिनों तक खाने वाले)। उहंडगा-ऊपर दण्ड करके चलने वाले / जलाभिसेयकढिणगायाजल से स्नान करने से कठोर शरीर वाले / अंबुभक्खिणो—जल भक्षण करने वाले / वाउवासिणोवायु में रहने वाले / वक्कवासिणो-वल्कलवस्त्रधारी। परिसडिय-सड़े हुए। पंचम्गितावेहि पंचाग्नितापों से / इंगालसोल्लियं-अंगारों से अपने शरीर को जलाने वाले। कंदुसोलियंभड़भूजे के भाड़ में पकाए हुए के समान / कट्ठसोल्लियं पिक---काष्ठ के समान शरीर को बनाने बाले / दिसापोक्खिय-दिशाप्रोक्षक-जल द्वारा दिशाओं का पूजन करने के पश्चात् फल-पुष्पादि ग्रहण करने वाले / दिक्चक्रवाल तपःकर्म का लक्षण--एक जगह पारणे में पूर्व दिशा में जो फल हों, उन्हें ग्रहण करके खाए जाते हैं, फिर दूसरी जगह दक्षिण दिशा में, इसी तरह क्रमश: सभी दिशाओं में जिस तपःकर्म में पारणा किया जाता है, उसे दिक्चक्रवाल तपःकर्म कहते हैं। शिवभद्रकुमार का राज्याभिषेक और राज्य-ग्रहण 7. तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, स० 2 एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं महाधं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उबढवेह / [7] उसके पश्चात् उस शिव राजा ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे कहा—'हे देवानुप्रियो ! शिवभद्र कुमार के महार्थ, महामूल्यवान् और महोत्सवयोग्य विपुल राज्याभिषेक की शीघ्र तैयारी करो।' 8. तए णं ते कोड बियपुरिसा तहेव उवट्ठति / [8] तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेशानुसार राज्याभिषेक की तैयारी की। 9. तए णं से सिवे राया अणेगगणनायग-दंडनायग जाव संधिपाल सद्धि संपरिवुडे सिवभई 1. बियाहपण्णत्तिसूतं (मूलपाठ-टिप्पण) भाग. 2, पृ.५१७-५१८ 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 519 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 519-520 Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कुमारं सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेति, नि० 2 अट्ठसतेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव' अट्ठसतेणं भोमेज्जाणं कलसाणं सबिड्डीए जाव' रवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचति, म० अ० 2 पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गाताई लूहेति, पम्ह० लू० 2 सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेब जमालिस्स अलंकारो (स. 9 उ. 33 सु. 57) 3 तहेव जाव कप्परुक्खगं पिव प्रलंकियविभूसियं करेति, क० 2 करयल जाव कटु सिवभई कुमारं जएणं विजएणं बद्धाति, जए० व० 2 ताहि इट्टाह कंताहि पियाहि जहा उववातिए कोणियस्स जाव परमायु पालयाहि, इट्ठजणसंपरिबुडे हथिणापुरस्स नगरस्स अन्नेसि च बहूणं गामागर-नगर जाव' विहरहि, त्ति कटु जयजयसई पउंजति / [6] यह हो जाने पर शिव राजा ने अनेक गणनायक, दण्डनायक यावत् सन्धिपाल आदि राज्यपुरुष-परिवार से युक्त होकर शिवभद्रकुमार को पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन किया / फिर एक सौ पाठ सोने के कलशों से, यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, समस्त ऋद्धि (राजचिह्नों) के साथ यावत् बाजों के महानिनाद के साथ राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। तदनन्तर अत्यन्त कोमल सुगन्धित गन्धकाषायवस्त्र (तौलिये) से उसके शरीर को पोंछा। फिर सरस गोशीर्षचन्दन का लेप किया; इत्यादि, जिस प्रकार (श. 6, उ. 33 / सू. 57 में) जमालि को अलंकार से विभूषित करने का वर्णन है, उसी प्रकार शिवभद्रकुमार को भी यावत् कल्पवृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित किया। इसके पश्चात् हाथ जोड़ कर यावत् शिवभद्र कुमार को जयविजय शब्दों से बधाया और औषपातिक सूत्र में वर्णित कोणिक राजा के प्रकरणानुसार (शिवभद्रकुमार को) इष्ट, कान्त एवं प्रिय शब्दों द्वारा प्राशीर्वाद दिया, यावत् कहा कि तुम परम आयुष्मान् (दीर्घायु) हो और इष्ट जनों से युक्त होकर हस्तिनापुर नगर तथा अन्य बहुत-से ग्राम, अाकर, नगर आदि के, यावत् परिवार, राज्य और राष्ट्र आदि के स्वामित्व का उपभोग करते हुए विचरो; इत्यादि (आशीर्वचन) कह कर जय-जय शब्द का प्रयोग किया। 10. तए णं से सिवभद्दे कुमारे राया जाते महया हिमवंत० वण्णओ जाव विहरति / [10] अब वह शिवभद्रकुमार राजा बन गया / वह महाहिमवान् पर्वत के समान राजाओं में प्रधान हो कर विचरण करने लगा / यहाँ शिवभद्रराजा का वर्णन करना चाहिए / विवेचन-शिवभद्रकुमार का राज्याभिषेक और आशीर्वचन-प्रस्तुत 4 सूत्रों (7 से 10 तक) में शिव राजा द्वारा शिवभद्रकुमार के राज्याभिषेक की तैयारी के लिए कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश का तथा उनके द्वारा राज्याभिषेक की समस्त तैयारी कर लेने पर शिव राजा द्वारा अपने समस्त 1. 'जाव' पद सूचित पाठ के लिए देखे---ौपपातिक सूत्र 31, पत्र 66, प्रागमोदय. / 2. 'जाव' पद मूचित पाठ के लिए देखें-भगवती. श. 9, उ. 33, म्. 49 3. जमाली के एतद्विषयक वर्णन के लिए देखें--श. 9, उ, 33, सू. 57 4. इसके शेष वर्णन के लिए देखें-ौषपातिक. कोणिकप्रकरण 5. इसके लिए देग्ने...-औपपातिक सू. 32, पत्र 74, प्रागमोदय. Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [37 राज्यपुरुष-परिवार के साथ सिंहासनासीन करके शिवभद्रकुमार का राज्याभिषेक करने और उसे आशीर्वचन कहने का वर्णन है / ' कठिन शब्दों का अर्थ--उववेह-उपस्थित करो। णिसियावेत्ता-विठा कर / सोवणियाणसोने के बने हुए / भोमेज्जाणं-मिट्टी के बने हुए / यम्हलसुकुमालाए--रोंयेदार सुकुमाल---मुलायम / परमायुपालयाहि परम आयु का पालन करो–दीर्घायु होप्रो / शिव राजर्षि द्वारा दिशाप्रोक्षकतापस-प्रव्रज्याग्रहण 11. तए णं से सिवे राया अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-णक्खत्त-दिवस-मुहत्तसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेति, वि० उ० 2 मित्त-जाति-नियग जाव परिजणं रायाणो य खत्तिया य आमंति, आ० 2 ततो पच्छा हाते जाव सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाति-नियग-सयण जाव परिजणेणं राईहि य खत्तिएहि य सद्धि विपुलं असण-पाणखाइम-साइमं एवं जहा तामलो (स. 3 उ. 1 सु. 36) जाव सक्कारेति सम्माति, सक्कारे० स०२ तं मित्त-नाति जाव परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभई च रायाणं आपुच्छति, आपुच्छित्ता सुबह लोहीलोहकडाहकडुच्छ जाव भंडगं गहाय जे इमे गंगाकुलगा वाणपत्था तावसा भवति तं चेव जाव तेसि अंतियं मुडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पवइए। पव्वइए वि य गं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति-कप्पति मे जावज्जीवाए छठं० तं चेव जाव (सु. 6) अभिग्गहं अभिमिण्हइ, अय० अभि० 2 पढमं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्तागं विहरई। [11] तदनन्तर किसी समय शिव राजा (भूतपूर्व हस्तिनापुरनप) ने प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और दिवस एवं शुभ मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन, परिजन, राजाओं एवं क्षत्रियों आदि को आमंत्रित किया। तत्पश्चात् स्वयं ने स्नानादि किया, यावत् शरीर पर (चंदनादि का लेप किया।) (फिर) भोजन के समय भोजनमण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, यावत् परिजन, राजाओं और क्षत्रियों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन किया / फिर तामली तापस (श. 3, उ. 1, सू. 36 में वणित वर्णन) के अनुसार, यावत् उनका सत्कार-सम्मान किया / तत्पश्चात् उन मित्र, ज्ञातिजन आदि सभी की तथा शिवभद्र राजा की अनुमति लेकर लोढी -लोहकटाह, कुड़छी आदि बहुत से तापसोचित भण्डोपकरण ग्रहण किये और गंगातट निवासी जो वानप्रस्थ तापस थे, वहां जा कर, यावत् दिशाप्रोक्षक तापसों के पास मुण्डित होकर दिशाप्रोक्षक-तापस के रूप में प्रवजित हो गया / प्रव्रज्या ग्रहण करते ही शिवराजर्षि ने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-- अाज से जीवन पर्यन्त मुझे बेले-बेले (छट्ठ-छ?-तप) करते हुए विचरना कल्पनीय है; इत्यादि पूर्ववत् (सू. 6 के अनुसार) यावत् अभिग्रह धारण करके प्रथम छ? (बेले का) तप अंगीकार करके विचरने लगा। .- - 1. वियाहपण्णत्ति सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 518-519 2. भगवती. विवेचन, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), प्र. 1879 Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-शिवराज द्वारा सर्वानुमतिपूर्वक तापस-प्रव्रज्याग्रहण प्रस्तुत 11 वे सूत्र में शिवराजषि की तापसदीक्षा के सन्दर्भ में पहले उसके द्वारा स्वजन-सम्बन्धियों को आमंत्रण, भोजन, सत्कार-सम्मान, प्रव्रज्याग्रहण की अनुमति, फिर स्वयं तापसोचित उपकरण लेकर गंगातटवासी दिशाप्रोक्षक-तापसों से तापस-दीक्षा ग्रहण एवं यावज्जीव छ?तप का संकल्प आदि का वर्णन किया गया है। कठिन शब्दों का अर्थ-सोभणसि-शुभ या प्रशस्त / उवक्खडावेति तैयार कराया / वाणपत्था–वानप्रस्थतापस (वानप्रस्थ नामक तृतीय आश्रम को अंगीकार किये हुए) / अभिग्गहं— अभिग्रह--एक प्रकार का संकल्प या प्रतिज्ञा। शिवराजषि द्वारा विशाप्रोक्षणतापसचर्या का वर्णन 12. तए णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्खमणपारणगंसि आयावणभूमोओ पच्चोरुहति, आया० 102 वागलवथनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 किढिणसंकाइयगं गिण्हइ, कि० गि०२ पुरस्थिमं दिसं पोक्खेइ / 'पुरस्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसि, अमिरक्खउ सिवं रायरिसि, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्पाणि य फलाणि य बोयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणतु' ति कटु पुरस्थिमं दिसं पासति, पा० 2 जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताई गेण्हति / गे० 2 किढिणसंकाइयगंभरेति. किढि० भ०२ दन्भे य कसे य समिहाओ य पत्तामोडंच गेण्हह, गे०२ जेणव सए उडए तेणेव उवागच्छद, ते उवा० 2 कि दिणसंकाइयगं ठवेइ, किढि० ठवेत्ता वेदि वड्डेति, वेदि व० 2 उवलेवणसम्मज्जणं करेति, उ० क० 2 दब्भ-कलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गंगामहानदि ओगाहइ, गंगा० ओ० 2 जलमज्जणं करेति, जल० क० 2 जलकोडं करेति, जल० क०२ जलाभिसेयं करेति, ज० क० 2 आयंते चोक्खे परमसूइभूते देवत-पितिकयकज्जे दम्भसगम्भकलसाहत्थगते गंगाओ महानदीओ पच्चुत्तरति, गंगा०प० 2 जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 दम्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएति, वेदि र०२ सरएणं अणि महेति, स० म०२ अग्गि पाडेति, अग्गि पा० 2 अग्गि संघुक्केति, अ० सं० 2 समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ, स०प० 2 अग्गि उज्जालेति, अ० उ० २अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादहे / तं जहा सकहं 1 वक्कलं 2 ठाणं 3 सेज्जाभंड 4 कमंडल 5 / दंडदारु 6 तहप्पाणं 7 अहेताई समादहे // 1 // महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अ० हु० 2 चरु साहेइ, चरु सा० 2 बलि वइस्सदेवं करेइ, बलि० क० 2 अतिहिपूयं करेति, अ० क० 2 ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति / 1. वियाहपण्णप्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 519-520 2. भगवती. विवेचन, भा. 4, पृ. 1881 Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [12] तत्पश्चात् वह शिवराजर्षि प्रथम छटु (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, फिर उन्होंने वल्कलवस्त्र पहिने और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / वहाँ से किढीण (बांस का पात्र-छबड़ी) और कावड़ को लेकर पूर्वदिशा का पूजन किया। (इस प्रकार प्रार्थना की-) हे पूर्वदिशा के (लोकपाल) सोम महाराजा ! प्रस्थान (परलोक-साधना मार्ग) में प्रस्थित(प्रवृत्त) हुए मुझ शिवराजर्षि को रक्षा करें, और यहाँ (पूर्वदिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पूष्प, फल, बोज और हरी वनस्पति (हरित) हैं, उन्हें लेने की अनुज्ञा दें; यों कह कर शिवराषि ते पर्वदिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मुल. यावत हरी बनस्पति मिली, उसे ग्रहण की और कावड़ में लगी हुई बांस की छबड़ी में भर ली। फिर दर्भ (डाभ), कुश, समिधा और वृक्ष की शाखा को मोड़ कर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीप कर शुद्ध किया। तत्पश्चात् डाभ और कलश हाथ में ले कर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए / गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध को / फिर जलक्रीड़ा की, पानी अपने देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र (शुचिभूत) होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लिए हुए गंगा महानदी से बाहर निकले और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / कुटी में उन्होंने डाभ, कुश और बालू से वेदी बनाई / फिर मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी घिसी (मथन किया) और प्राग सुलगाई / अग्नि जब धधकने लगी तो उसमें समिधा की लकड़ी डाली और आग अधिक प्रज्वलित की / फिर अग्नि के दाहिनी ओर ये सात वस्तुएँ (अंग) रखीं, यथा---(१) सकथा (उपकरण—विशेष), (2) वल्कल, (3) स्थान (4) शय्याभाण्ड, (5) कमण्डलु, (6) लकड़ी का डंडा और (7) अपना शरीर / फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य ले कर बलिवैश्वदेव (अग्निदेव) को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। 13. तए णं से सिके रायरिसो दोच्चं छट्ठक्खमणं उक्संपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं से सिवे रायरसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीतो पच्चोल्हा, प्रा०प० 2 वागल० एवं जहापढमपारणगं, नवरं दाहिणं दिसं योक्खेति / दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं०, सेसं तं चेव जाव आहारमाहारेइ। [13] तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला (छट्टक्खमण) अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि प्रातापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे को जो विधि को थो, उसो के अनुसार दूसरे पारणे में भी किया। इतना विशेष है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की / हे दक्षिण दिशा के लोकपाल यम महाराजा! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अतिथि की पूजा करके फिर उसने स्वयं प्राहार किया। 14. तए णं से सिवे रायरिसी तच्च छ?क्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तए णं से सिवे रायरिसी० सेसं तं चेव, नवरं पच्चस्थिमं दिसं पोक्खेति / पच्चत्थिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पस्थियं अभिरक्खतु सिवं० सेसं तं चेव जाव ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ / Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14] तदनन्तर उन शिवराजषि ने तृतीय बेला (छट्ठपखमण तप) अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन शिवराजर्षि ने पूर्वोक्त सारी विधि की। इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिमदिशा की पूजा की और प्रार्थना की-हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा कर, इत्यादि यावत् तब स्वयं प्राहार किया। 15. तए गं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छटुक्खमणं० एवं तं चेव, नवरं उत्तरं दिसं पोक्खेइ / उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं०, सेसं तं चैव जाव ततो पच्छा अप्पणा पाहारमाहारेति / [15] तत्पश्चात उन शिवराजर्षि ने चतुर्थ बेला (छट्रक्खमण तप) अंगीकार किया / फिर इस चौथे बेले के तप के पारणे के दिन पूर्ववत् सारी विधि की / विशेष यह है कि उन्होंने (इस बार) उत्तरदिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की हे उत्तरदिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त इस शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि अवशिष्ट सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् तत्पश्चात् शिवराजषि ने स्वयं आहार किया। विवेचन--शिवराजर्षि द्वारा चार छटुक्खमण तप द्वारा दिशाप्रोक्षण--प्रस्तुत चार सूत्रों (12 से 15 तक) में शिवराजर्षि द्वारा क्रमश: एक-एक बेले के पारणे के दिन एक-एक दिशा के प्रोक्षण की की गई तापसचर्या का वर्णन है। __ कठिन शब्दों का भावार्थ वागलवथनियत्थे-- वल्कलवस्त्र पहने। उडए—उटज-कुटी / किढिणसंकाइयगं-- बांस का बना हुआ तापसों का पात्र-विशेष, (छवडी) और सांकायिक (कावड़भार ढोने का यंत्र) / पोक्खेइ-प्रोक्षण (पूजन किया। पत्थाणे--परलोक-साधना-मार्ग में / पत्थियंप्रस्थित-प्रवत्त / दम्भे-मूलसहित दर्भ-डाभ को। समिहामो समिधा की लकड़ी। पत्तामोडंवक्ष की शाखा से मोड़े हुए पत्ते / दि बढेति---वेदी (देवार्चनस्थान) को वर्धनी-बुहारी से साफ (प्रमाजित किया। उवलेवण-सम्मज्जणं-गोबर प्रादि से लेपन तथा जल से सम्मान (शोधनशुद्धि) किया। दब्भ-कलसाहत्थगए-कलश में दर्भ डाल कर हाथ में लिये हुए। प्रोगाहह-अवगाहन (प्रवेश किया। आयंते-पाचमन किया। चोक्खे अशुचिद्रव्य हटाकर शुद्ध हए / परमसुइभएअत्यन्त शुद्ध हुए। देवत-पिति-कयकज्जे–देवता और पितरों को जलांजलिदानादि का कार्य किया। सरएणं अणि महेति—शरक = मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी को मथा-घिसा / समादहेसन्निधापन किये-रखे / सकहं सकथा (उपकरण—विशेष) / ठाणं-ज्योति-स्थान (या पात्रस्थान) दीप / सेज्जाभंडं शय्या के उपकरण / दंडदार-लकड़ी का डंडा, दण्ड / चर साहेइचरू (बलिद्रव्य के पात्र) में बलिद्रव्य को सिझाया, / बलि वइस्सदेवं करेइ-बलि से अग्निदेव की पूजा की।' विभंगज्ञान प्राप्त होने पर राजर्षि का प्रतिशय ज्ञान का दावा और जनवितर्क 16. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं जाव आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जाव विणीययाए अन्नया कदायि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खयोवसमेणं 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 5.20 Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [41 ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुष्पन्ने / से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासति अस्सि लोए सत्त दोवे सत्त समुद्दे / तेण परं न जागति न पासति / [16] इसके बाद निरन्तर (लगातार) बेले-बेले की तपश्चर्या से दिकचक्रवाल का प्रोक्षण करने से, यावत् आतापना लेने से तथा प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिव राषि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के कारण ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग ज्ञान (कुप्रवधिज्ञान) उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे। इससे आगे वे न जानते थे, न देखते थे / 17. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था- अस्थि णं ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुष्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा, सत्त समुद्दा, तेण परं दोच्छिन्ना दोवा य समुद्दा य। एवं संपेहेइ, एवं सं० 2 आयावणभूमोसो पच्चोरुभति, आ० प० 2 वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ सुबहुं लोहोलोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडगं किढिणसंकाइयं च गेण्हति, गे० 2 जेणेव हस्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 भंडनिक्खेवं करेइ, भंड० क० 2 हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग जाव पहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खति जाव एवं परवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य / [17] तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ कि "मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुया है / इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं / उससे आगे द्वीपसमुद्रों का विच्छेद (अभाव) है।" ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कलवस्त्र पहने, फिर जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए। वहाँ से अपने लोढी, लोहे का कडाह, कुड़छी आदि बहुत-से भण्डोपकरण तथा छबड़ी-सहित कावड़ को लेकर वे हस्तिनापुर नगर में जहाँ तापसों का प्राश्चम था, वहाँ पाए / वहाँ अपने तापसोचित उपकरण रखे और फिर हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और यावत् प्ररूपणा करने लगे—'हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता और देखता हैं कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं।' 18. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमलें सोच्चा निसम्म हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव परुवेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेइ 'अस्थि णं देवाणप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य' / से कहमेयं मन्ने एवं ? [18] तदनन्तर शिवराजर्षि से यह (उपर्युक्त) बात सुनकर और विचार कर हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने यावत् बतलाने लगे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो इस प्रकार की बात कहते यावत्' प्ररूपणा करते हैं कि 'देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुद्र ही हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्रों का अभाव है.' उनकी यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाए? विवेचन-शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान का दावा और लोकचर्चा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में तीन घटनाओं का उल्लेख है-(१) शिवराजषि को विभंगज्ञान की उत्पत्ति, (2) उनके द्वारा हस्तिनापुर में अतिशय ज्ञानप्राप्ति का दावा और (3) जनता में परस्पर चर्चा / ' कठिन शब्दों का अर्थ-अज्झस्थिए-अध्यवसाय, विचार / अतिसेसे—अतिशय / वोच्छिण्णे विच्छेद है-अभाव है / तावसावसहे-तापसों के आवसथ (पाश्रम) में / ' भगवान् द्वारा असंख्यात द्वीपसमुद्र-प्ररूपणा 19. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे / परिसा जाव पडिगया। [16] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीरस्वामी वहाँ पधारे / परिषद् ने धर्मोपदेश सुना, यावत् वापस लौट गई। 20. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स. 2 उ. 5 सु. 21-24) जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेति-बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति जाव एवं परूवेइ 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिबे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेइ--अस्थि णं देवाणुप्पिया! तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा 5 / से कहमेयं मन्ने एवं ?' 20] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगारने, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोडे शक (श.२ उ. 5 स. 21-24) में वणित विधि के अनुसार यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए, बहुत-से लोगों के शब्द सुने / वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् इस प्रकार बतला रहे थे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'हे देवानुप्रियो ! इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं; इत्यादि, यावत उससे आगे द्वीप-समुद्र नहीं हैं, तो उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?' 21. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जहा नियंठइसए (स. 2 उ. 5. सु. 25 [1]) जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / से कहमेयं भंते ! एवं ? 'गोयमा !'दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वदासी-जं णं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति तं चेव सव्वं भाणियन्वं जाब भंडनिक्लेवं करेति, हथिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमठ्ठ सोच्चा निसम्म तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / तं णं मिच्छा / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ 1. वियाहपण्यत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 522-523 2. भगवती, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1887 Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे' जाव सयंभुरमणपज्जवसाणा अल्सि तिरियलोए असंखेज्जा दोवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!। 21] वहुत-से मनुष्यों से यह बात सुन कर और विचार कर गौतम स्वामी को संदेह, कुतूहल एवं यावत श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे निम्रन्थोद्देशक (शतक 2 उ. 5, सू. 25-1) में वर्णित वर्णन के अनुसार भगवान् की सेवा में आए और पूर्वोक्त बात के विषय में पूछा--'शिव राजर्षि जो यह कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीपों और समुद्रों का सर्वथा अभाव है, भगवन् ! क्या उनका ऐसा कथन यथार्थ है ? [उ.] भगवान महावीर ने गौतम आदि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहा—'हे गौतम ! जो ये बहुत-से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं (इत्यादि) शिव राजषि को विभंगज्ञान उत्पन्न होन से लेकर यावत् उन्होंने तापस-नाश्रम में भण्डोपकरण रखे / हस्तिनापुर नगर में शृ गाटक, त्रिक यादि राजमार्गों पर वे कहने लगे यावत् सात द्वीप-समुद्रों से आगे द्वीपसमुद्रों का अभाव है, इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए। तदनन्तर शिव राजर्षि से यह बात सुनकर बहुत से मनुष्य ऐसा कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्रों का सर्वथा अभाव है।' (यह जो जनता में चर्चा है) वह कथन मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि वास्तव में जम्बूद्वीपादि द्वीप एवं लवणादि समुद्र एक सरीखे वृत्त (गोल) होने से आकार (संस्थान) में एक समान हैं परन्तु विस्तार में (एक दूसरे से दुगुने-दुगुने होने से) वे अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि सभी वर्णन जीवाभिगम में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत् “हे प्रायुष्मन् श्रमणो! इस तिर्यक लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं।' विवेचन—गौतमस्वामी द्वारा शिवराजर्षि को उत्पन्न ज्ञान का भगवान से निर्णय प्रस्तुत तीन सूत्रों (16-20-21) में चार तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) भगवान का हस्तिनापूर (2) गौतमस्वामी द्वारा जनता से शिवराषि को उत्पन्न अतिशय ज्ञान की चर्चा का श्रवण, (3) अपनी शंका भगवान् के समक्ष प्रस्तुत करना, (4) भगवान् द्वारा शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान होने का दावा मिथ्या होने का कथन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ---एकविहिविहाणा-सभी गोल होने से सभी एक ही प्रकार के व्यवहार -- आकार वाले / विस्थारओ-विस्तार से / पज्जवसाणा--पर्यन्त / ' द्वोप-समुद्रगत द्रव्यों में वर्णादि को परस्परसम्बद्धता 22. अस्थि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दवाई सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई 1. देखिये जीवाभिगमसूत्र प्रति. 3, उ. 1, सु 123 में—"दुगुणादुगुणं पडुःपाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाण बीइया..." . बहुध्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोबबेया ....."पत्त यं पत्त यं पउमवरवेइयापरिविखत्ता पत्त यं पतयं वणसंडपरिक्खित्ता।" 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 523 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 520 Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पि, सरसाइं पि अरसाइं पि, सफासाई पि अफासाई पि, अन्नमन्तबद्धाइं अन्तमन्नपुट्ठाई जाव घडताए चिट्ठति ? हंता, अस्थि। [22 प्र.] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वर्ण सहित और वर्णरहित, गन्धसहित और गन्धरहित, सरस और अरस, सस्पर्श और अस्पर्श द्रव्य, अन्योन्यबद्ध तथा अन्योन्यस्पृष्ट यावत् अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? [22 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 23. अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दन्वाई सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई पि, सरसाइं पि प्ररसाइं पि, सफासाई पि अफासाइं पि, अन्नमनबद्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाई जाव घडत्ताए चिट्ठति ? हंता, अस्थि / [23 प्र.] भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में वर्णसहित और वर्णरहित, गन्धसहित और गन्धरहित, रसयुक्त और रसरहित तथा स्पर्शयुक्त और स्पर्शरहित द्रव्य, अन्योन्यबद्ध तथा अन्योन्यस्पृष्ट यावत् अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? [23 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 24. अस्थि णं भंते ! धातइसंडे दीवे दवाई सवन्नाई पि० / [24 प्र. भगवन् ! क्या धातकीखण्डद्वीप में सवर्ण-अवर्ण आदि द्रव्य यावत् अन्योन्य [24 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 25. एवं जाव सयंभुरमणसमुद्दे जाव हंता, अस्थि / [25 प्र.] इसी प्रकार यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र में भी यावत् द्रव्य, अन्योन्यसम्बद्ध हैं ? [25 उ.] हाँ, हैं। 26. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं एयमट्ठ सोच्चा निसम्म हट्टतुटु० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वं० 2 जामेव दिसं पाउम्भूता तामेव दिसं पडिगया। [26] इसके पश्चात् वह अत्यन्त-महती विशाल परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से उपयुक्त अर्थ (बात) सुनकर और हृदय में धारण कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना व नमस्कार करके जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। विवेचन द्वीप-समुद्रगत द्रव्यों में वर्णादि की परस्परसम्बद्धता–प्रस्तुत पांच सूत्रों (22 से 26 तक) में जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि समस्त द्वीप-समुद्रों में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादि से रहित और Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] सहित द्रव्यों की परस्परबद्धता, गाढ़ श्लिष्टता, स्पृष्टता एवं अन्योन्यसम्बद्धता का प्रतिपादन किया गया है।' सवर्णादि एवं अवर्णादि का आशय----वर्णादि-सहित का अर्थ है—पुद्गलद्रव्य तथा वर्णादिरहित का प्राशय है-धर्मास्तिकाय प्रादि / अन्नमन्त्रघडत्ताए चिट्ठति-परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।' भगवान् का निर्णय सुन कर जनता द्वारा सत्यप्रचार 27. तए णं हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाय परूवेइ ---"जं णं देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परवेइ--अस्थि णं देवाणुप्पिया! मम प्रतिसेसे नाण जाव समुद्दा य, तं नो इणठे समठे। समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु एयस्स सिक्स्स रायरिसिस्स छठंछठेणं तं चेव जाव भंडनिक्खेवं करेति, भंड० क० 2 हत्थिणापुरे नारे सिंघाडग जाव समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एवमट्ठ सोच्चा निसम्म जान समुद्दा य, तं गं मिच्छा' / समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खति-एवं खलु जंबुद्दीवाईया दीवा लवणाईया समुद्दा तं चेव जाव प्रसंखेज्जा दीव-समुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!। [27] (भगवान महावीर के मुख से शिवराजर्षि के ज्ञान के विषय में सुनकर) हस्तिनापुर नगर में शृगाटक यावत् मार्गों पर बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहने यावत् (एक दूसरे को) बतलाने लगे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता-देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप-समुद्र बिलकुल नहीं हैं, उनका यह कथन मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि निरन्तर बेले-बेले का तप करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है। विभंगज्ञान उत्पन्न होने पर वे अपनी कुटी में आए यावत वहाँ से तायम आश्रम में आकर अपने तापसोचित उपकरण रक्खे और हस्तिनापुर के शृगाटक यावत् राजमार्गों पर स्वयं को अतिशय ज्ञान होने का दावा करने लगे। लोग (उनके मुख से) ऐसी बात सुन परस्पर तर्कवितर्क करते हैं "क्या शिवराजर्षि का यह कथन सत्य है ? परन्तु मैं कहता हूँ कि उनका यह कथन मिथ्या है।" श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार कहते हैं कि वास्तव में जम्बूद्वीप आदि तथा लवण समुद्र आदि गोल होने से एक प्रकार के लगते हैं, किन्तु वे एक दूसरे से उत्तरोत्तर द्विगुण-द्विगुण होने से अनेक प्रकार के हैं / इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! (लोक में) द्वोप और समुद्र असंख्यात हैं। विवेचन-जनता द्वारा महावीरप्ररूपित सत्य का प्रचार–प्रस्तूत सूत्र (27) में वर्णन है कि हस्तिनापुर की जनता ने भगवान महावीर से शिवराजर्षि को उत्पन्न हुए विभंगज्ञान के विषय में सुना तो वह उस सत्य का प्रचार करने लगी। 1. विवाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 5.24 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 521 Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 28. तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमढ़ सोच्चा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था / १२८तव शिवराजर्षि बहुत-से लोगों से यह बात सुनकर तथा हृदयंगम करके शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित (फल के विषय में संदेहास्त), भेद को प्राप्त, अनिश्चित एवं कलुषित भाव को प्राप्त हुए। 29. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव कलुससमावनस्स से विभंगे अन्नाणे खिप्पामेव परिवडिए। [26] तब शंकित. कांक्षित यावत् कालुष्ययुक्त बने हुए शिवराजषि का वह विभंग-प्रज्ञान भी शीघ्र ही पतित (नष्ट) हो गया। विवेचन-शिवराजर्षि को प्राप्त विभंगज्ञान नष्ट होने का कारण-शिवराजषि को विपरीत अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) उत्पन्न हुया था, क्योंकि वह उस समय बालतपस्वी था। अज्ञान तप के कारण जब उसे विभंगज्ञात प्राप्त हुआ, तब वह अपने को विशिष्ट ज्ञान वाला समझने लगा और सर्वज्ञवचनों में विश्वास न रखकर मिथ्याप्ररूपणा करने लगा। अर्थात् उस विभंग को ही विशिष्ट, पूर्ण ज्ञान समझ कर मिथ्या-प्ररूपणा करने लगा। शिवराजर्षि के प्राप्त ज्ञान की वास्तविकता से लोगों को जब भ. महावीर ने परिचित कराया तो राषि को सुनकर शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि उत्पन्न हुई। इस कारण उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया।' शिवराजर्षि द्वारा निर्ग्रन्थ प्रव्रज्याग्रहण और सिद्धिप्राप्ति 30. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अन्झथिए जाव समुप्पजित्था—'एव खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तिस्थगरे जाव सब्वष्णू सवदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव विहरति / तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंतागं नाम-गोयस्स जहा उववातिए जाव गहणयाए, तं गच्छामि गं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवासामि / एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सति' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं सं० 2 जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 तासावसहं अणुप्पविसति, ता० अ०२ सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातियगं च गेण्हति, गे० 2 तावसावसहातो पडिनिक्खमति, ता०प०२ परिवडियविभंगे हस्थिणापुरं मझमझेणं निम्गच्छति, नि०२ जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क०२ वंदति नमसति, वं० 2 नच्चासन्ने नाइदूरे जाव पंजलिउडे पज्जुवासति / [30] तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीरस्वामी, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थकर यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं, जिनके आगे 1. भगवती. विवेचन, (पं. वेवरचन्दणी) भा. 4, पृ. 1892 Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आकाश में धर्मचक्र चलता है, यावत् वे यहाँ सहस्राम्रवन उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचर रहे हैं / तथारूप अरहन्त भगवन्तों का नाम-गोत्र श्रवण करना भी महाफलदायक है, तो फिर उनके सम्मुख जाना, वन्दन करना, इत्यादि का तो कहना ही क्या ? इत्यादि प्रौपपातिकसत्र के उल्लेखानुसार विचार किया; यावत एक भी आर्य धामिक सवचन का सनना भी महाफलदायक है, तो फिर विपुल अर्थ के ग्रहण करने का तो कहना ही क्या ! अतः मैं श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के पास जाऊँ, वन्दन-नमस्कार करू, यावत् पर्युपासना करूं / यह मेरे लिए इस भव में और परभव में, यावत् श्रेयस्कर होगा।" ___ इस प्रकार का विचार करके वे जहाँ तापसों का मठ था वहाँ पाए और उसमें प्रवेश किया / फिर वहाँ से बहुत-से लोढी, लोह-कड़ाह यावत् छबड़ी-सहित कावड़ यादि उपकरण लिए और उस तापसमठ से निकले / वहाँ से विभंगज्ञान-रहित वे शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होते हुए, जहाँ सहस्राम्रवन उद्यान था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पाए / श्रमण भगवान् महावीर के निकट पाकर उन्होंने तीन वार प्रादक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दनानमस्कार किया और न अतिदूर, न अतिनिकट, यावत् हाथ जोड़ कर भगवान् की उपासना करने लगे। 31. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तोसे य महतिमहालियाए जाव आणाए आराहए भवति / [31] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने शिवराजर्षि को और उस महती परिषद् को धर्मोपदेश दिया कि यावत्- "इस प्रकार पालन करने से जीव याज्ञा के पाराधक होते हैं।" 32. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म जहा खंदओ (स. 2 उ. 1 सु. 34) जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं प्रवक्कमइ, उ० प्र० 2 सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातियगं एगते एडेइ, ए० 2 सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, स० क० 2 समणं भगवं महावीरं एवं जहेब उसभदत्ते (स. 9 उ. 33 सु. 16) तहेव पव्वइओ, तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेब सव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / |32] तदनन्तर वे शिवराजर्षि श्रमण भगवान महावीरस्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण कर ; (शतक 2, उ. 1, सू. 34 में उल्लिखित) स्कन्दक की तरह, यावत् उत्तरपूर्वदिशा (ईशानकोण) में गए और लोढ़ी, लोह-कड़ाह यावत् छबड़ी सहित कावड़ आदि तापसोचित उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल दिया। फिर स्वयमेव पंचष्टि लोच किया और श्रमण भगवान महावीर के पास (श. 6, उ. 33, सू. 16 में कथित) ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की ; तथैव ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया और उसी प्रकार यावत् वे शिवराजर्षि समस्त दुःखों से मुक्त हुए / विवेचन-शिवराजर्षि द्वारा निर्ग्रन्थदीक्षा और मुक्तिप्राप्ति प्रस्तुत तीन सूत्रों (31-3233) में शिवराजर्षि से सम्बन्धित निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया है—(१) भगवान् महावीर की . महिमा जानकर अपने तापसोचित उपकरणों के साथ भगवान् के निकट गए / दर्शन, वन्दन-नमन और पर्युपासन किया। (2) धर्मोपदेश-श्रवण एवं प्राज्ञाराधक बनने का विचार / (3) तापसोचित Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] उपकरण एक ओर डालकर पंचमुष्टिक लोच करके भगवान् से निग्रंथप्रव्रज्याग्रहण एवं (4) ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना से मुक्तिप्राप्ति / ' सिद्ध होने वाले जीवों का संहननादिनिरूपण 33. भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वं० 2 एवं वयासी-- जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिझंति ? __ गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझति एवं जहेव उववातिए तहेव 'संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा' एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियम्वा जाव 'प्रध्वाबाहं सोक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा'। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // एक्कारसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो // 11. 9 // [33 प्र.] श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके भगवान् गौतम ने इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन से सिद्ध होते हैं ?' [33 उ.] गौतम ! वे वज्रऋषभनाराचसंहनन से सिद्ध होते हैं; इत्यादि औषपातिकसूत्र के अनुसार संहनन, संस्थान, उच्चत्व (अवगाहना), आयुष्य, परिवसन (निवास), इस प्रकार सम्पूर्ण सिद्धिगण्डिका तक, यावत् सिद्ध जोव अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं; यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--सिद्धों के योग्य संहननादि निरूपण-नौवें उद्देशक के इस अन्तिम सूत्र में सिद्ध होने वाले जीवों के योग्य संहनन का प्रतिपादन करके संस्थान, अवगाहना, आयुष्य और परिवसन आदि के लिए औपपातिकसूत्र का अतिदेश किया गया है / सिद्धों के संहनन प्रादि इस प्रकार हैं--- संहनन-वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले सिद्ध होते हैं / संस्थान छह प्रकार के संस्थानों में से किसी एक संस्थान से सिद्ध होते हैं। उच्चत्व-सिद्धों की (तीर्थंकरों की अपेक्षा) अवगाहना जघन्य सात रत्नि (मुडहाथ) प्रमाण और उत्कृष्ट 500 धनुष होती है। आयुष्य-सिद्ध होने वाले जीव का आयुष्य जघन्य कुछ अधिक 8 वर्ष का, उत्कृष्ट पूर्वकोटिप्रमाण होता है। -...-. .---.---- 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 525-526 Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [49 परिवसना (निवास)—सिद्ध होने वाले जीव सर्वार्थसिद्ध महाविमान के ऊपर की स्तूपिका के अग्रभाग से 12 योजन ऊपर जाने के बाद ईषत-प्रारभारा नाम की पृथ्वी है, जो 45 लाख योजन लम्बी-चौड़ी है, वर्ण से अत्यन्त श्वेत है, अतिरम्य है, उसके ऊपर वाले योजन पर लोक का अन्त होता है। उक्त योजन के ऊपर वाले एक गाऊ (गव्यूति) के उपरितन 1/6 भाग में सिद्ध निवास करते हैं। इसके पश्चात् सारी सिद्धण्डिका, यावत्-~-समस्त दुःखों का छेदन करके जन्म-जरा-मरण के बन्धनों से विमुक्त, सिद्ध, शाश्वत एवं अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं; यहाँ तक कहना चाहिए।' DB ॥ग्यारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 520-521 / / (ख) औपपातिकसूत्र, सू. 43, पत्र 112 (आगमोदय.) Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : दसवाँ उद्देशक लोग : लोक (के भेद-प्रभेद) 1. रायगिहे जाब एवं क्यासी[१] राजगृह नगर में (गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर से) यावत् इस प्रकार पूछा---- 2. कतिविधे गं भंते ! लोए पन्नत्ते ? गोयमा ! चउब्धिहे लोए पन्नत्ते, तं जहा–दव्वलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए / [2 प्र.] भगवन् ! लोक कितने प्रकार का है ? [2 उ.] गौतम ! लोक चार प्रकार का कहा है। यथा-(१) द्रव्यलोक, (2) क्षेत्रलोक, (3) काललोक और (4) भावलोक / विवेचन-लोक और उसके मुख्य प्रकार-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त सम्पूर्ण द्रव्यों के अाधाररूप चौदह रज्जपरिमित प्राकाशखण्ड को लोक कहते हैं। वह लोक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से मुख्यतया 4 प्रकार का है। द्रव्यलोक-द्रव्यरूप लोक द्रव्यलोक है। उसके दो भेद-आगमतः, नोमागमतः / जो लोक शब्द के अर्थ को जानता है, किन्तु उसमें उपयुक्त नहीं है, उसे आगमत: द्रव्यलोक कहते हैं / नोप्रागमतः द्रव्यलोक के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, और तद्व्यतिरिक्त / जिस व्यक्ति ने पहले लोक शब्द का अर्थ जाना था, उसके मृत शरीर को 'ज्ञशरीर द्रव्यलोक' कहते हैं। जिस प्रकार भविष्य में, जिस घट में मधु रखा जाएगा, उस घट को अभी से 'मधुघट' कहा जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति भविष्य में लोक शब्द के अर्थ को जानेगा, उसके सचेतन शरीर को 'भव्यशरीर द्रव्यलोक' कहते हैं / धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को 'ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्त द्रव्यलोक' कहते हैं। क्षेत्रलोक-क्षेत्ररूप लोक को क्षेत्रलोक कहते हैं / ऊर्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक में जितने आकाशप्रदेश हैं, वे क्षेत्रलोक कहलाते हैं। काललोक---समयादि कालरूप लोक को काललोक कहते हैं / वह समय, श्रावलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, परावर्त अादि के रूप में अनेक प्रकार का है। भावलोक भावरूप लोक दो प्रकार का है-आगमतः, नोग्रागमतः / आगमतः भावलोक वह है, जो लोक शब्द के अर्थ का ज्ञाता और उसमें उपयोग वाला है / नोआगमतः भावलोक-प्रौदयिक, औपमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक तथा सान्निपातिक रूप से 6 प्रकार का है / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 523 Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [51 ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] 3. खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पन्नते ? गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–अहेलोयखेत्तलोए ? तिरियलोयखेत्तलोए 2 उड्डलोयखेत्तलोए 3 // [3 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? [3 उ.] गौतम ! (वह) तीन प्रकार का कहा गया है / यथा-१-अधोलोक-क्षेत्रलोक, २--तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक और ३-ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक / 4. अहेलोयखेत्तलोए गं भंते ! कतिविध पन्नत्ते ? गोयमा ! सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा–रयणप्पमापुढविअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमपुढविअहेलोयखेत्तलोए / [4 प्र.] भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक कितने प्रकार का है ? [4 उ.] गौतम ! (वह) सात प्रकार का है यथा-रत्नप्रभापृथ्वी-अधोलोक-क्षेत्रलोक, यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-अधोलोक-क्षेत्रलोक / 5. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जतिविधे पन्नते, तं जहा- जंबुद्दीवतिरियलोयखेत्सलोए जाव सयंभुरमणसमुद्दतिरियलोयखेत्तलोए। [5 प्र.] भगवन् ! तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! (वह) असंख्यात प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--जम्बूद्वीप. तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक, यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र-तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक / 6. उड्डलोगखेत्तलोए णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा! पण्णरसविधे पन्नत्ते, तं जहा--सोहम्मकप्पउडलोगखेत्तलोए जाव प्रच्चयउड्डलोगों गेवेज्जविमाणउलोग० अणुत्तरविमाण० इसिपम्भारपुढविउलोगखेतलोए / [6 प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? . [6 उ.] गौतम ! (वह) पन्द्रह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१-१२) सौधर्मकल्पऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक, यावत् अच्युतकल्प-ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक, (13) अवेयक विमान-ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक, (14) अनुत्तरविमान-ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक और (15) ईषत्प्राग्भारपृथ्वी-ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक / विवेचन-विविध क्षेत्रलोक-प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 3 से 6 तक) में ऊर्व लोक, अधोलोक एवं मध्यलोक के रूप में विविध क्षेत्रलोक के अनेक प्रभेद बतलाए गए हैं। लोक और प्रलोक के संस्थान की प्ररूपणा 7. अहेलोगखेतलोए णं भंते ! किसंठिते पन्नते ? गोयमा ! तप्पागारसंठिए पन्नत्ते / Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [7 प्र.) भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक का किस प्रकार का संस्थान (आकार) कहा गया है ? [7 उ.] गौतम ! वह त्रपा (तिपाई) के आकार का कहा गया है / 8. तिरियलोगखेतलोए णं भंते ! किसंठिए पन्नते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिए पन्नते। [8 प्र.] भगवन् ! तिर्यग्लोक क्षेत्रलोक का संस्थान (आकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! वह झालर के आकार का कहा गया है / 9. उड्ढलोगखेत्तलोगपुच्छा / उडमुर्तिगाकारसंठिए पन्नत्ते। [6 प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक किस प्रकार के संस्थान (ग्राकार) का है ? [6 उ.] गौतम ! (वह) ऊर्ध्वमृदंग के आकार (संस्थान) का है / 10. लोए णं भंते ! किसंठिए पन्नते ? . गोयमा ! सुपइट्टगसंठिए लोए पन्नत्ते, तं जहा हेट्ठा वित्थिणे, मज्झ संखित्ते जहा सत्तमसए पढमे उद्देसए (स. 7 उ. 1 सु. 5) जाव अंतं करेति / [10 प्र.] भगवन् ! लोक का संस्थान (आकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक (श राव--सकोरे) के आकार का है ! यथा-वह नीचे विस्तीर्ण (चौड़ा) है, मध्य में संक्षिप्त (संकीर्ण-संकड़ा) है, इत्यादि सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए / यावत्-उस लोक को उत्पन्नज्ञान-दर्शन-धारक केवलज्ञानी जानते हैं, इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं / 11. अलोए गं भंते ! किसंठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पन्नत्ते ? [11 प्र.] भगवन् ! अलोक का संस्थान (ग्राकार) कैसा है ? [11 उ.] गौतम ! अलोक का संस्थान पोले गोले के समान है / विवेचन तीनों लोकों, लोक एवं अलोक का आकार–प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 7 से 11) में अधोलोक, मध्यलोक, ऊवलोक, लोक एवं अलोक के आकार का निरूपण किया गया है। ऊर्ध्वलोक का आकार–खड़ी मृदंग के समान है। लोक का प्राकार-शराव (सकोरे) जैसा है। अर्थात्-नीचे एक उलटा शराव रखा जाय, उसके ऊपर एक शराव सीधा रखा जाय, फिर उसके ऊपर एक शराव उलटा रखा जाए, इस प्रकार का जो आकार बनता है. वह लोक का प्राकार है। Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] लोक का प्रमाण—सुमेरु पर्वत के नीचे अष्टप्रदेशी रुचक है, उसके निचले प्रतर के नीचे नौ सौ योजन तक तिर्यग्लोक है. उसके पागे अधःस्थित होने से अधोलोक है. जो सात रज्ज छ अधिक है तथा रुचकापेक्षया नीचे और ऊपर 600-600 योजन तिरछा होने से तिर्यग्लोक है। तिर्यग्लोक के ऊपर देशोन सप्तरज्जु प्रमाण ऊर्ध्वभागवर्ती होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है। ऊर्ध्व और अधोदिशा में कुल ऊँचाई 14 रज्जू है / ऊपर क्रमश: घटते हुए 7 रज्जू की ऊँचाई पर विस्तार 1 रज्ज है। फिर क्रमशः बढ़कर 13 से 103 रज्जू तक की ऊँचाई पर विस्तार 5 रज्जू है / फिर क्रमशः घट कर मूल से 14 रज्जू की ऊंचाई पर विस्तार 1 रज्जू का है / यों कुल ऊँचाई 14 रज्जू होती है। तीनों लोकों का नाम, परिणामों की अपेक्षा से-क्षेत्र के प्रभाव से जिस लोक में द्रव्यों के प्रायः अशुभ (अध:) परिणाम होते हैं, इसलिए अधोलोक कहलाता है। मध्यम (न अतिशुभ, न अतिअशुभ) परिणाम होने से मध्य या तिर्यग्लोक कहलाता है तथा द्रव्यों का ऊर्ध्व-ऊँचे-शुभ परिणामों का बाहुल्य होने से ऊर्ध्वलोक कहलाता है।' कठिन शब्दों का अर्थ तप्पागारसंठिए-तिपाई के आकार का / झल्लरिसंठिए झालर के प्राकार का। उसमुइंग- ऊर्ध्व मृदंग / सुपट्ट-सुप्रतिष्ठक—शराव (सिकोरा) विस्थिण्णेविस्तीर्ण / संखित्ते-संक्षिप्त / झुसिर-पोला। अधोलोकादि में जीव-अजीवादि की प्ररूपणा--- 12. अहेलोगखेत्तलोए णं भंते ! कि जीवा, जोवदेसा, जीवपदेसा०? एवं जहा इंवा दिसा (स. 10 उ. 1 सु.८) तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव प्रद्धासमए / [12 प्र.] भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक में क्या जीव हैं, जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं ? अजीव हैं, अजीव के प्रदेश हैं ? |12 उ.] गौतम ! जिस प्रकार दसवें शतक के प्रथम उद्देशक (सू. 8) में ऐन्द्री दिशा के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी समग्र वर्णन कहना चाहिए; यावत्-प्रद्धा-समय (काल) रूप है / 13. तिरियलोगखेत्तलोए णं भंते ! कि जीवा ? एवं चेव। [13 प्र.] भगवन् ! क्या तिर्यग्लोक में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [13 उ.} गौतम ! (इस विषय में समस्त वर्णन) पूर्ववत् जानना चाहिए / 14. एवं उड्डलोगलेत्तलोए वि / नवरं अस्वी छविहा, अद्धासमओ नत्थि / [14| इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक के विषय में भी जानना चाहिए; परन्तु इतना विशेष है कि ऊर्वलोक में अरूपी के छह भेद ही हैं, क्योंकि वहाँ प्रद्धासमय नहीं है / 15. लोए गं भंते ! कि जीवा..? 1. (क) भगवती य वृत्ति, पत्र 523 (ख) भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1902 Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जहा बितियसए अस्थिउद्देसए लोयागासे (स.२ उ. 10 सु. 11), नवरं रूबी सत्तविहा जाव अधम्मस्थिकायस्स पदेसा, नो आगासस्थिकाए, आगासस्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए / सेसं तं चेव / [15 प्र.] भगवन् ! क्या लोक में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! जिस प्रकार दूसरे शतक के दसवें (अस्ति) उद्देशक (सू. 11) में लोकाकाश के विषय में जीवादि का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए / ) विशेष इतना ही है कि यहाँ अरूपी के सात भेद कहने चाहिए; यावत् अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, आकाशास्तिकाय का देश, आकाशास्तिकाय के प्रदेश और श्रद्धा-समय / शेष पूर्ववत् जानना चाहिए / 16. अलोए णं भंते ! किं जीवा ? एवं जहा अस्थिकायउद्देसए अलोगागासे (स. 2 उ. 10 सु. 12) तहेव निरवसेसं जाव अणंतभागूणे। [16 प्र.] भगवन् ! क्या अलोक में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! दूसरे शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक (सू. 12) में जिस प्रकार अलोकाकाश के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए; यावत् वह आकाश के अनन्तवें भाग न्यून है। विवेचन–अधोलोक आदि में जीव आदि का निरूपण-प्रस्तुत 5 सूत्रों (12 से 16 तक) में अधोलोक, तिर्यग्लोक, ऊर्ध्वलोक, लोक और अलोक में जीवादि के अस्तित्व-नास्तित्व का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-अधोलोक और तिर्यग्लोक में जीव, जीव के देश, प्रदेश तथा अजीव, अजीव के देश, प्रदेश और श्रद्धा-समय, ये 7 हैं, किन्तु ऊर्ध्वलोक में सूर्य के प्रकाश से प्रकटित काल न होने ने अद्धासमयको छोड़ कर शेष 6 बोल हैं / लोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों अखण्ड होने से इन दोनों के देश नहीं हैं। इसलिए धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के प्रदेश, अधर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। लोक में आकाशास्तिकाय सम्पूर्ण नहीं, किन्तु उसका एक भाग है। इसलिए कहा गया-- आकाशास्तिकाय का देश तथा उसके प्रदेश हैं / लोक में काल भी है। अलोक में एकमात्र अजीवद्रव्य का देशरूप अलोकाकाश है, वह भी अगुरुलघु है / वह अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त प्रकाश के अनन्तवें भाग न्यून है / पूर्वोक्त सातों बोल अलोक में नहीं हैं / ' अधोलोकादि के एक प्रदेश में जीवादि को प्ररूपणा 17. अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 524 Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [55 गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जीवपदेसा वि अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपदेसा वि। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा; अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे, अधवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा; एवं ममिल्लविरहिओ जाव अणिदिएसु जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिदियाण देसा / जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपएसा, अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियस्स पएसा, अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिरो जाव पंचिदिएसु, अणिदिएतु तिय भंगो। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा -रूवी अजीवा य, अरूवी अजीवा य / रूवी तहेव / जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा---नो धम्मस्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे 1, धम्मस्थिकायस्स पदेसे 2, एवं अधम्मस्थिकायस्स वि 3-4, अद्धासमाए / [17 प्र.] भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक के एक प्राकाशप्रदेश में क्या जीव हैं; जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं या अजीव के प्रदेश हैं ? [17 उ.] गौतम ! (वहाँ) जीव नहीं, किन्तु जीवों के देश हैं, जीवों के प्रदेश भी हैं, तथा अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीबों के प्रदेश भी हैं। इनमें जो जीवों के देश हैं, वे नियम से (1) एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, (2) अथवा एकेन्द्रियों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का एक देश है, (3) अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव के देश हैं; इसी प्रकार मध्यम भंग-रहित (एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव के देश--इस मध्यम भंग से रहित), शेष भंग, यावत् अनिन्द्रिय तक जानना चाहिए; यावत अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं। इनमें जो जीवों के प्रदेश हैं. वे नियम से एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों का प्रदेश और द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं। इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रिय तक प्रथम भंग को छोड़ कर दो-दो भंग कहने चाहिए; अनिन्द्रिय में तीनों भंग कहने चाहिए। उनमें जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के हैं यथा-रूपी अजीव और अरूपी अजीव / रूपी अजीवों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / अरूपी अजीव पांच प्रकार के कहे गए हैं-यथा (1) धर्मास्तिकाय का देश, (2) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, (3) अधर्मास्तिकाय का देश, (4) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश और (5) अद्धा-समय / 18. तिरियलोगखेतलोगस्स णं भंते ! एगम्मि अागासपदेसे कि जीवा ? एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव / [18 प्र.] भगवन् ! क्या तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक के एक प्राकाशप्रदेश में जीव हैं; इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार अधोलोक-क्षेत्रलोक के विषय में कहा है ? उसी प्रकार तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक के विषय में समझ लेना चाहिए / 19. एवं उडलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउचिहा। Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16] इसी प्रकार अवलोक-क्षेत्रलोक के एक आकाशप्रदेश के विषय में भी जानना चाहिए / विशेष इतना है कि वहाँ अद्धा-समय नहीं है, (इस कारण) वहाँ चार प्रकार के अरूपी अजीव हैं / 20. लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपदेसे / [20] लोक के एक आकाशप्रदेश के विषय में भी अधोलोक-क्षेत्रलोक के एक प्राकाशप्रदेश के कथन के समान जानना चाहिए। 21. अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे० पुच्छा। गोयमा ! नो जीवा, नो जीवदेसा, तं चेव जाव अणंतेहि अगरुयलहुयगुर्गोह संजुत्ते सन्वागासस्स अगंतमागूणे। [21 प्र.] भगवन् ! क्या प्रलोक के एक आकाशप्रदेश में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [21 उ.] गौतम ! वहां जीव नहीं हैं, जीवों के देश नहीं हैं, इत्यादि पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अलोक अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है और सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है / विवेचन-अधोलोकादि के एक आकाशप्रदेश में जोवादि की प्ररूपणा-प्रस्तुत 5 सूत्रों (17 से 21 तक) में अधोलोक, तिर्यग्लोक, अर्श्वलोक, लोक और अलोक के एक प्राकाशप्रदेश में व के देश-प्रदेश, अजीव, अजीव के देश-प्रदेश आदि के विषय में प्ररूपणा की गई है।' त्रिविध क्षेत्रलोक-प्रलोक में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से जीवाजीवद्रव्य 22. [1] दव्वओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता जीवदन्वा, अणंता अजीवदन्वा, अणंता जीवाजीवदव्वा / [22-1] द्रव्य से ---अधोलोक-क्षेत्रलोक में अनन्त जीवद्रव्य हैं, अनन्त अजीवद्रव्य हैं और अनन्त जीवाजीवद्रव्य हैं। [2] एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि। [22-2] इसी प्रकार तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक में भी जानना चाहिए। [3] एवं उड्डलोयवेत्तलोए वि। [22-3] इसी प्रकार अवलोक-क्षेत्रलोक में भी जानना चाहिए / 23. दन्नओ गं अलोए णेवत्थि जीवदव्वा, नेवत्थि अजीवदया, नेवस्थि जीवाजीवदया, एगे अजीवदव्वस्स देसे जाव सव्वागासअणंतभागणे / [23] द्रव्य से अलोक में जीवद्रव्य नहीं, अजीवद्रव्य नहीं और जीवाजीवद्रव्य भी नहीं, किन्तु अजीवद्रव्य का एक देश है, यावत् सर्वाकाश के अनन्तवें भाग न्यून है / ... .-. -.--.- -..-.-- -- 1. वियाहपणत्ति (मुलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 528-7.21 Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [ 57 24. [1] कालओ णं आहेलोयखेत्तलोए न कदायि नासि जाव निच्चे / [24-1] काल से---अधोलोक-क्षेत्रलोक किसी समय नहीं था---ऐसा नहीं ; यावत् वह नित्य है। [2] एवं जाव अलोगे। 124-2] इसी प्रकार यावत् अलोक के विषय में भी कहना चाहिए / 25. भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता वष्णपज्जवा जहा खंदए (स. 2 उ. 1 सु. 24 [1]) जाव प्रणता अगरुयलयपज्जवा / 25-1 भाव से—अधोलोक-क्षेत्रलोक में 'अनन्तवर्णपर्याय' हैं, इत्यादि, द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक (सु. 24-1) में वर्णित स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार जानना चाहिए, यावत् अनन्त अगुरुलघु-पर्याय हैं। [2] एवं जाव लोए। |25-2| इसी प्रकार यावत् लोक तक जानना चाहिए। [3] भावओ णं अलोए नेवस्थि वण्णपज्जवा जाब नेवस्थि अगस्यलयपज्जवा, एगे अजीबदव्वदेसे जाव अणंतभागणे। |25-3] भाव से अलोक में वर्ण-पर्याय नहीं, यावत् अगुरुलघु-पर्याय नहीं है, परन्तु एक अजीबद्रव्य का देश है, यावत् वह सर्वाकाश के अनन्त भाग कम है। विवेचन द्रव्य, काल और भाव से लोकालोक-प्ररूपणा–प्रस्तुत तीन सूत्रों (22 से 24 तक) में द्रव्य, काल और भाव की अपेक्षा से लोक और अलोक की प्ररूपणा की गई है। लोक की विशालता की प्ररूपणा 26. लोए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे सम्वदीव० जाव' परिक्खेवणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिडोया जाव महेसक्खा जंबुद्दीवे दोवे मंदरे पब्बए मंदरचलियं सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा। ग्रहे णं चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ चत्तारि बलिपिडे गहाय जंबुद्दोवस्स दीवस्त चउसु वि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिडे जगसमगं बहियाभिमुहे पविखवेज्जा। पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिताहरित्तए / ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाब' देवगतीए एगे देवे पुरस्थाभिमुहे पयाते, एवं दाहिणाभिमुहे, 1. 'जाव' पद सूचित पाठ—"सम्वदीवसमुदाणं अम्भंतरए सव्वखुड्डए जट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए बट्टे रहचक्क वालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकग्णियासंठाणसंठिए वट्टै पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलस य सहस्साई दोषिण य सत्ताबीसे जोयणसए तिष्णि य कोसे अदाबीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाइ अद्धंगुलं च किचि विसेसाहियं ति"। -भगवती. अ. बु., पत्र 527 2. 'जाव' पद सुचित पाठ-"तुरियाए चवलाए चेंडाए सीहाए उद्धयाए जयणाए छयाए दिखाए। --भग. प्र. व., पत्र 527 Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एवं पच्चस्थाभिमुहे, एवं उत्तराभिमुहे, एवं उड्डाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाते / तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, जो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति / तए णं तस्स दारगस्स पाउए पहीणे भवति, णो चेव णं जाव संपाउणंति / तए णं तस्स दारगस्स अदिमिजा पहीणा भवति, जो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति / तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति / तए णं तस्स दारगस्स नाम-गोते वि पहोणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति / 'तेसि णं भंते ! देवाणं कि गए बहुए, अगए बहुए ?' 'गोयमा ! गए बहुए, नो अगए बहुए, गयानो से अगए असंखेज्जइभागे, अगयाओ से गए असंखेज्जगुणे / लोए गं गोतमा ! एमहालए पन्नत्ते।' [26 प्र. भगवन् ! लोक कितना बड़ा (महान् ) कहा गया है ? [26 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, समस्त द्वीप-समुद्रों के मध्य में है; यावत् इसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, एक मौ अट्ठाईस धनुष और साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। (लोक की विशालता के लिए कल्पना करो कि-.) किसी काल और किसी समय महद्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न छह देव, मन्दर (मेरु) पर्वत पर मन्दर की चूलिका के चारों ओर खड़े रहें और नीचे चार दिशाकुमारी देवियाँ (महत्तरिकाएँ) चार बलिपिण्ड लेकर जम्बुद्वीप नामक द्वीप की (जगती पर) चारों दिशाओं में बाहर की ओर मुख करके खड़ी रहें। फिर वे चारों देवियाँ एक साथ चारों वलिपिण्डों को बाहर की ओर फैकें / हे गौतम ! उसी समय उन देवों में से एक-एक (प्रत्येक) देव, चारों बलिपिण्डों को पृथ्वीतल पर पहुँचने से पहले ही, शीघ्र ग्रहण करने में समर्थ हो ऐसे उन देवों में से एक देव, हे गौतम ! उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से पूर्व में जाए, एक देव दक्षिणदिशा की ओर जाए, इसी प्रकार एक देव पश्चिम की ओर, एक उत्तर की ओर, एक देव ऊर्ध्वदिशा में और एक देव अधोदिशा में जाए। उसी दिन और उसी समय (एक गृहस्थ के) एक हजार वर्ष की प्राय वाले एक वालक ने जन्म लिया। तदनन्तर उस बालक के माता-पिता चल बसे। (उतने समय में भी) वे देव, लोक का अन्त प्राप्त नहीं कर सकते। उसके बाद वह बालक भी प्रायुष्य पूर्ण होने पर कालधर्म को प्राप्त हो गया / उतने समय में भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त न कर सके / उस बालक के हड्डी, मज्जा भी नष्ट हो गई, तब भी वे देव, लोक का अन्त पा नहीं सके। फिर उस बालक की सात पीढ़ी तक का कुलवंश नष्ट हो गया तव भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त न कर सके / तत्पश्चात् उस बालक के नाम-गोत्र भी नष्ट हो गए, उतने समय तक (चलते रहने पर) भी वे देव, लोक का अन्त प्राप्त न कर सके। [प्र.] भगवन् ! उन देवों का गत (गया-उल्लंघन किया हुआ) क्षेत्र अधिक है या अगत (नहीं गया चला हुआ) क्षेत्र अधिक है ? [उ.] हे गौतम ! (उन देवों का) गतक्षेत्र अधिक है, अगतक्षेत्र गतक्षेत्र के असंख्यातवें भाग है / अगतक्षेत्र से गतक्षेत्र असंख्यातगुणा है / हे गौतम ! लोक इतना बड़ा (महान्) है। Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [59 विवेचन –लोक को विशालता का रूपक द्वारा निरूपण-प्रस्तुत 26 वें सूत्र में भगवान् ने लोक की विशालता बताने के लिए असत्कल्पना से रूपक प्रस्तुत किया है। शंका-समाधान- यह शंका हो सकती है कि मेरुपर्वत की चूलिका से चारों दिशाओं में लोक का विस्तार प्राधा-प्राधा रज्जुप्रमाण है / ऊध्वंलोक में किंचित् न्यून सात रज्जु और अधोलोक में सात रज्जु से कुछ अधिक है। ऐसी स्थिति में वे सभी देव छहों दिशाओं में एक समान त्वरित गति से जाते हैं, तब फिर छहों दिशाओं में गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र असंख्यातवें भाग तथा अगत से गतक्षेत्र असंख्यात गूणा कैसे बतलाया गया है, क्योंकि चारों दिशाओं की अपेक्षा ऊर्वदिशा में क्षेत्रपरिमाण की विषमता है? इस शंका का समाधान यह है कि यहाँ घनकृत (वर्गीकृत) लोक की विवक्षा से यह रूपक कल्पित किया गया है / इसलिए कोई आपत्ति नहीं / मेरुपर्वत को मध्य में रखने से साढ़े तीन-साढ़े तीन रज्जु रह जाता है। प्र.] पूर्वोक्त तीव दिव्य देवगति से गमन करते हुए वे देव जब उतने लम्बे समय तक में लोक का छोर नहीं प्राप्त कर सकते, तब तीर्थकर भगवान् के जन्मकल्याणादि में ठेठ अच्युत देवलोक तक से देव यहाँ शीघ्र कसे पा सकते हैं, क्योंकि क्षेत्र बहुत लम्बा है और अवतरण-काल बहुत ही अल्प है ? उ.| इसका समाधान यह है कि तीर्थंकर भगवान् के जन्मकल्याणादि में देवों के आने की गति शीघ्रतम है / इस प्रकरण में बताई हुई गति मन्दतर है। अलोक की विशालता का निरूपण 27. अलोए णं भंते ! केमहालय पन्नते ? ___गोयमा ! अयं णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं जहा खंदए (स. 2 उ. 1 सु. 24 [3]) जाव परिक्खेवेणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिड्डीया तहेब जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा, अहे णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ अट्ट बलिपिडे गहाय माणुसुत्तरपन्वयस्स चउतु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा बलिपिडे जमगसमग बहियाभिमुहीओ पविखवेज्जा। पभू णं गोयमा! तओ एगमेगे देवे ते अट्ठ बलिपिडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए / ते णं गोयमा! देवा ताए उक्किटाए जाव देवगईए लोगते ठिच्चा असम्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरत्याभिमुहे पयाए, एगे देवे दाणिपुरत्याभिमुहे पयाते, एवं जाव उत्तरपुरस्थाभिमुहे, एगे देवे उड्डाभिमुहे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए / तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससयसहस्साउए दारए पयाए / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, नो चेव णं ते देवा अलोयंतं संपाउणंति / ' तं चेव जाव 'तेसि णं देवाणं कि गए बहुए, अगए बहुए ?' 'गोयमा ! नो गते बहुए, अगते बहुए, गयाओ से अगए अणंतगुणे, अगयाओ से गए अगंतभागे / अलोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 527 Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र [27 प्र.] भगवन् ! अलोक कितना बड़ा कहा गया है ? [27 उ.] गौतम ! यह जो समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) है, वह 45 लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, इत्यादि सब (श. 2, उ. 1, सू. 24-3 वणित) स्कन्दक प्रकरण के अनुसार जानना चाहिए; यावत् वह (पूर्वोक्तवत्) परिधियुक्त है। (अलोक की विशालता बताने के लिए मान लो-) किसी काल और किसी समय में, दस महद्धिक देव. इस मनुष्यलोक को चारों ओर से घर कर खड़े हों। उनके नीचे आठ दिशाकुमारियाँ, आठ बलिपिण्ड लेकर मानुषोत्तर पर्वत की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में बाह्याभिमुख होकर खड़ी रहें / तत्पश्चात् वे उन आठों बलिपिण्डों को एक साथ मानुषोत्तर पर्वत के बाहर की ओर फैकें / तब उन खड़े हुए देवों में से प्रत्येक देव उन बलिपिण्डों को धरती पर पहुँचने से पूर्व शीघ्र ही ग्रहण करने में समर्थ हों, ऐसी शीघ्र, उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति द्वारा वे दसों देव, लोक के अन्त में खड़े रह कर उनमें से एक देव पूर्व दिशा की ओर जाए, एक देव दक्षिणपूर्व की ओर जाए, इसी प्रकार यावत् एक देव उत्तरपूर्व की ओर जाए, एक देव ऊर्ध्व दिशा की ओर जाए और एक देव अधोदिशा में जाए (यद्यपि यह असद्भूतार्थ कल्पना है, जो संभव नहीं)। उस काल और उसी समय में एक गहपति के घर में एक बालक का जन्म हया हो, जो कि एक लाख वर्ष की आयु वाला हो / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता का देहावसान हुआ, इतने समय में भी देव अलोक का अन्त नहीं प्राप्त कर सके / तत्पश्चात उस बालक का भी देहान्त हो गया। उसकी अस्थि और मज्जा भी विनष्ट हो गई और उसकी सात पीढ़ियों के बाद वह कुल-वंश भी नष्ट हो गया तथा उसके नाम-गोत्र ए। इतने लम्बे समय तक चलते रहने पर भी वे देव अलोक के अन्त को प्राप्त नहीं कर सकते / [प्र.] भगवन् ! उन देवों का गतक्षेत्र अधिक है, या अगतक्षेत्र अधिक है ? [उ.} गौतम ! वहाँ गतक्षेत्र बहुत नहीं, अगतक्षेत्र ही बहत है / गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र अनन्तगुणा है / अगतक्षेत्र से गतक्षेत्र अनन्तवें भाग है / हे गौतम ! अलोक इतना बड़ा है। विवेचन - अलोक की विशालता का माप-प्रस्तुत 27 वे सूत्र में अलोक की विशालता का माप एक रूपक द्वारा प्रस्तुत किया गया है। आकाशप्रदेश पर परस्पर-सम्बद्ध जीवों का निराबाध अवस्थान 28. [1] लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव पंचिदियपदेसा अणिदियपएसा अन्नमन्नबद्धा जाव अन्नमनघडत्ताए चिठ्ठति, अत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? णो इणठे समठे। [28-1 प्र.] भगवन् ! लोक के एक प्राकाशप्रदेश पर एकेन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के और अनिन्द्रिय जीवों के जो प्रदेश है, क्या वे सभी एक दूसरे के साथ बद्ध, हैं, अन्योन्य स्पष्ट हैं यावत् परस्पर-सम्बद्ध हैं ? भगवन् ! क्या वे परस्पर एक दूसरे को पाबाधा (पीड़ा) और व्याबाधा (विशेष पीड़ा) उत्पन्न करते हैं ? या क्या वे उनके अवयवों का छेदन करते हैं ? Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [28-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] से केण→णं भते ! एवं वुच्चइ लोगस्स णं एगम्मि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव चिट्ठति नस्थि णं ते अन्नमन्नस्स किचि आवाहं वा जाव करेंति ? गोयमा ! जहानामए नट्टिया सिया सिंगारागार चारवेसा जाव' कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसतिविधस्स नदृस्स अन्नयरं नट्टविहि उवदंसेज्जा / ते नणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ? 'हंता, समभिलोएंति / ताओ णं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि नट्टियसि सव्वओ समता सन्निवडियाओ ? 'हता, सन्निडियानो।' अस्थि णं गोयमा ! ताओ दिट्ठीओ तोसे नट्टियाए किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? ___णो इणठे समठे।' सा वा नट्रिया तासि दिट्ठीणं किंचि आबाह वा वाबाहं वा उपाएति, छविच्छेदं वा करेइ ? 'णो इणठे समझें / ' ताओ वा दिट्ठीओ अन्नमन्नाए विट्ठीए किचि आबाहं वा वाबाहं वा उत्पाएंति, छविच्छेदं वा करेति ? 'णो इणठे समठे।' से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति तं चेव जाव छविच्छेदं वा न करेंति / [28-2 प्र. भगवन् ! यह किस कारण से कहा है कि लोक के एक प्राकाशप्र देश में एकेन्द्रियादि जीवप्रदेश परस्पर बद्ध यावत् सम्बद्ध हैं, फिर भी वे एक दूसरे को बाधा या व्यावाधा नहीं पहुंचाते ? अथवा अवयवों का छेदन नहीं करते ? [28-2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कोई शृगार का घर एवं उत्तम वेष वालो यावत् सुन्दर गति, हास, भाषण, चेष्टा, विलास, ललित संलाप निपुण, युक्त उपचार से कलित नर्तकी सैकड़ों और लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण रंगस्थली में बत्तीस प्रकार के नाटयों में से कोई एक नाटय दिखाती है, तो--- [प्र. हे गौतम ! वे प्रेक्षकगण (दर्शक) उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि से चारों ओर से देखते न हैं ? 1. 'जाव' पद सूचित पाठ-."संगयगयहसियभणियचिद्रियविलाससललियसंलावनिउणवत्तोवयारकलिय ति" / --भगवती. अ. वत्ति, पत्र 527 Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] हाँ, भगवन् ! देखते हैं / [प्र.] गौतम ! उन (दर्शकों) की दृष्टियां चारों ओर से उस नर्तकी पर पड़ती हैं न ? [उ.] हाँ, भगवन् ! पड़ती हैं। [प्र.] हे गौतम ! क्या उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी को किसी प्रकार की (किंचित् भी) थोड़ी या ज्यादा पीडा पहुँचाती हैं ? या उसके अवयव का छेदन करती हैं ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं। [प्र.] गौतम ! क्या वह नर्तकी दर्शकों को उन दृष्टियों को कुछ भी बाधा-पीड़ा पहुँचाती है या उनका अवयव-छेदन करती है ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं है / [प्र.] गौतम ! क्या (दर्शकों की) व दृष्टियाँ परस्पर एक दूसरे को किचित् भी वाधा या पीड़ा उत्पन्न करती हैं ? या उनके अवयव का छेदन करती हैं ? [उ.] भगवन् ! यह अर्थ भी समर्थ नहीं। हे गौतम ! इसी कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि जीवों के प्रात्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट और यावत् सम्बद्ध होने पर भी प्राबाधा या ब्याबाधा उत्पन्न नहीं करते और न ही अवयवों का छेदन करते हैं। विवेचन---नर्तको के दृष्टान्त से जीवों के आत्मप्रदेशों की निराबाध सम्बद्धता-प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (28) में नर्तकी के दृष्टान्त द्वारा एक आकाशप्रदेश में एकेन्द्रियादि जीवों के प्रात्मप्रदेशों की सम्बद्धता या अवयवछेदन के अभाव का निरूपण किया गया है।' कठिन शब्दों का अर्थ-आबाहं—ाबाधा-थोड़ो पोड़ा / वाबाह-व्यावाधा-विशेष पीड़ा। छविच्छेदं ---अवयवों का छेदन / अन्नमन्नबद्धा परस्पर बद्ध / अण्णमण्णपुडा परस्पर स्पृष्ट / अन्नमन्नघडत्ताए-परस्पर सम्बद्ध / नट्टिया--नर्तकी / सिंगारागारचारवेसा-शृगार का घर और सुन्दर वेष बालो / जणसयाउलंसि जणसयसहस्साउसि-सैकड़ों मनुष्यों से आकुल (व्याप्त) तथा लाखों मनुष्यों से व्याप्त / सन्निवडियाओ-पड़ती हैं। पेच्छगा प्रेक्षक–दर्शक / उप्पाएंतिउत्पन्न करती हैं। बत्तीसतिविधस्स नदृस्स : व्याख्या बत्तीस प्रकार के नाटयों में से / इन बत्तीस प्रकार के नाटयों में से ईहामृग, ऋषभ, तुरग, नर, मकर, विहग, व्याल, किन्नर आदि के भक्तिचित्र नाम का एक नाट्य है। इसी प्रकार के अन्य इकतीस प्रकार के नाट्य राजप्रश्नीयसूत्र में किये हुए वर्णन के अनुसार जान लेने चाहिए। 1. वियाहपण्णतिसुतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 531-532 2. भगवती. विवेचन, भा. 4 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 1912 3. भगवती. अ. वृत्ति, पब 527 Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१०] [63 एक आकाशप्रदेश में जघन्य-उत्कृष्ट जीवप्रदेशों एवं सर्व जीवों का अल्पबहत्व 29. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपदे जीवपदेसाणं, उक्कोसपदे जीवपदेसाणं सव्धजीवाण य कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपदेसे जहन्नपदे जीवपदेसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्कोसपदे जीवपदेसा विसेसाहिया / / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। // एक्कारसमे सए दसमो उद्देसओ समत्तो॥११. 10 // [26 प्र. भगवन् ! लोक के एक प्राकाशप्रदेश पर जघन्यपद में रहे हुए जीवप्रदेशों, उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेशों और समस्त जीवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? 26 उ.] गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश पर जपन्यपद में रहे हए जीवप्रदेश सबसे थोड़े हैं, उनसे सर्वजीव असंख्यातगुणं हैं, उनसे (एक प्राकाशप्रदेश पर) उत्कृष्ट पद में रहे हुए जीवप्रदेश विशेषाधिक हैं। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--जीवप्रदेशों और सर्वजीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत 26 वे सूत्र में भगवान ने लोक के एक अाकाशप्रदेश पर जघन्य एवं उत्कृष्ट पद में रहे हा जीवप्रदेशों तथा सर्वजीवों के अल्पबहत्व का निरूपण किया है। // ग्यारहवां शतक : दसवां उद्देशक समाप्त / Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमो उद्देसओ : ग्यारहवाँ उद्देशक काल : काल (प्रादि से सम्बन्धित चर्चा) 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था, वण्णो / दूतिपलासए चेतिए, घण्णो जाव पुढविसिलावट्टओ। [1j उस काल और उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नामक उद्यान था / उसका वर्णन करना चाहिए यावत् उसमें एक पृथ्वीशिलापट्ट था। 2. तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सुदसणे नामं सेट्ठी परिवसति अढे जाव अपरिभूते समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ / [2] उस वाणिज्यग्राम नगर में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी रहता था। वह पाढ्य यावत् अपरिभूत था / वह जीव-अजीव प्रादि तत्त्वों का ज्ञाता, श्रमणोपासक होकर यावत् विचरण करता था। 3. सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [3] (एक बार) श्रमण भगवान महावीर स्वामी का वहाँ पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। 4. तए णं सुदंसणे सेट्ठी इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हद्वतुठे हाते कय जाव पायच्छित्ते सवालंकारविभूसिए सातो गिहाओं पडिनिक्खमति, सातो गिहाओ प० 2 सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणणं पायविहारचारेणं महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव दुतिपलासए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते. उ० 2 समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तं जहा–सचित्ताणं दवाणं जहा उसभदत्तो (स. 9 उ. 33 सु. 11) जाव तिबिहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति / [४तत्पश्चात् वह सुदर्शन श्रेष्ठी इस बात (भगवान् के पदार्पण) को सुन कर अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हया। उसने स्नानादि किया, यावत् प्रायश्चित्त करके समस्त वस्त्रालंकारों से विभूषित हो कर अपने घर से निकला / फिर कोरंट-पुष्प की माला से युक्त छत्र धारण करके अनेक पुरुषवर्ग से परिवत हो कर, पैदल चल कर वाणिज्यग्राम नगर के बीचोंबीच हो कर निकला और जहाँ | तिपलाश नामक उद्यान था, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ पाया / फिर (श. 6 उ. 33 सू. 11 में) ऋषभदत्त-प्रकरण में जैसा कहा गया है, तदनुसार सचित्त द्रव्यों का त्याग आदि पांच अभिगमपूर्वक वह सुदर्शन श्रेष्ठी भी, श्रमण भगवान महावीर के सम्मुख गया, यावत् तीन प्रकार से भगवान की पर्युपासना करने लगा। Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [65 5. तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेटिस्स तोसे य महतिमहालियाए जाव आराहए भवति / [5] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने सुदर्शन श्रेष्ठो को और उस विशाल परिषद् को धर्मोपदेश दिया. यावत् वह अाराधक हुा / 6. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ उट्ठाए उठेति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी [6] फिर वह सुदर्शन श्रेष्ठी श्रमण भगवान् महावीर से धर्मकथा सुन कर एवं हृदय में अबधारण करके अतीव हृष्ट-तुष्ट हुआ। उसने खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन वार प्रदक्षिणा की और वन्दना-नमस्कार करके पूछा _ विवेचन—सुदर्शन श्रमणोपासक : भगवान् की सेवा में. ----प्रस्तुत 6 सूत्रों (1 से 6 तक) में वाणिज्यग्राम निवासी सुदर्शन श्रेष्ठी का परिचय, भगवान् का वाणिज्यग्राम में पदार्पण, सुदर्शन श्रेष्ठी का विधिपूर्वक भगवान् की सेवा में गमन, धर्मश्रवण एवं प्रश्न पूछने को उत्सुकता आदि का वर्णन है।' काल और उसके चार प्रकार 7. कतिविधे णं भंते ! काले पत्नत्ते ? सुदंसणा ! चउब्विहे काले पन्नते, तं जहा -पमाणकाले 1 अहाउनिव्वत्तिकाले 2 मरणकाले ३प्रद्धाकाले 4 [7 प्र.] भगवन् ! काल कितने प्रकार का कहा गया है ? |7 उ.] हे सुदर्शन ! काल चार प्रकार का कहा गया है। यथा--(१) प्रमाणकाल, (2) यथायुनिवृत्ति काल, (3) मरणकाल और (4) अद्धाकाल / विवेचन– काल के प्रकार---प्रस्तुत सप्तम सूत्र में काल के मुख्य चार भेदों की प्ररूपणा की गई है। इनके लक्षण आगे बतलाए जाएंगे। प्रमाणकालप्ररूपणा 8. से कि तं पमाणकाले ? पमाणकाले दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-दिवसप्पमाणकाले य१ रत्तिष्पमाणकाले य 2 / चउपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया रातो भवति / उक्कोसिया अद्धपंचममुहत्ता दिवस्स वा रातीए वा पोरिसी भवति / जहन्निया तिमुहत्ता दिवस्स वा रातीए वा पोरिसो भवति / 1. वियाहपगणत्तिसूतं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 533 Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8 प्र.] भगवन् ! प्रमाणकाल क्या है ? [8 उ.] सुदर्शन ! प्रमाणकाल दो प्रकार का कहा गया है। यथा-दिवराप्रमाणकाल और रात्रि-प्रमाणकाल / चार पौरुषी (प्रहर) का दिवस होता है और चार पौरुषी (प्रहर) की रात्रि होती है / दिवस और रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढे चार मुहर्त की होती है, तथा दिवस और रात्रि की जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है / 9. जदा णं भंते ! उक्कोसिया अपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा रातीए वा पोरिसी भवति तदा जं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी परिहायमाणो जहन्निया तिमुहसा दिवसस्स वा रातीए वा पोरिसी भवति ? जदा णं जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा रातीए वा पोरिती भवति तदा णं कतिभागमुहत्तभागेणं परिवठ्ठमाणी परिवड्डमाणी उक्कोसिया अद्धपंचममुहसा दिवसस्स वा रातीए वा पोरिसी भवद ? ___ सुदंसणा! अदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसम्स वा रातीए वा पोरिसी भवति तदा णं बावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिहायमागी परिहायमाणी जहन्निया तिमुहसा दिवस्स वा रातीए वा पोरिसी भवति / जदा वा जहन्निया तिमुहुत्ता दिवस्स वा रातीए वा पोरिसो भवति तदा णं बावीससयभागमुहत्तभागेणं परिवठ्ठमाणी परिवडमाणी उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवस्स वा रातोए वा पोरिसी भवति / [प्र.] भगवन् ! जब दिवस की या रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढ़े चार मुहर्त की होती है, तब उस मुहर्त का कितना भाग घटते-घटते जघन्य तीन मुहर्त की दिवस और रात्रि की पौरुषी होती है ? और जब दिवस और रात्रि की पौरुषी जघन्य तीन मुहूर्त की होती है, तब मुहूर्त का कितना भाग बढ़ते बढ़ते उत्कृष्ट साढ़े चार मुहूर्त की पौरुषी होती है ? [6 उ.] हे सुदर्शन ! जब दिवस और रात्रि की पौरुषी उत्कृष्ट साढे चार मुहर्त को होती है, तब मुहर्त का एक सौ बाईसवाँ भाग घटते-घटते जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है, और जब जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है, तब मुहूर्त का एक सौ बाईसवाँ भाग बढ़ते बढ़ते उत्कृष्ट पौरुषी साढ़े चार मुहूर्त की होती है। 10. कदा णं भंते ! उक्कोसिआ प्रद्धपंचममुहुत्ता दिवसास वा रातीए वा पोरिसी भवति ? कदा बा जहन्निया तिमुत्ता विवस्स वा रातीए वा पोरिसी भवति ? सुदंसणा! जदा णं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राती भवति तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवस्स पोरिसी भवति, जहन्नियातिमहत्ता रातोय पोरिसी भवति / जदा वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं मुक्कोसिया प्रद्धपंचममुहुत्ता रातीए पोरिसी भवइ, जहन्निया तिमुहुत्ता दिवस्स पोरिसी भवइ। __ [10 प्र,] भगवन् ! दिवस और रात्रि की उत्कृष्ट साढ़े चार मुहर्त की पौरुषी कब होती है और जघन्य तीन मुहूर्त की पौरुषी कब होती है ? Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [10 उ.] हे सुदर्शन ! जब उत्कृष्ट अठारह मुहर्त का दिन होता है तथा जघन्य बारह मुहूर्त की छोटी रात्रि होती है, तब साढे चार मुहूर्त की दिवस की उत्कृष्ट पौरुषी होती है और रात्रि को तीन मुहूर्त की सबसे छोटी पौरुषी होती है। जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की बड़ी रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का छोटा दिन होता है, तब साढ़े चार मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रिपौरुषी होती है और तीन मुहूर्त की जघन्य दिवस-पौरुषी होती है। 11. कदा णं भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राती भवति ? कदा वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता रातो भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ? सुदंसणा! आसादपुण्णिमाए उक्कोसए अट्ठारसमहुत्ते दिवसे भवति, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राती भवइ; पोसपुणिमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति, जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति। [11 प्र.] भगवन् ! अठारह मुहर्त का उत्कृष्ट दिवस और बारह मुहर्त की जघन्य रात्रि कब होती है ? तथा अठारह मुहूर्त को उत्कृष्ट रात्रि और बारह मुहूर्त का जघन्य दिन कब होता है ? [11 उ.] सुदर्शन ! अठारह मुहूर्त का उत्कृष्ट दिवस और बारह मुहूर्त की जघन्य रात्रि आषाढी पूर्णिमा को होती है ; तथा अठारह मुहूर्त की उत्कृष्ट रात्रि और बारह मुहूर्त का जघन्य दिवस पौषी पूर्णिमा को होता है / 12. अस्थि गं भंते ! दिवसा य रातीओ य समा चेव भवंति ? हंता, अस्थि / [12 प्र.] भगवन् ! कभी दिवस और रात्रि-दोनों समान भी होते हैं ? 12 उ.] हाँ, सुदर्शन ! होते हैं / 13. कदा णं भंते ! दिवसा य रातीओ य समा चेव भवंति ? सुदंसणा! चेत्तसोयपुण्णिमासु णं, एत्थ णं दिवसा य रातीओ य समा चेव भवंति; पन्नरसमहत्ते दिवसे, पन्नरसमुहुत्ता राती भवति; चउभागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिवस वा रातीए वा पोरिसी भवइ / से तं पमाणकाले। / 13 प्र.] भगवन् ! दिवस और रात्रि, ये दोनों समान कब होते हैं ? [13 उ.] सुदर्शन ! चैत्र को और आश्विन की पूर्णिमा को दिवस और रात्रि दोनों समान (बरावर) होते हैं / उस दिन 15 मुहूर्त का दिन और पन्द्रह मुहूर्त की रात होती है / तथा दिवस एवं रात्रि की पौने चार मुहूर्त की पौरुषी होती है / इस प्रकार प्रमाणकाल कहा गया है / Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन प्रमाणकालसम्बन्धी प्ररूपणा--जिससे दिवस, रात्रि, वर्ष, शतवर्ष, आदि का प्रमाण जाना जाए, उसे प्रमाणकाल कहते हैं / यह दो प्रकार का माना गया है-दिवसप्रमाण काल और रात्रि प्रमाणकाल / सामान्यतया दिन या रात्रि का प्रमाण चार-चार प्रहर का माना गया है। प्रहर को पौरुषी कहते हैं / जितने मुहर्त का दिन या रात्रि होती है, उसका चौथा भाग पौरुषी कहलाता है। दिवस और रात्रि को उत्कृष्ट पौरुषी साढ़े चार मुहूर्त की होती है, और जघन्य पौरुषी तीन मुहूर्त को होती है। .. उत्कृष्ट (बड़ा) दिन और रात्रि , कब ?-प्राषाढ़ी पूर्णिमा को 18 मुहूर्त का दिन और पौषी पूर्णिमा को 18 मुहूर्त की रात्रि होती है, यह कथन पंच-संवत्सर-परिमाण-युग के अन्तिम वर्ष की अपेक्षा से समझना चाहिए / दूसरे वर्षों में तो जब कर्कसंक्रान्ति होती है, तब ही 18 मुहर्त का दिन और रात्रि होती है / जब 18 मुहूर्त के दिन और रात होते हैं, तब उनकी पौरुषी 43 मुहूर्त की होती है। समान दिवस और रात्रि–चैत्री और आश्विनी पूर्णिमा को दिन और रात्रि दोनों बराबर होते हैं, अर्थात इन दोनों में 15-15 मुहूर्त का दिन और रात्रि होते हैं / यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से है। निश्चय में तो कर्क संक्रान्ति और मकर संक्रान्ति से जो 62 वाँ दिन होता है, तब रात्रि और दिवस दोनों समान होते हैं। जघन्य विवस और रात्रि—बारह मुहर्त की जघन्य रात्रि आषाढ़ी-पूर्णिमा को और 12 मुहूर्त का जघन्य दिन षोषी पूर्णिमा को होता है। जब 12 मुहूर्त के दिन और रात होते हैं, तब दिन एवं रात्रि की पौरुषी तीन मुहूर्त की होती है / यथायुनिर्वत्तिकाल-प्ररूपणा 14. से कितं अहाउनिव्वत्तिकाले ? अहाउनिवत्तिकाले, जंणं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं से त्तं अहाउनिव्वत्तिकाले। [14 प्र.] भगवन् ! वह यथायुर्निर्वृत्तिकाल क्या है ? 14 उ.] (सुदर्शन ! ) जिस किसी नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव ने स्वयं जो (जिस गति का) और जैसा भी आयुष्य बांधा है, उसी प्रकार उसका पालन करना-भोगना, 'यथायुनिवृत्तिकाल कहलाता है। यह हुमा यथायुनिर्वृत्तिकाल को लक्षण / विवेचन-यथायनिर्वत्तिकाल की परिभाषा--चारों गतियों में से जिस गति के जीव ने जिस भव की जितनी आयु बांधी है, उतना अायुष्य भोगना यथायुनिर्वृत्तिकाल कहलाता है / / 1. भगबती. अ. वत्ति, पत्र 533-534 2. यथायेन प्रकारेणायूषो निर्वत्तिः = बन्धनं, तथा य: काल:-अवस्थितिरसौ यथायूनिवत्तिकालो नारका द्यायुष्कलक्षणः ।'—भगवती. अ.व. पत्र 533 / Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११) __* [69 [69 मरणकाल-प्ररूपणा 15. से कि तं मरणकाले ? मरणकाले, जोबो वा सरीराओ, सरोरं वा जीवाओ / से तं मरणकाले। [15 प्र.| भगवन् मरणकाल क्या है ? [15 उ.] सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है / यह है–मरणकाल का लक्षण / विवेचन–मरणकाल को परिभाषा-जीवन का अन्तिम समय, जब आत्मा शरीर से पृथक् होता है, अथवा शरीर प्रात्मा से पृथक होता है, वह मरणरूप काल मरणकाल कहलाता है। मरण शब्द काल का पर्यायवाची है, अतः मरण ही काल है।' प्रद्धाकाल-प्ररूपणा 16. [1] से कि तं अद्धाकाले ? अद्धाकाले अणेगविहे पन्नत्ते, से गं समययाए आवलियट्टयाए जाव उस्सप्पिणिअट्टयाए / [16-1 प्र,] भगवन् ! प्रद्धाकाल क्या है ? |16-1 उ.] सुदर्शन ! अद्धाकाल अनेक प्रकार का कहा गया है / वह ममयरूप प्रयोजन के लिए है, श्रावलिकारूप प्रयोजन के लिए है, यावत् उत्सर्पिणी-रूप प्रयोजन के लिए है। [2] एस णं सुदंसणा ! अद्धा दोहारच्छेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छति से तं समए समयदुताए। [16-2] हे सुदर्शन ! दो भागों में जिसका छेदन-विभाग न हो सके, वह 'समय' हैं, क्योंकि वह समयरूप प्रयोजन के लिए है। [3] असंखेज्जाणं समयाणं समदयसमितिसमागमेणं सा एगा 'आवलिय' त्ति पवुच्चई। संखेज्जाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए ( स. 6 उ. 7 सु. 4-7) जाव तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं / [16-3] असंख्य समयों के समुदाय से एक प्रावलिका कहलाती है। संख्यात पावलिका का एक उच्छ्वास होता है, इत्यादि छठे शतक के शालि नामक सातवें उद्देशक (सू. 4-7) में कहे अनुसार यावत्-'यह एक सागरोपम का परिमाण होता है, यहाँ तक जान लेना चाहिए। विवेचन–प्रद्धाकाल : लक्षण, प्रकार एवं प्रयोजन-समय, प्रालिका प्रादि काल, अद्धाकाल कहलाता है। इसके समय, आवलिकादि अनेक भेद हैं / समय से लेकर उत्सपिणी तक जितने भी 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 534 Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [আসক্সি कालमान हैं, सब श्रद्धाकाल के अन्तर्गत आते हैं।' 'समय' की परिभाषा-काल के सबसे छोटे भाग को 'समय' कहते हैं, जिसके फिर दो विभाग न हो सकें। पल्योमम सागरोपम का प्रयोजन 17. एएहि णं भंते ! पलिओवम-सागरोवमेहि कि पयोयणं ? सुदंसणा! एएहि णं पलिओवम-सागरोवमेहि नेरतिय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई मविज्जति / [17 प्र.] भगवन् ! इन पल्योपम और सागरोपमों से क्या प्रयोजन है ? [17 उ.| हे सुदर्शन ! इन पल्योपम और सागरोपमों से नैरयिकों, तियंञ्चयोनिकों, मनुष्यों तथा देवों का आयुष्य नापा जाता है। विवेचन-उपमाकाल : स्वरूप और प्रयोजन-पल्योपम और सागरोपम उपमाकाल हैं / चारगति के जीवों की जो प्रायु संख्या द्वारा नहीं मापी जा सकती, वह इस उपमाकाल द्वारा मापी जाती है। नैरयिकादि समस्त संसारी जीवों की स्थिति को प्ररूपणा 18. नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? एवं ठितिपदं निरक्सेसं भाणियव्वं जाव अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। / [18 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [18 उ.] सुदर्शन ! इस विषय में प्रज्ञापनासूत्र का चौथा स्थितिपद सम्पूर्ण कहना चाहिए; यावत्---सर्वार्थसिद्ध देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। विवेचन-चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की स्थिति का प्रतिदेश-प्रस्तुत 18 वें सूत्र में नैरयिकों से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक के जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रज्ञापनासूत्र के प्रतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / पल्योपम-सागरोपम क्षयोपचय सिद्धिहेतु दृष्टान्तपूर्वक प्ररूपणा 19. [1] अस्थि णं भंते ! एतेसि पलिओवम-सागरोवमाणं खए ति वा अवचए ति वा ? हंता, अस्थि / 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति पत्र 535 : समयरूपोऽर्थ : समयार्थस्तदभाबस्तत्ता तया समयार्थतया-समयभावेनेत्यर्थः। 2. द्वौहारो भागो यत्र छेदने-द्विधा वा कारः करणं यत्र तद् द्विहारं द्विधाकारं वा तेन यदा तदा समय इति शेषः / - भगवती अ. वृत्ति, पृ. 535 3. (क) पण्णवण्णासुत्तं भा. 1, पद 4 स्थितिपद, सू. 335-437, पृ. 112-135 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण) Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [71 ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? [16-1 उ.] हाँ, सुदर्शन होता है। [2] से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चति 'अस्थि णं एएसि पलिओवम-सागरोवमाणं जाव अवचये ति वा? 116-2 प्र.| भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय या अपचय होता है ? महाबलवृत्तान्त 20. एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे नाम नगरे होत्था, वण्णओ। सहसंबवणे उज्जाणे, वण्णप्रो। [20] (उदाहरण द्वारा समाधान--) हे सुदर्शन ! उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था / उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ सहस्राम्रबन नामक उद्यान था। उसका वर्णन करना चाहिए। 21. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले माम राया होत्था, वण्णओ। 21] उस हस्तिनापुर में 'बल' नामक राजा था / उसका वर्णन करना चाहिए। 22. तस्स गं बलस्स रणो पभावती नामं देवी होत्था सुकुमाल० वण्णओ जाव विहरति / [22] उस बल राजा को प्रभावती नाम की देवी (पटरानी) थी। उसके हाथ-पैर सुकुमाल थे, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए; यावत् पंचेन्द्रिय संबंधी सुखानुभव करती हुई जीवनयापन करती थी। विवेचन—पल्योपम-सागरोपम के क्षय-अपचय की सिद्धि के लिए सुदर्शन श्रेष्ठी की पूर्वभवकथा-प्रारम्भ-प्रस्तुत 4 सूत्रों (16 से 22 तक) में पल्योपम-सागरोपम के क्षय और अपचय को सिद्ध करने हेतु भगवान् ने सुदर्शन श्रेष्ठी के पूर्वभव की कथा प्रारम्भ की है। इसमें हस्तिनापुर नगर, सहस्राम्रवन-उद्यान, बलराजा, प्रभावती रानी, इनका वर्णन प्रौषपातिकसूत्र द्वारा जान लेने का अतिदेश किया गया है।' क्षय और अपचय-क्षय का अर्थ है—सम्पूर्ण विनाश / अपचय का अर्थ है ---देशतः अपगम-- क्षय / प्रभावती का वासगृहशय्या-सिंहस्वप्न-दर्शन 23. तए णं सा पभावती देवी अन्नया कयाइ तसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरतो दूमियघट्ठमठे विचित्तउल्लोगचिल्लियतले मणिरतणपणासियंधकारे बहुसमसुविभत्त. 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 537 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 539-540 Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देसभाए पंचवष्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए कालागुरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुवकधूवमघमघंतगंधुद्धताभिरामे सुगंधवरगंधिए गंधट्टिभूते तसि तारिसर्गसि सणिज्जसि सालिंगणवट्टोए उभयो बिब्बोयणे दुहओ उन्नए मज्झे णय-गंभीरे गंगापुलिणवालुयउद्दालसालिसए ओवियखोमियदुगुल्लपट्टपलिच्छायणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे सुगंधवरकुसुमचुण्णसयगोवयारकलिए प्रद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहोरमागी ओहीरमाणी अयमेयारूवं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगलं सस्सिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। हार-रयय. खीर-सागर-ससंककिरण-दगरय-रययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिज्जपेच्छणिज्ज थिरलट्ठपउद्ववट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिद्धतिक्खदादाविडंबितमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइयसोभंतल?उठें रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजोहं मूसागयपवर कणगतावितआवत्तायंतवट्टतडिविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरुपडिपुण्णविपुलखंधं मिउविसदसुहमलक्खणपसत्थविस्थिण्णकेसरसडोवसोभियं ऊसियसुनिमितसुजातअप्फोडितणंगूलं सोमं सोमाकारं लोलायंतं जंभायंतं नहलातो ओवयमाणं निययवदणकमलसरमतिवयंत सोहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। |23] किसी दिन वह प्रभावती देवी उस प्रकार के वासगृह के भीतर, उस प्रकार की अनुपम शय्या पर (सोई हुई थी।) (वह वासगृह) भीतर से चित्रकर्म से युक्त तथा बाहर से सफेदी किया हया, एवं घिस कर चिकना बनाया हुआ था। जिसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से देदीप्यमान था। मणियों और रत्नों के कारण उस (वासभवन) का अन्धकार नष्ट हो गया था। उसका भूभाग बहुतसम और सुविभक्त था। (फिर वह) पांच वर्ण के सरस और सुगन्धित पुष्पजों के उपचार से युक्त था। उत्तम कालागुरु (काला अगर), कुन्दरुक और तुरुष्क शिलारस) के धूप से वह वासभवन चारों ओर से महक रहा धा। उसकी सुगन्ध से वह अभिराम तथा सुगन्धित पदार्थों से सुवासित था। एक तरह से वह सुगन्धित द्रव्य की गुटिका के जैसा हो रहा था। ऐसे आवासभवन में जो शय्या थी, वह अपने आप में अद्वितीय थी, तथा शरीर से स्पर्श करते नए उपधान (पार्ववर्ती तकिये) से युक्त थी। फिर उस (शय्या) के दोनों (सिरहाने और पादतल की ओर तकिये रखे हुए थे। वह (शय्या) दोनों ओर से उन्नत थी, बीच में कुछ झुकी हुई एवं गहरी थी, एवं गंगानदी की तटवर्ती बालू के अवदाल (पैर रखते ही नीचे धस जाने) के समान (अत्यन्त कोमल) थी। वह परिकमित (मुलायम बनाए हुए) क्षौमिक (रेशमी) दुकूलपट (चादर) से आच्छादित तथा सुन्दर सुरचित रजस्त्राण से युक्त थी। रक्तांशुक (लाल रंग के सूक्ष्म वस्त्र) की मच्छरदानी उस पर लगी हुई थी। वह सुरम्य प्राजिनक (एक प्रकार के कोमल चर्मवस्त्र), रूई, बुर, नवनीत (मक्खन) तथा अर्कतूल (आर्क को रूई) के समान कोमल स्पर्श वाली थी; तथा सुगन्धित श्रेष्ठपुष्प, चूर्ण एवं शयनोपचार (शयनोपकरण) से युक्त थी। ऐसी शय्या पर सोती हुई प्रभावती रानी, जब अर्धरात्रिकाल के समय कुछ सोती-कुछ जागती अर्धनिद्रित अवस्था में थी, तब स्वप्न क्रिया में इस प्रकार का उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलकारक एवं शोभायुक्त (सश्रीक) महास्वप्न देखा और जागृत हुई। प्रभावती रानी ने स्वप्न में एक सिंह देखा, जो (मोतियों के) हार, रजत (चांदी), क्षीरसमुद्र, चन्द्रकिरण, जलकण, रजतमहाशैल के समान श्वेत वर्ण वाला था, (साथ ही,) वह विशाल, Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११) रमणीय और दर्शनीय था। उसके प्रकोष्ठ स्थिर और सुन्दर थे। वह अपने गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढ़ाओं से युक्त मुह को फाड़े हुए था। उसके प्रोष्ठ संस्कारित जातिमान् कमल के समान कोमल, प्रमाणोपेत एवं अत्यन्त सुशोभित थे। उसका तालु और जीभ रक्तकमल के पत्ते के समान अत्यन्त कोमल थी। उसके नेत्र, मूस में रहे हुए एवं अग्नि में तपाये हुए तथा आवर्त्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल एवं विद्युत् के समान विमल (चमकीले) थे। उसकी जंघा विशाल एवं पुष्ट थी। उसके स्कन्ध (कंधे) परिपूर्ण और विपुल थे। वह मृदु (कोमल) विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षण वाली विस्तीर्ण केसर की जटा से सुशोभित था / वह सिंह अपनी सुनिर्मित, सुन्दर एवं उन्नत पूछ को (पृथ्वी पर) फटकारता हुआ, सौम्य प्राकृति वाला, लीला करता हुआ, जंभाई लेता हुआ, गगनतल से उत्तरता हुआ तथा अपने मुख-कमल-सरोवर में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया। स्वप्न में ऐसे सिंह को देखकर रानी जागृत हुई। विवेचन-वासगृहस्थित शयनीय वर्णनपूर्वक प्रभावती द्वारा सिंह के स्वप्न को देखने का वर्णन-प्रस्तुत 23 वें सूत्र में तीन तथ्यों का वर्णन किया है-(१) प्रभावती रानी का वासगृह (2) शय्या एवं सिंहस्वप्न-दर्शन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-सचित्तकर्म-चित्रकर्म-युक्त / दूमियघट्टम?--सफेदी किये हुए एवं घिस कर चिकने किये हुए। उल्लोग- ऊपर का भाग। चिल्लियतले-चमकीला नीचे का भाग / मणिरतण-पणासियंधकारे--मणियों और रत्नों के प्रकाश से अन्धकार नष्ट कर दिया था / सालिंगणवट्टिए-शरीर-प्रमाण उपधान से युक्त / पंचवण्ण-सरस-सुरभि-मुक्क-पुष्फपुंजोवयारकलिए-पांच वर्ण सरस सुगन्धित पुष्पपंज के उपचार से युक्त / कालागुरु-पवरकूदुरुक्क-तुरुक्कधव-मघ-मघंतगंधद्धता भिरामे काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुक्क (चीड़ा) एवं तुरुष्क (लोभान) के धूप की महकती हुई गन्ध से उड़ती हुई वायु से अभिराम / उभो बिब्बोयणे--दोनों ओर तकिये रखे हुए थे। गंगापुलिण-वालयउद्दाल-सालिसए–गंगा के पुलिन (तट) की बालू के फिसलन (पैर लगते ही नीचे धंस जाने) की तरह अत्यन्त कोमल / ओयविय-खोमिय-दुगुल्ल-पट्ट-पलिच्छायणे-सुसंस्कारित रेशमी दुकूलपट से आच्छादित / रत्तंसुय-संवए---रक्तांशुक की मच्छरदानी से ढकी हुई। हार-रयय - खीरसागर-ससंककिरणदगरय-रययमहासेलपंडुरतरोरु-रमणिज्जपेच्छणिज्ज-मुक्ताहार, रजत, क्षीरसागर, चन्द्रकिरण, जलकण एवं रजत-महाशैल के समान पाण्डुर (श्वेत वर्ण), अतएव विशाल, रमणीय और दर्शनीय / थिरलट्ठ-पउटु-वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ-विसिद्ध-तिक्ख-दाढा-विडंबितमुहं उसका स्थिर एवं सुन्दर प्रकोष्ठ था; तथा वह गोल, पुष्ट , सुश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढों से युक्त मुख को फाड़े हए था। परिकम्मिय-जच्च-कमल-कोमल-माइय-सोभंत-लट्ठ-उ8-उसका होठ सुसंस्कारित जातिमान कोमल के कमल समान, प्रमाणोपेत, सुन्दर एवं सुशोभित था। रत्तुप्पल-पत्त-मज्य-सुकुमाल-तालु-जीहं / रक्तकमल-पत्र के समान कोमल (मद्र) एवं सुकूमाल थी। मसागयपवरकणग-तावित-पावत्तायंत-वट्ट-डि-विमल-सरिस-नयणं-उसके नयन मूस में रहे हुए तथा अग्नि में तपाए हुए तथा आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल तथा बिजली की चमक के समान थे। विसाल-पीवरोरु-पडिपुण्ण-विपुलखंधं-- वह विशाल एवं पुष्ट जंघाओं 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ-५३७-५३८ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाला तथा परिपूर्ण विपुल स्कन्ध (कंधों) वाला था / मिउ-विसद-सुहम-लक्खण-पसत्थ-वित्थिण्णकेसरसडोवसोभियं वह कोमल, विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्तलक्षण वाली, विशाल केसर-जटाओं से सुशोभित या / ऊसिय-सुनिम्मित-सुजात-अप्फोडितणंगलं—अपनी सुनिमित, सुन्दर एवं उन्नत पूंछ को फटकारता हुआ / नयलाओ ---गगनतल से। प्रोवयमाणं-उतरता हुआ / नियय-वदण-कमलसरमतिवयंते-अपने मुखकमल-सरोवर में प्रविष्ट होता हुआ / ' रानी द्वारा स्वप्ननिवेदन तथा स्वप्नफलकथनविनति 24. तए णं सा पभावती देवी अयमेयास्वं ओरालं जाव सस्सिरीयं महासुविणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हिंदया धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हति, ओगिहित्ता सयणिज्जाप्रो अन्भुठेति, अ० 2 प्रतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबिताए रायहंससरिसीए गतीए जेणेव बलस्स रणो सणिज्जे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 बलं रायं ताहि इट्टाहि कंताहिं पियाहि मणुष्णाहि मणामाहि ओरालाहि कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहि मंगल्लाहि सस्सिरोयाहि मियमहरमंजुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेति, पडि० 2 बलेणं रण्णा अभगुण्णाया समाणी नाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयति, णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहि इटाहि कंताहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं बयासी-एवं खलु अहं देवाणप्पिया ! अज्ज तंसि तारिसर्गसि सयणिज्जंसि सालिगण० तं चेव जाव नियगवयणमतिवयंत सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / तं गं देवाणुप्पिया ! एतस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फल वित्तिविसेसे भविस्सति ? [24] तदनन्तर वह प्रभावती रानी इस प्रकार के उस उदार यावत् शोभायुक्त महास्वप्न को देखकर जागृत होते ही अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई; यावत् मेघ की धारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान रोमांचित होती हुई उस स्वप्न का स्मरण करने लगी। फिर वह अपनी शय्या से उठी और शीघ्रता से रहित तथा अचपल, असम्भ्रमित (हड़बड़ी से रहित) एवं अविलम्बित अतएव राजहंस सरीखी गति से चलकर जहां बल राजा की शय्या थी, वहां पाई और बल राजा की शय्या के पास आ कर उन्हें उन इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, उदार, कल्याणरूप, शिव, धन्य, मंगलमय तथा शोभायुक्त परिमित, मधुर एवं मंजुल बचनों से पुकार कर जगाने लगी। राजा जागृत हुआ। राजा की आज्ञा होने पर रानी विचित्र मणि और रत्नों की रचना से चित्रित भद्रासन पर बैठी। और उत्तम सुखासन से बैठ कर आश्वस्त (स्वस्थ और विश्वस्त (शान्ती हई रानी प्रभावती, बल राजा से इष्ट, कान्त यावत् मधुर वचनों से इस प्रकार बोली-'हे देवानुप्रिय ! आज मैं पूर्वोक्त वर्णन वाली सुख-शय्या पर सो रही थी, तब मैंने यावत् अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह को स्वप्न मे देखा और मैं जाग्रत हुई हूं। तो, हे देवानुप्रिय ! मुझे इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याणरूप फल विशेष होगा? 1 भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 540-541 Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] |75 विवेचन–प्रभावती रानी द्वारा राजा से स्वप्नदर्शन-निवेदन-प्रस्तुत 24 वें सूत्र में प्रभावती रानी द्वारा राजा के समक्ष अपने स्वप्ननिवेदन का तथा उसका फल जानने को उत्सुकता का वर्णन कठिन शब्दों का भावार्थ-धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा-मेव की धारा से विकसित कदम्बपुष्प के समान रोमकूप विकसित हो गए। ओगिण्हति—मन में धारण (ग्रहण) करती हैस्मरण करती है / असंभंताए-बिना किसी हड़बड़ी के / सस्सिरीयाहि-श्री-शोभा से युक्त / मिय-महर-मंजुलाहिं गिराहि-परिमित, मधुर एवं मंजूल वाणी से। आसत्था-वीसत्था-चलने में हुए श्रम के दूर होने से आश्वस्त (शान्त) एवं संक्षोभ का अभाव होने से विश्वस्त होकर / फलवित्तिविसेसे--फल विशेष / कल्लाणाहि-कल्याणकारक / मंगलाहि-मंगल रूप / ओरालस्स--उदार / प्रभावती-कथित स्वप्न का राजा द्वारा फलकथन 25. तए णं से बले राया पभावतीए देवीए अंतियं एयमढं सोच्चा निसम्म हदुतुट्ठ जाव हहियये धाराहतणोमसुरभिकुसुमं व चंचुमालइयतणू ऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ओ० 2 ईहं पविसति, ईहं प० 2 अप्पणो साभाविएणं मतिपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेति, तस्स० क० 2 पभाति देवि ताहि इटाहि जाब मंगल्लाहि मियमहरसस्सिरीयाहि वाहि संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासो-ओराले गं तुमे देवी! सुविणे दिठे कल्लाणे गं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवो ! सुविणे दिठे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ-कल्लाण-मंगलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे, अत्थलामो देवाणुप्पिए !, भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए !, रज्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राइरियाणं वोतिक्कताणं अम्ह कुलकेउं कुलदोवं कुलपश्यं कुलवडेंसगं कुलतिलगं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकर कुलजसकर कुलाधारं कुलपायवं कुलविवडणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणषुण्णपंचिदियसरीरं जाव' ससिसोमागारं कंतं पियदसणं सुरूवं देवकुमारसप्पभं दारगं पयाहिसि / से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते वित्थिपणविपुलबलवाहणे रज्जवती राया भविस्सति / तं ओराले गं तुमे देवी ! सुमिणे दिढे जाव आरोग-तुट्टि० जाव मंगल्लकारए णं तुमे देवी! सुविणे दिठे" ति कटु पभाति देवि ताहि इट्ठाहिं जाव वहि दोच्च पि तच्चं पि अणुवूहति / [25] तदनन्तर वह बल राजा प्रभावती देवी से इस (पूर्वोक्त स्वप्नदर्शन की) बात को सुनकर और समझकर हर्षित और सन्तुष्ट हुअा यावत् उसका हृदय आकर्षित हुआ / मेघ की धारा से विकसित कदम्ब के सुगन्धित पुष्प के समान उसका शरीर पुलकित हो उठा, रोमकूप विकसित हो गए / राजा बल उस स्वप्न के विषय में अवग्रह (सामात्य-विचार) करके ईहा (विशेष विचार) में 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 539 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 541, (ख) भगवती. विवेचन (पं. घे.) मा. 4., पृ. 1928 3. 'जाव' पद सूचित पाठ-लक्खण-वंजण-गुणोववेयमित्यादि / अ. व. पत्र 541 Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रविष्ट हुआ, फिर उसने अपने स्वाभाविक बुद्धिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का निश्चय किया / उसके बाद इष्ट, कान्त यावत् मंगलमय, परिमित, मधुर एवं शोभायुक्त सुन्दर वचन बोलता हुना राजा रानी प्रभावती से इस प्रकार वोला--"हे देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है / देवी ! तुमने कल्याणकारक यावत् शोभायुक्त स्वप्न देखा है। हे देवी! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याणरूप एवं मंगलकारक स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिये ! (तुम्हें इस स्वप्न के फलस्वरूप) अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा। हे देवानुप्रिये ? नौ मास और साढ़े सात दिन (अहोरात्र) व्यतीत होने पर तुम हमारे कुल में केतु-(ध्वज) समान, कुल के दीपक, कुल में पर्वततुल्य, कुल का शेखर, कुल का तिलक, कुल की कोति फैलाने वाले, कुल को प्रानन्द देने वाले, कुल का यश बढ़ाने वाले, कुल के प्राधार, कुल में वृक्ष समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमाल हाथ-पैर वाले, अंगहीनतारहित, परिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले, यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त, प्रियदशन, सुरूप एवं देवकुमार के समान कान्ति वाले पुत्र को जन्म दोगी।" वह बालक भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ और कलादि में परिपक्व (परिणत) होगा। यौवन प्राप्त होते ही वह शूरवीर, पराक्रमी तथा विस्तीर्ण एवं विपुल बल (सैन्य) और वाहन वाला राज्याधिपति राजा होगा / अतः हे देवी ! तुमने उदार (प्रधान) स्वप्न देखा है, यावत् देवी ! तुमने प्रारोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार बल राजा ने प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मधुर वचनों से वही बात दो बार और तीन बार कही। विवेचन प्रभावती को राजा द्वारा स्वप्नफलकथन—प्रस्तुत 25 वें सूत्र में प्रभावती रानी से स्वप्नवर्णन सूनकर राजा ने उसे विस्तार से स्वप्नफल बताया है, विशेषतः तेजस्वी पुत्रलाभसूचक फल का प्रतिपादन किया है।' कठिन शब्दों का भावार्थ --चंचुमालइयतण-उसका शरीर पुलकित हो उठा / बुद्धिविन्नाजेण-पौत्पत्तिको आदि बुद्धिरूप विज्ञान से ! साभाविएण स्वाभाविक / अत्थोग्गहणं-अर्थावग्रहण-फलनिश्चय / कल्लाण-अर्थ (प्रयोजन) की प्राप्तिरूप, मंगल्ल—अनर्थप्रतिघात रूप / कुलके उं--कुलध्वजरूप। कुलदीवं–कुल में दीपक के समान प्रकाशक / कुलपम्वयं-कुल में पर्वत के समान स्थिर आश्रय वाला / कुलवडेंसयं-कुल का अवतंसक--शेखर, कुल के वृक्ष के तुल्य आश्रयदाता / विनाय-परिणयमित्ते-विज्ञ और कलादि में परिणत (परिपक्व) मात्र / रज्जवई-राज्यपति अर्थात् - स्वतंत्र राजा / प्रभावती द्वारा स्वप्नफल स्वीकार और जागरिका 26. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रणो अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म हटतुट्ठ० करयल जाव एवं वयासो-'एवमेतं देवाणुप्पिया !, तहमेयं देवाणुप्पिया! , अवितहमेयं देवाणुप्पिया!, असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया!, पडिच्छियमेतं देवाणुप्पिया!, इच्छियपडि१. बियाहपण्ण त्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 531 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 541 / Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] च्छियमेयं देवाणुप्पिया ! से जहेयं तुम्भे वदह' ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, तं० पडि० 2 बलेण रण्णा अब्भगुण्णाया सभाणी णाणामणि-रयणभत्तिचित्तातो भद्दासणाओ अन्भुट्ठइ, अ० 2 अतुरियमचवल जाव गतीए जेणेव सए सणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 सयणिज्जसि निसीयति, नि० 2 एवं वदासी--'मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अन्नेहि पावसुविर्गाह पडिहम्मिस्सई' त्ति कटु देव-गुरुजण-संबद्धाहि पसस्थाहिं मंगल्लाहि धम्मियाहि कहाहि सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरति / [26] नदनन्तर वह प्रभावतो रानी, बल राजा से इस बात (स्वप्नफल) को सुन कर, हृदय में धारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुई; और हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोली-“हे देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह यथार्थ है, देवानुप्रिय ! वह सत्य है, असंदिग्ध है / वह मुझे इच्छित है, स्वीकृत है, पुन: पुनः इच्छित और स्वीकृत है।" इस प्रकार स्वप्न के फल को सम्यक् रूप से स्वीकार किया और फिर बल राजा की अनुमति लेकर अनेक मणियों और रत्नों से चित्रित भद्रासन से उठी। फिर शीघ्रता और चपलता से रहित यावत् गति से जहाँ (शयनगृह में) अपनी शय्या थी, वहाँ आई और शय्या पर बैठ कर (मन ही मन) इस प्रकार कहने लगी--'मेरा यह उत्तम प्रधान एवं मंग स्वप्न दूसरे पापस्वप्नों से विनष्ट न हो जाए।' इस प्रकार विचार करके देवगुरुजन-सम्बन्धी प्रशस्त और मंगलरूप धार्मिक कथानों (विचारणाओं) से स्वप्नजागरिका के रूप में वह जागरण करती हुई बैठी रही। विवेचन-प्रभावती द्वारा स्वप्नफल स्वीकार और स्वप्नजागरिका प्रस्तुत 26 वें सूत्र में राजा द्वारा कथित स्वप्नफल को प्रभावती रानी द्वारा स्वीकार करने का और रानी द्वारा स्वप्नजागरिका का वर्णन है / ' कठिन शब्दों का अर्थ-तहमेयं-यह तथ्य है / अवितहमेयं-असत्य नहीं है। परिच्छियंस्वीकृत है। सम्मं पडिच्छइ ---भलीभांति स्वीकार करती है। पावसुमिहि--अशुभ स्वप्नों से। पडिहम्मिस्सइ-प्रतिहत नष्ट हो जाए / सुविणजागरियं-स्वप्न की सुरक्षा के लिए किया जाने वाला जागरण / कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा उपस्थानशाला की सफाई और सिंहासन-स्थापन 27. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० 2 एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइयसम्मज्जियोवलितं सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोक्यारकलियं कालागरुपवरकुदुरुक्क० जाव गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करे०२ सीहासणं रएह, सोहा० र० 2 ममेत जाव पच्चप्पिणह / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 540 2. (क) भगवती. विवेचन (6. घेवरचन्दजी) भा, 4, पृ. 1931 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 542 Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [27] तदनन्तर बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और उनको इस प्रकार का आदेश दिया-हे देवानुप्रियो ! बाहर की उपस्थानशाला को प्राज शीघ्र ही विशेष रूप से गन्धोदक छिड़क कर शुद्ध करो, स्वच्छ करो, लीप कर सम करो। सुगन्धित और उत्तम पांच वर्ण के फूलों से सुसज्जित करो, उत्तम कालागुरु और कुन्दरुष्क के धूप से यावत् सुगन्धित गुटिका के समान करो-कराओ, फिर वहाँ सिंहासन रखो। ये सब कार्य करके यावत् मुझे वापस निवेदन करो।" 28. तए णं ते कोडुबिय० जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पच्चप्पिणंति / [28] तब यह सुन कर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बलराजा का आदेश शिरोधार्य किया और यावत् शीघ्र ही विशेषरूप से बाहर की उपस्थानशाला को यावत् स्वच्छ, शुद्ध, सुगन्धित किया यावत् आदेशानुसार सब कार्य करके राजा से निवेदन किया। विवेचन उपस्थानशाला को सुसज्जित करके सिंहासनस्थापन का आदेश-प्रस्तुत 27-28 सूत्रों में राजा द्वारा कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर उपस्थानशाला की सफाई तथा सजावट आदि करके सिंहासन रखने को दिये गये प्रादेश आदि का निरूपण है।' बलराजा द्वारा स्वप्नपाठक आमंत्रित 29, तए णं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सणिज्जाओ समुद्रुति, स० स० 2 यापीठातो पच्चोरुभति, 502 जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 अट्टणसालं अणुपविसइ जहा उववातिए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे जाव ससि व्व पियदसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमति, म० 502 जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, नि० 2 अपणो उत्तरपुरस्थिमे दिसौभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्यपच्चत्थुयाई सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रयावेइ, रया०२ अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जं महाघवरपट्टणग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्तताणं ईहामिय उसभ जाव भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेति, अ० 2 नाणामणि-रयणभत्तिचित्तं अत्थरयमउयमसूरगोत्थगं सेयवत्थपच्चत्युतं अंगसुहफासयं सुमउयं पभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, 20 2 कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, को० स० 2 एवं वदासि-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अलैंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह / [26] इसके पश्चात् बलराजा प्रातःकाल के समय अपनी शय्या से उठे और पादपीठ से नीचे उतरे / फिर वे जहाँ व्यायामशाला (अट्टान शाला) थी, वहाँ गए / व्यायामशाला में प्रवेश किया। व्यायामशाला तथा स्नानगृह के कार्य का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए, यावत् चन्द्रमा के समान प्रिय-दर्शन बन कर वह नप, स्नानगृह से निकले और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी वहाँ पाए / (वह रखे हुए सिंहासन पर पूर्वदिशा की ओर मुख करके बैठे। फिर अपने से उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में (अपनी बायीं ओर) श्वेतवस्त्र से आच्छादित तथा सरसों आदि मांगलिक 1. विद्यापत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 540-541 . .-- - Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] पदार्थों से उपचरित पाठ भद्रासन रखवाए। तत्पश्चात अपने से न अतिदुर और न अतिनिकट अनेक प्रकार के मणिरत्नों से सुशोभित, अत्यधिक दर्शनीय, बहुमूल्य श्रेष्ठ पट्टन में निर्मित सूक्ष्म पट पर सैकड़ों चित्रों की रचना से व्याप्त, ईहामृग, वृषभ आदि के यावत् पद्मलता के चित्र से युक्त, एक आभ्यन्तरिक (अंदर की) यवनिका (पी.) लगवाई। (उस पर्दे के अन्दर) अनेक प्रकार के मणिरत्नों से एवं चित्रों से रचित विचित्र खोली (अस्तर) वाले, कोमल वस्त्र (मसूरक) से आच्छादित, तथा श्वेत वस्त्र चढ़ाया हा, अंगों को सुखद स्पर्श वाला तथा सुकोमल गद्दीयुक्त एक भद्रासन रखवा दिया। फिर बलराजा ने क्षपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही अष्टांग महानिमित्त के सूत्र और अर्थ के ज्ञाता, विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्न-शास्त्र के पाठकों को बुला लायो / 30, तए णं ते कोड बियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति पडि० 2 सिग्घं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हस्थिणापुर नगरं मझमझेणं जेणेव तेसि सुविणलक्खणपाढ. गाणं गिहाई तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ ते सुविणलक्खणपाढए सहावेति / [30] इस पर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् राजा का आदेश स्वीकार किया और राजा के पास से निकले / फिर वे शीघ्र, चपलता युक्त, त्वरित, उग्र (चण्ड) एवं बेग बाली तीव्र गति से हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर जहाँ उन स्वप्नलक्षण-पाठकों के घर थे, वहाँ पहुँचे और उन्हें राजाज्ञा सूनाई। इस प्रकार स्वप्नलक्षणपाठकों को उन्होंने बुलाया। 31. तए गंते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रणो कोडुबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हट्ठतुट्ट० व्हाया कय० जाव सरोरा सिद्धत्थग-हरियालियकयमंगलमुद्धाणा सहि सएहि गिहेहितो निम्गच्छति, स०नि० 2 हथिणापुरं नयरं मज्भमझणं जेणेव बलस्स रण्णो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उ० 2 भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगतो मिलंति, ए० मि० 2 जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० 2 करयल० बलं रायं जएणं विजएणं बद्धाति / तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा बंदियपूइयसकारियसम्माणिया समाणा पत्तेयं पत्तेयं पुन्वन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति / / [31] वे स्वप्नलक्षण-पाठक भी बलराजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बुलाए जाने पर अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने स्तानादि करके यावत् शरीर को अलंकृत किया / फिर वे अपने मस्तक पर सरसों और हरी दूब से मंगल करके अपने-अपने घर से निकले, और हस्तिनापुर नगर के मध्य में होकर जहाँ बलराजा का उत्तम शिखररूप राज्य-प्रासाद था, वहाँ आए। उस उत्तम राजभवन के द्वार पर वे स्वप्नपाठक एकत्रित होकर मिले और जहाँ राजा की बाहरी उपस्थानशाला थी, वहाँ सभी मिल कर पाए। बलराजा के पास आ कर, उन्होंने हाथ जोड़ कर बलराजा को 'जय हो, विजय हो' आदि शब्दों से बधाया। बलराजा द्वारा वन्दित, पूजित, सत्कारित एवं सम्मानित किये गए वे स्वप्नलक्षण-पाठक प्रत्येक के लिए पहले से बिछाए किसे हुए उन भद्रासनों पर बैठे। विवेचन-सिंहासनस्थ बलराजा द्वारा उपस्थानशाला में भद्रासन स्थापित कराना / एवं स्वप्नपाठक आमंत्रित करना-प्रस्तुत तीन सूत्रों (26 से 31) में निम्नोक्त वृत्तान्त प्रस्तुत किये गए हैं Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (1) बलराजा का सुसज्जित होकर उपस्थानशाला में प्रागमन, (2) कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा वहाँ यवनिका एवं भद्रासन लगवाए गए। (3) स्वप्नलक्षण-पाठकों को बुलाने का आदेश, (4) राजा का आमंत्रण पा कर स्वप्नलक्षणपाठकों का आगमन, आशीर्वचन, राजा द्वारा सत्कारित एवं अपने-अपने भद्रासन पर स्वप्नपाठक उपविष्ट।' कठिन शब्दों का भावार्थ---पच्चसकालसमयंसि—प्रभात काल के समय / सयणिज्जाओशय्या से / अट्टणसाला व्यायामशाला। मज्जणघरे-स्नानगृह / अहिय-पेच्छणिज्ज-अधिक दर्शनीय / महाघवरपट्टणुगयं-महामूल्यवान् श्रेष्ठ पट्टन में बना हुआ / सोहपट्टभत्तिसय चित्तताणंजिसके ऊपर का वितान अथवा ताना सूक्ष्म (बारीक) सूत का और सैकड़ों प्रकार की कलाओं से चित्रित था। जवणियं—यवनिका-पर्दा / अंछावेति-खिचवाता है, लगवाता है / अत्थरय-मज्यमसूरगोत्थगं—वह अस्तर (अंदर के वस्त्र), एवं कोमल मसूरक (तकियों) से युक्त था / सेयवत्थपच्चत्थुतं-उस पर गद्दीयुक्त श्वेत वस्त्र ढका हुआ था / वेइयं-- वेग बाली / सिद्धत्थग-सिद्धार्थकसरसों। हरियालिय हरी दूब / पुन्वन्नत्थेसु-पहले बिछाए हुए / ' स्वप्नपाठकों से स्वप्नफल और उनके द्वारा समाधान 32. तए णं से बले राया पभावति देवि जवणियंतरियं ठावेइ, ठा० 2 पुप्फ-फलपडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सोहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं गं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाय के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भवस्सति ? [32] तत्पश्चात् बल राजा ने प्रभावती देवी को (बुलाकर) यवनिका की आड़ में बिठाया / फिर पुष्प और फल हाथों में भर कर बलराजा ने अत्यन्त विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा- "देवानुप्रियो ! आज प्रभावती देवी तथारूप उस बासगृह में शयन करते हुए यावत् स्वप्न में सिंह (तथारूप) देखकर जागृत हुई है / तो हे देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् कल्याणकारक स्वप्न का क्या फलविशेष होगा? 33. [1] तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतियं एयमढं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० तं० सुविणं ओगिण्हंति, तं० ओ० 2 ईहं पविसंति, ईहं पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति, त० क० 1 अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेंति अ० सं० 2 तस्स सुविणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियटा अभिगयट्ठा बलस्स रणो पुरो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा एवं उच्चारेमाणा क्यासी-- [33-1] इस पर बल राजा से इस (स्वप्नफल सम्बन्धी) प्रश्न को सुनकर एवं हृदय में अवधारण कर वे स्वप्नलक्षणपाठक प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उस स्वप्न के विषय में सामान्य विचार (अवग्रह) किया, फिर विशेष विचार (ईहा) में प्रविष्ट हुए, तत्पश्चात् उस स्वप्न के अर्थ का निश्चय किया। फिर परस्पर-एक दूसरे के साथ विचार-चर्चा की, फिर उस स्वप्न का अर्थ स्वयं 1. वियाहपण ति. (मु. पा. टि.), भा. 2, पृ. 541-542 / 2. भगवती. अ. वृत्ति., पत्र 542 Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [81 जाना, दूसरे से ग्रहण किया, एक दूसरे से पूछकर शंका-समाधान किया, अर्थ का निश्चय किया और प्रर्थ पूर्णतया मस्तिष्क में जमाया / फिर बल राजा के समक्ष स्वप्नशास्त्रों का उच्चारण करते हुए इस प्रकार बोले [2] "एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीस महासुविणा, बावरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुपिया! तित्थयरमायरो वा चक्कट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कट्टिसि वा गम्भं वक्कममाणसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, तं जहा गय वसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुभं। पउमसर सागर विमाण-भवण रयणुच्चय सिहि च // 1 // वासुदेवमायरो णं वासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति / बलदेवमायरो बलदेवसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति / मंडलियमायरो मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एतेसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एग महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झति / " [33-2] "हे देवानुप्रिय ! हमारे स्वप्नशास्त्र में बयालीस सामान्य स्वप्न और तीस महास्वप्न, इस प्रकार कुल बहत्तर स्वप्न बताए हैं। तीर्थकर की माताएँ या चक्रवर्ती की माताएँ, जब तीर्थकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं, तब इन तीस महास्वप्नों में से ये 14 महास्वप्न देखकर जागत होती हैं। जैसे कि--(१) गज, (2) वृषभ, (3) सिंह, (4) अभिषिक्त लक्ष्मी, (5) पुष्पमाला, (6) चन्द्रमा, (7) सूर्य, (8) ध्वजा, (6) कुम्भ (कलश), (10) पम-सरोवर, (11) सागर, (12) विमान या भवन, (13) रत्नराशि और (14) निर्धू म अग्नि / / 1 / / जब वासुदेव गर्भ में आते हैं, तब वासुदेव की माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी सात महास्वप्न देखकर जागती हैं। जब बलदेव गर्भ में पाते हैं, तब बलदेव-माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी चार महास्वप्न देखकर जागती हैं। माण्डलिक जब गर्भ में पाते हैं, तब माण्डलिक को माताएँ, इन में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागती हैं।" [3] "इमे य णं देवाणप्पिया ! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिळे, तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे चिठे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-जाब मंगल्लकारए गं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिठे। अत्यलाभो देवाणुपिया ! भोगलाभो० पुत्तलाभो० रज्जलाभी देवाणुप्पिया ! / " [33-3] "हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इन (चौदह महास्वप्नों) में से एक महास्वप्न देखा है / अतः, हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है, सचमुच प्रभावती देवी ने यावत् प्रारोग्य, तुष्टि यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है / (यह स्वप्न सुख-समृद्धि का सूचक है।) हे देवानुप्रिय ! इस स्वप्न के फलरूप आपको अर्थलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ एवं राज्यलाभ होगा।" Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ व्याख्यानज्ञप्तिसून [4] "एवं खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीतिक्कताणं तुम्ह कुलकेउं जाव पयाहिति / से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव रज्जवती राया भविस्सति, अणगारे वा भावियप्पा / तं प्रोराले णं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिठे जाव आरोग्ग-तुढ़ि-दोहाउ-कल्लाण जाव दिलें।" [33-4] अतः, हे देवानुप्रिय ! यह निश्चित है कि प्रभावती देवी नौ मास और साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर आपके कुल में ध्वज (केतु) के समान यावत् पुत्र को जन्म देगी। वह बालक भी बाल्यावस्था पार करने पर यावत् राज्याधिपति राजा होगा अथवा वह भावितात्मा अनगार होगा। इसलिए हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने जो यह स्वप्न देखा है, वह उदार है, यावत् अारोग्य, तुष्टि, दीर्घायु एवं कल्याणकारक यावत् स्वप्न देखा है / विवेचन राजा को स्वप्नफलजिज्ञासा और स्वप्नपाठकों द्वारा समाधान प्रस्तुत (3233) दो सूत्रों में निम्नलिखित घटनाओं का प्रतिपादन किया गया है—(१) राजा के द्वारा प्रभावती रानी के देखे हुए स्वप्न के फल की जिज्ञासा, (2) स्वप्नपाठकों द्वारा सामान्य-विशेषरूप से स्वप्न के सम्बन्ध में ऊहापोह एवं परस्पर विचार-विनिमय करके फल का निश्चय, (3) स्वप्नपाठकों द्वारा स्वप्नशास्त्रानुसार स्वप्नों के प्रकार का एवं महास्वप्नों को देखने वाली विभिन्न माताओं का विश्लेषण तथा (4) प्रभावती रानी द्वारा देखे गए एक महास्वप्न के प्रकार का निर्णय, (5) उक्त महास्वप्न के फलस्वरूप प्रभावती देवी के राज्याधिपति या भावितात्मा अनगार के रूप में पुत्र होने का भविष्य कथन / ' विमान और भवन : दो स्वप्न या एक तीर्थकर या चक्रवर्ती जब माता के गर्भ में आते हैं, तब उनकी माता 14 महास्वप्न देखती हैं। उनमें से 12 वें स्वप्न में दो शब्द हैं----विमान और भवन / उसका आशय यह है कि जो जीव देवलोक से प्राकर तीर्थकर के रूप में जन्म लेता है, उसकी माता स्वप्न में 'विमान देखती है और जो जीव नरक से आकर तीर्थंकर रूप में जन्म लेता है, उसकी माता स्वप्न में 'भवन' देखती है। राजा द्वारा स्वप्नपाठक सत्कृत एवं रानी को स्वप्नफल सुना कर प्रोत्साहन 34. तए णं से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमठे सोच्चा निसम्म हट्ठतु/करयल जाव कटु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं क्यासी—'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वदह', त्ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छति, 20 प० 2 सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाणखाइम-साइम-पुष्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेति सम्माति, स० 2 विउलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति, वि० द० 2 पडिविसज्जेति, पडि० 2 सीहासणाप्रो अन्भुट्ठति, सी० अ० 2 जेणेव पभावती देवी तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 पभावति देवि ताहि इट्टाहि जाव संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी-- "एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावरि 1. वियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ टिप्पण), भा. 2, पृ. 542-543 2. भगवती. ऋ. वृत्ति, पत्र 543 Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [ 3 सम्बसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थगरमायरो वा चक्कट्टिमायरो वा, तं चेव जाव अन्नयरं एग महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झति / इमे य गं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे दिठे। तं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिठे जाव रज्जवती राया भविस्सति अणगारे वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिडे' ति कटु पभावति देवि ताहि इटाहि जाव दोच्चं पि तच्चं पि अणुबहइ। [34] तत्पश्चात् स्वप्नलक्षणपाठकों से इस (उपर्युक्त) स्वप्नफल को सुन कर एवं हृदय में अवधारण कर बल राजा अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुया। उसने हाथ जोड़ कर यावत् उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! आपने जैसा स्वप्नफल बताया, यावत् वह उसी प्रकार है / " इस प्रकार कह कर स्वप्न का अर्थ सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। फिर उन स्वप्नलक्षणपाठकों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलकारों से सत्कारित-सम्मानित किया; जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया एवं सबको विदा किया। तत्पश्चात् बल राजा अपने सिंहासन से उठा और जहाँ प्रभावती देवी बैठी थी, वहाँ पाया और प्रभावती देवी को इष्ट, कान्त यावत् मधुर वचनों से वार्तालाप करता हुआ (स्वप्नपाठकों से सुने हुए स्वप्न-फल को) इस प्रकार कहने लगा-"देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में 42 सामान्य स्वप्न और 30 महास्वप्न, इस प्रकार 72 स्वप्न बताए हैं। देवानुप्रिये ! उनमें से तीर्थंकरों को माताएँ या चक्रवतियों की माताएँ इनमें से किन्हीं 14 महास्वप्नों को देखकर जागती हैं; इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत कहना चाहिए, यावत् माण्डलिकों की माताएँ इन में से किसी एक महास्वप्न को देखकर जागृत होती हैं। देवानुप्रिये ! तुमने भी इन चौदह महास्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है। हे देवी ! सचमुच तुमने एक उदार स्वप्न देखा है, जिसके फलस्वरूप तुम यावत् एक पुत्र को जन्म दोगी, जो या तो यावत् राज्याधिपति राजा होगा, अथवा भावितात्मा अनगार होगा। इसलिए, देवानुप्रिये ! तुमने एक उदार यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार इप्ट, कान्त, प्रिय यावत् मधुर वचनों से उसी बात को दो-तीन बार कह कर उसकी प्रसन्नता में वृद्धि की। विवेचन राजा द्वारा स्वप्नपाठक सत्कारित-सम्मानित तथा प्रभावती देवी को स्वप्नफलसुना कर प्रोत्साहित किया--प्रस्तुत 34 वें सूत्र में दो घटनाक्रमों का उल्लेख है -स्वप्नपाठकों से स्वप्नफल सुनकर राजा ने उनका सत्कार-सम्मान किया और (2) स्वप्नपाठकों से सुना हुआ स्वप्नफल रानी को सुनाया और उसकी प्रसन्नता बढ़ाई।' जीवियारिहं पोतिदाणंः –जीवननिर्वाह हो सके, इतने धन का प्रीतिपूर्वक दान। अथवा जीविकोचित प्रोतिदान / / स्वप्नफल श्रवणानन्तर प्रभावती द्वारा यत्नपूर्वक गर्भ-संरक्षण 35. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रणो अंतियं एयमठ्ठ सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० करयल जाव एवं वदासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! जाव तं सुविणं सम्म पउिच्छति, तं० पडि. 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, शा. 2, (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 544 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 543 Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 2 बलेणं रण्णा अम्भणुण्णाता समाणी नाणामणि-रयणभत्ति जाव अम्भुट्ठति, अ० 2 अतुरितमचवल जाव गतीए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 सयं भवणमणुपविट्ठा। [35] तब बल राजा से उपर्युक्त (स्वप्न-फलरूप) अर्थ सुन कर एवं उस पर विचार करके प्रभावती देवी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई / यावत् हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोली देवानुप्रिय ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही यह (स्वप्नफल) है। यावत् इस प्रकार कह कर उसने स्वप्न के अर्थ को भलीभांति स्वीकार किया और बल राजा की अनुमति प्राप्त होने पर वह अनेक प्रकार के मणिरत्नों की कारीगरी से निर्मित उस भद्रासन से यावत् उठी; शीघ्रता तथा चपलता से रहित यावत् हंसगति से जहाँ अपना (वास) भवन था, वहाँ आ कर अपने भवन में प्रविष्ट हुई। 36. तए णं सा पभावती देवी पहाया कयबलिकम्मा जाव सब्बालंकारविभूसिया तं गम्भं गातिसीतेहिं नातिउण्हेहिं नातितित्तेहिं नातिकडुएहि नातिकसाएहिं नातिअंबिलेहि नातिमहुरेहि उउभयमाणसुहेहि भोयण-ऽच्छायण-गंध-मल्लेहिं जं तस्स गम्भस्स हियं मितं पत्थं गम्भपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउहि सयणासहिं पतिरिक्कसुहाए मणाणुक्लाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला सम्माणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला विणीयदोहला ववगयरोग-सोग-मोह-भय-परित्तासा तं गम्भं सुहंसुहेणं' परिवहइ / [36] तदनन्तर प्रभावती देवी ने स्नान किया, शान्तिकर्म किया और फिर समस्त अलंकारों से विभूषित हुई / तत्पश्चात् वह अपने गर्भ का पालन करने लगी। अब उस गर्भ का पालन करने के लिए वह न तो अत्यन्त शीतल (ठंडे) और न अत्यन्त उष्ण, न अत्यन्त तिक्त (तीखे) और न अत्यन्त कडुए, न अत्यन्त कसैले, न अत्यन्त खट्ट और न अत्यन्त मीठे पदार्थ खाती थी परन्तु ऋतु के योग्य सुखकारक भोजन आच्छादन (प्रावास या वस्त्र), गन्ध एव माला का सेवन करके गर्भ का पालन करती थी / वह गर्भ के लिए जो भी हित, परिमित, पथ्य तथा गर्भपोषक पदार्थ होता, उसे ग्रहण करती तथा उस देश और काल के अनुसार प्रहार करती रहती थी तथा जब वह दोषों से रहित (वियुक्त) मृदु शय्या एवं आसनों से एकान्त शुभ या सुखद मनोनुकूल विहारभूमि में थी तब प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए, वे पूर्ण हुए / उन दोहदों को सम्मानित किया गया / किसी ने उन दोहदों की अवमानना नहीं की / इस कारण वे दोहद समाप्त हुए, सम्पन्न हुए / वह रोग, शोक, मोह, भय, परित्रास आदि से रहित होकर उस गर्भ को सुखपूर्वक वह्न करने लगी। विवेचन--प्रभावती रानी द्वारा गर्भ का परिपालन-प्रस्तुत 35-36 सूत्र में दो तथ्यों का निरूपण किया गया है—(१) प्रभावती रानी द्वारा स्वप्न का शुभ फल जान कर हर्षाभिव्यक्ति एवं (2) गर्भ का भलीभांति पालन / 1. पाठान्तर_"सुहंसुहेणं आसयइ सुपइ चिट्ठइ निसीयद तुयट्टइ।" अर्थात्--गर्भवती प्रभावती देवी सुखपूर्वक आश्रय लेती है, सोती है, खड़ी होती है, बैठती है, करवट बदलती है। --भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 543 2. बियाहपण त्ति सुतं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 544-545 Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११ ] [85 'पसत्थदोहला' आदि शब्दों का भावार्थ-पसत्थदोहला उसके दोहद अनिन्द्य थे / संपुण्णदोहला-दोहद पूर्ण किये गए / सम्माणियदोहला—अभिलाषा के अनुसार उसके दोहद सम्मानित किये गए / अधिमाणियदोहला-क्षणभर भो लेशमात्र भी दोहद अपूर्ण न रहे / वोच्छिन्नदोहला-गर्भवती की मनोवाँछाएँ समाप्त हो गई / विणीयदोहला-सब दोहले सम्पन्न हो गए। हियं मियं पत्थं गम्भपोसणं गर्भ के लिए हितकर, परिमित, पथ्यकर एवं पोषक / उउभयमाणसुहेहिं—प्रत्येक ऋतु में उपभोग्य सुखकारक। विवित्तमउएहि विविक्त–दोषरहित एवं कोमल / ' पुत्रजन्म, दासियों द्वारा बधाई और उन्हें राजा द्वारा प्रीतिदान 37. तए णं सा पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं वोतिक्कताणं सुकुमालपाणि-पायं अहीणपडिपुण्णचिदियसरीरं लक्खण-बंजण गुणोववेयं जाव ससिसोमागारं कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाता। [37] इसके पश्चात् नौ महीने और साढ़े सात दिन परिपूर्ण होने पर प्रभावती देवी ने, सूकमाल हाथ और पैर वाले, हीन अंगों से रहित, पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाले तथा लक्षणव्यञ्जन और गुणों से युक्त यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन एवं सुरूप पूत्र को जन्म दिया। 38. तए णं तीसे पभावतीए देवीए अंगपडियारियाओ पनाति देवि पसूयं जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 करयल जाव बलं रायं जएणं विजएणं वद्धाति, ज० 202 एवं वदासि—एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं जाव दारयं पयाता, तं एवं णं देवाणुप्पियाणं पियदुताए पियं निवेदेमो, पियं ते भवउ / [38] पुत्र जन्म होने पर प्रभावती देवी की अंगपरिचारिकाएँ (सेवा करने वाली दासियाँ) प्रभावती देवी को प्रसूता (पुत्रजन्मवती) जान कर बल राजा के पास प्राई, और हाथ जोड़ कर उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया / फिर उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया--हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने नौ महीने और साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर बावत् सुरूप बालक को जन्म दिया है / अतः देवानुप्रिय की प्रीति के लिए हम यह प्रिय समाचार निवेदन करती हैं / यह अापके लिए प्रिय हो। 39. तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ जाव धारायणीव जाव रोमको तासि अंगपडियारियाणं मउडवज जहामालियं श्रोमोयं दलयति, ओ० द० 2 सेतं रययमयं विमलसलिलपुण्णं भिगारं पगिण्हति, भि०प० 2 मत्थए धोवति, म० धो० 2 विउलं जीवियारिहं पोतिदाणं दलति, वि० द० 2 सक्कारेइ सम्माणेइ, स० 2 पडिविसज्जेति / [36] अंगपरिचारिकाओं (दासियों) से यह (पुत्रजन्मरूप) प्रिय समाचार सुन कर एवं हृदय में धारण कर बल राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ; यावत् मेघ की धारा से सिंचित कदम्बपुष्प 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 543 Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए / बल राजा ने अपने मुकुट को छोड़ कर धारण किये हुए शेष सभी आभरण उन अंगपरिचारिकाओं को (पारितोषिकरूप में) दे दिये / फिर सफेद चांदी का निर्मल जल से भरा हुआ कलश ले कर उन दासियों का मस्तक धोया अर्थात् उन्हें दासीपन से मुक्तस्वतंत्र कर दिया / उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विदा किया। विवेचन–पुत्रजन्म, बधाई, राजा द्वारा प्रीतिदान–प्रस्तुत तीन सूत्रों (37 से 36 तक) में तीन घटनाओं का निरूपण किया गया है-(१) प्रभावती रानी के पुत्र का जन्म, (2) अंगपरिचारिकाओं द्वारा बल राजा को बधाई और (3) बल राजा द्वारा दासियों का मस्तक-प्रक्षालन अर्थात पुत्रजन्म के हर्ष में उन्हें दासत्व से मुक्त करना, जीविकायोग्य प्रीतिदान देना और सत्कारसम्मानपूर्वक विसर्जन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-अट्ठमाण य राइंदियाण-साढ़े सात रात्रिदिन। अंगपडियारियाओ-अंगपरिचारिकाएँ-दासियाँ, सेविकाएँ / पियट्ठताए -प्रीति के लिए। मउडवज्ज-मुकुट के सिवाय / जहामालियं-जिस प्रकार (जो) धारण किये हुए (पहने हुए) था। ओमोयं—आभूषण / दलयति - दे देता है। ___ अंग-परिचारिकाओं का मस्तक धोने की क्रिया, उनको दासत्व से मुक्त करने की प्रतीक है / जिस दासी का मस्तक धो दिया जाता था, उसे उस युग में दासत्व से मुक्त समझा जाता था। पुत्रजन्म-महोत्सव एवं नामकरण का वर्णन 40. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हस्थिणापुरे नगरे चारगसोहणं करेह, चा० क० 2 माणुम्माणवट्टणं करेह, मा० 0 2 हथिणापुरं नगरं सभितरबाहिरियं आसियसम्मज्जियोवलितं जाव करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य, जूवसहस्सं वा, चक्कसहस्सं वा, पूयामहामहिमसक्कारं वा ऊसवेह, ऊ० 2 ममेतमाणत्तियं पच्चप्पिणह। [40] इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्विक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन अर्थात्-बन्दियों का विमोचन करो, और मान (नाप) तथा उन्मान (तौल) में वृद्धि करो। फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव करो, सफाई करो और लोप-पोत कर शुद्धि (यावत्) करो-करायो / तत्पश्चात् यूप (जूवा) सहस्र और चक्रसहस्र की पूजा, महामहिमा और सत्कारपूर्वक उत्सव करो। मेरे इस आदेशानुसार कार्य करके मुझे पुनः निवेदन करो।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 545 2. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1943 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 543 3. वहीं, अ. वति, पत्र 543 Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [87 41. तए णं ते कोड बियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वृत्ता जाव पच्चपिणंति / / [41] तदनन्तर बल राजा के उपर्युक्त आदेशानुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार कार्य हो जाने का निवेदन किया / 42. तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्खमति, प०२ उस्सुक उक्करं उक्किट्ठे अदेज्ज अमेज्जं अभडप्पवेसं अदंडकोदंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकालयं अणेगतालाचराणुरियं अणु यमुइंग अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कोलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठितिवडियं करेति / [42] तत्पश्चात् बल राजा व्यायामशाला में गये। वहाँ जाकर व्यायाम किया और स्नानादि किया, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् बल राजा स्नानगृह से निकले / (नरेश ने दस दिन के लिए) प्रजा से शुल्क तथा कर लेना बन्द कर दिया, भूमि के कर्षण—जोतने का निषेध कर दिया, ऋय, विक्रय का निषेध कर देने से किसी को कुछ मूल्य देना, या नाप-तौल करना न रहा। कुटुम्बियों (प्रजा) के घरों में सुभटों का प्रवेश बंद कर दिया / राजदण्ड से प्राप्य दण्ड द्रव्य तथा अपराधियों को दिये गए कुदण्ड से प्राप्य द्रव्य लेने का निषेध कर दिया। किसी को ऋणी न रहने दिया जाए। इसके अतिरिक्त (वह उत्सव) प्रधान गणिकाओं तथा नाटकसम्बन्धी पात्रों से युक्त था / अनेक प्रकार के तालानुचरों द्वारा निरन्तर करताल प्रादि तथा वादकों द्वारा मृदग उन्मुक्त रूप से बजाए जा रहे थे। बिना कुम्हलाई हुई पुष्पमालाओं (से यत्रतत्र सजावट की गई थो।) उसमें आमोद-प्रमोद और खेलकुद करने वाले अनेक लोग भी थे / सारे ही नगरजन एवं जनपद के निवासी (इस उत्सव में सम्मिलित थे।) इस प्रकार दस दिनों तक राजा द्वारा पुत्रजन्म महोत्सव प्रक्रिया (स्थितिपतिताकुलमर्यादागत प्रक्रिया) होती रही। 43. तए णं से बले राया दसाहियाए ठितिवडियाए वट्टमाणीए सतिए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावमाणे य सतिए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लाभे पडिच्छमाणे य पडिच्छावेमाणे य एवं विहरति / / 43. इन दस दिनों की पुत्रजन्म संबंधी महोत्सव-प्रक्रिया (स्थितिपतिता) जब प्रवृत्त हो (चल) रही थी, तब बल राजा सैकड़ों, हजारों और लाखों रुपयों के खर्च वाले याग-कार्य करता रहा तथा दान और भाग देता और दिलवाता हुप्रा एवं सैकड़ों, हजारों और लाखों रुपयों के लाभ (उपहार) देता और स्वीकारता रहा। 44. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिवडियं करेंति, ततिए दिवसे चंदसरदंसावणियं करेंति, छठे दिवसे जागरियं करेंति / एक्कारसमे दिवसे वोतिक्कते, निव्वत्ते असुइजायकम्मकरणे, संपत्ते बारसाहदिवसे विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेंति, उ० 2 जहा सिवो (स. 11 उ.९ सु. 11) जाव खत्तिए य प्रामति, आ० 2 ततो पच्छा पहाता कत० तं चेव जाव सक्कारेंति सम्मानुति, स० 2 तस्सेव मित्त-शाति जाव राईण य खत्तियाण य पुरितो अज्जयपज्जयपिउपज्जयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेयारूवं गोण्णं Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गुणनिष्फन्नं नामधेन्जं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रणो पुत्ते पभावतीए देवीए प्रत्तए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारयस्स नामधेज्ज महब्बले। तए णं तस्य दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं करेंति 'महम्बले' त्ति / [44] तदनन्तर उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन कुलमर्यादा के अनुसार प्रक्रिया (स्थितिपतिता) की। तीसरे दिन (बालक को) चन्द्र-सूर्य-दर्शन की क्रिया की / छठे दिन जागरिका (जागरणरूप उत्सव क्रिया) की। ग्यारह दिन व्यतीत होने पर प्रशचि जातककर्म से निवत्ति की। हवाँ दिन आने पर विपल अशन, पान, खादिम, स्वादिम (चविध अाहार) तैयार कराया। फिर (श. 11, उद्देशक 6, सू. 11 में कथित) शिव राजा के समान यावत् समस्त क्षत्रियों यावत् ज्ञातिजनों को आमंत्रित किया और भोजन कराया। इसके पश्चात् स्नान एवं बलिकर्म किए हुए राजा ने उन सब मित्र, ज्ञातिजन आदि का सत्कारसम्मान किया। और फिर उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन यावत् राजा और क्षत्रियों के समक्ष अपने पितामह, प्रपितामह एवं पिता के प्रपितामह आदि से चले आते हुए, अनेक पुरुषों की परम्परा से रूढ़, कुल के अनुरूप, कुल के सदृश (योग्य) कुलरूप सन्तान-तन्तु की वृद्धि करने वाला, गुणयुक्त एवं गुणनिष्पन्न ऐसा नामकरण करते हए कहा कि हमारा यह बालक बल राजा का पूत्र और प्रभावती देवी का प्रात्मज है, इसलिए (हम चाहते हैं कि हमारे इस बालक का 'महाबल' नाम हो / अतएव उस बालक के माता-पिता ने उसका नाम 'महाबल' रखा / विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (40 से 44 तक) में निम्नोक्त घटनाक्रम का वर्णन किया गया है- (1) बल राजा द्वारा कौटुम्बिक पुरुषों को नगर-स्वच्छता, कैदियों को मुक्ति, नापतौल में वृद्धि, पूजा अादि से पुत्र-जन्ममहोत्सव की तैयारी का आदेश, (2) दस दिनों के पुत्रजन्ममहोत्सव में अनेक प्रकार के आयोजन राजा द्वारा कराए गए, (3) माता-पिता द्वारा प्रथम, तृतीय, छठे, ग्यारहवें एवं बारहवे दिवस तक के पुत्रजन्म उत्सव से सम्बन्धित विविध कार्यक्रम सम्पन्न कराए, (4) मित्र, ज्ञातिजन आदि सबको आमंत्रित कराया, भोजन तैयार कराया, भोजन कराया। (5) तदनन्तर कुलपरम्परानुसार बालक का गुणनिष्पन्न नाम महाबल रखा / '. कठिन शब्दों का भावार्थ-चारगसोहणं-कारागार खाली करना-कैदियों को छोड़ना। उस्सुक्क-शुल्करहित, उक्कर-कर रहित / उक्किट्ठ-भूमिकर्षण-रहित / अभडप्पवेसं-प्रजा के घर में सुभट-प्रवेश निषिद्ध / अदिज्जनहीं देने योग्य-अदेय / अमिज्जं–नापने-तौलने योग्य नहीं। अदंड-कोदंडिम-दण्डयोग्य द्रव्य तथा कुदण्डयोग्य द्रव्य के ग्रहण से रहित / अधरिमं-ऋण लेने-देने में होने वाले झगड़ों को रोकने में धारणीय द्रव्य से रहित / गणिया-वर-णाडइज्ज-कलियं—प्रधानगणिकाओं तथा नाटक करने वालों से युक्त / अणेयतालाचराणुचरियं-अनेक तालचरों के द्वारा ताल आदि बजाने को सेवामों से युक्त / अणुद्धय-मुइंग-मृदंगों को निरन्तर उन्मुक्तरूप से बजाने बाले वादकों से युक्त / ठितिबडियं -स्थितिपतित-पुत्रजन्ममहोत्सव / जाए-याग-पूजा / दाए-दान / भाएभाग / असुइजायकम्मकरणं-अशुचिनिवारण रूप जातक करना / अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागयं 1. वियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 546-5.47 Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११) पितामह, प्रपितामह एवं पिता के प्रपितामह द्वारा प्राया हुआ। बहुपुरिसपरंपरप्परूढं अनेक पूर्वपुरुषों की परम्परा--पीढियों से रूढ़ / गोण्णं -गुणानुसार / ' महाबल का पंच धात्रियों द्वारा पालन एवं तारुण्यभाव 45. तए णं से महबले दारए पंचधातीपरिग्गहिते, तं जहा–खीरधातीए एवं जहा दढप्पतिण्णे' जाव निवातनिव्वाधातंसि सुहंसुहेणं परिवड्डइ। [45] तदनन्तर उस बालक महाबल कुमार का-१. क्षीरधात्री, 2. मज्जनधात्री, 3. मण्डनधात्री, 4. क्रीड़नधात्री और 5. अंधात्री, इन पांच धात्रियों द्वारा राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के समान लालन-पालन होने लगा यावत् वह महाबल कुमार वायु और व्याघात से रहित स्थान में रही हुई चम्पकलता के समान अत्यन्त सुखपूर्वक बढ़ने लगा। 46. तए णं तस्स महब्बलस्स दारगस्स अम्मा-पियरो अणुपुव्वेणं ठितिवडियं वा चंद-सूरदंसावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परंगामणं वा पयचंकमावणं वा जेमावणं वा पिंडवद्धणं वा पजपामणं वा कण्णवेहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं वा उवणयणं वा अन्नाणि य बहूणि गब्भाधाणजम्मणमादियाई कोतुयाइं करेंति / [46] साथ ही, महाबल कुमार के माता-पिता ने अपनी कुलमर्यादा की परम्परा के अनुसार (जन्मदिन से लेकर) क्रमशः चन्द्र-सूर्य-दर्शन, जागरण, नामकरण, घुटनों के बल चलना (परंगामन), पैरों से चलना (पाद-चक्रमापन), अन्नप्राशन (अन्न-भोजन का प्रारम्भ करना), ग्रासवर्द्धन (कौर बढ़ाना), संभाषण (बोलना सिखाना), कर्णवेधन (कान बिंधाना), संवत्सरप्रतिलेखन (वर्षगांठ-मनाना) नवखत्तः शिखा (चोटी) रखवाना और उपनयन संस्कार करना, इत्यादि तथा अन्य बहुत-से गर्भाधान, जन्म-महोत्सव आदि कौतुक किये। 47. तए णं तं महम्बलं कुमारं अम्मा-पियरो सातिरेगट्ठवासगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि एवं जहा दढप्पतिण्णो जाव: अलंभोगसमत्थे जाए यावि होत्था / [47] फिर उस महाबल कुमार के माता-पिता ने उसे पाठ वर्ष से कुछ अधिक वय का जान कर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के यहाँ पढ़ने के लिए भेजा, इत्यादि समस्त वर्णन दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के अनुसार कहना चाहिए यावत् महाबल कुमार भोगों का उपभोग करने में समर्थ (तरुण) हुआ। विवेचन--प्रस्तुत तीन सूत्रों (45 से 47 तक) में चार तथ्यों का प्रतिवेशपूर्वक संक्षिप्त वर्णन किया है / (1) पांच धात्रियों द्वारा महाबल का सुखपूर्वक पालन, (2) क्रमश: चन्द्र-सूर्यदर्शन 1. भगवतो अ. वृत्ति, पत्र 544-545 2. प्रौपपातिक सूत्र में मूचित पाठ... 'मज्जणधाईए मंडणधाईए कोलावणधाईए, अंकधाईए इत्यादि / –औप. सू. 40, पत्र 98 3. 'एवं जहा दढरपतिपणों' इत्यादि से सूचित पाठ - "सोहणसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहत्तं सि व्हायं कयबलिकम्म कयकोउय-मंगल-पायच्छित सव्वालंकारविभूसियं महया इसिक्कारसमुदएणं कलारियम्स उवणयंति इत्यादीति" अ. द.। Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आदि सभी संस्कारों (कौतुक) का निरूपण और (3) पढ़ने के लिए कलाचार्य के पास भेजना, (4) महाबल का भोगसमर्थ अर्थात् तरुण हो जाना / ' बल राजा द्वारा राजकुमार के लिए प्रासादनिर्माण 48. तए णं तं महम्बलं कुमारं उम्मुक्कबालभावं जाव अलंभोगसमत्थं विजाणित्ता अम्मापियरो अट्ठ पासायव.सए कारेति / प्रभुग्गयमूसिय पहसिते इव वण्णो जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पडिरूवे। तेसि णं पासायव.सगाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगं भवणं कारेंति अणेगखंभसयसन्निविठें, वण्णओ जहा रायप्पसेणइज्जे पेच्छाघरमंडसि जाय पडिरूवं / [48] महाबल कुमार को बालभाव से उन्मुक्त यावत् पूरी तरह भोग-समर्थ जानकर मातापिता ने उसके लिए पाठ सर्वोत्कृष्ट प्रासाद बनवाए। वे प्रासाद राजप्रश्नीयसूत्र (में वणित प्रासादवर्णन) के अनुसार अत्यन्त ऊँचे यावत् सुन्दर (प्रतिरूप) थे। उन आठ श्रेष्ठ प्रासादों के ठीक मध्य में एक महाभवन तैयार करवाया, जो अनेक सैकड़ों स्तंभों पर टिका हा था। उसका वर्णन भी राजप्रश्नीयसूत्र के प्रेक्षागृहमण्डप के वर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए यावत् वह अतीव सुन्दर था। विवेचन—प्रस्तुत 48 वें सूत्र में महाबल कुमार के माता-पिता द्वारा उसके लिए आठ श्रेष्ठ प्रासाद और मध्य में एक महाभवन बनवाने का उल्लेख है / अभुग्गयमूसिय-अत्यन्त उच्चता को प्राप्त / 2 पहसिते इव-मानो हँस रहा हो, इस प्रकार का प्रबल श्वेतप्रभापटल था / पाठ कन्याओं के साथ विवाह 49. तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मा-पियरो अन्नया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवसनक्खत्त-मुहुतंसि हायं कयबलिकम्म कयकोउय-मंगल-पायच्छित्तं सवालंकारविभूसियं पमक्खणगव्हाण-गीय-वाइय-पसाहणटुंगतिलग-कंकणअविहबबहुउवणीयं मंगल-सुपितेहि य वरकोउय-मंगलोवयारकयसंतिकम्मं सरिसियाणं सरित्तयाणं सरिन्वयाणं सरिसलायण्ण-रूव-जोवण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मंगलोवयारकतसंतिकम्माणं सरिसरहिं रायकुलेहितो आणितेल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणि गिहाविसु / [46] तत्पश्चात् किसी समय शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में महाबल कुमार ने स्नान किया, न्योछावर करने की क्रिया (बलिकर्म) की, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त किया। उसे समस्त अलंकारों से विभूषित किया गया। फिर सौभाग्यवती (सधवा) स्त्रियों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, गीत, बादित, मण्डन (प्रसाधन), आठ अंगों पर तिलक (करना), लाल डोरे के रूप में कंकण (बांधना) तथा दही, अक्षत आदि मंगल अथवा मंगलगीत -विशेष-रूप में प्राशीर्वचनों से मांगलिक कार्य किये गए तथा उत्तम कौतुक एवं मंगलोपचार के रूप में शान्तिकर्म किये गए / तत्पश्चात् - -. -- - 1. वियाहरण ति सुत्तं, भा. 2 (मूलपाठटिप्पण), पृ. 547 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 545 Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [91 महाजल कुमार के माता-पिता ने समान जोड़ी वाली, समान त्वचा वाली, समान उम्र की, समान रूप, लावण्य, यौवन एवं गुणों से युक्त विनीत एवं कौतुक तथा मंगलोपचार की हुई तथा शान्तिकर्म की हुई और समान राजकुलों से लाई हुई आठ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में (महाबल कुमार का) पाणिग्रहण करवाया। विवेचन–महाबल कुमार का पाणिग्रहण-उस युग के रीति-रिवाज एवं मंगलकार्य करने की प्रथा के अनुसार शुभ मुहर्त में माता-पिता ने समान जोड़ी की आठ राजकन्याओं के साथ विवाह कराया, जिसका वर्णन 46 वे सूत्र में है / 34 कठिन शब्दों का भावार्थ पमक्खणग-प्रमक्षणक-अभ्यंगन / पसाहण—मंडन / अटुंगतिलगआठ अंगों पर तिलक-छापे। कंकण---लाल डोरे (मौली) को हाथ में बांधना / अविहव-बहु--- सधवा वधुओं द्वारा। उवणीयं-नेगचार किये गए या रीति-रिवाज पूरे किये गए। मंगल. सुपितेहि-मंगल अर्थात्-दही-अक्षत आदि अथवा मंगलगीतविशेष से सौभाग्यवती नारियों द्वारा उच्चारण किये गए आशीर्वचन / बरकोउय-मंगलोक्यारकयसंतिकम्म श्रेष्ठ कौतुक एवं मंगलोपचारों से शान्तिकर्म (पापोपशमनक्रिया) किया / ' बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से नववधुओं को प्रीतिदान 50. तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स अम्मा-पियरो अयमेयारूवं पीतिदाणं दलयंति, तं जहा— अट्ठ हिरणकोडोओ, अट्ट सुवण्णकोडोओ, अट्ठ मउडे मउडप्पवरे, अट्टकुडलजोए कुडल. जोयप्पवरे, अट्ट हारे हारप्पवरे, अट्ठ अद्धहारे श्रद्धहारप्पवरे, अट्ट एगावलौनो एगावलिप्पवरामओ, एवं मुत्तावलीओ, एवं कणगावलीप्रो, एवं रयणावलीओ, अट्ट कडगजोए कडगजोयप्पवरे, एवं तुड़ियजोए, अटु खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई, एवं वडगजुयलाइं, एवं पट्टजुयलाई, एवं दुगुल्लजुयलाई, अट्ठ सिरीअो अट्ठ हिरोयो, एवं धितोओ, कित्तीओ, बुद्धीओ, लच्छीओ; अट्ठ नंदाई, अट्ठ भद्दाई, अट्ठ तले तलप्पवरे सम्बरयणामए गियगवरभवणकेऊ, अट्ट झए शयपवरे, अटु वए वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अट्ठ नाडगाई नाडगप्पवराई बत्तीसइबद्धणं नाडएणं, अट्ठ आसे आसप्पवरे सव्वरयणामए सिरिधरपडिरूवए, अट्ट हत्थी हथिपवरे, सम्वरपणामए सिरिघरपडिरूवए, अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई, अट्ठ जुगाइं जुगप्पराई, एवं सिबियानो, एवं संदमाणियाओ, एवं गिल्लीओ थिल्लोओ, अट्ठ वियडजाणाई बियडजाणपवराई, अट्ठ रहे पारिजाणिए, अट्ठ रहे संगामिए, अट्ट प्रासे आसप्पवरे, अठ्ठ हत्थी हथिप्पवरे, अट्ठ गामे गामप्पवरे दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं, अट्ठ दासे दासवप्पवरे, एवं दासोओ, एवं किंकरे, एवं कंचुइज्जे, एवं वरिसधरे, एवं महत्तरए, अट्ठ सोवण्णिए ओलंबणदीवे, अट्ट रुप्पामए ओलंबणदीवे, अट्ठ सुवण्णरुप्पामए अोलंबणदीवे, अट्ठ सोवणिए उक्कंपणदीवे, एवं चेव तिण्णि वि; अट्ट सोण्णिए पंजरदीबे, एवं चेव तिणि वि; अट्ट सोवणिए थाले, अट्ट रुप्पामए थाले, अट्ट सुवण्ण-रुप्पामए थाले, अट्ट सोवणियाओ पत्तीओ, अट्ट रुप्पामयाओ पत्तीओ, अट्ट सुवण्ण रुप्पामयाओ पत्तीमो; अढ सोवणियाइं थासगाई 3, अट्ट सोवणियाई मल्लगाई 3, अट्ठ -..--.- -.. - - . 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 548 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 547 Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सोवण्णियाओ तलियाओ 3, अट्ठ सोवणियाओ कविचिआओ 3, अट्ट सोवग्णिए अवएडए 3, अट्ठ सोवणियानो अवयक्काओ 3, अट्ट सोवण्णिए पायपीढए 3, अट्ट सोणियाओ भिसियाप्रो 3, अट्ठ सोवणियाओ करोडियाओ 3, अटु सोवणिए पल्लंके 3, अदु सोवणियाओ पडिसेज्जाओ 3, अट्ठ० हंसासणाई 3, अट्ठ० कोंचासणाई 3, एवं गरुलासणाई उन्नतासणाई पणतासणाई दोहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाहं, अट्ठ० पउमासणाई, अट्ठ० उसभासणाई, अढ० दिसासोवस्थियासणाई, अट्ट' तेल्लसमुगो, जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ठ० सरिसवसमुग्गे, अट्ठ खुज्जाओ जहा उववातिए जाव अट्ठ पारसीओ, अट्ट छत्ते, अट्ठ छत्तधारीओ चेडीओ, अट्ट चामराओ, अट्ठ चामरधारीओ चेडीओ, अट्ठ तालियंटे, अट्ठ तालियंटधारीओ चेडीओ, अट्ठ करोडियाओ, अट्ठ करोडियाधारीओ चेडीओ, अट्ठ खीरधातीओ, जाव अट्ठ अंकधातीओ, अट्ठ अंगमदियाओ, अट्ठ उम्मदियाओ, अट्ट पहावियाओ, अट्ठ पसाधियानो, अट्ठ वण्णगपेसीओ, अट्ठ चुण्णगपेसीओ, अट्ठ कोडा(?ड्डा) कारोमो, अट्ठ दवकारीयो, अट्ठ उवत्थाणियाओ, अट्ठ नाडइज्जाओ, अट्ठ कोडुबिणोओ, अट्ठ महासिणीओ, अठ्ठ भंडागारिणीओ, अट्ठ अम्भाधारिणीओ, अट्ठ पुष्फधारिणीओ, अट्ठ पाणिधारिणीओ, अट्ठ बलिकारियाओ, अट्ठ सेज्जाकारीओ, अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ बाहिरियाओ पडिहारोओ, अट्ठ मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीओ, अन्न वा सुबहुं हिरण्णं वा, सुवण्णं वा, कंसं वा दूसं वा, विउलघणकणग जाव संतसावदेज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकाम परिभोत्तुं पकामं परियामाए। [50] विवाहोपरान्त महाबल कुमार के माता-पिता ने (अपनी पाठों पुत्रवधुओं के लिए) इस प्रकार का प्रीतिदान दिया / यथा-आठ कोटि हिरण्य (चांदी के सिक्के), आठ कोटि स्वर्ण मुद्राएँ (सोनया), पाठ श्रेष्ठ मुकट, पाठ श्रेष्ठ कुण्डल युगल, पाठ उत्तम हार, पाठ उत्तम अद्भहार, पाठ उत्तम एकावली हार, आठ मुक्तावली हार, पाठ कनकाबली हार, पाठ रत्नावली हार, आठ श्रेष्ठ कड़ों की जोड़ी, पाठ बाजूबन्दों की जोड़ी, आठ श्रेष्ठ रेशमी वस्त्रयुगल, पाठ टसर के वस्त्रयुगल, आठ पट्टयुगल, पाठ दुकलयुगल, पाठ श्री, आठ ह्री, पाठ धी, आठ कौति, आठ बुद्धि एवं आठ लक्ष्मी देवियाँ, आठ नन्द, पाठ भद्र, आठ उत्तम तल (ताड़) वृक्ष, ये सब रत्नमय जानने चाहिए / अपने भवन में केतु (चिह्न) रूप आठ उत्तम ध्वज, दस-दस हजार गायों के प्रत्येक व्रज वाले आठ उत्तम व्रज (गोकुल), बत्तीस मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला एक नाटक होता है, ऐसे आठ उत्तम नाटक, श्रीगहरूप पाठ उत्तम प्रश्व, ये सब रत्नमय जानने चाहिए। भाण्डागार (श्रीगह) के समान आठ रत्नमय उत्तमोत्तम हाथी, आठ उत्तम यान, पाठ उत्तम युग्य (एक प्रकार का वाहन), आठ शिविकाएँ, पाठ स्यन्दमानिका (पुरुषप्रमाण-म्याना, या पालको) इसी प्रकार आठ गिल्ली (हाथी की अम्बाड़ी), आठ दिल्ली (घोड़े का पलाण ---काठी), आठ श्रेष्ठ विकट (खुले) यान, पाठ पारियानिक (क्रीड़ा करने के) रथ, आठ संग्रामिक (युद्ध के समय उपयोगी) रथ, आठ उत्तम अश्व, आठ उत्तम हाथी, दस हजार कुलों-परिवारों का एक ग्राम होता है, ऐसे पाठ उत्तम ग्राम ; पाठ 1. देखिये राजप्रश्नीयसूत्र में अट्ठ कुट्ठसमुग्गे, एवं पत्त-चोय-तार-एल-हरियाल-हिंगुलय-मणोसिल-अंजणसमुग्गे / - राजप्रश्नीय पृ. 1-1 कण्डिका 107 (गुर्जर ग्रन्थ) Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यारहवां शतक : उद्देशक-११] उत्तम दास, एवं पाठ उत्तम दासियाँ, पाठ उत्तम किंकर, पाठ उत्तम कंचुकी (द्वाररक्षक), पाठ वर्षधर (अन्तःपूर रक्षक, खोजा), पाठ महत्तरक (अन्तःपुर के कार्य का विचार करने वाले), पाठ सोने के, आठ चांदी के और पाठ सोने-चांदी के अवलम्बन दीपक (लटकने वाले दीपक-हंडे), पाठ सोने के, पाठ चांदी के और पाठ सोने-चांदो के उत्कंचन दीपक (दण्डयुक्त दीपक-मशाल), इसी प्रकार सोना, चांदी और सोना-चांदी, इन तीनों प्रकार के आठ पंजरदोपक, सोना, चांदी और सोने-चांदी के आठ थाल, आठ थालियां, आठ स्थासक (तश्तरियाँ), पाठ मल्लक (कटोरे), आठ तलिका (रकाबियाँ), आठ कलाचिका (चम्मच), पाठ तापिकाहस्तक (संडासियाँ), पाठ तवे, अाठ पादपीट (बाजोट), पाठ भीषिका (प्रासन-विशेष), आठ करोटिका (लोटा), आठ पलंग, पाठ प्रतिशय्याएँ (छोटे पलंग), आठ हंसासन, आठ क्रौंचासन, पाठ गरुड़ासन, आठ उन्नतासन, आठ अवनतासन, आठ दोर्षासन, पाठ भद्रासन, पाठ पक्षासन, पाठ मकरासन, पाठ पद्मासन, पाठ दिकस्वस्तिकासन, प्राट तेल के डिब्बे, इत्यादि सब राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार जानना चाहिए; यावत् पाठ सर्षप के डिब्बे, आठ कुब्जा दासियाँ आदि सभी औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए; यावत् पाठ पारस देश की दासियाँ, आठ छत्र, आठ छत्रधारिणी दासियाँ, पाठ चामर, आठ चामरधारिणी दासियाँ, पाठ पंखे, पाठ पंखाधारिणी दासियाँ, आठ करोटिका (ताम्बूल के करोटिकाधारिणी दासियों, पाठ क्षीरधात्रियों, यावत पाठ अंकधात्रियां, आठ अंगमदिका (हलका मालिश करने वाली दासियाँ), पाठ उन्मदिका (अधिक मर्दन करने वाली दासियाँ), आठ स्नान कराने वाली दासियाँ, पाठ अलंकार पहनाने वाली दासियों, आठ चन्दन घिसने वाली दासियाँ, आठ ताम्बूल चूर्ण पोसने वाली, अाठ कोष्ठागार की रक्षा करने वाली, पाठ परिहास करने वाली, आठ सभा में पास रहने वाली, पाठ नाटक करने वाली, आठ कौटुम्बिक (साथ रहने वाली सेविकाएँ), आठ रसोई बनाने वाली, पाठ भण्डार की रक्षा करने वाली, आठ तरुणियाँ, आठ पूष्प धारण करने वाली (मालिन), आठ पानी भरने वाली, पाठ वलि करने वाली, पाठ शय्या बिछाने वाली, पाठ प्राभ्यन्तर और बाह्य प्रतिहारियाँ, आठ माला बनाने वाली और आठ-आठ आटा यादि पीसने वाली दासियाँ दीं। इसके अतिरिक्त बहुत-साहिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र एवं विपुल धन, कनक, यावत सारभूत द्रव्य दिया / जो सात कूल वंशों (पीढ़ियों) तक इच्छापूर्वक दान देने, उपभोग करने और बांटने के लिए पर्याप्त था। 51. तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयति, एगमेगं सुवण्णकोडि दलयति, एगमेगं मउड पउडप्पवरं दलयति, एवं तं चेव सव्वं जाब एगमेगं पेसणकारि दलयति, अन्नं वा सुबहुं हिरण्णं वा जाव परियाभाएउं / [51] इसी प्रकार महावल कुमार ने भी प्रत्येक भार्या (पत्नी) को एक-एक हिरण्यकोटि, एक-एक स्वर्णकोटि, एक-एक उत्तम मुकुट, इत्यादि पूर्वोक्त सभी वस्तुएँ दी यावत् सभी को एक-एक पेषणकारी (पीसने वाली) दासी दी तथा बहुत-सा हिरण्य, सुवर्ण ग्रादि दिया, जो यावत् विभाजन करने के लिए पर्याप्त था। 52. तए णं से महब्बले कुमारे उप्पि पासायवरगए जहा जमाली (स० 9 उ० 33 सु० 22) जाब विहरति / Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [আত্মাসম্বলি [52] तत्पश्चात् वह महाबल कुमार (श, 6, उ. 33, सू. 22 में कथित) जमालि कुमार के वर्णन के अनुसार उन्नत श्रेष्ठ प्रासाद में अपूर्व (इन्द्रियसुख) भोग भोगता हुअा जीवनयापन करने लगा। विवेचन--आठ नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से प्रीतिदान -प्रस्तुत दो सूत्रों—(५१-५२) में 8 नववधुओं को बल राजा तथा महाबल कुमार की ओर से दिये गये प्रचुर प्रीतिदान का वर्णन है / 52 वें सूत्र में महाबल कुमार का अपने प्रासाद में सुखभोगपूर्वक . निवास का वर्णन है।' __कठिन शब्दों का अर्थ-कडगजोए-कड़ों की जोड़ी। किंकरे-अनुचर / सिरिघर --श्रीघर–भण्डार के समान / भीसियाओ-आसनविशेष / वणगपेसीमो—सुगन्धित चूर्ण (पाउडर) बनाने वाली। पसाहियाओ-प्रसाधन (शृगार) करने वाली। तेल्लसमुग्गे तेल के डिब्बे / दवकारीओ परिहास करने वाली / धर्मघोष अनगार का पदार्पण, परिषद् द्वारा पर्युपासना 53. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे जातिसंपन्ने वण्णओ जहा केसिसामिस्स जाव पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिवुड़े पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगाम इतिज्जमाणे जेणेव हथिणापुरे नगरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उबागच्छति, उवा० 2 अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति, ओ० 2 संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विरहति / 53] उस काल और उस समय में तेरहवें तीर्थंकर अर्हन्त विमलनाथ के प्रपौत्रक (प्रशिष्य - शिष्यानुशिष्य) धर्मघोष नामक अनगार थे / वे जातिसम्पन्न इत्यादि (राजप्रश्नीय स्वामी के समान थे, यावत् पांच सौ अनगारों के परिवार के साथ अनुक्रम से एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। 54. तए णं हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय जाव परिसा पज्जुबासति / [54] हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग मुनि-आगमन * की परस्पर चर्चा करने लगे यावत् जनता पर्युपासना करने लगी। विवेचन धर्मघोष अनगार का पदार्पण और हस्तिनापुरनिवासियों द्वारा उपासना–प्रस्तुत दो (53-54) सूत्रों में धर्मधोष अनगार का पांच सौ शिष्यों सहित हस्तिनापुर में पदार्पण का तथा जनता द्वारा दर्शन-वन्दना एवं उपासना का वर्णन है / पओप्पए-प्रपौत्रशिष्य-शिष्यानुशिष्य / 3 1. वियाहपण्णत्तिसत्तं भा. 2, पृ. 550-551 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 547-548 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 548 Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [95 महाबलकुमार द्वारा प्रवज्याग्रहरण 55. तए णं तस्स महरूबलस्स कुमारस्तं तं मह्या जणसई वा जगवूहं वा एवं जहा जमालो (स० 9 उ० 33 सु० 24-25) तहेव चिता, तहेव कंचुइज्जपुरिसं सहावेइ, कंजुइज्जपुरिसे वि तहेव अक्खाति, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल जाव निग्गच्छति / एवं खलु देवाणुपिया! विमलस्स अरहतो पउप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे सेसं तं चेव जाव सोवि तहेव रहवरेणं निग्गच्छति / धम्मकहा जहा केसिसामिस्स / सो वि तहेव (स० 9 उ० 33 सु० 33) अम्मापियरं आपुच्छति, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पवइत्तए तहेव वृत्तपडिवुत्तिया (स० 9 उ० 33 सु. 35.45) नवरं इमाओ य ते जाया ! बिउलरायकुलबालियाओ कला० सेसं तं चैव जाव ताहे अकामाई चेव महब्बलकुमारं एवं बदासीतं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए / _ [55] (धर्मघोषमुनि के दर्शनार्थ जाते हुए) बहुत-से मनुष्यों का कोलाहल एवं चर्चा सुनकर (श. 6 उ. 33 सू. 24-25 में उल्लिखित) जमालिकुमार के समान महाबल कुमार को भी विचार हुआ / उसने अपने कंचुकी पुरुष को बुलाकर (उसी प्रकार इसका कारण पूछा। कंचुकी पुरुष ने भी (पूर्ववत्) हाथ जोड़ कर महाबल कुमार से निवेदन किया-देवानुप्रिय ! विमलनाथ तीर्थकर के प्रपौत्र शिष्य श्री धर्मघोष अनगार यहाँ पधारे हैं। इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत कहना चाहिए यावत महाबल कुमार भी जमालि कुमार की तरह (पूर्ववत्) उत्तम रथ पर बैठ कर उन्हें वन्दना करने गया / धर्मघोष अनगार ने भी केशीस्वामी के समान धर्मोपदेश (धर्मकथा) दिया / सुनकर महाबल कुमार को भी (श. 6, उ. 33, सू. 35-45 में कथित वर्णन के अनुसार) जमालि कुमार के समान वैराग्य उत्पन्न हुा / घर आकर उसी प्रकार (जमालि कुमार की तरह) माता-पिता से अनगार धर्म में प्रवजित होने की अनुमति मांगी। विशेष यह है कि (हे माता-पिता ! ) धर्मघोष अनगार से मैं मुण्डित होकर आगारवास (गृहवास) से अनगार धर्म में प्रजित होना चाहता हूँ / (श. 6, उ. 33, सू. 35-45 में लिखित) जमालि कुमार के समान महाबल कुमार और उसके माता-पिता में उत्तर-प्रत्युत्तर हुए। विशेष यह है कि माता-पिता ने महाबल कुमार से कहा--हे पुत्र! यह विपुल धन और उत्तम राजकुल में उत्पन्न हुई कलाकुशल पाठ कुलबालाएँ छोड़कर तुम क्यों दीक्षा ले रहे हो ? इत्यादि शेष वर्णन पूर्ववत् है यावत् माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबल कुमार से इस प्रकार कहा--"हे पुत्र ! हम एक दिन के लिए भी तुम्हारी राज्यश्री (राजा के रूप में तुम्हें) देखना चाहते हैं।" 56. तए णं से महब्बले कुमारे अम्मा-पिउवयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठा। [56] माता-पिता की इस बात को सुन कर महाबल कुमार चुप रहे / 57. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, एवं जहा सिवभहस्स (स० 11 उ० 9 सु०७-९) तहेव रायाभिसेओ भाणितब्बो जाव अभिसिचंति, अभिसिचित्ता करतलपरि० महब्बलं कुमार जएणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-मण जाया ! कि देमो? कि पयच्छामो ? सेसं जहा जमालिस्स तहेब, जाव (स० 9 उ० 33 सु० 49-82) [57] इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और जिस प्रकार (श. 11, Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उ. 6, सू. 7-6 में) शिवभद्र के राज्याभिषेक का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी महाबल कुमार के 'राज्याभिषेक का वर्णन समझ लेना चाहिए, यावत् महाबल का राज्याभिषेक किया, फिर हाथ जोड़ कर महाबल कुमार को जय-विजय शब्दों से बधाया; तथा इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! कहो, हम तुम्हें क्या देखें ? तुम्हारे लिए हम क्या करें? इत्यादि वर्णन (श. 6, उ. 33, सू. 46-82 में कथित) जमालि के समान जानना चाहिए; यावत् महाबल कुमार ने धर्मघोष अनगार से प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। विवेचन---प्रस्तुत तीन सूत्रों (55.57) में निम्नलिखित तथ्यों का अतिदेशपूर्वक वर्णन किया गया है-(१) धर्मघोष अनगार का हस्तिनापुर में पदार्पण, (2) महाबल कुमार को धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य होना, (3) माता-पिता से दीक्षा की अनुमति मांगने पर परस्पर उत्तर-प्रत्युत्तर और अन्त में निरुत्तर-निरुपाय होकर अनिच्छा से अनुमति प्रदान करना, (4) एक दिन के राज्य ग्रहण करने की माता-पिता की इच्छा को स्वीकार करना, (5) दीक्षा महोत्सव एवं (6) धर्मघोष अनगार से विधिवत् भागवती दीक्षा ग्रहण करना / महाबल अनगार का अध्ययन, तपश्चरण, समाधिमरण एवं स्वर्गलोकप्राप्ति 58. तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइयाई चोद्दस पुवाई अहिज्जति, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थ जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाइं सामण्णपरियागं पाउणति, बह० पा०२ मासियाए संलेहणाए सट्रि भत्ताई अणसणाए. आलोइययडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ड चंदिमसूरिय जहा अम्मडो जाव' बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइंठिती पन्नता। (58) दीक्षाग्रहण के पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया तथा उपवास (चतुर्थभक्त), बेला (छ8), तेला (अट्ठम) आदि बहुत-से कर्मों से आत्मा को भावित करते हए परे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया और अन्त में मासिक संलेखनासे साठ भक्त अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधि काल के अवसर पर काल करके ऊर्बलोक में चन्द्र और सूर्य से भी ऊपर बहुत दूर, अम्बड़ के समान यावत् ब्रह्मलोककल्प में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है / तदनुसार महाबलदेव की भी दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। विवेचन--दीक्षाग्रहण से समाधिमरण एवं ब्रह्मलोककल्प में उत्पत्ति-प्रस्तुत 58 वें सूत्र में महाबल अनगार के जीवन का संकेत किया गया है। दीक्षाग्रहण के बाद चौदह पूर्वो का अध्ययन, विविध तपश्चर्या से कर्मक्षय, अन्त में यहाँ से मासिक सलेखना, तथा अनशन करके समाधिपूर्वक मरण और ब्रह्मदेवलोक की प्राप्ति, यह क्रम अनगार धर्म की आराधना के उज्ज्वल भविष्य को सूचित करता है। 1. जाव पद-सूचित पाठ-गहगण-नक्षत्त-तारारूवाणं बहुइं जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूइंजोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहईओ जोयणकोडाकोडीओ उडढं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-तणकुमार-माहिदे कप्पे वीईवइत्त ति। --ौप. सू. 40, प. 10 ।नागमो.) 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा, 2, पृ. 553 ... ---------..--.--- Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [ 97 पूर्वभव का रहस्य खोलकर पल्योपमादि के क्षय-उपचय की सिद्धि ___56. से णं तुम सुदंसणा! बंभलोए कप्पे दस सागरोवमाई दिब्वाइं भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्ता तओ चेव देवलोगापो आउक्खएणं ठितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेडिकुलसि पुमत्ताए पच्चायाए / तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णयपरिणयमेत्तेणं जोवणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपण्णत्ते धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइते, तं सुठ्ठ णं तुम सुदंसणा ! इदाणि पि करेसि / से तेण?णं सुदंसणा ! एवं वुच्चति 'अस्थि णं एतेसि पलिओवमसागरोवमाणं खए ति वा, प्रवचए ति वा / [56] हे सुदर्शन ! वही महाबल का जीव तुम (सुदर्शन) हो। तुम वहाँ ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम तक दिव्य भोगों को भोगते हुए रह करके, वहाँ दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके, वहाँ के प्रायुष्य का, स्थिति का और भव का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर सीधे इस भरतक्षेत्र के वाणिज्यग्राम-नगर में, श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हो / तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने तथारूप स्थविरों से केवलि-प्ररूपित धर्म सुना। वह धर्म तुम्हें इच्छित प्रतीच्छित (स्वीकृत) और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता विवेचन-सागरोपम की स्थिति का क्षयापचय और पूर्वभव का रहस्योद्घाटन-प्रस्तुत सूत्र 56 में भगवान महावीर ने सुदर्शन के पूर्वभव की कथा का उपसंहार करते हुए बताया है कि महाबल का जीव ही तू सुदर्शन है, जो दस सागरोपम की स्थिति का क्षय तथा अपचय होने पर वाणिज्यग्राम में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ है / अन्त में, सुदर्शन श्रमणोपासक के वर्तमांन धर्ममय जीवन की प्रशंसा की है / यह प्रस्तुत उद्देशक के सू० 16-2 का निगमन है। 60. तए णं तस्स सुदंसणस्स से ट्ठिस्स समणस्स भगवप्रो महावीरस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्ञवसाणेणं, सोहणेणं परिणामेणं, लेसाहि विसुज्झमाणीहि, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुष्यजातीसरणे समुप्पन्न, एतमट्ठ सम्म अभिसमेति / 60] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर से यह बात (धर्मफल-सूचक) सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन श्रमणोपासक (श्रेष्ठो) को शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञीपूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे (भगवान् द्वारा कहे गए) इस अर्थ (अपने पूर्वभव की बात) को सम्यक् रूप से जानने लगा। 1. वियाहपण्णत्ति सुतं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2 पृ. 552 Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 61. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भयवया महावीरेणं संभारिययुवभवे दुगुणाणीयसढसंवेगे आणंदसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेति,. आ० क०२ वंदति नमसति, वं० 2 एवं बयासी-एवमेयं भंते ! जाब से जहेयं तुम्भे बदह त्ति कटु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमति सेसं जहा उसभदत्तस्स (स०९ 30 33 सु०१६) जाव सब्वदुक्खप्पहीणे, नवरं चोद्दस पुन्बाई अहिज्जति, बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाइं सामण्णपरियागं पाउणति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / // एक्कारसमे सए एक्कारसमो उद्दे सो समत्तो॥ [61] (जातिस्मरणज्ञान होने पर) श्रमण भगवान् महावीर द्वारा पूर्वभव का स्मरण करा देने से सुदर्शन श्रेष्ठी के हृदय में दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुए। उसके नेत्र प्रानन्दाश्रुनों से परिपूर्ण हो गए। तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-भगवन् ! यावत् पाप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है / इस प्रकार कह कर सुदर्शन सेठ उत्तरपूर्व दिशा में गया, इत्यादि अवशिष्ट सारा वर्णन (श.६, उ.३३, सू. 16 में वणित जानना चाहिए, यावत् सुदर्शन श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेष यह है कि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया; यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (60-61) में मुख्यतया दो घटनाओं का निरूपण किया गया है(१) अपने पूर्वभव की कथा सुन कर सुदर्शन श्रेष्ठी को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे भगवान् द्वारा कथित पूर्वजन्म-वृत्तान्त को हूबहू स्पष्ट रूप से जानने लगा और (2) उसकी श्रद्धा और संवेग में द्विगुणित वृद्धि हुई / भगवान् को वन्दना नमस्कार करके प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। ऋषभदत्त की तरह भगवान से प्रव्रज्या ग्रहण की.१४ पर्यों का अध्ययन / तपश्चर्या की, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणत्व का पालन किया, अन्तिम समय में संल्लेखना संथारा किया / सर्वकर्मों से मुक्त-सिद्ध-बुद्ध हुआ।' सण्णीपुध्वजातीसरणे-ऐसा ज्ञान जिससे संज्ञीरूप से किये हुए अपने निरन्तर संलग्न पूर्वभव जाने-देखे जा सकें। दुगुणाणीयसढसंधेगे-श्रद्धा और संवेग दुगुने हो गए। // ग्यारहवां शतकः ग्यारहवां उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 554 2. (क) संज्ञिरूपा या पूर्वा जातिस्तस्याः स्मरणं यत्तत्तथा / (ख) पूर्वकालापेक्षया द्विगुणावानीतो श्रद्धासंवेगौ यस्य स तथा। श्रद्धा-तत्त्वार्थश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा बा संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वा / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र. 549 Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो उद्देसओ : बारहवाँ उद्देशक पालभिया : पालभिका (नगरी में प्ररूपणा) पालभिका नगरी के श्रमणोपासकों को देवस्थितिविषयक जिज्ञासा एवं ऋषिभद्र के उत्तर के प्रति श्रद्धा 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था। वण्णओ। संखवणे चेतिए / वग्णओ। [1] उस काल और उस समय में प्रालभिका नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उसका वर्णन भी करना चाहिए / 2. तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोषखा समणोवासया परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूता अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति / [2] उस पालभिका नगरी में ऋषिभद्रपुत्र वगैरह बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे / वे पाढ्य यावत् अपरिभूत थे, जीव और अजीव (आदि तत्त्वों) के ज्ञाता थे, यावत् विचरण (जीवनयापन) करते थे। 3. तए म तेसि समणोवासयाणं अन्नया कयाइ एगयनो समुवागयाणं सहियाणं समुपविट्ठाणं सन्निसन्नाणं अयमेयारवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? [3] उस समय एक दिन एक स्थान पर पाकर एक साथ एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप (धर्मचर्चा) हुआ—[प्र. हे आर्यों ! देवलोकों में देवों को स्थिति, कितने काल की कही गई है ? / 4. तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवद्वितिगहिय? ते समणोवासए एवं वयासी-. देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्नणं दस बाससहस्साई ठिती पण्णता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया तिसमयाहिया जाव दससमयाहिया संखेज्जसमयाहिया असंखेज्जसमयाहिया; उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठितो पन्नत्ता / तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। [4] (उ.) इस प्रश्न को सुनने के पश्चात् देवों की स्थिति के विषय में ज्ञाता (गहीतार्थ) ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक, उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला-पार्यो ! देवलोकों में देवों की न्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है, उसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक. यावत् दस समय अधिक, संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक, (इस प्रकार बढ़ते हुए) उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है / इसके उपरान्त अधिक स्थिति वाले देव और देवलोक नहीं हैं। Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. तए णं ते समणोवासगा इसिमपुत्तस्स समणोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियंति नो रोएंति, एयम? असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया / [5] तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक के द्वारा इस प्रकार कही हुई यावत् प्ररूपित की हुई इस बात पर न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि ही की; उपर्युक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते हए वे श्रमणोपासक जिस दिशा से पाए थे, उसी दिशा में चले गए। विवेचनऋषिभद्रपुत्र द्वारा देवस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा पर अश्रद्धालु श्रमणोपासक-प्रस्तुत 5 सूत्रों में (1.5) में वर्णन है कि ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपसक द्वारा प्ररूपित देवस्थिति पर अन्य श्रमणोपासकों ने विश्वास नहीं किया / __ कठिन शब्दों का अर्थ---एगयनो समुवागयाणं-एकत्र, आए हुए / सहियाणं समुपविद्वाणंएक साथ समुपस्थित या समुपविष्ट = एक जगह आसन जमाए हुए / सन्निसन्नाणं- पास-पास बैठे हुए / मिहो कहासमुल्लावे-परस्पर वार्तालाप / देवद्धितिगहियष्ट-देवों की स्थिति के विषय में परमार्थ--रहस्य का ज्ञाता / भगवान द्वारा समाधान से सन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र से क्षमायाचना 6. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [6] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पालभिका नगरी में पधारे, यावत् परिषद् ने उनकी पर्युपासना की। 7. तए णं ते समणोवासगा इमोसे कहाए लट्ठा समाणा हट्ठा एवं जहा तुगिउद्देसए (स०२ उ० 5 सु० 14) जाव पज्जुवासंति / 7 (श. 2, उ. 5, सू. 14 में वर्णित) तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के समान पालभिका नगरी के वे (ऋषिभद्रपुत्र के समाधान के प्रति अश्रद्धालु) श्रमणोपासक इस बात (भगवान् के पदार्पण) को सुन (जान) कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान् को पर्युपासना करने लगे। 8. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवति / . [8 तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमण,पासकों को तथा उस बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही, यावत् वे आज्ञा के अाराधक हुए / विवेचन—आलभिका में भगवत्पदार्पण एवं असन्तुष्ट श्रमणोपासक सन्तुष्ट प्रस्तुत तीन सूत्रों (6-7-8) में तीन घटनाओं का उल्लेख किया गया है—(१) पालभिका नगरी में भगवान् का 1. वियाहपषणत्तिसत्तं (मुलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 555 2. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 552 Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२ ]. पदार्पण, (2) पदार्पण सुन कर असन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा भगवदुपासना एवं (3) भगवान् द्वारा धर्मोपदेश प्रदान से वे सन्तुष्ट, श्रद्धावान् एवं प्राज्ञाराधक / ' 9. तए णं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० उडाए उट्ठति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वं० 2 वदासी--एवं खलु भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खति जाव परूवेति- देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य / से कहमेतं भंते ! एवं? [6] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान महावीर के पास से धर्म---(धर्मोपदेश) श्रवण कर एवं अवधारण करके हृष्ट-तुष्ट हुए। फिर वे स्वयं उठे और खड़े होकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा----- प्र.] भगवन् ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने हमें इस प्रकार कहा, यावत् प्ररूपणा कीहे आर्यो ! देवलोकों में देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष कही गई है / उसके आगे एक-एक समय अधिक यावत् (पूर्ववत्) उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही गई है, यावत् इसके बाद देव और देवलोक विच्छिन्न हैं, नहीं हैं / तो क्या भगवन् ! यह बात ऐसी ही है ? 10. 'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-जं णं अज्जो ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुब्भं एवं भाइरखइ जाव परूवेइ–देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्न णं इस वाससहस्साई ठिई पग्णता तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य / सच्चे णं एसम? / अहं पिणं अज्जो ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्ने णं दस वाससहस्साइं० तं चेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य / सच्चे णं एसमट्ठ। [10 उ.] पार्यो ! इस प्रकार का सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों को तथा उस बड़ी (विशाल) परिषद् को इस प्रकार कहा-हे पार्यो ! ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ने जो तुमसे इस प्रकार (पूर्वोक्त) कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके आगे एक समय अधिक, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है, यावत् इसके आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं यह अर्थ (बात) सत्य है / हे पार्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है. यावत उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागारोपम को है, यावत इससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हो जाते हैं / आर्यो! यह बात सर्वथा सत्य है। 11. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उपागच्छति, उवा० 2 इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वदति नमसंति, बं० 2 एयम→ सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेति / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल पाठ-टिप्पण), भा. 2. पृ. 55.5 Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11] तदनन्तर उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान् महावीर से यह समाधान सुनकर और हृदय में अवधारण कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया; फिर जहाँ ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक था, वे वहाँ आए / ऋषिभद्रपूत्र श्रमणोपासक के पास प्राकर उन्होंने उसे वन्दन-नमस्कार किया और उसकी (पूर्वोक्त) बात को सत्य न मानने के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। 12. तए णं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, प० पु० 2 अट्ठाई परियादियंति, अ० 102 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, पं० 2 जामेव दिसं पाउम्भूता तामेव दिसं पडिगया। [12] फिर उन श्रमणोपासकों ने भगवान् से कई प्रश्न पूछे तथा उनके अर्थ ग्रहण किए और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में (अपने-अपने स्थान पर) चले गए। विवेचन-असन्तुष्ट श्रमणोपासकों का समाधान और ऋषिभद्रपुत्र से क्षमायाचना–प्रस्तुत चार सूत्रों में चार तथ्यों का उल्लेख किया गया है-(१) भ. महावीर का. धर्मोपदेश सुनकर उनके सामने ऋषिभद्रपुत्र के द्वारा प्राप्त समाधान की सत्यता की जिज्ञासा (2) भगवान् द्वारा ऋषिभद्रपुत्र के कथन की सत्यता का कथन, (3) श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र से वन्दन-नमन-विनयपूर्वक क्षमायाचना और (4) अन्य प्रश्नों का प्रस्तुतीकरण एवं अर्थग्रहण / ' कठिन शब्दों का अर्थ-समयाहिया-एक समय अधिक / भुज्जो मुज्जो-बार-बार / खामेंति- क्षमायाचना करते हैं। सम्म-सम्यक् प्रकार से / अट्ठाई परियादियंति—अर्थों का ग्रहण करते हैं / पसिगाई-प्रश्न / * / प्रस्तुत प्रकरण में असन्तुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा ऋषिभद्रपुत्र जैसे बराबरी के श्रमणोपासक से वन्दन-नमन करके क्षमायाचना करने में, उनकी सरलता, सत्यग्राहिता, एवं विनम्रता परिलक्षित होती है। ऋषिभद्रपुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में कथन 13. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति णमंसति, वं० 2 एवं वयासीपभू णं भंते ! इसिमद्दपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पच्वइत्तए ? ___णो इणठे समठे, गोयमा ! इसिमद्दयुत्ते गं समणोवासए बहूहि सीलव्वत-गुणवत-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहि प्रहापरिग्गहितेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउििहति, ब० पा० 2 मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेहिति, मा० झू० 2 सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति स० छै० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्साए उववज्जिहिति / तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता / तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती भविस्सति / 1. वियाहपरणत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 556 2. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा, 4, पृ. 1963-64 Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२ ] [103 [13 प्र.] तदनन्तर भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! क्या ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक ग्राप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित होकर आगारवास से अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ है ? [13 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं किन्तु यह ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक बहुत-से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवासों से तथा यथोचित गृहीत तपःकर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ, वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन करेगा। फिर मासिक संलेखना द्वारा साठ भक्त का अनशन द्वारा छेदन कर, (आहार छोड़कर), आलोचना और प्रतिक्रमण कर तथा समाधि प्राप्त कर, काल के अवसर पर काल करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होगा। वहाँ कितने हो देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है / ऋषिभद्रपुत्र-देव की भी चार पल्योपम की स्थिति होगी। 14. से णं भंते ! इसिमपुत्ते देवे ताओ देवलोगाओ पाउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं जाव कहिं उवज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिमिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [14 प्र] भगवन् ! वह ऋषिभद्रपुत्र-देव उन देवलोक से अायुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय करके यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? [14 उ.] गौतम ! वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा, यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! , यों कह कर भगवान् गौतम, यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। 15. तए गं समणे भगवं महावीरे अनया कयाइ पालभियानो नगरीओ संखवणाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, 102 बहिया जणवयविहारं विहरति / [15] पश्चात् किसी समय श्रमण भगवान् महावीर भी आलभिका नगरी के शंखवन उद्यान से निकल कर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। विवेचन ऋषिभद्रपुत्र के विषय में भविष्यकथन प्रस्तुत तीन सूत्रों (13 से 15 तक) में भगवान महावीर द्वारा ऋषिभद्रपुत्र के भविष्य के सम्बन्ध में प्रतिपादित तथ्य का निरूपण किया है। भगवान् ने दो तथ्यों की ओर इंगित किया है--(१) ऋषिभद्रपुत्र महाव्रती श्रमण न बन कर श्रमणोपासकवतों का पालन करेगा और अन्त में संलेखना-अनशन पूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके प्रथम देवलोक में देव बनेगा, (2) फिर वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा।' CD 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 557 Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्गल परिव्राजक मुद्गल परिव्राजक : परिचय और समुत्पन्नविभंगज्ञान 16. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था / वष्णयो। तत्थ णं संखवणे णामं चेइए होत्था / वण्णओ / तस्स णं संखवणस्त चेतियस्स अदूरसामंते मोग्गले' नामं परिवायए परिवसति रिजुब्वेद-यजुम्वेद जाव नयेसु सुपरिनिट्टिए छ?'छ?णं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढे बाहाओ जाव पायावेमाणे विहरति / [16] उस काल और उस समय में पालभिका नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ शंखवन नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। उस शंखवन उद्यान के न अतिदूर और न प्रतिनिकट (कुछ दूर) मुद्गल (पुद्गल) नामक परिव्राजक रहता था / वह ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि शास्त्रों यावत् बहुत-से ब्राह्मण-विषयक नयों में सम्यक् निष्णात था। वह लगातार बेले-बेले (छ8-छ8) का तपःकर्म करता हुअा तथा प्रातापनाभूमि में दोनों भुजाएँ ऊँची करके यावत् आतापना लेता हा विचरण करता था। 17. तए णं तस्स मोग्गलस्स परिवायगस्स छ8छछणं जाव आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जहा सिवस्स (स० 11 उ० 9 सु० 16) जाब विभंगे नामं णाणे समुप्पन्न / से णं तेणं विभंगेणं नाणेणं समुप्पन्नणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिति जाणति पासति / [17] तत्पश्चात् इस प्रकार से बेले-बेले का तपश्चरण करते हुए मुद्गल परिव्राजक को प्रकृति की भद्रता आदि के कारण (श. 11, उ. 6, सू. 16 में वर्णित) शिवराजर्षि के समान विभंगज्ञान (कु-अवधिज्ञान) उत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंगज्ञान के कारण पंचम ब्रह्मलोक कल्प में रहे हुए देवों की स्थिति तक जानने-देखने लगा। विवेचन-मुद्गल परिवाजक और उसे उत्पन्न विभंगज्ञान- प्रस्तुत दो सूत्रों (16-17) में मुद्गल परिव्राजक का परिचय और उसे उक्त तपश्चर्या, आतापना तथा प्रकृति भद्रता आदि के कारण विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह पंचम देवलोक के देवों की स्थिति जान-देख सकता था।' विभंगज्ञानो मुद्गल द्वारा अतिशय ज्ञान को घोषणा और जनप्रतिक्रिया 18. तए णं तस्स मोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-- 'अस्थि णं ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्न, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य'। एवं संपेहेति, एवं सं० 2 आयावणभूमीश्रो पच्चोरुभति, आ० प० 2 तिदंड-कुडिय जाव धाउरत्तानो य गेण्हति, गे० 2 जेणेव पालभिया णगरी 1. किसी-किमी प्रति में 'मोगले' (मुद्गल) के बदले पोग्गले (पुद्गल) पाठ है। वैदिकसंस्कृति की दृष्टि से मुदगल' शब्द उचित प्रतीत होता है। .-सं. 2. विवाहपण्णत्तिमुत्त (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 557 Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२ ] [ 105 जेणेक परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छति, ते 0 उ० 2 भंडनिक्खेवं करेति, भं० 20 2 पालभियाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु अन्नमन्नस्स एकमाइक्खति जाव परूवेति-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुष्पन्न, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवासमहस्साई० तं चेव जाव वोच्छिन्ना देवा य देवलोगाय। [18] तत्पश्चात् उस मुद्गल परिव्राजक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि- "मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हना है, जिससे मैं जानता है कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है। उससे आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हैं (नहीं हैं)।" इस प्रकार उसने ऐसा निश्चय कर लिया। फिर वह आतापनाभूमि से नीचे उतरा और त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गैरिक (धातुरक्त) वस्त्रों को ले कर पालभिका नगरी में जहाँ तापसों का मठ (आवसथ) था, वहाँ आया / वहाँ उसने अपने भण्डोपकरण रखे और पालभिका नगरी के शृगाटक, त्रिक, चतुष्क यावत् राजमार्ग पर एक-दूसरे से इस प्रकार कहने और प्ररूपणा करने लगा-~~'हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता-देखता हूँ कि देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति यावत दस सागरोपम की है। इससे आगे देवों और देवलोकों का अभाव है।" 19. तए णं आलभियाए नगरीए एवं एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स (स० 11 उ० 9 सु० 18) जाव से कहमेयं मन्ने एवं ? [16] इस बात को सुन कर पालभिका नगरी के लोग परस्पर (श. 11, उ. 6, सू. 18 के अनुसार) शिव राजर्षि के अभिलाप के समान कहने लगे यावत्- "हे देवानुप्रियो ! उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?" विवेचन-मुद्गल का अतिशय ज्ञानोत्पत्ति का मिथ्या दावा और घोषणा प्रस्तुत दो सूत्रों (18-16) में से प्रथम में मुद्गल परिव्राजक द्वारा स्वयं को अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न होने की मिथ्या धारणा तथा घोषणा का और द्वितीय सूत्र में पालभिका नगरी के लोगों को प्रतिक्रिया का वर्णन है। भगवान द्वारा सत्यासत्य का निर्णय 20. सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहुजणसई निसामेति (स० 11 उ० 9 सु० 20), तहेव सवं भाणियब्बं जाव (स० 11 उ० 9 सु० 21) अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि-देवलोएसु णं देवाणं जहानेणं दसवाससहस्साई ठिती पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता; तेण परं वुच्छिन्ना देवा य देवलोगा य / [20] (उन्हीं दिनों में पालभिका नगरी में) श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर) वापस लौटी / भगवान् गौतमस्वामी उसी प्रकार (पूर्ववत्) 1. वियाहाणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 558 Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नगरी में भिक्षाचर्या के लिए पधारे तथा बहुत-से लोगों में परस्पर (मुद्गल परिव्राजक को अतिशय ज्ञान-दर्शनोत्पत्ति की उपर्युक्त) चर्चा होती हुई सुनी / शेष सब वर्णन पूर्ववत् (श. 11, उ. 6, सू. 21 के अनुसार) कहना चाहिए, यावत् (भगवान् से गौतमस्वामी द्वारा पूछने पर उन्होंने इस प्रकार कहा-) गौतम ! मुद्गल परिव्राजक का कथन असत्य है / मैं इस प्रकार प्ररूपणा करता हूँ, इस प्रकार प्रतिपादन करता हूँ यावत् इस प्रकार कथन करता हूँ—“देवलोकों में देवों की जघन्य स्थिति तो दस हजार वर्ष की है, किन्तु इसके उपरान्त एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। इससे प्रागे देव और देवलोक विच्छिन्न हो गए हैं।" विवेचन-मुदगल परिवाजक के कथन की सत्यासत्यता का निर्णय प्रस्तुत 20 वें सूत्र में गौतमस्वामी द्वारा मुद्गल परिव्राजक के कथन की सत्यता-असत्यता के विषय में पूछे जाने पर भगवान् द्वारा दिये निर्णय का निरूपण है।' 21. अस्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दव्वाइं सवण्णाई पि अवण्णाई पि तहेब (स० 11 उ० 9 सु० 22) जाव हंता, अस्थि / [21 प्र.] भगवन् ! क्या सौधर्म-देवलोक में वर्णसहित और वर्ण रहित द्रव्य अन्योऽन्यबद्ध यावत् सम्बद्ध हैं ? इत्यादि पूर्ववत् (श. 11, उ० 6, सू० 22 के अनुसार) प्रश्न / [21 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 22. एवं ईसाणे वि। एवं जाव अच्चुए एवं गेविजविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपउभाराए वि जाव हंता, अस्थि / {22 प्र.] इसी प्रकार क्या ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में तथा ग्रंवेयकविमानों में और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में भी वर्णादिसहित और वर्णादिरहित द्रव्य हैं ? [22 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। 23. तए णं सा महतिमहालिया जाव पडिगया। [23] तदनन्तर वह महती परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर) यावत् वापस लौट गई। विवेचन-समस्त वैमानिक देवलोकों में वर्णादि से सहित एवं रहित द्रव्यसंबंधी प्ररूपणा--- प्रस्तुत दो सूत्रों (21-22) में सौधर्म देवलोक से लेकर अनुत्तरविमानों तक तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में वर्णादिसहित एवं वर्णादिरहित द्रव्यों की सम्बद्धता की प्ररूपणा की गई है तथा 23 व सूत्र में महती परिषद् के लौटने का वर्णन है। मुद्गल परिव्राजक द्वारा निर्ग्रन्थप्रवज्याग्रहण एवं सिद्धिप्राप्ति 24. तए णं आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिय० अवसेसं जहा सिवस्स (स० 11 उ० 9 सु० 27-32) जाव सम्वदुक्खप्पहीणे, णवरं तिदंड-कुडियं जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवडिय 1. वियापण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 558 Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-१२] 107 विभंगे आलभियं नरि मज्झमझेणं निग्गच्छति जाव उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं प्रवक्कमति, उत्तर० अ० 2 तिदंड-कुडियं च जहा खंदओ (स० 201 सु० 34) जाव पव्वइओ। सेसं जहा सिवस्स जाव अव्वाबाहं सोक्खं अणुहंति सासतं सिद्धा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / एक्कारसमे सए बारसमो उद्देसो समत्तो // 11-12 // ॥एक्कारसमं सयं समत्तं / / 11 / / [24] तत्पश्चात् पालभिका नगरी में शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोगों से यावत् मुद्गल परिव्राजक ने भगवान् द्वारा दिया अपनी मान्यता के मिथ्या होने का निर्णय सुन कर इत्यादि सब वर्णन (श. 11, उ. 6, सू. 27-32 के अनुसार) शिवराजर्षि के समान कहना चाहिए। ___ [मुद्गल परिव्राजक भी शिवराजर्षि के समान शंकित, कांक्षित यावत् कालुष्ययुक्त हुए, जिससे उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। [भगवान् आदिकर, तीर्थंकर, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी] यावत् सर्वदुःखों से रहित होकर विचरते] हैं; [उनके पास जाऊँ और यावत् पर्युपासना करू / इस प्रकार विचार कर] विभंगज्ञानरहित मुद्गल परिव्राजक ने भी अपने त्रिदण्ड, कुण्डिका आदि उपकरण लिये, भगवाँ वस्त्र पहने और वे पालभिका नगरी के मध्य में हो कर निकले, [जहाँ भगवान् विराजमान थे, वहाँ पाए,] यावत् उनकी पर्युपासना की। [भगवान् ने मुद्गल परिव्राजक तथा उस महापरिषद् को धर्मोपदेश दिया, यावत् इसका पालन करने से जीव प्राज्ञा के आराधक होते हैं / भगवान् द्वारा अपनी शंका का समाधान हो जाने पर मुद्गल परिव्राजक भी यावत् उत्तरपूर्वदिशा में गए और स्कन्दक की तरह (श. 2, उ. 1, सू. 34 के अनुसार) त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवाँ वस्त्र एकान्त में छोड़ कर यावत् प्रवजित हो गए। इसके बाद का वर्णन शिवराजर्षि की तरह जानना चाहिए; [यावत् मुद्गलमुनि भी पाराधक हो कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए 1] यावत् वे सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', ऐसा कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन-मुद्गल परिव्राजक : विभंगज्ञानरहित, शंकारहित, प्रवजित और सिद्धिप्राप्तप्रस्तुत 24 वें सूत्र में मुद्गल परिव्राजक का अपनी मान्यता भ्रान्त ज्ञात होने पर उनके शंकित आदि होने, उनका विभंगज्ञान नष्ट होने, भगवान् की सेवा में पहुँचने और शंकानिवारण होने पर प्रजित होने तथा रत्नत्रयाराधना करने तथा अन्तिम संलेखना-संथारा करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने तक का वर्णन है।' // ग्यारहवां शतक : बारहवाँ उद्देशक समाप्त / / // ग्यारहवां शतक सम्पूर्ण // 1. वियाहपण्णत्तिस्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 559 Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सयं : बारहवां शतक प्राथमिक ___ भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र के इस बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं--(१) शंख, (2) जयन्ती, (3) पृथ्वी, (4) पुद्गल, (5) अतिपात, (6) राहु, (7) लोक, (8) नाग, (6) देव और (10) प्रात्मा / * प्रथम उद्देशक में वर्णन है कि-श्रावस्ती निवासी शंख और पुष्कली आदि श्रमणोपासकों ने भगवान् महावीर का प्रवचन सुन कर आहारसहित पौषध करने का विचार किया, और शंख ने अन्य सब साथी श्रमणोपासकों को आहार तैयार कराने का निर्देश दिया। परन्तु शंख श्रमणोपासक ने बाद में निराहार पौषध का पालन किया / जब प्रतीक्षा करने के बाद भी शंख न आया तो अन्य श्रमणोपासकों ने प्राहार किया। दूसरे दिन जब शंख मिला तो अन्य श्रमणोपासकों ने उसे उपालम्भ दिया, किन्तु भगवान् ने उन्हें ऐसा करते हुए रोका / उन्होंने शंख की प्रशंसा की। इससे श्रमणोपासकों ने शंख से अविनय के लिए क्षमा मांगी। अन्त में तीन प्रकार की जागरिका का वर्णन किया गया है। * द्वितीय उद्देशक में भगवान महावीर की प्रथम शय्यात रा जयन्ती श्रमणोपासिका का वर्णन है, जिसने भगवान से क्रमशः जीव को गुरुत्व-लघुत्व प्राप्ति, भव्य-अभव्य, सुप्त-जाग्रत, दुर्बलतासबलता, दक्षत्व-अनुद्यमित्व आदि के विषय में प्रश्न पूछ कर समाधान प्राप्त किया / अन्त में पचेन्द्रिय विषयवशात के परिणाम के विषय में समाधान पूछकर वह संसारविरक्त होकर प्रवजित हुई। तृतीय उद्देशक में सात नरकपृथ्वियों के नाम-गोत्र आदि का वर्णन है / चतुर्थ उद्देशक में दो परमाणुओं से लेकर दस परमाणुनों, यावत् संख्यात, असंख्यात और अनन्तपरमाणपदगलों के एकत्वरूप एकत्र होने पर बनने वाले स्कन्ध के पथक-पथक विकल्पों : प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् इन परमाणुपुद्गलों के संघात और भेद से विभिन्न पुद्गल परिवों का निरूपण किया गया है। पंचम उद्देशक में प्रागातिपात आदि अठारह पाप स्थानों के पर्यायवाची पदों के उल्लेखपूर्वक उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का निरूपण है। तत्पश्चात् प्रोत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पांच तथा सप्तम अवकाशान्तर से बैमानिकावास तक, एवं पंचास्तिकाय, अष्ट कर्म, षट् लेश्या, पंच शरीर, त्रियोग, अतीतादिकाल एवं गर्भागत जीवन में वर्णादि की प्ररूपणा की गई है / अन्त में बताया गया है कि कर्मों से ही जीव मनुष्य तिर्यञ्चादि नाना रूपों को प्राप्त होता है / Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बारहवां शतक : प्राथमिक [109 * छठे उद्देशक में 'राहु चन्द्रमा को नस लेता है', इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण करते हुए भगवान् ने राहु की विभूतिमत्ता, शक्तिमत्ता, उसके नाम, एवं वर्ण का प्रतिपादन किया है. तथा इस तथ्य को उजागर किया है कि राहु प्राता-जाता, विक्रिया करता या कामक्रीड़ा करता हुआ जब पूर्वादि दिशाओं से चन्द्रमा की ज्योत्स्ना को आच्छादित कर देता है तव इसी को लोग राहु द्वारा चन्द्र का ग्रसन, ग्रह्ण, भेदन, वमन या भक्षण करना कह देते हैं / तत्पश्चात् ध्र वराहु र पवराह के स्वरूप और काय का, चन्द्र को शशा और सयं को ग्रादित्य कहने के कारण का तथा चन्द्र और सूर्य के कामभोगनित सुखों का प्रतिपादन किया गया है / सप्तम उद्देशक में समस्त दिशामों से असंख्येय कोटा-कोटि योजनप्रमाण लोक में परमाणु पुद्गल जितने आकाशप्रदेश के भी जन्म-मरण से अस्पृष्ट न रहने का तथ्य अजा-अज के दृष्टान्तपूर्वक सिद्ध किया गया है। तत्पश्चात् रत्नप्रभा पृथ्वो से लेकर अनुत्तर विमान के आवासों में अनेक या अनन्त बार उत्पत्ति की तथा एक जोव और सर्व जीवों की अपेक्षा से माता आदि के रूप में, शत्रु प्रादि के रूप में, राजादि के रूप में एवं दासादि के रूप में अनेक या अनन्त बार उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। अष्टम उद्देशक में महद्धिक देव की नाग, मणि एवं वृक्षादि में उत्पत्ति एवं प्रभाव की चर्चा की गई है / तत्पश्चात् निःशील, व्रतादिरहित महान् वानर, कुक्कुट एवं मण्डूक, सिंह, व्याघ्रादि, तथा ढंक कंकादि पक्षी आदि के प्रथम नरक के नैरयिक रूप में उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है। नौवें उद्देशक में भव्यद्रव्यदेव प्रादि पंचविध देव, उनके स्वरूप तथा उनकी आगति, जघन्यउत्कृष्ट स्थिति, विक्रियाशक्ति, मरणानन्तरगति-उत्पत्ति, उद्वर्तना, संस्थितिकाल, अन्तर, पंचविध देवों के अल्पबहुत्व एवं भाव देवों के अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है / * दसवें उद्देशक में आठ प्रकार की आत्मा तथा उनमें परस्पर सम्बन्धों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् आत्मा की ज्ञानदर्शन से भिन्नता-अभिन्नता, तथा रत्नप्रभा पृथ्वी से लेकर अच्युतकल्प तक के प्रात्मा, नो-आत्मा के रूप में कथन किया गया है। तदनन्तर परमाणपुद्गल से लेकर द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, चतुष्प्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के सकलादेश विकलादेश की अपेक्षा से विविध भंगों का प्रतिपादन किया गया है / * कुल मिला कर आत्मा का विविध पहलुओं से, विविध रूप में कथन, साधना द्वारा जीव और कर्म का पृथक्करण, परमाणुपुद्गलों से सम्बन्ध प्रादि का रोचक वर्णन प्रस्तुत शतक में किया गया है।' 1. 'वियाहपण्णत्ति नुत्त' (मलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 560 से 614 तक Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सयं : बारहवाँ शतक बारहवें शतक के दश उद्देशकों के नाम बारहवे शतक के दस उद्देशक 1. संखे 1 जयंति 2 पुढवी 3 पोगाल 4 अइवाय 5 राहु 6 लोगे य 7 / नागे य 8 देव 9 आया 10 बारसमसए दसुद्देसा // 1 // [सू. 1 गाथार्थ] बारहवें शतक में दस उद्देशक हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं)-(१) शंख, (2) जयन्ती, (3) पृथ्वी, (4) पुद्गल, (5) अतिपात, (6) राहु, (7) लोक, (8) नाग, (9) देव और (10) आत्मा / / 1 / / विवेचन–दश उद्देशक-(१) शंख -श्रमणोपासक शंख और पुष्कली के साहार पौषधोपवास का वर्णन, (2) जयन्ती-जयन्ती श्रमणोपासिका के भगवान से प्रश्नोत्तर, (3) पृथ्वी-सात नरकभूमियों का वर्णन, (4) पुद्गल परमाणु और स्कन्ध के विभागों का वर्णन, (5) प्रतिपातप्राणातिपात ग्रादि पापों के वर्ण ग्रन्धादि का निरूपण, (6) राहु-राहु द्वारा चन्द्रमा के ग्रसन आदि की भ्रान्त मान्यता का निराकरण, (7) लोक-लोक के परिमाण आदि का वर्णन, (8) नाग-नाग (सर्प या गज) की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में प्रश्न, (8) देव-देवों के प्रकार तथा उत्पत्ति के कारण आदि का वर्णन, (10) आत्मा-~-यात्मा के आठ प्रकार और उनके परस्पर सम्बन्ध, अल्पबहुत्व आदि का वर्णन / ' पढमो उद्देसओ : 'संखे' प्रथम उद्देशक : शंख (और पुष्कली श्रमणोपासक) शंख और पुष्कली का संक्षिप्त परिचय 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नयरी होत्था / वण्णओ। कोट्ठए चेतिए / वण्णओ। [2] उस काल और उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी। उसका वर्णन (प्रौपपातिक आदि सूत्रों से समझ लेना)। (वहाँ) कोष्ठक नामक उद्यान था, उसका वर्णन भी (प्रौपपातिक सूत्र के उद्यान-वर्णन के अनुसार समझ लें)। 1. भगवतीमूत्र, वृत्ति, पत्र 555 Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [111 ___3. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए बहवे संखपामोक्खा समणोवासगा परिवसंति अड्ढा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति / [3] उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे। (वे) पाढ्य यावत् अपरिभूत थे; तथा जीव, अजीव आदि तत्त्वों के ज्ञाता थे, यावत् विचरते थे। 4. तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्या, सुकुमाल जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाब विरहति / [4] उस 'शंख' श्रमणोपासक की भार्या (पत्नी) का नाम ‘उत्पला' था। उसके हाथ-पैर अत्यन्त कोमल थे, यावत् वह रूपवती एवं श्रमणोपासिका थी, तथा जीव-अजीव आदि तत्त्वों की जानने वाली यावत् विचरती थी। 5. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पोक्खली नाम समणोवासए परिवसति अड्ढे अभिगय जाव विहरति / [5] उसी श्रावस्ती नगरी में पुष्कली नाम का (एक अन्य) श्रमणोपासक रहता था। वह भी प्राढ्य यावत् जीव-अजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था यावत् विचरता था। विवेचन-श्रावस्ती नगरी के दो प्रमुख श्रमणोपासक - प्रस्तुत 4 सूत्रों (2 से 5 तक) में श्रावस्ती नगरी में बसे हए अनेक श्रमणोपासकों में से दो विशिष्ट इसलिए दिया गया है कि इन्हीं दोनों से सम्बन्धित वर्णन इस उद्देशक में किया जाने वाला है। श्रावस्ती नगरी प्राचीन काल में भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के युग में बहुत ही समृद्ध नगरी थी। उसका कोष्ठक उद्यान प्रसिद्ध था, जहाँ केशी-गौतम-संवाद हुआ था। वर्तमान में श्रावस्ती का नाम 'सेहट-मेहट' है / अब यह वैसी समृद्ध नगरी नहीं रही। भगवान का श्रावस्ती में पदार्पण, श्रमणोपासकों द्वारा धर्मकथा श्रवण---- 6. तेणं कालेणं तेण समएणं सामी समोसढे / परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ / [6] उस काल और उस समय में (श्रमण भगवान महावीर) स्वामी श्रावस्ती पधारे / उनका समवसरण (धर्मसभा) लगा / परिषद् वन्दन के लिये गई, यावत् पर्युपासना करने लगी। 7. तए णं ते समणोवासगा इमोसे जहा पालभियाए (स० 11 उ० 12 सु० 7) जाव पज्जुवासंति। [7] तत्पश्चात् (श्रमण भगवान महावीर के आगमन को जान कर) वे (श्रावस्ती के) श्रमणोपासक भी, पालभिका नगरी के (श. 11, उ. 12, स. 7 में उक्त श्रमणोपासक के समान) उनके वन्दन एवं धर्मकथाश्रवण आदि के लिए गए) यावत् पर्युपासना करने लगे। 8. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य महतिमहालियाए० धम्मकहा जाव परिसा पडिगया। [8] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को और उस महती महा Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिषद को धर्मकथा कही (धर्मोपदेश दिया)। यावत् परिषद् (धर्मोपदेश सुन कर अत्यन्त हर्षित हो कर) वापिस चली गई। 9. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हटतुट्ठ० समर्थ भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वं० 2 पसिणाई पुच्छंति, 10 पु० अट्ठाइं परियादियंति, अ० प० 2 उठाए उट्ठति, उ० 2 समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियाओ कोढगाश्रो चेतियाओ पडिनिक्खमंति, प० 2 जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए / [6] तत्पश्चात् वे (श्रावस्ती के) श्रमणोपासक भगवान् महावीर के पास धर्मोपदेश सुन कर और अवधारण करके हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया, (और उनसे कतिपय) प्रश्न पूछे, तथा उनका अर्थ (उत्तर) ग्रहण किया। फिर उन्होंने खड़े हो कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और कोष्ठक उद्यान से निकल कर श्रावस्ती नगरी की पोर जाने का विचार किया। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (6 से 6 तक) में निम्नोक्त बातों का प्रतिपादन किया गया है१. भगवान महावीर का श्रावस्ती में पदार्पण और परिषद् का वंदनादि के लिए निर्गमन / 2. श्रावस्ती के उन विशिष्ट श्रमणोपासकों द्वारा भी भगवान के वन्दन-प्रवचनश्रवणादि के लिए पहुँचना। 3. भगवान् द्वारा सबको धर्मोपदेश करना / 4. धर्मोपदेश सुन उक्त श्रमणोपासकों द्वारा भगवान् से अपने प्रश्नों का उतर पा कर श्रावस्ती की ओर प्रत्यागमन / कठिनशब्दार्थ---पहारेत्थ गमणाए-गमन के लिए निर्धारण किया। शंख श्रमरणोपासक द्वारा पाक्षिक पौषधार्थ श्रमरणोपासकों को भोजन तैयार कराने का निर्देश 10. तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं बदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेह / तए णं अम्हे तं विपुलं असण पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। [10] तदनन्तर उस शंख श्रमणोपासक ने दूसरे (उन साथी) श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! तुम विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम (भोजन) तैयार करायो। फिर (भोजन तैयार हो जाने पर) हम उस प्रचुर अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (भोजन) का प्रास्वादन करते हुए, विशेष प्रकार से प्रास्वादन करते हुए, एक-दूसरे को देते हुए और भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध (पक्खी के पोसह) का अनुपालन करते हुए अहोरात्र-यापन करेंगे। 11. तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयम8 विणएणं पडिसुणंति / [11] इस पर उन (अन्य सभी) श्रमणोपासकों ने शंख श्रमणोपासक की इस बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया। Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [113 विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (10-11) में तीन बातों का विशेषरूप से निरूपण किया गया है(१) शंख श्रमणोपासक द्वारा साथी श्रमणोपासकों को विपुल भोजन तैयार कराने का निर्देश, (2) सभी परस्पर भोजन देते और करते हुए पाक्षिक पौषध करने का प्रस्ताव, तथा (3) साथी श्रमणोपासकों द्वारा उक्त प्रस्ताव का स्वीकार / कठिनशब्दार्थ-उवखडावेह-तैयार करायो / आसाएमाणा-प्रास्वादन करते हए; भावार्थ है गन्ने के टुकड़ों की तरह थोड़ा खाते हुए और छिलके आदि बहुत-सा भाग फेंकते हुए। विस्साएमाणा-विशेष प्रकार से प्रास्वादन करते हुए, भावार्थ है-खजूर आदि की तरह बहुत कम छोड़ते हुए / परिभाएमाणा-परस्पर एक दूसरे को परोसते-देते हुए / परि जेमाणा-सारा (थाली में लिया हुआ) ही खाते हुए, जरा भी झूठा न छोड़ते हुए। इन चारों में वर्तमान में चालू क्रिया का निर्देशक 'शान' प्रत्यय है, परन्तु ये वार्तमानिक प्रत्ययान्त शब्द भूतकालिक प्रत्ययान्तद्योतक समझना चाहिए। पक्खियं-पाक्षिक, पन्द्रह दिनों में होने वाला / पोसह-अव्यापाररूप पौषध, आहार-प्रत्याख्यान के अतिरिक्त अब्रह्मचर्य सेवन, रत्नादि आभूषण, माला-विलेपनादि शस्त्रमूसलादिक सावध व्यापार तथा स्नान शृगार एवं व्यवसाय के त्याग को ही यहाँ अव्यापारपौषध समझना चाहिए। पडिजागरमाणा-अनुपालन करते हए, अर्थात-पौषध करके धर्मजागरणा करते हए / विहरिस्सामो-एक अहोरात्र यापन करेंगे। पडिसणंति-सन कर स्वीकृति रूप में प्रत स्वीकार करते हैं।' पौषध के मुख्य दो प्रकार-प्रस्तुत पाठ से यह फलितार्थ निकलता है कि पौषध दो प्रकार का है.--(१) चतुर्विध प्राहारत्याग-पौषध और (2) याहार-सेवनयुक्त पौषध / प्रस्तुत में शंख श्रमणोपासक ने आहार-सेवनपूर्वक पौषध करने का विचार प्रस्तुत किया है, जिसे वर्तमान में देश पौषध, देशावकाशिकव्रत-रूप पौषध, अथवा दयाव्रत, या छकाया (षटकायारम्भ-त्याग) कहते हैं।' शंख श्रमणोपासक द्वारा प्राहारत्यागपूर्वक पौषध का अनुपालन 12. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था'नो खलु मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं आसाएमाणस्स विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स परिभुजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए / सेयं खलु मे घोसहसालाए पोसहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणि-सुवण्णस्स ववगयमाला-वण्णग-विलेवणस्स निक्खित्तसत्थ-मुसलस्स एगस्स अविइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए'त्ति कटु एवं संपेहेति, ए० सं० 2 जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समशोवासिया तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 उप्पलं समणोवासियं पापुच्छति, उ० प्रा० 2 जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 पोसहसालं अणुपविसति, पो० अ० 2 पोसहसालं पमज्जति, पो० 502 उच्चार-पासवणभूमि पडिलेहेति, उ०प० 2 दब्भसंथारगं संथरति, द० सं० 2 दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहिता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी जाव पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरति / 1. भगवतीमुक्त, अभय. वृत्ति, पत्र 555 2. (क) भगवतीमूत्र, विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भा-४, पृ. 1975 (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष, 'पोसह' शब्द Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [12] तदनन्तर उस शंख श्रमणोपासक को एक ऐसा अध्यवसाय (विचार एवं अभीष्ट मनोगत संकल्प) यावत् उत्पन्न हुना--"उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन, विस्वादन, परिभाग और परिभोग करते हुए पाक्षिक पौषध (करके) धर्मजागरणा करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं प्रत्युत अपनी पौषध-शाला में, ब्रह्मचर्यपूर्वक, मणि, सुवर्ण आदि के त्यागरूप तथा माला, वर्णक एवं विलेपन से रहित, और शस्त्र-मूसल ग्रादि के त्यागरूप पौषध का ग्रहण करके दर्भ (डाभ) के संस्तारक (बिछौने) पर बैठ कर दूसरे किसी को साथ लिये बिना अकेले को ही पाक्षिक पौषध के रूप में (अहोरात्र) धर्मजागरणा करते हुए विचरण करना श्रेयस्कर है।" इस प्रकार विचार करके वह श्रावस्ती नगरी में जहाँ अपना घर था, वहाँ पाया, (और अपनी धर्मपत्नी) उत्पला श्रमणोपासिका से (इस विषय में) पूछा (परामर्श किया)। फिर जहाँ अपनी पौषधशाला थी, वहाँ प्राया, पौषधशाला में प्रवेश किया। फिर उसने पौषधशाला का प्रमार्जन किया (सफाई की); उच्चार-प्रस्रवण (मलमूत्रविसर्जन) की भूमि का प्रतिलेखन (भलीभांति निरीक्षण किया / तब उसमें डाभ का संस्तारक (बिछौना) बिछाया और उस पर बैठा / फिर (उसी) पौषधशाला में उसने ब्रह्मचर्य पूर्वक यावत् (पूर्वोक्तवत्) पाक्षिक पौषध (रूप धर्मजागरणा) पालन करते हुए, (अहोरात्र) यापन किया / विवेचन-शंख श्रावक द्वारा निराहार पौषध का संकल्प और अनुपालन–प्रस्तुत सूत्र में शंख श्रमणोपासक द्वारा किये गए संवेगयुक्त एक नये अध्यवसाय और तदनुसार पौषधशाला में निराहार पौषध के अनुपालन का वर्णन है। आहारत्यागपौषध : एकाकी या सामूहिक भी ?- भगवान के दर्शन करके वापिस लौटते समय शंख श्रावक को साहारपौषध सामूहिक रूप से करने का विचार सूझा और तदनुसार उसने अपने साथी श्रमणोपासकों को चतुर्विध प्राहार तयार कराने का निर्देश दिया था, किन्तु बाद में शंख के मन में अतिशयसंवेगभाव एवं उत्कृष्ट त्यागभाव के कारण निराहार रह कर एकाकी ही अपनी पौषधशाला में पाक्षिक पौषध के अनुपालन करने का विचार स्फुरित हुआ और तदनुसार उसने पत्नी से परामर्श करके पौषधशाला में जा कर अकेले ही निराहार पौषध अंगीकार करके धर्मजागरणा की / यहाँ प्रश्न होता है कि ग्राहारसहित पौषध जैसे सामूहिकरूप से किया जाता है, वैसे क्या निराहारपौषध सामूहिक रूप से नहीं हो सकता ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं---'एगस्स अविइयस्स' इस मूलपाठ पर से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि निराहार पौषध पौषधशाला में अकेले ही करना कल्पनीय है। यह तो चरितानवादरूप है, दूसरे शास्त्रों एवं ग्रन्थों में, पौषधशाला में बहुत-से श्रावकों द्वारा मिल कर सामूहिकरूप से पौषध करने का वर्णन है। ऐसा करने में कोई दोष भी नहीं है, बल्कि सामूहिकरूप से पौषध करने से सामूहिकरूप से स्वाध्याय करने बोल-थोकड़े आदि का स्मरण करने में सुविधा होती है, इससे विशेष लाभ ही है / इसलिए सामूहिक पौषध में विशिष्ट गुणों की सम्भावना है।' दूसरी बात–'एगस्स अबिइयस्स' का स्पष्ट आशय यह है कि बाह्य सहायता की अपेक्षा के बिना केवल एकाकी ही, अथवा दूसरे किसी तथाविध क्रोधादि की सहायता की अपेक्षा के बिना केवल आत्मनिर्भर हो कर / 1. भगवतीसूत्र, अभय. वत्ति, पत्र 555 2. वही, पत्र 555, Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [115 कठिनशब्दार्थ-प्रज्झथिए - अध्यवसाय। उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स-मणि, सुवर्ण आदि बहुमूल्य वस्तुनों को छोड़ कर / ववगयमाला-वण्णग-विलवणस्स-माला, वर्णक (सुगन्धितचूर्णपाउडर) एवं विलेपन से रहित हो कर / ' आहार तैयार करने के बाद शंख को बुलाने के लिए पुष्कलो का गमन 13. तए णं ते समणोवासमा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साई साइं गिहाई तेणेव उवागच्छंति, ते० उ०२ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उबक्खडावेंति, उ० 2 अन्नमन्ने सद्दाति, अन्न० स० 2 एवं वयासी—'एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविते, संखे य णं समणोवासए नो हव्वमागच्छद / तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सहावेत्तए।' [13] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर पहुँचे / और उन्होंने पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (चतुबिध आहार) तैयार करवाया। फिर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया और परस्पर इस प्रकार कहने लगे—देवानुप्रियो ! हमने तो (शंख श्रमणोपासक के कहे अनुसार) पुष्कल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (पाहार) तैयार करवा लिया; परन्तु शंख श्रमणोपासक जल्दी (अभी तक) नहीं पाए इसलिए देवानुप्रियो ! हमें शंख श्रमणोपासक को बुला लाना श्रेयस्कर (अच्छा) है। 14. तए गं से पोक्खलो समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासो-'अच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सुनिन्वया वीसस्था, अहं णं संखं समणोवासगं सद्दावेमिति कटु तेसि समणोवासगाणं अंतियानो पडिनिक्खमति, प० 2 सावत्थीनगरीमझमझेणं जेणेव संखस्स समणोवासयस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 संखस्स समणोवासमस्स गिहं अणुपविट्ठ। [14] इसके बाद उस पुष्कली नामक श्रमणोपासक ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- "देवानुप्रियो ! तुम सब अच्छी तरह स्वस्थ (निश्चित) और विश्वस्त होकर, बैठो, (विधाम लो), मैं शंख श्रमणोपासक को बुलाकर लाता हूँ / " यों कह कर वह उन श्रमणोपासकों के पास से निकल कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर जहाँ शंख श्रमणोपासक का घर था, वहाँ आकर उसने शंख श्रमणोपासक के घर में प्रवेश किया। विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों (13-14) में, उक्त श्रमणोपासकों द्वारा भोजन तैयार कराने के बाद जब शंख श्रमणोपासक नहीं पाया तो उसे बुलाने के लिए पुष्कली श्रमणोपासक का उसके घर पहुंचने का वर्णन है। कठिनशब्दार्थ-नो हव्व-मागच्छइ-जल्दी नहीं पाया अथवा अभी तक नहीं आया / अच्छह-बैठो। सुनिया-अच्छी तरह शान्त, या स्वस्थ अथवा निश्चित / वोसत्था-विश्वस्त होकर / / 1. भगवतीसूत्र (विवेचन, पं. घेवरचंदजी) भा-४ पृ. 1974 2. पाइयसहमहनणवो, पृ. 943, 20, 412, 814 Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गुहागत पुष्कली के प्रति शंखपत्नी द्वारा स्वागत-शिष्टाचार और प्रश्नोत्तर 15. तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोवलि समणोवासगं एज्जमाणं पासति, पा० 2 हट्ठतु४० आसणातो अब्भुट्ठति, आ० अ० 2 सत्तट्ट पदाइं अणुगच्छति, स० अ० 2 पोर्खाल समणोवासगं वंदति नमसति, वं० 2 आसणेणं उवनिमंतेति, प्रा० उ० 2 एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं ? तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी- 'कहिं णं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ?' तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोलि समणोवासगं एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! संखे समाणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरति / [15] तत्पश्चात् पुष्कली श्रमणोपासक को (अपने घर की भोर) प्राते देख कर, वह उत्पला श्रमणोपासिका (शंख श्रमणोपासक की धर्मपत्नी) हर्षित और सन्तुष्ट हुई / वह (तुरन्त ) अपने प्रासन से उठी और सात-आठ कदम (चरण) सामने गई / फिर उसने पुष्कली श्रमणोपासक को वन्दननमस्कार किया, और प्रासन पर बैठने को कहा ! फिर इस प्रकार पूछा--'कहिये, देवानुप्रिय ! आपके (यहाँ) पाते का क्या प्रयोजन है ?' इस पर उस पुष्कली श्रमणोपासक ने, उत्पला श्रमणोपासिका से इस प्रकार कहा--'देवानुप्रिये ! शंख श्रमणोपासक कहाँ हैं ?' (यह सुन कर) उस उत्पला श्रमणोपासिका ने पुष्कली श्रमणोपासक को इस प्रकार उत्तर दिया—'देवानुप्रिय ! बात ऐसी है कि वह (शंख श्रमणोपासक तो आज) पौषधशाला में पौषध ग्रहण करके ब्रह्मचर्ययुक्त होकर यावत् (धर्मजागरणा कर) रहे हैं / विवेचन--प्रस्तुतसूत्र (15) में पुष्कली द्वारा शंख की पत्नी से पूछने पर उसके द्वारा शंख के पौषधग्रहण करके धर्मजागरिका करने का वृत्तान्त प्रतिपादित है। उत्पला द्वारा पुष्कली श्रमणोपासक का स्वागत और शिष्टाचार-प्रस्तुत मूल पाठ में अपने घर पर प्राए हुए शिष्ट जन के स्वागत-सत्कार की उस युग की परम्परा का वर्णन है / इसमें शिष्टाचार सम्बन्धी पांच बातें गभित हैं--(१) घर की ओर आते देख हर्षित और सन्तुष्ट होना, (2) प्रासन से उठ कर स्वागत के लिए सात-पाठ कदम सामने जाना, (3) वन्दन-नमस्कार करना, (4) बैठने के लिए आसन देना, और (5) आदरपूर्वक प्रागमन का प्रयोजन पूछना / / संदिसंतु : दो अर्थ -(1) प्राज्ञा दीजिए, (2) बताइए या कहिए / ' पौषधशाला में स्थित शंख को पुष्कलो द्वारा प्राहारादि करते हुए पौषध का आमंत्रण और उसके द्वारा अस्वीकार 16. तए णं से पोक्खलो समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 गमणागमणाए पडिक्कमति, ग०प० 2 संखं समणोवासगं वंदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहि से विउले असण जाव साइमे उवक्खडाविते, 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणसहित) पृ. 563 2. पाइयतद्दमहण्णवो, पृ. 842 --- Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [117 तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! तं विउलं असणं जाव साइमं प्रासाएमाणा जाब पडिजागरमाणा विहरामो। [16] तब वह पुष्कली श्रमणोपासक, जिस पौषधशाला में शंख श्रमणोपासक था, वहाँ उसके पास आया और उसने गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। फिर शंख श्रमणोपासक को वन्दननमस्कार करके इस प्रकार बोला-'देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम पाहार तैयार करा लिया है / अतः देवानुप्रिय ! अपन चलें और वह विपुल अशनादि आहार एक दूसरे को देते और उपभोगादि करते हुए पौषध करके रहें। 17. तए णं से संखे समणोवासए पोर्खाल समणोवासगं एवं वयासी-'णो खलु कप्पति देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणस्स जाव पडिजागरमाणस्स विहरित्तए / कप्पति मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए / तं छदेणं देवाणुप्पिया! तुझे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह' / [17] यह सुन कर शंख श्रमणोपासक ने पुष्कली श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! मेरे लिये (अब) उस विपुल प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का उपभोग आदि करते हुए पौषध करना कल्पनीय (योग्य) नहीं है। मेरे लिए पौषधशाला में पौषध (निराहार पौषध) अंगीकार करके यावत् धर्मजागरणा करते हुए रहना कल्पनीय (उचित) है। अतः हे देवानुप्रिय ! तुम सब अपनी इच्छानुसार उस विपुल प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य प्राहार का उपभोग आदि करते हुए यावत् पौषध का अनुपालन करो / ' विवेचन-प्रस्तुत दो सूत्रों (16-17) में निरूपण है कि पुष्कली श्रमणोपासक द्वारा शंखश्रावक को प्राहार करके पौषध करने हेतु चलने का आमंत्रण देने पर शंख ने अपने लिए निराहार पौषधपूर्वक धर्मजागरणा करने के औचित्य का प्रतिपादन करके पुष्कली आदि को स्वेच्छानुसार पाहार करके पौषध करने की सम्मति दी। छंदेणं-स्वेच्छानुसार / गमणागमणाए पडिक्कमति-ईपिथिको क्रिया (मार्ग में चलने से कदाचित् होने वाली जीवविराधना) का प्रतिक्रमण करता है / ' पुष्कलीकथित वृत्तान्त सुनकर श्रावकों द्वारा खाते-पीते पौषधानुपालन 18. तए णं से पोक्खली समणोवासगे संखस्स समणोवासगस्स अंतियानो पोसहसालानो पडिनिक्खमति, पडि० 2 सात्थि नर मझमझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 ते समणोवासए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरति / तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं जाव विहरह / संखे णं समणोवासए नो हन्वमागच्छति / 1. (क) भगवतीसूत्र भा. 4 (हिन्दी विवेचन) पृ. (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [18] तदनन्तर वह पुष्कली श्रमणोपासक, शंखश्रमणोपासक की पौषधशाला से लौटा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर, जहाँ वे (साथी) श्रमणोपासक थे, वहाँ पाया / फिर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला--''देवानुप्रियो ! शंख श्रमणोपासक निराहार-पौषधवत अंगीकार करके पौषधशाला में स्थित है / (उसने कह दिया कि "देवानुप्रियो ! तुम सब स्वेच्छानुसार उस विपुल अशनादि पाहार को परस्पर देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन कर लो। शंख श्रमणोपासक अब नहीं आएगा।" 19. तए गं ते समणोवासगा तं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणा जाव विहरंति। [19] यह सुन कर उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाधरूप आहार को खाते-पीते हुए यावत् पौषध करके धर्मजागरणा की। विवेचन-प्रस्तुत दो सूत्रों (18-16) में वर्णन है कि पुष्कली द्वारा शंख श्रमणोपासक के निराहार पौषध करने और हमें स्वेच्छा से आहार करते हुए पौषध करने की सम्मति देने का वृत्तान्त सुनाने पर सबने मिलकर आहारपूर्वक पौषध का अनुपालन किया / शंख एवं अन्य श्रमणोपासक भगवान् की सेवा में 20. तए गं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था-'सेयं खलु मे कल्लं पादु० जाव जलते समणं भगवं महावीरं बंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तो पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं सं० 2 कल्लं जाव जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमति, पो० प० 2 सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहिते सथातो गिहातो पडिनिक्खमति, स० 50 2 पायविहारचारेणं सास्थि णरि मज्झमझेणं जाव पज्जुवासति / अभिगमो नस्थि / [20] इधर उस शंख श्रमणोपासक को पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर, पिछली रात्रि के समय में धर्म-जागरिकापूर्वक जागरणा करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् (संकल्प) उत्पन्न हुग्रा'कल प्रातःकाल यावत जाज्वल्यमान सर्योदय होने पर मेरे लिये यह श्रेयस्कर है कि श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके यावत् उनकी पर्युपासना करके वहाँ से लौट कर पाक्षिक पौषध पारित करू। उसने इस प्रकार का पर्यालोचन किया और फिर (तदनुसार) प्रातःकाल सूर्योदय होने पर अपनी पौषधशाला से बाहर निकला / शुद्ध (स्वच्छ) एवं सभा में प्रवेश करने योग्य मंगल (मांगलिक) वस्त्र ठीक तरह से पहने, और अपने घर से चला / वह पैदल (पादविहारपूर्वक) चलता हुआ श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर भगवान् की सेवा में पहुँचा, यावत् उनकी पर्युपासना करने लगा। वहाँ अभिगम नहीं (कहना चाहिए / ) 21. तए णं ते समणोवासमा कल्लं पादु० जाव जलते व्हाया करबलिकम्मा जाव सरीरा सहि सरहिं गिहेहितो पडिनिवखमंति, स० 102 एगयनो मिलायंति, एगयओ मिलाइत्ता सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासंति / Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [119 [21] तदनन्तर (प्राहारसहित पौषध पारित करने के बाद) वे सब श्रमणोपासक, (दूसरे दिन) प्रातःकाल यावत सर्योदय होने पर स्नानादि (नित्यकृत्य) करके यावत शरीर को अलंकृत करके अपने-अपने घरों से निकले और एक स्थान पर मिले। फिर सब मिल कर पूर्ववत् भगवान की सेवा में पहुँचे, यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (20-21) में शंख का और श्रमणोपासकों का भगवान् की सेवा में पहुँचने का वर्णन है। अभिगमो नत्थि : आशय-मूलपाठ में अंकित 'अभिगम कथन नहीं' का तात्पर्य यह है, कि शंख श्रमणोपासक अपने शुभ संकल्पानुसार पौषधव्रत में ही भगवान् की सेवा में पहुँचा था, इसलिए उसके पास सचित्त द्रव्य, छत्रादि राजसी ठाठबाट, उपानह, शस्त्र आदि अभिगम करने योग्य कोई पदार्थ नहीं थे, और शेष दो अभिगम (देखते ही प्रणाम करना, और मन को एकाग्र करना) तो उसके संकल्प के अन्तर्गत थे ही, इसलिए शंख के लिए अभिगम करने का प्रश्न ही नहीं था।' ___ 'एगयओ मिलाइत्ता' : तात्पर्य-एक स्थान पर सभी श्रमणोपासकों के मिलने के पीछे 5 मुख्य रहस्य निहित हैं—(१) सबमें एकरूपता रहे, (2) सबमें एकवाक्यता रहे, (3) सहभोजन की तरह सहधर्मिता रहे, (4) परस्पर सहधर्मी-वात्सल्य बढ़े और (5) धर्माचरण में एक दूसरे का स्नेहसह्योग होने से यात्मशक्ति बढ़े / उपनिषद् में भी इस प्रकार का एक श्लोक मिलता है। 'जहा पढम'-इस वाक्य का भावार्थ यह है कि जैसे उन श्रमणोपासकों का भगवान की सेवा में पहुँचने का सू. 7 में प्रथम निर्गम कहा था, वैसे ही यहाँ (द्वितीय निर्गम) भी कहना चाहिए / कठिनशब्दार्थ-पुस्वरत्तावरत्तकालसमयंसि--रात्रि का पूर्व भाग व्यतीत होने पर पिछली रात्रि का काल प्रारम्भ होने के समय में / धम्मजागरियं धर्म के लिए अथवा धर्मचिन्तन की दृष्टि से जागरणा / संपेहेइ—पर्यालोचन करता है, विचार करता है। भगवान् का उपदेश और शंख श्रमरणोपासक को निन्दादि न करने को प्रेरणा 22. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे घ० धम्मकहा जाव प्राणाए आराहए भवति / [22] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों और उस महती महापरिषद् को धर्मकथा कही / यावत्-धर्मदेशना दी / वे प्राज्ञा के आराधक हुए (यहाँ तक कथन करना / ) 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 (ख) भगवती. भा. 4 (हिन्दीविवेचन) पृ. 1978 (ग) पांच अभिगमों के सम्बन्ध में देखोभगवती. श, 2, उ. 5, खण्ड 1, पृ. 216 2. 'सह नाववतु सह नौ भुनक्त, सहवीर्य करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु, मा विद्विषावहै // ' .-उपनिषद् 3. भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 555 4. वही, पत्र 555 Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 23. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ० उट्टाए उ8ति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उदा०२ संखं समणोवासयं एवं बयासी-"तुमं गं देवाणुप्पिया ! हिज्जो अम्हे अप्पणा चेव एवं वदासी—'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं जाव विहरिस्सामो' / तए णं तुमं पोसहसालाए जाव विहरिए तं सुट्ट, णं तुमं देवाणुप्पिया! अम्हं हीलसि।" [23] इसके बाद वे सभी श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर से धर्म (धर्मोपदेश) श्रवण कर और हृदय में अवधारणा करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए। फिर उन्होंने खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया / तदनन्तर वे शंख श्रमणोपासक के पास पाए. और शंख श्रमणोपासक से इस प्रकार कहने लगे--देवानुप्रिय ! कल आपने ही हमें इस प्रकार कहा था कि "देवानुप्रियो ! तुम प्रचुर अशनादि आहार तैयार करवाओ, हम आहार देते हुए यावत् उपभोग करते हुए पौषध का अनुपालन करेंगे। किन्तु फिर आप पाए नहीं और आपने अकेले ही पौषधशाला में यावत् निराहार पौषध कर लिया। अत: देवानुप्रिय ! आपने हमारी अच्छी अवहेलना (तौहीन) की !" 24. 'अज्जो !' त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-मा णं अज्जो ! तुम्भे संखं समणोवासगं हीलह, निदह, खिसह, गरहह, अवमन्नह / संखे णं समणोवासए पियधम्मे चेब, बढधम्मे चेव, सुदक्खुजागरियं जागरिते। [24] (उन श्रमणोपासकों की इस बात को सुन कर) पार्यो ! इस प्रकार (सम्बोधित करते हुए) श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-"पार्यो ! तुम श्रमणोपासक शंख की हीलना (अवज्ञा), निन्दा, कोसना, (खिसना), गहीं और अवमानना (अपमान) मत करो। क्योंकि शंख श्रमणोपासक (स्वयं) प्रियधर्मा और दृढधर्मा है / इसने (प्रमाद और निद्रा का त्याग करके) सुदर्शन (सुरक्षा या सुदृश्या) नामक जागरिका जागृत की है। विवेचन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (22-23-24) में चार बातें शास्त्रकार ने प्रस्तुत की हैं(१) भगवान द्वारा उन श्रावकों और परिषद को धर्मोपदेश, (2) धर्म श्रवण-मनन कर हृष्टतुष्ट श्रमणोपासकों द्वारा भगवान् को वन्दन-नमन करके प्रस्थान, (3) श्रमणोपासकों द्वारा शंख धावक को उपालम्भ, (4) भगवान् द्वारा शंख श्रावक की निन्दादि न करने का श्रावकों को निर्देश / श्रावकों के मन में शंख श्रमणोपासक के प्रति आक्रोश और भगवान द्वारा समाधान-शंख श्रावक ने कहा या खा-पी कर सामूहिक रूप से पौषध करने का और वे बिना खाये-पीये ही निराहार पौषध में अकेले पौषधशाला में बैठ गए, यह बात श्रावकों को बड़ी अटपटी लगी है। उन्होंने अपना अपमान समझा, परन्तु 1. परन्त भगवान महावीर ने उन्हें शंख की अवज्ञा या निन्दादि करने से रोका। भगवान के इस प्रकार करने का आशय यह था कि कोई व्यक्ति पहले अल्पत्याग करने की सोचता है, किन्तु बाद में उसके परिणाम उससे अधिक और उच्च त्याग के हो जाते हैं, तो वह व्यक्ति निन्दनीय, गर्हणीय एवं तिरस्करणीय तथा अवमान्य नहीं होता, बल्कि वह प्रशंसनीय है / ' 1. भगवती. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 565 Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [121 पौषध के चार प्रकार-(१) आहारत्याग पौषध, (2) शरीरसत्कारत्याग पौषध, (3) ब्रह्मचर्य-पौषध और (4) अव्यापार पौषध / आहारत्याग पौषध-वह है जिसमें श्रावक 8 प्रहर के लिए चतुविध आहार का त्याग करके धर्म का पोषण (धर्मध्यानादि से) करता है। शरीरसत्कारत्याग पौषध-वह है, जिसमें शरीर के विविध प्रकार से (स्नान, उबटन, गन्ध, विलेपन, तेल, इत्र, पुष्प, वस्त्र, आभरण आदि के द्वारा) संस्कारित, सत्कारित करने का त्याग किया जाता है / ब्रह्मचर्य-पौषध-प्रब्रह्मचर्य (मैथुन) का सर्वथा त्याग करके कुशल अनुष्ठानों द्वारा धर्मवृद्धि करना। और अव्यापार-पौषध -वह है, जिसमें कृषिवाणिज्यादि सावध व्यापारों का तथा शस्त्र-अस्त्र आदि का एवं सर्व सावध व्यापारों का त्याग किया जाता है और शुद्ध धर्मध्यान एवं आत्मनिरीक्षण, अात्मचिन्तन में काल व्यतीत किया जाता है / ' शंख श्रमणोपासक ने इन चारों का त्याग करके पौषध किया था। कठिन शब्दार्थ-हिज्जो-कल, गत दिवस / होलसि निन्दा, अवज्ञा, अवहेलना / खिसहतुच्छकारना, निन्दा करना / 'सुदक्खु जागरियं जागरिए-जिसका दर्शन (दृष्टि) शुभ या सुष्ठ है, वह सुदक्खु कहलाता है, उसकी जारिका अर्थात् प्रमाद और निद्रा के त्यागपूर्वक जो जागरणा है, वह सुदवखु जागरिका है / ऐसी जागरिका उसने जागृत की। भगवान द्वारा विविध जागरिका-प्ररूपणा 25. [1] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासी-कइविधा गं भंते ! जागरिया पन्नता ? गोयमा ! तिविहा जागरिया पन्नता, तं जहा-बुद्धजागरिया 1 अबुद्धजागरिया 2 सुदक्खुजागरिया 3 / [25-1 प्र.] 'हे भगवन्' ! इस प्रकार सम्बोधित करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा-भगवन् ! जागरिका कितने प्रकार की कही गई है। [25-1 उ.] गौतम ! जारिका तीन प्रकार की कही गई हैं / यथा-(१) बुद्धजागरिका, (2) प्रबुद्धजागरिका और (3) सुदर्शनजागरिका / [2] से केण?णं भंतें! एवं बुच्चति 'तिविहा जागरिया पन्नत्ता, तं जहा–बुखजागरिया 1 अबुद्धजागरिया 2 सुदक्खुजागरिया 3' ? 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 1981 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 "सुट्ठ दरिसणं जस्स सो सुदक्खू तस्स जागरिया- प्रमादनिद्राव्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया, तां जागरितः कृतवान् / ' -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 555 Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उत्पन्ननाण-दसणधरा जहा खंदए (स०२ उ०१ सु० 11) जाव सवण्णू सवदरिसी,' एए गं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति / जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिता भासासमिता जाव गुत्तबंभचारी, एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति / जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति एते णं सुदक्खुजागरियं जागरंति / से तेणटुण गोयमा ! एवं बुच्चति 'तिविहा जागरिया जाव सुदक्खुजागरिया' / [25-2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से कहा जाता है कि जारिका तीन प्रकार की है, जैसे कि-बुद्ध-जागरिका, अबुद्ध-जागरिका और सुदर्शन-जागरिका ? 25-2 उ.] हे गौतम ! जो उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक अरिहन्त भगवान हैं, इत्यादि (शतक 2 उ. 1 सू. 11 में उक्त) स्कन्दक-प्रकरण के अनुसार जो यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध हैं, वे बुद्धजागरिका (जागृत) करते हैं, जो ये अनगार भगवन्त ईर्यासमिति, भाषासमिति आदि पांच समितियों और तीन गुप्तियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हैं, वे अबुद्ध (अल्पज्ञ-छद्मस्थ) हैं / वे प्रबुद्धजागरिका (जागृत) करते हैं। जो ये श्रमणोपासक, जीव-अजीव प्रादि तत्त्वों के ज्ञाता यावत् पौषधादि करते हैं, वे सुदर्शनाजागरिका (जागृत) करते हैं। इसी कारण से, हे गौतम ! तीन प्रकार की जागरिका यावत् सुदर्शनाजागरिका कही गई है। विवेचन—त्रिविध जागरिका- प्रस्तुत सत्र (25) में गौतम स्वामी और भगवान महावीर के प्रश्नोत्तर के रूप में त्रिविध जागरिका का स्वरूप बताया गया है। बुद्धजागरिका केवलज्ञान-केवलदर्शन रूप अवबोध के कारण जो बुद्ध हैं, उन अज्ञान-निद्रा अादि प्रमाद से रहित बुद्धों को जागरिका अर्थात्-प्रबोध, बुद्धजागरिका कहलाती है। अबुद्धजागरिका-जो केवलज्ञान के अभाव में बुद्ध तो नहीं हैं किन्तु यथासम्भव शेष ज्ञानों के सद्भाव के कारण बुद्ध सदृश-प्रबुद्ध हैं, उन छद्मस्थ ज्ञानवान् प्रबुद्धों की जागरणा अबुद्धजारका कहलाती है। सुदर्शनाजागरिका-जीवाजीवादितत्त्वज्ञ जो सम्यग्दष्टि श्रमणोपासक पौषध आदि में प्रमाद निद्रा आदि से रहित होकर धर्मजागरणा करते हैं, उनकी वह जागरणा सुदर्शना जागरिका कहलाती है। शंख द्वारा क्रोधादि-परिणामविषयक प्रश्न और भगवान् द्वारा उत्तर 26. तए णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता 2 एवं क्यासो-कोहवसट्टणं भंते ! जीवे कि बंधति ? किं पक रेति ? किं चिणाति ? किं उचिणाति ? 1. जाव शब्द यहां ........."अरहा जिणे केवली' ग्रादि पाठ का सूचक है। भगवती. (जि. प्र. स. ब्यावर) खण्ड 1 2. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र 555-556 Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [123 __ संखा ! कोहवस णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडोश्रो सिढिलबंधणबद्धामो एवं जहा पढमसले प्रसंवुडस्स अणगारस्स' (स० 1 उ० 1 सु० 19) जाव अणुपरियट्टइ। [26 प्र.] इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा--"भगवन् ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव क्या (कौनसे कर्म) बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? [26 उ.] शंख ! क्रोधवश आर्त बना हुआ जीव अायुप्यकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन से बंधी हुई (कम-) प्रकृतियों को गाढ (दृढ) बन्धन वाली करता है, इत्यादि, प्रथम शतक (प्रथम उद्देशक सू. 11) में (उक्त) असंवृत अनगार के वर्णन के समान यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है, यहाँ तक जान लेना चाहिए। 27. माणवसट्टणं भंते ! जोवे ? एवं चेव। [27 प्र.] भगवन् ! मान-वश प्रात बना हुआ जीव क्या बांधता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [27 उ.] इसी प्रकार (क्रोधवशात जीवविषयक कथन के अनुसार) जान लेना चाहिए / 28. एवं मायावसट्ट वि / एवं लोभवस? वि जाव अणुपरियट्टइ। [28] इसी प्रकार माया-वशात जीव के विषय में भी, तथा लोभवशात जीव के विषय में भी, यावत्-संसार में परिभ्रमण करता है, यहाँ तक जानना चाहिए। विवेचन-क्रोधादि कषाय : परिणाम-पृच्छा---प्रस्तुत तीन सूत्रों में क्रोधादि कषाय का फल शंख श्रावक ने भगवान से पूछा। उसका रहस्य यह है कि पुष्कली आदि श्रावकों को शंख के प्रति थोड़ा-सा क्रोध उत्पन्न हो गया था, उसे उपशान्त करना था / भगवान् ने क्रोधादि चारों कषायों का कटु फल इस प्रकार बताया-क्रोधादिवशात जीव शिथिल बन्धन से बद्ध 7 कर्मप्रकृतियों को गाढवन्धनबद्ध करता है, अल्पकालीन स्थिति वालो कर्म प्रकृतियों को दीर्घकालीन स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग बाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाग वाली करता है, अल्पप्रदेश वालो प्रकृतियों को बहुत प्रदेश बाली करता है और प्रायुष्यकर्म को कदाचित् बाँधता है, कदाचित् नहीं बाँधता, असाताबेदनीय कर्म का बार-बार उपार्जन करता है। अनादि-अनवदग्न-अनन्त दीर्घमार्ग वाले चातुर्गतिक संसाररूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन-परिभ्रमण करता है। 1. देखिये वह पाठ-........."णियबंधणबद्धानो पकरेति, हस्सकालदितीयाओ दीहकालदितीयायो पक रेति, मदाणुभागाप्रो तिव्वाणुभागानो पकरेति, अप्पपदेसग्गामो बहुप्पदेसम्गाप्रो पकरेति, प्राउगं च ण कम्म सिय बंधति, सिय नो बंधाते, असातावेदणिज्जं च णं कम्मं भज्जो भज्जो उचिणाति, अणादीयं च ण प्रणवदग्गं दीहमद्ध' चाउरंतं संसारकतारं अपरियटइ।" ---भग, श. 1 उ. 1 सु. 11, खण्ड-१, प्र-३७ 2. (क) भगवती. अभय. पति, पत्र 556 (ख) व्याख्याप्रजाप्ति सूत्र (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) खण्ड 1, पृ. 37 Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रमणोपासकों द्वारा शंख श्रावक से क्षमायाचना, स्वगृहगमन 29. तए णं ते समणोबासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म भीता तत्था तसिया संसारभउन्विग्गा समणं भगवं महावीरं वदति, नमसंति, वं० 2 जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 संखं समणोवासगं वंदंति नमसंति, वं० 2 एयमट्टसम्म विणएणं भुज्जो भुज्जो खाति / / [26] श्रमण भगवान् महावीर से यह (क्रोधादि कषाय का तीव्र और कटु) फल सुन कर और अवधारण करके वे श्रमणोपासक उसी समय (कर्मबन्ध से) भयभीत, त्रस्त, दुःखित एवं संसारभय से उद्विग्न हुए। उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और जहाँ शंख श्रमणोपासक था, वहाँ उसके पास आए। शंख श्रमणोपासक को उन्होंने वन्दन-नमस्कार किया और फिर अपने उस अविनयरूप अपराध के लिए विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना करने लगे। 30. तए णं ते समभोवासगा सेसं जहा आलभियाए (स० 1130 12 सु० 12) जाव' पडिगता। [30] इसके पश्चात् उन सभी श्रमणोपासकों ने भगवान् से कई प्रश्न पूछे, इत्यादि सब वर्णन (श. 11 उ. 12 सू. 12 में उक्त) पालभिका (नगरी) के (श्रमणोपासकों के) समान जानना चाहिए, यावत् वे अपने-अपने स्थान पर लौट गये; (यहाँ तक कहना चाहिए / ) विवेचन-श्रवण का फल : सविनय क्षमापना-भगवान के मुख से सुन कर जब उन धावकों ने क्रोधादि कषायों का कटुफल जाना तो वे कर्मबन्ध से भयभीत हो गए और संसारभय से उद्विग्न होकर पश्चात्तापपूर्वक शंखश्रावक के पास गए। उससे सविनय क्षमायाचना की। शंख भी सबसे सौहार्दपूर्वक मिले और सबको आश्वस्त किया। शंख की मुक्ति के विषय में गौतम स्वामी का प्रश्न, भगवान् का उत्तर 31. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पभू गं भंते ! संखे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं सेसं जहा इसिभद्दपुत्तस्स (स० 11 उ०१२ सु० 13-14) जाव' अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // बारसमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो॥ 12-1 // 1. 'जाब' शब्द सूचक पाठ-"पसिणाई पुच्छंति, प. अट्ठाई परियाइयंति. अ. समग भगवं महावीरं वदति णमंसंति, वं. न. जामेव दिसं पाउन्भूया, तामेव दिसं"।" - भग. श. 11, उ. 12 2. 'जाब' शब्द सूचक पाठ-- ..."मुडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए ? गोयमा ! णो इणटे समटठे / इसिभहपत्ते समणोवासए बहहिं सीलब्क्य."अप्पाणं भावेमाणे..."बह वासाई समणोब सगपरियागं पाउणिहिड"सोहम्मे कप्पे"उवज्जिहिइ ।'"चत्तारि पलि ग्रोवमाई ठिई भविस्सइ" "महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव / --भगवती. श. 11 उ. 12 सू. 13-14 Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] [125 [31 प्र.] 'हे भगवन् !,' यों कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या शंख श्रमणोपासक अाप देवानुप्रिय के पास प्रबजित होने में समर्थ है ? [31 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; इत्यादि समस्त वर्णन (श. 11 उ. 12 सू. 13-14 में उक्त) ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासकविषयक कथन के समान. यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा; (यहाँ तक कहना चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-शंख श्रावक का उज्ज्वल भविष्य-भ. महावीर ने बताया कि शंख मेरे पास प्रवजित तो नहीं हो सकेगा; किन्तु वह बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय का पालन कर सौधर्मकल्प देवलोक में चार पल्योपम की स्थिति का देव होगा। वहाँ से च्यव कर महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध मुक्त होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। // बारहवां शतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण / Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'जयंती' द्वितीय उद्देशक : जयंती (श्रमणोपासिका) जयन्ती श्रमणोपासिका और तत्सम्बन्धित व्यक्तियों का परिचय 1. तेणं कालेणं तेणं समएम कोसंबी नाम नयरी होत्था / वण्णो / चंदोवतरणे चेतिए / वण्णायो।' [1] उस काल और उस समय में कौशाम्बी नाम की नगरी थी / (उसका वर्णन जान लेना चाहिए / ) (वहाँ) चन्द्रोपतरण (चन्द्रावतरण) नामक उद्यान था / (उसका वर्णन भी औपपातिक सूत्र के अनुसार जानना चाहिए।) 2. तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो पोते, सयाणीयस्स रणो पुत्ते, चेडगस्स रण्णो नतुए, मिगावतीए देवीए अत्तए, जयंतीए समणोवासियाए भत्तिज्जए उदयणे नामं राया होत्था / वण्णओ। [2] उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती देवी (रानी) का पात्मज और जयन्ती श्रमणोपासिका का भतीजा 'उदयन' नामक राजा था / (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के राजवर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए।) 3. तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रण्णो सुण्हा, सयागीयस्स रणो भज्जा, चेडगस्स रणो ध्या, उदयणस्स रष्णो भाया, जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावतो नामं देवी होत्था। सुकुमाल जाव सुरूवा समणोवासिया जाव विहरइ। [3] उसी कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्रवधू , शतानीक राजा की पत्नी, चेटक राजा को पुत्री, उदयन राजा की माता, जयन्ती श्रमणोपासिका की भौजाई, मृगावती नामक देवी (रानी) थी। वह सुकुमाल हाथ-पैर बाली, यावत् सुरूपा श्रमशोपासिका (जीवाजीवतत्त्वज्ञा) यावत् विचरण करती थी। 4. तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो धूता, सताणीयस्स रण्णो भगिणी, उदयणस्स रण्णो पितुच्छा, मिगावतीए देवीए नणंदा, वेसालोसावगाणं अरहताणं पुवसेज्जायरी जयंती नाम समणोवासिया होत्था / सुकुमाल जाव सुरूवा अभिगत जाव विहरइ / [4] उसी कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की पुत्री, शतानीक राजा की भगिनी, उदयन राजा की बूया. मृगावती देवी की ननन्द और वैशालिक (भगवान् महावीर) के श्रावक 1. 'बष्णओ' शब्द से सूचित पाठ सर्वत्र पोपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए / Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] [127 (वचन श्रवणरसिक) आर्हतों (अर्हन्त-तीर्थंकर के साधुनों) की पूर्व (प्रथम) शय्यातरा (स्थानदात्री) 'जयन्ती' नाम की श्रमणोपासिका थी। वह सुकुमाल यावत् सुरूपा और जीवाजीवादि तत्त्वों की ज्ञाता यावत् विचरती थी। विवेचन --प्रस्तुत चार सूत्रों (1 से 4 तक) में जयन्ती श्रमणोपासिका से सम्बन्धित क्षेत्र एवं व्यक्तियों का परिचय दिया गया है। जैन ऐतिहासिक तथ्य-इस मूलपाठ से भगवान् महावीर के युग की नगरी एवं उस नगरी के तत्कालीन, सहस्रानीक राजा के पौत्र तथा शतानीक राजा एवं मृगावती रानी के पुत्र उदयन नृप की बूमा एवं मृगावती रानी की ननन्द जयंती श्रमणोपासिका का परिचय ऐतिहासिक तथ्य पर प्रकाश डालता है। 'जयन्ती' की प्रसिद्धि-जयन्ती श्रमणोपासिका भगवान महावीर के साधुओं को स्थान (मकान) देने में प्रसिद्ध थी। इसलिए जो साधु पहली वार कौशाम्बी में पाते थे, वे उसी से वसति (ठहरने के लिए स्थान) को याचना करते थे और वह अत्यन्त भक्तिभाव से उन्हें ठहरने के लिए स्थान देती थी। इस कारण वह 'पूर्वशय्यातरा' (पुव्वसेज्जायरी) के नाम से प्रसद्धि थी।' कौशाम्बी—यह उस युग में वत्सदेश की राजधानी एवं मुख्य नगरी थी। इसकी अाधुनिक पहचान इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कोसम' गाँव से की है। कठिनशब्दार्थ चे उगस्स-बैशालीराज चेटक का / नत्तुए-नप्ता—नाती, दौहित्र / भातृजाया—भौजाई, भाभी। प्रत्तए-प्रात्मज, पुत्र / भतिज्जए-भतीजा, भाई का पुत्र / धूयापुत्री / पिउच्छा-पिता की बहन वूमा, फूफी 1 सुण्हा-पुत्रवधू / णणंदा-ननद / 3 / सालीसावगाणं अरहताण-भावार्थ-- वैशालिक-विशाला (त्रिशला) का अपत्य -- पुत्र, अर्थात भगवान महावीर / उनके श्रावक अर्थात् भगवद्वचन को जो सुनते और सुनाते हैं,-श्रवण रसिक हैं, उन आर्हत -अर्थात् अर्हदेवों-साधुओं की। जयन्ती श्रमणोपासिका : उदयनन प-मृगावतोदेवी सहित सपरिवार भगवान की सेवा में 5. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [5] उस काल (और) उस समय में (भगवान् महावीर) स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, (उनका समवसरण लगा) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। 6. तए णं से उदयणे राया इमोसे कहाए लखठे समाणे हट्टतुळे कोडुबियपुरिसे सहावेति, को० स० 2 एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया! कोसंवि नार सभिंतरबाहिरियं एवं जहा कुणिओ' तहेव सत्वं जाव पज्जुवासइ / 1. भगवतीसूत्र, अभय. वृत्ति. पत्र 558 / 2. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. 379-380 3, भगवती, अ. बृत्ति, पत्र 558 4. वही, पत्र 55 5. देखिये कणिक नप का भगवान की सेवा में पहुंचने का वर्णन---प्रौपपातिक मूत्र 29-32, पत्र 61-75 (यागमोदय समिति) में Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6] उस समय उदयन राजा को जब यह (भगवान् के कौशाम्बी में पदार्पण का) पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुना। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा--'देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवायो; इत्यादि सब वर्णन (प्रौषपातिक सूत्र सू. 29-32, पत्र 61-75 में वणित) कोणिक राजा के समान ; यावत् पर्युपासना करने लगा; (यहाँ तक जानना चाहिए।) 7. तए णं सा जयंती समणोवासिया इमोसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठतुट्ठा जेणेव मियावती देवी तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 मियावति देवि एवं वयासी-एवं जहा नवमसए उसभदत्तो (स० 6 उ० 33 सु० 5) जाव' भविस्सति / [7] तदनन्तर वह जयन्ती श्रमणोपासिका भी इस (भगवान् के आगमन के) समाचार को सुन कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और मृगावती के पास पा कर इस प्रकार बोली--(इत्यादि आगे का सब कथन,) नौवें शतक (उ. 33 सू. 5) में (उक्त) ऋषभदत्त ब्राह्मण के प्रकरण के समान, यावत्-(हमारे लिए इस भव, परभव और दोनों भवों के लिए कल्याणप्रद और श्रेयस्कर) होगा; यहाँ तक जानना चाहिए। 8. तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा (स० 9 उ० 33 सु० 6) जाव पडिसुणेति / [8] तत्पश्चात् उस मृगावती देवी ने भी जयन्ती श्रमणोपासिका के बचन उसी प्रकार स्वीकार किये, जिस प्रकार (शतक 6, उ. 33, सू. 6 में उक्त वृत्तान्त के अनुसार) देवानन्दा (ब्राह्मणो) ने (ऋषभदत्त के वचन,) यावत् स्वीकार किये थे। 9. तए णं सा मियावती देवी कोडंबियपुरिसे सद्दावेति, को० स० 2 एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइय० जाव (स०६ उ० 33 सु० 7) धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उबटुवेह जाव उवट्ठति जाव पच्चप्पिणंति / [8] तत्पश्चात् उस मृगावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! जिसमें वेगवान् घोड़े जुते हों, ऐसा यावत् श्रेष्ठ धार्मिक रथ जोत कर शीघ्र ही - - -- 1. जाव शब्द से यहाँ - (एव) खलु देवाणु प्पिए ! समणे भगवं महावीरे अहापडिरूवं जाव विहरइ / तं महाफल खलु देवाणप्पिए ! तहारूवाणं परहंताणं भगवंताणं जामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदणणमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए, एगस्स वि पायरियस धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए / तं गच्छामो णं देवाणु प्पिए ! समणं भगवं महावीर वंदामो समसामो जाव पज्जुवासामो, एवं णं इहभवे य, परभवे य हियाए सुहाए खमाए हिस्सेसाए प्राणुगामियत्ताए (भविस्सइ)--तुक का पाठ समझना / --श. 9 उ. 33 सू. 5 2. 'जा' शब्द से यहां-'हठ्ठ जाव हियया करयल जाव कट्ट" "एयमझें' पाठ सूचित है / -श. 9 उ. 33 सू. 7 3. 'जाव' शब्द से यहाँ-.."समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगेहिं""पवरलक्खगोववेयं' इत्यादि पाट सूचित है। -श. 9 उ. 33 सू. 7 Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] [129 उपस्थित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ लाकर उपस्थित किया और यावत् उनकी आज्ञा वापिस सौंपी। 10. तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धि व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा बहूहि खुज्जाहि' जाय (स० 9 उ० 33 सु० 10) अंतेउरानो निग्गच्छति, अं०नि० 2 जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणम्पवरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ जावर (स०६ उ० 33 सु० 10) रूढा। [10] इसके बाद उस मृगावती देवी और जयन्ती श्रमणोपासिका ने स्नानादि किया यावत् शरीर को अलंकृत किया। फिर कुब्जा (आदि) दासियों के साथ वे दोनों अन्त:पुर से निकलीं। (यह वर्णन भी यावत् अन्तःपुर से निकलीं, यहाँ तक श. 6 उ. 33 सू. 10 के अनुसार जानना / ) फिर वे दोनों बाहरी उपस्थानशाला में आईं और जहाँ धार्मिक श्रेष्ठ यान था, उसके पास आ कर (श. 6 उ. 33 सू. 10 के अनुसार) यावत् रथारूढ हुई / यहाँ तक कहना !) 11. तए पंसा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं रूढा समाणी णियगपरियाल० जहा उसमदत्तो (स० 9 उ० 33 सु० 11) जाव' धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोल्हति / [11] तब जयन्ती श्रमणोपासिका के साथ श्रेष्ठ धार्मिक यान पर प्रारूढ मृगावती देवी अपने परिवारसहित, (इत्यादि सब वर्णन श. 6 उ. 33 सू. 11 में उक्त ऋषभदत्त के समान) यावत् धार्मिक श्रेष्ठ यान से नीचे उतरी, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) 12. तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धि बहूहि खुज्जाहिं जहा देवागंदा (स० 9 30 33 सु० 12)4 जाव वंदति नमसति, वं० 2 उदयणं रायं पुरओ कटु ठिया चेव जाव (स० 9 30 33 सु० 12) पज्जुवासइ / _ [12] तत्पश्चात् जयन्ती श्रमणोपासिका एवं बहुत-सी कुब्जा (आदि) दासियों सहित मृगावती देवी श्रमण भगवान महावीर की सेवा में (श. 6, उ. 33 सू. 12 में उक्त) देवानन्दा के समान पहुँची, यावत् भगवान् को बन्दना-नमस्कार किया और उदयन राजा को आगे करके 1. यहाँ 'जाव' शब्द-चिलाइयाहि जाणादेस-विदेसपरिपिंडयाहिं सदेस-वत्थ-गहियवेसाहिं इंगिय-चितिय पत्थियवियाणियाहिं कुसलाहिं विणीयाहिं, चेडिया-चक्कदाल-वरिसधर-थेर-कंचइज्ज-महत्तरगवंद परिक्खित्ता"..', इत्यादि पाठ का सूचक है। —श. 9, उ. 33 सू. 10 2. यहाँ 'जाव' शब्द_"उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपवर पाठ का सूचक है। -श. 9 उ. 33 सू. 10 3. यहाँ 'जाव' शब्द- 'संपरिब डे..."मज्झमज्भःण णिगच्छइ, णि. जेणेव."चेइए ते. उवा. 2, छत्ताइए तित्थगराइसए पासइ पा.' इत्यादि पाठ का सूचक है। 4. यहाँ 'जाव' शब्द -"जाव महत्तरगबंदपरिक्खित्ता स. भ. महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छद, तंजहा---'जेणेव समणे भ. महावीरे तेणे व उवागच्छइ, उ, समणं भ. महावीरं तिक्खुत्तो पाया हिणपयाहिणं करेइ करित्ता:इत्यादि पाठ का सूचक है। -श. 9 उ. 33 सू. 12 Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [थ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समवसरण में बैठी और उसके पीछे स्थित होकर पर्युपासना करने लगी (इत्यादि सब वर्णन श. 6 उ. 33 सू. 12 के समान) कहना / 13. तए णं समणे भगवं महावीरे उदयणस्स रणो मियावतीए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महतिमहा० जाव धम्म परिकहेति जाव परिसा पडिगता, उदयणे पडिगए, मियावती वि पडिगया। [13] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने, उदयन राजा, मृगावती देवी, जयन्ती श्रमणोपासिका और उस महती महापरिषद् को यावत् धर्मोपदेश दिया, (धर्मोपदेश सुन कर) यावत् परिषद लौट गई, उदयन राजा और मृगावती रानी भी चले गए। विवेचन-जयन्ती श्रमणोपासिका : भगवान महावीर की सेवा में--प्रस्तुत नौ सूत्रों में (सू. 5 से 13 तक) भगवान् महावीर के कौशाम्बी में पदार्पण से लेकर जयन्ती श्रमणोपासिका आदि के द्वारा उनकी पर्युपासना करने तथा भगवान् के धर्मोपदेश को सुन कर जयन्ती श्रमणोपासिका के सिवाय सबके वापिस लौट जाने तक का वर्णन है। सात तथ्यों का उद्घाटन--इस समग्र वर्णन पर से सात तथ्यों का उद्घाटन होता है(१) कौशाम्बी को श्रमणोपासक-श्रमणोपासिकाओं को धर्मनगरी जान कर भगवान का विशेष (2) भगवान का आगमन सन कर परिषद का उमडना. (3) तत्कालीन धर्मप्रिय कौशाम्बीनरेश उदयन द्वारा स्वकर्तव्यपालन-नगर की सफाई एवं सजावट का आदेश, भगवान के पदार्पण की घोषणा और कोणिक नप के समान ठाठबाट से स्वयं भगवान् की सेवा में पहुँच कर पर्युपासना में लीन हो जाना आदि / (4) जयन्ती श्रमणोपासिका द्वारा भगवान के दर्शन, वंदन, प्रवचन-श्रवण और पर्युपासना के लिए रानी मृगावती को तैयार करना, (5) मृगावती देवी द्वारा भी जयन्ती श्रमणोपासिका को साथ लेकर धार्मिक रथ पर चढ़कर देवानन्दा के समान भगवान् की सेवा में पहुँचना / (6) समवसरण में उदयन नृप को आगे करके बैठना और पर्युपासना करना, (7) भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर जयन्ती श्रमणोपासिका के अतिरिक्त सबका वापिस लौट जाना।' ___ 'कौटुम्बिक' शब्द का रहस्यार्थ देशीशब्दसंग्रह के द्वितीय वर्ग की द्वितीय गाथा में कोडुब (कौटुम्ब) शब्द को कार्यवाचक बताया है, इस दृष्टि से 'कोड बिया' का अर्थ इस प्रकार होता है-- जो कोडुब अर्थात् कार्य को करते हैं, वे कोडुबिय (कौटुम्विक-कार्यकर) पुरुष कहलाते हैं। ग्रागमों में यत्र-तत्र प्रयुक्त 'कोडु बियपुरिस' का यही अर्थ समझना चाहिए। कठिन शब्दार्थ-उबढाणसाला-प्रास्थानमण्डप, सभास्थान / पडिसुणेति--स्वीकार किया। णियग-परियाल—अपने सगे सम्बन्धी तथा राजपरिवार (की महिलाएँ) / 'लहुकरण-जुत्त-जोइय० 3-- फुर्तीले वेगवान् घोड़ों से जुता हुआ / 1, वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 567-568 2. 'कोडुबं कार्यं कुर्वन्तीति कोड विया, कोड बियपुरिसे-कार्यकरपुरुषान् / ' –वियाह. (मू. पा. टि.) पृ. 568 3. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 4 पृ. 1988-1989 (ख) पाइप्रसद्दमहष्णवो पृ. 175, 562 (ग) भगवती. तृतीय खण्ड (गुजरात विद्यापीठ) पृ. 258 Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] कर्मगुरुत्व-लघुत्व सम्बन्धी जयन्ती प्रश्न और भगवत्समाधान 14. तए णं सा जयंती समणोवासिया समगस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, बं० 2 एवं वयासी-कहं गं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? जयंती! पाणातिवातेणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गरुयत्तं हवमागच्छति / एवं जहा पढमसते (स० 1 उ० 9 सु. 1-3)' जाव वीतीवयंति / [14 प्र.] तदनन्त र वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर भगवान् महाबीर को वन्दना- नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? [14 1.] जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्रगुरुत्व को प्राप्त होते हैं, (और इनसे निवृत्त होकर जीव हलके होते हैं, इत्यादि सब) प्रथमशतक (उ. 9, सू. 1-3 में कहे) अनुसार, यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन-जीव को गुरुत्व और लघुत्व प्राप्त होने के कारण-जयन्ती श्रमणोपासिका ने साक्षात् भगवान् से यह प्रश्न किया कि जीव किस कारण से गुरुत्व या लघुत्व को प्राप्त होते हैं ? भगवान् ने अर्थगम्भीरसीमित शब्दों में उत्तर दिया-अठारह पापस्थानों के सेवन और उनसे निवृत्त होने से जीव क्रमश: गुरुत्व और लघुत्व को प्राप्त होते है / गुरुत्व और लघुत्व यहाँ कर्म की अपेक्षा से समझना चाहिए ! भवसिद्धिक जीवों के विषय में परिचर्चा 15. भवसिद्धियत्तणं भते ! जीवाणं कि सभावओ, परिणामओ? जयंती! सभावओ, नो परिणामओ। [15 प्र.] भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक ? [15 उ.] जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं / 16. सम्वे विणं भंते ! भवसिद्धीया जीवा सिन्झिस्संति ? हंता, जयंती ! सब्वे वि णं भवसिद्धीया जीवा सिज्झिस्संति / [16 प्र.] भगवन् ! क्या सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे ? [16 उ.] हाँ, जयन्ती ! सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे। --- - --- - 1. जहां 'जाव' शब्द-(एवं) प्राकुलीकरेंति, एवं परित्तीकरेंति, एवं दोहीकरेंति, एवं हस्सोकरेंति एवं अण परियति // ' इत्यादि पाठ का सूचक है।-भग. श. 1, उ. 9, सू. 1, 3 Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. [1] जइ णं भंते ! सब्वे भवसिद्धोया जीवा सिस्सिंति तम्हाणं भवसिद्धीविरहिए लोए भविस्सइ? णो इणछे समठे। [17-1 प्र] भगवन् ! यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, तो क्या लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा? [17-1 उ.] जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है। [2] से केणं खाइएणं अट्ठण भंते ! एवं बुच्चइ-सव्वे वि णं भवसिद्धोया जीवा सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धीयविरहिते लोए भविस्सति ? जयंती ! से जहानामए सव्वागाससेढी सिया अणादीया अणवदग्गा परित्ता परिवुडा, साणं परमाणुपोग्गलमेत्तेहि खंडेहि समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अणताहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरति नो चेव णं अवहिया सिया, से तेणठेणं जयंती ! एवं वुच्चइ सव्वे विगं' जाव भविस्सति / [17-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, फिर भी लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा ? (17-2 उ.] जयन्ती ! जिस प्रकार कोई सर्वाकाश की श्रेणी हो, जो अनादि, अनन्त हो, (एकप्रदेशी होने से) परित्त (परिमित) और (अन्य श्रेणियों द्वारा) परिवत हो, उसमें से प्रतिसमय एक-एक परमाणु-पुद्गल जितना खण्ड निकालते-निकालते अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी तक निकाला जाए तो भी वह श्रेणी खाली नहीं होती / इसी प्रकार, हे जयन्ती। ऐसा कहा जाता है कि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध होंगे, किन्तु लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा। विवेचन-भवसिद्धिक जीव-विषयक : तीन प्रश्न—प्रस्तुत तीन सूत्रों (15 से 17 तक) में जयन्ती श्रमगोपासिका द्वारा पूछे गए तीन प्रश्न और भगवान् द्वारा प्रदत्त उनका उत्तर प्रतिपादित है। भवसिद्धिक-स्वरूप-जिनकी सिद्धि भावी (भविष्य) में होने वाली है, वे भवसिद्धिक हैं। अथवा जो भव्य हैं, मुक्ति के योग्य हैं, अर्थात्---जिनमें मुक्ति जाने की योग्यता है, वे भवसिद्धिक कहलाते हैं / समस्त भबसिद्धिक जीव एक न एक दिन अवश्य सिद्धि प्राप्त करेंगे, अन्यथा उनमें भवसिद्धिकता ही घटित नहीं हो सकती। ___ इसीलिए यहाँ भगवान् ने बताया है कि भवसिद्धिक जीवों की भवसिद्धिकता स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं / ऐसा नहीं होता कि वे पहले अभवसिद्धिक थे किन्तु बाद में पर्याय-परिवर्तन होने के 1. अधिक पाठ-'णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिरसंति, नो चेव ण भवसिद्धिनविरहिए लोए भविस्मइ।" यह पंक्ति यहां 'जाब' शब्द से सूचित है / Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहबा शतक : : उद्देशक 2] [133 कारण भवसिद्धिक हो गए / जैसे पुद्गल में मूर्तत्व धर्म स्वाभाविक है, वैसे ही भवसिद्धिक जीवों में भवसिद्धिकता स्वाभाविक है।' लोक भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं होगा–जयन्ती श्रमणोपासिका का प्रश्न है—'यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे तो संसार भवसिद्धिक जीवों से शून्य नहीं हो जाएगा? इसका एक समाधान यह है कि जितना भी भविष्यत्काल है, वह सब कभी न कभी वर्तमान हो जाएगा, तो क्या कभी ऐसा समय पा सकता है जब संसार भविष्यत्काल से शून्य हो जाएगा? ऐसा होना जैसे असम्भव है, वैसे ही समझना चाहिए कि लोक का भवसिद्धिक जीवों से शून्य होना असम्भव है / ___ इसी प्रश्न का एक पहलू यह भी है जितने भी जीव सिद्ध होंगे, वे सभी भवसिद्धिक होंगे, अभवसिद्धिक एक भी सिद्ध नहीं होगा, ऐसा मानने पर भी वही प्रश्न उपस्थित रहता है कि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, तो क्या लोक भवसिद्धिकजीव-शून्य नहीं हो जाएगा ? भगवान् ने आकाशश्रेणी का दृष्टान्त देकर समाधान किया है-जैसे समग्र प्रकाश की श्रेणी अनादि-अनन्त है, उसमें से एक-एक परमाणु जितना खण्ड प्रतिसमय निकाला जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल व्यतीत हो जाने पर भी आकाशश्रेणी खाली नहीं होगी, इसी प्रकार भवसिद्धिक जीवों के मोक्ष चले जाते रहने पर भी यह लोक भवसिद्धिक जीवों से खाली नहीं होगा। एक अन्य समाधान-दो प्रकार के पाषाण हैं, एक में मूर्ति बनने की योग्यता है, दूसरे ऐसे पाषाण हैं, जिनमें मूर्ति बनने की योग्यता नहीं है। किन्तु जिन पाषाणों में भूति बनने की योग्यता है, वे सभी पाषाण मूति नहीं बन जाते। जिन पाषाणों को मूर्तिकार आदि का संयोग मिल जाता है, वे मूर्तिपन की सम्प्राप्ति कर लेते हैं, किन्तु जिन पाषाणों को मूर्तिपन की सम्प्राप्ति नहीं होती, उनमें मूर्तिपन की अयोग्यता नहीं होती, किन्तु तथाविध संयोग न मिलने से वे मूर्तिपन की सम्प्राप्ति नहीं कर पाते / यही बात भवसिद्धिक जीवों के विषय में भी समझनी चाहिए। सुप्तत्व-जागृतत्व, सबलत्व-दुर्बलत्व एवं दक्षत्व-पालसित्व के साधुता विषयक प्रश्नोत्तर 18. [1] सुत्तत्तं भंते ! साहू, जागरियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्यंगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू / [18-1 प्र] भगवन् ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है या जागृत रहना अच्छा ? [18.1 उ.] जयन्ती ! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है। [2] से केणठेमं भंते ! एवं वुच्चइ 'अत्थेगतियाणं जाव साहू' ? जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई प्रहम्मपलोई 1. (क) 'भवा-भाविनी सिद्धिर्यषां ते भवसिद्धिकाः ।'...-भगवती. अ.व. पत्र 55.8 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4 पृ. 1994 2. (क) 'सर्व एवानागतकालसमया वर्तमानता लप्स्यन्ते, इत्यभ्युपगमात्, न चानागतकाल समयविरहितो लोको भबिष्यति, इत्येवं न भवसिद्धिकशून्यता लोकस्य स्यात् / " -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 559 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 559-560 Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अहम्मपलज्जणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू / एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहूर्ण पाणाणं भूयाणं जोवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए वीति / एए गं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहि संजोयणाहि संजोएत्तारो भवंति / एएसि गं जीवाणं सुत्तत्तं साहू / जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू / एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं प्रदुक्खणयाए जाव अपरियावणयाए बटुंति / एते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहि धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति / एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवति / एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू / से तेणठेणं जयंती ! एवं बुच्चइ-'अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्ततं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू . [18-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण कहते हैं कि कुछ जीवों का सुप्त रहना और कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है ? [18-2 उ.] जयन्ती ! जो ये अधार्मिक, अधर्मानुसरणकर्ता, अमिष्ठ, अधर्म का कथन करने वाले, अधर्मावलोकनकर्ता, अधर्म में आसक्त, अधर्माचरणकर्ता और अधर्म से हो आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का सप्त रहना अच्छा है: क्योंकि ये जीव सप्त रहते हैं. तो प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख शोक और परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते। ये जीव सोये रहते हैं तो अपने को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं (प्रपंचों) में नहीं फसाते / इसलिए इन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। 'जयन्ती ! जो ये धार्मिक हैं, धर्मानुसारी, धर्मप्रिय, धर्म का कथन करने वाले, धर्म के अवलोकनकर्ता, धर्मासक्त, धर्माचरणी. और धर्म से ही अपनी आजीविका करने वाले जीव हैं, उन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है, क्योंकि ये जीव जाग्रत हों तो बहुत से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख, शोक और परिताप देने में प्रवृत्त नहीं होते (अर्थात् ये अनेक जीवों के दुःख, शोक और परिताप को दूर करने में प्रवृत्त होते हैं)। ऐसे (धर्मिष्ठ) जीव जागत रहते हुए स्वयं को, दूसरे को और स्व-पर को अनेक धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते रहते हैं / इसलिए इन जीवों का जाग्रत रहना अच्छा है। इसी कारण से, हे जयन्ती ! , ऐसा कहा जाता है कि कई जीवों का सुप्त रहना अच्छा है और कई जीवों का जागृत रहना अच्छा है / 19. [1] बलियत्तं भंते ! साहू, दुब्बलियत्तं साहू ? जयंती ! प्रत्यंगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्यंगतियाणं जीवाणं दुबलियत्तं साहू / [16-1 प्र.] भगवन् ! जीवों की सबलता अच्छी है या दुर्बलता? [16-1 उ.] जयन्ती ! कई जीवों की सबलता अच्छी है और कई जीवों की दुर्बलता अच्छी है। Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक 2 [135 [2] से केण?णं भंते ! एवं वच्चइ 'जाव साहू ? ____ जयंतो ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति एएसि गं जीवाणं दुब्बलियतं साहू / एए णं जोवा० एवं जहा सुत्तस्स (सु. 18 [2]) तहा दुबलियस्स वत्तवया भाणियब्वा / बलियस्स जहा जागरस्स (सु० 18 [2]) तहा भाणियव्वं जाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू / से तेण?णं जयंती! एवं वुच्चइ तं चेव जाव साहू / [16-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि कई जीवों की सवलता अच्छी है और कई जीवों की दुर्बलता अच्छी है ? 16-2 उ.] जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म से हो आजीविका करते हैं, उन जीवों की दुर्बलता अच्छी है / क्योंकि ये जोव दुर्बल होने से किसी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को दु:ख अादि नहीं पहुँचा सकते, इत्यादि (18-2 सू. में उक्त) सुप्त के समान दुर्बलता का भी कथन करना चाहिए। और 'जाग्रत' के समान सबलता का कथन करना चाहिए। यावत् धामिक संयोजनामों में संयोजित करते हैं. इसलिए इन (धार्मिक) जीवों की सबलता अच्छी है / हे जयन्ती ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि कई जी बों की सबलता अच्छी है और कई जीवों की निर्बलता / 20. [1] दक्खत्तं भंते ! साहू, आलसियत्तं साहू ? जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू / [20-1 प्र.] भगवन् ! जीवों का दक्षत्व (उद्यमीपन) अच्छा है, या पालसीपन ? [20-1 उ.] जयन्ती ! कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है, और कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति तं चेव जाव साहू ? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति, एएसि णं जीवाणं प्रालसियत्तं साहू। एए गं जीवा अलसा समाणा नो बहणं जहा सुत्ता (सु०१८ [2) तहा अलसा भाणियबा / जहा जागरा (सु०१८ [2]) तहा दक्खा भाणियन्वा जाव संजोएतारो भवति / एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहि आयरियवेयावच्चेहि, उवज्झायवेयावच्चेहि, थेरवेयावच्चेहि, तवस्लिवेयावच्चेहि, गिलाणवेयावच्चेहि, सेहवेयावच्चेहि, कुलवेयावच्चेहि, गणवेयावच्चेहि, संघवेयावच्चेहि, साहम्मियवेयावच्चेहि अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति / एतेसि णं जीवाणं दक्खत्तं साहू / से तेण?णं तं चेव जाव साहू / [20-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि यावत् कुछ जीवों का आलसीपन अच्छा है ? [20-2 उ.] जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक यावत् अधर्म द्वारा आजीविका करते हैं, उन जीवों का आलसीपन अच्छा है / यदि वे पालसी होंगे तो प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख, शोक Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र और परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होंगे, इत्यादि सब सुप्त के समान कहना चाहिए, तथा दक्षता (उद्यमीपन) का कथन जाग्रत के समान कहना चाहिए, यावत् वे (दक्ष जीव) स्व, पर और उभय को धर्म के साथ संयोजित करने वाले होते हैं / ये जीव दक्ष हों तो प्राचार्य की वैयावृत्य, उपाध्याय की वैयावृत्य, स्थविरों की वैयावृत्य, तपस्वियों की वैयावृत्य, ग्लान (रुग्ण) की वैयावृत्य, शेक्ष (नवदीक्षित) की वैयावृत्य, कुलवैयावृत्य, गणवैयावृत्य, संघवयावृत्य और सार्मिकवैयावृत्य (सेवा) से अपने आपको संयोजित (संलग्न) करने वाले होते हैं। इसलिए इन जीवों की दक्षता अच्छी है। हे जयन्ती ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है, कि कुछ जीवों का दक्षत्व (उद्यमीपन) अच्छा है और कुछ जीवों का पालसोपन अच्छा है। विवेचन-कौन श्रेष्ठ-सुप्त या जागत, सबल या दुर्बल ? दक्ष या आलसी? प्रस्तुत सूत्रत्रय (18-16-20) में अपेक्षा-भेद से सुप्त आदि के अच्छे होने न होने का सकारण प्रतिपादन किया गया है। कुछ शब्दों के निर्वचनपूर्वक अर्थ-अहम्मिया-अधार्मिक-श्रुत-चारित्र-रूप धर्म का जो प्राचरण करते हैं, वे धार्मिक हैं, जो धार्मिक नहीं हैं, वे अधार्मिक हैं। अहम्माणुया-अधर्मानुगधुत रूप धर्म का जो अनुसरण करते हैं---धर्मानुसार चलते हैं, वे धर्मानुग और जो धर्मानुग नहीं हैं, वे अधर्मानुग हैं। अहम्मिट्ठा-अमिष्ठ-श्रुतरूप धर्म ही जिन्हें इष्ट. बल्लभ (प्रिय) या जिनके द्वारा पूजित (प्रादृत) है, वे मिष्ठ हैं. अथवा धर्मीजनों को जो इष्ट (प्रिय) हैं वे मिष्ठ हैं, या अतिशय धर्मीमिष्ठ हैं, जो धर्मेष्ट, धर्मीष्ठ या मिष्ठ नहीं हैं, वे अधर्मेष्ट, अधर्मीष्ट या अर्धामष्ठ हैं। अहम्मक्खाई-जो धर्म का पाख्यान-कथन (बात) नहीं करते वे अधर्माख्यायी हैं, अथवा अधर्मरूप में जिनकी ख्याति-प्रसिद्धि है, वे अधर्मख्याति / अहम्मपलोई जो धर्म को उपादेयरूप से नहीं देखते अथवा जो अधर्म का ही अहर्निश चिन्तन-निरीक्षण करते हैं, वे अधर्मप्रलोकी हैं। अहम्मपलज्जणाअधर्मप्ररंजना, अधर्म में जो रंगे हुए हैं अधर्म में प्रारक्त-आसक्त हैं, वे। अहम्मसमुदाचारा-अधर्मसमुदाचार-जिनमें चारित्रात्मक धर्माचार नहीं है, अथवा जिनका धर्माचार सप्रमोद (प्रसन्नता युक्त) नहीं है, अहम्मेण --श्रुत-चारित्ररूप धर्म से विरुद्ध / वित्ति कप्पेमाणा-वृत्ति-जीविका करने वाले।' कठिन शब्दार्थ--बलियतं-बलबत्ता, बलवान होना या रहना। दुबलियतं-दुर्बलवत्ता, दुर्बल होना या रहना / दक्खत्तं-दक्षत्व-उद्यमीपन / पालसियत्तं-पालसीपन / ' दक्ष व्यक्तियों को विशेष धर्मलाभ--जो धार्मिक व्यक्ति दक्ष होते हैं, वे प्राचार्य से लेकर सार्मिक व्यक्तियों की वैयावत्य-सेवा में अपने आपको जुटा देते हैं और निर्जरारूप परम धर्म लाभ प्राप्त करते हैं। 1. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र 560 2. (क) वही, पत्र 560 (ख) भगवती सूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 1997 3. विवाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 571 Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 2] [137 इन्द्रियवशात्तं जीवों का बन्धादिदुष्परिणाम 21. [1] सोइंदियवस? गं भंते ! जीवे किं बंधति ? एवं जहा कोवस? (स० 12 उ० 1 सु० 26) तहेव जाव अणुपरियट्टइ। [21-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त (पीड़ित) बना हुआ जीव क्या बाँधता है ? इत्यादि प्रश्न / [21-1 उ.] जयन्ती ! जिस प्रकार क्रोध के वश आर्त बने हुए जीव के विषय में ( श. 12, उ. 1, सू. 26 में कहा गया) है, उसी प्रकार (यहाँ भी.) यावत् वह संसार में बार-बार पर्यटन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [2] एवं चक्खिदियवसदृ वि / एवं जाव फासिदियवस? जाव अणुपरियट्टइ / [21-2 उ.] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय-वशात बने हुए जीव के विषय में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रियवशात बने हुए जीव के विषय में यावत् वह बार-बार संसार में पर्यटन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए)। विवेचन-पंचेन्द्रियवशात जीवों के दुष्कर्मबन्धादि परिणाम-प्रस्तुत सूत्र में क्रोधादिवशाल के बन्धादि परिणाम के अतिदेशपूर्वक श्रोत्रादिन्द्रियवशात के परिणाम का प्रतिपादन किया गया है। जयन्ती द्वारा प्रवज्याग्रहण और सिद्धिगमन 22. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमलैं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्टा सेसं जहा देवाणंदाए (स० 9 उ० 33 सु० 17-20) तहेव पव्वइया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा : सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / बारसमे सए : बीनो उद्देसनो समत्तो / / 12.2 / / [22] तदनन्तर बह जयन्ती श्रमणोपासिका, श्रमण भगवान महावीर से यह (पूर्वोक्त) अर्थ (समाधान) सुन कर एवं हृदय में अवधारण करके हषित और सन्तुष्ट हुई, इत्यादि शेष समस्त वर्णन (श. 6, उ. 33, सू. 17.20 में कथित) देवानन्दा के समान है यावत जयन्ती श्रमणोपासिका प्रबजित हुई यावत् सर्व दुःखों से रहित हुई, (यहाँ तक कहना चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,—यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन--जयन्ती श्रमणोपासिका पर समाधान की प्रतिक्रिया-प्रस्तुत सूत्र में इस उद्देशक का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार जयन्ती श्रमणोपासिका के मन पर अपनी शंकाओं के समीचीन समाधान को प्रतिक्रिया का वर्णन किया है। तीन मुख्य प्रतिक्रियाएँ प्रतिफलित होतो हैं-.. Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (1) जयन्ती हर्षित, सन्तुष्ट होकर देवानन्दा के समान भगवान् को बन्दन-नमस्कारानन्तर श्रद्धापूर्वक प्रव्रज्या ग्रहण करती है / ) (2) भगवान् द्वारा प्रवजित साध्वी जयन्ती ने प्रार्या चन्दनबाला की शिष्या बन कर अंग शास्त्रों का अध्ययन किया, गुरुणो की आज्ञानुसार संयमपालन किया / (3) तपश्चरण द्वारा सिद्ध-बुद्ध मुक्त एवं सर्व दुःख रहित हुईं।' // बारहवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. शतक 9, उ. 33, सू. 17-20 तक का देवानन्दावर्णन / (ख) 'भगवती. (विवाहपण्णत्ति) (मूलपाट-टिप्पणयुक्त) पृ, 572 Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिओ उद्देसओ : 'पुढवी' तृतीय उद्देशक : पृथ्वियाँ सात नरक पृथ्वियाँ-नाम-गोत्रादि वर्णन 1. रायगिहे जाव एवं वयासी-- [1] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान महावीर पधारे,) यावत् (गौतम स्वामी ने वन्दनानमस्कार करके) इस प्रकार पूछा 2. कति णं भंते पुढवीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-पढमा दोच्चा जाव सत्तमा / [2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियाँ (नरक-भूमियाँ) कितनी कही गई हैं ? [2 उ.] गौतम ! पृथ्वियाँ सात कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं--प्रथमा, द्वितीया यावत् सप्तमी। 3. पढमा णं भंते ! पुढवी किनामा ? किंगोत्ता पन्नता? गोयमा ! घम्मा नामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं, एवं जहा जोवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसओ सो निरवसेसो भाणियग्यो जाव अप्पाबहुगं ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ति। 63 प्र. भगवन् ! प्रथमा पृथ्वी किस नाम और किस गोत्र वाली है ? [3 उ.] गौतम ! प्रथमा पृथ्वी का नाम 'घम्मा' है, और गोत्र 'रत्नप्रभा' है। शेष (छह पृथिवयों का) सब वर्णन जीवाभिगम सूत्र (की तृतीय प्रतिपत्ति) के प्रथम नैरयिक उद्देशक (में प्रतिपादित वर्णन) के समान यावत् अल्पबहुत्व तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी विवेचन-सात नरक भूमियाँ : नाम और गोत्र प्रादि--प्रस्तुत त्रिसूत्री में जीवाभिगम सूत्र के अतिदेश-पूर्वक सात नरक पृथ्वियों के नाम, गोत्र आदि का वर्णन किया गया है।' नाम और गोत्र-अपनी इच्छानुसार किसी पदार्थ को सार्थक या निरर्थक जो भी संज्ञा प्रदान की जाती है, उसे 'नाम' कहते हैं। तथा सार्थक एवं तदनुकूल गुणों के अनुसार जो नाम रखा जाता है उसे 'गोत्र' कहते हैं। सात नरकों के नाम –धम्मा, बंसा, शीला, अंजना, रिठ्ठा, मघा और माघबई / सात नरकों के गोत्र-रत्नप्रभा, शर्करप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम :प्रभा और तमस्तमःप्रभा (महातमःप्रभा) / इसका विस्तृत वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति में है / // बारसमे सए : ततिओ उद्देसओ समत्तो॥ // बारहवाँ शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती मूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 561 : (ख) जीवाभिगम. प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 1 नैरयिक वर्णन / सू. 67-84, पृ. 88-108 Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : पोग्गले चतुर्थ उद्देशक : पुद्गल दो परमाणु पुद्गलों का संयोग विभाग निरूपण-- 1. रायगिहे जाव एवं वयासी [1] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुा / ), यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा 2. दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयो साहण्णंति, एगयओ साहग्णिता किं भवति ? गोयमा ! दुपदेसिए खंधे भवति / से मिज्जमाणे दुहा कज्जति / एगयो परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवति / [2 प्र.] भगवन् ! दो परमाणु जब संयुक्त होकर एकत्र होते हैं, तब उन का क्या होता है ? [2 उ.] गौतम ! (एकत्र संहत उन दो परमाणु-पुद्गलों का) द्विप्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है / यदि उसका भेदन हो तो दो विभाग होने पर एक ओर एक परमाणुपुद्गल और दूसरी ओर भी एक परमाणु-पुद्गल हो जाता है / विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों में दो परमाणु एकत्रित होने पर एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध बनने तथा विभाजित होने पर दो परमाणु अलग-अलग (एक विकल्प-१-१) होने का निरूपण किया गया है / इसका सिर्फ एक ही विकल्प है (1-1) कठिनशब्दार्थ-साहण्णंति–एक (संयुक्त) रूप से इकट्ठे होते हैं।' तोन परमाणुपुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 3. तिन्नि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, एगयनो साहण्णिता किं भवति ? गोयमा ! तिपदेसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि, तिहा वि कज्जति / दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले, एगयो दुपदेसिए खंधे भवति / तिहा कज्जमाणे तिनि परमाणुपोग्गला भवंति / [3 प्र.] भगवन् ! जब तीन परमाणु एकरूप में इकट्ठे होते हैं, तब उन (एकत्र संहत तीन परमाणुओं) का क्या होता है ? प्र. गौतम ! उनका त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है। उसका भेदन होने पर दो या तीन विभाग होते हैं। दो विभाग हों तो एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और दूसरी ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध हो जाता है। उसके तीन विभाग हों तो लीन परमाणु-पुद्गल पृथक-पृथक हो जाते हैं / 1, भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 566 Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [141 विवेचन-तीन परमाणपुद्गलों का संयोग और विभाग प्रस्तुत सूत्र में तीन परमाणुओं के संयुक्त होने पर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध हो जाने तथा विभक्त होने पर यदि दो हिस्सों में विभक्त हो तो एक ओर एक परमाणु और दूसरी ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध होने तथा तीन हिस्सों में विभक्त हो तो पृथक-पृथक् तीन परमाणु होने का निरूपण है / जिप्रदेशीस्काध के दो विकल्प, यथा, 1-2 / 1-1-1 / चार परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपरण 4, चतारि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति पुच्छा / गोयमा! चउप्पएसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि, तिहा वि, चउहा वि कज्जइ / दुहा कज्जमाणे एगयनो परमाणपोग्गले, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवति / अहवा दो दुपदेसिया खंधा भवंति / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपदेसिए खंधे भवति / चउहा कज्जमाणे चत्तारि परमाणुपोग्गला भवति। [4 प्र.] भगवन् ! चार परमाणुपुद्गल इकट्ठे होते हैं, तब उनका क्या होता है ? [4 उ.] गौतम ! उन (एकत्र संहत चार परमाणुओं) का (एक) चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है। उनका भेदन होने पर दो तीन अथवा चार विभाग होते हैं। दो विभाग होने पर एक प्रोर (एक) परमाणुपुद्गल और दूसरी ओर विप्रदेशिकस्कन्ध होता है, अथवा पृथक्-पृथक् दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध हो जाते हैं। तीन विभाग होने पर एक ओर पृथक्-पृथक दो परमाणुपुद्गल और एक ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध रहता है। चार विभाग होने पर चार परमाणपुद्गल पृथक-पृथक होते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में चार परमाणुओं के संयुक्त होने पर एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होने तथा उन्हें 2-3-4 भागों में विभक्त किये जाने पर क्रमश: 1 परमाणुपुद्गल 1 त्रिप्रदेशिक स्कन्ध, अथवा पृथक-पृथक् दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध; पृथक्-पृथक् दो परमाणु और 1 द्विप्रदेशिक स्कन्ध तथा पृथक्-पृथक् 4 परमाणुपुद्गल हो जाने का निरूपण किया गया है। चतुष्प्रदेशीस्कन्ध के चार विकल्प -1-3 / 2-251-1.2 / 1-1-1-1 / परमाणुपुद्गल परस्पर स्वाभाविक रूप से ही मिलते और अलग होते हैं, किसी के प्रयत्न से नहीं, तथापि यहाँ और पागे सर्वत्र 'किए जाएँ' शब्दों का जो प्रयोग हुअा है वह केवल बुद्धि द्वारा ही समझना चाहिए। पांच परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 5. पंच भंते ! परमाणुपोग्गला० पुच्छा / गोयमा! पंचपदेसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि, तिहा वि, चउहा वि, पंचहा वि कज्जइ / दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयो चउपदेसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवति / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवति; अहवा एगयो परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति / चउहा कज्जमाणे एगयनो तिणि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति / पंचहा कज्जमाणे पंच परमाणुपोग्गला भवति / Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 प्र.] भगवन् ! पांच परमाणुपुद्गल एकत्र संहत होने पर क्या स्थिति होती है ? [5 उ.] गौतम ! उनका पंचप्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है। उसका भेदन होने पर दो, तीन, चार अथवा पांच विभाग हो जाते हैं / यदि दो विभाग किये जाएँ तो एक अोर एक परमाणुपुद्गल और दूसरी ओर एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध हो जाता है। अथवा एक ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध और दूसरी ओर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध हो जाता है। तीन विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणुपुद्गल और एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध रहता है; अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और दूसरी ओर पृथक-पृथक दो द्विप्रदेशिकस्कन्ध रहते हैं। चार विभाग किये जाने पर एक ओर पृथकपृयक तीन परमाणुपुद्गल और दूसरी ओर एक द्विप्रदेशीस्कन्ध रहता है। पांच विभाग किये जाने पर पृथक-पृथक् पांच परमाणु होते हैं। विवेचन-पंचप्रदेशीस्कन्ध के 6 विकल्प-यथा--१-४॥ 2-3 / 1-1-3 / 1-2-2 / 1-1-1-2 / 1-1-1-1-1 // छह परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग निरूपण - 6. छभंते ! परमाणुपोग्गला० पुच्छा। गोयमा ! छप्पदेसिए खंधे भवइ / से भिज्जमाणे दुहा वि, तिहा वि, जाव छहा वि कज्जइ / दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ पंच पएसिए खंधे भवति, अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपदेसिए खंधे भवति; अहवा दो तिपदेसिया खंधा भवंति / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयनो परमाणुपोग्गले, एगयो दुपएसिए खंधे, एगयो तिपदेसिए खंधे भवति अहवा तिणि दुपदेसिया खंधा भवंति / चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपदेसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा भवंति। पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयो दुपएसिए खंधे भवति / छहा कज्जमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति / / [6 प्र. भगवन् ! छह परमाणु-पुद्गल जब संयुक्त होकर इकट्ठे होते हैं, तब क्या बनता है ? [6 उ.] गौतम ! उनका षट्प्रदेशिक स्कन्ध बनता है। उसका भेदन होने पर दो, तीन, चार, पांच अथवा छह विभाग हो जाते हैं / दो-विभाग किये जाने पर एक अोर एक परमाणु-पुद्गल और एक अोर पंचप्रदेशिक स्कन्ध होता है; अथवा एक ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक ओर चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध रहता है / अथवा दो त्रिप्रदेशो स्कन्ध होते हैं। तीन विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध रहता है / अथवा एक ओर ण-पूदगल, एक ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक और त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है, अथवा तीन पृथक-पृथक द्विप्रदेशिक होते हैं। चार विभाग किये जाने पर एक ओर तीन पृथक परमाणपूद-, गल एक अोर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक दो परमाणु पुद्गल, एक पोर पृथक-पृथक् दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पांच विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक-पृथक् चार परमाणु पुद्गल और एक अोर द्विप्रदेशिक स्कन्ध होता है; और छह विभाग किये जाने पर पृथक्-पृथक छह परमाणु-पुद्गल होते हैं / Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [143 विवेचन-षट्प्रदेशिक स्कन्ध के दस विकल्प-यथा—१-५। 2-4 / 3-3 / 1-1-4 // 1-2-3 / 2.2-2 // 1-1-1-3 / 1-1-2-2 / 1-1-1-1-2 / और 1-1-1-1-1-1 / सात परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण-- ___7. सत्त भंते ! परमाणुपोग्गला० पुच्छा / गोयमा ! सत्तपदेसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि जाव सत्तहा वि कज्जइ / दुहा कन्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगपनो छप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयनो पंचपदेसिए खंधे भवति ; अहवा एगयओ तिप्पएसिए, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति / तिहा कज्जमाणे एगयो दो परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपोमाले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणु०, एगयओ दो तिपएसिया खंधे भवंति; अहवा एगयनो दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति / उहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयनो दो परमाणुपोग्गला, एगयनो दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयो परमाणुओ०, एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति / पंचहा कज्जमाणे एगयनो चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति / छहा कज्जमाणे एगयो पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपदेसिए खंधे भवति / सत्तहा कज्जमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवंति / [7 प्र.] भगवन् ! जब सात परमाणु पुद्गल संयुक्त रूप से इकट्ठे होते हैं, तब उनका क्या होता है ? [7 उ.] गौतम ! उनका सप्त-प्रदेशिक स्कन्ध होता है। उसका भेदन किये जाने पर दो, तीन यावत सात विभाग भी हो जाते हैं। यदि दो विभाग किये जाएँ तो--एक अोर एक परमाणपुद्गल और दूसरी पोर षट्-प्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर द्विप्रदेशिक स्कन्ध होता है, एक ओर पंच प्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है और दूसरी पोर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है। तीन विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और दूसरी ओर पंचप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक परमाणुपुद्गल, एक अोर द्विप्रदेशिक स्कन्ध, और एक ओर चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक पोर पृथक् पृथक् दो त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं / अथवा एक अोर पृथक्-पृथक् दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं और दूसरी ओर एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है / चार विभाग किये जाने पर एक ओर पृथकपृथक् तीन परमाणु-पुद्गल, एक अोर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता / अथवा एक ओर दो परमाणु-पुद्गल पृथक्-पृथक्, एक अोर द्विप्रदेशिक स्कन्ध तथा एक अोर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। पांच विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु पुद्गल और एक ओर त्रिप्रदेशिक स्कन्ध रहता है / अथवा एक मोर तीन पृथक् पृथक् परमाणु-पुद्गल और एक अोर पृथक्-पृथक् दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं / छह विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक-पृथक पांच परमाण-पूदगल और दूसरी ओर द्विप्रदेशिक स्कन्ध होता है / सात विभाग किये जाने पर पृथक-पृथक् सात परमाणु-पुद्गल होते हैं / Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-सप्तप्रदेशिक स्कन्ध के चौदह विकल्प-यथा--- दो विभाग -1- 62-5 / 3-4 / तीन विभाग-१-१-५। 1-2-4 // 1-3-3 / 2-2-3 / चार विभाग-१-१-१-४। 1-1-2-3 / 1-2-2-2 / पांच विभाग-१-१-१-१-३ / 1-1-1-2-2 / छह विभाग–१-१-१-१-१-२ / सात विभाग-१-१-१-१-१-१-१। इस प्रकार कुल 3+4+3+2+1+1 = 14 विकल्प हुए। पाठ परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 8. अट्ट भंते ! परमाणुपोग्गला० पुच्छा। गोयमा ! अपएसिए खंधे भवइ, जाव दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणु०, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवई, अहवा एगयओ दुपदेसिए खंधे, एगयओ छप्पदेसिए खंचे भवइ, अहवा एगयनो तिपएसिए०, एगयओ पंचपदेसिए खंधे भवइ; अहवा दो चउप्पदेसिया खंधा भवति / तिहा कज्जमाणे एगयो दो परमाणु०, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयनो परमाणु०, एगओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणु० तिपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खधे भवति; अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति / अह्वा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति / चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दोणि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए बंधे भवति; अहवा चत्तारि दुपएसिया खंधा भवति / पंचहा कज्जमाणे एगयओ चतारि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति / अहवा एगयओ दो परमाणुपो० एगयओ तिन्न दुपएसिया खंधा भवंति / छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपो०, एगयनो तिपएसिए खंधे मवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति / सत्तहा कज्जमाणे एगयनो छ परमाणुपोग्गला, एगयो दुपएसिए खंधे भवति / अट्टहा कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवंति। [8 प्र.] भगवन् ! आठ परमाणु-पुद्गल संयुक्तरूप से इकट्ठे होने पर क्या बनता है ? [8 उ.] गौतम ! उनका अष्टप्रदेशिक स्कन्ध बन जाता है। यदि उसके विभाग किये जाएँ तो दो, तीन, चार यावत् आठ विभाग होते हैं / दो विभाग किये जाने पर एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर सप्तप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध और दूसरी ओर एक षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और एक ओर एक Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [145 पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा पृथक-पृथक दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। उसके तीन विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक पोर षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणुपुदगल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है, और एक ओर दो विप्रदेशी स्कन्ध पृथक्पृथक् होते हैं / जब उसके चार विभाग किये जाएँ तो एक अोर पृथक्-पृथक् तीन परमाणुपुद्गल और एक ओर एक पंचप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर पृथक-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर पृथक्पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक अोर पृथक्-पृथक् दो त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक पोर द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक अोर एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं / अथवा पृथक्-पृथक् चार द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पांच विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक अोर एक द्विपदेशी स्कन्ध तथा एक ओर एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर पृथक-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक अोर तीन द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं / यदि उसके छह विभाग किये जाएँ तो एक अोर पृथक-पृथक पांच परमाण-घुदगल और एक ओर एक त्रिप्रदेशीस्कन्ध होता है। अथवा एक अोर पृथक-पृथक चार परमाण-पूदगल और एक ओर दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। यदि उसके सात विभाग किये जाएँ तो एक ओर पृथक-पृथक् छह परमाणुपुद्गल और एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है / यदि उससे आठ विभाग किये जाएँ तो पृथकपृथक् पाठ परमाणु-पुद्गल होते हैं / विवेचन-अष्टप्रदेशी स्कन्ध के विभागीय इक्कीस विकल्प-- दो विभाग-१-७॥२-६॥ 3-5 // 4-4 / / तीन विभाग--१-१-६॥ 1-2-5 // 1-3-41 2-2-4 / 2-3-3 / चार विभाग-१-१-१-५॥ 1-1-2-4 // 1-1-3-3 / 1-2-2-3 / 2-2-2-2 / पांच विभाग -1-1-1-1-4 // 1-1-1-2-3 / 1-1-2-2-2 / छह विभाग- 1-1-1-1-1-3, 1-1-1-1-2-2 / सात विभाग--१-१-१-१-१-१-२। आठ विभाग--१-१-१-१-१-१-१-१॥ इस प्रकार कुल 4+5+5+3+2+1 1 =21 विकल्प होते हैं / नौ परमाणु पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपरण 9. नव भंते ! परमाणुपोग्गला० पुच्छा / गोयमा ! जाव नवविहा कज्जंति / दुहा कज्ज माणे एगयनो परमाणुपो०, एगयो अट्ठपएसिए खंधे भवति; एवं एक्केक्कं संचारतेहिं जाव अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति / तिहा कज्जमाणे एगयो दो परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवति; अह्वा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए, Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एगयो छप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयो परमाणपो०, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणपो०, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति; प्रहवा एगयनो दुपदेसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयो चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा तिणि तिपएसिया खंधा भवंति / चउहा भिज्जमाणे एगयनो तिन्नि परमाणुपो०, एगयनो छप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपो० एगयनो दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपो० एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति / अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति ; अह्वा एगयओ परमाणपो०, एगपओ दुपदेसिए खंधे, एगयो दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिम्नि दुप्पएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति / पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपो०, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिनि परमाणु०, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिणि परमाणुपो०, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो परमाणपोग्गला, एगयो दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयो पमाणुपो०, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति / छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपो०, एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयो तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयनो तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा भवंति / सत्तहा कज्जमाणे एगयो छ परमाणुपो०, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति / अहवा एगयओ पंच परमाणुपो० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति / अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपो०, एगयनो दुपएसिए खंधे भवति / नवहा कज्जमाणे नव परमाणुपोग्गला भवति / [6 प्र.] भगवन् ! नौ परमाणु -पुद्गलों के संयुक्त रूप से इकट्ठे होने पर क्या बनता है ? [6 उ.] गौतम ! उनका नवप्रदेशी स्कन्ध बनता है। उसके विभाग हों तो दो, तीन यावत् नौ विभाग होते हैं / यदि उसके दो विभाग किये जाएँ तो एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक अष्टप्रदेशी स्कन्ध होता है / इस प्रकार क्रमशः एक-एक का संचार (वृद्धि) करना चाहिए, यावत् अथवा एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध और एक पोर एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है / यदि उसके तीन विभाग किये जाएँ तो एक ओर पृथक्-पृथक दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक सप्तशदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर एक परमाणु-पुदगल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक अोर दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक ओर एक विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा तीन त्रिप्रदेशो स्कन्ध होते हैं / चार भाग किये जाने पर---एक ओर पृथक-पृथक तीन परमाण-पुदगल और एक ओर एक षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु -पुदगल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक अोर पृथक्-पृथक् दो परमाणु Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [147 पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक अोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर दो त्रिप्रदेशो स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है। पांच भाग किये जाने पर-एक ओर पृथक-पृथक चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक पंचप्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर पृथक-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक अोर पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल, एक ओर दो द्विप्रदेशो स्कन्ध और एक अोर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर चार द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। छह भाग किये जाने पर-एक ओर पृथक्-पृथक पांच परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर चार परमाणु-पुद्गल पृथक-पृथक्, एक ओर एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। सात विभाग किये जाने पर-एक ओर पृथक-पृथक् छह परमाणु-पुद्गल और एक और एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक-पृथक् पांच परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। आठ विभाग किये जाने पर-एक ओर पृथक्-पृथक् सात परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध होता है। नव विभाग किये जाने पर-पृथक्-पृथक् नौ परमाणु-पुद्गल होते हैं। विवेचन नवप्रदेशी स्कन्ध के विभक्त होने पर 28 विकल्पदो विभाग-१-८।२-७। 3-6 / 4-5 / तीन विभाग-१-१-७। 1-2-6 // 1-3-5 // 1-4-4 / [2-2-5] 2-3-4 / 3-3-3 // चार विभाग–१-१-१-६॥ 1-1-2-5 // 1-1-3-4 / 1-2-2.4 / 1-2-3-3 / 2-2-2-3 / पांच विभाग-१-१-१-१-५॥ 1.1-1-2-4 / 1-1-1-3-3 / 1-1-2-2-3 / 1-2-2-2-2 / छह विभाग-१-१-१-१-१-४॥ 1-1-1-1-2-3 / 1-1-1-2-2-2 / सात विभाग-१-१-१-१-१-१-३। 1-1-1-1-1-2-2 / आठ विभाग-१-१-१-१-१-१-१-२१ नौ विभाग--१-१-१-१-१-१-१-१-१। इस प्रकार नौ प्रदेशी स्कन्ध के कुल 4+6+6+5+3+2+1+1=28 विकल्प हुए। ब्र केट वाला विकल्प [2-2-5] शून्य है / Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दस परमाणु पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 10. दस भंते ! परमाणुपोग्गला जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ नवपएसिए खंधे भवति; अहवा एगपनो दुपएसिए खंधे, एगयओ अट्ठ पएसिए खंधे भवति; एवं एक्केक्कं संचारेयव्वंति जाच अहवा दो पंचपएसिया खंधा भवति / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपो०, एगयनो अटुपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयो दुपएसिए०, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ चउप्पएसिए०, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति / ब्रह्वा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दुपएसिए०, एगयओ तिपएसिए०, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; * अहवा एगयो दुपएसिए खंधे, एगयओ दो चउपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो तिपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ / चउहा कज्जमाणे एगयो तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवति ; अहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयो दुपएसिए०, एगयनो छप्पएसिए खंधे भवति / अहवा एगयओ को परमाणुपो०, एगयनो तिपएसिए खंधे, एगयनो पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयओ दो चउपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दुपदेसिए० एगयओ तिपएसिए०, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति; अहवा एगयनो परमाणुपो०, एगयो तिन्नि तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति ; अहवा एग यओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ दो तियएसिया खंधा भवंति / पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयनो छप्पएसिए खंधे भवति; अहया एगयओ तिनि परमाणुपो० एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति, एगयओ चउपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति / प्रहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ तिन्नि दुपएसिया०, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा पंचदुपएसिया खंधा भवंति / छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपो०, एगयो पंचपएसिए बंधे भवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगघओ चउप्पएसिए खंधे भवति ; प्रहवा एगयनो चत्तारि परमाणुपो०, एगयनो दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ दो दुपदेसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयनो दो परमाणुपो०, एगयो चत्तारि दपएसिया खंधा भवंति / सत्तहा कज्जमाणे एगयग्रो छ परमाणपो०, एगयओ चउप्पदेसिए खंध भवति; अहवा एगयओ पंच परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयओ तिपएसिए खंध भवति; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपो०, एम यओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति / अट्टहा कज्जमाणे अधिकपाठ---*इन दोनों चिह्नों के अन्तर्गत मुद्रित पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है। Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [149 एगयो सत्त परमाणुपो०, एगयओ तिपएसिए खंध भवति; अहवा एगयओ छप्परमाणुपो०, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति / नवहा कज्जमाणे एगयओ अट्ठ परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए खंधे भवति / दसहा कज्जमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति / [10 प्र.] भगवन् ! दस परमाणु-पुद्गल संयुक्त होकर इकट्ठे हों तो क्या बनता है ? [10 उ.] गौतम ! उनका एक प्रदेशी स्कन्ध बनता है। उसके विभाग किये जाने पर दो, तीन यावत् दश विभाग होते हैं / दो विभाग होने पर एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, और एक अोर एक नवप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अष्टप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार एक-एक का संचार (वृद्धि) करना चाहिए, यावत् दो पञ्चप्रदेशो स्कन्ध होते हैं / तीन विभाग होने पर एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु -पुद्गल और एक अष्टप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर एक परमाणु-पुद्गल, एक अोर द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक सप्तप्रदेशो स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक अोर एक परमाणु-पुद्गल, एक पोर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है। [अथवा एक अोर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर षट्प्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक अोर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है।] अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है। चार विभाग होने पर-एक ओर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक अोर एक सप्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाण-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक षट्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर पृथक-पृथक दो परमाणु-पुद्गल, और एक ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक अोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध, एक ओर एक त्रिप्रदेशीस्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन त्रिप्रदेशीस्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी अथवा एक मोर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पांच विभाग हों तो--एक ओर पृथक-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर षट्प्रदेशिक स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर तीन परमाणु-पुद्गल (घृथक्-पृथक् ) तथा एक अोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक पञ्चप्रदेशो स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक पृथक् तीन परमाणपुद्गल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर दो पृथक् पृथक् परमाणु-पुद्गल, एक अोर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर दो परमाणु-पुद्गल (पृथक्-पृथक्) एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और दो विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तीन द्विदेशी स्कन्ध्र और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा पांच द्विप्रदेशिक स्कन्ध होते हैं। छह विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक्-पृथक् पांच परमाणु-पुद्गल, एक ओर पंचप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक-पृथक चार परमाणुपुद्गल और एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् तीन पुद्गलपरमाणु, एक ओर दो द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल तथा एक ओर चार द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / सात विभाग किये जाने पर--एक ओर पृथक-पृथक् छह परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् पांच परमाणु-पुद्गल, एक अोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् चार परमाणु-पुद्गल और एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / __ पाठ विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक-पृथक् सात परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् छह परमाणुपुद्गल और एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। नौ विभाग किये जाने पर-एक ओर पृथक-पृथक पाठ परमाण-पुद्गल और एक पोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। दस विभाग किये जाने पर-पृथक्-पृथक् दस परमाणु पुद्गल होते हैं / विवेचन-दशप्रदेशीस्कन्ध के विभागीय 39 विकल्पदो विभाग--१-९ / 2-8 / 3-7 // 4-6 / 5-5 / तीन विभाग-१-१-८ / 1-2-7 / 1-3-6 / 1-4-5 / 2-3-5 1 2-4-4 / 3-3-4 / [कोष्ठक में एक विकल्प-२-२-६ / / चार विभाग-१-१-१-७ / 1-1-2-6 / 1-1-3-5 / 1-1-4-4 / 1-2-3-4 / 1-3-3-3 / 2-2-2-4 / 2-2-3-3 / [1-2-2-5 में शून्य विकल्प] पांच विभाग-१-१-१-१-६ / 1-1-1-2-5 / 1-1-1-3-4 / 1-1-2-2-4 / 1-1-2-3-3 / 1-2-2-2-3 / 2-2-2-2-2 / छह विभाग-१-१-१-१-१-५। 1-1-1-1.2-4 / 1-1-1-1-3-3 / 1-1-1-2-2-3 / 1-1-2-2-2-2 / सात विभाग-१-१-१-१-१-१-४ / 1-1-1-1-1-2-3 / 1-1-1-1-2-2-2 / आठ विभाग--१-१-१-१-१-१-१-३ / 1-1-1-1-1-1-2-2 / नौ विभाग-१-१-१-१-१-१-१-१-२ / दस विभाग–१-१-१-१-१-१-१-१-१-१ / Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [151 इस प्रकार दशप्रदेशी स्कन्ध्र के विभाग किये जाने पर कुल 5+7+8+7+5+3+2+ 1+1 = 36 विकल्प हुए। द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर दशप्रदेशी स्कन्ध तक के विभागीय विकल्प कुल 125 इस प्रकार होते हैं-१+२+४+६+१०+१४+२१+२+३९ - 125 / इसमें जो दो जगह कोष्ठक के अन्तर्गत तीन विकल्प--२-३-५ / 2-2-6 एवं 1-2-2-5 हैं, वे शून्यभंग हैं, उन्हें यहाँ नहीं गिना गया है।' संख्यात परमाणु पुदगलों के संयोग-विभाग से निष्पन्न भंग निरूपण 11. संखेज्जा भंते ! परमाणपोग्गला एगयओ साहण्णंति, एगयओ साहणित्ता किं भवति ? गोयमा! संखेज्जपएसिए संखे भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि संखेज्जहा वि कज्जति / दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयो संखेज्जपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेन्जपएसिए खंध भवति, एवं अहवा एगयओ तिपएसिए०, एगयओ संखेज्जपएसिए खघे भवति, जाव अहवा एगयतो दसपएसिए खंध, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवति; अहवा दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति / तिहा कज्जमाणे एगयतो दो परमाणुपो०. एगयतो संखेज्जपएसिए खंध भवति; अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयतो दुपएसिए खंध, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयतो तिपएसिए खंध एगयतो संखेज्जपएसिए खंध भवति; एवं जाव अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयतो सपएसिए खंध, एगयतो संखेज्जपएसिए खंध भवति; अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयतो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयतो दुपएसिए खंध, एगयतो दो संखेज्जपदेसिया खंधा भवंति; एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयतो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिष्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवति / चउहा कज्जमाणे एगयतो तिनि परमाणुपो०, एगयो संखेज्जपएसिए खंध भवति; अहवा एगयतो दो परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयतो संखेज्जपएसिए खंध भवति ; अहया एगयतो दो परमाणुपो०, एगयतो तिपएसिए०, एगयतो संखेज्जपएसिए खंधे भवति; एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणुपो०, एगयतो दसपएसिए०, एगयतो संखेज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयतो दो परमाणुपो०, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयनो बुपएसिए खंध, एगयो दो संखेज्जपदेसिया खंधा भवंति; जाव अहवा एगयतो परमाणुपो०; एगयतो दसपएसिए०, एगयतो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंसि; अहवा एगयतो परमाणुपो०, एगयतो तिन्नि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; जाव अहवा एगयओ दुपएसिए०, एगयतो तिन्नि संखेज्जपएसिया० भवंति; जाव अहवा एगयओ दसपएसिए०, एगयओ तिन्नि संखेज्जपदेसिया० भवंति; अहवा चत्तारि संखेज्जपएसिया० भवति / एवं एएणं कमेणं पंचगसंजोगो वि भाणियचो जाव नवसंजोगो / दसहा कज्जमाणे एगयतो नव परमाणुपोमाला, एमयतो संखेज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयओ अट्ठ परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवति; एवं एएणं 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 566 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2019 Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कमेणं एक्केको पूरेयब्बो जाव अहवा एगयओ दसपएसिए०, एगयो नव संखेज्जपएसिया० भवंति; अहवा दस संखेज्जपएसिया खंधा भवंति / संखेज्जहा कज्जमाणे संखेन्जा परमाणुपोग्गला भवति / [11] भगवन् ! संख्यात परमाणु-पुद्गलों के संयुक्त होने पर क्या बनता है / [11 उ.] गौतम ! वह संख्यातप्रदेशी स्कन्ध बनता है / यदि उसके विभाग किये जाएँ तो दो तीन यावत् दस और संख्यात विभाग होते हैं। दो विभाग किये जाने पर—एक मोर एक परमाणुपुद्गल और एक ओर एक संख्येयप्रदेशिक स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है। इसी प्रकार यावत् एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा दो संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / तीन विभाग किये जाने पर एक ओर दो पृथक-पृथक् परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशीस्कन्ध और एक ओर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर एक परमाण पदगल. एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध और एक मोर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार यावत्- अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात प्रदेशीस्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / इस प्रकार यावत्---अथवा एक अोर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर दो संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा तीन संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। जब उसके चार विभाग किये जाते हैं तो एक अोर पृथक्-पृथक् तीन परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर पृथक-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल, एक योर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथकपृथक दो परमाणु-पुदगल, एक ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध्र और एक ओर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / इस प्रकार यावत्-अथवा एक अोर दो पृथक-पृथक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर एक परमाणुपुद्गल, एक ओर एक द्वि-प्रदेशी स्कन्ध और एक मोर दो संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / यावत्-- अथवा एक अोर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर दो संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक अोर एक परमाण-पूदगल और एक और तीन संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / इस प्रकार यावत्-एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध होता है और एक ओर तीन संख्यात प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा चारों संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। इसी प्रकार इस क्रम से पंचसंयोगी विकल्प भी कहने चाहिए, यावत् नव-संयोगी विकल्प तक कहना चाहिए। Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [153 उसके दश विभाग किये जाने पर-एक ओर पृथक-पृथक् नौ परमाणु-पुद्गल और एक पोर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर पृथक्-पृथक पाठ परमाणु-पुद्गल, एक अोर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक संख्यात-प्रदेशो स्कन्ध होता है। इसी क्रम से एक-एक की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ाते जाना चाहिए, यावत् एक अोर एक दशप्रदेशो स्कन्ध और एक अोर नौ संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं, अथवा दस संख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। यदि उसके संख्यात विभाग किये जाएँ तो पृथक-पृथक संख्यात परमाणु-पुद्गल होते हैं / विवेचन—संख्यातप्रदेशी स्कन्ध के विभागीय विकल्प---संख्यात प्रदेश के विभाग किये जाने पर कुल 460 भंग होते हैं / यथा--दो विभाग के द्विक संयोगी 11 भंग, तीन विभाग के त्रिकसंयोगी 21 भंग, चार विभाग के चतुष्कसंयोगी 31 भंग, पांच विभाग के पंचसंयोगी 41 भंग, छह विभाग के षट्-संयोगी 51 भंग, सात विभाग के सप्तसंयोगी 61 भंग, अाठ विभाग के अष्टसंयोगी 71 भंग, नौ विभाग के नव-संयोगी 81 भंग, दस विभाग के दशसंयोगी 61 भंग और संख्यात परमाणु-विभाग के संख्यात संयोगी एक भंग, इस प्रकार कुल 460 भंग हुए।" असंख्यात परमाणु पुद्गलों के संयोग-विभाग से निष्पन्न भंग .. 12. असंखेज्जा मंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति एगयनो साहणित्ता किं भवति ? गोयमा ! असंखेज्जपएसिए खंध भवति / से भिज्जमाणे दुहा वि, जाव दसहा वि, संखेज्जहा वि, असंखेज्जहा वि कज्जति / ___ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपो०, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवति; जाव अहवा एगयओ दसपदेसिए०, एगयनो प्रसंखिज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, एगयनो असंखेज्जपएसिए खंधे भवतिः प्रहवा दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवति / / तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु पो०, एगयओ असंखेज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयओ असंखिज्जपएसिए० भवति; जाब अहवा एगयो परमाणुपो०, एगयओ दसपदेसिए०, एगयओ असंखेज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ संखेज्जपएसिए०, एगयओ असंखेज्जपएसिए० भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एमयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए०, एमय प्रो दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति; एवं जाव अहवा एगयो संखेज्जपएसिए०, एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिनि असंखेज्जपएसिया० भवति / चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपो०, एगयओ असंखेज्जपएसिए० भवति / एवं चउक्गसंजोगो जाव दसगसंजोगो। एए जहेव संखेज्जपएसियस्स, नवरं असंखेज्जगं एग अहिप भाणियन्वं जाव अहवा दस असंखेज्जपदेसिया लंधा भवंति / संखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणपोग्गला, एगयओ असंखेज्जपएसिए खधे भवति; अहवा एगयओ संखेज्जा दुपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवति एवं जाव 1. भगवती अवन्ति, पत्र 566 Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अहवा एगयओ संखेज्जा दसपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयो संखेज्जा संखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवति; अहवा संखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति। असंखेज्जहा कज्जमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति / [12 प्र०] भगवन् ! असंख्यात परमाणु-पुद्गल संयुक्तरूप से इकठ्ठ होने पर (उनका) क्या होता है ? 12 उ०] गौतम ! उनका एक असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध होता है। उसके विभाग किये जाने पर दो, तीन यावत् दस विभाग भी होते हैं, संख्यात विभाग भी होते है, असंख्यात विभाग भी। दो विभाग किये जाने पर-एक पोर एक परमाणु पुद्गल और एक ओर स्कन्ध होता है। यावत (पर्ववत) अथवा एक अोर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक अोर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा दो असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तीन विभाग किये जाने पर-~-एक अोर पृथक-पृथक् दो परमाणु-पुद्गल और एक ओर एक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है / यावत्--अथवा एक ओर एक परमाणुपुद्गल, एक ओर दश-प्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक पोर एक परमाणु पुद्गल, एक ओर एक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, और एक ओर दो असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। इस प्रकार यावत्-अथवा एक अोर एक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा तीन असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। चार विभाग किये जाने पर एक ओर तीन पृथक्-पृथक् परमाण-पुद्गल और एक अमच्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है / इस प्रकार चतु:संयोगी से यावत् दश संयोगो तक जानना चाहिए। इन सबका कथन संख्यात-प्रदेशी के (विकल्पों के) समान करना चाहिए / विशेष (अन्तर) इतना है कि एक असंख्यातशब्द अधिक कहना चाहिए, यावत्-अह्वा दश असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। संख्यात विभाग किये जाने पर एक ओर पृथक-पृथक संख्यात परमाणु-पुद्गल और एक मोर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर संख्यात द्विप्रदेशिक स्कन्ध और एक छोर असंख्यानप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार यावत-एक अोर संख्यात दश-प्रदेशी स्कन्ध और एक पोर एक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक अोर संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक अगंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होता है, अथवा संख्यात असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध होते हैं / उसके असंख्यात विभाग किये जाने पर पृथक्-पृथक् असंख्यात परमाणु-पुद्गल होते हैं। विवेचन–असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध के विभागीय विकल्प-असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध में पहले Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [155 बारह कह कर फिर ग्यारह-ग्यारह बढ़ाने से कुल 517 भंग होते हैं / वे इस प्रकार हैं-द्विकसंयोगी 12, त्रिकसयोगी 23, चतुष्कसंयोगी 34, पंचसंयोगी 45, षट्-संयोगी 56, सप्तसंयोगो 67, ग्राटमयोगी 78, नवसंयोगी 86, दशसंयोगी 100, संख्यात-संयोगी 12 अौर असंख्यात-संयोगी एक / ये सब मिला कर 517 भंग हुए।' अनन्त परमाणु-पुद्गलों के संयोग-विभागनिष्पन्न भंग प्ररूपणा 13. अणंता णं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव कि भवति ? गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवति / से भिज्जमाणे बुहा वि, तिहा वि जाव दसहा वि, संखिज्ज-असंखिज्ज-अणंतहा वि कज्जइ / दुहा कज्जमाणे एगयो परमाणुपोग्गले, एगयओ अणंतपएसिए खंधे, जाव अहवा दो अणंतपएसिया खंधा भवति / तिहा कज्जमाणे एगयतो दो परमाणुपो०, एगयतो अणंतपएसिए० भवति, अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दुपएसिए०, एगयनो अणंतपएसिए० भवति; जाव अहवा एगयओ परमाणुपो० एगयओ असंखेज्जपएसिए०, एगयनो अणंतपदेसिए खंधे भवति; अहवा एगयओ परमाणुपो०, एगयओ दो अणंतपएसिया० भवंति; अहवा एगयनो दुपएसिए०, एगयओ दो अणंतपएसिया० भवंति; एवं जाव अहवा एगयतो दसपएसिए एगयतो दो अगंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयो संखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ दो अणंतपदेसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे, एगयनो दो अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा, तिन्नि अणंतपएसिया खंधा भवंति / चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपो०, एगयतो अगंतपएसिए० भवति ; एवं चउक्कसंजोगो जाव असंखेज्जगसंजोगो / एए सव्वे जहेव असंखेज्जाणं भणिया तहेव अगंताण वि भाणियन्वा, नवरं एक्कं अगंतगं अब्भहियं भाणियव्वं जाव अहवा एगयतो संखेज्जा संखिज्जपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए० भवति / प्रहवा एगयओ संखेज्जा असंखेज्जपदेसिया खंधा, एगयनो अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा संखिज्जा अणंतपएसिया खंधा भवंति / असंखेज्जहा कज्जमाणे एगयतो असंखेज्जा परमाणुपोग्गला, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवति; अहवा एगयतो असंखिज्जा दुपएसिया खंधा, एगयओ अणतपएसिएक भवति; जाव अहवा एगयो असंखेज्जा संखिज्जपएसिया०, एगयओ अगंतपएसिए० भवति; अहवा एगयओ असंखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ खंधा, एगयओ अणंतपएसिए० भवति; अहवा प्रसंखेज्जा अणतपएसिया खंधा भवति / अणंतहा कज्जमाणे अणंता परमाणुपोग्गला भवंति / [13 प्र.) भगवन् ! अनन्त परमाणु-पुद्गल संयुक्त होकर एकत्रित हों तो (उनका) क्या होता है ? 1. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 566 Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र [13 उ.] गौतम ! उनका एक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध बन जाता है / यदि उसके विभाग किये जाएँ तो दो तीन यावत् दस, संख्यात, असंख्यात और अनन्त विभाग होते हैं / दो विभाग किये जाने पर एक पोर एक परमाणु पुद्गल और दूसरी ओर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है / यावत् दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तीन विभाग किये जाने पर- एक और पृथक्-पृथक् दो परमाणु पुद्गल और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओर एक परमाणु-पुद्गल, एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / यावत् अथवा एक ओर एक परमाणु पुद्गल, एक और एक असंख्यातप्रदेशी और एक और एक अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक ओ पुदगल, एक अोर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध और एक मोर दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। इस प्रकार यावत् --अथवा एक ओर एक दशप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर दो अनन्त प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा एक अोर एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अथवा एक ओर एक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध और एक और दो अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। अथवा तीन अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। चार विभाग किये जाने पर----एक ओर पृथक-पृथक तीन परमाणु-पुद्गल और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस प्रकार चतुष्कसंयोगी (से लेकर) यावत् असंख्यात-संयोगी तक कहना चाहिए / जिस प्रकार असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध के भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ ये सब अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के भंग कहने चाहिए। विशेष यह है कि एक 'अनन्त' शब्द अधिक कहना चाहिए। यावत्-अथवा एक ओर संख्यात संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है। अथवा एक ओर संख्यात असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा संख्यात अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / जब उसके असंख्यात भाग किये जाते हैं तो एक अोर पृथक्-पृथक असंख्यात परमाणु पुद्गल और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर असंख्यात द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है, यावत्--एक अोर असंख्यात संख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक ओर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा एक अोर असंख्यात असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध और एक अोर एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होता है / अथवा असंख्यात अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते हैं / अनन्त विभाग किये जाने पर पृथक-पृथक् अनन्त-परमाणु पुद्गल होते हैं। विवेचन-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विभागीय विकल्प–अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विभाग के पहले तेरह विकल्प (भंग) कह कर फिर उत्तरोत्तर 12-12 विकल्प बढ़ाते जाना चाहिए / यथा-द्विसंयोगी 13, त्रिकसंयोगी 25, चतुष्कसंयोगी 37, पंचसंयोगी 49, षट्संयोगी 61, सप्तसंयोगी 73, अष्टसंयोगी 85, नवसंयोगी 67, दशसंयोगी 106 संख्यात-संयोगी 13, असंख्यात-संयोगी 13 और अनन्तसंयोगी ?, यो कुल मिला कर 576 भंग हुए।' 1. भगवती मूत्र अ. वृत्ति, पत्र 566-667 Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [157 परमाणुपुद्गलों का पुद्गलपरिवर्त्त और उसके प्रकार 14. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाएणं अणंताणता पोग्गलपरिपट्टा सभणुगंतव्वा भवतीति मक्खाया? हंता, गोयमा ! एतेसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा जाव मक्खाया। [14 प्र. भगवन् ! इन परमाण-पुद्गलों के संघात (संयोग) और भेद (वियोग) के सम्बन्ध से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गलपरिवर्त्त जानने योग्य हैं. (क्या) इसीलिए (मापने) इनका कथन किया है ? [14 उ.] हाँ, गौतम ! संघात और भेद के सम्बन्ध से होने वाले अनन्तानन्त पुद्गलपरिवर्त जानने योग्य हैं, इसीलिए ये कहे गये हैं। 15. कतिविधे णं भंते ! पोग्गलपरियट्ट पनते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियह पन्नत्ते, तं जहा–ओरालियपोग्गलपरियट्ट वेउब्वियपोग्गलपरिय? तेयापोग्गलपरियट्ट कम्मापोग्गलपरिय? मणपोग्गलपरियट्ट वइपोग्गलपरिय? आणपाणुपोग्गलपरियट्ट। [15 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवत्तं कितने प्रकार का कहा गया है ? [15 उ.] गौतम ! वह सात प्रकार का कहा गया है। यथा--(१) प्रौदारिक पुद्गलपरिवर्त्त, (2) वैक्रिय-पुद्गल परिवर्त, (3) तैजस-पुद्गल परिवर्त, (4) कार्मण-पुद्गल परिवर्त, (5) मनः-पुद्गल परिवर्त, (6) वचन-पुद्गल-परिवर्त और (7) अानप्राण-पुद्गल परिवर्त्त / 16. नेरइयाणं भंते ! कतिविधे पोागलपरियट्ट पन्नते ? गोयमा ! सत्तविधे पोग्गलपरियट्ट पन्नत्ते, तं जहा- ओरालियपोग्गलपरियट्ट वेधियपोग्गलपरियट्ट जाव प्राणपाणुपोग्गलपरियट्टे / [16 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के पुद्गल-परिवर्त कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [16 उ.] गौतम ! (नैरयिक जीवों के भी) सात प्रकार के पुद्गल-परिवर्त्त कहे गए हैं / यथा- औदारिकपुद्गल-परिवर्त्त, वैक्रियपुद्गल-परिवर्त यावत् प्रान-प्राणपुद्गल-परिवर्त्त / 17. एवं जाव वेमाणियाणं / [17] इसी प्रकार (असुर कुमार से लेकर) यावत् वैमानिक (दण्डक) तक कहना चाहिए / विवेचन-पुदगलपरिवर्त : क्या, कैसे और कितने प्रकार के ?-पुद्गल द्रव्यों के साथ परमाणुनों का मिलन पुद्गल-परिवर्त्त है। ये पुद्गल-परिवर्त्त संघात (संयोग) और भेद (विभाग) के योग से अनन्तानन्त होते हैं / अनन्त को अनन्त से गुणा करने पर जितने होते हैं, वे अनन्तानन्त कहलाते हैं। एक ही परमाण' अनन्ताणकान्त चणकादि द्रव्यों के साथ संयुक्त होने पर अनन्तपरिवत्र्तों को प्राप्त करता है। प्रत्येक परमाण रूप द्रव्य में परिवर्त्त होता है और परमाण अनन्त हैं। इस प्रकार प्रत्येक परमाणु में अनन्त परिवर्त्त होते हैं। इसलिए परमाणु-पुद्गल-परिवर्त अनन्तानन्त Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हो जाते हैं। साथ ही, ये पुद्गल-परिवर्त कैसे होते हैं ? यह भी भलीभाँति जानना चाहिए / यहाँ मूलपाठ में बताया गया है कि पुद्गल द्रव्यों के साथ परमाणों के संघात (मंहनन-संयोग) और भेद (वियोग-विभाग) के अनुपात-योग से पुद्गल-परिवर्त्त होते हैं। सामान्यतया पुदगलपरिवत्तों के 7 प्रकार हैं-ग्रौदारिक, वैक्रिय, तेजम, कार्मण, मन, वचन और पान-प्राण पुद्गल परावर्त / औदारिक पुदगल परिवर्त-प्रौदारिक शरीर में विद्यमान जीव के द्वारा जब लोकवर्ती प्रौदारिकशरीरयोग्य द्रव्यों का औदारिक शरीर के रूप में समग्रतया ग्रहण किया जाता है, तब उसे औदारिकपुद्गलपरिवर्त कहते हैं / इसी प्रकार वैक्रियपुद्गलपरिवर्त प्रादि का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। प्राशय यह है कि पूर्वोक्त पुद्गलपरिवर्त औदारिक आदि सात माध्यमों से होता है। नरयिक पुद्गलपरिवर्त-अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए नरयिक जीवों के मात प्रकार के पुद्गलपरिवर्त्त कहे गए हैं। ___ कठिनशब्दार्थ-साहणणा--संहनन अर्थात्-संघात, संयोग / भेद-वियोग या विभाग / समणुगंतव्वा भवंतीतिमक्खाया----सम्यक् प्रकार से जानने योग्य हैं, या जानने चाहिए, इस हेतु से भगवान् द्वारा कहे गये हैं / आण-पाणु-मान-प्राण-श्वासोच्छवास / एकत्व-बहुत्व दृष्टि से चौवीस दण्डकों में प्रौदारिकादि सप्तपुद्गल-परिवत्त-प्ररूपणा 18. [1] एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? अगता। [18-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक (प्रत्येक) जोव के अतोत प्रोदारिक पुद्गलपरिवर्त कितने from ए [18-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [2] केवइया पुरेक्खडा ? कस्सति अत्थि, कस्सति गस्थि / जस्तऽस्थि जहण्णणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / [18-2 प्र.] (भगवन् ! प्रत्येक जीव के) भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त्त कितने होंगे ? [18-2 उ.] गौतम ! (भविष्यत्काल में) किसी के (पुद्गलपरिवर्त) होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन होंगे तथा उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। 1. (क) भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 568 (ख) भगवती (हिन्दीविवचन) भा. 4, 5. 2036 2. भगवनी. अ. वृत्ति, पत्र 568 3. (क) बही, अ. वृत्ति, पत्र 568 (ख) 'ग्राणपाण' शब्द के लिए 'पाइयसहमहण्णवो' पृ. 110 Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [159 19. एवं सत्त दंडगा जाव आणपाणु ति / [19] इसी प्रकार (वैत्रिय-पुद्गल-परिवर्त से लेकर) यावत्-आन-प्राण, (श्वासोच्छ्वास पुद्गल-परिवर्त तक) सात अालापक (दण्डक) कहने चाहिए / 20. [1] एगमेगस्स गं भंते ! नेर इयरस केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ? अणंता। [20-1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नै रयिक के प्रतीत प्रौदारिक पुद्गलपरिवर्त कितने हैं ? [20-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं / [2] केवतिया पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि, कस्सइ नस्थि / जस्सऽस्थि जहन्ने णं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [19-2 प्र.] भगवन् (प्रत्येक नरयिक के) भविष्यत्कालीन (पुद्गलपरिवत्त) कितने होंगे? [20-1 उ.] गौतम ! (भविष्यत्कालिक पुद्गल-परिवर्तन) किसी (नरयिक) के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिस (नैरयिक) के होंगे, उसके जघन्य एक, दो (या) तीन होंगे और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। 21. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा ? एवं चेय / [21 प्र. भगवन् ! प्रत्येक असुरकुमार के प्रतीतकालिक कितने प्रौदारिक पुद्गल-परिवर्त [21 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्वोक्तवत्) जानना चाहिए। 22. एवं जाव वेमाणियस्स / [22] इसी प्रकार (नागकुमार से लेकर) यावत् वैमानिक (के अतीत पुद्गलपरिवर्त) तक (पूर्ववत् कथन करना चाचुिए / ) 23. [1] एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवतिया वेउवियपुग्गलपरियट्टा अतीया ? अणंता। [23.1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नारक के भूतकालीन वैक्रिय-पुद्गल-परिवतं कितने हुए है ? [23-2 उ.] गौतम ! (वे भी) अनन्त हुए हैं / [2] एवं जहेव मोरालियपोग्गलपरियट्टा तहेब वे उब्वियपोग्गलपरियट्टा वि भाणियन्वा / [23-2] जिस प्रकार औदारिक पुद्गल-परिवर्त के विषय में कहा, उसी प्रकार वैक्रियपुद्गल-परिवर्त्त के विषय में कहना चाहिए। Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 24. एवं जाव वेमाणियस्स आणापाणुपोग्गपरियट्टा। एए एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति / 24) इसी प्रकार (प्रत्येक नैरयिक से लकर) यावत् प्रत्येक वैमानिक (तक) के (अतीतकालिक तेजसपुद्गलपरिवर्त्त से लेकर) पानाप्राण-श्वासोच्छवास पुद्गलपरिवर्त तक (की वक्तव्यता कहनी चाहिए / ) इस प्रकार प्रत्येक नैरयिक से वैमानिक तक प्रत्येक जीव की अपेक्षा से ये सात दण्डक होते हैं। 25. [1] नेरइयाणं भंते ! केवतिया पोरालियपोग्गलपरियट्टा प्रतीता? अणंता / [25-1 प्र. भगवन् ! (समुच्चय) नैरधिकों के अतीतकालीन प्रौदारिक पुद्गल-परिवर्त कितने हुए हैं ? [25-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हुए हैं / [2] केवतिया पुरेक्खडा? अणंता। [25-2 प्र.] भगवन् ! (समुच्चय) नैरयिक जीवों के भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त कितने [25-2 उ.] गौतम ! (वे भी) अनन्त होंगे। 26. एवं जाव वेमाणियाणं / [26] इसी प्रकार (समुच्चय असुरकुमारों से लेकर) यावत् (समुच्चय) वैमानिकों तक (के अतीतकालीन एवं भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त) के विषय में (कथन करना चाहिए / ) 27. एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टा वि / एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा माणियाणं / एवं एए पोहत्तिया सत्त चउवोसतिदंडगा। (27] इसी प्रकार (समुच्चय नै रयिकों से ले कर समुच्चय वैमानिकों तक के) वैक्रियपुद्गलपरिवर्त के विषय में कहना चाहिए। इसी प्रकार (तैजसपुद्गल परिवर्त से लेकर) यावत् पानप्राणपुद्गलपरिवर्त्त तक को वक्तव्यता कहनी चाहिए। इस प्रकार पृथक्-पृथक् सातों पुद्गलपरिवर्तों के विषय में सात अालापक तथा समुच्चय रूप से चौवीस दण्डकवर्ती जोवों के विषय में चौवीस पालापक कहने चाहिए / विवेचन-प्रौदारिक पुदगलपरिवर्त के सम्बन्ध में प्ररूपणा--प्रस्तुत 10 सूत्रों (सु. 18 से 27 तक) में जीवों के सप्तविधपुद्गल परिवर्त के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। तीन पहलओं से पुद्गल परिवर्त की चर्चा---प्रस्तुत में तीन पहलुप्रों से पुद्गलपरिवर्तसम्बन्धी प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है-(१) प्रत्येक जीव की दृष्टि से, प्रत्येक नैरयिक आदि से वैमानिक जीव तक की दृष्टि से और समुच्चय नैरयिकों से वैमानिकों तक की दृष्टि से, (2) अतीतकालीन एवं अनागतकालीन, (3) प्रौदारिक पुद्गल-परिवर्त्त से लेकर ग्रानप्राण-पुद्गलपरिवर्त तक / ' 1. विपाहपत्तिसुनं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 5.82, 583 Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [161 अतीत पुद्गलपरिवर्त अनन्त कैसे ? प्रत्येक जीव या प्रत्येक नैरयिकादि जीव के अतीतकालसम्बन्धी प्रौदारिक आदि पुद्गलपरिवर्त अनन्त हैं, क्योंकि अतीतकाल अनादि है और जीव भी अनादि है तथा भिन्न-भिन्न पुद्गलों का ग्रहण करने का उनका स्वभाव भी अनादि है।' ____ अनागतपुद्गलपरिवर्त-भविष्यत्कालिक पुद्गलपरिवर्त्त दूरभव्य या अभव्य जीव के तो होते ही रहेंगे, किन्तु जो जीव नरकादिगति से निकल कर मनुष्य भव पा कर सिद्धि प्राप्त कर लेगा, अथवा जो संख्यात या असंख्यात भवों में सिद्धि को प्राप्त करेगा, उसके पुद्गलपरिवर्त नहीं होगा। जिसका संसारपरिभ्रमण अधिक होगा, वह एक या अनेक पुद्गलपरिवर्त करेगा, परन्तु वह एक पुद्गलपरिवर्त भी अनेक काल में पूरा होगा / कठिनशब्दार्थ—एगमेगस्स जीवस्स—प्रत्येक जीव के / पुरेक्खडा-पुरस्कृत-अनागत-भविष्यत्कालीन / एकत्तिया --एक जीवसम्बन्धी या एक वचन सम्बन्धी / पुहुत्तिया बहुवचनसम्बन्धी __ एकत्व और बहुत्वसम्बन्धी दण्डक–एकवचन-सम्बन्धी प्रौदारिकादि सात प्रकार के पुदगलपरिवर्त होने से, सात दण्डक (विकल्प) होते हैं। इन सात दण्डकों को नैयिकादि चौवीस दण्डकों में कहना चाहिए और इसी प्रकार बहुवचन से भी कहना चाहिए / एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी दण्डकों में अन्तर यह है कि एकवचनसम्बन्धी दण्डकों में भविष्यत्कालीन पुद्गलपरिवर्त्त किसी जीव के होते हैं और किसी जीव के नहीं होते। बहुवचनसम्बन्धी दण्डकों में तो होते ही हैं, क्योंकि उनमें जीवसामान्य का ग्रहण है।४ एकत्व दृष्टि से चौवीस दण्डकों में चौबीत दण्डकवर्ती जीवत्व के रूप में प्रतीतादि सप्तविध पुदगलपरिवर्त-प्ररूपरणा 28. [1] एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया पोरालियपोग्गलपरिया प्रतीया? नस्थि एक्को वि। [28-1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नै रयिक जीव के, नैरयिक अवस्था में अतीत (भूतकालीन) औदारिक पुद्गल परिवर्त कितने हुए हैं ? [28-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं हुआ। [2] केवतिया पुरेक्खडा? नस्थि एक्को वि। [28-2 प्र.] भगवन् ! भविष्यत्कालीन (औदारिक पुद्गल-परिवर्त) कितने होंगे ? [28-2 उ.] गौतम ! एक भी नहीं होगा। 1. भगवती, प्र. वृत्ति, पत्रांक 568 2. वही, पत्र 568 3. वहीं, पत्र 568 4. वही, पत्र 568 Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 29. [1] एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्त केवतिया औरालियपोग्गलपरियट्टा० ? एवं चेव / [26-1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, असुरकुमाररूप में अतीत औदारिक पुद्गलपरिवर्त कितने हुए हैं ? [26-1 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववक्तव्यतानुसार) जानना चाहिए। [1] एवं जाव थणियकुमारत्त / [26-2] इसी प्रकार (नागकुमार से लेकर) यावत्-स्तनितकुमार (तक कहना चाहिए / ) 30. [1] एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविकाइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ? प्रणंता। [30-1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के, पृथ्वीकाय के रूप में अतीत में औदारिक पुद्गल-परिवर्त कितने हुए ? [30-1 उ.] गौतम वे अनन्त हुए हैं / [2] केवतिया पुरेक्खडा ? कस्सइ अस्थि, कस्सइ नस्थि / जस्सऽस्थि जहन्नणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [30-2 प्र.] भगवन् ! भविष्य में कितने होंगे ? [30-2 उ.] किसी के होंगे, और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। 31. एवं जाव मणुस्सले। [31] इसी प्रकार (अकायत्व से लेकर) यावत् मनुष्य भव तक कहना चाहिए। 32. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियत्त जहा असुरकुमारते / [32] जिस प्रकार असुरकुमारपन के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तरपन, ज्योतिष्कपन तथा वैमानिकपन के विषय में कहना चाहिए। 33. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा प्रतीया? एवं जहा नेरइयस्स वत्तव्वया भणिया तहा असुरकुमारस्स वि माणितव्या जाव वेमाणियत्ते / [33 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक असुरकुमार के नैरयिक भव में अतीत औदारिक पुद्गल-परिवर्त कितने हुए हैं ? Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4} [163 _ [33 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (प्रत्येक) नैयिक जोव को वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार (प्रत्येक) असुरकुमार के विषय में यावत् वैमानिक भव-पर्यन्त कहना चाहिए / 34. एवं जाव थणियकुमारस्स / एवं पुढविकाइयस्स वि / एवं जाव वेमाणियस्स / सन्वेसि एक्को गमो। [34] इसी प्रकार (प्रत्येक असुरकुमार के समान) यावत्-(नागकुमार से लेकर प्रत्येक) स्तनितकुमार तक कहना चाहिए। इसी प्रकार प्रत्येक पृथ्वीकाय के विषय में भी (पृथ्वीकाय से लेकर) यावत्-(प्रत्येक) वैमानिक पर्यन्त सबका एक (समान) पालापक (गम) कहना चाहिए। 35. [1] एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया वेउब्वियपोग्गलपरियट्टा अतीया ? अणंता। [35-1 प्र.] भगवन् ! प्रत्येक नैरयिक जीव के नैरयिक भव में अतीतकालीन वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त कितने हुए हैं ? [35-1 उ.] गौतम ! (ऐसे वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त) अनन्त हुए हैं / [2] केवतिया पुरेक्खडा ? एक्कुत्तरिया जाव अणंता वा। [35-2 प्र.] भगवन् ! भविष्यकालीन (वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त) कितने होंगे? [35-2 उ.] गौतम ! (किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिनके होंगे) (उनके) एक से लेकर (1, 2, 3) उत्तरोत्तर उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा यावत् अनन्त होंगे। 36. एवं जाव थणियकुमारत्ते / [36] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार भव तक कहना चाहिए / 37. [1] पुढविकाइयत्त पुच्छा / नत्थि एक्को वि। 637-1 प्र.] (भगवन् ! प्रत्येक नै रयिक जीव के) पृथ्वीकायिक भव में (अतीत में वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त) कितने हुए ? [37-1 उ.] (गौतम !) एक भी नहीं हुप्रा / [1] केवतिया पुरेक्खडा ? नत्थि एक्को वि। [37-2 प्र.] (भगवन् ! ) भविष्यकाल में (ये) कितने होंगे ? [37-2 उ.] गौतम ! एक भी नहीं होगा। 38. एवं जत्थ वेउब्वियसरीरं तत्थ एगुत्तरिमो, जत्थ नत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियब्वं जाव बेमाणियस्स वेमाणियत्ते। Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [38] इस प्रकार जहाँ वैक्रियशरीर है, वहाँ एक से लेकर उत्तरोत्तर (अनन्त तक), (वक्रियपुद्गलपरिवर्त्त जानना चाहिए / जहाँ वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ (प्रत्येक नैरयिक के) पृथ्वोकायभव में (वैक्रियपुद्गल परिवर्त के विषय में) कहा, उसी प्रकार, यावत् (प्रत्येक) वैमानिक जीव के वैमानिक भव पर्यन्त कहना चाहिए। ___39. तेयापोग्गलपरियट्टा कम्मापोग्गलपरियट्टा य सम्वत्थ एक्कुत्तरिया भाणितव्वा / मणपोग्गलपरियट्टा सम्वेसु पंचेंदिएसु एगुत्तरिया। विलिदिएसु नत्थि / वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव, नवरं एगिदिएसु 'नस्थि' भाणियन्वा / प्राणापाणुपोग्गलपरियट्टा सम्वत्थ एकुत्तरिया जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। _ [39] तैजस पुद्गल-परिवर्त और कार्मण-पुद्गल-परिवर्त्त सर्वत्र (चौबीस ही दण्डकवर्ती जीवों में) एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। मनः पुदगल-परिवर्त समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर उत्तरोत्तर यावत् अनन्त तक कहने चाहिए। किन्तु विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रिचतुरिन्द्रिय वाले जीवों) में मनःपुद्गलपरिवर्त्त नहीं होता। इसी प्रकार (मन पुद्गलपरिवर्त्त के समान) वचन-पुद्गल-परिवर्त के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विशेष (अन्तर) इतना ही है कि वह (वचनपुद्गल -परिवर्त) एकेन्द्रिय जीवों में नहीं होता। पान-प्राण (श्वासोच्छवास) पुद्गल-परिवर्त भी सर्वत्र (सभी जीवों में) एक से लेकर अनन्त तक जानना चाहिए। (ऐसा ही कथन) यावत् वैमानिक के वैमानिक भव तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 28 से 36 तक) में प्रत्येक वर्तमानकालिक नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के अतीत-अनागत नैरयिकत्वादि रूप के सप्तविध पुद्गल-परिवत्र्तों की संख्या का निरूपण किया गया है। वैक्रियपुद्गलपरिवर्त-एक-एक नैरयिक जीव के नैरयिक भव में रहते हुए अनन्त वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त्त अतीत में हुए हैं, तथा भविष्यकाल में किसी के होंगे, किसी के नहीं। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। इसके अतिरिक्त वायुकाय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और व्यन्तरादि में से जिन-जिन में वैक्रिय शरोर है उन-उनके वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त एकोत्तरिक (अर्थात् एक, दो, तीन संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त तक) कहता चाहिए / जहाँ अप्कायिक आदि प्रत्येक जीवों में वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त भी नहीं होता।' तेजस-कार्मण-परिवर्त-तैजस और कार्मण ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं। इसलिए नारकादि चौबीस दण्डकवर्ती सभी जीवों में तेजस-कार्मण पुद्गलपरिवर्त्त अतीत और भविष्यकाल में एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2041 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569 Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [165 मनःपुद्गलपरिवर्त्त कहाँ और कहाँ नहीं ?-मन संज्ञी पंचेन्द्रियों के होता है, इसलिए पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर अनन्त तक मनःपुद्गल परिवत्तं होते हैं, हुए हैं, होंगे / किन्तु जिनमें इन्द्रियों की परिपूर्णता नहीं है, उन विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के) जीवों में मन का अभाव है, इसलिए उनमें मन:पुद्गल-परिवर्तन नहीं होता / विकलेन्द्रिय शब्द से यहाँ एकेन्द्रिय का भी ग्रहण होता है। वचनपुद्गलपरिवर्त-एकेन्द्रिय जीवों के वचन नहीं होता, इसलिए उन्हें छोड़ कर शेष समस्त संसारी जीवों के (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देव) के वचनपुद्गलपरिवर्त पूर्ववत् होते हैं।' आन-प्राण-पुदगल परिवर्त-- श्वासोच्छ्वास एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी संसारी जीवों के होता है, इसलिए पानप्राणपुद्गलपरिवर्त सभी जीवों में एक से लेकर अनन्त तक होता है / बहुत्व को अपेक्षा से नैरयिकादि जीवों के नरयिकत्वादिरूप में अतीत-अनागत सप्तविध पुद्गल-परिवर्त-निरूपण 40. [1] नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया पोरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ? नत्थेक्को वि। [40-1 प्र.] भगवन् ! अनेक नै रयिक जीवों के नैरयिक भव में अतीतकालिक औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त कितने हुए हैं ? [40-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं हुआ। [2] केवइया पुरेक्खडा ? नत्थेक्को वि। [40-2 प्र.] भगवन् ! (अनेक नैरयिक जीवों के नैरयिक भव में) भविष्य में कितने (प्रौदारिकपुद्गलपरिवर्त) होंगे ? [40-1 उ.] गौतम ! भविष्य में एक भी नहीं होगा। 41. एवं जाव थणियकुमारत्ते / [41] इसी प्रकार (अनेक नैरयिक जीवों के असुरकुमार भव से लेकर) यावत् स्तनितकुमार भव तक (कहना चाहिए / ) 42. [1] पुढविकाइयत्ते पुच्छा ? प्रणंता। [42-1 प्र.] भगवन्! अनेक नैरयिक जीवों के पृथ्वीकायिकपन में (अतीतकालिक औदारिकपुद्गलपरिवत्तं) कितने हुए हैं। [42-1 उ.] गौतम! अनन्त हुए हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति पत्र 569 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 585 Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता। [42-2 प्र.] भगवन् ! (अनेक नै रयिकों के पृथ्वीकायिकपन में) भविष्य में (औदारिक पुद्गलपरिवर्त) कितने होंगे? [42-2 उ.] गौतम ! अनन्त होंगे / 43. एवं जाव मणुस्सत्ते। 643] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के पृथ्वीकायिकपन में अतीत-अनागत औदारिकपुद्गलपरिवत्तं के विषय में कहा है, उसी प्रकार यावत् मनुष्य भव तक कहना चाहिए। 44. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते। [44] जिस प्रकार अनेक नैरयिकों के नैरयिकभव में अतीत-अनागत औदारिकपुद्गलपरिवर्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार उनके वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव के भव में भी कहना चाहिए। 45. एवं जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते / [45] (अनेक नैरयिकों के वैमानिक भव तक का औदारिकपुद्गलपरिवर्त्तविषयक कथन किया) उसी प्रकार यावत् अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव तक (कथन करना चाहिए) / 46. एवं सत्त वि पोग्गलपरियट्टा भाणियचा / जत्थ अस्थि तत्थ अतीता वि, पुरेक्खडा वि अणंता भाणियन्वा / जत्थ नत्थि तत्थ दो वि 'नस्थि भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवतिया प्राणापाणुपोग्गलपरियट्टा प्रतीया ? अणंता / केवतिया पुरेक्खडा ? अणंता। [46] जिस प्रकार औदारिकपुद्गलपरिवर्त्त के विषय में कहा, उसी प्रकार शेष सातों पुद्गलपरिवत्र्तों का कथन कहना चाहिए / जहाँ जो पुद्गलपरिवर्त हो, वहाँ उसके अतीत (भूतकालिक) और पुरस्कृत (भविष्यत्कालीन) पुद्गलपरिवर्त अनन्त-अनन्त कहने चाहिए। जहाँ नहीं' हों, वहाँ अतीत और पुरस्कृत (अनागत) दोनों नहीं कहने चाहिए / यावत्-(प्रश्न) 'भगवन् ! अनेक वैमानिकों के वैमानिक भव में कितने प्रान-प्राण-पुद्गलपरिवर्त्त (अतीत में) हुए ? (उत्तर-) गौतम ! अनन्त हुए हैं / (प्रश्न-) 'भगवन् ! आगे (भविष्य में) कितने होंगे? (उत्तर-) 'गौतम ! अनन्त होंगे।' यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सात सूत्रों में (सू. 40 से 46 तक) अनेक नैरयिकों से लेकर अनेक वैमानिकों (चौवीस दण्डकों) तक के नैरयिकभव से लेकर वैमानिकभव तक में प्रतीत-अनागत सप्तविधपुद्गल-परिवत्तों की संख्या का निरूपण किया गया। पूर्वसूत्रों में एकत्व की अपेक्षा से प्रतिपादन था, इन सूत्रों में बहुत्व की अपेक्षा से कथन है / शेष सब का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है / __कठिन शब्दार्थ--एगुत्तरिया-एक से लेकर उत्तरोत्तर संख्यात, असंख्यात या अनन्त तक / नेरइयत्ते-नैरयिक के रूप में अर्थात्-नारक के भव में नरयिक पर्याय में / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569, (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2038 Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [167 47. से केण? गं भंते ! एवं वुच्चइ 'पोरालियपोग्गलपरियट्ट, ओरालियपोग्गलपरियट्ट' ? गोयमा ! जं जं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गह्यिाई बढाई पुट्ठाई कडाइ घट्टवियाई मिविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई परियाइयाइं परिणामियाई निजिण्णाई निसिरियाई निसिट्ठाई भवंति, से तेग?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'ओरालियपोग्गलपरियट्ट, ओरालियपोग्गलपरिय?'। [47 प्र.| भगवन् ! यह प्रोदारिक पुद्गल-परिवर्त्त, औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त किसलिए कहा जाता है ? [47 उ.] गौतम ! औदारिक शरीर में रहते हए जीव ने औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों को औदारिक शरीर के रूपमें ग्रहण किये हैं, बद्ध किये हैं (अर्थात-जीव प्रदेशों के साथ एकमेक किये हैं।) (शरीर पर रेणु के समान) स्पृष्ट किये हैं; (अथवा अपर-अपर ग्रहण करके उन्हें) पोषित किये हैं; उन्हें (पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तर) किया है। उन्हें प्रस्थापित (स्थिर) किया है; (स्वयं जीव ने) निविष्ट (स्थापित किये हैं, अभिनिविष्ट (जीव के साथ सर्वथा संलग्न) किये हैं; अभिसमन्वागत (जीव ने रसानुभूति का आश्रय लेकर सबको समाप्त) किया है। (जीव ने रसग्रहण द्वारा सभी अवयवों से उन्हें) पर्याप्त कर लिये हैं। परिणामित (रसानुभूति से ही परिणामान्तर प्राप्त) कराये हैं, निर्जीर्ण (क्षीण रस वाले) किये हैं (जीव प्रदेशों से उन्हें) निःसृत (पृथक्) किये हैं, (जीव के द्वारा) निःसृष्ट (अपने प्रदेशों से परित्यक्त) किये हैं। हे गौतम ! इसी कारण से औदारिकपुद्गलपरिवत्तं प्रौदारिकपुद्गलपरिवर्त्त कहलाता है। 48. एवं वेउब्बियपोग्गलपरियट्ट वि, नवरं बेउन्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउब्वियसरीरपायोग्गाई दवाई वेउव्वियसरीरताए / सेसं तं चेव सव्वं / [48] इसी प्रकार (पूर्वोक्तवत्) वैक्रियपुद्गल-परिवत्त के विषय में भी कहना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि.जीव ने वैक्रिय शरीर में रहते हए वैक्रिय शरीर योग्य द्रव्यों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण किये हैं, इत्यादि शेष सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए / 49. एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्ट, नवरं आणापाणुपायोग्गाइं सव्वदव्वाइं आणापाणुत्ताए / सेसं तं चेव / [46] इसी प्रकार (तेजस, कार्मण से लेकर) यावत् पान-प्राण, द्गल-परिवर्त तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि प्रान-प्राण-योग्य समस्त द्रव्यों का आन-प्राण रूप से जीव ने ग्रहण किये हैं, इत्यादि (सब कथन करना चाहिए। शेष सब कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (47) में औदारिक पुद्गल परिवर्त्त कहलाने के 13 कारणों पर प्रकाश डालते हुए 13 प्रक्रियाएँ बताई गई हैं-(१) गृहीत, (1) बद्ध, (3) स्पृष्ट या पुष्ट, (4) कृत, (5) प्रस्थापित, (6) निविष्ट, (७)अभिनिविष्ट, (8) अभिसमन्वागत, (6) पर्याप्त, (10) परिणामित, (11) निर्जीर्ण (12) निःसृत और (13) नि:सृष्ट। इन तेरह प्रक्रियाओं में से औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों के गुजरने के कारण ही वह औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त कहलाता है। Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इन सब का भावार्थ कोष्ठक में दे दिया है / इनमें से प्रथम. (गहियाइं बद्धाई आदि) चार क्रियापद औदारिक पुद्गलों के ग्रहणविषयक हैं, तदनन्तर पांच क्रियापद (पट्टवियाई आदि) स्थितिविषयक हैं। इनसे आगे के 'परिणामियाई' आदि चार पद प्रौदारिक पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से पृथक् करने के विषय में हैं। औदारिकपुद्गल परिवर्त्त के समान ही अन्य सभी पुद्गलपरिवर्तों की प्रक्रियाएँ हैं, वहाँ केवल 'नाम' बदल जाता है, शेष सब कथन समान है।' सप्तविध पदगलपरिवतों का निर्वर्तनाकालनिरूपण 50. ओरालियपोग्गलपरियणं भंते ! केवतिकालस्स निव्वत्तिज्जति ? गोयमा ! अणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि, एवतिकालस्स नित्तिज्जइ / [50 प्र.] भगवन् ! औदारिक-पुद्गल-परिवर्त्त कितने काल में निर्वत्तित-निष्पन्न होता है ? [50 उ.] गौतम ! (ौदारिक-पुद्गल-परिवर्त) अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकाल में निष्पन्न होता है। 51. एवं वेउव्वियपोग्गलपरियट्ट वि। [51] इसी प्रकार (पूर्ववत्) वैक्रिय-पुद्गल-परिवर्त का निष्पत्तिकाल जानना चाहिए। 52. एवं जाव प्राणापाणुपोग्गलपरियट्ट। {52] इसी प्रकार (ौदारिकपुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल के समान ही शेष पांच पुद्गलपरिवर्त) यावत् प्रान-प्राण-पुद्गल परिवर्त (का निष्पत्तिकाल जानना जाहिए / ) विवेचन-सप्तविध पुद्गल-परिवर्त्त निष्पत्तिकाल इतना क्यों ? प्रौदारिक आदि सातों ही पुद्गलपरिवत्तों में से प्रत्येक पुद्गलपरिवर्त अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल में निष्पन्न होता है, उसका कारण यह है कि पुद्गल अनन्त हैं और उनका ग्राहक एक ही जीव होता है / तथा किसी भी पुद्गलपरिवर्त में पूर्वगृहीत पुद्गलों की गणना नहीं की जाती / / निव्वत्तिज्जइ : अर्थ निर्तित-निष्पन्न-परिपूर्ण होता है। सप्तविध पुद्गल-परिवर्तों के निष्पत्तिकाल का अल्प-बहुत्व 53. एतस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, वेउब्धियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569-570 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा-४, पृ. 2042 (ग) क्यिापण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 586 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 570 3. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 4, पृ. 2043 Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 4] [169 गोयमा ! सम्बत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले, तेयापोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मोरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मणपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तगाकाले अणंतगुणे, वइपोग्गलपरियट्टनिवत्तणाकाले अणंतगुणे, वेउवियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे / _[53 प्र.] भगवन् ! औदारिकपुद्गल-परिवर्त्त-निर्वर्तना (निष्पत्ति) काल, वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल यावत् प्रान-प्राण-पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तनाकाल, इन (सातों) में से कौन सा (निष्पत्ति-) काल, किस काल से अल्प यावत् विशेषाधिक है ? 53 उ.] गौतम ! सबसे थोड़ा कार्मण-पुद्गल-परिवर्त का निवर्त्तना (-निष्पत्ति) काल है / उससे तैजसपुद्गल-परिवर्त्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा (अधिक) है / उससे औदारिक-पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तना-काल अनन्तगुणा है, और उससे आन-प्राण-पुद्गलपरिवर्त-निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है। उससे मन:पुद्गल-परिवर्त-निर्वत्तनाकाल अनन्तगुणा है तथा उससे मन:पुद्गलपरिवर्त्त-निर्वर्तना काल अनन्तगुणा है, उससे वचन-पुद्गल-परिवर्त-निर्वर्तना-काल अनन्तगुणा है और (इन सबसे) वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त का निर्वर्तनाकाल अनन्तगुणा है। विवेचन-सप्तविध पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल में अन्तर का कारण कार्मणपुद्गल परिवर्त-निष्पत्तिकाल सबसे थोड़ा इसलिए है कि कार्मण पुद्गल सूक्ष्म होते हैं और बहुत-से परमागनों से निष्पन्न होते हैं। इसलिए वे एक ही बार में बहुत-से ग्रहण किये जाते हैं। तथा नारक आदि सभी गतियों में वर्तमान जीव प्रतिसमय उन्हें ग्रहण करता रहता है। इसलिए स्वल्प-काल में ही उन सभी पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है। उससे तेजसपुदगल परिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि तैजस पुद्गल स्थल होने के कारण एक बार में अल्प पुद्गलों का ग्रहण होता है। अल्पप्रदेशों से निष्पन्न होने के कारण उनके अल्प अणों का ग्रहण होता है। इसलिए कार्मण से तैजस पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है / उससे औदारिक पुद्गलपरिवर्त्तनिष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रौदारिकपुद्गल अत्यन्त स्थल होते हैं / इसलिए उनमें से एक बार में अल्प का ही ग्रहण होता है / और फिर उनके प्रदेश भी अल्पतर हैं / अतः उनके ग्रहण करने में, एक समय में अल्प अणु ही गृहीत होते हैं। तथा वे कामण और तैजस पुद्गलों की तरह सर्व-संसारी जीवों द्वारा निरन्तर गहीत नहीं होते, किन्तु केवल औदारिक शरीरधारियों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है / इसलिए बहुत लम्बे काल में उनका ग्रहण होता है। उससे प्रान-प्राण-पुद्गल परिवर्त-निष्पतिकाल अनन्तगुणा है / यद्यपि औदारिक पुद्गलों से आन-प्राणपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं. इसलिए उनका ग्रहण अल्पकाल में हो सकता है. तथापि अपर्याप्त-अवस्थ ग्रहण न होने से तथा पर्याप्त-अवस्था में भी औदारिकशरीर-पुद्गलों की अपेक्षा अल्प-परिमाण में उनका ग्रहण होने से, उनका शीघ्र ग्रहण नहीं होता। इसलिए औदारिकपुद्गल-परिवर्त-निष्पत्तिकाल से आन-प्राण-पुद्गल-परिवर्त -निष्पत्ति-काल अनन्तगुणा है। उससे मनःपुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है। यद्यपि पानप्राणपुद्गलों की अपेक्षा मनःपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी होते हैं, इस कारण अल्पकाल में ही उनका ग्रहण सम्भव है, तथापि एकेन्द्रियादि की कायस्थिति बहुत दीर्घकालीन है। उनमें चले जाने पर मन की प्राप्ति चिरकाल के बाद होती है, इसलिए मनःपुद्गल Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिवर्त्त दीर्घकाल-साध्य होने से मन:पुद्गलपरिवर्त-निष्पत्तिकाल उससे अनन्तगुणा कहा गया है। उससे वचनपुद्गलपरिवर्त्त निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा हैं / यद्यपि मन की अपेक्षा वचन शीध्र प्राप्त होता है / तथा द्वीन्द्रियादि-अवस्था में भी वचन होता है / तथापि मनोद्रव्यों की अपेक्षा भाषाद्रव्य अत्यन्तस्थल होते हैं, इसलिए एक बार में उनका अल्पपरिमाण में ही ग्रहण होता है। अतः मनःपुद्गलपरिवर्त्त-निष्पत्तिकाल से वाक्-पुद्गल-परिवर्त्त-निष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है / इससे वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्तनिष्पत्तिकाल अनन्तगुणा है, क्योंकि वैक्रिय शरीर बहुत दीर्घकाल में प्राप्त होता है / सप्तविध पुद्गलपरिवर्तों का अल्पबहुत्व 54. एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टाण य क्यरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया था? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेउम्विधपोम्गलपरियट्टा, वइपोग्गलपरियट्टा अणंत गुणा, मणपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा, आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अगंतगुणा, ओरालियपोग्गलपरियट्टा अगंतगुणा, तेयापोगलपरियट्टा अणंतगुणा, कम्मगपोग्गलपरियट्टा अणंतगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं जाव विहरइ / // बारसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो / / 12-4 / / [54 प्र. भगवन् ! औदारिक पुद्गलपरिवर्त (से लेकर), यावत् पान-प्राणपुद्गल-परिवर्त में कौन पुद्गलपरिवर्त्त किससे अल्प यावत् विशेषाधिक है ? 54 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े वैक्रिय-पुद्गलपरिवत्र्त हैं / उनसे वचन-पुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे होते हैं, उनसे मन:पुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे पानप्राण-पुद्गलपरिवर्त्त अनन्तगुणे हैं। उनसे औदारिकपुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, उनसे तैजस पुद्गलपरिवर्त अनन्तगुणे हैं और उनसे भी कार्मणपुद्गल परिवर्त अनन्तगुणे हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पुदगल-परिवर्तों के अल्पबहत्व का कारण—इन सप्तविध पुदगल-परिवों में सबसे थोड़े वैक्रियपुद्गल परिवर्त हैं, क्योंकि वे बहुत दीर्घकाल में निष्पन्न होते हैं। उनसे बचनपुद्गल-परिवर्त्त अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अल्पतर काल में ही निष्पन्न होते हैं / इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति से बहुत, बहुत र आदि क्रम से आगे-आगे के पुद्गलपरिवों का अल्पबहुत्व कह देना चाहिये / / // बारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 570 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 570 Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : अतिवात पंचम उद्देशक : अतिपात प्राणातिपात प्रादि अठारह पापस्थानों में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्ररूपरगा 1. रायगिहे जाव एवं वयासी[१] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा 2. अह भंते ! पाणातिवाए मुसावाए अदिनादाणे मेहुणे परिग्गहे, एस णं कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे चउफासे पन्नते। [2 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह; ये (सब) कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाले कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! (ये) पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श वाले कहे हैं। 3. अह भंते ! कोहे कोवे रोसे दोसे प्रखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवादे, एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचवणे पंचरसे दुगंधे चउफासे पन्नत्ते। [3 प्र.] भगवन् ! क्रोध, कोप, रोष, दोष (दुष), अक्षमा संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, भण्डन और विवाद—ये (सभी) कितने वर्ण, गन्ध रस और स्पर्श वाले कहे हैं ? [3 उ.] गौतम ! ये (सब) पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श वाले कहे हैं। 4. अह भंते ! माणे मदे दप्पे थंभे गब्वे अत्तुक्कोसे परपरिवाए उक्कासे अवक्कासे उन्नए उन्नामे दुन्नामे, एस णं कतिवणे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नते? गोयमा ! पंचवण्णे जहा कोहे तहेव / 4 प्र. भगवन् ! मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व, प्रत्युत्कोश, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत, उन्नाम और दुर्नाम--ये (सब) कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाले कहे हैं ? [4 उ.] गौतम ! ये (सब) पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस एवं चार स्पर्श वाले (पूर्ववत्) कहे हैं। 5. अह भंते ! माया उवही नियडो वलये गहणे णूमे कक्के कुरूए जिम्हे किब्बिसे आयरणता गृहणया वंचणया पलिउंचणया सातिजोगे, एस णं कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफाले पन्नत्ते? गोयमा! पंचवण्णे जहेव कोहे। Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 प्र.] भगवन् ! माया, उपधि, निकृति, बलय, गहन, नूम, कल्क, कुरूपा, जिाता, किल्विष, अादरण (आचरणता), गहनता, वञ्चनता, प्रतिकुञ्चनता, और सातियोग-इन (सब) में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं ? [5 उ.] गौतम ! ये सब क्रोध के समान पांच वर्ण आदि वाले हैं / 6. अह भंते ! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणता पत्थणता लालप्पणता कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदिरागे, एस णं कतिवण्णे ? जहेव कोहे। [6 प्र. भगवन् ! लोभ, इच्छा, मूर्छा, काँक्षा, गद्धि, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, प्राशंसनता, प्रार्थनता, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा और नन्दिराग,—ये (सब) कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले कहे हैं ? [6 उ.] गौतम ! (इन सभी का कथन) क्रोध के समान (जानना चाहिए।) 7. अह भंते ! पेज्जे दोसे कलहे जाव' मिच्छादसणसल्ले, एस णं कतिवण्णे ? जहेव कोहे तहेव जाव चउफासे / [7 प्र.] भगवन् ! प्रेम-राग, द्वेष, कलह, (से लेकर) यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य, इन (सब पापस्थानों) में कितने वर्ण प्रादि हैं ? [7 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार क्रोध के लिए कथन किया था उसी प्रकार इनमें भी, यावत् चार स्पर्श हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन—अठारह पापस्थानों में वर्णादि-प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (1 से 7 तक) में प्राणातिपात से ले कर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों में वर्ण, गन्ध रस और स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। प्राणातिपात आदि की व्याख्या-प्राणातिपात-जीव हिंसा से जनित कर्म अथवा जीवहिंसा का जनक चारित्रमोहनीय कम भी उपचार से प्राणातिपात कहलाता है। मषावाद-क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वश असत्य, अप्रिय, अहितकर विघातक वचन कहना / अदत्तादान–स्वामी की अनुमति, इच्छा या सम्मति के बिना कुछ भी लेना अदत्तादान (चौर्य) है / विषयवासना से प्रेरित स्त्री-पुरुष के संयोग को मथुन कहते हैं। धन, कांचन, मकान आदि बाह्य परिग्रह है और ममता-मूर्छा आदि आभ्यन्तर परिग्रह / ये पांचों पाप पुद्गल रूप हैं, इसलिए इनमें पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, और चार स्पर्श, (स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण) होते हैं। क्रोध और उसके पर्यायवाची शब्दों के विशेषार्थ क्रोध रूप परिणाम को उत्पन्न करने वाले कर्म को क्रोध कहते हैं / यहाँ क्रोध एक सामान्य नाम है, उसके दस पर्यायवाची शब्द हैं / उनके विशेषार्थ इस प्रकार हैं-(२) कोप-क्रोध के उदय से अपने स्वभाव से चलित होना / (3) रोष-क्रोध को परम्परा / (4) दोष—अपने आपको और दूसरों को दोष देना, अथवा द्वेष-अप्रीति ........ ... 1. 'जाव पद' यहाँ 'अभक्खाणे पेसुन्ने अरइरई परपरिवाए मायामोसे' प्रादि पदों का सूचक है। Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [173 करना (5) प्रक्षमा-दूसरे के द्वारा किए हुए अपराध को सहन नहीं करना / (6) संज्वलनबार बार क्रोध से प्रज्वलित होना / (7) कलह-वाक-युद्ध करना, परस्पर अनुचित शब्द बोलना / (5) चाण्डिक्य -रोद्ररूपधारण करना / (6) भण्डन-दण्ड आदि से परस्पर लड़ाई करना / (10) विवाद-परस्पर विरोधी बात कहकर झगड़ा या विवाद करना / क्रोधादि में पूर्ववत् वर्णादि पाए जाते हैं। मान और उसके समानार्थक बारह नामों के विशेषार्थ-(१) मान-अपने आपको दूसरों से उत्कृष्ट समझना अथवा अभिमान के परिणाम का जनक कषाय मान कहलाता है / (2) मद-जाति आदि का दर्प या अहंकार करना, हर्षावेश में उन्मत्त होना / (3) दर्प--(प्तता) घमण्ड में चूर होना / (4) स्तम्भ-नम्र न होना-स्तम्भवत् कठोर बने रहना / (5) गर्व---अहंकार (6) अत्युत्क्रोशस्वयं को दूसरों से उत्कृष्ट मानना या बताना (7) परपरिवाद-परनिन्दा करके अपनी ऊँचाई की डोंगे हाँकना, अथवा परपरिपात-दूसरों को लोगों की दृष्टि में गिराना या उच्चगुणों से पतित करना / (8) उत्कर्ष-क्रिया से अपने आपको उत्कृष्ट मानना; अथवा अभिमानपूर्वक अपनी समृद्धि, शक्ति, क्षमता, विभूति आदि प्रकट करना (8) अपकर्ष-अपने से दूसरे को तुच्छ बताना, अभिमान से अपना या दूसरों का अपकर्ष करना, (10) उन्नत-नमन से दूर रहना, अभिमानपूर्वक तने रहना-अक्खड़ रहना / अथवा उन्नय-अभिमान से नीति-न्याय का त्याग करना / (11) उन्नाय -वन्दनयोग्य पुरुष को भी वन्दन न करना, अथवा अपने को नमन करने वाले पुरुष के प्रति मदवश उपेक्षा करना-सद्भाव न रखना / और (12) दुर्नाम---बन्ध पुरुष को अभिमानवश बुरे ढंग से बन्दन-नमन करना / स्तम्भादि सभी मान के कार्य हैं अथवा मानवाचक शब्द हैं / माया और उसके एकार्थक शब्दों का विशेषार्थ-~-(१) माया-छल-कपट करना, (2) उपधि -~किसी को ठगने के लिए उसके समीप जाने का दुर्भाव करना, (3) निकृति किसी के प्रति आदरसम्मान बताकर फिर उसे ठगना; अथवा पूर्वकृत मायाचार को छिपाने के लिए दूसरी माया करना / (4) वलय-बलय की तरह गोल-गोल (वक्र) वचन कहना या अपने चक्कर में फंसाना, वाग्जाल में फंसाना / (5) गहन--दूसरे को मूढ़ बनाने के लिए गूढ (गहन) वचन का जाल रचना / अथवा दूसरे की समझ में न आए, ऐसे गहन (गूढ) अर्थ वाले शब्द-प्रयोग करना / (6) नूम-दूसर -दुसरों को ठगने के लिए नीचता का या निम्नस्थान का प्राश्रय लेना / (7) कल्क कल्क अर्थात् हिसारूप पाप, उस पाप के निमित्त से वंचना करने का अभिप्राय भी कल्क है / (8) कुरूपा-कुत्सित रूप से मोह उत्पन्न करके ठगने की प्रवृत्ति / (8) जिह्मता—कुटिलता दूसरे को ठगने की नीयत से क्रियामन्दता या वक्रता अपनाना / (10) किल्विष -माया विशेषपूर्वक किल्विषिता अपनाना, किल्बिषी जैसी प्रवृत्ति करना / (11) यावरणता-याचरणता)—मायाचार से किसी का आदर करना, अथवा किसी वस्तु या वेष को अपनाना, अथवा दूसरों को ठगने के लिए विविध क्रियाओं का आचरण करना / (12) गृहनताअपने स्वरूप को गूहन करना-छिपाना / (१३)वंचनता-~-दूसरों को ठगना / (14) प्रतिकुञ्चनतासरलभाव से कहे हुए वाक्य का खण्डन करना या विपरीत अर्थ लगाना और / (15) सातियोग-~अविश्वासपूर्ण सम्बन्ध, अथवा उत्कष्ट द्रव्य के साथ निकृष्ट द्रव्य का संयोग कर देना। ये सभी माया के पर्यायवाचक शब्द हैं। लोभ और उसके समानार्थक शब्दों का विशेषार्थ-(१) लोभ-यह लोभ कषाय का वाचक Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सामान्य नाम है, ममत्व को लोभ कहते हैं / इच्छा आदि उसके विशेष प्रकार हैं। (2) इच्छा-वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा / (3) मूर्छा प्राप्त वस्तु की रक्षा की निरन्तर चिन्ता करना / (4) कांक्षा --अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की लालसा / (5) गद्धि प्राप्त वस्तु के प्रति आसक्ति / (6) तृष्णा–प्राप्त पदार्थ का व्यय या वियोग न हो, ऐसी इच्छा / (7) भिध्या-विषयों का ध्यान (चित्त को एकान) करना / (8) अभिध्या-चित्त की व्यग्रता-चंचलता। (9) प्राशंसना-अपने पुत्र या शिष्य को यह ऐसा हो जाए, इत्यादि प्रकार का आशीर्वाद या अभीष्ट पदार्थ की अभिलाषा (10) प्रार्थना--दूसरों से इष्ट पदार्थ की याचना करना, (11) लालपनता - विशेष रूप से बोलबोल कर प्रार्थना करना, (12) कामाशा-इण्ट शब्द और इष्ट रूप को पाने की आशा। 16) भोगाशा....इष्ट गन्ध आदि को पाने की वाञ्छा। (14) जीविताशा--जीने की लालसा / (15) मरणाशा-विपत्ति या अत्यन्त दुःख प्रा पड़ने पर मरने की इच्छा करना और (16) नन्दिरागविद्यमान अभीष्ट वस्तु या समृद्धि होने पर रागभाव यानी हर्ष या ममत्व भाव करना / अथवा-नन्दी अर्थात्-वांछित अर्थ की प्राप्ति के प्रति राग अर्थात्-ममत्व होना। प्रेय आदि शेष पापस्थानों के विशेषार्थ-प्रेय-पुत्रादिविषयक स्नेह-राग। द्वेष-अप्रीति / कलह-राग या हास्यादिवश उत्पन्न हुआ क्लेश या वायुद्ध / अभ्याख्यान-मिथ्या दोषारोपण करना, झूठा कलंक लगाना, अविद्यमान दोषों का प्रकटरूप से प्रारोपण करना। पैशुन्य--पीठ पीछे किसी की निन्दा-चुगली करना। परपरिवाद-दूसरे को बदनाम करना या दूसरे की बुराई करना / अरति-रति-मोहनीयकर्मोदयवश प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति होने पर चित्त में अरुचि, घणा या उद्वेग होना अति है और अनुकूल विषयों के प्राप्त होने पर चित्त में हर्ष रूप परिणाम उत्पन्न होना ति है / मायामृषा-कपटसहित झूठ बोलना, दम्भ करना / मिथ्यादर्शनशल्य-शल्य-तीखे कांटे की तरह सदा चुभने-कष्ट देने वाला मिथ्यादर्शन-शल्य अर्थात्-श्रद्धा की विपरीतता / शरीर में चुभे हुए शल्य की तरह, आत्मा में चुभा हुआ मिथ्यादर्शन शल्य भी कष्ट देता है। प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक ये अठारह पाप-स्थान पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श वाले हैं।' अठारहपापस्थान-विरमण में वर्णादि का अभाव 8. अह भंते ! पाणातिवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पन्नते ? गोयमा ! अवणे अगंधे अरसे अफासे पन्नत्ते / [8 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण तथा कोविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक, इन सबमें कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श कहे हैं ? 1 उ.] गौतम ! (ये सभी) वर्ण रहित, गन्धरहित, रसरहित और स्पर्श रहित कहे हैं। विवेचन--प्राणातिपातादि-विरमण और क्रोधादिविवेक वर्णादिरहित क्यों--प्राणातिपातादिविरमण और क्रोधादि-विवेक, ये सभी जीव के उपयोग-स्वरूप हैं, और जीवोपयोग अमूर्त है। जीव 1. (क) भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 572, 573 (ख) भगवती० (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2049-2050 Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [175 और जीवोपयोग के अमूर्त होने से अठारह पापस्थानों से विरमण भी अमूर्त है। इसलिए वह वर्णादि-रहित है। चार बुद्धि, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पांच के विषय में वर्णादि-प्ररूपणा 9. अह भंते ! उत्पत्तिया वेणइया कम्मया पारिणामिया, एस णं कतिवण्णा ? तं चेव जाव अफासा पन्नत्ता। [6 प्र.] भगवन् ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धि, कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली हैं ? [E उ.] गौतम ! (ये चारों) वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं / 10. अह भंते ! उग्गहे ईहा अवाये धारणा, एस णं कतिवण्णा ? एवं चेव जाव अफासा पन्नत्ता। [10 प्र.] भगवन् ! अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श [10 उ.] गौतम ! (ये चारों) वर्ण यावत् स्पर्श से रहित कहे हैं। 11. अह भंते ! उहाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, एस णं कतियपणे ? तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते। [11 प्र.] भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, और पुरुषकार-पराक्रम, इन सबमें कितने वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श हैं ? [11 उ.] गौतम ! ये सभी पूर्ववत् वर्णादि यावत् स्पर्श से रहित कहे हैं। विवेचन-औत्पत्तिको बुद्धि आदि वर्णादिरहित क्यों-ौत्पत्तिकी प्रादि चार बुद्धियाँ, अवग्रहादि चार (मतिज्ञान के प्रकार) एवं उत्थानादि पांच, ये सभी जीव के उपयोगविशेष हैं, इस कारण अमूर्त होने से वर्ग, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। औत्पत्तिको आदि बुद्धियों का स्वरूप-औत्पत्तिको-शास्त्र, सत्कर्म एवं अभ्यास के बिना, अथवा पदार्थों को पहले देखे, सुने और सोचे बिना ही उन्हें ग्रहण करके जो स्वतः सहसा उत्पन्न होती है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है / यद्यपि औत्पत्तिकी बुद्धि में क्षयोपशम कारण है, किन्तु वह अन्तरंग होने से सभी बुद्धियों में सामान्य रूप से कारण है, इसलिए इनमें उसकी विवक्षा नहीं की गई है / चनयिकी--विनय-(गुरुभक्ति-शुश्रूषा आदि) से प्राप्त होने वाली बुद्धि / कार्मिको-कर्म अर्थात्-सतत अभ्यास और विवेक से विस्तृत होने वाली बुद्धि / पारिणामिको-अतिदीर्घकाल तक पदार्थों को देखने आदि से, दीर्घकालिक अनुभव से, परिपक्व वय होने से उत्पन्न होने वाला प्रात्मा का धर्म परिणाम कहलाता है / उस परिणाम के निमित्त से होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है / अर्थात्-वयोवृद्ध व्यक्ति 1. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 573 2. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 573 / Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को अतिदीर्घकाल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धिविशेष पारिणामिकी है / ' अवग्रहादि चारों का स्वरूप-अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ के योग्यस्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभासरूप दर्शन (निराकार ज्ञान) के पश्चात् होने वाले तथा अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्वप्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं / ईहा-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। प्रवाय-ईहा से जाने हुए पदार्थों में निश्चयात्मक ज्ञान होना अवाय है। धारणा-अवाय से जाने हुए पदार्थों का ज्ञान इतना सुदृढ हो जाए कि कालान्तर में भी उसकी विस्मृति न हो तो उसे धारणा कहते हैं / उत्थानादि पांच का विशेषार्थ उत्थानादि-पाँच वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणामविशेषों को उत्थानादि कहते हैं। ये सभी जीव के पराक्रमविशेष हैं / उत्थान-प्रारम्भिक पराक्रम विशेष / कर्म-भ्रमणादि क्रिया, जीव का पराक्रमविशेष / बल-- शारीरिक पराक्रम या सामर्थ्य / वीर्य-शक्ति, जीवप्रभाव अर्थात्--यात्मिक शक्ति / पुरुषकार पराक्रम--प्रबल पुरुषार्थ, स्वाभिमानपूर्वक किया हुआ पराक्रम / अवकाशान्तर, तनुवात-घनवात-घनोदधि, पृथ्वी आदि के विषय में वर्णादिप्ररूपरणा 12. सत्तमे णं भंते ! ओवासंतरे कतिवण्णे ? एवं चेव जाव अफासे पन्नत्ते। [12 प्र.] भगवन् ! सप्तम अवकाशान्तर कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला है ? [12 उ.] गौतम ! वह वर्ण यावत् स्पर्श से रहित है / 13. सत्तमे णं भंते ! तणवाए कतिवणे ? जहा पाणातिवाए (सु. 2) नवरं अट्ठफासे पन्नत्ते / [13 प्र.] भगवन् ! सप्तम तनुवात कितने वर्णादि वाला है ? [13 उ.] गौतम ! इसका कथन (सू. 2 में उक्त) प्राणातिपात के समान करना चाहिए। विशेष यह है कि यह पाठ स्पर्श वाला है / 14. एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदधी, पुढवी। [14 ] जिस प्रकार सप्तम तनुवात के विषय में कहा है, उसी प्रकार सप्तम घनवात, घनोदधि एवं सप्तम पृथ्वी के विषय में कहना चाहिए / 15. छ8 ओवासंतरे अवणे / [15] छठा अवकाशान्तर वर्णादि रहित है। 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 574 2. प्रमाणनयतत्त्वालोक / 3. (क) पाइअसहमहष्णवो (ख) भगवती प्रमेयचन्द्रिका टीका भा-१० पृ. 176 Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [177 16. तणुवाए जाव छट्ठा पुढवी, एयाइं अट्ठ फासाइं। [16] छठा तनुवात, धनवात, घनोदधि और छठो पृथ्वी, ये सब आठ स्पर्श वाले हैं। 17. एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा जाव पढमाए पुढवीए भाणियब्बं / [17| जिस प्रकार सातवीं पृथ्वी की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यावत् प्रथम पृथ्वी तक जानना चाहिए। 18. जंबुद्दोवे जाव' सयंभुरमणे समुद्दे, सोहम्मे कप्पे जाव' ईसिपम्भारा पुढवी, नेरइयावासा जाव' वेमाणियावासा, एयाणि सधाणि अटफासाणि / [18] जम्बूद्वीप से लेकर यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र तक, सौधर्मकल्प से यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक नैरयिकावास से लेकर यावत् वैमानिकवास तक सब आठ स्पर्श वाले हैं। विवेचन-सप्तम अवकाशान्तर से वैमानिकवास तक में वर्णादिप्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 12 से 18 तक) में सप्तम अवकाशान्तर, सप्तम तनुवात, सप्तम घनवात, सप्तम घनोदधि, सप्तम पृथ्वी, छठा अवकाशान्तर, छठा तनूवात-धनवात-घनोदधि, छठी पृथ्वी, तथा पंचम-चतुर्थ-तृतीयद्वितीय-प्रथम नरकपृथ्वी एवं जम्बूद्वीप से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक, सौधर्म देवलोक से लेकर ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी तक, और नैरयिकावास से लेकर वैमानिकवास तक में वर्णादि की प्ररूपणा की गई है। "अवकाशान्तर' आदि पारिभाषिक शब्दों का स्वरूप--प्रथम और द्वितीय नरकपृथ्वी के अन्तराल (बीच) में जो प्राकाशखण्ड है, वह 'प्रथम अवकाशान्तर' कहलाता है। इस अपेक्षा से सप्तम नरक-पृथ्वी से नीचे का 'आकाशखण्ड' सप्तम अवकाशान्तर है / उसके ऊपर सप्तम तनुवात है, उसके ऊपर सातवाँ धनवात है और उसके ऊपर सातवाँ घनोदधि है और सातवें घनोदधि से ऊपर सप्तम नरकपृथ्वी है / इसी क्रम से प्रथम नरकपृथ्वी तक जानना चाहिए।' अवकाशान्तर जितने भी हैं, वे अाकाश रूप हैं, और प्राकाश अमूर्त होने से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से सर्वथा रहित है। तनुवात, घनवात, घनोदधि एवं नरकपृथ्वी आदि पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। अतएव वे वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं और वादरपरिणाम वाले होने से इनमें शीतउष्ण, स्निग्ध-रूक्ष, मृदु-कठिन, हल्का-भारी, ये पाठों ही स्पर्श पाए जाते हैं / 1. 'जाब' पद लवणसमुद्र आदि पदों का सूचक है। 2. यहाँ जाव' पद असूरकूमारवास ग्रादि तथा भवन, नगर, विमान तथा तिर्यग्लोक में स्थित नगरियों का सूचक है। 3. जान पद से ईशान सनत्कुमार, ब्रह्मलोक माहेन्द्र लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्रानत, पारण और अच्युत, नवन वेयक, पाच अनुत्तर विमान और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी समझना चाहिए। 4. विवाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त)प, 589 5. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 574 6. भगवती. अ. वृत्ति पत्र 574 Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'उवासंतरे' : अर्थ- अवकाशान्तर / ' चौवीस दण्डकों में वर्णादि प्ररूपगा 19. नेरइया गं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पन्नता ? गोयमा ! देउब्धिय-तेयाई पडुच्च पंचवणा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा पन्नत्ता / कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा च उफासा पन्नता / जीवं पडुच्च अवण्णा जाव अफासा पन्नत्ता। [16 प्र. भगवन् ! नैरयिकों में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श कहे हैं ? [16 उ.] गौतम ! वैक्रिय और तेजस पुद्गलों की अपेक्षा से उनमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श कहे हैं। कार्मण पुद्गलों की अपेक्षा से पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और चार स्पर्श कहे हैं / जीव की अपेक्षा से वे वर्ण रहित यावत् स्पर्शरहित कहे हैं / 20. एवं जाव थणियकुमारा। [20] इसी प्रकार (असुरकुमारों से ले कर) यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 21. पुढविकाइया पं० पुच्छा। गोयमा ! ओरालिय-तेयगाइं पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पत्नत्ता, कम्मगं पडुच्च जहा नेरइयाण, जीवं पडुच्च तहेव / [21 प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ? [21 उ.] गौतम ! औदारिक और तैजस पुद्गलों की अपेक्षा पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श वाले कहे हैं। कार्मण को अपेक्षा और जीव की अपेक्षा, पूर्ववत् (नैरयिकों के कथन के समान) जानना चाहिए / 22. एवं जाव चरिदिया, नवरं बाउकाइया ओरालिय-वेउन्वियतेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव प्रट्ठफासा पन्नत्ता / सेसं जहा नेरइयाणं / [22] इसी प्रकार (अप्काय, से लेकर) यावत् चतुरिन्द्रिय तक जानना चाहिए। परन्तु इतनी विशेषता है कि वायुकायिक, औदारिक, बैक्रिय और तेजस, पुद्गलों की अपेक्षा पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले कहे हैं / शेष (के विषय में) नैरयिकों के समान जानना चाहिए / 23. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा वाउकाइया / [23] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों का कथन भी वायुकायिकों के समान जानना चाहिए। 24. मणुस्सा णं. पुच्छा। ओरालिय-बेउन्विय-आहारग-तेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पन्नत्ता / कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेरइयाणं / [24 प्र. भगवन् ! मनुष्य कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले हैं ? 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2054 Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 5] [179 24 उ.] गौतम ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस पुद्गलों की अपेक्षा (मनुष्य) पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और पाठ स्पर्श वाले कहे हैं। कार्मण पुद्गल और जीव की अपेक्षा से नैरयिकों के समान (कथन करना चाहिए।) 25. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया / [25] वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी नैरयिकों के समान कथन करना चाहिए। विवेचन-नारक आदि अष्टस्पर्श, चतुःस्पर्श और वर्णादि से रहित क्यों ? नारक आदि तथा मनुष्य, पंचेन्द्रियतियंच, जो भी औदारिक, वैक्रिय, तेजस या आहारकशरीर वाले हैं, वे पांच वर्ण, दो गन्ध तथा पांच रस वाले हैं, तथा अष्टस्पर्शी हैं, क्योंकि ये चारों शरीर बादर-परिणाम वाले पुद्गल हैं, अतः बादर होने से ये अष्टस्पर्शी होते हैं / तथा कार्मण सूक्ष्म परिणाम-पुद्गल रूप होने से चतुःस्पर्शी है / जीव (आत्मा) में वर्ण, गन्त्र, रस और स्पर्श नहीं है / ' अतएव वह वर्णादिशून्य है। धर्मास्तिकाय से लेकर श्रद्धाकाल तक में वर्णादिप्ररूपणा 26. धम्मस्थिकाए जाव' पोग्गल स्थिकाए, एए सब्वे अवण्णा, नवरं पोग्गलत्यिकाए पंचवणे पंचरसे दुगंधे अट्टफासे पन्नत्ते / [26] धर्मास्तिकाय आदि सब (अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और काल)वर्णादि से रहित हैं / विशेष यह है कि पुद्गलास्तिकाय में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और पाठ स्पर्श कहे हैं / 27. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, एयाणि चउफासाणि / [27] ज्ञानावरणीय (से लेकर) यावत् अन्तराय कर्म तक आठों कर्म, पांच वर्ण, दो गन्ध पांच रस और) चार स्पर्श वाले कहे हैं / 28. कण्हलेसा णं भंते ! कइवण्णा० पुच्छा ? दवलेसं पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पन्नता। भावलेसं पडुच्च अवण्णा अरसा अगंधा प्रफासा। [28 प्र] भगवन् ! कृष्णलेश्या में कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श कहे हैं ? [16 उ.] गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से उसमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और पाठ स्पर्श कहे हैं और भावलेश्या की अपेक्षा से वह वर्णादि रहित है। 29. एवं जाव सुक्कलेस्सा। ___ [26] इसी प्रकार (नील, कापोत, पीत और पद्मलेश्या) यावत् शुक्ललेश्या तक जानना चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 574 2. जाव पद से अधम्मत्थिकार, मागासत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, इत्यादि पाठ समझना चाहिए / Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 30. सम्मद्दिष्टि-मिच्छादिद्वि-सम्मामिच्छाविट्ठी, चवखुदंसणे अचक्खुदंसणे ओहिदसणे केवलदसणे, आभिनिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसन्ना जाव परिग्गहसण्णा, एयाणि अवण्णाणि अरसाणि अगंधाणि अफासाणि / [30] सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मियादृष्टि, तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन, आभिनिबोधिक ज्ञान (से लेकर श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और) विभगज्ञान (तक एवं) अाहार संज्ञा (भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा) यावत् परिग्रहसंज्ञा, ये सब वर्णरहित गन्धरहित, रसरहित, और स्पर्शरहित हैं। 31. ओरालियसरीरे नाव तेयगसरीरे, एयाणि अटुफासाणि / कम्मगसरीरे चउफासे / मणजोगे वइजोगे य चउफासे / कायजोगे अट्ठफासे / [31] औदारिक शरीर (वैक्रिय शरीर, आहारकशरीर) यावत् तैजसशरीर ये अष्टस्पर्श वाले है। कार्मण शारीर, मनोयोग और वचनयोग, ये चार स्पर्श वाले हैं / काययोग अष्टस्पर्श वाला है / 32. सागारोवयोगे य अणागारोवयोगे य अवण्णा / 32] साकार-उपयोग और अनाकारोपयोग, ये दोनों वर्णादि से रहित हैं। 33. सव्वदन्वा गं भंते ! कतिवण्णा० पुच्छा। गोयमा! अत्थेगतिया सव्वदव्वा पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पन्नत्ता। अत्थेगतिया सवदव्वा पंचवण्णा जाव चउफासा पन्नत्ता / अत्थेगतिया सव्वदम्वा एगवण्णा एगगंधा एगरसा दुफासा पन्नता / प्रथेगतिया सव्वदव्या अवण्णा जाव अफासा पन्नत्ता। [33 प्र.] भगवन् ! सभी द्रव्य कितने वर्णादि वाले हैं ? [33 उ.] गौतम ! सर्वद्रव्यों में से कितने ही पाँच वर्ण यावत् (पांच रस, दो गन्ध और) आठ स्पर्श वाले हैं / सर्वद्रव्यों में से कितने ही पांच वर्ण यावत् (पाँच रस, दो गन्ध और) चार स्पर्श वाले हैं / सर्वद्रव्यों में से कुछ (द्रव्य) एक वर्ण, एक गन्ध एक रस और दो स्पर्श वाले हैं / सर्वद्रव्यों में से कई वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं। 34. एवं सन्यपएसा वि, सव्वपज्जवा वि / [34] इसी प्रकार (सर्वद्रव्य के समान) सभी प्रदेश और समस्त पर्यायों के विषय में भी उपर्युक्त विकल्पों का कथन करना चाहिए। 35. तीयद्धा अवण्णा जाव अफासा पन्नत्ता / एवं प्रणागयद्धा वि / एवं सव्वद्धा वि / [35] अतीत काल (श्रद्धा) वर्ण रहित यावत् स्पर्शरहित कहा गया है। इसी प्रकार अनागतकाल भी और समस्त काल (अद्धा) भी वर्णादि-रहित है। विवेचन-निष्कर्ष-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, भावलेश्याएँ, तथा सम्यग्दृष्टि से लेकर परिग्रहसंज्ञा तक, साकार-निराकार उपयोग एवं अतीत-अनागत आदि सब काल, Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शतक : उद्देशक 5] [181 सर्वद्रव्यों में कितने ही (धर्मास्तिकायादि) द्रव्य, उनके (अमूर्तद्रव्य के ) प्रदेश तथा पर्याय वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शरहित समझना चाहिए, क्योंकि ये सब अमूर्त तथा जीवपरिणाम है।' पुद्गलास्तिकाय में वर्णादिप्ररूपणा- पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-बादर और सूक्ष्म / पुदगल मूर्त हैं / बादर पुद्गल पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और पाठ स्पर्श वाले होते हैं / सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श बाले होते हैं। परमाणु-पुद्गल एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और दो स्पर्शवाला होता है। दो स्पर्श इस प्रकार हैं--स्निग्ध और उष्ण, या स्निग्ध और शीत अथवा रूक्ष और उष्ण, या रूक्ष और शीत / लेश्या में वर्णादि की प्ररूपणा-लेश्या दो प्रकार की है—द्रव्यलेश्या और भावलेश्या / द्रव्यलेश्या बादरपुदगल-परिणाम रूप होने से पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और पाठ स्पर्श वाली होती है। भावलेश्या जीव के आन्तरिक परिणाम रूप होती है। जीव के परिणाम अमूर्त होते हैं। इसलिए वह वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श रहित होती है। प्रदेश और पर्याय : परिभाषा-द्रव्य के निविभाग अंश को 'प्रदेश' कहते हैं, और द्रव्य के धर्म को 'पर्याय' कहते हैं / मूत्तं द्रव्यों के प्रदेश और परमाणु उन्हीं के समान वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शयुक्त होते हैं, जबकि अमूर्त द्रव्यों के प्रदेश और परमाणु उन्हीं द्रव्यों के समान वर्णादि-रहित होते हैं। ___काल : वर्णादिरहित-अतीत और अनागत तथा सर्वकाल ये अमूर्त होने से वर्णादिरहित होते हैं। चतुःस्पर्शी, अष्टस्पर्शी और अरूपो-सर्वत्र चतु:स्पर्शी होने में सूक्ष्म परिणाम पुद्गलद्रव्य कारण है, और अष्टस्पर्शी होने में बादर-परिणाम पुद्गल द्रव्य कारण है, तथा अमूर्त (अरूपी) वस्तु वर्णादि से रहित होती है / यथा-चतुःस्पर्शी-१८ पापस्थानक, 8 कर्म, कार्मणशरीर, मनोयोग, वचन योग और सूक्ष्म पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध, ये 30 प्रकार के स्कन्ध वर्णादि से यावत् शीत उष्ण स्निग्ध और रूक्ष इन चार स्पर्शों से युक्त होते हैं। प्रष्टस्पर्शी-षद्रव्यलेश्या, 4 शरीर, घनोदधि धनवात, तनुवात, काययोग और बादर पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध इन 15 प्रकार के स्कन्धों में वर्णादि यावत् पाठों ही स्पर्श होते हैं / वर्णादिरहित-अठारह पापों से विरति, 12 उपयोग, षट् भावलेश्या, धर्मास्तिकायादि 5 द्रव्य, 4 बुद्धि, 4 अवग्रहादि, तीन दृष्टि, उत्थानादि 5 शक्ति और चार संज्ञा, इन 61 में वर्णादि नहीं पाये जाते, क्योंकि ये सभी अमूर्त एवं अरूपी होते हैं / 1. वियाहपण्णतिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) पृ. 589-590 2. (ख) कारणमेव तदत्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरस-वर्ण-गन्धो द्विस्पर्श: कार्यलिंगश्च / (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 574 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2058 3. (क) भगवती. वृत्ति, पत्र 574 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2058 4, 'द्रव्यस्य निविभागा अशाः प्रदेशाः, पर्यवास्तु धर्माः / ' —भगवती. प्र. वत्ति पत्र 574 5. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4. पृ. 2059 Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गर्भ में प्रागमन के समय जीव में वर्णादिप्ररूपणा 36. जोवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे कतिवंगणं कतिगंधं कतिरसं कतिफासं परिणाम परिणमति ? गोयमा ! पंचवर्ण दुगंधं पंचरसं अट्ठफासं परिणामं परिणमति / [36 प्र.] भगवन् ! गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव, कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है ? [36 उ.] गौतम ! (गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव) पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श वाले परिणाम से परिणत होता है / विवेचन–गर्भ में प्रवेश करता हुआ जीव-शरीरयुक्त होता है। इसलिए वह अन्य शरीरवत् पंचवर्णादि वाला होता है। कर्मों से जीव का विविध रूपों में परिणमन 37. कम्मतो णं भंते ! जीवे, नो अकम्मो विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मतो णं जए, नो प्रकम्मतो विभत्तिभावं परिणमइ ? हंता, गोयमा ! कम्मतो गं तं चेव जाव परिणमइ, नो अकम्मतो विभत्तिभावं परिणमइ / सेवं भंते ! सेवं भंते! ति० / बारसमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो / / 12-5 // [37 प्र.] भगवन् ! क्या जीव कमों से ही मनुष्य-तिर्यञ्च आदि विविध रूपों को प्राप्त होता है, कर्मों के विना नहीं ? तथा क्या जगत् कर्मों से विविध रूपों को प्राप्त होता है, विना कर्मों के प्राप्त नहीं होता? [37 उ. ] हाँ, गौतम ! कर्म से जीव और जगत् (जीवों का समूह) विविध रूपों को प्राप्त होता है, किन्तु कर्म के विना ये विविध रूपों को प्राप्त नहीं होते। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी, यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्म के विना जीव नाना परिणाम वाला नहीं-रक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में जीव जो विभक्तिभाव (विभाग रूप नानारूप) भाव (परिणाम) को प्राप्त होता है, वह कर्म के विना नहीं हो सकता। कर्मों के उदय से ही जीव विविध रूपों को प्राप्त होता है। सुख-दुःख, सम्पन्नता-विपन्नता, जन्म-मरण, रोग-शोक, संयोग-वियोग आदि परिणामों को जीव स्वकृत कर्मों के उदय से हो भोगता है।' जगत् का अर्थ है जीवसमूह या जंगम 2 ॥बारहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 575 2. “जगत् —जीवसमूहो, जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंग माभिधानो, जगन्ति जंग मान्याहुरिति वचनात् / " -वही, पत्र 575 Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसओ : राहू छठा उद्देशक : राहु द्वारा चन्द्र का ग्रहण (ग्रसन) राहु : स्वरूप, नाम और विमानों के वर्ण तथा उनके द्वारा चन्द्रग्रसन के भ्रम का निराकरण 1. रायगिहे जाव एवं वदासी [1] राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने (श्रमण भगवान महावीर से) इस प्रकार प्रश्न किया 2. बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेइ 'एवं खलु राहू चंदं गेहइ, एवं खलु राहू चंदं गेण्हई' से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं से बहुजणे अन्नमम्नस्स जाव मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परवेमि "एवं खल राहू देवे महिड्ढीए जाव महेसक्खे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी। "राहुस्स णं देवस्स नव नामधेन्जा पन्नत्ता, तं तहा–सिंघाडए 1 जडिलए 2 खतए 3 खरए 4 दद्द रे 5 मगरे 6 मच्छे 7 कच्छभे 8 कण्हसप्पे है / _ "राहुस्स गं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा—किण्हा नोला लोहिया हालिहा सुक्किला / अस्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे, अस्थि नौलए राहुविभाणे लाउयवण्णाभे, अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्टवण्णाभे, अस्थि पोतए राहुविमाणे हालिवण्णाभे पण्णते, अस्थि सुक्किलए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते / __जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउच्चमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेसं पुरथिमेणं आवरेत्ताणं पच्चत्थिमेणं वीतीवयति तदा गं पुरथिमेणं चंदे उवदंसेति, पच्चत्थिमेणं राहू / जवा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउन्धमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स लेसं पच्चस्थिमेणं आवरेत्ताणं पुरस्थिमेणं बीतीवयति तदा णं पच्चस्थिमेणं चंदे उवदंसेति, पुरस्थिमेणं राहू / एवं जहा पुरस्थिमेणं पच्चत्थिमेण य दो आलावगा भणिया एवं दाहिणेणं उत्तरेण य दो आलावगा भाणियव्वा / एवं उत्तरपुत्थिमेणं दाहिणपच्चस्थिमेण य दो पालावगा भाणियव्वा, दाहिणपुरस्थिमेणं उत्तरपच्चस्थिमेण य दो आलावगा भाणियन्वा / एवं चेव जाव तदा णं उत्तरपच्चस्थिमेणं चंदे उवदंसेति, दाहिणपुरस्थिमेणं राहू। Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जदा णं राह आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेमाणे पावरेमाणे चिति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति--एवं खलु राहू चंदं गेण्हइ, एवं खलु राहू-चंदं गेण्हइ। __जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउधमाणे वा परियारेमाणे का चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पासेणं वोईवधइ तदा गं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति--एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना, एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना। जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउध्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पच्चोसक्कइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति- एवं खलु राहुणा चंदे बंते, एवं खलु राहुणा चंदे वंते। जया णं राहू प्रागच्छमाणे वा 4 चंदलेस्सं पावरेत्ताणं मझमझेणं बीतीवयति तदा णं मणुस्सा वदंति-राहुणा चंदे वतिचरिए, राहुणा चंदे वतिचरिए / जवा राहू आगच्छमाणे वा जाव परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सक्खि सपडिदिसि श्रावरेत्ताणं चिट्ठति तदा गं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति--एवं खलु राहणा चंदे घत्थे, एवं खल राहुणा चंदे घत्थे। 2 प्र.] भगवन ! बहत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि निश्चित ही राहु चन्द्रमा को ग्रस लेता है, तो हे भगवन् ! क्या यह ऐसा ही है ? [2 उ.] गौतम ! यह जो बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं, कि राहु चन्द्रमा को ग्रसता है, वे मिथ्या कहते हैं। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ-- "यह निश्चय है कि राहु महद्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न उत्तम वस्त्रधारी, श्रेष्ठ माला का धारक, उत्कृष्ट सुगन्ध-धर और उत्तम आभूषणधारी देव है।" राहु देव के नौ नाम कहे हैं-(१) शृगाटक, (2) जटिलक, (3) क्षत्रक, (4) खर, (5) दर्दुर, (6) मकर, (7) मत्स्य, (8) कच्छप और (2) कृष्णसर्प / राहुदेव के विमान पांच वर्ण (रंग) के कहे हैं--(१) काला, (2) नीला, (3) लाल, (4) पीला और (5) श्वेत / इनमें से राहु का जो काला विमान है, वह खंजन (काजल) के समान कान्ति (साभा) वाला है। राहुदेव का जो नीला (हरा) विमान है, वह हरी तुम्बी के समान कान्ति वाला है / राहु का जो लोहित (लाल) विमान है, वह मजीठ के समान प्रभा वाला है। राहु का जो पीला विमान है, वह हल्दी के समान वर्ण वाला है और राहु का जो शुक्ल (श्वेत) विमान है, वह भस्मराशि (राख के ढेर) के समान कान्ति वाला है। जब गमन-आगमन करता हुआ, विकुर्वणा (विक्रिया) करता हुआ तथा कामक्रीडा करता हुआ राहुदेव, पूर्व में स्थित चन्द्रमा की ज्योत्स्ना (लेश्या) को ढंक (आवृत) कर पश्चिम की अोर चला जाता है; तब चन्द्रमा पूर्व में दिखाई देता है और पश्चिम में राहु दिखाई देता है। जब प्राता Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 6] [185 हुप्रा या जाता हुअा, अथवा विक्रिया करता हुआ, या कामक्रीडा करता हुमा राहु, चन्द्रमा को दीप्ति को पश्चिम दिशा में प्राच्छादित करके पूर्वदिशा की ओर चला जाता है; तब चन्द्रमा पश्चिम में दिखाई देता है और राहु पूर्व में दिखाई देता है। जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम के दो पालापक कहे हैं, उसी प्रकार दक्षिण और उत्तर के दो आलापक कहने चाहिए / इसी प्रकार उत्तर-पूर्व (ईशान कोण) और दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) के दो पालापक कहने चाहिए, और इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व (आग्नेय कोण) एवं उत्तर-पश्चिम (वायव्य कोण) के दो पालापक कहने चाहिए। इसी प्रकार जब प्राता हुआ या जाता हुआ, अथवा विक्रिया करता हुया या कामक्रीडा (परिचारणा) करता हुआ राहु, बार-बार चन्द्रमा की ज्योत्स्ना को प्रावृत करता रहता है, तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-राहु ने चन्द्रमा को ऐसे ग्रस लिया, राहु इस प्रकार चन्द्रमा को ग्रस रहा है।' __ जब प्राता हुअा या जाता हुआ, अथवा विक्रिया करता हुआ या कामक्रीडा करता हुया राहु चन्द्रद्युति को आच्छादित करके पास से होकर निकलता है, तब मनुष्यलोक में मनुष्य कहते हैं'चन्द्रमा ने राहु की कुक्षि का भेदन कर डाला, इस प्रकार चन्द्रमा ने राहु की कुक्षि का भेदन कर डाला।' जब प्राता हुआ या जाता हुआ, अथवा विक्रिया करता हुअा या कामक्रीडा करता हुआ राहु, चन्द्रमा की प्रभा (लेश्या) को प्रावृत करके वापस लौटता है, तब मनुष्यलोक में मनुष्य कहते हैं'राहु ने चन्द्रमा का वमन कर दिया, राहु ने चन्द्रमा का वमन कर दिया।' [जब प्राता हुआ या जाता हुआ, अथवा विकुर्वणा करता हुआ या परिचारणा करता हुग्रा राहु, चन्द्रमा के प्रकाश को ढंक कर मध्य-मध्य में से होकर निकलता है, तब मनुष्य कहने लगते हैंराहु ने चन्द्रमा का प्रतिभक्षण (या अतिक्रमण) कर लिया, राहु ने चन्द्रमा का अतिभक्षण (अतिक्रमण) कर लिया / ] जब प्राता हुअा या जाता हुआ, अथवा विकुर्वणा करता हुआ या कामक्रीडा करता हुआ राहु, चन्द्रमा की दीप्ति (लेश्या) को नीचे से, (चारों) दिशाओं एवं (चारों) विदिशाओं से ढंक कर रहता है, तब मनुष्यलोक में मनुष्य कहते हैं-'राहु ने इस प्रकार चन्द्रमा को ग्रसित कर लिया है, राहु ने यों चन्द्रमा को ग्रसित कर लिया है।' विवेचन-राह : स्वरूप, नाम और वर्ण-प्रस्तुत दो सूत्रों में राह के स्वरूप का, उसके नौ नामों और उसके विमान के पांच वर्षों का प्रतिपादन किया गया है। राह द्वारा चन्द्रग्रसन की लोकभ्रान्तियों का निराकरण-(१) जब राह पूर्वादि दिशामों अथवा उत्तर-पूर्वादि विदिशाओं में से किसी एक दिशा अथवा विदिशा से होकर आता-जाता है, या विक्रिया अथवा परिचारणा करता है, तब राहु पूर्वादि में या ईशानादि दिग्विदिग् विभाग में चन्द्र के प्रकाश को प्राच्छादित कर देता है, उसी को लोग चन्द्रग्रहण (राहु द्वारा चन्द्र का ग्रसन) कहते हैं। Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) जब राहु चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के पास से होकर निकलता है तो लोग कहने लगते हैं—'चन्द्रमा ने राह की कुक्षि का भेदन कर दिया है, अर्थात्-चन्द्रमा राहु को कुक्षि में प्रविष्ट हो गया है / (3) जब राहु चन्द्रमा की ज्योति को प्रावृत करके लौटता है या दूर हो जाता है, तब मनुष्य कहते हैं'राहु ने चन्द्रमा को उगल दिया।' (4) जब राहु चन्द्रमा को प्राच्छादित करके बीच-बीच में से होकर निकलता है, तब लोग कहने लगते हैं—'राहु ने चन्द्रमा को डस लिया / ' (5) इसी प्रकार जब राह चन्द्रमा की कान्ति के नीचे से या दिशा-विदिशाओं को प्रावृत करके रहता है, तब लोग कहते हैं'राहु ने चन्द्रमा को असित कर लिया है।' भगवान् महावीर का कथन. यह है कि राहु ने चन्द्रमा को ग्रस लिया है, ऐसा उनका कथन केवल औपचारिक है, वास्तविक नहीं। राहु की छाया चन्द्र पर पड़ती है / अतः राहु के द्वारा चन्द्र का यह ग्रसन कार्य एक तरह से आवरण (प्राच्छादन) मात्र है, जो कि वैनसिक--स्वाभाविक है, कर्मकृत नहीं / 'वास्तव में ग्रहण राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा से है, किन्तु दोनों विमानों में ग्रासक और ग्रसनीय भाव कथमपि सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों परस्पर प्राश्रयमात्र हैं। अतः यहाँ आच्छाद्य-प्राच्छादक भाव है और इसी को विवक्षावश ग्रास कहा जाता है / यहाँ राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा से 'ग्रहण' कहलाता है।' जया णं राह............... वीईवयह' : भावार्थ. आशय-जब राह अपनी स्वाभाविक, अत्यन्त तीव्र गति से कृष्णादि-विमान द्वारा चल कर बाद में जब उसी विमान से वापिस लौटता है जाना, ये दोनों क्रियाएँ स्वाभाविक गति हैं। तथा विक्रिया या परिचारणा, ये दोनों क्रियाएँ अस्वाभाविक विमानगति हैं / अत: इन दोनों अवस्थाओं में प्रति त्वरा से प्रवृत्ति करता है, इसलिए विसंस्थल चेष्टा वाला होने के कारण वह अपने विमान को ठीक तरह से नहीं चलाता / राहु चन्द्र की दीप्ति को पूर्व दिशा में आच्छादित करके पश्चिम में चला जाता है। इस प्रकार राहु अपने विमान द्वारा चन्द्र के विमान को प्रावृत करता है तो चन्द्र की युति भी आवृत हो जाती है। इसी को प्राम लोग चन्द्रग्रसन या ग्रहण कहते हैं / __ खंजन आदि पदों के अर्थ--खंजनं-दीपक का कज्जल / लाउअं--अलख अथवा तुम्बिका (अपक्व) / भासरासि-भस्मराशि, राख का पुंज / परियारेमाणे- कामक्रीडा करता हुअा।' ध्र वराहु और पर्वराहु का स्वरूप एवं दोनों द्वारा चन्द्र को प्रावृत-अनावृत करने का कार्यकलाप 3. कतिविधे णं भंते ! राह पन्नत्ते? गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते, तं जहा--धुवराहू य पव्वराहू य / तत्थ णं जे से धुवराहू से णं 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल पाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 592 से 594 तक (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा, 10 पृ. 211 से 218 तक (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 576 2. (क) भगवती सूत्र (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा. 10, पृ. 210 3. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 576 Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 6] [187 बहुलपक्खस्स पाडिवए पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं, चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे पावरेमाणे चिट्ठति, तं जहा--पढमाए पढमं भाग, वितियाए बितियं मागं जाव पतरसेसु पारसमं भागं / चरिमसमये चंदे रत्ते भवति, अवसेसे समये चंदे रत्ते वा विरत वा भवति / तमेव सुक्कपक्खस्स उबदसेमाणे 2 चिट्ठइ-पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पनरसमं भागं चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ / तत्थ णं जे से पचराहू से जहन्नणं छह मासाणं; उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए संबच्छराणं सूरस्स। [3 प्र.] भगवन् ! राहु कितने प्रकार का कहा गया है ? 3 उ.] गौतम ! राहु दो प्रकार का कहा गया है, यथा---ध्र कराहु और पर्व राहु / उनमें से जो ध्र वराहु है, वह कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर प्रतिदिन अपने पन्द्रहवें भाग से, चन्द्रबिम्ब के पन्द्रहवें भाग को बार-बार ढंकता रहता है, यथा-प्रथमा (प्रतिपदा की रात्रि) को (चन्द्रमा) के प्रथम भाग को ढंकता है, द्वितीया को (चन्द्र के) दूसरे भाग को ढंकता है, इसी प्रकार यावत् अमावस्या को (चन्द्रमा के) पन्द्रहवें भाग को हँकता है। कृष्णपक्ष के अन्तिम समय में चन्द्रमा रक्त (सर्वथा आवृत) हो जाता है, और शेष (अन्य) समय में चन्द्रमा रक्त (अंशतः आच्छादित) और विरक्त (अंशतः अनाच्छादित) रहता है। इसी कारण शुक्लपक्ष का (प्रथम दिन) प्रतिपदा से लेकर यावत् पूर्णिमा (पन्द्रहवें दिन) तक प्रतिदिन पन्द्रहवाँ भाग दिखाई देता रहता है, (अर्थात् प्रतिपदा से प्रतिदिन पन्द्रहवाँ भाग खुला होता जाता है, यावत् पूर्णिमा तक पन्द्रहवाँ भाग खुला हो जाता है।) शुक्लपक्ष के अन्तिम समय में चन्द्रमा पूर्णत: अनाच्छादित हो जाता है, और शेष समय में वह (चन्द्रमा) रक्त (अंशतः अनाच्छादित) और विरक्त (अंशतः अनाच्छादित) रहता है। इनमें से जो पर्व राहु है, वह जघन्यत: छह मास में चन्द्र और सूर्य को प्रावृत करता है और उत्कृष्ट बयालीस मास में चन्द्र को और अड़तालीस वर्ष में सूर्य को ढंकता है। विवेचन नित्यराहु और पर्वराह : स्वरूप और कार्यकलाप -राहु दो प्रकार का हैध्र वराहु और पर्वराहु / काला राहु-विमान जो चन्द्रमा से चार अंगुल ठीक नीचे सन्निहित होकर नित्य संचरण करता है, वह ध्र वराहु है / चन्द्रमा की 16 कलाएँ (अंश) हैं, जिन्हें 16 भाग कहते हैं / कृष्णपक्ष में राहु प्रतिपदा (पहली तिथि) से लेकर पन्द्रह भागों में से चन्द्रबिम्ब के एक-एक भाग को प्रतिदिन पाच्छादित करता जाता है। पन्द्रहवे अर्थात् अमावस्या के दिन वह चन्द्रमा के पन्द्रह भागों को आवृत कर देता है / पन्द्रह भाग से युक्त कृष्णपक्ष के अन्तिम समय में चन्द्रमा राहु से सर्वथा अनाच्छादित (उपरक्त) हो जाता है और शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से लेकर पूणिमा तक एक-एक भाग को अनाच्छादित (खला) करता जाता है। अर्थात--शक्लपक्ष में प्रतिपदा से पणिमा तक एक भाग आच्छादित और एक भाग अनाच्छादित रहता है। अन्तिम (पूर्णिमा के) दिन चन्द्रमा सर्वथा अनाच्छादित होने से शुक्ल हो जाता है / पूर्णमासी या अमावस्या के (पर्व) में सूर्य या चन्द्रमा को जब राहु आवृत करता है, उसे पर्वराहु कहते हैं / पर्वराहु जघन्य 6 मास में चन्द्रमा और सूर्य को श्रावृत करता है, और उत्कृष्ट 42 मास में चन्द्रमा को और 48 वर्ष में सूर्य को आवृत करता है। यही चन्द्रग्रहण Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और सूर्यग्रहण कहलाता है।' चन्द्र को शशी-सश्री और सूर्य को प्रादित्य कहने का कारण 4. से केण?णं भंते ! एवं कुच्चद 'चंदे ससी, चंदे ससो ? गोयमा ! चंदस्स गं जोतिसिदस्स जोतिसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीप्रो, कंताई पासण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कते सुभए पियदसणे सुरूदे, सेतेणढणं जाव ससी। [4 प्र. भगवन् ! चन्द्रमा को- चन्द्र शशी (सश्री) है', ऐसा क्यों कहा जाता है ? [4 प्र.] गौतम ! ज्योतिषियों के इन्द्र, ज्योतिषियों के राजा चन्द्र का विमान मृगांक (मृग चिह्न वाला) है, उसमें कान्त देव तथा कान्ता देवियाँ हैं, और प्रासन, शयन, स्तम्भ, भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (भी) कान्त हैं / स्वयं ज्योतिष्कों का इन्द्र, ज्योतिष्कों का राजा चन्द्र भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप है, इसलिए ही, हे गौतम ! चन्द्रमा को शशी (सश्री-शोभायुक्त) कहा जाता है / 5. से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ 'सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे' ? गोयमा ! सूरादीया गं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा / सेतेण?णं जाव आदिच्चे। [5 प्र.] भगवन् ! सूर्य को–'सूर्य आदित्य है', ऐसा क्यों कहा जाता है ? [5 उ.] गौतम ! समय अथवा प्रावलिका यावत् अथवा अवसर्पिणी या उत्सपिणी (इत्यादि काल) की प्रादि सूर्य से होती है, इसलिए इसे आदित्य कहते हैं / विवेचन-शाशी और सभी : अभिधान का कारण-शश का अर्थ है मृग। शश (मृग) का चिह्न होने से इसे शशी, शशांक---मृगांक कहते हैं / शशी का रूपान्तर 'सश्री' भी होता है / सश्री का अर्थ है-शोभासहित / चन्द्र-विमान के देव, देवी, तथा समस्त उपकरण कान्त-कमनीय अर्थात्शोभनीय होते हैं, इस कारण इसे सश्री भी कहते हैं। सूर्य को 'आदित्य' कहने का कारण-चू कि समय, आवलिका, दिन, रात, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष यावत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रादि समस्त कालों का आदिभूत (प्रथम कारण) सूर्य है / सूर्य को लेकर ही सर्वप्रथम यह सब काल विभाग होता है / इसलिए इसे आदित्य कहा गया है। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 577 (I) किण्ह राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ / / (II) यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यामावस्ययोश्शन्द्रादित्ययोरुपरामं करोति स पर्वराहुरिति / (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2066 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र 578 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2066 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 578 (ख) सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत 20, पत्र 292, प्रागमोदय. / Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 6] 189 चन्द्रमा और सूर्य की अप्रमाहिषियों का वर्णन .. 6. चंदस्त णं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्तायो ? जहा दसमसए (स० 10 उ० 5 सु० 27) जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं / / [6 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र को कितनी अनमहिषियाँ [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार दशवें शतक (के उद्देशक 5 सू. 27) में कहा है, तदनुसार. यावत् अपनी राजधानी में सिंहासन पर मैथुन-निमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं है, (यहाँ तक कहना चाहिए।) 7. सूरस्स वि तहेव (स० 10 उ० 5 सु० 28) / [7] सूर्य के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार (शतक 10, उ. 5, सूत्र 28 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन--ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र एवं सूर्य को पट्टरानियाँ-चन्द्र की पट्टरानियाँ चार हैं-(१) चन्द्रप्रभा, (2) ज्योत्स्नाभा, (3) अचिौली और (4) प्रभंकरा / इसी प्रकार ज्योतिष्केन्द्र सूर्य को भी चार पट्टरानियाँ हैं—(१) सूर्यप्रभा, (2) प्रातपाभा (3) अचिर्माली और (4) प्रभंकरा / जोवाभिगमसूत्र प्र. 3 ज्योतिष्क उद्देशक के अनुसार सारा वर्णन जानना चाहिए।' चन्द्र-सूर्य के कामभोग सुखानुभव का निरूपण 8. चंदिम-सूरिया णं भंते ! जोतिसिदा जोतिसरायाणो केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाण-बलत्थे पढमजोवणुट्ठाणबलत्याए मारियाए सद्धि अचिरवत्तविवाहकज्जे अत्थगवेसणाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ लट्ठ कयकज्जे प्रणहसमग्गे पुणरवि नियगं गिह हव्वमागते हाते कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुण्णं थालिपागसुद्ध अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि; वण्णओ० महब्बले (स० 11 उ० 11 सु० २३)जाव सयणोक्यारकलिए ताए तारिसियाए मारियाए सिंगारागारचारवेसाए जाव कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धि इ8 सद्दे फरिसे जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरेज्जा / से गं गोयमा ! पुरिसे विओसमणकालसमयंसि केरिसयं सातासोक्खं पच्चणुभवमाणे विहरति ? ओरालं समणाउसो! तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोएहितो वाणमंतराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा 1. (क) भगबती. शतक 10 उ. 5 / सू. 27-28 (ख) जीवाभिगम-प्रतिपत्ति 3, उ. 2 पत्र 383 Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चेव कामभोगा। वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो असुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा / असुरिंदवज्जियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोहितो असुरकुमाराणं [इंदभूयाणं] देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा। असुरकुमाराणं० देवाणं कामभोगेहितो गहगणनक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो प्रगतगुण विसिटुतरा चेव कामभोगा / गहगण-नक्खत्त जाव कामभोगेहितो चंदिम-सूरियाणं जोतिसिदाणं जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा / चंविम-सूरिया णं गोतमा ! जोतिसिदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव विहरति / // बारसमे सए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो // 12-6 // [8 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिष्कों के राजा चन्द्र और सूर्य किस प्रकार के कामभोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं ? 8 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम यौवन वय में किसी बलिष्ठ पुरुष ने, किसी यौवन-अवस्था में प्रविष्ट होती हुई किसी बलिष्ठ भार्या (कन्या) के साथ नया (थोड़े दिन पहले) ही विवाह किया, और (इसके पश्चात् ही वह पुरुष) अर्थोपार्जन करने की खोज में सोलह वर्ष तक विदेश में रहा / वहाँ से धन प्राप्त करके अपना कार्य सम्पन्न कर वह निर्विघ्नरूप से पुन: लौट कर शीघ्र अपने घर पाया। वहाँ उसने स्नान किया, बलिकर्म (भेंट-न्योछावर) किया, (विघ्ननिवारणार्थ) कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त किया। तत्पश्चात् सभी आभूषणों से विभूषित होकर मनोज्ञ स्थालीपाक-विशुद्ध अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त भोजन करे / फिर महाबल के प्रकरण में (श. 11, उ. 11, सू. 23 में) वर्णित वासगृह के समान शयनगृह में शृगारगृहरूप सुन्दर वेषवाली, यावत् ललितकलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्त रागयुक्त और मनोऽनुकूल पत्नी (देवांगना) के साथ वह इष्ट शब्द रूप, यावत् स्पर्श (आदि), पांच प्रकार के मनुष्य-सम्बन्धी कामभोग का उपभोग करता हुआ विचरता है / प्रि.] हे गौतम ! वह पुरुष वेदोपशमन कामविकार-शान्ति) के समय किस प्रकार के सातासौख्य का अनुभव करता है ? [उ.] (गौतम स्वामी द्वारा) आयुष्मन् श्रमण भगवन् ! वह पुरुष उदार (सुख का अनुभव करता है।) [भगवान् ने कहा- हे गौतम ! उस पुरुष के इन कामभोगों से वाणव्यन्तरदेवों के कामभोग अनन्त-गुण विशिष्टतर होते हैं। वाणव्यन्तरदेवों के कामभोगों से असुरेन्द्र के सिवाय शेष भवनवासी देवों के कामभोग अनन्तगुणविशिष्टतर होते हैं / असुरेन्द्र को छोड़कर (शेष) भवनवासी देवों के कामभोगों से (इन्द्रभूत) असुरकुमारदेवों के कामभोग अनन्तगुण-विशिष्टतर होते हैं। असुरकुमार देवों के कामभोगों से ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्कदेवों के कामभोग अनन्तगुणविशिष्टतर होते हैं। ग्रहगण-नक्षत्र-तारा-रूप ज्योतिष्कदेवों के कामभोगों से, ज्योतिष्कों के इन्द्र, ज्योतिप्कों के राजा चन्द्रमा और सूर्य के कामभोग अनन्तगुण विशिष्टतर होते हैं। Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 6] [191 हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है-यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर को (वन्दना-नमस्कार करके) यावत् विचरण करते हैं। - विवेचन देवों के कामभोगों का सुख-यहां चन्द्रमा और सूर्य के कामभोगों को दूसरे देवों से अनन्तगुण-विशिष्टतर बताने के लिए तारतम्य बताया गया है। उपमा और कामसुखों का तारतम्य--ज्योतिष्केन्द्र चन्द्रमा और सूर्य के कामभोगों को उस नवविवाहित से उपमित किया गया है, जो सोलह वर्ष तक प्रवासी रह कर धनसम्पन्न होकर घर लौट अाया हो, सर्वथा वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो षडरस-व्यंजन युक्त भोजन करके शयनगृह में मनोज्ञ कान्त कामिनी के साथ मानवीय शब्दादि कामभोगों का सेवन करता हो। देवों के कामभोग-सुखों का तारतम्य बताते हुए कहा गया है—(१) पूर्वोक्त नवविवाहित के कामसुखों से वाणव्यन्तर देवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्ट हैं / (2) उनसे असुरेन्द्र को छोड़ कर भवनपतिदेवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं. (3) असुरेन्द्र के सिवाय शेष भवनपतिदेवों के कामसुखों से असुरकुमार देवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं, (4) उनके कामसुखों से ग्रह-नक्षत्र तारारूप ज्योतिष्कदेवों के कामसुख अनन्तगुणविशिष्टतर हैं और (5) उन सबसे ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र सूर्य के कामभोग अनन्तगुणविशिष्टतम होते हैं।' कामसुख उदारसुख क्यों ? यहाँ कामभोगों के सुख को उदारसुख कहा गया है, वह मोक्ष सुख या आत्मिकसुख की अपेक्षा से नहीं, किन्तु सामान्य सांसारिक जनों के वैषयिक सुखों की अपेक्षा से कहा गया है / वास्तव में कामभोग सम्बन्धी सुख, सुख नहीं, सुखाभास है, क्षणिक है, तुच्छ है, एक तरह से दुःख का कारण है। कठिन शब्दों के प्रर्थ-पढमजोग्यणुशाणबलत्थाए--प्रथम यौवन के उत्थान-उद्गम में जो बलिष्ठ (प्राणवान ) है / अणुरत्ताए-अनुरागवती, अविरत्ताए-अप्रिय करने पर भी जो पति से विरक्त न हो। विउसमण-कालसमयंसि-पुरुषवेद (काम) विकार के उपशमन के समय में अर्थात्रतावसान में / पच्चभवमाणा-अनुभव करते हुए / अोरालं उदार, विशाल / ' // बारहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 595-596 2. भगवतीमूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2070 3, (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 571 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) प्रा. 4, पु. 2068 Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : लोगे सप्तम उद्देशक : लोक का परिमाण लोक का परिमाण 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी [1] उस काल और उस समय में यावत् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार प्रश्न किया 2. केमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? गोयमा ! महतिमहालए लोए पन्नत्ते; पुरथिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखिज्जानो एवं चेव, एवं पच्चस्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्ड पि, अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडोओ आयाम-विक्खंभेणं / [2 प्र.] भगवन् ! लोक कितना बड़ा है ? [2 उ.] गौतम ! लोक महातिमहान् है / वह पूर्वदिशा में असंख्येय कोटा-कोटि योजन है। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में भी असंख्येय कोटा-कोटि योजन है / पश्चिम, उत्तर, एवं उर्व तथा अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा-कोटि योजन-पायाम-विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) वाला है। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों में लोक को लम्बाई-चौड़ाई पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा में असंख्येय-असंख्येय कोटा-कोटि योजन-प्रमाण बता कर महातिमहानता सिद्ध की गई है। लोक में परमाणुमात्र प्रदेश में भी जीव के जन्ममरण से अरिक्तता को दृष्टान्तपूर्वक प्ररूपणा 3 [1] एयंसि णं भंते ! एमहालयंसि लोगसि अस्थि केइ परमाणुयोग्गलमत्त वि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि ? गोयमा ! नो इण? सम। [3-1 प्र.] भगवन् ! इतने बड़े लोक में क्या कोई परमाण-पुद्गल जितना भी आकाशप्रदेश ऐसा है, जहाँ पर इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ? [3-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] से केण?णं भंते ! एयं वुच्चइ 'एयंति णं एमहालयंसि लोगसि नस्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जत्य गं अयं जीवे ण जाए वा न मए वावि' ? / गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे अयासयस्स एगं महं अयावयं करेज्जा; से गं तत्थ Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [193 जहन्न णं एक्कं वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं प्रयासहस्सं पक्खिवेज्जा; ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्ने णं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अस्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जेणं तासि अयाणं उच्चारेण बा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा तेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोगिएण वा चम्मेहि वा रोमेहि वा सिगेहि वा खुरेहि वा नहेहि वा अणोक्कंतपुब्वे भवति ? 'गो इगट्ठ सम?' / होज्जा विणं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे जे णं तासि अयाणं उच्चारेण वा जाव नहेहि वा अणोक्कंतपुग्वे नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि लोगस्स य सासयभावं, संसारस्स य अणादिभावं, जीवस्स य निच्चभावं कम्मबहुत्तं जम्मण-मरणाबाहुल्लं च पडुच्च नस्थि केयि परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएमे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि / सेतेणढणं तं चेव जाव न मए वा वि। [3-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि इतने बड़े लोक में परमाणपुद्गल जितना कोई भी प्राकाशप्रदेश ऐसा नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो? [3-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष सौ बकरियों के लिए एक बड़ा अजाब्रज (बकरियों का बाड़ा) बनाए / उसमें वह एक, दो या तीन और अधिक से अधिक एक हजार बकरियों को रखे / वहाँ उनके लिए घास-चारा चरने की प्रचुर भूभि और प्रचुर पानी हो / यदि बे बकरियां वहाँ कम से कम एक, दो या तीन दिन और अधिक से अधिक छह महीने तक रहें, तो हे गौतम ! क्या उस अजाब्रज (बाडे) का कोई भी परमाण-पुदगलमात्र प्रदेश ऐसा रह सकता है, जो उन बकरियों के मल. श्लेष्म (कफ), नाक के मैल (लीट), वमन, पित्त, शुक्र, रुधिर, चर्म, रोम, सींग, खुर और नखों से (पूर्व में अनाक्रान्त) अस्पृष्ट न रहा हो ? (गौतम--) (भगवन् ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है। (भगवान् ने कहा-) हे गौतम ! कदाचित् उस बाड़े में कोई एक परमाण-पुद्गलमात्र प्रदेश ऐसा भी रह सकता है, जो उन बकरियों के मल-मूल यावत् नखों से स्पृष्ट न हुग्रा हो, किन्तु इतने बड़े इस लोक में, लोक के शाश्वतभाव की दृष्टि से, संसार के अनादि होने के कारण, जीव की नित्यता, कर्मबहुलता तथा जन्म-मरण की बहुलता की अपेक्षा से कोई परमाणु-पुद्गल-मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो / हे गौतम ! इसी कारण उपर्युक्त कथन किया गया है कि यावत् जन्म-मरण न किया हो।। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (सं. 3) में बकरियों के बाड़े में उनके मलमूत्रादि से एक परमाणपुद्गलमात्र प्रदेश भो अछूता न रहने का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि लोक में ऐसा कोई परमाणुपुद्गल मात्र प्रदेश अछूता नहीं है जहाँ जीव ने जन्ममरण न किया हो। परमाणुषुदगलमात्र प्रदेश अस्पृष्ट न रहने के कारण (1) लोक शाश्वत है, यदि लोक विनाशी होता तो यह बातघटित नहीं हो सकती थी। लोक के शाश्वत होने पर भी यदि वह सादि (आदिसहित) हो तो भी उपर्युक्त बात घटित नहीं हो सकती, इसलिए कहा गया--(२) लोक अनादि है। अनन्त जीवों की अपेक्षा से प्रवाहरूप से संसार अनादि हो, किन्तु विवक्षित जीव अनित्य हो तो भी उपर्युक्त अर्थ घटित नहीं हो सकता, इसलिए कहा गया—(३) जीव (आत्मा) Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194} [माख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नित्य है। जीव नित्य होने पर भी यदि कर्म अल्प हों तो भो तथाविध संसारपरिभ्रमण नहीं हो सकता, और वैसी स्थिति में उपर्युक्त कथन घटित नहीं हो सकता, इसलिए कहा गया—(४) को की बहुलता है। कर्मों की बहुलता होने पर भी यदि जन्म-मरण की अल्पता हो तो पूर्वोक्त प्रर्थ घटिन नहीं हो सकता, इसलिए बतलाया गया-(५) जन्म-मरण की बहुलता है / इन पांच कारणों से लोक में एक परमाणुमात्र भी प्राकाश-प्रदेश ऐसा नहीं है, जहाँ जीव न जन्मा हो, और न मरा हो / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-अयावयं-अजाब्रज-बकरियों का बाड़ा / यहाँ सौ बकरियों के रहने योग्य बाड़े में हजार बकरियों को रखने का कथन किया है, वह उनके अत्यन्त सट कर ठसाठस भर कर रखने की दृष्टि से है। पउरगोयराओ-जहाँ घासचारा धरने की प्रचुर भूमि हो। पउरपाणीयामो-जहाँ प्रचुर पानी हो। इन दोनों पदों से उन बकरियों के प्रचुर मलमूत्र की संभावना, एवं क्षुधा-पिपासानिकारण के कारण चिरंजीविता सूचित की गई है। चौवीसदण्डकों की आवास संख्या का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण 4. कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नाताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीनो पन्नत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउद्देसर (स० 1 उ० 5 सु० 1-5) तहेव आवासा ठावेयम्वा जाक अणुत्तरविमाणे ति जाव अपराजिए सव्वट्ठसिद्ध / [4 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियाँ (नरक-भूमियाँ) कितनी कही गई हैं ? 14 उ.] गौतम ! पृथ्वियाँ सात कही गई हैं। जिस प्रकार प्रथम शतक के पञ्चम उद्देशक (सूत्र 1-5) में कहा गया है, उसी प्रकार (यहाँ भो) नरकादि के आवासों का कथन करना चाहिए। यावत् अनुत्तर-विमान तक, (अर्थात-) यावत् अपराजित और सर्वार्थसिद्ध तक इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (सं. 4) में मात नरकों के आवासों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानावासों तक का प्रथमशतक के पंचम उद्देशक के वर्णन के अनुसार अतिदेशपूर्वक निरूपण है। एकजीव या सर्वजीवों के चौवीस दण्डकवर्ती प्रावासों में विविधरूपों में अनन्तशः उत्पन्न होने को प्ररूपणा 5. [1] अयं णं भंते ! जीवे इमोसे रतणप्पमाए पुढवीए तोसाए निरयावाससयसहस्सेसु एममेगंसि निरयावासंसि पुढ विकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नरगत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुख्ने ? हंता, गोतमा ! असति प्रदुवा अर्णतखुतो। [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से 1. (क) भगवती० अ. वृत्ति, पत्र 580 (ख) भगवती० (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2073 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 580 3. देखिये, व्याख्याप्रज्ञप्तिमूत्र (आगमप्रकाशनममिति) प्रथमखण्ड, पृ. 90-91 Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [195 प्रत्येक नरकावास में पृथ्वीकायिक रूप से यावत् वनस्पतिकायिक रूप से, नरक रूप में (नरकावासरूप पृथ्वीकायिकतया), पहले उत्पन्न हुअा है ? [5.1 उ.] हाँ, गौतम ! (यह जीव पहले पूर्वोक्तरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सव्वजीवा वि णं मंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरया० तं चेव जाव प्रणंतखुत्तो। [5-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकाबास में पृथ्वी कायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, नरकपने और नै रयिकपने, पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? . [5-2 उ.] (हाँ, गौतम ! ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं। 6. अयं णं भंते ! जोवे सक्करप्पभाए पुढवीए पणवीसाए. एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो पालावगा भाणियच्या / एवं धूमप्पभाए। [6 प्र.] भगवन् ! यह जीव शर्कराप्रभापथ्वी के पच्चीस लाख (नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिक रूप में, यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ?) [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभापथ्वी-(विषयक) दो पालापक कहे हैं, उसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी के विषय में) दो पालापक कहने चाहिए। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभापृथ्वी तक (के आलापक कहने चाहिए।) 7. अयं गं भंते ! जोवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगंसि० सेसं तं चेव। [7 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव तमःप्रभापृथ्वी के पांच कम एक लाख नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है ? / [7 उ.] (हाँ, गौतम ! ) पूर्ववत् ही शेष सर्व कथन करना चाहिए। 8. अयं णं भंते ! जीवे अहेस तमाए पुढवीए पंचसु मणत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु एगमेगसि निरयावासंसि० सेसं जहा रयणप्पभाए। [8 प्र.] भगवन् ! यह जीव अध सप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर और महातिमहान् महानरकावासों में क्या पूर्ववत् उत्पन्न हो चुके हैं ? [8 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सर्वकथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान समझना चाहिए / 9. [1] अयं णं भंते ! जीवे चोयट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगसि असुर Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कुमारावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्ततिकाइयताए देवत्ताए देवित्ताए आसण-सयणभंडमत्तोबगरणत्ताए उववन्नपुग्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। 6-1 प्र. भगवन् ! क्या यह जीब, असुरकुमारों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, देवरूप में या देवीरूप में अथवा प्रासन, शयन, भांड, पात्र प्रादि उपकरणरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [6-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह पूर्वोक्तरूप में) अनेक बार या अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सधजीवा वि णं भंते ! 0 एवं चेव / [6-2 प्र.) भगवन् ! क्या सभी जीव (पूर्वोक्तरूप में उत्पन्न हो चुके हैं ?) 16-2 उ.] हाँ, गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) 10. एवं जाव थणियकुमारेसु नाणतं आवासेसु आवासा पुटवभणिया / [10] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / किन्तु उनके ग्रावासों की संख्या में अन्तर है / अावाससंख्या (भगवतो. श. 1 उ. 5, सू. 1-5 में) पहले बताई जा चुकी है। 11. [1] अयं णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। 611-1 प्र.] भंते ! क्या यह जीव असंख्यात लाख पृथ्वीकायिक-प्रावासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक-ग्रावास में पृथ्वी कायिक रूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [11-1 उ ] हाँ, गौतम ! (वह उक्तरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुका है। [2] एवं सब्वजीवा वि। [11-2] इसी प्रकार (का पालापक) सर्वजीवों के (विषय में कहना चाहिए / ) 12. एवं जाव वणस्सतिकाइएसु / [12] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों के आवासों के (विषय में भी पूर्वोक्त कथन करना चाहिए।) 13. [1] अयं णं भंते ! जोवे असंखेज्जेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि बेंदियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सतिकाइयत्ताए बॅदियत्ताए उववन्नपुरावे ? हंता, गोयमा ! जाव खुत्तो। Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [197 [13-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव असंख्यात लाख द्वीन्द्रिय-ग्रावासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में और द्वीन्द्रियरूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [13-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह पूर्वोक्तरूप में) यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुका है।) [2] सन्वनीवा वि पं० एवं चेव / [13-2] इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में (कहना चाहिए / ) 14. एवं जाव मणुस्सेसु / नवरं तेंदिएसु जाव वणस्ततिकाइयत्ताए तेंदियत्ताए, चरिदिएसु चरिदियत्ताए, पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिदियतिरिक्खजोणियत्ताए, मणुस्सेसु भणुस्सत्ताए० सेसं जहा बंदियाणं। [14] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय से लेकर) यावत् मनुष्यों तक (अपने-अपने आवासों में उत्पन्न होने के विषय में कहना चाहिए।) विशेषता यह है कि श्रीन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिकरूप में, यावत् त्रीन्द्रियरूप में, चतुरिन्द्रियों में यावत् चतुरिन्द्रियरूप में, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चरूप में तथा मनुष्यों में यावत् मनुष्यरूप में उत्पत्ति जाननी चाहिए / शेष समस्त कथन द्वीन्द्रियों के समान जानना चाहिए। 15. वाणमंतर-जोतिसिय-सोहम्मोसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं / [15] जिस प्रकार असुरकुमारों (की उत्पत्ति) के विषय में कहा है; उसी प्रकार वाणव्यन्तर; ज्योतिष्क तथा सौधर्म एवं ईशान देवलोक तक कहना चाहिए। 16. [1] अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारे कप्पे बारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि घुढविकाइयत्ताए सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो। नो चेव णं देवित्ताए / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव सनत्कुमार देवलोक के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिकरूप में यावत् पहले उत्पन्न हो चुका है ? | 16-1 उ.] (हाँ, गौतम! इस सम्बन्ध में) सब कथन असुरकुमारों के समान, यावत् . अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं; यहाँ तक कहना चाहिए / किन्तु वहाँ वे देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुए। [2] एवं सव्वजीवा वि / [16-2] (जैसे एक जीव के विषय में कहा,) इसी प्रकार सर्व जीवों के विषय में कहना चाहिए। 17. एवं जाव प्राणय-पाणएसु / एवं आरणच्चुएसु वि / [17] इसी प्रकार यावत् आनत और प्राणत तक जानना चाहिए / पारण और प्रच्युत तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए। Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 18. अयं णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेवेज्जविमाणावाससएसु० एवं चेव / [18 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव तीन सौ अठारह वेयक विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ? [18 उ.] हाँ गौतम ! (वह अनेक बार या अनन्तबार) पूर्ववत् उत्पन्न हो चुका है / 19. [1] अयं णं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणसि पुढवि० तहेव जाव अणतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए वा, देवित्ताए वा / [16-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव पांच अनुत्तरविमानों में से प्रत्येक अनुतर विमान में, पृथ्वीकायिक रूप में यावत् उत्पन्न हो चुका है ? हाँ, किन्तु वहाँ (अनन्त बार) देवरूप में, वा देवीरूप में उत्पन्न नहीं हुआ। [2] एवं सत्यजीवा वि। [19-2] इसी प्रकार सभी जीवों के (पूर्वोक्त रूप में उत्पत्ति के) विषय में जानना चाहिए / विवेचन--रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर अनुत्तर विमान के आवासों में जीव को उत्पत्ति की प्ररूपणा प्रस्तुत 15 सूत्रों ( सू. 5 से 16 तक) में एक जीव एवं सर्वजीवों की अपेक्षा से रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों से लेकर अनुत्तरविमान के विमानावासों तक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समग्र रूपों में उत्पत्ति की प्ररूपणा की गई है। 'नरगत्ताए' आदि शब्दों का भावार्थ-नरगत्ताए-नरकावास में पृथ्वी कायिक रूप में / असई--छानेक वार / अणंतखुत्तो-अनन्तवार। असंखेज्जेसु पुढविकाइयावास-सयसहस्सेसुअसंख्यात लाख पृथ्वीकायिकावासों में / पृथ्वीकायिकावास असंख्यात हैं, किन्तु उनकी बहुलता बतलाने के लिए शतसहस्र (लाख) शब्द प्रयुक्त किया गया है / 'नो चेव णं देविताए'--ईशान देवलोक तक ही देवियाँ उत्पन्न होती हैं, सनत्कुमार आदि देवलोकों में नहीं, इस दृष्टि से कहा गया है कि सनत्कुमार आदि देवलोकों में. देवी रूप में उत्पन्न नहीं होता। ___'नो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए वा'-अनुत्तरविमानों में कोई भी जीव देवरूप से अनन्त वार उत्पन्न नहीं होता, और देवियों की उत्पत्ति तो वहाँ सर्वथा है ही नहीं, इसलिए कहा गया है कि अनुत्तर विमानों में न तो अनन्त बार देवरूप में कोई जीव उत्पन्न होता है और न देवीरूप में / ' एक जीव या सर्वजीवों के, माता आदि के शत्र प्रादि के, राजादि के तथा दासादि के रूप में अनन्तशः उत्पन्न होने की प्ररूपणा 20 [1] अयं णं भंते ! जीवे सब्यजीवाणं माइत्ताए पितित्ताए भाइत्ताए भागणिताए भज्जत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए सुण्हत्ताए उववन्नपुटवे ? हता, गोयमा ! असई अदुवा भणंतखुत्तो। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 581 (ख) भगवती. (हिन्दीक्वेिचन) भा.४, पत्र 2079 Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 7] [199 [20.1 प्र.] भगवन् ! यह जीव, क्या सभी जीवों के माता-रूप में, पिता-रूप में, भाई के रूप में, भगिनी के रूप में, पत्नी के रूप में, पुत्र के रूप में, पुत्री के रूप में, तथा पुत्रवधू के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? 20-1 उ.] हाँ गौतम ! (यह जीव पूर्वोक्त रूपों में) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुका है। [2] सयजीवाणं भंते / इमस्स जीवस्स माइत्ताए जाघ उववन्नपुवा ? हंता, गोयमा ! जाव अगंतखुत्तो। 20.2 प्र.] भगवन् ! सभी जीव क्या इस जीव के माता के रूप में यावत् पुत्रवधू के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं ? 20-2 उ. हाँ गौतम ! सब जीव, इस जीव के माता आदि के रूप में यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हुए हैं। 21. [1] अयं णं भंते ! जीवे सन्यजीवाणं परित्ताए वेरियताए धायगत्ताए यहगत्ताए पडिणीयत्ताए पच्चामित्तत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। [21-1 प्र.] भगवन् ! यह जीव क्या सब जीवों के शत्रु रूप में, वैरी-रूप में, घातक रूप में, वधक रूप में, प्रत्यनीक रूप में, तथा प्रत्यामित्र (शत्रु-सहायक) के रूप में पहले उत्पन्न हुआ है ? [21-1 उ.] हाँ गौतम! (यह जीव, सब जीवों के पूर्वोक्त शत्रु आदि रूपों में) अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुका है। [2] सव्वजीवा वि गं भंते ! . एवं चेव / [21-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी जीव (इस जीव के पूर्वोक्त शत्रु प्रादि रूपों में) पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? [21-2 उ.] हाँ गौतम ! (सभी कधन) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 22. [1] अयं णं भंते ! जीवे सम्बजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाव सत्यवाहताए उववन्नधुब्वे ? हंता, गोयमा ! असई जाव अणंतखुत्तो। [22-1 प्र.] भगवन् ! यह जीव, क्या सब जीवों के राजा के रूप में, युवराज के रूप में, यावत् सार्थवाह के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [ 22-1 उ.] गौतम ! (यह जीव, सब जीवों के राजा पा : के रूप में) अनेक बार या अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुका है। [2] सम्वजीवा पं० एवं चेव / / 622-2] इस जीव के राजा आदि के रूप में सभी जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् कहना चाहिए। Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] [ व्याख्याप्राप्तसूत्र 23. [1] अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइल्लत्ताए भोगपुरिसत्ताए सोसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। [23-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, सभी जीवों के दास रूप में, प्रेष्य (नौकर) के रूप में, भतक रूप में, भागीदार के रूप में, भोगपुरुष के रूप में,शिष्य के रूप में और द्वेष्य (द्वेषी-ईर्ष्यालु) के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [23-1 उ.] हाँ गौतम ! (यह जीव, सब जीवों के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार या अनन्त बार (पहले उत्पन्न हो चुका है / ) [2] एवं सव्वजोवा वि अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरति / // बारसमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 12-7 // [23-2] इसी प्रकार सभी जीव भी, (इस जीव के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 20 से 23 तक) में एक जीव एवं सर्वजोवों की अपेक्षा से माता आदि के रूप में, शत्रु आदि के रूप में, राजा आदि के रूप में और दासादि के रूप में अनेक वार या अनन्त बार उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। कठिन शब्दों के अर्थ-अरित्ताए–सामान्यतः शत्र के रूप में, वेरियत्ताए-जिसके साथ परम्परा से शत्रुभाव हो, उस वैरी के रूप में, घायगत्ताए-जान से मार डालने वाले हत्यारे के रूप में, वहमत्ताए मारपीट (वध)करने वाले के रूप में। पडिणीयत्ताए--प्रत्यनीक अर्थात्--- प्रत्येक कार्य में विघ्न डालने वाले, कार्यविघातक के रूप में। पच्चामित्ताए-अमित्र-शत्र के सहायक के रूप में / दासत्ताए-घर की दासी के पुत्र के रूप में। पेसत्ताए–प्रेष्य-प्राज्ञापालक नौकर के रूप में / भयगत्ताए--भृतक दुष्काल आदि में पोषित के रूप में। भाइल्लगत्ताए–भागीदार-हिस्सेदार के रूप में / भोगपुरिसत्ताए-दूसरों के द्वारा उपाजित अर्थ का उपभोग करने वाले के रूप में / भज्जत्ताएभार्या–पत्नी के रूप में। धूपत्ताए दुहिता-पुत्री के रूप में / सुण्हत्ताए-स्नुषा-पुत्रवधू के रूप में। / बारहवाँ शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पन 581 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेवन) भा. 4, पृ. 2061 Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो उद्देसओ : 'नागे' अष्टम उद्देशक : 'नाग' महद्धिक देव को नाग, मणि, वृक्ष में उत्पत्ति, महिमा और सिद्धि 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-- [1] उस काल और उस समय में गौतम स्वामी ने यावत् (श्रमण भगवान महावीर से) इस प्रकार प्रश्न किया 2. [1] देवे णं भंते ! महड्डोए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा? हंता, उववज्जेज्जा। 2-1 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव च्यव (मर) कर क्या द्विशरीरी (दो जन्म धारण करके सिद्ध होने वाले) नागों (सर्पो अथवा हाथियों) में उत्पन्न होता है ? [2-1 उ.] हाँ गौतम ! (बह) उत्पन्न होता है। [2] से पं तत्थ अच्चियबंदिययूइयसक्कारियसम्माणिगए दिल्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे यावि भवेज्जा ? हंता, भवेज्जा। (2-2 प्र.] भगवन् ! वह वहाँ नाग के भव में अचित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, प्रधान, सत्य, सत्यावपातरूप अथवा सन्निहित प्रातिहारिक भी होता है ? {2-2 उ.] हाँ गौतम ! (वह ऐसा) होता है / [3] से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उब्वट्टित्ता सिझज्जा बुज्झज्जा जाव अंतं करेज्जा ? हंता, सिम्झेजा जाव अंतं करेज्जा। [2-3 प्र.] भगवन् ! क्या वह वहाँ से अन्तररहित व्यव कर (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त करता है ? [2-3 उ.] हाँ, (गौतम ! वह वहाँ से सोधा मनुष्य होकर) सिद्ध होता है, यावत् संसार का अन्त करता है। 3. देवे णं भंते ! महट्टीए एवं जाब बिसरोरेसु मणीसु उवबज्जेज्जा ? एवं चेव जहा नागाणं / [3 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुखवाला देव च्यव कर क्या द्विशरीरी मणियों में उत्पन्न होता है ? Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 उ.] (हाँ, गौतम ! ) जैसे नागों के विषय में (कहा, उसी प्रकार इनके विषय में भी कहना चाहिए। 4. देवे णं भंते ! महड्ढीए जाव बिसरीरेसु रुवखेसु उववज्जेज्जा ? हंता, उववज्जेज्जा / एवं चेव / नवरं इमं नाणतं-जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भवेज्जा? हंता, भवेज्जा / सेसं तं चेव जाव अंतं करेज्जा / [8 प्र.] भगवन् ! माँ द्धक यावत् महासुखवाला देव (च्यव कर क्या) द्विशरीरी वृक्षों में उत्पन्न होता है ? [4 उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न होता है / उसी प्रकार (पूर्ववत् सारा कथन करना); विशेषता इतनी ही है कि (जिस वृक्ष में वह उत्पन्न होता है, वह अचित आदि के अतिरिक्त) यावत् सन्निहित प्रातिहारिक होता है, तथा उस वृक्ष की पीठिका (चबूतरा आदि) गोबर आदि से लीपी हुई और खड़िया मिट्टी आदि द्वारा उसकी दीवार आदि पोती (सफेदी को) हुई होने से वह पूजित (महित) होता है / शेष समस्त कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत् वह (मनुष्य-भव धारण करके) संसार का अन्त करता है। विवेचन–महद्धिक देव की नाग-मणि-वृक्षादि में उत्पत्ति एवं प्रभाव-सम्बन्धी चर्चा---प्रस्तुत चार सूत्रों में महद्धिक देवों की नाग आदि भव में उत्पत्ति, महिमा एवं सिद्धि प्रादि के विषय में चर्चा की गई है। बिसरीरेसु.."उववज्जेज्जा : प्राशय-जो दो शरीरों में, अर्थात् --एक शरीर (नाग अादि का भव) छोड़ कर तदनन्तर दूसरे शरीर अर्थात्--मनुष्य शरीर को पाकर सिद्ध हों, ऐसे दा शरीरों में उत्पन्न होते हैं / निष्कर्ष यह है कि ऐसे द्विशरीरो नाग, मणि या वृक्ष अपना एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर मनुष्य का ही पाते हैं, जिससे वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं।' __ महिमा-नाग, मणि या वृक्ष के भव में भी वे देवाधिष्ठित होते हैं / इस कारण नागादि के भव में जिस क्षेत्र में वे उत्पन्न होते हैं, वहाँ उनको अर्चा, वन्दना, पूजा, सत्कार और सम्मान होता है। वे दिव्य (देवाधिष्ठित), प्रधान (अपनी जाति में प्रधानता पान वाले), सत्य स्वप्नादि द्वारा सच्चा भविष्यकथन करने वाले होते हैं उनकी सेवा सत्य-सफल होती है, क्योंकि वे पूर्वसगतिक प्रातिहारिक (प्रतिक्षण पहरेदार की तरह रक्षक) होकर उनके सन्निहित-अत्यन्त निकट रहत हैं / जो वृक्ष होता है, वह भी देवाधिष्ठित, विशिष्ट और बद्धपीठ हाता है, जनता उसका महिमा, पूजा आदि करती है और वह उसकी पीठिका (चबूतरे) को लीप-पोत कर स्वच्छ रखता है।' सन्निहियपाडिहरे-जिसके निकटवर्ती प्रातिहार्य-पूर्व संगतिक आदि देवों द्वारा कृत प्रतिहारकर्मरक्षणादि कर्म होता है / 1. भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 582 2. वही, पत्र 582 3, वहीं, पत्र 582 Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक ] [203 लाउल्लोइयमहिए-लाइयं अर्थात्-गोबर आदि से पीठिका को भूमि लीपने, तथा उल्लोइयखड़िया मिट्टी आदि से दीवारों को पोतकर सफेदी करने से जो महित-पूजित होता है / ' नाग–सर्प या हाथी, मणि—पृथ्वीकायिक जीव विशेष / शीलादि-रहित वानरादि का नरकगामित्त्वनिरूपण 5. अह भंते ! गोलंगूलबसमे कुक्कुडवसभे मंडुक्कवसभे, एए णं निस्सीला निन्वया निरगुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए उपकोसणं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि नेरतियत्ताए उववज्जेज्जा? समणे भगवं महावीरे वागरेति-'उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तन्वं सिया / [5 प्र. भगवन् ! यदि वानरवृषभ, (वानरों में महान् और चतुर), कुर्कुटवृषभ (बड़ा मुर्गा) एवं मण्डकवृषभ (बड़ा मेंढक) ये सभी निःशील, व्रतहित, गुणरहित. मर्यादा-रहित तथा प्रत्याख्यान-पौषधोपवास रहित हों, तो मरण के समय मृत्यु को प्राप्त हो (क्या) इस रत्नप्रभापथ्वी में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति बाले नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं-(हाँ, गौतम ! ये नैरयिकरूप से उत्पन्न होते हैं;) क्योंकि उत्पन्न होता हुआ उत्पन्न हुआ, ऐसा कहा जा सकता है। 6. अह भंते ! सोहे वग्घे जहा ओस प्पिणिउद्देसए (स० 7 उ० 6 सु० 36) जाव परस्सरे एए णं निस्सीला एवं चेव जाव वत्तन्वं सिया / [6 प्र.] भगवन् ! यदि सिंह, व्याघ्र, यावत् पाराशर (जो कि) सातवें शतक के अवसर्पिणी उद्देशक में (उ. 6 सू. 36 में) कथित हैं---ये सभी शीलरहित इत्यादि पूर्वोक्तवत् क्या (नैरयिक रूप में) उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] हाँ गौतम ! उत्पन्न होते हैं, यावत् उत्पन्न होता हुमा 'उत्पन्न हुना' ऐसा कहा जा सकता है। 7. अह भंते ! ढंके कंके विलए मददुए सिखी, एते णं निस्सीला सेसं तं चेव जाव बत्तन्वं सिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह। वारसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो॥ 12.8 / / [7 प्र.] भगवन् ! (जो) ढंक (कौमा) कंक (गिद्ध) बिलक, मेंढक और मोर--ये सभी शोलरहित इत्यादि हों तो पूर्वोक्तवत् (नैरयिकरूप से) उत्पन्न होते हैं ? [7 उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न होते हैं / शेष सब कथन यावत् कहा जा सकता है, (यहाँ तक) पूर्ववत् समझना चाहिए। 1. वही, पत्र 582 Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्यानज्ञप्तिसूत्र 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी पावत् विचरण करते हैं। विवेचन-वानरादि-अवस्था में नारक कैसे?—प्रश्न होता है, मूलपाठ में बताया गया है कि वानर आदि जिस समय वानरादि हैं. उस समय वे नारकरूप नहीं हैं, फिर नारकरूप से कैसे उत्पन्न हुए ? इसका समाधान मूल पाठ में ही किया गया है कि ऐसा भगवान् महावीर कहते हैं, भ. महावीर के सिद्धान्तानुसार जो उत्पन्न हो रहा है, वह उत्पन्न हुआ कहलाता है। क्रियाकाल और निष्ठाकाल में अभेद दृष्टि से यह कथन है / अतः यह ठीक ही कहा है कि जो वानरादि नारकरूप से उत्पन्न होने वाले हैं, वे उत्पन्न हुए हैं।' कठिन शब्दार्थ गोलांगूलवसभे—गोलांगूलवृषभे–महान् या श्रेष्ठ अथवा विदग्ध (चतुर बुद्धिमान्) बानर / वृषभ शब्द यहाँ विदग्ध या महान् अर्थ में है। ढंके --कौना। कंके गिद्ध / सिखोमोर / मग्गुए—मेंढक / णिस्सीला---शील-शिक्षाव्रतरहित / णिचया-व्रतरहित। णिग्गुणा---गुणव्रतरहित / जिम्मेरा--मर्दादारहित / णिपच्चवखाणपोसहोववासा-प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित / / / बारहवां शतक : अष्टम उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ.त्ति, पत्र 582 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 582 (स) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2003 Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'देव' नौया उद्देशक : 'देव' देवों के पांच प्रकार और स्वरूपनिरूपण 1. कतिविहा गं भंते ! देवा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा देवा पन्नत्ता, तं जहा--भवियदधदेवा 1 नरदेवा 2 धम्मदेवा 3 देवाहिदेवा 4, भावदेवा 5 / [1 प्र. भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! देव पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा---(१) भव्यद्रव्य देव, (2) नरदेव, (3) धर्मदेव, (4) देवाधिदेव, (5) भावदेव / 2. से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति 'भवियदम्बदेवा, भवियदवदेवा' ? गोयमा ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उवज्जित्तए, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ 'भवियदव्वदेवा, भवियदव्वदेवा'। [2 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव, 'भव्यद्रव्यदेव' किस कारण से कहलाते हैं ? [2 उ.] गौतम ! जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक अथवा मनुष्य, देवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे भविष्य में भाबीदेव होने के कारण भव्यद्रव्यदेव कहलाते हैं। 3. से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ 'नरदेवा, नरदेवा' ? गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंतचक्कवट्टी उत्पन्न समत्तचषकरयणप्पहाणा नवनिहिपतिणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणयातमागा सागरवरमेहलाहिपतिणो मस्सिदा, से लेण?णं जाव 'नरदेवा, नरदेवा। [3 प्र.] भगवन् ! नरदेव 'नरदेव' क्यों कहलाते हैं ? [3 उ.) गौतम ! जो ये राजा, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में समुद्र तथा उत्तर में हिमवान् पर्वत पर्यन्त षटखण्डपृथ्वी के स्वामी चक्रवर्ती हैं, जिनके यहाँ समस्त रत्नों में प्रधान चक्ररत्न उत्पन्न हा है, जो नौ निधियों के अधिपति हैं, जिनके कोष समृद्ध हैं, बत्तीस हजार राजा जिनके मार्गानुसारी है, ऐसे महासागर रूप श्रेष्ठ मेखला पर्यन्त-पृथ्वी के अधिपति और मनुष्यों में इन्द्र सम हैं इस कारण नर देव 'नरदेव' कहलाते हैं / 4. सेकेण?णं भंते ! एवं बच्चइ 'धम्मदेवा, धम्मदेवा' ? गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासम्यिा जाव गुत्तमचारी, से तेणटुणं जाव 'धम्मदेवा, धम्मदेवा। Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र. भगवन् ! धर्मदेव 'धर्मदेव' किस कारण से कहे जाते हैं ? [4 उ.] गौतम ! जो ये अनगार भगवान ईर्यासमिति आदि समितियों से युक्त, यावत् गुप्तब्रह्मचारी होते हैं ; इस कारण से ये धर्म के देव 'धर्मदेव' कहलाते हैं / 5. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'देवाहिदेवा,' देवाहिदेवा' ? गोयमा ! जे इमे अरहता भगवंता उम्पन्ननाण-दसणधरा जाव सम्वदरिसो, से तेणणं जाय 'देवाहिदेवा, देवाहिदेवा। [5 प्र.] भगवन् ! देवाधिदेव 'देवाधिदेव' क्यों कहलाते हैं ? [5 उ.] गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान् हैं, वे उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक हैं यावत् सर्वदर्शी हैं, इस कारण वे यावत् धर्मदेव कहे जाते हैं। 6. से केपट्टणं भंते ! एवं वच्चइ 'भावदेवा, भावदेवा' ? गोयमा! जे इमे भवणवति-वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया देवा देवगतिनाम-गोयाई कम्माई वेदेति, से तेण?णं जाव 'भावदेवा, भावदेवा' / [6 प्र.] भगवन् ! किस कारण से भावदेव को भावदेव कहा जाता है ? [6 उ.] गौतम ! जो ये भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव हैं, जो देवगति (सम्बन्धी) नामकर्म एवं गोत्रकर्म का वेदन कर रहे हैं, इस कारण से, देवभव का वेदन करने वाले, वे 'भावदेव' कहलाते हैं / विवेचन भव्यबध्यदेव आदि पंचविध देव : अर्थ और स्वरूप-जो क्रीड़ा स्वभाव वाले हैं। अथवा जिनकी आराध्यरूप से स्तुति की जाती है, वे देव हैं / (1) भव्य-द्रव्य-देव-भव्यद्रव्यदेव में द्रव्यशब्द अप्राधान्यवाचक है। भूतकाल में देव पर्याय को प्राप्त हुए अथवा भविष्यकाल में देवत्व को प्राप्त करने वाले, किन्तु वर्तमान में देव के गुणों से शून्य होने के कारण वे अप्रधान हैं / भूतभाव पक्ष में-भूतकाल में देवत्वपर्याय को प्राप्त (प्रतिपन्न), भावदेवत्व से च्युत द्रव्यदेव हैं, तथा भाविभाव पक्ष में-भविष्य में देवत्व पर्याय के योग्य---जो देवरूप से उत्पन्न होने वाले हैं, वे भी द्रव्यदेव हैं / प्रस्तुत में भाविभाव पक्ष को दृष्टि से यहाँ 'भव्य एवं द्रव्य देव' का कथन किया गया है। (2) नरदेव-मनुष्यों में जो देवतुल्य-आराध्य हैं, अथवा क्रीड़ा-कान्ति आदि विशेषताओं से युक्त मनुष्येन्द्र-चक्रवर्ती हैं, वे नरदेव कहलाते हैं / (3) धर्मदेव-श्रुत चारित्रादि धर्म से जो देवतुल्य हैं, अथवा जो धर्मप्रधान देव हैं, वे धर्मदेव हैं / (4) देवातिदेव-देवाधिदेव–पारमार्थिक देवत्व के कारण जो शेष (पूर्वोक्त सभी) देवों को 1. देवातिदेवा, देवाधिदेवा / Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9 / [207 अतिक्रान्त (मात) कर गए हैं, वे देवातिदेव हैं, अथवा पारमाथिक देवत्व होने से जो देवों से अधिक श्रेष्ठ हैं, वे देवाधिदेव कहलाते हैं / (5) भावदेव-देवगति आदि कर्मों के उदय से जो देवों में उत्पन्न हैं, देवपर्याय से देव हैं, और देवत्व का बेदन करते हैं. वे भावदेव हैं / कठिनशब्दार्थ- भविए--भव्य---योग्य / चाउरंतचक्कवट्टी-चतुरन्त के स्वामी, चक्र से वर्तनशील / चतुरन्त शब्द के ग्रहण करने से वासुदेव प्रादि सामान्य नरपतियों का निराकरण हो गया। सागरवरमेखलाहिवइणो - सागर ही जिसकी श्रेष्ठ मेखला (करधनी) है, ऐसी षटखण्डात्मक पृथ्वी के अधिपति / नवनिहिपतिणो-नौ निधियों के स्वामी। पंचविध देवों की उत्पत्ति का सकारण निरूपण 7. भवियदव्वदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जंति ? कि नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खमगुस्स-देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइरहितो उववज्जंति, तिरि-मणु-देवेहितो वि उववज्जति / भेदो जहा' वक्कंतीए / सन्वेसु उववातेयत्वा जाव अणुत्तरोववातिय त्ति / नवरं असंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमगअंतरदीवग-सन्म सिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहितो वि उववज्जंति, गो सवसिद्धदेवेहितो उववज्जति / [7 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव किन में (किन जीवों या किन गतियों में) से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों में से (पाकर) उत्पन्न होते हैं, या तिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देवों में से (आकर) उत्पन्न होते हैं / [7 उ. गौतम ! वे नरयिकों में से (माकर) उत्पन्न होते है, तथा तिर्यञ्च. मनुष्य या देवों में से भी उत्पन्न होते है / (यहाँ प्रज्ञापना सूत्र के छठे) व्युत्क्रान्ति पद (में कहे) अनुसार भेद (विशेषता) कहना चाहिए / इन सभी की उत्पत्ति के विषय में यावत् अनुत्तरोपपातिक तक कहना चाहिए / विशेष बात यह है कि असंख्यातवर्ष की आयु वाले अकर्म भूमिक तथा अन्तरद्वीपक एवं सर्वार्थसिद्ध के जीवों को छोड़कर यावत् अपराजित देवों (भवनपति से लेकर अपराजित नामक चतुर्थ अनुतरविमानवासी देवों) तक से पाकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु सर्वार्थसिद्ध के देवों से प्राकर उत्पन्न नहीं होते / 8. [1] नरदेवा ण भते ! कोहितो उववज्जति ? कि नेरतिय० पुच्छा। गोयमा ! नेरतिरहितो उववज्जति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहितो वि उववज्जति / 18-1 प्र.] भगवन् ! नरदेव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिक, तियंञ्च, मनुष्य या देवों में से पाकर उत्पन्न होते हैं ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 585 2. (क) वही, पत्र 5-5 (ख) भगवती, (हिंदीविवेचन) भा. 4 पृ. 2087 1. देखिये- पण्णवणासुत भा. 1 छठा व्युत्क्रान्तिपद, सू. 639-65, (मूलपाठटिप्पणयुक्त) पृ. 165-75 में Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [-1 उ. गौतम ! वे नै रयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु न तो मनुष्यों से प्रा कर उत्पन्न होते हैं और न तिर्यञ्चों से, देवों से भी उत्पन्न होते है / [2] जदि नेरतिरहितो उववज्जंति किं रयणप्पभापुढविनेरतिएहितो उववज्जंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरतिएहितो उववज्जति ? गोयमा! रयणप्पभापुढविनेरतिहितो उववज्जति, नो सक्कर० जाव नो अहेसत्तमपुढविनेरतिहितो उववति। 8-2 प्र.] भगवत् ! यदि वे (नरदेव) नैरयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) यावत् अध:-सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से पाकर उत्पन्न होते है ? [8-2 उ.] गौतम ! वे रत्नप्रभा-पृथ्वी के नै रयिकों में से (पाकर) उत्पन्न होते हैं, किन्तु शार्कराप्रभा-पृथ्वी के नै रयिकों से यावत् अध: सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से (पाकर) उत्पन्न नहीं होते / [3] जइ देवेहितो उक्वज्जति किं भवणवासिदेवेहितो उववज्जति, वाणमंतर-जोतिसियवेमाणियदेवहितो उवधज्जंति ? गोयमा! भवणवासिदेवेहितो वि उववज्जंति, वाणमंतर०, एवं सचदेवेसु उववाएयव्या वक्कतोभेदेणं जाव सम्वट्ठसिद्ध ति / 8-3 प्र. भगवन ! यदि वे देवों से (माकर) उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी देवों से उत्पन्न होते हैं ? अथवा वाणव्यत्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों से (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार सभी देवों से उत्पत्ति (उपपात) के विषय में यावत् सर्वार्थसिद्ध तक, (प्रज्ञापनामूत्र के छठे) व्युत्क्रान्ति-पद में कथित भेद (विशेषता) के अनुसार कहना चाहिए। 9. धम्मदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति कि नेरतिएहितो? एवं बक्कतोभेदेणं सम्वेसु उववाएयन्वा जाव सम्वसिद्ध त्ति / नवरं तमा-अहेसत्तमातेउ-वाउअसंखेज्जवासाउय-अकम्मभूमा-अंतरदीवगवज्जेसु / [प्र.] भगवन् ! धर्मदेव कहाँ से (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 6 उ.] गौतम ! यह सभी उपपात व्युत्क्रान्ति-पद में उक्त भेद सहित यावत्-सर्वार्थसिद्ध तक कहना चाहिए। परन्तु इतना विशेष है कि तम:प्रभा, अधःसप्तम पृथ्वी तथा तेजस्काय, वायुकाय, असंख्यात वर्ष की आयुवाल अकर्मभूमिक तथा अन्तरद्वीपक जीवों को छोडकर उत्पन्न होते हैं। 10. [1] देवाहिदेवा गं भंते ! कतोहितो उववज्जंति ? कि नेरइरहितो उववज्जति ? 0 पुच्छा ? गोयमा ! नेरइरहितो उववजंति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेहितो वि उववति / 1. देखें-पग्णयणामुत्त भा. 1 छठा व्युत्क्रान्तिपद (महावीर जैन विद्यालय में प्रकाशित) Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9 [209 [10-1 प्र. भगवन् ! देवाधिदेव कहाँ से (या कर) उत्पन्न होते हैं ? . [10-1 उ.] गौतम! वे नैरयिकों से (पा कर) उत्पन्न होते हैं, किन्तु तिर्यञ्चों से या मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते / देवों से भी (प्रा कर) उत्पन्न होते हैं / [2] जति नेरतिएहितो. एवं तिसु पुढवीसु उववज्जति, सेसाओ खोडेयवाओ। 10.2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि नैरयिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, तो रत्नप्रभापृथ्वी के नयिकों यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [10-2 उ.] गौतम ! (वे आदि की) तीन नरकपृथ्वियों में से पा कर उत्पन्न होते हैं। शेष चार (नरकपृथ्वियों) से (उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए / [3] जदि देवेहितो०, वेमाणिएसु सम्बेसु उववज्जति जाव सम्वट्ठसिद्ध ति / सेसा खोडेयन्वा / [10.3 प्र.} भगवन् ! यदि वे देवों से (पा कर) उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनपति ग्रादि से (प्रा कर) उत्पन्न होते हैं ? 610-3 उ.] गौतम ! ये, समरत वैमानिक देवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध (के देवों) से (आकर) उत्पन्न होते हैं। शेष (देवों से उत्पत्ति) का निषेध (करना चाहिए / ) 11. भावदेवा गं भंते ! कओहितो उववज्जति ?0 एवं जहा वक्तीए' भवणवासीणं उववातो तहा भाणियन्वं / [11 प्र. भगवन् ! भावदेव किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? {11 उ. गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति पद में जिस प्रकार भवनवासियों के उपपात का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी करना चाहिए / विवेचन --प्रस्तुत पांच सूत्रों (7 से 11 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की उत्पत्ति के स्थानों का वर्णन किया गया है। भव्य द्रव्यदेवों को उत्पत्ति-असंख्यातवर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज जीवों एवं सर्वार्थसिद्ध के देवों से आकर भव्य द्रव्यदेवों की उत्पत्ति के निषेध का कारण यह है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिज एवं अन्तरद्वीपज तो सीधे भावदेवों में उत्पन्न होते हैं किन्तु भव्य द्रव्यदेवों (मनुष्य, तिर्यञ्चों) में उत्पन्न नहीं होते हैं और सर्वार्थसिद्ध के देव तो भव्यद्रव्यसिद्ध होते हैं, अर्थात्---वे तो मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं, इसलिए वे सर्वार्थसिद्ध देवलोक से न तो किसी भी देवलोक में उत्पन्न होते हैं और न ही मनुष्य भव में उत्पन्न होकर पुनः भव्य द्रव्यदेवों में उत्पन्न होते हैं। 1. देखिये-पष्णवपासुत्त भा-१ (महावीर जै. वि), सू. 648-49, पृ. 174 में 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 585-586 Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धर्मदेवों की उत्पत्ति-कोई धर्मदेव तभी बन सकते हैं, जब वे चारित्र (सर्वविरति) ग्रहण करें। छठी नरक पृथ्वी से निकले हुए जीव मनुष्यभव प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते, तथा सप्तम नरकपृथ्वी, तेजस्काय, वायुकाय, असंख्यातवर्ष की आयुवाले कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज मनुष्य, तिर्यञ्चों से निकले हुए जीव तो मनुष्यभव भी प्राप्त नहीं कर सकते, तब धर्मदेव (चारित्रयुक्त साधक) कैसे हो सकते हैं ? ' इसलिए इनसे धर्मदेवों की उत्पत्ति का निषेध किया गया है / देवाधिदेव की उत्पत्ति-प्रथम तीन-पृथ्वियों से निकले हुए जीव ही देवाधिदेव (तीर्थकर) पद प्राप्त कर सकते हैं, आगे की चार पृथ्वियों से नहीं।' भवनपति-सम्बन्धी उपपात का अतिदेश क्यों ?--बहुत-से स्थानों से आ कर जीव भवनवासी देव के रूप में उत्पन्न होते हैं क्योंकि उसमें असंज्ञी जीव भी आकर उत्पन्न होते है / इसलिए यहाँ भवनपति-सम्बन्धी उपपात का अतिदेश किया है। कठिन शब्दार्थ-वक्कतीए--ट्युत्क्रान्तिपद में / खोडेयव्वा-निषेध करना चाहिए।' पंचविधदेवों को जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण 12. भविषदम्वदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिग्रोवमाई। [12 प्र.] भगवन् ! भव्य द्रव्यदेवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [12 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। 13. नरदेवाणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्न णं सत्त वाससयाई, उक्कोसेणं चउरासीति पुव्वसयसहस्साई। [13 प्र.] भगवन् ! नरदेवों की स्थिति कितने काल की है ? [13 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य सात सौ वर्ष को और उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व की है। 14. धम्मदेवाणं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! जहन्नणं अन्तोमुहत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। [14 प्र.] भगवन् ! धर्मदेवों की स्थिति कितने काल की है ? [14 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट देशोनपूर्व कोटि की है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 586 2. वही, पत्र 586 3. वही, पत्र 586, 4. भगवती. (हिंदी विवेचन) भा.४, पृ. 2090 Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहनां शतक : उद्देशक 9] [211 15. देवाहिदेवाणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नणं बावरि वासाई, उक्कोसेणं चउरासोई पुग्धसयसहस्साई / [15 प्र.) भगवन् ! देवाधिदेवों की स्थिति सम्बन्धी पृच्छा ? [15 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य बहत्तर वर्ष को, और उत्कृष्ट चौरासी लाख पूर्व की है। 16. भावदेवाणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। [16 प्र.] भगवन् ! भावदेवों की स्थिति कितने काल की है ? [16 उ ] गौतम ! (भावदेवों की) जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष को और उत्कृष्ट तेतोस सागरोपम की है। विवेचन----प्रस्तुत पंचसूत्री (12 से 16 तक) में पूर्वोक्त पांच प्रकार के देवों को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। ___ भव्यद्रव्यदेवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त क्यों ? -अन्तर्मुहूर्त्त आयुष्य वाले पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, देवरूप में उत्पन्न होते हैं, इसलिए भव्यद्रव्य देव की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की बताई गई है। तीन पल्योषम की स्थितिबाले देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्य और तिर्यञ्च भी देवों में उत्पन्न होते हैं, और वे भव्य-द्रव्यदेव होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है।' नरदेव (चक्रवर्ती) की स्थिति-नरदेव (चक्रवर्ती) की जघन्य स्थिति 700 वर्ष की होती है, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को प्रायु इतनी ही थी। उत्कृष्ट स्थिति 84 लाख पूर्व को होती है, जैसे---भरतचक्रवर्ती की उत्कृष्ट अायु 84 लाख वर्ष की थी। धर्मदेव की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति--जो मनुष्य अन्तर्मुहर्त प्रायु शेष रहते चारित्र (महावत स्वीकार करता है, उसकी अपेक्षा से धर्मदेव (चारित्रो साधुसाध्वो) को जघन्य स्थिति अन्तर्महर्त की कही गई है। कोई पूर्व कोटि वर्ष की आयुवाला मानव अष्ट वर्ष को प्रायु में प्रव्रज्या योग्य होने से पूर्व कोटि में पाठ वर्ष कम की आयु में चारित्र ग्रहण करे तो उसको अपेक्षा से धर्मदेव की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व कोटि वर्ष की कही गई है। प्रतिमुक्तक मुनि या वन स्वामी, जो क्रमशः 6 वर्ष की एवं 3 वर्ष को प्रायु में प्रवजित हो गए थे, वह कादाचित्क है, अतः उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है / देवाधिदेवों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति-चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी को जघन्य आयु 72 वर्ष की थी, इस अपेक्षा से देवाधिदेव को जघन्य स्थिति 72 वर्ष की कही है, तथा भगवान् ऋषभदेव को उत्कृष्ट प्रायु 84 लाख पूर्व को थी, इस अपेक्षा से देवाधिदेव को उत्कृष्ट स्थिति 84 लाख पूर्व की कही है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 586 2. वही, पत्र 586 3. वही, पत्र 586 4. वही, पत्र 586 Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र भावबेबों की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति-व्यन्तरदेवों को श्रायु 10 हजार वर्ष की है, इसलिए देवों की जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की ही है। देवों की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की है, यथा—सर्वार्थसिद्ध देवों की स्थिति 33 सागरोपम की है।' पंचविध देवों की वैक्रियशक्ति का निरूपण 17. भवियदधदेवा णं भंते ! कि एगत्तं पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए ? गोयमा !एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउठवत्तए / एगतं विउव्यमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिदियरूवं वा, पुहत्तं विउवमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिदियरूवाणि वा / ताई संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणिवा, संबद्धाणि वा असंबद्घाणि वा, सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउति, विउवित्ता तो पच्छा जहिच्छियाइं करेंति / [17 प्र.] भगवन् ! क्या भव्यदेव एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है अथवा अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [17 उ.] गौतम ! वह एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है और अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में भी / एक रूप की विकुर्वणा करता हुआ वह एक एकेन्द्रिय रूप यावत् अथवा एक पंचेन्द्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। अनेक रूपों की विकुर्वणा करता हुअा अनेक एकेन्द्रिय रूपों यावत् अथवा अनेक पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा करता है। बे रूप संख्येय या असंख्येय, सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध अथवा सदृश या असदृश विकुर्वित किये जाते हैं। विकुर्वणा करने के बाद वे अपना यथेष्ट कार्य करते हैं 18. एवं नरदेवा वि, धम्मदेवा वि। [18] इसी प्रकार नरदेव और धर्मदेव के द्वारा विकुर्वणा के विषय में भी (समझना चाहिए।) 19. देवाहिदेवा पं० पुच्छा। गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पिपभू विउम्वित्तए, नो चेव गं संपत्तीए विउब्बिसु वा, विउव्वंति वा, विउविसंति वा। | 16 प्र.| देवाधिदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य ) के विषय में प्रश्नः—(क्या वे एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ?) [96 उ.] गौतम ! (वे) एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं और अनेक रूपों को विकुर्वणा करने में भी समर्थ हैं। किन्तु शक्ति होते हुए भी उत्सुकता के अभाव में उन्होंने क्रियान्विति रूप में कभी वि कुर्वणा नहीं की, नहीं करते हैं और न करेंगे। 20. भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा / 20] जिस प्रकार भव्य-द्रव्यदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य) का (कथन किया) है, उसी प्रकार भावदेव (के विकुर्वणा-सामर्थ्य ) का (कथन करना चाहिए / ) 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 586 Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] |213 विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (17 से 20 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की विक्रियासामर्थ्य का प्रतिपादन किया गया है / विकुवंणा-समर्थ भव्यद्रव्यदेव-वे ही भव्य द्रव्यदेव मनुष्य और तिर्यंच एक या अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं, जो वैक्रिय लब्धिसम्पन्न हों।' देवाधिदेव की वैक्रिय शक्ति देवाधिदेव एक रूप या अनेक रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं, वैक्रिय शक्ति होते हुए भी वे सर्वथा उत्सुकतारहित होने से विकुर्वणा नहीं करते। निष्कर्ष यह है कि वैक्रिय सम्प्राप्ति होते हुए भी उनके द्वारा शक्ति-स्फोट, कदापि (तीन काल में भो) नहीं किया जाता / विक्रिया उनमें लब्धिमात्र रहती है / कठिनशब्दार्थ-एगत्तं- एकत्व-एक रूप, पहुसं-पृथक्त्व अथवा नानारूप / पंचविधदेवों को उद्वर्तना-प्ररूपमा 21. [1] भवियदव्वदेवा णं भंते ! अणंतरं उध्वट्टिता कहिं गच्छति ? कहिं उववजति ? कि नेरइएसु उववज्जंति, जाव देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरि०, नो मण, देवेसु उववज्जति / [21-1 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव मर कर तुरन्त (बिना अन्तर के) कहाँ (किस गति में) जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे (मर कर तुरन्त) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् अथवा देवों में उत्पन्न होते हैं ? [21-1 उ.] गौतम ! (वे मर कर तुरन्त) न तो नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु (एकमात्र) देवों में उत्पन्न होते हैं / [2] जई देवेसु उववज्जति? सम्वदेवेसु उववज्जति जाव सव्वसिद्ध त्ति / 21-2 प्र.] यदि (वे) देवों में उत्पन्न होते हैं (तो भवनपति आदि किन देवों में उत्पन्न होते हैं ?) 21-2 उ.) (गौतम ! ) वे सर्वदेवों में उत्पन्न होते हैं, (अर्थात्---असुरकुमार प्रादि से लेकर) यावत्-सर्वार्थसिद्ध तक (उत्पन्न होते हैं।) 22 [1] नरदेवा णं भंते ! अणंतरं उद्वित्ता० पुच्छा। गोयमा ! मेरइएसु उबवज्जति, मो तिरि०, नो मणु०, नो देवेसु उववज्जति / 22.1 प्र. भगवन् ! नरदेव मर कर तुरन्त (बिना अन्तर के) कहाँ (किस गति में) (जाते हैं, कहाँ) उत्पन्न होते है ? 1. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 586 2. वहीं, पत्र 586 3. वही पत्र 586 Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [22-1 उ.गौतम ! (वे) नरयिकों में उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) न तो तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं, न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं और न ही देवों में उत्पन्न होते हैं। [2] जइ नेरइएसु उववज्जंति, सत्तसु वि पुढवीसु उववज्जति / {22-2 प्र.] भगवन् ! यदि नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं (तो वे पहलो से सातवों नरकपृथ्वी में से किसमें उत्पन्न होते हैं ?) [22-2 उ.] गौतम ! (नैरयिकों में भी) वे सातों (नरक-) पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं / 23. [1] धम्मदेवा णं भंते ! अणंतरं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जति, नो तिरि०, नो मणु०, देवेसु उववन्जति / [23-1 प्र.] भगवन् ! धर्मदेव आयुष्य पूर्ण कर तत्काल (विना अन्तर के) कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [23-1 उ.] गौतम ! (धर्मदेव मर कर तत्काल) न तो नै रयिकों में उत्पन्न होते हैं, न तिर्यञ्चों में और न मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु देवों में उत्पन्न होते हैं / [2] जइ देवेसु उववज्जंति किं भवणवासि० पुच्छा / गोयमा! नो भवणवासिदेवेसु उववज्जति, नो वाणमंतर०, नो जोतिसिय०, वैमाणियदेवेसु उपपज्जति सम्बेसु वेमाणिएसु उत्रवज्जति जाव सम्वट्ठसिद्ध अगु० जाव उववज्जति / प्रत्थेगइया सिझति जाव अंतं करेंति। [23-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे देवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनवासिदेवों में उत्पन्न होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ? [23-2 उ.] गौतम ! वे न तो भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं, न वाणव्यन्तर देवों में और न ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वैमानिक देवों में- (यहाँ तक कि) सभी वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। (अर्थात्-प्रथम सौधर्मदेव से लेकर) यावत् सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं। उनमें से कोई-कोई धर्मदेव सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं यावत् सर्व दुःखां का अन्त कर देते हैं। 24. देवाहिदेवा अणंतरं उन्वट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उधवज्जति ? गोयमा ! सिझति जाव अंतं करेंति / [24 प्र.] भगवन् ! देवाधिदेव आयुष्यपूर्ण कर दूसरे ही क्षण कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [24 उ.] गौतम ! वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं / 25. भावदेवा णं भंते ! अणंतरं उबट्टित्ता० पुच्छा। जहा वक्कतोए असुरकुमाराणं उध्वट्टणा तहा माणियव्या। [25 प्र.] भगवन् ! भावदेव, आयु पूर्ण कर तत्काल कहाँ उत्पन्न होते हैं ? Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] [215 [25 उ.] गौतम ! (प्रज्ञापना सूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद में जिस प्रकार असुरकुमारों की . उद्वर्तना (कही गई) है, उसी प्रकार यहाँ भावदेवों की भी उद्वर्त्तना कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 21 से 25 तक) में पूर्वोक्त पंचविध देवों की उद्वर्तना (आयुष्य पूर्ण होने) के तत्काल बाद उनकी गति-उत्पत्ति का निरूपण किया गया है। भव्यद्रव्यदेवों के लिए नरकादितित्रयनिषेध-भव्यद्रव्यदेव भाविदेवभव का स्वभाव होने से नारक प्रादि तीन भवों में जाने और उत्पन्न होने का निषेध किया गया है।' नरदेवों की उद्वर्तनानन्तर उत्पत्ति-काम भोगों में प्रासक्त नरदेव (चक्रवर्ती) उनका त्याग न कर सकने के कारण नरयिकों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए शेष तीन भवों में उनकी उत्पत्ति का निषेध किया गया है / यद्यपि कई चक्रवर्ती देवों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे देवों में या सिद्धों में तभी उत्पन्न होते हैं, जब नरदेवरूप को त्याग कर धर्मदेवत्व प्राप्त कर लेते हैं, अर्थात् जब चक्रवर्ती चक्रवतित्व छोड़कर चारित्र अंगीकार करके धर्मदेव (साधु) बन जाते हैं।' कठिन शब्दार्थ--उध्वद्वित्ता-उद्वर्तना करके--मरकर, शरीर से जीव निकल कर / अणंतरंबिना किसी अन्तर (व्यवधान) के, तत्काल, तुरन्त / ' स्व-स्वरूप में पंचविध देवों की संस्थितिप्ररूपरणा 26. भवियदवदेवे णं भते ! भवियदव्वदेवे' ति कालओ केवचिर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उपकोसेणं तिणि पलिओवमाई / एवं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा वि जाव भावदेवस्स / नवरं धम्मदेवस्स जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुथ्वकोडी। [26 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव, भव्यद्रव्यदेवरूप से कितने काल तक रहता है ? [26 उ.] गौतम ! (भव्यद्रव्यदेव) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम तक (भव्य द्रव्यदेवरूप से) रहता है। इसी प्रकार जिसकी जो (भव-) स्थिति कही है, उसी प्रकार उसकी संस्थिति भी यावत् भावदेव तक कहनी चाहिए। विशेष यह है कि धर्मदेव की (संस्थिति) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक है / विवेचन-प्रश्न का आशय-भव्यद्रव्यदेव, भव्यद्रव्यदेव-पर्याय को नहीं छोड़ता हुआ, कितने काल तक रहता है ? यानी उसका संस्थिति (संचिट्ठणा) काल कितना है ? जिसको जो भवस्थिति पहले कही गई है, वही उनकी संस्थिति (संचिटणा) अर्थात् -उस पर्याय का अनुबन्ध है।' 1. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 2. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 3. पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 184, 29 4. भगवती० अ० वृत्ति, पत्र 586 5. वही, पत्र 586 Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [प्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र धर्मदेव का जघन्य संचिटणाकाल—कोई धर्मदेव, अशुभभाव को प्राप्त करके, उससे निवृत्त होकर शभभाव को प्राप्त होने के एक समय बाद मत्य को प्राप्त हो जाता है। इसलिए धर्मदेव का जघन्य संचिटणा (संस्थिति) काल परिणामों की अपेक्षा से एक समय का कहा गया है / ' पंचविध देवों के अन्तरकाल की प्ररूपणा 27. भवियदव्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? . गोयना! जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमाम हियाई, उक्कोसेणं अणतं कालंवणसतिकालो। [27 प्र.] भगवन् ! भव्यद्रव्यदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? [27 प्र. गौतम ! (भव्यद्रव्यदेव का अन्तर) जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल पर्यन्त होता है / 28. नरदेवाणं पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं सातिरेगं सागरोधर्म, उक्कोसेणं अणंतं कालं अवड पोग्गलपरियट्ट वेसूर्ण / [28 प्र. भगवन् ! नरदेवों का कितने काल का अन्तर होता है ? |28 उ.] गौतम ! (नरदेव का अन्तर) जघन्य सागरोपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट अनन्तकाल, देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त-काल पर्यन्त होता है / 29. धम्मदेवस्स णं० पुच्छा। गोयमा! जहनेणं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अगंतं कालं जाव प्रवड्पोग्गलपरियट्ट देसूणं / [26 प्र.] भगवन् ! धर्मदेव का अन्तर कितने काल तक का होता है ? 26 उ.] गौतम ! (धर्मदेव का अन्तर) जघन्यपल्योपम-पृथक्त्व (दो से नौ पल्योपम) तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त तक होता है। 30. देवाहिदेवाणं पुच्छा ? गोयमा! नत्थि अंतरं / |30 प्र.] भगवन् ! देवाधिदेवों का अन्तर कितने काल का होता है ? [30 उ. गौतम ! देवाधिदेवों का अन्तर नहीं होता। 31. भावदेवस्स गं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेमं प्रणतं कालं-वणस्सतिकालो। [31 प्र. भगवन् ! भावदेव का अन्तर कितने काल का होता है ? [31 उ.] गौतम ! (भावदेव का अन्तर) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल--- वनस्पतिकाल पर्यन्त अन्तर होता है। 1. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 586 (ख) भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 4 पृ. 2101 Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] [217 विवेचन-अन्तर : आशय-यहाँ पंचविध देवों के अन्तर से शास्त्रकार का यह प्राशय है कि एक देव को अपना एक भव पूर्ण करके पुन: उसी भव में उत्पन्न होने में जितने काल का जघन्य या उत्कृष्ट अन्तर (व्यवधान) होता है वह अन्तर है। भव्यद्रव्यदेव के जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर का कारण-कोई भव्यद्रव्यदेव दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, व्यन्तरादि देवों में उत्पन्न हुआ, और वहाँ से च्यव कर शुभ पृथ्वीकायादि में चला गया। वहाँ अन्तमुहूर्त तक रहा, फिर तुरंत भव्यद्रव्यदेव में उत्पन्न हो गया। इस दृष्टि से भव्यद्रव्य देव का अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष होता है / कई लोग यह शंका प्रस्तुत करते हैं कि दस हजार वर्ष का प्रायुष्य तो समझ में आता है, किन्तु वह जब आयूाज्य पूर्ण होने के तुरंत बाद ही उत्पन्न हो जाता है, शुभ पृथ्वी आदि में फिर अन्तर्मुहुर्त अधिक कैसे लग जाता है, यह समझ में नहीं पाता! इसका समाधान करते हुए कोई प्राचार्य कहते हैं जिसने देव का प्रायुष्य वांध लिया है, उसको यहाँ 'भव्यद्रव्यदेव' रूप से समझना चाहिए / इससे दस हजार वर्ष की स्थिति वाला देव, देवलोक से च्यव कर भव्यद्रव्यदेव रूप से उत्पन्न होता है, और अन्तर्मुहर्त के पश्चात् आयुष्य का वन्ध करता है। इसोलए अन्तमहत्त अधिक दस हजार वर्ष का अन्तर होता है / तथा अपयाप्त जीव देवगति में उत्पन्न नहीं हो सकता अत: पर्याप्त होने के बाद ही उसे भव्यद्रव्यदेव मानना चाहिए। ऐसा मानने से जघन्य अन्तर अन्तमहत अधिक दस हजार वर्ष का होता है। भव्यद्रव्यदेव मर कर देव होता है और वहाँ से च्यव कर वनस्पति आदि में अनन्तकाल तक रह सकता है, फिर भव्यद्रव्यदेव होता है। इस दृष्टि से उसका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का होता है।" नरदेव का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर-जिन नरदेवों (चक्रवत्तियों) ने कामभोगों की आसक्ति को नहीं छोड़ा, वे यहाँ से मर कर पहले नरक में उत्पन्न होते हैं। वहाँ एक सागरोपम की उत्कृष्ट ग्रायू भोग कर पून: नरदेव हो और जब तक चक्ररत्न उत्पन्न न हो, तब तक उनका जघन्य अन्तर एक सागरोपम से कुछ अधिक होता है। कोई सम्यग्दष्टि जीव चक्रवर्ती पद प्राप्त करे, फिर वह देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त्त काल तक संसार में परिभ्रमण करे, इसके बाद सम्यक्त्व प्राप्त कर चक्रवतीपद प्राप्त करे और संयम पालन कर मोक्ष जाए, इस अपेक्षा से नरदेव का उत्कृष्ट ग्रन्तर देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त कहा गया है। धर्मदेव का जघन्य अन्तर--कोई धर्मदेव (चारित्रवान् साधु) सौधर्म देवलोक में पल्योपमपृथक्त्व आयुष्य वाला देव हो और वह वहाँ से च्यव कर पुनः मनुष्य भव प्राप्त करे / वहाँ वह साधिक अाठ वर्ष की आयु में चारित्र ग्रहण करे, इस अपेक्षा से धर्मदेव का जघन्य अन्तर पल्योपम पृथक्त्व कहा गया है। देवाधिदेव का अन्तर नहीं होता, क्योंकि वे (तीर्थकर भगवान्) आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर सीधे मोक्ष में जाते हैं। 1. (क) भगवती० ग्र० वृत्ति, पत्र 587 (व) भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2102 2. वही, अ० वृत्ति, पत्र 587 3. वही, पत्र 587 4. भगवती० (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2102 Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पंचविध देवों का अल्पबहुत्व 32. एएसि णं भंते ! भवियदव्वदेवाणं नरदेवाणं जाव भावदेवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा नरदेवा, देवाहिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्यदेवा प्रसंखेज्जगुणा भावदेवा असंखेज्जगुणा। 32 प्र. भगवन् ! इन भव्यद्रव्यदेव नरदेव यावत् भावदेव में से कौन (देव) किन (देवों) से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? [32 उ. गौतम ! सबसे थोड़े नरदेव होते हैं, उनसे देवाधिदेव संख्यात-गुणा (अधिक) होते हैं, उनसे धर्मदेव संख्यातगुण (अधिक) होते हैं, उनसे भव्यद्रव्यदेव असंख्यातगुणे होते हैं, और उनसे भी भावदेव असंख्यात गुणे होते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में पंचविधदेवों के अल्प-बहुत्त्व का निरूपण किया गया है / नरदेव सबसे थोड़े क्यों हैं ? ---इसका कारण यह कि प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में भरत और ऐरवत क्षेत्र में, प्रत्येक में बारह-बारह चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। तथा महाविदेहक्षेत्रीय विजयों में वासुदेवों के होने से, सभी विजयों में वे एक साथ उत्पन्न नहीं होते।' नरदेवों से देवाधिदेव संख्यातगुण है-इसका कारण यह है कि भरतादि क्षेत्रों में वे चऋत्तियों से दुगुने-दुगुने होते हैं और महाविदेहक्षेत्र में भी वे वासुदेवों के विद्यमान रहते भी उत्पन्न होते हैं।' देवाधिदेवों से धर्मदेव संख्यातगुणे क्यों ? - इसका कारण यह है कि साधु एक समय में कोटीसहस्र पृथक्त्व (दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक) हो सकते हैं / 3 धर्मदेवों से भव्यद्रव्यदेव असंख्यातगुणे क्यों? --देवगतिगामी देविरत. अविरत सम्यग्दृष्टि अादि (मनुष्य तथा तियञ्चपंचेन्द्रिय) धर्मदेवों से असंख्यातगुणे अधिक होते हैं, इस कारण धर्मदेवों में भव्यद्रव्यदेव असंख्यातगुणे कहे गए हैं / भावदेव उनसे भी असंख्यातगुणे-इसलिए वताए गए हैं कि स्वरूप से ही वे भव्यद्रव्यदेवों से बहुत अधिक हैं।" भवनवासी आदि भावदेवों का अल्पबहुत्व 33. एएसि णं भंते ! भावदेवाणं-भवणवासीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं, वेमाणियाणं सोहम्मगाणं जाव अच्चुतगाणं, गेवेज्जगाणं अणुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? 1. भगवती. अ, वृत्ति पत्र 587 2. वही, पत्र 587 3. वही, पत्र 587 4. वही, पत्र 587 5. वही, पत्र 587 Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 9] [219 गोयमा ! सम्वत्थोवा अणुत्तरोववातिया भावदेवा, उबरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेद्विमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, अच्चुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, जाव आणते कप्पे देवा संखेज्जगुणा एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोतिसिया भावदेवा असंखेज्जगुणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // बारसमे सए : नवमो उद्देसमो समत्तो / / 12-9 // [33 प्र.] भगवन् ! भवनबासी, बाणव्यन्त र ज्योतिष्क और वैमानिक, तथा वैमानिकों में भी सौधर्म, ईशान, यावत् अच्युत, अवेयक एवं अनुत्तरोपपातिक विमानों तक के भावदेवों में कौन (देव) किस (देव) से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [33 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े अनुरोपपातिक भावदेव है, उनसे उपरिम अवेयक के भावदेव संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे मध्यम ग्रेवेयक के भावदेव संख्यातगुणे हैं, उनसे नीचे के ग्रैवेयेक के भावदेव संख्यात गुणे हैं। उनसे अच्युतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, यावत् प्रानतकल्प के देव संख्यात गुणे हैं। इससे आगे जिस प्रकार जीवाभिगमसूत्र की दूसरी प्रतिपत्ति के त्रिविध (जीवाधिकार) में देवपरुषों का अल्पबहत्त्व कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत ज्योतिषी भावदेव असंख्यात गुणे (अधिक) हैं--तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर श्री गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में विविध भावदेवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / भावदेवों के अल्पबहत्व में त्रिविधजीवाधिकार का अतिदेश-प्रस्तुत अल्पबहत्व जीवाभिगमसूत्रोक्त त्रिविध जीवाधिकार का जो अतिदेश किया गया है। वहाँ अल्पबहुत्व इस प्रकार वणित हैपारणकल्प से सहस्रारकल्प में भावदेव असंख्यातगुणे हैं, उनसे महाशुक्र में असंख्यातगुणे, उनसे लान्तक में असंख्यातगुणे, उनसे ब्रह्मलोक के देव असंख्यातगुणे हैं। उनसे माहेन्द्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं / उनमे सनत्कुमार कल्प के देव असंख्यात गुणे, उनसे ईशान के देव असंख्यात गुणे हैं, और ईशान देवों से सौधर्म कल्प के देव संख्यात गुणा हैं। उनसे भवनवासी देव असंख्यात गुणे हैं। उनसे वागव्यन्तर देव असंख्यात गुणा हैं और वाणव्यन्तर से ज्योतिष्क भावदेव असंख्यातगुणा हैं।' बारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगबत्ती. अ. वृत्ति, पत्र 587 (ख) जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति 2, विविध जोवाधिकार, (आगमोदयसमिति) पत्ति, पत्र 71 Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : आता दशम उद्देशक : आत्मा प्रात्मा के पाठ प्रकार 1. कतिविधा णं भंते ! आता पन्नत्ता? गोयमा ! प्रदविहा प्राता पन्नता, तं जहा-दवियाया कसायाया जोगाया उवयोगाया गाणाया सणाया चरित्ताया वीरियाया। F1 प्र.] भगवन् ! अात्मा कितने प्रकार की कही गई है ? 11 उ.] गौतम ! आत्मा आठ प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-(१) द्रव्यात्मा, (2) कषायात्मा, (3) योग-प्रात्मा, (4) उपयोग-प्रारमा, (5) ज्ञान-प्रात्मा, (6) दर्शन-आत्मा, (7) चारित्र-आत्मा और (8) वीर्यात्मा। . विवेचन-आत्मा का स्वरूप--जिसमें सदा उपयोग, अर्थात्-बोध रूप व्यापार पाया जाए, वह आत्मा है / ' उपयोग रूप लक्षण सामान्यतया सभी प्रात्माओं में पाया जाता है, किन्तु विशिष्ट गुण अथवा उपाधि को प्रधान मान कर प्रात्मा के आठ प्रकार बताए हैं। (1) द्रव्यात्मा-त्रिकालानुगामी देव, मनुष्य आदि विविध पर्यायों से युक्त द्रव्य रूप अात्मा द्रव्यात्मा है / यह सभी जीवों के होती है / (2) कषायात्मा-क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय और हास्यादि रूप छह नोकषाय से युक्त प्रात्मा कषायात्मा कहलाती है। यह आत्मा उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय आत्माओं के सिवाय सभी संसारी जीवों के होती है। (3) योग-आत्मा--मन, बचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं, तीनों योगों से युक्त आत्मा योग-आत्मा कहलाती है / अयोगी केवली और सिद्धों के अतिरिक्त सभी सयोगी जीवों के यह आत्मा होती है। (4) उपयोग-आत्मा-ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग-प्रधान आत्मा उपयोग-प्रात्मा है। अथवा विवक्षित वस्तु के प्रति उपयोग की अपेक्षा से जिसमें वैसा उपयोग हो, वह भी उपयोगात्मा है। यह सिद्ध और संसारी सभी जीवों के होती है। (5) ज्ञान-आत्मा-विशेष अवबोध रूप सम्यग्ज्ञान से विशिष्ट प्रात्मा को ज्ञानात्मा कहते हैं। ज्ञानात्मा सम्यग्पदृष्टि जीवों के होती है। 1. 'प्रतधातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वाद् अतति-सन्ततमवगच्छति उपयोग लक्षणत्वादित्यात्मा।'—भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 581 2. वहीं, पत्र 289 Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] [221 (6) दर्शन-आत्मा-सामान्य-अवबोध रूप दर्शन से विशिष्ट प्रात्मा दर्शनात्मा है / दर्शनारमा सभी जीवों के होती है। (7) चारित्रात्मा-चारित्रविशिष्ट गुण से युक्त प्रात्मा को चारित्रात्मा कहते हैं, जो विरति वाले साधु-श्रावकों के होती है / (8) वीर्यात्मा-उत्थानादिरूप कारणों से युक्त सकरण वीर्य विशिष्ट प्रात्मा को वीर्यात्मा कहते हैं / जो सभी संसारी जीवों के होती है। सिद्धों में सकरण वीर्य न होने से उनमें वीर्यात्मा नहीं मानी जाती। द्रव्यात्मा आदि पाठों का परस्पर सहभाव-असहभाव-निरूपण 2. [1] जस्स गं भंते ! दविधाया तस्स कसायाया, जस्स कसायाया तस्स दवियाया.? गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायाता सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण कसायाया तस्स ववियाया नियमं अस्थि / [2-1 प्र.] भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, क्या उसके कषायात्मा होती है और जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? [2-1 उ.] गौतम ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके कषायात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं भी होती / किन्तु जिसके कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। [2] जस्स णं भंते ! दवियाता तस्स जोगाया ? एवं जहा दवियाया य कसायाता य भणिया तहा दवियाया य जोगाया य भाणियन्वा / [2-2 प्र.] भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, क्या उसके योग-प्रात्मा होती है और जिसके योग-प्रात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? [2-2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार द्रव्यात्मा और कषायात्मा का सम्बन्ध कहा है, उसी प्रकार द्रव्यात्मा और योग-प्रात्मा का सम्बन्ध कहना चाहिए। [3] जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स उपयोगाया ? एवं सवत्थ पुच्छा माणियत्वा / जस्स दवियाया तस्स उदयोगाया नियमं अस्थि, जस्स वि उवयोगाया तस्स वि दवियाया नियम अस्थि / जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए, जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाता नियम अस्थि / जस्स दरियाया तस्स दसणाया नियमं अस्थि, जस्स वि दसणाया तस्स दवियाया नियम अस्थि / जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियमं अस्थि / एवं वीरियायाए वि समं। [2-3 प्र.] भगवन् ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, क्या उसके उपयोगात्मा होती है और जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा होती है ? इसी प्रकार शेष सभी आत्माओं के द्रव्यात्मा से सम्बन्ध के विषय में पृच्छा करनी चाहिए। Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 2-3 उ.) गौतम ! जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है और जिसके उपयोगात्मा होती है उसके द्रव्यात्मा अवश्यमेव होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है उसके ज्ञानात्मा भजना (वैकल्पिक रूप) से होतो है (अर्थात्-कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं भी होती / ) और जिसके ज्ञानात्मा होती है. उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्यमेव होती है तथा जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा भी अवश्य होती है / जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा भजना से होती है, किन्तु जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा अवश्य होती है। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके वीर्य-प्रात्मा भजना से होती है, किन्तु जिसके वीर्य-प्रात्मा होतो है, उसके द्रव्यात्मा अवश्यमेव होती है। 3. [1] जस्स णं भंते ! कसायाया तस्स जोगाया० पुच्छा। गोयमा ! जस्स कसायाता तस्स जोगाया नियम अस्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नस्थि। [3-1 प्र.] भगवन् ! जिसके कषायात्मा होती है, क्या उसके योगात्मा होती हैं ? (इत्यादि) प्रश्न हैं। 3-1 उ.] गौतम ! जिसके कषायात्मा होती है, उसके योग-पारमा अवश्य होती है, किन्तु जिसके योग-आत्मा होती है, उसके कषायात्मा कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। [2] एवं उवयोगायाए वि समं कसायाता नेयव्वा / [3-2] इसी प्रकार उपयोगात्मा के साथ भी कषायात्मा का परस्पर सम्बन्ध समझ लेना चाहिए। [3] कसायाया य नाणाया य परोप्पर दो विभइयवाओ। [3.3] कषायात्मा और ज्ञानात्मा इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध भजना से (कादाचित्क) कहना चाहिए। [4] जहा कसायाया य उवयोगाया य तहा कसायायाय सणाया य / [3-4] कषायात्मा और उपयोगात्मा (के परस्पर सम्बन्ध) के समान हो कषायात्मा और दर्शनात्मा (के पारस्परिक सम्बन्ध) का कथन करना चाहिए। [5] कसायाया य चरित्ताया य दो वि परोप्परं भइयवाओ। [3-5] कषायात्मा और चारित्रात्मा का (परस्पर सम्बन्ध) भजना से कहना चाहिए / [6] जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वोरियाया य भाणियन्वायो / [3-6] कषायात्मा और योगात्मा के परस्पर सम्बन्ध के समान हो कषायात्मा और वीर्यात्मा के सम्बन्ध का कथन करना चाहिए। Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] . [223 4. एवं जहा कसायाताए वत्तम्वया मणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहि समं माणियवा।' [4] जिस प्रकार कषायात्मा के साथ अन्य छह आत्माओं के पारस्परिक सम्बन्ध की वक्तव्यता कही. उसी प्रकार योगात्मा के साथ भी आगे की पांच पात्माओं के परस्पर सम्बन्ध की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 5. जहा दवियायाए बत्तब्वया भणिया तहा उवयोगायाए वि उवरिलहि सम भाणिया / [5] जिस प्रकार द्रव्यात्मा की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार उपयोगात्मा की वक्तव्यता भी प्रागे की चार प्रात्माओं के साथ कहनी चाहिए। 6. [1] जस्स नाणाया तस्स दंसणाया नियमं अस्थि, जस्स पुण दसणाया तस्स गाणाया भयणाए। [6-1] जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके दर्शनारमा अवश्य होती है और जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा भजना से होती है। [2] जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अस्थि / [6-2] जिसके ज्ञानात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा भजना से होती है और जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा अवश्य होती है। [3] जाणाया य वोरियाया य दो वि परोप्परं भयणाए / [6-3] ज्ञानात्मा और वीर्यात्मा इन दोनों का परस्पर-सम्बन्ध भजना से कहना चाहिए। 7. जस्स दसणाया तस्स उरिमाप्रो दो वि भयणाए, जस्स युण ताओ तस्स दंसणाया नियम अस्थि / [7] जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा, ये दोनों भजना से होती हैं; किन्तु जिसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा होती है, उसके दर्शनारमा अवश्य होती है। 8. जस्स चरित्ताया तस्स बीरियाया नियम अस्थि, जस्स पुण धोरियाया तस्स चरिताया सिय अस्थि सिय नथि। [-] जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है, किन्तु जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं भी होती। विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों में अष्टविध आत्माओं के परस्पर सम्बन्ध की अर्थात् एक प्रकार में दूसरा प्रकार रहता है या नहीं ? इसकी प्ररूपणा की गई है। वाचनान्तर-मुल पाठ डम प्रकार है-जोगाया य चरित्ताया य दोवि परोप्परं भइयव्वानो। किन्तु वाचनान्तर इस प्रकार है-जस्स चरिताया तस्स जोगाया नियम ति। तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्त्वात्. तस्य च योगाविनाभावित्वातु, यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमात इत्युच्यते / ' --भगवती. प्र. व. पत्र 591 Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र द्रव्यात्मा के साथ शेष आत्माओं का सम्बन्ध-जिस जीव के द्रव्यात्मा होती है, उसके कषायात्मा, सकषाय अवस्था में होती है, किन्तु उपशान्तकषाय या क्षीणकषाय अवस्था में नहीं होती / किन्तु जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती है, क्योंकि द्रव्यात्मत्व-जीवत्व के बिना कषायों का होना सम्भव नहीं है / जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके योगात्मा सयोगी अवस्था में होती है, किन्तु अयोगी अवस्था में द्रव्यात्मा के साथ योगात्मा नहीं होती / इसके विपरीत जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती है, क्योंकि द्रव्यात्मा जीवरूप है, बिना जीव के योगों का होना सम्भव नहीं है / द्रव्यात्मा और उपयोगात्मा का परस्पर नित्य अविनाभावी सम्बन्ध होने के कारण द्रव्यात्मा . के साथ उपयोगात्मा एवं उपयोगात्मा के साथ द्रव्यात्मा अवश्य होती है, क्योंकि द्रव्यात्मा जीव रूप है और उपयोग उसका लक्षण है, इसलिए दोनों एक दूसरे के साथ नियम से पाई जाती हैं। जिसके द्रव्यात्मा होती है, उसके ज्ञातात्मा की भजना है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि द्रव्यात्मा के ज्ञानात्मा होती है, मिथ्यादृष्टि के सम्यग्ज्ञान-रूप ज्ञानात्मा नहीं होती; किन्तु ज्ञानात्मा के साथ द्रव्यात्मा अवश्य होती है, क्योंकि द्रव्यात्मा के बिना ज्ञानात्मा संभव नहीं है। द्रव्यात्मा और उपयोगात्मा के समान द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा में भी नित्य सम्बन्ध है; क्योंकि सामान्य अवबोधरूप दर्शन तो प्रत्येक जीव के होता है, सिद्ध भगवान् के भी केवलदर्शन होता है। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके द्रव्यात्मा नियम से होती है, जैसे-चक्षुदर्शनादिवाले के द्रव्यात्मा होती है। विरतिवाले द्रव्यात्मा के साथ ही चारित्रात्मा पाई जाती है, विरतिरहित संसारी और सिद्ध जीवों में द्रव्यात्मा होने पर भी चारित्रात्मा नहीं पाई जाती / किन्तु चारित्रात्मा होती है, वहाँ द्रव्यात्मा अवश्य होती है, क्योंकि द्रव्यात्मा के बिना चारित्र सम्भव नहीं है। द्रव्यात्मा के साथ वीर्यात्मा के सम्बन्ध की भजना है; क्योंकि सकरण वीर्ययुक्त प्रत्येक संसारी जीव (द्रव्यात्मा) के वीर्यात्मा रहती है, किन्तु सिद्धों में सकरण वीर्य न होने से उनकी द्रध्यात्मा के साथ वीर्यात्मा नहीं होती / जहाँ वीर्यात्मा है, वहाँ द्रव्यात्मा अवश्य होती है। क्योंकि वीर्यात्मा वाले समस्त संसारी जोवों में द्रव्यात्मा होती है। कषायात्मा के साथ आगे की छह आत्माओं का सम्बन्ध : क्यों है, क्यों नहीं ? –जिसके कषायात्मा होती है, उसके योगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि सकषायी अात्मा अयोगी नहीं होती। जिसके योगात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भजना है, क्योंकि सयोगी आत्मा सकषायी और अकषायी दोनों प्रकार की होती है / जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि कोई भी जीव उपयोग से रहित है ही नहीं / उपयोगात्मा में कषायात्मा की भजना है, क्योंकि ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानवी जीवों में तथा सिद्ध जीवों में उपयोगात्मा तो है, किन्तु कषाय का अभाव है। जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा को भजना है। मिथ्यादृष्टि के कषायात्मा तो होती है, किन्तु ज्ञानात्मा ( सम्यग्ज्ञानरूपा) नहीं / सकषायी सम्यग्दृष्टि के ज्ञानात्मा Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : : उद्देशक 10] [225 होती है। जिस जीव के ज्ञामात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भी भजमा है, क्योंकि सम्यग्ज्ञानी कषायसहित भी होते हैं और कषायरहित भी। जिस जीव के कषायात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है. दर्शनरहित घटादि जड़ पदार्थों में कषायों का सर्वथा प्रभाव है। जिसके दर्शनात्मा होती है, उसके कषायात्मा की भजना है, क्योंकि दर्शनामा वाले सकषायी और अकषायी दोनों होते हैं। जिसके कषायात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है और चारित्रात्मा वालों के भी कषायात्मा की भजना है, क्योंकि कषायवाले जीव विरत और अविरत दोनों प्रकार के होते हैं। अथवा सामायिकादि चारित्र वाले साधकों के कषाय रहती है, जबकि यथाख्यात चारित्र वाले कषायरहित होते हैं। जिस जीव के कषायात्मा है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है, जो सकरण वीर्य रहित सिद्ध जीव हैं, उनमें कषायों का प्रभाव पाया जाता है / वीर्यात्मा वाले जीवों के कषायात्मा की भजना है, क्यों कि वीर्यात्म वाले जीव सक्थायी और अकषायी दोनों प्रकार के होते हैं। . योगात्मा के साथ आगे की पांच आत्माओं का सम्बन्ध : क्यों है, क्यों नहीं ?--जिस जीव के योगात्मा होती है. उसके उपयोगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि सभी सयोगी जीवों में उपयोग होता ही है, किन्तु जिसके उपयोगात्मा होती है, उसके योगात्मा होती भी है और नहीं भी होती। चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगीकेवली और सिद्ध भगवान् में उपयोगात्मा होते हुए भी योगात्मा जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके ज्ञानात्मा की भजना है। मिथ्यादष्टि जीवों में योगात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञानात्मा वाले जीव के भी योगात्मा की भजना है, चौदहवें गूणस्थानवी अयोगीकेवली और सिद्ध जीवों में ज्ञानात्मा होते हए भी योगात्मा नहीं होती। जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा अवश्य होती है, क्योंकि समस्त जीवों में सामान्य अवबोध रूप दर्शन रहता ही है। किन्तु जिस जीव के दर्शनात्मा होती है, उसके योगात्मा की भजना है / दर्शन वाले जीव योगसहित भी होते हैं, योगरहित भी। . . . ... जिस जीव के योगात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा की भजना है, योगात्मा होते हुए भी अविरत जीवों में चारित्रात्मा नहीं होती / इसी तरह चारित्रात्मा वाले जीवों के भी योगात्मा की भजना है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जीवों के चारित्रात्मा तो है, परन्तु योगात्मा नहीं है। दूसरी वाचना के अनुसार जिसके चारित्रात्मा होती है, उसके योगात्मा अवश्य होती है, क्योंकि प्रत्युपेक्षणादि व्यापाररूप चारित्र योगपूर्वक ही होता है। जिसके योगात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है, क्योंकि योग होने पर वीर्य अवश्य होता ही है / किन्तु जिसके वीर्यात्मा होती है, उसके योगात्मा की भजना है, क्योंकि अयोगीकेवली में वीर्यात्मा तो है, किन्तु योगात्मा नहीं है / यह बात करण और लब्धि दोनों वीर्यात्माओं को लेकर कही गई है / जहाँ करणवीर्यात्मा है, वहाँ योगात्मा अवश्यम्भावी है, किन्तु जहाँ लब्धिवीर्यात्मा है, वहाँ योगात्मा की भजना है। Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उपयोगात्मा के साथ ऊपर की चार आत्माओं का सम्बन्ध : क्यों हैं, क्यों नहीं ? जिस जीव के उपयोगात्मा है, उसमें ज्ञानात्मा की भजना है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों में उपयोगात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। जिस जीव के ज्ञानात्मा है, उसके उपयोगात्मा तो अवश्य हो होता है। इसो तरह जिस जीव के उपयोगात्मा होती है, उसके दर्शनात्मा और जिसके दर्शनात्मा है, उसके उपयोगात्मा अवश्य ही होती है। जिस जीव के उपयोगात्मा है, उसमें चारित्रात्मा को भजना है, क्योंकि असंयती जीवों के उपयोगात्मा तो होती है, परन्तु चारित्रात्मा नहीं हाती / जिस जीव के चारित्रात्मा है, उसके उपयोगात्मा अवश्य हो होतो है। जिस जीव में उपयोगात्मा हातो है, उसमें वीर्यात्मा की भजना है, क्योंकि सिद्धों में उपयोगात्मा होते हुए भी वीर्यात्मा नहीं पाई जाती। ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा में उपयोगात्मा अवश्य हो रहती है, क्योंकि जोव का लक्षण ही उपयोग है। उपयोग लक्षण वाला जीव ही ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य का कारण होता है। उपयोगशून्य घटादि जड़ पदार्थ होते हैं, जिनमें ज्ञानादि नहीं पाये जाते / ज्ञानात्मा के ऊपर की तीन आत्माओं का सम्बन्ध : क्यों हैं और क्यों नहीं ? जिस जीव में ज्ञानात्मा है, उसके दर्शनात्मा अवश्य ही होती है, क्योंकि ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्दृष्टि जीवा के हो होता है और वह दर्शनपूर्वक ही होता है। जिस जोव के दर्शनात्मा है, उसके ज्ञानात्मा को भजना है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों के दर्शनात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती / जिस जीव के ज्ञानात्मा है, उसके चारित्रात्मा की भजना होती है, अविरति सम्यग्दृष्टि जीक के ज्ञानात्मा होते हुए भी चारित्रामा नहीं होती। जिस जीव के चारित्रात्मा है, उसके ज्ञानात्मा अवश्य ही होती है। ज्ञान के बिना चारित्र का अभाव है। जिस जीव में ज्ञानात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा की भजना है, क्योंकि सिद्धजीवों में ज्ञानात्मा के होते हुए भी वीर्यात्मा नहीं होती। जिस जीव के वीर्यात्मा है, उसके ज्ञानात्मा को भजना है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवों के वीर्यात्मा होते हुए भी ज्ञानात्मा नहीं होती। दर्शनात्मा के साथ चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का सम्बन्ध : क्यों और क्यों नहीं ? जिस जीव के दर्शनात्मा होती है, उसके चारित्रात्मा और वीर्यात्मा को भजना है। क्योंकि दर्शनात्मा के हाते हुए भी असंयती जीवों के चारित्रात्मा नहीं होती और सिद्धों के वार्यात्मा नहीं होता, जबकि उनमें दर्शनात्मा अवश्य होती है / सामान्यावबोधरूप दर्शन तो सभी जीवों में होता है / चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का सम्बन्ध-जिस जीव के चारित्रात्मा होती है, उसके वीर्यात्मा अवश्य होती है, क्योंकि वीर्य के बिना चारित्र का अभाव है, किन्तु जिस जीव में वीर्यात्मा होती है, उसमें चारित्रात्मा की भजना है, क्योंकि असंयत जीवों में वीर्यात्मा होते हुए भी चारित्रात्मा नहीं होती।' 9. एयासि णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवाओ चरित्तायामो, नाणायामो अणंतगुणाओ, कसायायाओ अणंतगुणाओ, जोगायाओ विसेसाहियाओ, वोरियायाओ विसेसाहियाओ, उवयोग-दविय-दसणायाओ तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 589-590-591 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2110 से 2115 तक Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारहवां शतक : उद्देशक 10 [227 FE प्र.] भगवन ! द्रव्यात्मा, कषायात्मा यावत वीर्यात्मा- इनमें से कौन-सी आत्मा, किससे अल्प, बहुत, यावत् विशेषाधिक है ? [उ.] गौतम '! सबसे थोड़ी चारित्रात्माएँ हैं, उनसे ज्ञानात्माएँ अनन्तगुणी हैं, उनसे कषायात्माएँ अनन्तगुणी हैं, उनसे योगात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे वीर्यात्माएँ विशेषाधिक हैं, उनसे उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों विशेषाधिक हैं और तीनों तुल्य हैं। विवेचन-- अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ?–अष्टविध आत्माओं का अल्पबहुत्व मूलपाठ में बताया है। उसका कारण यह है--सबसे कम चारित्रात्माएँ हैं, क्योंकि चारित्रवान् जीव संख्यात ही होते हैं / चारित्रात्मा से ज्ञानात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध और सम्यग्दष्टि जीव चारित्री जीवों से अनन्तगुणे हैं / ज्ञानात्मा से कषायात्मा अनन्तगुणी हैं, क्योंकि सिद्ध जीवों की अपेक्षा सकषायी जीव अनन्तगुण हैं / कषायात्मा से योगात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि योगात्मा में कषायात्मा जीव तो सम्मिलित हैं हो और कषायरहित योग वाले जीवों का भी इसमें समावेश हो जाता है। योगात्मा से वीर्यात्मा विशेषाधिक हैं, क्योंकि वीर्यात्मा में अयोगी आत्माओं का भी समावेश हो जाता है। उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा, ये तीनों परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि तीनों विशिष्ट प्रात्माएं सभी जीवों में सामान्यरूप से पाई जाती हैं, किन्तु वीर्यात्मा से ये तीनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन तीनों आत्मानों में वीर्यात्मा वाले संसारी जीवों के अतिरिक्त सिद्ध जीवों का भी समावेश होता है।' 10. प्राया भंते ! नाणे, अनाणे? गोयमा ! प्राया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, णाणे पुण नियमं आया। [10 प्र. भगवन् ! अात्मा ज्ञानस्वरूप है या अज्ञानस्वरूप है ? [10 उ.] गौतम ! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञानरूप है। (किन्तु) ज्ञान तो नियम से (अवश्य ही) प्रात्मस्वरूप है। विवेचन प्रश्न का आशय-याचारांग सूत्र में बताया गया है, 'जे आया से विनाणे जे विन्नाणे से आया' (जो प्रात्मा है, वह विज्ञान रूप है, जो विज्ञान है, वह प्रात्मरूप है), किन्तु यहाँ पूछा गया है कि 'प्रात्मा ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप?' और उसके उत्तर में भगवान् ने आत्मा को कदाचित् ज्ञानरूप कहने के साथ-साथ कदाचित अज्ञानरूप भी बता दिया है, इसका क्या रहस्य है ? क्या ज्ञान प्रात्मा से भिन्न है ? इसका उत्तर यह है कि वैसे तो आत्मा ज्ञान से अभिन्न है, वह त्रिकाल में भी ज्ञानरहित नहीं हो सकता, परन्तु यहाँ ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है और अज्ञान का अर्थ ज्ञान का प्रभाव नहीं, अपितु मिथ्याज्ञान है / सम्यक्त्व होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मति-श्रुतादिरूप हो जाता है और मिथ्यात्व होने पर ज्ञान, अज्ञान यानी मति–अज्ञानादि रूप हो जाता है। वैसे सामान्यतया ज्ञान प्रात्मा से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह अात्मा का धर्म है / धर्म धर्मी से कदापि भिन्न नहीं हो सकता / इस अभेदष्टि से 'ज्ञान को नियम से यात्मा' (प्रात्मस्वरूप) कहा गया है / अज्ञान भी है तो ज्ञान का ही विकृत रूप, किन्तु वह मिथ्यात्व के कारण विपरीत (मिथ्या ज्ञान) हो जाता है / इसलिए यहाँ आत्मा को कञ्चित् अज्ञान रूप कहा गया है। 1. (क) भगवती. अ. नानि, पब 591 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 4, पृ. 2115 2. पाठान्तर-..."नाणे ? अन्ने नाणं ? (अर्थात-पात्मा ज्ञानरूप है या अन्य ज्ञानरूप है ?) 3. भगवती. अभय. वृत्ति, पत्र 592 Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.28] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र .. 11. माया भंते ! नेरइयाणं नाणे, अन्ने नेरइयाणं नाणे ? गोयमा ! प्राया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण से नियमं आया। .:. [11 प्र.] भगवन् ! नरयिकों की आत्मा ज्ञानरूप है अथवा अज्ञानरूप है ? [11 उ.] गौतम ! नैरयिकों को प्रात्मा कथञ्चित् ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञान रूप है। किन्तु उनका ज्ञान नियमतः (अवश्य हो) यात्मरूप है / 12. एवं जाव थणियकुमाराणं / [12] इसी प्रकार (का प्रश्नोत्तर) पावत् ‘स्तनितकुमार' (भवनपति देव के अन्तिम प्रकार) तक कहना चाहिए / .. 13. माया भंते ! पुढविकाइयाणं अन्नाणे, अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे ? गोयमा! आया पुढविकाइयाणं नियम अन्नाणे, अण्णाणे वि नियमं आया। [13 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को प्रात्मा क्या अज्ञानरूप (मिथ्याज्ञानरूप ही) है ? क्या पृथ्वीकायिकों का प्रज्ञान अन्य (प्रात्मरूप नहीं) है ? [13 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों को प्रात्मा नियम से अज्ञान रूप है, परन्तु उनका अज्ञान अवश्य हो आत्मरूप है। 14. एवं जाव वसतिकाइयाणं। [14] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए। 15. बेइंदिय-तेइंदिय० जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [15] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि मे लेकर यावत् वैमानिक तक के जीवों तक का कथन नैरयिकों के समान (सू. 11 में उक्त के अनुसार) जानना चाहिए / . विवेचन--प्रश्न और उनके आशय -प्रस्तुन 5 मूत्रों (11 से 15 तक) में नैयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डकों में ज्ञान को लेकर प्रश्न किया गया है। प्रश्न का आशय यह है कि नारकों को प्रात्मा सम्यग्दर्शन होने से ज्ञानरूप (सम्यग्ज्ञान रूप) है अथवा मिथ्यादर्शन होने से अज्ञानरूप है ? भगवान् ने उत्तर में नेरयिकों को आत्मा को कथंचित् ज्ञानरूप और कथंचित् अज्ञानरूप बताया है, उसका आशय भी वही है / किन्तु उनका ज्ञान (सम्यग्ज्ञान हो या मिथ्याज्ञान) अवश्य ही प्रात्मरूप है। इसी प्रकार पृथ्वी कायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जोवों के विषय में [उनमें नियमत: अज्ञान (मिथ्याज्ञान) होने से सोधा ही पूछा गया है कि पृथ्वोकायिक प्रादि (पांच स्थावरों) को प्रात्मा अज्ञान रूप है, अथवा अज्ञान, पृथ्वोकायिकादि से भिन्न है ? उत्तर में भी यही कहा गया है कि उनको प्रात्मा अज्ञानरूप है और प्रज्ञान उनको प्रात्मा से भिन्न (अन्य) नहीं है।' __ द्वीन्द्रिय से लेकर प्रागे वैमानिक देवों तक ज्ञान के विषय में प्रश्नोत्तर नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 592 Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] [229 16. आया भंते ! दसणे, अन्न बसणे? गोयमा ! आया नियमं दसणे, सणे विनियम पाया। [16 प्र.] भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है, या दर्शन उससे भिन्न है ? [16 उ.] गौतम ! प्रात्मा अवश्य (नियमत:) दर्शन रूप है और दर्शन भी नियमत: आत्मरूप है। 17. आया भंते ! नेरझ्याणं दसणे, अन्ने नेरल्याणं दसणे? गोयमा ! पाया नेरइयाणं नियम दंसणे , दंसणे वि से नियमं आया / [17 प्र. भगवन् ! नरयिकों की आत्मा दर्शनरूप है, अथवा नरयिक जीवों का दर्शन उनसे भिन्न है ? 17 उ. गौतम ! नरयिक जीवों को प्रात्मा नियमतः दर्शनरूप है, उनका दर्शन भी नियमतः प्रात्मरूप है। 18. एवं जाव वेमाणियाणं निरंतरं दंडओ। [18] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौवीस ही दण्डकों (के दर्शन) के विषय में (कहना चाहिए।) विवेचन--'आत्मा दर्शन है, दर्शन आत्मा है'-इसी नियम के अनुसार यहाँ दर्शन के विषय में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के लिए कथन किया गया है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों में दर्शन सामान्यरूप से अवश्य रहता है।' 19. [1] आया भंते ! रयणप्पभा पुढयो, अन्ना रयणप्पभा पुढवी ? गोयमा ! रयणप्पमा पुढवी सिय आया, सिए नो आया, सिय अवत्तव्वं-प्राया ति य, नो प्राता ति य / ...[16-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी प्रात्मरूप है या वह (रत्नप्रभापृथ्वी) अन्य रूप है ? [16-1 उ.] मौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् अात्मरूप (सद्रूप) है और कञ्चित् नोअात्मरूप (असद्रूप) है तथा (आत्मरूप भी है एवं नो-प्रात्मरूप भी है, इसलिए) कथञ्चित् प्रवक्तव्य है। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति रयणप्पभा पुढयी सिय आता, सिय नो आया, सिय अवत्तव्वं आता ति य, नो आया ति य' ? गोयमा ! अप्पणो आदि? आया, परस्स आदिटु नो पाता, तदुभयस्स आदिटु अवत्तव्यंरयणप्पभा पुढवी आया ति य, नो आया ति य / से तेण?णं तं चेव जाव नो आया ति य / [16-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से प्राप ऐमा कहते हैं कि रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् 1. भगवती. अ वृत्ति, पत्र 592 Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आत्मरूप, कथंचित् नो-प्रात्मरूप और कथंचित् प्रात्मरूप, एवं नो-प्रात्मरूप (उभयरूप) होने से प्रवक्तव्य है? - [16-2 उ.] गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी अपने स्वरूप से व्यपदिष्ट होने पर प्रात्मरूप (सद्प) है, पररूप से प्रादिष्ट (कथित) होने पर नो-प्रात्मरूप (असद्रूप) है और उभयरूप की विवक्षा से कथन करने पर सद्-असद्रूप होने से प्रवक्तव्य है / इसी कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त रूप से यावत् उसे अवक्तव्य कहा गया है। 20. आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी ? जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पना वि। [20 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी आत्म (सद्) रूप है ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में कथन किया गया है, वैसे ही शर्कराप्रभा के विषय में भी कहना चाहिए / 21 एवं जाव अहेसत्तमा / [21] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (सप्तम नरक)तक कहना चाहिए / 22. [1] आया भंते ! सोहम्मे कप्पे ? 0 पुच्छा। गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया, सिय नो प्राया, जाव नो पाया ति य / [22-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प (प्रथम देवलोक) प्रात्मरूप (सद्रूप) है ? इत्यादि प्रश्न है। [22-1 उ.] गौतम ! सौधर्मकल्प कथंचित् प्रात्मरूप है, कञ्चित् नो-प्रात्मरूप है तथा कञ्चित् आत्मरूप-ना-आत्मरूप (सद्-असद्रूप) होने से प्रवक्तव्य है / [2] से केणणं भंते ! जाव नो आया ति य? गोयमा ! अपणो आदि आया, परस्स आदि? नो प्राया, तदुभयस्स आदि8 अवत्तन्वं - आता ति य, नो आया ति य / से तेण?णं तं चेव जाव नो आया ति य / [22-2 प्र. भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ? [22-2 उ. गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर प्रात्मरूप है, पर-रूप की दष्टि से कहे जाने पर नो-प्रात्मरूप है और उभयरूप को अपेक्षा से प्रवक्तव्य है / इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है। 23. एवं जाव अच्चुए कप्पे / |23| इसी प्रकार यावत् अच्युतकल्प (बारहवें देवलोक) तक (के पूर्वोक्त स्वरूप के विषय में) जानना चाहिए। 24. आया भंते ! गेवेज्जविमाणे, अन्ने गेविज्जविमाणे? एवं जहा रयणघ्यभा तहेव / Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] ___ [231 [24 प्र.] भगवन् ! अवेयकविमान प्रात्म(सद्रूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नोआत्मरूप) है? [24 उ.] गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए। 25. एवं अणुत्तर विमाणा वि / [25] इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए / 26. एवं ईसिपब्भारा वि। [26] इसी प्रकार ईपत्प्रारभारा पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन - रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारा तक के आत्म-अनात्म विषयक प्रश्नोत्तरप्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 16 से 26) में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईपत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के आत्मरूप और अनात्मरूप के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। आत्मा-अनात्मा : भावार्थ -प्रस्तुत प्रश्नोत्तरों में आत्मा का अर्थ है—सद्रूप और अनात्मा (अन्य) का अर्थ है -असद्रूप / किसी भी वस्तु को एक साथ सद्रूप और असद्रूप नहीं कहा जा सकता, वैसी स्थिति में वस्तु 'ग्रवक्तव्य' कहलाती है।' रत्नप्रभा आदि पृथ्वी : तीन रूपों में रत्नप्रभापृथ्वी से ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक स्व-स्वरूप की अपेक्षा से अर्थात्-अपने वर्णादि पर्यायों से-सद् (प्रात्म) रूप है। पररूप की अर्थात्---परवस्तु की पर्यायों की अपेक्षा से--असद् (अनात्म) रूप है और उभयरूप-स्व-पर-पर्यायों की अपेक्षा से, आत्म (मद) रूप अोर अनात्म (असद् ) रूप, इन दोनों द्वारा एक साथ कहना अशक्य होने से प्रवक्तव्य . है / इस दृष्टि से यहां प्रत्येक पृथ्वी के सद्रूप, असद्रूप और अवक्तव्य, ये तीन भंग होते हैं। आदि8-प्रादिष्ट : भावार्थ -(उसकी अपेक्षा से) कथन किये जाने पर / ' 27. प्राया भंते ! परमाणुपोग्गले, अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियब्वे / [27 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल आत्मरूप (सद्रूप) अथवा वह (परमाणु पुद्गल) अन्य - (अनात्म-प्रसद्रूप) है ? 27 उ.] (गौतम ! जिस प्रकार सौधर्मकल्प (देवलोक) के विषय में कहा है, उसी प्रकार परमाणु-गुद्गल के विषय में कहना चाहिए / 28. [1] आया भंते ! दुपदेसिए खंधे, अन्ने दुपएसिए खंधे ? गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय आया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तवं प्राया ति य नो आया ति य 3, सिय आया य नो आया य४, सिय आया य अवत्तवं आया ति यनो आया ति य . 5. सिय नो आया य अवत्तव्वं-माया ति य नो आया ति य६ / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 598 2. वही, पत्र 524 3. (क) भगवती. न. वत्ति, पत्र 594 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा.८, पृ. 2118 Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [28-1 प्र. भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मरूप (सद्रूप) है, (अथवा) वह अन्य (असद्रूप) है ? [28-1 उ.] गौतम ! १-द्विप्रदेशी स्कन्ध कचित् सद्रूप है, २---कथंचित् असद्रूप है, और ३-सद्-असद्रूप होने से कथंचित अवतव्य है। ४-कथंचित् सद्रूप है और कथंचित् असद्रूप है, ५–कथंचित् स्वरूप है और सद्-असद्-उभयरूप होने से प्रवक्तव्य है और 6- कथंचित असद्रूप है और सद्-असद्-उभयरूप होने से प्रवक्तव्य है। [2] से केणटुणं भंते ! एवं० तं चेव जाव नो आया य, अवत्तव्वं-आया ति य नो आया ति य? गोयमा ! अप्पणो आदिट्टे आया१; परस्स आदि? नो प्राया 2; तदुभयस्स आट्टेि अवत्तव्वं-दुपएसिए खंधे प्राया ति य, नो आया ति य 3; देसे आदि? समावपज्जवे, देसे प्रादि? असम्भावपज्जवे दुपदेसिए खंधे प्राया य नो आया य 4; देसे आदिट्ठ सम्भावपज्जवे, देसे आदि? तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे आया य, अवत्तव्वं–प्राया ति य नो प्राया ति य 5; देसे आदि असम्भावपज्जवे, देसे आदिट्ठ तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नो आया य, अवत्तध्वं—आता ति य नो आया ति य 6 / से तेण?णं तं चेव जाव नो पाया ति य / [28-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि द्विप्रदेशी स्कन्ध कथंचित सद्रूप है, इत्यादि / ) यावत् कथंचित् असद्रूप है और सद् असद्-उभयरूप होने से अवक्तव्य है ? [28-2 उ.} गौतम ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध) १-अपने स्वरूप की अपेक्षा से कथन किये जाने पर सद्प है, २.-पररूप की अपेक्षा से कहे जाने पर असद्रूप है और ३–उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है तथा ४-सद्भावपर्याय वाले अपने एक देश की अपेक्षा से व्यपदिष्ट होने पर (उस देश की वर्णादि रूप पर्यायों से युक्त होने के कारण) सद्रूप है तथा असद्भाव पर्याय वाले द्वितीय देश से आदिष्ट होने पर, (उसकी वर्णादि पर्यायों से युक्त न होने के कारण) असद्रूप है। (इस दृष्टि से) कथंचित् सद्रूप और कथंचित् असद्रूप है। 5- सद्भाव पर्याय वाले एक देश की अपेक्षा से ग्रादिष्ट होने पर (सद्भाव पर्याय वाले अपने देश की सद्भाव पर्यायों से) सद्रूप और सद्भाव-असद्भाव वाले दूसरे देश की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध सद्रूप-असदरूप-उभयरूप होने से अवक्तव्य है / 6... एक देश की अपेक्षा से असद्भाव पर्याय की विवक्षा से तथा द्वितीय देश के सद्भाव-असद्भावरूप उभय-पर्याय की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध असद्रूप और प्रवक्तव्यरूप है। इसी कारण (हे गौतम !) द्विप्रदेशी स्कन्ध को ऐमा (पूर्वोक्त प्रकार से) यावत् कथंचित् असद्रूप और सद्-असद्-उभयरूप होने से अवक्तव्य कहा गया है / विवेचन-परमाणु पुद्गल और द्विप्रदेशी स्कन्ध के सद्-असदरूप भंग-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 27-28) में परमाणु-पुद्गल एवं द्विप्रदेशी स्कन्ध के सद्-असद्रूप सम्बन्धी भंगों का निरूपण किया गया है। Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] [233 परमाणु पुद्गल सम्बन्धी तीन भंग--इसके असंयोगी तीन भंग होते हैं—(१) सद्रूप, (2) असद्रूप एवं (3) अवक्तव्य / ' द्विप्रदेशी स्कन्ध सम्बन्धी छह भंग तीन असंयोगी भंग पूर्ववत् सकल स्कन्ध की अपेक्षा से (1) सद्रूप, (2) असद्रूप और (3) अवक्तव्य / तीन द्विकसंयोगी भंग देश की अपेक्षा से—(४) द्विप्रदेशी स्कन्ध होने से उसके एक देश की स्वपर्यायों द्वारा सद्प की विवक्षा की जाए और दूसरे देश की परपर्यायों द्वारा असद्रूप से विवक्षा की जाय तो द्विप्रदेशी स्कन्ध अनुक्रम से कथंचित् सद्प और कथंचित् असद्रूप होता है / (5) उसके एक देश की स्वपर्यायों द्वारा सद्रूप से विवक्षा की जाए और दूसरे देश से सद्-असद्-उभयरूप से विवक्षा की जाए तो कथंचित् सद्रूप और कथंचित् प्रवक्तव्य कहलाता है। (6) जब द्विप्रदेशी स्कन्ध के एक देश की पर्यायों द्वारा असद्रूप से विवक्षा की जाए और दूसरे देश को उभयरूप से विवक्षा की जाए तो असद्प और प्रवक्तव्य कहलाता है / कथंचित् सद्रूप, कथंचित् असद्रूप और कथंचित् अवक्तव्यरूप, इस प्रकार सातवाँ भंग द्विप्रदेशी स्कन्ध में नहीं बनता है। क्योंकि उसके केवल दो ही अंश हैं।' 29. [1] आया भंते ! तिपएसिए खंधे, अन्ने तिपएसिए खंधे ? गोयमा ! तिपएसिए खंधे सिए आया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तव्वं-आता ति य नो आता ति य 3, सिय आया य नो प्राया य 4, सिय आया य नो पायानो य 5, सिय आयाओ य नो पाया य 6, सिय आया य अवत्तव्वं--आया ति य नो आया ति य 7, सिय आया य अवत्तब्वाइंट आयाओ य नो आयामो य 8, सिय आयाओ य अवत्तव्वं आया ति य नो आया ति य 6, सिय नो आया य प्रवत्तव्वं-आया ति य नो प्राया ति य 10, सिय नो आया य अवत्तव्वाइं-आयाओ य नो आयाओ य 11, सिय नो आयाओ य अवत्तव्य-आय ति य नो या ति य 12, सिय आया य नो प्राया य अवत्तब्वं-आया ति य नो आता ति य 13 / [26.1 प्र.) भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्मा (सद्रूप) है अथवा उससे अन्य (असद् |26-1 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध १-कथंचित् सद्रूप (आत्मा) है / २-कथंचित् असद्रूप (नो आत्मा) है / ३सद्-असद्-उभयरूप होने से कचित् अवक्तव्य है। 4-- कथंचित् आत्मा (सद्रूप) और कचित् नो आत्मा (असद्रूप) है / ५–कथंचित् सद्रूप (आत्मा) और अनेक असदरूप (नो आत्माएँ) हैं / ६–कथंचित् अनेक असद्रूप (आत्माएँ)तथा असद्प(नो आत्मा) है / ७---कचित् सद्रूप (आत्मा) और सद्-असद्-उभयरूप होने से प्रवक्तव्य है। ८–कथंचित् श्रात्मा (सद्रूप) तथा अनेक सद्-असद्रूप (आत्माएँ तथा नो प्रात्माएँ) होने से प्रवक्तव्य है / -कथंचित् आत्माएँ (अनेक असदप) तथा प्रात्मा-नो आत्मा (सद्-असद्) उभयरूप से अवक्तव्य है। १०---कथंचित् नो आत्मा (असद्रूप) तथा आत्मा नो आत्मा (सद्-असद्) उभय रूप होने से--प्रवक्तव्य है। ११–कथंचित् नो प्रात्मा (प्रसद्रूप), तथा आत्माएँ-नो आत्माएँ (अनेक सद्-असद्रूप)-उभयरूप होने से प्रवक्तव्य 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 595 2. वही, पत्र 595 Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234) [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र है। १२-कथंचित् नो पात्माएँ (अनेक असद्रूप) तथा प्रात्माएँ-नो आत्माएँ (अनेक सद्-असद्रूप) उभयरूप होने से प्रवक्तव्य हैं और १३---कथंचित् आत्मा (सद्रूप), नो-प्रात्मा (असद्रूप) और प्रात्मा-नो आत्मा (सद्-असद्) उभयरूप होने से--अवक्तव्य है। [2] से केपट्ठणं भंते ! एवं चुच्चति "तिपएसिए खंधे सिय पाया य० एवं चेव उच्चारेयम्वं जाव सिय आया य नो आया य अवत्तव्वं--आया-ति य नो आया ति य? गोयमा ! अप्पणो आविट्ठ आया 1; परस्स आइ8 नो आया 2; तदुभयस्स आइ8 अवत्तत्वं प्राया ति य नो प्राया ति य 3, देसे आदिट्ट सम्भावपज्जवे, देसे आदितु असम्भावपज्जवे तिपदेसिए खंध आया य नो पाया य 4; देसे आदिट्ट सम्भावपज्जवे, देसा आइटा असम्भावपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य नो पायाओ य 5; देसा आदिट्टा सम्भावपज्जवा, देसे आदितु असल्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नो आयाय 6, देसे आदि सम्भावपज्जवे, देसे आदितदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्वं-आया इ य नो आया ति य 7; देसे आदिट्ट सम्भावपज्जवे, देसे आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे प्राया य अवत्तवाई-आयामो य नो आयामो य 8 देसा आदि? सम्भावपज्जवा, देसे आदि? तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य अवतव्वं आया ति य नो आया ति य 9; एए तिणि भंगा / देसे आदितु असम्भावपज्जवे, देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नो पाया य अवत्तवं-आया ति य नो प्राया ति य 10; देसे आदि? असन्भावपज्जवे, देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे नो आया य अवत्तच्वाई-आयाओय नो आयाओ य 11; देसा आविट्ठा असम्भावपज्जवा, देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नो आयओ य अवत्तव्वं आया ति य नो माया ति य 12; देसे आदिट्ठ सम्भावपज्जवे, देसे प्रादिटु असम्भावपज्जवे, देसे आदिटु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नो पाया य अवत्तन्वं आया ति य नो आया ति य 13; से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ तिपएसिए खंधे सिय आया० तं चेव जाव नो प्राया ति य / [29-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि त्रिप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् आत्मा है, इत्यादि सब पूर्ववत्, यावत्-कथंचित् आत्मा है, नो प्रात्मा है और आत्मा-नो आत्मउभय रूप होने से प्रवक्तव्य है ? (तक) उच्चारण करना चाहिए। [26-2 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध 1. अपने आदेश (अपेक्षा) से प्रात्मा (सद्रूप) है; 2. पर के आदेश से नो आत्मा (असदरूप) है. 3. उभय के आदेश से प्रात्मा और नो प्रात्मा इस प्रकार उभयरूप होने से प्रवक्तव्य है। 4. एक देश के आदेश से सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से वह त्रिप्रदेशी स्कन्ध अात्मा और नो-प्रात्मारूप है। 5. एक देश के प्रादेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से, वह त्रिप्रदेशी स्कन्ध प्रात्मा और नो आत्माएँ हैं। 6. बहत देशों के आदेश से व पर्याय को अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असदभाव पर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ और नो प्रात्मा है। 7. एक देश के आदेश से सद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभय-(सद्भाव और असद्भाव) पर्याय की अपेक्षा से Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10) [235 त्रिप्रदेशी स्कन्ध अात्मा और प्रात्मा तथा नो प्रात्मा--उभय रूप से अवक्तव्य है। 8. एक देश के प्रादेश से, सद्भावपर्याय की अपेक्षा से और बहत देशों के आदेश से, उभयपर्याय की विवक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध, आत्मा और आत्माएँ तथा नो आत्माएं, इस प्रकार उभयरूप से प्रवक्तव्य है। 6. बहुत देशों के आदेश से सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभयपर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध प्रात्माएँ और आत्मा-नो प्रात्मा-उभयरूप से प्रवक्तव्य है। ये तीन भंग जानने चाहिए / १०–एक देश के आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से उभयपर्याय की अपेक्षा से त्रिप्रदेशी स्कन्ध नो प्रात्मा और प्रात्मा-नो आत्मा-उभयरूप से प्रवक्तव्य है। १-एक देश के प्रादेश से असदभाव पर्याय को अपेक्षा से और बहत देशों के आदेश से और तदुभय-पर्याय को अपेक्षा से त्रिप्रदेशो स्कन्ध नोग्रात्मा और आत्माएँ तथा नो प्रात्मा इस उभयरूप से प्रवक्तव्य है / १२-बहुत देशों के आदेश से असद्भाव पर्याय को अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से, त्रिप्रदेशो स्कन्ध नो-यात्माएँ और प्रात्मा तथा नो-यात्मा इस उभयरूप से प्रवक्तव्य है। १३-एक देश के आदेश से सदभाव पर्याय की अपेक्षा आदेश से असद्भाव पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से तदुभय पर्याय की अपेक्षा से, त्रिप्रदेशी स्कन्ध कञ्चित् आत्मा, नो आत्मा और प्रात्मा-नो आत्मा-उभयरूप से अवक्तव्य है / इसलिए हे गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध को कथंचित् आत्मा, यावत्-प्रात्मा-नो आत्मा उभयरूप से प्रवक्तव्य कहा गया है। विवेचन-त्रिप्रदेशी स्कन्ध के आत्मा-नो आत्मा-सम्बन्धी तेरह भंग-प्रस्तुत विषय में त्रिप्रदेशी स्कन्ध के तेरह भंग होते हैं उनमें से पूर्वोक्त सप्त भंगों में से सकलादेश से सम्पूर्ण स्कन्ध की अपेक्षा से तीन भंग असंयोगी हैं, तत्पश्चात् नौ भंग द्विकसंयोगी हैं तथा एक भंग ( तेरहवाँ) त्रिकसंयोगी है / ' 30. [1] आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे, अन्ने० पुच्छा। गोयमा ! चउप्पएसिए खंधे सिय पाया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तव्यं-माया ति य नो आया ति य 3, सिय आया य नो पाया य 4-7, सिय आया य अवत्तव्वं 8-11, सिय नो आया य प्रवत्तन्वं 12-15, सिय माया य नो आया य अक्त्तव्वं--प्राया ति य नो आया ति य 16, सिय प्राया यनो आया य प्रवत्तबाइं-आयाओ य तो आयाओय 17, सिय आया य नो आयाओ य अवत्तव्वंआया ति य नो आया ति य 18, सिय आयाओ य नो पाया य अवत्तव्वं-आया ति य नो पाया ति य 19 / [30-1 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा (सद्रूप) है, अथवा उससे अन्य (असद्रूप) है ? [30-1 उ.] गौतम ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध-(१) कथंचित् प्रात्मा है, (2) कथंचित् नो आत्मा है (3) प्रात्मा-नो-पात्मा उभयरूप होने से--अवक्तव्य है। (4-7) कथंचित् आत्मा और नो आत्मा है (एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से चार भंग); (८-११)-कथञ्चित् आत्मा और 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 595 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2126 Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 // [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून प्रवक्तव्य है (एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से चार भंग); (12-15) कञ्चित् नो प्रात्मा और अवक्तव्य ; (एकवचन और बहुवचन को अपेक्षा से चार भंग); (16) कथंचित् प्रात्मा और नो प्रात्मा तथा प्रात्मा-नो आत्मा उभयरूप से- अवक्तव्य है। (17) कथंचित् आत्मा और नो आत्मा तथा आत्माएँ और नो-आत्माएँ उभय होने से अवक्तव्य है। (18) कथंचित् आत्मा और नो आत्माएँ तथा आत्मा-नो आत्मा उभयरूप होने से—(कथंचित्) प्रवक्तव्य है और (16) कथंचित् आत्माएँ, नो-आत्मा, तथा आत्मा-नो आत्मा उभयरूप होने से (कथंचित्) प्रवक्तव्य हैं / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-चउपएसिए खंधे सिय आया य, नो आया य, अवत्तव्वं तं चेव अट्ठ पडिउच्चारेयध्वं / गोयमा ! अपणो आदि8 आया 1, परस्स आदिटु नो आया 2, तदुभयस्स आदि? अवत्तन्वं० 3, देसे आदिट्ठ सम्भावपज्जवे, देसे आविट्ठ असम्मावपन्जवे चउभंगो, सम्भावपज्जवेणं तदुभयेण य चउभंगो, असम्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो; देसे आदि? सम्भावपज्जवे, देसे आदि? असम्भावपज्जवे, देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य, नो आया य, अवत्तन्वं--- आया ति य नो आया ति य; देसे प्रादि8 सम्भावपज्जवे, देसे आदिट्ठ असम्भावपज्जवे, देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा चउप्पएसिए खंधे आया य, नो आया य, प्रवत्तब्वाइं आयाओ य नो आयानो य 17, देसे आदिट्ठसम्भावपज्जवे, देसा आदिट्ठा असम्भावपज्जवा, देसे आदि8 तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे प्राया य, नो आयाओ य, अवत्तन्छ-आया ति य नो आया ति य 18, देसा आदिवा सम्भावपज्जवा, देसे आदि8 असम्भावपज्जवे, देसे आदितदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आताओ य, नो आया य, अवत्तन्वं-आया ति य नो आया ति य 19 / से तेणढणं गोयमा ! एवं वुच्चइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया, सिय नो आया, सिय अवत्तन्वं / निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयच्या जाव नो आया तिय। [30-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् अात्मा (सद्रूप) आदि होता है ? [30-2 उ.] गौतम ! (1) अपने आदेश (अपेक्षा) से (चतुष्प्रदेशी स्कन्ध) प्रात्मा (सद्रूप) है, (2) पर के आदेश से (वह) नो आत्मा है; (3) तदुभय (आत्मा और नो-प्रात्मा, इस उभयरूप) के आदेश से प्रवक्तव्य है / (4-7) एक देश के आदेश से सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से (एकवचन और बहुवचन के आश्रयो) चार भंग होते हैं / (8-11) सद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से (एकवचन-बहुवचन-पाश्रयी) चार भंग होते हैं 1 (12-15) असद्भावपर्याय और तदुभयपर्याय की अपेक्षा से (एकवचन-बहुवचन-प्राश्रयी) चार भंग होते हैं / (१६)एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से, एक देश के प्रादेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों के आदेश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध, आत्मा, नो-आत्मा और प्रात्मा-नो-प्रात्मा-उभयरूप होने से अवक्तव्य है / (17) एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से, एक देश के आदेश से असद्भावपर्याय की अपेक्षा से और बहुत देशों Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 10] [ 237 के आदेश से तदुभय-पर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध प्रात्मा नो प्रात्मा और आत्माएँ-नोआत्माएँ इस उभयरूप से प्रवक्तव्य है। (18) एक देश के आदेश से सद्भावपर्याय की अपेक्षा से बहुत देशों के आदेश से असद्भावपर्यायों की अपेक्षा से और एकदेश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध प्रात्मा, नो-प्रात्माएँ और आत्मा-नो-प्रात्मा उभय रूप से प्रवक्तव्य है / (16) बहुत देशों के प्रादेश से सद्भाव-पर्यायों की अपेक्षा से, एक देश के प्रादेश से असद्भावयर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से तदुभयपर्याय की अपेक्षा से चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्माएँ, नोप्रात्मा और आत्मा-नो प्रात्मा उभयरूप से प्रवक्तव्य है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कथंचित् प्रात्मा है, कथंचित् नो-आत्मा है और कथंचित् अवक्तव्य है। इस निक्षेप में पूर्वोक्त सभी भंग यावत् 'नो-आत्मा है' तक कहना चाहिए। विवेचन-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के उन्नीस भंग-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में भी त्रिप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना चाहिए / अन्तर यही है कि चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के 16 भंग बनते हैं / सप्तभंगी में से तीन भंग तो सकलादेश की विवक्षा एवं सम्पूर्ण स्कन्ध की अपेक्षा से असंयोगी होते हैं। शेष सप्तभंगी के चार भंगों में प्रत्येक के चार-चार विकल्प होते हैं। उनमें बारह भंग तो द्विसंयोगी होते हैं शेष चार भंग त्रिसंयोगी होते हैं।' 12 3 रेखाचित्र इस प्रकार है-१ प्रा. नो. अवक्तव्य overprw] 1 nor wow.00 1 / 31. [1] प्राया भंते ! पंचपएसिए खंधे, अन्न पंचपएसिए खंधे ? गोयमा ! पंचपएसिए खंधे सिय प्राया 1, सिय नो आया 2, सिय अवत्तव्वं प्राया ति य नो आया ति य 3, सिय आया य नो आया य 4-7, सिय प्राया य प्रवत्तव्वं 8.11, नो आया य पाया-अवत्तम्वेण य 12-15, तियगसंजोगे एक्को ण पडइ 16-22 / [31-1 प्र.] भगवन् ! पंच प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, अथवा अन्य (नो आत्मा) है ? [31-1 उ.] गौतम! पंच प्रदेशी स्कन्ध (1) कथंचित् आत्मा है, (2) कथचित नो अात्मा है, (3) अात्मा-नो-आत्मा-उभयरूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है / (4-7) कथंचित् आत्मा और नो आत्मा (के चार भंग) (8-11) कथंचित् प्रात्मा और प्रवक्तव्य (के चार भंग), (12-15) (कथंचित्) नो आत्मा और अवक्तव्य (के चार भंग) (16-22) तथा त्रिकसंयोगी आठ भंगों में एक (पाठवाँ) भंग घटित नहीं होता, अर्थात् सात भंग होते हैं / कुल मिला कर बावीस भंग होते हैं / [2] से केण?णं भंते !0 तं चेव पडिउच्चारेयध्वं / गोयमा ! अप्पणो आदिट्ठ आया 1, परस्स आदि8 नो आया 2, तदुभयस्स आविट्ठ अवत्तव्वं० 3, देसे आदितु सम्भावपज्जवे, देसे प्राविट्ठ असम्भावपज्जवे, एवं दुयगसंजोगे सव्वे पति / तियगसंजोगे एक्को ण पडइ / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 595 . (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2129 Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [31-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है कि पंचप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, इत्यादि प्रश्न, यहाँ सब पूर्ववत् उच्चारण करना चाहिए। [31-2 उ.] गौतम ! पंचप्रदेशी स्कन्ध, (1) अपने आदेश से आत्मा है, (2) पर के यादेश से नो-आत्मा है, (3) तदुभय के प्रादेश से अवक्तव्य है। (4-15) एक देश के आदेश से, सद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से तथा एक देश के आदेश से असद्भाव-पर्याय की अपेक्षा से कथंचित् प्रात्मा है, कथंचित् नो-ग्रात्मा है / इसी प्रकार द्विकसंयोगी सभी (बारह) भंग बनते हैं। (16-22) त्रिकसंयोगी (पाठ भंग होते हैं, उनमें से एक आठवाँ भंग नहीं बनता। 32. छप्पएसियस्स सम्वे पति / [32] षट्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में ये सभी भंग बनते हैं। 33. जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // बारसमे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो // 12-10 / / / / बारसमं सयं समत्तं // 12 // [33] जैसे षट्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में भंग कहे हैं, उसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--पंचप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के भंग-पंचप्रदेशी स्कन्ध के 22 भंग बनते हैं / इनमें से पहले के तीन भंग पूर्ववत् सकलादेश रूप हैं। इसके पश्चात् द्विसंयोगी बारह भंग होते हैं तथा त्रिकसंयोगी आठ भंग होते हैं / आठवाँ भंग यहाँ असम्भव होने से घटित नहीं होता / षट्प्रदेशी स्कन्ध में और इससे आगे यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक 23-23 भंग होते हैं / उनका विवरण पूर्ववत् समझना चाहिए।' ॥बारहवाँ शतक : दशवाँ उद्देशक समाप्त / // बारहवां शतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 595-596 (ख) भवगतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2131 Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं सयं : तेरहवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के इस तेरहवें शतक में नरकभूमियों, चतुर्विध देवों, नारकों के अनन्तरा हारादि, पृथ्वी, नारकादि के आहार, उपपात, भाषा, कर्मप्रकृति, भावितात्मा अनगार के लब्धिसामर्थ्य एवं समुद्घात आदि महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है। * इस शतक में दश उद्देशक हैं, जिनके नामों का उल्लेख शास्त्रकार ने प्रारम्भ में किया है। * प्रथम उद्देशक में सात नरकपृश्वियों, रत्नप्रभादि के नरकावासों की संख्या, उनके विस्तार, उनकी लेश्या, संज्ञा, भव्याभव्यता, ज्ञान, दर्शन, वेद, कषाय, इन्द्रिय, मन, योग, उपयोग आदि के सम्बन्ध में 36 प्रश्नोत्तर, उत्पत्ति, उद्वर्तना, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, विरहित-अविरहित, लेश्या-परिवर्तन आदि का विशद निरूपण किया गया है / * द्वितीय उद्देशक में चतुर्विध देवों के नाम, उनके आवासों की संख्या, उनके विस्तार, लेश्या, दर्शन, ज्ञान, उत्पत्ति, संज्ञा, कषाय, उद्वर्तना, वेद, उपपन्तता, प्राहार, लेश्याओं तथा आवासों की संख्या में परस्पर अन्तर चरम-अचरम, दृष्टि, विविध लेश्या वालों में उत्पत्ति तथा परिवर्तन आदि का सरस वर्णन किया गया है। * तृतीय उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक नैरयिकों के उत्पाद-समय में आहार, शरीरो त्पत्ति, लोमाहारादि द्वारा पुद्गलग्रहण, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन, शब्दादि विषयों के उपयोग द्वारा परिचारणा एवं नाना रूपों की विकुर्वणा आदि का निरूपण है। चतुर्थ उद्देशक में पुनः सात नरकपृध्वियों का उल्लेख करके उनके नारकावासों की संख्या, विशालता, विस्तार, अवकाश, स्थानरिक्तता, प्रवेश, संकीर्णता-व्यापकता, अल्पकर्मता-महा ता. अल्पक्रिया-महाक्रिया. अल्पाश्रव-महाश्रव. अल्प वेदना-महावेदना, अल्पऋद्धि-महाऋद्धि अल्पद्युति-महाद्युति इत्यादि विषयों के तारतम्य का प्रतिपादन किया गया है। इसी सन्दर्भ में तेरह द्वारों की अपेक्षा से वर्णन किया है। अन्त में तीनों लोकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। * पंचम उद्देशक में नैरयिकों के सचित्त-अचित्त-मिश्राहार-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। छठे उद्देशक में चौवीस दण्डकों की सान्तर-निरन्तर उत्पत्ति-उद्वर्तना सम्बन्धी निरूपण, चमरचंच प्रावास का स्वरूप, स्थानदूरी निर्देश एवं चमरेन्द्र के आवास का निर्णय एवं तदनन्तर उदायन नरेश, राजपरिवार, वीतिभयनगर आदि का परिचय, भगवान् का पदार्पण, उदयन नृप द्वारा प्रव्रज्याग्रहण विचार, स्वपुत्र अभीचिकुमार के बदले भानजे केशीकुमार के राज्याभिषेक, प्रजज्याग्रहण, रत्नत्रयाराधना, मोक्षप्राप्ति आदि का वर्णन है / अभी चिकुमार का उदयन राजर्षि Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के प्रति वैरानुबन्ध, चम्पानिवास, अनाराधक होने से असुंरकुमार देव के रूप में उपपात, तदनन्तर महाविदेहक्षेत्र में जन्म एवं मोक्षप्राप्ति तक का वर्णन है। * सातवें उद्देशक में भाषा, मन, काय आदि के प्रकार, स्वरूप तथा इनके अधिकारी तथा प्रात्मा से भिन्नता-अभिन्नता प्रादि का वर्णन है। अन्त में, मरण के भेद-प्रभेद, स्वरूप आदि की प्ररूपणा है। * आठवें उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक पाठ मूल कर्मप्रकृतियों, उनके स्वरूप, बन्ध, स्थिति आदि का वर्णन है / नौवें उद्देशक में विविध दृष्टान्तों द्वारा भावितात्मा अनगार की लब्धिसामर्थ्य एवं वैक्रियशक्ति का प्रतिपादन किया गया है। उपसंहार में, इस प्रकार वैक्रियलब्धि का प्रयोग करने वाले अनगार को भायी (प्रमादी) कह कर आलोचना किये बिना कालधर्म पाने पर अनाराधक बताया गया है। * दश उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक छद्मस्थों के छह समुद्घातों का स्वरूप तथा प्रयोजन बताया गया है। * कुल मिलाकर विविध रूपों को प्राप्त आत्माओं के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से चर्चा विचारणा की गई है। 00 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 615 से 658 Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं सयं : तेरहवां शतक तेरहवें शतक के दम उद्देशकों के नाम 1. पुढवो 1 देव 2 मणंतर 3 पुढवी 4 आहारमेव 5 उववाए 6 / भासा 7 कम्म 8 ऽणगारे केयाधडिया 9 समुग्घाए 10 // 1 [गाथार्थ- तेरहवें शतक के दस उद्देशक इस प्रकार हैं--(१) पृथ्वी, (2) देव, (3) अनन्तर, (4) पृथ्वी, (5) आहार, (6) उपपात, (7) भाषा, (8) कर्म, (6) अनगार में केयाटिका और (10) समुद्घात / विवेचन-दश उद्देशकों के अधिकार--(१) प्रथम उद्देशक में नरक-पृथ्वियों का वर्णन है। (2) द्वितीय उद्देशक में देवों सम्बन्धी प्ररूपणा है। (3) तृतीय उद्देशक में नारक जीव सम्बन्धी अनन्तराहार प्रादि को प्ररूपणा है / (4) चतुर्थ उद्देशक में पृथ्वीगत वक्तव्यता है / (5) पंचम उद्दे. शक में नैरयिक आदि के आहार की प्ररूपणा की गई है। (6) छटे उद्देशक में नारक आदि के उपपात का वर्णन है। (7) सप्तम उद्देशक में भाषा आदि का कथन किया गया है / (8) अष्टम उद्देशक में कर्म प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। (6) नौवें उद्देशक में भावितात्मा अनगार द्वारा लब्धि-सामर्थ्य से रस्सी से बंधी घड़िया को हाथ में लेकर आकाशगमन का वर्णन है और (10) दसवें उद्देशक में समुद्घात का प्रतिपादन किया गया है / ' केयाडिया : अर्थ---केया अर्थात् रस्सी से बधो हुई घटिका-छोटी घड़िया / ' पढमो उद्देसओ : पढवी प्रथम उद्देशक : नरकपृथ्वियों सम्बन्धी वर्णन नरक पृथ्वियाँ, रत्नप्रभा के नरकावासों की संख्या और उनका विस्तार 2. रायगिहे जाब एवं क्यासी 2, राजगह नगर में (श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी से) वन्दना करके यावत् इस प्रकार पूछा----- 3. कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-रयणप्पमा जाव आहेसत्तमा / 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 599 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2135 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 599 Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र.] भगवन् ! (नरक-) पृथ्वियों कितनी कही गई हैं ? [3 उ.] गौतम ! (नरक-) पृथ्वियाँ सात कही गई हैं / यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। 4. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [4 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गए हैं ? [4 उ.) गौतम ! (रत्नप्रभापृथ्वी में) तीस लाख नारकावास कहे हैं / 5. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि / [5 प्र.] भगवन् ! वे नरकावास संख्येय (योजन) विस्तृत हैं या असंख्येय (योजन विस्तृत हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे संख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं और असंख्येय (योजन) विस्तृत भी हैं / विवेचन-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 2 से 5 तक) में नरकपृथ्वियों की संख्या, रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की संख्या एवं उनके विस्तार का प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दों के अर्थ-संखेज्जवित्थडा–संख्यात योजन विस्तार वाले / असंखेज्ज-वित्थडाअसंख्यात योजन विस्तार वाले / " रत्नप्रभा के संख्यात विस्तृत नरकावासों में विविध विशेषण विशिष्ट नारकों की उत्पत्ति-सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर 6. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जति ? 1, केवतिया काउलेस्सा उववज्जति ? 2, केवतिया कण्हपक्खिया उवयज्जति ? 3, केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जति ? 4, केवतिया सन्नी उचवज्जति ? 5, केवतिया असन्नी उववज्जति ? 6, केवतिया भवसिद्धिया उववज्जति ? 7, केवतिया अभवसिद्धिया उववज्जति ? 8, केवतिया आभिणिबोहियनाणी उववज्जति ? है, केवतिया सुयनाणी उववज्जति ? 10, केवतिया प्रोहिनाणी उववज्जति ? 11, केवतिया मतिअन्नाणी उववज्जति ? 12, केवतिया सुयअन्नाणी उववज्जति ? 13, केवतिया विभंगनाणी उबवज्जति ? 14, केवतिया चक्खुदंसणी उववज्जति ? 15, केवतिया अचक्खुदंसणी उववज्जति ? 16, केवतिया ओहिदसणी उववज्जति ? 17, केवतिया प्राहारसण्णोवउत्ता उववज्जति ? 18, केवइया भयसपणोवउत्ता उववज्जंति ? 19, केवतिया मेहुणसण्णोवउत्ता उववज्जति ? 20, केवतिया परिग्गहसण्णोवउत्ता उवयज्जति ? 21, केवतिया इथिवेदगा उववज्जति ? 22, केवतिया पुरिसवेदगा उववज्जति? 1. भगवती सूत्र, (प्रमेयचन्द्रिका टोका) भा. 10, पृ. 459 Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेरहवां शतक : उद्देशक 1] [243 23, केवतिया नपुंसगवेदगा उववज्जति ? 24, केवतिया कोहकसाई उववज्जंति ? 25, जाव केवतिया लोभकसायी उववज्जति ? 26-28, केवतिया सोतिदियोवउत्ता उववति ? 29, जाव केवतिया फासिदियोवउत्ता उववज्जति ? 30-33, केवतिया नोइंदियोवउत्ता उववज्जति ? 34, केवतिया मणजोगी उववज्जति ? 35, केवतिया वइजोगी उववज्जति ? 36, केवतिया कायजोगी उववजति ? 37, केवतिया सागारोवउत्ता उववज्जति ? 38, केवतिया अगागारोवउत्ता उववज्जति ? 39? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तोसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु जहन्नणं एकको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जंति 1 / जहन्नणं एकको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उववज्जति 2 / जहन्नणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जति 3 ! एवं सुक्कपक्खिया वि 4 / एवं सन्नी 5 / एवं असण्णी 6 / एवं भवसिद्धिया 7 / एवं अभवसिद्धिया 8, आमिणिबोहियनाणी 9, सुयनाणी 10, ओहिनाणी 11, मतिअन्नाणी 12, सुयअन्नाणो 13, विभंगनाणी 14 / चक्खुदंसणी न उववज्जति 15 / जहन्नणं इक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववज्जति 16 / एवं ओहिदंसणो वि 17, आहारसण्णोवउत्ता वि 18, जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता, वि 19-20-21 / इथिवेदगा न उववज्जति 22 / पुरिसवेदगा वि न उववज्जति 23 / जहन्नणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नपुसगवेदगा उबवज्जति 24 / एवं कोहकसायी जाव लोभकसायी 25-28 / सोतिदियोवउत्तान उबवज्जति 26 / एवं जाव फासिदियोवउत्तान उववज्जति 30-33 / जहन्नणं एकको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उववज्जति 34 / मणजोगी ण उववज्जंति 35 / एवं वइजोगो वि 36 / जहन्न णं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उववज्जंति 37 / एवं सागारोवउत्ता वि 38 / अणागारोवउत्ता वि 39 / [6 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्येयविस्तृत नरकों में एक समय में (1) कितने नैरयिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (2) कितने कापोतलेश्या वाले नैरयिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (3) कितने कृष्णपाक्षिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (4) कितने शुक्लपाक्षिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (5) कितने संज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं ? (6) कितने असंज्ञी जीव उत्पन्न होते हैं ? (7) कितने भवसिद्धिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (8) कितने अभवसिद्धिक जीव उत्पन्न होते हैं ? (E) कितने प्राभिनिवोधिक ज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (10) कितने श्रुतज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (11) कितने अवधिज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (12) कितने मति-अज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (13) कितने श्रुत-अज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (14) कितने विभंगज्ञानी उत्पन्न होते हैं ? (15) कितने चक्षुदर्शनी उत्पन्न होते हैं ? (16) कितने अचक्षुदर्शनी उत्पन्न होते हैं ? (17) कितने अवधिदर्शनी उत्पन्न होते हैं ? (18) कितने आहार-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (16) कितने भय-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (20) कितने मैथुन-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (21) कितने परिग्रह-संज्ञा के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (22) कितने स्त्रीवेदक जीव उत्पन्न होते हैं ? (23) कितने पुरुषवेदक जीव उत्पन्न होते हैं ? (24) कितने Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244]] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र नपुंसकवेदक जीव उत्पन्न होते हैं ? (25) कितने क्रोधकषायी जीव उत्पन्न होते हैं ? (26-28) यावत् कितने लोभकषायी उत्पन्न होते हैं ? (26) कितने श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग वाले उत्पन्न होते हैं ? (30-33) यावत् कितने स्पर्शेन्द्रिय के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (34) कितने नो-इन्द्रिय (मन) के उपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? (35) कितने मनोयोगी जीव उत्पन्न होते हैं ? (36) कितने बचनयोगी जीव उत्पन्न होते हैं ? (37) कितने काययोगी उत्पन्न होते हैं ? (38) कितने साकारोपयोग बाले जीव उत्पन्न होते हैं ? और (36) कितने अनाकारोपयोग वाले जीव उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्येयविस्तृत नरकों में एक समय में (1) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं / (2) जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात कापोतलेश्यी जीव उत्पन्न होते हैं। (3) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं। (4) इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक (5) संज्ञी (5) असंज्ञी (6) भवसिद्धिक (7) अभवसिद्धिक (8) प्राभिनिबोधिक ज्ञानी (8) श्रुतज्ञानी (10) अवधि ज्ञानी (11) मति-अज्ञानी (12) श्रुत-अज्ञानी (13) विभंगज्ञानी जीवों के विषय में भी जानना चाहिए। (15) चक्षुदर्शनी जीव उत्पन्न नहीं होते / (16) अचक्षुदर्शनी जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं / (17-21) इसी प्रकार अवधिदर्शनी, आहारसंज्ञोपयुक्त, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त के विषय में भी (जानना चाहिए।) (22-23) स्त्रीवेदी जीव उत्पन्न नहीं होते, न पुरुषवेदी जीव उत्पन्न होते हैं। (24) नपुंसकवेदी जीव जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार (25-28) क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी जीवों (की उत्पत्ति) के विषय में जानना चाहिए। (26-33) श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्त (से लेकर) यावत् स्पर्शन्द्रियोपयुक्त जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते। (34) नो-इन्द्रियोपयुक्त जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। (35-36) मनोयोगी जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते, इसी प्रकार वचनयोगी भी (समभना चाहिए।) (37) काययोगी जीव जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। (38-39) इसी प्रकार साकारोपयोग वाले एवं अनाकारोपयोग वाले जीवों के विषय में भी (कहना चाहिए।) विवेचन–रत्नप्रभा नरकावासों में विविध जीवों के उत्पत्ति सम्बन्धी 39 प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत छठे सूत्र में रत्नप्रभा नरकभूमि के नरकावासों में विविध विशेषण-विशिष्ट जीवों की उत्पत्ति के विषय में प्रतिपादन किया गया है। कापोतलेक्ष्या-सम्बन्धी प्रश्न ही क्यों ?-रत्नप्रभा पृथ्वी में केवल कापोतलेश्या वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, शेष कृष्णादि लेश्या वाले नहीं। इसलिए यहाँ कापोतलेश्या के विषय में ही प्रश्न किया गया है। कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक : परिभाषा-जिन जीवों का संसार-परिभ्रमणकाल अद्ध पुद्गल परावर्तन से कुछ कम शेष रह गया है, वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं। इससे अधिक काल तक जिन जीवों का संसार-परिभ्रमण करना शेष रहता है, वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं / चक्षुदर्शनी की उत्पत्ति का निषेध क्यों ?-इन्द्रिय और मन के सिवाय सामान्य उपयोग मात्र Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [245 को अचक्षुदर्शन कहते हैं। ऐसा अचक्षुदर्शन उत्पत्ति के समय भी होता है, किन्तु चक्षुदर्शनी की उत्पत्ति के निषेध का कारण यह है कि इन्द्रियों का त्याग होने पर ही वहाँ उत्पत्ति होती है। स्त्रीवेदी आदि जीवों की उत्पत्तिनिषेध का कारण नरक में स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनके भवप्रत्यय नपुंसक वेद होता है। उत्पत्ति के समय नारक श्रोत्रादि इन्द्रियों के उपयोग वाले नहीं होते. क्योंकि उस समय इन्द्रियाँ होती ही नहीं / सामान्य (चेतनारूप) उपयोग इन्द्रियों के अभाव में भी रह सकता है / इसलिए कहा गया है-'नो-इन्द्रियोपयुक्त, उत्पन्न होते हैं / उत्पत्ति-समय में अपर्याप्त होने से मन और वचन दोनों का अभाव होता है। इसलिए कहा गया है---- रत्नप्रभानरकावास में मनोयोगी और बचनयोगी जीव उत्पन्न नहीं होते / जीवों के काययोग तो सदैव रहता है।' रत्नप्रभा के संख्यातविस्तृत नरकावासों से उद्वत्तंना सम्बन्धी उनचालीस प्रश्नोत्तर ___7. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तोसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उबट्टति ? 1, केवतिया काउलेस्सा उध्वट्ट ति ? 2, जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उव्वट्टति ? 39 / गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमयेणं जहन्नणं एपको वा दो वा तिम्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उबट्टति 1 / जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणिवा, उवकोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उध्यति 2 / एवं जाव सण्णी 3-4-5 / असणी ण उबट्टति 6 / जहन्नणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धीया उच्चति 7 / एवं जाव सुयअन्नाणी 8-13 / विभंगनाणी न उन्दट्टति 14 / चक्खुदंसणी ण उम्वट्ट ति 15 / जहन्नणं एकको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उच्वट्टति 16 / एवं जाव लोभकसायी 17-28 / सोतिदियोवउत्ता ण उच्वति 29 / एवं जाव फासिदियोवउत्ता न उवटुंति 30-33 / जहन्नणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उषकोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उव्वदृति 34 / मणजोगी न उबट्टति 35 / एवं वइजोगी वि 36 / जहन्नणं एक्कोवा दो वा तिग्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उध्वति 37 / एवं सागारोवउत्ता 38, अणागारोवउत्ता 39 / [7 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में से एक समय में (1) कितने नैयिक उद्वसते (मरते-निकलते) है ? (2) कितने कापोतलेश्यी नेरयिक उद्वर्तते हैं ? यावत् (36) कितने अनाकारोपयुक्त (दर्शनोपयोग वाले) नैयिक उद्वर्त्तते हैं ? 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 599 (ख) जेसिमवडढो पोग्गलपरियट्टो सेसनो उ संसारो। __ ते सुक्कपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया !! (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2141 Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में से (1) एक समय में जघन्य एक, दो अथवा तीनं और उत्कृष्ट संख्यात नैरयिक उद्वर्त्तते हैं। (2) कापोतलेश्यी नैरयिक जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। (3-4-5) इसी प्रकार यावत् संज्ञो जोव तक नैरयिक उद्वर्तना कहनी चाहिए। (6) असंज्ञी जीव नहीं उद्वर्तते / (7) भवसिद्धिक नैरयिक जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। इसी प्रकार (8-13) यावत् श्रुत-अज्ञानी तक उद्वर्तना कहनी चाहिए। (14) विभंगज्ञानी नहीं उद्वर्तते / (15) चक्षुदर्शनी भी नहीं उद्वर्त्तते / (16) अचक्षुदर्शनी जीव जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं। (17-28) इसी प्रकार यावत् लोभकषायो नैरयिक जीवों तक को उद्वर्तना कहनी चाहिए। (26) श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले जीव नहीं उद्वर्तते / (30-33) इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय के उपयोग वाले भी नहीं उद्वर्त्तते / (34) नोइन्द्रियोपयोगयुक्त नैयिक जघन्य एक, दो या तीन ओर उत्कृष्ट संख्यात उद्वत्तते हैं / (35-36) मनोयोगी और वचनयोगी भी नहीं उद्वतते / (37) काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्त्तते हैं। इसी प्रकार (38-36) साकारोपयोग वाले और अनाकारोपयोग वाले नैरयिक जीवों की उद्वर्त्तना कहनी चाहिए। विवेचन--उदवर्तना सम्बन्धी 39 प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभानरकावासों के संख्यान योजन वाले नरकों से विविध विशेषण विशिष्ट 39 प्रकार के नैरयिकों को उद्वर्तना को प्ररूपणा की गई है उद्वर्तना : परिभाषा-शरीर से जोव का निकलना-मरना उद्वर्तना कहलाती है। संख्यात नारकों को हो उद्वर्तना क्यों?—संख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में संख्यात नैरपिक हो समा सकते हैं, इसलिए तथाकथित नैरयिक उत्कृष्टतः संख्यात ही उद्वर्तते हैं / असंज्ञी को उद्वर्तना क्यों नहीं ?-उद्वर्तना परभव के प्रथम समय में ही होती है। नरयिक जीव असंज्ञो जीवों में उत्पन्न नहीं होते, इस कारण वे असंज्ञो नहीं उद्वत्तते। नरक से इनकी उद्वर्तना नहीं होती चूणिकार ने एक गाथा द्वारा नरक से जिनकी उद्वर्तना नहीं होती, उन जीवों का उल्लेख किया है असणिणो य विभंगिणो य, उन्वट्टणाइ वज्जेज्जा। दोसु वि य चक्खुदंसणी, मण-वइ तह इंदियाई वा // 1 // अर्थात्-प्रसंजी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, मनोयोगी, वचनयोगी तथा श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के उपयोग बाले जीव उद्वर्तन नहीं करते। अतः नरक से इनको उद्वर्त्तना का निषेध किया गया है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, 599, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा 5, पृ. 2144 Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शतक : उद्देशक 1] रत्नप्रभापृथ्वी के संख्यातविस्तृत नरकावासों में नरयिकों की संख्या से लेकर चरमअचरमों की संख्या से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 8. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेमु संखेन्जविस्थडेसु नरएसु केवतिया नेरइया पण्णता ? 1, केवइया काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोवउत्ता पण्णता? 2-39, केवतिया अणंतरोववन्नगा पनत्ता? 40, केवतिया परंपरोक्वनगा पनत्ता? 41, केवतिया अणंतरोगाढा पन्नत्ता? 42, केवतिया परंपरोगाढा पन्नत्ता ? 43, केवतिया अणंतराहारा पन्नत्ता ? 44, केवतिया परंपराहारा पन्नत्ता ! 45, केवतिया अणंतरपज्जत्ता पन्नता? 46, केवतिया परंपरपज्जत्ता पन्नता? 47, केवतिया चरिमा पन्नत्ता? 48, केवतिया अचरिमा पन्नत्ता? 49 / गोयमा! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेन्जवित्थडेसु नरएसु संखेज्जा नेरझ्या पत्नत्ता 1 / संखेज्जा काउलेस्सा पन्नत्ता 2 / एवं जाव संखेज्जा सन्नी पत्नत्ता 3-5 / असणी सिय अस्थि सिय नत्यि; जदि जस्थि जहन्नेणं एकको वा दो वा तिष्णि था, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता 6 / संखेज्जा भवसिद्धीया पन्नत्ता 7 / एवं जाव संखेज्जा परिग्गहसन्नोवउत्ता पन्नत्ता 8-21 / इथिवेदगा नस्थि 22 / पुरिसवेदगा नस्थि 23 / संखेज्जा नपुसमवेदगा पण्णत्ता 24 / एवं कोहकसायो वि 25 / माणकसाई जहा असण्णी 26 / एवं जाव लोभकसायी 27-28 / संखेज्जा सोतिदियोवउत्ता पन्नत्ता 29 / एवं जाव फातिदियोवउत्ता 30-33 / नोइंदियोवउत्ता जहा असण्णी 34 / संखेज्जा मणजोगी पन्नत्ता 35 / एवं जाव अणागारोवउत्ता 36-39 / अणंतरोववानगा सिय अस्थि सिय नत्थि; जदि अस्थि जहा असणी 40 / संखेज्जा परंपरोववनगा 41 / एवं जहा अणंतरोववानगा तहा अणंतरोगाढगा 42, अणंतराहारगा 44, अणंतरपज्जत्तमा 46 / परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववानगा 43, 45, 47, 48, 49 / [प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में (2) कितने नारक कहे गए हैं ? (2-36) कितने कापोतलेश्यी नारक कहे गए हैं ? यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक कहे गए हैं ? (40) कितने अनन्तरोपपन्नक कहे गए हैं ? (41) कितने परम्परोपपन्नक कहे गए हैं ? (42) कितने अनन्तरावगाढ कहे गए हैं ? (43) कितने परम्पराबगाढ कहे गए हैं ?, (44) कितने अनन्तराहारक कहे गए हैं ?, (45) कितने परम्पराहारक कहे गए हैं ? (46) कितने अनन्तरपर्याप्तक कहे गए हैं ? (47) कितने परम्परपर्याप्तक कहे गए हैं ? (48) कितने चरम कहे गए हैं ? और (46) कितने अचरम कहे गए हैं ? [8 उ.) गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से (1) संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में संख्यात नैयिक कहे गए हैं। (2) संख्यात कापोतलेश्यी जीव कहे गए हैं। (3-5) इसी प्रकार यावत् संख्यान संज्ञी जीव कहे गए हैं। (6) असंज्ञी जीव कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं / (7) भवसिद्धिक जी व संख्यात कहे गए हैं। (8-21) इसी प्रकार यावत् परिग्रहसंज्ञा के उपयोग वाले नरयिक संख्यात कहे गए हैं। (22) (वहाँ) स्त्रीवेदक नहीं होते, (23) पुरुषवेदक भी नहीं होते। Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (24) (वहाँ) नपुसकवेदी संख्यात कहे गए हैं। (25) इसी प्रकार क्रोधकषायी भी संख्यात होते हैं / (26) मानकषायी नैरयिक असंज्ञी नै रयिकों के समान (कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। होते हैं तो उत्कृष्ट संख्यात होते हैं) / (27-28) इसी प्रकार यावत् (मायाकषायी और) लोभकषायी नैरयिकों के विषय में भी कहना चाहिए। (26-33) श्रोवेन्द्रिय उपयोग वाले नैरयिकों से लेकर यावत् स्पर्शेन्द्रियोपयोगयुक्त नरयिक संख्यात कहे गए हैं। (34) नो-इन्द्रियोपयोगयुक्त नारक, असंज्ञी नारक जीवों के समान (कदाचित होते हैं और कदाचित नहीं होते। (35-38) मनोयोग अनाकारोपयोग वाले नैयिक संख्यात कहे गए हैं। (40) अनन्तरोपपन्नक नै रयिक कदाचित होते हैं, कदाचित् नहीं होते; यदि होते हैं तो असजी जीवों के समान (जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं / ) (41) परम्परोपपन्नक नैरयिक संख्यात होते हैं। जिस प्रकार अनन्त रोपपन्नक के विषय में कहा गया, उसी प्रकार (42) अनन्तरावगाढ, (44) अनन्तराहारक और (46) अनन्तरपर्याप्तक के विषय में कहना चाहिए। (43, 45, 47, 48, 46) जिस प्रकार परम्परोपपन्नक का कथन किया गया है, उसी प्रकार परम्परावगाढ, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्नक, चरम और अचरम (का कथन करना चा विवेचन–पूर्वोक्त दो सूत्रों में बताया गया था कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में विविध विशेषणविशिष्ट नैरयिक एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं और कितने उद्वर्त्तते हैं ? , इस सूत्र में बताया गया है कि वहाँ सत्ता में कितने नैरयिक विद्यमान रहते हैं ? अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक प्रादि शब्दों के अर्थ-जिन नारकों को उत्पन्न हुए अभी एक समय ही हरा है, उन्हें 'अनन्तरोपपन्नक' और जिन्हें उत्पन्न हुए दो, तीन आदि 'समय' हो चुके हैं, उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। किसी एक विवक्षित क्षेत्र में प्रथम समय में रहे हए (अवगाहन करके स्थित) जीवों को अनन्तरावगाढ और विवक्षित क्षेत्र में द्वितीय प्रादि समय में रहे हुए जीवों को परम्परावगाढ कहते हैं / आहार ग्रहण किये हुए जिन्हें प्रथम समय हुया है, वे अनन्तराहारक और जिन्हें द्वितीय आदि समय हो गये हैं, उन्हें परम्पराहारक कहते हैं। जिन जीवों को पर्याप्त हुए प्रथम समय ही है, वे अनन्तरपर्याप्तक और जिन्हें पर्याप्त हुए द्वितीयादि समय हो चुके हैं, वे परम्परपर्याप्तक कहलाते हैं। जिन जीवों का नारकभव अन्तिम है, अथवा जो नारकभव के अन्तिम समय में वर्तमान हैं, वे चरम नैरयिक और इनसे विपरीत को अचरम नैरयिक कहते हैं।' असंज्ञो आदि नैरयिक कदाचित् क्यों ? —जो असंज्ञी तिर्यञ्च या मनुष्य मर कर नरक में नै रयिक रूप से उत्पन्न होते हैं, वे अपर्याप्त-अवस्था में कुछ काल तक अमंज्ञो होते हैं, (फिर संज्ञी हो जाते हैं) ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं। इसलिए कहा गया है कि-रत्नप्रभापृथ्वी में असंज्ञा कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। इसी प्रकार मानकषायोपयुक्त, मायाकषायोपयुक्त, लोभकषायोपयुक्त और नो-इन्द्रियोपयुक्त तथा अनन्तपिपन्नक अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक नै रयिक कदाचित् होते हैं। इसलिए कहा गया है कि ये नै रयिक कदाचित होते हैं और कदाचित् नहीं होते / / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2147 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [249 'शेष' जीव बहुत होते हैं --उपर्युक्त रयिकों के अतिरिक्त शेष नैरयिक जीव सदा प्रभूत संख्या में रहते हैं, इसलिए उन्हें 'संख्यात' कहना चाहिए।' रत्नप्रभा के असंख्यातविस्तृत नरकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता की संख्या से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 9. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया ने रतिया उववज्जंति? 1, जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उववज्जति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं असंखेज्जा नेरइया उववज्जंति 1 / एवं जहेव संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा [सु० 6-7-8] तहा असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा भागियब्वा / नवरं असंखेज्जा भाणियन्वा, सेसं तं चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता 49 / "नाणत्तं लेस्सासु", लेस्साओ जहा पढमसए (स० 1 उ० 5 सु० 28) / नवरं संखेज्जवित्थडेसु वि असंखेज्जवित्थडेसु वि श्रोहिनाणी ओहिदसणी य संखेज्जा उन्वट्टावेयवा, सेसं तं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में (1) एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं; (2-36) यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में एक समय में, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं / जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकों के विषय में (सू. 6-7-8 में उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता) ये तीन पालापक (गमक) कहे गए हैं, उसी प्रकार असंख्यात योजन वाले नरकों के विषय में भी तीन पालापक कहने चाहिए। इनमें विशेषता यह है कि 'संख्यात' के बदले 'असंख्यात' कहना चाहिए। शेष सब यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गए हैं, यहाँ तक पूर्ववत् कहना चाहिए। इनमें लश्याओं में नानात्व (विभिन्नता) है। लेश्यासम्बन्धी कथन प्रथम शतक (उ. 5 सू. 28) के अनुसार कहना चाहिए तथा विशेष इतना ही है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्वर्तन करते हैं, ऐसा कहना चाहिए / शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए / / विवेचन-असंख्यातयोजन विस्तृत नरकावासों में उत्पादन, उद्वर्तन और सत्ता को प्ररूपणासंख्यात योजन विस्तारवाले नरकावासों में नारकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता (विद्यमानता), इन तीनों आलापकों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तत नरकों के ना की उत्पत्ति आदि तीनों का कथन करना चाहिए / संख्यात के बदले यहाँ 'असंख्यात' शब्द का प्रयोग करना चाहिए / 2 -.. - -... . . -- 1, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2149 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी की संख्यात उद्वर्तना—क्योंकि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी तीर्थकर प्रादि ही उद्वर्तन करते हैं और वे स्वल्प होते हैं, इसलिए इन दोनों के उद्वर्तन के विषय में 'संख्यात' ही कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए, जो सुगम है।' लेश्यासम्बन्धी कथन इस विषय में प्रारम्भ की दो नरकपृथ्वियों की अपेक्षा से, तृतीय आदि नरकवियों की लेश्याओं में नानात्व होता है. अतः यहाँ कहा गया है कि लेश्यानों का कथन जिस प्रकार प्रथम शतक के पंचम उद्देशक, सू. 28 में है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। शर्कराप्रभादि छह नरकश्वियों के नरकावासों की संख्या तथा संख्यात-असंख्यातविस्तृत नरकों में उत्पत्ति, उद्वर्तना तथा सत्ता की संख्या का निरूपण 10. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास० पुच्छा। गोयमा ! पणुवीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [10 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे हैं ? इत्यादि पश्न / [10 उ.] गौतम ! (उसमें पच्चीस लाख नरकवास कहे गए हैं / 11. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि / नवरं असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णति, सेसं तं चेव / [11 प्र.] भगवन् ! वे नरकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, अथवा असंख्यात योजन विस्तार वाले? [11 उ.] गौतम जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभा के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, इन तीनों ही आलापकों में 'असंज्ञा' नहीं कहना चाहिए / शेष सभी (वक्तव्यता) पूर्ववत् (कहनी चाहिए) / 12. वालुयप्पभाए णं० पुच्छा। गोयमा! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा पन्नता / सेसं जहा सक्करप्पभाए / “णाणत्तं लेसासु", लेसाओ जहा पढमसए (स० 1 उ० 5 सु० 28) / [12 प्र.] भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे गए हैं ? [12 उ. गौतम ! बालुकाप्रभा में पन्द्रह लाख नरकावास कहे गए हैं / शेष सब कथन शर्कराप्रभा के समान करना चाहिए / यहाँ लेश्याओं के विषय में विशेषता है / लेश्या का कथन प्रथम शतक के पंचम उद्देशक के समान कहना चाहिए। 13. पंकप्पभाए० पुच्छा। गोयमा ! दस निरयावाससतसहस्सा० / एवं जहा सक्करप्पभाए / नवरं प्रोहिनाणी ओहिदसणी य न उध्घट्ट ति, सेसं तं चेव / 1. भगवती., अ. वत्ति, पत्र 600 2. वही, पत्र 600 Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तैरहवां शतक : उद्देशक 1] [251 [13 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे गए हैं ? इत्यादि प्रश्न / [13 उ.] गौतम ! (पंकप्रभापृथ्वी में) दस लाख नरकाबास कहे गए हैं। जिस प्रकार शर्कराप्रभा के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि (इस पृथ्वी से) अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। 14. धूमप्पभाए पं० पुच्छा। गोयमा ! तिणि निरयावाससयसहस्सा० एवं जहा पंकप्पभाए। [14 प्र. भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे गए हैं ? इत्यादि प्रश्न / [14 उ.] गौतम ! (इसमें) तीन लाख नरकावास कहे गए हैं / जिस प्रकार पंकप्रभापृथ्वी के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। 15. तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास० पुच्छा। गोयमा ! एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पन्नत्ते / सेसं जहा पंकप्पभाए / [15 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी में कितने नरकावास कहे गए हैं ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! (उसमें) पांच कम एक लाख नरकावास कहे गये हैं / शेष (सभी कथन) पंकप्रभा के समान जानना चाहिए / 16. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए कति प्रणुतरा महतिमहालया निरया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच अणुत्तरा जाव अप्पतिट्ठाणे / [16 प्र. भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े कितने महानरकावास कहे गए हैं, इत्यादि पृच्छा। [16 उ.] गौतम ! (उसमें ) पांच अनुत्तर और बहुत बड़े नरकावास कहे गए हैं, यथा- यावत् (काल, महाकाल,रौरव, महारौरव और) अप्रतिप्रष्ठान / 17. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य / [17 प्र.] भगवन् ! वे नरकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, या असंख्यात योजन विस्तार वाले ? [17 उ.] गौतम ! एक (मध्य का अप्रतिष्ठान) नरकाबास संख्यात योजन विस्तार वाला है, और शेष (चार नरकावास) असंख्यातयोजन विस्तार वाले हैं / 18. अहेसत्तमाए गं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहा० जाव महानिरएसु संखेज्जवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिः / Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एवं जहा पंकप्पभाए / नवरं तिसु नाणेसु न उववज्जति न उन्वति / पन्नत्तएसु तहेव अस्थि / एवं असंखेज्जविस्थडेसु वि / नवरं असंखेज्जा भाणियन्वा / [18 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुतर और बहुत बड़े यावत् महानरकों में से संख्यात योजन विस्तार वाले अप्रतिष्ठान नरकावास में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पंकप्रभा के विषय में कहा, (उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि यहाँ तीन ज्ञान वाले न तो उत्पन्न होते हैं, न ही उद्वर्तन करते हैं / परन्तु इन पांचों नरकावासों में रत्नप्रभापृथ्वी आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं। जिस प्रकार संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में कहा उसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकवासों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ 'संख्यात' के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत नौ सूत्रों (10 से 18 तक) में रत्नप्रभापथ्वी के सिवाय शेष छह नरकपृश्वियों के नरकावास तथा उनके विस्तार तथा उनमें उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता (विद्यमानता), इन पालापकत्रय के विषय में विविध प्रवान्तर प्रश्न और इनके समाधानों का संकेत किया गया है।' असंज्ञी जीवों के उत्पादादि प्रथम नरक में ही क्यों ?—चुकि असंज्ञी जीव प्रथम नरक पृथ्वी में ही उत्पन्न होते हैं, उससे आगे की पृथ्वियों में नहीं। इसलिए द्वितीय नरकपृथ्वी से लेकर सप्तम नरक, पृथ्वी तक में उनकी उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता, ये तीनों बातें नहीं कहनी चाहिए।' लेश्याओं के विषय में सातों नरक में विभिन्नता लेश्याओं के विषय में जो विशेषता (नानात्व) कही गई है, वह प्रथम शतक पंचम उद्देशक के 28 वें सूत्र के अनुसार जाननी चाहिए। वहाँ की संग्रहगाथा इस प्रकार है काऊ दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया च उत्थीए / पंचमियाए मीसा कण्हा, तत्तो परमकण्हा // अर्थात-पहली और दूसरी नरक में कापोतलेश्या, तीसरी नरक में कापोत और नील दोनों (मिश्र) लेश्याएँ, चौथी नरक में नील लेश्या, पंचम नरक में नील और कृष्ण मिश्र तथा छठी नरक में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या होती है। पंकप्रभापृथ्वी में अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी क्यों नहीं ?-चौथी पंकप्रभा नरकपृथ्वी में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते ; क्योंकि नरक में अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी प्रायः तीर्थकर ही होते हैं, जो कि तृतीय नरकभूमि तक ही होते हैं। चौथी नरक से सातवीं ....... ...... .... 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 619-620 2. 'असन्नी खलु पढम' इति वचनात् / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 3. (क) भगवती. श. 1, उ. 5, सू. 28, पृ. 102 (श्री आगमप्रकाशन समिति, व्यावर) खण्ड 1 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600 Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [253 नरक तक से निकलते हुए जीव तीर्थंकर नहीं हो सकते ओर वहाँ से निकलने वाले (उद्वर्तन करने वाले) जीव भी अवधिज्ञान-प्रवधिदर्शन लेकर नहीं निकलते / ' सप्तम नरकपृथ्वी में सब मिथ्यात्वी ही क्यों ? सातवीं नरक में मिथ्यात्वी या सम्यक्त्वभ्रष्ट जीव हो उत्पन्न होते हैं। इस कारण इस नरक में मति-श्रुत-अवधिज्ञानी उत्पन्न नहीं होते तथा इनकी उद्वर्तना भी नहीं होती; क्योंकि वहाँ से निकले हुए जीव इन तीनों ज्ञानों में उत्पन्न नहीं होते / यद्यपि सातवीं नरक में प्राय: मिथ्यात्वी जीव ही उत्पन्न होते हैं, तथापि वहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है / सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर वहाँ मतिज्ञानी, श्रुतजानी और अवधिज्ञानी पाये जा सकते हैं। इसीलिए यहां कहा गया है कि सातवीं नरक में तीन ज्ञान वाले जीवों का उत्पाद और उद्वर्तना तो नहीं है, किन्तु सत्ता है।' संख्यात असंख्यात-विस्तृत नरकों में सम्या-मिथ्या मिश्रदृष्टि नयिकों के उत्पादउद्वर्तना एवं अविरहित-विरहित की प्ररूपणा 19. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससतसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु कि सम्मट्ठिी नेरतिया उववज्जंति, मिच्छट्टिी नेरइया उववज्जति, सम्मामिच्छदिट्टी नेरतिया उववज्जति ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरतिया उववज्जति, मिच्छट्ठिी वि नेरतिया उक्वज्जति, नो सम्मामिच्छद्दिद्वी नेरतिया उववज्जति / [16 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं, अथवा सम्य मिथ्या (मिश्र) दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त नरकावासों में) सम्यग्दृष्टि नैरपिक भी उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्यग् मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते / 20. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्ठी नेरतिया उव्वति ?o, एवं चेव / [20 प्र.] इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन-विस्तृत नरकावासों से क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {20 उ.] हे गोतम ! उसी तरह (पूर्ववत्) समझना चाहिए / (अर्थात् पूर्वोक्त नरकावासों से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं, परन्तु सम्यगमिथ्यादष्टि नैरयिक उद्वर्तन नहीं करते / ) 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 600 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 600 Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 21. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा कि सम्मट्टिीहि नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छादिट्ठोहि नेरइएहि अविरहिया, सम्मामिच्छादिट्ठीहि नेरइएहिं अविरहिया ? ___ गोयमा ! सम्मट्ठिीहि वि नेरइएहि अविरहिया, मिच्छादिट्ठीहि वि नेरइएहि अविरहिता, सम्मामिच्छादिट्ठीहि नेरइएहि अविरहिया विरहिया वा। [21 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन. विस्तृत नरकावास क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिकों से अविरहित (सहित) हैं, मिथ्यादृष्टि नै रयिकों से अविरहित हैं अथवा सम्बमिथ्यादृष्टि नैरयिकों से अविरहित हैं ? [21 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त नरकावास) सम्यग्दृष्टि नै रयिकों से भी अविरहित होते हैं तथा मिथ्यादष्टि नैरयिकों से भी अविरहित होते हैं और सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिकों से (कदाचित्) अविरहित होते हैं और (कदाचित्) विरहित होते हैं / 22. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा भाणियन्वा / [22] इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में भी तीनों ग्रालापक कहने चाहिए। 23. एवं सक्करप्पभाए वि / एवं जाव तमाए। [23] इसी प्रकार शर्कराप्रभा से लेकर यावत् तमःप्रभापृथ्वी तक के (संख्यात, असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों के सम्यग्दृष्टि आदि नैरयिकों के) विषय में (तीनों पालापक कहने चाहिए।) 24. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे नरए कि सम्मदिट्ठी नेरइया० पुच्छा। ___ गोयमा ! सम्मट्ठिी नेरइया न उववज्जति, मिच्छट्टिी नेरइया उववज्जति, सम्मामिच्छट्टिी नेरइया न उववज्जति। [24 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर यावत् संख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] गौतम ! (वहाँ) सम्यग्दृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न होते हैं और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते / 25. एवं उन्वति वि। [25] इसी प्रकार (उत्पाद के समान) उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए। 26. अविरहिए जहेव रयणप्पभाए / [26] रत्नप्रभा में सत्ता के समान यहाँ भी मिथ्यादृष्टि द्वारा अविरहित आदि के विषय में कहना चाहिए। Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [255 27. एवं असंखेजवित्थडेसु वि तिग्णि गमगा। [27] इसी प्रकार असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकावासों के विषय में (पूर्वोक्त) तीनों आलापक कहने चाहिए। विवेचन—प्रस्तुत नौ सूत्रों (मू. 16 से 27 तक) में रत्नप्रभा से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी के संख्यात योजन एवं असंख्यात योजन विस्तृत नरकावासों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रष्टि इन तीनों प्रकार के नैरयिकों की उत्पत्ति, उद्वर्तना एवं अविरहितता-विरहितता के विषय में प्रश्नों का समाधान किया गया है।' सम्यगमिथ्यादृष्टि नैरयिकों का कदाचित् विरह क्यों ?-सम्यमिथ्यादृष्टि नारक कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं भी होते, इसलिए उनका विरह हो सकता है / मिश्रदृष्टि नैरयिक उत्पन्न नहीं होते क्योंकि 'न सम्मामिच्छो कुणइ कालं / अर्थात्सम्यमिथ्यादृष्टि जीव सम्यमिथ्यादृष्टि अवस्था में काल नहीं करता, ऐसा सिद्धान्तवचन है / अतः न तो मिश्रदृष्टि उक्त अवस्था में मरता है और न तद्भवप्रत्यय अवधिज्ञान उसे होता है, जिससे कि मिश्रदष्टि अवस्था में वह उत्पन्न हो। लेश्याओं का परस्पर परिणमन एवं तदनुसार नरक में उत्पत्ति का निरूपण 28. [1] से नणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता, गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववज्जति / [28-1 प्र. भगवन ! क्या वास्तव में कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी, यावत शुक्ललेश्यी (कृष्णलेश्यायोग्य) बन कर (जीव पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है ? [28-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह) कृष्णलेश्यी यावत् (बनकर) (पुनः) कृष्णलेश्यी नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है। [2] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'कण्हलेस्से जाव उववज्जति' ? गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकिलिस्तमाणेसु कण्हलेसं परिणमइ, कण्हलेसं परिणमित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति, से तेण?णं नाव उववज्जति / [28-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि (वह कृष्णलेश्यी प्रादि हो कर (पुन:) कृष्णलेश्यी नारकों में उत्पन्न हो जाता है ? [28-2 उ.] गौतम ! उसके लेश्यास्थान संक्लेश को प्राप्त होते-होते (क्रमश:) कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं और कृष्णलेश्या के रूप में परिणत हो जाने पर वह जीव कृष्णलेश्या 1. वियाहपणत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 620.621 2. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 600 Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाले नारकों में उत्पन्न हो जाता है / इसलिए, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्यी आदि होकर जीव कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न हो जाता है / 29. [1] से नणं भते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता, गोयमा ! जाव उबवज्जति / [26-1 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होकर जीव (पुनः) नीललेश्या वाले नारकों में उत्पन्न हो जाते हैं ? [26-1 उ.] हाँ, गौतम ! यावत् उत्पन्न हो जाते हैं / [2] से केपट्टणं जाव उववज्जति ? गोयमा ! लेस्सटाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नोललेस्सं परिणमति, नोललेसं परिणमित्ता नोललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति, से तेण?णं गोयमा ! जाव उववज्जति / [26-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि यावत् वह नीललेश्या वाले नारकों में उत्पन्न हो जाते हैं ? [26-2 उ.] गौतम ! लेश्या के स्थान उत्तरोत्तर संक्लेश को प्राप्त होते-होते तथा विशुद्ध होते-होते (अन्त में) नीललेश्या के रूप में परिणत हो जाते हैं। नीललेश्या के रूप में परिणत होने पर वह नीललेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो जाते हैं / इसलिए हे गौतम ! (पूर्वोक्त रूप से) यावत् उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसा कहा गया है / 30. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नील जाव भवित्ता काउलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? एवं जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्सा वि भाणियन्वा जाव से तेणटणं जाव उववज्जति / सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / तेरसमे सए पढमो उद्देसमो समत्तो // 13-1 / / [30 प्र.] भगवन् ! क्या वस्तुतः कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होकर (जीव पुन:) कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो जाते हैं ? 30 उ.] जिस प्रकार नीललेश्या के विषय में कहा गया, उसी प्रकार कापोतलेश्या के विषय में भी, यावत्-इस कारण से हे गौतम ! यावत् उत्पन्न हो जाते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत तीनों सूत्रों (28 से 30 तक) में एक लेश्या वाले जीव का प्रशस्त या Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 1] [257 अप्रशस्त दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होकर उस लेश्या वाले नारकों में उत्पत्ति का सकारण प्रतिपादन किया गया है। अप्रशस्त-प्रशस्त लेश्या-परिवर्तना में कारण : संक्लिश्यमानता-विशुद्धयमानता-ही है। जब प्रशस्त लेश्यास्थान अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे संक्लिश्यमान तथा अप्रशस्त लेश्यास्थान जब विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, तब वे विशुद्धयमान कहलाते हैं। इसलिए प्रशस्त-अप्रशस्त लेश्याओं की प्राप्ति में संक्लिश्यमानता-विशुद्धचमानता कारण समझनी चाहिए।' / तेरहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / ---- ----. . .. -- .. . . - - - ... - --- 1. (अ) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 600-601, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पत्र 2158 Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : देव द्वितीय उद्देशक : देव (भेद-प्रभेद, आवाससंख्या, विस्तार आदि) चतुर्विधदेव प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! देवा पन्नत्ता ? गोयमा ! चउविवहा देवा पन्नत्ता, तं जहा-भवणवासी वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया। [1 प्र.] भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं / यथा-(२) भवनवासी, (2) वाणव्यन्तर, (3) ज्योतिष्क और (4) वैमानिक / विवेचन--देवों के चार निकाय (समूह या वर्ग) हैं। चार जाति के देवों के ये नाम अन्वर्थक है / भवनों में (अधोलोकवर्ती भवनों में निवास करने के कारण ये भवनवासी कहलाते हैं / वनों म तथा वक्ष, गुफा ग्रादि विभिन्न अन्तरालों आदि में रहने के कारण वाणव्यन्तर कहलात ह / ज्योतिर्मान तथा ज्योति (प्रकाश) फैलाने वाले होने के कारण ज्योतिष्क कहलाते हैं तथा विमानों में निवास करने के कारण वैमानिक या विमानवासी कहलाते हैं।' भवनपति देवों के प्रकार, असुरकुमारावास एवं उनके विस्तार को प्ररूपणा 2. भवणवासी णं भंते ! देवा कतिविधा पन्नत्ता? गोयमा! दसविधा पण्णत्ता, तं जहा–असुरकुमारा० एवं भेदो जहा बितियसए देवुद्देसए (स० 2 उ० 7) जाव अपराजिया सवदसिद्धगा। [2 प्र.] भगवन् ! भवनवासी देव कितने प्रकार के कहे हैं ? 2 उ. गौतम ! (भवनवासी देव) दस प्रकार के कहे गये हैं। यथा-असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार / इस प्रकार भवनवासी आदि देवों के भेदों का वर्णन द्वितीय शतक के सप्तम देवोद्देशक के अनुसार यावत् अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध तक जानना चाहिए / 3. केवतिया गं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! चोट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता / [3 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों के कितने लाख ग्रावास कहे गए हैं ? [3 उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों के चौसठ लाख ग्रावास कहे गए हैं / 1. तत्त्वार्थ भाष्य, अ. 4, सू. 1 : 'देवाश्चतुनिकायाः / ' Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [259 4. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जनित्थडा वि असंखज्जवित्थडा वि / [4 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों के वे आवास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले है ? [4 उ.] गौतम ! (वे) संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। _ विवेचन–प्रस्तुत तीन सूत्रों (2 से 4 तक) में भवनपति देवों के भेद, आवास एवं उनके विस्तार का प्रतिपादन किया गया है / संख्यात-असंख्यात-विस्तृत भवनपति-प्रावासों में विविध-विशेषण-विशिष्ट असुरकुमारादि से सम्बन्धित उनपचास प्रश्नोत्तर 5. [1] चोयट्ठोए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु प्रसुरकुमारावासेसु एगसमयेणं केवतिया असुरकुमारा उववज्जति ? जाव केवतिया तेउलेस्सा उववज्जति ? केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जति ? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, नवरं दोहि वि वेदेहि उववज्जंति, नपुंसगवेयगा न उववति / सेसं तं चेव / [5-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, यावत् कितने तेजोलेश्यी उत्पन्न होते हैं ? [5-1 उ.] (गौतम !) रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में किये गए प्रश्नों के समान (यहाँ भी) प्रश्न करना चाहिए और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ दो वेदों (स्त्री वेद और पुरुषवेद) सहित उत्पन्न होते हैं, नपुंसकवेदी उत्पन्न नहीं होते / शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। [2] उध्वट्टतगा वि तहेव, नवरं असण्णी उबट्टति, ओहिनाणी ओहिदसणी य ग उव्वदृति, सेसं तं चेव / पत्नत्तएसु तहेव, नवरं संखेज्जगा इत्थिवेदगा पन्नत्ता। एवं पुरिसवेदगा वि / नपुंसगवेदगा नत्थि / कोहकसायी सिय अस्थि, सिय नस्थि; जइ अस्थि जहन्नेण एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता / एवं माण० माय० / संखेज्जा लोभकसायी पन्नत्ता। सेसं तं चेव तिसु वि गमएसु चत्तारि लेस्सायो भाणियवाओ। [5-2] उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (यहाँ से) असंज्ञी भी उद्वर्तना करते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी (यहाँ से) उद्वर्तना नहीं करते / शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / सत्ता के विषय में जिस प्रकार पहले (प्रथमोद्देशक में) बताया गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि वहाँ संख्यात स्त्रीवेदक हैं और संख्यात Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260] [ध्यास्याप्रजस्तिसूत्र पुरुषवेदक हैं, नपुंसकवेदक (बिल्कुल) नहीं हैं। क्रोधकषायी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मानकषायी ओर मायाकषायी के विषय में कहना चाहिए। लोभकषायी संख्यात कहे गए हैं / शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / (संख्यात विस्तृत आवासों में) उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, इन तीनों के पालापकों में चार लेश्याएँ कहनी चाहिए। [3] एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता। [5-3] असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेषता इतनी ही है कि पूर्वोक्त तीनों पालापकों में (संख्यात के बदले) 'असंख्यात' कहना चाहिए। तथा यावत् --'असंख्यात अचरम कहे गए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / 6. केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास ? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं जत्थ जत्तिया भवणा। [6 प्र.] नागकुमार (इत्यादि भवनबासी) देवों के कितने लाख ग्रावास कहे गए हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त रूप से (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक (उसी प्रकार) कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि जहाँ जितने लाख भवन हों, वहाँ उतने लाख भवन कहने चाहिए। विवेचन--भवनवासी देवों के आवास, विस्तार आदि की प्ररूपणा-भवनवासी देवों के भवनों की संख्या असु रकुमारों के 64 लाख, नागकुमारों के 84 लाख, सुपर्णकुमारों के 72 लाख, वायुकुमारों के 66 लाख तथा द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और स्तनितकुमार, इन प्रत्येक युगल के 76-76 लाख भवन होते हैं।' भवनवासी देवों के प्रावास (भवन) भी संख्येयविस्तृत और असंख्येयविस्तृत होते हैं। उनके तीन प्रकार के प्रावासों का परिमाण इस प्रकार कहा गया है जंबूदीवसमा खल भवणा, जे हंति सव्वखुडडागा / संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेज्जा // अर्थात-भवनपति देवों के जो सबसे छोटे ग्रावास (भवन) होते हैं, वे जम्बूद्वीप के बराबर होते हैं / मध्यम आवास संख्यात योजन-विस्तृत होते हैं और शेष अर्थात्-बड़े प्रावास असंख्यात योजनविस्तृत होते हैं। 1. च उसट्ठी असुराण नागकुमाराण होइ चुलसीई / बावत्तरि कणगाणं, बाउकुमाराण छण्ण उई / / दीवदिसाउदहीण बिज्जूकूमारिदणियमग्गोणं / जुयलाणं पत्तेयं छाबत्तरिमो सयसहस्सा // 2. वही, पत्र 603 -भगवती. अ. बत्ति, पत्र 603 Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [261 वेद आदि की विशेषता-दो ही वेद-देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो ही वेद होते है, नपुंसकवेद नहीं होता / इसलिए कहा गया है—'दो वेद वाले उत्पन्न होते हैं।' असंज्ञी भी उद्वर्तते हैं। ऐसा कथन इसलिए किया गया है कि असुरकुमार से लेकर ईशान देवलोक तक के देव पृथ्वीकायादि असंज्ञी जीवों में भी उत्पन्न होते हैं। ___ अवधिज्ञानी-दर्शनी नहीं उद्वर्तते—असुरकुमार आदि देवों से च्यवकर निकले (उद्वत्त) हुए जीव तीर्थंकर आदि पद को प्राप्त नहीं करते और न तीर्थकरादि की तरह अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर उवत्त होते (निकलते) हैं। क्रोधादि कषाय-असुरकुमार आदि देवों में क्रोध, मान और माया कषाय के उदय वाले जीव तो कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, किन्तु लोभकषाय के उदय वाले जीव तो सदैव होते हैं। इसलिए कहा गया है कि लोभकषायी संख्यात कहे गये हैं। चार लेश्याएँ-असुरकुमारादि भवनवासी देवों में चार लेश्याएँ (कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या) होती हैं, इसलिए इनके तीनों (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) पालापकों में प्रत्येक में चार-चार लेश्याएँ कहनी चाहिए।' वाणव्यन्तर देवों की आवाससंख्या, विस्तार, उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता को प्ररूपणा 7. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पत्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [7 प्र.] भगवन् ! बाण व्यन्तर देवों के कितने लाख प्रावास कहे गये हैं ? [7 उ.j गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के आवास असंख्यात लाख कहे गए हैं / 8. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जनित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा। [8 प्र.] भगवन् ! वे (वाणन्यन्तरावास) संख्येय विस्तृत हैं अथवा असंख्येयविस्तृत ? [8 उ.] गौतम ! वे संख्येयविस्तृत हैं, असंख्येयविस्तृत नहीं। 9. संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति? ___ एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिणि गमा तहेव भाणियव्वा वाणमंतराण वि तिरिण गमा। | प्र. भगवन् ! वाणन्यन्तरदेवों के संख्येय-विस्तृत (असंख्यात लाख) आवासों में एक समय में कितने वाणव्यन्तर देव उत्पन्न होते हैं / उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येयविस्तृत आवासों के विषय में तीन पालापक (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) कहे, उसी प्रकार वाणव्यन्त र देवों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-व्यन्तरों के आवास संख्येय विस्तृत ही वाणव्यन्तर देवों के प्रावास असंख्यात योजन विस्तार वाले नहीं होते, वे संख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। उनका परिमाण इस प्रकार बताया गया है-- वाणव्यन्तर देवों के सबसे छोटे नगर (आवास) भरतक्षेत्र के बराबर होते हैं, मध्यम आवास महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े (उत्कृष्ट) आवास जम्बूद्वीप के समान होते हैं।' ज्योतिष्कदेवों की विमानावास-संख्या, विस्तार एवं विविधविशेषणविशिष्ट की उत्पत्ति आदि को प्ररूपणा 10. केवतिया णं भंते ! जोतिसिविमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जोतिसिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [10 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? [10 उ.] गौतम ! ज्योतिष्कदेवों के विमानावास असंख्यात लाख कहे गये हैं। 11. ते गं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा.? एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोतिसियाण वि तिनि गमा भाणियव्या, नवरं एगा तेउलेस्सा। उववज्जंतेसु पन्नत्तेसु य प्रसन्नी नत्थि / सेसं तं चेव / [11 प्र.) भगवन् ! वे (ज्योतिष्कविमानावास) संख्येयविस्तृत हैं या असंख्येयविस्तृत ? [11 उ.] गौतम ! (वाणव्यन्तरदेवों के समान वे भी संख्येयविस्तृत होते हैं / ) तथा बाणव्यन्तरदेवों के विषय में जिस प्रकार कहा, उसी प्रकार ज्योतिष्क देवों के विषय में तीन पालापक कहने चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें केवल एक तेजोलेश्या ही होती है। व्यन्तरदेवों में असंज्ञी उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा गया था, किन्तु इनमें असंज्ञी उत्पन्न नहीं होते (न ही उद्वर्ताते हैं और न च्यवते हैं)। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। विवेचन--ज्योतिष्फदेवों में वाणव्यन्तरदेवों से विशेषता वाणव्यन्तरदेवों से ज्योतिष्कदेवों में अन्तर इतना ही है कि इनमें केवल एक तेजोलेश्या होती है। इनके विमान संख्यात योजन विस्तार बाले तो होते हैं, किन्तु वे होते हैं-एक योजन से भी कम विस्तृत, यानी योजन का भाग होता है / तथा इनमें असंज्ञी जीवों का उत्पाद, उद्वर्तन नहीं होता, न वे सत्ता में होते हैं / अन्य सब बातें वाणव्यन्तरदेवों के समान होती हैं / कल्पवासी, ग्रैवेयक एवं अनुत्तर देवों को विमानवास-संख्या, विस्तार एवं उत्पत्ति आदि को प्ररूपणा 12. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। 1. जंबूद्दीवसमा खनु उनकोसेणं हवंति ते नगरा / खड्डा खेत्तसमा खलु, विदेहसमगा उ मज्झिमगा / / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 2. (क) 'एगसट्ठिभाग काऊण जोयणं'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [12 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प (प्रथम देवलोक) में कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? {12 उ.] गौतम ! (इसमें) बत्तीस लाख विमानावास कहे हैं / 13. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जविस्थडा वि / [13 प्र.] भगवन् ! वे विमानावास संख्येयविस्तृत हैं या असंख्येयविस्तृत ? [13 उ.] गौतम ! वे संख्येयविस्तृत भी हैं और असंख्येयविस्तृत भी हैं। 14. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवतिया सोहम्मा देवा उववज्जति ? केवतिया तेउलेस्सा उवदज्जति ? ___ एवं जहा जोतिसियाणं तिन्नि गमा तहेव भाणियव्वा, नवरं तिसु वि संखेज्जा भाणियन्वा / ओहिनाणी ओहिदसणी य चयावेयव्वा / सेसं तं चेव / असंखेज्जवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमा, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियध्वा / प्रोहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा चयंति / सेसं तं चेव / [14 प्र.] भगवन ! सौधर्मकल्प के बत्तीस लाख विमानावासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में एक समय में कितने सौधर्मदेव उत्पन्न होते हैं ? और तेजोलेश्या वाले सौधर्मदेव कितने उत्पन्न होते हैं ? [14 उ.] जिस प्रकार ज्योतिष्कदेवों के विषय में तीन (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) आलापक कहे, उसी प्रकार यहाँ भी तीन पालापक कहने चाहिए। विशेष इतना है कि तीनों आलापकों में 'संख्यात' पाठ कहना चाहिए तथा अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी का च्यवन भी कहना चाहिए / इसके अतिरिक्त शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। असंख्यातयोजन विस्तृत सौधर्म-विमानावासों के विषय में भी इसी प्रकार तीनों पालापक कहने चाहिए / विशेष इतना है कि इसमें ('संख्यात' के बदले) 'असंख्यात' कहना चाहिए। किन्तु असंख्येय-योजन-विस्तृत विमानावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनो तो 'संख्यात' ही च्यवते हैं। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। 15. एवं जहा सोहम्मे बत्तश्चया भणिया तहा ईसाणे वि छ गमगा भाणियत्वा / [15] जिस प्रकार सौधर्म देवलोक के विषय में छह पालापक कहे, उसी प्रकार ईशान देवलोक के विषय में भी छह (तीन संख्येय-विस्तृत विमान-सम्बन्धी और तीन असंख्येय-विस्तृत विमान-सम्बन्धी) पालापक कहने चाहिए। 16. सणकुमारे एवं चेव, नवरं इस्थिवेदगा उववज्जतेसु पन्नत्तेसु य न भणंति, असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णंति / सेसं तं चेव / 16] सनत्कुमार देवलोक के विषय में इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष इतना ही है कि सनत्कुमार देवों में स्त्रीवेदक उत्पन्न नहीं होते, सत्ताविषयक गमकों में भी स्त्रीवेदी नहीं कहे जाते / यहाँ तीनों पालापकों में असंज्ञी पाठ नहीं कहना चाहिए / शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र 17. एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु, लेस्सासु.य / सेसं तं चेव / [17] इसी प्रकार (माहेन्द्र देवलोक से लेकर) यावत् सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए। यहाँ अन्तर विमानों की संख्या और लेश्या के विषय में है / शेष सब कथन पूर्वोक्तवत् है / 18. प्राणय-पाणएसु णं भंते ! कप्पेसु केवतिया विमाणावाससया पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि विमाणावाससया पन्नत्ता। [18 प्र.] भगवन् ! आनत और प्राणत देवलोकों में कितने सो विमानावास कहे गए हैं ? [18 उ.] गौतम! (मानत-प्राणतकल्पों में) चार सौ विमानावास कहे गए हैं / 19. ते गं भंते ! कि संखेज्ज० पुच्छा। गोयमा ! संखेज्जविस्थडा वि, असंखेन्जवित्थडा वि / एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे / असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु य चयंतेसु य एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा / पन्नत्तेसु असंखेज्जा, नवरं नोइंदियोवउत्ता, अणंतरोववन्तगा, अणंतरोगाढगा, अणंतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा य, एएसि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता / सेसा असंखेज्जा भाणियव्वा / [19 प्र.] भगवन् ! वे (विमानावास) संख्यात-योजन विस्तृत हैं या असंख्यात-योजन विस्तृत ? [19 उ.] गौतम ! वे संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी हैं / संख्यात योजन विस्तार वाले विमानावासों के विषय में सहस्रार देवलोक के समान तीन पालापक कहने चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों में उत्पाद और च्यवन के विषय में 'संख्यात' कहना चाहिए एवं 'सत्ता' में असंख्यात कहना चाहिए। इतना विशेष है कि नोइन्द्रियोपयुक्त (मन के उपयोग वाले) अनन्तरोपपन्नक, अनन्त रावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तर-पर्याप्तक, ये पांच जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात कहे गए हैं। शेष (इनके अतिरिक्त अन्य सब) असंख्यात कहने चाहिए। 20. आरणऽच्चुएसु एवं चेव जहा प्राणय-पाणलेसु नाणत्तं विमाणेसु / [20] जिस प्रकार प्रानत और प्राणत के विषय में कहा, उसी प्रकार पारण और अच्युत कल्प के विषय में भी कहना चाहिए। विमानों की संख्या में विभिन्नता है। 21. एवं गेवेज्जगा वि। [21] इसी प्रकार नौ ग्रेवेयक देवलोकों के विषय में भी कहना चाहिए / 22. कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता? गोयमा! पंच अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता / {22 प्र.] भगवन् ! अनुत्तर विमान कितने कहे गए हैं ? [22 उ.] गौतम ! अनुत्तर विमान पांच कहे गए हैं। Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [265 23. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जविस्थडा य / [23 प्र.] भगवन् ! वे (अनुत्तरविमान) संख्यात योजन विस्तृत हैं या असंख्यात योजन विस्तृत हैं ? [23 उ. गौतम ! (उनमें से एक संख्यातयोजन विस्तृत है और (चार) असंख्यातयोजन विस्तृत हैं। 24. पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जविस्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववातिया देवा उववज्जति ? केवतिया सुक्कलेस्सा उववज्जति ? 0 पुच्छा तहेव / गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववातिया देवा उववज्जति / एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु, नवरं काहपक्खिया, अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जंति, न चयंति, न वि पन्नत्तएसु भाणियन्या, अचरिमा वि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पन्नत्ता। सेसं तं चेव / असंखेजवित्थडेसु वि एते न भण्णंति, नवरं अचरिमा अस्थि / सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेजवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता। {24 प्र.] भगवन् ! पांच अनुत्तर विमानों में से संख्यात योजन विस्तार वाले विमान में एक समय में कितने अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं, (उनमें से) कितने शुक्ललेश्यी उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] गौतम पांच अनुत्तरविमानों में से संख्यातयोजन विस्तृत ('सर्वार्थसिद्ध' नामक) अनुत्तर-विमान में एक समय में, जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात्त अनुत्तरौपपातिक देव उत्पन्न होते हैं / जिस प्रकार संख्यातयोजन विस्तृत वेयक विमानों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि कृष्णपाक्षिक अभव्यसिद्धिक तथा तीन अज्ञान वाले जीव, यहाँ उत्पन्न नहीं होते, न ही च्यवते हैं और सत्ता में भी इनका कथन नहीं करना चाहिए / इसी प्रकार (तीनों पालापकों में) 'अचरम' का निषेध करना चाहिए, यावत् संख्यात चरम कहे गए हैं / शेष समस्त वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। असंख्यात योजन विस्तार वाले चार अनुत्तर विमानों में ये (पूर्वोक्त कृष्णपाक्षिक आदि जीव पूर्वोक्त तीनों आलापकों में) नहीं कहे गए हैं। विशेषता इतनी ही है कि (इन असंख्यात योजन वाले अनुत्तर विमानों में) अचरम जीव भी होते हैं। जिस प्रकार असंख्यात योजन विस्तृत ग्रं वेयक विमानों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी अवशिष्ट सब कथन यावत् असंख्यात अचरम जीव कहे गये हैं, यहाँ तक करना चाहिए। विवेचन-वैमानिक देवलोकों में विमानावास-संख्या, विस्तार तथा उत्पाद प्रादि-प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 12 से 24 तक) में सौधर्मादि कल्प, अवेयक एवं अनुत्तर देवों के विमानावासों की संख्या, उनका विस्तार, उनमें उत्पादादि विषयक प्रश्नोत्तर अंकित हैं। सौधर्म और ईशानकल्प में विशेषता इन दोनों देवलोकों से तीर्थकर तथा कई अन्य भी Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र च्यवते हैं, वे अवधिज्ञान-अवधिदर्शन-युक्त होते हैं, इसलिए उद्वर्तन (च्यवन) में अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी भी कहने चाहिए। भवनपति, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों से वैमानिक देवों में यह विशेषता है कि असंख्यात योजन विस्तार वाले विमानों से भी अवधिज्ञानी-अवधिदर्शनी तो संख्यात ही च्यवते हैं, क्योंकि अवधिज्ञान-दर्शन युक्त च्यवने वाली वैसी आत्माएँ (तीर्थकर एवं कुछ अन्य के सिवाय) सदैव नहीं होती।' सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी नहीं-सौधर्म और ईशान देवलोक तक ही स्त्रीवेदी देवियाँ उत्पन्न होती हैं। इनके आगे सनत्कुमारादि देवलोकों में स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते / जब इनका उत्पाद ही वहाँ नहीं होता, तब सत्ता में भी उनका अभाव ही कहना चाहिए। सनत्कूमारादि में जो देवियां आती हैं, वे नीचे के देवलोक से आती हैं / 2 सनत्कुमारादि कल्पों में संज्ञो की ही उत्पत्ति आदि-इनमें संज्ञी जीव ही उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी नहीं / असंज्ञी में उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक के देवों की होती है। जब ये यहां से च्यवते हैं, तब भी संजी जीवों में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए इन देवलोकों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता, इन तीनों आलापकों में असंज्ञी का कथन नहीं करना चाहिए। सहस्त्रारपर्यन्त असंख्यात पद की घटना-माहेन्द्र कल्प से लेकर सहस्रार तक के कल्पों में असंख्यात तिर्यञ्चयोनिक जीवों का उत्पाद होने से असंख्यात योजन विस्तृत इन विमानावासों के तीनों पालापकों (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) में 'असंख्यात' पद घटित हो जाता है / / इनके विमानावासों तथा लेश्याओं में अन्तर–सौधर्म से लेकर सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान तक के विमानावासों की संख्या इस प्रकार है-सौधर्मकल्प में 32 लाख, ईशानकल्प में 28 ला सनत्कुमारकल्प में 12 लाख, माहेन्द्रकल्प में 8 लाख, ब्रह्मलोक में 4 लाख, लान्तककल्प में 50 हजार, महाशुक्र में 40 हजार, सहस्रार में 6 हजार विमानावास हैं। प्रानत और प्राणत कल्प में 400 विमान हैं तथा प्रारण और अच्युत कल्प में 300 विमानावास हैं / नौ अवेयक के प्रथम त्रिक में 111, द्वितीय त्रिक में 107 और तृतीय विक में 100 विमान हैं एवं पांच अनुत्तर विमानों में 5 विमान हैं। इस प्रकार सौधर्म से अनुत्तर विमानों तक कुल विमानों को संख्या 84,67,023 होती है। लेश्या में विभिन्नता इस प्रकार है-प्रथम और द्वितीय कल्प में तेजोलेश्या है; तृतीय, चतुर्थ और पंचम कल्प में पद्मलेश्या अर्थात् तीसरे में तेजो-पद्म, चौथे में पद्म और पांचवें में पद्म-शुक्ल 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2167 2. (क) भगक्ती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 10, पृ. 542-543 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 10, पृ. 548 Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [267 लेश्या) होती है तथा इनसे आगे के समस्त कल्पों, नौ ग्रेवेयकों एवं पांच अनुत्तर विमानों में केवल एक शुक्ललेश्या है / मात महाशुक्र से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक परमशुक्ल लेश्या मानी जाती है।' आनतादि देवलोकों में उत्पादादि का अन्तर---पानत आदि देवलोकों में से संख्यात योजन विस्तत विमानावासों में उत्पाद, च्यवन और सत्ता में संख्यात देव होते हैं / असंख्यात योजन विस्तृत पानतादि विमानों में उत्पाद और च्यवन में संख्यात तथा सत्ता में असंख्यात देव होते हैं: क्य गर्भज मनुष्य ही मरकर पानतादि देवों में उत्पन्न होते हैं और वे देव भी, वहाँ से ज्यव कर गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं तथा गर्भज मनुष्य संख्यात हो होते हैं / इसलिए एक समय में उत्पाद भी संख्यात का और च्यवन भी संख्यात का हो सकता है। उन देवों का प्रायुष्य असंख्यात वर्ष का होता है, इसलिए उनके जीवनकाल में असंख्यात देव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनकी अवस्थिति (सत्ता) में असंख्यात की प्ररूपणा की गई है। किन्तु नो इन्द्रियोपयुक्त आदि पांच पदों में उत्कृष्ट संख्यात की प्ररूपणा की गई है, क्योंकि इनका सद्भाव उत्पत्ति के समय ही रहता है और उत्पत्ति संख्यात की ही होती है, यह पहले कहा जा चुका है। पांच अनुत्तर विमानों में उत्पादादि-अनुत्तर विमान पाँच हैं--(१) विजय, (2) वैजयन्त. (3) जयन्त, (4) अपराजित और (5) सर्वार्थसिद्ध / सर्वार्थसिद्ध विमान इन चारों विमानों के मध्य में है। वह एक लाख योजन विस्तत है, इसलिए संख्यात-योजन विस्तत कहा गया है। शेष विजयादि चार अनुतर विमान असंख्यात योजन विस्तृत हैं / इनमें केवल सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनके तीनों पालापकों में कृष्णपाक्षिक, अभव्य एवं तीन अज्ञान वाले जीवों का निषेध किया गया है। __ चरम-अचरम-जिस जीव का अनुत्तरविमान सम्बन्धी अन्तिम भव है, उसे 'चरम' कहा जाता है और जिस जीव का अनुत्तरविमान-सम्बन्धी भव अन्तिम नहीं है, उसे 'अचरम' कहा जाता है। सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल चरम ही उत्पन्न होते हैं. इसलिए इसमें अचरम का निषेध किया गया है। किन्तु शेष विजयादि चार अनुत्तरविमानों में तो 'अचरम' भी उत्पन्न होते हैं। कठिन शब्दों का अर्थ-चयावेयन्वा च्यवन सम्वन्धी पाठ कहना चाहिए। णाणतं-नानात्व, विभिन्नता / पण्णत्तेसु-सत्ता विषयक पालापक में। गेवेज्जगा-प्रैवेयक ! अभवसिद्धिया--अभव्यसिद्धिक, अभव्य / खोडिज्जति ---निषेध किये जाते हैं।" 1 (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 10, पृ. 545 (ख) भगवती. . वृत्ति, पत्र 603 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 604 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5. पृ. 2172 4. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टोका) भा. 10, पृ. 553 5. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2166, 2171 Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चतुर्विध देवों के संख्यात असंख्यातविस्तृत आवासों में सम्यग्दृष्टि आदि के उत्पाद, उद्वर्तन एवं सत्ता की प्ररूपणा 25. चोयट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु कि सम्मद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जंति, मिच्छट्टिी? 0 एवं जहा रयणप्पमाए तिन्नि अालावगा भणिया तहा भाणियन्वा / एवं असंखेज्जवित्थडेसु यि तिन्नि गमा / 25 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों के चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से संख्यातयोजन-विस्तृत असुरकुमारावासों में सम्यग्दृष्टि असुरकुमार उत्पन्न होते हैं अथवा मिध्यादृष्टि उत्पन्न होते हैं, मिश्र (सम्यमिथ्या) दृष्टि उत्पन्न होते हैं ? [25 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के सम्बन्ध में तीन पालापक कहे, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए और असंख्यात योजन विस्तृत असुर कुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार तीन सालापक कहने चाहिए। 26. एवं जाव गेवेज्जविमाणेसु / [26] इसी प्रकार (नागकुमारावासों से लेकर) यावत् ग्रंवेयकविमानों (तक) के विषय में कहना चाहिए। 27. अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, नवरं तिसु वि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छट्ठिी य न भण्णंति / सेसं तं चेव। [27] अनुत्तरविमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि अनुत्तरविमानों के तीनों पालापकों में मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि का कथन नहीं करना चाहिए / शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन-देवों के दृष्टिविषयक आलापक--प्रस्तुत तीन सूत्रों (25 से 27) में चारों प्रकार के देवों में दृष्टिविषयक आलापकत्रय का निरूपण किया गया है। ___पांच अनुत्तरविमानों में एकान्त सम्यग्दृष्टि हो-उत्पन्न होते हैं, च्यवते हैं और सत्ता में रहते हैं / इसलिए शेष दोनों दृष्टियों का निषेध किया गया है।" एक लेश्या वाले का दूसरी लेश्यावाले देवों में उत्पाद-प्ररूपण 28. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नोल• जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु देवेसु उववज्जति ? हंता, गोयमा ! 0 एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियव्वं / [28 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी नीललेश्यी थावत् शुक्ललेश्यी (से परिवर्तित) होकर जीव कृष्णलेश्यो देवों में उत्पन्न हो जाता है ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 604 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2174 Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [269 [28 उ.] हाँ, गौतम ! जिस प्रकार (तेरहवें शतक के) प्रथम उद्देशक में नैरयिकों के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / 29. नोललेसाए वि जहेव नेरइयाणं जहा नीललेस्साए / [29] नीललेश्वी के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार नीललेश्यी नैरयिकों के विषय में कहा है / 30. एवं जाव पम्हलेस्सेसु / [30] (जिस प्रकार नीललेश्यी देवों के विषय में कहा है), उसी प्रकार यावत् (कापोत, तेजस्, एवं) पद्मलेश्यो देवों के विषय में कहना चाहिए। 31. सुक्कलेस्सेस एवं चेव, नवरं लेसाठाणेसु विसुज्झमाणेसु विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमति सुक्कलेसं परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जति, से तेण?णं जाव उववति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / / / तेरसमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो॥ [31] शुक्ललेश्यी देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेषता यह है कि लेश्यास्थान विशुद्ध होते-होते शुक्ललेश्या में परिणत हो जाते हैं ! शुक्ललेश्या में परिणत होने के पश्चात् ही (वे जीव) शुक्ललेश्यी देवों में उत्पन्न होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! यावत् 'उत्पन्न होते हैं ऐसा कहा गया है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-देवों में लेश्या-परिवर्तन-नैरयिकों की तरह देवों में भी अप्रशस्त से प्रशस्तप्रशस्ततर और प्रशस्त-प्रशस्ततर से अप्रशस्त-अप्रशस्ततर लेश्या के रूप में परिवर्तन होता है। यह कथन भावलेश्या के विषय में समझना चाहिए, जो मूल में स्पष्ट किया गया है / ॥तेरहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिओ उद्देसओ : अणंतर तृतीय उद्देशक : नरयिकों के अनन्तराहारादि चौवीस दण्डकों में अनन्तराहारादि यावत् परिचारणा को प्ररूपणा 1. नेरतिया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निव्वत्तणया / एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियध्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / / / तेरसमे सए : ततिओ उद्देसओ समत्तो / [1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव (उपपात-उत्पत्ति) क्षेत्र को प्राप्त करते ही अनन्तराहारी होते हैं (अर्थात्---प्रथम समय में ही प्राहारक हो जाते है ) ? इसके बाद निर्वर्तना (शरीर की उत्पत्ति) करते हैं ? (क्या इसके पश्चात् वे लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? फिर उन पुद्गलों को इन्द्रियादिरूप में परिणत करते हैं ? क्या इसके पश्चात् वे परिचारणा-शब्दादि विषयों का उपभोग करते हैं ? फिर अनेक प्रकार के रूपों की विकुर्वणा करते हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] (हाँ गौतम ! ) वे इसी (पूर्वोक्त) प्रकार से करते हैं। (इसके उत्तर में) प्रज्ञापना सूत्र का चौतीसवाँ परिचारणापद समग्र कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारकों के द्वारा उत्पत्तिक्षेत्र प्राप्त करते ही आहार के होने, फिर शरीरोत्पत्ति करने, लोमाहारादि द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने, फिर उन पुद्गलों को इन्द्रियादि रूप में परिणत करने एवं शब्दादि विषयभोग द्वारा परिचारणा करने और फिर नाना रूपों की विकुर्वणा करने आदि के विषय में प्रश्न उठाकर प्रज्ञापनासूत्र के 34 व समग्र परिचारणापद का अतिदेश करके समाधान किया गया है।" // तेरहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. देखिये प्रज्ञापना सूत्र का 34 वा परिचारणापद Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : पुढवी चतुर्थ उद्देशक : (नरक) पृथ्वियाँ द्वारगाथाएँ तथा सात पृथ्वियाँ 1. कति' णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पाणताओ, तं जहा-- रयणप्पमा जाव अहेसत्तमा। [1 प्र.] भगवन् ! नरक-पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! नरक-पृथ्वियां सात कही गई हैं। यथा–रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा पृथ्वी। प्रथम नैरयिकद्वार--नरकावासों की संख्यादि अनेक पदों से परस्पर तुलना 2. अहेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया जाव अपतिद्वाणे / ते णं णरगा छट्ठाए तमाए पुढवीए नरहितो महत्तरा चेव 1, महाविस्थिण्णतरा चेव 2, महोवासतरा चेव 3, महापतिरिक्कतरा चेव 4, नो तहा–महापवेसणतरा चेव 1, आइण्णतरा चेव 2, आउलतरा चेव 3, अणोमाणतरा चेव 4, तेसु णं नरएसु नेरतिया छद्वाए तमाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव 1, महाकिरियतरा चेव 2, महासवतरा चेव 3, महावेयणतरा चेव 4, नो तहा-अप्पकम्मतरा चेव 1, अप्पकिरियतरा चेव 2 अप्पासवतरा चेव 3, अप्पवयणतरा चेव 4 / अप्पिट्टियतरा चेव 1, अप्पजुतियतरा चेव 2; नो तहा-महिड्ढियतरा चेव 1, नो महज्जुतियतरा चेव 2 / [2] अधःसप्तमपृथ्वी में पांच अनुत्तर और महातिमहान् नरकावास यावत् अप्रतिष्ठान तक कहे गए हैं। वे नरकावास छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरकावासों से महत्तर (बड़े) हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महान् अवकाश वाले हैं, बहुत रिक्त स्थान वाले हैं। किन्तु वे महाप्रवेश वाले नहीं हैं, वे अत्यन्त आकीर्णतर (संकीर्ण) और व्याकुलतायुक्त (व्याप्त) नहीं हैं, अर्थात्-वे अत्यन्त विशाल हैं। उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक, छठी तमःप्रभापृथ्वी के नरयिकों की अपेक्षा महाकर्म वाले, महाक्रिया बाले महाश्रव वाले एवं महावेदना वाले हैं। वे (तम:प्रभास्थित नैरयिकों की तरह) न तो अल्पकर्म वाले हैं और न आल्प क्रिया, अल्प प्राश्रव और अल्पवेदना वाले हैं / वे नै रयिक अल्प ऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं। वैसे वे महान् ऋद्धि वाले और महाद्युति वाले नहीं हैं। 1. अधिक पाठ--किसी किसी प्रति में ये दो द्वार-गाथाएँ मिलती हैं- नेरइय 1 फास 2 पणिही 3 निरयंते चेव 4 लोयमज्झे य५ / दिसि-विदिसाण य पवहा 5, पवत्तणं अत्थिकाएहि 7 // 1 // अत्थीपएसफसणा 8 ओगाहणया य 9 जीवमोगाढा 10 अस्थिपएसनिसोयण 11 बहस्समे 12 लोगसंठाणे 13 // Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. छाए गं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पन्नत्ते / ते गं नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो नो तहा-महत्तरा चेव, महाविस्थिण्ण० 4; महप्पवेसणतरा चेव, आइण्ण 4 / तेसु णं नरएसु नेरइया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहितो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरिय० 4; नो तहा-महाकम्मतरा चेव, महाकिरिय० 4; महिड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव; नो तहा-- अप्पिड्डियतरा चेव, अप्पज्जुतियतरा चेव। ट्ठाए गं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरएहितो महत्तरा चेष० 4; नो तहा महत्पवेसणतरा चेव० 4 / तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव० 4; नो तहा अप्पकम्मतरा चेव० 4; अपिडियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव; नो तहा महिट्टियतरा चेव० 2 / 3 छठी तमःप्रभापृथ्वी में पांच कम एक लाख नरकावास कहे गए हैं। वे नरकावास अधःसप्तमपृथ्वी के नरकावासों के जैसे न तो महत्तर हैं और न ही महाविस्तीर्ण हैं; न हो महान् अवकाश वाले हैं और न शून्य स्थान वाले हैं। वे (सप्तम नरक पृथ्वी के नरकावासों की अपेक्षा) महाप्रवेश वाले हैं, संकीर्ण हैं, व्याप्त हैं, विशाल हैं। उन नरकावासों में रहे हुए नैरयिक अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प-पाधव और अल्पवेदना वाले हैं / वे अध:सप्तमपृथ्वी के नारकों के समान महाकर्म, महा क्रिया, महाश्रव और महावेदना बाले नहीं हैं। वे उनकी अपेक्षा महान् ऋद्धि और महाद्युति वाले हैं, किन्तु वे उनकी तरह अल्प ऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले नहीं हैं। छठी तमःप्रभा नरक पृथ्वी के नरकाबास पांचवीं धूमप्रभा नरकपृथ्वी के नरकावासों से महत्तर, महाविस्तीर्ण, महान् अवकाश वाले, महान् रिक्त स्थान वाले हैं। वे पंचम नरकपृथ्वी के नरकावासों की तरह महाप्रवेश वाले, पाकीर्ण (व्याप्त), व्याकुलतायुक्त एवं विशाल नहीं हैं। छठी पथ्वी के नरकावासों के नरयिक पांचवीं धसभापथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाकर्म, महाक्रिया, महाश्रव तथा महावेदना वाले है। उनकी (पांचवीं धूमप्रभा के नारकों की) तरह वे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव एवं अल्पवेदना वाले नहीं हैं तथा वे उनसे अल्पऋद्धि वाले और अल्पद्युति वाले हैं, किन्तु महान् ऋद्धि वाले और महाधुति वाले नहीं हैं। 4. पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससतसहस्सा पन्नता। [4] पांचवीं धूमप्रभापृथ्वी में तीन लाख नरकावास कहे गए हैं। 5. एवं जहा छट्टाए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णति जाव रयणप्पम त्ति / जाव नो तहा महिड्डियतरा चेव अप्पज्जुतियतरा चेव / [5] इसी प्रकार जैसे छठी तमःप्रभापृथ्वी के विषय में परस्पर तारतम्य बताया, वैसे सातों नरकश्वियों के विषय में परस्पर तारतम्य, यावत् रत्नप्रभा तक कहना चाहिए, वह पाठ यावत् शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक, रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की अपेक्षा महाऋद्धि और महाद्युति वाले नहीं हैं / वे उनको अपेक्षा अल्प ऋद्धि और अल्पद्युति वाले हैं, (यहाँ तक) कहना चाहिए / Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [273. विवेचन-नरकावासों को परस्पर तरतमता प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 1 से 5 तक ) में सातों नरकपृथ्वियों के नरकावासों की संख्या, विशालता, विस्तार, अवकाश, स्थानरिक्तता, प्रवेश, संकीर्णता, व्यापकता, कर्म, क्रिया, आश्रव, वेदना, ऋद्धि और ति आदि विषयों में एक दूसरे से तरतमता का निरूपण किया गया है।' कठिन शब्दार्थ-अणुत्तरा-प्रधान / महतिमहालया-महातिमहान्-बहुत बड़े / पंच णरगा---- पांच नरकावास हैं-काल, महाकाल, रौरव, महारोरव और प्रतिष्ठान / महत्तरा ( मह दीर्घता (लम्बाई) की अपेक्षा (शेष 6 नरकों से) बड़े। महाविस्थिण्णतरा (महाविच्छिण्णतरा)चौड़ाई (विष्कम्भ) की अपेक्षा अत्यन्त विस्तृत / महोवासतरा-(स्थान की दृष्टि से) महान् अवकाश बाले / महापतिरिक्कतरा--(जीवों के प्रवस्थान की दृष्टि से) अत्यन्त रिक्त हैं। महापवेसणतरामहाप्रवेश वाले अर्थात्-दूसरी गति से आकर जिनमें बहुत-से जीव प्रवेश करते हों, ऐसे / प्राइण्णतरा-अत्यन्त प्राकीर्ण / पाउलतरा-व्याकुलता (व्यापकता) से युक्त / अणोमाणतरा-अल्पपरिमाण वाले नहीं है--विशाल परिमाण वाले हैं, अथवा पाठान्तर अणोयणतरा-अनोदनतर हैं, अर्थात् नारकों की बहुसंख्यकता न होने से जहाँ एक दूसरे से नोदन-ठेलमठेल या धक्कामुक्की–नहीं होती। महाकम्मतरा-महाकम वाले, अर्थात्-प्रायुष्य, वेदनीय आदि कर्मों की प्रचुरता वाले / महाकिरियतरा-कायिकी आदि महाक्रिया वाले / महासक्तरा-महान अशुभ प्राश्रव वाले / महावेयणतरामहावेदना वाले / अल्पकम्मतरा-अल्पकर्म वाले / अप्पिडियतरा-अल्पऋद्धि वाले / अप्पज्जुइयतराअल्पद्युति वाले / नेरइएहितो-नारकों से / महड्डियतरा-महान् ऋद्धि वाले। महन्जुइयतरा-- महाद्युति वाले। सात पृथ्वी के नैरयिकों को एकेन्द्रिय जीव स्पर्शानुभवप्ररूपणा-द्वितीय स्पर्शद्वार 6. रयणप्पभपुढविनेरइया गं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणि? जाच अमणाणं / [6 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक (वहां की) पृथ्वी के स्पर्श का कैसा अनुभव करते [6 उ.] गौतम ! (वे वहाँ की पृथ्वी के) अनिष्ट यावत् मन के प्रतिकूल स्पर्श का अनुभव करते रहते हैं। 7. एवं जाव प्रसत्तमपुढविनेरतिया। [7] इसी प्रकार यावत अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों द्वारा पृथ्वी काय के (उत्तरोत्तर अनिष्टतर, अनिष्टतम यावत् मनःप्रतिकूलतर-प्रतिकूलतम) स्पर्शानुभव के विषय में कहना चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण-युक्त), पृ. 626-627 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति (ख) भगवती. (हिन्दीबिबेचन) भा. 5 पृ. 2177-78 Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [ख्यास्याप्राप्तिसूत्र 8. एवं आउफासं। [8] इसी प्रकार (रत्नप्रभा से लेकर अध सप्तमपृथ्वी के नैरयिक) (अनिष्ट यावत् मनः प्रतिकूल) अप्कायिक स्पर्श का (अनुभव करते हुए रहते हैं।) 9. एवं जाव वणस्सइफासं / [6] इसी प्रकार (तेजस्काय से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक स्पर्श (के विषय में भी कहना चाहिए।) विवेचन--प्रस्तुत चार सूत्रों में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के अनिष्ट, अनिष्टतर, अनिष्टतम यावत् मनःप्रतिकूल, प्रतिकूलतर, प्रतिकूलतम स्पर्श के अनुभव का निरूपण किया गया है। इस प्रकार द्वितीय स्पर्शद्वार पूर्ण हुआ। सात पृथ्वियों की परस्पर मोटाई छोटाई आदि की प्ररूपरणा-तृतीय प्रणिधिद्वारा 10. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं सक्करप्पभं पुढवि पणिहाए सन्त्रमहंतिया बाहल्लेणं, सब्वखुड्डिया सम्वतेसु ? __ एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए / [10 प्र.] भगवन् ! क्या यह (प्रथम) रत्नप्रभापृथ्वी, द्वितीय शर्कराप्रभापृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सबसे मोटी और चारों ओर (चारों दिशाओं में) (लम्बाई-चौड़ाई में) सबसे छोटी है ? [10 उ.] (हाँ गौतम ! ) इसी प्रकार है। (शेष सब वर्णन) जीवाभिगमसूत्र को तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशक में (कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए।) विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में तीसरे 'प्रणिधि (अपेक्षा) द्वार' के सन्दर्भ में सातों नरकपृथ्वियों की मोटाई, लम्बाई-चौड़ाई का एक दूसरे से तारतम्य जीवाभिगमसूत्र के अतिदेश-पूर्वक बताया गया है। सात पृश्चियों के निकटवर्ती एकेन्द्रियों की महाकर्म-अल्पकर्मतादिनिरूपणा-चतुर्थ निरयान्तद्वार 11. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गिरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया ? एवं जहा नेरइयउद्दसए जाव अहेसत्तमाए। [11 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपाई में जो पृथ्वीकायिक 1. जीवाभिगम में सूचित पाठ इस प्रकार है-.-"हंता, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दोच्च पुढीब पणिहाय जाव सम्बखुडिया सम्वंतेसु / दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुदि पणिहाय सब्बमहंतिया बाहल्लेणं० पुच्छा ? हंता, गोयमा ! दोच्चा गं जाव सम्वखुड्डिया सन्वतेसु / एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहेसत्तम पुढदि पणिहाय जाब सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु ति।" अवृ०॥ -जीवाजीवाभिगमसूत्रम, प. 127, मागमोदय. / / Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] 275 (से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, क्या वे महाकर्म, महात्रिया, महा-पाश्रव और महावेदना वाले हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / __ [11 उ.] (हाँ, गौतम ! ) हैं, (इत्यादि सब वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे) नैरयिक उद्देशक के अनुसार (रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (तक कहना चाहिए।) विवेचनप्रस्तुत सूत्र में चौथे निरयान्त द्वार के सन्दर्भ में सातों नरकों के निकटवर्ती पृथ्वीकायादि जीवों के महाकर्मी प्रादि होने का अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। लोक-त्रिलोक का प्रायाम-मध्यस्थान निरूपरण : पंचम लोकमध्यद्वार 12. कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्के पन्नत्ते ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरस्स असंखेज्जतिभागं ओगाहित्ता, एत्थ णं लोगस्स पायाममाझे पणत्ते / {12 प्र.] भगवन् ! लोक के आयाम (लम्बाई) का मध्य (मध्यभाग) कहाँ कहा गया है ? [12 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के प्राकाशखण्ड (अवकाशान्तर) के असंख्यातवें भाग का अवगाहन (उल्लंघन करने पर लोक की लम्बाई का मध्यभाग कहा गया है। 13. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममझे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरस्स सातिरेगं अद्ध ओगाहित्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पन्नत्ते। [13 प्र.] भगवन् ! अधोलोक की लम्बाई का मध्यभाग कहाँ कहा गया है ? [13 उ.] गौतम ! चौथी पंकप्रभापृथ्वी के आकाशखण्ड (अवकाशान्तर) के कुछ अधिक अर्द्ध भाग का उल्लंघन करने के बाद, अधोलोक को लम्बाई का मध्यभाग कहा गया है। 14. कहि णं भंते ! उड्ढलोगस्स याममझे पन्नत्ते ? गोयमा ! उप्पि सणंकुमार-माहिंदाणं कप्पाणं हेट्ठि बंभलोए कप्पे रिटु विमाणपत्थडे, एत्थ णं उड्ढलोगस्स पायाममज्झे पनते / [14 प्र.] भगवन् ! ऊवलोक की लम्बाई का मध्य भाग कहाँ बताया गया है ? |14 उ.] गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोकों के ऊपर और ब्रह्मलोक कल्प के नीचे एवं रिण्ट नामक विमानप्रस्तट (पाथडे ) में ऊर्वलोक की लम्बाई का मध्यभाग बताया गया है। 15. कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममज्झे पन्नत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए उरिमहेटिल्लेसु खुड्डगपयरेसु, एत्थ णं तिरियलोगमज्झे अट्ठपएसिए स्यए पन्नत्ते, जओ गं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा–पुरस्थिमा पुरस्थिमदाहिणा एवं जहा दसमसते [स० 10 उ० 1 सु० 6-7] जाव नामधेज्ज त्ति / Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र {15 प्र.] भगवन् ! तिर्यक्लोक की लम्बाई का मध्यभाग कहाँ बताया गया है ? [15 उ.] गौतम ! इस जम्बुद्वीप के मन्दराचल (मेरुपर्वत) के बहुसम मध्यभाग (ठीक बीचोंबीच) में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर वाले और नीचले दोनों क्षुद्रप्रस्तटों (छोटे पाथड़ों) में, तिर्यग्लोक के मध्य भाग रूप आठ रुचक-प्रदेश कहे गए हैं, (वहीं तिर्यग्लोक की लम्बाई का मध्य भाग है)। उन (रुचक प्रदेशों) में से ये दश दिशाएँ निकली हैं / यथा-पूर्वदिशा, पूर्व-दक्षिण दिशा इत्यादि, (शेष समग्र वर्णन) दशवें शतक (के प्रथम उद्देशक के सूत्र 6-7) के अनुसार, यावत् दिशाओं के दश नाम ये हैं; (यहाँ तक) कहना चाहिए। विवेचन -प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 12 से 15 तक) में लोक, ऊर्व, अधो एवं तिर्यक लोक की लम्बाई के मध्यभाग का निरूपण लोक-मध्यद्वार के सन्दर्भ में किया गया है। लोक एवं ऊर्ध्व, अधो, तिर्यकलोक के मध्यभाग का निरूपण-लोक की कुल लम्बाई 14 रज्जू परिमित है। उसकी कुल लम्बाई का मध्यभाग रत्नप्रभा पृथ्वी के आकाशखण्ड के असंख्यातवें भाग का उल्लंघन करने के बाद है / तिर्यक्लोक की लम्बाई 1800 योजन है। तिर्यक्लोक के मध्य में जम्बूद्वीप है। उस जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के बहुमध्य देशभाग (बिलकुल मध्य) में, रत्नप्रभापृथ्वी के समतल भूमिभाग पर पाठ रुचक प्रदेश हैं, जो गोस्तन के आकार के हैं और चार ऊपर की पोर उठे हुए हैं तथा चार नीचे की ओर हैं। इन्हीं रुचक प्रदेशों की अपेक्षा से सभी दिशाओं और विदिशाओं का ज्ञान होता है / इन रुचक प्रदेशों के 600 योजन ऊपर और 900 योजन नीचे तक तिर्यकलोक (मध्यलोक) है। तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक है और ऊपर ऊर्ध्व लोक है। ऊर्ध्वलोक की लम्बाई कुछ कम 7 रज्जू परिमाण है, जबकि अधोलोक की लम्बाई कुछ अधिक सात रज्ज परिमाण है / रुचक प्रदेशों के नीचे असंख्यात करोड़ योजन जाने पर रत्नप्रभापृथ्वी में चौदह रज्ज रूप लोक का मध्यभाग पाता है। यहाँ से ऊपर और नीचे लोक का परिमाण ठीक सात-सात रज्ज रह जाता है / चौथी और पांचवी नरकपृथ्वी के मध्य के जो अवकाशान्तर (आकाशखण्ड) हैं, उनके सातिरेक (कुछ अधिक) आधे भाग का उल्लंघन करने पर अधोलोक का मध्यभाग है / सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक से ऊपर और पांचवें ब्रह्मलोककल्प के नीचे रिष्ट नामक तृतीय प्रतर में ऊनलोक का मध्य भाग है / ' दश दिशाओं का उद्गम, गुणनिष्पन्न नाम–लोक का प्राकार वज्रमय है / इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकाण्ड में सबसे छोटे दो प्रतर हैं। उन दोनों लघुतम प्रतरों में से ऊपर के प्रतर से लोक की ऊर्ध्वमुखी वृद्धि होती है और नीचे के प्रतर से लोक की अधोमुखी वृद्धि होती है। यहीं तिर्यकलोक का मध्यभाग है, जहाँ 8 रुचक प्रदेश बताए हैं। इन्हीं से 10 दिशाएँ निकली हैं--(१) पूर्व, (2) दक्षिण, (3) पश्चिम, (4) उत्तर, ये चार दिशाएँ मुख्य हैं तथा (5) अग्निकोण, (6) नैऋत्यकोण, (7) वायव्यकोण और () ईशानकोण, (6) ऊर्ध्वदिशा और (10) अधोदिशा / पूर्व महाविदेह की ओर पूर्वदिशा है, पश्चिम महाविदेह की अोर पश्चिम दिशा है, भरतक्षेत्र की ओर दक्षिण दिशा है, और ऐरवतक्षेत्र की ओर उत्तरदिशा है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की 'अग्निकोण', दक्षिण और पश्चिम के मध्य की 'नैऋत्यकोण', पश्चिम और उत्तर के मध्य की 'वायव्य 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 607 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2153-2184 Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [277 कोण और उत्तर एवं पूर्व के बीच की 'ईशानकोण' विदिशा कहलाती है। रुचकप्रदेशों की सीध में ऊपर की ओर ऊर्ध्वदिशा और नीचे की पोर अधोदिशा है। इन दसों दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम ये हैं—(१) ऐन्द्री, (2) आग्नेयी, (3) याम्या, (4) नैऋती, (5) वारुणी, (6) वायव्या (6) सौम्या, (8) ऐशानी, (6) विमला और (10) तमा / ' कठिन शब्दार्थ-आयाममज्झे---लम्बाई का मध्यभाग / उवासंतरस्स–अवकाशान्तर, आकाशखण्ड का, साइरेग--सातिरेक, कुछ अधिक / ओगाहिता उल्लंघन–अवगाहन करके / हेटिं-- नीचे / पत्थटे--प्रस्तट-पाथड़ा / उवरिम-हेटिलेसु-ऊपर और नीचे के / खुड्डयपयरेसु-क्षुद्र (छोटे लघुतम) प्रतरों में / प्रवहति-प्रवहित--प्रवत्तित होती हैं / ऐन्द्रो आदि दस दिशा-विदिशा का स्वरूपनिरूपण : छठा-दिशा-विदिशा-प्रवहादिद्वार 16. इंदा णं भंते ! दिसा किमादीया किपवहा कतिपदेसादीया कतिपदेसुत्तरा कतिपदेसिया किपज्जवसिया किसंठिया पन्नता? गोयमा ! इंदा णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा दुपदेसादीया दुपदेसुत्तरा, लोग पडुच्च प्रसंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च अणंतपदेसिया, लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादोया अपज्जव सिया, लोगं पडुच्च मुरजसंठिया, प्रलोग पडुच्च सगडुद्धिसंठिता पन्नत्ता। [16 प्र.] भगवन् ! इन्द्रा (ऐन्द्री-पूर्व) दिशा के मादि (प्रारम्भ) में क्या है ?, वह कहाँ से निकली है ? उसके आदि (प्रारम्भ) में कितने प्रदेश हैं ? उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है ? वह कितने प्रदेश वालो है ? उसका पर्यवसान (अन्त) कहाँ होता है ! और उसका संस्थान कैसा है ? [16 उ.] गौतम ! ऐन्द्री दिशा के प्रारम्भ में रुचक प्रदेश' है / वह रुचक प्रदेशों से निकली है / उसके प्रारम्भ में दो प्रदेश होते हैं / आमे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। वह लोक की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा से अनन्तप्रदेश वाली है / लोक-नाश्रयी वह सादि-सान्त (आदि और अन्त सहित) है और अलोक-प्राश्रयी वह सादि अनन्त है / लोक-याश्रयी वह मुरज (मृदंग) के आकार की है, और अलोक-ग्राश्रयी वह ऊर्वशकटाकार (शकटोद्धि) की है। (ख) भगदती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2184 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 607 2. वही, भा. 5. पृ. 2184 देखो आकृतिनं.१ देखो आकृति नं.२ रुचक प्रदेश Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. अगेयो गं भंते ! दिसा किमादीया किपवहा कतिपएसादीया कतिपएसविस्थिण्णा फलिपदेसिया किपज्जवसिया किसंठिया पन्नत्ता? ___ गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा एगपएसादीया एगपएसविस्थिण्णा अणुत्तरा, लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोग पडुच्च अणंतपएसिया, लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया, छिन्नमुत्तावलिसंठिया पन्नत्ता / [17 प्र.] भगवन् ! आग्नेयी दिशा के आदि में क्या है ? उसका उद्गम (प्रवह) कहाँ से है ? उसके प्रादि में कितने प्रदेश हैं ? वह कितने प्रदेशों के विस्तार वाली है ? वह कितने प्रदेशों वाली है ? उसका अन्त कहाँ होता है ? और उसका संस्थान (ग्राकार) कैसा है ? [17 उ.] गौतम ! आग्नेयी दिशा के आदि में रुचकप्रदेश हैं। उसका उद्गम (प्रबह) भी रुचकप्रदेश से है / उसके आदि में एक प्रदेश है। वह अन्त तक एक-एक प्रदेश के विस्तार वाली है / वह अनुत्तर (उत्तरोत्तरवृद्धि से रहित) है / वह लोक की अपेक्षा असंख्यातप्रदेश वाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्तप्रदेश वाली है। वह लोक-ग्राश्रयी सादि-सान्त है और अलोक-प्राश्रयी सादि-अनन्त है / उसका आकार (संस्थान) टूटी हुई मुक्तावली (मोतियों की माला) के समान है। 18. जमा जहा इंदा। [18] याम्या का स्वरूप ऐन्द्री के सामान समझना चाहिए / 19. नेरती जहा अग्गेयी। [16] नैऋती का स्वरूप आग्नेयी के समान मानना चाहिए। 20. एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि वि / जहा अग्गेयी तहा चत्तारि वि विदिसाओ। [20] (संक्षेप में) ऐन्द्री दिशा के समान चारों दिशाओं का तथा आग्नेयी दिशा के समान चारों विदिशाओं का स्वरूप जानना चाहिए। 21. विमला गं भंते ! दिसा किमादीया०, पुच्छा। गोयमा ! विमला णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा चउप्पएसादीया, दुपदेसपिस्थिण्णा अणुत्तरा, लोगं पडुच्च० सेसं जहा अग्गेयीए, नवरं रुयगसंठिया पन्नत्ता। 21 प्र.] भगवन् ! विमला (ऊर्ध्व) दिशा के आदि में क्या है ? इत्यादि आग्नेयी के समान प्रश्न / [21 उ.] गौतम ! विमल दिशा के आदि में रुचक प्रदेश हैं। वह रुचकप्रदेशों से निकली है। उसके आदि में चार प्रदेश हैं। वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तार वाली है। वह अनुत्तर (उत्तरोत्तर वृद्धि रहित) है / लोक-प्राश्रयी वह असंख्यात प्रदेश वाली है, जबकि अलोक प्राश्रयी अनन्त प्रदेश वाली है, इत्यादि शेष सब वर्णन आग्नेयी के समान कहना चाहिए / विशेषता यह है कि वह (विमला दिशा) रुचकाकार है। Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [279 22. एवं तमा वि। [22] तमा (अधो) दिशा के विषय में भी (समग्र वर्णन इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विवेचन--दिशात्रों के गुणनिष्पन्न नाम उनकी आदि, उद्गम, आदि-प्रदेश प्रदेशविस्तार, उत्तरोत्तर वद्धि विस्तार) प्रदेशसंख्या. उसका अन्त, आकार प्रादि के विषय में शंका-समाधान प्र 7 सूत्रों (16 से 22 सू. तक) में प्रतिपादित किया गया है / ___ दसों दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम क्यों ? (1) ऐन्द्री-पूर्वदिशा का अधिष्ठाता देव इन्द्र होने से, (2) आग्नेयी-अग्निकोण का स्वामी 'अग्नि' देवता होने से। (3) नैऋती-नैऋत्यकोण का स्वामी नैऋति होने से / (4) याम्या दक्षिणदिशा का अधिष्ठाता यम होने से / (5) वारुणी--- पश्चिम दिशा का अधिष्ठाता वरुण होने से। (6) वायव्य–वायुकोण का अधिष्ठाता वायुदेव होने से / (7) सौम्या---उत्तर दिशा का स्वामी सोम (चन्द्रमा) होने से / (8) ऐशानी-ईशानकोण का अधिष्ठाता ईशान देव होने से / इस प्रकार अपने-अपने अधिष्ठाता देवों के नाम पर से ही इन दिशाओं और विदिशात्रों के ये गुणनिष्पन्न नाम प्रचलित हैं। ऊध्वंदिशा को विमला इसलिए कहते हैं कि ऊपर अन्धकार नहीं है, इस कारण वह निर्मल है / अधोदिशा गाल अन्धकारयुक्त होने से 'तमा' कहलाती है, तमा रात्रि को कहते हैं, यह दिशा भी रात्रितुल्य होने से तमा है।' उत्पत्तिस्थान आदि-इन दसों दिशाओं के उत्पत्तिस्थान पाठ रुचकप्रदेश हैं / चारों दिशाएँ मूल में द्विप्रदेशी हैं और आगे-मागे दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होती जाती है / विदिशाएँ मूल में एक प्रदेश वालो निकली हैं और अन्त तक एक प्रदेशी ही रहती हैं। इन के प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा मूल में चतुष्प्रदेशी निकली हैं और अन्त तक चतुष्प्रदेशी ही रहती हैं। इनमें भी वृद्धि नहीं होती / 2 लोक-पंचास्तिकाय-स्वरूपनिरूपण : सप्तम प्रवर्तनद्वार 23. किमियं भंते ! लोए ति पवच्चइ ? गोयमा! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति फ्युच्चइ, तं जहा-धम्मऽस्थिकाए, अधरमऽस्थिकाए, जाव पोग्गलऽस्थिकाए। [23 प्र.] भगवन् ! यह लोक क्या कहलाता है-लोक का स्वरूप क्या है ? [23 उ.] गौतम ! पंचास्तिकायों का समूहरूप ही यह लोक कहलाता है। वे पंचास्तिकाय इस प्रकार हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (2) अधर्मास्तिकाय, यावत् (प्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय) पुद्गलास्तिकाय / 24. धम्मऽथिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! धम्मास्थिकाए जं जीवाणं आगमण-गमण-भासुम्मेस-मणजोग-वइजोग-कायजोगा, जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मऽस्थिकाए पवत्तंति / गतिलक्खणे णं धम्मत्थिकाए। 1. (क) भगवती. श. 10 उ. 1, मू. 6-7. में देखिये। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2187 2. वही, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2188 Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [24 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? 24 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष (नेत्र खोलना), मनोयोग, वचनयोग, और काययोग प्रवृत्त होते हैं। ये और इस प्रकार के जितने भी चल भाव (गमनशील भाव) हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है। 25. अहम्मास्थिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! अहम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं ठाग-निसोयण-तुयट्टण-मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सत्वे ते अहम्मऽस्थिकाये पवत्तंति / ठाणलक्खणे णं अहम्मस्थिकाए / [25 प्र.) भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? [25 उ.] गौतम ! अधर्मास्तिकाय से जीवों के स्थान (स्थित रहना), निधीदन (बैठना), त्वरवर्तन (करवट लेना, लेटना या सोना) और मन को एकाग्न करना (आदि की प्रवृत्ति होती है।) ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं / अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिलिरूप है। 26. श्रागासथिकाए णं भंते ! जीवाणं अजीवाण य कि पवत्तति ? गोयमा ! आगासथिकाए णं जीवदव्वाण य अजीववव्वाण य भायणभूए / एगेण वि से पुण्णे, दोहि वि पुण्णे, सयं पि माएज्जा। कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा // 1 // अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए। [26 प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों को क्या प्रवृत्ति होती है ? [26 उ.] गौतम ! अाकाशास्तिकाय, जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों का भाजनभूत (आश्रयरूप) होता है / (अर्थात्-आकाशास्तिकाय जीव और अजीवद्रव्यों को अवगाह देता है।) (एक गाथा के द्वारा आकाश का गुण बताया गया है-.) अर्थात्-एक परमाणु से पूर्ण या दो परमाणुगों से पूर्ण (एक प्राकाशप्रदेश में) सौ परमाणु भी समा सकते हैं / सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में एक हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं / अाकाशास्तिकाय का लक्षण 'अवगाहना' रूप है। 27. जीवऽथिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! जीवऽस्थिकाए णं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अस्थिकायुद्देसए (स० 2 उ०१० सु० 9 [2]) जाव उवयोगं गच्छति / उवयोगलक्खणे णं जीवे / {27 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? ..] गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त ग्राभिनिबोधिक ज्ञान की पर्यायों Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [281 को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्राप्त करता है; (इत्यादि सब कथन) द्वितीय शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक के (सूत्र 6-2 के) अनुसार ; यावत् वह (ज्ञान-दर्शनरूप) उपयोग को प्राप्त होता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) जीव का लक्षण उपयोग-रूप है / 28. पोग्गलऽस्थिकाए पुच्छा। गोयमा ! पोग्गलऽस्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउब्धिय-पाहारग-तेया-कम्मा-सोतिदियचविखदिय-धाणिदिय- जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वइजोग-कायजोग-प्राणापाणूणं च गहणं पवत्तति। गहणलक्खणे णं पोग्गलथिकाए। [28 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? [28 उ.] गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिहन्द्रिय, स्पर्शन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास-उच्छ्वास का ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण 'ग्रहण' विवेचन--प्रस्तुत छह सूत्रों में लोक के स्वरूप तथा धर्मास्तिकाय आदि पञ्चास्तिकाय की प्रवृत्ति एवं लक्षण, सप्तम प्रवर्तनद्वार के द्वारा प्ररूपित किये गये हैं। लोक, अस्तिकाय और प्रकार-प्रस्तूत सूत्र में लोक को पंचास्तिकाय रूप बताया है / अस्ति का अर्थ है प्रदेश और काय का अर्थ है समूह, अर्थात्--प्रदेशों के समूह वाले द्रव्यों को 'अस्तिकाय' कहते हैं / वे पांच हैं-धर्म, अधर्म, अाकाश, जीव और पुद्गल / कई दार्शनिक ब्रह्ममय लोक कहते हैं, उनका निराकरण इस सूत्र से हो जाता है। इनमें से सिवाय अाकाशतत्व के अलोक में और कुछ नहीं है।' धर्मास्तिकाय आदि का स्वरूप--धर्मास्तिकाय-गति-परिणाम वाले जीव और पुदगलों की गमनादि चलक्रिया में सहायक / यथा—मछली के गमन में जल सहायक होता है / / अधर्मास्तिकाय-स्थिति-परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति आदि अवस्थानक्रिया में सहायक / यथा-विश्रामार्थ ठहरने वाले पथिकों के लिए छायादार वृक्ष / प्राकाशास्तिकाय--जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला / यथा- एक दीपक के प्रकाश से परिपूर्ण स्थान में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है। जीवास्तिकाय-जिसमें उपयोगरूप गुण हो / पुदगलास्तिकाय -- जिस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों तथा जो मिलने-बिछुड़ने के स्वभाव वाला हो। प्रत्येक अस्तिकाय के पांच-पांच भेद-धर्मास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण (समग्र लोकव्याप्त), लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी है। काल 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 608 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2191 2. तत्त्वार्थसूत्र, (पं. सुखलालजी) अ. 5, सू, 1 से 6 Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की अपेक्षा त्रिकालस्थायी है तथा ध्र व, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय और अवस्थित है / भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित अरूपी है / गुण की अपेक्षा गति गुण वाला / अधर्मास्तिकाय के पांच भेद-धर्मास्तिकाय के समान हैं / केवल गुण की अपेक्षा यह स्थितिगुण वाला है। आकाशास्तिकाय के पांच भेद-इसके तीन भेद तो धर्मास्तिकाय के समान हैं / किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक व्यापी है। अनन्त प्रदेशो है। लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है। गुण की अपेक्षा अवगाहनागुण वाला है। जीवों और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है। उदाहरणार्थ- एक दीपक के प्रकाश से भरे हुए मकान में यदि सौ यावत् हजार दीपक भी रखे जाएँ तो उनका प्रकाश भी उसी मकान में समा जाता है, बाहर नहीं निकलता। इसी प्रकार पुद्गलों के परिणाम की विचित्रता होने से एक, दो, संख्यात, असंख्यात, यावत् अनन्त परमाणुओं से पूर्ण एक प्रकाशप्रदेश में एक से लेकर अनन्त परमाणु तक समा सकते हैं / पुद्गल-परिणामों की विचित्रता को स्पष्ट करने हेतु वत्तिकार ने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया है-प्रौषधि विशेष से परिणमित एक तोले भर पारद की गोली, सौ तोले सोने की गोलियों को अपने में समा लेती है। पारदरूप में परिणत उस गोली पर औषधि विशेष का प्रयोग करने पर वह तोले भर की पारे की गोली तथा सौ तोले भर सोना दोनों पृथक-पृथक् हो जाते हैं / यह सब पुद्गल-परिणामों की विचित्रता है / इसी प्रकार एक परमाणु से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य को अपेक्षा से अनन्त-द्रव्यरूप है, क्योंकि जीव पृथक-पृथक् द्रव्यरूप अनन्त हैं / क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण है / एक जीव की अपेक्षा जीव असंख्यातप्रदेशी है और सभी जीवों के प्रदेश अनन्त हैं / काल की अपेक्षा जीव आदि-अन्त रहित है (ध्र व, नित्य एवं शाश्वत है) / भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित है, अरूपी है तथा चेतना गुण वाला है / गुण की अपेक्षा उपयोग गण रूप है। पुदगलास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल अनन्त द्रव्यरूप है / क्षेत्र की अपेक्षा लोक में ही है और परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी तक है / काल की अपेक्षा पुद्गल भी आदि-अन्तरहित है (निश्चयदृष्टि से वह भी ध्र व, शाश्वत और नित्य है)। भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श सहित है. यह रूपी और जड़ है / गुण को अपेक्षा 'ग्रहण' गुण वाला है / अर्थात्-ौदारिक शरीर आदि रूप से ग्रहण किया जाना अथवा इन्द्रियों से ग्रहण होना (इन्द्रियों का विषय होना), परस्पर मिलना बिछुड़ना पुद्गलास्तिकाय का गुण है।' कठिनशब्दार्थ ---भासुम्मेस--भाषण तथा उन्मेष-नेत्रव्यापारविशेष / ठाण-निसीयण-तुयट्टण----- ठाण-स्थित होना, कायोत्सर्ग करना, निसोयण-बैठना, तुयट्टण-शयन करना, करवट बदलना / एगतीभावकरणता—एकत्रीभावक रण-एकाग्र करना / भायणभूए–भाजनभूत--अाधारभूत / आणापाणूणं-पान -प्राण-~श्वासोच्छ्वासों का / 1. (क) तत्त्वार्थ सूत्र (पं. सुखलालजी) अ. 5, मू. 1 से 10 तक (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2192-93 (ग). भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 608 2. बही, अ. वृत्ति, पत्र 608 Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [283 पंचास्तिकायप्रदेश-प्रद्धासमयों का परस्पर जघन्योत्कृष्ट प्रदेश-स्पर्शनानिरूपण : 8 अस्तिकायस्पर्शनाद्वार 29. [1] एगे भंते ! धम्मऽस्थिकायपएसे केवतिहि धम्मऽस्थिकायपएसेहि पुढे ? गोयमा ! जहन्नपए तोहि, उक्कोसपए छहिं / [26-1 प्र] भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट (छुपा हुआ) होता है ? [26-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य पद में तीन प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [2] केवतिएहि अधम्मऽस्थिकायपएसेहि पुढे ? जहन्नपए चउहि, उक्कोसपदे सत्तहिं / [29-2 प्र.] (भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश,) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-2 उ.] (गौतम ! वह) जघन्य पद में चार प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सात अधर्मास्ति काय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि प्रागासस्थिकायपदेसेहिं पुढे ? सहि। [29-3 प्र. वह (धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-3 उ.] (गौतम ! वह) सात (आकाश-) प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [4] केवतिएहि जीवऽस्थिकायपदेसेहिं पुट्ठ ? अणतेहिं / [26-4 प्र.] (भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-4 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त (जीव-) प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [5] केवतिएहि पोग्गलऽस्थिकायपएसेहि पु? ? अणंतेहिं / [26-5 प्र.] (भगवन् ! वह) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-5 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [6] केवतिएहिं श्रद्धासमएहिं पुढे ? सिय पुढे, सिय नो पुढे / जइ पुढे नियम अणंसेहिं / Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [29-6 प्र.] (भगवन् ! वह धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट होता है ? [26-6 उ.] (गौतम ! वह) कथंचित् स्पृष्ट होता है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है तो नियमतः अनन्त समयों से स्पृष्ट होता है। 30. [1] एगे भंते ! अहम्मऽस्थिकायपएसे केवतिरहि धम्मऽस्थिकायपएसेहि पुट्ठ ? गोयमा ! जहन्नपए चहि, उक्कोसपए सत्तहिं / [30-1 प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? 30-1 उ.] (गौतम ! वह अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश,) धर्मास्तिकाय के जघन्य पद में चार और उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [2] केवतिएहि अहम्मऽस्थिकायपदेसेहि पुढे ? जहन्नपए तोहि, उक्कोसपदे हिं / सेसं जहा धम्मऽस्थिकायस्स / [30-2 प्र.] (भगवन् ! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) कितने अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [30-2 उ.] (गौतम ! वह) जघन्य पद में तीन और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के वर्णन के समान समझना चाहिए / 31. [1] एगे भंते ! भागासऽथिकायपएसे केवतिएहि धम्मऽस्थिकायपएसेहिं पुढे ? / सिय पुढे, सिय नो पु? / जति पुढे जहन्नपदे एक्केण वा दोहि वा तोहि का चहिं वा, उक्कोसप [31-1 प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [31-1 उ.] (गौतम ! अाकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, धर्मास्तिकाय के प्रदेश से) कदाचित् स्पृष्ट होता है, कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता / यदि स्पृष्ट होता है तो जघन्य पद में एक, दो, तीन या चार प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [2] एवं अहम्मऽस्थिकायपएसेहि वि। [31-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट के विषय में जानना चाहिए। [3] केवतिएहि आगासऽस्थिकायपदेसेहि ? हिं / [31-3 प्र.] (भगवन् ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है ? ) [31-3 उ.] (गौतम ! वह) छह प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है / ) Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : : उद्देशक 4] [25 [4] केवतिहि जोवऽस्थिकायपदेसेहि पु?? सिय पुट्ठ', सिय नो पुट्ठ / जइ पुढे नियम प्रणंतेहिं / [31-4 प्र.] (भगवन् ! प्राकाशास्तिकाय का एक प्रदेश) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [31-4 उ.] वह कदाचित् स्पृष्ट होता है, कदाचित् नहीं / यदि स्पृष्ट होता है तो नियमत: अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [5] एवं पोग्गलऽशिकायपएसेहि वि अद्धासमएहि वि / / 31-5] इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों से तथा श्रद्धाकाल के समयों से स्पृष्ट के विषय में जानना चाहिए। 32. [1] एगे भंते ! जीवऽस्थिकायपएसे केवतिएहि धम्मऽस्थि० पुच्छा। जहन्नपए चउहि, उक्कोसपए सतहि / [32-1 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों में स्पृष्ट होता है ? [32-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से और उत्कृष्टपद में सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [2] एवं प्रधम्मऽस्थिकायपएसेहि वि / 532-2] इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि प्रागासऽथि० ? सहि / [32-3 प्र.] (भगवन् ! ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह स्पृष्ट होता है ? [32-3 उ.] (गौतम ! वह) आकाश के सात प्रदेशों से स्पष्ट होता है। [4] केवतिएहि जीवऽस्थि० ? सेसं जहा धम्मऽस्थिकायस्स / [32.4 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से वह (जीवास्तिकायिक एक प्रदेश) स्पृष्ट होता है ? [32-4 उ.] (गौतम !) शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के प्रदेश के समान (समझना चाहिए।) 33, एगे भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपएसे केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहि० ? एवं जहेव जीवऽस्थिकायस्स / [33 प्र.] भगवन् ! एक पुद्गलास्तिकायिक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 33 उ.] गौतम ! जिस प्रकार जीवास्तिकाय के एक प्रदेश के (विषय में कथन किया, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए।) विवेचन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 26 से 33 तक) में एक-एक धर्मास्तिकाय आदि पांचों के एक-एक प्रदेश का अन्यान्य अस्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पर्श होता है, इसकी प्ररूपणा अष्टम अस्तिकाय-स्पर्शनाद्वार के माध्यम से की गई है। धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश का अन्य अस्तिकाय-प्रदेशों से स्पर्श धर्मास्तिकाय प्रादि के (एक) प्रदेश की जघन्य (सब से थोड़े) अन्य प्रदेशों के साथ स्पर्शना तब होती है, जब वह लोकान्त के एक कोने में होता है / उसकी स्थिति भूमि के निकटवर्ती घर के कोने के समान होती है / उस समय जघन्य पद में वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, ऊपर के एक प्रदेश से और पास के दो प्रदेशों से एक विवक्षित प्रदेश स्पृष्ट होता है, उसकी स्थापना इस प्रकार होती है. इस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, जघन्यतः धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / तथा उत्कृष्टतः वह चारों दिशाओं के चार प्रदेशों से, और ऊर्ध्व तथा अधोदिशा के एक-एक प्रदेश से, इस छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / स्थापना- 0 इस प्रकार होती है। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अधर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से तो उसी प्रकार स्पृष्ट होता है, जिस प्रकार धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तथा धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्तिकाय के चौथे एक प्रदेश से भी वह स्पृष्ट होता है / इस प्रकार जघन्य पद में वह चार अधर्मास्तिकायिक प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / उत्कृष्ट पद में छह दिशाओं के छह प्रदेशों से और सातवें धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान में रहे हुए अधर्मास्ति काय के एक प्रदेश से, यो सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / आकाशास्तिकाय के भी पूर्वोक्त सात प्रदेशों को स्पर्शना-होती है, क्योंकि लोकान्त में भी अलोकाकाश होता है। जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से-धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश स्पृष्ट होता है, क्योंकि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश पर और उसके पास अनन्त जीवों के अनन्तप्रदेश विद्यमान होते हैं। इसी प्रकार वह पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। अद्धाकाल के समयों को स्पर्शना-प्रद्धाकाल केवल समय क्षेत्र (ढाई द्वीप और दो समुद्र) में ही होता है, बाहर नहीं; क्योंकि समय, घड़ी, घंटा आदि काल सूर्य की गति से ही निष्पन्न होता है / उससे धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है तो अनन्त अद्धा-समयों से स्पृष्ट होता है, क्योंकि वे अनादि हैं, इसलिए उनकी अनन्त समयों को स्पर्शना होती है / अथवा वर्तमान समय विशिष्ट अनन्त द्रव्य उपचार से अनन्त समय कहलाते हैं / इसलिए अद्धाकाल अनन्त समयों से स्पष्ट हया कहलाता है।। अधर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों से स्पर्शना—धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की स्पर्शना के समान समझना चाहिए।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 611 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा, 5, पृ. 2205 Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [287 प्राकाशास्तिकाय के एक प्रदेश की धर्मास्तिकायादि से स्पर्शना–प्राकाशास्तिकाय का एक प्रदेश, लोक की अपेक्षा धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पष्ट होता है और अलोक की अपेक्षा स्पृष्ट नहीं होता। यदि स्पृष्ट होता है तो जघन्य पद में लोकान्तवर्ती धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से, शेष धर्मास्तिकाय प्रदेशों से निर्गत अग्नभागवर्ती अलोकाकाश का एक प्रदेश स्पृष्ट होता है। वगत आकाशप्रदेश धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। जिस अलोकाकाश के एक प्रदेश के आगे, नीचे और ऊपर धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, वह धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। स्थापना इस प्रकार है- -.-.' / जो श्राकाश प्रदेश लोकान्त के एक कोने में स्थित है, वह तदाश्रित (तदवगाढ) धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से तथा ऊपर या नीचे रहे हुए अन्य एक प्रदेश से और दो दिशाओं में रहे हुए दो प्रदेशों से ; इस प्रकार धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / स्थापना इस प्रकार है / जो आकाश प्रदेश, धर्मास्तिकाय के नीचे के एक प्रदेश से ऊपर के एक प्रदेश से तथा दो दिशाओं में रहे हुए दो प्रदेशों से और वहीं रहे हुए धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से स्पृष्ट होता है, वह इस प्रकार धर्मास्तिकाय पांच प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। जो अाकाशप्रदेश धर्मास्तिकाय के ऊपर के एक प्रदेश से, नीचे के एक प्रदेश से, तीन दिशाओं के तीन प्रदेशों से और वहीं रहे हुए एक प्रदेश से स्पृष्ट होता है; वह छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। जो आकाशप्रदेश धर्मास्तिकाय के ऊपर और नीचे के एक-एक प्रदेश से तथा चार दिशानों के चार प्रदेशों से और वहीं रहे हुए एक प्रदेश से स्पृष्ट होता है, वह इस प्रकार सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी उसकी स्पर्शना जाननी चाहिए। लोकाकाश और अलोकाकाश का एक प्रदेश, छहों दिशाओं में रहे हुए आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट होता है। इसलिए उसकी स्पर्शना छह प्रदेशों से बताई गई है। यदि अलोकाकाश का प्रदेशविशेष हो तो वह जीवास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं होता, क्योंकि वहाँ जीवों का अभाव है / यदि लोकाकाश का प्रदेश हो तो, वह जीवास्तिकाय से स्पृष्ट होता है।' इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों तथा अद्धाकाल के समयों की स्पर्शना के विषय में समझना चाहिए। यदि जीवास्तिकाय का एक प्रदेश लोकान्त के एक कोण में होता है तो धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से (नीचे या ऊपर के एक प्रदेश से, दो दिशाओं के दो प्रदेशों से और एक तदाश्रित प्रदेश से) स्पृष्ट होता है, क्योंकि स्पर्शक प्रदेश सबसे अल्प होते हैं। जीवास्तिकाय का एक प्रदेश, एक आकाशप्रदेशादि पर केवलिसमुद्घात के समय ही पाया जाता है। उत्कृष्ट पद में जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के सात पूर्वोक्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी स्पर्शना जाननी चाहिए / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 611 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2206 Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीवास्तिकाय के प्रदेश को स्पर्शना के समान पुदगलास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना भी जाननी चाहिए। 34. [1] दो भंते ! पोग्गलऽस्थिकायप्पदेसा केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहि पुट्ठा ? जहन्नपए छह, उक्कोसपदे बारसहि / [34-1 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? [34-1 उ.] गौतम ! वे जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में बारह प्रदेशों से स्पृष्ट हैं। [2] एवं प्रहम्माथिकायप्पएसेहि वि। [34-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी वे (पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश) स्पृष्ट होते हैं / [3] केवतिएहि मागास स्थिकाय? बारसहि। [34-3 प्र.] भगवन् ! वे आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [34-3 उ.] गौतम ! वे आकाशास्तिकाय के 12 प्रदेशों से स्पृष्ट हैं / [4] सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स / [34-4] शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिए। 35. [1] तिन्नि भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपदेसा केवतिएहि धम्मत्यिक ? जहन्नपदे अहि, उक्कोसपदे सत्तरसहि / [35-1 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [35-1 उ. ] गौतम ! वे (तीन प्रदेश) जघन्य पद में (धर्मास्तिकाय के) पाठ प्रदेशों और उत्कृष्ट पद में 17 प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [2] एवं अहम्मस्थिकायपदेसेहि वि / [35-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से भी वे (तीन प्रदेश) स्पृष्ट होते हैं / [3] केवइएहिं पागासस्थि० ? सत्तरसहि / [35-3 प्र.] भगवन् ! अाकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (वे स्पृष्ट होते हैं ?) [35-3 उ.] गौतम ! वे सत्तरह प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। 1. (क) वही, पृ. 2206 (ख) भगबती. अ. वत्ति, पत्र 611 Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [269 [4] सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स / [35-4] शेष सभी वर्णन धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिए। 36. एवं एएणं गमेणं भाणियब्वा जाव दस, नवरं जहन्नपदे दोनि पविखवियम्वा, उक्कोसपए पंच। [36] इसी आलापक के समान यावत् दश प्रदेशों तक इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जघन्य पद में दो और उत्कृष्ट पद में पांच का प्रक्षेप करना चाहिए / 37. चत्तारि पोग्गलऽस्थिकाय ? जहन्नपदे दहि, उक्को० बावीसाए / [37 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के चार प्रदेश (धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? ) [37 उ.] (गौतम ! वे) जघन्य पद में दस प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में बाईस प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं।) 38. पंच पोग्गल? जह• बारसहि, उक्कोस० सत्तावीसाए / [38 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के पांच प्रदेश (धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? ) _ [38 उ.] (गौतम ! वे) जघन्य पद में बारह प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सत्ताईस प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। 36. छ पोग्गल.? जह० चोद्दसहि, उक्को० बत्तीसाए। [36 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के छह प्रदेश (धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ?) 36 उ.] (गौतम ! वे) जघन्यपद में चौदह और उत्कृष्ट पद में बत्तीस प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं।) 40. सत्त पो० ? जहन्नेणं सोलसहि, उक्को० सत्ततीसाए। [40 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के सात प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं ? ) [40 उ.] (गौतम ! वे) जघन्य पद में सोलह और उत्कृष्ट पद में सैंतीस प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं।) Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र 41. अट्ट पो०? जह अट्ठारसहि, उक्कोसेणं बायालीसाए। [41 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के आठ प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [41 उ.] (गौतम ! वे) जघन्य पद में अठारह और उत्कृष्ट पद में बयालीस प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं / ) 42. नव पो०? जह० वीसाए, उक्को० सीयालीसाए। [42 प्र.] (भगवन् ! ) पुद्गलास्तिकाय के नौ प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? घन्य पद में बीस और उत्कृष्ट पद में छियालीस प्रदेशों से होते हैं / ) 43. दस०? . जह० बावीसाए, उक्को० बावण्णाए / लास्तिकाय के दस प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं ? [43 उ.] (गौतम ! वे) जघन्य पद में बाईस और उत्कृष्ट पद में वावन प्रदेशों से (स्पृष्ट होते हैं ?) 44. प्रागासऽस्थिकायस्स सम्वत्थ उक्कोसगं भाणियध्वं / [44] अाकाशास्तिकाय के लिए सर्वत्र उत्कृष्ट पद ही कहना चाहिए / 45. [1] संखेज्जा भंते ! पोग्गल थिकायपएसा केवतिएहि धम्माथिकायपएसेहि पुट्ठा ? जहन्नपदे तेणेव संखेज्जएणं दुगुणणं दुरूवाहिएणं, उक्कोसपए तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणणं दुरूवाहिएणं। पूद गलास्तिकाय के संख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-1 उ.] गौतम ! जघन्य पद में उन्हों संख्यात प्रदेशों को दुगुने करके उनमें दो रूप और अधिक जोड़ें और उत्कृष्ट पद में उन्हीं संख्यात प्रदेशों को पांच गुने करके उनमें दो रूप और अधिक जोड़ें, उतने प्रदेशों से वे स्पृष्ट होते हैं। [2] केवतिहि अहम्मऽस्थिकाएहि ? एवं चेव। [45-2 प्र. (भगवन् ! ) वे अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-2 उ.) (गौतम !) पूर्ववत् (धर्मास्तिकाय के समान जानना चाहिए)। Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [291 [3] केवतिएहि पागासऽस्थिकाय? तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं / [45.3 प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-3 उ.] (गौतम ! ) उन्हीं संख्यात प्रदेशों को पाँच गुणे करके उनमें दो रूप और जोड़ें, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं / [4] केवतिएहि जीवस्थिकाय ? अणतेहि / |45-4 प्र. (भगवन् ! ) वे जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-4 उ. (गौतम ! वे) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [5] केवतिएहि पोग्गलस्थिकाय ? अणंतेहि / [45-5 प्र. (भगवन् ! वे) पुद्गला स्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-5 उ. (गौतम ! वे) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं / [6] केवतिएहि श्रद्धासमयेहि ? सिय पुढे', सिय नो पुढे जाव अणतेहिं / [45-6 प्र.] (भगवन् ! वे) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पृष्ट होते हैं ? [45-6 उ.] (गौतम ! वे) कदाचित् स्पृष्ट होते हैं और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होते, यावत् अनन्त समयों से स्पृष्ट होते हैं / 46. [1] असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहि धम्मऽस्थि ? जहन्नपदे तेणेव असंखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं, उक्को० तेणेव असंखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं / [46-1 प्र.| भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [46-1 उ.] गौतम ! जघन्य पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को दुगुने करके उन में दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने (धर्मास्तिकायिक) प्रदेशों से (पुद्गलास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश) स्पष्ट होते हैं और उत्कृष्ट पद में उन्हीं असंख्यात प्रदेशों को पांच गुणे करके उनमें दो रूप अधिक जोड़ दें, उतने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। [2] सेसं जहा संखेज्जाणं जाब नियम अणतेहिं / [46-2] शेष सभी वर्णन संख्यात प्रदेशों के समान जानना चाहिए, यावत् नियमत: अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 47. अणता भंते ! पोग्गलऽस्थिकायपएसा केवतिएहि धम्मऽस्थिकाय ? एवं जहा असंखेज्जा तहा अणंता वि निरवसेसं / [47 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं ? [47 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार असंख्यात प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार अनन्त प्रदेशों के विषय में भी समस्त कथन करना चाहिए। 48 [1] एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहि धम्मऽस्थिकायपदेसेहि पु?? सत्तहि। [48-1 प्र.] भगवन् ! श्रद्धाकाल का एक समय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [48-1 उ.] (गौतम ! वह) सात प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है / ) [2] केवतिएहि अहम्मऽस्थि० ? एवं चेव / [48-2 प्र.] (भगवन् ! वह) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है ? ) [48-2 उ.] पूर्ववत् (धर्मास्तिकाय के समान) जानना चाहिए / [3] एवं आगासऽस्थिकाएहि थि / [48-3] इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से (श्रद्धाकाल के एक समय की स्पर्शना के विषय में) भी (कहना चाहिए / ) [4] केवतिएहि जीव ? अणतेहिं / [48-4 प्र.] (भगवन् ! अद्धाकालिक एक समय) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? [48-4 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [5] एवं जाव अद्धासमएहि / [48-5] इसी प्रकार यावत् अनन्त श्रद्धासमयों से स्पृष्ट होता है / 49. [1] धम्मऽस्थिकाए णं भंते ! केवतिहि धम्मऽस्थिकायपएसेहिं पुढे ? नस्थि एक्केण वि। [46-1 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय द्रव्य, धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? ___ [46-1 उ.] गौतम ! वह एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होता / Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |293 तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [2] केवतिएहि अधम्माथिकायप्पएसहि० ? असंखेज्जेहि / [46-2 प्र.] (भगवन् ! वह) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-2 उ.] (गौतम !) वह असंख्येय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि भागासऽस्थिकायप० ? असंखेज्जेहिं। [46-3 प्र. (भगवन् ! वह) अाकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-3 उ.] (गौतम ! वह) असंख्येय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [4] केवतिहि जीवऽस्थिकायपए ? अणतेहि / [46-4 प्र.] (भगवन् ! वह) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [46-4 उ.] (गौतम ! वह उसके) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [5] केवतिएहि पोरंगलस्थिकायपएसेहि ? अणंतेहि। [49-5 प्र.] भगवन् ! वह) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होता है ? [49-5 उ.(गौतम ! वह उसके) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [6] केवतिहि अद्धासमरहिल ? सिय पुढे सिय नो पुढे / जइ पुढे नियमा अणंतेहिं / [46-6 प्र.] (भगवन् ! वह) अद्धाकाल के कितने समयों से स्पष्ट होता है ? [46-6 उ.] (गौतम ! वह) कदाचित् स्पृष्ट होता है, और कदाचित् नहीं होता / यदि स्पृष्ट होता है तो (वह उसके) नियमतः अनन्त समयों से (स्पृष्ट होता है / ) 50. [1] अधम्मऽस्थिकाए णं भंते ! केव० धम्मस्थिकाय ? असंखेज्जेहि। [50-1 प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय द्रव्य धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [50-1 उ.] (गौतम ! वह उसके) असंख्यात प्रदेशों से (स्पृष्ट होता है / ) [2] केवतिएहि अहम्मत्थि० ? नत्थि एक्केण वि। [50-2 प्र.] भगवन् ! वह अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [50-2 उ.] गौतम ! वह (अधर्मास्तिकायिक द्रव्य) उसके (अधर्मास्तिकाय के) एक भी प्रदेश से (स्पृष्ट नहीं होता / ) Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3] सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स / [50-3] शेष सभी (द्रव्यों के प्रदेशों) से स्पर्शना के विषय के धर्मास्तिकाय के समान (जानना चाहिए।) 51. एवं एतेणं गमएणं सव्वे वि सट्ठाणए नत्थेक्केण वि पुट्ठा। परढाणए आदिल्लएहिं तीहि असंखेज्जेहि भाणियब्वं, पच्छिल्लएस तिसु अणंता भाणियब्वा जाव अद्धासमयो ति–जाव केवतिएहि श्रद्धासमरहिं पु?? नत्थेक्केण वि। [51] इसी प्रकार इसी सालापक (पाठ) द्वारा सभी द्रव्य स्वस्थान में एक भी प्रदेश से स्पष्ट नहीं होते, (किन्तु) परस्थान में आदि के (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन) तीनों के असंख्यात प्रदेशों से स्पर्शना कहनी चाहिए, पीछे के तीन स्थानों (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय, इन तीनों) के अनन्त प्रदेशों से स्पर्शना यावत् प्रद्धासमय तक कहनी चाहिए / (यथा-) [प्र.] "अद्धाकाल, कितने अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है ?" [उ.] अद्धाकाल के एक भी समय से स्पृष्ट नहीं होता। विवेचन-प्रस्तुत 18 सूत्रों (सू. 34 से 51 तक) में पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशों की धर्मास्तिकाय से लेकर श्रद्धासमय तक के प्रदेशों से स्पर्शना की, तदनन्तर एक अद्धाकाल की धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से स्पर्शना की प्ररूपणा की गई है। अन्तिम तीन सूत्रों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों की धर्मास्तिकायादि छह के प्रदेशों से स्पर्शना की प्ररूपणा की है। पदगलास्तिकाय के दो प्रदेशों की धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से स्पर्शना-इस विषय में चूर्णिकार को विवेचन यह है कि-लोकान्त में द्विप्रदेशिक स्कन्ध एक प्रदेश को अवगाहित करके रहा हुआ है, तथापि 'एक प्रदेश पर प्रतिद्रव्य की अवगाहना होती है' इस नय के मतानुसार अवाहित प्रदेश एक होते हुए भी भिन्न मानने से वह दो प्रदेशों से स्पृष्ट है तथा उसके ऊपर नीचे जो प्रदेश है, वह भी दो पुद्गलों के स्पर्श से पूर्वोक्त नयमतानुसार दो प्रदेशों से ही स्पृष्ट है / पार्श्ववर्ती दो प्रदेश एक-एक अणु को स्पर्श करते हैं। इस प्रकार जघन्य पद में पुद्गलास्तिकाय का द्विप्रदेशी (द्वयणुक) स्कन्ध धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पष्ट है / यदि पूर्वोक्त प्रकार से नय की विवक्षा न की जाए तो द्वयणुक स्कन्ध की जघन्यतः चार प्रदेशों से ही स्पर्शना होती है / वृत्तिकार के मतानुसार-छह कोष्ठक इस प्रकार बनाकर- बीच के जो दो बिन्दु हैं, उन्हें दो परमाणु समझना / उनमें से इस प्रोर का परमाणु इस ओर के धर्मास्तिकाय के प्रदेश से तथा दूसरी ओर का परमाणु दूसरी ओर के धर्मास्तिकायिक प्रदेश से स्पृष्ट है / इस प्रकार दो प्रदेशों से तथा दो प्रदेशों के मध्य में स्थापित दो परमाणु, आगे के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। इस प्रकार एक के साथ एक और दूसरे के साथ दूसरा, यों कुल चार प्रदेश हुए और दो प्रदेश प्रवगाढ़ होने के कारण स्पृष्ट हैं / इस प्रकार कुल छह प्रदेश स्पष्ट होते हैं / उत्कृष्ट पद में बारह प्रदेशों से स्पर्शना होती है / यथा-दो परमाणु द्विप्रदेशावगाढ़ होने सेदो प्रदेश, ऊपर के दो प्रदेश, नीचे के दो प्रदेश, दोनों ओर के दो-दो प्रदेश और उत्तर-दक्षिण के दो-दो Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [295 . प्रदेश, इस प्रकार वारह प्रदेशों से स्पर्शना होती है / स्थापना इस प्रकार है-- / / ! इसी प्रकार अधर्मास्तिकायिक प्रदेशों से स्पर्शना होती है। आकाशास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पर्श ना होती है। लोकान्त में भी आकाशप्रदेश विद्यमान होने से इसमें जघन्य पद नहीं होता। पुद्गलास्तिकाय के तीन से दस प्रदेश तक को धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से स्पर्शनापुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, जघन्य पद में धर्मास्तिकाय के पाठ प्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं / वे तीन प्रदेश एक प्रदेशावगाढ़ होते हुए भी पूर्वोक्त नयमतानुसार अवगाढ तीन प्रदेश नीचे के तथा तीन प्रदेश ऊपर के और दो प्रदेश दोनों ओर के, इस प्रकार धर्मास्तिकाय के 8 प्रदेशों से स्पर्शना होती है / यहाँ जघन्य पद में सर्वत्र विवक्षित प्रदेशों को दुगुना करके दो और मिलाने पर जितने प्रदेश होते हैं; उत्तने प्रदेशों से स्पर्शना होती है / उत्कृष्ट पद में विवक्षित प्रदेशों को पांचगुणे करके, दो और मिलाएँ उतने प्रदेशों से स्पर्शना होती है। जैसे—एक प्रदेश को दुगुना करने पर दो होते हैं, उनमें दो और मिलाने पर चार होते हैं। इस प्रकार जघन्यपद में एक प्रदेश को चार प्रदेशों से स्पर्शना होती है। उत्कृष्ट पद में, एक प्रदेश को पांचगुणा करने पर पांच होते हैं, उनमें दो और मिलाने पर सात होते हैं / इस प्रकार उत्कृष्ट पद में एक प्रदेश सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार तीन से 10 प्रदंश तक के विषय में समझ लेना चाहिए / इसकी स्थापना इस प्रकार समझ लेनी चाहिए | 2 | 3 4 5 6 7 8 9 10 | परमाणु संख्या 4 | 6 ! 810 12 14, 16 , 18 ! 20 | 22 | जघन्य स्पर्श 17 22 | 27 32 / 37 ! 4247 52 | उत्कृष्ट स्पर्श आकाशास्तिकाय का सभी स्थान पर (एक प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक) उत्कृष्ट पद ही होता है, जघन्य पद नहीं, क्योंकि आकाश सर्वत्र विद्यमान है। पुदगलास्तिकाय के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशों को स्पर्शना-दस के उपरान्त संख्या की गणना संख्यात में होती है / यथा-वीस प्रदेशों का एक स्कन्ध लोकान्त के एक प्रदेश पर रहा हुआ है। वह अमुक नय के मतानुसार बीस अवगाढ प्रदेशों से ऊपर या नीचे के बीस प्रदेशों से और दोनों ओर के दो प्रदेशों से ; इस प्रकार जघन्यपद में 42 प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / उत्कृष्ट पद में निरुपचरित (वास्तविक) बीस प्रवगाढ प्रदेशों से, नीचे के बीस प्रदेशों से, ऊपर के बीस प्रदेशों 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2207-2208 (ख) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 611 2. (क) वही, पत्र 611 Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र से, पूर्व और पश्चिम दिशा (दोनों मोर) के बीस-बीस प्रदेशों से तथा उत्तर और दक्षिण दिशा के एक-एक प्रदेश से, इस प्रकार कुल मिलाकर एक सौ दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / असंख्यात और अनन्त प्रदेशों को स्पर्शना के विषय में भी पूर्वोक्त नियम समझना चाहिए। किन्तु अनन्त के विषय में विशेषता यह है कि जिस प्रकार जघन्य पद में ऊपर या नीचे अवगाढ प्रदेश औपचारिक हैं, उसी प्रकार उत्कृष्टपद के विषय में भी समझना चाहिए। क्योंकि अवगाह से निरुपचरित अनन्त अाकाशप्रदेश नहीं होते, असंख्यात होते हैं / ' ___ अद्धासमय की स्पर्शना-समयक्षेत्रवर्ती वर्तमानसमयविशिष्ट परमाणु को यहाँ अद्धासमय रूप से समझना चाहिए / अन्यथा धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से श्रद्धासमय की स्पर्शना नहीं हो सकती। यहाँ जघन्य पद नहीं है, क्योंकि अद्धासमय मनुष्यक्षेत्रवर्ती है। जघन्य पद तो लोकान्त में सम्भवित्त होता है, किन्तु लोकान्त में काल नहीं है। अद्धासमय को स्पर्शना सात प्रदेशों से होती है। क्योंकि अद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्य धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश में अवगाढ होता है और धर्मास्तिकाय के छह प्रदेश उसके छहों दिशाओं में होते हैं। इस प्रकार उसके सात प्रदेशों से स्पर्शना होती है। श्रद्धासमय जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि वे एक प्रदेश पर भी अनन्त होते हैं। एक अद्धासमय पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से और अनन्त अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है / क्योंकि अद्धासमय विशिष्ट अनन्तपरमाणुगों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि ये उसके स्थान पर और अासपास विद्यमान होते हैं।' समग्र धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की स्पर्शना-स्वस्थान-परस्थान--जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का केवल उनके ही प्रदेशों से स्पर्शना का विचार किया जाए, वह स्वस्थान कहलाता है और जब दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों से स्पर्शना का विचार किया जाए, तो वह परस्थान कहलाता है / स्वस्थान में तो वह सम्पूर्ण द्रव्य अपने एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होता, क्योंकि सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय द्रव्य से धर्मास्तिकाय के कोई पृथक् प्रदेश नहीं है / और परस्थान में धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों के असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और तत्सम्बद्ध आकाशास्तिकाय के असंख्य प्रदेश हैं। क्योंकि धमोस्तिकाय असंख्य प्रदेश-स्वरूप सम्पूर्ण लोकाकाश में है। जीवादि तीन द्रव्यों के विषय में अनन्त प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है। क्योंकि इन तीनों के अनन्त प्रदेश हैं / अाकाशास्तिकाय में इतनी विशेषता है कि वह धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता / जो स्पृष्ट होता है, वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से और जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि धर्मास्तिकाय अनन्त जीवप्रदेशों से व्याप्त है। यावत्-- एक अद्धासमय, एक भी श्रद्धासमय से स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि निरुपचरित अद्धासमय एक ही होता है। इसलिए समयान्तर के साथ उसकी स्पर्शना नहीं होती। जो समय बीत चुका है, वह तो विनष्ट 1. भगवती. अ. वृत्ति, 611 2. वही, पत्र 612 Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [297 हो गया और अनागत समय अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतएव अतीत और अनागत के समय असत्स्वरूप होने से उनके साथ वर्तमान समय को स्पर्शना नहीं हो सकती।' धर्मास्तिकाय की तरह अधर्मास्तिकाय के छह, आकाशास्तिकाय के छह, जीवास्तिकाय के छह और अद्धासमय के छह सूत्र कहने चाहिए। पंचास्तिकाय-प्रदेश प्रद्धासमयों का परस्पर विस्तृत प्रदेशावगाहनानिरूपण : नौवाँ अवगाहनाद्वार 52. [1] जत्थ गं भंते ! एगे धम्मऽस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थिकायपएसा प्रोगाढा ? नत्थेक्को वि। [52-1 प्र.] भगवन ! जहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ (अवगाहन करके स्थित) है, वहाँ धर्मास्तिकाय के दूसरे कितने प्रदेश अवगाढ हैं ? [52-1 उ.] गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का दूसरा एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं है। [2] केवतिया अधम्माथिकायपएसा ओगाढा ? / एक्को। [52-2 प्र. भगवन् ! वहाँ अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं ? [52-2 उ.] (गौतम !) वहाँ एक प्रदेश अवगाढ होता है / [3] केवतिया भागासऽस्थिकाय ? एक्को / [52-3 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश प्रवगाढ होते हैं ? [52-3 उ.] (उसका) एक प्रदेश अवगाढ होता है / [4] केवतिया जीवऽस्थि० ? अर्णता। [52-4 प्र. (भगवन् ! ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [52-4 उ.] (गौतम ! उसके) अनन्त प्रदेश प्रवगाढ होते हैं। [5] केवतिया पोग्मलऽस्थि० ? अणता। [52.5 प्र. (भगवन् ! वहाँ) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [52-5 उ.} (मौतम ! उसके) अनन्त प्रदेश प्रवगाढ होते हैं / [6] केवतिया श्रद्धा समया० ? सिय प्रोगाढा, सिय नो ओगाढा / जति ओगाढा अणंता। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 613 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5 पृ. 2209 Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [52-6 प्र.] श्रद्धासमय कदाचित् अवगाढ होते हैं. और कदाचित् नहीं होते। यदि अवगाढ होते हैं तो अनन्त अद्धासमय अवगाढ होते हैं / 53. [1] जत्थ णं भंते ! एगे अधम्मऽस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थि० ? एक्को / [53-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [53-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) एक प्रदेश अवगाढ होता है / [2] केवतिया अहम्मऽथि ? नत्यि एक्को वि . [53-2 प्र.] (वहाँ) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [53-2 उ.] (वहाँ) उसका एक प्रदेश भी अवगाढ नहीं होता। [3] सेसं जहा धम्मऽथिकायस्स। [53-3] शेष (कथन) धर्मास्तिकाय के समान (समझना चाहिए / ) 54. [1] जत्थ णं भंते ! एगे श्रागासऽस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थिकाय? सिय ओगाढा, सिय नो प्रोगाढा / जति ओगाढा एक्को। [54-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ प्राकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के किलने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [54-1 उ.] गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय के प्रदेश कदाचित् प्रवगाढ होते हैं और कदाचित अवगाढ नहीं होते। यदि अवगाढ होते हैं तो एक प्रदेश अवगाढ होता है। [2] एवं अहम्मस्थिकायपएसा वि। [54-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में भी जानना चाहिए / [3] केवतिया आगासस्थिकाय? नत्थेक्को वि। [54-3 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश प्रवगाढ होते हैं ? {54-3 उ.] (वहाँ) एक प्रदेश भी (उसका) अवगाढ नहीं होता। [4] केवतिया जीवऽस्थि? सिय ओगाढा, सिय नो प्रोगाढा / जति प्रोगाढा अणंता। [54-4 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [54-4 उ.] (गौतम ! बे) कदाचित् अवगाढ होते हैं एवं कदाचित् अवगाढ नहीं होते / यदि अवगाढ होते हैं तो अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [299 [5] एवं जाव अद्धासमया। [54-5] इसी प्रकार यावत् अद्धासमय तक कहना चाहिए / 55. [1] जत्थ णं भंते ! एगे जीवऽस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थि० ? एक्को / [55-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ जीवास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [55-1 उ.] (गौतम ! वहाँ उसका) एक प्रदेश अवगाढ होता है / [2] एवं अहम्मऽस्थिकाय० / [55.2] इसी प्रकार (वहाँ) अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में जानना चाहिए / [3] एवं आगासऽस्थिकायपएसा वि। [55-3] आकाशास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / [4] केवतिया जीवत्यिक ? अणंता। [55-4 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश प्रवगाढ होते हैं ? [55-4 उ.] (गौतम ! वहाँ उसके) अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। [5] सेसं जहा धम्माधिकायस्स। [55-5] शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान समझना चाहिए। 56. जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलऽस्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽथिकाय ? एवं जहा जीवऽत्थिकायपएसे तहेव निरवसेसं / [56 प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं ? 56 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार जीवास्तिकाय के प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार समस्त कथन करना चाहिए / 57. [1] जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलऽस्थिकायपएसा श्रोगाढा तत्थ केवतिया धम्मऽस्थिकाय ? सिय एक्को, सिय दोणि / [57-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अगावढ होते हैं ? . [57-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) कदाचित् एक या कदाचित् दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [थ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] एवं अहम्मऽथिकायस्स वि। [57-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेश के विषय में कहना चाहिए / [3] एवं पागासऽस्थिकायस्स वि / [57-3] इसी प्रकार ग्राकाशास्तिकाय के प्रदेश के विषय में जानना चाहिए। [4] सेसं जहा धम्मऽथिकायस्स / [57-4] शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान समझना चाहिए / 58. [1] जत्थ णं भंते ! तिन्नि पोगलत्थि० तत्थ केवतिया धम्मऽस्थिकाय ? सिय एक्को, सिय दोन्नि, सिय तिन्नि / [58-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [58-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) कदाचित् एक, कदाचित् दो या कदाचित् तीन प्रदेश अवगाढ होते हैं। [2] एवं अहम्मऽस्थिकायस्स वि। [58-2] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में भी कहना चाहिए / [3] एवं आगासऽस्थिकायस्स वि / [58-3] प्राकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / [4] सेसं जहेब दोण्हं। [58-4] शेष (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय इन) तीनों के विषय के, जिस प्रकार दो पुद्गलप्रदेशों के विषय में कहा था उसी प्रकार तीन पुद्गलप्रदेशों के विषय में भी कहना चाहिए। 59. एवं एक्कक्को वढियब्यो पएसो आदिल्लएहि तीहि अस्थिकाएहि / सेसं जहेव दोण्हं जाव दसण्हं सिय एक्को, सिय दोन्नि, सिय तिन्नि जाब सिय दस / संखेज्जाणं सिय एक्को, सिय दोन्नि, जाव सिय दस, सिय संखेज्जा / असंखेज्जाणं सिय एक्को, जाव सिय संखेज्जा, सिय असंखेज्जा / जहा प्रसंखेज्जा एवं अर्णता वि। [56] आदि के तीन अस्तिकायों के साथ एक-एक प्रदेश बढ़ाना चाहिए। शेष के विषय में जिस प्रकार दो पुद्गल प्रदेशों के विषय में कहा था, उसी प्रकार यावत् दस प्रदेशों तक कहना चाहिए। अर्थात् जहाँ पुद्गलास्तिकाय के दस प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय का कदाचित् एक, दो, तीन, यावत् कदाचित् दस प्रदेश अवगाढ होते हैं। जहाँ पुद्गलास्तिकाय के संख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय का कदाचित् एक, दो, तीन, यावत् कदाचित् दस प्रदेश यावत् कदाचित् संख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं / जहाँ पुद्गला Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [301 स्तिकाय के असंख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय का कदाचित् एक प्रदेश यावत् कदाचित सख्यात प्रदेश और कदाचित प्रसंख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं / जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के विषय में कहा है, उसी प्रकार अनन्त प्रदेशों के विषय में भी कहना चाहिए / अर्थात्-जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाह होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय का कदाचित् एक प्रदेश यावत् संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं / 60. [1] जत्थ णं भंते ! एगे प्रद्धासमये प्रोगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थि० ? एक्को / [60-1 प्र.] भगवन् ! जहां एक अद्धासमय अवगाह होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? {60-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) एक प्रदेश अवगाढ होता है ? [2] केवतिया अहम्मऽथि० ? एक्को / [60-2 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? {60-2 उ.] (वहाँ उसका) एक प्रदेश अवमाढ होता है। [3] केवतिया आगासऽस्थि० ? एक्को / [60-3 प्र.। (भगवन् ! वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [60-3 उ.] (गौतम ! वहाँ अाकाशास्तिकाय का) एक प्रदेश अवगाढ होता है / [4] केवइया जीवऽथि० ? अणंता। [60-4 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाळ होते हैं ? |60-4 उ.] (गौतम ! वहाँ जीवास्तिकाय के) अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। [5] एवं जाव अद्धासमया। [60-5 प्र.] इसी प्रकार यावत् श्रद्धासमय तक कहना चाहिए / 61. [1] जत्थ गं भंते ! धम्मत्यिकाये प्रोगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकायपएसा ओगाढा? नत्थि एक्को वि। [61-1 प्र. भगवन् ! जहाँ एक धर्मास्तिकाय-द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [61-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय का) एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं होता। Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] केवतिया अहम्मऽस्थिकाय ? असंखेज्जा। [61-2 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [61-2 उ.] (गौतम ! वहाँ) अधर्मास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश अवगाढ होते हैं / [3] केवतिया अागास? असंखेज्जा। |61-3 प्र.] (वहाँ) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [61-3 उ.] (वहाँ उसके) असंख्येय प्रदेश अवगाढ होते हैं। [4] केवतिया जीवस्थिकाय ? अणता। [61-4 प्र.] (वहाँ) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [61-4 उ.] (वहाँ उसके) अनन्त प्रदेश (अवगाढ होते हैं / ) [5] एवं जाव अद्धा समया। [61-5] इसी प्रकार यावत् अद्धासमय (तक कहना चाहिए।) 62. [1] जत्थ णं भंते ! अहम्मऽथिकाये ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मऽस्थिकाय ? असंखेज्जा। [62-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ एक अधर्मास्तिकाय-द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [62-1 उ.] (गौतम ! वहाँ धर्मास्तिकाय के) असंख्येय प्रदेश प्रवगाढ होते हैं / [2] केवतिया अहम्मस्थि० ? नत्थि एक्को वि। [62.2 प्र.] (वहाँ) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ होते हैं ? [62-2 उ.] (अधर्मास्तिकाय का) एक भी प्रदेश (वहाँ) अवगाढ नहीं होता। [3] सेसं जहा धम्मऽस्थिकायस्स / / [62-3] शेष सभी कथन धर्मास्तिकाय के समान करना चाहिए / 63. एवं सब्वे सटाणे नस्थि एक्को वि भाणियन्वं / परदाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेज्जा भाणियन्वा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणंता भाणियव्या जाब अद्धासमओ त्ति-जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा? नत्थि एक्को वि। [63] इस प्रकार धर्मास्तिकायादि सब द्रव्यों के स्वस्थान' में एक भी प्रदेश नहीं होता; किन्तु परस्थान में प्रथम के तीन द्रव्यों (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय) के Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [303 असंख्येय प्रदेश कहने चाहिए; और पीछे के तीन द्रव्यों (जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय) के अनन्त प्रदेश कहने चाहिए / यावत् -[प्र.] (एक अद्धाकाल द्रव्य में) कितने प्रद्धासमय अवगाढ होते हैं ?' [उ. एक भी अवगाढ नहीं होता; (इस प्रकार) 'अद्धासमय' तक कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 52 से 63 तक) में नौवें अवगाहनाद्वार के माध्यम से धर्मास्तिकाय आदि के एक, दो, यावत् दरा, संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश अवगाहित होने की स्थिति में परस्पर उन्हीं धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों को अवगाहना की प्ररूपणा की गई है / अन्त में धर्मास्तिकायादि प्रत्येक समग्न द्रव्य हो, वहाँ धर्मास्तिकायादि छह के प्रदेशों का भी निरूपण किया गया है। धर्मास्तिकायादि के एक प्रदेश पर धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों का अवगाहन-धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के स्थान पर धर्मास्तिकाय का अन्य प्रदेश प्रवगाढ नहीं होता। अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय का वहाँ एक-एक प्रदेश प्रवगाढ होता है; तथा जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के अनन्त-अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं; क्योंकि धर्मास्तिकाय का एक-एक प्रदेश उनके अनन्त प्रदेशों से व्याप्त है। धर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी है और श्रद्धासमय केवल मनुष्यलोकव्यापी है / अतः धर्मास्तिकाय के प्रदेश पर अद्धासमयों का क्वचित् अवगाह है और क्वचित्-कहीं नहीं भी है / जहाँ अवगाह होता है, वहाँ अनन्त का अवगाह है। धर्मास्तिकाय के समान ही अधर्मास्तिकाय के भी छह सूत्र कहने चाहिए / अाकाशास्तिकाय के विषय में धर्मास्तिकाय का प्रदेश कदाचित् अवगाढ है और नहीं भी है, क्योंकि आकाशास्तिकाय लोकालोकपरिमाण है जब कि धर्मास्तिकाय के प्रदेश लोकाकाश में ही हैं, अलोकाकाश में नहीं। वहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है।' पुदगलास्तिकाय के प्रदेशों की अवगाहना-जहाँ पुद्गलास्तिकाय का द्वयणुकस्कन्ध (द्विप्रदेशोस्कन्ध) एक प्राकाशप्रदेश में अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ही अवगाहता है; और जब वह प्राकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहता है, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश और दो प्रदेशों के अवगाहन की घटना स्वयं कर लेनी चाहिए। जब पूदगलास्तिकाय के तीन प्रदेश आकाशास्तिकाय के एक प्रदेश को अवगाहते हैं तब धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ होता है। जब आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश अवगाढ होते हैं। जब आकाशास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहते हैं, तब धर्मास्तिकाय के तीन प्रदेश अब गाढ होते हैं। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिए। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय-सम्बन्धी तीन सूत्रों का कथन भी पूर्ववत् करना चाहिए / विशेष यह है कि पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों के स्थान पर जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 614 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2220 Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] [व्याख्याप्रजप्तिसूत्र __ जिस प्रकार पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेशों को अवगाहना के विषय में धर्मास्तिकायादि के एक-एक प्रदेश की वृद्धि की है ; उसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के चार, पांच आदि प्रदेशों की अवगाहना के विषय में भी एक-एक प्रदेश की वृद्धि करनी चाहिए। जहाँ पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाढ होते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय के कदाचित् एक, दो यावत् कदाचित् संख्यात, अथवा असंख्यात प्रदेश अवगाढ होते हैं। अनन्त नहीं; क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के अनन्त प्रदेश नहीं होते, असंख्यात ही होते हैं।' समग्र धर्मास्तिकायादि द्रव्य पर अन्य धर्मास्तिकायादि प्रदेशों का अवगाह-जहाँ समग्र धर्मास्तिकाय द्रव्य अवगाढ होता है, वहाँ धर्मास्तिकाय का अन्य एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं होता / क्योंकि उसमें प्रदेशान्तरों का अभाव है / अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के वहाँ असंख्य प्रदेश अवगाढ होते हैं / क्योंकि इनके असंख्य प्रदेश होते हैं। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के अनन्त प्रदेश होते हैं. इसलिए इन पर अनन्त प्रदेश प्रवगाढ होते हैं / पांच एकेन्द्रियों का परस्पर अवगाहना-निरूपरण : दसवाँ जोवावगाढद्वार 64. [1] जत्थ णं भंते ! एगे पुढधिकाइए ओगाढे तत्थ केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। [64-1 प्र.] भगवन् ! जहाँ एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होता है, वहाँ दूसरे कितने पृथ्वी कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-1 उ.] (गौतम ! वहाँ) असंख्य (पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं / ) [2] केवतिया आउक्काइया ओगाढा? असंखेज्जा। [64-2 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने प्रकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-2 उ.] (गौतम ! वहाँ अप्कायिक) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं / ) [3] केवतिया तेउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। [64-3 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने तेजस्कायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-3 उ.] (गौतम ! वहाँ तेजस्काय के) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं / ) [4] केवतिया वाउ० ओगाढा ? असंखेज्जा / . (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2220-2221 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 614-615 2. (क) वही, पत्र 615 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2221 Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4 ] [305 [64-4 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) वायुकायिक जीव कितने अवगाढ होते हैं ? [64.4 उ. (गौतम ! वहाँ) असंख्य जीव (अवगाढ होते हैं।) [5] केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ? अणंता। [64-5 प्र.] (भगवन् ! वहाँ) कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [64-5 उ.] (गौतम ! वहाँ वे) अनन्त (जीव अवगाढ होते हैं / ) 65. [1] जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० ? असंखेज्जा। [65-1 प्र. भगवन् ! जहाँ एक अप्कायिक जीव अब गाढ होता है, वहाँ कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ होते हैं ? [65-1 उ.] गौतम ! वहाँ असंख्य पृथ्वोकायिक जीव अवगाढ होते हैं / [2] केवतिया आउ० ? असंखेज्जा। एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तव्वया तहेव सम्वेसि निरवसेसं भाणियन्वं जाव वणस्सतिकाइयाणं-जाव केवतिया वणस्सतिकाइया ओगाढा ? अर्थता। [65-2 प्र.] (भगवन् वहाँ) अन्य अप्कायिक जीव कितने प्रवगाढ होते हैं ? [65-2 उ.] (गौतम ! वहाँ वे) असंख्य अवगाढ होते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को वक्तव्यता कही, उसी प्रकार अन्यकायिक जीवों की समस्त वक्तव्यता, यावत् वनस्पतिकायिक तक कहनी चाहिए। (यथा) यावत्-[प्र.] 'वहाँ कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ होते हैं ?' [उ.] '(वहाँ) अनन्त अवगाढ होते हैं / ' विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 64-65) द्वारा एकेन्द्रिय जीवों के परस्पर अवगाहन के विषय में दसवें जीवावगाढद्वार के माध्यम से प्रतिपादन किया गया है। पृथ्वीकायादि में से एक में, पृथ्वीकायादि पांचों प्रकार के जीवों को अवगाहनप्ररूपणा जहाँ एक पृथ्वोकायिक जीव अवगाढ है, वहाँ पृथ्वीकायिकादि चारों काय के असंख्य सूक्ष्म जीव अवगाढ हैं। जैसे कि कहा है-'जत्थ एगो, तत्थ नियमा असंखेज्जा।' किन्तु वहाँ वनस्पतिकाय के अनन्त जीव अवगाढ हैं / इसी प्रकार पांचों कायों के विषय में समझ लेना चाहिये / / धर्माधर्माऽकाशास्तिकायों पर बैठने आदि का दृष्टान्तपूर्वक निषेध-निरूपण : ग्यारहवाँ अस्तिप्रदेश-निषीदनद्वार 66. [1] एयंसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय० अधम्मत्थिकाय० आगासस्थिकार्यसि चक्किया केइ आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठितए वा निसीइत्तए वा तुट्टित्तए वा ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 615 Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नो इण? समदु, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा / [66-1 प्र.] भगवन् ! इन धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति बैठने (या ठहरने), सोने, खड़ा रहने, नीचे बैठने और लेटने (या करवट बदलने) में समर्थ हो सकता है? [66-1 उ.(गौतम !) यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ होते हैं। [2] से केणणं भंते ! एवं वुच्चइ–एयंसि णं धम्मस्थि० जाव आगासस्थिकायंसि नो चक्किया केयि आसइत्तए वा जाव ओगाढा ? गोयमा ! से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणइज्जे जाव दुवारक्यणाई पिहेइ; दुवारवयणाई पिहित्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमझदेसभाए जानेणं एकको वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं पदोवसहस्सं पलीवेज्जा; से नूणं गोयमा! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमान्नसंबद्धाओ अन्तमन्नपुट्ठाओ जाव अन्नमानघउत्ताए चिट्ठति ? 'हंता, चिट्ठति / ' "चक्किया गं गोयमा ! केपि तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाब तुट्टित्तए वा?" "भगवं! णो इण? सम8, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा / से तेण?णं गोयमा ! एवं जाव बुच्चइ ओगाढा। [66-2 प्र.] भगवन् यह किसलिए कहा जाता है कि इन धर्मास्तिकायादि पर कोई भी व्यक्ति ठहरने, सोने आदि में समर्थ नहीं हो सकता, यावत् वहाँ अनन्तजीव अवगाढ होते हैं ? [66-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूटागारशाला हो, जो बाहर और भीतर दोनों ओर से लीपी हुई हो, चारों ओर से ढंकी हुई (सुरक्षित) हो, उसके द्वार भी गुप्त (सुरक्षित) हों, इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रानुसार, यावत्-द्वार के कपाट बंद कर (बैंक) देता है, (यहाँ तक जानना चाहिए।) उस कटागारशाला के द्वार के कपाटों को बन्द करके ठीक मध्यभाग में (कोई) जघन्य (कम से कम) एक, दो या तीन और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) एक हजार दीपक जला दे, तो हे गौतम ! (उस समय) उन दीपकों की प्रभाएँ परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध (संसक्त) होकर, एक दूसरे (की प्रभा) को छूकर यावत् परस्पर एकरूप होकर रहती हैं न ? - [गौतम द्वारा उत्तर] हाँ, भगवन् ! (वे इसी प्रकार से) रहती हैं। [भगवान द्वारा प्रश्न --हे गौतम ! क्या कोई व्यक्ति उन प्रदीप प्रभानों पर बैठने, सोने यावत् करवट बदलने में समर्थ हो सकता है ? गौतम द्वारा उत्तर]--भगवन् ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / उन प्रभाओं पर अनन्त जीव अवगाहित होकर रहते हैं। (भगवान् द्वारा उपसंहार---) इसी कारण से हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि (इस Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4 ] [ 307 धर्मास्तिकायादि त्रिक में न कोई पुरुष बैठ सकता है, न सो सकता है, न खड़ा रह सकता है) यावत् न ही करवट बदल सकता है ; (क्योंकि ये तीनों ही द्रव्य अमूर्त हैं, फिर भी) इनमें अनन्त जीव अवगाढ हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में धर्मास्तिकायादि पर किसी व्यक्ति को बैठने, लेटने आदि की अशक्यता को कूटगारशाला के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है / कठिन शब्दार्थ- एसि—इस पर / चक्किया-- समर्थ हो सकता है। प्रासइत्तए-बैठने या ठहरने में / सइत्तए सोने में या शयन करने में / चिट्टित्तए-खड़ा रहने या ठहरने में। निसीइत्तए-नोचे बैठने में / तुट्टित्तए-करवट बदलने में या लेटने में / पलीवेज्जा-जला दे / अन्नमनघडताए–एक दूसरे के साथ एकमेक (एकरूप) होकर / पदीवलेस्सासु-दीपकों की प्रभानों पर बहुसम, सर्वसंक्षिप्त, विग्रह-विग्रहिक लोक का निरूपण : बारहवाँ बहुसमद्वार 67. कहि ण भंते ! लोए बहुसमे ? कहि णं भंते ! लोए सम्वविग्गहिए पन्नते ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए उवरिमहेढिल्लेसु खुडुगपयरेसु, एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविगहिए पन्नत्ते। 67 प्र.] भगवन् ! लोक का बहु-समभाग कहाँ है ? (तथा) हे भगवन् ! लोक का सर्वसंक्षिप्त भाग कहाँ कहा गया है ? [67 उ. गौतम ! इस रत्नप्रभा (नरक-) पृथ्वी के ऊपर के और नीचे के क्षुद्र (लघु) प्रतरों में लोक का बहुसम भाग है और यहीं लोक का सर्वसंक्षिप्त (सबसे संकीर्ण) भाग कहा गया है / 68. कहि णं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पन्नते ? गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते / [68 प्र.| भगवन् ! लोक का विग्रह-विग्रहिक भाग (लोक रूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग) कहाँ कहा गया है ? [68 उ.] गौतम ! जहाँ विग्रह-कण्डक (वक्रतायुक्त अवयव) है, वहीं लोक का विग्रह. विग्रहिक भाग कहा गया है। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 67-68) में बारहवें बहुसमद्वार के माध्यम से लोक के बहुसमभाग एवं विग्रह-विग्रहिक भाग के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत की गई है / कठिन शब्दार्थ -- बहुसमे अत्यन्त सम, प्रदेशों की वृद्धि-हानि से रहित भाग / सन्धविग्गहिएसर्वसंक्षिप्तभाग, सब से छोटा या संकीर्ण भाग / विग्गह-विग्गहिए-विग्रह (वक्रतायुक्त)-विग्रहिक(शरीर का भाग)। विग्गहकंडए-विग्रहकण्डक बक्रतायुक्त अवयव / 1. भगवतीसूत्र प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 10, पृ. 709 2. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 616 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2223 Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लोक का बहु समभाग--यह चौदह रज्ज-परिमाण काला लोक कहीं बढ़ा हुआ है तो कहीं घटा हुआ है / इस प्रकार को वृद्धि और हानि से रहित भाग को 'बहुसम' कहते हैं। इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी में दो क्षुल्लक (लघुतम) प्रतर हैं / ये सबसे छोटे हैं। ऊपर के क्षुद्र प्रतर से प्रारम्भ होकर ऊपर ही ऊपर प्रतर-वृद्धि होती है और नीचे के क्षुल्लक प्रतर से नीचे-नीचे की ओर प्रतर-वृद्धि होती है / शेष प्रतरों की अपेक्षा ये प्रतर छोटे हैं, क्योंकि इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक रज्जू-परिमित है / ये दोनों प्रतर तिर्यक्लोक के मध्यवर्ती हैं।" लोक का विग्रह-विग्रहिक-इस समन लोक की प्राकृति पुरुष-शरीराकार मानी जाती है। कमर पर हाथ रख कर खड़े हुए पुरुष के दोनों हाथों की कुहनियों (कूपर) का स्थान वक्र (टेढ़ा) होता है / इसी प्रकार इस लोक में पंचम ब्रह्मलोक नामक देवलोक के पास लोक का कर्परस्थानीय (कुहनी जैसा) वक्रभाग है / इसे ही 'विग्रहकण्डक' कहते हैं, अथवा जहाँ प्रदेशों की वृद्धि या हानि होने से वक्रता होती है, उस भाग को भी विग्रहकण्डक कहते हैं / यहाँ लोकरूप शरीर का वक्रतायुक्त भाग है / यह (विग्रहकण्डक) प्रायः लोकान्त में है / लोक-संस्थाननिरूपण : तेरहवाँ लोक-संस्थानद्वार 69. किसंठिए णं भंते ! लोए पन्नत्ते? गोयमा ! सुपतिगसंठिए लोए पन्नत्ते, हेढा विस्थिण्णे, मज्झे जहा सत्तमसए पढमुद्देसे (स०७ उ०१ सु. 5) जाव अंतं करेंति / [66 प्र.] भगवन् ! इस लोक का संस्थान (प्राकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [66 उ.] गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठक के आकार का कहा गया है / यह लोक नीचे विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त (संकीर्ण) है, इत्यादि वर्णन सप्तम शतक के प्रथम उद्देशक (सू. 5) के अनुसार, यावत् संसार का अन्त करते हैं यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में लोक के आकार के विषय में सप्तम शतक के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। लोक को आकृति और परिमाण-नीचे एक औंधा (उल्टा) मिट्टी का सकोरा रखा जाए, उसके ऊपर एक सीधा और उसके ऊपर एक उल्टा सकोरा रखा जाए। इसका जो प्राकार बनता है, वही लोक का संस्थान (प्राकार) है / इस प्राकृति से यह स्पष्ट है कि लोक नीचे से चौड़ा है, बीच में संकीर्ण हो जाता है. कुछ ऊपर फिर चौड़ा होता जाता है और सबसे ऊपर फिर संकीर्ण हो जाता है। वहाँ लोक की चौड़ाई सिर्फ एक रज्जू रह जाती है / इस प्रकार 'संसार का अन्त करते हैं', यहाँ तक जो लोक सम्बन्धी विस्तृत विवेचन भगवतीसूत्र के सप्तम शतक, प्रथम उद्देशक, पंचम सुत्र में किया गया है, उसे यहाँ भी जान लेना चाहिए / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 616 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2224 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2225 Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] अधोलोक-तिर्यकलोक-ऊर्ध्व लोक के अल्पबहुत्व का निरूपण 70. एतस्स णं भंते ! अहेलोगस्स तिरियलोगस्स उड्ढलोगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवे तिरियलोए, उड्ढलोए असंखेज्जगुणे, अहेलोए विसेसाहिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / [70 प्र.] भगवन् ! अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक में, कौन-सा लोक किस लोक से छोटा (अल्प) यावत् बहुत (अधिक या बड़ा), सम अथवा विशेषाधिक है ? [70 उ.] गौतम ! सबसे थोड़ा (छोटा) तिर्यक् लोक है। (उससे) ऊर्ध्वलोक असंख्यात गुणा है और उससे अधोलोक विशेषाधिक (विशेष बड़ा) है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में तीनों लोकों को न्यूनाधिकता (छोटे-बड़े की तरतमता) बताई गई है। कौन छोटा-कौन बड़ा?—तिर्यग्लोक सबसे छोटा इसलिए है कि वह केवल 1800 योजन लम्बा है, जबकि उप्रलोक की अवगाहना 7 रज्ज में कुछ कम है, इसलिए वह तिर्यग्लोक से असंख्यातगुना बड़ा है और अधोलोक सबसे अधिक बड़ा (विशेषाधिक) इसलिए है कि उसकी अवगाहना कुछ अधिक 7 रज्जू परिमाण है / इसलिए वह अवलोक से विशेषाधिक है / ' // तेरहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 616 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2225 Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : आहरो पंचम उद्देशक : नरयिकों आदि का आहार चौवीस दण्डकों में आहारादि-प्ररूपरगा 1. नेरतिया णं भंते ! कि सचित्ताहारा, अचिताहारा ? पढमो नेरइयउद्देसओ निरवसेसो भाणियन्यो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥तेरसमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो।। [1 प्र.] भगवन् ! नै रयिक सचित्ताहारी हैं, अचित्ताहारी या मिश्राहारी हैं ? [1 उ.] गौतम ! नैरयिक न तो सचित्ताहारी हैं और न मिश्राहारी हैं, वे अचिताहारी हैं। (इसी प्रकार असुर कुमार आदि के प्राहार के विषय में भी कहना चाहिए।) (इसके उत्तर में) यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें आहारपद का) समग्न प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के 28 वें आहारपद के प्रथम उद्देशक के अतिदेश पूर्वक नैरयिक, असुरकुमार आदि 24 दण्डकवर्ती जीवों के आहार का प्ररूपण किया गया है।' // तेरहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // ----- - - 1. देखिये-पण्णवणासुत्तं भाग 1, सू. 1793-1864, पृ. 392-400 (श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित) Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : उववाए छठा उद्देशक : उपपात (आदि) चीवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर उपपात-उद्वर्तन-निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वयासो [1] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा--- 2. संतरं भंते ! नेरतिया उववज्जंति, निरंतरं ने रतिया उववज्जति ? गोयमा! संतरं पि रतिया उववज्जति, निरंतरं पि नेरतिया उववज्जति / [2 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सान्तर (समय आदि के अन्तर-व्यवधान सहित) उत्पन्न होते हैं या निरन्तर (समयादि के अन्तर के बिना लगातार) उत्पन्न होते रहते हैं ? [2 उ.] गौतम ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते रहते हैं / 3. एवं असुरकुमारा वि। [3] असुरकुमार भी इसी तरह (सान्तर-निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पन्न होते हैं / ) 4. एवं जहा गंगेये (स०९ 30 32 सु०३-१३) तहेव दो दंडगा जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयंति / [4] इसी प्रकार जैसे नौवें शतक के बत्तीसवें गांगेय उद्देशक (सूत्र 3-13) में उत्पाद और उदवर्तना के सम्बन्ध में दो दण्डक कहे हैं, वैसे ही यहाँ भी, यावत वैमानिक सान्तर भी च्यवते हैं और निरन्तर भी च्यवते रहते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन सर्व संसारी जीवों में सान्तर-निरन्तर-उत्पत्ति-उदवर्तना-प्रस्तुत चार सूत्रों में नेरयिकों से लेकर वैमानिकों तक की उत्पत्ति और उदवर्त्तना सम्बन्धी सान्तर-निरन्तर-प्ररूपणा नौवें शतक के बत्तीसवें गांगेय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक की गई है / चमर चंच प्रावास का वर्णन एवं प्रयोजन 5. कहिं णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररणो चमरचंचे नामं आवासे पन्नते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्बयस्स दाहिणणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे एवं जहा बितियसए सभाउद्देसवत्तव्वया (स० 2 उ० 8 सु०१) सच्चेव अपरिसेसा नेयम्वा, नवरं इमं नाणतं जाव तिगिच्छकूडस्स उप्पायपन्वयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपमयस्स अन्नेसि Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र च बहूणं० सेसं तं चेव जाव तेरसअंगुलाई अद्धगुलं च किंचिबिसेसाहिया परिक्खेवेणं / तोसे णं चमरचंचाए रायहाणीए वाहिणपच्चत्थिमेणं छक्कोडिसए पणपन्नच कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साइं अरुणोदगसमुहं तिरियं वीतीवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररणो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते, चउरासोति जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पट्टि च सहस्साई छच्च बत्तीसे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं / से णं एगेणं पागारेणं सन्वतो समंता संपरिक्खित्ते / से गं पागारे दिवड्ढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाराय. हाणीवत्तव्वया भाणियन्वा सभाविहूणा जाव चत्तारि पासायपंतीओ। [5 प्र.] भगवन ! असुरेन्द्र और असुरकुमारराज 'चमर' का 'चमरचंच' नामक आवास कहाँ कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद, जैसे कि द्वितीय शतक के आठवें उद्देशक (सू.१) में कहा गया है (अरुणवर द्वीप की वाह्य वेदिका के अन्त से अरुणवर समुद्र में बयालीस हजार योजन जाने के बाद चमरेन्द्र का तिगिञ्छक कूट नामक उपपात-पर्वत आता है / उससे दक्षिण दिशा में 655 करोड़, 35 लाख, 50 हजार योजन दूर अरुणोदक समुद्र में तिरछा जाने के बाद नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के भीतर 40 हजार योजन गहरे जाने पर चमरेन्द्र की चमरचंचा नाम की राजधानी है; इत्यादि) यह समग्र बक्तब्यता समझ लेनी चाहिए / यहाँ विशेष अन्तर इतना ही है कि यावत् तिगिञ्छकूट के उत्पात. पर्वत का, चमरचंचा राजधानी का, चमरचंच नामक आवास-पर्वत का और अन्य बहुत-से द्वीप आदि तक का शेष सब वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए; यावत् (तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन गाऊ, दो सौ अठाईस धनुष और कुछ विशेषाधिक साढे तेरह अंगुल (चमरचंचा राजधानी की) परिधि है। उस चमरचंचा राजधानी से दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में 655 करोड़, 35 लाख 50 हजार योजन दूर अरुणोदक समुद्र में तिरछे पार करने के बाद वहा असुरेन्द्र एवं असुरकुमारों के राजा चमर का चमरचंच नामक प्रावास कहा गया है ; जो लम्बाईचौड़ाई में 84 हजार योजन है / उसकी परिधि (चारों ओर से घेरा) दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ अधिक है। यह आवास एक प्राकार (परकोटे) से चारों ओर से घिरा हुआ है / वह प्राकार ऊँचाई में डेढ़ सौ योजन ऊँचा है / इस प्रकार चमरचंचा राजधानी की सारी वक्तव्यता, सभा को छोड़ कर, यावत् चार प्रासाद-पंक्तियाँ हैं, (यहाँ तक) कहनी चाहिए। 6. [1] चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकुमारराया चरमचंचे प्रावासे वसहि उवेति ? नो इण? समट्ठ। [6-1 प्र.] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरकुमारसज चमर क्या उस 'चमरचंच' प्रावास में निवास करके रहता है ? [6.1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] से केणं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ 'चमरचंचे आवासे, चमरचंचे प्रावासे' ? गोयमा ! जे जहानामए इहं मणुस्सलोगसि उवगारियलेणा इ वा, उज्जाणियलेणा इवा, Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [313 निज्जाणियलेणा इ वा, धारवारियलेणा इ वा, तत्थ गं बहवे मणुस्सा य मणुस्सीसोय आसयंति सयंति जहा रायप्पसेणइज्जे जाव' कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति, अन्नत्थ पुण वसहि उर्वति, एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, अन्नत्थ पुण वसहि उवेति / से तेण?णं जाव आवासे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / [6-2 प्र.] भगवन् ! फिर किस कारण से चमरेन्द्र का प्रावास 'चमरचच' आवास कहलाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार यहाँ मनुष्यलोक में औपकारिक लयन (प्रासादादि के पीठ-तुल्य घर), उद्यान में बनाये हुए घर, नगर-प्रदेश-गृह (नगर के निकटवर्ती बने हुए घर; अथवा नगर-निर्गम गृह-अर्थात् नगर से निकलने वाले द्वार के पास बने हुए घर), जिसमें पानी के फवारे लगे हों, ऐसे घर (धारावारिक लयन) होते हैं, वहाँ बहुत-से मनुष्य एवं स्त्रियाँ आदि बैठते हैं, सोते हैं, इत्यादि सब वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार, यावत् - कल्याणरूप फल और वृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए वहाँ विहरण (सैर) करते हैं, किन्तु (वहाँ वे लोग स्थायी निवास नहीं करते,) उनका (स्थायी) निवास अन्यत्र होता है / इसी प्रकार हे गौतम ! असुरेन्द्र असुर कुमारराज चमर का चमर चंच नामक आवास केवल क्रीड़ा और रति के लिए है, (वह स्थान उसका स्थायी आवास नहीं है; ) वह अन्यत्र (स्थायी रूप से) निवास करता है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि चमरेन्द्र चमरचंच नामक प्रावास में निवास करके नहीं रहता। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 5-6) में चमरेन्द्र के चमरचंच नामक प्रावास के अतिदेश पूर्वक नियत स्थान का, उसकी लम्बाई-चौड़ाई, परिधि, उसके सौन्दर्य आदि का समग्र वर्णन एवं उसमें चमरेन्द्र का स्थायी निवास न होने का दृष्टान्त पूर्वक प्रतिपादन किया गया है / कठिन शब्दार्थ-छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडिनो-६५० करोड़, पणतीसं च सयसहस्साईपैतीस लाख, पन्नासं च सहस्साई- पचास हजार योजन / चउरासीति जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं-चौरासी हजार योजन लम्बाई-चौड़ाई (आयाम-विष्कम्भ) में / परिक्खेवेणं-परिक्षेप, परिधि / उड्डुउच्चत्तेणं-ऊँचाई में / पासाय-पंतीओ-प्रासादपंक्तियाँ / वहिं उबेति-स्थायी निवास के लिए पाता है / उवगारिलेणा-औपकारिक ग्रह (भवनों के नीचे बरामदा वगैरह घर)। उज्जाणियलेणाई-लोगों के उपकारार्थ उद्यानों में बने हुए घर) अथवा नगर की निकटवर्ती धर्मशालादि के मकान / गिज्जाणियलेणाई-नगर के निर्गम (बाहर निकलने) पर आराम के लिए बने हुए घर / धारवारियलेणाई-जिनमें पानी के फव्वारे (धारावारिक) छूट रहे हों, ऐसे मकान / किड्डा-रति - - - 1. 'जाब' पद से राजप्रश्नीय (पृ. 196-200 में उक्त) पाठ समझना चाहिए--...."चिट्ठति निसीयात तुयति हसंति रमंति ललंति कोलंति किड्डंति मोहयंति / पुरापोराणाणं सुचिन्नाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं / " Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पत्तियं-क्रीड़ा (खेल-कूद) और रति (भोगविलास) के लिए। आसयंति-आश्रय लेते हैं, थोड़ा विश्राम लेते हैं अथवा थोड़ा सोते हैं लेटते हैं / सयंति-विशेष आश्रय लेते हैं, अधिक विश्राम लेते हैं, या अधिक सोते हैं, 1 [चिट्ठति---ठहरते या खड़े रहते हैं / निसीयंति—बैठते हैं। तुयटति-- करवट बदलते हैं / हसंति-हंसते हैं / रमंति-पासों से खेलते हैं / कोलंति कामक्रीड़ा करते हैं। किड्डंति --क्रीड़ा करते हैं। मोहयंति--मोहित करते हैं अर्थात् विमुग्ध होकर प्रणय करते हैं।] किड्डारतिपत्तियं--क्रीड़ा में रति----प्रानन्द लेने के लिए, अथवा क्रीड़ा और रति के निमित्त / ' उदायन नरेश वृत्तान्त भगवान् का राजगृहनगर से विहार, चम्पापुरी में पदार्पण 7. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि रायगिहाम्रो नगरानो गुणसिलामो जाव विहरति / ___ [7] तदनन्तर श्रमण भगवन् महावीर किसी अन्य (एक) दिन राजगृह नगर के गुणशील नामक चैत्य से यावत् (अन्यत्र) विहार कर देते हैं / 8. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। वण्णश्रो।* पुण्णभद्दे चेतिए / वणओ / तए णं समजे भगवं महावीरे अन्नया कदायि पुवाणुपुन्धि चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपानगरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेतिए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जाव विहर।। (4) उस काल, उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। (उसका) वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के नगरीवर्णन के अनुसार जानना चाहिए / (उसमें) पूर्णभद्र नाम का चैत्य था। (उसका) वर्णन (करना चाहिए / ) किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर पूर्वानुपूर्वी से (क्रमशः) विचरण करते हुए यावत् विहार करते हुए जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ (उसका) पूर्णभद्र नामक चैत्य था, वहाँ पधारे यावत् विचरण करने लगे। - विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 7-8) में भगवान महावीर स्वामी के राजगृह नगर से विहार का तथा चम्पा नगरी में पदार्पण का वर्णन किया है / चम्पा नगरी में उनका पदार्पण क्यों हुअा ? उसका रहस्य अागे के सूत्रों से प्रकट होगा। उदायन नप, राजपरिवार, वीतिभयनगर आदि का परिचय 9. तेणं कालेणं तेणं समएणं सिंधुसोवोरेसु जणवएसु बीतीभए नाम नगरे होत्था / वण्णओ। [6] उस काल, उस समय सिन्धु-सौवीर जनपदों में बीतिभय नामक नगर था / (उसका) वर्णन (करना चाहिए।) 10. तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं मियवणे नामं उज्जाणे होत्था / सव्वोउय० वण्णनो / * 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 617-618 (ख) भगवतो. हिन्दीविवेचन, भा. 5, पृ. 2229 * 'वण्णायो शब्द से सर्वत्र प्रौपपातिक सूत्रानुसार वर्णन समझना। -भगवती. अ. वृ., पत्र 618 Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [315 [10] उस वोतिभय नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग (ईशानकोण) में मृगवन नामक उद्यान था / वह सभी ऋतुनों के पुष्प आदि से समृद्ध था, इत्यादि वर्णन (करना चाहिए / ) 11. तत्थ णं वीतीभए नगरे उदायणे नामं राया होत्था, महया० वण्णओ / * [11] उस वीतिभय नगर में उदायन नामक राजा था / वह महान् हिमवान (हिमालय) पर्वत के समान था, (इत्यादि सब) वर्णन (करना चाहिए।) 12-13. तस्स णं उदायणस्स रण्णो पभावती नाम देवी होत्था / सुकुमाल० वष्णओ, जाव विहरति / [12.13] उस उदायन राजा को प्रभावती नाम की देवी (पटरानी) थी। वह सुकुमाल (हाथ-पैरों वाली) थी, इत्यादि वर्णन यावत्-विचरण करती थो, (यहाँ तक) करना चाहिए। 14. तस्स णं उदायणस्स रण्णो पुत्ते पभावतीए देवीए प्रत्तए अभीयो नाम कुमारे होत्था / सुकुमाल० जहा सिवभद्दे (स० 11 उ० 9 सु० 5) जाव पच्चुवेक्खमाणे विहरइ। [14] उस उदायन राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का पात्मज अभीचि नामक कुमार था / वह सुकुमाल था / उसका शेष वर्णन (शतक 11 उ. 6 सू. 5 में उक्त) शिवभद्र के समान यावत् वह राज्य का निरीक्षण करता हुआ रहता था, (यहाँ तक) जानना चाहिए। 15. तस्स णं उदायणस्स रण्णो नियए भाइणेज्जे केसी नाम कुमारे होत्था, सुकुमाल जाव : सुरूवे। [15] उस उदायन राजा का अपना (सगा) भान जा केशी नामक कुमार था। वह भी सुकुमाल यावत् सुरूप था। 16. से णं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पामोक्खाणं सोलसहं जणवयाणं, बोतोभयप्पामोक्खाणं तिण्हं तेसहोणं नगरागरसयाणं, महसेणप्पामोवखाणं दसव्हं राईणं बद्धमउडाणं विदिण्णहत्त-चामरवालवीयणाणं, अन्नेसि च बहूणं राईसर-तलवर जाव सत्थवाहप्पभितीणं आहेबच्चं पोरेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरति / [16] वह उदायन राजा सिन्धु सौवीर आदि सोलह जनपदों (देशों) का, वीतिभय-प्रमुख तीन सौ त्रेमठ नगरों और आकरों का स्वामी था। जिन्हें छत्र, चामर और बाल-व्यजन (पंखे) दिये मए थे, ऐसे महासेन-प्रमुख दस मुकुटबद्ध राजा तथा अन्य बहुत-से राजा, ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति, (अथवा युवराज), तलवर (कोतवाल), यावत्-सार्थवाह-प्रभूति जनों पर आधिपत्य करता हुमा तथा राज्य का पालन करता हा यावत विचरता था। वह जीव-ग्रजीव ग्रादितत्त्वों का ज्ञाता यावत श्रमणोपासक था। विवेचन ---प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 6, से 16) में सिन्धु-सौवीर जनपद, उनको राजधानी वीतिभयनगर, उसके शासक उदायन नृप, उसके राजपरिवार तथा उसके अधीनस्थ राजाओं आदि का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दार्थ-उत्तर-पुरस्थिमे-उत्तरपूर्व-ईशानकोण में / पच्चवेक्खमाणे-भलीभांति (सर्वत्र) निरीक्षण करता हुआ / नियए भाइणेज्जे-अपना सगा भानजा / बद्धमउडाणं-मुकुट बद्ध / विदिण्णछत्त-चामर-वालवीयणाणं जिन्हें छत्र, चामर और बालव्यजन (छोटे पंखे), राजचिह्नस्वरूप दिये गये थे। आहेवच्चं पोरेवचं जाव कारेमाणे पालेमाणे-याधिपत्य करता एवं राज्य का अग्रेसरत्व-परिपालन करता हुा / ' . सिन्धुसौवीर जनपद, वोतिभयनगर : विशेषार्थ--सिन्धुनदी के निकटवर्ती सौवीर-जनपद विशेष–सिन्धुसौवीर जनपद (देश) कहलाते हैं। वीतिभय-जिसमें ईति और भीतिरूप भय न हो उसे 'वीतिभय' कहते हैं / ईतियाँ छह हैं--(१) अतिवृष्टि, (2) अनावृष्टि, (3-4-5) चहे, टिड्डीदल, एवं पतंगे आदि का उपद्रव तथा (6) स्वचक्र-परचक का भय (अपने अधीनस्थ राजा, अधिकारी आदिस्वचक्र तथा शत्रु राजा आदि का भय) उदायन राजा की राजधानी वीतिभयनगर था / 'वीतिभय' को कुछ लोग 'विदर्भ' कहते हैं। पौषधरत उदायननप का भगवद्वन्दनादि-अध्यवसाय / 17. तए णं से उदायणे राया अन्नदा कदायि जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति, जहा संखे (स० 12 उ० 1 सु० 12) जाव विहरति / [17] एक दिन वह उदायन राजा जहाँ (अपनी) पौषधशाला थी, वहाँ पाए और (बारहवेंशतक के प्रथम उद्देशक के 12 वें सूत्र में वणित) शंख श्रमणोपासक के समान पौषध करके यावत् विचरने लगे। 18. तए णं तस्स उदायणस्स रण्णो पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूये अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-"धन्ना णं ते गामाऽऽगर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुहपट्टणा-ऽऽसम-संवाह-सन्निवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरति, धन्ना गं ते राईसर-तलवरं जाव सत्यवाहप्पभितयो जे णं समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति जाव पज्जवासंति / जति णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरेज्जा, इहेब वोतोभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं प्रोग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं जाब विहरेज्जा तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेज्जा, नमसेज्जा जाव पज्जुवासेज्जा / " [18] तत्पश्चात् पूर्वरात्रि व्यतीत हो जाने पर पिछली रात्रि के समय (रात्रि के पिछले पहर) में धर्मजागरिकापूर्वक जागरण करते हुए उदायन राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय (संकल्प) 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2232 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 621 2. (क) वही, पत्र 620-621 / / (ख) अतिवृष्टिरनावृष्टिमूषका शलभाः शुकाः / ___ स्वचक्र परचक्र च षडेते ईतयः स्मृताः // ' (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2233 Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [317 उत्पन्न हया ...'धन्य हैं वे ग्राम, प्राकर (खान), नगर, खेड़, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमूख, पत्तन, पाश्रम, संवाह एवं सन्निवेश; जहाँ श्रमण भगवन् महावोर विचरण करते हैं ! धन्य हैं वे राजा, श्रेष्ठी, तलवर यावत् सार्थवाह-प्रति जन, जो श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, यावत् उनकी पर्युपासना करते हैं। यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरण करते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम यावत् विहार करते हुए यहाँ पधारें, यहाँ उनका समवसरण हो और यहीं वीतिभय नगर के बाहर मृगवन नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए यावत् विचरण करें, तो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करू, यावत् उनकी पर्युपासना करू / विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में उदायन राजा को अपनी पौषधशाला में धर्मजागरणा करते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् उनकी पर्युपासना करने का जो संकल्प हुग्रा, उसका वर्णन है / कठिन शब्दार्थ-पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंमि : तीन अर्थ--(१) पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर पिछली रात्रि के समय में, (2) रात्रि के पहले या पिछले पहर में, (3) पूर्वरात्रि और अपररात्रि के मध्य में / अयमेयास्वे-इस प्रकार का, (ऐसा) / अस्थिए-अध्यवसाय-संकल्प / समुपज्जित्थासमुत्पन्न हुआ / अहापडिरूवे प्रोग्गहं ओगिहित्ता-अपने अनुरूप अवग्रह (निवास के योग्य स्थान की याचना करके, उस) को ग्रहण करके / ' भगवान का वीतिभयनगर में पदार्पण, उदायन द्वारा प्रव्रज्याग्रहण का संकल्प 19. तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रणो अयमेयारूवं अज्झथियं जाव समुप्पन्न विजाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुण्णभदाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० 2 त्ता पुन्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणु० जाय विहरमाणे जेणेव सिधुसोवीरा जणवदा, जेणेव बीतीभये नगरे, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 जाय विहरति / [16] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, उदायन राजा के इस प्रकार के समुत्पन्न हुए प्रध्यवसाय यावत् संकल्प को जान कर चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य से निकले और क्रमश: विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम यावत् विहार करते हुए जहाँ सिन्धु-सौवीर जनपद था, जहाँ वीतिभय नगर था और उस में मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ पधारे यावत् विचरने लगे। 20. तए णं बीतीभ नगरे सिंघाडग जाव परिसा पज्जुवासइ / [20] वीतिभय नगर में शृंगाटक (तिराहे) आदि मार्गों में (भगवान् के पधारने की चर्चा होने लगी) यावत् परिषद् (भगवान् की सेवा में पहुँच कर) पर्युपासना करने लगी। 21. तए गं से उदायणे राया इमीसे कहाए लठ्ठ हट्टतुट्ट० कोडुबियपुरिसे सदावेति, को. स० 2 एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीयोभयं नगरं सब्मितरबाहिरियं जहा कृणिओ 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2235 भगवती.. वत्ति, पत्र 621 Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उवधातिए जाब पज्जुवासति / पभावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाव पज्जुवासंति / धम्मकहा। [21] उस समय (श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पदार्पण की) बात को सुन कर उदायन राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। उसने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा— 'देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही वीतिभय नगर को भीतर और बाहर से स्वच्छ करवानो, इत्यादि, प्रौपपातिकसत्र में जैसे कणिक का वर्णन है, तदनसार यहाँ भी यावत-उदायन राजा भगवान पर्युपासना करता है; (यहाँ तक वर्णन करना चाहिए / ) प्रभावती-प्रमुख रानियाँ भी उसी प्रकार यावत् पर्युपासना करती हैं / (भगवान् ने उस समस्त परिषद् तथा उदायन नृप प्रादि को) धर्मकथा कही। 22. तए णं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतु? उडाए उट्ठति, उ० 2 ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं बयासी'एवमेयं भंते ! तहमयं भंते ! जाव से तहेयं तुब्भे वदह, ति कट्ट, जं नवरं देवाणुप्पिया! अभीयोकुमारं रज्जे ठावेमि / तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता जाव पव्वयामि"। ग्रहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध / [22] उस अवसर पर श्रमण भगवान् महावीर से धर्मोपदेश सुन कर एवं हृदय में अवधारण करके उदायन नरेश अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए / वे खड़े हुए और फिर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् नमस्कार करके इस प्रकार बोले- भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही है, भगवन् ! यही तथ्य, है, यथार्थ है, यावत् जिस प्रकार आपने कहा है, उसी प्रकार है। यों कह कर भागे विशेषरूप से कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! (मेरी इच्छा है) कि अभीचि कुमार का राज्याभिषेक करके उसे राज (सिंहासन) पर बिठा हूँ और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास मुण्डिन हो कर यावत् प्रवजित हो जाऊँ।'... (भगवान् ने कहा-) 'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, (वैसा करो,) (धर्मकार्य में विलम्ब मत करो। विवेचन प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 16 से 22 तक) में उदायन राजा के पूर्वोक्त संकल्प को जान कर भगवान् ने वीतिभयनगर में पदार्पण किया, नागरिकों तथा राजपरिवारसहित स्वयं उदायन राजा द्वारा भगवान् को वन्दना-पर्यु घासनादि तथा धर्मकथा-श्रवण का, तदनन्तर अभीचि कुमार को राज्याभिषिक्त करके स्वयं प्रवजित होने की इच्छा का तथा भगवान द्वारा इच्छा को यथासुख शीघ्र कार्यान्वित करने की प्रेरणा का वर्णन है। स्वपुत्र-कल्याणकांक्षी उदायननृप. द्वारा. अभीचि कुमार के बदले अपने भानजे का राज्याभिषेक .. 23. तए णं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ट० समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं० न० ता तमेव आभिसेवक हत्थि दुरूहति, 2 ता समणस्स भगवनो 1. देखिये--औपपातिकसूत्र प.६१ से 12 तक में (आगमोदय समिति) 2. वियाहपण्णतिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 643 Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [319 महावीरस्स अंतियाओ मियवणानो उज्जाणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बोतोभये नगरे तेणेव पहारेस्था गमणाए। [23] श्रमण भगवान महावीर द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर उदायन राजा हृष्ट-तुष्ट एवं आनन्दित हुए / उदायन नरेश ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और फिर उमी अभिषेक-योग्य पट्टहस्ती पर आरूढ होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास से, मृगवन उद्यान से निकले और (सोधे) वीतभय नगर जाने के लिए प्रस्थान किया। 24. तए णं तस्स उदायणस्स रणो अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था--"एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एो पुत्ते इ8 कंते जाव किमंग पुण पासणयाए ?, तं जति णं अहं अभीयोकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता जाव पव्वधामि तो णं अभीयोकुमारे रज्जे य र? य जाव जणवए य माणुस्सएसु य कामभोएसु मुच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अभीयोकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता जाव पब्वइत्तए / सेयं खलु मे णियगं भाइणेज्ज केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवतो जाव पवइत्तए"। एवं संपेहेति, एवं सं० 2 ता जेणेव बीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० २त्ता बीतीभयं नगरं मझमझेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 ता प्राभिसेक्कं हस्थि ठवेति, आ० ठ० 2 प्राभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ, आ० 102 जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 सोहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयति, नि० 2 कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ को० स० 2 एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीतीभयं नगरं सभितरबाहिरियं जाव पच्चप्पिणंति / [24] तत्पश्चात् (मार्ग में ही) उदायत राजा को इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् (मनोगत संकल्प) उत्पन्न हुआ—'वास्तव में अभीचि कुमार मेरा एक ही (इकलौता) पुत्र है, वह मुझे अत्यन्त इष्ट एवं प्रिय है; यावत् उसका नाम-श्रवण भी दुर्लभ है तो फिर उसके दर्शन दुर्लभ हों, इसमें तो कहना ही क्या ? अतः यदि मैं अभीचि कुमार को राजसिंहासन पर बिठा कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर यावत् प्रवजित हो जाऊं तो अभोचि कुमार राज्य और राष्ट्र में, यावत जनपद में और मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों में मूच्छित, गद्ध, ग्रथित एवं अत्यधिक तल्लीन होकर अनादि, अनन्त, दीर्घमार्ग वाले चतुर्गतिरूप संसार-अटवी में परिभ्रमण करेगा। अत: मेरे लिए अभीचि कुमार को राज्यारूद कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास, मुण्डित होकर यावत् प्रवजित होना श्रेयस्कर नहीं है / अपितु मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं अपने भानजे केशी कुमार को राज्यारूढ करके श्रमण भगवान् महावीर के पास यावत् प्रवजित हो जाऊँ।' उदायमनप इस प्रकार अन्तर्मन्थन (सम्प्रेक्षण) करता हुआ वोतिभय नगर के निकट पाया वीतिभय नगर के मध्य में होता हुया अपने राजभवन के बाहर की उपस्थानशाला में आया और अभिषेक योग्य पट्टहस्ती को खड़ा किया / फिर उस पर से नीचे उतरा। तत्पश्चात् वह राजसभा में सिंहासन के पास आया और पूर्व दिशा की ओर मुख करके उक्त सिंहासन पर बैठा / तदनन्तर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उन्हें इस प्रकार का आदेश दिया-देवानुप्रियो ! वीतिभय नगर Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र को भीतर और बाहर से शीघ्र ही स्वच्छ करवानो, यावत् कौटुम्बिक पुरुषों ने नगर की भीतर और बाहर से सफाई करवा कर यावत् उनके आदेश-पालन का निवेदन किया / 25. तए णं से उदायणे राया दोच्च पि कोडुबियपुरिसे सहावेइ, स०२ एवं वधासोखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं महापं महरिहं एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स (स० 11 उ० 9 सु० 7-9) तहेव भाणियब्वो जाव परमायु पालयाहि इट्ठजणसंपरिवडे सिंधुसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवदाणं, बीतीभयपामोवखाणं०, महसेणप्पा०, अन्नेसि च बहूणं राईसर-तलवर जाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहि, लि कट्ट. जयजयसद्द पउंजंति / [25] तदनन्तर उदायन राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार की आज्ञा दी-'देवानुप्रियो ! केशी कुमार के महार्थक (सार्थक), महामूल्य, महान् जनों के योग्य यावत् राज्याभिषेक की तैयारी करो / ' इसका समग्र वर्णन (शतक 11, उ. 9, सूत्र 7 से 1 में उक्त) शिवभद्र कुमार के राज्याभिषेक के समान यावत-परम दीर्घायु हो, इष्टजनों से परिवृत होकर सिन्धुसौवीर-प्रमुख सोलह जनपदों, वीतिभय-प्रमुख तीन सौ तिरेसठ नगरों और आकरों तथा मुकुटबद्ध महासेनप्रमुख दस राजाओं एवं अन्य अनेक राजाओं, श्रेष्ठियों, कोतवाल (तलवर) आदि पर आधिपत्य करते तथा राज्य का परिपालन करते हुए विचरो'; यों (आशीर्वचन) कह कर जय-जय शब्द का प्रयोग किया / 26. तए णं से केसी कुमारे राया जाते महया जाव विहरति / [26] इसके पश्चात् केशी कुमार राजा बना / वह महा हिमवान् पर्वत के समान इत्यादि वर्णन युक्त यावत् विचरण करता है। विवेचन—उदायन नप का राज्य सौंपने के विषय में चिन्तन-भगवान् महावीर के प्रवचनश्रवण के बाद उदायन नरेश का पहले विचार हुया कि अपने पुत्र अभीचि कुमार का राज्याभिषेक करके मैं प्रवजित हो जाऊँ, किन्तु बाद में उन्होंने अन्तर्मन्थन किया तो उन्हें लगा कि अभीचि कुमार को यदि में राज्य सौंप दंगा तो वह राज्य, राष्ट्र, जनपद आदि में तथा मानवीय कामभोगों में मूच्छित, आसक्त एवं लोलुप हो जाएगा, फलस्वरूप वह अनादि अनन्त चातुर्गतिक संसारारण्य में परिभ्रमण करता रहेगा / यह उसके लिए अकल्याणकर होगा। अतः उसे राज्य न सौंप कर अपने भानजे केशी कुमार को सौंप दूं / ' कठिन शब्दों का भावार्थ-मुच्छिए----मूच्छित-आसक्त / गिद्ध -- गद्ध-लुब्ध / गढिएग्रथित - बद्ध / अज्झोक्वण्णे--अत्यधिक तल्लीन 1 अणादीयं-अनादि प्रवाहरूप से आदिरहित, अगवदग्गं-अनवदन-अनन्त—प्रवाहरूप से अन्तरहित / दोहमद्ध-दीर्घ मार्ग वाले / सेयंश्रेयस्कर, कल्याणकर / भाइणेचं भानजे को / परमाउं पालयाहि-दीर्घायु रहो / सई पउंजति– शब्द का प्रयोग करता है। 1. वियाहपए यत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) 2 भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2238 Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] भानजे को राज्य सौंपने के पीछे रहस्य-उदायन राजा ने अभीचिकुमार के विषय में जिस राज्य को अनिष्ट कर समझकर उसे नहीं सौंपा, वही राज्य अपने भानजे केशीकुमार को क्यों सौंपा? इसका रहस्य वे ही जानें, या ज्ञानी जानें / परन्तु ऐसा सम्भव है कि भानजे को लघुकर्मी, अत्यधिक श्रद्धालु, विनीत, सम्यग्दृष्टिसम्पन्न एवं राज्य के प्रति अलिप्त समझ कर उसे राज्य सौंपा हो / तत्त्व केवलिगम्य है / केशी राजा से अनुमत उदायन नप के द्वारा त्यागवैराग्यपूर्वक प्रव्रज्याग्रहण, मोक्षगमन 27. तए णं से उदायणे राया कैसि रायाणं आपुच्छइ। [27] तदनन्तर उदायन राजा ने (नवाभिषिक्त) केशी राजा से दीक्षा ग्रहण करने के विषय में अनुमति प्राप्त की। 28. तएणं से केसो राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा जमालिस्स (स० 9 उ०३३ सु० 46-47) तहेव सब्भितरबाहिरियं तहेव जाव निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेति / / [28] तब केशी राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और (शतक 6 उ. 33 सू. 46-47 में कथित) जमाली कुमार के समान नगर को भीतर-बाहर से स्वच्छ कराया और उसी प्रकार यावत् निष्क्रमणाभिषेक (दीक्षामहोत्सव) की तैयारी करने में लगा दिया। 29. तए णं से केसी राया अणेगगणणायग. जाव परिवुडे उदायणं रायं सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेति, नि० 2 अदुसएणं सोवणियाणं एवं जहा जमालिस्स (स० 9 उ० 33 सु० 49) जाव एवं क्यासी-भण सामी ! कि देमो ? किं पयच्छामो ? किणा वा ते अट्ठो ? तए णं से उदायणे राया सि रायं एवं वयासो- इच्छामि णं वेवाणुपिया ! कुत्तियावणाओ एवं जहा जमालिस्स (स० 9 उ० 33 सु० 50-56); नवरं पउमावती अग्गकेसे पडिच्छइ पियविपयोगदूसह / [29] फिर केशी राजा ने अनेक गणनायकों आदि से यावत् परिवत होकर, उदायन राजा को उत्तम सिंहासन पर पूर्वाभिमुख पासीन किया और एक सौ आठ स्वर्ण-कलशों से उनका अभिषेक किया, इत्यादि सब वर्णन (शतक 9, उ. 33, सू. 46 में कथित) जमाली के (दीक्षाभिषेक के) समान कहना / चाहिए, यावत् केशी राजा ने (यह सब होने के बाद करबद्ध हो कर) इस प्रकार कहा–'कहिये, स्वामिन् ! हम आपको क्या दें, क्या अर्पण करें, आपका क्या प्रयोजन (आदेश) है, हमारे लिए) ?' इस पर उदायन राजा ने केशी राजा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! कुत्रिकापण से हमारे लिए रजोहरण और पात्र मंगवानो! इत्यादि सब कथन (6 श., उ. 33 सू. 50-56 में उक्त) जमाली के वर्णनानुसार समझना चाहिए। विशेषता इतनी ही है कि प्रियवियोग को दुःसह अनुभव करने वाली रानी पद्मावती ने (उदायन नृप के स्मृतिचिह्नस्वरूप) उनके अनकेश ग्रहण किए। 30. तए णं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेति, दो० 20 2 उदायणं रायं सेयापीतएहि कलसे हिं० सेसं जहा जमालिस्स (स० 9 उ०३३ सु०५७-६०) जान सन्निसन्ने तहेव अम्मधाती, नवरं पउमावती हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय, सेसं तं जेव जाव सीयाओ पच्चोरुभति, सी०५०२ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा०२ समणं भगवं Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, वं० 2 उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं प्रवक्कमति, उ० अ० 2 सयमेव आभरणमल्लालंकारं तं चेव, पउमावती पडिच्छइ जाव घडियन्वं सामी ! जाव नो पमादेयव्वं ति कटु, केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वं० 2 जाव पडिगया। [30] तदनन्तर केशी राजा ने दूसरी बार उत्तरदिशा में (उनके लिए) सिंहासन रखवा कर उदायन राजा का पुनः श्वेत (चाँदी के) और पीत (सोने के) कलशों से अभिषेक किया, इत्यादि शेष वर्णन (श. 9, उ. 33 सू. 57-60 में उक्त) जमाली के समान, यावत् वह (दीक्षाभिनिष्क्रमण के लिए) शिविका में बैठ गए। इसी प्रकार धायमाता (अम्बधात्री) के विषय में भी जानना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ पद्मावती रानी हंसलक्षण (हंस के समान धवल या हंस के चित्र) वाले एक पट्टाम्बर को लेकर (शिविका में दक्षिणपार्श्व की ओर बैठी / ) शेष वर्णन जमाली के वर्णनानुसार है, यावत् वह उदायन राजा शिविका से नीचे उतरा और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके समीप पाया तथा भगवान् को तीन बार वन्दना-नमस्कार कर उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में गया। वहाँ उसने स्वयमेव प्राभूषण, माला, और अलंकार उतारे इ पूर्ववत समझना चाहिए। उन (उतारे गए प्राभूषण, माला अलंकार, केश आदि) को पदमावती देवी (रानी) ने रख लिया। यावत् वह (उदायन मुनि से) इस प्रकार बोली-'स्वामिन् ! संयम में प्रयत्नशील रहें, यावत् प्रमाद न करें;'–यों कह कर केशी राजा और पद्मावती रानी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और अपने स्थान को वापस चले गए / 31, तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं०, सेसं जहा उसमदत्तस्स (स० 9 उ० 33 सु०१६) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / [31] इसके पश्चात् उदायन राजा (मुनि-वेषी) ने स्वयं पंचमुष्टिक लोच किया। शेष वृत्तान्त (श. 9, उ. 33 सू. 16 में कथित) ऋषभदत्त की वक्तव्यता के अनुसार यावत्-(दीक्षित होकर उदायन मुनि संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं) सर्वदुःखों से रहित हो गए; (यहाँ तक कना चाहिए / ) विवेचन-प्रस्तुत 5 सूत्रों (27 से 31 सू. तक) में केशी राजा द्वारा उदायन नृप का निष्क्रमणाभिषेक, उदायन का शिविका से भगवान् की सेवा में गमन, दीक्षाग्रहण तथा तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए क्रमशः मोक्षगमन का प्रायः अतिदेशपूर्वक वर्णन है / कठिन शब्दार्थ-निक्खमणाभिसेयं-निष्क्रमण-प्रव्रज्या के लिए गहत्याग करके निकलने के निमित्त अभिषेक निष्क्रमणाभिषेक है / सोवणियाणं-स्वर्णनिर्मित कलशों से। कुत्तियावणाओकुत्रिकापण-त्रिभुवनवर्ती वस्तु की प्राप्ति के स्थानरूप दुकान से / पिय-विप्पयोग-दूसहा-जिसको प्रियवियोग दुःसह है / रयावेइ—रखवाया / सेयापीयरहि-सफेद (चांदी के) और पीले (सोने के) कलशों से / पटसाडगं--पट-शाटक, रेशमी वस्त्र / घडियव्वं-तप-संयम में चेष्टा (प्रयत्न) करें।' 1. (क) भगवती. (हिन्दी वि.) भा. 5, पृ. 2241 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका) भा. 11, पृ. 50 Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] [323 राज्य-अप्राप्तिनिमित्त से वैराणुबद्ध प्रभीचिकुमार का वीतिभय नगर छोड़कर चम्पा नगरी में निवास 32. तए णं तस्स अभौयिस्स कुमारस्स अन्नदा कदायि पुन्चरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुब. जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पमावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भागिणेज्ज केसिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पवइए' / इमेणं एतारूवेणं महता अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरपरियालसंपरिवडे सभंडमत्तोगरणमायाए बीतीभयाओ नगराओ निग्गच्छति, नि० 2 पुव्वाणुपुदि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवा० 2 कुणियं रायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / इत्थ वि णं से विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि होत्था। [32] तत्पश्चात् (उदायन राजा के प्रवज्या-ग्रहण करने के बाद) किसी दिन रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्ब-जागरण करते हुए (उदायनपुत्र) अभीचिकुमार के मन में इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ—'मैं उदायन राजा का (ौरस) पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज हूँ। फिर भी (मेरे पिता) उदायन राजा ने मुझे छोड़ कर अपने भानजे केशीकुमार को राजसिंहासन पर स्थापित करके श्रमण भगवान महावीर के पास यावत् प्रव्रज्या ग्रहण की है।' इस प्रकार के इस महान् अप्रतीति-(अप्रीति)-रूप मनो-मानसिक (प्रान्तरिक) दुःख से अभिभूत (पीडित) बना हुआ अभीचिकुमार अपने अन्तःपुर-परिवार-सहित अपने भाण्डमात्रोपकरण (समस्त भाजन, शय्यादि सामग्री) को लेकर वीतिभय नगर से निकल गया और अनुक्रम से गमन करता और प्रामानुग्राम चलता हुप्रा (एक दिन) चम्पा नगरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा। कूणिक राजा से मिल कर उसका आश्रय ग्रहण करके (वहाँ) रहने लगा। यहाँ भी वह विपुल भोग-सामग्री से सम्पन्न हो गया। विवेचन-उदायन के प्रति वैरानुबन्ध-उदायन राजा द्वारा अपने पुत्र को छोड़ कर भानजे को राज्याभिषिक्त करके प्रवजित होने के कारण अभीचिकुमार उदायन राजा के अपने प्रति कल्याणकारी शुभभावों को न समझ कर गलतफहमी से उनके प्रति रोषवश अपने अन्तःपुर एवं समस्त साधन-सामग्री को लेकर वहाँ से कूच करके चम्पापुरी में कूणिक राजा के पास पहुँचा और उसके प्राश्रित रहने लगा। इस प्रकार अभीचिकुमार की वैरानुबन्धिनी मनोवृत्ति का प्रस्तुत सूत्र में निरूपण किया गया है। कठिनशब्दार्थ-अवहाय- छोड़ कर / अप्पत्तिएणं अप्रतीतिकर या अप्रीतिजन्य / मणोमाणसिएणं दुक्खेणं-मन के आन्तरिक दुःख से / अंतेपुर-परियालसंपरिवुडे-अन्तःपुर-परिवार से परिवृत (युक्त) हो कर / सभंड-मत्तोवगरणमायाए-भाण्ड मात्र (बर्तन) सहित उपकरण (समस्त साधन-सामग्री) लेकर / उवसंपज्जिताणं-अधीनता (पाश्रय) स्वीकार कर। विउल-भोग समितिसमन्नागए–प्रचुर भोग-सामग्री से सम्पन्न / ' 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2244 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 621 Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्रमणोपासक धर्मरत अभीचि को वैरविषयक आलोचन-प्रतिक्रमण न करने से असुरकुमारत्व प्राप्ति 33. तए णं से अभीयो कुमारे समणोवासए यावि होत्था, अभिगय जाब विहरति / उदायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे यावि होत्था। [33] उस समय (चम्पा नगरी में रहते-रहते कालान्तर में) अभीचि कुमार श्रमणोपासक बना / वह जीब-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् (बन्ध-मोक्षकुशल हो कर) जीवनयापन करता था। (श्रमणोपासक होने पर भी अभीचि कुमार) उदायन राजर्षि के प्रति वैर के अनुबन्ध से युक्त था / 34. तेणं कालेणं तेणं सभएणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोटुि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [34] उस काल, उस समय में (भगवान् महावीर ने) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के परिपार्श्व में असुरकुमारों के चौसठ लाख असुर कुमारावास कहे हैं। 35. तए णं से अभीयो कुमारे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणित्ता अद्धमासियाए सलेहणाए तोसं भत्ताई अणसगाए छेदेइ, छे० 2 तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोयडीए आतावा जाव सहस्सेसु अण्णतरंसि आतावाअसुरकुमारावासंसि भातावाअसुरकुमारदेवत्ताए उववन्ने / [35] उस अभीचि कुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया और उस (अन्तिम) समय में अर्द्ध मालिक संल्लेखना से तीस भक्त अनशन का छेदन किया / उस समय (उदायन राजर्षि के प्रति पूर्वोक्त वैरानुबन्ध रूप पाप-) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना मरण के समय कालधर्म को प्राप्त करके (अभीचि कुमार) इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के निकटवर्ती चौसठ लाख आताप नामक असुरकुमारावासों में से किसी प्राताप नामक असुरकुमारावास में आतापरूप असुरकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुआ। 36. तत्थ णं अत्थेगइयाणं आतावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिती पन्नत्ता। तत्थ णं प्रभोयिस्स वि देवस्स एग पलिओवमं ठिती पन्नत्ता। [36] वहाँ कई आताप-असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। वहाँ अभीचि देव की स्थिति भी एक पल्योपम की है। विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 33 से 36 तक) में अभीचि कुमार के श्रमणोपासक होने पर उदायन राजर्षि के वैरानुबद्ध होने तथा उस पापस्थान की अन्तिम समय में अालोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही अर्द्ध मासिक अनशनपूर्वक काल करने से प्राताप-असुरकुमारों में एक पल्योपम की स्थिति वाले देव बनने का वर्णन किया है / Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 6] देवलोकच्यवनानन्तर अभीचि को भविष्य में मोक्षप्राप्ति 37. से णं भंते ! अभीयो देवे ताओ देवलोगाप्रो आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं उव्वट्टित्ता कहि गछिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // तेरसमे सए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो // 13-6 / / [37 प्र. भगवन् ! वह अभीचि देव उस देवलोक से प्रायु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय होने के अनन्तर उद्वर्तन (मर) करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? [37 उ.] गौतम ! वह वहाँ से च्यव कर महाविदेह-वर्ष (क्षेत्र) में (जन्म लेगा) सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अभीचि देव के असुरकुमार-पर्याय से च्यवन के बाद भविष्य में महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यजन्म पा कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का प्रतिपादन किया है। // तेरहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : भासा सप्तम उद्देशक : भाषा, (मन आदि एवं मरण) भाषा के आत्मत्व, रूपित्व, अचित्तत्व, अजीवत्वस्वरूप का निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वयासो[१] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान् महावीर से) यावत् (गोतमस्वामी ने) इस प्रकार 2. आया भंते ! भासा, अन्ना भासा ? गोयमा ! नो आता भासा, अन्ना भासा / [2 प्र.] भगवन् ! भाषा आत्मा (जीवरूप) है या अन्य (आत्मा से भिन्न पुद्गलरूप) है ? [2 उ.] गौतम ! भाषा आत्मा नहीं है, (वह) अन्य (आत्मा से भिन्न पुद्गलरूप) है / 3. रुवि भंते ! भासा, अरूवि भासा ? गोयमा! रुवि भासा, नो अरूवि भासा / [3 प्र.] भगवन् ! भाषा रूपी है या अरूपी ? [3 उ.] गौतम ! भाषा रूपी है, वह अरूपी नहीं है। 4. सचित्ता भंते ! भासा, अचित्ता भासा? गोयमा ! नो सचित्ता मासा, अचित्ता भासा / [4 प्र.] भगवन् ! भाषा सचित्त (सजीव) है या अचित्त ? [4 उ.] गौतम ! भाषा सचित्त नहीं है, अचित्त (निर्जीव) है। 5. जोया भंते ! भासा, अजीवा भासा ? गोयमा ! नो जीवा भासा, अजीवा भासा / [5 प्र.] भगवन् ! भाषा जीव है, अथवा अजीव ? [5 उ.] गौतम ! भाषा जीव नहीं है, वह अजीव है / भाषा : जीवों की, अजीवों को नहीं 6. जीवाणं भंते ! भासा, अजीवाणं भासा ? गोयमा ! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा। [6 प्र.] भगवन् ! भाषा जीवों के होती है या अजीवों के ? [6 उ.] गौतम ! भाषा जीवों के होती है, अजीवों के भाषा नहीं होती। बोले जाते समय ही भाषा, अन्य समय में नहीं 7. पुवि भंते ! भासा, भासिज्जमाणी भासा, भासासमयवोतिकता भासा ? गोयमा ! नो पुध्वि भासा, भासिज्जमाणी भासा, नो भासासमयवीतिक्कता भासा / [7 प्र.] भगवन् ! (बोलने से) पूर्व भाषा कहलाती है या बोलते समय भाषा कहलाती है, अथवा बोलने का समय बीत जाने के पश्चात् भाषा कहलाती है ? Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [327 [7 उ.] गौतम ! बोलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाती, बोलते समय भाषा कहलाती है; किन्तु बोलने का समय बीत जाने के बाद भी भाषा नहीं कहलाती। भाषा-भेदन : बोलते समय ही 8. पुदिव भंते ! भासा भिज्जइ, भासिज्जमाणी भासा भिज्जइ, भासासमयबीतिक्कता भासा भिज्जइ ? गोयमा ! नो पुष्वि भासा भिज्जइ, भासिज्जमाणी भासा भिज्जइ, नो भासासमयवीतिक्कता भासा भिज्जइ। [8 प्र.] भगवन् ! (बोलने से) पूर्व भाषा का भेदन होता है, या बोलते समय भाषा का भेदन होता है, अथवा भाषण (बोलने) का समय बीत जाने के बाद भाषा का भेदन होता है ? [8 उ.] गौतम ! (बोलने से) पूर्व भाषा का भेदन (बिखरना) नहीं होता, बोलते समय भाषा का भेदन (बिखराव एवं फैलाव) होता है, किन्तु बोलने का समय बीत जाने पर भाषा का भेदन नहीं होता। चार प्रकार की भाषा 9. कतिविधा णं भंते ! भासा पन्नत्ता ? गोयमा ! चउन्विहा भासा पण्णता, तं जहा-सच्चा मोसा सच्चामोसा असच्चामोसा / [6 प्र.] भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [6 उ.] गौतम ! भाषा चार प्रकार की कही गई हैं। यथा-सत्य भाषा, असत्य भाषा, सत्यामृषा (मिश्र) भाषा और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा। विवेचन-भाषाविषयक प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 1 से 6 तक) में भाषा के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गये हैं। भाषा आत्मा क्यों नहीं ?--भाषा आत्मा है या इससे भिन्न ?, यह प्रश्न इसलिए उठाया गया है कि जिस प्रकार ज्ञान आत्मा (जीव) से कथंचित् पृथक् होते हुए भी जीव का स्वभाव (धर्म) होने से उसे आत्मा (जीव) कहा गया है, इसी प्रकार भाषा भी जीव के द्वारा व्याप्त होती (बोली जाती है) तथा वह जीव के बन्ध एवं मोक्ष का कारण होती है, इसलिए जीव स्वभाव (आत्मा का धर्म) होने से क्या उसे आत्मा नहीं कहा जा सकता ? अथवा भाषा श्रोत्रेन्द्रिय-ग्राह्य होने से मूर्त होने के कारण अात्मा से भिन्न है, अर्थात्---जीवस्वरूप नहीं है? यह प्रश्न का आशय है / इसके उत्तर में यहां कहा गया है कि भाषा आत्मरूप (जीवस्वभाव) नहीं है, क्योंकि यह पूदगलमय--- मूर्त होने से प्रात्मा से भिन्न है / जैसे जीव के द्वारा फेंका गया ढेला ग्रादि जीव से भिन्न-अचेतन है, वैसे ही जीव के द्वारा (मुख से) निकली हुई भाषा भी जीव से भिन्न अचेतन है। / पहले यह कहा गया था कि भाषा जीव के द्वारा व्याप्त होती है, इसलिए ज्ञान के समान जीवरूप होनी चाहिए, किन्तु यह कथन दोषयुक्त है, क्योंकि जीव का व्यापार जोव से अत्यन्त भिन्न स्वरूप वाले दात्र (हंसिये) आदि में भी देखा जाता है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 621 Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र भाषा रूपी है या अरूपी ? प्रश्नोत्तर का आशय-कान के आभूषण के समान भाषा द्वारा श्रोत्रेन्द्रिय का उपकार और उपघात होता है, इसलिए क्या यह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने से रूपी है ? अथवा जैसे धर्मास्तिकाय आदि चक्षुरिन्द्रिय से ग्राह्य नहीं होते, इस कारण अरूपी कहलाते हैं, इसी प्रकार भाषा भी चक्षुरिन्द्रिय द्वारा ग्राह्य न होने से क्या अरूपी नहीं कही जा सकती?; यह प्रश्न का प्राशय है / इसके उत्तर में कहा गया है कि भाषा रूपी है / भाषा को अरूपी सिद्ध करने के लिए जो चक्षु-अग्राह्यत्व रूप हेतु दिया गया है, वह दोषयुक्त है, क्योंकि चक्षु द्वारा अग्राह्य होने से ही कोई अरूपी नहीं होता / जेसे वायु, परमाणु और पिशाच आदि रूपी होते हुए भी चक्षु-ग्राह्य नहीं होते। भाषा सचित्त क्यों नहीं? जीवित प्राणी के शरीर की तरह भाषा अनात्मरूपा होते हुए भी सचित्त (सजीव) क्यों नहीं कही जा सकती ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा सचित्त नहीं है, वह जीव के द्वारा निसृष्ट कफ, लींट आदि के समान पुद्गलसमूह रूप होने से अचित्त है। भाषा जीव क्यों नहीं?—जो जीव होता है, वह उच्छवास आदि प्राणों को धारण करता है, किन्तु भाषा में उच्छ्वासादि प्राणों का अभाव है, इसलिए वह जीवरूप नहीं है, अजीवरूप है। . भाषा जीवों के होती है, अजीवों के नहीं : प्रश्नोत्तर का आशय-कुछ लोग वेदों (ऋग्, यजुः, साम एवं अथर्व इन चार वेदों) की भाषा को अपौरुषेयी (पुरुषप्रयत्न-रहित) मानते हैं, उनकी मान्यता को ध्यान में रख कर यह प्रश्न किया गया है कि "भाषा जीवों के होती है या अजीवों के भी होती है ?" इसके उत्तर में कहा गया है कि भाषा जीवों के ही होती है। क्योंकि वर्गों का समुह 'भाषा' कहलाता है और वर्ण, जीव के कण्ठ, तालु अादि के व्यापार से उत्पन्न होते है / कण्ठ, तालु आदि का व्यापार जीव में ही पाया जाता है। इसलिए भाषा जीवप्रयत्नकृत होने से जीव के ही होती है / यद्यपि ढोल, मृदंग आदि अजीव वाद्यों से या पत्थर, लकड़ी प्रादि अजीव पदार्थों से भी शब्द उत्पन्न होता है, किन्तु वह भाषा रूप नहीं होता / जीव के भाषा-पर्याप्ति से जन्य शब्द को हो भाषा रूप माना गया है।४ बोलने के पूर्व और पश्चात् भाषा क्यों नहीं ?--जिस प्रकार पिण्ड अवस्था में रही हुई मिट्टी घड़ा नहीं कहलाती, इसी प्रकार बोलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाती / जिस प्रकार घड़ा फूट जाने के बाद ठीकरे की अवस्था में धड़ा नहीं कहलाता, उसी प्रकार भाषा का समय व्यतीत हो जाने पर (यानी बोलने के बाद) भाषा नहीं कहलाती / जिस प्रकार घट अवस्था में विद्यमान ही घट कहलाता है, उसी प्रकार बोली जा रही--मुह से निकलती हुई अवस्था में ही भाषा कहलाती है। बोलने से पूर्व और पश्चात् भाषा का भेदन क्यों नहीं ? –बोलने से पूर्व भाषा का भेदन कैसे होगा? क्योंकि जब शब्द-द्रव्य ही नहीं निकले तो भेदन किनका होगा? तथा भाषा का समय 1. भगवती, अ. वत्ति, पत्र 621 2. वही, पत्र 622 3. वही. पत्र 622 4. वहीं, पत्र 622 5. वहीं, पत्र 622 Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [329 व्यतीत हो जाने पर भी भाषा का भेदन नहीं होता, क्योंकि तब तक शब्द भाषापरिणाम को छोड़ देते हैं / अतः बोले जाने के पश्चात् वक्ता का उत्कृष्ट प्रयत्न न होने से भाषा का भेदन नहीं हो पाता। भाषा का भेदन तभी तक होता है जब तक शब्द-परिणाम की अवस्था रहती है / वहीं तक भाषा में भाष्यमाणता (बोली जाती हुई भाषा का भाषापन) समझना चाहिए / आशय यह है कि जब कोई बक्ता मन्द प्रयत्न वाला होता है तो वह अपने मुख से अभिन्न शब्दद्रव्यों को निकालता है। वे निकले हुए शब्दद्रव्य असंख्येय एवं अतिस्थूल होने से बाद में उनका भेदन होता है / भिन्न होते हुए वे शब्दद्रव्य संख्येय योजन जाकर शब्दपरिणाम का त्याग कर देते हैं / यदि कोई वक्ता महाप्रयत्न वाला होता है तो आदान-विसर्ग रूप (ग्रहण करने और छोड़ने रूप) दोनों प्रयत्नों से भेदन करके ही शब्दद्रव्यों को त्यागता है। त्यागे हुए वे शब्दद्रव्य सूक्ष्म एवं बहुत होने से अनन्तगुणवृद्धि से बढ़ते हुए छहों दिशाओं में लोक के अन्त तक जा पहुँचते हैं / अत: यह सिद्ध हुआ कि बोली जा रही भाषा का ही भेदन होता है।' मनः आत्मा मन नहीं, जीव का है, मनन करते समय ही मन तथा भेदन 10. आता भंते ! मणे, अन्ने मणे ? गोयमा ! नो आया मणे, अन्ने मणे / [10 प्र.] भगवन् ! मन अात्मा है, अथवा आत्मा से भिन्न ? [10 उ.] गौतम ! अात्मा मन नहीं है / मन (प्रात्मा से) अन्य (भिन्न) है; इत्यादि / 11. जहा भासा तहा मणे वि जाव नो अजीवाणं मणे। [11] जिस प्रकार भाषा के विषय में (विविध प्रश्नोत्तर कहे गए) उसी प्रकार मन के विषय में भी यावत्--अजीवों के मन नहीं होता; (यहाँ तक) कहना चाहिए। 12. पुब्धि भंते ! मणे, मणिज्जमाणे मणे ? 0 एवं जहेव भासा। [12 प्र.] भगवन् ! (मनन से) पूर्व मन कहलाता है, या मनन के समय मन कहलाता है, अथवा मनन का समय बीत जाने पर मन कहलाता है ? [12 उ. गौतम ! जिस प्रकार भाषा के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार (मन के विषय में भी कहना चाहिए / ) भंते ! मणे मिज्जइ, मणिज्जमाणे मणे भिज्जइ, मणसमयबीतिक्कते मणे मिज्जा ? एवं जहेव भासा। [13 प्र.] भगवन् ! (मनन से) पूर्व मन का भेदन (विदलन) होता है, अथवा मनन करते हुए मन का भेदन होता है, या मनन-समय व्यतीत हो जाने पर मन का भेदन होता है ? 1, (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2249 (ब) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 622 Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13 उ.] गौतम ! जिस प्रकार भाषा के भेदन के विषय में कहा गया, उसी प्रकार मन के भेदन के विषय में कहना चाहिए / मन के चार प्रकार 14. कतिविधे णं भंते ! मणे पन्नत्ते? गोयमा ! चविहे मणे पन्नत्ते, तं जहा-सच्चे, जाव असच्चामोसे / [14 प्र.] भगवन् ! मन कितने प्रकार का कहा गया है ? [14 उ.] गौतम ! मन चार प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) सत्यमन, (2) मृषामन, (3) सत्यमृषा-(मिश्र) मन और (4) असत्यामृषा (व्यवहार) मन / विवेचन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 10 से 14 तक) में भाषा के समान मन के विषय में शंका उठा कर उसी प्रकार समाधान किया गया है / अर्थात्-मन सम्बन्धी समस्त सूत्रों का विवेचन भाषा-सम्बन्धी सूत्रों के समान जानना चाहिए। मन : स्वरूप और उसका भेदन----मनोद्रव्य का जो समुदाय मनन-चिन्तन करने में उपकारी होता है तथा जो मनःपर्याप्ति नामकर्म के उदय से सम्पादित है, उसे मन कहते हैं / वास्तव में मन एक ही है। मन का भेदन मन का विदलन मात्र ही समझना चाहिए / वर्तमान युग की भाषा में कहा जा सकता है कि मन जब चिन्तन, मनन, स्मरण, निर्णय, निदिध्यासन, संकल्प, विकल्प आदि भिन्न-भिन्न रूप में करता है, तब उसका बिदलन होता है / ' मणिज्जमाणे : अर्थ-मनन करते हुए या मनन के समय / ' काय : प्रात्मा है या अन्य? रूपो-अरूपी है, सचित्त-अचित्त है, जीवाजीव है ? 15. प्राया भंते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा ! प्राधा वि काये, अन्ने वि काये। [15 प्र. भगवन् ! काय (शरीर) यात्मा है, अथवा अन्य (प्रात्मा से भिन्न है ? [15 उ.] गौतम ! काय प्रात्मा भी है और आत्मा से भिन्न (अन्य) भी है। 16. रूवि भंते ! काये पुच्छा। गोयमा ! रूवि पि काये, अवि पि काये / [16 प्र. भगवन् ! काय रूपी है अथवा अरूपी ? [16 उ.] गौतम ! काय रूपी भी है और अरूपी भी है। 17. एवं सचित्ते विकाए, अचित्ते विकाए / [17) इसी प्रकार काय सचित्त भी है और अचित्त भी है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 622 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2252 2. वही, भाग 5, पृ. 2251 Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [331 18. एवं एक्केक्के पुच्छा / जीवे वि काये, अजीवे वि काए / [18 प्र. | इसी प्रकार (भाषा की तरह यहाँ भी) क्रमश: एक-एक प्रश्न करना चाहिए। (उनके उत्तर इस प्रकार से है-) [18 उ.] काय जीवरूप भी है और अजीवरूप भी / जीव-अजीव दोनों कायरूप 19. जीवाण वि काये, अजीवाण वि काए / [19] काय जीवों के भी होता है, अजीवों के भी। त्रिविध जीवस्वरूप को लेकर कायनिरूपण-कायभेदनिरूपण 20. पुन्वि भंते ! काये ? पुच्छा। गोयमा ! पुब्धि पि काए, कायिज्जमाणे वि काए, कायसमयवोतिक्कते वि काये। . 20 प्र. भगवन् ! (जीव का सम्बन्ध होने से) पूर्व काया होती है, (अथवा कायिकपुद्गलों के चीयमान (ग्रहण) होते समय काया होती है या काया-समय (कायिकपुद्गलों के ग्रहण का समय) बीत जाने पर भी काया होती है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / 20 उ.] गौतम ! (जोव का सम्बन्ध होने से) पूर्व भी काया होती है, चीयमान (कायिक पुदगलों के ग्रहण) होते समय भी काया होती है और काया-समय (कायिक पुद्गल ग्रहण का समय) बीत जाने पर भी काया होती है। 21. पुचि भंते / काये भिज्जइ ? * पुच्छा। गोयमा ! पुदिव पि काए भिज्जइ जाव कायसमयवीतिक्कते वि काये भिज्जति / [21 प्र.] भगवन् ! (क्या जीव के द्वारा कायरूप से ग्रहण करने के समय से ) पूर्व भी काया का भेदन होता है ? (अथवा कायारूप से पुद्गलों का ग्रहण करते समय काया का भेदन होता है ? या काया-समय बीत जाने पर काया का भेदन होता है ? इत्यादि पूर्ववत प्रश्न / [21 उ.] गौतम ! (जीव के द्वारा कायरूप से ग्रहण करने के समय से पूर्व भी काया का भेदन होता है, जीव के द्वारा काया के पुद्गलों का ग्रहण (चय) होते समय भी काया का भेदन होता है और काय-समय बीत जाने पर भी काय का भेदन होता है। काया के सात भेद 22. कतिविधे णं भंते ! काये पन्नते? गोयमा! सत्तविधे काये पन्नत्ते, तं जहा-पोरालिए ओरालियमोसए वेउविए वेउब्धियमोसए पाहारए आहारयमीसए कम्मए। [22 प्र. | भगवन् ! काय कितने प्रकार का कहा गया है ? [22 उ.] गौतम ! काय सात प्रकार का कहा गया है / यथा-( 1 ) प्रौदारिक, Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) प्रौदारिकमिश्र, (3) वैक्रिय, (4) वैक्रियमिश्र, (5) प्राहारक, (6) आहारकमिश्र और (7) कार्मण। विवेचन-प्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 15 से 22 तक) में विभिन्न पहलुओं से काया के सम्बन्ध में शंका-समाधान प्रस्तुत किये गए हैं। काय आत्मा भी और आत्मा से भिन्न भी काय कथंचित् आत्मरूप भी है, क्योंकि काय के द्वारा कृत कर्मों का अनभव (फलभोग) प्रात्मा को होता है। दूसरे के द्वारा किये हए कर्म का अनुभव दूमरा नहीं कर सकता / यदि ऐसा होगा तो अकृतागम (नहीं किये हुए कर्म के अनुभव-भोग) का प्रसंग पाएगा। किन्तु यदि काया को आत्मा से एकान्ततः अभिन्न माना जाएगा तो काया का एक अंश से छेदन करने पर आत्मा के छेदन होने का प्रसंग पाएगा, जो कभी सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त आत्मा को काया से अभिन्न मानने पर शरीर के जल जाने पर आत्मा भी जल कर भस्म हो जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में परलोकगमन करने वाला कोई प्रात्मा नहीं रहेगा / परलोक के प्रभाव का प्रसंग होगा। इसलिए काया को प्रात्मा से कथंचित भिन्न माना गया। काया का प्रांशिक छेदन करने पर आत्मा को उसका पूर्ण संवेदन होता है, इस दृष्टि से काया कथंचित् प्रात्मरूप भी माना जाता है। जैसे सोना और मिट्टी, लोहे का पिण्ड और अग्नि, अथवा दूध और पानी दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी मिल जाने पर दोनों अभिन्न-से प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भी काया के साथ संयोग होने से भिन्न होते हुए भी कथंचित् अभिन्न माना जाता है। यही कारण है कि काया को छूने पर आत्मा को उसका संवेदन होता है / काया द्वारा किये गए कार्यों का फल भवान्तर में आत्मा को भोगना (वेदन करना पड़ता है। इसलिए काया को प्रात्मा से कथंचित् अभिन्न माना गया है। कुछ प्राचार्यों ने माना है कि कार्मणकाय की अपेक्षा से प्रात्मा काया है, क्योंकि कार्मणशरीर और संसारी आत्मा परस्पर एकरूप होकर रहते हैं तथा औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा से काया आत्मा से भिन्न है, क्योंकि शरीर के छूटते ही आत्मा पृथक हो जाती है, इस दष्टि से काया से आत्मा की भिन्नता सिद्ध होती है। काया रूपी भी है, अरूपी भी है—प्रौदारिक आदि शरीरों की स्थलरूपता दृश्यमान होने से काया रूपी है और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म एवं अदृश्यमान होने से उसकी अपेक्षा से अरूपित्व की विवक्षा करने पर काया कञ्चित् अरूपी भी मानी जाती है। काया सचित्त भी है, अचित्त भी जीवित अवस्था में काया चैतन्य से युक्त होने के कारण सचित्त है और मृतावस्था में उसमें चैतन्य का अभाव होने से अचित्त भी है। काया जीव भी है, अजीव भी–विवक्षित उच्छ्वास आदि प्राणों से युक्त होने से प्रौदारिकादि शरीरों की अपेक्षा से काया जीव है और मृत होने पर उच्छ्वासादि प्राणों से रहित हो जाने से वह अजीव भी है। .. ... --- - - - - ---- -- -- - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 623 2. वही, पत्र 623 3. वहीं, पत्र 623 4. वही, पत्र 623 Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [333 जीवों के भी काय होता है, अजीवों के भी जीवों के काय (शरीर) होता है यह तो प्रत्यक्षसिद्ध है। मिट्टी के लेप आदि से बनाई गई शरीर की आकृति अजीवकाय भी होती है / ' काया पहले-पीछे भी और वतमान में भो-जीव का सम्बन्ध होने से पूर्व भी काया होती है, जसे --- मेंढक का मृत कलेवर / उसका भविष्य में जीव के साथ सम्बन्ध होने पर वह जीव का काय बन जाता है / वर्तमान में जीव के द्वारा उपचित किया जाता हुआ भी काय होता है / जैसे—जीवित शरीर / काय—समय व्यतीत हो जाने अर्थात् जीव के द्वारा कायरूप से उपचय करना बन्द हो जाने पर भी काय रहता है, जैसे मृत कलेवर / काया का भेदन पहले, पीछे और वर्तमान में भी जिस घड़े में भविष्य में मधु रखा जाएगा, समे मध्घट कहा जाता है। इसी प्रकार जीव के द्वारा कायरूप से ग्रहण करने के समय से पूर्व भी काय होता है। उस में प्रतिक्षण पुद्गलों का चय-अपचय होने से उस द्रव्यकाय का भेदन होता है। जीव के द्वारा कायारूप से ग्रहण करते समय भी काया का भेदन होता है, जैसे-बालू से भरी हुई मुट्ठी में से उसके कण प्रतिक्षण झड़ते रहते हैं, वैसे ही काया में से प्रतिक्षण पुद्गल झड़ते रहते हैं। जिस घड़े में घी रखा गया था, उसमें से घी निकाल लेने पर भी उसे 'घो का घड़ा' कहते हैं, वैसे ही काय-समय व्यतीत हो जाने पर भी भूतभाव की अपेक्षा से उसे काय कहा जाता है / भेदन होना 'पुद्गलों का स्वभाव है, इसलिए उस भूतपूर्व काय का भी भेदन होता है। चणिकार के अनुसार व्याख्या-णिकार ने 'काय' शब्द का अर्थ–'समस्त पदार्थों का सामान्य चयरूप शरीर' किया है। उनके अनुसार प्रात्मा भी काय है, अर्थात् प्रदेश-संचयरूप है तथा काय प्रदेश-संचयरूप होने से प्रात्मा से भिन्न भी है / पुद्गलस्कन्धों की अपेक्षा से काय रूपी भी है और जीव-धर्मास्तिकायादि को अपेक्षा से काय अरूपी भी है। जीवित शरीर की अपेक्षा से काय सचित्त भी है और अचेतन संचय की अपेक्षा से काय अचित्त भी है / उच्छ्वासादि-युक्त अवयव-संचय की अपेक्षा से काय जीव है और उच्छ्वासादि अवयव-संचय के अभाव में काय अजीव भी है / जीवों के काय का अर्थ है-जीवराशि और अजीवों के काय का अर्थ है---परमाणु आदि की राशि। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से काय से सम्बन्धित शेष पदों की व्याख्या भी समझ लेनी चाहिए। काय के सात प्रकारों का प्रर्थ औदारिककाय-उदार अर्थात्-प्रधान स्थूल पुद्गलस्कन्धरूप होने से औदारिक तथा उपचीयमान होने से काय कहलाता है / यह पर्याप्तक जीव के होता है / औदारिकमिश्र औदारिकशरीर कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, तब औदारिकमिश्र होता है, यह अपर्याप्तक जीव के होता है। वैक्रियकाय--पर्याप्तक देवों आदि के होता है। बैंक्रियमिश्र-वैक्रियशरीर कार्मण के साथ मिश्रित हो तब वैक्रियमित्र होता है। यह अप्रतिपूर्ण वैक्रियशरीर वाले देव आदि के होता है / आहारक-आहारकशरीर निष्पन्न होने पर आहारककाय कहलाता है। आहारकमिश्र-ग्राहारकशरीर का परित्याग करके औदारिक शरीर ग्रहण करने के लिए उद्यत 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 623 2. वही, पत्र 623 3. (क) वहीं, पत्र 623 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2253 4. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 623 Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मुनिराज के औदारिकशरीर के साथ मिथता होने से प्राहारकमिश्रकाय होता है। कार्मणकाय --- विग्रहमति में अथवा केलिसमुद्घात के समय कार्मण कायशरीर होता है।' मरण के पांच प्रकार 23. कतिविधे गं भंते ! मरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे मरणे पन्नत्ते, तं जहा—आवोचियमरणे ओहिमरणे आतियंतियमरणे बालमरणे पंडियमरणे। [23 प्र. भगवन् ! मरण कितने प्रकार का कहा गया है ? 23 उ.] गौतम ! मरण पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार है--(१) आवीचिकमरण, (2) अवधिमरण, (3) प्रात्यन्तिकमरण, (4) बालमरण और (5) पण्डितमरण / विवेचन–पञ्चविध मरण के लक्षण -मरण की परिभाषा-अायुष्य पूर्ण होने पर आत्मा का शरीर से वियुक्त होना (छूटना) अथवा शरीर से प्राणों का निकल जाना तथा बन्धे हुए आयुष्यकर्म के दलिकों का क्षय होना 'मरण' कहलाता है / वह मरण पांच प्रकार का है। उनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं--(१) आवोचिकमरण -वोचि (तरंग) के समान प्रतिसमय भोगे हुए अत्यान्य आयुष्यकर्मदलिकों के उदय के साथ-साथ क्षय रूप अवस्था प्रावीचिकमरण है; अथवा जिस मरण में वीचि-विच्छेद विद्यमान रहे अर्थात् --विच्छेद न हो-पायुष्यकर्म की परम्परा चालू रहे, उसे प्रावीचिमरण कहा जा सकता है। (2) अवधिमरण-अवधि (मर्यादा)-सहित मरण / नरकादिभवों के कारणभूत वर्तमान प्रायुष्यकर्मदलिकों को भोग कर (एक बार) मर जाता है, यदि पुन: उन्हीं अायुष्यकर्मदलिकों को भोग कर मृत्यु प्राप्त करे, तब अवधिमरण कहलाता है / उन द्रव्यों की अपेक्षा से पूनम्रहण की अवधि तक जोव मृत रहता है, इस कारण वह अवधिमरण कहलाता है। परिणामों की विचित्रता के कारण कर्मदलिकों को ग्रहण करके छोड देने के बाद पुन: उनका ग्रहण करना सम्भव होता है। (3) प्रात्यन्तिकमरण-अत्यन्तरूप से मरण प्रात्यन्तिकमरण है। अर्थात्---नरकादि आयुष्यकर्म के रूप में जिन कर्मलिकों को एक बार भोग कर जीव मर जाता है, उन्हें फिर कभी नहीं भोगकर मरना। उन कर्मदलिकों को अपेक्षा से जीव का मरण प्रात्यन्तिकमरण कहलाता है / (4) बालमरण-अविरत (व्रतरहित) प्राणियों का मरण / (5) पण्डितमरण-सर्वविरत साधुवर्ग का मरण / प्रावीचिमरण के भेद-प्रभेद और स्वरूप 24. आवोचियमरणे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नते, तं जहा -दव्वाबोचियमरणे खेत्तावीचियमरणे कालावीचियमरणे भवावीचियमरणे भावावीचियमरणे। [24 प्र.] भगवन् ! प्रावीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [24 उ. गौतम ! आवी चिकमरण पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 624 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 625 (ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2261 . Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] ' [335 (1) द्रव्यावीचिकमरण, (2) क्षेत्रावीचिकमरण, (3) कालावी चिकमरण, (4) भवावीचिकमरण और (5) भावावीचिकमरण / 25. दवाबोचियमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नते ? गोयमा ! चउविहे पन्नत्ते, तं जहा---नेरइयदव्यावीचियमरणे तिरिक्खजोणियदम्बावोचियमरणे मणुस्सदवावीचियमरणे देवदवावीचियमरणे / [25 प्र.] भगवन् ! द्रव्यावीचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? 125 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है यथा--(१) नैयिक-द्रव्यावीचिकमरण, (2) तिर्यगयोनिक-द्रव्यावीचिकमरण, (3) मनुष्य-द्रव्यावीचिकमरण और (4) देव-द्रव्यावीचिकमरण / 26. से केपट्टणं भंते ! एवं कुच्चइ 'नेरइयदव्यावीचियमरणे, नेरइयदव्वाबीचियमरणे ? गोयमा ! जंणं नेरइया नेरइयदवे वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई बद्धाई पुट्ठाई कडाइं पवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्टाई अभिसमन्नागयाइं भवंति ताई दवाई आवीची अणुसमयं निरंतरं मरंतीति कट्ट, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'रइयदव्वावोचियमरणे, नेरइयदबावोचियमरणे। [26 प्र.] भगवन् ! नैरयिक-द्रव्यावी चिकमरण को नैयिक-द्रव्यावीचिकमरण किस लिए कहते हैं ? _ [26 उ.] गौतम ! क्योंकि नारकद्रव्य (नारक जीव) रूप से वर्तमान नैरयिक ने जिन द्रव्यों को नारकायुष्य रूप में स्पर्श रूप से ग्रहण किया है, बन्धन रूप से बांधा है, प्रदेशरूप से प्रक्षिप्त कर पुष्ट किया है, अनुभाग रूप से विशिष्ट रसयुक्त किया है, स्थिति-सम्पादनरूप से स्थापित किया है, जीवप्रदेशों में निविष्ट किया है, अभिनिविष्ट (अत्यन्त गाढ रूप से निविष्ट), किया है तथा जो द्रव्य अभिसमन्वागत (उदयावलिका में आ गए) हैं, उन द्रव्यों को (भोग कर) वे प्रति समय निरन्तर छोड़ते (मरते) रहते हैं / इस कारण से हे गौतम ! नैरयिकों के द्रव्यावीचिमरण को नैयिकद्रव्यावीचिकमरण कहते हैं / 27. एवं जाव देवदवावीचियपरणे / [27] इसी प्रकार (तिर्यञ्चयोनिक-द्रव्यावी चिकमरण, मनुष्य-द्रव्यावीचिकमरण) यावत् देव-द्रव्यावीचिकमरण के विषय में कहना चाहिए। 28. खेसावीचियमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउविहे पन्नते, तं जहा–नेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देवखेत्तावीचियमरणे। [28 प्र.) भगवन् ! क्षेत्रावोचिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [28 उ. गौतम ! क्षेत्रावीचिकारण चार प्रकार का कहा गया है / यथा-नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरण (तिर्यञ्चयोनिक-क्षेत्रावीचिकमरण, मनुष्य-क्षेत्रावीचिकमरण ) यावत् देवक्षेत्रावी चिकमरण। Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 29. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'नेर इयत्तावीचियमरणे, नेरइयखेत्ताबीचियमरणे ? गोयमा ! जं जं नेरइया नेरइयखेते वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए एवं जहेव दवावीचियमरणे तहेव खेत्तावाचियमरणे वि। [29 प्र. भगवन् ! नैरयिक-क्षेत्रावीचिकमरण नैयिक-क्षेत्रावीचिकमरण क्यों कहा जाता है ? [26 उ.] गौतम ! नैरयिक क्षेत्र में रहे हुए (वर्तमान) जिन द्रव्यों को नारकायुष्यरूप में नैरयिकजीव ने स्पर्शरूप से ग्रहण किया है, यावत् उन द्रव्यों को (भोग कर) वे प्रतिसमय निरन्तर छोड़ते (मरते) रहते हैं, (इस कारण से हे गौतम ! नरयिक-क्षेत्रावी चिकमरण को नैरयिक-क्षेत्रावीचिक मरण कहा जाता है; ) इत्यादि सब कथन द्रव्यावी चिकम रण के समान क्षेत्रावीचिकमरण के विषय में भी करना चाहिए / 30. एवं जाव भावावीचियमरणे / [30] इसी प्रकार यावत् ( कालावीचिकमरण, भवावी चिकमरण), भावावीचिकमरण तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 24 से 30 तक) में प्रावीचिकमरण के प्रकार तथा उनके प्रत्येक के भेद एवं स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। प्रायोचिकमरण के भेद-प्रभेद-भावीचिकमरण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से पांच भेद किये हैं। फिर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इस प्रकार चार गतियों की अपेक्षा से प्रत्येक के चार-चार भेद किये हैं।' नैरयिक-कालावीचिकमरण नैरयिक नरयिककाल में रहते हुए जिन आयुष्यकों को स्पर्शादि करके भोगकर छोड़ते हैं, फिर नये कर्मदलिक उदय में प्राते हैं, उन्हें भोगकर छोड़ते जाते हैं, इस प्रकार का क्रम निरन्तर चलता रहता हो, उसे नैरयिक-कालावीचिकमरण कहते हैं। नरयिक-भवावीचिकमरण--इसी प्रकार नरयिक-भव में रहते हुए वे जिन आयुकर्मों का बन्धन प्रादि करके भोगते हैं और छोड़ते हैं, वह नैरयिक-भवावीचिकमरण कहलाता है / कठिन शब्दों के अर्थ--णेरइएदब्वे बद्रमाणा-नारकरूप (नारक जीव रूप) से वर्तमान (रहते हुए) / नेरइयाउयत्ताए-नैरयिक-आयुष्य रूप से / गहियाई-गहीत--स्पर्शरूप से ग्रहण किये। बद्धाई-बंधन रूप से बाँधे / पुट्टाई-प्रदेश-प्रक्षिप्त करके पुष्ट किये / पट्टवियाई-स्थितिरूप से स्थापित किये / निविद्वाई-जीवप्रदेशों में प्रविष्ट किये। अभिनिविद्वाइं--जीवप्रदेशों में अत्यन्त गाढ़रूप से निविष्ट किये / अभिसमण्णागयाइं उदयालिका में आ गए अर्थात उदयाभिमुख बने हुए / मरंति छोड़ते हैं, भोग कर मरते हैं / अगुसमयं-प्रतिसमय / निरंतर-बिना व्यवधान के / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 625 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 625 का सारांश 3. भगवती. अ. वलि, पत्र 625 Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] अवधिमरण के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप 31. मोहिमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-दव्योहिमरणे खेत्तोहिमरणे जाव भावोहिमरणे / [31 प्र.] भगवन् ! अवधिमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [31 उ.] गौतम ! अवधिमरण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा--द्रव्यावधिमरण, क्षेत्रावधिमरण (कालावधिमरण, भवावधिमरण और) यावत् भावावधिमरण / 32. दम्वोहिमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते? गोयमा ! चउन्विहे पन्नत्ते, तं जहा–नेरइयदवोहिमरणे जाव देवदव्वोहिमरणे। [32 प्र.] भगवन् ! द्रव्यावधिमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [32 उ.] गौतम ! द्रव्यावधिमरण चार प्रकार का कहा गया है / यथा-नैरयिक-द्रव्यावधिमरण, यावत् (तिर्यञ्चयोनिक-द्रव्यावधिमरण, मनुष्य-द्रव्यावधिमरण), देवद्रव्यावधिमरण / 33. से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ 'नेरइयदम्वोहिमरणे, नेरइयदबोहिमरणे ? गोयमा ! जंणं नेरइया नेरइयदव्वे वट्टमाणा जाई दवाई संपयं मरंति, ते णं नेर इया ताई दम्याई अणागते काले पुणो वि मरिस्संति / से तेणढणं गोयमा ! जाव दवोहिमरणे। [33 प्र. भगवन ! नैरयिक-द्रव्यावधिमरण नैयिक-द्रव्यावधिमरण क्यों कहलाता है ? [33 उ.] गौतम ! नैरयिकद्रव्य (नारक जीव) के रूप में रहे हए नैरयिक जीव जिन द्रव्यों को इस (वर्तमान) समय में छोड़ते (भोग कर मरते) हैं, फिर वे ही जीव पुन: नरयिक हो कर उन्हीं द्रव्यों को ग्रहण कर भविष्य में फिर छोड़ेंगे (मरेंगे); इस कारण हे गौतम ! नरयिकद्रव्यावधिभरण नैरयिक-द्रव्यावधिमरण कहलाता है। 34. एवं तिरिक्खजोणिय० मणुस्स० देवोहिमरणे वि। [34] इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिक-द्रव्यावधिमरण, मनुष्य-द्रव्यावधिमरण और देव-द्रव्यावधिमरण भी कहना चाहिए। 35. एवं एएणं गमएणं खेत्तोहिमरणे वि, कालोहिमरणे वि, भवो हिमरणे वि, भावोहिमरणे दि / [35] इसी प्रकार के आलापक क्षेत्रावधिमरण, कालावधिमरण, भवावधिमरण और भावावधिमरण के विषय में भी कहने चाहिए। विवेचन अवधिमरण के भेद-प्रभेद प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 31 से 35 तक) में अवधिमरण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से पांच भेद किये हैं, फिर उनके भी प्रत्येक के नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव, यों गति की अपेक्षा से चार-चार भेद किये हैं। आत्यन्तिकमरण के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप 36. आतियंतियमरणे णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा! पंचविहे पन्नते, तं जहा दव्वातियंतियमरणे, खेतातियंतियमरणे, जाव भावातियंतियमरणे। Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [प्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र [36 प्र.] भगवन् ! आत्यन्तिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [36 उ.] गौतम ! प्रात्यन्तिकमरण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-द्रव्यात्यन्तिकमरण, क्षेत्रात्यन्तिकमरण यावत् भावात्यन्तिकमरण / 37. दम्वातियंतियमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते? गोयमा ! चउब्धिहे पन्नत्ते, जहा—नेरइयदन्वातियंतियमरणे जाव देवदव्वातियंतियमरणे। [37 प्र. भगवन् ! द्रव्यात्यन्तिकमरण कितने प्रकार का कहा गया है / [37 उ.] गौतम ! द्रव्यात्यन्तिकमरण चार प्रकार का कहा गया है। यथा-नैरयिकद्रव्यात्यन्तिकमरण यावत् देव-द्रव्यात्यन्तिक मरण / 38. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चति 'नेरइयदव्वातियंतियमरणे, नेरइयदध्यातियंतियमरणे' ? गोयमा ! जंणं नेरइया नेरइयदवे घट्टमाणा जाई दवाई संपतं मरंति, जे णं नेरइया ताई दवाई अणागते काले नो पुणो वि मरिस्संति / से तेणढणं जाध मरणे / [38 प्र.] भगवन् ! नैरयिक-द्रव्यात्यन्तिकमरण नैरयिक-द्रव्यात्यन्तिकमरण क्यों कहलाता है ? [38 उ.] गौतम ! नैरयिक द्रव्य रूप में रहे हुए (वर्तमान) नैरयिक जीव जिन द्रव्यों को इस समय (वर्तमान में) छोड़ते हैं, वे नैरयिक जीव उन द्रव्यों को भविष्यकाल में फिर कभी नहीं छोड़ेंगे / इस कारण हे गौतम ! नैरयिक-द्रव्यात्यन्तिकमरण 'नरयिक-द्रव्यात्यन्ति कमरण' कहलाता है। 39. एवं तिरिक्ख० मणुस्स० देव० / [36] इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिक-द्रव्यात्यन्तिकमरण, मनुष्य-द्रव्यात्यन्तिकमरण एवं देवद्रव्यात्यन्तिक मरण के विषय में कहना चाहिए। 40. एवं खेत्तातियंतियमरणे वि, जाव भावातियंतियमरणे वि / [40] इसी प्रकार (द्रव्यात्यन्तिकमरण के समान) क्षेत्रात्यन्तिकमरण, यावत् (कालात्यन्तिकमरण, भवात्यन्तिकमरण,) भावात्यन्तिकमरण भी जानना चाहिए ! विवेचन—आत्यन्तिकमरण : भेद-प्रभेद-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 36 से 40 तक में प्रात्यन्तिकमरण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से पांच भेद बताए गए हैं। फिर उनके भी चार गतियों की अपेक्षा से चार-चार भेद किये गए हैं। बालमरण के भेद और स्वरूप 41. बालमरणे गं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते? गोपमा ! दुवालसविहे पन्नत्ते तं जहा-वलयमरणे जहा खंदए (स० 2 उ० 1 सु० 26) जाव गिद्धपट्ठ। [41 प्र.] भगवन् ! बालमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 7] [41 उ.] गौतम ! वह बारह प्रकार का कहा गया है / यथा बलयमरण इत्यादि, द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक के (सू. 26 के) स्कन्दकाधिकार के अनुसार, यावत् गृध्रपृष्ठमरण तक जानना चाहिए। विवेचन-बालमरण : बारह प्रकार–बालमरण के बारह प्रकार ये हैं—(१ बलय (वलन्)मरण, (2) वार्त्त-मरण, (3) अन्तःशल्य-मरण, (4) तद्भव-मरण, (5) गिरि-पतन, (6) तरुपतन, (7) जल-प्रवेश, (8) ज्वलन-प्रवेश, (6) विष-भक्षण, (10) शस्त्रावपाटन, (11) वैहानसमरण और (12) गृद्धपृष्ठ-मरण / इन बारह भेदों का विस्तृत अर्थ द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक के (सू. 26 में) स्कन्दकप्रकरण में दिया गया है।' पण्डितमरण के भेद और स्वरूप 42. पंडियमरणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे पन्नते, तं जहा-पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य / [42 प्र.] भगवन् ! पण्डितमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [42 उ.] गौतम ! पण्डितमरण दो प्रकार का कहा गया है / यथा--पादपोपगमनमरण और भक्तप्रत्याख्यानमरण / 43. पाओवगमणे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविधे पन्नत्ते, तं जहाणीहारिमे य, अणोहारिभे य, नियम अपडिकम्मे / [43 प्र.] भगवन् ! पादपोपगमनमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [43 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) निभरिम और (2) अनिभरिम / (दोनों प्रकार का यह पादपोपगमनमरण) नियमतः अप्रतिकर्म (शरीर-संस्काररहित) होता है। 44. भत्तपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविधे पन्नते ? एवं तं चेव, नवरं नियम सपडिकम्मे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेरसमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ 13.7 // [44 प्र.] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यानमरण कितने प्रकार का कहा गया है ? [44 उ.] (गौतम ! ) वह भी इसी प्रकार (पूर्ववत् दो प्रकार का) है, विशेषता यह है कि दोनों प्रकार का यह मरण नियमतः सप्रतिकर्म (शरीरसंस्कारसहित) होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। 1. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री पागमप्रकाशनसमिति ब्यावर) खण्ड 1, पृ. 180 Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-पण्डितमरण: भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप—पण्डितमरण के मुख्यतया दो भेद हैं--पादपोपगमन और भक्त-प्रत्याख्यान / पादपोपगमन का अर्थ है-संथारा करके कटे हुए वृक्ष की तरह जिस स्थान पर, जिस रूप में एक बार लेट जाए, फिर उसी स्थान में निश्चल होकर लेटे रहना और उसी रूप में समभावपूर्वक शरीर त्याग देना / इस मरण में हाथ-पैर हिलाने या नेत्रों की पलक झपकाने का भी प्रागार नहीं होता। यह मरण नियमतः अप्रतिकर्म (शरीर को धोना, मलना आदि शरीरसंस्कार से रहित) होता है।' भक्तप्रत्याख्यान-यावज्जीवन तीन या चारों प्रकार के आहारों का त्याग करके समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करना भक्तप्रत्याख्यानमरण है / इसे भक्तपरिज्ञा भी कहते हैं / इंगितमरण भक्तप्रत्याख्यान का ही विशिष्ट प्रकार है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया / भक्त.प्रत्याख्यानमरण नियमत: सप्रतिकर्म (शरीरसंस्कारयुक्त होता है। इसमें हाथ-पैर हिलाने तथा शरीर की सारसंभाल करने का प्रागार रहता है / निर्झरिम-अनिर्झरिम-ये दोनों भेद पादपोपगमन एवं भक्तप्रत्याख्यान, इन दोनों के हैं। निहरि कहते हैं-बाहर निकालने को। जो साधु गाँव आदि के अन्दर ही किसी मकान या उपाश्रय में शरीर छोड़ता है, उस साधु के शव का उपाश्रय आदि से बाहर निकाल कर अन्तिम संस्कार किया जाता है। अतएव उस साधु का पण्डितमरण निर्झरिम कहलाता है। परन्तु जो साधु अरण्य या गुफा आदि में आहारादि का त्याग करके अन्तिम समय में शरीर छोड़ता है, समभाव पूर्वक मरता है, उसके मृत शरीर को कहीं बाहर निकाला नहीं जाता। इसलिए उक्त साधु के पण्डितमरण को 'अनिभरिम' कहते हैं / // तेरहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2262 2. व्याख्याप्रज्ञप्ति (श्री आगमप्रकाशनसमिति) खण्ड 1, पृ. 181 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2262 Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'कम्म' अष्टम उद्देशक : कर्मप्रकृति प्रज्ञापना के अतिदेशपूर्वक कर्मप्रकृतिभेदादि निरूपण 1. कति णं भंते ! कम्मपगडीनो पन्नत्तामो? गोयमा ! अटु कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ / एवं बंधट्ठितिउद्देसओ भाणियब्वो निरबसेसो जहा पन्नवणाए। तेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेरसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 13-8 // [1 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के 23 वें पद के द्वितीय बन्ध-स्थिति-उद्देशक का सम्पूर्ण कथन करना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासत्र के तेईसवें पद के द्वितीय बन्ध-स्थिति नामक उद्देशक के अतिदेशपूर्वक क्रमशः आठ मूल कर्मप्रकृतियां, फिर इन आठों के भेद, (जैसे कि ज्ञानावरणीय आदि पाठ, फिर ज्ञानावरणीय के पांच भेद इत्यादि), तदनन्तर ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मों के स्थितिबन्ध का वर्णन, फिर एकेन्द्रियादि जीवों के अनुसार बन्ध का निरूपण किया गया है।' // तेरहवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापना पद 23, उ. 2. स. 1687 से 1753, पृ. 367-84 -पण्णवणासुत्त भा. 1 (महावीर जैन विद्यालय) (ख) वाचनान्तर में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है "पयडी भेय ठिईबंधो विय इंदियाणुबाएणं / केरिसय जहन्नाठि बंधइ उक्कोसियं वावि // " -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 626 Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : अणगारे केयाघडिया नौवाँ उद्देशक : अनगार में केयाघटिका (वैक्रियशक्ति) 1. रायगिहे जाव एवं वयासी[१] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान् महावीर से गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा रस्सी बंधी घड़िया, स्वर्णादिमंजूषा बांस आदि को चटाई लोहादिभार लेकर चलने वाले व्यक्ति सम भावितात्मा अनगार को वैक्रियशक्ति 2. से जहानामए केयि पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगतेणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा? गोयमा ! हंता, उप्पएज्जा / [2 प्र. भगवन् ! जैसे कोई पुरुष रस्सी से बंधी हुई घटिका (छोटा घड़ा) लेकर चलता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी (वैक्रिय लब्धि के सामर्थ्य से) रस्सी से बंधी हुई घटिका स्वयं हाथ में लेकर ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है ? 2 उ.] हाँ, गौतम ! (वह इस प्रकार) उड़ सकता है। 3. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाई रूवाई विउवित्तए? गोयमा ! से जहानामए जुति जुवाणे हत्थेणं हत्थे एवं जहा ततियसते पंचमुद्देसए (स० 3 उ० 5 सु० 3) जाव नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउध्वति वा विउव्विस्सत्ति वा / / [3 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार रस्सी से बंधी हुई घटिका हाथ में ग्रहण करने रूप कितने रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [3 उ.] गौतम ! तृतीय शतक के पंचम उद्देशक (सू. 3) में जैसे युवती-युवक के हस्त ग्रहण का दृष्टान्त दे कर समझाया है, वैसे ही यहाँ समझना चाहिए। यावत् यह उसकी शक्तिमात्र है / सम्प्राप्ति (सम्पादन) द्वारा कभी इतने रूपों की विक्रिया की नहीं, करता भी नहीं और करेगा भी नहीं। __4. से जहानामए केयि पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिच्चगतेणं अप्पाणेणं०, सेसं तं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! जैसे कोई पुरुष हिरण्य (चांदी) की मंजूषा (पेटी) लेकर चलता है, वैसे Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [343 ही क्या भावितात्मा अनगार भी हिरण्य-मंजूषा हाथ में लेकर (विक्रिया-सामर्थ्य से) स्वयं ऊँचे प्रकाश में उड़ सकता है ? [4 उ.] हाँ, गौतम ! (इसका समाधान भी) पूर्ववत् समझना चाहिए / 5. एवं सुवण्णपेलं, एवं रयणपेलं, वइरपेलं, क्त्थपेलं, आभरणपेलं / [5] इसी प्रकार स्वर्णमंजूषा, रत्नमंजूषा, वज्र (हीरक) मंजूषा, वस्त्रमंजूषा एवं प्राभरणमंजूषा (हाथ में लेकर वैक्रियशक्ति से प्राकाश में उड़ सकता है,) इत्यादि (प्रश्नोत्तर) पूर्ववत् (करना चाहिए / ) 6. एवं वियल किडं, सुबकिडं चम्मकिडं कंबलकिडं / [6] इसी प्रकार विदलकट (बाँस की चटाई), शुम्बकट (वीरणघास की चटाई), चर्मकट (चमड़े से बुनी हुई चटाई या खाट आदि) एवं कम्बलकट (ऊन के कम्बल का बिछौना) (इन सभी रूपों की बिकुर्वणा करके हाथ में लेकर ऊँचे आकाश में उड़ सकता है, इत्यादि प्रश्नोत्तर पूर्ववत् कहना चाहिए। 7. एवं अयभारं तंबभारं तउयभारं सीसगमारं हिरणभारं सुवण्णभारं वइरभारं। [7] इसी प्रकार लोह का भार, तांबे का भार, कलई (कथीर), का भार, शीशे का भार, हिरण्य (चांदी) का भार, सोने का भार और वज्र (हीरे) का भार (लेकर इन सब रूपों की विक्रिया करके ऊँचे आकाश में उड़ सकता है, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्नोत्तर कहना चाहिए / ) विवेचन--प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1 से 7 तक) में भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति के सम्बन्ध में विभिन्न प्रश्नोत्तर किये गये हैं कि वह वैक्रियशक्ति से विकुर्वणा करके रज्जुबद्धघटिका अनेक घटिकाएँ तथा हिरण्य, स्वर्ण, रत्न, वज्र, वस्त्र एवं प्राभरण की मंजूषा तथा विदल, शुम्ब, चर्म एवं कम्बल का कट तथा लोहे, ताम्बे, कथीर, शीशे, चांदी, सोने और वज्र का भार स्वयं हाथ में लेकर ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है या नहीं? सभी प्रश्नों के विषय में भगवान् का उत्तर एक सदृश स्वीकृतिसूचक है।' कठिन शब्दों के अर्थ केयाघडियं-किनारे पर रस्सी से बंधी हुई घटिका-छोटी घडिया। केयाघडियाकिच्च-हत्थगतेणं--केयाटिका रूप कृत्य (कार्य) को स्वयं हस्तगत करके (हाथ में लेकर)। वेहासं-आकाश में / उप्पएज्जा--उड़ सकता है / हिरण्णपेलं-चांदी की पेटी-मंजूषा / सुवष्णपेलंसोने की पेटी ! रयणपेलं-रत्नों की पेटी। वइरलं-वज्र-हीरों की पेटी। वियलकिडं-विदल अर्थात-बांस को चीर कर उसके टुकड़ों से बनाई हुई कट-चटाई। सुबकिडं-वीरणघास की चटाई। चम्मकिडं - चमडे से बुनी हुई चटाई, खाट आदि / कंबलकिडं- ऊन का बना हुया बिछाने का कम्बल / अयभारं-लोहे का भार / तउयभारं-रांगे या कथीर का भार / सीसगभारं-शीशे का भार / वइरभारं---वज्रभार-हीरे का भार / 1. विवाहपण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 653 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 627 Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्राप्तिसूत्र चमचेड़-यज्ञोपवीत-जलौका-बोजंबोज-समुद्र-वायस आदि को क्रियावत् भावितात्मा वैक्रियशक्तिनिरूपण 8. से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया उल्लंबिया उड्ढपादा अहोसिरा चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा बागुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं० / / [8 प्र.] भगवन् ! जैसे कोई बग्गुलीपक्षी (चमगादड़) अपने दोनों पैर (वृक्ष प्रादि में ऊपर) लटका-लटका कर पैरों को ऊपर और सिर को नीचा किये रहती है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी उक्त चमगादड़ की तरह अपने रूप की विकुर्वणा करके स्वयं ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! वह (इस प्रकार का रूप बना कर) उड़ सकता है। 9. एवं जण्णोवइयवत्तव्यया भाणितव्वा जाव विउव्विस्संति वा। [1] इसी प्रकार यज्ञोपवीत-सम्बन्धी वक्तव्यता भी कहनी चाहिए / (अर्थात्-जैसे कोई विप्र गले में जनेऊ धारण करके गमन करता है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी विकुर्वणा कर सकता है), (यह वक्तव्यता) यावत् 'सम्प्राप्ति द्वारा विकुर्वणा करेगा नहीं,' (यहाँ तक) कहनो चाहिए। 10. से जहानामए जलोया सिया, उदगंसि कार्य उदिवहिया उविहिया गच्छेज्जा, एवामेव० सेसं जहा वग्गुलोए। [10 प्र. (भगवन् ! ) जैसे कोई जलौका (जौंक-पानी में उत्पन्न होने वाला द्वीन्द्रिय जीवविशेष) अपने शरीर को उत्प्रेरित करके (ठेल-ठेल कर) पानी में चलती है; क्या उसी प्रकार भावि. तात्मा अनगार भी इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् ? [10 उ.] (गौतम ! ) यह सभी निरूपण बग्गुलीपक्षी के निरूपण के समान जानना चाहिए / 11. से जहानामए बीयंबीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे०, सेसं तं चेव / [11 प्र. भगवन् ! जैसे कोई बीबीज पक्षी अपने दोनों पैरों को घोड़े की तरह एक साथ उठाता-उठाता हा गमन करता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी....... इ पूर्ववत् / _[11 उ.] (हाँ, गौतम ! उड़ सकता है), शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 12. से जहानामए पविखबिरालए सिया, रुक्खाओ रक्खं डेवेमाणे डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे०, सेसं तं चेव। [12 प्र. (भगवन् ! ) जिस प्रकार कोई पक्षीबिडालक एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष को लांघतालांघता (या एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर छलांग लगाता-लगाता) जाता है, क्या उसी प्रकार भावि. तात्मा अनगार भी.... " इत्यादि प्रश्न / [12 उ. (हाँ, गौतम ! उड़ सकता है।) शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [345 13. से जहानामए जीवंजीवगसउणए सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे०, सेसं तं चेव / 113 प्र.] (भगवन् ! ) जैसे कोई जीवंजीवक पक्षी अपने दोनों पैरों को घोड़े के समान एक साथ उठाता-उठाता गमन करता है; क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी...'इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / - [13 उ.] (हाँ, गौतम ! उड़ सकता है / ) शेष सभी कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / 14. से जहाणामए हंसे सिया, तीरातो तीरं अभिरममाणे अभिरममाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे हंसकिच्चगतेणं अप्पाणेणं०, तं चेव / [14 प्र. (भगवन ! ) जैसे कोई हंस (विशाल सरोवर के) एक किनारे से दूसरे किनारे पर कोड़ा करता-करता चला जाता है, क्या वैसे ही भावितात्मा अनगार भी हंसवत् विकुर्वणा करके गगन में उड़ सकता है ? [14 उ. (हाँ, गौतम ! उड़ सकता है / ) यहाँ भी सभी वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / 15. से जहानामए समुद्दवायसए सिया, वीयोओ वीयि डेवेमाणे डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव०, तहेव / [15 प्र.] (भगवन् ! ) जैसे कोई समुद्रवायस (समुद्री कौमा) एक लहर (तरंग) से दूसरी लहर का अतिक्रमण करता-करता चला जाता है, क्या वैसे ही भावितात्मा अनगार भी ..."इत्यादि प्रश्न / [15 उ.} यहाँ भी पूर्ववत् उत्तर समझना चाहिए। विवेचन–प्रस्तुत पाठ सूत्रों में पाठ उदाहरण देकर शास्त्रकार ने उनके समान रूप बनाने की भावितात्मा अनगार की वैक्रिय शक्ति के विषय में प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये हैं। पाठ प्रश्न (1) चमगादड़ के समान दोनों पैर वृक्ष आदि पर लटका कर पैर ऊपर सिर नीचा किये हुए रहता है. तद्वत् / (2) यज्ञोपवीत धारण किये हुए विप्र की तरह ? ... (3) जलौका अपने शरीर को पानी में ठेल-ठेल कर चलती है, उस प्रकार ? ......." (4) जैसे बीजबीज पक्षी दोनों पैरों को घोड़े की तरह उठाता-उठाता गमन करता है, क्या उसके समान ? ...... (5) जैसे पक्षी बिडालक एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर उछलता हुअा जाता है, क्या उसी प्रकार ? ........ (6) जैसे जीवंजीव पक्षी दोनों पैरों को घोड़े की तरह एक साथ उठाता हुया गमन करता है, क्या उस तरह.......? Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (7) जैसे हंस एक तट से दूसरे तट पर क्रीड़ा करता हया जाता है, क्या उसी प्रकार ? ........ (8) जैसे समुद्री कौआ एक लहर से दूसरो लहर को अतिक्रमण करता-करता जाता है, क्या उसी प्रकार? ....." इन पाठों ही प्रश्नों का उत्तर स्वीकृति सूचक है।' कठिन शब्दों का अर्थ-वरंगुली-चर्मपक्षी-चमचेड़ / जन्नोवइय-यज्ञोपवीत / उबिहियउत्प्रेरित करके-ठेल ठेल कर / बीयंबीयग-सउणे-बोजबीजक नाम का पक्षीविशेष / समतुरंगेमाणे --दोनों पैर अश्व के समान एक साथ उठाता हुआ / पक्खिबिरालए-पक्षी विडालक नामक प्राणी / डेवेमाणे-अतिक्रमण करता-लांघता हुग्रा या छलांग लगाता हुअा। वीईओ वोइंएक तरंग से दूसरी तरंग पर / ' चक्र, छत्र, चर्म, रत्नादि लेकर चलने वाले पुरुषवत् भावितात्मा अनगार को विकुर्वणाशक्तिनिरूपण 16. से जहानामए केयि पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा चक्कहत्थकिच्चगएणं अप्पाणे०, सेसं जहा केयाघडियाए / 16 प्र.] (भगवन ! ) जैसे कोई पुरुष हाथ में चक्र ले कर चलता है, क्या वैसे ही भावितात्मा अनगार भी (वैक्रियशक्ति से) तदनुसार विकुर्वणा करके चक्र हाथ में ले कर स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? [16 उ.] (हाँ, गौतम ! ) सभी कथन रज्जुबद्धघटिका के समान जानना चाहिए / 17. एवं छत्तं। |17] इसी प्रकार छत्र के विषय में भी कहना चाहिए / 18. एवं चम्मं / [18] इसी प्रकार चर्म (या चामर) के सम्बन्ध में भी कथन करना चाहिए / 19. से जहानामए केयि पुरिसे रयणं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव / एवं वइरं, वेरुलियं, जाव' रिट्ठ। [16 प्र. (भगवन् ! ) जैसे कोई पुरुष रत्न लेकर गमन करता है, (क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न)। [16 उ.] (गौतम ! ) यहाँ भी पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार वज्र, वैडूर्य यावत् रिष्ट रत्न तक पूर्ववत् पालापक कहना चाहिए। 1. वियाहपण तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 654 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 628 3. पाठान्तर-चामर' 4. 'जाव' पद सूचक पाठ---- "लोहियक्खं मसारगल्लं हंसगमं पुलगं सोगंधियं जोईरसं अंक अंजणं रयणं जायरूवं अंजणपुलगं फलिहं ति / " Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [347 20. एवं उप्पलहत्थगं, एवं पउमहत्थगं एवं कुमुदहथगं, एवं जाव' से जहानामए केयि पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव / / / [20 प्र.] इसी प्रकार उत्पल हाथ में लेकर, पद्म हाथ में लेकर एवं कुमुद हाथ में लेकर तथा जैसे कोई पुरुष यावत् सहस्रपत्र (कमल) हाथ में लेकर गमन करता है, क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी...' इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [20 उ. (हाँ, गौतम ! ) उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 16 से 20 तक) में पूर्ववत् चक्र, छत्र, चर्म (चामर), रत्न, वज्र, वैडूर्य, रिष्ट आदि रत्न तथा उत्पल, पद्म, कुमुद, यावत् सहस्रपत्रकमल आदि हाथ में ले कर चलता है, उसी प्रकार तथाविध रूपों की विकुर्वणा करके ऊर्ध्व-प्राकाश में उड़ने को भावितात्मा अनगार की शक्ति की प्ररूपणा की गई है। कमलनाल तोड़ते हुए चलने वाले पुरुषवत अनगार को वैक्रियशक्ति 21. से जहानामए केयि पुरिसे भिसं प्रबहालिय प्रबद्दालिय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणे०, तं चेव। 21 प्र.] (भगवन् ! ) जिस प्रकार कोई पुरुष कमल की डंडो को तोड़ता-तोड़ता चलता है, क्या उसी प्रकार भावितारमा अनगार भी स्वयं इस प्रकार के रूप की विकुर्वणा करके ऊँचे अाकाश में उड़ सकता है ? [21 उ.] (हां, गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। मृणालिका, वनखण्ड एवं पुष्करिणी बना कर चलने की वैक्रियशक्ति-निरूपण 22. से जहानामए मुणालिया सिया, उदगंसि कायं उम्मज्जिय उम्मज्जिय चिट्ठज्जा, एवामेव०, सेसं जहा वग्गुलीए। [22 प्र.] (भगवन् ! ) जैसे कोई मृणालिका (नलिनी) हो और वह अपने शरीर को पानी में डुबाए रखती है तथा उसका मुख बाहर रहता है; क्या उसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी....... इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [22 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सभी कथन वग्गूली के समान जानना चाहिए। 23. से जहानामए वणसंडे सिया किण्हे किण्होभासे' जाव निकुरुबभए पासादीए 4, एवामेव अणगारे वि भावियप्या वणसंडकिच्चगतेणं अप्पाणेणं उड्डं वेहासं उप्पएज्जा, सेसं तं चेव / 1. 'जाव' पद सूचक पाठ-नलिणहत्यगं सुभगहस्थग सोगंधियहत्यगं पुडरीयहत्थगं महापुडरीयहत्थगं सयवतहत्थगं ति" अ० 10 // 2 वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 655 3. 'जाव' पद सूचक पाठ-नीले नीलोभासे हरिए हरिओमासे सीए सीओभासे निद्ध निद्धोभासे तिब्वे तिब्दोभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए तिव्वे तिब्बच्छाए घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहनिउरु बभूए ति" अ० वृ०, पत्र 628 Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [23 प्र.] (भगवन् ! ) जिस प्रकार कोई वनखण्ड हो, जो काला, काले प्रकाश वाला, नीला, नीले आभास वाला, हरा, हरे आभास वाला यावत् महामेघसमूह के समान प्रसन्नतादायक, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप (सुन्दरतम) हो; क्या इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी-(वैक्रियशक्ति से) स्वयं वनखण्ड के समान विकुर्वणा करके ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? [23 उ.] (हाँ, गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। 24. से जहानामए पुक्खरणी सिया, चउक्कोणा समतोरा अणुपुश्वसुजाय० जाव' सदुन्नइयमहुरसरणादिया पासादीया 4, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा पोक्ख रणोकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्ढे वेहासं उप्पएज्जा? हंता, उप्पतेज्जा। 24 प्र. (भगवन् ! ) जैसे कोई पुष्करिणी हो, जो चतुष्कोण और समतीर हो तथा अनुक्रम से जो शीतल गंभीर जल से सुशोभित हो, यावत विविध पक्षियों के मधुर स्वर-नाद नादि से युक्त हो तथा प्रसन्नतादायिनी, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हो, क्या इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी (वैक्रियशक्ति से) उस पुष्करिणी के समान रूप को विकुर्वणा करके स्वयं ऊँचे आकाश में उड़ सकता है ? [24 उ.] हाँ,गौतम ! वह उड़ सकता है / 25. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाइं पभू पोक्खरणीकिच्चगयाई रुवाई विउवित्तए ? 0 सेसं तं चेव जाव विउस्सति वा। [25 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार (पूर्वोक्त) पुष्करिणी के समान कितने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? [25 उ. (हे गौतम ! ) शेष सभी कथन पूर्ववत् जानना चाहिए, यावत् परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने इतने रूपों की विकुर्वणा की नहीं, वह करता भी नहीं और करेगा भी नहीं ; (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 21 से 25 तक) में भावितात्मा अनगार की वैक्रियशक्ति के सम्बन्ध में पांच रूपकों द्वारा प्रश्न उठाया गया है / भगवान् का सब में स्वीकृतिसूचक समाधान पूर्वोक्त सूत्रों के अतिदेशपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। पांच प्रश्न (1) क्या कमल की डंडी को तोड़ते हुए चलने वाले पुरुष की तरह तथारूप विक्रिया करके आकाश में उड़ सकता है ? (2) क्या पानी में डुबी और मुख बाहर निकली हुई मृणालिका की तरह रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? 1. 'जाब' पद सूचक पाठ-"अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला" अव०॥ 2. 'जाव' पद सूचक पाठ-.-"सुय-बरहिण-मयणसाय-कोंच-कोइल-कोज्जक-भिगारक-कोंडलक-जीवंजीवक-नंदीमह-कबिल पिंगलक्खग-कारंडग-चक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेग-सउणगणमिहणविरइयसह नइयमहरसरनाइय त्ति" अव. / / Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 9] [349 (3) दर्शनीय वनखण्ड के समान रूपविकुर्वणा कर सकता है ? (4) रमणीय पुष्करिणी, वापी-सम रूपविकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? (5) पूर्वोक्त पुष्करिणी के समान कितने रूपों की बिकुर्वणा कर सकता है ? 1 __ कठिन शब्दार्थ-भिसं-कमलनाल, मृणाल / अवदालिय-तोड़ता हुअा। मुणालिया-नलिनी / उम्मज्जिय-डुवको लगाती हुई। किण्होभास—काले प्रकाश या प्राभास वाला / निकुरंबभूएसमूह के समान / सद्द नइयमधुरसर पादिया-(पक्षियों के) उन्नत शब्द, मधुर स्वर और निनाद से गूजती हुई। मायी (प्रमादी) द्वारा विकुर्वणा, अप्रमादी द्वारा नहीं 26. से भंते ! कि मायी विउब्वइ, अमायो विउवइ ? गोयमा! मायो विउव्वति, नो अमायो विउव्वति / [26 प्र.] भगवन् ! क्या (पूर्वोक्त रूपों की) विकुर्वणा मायी (अनगार) करता है, अथवा अमायी (अनगार) ? [26 उ.] गौतम ! मायी विकुर्वणा करता है, अमायी (अनगार) विकुर्वणा नहीं करता / उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना मरने से अनाराधकता 27. मायो णं तस्स ठाणस्स अणालोइया० एवं जहा ततियसए चउत्थुद्देसए (स० 3 उ०४ सु० 19) जाव अस्थि तस्स आराहणा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / ॥तेरसमे सए नवमो उद्देसओ समत्तो // 13-9 // [27] मायी अनगार यदि उस (विकुर्वणा रूप प्रमाद-) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो उसके अाराधना नहीं (विराधना) होती है; इत्यादि तीसरे शतक के चतुर्थ उद्देशक (सू. 16) के अनुसार यावत्-पालोचना और प्रतिक्रमण कर ले तो उसके पाराधना होती है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन आराधक-विराधकका रहस्य-प्र ' में भावितात्मा अनगार की विविध प्रकार को वैक्रिय शक्ति की प्ररूपणा की गई है, किन्तु उद्देशक के उपसंहार में स्पष्ट बता दिया है कि 1. वियापण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणीयुक्त) भा. 2, पृ. 655-656 2. (क) भगवती, अ. वृत्ति (ख) भगवती. (हिन्दोविवेचन) भा. 5, पृ. 2270 Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इस प्रकार की विकुर्वणा वैक्रियलब्धिसम्पन्न मायो (प्रमादी) अनगार करता है, अमायी (अप्रमादी) अनगार नहीं करता। किन्तु मायी (प्रमादी) अनगार किसी कारणवश यदि इस प्रकार की विकुर्वणा करके अन्तिम समय में अालोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है, तो वह आराधक होता है। यदि वह इस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो विराधक होता है।' // तेरहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1 (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 656 (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र खण्ड 1 (पागमप्रकाशन समिति) श. 3 उ. 4 सू. 19, ए. 359-360 (ग) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2272 Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'समुग्घाए' दसवाँ उद्देशक : (छामस्थिक) समुद्घात छामस्थिक समुद्घातः स्वरूप, प्रकार प्रादि का निरूपण 1. कति णं भंते ! छाउमस्थिया समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्घाया पन्नता, तं जहा-वेदणासमुग्धाते, एवं छाउमस्थिया समुग्धाता नेतवा जहा पण्णवणाए जाव पाहारगसमुग्घातो ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥तेरसमे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो / / 13.10 // _ [1 प्र] भगवन् ! छाद्मस्थिक (छद्मस्थ जीवों का) समुद्घात कितने प्रकार का कहा गया [1 उ.] गौतम ! छामस्थिक समुद्घात छह प्रकार का कहा गया है। यथा-वेदनासमुद्घात इत्यादि छानस्थिक समुद्धातों के विषय में (सब वर्णन) प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घातपद के अनुसार यावत् पाहारकसमुद्घात तक कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरने लगे। विवेचन--प्रस्तुत उद्देशक में प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घातपद के अतिदेशपूर्वक छह छाद्मस्थिक समुद्घातों का निरूपण किया गया है। समुद्घात का व्युत्पत्त्यर्थ एवं परिभाषा-समएकीभाव से उत्-प्रबलतापूर्वक, घात (निर्जरा) करना समुद्घात है। तात्पर्य यह है कि वेदना आदि के अनुभव के साथ एकीभूत आत्मा, कालान्तर में भोगने योग्य वेदनीयादि कर्मप्रदेशों की उदीरणा द्वारा उदय में लाकर प्रबलता से उनका घात करता है, वह समुद्घात कहलाता है। छानस्थिक का अर्थ-जिन्हें केवलज्ञान नहीं हुना है, जो अकेवली हैं, वे छद्मस्थ हैं और उनका समुद्घात छाद्मस्थिक समुद्घात है / वह छह प्रकार का है (1) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्धात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजस-समुद्घात और (6) पाहारकस मुद्घात / क्रमशः इनके लक्षण इस प्रकार हैं-वेदनासमुद्घात --वेदना के कारण होने वाला समुद्घात वेदनासमुद्घात है। वह असातावेदनीय कर्म की अपेक्षा से होता है। तारपर्य यह है कि असातावेदनीय के कारण वेदनापीडित जीव अनन्तानन्त कर्मस्कन्धों से व्याप्त आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और उनसे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान तथा स्कन्ध आदि अन्तरालों को पूर्ण करके लम्बाई चौड़ाई में शरीर-परिमाण क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरता है / उस अन्तर्मुहूर्त काल में वह बहुत-से असातावेदनीय कर्मपुद्गलों की निर्जरा कर लेता है, यह वेदनासमुद्घात है। कषायसमुद्घात--कषाय-चारित्रमोहनीय कर्म के आश्रित क्रोधादि कषाय के कारण होने वाला समुद्घात कषायसमुद्घात है / तीव्र क्रोधादि कषाय से व्याकुल जीव जब अपने आत्मप्रदेशों को Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र बाहर निकाल कर और उनसे मुख, उदर आदि छिद्रों एवं कान, आदि अन्तरालों को भरकर लम्बाईचौड़ाई में शरीर-परिमाण क्षेत्र में व्याप्त हो-होकर अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, तब वह कषायकमरूप पुद्गलों की प्रबलता से निर्जरा करता है। यह कषायसमुद्घात है / मारणान्तिकसमुद्घात-मरणकाल में होने वाला समुद्घात मारणान्तिकसमुद्घात है / मारणान्तिक समुद्घात आयुष्य कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर होता है। अर्थात्-जब आयुष्य कम एक अन्तर्मुहुर्त मात्र शेष रहता है, तब कोई जीव मुख-उदरादि छिद्रों तथा कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों में बाहर निकाले हुए अपने आत्मप्रदेशों को भर कर विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीपरिमाण, लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अंगुल के असंख्यातवें भाग-परिमाण तथा अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्यात-योजन क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है और प्रभूत आयुष्यकर्मपुद्गलों की निर्जग करता है। वैक्रियसमुदघात--विक्रिया के प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्रात वैश्रिय समुद्घात है। यह नामकर्म के आश्रित होता है / वैक्रिय लब्धिवाला जीव विक्रिया करते समय आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण तथा लम्बाई में संख्यात-योजनपरिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध स्थूल वैक्रियशरीरनामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा कर लेता तैजस समुद्धात यह समुद्धात तेजोलेश्या निकालते समय तैजसशरीरनामकर्म के त होता है। तेजोलेश्या की स्वाभाविक लब्धि प्राप्त कोई साधु आदि 7-8 कदम पीछे हट कर जब आत्मप्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीर-परिमाण और लम्बाई में संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है, तब तैजसनामकर्म के प्रभूत कर्मपुद्गलों की निर्जरा करता है। आहारकसमुद्घात—यह समुद्घात आहारकशरीर नामकर्म के प्राश्रित होता है / आहारकशरीर का प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्घात आहारकसमुद्घात कहलाता है / प्राशय यह है कि पाहारकशरीर की लब्धिवाला कोई मुनिराज प्राहारक शरीर के निर्माण की इच्छा से अपने प्रात्मप्रदेशों को विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्यातयोजन-परिमाण दण्ड के प्राकार में बाहर निकालता है, तब वह यथास्थल पूर्वबद्ध आहारक शरीरनामकर्म के प्रभूत कर्मपूद गलों की निर्जरा कर लेता है। प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीसवें समुद्घात-पद में केवली समुद्धात' का भी वर्णन है, किन्तु वह यहाँ प्रप्रासंगिक होने से उसका वर्णन नहीं किया गया है।' // तेरहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त / / तेरहवां शतक सम्पूर्ण // 1. (क) पण्णवणासूत्त भा. 1 सू. 2147, पृ. 438 (महावीर जैन विद्यालय) (ख) भगवतीमूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 629 (ग) भगवतीमूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2273-2274 Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं सयं : चौदहवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के इस चौदहवें शतक में दश उद्देशक हैं, इसमें भावितात्मा अनगार, केवली, सिद्ध, प्रादि के ज्ञान एवं लब्धि प्रादि से सम्बन्धित विषयों के अतिरिक्त उन्माद, शरीर, पुद्गल, अग्नि, किमाहार आदि विविध तात्त्विक विषयों का भी निरूपण किया गया है। प्रथम उद्देशक चरम है / इसमें भावितात्मा अनगार की चरम और परम देवावास के मध्य की गति का वर्णन है। तदनन्तर चौवीस दण्डकों में अनन्तरोपपन्नकादि की तथा अनन्तरोपपन्नादि के आयुष्यबन्ध की, अनन्तरनिर्गतादि की तथा अनन्तरनिर्गत आदि के आयुष्यबन्ध की, अनन्तरखेदोषपन्नादि की एवं अनन्तरखेदनिर्गतादि की तथा इन सबके आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा की गई है। * द्वितीय उद्देशक में विविध उन्माद और उसके कारण तथा चौवीस दण्डकों में विविध उन्माद और उनके कारणों की मीमांसा की गई है। तदनन्तर स्वाभाविक वष्टि एवं देवकृत वष्टि का तथा चतुर्विध देवकृत तमस्काय का सहेतुक निरूपण किया गया है / / तृतीय उद्देशक में भावितात्मा अनगार के शरीर के मध्य में से होकर जाने के महाकाय देव के सामर्थ्य-असामर्थ्य का सहेतुक निरूपण है। फिर चौवीस दण्डकों में परस्पर सत्कारादि विनय की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् अल्पद्धिक महद्धिक, और समद्धिक देव-देवियों के मध्य में से होकर एक दूसरे के निकलने का वर्णन है / अन्त में सातों नरकों के नैरयिकों को अनिष्ट पुद्गलपरिणाम, वेदनापरिणाम और परिग्रहसंज्ञापरिणाम के अनुभव का निरूपण किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में पुद्गल के त्रिकालापेक्षी विविध वर्णादि परिणामों को, जीव के त्रिकालापेक्षी सुख-दुःख आदि विविध परिणामों को प्ररूपणा की गई है। तदनन्तर परमाणु पुद्गल की शाश्वतता-प्रशाश्वतता तथा चरमता-अचरमता की चर्चा की गई है। अन्त में परिणाम के जीव-परिणाम और अजीव-परिणाम, ये दो भेद बताकर प्रज्ञापनासूत्र के समग्र परिणामपद का अतिदेश किया गया है। * पंचम उद्देशक में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के अग्नि में होकर गमन सामर्थ्य की तथा शब्दादि दस स्थानों में इष्टानिष्ट स्थानों के अनुभव की एवं महद्धिक देव द्वारा तिर्यक् पर्वतादि उल्लंघन-प्रोल्लंघन-सामर्थ्य-असामर्थ्य की प्ररूपणा की गई है। * छठे उद्दे शक में चौवीस दण्डकों के जीवों द्वारा पुद्गलों के प्राहार, परिणाम, योनि और स्थिति की तथा बीचिद्रव्य-अबीचिद्रव्याहार की प्ररूपणा की गई है / अन्त में शकेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के देवेन्द्रों की दिव्य भोगोपभोग-प्रक्रिया का वर्णन है। Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * सातवें 'संश्लिष्ट' उद्देशक में भगवान द्वारा गौतम स्वामी को इसी भव के बाद अपने समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का आश्वासन दिया गया है। तत्पश्चात् अनुत्तरौपपातिक देवों की जाननेदेखने की शक्ति का तथा छह प्रकार के तुल्य के स्वरूप का पथक्-पृथक् विश्लेषण किया गया है / फिर अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक पाहाराध्यवसाय की चर्चा की गई है। अन्त में लवसप्तम और अनुत्त रोपपातिक देव स्वरूप की सहेतुक प्ररूपणा की गई है। * आठवें उद्देशक में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी एवं अलोकपर्यन्त परस्पर अबाधान्तर की प्ररूपणा की गई है / तत्पश्चात् शालवृक्ष आदि के भावी भवों की, अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्यों की आराधकता की, अम्बड को दो भबों के बाद मोक्षप्राप्ति की, अव्याबाध देवों की अव्याबाधता की, सिर काटकर कमण्डलु में डालने की शकेन्द्र की वैक्रियशक्ति को तथा जम्भक देवों के स्वरूप, भेद, गति एवं स्थिति की प्ररूपणा की गई है / नौवें उही शक में भावितात्मा अनगार की ज्ञान-सम्बन्धी और प्रकाशपूदगलस्कन्ध-सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है / तदनन्तर चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुद्गलों की, महद्धिक देव की भाषासहस्रभाषणशक्ति की, सूर्य के अन्वर्थ तथा उसकी प्रभा आदि के शुभत्व की परिचर्चा को गई है / अन्त में श्रामण्यपर्यायसुख की देवसुख के साथ तुलना की गई है। दसवें उद्दशक में केवली एवं सिद्ध द्वारा छद्मस्थादि को तथा केवली द्वारा नरकपृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक को तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने की शक्ति की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत उद्देशक में कुल मिला कर देव, मनुष्य, अनगार, केवली, सिद्ध, नैरयिक, तिर्यञ्च आदि जीवों की प्रात्मिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार की शक्तियों का रोचक वर्णन है।" 00 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 658 से 688 तक Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं सयं : चौदहवां शतक चौदहवें शतक के उद्देशकों के नाम 1. चर 1 उम्माद 2 सरीरे 3 पोग्गल 4 अगणी 5 तहा किमाहारे 6 / संसिट्ठमंतरे 7.7 खलु अणगारे 9 केवली चेव 10 // 1 // [१-गाथार्थ ] [चौदहवें शतक के दस उद्देशक इस प्रकार हैं-] (1) चरम, (2) उन्माद, (3) शरीर, (4) पुद्गल, (5) अग्नि तथा (6) किमाहार, (7) संश्लिष्ट, (8) अन्तर, (6) अनगार और (10) केवलो। विवेचन-प्रस्तुत गाथा में चौदहवें शतक के 10 उद्देशकों के सार्थक नामों का उल्लेख किया गया है-(१) चरम-'चरम' (चर) शब्द से उपलक्षित होने से प्रथम उद्देशक का नाम 'चरम' है। (2) उन्माद-उन्माद (पागलपन) के अर्थ का प्रतिपादक होने से द्वितीय उद्देशक 'उन्माद' है। (3) शरीर शरीर शब्द से उपलक्षित होने से तृतीय उद्देशक का नाम 'शरीर' है। (4) 'पुद्गल' के विषय में कथन होने से चतुर्थ उद्देशक का नाम 'पुद्गल' है / (5) अग्नि - 'अग्नि' शब्द से उपलक्षित होने के कारण पंचम उद्देशक का नाम 'अग्नि' है। (6) किमाहार-'किस दिशा का आहार वाला होता है,' इस प्रकार के प्रश्न से युक्त होने के कारण छठे उद्देशक का नाम 'किमाहार' है। (7) संश्लिष्ट -'चिरसंसिट्टोऽसि गोयमा!, इस पद में पाए हुए 'संश्लिष्ट' शब्द से युक्त होने से सप्तम उद्देशक का नाम 'संश्लिष्ट' है / (8) अन्तर-नरक-पृथ्वियों के अन्तर का प्रतिपादक होने से आठवें उद्देशक का नाम 'अन्तर' है। (6) अनगार—इसका सर्वप्रथम पद 'अनगार है, इसलिए नौवें उद्देशक का नाम 'अनगार' है और (10) केवली उद्देशक के प्रारम्भ में 'केवली' पद होने से इस उद्देशक का नाम 'के वली' है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 630 Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'चरम' प्रथम उद्देशक : चरम (-परम के मध्य की गति आदि) भावितात्मा अनगार को चरम-परम मध्य में गति, उत्पत्ति-प्ररूपणा 2. रायगिहे जाव एवं क्यासी [2] राजगृह नगर में यावत् श्रमण भगवान महावीर स्वामी से गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा 3. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वौतिक्कते, परमं देवावासं असंपत्ते, एत्थ गं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते ! कहि गती, कहिं उववाते पन्नत्ते ? ___ गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा देवावासा तहि तस्स गती, तहि तस्स उववाते पन्नत्ते / से य तत्थगए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडइ, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा तामेव लेस्सं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ। _[3 प्र.] भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, (जिसने) चरम (पूर्ववर्ती सौधर्मादि) देवावास (देवलोक) का उल्लंघन कर लिया हो, किन्तु परम (परभागवर्ती सनत्कुमारादि) देवाबास (देवलोक) को प्राप्त न हुआ हो, यदि वह इस मध्य में ही काल कर जाए तो भंते ! उसकी कौन-सी गति होती है, कहाँ उपपात होता है ? __ [3 उ.] गौतम ! जो वहाँ (चरम देवावास और परम देवावास के) परिपार्श्व में उस लेश्या वाले देवावास होते हैं, वहीं उसकी गति होती है और वहीं उसका उपपात होता है। वह अनगार यदि वहाँ जा कर अपनी पूर्वलेश्या को विराधता (छोड़ता) है, तो कर्मलेश्या (भावलेश्या) से ही गिरता है और यदि वह वहाँ जा कर उस लेश्या को नहीं विराधता (छोड़ता) है, तो वह उसी लेश्या का आश्रय करके विचरता (रहता) है / 4. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कते, परमं असुरकुमारा ? एवं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! (कोई) भावितात्मा अनगार, जो चरम असुरकुमारावास का उल्लंघन . कर गया और परम असुर कुमारावास को प्राप्त नहीं हुआ, यदि इसके बीच में ही वह काल कर जाए तो उसको कौन-सी गति होती है, उसका कहाँ उपपात होता है ? [4 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [357 5. एवं जाव थणियकुमारावासं, जोतिसियावासं / एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ / [5] इसी प्रकार यावत्-स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्काबास और वैमानिकावास पर्यन्त (यावत्) विचरते हैं; यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन चरम-परम के मध्य में गति, उत्पत्ति--उपर्यक्त प्रश्न का प्राशय यह है कि कोई भावितात्मा अनगार, जो लेश्या के उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय-स्थानों में वर्तमान है, वह यदि पूर्ववर्ती सौधर्मादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थितिबन्ध आदि का उल्लंघन कर गया हो, किन्तु अभी तक परम (ऊपर रहे हुए) सनत्कुमारादि देवलोकों में उत्पन्न होने योग्य स्थितिवन्ध प्रादि अध्यवसायों को प्राप्त नहीं हुआ और इसी मध्य (अवसर) में अगर उसकी मृत्यु हो जाए तो वह कहां जाता है, कहाँ उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर भगवान् ने यों दिया है कि वह चरमदेवावास और परमदेवावास के निकटवर्ती उस लेश्या वाले देवावासों में जाता है, वहीं उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि सौधर्मादि देवलोक और सनत्कुमारादि देवलोकों के पास में जो ईशान आदि देवलोक हैं, उनमें. अर्थात्-जिस लेश्या में वह अन गार काल करता है, उसी लेश्या वाले देवावासों में उत्पन्न होता है; क्योंकि यह सिद्धान्त वचन है 'जल्लेते मरद जोवे, तल्लेसे चेव उववज्जई'-अर्थात्-'जीव जिस लेश्या में मरण पाता है, उसी लेश्या (वाले जीवों) में उत्पन्न होता है।' अर्थात्-उन देवावासों में उस अनगार की गति होती लेश्या-परिणाम से वहाँ वह उत्पन्न होता है, यदि उस परिणाम की वह विराधना कर देता है तो द्रव्यलेश्या वही होते हुए भी कर्मलेश्या (भावलेश्या)—जीवरिणति से वह गिर जाता है / तात्पर्य यह है कि वह शुभ भावलेश्या से गिर कर अशुभ भावलेश्या में चला जाता है, क्योंकि देव और नै रयिक द्रव्यलेश्या से नहीं गिरते, वह तो पहले वाली ही रहती है, किन्तु भावलेश्या से गिर जाते हैं / द्रव्यलेश्या तो देवों की अवस्थित रहती है / यदि वह अनगार जिस लेश्यापरिणाम से वहाँ (चरमदेवावास और परमदेवावास के मध्यवर्ती देवावास में) उत्पन्न होता है, यदि वह उस लेश्यापरिणाम की विराधना नहीं करता, तो वह जिस लेश्या से वहाँ उत्पन्न हुया है, उसी लेश्या में जीवनयापन करता है / यह सामान्य देवाबासों को लेकर कहा गया है। विशेष देवावासों की अपेक्षा अगला मुत्र कहा गया है। शंका-समाधान–(प्र.) जो भावितात्मा अनगार है, वह असुरकुमारों में कैसे उत्पन्न होता है ? वहाँ तो संयम के विराधक जीव ही उत्पन्न होते हैं ? इसके समाधान में वृत्तिकार कहते हैंयहाँ भावितात्मापन पूर्वकाल की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्तिम समय में वे संयम के विराधक होने से असुर कुमारादि में उत्पन्न हो सकते हैं / अथवा यहाँ भावितात्मा का प्राशय 'बालतपस्वी भावितात्मा' समझना चाहिए।' चौबीस दण्डकों में शीघ्रगति-विषयक प्ररूपणा 6. नेरइयाणं भंते ! कह सोहा गती ? कहं सोहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जावर निउणसिप्पोवगए आउंटियं 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 630-631 (ख) भगवती. (हिन्दो विवेचन) भा. 5, पृ.,२२७७-२२७८ 'जाव' शब्द सूचक पाठ-जुवाणे...., अप्पातके...., थिरगहत्थे...., दढयाणि-पाय-पाल-पिट्टतरोरुपरिणए...., तलजमलजुयल-परिघ-निभबाह...., चम्मेद्व-दुहण-मुट्टियसमाहयनिचियगायकाए...., ओरसबलसमन्नागए...., लंघण-पवणजइणवायामसमत्थे...., छए...., दुक्खे...., पत्त?...., कुसले...., मेहावी...., निउणे"-ग्रव० पत्र 631 2. Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा बाहं आउंटेज्जा, विक्खिणं वा मुद्रि साहरेज्जा, साहरियं वा मुट्टि विविखरेज्जा, उम्मिसियं वा अच्छि निमिसेज्जा, निमिसितं वा अच्छि उम्मिसेज्जा, भवेयारूवे ? णो तिण? सम। नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववज्जति, नेरयाणं गोयमा ! तहा सोहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नत्ते। प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों को शीघ्र गति कैसी है ? और उनकी शीघ्रगति का विषय किस प्रकार का कहा गया है ? 6 उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण, बलवान् एवं युगवान् (सुषम-दुःषमादिकाल में उत्पन्न हुआ विशिष्ट बलशाली) यावत् निपुण एवं शिल्पशास्त्र का ज्ञाता हो, वह अपनी संकुचित बांह को शीव्रता से फैलाए और फैलाई हुई बांह को संकुचित करे; खुली हुई मुट्ठी बंद करे और बंद मुट्ठी खोले; खुली हुई आँख बन्द करे और बंद आँख खोले तो (हे गौतम !) क्या नैरयिक जीवो को इस प्रकार की शीघ्र गति तथा शीघ्र गति का विषय होता है ? (गौतम-) (भगवन् ! ) यह अर्थ समर्थ नहीं है / (भगवान-) (गौतम ! ) नैरयिक जीव एक समय की, दो समय की, अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! नयिकों की ऐसी शीव्र गति है और इस प्रकार का शीघ्र गति का विषय कहा गया है। 7. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियन्वे / सेसं तं चेव / [7] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (अर्थात्-चौवीस ही दण्डकों में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिए / शेष सभी पूर्ववत् जानना चाहिए। विवेचन शीघ्रगति से तात्पर्य- एक भव से दूसरे भव में जाने को यहाँ ‘गति' कहा है। नैरयिक जीव, नरक गति में एक समय, दो समय या तीन समय की गति से उत्पन्न होते हैं / उसमें एक समय की गति 'ऋजुगति' होती है और दो या तीन समय की गति विग्रहगति होती है / इस गति को यहाँ 'शीगति' कहा गया है। हाथ को पसारने और सिकोड़ने यादि में असंख्यात समय लगते हैं, इसलिए उसे शीघ्रगति नहीं कहा है। जब जीव, समश्रेणी में रहे हुए उत्पत्ति-स्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तब एक समय की ऋजुगति होती है और जब विषमथेणी में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जा कर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय को विग्रहणति होती है और एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट चार समय की विग्रहगति होती है।' जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में पश्चिम दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह पहले समय में नीचे पाता है, दूसरे समय में तिरछे उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है / इस प्रकार उसकी दो समय की विग्रहगति होती है। जब कोई जीव भरतक्षेत्र की पूर्व दिशा से नरक में वायव्यकोण (विदिशा) में उत्पन्न होता है, तब एक समय में समश्रेणी द्वारा नीचे जाता है। दूसरे समय में पश्चिम दिशा में जाता है 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2279 Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [359 और तीसरे समय में तिरछे वाव्ययकोण में रहे अपने उत्पत्तिस्थान में जाकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार तोन समय की विग्रहगति होती है। यही नैरपिक से लेकर वैमानिक तक के जीवों (एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय) की शीघ्रगति और शीघ्रगति का विषय कहा गया है।' एकेन्द्रिय जीवों को चार समय को विग्रहगति-इस प्रकार समझनी चाहिए.जीव की गति श्रेणी के अनुसार होती है। अतः सनाडी से बाहर रहा हुया कोई एकेन्द्रिय जीव जब दूसरे भव में जाता है, तब पहले समय में बसनाडी से बाहर अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है। दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रविष्ट होता है। तीसरे समय में ऊँचा (ऊर्वलोक में) जाता है और चौथे समय में प्रसनाडी से निकल कर दिशा में नियत-उत्पत्तिस्थान में जाता है। यह बात सामान्यतया अधिकांश एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा कही गई है; और एकेन्द्रिय जीव बहुधा इसी प्रकार गति करते हैं, अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय की विग्रह गति भी सम्भव है / वह इस प्रकार---पहले समय में सनाडी से बाहर, वह अधोलोक की विदिशा से दिशा की ओर जाता है / दूसरे समय में लोक के मध्य भाग में प्रवेश करता है। तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है। चौथे समय में वहाँ से दिशा को प्रोर जाता है और पांचवें समय में विदिशा में रहे हुए उत्पत्तिस्थान में जाता है / इस प्रकार पांच समय की विग्रह गति भी कही गई है। ___ कठिनशब्दार्थ--सोहा-शीघ्र, आउटेज्जा-सिकोडे / उणिमिसियं-खुली हुई / विविखण्णंखोली हुई। चौवीस दण्डकों में अनन्तरोपपन्नकादि प्ररूपणा 8. [1] नेरइया णं भंते ! कि अणंतरोववन्नगा, परंपरोक्वनगा, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि? गोयमा ! नेरइया अणंत रोववनगा वि, परंपरोववनगा वि, अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि / [8-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैयिक अनन्तरोपपन्नक हैं, परम्परोपपन्नक हैं, अथवा अनन्तरपरम्परानुपपन्नक हैं ? [8-1 उ.] गौतम ! नरयिक अनन्तरोपपत्रक भी हैं, परम्परोपपन्नक भी हैं और अनन्तरपरम्परानुपपन्नक भी हैं। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगा वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जे णं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते ण नेरइया परंपरोक्वन्नगा, जेणं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपरप्रणुववन्तमा / से तेणढणं जाव अणुववन्नगा वि / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति. पत्र 632 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2279-2280 2. वही, हिन्दी विवेचन भा. 5, पृ. 2280 3. विदिसाउ दिसि पढमे, बीए पइ सरइ नाडिमझमि। उददं तदए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचमए।। --प. बत्ति, पत्र 632 4. भगवती. (हिन्दीविवेचन), भा. 5, पृ. 2280 Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8-2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा है कि नैरयिक यावत् (अनन्तरो०, परम्परो०) और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं ? [8-2 उ.] गौतम ! जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी प्रथम समय ही हुआ है (उत्पत्ति में एक समय का भी व्यवधान नहीं पड़ा), वे (नैरयिक) अनन्तरोपपन्नक (कहलाते हैं)। जिन नैरयिकों को उत्पन्न हुए अभी दो, तोन आदि समय हो चुके हैं, (अर्थात --प्रथम समय के सिवाय द्वितीयादि समय हो गए हैं, वे (नरयिक) परम्परोपपन्नक (कहलाते) हैं और जो नैरयिक जीव नरक में उत्पन्न होने के लिए (अभी) विग्रहगति में चल रहे हैं, वे (नरयिक) अनन्तर-परम्परानुपपन्न क (कहलाते) हैं। इस कारण से हे गौतम ! नैरयिक जीव यावत् अनन्तर-परम्परानुपपन्नक भी हैं / 9. एवं निरंतरं जाव वेमाणिया / [9] इसी प्रकार (यह पाठ) निरन्तर यावत् वैमानिक (तक कहना चाहिए) / विवेचन–अनन्तरोपपन्नक-- जिनकी उत्पत्ति में समय ग्रादि का अन्तर (व्यवधान) नहीं है, अर्थात् जिन्हें उत्पन्न हुए प्रथम समय हुआ है, वे / परम्परोपपन्नक-जिन्हें उत्पन्न हुए दो-तीन ग्रादि समय हो गए हों, वे / अनन्तर-परम्परानुपपन्नक—जिनकी उत्पत्ति न तो भव के प्रथम समय में हुई है और न ही द्वितीयादि समयों में, ऐसे विग्रहगति-समापनक जीव अनन्तर-परम्परानुपपन्नक कहलाते हैं / नैरयिक जीव जब विग्रहगति में होते हैं.' तब पूर्वोक्त दोनों प्रकार की उत्पत्ति का अभाव होता है। अनन्तरोपपन्नकादि चौवीस दण्डकों में आयुष्यबंध-प्ररूपणा 10. प्रणतरोक्वन्नगा णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति ? तिरिक्ख-मणुस्स-देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाउयं पकरेंति / [10 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक, नैरीयक का आयुष्य बाँधते हैं, अथवा तिर्यञ्च का, मनुष्य का या देव का प्रायुष्य वाँधते हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे नैरयिक का प्रायुष्य नहीं बाँधते, यावत् (तिर्यञ्च का, मनुष्य का एवं) देव का आयुष्य भी नहीं बाँधते / 11. परंपरोववनगाणं भते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति / [11 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक नैरयिक, क्या नैरपिक का प्रायुष्य बाँधते हैं, यावत् क्या देवायुष्य बाँधते हैं ? [11 उ.] गौतम ! वे नैरयिक का आयुष्य नहीं बाँधते, वे तिर्यञ्च का प्रायुष्य बाँधते हैं, मनुष्य का आयुष्य भी बाँधते हैं, (किन्तु) देवायुष्य नहीं बाँधते / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 633 Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [361 12. अणंतरपरंपरप्रणववनगा णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं प० पुच्छा। गोयमा! नोनेरच्याउयं पकरेंति. जाब नो देवाउयं पकरति / [12 प्र.] भगवन् ! अनन्तर-परम्परानुपपन्नक नैरयिक, क्या नैरयिक का प्रायुष्य बाँधते हैं ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! वे नै रयिक का प्रायुष्य नहीं बाँधते, यावत् (तिर्यञ्च का, मनुष्य का या) देव का आयुष्य नहीं बाँधते / 13. एवं जाव वेमाणिया, नवरं चिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोक्वनगा चत्तारि वि आउयाई पकरेति / सेसं तं चेव / [13] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यबन्ध का कथन करना चाहिए।) विशेषता यह है कि परम्परोपपन्नक पञ्चेन्द्रिय तिर्यत्रयोनिक और मनुष्य नारकादि, चारों प्रकार का अर्थात् चारों में से किसी भी एक का अायुष्य बाँधते हैं। शेष (सभी कथन) पूर्ववत् (करना चाहिए / ) विवेचन-निष्कर्ष-अनन्तरोपपन्नक और अनन्तर-परम्परानुपपन्नक जीव नरकादि चारों गतियों का प्रायुष्य नहीं बाँधते; क्योंकि उस अवस्था में उस प्रकार के कोई अध्यवसाय (परिणाम) नहीं होते / परिणामे बन्धः' इस सिद्धान्तानुसार उस समय चारों गति के जीवों के प्रायुष्यबन्ध नहीं होता / परम्परोपपन्नक नैरयिक जीव एवं देव अपना ग्रायुष्य छह मास शेष रहते तिर्यञ्च या मनुष्य का आयुष्यबन्ध करते हैं। परम्परोपपन्नक मनुष्य और तिर्यञ्च तो चारों ही गति का आयुष्य बाँधते हैं / अपने प्रायु के तृतीयादि भाग में, या कोई-कोई छह महीने शेष रहते आयुष्य बाँधते हैं।' चौवीस दण्डकों में अनन्तर-निर्गतादि-प्ररूपणा 14. [1] नेरइया गं भंते ! कि अणंतरनिगया परंपरनिग्गया अणंतरपरंपर अनिरगया? गोयमा ! नेरइया णं अणंतरनिग्गया विजाव अणंतरपरंपरग्रनिग्गया वि। [14-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक जीव अनन्तर-निर्गत हैं, परम्पर-निर्गत हैं या अनन्तरपरम्परा-अनिर्गत हैं ? [14-1 उ.] गौतम ! नैरयिक अनन्तर-निर्गत भी होते हैं, परम्पर-निर्गत भी होते हैं और अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी होते हैं / [2] से केण?णं जाव अणिग्गता वि? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते गं नेरइया अणंतरनिग्गया, जेणं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया, जेणं नेरइया विगहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतरपरंपरप्रणिगया / से तेण?णं गोयमा.! जाव अणिग्गता वि / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 633 Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नरयिक अनन्तर-निर्गत भी होते हैं, यावत् अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी होते हैं ? [14-2 उ.] गौतम ! जिन नैरयिकों को नरक से निकले प्रथम समय ही है, वे अनन्तरनिर्गत है, जो नैरपिक अप्रथम (प्रथम-समय-व्यतिरिक्त समय-द्वितीयादि समय) में निर्गत हुए (निकले) हैं, वे 'परम्पर-निर्गत' हैं और जो नैरयिक विग्रहगति-समापन्नक हैं, वे 'अनन्तर-परम्परअनिर्गत' हैं। इसी कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नैरयिक जीव, यावत् (अनन्तर-निर्गत भी हैं, परम्पर-निर्गत भी हैं अौर) अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत भी हैं। 15. एवं जाव वेमाणिया। [15] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / विवेचन-अनन्तर-निर्गत -एक भव से निकल कर दूसरा भव प्राप्त होने के प्रथम समयवर्ती जीव / परम्पर-निर्गत-जिन जीवों को एक भव से निकल कर भवान्तर को प्राप्त हुए दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, वे / अनन्तर-परम्पर-अनिर्गत-जो एक भव से निकल कर भवान्तर में उत्पत्तिस्थान को प्राप्त नहीं हुए, अभी जो विग्रहगति में ही हैं, ऐसे जीव / ' चौवीस ही दण्डकों के जीव अनन्तर-निर्गत, परम्पर-निर्गत और अनन्तर-परम्पर-अतिर्गत, तीनों प्रकार के होते हैं। अनन्तरनिर्गतादि चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यबन्ध-प्ररूपणा 16. अणंतरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति / [16 प्र.] भगवन् ! अनन्तरनिर्गत नैरयिक जीव, क्या नारकायुष्य बांधते हैं यावत् देवायुप्य बांधते हैं ? [16 उ.] गौतम ! वे न तो नरकायुष्य बांधते हैं, न तिर्यञ्चायु, न मनुष्यायु और न हो देवायुष्य बांधते हैं। 17. परंपरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं० पुच्छा / गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव देवाउयं पि पकरेंति / [17 प्र.] भगवन् ! परम्पर-निर्गत नरयिक, क्या नरकायु बांधते हैं ? इत्यादि (पूर्ववत्) [17 उ.] गौतम ! वे नरकायुष्य भो बांधते हैं, यावत् देवायुष्य भी बांधते हैं। 18. अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते ! नेरइया० पुच्छा० / गोयमा ! नो नेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव नो देवाउयं पि पकरेंति / . 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 636 Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [18 प्र. भगवन् ! अनन्तर-परम्पर-निर्गत नैरयिक, क्या नारकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [18 उ.] गौतम ! वे न तो नारकायुष्य बांधते, यावत् न देवायुष्य बांधते हैं / 19. निरवसेसं जाव वेमाणिया। [16] इसी प्रकार शेष सभी कथन यावत् बैमानिक तक करना चाहिए / विवेचन-निष्कर्ष परम्पर-निर्गत सभी जीव सर्वगतियों का आयुष्य बांधते हैं; क्योंकि परम्पर-निर्गत नै रयिक, मनुष्य और तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय ही होते हैं। वे सर्वायुबन्धक होते हैं / इस प्रकार परम्पर-निर्गत सभी वैक्रिय जन्म वाले जीव (अर्थात्-देव और नैरयिक) तथा औदारिक जन्म बाले कितने ही जीव मनुष्य और तिर्यञ्च होते हैं। इसलिए परम्परनिर्गत जीव सभी गति का प्रायुष्य बांधते हैं।' चौवीस दण्डकों में अनन्तरखेदोपपन्नादि अनन्तरखेदनिर्गतादि एवं आयुष्यबन्ध की प्ररूपमा 20. नेरइया णं भंते ! कि अणंतरखेदोववन्नगा, परंपरखेदोक्वन्नगा, अणंतरपरंपरखेदाणुवनगा? गोयमा ! नेरइया०, एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियचा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / // चोद्दसमे सए पढमो उद्देसओ समतो // 14-1 // [20 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव क्या अनन्तर-खेदोपपन्न हैं, परम्पर-खेदोपपन्न हैं अथवा अनन्तरपरम्परा-खेदानुपपन्न हैं ? 20 उ.] गौतम नैरयिक जीव, अनन्तर-खेदोपपन्न भी हैं, परम्पर-खेदोपपन्न भी हैं और अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नक भी हैं / इस अभिलाप द्वारा वे ही पूर्वोक्त चार दण्डक कहने चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन–अनन्तर-खेदोपपन्नक-उत्पत्ति के प्रथम समय में ही जिनकी उत्पत्ति दुःखयुक्त है। परम्पर-खेदोपपन्नक–जिनकी खेदयुक्त उत्पत्ति में दो-तीन आदि समय व्यतीत हो चके हैं, वे / अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नक-जिनकी अनन्तर अथवा परम्पर खेदयुक्त उत्पत्ति नहीं है, वे। ऐसे जीव विग्रहगतिवर्ती होते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 634 .. 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 634 Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तीनों के विषय में पूर्वोक्त चार दण्डक-इस प्रकार हैं-(१) खेदोपपन्नक दण्डक, (2) वेदोपपन्नक सम्बन्धी प्रायुष्यबन्ध का दण्डक, (3) खदनिर्गत दण्डक, और (4) खेदनिर्गत-सम्बन्धी आयुष्यबंध का दण्डक / ये चारों दण्डक' पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार कहने चाहिए। // चौदहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 634 Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'उम्माद' द्वितीय उद्देशक : उन्माद ( प्रकार, अधिकारी) उन्माद : प्रकार, स्वरूप और चौवीस दण्डकों में सहेतुक प्ररूपणा 1. कतिविधे णं भंते ! उम्मादे पन्नत्ते? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा--जक्खाएसे य मोहणिज्जस्स य कम्मरस उदएणं / तत्थ णं जे से जनखाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव, सुहविमोयणतराए चेव / तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव, दुह विमोयणतराए चेव / [1 प्र.] भगवन् ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है। यथा-यक्षावेश से और मोहनीय कर्म के उदय से (होने वाला)। इनमें से जो यक्षावेशरूप उन्माद है, उसका सुखपूर्वक वेदन किया जा सकता है और वह सुखपूर्वक छुड़ाया (विमोचन कराया जा सकता है। (किन्तु) इनमें से जो मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका दुःखपूर्वक वेदन होता है और दुःखपूर्वक ही उससे छुटकारा पाया जा सकता है। 2. [1] नेरइयाणं भंते ! कतिविधे उम्मादे पन्नते ? गोयमा! दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा---जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं / [2-1 प्र.] भगवन् ! नारक जीवों में कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? [2-1 उ.] गौतम ! उनमें दो प्रकार का उन्माद कहा गया है। यथा-यक्षावेशरूप उन्माद और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद / [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ 'नरइयाणं दुविहे उम्मादे पन्नत्ते, तं जहा जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स जाव उदएणं' ? | गोयमा ! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसि असुभाणं पोग्गलाणं पविखवणयाए जक्खाएसं उम्मायं पाउणिज्जा / मोहणिज्जस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा, से तेगट्ठणं जाव उदएणं। [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि नारकों के दो प्रकार के उन्माद कहे गए हैं, यक्षावेशरूप और मोहनीयकर्म के उदय से होने वाला ? [2-2 उ.] गौतम ! यदि कोई देव, नरयिक जीव पर अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तो उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से वह नैरयिक जीव यक्षावेशरूप उन्माद को प्राप्त होता है और मोहनीय Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366] चौदहवां शतक : उद्देशक 2] कर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य उन्माद को प्राप्त होता है। इस कारण, हे गौतम ! दो प्रकार का उन्माद कहा गया है, यावत् मोहनीयकर्मोदय से होने वाला उन्माद / 3. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविधे उम्मादे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्माए पन्नत्ते / एवं जहेव नेरइयाणं, नवरं-देवे वा से महिड्डियतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पविखवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा० / सेसं तं चेव / से तेणढणं जाव उदएणं / 13 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों में कितने प्रकार का उन्माद कहा गया है ? 13 उ.] गौतम ! नैरयिकों के समान उनमें भी दो प्रकार का उन्माद कहा गया है। विशेषता (अन्तर) यह है कि उनकी अपेक्षा महद्धिक देव, उन असुरकुमारों पर प्रशभ पुदगलों का प्रक्षेप करता है और वह उन अशुभ पूदगलों के प्रक्षेप से यक्षावेशरूप उन्माद को प्राप्त हो जाता है तथा मोहनीयकर्म के उदय से मोहनीयकर्मजन्य उन्माद को प्राप्त होता है। शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / 4. एवं जाव थपियकुमाराणं / [4] इसी प्रकार यावत् स्तन्तिकुमारों (तक के उन्माद के विषय में समझना चाहिए / ) 5. पुढविकाइयाणं जाव मणुस्साणं, एतेसि जहा नेरइयाणं / [5] पृथ्वीकायिकों से लेकर यावत् मनुष्यों तक नैरयिकों के समान कहना चाहिए। 6. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / [6] वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्कदेव और वैमानिकदेवों (के उन्माद) के विषय में भी असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-उन्माद : प्रकार और कारण--प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1-7 तक) में उन्माद के दो प्रकार (यक्षावेश जन्म और मोहनीयजन्य) बता कर, नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में इन दोनों प्रकार के उन्मादों का अस्तित्व बताया है। यक्षावेशरूप उन्माद के कारण में थोड़ाथोड़ा / वह यह है कि चार प्रकार के देवों को छोड कर नयिकों, पृथ्वीकायादि तिर्यञ्चों और मनुष्यों पर कोई देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करता है, तब बे यक्षावेश-उन्मादग्रस्त होते हैं, जबकि चारों प्रकार के देवों पर कोई उनसे भी महद्धिक देव अशुभ पुद्गल-प्रक्षेप करता है तो वे यक्षावेशरूप उन्माद से ग्रस्त होते हैं।' उन्माद का स्वरूप-उन्मत्तता को उन्माद कहते हैं, अर्थात् जिससे स्पष्ट या शुद्ध चेतना (विवेकज्ञान) लुप्त हो जाए, उसे उन्माद कहते हैं / यक्षावेश-उन्माद का लक्षण--शरीर में भूत, पिशाच, यक्ष प्रादि देवविशेष के प्रवेश करने से जो उन्माद है, वह यक्षावेश-उन्माद है / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृष्ठ 661-662 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 2] मोहनीयजन्य-उन्माद : स्वरूप और प्रकार--मोहनीयकर्म के उदय से आत्मा का पारमाथिक (वास्तविक सत्-असत् का) विवेक नष्ट हो जाना, मोहनीय-उन्माद कहलाता है। इसके दो भेद हैं--- मिथ्यात्वमोहनीय-उन्माद और चारित्रमोहनीय-उन्माद / मिथ्यात्वमोहनीय-उन्माद के प्रभाव से जीव अतत्त्व को तत्त्व और तत्त्व को अतत्त्व मानता है। चारित्रमोहनीय के उदय से जोव विषयादि के स्वरूप को जानता हुना भी अज्ञानी के समान उसमें प्रवृत्ति करता है। अथवा चारित्रमोहनीय की वेद नामक प्रकृति के उदय से जीव हिताहित का भान भूल कर स्त्री आदि में प्रासक्त हो जाता है, मोह के नशे में पागल बन जाता है / वेदोदय काम-ज्वर से उन्मत्त जीव की दस दशाएँ इस प्रकार हैं चिंतेइ 1 टुमिच्छइ 2 दीहं नीससइ 3 तह जरे 4 दाहे 5 / भत्तभरोमग 6, मुच्छा 7 उन्माय 8 न याणई 9 मरणं 10 / / 1 / / अर्थात्-तीन वेदोदय (काम) से उन्मत्त हुआ जीव (1) सर्व प्रथम विषयों, कामभोगों या स्त्रियों आदि का चिन्तन करता है, (2) फिर उन्हें देखने के लिए लालायित होता है, (3) न प्राप्त होने पर दीर्घ निःश्वास डालता है, (4) काम-ज्वर उत्पन्न हो जाता है, (5) दाहग्रस्त के समान पीडित हो जाता है, (6) खाने-पीने में अरुचि हो जाती है, (7) कभी-कभी मूच्छी (बेहोशी) आ जाती है, (8) उन्मत्त होकर बड़बड़ाने लगता है, (9) काम के आवेश में उसका विवेकज्ञान लुप्त हो जाता है और अन्त में (10) कभी कभी मोहावेशवश मृत्यु भी हो जाती है।' दोनों उन्मादों में सुखवेद्य-सुखमोच्य कौन ? –मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा यक्षाविष्ट उन्माद का सुखपूर्वक वेदन और विमोचन हो जाता है। जबकि मोहजन्य उन्माद दुःखपूर्वक वेद्य एवं मोच्य है। उसकी अपेक्षा दुःखपूर्वक वेदन एवं विमोचन इसलिए होता है कि मोहनीय कर्म अनन्त संसारपरिभ्रमण एवं परिवद्धि का कारण है। संसार-परिभ्रमण रूप दु:ख का वेदन कराना मोहनीय का स्वभाव है / यक्षावेश-उन्माद का सुखपूर्वक वेदन इसलिए होता है कि वह अधिक से अधिक एकभवाश्रयी होता है, जबकि मोहनीयजन्य उन्माद कई भवों तक चलता है / इसलिए उसका छुड़ाना सरल नहीं है / वह बड़ी कठिनाई से छुड़ाया जा सकता है / विद्या, मंत्र, तंत्र इष्ट देव या अन्य देवों द्वारा भी उसका छुड़ाया जाना अशक्य-सा है / यक्षावेश सुखविमोचनतर है। क्योंकि यक्षाविष्ट पुरुष को खोड़ा--बेड़ी आदि बन्धन में डाल देने पर वह वश में हो जाता है; जबकि मिथ्यात्वमोहनीयजन्य उन्माद इस तरीके से कदापि मिटता नहीं / कहा भी है सर्वज्ञ-मन्त्रवाद्यपि, यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः / मिथ्या-मोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतां तुल्यः ? // ___ सर्वज्ञ या मंत्रवादी महापुरुष भी मोहनीयजन्य उन्माद का निराकरण करने में (मिथ्यात्वरूपी मोहोन्माद को दूर करने) में समर्थ नहीं है। इसलिए बताइए कि मिथ्यात्व मोहनीयजन्य उन्माद की किसके साथ तुलना की जा सकती है ! इसलिए दोनों उन्मादों में से यक्षावेश रूप उन्माद का सुखपूर्वक वेदन-विमोचन हो सकता है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 2. (क) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2290-91 (ख) भगवती. अ. वु., पत्र 635 Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र स्वाभाविकवृष्टि और देवकृतवृष्टि का सहेतुक निरूपण 7. अस्थि णं भंते ! पज्जन्ने कालवासी वुट्टिकायं पकरेति ? हंता, अस्थि / [7 प्र.] भगवन् ! कालवर्षी (काल-समय पर बरसने वाला) मेघ (पर्जन्य) वृष्टिकाय (जलसमूह) बरसाता है ? [7 उ. हाँ, गौतम ! वह बरसाता है / 8. जाहे णं भंते / सक्के देविदे देवराया वुट्टिकायं काउकामे भवति से कह मियाणि पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया अभंतरपरिसाए देवे सद्दावेति, तए णं ते अभंतरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसाए देवे सद्दावेति, तए गं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसाए देवे सदाति, तए णं ते वाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सद्दावेति, तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा प्राभियोगिए देवे सद्दार्वेति, तए गं ते जाव सद्दाविया समाणा वुट्टिकाइए देवे सद्दावेंति, तए णं ते वुद्धिकाइया देवा सद्दाविया समाणा वुट्टिकायं पकरेंति / एवं खलु गोयमा ! सक्के देविदे देवराया बुट्टिकायं पकरेति / [8 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करने की इच्छा करता है, तब वह किस प्रकार वृष्टि करता है ? उ.] गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करना चाहता है, तब (अपनी) याभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है / बुलाए हुए वे आभ्यन्तर परिषद् के देव मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं / तत्पश्चात् बुलाये हुए वे मध्यम परिषद् के देव, बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं, नव बुलाये हुए वे बाह्य-परिषद् के देव बाह्य-बाह्य (बाहर-बाहर- वाह्य परिषद् से बाहर) के देवों को बुलाते हैं। फिर वे बाह्य-बाह्य देव प्राभियोगिक देवों को बुलाते हैं। इसके पश्चात् बुलाये हुए वे आभियोगिक देव वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं और तब वे बुलाये हुए वृष्टिकायिक देव वृष्टि करते हैं / इस प्रकार हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र वृष्टि करता है / 9. अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्टिकायं पकरेंति ? हंता, अस्थि / [6 प्र.) भगवन् ! क्या असुर कुमार देव भी वृष्टि करते हैं ? [6 उ.] हाँ, गौतम ! (वे भी वृष्टि) करते हैं। 10. किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा वुद्धिकायं पकरेंति ? गोयमा ! जे इमे प्ररहंता भगवंतो एएसि णं जम्मणमहिमासु वा, निक्खमणमहिमासु वा, नाणुप्पायमहिमासु वा परिनिवाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा वुट्टिकार्य पकरेंति। [10 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव किस प्रयोजन से वृष्टि करते हैं ? Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 2] [10 उ.] गौतम ! जो ये अरिहन्त भगवान होते हैं, उनके जन्म-महोत्सबों पर, निष्क्रमणमहोत्सवों पर, ज्ञान (केवलज्ञान) की उत्पत्ति के महोत्सवों पर, परिनिर्वाण-महोत्सवों पर, हे गौतम ! इन अवसरों पर असुरकुमार देव वृष्टि करते हैं। 11. एवं नागकुमारा वि / [11] इसी प्रकार नागकुमार देव भी वृष्टि करते हैं / 12. एवं जाव थणियकुमारा। [12] यावत् स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 13. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव / [13] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन-निष्कर्ष प्रस्तुत सात सूत्रों में मेघ द्वारा स्वाभाविक और भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों द्वारा बिना मौसम के तीर्थकर भगवन्तों के पंचकल्याणक महोत्सवों के निमित्त से स्वैच्छिक वष्टि करने का वर्णन किया है। शकेन्द्र द्वारा वृष्टि करने की प्रक्रिया का भी वर्णन किया गया है। इस वर्णन पर से 'ईश्वर की इच्छा होती है, तब वह वर्षा बरसाता है, इस मान्यता का निराकरण हो जाता है। तथ्य यह है कि वृष्टि या तो मेघ द्वारा मौसम पर स्वाभाविक होती है अथवा देवेच्छाकृत होती है / अथवा पर्जन्य इन्द्र को भी कहते हैं।' ___ कठिनशब्दार्थ --पज्जण्णे—पर्जन्य—मेघ / बुद्धिकायं-वृष्टि काय -जलवृष्टिसमूह / काउकामे-करने का इच्छुक / कहमियाणि-किस प्रकार से / किपत्तियं-किस निमित्त (प्रयोजन) से, किस लिए / णाणुप्पायमहियासु-केवलज्ञान की उत्पत्ति-महोत्सवों पर / कालवासी-काल-समय पर (प्रावृट्-वर्षा ऋतु में) बरसने वाला / पर्जन्य का अर्थ इन्द्र करने पर वह भी तीर्थकरजन्म-महोत्सव आदि पर बरसाता है। ईशानदेवेन्द्रादि चतुर्विधदेवकृत तमस्काय का सहेतुक निरूपण 14. जाहे णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया तमुकायं कातुकामे भवति से कहामियाणि पकरेति? गोयमा ! ताहे चेव गं ईसाणे देविदे देवराया अभितरपरिसाए देवे सदावेति, तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सहाविया समाणा एवं जहेब सक्कस्स जाव तए णं ते आभियोगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुकाइए देवे सद्दार्वेति, तए णं ते तमुकाइया देवा सद्दाविया समाणा तमुकायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा! ईसाणे देविदे देवराया तमुकायं पकरेति / -- - -- -- 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 635-636 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2292 Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब किस प्रकार करता है ? [14 उ.] गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करना चाहता है, तब आभ्यन्तर परिषद् के देवों को बुलाता है और फिर वे बुलाए हुए आभ्यन्तर परिषद के देव मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं, इत्यादि सब वर्णन ; यावत्-'तब बुलाये हुए वे आभियोगिक देव तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं, और फिर वे समाहत तमस्कायिक देव तमस्काय करते हैं; यहाँ तक शकेन्द्र (द्वारा वृष्टिकाय प्रक्रिया) के समान जानना चाहिए। हे गौतम ! इस प्रकार देवेन्द्र देवराज ईशान तमस्काय करता है। 15. अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा तमुकायं पकरेंति ? हंता, अस्थि / [15 प्र.] भगवन् क्या असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं ? [15 उ.] हाँ, गौतम ! (वे) करते हैं। 16. किपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुकायं पकरेंति ? गोषमा ! किड्डारतिपत्तियं वा, पडिगीयविमोहणट्ठयाए बा, गुत्तिसारक्खणहेउं वा अप्पणो वा सरीरपच्छायणट्ठयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा तमुकायं पकरेंति / [16 प्र] भगवन् ! असुरकुमार देव किस कारण से तमस्काय करते हैं ? [16 उ. गौतम ! क्रीड़ा और रति के निमित्त, शत्रु (विरोधी, प्रत्यनीक) को विमोहित करने के लिए. गोपनीय (छिपाने योग्य) धनादि की सरक्षा के हेत. अथवा अपने शरीर को प्रच्छादित करने (ढंकने) के लिए, हे गौतम ! इन कारणों से असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं / 17. एवं जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहर इ / // चोइसमे सए : बितिओ उद्देसनो समत्तो // 14-2 // [17] इसी प्रकार (शेष भवनपति देव, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-देवेन्द्र ईशान कृत तमस्काय प्रकिया यह प्रक्रिया भी शकेन्द्र-वष्टिकाय की प्रक्रिया के समान है। 1. वियाहतपणत्तिसुत्तं (मूलपाट-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 663 Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 2] [371 चतुर्विध देवकृत तमस्काय के चार कारण--तमस्काय का अर्थ है—अन्धकार-समूह | उसे करने के चार कारण ये हैं--(१) क्रीड़ा एवं रति के निमित्त (2) विरोधी को विमूढ़ बनाने के लिए (3) गोपनीय द्रव्यरक्षार्थ और (4) स्वशरीर-प्रच्छादनार्थ / ' कठिनशब्दार्थ-तमक्कायं-तमस्काय-अन्धकार समूह। किड्डारतिपत्तियं-क्रीड़ा और रति (भोगविलास) के निमित्त / गुत्तिसारक्खणहेउं---गुप्त निधि की सुरक्षा के लिए / // चौदहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2295 (ख) भगवती. अ. वति, पत्र 636 2. वही, पत्र 636 Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उसओ : 'सरीरे' तृतीय उद्देशक : महाशरीर द्वारा अनगार प्रादि का व्यतिक्रमण द्वारगाथा-महकाए सक्कारे सत्थेणं वीवयंति देवा उ / वासं चेव य वाणा नेरइयाणं तु परिणामे / द्वारगाथार्थ-(१) महाकाय, (2) सत्कार, (3) देवों द्वारा व्यतिक्रमण, (4) शस्त्र द्वारा अवक्रमण, (5) नै रयिकों द्वारा पुद्गल-परिणामानुभव, (6) वेदनापरिणामानुभव और (7) परिग्रहसंज्ञानुभव। भावितात्मा अनगार के मध्य में से होकर जाने का देव का सामर्थ्य-असामर्थ्य 1. [1] देवे णं भंते ! महाकाये महासरीरे अणगारस्त भावियप्पणो मझमझेणं वीयीवएज्जा? गोयमा ! प्रत्थेगइए वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीतीवएज्जा। [1-1 प्र.] भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर-[उसे पार करके निकल जाता है ? [1-1 उ.] गौतम ! कोई निकल जाता है, और कोई नहीं। [2] से केण?णं भंते ! एवं उच्चति 'प्रत्थगइए वीतीवएज्जा, अत्थे गतिए नो वीतीवएज्जा '? गोयमा! देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-मायोमिच्छादिट्ठीउववनगा य, प्रमायीसम्मद्दिडीउववन्नगा य / तत्थ पंजे से मायोमिच्छद्दिवीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासति, पासित्ता नो वंदति, नो नमसति, नो सक्कारेइ, नो सम्माणेति, नो कल्लाणं मंगलं देवतं जाव पज्जवासति / से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमाझेणं बीतीवएज्जा तत्थ णं जे से अमायोलम्मदिद्विउववन्नए देवे, से णं अणगारं भावियप्पाणं पासति, पासित्ता वंदति नमंसति जाब पज्जुवासइ, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं नो वीयोवएज्जा / से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव नो वीयोवएज्जा / [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि कोई बीच में अतिक्रमण करके चला जाता है, कोई नहीं जाता ? 61.2 उ.] गौतम ! देव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—(१) मायी-मिथ्याष्टिउपपन्नक एवं (2) अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / इन दोनों में से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है, (किन्तु) देख कर न तो वन्दना-नमस्कार करता है, न सत्कार-सम्मान करता है और न ही कल्याणरूप, मंगलरूप, देवतारूप एवं ज्ञानवान् मानता है, Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौदहवां शतक : उद्देशक 3] |373 यावत् न पर्युपासना करता है / ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर चला जाता है, किन्तु जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देव होता है, वह भावितात्मा अनगार को देखता है / देख कर वन्दना-नमस्कार, सत्कार-सम्मान करता है, यावत् (कल्याण, मंगल, देव एवं ज्ञानमय मानता है) तथा पर्युपासना करता है / ऐसा वह देव भावितात्मा अनगार के बीच में होकर नहीं जाता। 2. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे०, एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! क्या महाकाय और महाशरीर असुरकुमार देव भावितात्मा अनगार के मध्य में होकर जाता है ? [2 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्ववत् समझना चाहिए / 3. एवं देवदंडनो भाणियन्वो जाव वेमाणिए / [3] इसी प्रकार देव-दण्डक (भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और) यावत् वैमानिकों तक. कहना चाहिए। विवेचन--जो देव मायी-मिथ्यादृष्टि होता है, वह भावितात्मा अनगार के बीच में होकर निकल जाता है, क्योंकि वह अनगार को देख कर भी उसके प्रति भक्तिमान नहीं होता है / इसलिए उसे वन्दनादि नहीं करता, न उसे कल्याण-मंगलादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है / इसके विपरीत अमायी-सम्यग्दृष्टि देव, भावितात्मा अनमार को देखते ही उसे बन्दनादि करता है, कल्याणादि रूप मान कर उसकी उपासना करता है। अतः वह उसके बीच में होकर नहीं जाता / ऐसा चारों ही प्रकार के देवों के लिए कहा गया है।' देव-दण्डक ही क्यों ? ---देव-दण्डक का प्राशय है-चारों जाति के देवों में ही इस प्रकार की सम्भावना है। नैरयिकों तथा पृथ्वीकायिकादि जीवों के पास ऐसे साधन तथा सामर्थ्य सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रसंग में देव-दण्डक ही कहा गया है।' महाकाय, महाशरीर : दोनों में अन्तर यद्यपि काय और शरीर दोनों का अर्थ एक ही है, परन्तु यहाँ दोनों का अर्थ पृथक्-पृथक् है / यहाँ महाकाय का अर्थ है-प्रशस्तकाय वाला अथवा (बड़े) विशाल निकाय-परिवार वाला / महाशरीर का अर्थ है-विशाल काय शरीर वाला / वोइवएज्जा-. चला जाता है, लांघ जाता है। चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कारादि विनय-प्ररूपणा __4. अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं सक्कारे ति वा सम्माणे ति वा किइकम्मे ति वा प्रभुटाणे इ वा अंजलिपग्गहे ति वा प्रासणाभिग्गहे ति वा आसणाणुप्पदाणे ति वा, एतस्त पच्चुग्गच्छणया, ठियस्स पज्जुवासणया, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ? नो तिण? सम?। 1. वियाह्मण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 663-664 2. भगवती. अ. वृति, पत्र 637 3. महान् बृहन् प्रशस्तो वा कायो—निकायो यस्य स महाकायः / ___ महासरीरे त्ति बहत्तनुः // ---भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 636 Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! क्या नारकजीवों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म (वन्दन), अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह, प्रासनाभिग्रह, आसनाऽनुप्रदान, अथवा नारक के सम्मुख (स्वागतार्थ) जाना, बैठे हुए आदरणीय व्यक्ति की सेवा (पर्युपासना) करना, उठ कर जाते हुए (सम्मान्य पुरुष) के पीछे (कुछ दूर तक) जाना इत्यादि विनय-भक्ति है ? [4 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात नैरयिकों में) समर्थ (शक्य, सम्भव) नहीं है / 5. अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारे ति वा सम्माणे ति वा जाव पडिसंसाहणता ? हंता, अस्थि / [5 प्र.) भगवन् ! असुरकुमारों में (परस्पर) सत्कार, सम्मान यावत् अनुगमन प्रादि विनयभक्ति होती है। [5 उ.] हाँ, गौतम ! है। 6. एवं जाव थणियकुमाराणं / [6] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक (के विषय में कहना चाहिए।) 7. पुढविकाइयाणं जाव चरिदियाणं, एएसि जहा नेरइयाणं / [7] जिस प्रकार ने रयिकों के लिए कहा है, उसी प्रकार पृथिवीकायादि से ले कर यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए। 8. अस्थि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सरकारे ति वा जाव पडिसंसाधणया ? हंता, अस्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहे ति बा, आसणाणुप्पयाणे ति वा। [8 प्र.] भगवन् ! क्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्च योनिक जीवों में सत्कार, सम्मान, यावत् अनुगमन आदि विनय है ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! है, परन्तु इन में आसनाभिग्रह या आसनाऽनुप्रदानरूप विनय नहीं है / 9. मणुस्साणं जाव बेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / [6] जिस प्रकार असुर कुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों से लेकर यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 4 से 6 तक) में नैरयिकों से ले कर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-नैरयिक जीवों, पंच स्थावरों, तीन विकलेन्द्रिय जीवों में परस्पर सत्कार-सम्मानादि विनयव्यवहार नहीं है, क्योंकि उनके पास इस प्रकार के साधन नहीं हैं तथा वे सदैव दुःखग्रस्त रहते हैं / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में अासनाऽभिग्रह तथा आसनाऽनुप्रदानरूप विनयव्यवहार को छोड़ कर शेष सब विनयव्यवहार सम्भव हैं। क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यंचों के व्यक्त भाषा तथा हाथ का अभाव होने से ये दोनों प्रकार के विनय सम्भव नहीं हैं। चारों प्रकार के देवों और मनुष्यों में सत्कार-सम्मानादि सभी प्रकार के विनयव्यवहार हैं। कठिनशब्दार्थ-सक्कारेइ सत्कार अर्थात् विनययोग्य के प्रति वन्दनादि द्वारा प्रादर करना, अथवा उत्तम वस्त्रादिप्रदान द्वारा सत्कार करना / सम्माणेइ--सम्मान--तथाविध बहुमान करना / Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : रद्देशक 3] [375 किइकम्मेइ--कृतिकर्म-वन्दन करना अथवा उनके आदेशानुसार कार्य करना / अब्भुट्ठाणेइअभ्युत्थान-आदरणीय व्यक्ति को देखते ही प्रादर देने के लिए आसन छोड़ कर खड़े हो जाना / अंजलिपग्गहे-दोनों हाथों को जोड़ना, करबद्ध होना / पासणाभिग्गहे आसन लाकर देना और विराजने के लिए आदरपूर्वक कहना / आसणाणुप्पदाणे—पासनाऽनुप्रदान-पासन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा कर बिछाना / एतस्स पच्चुग्गच्छणया पाते हुए (सम्मान्य) पुरुष के सम्मुख जाना / ठियस्स पज्जुवासणया-बैठे हुए आदणीय पुरुष की पर्युपासना करना / गच्छंतस्स पडिसंसाहणया-जब आदरणीय व्यक्ति उठ कर जाने लगे तब कुछ दूर तक उसके पीछे जाना / अल्पधिक-महद्धिक समद्धिक देव-देवियों के मध्य में से व्यतिक्रमनिरूपण 10. अप्पिट्टिए णं भंते ! देवे महिड्डियस्त देवस्त मज्झमझेणं बीतीवएज्जा ? नो तिण? सम8। [10 प्र.] भगवन् ! अल्प ऋद्धि वाला देव, क्या महद्धिक देव के मध्य में हो कर जा सकता है ? [10 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है / 11. समिड्डिए णं भंते ! देने समिड्डियस्स देवस्स मज्झमज्भेणं बीतीवएज्जा ? जो तिण8 समठ्ठ पमत्तं पुण वीतीवएज्जा। [11 प्र.] भगवन् ! सद्धिक (समान ऋद्धि वाला) देव, सम ऋद्धि वाले देव के मध्य में से होकर जा सकता है ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है; (किन्तु यदि समान ऋद्धि वाला देव) प्रमत्त (प्रसावधान) हो तो (दूसरा समद्धिक देव उसके मध्य में से) जा सकता है। 12. से णं भंते ! कि सत्थेणं अक्कमित्ता पभू, अणक्कमित्ता पभू? गोयमा ! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू / [12 प्र.] भगवन् ! मध्य में होकर जाने वाला देव, शस्त्र का प्रहार करके जा सकता है या बिना प्रहार किये ही जा सकता है ? [12 उ.] गौतम ! वह शस्त्राक्रमण करके जा सकता है, बिना शस्त्राक्रमण किये नहीं जा सकता। 13. से णं भंते ! कि पुन्धि सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा बीतीवएज्जा, पुब्धि होतीवतित्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमेज्जा? एवं एएणं अभिलावणं जहा दसमसए आतिडीउद्देसए (स० 10 उ० 3 सु०६-१७) तहेव निरवसेसं चत्तारि दंडगा भाणितवा जाव महिड्डीया वेमाणिणी अप्पिड्डियाए वेमाणिणीए / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 637 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2298 Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13 प्र.] भगवन् ! वह देव, पहले शस्त्र का आक्रमण करके पोछे जाता है, अथवा पहले जा कर तत्पश्चात् शस्त्र से अाक्रमण करता है ? [13 उ.| गौतम ! पहले. शस्त्र का प्रहार करके फिर जाता है, किन्तु पहले जा कर फिर शस्त्र-प्रहार करता है. ऐसा नहीं होता। इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा दशवें शतक के (तीसरे) 'आइड्डिय' उद्देशक (सू. 6 से 17 तक) के अनुसार समग्र रूप से चारों दण्डक; यावत् महाऋद्धि वाली वैमानिक देवी, अल्प ऋद्धि वाली वैमानिक देवी के मध्य में से होकर जा (निकल) सकती है, (यहाँ तक) कहना चाहिए / विवेचन-चार दण्डक, तीन पालापक और निष्कर्ष प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 10 से 13 तक) में चार दण्डकों में प्रत्येक में तीन-तीन पालापक कहे गए हैं / चार दण्डक ये हैं—(१) देव और देव, (2) देव और देवी, (3) देवी और देव और (4) देवी और देवी।' इन चारों दण्डकों के प्रत्येक के तीन पालापक यों हैं-(१) अल्पद्धिक और महद्धिक, प्रथम पालापक, (2) समद्धिक और असमद्धिक, द्वितीय आलापक तथा (3) महद्धिक और अल्पद्धिक तृतीय पालापक; जो मूलपाठ में साक्षात् नहीं कहा गया है, उसके लिए दशवें शतक का अतिदेश किया गया है / द्वितीय अलापक के अन्त में सूत्रांश इस प्रकार कहना चाहिए-"पहले शस्त्र द्वारा आक्रमण करके पीछे जाता है, किन्तु पहले जाकर बाद में शस्त्र द्वारा अाक्रमण नहीं करता।" तृतीय आलापक का कथन इस प्रकार --- [प्र.] भगवन् ! महद्धिक देव, अल्पद्धिक देव के मध्य में हो कर जा सकता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! जा सकता है / [प्र.] भगवन् ! महद्धिक देव, शस्त्राक्रमण करके जा सकता है या शस्त्राक्रमण किये बिना ही जा सकता है ? उ.] गौतम ! शस्त्राक्रमण करके भी जा सकता है और शस्त्राक्रमण किये बिना भी जा जा सकता है / प्र.] भगवन् ! पहले शस्त्राक्रमण करके पीछे जाता है या पहले जा कर बाद में शस्त्राक्रमण करता है ? [उ.] गौतम ! वह पहले शस्त्राक्रमण करके पीछे भी जा सकता है अथवा पहले जा कर बाद में भी शस्त्राक्रमण कर सकता है / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 637 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 637 (ख) भगवती. श. 10, उ. 3, सूत्र. 6-17 (ग) द्वितीयालापक का सूत्रशेष--'गोयमा ! पुस्विं सत्येणं अक्कमिता वोईवएज्जा, नो पुटिव वीईवइत्ता पच्छा सत्थेणं अवकमिज्जा ।'–भगवती. 1. 10, उ.३ म्.६-१७ (घ) तृतीय महद्धिक-अल्पद्धिक-आलापक----'महडिता णं भते ! देवे अप्पढियस्म देवस्स मज्भमजण बीईवएज्जा?" हंता, बीईवएज्जा / ‘से णं भते ! कि सत्श्रेणं अपकमित्ता पभू अणक्कमित्ता पभ् ?' 'गोयमा ! अस्कमित्ता वि पभ्, अशक्कमित्ता वि पभू / 'से गं भंते ! कि पुदि मत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीडबाजा, पुब्बि बीइवाएज्जा, पच्छा सत्येणं अक्क मेज्जा ?' 'गोयमा / पूवि वा सत्थेण अक्कमिना पच्छा वी इवएज्जा, पून्धि वा बीइवइत्ता पच्छा सत्श्रेणं अक्कमिज्जा / ' ---भगवती. श. 10 उ.३, मु. 6.17 Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 3] [377 जीवाभिगमसूत्रातिदेशपूर्वक नयिकों के द्वारा बोस प्रकार के परिणामानुभव का प्रतिपादन 14. रतणप्पभापुढविनेरइया णं भते / केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा! प्रणिटुंजाब अमणाम।। [14 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलपरिणामों का अनुभव करते रहते हैं ? [14 उ.] गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम (मन के प्रतिकूल पुद्गलपरिणाम) का अनुभव करते रहते हैं। 15. एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया / [15] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक कहना चाहिए / 16. एवं वेदणापरिणामं / [16] इसी प्रकार वेदना-परिणाम का भी (अनुभव करते हैं / ) 17. एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए, जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणाम पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणि? जाव अमणामं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चोइसमे सए : तइयो उद्देसश्रो समत्तो // 14-3 // [17] इसी प्रकार जोवाभिगमसूत्र (की तृतीय प्रतिपत्ति) के द्वितीय नैरयिक उद्देशक में जैसे कहा है, वैसे यहाँ भी वे समग्र ग्रालापक कहने चाहिए यावत् [प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक, किस प्रकार के परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते रहते हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमनाम परिग्रहसंज्ञा-परिणाम का अनुभव करते हैं, (यहाँ तक समझना चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरत हैं। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू 14 से 17 तक) में जीवाभिगमसूत्र के अतिदेशपूर्वक सातों नरकपृथ्वियों के नैरयिकों द्वारा पुद्गलपरिणाम, वेदनापरिणाम आदि बीस परिणाम-द्वारों में Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] व्यिाख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विविध प्रकार के अनिष्ट यावत् अमनोझ परिणामों के अनुभव का प्रतिपादन किया गया है।' दस प्रकार की वेदनाओं का परिणामानुभव-नैरयिक जीव अशुभतभ पुद्गल-परिणामों का अनुभव करने के उपरांत शीत, उष्ण, क्षधा, पिपासा, खुजली, परतंत्रता, भय, शोक, जरा और व्याधि, इन 10 प्रकार की वेदनाओं का भो अनिष्टतम परिणामानुभव करते हैं। / चौदहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1 पोग्गलपरिणाम 1 बेयणाइ 2 लेसाई 3 नाम-गोए य 4 / अरई 5 भए 6 य सोगे 7 खुहा 8 धिवासा 9 य बाही य 10 // 16 . उस्सासे 11 अणुतावे 12 कोहे 13 माणे 14 य माय 15 लोभे य 16 / चत्तारि य सन्त्राओ 20 नेरइयाणं परीणामो // 2 // -जीवा. प्रति. 3 उ. 2 पत्र 109-27 2 भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2203 Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'पोग्गल' चतुर्थ उद्देशक : पुद्गल (आदि के परिणाम) पोग्गल 1 खंधे 2 जीवे 3 परमाणु 4 सासए य 5 चरमे य / रणामे, अजीवाणं य जीवाणं // 6 // [उद्देशक-प्रतिपाद्य संग्रह गाथार्थ] - (1) पुद्गल, (2) स्कन्ध, (3) जीव, (4) परमाणु, (5) शाश्वत, (6) और अन्त में-द्विविध परिणाम-जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम, ये छह प्रतिपाद्य-विषय चतुर्थ उद्देशक में हैं / / त्रिकालवा विविधस्पर्शादिपरिणत पद्गल की वर्णादि परिणाम-प्ररूपणा 1. एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं समयं लुक्खी, समयं अलुक्खी, समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा, पुटिव च णं करणेणं अणेगवणं अणेगल्थं परिणामं परिणमइ, अह से परिणामे निज्जिण्णे भवति तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे सिया ? हंता, गोयमा! एस णं पोग्गले तीत०, तं चेव जाव एगरूवे सिया। [1 प्र.] भगवन् ! क्या यह पुद्गल (परमाणु या स्कन्ध) अनन्त, अपरिमित और शाश्वत अतीतकाल में एक समय तक रूक्ष स्पर्श वाला रहा, एक समय तक अरूक्ष (स्निग्ध) स्पर्श बाला और एक समय तक रूक्ष और स्निग्ध दोनों प्रकार के स्पर्श वाला रहा ? (तथा) पहले करण (अर्थात् प्रयोगकरण और विस्रसाकरण) के द्वारा (क्या यही पुद्गल) अनेक वर्ण और अनेक रूप वाले परिणाम से परिणत हया और उसके बाद उस अनेक वर्णादि परिणाम के क्षीण (निर्जीर्ण) होने पर वह एक वर्ण और एक रूप वाला भी हुया था ? [1 उ.] हाँ, गौतम ! यह पुद्गल...'अतीत काल में..." इत्यादि सर्वकथन, यावत्----'एक रूप वाला भी हुआ था', (यहाँ तक कहना चाहिए)। 2. एस णं भंते ! पोग्गले पडप्पन्नं सासयं समयं० ? एवं चेव / [2 प्र. भगवन् ! यह पुद्गल (परमाणु या स्कन्ध) शाश्वत वर्तमानकाल में एक समय तक...? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त कथनानुसार जानना चाहिए / 3. एवं प्रणागयमणंतं पि। [3] इसी प्रकार अनन्त और शाश्वत अनागत काल में एक समय तक, (इत्यादि प्रश्नोत्तर भी पूर्ववत् जानना चाहिए / ) Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 4. एस शं भंते / खंधे तीतमणतं? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले। [4 प्र.] भगवन् ! यह स्कन्ध अनन्त शाश्वत अतीत, (वर्तमान और अनागत) काल में, एक समय तक, इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [4 उ. गौतम ! जिस प्रकार पुद्गल के विषय में कहा था, उसी प्रकार स्कन्ध के विषय में कहना चाहिए / विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों में पुद्गल और स्कन्ध के भूत-वर्तमान-भविष्य में एक समय तक रूक्ष-स्निग्धादि स्पर्श वाला था, वही एक समय बाद स्निग्ध और रूक्ष परिवर्तन वाला तथा जो एक समय अनेक वर्णादिरूप था, वह एकवर्णादि रूप हो जाता है। कठिनशब्दार्थ-लुक्खो—क्ष स्पर्श वाला / अलुक्खी--अरूक्ष-स्निग्धस्पर्श वाला ! तीयमणंत-अनन्त अतीत / सासयं-शाश्वत, अक्षय / पडुप्पण्णं-प्रत्युत्पन्न-वर्तमान / ' पुदगल : अर्थ और परिणाम-परिवर्तन-पुद्गल शब्द से यहाँ दो अर्थ लिये जा सकते हैंपरमाणु और स्कन्ध / परमाणु में एक समय में रूक्षस्पर्श पाया जाता है तो दूसरे समय में स्निग्ध हो सकता है / द्वयणुक आदि स्कन्ध में तो एक ही समय में स्निग्ध और रुक्ष दोनों स्पर्श पाए जा सकते हैं। क्योंकि उसका एक देश रूक्ष और एक देश स्निग्ध हो सकता है / वह अनेक वर्णादि (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श) परिणाम में परिणत होता है, वही फिर एक वर्णादि में परिणत हो सकता है / अर्थात् वह एक वर्णादि-परिणाम के पहले प्रयोगकरण द्वारा या विश्रसाकरण द्वारा अनेक वर्णादिरूप पर्याय को प्राप्त होता है। परमाणु तो समयभेद से अनेक वर्णादिरूप में परिणत होता है किन्तु स्कन्ध समयभेद से तथा युगपत् अनेक-वर्णादिरूप से परिणत हो सकता है। उस परमाणु या स्कन्ध का जब अनेक वर्णादि-परिणाम क्षीण हो जाता है, तब वह एक वर्णादि पर्याय में परिणत हो जाता है / यहाँ पुद्गल और स्कन्ध दोनों के विषय में त्रिकालसम्बन्धी प्रश्न करके उत्तर दिया गया है / वर्तमानकाल के साथ यहाँ अनन्त शब्द प्रयुक्त नहीं है, क्योंकि वर्तमान में अनन्तत्व असंभव है। जीव के त्रिकालापेक्षी सुखी-दुःखी आदि विविध परिणाम 5. एस णं भंते ! जीवे तोतमणतं सासयं समयं समयं दुक्खी, समयं अदुक्खी, समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा ? पुचि च णं करणेणं अणेगभावं अणेगभूतं परिणाम परिणमइ, अह से वेयणिज्जे निज्जिण्णे भवति ततो पच्छा एगभावे एगभूते सिया ? हंता, गोयमा ! एस णं जीवे जाव एगभूते सिया। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 638 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 639 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 4] [ 381 [5 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदुःखी--(सुखी) तथा एक समय में दुःखी और अदुःखी (उभय रूप) था ? तथा पहले करण (प्रयोगकरण और विश्रसाकरण) द्वारा अनेकभाव वाले अनेकभूत (अनेकरूप) परिणाम से परिणत हुआ था? और इसके बाद वेदनीय कमं (और उपलक्षण से ज्ञानावरणीयादि कर्मों) की निर्जरा होने पर जीव एकभाव वाला और एकरूप वाला था ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! यह जीव..... यावत् एकरूप वाला था। 6. एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं / [6] इसी प्रकार शाश्वत वर्तमान काल के विषय में भी समझना चाहिए / 7. एवं अणागयमणतं सासयं समयं / [7] अनन्त अनागतकाल के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना चाहिए / विवेचन- प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 5-6-7) में जीव के सुखी, दुःखी प्रादि परिणामों के परिवर्तित होने के सम्बन्ध में भूत, वर्तमान और भविष्यत्-कालसम्बन्धी प्रश्नोत्तर किये गए हैं। आशय---यह जीव अनन्त और शाश्वत अतीत काल में, एक समय में दुःखी, एक समय में अदु:खो (सुखी) तथा एक समय में दुःखी और सुखो था। इस प्रकार अनेक परिणामों से परिणत होकर पुनः किसी समय एकभावपरिणाम में परिगत हो जाता है / एक भावपरिणाम में परिणत होने से पूर्व काल-स्वभावादि कारण समह से एवं शुभाशुभकर्म-बन्ध की हेतभत क्रिया से, सुखदुःखादिरूप अनेकभावरूप परिणाम से परिणत होता है। पुनः दुःखादि अनेक भावों के हेतुभूत वेदनीयकर्म और ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षीण होने पर स्वाभाविकसुखरूप एकभाव से परिणत होता है।' परमाणपद्गल की शाश्वतता-प्रशाश्वतता एवं चरमता-अचरमता का निरूपण 8. [1] परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सासए, असासए ? गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए / [8-1 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? |-उ.] गौतम ! वह कथञ्चित शाश्वत है और कथंचित अशाश्वत है। [2] से केपट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ 'सिय सासए, सिय प्रसासए' ? गोयमा ! दब्वयाए सासए, वण्णपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहिं असासए / से तेणढणं जाव सिय असासए। [8-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (परमाणुपुद्गल) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है ? [8-2 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थरूप से शाश्वत है और वर्ण (वर्ण, गन्ध, रस) यावत् स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत है। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि परमाणुपुद्गल कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है। 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 639 Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 9. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि चरिमे, अचरिमे ? गोयमा ! दन्वादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे ; खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे; कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे; भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे / [प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल चरम है या अचरम ? 9i उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा (द्रव्यादेश से) चरम नहीं, अचरम है; क्षेत्र की अपेक्षा (क्षेत्रादेश से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है; काल की अपेक्षा (कालादेश से) कदाचित् चरम है और कदाचित् अचरम है तथा भावादेश से भी कचित् चरम है और कथंचित अचरम है। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों में से 8 व सूत्र में परमाणपुद्गल की शाश्वतता-अशाश्वतता का और नौवे सूत्र में उसकी च रमता-अचरमता का प्रतिपादन किया गया है / परमाणपुदगल शाश्वत कैसे, अशाश्वत कैसे ?- परमाणुपुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है, क्योंकि स्कन्ध के साथ मिल जाने पर भी उसकी सत्ता नष्ट नहीं होती। उस समय वह 'प्रदेश' कहलाता है / किन्तु वर्गादि पर्यायों की अपेक्षा परमाणुपुद्गल अशाश्वत है. क्योंकि पर्यायें विनश्वर हैं; परिवर्तनशील हैं।' चरम, अचरम को परिभाषा : परमाणु की अपेक्षा से-जो परमाणु विवक्षित परिणाम से रहित होकर पुनः उस परिणाम को कदापि प्राप्त नहीं होता, वह परमाणु, उस परमाणु की अपेक्षा 'चरम' कहलाता है / जो परमाणु उस परिणाम को पुनः प्राप्त होता है, वह उस अपेक्षा से 'अचरम' कहलाता है। परमाणपुदगल चरम कैसे, अचरम कैसे ?- द्रव्य को अपेक्षा से--परमाणु चरम नहीं, अचरम है, क्योंकि परिणाम से रहित बना हुया परमाणु संघात-परिणाम को प्राप्त होकर पुनः कालान्तर में परमाणु-परिणाम को प्राप्त होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से-- परमाणु कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है / जिस क्षेत्र में किसी केवलज्ञानी ने केबलीसमुद्घात किया था, उस समय जो परमाणु वहाँ रहा हुआ था, वह समुद्घात-प्राप्त उक्त केवलज्ञानी के सम्बन्ध-विशेष से बह परमाणु पुन: कदापि उस क्षेत्र को आश्रय नहीं करता, क्योंकि वे समुद्घात-प्राप्त के वली निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं। वे अब उस क्षेत्र में पुन: कभी भी नहीं पायेंगे / इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा वह परमाणु 'चरम' कहलाता है। किन्तु विशेषणरहित क्षेत्र की अपेक्षा परमाणु फिर उस क्षेत्र में अवगाढ होता है, इसलिए 'अचरम कहलाता है। काल की अपेक्षा से परमाणुपुद्गल कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम है / यथा-जिस प्रातःकाल आदि समय में केवली ने समुद्घात किया था, उस काल में जो परमाणु रहा हुया था, वह परमाणु उस केबलो-समुद्घात-विशिष्ट काल को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि वे केवलज्ञानी मोक्ष चले गए / अतः वे पुनः कभी समुद्घात नहीं करेंगे। 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 640 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 640 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2308 Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 4] [383 इसलिए उस अपेक्षा काल से परमाणु चरम है और विशेषण-रहित काल की अपेक्षा परमाणु अचरम है। भाव की अपेक्षा -परमाणु चरम भी है और अचरम भी। यथा--केवली-समुद्घात के समय जो परमाणु वर्णादि भावविशेष को प्राप्त हुआ था, वह परमाणु विवक्षित केवली-समुद्घात विशिष्ट वर्णादि परिणाम की अपेक्षा वरम है, क्योंकि केवलज्ञानी के निर्वाण प्राप्त कर लेने से वह परमाणु पुनः उस विशिष्ट परिणाम को प्राप्त नहीं होता। विशेषणरहित भाव की अपेक्षा वह अचरम है / यह व्याख्या चूणि कार के मतानुसार की गई है / ' कठिनशब्दार्थ-दव्वदुयाए-द्रव्य की अपेक्षा। बग्णपज्जवेहि वर्ष के पर्यायों से / दव्वादेसेणं-द्रव्यादेश (द्रव्य की अपेक्षा से) / चरिमे--अन्तिम / प्रचरिमे-अचरम / ' परिणाम : प्रज्ञापनाऽतिदेशपूर्वक भेद-प्रभेद-निरूपण 10. कतिविधे णं भंते ! परिणामे पन्नते? गोयमा ! दुविहे परिणाम पन्नते, तं जहा–जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपदं निरवसेसं भाणियब्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥चोइसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो // 14.4 // [10 प्र. भगवन् ! परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम ! परिणाम दो प्रकार का कहा गया है / यथा--जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम। इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का समग्र परिणामपद (तेरहवाँ पद) कहना चाहिए / हे भगवन ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है--यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन--परिणाम : लक्षण और भेद-प्रभेद-द्रव्य का सर्वथा एक रूप में नहीं रहना अर्थात् द्रव्य की अवस्थान्तर-प्राप्ति ही परिणाम है / परिणाम के मुख्यतया दो भेद हैं--जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम / जीवपरिणाम के दस भेद हैं-[१) गति, (2) इन्द्रिय, (3) कषाय, (4) लेश्या, (5) योग, (6) उपयोग, (7) ज्ञान, (8) दर्शन, (6) चारित्र और (10) वेद / अजीव-परिणाम के भी 10 भेद हैं-(१) वन्धन, (2) गति, (3) संस्थान, (4) भेद, (5) वर्ण, (6) गन्ध, (7) रस, (8) स्पर्श, (6) अगुरुलघु और (10) शब्दपरिणाम / चौदहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. बनि, पत्र 647 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2308 2. बही (हिन्दी विवेचन) भा.५, पृ. 2306 3. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 641 / / 4. (क) भगवती. अ. ति, पत्र :81 (य) प्रज्ञापनासूत्र (नगणवणासुतं भा. 1 मू. 925.57 (महावीर विद्यालय प्रकाशन) पृ. 229 से 233 तक Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'अगरणी' पंचम उद्देशक : अग्नि 'सं. गाहा–नेरइयं अगणिमझे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे / पव्वय भित्तो उल्लंघणा य पल्लंघणा चेव / / उद्देशक-विषयक संग्रहगाथा का अर्थ---पंचम उद्देशक में मुख्य प्रतिपाद्य विषय तीन हैं - (1) नैरयिक आदि (से लेकर वैमानिक पर्यन्त) का अग्नि में से होकर गमन, (2) चौवोस दण्डकों में दस स्थानों के इष्टानिष्ट अनुभव और (3) देव द्वारा बाह्य पुद्गलग्रहणपूर्वक पर्वतादि के उल्लंघनप्रलंघन का सामर्थ्य / चौवीस दण्डकों की अग्नि में होकर गमनविषयक-प्ररूपणा 1. [1] नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं बीतीवएज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीतीवएज्जा / [1.1 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीव अग्निकाय के मध्य में हो कर जा सकता है ? [1-1 उ.] गौतम ! कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता / [2] से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ 'प्रत्थेगतिए वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीतीवएज्जा ? गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा --विग्गहगतिसमावन्नगा य अविगहगतिसमावन्नगा य। तत्थ णं जे से विग्गहगलिसमावन्नए नरतिए से णं अगणिकायस्स मज्झन्भेणं वीतीवएज्जा / से णं तत्थ झियाएज्जा? णो इ8 सम8। नो खलु तत्थ सत्थं कमति / तत्थ पंजे से अविग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमझेणं णो वीतीवएज्जा / से तेण?णं जाव नो वीतीवएज्जा / [1-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहते हैं कि कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता? [1-2 उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं / यथा--विग्रहगति-समापनक और प्रविग्रहगति-समापन्नक / उनमें से जो विग्रहगति-समापक नै रयिक हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं। [प्र. भगवन् ! क्या (वे अग्नि के मध्य में से हो कर जाते हुए) अग्नि से जल जाते हैं ? 1. [ यह उद्देश कार्थ-संग्रहगाथा बत्ति में है। अ. वृ. 642 Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 5] [385 [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर अग्निरूप शस्त्र नहीं चल सकता अर्थात् अग्नि का असर नहीं होता। उनमें से जो अविग्रहगतिसमापन्नक नैरयिक हैं वे अग्निकाय के मध्य में होकर नहीं जा सकते, (क्योंकि नरक में वादर अग्नि नहीं होती)। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। 2. [1] असुरकुमारे गं भंते अगणिकायस्स० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए बोलीवएज्जा, अत्थेगतिए नो बीतीवएज्जा / [2-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव अग्निकाय के मध्य में हो कर जा सकते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। [2] से केण?णं जाव नो बीतीवएज्जा? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-विगहमतिसमावन्नगा य अविग्गहगतिसमावन्नगा य / तत्थ गंजे से विग्गहमतिसमावन्नए असुरकुमारे से णं एवं जहेव नेरतिए जाव कमति / तत्थ णं जे ले अविग्गहगतिसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए अगणिकायरस मज्झमझेणं वीतीवएज्जा, अत्थेगइए नो बीइवएज्जा / जे णं बीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? नो इण? सम। मो खलु तत्थ सत्थं कमति / से तेण? गं० / 2-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई असुरकुमार अग्नि के मध्य में हो कर जा सकता है, और कोई नहीं जा सकता ? 2-2 उ.] गौतम! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा--विग्रहगति-समापन्नक और अविग्रहगति-समापनक। उनमें से जो विग्रहगति-समापन्नक असुरकुमार हैं, वे नैरपिकों के समान हैं, यावत् उन पर अग्नि-शस्त्र असर नहीं कर सकता। उनमें जो अविग्रहगति-समापन्नक असुरकुमार हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में हो कर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। [प्र.] जो (असुरकुमार) अग्नि के मध्य में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उस पर अग्नि आदि शस्त्र का असर नहीं होता / इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई असुरकुमार जा सकता है और कोई नहीं / जा सकता। 3. एवं जाव थणियकुमारे / [3] इसी प्रकार (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार देव (तक कहना चाहिए / ) 4. एगिदिया जहा नेरइया। [4] एकेन्द्रियों के विषय में नैरविकों के समान कहना चाहिए। Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं० ? जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि / नवरं जे गं बीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? हता, झियाएज्जा / सेसं तं चेव / [5 प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में से हो कर जा सकते हैं ? [5 उ.] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा उसी प्रकार द्वीन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए। परन्तु इतनी विशेषता है कि --- [प्र.] भगवन् ! जो द्वीन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में हो कर जाते हैं, वे जल जाते हैं ? [उ.] हाँ, वे जल जाते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 6. एवं जाव चरिदिए। [6] इसी प्रकार (का कथन) यावत् चतुरिन्द्रिय तक (करना चाहिए / ) 7. [1] पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकाय पुच्छा। गोयमा ! अत्भेगतिए वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वोइवएज्जा / [7-1 प्र.] भगवन ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं ? [7-1 उ.] गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। [2] से केण?णं० ? गोयमा ! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्रहगतिसमावन्नगा य / विग्गहगतिसमावन्नए जहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ / प्रविग्गहराइसमावन्नगा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- इथित्यत्ता य अणिढिप्पत्ता य / तत्थ गं जे से इडिप्पत्ते पंचेंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो बीतीवएज्जा। जे णं बीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? नो इण8 समट्ठ। नो खलु तत्थ सत्य कमइ। तत्थ गं जे से अणिझिप्पत्ते पंचेदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वौइवएज्जा। जे णं वीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हंता, झियाएज्जा ! से तेण?णं जाव नो बीतीवएज्जा / [7-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? [7-2 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं यथा-विग्रहगति-समापनक और अविग्रहगति-समापन्नक। जो विग्रहगति-समापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनका कथन नैरयिक के समान जानना चाहिए, यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता / अविग्रह-समापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं—ऋद्धिप्राप्त और अनुद्धिप्राप्त (ऋद्धि-अप्राप्त) / जो ऋद्धिप्राप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता / Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : : उद्देशक 5] [ રૂ:૭ [प्र. जो अग्नि में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं. क्योंकि उस पर (अग्नि प्रादि) शस्त्र असर नहीं करता / परन्तु जो ऋद्धि-प्रप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से भी कोई अग्नि में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता। |प्र.] जो अग्नि में से हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] हाँ, वह जल जाता है। इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई अग्नि में से हो कर जाता है और कोई नहीं जाता। 8. एवं मणुस्से वि। 8] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए / 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे / [6] वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-विग्रहगति-समापनक और अविग्रह-गतिसमापनक-एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव विग्रहगति-समापन्नक कहलाते हैं। वह जीव उस समय कार्मणशरीर से युक्त होता है और कार्मणशरीर सूक्ष्म होने से उस पर अग्नि प्रादि शस्त्र असर नहीं कर सकते / जो जीव उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त हैं, वे अविग्रहगति-समापन्नक कहलाते हैं। अविग्रहगति-समापन्नक का अर्थ यहाँ 'ऋजुगति-प्राप्त' विवक्षित नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ प्रसंग नहीं है / उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त नैयिक जीव, अग्निकाय के बीच में से होकर नहीं जाता, क्योंकि नरक में बादर अग्निकाय का अभाव है। मनुष्यक्षेत्र में ही य होता है। उत्तराध्ययन प्रादि शास्त्रों में व्यासणे जलतंमि दडढ पूवो प्रणगसो, अर्थात् नारक जीव अनेक बार जलती आग में जला, इत्यादि वर्णन पाया है, वहाँ अग्नि के सदृश कोई उष्णद्रव्य समझना चाहिए / सम्भव है, तेजोलेश्या द्रव्य की तरह का कोई तथाविध शक्तिशाली द्रव्य हो। असुरकुमारादि भवनपति को अग्नि-प्रवेश-शक्ति-विग्रहगति-प्राप्त असुरकुमार का वर्णन विग्रहगतिप्राप्त नैरयिक के समान जानना चाहिए / अविग्रहगतिप्राप्त (उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त) असुरकुमारादि जो मनुष्यलोक में आते हैं, वे यदि अग्नि के मध्य में होकर जाते हैं, तो जलते नहीं क्योंकि बैक्रिय शरीर अतिसूक्ष्म है और उनकी गति शीघ्रतम होती है। जो असुरकुमार आदि मनुष्यलोक में नहीं आते, वे अग्नि के मध्य में होकर नहीं जाते / शेष तीन जाति के देवों की भी अग्निप्रवेशशक्ति इनके समान ही है।' स्थावरजीवों की अग्निप्रवेश-शक्ति-अशक्ति-विग्रहगति-प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जा सकते हैं और वे सूक्ष्म होने से जलते नहीं हैं। अविग्रहगति-प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर नहीं जाते, क्योंकि वे स्थावर हैं। अग्नि और वायु, जो गतित्रस हैं, वे अग्नि के 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 642 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2315 Page #1653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बीच में होकर जा सकते हैं, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है / यहाँ तो स्थावरत्व की विवक्षा है / यद्यपि वायु आदि की प्रेरणा से पृथ्वी आदि का अग्नि के मध्य में गमन सम्भव है, परन्तु यहाँ स्वतन्त्रतापूर्वक गमन की विवक्षा की गई है / एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने से स्वतन्त्रतापूर्वक अग्नि के मध्य में होकर नहीं जा सकते। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की अग्निप्रवेश-शक्ति-प्रशक्ति-जो विग्रहगति-समापनक हैं, उनका वर्णन नैयिक के समान है। किन्तु अविग्रहगति-समापन लिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य, जो वैक्रियलब्धिसम्पन्न (ऋद्धि प्राप्त) हैं और मनुष्यलोकवर्ती हैं, वे मनुष्यलोक में अग्नि का सद्भाव होने से उसके बीच में होकर जा सकते हैं / जो मनुष्यक्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में हैं वे अग्नि में से होकर नहीं जाते; क्योंकि वहाँ अग्नि का अभाव है / जो ऋद्धि-अप्राप्त हैं, वे भी कोई-कोई (जादूगर आदि) अग्नि में से होकर जाते हैं, कोई नहीं जाते क्योंकि उनके पास तथाविध सामग्री का अभाव है। किन्तु ऋद्धिप्राप्त तो अग्नि में होकर जाने पर भी जलते नहीं, जबकि ऋद्धि-अप्राप्त जो अग्नि में होकर जाते हैं, वे जल सकते हैं।' कठिनशब्दार्थ-वीइवएज्जा-चला जाता है, लांघ जाता है / शियाएज्जा-जल जाता है। इपित्ता-वैक्रियल ब्धि-सम्पन्न / कमइ-जाता है, असर करता है, लगता है।' चौवीस दण्डकों में शब्दादि दस स्थानों में इष्टानिष्ट स्थानों के अनुभव को प्ररूपणा 10. नेरतिया दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-अणिट्टा सद्दा, अणिट्ठा रूवा, जाव अणिट्ठा फासा, अणिट्ठा गती, अणिट्ठा ठिती, अणिट्ठ लायणे, अणि? जसोकित्ती, अणि? उखाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे / 10] नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा-(१) अनिष्ट गब्द, (2) अनिष्ट रूप, (3) अनिष्ट गन्ध, (4) अनिष्ट रस, (5) अनिष्ट स्पर्श, (6) अनिष्ट गति, (7) अनिष्ट स्थिति, (8) अनिष्ट लावण्य, (6) अनिष्ट यशःकीर्ति और (10) अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम / / 11. असुरकमारा दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इ8 उट्ठाणकम्मबलवोरियपुरिसक्कारपरक्कमे / [11] असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा--इन्ट शब्द, इष्ट रूप यावत इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम / 12. एवं जाव थणियकुमारा। [12] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 13. पुढविकाइया छट्ठाणाई पच्चणुभवमागा विहरंति, सं जहा–इट्ठाणिट्टा फासा, इट्ठाणिट्ठा गतो, एवं जाव परक्कमे। 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2315-16 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 642 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2311 Page #1654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 5] [13] पृथ्वीकायिक जीव (इन दस स्थानों में से) छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा---(१) इष्ट-अनिष्ट स्पर्श (2) इष्ट-अनिष्ट गति, यावत् (3) इष्टानिष्ट स्थिति, (4) इष्टानिष्ट लावण्य, (5) इष्टानिष्ट यश कीर्ति और (6) इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम। 14. एवं जाव वणस्सइकाइया। [14] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए। 15. बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्टा रसा, सेसं जहा एगिदियाणं। [15] द्वीन्द्रिय जीव (दस में से ) सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा-इष्टानिष्ट रस इत्यादि शेष एकेन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए / 16. तेइंदिया णं अट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, तं जहा-इटाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेइंदिया। [16] त्रीन्द्रिय जीव (दस में से) पाठ स्थानों का अनुभव करते हैं / यथा---इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि शेष द्वीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। 17. चरिदिया नवट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा- इट्टाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं / [17] चतुरिन्द्रिय जीव (दस में से) नौ स्थानों का अनुभव करते हैं / यथा-इष्टानिष्ट रूप इत्यादि शेष त्रीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। 18. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दसटाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा सदा जाव परवकमे। [18] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-इप्टानिष्ट शब्द यावत् इष्टानिष्ट उत्थान-कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम / 16. एवं मणुस्सा वि। [16] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। 20. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [20] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों तक असुरकुमारों के समान कहना चाहिए / विवेचन-अनिष्ट, इष्टानिष्ट एवं इष्ट स्थानों के अधिकारी प्रस्तुत सूत्रों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में से अनिष्ट, इष्ट या इष्टानिष्ट शब्दादि स्थानों में से किनको कितने स्थानों का अनुभव होता है ? इसका निरूपण किया गया है। Page #1655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नैरयिकों को दस अनिष्टस्थानों का अनुभव --नैरयिकों को अनिष्ट शब्द आदि 5 इन्द्रिय-विषयों का अनुभव प्रतिक्षण होता रहता है / उनको अप्रशस्त बिहायोगति या नरकगति रूप अनिष्ट गति होतो है / नरक में रहने रूप अथवा नरकायु रूप अनिष्ट स्थिति होती है। शरीर का बेडौल होना अनिष्ट लावण्य होता है / अपयश और अपकोनि के रूप में नारकों को अनिष्ट यशःकोति का अनुभव होता है / वोर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुप्रा नै रयिक जोवों का उत्यानादि वोर्य विशेष अनिष्ट-निन्दित होता है।' देवों का दस इष्ट स्थानों का अनुभव -चारों जाति के देवों का इष्ट शब्द प्रादि दसों स्थानों का अनुभव होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों को दस इष्टानिष्ट स्थानों का अनुभव -पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों को इष्ट एवं अनिष्ट दोनों प्रकार के दसों स्थानों का अनुभव होता है। एकेन्द्रिय जीवों को छह इष्टानिष्टस्थानों का अनुभव--एकेन्द्रिय जीवों को शब्द, रूप, रस और गन्ध का अनुभव नहीं होता क्योंकि उन्हें श्रोत्रादि द्रव्य इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं हैं। वे उपर्युक्त 10 स्थानों में से शेष 6 स्थानों का हो अनुभव करते हैं / वे शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के क्षेत्र में उत्पन्न हो सकते हैं और उनके साता और असाता दोनों का उदय सम्भव है। इसलिए उनमें इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पर्शादि होते हैं / यद्यपि एकेन्द्रिय जोव स्थावर हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविक रूप से गमन-गति सम्भव नहीं है; तथापि उनमें परप्रेरित गति होती है। वह शुभाशुभ रूप होने से इष्टानिष्ट गति कहलाती है। मणि में इष्ट लावण्य होता है और पत्थर में अनिष्ट लावण्य होता है / इस प्रकार एकेन्द्रिय जोवा में इष्टानिष्ट लावण्य होता है। स्थावर होने से एकेन्द्रिय जोवों में उत्थानादि प्रकट रूप में दिखाई नहीं देते, किन्तु सूक्ष्म रूप से उनमें उत्थानादि हैं / पूर्वभव में अनुभव किये हुए उत्थानादि के संस्कार के कारण भो उनमें उत्यानादि होते हैं और वे इष्टानिष्ट होते हैं / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों को क्रमश: जिह्वा, नासिका और नेत्र इन्द्रिय मिल जाने से उन्हें क्रमशः इष्टानिष्ट रस, गन्ध और रूप का अनुभव होता है / महद्धिक देव का तिर्यकपर्वतादि उल्लंघन-प्रलंबन-सामर्थ-असामर्थ्य 21. देवे गं भंते ! महिड्डोए जाव महेसखे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पमू तिरियपचतं वा तिरियभित्ति वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंधेत्तए वा? गोयमा ! णो इण? सम? / [21 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख वाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना तिरछे पर्वत को या तिरछो भोंत को एक बार उल्लंघन करने अथवा बार-बार उल्लंघन (प्रलंघन) करने में समर्थ है ? .. [21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 643 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) पृ. 670-671 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 643 Page #1656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 5] [391 22. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महेसवखे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरियपध्वतं जाव पल्लंघेत्तए वा ? हता, पभू। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। / / चोइसमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो // 14.5 // [22 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख बाला देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके तिरछे पर्वत को या तिरछी भीत को (एक बार) उल्लंघन एवं (बार-बार) प्रलंघन करने में समर्थ है ? / 22 उ.] हाँ, समर्थ है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है--यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन- महद्धिक देव का उल्लंघन-सामर्थ्य- बाह्य (भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त) पुद्गलों को ग्रहण किये बिना कोई भी महद्धिक देव मार्ग में आने वाले तिरछे पर्वत या पर्वतखण्ड अथवा भींत आदि का उल्लंघन या प्रलंघन नहीं कर सकता। बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके ही उन्हें उल्लंघन-प्रलंघन कर सकता है / ' ____ कठिन शब्दार्थ-महेसबखे–महासौख्यसम्पन्न / बाहिरए पोग्गले-भवधारणीय शरीर के अतिरिक्त बाह्य पुद्गलों को। अपरियाइत्ता-बिना ग्रह्ण किये। उल्लंघेत्तए-एक वार लांघने में / पल्लंघत्तए--- बार-बार लांघने में, पार करने में। // चौदहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. पत्ति, पत्र 643-644 2. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 644 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2319 Page #1657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसओ : किमाहारे' छठा उद्देशक : किमाहार (आदि) चौबीस दण्डकों में आहार-परिणाम, योनि-स्थिति-निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासो [1] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान महावीर स्वामी से श्री गौतमस्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा 2. नेरतिया णं भंते ! किमाहारा, किंपरिणामा, किजोणीया, किंठितीया पन्नता? गोयमा ! नेरइया गं पोग्गलाहारा, पोग्गलपरिणामा, पोग्गलजोणीया, पोग्गल द्वितीया, कम्मोवगा, कम्मनियाणा, कम्मद्वितीया, कम्मुणामेव विपरियासमें ति / [2 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं ? उनकी योनि (उत्पत्तिस्थान) क्या है ? उनकी स्थिति का क्या कारण है ? 2 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं और उसका पुद्गल-रूप परिणाम होता है। उनको योनि शीतादि स्पर्शमय पुद्गलों वाली है / प्रायुष्य कर्म के पुद्गल उनकी स्थिति के कारण हैं। बन्ध द्वारा वे ज्ञानावरणीयादि कर्म के पुद्गलों को प्राप्त हैं / उनके नारकत्व. निमित्तभूत कर्म निमित्तरूप हैं। कर्मपुद्गलों के कारण उनकी स्थिति है। कर्मों के कारण ही वे विपर्यास (अन्य पर्याय) को प्राप्त होते हैं / / 3. एवं जाव वेमाणिया। [3] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / विवेचन ----सकल संसारी जीवों की पाहारादि-प्ररूपणा--प्रस्तुत तीन सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के आहार, परिणमन, योनि एवं स्थितिहेतु की प्ररूपणा की गई है। कठिनशब्दार्थ—पोगलजोणीया---पुद्गल अर्थात शीतादि स्पर्श वाले पुद्गल जिनको योनि है, वे पुदगलयोनिक / नारक शीतयोनिक एवं उष्णयोनिक होते हैं। पोग्गल द्वितीया पुद्गल अर्थात् आयुष्य कर्म पुद्गलरूप जिनकी स्थिति है वे पुद्गलस्थितिक / नरक में स्थिति के हेतु प्रायुष्य पुद्गल ही हैं। कम्मोगा--जिनको ज्ञानावरणीयादि पुद्गल रूप कर्म बन्ध के द्वारा प्राप्त होते हैं / कम्मनियाणा—जिनके नारकत्व रूप कर्मबन्ध निमित्त (निदान) हैं, वे कर्मनिदान / कम्मद्वितीया--कर्मस्थितिक-कर्मपुद्गलों से जिनकी स्थिति है, वे। कम्मुणामेव विष्परियासमेंति-कर्मों के कारण विपर्यास-पर्यायों (पर्याप्त-अपर्याप्त आदि अवस्थाओं) को प्राप्त हैं।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 644 Page #1658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 6] चौवीस दण्डकों में वीचिद्रध्य-प्रवीचिद्रव्याहार-प्ररूपणा 4. [1] नेरइया णं भंते ! कि वोचिदम्वाई आहारैति, अवोचिदव्वाइं आहारेंति ? गोयमा! नेरतिया वीचिदब्वाई पि आहारेति, प्रवीचिदन्वाई पि आहारेति / [4-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं अथवा अवीचिद्रव्यों का? {4-1 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव वीचिद्रव्यों का भी प्राहार करते हैं और अवीचिद्रव्यों का भी प्राहार करते हैं / [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'नेरतिया वीचि० तं चेव जाव आहारति' ? गोयमा ! जे णे नेरइया एगपदेसूणाई पि दवाई आहारेति ते गं नेरतिया वीचिदव्वाई आहारति जे गं पडिपुष्णाई दवाई आहारैति ते गं नेरइया नेरतिया अवीचिदन्चाई आहारैति / से तेणटणं ! गोयमा ! एवं बुच्चति जाव आहारेति / {4-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता कि नरयिक..... यावत् अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं ? {4-2 उ.] गौतम ! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून (कम) द्रव्यों का प्राहार करते हैं, वे वीचिद्रव्यों का आहार करते हैं और जो परिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे नैरयिक अवीचिद्रव्यों का आहार करते हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नैयिक जीव वीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं और अवीचिद्रव्यों का भी। 5. एवं जाव वेमाणिया। [5] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। विवेचन-वीचिद्रव्य और प्रवीचिद्रव्य की परिभाषा--जितने पुद्गलों (द्रव्यसमूह) से सम्पूर्ण पाहार होता है, उसे अधीचिद्रव्य आहार कहते हैं और सम्पूर्ण आहार से एक प्रदेश भी कम प्रहार होता है, उसे वीचिद्रव्य का आहार कहते हैं।' शकेन्द्र से अच्यतेन्द्र तक देवेन्द्रों के दिव्य भोगों की उपभोगपद्धति 6 जाहे णं भंते ! सबके देविदे देवराया दिवाई भोगभोगाई भुजिउकामे भवति से कहमिदाणि पकरोति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया एणं महं नेमिपडिरूवर्ग विउव्यक्ति, एगं 1, वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयकानां च परस्परेण पृथक्भावः, (विचिर् पृथकभावे' इति वचनात्) / तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थ: / एतन्निषेधाद् अवीचिद्रव्याणि। -भगवती. अ. बत्ति, पत्र 644 Page #1659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जोयगतयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई जाव' अद्धगुलं च किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते जाव' मणीणं फासो। तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झदेसभागे, तत्थ णं महंएगे पासायव.सगं विउविति, पंच जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अभुग्गयमूसिय० वष्णनो जाव' पडिरूवं / तस्स णं पासायवडेंसगस्स उल्लोए पउमलयात्तिचित्ते जाव पडिरूवे / तस्स णं पासायव.सगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव मणोणं फासो / मणिपेढिया अट्ठजोय णिया जहा वेमाणियाणं / तोसे णं मणिढियाए उरि मई एगे देवसणिज्जे विउम्बति / सयणिज्जवष्णो ' जाव पडिरूवे / तत्थ णं से सक्के देविदे देवराया अहिं अग्गहिसोहि सपरिवाराहि, दोहि य अगिएहि-नट्टाणिएण य गंधवाणिएण य–सद्धि मयाहयनट्ट जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति / [6 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र भोग्य मनोज्ञ दिव्य स्वादि विषयभोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह किस प्रकार (उपभोग) करता है ? 6 उ.] गौतम ! उस समय देवेन्द्र देवराज शक्र, एक महान् चक्र के सदृश गोलाकार (नेमिप्रतिरूपक) स्थान की विकुर्वणा करता है, जो लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन होता है। उसकी परिधि (घेरा) तीन लाख (तीन लाख, सोलह हजार, दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष्य और) यावत् कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल होती है। चक्र के समान गोलाकार उस स्थान के ऊपर अत्यन्त समतल एवं रमणीय भूभाग होता है, (उसका वर्णन समझ लेना चाहिए) यावत् मणियों का मनोज्ञ स्पर्श होता है; (यहाँ तक कहना चाहिए / ) (फिर) वह उस चक्राकार स्थान के ठोक मध्यभाग में एक महान् प्रासादावतंसक (प्रासादों में आभूषण रूप श्रेष्ठ भवन) की विकुर्वणा करता है। जो ऊँचाई में पांच सौ योजन होता है। उसका विष्कम्भ (विस्तार) ढाई सौ योजन होता है। वह प्रासाद अभ्युदगत (अत्यन्त ऊँवा) और प्रभापूजसे व्याप्त होने से मानो वह हँस रहा हो, इत्यादि प्रासाद-वर्णन, (करना चाहिए) यावत्-वह दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होता है (तक जानना चाहिए।) उस प्रासादावतंसक का उपरितल (ऊपरी भाग) पद्म लताओं के 1. जाब पद सूचक पाठ-सोलस व जोषणसहस्साई दो य समाई सत्ताबोसाहियाई कोसतियं अट्ठावीसाहियं धणुस तेरस य अंगुलाई ति" अव० / / 2. जाब पद सूचक पाठ---'से जहानामए आलिगमोक्खरे इवा मुइंगपोक्खरे इ वा इत्यादि। "तथा सच्छाएहि सम्पभेहि समरोईहि सउज्जोएहि नाणाविहपंचवपणे हि मणोहि उवसोहिए, तं जहा-किण्हहिं 5 इत्यादि वर्ण गन्ध-रस-स्पर्शवर्णको मणीनां वाच्य इति" अव० / / 3. जाव पद सूचक पाठ-पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे ति" अव० // 4. मणिपीठिका का वर्णन तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस बहुमन्शदेसमाए एस्थ णं महं एग मणिपेदिवं विउव्वड, साणं मणिपेढिया अट्र जोयगाइं आयामविक्खभणं पन्नता, चत्तारि जोयगाई बाहल्लेणं सवरयणामई अच्छा जाव पडिरूव ति" 5. शय्यावर्णन तस्स पं देवसणिज्जस्स इमेयारूवे वपणावासे पण्णत्ते ..., तं जहा–नाणामणिमया पडिपाया, सोवपिणया पाया, नाणामणिमयाई पायसीसगाई इत्यादिरिति" प्रवृ०॥ 6. 'जाव' पद सूचक पाठ-मयाहयनदृगीयबाइयतंतीतलतालतुडियधणमुइंगपड़प्पबाइयरवेणं ति / Page #1660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 6] [395 चित्रण से विचित्र यावत प्रतिरूप होता है। उस प्रासादावतंसक के भीतर का भूभाग अत्यन्त सम और रमणीय होता है, इत्यादि वर्णन यावत्--वहाँ मणियों का स्पर्श होता है यहाँ तक जानना चाहिए। वहाँ लम्बाई-चौड़ाई में पाठ योजन की मणिपीठिका होती है, जो वैमानिक देवों की मणिपीठिका के समान होती है। उस मणिपीठिका के ऊपर वह एक महान देवशय्या की विकुर्वणा करता है / उस देवशय्या का वर्णन यावत् 'प्रतिरूप है', (यहाँ तक करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र अपनेअपने परिवारसहित आठ अग्रहिषियों के साथ, गन्धर्वानीक और नाट्यानीक, इन दो प्रकार के अनीकों (सैन्यों) के साथ, जोर-जोर से आहत हुए (बजाए गए) नाट्य, गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य (विषय भोगों का उपभोग करता है / 7. जाहे णं ईसाणे देविदे देवराया दिव्वाइं० जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं / [7 प्र.] भगवन् ! जब देवेन्द्र देवराज ईशान दिव्य भोग्य भोगों का उपभोग करना चाहता है, तब वह केसे करता है ? [7 उ.] जिस प्रकार शक्र के लिए कहा है, उसी प्रकार का समग्र कथन ईशान इन्द्र के लिए करना चाहिए। 8. एवं सणकुमारे वि, नवरं पासायवडेंसओ छज्जोयणसयाइं उड़द उच्चत्तेणं तिपिण जोयणसयाई विखंभेणं / मणिपेटिया तहेव अट्टजोणिया। तीसे गं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं महेगं सोहासणं विउन्वति, सपरिवारं भाणियध्वं / तत्थ गं सणकुमारे देविदे देवराया बावत्तरोए सामाणिय. साहसीहि नाव चरहि य बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं बहूहि सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवोहि य सद्धि संपरिबुडे महया जाव विहरति / 8] इसी प्रकार सनत्कुमार के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि उनके प्रासादावतंसक की ऊँचाई छह सौ योजन और विस्तार तीन सौ योजन होता है। पाठ योजन (लम्बाई-चौड़ाई) की मणिपीठिका का उसी प्रकार वर्णन (पूर्ववत्) करना चाहिए। उस मणिपीठिका के ऊपर वह अपने परिवार के योग्य प्रासनों सहित एक महान् सिंहासन की विकुर्वणा करता है / (इत्यादि सब) कथन पूर्ववत् करना चाहिए। वहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देवों के साथ यावत् दो लाख 88 हजार प्रात्मरक्षक देवों के साथ और सनत्कुमार कल्पवासी बहुत-से वैमानिक देव-देवियों के साथ प्रवृत्त होकर महान् गीत और वाद्य के शब्दों द्वारा यावत् दिव्य भोग्य विषयभोगों का उपभोग करता हुया विचरण करता है।। 9. एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणतो अच्चुतो, नवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स माणियन्वो / पासायउच्चत्तं जं सएसु सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्वद्ध वित्थारो जाव अच्चयस्स नव जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, तत्थ णं गोधमा ! प्रच्चुए देविदे देवराया दसहि सामाणियसाहस्सीहि जाब विहरति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // चोदसमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 14.6 // Page #1661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8] सनत्कुमार (देवेन्द्र) के समान यावत् प्राणत और अच्युत (देवेन्द्र तक के विषय में कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि जिसका जितना परिवार हो, उतना कहना चाहिए। अपने-अपने कल्प के विमानों को ऊँचाई के बराबर प्रासाद को ऊँचाई तथा उनके विस्तार से प्राधा विस्त चाहिए। यावत् अच्युत देवलोक (के इन्द्र) का प्रासादावतंसक नौ सौ योजन ऊँचा है और चार सौ पचास योजन विस्तृत है / हे गौतम ! उसमें देवेन्द्र देवराज अच्युत, दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् (विषय) भोगों का उपभोग करता हुमा विचरता है। शेष सभी वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है / भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-शक्नेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के विषयभोग की उपभोगपद्धति--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 6 से 1 तक) में शकेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की विषयभोग के उपभोग की प्रक्रिया का वर्णन है / परन्तु शकेन्द्र और ईशानेन्द्र को तरह सनत्कुमारेन्द्र और माहेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र और लान्तकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र और सहस्रारेन्द्र, प्रानत-प्राणत और पारण-अच्युत कल्प के इन्द्र, देवशय्या को विकुर्बणा नहीं करते, वे सिंहासन को विकुर्वणा करते हैं; क्योंकि वे दो-दो इन्द्र, क्रमश: केवल स्पर्श, रूप, शब्द एवं मन से ही विषयोपभोग करते हैं, कायप्रवीचार ईशान-देवलोक तक ही है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक के इन्द्र क्रमशः स्पर्श, रूप, शब्द और मन से ही प्रवीचार कर लेते हैं / इसलिए इन सब इन्द्रों को शय्या का प्रयोजन नहीं है / सनत्कुमारेन्द्र का परिवार कार बतलाया गया है। माहेन्द्र के 70 हजार सामानिक देव और दो लाख अस्सो हजार आत्मरक्षक देव होते हैं। ब्रह्मलोकेन्द्र के 60 हजार, लान्तकेन्द्र के 50 हजार, महाशुक्रेन्द्र के 40 हजार, सहस्रारेन्द्र के 30 हजार, आनत-प्राणत कल्प के इन्द्र के 20 हजार प्रोर पारण-अच्युत कल्प के इन्द्र के 10 हजार सामानिक देव होते हैं। इनसे चार गुणे आत्मरक्षक देव होते हैं।' ___ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक के विमान 600 योजन ऊँचे हैं। इसलिए उनके प्रासादों की ऊँचाई भी 600 योजन होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक में 700 योजन, महाशुक्र और सहस्रार में 800 योजन, प्रानत-प्राणत और प्रारण-अच्युत कल्प में प्रासाद 600 योजन ऊँचे होते हैं और इन सबका विस्तार प्रासाद से प्राधा होता है / यथा-अच्युतकल्प में प्रासाद 600 योजन ऊँचा होता है, तो उसका विस्तार 450 योजन होता है। अच्युतदेवलोक में अच्युतेन्द्र दस हजार सामानिक देवों के साथ यावत् विचरता है। चक्राकार स्थान को विकुर्वगा क्यों ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं कि सुधर्मा सभा जैसे भोगस्थान होते हुए भी शक्रेन्द्र चक्राकार स्थान को विकुर्वणा इसलिए करता है कि सुधर्मा सभा में जिन भगवान् को आराधना होने से उस स्थान में विषयभोग सेवन करना उनकी पाशातना करना है / इसीलिए शकेन्द्र, ईशानेन्द्र या सनत्कुमारेन्द्र प्रादि इन्द्र अपने सामानिकादि देवों के परिवार१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 646 (ख) स्पर्श-रूप-शब्द-मन: प्रवीचाराः योईयोः / परेप्रकीचाराः। -तत्त्वार्थ. 4 2. (क) भगवती. अ, वृत्ति. पत्र 646 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2325-2326 Page #1662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 6] [397 सहित चक्राकार वाले स्थान में जाते हैं। क्योंकि उनके समक्ष स्पर्श आदि विषयों का उपभोग करना अविरुद्ध है। शकेन्द्र और ईशानेन्द्र वहाँ परिवार सहित नहीं जाते। क्योंकि वे कायप्रवीचारी होने से अपने सामानिकादि परिवार के समक्ष कायपरिचारणा (काया द्वारा विषयोपभोग सेवन) करना लज्जनीय और अनुचित समझते हैं।' __ कठिनशब्दार्थ-मिपडिरूवगं-मि-चक्र के प्रतिरूप-सदृश गोलाकार / बहसमरमणिज्जेअत्यन्त सम और रम्य / उल्लोए-उल्लोक या उल्लोच-उपरितल / अदुजोयणिया-लम्बाई-चौड़ाई में पाठ योजन / सोहासणं विउवह सपरिवार-(सनत्कुमारेन्द्र) स्वपरिवार योग्य आसनों से युक्त सिंहासन को विकुर्वणा करता है / 2 // चौदहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 646 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 646 Page #1663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'संसि?' सातवां उद्देशक : 'संश्लिष्ट' भगवान् द्वारा गौतमस्वामी को इस भव के बाद अपने समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का प्राश्वासन 1. रायगिहै जाव परिसा पडिगया। [1] राजगृह नगर में यावत् परिषद् धर्मोपदेश श्रवण कर लौट गई / 2. गोयमा !' दो समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासीचिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा!, चिरसंथुतोऽसि मे गोयमा !, चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा ! , चिर - सिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगमोऽसि मे गोयमा! चिराणुवत्तो सि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इतो जुता, दो वि तुल्ला एगट्ठा प्रविसेसमणापत्ता भविस्सामो। [2] श्रमश भगवान् महावीर ने, 'हे गौतम !' इस प्रकार भगवान् गौतम को सम्बोधित करके यों कहा - गौतम ! तू मेरे साथ चिर-संश्लिष्ट है, हे गौतम ! तू मेरा चिर-संस्तुत है, तू मेरा चिर-परिचित भी है / गौतम ! तू मेरे साथ चिर-सेवित या चिरप्रीत है। चिरकाल से, हे गौतम ! तू मेरा अनुगामी है। तू मेरे साथ चिरानुवृत्ति है, गौतम ! इससे (पूर्व के) अनन्तर देवलोक में (देवभव में) तदनन्तर मनुष्यभव में (स्नेह सम्बन्ध था)। अधिक क्या कहा जाए, इस भव में मृत्यु के पश्चात्, इस शरीर से छूट जाने पर, इस मनुष्यभव से च्युत हो कर हम दोनों तुल्य (एक सरीखे) और एकार्थ (एक ही प्रयोजन वाले, अथवा एक ही लक्ष्य-सिद्धिक्षेत्र में रहने वाले) तथा विशेषतारहित एवं किसी भी प्रकार के भेदभाव से रहित हो जाएंगे। विवेचन-भगवान महावीर द्वारा श्री गौतमस्वामी को आश्वासन-अपने द्वारा दीक्षित शिष्यों को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने एवं स्वयं को चिरकाल तक केवलज्ञान प्राप्त न होने से खिन्न बने हुए श्री गौतमस्वामी को आश्वासन देते हुए भगवान महावीर कहते हैं--गौतम, तू चिरकाल से मेरा परिचित है, अतएव तेरा मेरे प्रति भक्तिराग होने से तुझे केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा है, इत्यादि / इसलिए खिन्न मत हो / हम दोनों इस शरीर के छूट जाने पर एक समान सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाएंगे।' कठिनशब्दार्थ-भावार्थ-चिरसंसिटो-चिरकाल से संश्लिष्ट, अर्थात चिरकाल से स्नेह से बद्ध / चिरसंथुओ-चिरसंस्तुत, अर्थात् चिरकाल से स्नेहवश तूने मेरी प्रशंसा की है। चिरपरिचित्रोचिरपरिचित-मेरे साथ तेरा लम्बे समय से परिचय रहा है / या पुनः पुनः दर्शन से तू चिरकाल से -- --- 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 647 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2328 Page #1664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [399 अभ्यस्त हो गया है / चिरझसिए-चिरज षित-चिरकाल से तू मेरे साथ सेवित है, अथवा चिरकाल मे तेरी मेरे प्रति प्रीति रही है। चिराणगए-चिरानुगत, चिरकाल से तु मेरा अनुगामी-अनुसरणकर्ना है / चिराणुवित्ती-चिरानुवृत्ति, चिरकाल से तेरी वृत्ति मेरे अनुकूल रही है / इप्रो चुए इस मनुष्य भव से च्युत होने पर / एगट्ठा : दो रूप : दो प्रर्थ -(1) एकार्थ--एक (समान) अनन्तसुखरूप अर्थ--प्रयोजन वाले. (2) एकस्थ-मिद्धिक्षेत्र को अपेक्षा से एक क्षेत्राश्रित / भक्सेिसमणाणत्ता-ज्ञान-दर्शनादिपर्यायों में एक समान तथा अभिन्न (भिन्नतारहित)।' अनुत्तरौपपातिक देवों को जानने-देखने को शक्ति को प्ररूपणा 3. [1] जहा णं भंते ! वयं एयम8 जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववातिया वि देवा एयम? जाणंति पासंति ? __ हंता, गोयमा ! जहा गं वयं एयम जाणामो पासामो तहा अणुत्तरोववातिया वि देवा एयम8 जाणंति पासंति। [3-1 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) अर्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी इस अर्थ (बात) को जानते-देखते हैं ? [3-1 उ.] हां,गौतम ! जिस प्रकार अपन दोनों इस (पूर्वोक्त) बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं। [2] से केणटुणं जाव पासंति ? / गोयमा ! अणुत्तरोववातियाणं अणंताओ मणोदव्ववग्गणाप्रो लद्धाश्रो पत्तानो अभिसमन्नागयानो भवंति, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति जाव पासंति / [3-2 प्र] भगवन् ! क्या कारण है कि जिस प्रकार हम दोनों इस बात को जानते-देखते हैं, उसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव भी जानते-देखते हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को (अवधिज्ञान की लब्धि से) मनोद्रव्य को अनन्त वगंणाएँ (ज्ञेयरूप से) लब्ध (उपलब्ध) हैं, प्राप्त हैं, अभिसमन्वागत होती हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि यावत् अनुत्तरौपपातिक देव भो जानते-देखते हैं। विवेचन प्रश्नोत्थान का आशय-भगवान् के कथन से आश्वासन पा कर गौतमस्वामी ने दुसरा प्रश्न उठाया भगवन् ! भविष्य में इस भव के छूटने पर हम दोनों तुल्य और ज्ञान-दर्शनादि में समान हो जाएँगे, यह बात अाप तो केवलज्ञान से जानते हैं, मैं आपके कथन से जानता हूँ, किन्तु क्या अनुत्तरोषपातिक देव भी यह बात जानते-देखते हैं ? यह इस प्रश्न का प्राशय है। भगवान का उत्तर अनुतरौपपातिक देव विशिष्ट अवधिज्ञान द्वारा मनोद्रव्यवर्गणाओं को जानते-देखते हैं। अयोगी-अवस्था में प्रदर्शन के कारण हम दोनों के निर्वाणगमन का निश्चय करते 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 647 Page #1665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हैं / इस अपेक्षा से यह कहा जाता है कि वे अपन दोनों के भावी तुल्य अवस्थारूप अर्थ को जानतेदेखते हैं।' छह प्रकार का तुल्य 4. कतिविधे गं भंते ! तुल्लए पन्नत्ते ? गोयमा! छव्यिहे तुल्लए पन्नते, तं जहा–दम्वतुल्लए खेत्ततुल्लए कालतुल्लए भवतुल्लए भावतुल्लए संठाणतुल्लए। [4 प्र.] भगवन् ! तुल्य कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! तुल्य छह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) द्रव्यतुल्य, (2) क्षेत्रतुल्य, (3) कालतुल्य, (4) भवतुल्य, (5) भावतुल्य और (6) संस्थानतुल्य / विवेचन–तुल्य शब्द का अर्थ-जिन एक कोटि के पदार्थों में एक दूसरे से समानता हो, वहाँ उनमें परस्पर तुल्यता का प्रतिपादन किया जाता है / यहाँ द्रव्यादि छह दृष्टियों से तुल्य का कथन है। द्रव्य-तुल्य-निरूपण 5. से केणटुणं भंते ! एवं बच्चइ 'दव्वतुल्लए, दव्वतुल्लए' ? __ गोयमा! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्यतो तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवतिरित्तस्स दवओ णो तुल्ले। दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियवतिरित्तस्स खंधस्स दवओ गो तुल्ले / एवं जाब वसपएसिए। तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियवतिरित्तस्स खंधस्स दब्बओ णो तुल्ले / एवं तुल्लअसंखेज्जप एसिए वि / तुल्ल अणंतपदेसिए वि / से ते?णं गोयमा ! एवं बुच्चति 'दवतुल्लए, दवतुल्लए'। [5 प्र.] भगवन् ! 'द्रव्यतुल्य' द्रव्यतुल्य क्यों कहलाता है ? [5 उ.] गौतम ! एक परमाणु-पुद्गल, दूसरे परमाणु-पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है, किन्तु परमाणु-पुद्गल से भिन्न (व्यतिरिक्त) दूसरे पदार्थों के साथ द्रव्य से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु द्विपदेशिक स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्विप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्ध तक कहना चाहिए / एक तुल्य-संख्यात-प्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे तुल्य-संख्यात-प्रदेशिक स्कन्ध के साथ द्रव्य से तुल्य है परन्तु तुल्प-संख्यात-प्रदेशिक-स्कन्ध से व्यतिरिक्त दूसरे स्कन्ध के साथ द्रव्य से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार तुल्य-असंख्यात-प्रदेशिक-स्कन्ध के विषय में भी कहना चाहिए / तुल्यअनन्त-प्रदेशिक-स्कन्ध के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / इसी कारण से हे गौतम ! 'द्रव्यतुल्य' द्रव्यतुल्य कहलाता है। 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2328 (ख) भगवती, अ. वत्ति, पत्र 647 Page #1666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [401 विवेचन-द्रव्यतुल्य : दो अर्थ-(१) द्रव्यतः—एक अणु आदि की अपेक्षा से जो तुल्य हो, वह द्रव्यतुल्य है, अथवा (2) जो द्रव्य, दूसरे द्रव्य के साथ तुल्य हो, वह द्रव्यतुल्य है।' क्षेत्रतुल्यनिरूपण 6. से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ 'खेत्ततुल्लए, खेत्ततुल्लए' ? गोयमा ! एगपदेसोगाढे पोग्गले एगपदेसोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले, एगपदेसोगाढेपोग्गले एगपएसोगाढवतिरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तनो णो तुल्ले / एवं जाव दसपदेसोगाढे, तुल्लसंखेज्जपदेसोगाढे तुल्लसंखेज्ज / एवं तुल्लप्रसंखेज्जपदेसोगाढे वि / से तेण?णं जाव खेत्ततुल्लए / [6 प्र. भगवन् ! 'क्षेत्रतुल्य क्षेत्रतुल्य क्यों कहलाता है ? [6 उ.] गौतम ! एकप्रदेशावगाठ (आकाश के एक प्रदेश पर रहा हुआ) पुद्गल दूसरे एकप्रदेशावगाढ पुद्गल के साथ क्षेत्र से तुल्य कहलाता है; परन्तु एकप्रदेशावगाढ-व्यतिरिक्त पुद्गल के साथ, एकप्रदेशावगाळ पुद्गल क्षेत्र से तुल्य नहीं है / इसी प्रकार यावत्-...दस-प्रदेशावगाढ पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिए तथा एक तुल्य संख्यात-प्रदेशावगाढ पुद्गल, अन्य तुल्य संख्यात-प्रदेशावगाढ पुद्गल के साथ तुल्य होता है / इसी प्रकार तुल्य असंख्यात-प्रदेशावगाढ पुद्गल के विषय में भी कहना चाहिए / इसी कारण से, हे गौतम ! 'क्षेत्रतुल्य' क्षेत्रतुल्य कहलाता है। विवेचन क्षेत्रतुल्य का अर्थ-जहां दो क्षेत्र, एकप्रदेशावगाढत्व प्रादि की अपेक्षा से तुल्य हों, वहाँ क्षेत्रनुल्य कहलाता है / कालतुल्यनिरूपरण 7. से केण?णं भंते ! एवं वच्चति 'कालतुल्लए, कालतुल्लए' ? गोयमा ! एगसमठितीए पोग्गले एम० कालमो तुल्ले, एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयठितीयवतिरित्तस्स पोग्गलस्स कालओ णो तुल्ले / एवं जाव दससमय द्वितीए / तुल्लसंखेज्जसमठितीए एवं चेव / एवं तुल्लअसंखेज्जसमयट्टितीए वि / से तेण?णं जाव कालतुल्लए, कालतुरुलए / [7 प्र.] भगवन् ! 'कालतुल्य' कालतुल्य क्यों कहलाता है ? [7 उ.] गौतम ! एक समय की स्थिति वाला पुद्गल, अन्य एक समय को स्थिति वाले पुद्गल के साथ काल से तुल्य है; किन्तु एक समय की स्थिति वाले पुद्गल के अतिरिक्त दूसरे पुद्गलों के साथ, एक समय की स्थिति वाला पुद्गल काल से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् दस समय की स्थिति वाले पुद्गल तक के विषय में कहना चाहिए / तुल्य संख्यातसमय की स्थिति वाले पुद्गल तक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए और तुल्य असंख्यातसमय की स्थिति वाले पुद्गल के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। इस कारण से, हे गौतम ! 'कालतुल्य' कालतुल्य कहलाता है। 1. द्रव्यतः—एकाणु काद्यपेक्षया तुल्यक द्रव्यतुल्यकम् / अथवा द्रव्यं च तत्तुल्यकं च द्रब्यान्त रेणे ति द्रव्यतुल्यकम् विशेषणव्यत्ययात् / -भगवती. अ. कृत्ति, पत्र 649 2. क्षेत्रतः-एकप्रदेशावमा इत्यादिना तुल्यकं क्षेत्रतुल्यकम् / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 649 Page #1667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 [व्यास्याप्रज्ञाप्तिसूत्र विवेचन-कालतुल्य का तात्पर्य-समय, प्रावलिका, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास प्रादि को काल कहते हैं। एक समय की स्थिति वाला पुद्गल, दूसरे एक समय की स्थिति वाले पुद्गल के साथ काल है. किन्त एक समय के अतिरिक्त दो आदि समयों की स्थिति वाला पुदगल काल से तुल्य भवतुल्यनिरूपण 8. से केणठेणं भंते ! एवं युच्चइ 'भवतुल्लए, भवतुल्लए' ? गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवट्ठयाए तुल्ले, नेरइए नेरइयतिरिसस्स भवट्ठयाए नो तुल्ले / तिरिक्खजोगिए एवं चेव / एवं मणुस्से / एवं देवे वि / से तेणठेणं जाव भवतुल्लए, भवतुल्लए। [8 प्र.] भगवन् ! 'भवतुल्य' भवतुल्य क्यों कहलाता है ? [8 उ.] गौतम ! एक नै रयिक जीव, दूसरे नैरयिक जीव (या जीवों) के साथ भव-तुल्य है, किन्तु र यिक जीवों के अतिरिक्त (तिर्यञ्च-मनुष्यादि दूसरे जीवों) के साथ नरयिक जीव, भव से तुल्य नहीं है / इसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिकों के विषय में समझना चाहिए / मनुष्यों के तथा देवों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / इस कारण, हे गौतम ! 'भवतुल्य' 'भवतुल्य' कहलाता है। विवेचन-भवतुल्य का भावार्थ-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार भवों में से जो प्राणी जिस प्राणी के साथ भव की अपेक्षा तुल्य—समान- है, वह भवतुल्य कहलाता है। नरक भव के जीव की तिर्यञ्चादि भव के जीव के साथ भवतुल्यता नहीं है।' भावतुल्यनिरूपण 9. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'भावतुल्लए, भावतुल्लए' ? गोयमा! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगतिरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ गो तुल्ले / एवं जाव दसगुणकालए। तुल्लसंखेज्जगुणकालए पोग्गले तुल्लसंखेज्जः / एवं तुल्लप्रसंखेज्जगुणकालए वि / एवं तुल्लप्रणंतगुणकालए वि। जहा कालए एवं नीलए लोहियए हालिद्दए सुकिल्लए / एवं सम्भिगन्धे दुब्भिगंधे एवं तित्ते जाव महुरे / एवं कक्खडे जाव लुक्खे / उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, उदइए भावे उदइयभावबारित्तस्स मावस्स भावओ नो तुल्ले / एवं उपसमिए खइए खयोवसमिए पारिणामिए, सन्निवातिए भावे सन्निवातियस्स भावस्स / से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति 'भावतुल्लए, भावतुल्लए'। [6 प्र. भगवन् ! 'भावतुल्य' भावतुल्य किस कारण से कहलाता है ? [6 उ.] गौतम ! एकगुण काले वर्ण वाला पुद्गल, दूसरे एकगुण काले वर्ण वाले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है किन्तु एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल, एक गुण काले वर्ण से अतिरिक्त दूसरे पुद्गलों के साथ भाव से तुल्य नहीं है / इसी प्रकार यावत् दस गुण काले पुद्गल तक कहना चाहिए / इसी प्रकार तुल्य संख्यात-गुण काला पुद्गल तुल्य संख्यातगुण काले पुद्गल के साथ, तुल्य 1. भवो–नारकादिः तेन तुल्यता यस्याऽसौ भवतुल्यः। -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 649 Page #1668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [403 असंख्यातगुण काला पुद्गल तुल्य-असंख्यातगुण काले पुद्गल के साथ और तुल्य अनन्तगुण काला पुद्गल, तुल्य अनन्तगुण काले पुद्गल के साथ भाव से तुल्य है। जिस प्रकार काला वर्ण कहा, उसो प्रकार नोले, लाल, पोले और श्वेत वर्ण के विषय में भी कहना चाहिए / इसी प्रकार सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध और इसी प्रकार तिक्त यावत् मधुर रस तथा कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गल के विषय में भावतुल्य का कथन करना चाहिए। औदयिक भाव प्रौदयिक भाव के साथ (भाव-) तुल्य है, किन्तु वह प्रौदयिक भाव के सिवाय अन्य भावों के साथ भावतः तुल्य नहीं है / इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक भाव के विषय में भी कहना चाहिए / सान्निपातिक भाव, सान्निपातिक भाव के साथ भाव से तुल्य है / इसी कारण से, हे गौतम ! 'भावतुल्य' भावतुल्य कहलाता है। विवेचन--भावतुल्यता के विविध पहल-प्रस्तुत में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के सर्वप्रकारों में से प्रत्येक प्रकार के साथ उसी के प्रकार की भावतुल्यता है। जैसे—एक गुण काले वर्ण वाले पुद्गल के साथ एक गुण काले वर्ण वाला पुद्गल भाव से तुल्य है। इसी प्रकार एक गुण नीले पुद्गल की एक गुण नीले पुद्गल के साथ भावतुल्यता है / इसी प्रकार रस, गन्ध एवं स्पर्श के विषय में भी समझ लेना चाहिए।' तुल्लसंखेज्जगुणकालए इत्यादि का आशय-यहाँ जो 'तुल्य' शब्द ग्रहण किया है यह संख्यात के संख्यात भेद होने से संख्यातमात्र के साथ तुल्यता बताने हेतु नहीं है, अपितु समान संख्यारूप अर्थ के प्रतिपादन के लिए है। इसी प्रकार असंख्यात और अनन्त के विषय में भी समझ लेना चाहिए। प्रौदयिक आदि पांच भावों की अपने-अपने भाव के साथ सामान्यतः भावतुल्यता है, किन्तु अन्य भावों के साथ नहीं / औदायिक आदि भावों के लक्षण--औदयिक-कर्मों के उदय से निष्पन्न जीव का परिणाम औदयिक भाव है, अथवा कर्मों के उदय से निष्पन्न नारकत्वादि-पर्यायविशेष प्रौदयिक भाव है। ____ औपमिक–उदयप्राप्त कर्म का क्षय और उदय में न आए हुए कर्म का अमुक काल तक रुकना औपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के उपशम से होने वाला जीव का परिणाम औपशमिक भाव कहलाता है / यथा-प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र / क्षायिक कर्मों का क्षय-प्रभाव ही क्षायिक है। अथवा कर्मों के क्षय से होने वाला जीव का परिणाम क्षायिक भाव है। यथा-केवलज्ञानादि / क्षायोपशमिक–उदयप्राप्त कर्म के क्षय के साथ विपाकोदय को रोकना क्षायोपशमिक भाव है, अथवा कर्मों के क्षय तथा उपशम से होने वाला जीव का परिणाम क्षायोपशमिक भाव कहलाता है। यथा----मतिज्ञानादि / क्षायोपशमिक भाव में विपाकवेदन नहीं होता, प्रदेशवेदन होता है, जबकि औपमिक भाव में दोनों प्रकार के बेदन नहीं होते। यही क्षायोपशमिक भाव और औपशमिक भाव में अन्तर है / जीव का अनादिकाल से जो स्वाभाविक परिणाम है, वह पारिणामिक भाव है। औदयिक प्रादि दो-तीन आदि भावों के संयोग से उत्पन्न होने वाला भाव साग्निपातिक भाव है।३ 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल-पाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 676 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 649 3. (क) बही, अ. वृत्ति, पत्र 649 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2334 Page #1669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संस्थानतुल्यनिरूपण 10. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'संठाणतुल्लए, संठाणतुल्लए' ? गोयमा! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, परिमंडले संठाणे परिमंडलसंठाणवतिरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले / एवं वट्टे तसे चउरंसे आयए / समचउरंससंठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउरंससंठाणवतिरित्तस्स संठाणस्स संठाणनो नो तुल्ले / एवं परिमंडले वि / एवं जाव हुंडे / से तेणठेणं जाव संठाणतुल्लए, संठाणतुल्लए। [10 प्र. भगवन् ! 'संस्थानतुल्य' को 'संस्थानतुल्य' क्यों कहा जाता है ? [10 उ.] गौतम ! परिमण्डल-संस्थान, अन्य परिमण्डल-संस्थान के साथ संस्थानतुल्य है, किन्तु दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार वत्त संस्थान, न्यस्त्र-संस्थान, चतुरस्रसंस्थान एवं प्रायतसंस्थान के विषय में भी कहना चाहिए। एक समचतुरस्रसंस्थान अन्य समचतुरस्त्रसंस्थान के साथ संस्थान-तुल्य है, परन्तु समचतुरस्र के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान-तुल्य नहीं है। इसी प्रकार न्यग्रोध-परिमण्डल यावत् हुण्डकसंस्थान तक कहना चाहिए / इसी कारण से, हे गौतम ! 'संस्थान-तुल्य' संस्थान-तुल्य कहलाता है / विवेचन-संस्थान : परिभाषा, प्रकार एवं भेदप्रभेद—प्राकृति विशेष को संस्थान कहते हैं। वह दो प्रकार का है--अजीवसंस्थान और जीवसंस्थान / अजीवसंस्थान के 5 भेद हैं—परिमण्डल, वृत्त, त्यत्र, चतुरस्र और प्रायत / (1) परिमण्डल---जो चूड़ी के समान गोल हो / इसके दो भेद हैं-धन और प्रतर / (2) वृत्त—जो कुम्हार के चाक के समान बाहर से गोल और भीतर से पोलान-रहित हो / इसके दो भेद हैं-घन और प्रतर / इसके भी दो-दो भेद होते हैं—-समसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त और विषम संख्या वाले प्रदेशों से युक्त ! (3) व्यर-त्रिकोणाकार / (4) चतुरस्र - चौकोर / (5) आयत--जो दण्ड के समान लम्बा हो। इसके तीन भेद हैं - श्रेण्यायत, प्रतरायत और धनायत / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-समसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त और विषमसंख्या वाले प्रदेशों से युक्त / ' जीवसंस्थान के छह भेद, लक्षण संस्थान नामकर्म के उदय से सम्पाद्य जीवों की प्राकृतिविशेष को जीव-संस्थान कहते हैं। इसके 6 भेद ये हैं-(१) समचतुरस्र, (2) न्यग्रोध-परिमण्डल, (3) सादिसंस्थान, (4) कुब्जकसंस्थान, (5) वामनसंस्थान और (6) हुण्डकसंस्थान / (1) समचतुरस्त्र-सम-समान, चतुरस्त्र-चारों कोण / पल्हथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों / अर्थात् प्रासन और कपाल का अन्तर, दोनों घुटनों का अन्तर, बाँए कन्धे और दाहिने घुटने का अन्तर तथा दाहिने कन्धे और बाँए घुटने का अन्तर समान हो, उसे समचतुरस्त्रसंस्थान कहते हैं। अथवा--सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के समग्र अवयव ठीक प्रमाण वाले हों, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 649 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2335 Page #1670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [405 (2) न्यग्रोध-परिमण्डल-वटवृक्ष को न्यग्रोध कहते हैं। जैसे—वटवृक्ष ऊपर के भाग में फैला हुग्रा और नीचे के भाग में संकुचित होता है. वैसे ही जिस संस्थान में नाभि के ऊपर का भाग विस्तृत-अर्थात्-सामुद्रिक शास्त्र में बताए हुए प्रमाण वाला हो और नीचे का भाग हीन अवयव वाला हो, उसे 'न्यग्रोध-परिमण्डलसंस्थान' कहते हैं / (3) सादि-संस्थान-सादि का अर्थ है-नाभि के नीचे का भाग / जिस संस्थान में नाभि के नीचे का भाग पूर्ण हो और ऊपर का भाग हीन हो, उसे सादि-संस्थान कहते हैं / इसका नाम कहीं. कहीं साची संस्थान भी मिलता है। साची कहते हैं- शाल्मली (समर) के वृक्ष को। शाल्मली वृक्ष का धड़ जैसा पुष्ट होता है, वैसा उसका ऊपर का भाग नहीं होता। इसी प्रकार जिस शरीर में नाभि के नीचे का भाग परिपुष्ट या परिपूर्ण हो, किन्तु ऊपर का भाग हीन हो, वह साची-संस्थान होता है। (4) कुब्जक-संस्थान-जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर, गर्दन आदि अवयव ठीक हों, परन्तु छाती, पीठ, पेट आदि टेढ़े-मेढ़े हों, उसे कुजक-संस्थान कहते हैं। (5) वामन-संस्थान—जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट प्रादि अवयव पूर्ण हों, किन्तु हाथ, पैर प्रादि अवयव छोटे हों, उसे वामन-संस्थान कहते हैं / (6) हुण्डक-संस्थान--जिस शरीर में समस्त अवयव बेडौल हों, अर्थात्-एक भी अवयव सामुद्रिक शास्त्र के प्रमाणानुसार न हो, उसे हुण्डक-संस्थान कहते हैं / ' अनशनकर्ता अनगार द्वारा मूढता-अमूढतापूर्वक आहाराध्यवसाय-प्ररूपणा 11. [1] भत्तपच्चक्खायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने आहारमाहारेइ, अहे गं बीससाए कालं करेति ततो पच्छा अमुच्छिते अगिद्ध जाव अणज्झोववन्ने आहारमाहारेइ ? हंता, गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चेव / / [11-1 प्र.] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान (आहार का त्याग करके यावज्जीव अनशन) करने वाला अन गार क्या (पहले) मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करता है, इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल (मृत्यु प्राप्त) करता है और तदनन्तर अमूच्छित, अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? [11-1 उ.] हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार पूर्वोक्त रूप से आहार करता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति भत्तपच्चवखायए णं अण०' तं चेव ? गोयमा ! भत्तपच्चवखायए णं अणगारे मुछिए जाव अज्झोववाने आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिते जाव आहारे भवति / से तेण?णं गोयमा ! जाव आहारमाहारेति / 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2336 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पब 649-650 Page #1671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार" पूर्वोक्त रूप से आहार करता है ? [11-2 उ.] गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई) अनगार (प्रथम) मूच्छित यावत् अत्यन्त आसक्त हो कर आहार करता है / इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है / इसके बाद आहार के विषय में प्रमूच्छित यावत् अगृद्ध (अनासक्त) हो कर प्राहार करता है / इसलिए हे गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला (कोई-कोई) अनगार पूर्वोक्त रूप से यावत् पाहार करता है। विवेचन-भक्तप्रत्याख्यान करने वाले किसी-किसी अनगार की ऐसी स्थिति हो जाती है। इसलिए यहाँ उसके मनोभावों के उतार-चढ़ाव का चित्रण किया गया है / भक्तप्रत्याख्यान करने से पूर्व अथवा भक्तप्रत्याख्यान कर लेने के पश्चात् तीव्र क्षुधावेदनोय कर्म के उदयवश वह पहले अाहार में मूच्छित, गृद्ध यावत् अत्यासक्त होता है। फिर वह मारणान्तिक समुद्घात करता है / तत्पश्चात् वह उस (मा. समु.) से निवृत्त होकर मूच्छी, गद्धि यावत् प्रासक्ति से रहित हो कर प्रशान्त परिणाम पूर्वक आहार का उपयोग करता है। अर्थात्-पाहार के प्रति वह मूर्छा प्रोर आसक्ति रहित बन जाता है / यह समाधान वृत्तिकार का है। प्रकारान्तर से आशय-धारणा के अनुसार इसको अर्थसंगति इस प्रकार से है-पंथारा (यावज्जीव अनशन) करके काल करने वाला अनगार जब काल करके देवलोक में उत्पन्न होता है, तब उत्पन्न होते हो वह प्रासक्ति और गृद्धिपूर्वक ग्राहार ग्रहण करता है, तदनन्तर वह आसक्ति-रहित होकर आहार करता है। कठिन शब्दों के भावार्थ-मुच्छिए-मूच्छिा --ग्राहारसंरक्षण में अनुबद्ध अथवा उक्त (पाहार) दोष के विषय में मूढ या मोहवश / गिद्ध-गद्ध-प्राप्त ग्राहार के विषय में प्रासक्त, या अतृप्त होने से उक्त सरस आहार के विषय में लालसायुक्त / अन्झोवन्ने-अध्युपपन्नासक्त, अप्राप्त आहार की चिन्ता में अत्यधिक लीन / आहारं आहारेइ-वायु, तेलमालिश आदि आदि या मोदकादि अाहार्य पदार्थ हैं। तीव्र क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से असमाधि उत्पन्न होने पर उसके उपशमनार्थ पूर्वोक्त आहार का उपभोग करता है / वोससाए–विश्रसा--स्वाभाविक रूप से / काल करेइ-काल (मरण) के समान काल-~मारणान्तिकसमुद्घात-करता है / लवसप्तम-देव : स्वरूप एवं दृष्टान्तपूर्वक कारण-निरूपण 12. [1] अस्थि गं भंते ! 'लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा' ? हंता, अस्थि / [12-1 प्र.] भगवन् ! क्या लवसप्तम देव 'लवसप्तम' होते हैं ? [12-1 उ.] हाँ, गौतम ! होते हैं। 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 650 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2337-2338 3. भगवती. आ. अत्ति, पत्र 650 Page #1672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक ] [407 [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा' ? गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा वीहीम व गोधमाण वा जवाण वा जवजवाण वा पिवकाणं परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपज्जणएणं असियएणं पडिसाहरिया पडिसाहरियापडिसंखिविय पडिसंििवय जाव'इणामेव इणामेव' त्ति कटु सत्त लए लएज्जा, जति णं गोयमा ! तेसि देवाणं एवतियं कालं पाउए पहुप्पंते तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणणं सिमंता जाळ अंतं करता। से तेणठेणं जाव लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा। [12-2 प्र.] भगवन् ! उन्हें 'लबसप्तम' देव क्यों कहते हैं ? [12-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण पुरुष यावत् शिल्पकला में निपुण एवं सिद्धहस्त हो, वह परिपक्व, काटने योग्य अवस्था को प्राप्त, (पर्यायप्राप्त), पीले पड़े हुए तथा (पत्तों की अपेक्षा से) पीले जाल वाले, शालि, व्रीहि, गेहूँ, जौ, और जवजव (एक प्रकार का धान्य विशेष) की बिखरी हई नालों को हाथ से इकट्ठा करके मुट्ठी में पकड़ कर नई धार पर चढ़ाई हुई तीखी दरांती से शीघ्रतापूर्वक 'ये काटे, ये काटे'—इस प्रकार सात लबों (मुट्ठों) को जितने समय में काट लेता है, हे गौतम ! यदि उन देवों का इतना (सात लवों को काटने जितना समय (पूर्वभव का) अधिक आयुष्य होता तो वे उसी भव में सिद्ध हो जाते, यावत् सर्व-दुःखों का अन्त कर देते / इसी कारण से, हे गौतम ! (सात लव का प्रायव्य कम होने से उन देवों को 'लवसप्तम' कहते हैं / विवेचन प्रस्तुत सूत्र (सू. 12, 1-2) में बताया है कि अनुत्तरौपपातिक देवों में कुछ ऐसे देव होते हैं, जिनका प्रायुध्य सात लव अधिक होता तो वे सर्वार्थसिद्ध देव न होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते / इसी कारण से इन्हें 'लवसप्तम' कहा है. इस तथ्य को धान्य को मुट्ठों (लयनीय अवस्थाप्राप्त कवलियों) के दष्टान्तपूर्वक समझाया गया है।' कठिनशब्दार्थ परियायाणं-काटने योग्य अवस्था (पर्याय) को प्राप्त / हरियाणं-पिंगल (पीले) पड़े हुए। हरिय-कंडाणं-पीले पड़े हुए जाल वाले (अवथा पीली नाल बाले)। णवपज्जणएणं ताजे लोहे को आग में तपा कर घन से कूट कर तीखे किये हुए। प्रसियएण-~-दात्र से-दराँती से / पडिसाहरिया-बिखरी हुई नालों को हाथ से इकट्ठी करके, संखिविया-मुट्ठी में पकड़ कर / लवसप्तम देव नाम क्यों पड़ा ?-शालि आदि धान्य का एक मुट्ठा (कलिया) काटने में जितना समय लगता है, उसे 'लव' कहते हैं। ऐसे सात लव परिमाण आयुष्य (पूर्वभव-मनुष्यभव में) कम होने से वे विशुद्ध अध्यवसाय वाले मानव मोक्ष में नहीं जा सके, किन्तु सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुए / इसी कारण वे 'लवसप्तम' कहलाते हैं / 1. वियाहपषणत्तिसुत्त भा. 2 (मू. पा. टिप्पणयुक्त) पृ. 677-678 2, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 651 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 651 Page #1673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनुत्तरौपपातिक देव : स्वरूप, कारण और उपपातहेतुककर्म 13. [1] अस्थि णं भंते ! अणुत्तरोववातिया देवा, अगुत्तरोक्वातिया देवा ? हंता, अस्थि / [13-1 प्र. भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक होते हैं ? (13-1 उ.] हाँ, गौतम ! होते हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति 'अणुत्तरोववातिया देवा, अणुत्तरोववातिया देवा' ? गोयमा ! अणुत्तरोववातियाणं देवाणं अणुसरा सद्दा नाव अणुत्तरा फासा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ अगुत्तरोववातिया देवा, अणुत्तरोववातिया देवा / [13-2 प्र.] भगवन् ! वे अनुत्तरौपपातिक देव क्यों कहलाते हैं ? [13-2 उ.] गौतम ! अनुरोपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द, यावत्—(अनुत्तर रूप, अनुत्तर रस, अनुत्तर गन्ध और) अनुत्तर स्पर्श प्राप्त होते हैं, इस कारण, हे गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं / 14. अणुत्तरोववातिया णं भंते ! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेणं अगुत्तरोववातियदेवताए उक्वन्ना? गोयमा ! जावतियं छट्टभत्तिए समणे निगंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववातिया देवा अणुत्तरोक्वातियदेवत्ताए उववन्ना। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चोद्दसमे सए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो // 14.7 / / [14 प्र.] भगवन् ! कितने कर्म शेष रहने पर अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं ? [14 उ.] गौतम ! श्रमणनिर्ग्रन्थ षष्ठ-भक्त (बेले के) तप द्वारा जितने कर्मों को निर्जरा करता है, उतने कर्म शेष रहने पर अनुत्तरौपपातिक-योग्य साधु, अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हे भगवन् यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गोतमस्वामी, यावत् विचरते हैं। विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों में अनुत्तरौपपातिक देवों के अस्तित्व का समर्थन, उनके अनुत्तरौपपातिक होने का कारण तथा कितने कर्म अवशेष रहने पर अनुतरौपपातिक देवत्व प्राप्त होता है ? इसकी परिचर्चा की गई है। Page #1674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 7] [409 अनुत्तरौपपातिक का शब्दशः अर्थ-जिनका उपपातजन्म अनुत्तरी शब्दादि विषयों का योग होने से अनुत्तर–सर्वप्रधान-होता है, वे अनुत्तरौपपातिक कहलाते हैं।' ___अनुत्तरौपातिक देवत्वप्राप्ति की योग्यता--कोई श्रमण निर्ग्रन्थ सुसाधु षष्ठभक्त तप से जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म अवशिष्ट रहने पर उस साधु को अनुत्तरोपपातिक देवत्व को प्राप्ति होती है। ॥चौदहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. अनुत्तर:-सर्वप्रधानोऽनुत्तरदादिविषययोगात उपपातो-जन्म अनुत्तरोपपातः, मोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोप पातिकाः। ---भगवती. अ. वत्ति, पत्र 651 2. वही, अ. वृति, पत्र 651 Page #1675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्टमो उद्देसओ : 'अंतरे' अष्टम उद्देशक : (विविध पृथ्वियों का परस्पर) अन्तर रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी एवं अलोक पर्यन्त परस्पर अबाधान्तर की प्ररूपणा 1. इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए य पुढवीए केवतियं अबाहाए अंतरे पन्नते? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते। [1 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी का कितना अबाधा-अन्तर कहा गया है? [1 उ.] गौतम ! (इन दोनों नरक-पृथ्वियों का) अबाधा-अन्तर असंख्यात हजार योजन का कहा गया है। 2. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वालुयापभाए य पुढवीए केवतियों ? एवं चेव / {2 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी और बालुकाप्रभापृथ्वी का कितना अबाधा-अन्तर कहा गया है ? [2 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना चाहिए / 3. एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य / [3] इसी प्रकार (बालुकाप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् तम:प्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। 4. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतियं प्रबाहाए अंतरे पन्नत्ते? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते। [4 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी और अलोक का कितना अबाधा-अन्तर कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! (इन दोनों का) असंख्यात हजार योजन का अबाधा-अन्तर कहा गया है। 5. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतिय पुच्छा। गोयमा ! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते / [5 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी और ज्योतिष्क-विमानों का कितना अबाधा-अन्तर कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! (इन दोनों का) अबाधा-अन्तर 760 योजन का कहा गया है। Page #1676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [411 6. जोतिसस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवतियं० पुच्छा / गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणाई जाव' अंतरे पन्नत्ते / [6 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क विमानों और सौधर्म-ईशानकल्पों का अबाधा-अन्तर कितना कहा गया है ? [6 उ.] गौतम ! इनका अबाधान्तर यावत् असंख्यात योजन कहा गया है / 7. सोहम्मीसाणाणं भंते ! सगकुमार-माहिदाण य केवतियं०? एवं चेव / [7 प्र.] भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पों का कितना अबाधान्तर कहा गया है? [7 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत) जानना चाहिए / 8. सणंकुमार-माहिदाणं भंते ! बंभलोगस्स य कप्पस्स केवतियं ? एवं चेव / [8 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प और ब्रह्मलोककल्प का अबाधान्तर कितना कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! इनका अबाधान्तर भी पूर्ववत् है। 9. बंभलोगस्स णं भंते ! लंतगस्स य कप्पस्स केवतियं० ? एवं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प और लान्तककल्प के अबान्धान्तर के विषय में (पूर्ववत्) प्रश्न। [9 उ.] गौतम ! (इन दोनों का अबाधान्तर पूर्ववत्) इसी प्रकार (समझना चाहिए / ) 10. लंतयस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतियं० ? एवं चेव। |10 प्र. भगवन् ! लान्तककल्प और महाशुक्र कल्प का अबाधान्तर कितना है ? [10 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए। 1. 'जाव' पद सूचक प्रज्ञापनासूत्रपाठ-"कहि गं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! सोहम्मगवेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बतस्स दाहिणणं इमीले रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उडढं चंदिम-भूरिय-गह-नक्खत्त-तारारूवाणं बहणि जोयणसताण बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साई बहुगीओ जोयणकोडीओ बहुगीओ जोयणकोजाकोडोओ उड्ढे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे जाम कप्पे पण्णत" श्री महावीरजैनविद्यालयप्रकाशित 'पणवणासून भाग 1' पृ. 70, मू० 197 [1] / Page #1677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 11. एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य / [11] इसी प्रकार (पूर्ववत्) महाशुक्र-कल्प और सहस्रारकल्प का अबाधान्तर जानना चाहिए। 12. एवं सहस्सारस्त आणय-पाणयाण य कप्पाणं / |12] इसी प्रकार सहस्रारकल्प और ग्रानत-प्राणतकल्पों का अबाधान्तर है। 13. एवं आणय पाणयाण श्रारणऽच्चुयाण य कप्पाणं / [13] अानत-प्राणतकल्पों और पारण-अच्युतकल्पों का प्रवाधान्तर भी इसी प्रकार है / 14. एवं पारणऽच्चुताणं गेवेज्जविमाणाण य / [14] पारण-अच्युतकल्पों और नैवेयक विमानों का अबाधान्तर भी पूर्ववत् कहना चाहिए / 15. एवं गेवेज्जविमाणाणं अणुतरविमाणाण य / [15] इसी प्रकार अवेयक विमानों और अनुत्तर विमानों का अबाधान्तर समझना चाहिए। 16. अणुत्तरविमाणाणं भंते ! ईसिपम्भाराए य पुढवीए केवतिए० पुच्छा। गोयमा ! दुवालसजोयणे अबाहाए अंतरे पन्नत्ते। [16 प्र.) भगवन् ! अनुत्तरविमानों और ईषत्प्रागभारा पृथ्वी का प्रवाधान्तर कितना कहा गया है ? [16 उ.] गौतम ! (इनका) बारह योजन का अबाधान्तर कहा गया है / 17. ईसिपाभाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए प्रबाहाए० पुच्छा। गोयमा ! देसूर्ण जोयणं प्रबाहाए अंतरे पन्नत्ते / [17 प्र.) भगवन् ! ईषत्प्राभारा पृथ्वी और अलोक का कितना अबाधान्तर कहा गया है ? [17 उ.] गौतम ! (इन दोनों का) अबाधान्तर देशोन योजन (एक योजन से कुछ कम) का कहा गया है / विवेचन-अबाधा-अन्तर को परिभाषा--यद्यपि अन्तर शब्द मध्य, विशेष आदि अनेक अर्थी में प्रयुक्त होता है, अत: यहाँ अन्य अर्थों को छोड़ कर एकमात्र व्यवधान अर्थ ही गृहीत हो, इसलिए 'अबाधा' शब्द को 'अन्तर' के पूर्व जोड़ा गया है। बाधा कहते हैं-परस्पर संश्लेष होने से होने वाली टक्कर (संघर्षण) को। वैसी बाधा न हो, इसका नाम अबाधा / अवाधापूर्वक अन्तर अर्थात्--- व्यवधान, या दूरी अबाधान्तर है / सभी प्रश्नों का प्राशय यह है कि एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी अादि की दूरी कितनी है ? ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 652 (ख) भगवती. (प्रमेय चन्द्रिकाटीका) भा. 11, 5-358 Page #1678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक =] [413 अबाधान्तर का मापदण्ड प्रस्तुत में जो योजनों का प्रमाण बताया गया है, वह प्रायः प्रमाणांगुल से निष्पन्न समझना चाहिए। कहा भी है 'नग-पुढवि-विमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु / ' 'पर्वत, पृथ्वी और विमानों का माप प्रमाणांगुल से करना चाहिए।' किन्तु ईषत्प्राम्भा रापथ्वी और अलोक के बीच में जो देशोन योजन का अबाधान्तर (दूरी) बताया है, वह उत्सेधांगुल प्रमाण से समझना चाहिये / क्योंकि उस योजन के उपरितन कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना कही गई है, जो 333 धनुष और धनुष के विभाग प्रमाण है। यह अवगाहना उत्सेधांगुल (योजन) मानने से ही संगत हो सकती है / ' शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका के भावी भवों की प्ररूपगा 18. [1] एस णं भंते ! सालरुक्खए उण्हाभिहते तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छहिति, कहिं उवज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुवखत्ताए पच्चायाहिति / से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइयसक्कारियसम्माणिए दिवे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिते यावि भविस्सइ / [18-1 प्र.] भगवन् ! सूर्य की गर्मी से पीडित, तृषा से व्याकुल, दावानल की ज्वाला से झुलसा हुआ यह (प्रत्यक्ष दृश्यमान) शालवृक्ष काल मास में (मृत्यु के समय में) काल करके कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? [18-1 उ.] गौतम ! यह (प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला) शालवृक्ष, इसी राजगहनगर में पुनः शाल वृक्ष के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ यह अचित, वन्दित, पूजित, सत्कृत, सम्मानित और दिव्य (दैवीगुणों से युक्त), सत्य सत्यावपात, सन्निहित-प्रातिहार्य (पूर्वभवसम्बन्धी देवों द्वारा प्रातिहार्यसामीप्य प्राप्त किया हुआ) होगा तथा इसका पीठ (चबूतरा), लीपा-पोता हुआ एवं पूजनीय होगा। [2] से गं भंते ! तोहितो अणंतरं उन्नट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / [18-2 प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) शालवृक्ष वहाँ से मर कर कहाँ जाएगा और कहाँ उत्पन्न होगा? [18-2 उ.] गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। 19. [1] एस गं भंते ! साललट्ठिया उपहाभिया तहाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे जाब कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दो भारहे वासे विझगिरिपायमूले महेसरीए नगरोए सामलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति / सा णं तत्थ अच्चियबंदियपूइए जाव लाउल्लोइयमहिया यावि भविस्सइ / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 652 Page #1679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र _ [16-1 प्र.] भगवन् ! सूर्य के ताप से पीडित, तृषा से व्याकुल तथा दावानल को ज्वाला से प्रज्वलित यह शाल-यष्टिका कालमास में काल करके कहाँ जाएगी ? , कहाँ उत्पन्न होगी ? (19-1 उ.] गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्याचल के पादमूल (तलहटी) में स्थित माहेश्वरी नगरी में शाल्मलो (समर) वृक्ष के रूप में पुन: उत्पन्न होगी। वहाँ वह चित, वन्दित और पूजित होगी; यावत् उसका चबूतरा लीपा-पोता हुआ होगा और वह पूजनीय होगी / [2] से णं भंते ! तओहितो अणंतरं०, सेसं जहा सालरुक्खस्स जाव अंतं काहिति / [16-2 प्र.] भगवन् ! वह वहाँ से काल कर के कहाँ जाएगी? कहाँ उत्पन्न होगी ? [19-2 उ.] गौतम (पूर्वोक्त) शालवृक्ष के समान (इसके विषय में भी) यावत् वह सर्वदुःखों का अन्त करेगी, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) 20. [1] एस णं भंते ! उंबरलट्ठिया उण्हाभिहया तण्हाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं जाव कहि उक्वज्जिहिति ? गोयमा ! इहेब जंबुद्दीवे दोघे भारहे वासे पाडलिपुत्ते नाम नगरे पाडलिहक्खत्ताए पच्चायाहिति / से णं तत्थ अच्चितवंदिय जाव भविस्सइ / [20.1 प्र.] भगवन् ! दृश्यमान सूर्य की उष्णता से संतप्त, तषा से पीडित और दावानल को ज्वाला से प्रज्वलित यह (प्रत्यक्ष दृश्यमान) उदुम्बरयष्टिका (उम्बर वृक्ष की शाखा) कालमास में काल करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी? [20-1 उ.] गौतम ! इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में पाटलिपुत्र नामक नगर में पाटली वृक्ष के रूप के पुनः उत्पन्न होगी। वह वहाँ अचित, वन्दित यावत् पूजनीय होगी। [2] से गं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता / सेसं तं चेव जाव अंतं काहिति / [20-2 प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त उदुम्बर-यष्टिका) यहाँ से काल करके कहाँ जाएगी? कहाँ उत्पन्न होगो ? [20-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समग्न कथन करना चाहिए, यावत्-वह सर्वदुःखों का अन्त करेगी। विवेचनराजगह में विराजमान भगवान् महावीर से वनस्पति में जीवत्व के प्रति अश्रद्धाल श्रोताओं (व्यक्तियों) की अपेक्षा से श्री गौतमस्वामी ने प्रत्यक्ष दृश्यमान शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका के भविष्य में अन्य भव में उत्पन्न होने आदि के सम्बन्ध में तीन प्रश्न (तीन सूत्रों 18-16-20 में) उठाए हैं, जिनका यथार्थ समाधान भगवान् ने किया है।' 1. भगवती. अ. त्ति, पत्र 653 Page #1680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [415 कठिनशब्दार्थ दिवे-दिव्य, प्रधान / सच्चोवाए–सत्यावपात—जिसकी की गई सेवा सफल होती है। सन्निहियपाडिहेरे-पूर्वभव से सम्बन्धित देव के द्वारा किया गया सान्निध्य / लाउल्लोइयमहिते-जिसका पीठ (चबूतरा) लीपा-पुता हुअा तथा पूजनीय होगा।' शाल वृक्षादि सम्बन्धी तीन प्रश्न-यद्यपि शालवृक्ष आदि में अनेक जीव होते हैं, तथापि प्रथम जोव को अपेक्षा से ये तीनों प्रश्न प्रस्तुत किये गए हैं।' अम्बडपरिव्राजक के सात सौ शिष्य आराधक हए 21. तेणं कालेग तेणं समएणं अामडरस परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उववातिए जाव आराहगा। [21] उस काल, उस समय अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य (अन्तेवासी) ग्रीष्म ऋतु के समय में विहार कर रहे थे, इत्यादि समस्त वर्णन औषपातिक सूत्रानुसार, यावत्-वे (सभी) पाराधक हुए, यहाँ तक कहना चाहिए / विवेचन-सात सौ आराधक अम्बड-परिव्राजक शिष्य-ौषपातिक सूत्रानुसार संक्षेप में वृत्तान्त इस प्रकार है-एक बार ग्रीष्मकाल में अम्बड परिव्राजक के सात सौ शिष्य गंगानदी के दोनों किनारों पर आए हुए काम्पिल्यपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर जा रहे थे। जब उन्होंने अटवी में प्रवेश किया तव साथ में लिया हुया पानी पी लेने से समाप्त हो गया। अतः प्यास से वे सब पीडित हो गए / पास ही गंगा नदी में निर्मल जल बह रहा था। किन्तु उनकी अदत्त (बिना दिये हुए) ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा थी। कोई भी जल का दाता उन्हें वहाँ न मिला। वे तृषा से अत्यन्त व्याकुल हुए / उनके प्राण संकट में पड़ गए। अन्त में सभी मरणासन्न साधकों ने अर्हन्त भगवान् को 'नमस्कार' कार के गंगा नदी के किनारे ही यावज्जीव अनशन (संथारा) ग्रहण कर लिया / काल करके वे सभी ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुए। इस प्रकार के सभी परलोक के आराधक हुए। अम्बडपरिव्राजक को दो भवों के अनन्तर मोक्ष प्राप्ति की प्ररूपणा 22. बहुजणे गं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइवखति ४-एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसते? एवं जहा उववातिए अम्मउवत्तवया जाव दढप्पतिष्णे अंतं काहिति / [22 प्र.] भगवन ! बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अम्बड परिव्राजक काम्पिल्यपुर नगर में सौ घरों में भोजन करता है तथा रहता है, (क्या यह सत्य है ? इत्यादि प्रश्न)। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 653 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 653 3. (क) औपपातिकसूत्र, सू. 39, पत्र 94-95 (प्रागमोदय समिति) (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 653 Page #1681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 // [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [22 उ.] हाँ गौतम ! यह सत्य है; इत्यादि औपपातिकसूत्र में कथित अम्बड सम्बन्धी वक्तव्यता, यावत्-महद्धिक दृढप्रतिज्ञ होकर सर्व दुःखों का अन्त करेगा (यहाँ तक कहना चाहिए / ) विवेचन-श्री गौतमस्वामी ने जब यह सूना कि कम्पिलपूर में अम्बड परिव्राजक एक साथएक ही समय में सौ घरों में रहता हुआ, सौ घरों में भोजन करता है, तब उन्होंने भगवान् से इस विषय में पूछा कि क्या यह सत्य है ? भगवान ने कहा हाँ, गौतम ! अम्बड को वैक्रियलब्धि प्राप्त है / उसी के प्रभाव से वह जनता को विस्मित चकित करने के लिए एक साथ सौ घरों में रहता है और भोजन भी करता है / तत्पश्चात् गौतमस्वामी ने पूछा - भगवन् ! क्या अम्बड परिव्राजक अापके पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा ? भगवान् ने कहा--ऐसा सम्भव नहीं है / यह केवल जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता (सम्यक्त्वी) होकर अन्तिम समय में यावज्जीवन अनशन करेगा और काल करके ब्रह्मलोककल्प में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में दढप्रतिज्ञ नामक महद्धिक के रूप जन्म लेगा और चारित्र-पालन करके अन्त समय में अनशनपूर्वक मर कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा / यह प्रोपपातिकसूत्रोक्त वक्तव्यता का प्राशय है।' अव्याबाध देवों को अव्याबाधता का निरूपण 23. [1] अस्थि णं भंते ! अन्दाबाहा देवा, अन्वाबाहा देवा ? हंता अस्थि। [23-1 प्र.] भगवन् ! क्या किसी को बाधा-पीड़ा नहीं पहुँचाने वाले अव्याबाध देव हैं ? [23-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे हैं / [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'अव्वाबाहा देवा, अन्याबाहा देवा' ? गोयमा ! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविट्टि दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं बत्तीसतिविहं नट्टविहि उवदंसेत्तए, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति, छविच्छेयं वा करेति, एसुहमं च णं उवदंसेज्जा / से तेण?णं जाव अव्वाबाहा देवा, अम्बाबाहा देवा। [23-2 प्र. भगवन् ! अव्याबाधदेव, अव्याबाधदेव किस कारण से कहे जाते हैं ? [23-2 उ. गौतम ! प्रत्येक अध्यावाधदेव, प्रत्येक पुरुष की, प्रत्येक अाँख को पपनी (पलक) पर दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (प्रभाव) और बत्तीस प्रकार को दिव्य नाट्यविधि दिखलाने में समर्थ है। ऐसा करके वह देव उस पुरुष को किचित् मात्र भी आबाधा या व्याबाधा (थोड़ी या अधिक पीड़ा) नहीं पहुँचाता और न उसके अवयव का छेदन करता है / इतनी सूक्ष्मता से वह (अव्याबाध) देव नाट्यविधि दिखला सकता है। इस कारण, हे गौतम ! किसी को जरा भी बाधा न पहुँचाने के कारण वे अव्याबाधदेव कहलाते हैं। विवेचन-प्रव्याबाधदेव कौन और किस जाति के ? -जो दूसरों को व्याबाधा-पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं, वे अव्याबाध कहलाते हैं। ये लोकान्तिक देवों को जाति के होते हैं। लोकान्तिक 1. (क) प्रौपपातिक सूत्र मू. 40, पत्र 96-19 (ग्रामोदय समिति) (ख) भगवतो, अ. वृनि, पत्र 653 Page #1682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [417 देवों के 9 भेद हैं—(१) सारस्वत, (2) आदित्य, (3) वह्नि, (4) वरुण (या अरुण) (5) गर्दतोय, (6) तुषित, (7) अव्याबाध, (8) अग्न्यर्च (मरुत) और (6) रिष्ट / इनमें से वे अव्याबाध देव हैं।' कठिनशब्दार्थ-अच्छिपत्तंसि–नेत्र की पलक पर / उवदंसेत्तए पभू-दिखलाने में समर्थ है / प्राबाहं-किचित् बाधा, वाबाहं विशेष बाधा / छविच्छेयं-शरीर छेदन करने में / एसुहुयं-इस प्रकार का सूक्ष्म / सिर काट कर कमण्डलु में डालने की शकेन्द्र को वैक्रियशक्ति 24. [1] पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया पुरिसस्स सोसं सापाणिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुम्मि पक्खिवित्तए ? हंता, पभू / [24-1 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ में ग्रहण को हुई तलवार से, किसी पुरुष का मस्तक काट कर कमण्डलु में डालने में समर्थ है ? |24-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह समर्थ है / [2] से कहमिदाणि पकरेइ ? गोयमा ! छिदिया छिदिया व णं पविखवेज्जा, भिदिया मिदिया व गं पक्खिवेज्जा, कुट्टिया कुट्टिया व णं पक्खिवेज्जा, चुणिया चणिया व णं पक्खिवेज्जा, ततो पच्छा खिप्पामेव पडिसंघातेज्जा, नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएज्जा, छविच्छेयं पुण करेति, एसुहुमं च कंपविखवेज्जा। [24-2 प्र. भगवन् ! वह (मस्तक को काट कर कमण्डलु में) किस प्रकार डालता है ? [24-2 प्र. गौतम ! शकेन्द्र उस पुरुष के मस्तक को छिन्न-छिन्न (खण्ड-खण्ड) करके (कमण्डलु में) डालता है। या भिन्न-भिन्न (वस्त्र को तरह चीर कर टुकड़े-टुकड़े) करके डालता है। अथवा वह कूट-कूट(ऊखल में तिलों की तरह कूट) कर डालता है। या (शिला पर लोढ़ी से पीसकर) चूर्ण कर करके डालता है। तत्पश्चात् शीघ्र ही वह मस्तक के उन खण्डित अवयवों को एकत्रित करता है और पुनः मस्तक बना देता है / इस प्रक्रिया में उक्त पुरुष के मस्तक का छेदन करते हुए भी वह (शकेन्द्र) उस पुरुष को थोड़ी या अधिक पीड़ा नहीं पहुँचाता / इस प्रकार सूक्ष्मतापूर्वक मस्तक काट कर वह उसे कमण्डलु में डालता है। 1. (क) व्यावाधन्ते--पर पीडयन्तीति व्याबाधास्तनिषेधादच्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगता द्रष्टव्याः / यदाह सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य / तुसिया अब्बाबाहा अग्मिच्चा देव रिट्ठा य / -भ. अ. द. पत्र 654 (ख) सारस्वतादिन्य-वह यरुण-गर्दतोयतूषिताऽज्याबाध-मरुतोऽरिष्टाश्च। --तत्त्वार्थ. अ. 4 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 654 Page #1683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [ग्याख्याप्राप्तिसूत्र विवेचन–प्रस्तुत सूत्र (24, 1-2) में शक्रेन्द्र द्वारा किसी के मस्तक को छिन्न-भिन्न करके कमण्डलु में डाल देने की विशिष्ट शक्ति और उसकी प्रक्रिया का निरूपण किया गया है।' जम्भक देवों का स्वरूप, भेद, स्थिति 25. [1] अस्थि णं भंते ! जंभया देवा, जंभया देवा ? हंता, अस्थि / [25-1 प्र.] भगवन् ! क्या [स्वच्छन्दाचारी की तरह चेष्टा करने वाले जृम्भक देव होते हैं ? [25-1 उ.] हाँ, गौतम ! होते हैं। [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ 'जंभया देवा, जंभया देवा' ? गोयमा ! जंभगा णं देवा निच्चं पमुदितपक्कोलिया कंदप्परतिमोहणसीला, जे गं ते देवे कुद्ध पासेज्जा से णं महंतं अयसं पाउणेज्जा, जे गं ते देवे तु8 पासेज्जा से णं महंतं जसं पाउणेज्जा, से तेणढणं गोयमा ! 'जंभगा देवा, जमगा देवा' / [25-2 प्र.] भगवन् ! वे जृम्भक देव किस कारण कहलाते हैं ? [25-2 उ.] गौतम ! ज़म्भक देव, सदा प्रमोदी, अतीव क्रीड़ाशील, कन्दर्प में रत और मोहन (मैथुनसेवन) शील होते हैं। जो व्यक्ति उन देवों को क्रुद्ध हुए देखता है, वह महान् अपयश प्राप्त करता है और जो उन देवों को तुष्ट (प्रसन्न) हुए देखता है, वह महान् यश को प्राप्त करता है / इस कारण, हे गौतम ! वे जम्भक देव कहलाते हैं। 26. कतिविहा णं भंते ! जंभगा देवा पन्नत्ता? गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-अन्नजंभगा, पाणजंभगा, वत्थजंभगा, लेणजंभगा, सयणजंभगा, पुष्फजंभगा, फलजंभगा, पुप्फफलजंभगा, विज्जाजंभगा, अवियत्तिजभगा। [26 प्र.] भगवन् ! जम्भक देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [26 उ.] गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गए हैं। यथा-(१) अन्न-जम्भक, (2) पान-जृम्भक, (3) वस्त्र-ज़म्भक, (4) लयन-जम्भक, (5) शयन-जृम्भक, (6) पृष्प-जृम्भक, (7) फल-ज़म्भक, (8) पुष्प-फल-जृम्भक, (6) विद्या-जृम्भक और (10) अव्यक्त-जम्भक / 27. जंभगा गं भंते ! देवा कहि वसहि उति ? गोयमा ! सव्वेसु चेव दोहवेयड्ड सु चित्तविचित्तजमगपव्वएमु कंचणपव्वएसु य, एत्थ णं जंभगा देवा वसहि उति। [27 प्र.] भगवन् ! जम्भक देव कहाँ निवास करते हैं ? [27 उ.] गौतम ! जम्भक देव सभी दीर्घ (लम्बे-लम्बे) वैताढ्य पर्वतों में, चित्र-विचित्र यमक पर्वतों में तथा कांचन पर्वतों में निवास करते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 654 Page #1684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 8] [419 28. जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नता ? गोयमा ! एग पलिओवमं ठिती पन्नता। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विरहति / // चोद्दसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 14.8 // [28 प्र.] भगवन् ! जम्भक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [28 उ.] गौतम ! जृम्भक देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर, गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—जम्भक देव : जो अपनी इच्छानुसार स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हैं और सतत क्रीडा आदि में रत रहते हैं, ऐसे तिर्यग्लोकवासी व्यन्तर जम्भक देव हैं। ये अतीव कामक्रीड़ारत रहते हैं / ये वैरस्वामी की तरह वैक्रिय लब्धि प्रादि प्राप्त करके शाप और अनुग्रह करने में समर्थ होते हैं। इस कारण जिस पर प्रसन्न हो जाते हैं, उसे धनादि से निहाल कर देते हैं और जिन पर कुपित होते हैं, उन्हें अनेक प्रकार से हानि भी पहुँचाते हैं। इनके १०भेद हैं। (1) अन्न-जम्भक-भ नीरस कर देते या उसकी मात्रा बढा-घटा देने की शक्ति वाले देव. (2) पान-जम्भक—पानी को घटाने-बढ़ाने, सरस-नीरस कर देने वाले देव / (3) वस्त्र-जम्भक-वस्त्र को घटाने-बढ़ाने आदि की शक्ति वाले देव / (4) लयन-ज़म्भक-घर-मकान आदि की सुरक्षा करने वाले देव / (5) शयनजम्भक ---शय्या आदि के रक्षक देव / (६-७-८)पुष्प-जम्भक, फल-जम्भक एवं पुष्प-फल-जम्भक-फूलों, फलों एवं पुष्प-फलों की रक्षा करने वाले देव / कहीं-कहीं 8 वे पुष्पफल जृम्भक के बदले 'मंत्र-जृम्भक' नाम मिलता है। (6) विद्या-जम्भक देवी के मंत्रो—विद्याओं की रक्षा करने वाले देव और (10) अव्यक्त-जभ्भक-सामान्यतया, सभी पदार्थों की रक्षा आदि करने वाले देव ! कहीं कहीं इसके स्थान में 'अधिपति-जृम्भक' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है-राजा आदि नायक के विषय में जम्भक देव / ' निवासस्थान—पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन 15 क्षेत्रों में 170 दीर्घ वैताढ्यपर्वत हैं / प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक पर्वत है तथा महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक विजय में एक-एक पर्वत है / देवकूरू में शीतोदा नदी के दोनों तटों पर चित्रकूटपर्वत हैं / उत्तरकुरु में शीतानदी के दोनों तटों पर यमक-समक पर्वत हैं / उत्तरकुरु में शीतानदी से सम्बन्धित नीलवान् आदि 5 द्रह हैं / उनके पूर्व-पश्चिम दोनों तटों पर दस-दस कांचनपर्वत हैं। इस प्रकार उत्तरकुरु में 100 कांचनपर्वत हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 654 / Page #1685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवकुरु में शीतोदा नदी से सम्बन्धित निषध आदि 5 द्रहों के दोनों तटों पर दस-दस कांचनपर्वत है। इस तरह ये भी 100 कांचनपर्वत हए। दोनों मिलकर 200 कांचनपर्वत हैं / इन पर्वतों पर जम्भक देव रहते हैं। // चौदहवां शतक : आठवाँ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 654-655 (स) भगवती. (हिन्दोविवेचन) भा. 5, पृ. 2353 Page #1686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'अणगारे' नौवाँ उद्देशक : भावितात्मा अनगार भाविताभा अनगार की ज्ञान सम्बन्धी और प्रकाशयुद्गलस्कन्ध सम्बन्धी प्ररूपणा 1. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणति, न पासति, तं पुण जीवं सरूवि सकम्मलेस्सं जाणइ, पासइ ? हंता, गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पासति / [1 प्र.] भगवन् ! अपनी कमलेश्या को नहीं जानने-देखने वाला भावितात्मा अनगार, क्या सरूपी(सशरीर) और कर्मलेश्या-सहित जीव को जानता-देखता है ? [1 उ. हाँ, गौतम ! भावितात्मा अनगार, जो अपनी कर्मलेश्या को नहीं जानता-देखता, वह सशरीर एवं कर्मलेश्या वाले जीव को जानता-देखता है। 2. अस्थि णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला प्रोभासंति 4 ? हंता, अस्थि / [2 प्र.] भगवन् ! क्या सरूपी (वर्णादियुक्त), सकर्मले श्य (कर्मयोग्य कृष्णादि लेश्या के) पुद्गलस्कन्ध अवभासित यावत् प्रभासित होते हैं ? {2 उ.] हाँ, गौतम ! वे अवभासित यावत् प्रभासित होते हैं। 3. कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति जाब पभाति ? गोयमा ! जानो इमाओ चंदिम-सरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ पभासेंति एए णं गोयमा ! ते सस्वी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभाति 4 / [ प्र.] भगवन् ! वे सरूपी कर्मलेश्य पुद्गल कौन-से हैं, जो अवभासित यावत् प्रभासित होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! चन्द्रमा और सूर्य देवों के विमानों से बाहर निकली हुई (ये जो) लेश्याएँ (चन्द्र-सूर्य-निर्गत तेज की प्रभाएँ) प्रकाशित, अवभासित यावत् उद्योतित प्रयोतित, एवं प्रभासित होती हैं, ये ही वे (चन्द्र-सूर्य-निर्गत तेजोलेश्याएँ) हैं, जिनसे, हे गौतम ! वे (पूर्वोक्त) सरूपी सकर्मलेश्य पुद्गलस्कन्ध अवभासित यावत् प्रभासित होते हैं। विवेचन–भावितारमा अनगार का जानने-देखने का सामर्थ्य भावितात्मा अनगार वह कहलाता है, जिसका अन्त:करण तप और संयम से भावित-सुवासित हो / वह यद्यपि छद्मस्थ (अवधि ज्ञानादिरहित) होने से ज्ञानावरणीयादि कर्मों के योग्य अथवा कर्मसम्बन्धी कृष्णादि लेश्याओं को जान-देख नहीं सकता, क्योंकि कृष्णादि लेश्याएँ और उनसे श्लिष्ट कर्मद्रव्य अतीव सूक्ष्म होने से Page #1687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4223 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छद्मस्थ के ज्ञान से अगोचर होते हैं / किन्तु वह कर्म और लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित जीव (अपनी प्रात्मा) को तो जानता--देखता ही है, क्योंकि शरीर चक्षु द्वारा ग्राह्य है तथा प्रात्मा शरीर से सम्बद्ध होने से कथंचित् अभेद एवं स्वसंविदित होने से भावितात्मा अनगार कर्म एवं लेश्या से युक्त तथा शरीरसहित स्वात्मा को जानता है / ' वर्णादिवाले (सरूपी) एवं कर्मलेश्या वाले पुदगल-स्कन्ध –चन्द्रमा और सूर्य के विमानों से निकली हुई जो तेजस्वी प्रभाएँ (लेश्याएँ) प्रकाशित होती हैं, उन लेश्याओं के प्रकाश से ही पूर्वोक्त सरूपी (वर्णादिवाले) और कर्मलेश्या वाले पुद्गल-स्कन्ध भी प्रकाशित होते हैं / यद्यपि चन्द्र-सूर्य के विमान के पुदगल पृथ्वीकायिक होने से सचेतन हैं, इस कारण उचित है, किन्तु उनसे निकले हुए प्रकाश के. पुद्गल कर्मलेश्या वाले नहीं होते, तथापि वे उनसे निकले हैं, इस कारण वे प्रकाश के पुद्गल कार्य में कारण के उपचार को लेकर कर्मलेश्या वाले कहे गए हैं। _कठिनशब्दार्थ -सरूवो-सरूपी-रूप (मूर्तता) सहित, वर्णादि वाले या रूप और रूपवान् का अभेदसम्बन्ध होने से शरीर सहित / सकम्मलेस्सा--कमलेश्यासहित, अर्यात्-कर्मद्रव्यश्लिष्ट कृष्णादि लेश्यायुक्त / लेस्साओ-तेज को प्रभारं, तेभोलेश्याएं। बहियाअभिनिस्सडाओ- बाहर अभिनिःसृत-निकलो हुई / ओभासंति -प्रकाशित-प्रद्योतित होती हैं / चौवीस दण्डकों में प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट आदि पुदगलों को प्ररूपणा 4. नेरतियाणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला? गोयमा ! नो अत्ता पोग्गला, अणता पोग्गला। [4 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के प्रात्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल नहीं होते, अनात्त पुद्गल होते हैं / 5. प्रसुरकुमाराणं भंते ! कि अत्ता पोम्गला, अणत्ता पोग्गला? गोयमा! अत्ता पोग्गला, णो अणत्ता पोग्गला। [5 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के आत्त पुदगल होते हैं, अथवा अनात्त पुद्गल होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल होते हैं, अनात्त पुद्गल नहीं होते / 6. एवं जाव थणियकुमाराणं / [6] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / 7. पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता विपोग्गला। 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 655 (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 397 2. वही, प्रमेय चन्द्रिका टीका भा. 11, पृ. 397 3. भगवती अ. वत्ति, पत्र 655 Page #1688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 9) [423 [7 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के प्रात्त पुद्गल होते हैं अथवा अनात्त पुद्गल ? [7 उ. गौतम ! उनके प्रात्त पुद्गल भी होते हैं और अनात्त पुद्गल भी / 8. एवं जाव मणुस्साणं / [8] इसी प्रकार (अप्कायिक जीवों से लेकर) यावत् मनुष्यों तक (के विषय में) कहना चाहिए / 9. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं। 18] वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। 10. नेरतियाणं भंते ! कि इट्टा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला ? गोयमा ! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला। [10 प्र. भगवन् ! नैर यिकों के पुद्गल इष्ट होते हैं या अनिष्ट होते हैं ? {10 उ.] गौतम ! उनके पुद्गल इष्ट नहीं होते, अनिष्ट पुद्गल होते हैं। 11. जहा अत्ता भणिया एवं इट्टा वि, कंता वि, पिया वि, मणुन्ना वि भाणियव्वा / एए पंच दंडगा। [11] जिस प्रकार प्रात्त पुद्गलों के विषय में (आलापक) कहे थे, उसी प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय तथा मनोज्ञ पुद्गलों के विषय में (पालापक) कहने चाहिए / इस प्रकार ये पांच दण्डक कहने चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 4 से 11 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के पांच प्रकार के शुभ-अशुभ पुद्गलों के विषय में प्रश्नोत्तर किया गया है / आत्त प्रादि का अर्थ ---प्रता : दो रूपः तीन अर्थ-पात्र-जो सब ओर से दुःखों से त्राणरक्षण करता है, सुख उत्पन्न करता है, वह दुःखत्राता सुखोत्पादक पात्र है। (2) प्राप्त एकान्त हितकारक / (3) अतएव रमणीय / अनात्त-दुःखकारक-अहितकारी / इट्टा-इष्ट-अभीष्ट / कता-कान्त-कमनीय / पिया-प्रिय-प्रीतिजनक / मणुण्णा--मनोज्ञ-मन के अनुकल / ' निष्कर्ष-नैरयिकों के पुद्गल अनात्त, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्यों तक के पुद्गल प्रात्त-अनात्त, इष्टानिष्ट, कान्ताकान्त, प्रियाप्रिय और मनोज्ञ-अमनोज्ञ, दोनों प्रकार के होते हैं। चारों ही जाति के देवों के पुद्गल एकान्त प्रात्त, इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ होते हैं / 1. (क) अत्त त्ति-आ---अभिविधिना त्रायन्ते-दु:खात संरक्षन्ति, सुखं चोत्पादयन्तीति पात्रा:, प्राप्ता वा--- एकान्तहिताः / अतएव रमणीया इति वृद्ध व्याख्यातम् / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 656 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2358 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2358 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 656 Page #1689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र महद्धिक वैक्रियशक्तिसम्पन्न देव की भाषासहस्रभाषणशक्ति 12. [1] देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउवित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए ? हंता, पभू। ___ [12-1 प्र.] भगवन् ! मद्धिक यावत् महासुखी देव क्या हजार रूपों की विकुर्वणा करके, हजार भाषाएँ बोलने में समर्थ है ? / [12-1 उ.] हाँ, (गौतम ! ) वह समर्थ है / [2] सा गं भंते ! कि एगा भासा, भासासहस्सं ? गोयमा! एगा गं सा भासा, णो खलु तं भासासहस्सं / [12-2 प्र.] भगवन् ! वह एक भाषा है या हजार भाषाएँ हैं ? [12-2 उ.] गौतम ! वह एक भाषा है, हजार भाषाएँ नहीं / विवेचन –हजार भाषाएँ बोलने में समर्थ , किन्तु एक समय में भाष्यमाण एक भाषामहद्धिक यावत् महासुखी देव हजार रूपों की विकुर्वणा करके हजार भाषाएँ बोल सकता है, किन्तु एक समय वह जो किसी प्रकार की सत्यादि भाषा बोलता है, वह एक हो भाषा होती है, क्योंकि एक जीवत्व और एक उपयोग होने से वह एक भाषा कहलाती है, हजार भाषा नहीं।' सूर्य का अन्वर्थ तथा उनकी प्रभादि के शुभत्व को प्ररूपणा 13. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गतं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पास लोहीतगं पासति, पासित्ता जातसड्ढे जाव समुष्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता जाव नमंसित्ता जाव एवं वयासी-किमिदं भंते ! सूरिए, किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठ ? गोयना ! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स अट्ठ। [13 प्र.| उस काल, उस समय में भगवान गौतम स्वामी ने तत्काल उदित हुए जासुमन नामक वृक्ष के फूलों (जपाकुसुम) के पुंज के समान लाल (रक्त) बालसूर्य को देखा / सूर्य को देखकर गौतमस्वामो को श्रद्धा उत्पन्न हुई, यावत् उन्हें कौतूहल उत्पन्न हुअा, फलतः जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट पाए और यावत् उन्हें वन्दन-नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा भगवन् ! सूर्य क्या है ? तथा सूर्य का अर्थ क्या है ? [13 उ.] सूर्य शुभ पदार्थ है तथा सूर्य का अर्थ भी शुभ है। 14. किमिदं भंते ! सूरिए, किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा ? एवं चेव / 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5. पृ. 2358 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 656 Page #1690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 1] [425 [14 प्र.] भगवन् ! 'सूर्य' क्या है और 'सूर्य को प्रभा' क्या है ? [14 उ. | गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 15. एवं छाया। [15] इसी प्रकार छाया (प्रतिबिम्ब) के विषय में जानना चाहिए / 16. एवं लेस्सा। [१६इसी प्रकार लेश्या (सूर्य का तेजःपुंज या प्रभा) के विषय में जानना चाहिए / विवेचन.. सूर्य शब्द का अन्वर्थ, प्रसिद्धार्थ एवं फलितार्थ-सूर्य क्या पदार्थ है और सूर्य शब्द का क्या अर्थ है ? इस प्रकार श्री गौतमस्वामी के पूछे जाने पर भगवान् ने सूर्य का अन्वर्थ 'शुभ' वस्तु बताया, अर्थात् सूर्य एक शुभस्वरूप वाला पदार्थ है, क्योंकि सूर्य के विमान पृथ्वी कायिक होते हैं, इन पृथ्वी कायिक जीवों के प्रातप-नामकर्म की पुण्यप्रकृति का उदय होता है। लोक में भी सूर्य प्रशस्त (उत्तम) रूप से प्रसिद्ध है तथा यह ज्योतिष्चक्र का केन्द्र है। सर्य का शब्दार्थ फलितार्थ के रूप में इस प्रकार है ___ 'सूरेभ्यो हितः सूर्यः' -- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो क्षमा, दान, तप और युद्ध आदि विषयक शूरवीरों के लिए हितकर (शुभ प्रेरणादायक) होता है, वह सूर्य है / अथवा 'तत्र साधुः' इस सूत्रानुसार 'शूरों में जो साधु हो' वह सूर्य है। इसलिए सूर्य का सभी प्रकार से 'शुभ' अर्थ घटित होता है। सूर्य की प्रभा, कान्ति और तेजोले श्या भी शुभ है, प्रशस्त है।' __कठिन शब्दार्थ अचिरुग्मयं तत्काल उदित / जासुमणाकुसुम-पुंजप्पगासं-जासूमन नामक वृक्ष के पुष्पपुञ्ज के समान / किमिदं क्या है ? पभा-प्रभा, दीप्ति / छाया--शोभा या प्रतिबिम्ब / लेश्या वर्ण अथवा प्रकाश का समह / 2 श्रामण्यपर्यायसुख की देवसुख के साथ तुलना 17. जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एते णं कस्स तेयलेस्सं वीतीवयंति ? गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं बीतीवयति / दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिंदवज्जियाणं भवणवासोणं देवाणं तेयलेस्सं वीयोवति / एवं एतेणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे० असुरकुमाराणं देवाणं (? असुरिंदाणं) तेय० / चतुमासपरियाए स० गहनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेय० / पंचमासपरियाए स० चंदिम-सूरियाणं जोतिसिदाणं जोतिसराईणं तेय० / छम्मासपरियाए स० सोधम्मोसाणाणं देवाणं० / सत्तमासपरियाए० सणंकुमारमाहिदाणं देवाणं० / अट्टमासपरियाए बंभलोग-लंतगाणं देवाणं तेयले० / नवमासपरियाए समणे० महासुक्क-सहस्साराणं देवाणं तेय० / दसमासपरियाए सम० आणय-पाणय-आरण-अच्चयाणं देवाणं० / 1. (क) भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 408 (स) भगवती. अ. बनि, पत्र 656 2. वही पत्र 656 Page #1691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र एक्कारसमासपरियाए० गेवेज्जगाणं देवाणं० / बारसमासपरियाए समणे निर्गथे अणुत्तरोववातियाणं देवाणं तेयलेस्सं बीतीवयति / तेण परं सुक्के सुक्कामिजातिए भवित्ता ततो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करोति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / // चोद्दसमे सए : नवमो उद्देसनो समत्तो // 14.9 / / [17 प्र. भगवन् ! जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ प्रार्यत्वयुक्त (पापरहित) होकर विचरण करते हैं, वे किस की तेजोलेश्या (तेज-सुख) का अतिक्रमण करते हैं ? (अर्थात्-इन श्रमण निर्ग्रन्थों का सुख, किनके सुख से बढ़कर-विशिष्ट या अधिक है ? ) [17 उ.] गौतम ! एक मास की दीक्षापर्याय वाला श्रगण-निर्ग्रन्थ वाणव्यन्तर देवों की तेजोलेश्या (सुखासिका) का अतिक्रमण करता है; (अर्थात-वह वाणव्यन्तर देवों से भी अधिक सुखी है) / दो मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ असुरेन्द्र (चमरेन्द्र और बलीन्द्र) के सिवाय (समस्त) भवनवासी देवों की तेजोलेश्या का प्रतिक्रमण करता है। इसी प्रकार इसी पाठ (अभिलाप) द्वारा तीन मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, (असुरेन्द्र-सहित) असुरकुमार देवों को तेजोलेश्या का प्रतिक्रमण करता है। चार मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ग्रहगण-नक्षत्रतारारूप ज्योतिष्क देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। पांच मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ज्योतिकेन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है / छह माम की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सौधर्म और ईशानकल्पवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण करता है। सात मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों की तेजोलेश्या का; ग्राठ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ ब्रह्मलोक और लान्तक देवों की तेजोलेश्या का: नौ मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ महाशुक्र और सहस्रार देवों की तेजोलेश्या का; दस मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निग्रन्थ ग्रानत, प्राणत, प्रारण और अच्युत देवों की तेजोलेश्या का; ग्यारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ, ग्रेवेयक देवों की तेजोलेश्या का और बारह मास की दीक्षा-पर्याय वाला श्रमण निर्ग्रन्थ अनुत्तरौपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है। इसके बाद शुक्ल ( शुद्धचारित्री ) एवं परम शुक्ल (निरतिचार-विशुद्धतरचारित्री) हो कर फिर वह सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है / ___ भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एक मास के दीक्षित साधु से लेकर बारह मास के दीक्षित श्रमणनिर्ग्रन्थ के सुख को अमुक-अमुक देवों के सुख से बढ़कर बताया गया है। तेजोलेश्या शब्द का अर्थ, भावार्थ, सुखासिका क्यों ?---यद्यपि तेजोले श्या का शब्दशः अर्थ होता है—तेज को प्रभा-द्युति प्रादि / परन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित नहीं है। यहाँ तेज:शब्द सुख के अर्थ में व्यवहृत है। इसी कारण तेजोलेश्या का वृत्तिकार ने 'सुखासिका' अर्थ किया है / सुखासिका अर्थात्-सुखपूर्वक रहने की वृत्ति (परिणाम-धारा) / सुखासिका का अर्थ यहाँ सुख इसलिए विवक्षित Page #1692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 9] 6427 है कि तेजोलेश्या प्रशस्तलेश्या है और वह सुख की हेतु है / यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके तेजोलेश्या पद से सुखासिका अर्थ प्रतिपादित किया है।' सुक्के सुक्काभिजातिए : विशेषार्थ-शुक्ल का अर्थ यहाँ अभिन्नवृत्त-(अखण्डचारित्री), अमत्सरी, कृतज्ञ, सदारम्भी एवं हितानुबन्ध है तथा 'शुक्लाभिजात्य' का अर्थ परमशुक्ल अर्थात्निरतिचार-चारित्री-विशुद्धचारित्राराधक / एक वर्ष से अधिक दीक्षा पर्याय वाला क्रमश: शुक्ल एवं परमशुक्ल होकर अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त यावत् सर्वदुःखों का अन्त करने वाला होता है / अज्जत्ताए प्रार्यत्व से युक्त, अर्थात्-पापकर्म से दूर। वोइवयंति-व्यतिक्रमण लांघ जाते हैं। // चौदहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 656-657 (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 415 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 657 Page #1693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'केवली' दसवाँ उद्देशक : केवली (और सिद्ध का ज्ञान) केवली एवं सिद्ध द्वारा छद्मस्थादि को जानने देखने का सामर्थ्य निरूपण 1. केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / [1 प्र. भगवन् ! क्या केवलज्ञानी छद्मस्थ को जानते-देखते हैं ? [1 उ.] हाँ (गौतम ! ) जानते-देखते हैं / 2. जहाणं भंते ! केवली छउमत्थं जाणति पासति तहा गं सिद्ध वि छउमत्थं जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / [2 प्र. भगवन् ! जिस प्रकार केवलज्ञानी, छद्मस्थ को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार सिद्ध भगवान् भी छद्मस्थ को जानते-देखते हैं ? [2. हाँ, (गौतम ! ) (वे भी उसी तरह) जानते-देखते हैं। 3. केवली णं भंते ! आहोहियं जाणति पासति ? एवं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी, आधोवधिक (प्रतिनियत क्षेत्र-विषयक अवधिज्ञान वाले) को जानते-देखते हैं ? [3 उ.] हाँ, गौतम ! वे जानते-देखते हैं / 4. एवं परमाहोहियं / [4] इसी प्रकार परमावधिज्ञानी को भी (केवली एवं सिद्ध जानते-देखते हैं, यह कहना चाहिए।) 5. एवं केलि / [5] इसी प्रकार के वलज्ञानी एवं सिद्ध यावत् केवलज्ञानी को जानते-देखते हैं। 6. एवं सिद्ध जाव, जहा णं भंते ! केवलो सिद्ध जाणति पासति तहा णं सिद्ध वि सिद्ध जाणति पासति? हंता, जाणति पासति / Page #1694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 10] [429 [6 प्र.] इसी प्रकार केवलज्ञानी भी सिद्ध को जानते-देखते हैं। किन्तु प्रश्न यह है कि जिस प्रकार केवलज्ञानी सिद्ध को जानते-देखते हैं, क्या उसी प्रकार सिद्ध भी (दूसरे) सिद्ध को जानतेउत्तर देखते हैं ? [6 उ.] हाँ, (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं। विवेचन केवलज्ञानी और सिद्ध के ज्ञान सम्बन्धी प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत 6 सूत्रों में क्रमश: सात प्रश्नोत्तर अंकित हैं-(१) क्या केवली छमस्थ को, (2) सिद्ध छद्मस्थ को, (3) केवली अवधिज्ञानी को, (4) केवली और सिद्ध परमावधिज्ञानी को, (5) केवली और सिद्ध केवलज्ञानी को, (6) केवलज्ञानी सिद्ध को तथा (7) सिद्ध सिद्धभगवान को जानते-देखते हैं ? इन सातों के ही शास्त्रीय 'हाँ' में हैं। केवली और सिद्धों द्वारा भाषण, उन्मेषण-निमेषणादिक्रिया-प्रक्रिया की प्ररूपरणा 7. केवली णं भंते ! भासेज्ज वा बागरेज्ज वा ? हंता, भासेज्ज वा वागरेज्ज वा। [7 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी बोलते हैं, अथवा प्रश्न का उत्तर देते हैं ? [7 उ. हाँ, गौतम ! वे बोलते भी हैं और प्रश्न का उत्तर भी देते हैं / 8. [1] जहा णं भंते ! केवली भासेज्ज वा बागरेज्ज वा तहा णं सिद्ध वि भासेज्ज वा वागरेज्ज वा? नो तिण8 समठे। [8-1 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार केवली बोलते हैं या प्रश्न का उत्तर देते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं ? [8-1 उ.] यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / [2] से केणढणं भंते ! एवं बुचइ जहाणं केवली भासेज्ज वा वागरेज वा नो तहाणं सिद्ध भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? ___ गोयमा ! केवली गं सउढाणे सकम्मे सबले सीरिए सपरिसक्कारपरक्कमे, सिद्ध णं अणुट्ठाणे जाव अपरिसक्कारपरक्कमे, से तेणढणं जाव वागरेज्ज वा / [8.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि केवली बोलते हैं एवं प्रश्न का उत्तर देते हैं, किन्तु सिद्ध भगवान् बोलते नहीं हैं और न प्रश्न का उत्तर देते हैं ? [8.2 उ.] गौतम ! केवलज्ञानी उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषकार-पराक्रम से सहित हैं, जबकि सिद्ध भगवान् उत्थानादि यावत् पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं / इस कारण से, हे गौतम ! सिद्ध भगवान् के वलज्ञानी के समान नहीं बोलते और न प्रश्न का उत्तर देते हैं। 9. केवली णं भंते ! उम्मिसेज्ज या निमिसेज्ज बा ? हंता, उम्मिसेज्ज वा निमिसेज्ज वा, एवं चेव / [प्र. भगवन् ! केवलज्ञानी अपनी आँखें खोलते हैं, अथवा मूदते हैं ? Page #1695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] हाँ, गौतम ! वे अांखें खोलते और बंद करते हैं। इसी प्रकार सिद्ध के विषय में पूर्ववत् इन दोनों बातों का निषेध समझना चाहिए। 10. एवं आउट्टज्ज वा पसारेज्ज वा।। [10] इसी प्रकार (केवलज्ञानी शरीर को) संकुचित करते हैं और पसारते (फैलाते) भी हैं। 11. एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसोहियं वा चेएज्जा / [11] इसी प्रकार वे खड़े रहते (अथवा स्थिर रहते अथवा बैठते या करवट बदलते-लेटते) हैं। वसति में रहते हैं (निवास करते हैं) एवं निषोधिका (अल्पकाल के लिए निवास) करते हैं / (सिद्ध भगदान के विषय में पूर्वोक्त कारणों से इन सब बातों का निषेध समझना चाहिए।) विवेचन केवली एवं सिद्ध के विषय में भाषादि 9 बातों सम्बन्धी प्रश्नोत्तर--प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 7 से 11 तक) में केवली और सिद्ध के विषय में-भाषण, प्रश्न का उत्तर-प्रदान, नेत्र-उन्मेष, नेत्र निमेष प्राकुंचन, प्रसारण तथा स्थिर रहना, निवास करना, अल्पकालिक निवास करना, इन 9 प्रश्नों का सहेतुक उत्तर क्रमश: विधि-निषेध के रूप में दिया गया है / कठिनशब्दार्थ-भासेज्ज-बिना पूछे बोलते हैं / वागरेन्ज-पूछने पर प्रश्न का उत्तर देते हैं। उम्मिसेज्ज-प्राँखें खोलते हैं / निमिसेज्ज--प्राँखें मूंदते हैं / आउटेज--प्राकुंचन करते, सिकोड़ते हैं। ठाणं खड़े होना या स्थिर होना, बैठना, करवट बदलना या लेटना / सेज्जं–निवास (वसति) निसोहियं-निषोधिका-प्रल्पकालिक निवास (वसति), चेएज्जा-करते हैं।' केवली द्वारा नरकपृथ्वी से लेकर ईषतप्रारभारापृथ्वी तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानने देखने को प्ररूपणा 12. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढाँव रयणप्पभपुढवी ति जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / {12 प्र. भगवन् ! क्या केवलज्ञानी रत्नप्रभापृथ्वो को 'यह रत्नप्रभापृथ्वो है' इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [12 उ.] हाँ (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं / 13. जहा णं भंते ! केवलो इमं रयणप्यभं पुढवि 'रयणप्पभपुढवो' ति जाणति पासति तहा णं सिद्ध वि रयणप्पमं पुढवि रयणप्पभपुढवो ति जाणति पासति ? हंता, जाणति पासति / [13 प्र. भगवन् ! जिस प्रकार केवलो इस रत्नप्रभापृथ्वी को यह रत्नप्रभापृथ्वो है,' इस प्रकार जानते-देखते हैं, उसी प्रकार क्या सिद्ध भी इस रत्नप्रभापृथ्वी को, यह रत्नप्रभापृथ्वी है. इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [13 उ.] हाँ (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 687 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 657-658 Page #1696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 10] [431 14. केवली णं भंते ! सक्करप्पभं पुढवि 'सक्करप्पभपुढवी' ति जाणति पासति ? एवं चेव / [14 प्र.] भगवन् ! क्या केवली, शर्कराप्रभापृथ्वी को, 'यह शर्क राप्रभापृथ्वी है ?' इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [14 उ.] हाँ, गौतम ! उसी प्रकार (केवली और सिद्ध दोनों के विषय में पूर्ववत्) समझना चाहिए। 15. एवं जाव अहेसत्तमा / [15] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक (पूर्वोक्त रूप से दोनों के विषय में) समझना चाहिए। 16. केवली गं भंते ! सोहम्मं कप्पं सोहम्मकप्पे' ति जाणति पासति ? हंता, जाणति / एवं चेव / [16 प्र. भगवन् ! क्या केवलज्ञानी सौधर्मकल्प को 'यह सौधर्मकल्प है'-इस प्रकार जानते-देखते हैं ? {16 उ.] हाँ, गौतम, वे जानते-देखते हैं, इसी प्रकार सिद्धों के विषय में भी कहना चाहिए / 17. एवं ईसाणं। [17] इसी प्रकार ईशान देवलोक के जानने-देखने के विषय में जानना चाहिए। 18. एवं जाव अच्चुयं / [18] इसी प्रकार (सनत्कुमार देवलोक से लेकर) यावत् अच्युतकल्प (तक के जानने-देखने) के विषय में कहना चाहिए / 19. केवली णं भंते ! गेवेज्जविमाणे 'गेबेज्जविमाणे त्ति जाणति पासति ? एवं चेव। [19 प्र.] भगवन् ! क्या केवली भगवान वेयकविमान को 'अवेयकविमान है—इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [16 उ.] हाँ, गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। 20. एवं प्रणुत्तरविमाणे वि / [20] इसी प्रकार (पांच) अनुत्तर विमानों के (जानने-देखने के) विषय में (कहना चाहिए / ) 21. केवली णं भंते ! ईसिपब्भारं पुढवि 'ईसीपन्भारपुढवी' ति जाणति पासति ? एवं चेव / [21 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी ईषत्प्राग्भारपृथ्वी को 'ईषत्प्राग्भारपृथ्वी है-- इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [21 उ.] (हाँ, गौतम ! ) पूर्ववत् समझना चाहिए / Page #1697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 22. केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं 'परमाणुपोग्गले' ति जाणति पासति ? एवं चेव / [22 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी परमाणुपुद्गल को 'यह परमाणुपुद्गल है' इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [22 उ.] इस विषय में भी पूर्ववत् समझना चाहिए / 23. एवं दुपदेसियं खंधं / [23] इसी प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध के विषय में समझना चाहिए। 24. एवं जाब जहा णं भंते ! केवलो अणंतपदेसियं खंधं 'अणंतपदेसिए खंधे ति जाति पासति तहा णं सिद्ध वि अणंतपदेसियं जाव पासति? हंता, जाणति पासति / सेवं भंते ! सेवं भंते! ति। / / चोद्दसमे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो // 14-10 // चोद्दसमं सयं समत्तं // 14 // [24] इसी प्रकार यावत् प्र. भगवन ! जैसे केवलो, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध को, 'यह अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध है'-इस प्रकार जानते-देखते हैं, क्या वैसे हो सिद्ध भी अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध को—'अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध है', इस प्रकार जानते-देखते हैं ? [उ.] हाँ, (गौतम ! ) वे जानते-देखते हैं। यहाँ तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; या कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत 13 सूत्रों (सू. 12 से 24 तक) में केवलो और सिद्ध के द्वारा रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक के तथा एक परमाणुपुद्गल तथा द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्र देशी स्कन्ध तक के जानने-देखने के सम्बन्ध में' प्रश्नोत्तर पूर्ववत् किये गए हैं। केवली शब्द से प्राशय-यहाँ भवस्थ केवली से है, क्योंकि सिद्ध के विषय में प्रागे पृथक् प्रश्न किया गया है। // चौदहवां शतक, दसवां उद्देशक समाप्त // // चौदहवां शतक सम्पूर्ण / / 1. बियाहपण्णत्तिनुत्त (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 687-685 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 658 Page #1698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमं सयं : पन्द्रहवां शतक गोशालक-चरित प्राथमिक * ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के पन्द्रहवें शतक में गोशालक के जन्म से लेकर भगवान् महावीर के शिष्य बनने, विमुख होने, अवर्णवाद करने तथा तेजोलेश्या से स्वयं दग्ध होने से लेकर अनन्तसंसारपरिभ्रमण करने और अन्त में आराधक होकर मोक्ष प्राप्त करने का क्रमशः वर्णन है। एक प्रकार से इस शतक में गोशालक के जीवन के प्रारोह-अवरोहों द्वारा कर्मसिद्धान्त की सत्यता का प्ररूपण है। * गोशालक के जीवन में पतन का प्रारम्भ तिल के पौधे के भविष्य के सम्बन्ध में भगवान् से पूछ कर उन्हें झुठलाने की कुचेष्टा से प्रारम्भ होता है। फिर एकान्ततः सर्वजीवों के प्रति परिवृत्यवाद की मिथ्या मान्यता को लेकर मिथ्यात्व का-मतमोह का विषवृक्ष बढ़ता ही जाता है, तत्पश्चात् वैश्यायन बालतपस्वी को छेड़ने पर उसके द्वारा गोशालक पर प्रहार की गई तेजोलेश्या का भगवान् ने शीतलेश्या द्वारा निवारण किया, यह जानकर भगवान से प्राग्रहपूर्वक तेजोलेश्या का प्रशिक्षण लेने के बाद तेजोलेश्या सिद्ध हो जाने से गोशालक का अहंकार दिनानुदिन बढ़ता गया / अपने पास आनेवाले के जीवनविषयक निमित्तकथन भूत-भविष्यकथन कर देने से उस युग का मूढ समाज गोशालक के प्रति आकर्षित होता जाता था। छह दिशाचर भी गोशलक के इस प्रकार के प्रचार से प्राकर्षित होकर उसके मत का प्रचार करने लगे। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रावस्ती नगरी में भगवान महावीर और तथागत बुद्ध दोनों का बारबार आवागमन रहा / इसलिए गोशालक भी श्रावस्ती में हालाहला कुम्भकारी के यहाँ जम कर प्रचार और उत्सूत्रप्ररूपण करने लगा / स्वयं को जिन कहने लगा। गोशालक की तीर्थकर के रूप में प्रसिद्धि उसकी वाचालता के कारण भी हुई। उसके अजीविकमतानुयायी बढ़ने लगे, जबकि भगवान् तथा भगवान के साधु-साध्वी-गण प्रचार कम करते थे, आचार (पंचाचार) में उनका दृढ़ विश्वास था / यही कारण है कि गोशालक का प्रचार धुअाधार होने से उसकी बात पर लोग विश्वास करने लगे। इस कारण उसके अहं को बल मिला / अत: वह भगवान के समक्ष भी धृष्ट होकर अपने अहंकार का प्रदर्शन करता रहा और स्वयं भगवान् के समक्ष ही अड़ गया। उनके उपकार को भूल कर स्वयं को छिपाता रहा / अपने पूर्वभव की तथा स्वयं को तीर्थंकर सिद्ध करने की कपोलकल्पित असंगत मान्यताओं का प्रतिपादन करता रहा / भगवान् ने उसे चोर के दृष्टान्तपूर्वक प्रेम से समझाया भी, किन्तु उसका प्रभाव उल्टा ही हुआ। वह भगवान् को मरने-मारने की धमकी देता रहा / भगवान् के दो शिष्यों ने जब गोशालक के समक्ष प्रतिवाद किया, उसे स्वकर्तव्य समभाया तो उसने सुनी-अनसुनी करके उन दोनों को भस्म करने के लिए तेजोलेश्या छोड़ो / उनमें से एक तत्काल भस्म हो गए, दूसरे अनगार पीड़ित हो गए। 7 Page #1699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * इसके पश्चात् भी जब गोशालक ने भगवान को छह मास के अन्त में पित्तज्वर से दाहपीड़ावश छदमस्थावस्था में ही मरने की धमकी दी तो भगवान ने जनता में मिथ्या प्रचार की सम्भावना को लेकर प्रतिवाद किया और कहा--गोशालक सात रात्रि में ही पित्तज्वर से पीड़ित होकर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होगा तथा स्वयं के 16 वर्ष तक जीवित रहने की भविष्यवाणी की / भगवान के साधूनों ने गोशालक को तेजोहीन समझ धर्मचर्चा में पराजित किया / फलत: बहुत से आजीविक-स्थविर गोशालक का साथ छोड़ भगवान् की शरण में आगए। गोशालक ने भगवान् को तेजोलेश्या के प्रहार से मारना चाहा था, किन्तु वह उसी के लिए घातक बन गई। वह उन्मत्त की तरह प्रलाप, मद्यपान, नाच-गान आदि करने लगा / अपने दोषों के ढंकने के लिए बह चरमपान, चरमगान प्रादि 8 चरमों की मनगढन्त प्ररूपणा करने लगा। अयं पुल नामक प्राजीविकोपासक गोशालक की उन्मत्त चेष्टाएँ देख विमुख होने वाला था, उसे स्थविरों ने ऊटपटांग समझाकर पूनः गोशाल कमत में किया / * गोशालक ने अपना अन्तिम समय निकट जान कर अपने स्थविरों को निकट बुलाकर धूमधाम से शवयात्रा निकालने तथा मरणोत्तर क्रिया करने का निर्देश शपथ दिलाकर किया। किन्तु जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी तभी गोशालक को सम्यक्त्व उपलब्ध हुअा और उसने स्वयं अात्मनिन्दापूर्वक अपने कुकृत्यों तथा उत्सूत्र-प्ररूपणा का रहस्योद्घाटन किया और मरण के अनन्तर अपने शव की विडम्बना करने का निर्देश दिया / स्थविरों ने उसके आदेश का औपचारिक पालन ही किया। इसके पश्चात् भगवान् के शरीर में पित्तज्वर का प्रकोप, लोकापवाद सुन सिंह अनगार को शोक, भगवान् द्वारा मन समाधान, रेवती के यहाँ से औषध लाने का आदेश तथा औषध-सेवन से रोगोपशमन, भगवान् के प्रारोग्यलाभ से चतुर्विध संघ, देव-देवी-दानव-मानवादि सबको प्रसन्नता हुई। * शतक के उपसंहार मे गौतमस्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने गोशालक के भावी जन्मों को झांकी बतलाकर सभी योनियों और गतियों में अनेक बार भ्रमण करने के पश्चात क्रमशः आराधक होकर महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ केवली होकर अन्त में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का उज्ज्वल भविष्य कथन किया है। * प्रस्तुत शतक से भाजी विक सम्प्रदाय के सिद्धान्त और इतिहास का पर्याप्त परिचय मिलता है / Page #1700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमं सतं : पन्द्रहवाँ शतक गोशालक चरित मध्य-मंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए भगवतीए / [1] भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो / विवेचन--प्रस्तुत मूत्र द्वारा शास्त्रकार ने विशालकाय व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का मध्यमंगलाचरण विघ्नोपशमनार्थ किया है। श्रावस्ती निवासी हालाहला का परिचय एवं गोशालक का निवास 2. तेणं कालेणं तेणं समयेणं सावत्थी नाम नगरी होत्था / वण्णओ। [2] उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन पूर्ववत समझना चाहिए। 3. तीसे णं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसोभाए, एत्थ णं कोट्ठए नाम चेतिए होत्था / वण्णओ। [3] उस श्रावस्ती नगरी के बाहर उत्तरपूर्व-दिशाभाग में कोष्ठक नामक चैत्य (उद्यान) था / उसका वर्णन पूर्ववत् / 4. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए हालाहला नामं कुभकारी आजीविप्रोवासिया परिवसति, अड्डा जाव अपरिभूया आजीवियसमयंसि लट्ठा गहिट्ठा पुच्छ्यिट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्टिमिजपेम्माणुरागरत्ता 'अयमाउसो! आजीवियसमये अट्ठ, अयं परमट्ट, सेसे अण?' ति आजीवियसमएणं अपाणं भावेमाणी विहरति / [4] उस श्रावस्ती नगरी में ग्राजीविक (गोशालक) मत की उपासिका हालाहला नाम की कुम्भारिन रहती थी। वह आढ्य (धन आदि से सम्पन्न) यावत् अपरिभूत थी। उसने प्राजीविकसिद्धान्त का अर्थ (रहस्य) प्राप्त कर लिया था, सिद्धान्त के अर्थ को ग्रहण (स्वीकार या ज्ञात) कर लिया था, उसका अर्थ पूछ लिया था, अर्थ का निश्चय कर लिया था। उसकी अस्थि (हड्डी) और मज्जा (रग-रग ग्राजीविक मत के प्रति) प्रेमानुराग से रंग गई थी। 'हे आयुष्मन् ! यह आजीविक सिद्धान्त ही सच्चा अर्थ है, यही परमार्थ है, शेष सब अनर्थ हैं, इस प्रकार वह आजीविक सिद्धान्त से अपनी प्रात्मा को भावित करती हुई रहती थी। Page #1701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. तेणं कालेणं तेणं समयेणं गोसाले मखलिपुत्ते चतुबीसवासपरियाए हालाहलाए कुभकारोए कुंभारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे आजीवियसमयेणं प्रप्पागं भावेमाणे विहरति / [5] उस काल उस समय में चौवीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशालक, हालाहला कुम्भारिन की कुम्भका रापण (मिट्टी के बर्तनों को दुकान) में आजीविक संघ से परिवृत होकर आजीविक सिद्धान्त से अपना प्रात्मा को भावित करता हुअा विचरण करता था / विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों में आजीविकसम्प्रदायाचार्य मंखलीपुत्र गोशालक के चरित के सन्दर्भ में श्रावस्ती नगरी की आजीविक सम्प्रदाय की परम उपासिका हालाहला कुभारिन का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्रावस्तीस्थित उसकी दूकान में गोशालक के आजीविक संघसहित निवास करने का वर्णन किया गया है।' गोशालक का छह दिशाचरों को अष्टांगमहानिमित्तशास्त्र का उपदेश एवं सर्वज्ञादि अपलाप 6. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छदिसाचरा अंतियं पादुम्भविस्था, तं जहा--सोणे कणंदे कणियारे अच्छिद्दे अग्गिवेसायणे अज्जुणे गोमायु (गोयम) पुत्ते / [6] तदनन्तर किसी दिन उस मलिपुत्र गोशालक के पास ये छह दिशाचर पाए (प्रादुर्भूत हुए) / यथा—(१) शोण, (2) कनन्द, (3) कणिकार, (4) अच्छिद्र, (5) अग्निर्वैश्यायन और (6) गौतम (गोमायु)--पुत्र अर्जुन / 7. तए णं ते छद्दिसाचरा अढविहं पुत्वगयं मग्गदसमं सएहि सहि मतिदंसह निज्जूहंति, स० निहित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवट्ठाईसु / [7] तत्पश्चात् उन छह दिशाचरों ने पूर्वश्रुत में कथित अष्टांग निमित्त, (नौवें गीत-) मार्ग तथा दसवें (नृत्य-) मार्ग को अपने-अपने मति-दर्शनों से पूर्वश्रुत में से उद्धत किया, फिर मंलिपुत्र गोशालक के पास उपस्थित (शिष्यभाव से दीक्षित) हुए। 8. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेण सव्वेसि पाणाणं सवेसि भूयाणं सन्वेसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं इमाई छ प्रणतिक्कमणिज्जाई वागरणाई वागरेति, तं जहा—लाभं अलाभं सुहं दुक्खं जीवितं मरणं तहा / [8] तदनन्तर वह मंलिपुत्र गोशालक, उस अष्टांग महानिमित्त के किसी उपदेश (उल्लोकमात्र) द्वारा सर्व प्राणों, सभी भूतों, समस्त जीवों और सभी सत्त्वों के लिए इन छह अनतिक्रमणीय (जो अन्यथा--असत्य न हों, ऐसी) बातों के विषय में उत्तर देने लगा। वे छह बातें ये हैं---(१) लाभ, (2) अलाभ, (3) सुख, (4) दुःख, (5) जीवन और (6) मरण / 1. वियाहपण्णतिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, 5, 689 Page #1702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [437 9. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए नगरोए अजिणे जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवलिप्पलावी, असवण्णू सवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरति / |8और तब मखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महा-निमित्त के स्वल्प उपदेशमात्र से श्रावस्ती नगरी में जिन नहीं होते हुए भी, 'मैं जिन हूँ' इस प्रकार प्रलाप करता हुआ, अर्हन्त न होते हुए भी, 'मैं अहत् हूँ', इस प्रकार का बकवास करता हुना, केवली न होते हुए भी, 'मैं केवली हूँ' इस प्रकार का मिथ्याभाषण करता हुआ, सर्वज्ञ न होते हुए भी 'मैं सर्वज्ञ हूँ', इस प्रकार मृषाकथन करता हुया और जिन न होते हुए भी अपने लिए 'जिनशब्द' का प्रयोग करता हुआ विचरता था। विवेचन-आजीविक मत प्रचार-प्रसार के तीन प्रारम्भिक निमित्त....प्रस्तत चार सत्रों स.६ से तक) में आजीविक-मतीय प्रचार-प्रसार के प्रारम्भिक तीन निमित्त कौन-कौन से बने ? इसकी संक्षिप्त झांकी दी है-(१) सर्वप्रथम मखलीपुत्र गोशालक के पास 6 दिशाचर शिष्यभाव से दीक्षित हुए। (2) तत्पश्चात् अष्टांग महानिमित्त शास्त्र के माध्यम से लोगों को जीवन की 6 बातों का उत्तर देना और (3) जिन, अर्हत् अादि न होते हुए भी स्वयं को जिन अर्हत् आदि के रूप में प्रकट करना। दिशाचर कौन थे? –वृत्तिकार ने दिशाचर का अर्थ किया है जो दिशा-मर्यादा में चलते हैं, या विविध दिशाओं में जो विचरण करते हैं और मानते हैं कि हम भगवान के शिष्य हैं / प्राचीन वृत्तिकार कहते हैं कि ये छह दिशाचर भगवान् के ही शिष्य थे, किन्तु संयम में शिथिल (पासत्थपार्श्वस्थ) हो गए थे। चूर्णिकार के मतानुसार ये भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय-शिष्यानुशिष्य (पाश्र्वापत्य) थे। अष्टांग महानिमित्त-अष्टविध महानिमित्त इस प्रकार हैं--(१) दिव्य, (2) औत्पात, (3) अान्तरिक्ष (4) भौम, (5) प्रांग, (6) स्वर, (7) लक्षण और (8) व्यंजन / कठिनशब्दार्थ-प्रविहं पुव्वगयं मग्गदसम : भावार्थ-पूर्व नामक श्रुतविशेष से उद्धत अष्टविध निमित्त तथा नवम-दशम दो मार्ग (नवम शब्द यहाँ लुप्त है), अर्थात्-गीतमार्ग (नौवा) और नृत्यमार्ग (दसवाँ) / केणइ उल्लोयमेत्तेण-किसी उल्लोकमात्र से-उपदेशमात्र सेकिसी प्रश्न का उत्तर देकर / सएहि मतिदसणेहि अपनी-अपनी बुद्धि और दृष्टि से--प्रमेयवस्तु के विश्लेषण से / निज्जहति-नियूं हण किया-अर्थात्-पूर्वलक्षण श्रुतपर्याय समूह से निर्धारित--उद्धत किया / उवट्ठाइंसु उपस्थित हुए.-उसके शिष्यरूप में प्राश्रित-दीक्षित हुए / अणइक्कमणिज्जाई --- 1. वियाहपण्णत्ति (मू. पा. टि. युक्त) भा. 2, पृ. 690 2. दिश—मेरां चरन्ति–यान्ति, मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा / दिक्चरा भगवच्छिष्याः पावस्थीभूता इति टीकाकारः / पासावच्चिज्जत्ति चर्णिकारः / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र 659 3. वही, अ. वृत्ति, पत्र 659 Page #1703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनतिक्रमणीय-जिन्हें टाला नहीं जा सकता, ऐसे अनिवार्य / बागरणाई वागरेति-पुरुषार्थोपयोगी 6 बातों के विषय में पूछने पर यथार्थरूप में उत्तर देता था।' बतलाता था / ' सम्वण्ण-सर्वज्ञ / ' गोशालक को वास्तविकता जानने की गौतमस्वामी को जिज्ञासा, भगवान द्वारा समाधान 10. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेति-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावो जाव पकासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं ? [10] इसके बाद श्रावस्ती नगरी में शृगाटक (सिंघाड़े के आकार वाले त्रिक-तिराहे) पर, यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक-दूसरे से इस प्रकार कहने लगे, यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! (हमने) निश्चित ही (ऐसा सुना है) कि गोशालक मखलिपुत्र जिन' हो कर अपने आप को 'जिन' कहता हुअा, यावत् 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट (प्रकाश) करता हुमा विचरता है, तो इसे ऐसा कैसे माना जाए? 11. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामो समोसढे / जाव परिसा पडिगता / [11] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर वहाँ पधारे, यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर वापिस चली गई। 12. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमे गोतेणं जाव छटु छ?णं एवं जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स० 2 उ० 5 सु० 21-24) जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ.-"बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइकति ४–एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावो जाव पकासेमाणे विहरइ / से कहमेयं मन्ने एवं ?" / [12] उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्ते वामो (शिष्य) मौतमगोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् छठ-छठ (बेले-वेले) धारणा करते थे; इत्यादि वर्णन दूसरे यानक के पांचवें निर्ग्रन्थ-उद्देशक (सू. 21 से 24) के अनुसार समझना / यावत् गोवरी के लिए भ्रमण (भिक्षाटन) करते हुए गौतमस्वामी ने बहुत-से लोगों के शब्द सुने, (वे) बहुत-से लोग परस्पर इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे कि देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक जिन हो कर अपने आपको जिन कहता हग्रा, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुअा विचरता है। उसको यह वात कैसे मानी जाए? ___ 13. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयभट्ट सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जाव भत्त-पाणं पडियंसेति जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी--एवं खल अहं भंते ! 0, तं चेव जाब जिणसदं पगासेमाणे. विहरइ, से कहमेतं भंते ! एवं ? तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उढाणपारियाणियं परिकहियं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 659 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2370 Page #1704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [439 [13] तदनन्तर भगवान् गौतम को बहुत-से लोगों से यह बात सुन कर एवं मन में अवधारण कर यावत् प्रश्न पूछनें की श्रद्धा (मन में) उत्पन्न हुई, यावत् (भगवान् के निकट पहुंच कर उन्होंने) भगवान को आहार-पानी दिखाया। फिर पावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले'भगवन् ! मैं ट्ट (बेले के तप) के पारणे में भिक्षाटन""इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए, यावत् गोशालक 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है, तो हे भगवन् ! उसका यह कथन कैसा है ? अतः भगवन् ! मैं मखलिपुत्र गोशालक का जन्म से लेकर अन्त तक का वृत्तान्त (अापके श्रीमुख से ) सुनना चाहता हूँ / विवेचन--मखलिपुत्र गोशालक के चरित की जिज्ञासा--प्रस्तुत 4 सूत्रों (सू. 10 से 13 तक) में मंखलिपुत्र गोशालक के विषय में बहुत-से लोगों से सुनकर श्री मौतमस्वामी के मन में भगवान से इसका समाधान प्राप्त करने की जिज्ञासा प्रादुर्भूत हुई, जिसकी संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत है। जिज्ञासा के कारण ये हैं--(१) श्रावस्ती नगरी में तिराहे-चौराहे प्रादि पर बहत-से लोगों का परस्पर गोशालक के जिन आदि होने के सम्बन्ध में वार्तालाप / (2) राजगृह में विराजमान भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम ने छठ नप के पारण के लिए नगर में भिक्षाटन करते हुए बहुत-से लोगों से गोशालक के विषय में वही चर्चा सुनी। (3) भगवान् की सेवा में पहुँचकर भगवान के समक्ष अपनी गोशालक चरितविषयक जिज्ञासा प्रस्तुत की और भगवान् से समाधान मांगा।' कठिन शब्दों के अर्थ-जिणालावी-जिन न होते हुए भी जिन कहने वाला / पडिदंसेतिदिखलाता है / उट्ठाणपारियाणियं-उत्थान- जन्म से लेकर पर्यवसान-अन्त तक का चरित / गोशालक के माता-पिता का परिचय तथा भद्रा माता के गर्भ में प्रागमन 14. 'गोतमा !' दो समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी-जं गं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइवखति 4 ‘एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति' तं गंमिच्छा, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि---एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंलिपुत्तस्स मखली णाम मखे पिता होत्था / तस्स णं मखलिस्स मंखस्स भद्दा नाम भारिया होत्था, सुकुमाल जाव पडिरूवा / तए णं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदायि गुच्चिणी यावि होत्था / [14] --- (भगवन् ने कहा) हे गौतम ! इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा--गौतम ! बहत-से लोग, जो परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपित करते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' हो कर तथा अपने आपको 'जिन' कहता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुअा विचरता है, यह बात मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि मंलिपुत्र गोशालक का, मंख जाति .-. ...---- 1. वियाहपणत्तिसतं (मूलपाठ-टिपणयुक्त) भा. 2, पृ. 691 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 661 'उद्राण-पारियाणियं' ति परियान--विविधव्य तिकरपरिगमनं, तदेव पारिया निक- चरितम् / उत्थानातजन्मन प्रारभ्य पारियानिकम उत्थानपारियानिक तत परिकथितं भगवद्भिरिति गम्यते / --प. बत्ति Page #1705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का मखली नाम का पिता था। उस मंखजातीय मंखली की भद्रा नाम को भार्या (पत्नी) थो / वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) थी। किसी समय वह भद्रा नामक भार्या गर्भवती हुई। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में गोशालक के जिन होने के दावे का खण्डन करते हुए भगवान ने उसके पिता-माता का परिचय देकर कहा-मखली की भार्या भद्रा के गर्भ में गोशालक पाया / ' शरवण-सग्निवेश में गोबहुल ब्राह्मण को गोशाला में मंखलि-भद्रा का निवास, गोशालक का जन्म और नामकरण 15. तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे नामं सन्निवेसे होत्था, रिथिमिय जाव सन्निभप्पगासे पासादीए 4 / [15] उस काल उस समय में 'शरवण' नामक सन्निवेश (नगर के बाहर का प्रदेश–उपनगर) था। वह ऋद्धि-सम्पन्न, उपद्रव-रहित यावत् देवलोक के समान प्रकाश वाला और मन को प्रसन्न करने वाला था, यावत् प्रतिरूप था। 16. तत्थ णं सरवणे सन्निवेसे गोबहुले नामं माहणे परिवसति अजाव अपरिभूते रिउव्वेद जाव सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था। तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्था / [16] उस सन्निवेश में 'गोबहुल' नामक एक ब्राह्मण (माहन) रहता था / वह प्राढ्य यावत् अपराभूत था / वह ऋग्वेद आदि बैदिकशास्त्रों के विषय में भलीभांति निपुण था। गोबहुल ब्राह्माण की एक गोशाला थी। 17. तए णं से मंखलो मखे अन्नदा कदायि भद्दाए भारियाए गुन्विणीए सद्धि चित्तफलगहस्थगए मंखत्तणेणं अपागं भावमाणे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सरवणे सग्निवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेति, भंड० क० 2 सरवणे सन्निवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खारियाए अडमाणे वसहीए सम्वनो समंता मागणगवेसणं करेति, वसहीए सन्चो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अन्नत्थ वसहि अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए / [17] एक दिन वह मंखली नामक भिक्षाचर (मंख) अपनी गर्भवती भद्रा भार्या को साथ लेकर निकला। वह चित्रफलक हाथ में लिये हए चित्र बता कर आजीविका करने वाले भिक्षको की वृत्ति से (मखत्व से) अपना जीवनयापन करता हुआ, क्रमश: ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ जहाँ शरवण नामक सनिवेश था और जहाँ गोबहुल ब्राह्मण को गोशाला थी, वहां आया। फिर उसने गोबल ब्राह्मण को गोशाला के एक भाग में अपना भाण्डोपकरण (सामान) रखा। तत्पश्चात् वह शरवण सन्निवेश में उच्च-नीच-मध्यम कुलों के गृहसमूह में भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुमा 1. वियाहरणत्तिसुतं भा. 2, (मू. पा. टिप्पण) पृ. 691 Page #1706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पन्द्रहवां शतक] [441 वसति में चारों ओर सर्वत्र अपने निवास के लिए स्थान की खोज करने लगा / सर्वत्र पूछताछ और गवेषणा करने पर भी जब कोई निवासयोग्य स्थान नहीं मिला तो उसने उसी गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला के एक भाग में वर्षावास (चातुर्मास) बिताने के लिए निवास किया / 18. तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य रातिदियाणं वोतिक्कताणं सुकुमाल जाव पडिरूवं दारगं पयाता / [18] तदनन्तर (वहाँ रहते हुए) उस भद्रा भार्या ने पूरे नौ मास और साढ़े सात रात्रि. दिन व्यतीत होने पर एक सुकुमाल हाथ-पैर वाले यावत् सुरूप पुत्र को जन्म दिया / 19. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वोतिक्कते जाव बारसाहदिवसे अयमेतारूवं गोणं गुणनिष्फन्नं नामधेज्जं करेंति--जम्हा णं अम्हं इमे दारए गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए जाए तं होउणं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेन्ज गोसाले, गोसाले' ति। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्ज करेंति 'गोसाले' त्ति / [16] तत्पश्चात् ग्यारहवाँ दिन बीत जाने पर यावत् बारहवें दिन उस बालक के मातापिता ने इस प्रकार का गौण (गुणयुक्त), गुणनिष्पन्न नामकरण किया कि हमारा यह बालक गोब हुल ब्राह्मण की गोशाला में जन्मा है। इसलिए हमारे इस बालक का नाम गोशालक हो और तभी उस बालक के माता-पिता ने उस बालक का नाम 'गोशालक' रखा / विवेचन---प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 15 से 16 तक) में गोशालक के जन्मस्थान, जन्म और नामकरण का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है- (1) शरवण सन्निवेश में वेदादि निपुण गोबहुल ब्राह्मण की गोशाला थी। (2) गोशालक का पिता मंखली अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा को लेकर शरवण सत्रिवेश में गोबहल की गोशाला में पाया। भिक्षाटन के समय उसने सारा गाँव छान मारा, किन्तु उसे अन्य कोई निवासयोग्य स्थान न मिला अतः वहीं वर्षावास बिताने हेतु पड़ाव डाला। (3) उसी गोशाला में भद्रा ने एक बालक को जन्म दिया। (4) 12 वें दिन माता-पिता ने उस बालक का गुणनिष्पन्न गोशालक नाम रक्खा / ' यौवनवयप्राप्त गोशालक द्वारा स्वयं मंखवृत्ति 20. तए गं से गोसाले दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणतमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएक्कं चित्तफलगं करेति, सय० क० 2 चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [20] तदन्तर वह बालक गोशालक बाल्यावस्था को पार करके एवं विज्ञान से परिपक्व बुद्धि वाला होकर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। तब उसने स्वयं व्यक्तिगत (स्वतन्त्र) रूप से चित्रफलक तैयार किया / व्यक्तिगत रूप से तैयार किये हुए चित्रफलक को स्वयं हाथ में लेकर मंखवृत्ति से प्रात्मा को भावित करता हुआ विचरण करने लगा। विवेचन–प्रस्तुत 20 वें सूत्र में युवक गोशालक द्वारा स्वतन्त्र रूप से चित्रपट लेकर मंखवृत्ति करने का वर्णन है। 1. वियाहपण त्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 692 Page #1707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-विण्णायपरिणयमेत्ते-विज्ञान-कार्मिकज्ञान से परिणत--परिपक्व मति वाला। पाडिएक्कं--प्रत्येक अर्थात्-पिता के फलक से पृथक् व्यक्तिगत फलक / चित्तफलगहत्थएचित्रांकित फलक (पट या पटिया) हाथ में लेकर / मंखत्तणेण--मखपन से, चित्र बता कर आजीविका करने वाले भिक्षकों की वत्ति से।' गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृत्तान्त : भगवान के श्रीमुख से 21. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता अम्मापितीहिं देवत्ते गतेहिं एवं जहा भावणाए जाव एवं देवदूसमुपादाय मुडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पवइए / [21] उस काल उस समय में, हे गौतम ! मैं तीस वर्ष तक गृहवास में रह कर, माता-पिता के दिवंगत हो जाने पर (आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के 15 व) भावना नामक अध्ययन के अनुसार (माता-पिता के जीवित रहते मैं श्रमण नहीं बनूंगा,—इस प्रकार का अभिग्रह पूर्ण होने पर, मैं हिरण्य-सुवर्ण, सैन्य-वाहनादि का त्याग कर इत्यादि) यावत् एक देवदूष्य वस्त्र ग्रहण कर के मुण्डित हुअा और गृहस्थवास को त्याग कर अनगार धर्म में प्रबजित हुआ। 22. तए णं अहं गोतमा ! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे अद्रियगामं निस्साए पढमं अंतरवास वासावासं उवागते / दोच्च वास मासंमासेणं खममाणे पुब्वाणुयुटिव चरमाणे गामाणुगामंते दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, ते० उवा० 2 प्रहापडिरूवं ओग्गहं प्रोगिण्हामि, अहा० ओ० 2 तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागते / तए णं अहं गोतमा ! पढम मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताण विहरामि / [22] तत्पश्चात हे गौतम ! मैं (दीक्षा ग्रहण करने के) प्रथम वर्ष में अर्द्ध मास-अर्द्धमास क्षमण (पाक्षिक तप) करते हुए अस्थिक ग्राम की निश्रा में, प्रथम वर्षाऋतु के अवसर (अन्तर) पर वर्षावास के लिए आया। दूसरे वर्ष में मैं मास-मास-क्षमण (एक मासिक तप) करता हुआ, क्रमशः विचरण करता और ग्रामानुग्राम विहार करता हुया राजगृह नगर में नालन्दा पाड़ा के बाहर, जहाँ तन्तुवायशाला (जुलाहों की बुनकरशाला) थी, वहाँ आया। फिर उस तन्तुबायशाला के एक भाग में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके मैं वर्षावास के लिए रहा / तत्पश्चात्. हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण (तप) स्वीकार करके कालयापन करने लगा। 1. (क) 'विज्ञानं कार्मणे ज्ञाने'-हैमनाममाला (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 661 (ग) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2374 2. "एवं जहा भावणाए ति आचारद्वितीयश्र तस्कन्धत्य पञ्चदशेऽध्ययने / अनेन चेदं सूचितम-समत्तपइण्णे नाहं समणो होहं अम्मापियरम्मि जीवंते' त्ति समाप्ताभिग्रह इत्यर्थः / चिच्चा हिरण्णं चिच्चा सुवण्णं चिच्चा बलं इत्यादीति" अव / / 3. Page #1708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ शतक] [443 23. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलमहत्थगए मखत्तणेण अप्पाणं भावेमाणे पुवाणुपुब्धि चरमाणे जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छति, ते० उवा० 2 तंतुवायसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेइ, भंड० क० 2 रायगिहे नगरे उच्च-नीय जाव अन्नत्थ कथयि वसहि अलभमाणे तोसे व तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागते जत्थेव णं अहं गोयमा ! / [23] उस समय वह पंखलिपुत्र गोशालक चित्रफलक हाथ में लिये हए मंखपन से (चित्रपट-अंकित चित्र दिखा कर) आजीविका करता हा क्रमश : विचरण करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाता हुआ, राजगह नगर में नालंदा पाड़ा के बाहरी भाग में, जहाँ तन्तुवायशाला थी, वहां पाया। फिर उस तन्तुवायशाला के एक भाग में उसने अपना भाण्डोपकरण (सामान) रखा / तत्पश्चात् राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुल में भिक्षाटन करते हुए उसने वर्षावास के लिए दूसरा स्थान ढुढने का बहुन प्रयत्न किया, किन्तु उसे अन्यत्र कहीं भी निवासस्थान नहीं मिला, तब उसो तन्तुवायशाला के एक भाग में, हे गौतम ! जहाँ मैं रहा हुआ था, वहीं, वह भी वर्षावास के लिए रहने लगा। विवेचन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सु. 21-22-23) में भगवान महावीर ने अपने श्रीमुख से गोशालक के साथ प्रथम समागम का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। कठिनशब्दार्थ-देवत्तगतेहि.----देवलोक हो जाने पर। अणगारियं पब्वइए–अनगारधर्म में प्रवजित हुप्रा / प्रद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे--अर्द्धमास (पक्ष), अर्द्ध मास का तप करते हुए / पढमं अंतरवास----प्रथम वर्ष के अन्तर-अवसर पर। वासावासं वर्षावास ( चातुर्मास ) के लिए। हिस्साए-निश्रा से-पाश्रय ले कर / उवागए-पाया / तंतुवायसाला–बुनकर शाला / ' - प्रथम समागम-वृत्तान्त -(1) माता-पिता के दिवंगत हो जाने के बाद अनगार धर्म में प्रजित होने का वृत्तान्त / (2) दोक्षा लेने के बाद अर्द्ध मासक्षमण तप करते हुए प्रथम वर्षावास अस्थिक ग्राम में बिताया। द्वितीय वर्षावास मास-मास क्षमण तप करते हुए राजगृह में नालन्दा पाड़ा के बाहर स्थित तन्तुवायशाला में बिता रहे थे। (3) उस समय मंखलीपुत्र गोशालक अपनी मंखवृत्ति से प्राजोविका करता हुआ घूमता-घामता राजगृह में, अन्यत्र कोई अच्छा स्थान न मिलने से उसी तन्तुबायशाला में आकर रह गया / यही भगवान् के साथ गोशालक का प्रथम समागम हुआ। विजय गाथापतिगृह में भगवत्पारणा, पंचदिव्यप्रादुर्भाव, गोशालक द्वारा प्रभावित होकर भगवान के शिष्य बनाने का वृत्तान्त 24. तए णं अहं गोयमा ! पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तंतु० प 2 णालंदं बाहिरियं मझमझेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, ते० उवा० 2 रायगिहे नगरे उच्च-नोय जाव अडमाणे विजयस्स गाहावतिस्स गिह अणुष्पविट्ठ। 1, (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 663 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2377 2. बिहायपण्णतिसुत्तं भा. 2, (मू. पा. 19) पृ. 693-694 Page #1709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [24] तदनन्तर, हे गौतम ! मैं प्रथम मासक्षमण के पारणे के दिन तन्तुबायशाला से निकला और फिर नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होता हुआ राजगृह नगर में पाया / वहाँ ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए मैंने विजय नामक गाथापति के घर में प्रवेश किया। 25. तए णं से विजये गाहावती मम एज्जमाणं पासति, पा० 2 हट्टतुटु० खिप्पामेव आसणाग्रो अब्भुट्ठति, खि० अ० 2 पादपीढायो पच्चोरुभति, पाद० प० 2 पाउयाओ ओमुयइ, पा० ओ० 2 एगसाडियं उत्तरासंगं करेति, एग० क० 2 अंजलिमलियहत्थे मम सत्तट्ठपयाई अणुगच्छति, प्र० 2 ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति, 20 2 मम वंदति नमसति, मम व 2 ममं विउलेणं असणपाण-खाइम-साइमेणं 'पडिलाभेस्सामि' त्ति कट्ट, तु?, पडिलाभेमाणे वि तु?, पडिलाभिते वि तु?। [25] उस समय विजय गाथापति (अपने घर के निकट ) मुझे प्राते हुए देख अत्यन्त हषित एवं सन्तुष्ट हुा / वह शीघ्र ही अपने सिंहासन से उठा और पादपीठ से नीचे उतरा। फिर उसने पैर से खड़ाऊँ निकाली। एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। दोनों हाथ जोड़ कर सात-पाठ कदम मेरे सम्मुख पाया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके बन्दन-नमस्कार किया। फिर वह ऐसा विचार करके अत्यन्त संतष्ट मा कि मैं ग्राज भगवान को विपल अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप (चविध) आहार से प्रतिलाभगा। वह प्रतिलाभ लेता हा भी संतुष्ट हो रहा था और प्रतिलाभिन होने के बाद भी सन्तुष्ट रहा / 26. तए णं तस्स विजयस्स गाहावतिस्स तेणं दव्वमुद्धण दायगसुद्धणं पडिगाहगसुद्धण तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध, संसारे परित्तोकते, गिर्हसि य से इमाइं पंच दिव्वाई पादुब्भूयाई, तं जहा-वसुधारा वुट्ठा 1, दसवण्णे कुसुमे निवातिते 2, चेलुक्खेवे कए 3, आहयाओ देवदुदुभीओ 4, अंतरा वि य णं आगासे 'अहो ! दाणे, अहो ! दाणे' त्ति 8 5 / [26] उस अवसर पर उस विजय गाथापति ने उस दान में द्रव्यशुद्धि से, दायक (दाता की। शुद्धि से और पात्रशुद्धि के कारण तथा तीन करण-मन-वचन-काया और कृत, कारित और अनुमोदित की शुद्धिपूर्वक मुझे प्रतिलाभित करने से उसने देव का अायुष्य-बन्ध किया, संसार परिमित (परित्त) किया। उसके घर में ये पांच दिव्य प्रादर्भूत (प्रकट) हए / यथा-(१) वसुधारा की वष्टि, (2) पांच वर्षों के फूलों की वृष्टि, (3) ध्वजारूप वस्त्र की वृष्टि, (4) देवदुन्दुभि का वादन और (5) अाकाश में 'अहो दानम्, अहो दानम्' की घोषणा। 27. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेति--धन्ने ण देवाणुप्पिया ! विजये गाहावतो, कतत्थे गं देवाणुप्पिया! विजये गाहावती, कयपुन्ने ण देवाणुप्पिया ! विजये गाहावती, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया ! विजये माहावती, कया णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहायतिस्स, सुलझे देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जम्मजोवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइं Page #1710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [445 पंच दिवाई पादुब्भूयाई, तं जहा—वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे घुट्ठ। तं धन्ने कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं लोया, सुलद्ध माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावतिस्स, विजयस्स गाहायतिस्स। [27] उस समय राजगह नगर में शृगाटक, त्रिक, चतुष्क मार्गों यावत् राजमार्गों में बहुतसे मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे कि हे देवानुप्रियो ! विजय गाथापति धन्य है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतार्थ है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति कृतपुण्य (पुण्यशाली) है, देवानुप्रियो / विजय गाथापति कृतलक्षण (उत्तम लक्षणों वाला) है, देवानुप्रियो ! विजय गाथापति के उभयलोक सार्थक हैं और विजय गाथापति का मनुष्य जन्म और जीवन रूप फल सुलब्ध (प्रशंसनीय) है कि जिसके घर में तथारूप सौम्य रूप साधु (उत्तम श्रमण) को प्रतिलाभित करने से ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं / यथा-वसुधारा की वृष्टि यावत् 'अहोदान, अहोदान' की घोषणा हुई है / अंतः विजय गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है / उसके दोनों लोक सार्थक हैं। विजय गाथापति का मानवजन्म एवं जीवन सफल हैं—प्रशंसनीय है। 28. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणरस अंतियं एयम? सोच्चा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावतिस्स गिहे तेणेव उवागच्छति, ते० उवा० 2 पासति विजयस्स गाहावतिस्स गिहंसि वसुधारं त्रुटुं, दसवण्णं कुसुमं निवडियं / ममं च णं विजयस्स गाहावतिस्स गिहाओ पडिनिवखममाणं पासति, पासित्ता हतद्र० जेणेव ममं अंतियं तेणेव उवागच्छति, उवा०२ ममं तिक्खुत्तो आदाहिणपदाहिणं करेति, कल 2 ममं वंदति नमसति, वं० 2 ममं एवं वयासीतुम्भे गं भंते ! ममं धम्मायरिया, अहं णं तुभं धम्मंतेवासी। |28] उस अवसर पर मंखलिपुत्र गोशालक ने भी बहुत-से लोगों से यह बात (घटना) सुनी और समझी। इससे उसके मन में पहले संशय और फिर कुतूहल उत्पन्न हुआ। वह विजय गाथापति के घर आया। फिर उसने दिजय गाथा पति के घर में बरसी हुई वसुधारा तथा पांच वर्ण के निष्पन्न कुसुम भी देखे / उसने मुझे (श्रमण भ. महावीर को) भी विजय गाथापति के घर से बाहर निकलते हुए देखा। यह देख कर वह (गोशालक) हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। फिर मेरे पास प्राकर उसने तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया। तदनन्तर वह मुझसे इस प्रकार बोला-'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्म-शिष्य हूँ।' 29. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम नो आदामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि / [26] हे गौतम ! इस पर मैंने मखलिपुत्र गोशालक की इस बात का आदर नहीं किया, उसे स्वीकार नहीं किया / मैं मौन रहा / विवेचन - प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 24 से 29 तक) में शास्त्रकार ने विजय गाथापति के यहाँ हए भगवान महावीर के प्रथम मासक्षमण के पारणे का, उसके प्रभाव से प्रकट हए पांच दिर तथा विजय गाथापति की उस निमित्त से हुई सार्वजनिक प्रशंसा से प्रभावित गोशालक द्वारा भगवान् का समर्थन न होते हुए भी उनके शिष्य बनने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है।' 1, वियाहपण्णत्तिसुतं, भा. 2 (मू. पा. टि.), पृ. 694.695 Page #1711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ---अडमाणे-भिक्षाटन करते हए / एज्जमाणं--पाते हए। अम्मुटठेति-उठा / पच्चोरुभति-उतरा। पाउयाओ ओमुयइ-पादुकाएँ निकाली। अंजलिमउलियहत्थे--दोनों हाथ जोड़ कर / दम्वसुद्धणं-द्रव्य---प्रोदनादि के शुद्ध-उद्गमादिदोषरहित होने से / दायगसुद्धणं-दाता के शुद्ध प्राशंसा प्रादि दोषों से रहित होने से / पडिगाहगसुद्धणं--प्रतिग्राहक-आदाता (पात्र) के शुद्ध-किसी प्रकार के प्रतिफल या स्पृहा से रहित होने से / तिविहेणं तिकरणसुद्धणं-त्रिविधमन-वचन-काया को लथा तीन करण-कृत-कारित-अनुमोदित की शुद्धि से / दसवण्णे कुसुमे-दस के आधे-पांच वर्ण के फल / चेलुक्खेवे कए--ध्वजारूप वस्त्रों को वृष्टि की / घुठे-उदघोष किया / कयलक्खणे उत्तमलक्षणों वाला। णो प्राढामि-यादर नहीं दिया / णो परिजाणामि--स्वीकार नहीं किया / तुसिणोए संचिट्ठामि-मौन रहा / ' द्वितीय से चतुर्थ मासखमण के पारणे तक का वृत्तान्त, भगवान् के अतिशय से पुनः प्रभावित गोशालक द्वारा शिष्यताग्रहरण 30. तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ नगराम्रो पडिनिक्खमामि, प० 2 णालंद बाहिरियं मझमझेणं जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, उवा० 2 दोच्चं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / [30] इसके पश्चात्, हे गौतम ! मैं राजगह नगर से निकला और नालन्दा पाड़ा से बाहर मध्य में होता हुअा उस तन्तुवायशाला में पाया। वहाँ मैं द्वितीय मासक्षमण स्वीकार करके रहने लगा। 31. तए णं अहं गोयमा! दोच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तं० प० 2 नालंदं बाहिरियं मज्झमझेग जेणेव रायगिहे नगरे जाव अडमाणे आणंदस्स पाहावतिस्स मिहं अणुप्पविटु / [31] फिर, हे गौतम ! मैं दूसरे माससमण के पारणे के समय तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होता हुआ राजगह नगर में यावत् भिक्षाटन करता हया आनन्द गाथापति के घर में प्रविष्ट हुआ / 32. तए णं से आणंदे गाहावती ममं एज्जमाणं पासति, एवं जहेव विजयस्स, नवरं ममं विउलाए खजगविहीए 'पडिलाभेस्सामो' ति तु? / सेसं तं चेव जाव तच्चं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि / [32] उस समय प्रानन्द गाथापति ने मुझे प्राते हुए देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि-'मैं विपुल खण्ड-खाद्यादि (खाजा ग्रादि) भोजन-सामग्रो से (भगवान् महावोर को) प्रतिलाभूगा'; यों विचार कर (वह आनन्द गाथापति) सन्तुष्ट (प्रसन्न) हुआ। शेष समग्र वृत्तान्त (यहाँ से लेकर) यावत्-'मैं तृतीय मासक्षमण स्वीकार करके रहा'; (यहाँ तक) पूर्ववत् (कहना चाहिए / ) 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 663-664 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2379-2380 Page #1712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [447 33. तए णं अहं गोतमा ! तच्चमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तं० प० 2 तहेव जाव अडमाणे सुणंदस्स गाहावतिस्स गिहं अणुपविठ्ठ। [33] तदनन्तर, हे गौतम ! तीसरे मासक्षमण के पारणे के लिये मैंने तन्तुबायशाला से बाहर निकल कर यावत् सुनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया / 34. तए णं से सुणंदे गाहावती०, एवं जहेव विजए गाहावती, नवरं ममं सव्वकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेति / सेसं तं चेव जाव चउत्थं मासक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहामि / [34] तब सुनन्द गाथापति ने ज्यों ही मुझे पाते हुए देखा, इत्यादि सारा वर्णन विजय गाथापति के समान (कहना चाहिए / ) विशेषता यह है कि उसने (सुनन्द ने मुझे सर्वकामगुणित (सर्वरसों से युक्त) भोजन से प्रतिलाभित किया / (यहाँ से लेकर) शेष सर्ववृत्तान्त, यावत् मैं चतुर्थ मासक्षमण स्वीकार कर के विचरण करने लगा; (यहाँ तक) पूर्ववत् (कहना चाहिए।) 35. तोसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामते एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्था। सन्निवेसवण्णयो। |35| उस नालन्दा के बाहरी भाग से कुछ दूर 'कोल्लाक' नामक सन्निवेश था। सन्निवेश का वर्णन (पूर्ववत् जान लेना चाहिए / ) 36. तत्थ णं कोल्लाए सन्निवेसे बहुले नाम माहणे परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए रिउब्वेद जाव सुपरिनिहिए यावि होत्था / [36] उस कोल्लाक सन्निवेश में बहुल नामक ब्राह्मण (माहन) रहता था। वह अाढ्य यावत् अपरिभूत था और ऋग्वेद (आदि वैदिक धर्मशास्त्रों) में यावत् निपुण था / 37. तए णं से बहुले माहणे कत्तियचातुम्मासियपाडिवर्गसि विउलेणं महु-घयसंजुत्तेणं परमन्नेणं माहणे आयामेत्था। [37] उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिकी चौमासी की प्रतिपदा के दिन प्रचुर मधु और धत से संयुक्त परमान्न (खीर) का भोजन ब्राह्मणों को कराया एवं प्राचामित (कुल्ले आदि के द्वारा मुख शुद्ध) कराया। 38. तए णं अहं गोयमा ! चउत्थमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, तं०५०२ णालंदं बाहिरियं मझमज्झेणं निग्गच्छामि, नि० 2 जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे तेणेव उवागच्छामि, ते० उ० 2 कोल्लाए सन्निवेसे उच्च-नीय जाव अडमाणे बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पविट्ट। [38] तभी मैं चतुर्थ मासक्षमण के पारणे के लिए तन्तुवायशाला से निकला और नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होकर कोल्लाक सन्निवेश पाया। वहाँ उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षार्थ पर्यटन करता हुअा मैं बहुल ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुप्रा / Page #1713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] (সদিন 39. तए णं से बहुले माहणे मम एज्जमाणं तहेब जाव ममं विउलेणं महु-घयसंजुत्तेणं परमम्मेणं 'पडिलाभेस्सामी' ति तुढे / सेसं जहा विजयस्स जाव बहुलस्त माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स। [36] उस समय बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते देखा; इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत्-'मैं (आज भ. महावीर स्वामी को) मधु (खांड) और घी से संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूंगा; ऐसा विचार कर वह (बहुल ब्राह्मण) सन्तुष्ट हुआ। शेष सब वर्णन विजय गाथापति के समान यावत्'बहुल ब्राह्मण का मनुष्य जन्म और जीवनफल प्रशंसनीय है', (यहाँ तक कहना चाहिए / ) 40. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं तंतुवायसालाए प्रपासमाणे रायगिहे नगरे सम्भंतरबाहिरिए ममं सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ / ममं कत्थति सुति वा खुति वा पत्ति का अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 साडियाओ य पाडियाओ य कुडियानो य पाहणाओ य चित्तफलगं च माहणे आयामेति, आ० 2 सउत्तरोठं मुडं कारेति, स० का०२ तंतुवायसालानो पडिनिक्खमति, तं० 50 2 णालंदं बाहिरियं मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव कोल्लागसनिवेसे तेणेव उवागच्छद / [40] उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा तो, राजगृह नगर के बाहर और भीतर सब ओर मेरो खोज की; परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति (आवाज), क्षति (छोंक) और प्रवृत्ति न पा कर पुनः तन्तुबायशाला में लौट गया। वहाँ उसने शाटिकाएँ (अन्दर पहनने के वस्त्र), पाटिकाएँ (उत्तरीय-ऊपर पहनने के वस्त्र), कुण्डिकाएँ (भोजनादि के बर्तन), उपानत् (पारखी) एवं चित्रपट (चित्रांकित फलक) आदि ब्राह्मणों को दे दिये। फिर (मस्तक से लेकर) दाढी-मूछ (उत्तरोष्ठ) सहित मुडन करवाया / - इसके पश्चात् वह तन्तुवायशाला से बाहर निकला और नालन्दा से बाहरी भाग के मध्य में से चलता हुमा कोल्लाकसन्निवेश में आया / 41. तए णं तस्स कोल्लागस्स सन्निवेसस्स बहिया बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव पस्वेति-धन्ने णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स। [41] उस समय उस कोल्लाक निवेश के बाहर बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे—'देवानुप्रियो / धन्य है बहुल ब्राह्मण !' इत्यादि कथन पूर्ववत्, यावत्-बहुल ब्राह्मण का मानवजन्म और जीवनरूप फल प्रशंसनीय है; (यहाँ तक जानना चाहिए। 42. तण णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयमळं सोच्चा निसम्म प्रयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था जारिसिया णं ममं धम्मायरियस्स धम्मोबदेसगस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स इड्डो जुती जसे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे लद्ध पत्ते Page #1714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [449 अभिसमन्नागए नो खलु अस्थि तारिसिया अन्नस्स कस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुती जाव परक्कमे लद्ध पते अभिसमन्नागते, तं निस्संदिद्ध णं 'एत्थं ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे भविस्सति' त्ति कटु कोल्लाए सन्निवेसे सम्भितर बाहिरिए ममं सवप्रो समंता मग्गणगवेसणं करेति / ममं सवओ जाव करेमाणे कोल्लागस्स सन्निवेसस्स बहिया पणियभूमीए मए सद्धि अभिसमन्नागए। [42 | उस समय बहुत-से लोगों से इस (पूर्वोक्त) बात को सुन कर एवं अवधारण करके उस मखलिपुत्र गोशालक के हृदय में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ किमेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, बोर्य तथा पुरुषकार-परा कम ग्रादि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुए हैं, वैसी ऋद्धि, शुति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम आदि अन्य किसी भी तथारूप श्रमण या माहन को उपलब्ध, प्राप्न, और अभिसमन्वागत नहीं हैं। इसलिए निःसंदेह मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे, ऐसा विचार करके वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर और भीतर सब ओर मेरी शोध-खोज करने लगा। सर्वत्र मेरी खोज करते हुए कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर के भाग को मनोज्ञ भूमि में मेरे साथ उसकी भेंट हुई / 43. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हटतुटु० ममं तिक्खुत्तो आयाहिणषयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वदासी–'तुम्भे गं भंते ! मम धम्मायरिया, अहं णं तुभं अंतेवासी। 643] उस समय मंलिपुत्र गोशालक ने प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर तीन बार दाहिनी पोर से मेरी प्रदक्षिणा की, यावत् वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं अापका अन्तेवासी (शिष्य) हूँ। 44. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम पडिसुणेमि / [44] तब हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की इस बात को स्वीकार किया। 45. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि पणियभूमीए छब्बासाई लाभं अलाभ सुखं दुक्खं सक्कारमसक्कारं पच्चणुभवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था। | 45] तत्पश्चात हे गौतम ! मैं मंखलिपुत्र गोशालक के साथ उस प्रणीत भूमि में (प्रदेश में) छह वर्ष तक लाभ-अलाभ, मुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का अनुभव करता हुमा अनित्यता-जागरिका (अनित्यता का अनुप्रेक्षण) करता हुया विहार करता रहा / विवेचन–प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू० 30 से 45 तक) में भगवान ने अपने द्वितीय, तृतीय, और चतुर्थ मासखमण के पारणे का पूर्ववत् वर्णन किया है। इधर चतुर्थ मासखमण का पारणा बहुल ब्राह्मण के यहाँ हुया, उधर गोशालक भ. महावीर को तन्तुवायशाला में न देखकर ढंढता हूंढता थक गया तब पुनः तन्तुबायशाला में आया / उसने अपने समस्त उपकरण ब्राह्मणों को दान में दे दिये और दाढी, सिर आदि के सब केश मुडवा कर भगवान् की खोज में निकला / कोल्लाक-सन्निवेश के Page #1715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बाहर बहुल ब्राह्मण की प्रशंसा सुनकर अनुमान लगाया कि यहीं भगवान् महावीर होने चाहिए / वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर भगवान् से मिला / गोशालक ने बन्दन-नमन करके भगवान् के समक्ष स्वयं को शिष्य रूप में समर्पित कर दिया। भगवान् ने भी उसे स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् गोशालक के साथ भगवान् 6 वर्ष तक विचरण करते रहे। यहाँ तक का वृत्तान्त भगवान् ने फर• माया है।' भावी अनेक अनर्थों के कारणभूत अयोग्य गोशालक को भगवान ने क्यों शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया ? इस प्रश्न का समाधान टीकाकार यों करते हैं उस समय तक भगवान् पूर्ण वीतराग नहीं हुए थे, अतएव परिचय के कारण उनके हृदय में स्नेहगभित अनुकम्पा उत्पन्न हुई, छद्मस्थ होने से भविष्यत् कालीन दोषों की ओर उनका उपयोग नहीं लगा अथवा अवश्य भवितव्य ऐसा ही था, इससे उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया / कठिनशब्दार्थ-- मग्गण-गवेसणं—मार्गण-शोध-खोज और गवेषण पूछताछ या पता लगाना, ढूढना / महुघयसंजुत्तेण-मधु (शक्कर) और घी से युक्त / खज्जगविहीए-खाजे की भोजन विधि से। परमन्नेणं---परमान्न, खीर से / आयामेत्था-आचमन कराया / पणीयभूमीए--(१) पणितभूमि-भाण्डविधाम-स्थान-भण्डोपकरण रख कर विश्राम लेने का स्थान, अथवा प्रणीतभूमिमनोज्ञ भूमि / सउत्तरो?-दाढ़ी-मूछ सहित मस्तक के केशों का / पडिसुर्णेमि—मैंने स्वीकार (समर्थन) किया। गोशालक द्वारा तिल के पौधे को लेकर भगवान् को मिथ्यावादी सिद्ध करने की कुचेष्टा 46. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पट्टिकायंसि गोसालेणं मंलिपुत्तेणं सद्धि सिद्धत्थगामाप्रो नगराओ कुम्मग्गामं नगरं संपट्टिए विहाराए / तस्स णं सिद्धत्थग्गामस्स नगरस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स य अंतरा एत्थ गं महं एगे तिलभए पत्तिए पुरिफए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे उसोभेमाणे चिति / तए णं से गोसाले मलिपुत्ते तं तिलथंभगं पासति, पा० 2 ममं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासो-एस णं भते ! लिल भए कि निप्फज्जिस्सति, नो निष्फज्जिस्सति ? एते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कहिं गििहति ? कहिं उव वजिहिति ? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं क्यासी-गोसाला ! एस गं तिलशंभए निष्फज्जिस्सति, नो न निष्फज्जिस्सइ, एए य सत्त तिलयुप्फज़ीवा उदाइत्ता उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगरस एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति / [46] तदनन्तर, हे गौतम ! किसी दिन प्रथम शरत-काल के समय, जब वृष्टि का अभाव था; मंखलिपुत्र गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम नामक नगर से कूमंग्राम नामक नगर की ओर 1. वियापण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 695 से 698 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 664 3. भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2382 से 2387 Page #1716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [451 विहार के लिए प्रस्थान कर चुका था। उस समय सिद्धार्थ ग्राम और कूर्मग्राम के बीच में तिल का एक बड़ा पौधा था / जो पत्र-पुष्प युक्त था, हरीतिमा (हराभरा होने) की श्री (शोभा) से अतीव शोभायमान हो रहा था / गोशालक ने उस तिल के पौधे को देखा। फिर मेरे पास पाकर वन्दननमस्कार करके पूछा-भगवन् ! यह तिल का पौधा निष्पन्न (उत्पन्न) होगा या नहीं ? इन सात तिलपुष्पों के जीव मर कर कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे? इस पर हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-गोशालक ! यह तिलस्तवक (तिल का पौधा) निष्पन्न होगा। नहीं निष्पन्न होगा, ऐसी बात नहीं है और ये सात तिल के फूल मर कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में (पुनः) उत्पन्न होंगे। 47. तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयमटुं तो सद्दहति, नो पत्तियति, नो रोएइ; एतम असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ममं पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु' त्ति कट्ट, ममं अंतियानो सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, स. 50 2 जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छति, उ० 2 तं तिलथंभगं सलेटु यायं चेव उप्पाडेइ, उ० 2 एगते एडेति, तक्खणमेत्तं च णं गोयमा! दिव्वे अब्भवद्दलए पाउन्भूए / तए णं से दिव्वे अभवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, खिप्पा० 2 खियामेव पविज्जुयाति, खि० 50 2 खिप्पामेव नच्चोदगं नातिमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति जेणं से तिलथंभए पासत्थे पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिट्टिए / ते य सत्त तिलयुप्फजीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता तस्सेव तिलथ भास्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता। [47] इस पर मेरे द्वारा कही गई इस बात पर मंलिपुत्र गोशालक ने न श्रद्धा की, न प्रतीति को और न ही रुचि की। इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं करता हुआ, 'मेरे निमित्त से यह मिथ्यावादी (सिद्ध) होजाएँ', ऐसा सोच कर गोशालक मेरे पास से धीरे-धीरे पीछे खिसका और उस तिल के पौधे के पास जाकर उस तिल के पौधे को मिट्टी सहित समूल उखाड़ कर एक ओर फेंक दिया / पौधा उखाड़ने के बाद तत्काल प्राकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए। वे बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गर्जने लगे। तत्काल बिजली चमकने लगी और अधिक पानी और अधिक मिट्टी का कीचड़ न हो, इस प्रकार से कहीं-कहीं पानी की बूंदाबांदी होकर रज और धूल को शान्त करने वाली दिव्य जलवृष्टि हुई; जिससे तिल का पौधा वहीं जम गया / वह पुन: उगा और बद्धमूल होकर वहीं प्रतिष्ठित हो गया और वे सात तिल के फूलों के जीव मर कर पुनः उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए। विवेचन-भगवान को मिथ्यावादी सिद्ध करने की गोशालक को कुचेष्टा-प्रस्तुत दो सूत्रों (46-47) में भगवान ने बताया है कि गोशालक ने एक तिल के पौधे को लेकर उसकी निष्पत्ति के विषय में पूछा / मैंने यथातथ्य उत्तर दिया किन्तु मुझे झूठा सिद्ध करने हेतु उसने पौधा उखाड़ कर दूर फेंक दिया / किन्तु संयोगवश वृष्टि हुई, उससे वह तिल का पौधा पुनः जम गया, अादि वर्णन यहाँ किया गया है / यह कथन गोशालक की अयोग्यता सिद्ध करता है / ' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भा. 2, पृ. 699-700 Page #1717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-- अप्पट्टिकायंसि---- अल्प शब्द यहाँ अभावार्थक होने से वृष्टि का अभाव होने से, यह अर्थ उपयुक्त है। संपढिए विहाराए-बिहार के लिए प्रस्थान किया / तिलथंभए-तिल का स्तबक, पौधा ! पढमसरदकालसमयंसि-प्रथम शरत्काल के समय में / संद्धान्तिक परिभाषानुसार शरत्काल के दो मास माने जाते हैं—मार्गशीर्ष और पौष / इन दोनों में से प्रथम शरत्काल मार्गशीर्ष मास कहलाता है। हरियग-रेरिज्जमाणे-हरा या हरा-भरा होने से अत्यन्त सुशोभित / निष्फज्जिस्सतिनिपजेगा, उगेगा। तिलसंगलियाए-तिल की फली में। पविरल-पप्फुसियथोड़े या हलके स्पर्श वाले, अथवा थोड़े-से फुहारे। अभ-बद्दलए-आकाश के बादल / ममं पणिहाए—मेरे आश्रय-निमित्त से। पच्चोसक्कइ-पीछे हटा, या खिसका। सणियं सणियं-धीरे-धीरे / रयरेणुविणासणं-रज (वायु के द्वारा आकाश में उड़ कर छाई हुई धूल के कण) तथा रेणु (भूमिस्थित धूल के कण), दोनों का विनाशक-- शान्त करने वाला। पतणतणाति-प्रकर्ष रूप से --जोर से तनतनाया-गर्जा / आसत्थे-स्थित हुए। मौन का अभिग्रह, फिर प्रश्न का उत्तर क्यों ?- यद्यपि भगवान् ने मौन रहने का अभिग्रह किया था किन्तु एकाध प्रश्न का उत्तर देना उनके नियम के विरुद्ध न था / या चनी आदि भाषा बोलना खुला था। इसलिए गोशालक के प्रश्न का उत्तर दिया / वैश्यायन के साथ गोशालक की छेड़खानी, उसके द्वारा तेजोलेश्याप्रहार, गोशालकरक्षार्थ भगवान द्वारा शीतलेश्या द्वारा प्रतीकार 48. तए णं अहं गोयमा! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धि जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि / [48] तदनन्तर, हे गौतम ! मैं गोशालक के साथ कूर्मग्राम नगर में आया / 49. तए णं तस्स कुम्मगामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छटुंछट्टणं प्रणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उड्ड बाहाओ पगिझिया पगिझिया सूराभिमुहे पायावणभूमीए आयावेमाणे विहरति, प्रादिच्चतेयतवियानो य से छप्पदाप्रो सम्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पाण भूय-जीवसत्तदयट्ठयाए च णं पडियाओ पडियानो तत्थेव तत्येव भुज्जो भुज्जो पच्चोरुभेति / [46] उस समय कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नामक बालतपस्वी निरन्तर छठ-छठ तपःकर्म करने के साथ-साथ दोनों भजाएं ऊँची रख कर सूर्य के सम्मुख खडा होकर अातापनभूमि में प्रातापना ले रहा था / सूर्य की गर्मी से तपी हुई जएँ (षट्पदिकाएँ) चारों ओर उसके सिर से नीचे गिरती थी और वह तपस्वी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की दया के लिए बार-बार पड़तो (गिरती) हुई उन जूओं को उठा कर बार-बार वहीं की वहीं (मस्तक पर) रखता जाता था। 50. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतर्वास्स पासति, पा० 2 ममं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसक्कति, ममं० पा० 2 जेणेव वेसियायणे बालतबस्सी तेणेव उवागच्छति, उवा०२ 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 662 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2388 से 2390 तक -...-.- - Page #1718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [453 वेसियायणं बालतर्वास्स एवं क्यासि-कि भवं मुणो मुणिए ? उदाहु जयासेज्जायरए? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम णो आढाति नो परिजाणति, तुसिणीए संचिति / तए णं से गोसाले मंखलिपत्ते वेसियायणं बालतस्सि दोच्चं पितच्च पि एवं बयासीकिं भवं मुणो मुणिए जाव सेज्जायरए ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे प्रायावणभूमीओ पच्चोरुभति, पायावण 50 2 तेयासमुग्घाएणं समोहन्नति, ते० स० 2 सत्तटुपयाई पच्चोसक्कति, स०५०२ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति / [50] तभी मंखलिपुत्र गोशालक ने वैश्यायन वालतपस्वी को (ज्यों ही) देखा. (त्यों ही) मेरे पास से धीरे-धीरे खिसक कर वैश्यायन बालतपस्वी के निकट पाया और उसे गोशालक ने इस प्रकार कहा—'क्या आप तत्वज्ञ या तपस्वी मुनि हैं या जूओं के शय्यातर (स्थानदाता) हैं ?" वैश्यायन बालतपस्वी ने मंखलिपुत्र गोशालक के इस कथन को आदर नहीं दिया और न ही इसे स्वीकार किया, किन्तु वह मौन रहा। इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने दूसरी और तीसरी बार वैश्यायन बालतपस्वी को फिर इसी प्रकार पूछा-पाप तत्त्वज्ञ या तपस्वी मुनि हैं या जूत्रों के शय्यातर हैं? गोशालक ने जब दूसरी और तीसरी बार वैश्यायन बालतपस्वी को इस प्रकार कहा (छेड़ा) तो वह शीघ्र कुपित हो (क्रोध से भड़क) उठा यावत् क्रोध से दाँत पोसता हा प्रातापनाभूमि से नीचे उत्तरा। फिर तैजस-समुद्घात करके वह सात-पाठ कदम पीछे हटा / इस प्रकार मलिपुत्र गोशालक के वध (भस्म करने) के लिए उसने अपने शरीर से (उष्ण ) तेजोलेश्या बाहर निकाली। 51. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणटुयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्ठयाए एस्थ णं अंतरा सोयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सोयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतस्सिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया / 51] तदनन्तर, हे गौतम ! मैंने मंखलिपुत्र गोशालक पर अनुकम्पा करने के लिए, वैश्यायन बालतपस्वी की तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए शीतल तेजोलेश्या बाहर निकाली। जिससे मेरी शीतल तेजोलेश्या से वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हो गया / 52. तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सोयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स य मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स किंचि प्राबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता माअं उसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी से गतमेयं भगवं! , गतमेयं भगवं! / [52] तत्पश्चात् मेरी शीतल तेजोलेश्या से अपनी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ तथा गोशालक के शरीर को थोड़ी या अधिक पीड़ा या अवयवक्षति नहीं हुई जान कर वैश्यायन बालतपस्वी ने अपनी उष्ण तेजीलेश्या वापस खींच (समेट) ली। उसने मुझ से फिर इस प्रकार कहा'भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् ! मैं समझ गया।' Page #1719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 48 से 52 तक) में गोशालक द्वारा वैश्यायन बालतपस्वी को चिढ़ा कर छेड़छाड़ करने का, वैश्यायन द्वारा क्रुद्ध होकर गोशालक पर तेजोलेश्या के प्रहार करने का, भगवान् द्वारा गोशालक के प्राण रक्षार्थ शोत-तेजोलेश्या का प्रतिघात करने का एवं यह देख कर वैश्यायन द्वारा भी अपनो उष्ण तेजोलेश्या वापस खोंच लेने का; इस प्रकार चार क्रमों में यह वत्तान्त अंकित किया गया है। कठिनशब्दार्थ---सद्धि-साथ / उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर / आयावणभूमीए---अातापना भूमि में / आइच्च-तेयतवियाओ-प्रादित्य---सूर्य के तेज-ताप से तपी हुई। छप्पईप्रो-षट्पदी जुएँ / पडियाओ-पड़ो-गिरी हुई। सणियं सणियं-शनैः शनैः / भवं-आप / मुणिए-तत्वज्ञ अथवा तपस्वी। जुया-सेज्जायरए-जुओं के शय्यातर (जुओं के घर के स्वामी)। आसुरुत्ते-कुषित हुआ। मिसिमिसेमाणे-मिमिसाहट करते (क्रोध से दांत पीसते) हुए। तेया-समुग्धाएग-तेजस-समुद्घात / वहाए-वध के लिए / तेयं तेजोलेश्या / पडिसाहरणट्ठयाएपीछे हटाने-प्रतिहत करने के लिए / उसिणा-उष्ण / साउसिणं-स्वकीय उष्ण / तेयलेस्सं तेजो. लेश्या को / अकीरमाणं-नहीं करता हुआ / साअं-अपनो / गतमेयं--(मैंने) जान लिया / भगवान द्वारा गोशालक पर तेजोलेश्याप्रहार के शमन का वृत्तान्त तथा गोशालक को तेजोलेश्याविधि का कथन 53. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं बयासी-कि णं भंते ! एस जयासेज्जायरए तुम्भे एवं वदासी-'से गयमेतं भगवं! गयमेतं भगवं !' ? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुतं एवं वदामि-"तुम णं गोसाला ! वेसियायणं बालतवस्सि पाससि, पा० 2 ममं अंतियातो सणियं सणियं पच्चोसक्कसि, 102 जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि, ते० उ०२ वेसियायणं बालतस्सि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणिए ? उदाहु जयासेज्जायरए ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्तो तव एयमटुंनो आढाति, नो परिजाणति, तुसिणोए संचिट्ठति / तए णं तुम गोसाला! वेसियायणं बालतस्सि दोच्च पि तच्चं पि एवं वयासी-कि भवं मुणी जाव सेज्जायरए ? तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तुम (?मे) दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव पच्चोसक्कति. प० 2 तव वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति / तए णं अहं गोसाला! तव अणुकंपणढताए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणतेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेम्स निसिरामि जाव पडिहयं जाणित्ता तव य सरीरगस्स किंचि आवाहं बा बाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता सायं उसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, सायं०५०२ ममं एवं वयासो-से गयमेयं भगवं!, गयमेयं भगवं !" / 1. वियाहपण्णत्तिसुतं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 700-701 2. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 668 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2392-2393 Page #1720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [455 [53] तदनन्तर मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझ से यों पूछा.-.-'भगवन् ! इस जुत्रों के शय्यातर ने आपको इस प्रकार क्या कहा कि-"भगवन् ! मैंने जान लिया, भगवन् !' मैं समझ गया ? इस पर हे गौतम ! मंलिपुत्र गोशालक से मैंने यों कहा-हे गोशालक ! ज्यों ही तुमने बंश्यायन बालतपस्वी को देखा, त्यो ही तुम मेरे पास से शनैः शनैः खिसक गए और जहाँ बैश्यायन बालतपस्वी था, वहाँ पहुँच गए। फिर उसके निकट जा कर तुमने वैश्यायन बालतपस्वी से इस प्रकार कहा-क्या आप तत्त्वज्ञ मुनि हैं अथवा ज़ों के शय्यातर हैं ? उस समय वैश्यायन बालतपस्वी ने तुम्हारे उस कथन का आदर नहीं किया (सुना-अनसुना कर दिया) और न ही उसे स्वीकार किया, बल्कि वह मौन रहा। जब तुमने दूसरी और तीसरी बार भी वैश्यायन बालतपस्वी को उसी प्रकार कहा; तब वह एकदम कुपित हुआ. यावत् वह पीछे हटा और तुम्हारा वध करने के लिए उसने अपने शरीर से तेजोलेश्या निकाली। हे गोशालक ! तब मैंने तुझ पर अनुकम्पा करने के लिए वैश्यायन बालतपस्वी की उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए अपने अन्तर से शीतल तेजोलेश्या निकाली; यावत् उससे उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात हा जान कर तथा तेरे शरीर को किचित भी बाधापीड़ा या अवयवक्षति नहीं हई, देख कर उसने अपनी उष्ण तेजोलेश्या वापस खींच ली। फिर मुभ इस प्रकार कहा–'भगवन् ! मैं जान गया, भगवन् ! मैंने भलीभांति समझ लिया।' 54. तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमह्र सोच्चा निसम्म भीए जाव संजायभये ममं वंदति नमसति, ममं वं० 2 एवं क्यासी-कहं णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंलिपुत्तं एवं क्यामि–जे गं गोसाला! एमाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छठंछठेणं अनिविखत्तेणं तवोकम्मेणं उड्डबाहाओ पगिप्रिय पगिज्मिय जाब विहरइ से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविलतेयलेस्से भवति / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमझें सम्मं विणएणं पडिस्सुणेति / [54] तत्पश्चात् मंलिपुत्र गोशालक मेरे (मुख) से यह (उपर्युक्त) बात सुन कर और अवधारण करके डरा; यावत् भयभीत होकर मुझे वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला'भगवन् ! संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त (उपलब्ध) होती है ?' हे गौतम ! तब मैंने मंलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा 'गोशालक ! नखसहित बन्द की हुई मुट्ठी में जितने उड़द के बाकुले आवें तथा एक विकटाशय (चुल्लू भर) जल (अचित्त पानी) से निरन्तर छठ-छठ (बेलेबेले के) तपश्चरण के साथ दोनों भुजाएँ ऊँची रख कर यावत् अातापना लेता रहता है, उस व्यक्ति को छह महीने के अन्त में संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या प्राप्त होती है।' यह सुन कर मंखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन को विनयपूर्वक सम्यक् रूप से स्वीकार किया। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (53-54) में दो तथ्यों का प्रतिपादन किया है—(१) गोशालक को ज्ञात हो गया कि मुझ पर वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा किये गए उष्णतेजोलेश्या के प्रहार को भगवान् ने अपनी शीततेजोलेश्या द्वारा शान्त कर दिया, (2) संक्षिप्तविपुल तेजोलेश्या की प्राप्ति की विधि बतला कर गोशालक की जिज्ञासा का समाधान किया / -- . .- - - . 1. वियाहपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 709-6021 Page #1721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शब्दार्थ –मुणो मुणिए-मुनि, तपस्त्री या मुणित--ज्ञाततत्व / ' संखित्तविउलतेयलेस्से-संक्षिप्त और विपुल दोनों प्रकार की तेजोलेश्या / तेजोलेश्या अप्रयोग काल में संक्षिप्त होती है, जबकि प्रयोगकाल में विपुल हो जाती है। भीए-डरा / सनहाए नख-सहित / अर्थात्-जिस मुट्टी के बंद किये जाने पर अंगुलियों के नख, अंगूठे के नीचे लगें, वह सनखा मुट्ठी (पिण्डिका) कहलाती है। कुम्मासपिडियाएमाधे भीगे हुए मंग आदि से अथवा उड़द से भरी (सनख) पिण्डिका (मुट्ठी) / वियडासएणं-विकट (अचित्त) जल, उसका प्राशय या पाश्रय विकटाशय या विकटाश्रय (चुल्लू भर जल) से 13 भगवन द्वारा गोशालक की रक्षा और तेजोलेश्या विधि-निर्देश कुछ लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि भगवान ने गोशालक की रक्षा क्यों की? तथा उसे तेजोलेश्या की विधि क्यों बताई ? क्योंकि आगे चल कर गोशालक ने भगवान के दो शिष्यों का तेजोलेश्या से घात किया तथा भगवान की भी अपकीति की / इसका समाधान वत्तिकार इस प्रकार करते हैं-भगवान् दया के सागर थे। उनके मन में गोशालक के प्रति कोई द्वेषभाव या दुर्भाव नहीं था। इसलिए गोशालक की रक्षा की। सुनक्षत्र और सर्वानुभूति, इन दो मुनियों की रक्षा न करने का उनका भाव नहीं था, बल्कि उन्होंने सभी मुनियों से उस समय गोशालक के साथ किसी प्रकार का विवाद न करने की चेतावनी दी थी। फिर उस समय भगवान् वीतराग थे, इसलिए लब्धिविशेष का प्रयोग नहीं करते थे। लब्धिविशेष का प्रयोग छद्मस्थ-अवस्था में ही उन्होंने किया था / लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है और वीतरागअवस्था में प्रमाद हो नहीं सकता, छद्मस्थ-अवस्था में क्षम्य है। उक्त दो मुनियों की रक्षा न कर सकने का एक कारण-अवश्यम्भावी भाव था। अर्थात् भगवान् को ज्ञात था कि इन मुनियों के प्रायुष्य का अन्त इसी प्रकार होने वाला है / गोशालक द्वारा भगवान के साथ मिथ्यावाद, एकान्त परिवृत्यपरिहारवाद को मान्यता और भगवान् से पृथक् विचरण 55. तए णं अहं गोयमा ! अन्नदा कदायि गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धि कुम्मग्गामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपत्थिए विहाराए / जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वदासि-"तुन्भे णं भंते ! तदा ममं एवं प्राइक्खह जाव परूबेह-गोसाला! एस णं तिलथंभए निष्फज्जिस्सति, नो न निष्फ०, तं चेव जाव पच्चायाइस्सति' तं गं मिच्छा, इमं जं पच्चक्खमेव दीसति 'एस णं से तिलथंभए णो निष्फन, अनिएफनमेव ते य सत्त तिलघुप्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त 1. भगवती. अ. व. पत्र 668 2. संक्षिप्ता-अप्रयोगकाले. विपुला-प्रयोगकाले तेजोलेश्या-लब्धि-विशेषो यस्य स तथा ।'-.--भगवतो. प्र. बत्ति. पत्र 668 3. (क) वही, अ. वृत्ति, पत्र 668 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2391 से 2396 तक 4. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 668 / Page #1722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ शतक] [457 तिला पच्चायाता" / तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलिपुत्तं एवं वदामि-"तुम णं गोसाला ! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्स नाव पल्वेमाणस्स एपम? नो सदहसि, नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयम? असदहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे म पणिहाए 'अयं णं मिच्छावादी भवतु' त्ति कटु ममं अंतियानो सणियं सणियं पच्चोसक्कसि, 50 2 जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, उ० 2 जाव एगंतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला! दिव्वे अन्भवलए पाउन्भूते / तए णं से दिवे अभवद्दलए खिप्पामेव०, तं चेव जाव तस्स चेव तिलभगस्स एगाए तिलंसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया / तं एस गं गोसाला ! से तिलशंभर निष्फन', मो अनिष्फनमेव, ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता / एवं खलु गोसाला! वणस्सतिकाइया पउट्टपरिहारं परिहरंति" / 55] हे गौतम ! इसके पश्चात किसी एक दिन मंखलिपुत्र गोशालक के साथ मैंने कर्मग्रामनगर से सिद्धार्थग्रामनगर की अोर विहार के लिए प्रस्थान किया। जब हम उस स्थान (प्रदेश) के निकट पाए, जहाँ बह तिल का पौधा था, तब गोशालक मंखलिपुत्र ने मुझ से इस प्रकार कहा'भगवन् ! आपने मुझे उस समय इस प्रकार कहा था, यावत् प्ररूपणा की थी कि हे गोशालक ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा, यावत् तिलपुष्प के सप्त जीव मर कर सात तिल के रूप में पुनः उत्पन्न होंगे, किन्तु आपकी वह वात मिथ्या हुई, क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिख रहा है कि यह तिल का पौधा उगा ही नहीं और वे तिलपुष्प के सात जीव मर कर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न नहीं हुए।' हे गौतम ! तब मैंने मंलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-हे गोशालक ! जब मैंने तुझ से ऐसा कहा था, यावत् ऐसी प्ररूपणा की थी, तब तूने मेरी उस बात पर न तो श्रद्धा की, न प्रतीति की, न ही उस पर रुचि की, बल्कि उक्त कथन पर श्रद्धा, प्रतीति या रुचि न करके तु मुझे लक्ष्य करके कि 'यह मिथ्यावादी हो जाएँ' ऐसा विचार कर मेरे पास से धीरे-धीरे खिसक गया था और जहाँ वह तिल का पौधा था, वहाँ जा पहुँचा यावत् उस तिल के पौधे को तूने मिट्टी सहित उखाड़ कर एकान्त में फेंक दिया। लेकिन हे गोशालक ! उसी समय आकाश में दिव्य बादल प्रकट हुए यावत गर्जने लगे, इत्यादि यावत् वे तिलपुष्प तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उत्पन्न हो गए हैं। अत: हे गोशालक! यही वह तिल का पौधा है, जो निष्पन्न हया है, यनिष्पन्न नहीं रहा है और वे ही सात तिलपुष्प के जीव मर कर इसी तिल के पौधे को एक तिलफलो में सात तिल के रूप में उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकायिक जीव मर-मर कर उसी वनस्पतिकाय के शरीर में पुन: उत्पन्न हो जाते हैं। 56. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयम नो सहति 3 / एतम असद्दहमाणे जाव अरोयेमाणे जेणेव से तिल भए तेणेव उवागच्छति, उ०२ ततो तिलशंभयाओ तं तिलसंगलियं खुडति, खुडित्ता करतलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ / तए णं तस्स गोसालम्स मखलिपुत्तस्स ते सत्त लिले गणेमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव समुपज्जित्था-'एवं खलु सम्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति' / एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्ट। एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलियुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए प्रवक्कमणे पन्नते। Page #1723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 56] तब मखलिपुत्र गोशालक ने मेरे इस कथन यावत् प्ररूपण पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। बल्कि उस कथन के प्रति अश्रद्धा, अप्रतीति और अचि करता हुया वह उस तिल के पौधे के स पहँचा और उसकी तिलफली तोड़ी, फिर उसे हथेली पर मसल कर (उसमें से) सात तिल बाहर निकाले। तदनन्तर उस मंखलिपत्र गोशालक को उन सात तिलों को गिनते है अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुग्रा--सभी जीव इस प्रकार परिवृत्त्य-परिहार करते हैं (अर्थात्-- मर कर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं / ) हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह परिवत्तं (परिवर्त-परिहार-वाद) है और हे गौतम ! मुझसे (तेजोलेश्या-प्राप्ति की विधि जानने के बाद) मखलिपुत्र गोशालक का यह अपना (स्वेच्छा से) अपक्रमण (पृथक विचरण) है। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (55-56) में गोशालक द्वारा भगवान के साथ मिथ्या-प्रतिवाद करने का तथा भगवान का कथन सत्य सिद्ध हो जाने पर भी दराग्रहवश सर्वजीवों के परिव की मिथ्या मान्यता को लेकर भगवान से पृथक विचरण करने का प्रतिपादन है।' ___कठिनशब्दार्थ-खुडति-तोड़ता है / पम्फोडेइ-मसलता है। पउट्टपरिहारं--परिवृत्त होकर -- उसी (वनस्पति-शरीर) का परिहार–परिभोग (उत्पाद) करते हैं। आयाए... अपने से, स्वेच्छा से गोशालक स्वयं, अथवा (तेजलेश्याप्राप्ति का उपदेश) आदान--ग्रहण करके / अबक्कमणे----अपक्रमणपृथक् विचरण / 2 गोशालक का मिथ्या-आग्रह- भगवान् ने बताया था कि वनस्पतिकायिक जीव परिवृत्यमर कर परिहार करते हैं, अर्थात् मर कर वार-बार पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, किन्तु गोशालक ने मिथ्याग्रहवश सभी जीवों के लिए एकान्त रूप से 'परिवृत्य-परिहारवाद' मान लिया। यह उसकी मिथ्या मान्यता थी। गोशालक को तेजोलेश्या की प्राप्ति, अहंकारवश जिन-प्रलाप एवं भगवान् द्वारा स्ववक्तव्य का उपसंहार 57. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं छट्टछ?णं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डू बाहाम्रो पगिज्झिय जाव विहरई / तए णं से गोसाले मंलिपुत्ते अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से जाते / [57] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक नखसहित एक मुट्ठी में प्रावे, इतने उड़द के बाकलों से तथा एक चुल्लभर पानी से निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ दोनों बांहें ऊँची करके सूर्य के सम्मुख खड़ा रह कर पातापना-भूमि में यावत् अातापना लेने लगा। ऐसा करते हुए गोशालक को छह मास के अन्त में, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्या प्राप्त हो गई। 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 703-704 2. (क) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2397 से 2399 (ख) भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 666 3. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2399 Page #1724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [459 58. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नदा कदायि इमे छद्दिसाचरा अंतियं पादुभवित्था, तं जहा-सोणे, तं चेव सवं जाव अजिणे जिणसह पगासेमाणे विहरति / तं नो खलु गोयमा ! गोसाले मंलिपुत्ते जिणे, जिणपलावी जाच जिणसई पगासेमाणे विहरति / गोसाले णं मखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति / [58 | इसके बाद मलिपुत्र गोशालक के पास किसी दिन ये छह दिशाचर प्रकट हुए / यथाशोण इत्यादि सब कथन पूर्ववत् . यावत्-जिन न होते हुए भी अपने प्रापको जिन शब्द से प्रकट करता या विचरण करने लगा है। अतः हे गौतम ! वास्तव में मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, वह 'जिन शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द से स्वयं को प्रसिद्ध (प्रकट) करता हुमा वित्ररता है / वस्तुनः मलिपुत्र गोशालक अजिन (जिन नहीं) है; जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरता है। 59. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा जहा सिवे (स० 11 उ० 9 सु० 26) जाव पडिगया। [59] तदनन्तर वह अत्यन्त बड़ी परिषद् (ग्यारहवें शतक उद्देशक 9, सू. 26 में कथित) शिवराजर्षि के समान धर्मोपदेश सुन कर यावत् वन्दना-नमस्कार कर वापस लौट गई / विवेचन–प्रस्तुत तीन सूत्रों 57-58-56 में भगवान् / गोशालक के जीवनवृत्त का उपसंहार करते हए निम्नोक्त तथ्यों को उजागर करते हैं-(१) गोशालक ने विधिपूर्वक तप करके तेजोलेश्या प्राप्त कर ली। (2) अहंकारवश जिन न होते हुए भी स्वयं को जिन कहने लगा। (3) गोशालक दम्भी है, वह जिन नहीं है, किन्तु जिन-प्रलापी है। (4) एक विशाल परिषद् में भगवान् ने इस सत्य-तथ्य को उजागर किया।' भगवान द्वारा अपने अजिनत्व का प्रकाशन सुन कर कुभारिन को दूकान पर कुपित गोशालक को ससंघ जमघट 60. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नस्स जाव परूवेइ --"ज णं देवाण प्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिथे जिणप्पलावी जाव विहरति तं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खति जाव परूवेति एवं खलु तस्स गोसालस्स मखलिपुत्तस्स मंखली नाम मंखे पिता होत्था / तए णं तस्स मंखलिस्स०, एवं चेव सव्वं भाणितन्वं जाव अजिणे जिणसई पकासेमाणे विहरति'।तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति, गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरति / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसह पगासेमाणे विहरति" / [601 तदनन्तर श्रावस्ती नगरी में शृगाटक (त्रिकोणमार्ग) यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से यावत् प्ररूपणा करने लगे हे देवानुप्रियो ! जो यह गोशालक मखलि-पुत्र अपने 1. वियाहपत्तिसुतं भा. 2, (म्, पा. टि.) पृ. 704 Page #1725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आप को 'जिन' हो कर, 'जिन' कहता यावत् फिरता है; यह बात मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि उस मंलिपुत्र गोशालक का 'मंखली' नामक मंख (भिक्षाचर) पिता था। उस समय उस मंखली का......इत्यादि पूर्वोक्त समस्त वर्णन; यावत्-वह (गोशालक) जिन नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकट करता है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है। वह 'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ, यावत् विचरता है / अतएव वस्तुतः मंखलिपुत्र गोशालक अजिन है, किन्तु जिन-प्रलापी हो कर यावत् विचरता है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी 'जिन' हैं, 'जिन' कहते हुए यावत् “जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं। 61. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमट्ठसोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे प्रातावणभूमितो पच्चोरुभति, आ० 50 2 सात्थि नगरि मझमझेणं जेणेत्र हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 हालाहलाए कुभकारोए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिबुडे महता अमरिसं वहमाणे एवं वा वि विहरति / [61] जब मंखलिपुत्र गोशालक ने बहुत-से लोगों से यह बात सुनी, तब उसे सुनकर और अवधारण करके वह अत्यन्त क्रुद्ध हुना, यावत् मिसमिसाहट करता (क्रोध से दांत पीसता) हुमा अातापनाभूमि से नीचे उतरा और श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुअा हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान पर पाया / वह हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों को दूकान पर आजीविकसंघ से परिवृत हो (घिरा रह) कर अत्यन्त अमर्ष (रोष) धारण करता हुआ इसी प्रकार विचरने लगा। विवेचन-द्ध गोशालक भगवान को बदनाम करने की फिराक में प्रस्तुत दो सूत्रों (60-61) में भगवान् द्वारा गोशालक की वास्तविकता प्रकट किये जाने पर श्रावस्ती के लोगों के मुंह से सुनकर क्रुद्ध गोशालक द्वारा हालाहला कुभारिन की दुकान पर संघ-सहित, भगवान् को बदनाम करने हेतु पाने का वर्णन है।' गोशालक द्वारा अर्थलोलुप-वणिकवर्ग-विनाशदृष्टान्त-कथनपूर्वक आनन्द स्थविर को भगवद् विनाशकथनचेष्टा 62. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम थेरे पगतिभद्दए जाव विणीए छ8छ?णं अणिषिखत्तेणं तबोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति / तए णं से आणंदे थेरे छटुक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी (स० 2 उ० 5 सु० 22-24) तहेव प्रापुच्छइ, तहेव जाव उच्च-नीय-मज्झिम जाव अडमाणे हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणस्स अदूरसामंतेणं बोतीवयति / [62] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का अन्तेवासी (शिष्य) आनन्द नामक स्थविर था। वह प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था और निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) का तपश्चरण 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (भूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 704 Page #1726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] करता हुया और संयम एवं तप से अपनी प्रात्मा को भावित करता हा विचरता था। उस दिन आनन्द स्थविर ने अपने छठक्षमण (बेले के तप) के पारणे के दिन प्रथम पौरुषी (प्रहर) में स्वाध्याय किया. यावत्-(शतक 2, उ. 5 मू. 22-24 में कथित) गौतमस्वामी (की चर्या) के समान भगवान् से (भिक्षाचर्या की) आज्ञा मांगी और उसी प्रकार ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करता हुअा हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दूकान के पास से गुजरा / 63. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणम्स प्रदूरसामंतेणं बीतीवयमाणं पासति, पासित्ता एवं बयासी-एहि ताव आणंदा ! इओ एगं महं ओवमियं निसामेहि / [63] जब मंखलिपुत्र गोशालक ने ग्रानन्द स्थविर को हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान के निकट से जाते हुए देखा, तो इस प्रकार बोला-'अरे अानन्द ! यहाँ आओ, एक महान् (विशिष्ट या मेरा) दृष्टान्त सुन लो / ' 64. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुमकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति / / [64] गोशालक के द्वारा इस प्रकार कहने पर ग्रानन्द स्थविर, हालाहला कुम्भारिन की बर्तनों की दुकान में (बैठे) गोशालक के पास आया / 65. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वदासी— "एवं खलु पाणंदा! इतो चिरातीयाए अद्धाए केयी उच्चावया वणिया प्रत्थऽत्थी अस्थलुद्धा अस्थगवेसी अत्थकंखिया अत्यपिवासा प्रस्थगवेसणयाए नाणाविहविउलपणियभंडमायाए सगडी-सागडेणं सुबह मत्त-पाणपत्थयणं गहाय एग महं अगामियं अणोहियं छिन्नावायं दोहमद्ध अडवि अणुप्पविट्ठा / "तए णं तेसि वणियाणं तीसे अगामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए दोहमद्धाए अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुवहिए उदए अणुपुटवेणं परिभुज्जमाणे परिभुज्जमाणे खोणे / "तए णं ते वणिया खीणोदगा समाणा तहाए परिभवमाणा अन्नमन्न सद्दावेंति, अन० स० 2 एवं क्यासि-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमोसे अगामियाए जाव अडवीए कंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुग्वहिते उदए अणुपुत्रेणं परिभुज्जमाणे परिभुज्जमाणे खोणे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमोसे अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सध्यतो समंता मग्गणगवेसणं करेत्तए' त्ति कट्ट, अन्नमन्नस्स अंतियं एयम पडिसुणेति, अन्न० पडि० 2 तीसे णं अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति / उदगस्स सच्चतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एग महं वणसंड आसार्देति किण्हं किण्होमासं जाव' निकुरुंबभूयं पासादीयं जाव पडिरूबं / तस्स णं वणसंडस्स बहुमम्मदेसभाए एस्थ णं महेगं बम्मीयं प्रासादेति / तस्स णं यम्मीयस्स चत्तारि वप्पूम्रो प्रभग्गयाम्रो 1. 'जाव' पद सूचक पाठ...... 'नीलं नीलोभास हरियं हरिप्रोभास' इत्यादि / - भगवती. अ. ब. पत्र 672 Page #1727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अभिनिसढाओ, तिरियं सुसंपमाहितायो, अहे पत्रगद्धरूवाओ पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ पासादीयाओ जाव पडिरूवाओ। "तए णं ते वणिया हद्वतुटु० अन्त्रमन्न सद्दावेति, अन्न० स० 2 एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे इमोसे अगामियाए जाव सवतो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणेहि इमे वणसंडे आसादिते किण्हे किण्होभासे०, इमस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए इमे बम्मोए प्रासादिए, इमस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पूओ अम्भुग्गयाओ जाव पडिरूवानो, तं से खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स पढमं वपु भिदित्तए अवियाई इत्थ पोरालं उदगरयणं अस्सादेस्सामो'। __ "तए णं वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एतम पडिस्सुणेति, अन्न० 502 तस्स वम्मीयस्स पढमं वपु भिति, ते णं तत्थ अच्छं पत्थं जच्चं तणुयं फालियवण्णाभं ओरालं उदगरयणं आसादेति / "तए णं ते वणिया हदुतुह० पाणियं पिबंति, पा० पि० 2 वाहणाइं पज्जेति, वा०प० 2 भायणाई भरेंति, भा० भ० 2 दोच्च पि अन्तमन्नं एवं वदासो-एबं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहि इमस्स बम्मीयस्स पढमाए वपूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे प्रासादिए, तं सेयं खलु देवाणप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोच्चं पिवयु भिदित्तए, प्रवियाई एत्य ओराल सुवण्णरयणं अस्सादेस्सामो। "तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयम पडिस्सुणेति, अन्न० प० 2 तस्स वम्मीयस्स दोच्च पि वपु भिदंति / ते णं तत्थ अच्छं जच्चं तावणिज्ज महत्थ महग्धं महरिहं ओराल सुवण्ण रयणं अस्सादेति / "तए णं ते वणिया हद्वतढ० भायणाई भरेंति, भा० भ० 2 पवहणाई भरेंति, 50 भ० 2 तच्चं पि अन्नमन्नं एवं वदासि—एवं खल देवाणुप्पिया! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वपुए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, दोच्चाए वपूए भिन्नाए ओराले सुवण्णरयणे अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स तच्च पि वपु भिदित्तए, अवियाई एत्थ ओराल मणिरयणं अस्सादेस्सामो। "तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एतम पडिसुणेति, अन्न० 50 2 तस्स बम्मीयस्स तच्चं पि वपु भिदंति / ते णं तत्थ विमलं निम्मलं नित्तलं निक्कलं महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं मणिरयणं अस्सादेति / __ "तए णं ते वणिया हतुट० भायणाई भरेंति, भा० भ० 2 पवहणाई भरेति, 50 भ० 2 चउत्थ पि अन्नमन्न एवं वदासी-एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वपूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, दोच्चाए वपूए भिन्नाए ओराले सुवण्णरयणे अस्मादिए, तच्चाए वए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमम्म वम्भीयस्स च उत्थ पि वपु भिदित्तए, अवियाई एत्य उत्तमं महाधं महरिहं मोरालं वहररतणं अस्सादेस्सामो। "तए णं तेसि वणियाणं एगे वणिए हियकामए सुहकामए पत्थकामर आणुकंपिए निस्से सिए हिय-सुह-निस्सेसकामए ते वणिए एवं वयासो-एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स Page #1728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] पढमाए वपूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे जाव तरचाए वपूए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए, तं होउ अलाहि पज्जत्तं णे, एसा चउत्थी वपू मा भिज्जउ, चउत्थी णं वयू सउवसम्गा यावि होज्जा / "तए णं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगस्स सुहकाम जाव हिय-सुह-निस्सेसकामगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव परवेमाणस्स एतम नो सद्दहंति जाव नो रोयेति, एयम असदहमाणा जाव अरोयेमाणा तस्त वम्मीयस्स चउत्थं पि वपु भिति, ते णं तत्थ उगविसं चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायमहाकायं मसि.मूसाकालगं नयणविसरोसपुष्णं अंजणपुजनिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचलचलंतजोहं धरणितलवेणिभूयं उक्कड फुडकुडिलजडुलकवखडविकडफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधतघोसं अणालियचंतिम्वरोसं समुहि तुरियं चबलं धमतं दिट्टीविसं सप्पं संघट्टति / तए णं से विट्ठीविसे सस्पे तेहि वणिएहि संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सगियं सणियं उति, उ०२ सरस रसरस्स बम्मीयस्स सिहरतलं दहति, सर० 2 0 2 आदिच्चं णिज्झाति, प्रा० णि 2 ते वणिए अणिमिसाए दिट्टीए सन्यतो समंता समभिलोएति / तए णं ते वणिया तेणं दिट्टीविसेणं सप्पेणं अणिमिसाए दिट्टीए सवसओ समंता समभिलोइया समाणा खिप्पामेव सभंडमत्तोवारणमाया एगाहच्चं कडाहच्चं भासरासीकया यावि होत्था : तत्थ णं जे से वणिए तेसि वणियाणं हियकामए जाव हिय-सुह-निस्सेसकामए से णं आणुकंपिताए देवयाए सभंडमत्तोवकरणमायाए नियगं नगर साहिए / "एवामेव प्राणदा ! तव वि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेण नायपुत्तेणं अोराले परियाए अस्मादिए, ओराला कित्ति-वण्ण-सइ-सिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुवंति गुवंति तुर्वति इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महाबीरे'। तंजदि मे से प्रज्ज किचि बदति तो गं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाक्चं भासरासि करेमि जहा वा वालेणं ते वणिया / तुमं च णं आगंदा! सारक्खामि संगोवामि जहा वा से बणिए तेसि वणियाणं हितकामए जाव निस्सेसकामए आणुकंपियाए देवयाए सभंडमत्तोवगरण जाव साहिए। तं गच्छ गं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स समणस्स णातपुत्तस्स एयम परिकहेहि।" [65] तदनन्तर मखलिपुत्र गोशालक ने आनन्द स्थविर से इस प्रकार कहा 'हे अानन्द ! आज से बहुत वर्षों (काल) पहले की बात है / कई उच्च एवं नीची स्थिति के धनार्थी, धनलोलुप, धन के गवेषक, अर्थाकांक्षी, अधिषासु वणिक. धन की खोज में नाना प्रकार के किराने की सुन्दर वस्तुएँ, अनेक गाड़े-गाड़ियों में भर कर और पर्याप्त भोजन-पानरूप पाथेय ले कर ग्रामरहित, जल-प्रवाह से रहित, सार्थ आदि के आगमन से विहीन तथा लम्बे पथ वाली एक महाअटवी में प्रविष्ट हुए। 'ग्रामरहित (अथवा अनिष्ट), जल-प्रवाहरहित, सार्थों के आवागमन से रहित उस दीर्घमार्ग वाली अटवी के कुछ भाग में, उन वणिकों के पहुंचने के बाद, अपने साथ पहले का लिया हुआ पानी (पेयजल) क्रमश: पीते-पीते समाप्त हो गया। Page #1729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ 'जल समाप्त हो जाने से तृषा से पीडित वे वणिक् एक दुसरे को बुला कर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रियो ! इस अग्राम्य यावत् महा-अटवी के कुछ भाग में पहुँचते ही हमारे साथ में पहले से लिया पानी क्रमशः पीते-पीते समाप्त हो गया है, इसलिए अब हमें इसी अग्राम्य यावत् अटवी में चारों ओर पानी की शोध-खोज करना श्रेयस्कर है।' इस प्रकार विचार करके उन बणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उस ग्रामरहित यावत् अटवी में वे सब चारों ओर पानी की शोधखोज करने लगे। सब ओर पानी को खोज करते हुए वे एक महान् वनखण्ड में पहुँचे, जो श्याम, श्याम-पाभा से युक्त यावत् प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत सन्दर था। उस वनखण्ड के ठीक मध्यभाग में उन्होंने एक बड़ा वल्मीक (बांबी) देखा। उस वल्मीक के सिंह के स्कन्ध के केसराल के समान ऊचे उठ हए चार शिखराकार-शरीर थे। वे शिखर तिछं फैले हए थे / नीचे अद्धसप के समान (नीचे से विस्तीर्ण और ऊपर से संचित) थे। अर्द्धसकार वल्मोक प्राडादोत्पादक यावत सुन्दर थे। 'उस वल्मीक को देखकर वे वणिक हर्षित और सन्तुष्ट हो कर और परस्पर एक दूसरे को बला कर यों कहने लगे--'हे देवानुप्रियो! इस अग्राम्य यावत अटवो में सब पोर पानी की शोधखोज करते हुए हमें यह महान वनखण्ड मिला है, जो श्याम एवं श्याम-पाभा के समान है, इत्यादि / इस वल्मीक के चार ऊँचे उठे हुए यावत् सुन्दर शिखर हैं। इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है; जिससे हमें यहाँ (गर्त में) बहुत-सा उत्तम उदक मिलेगा। तब वे सब वाणक परस्पर एक दसरे की बात स्वीकार करते है और फिर उस प्रथम शिखर को तोड़ते हैं, जिसमें से उन्हें स्वच्छ, पथ्य-कारक, उत्तम, हल्का और स्फटिक के वर्ण जैसा श्वेत बहुत-सा श्रेष्ठ जल (उदकरत्न) प्राप्त हुआ। 'इसके बाद वे वणिक् हर्षित और सन्तुष्ट हुए। उन्होंने वह पानी पिया, अपने बैलों आदि वाहनों को पिलाया और पानी के बर्तन भर लिये। 'तत्पश्चत् उन्होंने दूसरी बार भी परस्पर इस प्रकार वार्तालाप किया हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से बहुत-सा उत्तम जल प्राप्त हुआ है। अतः देवानुप्रियो ! अब हमें इस वल्मीक के द्वितीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हमें पर्याप्त उत्तम स्वर्ण (स्वर्णरत्न) प्राप्त हो / इस पर सभी वणिकों ने परस्पर इस बात को स्वीकार किया और उन्होंने उस बल्मीक के द्वितीय शिखर को भी तोडा। उसमें से उन्हें स्वच्छ उत्तम जाति का. ताप को सहन करने योग्य महार्घ--(महामूल्यवान्), महार्ह (अत्यन्त योग्य) पर्याप्त स्वर्णरत्न मिला / 'स्वर्ण प्राप्त होने से वे बंणिक हर्षित और सन्तुष्ट हुए। फिर उन्होंने अपने बर्तन भर लिये और वाहनों (बैलगाड़ियों) को भी भर लिया। फिर तीसरी बार भी उन्होंने परस्पर इस प्रकार परामर्श किया-देवानुप्रियो ! हमने इस वल्मोक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त किया, फिर दूसरे शिखर को तोड़ने से विपुल उत्तम स्वर्ण प्राप्त किया। अतः हे देवानुप्रियो ! हमें अब इस वल्मोक के तृतीय शिखर को तोड़ना श्रेयस्कर है / जिससे कि हमें वहाँ उदार मणिरत्न प्राप्त हों। Page #1730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] 'तदनन्तर वे सभी वणिक् एक दूसरे के साथ इस बात के लिए सहमत हो गए। फिर उन्होंने उस वल्मीक के तृतीय शिखर को भी तोड़ डाला / उसमें से उन्हें विमल, निर्मल, अत्यन्त गोल, निष्कल (दूषणरहित) महान् अर्थ वाले, महामूल्यवान्, महार्ह (अत्यन्त योग्य), उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। 'इन्हें देख कर वे वणिक अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हए। उन्होंने मणियों से अपने बर्तन भर लिये, फिर उन्होंने अपने वाहन भी भर लिये। 'तत्पश्चात् वे वणिक् चौथी बार भी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे हे देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से प्रचुर उत्तम जल प्राप्त हुआ, दूसरे शिखर को तोड़ने से उदार स्वर्ण रत्न प्राप्त हुआ, फिर तीसरे शिखर को तोड़ने से हमें उदार मणिरत्न प्राप्त हुए / अतः अब हमें इस वल्मीक के चौथे शिखर को भी तोड़ना श्रेयस्कर है, जिससे हे देवानुप्रियो ! हमें उसमें से उत्तम, महामूल्यवान्, महार्ह (अत्यन्त योग्य) एवं उदार वज्ररत्न प्राप्त होंगे। 'यह सुन कर उन वणिकों में एक वणिक्' जो उन सबका हितैषी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पक और निःश्रेयसकारी तथा हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उसने अपने उन साथी वणिकों से कहा--देवानुप्रियो ! हमें इस वल्मीक के प्रथम शिखर को तोड़ने से स्वच्छ यावत् उदार जल मिला यावत् तीसरे शिखर को तोड़ने से उदार मणिरत्न प्राप्त हुए। अतः अब बस कीजिए। अपने लिए इतना ही पर्याप्त है। अब यह चौथा शिखर मत तोड़ो। कदाचित् चौथा शिखर तोड़ना हमारे लिये उपद्रवकारी (उपसर्गयुक्त) हो सकता है। 'उस समय हितैषी, सुखकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी उस वणिक के इस कथन यावत् प्ररूपण पर उन वणिकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की / उक्त हितैषी वणिक को हितकर बात पर श्रद्धा यावत् रुचि न करके उन्होंने उस वल्मीक के चतुर्थ शिखर को भी तोड़ डाला। शिखर टूटते ही वहाँ उन्हें एक दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुया, जो उनविषवाला, प्रचण्ड विषधर, घोरविषयुक्त, महाविध से युक्त, अतिकाय (स्थूल शरीर वाला), महाकाय, मसि (स्याही) और मूषा के समान काला, दृष्टि के विष से रोषपूर्ण, अंजन-पुंज (काजल के ढेर) के समान कान्ति वाला, लाल-लाल आँखों वाला, चपल एवं चलती हुई दो जिह्वा वाला, पृथ्वीतल की वेणी के समान, उत्कट स्पष्ट कुटिल जटिल कर्कश विकट फटाटोप करने में दक्ष, लोहार की धौंकनी (धम्मण) के समान धमधमायमान (सू-सं) शब्द करने वाला, अप्रत्याशित (अनाकलित) प्रचण्ड एवं तीव्र रोष वाला, कुक्कुर के मुख से भसने के समान, त्वरित चपल एवं धम-धम शब्द वाला था। तत्पश्चात् उस दृष्टिविष सर्प का उन वणिकों से स्पर्श होते ही वह अत्यन्त कुपित हुअा यावत् मिसमिसाट शब्द करता हुआ शनैः शनैः राहट करता हश्रा वल्मीक के शिखर-तल पर चढ गया। फिर उसने सर्य की ओर टकटकी लगा कर देख।। (सूर्य की ओर से दृष्टि हटा कर) उसने उस वणिक्वर्ग की ओर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखा। उस दृष्टिविष सर्प द्वारा वे वणिक सब ओर अनिमेष दृष्टि से देखे जाने पर किराने के सामान आदि माल एवं बर्तनों व उपकरणों सहित एक ही प्रहार से कूटाघात (पाषाणमय महायन्त्र के आघात) के समान तत्काल जला कर राख का ढेर कर दिये गए / उन वणिकों में से जो वणिक उन वणिकों का हितकामी यावत् हित-सुख-निःश्रेयसकामी था, उस पर नागदेवता ने अनुकम्पायुक्त होकर भण्डोपकरण सहित उसे अपने नगर में पहुंचा दिया। - Page #1731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [লাভবাসকাদি 'इसी प्रकार, हे अानन्द ! तुम्हारे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र ने उदार (प्रधान) पर्याय, प्राप्त की है। देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस लोक में श्रमण भगवान् महावीर', 'श्रमण भगवान् महावीर', इस रूप में उनको उदार कोति, वर्ण, शब्द और श्लोक (श्लाघा, या धन्यवाद) फैल रहे हैं, मुंजायमान हो रहे हैं, स्तुति के विषय बन रहे हैं / (सर्वत्र उनको प्रशंसा या स्तुति हो रही है।) इससे अधिक की लालसा करके यदि वे अाज से मुझे (या मेरे विषय में) कुछ भी कहेंगे, तो जिस प्रकार उस सर्पराज ने एक ही प्रहार से उन वणिकों को कूटाघात के समान जला कर भस्मराशि कर डाला, उसी प्रकार मैं भी अपने तप और तेज से एक ही प्रहार में उन्हें भस्मराशि (राख का ढेर) कर डालंगा / जिस प्रकार उन वणिकों के हितकामी यावत् निःश्रेयसकामी वणिक पर उस नागदेवता ने अनुकम्पा की और उसे भण्डोपकरण सहित अपने नगर में पहुँचा दिया था, उसी प्रकार सरक्षण पोर संगोपन करूंगा। इसलिए, हे प्रानन्द ! तुम जानो और अपने धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह बात कह दो।' विवेचन-गोशालक की धमकी-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 62 से 65) में भगवान महावीर को धमकी देने के लिए उनके शिष्य आनन्द स्थविर को गोशालक द्वारा कहे गए एक उपमा-दृष्टान्त का निरूपण है। दृष्टान्तसार-अर्थलुब्ध कुछ वणिक धन की खोज में अपनी गाड़ियों में बहुत-सा माल भर कर निकले / उन्होंने साथ में भोजन-पानी भी ले लिया था। किन्तु ज्यों ही वे एक भयंकर अटवी में कुछ दूर तक गये कि साथ लिया हुआ पानी समाप्त हो गया। वे सब पानी की खोज में चले / उन्हें कुछ दूर जाने पर एक बांबी मिली / उसके ऊँचे उठे हुए चार शिखर थे। सब वणिकों ने उसके प्रथम शिखर को तोड़ने का निश्चय किया / तोड़ा तो उसमें से स्वच्छ जल निकला। सबने प्यास बुझाई / साथ में पानी भर लिया। फिर दूसरे शिखर को तोड़ने का निश्चय करके उसे तोड़ा तो उसमें से शुद्ध सोना निकला / सबने उसे बर्तनों और गाड़ियों में भर लिया। फिर उन्होंने तीसरे शिखर को तोड़ने का निश्चय करके उसे भी तोड़ा तो उत्तम मणिरत्न निकले / सबने बर्तनों और गाड़ियों में भर लिये / अब उन्होंने लोभवश चौथे शिखर को भी तोड़ने का निश्चय किया। किन्तु उनमें से एक हितैषी ने उन सबको तोड़ने से रोका, कहा-इसे तोड़ने से उपद्रव होगा, किन्तु उसकी र उन्होंने चौथे शिखर को तोडा तो उसमें से एक भयंकर दष्टिविष सर्प निकला। उसने उन सबको माल-सामान सहित भस्म कर डाला, किन्तु उस हितैषी वणिक् पर अनुकम्पा करके उसे माल-सहित अपने नगर में पहुंचा दिया / गोशालक ने इस दृष्टान्त को भगवान् महावीर पर इस प्रकार घटित किया कि ज्ञातपुत्र श्रमण ने अब तक बहुत यशकीति, प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि अजित कर ली है। अब लोभवश यदि वह अधिक प्रसिद्धि प्रादि प्राप्त करने के लिए मेरे विषय में कुछ भी बोलेंगे तो मैं भी उस सर्प की तरह उन्हें भस्म कर दूंगा। केवल तुम्हारी सुरक्षा करूगा / यह बात तुम अपने धर्माचार्य ज्ञातपुत्र श्रमण से कह दो / ' कठिनशब्दों के विशेषार्थ-महं ओमियं : दो अर्थ--(१) मेरे से सम्बन्धित उपमा-दृष्टान्त, या (2) महान -विशिष्ट उपमा--दष्टान्त / चिरातीताए अद्धाए-बहुत प्राचीन काल उच्चावया-उत्तम (विशिष्ट) और अनुत्तम (साधारण)। अस्थकंखिया प्राप्त अर्थ में निरन्तर 1. विवाहपत्तिमुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 705 से 709 Page #1732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [467 इच्छा-याकांक्षा वाले / अत्थपिवासिया-अप्राप्त अर्थविषयक तृष्णा वाले / पणिय भंडे–पणित अर्थात्-व्यापार के लिए भाण्ड-माल, किराना / भत्त-पाण-पत्थयणं भक्त-भोजन, पान-पानी रूप पाथेय (मार्ग के लिए भाता) / अगामियं : दो रूप (1) अग्रामिक- ग्रामरहित, अथवा (2) अकामिक-अनिष्ट / अणोहियं-अगाध जल-प्रवाह (ोघ) से रहित / छिन्नावायं- आवागमन से रहित / दोहमद्ध'-दीर्घ-लम्बे मार्ग या काल वाली / बप्पुओ—शरीर अर्थात् शिखर / अभिनिसढाओ-केसरीसिंह के स्कन्ध की सटा (केस राल) के समान जिसके चारों ओर ऊँची-ऊँची सटाएँ (केसराल) निकली हैं। सुसंपगहियाओ-सुसंवत-- अतिविस्तीर्ण नहीं / पणगद्धवानो-अर्द्धसर्परूप, अर्थात्---उदर कटे हुए सर्प को पूंछ से ऊंचा किया हुमा सर्प अर्द्ध सर्प होता है, जिसका अधोभाग विस्तीर्ण और ऊपर का भाग पतला होता है। तणुयं-हल्का / ओरालं-प्रधान / जच्चं-जात्य--उत्तम जाति का / उदगरयणं-उदक रत्न-जल की जाति में उत्कृष्ट / ' पज्जेतिपिलाया / तावणिज्जं तापनीय-ताप सहने योग्य / महरिह-महान् व्यक्तियों के योग्य / नित्तलं-निस्तल–अत्यन्त गोल / निस्सेयसिए-निःश्रेयस--कल्याण का इच्छुक / समुहियतुरियचबलं धमतं-कुत्ते के मुख को तरह अावाज करने में अति त्वरित और चपल शब्द करने वाला। एगाहच्चं--एक ही आहत-प्रहार या झटके में मार देने वाला / कडाहच्चं कूट-पाषाणमय यंत्र के आघात के समान / पुवंति–उछल रही-चल रही हैं। गुवंति--गाये जाते हैं / थुवंति-स्तुति की जाती है / तवेणं तेएणं तपोजन्य तेज से अथवा तप से प्राप्त तेज-तेजोलेश्या से / वालेणव्यालसर्प ने / सारक्खामि-जलने से वचाऊंगा / संगोवयामि--क्षेम–सुरक्षित स्थान में पहुँचा कर रक्षा करूंगा। गोशालक के साथ हुए वार्तालाप का निवेदन, गोशालक के तप-तेज के सामर्थ्य का प्ररूपण, श्रमणों को उसके साथ प्रतिवाद न करने का भगवत्सन्देश 66. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव संजायभये गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियानो हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणाओ पडिनिक्खमति, प० 2 सिग्धं तुरियं 5 सास्थि नर मज्झमझेणं निगच्छइ, नि० 2 जेणेव कोढए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क० 2. वंदति नमसति, वं० 2 एवं बयासी—"एवं खलु अहं भंते ! छद्रुक्खमणपारणपंसि तुहिं अम्भणुग्णाए समाणे सावस्थीए नगरीए उच्च-नीय जाव अङमाणे हालाहलाए कुंभकारीए जाव वीयोवयामि / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं हालाहलाए जाव पासित्ता एवं वदासि-एहि ताव आणंदा! इओ एमं महं ओवमियं निसामेहि / तए णं अहं गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव वल्मीक में जल की संभावना-इस प्रकार के भूमि के गर्त में पानी होता है, अतः वत्मीक में अवश्य ही गर्त (गड्ढे) होने चाहिए / शिखर को तोड़ने से गर्त प्रकट हो जाएगा, और वहाँ जल अवश्य होगा, ऐसी मंभावना की गई। --भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 672 2. (क) भगवती, अ. वृति, पत्र 671 से 673 तंक। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2403 से 2412 तक Page #1733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उवागच्छामि / तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते ममं एवं वयासी—'एयं खलु आणंदा ! इतो चिरातीमाए अद्धाए केयि उच्चावया वणिया०, एवं तं चेव जाव सम्वं निरवसेसं भाणियब्वं जाव नियगनगरं साहिए / तं गच्छ णं तुमं आणंदा ! तव धम्मायरियस्स धम्मोव० जाव परिकहेहि' / तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेत्तए ? विसए णं भंते ! गोसालस्स मंलिपुत्तस्स जाव करेत्तए ? समत्थे णं भंते ! गोसाले जाव करेत्तए ?" "पभू णं पाणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए, विसए णं पाणंदा ! गोसालस्स जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा ! गोसाले जाव करेत्तए / नो चेव णं अरहते भगवंते, पारितावणियं पुण करेज्जा / जावतिए णं आणंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्ठयराए चेव तवतेए अणगाराणं भगवंताणं, खंलिखमा पुण अणगारा भगवंतो। जावइए णं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तवतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए थेराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण थेरा भगवंतो। जावतिए णं आणंदा! थेराणं भगवंताणं तक्तेए एत्तो प्रणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए मरहंताणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरहंता भगवंतो। तं पभू णं आणंदा ! गोसाले मंलिपुत्ते तवेणं तेयेणं जाव करेत्तए, विसए णं आणंवा ! जाव करेत्तए, समत्थे णं आणंदा ! जाव करेत्तए, नो चेव णं अरहते भगवंते, पारियावणियं पुण करेज्जा। तं गच्छ णं तुम आणंदा ! गोयमाईणं समणाणं निग्गंधाणं एयम परिकहेहि-मा णं अज्जो ! तुम्भं केयि गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएतु, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेउ / गोसाले णं मखलिपुत्ते समर्णाहं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवन्ने"। [66] उस समय मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा प्रानन्द स्थविर को इस प्रकार (व्यापारियों की दुर्दशा के दृष्टान्तपूर्वक) कहे जाने पर आनन्द स्थविर भयभीत हो गए, यावत् उनके मन में डर बैठ गया / वह मंखलिपुत्र गोशालक के पास से हालाहला कुम्भकारी की दुकान से निकले और शीघ्र एवं त्वरितगति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होकर जहाँ कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए / तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार करके यों बोले- भगवन् ! मैं आज छठ-खमण (बेले के तप) के पारणे के लिए आपकी प्राज्ञा प्राप्त कर श्रावस्ती नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में यावत् भिक्षाटन करते हुए जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दुकान के पास से होकर जा रहा था, तब मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे देखा और बुला कर कहा–'हे अानन्द ! यहाँ आओ और मेरे एक दृष्टान्त को सुन लो।' मंखलिपुत्र गोशालक के द्वारा यह कहने पर जब मैं हालाहला कुम्भारिन की दुकान में मंखलिपुत्र गोशालक के पास पहुँचा, तब उसने मुझे इस प्रकार कहा---'हे प्रानन्द ! अाज से बहुत काल पहले कई उन्नत और अवनत वणिक इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत्, यावत्-अपने नगर पहुंचा दिया।' अतः हे प्रानन्द ! तुम जानो और अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक को यावत् कह देना। (आनन्द स्थविर-) [प्र.] 'भगवन् ! क्या मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात के समान जला कर भस्मराशि (राख का ढेर) करने में समर्थ है ? भगवन् ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह यावत् विषयमात्र है अथवा वह ऐसा करने में समर्थ भी है ?" Page #1734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] (भगवान्----) (उ.] 'हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज से यावत् भस्म करने में समर्थ है / हे प्रानन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का यह विषय है / हे प्रानन्द ! गोशालक ऐसा करने में भी समर्थ है; परन्तु अरिहन्त भगवन्तों को (जला कर भस्म करने में समर्थ) नहीं है / तथापि वह उन्हें परिताप उत्पन्न करने में समर्थ है। हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक का जितना तप-तेज है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अनगार भगवन्तों का है, (क्योंकि) अनगार भगवन्त क्षान्तिक्षम (क्षमा करने में समर्थ) होते हैं। हे आनन्द ! अनगार भगवन्तों का जितना तप-तेज है. उससे अनन गुण विशिष्टतर तप-तेज स्थविर भगवन्तों का है, क्योंकि स्थविर भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं और हे आनन्द ! स्थविर भगवन्तों का जितना तप-तेज होता है, उससे अनन्त-गुण विशिष्टतर तप-तेज अर्हन्त भगवन्तों का होता है, क्योंकि अर्हन्त भगवन्त क्षान्तिक्षम होते हैं। अत: हे आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशालक अपने तप-तेज द्वारा यावत् भस्म करने में प्रभु (समर्थ) है। हे आनन्द ! यह उसका (कर्तृत्व) विषय (शक्ति) है और हे आनन्द ! वह वैसा करने में समर्थ भी है; परन्तु अर्हन्त भगवन्तों को भस्म करने में समर्थ नहीं, केवल परिताप उत्पन्न कर सकता है।' (भगवान्—) 'इसलिए हे अानन्द ! तू जा और गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को यह बात (मेरा यह सन्देश) कह कि -हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक के साथ (तुम में से) कोई भी (श्रमण) धार्मिक (उसके धर्ममत के प्रतिकूल धर्मसम्बन्धी) प्रतिप्रेरणा (चर्चा) न करे, धर्मसम्बन्धी प्रतिसारणा (उसके मत के विरुद्ध अर्थ रूप स्मरण) न करावे तथा धर्मसम्बन्धी प्रत्युपचार (तिरस्कार) पूर्वक कोई प्रत्युपचार (तिरस्कार) न करे। क्योंकि (अब) मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति विशेष रूप से मिथ्यात्व भाव (म्लेच्छत्व या अनार्यत्व) धारण कर लिया है।' . विवेचन–प्रस्तुत सूत्र (66) के पूर्वार्द्ध में गोशालक के साथ हुए प्रानन्द स्थविर के वार्तालाप तथा गोशालक के द्वारा भगवान् को दी गई धमकी का प्रानन्द द्वारा किया गया निवेदन प्रस्तुत किया गया है। उत्तरार्द्ध में प्रानन्द द्वारा गोशालक की भस्म करने की शक्ति के सम्बन्ध में उठाया गया प्रश्न तथा भगवान द्वारा ग्रानन्द स्थविर का भीति निवारण रूप मन:समाधान तथा उसके साथ-साथ भगवान् द्वारा समस्त श्रमण-निर्ग्रन्थों को गोशालक को न छेड़ने को चेतावनी भी प्रस्तुत की गई है। गोशालक के तप-तेज की शक्ति प्रानन्द स्थविर ने गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से दूसरों को भस्म करने के सामर्थ्य (प्रभुत्व) के विषय में प्रश्न किया है। इसी प्रश्न में दो प्रश्न गभित हैं, क्योंकि प्रभुत्व (सामर्थ्य) दो प्रकार का होता है—(१)विषयमात्र की अपेक्षा से और (2) सम्प्राप्ति रूप (कार्यरूप में परिणत कर देने) की अपेक्षा से। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है---योग्यता से अथवा कर्तृत्वक्षमता से / अर्थात्-गोशालक केवल विषयमात्र से दूसरों को भस्म करने में समर्थ है अथवा कार्यरूप में परिणत करने में भी समर्थ है ? भगवान् ने उपसंहार करते हुए उत्तर दिया है कि गोशालक विषयमात्र से भस्म करने में समर्थ है और करणतः भी समर्थ है / साथ ही उन्होंने क्षमाशील अनगार भगवन्तों, स्थविर भगवन्तों और अरिहन्त भगवन्तों के तप-तेज का सामर्थ्य उत्तरोत्तर अनन्त-गुणविशिष्टतर बताया है / हाँ, इतना अवश्य है कि वह इन्हें पीड़ित कर सकता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 675 / (ख) भगवतीमूत्र (प्रमेयचन्द्रिकाटीका) भा. 11, पृ. 597 Page #1735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भगवान द्वारा श्रमणों को दी गई चेतावनी का आशय-वादी भद्रं न पश्यति', इस न्याय से तथा 'माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ' इस सिद्धान्त के अनुसार थमणों के प्रति मिथ्याभाव (अनार्ययन) धारण किये हुए गोशालक को किसी भी रूप में न छेड़ने की भगवान की चेतावनी थी। इसके पीछे एक प्राशय यह भी सम्भव है कि यद्यपि भगवान ने गोशालक के तप-तेज के सामर्थ्य की अपेक्षा अनगार एवं स्थविर के तप-तेज का सामर्थ्य अनन्त-गुण-विशिष्ट बताया है, बशर्ते कि वे क्षान्तिक्षम (क्षमासमर्थ अथवा कष्टसहिष्णुतासमर्थ) हों। हो सकता है छदास्थ होने के कारण ग्रनगारों या स्थविरों में गोशालक के साथ विवाद करते समय या उसके मत का खण्डन करते समय उसके प्रति क्षमाशीलता, अकषायवृत्ति या अद्वेषवृत्ति न रहे और ऐसी स्थिति में गोशालक का दाव अनगारों या स्थविरों के प्रति लग जाए / इसलिए भगवान् की समस्त साधुओं को गोशालक के प्रति तटस्थ या मध्यस्थ रहने को यह चेतावनी थी।' कठिनशब्दार्थ-पारितावणियं—परितापना या पारितापनिकी क्रिया : खंतिक्खमा क्षान्तिकोनिग्रह करने में क्षम-समर्थ / थेराणं-वय, श्रुत, और पर्याय (दीक्षापर्याय) से स्थविरों का। धम्मियाए पडिचोयणाए-धर्मसम्बन्धी (गोशालक के मत सम्बन्धी) प्रतिनोदना, उसके मत के प्रतिकूल कर्तव्य-प्रोत्साहना रूप से प्रेरणा / धम्मियाए पडिसरणाए—(गोशालक के) धर्म मत के प्रतिकल रूप से विस्मृत अर्थ (बात) की स्मारणा द्वारा / धम्मिएण पडोयारेण-धार्मिक (धर्म सम्बन्धी) प्रत्युपचार (तिरस्कार) से अथवा प्रत्युपकार (भ. महावीर द्वारा कृत उपकार का बदला) से / मिच्छं विप्पडिवन्ने-मिथ्यात्व-(म्लेच्छत्व या अनार्यत्व) / विशेष तप से स्वीकार (अंगीकार) कर लिया है / / गोशालक के साथ धर्मचर्चा न करने का प्रानन्दस्थविर द्वारा भगवदादेशनिरूपण 67. तए णं से प्राणंदे थेरे समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छति, ते उवागच्छित्ता गोतमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, प्रा० 2 एवं वयासि–एवं खलु अज्जो ! छटुक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अन्मणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय०, तं चेव सव्वं जाव नायपुत्तस्स एयम परिकहे हि०, तं चेव जाव मा गं अज्जो ! तुभं केयि गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ जाव मिच्छं विप्पडिवन्ने / [67] तत्पश्चात् वह अानन्द स्थविर श्रमण भगवान महावीर से यह सन्देश सुन कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके जहाँ गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थ थे, वहाँ पाए / फिर गौतमादि श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुला कर उन्हें इस प्रकार कहा---'हे आर्यो ! आज मैं छठक्षमण के पारणे के लिए श्रमण भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त करके श्रावस्ती नगरी में उच्च-नोचमध्यम कुलों में इत्यादि समग्र वर्णन पूर्ववत् यावत्-(गोशालक का कथन) ज्ञातपुत्र को (जाकर मेरी) यह बात कहना (यहाँ तक कथन करना चाहिए / ) यावत् (भगवत्कथन) हे आर्यो ! तुम में से कोई भी गोशालक के साथ उसके धर्म, मत सम्बन्धी प्रतिकूल (कर्तव्य-) प्रेरणा मत करना, यावत् 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 709-710 2. भगवती. अ. बुत्ति, पत्र 675 Page #1736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ शतक] [471 (गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति) मिथ्यात्व (अनार्यत्व) को विशेष रूप से अंगीकार कर लिया है। विवेचन----प्रस्तुत सूत्र में भगवान द्वारा प्रानन्द स्थविर के माध्यम से गोशालक के सम्बन्ध में श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दी गई चेतावनी का वर्णन है। भगवान के समक्ष गोशालक द्वारा अपनी ऊटपटांग मान्यता का निरूपण 68. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयम परिकहेति तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्त हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणाश्रो पडिनिक्खमति, पडि० 2 आजीवियसंघसंपरिडे महया अमरिसं वहमागे सिग्धं तुरियं जाव सात्थि नगरि मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव कोढए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी "सुठ्ठणं पाउसो! कासवा! ममं एवं वदासी, साहुणं पाउसो! कासवा! ममं एवं वदासी-'गोसाले मंलिपुत्ते ममं धम्मतवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते मम धम्मंतेवासी / जे णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मतेवासी से णं सुक्क सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / अहं णं उदाई नामं कुडियायणिए / अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, अज्जु० विप्प० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्सस्स सरोरगं अणुप्पविसामि, गो० अणु० 2 इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "जे वि याइं आउसो ! कासवा ! अम्ह समयसि केयि सिज्मिसु वा सिझति वा सिन्झिस्संति वा सव्वे ते चउरासोति महाकम्पसयसहस्साइं सत्त दिन्वे सत्त संजूहे सत्त सन्निगन्भे सत्त पउट्टपरिहारे पंच कम्मुणि सयसहस्साई सट्ठि च सहस्साई छच्च सए तिणि य कम्मसे अणुपुत्वेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वाइति सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। __ "से जहा वा गंगा महानदी जतो पवढा, जहि वा पज्जुबत्थिता, एस णं प्रद्धा पंच जोयणसताई आयामेणं, अद्धजोयणं विक्खंभेणं, पंच धणुसयाई ओवेहेणं, एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा, सत्त महागंगाओ सा एगा साईणगंगा, सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मड्डगंगा, सत्त मडगंगाओ सा एगा लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ सा एगा प्रावतीगंगा, सत्त आवतीगंगानो सा एगा परमावती, एवामेव सपुवावरेणं एगं गंगासयसहस्सं सत्तरस य सहस्सा छच्च अगुणपन्न गंगासता भवंतीति मक्खाया / तासि दुविहे उद्धारे पन्नते, तं जहा--सुहमबोदिकलेवरे चेव, बादरबोंदिकलेवरे चेव / तत्थ णं जे से सुहमबोंदिकलेवरे से ठप्पे / तत्थ गंजे से बादरबोंदिकलेवरे ततो णं वाससते गते वाससते गते एगमेगं गंगावालुयं अवहाय जावतिएणं कालेणं से कोठे खोणे णीरए निल्लेवे निट्ठिए भवति से तं सरे सरप्पमाणे / एएणं सरप्पमाणेणं तिष्णि सरसयसाहस्सोओ से एगे महाकप्पे / चउरासीति महाकप्पसयसयसहस्साइं से एगे महामाणसे ! अणंतातो संजू हातो जीवे चयं Page #1737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चयित्ता उरिल्ले माणसे संजहे देवे उववज्जति / से णं तत्थ दिवाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ, विहरिता ताओ देवलोगानो आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चयित्ता पढमे सनिगम्भे जीवे पच्चायाति / से गं तओहितो प्रणतरं उध्वट्टित्ता मझिल्ले माणसे संजहे देवे उववज्जइ / से णं तत्थ दिव्वाइं भोगभोगाइं जाव विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आयु० जाव चइत्ता दोच्चे सन्निगन्भे जोवे पच्चायाति / से णं ततोहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता हेछिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्जइ / से णं तत्थ दिवाई जाव चइत्ता तच्चे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाति / से णं तओहितो जाव उध्वट्टित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजू हे देवे उववज्जति / से णं तत्थ दिव्वाई भोग० जाव चइत्ता चतुत्थे सनिगम्भे जोवे पच्चायाति / से णं तओहितो अगंतरं उव्यट्टित्ता मझिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जति / से णं तत्थ दिवाई भोग० जाव चइत्ता पंचमे सण्णिगभे जीवे पच्चायाति / से गं तमोहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता हेदिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ / से णं तत्थ दिन्वाई भोग० जाव चइत्ता छट्टसग्णिगबभे जीवे पच्चायाति / से णं तओहितो अणंतरं उवट्टित्ता बंभलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते पाईणपडीणायते उदीणदाहिणवित्थिपणे जहा ठाणपदे जाव' पंच वडेंसया पन्नत्ता, तं नहा-असोगवडेंसए जावर पडिरूवा / से णं तत्थ देवे उपवज्जति / से गं तत्थ दस सागरोवमाई दिवाई भोग० जाव चइत्ता सत्तमे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाति। से पं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडियुग्णाणं अट्ठमाण जाव वोतिकताणं सुकुमालगभद्दलए मिदुकुडलकुचियकेसए मट्टगंडयलकण्णपीढए देवकुमारसप्पभए दारए पयाति से णं अहं कासवा!। "तए णं अहं आउसो ! कासवा ! कोमारियपन्नज्जाए कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकन्नए चेव संखाणं पडिलभामि, संखाणं पडिलभित्ता इमे सत्त पउट्टपरिहारे परिहरामि, तंजहा-- एणेज्जगस्स 1 मल्लरामगस्स 2 मंडियस्स 3 रोहस्स 4 भारद्दाइस्स 5 अजुणगस्स गोतमपुत्तस्स 6 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स 7 / ___ "तत्थ गंजे से पढमे पउट्टपरिहारे से गं रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडियच्छिसि चेतियंसि उदायिस्स कुडियायणियस्स सरोरगं विपजहामि, उदा० सरीरगं विप्पजहित्ता एणज्जगस्त सरीरगं अणुष्पविसामि / एणेज्जगस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता बावीसं वासाई पढमं पडट्टपरिहारं परिहामि / ___ "तत्य गंजे से दोच्चे पउपरिहारे से णं उद्दडपुरस्स नगरस्स बहिया चंदोयरणसि चेतियंसि एगेज्जगस्स सरीरगं विघ्पजहामि, एणज्जगस्स सरीरगं विप्पजहिता मल्लरामगस्स सरीरगं अनुपविसामि, मल्लरामगस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता एक्कवीसं वासाई दोच्चं पउट्टपरिहार परिहरामि। --.-. 1. देखिये पण्णवणासुतं भा. 1, सू. 201, पृ. 73 (महावीर जैन विद्यालय प्रकाशन) 2. 'जाव' पद सूचक पाठ-.-'सत्तिवण्णवडेंसए चंपगव.सए चूपवडेंसए माझे य बंभलोयवसए इत्यादि / - भगवती. अ. व., पत्र 667 Page #1738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘पन्द्रहवीं शतक] [473 "तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंचाए नगरोए बहिया अंगमंदिरंसि चेतियंसि मल्लरामगस्स सरीरगं विष्पजहामि, मल्लरामगस्स सरीरगं विपन हित्ता मंडियस्स सरोरगं अणुप्पवि. सामि, मंडियस्त सरीरगं अगुप्पविसित्ता वीसं वासाइं तच्चं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तस्य णं जे से चउत्थे पउट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावर्णसि चेतियंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, मंडियस्स सरीरगं विप्पजहिता राहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, राहस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता एक्कूणवीसं वासाइं चउत्थं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तत्थ णं जे से पंचमे पउट्टपरिहारे से गं पालभियाए नगरीए बहिया पत्तकालगंसि चेतियंसि राहस्स सरीरगं विप्पजहामि, राहस्स सरीरगं विप्पजहित्ता भारद्दाइस्स सरोरगं अणुप्पविसामि, भारहाइस्स सरीरगं अणुप्पविसित्ता अट्ठारस वासाई पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "तत्थ णं जे से छ? पउट्टपरिहारे से गं वेसालीए नगरीए बहिया कुडियायणियंसि चेतियंसि भारहाइ स्स सरीरगं विप्पजहामि, भारद्दाइस्स सरीरगं विप्पजहित्ता अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अज्जुणगस्स० सरोरगं अणुष्पविसित्ता सत्तरस वासाई छ8 पउट्टपरिहारं परिहरामि। "तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्टपरिहारे से णं इहैव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावर्णसि अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, अज्जुणयस्त० सरीरगं विष्वजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं सीयसहं उन्हसहं खुहासह विविहदसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्ट तं अणुप्पविसामि, तं अणुप्पविसित्ता सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपहिारं परिहरामि / "एवामेव आउसो ! कासवा! एएणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाता / तं सुकृ णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासि, साधु णं आउसो ! कासवा ! ममं एवं वदासि गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मतेवासि' ति।" 68] जब प्रानन्द स्थविर, गौतम आदि श्रमणनिर्ग्रन्थों को भगवान का प्रादेश कह रहे थे, तभी मंखलिपुत्र गोशालक पाजीवकसंघ से परिवृत (युक्त) होकर हालाहला कुम्भकारी की दुकान से निकल कर अत्यन्त रोष धारण किये हुए शीघ्र एवं त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मध्य में होकर कोष्ठक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पाया। फिर श्रमण भगवान महावीर स्वामी से न अतिदूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर उन्हें इस प्रकार कहने लगा आयुष्मन् काश्यप ! तुम मेरे विषय में अच्छा कहते हो ! हे आयुष्मन् ! तुम मेरे प्रति ठीक कहते हो कि मंलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, गोशालक मंखलिपुत्र मेरा धर्म-शिष्य है। (परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि) जो मंखलिपुत्र गोशालक तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह तो शुक्ल (पवित्र) और शुक्लाभिजात (पवित्र परिणाम बाला) हो कर काल के समय काल करके किसी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हो चुका है। मैं तो कौण्डिन्यायन-गोत्रीय उदायी हूँ। मैंने गौतम पुत्र Page #1739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474] [व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र अर्जुन के शरीर का त्याग किया, फिर मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रवेश करके मैंने यह सातवाँ परिवृत्त परिहार किया है / हे प्रायुष्मन काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार जो भी सिद्ध हए हैं, सिद्ध होते हैं अथवा सिद्ध होंगे, वे सब (पहले) चौरासी लाख महाकल्प, (कालविशेष), सात दिव्य (देवभव), सात संयूथनिकाय, सात संशीगर्भ (मनुष्य-गर्भावास) सात परिवृत्त-परिहार (उसी शरीर में पुनः पुनः प्रवेशउत्पत्ति) और पांच लाख, साठ हजार छह-सौ तीन कर्मों के भेदों को अनुक्रम से क्षय करके तत्पश्चात् सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण प्राप्त करते हैं और समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। भूतकाल में ऐसा किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में ऐसा करेंगे। जिस प्रकार गंगा महानदी जहाँ से निकलती है, और जहाँ (जा कर) समाप्त होती है। उसका वह मार्ग (अद्धा) लम्बाई में 500 योजन है और चौड़ाई में प्राधा योजन है तथा गहराई में पाँच-सौ धनुष है / उस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगाएँ मिल कर एक महागंगा होती है / सात महागंगाएँ मिलकर एक सादीनगंगा होती है। सात सादीनगंगाएँ मिल कर एक मृतगंगा होती है / सात मू मिलकर एक लोहितगंगा होती है। सात लोहितगंगाएँ मिल कर एक अवन्तीगंगा होती है / सात अवन्तीगंगाएँ मिल कर एक परमावतीगंगा होती है। इस प्रकार पूर्वापर मिल कर कुल एक लाख, सत्रह हजार, छह सौ उनचास गंगा नदियाँ होती हैं, ऐसा कहा गया है। उन (गंगानदियों के बालुकाकण) का दो प्रकार का उद्धार कहा गया है / यथा-(१) सूक्ष्मबोन्दि-कलेवररूप और (2) बादर-बोन्दि-कलेवररूप / उनमें से जो सुक्ष्मबोदि-कलेवररूप उद्धार है, वह स्थाप्य है (निरुपयोगी है, अतएव उसका विचार करने की आवश्यकता नहीं है) / उनमें से जो बादर-बोंदिकलेवररूप उद्धार है, उसमें से सौ-सौ वर्षों में गंगा की बाल का एक-एक-कण निकाला जाए और जितने काल में वह गंगा-समूहरूप कोठा समाप्त हो जाए, रजरहित निर्लेप और निष्ठित (समाप्त) हो जाए, तब एक 'शरप्रमाण' काल कहलाता है। इस प्रकार के तीन लाख शर. प्रमाण काल द्वारा एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्पों का एक महामानस होता है। अनन्त संयूथ (अनन्त जीवों के समुदाय रूप निकाय) से जीव च्यव कर संयूथ-देवभव में उपरितन मानस (शरप्रमाण आयुष्य) द्वारा उत्पन्न होता है। वह वहाँ (देवभव में) दिव्यभोगों का उपभोग करता रहता है। इस प्रकार दिव्यभोगों का उपभोग करते-करते उस देवलोक का आयूप्य-क्षय, देवभव का क्षय और देवस्थिति का क्षय होने पर तुरन्त (बिना अन्तर के) च्यवकर प्रथम संजीगर्भजीव (गर्भज. पंचेन्द्रिय मनुष्य) में उत्पन्न होता है। फिर वह वहाँ से अन्तररहित (तुरन्त) मर कर मध्यम मानस (शरप्रमाण आयुष्य) द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दिव्य भोगों का उपभोग करता है / वहाँ से देवलोक का आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर दूसरी बार फिर संज्ञीगर्भ (गर्भज मनुष्य) में जन्म लेता है। इसके पश्चात् वहाँ से तुरन्त मर कर अधस्तन मानस (शरप्रमाण) आयुष्य द्वारा संयूथ (देवनिकाय) में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दिव्य भोग भोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर तीसरे संज्ञीगर्भ में उत्पन्न होता है। फिर वह वहां से मर कर उपरितन मानसोत्तर (महामानस) आयुष्य द्वारा संयूथ देवनिकाय में उत्पन्न होता है। वहाँ वह दिव्य भोग भोग कर यावत् चतुर्थ संजीगर्भ में जन्म लेता है। वहाँ से मर कर तुरन्त मध्यम मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ में उत्पन्न होता है। वहाँ वह दिव्यभोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से च्यव कर पांचवें संज्ञीगर्भ में Page #1740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पन्द्रहवां शतक [475 उत्पन्न होता है। वहां से मर कर तुरन्त अधस्तन मानसोत्तर आयुष्य द्वारा संयूथ-देव में उत्पन्न होता है। वह वहां दिव्य भोगा का उपभोग करके यावत् च्यव कर छठे संजीम जीब में जन्म लेता है। वह वहाँ से मर कर तुरन्त ब्रह्मलोक नामक कल्प (देवलोक) में देवरूप में उत्पन्न होता है, (जिसका वर्णन इस प्रकार कहा गया है-) वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा (विस्तीर्ण) है 1 प्रज्ञापना मूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार वर्णन समझना चाहिए, यावत्-उस में पांच अवतंसक विमान कहे गए हैं / यथा--अशोकावतंसक, यावत् वे प्रतिरूप हैं। इन्हीं अवतंसकों में वह देवरूप में उत्पन्न होता है। वह वहाँ दम सागरोपम तक दिव्य भोगों का उपभोग कर यावत् वहाँ से ध्यव कर सातवे संजोगर्भ जीव में उत्पन्न होता है। वहाँ नौ मास और साढ़े सात रात्रि दिवस यावत् व्यतीत होने पर सुकुमाल, भद्र, मृदु तथा (दर्भादि के) कुण्डल के समान कुंचित (घंघराले) केश वाला, कान के प्राभूषणों से जिसके कपोलस्थल चमक रहे थे, ऐसे देवकुमारसम कान्ति बाले बालक को जन्म दिया / हे काश्यप ! वही (बालक) इसके पश्चात् हे आयुष्मन् काश्यप ! कुमारावस्था में ली हुई प्रव्रज्या से, कुमारावस्था में ब्रह्मचर्य वास से जब मैं अविद्धकर्ण (अव्युत्पन्नमति) था, तभो मुझे प्रवज्या ग्रहण करने की बुद्धि (संख्यान) प्राप्त हुई। फिर मैंने सात परिवृत्त-परिहार(शरीरान्तरप्रवेश) में संचार किया / यथा-- (1) ऐणेयक, (2) मल्लरामक, (3) मण्डिक, (4) रोह, (5) भारद्वाज, (6) गौतमपुत्र अर्जुनक और (7) मंलिपुत्र गोशालक के (शरीर में प्रवेश किया।) इनमें से जो प्रथम परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर-प्रवेश) हुना, वह राजगृह नगर के बाहर मंडिक कक्षि नामक उद्यान में, कुण्डियायण गोत्रीय उदायी के शरीर का त्याग करके ऐणयक के शरीर में प्रवेश किया / ऐणेयक के शरीर में प्रवेश करके मैंने बाईस वर्ष तक प्रथम परिवृत्त-परिहार (शरीरान्तर में परिवर्तन) किया / इन में से जो द्वितीय परिवृत्त-परिहार हुमा, वह उद्दण्डपुर नगर के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान में मैंने ऐणेयक के शरीर का त्याग किया और मल्लरामक के शरीर में प्रवेश किया / मल्लरामक के शरीर में प्रवेश करके मैंने इक्कोस वर्ष तक दूसरे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया / इनमें से जो ततीय परिवत्त-परिहार हुआ, वह चम्पानगरी के बाहर अंगमंदिर नामक उद्यान में मल्ल रामक के शरीर का परित्याग किया / मल्लरामक-शरीर त्याग करके मैंने मण्डिक के शरीर में प्रवेश किया। मण्डिक के शरीर में प्रविष्ट हो कर मैंने बीस वर्ष तक तृतीय परिवत्त-परिहार का उपभोग किया / इनमें से जो चतुर्थ परिवृत्त-परिहार हुअा, वह वाराणसी नगरी के बाहर काम-महावन नामक उद्यान में मण्डिक के शरीर का मैंने त्याग किया और रोहक के शरीर में प्रवेश किया / रोहक-शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने उन्नीस वर्ष तक चतुर्थ परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। उनमें से जो पंचम परिवृत्त-परिहार हुमा, वह पालभिका नारी के बाहर प्राप्तकालक नाम Page #1741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के उद्यान में हुआ / उसमें मैं रोहक के शरीर का परित्याग करके भारद्वाज के शरीर में प्रविष्ट हुना। भारद्वाज-शरीर में प्रविष्ट होकर अठारह वर्ष तक पाँचवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया। __उनमें से जो छठा परिवृत्त-परिहार हुअा, उसमें मैंने वैशाली नगर के बाहर कुण्डियायन नामक उद्यान में भारद्वाज के शरीर का परित्याग किया और गौतमपुत्र अर्जनक के शरीर में प्रवेश किया। अर्जुनक-शरीर में प्रविष्ट होकर मैंने सत्रह वर्ष तक छठे परिवृत्त-परिहार का उपभोग किया / उनमें से जो सातवाँ परिवत्त-परिहार हुआ, उसमें मैंने इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भकारी की बर्तनों की दूकान में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर का परित्याग किया / अर्जुनक के शरीर का परित्याग करके मैंने समर्थ, स्थिर, ध्र व, धारण करने योग्य, शीतसहिष्णु, उष्णसहिष्ण, क्षुधासहिष्णु, विविध दंश-मशकादिपरीषह-उपसर्ग-सहनशील, एवं स्थिर संहनन वाला जानकर, मंलिपुत्र गोशालक के उस शरीर में प्रवेश किया / उसमें प्रवेश करके मैं सोलह वर्ष तक इस सातवें परिवृत्त-परिहार का उपभोग करता हूँ। इसी प्रकार हे यायुष्मन् काश्यप ! इन एक-सौ तेतीस वर्षों में मेरे ये सात परिवत्तपरिहार हुए हैं. ऐसा मैंने कहा था। इसलिए आयुष्मन् काश्यप ! तुम ठीक कहते हो कि मंलिपुत्र गोशालक मेरा धर्मान्तेवासी है, यह तुमने ठीक ही कहा है अायुष्मन् काश्यप ! कि मंखलिपुत्र गोशालक मेरा धर्म-शिष्य है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (68) में गोशालक ने भगवान् महावीर के समक्ष अपने स्वरूप को छिपाने और भगवान् को झुठलाने हेतु अपनी परिवृत्तपरिहार की मिथ्या मान्यतानुसार अपने सात परिवृत्तपरिहार (शरीरान्तर प्रवेश) की प्ररूपणा की है / गोशालक के विस्तृत भाषण का प्राशय-भगवान् द्वारा गोशालक की कलई खुल जाने से वह उन पर क्रुद्ध होकर पाया और उपालम्भपूर्वक व्यंग करते हुए कहने लगा-आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मुझे अपना धर्म शिष्य बताया परन्तु तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वह जो तुम्हारा धर्मशिष्य गोशालक था, वह तो शुभभावों से मरकर कभी का देवलोक में उत्पन्न हो चुका है / मैं तुम्हारा धर्मान्ते वासी नहीं हूँ। मैं तो कौण्डिन्यायनगोत्रीय उदायी हूँ। गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर का त्याग करके मैं मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हुअा हूँ। यह मेरा सातवाँ परिवृत्तपरिहार है / इस प्रकार उसने उपर्युक्त बात कहकर अपने स्वरूप को छिपाया और फिर अपने मनःकल्पित सिद्धान्तानुसार मोक्ष जाने वालों का क्रम बतलाया है। इसी सन्दर्भ में उसने स्वसिद्धान्तानुसार महाकल्प, संयूथ, शर-प्रमाण, मानस-शर-प्रमाण, उद्धार आदि का वर्णन किया है। फिर अपने सात प्रवृत्त परिहारों के नामपूर्वक विस्तृत वर्णन किया है।' गोशालक-सिद्धान्त : अस्पष्ट एवं संदिग्ध-वृत्तिकार का अभिप्राय है कि यह सिद्धान्त पूर्वापर विरुद्ध, असंगत एवं अस्पष्ट है, इसलिए इसकी अर्थसंगति हो ही कैसे सकती है ? 2 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2 (मू. पा. टिप्पणयुक्त) पृ. 711 से 715 तक 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 676 Page #1742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [477 कठिन शब्दों के विशेषार्थ-सुक्के-शुक्ल-पवित्र / सुक्काभिजाइए-शुक्ल परिणाम वाला। पउट्ट-परिहार-एक शरीर छोड़कर दूसरे को धारण करना / ठप्पे-स्थाप्य-अव्याख्येय / प्रवहायछोड़कर / कोठे-गंगासमुदायात्मक कोष्ठ / निल्लेवे पूरी तरह साफ-खाली रजकण के लेप का भी अभाव / निट्टिए-निष्ठित-अवयवरहित किया हुया / अलंथिरं-अत्यन्त स्थिर | अविद्धकन्नएजिसके कान कुश्रुतिरूपी शलाका से बींधे हुए नहीं हैं अर्थात् जो अभी तक निर्दोषबुद्धि है अव्युत्पन्नमति है। कोरी स्लेट के समान साफ है।' भगवान द्वारा गोशालक को चोर के दृष्टान्तपूर्वक स्व-भ्रान्तिनिवारण-निर्देश 69. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मखलिपुत्तं एवं वदासि---गोसाला! से जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहि परम्भमाणे परममाणे कथयि गड्डुवा दरि वा दुग्गं वा पिण्णं वा पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपोम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं पावरेत्ताणं चिट्ठज्जा, से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मन्नति, अप्पच्छन्न पच्छन्नमिति अप्पाणं मन्नति, अणिलुवके णिलुषकमिति अप्पाणं मन्नति, अपलाए पलायमिति अप्पाणं मन्नति, एवामेव तुमं पि गोसाला! अणन्ने संते अन्नमिति अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला !, नारिहसि गोसाला! , सच्चेव, ते सा छाया, नो अन्ना। [69] (गोशालक के उपर्युक्त कथन पर) श्रमण भगवान महावीर ने मंखलिपुत्र गोशालक से यों कहा-गोशालक ! जैसे कोई चोर हो और वह ग्रामवासी लोगों के द्वारा पराभव पाता हुआ (खदेड़ा जाता हुआ) कहीं गड्ढा, गुफा, दुर्ग (दुर्गम स्थान), निम्न स्थान, पहाड़ या विषम (बीहड़ प्रादि स्थान) नहीं पा कर अपने आपको एक बड़े ऊन के रोम, (कम्बल) से, सण के (वस्त्र) रोम से, कपास के बने हुए रोम (वस्त्र) से, तिनकों के अग्रभाग से आवृत (ढंक) करके बैठ जाए, और नहीं ढंका हा भी स्वयं को ढंका हुया माने, अप्रच्छन्न (नहीं छिपा) होते हुए भी अपने आपको प्रच्छन्न (छिपा हुआ) माने, लुप्त (अदृश्य) (लुका हुआ) न होने पर भी अपने को लुप्त (अदृश्य-लुका हुआ) माने, पलायित (भागा हुआ) न होते हुए भी अपने को पलायित माने। उसी प्रकार हे गोशालक ! तू अन्य (दूसरा) न होते हुए भी अपने आपको अन्य (दूसरा) बता रहा है। अतः गोशालक ! ऐसा मत कर / गोशालक ! (ऐसा करना) तेरे लिए उचित नहीं है। तू वही है। तेरी वही छाया (प्रकृति) है, तू अन्य (दूसरा) नहीं है / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र (66) में भगवान् द्वारा गोशालक को चोर के उदाहरण पूर्वक दिये गए वास्तविक बोध का निरूपण है। कठिनशब्दार्थ तेणए-स्तेन, चोर / गामेल्लएहि-ग्रामीणों द्वारा / गड्डे-गड्ढा--गर्त / दरि-शृगाल आदि के द्वारा बनाई हई घरी या छोटी गूफा / णिणं-शुष्क सरोवर आदि निम्न स्थान / अणासादेमाणे-प्राप्त न होने पर / कप्पासपोम्हेण-कपास के रोगों (वस्त्र) से / तणसूएण-तिनकों के अग्नभाग से / अत्ताणं आवरेत्ता-अपने आपको ढंक कर / अप्पछन्ने-अप्रच्छन्न / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 677 Page #1743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणिलुक्के–जो लुप्त, अदृश्य नहीं हो। अपलाए-पलायनरहित / अणन्ने-दूसरा नहीं / उवलमसि-- उपलब्ध कराता-दिखाता है / नारिहसि-(ऐसा करना) योग्य -उचित नहीं / छाया–प्रकृति / ' भगवान के प्रति गोशालक द्वारा अवर्णवाद-मिथ्यावाद 70. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे आसुरुत्ते 5 समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति, उच्चा० प्राओ० 2 उच्चावयाहिं उद्धसणाहि उद्धसेति, उच्चा० उ० 2 उच्चावधाहिं निभच्छणाहिं निम्भच्छेति, उच्चा० नि० 2 उच्चावयाहि निच्छोडणाहि निच्छोडेति, उच्चा० नि० 2 एवं वदासि-8 सि कदायि, विट्ठ सि कदायि, भट्ठसि कदायि, नट्टविणटुभ? सि कदायि, अज्ज न भवसि, ना हि ते ममाहितो सुहमस्थि / [70] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जब मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा तब वह तुरन्त अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा / क्रोध से तिलमिला कर वह श्रमण भगवान् महावीर की अनेक प्रकार के (असमंजस) ऊटपटांग (अनुचित) अाक्रोशवचनों से भर्त्सना करने लगा, उद्घर्षणायुक्त (दुष्कुलीन है, इत्यादि अपमानजनक) वचनों से अपमान करने लगा, अनेक प्रकार की अनर्गल निर्भर्सना द्वारा भर्त्सना करने लगा, अनेक प्रकार के दुर्वचनों से उन्हें तिरस्कृत करने लगा। यह सब करके फिर गोशालक बोला--(जान पड़ता है) कदाचित् तुम (अपने प्राचार से) नष्ट हो गए हो, कदाचित् प्राज तुम विनष्ट (मृत) हो गए हो, कदाचित् आज तुम (अपनी सम्पदा से) भ्रष्ट हो गए हो, कदाचित तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो चुके हो / अाज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ (सुख) होने वाला नहीं है / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (70) में भगवान द्वारा वास्तविक स्वरूप का भान कराने पर क्रुद्ध और उत्तेजित गोशालक द्वारा भगवान् के प्रति निकाले हुए अनर्गल भर्त्सना, अपमान, तिरस्कार से भरे विद्वेषसूचक उद्गार प्रस्तुत हैं। शब्दार्थ-उच्चावयाहि-ऊँचे-नीचे---भले-बुरे :प्राश्नोसणाहि--'तू मर गया' इत्यादि प्राक्रोशवचनों से / उद्धं सणाहि-तू दुष्कुलीन है इत्यादि अपमानजनक वचनों से / निम्भंछणाहि-निर्भर्सनामों द्वारा--'अब तेरा मुझसे कोई मतलब नहीं' इत्यादि कठोर वचनों से / निच्छोडणाहि-प्राप्त पदवी को छोड़ने के लिए दुष्ट वचनों से अर्थात्-तीर्थकर के चिह्नों को छोड़, इत्यादि दुर्वचनों से / न? सि कयाइ-तू तो कभी का अपने आचार से नष्ट हो गया है / गोशालक को स्वकर्तव्य समझाने वाले सर्वानुभूति अनगार का गोशालक द्वारा भस्मीकरण 71. तेणं कालेण तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी पायोणजाणवए सवाणुभूती णामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागेणं एयम असद्दहमाणे उदाए उति, उ०२ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गोसालं मंखलिपुत्तं एवं क्यासीजे वि ताव गोसाला! तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं 1. (क) भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 683 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5. पृ. 2429 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 683 Page #1744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां शतक] [479 निसामेति से वि ताव तं वंदति नमसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासति, किमंग पुण तुम गोसाला! भगवया चेव पवाविए, भगवया चेव मुंडाविए, भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकते, भगवो चेव मिच्छं विष्पडिवन्ने, तं मा एवं गोसाला!, नारिहसि गोसाला ! , सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना। [71] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पूर्व देश में जन्मे हुए (प्राचीनजानपदीय) सर्वानुभूति नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वह अपने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश गोशालक के (अनर्गल) प्रलाप के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठे और मखलिपुत्र गोशालक के पास आकर कहने लगे हे गोशालक ! जो मनुष्य तथारूप श्रमण या माहन से एक भी प्रार्य (पापनिवारणरूप निर्दोष) धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उन्हें वन्दना-नमस्कार करता है, यावत् उन्हें कल्याणरूप, मंगलरूप, देवस्वरूप, एवं ज्ञानरूप मान कर उनकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तुम्हारे लिए तो कहना ही क्या ? भगवान् ने तुम्हें (धर्मवचन ही नहीं सुनाया अपितु) प्रवजित किया, मुण्डित (दीक्षित) किया, भगवान् ने तुम्हें (व्रत एवं प्राचार को) साधना सिखाई, भगवान् ने तुम्हें (तेजोलेश्यादि विषयक उपदेश देकर) शिक्षित किया; भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत किया; (इतने पर भी) तुम भगवान् के प्रति मिथ्यापन (अनार्यता) अंगीकार कर रहे हो ! हे गोशालक ! तुम ऐसा मत करो / तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है / हे गोशालक ! तुम वही गोशालक हो, दूसरे नहीं, तुम्हारी वही प्रकृति है, दूसरी नहीं / 72. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूइणा अणगारेणं एवं बुत्ते समाणे आसुरसे 5 सव्वाणुभूति प्रणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेति / [72] सर्वानुभूति अनगार ने जब मंखलिपुत्र गोशालक से इम प्रकार की बातें कहीं तब वह एकदम क्रोध से आगबबूला हो उठा और अपने तपोजन्य तेज (तेजोलेश्या) से उसने एक ही प्रहार में कूटाधात की तरह सर्वानुभूति अनगार को भस्म कर दिया। 73. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूई अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्च जाव भासरासि करेता दोच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसइ जाव सुहमस्थि। [73] सर्वानुभूति अनगार को भस्म करके वह मंलिपुत्र गोशालक फिर दूसरी वार श्रमण भगवान् महावीर को अनेक प्रकार के ऊटपटांग याक्रोश वचनों से तिरस्कृत करने लगा, (इत्यादि) यावत्-बोला---'आज मेरे द्वारा तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।' विवेचन--सर्वानुभूति अनगार का भस्मीकरण-यद्यपि भगवान् महावीर ने सभी निर्ग्रन्थ श्रमणों को गोशालक को छेड़ने की मनाही की थी, किन्तु धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार से न रहा गया, उन्होंने गोशालक को भगवान् द्वारा उसके प्रति किये गए उपकारों का स्मरण कराया, यथार्थ बात कही, जिस पर अत्यन्त कुपित होकर गोशालक ने उन्हें जला कर भस्म कर दिया / यद्यपि भगवान् ने गोशालक की अपेक्षा अनन्त-गुण-विशिष्ट तप-तेज सामान्य अनगार का बताया था, बशर्ते कि वह क्षमा (क्रोधनिग्रह) समर्थ हो / प्रतीत होता है कि सर्वानुभूति अनगार Page #1745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के मन में भगवान् के विषय में गोशालक के यद्वा-तद्वा आक्रोशपूर्ण एवं आक्षेपपूर्ण वचन सुन कर रोष उमड़ पाया हो. इसी कारण गोशालक का दाव लग गया हो।' कठिन शब्दों का अर्थ-पव्वाविए–प्रजित किया-शिष्यरूप से स्वीकार किया। मंडाविए-मंडित किया—मूण्डित गोशालक को शिष्यरूप में माना / सेहाविए--अत-प्राचार आदि पालन करने का की साधना सिखाई, सिक्खाविए-तेजोलेश्यादि के विषय में उपदेश देकर शिक्षित किया / बहुस्सुतीकए-नियतिवाद आदि के विषय में हेतु, युक्ति आदि से बहुश्रुत (शास्त्रज्ञ) बनाया / ' गोशालक द्वारा भगवान के किये गए अवर्णवाद का विरोध करने वाले सुनक्षत्र अनगार का समाधिपूर्वक मरण 74. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागणं जहा सम्वाणुभूती तहेव जाव सच्चेव ते सा छाया, नो अन्ना / [74] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर का कोशल जनपदीय (अयोध्या देश) में उत्पन्न (एक और) अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था। वह भी प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। उसने धर्माचार्य के प्रति अनुरागवश सर्वानुभूति अनगार के समान गोशालक को यथार्थ बात कही, यावत्--'हे गोशालक ! तू वही है, तेरी प्रकृति वही है, तू अन्य नहीं है। 75. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्वत्तेणं अणगारेणं एवं धुत्ते समाणे आसुरुत्ते 5 सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेति / तए णं से सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, वं० 2 सयमेव पंच महत्वयाई पारुभेति, स० आ० 2 समणा य समणीयो य खामेति, सम० खा० 2 आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुवीए कालगते / [75] सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुया और अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को भी परितापित कर (जला) दिया। मंखलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से जले हुए सुनक्षत्र अनगार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप आकर और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके उन्हें वन्द ना-नमस्कार किया। फिर (उनकी साक्षी से) स्वयमेव पंच महाव्रतों का आरोषण किया और सभी श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की। तदनन्तर पालोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त कर अनुक्रम से कालधर्म प्राप्त किया। 76. तए णं से गोसाले मंखलियुत्ते सुनक्खतं अणगारं तवेणं तेयेणं परितावेत्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसति सन्वं तं चेव जाव सुहमस्थि / [76] अपने तप-तेज से सुनक्षत्र अनगार को जलाने के बाद फिर तोसरी बार मंखलिपुत्र 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) , भा, 5, पृ. 2432 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 683 Page #1746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [481 गोशालक, श्रमण भगवान महावीर को अनेक प्रकार के प्राक्रोशपूर्ण वचनों से तिरस्कृत करने लगा; इत्यादि पूर्ववत् ; यावत्-'अाज मुझ से तुम्हारा शुभ होने वाला नहीं है।' विवेचन--सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि के जलने में अन्तर----सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र अनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रहार किया, किन्तु सर्वानुभूति अनगार को कूटाघात के समान एक ही प्रहार में जलाकर राख का ढेर कर दिया था. जब कि सनक्षत्र अनगार को इस तरह भस्म नहीं कर सका। इसके लिए शास्त्रकार ने 'परिताविए' (परितापित किया जला दिया) शब्द-प्रयोग किया है। अर्थात्-सुनक्षत्र अनगार तुरन्त भस्म नहीं हुए किन्तु जलने से घायल हो गए थे। सर्वानुभूति अनगार का शरीर तुरन्त ही भस्म हो गया था, इसलिए उन्हें क्षमापना आलोचना-प्रतिक्रमण आदि का समय नहीं मिला, जब कि सुनक्षत्र अनगार को क्षमापना, पालोचनाप्रतिक्रमणपूर्वक समाधिमरण का अवसर प्राप्त हो गया था। कठिन शब्दार्थ---आरुति-पारोपित किया, नये सिरे से पंच महाव्रत का उच्चारण करके स्वीकार किया / समाहिपत्ते-समाधिमरण को प्राप्त हुए। परिताविए-पीडित कर दिया, जला दिया। गोशालक को भगवान का सदुपदेश, क्रुद्ध गोशालक द्वारा भगवान पर फेंकी हुई तेजोलेश्या से स्वयं का दहन 77. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासि–जे वि ताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स०, वा तं चेव जाव पज्जुवासति किमंग पुण गोसाला! तुम मए चेव पचालिए जाव मए चेव बहुस्सुतीकते मम चेव मिच्छ विष्पडिवन्ने ?, तं मा एवं गोसाला ! जाव नो प्रना। [77) तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने, मखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा'गोशालक ! जो तथारूप श्रमण या माहन से एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, इत्यादि पूर्ववत्, वह भी उसकी पर्युपासना करता है, तो हे गोशालक ! तेरे विषय में तो कहना ही क्या? मैंने तुझे प्रजित किया, यावत् मैंने तुझे बहुश्रुत बनाया, अब मेरे साथ ही तूने इस प्रकार का मिथ्यात्व (अनार्यत्व) अपनाया है। गोशालक ! ऐसा मत कर / ऐमा करना तुझे योग्य नहीं है। यावत्-तू वही है , अन्य नहीं है / तेरी वही प्रकृति है, अन्य नहीं / / 78. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुते 5 तेधासमुग्धातेणं समोहनइ, तया० स०२ सत्तटुपयाई पच्चोसक्काइ, स० प० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स बहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति / से जहानामए बाउक्कलिया इ वा वायमंडलिया इ वा 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2433 (ख) वियाहपण्णत्तिमुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त). पृ. 717 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2433 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 659 Page #1747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सेलसि वा कुड्डसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवारिज्जमाणी वा निवारिज्जमाणो वा सा गं तत्थ णो कमति, नो पक्कमति, एवामेव गोसालस्स वि संखलिपुत्तस्स तबे तेये समणस्स भगवतो महावीरस्स वहाए सरीरगंसि निसिठे समाणे से णं तत्थ नो कमति, नो पक्कमति, अंचिअंचियं करेति, अंचि० क० 2 आदाहिणपयाहिणं करेत्ति, आ० क० 2 उड्ढं वेहासं उप्पतिए / से णं तो पडिहए पडिनियत्तमाणे तमेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं प्रणुडहमाणे अणुडहमाणे अंतो अंतो अणुप्पविठे। [78] श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशालक पुनः एकदम क्रुद्ध हो उठा। उसने क्रोधावेश में तैजस समुद्धात किया। फिर वह सात-पाठ कदम पीछे हटा और श्रमण भगवान महावीर का वध करने के लिए उसने अपने शरीर में से तेजोनिसर्ग किया (तेजोलेश्या निकाली)। जिस प्रकार बातोत्कलिका (ठहर-ठहर कर चलने वाली वायु) वातमण्डलिका (मण्डलाकार होकर चलने वाली हवा) पर्वत, भीत, स्तम्भ या स्तूप से आवारित (स्खलित) एवं निवारित (अवरुद्ध या निवृत्त) होती (हटती) हुई उन शैल आदि पर अपना थोड़ा-सा भी प्रभाव नहीं दिखाती, न ही विशेष प्रभाव दिखाती है। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर का वध करने के लिए मखलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने शरीर में से बाहर निकाली (छोड़ी) हुई तपोजन्य तेजोलेश्या, भगवान् महावीर पर अपना थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी। (सिर्फ) उसने गमनागमन (ही) किया / फिर उसने दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की और ऊपर आकाश में उछल गई। फिर वह वहाँ से नीचे गिरी और वापिस लौट कर उसी मंखलिपुत्र गोशालक के शरीर को बार-बार जलाती हुई अन्त में उसी के शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गई। विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों (77-78) में से प्रथम सूत्र में भगवान द्वारा गोशालक द्वारा प्राचरित अनार्य कर्म पर उसे दिए गए उपदेश का वर्णन है। द्वितीय सूत्र में बताया गया है कि गोशालक द्वारा भगवान् को मारने के लिए छोड़ी गई तेजोलेश्या उन्हें किञ्चित् क्षति न पहँचा कर प्राकाश में उछली और फिर नीचे प्राकर, लौट कर गोशालक के शरीर में प्रविष्ट हई और उसे बार-बार जलाने लगी / अर्थात्-पाक्रमणकर्ता गोशालक भगवान् को जलाने के बदले' स्वयं जल गया। कठिनशब्दार्थ-निसिट समाणे-निकलती हुई। णो कमइ, णो पक्कमइ:-थोड़ा या बहुत कुछ भी प्रभाव न दिखा सकी, थोड़ी या बहत क्षति पहँचाने में समर्थ न हई। अंचिअंचियं करेति गमनागमन किया / उप्पतिए-ऊपर उछली / पडिहए-गिरी / अण्डहमाणे-बार-बार जलाती हुई। क्रुद्ध गोशालक को भगवान के प्रति मरण घोषणा, भगवान द्वारा प्रतिवादपूर्वक गोशालक के अन्धकारमय भविष्य का कथन 79. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सएणं तेयेणं अन्नाइट्ठे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं 1. वियाहपण्णत्तिसुत (मू. पा. टि.) भा. 2, पृ. 717-618 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 683 (ख) भगवतो. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 664 Page #1748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] वदासि-तुम णं आउसो ! कासया ! मम तवेणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्स सि / 76] तत्पश्चात् मंलिपुत्र गोशालक अपने तेज (तेजोलेश्या) से स्वयमेव पराभूत हो गया / अत: (ऋद्ध होकर) श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार कहने लगा—'आयूष्मन काश्यप ! तुम मेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से परामत होकर पित्तज्वर से ग्रस्त शरीर वाले होकर दाह की पीड़ा से छह मास के अन्त में छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाओगे / ' 80. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंलिपुत्तं एवं वदासिनो खलु अहं गोसाला! तव तवेणं तेयेणं अन्नाइठे समाणे अंतो छण्हं जाव कालं करेस्सामि, अहं णं अन्नाई सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि / तुम णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेयेणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि / [80] इस पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मखलिपुत्र गोशालक से इस प्रकार कहा-'हे गोशालक ! तेरी तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर मैं छह मास के अन्त में, यावत काल नहीं करूंगा, किन्तु अगले सोलह वर्ष-पर्यन्त जिन अवस्था में गन्ध-हस्ती के समान विचरूगा / परन्तु हे गोशालक! तु स्वयं अपनी तेजोलेश्या से पराभव को प्राप्त होकर सात रात्रियों के अन्त में पित्तज्वर से शारीरिक पीड़ाग्रस्त होकर यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों में गोशालक द्वारा भगवान् के भविष्यकथन का तथा उसके प्रतिवाद रूप में भगवान् ने अपने दीर्घायुष्य का और गोशालक की मृत्यु का कथन क्रिया है।' कठिनशब्दार्थ:-अन्नाइट्र-अनादिष्ट--अभिव्याप्त या पराभूत / दाहवक्कतीए-दाह की पीड़ा से। पित्तज्जर-परिगयसरीरे-जिसके शरीर में पित्तज्वर व्याप्त हो गया है, वह / सुहत्थी-- पच्छे हाथी को तरह, गन्ध-हस्ती के समान 2 श्रावस्ती के नागरिकों द्वारा गोशालक के मिथ्यावादी और भगवान के सम्यग्वादी होने का निर्णय 81. तए सावत्थीए नगरोए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परवेति –एवं खलु देवाणुपिया! सावत्थीए नगरोए बहिया कोट्टए चेतिए दुवे जिणा संलवेति, एगे वदति-तुमं पुब्धि कालं करेस्ससि, एगे वदति-तुमं पुब्धि कालं करेस्ससि, तत्थ णं के सम्मावादी, के मिच्छावादी ? तत्थ णं जे से अहष्पहाणे जणे से वदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी। 1. बियाह पाणत्तिसूत्तं (मू. पा. टिप्पणयुक्तः) भा. 2, पृ. 718 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 683 Page #1749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [81] तदनन्तर श्रावस्ती नगरी के शृगाटक यावत् राजमागों पर बहुत से लोग परस्पर एक दूसरे से कहने लगे, यावत् प्ररूपणा करने लगे--देवानुप्रियो ! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन (तीर्थंकर) परस्पर संलाप कर रहे हैं। (उनमें से एक कहता है-'तू पहले काल कर जाएगा।' दूसरा उसे कहता है-'तू पहले मर जाएगा।' इन दोनों में कौन सम्यग्वादी (सत्यवादी) है, कौन मिथ्यावादी है ? उनमें से जो प्रधान (समझदार) मनुष्य था, उसने कहा—'श्रमण भगवान् महावीर सत्यवादी हैं, मखलिपुत्र गोशालक मिथ्यावादी है।' विवेचन—निष्कर्ष-'सत्यमेव जयते नानतम्' इस लोकोक्ति के अनुसार अन्त में सत्य की विजय हुई / भ. महावीर को गोशालक ने झूठा एवं दम्भी सिद्ध करना चाहा, मारने की धमकी देकर मारणप्रयोग भी किया किन्तु उसकी एक न चली / अन्त में भगवान् को लोगों ने सत्यवादी स्वीकार किया / अपहरणेअर्थ---यथाप्रधान मुख्य समझदार व्यक्ति / ' निर्ग्रन्थ श्रमणों को गोशालक के साथ धर्मचर्चा करते का भगवान का आदेश 82. 'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गथे आमंतेत्ता एवं क्यासि-अज्जो! से जहानामए तणरासी ति वा कट्टरासी ति वा पत्तरासी ति वा तयारासी ति वा तुसरासी ति वा भुसरासी ति वा गोमयरासी ति वा अवकररासी ति वा अगणिशामिए अगणिझुसिए अगणिपरिणामिए यतेये गयतेये नट्ठतेये भट्टतेये लुत्ततेए विणढतेये जाए एवामेव गोसाले मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरेत्ता हयतेये गततेथे जाव विणतेये जाए, त छदेणं अज्जो! तुम्भे गोसालं मंलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयगाए पडिचोएह, धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेत्ता धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेता अजेंहि य हेतूहि य पसिहि य वागरणेहि य कारणेहि य निप्पपसिणवागरणं करेह / [82] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने श्रमण निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर इस प्रकार कहा--'हे पार्यो! जिस प्रकार तृणराशि, काष्ठराशि, पत्रराशि, त्वचा (छाल की) राशि, तुष राशि, भूसे की राशि, गोमय (गोबर) की राशि और अबकर राशि (कचरे के दर) को अग्नि में थोड़ा-सा जल जाने पर, आग में झोंक देने (या बहुत झुलस जाने) पर एवं अग्नि से परिणामान्तर होने पर उसका तेज हत हो (मारा) जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज नष्ट और भ्रष्ट हो जाता है, उसका तेज लुप्त (अदृश्य) एवं विनष्ट हो जाता है; इसी प्रकार मंखलिपुत्र गोशालक द्वारा मेरे वध के लिए अपने शरीर से तेज (तेजोलेश्या) निकाल देने पर, अब उसका तेज हत हो (मारा) गया है, उसका तेज चला गया है, यावत् उसका तेज (नष्ट-भ्रष्ट) विनष्ट हो गया है / इसलिए, पार्यो ! अब तुम भले ही मंखलिपुत्र गोशालक को धर्मसम्बन्धी प्रतिनोदना (उसके मत के विरुद्ध वादविवाद) से प्रति प्रेरित करो, धर्मसम्बन्धी (उसके मत से विरुद्ध बात की) प्रतिस्मारणा (स्मृति) करा कर (विस्मृत अर्थ की) स्मृति कराओ। फिर धार्मिक प्रत्युपचार द्वारा उसका प्रत्युपचार 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2, पृ. 719 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2439 Page #1750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [485 करो, इसके बाद अर्थ, हेतु, प्रश्न, व्याकरण (व्याख्या) और कारणों के सम्बन्ध में (उत्तर न दे सके ऐसे) प्रश्न पूछ कर उसे निरुत्तर (निपृष्ट) कर दो।' / विवेचन—पहले (66 वें सूत्र में) भगवान् ने गोशालक के साथ धार्मिक चर्चा या वादविवाद करने के लिए श्रमण निर्ग्रन्थों को मना किया था, क्योंकि उस समय गोशालक पर तेजोलेश्या के अहंकार का भूत सवार था। किन्तु अब तेजोलेश्या का प्रभाव नष्ट हो जाने से गोशालक के साथ धर्मचर्चा एवं वादविवाद करने की श्रमणों को छुट दी, जिससे जनता एवं आजीवक मत के साधु और उपासकगण भ्रम में न रहें. सत्य को जान सकें।' कठिनशब्दार्थ-अगणि-झामिए --अग्नि से किंचित् दग्ध (जला हुआ), अगणिभूसिएअग्नि से अत्यन्त झलसा हुा / छंदेण–इच्छानुसार / हयतेए-जिसका तेज हत हो गया (फीका पड़ गया), गयतेए-गततेज / पडिचोयणा--प्रतिप्रेरणा / पडिसारणा-धर्म का स्मरण कराना / णिप्पट्ठपसिणवागरणं - प्रश्न का उत्तर न दे सकने योग्य / / भगवदादेश से निर्गन्थों को धर्मचर्चा में गोशालक निरुत्तर, पीड़ा देने में असमर्थ, प्राजीविक स्थविर भगवान् के निश्राय में 83. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 गोसालं मंलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोदणाए पडिचोदेंति ध० 102 धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेति, ध० प० 2 धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति, ध० 50 2 अठेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव निप्पट्टपसिणवागरणं करेंति / {83] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब उन श्रमण-निनन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर जहाँ मंलिपुत्र गोशालक था, वहाँ आए और उसे धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा (उसके मत के प्रतिकूल वचन) की, धर्मसम्बन्धी प्रतिस्मारणा (उसके मत के प्रतिकूल अर्थ का स्मरण कराना) की, तथा धार्मिक प्रत्युपचार से उसे तिरस्कृत किया, एवं अर्थ, हतु, प्रश्न, व्याकरण और कारणों से उसे निरुत्तर कर दिया। 84. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहि निग्गंथेहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोइज्जमाणे जाव निप्पटुपसिणवागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए, छविच्छेयं वा करेत्तए।. [84] इसके बाद श्रमण-निर्ग्रन्थों द्वारा धार्मिक प्रतिप्रेरणा प्रादि से तथा अर्थ, हेतु, व्याकरण एवं प्रश्नों से यावत् निरुत्तर किये जाने पर गोशालक मंखलिपुत्र अत्यन्त कुपित हुआ यावत् 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2439 2. (क) बही, भा. 5, पृ. 2438 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 683-684 3. जाव शब्द सूचक पाठ—'वागरणं वागरति / ' Page #1751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मिसमिसाता हुमा क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित हो उठा ! किन्तु अब वह श्रमण-निग्रंथों के शरीर को कुछ भो पीडा या उपद्रव, पहुँचाने अथवा छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुअा। 85. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समहि निगहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडि चोइज्जमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिज्जमाणं, धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारिज्जमाणं अठेहि य हेऊहि य जाब कीरमाणं आसुरुत्तं जाव मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंथाणं सरोरगस्त किचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पा० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ प्रत्येगइया पायाए अवकमंति, आयाए अ० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिपयाहिणं करेंति; क. 2 वदंति नमंसंति, वं० 2 समणं भगवं महावीरं उत्रसंपज्जित्ताणं विहरति / प्रत्येगइया आजीविया थेरा गोसाले चेव मंखलिपुत्तं उपसंपज्जित्ताणं विहरति / [5] जब ग्राजीविक स्थविरों ने यह देखा कि श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा धर्म-सम्बन्धी प्रतिप्रेरणा, प्रतिस्मारणा और प्रत्युपचार से तथा अर्थ, हेतु व्याकरण एवं प्रश्नोत्तर इत्यादि से यावत् मंखलिपुत्र गोशालक को निरुत्तर कर दिया गया है, जिससे गोशालक अत्यन्त कुपित यावत् मिसमिसायमान होकर क्रोध से प्रज्वलित हो उठा, किन्तु श्रमण-निर्ग्रन्थों के शरीर को तनिक भो पीडित या उपद्रवित नहीं कर सका एवं उनका छविच्छेद नहीं कर सका, तब कुछ प्राजाविक स्थविर गोशालक मंखलिपुत्र के पास से (बिना कहे-सुने) अपने आप हो चल पडे / वहाँ से चल कर वे श्रमण भगवान महावीर के पास पा गए। फिर उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा को और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / तत्पश्चात् वे श्रमण भगवान् महावोर का प्राश्रय स्वोकार कर के विचरण करने लगे। कितने हो ऐसे प्राजोविक स्थविर थे, जो मंखलिपुत्र गोशालक का पाश्रय ग्रहण करके ही विचरते रहे। विवेचन –प्रस्तुत तीन सूत्रों (83 से 85 तक) गोशालक के पतन एवं पराजय से सम्बन्धित तीन वृत्तान्तों का निरूपण है (1) गोशालक के साथ धर्मचर्चा करने का भगवान् का आदेश पाकर श्रमणनिर्ग्रन्थों ने गोशालक के साथ धर्मचर्चा को और विभिन्न युक्तियों, तर्कों और हेतुप्रों से उसे निरुतर कर दिया। (2) निरुत्तर एवं पराजित गोशालक उन श्रमणनिग्रन्थों पर अत्यन्त रुष्ट हुना, किन्तु अब वह क्रोध करके ही रह गया / उसमें श्रमणों को कुछ बाधा-पीड़ा पहुँचने या उनका अंग भंग कर देने का सामर्थ्य नहीं रहा। (3) जब प्राजीविक स्थविरों ने गोशालक को निरुत्तर तथा श्रमणों का बाल भी बांका कर सकने में असमर्थ हुना देखा तो गोशालक का आश्रय छोड़ कर वे भगवान् के प्राश्रय में प्रा कर रहने लगे। कुछ आजीविक स्थविर गोशालक के पास ही रहे / ' .-. --. . .... ... -- -- 1. वियाहपण्यत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 719-720 Page #1752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [487 हप्रा. गोशालक की दुर्दशा-निमित्तक विविध चेष्टाएँ 86. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सट्टाए हव्वमागए तमळं असाहेमाणे, रुदाई पलोएमाणे, दीहुण्हाइं नीससमाणे, दाढियाए लोमाई लुचमाणे, अवर्ल्ड कंडूयमाणे, पुर्याल पप्फोडेमाणे, हत्थे विणिधुणमाणे, दोहि वि पाएहिं भूमि कोटेमाणे 'हाहा अहो ! हओऽहमस्सी ति कट्ट समणस्त भगवतो महावीररस अंतियात्रो कोट्टयाओ चेतियाश्रो पडिनिवखमति, पडि० 2 जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणे तेणेव उवागाछति, ते० उ० 2 हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावणंसि अंब कणगहत्थगए मज्जपाणगं पियमाणे अभिवखणं गायमाणे अभिक्खणं नच्चमाणे प्रभिदखणं हालाहलाए कुभकारीए अंजलिकामं करेमाणे सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाई परिसिचेमाणे विहरइ। [86] मंलिपुत्र गोशालक जिस कार्य को सिद्ध करने के लिए एकदम पाया था, उस कार्य को सिद्ध नहीं कर सका, तब वह (हताश हो कर) चारों दिशाओं में लम्बी दृष्टि फैकता हया, दीर्घ और उष्ण निःश्वास छोड़ता हुआ, दाढ़ी के बालों को नोचता हुआ, गर्दन के पीछे के भाग को कता हुआ, हाथों को हिलाता हुया और दोनों पैरों से भूमि को पीटता हुआ; 'हाय, हाय ! ओह मैं मारा गया' यों बड़बड़ाता हुआ, श्रमण भगवान् महावीर के पास से, कोष्ठक-उद्यान से निकला और श्रावस्ती नगरी में जहाँ हालाहला कुम्भकारी की दुकान थी, वहाँ आया। वहाँ अाम्रफल हाथ में लिए हुए मद्यपान करता हुआ, (मद्य के नशे में) बार-बार गाता और नाचता हुअा, बारबार हालाहला कुम्भारिन को अंजलिकर्म (हाथ जोड़ कर प्रणाम) करता हुआ, मिट्टी के बर्तन में रखे हुए मिट्टी मिले हुए शीतल जल (प्रातञ्चनिकोदक) से अपने शरीर का परिसिंचन करता हुआ (शरीर पर छांटता हुमा) विचरने लगा। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (86) में पराजित, अपमानित तेजोलेश्या से दाध एवं हताश गोशालक की तीन प्रकार की कुचेष्टानों का वर्णन है, जो उसकी दुर्दशा की सूचक हैं (1) पराजित और तेजोलेश्या हित होने के कारण दीर्घ निःश्वास, दाढी के बाल नोचना, गर्दन के पृष्ठ भाग को खुजलाना, भूमि पर पैर पटकना आदि चेष्टाएँ गोशालक द्वारा की गई। (2) अपमान, पराजय और अपयश को भुलाने के लिए गोशालक ने मद्यपान, और उसके नशे में हो कर गाना, नाचना, हालाहला को हाथ जोड़ना आदि चेष्टाएँ अपनाईं। (3) तेजोलेश्याजनित दाह को शान्त करने के लिए गोशालक ने चूसने के लिए हाथ में आम्रफल (ग्राम की गुठली) ली / तथा कुम्भार के यहाँ मिट्टी के घड़े में रखा हुअा व मिट्टी मिला हुप्रा ठंडा जल शरीर पर सींचने (छिड़कने) लगा।' कठिन-शब्दार्थ हव्वमागए-जल्दी-जल्दी पाया था। असाहेमाणे नहीं साधे जाने पर / रुदाई फ्लोएमाडे-दिशाओं की ओर दीर्घ दृष्टिपात करता हुआ। दोहण्हं नीससमाणे दीर्घ और 1. (क) वियाहपग्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भा. 2 पृ. 720 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, प. 684 Page #1753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गर्म निःश्वास डालता हुमा / अव कंडूयमाणे-गर्दन के पीछे के भाग (घाटी) को खुजलाता हुआ। पुर्याल पटफोडेमाण --कूल्हे या जांध को ठोकता हुआ। विणिद्ध पमाण-हिलाता हुआ। अभि खणं बारबार / कोट्टमाण-कूटता या पीटता हुआ। अंबकूणग-हत्थगए-आम्रफल हाथ में लेकर / मट्टियापाणएणं आयंचणि-उदएणं-मिट्टी मिले हुए ठंडे पानी (जिसका दूसरा नाम पातञ्चनिकोदक है) से गायाई-शरीर के अंगोपांग / ' भगवत्प्ररूपित गोशालक को तेजोलेश्या की शक्ति 87. 'प्रज्जो' ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमतेत्ता एवं क्यासि-जावतिए णं अज्जो ! गोसालेणं मंखलियुत्तेणं ममं वहाए सरोरगंसि तेये निसठे से णं अलाहि पज्जते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा---अंगाणं वंगाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अच्छाणं बच्छाणं कोट्ठाणं पाढाणं लाढाणं व जाणं मोलोणं कासीण कोसलाणं अवाहाणं सुभुत्तराणं घाताए वहाए उच्छादणताए भासीकरणताए। तदन्तर श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों को 'हे पार्यो !' इस प्रकार सम्बोधित करके कहा-हे आर्यो ! मंलिपुत्र गोशालक ने मेरा वध करने के लिए अपने शरीर में से जितनी तेजोलेश्या (तेज) निकाली थी, वह (निम्नोक्त) सोलह जनपदों (देशों) का घात करने, वध करने, उच्छेदन करने और भस्म करने में पूरी तरह पर्याप्त (समर्थ) थो। वे सोलह जनपद ये हैं--(१) अंग (वर्तमान में प्रासाम), (2) बंग (बंगाल), (3) मगध (4) मलयदेश (मलयालम प्रान्त) (5) मालवदेश, (वर्तमान में मध्यप्रदेश), (6) अच्छ, (7) वत्सदेश, (8) कौत्सदेश, (9) पाट, (10) लाढदेश (11) बज्रदेश, (12) मौली, (13) काशी, (14) कौशल, (15) अबध और (16) सुम्भुक्तर / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (87) में गोशालक द्वारा भगवान को मारने के लिए निकाली गई तेजोलेश्या की प्रचण्ड शक्ति का निरूपण किया गया है / गोशालक द्वारा दुरुपयोग के कारण वह शक्ति उसी के लिए मारक बनी।। कछ जनपदों के वर्तमान सम्भावित नाम-अंग-असम, आसाम / बंग-बंगाल / मगधबिहारान्तर्गल राजगृह प्रादि / मलय-को चीन और मलयालम प्रान्त / मालव-वर्तमान में मध्यप्रदेश, मध्य प्रान्त / अच्छ—कच्छ का ही दूसरा नाम हो, अथवा सम्भव है अच्छनेरा अादि जनपद हो। वच्छ-वत्स देश, कौशाम्बीनगरी जिसकी राजधानी थी। कोच्छ-कोद-कौत्स या कोष्ठसंभव है काठमांट (नेपाल की राजधानी) आदि हो / अथवा पठानकोट, सियालकोट आदि में से कोई हो / पाट–संभव है पाटलीपुत्र का ही दूसरा नाम हो। लाट-वर्तमान में सिंहभूम या संथालपरगना, जहाँ आदिवासीबहुल जनता है। वज्ज-वहर-वर्तमान में वीरभूम ही प्राचीन वज्रभूमि / काशी, कौशल (अयोध्या) आदि प्रसिद्ध हैं। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 684 (ख) भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भा. 11, पृ. 688-689 2. पाइअसहमहष्णवो (द्वितीयसंस्करण 1963) Page #1754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ शतक] [489 घात प्रादि शब्दों के विशेषार्थ - घात - हनन, बध-विनाश, उच्छादन--समूलनाश, उच्चाटन भस्मीकरण-भस्मसात् करना।' निजपाप-प्रच्छादनार्थ गोशालक द्वारा अष्टचरम एवं पानक-अपानक की कपोल-कल्पित. मान्यता का निरूपण 88. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावर्णसि अंबऊणगहत्थगए मज्जयाणं पियमाणे अभिक्खणं जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरति / तस्स वि णं धज्जस्स पच्छायणढताए इमाइं अट्ठ चरिमाई पनवेति, तं जहा---चरिमे पाणे, चरिमे गेये, चरिमे नट्टे, चरिमे अंजलिकम्मे, चरिमे पुक्खलसंवट्टए महामेहे, चरिमे सेयणए गंधहत्थी, चरिमे महासिलाकंटए संगामे, अहं च णं इमोसे ओसप्पिणिसमाए चउबीसाए तित्थकराणं चरिमे तित्थकरे सिशिस्सं जाव अंतं करेस्स। 188 हे पार्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक, जो हालाहला कुम्भारिन की दुकान में पाम्रफल हाथ में लिये हुए मद्यपान करता हुअा यावत् बारबार (गाता, नाचता और) अंजलिकर्म करता हुआ विचरता है, वह अपने उस (पूर्वोक्त मद्यपानादि) पाप को प्रच्छादन करने (ढंकने) के लिए इन (निम्नोक्त) पाठ चरमों (चरम पदार्थों) की प्ररूपणा करता है / यथा--(१) चरम पान, (2) चरमगान, (3) चरम नाट्य, (4) चरम अंजलिकर्म, (5) चरम पुष्कल-संवर्तक महामेध, (6) चरम सेचनक गन्धहस्ती (7) चरम महाशिलाकण्टक संग्राम और (8) (चरमतीर्थकर) 'मैं (मंखलिपुत्र गोशालक) इस अवसपिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में से चरम तीर्थकर हो कर सिद्ध होऊँगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूंगा।' 89. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं आदंचगिउदएणं गायाई परिसिचेमाणे विहरति तस्स वि णं वज्जस्स पच्छायणट्ठयाए इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाइं पन्नवेति। [86] 'हे आर्यो ! मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी के बर्तन में मिट्टी-मिश्रित शीतल पानी द्वारा अपने शरीर का सिंचन करता हुआ विचरता है; वह भी इस पाप को छिपाने के लिए चार प्रकार के पानक (पीने योग्य) और चार प्रकार के अपानक (नहीं पीने योग्य, किन्तु शीतल और दाहोपशमक) की प्ररूपणा करता है। 90. से कि तं पाणए ? पाणए चउन्धिहे पन्नते, तं जहा-गोपुटुए हत्थमद्दियए आयवतत्तए सिलापब्भटए। से तं पाणए। [60 प्र.] पानक (पेय जल) क्या है ? (60 उ.] पानक चार प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) गाय की पीठ से गिरा हुना, 1. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 11, पृ. 690-691 Page #1755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) हाथ से मसला हुम्रा, (3) सूर्य के ताप से तपा हुप्रा और (4) शिला से गिरा हुआ / यह (चतुर्विध) पानक है। 91. से किं तं अपाणए ? अपाणए चविहे पन्नत्ते, तं जहा-थालपाणए तयापाणए सिबलिपाणए सुद्धपाणए / [91 प्र.] अपानक क्या है ? [91 उ.] अपानक चार प्रकार का कहा गया है। यथा—(१) स्थाल का पानी (2) वृक्षादि की छाल का पानी, (3) सिम्बली (मटर आदि को फलो) का पानी और (4) शुद्ध पानी। 92. से कि तं थालपाणए ? थालपाणए जे णं दाथालगं वा दावारगं वा दाकुभगं वा दाकलसं वा सोयलगं उल्लगं हत्थेहि परामुसइ, न य पाणियं पियाइ से तं थालपाणए / [62 प्र.] वह स्थाल-पानक क्या है ? [92 उ.] स्थाल-पानक वह है, जो पानी से भीगा हुमा स्थाल (थाल) हो, पानी से भीगा हुआ वारक (करवा, सकोरा या मिट्टी का छोटा बर्तन) हो, पानी से भीगा हुअा बड़ा घड़ा (मटका) हो अथवा पानी से भीगा हुमा कलश (छोटा घड़ा) हो, या पानी से भीगा हुमा मिट्टी का बर्तन (शीतलक) हो जिसे हाथों से स्पर्श किया जाए, किन्तु पानी पीया न जाए, यह स्थाल-पानक कहा गया है। 93. से कि तं तयापाणए ? तयापाणए जे गं अंबं वा अंबाडगं वा जहा पयोगपए जाव' बोरं वा तिदुरुयं वा तरुणगं आमगं आसगंसि आवोलेति वा पवोलेति वा, न य पाणियं पियइ से तं तयापाणए / [63 प्र.] त्वचा-पानक किस प्रकार का होता है ? [93 उ.] त्वचा-पानक (वृक्षादि की छाल का पानी) वह है, जो पाम्र, अम्बाडग इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवें प्रयोग पद में कहे अनुसार, यावत् बेर, तिन्दुरुक (टेंबरू) पर्यन्त (वृक्षफल) हो, तथा जो तरुण (नया-ताजा) एवं अपक्व (कच्चा) हो, (उसकी छाल को) मुख में रख कर थोड़ा चूसे या विशेष रूप से चूरो, परन्तु उसका पानी न पीए / यह त्वचा-पानक कहलाता है / 94. से कि तं सिबलिपाणए ? सिबलिपाणए जे णं कलसिंगलियं वा मुग्गसिंगलियं वा माससंगलियं वा सिबलिसिंगलियं वा तरुणियं प्रामियं आसगंलि आवीलेति वा पवोलेति वा, ण य पाणियं पियइ से तं सिबलिपाणए। [64 प्र.] वह सिम्बली-पानक किस प्रकार का होता है ? [94 उ.] सिम्बली (वृक्ष-विशेष की फली) का पानक वह है, जो कलाय (ग्वार या मसूर) 1. जाव शब्द सूचक पाठ-भब्वं वा फणसं वा दालिम वा इत्यादि / —पण्णवणासुत्तं भा. 1, सू. 1112, पृ. 273 Page #1756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्द्रहवां शतक] [491 को फली, मैंग की फली, उड़द की फली अथवा सिम्बली (वक्ष विशेष) की फली यादि, तरुण (ताजी या नई) और अपक्व (कच्ची) हो, उसे कोई मुह में थोड़ा चबाता है या विशेष चबाता है, परन्तु उसका पानी नहीं पीता / वही सिम्बली-पानक होता है / 95. से कि तं सुद्धपाणए? सुद्धपाणए जे गं छम्मासे सुद्ध खादिम खाति - दो मासे पुढविसंथारोवगए, दो मासे कट्ठसंथारोवगए, दो मासे दब्भसंथारोवगए। तस्स गं बहुपडिपुण्णाणं छह मासांणं अंतिमराईए इमे दो देवा महिड्ढोया जाव महेसक्खा अंतियं पाउन्भवति, तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य / तए णं ते देवा सीतलएहि उल्लएहि हत्थेहि गायाई परामुसंति, जे णं ते देवे सातिज्जति से णं आसोधिसत्ताए कम्मं पकरेति, जे णं ते देवे नो सातिज्जति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति / से णं सएणं तेयेणं सरीरगं झामेति, सरीरगं झामेत्ता ततो पच्छा सिति जाव अंतं करेति / से त्तं सुद्धपाणए। [65 प्र. वह शुद्ध पानी किस प्रकार का होता है ? [65 उ.] शुद्ध पानक वह होता है, जो व्यक्ति छह महीने तक शुद्ध खादिम आहार खाता है, छह महीनों में से दो महोन तक पृथ्वी-संस्तारक पर सोता है. (फिर) दो महीने तक काष्ठ के संस्तारक पर सोता है, (तदनन्तर) दो महीने तक दर्भ (डाभ) के संस्तारक पर सोता है। इस प्रकार छह महीने परिपूर्ण हो जाने पर अन्तिम रात्रि में उसके पास ये (मागे कहे जाने वाले) दो महद्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव प्रकट होते हैं / यथा-पूर्ण भद्र और माणिभद्र / फिर वे दोनों देव शीतल और (पानी से भीगे) गीले हाथों से उसके शरीर के अवयवों का स्पर्श करते हैं। उन देवों का जो अनुमोदन करता है, वह आशीविष रूप से कर्म करता है, और जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है / वह अग्निकाय अपने तेज से उसके शरीर को जलाता है / इस प्रकार शरीर को जला देने के पश्चात् वह सिद्ध हो जाता है; यावत् सर्व दु:खों का अन्त कर देता है / यही वह शुद्ध पानक है / विवेचन--प्रस्तुत पाठ सूत्रों (88 से 15 तक) में गोशालक ने मद्यपान नृत्य-गान तथा शरीर पर शीतल जलसिंचन आदि तथा अपने आपको तीर्थकर स्वरूप से प्रसिद्ध करने एवं तेजोलेश्या से स्वयं के जल जाने आदि अपनी पाप चेष्टाओं पर पर्दा डालने और उन्हें धर्म रूप में मान्यता देकर लोगों को भ्रम में डालने के लिए अपने द्वारा आठ प्रकार के चरमों की प्ररूपणा को / इन्हें चरम इसलिए कहा कि 'ये फिर कभी नहीं होंगे।' इन पाठों में से मद्यपान, नाच, गान और अंजलि कर्म, ये चार चरम तो स्वयं गोशालक से सम्बन्धित हैं। पुष्कलसंवर्तक श्रादि तीन बातों का इस प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि स्वयं को अतिशयज्ञानी सिद्ध करने तथा जन मनोरंजन करने के लिए एवं पूर्वोक्त चरमों से इनकी समानता बता कर अपने दोषों को छिपाने के लिए इनको भी 'चरम' बता दिया है / पाठवें चरम में, उसने स्वयं को चरम तीर्थंकर बताया है / अपने चरमजिनत्व को सिद्ध करने के लिए उसने चार प्रकार के पानक और चार प्रकार के अपानक की कल्पना की है / लोगों को यह बताने के लिए कि मैं तेजोलेश्या जनित दाहोपशमन के लिए मद्यपान, पाम्रफल को चूसना तथा मिट्टी मिले शीतल जल से गासिंचन ग्रादि नहीं करता, मैं अपनी तेजोलेश्या से नहीं जलता, Page #1757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492] [व्याण्याप्रज्ञप्तिसूत्र किन्तु शुद्धपानक वाला तीर्थंकर बनता है तब उसके शरीर से स्वत: अग्नि प्रकट होती है, जो उसे जलाती है / बल्कि तीर्थंकर जब मोक्ष जाते हैं, तब ये बातें अवश्य होती हैं, अत: इनके होने में कोई दोष नहीं है। वस्तुतः शुद्धपानक की ऊटपटांग कल्पना का पानक से कोई सम्बन्ध नहीं है।' कठिन शब्दार्थ- वज्जस्स पच्छायणदताए—पाप को ढंकने-छिपाने के लिए / गोप्टए-गाय की पीठ पर से गिरा हुआ पानी / दाथालगं-पानी से भीगा हुग्रा स्थाल / संसि—स्वयं के / अयंपुल का सामान्य परिचय, हल्ला के प्राकार को जिज्ञासा का उद्भव गोशालक से प्रश्न पूछने का निर्णय, किन्तु गोशालक की उन्मत्तवत् दशा देख अयंपुल का वापस लौटने का उपक्रम 96. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए अयंपुले णामं आजीविनोवासए परिवसति प्रड्ढे जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरति / [16] उसी श्रावस्ती नगरी में अयंपुल नाम का प्राजीविकोपासक रहता था। वह ऋद्धिसम्पन्न यावत् अपराभूत था / वह हालाहला कुम्भारिन के समान आजीविक मत के सिद्धान्त से अपनी प्रात्मा को भावित करता हुआ विचरता था। 97. तए णं तस्स अयंपुलस्स प्राजीविओवासगस्स अन्नदा कदाइ पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाय समुष्पज्जित्था-किसंठिया णं हल्ला पन्नत्ता?। [7] किसी दिन उस अयं पुल आजीविकोपासक को रात्रि के पिछले पहर में कुटुम्बजागरणा करते हुए इस प्रकार का अव्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ-'हल्लानामक कीट-विशेष का प्राकार कैसा बताया गया है ?' 98. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स दोच्चं पि अयमेयारूवे अन्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोबएसए गोसाले मंखलिपुत्ते उप्पन्ननाण-दंसणधरे जाव सवण्णू सव्वदरिसी इहेब सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुम्भकारोए कुभकारावर्गसि प्राजीवियसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएणं अपाणं भावेमाणे विहरति, तं सेयं खलु मे कल्लं जाव जलते गोसालं मंखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जुवासेत्ता, इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं सं० 2 कल्लं जाब जलते हाए कय जाव अप्पमहाघाभरणालंकियसरीरे सातो गिहाओ पडिनिक्खमइ, सातो० प० 2 पादविहारचारेणं सात्थि नगरि मझमज्भेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 पासति गोसालं मखलिपुत्तं हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावर्णसि अंबऊणगहत्थगयं जाव अंजलिकम्मं करेमाणं सीयलएणं मट्टिया जाव गायाई परिसिंचमाणं, पासित्ता लज्जिए विलिए विड्डे सणियं सणियं पच्चोसक्कइ / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 721-722, (ख) भगवती. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2445-2446 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 684 Page #1758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [493 [18] तदनन्तर उस ग्राजीविकोपासक अयंपुल को ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक, उत्पन्न (अतिशय) ज्ञान-दर्शन के धारक, यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं। वे इसी श्रावस्ती नगरी में हालाहला कुम्भारिन की दुकान में प्राजोविकसंघ सहित आजीविक-सिद्धान्त से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। अतः कल प्रातःकाल यावत् तेज से जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना यावत् पर्युपासना करके ऐसा यह प्रश्न पूछना श्रेयस्कर होगा।' ऐसा विचार करके उसने दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय होने पर स्नान-बलि कर्म किया। फिर अल्प भार और महामूल्य वाले प्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत कर वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर श्रावस्ती नगरी के मध्य में से होता हुमा हालाहला कुम्भारिन की दुकान पर पाया। वहां पा कर उसने मंखलिपुत्र-गोशालक को हाथ में ग्राम्रफल लिये हुए, यावत् (नाचते-गाते तथा) हालाहला कुम्भारिन को अंजलि कर्म करते हुए, मिट्टी मिले हुए शीतल जल से अपने शरीर के अवयवों को बार-बार सिंचन करते हुए देखा तो देखते ही लज्जित, उदास और वीडित (अधिक लज्जित) हो गया और धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगा। विवेचन-प्रस्तुत तीन सूत्रों (96-67-98) में प्रथम सूत्र में आजीविकोपासक अयंपुल का सामान्य परिचय, द्वितीय सूत्र में कुटुम्ब जागरण करते हुए उसके मन में हल्ला नामक कीट के आकार को जानने के उत्पन्न विचार का वर्णन है, और तृतीय सूत्र में धर्माचार्य मंलिपुत्र गोशालक से इस जिज्ञासा का समाधान पाने के उत्पन्न हुए संकल्प का तथा तदनुसार गोशालक के पास पहुँचने और गोशालक की उन्मत्तवत् दशा देखकर उसके पीछे खिसकने का वृत्तान्त दिया गया है।' कठिनशब्दों के अर्थ- हल्ला-गोवालिका तृण के समान प्राकार वाला एक कीटविशेष / वागरणं-प्रश्न : विलिए-अकार्यकुत लज्जा से विषण्ण, अथवा वीडित- लज्जित / विड्डे-वीडित अधिक लज्जित / अयं पुल की डगमगातो श्रद्धा स्थिर हुई, गोशालक से समाधान पाकर संतुष्ट, गोशालक द्वारा वस्तुस्थिति का अपलाप 99. तए णं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसक्कमाणं पासंति, पा० 2 एवं वदासि -एहि ताव अयंपुला! इतो। [6] जब आजीविक स्थविरों ने आजीविकोपासक अयंपुल को लज्जित होकर यावत् पीछे जाते हुए देखा, तो उन्होंने उसे सम्बोधित कर कहा–'हे अयं पुल ! यहाँ आयो।' 100. तए णं से अपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहिं एवं धुत्ते समाणे जेणेव आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छइ, उवा०२ माजीबिए थेरे वंदति नमसति, बं० 2 नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / / 100] आजीविक स्थविरों द्वारा इस प्रकार (सम्बोधित करके) बुलाने पर अयंपुल 1. वियाहपणतिसुत्तं. (मू. पा. टि.) भा. 2, 722-723 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, 684 . (ख) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 781, 799 Page #1759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आजीविकोपासक उनके पास आया और उन्हें वन्दना-नमस्कार करके उनसे न अत्यन्त निकट पौर न अत्यन्त दूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा। 101. 'अयंपुल !' त्ति आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वदासि-'से नणं ते अयंपुला! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किसंठिया हल्ला पन्नता? तए णं तव अयंपुला! दोच्चं पि अयमेयारूवे०, तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव सात्थि नरि मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुभकारीए कुंभकारावणे जेणेव इहं तेणेव हन्वमागए, से नणं ते अयंपुला! अठे समठे ? 'हंता, अस्थि / जं पि य अयंपुला! तब धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ तत्थ वि णं भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाइं पन्नवेति, तं जहा-चरिमे पाणे नाव अंतं करेस्सति / जंपिय अयंपुला ! तव धम्मारिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया जाव विहरति, तत्थ वि णं भगवं इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाई पनवेति / से कि तं पाणए ? पाणए जाव ततो पच्छा सिज्मति जाव अंतं करेति / तं गच्छ गं तुमं अयंपुला! एस चेव ते धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरणं वागरेहिति / 101] 'हे अयंपुल' ! इस प्रकार सम्बोधन करके आजीविक स्थविरों ने आजीविकोपासक अयंपुल से इस प्रकार कहा-हे अयंपुल ! आज पिछली रात्रि के समय यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्प पा कि 'हल्ला' की आकृति कैसी होतो है? इसके पश्चात हे अयंपल ! तझे ऐसा विचार उत्पन्न हुना कि मैं अपने धर्माचार्य..'से पूछ कर निर्णय करूं, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / यावत् तू श्रावस्ती नगरी के मध्य में होता हुआ, झटपट हालाहला कुम्भारिन की दूकान में प्राया; 'हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है ?' (अयंपुल--) हाँ, सत्य है। (स्थविर-) हे अयंपुल ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक जो हालाहला कुम्भारिन को दूकान में आम्रफल हाथ में लिये हुए यावत् अंजलिकर्म करते हुए विचरते हैं, वह (इसलिए कि) वे भगवान् गोशालक इस सम्बन्ध में इन पाठ चरमों की प्ररूपणा करते हैं / यथाचरम पान, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। हे अयं पुल ! जो ये तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक मिट्टी मिश्रित शोतल पानो से अपने शरीर के अवयवों पर सिंचन करते हुए यावत् विचरते हैं / इस विषय में भी वे भगवान् चार पानक और चार अपानक की प्ररूपणा करते हैं। वह पानक किस प्रकार का होता है ?' 'पानक चार प्रकार का होता है, यावत्..." इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। अतः हे अयंपुल ! तू जा और अपने इन धर्मावार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशालक से अपने इस प्रश्न को पूछ / 102. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीविएहि थेरेहि एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ उट्टाए उठेति, उ० 2 जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्य गमणाए / Page #1760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [495 [102] आजीविक स्थविरों द्वारा इस प्रकार कहने पर वह अयंपुल आजीविकोपासक हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ और वहाँ से उठकर गोगालक मंखलिपुत्र के पास जाने लगा। 103. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मखलिपुत्तस्स अंबकूणगएडावणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुब्वंति। [103] तत्पश्चात् उन ग्राजी बिक स्थविरों ने उक्त प्राम्रफल को एकान्त में डालने का गोशालक को संकेत किया। 104. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते भाजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ, सं० 50 अंबकूणगं एगंतमंते एडे। [104] इस पर मंखलिपुत्र गोशालक ने आजीविक स्थविरों का संकेत ग्रहण किया और उस माम्रफल को एकान्त में एक ओर डाल दिया। 105. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छा, उवा० 2 गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खत्तो जाव पज्जुवासति / [105] इसके पश्चात् अयंपुल आजीविकोपासक मंखलिपुत्र गोशालक के पास आया और मंलिपुत्र गोशालक की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर यावत् (वन्दना-नमस्कार करके) पर्युपासना करने लगा। 106. 'अयंपुला !' ति गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वदासि—'से नूणं अयंपुला! पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हन्वमागए, से नणं अयंपुला ! अट्ठे समठे ?' 'हंता, अस्थि / तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयए णं एसे। किसंठिया हल्ला पन्नत्ता ? बंसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता / वीणं वाएहि रे वीरगा!, वीणं वाएहि रे वीरगा ! / [106] 'अयंपुल !' इस प्रकार सम्बोधन कर मंखलिपुत्र गोशालक ने अयंपुल आजीविकोपासक से इस प्रकार पूछा-'हे अयंपुल ! रात्रि के पिछले पहर में यावत् तुझे ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न हुअा यावत् (इसी के समाधानार्थ) इसो से तू मेरे पास आया है, हे अयंपुल ! क्या यह बात सत्य है?' (अयंपुल-) हाँ, (भगवन् ! यह) सत्य है / (गोशालक-) (हे अयंपुल ! ) मेरे हाथ में वह अाम्र की गुठली नहीं थी, किन्तु आम्रफल की छाल थी / (तुझे यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई थी कि) हल्ला का प्राकार कैसा होता है ? (अयं पुल) हल्ला का प्राकार बांस के मूल के प्राकार जैसा होता है / (तत्पश्चात् उन्मादवश गोशालक ने कहा) 'हे वीरो! वीणा बजायो ! वीरो! वीणा बजायो।' Page #1761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 107. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसलेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हट्टतुट्ट० जाव हियए गोसालं मखलिपुत्तं वंदति नमसति, वं० 2 पसिणाई पुच्छइ, पसि० पु० 2 अट्ठाई परियादीयति, अ०प० 2 उठाए उठेति, उ० 2 गोसालं मंखलिपुत्तं वंदति नमंसति जाव पडिगए। __ [107] तत्पश्चात् मंखलिपुत्र गोशालक से अपने प्रश्न का इस प्रकार का समाधान पा कर याजोविकोपासक अयंपुल अतीव हृष्टतुष्ट हा यावत् हृदय में अत्यन्त आनन्दित हुआ। फिर उसने मंलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार किया; कई प्रश्न पूछे, अर्थ (समाधान) ग्रहण किया / फिर वह उठा और पुन: मंखलिपुत्र गोशालक को वन्दना-नमस्कार करके यावत् अपने स्थान पर लौट गया। विवेचन--प्रस्तुत नौ सूत्रों (66 से 107 तक) में बताया है कि आजीविकोपासक अयंपुल की गोशालक के प्रति डगमगाती श्रद्धा को प्राजोविक स्थविरों ने उसके मन में उत्पन्न बात बता कर तथा पाठ चरम, पानक-अपान क प्रादि की मान्यता उसके दिमाग में ठसा कर गोशालक के प्रति श्रद्धा स्थिर कर दी। फलतः बुद्धिविमोहित अयंपुल को गोशालक ने जो कुछ कहा, वह सब उसने श्रद्धापूर्वक यथार्थ मान लिया / ' गोशालक द्वारा सत्य का अपलाप-गोशालक ने अयंपुल से कहा- तुमने जो मेरे हाथ में ग्राम की गुठली देखी थी, वह ग्राम की छाल थी, गुठली नहीं / गुठलो तो व्रती पुरुषों के लिए प्रकल्प. नीय है। किन्तु ग्राम की छाल त्वक् पानक-रूप होने से निर्वाण गमनकाल में यह अवश्य ग्राह्य होती है / हल्ला के प्राकार का कथन करते-करते मद्यमद में विह्वल होकर गोशालक ने जो उद्गार निकाले थे कि 'वीरो! वीणा बजाओ।' किन्तु यह उन्मत्तवत् प्रलाप सुन कर भो अयं पुल के मन में गोशाला के प्रति अविश्वास या प्रश्रद्धाभाव नहीं जागा। क्योंकि सिद्धि प्राप्त करने वालों के लिए चरम गान आदि दोषरूप नहीं हैं, इस प्रकार की बात उसके दिमाग में पहले से ही स्थविरों ने ठसा दी थी / इस कारण उसकी बुद्धि विमोहित हो गई थी। कठिनशब्दार्थ-अंबकूणग एडावणट्टयाए अाम्रफल की गुठली को फेंक देने के लिए। संगारं--संकेत / एगंतमंते-एकान्त में, एक अोर / हल्ला-तृण गोवालिका कीट-विशेष। राजस्थान में 'बामणी' नाम से प्रसिद्ध / एहि एतो इधर ना / प्रतिष्ठा-लिप्सावश गोशालक द्वारा शानदार मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 108. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं प्राभोएइ, अप्प० प्रा० 2 आजीविए थेरे सद्दावेइ, आ० स० 2 एवं वदासि ---"तुब्भे गं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा 1. वियापण्यत्तिसुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2, पृ. 724-725 2. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 715-717 3. वहीं, भा. 11, पृ. 717 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2452 Page #1762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [497 गंधोदएणं हाणेह, सु० व्हा०२ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई ल हेह, गा० लू० 2 सरसेणं गोसोसेणं चंदणेणं गायाई अलिपह, सर० प्र०२ महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह, मह० नि०२ सन्यालंकारविभूसियं करेह, स० क० 2 पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहह, पुरि० दुरू० 2 सावत्थीए नगरीए सिंघाडग. जाव पहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्रोसेमाणा एवं वदह–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमोसे प्रोसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं चरिमतिस्थगरे सिद्ध जाव सम्वदुक्खप्पहीणे' / इडिसक्कारसमुदएणं मम सरीरगस्स णीहरणं करेह" / तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एतमढें विणएणं पडिसुणेति / [108] तदनन्तर मखलिपुत्र गोशालक ने अपना मरण (निकट भविष्य में) जान कर प्राजीविक स्थविरों को अपने पास बुलाया और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त हुना जान कर तुम लोग मुझे सुगन्धित गन्धोदक से स्नान कराना, फिर रोंएदार कोमल गन्धकाषायिक वस्त्र (तौलिये) से मेरे शरीर को पोंछना, तत्पश्चात् सरस गोशीर्ष चन्दन से मेरे शरीर के अंगों पर विलेपन करना / फिर हंसवत् श्वेत महामूल्यवान् पटशाटक मुझे पहनाना / उसके बाद मुझे समस्त अलंकारों से विभूषित करना। यह सब हो जाने के पश्चात् मुझे हजार पुरुषों से उठाई जाने योग्य शिविका (पालकी) में बिठाना / शिविकारूढ करके श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् महापथों (राजमार्गों) में (होकर ले जाते समय) उच्चस्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना हे देवानुप्रियो ! यह मंखलिपुत्र गोशालक जिन, जिनप्रलापी है, यावत् जिन शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरण कर इस अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थकर हो कर सिद्ध हुया है, यावत् समस्त दुःखों से रहित हुअा है।' इस प्रकार ऋद्धि (ठाठवाठ) और सत्कार के साथ मेरे शरीर का नीहरण करना (बाहर निकालना)। उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक की बात को विनयपूर्वक स्वीकार किया। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र (110) में गोशालक द्वारा अपनो मृत्यु निकट जान कर अपने अनुगामी स्थविरों को शरीर सुसज्जित कर धूमधाम से शवयात्रा निकाल कर मरणोत्तरक्रिया करने के दिये गए निर्देश का वर्णन है / ' कठिनशब्दार्थ---हंसलक्खणं : दो अर्थ-(१) हंस जैसा शुक्ल, या (2) हंसचिह्नवाला / नियंसेह---पहनाना / सीयं-शिविका / नीहरणं-बाहर निकालना (मरणोत्तरक्रिया)। सम्यक्त्वप्राप्त गोशालक द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का शिष्यों को निर्देश 109. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स अयमेयारूवे प्रज्मथिए जाव समुप्पज्जित्था—'जो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे 1. विधाहपणत्तिमुत्तं; भा. 2 पृ. 725-726 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 385 Page #1763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विहरिए, अहं गं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघातए समणमारए समणपडिणीए, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवष्णकारए अकित्तिकारए बहूहि असम्भावुनमावणाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहि घ अपाणं या परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे धुप्पाएमाणे विहरित्ता, सएणं तेएणं अन्नाइट्ठे समाणे अंतोसत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरति / ' एवं संपेहेति, एवं सं० 2 आजीविए थेरे सद्दावेद, प्रा० स० 2 उच्चावयसवहसाविए करेति, उच्चा० क० 2 एवं वदासिनो खलु अहं जिणे जिणप्पलाबी जाव पकासेमाणे विहरिए, प्रहं गं गोसाले चेव मलिपुत्त समणघातए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्स / समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरति / तं तुन्भे गं देवाणुप्पिया ! ममें कालगयं जाणित्ता वामे पाए सुबेणं बंधह, वामे० बं० 2 तिक्खुत्तो मुहे उठ्ठभह, ति० उ० 2 सावत्थीए नगरीए सिंघाडग० जाव पहेसु प्राकडविर्काड्ड करेमाणा महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वदह-'नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगते, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरति / ' महता अणिडिसक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्य नीहरणं करेज्जाह" / एवं वदित्ता कालगए।। [106] इसके पश्चात् जब सातवीं रात्रि व्यतीत हो रही थी, तब मखलिपुत्र गोशालक को सम्यक्त्व प्राप्त हुआ / उसके साथ ही उसे इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुमा-'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, तथापि मैं जिन-प्रलापी (जिन कहता हुआ) यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा हूँ। मैं मखलिपुत्र गोशालक श्रमणों का घातक, श्रमणों को मारने वाला, श्रमणों का प्रत्यनीक (विरोधी), प्राचार्य-उपाध्याय का अपयश करने वाला, अवर्णवादकर्ता और अपकीर्तिकर्ता हूँ। मैं अत्यधिक असद्भावना-पूर्ण मिथ्यात्वाभिनिवेश से, अपने पापको, दूसरों को तथा स्वपर-उभय को व्युद्ग्राहित करता हुआ, व्युत्पादित (मिथ्यात्व-युक्त) करता हुया विचरा, और फिर अपनी ही तेजोलेश्या से पराभूत होकर, पित्तज्वराक्रान्त तथा दाह से जलता हुआ सात रात्रि के अन्त में छबस्थ अवस्था में ही काल करूगा / वस्तुतः श्रमण भगवान महावीर ही जिन हैं, और जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करते हैं। (गोशालक ने अन्तिम समय में) इस प्रकार सम्प्रेक्षण (स्वयं का पालोचन) किया / फिर उसने आजीविक स्थविरों को (अपने पास) बुलाया, अनेक प्रकार की शपथों से युक्त (सौगध दिला) करके इस प्रकार कहा- 'मैं वास्तव में जिन नहीं हूँ, फिर भी जिनप्रलापी तथा जिन शब्द से स्वयं को प्रकट करता हुआ विचरा / मैं वही मंखलिपुत्र गोशालक एवं श्रमणों का घातक हैं, (इत्यादि वर्णन पूर्ववत्) यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर जाऊंगा / श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं, यावत् स्वयं को जिन शब्द से प्रकट करते हुए विहार करते हैं / अतः हे देवानुप्रियो ! मुझे कालधर्म को प्राप्त जान कर मेरे बांए पैर को मूज की रस्सी से बांधना और तीन बार मेरे मुंह में थूकना / तदनन्तर शृंगाटक यावत् राजमार्गों में इधर-उधर घसीटते हुए उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहना- "देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक 'जिन' नहीं है, किन्तु वह जिनप्रलापी यावत् जिन शब्द से स्वयं को प्रकाशित करता हुआ विचरा है। यह श्रमणों का घात Page #1764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] करने वाला मंखलिपुत्र गोशालक है, यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही काल-धर्म को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ही वास्तव में जिन हैं, जिनप्रलापी हैं यावत् जिन शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते हैं।' इस प्रकार महती प्रऋद्धि (बड़ी विडम्बना और असत्कार (असम्मान) पूर्वक मेरे मृत शरीर का नोहरण (बाहर निष्क्रमण) करना; यों कहकर गोशालक कालधर्म को प्राप्त हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (106) में गोशालक को मरण को अन्तिम (सातवीं) रात्रि में सम्यक्त्व प्राप्त हुया और उसने अपनी अजित प्रतिष्ठा एवं मानापमान की परवाह न करते हुए आजीविक स्थविरों के समक्ष अपनी वास्तविकता प्रकट करके तदनुसार अप्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तर क्रिया करने का किया गया निर्देश अंकित है / ऐसी सद्बुद्धि पहले क्यों नहीं, पीछे क्यों ?--गोशालक को भगवान् महावीर के पास रहते हुए तथा शिष्य कहलाने के बावजूद भी ऐसी सद्बुद्धि पहले नहीं आई, उसका कारण घोर मिथ्यात्वमोह का उदय था। फलत: मिथ्यात्वरूपी भयंकर शत्रु के कारण ही पूर्वोक्त स्थिति हो गई थी। जब सम्यक्त्वरत्न प्राप्त हुआ, तब सारी स्थिति ही पूर्णतया पलट गई / आजीविक स्थविरों के समक्ष उसने अब वास्तविक स्थिति प्रकट कर दी। यदि प्रायुष्य की स्थिति कुछ अधिक होती तो निश्चित ही वह भगवान महावीर के चरणों में गिर कर सच्चे अन्तःकरण से क्षमायाचना करता और आलोचना-प्रायश्चित्त ग्रहण कर शुद्ध होता।' कठिन शब्दार्थ- उच्चावय-सवह-साविए-अनेक प्रकार के शपथों से युक्त (शापित)। सुबेणं--मूज या छाल की रस्सी से / उट्ठभह-थूकना / आकड्ढ-विकडिइधर-उधर घसीटते हुए। आजीविक स्थविरों द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक गुप्त मरणोत्तरक्रिया करके प्रकट में प्रतिष्ठापूर्वक मरणोत्तरक्रिया 110. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुभकारावणस्स दुवाराई पिहेति; दु. पि० 2 हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्थि नगरि आलिहंति, सा० आ० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं वामे पाए सुबेणं बंधति, वा० बं० 2 तिक्खुत्तो मुहे उहंति, ति० उ० 2 सावत्थीए नगरीए सिंग्घाडग० जाव पहेसु आकविकड्डि करेमाणा णीयं णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वयासि–'नो खल देवाणुप्पिया ! गोसाले मंलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाब विहरिए, एस पं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगते, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरई'। सवहपडिमोक्खणगं करेंति, सवहपडिमोक्खणगं करेत्ता दोच्चं पि पूयासक्कारथिरीकरणट्टयाए गोसालस्स मंलिपुत्तस्स वामाओ पादानो सुबं मुयंति, सुंबं मु० 2 हालाहलाए कुभकारीए कुभकारावणस्स दुवारवयणाई अवगुणंति, अव० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं व्हाणेति, त चेव जाव महया इडिसक्कारसमुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स नोहरणं करेंति। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 पृ. 725-726 / 2. भगवती. अ. वत्ति,पत्र 385 Page #1765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [110] तदनन्तर उन आजीविक स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशालक को कालधर्म-प्राप्त हुआ जानकर हालाला कुम्भारिन की दुकान के द्वार बन्द कर दिये / फिर हालाहला कुम्भारिन की दुकान के ठीक बीचों बीच (जमीन पर) श्रावस्ती नगरी का चित्र बनाया / फिर मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर को मंज की रस्सी से बांधा / तीन बार उसके मुख में थूका / फिर उक्त चित्रित की हुई श्रावस्ती नगरी के शृगाटक यावत् राजमार्गों पर (उसके शव को) इधर-उधर घसीटते हुए मन्द-मन्द स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहने लगे हे देवानुप्रियो ! मंलिपुत्र गोशालक जिन नहीं, किन्तु जिनप्रलापी होकर यावत् विचरा है / यह मखलिपुत्र गोशालक श्रमणघातक है, (जो) यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हुआ है / श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वास्तव में जिन हैं, जिन प्रलापी हैं यावत् विचरते हैं।' इस प्रकार (औपचारिक रूप से शपथ का पालन करके वे स्थविर गोशालक द्वारा दिलाई गई) शपथ से मुक्त हुए। इसके पश्चात् मंलिपुत्र गोशालक के प्रति (जनता की पूजा-सत्कार (की भावना) को स्थिरीकरण करने के लिए मंखलिपुत्र गोशालक के बाएँ पैर में बंधी मूज की रस्सी खोल दी और हालाहला कुभारिन की दुकान के द्वार भी खोल दिये। फिर मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर को सुगन्धित गन्धोदक से नहलाया, इत्यादि पूर्वोक्त वर्णनानुसार यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार-समुदाय (बड़े ठाठबाठ) के साथ मंखलिपुत्र गोशालक के मृत शरीर का निष्क्रमण किया / विवेचन—प्रस्तुत सूत्र (110) में गोशालक के द्वारा अप्रतिष्ठापूर्वक अपनी मरणोत्तरक्रिया करने की दिलाई हुई शपथ का स्थविरों द्वारा कल्पित औपचारिक रूप से पालन किये जाने तथा पूर्वोक्त रूप से ही ऋद्धिसत्कारपूर्वक मरणोत्तरक्रिया किये जाने का वृत्तान्त प्रतिपादित है / कठिन शब्दार्थ-पिहेंति—बंद किये। आलिहंति-चित्रित की ! सुबेण-मूज की रस्सी से / णीयंणीयं सद्देणं-मन्द-मन्द स्वर से / सवहपडिमोक्खणगं-दिलाई हुई शपथ से मुक्ति (छुटकारा) अवगुणति- खोले / ' पूयासक्कार-थिरीकरणट्टयाए : आशय-पूर्व प्राप्त पूजा-सत्कार की स्थिरता के हेतु / विरों का आशय यह था कि यदि हम गोशालक के मृत शरीर की विशिष्ट पूजा-प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तो लोग समझेंगे कि गोशालक न तो 'जिन' हुआ और न ये स्थविर 'जिन' शिष्य है, इस प्रकार पूजासत्कार अस्थिर (ठप्प) हो जाएंगे, इस दृष्टि से पूजा सत्कार को लोकमानस में स्थिर रखने के लिए स्थविरों ने गोशालक के शव की ठाठबाठ से उत्तरक्रिया की / भगवान का मेंढिकग्राम में पदार्पण, वहाँ रोगाकान्त होने से लोकप्रवाद 111. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि सावत्थीओ नगरीमो कोट्टयाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, पडि० 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 685 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा.५ 2461 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 685 Page #1766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [501 [11] तदनन्तर किसी दिन श्रमण भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकले और उससे बाहर अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। 112. तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंदियग्गामे नामं नगरे होत्था। वण्णओ / तस्स गं मेंढियग्गामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसोभागे एत्थ णं सालकोढए' नामं चेतिए होत्था। वण्णो / जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं सालकोट्ठगस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्या, किण्हे किण्होभासे जाव निकुरु बभूए पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए प्रतीव अतीव उसोभेसाणे उसोभेमाणे चिट्ठति / [112] उस काल उस समय मेंढिकग्राम नामक नगर था। (उसका) वर्णन (पूर्ववत्) / उस में ढिकग्राम नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में शालकोष्ठक नामक उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् यावत् (वहाँ एक) पृथ्वी-शिलापट्टक था, (तक) करना चाहिए। उस शाल कोष्ठक उद्यान के निकट एक महान् मालुकाकच्छ था। वह श्याम, श्याम प्रभा वाला, यावत महामेघ के समान था, पत्रित, पुष्पित, फलित और हरियाली से अत्यन्त लहलहाता हुआ, वनश्री से अतीव शोभायमान रहता था। 113. तत्थ गं मेंडिग्गामे नगरे रेवती नाम गाहावतिणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूया। [113] उस में ढिकग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी। वह प्राढ्य यावत् अपराभूत थी। 114. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुटवाणपुदिन चरमाणे जाव जेणेव मेंढियग्गामे नगरे जेणेव सालकोट्ठए चेतिए जाच परिसा पडिगया। [114] किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी क्रमशः विचरण करते हुए मेंढिकग्राम नामक नगर के बाहर, जहाँ शालकोष्ठक उद्यान था, वहाँ पधारे; यावत् परिषद् वन्दना करके लौट गई। 115. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायके पाउन्भूते उज्जले जाव दुरहियासे / पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतिए यावि विहति / अवि याऽऽई लोहियवच्चाई पिपकरेति / चाउवण्णं च णं वागरेति-'एवं खलु समणे भगधं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइ8 समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कतिए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति / [115] उस समय श्रमण भगवान महावीर के शरीर में महापीडाकारी व्याधि उत्पन्न हुई, जो उज्ज्वल (अत्यन्त दाहकारी) यावत् दुरधिसह्य (दुःसह) थी। उसने पित्तज्वर से सारे शरीर को व्याप्त कर लिया था, और (उसके कारण) शरीर में अत्यन्त दाह होने लगी। तथा (इस रोग के प्रभाव से उन्हें रक्त-युक्त दस्तें भी लगने लगीं। भगवान के शरीर की ऐसी स्थिति जान कर चारों वर्ण के लोग इस प्रकार कहने लगे-(सुनते हैं कि) श्रमण भगवान् महावीर मंलिपुत्र गोशालक की 1. पाठान्तर—'साणकोदए' Page #1767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तपोजन्य तेजोलेश्या से पराभून होकर पित्तज्वर एवं दाह से पीड़ित होकर छह मास के अन्दर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु प्राप्त करेंगे। विवेचन--प्रस्तुत पाँच सूत्रों (111 से 115) में भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित पांच बातों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है (1) श्रमण भगवान् महावीर का श्रावस्ती से अन्य जनपदों में विहार / (2) में ढिकग्राम नगर, शालकोष्ठक, यावत् पृथ्वी शिलापट्टक एवं मालुकाकच्छ का परिचय / (3) मेंटिक ग्राम नगरवासी रेवती गाथापत्ती का परिचय / (4) भगवान् का में ढिकग्राम में पदार्पण, परिषद् द्वारा धर्मश्रवण / (5) इसी बीच भगवान के शरीर में पित्तज्वर का भयंकर प्रकोप हया, जिससे सारे शरीर में दाह एवं खून को दस्ते होने लगी। चतुर्वर्णोय-जनता में यह अफवाह फैल गई कि भगवान महावीर गोशालक द्वारा फैकी हुई तेजोलेश्या के प्रभाव से पित्तज्वराकान्त एवं दाहपीडित होकर छह मास के अन्दर में छद्मस्थ-अवस्था में ही मर जाएँगे।' कठिन शब्दों का अर्थ-मालयाकच्छए–एक गुठलो वाले वृक्षविशेषों का कच्छ --~गहन वन / विउले-विपुल, शरीरव्यापी / रोगायके-रोगातंक -पोड़ाकारो व्याधि / उज्जले--उज्ज्वलतीव / पाउन्भूए-प्रकट हुना। दुरहियासे-दुःसह / दाहवक्कंतिए-दाह को उत्पति से / लोहियबच्चाई-खून को दस्ते / चाउवण्णं-ब्राह्मणादि चार वर्ण, अथवा साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विधसंघ (चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ) अफवाह सुनकर सिंह अनगार को शोक, भगवान् द्वारा सन्देश पा कर सिंह अनगार का उनके पास आगमन 116. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतेवासी सोहे नामं अणगारे पगतिभद्दए जाव विणोए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते छट्ठछट्टणं अनिखित्तेणं तवोकम्मेणं उबाहा० जाव विहरति / [116] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के एक अन्तेवासी सिंह नामक अनगार थे, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत थे। वे मालुकाकच्छ के निकट निरन्तर (लगातार) छठ-छठ (बेले-बेने) तपश्चरण के साथ अपनो दोनों भुजाएँ र उठा कर यावत् पातापना लेते थे। 117. तए णं तस्स सोहस्स अणगारस्स झागंतरिवाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खल मम धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउन्भूते उज्जले जाय छउमस्थे चेव कालं करिस्सति, वदिस्संति य णं अन्नतिथिया 1. बियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2 पृ. 727-728 2. (क) भगबती. अ. वृत्ति, पत्र 690 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2463 Page #1768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [503 'छउमत्थे चेव कालगए' इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभति, प्राया०प०२ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 मालुयाकच्छ्यं अंतो अंतो अणुप्पविसति, मा० अणु० 2 महया मया सद्दे णं कुहुकुहुस्स परुन्न' / [117] उस समय की बात है, जब सिंह अनगार ध्यानान्तरिका में (एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने में) प्रवृत्त हो रहे थे, तभी उन्हें इस प्रकार का आत्मगत यावत् चिन्तन उत्पन्न हुग्रा-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर के शरीर में विपुल (शरीरव्यापी) रोगातंक प्रकट हा. जो अत्यन्त दाहजनक (उज्ज्वल) है, इत्यादि, यावत वे छदमस्थ अवस्था में ही काल कर जाएँगे। तब अन्यतीथिक कहेंगे—'वे छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गए। इस प्रकार के इस महामानसिक मनोगत दुःख से पीड़ित बने हुए सिंह अनगार प्रातापनाभूमि से नीचे उतरे। फिर वे मालुकाकच्छ में आए और उसके अंदर प्रविष्ट हो गए। फिर वे जोर-जोर से रोने लगे। 118. 'अज्जो' ति समजे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति, आमतेत्ता एवं वदासि'एवं खलु प्रज्जो ! ममं अंतेवासी सोहे नाम अणगारे पगतिभद्दए०, तं चेव सव्वं भाणियन्वं जाव परुन्ने / तं गच्छह णं अज्जो ! तुम्भे सोहं अणगारं सद्दह। [118] (उस समय) 'पार्यो !' इस प्रकार से श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित करके यों कहा--'हे आर्यो! आज मेरा अन्तेवासी (शिष्य) प्रकृतिभद्र यावत् विनीत सिंह नामक अनगार, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् कहना; यावत् अत्यन्त जोर-जोर से रो रहा है।' इसलिए, हे आर्यो ! तुम जाओ और सिंह अनगार को यहाँ बुला लामो / 119. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, 60 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियातो सालकोद्वयातो चेतियातो पडिनिक्खमंति, सा० 50 2 जेणेव मालुयाकच्छए, जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 सोहं अणगारं एवं क्यासी-'सीहा ! धम्मायरिया सद्दावेति' / [119] श्रमण भगवान महावीर ने जब उन श्रमणनिर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा, तो उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर भगवान महावीर के पास से शालकोष्ठक उद्यान से निकल कर, वे मालुकाकच्छवन में, जहाँ सिंह अनगार थे, वहाँ पाए और सिंह अनगार से कहा-'हे सिह ! धर्माचार्य तुम्हें बुलाते हैं।' 120. तए णं से सीहे अणगारे समहि निरगंथेहिं सद्धि मालुयाफच्छगाओ पडिनिक्खमति, प० 2 जेणेव सालकोटुए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० समणं मगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण जाव पन्जुवासति / [120] तब सिंह अनगार उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ मालुकाकच्छ से निकल कर शाल Page #1769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कोष्ठक उद्यान में, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ आए और श्रमण भगवान् महावीर को तीन वार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् पर्युपासना करने लगे। विवेचन--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 116 से 120) में सिंह अनगार से सम्बन्धित पांच बातों का निरूपण है-- (1) मालुकाकच्छ के निकट आतापनासहित छठ-छठ तप करने वाले भ. महावीर के शिष्य सिंह अनगार थे। (2) भगवान् को छाद्मस्थिक अवस्था में मृत्यु हो जाएगो, यह बात सुन कर मनोदुःखपूर्वक सिंह अनगार का अत्यन्त रुदन / (3) श्रमणनिग्रन्थों को सिंह अनगार को बुला लाने का भगवान् का मादेश / (4) सिंह अनगार के पास जा कर निर्ग्रन्थों ने भगवान् का सन्देश सुनाया। (5) श्रमणों के साथ सिंह अनगार का भगवान् के समीप आगमन, वन्दन-नमन पर्युपासना / कठिन-शब्दार्थ-शाणंतरियाए-ध्यानान्तरिका-एक ध्यान की समाप्ति और दूसरे ध्यान का प्रारम्भ होने से पूर्व / कुहुकुहुस्स परुन्ने-कुहुकुहुशब्दपूर्वक (हृदय में दुःख न समाने से सिसकसिसक कर) रोए। मणो-माणसिएणं दुक्खेणं-मनोगत मानसिक दुःख से, अर्थात्-जो दुःख वचन आदि द्वारा अप्रकाशित होने से मन में ही रहे उस दुःख से / सद्दह-बुला लायो।। 121. 'सीहा !' दि समणे भगवं महावीरे सोहं अणगार एवं वयासि—से नणं ते सोहा! शाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव परुन्ने / से नूणं ते सोहा ! प्र? सम? ?' हंता, अस्थि ! 'तं नो खल अहं सीहा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेयेणं अन्नाइट्ठ समाणे अंतो छण्ह मासाणं जाव कालं करेस्सं / अहं णं अन्नाइं अखसोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि / तं गच्छ णं तुम सोहा ! में ढियगाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिह, तत्थ णं रेवतीए गाहापतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्न पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो'। [121] हे सिंह ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने सिंह अनगार से इस प्रकार कहा–'हे सिंह ! ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए तुम्हें इस प्रकार की चिन्ता उत्पन्न हई यावत् तुम फूट फूट कर रोने लगे, तो हे सिंह ! क्या यह बात सत्य है ?' (सिंह का उत्तर---) 'हाँ, भगवन् ! सत्य है / ' (भगवान् सिंह अनगार को आश्वासन देते हुए---) हे सिंह ! मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज द्वारा पराभूत होकर मैं छह मास के अन्दर, यावत् (हर्गिज) काल नहीं करूंगा / मैं साढ़े पन्द्रह 1. वियाहपणत्तिसुतं (मु. पा. टि.) भा. 2 पृ. 728-729 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 690 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2464 Page #1770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक [505 वर्ष तक गन्धहस्ती के समान जिन (तीर्थकर) रूप में विचरूगा / (यद्यपि मेरा शरीर पित्तज्वराक्रान्त है, मैं दाह की उत्पत्ति से पीड़ित है; अतः मेरे मरण की चिन्ता से मुक्त होकर) हे सिह ! तुम मेंटिकग्राम नगर में रेवतो गाथापत्नी के घर जानो और वहाँ रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, अर्थात् वे मेरे लिए ग्राह्य नहीं हैं, किन्तु उसके यहाँ मार्जार नामक वायु को शान्त करने के लिए जो बिजौरापाक कल का तैयार किया हुआ है, उसे ले आओ। उसी से मुझे प्रयोजन है। 122. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतु० जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 अतुरियमचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति, मु०५० 2 जहा गोयमसामी (स० 2 उ०५ सु० 22) जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियातो सालकोट्टयाओ चेतियानो पडिनिक्खमति, पडि 0 2 अतुरिय जाव जेणेव मेंढियग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 मेंढियग्गामं नगरं मज्झमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावतिणीए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उचा० 2 रेवतोए गाहावतिणीए गिहं अणुष्पविठे / |122] श्रमण भगवान महावीर स्वामी के द्वारा इस प्रकार का आदेश पाकर सिंह अनगार हर्षित सन्तुष्ट यावत् हृदय में प्रफुल्लित हुए और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया, फिर त्वरा, चपलता और उतावली से रहित हो कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया (शतक 2 उ. 5 सू. 22 में उक्त कथन के अनुसार) गौतम स्वामी की तरह भगवान महावीर स्वामी के पास पाए, वन्दना-नमस्कार करके शालकोष्ठक उद्यान से निकले / फिर त्वरा, चपलता और शीता रहित यावत् में ढिकग्राम नगर के मध्य भाग में हो कर रेवती गाथापत्नी के घर की ओर चले और उसके घर में प्रवेश किया। 123. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सोहं अणगारं एज्जमाणं पासति, पा० हतुद० खिप्यामेव प्रासणाओ अब्भुट्ठति, खि० आ० 2 सोहं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, स. अणु० 2 तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क० 2 वंदति नमसति, 202 एवं बयासी-संदिसंतुणं देवाणुपिया! किमागमणप्पओयणं? तए णं से सोहे अणगारे रेवति गाहावतिणि एवं वयासि एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समणस्स भगवतो महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहि नो अट्ठ, अस्थि ते अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो। [123] तदनन्तर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार को ज्यों ही आते देखा, त्यों ही हर्षित एवं सन्तुष्ट होकर शीघ्र अपने आसन से उठी / सिंह अनगार के समक्ष सात-पाठ कदम गई और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके बन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली-'देवानुप्रिय ! कहिये, किस प्रयोजन से प्रापका पधारना हुआ?' तब सिंह अनगार ने रेवती गाथापत्नी से कहा-हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर के लिए तुमने जो कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे प्रयोजन नहीं है, किन्तु Page #1771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मार्जार नामक वायु को शान्त करने वाला बिजौरापाक, जो कल का बनाया हुआ है, वह मुझे दो, उसी से प्रयोजन है।' 124. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं प्रणगारं एवं वदासि-केस णं सोहा ! से पाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अट्ठ मम आतरहस्सकडे हट्वमक्खाए जतो णं तुमं जाणासि ? एवं जहा खंदए (स० 2 उ०१ सु० 20 [2]) जाव जतो णं अहं जाणामि / 124] इस पर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार से कहा हे सिंह अनगार ! ऐसे कौन ज्ञानी अथवा तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरे अन्तर की यह रहस्यमय बात जान ली और आप से कह दी, जिससे कि आप यह जानते हैं ?' सिंह अनगार से (शतक 2 उ. 1 सू. 20/2 में उक्त) स्कन्दक के वर्णन के समान (कहा---.) यावत्-'भगवान् के कहने से मैं जानता हूँ।' 125. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं एतम? सोच्चा निसम्म हट्टतुटु० जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 पत्तं मोएति, पत्तं मो०२ जेणेव सोहे अणगारे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सत्वं सम्म निसिरति / {125] तब सिंह अनगार से यह बात सुन कर एवं अवधारण करके वह रेवती गाथापत्नी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई। फिर जहाँ रसोईघर था, वहाँ गई और (बिजौरापाक वाला) बर्तन खोला। फिर उस बर्तन को लेकर सिंह अनगार के पास आई और सिंह अनगार के पात्र में वह सारा पाक सम्यक् प्रकार से डाल (बहरा) दिया। 126. तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्यमुद्धणं जाव दाणेणं सोहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध जहा विजयम्स (मु० 26) जाव जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए, रेवतीए गाहावतिणीए। [126] रेवती गाथापत्नी ने उस द्रव्यशुद्धि, दाता की शुद्धि एवं पात्र (ग्रादाता) की शुद्धि से युक्त, यावत्-प्रशस्त भावों से दिये गए दान से सिंह अनगार को प्रतिलाभित करने से देवायु का बन्ध किया / यावत् इसी शतक में कथित विजय गाथापति के समान रेवती के लिए भी ऐसी उद्घोषणा हुई— रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया, रेवती गाथापत्नी ने जन्म और जीवन सफल कर लिया।' 127. तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिवखमति, पडि०२ में ढियग्गामं नगरं मझमज्नेणं निग्गच्छति, नि०२ जहा गोयमसामी (स०२ उ० 5 सु० 25 [1]) जाव भत्तपाणं पडिदसेति, भ० 102 समणस्स भगवतो महावीरस्स पाणिसि तं सव्वं सम्म निसिरति / [127] इसके पश्चात् वे सिंह अनगार, रेवती गाथापत्नी के घर से निकले और में ढिकग्राम नगर के मध्य में से होते हुए भगवान् के पास पहुँचे और (श. 2 उ. 5 सू. 25-1 में कथितानुसार) गौतमस्वामी के समान यावत् (लाया हुआ) आहारपानी दिखाया। फिर वह सब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के हाथ में सम्यक् प्रकार से रख (दे) दिया। Page #1772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [507 128. तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जा३ अगसोववन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीरकोटुगंसि पक्खिवइ / तए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणम्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते ह8 जाए अरोए बलियसरीरे। तुट्ठा समणा, तुट्ठामो समणोओ, तुट्ठा सायगा, तुट्ठाओ सावियानो, तुट्ठा देवा, तुट्ठाओ देवोनो सदेवमणुया. सुरे लोए तुढे हटे जाए–'समणे भगवं महावोरे ह8, समणे भगवं महावीरे हट्ठ'। 128] तब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अमूच्छित (अनासक्त) यावत् लालसारहित (भाव से) बिल में सर्प-प्रवेश के समान उस (औषधरूप) आहार को शरीररूपी कोठे में डाल दिया / वह (औषध रूप) आहार करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर स्वामो का वह महापीडाकारी रोगानंक शीघ्र ही शान्त हो गया। वे हृष्टपुष्ट, रोगरहित और शरीर से बलिष्ठ हो गए। इससे सभी श्रमण तुष्ट (प्रसन्न हुए, श्रमणियां तुष्ट हुईं, श्रावक तुष्ट हुए, धाविकाएँ तुष्ट हुई, देव तुष्ट हुए, देवियाँ तुष्ट हुई, और देव, मनुष्य एवं असुरों सहित समग्र लोक तुष्ट एवं हर्षित हो गया। (कहने लगे-) 'श्रमण भगवान् महाबोर हृष्ट हुए, श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हुए। विवेचन-प्रस्तुत प्राउ सूत्रों (सू. 121 से 128 तक) में रेवती गाथापत्नी के यहाँ बने हुए विजौरापाक को सिंह अनगार द्वारा लाने और भगवान के द्वारा उसका सेवन करने से स्वस्थ एवं रोगमुक्त होने का तथा श्रमणादि समग्र लोक के प्रसन्न होने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है / __ शंका : समाधान-प्रस्तुत प्रकरण में प्रागत 'दुवे कबोयसरीरा' तथा 'मज्जारकडए कुक्कुडमंसए ये मूलपाठ विवादास्पद हैं। जैन तीर्थंकरों एवं श्रमग-श्रावकवर्ग को मौलिक मर्यादाओं तथा आगमरहस्यों से अनभिज्ञ लोग इस पाठ का मांसपरक अर्थ करके भगवान महावीर पर मांसाहारी का आक्षेप करते हैं। परन्तु यह उनकी भ्रान्ति है। क्योंकि एक तो ऐसा आहार तीर्थकर या साधु वर्ग के लिए तो क्या, सामान्य मार्गानुसारो गृहस्थ के लिए भी हर परिस्थिति में वजित है। दूसरे, खून की दस्तों को बंद करने एवं संग्रहणी रोग तथा वात-पित्तशमन के लिए मांसाहार कथमपि पथ्य नहीं है।' यही कारण है कि इनके अर्थ 'निघण्टु' आदि कोषों में वनस्पति-परक मिलते हैं, वृत्तिकार ने भी वनस्पतिपरक अर्थ से इसकी संगति की है। कवोयसरीरा : दो अर्थ-(१) कपोत 1. (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 778 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ५.पृ. 2469 (ग) नरकगति के 4 कारण के लिए देखो---स्थानांग.स्था. 4 ......."कुणिमाहारेणं / ' 2. (क) पित्तघ्नं तेषु कूष्माण्डम् / -सुश्रुतसंहिता (ख) 'कूष्माण्डं शीतलं वृष्य' –कैयदेवनिघण्टु (ग) 'पारावतं सुमधुरं रुच्यमत्यग्निवातनुत् ।'--सुश्रु तसंहिता (घ) स्थानांग सूत्र, स्थान 9, सु. 3, वृत्ति (ङ) 'वत्युल-पोरग-मज्जार-पोइवल्लीय-पालक्का ।"-प्रजापनापद 1 (च) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 691 (छ) रेवतीदानसमालोचना Page #1773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508] [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र कबूतर पक्षी के वर्ण के समान फल भी कपोत-कृष्माण्ड (कोहला), छोटा कपोत-कपोतक (छोटा कोहला), तद्रूप शरीर-वनस्पतिजीव-देह होने से कपोतकशरीर, अथवा (2) कपोत शरीर की तरह धसरवर्ण की सदृशता होने से कपोतकफल यानी कष्माण्ड फल, अर्थात संस्कृत किये हए कपोत(कूष्माण्डफल)। मज्जारकडएकुक्कुडमसए-दो अर्थ-(१) मार्जार नामक उदरवायु विशेष, उसका उपशमन करने के लिए कृत-संस्कृत-मार्जारकृत, अथवा (2) मार्जार अर्थात्-विरालिका नामक वनस्पतिविशेष उससे कृत-भावित / कुङटमांसक अर्थात्-बिजौरापाक (बीजपूरककटाह)। प्रस्तुत प्रकरण में रेवती गाथा पत्नी के यहाँ से भगवान् ने कोहलापाक न लाने तथा बिजौरापाक लाने का आदेश क्यों दिया ? इसका समाधान वृत्तिकार यों करते हैं कि भगवान् ने केवल ज्ञान से जान लिया कि कोहलापाक रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए बना कर तैयार किया है। इसलिए वह प्रौद्देशिकदोषयुक्त होने से भगवान् ने उसे लाने का निषेध कर दिया, किन्तु जो दूसरा बीजौरापाक था, वह उसके यहाँ स्वाभाविक रूप से अपने घर के लिए बनाया गया था, वह निर्दोष था, अतः वह ग्रहण करने योग्य समझ कर लाने का आदेश दिया था। यही कारण है कि पहले के लिए 'तेहि नो प्र?' और पिछले के लिए 'आहराहि तेणं अट्ठो' शब्दों का प्रयोग किया है।' इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिए पाठक 'रेवती-दान-समालोचना' (स्व. शतावधानी पं. मुनि श्री रत्नचन्द्रजी म. द्वारा लिखित) देखें। कठिनशब्दार्थ-अतुरियमचवलमसंभंतं- त्वरा (शीघ्रता), चपलता और सम्भ्रांति (हड़बड़ी) से रहित / पत्तगं मोएति-पात्रक-कटोरदान को खोला या छीके से उतारा / बिलमिव पन्नगभूएणंसूर्प जैसे सीधा बिल में घस जाता है, उसी प्रकार स्वयं (भ. महावीर) ने वह आहार ग्रानन्द न लेते हुए मुख में डाला / किमागमणप्पओयणं आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? रहस्सक डे-गुप्त बात / सव्वं सम्मं णिस्सिरइ-सारा पाक सम्यक् प्रकार से पात्र में डाल दिया। णिबद्ध - बांध लिया / हट्ठ- हृष्ट-व्याधिरहित ! अरोगे-नीरोग-पीडारहित / 129. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, वं०२ एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूती नामं अणगारे पतिभदए जाव विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तदेणं तेयेणं भासरासीकए समाणे कहिं गए, कहिं उववन्ने ? एवं खल गोयमा ! ममं अंतेवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूतो नाम अणगारे पतिभद्दए जाव विणीए से णं तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे उड्ढे चंदिमसूरिय जाब बंभ-लंतक-महासुक्के कप्पे वीतीवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ ण अत्थेगतियाणं देवाण अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सवाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नता। से भंते ! सव्वाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिवखएणं नाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति / 1. (क) स्यान्मातुलुङ्गः 'कफवातन्ता / -सुथ तसंहिता (ख) भावती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 11, पृ. 779 से 793 तक 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्र 691, (ख) भग. हिन्दीविवेचन भा. 5, पृ. 2468 Page #1774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [126 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुभूति नामक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, और जिसे मलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से (जला कर) भस्म कर दिया था, वह मर कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुप्रा ?' [129 उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूति अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था, जिसे उस समय मखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से जला कर भस्मसात् कर दिया था, ऊपर चन्द्र और सूर्य का यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुऋकल्प का अतिक्रमण कर सहस्रारकल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ के कई देवों की स्थिति अठारह सागरोपम की कही गई है। सर्वानुभूति देव की स्थिति भी अठारह सागरोपम की है। वह सर्वानुभूति देव उस देवलोक से अायुष्यक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर यावत् महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में (जन्म / लेकर) सिद्ध होगा यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। सुनक्षत्र अनगार की भावी गति-उत्पत्तिसम्बन्धी निरूपण 130. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवते सुनषखत्ते नामं प्रणगारे पगतिमदए जाव विणीए, से गं भंते ! तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहि उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी सुनवखत्ते नामं अणगारे पतिभद्दए जाव विणोए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परितादिए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 वंदति नमंसति, वं० 2 सयमेव पंच महन्वयाई आरुभेति, सयमेव पंच० आ० 2 समणा य समणीओ य खामेति, स. खा० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढे चंदिमसूरिय जाव आणय-पाणयारणे कप्पे वीतीवइत्ता अच्चुते कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं प्रत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोदमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सुनवखत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाइं०, सेसं जहा सव्वाणुभूतिस्स जाव अंतं काहिति। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (129) में श्री गौतम स्वामी द्वारा सर्वानुभूति अनगार की गतिउत्पत्ति के सम्बन्ध में भगवान् से पूछे गए प्रश्न का उत्तर प्रतिपादित है / [130 प्र.] भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कौशलजनपदोत्पन्न सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह मंलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से परितापित किये जाने पर काल के अवसर पर काल करके कहाँ गया ? कहाँ उत्पमा हुमा? [130 उ.] गौतम ! मेरा अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था; वह उस समय मंलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से परितापित हो कर मेरे पास आया / फिर उसने मुझे वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पंचमहाव्रतों का उच्चारण (प्रारोपण) किया। फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमापना की, और आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त कर काल के Page #1775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समय में काल करके ऊार चन्द्र और सूर्य को यावत् प्रानत-प्राणत और प्रारणकल्प का अतिक्रमण करके वह अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई हैं / सुनक्षत्र देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। शेष सभी वर्णन सर्वानुभूति अनगार के समान, यावत्-सभी दुःखों का अन्त करेगा; (यहाँ तक कहना चाहिए / ) विवेचन -प्रस्तुत सूत्र (130) में सुनक्षत्र अनगार को भावी गति-उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् द्वारा दिये गये उत्तर का निरूपण है / गोशालक का भविष्य 131. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते, से णं भंते ! गोसाले मंखलित्ते कालमासे कालं किच्चा कहि गए, कहि उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघातए जाव छउमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिमसूरिय जाव अच्चुए कप्पे देवताए उववन्ते / तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बाबोसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता। [131 प्र.] भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी कुशिष्य गोशालक मंखलिपुत्र काल के अवसर में काल करके कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? [131 उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी कुशिष्य मंखलिपुत्र गोशालक, जो श्रमणों का घातक था, यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही काल के समय में काल करके ऊँचे चन्द्र और सूर्य का यावत् उल्लंघन करके अच्युतकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम का क हो गई है। उनमें गोशालक को स्थिति भी बाईस सागरोपम की है। विवेचन गोशालक अन्तिम समय में सम्यादष्टि होकर अाराधनापूर्वक शुभभावों से कालधर्म को प्राप्त हुआ था, इसलिए गोशालक भी अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुना और भगवान् ने उस की अनन्तर गति और उत्पत्ति प्रस्तुत सूत्र में अच्युतकल्प के देवरूप में बताई है।' गोशालक : देवभव से लेकर मनुष्यभव तक : विमलवाहन राजा के रूप में 132. से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगानो आउक्खएणं जाव कहि उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे मारहे वासे विझगिरिपायमूले पुडेसु जणवएसु सतदुवारे नगरे सम्मुतिस्स रन्नो भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति / से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वोतिक्कंताणं जाव सुरूवे दारए पयाहिति, जंरणि च णं से दारए जाहिति, तं रणि च गं सतदुवारे नगरे सम्भंतरवाहिरिए भारग्गसो य कुंभागसो य उमासे य रयणवासे य वासे वासिहिति / तए णं तस्स दारगस अम्मापियरो एक कारसमे दिवसे वोतिक्कते जाव संपत्ते 1. वियाहपण्णत्ति, सुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 731-733 Page #1776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [511 बारसाहदिवसे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधे काहिति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणसि सातदुवारे नगरे सम्भंतर बाहिरिए जाव रयणवासे य वासे बुठे, तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्ज 'महापउमे, महापउमे' / "तए णं तस्स दारगस्स प्रमापियरो नामधेज्जं करेहिति 'महापउमो' ति" / "तए णं तं महापउमं दारगं अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरण-दिवस-नवखत्तमुहत्तंसि महया महया रायाभिसे गेणं अभिसहिति / से णं तत्थ राया भविस्सइ महता हिमवंत० वण्णओ जाव विहरिस्सति / " "तए णं तस्स महापउमस्स रण्णो अन्नदा कदायि दो देवा महिड्डिया जाव महेसवखा सेणाकम्म काहिति, तं जहा-पुणभद्दे य माणिभद्दे य / तए णं सतदुवारे नगरे बहवे राईसर-तलवर० जाव सत्थवाहपमितयो अन्नमन्नं सद्दावेहिति, अन्न० स० 2 एवं वदिहिति-जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं महापउमस्स रपणो दो देवा महिड्डीया जाव सेणाकम्भ करेंति तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य; तं होउ णं देवाणप्पिया! अम्हं महापउमस्स रपणो दोच्चे वि नामधेज्जे 'देवसेणे, देवसेणे' / ' "तए णं तस्स महापउमरस रन्नो दोच्चे वि नामधेजे भविस्सति 'देवसेणे' ति।" "तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो अन्नदा कदायि सेते संखतलविमलसन्निगासे चउहते हस्थिरयणे समुप्पज्जिस्सइ / तए णं से देवसेणे राया तं सेतं संखतलविमलसग्निगासं चउदंतं हस्थिरयणं दुरूढे समाणे सयदुवारं नगरं मज्भमझेणं अभिवखणं अभिवखणं प्रति जाहिति य निज्जाहिति य / तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर जाव पमितयो अन्नमग्नं सद्दावेहिति अन्न० स०२ एवं वदिहिति—जम्हा णं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसे णस्स रण्णो सेते संखतलविमलसनिगासे चउईते हस्थिरयणे समुष्पन्ने, तं होउ णं देवाणुपिया! अम्हं देवसे णस्स रणो तच्चे वि नामधेज्जे "विमलवाहणे विमलवाहणे।" "तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तच्चे विनामधेज्जे भविस्सति विमलवाहणे' ति।" तए णं से विमलदाहणे राया अन्नदा कदायि सममेह निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवज्जिहितिअप्पेगतिए आश्रोसेहिति, अप्पेगतिए अवसिहिति, अप्पेगतिए निच्छोडेहिति, अप्पेगतिए निन्मच्छेहिति, अप्पेतिए बंधेहिति, अपेतिए गिरु भेहिति, अप्पेगतियाणं छविच्छेदं करेहिति, अप्पेगइए मारेहिति, अप्पेगतिए पमारेहिह, अप्पेगतिए उद्दवेहिति, अप्पेगतियाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायछणं आछिदिहिति विच्छिदिहिति भिदिहिति अवहरिहिति, अप्पेगतियाणं भत्तपाणं वोच्छिदिहिति, अप्पेगतिए णिन्नगरे करेहिति, अप्पेगतिए निविसए करेहिति / " "तए णं सतद्वारे नगरे बहवे राईसर जाव वििहति-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलवाहणे राया समहिं निग्गंथेहि मिच्छ विपडिवाने अप्पेगतिए आपोसति जाव निध्विसए करेति, तं नो खलु देवाणुपिया! एवं अम्हं सेयं, नो खलु एवं विमलवाहणस्स रष्णो सेयं रज्जस्स वा रटूस्स वा Page #1777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बलस्स वा वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स वा सेयं, ज णं विमलवाहणे राया समणेहि निग्गथेहि मिच्छ विपडियन्ने / तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं विमलवाहणं रायं एयमद्वं विण्णवित्तए' त्ति कटु अनमन्नस्स अंतियं एयमढें पडिसुणेति, अन्न० प० 2 जेणेव विमल वाहणे राया तेणेव उबागच्छंति, उवा० 2 करयलपरिग्गहियं विमलवाहणं राय जएणं विजएणं बद्धावेहिति, जएणं विजएणं बद्धावित्ता एवं वदिहिति–'एवं खलु देवाणुप्पिया समर्गाह निगहि मिच्छं विपडिवन्ना अप्पेगतिए प्राओसंति जाव अप्पेगतिए निविसए करेंति, तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाणं सेयं, नो खलु एवं अम्ह सेयं, नो खलु एयं रज्जस्स वा जाव जगवदस्स वा सेयं, जं णं देवाणुपिया समह निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ना, तं बिरमंतु णं देवाणुप्पिया एयस्सस्स अकरणयाए / ' "तए णं से विमलवाहणे राया तेहि बहूहि राईसर जाव सत्थवाहपभितीहि एयमढं विनत्ते समाणे 'नो धम्मो त्ति, नो तवो,' त्ति, मिच्छाविणएणं एयम पडिसुणेहिति / " "तस्स णं सतदुवारस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरथिमे दिसौभागे एत्य णं सुभूमिभागे नाम उज्जाणे भविस्सति, सम्वोउय० वणओ।" "तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउप्पए सुमंगले नाम अणगारे जातिसंपन्ने जहा धम्मप्रोसस्स बण्णश्रो (स० 11 उ० 11 सु० 53) जाव संखित्तविउलतेयलेस्से तिणाणोवगए सुभूमिभागस्स उज्जास्स अदूरसामंते छळंछठेणं अणिक्खित्तेणं जाव आयावेमाणे विहरिस्सति / "तए णं से विमलवाहणे राया अन्नदा कदायि रहचरियं काउं निज्जाहिति / तए णं से विमलवाहणे राया सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे सुमंगलं अणगारं छठेंछठेणं जाव प्रातावेमाणं पासिहिति, पा० 2 आसुरुत्ते नाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं रहसिरेणं गोल्लावेहिति / "तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे सणियं सणियं उठेहिति., स० उ०२ दोच्चं पि उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय जाव आयावेमाणे विहरिस्सति / "तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणणारं दोच्चं पि रहसिरेणं णोल्लाहिति / " "तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणणं रण्णा दोच्चं पि रहसिरेणं गोल्लाविए समाणे सणियं सणियं उठेहिति, स० उ० 2 ओहिं पउंजिहिति, ओहि प० 2 विमलवाहणस्स रण्णो तीयद्ध आभोएहिति, ती० आ० 2 विमलवाहणं रायं एवं वदिहिति–'नो खलु तुमं विमलवाहणे राया, नो खलु तुमं देवसेणे राया, नो खलु तुम महापउमे राया, तुम णं इओ तच्चे भवग्गहणे गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छ उमत्थे चेव कालगए / तं जति ते तदा सव्वाणुभूतिणा प्रणगारेणं पभुणा वि होइऊणं सम्म सहियं खमियं तितिक्खियं अहियासियं जइ ते तदा सुनक्खत्तेणं प्रणगारेणं पभुणा वि होइऊणं सम्म सहियं जाव अहियासियं, जइ ते तदा समणं भगवता महाबोरेणं पभुणा वि Page #1778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [513 जाब अहियासियं, तं नो खलु अहं तहा सम्म सहिस्सं जाव अहियासिस्स, अहं ते नवरं सहयं सरह ससारहीयं तवेणं तेयेणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेज्जामि'।" "तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं तच्चं पि रहसिरेणं णोल्लावेहिति / " "तए में से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तच्चं पि रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरहति, आ० प० 2 तेयासमुग्धातेणं समोहनिहिति, तेया० स० 2 सत्तटुपयाई पच्चोसक्किहिति, सत्तट्ठ० पच्चो० 2 विमलवाहणं रायं सहयं ससारहीयं तवेणं तेयेणं जाव भासरासि करेहिति / " [132 प्र. भगवन् ! वह गोशालक देव उस देवलोक से आयुष्य, भव और स्थिति का क्षय होने पर, देवलोक से च्यव कर यावत् कहाँ उत्पन्न होगा ? 132 उ.] गौतम ! इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के (अन्तर्गत) भारतवर्ष (भरतक्षेत्र) में विन्ध्यपर्वत के पादमूल (तलहटी) में, पूण्ड जनपद के शतद्वार नामक नगर में सन्मूर्ति नाम के राजा की भद्रा-भार्या की कुक्षि में पूत्ररूप से उत्पन्न होगा। वह वहाँ नौ महीने और साढ़े सात रात्रिदिवस यावत् भलीभांति व्यतीत होने पर यावत् सुन्दर (रूपवान्) बालक के रूप में जन्म लेगा / जिस रात्रि में उस बालक का जन्म होगा, उस रात्रि में शतद्वार नगर के भीतर और बाहर, अनेक भार-प्रमाण और अनेक कुम्भप्रमाण पद्मों (कमलों) एवं रत्नों की वर्षा होगी। तब उस बालक के माता-पिता ग्यारह दिन बीत जाने पर बारहवें दिन उस बालक का गुणयुक्त एवं गूणनिष्पन्न नामकरण करेंगे-- क्योंकि हमारे इस बालक का जब जन्म हुमा, तब शतद्वार नगर के भीतर और बाहर यावत् पद्मों और रत्नों की वर्षा हुई थी, इसलिए हमारे इस बालक का नाम–'महापद्म हो। तदनन्तर ऐसा विचार कर उस बालक के माता-पिता उसका नाम रखेंगे--'महापद्म' / तत्पश्चात उस महापदम बालक के माता-पिता उसे कुछ अधिक आठ वर्ष का जान कर शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहर्त में बहुत बड़े (या बड़े धूमधाम से) राज्याभिषेक से अभिषिक्त करेंगे / इस प्रकार वह (महापद्म) वहाँ का राजा बन जाएगा / औपपातिक में वर्णित राज-वर्णन के समान इसका वर्णन जान लेना चाहिए—वह महाहिमवान् आदि पर्वत के समान महान् एवं बलशाली होगा, यावत् वह (राज्यभोग करता हुप्रा) विचरेगा। किसी समय दो मद्धिक यावत् महासौख्य सम्पन्न देव उस महापद्म राजा का सेनापतित्व करेंगे। वे दो देव इस प्रकार हैं-पूर्णभद्र और माणिभद्र / यह देख कर शतद्वार नगर के बहुत-से राजेश्वर (मण्डलपति), तलवर, राजा, युवराज यावत् सार्थवाह आदि परस्पर एक दूसरे को बुलायेंगे और कहेंगे—देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा के महद्धिक यावत् महासौख्यशाली दो देव सेनाकर्म करते हैं। इसलिए (हमारी सम्मति है कि) देवानुप्रियो ! हमारे महापद्म राजा का दूसरा नाम-देवसेन या देवसैन्य हो। तब उस महापद्म राजा का दूसरा नाम 'देवसेन' या 'देवसैन्य' भी होगा। Page #1779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तदनन्तर किसी दिन उस देवसेन राजा के शंखदल (-खण्ड) या शंखतल के समान निर्मल एवं श्वेत चार दांतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न होगा। तब वह देवसेन राजा उस शंखतल (दल) के समान श्वेत एवं निर्मल चार दांत वाले हस्ति रत्न पर आरूढ हो कर शतद्वार नगर के मध्य में होकर बार-बार बाहर जाएगा और आएगा / यह देख कर बहुत-से राजेश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति परस्पर एक दूसरे को बुलाएंगे और फिर इस प्रकार कहेंगे-'देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा के यहाँ शंखदल या शंखतल के समान श्वेत, निर्मल एवं चार दांतों वाला हस्तिरत्न समुत्पन्न हुआ है, अतः हे देवानुप्रियो ! हमारे देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमल-वाहन' भी हो।' तत्पश्चात् उस देवसेन राजा का तीसरा नाम 'विमलवाहन' भी हो जाएगा। तदनन्तर किसी दिन विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्याभाव ( अनार्यत्व) को अपना लेगा / वह कई श्रमणनिग्रंथों के प्रति आक्रोश करेगा, किन्हीं का उपहास करेगा, कतिपय साधुनों को एक दूसरे से पृथक-पृथक कर देगा, कइयों की भर्त्सना करेगा। कई श्रमणों को बांधेगा, कइयों का निरोध (जेल में बंद) करेगा, कई श्रमणों के अंगच्छेदन करेगा, कुछ को मारेगा, कइयों पर उपद्रव करेगा, कतिपय श्रमणों के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन को छिन्नभिन्न कर देगा, नष्ट कर देगा, चीर-फाड़ देगा या अपहरण कर लेगा। कई श्रमणों के आहार-पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश से निर्वासित करेगा। (उसका यह रवैया देख कर) शतद्वार नगर के बहुत-से राजा, ऐश्वर्यशाली यावत् सार्थवाह आदि परस्पर यावत् कहने लगेंगे-देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमणनिर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यपन अपना लिया है, यावत् कितने ही श्रमणों को इसने देश से निर्वासित कर दिया है, इत्यादि / अतः देवानुप्रियो ! यह हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है। यह न विमलवाहन राजा के लिए श्रेयस्कर है और न राज्य, राष्ट्र, बल (संन्य) वाहन, पुर, अन्तःपुर अथवा जनपद (देश) के लिए श्रेयस्कर है कि विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व को अंगीकार करे। अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह उचित है कि हम विमलवाहन राजा को इस विषय में विनयपूर्वक निवेदन करें। इस प्रकार वे सब परस्पर एक दूसरे की बात मानेंगे और इस प्रकार निश्चय करके विमलवाहन राजा के पास पाएँगे। करबद्ध होकर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से बधाई देंगे। फिर इस प्रकार कहेंगे—हे देवानुप्रिय ! श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति आपने अनार्यत्व अपनाया है; कइयों पर पाप आक्रोश करते हैं, यावत् कई श्रमणों को प्राप देश-निर्वासित करते हैं। अतः हे देवानुप्रिय ! यह आपके लिए श्रेयस्कर नहीं है, न हमारे लिए यह श्रेयस्कर है और न ही यह राज्य, राष्ट्र यावत् जनपद के लिए श्रेयस्कर है कि ग्राप देवानुप्रिय श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व स्वीकार करें। अत: हे देवानुप्रिय ! आप इस प्रकार्य को करने से रुकें, (इस दुराचरण को बन्द करें) / तदनन्तर इस प्रकार जब वे राजेश्वर यावत् सार्थवाह आदि विनयपूर्वक राजा विमलवाहन से विनति करेंगे, तब बह राजा--धर्म (कुछ) नहीं, तप निरर्थक है, इस प्रकार की बुद्धि होते हुए भी मिथ्या-विनय बता कर उनकी इस विनन्ति को मान लेगा। उस शतद्वार नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सुभूमि भाग नाम का उद्यान होगा, जो सब ऋतुओं में फल-पुष्पों से समृद्ध होगा, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् / Page #1780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [515 उस काल उस समय में विमल नामक तीर्थंकर के प्रपौत्र-शिष्य 'सुमंगल' नामक होंगे / उनका वर्णन (शतक 11. उ. 11. सु. 53 में उक्त) धर्मघोष अनगार के समान, यावत् संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या वाले, तीन ज्ञानों से युक्त वह सुमंगल नामक अनगार, सुभूमिभाग उद्यान से न अति दुर और न अति निकट निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) तप के साथ यावत् आतापना लेते हुए विचरेंगे / वह विमलवाहन राजा किसी दिन रथचर्या करने के लिए निकलेगा। जब सूभूमिभाग उद्यान से थोड़ी दूर रथचर्या करता हुमा वह विमलवाहत राजा, निरन्तर छठ-छठ तप के साथ प्रातापना लेते हुए मुमंगल अनगार को देखेगा; तब उन्हें देखते हो वह एकदम क्रुद्ध होकर यावत् मिसमिसायमान (क्रोध से अत्यन्त प्रज्वलित) होता हुआ रथ के अग्नभाग से सुमंगल अनगार को टक्कर मार कर नीचे गिरा देगा। विमलवाहन राजा द्वारा रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर सुमंगल अनगार को नीचे गिरा देने पर वह (सुमंगल अनगार) धीरे-धीरे उठेंगे और दूसरी बार फिर बाहें ऊँची करके यावत् आतापना लेते हुए विचरेंगे। तब वह विमलवाहन राजा फिर दूसरी बार रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर नीचे गिरा देगा, अतः सुमंगल अनगार फिर दूसरी बार शनैः शनैः उठेगे और अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर विमलवाहन राजा के अतीत काल को देखेंगे / फिर वह बिमलवाहन राजा से इस प्रकार कहेंगे-'तुम वास्तव में विमलवाहन राजा नहीं हो, तुम देवसेन राजा भी नहीं हो, और न ही तुम महापद्म राजा हो; किन्तु तुम इससे पूर्व तीसरे भव में श्रमणों के घातक गोशाल नामक मंखलिपुत्र थे, यावत् तुम छद्मस्थ अवस्था में ही काल कर (मर) गए थे। उस समय समर्थ होते हुए भी सर्वानुभूति अनगार ने तुम्हारे अपराध को सम्यक् प्रकार से सहन कर लिया था, क्षमा कर दिया था, तितिक्षा की थी और उसे अध्यासित (समभावपूर्वक सहन) किया था। इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी समर्थ होते हुए यावत् अध्यासित किया था। उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने भी समर्थ होते हुए भी यावत् अध्यासित (समभावपूर्वक सहन) कर लिया था। किन्तु मैं इस प्रकार सहन यावत् अध्यासित नहीं करूँगा / मैं तुम्हें अपने तप-तेज से घोड़े, रथ और सारथी सहित एक ही प्रहार में कूटाघात के समान राख का ढेर कर दूंगा। __ जब सुमंगल अनगार विमलवाहन राजा से ऐसा कहेंगे, तब वह एकदम कुपित यावत् क्रोध से आगबबूला हो उठेगा और फिर तीसरी बार भी रथ के सिरे से टक्कर मार कर सुमंगल अनगार को नीचे गिरा देगा। जब विमलवाहन राजा अपने रथ के सिरे से टक्कर मार कर, सुमंगल अनगार को तीसरी बार नीचे गिरा देगा, तब सुमंगल अनगार अतीव क्रुद्ध यावत् कोपावेश से मिसमिसाहट करते हुए आतापना भूमि से नीचे उतरेंगे और तेजस-समुद्घात करके सात-पाठ कदम पीछे हटेंगे, फिर विमलवाहन राजा को अपने तप-तेज से, घोड़े, रथ और सारथि सहित एक ही प्रहार से यावत् (जला कर) राख का ढेर कर देंगे। विवेचन-प्रस्तुत लम्बे सूत्र (सू. 132) में गोशालक के देवभव से लेकर मनुष्यभव में विमलवाहन राजा के रूप में, सुमंगल अनगार को तीन बार पीड़ा देने पर उनके द्वारा तपोजन्य तेजोलेश्या से भस्म कर देने तक का वृत्तान्त उल्लिखित किया गया है / Page #1781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 516] [व्याख्याप्राप्तिसून एक शंका : समाधान-समवायांगसूत्र की टीका से ज्ञात होता है कि उत्सपिणी काल में 'विमल' नामक इक्कीसवें तीर्थकर होंगे और वे अवसर्पिणी काल के चतुर्थ तीर्थंकर के स्थान में प्राप्त होते हैं। उनसे पहले के अर्वाचीन तीर्थंकरों के अन्तर काल में करोड़ों सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं, जबकि यह महापद्म राजा तो बारहवें देवलोक की बाईस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके होगा, ऐसा मूलपाठ में उल्लेख है। इसलिए इसके साथ महापद्म की संगति बैठनी कठिन है। किन्तु वृत्तिकार ने दूसरी तरह से इसकी संगति इस प्रकार बिठाई है-बाईस सागरोपम की स्थिति के पश्चात् जो तीर्थंकर उत्सर्पिणी काल में होगा, उसका नाम 'विमल' होगा ऐसा संभवित है / क्योंकि एक ही नाम के अनेक महापुरुष होते हैं।' कठिन शब्दों के अर्थ-विज्झगिरिपायमूले-विन्ध्याचल की तलहटी में / पच्चायाहितिउत्पन्न होगा / दारए-बालक / भारगसो-भार प्रमाण / पुरुष जितना बोझ उठा. सके, उसे अथवा 120 पल-प्रमाण वजन को 'भार' या भारक कहते हैं / यही भार-प्रमाण है / कुभग्गसो-अनेक कुम्भ-प्रमाण / कुम्भ-प्रमाण के तीन भेद हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट / 60 आढक प्रमाण का जघन्य कुम्भ, 80 आढक प्रमाण का मध्यम कुम्भ और 100 पाढक प्रमाण का उत्कृष्ट कुम्भ होता है। पउमयासे- पद्मवर्षा / सेणाकम्म-सैनिक कर्म / संखतल-विमल-सण्णिकासे : दो रूप : दो अर्थ-(१) शंख-दल-शंखखण्ड, (2) शंखतल के समान विमल-निर्मल / समुप्पज्जिस्सइ--समुत्पन्न होगा। अभिजाहिति, णिज्जाहिति----आएगा और जाएगा, आवागमन करेगा। विपडिवज्जिहिति–विपरीतता अपनाएगा। आओसेहिति-प्राक्रोशवचन कहेगा, झिड़केगा / अवहसिाहिति-हंसी उड़ाएगा। निच्छोडेहिति-पृथक् करेगा / निन्भच्छेहिति--भर्त्सना करेगा-दुर्वचन बोलेगा / णिरु भेहिति-निरोध करेगा-रोकेगा। पमारेहिइमारना प्रारम्भ करेगा। उद्दवेहिति-उपद्रव करेगा। आच्छिदिहिइ-थोड़ा छेदन करेगा। विच्छिदिहिति-विशेष रूप से या विविध प्रकार से छेदन करेगा। मिदिहिति-तोड़ फोड़ करेगा / अवहरि. हिति--अपहरण करेगा, उछाल देगा / णिनगरे करेहिति-नगरनिर्वासन करेगा। निविसए करेहिति-देश-निकाला दे देगा। विष्णवित्तए-विनति करें। विरमंतु-रुके, बंद करें। पउप्पएप्रपौत्रशिध्य-शिष्य सन्तान / रहचरियं-रथचर्या / आयावेमाणं--प्रातापना लेते हए / रहसिरेणंरथ के सिरे से / गोल्लावेहिति-गिरा देगा / प्रभुणा-समर्थ होते हुए। तितिविखयं-तितिक्षा की। सहयं-घोड़े सहित / सरहं रथसहित / ससारहियं सारथिसहित / राज्य और राष्ट्र में अन्तर-प्राचीन काल में राजा, मन्त्री, राष्ट्र, कोश, दुर्ग (किला), बल (सेना) और मित्रवर्ग, इन सात को राज्य कहा जाता था और जनपद अर्थात्--राज्य के एक देश को राष्ट्र, किन्तु वर्तमान काल की भौगोलिक व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक प्रान्त को राज्य (State) कहा जाता है, और कई प्रान्त मिल कर एक राष्ट्र होता है / कई जिले मिल कर एक प्रान्त होता है / 1. भगवती. अ. बत्ति, पब 691 2. (क) भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 691 / / (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2476 से 2586 3. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 692 स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्र च कोशो दुर्ग बलं सुहृत सप्तांगमुच्यते राज्यं बुद्धिसत्त्वसमाश्रयम् // राष्ट्र जनपदैकदेश: / ' Page #1782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [517 सुमंगल अनगार की भावी गति : सर्वार्थसिद्ध विमान एवं मोक्ष 133. सुमंगले णं भंते ! अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासि करेत्ता कहि गच्छिहिति कहि उववजिहिति ? गोयमा ! सुमंगले णं अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासि करेता बहूहि चउत्थछट्टट्ठम दसम-दुवालस जाब विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणेहिति, बहूई० पा० 2 मासियाए संलेहणाए ट्ठि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे० उड्ढे चंदिम जाव गेवेज्जविमाणावाससयं वीतीवइत्ता सम्वसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उबज्जिहिति / तत्थ णं देवाणं अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता / तत्थ णं सुमंगलस्स वि देवस्स अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता। [133 प्र.] भगवन् ! सुमंगल अनगार, अश्व, रथ और सारथि सहित (राजा विमल-वाहन को) भस्म का ढेर करके, स्वयं काल करके कहाँ जाएँगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? [133 उ.] गौतम ! विमलवाहन राजा को घोड़ा, रथ और सारथि महित भस्म करने के पश्चात् सुमंगल अनगार बहुत-से उपवास (चउत्थ), बेला (छट्ट), तेला (अट्ठम), चौला (दशम), पंचौला (द्वादश) यावत् विचित्र प्रकार के तपश्चरणों से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करेंगे। फिर एक मास की संलेखना से साठ भक्त अनशन का यावत छेदन करेंगे और आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधिप्राप्त होकर काल के अवसर में काल करेंगे / फिर वे ऊपर चन्द्र, सूर्य, यावत् एक सौ ग्रेवेयक विमानावासों का अतिक्रमण करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होंगे। वहाँ देवों की अजघन्या नुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्टता से रहित) तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। वहाँ सुमंगल देव की भी अजघन्यानुत्कृष्ट (पूरे) तेतीस सागरोपम की स्थिति होगी। 134. से णं भंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलोगानो जाव महाविदेहे वासे सिज्तिहिति जाव अंतं काहिति / [134 प्र०] भगवन् ! वह सुमंगलदेव उस देवलोक से च्यव कर कहां जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? [134 उ.] गौतम ! वह सुमंगलदेव उस देवलोक से च्यवकर यावत् महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। विवेचन प्रस्तुत दो सूत्रों में सुमंगल अनगार की सर्वार्थसिद्ध देवभव में और तत्पश्चात् महाविदेह क्षेत्र में उत्पत्ति और मोक्षगति का निरूपण किया गया है। अजहन्नमणुक्कोसेणं-सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों की जघन्य और उत्कृष्ट, यों दो प्रकार की स्थिति नहीं है किन्तु सभी देवों की तेतीस सागरोपम की स्थिति 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2488 Page #1783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोशालक के भावी दीर्घकालीन भवभ्रमण का दिग्दर्शन 135. विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेण सहये जाव भासरासोकए समाणे कहिं गच्छिहिति, कहि उववजिहिति ? गोयमा ! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालहितोयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उक्वज्जिहिति / [135 प्र. भगवन् ! सुमंगल अनगार द्वारा अश्व, रथ और सारथि-सहित भस्म किया हुआ विमलवाहन राजा कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? [135 उ.] गौतम ! सुमंगल अनगार के द्वारा अश्व, रथ और सारथि-सहित भस्म किये जाने पर विमलवाहन राजा अधःसप्तम पृथ्वी में, उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले नरकों में नै रयिकरूप से उत्पन्न होगा। 136. से णं ततो अणंतरं उज्वद्वित्ता मच्छेसु उपज्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे वाहवक्कतोए कालमासे कालं किच्चा दोच्चं पि अहेसत्तमाए पुढवोए उक्कोसकालद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति। [136] वहाँ से यावत् उद्वर्त (मर) कर मत्स्यों में उत्पन्न होगा। वहाँ भो शस्त्र के द्वारा वध होने पर दाहज्वर को पीड़ा से काल करके दूसरी बार फिर अधःसप्तम पृथ्वी में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिकरूप में उत्पन्न होगा। 137. से शं ततो अणंतरं उन्धट्टित्ता दोच्च पि मच्छेसु उपजिहिति / तत्थ विणं सत्थवझे जाव किच्चा छट्ठाए तमाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उवजिहिति / [137] वहाँ से उद्वर्त (मर) कर फिर सीधा दूसरी बार मत्स्यों में उत्पन्न होगा। वहीं भो शस्त्र से वध होने पर यावत् काल कर छठो तम:प्रभा पृथ्वो में उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा। 138. से णं तओहितो जाव उम्वट्टित्ता इत्थियासु उवन्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाह. जाब दोच्चं पि छट्ठाए तमाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव उवट्टित्ता दोच्चं पि इत्थियासु उपज्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवझे जाव किच्चा पंचमाए धूमप्पभाए पुढबीए उक्कोसकाल जाव उट्टित्ता उरएसु उवजिनहिति / तत्थ वि णं सत्यवझे जाव किच्चा दोच्चं पि पंचमाए जाव उन्धट्टित्ता दोच्चं पि उरएसु उववज्जिहिति जाब किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि जाव उव्वट्टित्ता सोहेसु उवधज्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे तहेव जाव किच्चा दोच्चं पि चउत्थीए पंक० जाव उन्वट्टित्ता दोच्चं पि सोहेसु उववजिहिति जाब किच्चा तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव उज्वट्टित्ता पक्खोसु उववज्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चं पि तच्चाए वालुय जाव उन्वट्टित्ता दोच्चं पि पक्खोसु उवव० जाब किच्चा दोच्चाए Page #1784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [519 सक्करप्पभाए जाव उचट्टित्ता सिरीसिवेसु उवव० / तत्थ वि णं सत्थ० जाव किच्चा दोच्चं पि दोच्चाए सबकरप्पभाए जाव उवट्टित्ता दोच्चं पि सिरीसिवेसु उवन्जिहिति जाव किच्चा इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति, जाव उवट्टित्ता सणीसु उबवजिहिति / तत्थ वि गं सत्थवज्झे जाव किच्चा असण्णीसु उववज्जिहिति / तत्थ विणं सत्यवझे जाव किच्चा असणीसु उववज्जिहिति / तत्थ वि णं सस्थवज्झे नाव किच्चा दोच्च पि इमोसे रयणप्पभाए पुढधोए पलिप्रोवमरस असंखेज्ज इभागद्वितीयसि गरगस ने इयत्ताए उवन्जिहिति / से णं ततो जाव उध्वट्टित्ता जाई इमाई खहचरविहाणाई भवंति, तं जहा-चम्मपक्खीणं लोमपक्खीणं समुग्गपक्खीणं विततपक्खीणं तेसु अगसतसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उदाइत्ता तत्थेव भज्जो भुज्जो पच्चायाहिति / सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहकतीए कालमासे कालं किच्चा जाइं इमाई भयपरिसप्पविहाणाई भवंति; तं जहा- गोहाणं नउलाणं जहा पण्णवणापदे जाव' जाहगाणं चाउप्पाइयाणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो सेसं जहा खहचराणं, जाब किच्चा जाई इमाई उरपरिसम्पविहाणाई भवंति, तं जहा--- अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसु अणेगसयसह० जाव किच्चा जाई इमाई चउप्पय विहाणाई भवंति, तं जहा–एगखुराणं दुखुराणं गंडीपदाणं सणहपदाणं, तेसु अणेगसयसह० जाव किच्चा जाइं इमाइं जलचर-विहाणाई भवंति, तं जहा-मच्छणं कच्छमाणं जाव' सुसुमाराणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जाव किच्चा जाई इमाइं चरिदियविहाणाई भवंति, तं जहा- अंधियाणं पोत्तियाणं जहा पण्णवणापदे जाव' गोमयकोडाणं, तेसु अणेगसय० जाव किच्चा आई इमाई तेइंदियविहाणाई भवंति. तं जहा—उचियाणं जाव' हस्थिसोंडाणं, तेसु अणेगसय० जाव किच्चा जाई इमाईबेदियविदाणा भवंति, तं जहा-पुलाकिमियाणं जाव समुद्दालक्खाणं, तेसु अणेगसय० जाव किच्चा जाई इमाई वणस्सतिविहाणाई भवंति, तं जहा- एक्खाणं गुच्छाणं जाव कुहुणाणं, तेसु अणेगसय० जाव पच्चायाइस्सइ / उस्सन्नं च णं कडयरुवखेसु कडुयवल्लीसु सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा जाई इमाई वाउकाइयविहाणाई भवति, तं जहा--पाईणवाताणं जाव' सुद्धवाताणं, तेसु अणेगसयसहस्स० जाव किच्चा जाइं इमाई तेउक्काइयविहाणाई भवति, तं जहा.--इंगालाणं जाव सूरकंतमणिनिस्सियाणं, 1. देखिये पण्णवणासुत्त भा. 1 सू. 85, पृ. 33 (महावीर जैन विद्यालय-प्रकाशित) में-- 'सरदाणं सल्लाणं इत्यादि। —अ. व. पत्र 693 2. 'जाव' पद सुचक पाठ-गाद्वाणं मगराणं इत्यादि। 3. देखिये पण्णवणासुत्तं भा. 1, सू. 58-1, पृ. 28 (महावीर जैन विद्यालय प्रकाशित) में। 4. 'जाव' पद सूचित पाठ-रोहिणियाण कुंथणं पिवी लियाणं इत्यादि / 'जाव' पद सूचित पाठ-कुच्छिकि मियाणं गंडपलगाणं गोलोमाणं इत्यादि / 6. जाव' पद सूचक पाठ---गुम्माण लयाणं वल्लीणं पब्बगाणं तगाणं वलयाणं हरियाणं प्रोसहीणं अलरहाणं ति। 7. 'जाव' पद सूचक पाठ---'पडीणवायाणं दाहिणवायाणं' इत्यादि / 8, 'जाव' पद सूचक पाठ-'जालाणं मुम्म राणं अच्चीणं' इत्यादि / Page #1785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तेसु अणेगसयसह० जाव किच्चा जाई इमाई पाउकाइयविहाणाई भवंति, तं जहा--उस्साणं जाव' खातोदगाणं, तेसु अणेगसयसह जाव पच्चायाइस्सति, उस्सण्णं च णं खारोदएसु खातोदएसु, सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा जाई इमाई पुढविकाइयविहाणाई भवंति, तं जहा–पुढवीणं सक्कराणं जावर सूरकंताणं, तेसु अणेगसय जाब पच्चायाहिति, उस्सन्नं च णं खरबादरपुढविकाइएसु, सम्वत्थ विणं सत्यवझे। जाव किच्चा रायगिहे नगरे बाहिं खरियत्ताए उववज्जिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा दोच्चं पि रायगिहे नगरे अंतोखरियताए उववजिहिति / तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे बासे विझगिरियादमूले बेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चायाहिति / तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जोन्वणमणुप्पत्तं पडिरूविएण सुकेणं पडिरूविएणं विणएणं पडिरूवियस्स भत्तारस्त भारियताए दलइस्संति / साणं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा कंता जाव अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया, चेलपेला इव सुसंपरिहिया, रयणकरंडओ विव सुरक्खिया सुसंगोविया-'मा णं सोयं मा णं उण्हं जाव परीसहोवसग्गा फुसंतु'। तए णं सा दारिया अन्नदा कदापि गुम्विणी ससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणो अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु अग्गिकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववन्जिहिति / [138] वहाँ से वह यावत् निकल कर स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा / वहाँ भी शस्त्राघात से मर कर दाहज्वर की वेदना से यावत् दूसरी बार पुन: छठी तमःप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक होगा। वहाँ से यावत् निकल कर पुनः दूसरी बार स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत् काल करके पंचम धूमप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला नैयिक होगा। वहाँ से यावत् मर कर उर परिसों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्राघात से यावत् मर कर दूसरी बार पंचम नरकपृथ्वी में, यावत् वहाँ से निकल कर दूसरी बार पुन: उर:परिसॉं में उत्पन्न होग।। वहाँ से यावत् काल करके चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नरकावासों में नैरयिक रूप में उत्पन्न होगा, यावत् वहाँ से निकलकर सिंहों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाकर यावत् दूसरी बार चौथे नरक में उत्पन्न होगा। यावत् वहाँ से निकल कर दूसरी बार सिंहों में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत काल करके तीसरी बालुकाप्रभा नरकपृथ्वो में उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगा। यावत् वहाँ से निकल कर पक्षियों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्राघात से मर कर फिर दूसरी बार तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् शस्त्राघात से मर कर दुसरी बार पक्षियों में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् निकल कर सरीसृपों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र से मारा जा कर यावत् दूसरी बार भी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके दूसरी बार पुनः सरीसृपों में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी की उत्कृष्ट काल को स्थिति वाले 1. 'जाब' पद सूचक पाठ--'हिमाणं महियाण' ति / 2. 'जाब' पद सूत्रक पाठ- 'बालुयाणं उवलाणं' इत्यादि / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 694 Page #1786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [521 नरकावासों में नैरयिक रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से यावत् निकल कर संजीजीवों में उत्पन्न होगा / वहाँ भी शस्त्र द्वारा मारा जाकर यावत् काल करके असंज्ञीजीवों में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्राधात से यावत् काल करके दूसरी बार इसी रत्नप्रभापृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरकावासों में नै रयिकरूप में उत्पन्न होगा। __ वह वहाँ से निकल कर जो ये खेचरजीवों के भेद हैं, जैसे कि-चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार वहीं उत्पन्न होता रहेगा। सर्वत्र शस्त्र से मारा जा कर दाह-वेदना से काल के अवसर में काल करके जो ये भजपरिसर्प के भेद हैं, जैसे कि-गोह, नकुल (नेवला) इत्यादि प्रज्ञापना-सूत्र के प्रथम पद के अनुसार (उन सभी में उत्पन्न होगा,) यावत् जाहक आदि चौपाये जीवों में अनेक लाख बार मर कर बार-बार उन्हीं में उत्पन्न होगा। शेष सब खेचरवत् जानना चाहिए, यावत् काल करके जो ये उर:परिसपं के भेद होते हैं, जैसे कि सर्प, अजगर, पाशालिका और महोरग, आदि, इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर बार-बार इन्हीं में उत्पन्न होगा / यावत् वहाँ से काल करके जो ये चतुष्पद जीवों के भेद हैं, जैसे कि एक खुर बाला, दो खुर वाला गण्डीपद और सनखपद, इनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा / वहाँ से यावत् काल करके जो ये जल चरजीव-भेद हैं, जैसे कि-मत्स्य, कच्छप यावत् सुसुमार इत्यादि, उनमें लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि-अधिक, पौत्रिक इत्यादि, प्रज्ञापनासूत्र के प्रथमपद के अनुसार यावत् गोमय-कीटों में अनेक लाख बार उत्पन्न होगा। फिर वहां से यावत् काल करके जो ये त्रीन्द्रियजीवों के भेद हैं, जैसे किउपचित यावत हस्तिशौण्ड आदि, इनमें अनेक लाख बार मर कर पुनःपुन: उत्पन्न होगा / वहाँ से यावत काल कर के जो ये द्वीन्द्रिय जीवों के भेद हैं, जैसे कि - पुलाकृमि यावत् समुद्दलिक्षा इत्यादि, इनमें अनेक लाख बार मर मर कर. पुनः पुन: उन्हीं में उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये वनस्पति के भेद हैं, जैसे कि वृक्ष, गुच्छ यावत् कुहुना इत्यादि; इनमें अनेक लाख बार मर-मर कर यावत् पुनः पुन: इन्हीं में उत्पन्न होगा। विशेषतया कटुरस वाले वृक्षों और बेलों में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्राघात से बध होगा। फिर वहाँ से यावत काल करके जो ये वायूकायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि--पूर्ववाय, यावत शुद्धवायु इत्यादि इनमें अनेक लाख वार मर कर पुन: पुन: उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से काल करके जो ये तेजस्कायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि-अंगार यावत् सूर्यकान्तमणिनिःसृत अग्नि इत्यादि, उनमें अनेक लाख बार मर-मर कर पुनः पुन: उत्पन्न होगा। फिर वहाँ से यावत् काल करके जो ये अप्कायिक जीवों के भेद हैं, यथा---प्रोस का पानी, यावत् खाई का पानी इत्यादि; उनमें अनेक लाख बार-विशेषतया खारे पानी तथा खाई के पानी में उत्पन्न होगा। सभी स्थानों में शस्त्र द्वारा घात होगा। वहाँ से यावत् काल करके जो ये पृथ्वी कायिक जीवों के भेद हैं, जैसे कि---पृथ्वी, शर्करा (कंकड़) यावत् सूर्यकान्तमणि ; उनमें अनेक लाख बार उत्पन्न होगा, विशेषतया खर-बादर पृथ्वीकाकाय में उत्पन्न होगा / सर्वत्र शस्त्र से वध होगा। वहाँ से यावत् काल करके राजगृह नगर के बाहर (सामान्य) वेश्यारूप में उत्पन्न होगा। वहाँ शस्त्र से वध होने से यावत् काल करके दूसरी बार राजगृह नगर के भीतर (विशिष्ट) वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ भी शस्त्र से वध होने पर यावत् काल करके इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में Page #1787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विन्ध्य-पर्वत के पादमूल (तलहटी) में बेभेल नामक सन्निवेश में ब्राह्मणकुल में बालिका के रूप में उत्पन्न होगा / वह कन्या जब बाल्यावस्था का त्याग करके यौवनवय को प्राप्त होगी, तब उसके मातापिता उचित शुल्क (द्रव्य) और उचित विनय द्वारा पति को भार्या के रूप में अर्पण करेंगे / वह उसको भार्या होगी। वह (अपने पति द्वारा) इष्ट, कान्त, यावत् अनुमत, बहुमूल्य सामान के पिटारे के समान, तेल की कुप्पी के समान अत्यन्त सुरक्षित, वस्त्र की पेटी के समान सुसंगृहीत (निरुपद्रव स्थान में रखी हुई), रत्न के पिटारे के समान सुरक्षित तथा शीत, उष्ण यावत् परीषह उपसर्ग उसे स्पर्श न करें, इस दृष्टि से अत्यन्त संगोषित होगी। वह ब्राह्मण-पुत्री गर्भवती होगी और एक दिन किसी समय अपने ससुराल से पीहर ले जाई जातो हुई मार्ग में दावाग्नि की ज्वाला से पीड़ित होकर काल के अवसर में काल करके दक्षिण दिशा के अग्निकुमार देवों में देव रूप से उत्पन्न होगी। 139. से णं ततोहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभिहिति, माणुसं विगह लभित्ता केवलं बोधि बुज्झिहिति, केवलं बोधि बज्झित्ता मुंडे भवित्ता प्रगाराओ अणगारियं पन्बइहिति / तत्थ वि णं विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा दहिणिल्लेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति / [136] वहाँ से च्यव कर वह मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा / फिर वह केवलबोधि (सम्पनत्व) प्राप्त करेगा। तत्पश्चात मण्डित होकर अगारबास का परित्याग करके अनगार धर्म को प्राप्त करेगा। किन्तु वहाँ श्रामण्य (चारित्र) की विराधना करके काल के अवसर में काल करके दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों में देवरूप से उत्पन्न होगा। 140. से णं ततोहितो जाव उम्वद्वित्ता माणुसं विग्गहं तं चैव तत्थ वि गं विराहियसामण्णे कालमासे जाव किच्चा दाहिणिल्लेसु नागकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उवधज्जिहिति / 140] वहाँ से च्यव कर वह मनुष्य शरीर प्राप्त करेगा, फिर केवलबोधि आदि पूर्ववत् सब वर्णन जानना, यावत् प्रवजित होकर चारित्र की विराधना करके काल के समय में काल करके दक्षिणनिकाय के नागकुमार देवों में देवरूप से उत्पन्न होगा। 141. से पं ततोहितो अणंतरं० एवं एएणं अभिलावेणं दाहिणिल्लेसु सुवष्णकुमारेसु, दाहिणिल्लेसु विज्जुकुमारेसु, एवं अग्गिकुमारवज्जं जाव दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु० / [141] वहाँ से च्यव कर वह मनुष्यशरीर प्राप्त करेगा, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् / यावत् इसी प्रकार के पूर्वोक्त अभिलाप के अनुसार कहना। (विशेष यह है कि श्रामण्य विराधना करके वह क्रमश:) दक्षिणनिकाय के सुपर्णकुमार देवों में उत्पन्न होगा, फिर (इसी प्रकार) दक्षिणनिकाय के विद्युत्कुमार देवों में उत्पन्न होगा, इसी प्रकार अग्निकुमार देवों को छोड़ कर यावत् दक्षिणनिकाय के स्तनितकुमार देवों में देवरूप से उत्पन्न होगा। 142. से णं ततो जाव उध्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाव विराहियसामण्णे जोतिसिएसु देवेसु उववज्जिहिति / Page #1788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [523 [142] वह वहाँ से यावत् निकल कर मनुष्य शरीर प्राप्त करेगा, यावत् श्रामण्य की विराधना करके ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होगा। 143. से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गह लभिहिति, केवलं बोहि बुझिहिति जाव अविराहियसामण्णे कालमाले कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति / [143] वह वहाँ से च्यव कर मनुष्य-शरीर प्राप्त करेगा, फिर केवलबोधि (सम्यक्त्व) प्राप्त करेगा / यावत् चारित्र (श्रामण्य) की विराधना किये बिना (आराधक होकर) काल के अवसर में काल करके सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न होगा। 144. से शं ततोहितो अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विगह लमिहिति, केवलं बोहि बुज्झिहिति / तत्थ वि णं अविराहियसामग्णे कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति। [144] उसके पश्चात् वह वहाँ से च्यव कर मनुष्य शरीर प्राप्त करेगा, केवलबोधि भी प्राप्त करेगा। वहाँ भी वह चारित्र की विराधना किये बिना काल के समय में काल करके ईशान देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होगा। 145. से णं तओहितो अशंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लमिहिति, केवलं बोहिं बुज्सिहिति / तत्थ विणं अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सणंकुमार कप्पे देवत्ताए उपज्जिहिति / [145] वह वहां से व्यव कर मनुष्य-शरीर प्राप्त करेगा, केवलबोधि प्राप्त करेगा। वहाँ भी वह चारित्र की विराधना किये बिना काल के अबसर में काल करके सनत्कुमार कल्प में देवरूप में उत्पन्न होगा। 146. से णं ततोहितो एवं जहा सणंकुमारे तहा बंभलोए महासुक्के प्राणए पारणे / [146] वहाँ से च्यव कर, जिस प्रकार सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने का कहा, उसी प्रकार ब्रह्मलोक, महाशुक्र, पानत और पारण देवलोकों में उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए। 147. से गं ततो जाव अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सव्वटुसिद्ध महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति / [147] वहां से च्यव कर वह मनुष्य होगा, यावत् चारित्र को विराधना किये बिना काल के अवसर में काल करके सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न होगा। विवेचन-प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 135 से 147 तक) में सुमंगल अनगार द्वारा रथ-सारथिप्रश्वसहित गोशालक के जीव विमलवाहन को भस्म किये जाने से लेकर भविष्य में सात नरक, खेचर, भुजपरिसर्प, उर:परिसर्प, स्थलचर चतुष्पद, जलचर, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा वनस्पतिकाय, वायुकाय, तेजस्काय, अप्काय एवं पृथ्वीकायिक जीवों में अनेक लाख बार उत्पन्न होने की, Page #1789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524] [আভাসন্সবিহ্বল तत्पश्चात् स्त्री, भार्या, (ब्राह्मणपुत्री), मनुष्य, विराधक होकर असुरकुमार आदि देवों में, तथा आराधक मानव होकर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, ब्रह्मलोक, महाशुक्र, आनत और पारण आदि देवलोकों में क्रमशः मनुष्य होकर उत्पन्न होने को, और अन्त में सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार गोशालक के भावी भवभ्रमण का कथन किया गया है।' विमलवाहन राजा का विभिन्न नरकों में उत्पन्न होने का कारण और कम-इस प्रकरण में असंज्ञी आदि जीवों की रत्नप्रभादि नरकों में उत्पत्ति होने के सम्बन्ध में निम्नोक्त गाथा द्रष्टव्य है -- असणी खलु पढम, दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी। सीहा जति चरस्थि, उरगा पुण पंचमि पुढवि // छट्टि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सतमि पुढवि / / अर्थात्-असंज्ञो जीव प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं। सरीसृप द्वितीय, पक्षी तृतीय, सिंह चतुर्थ, सर्प पंचम, स्त्री षष्ठ और मत्स्य तथा मनुष्य सप्तम नरक तक जाते हैं / ' . खेचर पक्षियों के प्रकार और लक्षण ---- (1) चर्म पक्षी-चर्म की पांखों वाले पक्षी, यथाचमगादड़ आदि। (2) रोम (लोम) पक्षी-रोम को पांखों वाले पक्षो। ये दोनों प्रकार के पक्षो मनुष्य क्षेत्र के भीतर और बाहर होते हैं, जैसे हंस आदि (3) समुदगक पक्षी-जिनकी पांखें हमेशा पेटी की तरह बंद रहती हैं। (4) वितत पक्षी-जिनकी पांखें हमेशा विस्तृत-खुली हुई रहती हों। ये दोनों प्रकार के पक्षी मनुष्यक्षेत्र से बाहर ही होते हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पत्ति : सान्तर या निरन्तर ?—यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चजीवों में अनेक लाख भवों तक पुनः पुनः उत्पन्न होने का जो कथन किया गया है, वह सान्तर समझना चाहिए, निरन्तर नहीं; क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के भव निरन्तर सात या पाठ से अधिक नहीं किये जा सकते हैं / जैसे कि कहा गया है 'चिदिय-तिरिय-नरा सत्तभवा भवागहेण' अर्थात्-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य के निरन्तर सात या आठ भव ही ग्रहण किये जा सकते हैं। चारित्राराधना का स्वरूप-चारित्र-पाराधना का स्वरूप एक प्राचार्य ने इस प्रकार बताया है आराहणा य एत्थं चरण-पडिवत्ति-समयो पमिई। आमरणंतमजस्सं संजम-परिपालणं विहिणा // 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) इ. 737 से 741 तक 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 693 3. वही, पत्र 693 4. वहीं, पत्र 693 Page #1790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक [525 अर्थात् चारित्र अंगीकार करने के समय से लेकर मरण-पर्यन्त निरन्तर विधिपूर्वक नितिचार संयम का परिपालन करना (चारित्र को) आराधना कही गई है।' चारित्रप्राप्ति के अठारह भवों को संगति-विमलवाहन राजा (गोशालक के जीव) के चारित्रप्राप्ति (प्रतिपत्ति) के भव, अग्निकुमार देवों को छोड़ कर भवनपति और ज्योतिष्कदेवों के विराधनायुक्त भत्र दस कहे हैं, तथा अविराधनायुक्त (पाराधनायुक्त) भव सौधर्मकल्प से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक सात और पाठवाँ सिद्धिगमन रूप अन्तिम भव; यो 8 भव होते हैं। अर्थात्गोशालक के विराधित और अविराधित दोनों को मिलाने से 18 भव होते हैं, किन्तु सिद्धान्त यह है कि 'अट्ठभवाउ चरित्ते' इस कथनानुसार चारित्रप्राप्ति पाठ भव तक ही होती है। फिर इस पाठ को संगति कैसे होगो ? इस विषय में समाधान इस प्रकार है कि यहाँ दस भव जो चारित्र-विराधना के बतलाए हैं, वे द्रव्यचारित्र की अपेक्षा से समझना चाहिए / अर्थात-उन भवों में उसे भावचारित्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। चारित्र-क्रिया की विराधना होने से उसे विराधक बतलाया है। जैसेअभव्यजीव चारित्र-क्रिया के आराधक होकर ही नौ अवेयक तक जाते हैं, किन्तु उन्हें वास्तविक (भाव) चारित्र को प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार यहाँ भी दस भवों में चारित्र को प्राप्ति, द्रव्यचारित्र की प्राप्ति समझनी चाहिए। इस प्रकार समझने से कोई भी सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं पाती / यही कारण है कि चारित्र-विराधना के कारण उसकी असुरकुमारादि देवों में उत्पत्ति हुई वैमानिकों में नहीं। कठिन-शब्दार्थ सत्थवझे-शस्त्रवध्य-शस्त्र से मारे जाने योग्य / दाहवक्कतीए-दाहज्वर की वेदना से / खहयर-विहाणाई-खेचर जीवों के विधान-भेद 1 अगसय-सहस्सखुलो-अनेक लाख वार। एगखुराणं—एक खुर वाले अश्व आदि में। दुखुराण-दो खुर वाले गाय आदि में / गंडीपयाणं---ण्डोपदों में हाथी आदि में / सणहप्पयाणं-सिंह आदि सनख (नखसहित) पैर (पंजे) वाले जीवों में। रुक्खाणं-वक्षों में। वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-एक अस्थिक (गुठली) वाले जैसे प्राम, नीम आदि, और बहुबीजक (अनेक बीज वाले। जैसे-अस्थिक, तिन्दुक आदि / उस्सन्नं-- बहुलता से, अधिकांश रूप से, प्रायः / अंतोख रियत्ताए–नगर के भीतर वेश्या (विशिष्ट वेश्या) के रूप में / बाहिं खरियताए-नगर के बाहर की वेश्या (सामान्य वेश्या) के रूप में। उस्साणं---- अवश्याय-ग्रोस के जीवों में / दारियत्ताए-कन्या के रूप में। पडिरूवएणं सुक्केणं.-.---अनुरूप (उचित) शुल्क (द्रव्यदान) से / तेल्लकेला-तेल का भाजन (कुप्पी)। चेलपेडा-वस्त्र की पेटी-सन्दूक / कुलघरं--पितृगह को। णिज्जमाणी-ले जाई जाती हुई। दाहिणिल्लेसु–दक्षिण दिशा के, दक्षिणनिकाय के / केवलं बोहि---सम्यक्त्व / विराहिय-सामग्णे-जिसने चारित्र की विराधना को।' गोशालक का अन्तिम भव-महाविदेह क्षेत्र में दृढप्रतिज्ञ केवली के रूप में मोक्षगमन 148. से णं ततोहितो अणंतरं चयं चयित्ता महाविदेहे वासे जाइं इमाइ कुलाई भवंतिअड्डाइं जावं अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ताए पच्चायाहिति / एवं जहा उववातिए 1. वही, पत्र 695 2. वही, पत्र 695 3. वही, पत्र 693, 695 Page #1791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दढप्पतिण्णवत्तव्वता सच्चेव वत्तव्वता निरवसेसा भाणितव्वा जाव केवलवरनाण-दसणे समुपन्जिहिति / [148] वहाँ से बिना अन्तर के च्यव कर महाविदेहक्षेत्र में, जो ये कुल हैं, जैसे कि-माढ्य यावत् अपराभूत कुल; तथाप्रकार के कुलों में पुरुष (पुत्र) रूप से उत्पन्न होगा। जिस प्रकार प्रौपपातिक सूत्र में दृढप्रतिज्ञ की बक्तव्यता कही गई है, वही समग्र वक्तव्यता, यावत्-उत्तम केवलज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न होगा, (यहाँ तक) कहनी चाहिये / 146. तए णं से दढप्पतिणे केवली अप्पणो तीयद्ध आभोएहिइ, अप्प० आ० 2 समण निग्गथे सद्दावेहिति, सम० स० 2 एवं वदिहिइ--‘एवं खलु अहं अज्जो ! इतो चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! प्रणादीयं अणवदग्गं दोहमद्ध चाउरंतं संसारकतारं अणुपरियट्टिए / तं मा णं अज्जो! तुम्भं पि केयि भवतु आयरियपडिणोए, उवज्झायपडिणीए पायरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए, मा णं से वि एवं चेव अणादीयं अपवयग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति जहा णं प्रह' / [149] तदनन्तर (गोशालक का जीव)दृढप्रतिज्ञ केवली अतीत काल को उपयोगपूर्वक देखेंगे / अतीतकाल—निरीक्षण कर वे श्रमण-निर्ग्रन्थों को अपने निकट बुलाएँगे और इस प्रकार कहेंगे-हे पार्यो ! मैं आज से चिरकाल पहले गोशालक नामक मंखलिपुत्र था। मैंने श्रमणों की घात की थी। यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया था / आर्यो ! उसी महापाप-मूलक (पापकर्म बन्ध के फलस्वरूप) मैं अनादि-अनन्त और दीधमार्ग वाले चारगतिरूप संसार-कान्तार (अटवी) में बारबार पर्यटन (परिभ्रमण) करता रहा / इसलिए हे पार्यो ! तुम में से कोई (भूलकर) भी प्राचार्यप्रत्यनीक (प्राचार्य के द्वेषी), उपाध्याय-प्रत्यनीक (उपाध्याय के विरोधी) प्राचार्य और उपाध्याय के अपयश (निन्दा) करने वाले, अवर्णवाद करने वाले और अकीर्ति करने वाले मत होना और जैसे मैंने अनादि-अनन्त यावत् संसार-कान्तार का परिभ्रमण किया, वैसे तुम लोग भी संसाराटवी में परिभ्रमण मत करना / 150. तए गं ते समणा निग्गंथा दढप्पतिण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म भोया तत्था तसिता संसारभविग्गा दढप्पतिण्णं केलि वंदिहिंति नमंसिहिति, वं० 2 तस्स ठाणस्स आलोएहिति निदिहिति जाव पडिवििहति / [150 ] उस समय दृढप्रतिज्ञ केवली से यह बात सुनकर और अवधारण कर वे श्रमणनिर्ग्रन्थ भयभीत होंगे, त्रस्त होंगे, और संसार के भय से उद्विग्न होकर दृढप्रतिज्ञ केवली को वन्दनानमस्कार करेंगे / वन्दना-नमस्कार करके वे (अपने-अपने) उस (पाप-) स्थान की आलोचना और निन्दना करेंगे यावत् तपश्चरण स्वीकार करेंगे / Page #1792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां शतक] [527 151. तए णं से दढप्पतिण्णे केवलो बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणेहिति, बहू० पा० 2 अप्पणो माउसेसं जाणेत्ता भत्तं पच्चक्खाहिति एवं जहा उववातिए जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥तेयनिसम्गो समत्तो॥ ॥समत्तं च पण्णरसमं सयं एक्कसरयं / / 15 / / [151] इसके बाद दृढप्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलज्ञानी-पर्याय का पालन करेंगे, फिर अपना आयुष्य-शेष (थोड़ा-सा आयुष्य शेष) जान कर भक्तप्रत्याख्यान (संथारा) करेंगे / इस प्रकार प्रोपपातिक सूत्र के कथनानुसार वे यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेंगे। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन प्रस्तुत चार सूत्रों (स. 148 से 151) में गोशालक के जीव के अन्तिम भवमहाविदेहक्षेत्र में जन्म और दृढप्रतिज्ञ केवली होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने तक का वर्णन है। साथ ही यह भी प्रेरणात्मक वर्णन है कि उन्होंने अपने केवलज्ञान के आलोक में अपने अनादि-अनन्त संसारपरिभ्रमण का घटनाचक्र देख कर अपने अनुभव से अनुगामी श्रमणों से भी प्राचार्यादि के प्रति द्वेष, विरोध, अविनय, आशातना आदि न करने का उपदेश दिया। जिसे श्रमणों ने शिरोधार्य किया और आलोचनादि करके वे शुद्ध हुए।' पण्णरसमं सयं एक्कसरयं : आशय-इस शतक की पूर्णाहुति में 'एक्कसरयं' शब्द है, जिसका अर्थ हेमचन्द्राचार्य ने किया है—'एक्कसरियं' पद अव्यय है, उसका अर्थ है—शीघ्र, झटपट / प्राशय यह है कि वर्तमान में इस शतक के सम्बन्ध में ऐसी धारणा है कि इस शतक को झटपट एक दिवस में ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए। अगर एक दिन में यह शतक पूर्ण न हो तो जब तक इसका अध्ययनअध्यापन चालू रहे, तब तक प्रायम्बिल करना चाहिए / पुमत्ताए : पुत्तताए : दो पाठ : दो अर्थ--(१) पुरुष के रूप में, अथवा (2) पुत्र के रूप में / // तेजोनिसर्ग समाप्त // पन्द्रहवाँ : एकस्मरिक शतक समाप्त 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2. (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 741-782 2. वही, पृ. 742 3. वही, पृ. 742 Page #1793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं सयं : सोलहवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के सोलहवें शतक में-चौदह उद्देशक हैं, जिनमें क्रिया, जरा, कर्म, कर्मक्षय-सामर्थ्य, देव की विपुल वैक्रियशक्ति एवं ऋद्धि, स्वप्न, उपयोग, लोकस्वरूप, बलीन्द्रसभा, अवधिज्ञान तथा भवनपति देवों में आहारादि की समानता असमानता, आध्यात्मिक, शारीरिक, सामाजिक, भौगोलिक एवं दैवीशक्ति प्रादि विविध विषयों का समावेश किया गया है। * प्रथम उद्देशक में एहरन पर हथौड़ा मारते समय दूसरे पदार्थ के स्पर्श से वायुकाय का हनन, सिगड़ी में अग्निकाय की स्थिति, भट्ठी में लोहा तपाते समय तप्त लोहे को संडासी से उठाने, नीचे रखने, एहरन पर रखने प्रादि में कर्ता एवं साधन प्रादि को लगने वाली क्रियाओं की तथा जीव के अधिकरणी एवं अधिकरण होने की सयुक्तिक चर्चा-विचारणा की गई है तथा विविध शरीरों इन्द्रियों और योगों को बांधते हुए चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अधिकरणी अधिकरण होने की भी चर्चा की गई है / * द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में जरा और शोक किनको और क्यों होता है ? इसका निरूपण करके शकेन्द्र के प्रागमन, उसके द्वारा किया गया अवग्रह-सम्बन्धी प्रश्न, शकेन्द्र के कथन की सत्यता, सम्यग्वादिता, उसकी सावद्य-निरवद्य भाषा, उसकी भव्यताअभव्यता, तथा सम्यग्दष्टित्व-मिथ्यादृष्टित्व आदि की चर्चा की गई है तथा अन्त में जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं या अचैतन्यकृत, इसका समाधान किया गया है / * तृतीय उद्देशक में सर्वप्रथम कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बेदन आदि के सह-अस्तित्व की चर्चा को गई है। तदनन्तर श्रमण के अर्शछेदन करने में वैद्य और श्रमण को लगने वाली क्रियाओं का निरूपण किया गया है। * चतुर्थ उद्देशक में विविध कोटि के तपस्वी श्रमण जितने कर्मों का क्षय करते हैं, उतने कर्म नैरयिक जीव सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों वर्षों में खपाता है। यह सोदाहरण सयुक्तिक प्रतिपादन किया ग * पंचम उद्देशक में शक्रेन्द्र के द्वारा भगवान से किये गए संक्षिप्त प्रश्नों का संक्षिप्त उत्तर तथा उसका प्रत्यागमन, गौतमस्वामी द्वारा शकेन्द्र के शीघ्र लौट जाने के कारण की पृच्छा के उत्तर में भगवान् ने महाशुक्र कल्पस्थित गंगदत्त देव के प्रागमन, तथा उसके देव बनने का कारण एवं भविष्य में महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का वृत्तान्त बताया है / Page #1794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : प्राथमिक] [529 * छठे उद्देशक में स्वप्नदर्शन, उसके प्रकार, स्वप्नदर्शन कब, कैसे और किस अवस्था में होता है ? म्वप्न के भेद-प्रभेद तथा कौन कैसे स्वप्न देखता है ? एवं तीर्थंकरादि की माता कितने-कितने स्वप्न देखती है ? तथा भ. महावीर के दस महास्वप्नों तथा उनकी फलनिष्पत्ति का वर्णन है। अन्त में, मोक्षफलदायक 14 सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है / * सातवें उद्देशक में उपयोग और उसके भेदों का प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। * पाठवें उद्देशक में लोक की लम्बाई-चौड़ाई के परिमाण का, तथा लोक के पूर्वादि विविध चरमान्तों में जीव, जीव के देग, जीव के प्रदेश, अजीव, अजीव के देश एवं अजीव के प्रदेश, नथा तदनन्तर रत्नप्रभापृथ्वो से ईषत्वाग्भारा पृथ्वी तक में जीवादि छहों के अस्तित्त्व-नास्तित्व के विषय में शंका-समाधान हैं / तत्पश्चात् परमाणु की एक समय में लोक के सभी चरमान्तों में गति-सामर्थ्य को, एवं अन्त में वर्षा का पता लगाने के लिए हाथपैर आदि सिकोड़ने-पसारने वाले को लगने वाली पांच क्रियायों की तथा अलोक में देव के गमन की असमर्थता की प्ररूपणा की गई है। * नौवें उद्देशक में वैरोचनेन्द्र बली की सुधर्मा सभा के स्थान का संक्षिप्त वर्णन है / * दसवें उद्देशक में अवधिज्ञान के प्रकार का प्रज्ञापना के 33 वें अवधिपद के अतिदेशपूर्वक वर्णन किया गया है। * ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें उद्देशक में क्रमश: द्वीपकुमार, उदधिकुमार दिशाकुमार और स्तनितकुमार नामक भवनपतिदेवों के आहार उच्छ्वास-निःश्वास, लेश्या, आयुष्य प्रादि की एक दूसरे में समानता-असमानता के विषय में शंका-समाधान प्रस्तुत किये गए हैं / * इस प्रकार चौदह उद्देशक कुल मिला कर रोचक, तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-संवर्द्धक सामग्री से परिपूर्ण हैं / * * विवाहात्तिसुतं भा. 2 (मूलपाठ-टिपण युक्त) पृ. 743 से 772 तक Page #1795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं सयं : सोलहवां शतक सोलहवें शतक के उद्देशकों के नाम 1. अहिकरणि 1 जरा 2 कम्मे 3 जातियं 4 गंगदत्त 5 सुमिणे य 6 / उवयोग 7 लोग 8 बलि 9 प्रोहि 10 दीव 11 उदही 12 दिसा 13 थणिया 14 // 1 // [1] सोलहवें शतक में चौदह उद्देशक हैं / यथा--(१) अधिकरणी, (2) जरा, (3) कर्म, (4) यावतीय, (5) गंगदत्त, (6) स्वप्न, (7) उपयोग, (8) लोक, (9) बलि, (10) अवधि, (11) द्वीप, (12) उदधि, (13) दिशा और (14) स्तनित // 1 // विवेचन--सोलहवें शतक के प्रतिपाद्य विषय-सोलहवें शतक के चौदह उद्देशकों में क्रमशः ये विषय हैं--(१) प्रथम उद्देशक 'अधिकरणी' में अधिकरणी अर्थात् एहरन के विषय में निरूपण है। (2) द्वितीय उद्देशक में 'जरा' आदि अर्थ-विषयक कथन है। (3) तृतीय उद्देशक में कर्म-विषयक कथन है / (4) चतुर्थ उद्देशक का नाम 'यावतीय' है, क्योंकि इसके प्रारम्भ में यावत्तीय (जावतियं) शब्द है। इसमें कर्मक्षय करने में विविध श्रमणों एवं नारकों में तारतम्य का कथन है / (5) पंचम उद्देशक में गंगदत्तसम्बन्धी जीवनवृत्तान्त है / (6) छठे उद्देशक में स्वप्न-सम्बन्धी मीमांसा की गई है (7) सप्तम उद्देशक में उपयोग-विषयक प्रतिपादन है / (8) अष्टम उद्देशक में लोकस्वरूप विषयक कथन है (8) नौवें उद्देशक में बलीन्द्र-विषयक वक्तव्यता है (10) दसर्वे उद्देशक में अवधिज्ञान -विषयक वक्तव्यता है / (11) ग्यारहवे उद्देशक में द्वीपकुमार-विषयक कथन है / (12) बारहवें उद्देशक में उदधिकुमार-विषयक कथन है। (13) तेरहवें उद्देशक में दिशाकुमार-विषयक कथन है; और (14) चौदहवें उद्देशक में स्तनितकुमार-विषयक कथन है / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 696: 697 Page #1796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : अहिगरणी प्रथम उद्देशक : अधिकरणी अधिकरणी में वायुकाय की उत्पत्ति और विनाश सम्बन्धी निरूपण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासि [2] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पर्युपासना करते हुए गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा-- 3. अस्थि णं भंते ! अधिकरणिसि वाउयाए वक्कमइ ? हंता, अत्थि। [3 प्र.] भगवन् ! क्या अधिकरणो (एहरन) पर (हथौड़ा मारते समय) वायुकाय उत्पन्न होता है ? [3 उ.] हाँ गौतम ! (वायुकाय उत्पन्न) होता है / 4. से भंते ! कि पुट्टै उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ ? गोयमा! पुढे उद्दाइ, नो अपुढे उद्दाइ / [4 प्र. भगवन् ! उस (वायुकाय) का (किसी दूसरे पदार्थ के साथ) स्पर्श होने पर वह मरता है या विना स्पर्श हुए ही मर जाता है ? ___ [4 उ.] गौतम ! उसका दूसरे पदार्थ के साथ स्पर्श होने पर ही वह मरता है, विना स्पर्श हुए नहीं मरता 1 5. से भंते ! कि ससरीरे निक्खमइ, असरीरे निक्खमइ ? एवं जहा खंदए (स०२ उ०१ सु०७[३]) जाव से तेण?णं जाव असरीरे निक्खमति / [5 प्र. भगवन् ! वह (मृत वायुकाय) शरीरसहित (भवान्तर में निकल कर जाता है या शरीररहित जाता है ? [5 उ.] गौतम ! इस विषय में (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक सू 7/3 में उक्त) स्कन्दकप्रकरण के अनुसार, यावत्-शरीर-रहित हो कर नहीं जाता; (यहाँ तक) जानना चाहिए। _ विवेचन–प्रश्न, अन्तःप्रश्न : आशय-तृतीयसूत्रगत प्रश्न का आशय यह है कि एहरन पर हथौड़ा मारते समय एहरन और हथौड़े के अभिघात से वायुकाय उत्पन्न होता है या विना अभिघात के ही होता है ? , समाधान है--अभिघात से उत्पन्न होता है, और वह वायुकाय अचित्त होता है, किन्तु उससे सचित्त वायु की हिंसा होती है। अर्थात् उत्पन्न होते समय वह अचित्त होता है, पीछे वह सचित्त हो जाता है। Page #1797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों के साथ जब विजातीय जीवों का तथा विजातीय स्पर्श वाले पदार्थों का संघर्ष होता है, तब उनके शरीर का घात होता है या विना स्पर्श आदि से ही होता है ? इसी प्राशय से अन्तःप्रश्न किया गया है। उत्तर में कहा गया है कि किसी दूसरे पदार्थ (अचित्त वायु आदि का) स्पर्श होने पर ही वायुकाय के जीव मरते हैं, विना स्पर्श हुए नहीं / यह कथन सोपक्रम अायुष्य की अपेक्षा से है / तीसरा प्रश्न है-जीव परभव में सशरीर जाता है, या शरीररहित होकर ? इसका उत्तर यह है कि जीव तैजस-कार्मण शरीर की अपेक्षा से शरीरसहित जाता है और औदारिक शरीर आदि की अपेक्षा से शरीररहित होकर जाता है।' कठिन शब्दों का भावार्थ-अधिकरणसि-लोहादि कटने के लिए जो नीचे रखा जाता है, वह (एहरन) अर्थात् एहरन पर हथौड़े से चोट मारते समय ! पुढे-स्वकाय-शस्त्र प्रादि से स्पृष्ट होने पर / निक्खमइ-निकलता है। अंगारकारिका में अग्निकाय की स्थिति का निरूपण 6. इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिइ ? गोयमा ! जहन्नणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि रातिदियाई / अन्ने वि तत्थ वाउयाए बक्कमति, न विणा बाउकाएणं अगणिकाए उज्जलति / [6 प्र.] भगवन् ! अंगारकारिका (सिगड़ी) में अग्निकाय कितने काल तक (सचित्त) रहता है? [6 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रातदिन तक सचित्त रहता है। वहाँ अन्य वायुकायिक जीव भी उत्पन्न होते हैं, क्योंकि वायुकाय के विना अग्निकाय प्रज्वलित नहीं होता। विवेचन--अग्निकाय की स्थिति-अग्निकाय चाहे सिगडी में हो या अन्य चूल्हे प्रादि में, उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र की है।। इंगालकारियाए: अर्थ-जो अंगारों को करती है, वह अंगारकारिका अग्निकारिकाअग्निशकटिका है / उसे देशीभाषा में सिगड़ी' कहते हैं / अग्नि और वायु का सम्बन्ध-'यत्राग्निस्तत्र वायु:' इस नियमानुसार जहाँ अग्नि होती है, वहाँ वायु अवश्य होती है / अर्थात्---अग्निकाय के साथ बायुकाय के जीव भी उत्पन्न होते हैं। तप्त लोह को पकड़ने में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा 7. पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोट्ठसि अयोमयेणं संडासएणं उबिहमाणे वा पबिहमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोसि अयोमयेणं संडासएणं उविहति वा पब्विहति १.(क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 697 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2505 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 697-698 3. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 698 Page #1798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [533 वा तावं च गं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातियाकिरियाए पंचहि किरियाहि पुढ, जेसि पि य गं जीवाणं सरीरेहितो अये निव्वत्तिए, अयको निध्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकट्टणी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। [7 प्र. भगवन् ! लोहा तपाने की भट्टी (अयःकोष्ठ) में तपे हुए लोहे को लोहे की संडासी से पकड़ कर) ऊँचा-नीचा करने (ऊपर उठाने और नीचे करने वाले पुरुष को कितनो क्रियाएँ लगती है ? [7 उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष लोहा तपाने की भट्टी में लोहे की संडासी से (पकड़ कर) लोहे को ऊँचा या नीचा करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी से लेकर प्राणातिपातिको क्रिया तक पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है / तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, लोहे की भट्टी बनी है, संडासी बनो है. अंगारे बने हैं. अंगारे निकालने की लोहे की छड़ (यष्टि) बनी है, और धमण बनी है, वे सभी जीव भी कायिकी से लेकर यावत प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। 8. पुरिसे णं भंते ! अयं प्रयकोढाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिवमाणे वा निविखवमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोटामो जाव निक्खिवति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणातिवायकिरियाए पंचहि किरियाहि पुटु, जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो अये निवत्तिए, संडासए निव्वत्तिते, चम्भे? निव्वत्तिए, मुट्ठिए निवत्तिए, अधिकरणी णिव्वत्तिता, अधिकरणिखोडी वित्तिता, उदगदोणी गि, अधिकरणसाला निब्बत्तिया ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। [प्र.] भगवन् ! लोहे की भट्टी में से, लोहे को, लोहे की संडासी से पकड़ कर एहरन (अधिकरणी ) पर रखते और उठाते हुए पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [8 उ.] गौतम ! जब तक लोहा तपाने की भट्टी में से लोहे को संडासी से पकड़ कर यावत् रखता है, तब तक वह पुरुष कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियानों से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोहा बना है, संडासी बनी है, घन बना है, हथौड़ा बना है, एहरन बनी है, एहरन का लकड़ा बना है गर्म लोहे को ठंडा करने की उदकद्रोणी (कुण्डी) बनी है, तथा अधिकरणशाला (लोहार का कारखाना) बनी है, वे जीव भी कायिकी आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। विवेचनप्रस्तुत दो सूत्रों (मू. 7-8) में लोहे की भट्री में लोहे को संडासी से पकड़ कर ऊँचा नीचा करने वाले या भट्टी से एहरन पर रखने उठाने वाले व्यक्ति को तथा जिन जीवों के शरीर से लोहा तथा उपकरण बने हैं, उन सबको कायिकी से लेकर प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। पांच क्रियाओं के नाम-कायिकी; आधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी / इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है / Page #1799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिनशब्दार्थ-अयं-लोहे को, अयकोटुंसि-लोहा तपाने की भट्टी में। उविहमाणे-- परिवहमाणे-ऊँचा-नीचा करते हुए / पुढे-स्पृष्ट / णिवत्तिए-निष्पन्न (निवर्तित) बनो हुई। इंगालकढणी-अंगारे निकालने की लोहे की छड़ (यष्टि) / भत्था--धमण / उक्खिवमाणेमिक्खिवमाणे-निकालने और डालते या रखते-उठाते / चम्मे?-घन / मुट्टिए-हथौड़ा / अधिकरणिखोडी-एहरन का लकड़ा। उदगदोणी-पानी की कुण्डी / अधिकरणसाला-लुहारशाला।' जीव और चौवीस दण्डकों में अधिकरणी-अधिकरण, साधिकरणी निरधिकरणी, आत्माधिकरणी प्रादि तथा प्रात्मप्रयोगनिवर्तित आदि अधिकरण सम्बन्धी निरूपरण 6. [1] जीवे भंते ! कि अधिकरणी, अधिकरण ? गोयमा ! जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / [9-1 प्र.] भगवन् ! जीव अधिकरणो है या अधिकरण ? [8-1 उ.] गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि' ? गोयमा ! अविरति पडुच्च, से तेण?ण जाव अहिकरणं पि / [9-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से यह कहा जाता है कि जीव अधिकरणो भी है और अधिकरण भी? [6-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भो है। 10. नेरतिए णं भंते ! कि अधिकरणी, अधिकरणं? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / एवं जहेव जोवे तहेव नेरइए वि / [10 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अधिकरणी है या अधिकरण? [10 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है / जिस प्रकार (सामान्य) के विषय में कहा उसी प्रकार नैरयिक के विषय में भी जानना चहिए / 11. एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [11] इसी प्रकार लगातार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 12. [1] जीवे णं भंते ! कि साहिकरणी, निरधिकरणी ? गोयमा ! साहिकरणी, नो निरहिकरणी। [12-1 प्र.] भगवन् ! जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी ? [12-1 उ.] गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 697 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2507 Page #1800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [2] से केण?णं० पुच्छा। गोयमा ! अविति पच्च, से तेण?णं जाव नो निरहिकरणी। [12-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया ? इत्यादि प्रश्न / [12-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं / 13. एवं जाव वेमाणिए / [13] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / 14. [1] जीवे णं भंते ! कि प्रायाहिकरणी, पराहिकरणी, तदुभयाधिकरणी? गोयमा ! आयाहिकरणी वि, पराधिकरणी वि, तदुमयाहिकरणी वि / [14-1 प्र.] भगवन् ! जीव प्रात्माधिकरणी है, पराधिकरणी है, अथवा उभयाधिकरणी है ? [14-1 उ.] गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी है पराधिकरणी भी है और तदुभयाधिकरणी भी है। [2] से केणणं भंते ! एवं वच्चति जाव तदुभयाधिकरणी वि? गोयमा ! अविति पडुच्च / से तेणढणं जाव तदुभयाधिकरणी वि / [14-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहा गया है कि जीव यावत् तदुभयाधिकरणी [14-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा जीव यावत् तदुभयाधिकरणी भी है / 15. एवं जाव वेमाणिए। [15] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 16. [1] जीवाणं भंते ! अधिकरणे किं आयप्पयोगनियत्तिए, परप्पयोगनिध्यत्तिए तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए? गोयमा ! आयप्पयोगनिव्वत्तिए वि, परप्पयोगनिवत्तिए वि, तदुभयप्पयोगनिवत्तिए वि। 16-1 प्र. भगवन् ! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से होता है, पर-प्रयोग से निष्पन्न होता है, अथवा तदुभय-प्रयोग से होता है ? [१६-१उ.] गौतम ! जीवों का अधिकरण आत्मप्रयोग से भी निष्पन्न होता है, परप्रयोग से से भी और तदुभय-प्रयोग से भी निष्पन्न होता है / [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! अविरतिं पडुच्च / से तेण?ण जाव तदुभयप्पयोगनिबत्तिए वि। [16-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया ? [16-2 उ.] गौतम ! अविरति की अपेक्षा से यावत् तदुभयप्रयोग से भी निष्पन्न होता है। इसलिए हे गौतम ! यावत् तदुभयप्रयोग-निष्पन्न भी है। Page #1801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. एवं जाव वेमाणियाणं / [17] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए / विवेचन-अधिकरण, अधिकरणी : स्वरूप एवं प्रकार-हिंसादि पाप-कर्म के कारणभूत एवं दुर्गति के निमित्तभूत पदार्थों को अधिकरण कहते हैं / अधिकरण दो प्रकार के होते हैं आन्तरिक एवं (2) बाह्म। शरीर, इन्द्रियाँ, मन ग्रादि अान्तरिक अधिकरण हैं एवं हल, कुदाल, मूसल आदि शस्त्र और धन-धान्यादि परिग्रहरूप वस्तुएँ बाह्य अधिकरण हैं। ये बाह्य और आन्तरिक अधिकरण जिनके हों, वह 'अधिकरणी' कहलाता है / संसारी जीवों के शरीरादि होने के कारण जीव 'अधिकरणी' कहलाता है, और शरीरादि अधिकरणों से कथंचित अभिन्न होने से जीव अधिकरण भी है / निष्कर्ष यह है कि सशरीरी जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी / अविरति की अपेक्षा से जीव अधिकरण भी है और अधिकरणी भी / जो जीव विरत है, उसके शरीरादि होने पर भो वह अधिकरणी और अधिकरण नहीं है। क्योंकि उन पर उसका ममत्वभाव नहीं हैं। जो जोव अविरत है, उसके ममत्व होने से वह अधिकरणी और अधिकरण कहलाता है।' साधिकरणी-निरधिकरणी : स्वरूप और रहस्य -शरीरादि अधिकरण से सहित जीव साधिकरणी कहलाता है / संसारी जीव के शरीर, इन्द्रियादिरूप प्रान्तरिक अधिकरण तो सदा साथ ही रहते हैं, शस्त्रादि बाह्य अधिकरण निश्चित रूप से सदा साथ में नहीं भी होते हैं, किन्तु स्वस्वामिभाव के कारण अविरति रूप ममत्वभाव साथ में रहता है। इसलिए शस्त्रादि बाह्य अधिकरण की अपेक्षा भी जीव साधिकरणी कहलाता है / संयमो पुरुषों में अविरति का प्रभाव होने से शरीरादि होते हुए भी उनमें साधिकरणता नहीं है / इसलिए निरधिकरणी का प्राशय है ---अधिकरणदूरवर्ती। वह अविरति में नहीं होता, क्योंकि उसमें अधिकरणभूत अविरति से दूरवर्तिता नहीं होती। अथवा अधिकरण कहते हैं-पुत्र एवं मित्रादि को। जो जो पुत्र-मित्रादि सहित हो, वह साधिकरणी है. किसी जीव के पुत्रादि का अभाव होने पर भी तद्विषयक विरति का अभाव होने से उसमें साधिकरणता समझ लेनी चाहिए / 2 / 'प्रात्माधिकरणी' इत्यादि पदों की परिभाषा-कृषि आदि प्रारम्भ में स्वयं प्रवृत्ति करनेवाला आत्माधिकरणी है / दूसरों से कृषि आदि प्रारम्भ कराने वाला अथवा दूसरों को अधिकरण में प्रवृत्त करने वाला पराधिकरणो है / जो स्वयं कृष्यादि प्रारम्भ करता है और दूसरों से भी करवाता है वह तभयाधिकरणी कहलाता है। जो कृषि आदि नहीं करता है, वह भी अविरति को अपेक्षा से प्रात्माधिकरणो या पराधिकरणों अथवा तभयाधिकरणी कहलाता है। प्रात्म-पर-तदुभय-प्रयोगनिर्वतित अधिकरण-हिसादि पापकार्यों में स्वयं प्रवृत्ति करने वाले, मन आदि के व्यापार (प्रयोग) से निर्वतित-निष्पादित अधिकरण-प्रात्मप्रयोगनिर्वतित कहलाता है / दूसरों को हिंसादि पाप-कार्यों में प्रवृत्त कराने से उत्पन्न वचनादि अधिकरण परप्रयोग-निर्वर्तित कहलाता है और आत्मा के द्वारा दूसरों को प्रवृत्ति कराने के द्वारा उत्पन्न हुना अधिकरण 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 699 2. वही अ. वृत्ति, पत्र 699 3. (क) वही, पत्र 699, (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2512 Page #1802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] [537 'तदुभय-प्रयोगनिर्वतित' कहलाता है / स्थावर आदि जीवों में बचनादि का व्यापार नहीं होता, तथापि उन में अविरतिभाव की अपेक्षा से परप्रयोग-निवर्तित अधिकरण कहा गया है / ' शरीर, इन्द्रिय एवं योगों को बांधते हुए जीवों के विषय में अधिकरणी-अधिकरणविषयकप्ररूपणा 18. कति णं भंते ! सरीरमा पन्नता? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा–ओरालिए जाव कम्मए। {18 प्र.) भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? 18 उ.] गौतम ! शरीर पाँच प्रकार के कहे गए हैं / यथा-औदारिक यावत् कार्मण / 19. कति णं भंते ! इंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा-सोतिदिए जाव फासिदिए / [19 प्र. भगवन् ! इन्द्रियां कितनी कही गई हैं ? [19 उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ पांच कही गई हैं। यथा--श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय / 20. कतिविहे णं भंते ! जोए पन्नते ? गोयमा ! तिविहे जोए पन्नते, तं जहा-मणजोए वइजोए कायजोए / [20 प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [20 उ.] गौतम ! योग तीन प्रकार के कहे गए हैं / यथा----मनोयोग, बचनयोग और काययोग ! 21. [1] जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरण ? गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि / [21.1 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर को बांधता (निष्पन्न करता) हुआ जीव अधिकरणी है या अधिकरण? [21-1 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ अधिकरणी वि, अधिकरणं पि ? गोयमा ! अविरति पडुच्च / से तेण?णं जाव अधिकरणं पि / [21-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है ? [21-2 उ.] गौतम ! अविरति के कारण वह यावत् अधिकरण भी है / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 699 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5 पृ. 2512 Page #1803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 22. पुढविकाइए णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी०? एवं चेव। [22 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, प्रौदारिक शरीर को बांधता हुआ अधिकरणी है या अधिकरण? [22 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 23. एवं जाक मणुस्से। [23] इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिए / 24. एवं वेउब्वियसरीरं पि / नवरं जस्स अस्थि / [24] इसी प्रकार वैक्रिय शरीर के विषय में भी जानना चाहिए / विशेषता यह कि जिन जीवों के जो शरीर हों, उनके वहीं कहना चाहिए। 25. [1] जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी० पुच्छा। गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। [25-1 प्र.] भगवन् ! आहारक शरीर बांधता हुआ जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? [25-1 उ.] गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी / [2] से केणढणं जाव अधिकरणं पि? गोयमा ! पमादं पडुच्च / से तेण?णं जाव अधिकरणं पि / 25-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से उसे अधिकरणी और अधिकरण कहते हैं ? [25-2 उ.] गौतम ! प्रमाद की अपेक्षा से वह अधिकरणी और अधिकरण है। 26. एवं मणुस्से वि / [26] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में जानना चाहिए। 27. तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सव्वजीवाणं भाणियब्वं / [27] तैजसशरीर का कथन औदारिक शरीर के समान जानना चाहिए / विशेष यह है कि तेजसशरीर-सम्बन्धी वक्तव्य सभी जीवों के विषय में कहना चाहिए। 28. एवं कम्मगसरीरं पि। [28] इसी प्रकार कार्मण शरीर के विषय में भी जानना चाहिए / 29. जीवे गं भंते ! सोतिदियं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरणं ? एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं पि भाणियव्वं / नवरं जस्स अस्थि सोतिदियं / [26 प्र. भगवन् ! श्रोत्रन्द्रिय को बांधता हुआ जीव, अधिकरणी है या अधिकरण? | 26 उ.] गौतम ! औदारिक शरीर के वक्तव्य के समान श्रोत्रेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए / परन्तु (ध्यान रहे) जिन जीवों के श्रोत्रेन्द्रिय हो, उनकी अपेक्षा ही यह कथन है। Page #1804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 1] 30. एवं चक्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणि वि, नवरं जाणियब्वं जस्स जं अस्थि / [30] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शन्द्रिय के विषय में जानना चाहिए / विशेष-जिन जीवों के जितनी इन्द्रियाँ हों, उनके विषय में उसी प्रकार जानना चाहिए / 31. जोवे गं भते / मणजोगं निव्वत्तेमाणे कि अधिकरणी, अधिकरणं? एवं जहेव सोतिदियं तहेव निरवसेसं / (31 प्र.] भगवन् ! मनोयोग को वांधता हुमा जीव, अधिकरणी है या अधिकरण ? 431 उ.} जैसे श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में कहा, वही सब मनोयोग के विषय में कहना चाहिए। 32. वइजोगो एवं चेव / नवरं एगिदियवज्जाणं / 132] वचनयोग के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष-वचनयोग में एकेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए। 33. एवं कायजोगो वि, नवरं सव्वजीवाणं जाव वेमाणिए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // सोलसमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 16.1 // [33] इसी प्रकार काययोग के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि काययोग सभी जोवों के होता है / अत: यावत् वैमानिकों तक इसी प्रकार जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 18 से 33) में पांच शरीरों, पांच इन्द्रियों और तीन योगों की अपेक्षा से सभी जीवों के अधिकरणी एवं अधिकरण होने की सहेतुक प्ररूपणा की गई है / पांच शरीरों की अपेक्षा से—देव और नैरयिक जीवों के औदारिक शरीर नहीं होता है इसलिए नै रयिकों और देवों को छोड़कर पृथ्वीकायिक प्रादि दण्डकों के विषय में ही अधिकरणी एवं अधिकरण से सम्बन्धित प्रश्न किया गया है / नरयिकों और देवों को जन्म से प्राप्त भव प्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। जबकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में, जिन्हें वैक्रियशरीर बनाने की शक्ति प्राप्त हुई हो उन्हें लब्धिप्रत्यय वैक्रियशरीर होता है। वायुकाय को वैक्रियशक्ति प्राप्त होने से उसके भी वैक्रिय शरीर होता है / आहारकशरीर संयमी मुनियों के ही होता है, इसलिए मुख्य प्रश्न मनुष्य के विषय में ही करना चाहिए। संयत जीवों में अविरति का अभाव होने पर भी उनमें प्रमादरूप अधिक रण हो सकता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 699 . (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2516 Page #1805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इन्द्रिय और योग की अपेक्षा से भी अधिकरणी और अधिकरण-विषयक कथन शरीर को तरह ही समझना चाहिए।' यहाँ यह ध्यान रखना है, जिस जीव में जितनी एवं जो इन्द्रियां अथवा जितने योग हों, उतने एवं वे ही यथायोग्य कहने चाहिए / यहाँ प्रत्येक प्रश्न पहले सामान्य जीवसमूह की अपेक्षा से और फिर दण्डकों के क्रम से किय / / सोलहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पण युक्त) प्र. 746-747 2. वही, पृ. 746-747 Page #1806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'जरा' द्वितीय उद्देशक : 'जरा' जीवों और चौवीस दण्डकों में जरा और शोक का निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासि[१] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान महावीर से) (गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार 2. [2] जीवाणं भंते ! कि जरा, सोगे ? गोयमा ! जीवाणं जरा वि, सोगे वि। [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के जरा और शोक होता है ? [2-1 उ.] गौतम ! जोवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है। [2] से केण?णं भंते ! जाव सोए वि? गोयमा ! जे णं जीवा सारीरं वेषणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा, जे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे / से तेणढणं जाव सोगे वि / [2.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से जीवों को जरा भी होती है और शोक भी होता है ? [2-2 उ.] गौतम ! जो जीव शारीरिक वेदना वेदते (भोगते-अनुभव करते हैं, उन जीवों को जरा होती है और जो जीव मानसिक वेदना वेदते हैं, उनको शोक होता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि जीवों के जरा भी होती है और शोक भी होता है। 3. एवं नेरइयाण वि।' [3] इसी प्रकार नैरयिकों के (जरा और शोक के विषय में) भी समझ लेना चाहिए / 4. एवं जाव थपियकुमाराणं / [4] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों के विषय में भी जान लेना चाहिए / 5. [1] पुढयिकाइयाणं भंते ! कि जरा, सोगे ? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। [5.1 प्र.] भंते ! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के भी जरा और शोक होता है ? [5-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक नहीं होता। Page #1807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र [2] से केणगं जाव नो सोगे? गोयमा ! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति, नो 'माणसं वेदणं वेदेति / से तेणगं जाव नो सोगे। {5-2 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक क्यों नहीं होता? {5-2 उ.] गौतम ! पृथ्वी कायिक जोव शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक वेदना नहीं वेदते; इस कारण उनके जरा होती है, शोक नहीं होता / 6. एवं जाव चरिदियाणं / [6] इसी प्रकार (प्रकायिक से लेकर) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए / 7. सेसाणं जहा जोवाणं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव पज्जुवासति / [7] शेष जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् पर्युपासना करते हैं / विवेचन-जरा और शोक : किनको पोर क्यों-जरा का अर्थ है-वृद्धावस्था और शोक का अर्थ है-चिन्ता, खिन्नता, दैन्य या खेद आदि / जरा शारीरिक दुःखरूप है और शोक मानसिक दुःखरूप / प्रस्तुत में 'जरा' शब्द से उपलक्षण से अन्य शारीरिक दुःख तथा शोक से समस्त मानसिक ग्रहण किया गया है। चौवीसदण्डकी जीवों में जिनके केवल काययोग है, (मनोयोग का अभाव है), उन्हें केवल जरा होती है और जिनके मनोयोग भी है, उनको जरा और शोक दोनों हैं। अर्थात् वे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दुःखों का वेदन (अनुभव) करते हैं।' शक्रेन्द्र द्वारा भगवद्दर्शन, प्रश्नकरण एवं अवग्रहानुज्ञा-प्रदान 8. तेणं कालेणं तेणं समयेणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे जाव भुजमाणे विहरति / इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विपुलेणं प्रोहिणा प्रामोएमाणे प्राभोएमाणे पासति यऽस्थ समण भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दोवे एवं जहा ईसाणे ततियसए (स० 3 उ० 1 सु० 33) तहेव सक्को वि / नवरं आभियोगिए ण सद्दावेति, हरी पायताणियाहिवतो, सुघोसा घंटा, पालओ विमाणकारी, पालग विमाणं, उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरपव्वए, सेसं तं चेव, जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति / धम्मकहा जाव परिसा पडिगया / [4] उस काल एवं उस समय में शक देवेन्द्र देवराज, वज्रपाणि, पुरन्दर यावत् (दिव्य भोगों का) उपभोग करता हा विचरता था। वह इस सम्पूर्ण (केवलकल्प) जम्बूद्वीप नामक द्वीप की ओर अपने विपुल अवधिज्ञान का उपयोग लगा-लगा कर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में श्रमण भगवान् महावीर को देख रहा था। यहाँ तृतीय शतक (के प्रथम उद्देश क, सू. 33) में कथित ईशानेन्द्र की 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 700 Page #1808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 2] [543 वक्तव्यता के समान शक्रेन्द्र की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि शकेन्द्र आभियोगिक देवों को नहीं बुलाता / इसकी पैदल (पदाति)-सेना का अधिपति हरिणगमेषी (हरी) देव है, (जो) सुघोषा घंटा (बजाता) है / (शकेन्द्र का) विमाननिर्माता पालक देव है। इसके निकलने का मार्ग उत्तरदिशा है / दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) में रतिकर पर्वत है। शेष सभी वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिए। यावत् शकेन्द्र भगवान् के निकट उपस्थित हुया और अपना नाम बतला कर भगवान् की पर्युपासना करने लगा। (श्रमण भगवान् महावीर ने) (शकेन्द्र तथा परिषद् को) धर्मकथा कही; यावत् परिषद् वापिस लौट गई। 9. तए णं से सक्के देविदे देवराया समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ट० समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति, 2 ता एवं वयासी 8] तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक श्रमण भगवान् महावीर से धर्म श्रवण कर एवं अवधारण करके अत्यन्त हर्षित एवं सन्तुष्ट हुा / उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार प्रश्न पूछा - 10. कतिविहे गं भंते ! ओग्गहे पन्नत्ते ? सक्का ! पंचविहे ओग्गहे पन्नत्ते, तं जहा--देविदोग्गहे, रायोग्गहे गाहावतियोगहे सागारिओग्गहे साधम्मिओग्गहे। [10 प्र. भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? |10 उ.) हे शक ! अवग्रह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) देवेन्द्रावग्रह, (2) राजावग्रह, (3) गाथापति (गृहपति)-प्रवग्रह, (4) सागारिकावग्रह और (5) सामिकाऽवग्रह ! 11. जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निम्गंथा विहरंति एएसि णं अहं ओग्गहं अणुजाणामीति कटु समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 ता तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहति, दु. 2 जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / [11] (यह सुन कर शकेन्द्र ने भगवान् से निवदन किया-) 'भगवन् ! आजकल जो ये श्रमण निर्ग्रन्थ विचरण करते हैं, उन्हें मैं अवग्रह की अनुज्ञा देता हूँ।' यों कह कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके शकेन्द्र, उसी दिव्य यान विमान पर चढ़ा और फिर जिस दिशा (जिधर) से आया था, उसी दिशा की ओर (उधर ही) लौट गया। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 8 से 11 तक) में शकेन्द्र द्वारा भगवान् के दर्शन, वन्दननमन, धर्म-श्रवण, अवग्रहविषक-प्रश्नकरण, समाधानप्राप्ति, एवं अवग्रहानुज्ञा-प्रदान का निरूपण किया गया है / अवग्रह : प्रकार और स्वरूप---अव ग्रह का अर्थ है-उस स्थान के स्वामी (मालिक) से जो अवग्रह-स्वीकार किया जाता है। वह क्रमशः पांच प्रकार का होता है / यथा-(१) देवेन्द्रावग्रह-~शकेन्द्र और ईशानेन्द्र इन दोनों का अवग्रह-स्वामित्व क्रमशः दक्षिणलोकार्द्ध और उत्तरलोकार्द्ध में है। अतः उनकी आज्ञा लेना देवेन्द्रावग्रह है / (2) राजाऽवग्रह-भरतादि क्षेत्रों में छह खण्डों पर चक्रवर्ती Page #1809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का, तीन खण्डों पर वासुदेव का तथा विभिन्न जनपदों पर अमुक-अमुक शासक या मन्त्री का अवग्रह होता है। (3) गाथापति-अवग्रह-माण्डलिकादि का अपने अधीनस्थ देश पर अवग्रह होता है। (4) सागारिक-अवग्रह–सागारिक-गृहस्थ का अपने घर या मकान पर अवग्रह होता है / (5) सार्मिकअवग्रह-समान धर्म-प्राचार वाला साधु वर्ग परस्पर सार्मिक कहलाता है। शेष काल में एक माम और चातुर्मास्य में चार मास तक पांच-पांच कोस तक के क्षेत्र में सार्मिकावग्रह होता है / ढाई-ढाई कोस तक उत्तर-दक्षिण में, तथा ढाई कोस तक पूर्व-पश्चिम में, यों 5 कोश तक का अवग्रह होता है। अवग्रह पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द विशेषतः साधु-साध्वियों द्वारा ठहरने के स्थान आदि में स्वामी या संरक्षक से अवग्रह-ग्रहण करने की अनुज्ञा लेने या याचना करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है।' कठिनशब्दार्थ-वज्जपाणि-वज्रपाणि-जिसके हाथ में वज्र हो। केवलकप्पं केवलकल्प, सम्पूर्ण / प्राभोएमाणे--उपयोग लगाते हुए / उग्गहे अवग्रह-स्वामी से ग्रहण करना / 2 शक्रेन्द्र की सत्यता, सम्यग्वादिता, सत्यादिभाषिता, सावद्य-निरवद्यभाषिता, एवं भवसिद्धिकता आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोतर 12. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 ता एवं वयासीजंणं भंते ! सक्के देविदे देवराया तुम्भे एवं वदति सच्चे णं एसम? ? हंता, सच्चे। [12 अ.] भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! देवेन्द्र देव राज शक्र ने आप से पूर्वोक्त रूप से अवग्रह सम्बन्धी जो अर्थ कहा, क्या वह सत्य है ? [12 उ.] हाँ, गौतम ! वह अर्थ सत्य है / 13. सक्के गं भंते ! देविदे देवराया कि सम्मावादी, मिच्छावादी? गोयमा ! सम्मावादी, नो मिच्छाबादी। [13 प्र.] भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक सम्यग्वादी है अथवा मिथ्यावादी है ? [13 उ.] गौतम ! वह सम्यग्वादी है, मिथ्यावादी नहीं। 14. सक्के णं भते ! देविदे देवराया कि सच्चं भासं भासति, मोसं भासं भासति, सच्चामोसं भासं भासति, असच्चामोसं भासं भासइ ? गोयमा ! सच्चं पि भासं भासति, जाव असच्चामोसं पि भासं भासति / 1. (क) भगवती. अ, वृत्ति, पत्र 700-701 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2521 2. (क) वही, पृ. 2520 / (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 700 Page #1810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 2] [545 [14 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र क्या सत्य भाषा बोलता है, मृषा भाषा बोलता है, . सत्यामृषा भाषा बोलता है, अथवा असत्यामृषा भाषा बोलता है ? [14 उ.] गौतम! वह सत्य भाषा भी बोलता है, यावत् असत्यामृषा भाषा भी बोलता है। 15. [1] सक्के णं भंते ! देविदे देवराया कि सावज्जं भासं भासति, अणवज भासं भासति? गोयमा ! सावजं पि भासं भासति, प्रणवज्ज पि भासं भासति / [15-1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक क्या सावद्य (पापयुक्त) भाषा बोलता है या निरवद्य भाषा बोलता है ? [15-1 उ.] गौतम ! वह सावध भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है। [2] से केणट्टणं भंते ! एवं कुच्चइ-सावज्ज पि जाव अणवज्ज पि भासं भासति ? गोयमा ! जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुहमकायं अनिज्जूहित्ताणं भासं भासति ताहे णं सक्के देविदे देवराया सावज भासं भासति, जाहे णं सक्के देविदे देवराया सुहमकायं निजहिताणं भासं भासइ ताहे सक्के देविदे देवराया अणवज्ज भासं भासति, से तेण?णं जाव भासति / [15-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है कि शक्रेन्द्र सावध भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है ? [15-2 उ.] गोतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र सूक्ष्म काय (अर्थात् हाथ आदि या वस्त्र) से मुख ढंके बिना बोलता है, तब वह सावध भाषा बोलता है और जब वह हाथ या वस्त्र से मुख को ढक कर बोलता है, तब वह निरवद्य भाषा बोलता है। इसी कारण से यह कहा जाता है कि शवेन्द्र सावध भाषा भी बोलता है और निरवद्य भाषा भी बोलता है / 16. सक्के णं भंते ! देविदे देवराया कि भवसिद्धीए, अभवसिद्धीए, सम्मदिट्ठीए? एवं जहा मोउद्दसए सणंकुमारो (स० 3 उ० 1 सु० 62) जाव नो प्रचरिमे। [16 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक ? सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] गौतम ! तृतीय शतक के प्रथम मोका उद्देशक (सू. 62) में उक्त सनत्कुमार के अनुसार यहाँ भी यावत् अचरम नहीं है, (यहाँ तक जानना चाहिए।) विवेचन-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 12 से 16 तक) में शकेन्द्र के सम्बन्ध में गौतमस्वामी द्वारा किये गये निम्नोक्त प्रश्नों का समाधान अंकित है / [प्र. 1] अवग्रह सम्बन्धी वक्तव्य सत्य है ? [उ.] सत्य है / [प्र. 2J शकेन्द्र सम्यग्वादी है या मिथ्यावादी ? [उ.] सम्यग्वादी है। Page #1811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. 3] वह सत्या आदि चार प्रकार की भाषाओं में से कौन-सी भाषा बोलता है ? [उ.] चारों प्रकार की। [प्र. 4] निरवद्य भाषा बोलता है, या सावद्य? [उ.] दोनों प्रकार की भाषा बोलता है। [प्र. 5] भवसिद्धिक है या अभवसिद्धिक ? सम्यग्दष्टि है या मिथ्यादृष्टि ? परित्तसंसारी है या अपरित्त (अनन्त) संसारी ? सुलभबोधि है या दुर्लभबोधि ? पाराधक है या विराधक ? चरम है या अचरम ? [उ.] इन सब में प्रशस्तपद ही ग्राह्य है।' कठिन शब्दार्थ—सावज्जे-सावद्य-गहितकमसहित, पापयुक्त / अणवज्ज-निरवद्य-निष्पाप / सुहुमकायं-सूक्ष्म काय-हस्त आदि वस्तु अथवा वस्त्र / अणिज्जहित्ता लगाए बिना, ढंके बिना। अर्थात् हाथ एवं वस्त्र आदि मुख पर लगा (टैंक) कर यतनापूर्वक बोलने वाले के द्वारा जीवरक्षा होती है, इसलिए वह भाषा निरवद्य होती है, इससे भिन्न सावद्य। सम्मावादी–सम्यग् बोलने के स्वभाव वाला, सम्यग्वादनशील / सम्यग्वादनशील होते हुए भी प्रमाद आदि के वश सत्य भाषा भी गहित कर्म के लिए बोली जाए अथवा मुख पर वस्त्रादि या हाथ आदि लगाए बिना बोली जाए, वह भाषा सावध होती है / जीव और चौवीस दण्डकों में चेतनकृत कर्म की प्ररूपणा 17. [1] जीवाणं भंते ! कि चेयकडा कम्मा कज्जंति, अचेयकडा कम्मा कति ? गोयमा ! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति / [17-1 प्र.] भगवन् ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं या अचैतन्यकृत ? [17-1 उ.] गौतम ! जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं अचेतनकृत नहीं होते / [2] से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कज्जति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिता पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा गं ते पोग्गला परिणमंति, नथि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / दुटाणेसु दुसेज्जासु दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / प्रायके से वहाए होति, संकप्पे से वहाए होति, मरणते से वहाए होति, तहा तहा गं ते पोग्गला परिणमंति, नस्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो! / से तेण?णं जाव कम्मा कज्जति / (17-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि जीवों के कर्म चेतनकृत होते हैं, अचेतन. कृत नहीं होते ? 17.2 उ. गौतम ! जीवों के आहार रूप से उपचित जो पुदगल हैं, शरीररूप से जो संचित पुद्गल हैं और कलेवर रूप से जो उपचित पुद्गल हैं, वे तथा तथा रूप से परिणत होते हैं, इसलिए हे आयुष्मन श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। वे पूदगल दु:स्थान रूप से, दु:शच्या रूप से और 1. (क) बियाहपण्णतिसुत्त' (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ, 749.750 / (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रथम खण्ड (श्री पागम प्रकाशन समिति व्यावर) श. 3, उ. 1, पृ. 298 2. (क) भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 701 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2523 (ग) महावद्य न--गहितकर्मणेति सावद्या तां ।-अ. वत्ति पत्र 701 Page #1812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 2] [547 दुनिषद्या रूप से तथा-तथा रूप से परिणत होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। वे पुद्गल पातक रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं; वे संकल्प रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं, वे पुद्गल मरणान्त रूप से परिणत होकर जीव के वध के लिए होते हैं। इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! कर्म अचेतनकृत नहीं हैं। हे गौतम! इसीलिए कहा जाता है, यावत् कर्म चेतनकृत होते हैं। 18. एवं नेरतियाण वि। [18] इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म भी चेतन्यकृत होते हैं / 19. एवं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // सोलसमे सए : बीओ उद्देसओ सम्मत्तो // 16.2 // [16] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक के कर्मों के विषय में कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसो प्रकार है; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्मों का कर्ता : चेतन है, अचेतन नहीं प्रस्तुत तीन सूत्रों में स्पष्टतः युक्ति एवं तर्कपूर्वक बता दिया गया है कि सामान्य जीवों के या नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के कर्म चेतन (जीव) के द्वारा स्वकृत होते हैं, अचेतनकृत नहीं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार जीवों के आहार, शरीर, कलेवर आदि रूप से संचित किये हुए पुद्गल पाहारादि-रूप से परिणत हो जाते हैं वे कर्मपुद्गल जीवों के ही हैं। क्योंकि वे कर्म पुद्गल शीत, उष्ण, दंश-मशक आदि से युक्त स्थान में, दु:खोत्पादक शय्या (वसति या उपाश्रय) में, तथा दुःखकारक निषद्या (स्वाध्याय भूमि) में दुःखोत्पादक रूप से परिणत होते हैं। दुःख जीवों को हो होता है, अजीवों को नहीं / इसलिए यह स्पष्ट है कि दुःख के हेतुभूत कर्म जीवों ने ही संचित किये हैं। वे कम-पुद्गल अातंक (रोग) रूप से संकल्प (भयादि विकल्प) रूप से और मरणान्त (उपघातादि) रूप से अर्थात्-रोगादिजनक असातावेदनीय रूप से परिणत होते हैं और वे वध के हेतुभूत होते हैं। वध जीव का ही होता है। अत: वध के हेतुभूत असातावेदनीय कर्मपुद्गल भी जीवकृत हैं। इस दृष्टि से कहा गया है कि कर्म चेतनकृत होते हैं,' अचैतन्यकृत नहीं होते। कठिन शब्दार्थ-चेयकडा-चेतः कृत-चेतन कृत यानी बद्ध चेतःकृत कम / कजंति--होते हैं। बोदिचिया-बोंदि-अव्यक्तावयव रूप शरीर रूप से संचित / नस्थि अचेयकडा-अचेतनकृत नहीं। // सोलहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतो. अ. बत्ति, पत्र 702 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2526 2. भगवत्री. अ. व त्ति पत्र 702 Page #1813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : कम्मे तृतीय उद्देशक : कर्म अष्ट कर्मप्रकृतियों के वेदावेद प्रादि का प्रज्ञापना के अतिदेशपूर्वक निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासि[१] राजगृह नगर में (गौतमस्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा२. कति णं भंते ! कम्मपगडीयो पन्नत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ, तं जहा- नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / |2 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी हैं ? [2 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ हैं, यथा—ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 3. एवं जाय वेमाणियागं / [3] इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / 4. जोवे णं भंते ! नाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ, एवं जहा पनवणाए वेदावेउद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियध्वो / वेदाबंधो वि तहेव / बंधावेदो वि तहेव / बंधाबंधो वि तहेब माणियव्यो जाव वेमाणियाणं ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / [4 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हुआ जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [4 उ.] गौतम ! (ज्ञानावरणीय कर्म को वेदन करता हुआ जीव) आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के (27 वें) 'वेद-वेद' नामक पद (उद्देशक) में कथित समग्र कथन करना चाहिए / वेद-बन्ध, 'बन्ध-वेद' और बन्ध-बन्ध उद्देशक भी, (प्रज्ञापनासूत्र में उक्त कथन के अनुसार) यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1 से 4 तक) में पाठ कर्मप्रकृतियों के नाम गिना कर प्रज्ञापनासूत्र के वेद-वेद, वेद-बन्ध, बंध-वेद एवं बंध-बन्ध पद के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। वेद-वेदः-एक कर्मप्रकृति के वेदन के समय दूसरी कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन होता है, यह जिस उद्देशक (पद) में बताया गया है, वह प्रज्ञापना का 27 वा पद वेद-वेद उद्देशक है / Page #1814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 3 [549 वेद-बन्धः-एक कर्मप्रकृति के वेदन के समय अन्य कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, यह जिस उद्देशक में कहा गया है वह प्रज्ञापना का 26 वाँ पद वेद-बन्ध उद्देशक है / बन्ध-वेदः-एक कर्मप्रकृति को बाँधता हा जीव, कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदता है, यह प्रज्ञापना का 25 वाँ पद बंध-वेद उद्देशक है / बन्ध-बन्धः-एक कर्मप्रकृति को बांधता हुना जीव दूसरी कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है, यह जिस में बताया गया है, वह प्रज्ञापनासूत्र का 24 वा पद बन्ध-बन्ध उद्देशकरूप है / ' प्रज्ञापना के अनुसार उत्तर-(१) प्रस्तुत पाठ में एक कर्मप्रकृति को वेदते समय आठ कर्मप्रकृतियों को वेदता है, यह पौधिक रूप से उत्तर है। उसका आशय यह है कि सामान्यतया जीव आठों कर्मप्रकृतियों को वेदता है। किन्तु जब मोहनीयकर्म का क्षय या उपशय हो जाता है, तब सात (मोहनीय के सिवाय) कर्मप्रकृतियों को वेदता है, और चार घातिकर्म क्षय होने पर शेष चार अघातिकर्मप्रकृतियों को वेदता है। (2) वेद-बन्ध पद के अनुसार ज्ञानावरणीय कर्म को वेदता हा जीव सात, पाठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बन्ध करता है / जब आयुष्यकर्म का बन्ध करता है, तब पाठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, जब आयुष्यबन्ध नहीं करता तब सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है / सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में आयुष्य और मोहनीय के सिवाय छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। उपशान्तमोहादि दो गुणस्थानों में केवल एक वेदनीय कर्म को बांधता है। (3) 'बन्ध-वेद' पद के अनुसार----ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुमा जीव, अवश्य ही आठ कर्मों को वेदता है, इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए / (4) 'बन्ध-बन्ध' पद के अनुसार-ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ जीव सात, पाठ या छह कर्मप्रकृतियों को बांधता है। प्रायुष्य नहीं बांधता तब सात, आयुष्य सहित आठ और मोहनीय तथा प्रायुष्य के बिना 6 कर्मप्रकृतियों को बांधता है; इत्यादि वर्णन वहाँ से जान लेना चाहिए। मूल पाठ में 'वेयावेओ' आदि पदों में प्राकृभाषा के कारण दीर्घ हो गया है / कायोत्सर्गस्थ अनगार के अर्श-छेदक को तथा अनगार को लगने वाली क्रिया 5. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति, प० 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / [5] किसी समय एक दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगृहनगर के गुणशीलक नामक उद्यान से निकले और बाहर के (अन्य) जनपदों में विहार करने लगे। 6. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतोरे नामं नगरे होत्था / वण्णनो। [6] उस काल उस समय में उल्लूकतीर नाम का नगर था / उसका वर्णन नगरवर्णनवत् जान लेना चाहिए। 1. पाणवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण) श्रीमहावीर जैन विद्यालय सू. 1787-92, सू. 1775-86, सूत्र. 1769-74, सू. 1754-68 पृ. 391, 389,388, 385 / 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 703 Page #1815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550] व्याख्याप्रजाप्तिसूत्र 7. तस्स णं उल्लुयतीरस्त नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए, एस्थ णं एगजंबुए नाम चेतिए होत्था / वण्णो / [7] उस उल्लकतीर नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग (ईशान कोण) में 'एकजम्बूक' नामक उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् / 8. तए गं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुन्वाणुपुब्धि चरमाणे जाव एगजंबुए समोसढे / जाव परिसा पडिगया। [8] एक वार किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् 'एक जम्बूक' उद्यान में पधारे। यावत् परिषद् (धर्मदेशना श्रवण कर) लौट गई / 9. 'भंते !'त्ति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 एवं वदासि [6] 'भगवन् !' यो सम्बोधन करके भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा-- 10. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो छट्ठछट्टणं प्रणिक्खित्तेणं जाव आतावेमाणस्स तस्स णं पुरथिमेणं अव दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पायं वा बाहं वा ऊरुवा पाउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, पच्चस्थिमेणं से अव दिवसं कप्पति हत्थ वा पायं वा जाव ऊरुवा आउंटावेतए वा पसारेत्तए वा / तस्स य अंसियानो लंबंति, तं च वेज्जे अदक्खु, ईसि पाडेति, ई० 2 अंसियाओ छिदेज्जा। से नणं भंते ! जे छिदति तस्स किरिया कज्जति ? जस्स छिज्जति नो तस्स किरिया कज्जइ बऽन्नत्थेगेणं धम्मंतराइएणं? हंता, गोयमा! जे छिदति जाव धम्मतराइएणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // सोलसमे सए : तइश्रो उद्देसओ समत्तो / / 13-3 / / [10 प्र.] भगवन् ! निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) के तपश्चरण के साथ यावत् अातापना लेते हुए भावितात्मा अनगार को (कायोत्सर्ग में) दिवस के पूर्वार्द्ध में अपने हाथ, पैर, बांह या ऊरु (जंघा) को सिकोड़ना या पसारना कल्पनीय नहीं है, किन्तु दिवस के पश्चिमार्द्ध (पिछले आधे भाग) में अपने हाथ, पैर या यावत् ऊरु को सिकोड़ना या फैलाना कल्पनीय है। इस प्रकार कायोत्सर्गस्थित उस भावितात्मा अनगार को नासिका में प्रर्श (मस्सा) लटक रहा हो। उस अर्श को किसी वैद्य ने देखा और यदि वह वैद्य उस अर्श को काटने के लिए उस ऋषि को भूमि पर लिटाए, फिर उसके अर्श को काटे; तो हे भगवन् ! क्या जो वैद्य अर्श काटता है, उसे क्रिया लगती है ? तथा जिस (अनगार) का अर्श काटा जा रहा है, उसे एक मात्र धर्मान्तरायिक क्रिया के सिवाय दूसरी क्रिया तो नहीं लगती? [10 उ.] हाँ, गौतम ! जो (अर्श को) काटता है, उसे (शुभ) क्रिया लगती है और जिसका अर्श काटा जा रहा है, उस ऋषि को धर्मान्तराय के सिवाय अन्य कोई क्रिया नहीं लगती। Page #1816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 3] . [551 हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--राजगह से विहार करके उल्लकतीर नगर के बाहर एकजम्बूक उद्यान में गणधर गौतम द्वारा कायोत्सर्गस्थ भावितात्मा अनगार के अर्श छेदक वैद्य को तथा उक्त अनगार को लगने वाली क्रिया के विषय में भगवान से पूछा गया प्रश्न और उसका उत्तर प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 5 से 10 तक) में अंकित है।' अर्श-छेदन में लगने वाली क्रिया-दिन के पिछले भाग में कायोत्सर्ग में स्थित न होने से हस्तादि अंगों को सिकोड़ना-पसारना कल्पनीय है / कायोत्सर्ग में रहे हुए उस भावितात्मा अनगार की नासिका में लटकते हुए अर्श को देख कर कोई वैद्य उक्त अनगार को भूमि पर लिटा कर धर्मबुद्धि से अर्श को काटे तो उस वैद्य को सत्कार्य-प्रवृत्तिरूप शुभ क्रिया लगती है, किन्तु लोभादिवश अर्शछेदन करे तो उसे अशुभ क्रिया लगती है। जिस साधु के अर्श को छेदा जा रहा है, उसे निर्यापार होने के कारण एक धर्मान्त राय क्रिया के सिवाय और कोई क्रिया नहीं लगती। शुभध्यान में विच्छेद (अन्तराय) पड़ने से अथवा अर्श-छेदन के अनुमोदन से उसे धर्मान्तरायरूप क्रिया लगती है। कठिनशब्दार्थ-पुरथिमेणं-दिवस के पूर्वभाग में पूर्वाह्न में। अबढं दिवसं - अपार्द्ध दिवस तक / पच्चत्थिमेणं-दिवस के पश्चिम (पिछले) भाग में / अंसियानो--अर्श, चर्णिकार के अनुसार जो नासिका पर लटक रहा हो। अदक्ल देखा। ईसि पाडेह-उस ऋषि को अर्श काटने के लिए भूमि पर लिटाता है। नन्नत्थ-इसके सिवाय / / ॥सोलहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. वियाहपण्णत्तिसूत' (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 751-752 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 704 3. वही, अ, वृत्ति, पत्र 704 उल्लू कतीर नगर वर्तमान में 'उल्लूबेड़िया' (बद्ध मान के निकट) पश्चिमबंगाल में है, सम्भवत: वही हो। -सं. Page #1817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'जावतियं' चतुर्थ उद्देशक : 'यावतीय' तपस्वी श्रमरणों के जितने कर्मों को खपाने में नैरपिक लाखों करोड़ों वर्षों में भी असमर्थ : दृष्टान्त पूर्वक निरूपण 1. रायगिहे जाब एवं वदासि[१] राजगृह नगर में (भगवान् महावीर स्वामी से गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा 2. जावतियं णं भंते ! अन्नगिलायए सम निग्गथे कम्म निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासेण वा वासेहि वा वाससतेण वा खवयंति ? णो इ8 सम8। [2 प्र.] भगवन् ! अन्नालायक श्रमण निर्गन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में खपा (क्षय कर) देते हैं ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 3. जावतियं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे निगथे कम्म निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु नेरतिया वाससतेण वा वाससतेहि वा वाससहस्सेण वा खवयंति ? णो इण? सम?। 63 प्र. भगवन् ! चतुर्थ भक्त (एक उपवास) करने वाला श्रमण-निर्गन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैयिक जीव सौ वर्षों में, अनेक सौ वर्षों में या एक हजार वर्षों में खपाते हैं ? {3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 4. जावतियं गं भंते ! छत्तिए समणे निगथे कम्म निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु रतिया वाससहस्सेण वा वासप्तहस्सेहि वा वाससयसहस्सेण वा खवयंति ? णो इण? सम?। [4 प्र. भगवन् ! षष्ठभक्त (बेला) करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक हजार वर्षों में, अनेक हजार वर्षों में, अथवा एक लाख वर्षों में क्षय कर पाता है ? [4 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। Page #1818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 4] 5. जावतियं णं भंते ! अट्ठमत्तिए समणे निग्गथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नेरइया वाससपसहस्सेणं वा वाससयसहस्सेहि वा वासकोडीए वा खवयंति ? नो इण? समट्ठ। [5 प्र.] भगवन् ! अष्टमभक्त (तेला) करने वाला श्रमण निम्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव एक लाख वर्षों में, अनेक लाख वर्षों में या एक करोड़ वर्षों में क्षय कर पाता है ? [5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। 6. जातियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएस . नेरतिया वासकोडीए वा वासकोडीहि वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ? नो इणटुसमट्ठ। [6 प्र.] भगवन् ! दशम भक्त (चौला) करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, क्या उतने कर्म नरकों में नैरयिक जीव, एक करोड़ वर्षों में, अनेक करोड़ वर्षों में या कोटाकोटी वर्षों में क्षय कर पाता है ? [6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 7. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति–जावतियं अन्नगिलातए समणे निगंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरतिया वासेण वा वासे हि वा वाससएण वा नो खवयंति, जावतियं चउत्थ. भत्तिए, एवं तं चेव पुत्वभणियं उच्चारेयध्वं जाव बासकोडाकोडीए वा नो खवयंति ? गोयमा ! “से जहानामए–केयि पुरिसे जुणे जराजज्जरियदेहे सिढिलतयावलितरंगसंपिणद्धगत्ते पविरलपरिसडियदंतसेढी उण्हाभिहए ताहाभिहए आउरे झुझिते पिवासिए दुब्बले किलंते, एगं महं कोसंबगंडियं सुक्क जडिलं गठिल्लं चिक्कणं वाइद्ध अपत्तियं मुडेण परसुणा अक्कमेज्जा, तए णं से पुरिसे महंताई महंताई सद्दाई करेइ, नो महंताई महंताई दलाई अवद्दाले ति, एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पाबाई कम्माई गाढीकयाई चिक्कणोकयाई एवं जहा छठसए (स० 6 उ० 1 सु० 4) जाव नो महापज्जवसाणा भवति / "से जहा वा केयि पुरिसे अहिकरणि पाउडेमाणे महया जाव नो महापज्जवसाणा भवंति / "से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महं सामलिगंडियं उल्लं अडिलं प्रगठिल्लं प्रचिक्कणं प्रवाइद्ध सपत्तियं तिक्खेण परसुणा अक्कमेज्जा, तए णं से युरिसे नो महंताई महंताई सद्दाई करेति, महंताई महंताई दलाई अवद्दालेति, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबादराई कम्माई सिढिलोकयाई पिट्ठियाई कयाई जाव खिप्पामेव परिविद्वत्थाई भवंति, जावतियं तावतियं जाव महापज्जवसाणा भवंति / Page #1819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र “से जहा वा केयि पुरिसे सुक्कं तणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा एवं जहा छट्ठसए (स० 6 उ० 1 सु० 4) तहा अयोकवाले वि जाव महापज्जवसाणा भवंति / से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ 'जावतियं अन्नगिलायए समणे निगंथे कम्मं निज्जरेइ, तं चेव जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति' / " सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ / // सोलसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समतो // 16-4 / / [7 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म नरकों में नैरयिक, एक वर्ष में, अनेक वर्षों में अथवा सौ वर्षों में नहीं खपा पाता, तथा चतुर्थभक्त करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, .... इत्यादि पूर्वकथित वक्तव्य का कथन, यावत्-कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता / (यहाँ तक) कहना चाहिए। [7 उ.] गौतम ! जैसे कोई वृद्ध पुरुष है / वृद्धावस्था के कारण उसका शरीर जर्जरित हो गया है ! चमडी शिथिल होने से सिकुड़ कर सलवटों (झुरियों) से व्याप्त है / दांतों की पंक्ति में बहुत-से दांत, गिर जाने से थोड़े-से (विरल) दांत रह गए हैं, जो गर्मी से व्याकुल है, प्यास से पीड़ित है, जो आतुर (रोगी) भूखा, प्यासा, दुर्बल और क्लान्त (थका हुमा या परेशान) है / वह वृद्ध पुरुष एक बड़ी कोशम्बवृक्ष की सूखी, टेढ़ी मेढ़ी, गांठगठीली, चिकनी, बांकी, निराधार रही हुई गण्डिका (गाँठगठीली जड़) पर एक कुण्ठित (भोथरे) कुल्हाड़े से जोर-जोर से शब्द करता हुआ प्रहार करे, तो भी वह उस लकड़ी के बड़े-बड़े टकडे नहीं कर सकता, इसी प्रकार हे गौतम! नैरयिक जीवों ने अपने पाप कर्म गाढ़ किये हैं, चिकने किये हैं, इत्यादि छठे शतक (उ. 1 सू. 4) के अनुसार यावत्वे महापर्यवसान (मोक्ष रूप फल) वाले नहीं होते। (यहाँ तक कहना चाहिए / ) (इस कारण वे नैरयिक जीव अत्यन्त घोर वेदना वेदते हुए भी महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले नहीं होते !) जिस प्रकार कोई पुरुष एहरन पर घन की चोट मारता हुआ, जोर-जोर से शब्द करता हुआ, (एहरन के स्थल पुद्गलों को तोड़ने में समर्थ नहीं होता, इसी प्रकार ने रयिक जीव भी गाढ़ कर्म वाले होते हैं, इसलिए वे यावत् महापर्यवसान वाले नहीं होते / जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण है, बलवान् है, यावत् मेधावी, निपुण और शिल्पकार है, वह एक बड़े शाल्मली वृक्ष की गीली, अजटिल, अगंठिल (गांठ रहित), चिकनाई से रहित, सीधी और आधार पर टिकी गण्डिका पर तीक्षण कुल्हाड़े से प्रहार करे तो जोर-जोर से शब्द किये बिना ही आसानी से उसके बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है। इसी प्रकार हे गौतम !जिन श्रमण निम्रन्थों ने अपने कर्म यथा-स्थल, शिथिल यावत निष्ठित किये हैं.यावत वे कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। और वे श्रमण निर्ग्रन्थ यावत् महापर्यवसान वाले होते हैं। हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष सूखे हुए घास के पूले को यावत् अग्नि में डाले तो वह शीघ्र ही जल जाता है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के यथाबादर कर्म भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। जैसे कोई पुरुष, पानी की बून्द को तपाये हुए लोहे के कड़ाह पर डाले तो वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, इसी प्रकार श्रमण निर्ग्रन्थों के भी यथावादर (स्थूल) कर्म शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। Page #1820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 4] [555 छठे शतक के (प्रथम उद्देशक सू. 4) के अनुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं। इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, इत्यादि, यावत् उतने कर्मों का नैरयिक जीव कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है. यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सात सूत्रों (1 से 7 तक) में दीर्घकाल तक घोर कष्ट में पड़ा हुया नारक लाखों-करोड़ों वर्षों में भी उतने कर्मों का क्षय नहीं कर पाता, जितने कर्मों का क्षय तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थ अल्प काल में और अल्प कष्ट से कर देता है, इस तथ्य को भगवान ने वृद्ध और तरुण पुरुष के, तथा घास के पूले और पानी की बूदों का दृष्टान्त देकर युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। इसका विस्तृत वर्णन छठे शतक के प्रथम उद्दे शक में कर दिया गया है / ' अग्ण गिलायए-अन्नग्लायक : दो विशेषार्थ-(१) अन्न के विना ग्लानि को पाने वाला / इसका आशय यह है कि जो भूख से इतना आतुर हो जाता है कि गृहस्थों के घर में रसोई बन जाए, तब तक भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता, ऐसा भूख सहने में असमर्थ साधु कूरगडूक मुनि की तरह, गृहस्थों के घर से पहले दिन का बना हुआ बासी करादि (अन्न या पके हुए चावल) ला कर प्रात: काल ही खाता है. वह अन्नग्लायक है।(२) चणिकार के मतानसार-भोजन के प्रति इतना निःस्पृह है कि जैसा भी अन्त, प्रान्त, ठंडा, बासी अन्न मिले उसे निगल जाता है, वह अन्न गिलायक है। कठिनशब्दार्थ-जावतियं-जितने / एवतियं-इतने / जुण्णे-जीर्ण-वृद्ध / जराजज्जरियदेहे-बुढ़ापे से जर्जरित देह वाला। सिढिल-तयावलितरंग-संपिणद्धगत्ते-शिथिल होने के कारण जिसकी चमड़ी (त्वचा) में सलवटें (झुरियां) पड़ गई हों, ऐसे शरीर वाला / पविरल-परिसडियवंतसेढी—जिसके कई दांत गिर जाने से बहुत थोड़े (विरल) दांत रहे हों / उहाभिहए-उष्णता से पीडित / तण्हाभिहए---प्यास से पीडित / आउरे-रोगी / झुशिए-बुभुक्षित-क्षुधातुर / पिवासिएपिपासित / किलंते—क्लान्त / कोसंब-गंडियं-कोशम्ब वृक्ष की लकड़ी / जडिलं-मुडी हुई। गंठिल्लं-गांठ वाली / वाइद्ध-व्यादिग्ध-वक्र / अपत्तियं-जिसको अाधार न हो। अक्कमेज्जाप्रहार करे / परसुणा --कुल्हाड़े से / महंताई-बडे-बड़े / दलाई अवद्दालेति-टुकड़े कर देता है। महापज्जवसाणा-मोक्ष रूप फल वाला / सुक्कं तणहत्थगं-सूखे घास के पूले को / जायतेयंसिअग्नि में / परिविद्धत्थाई-परिविध्वस्त-नष्ट / निउणसिप्पोवगए-निपुण शिल्पकार / मुडोभोंथरा / // सोलहवां शतक: चौथा उद्देशक समाप्त // 1. (क) वियाहपणत्ति सुत्तं भा. 2 प. 753-754 (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री प्रागम प्रकाशन समिति ब्यावर) खंड 2 श.६ उ. 1 सू-४ 2. अन्न विना ग्लायति-ग्लानो भवतीति अन्नग्लायकः, चणिकारेण तु नि:स्पहत्वात् सीयकरभोई अंतपंताहारो। -अ. वृत्ति, पत्र 705 3. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 705 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, प. 2534 Page #1821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'गंगदत्त' पंचम उद्देशक : गंगदत्त (जीवनवृत्त) शक्रेन्द्र के पाठ प्रश्नों का भगवान द्वारा समाधान 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होत्था। वष्णओ। एगजंबुए चेइए वण्णो / [1] उस काल उस समय में उल्लकतीर नामक नगर था। उसका वर्णन पूर्ववत् / वहाँ एकजम्बूक नाम का उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् / 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [2] उस काल उस समय श्रमण महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् ने पर्युपासना की। 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी एवं जहेव बितिय उद्देसए (सु० 8) तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगतो जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता जाव नमंसिता एवं वदासि ---- [3] उस काल उस समय में देवेन्द्र देव राज बज्रपाणि शक्र इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक (के सु. 8) में कथित वर्णन के अनुसार दिव्य यान विमान से वहाँ आया और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार कर उसने इस प्रकार पूछा 4. देवे गं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियादित्ता पभू प्रागमित्तए ? नो इण? सम8। [4] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत्' महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना यहां आने में समर्थ है ? [4 उ.] हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं। 5. देवे णं भंते ! महिडीए जाय महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू आगमित्तए ? हंता, पभू / [5 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ है ? [5 उ.] हाँ, शक्र ! वह समर्थ है / Page #1822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [557 6. देवे णं भंते ! महिड्डीए एवं एतेणं अभिलावेणं गमित्तए 1 / एवं भासित्तए वा 2, विभागरित्तए वा 3, उम्मिसावेत्तए वा निमिसावेत्तए वा 4, आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा 5, ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेइत्तए वा 6, एवं विउन्वित्तए वा 7, एवं परियारेत्तए वा 8? जाव हता, पभू। |6 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव क्या बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके (1) गमन करने, (2) बोलने, या (3) उत्तर देने अथवा (4) आँखें खोलने और बन्द करने, या (5) शरीर के अवयवों को सिकोड़ने और पसारने में, अथवा (6) स्थान, शय्या, (वस (स्वाध्याय भूमि) को भोगने में, तथा (7) विक्रिया (विकुर्वणा) करने अथवा (8) परिचारणा (विषयभोग) करने में समर्थ है ? [6 उ.] हाँ, शक्र ! वह गमन यावत् परिचारणा करने में समर्थ है / 7. इमाइं अट उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छति, इमाइं० 2 संभंतियवंदणएणं वंदति, संभंतिय० 2 तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरुहति, 2 जामेव विसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगते / / [7] देवेन्द्र देवराज शक्र ने इन (पूर्वोक्त) उत्क्षिप्त (अविस्तृत-संक्षिप्त) आठ प्रश्नों के उत्तर पूछे, और फिर भगवान् को उत्सुकतापूर्वक (अथवा सम्भ्रमपूर्वक) वन्दत करके उसी दिव्य यान-विमान पर चढ़ कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। विवेचन-शकेन्द्र द्वारा पाठ प्रश्न पूछने का प्राशय-कोई भी सांसारिक प्राणी बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये विना (कोई भी क्रिया कर नहीं सकता, किन्तु देव तो महद्धिक होता है, इसलिए कदाचित् बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही गमनादि क्रिया कर सकता हो, इस सम्भावना से शकेन्द्र ने ये आठ प्रश्न पूछे थे / ' कठिनशब्दार्थ-आगमित्तए—आने में / वागरित्तए-उत्तर देने में / उम्मिसावेत्तए निमिसावेत्तए--आँखें खोलने और बंद करने में / आउंटावेत्तए पसारेत्तए-अवयव सिकोड़ने और फैलाने में ! ठाणं-पर्यकादि अासन, कायोत्सर्ग या स्थित रहना / सेज्ज- शय्या या वसति (उपाश्रय), निसोहियं--निषद्या-स्वाध्याम भूमि / चेइत्तए-उपभोग करने में। परियारेत्तए-परिचारणा करने में / उक्खित्तपसिणवागरणाई-संक्षिप्त प्रश्नों के उत्तर / संभंतिय-उत्सुकता से अथवा संभ्रमपूर्वक--शीघ्रता से / शकेन्द्र के शीघ्र चले जाने का कारण : महाशुक्रसम्यग्दृष्टिदेव के तेज आदि की असहनशोलता-भगवत्कथन 8. भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, 2 एवं बयासी--अन्नदा णं भंते ! सक्के देविदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति, वंदि० 2 सक्कारेति जाव पज्जुवासति, --...- . . . 1. भगवती. अ. वृत्ति, 707 2. (क) वही, पत्र 707 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2539 Page #1823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558 তাসনিম कि णं भंते ! प्रज्ज सक्के देविदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, 2 संभंतियवंदणएमं बंदति०, 2 जाव पडिगए ? 'गोयमा !' दि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वदासि - "एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा माहिड्डीया जाव महेसक्खा एगविमाणसि देवत्ताए उववन्ना, तं जहा--मायिमिच्छादिदिउवबन्नए, अमायिसम्मदिट्टिउववन्नए य / ___ "तए णं से मायिमिच्छादिदिउववन्नए देवे तं अमायिसम्मबिडिउववनगं देवं एवं वदासिपरिणममाणा पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया। 'तए णं से अमायिसम्मट्टिीउववन्नए देवे तं मायि मिच्छवि द्विउवधनगं देवं एवं वासी-. परिणममाणा योग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया। ___ "तं मायिमिच्छविट्ठीउपवन्नगं देवं एवं पडिहण, एवं पडिहणित्ता ओहि पउंजति, प्रोहिं० 2 मम मोहिणा प्राभोएति, ममं० 2 अयमेयारूवे जाव समुपन्जित्था एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दोवे जेणेव भारहे वासे उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया एगजंबुए चेइए प्रहापडिरूवं जाव विहरति, तं सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेति, एवं संहिता चहि वि सामाणियसाहस्सीहिं० परिवारो जहा सूरियाभस्स जाव निम्घोसनाइतरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे दोवे जेणेव भारहे वासे जेणेव उल्लुयतीरे नारे जेणेव एगजंबुए चेतिए जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेस्थ गमणाए / तए णं से सक्के देविदे देवराया तस्स देवस्स तं दिव्वं देविति दिव्वं देवजुति दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणे ममं अट्ठ उविखतपसिणवागरणाई पुच्छति, पु० 2 संभंतिय जाव पडिगए।" [8 प्र.] 'भगवन् ! इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-भगवन् ! अन्य दिनों में (जब कभी) देवेन्द्र देवराज शक (प्राता है, तब) श्राप देवानुप्रिय को वन्दन-नमस्कार करता है, आपका सत्कार-सन्मान करता है, यावत् आपकी पर्युपासना करता है; किन्तु भगवन् ! अाज तो देवेन्द्र देवराज शक्र प्राप देवानुप्रिय से संक्षेप में आठ प्रश्नों के उत्तर पूछ कर और उत्सुकतापूर्वक वन्दना नमस्कार करके शी ही चला गया, इसका क्या कारण है ? [8 उ.] 'गौतम !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-गौतम ! उस काल उस समय में महाशुक्र कल्प के 'महासामान्य' नामक विमान में महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न दो देव, एक ही विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। उनमें से एक मायी मिथ्यादृष्टि उत्पन्न हुआ और दूसरा अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न हुआ। एक दिन उस मायी मिथ्यादृष्टि देव ने श्रमायी सम्यग्दष्टि देव से इस प्रकार कहापरिणमते हुए पुद्गल परिणत' नहीं कहलाते, 'अपरिणत' कहलाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणत हो रहे हैं, इसलिए वे परिणत नहीं, अपरिणत हैं।' Page #1824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [559 सोलहवां शतक : उद्देशक 5] इस पर अमायी सम्यग्दृष्टि देव ने भायी मिथ्यादृष्टि देव से कहा--'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे परिणत हो रहे हैं. इसलिए ऐसे पुद्गल परिणत हैं अपरिणत नहीं। इस प्रकार कहकर अमायो सम्यग्दृष्टि देव ने मायो मिथ्यादृष्टि देव को (युक्तियों एवं तर्को से) प्रतिहत (पराजित) किया। इस प्रकार पराजित करने के पश्चात् अमायी सम्यग्दृष्टि देव ने अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर अवधिज्ञान से मुझे देखा, फिर उसे ऐसा यावत् विचार उत्पन्न हुया कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, उल्लकतीर नामक नगर के बाहर एक जम्बूक नाम के उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यथायोग्य अवग्रह लेकर विचरते हैं। अत: मुझे (वहाँ जा कर) श्रमण भगवान् महावीर को बन्दन-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके यह तथारूप (उपर्युक्त) प्रश्न पूछना श्रेयस्कर है / ऐसा विचार कर चार हजार सामानिक देवों के परिवार के साथ सूर्याभ देव के समान, यावत् निर्घोष-निनादित ध्वनिपूर्वक, जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में उल्लकतीर नगर के एकजम्बूक उद्यान में मेरे पास पाने के लिए उसने प्रस्थान किया। उस समय (मेरे पास आते हुए) उस देव की तथाविध दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (देवप्रभाव) और दिव्य तेजःप्रभा (तेजोलेश्या) को सहन नहीं करता हुमा, (मेरे पास प्राया हुआ) देवेन्द्र देवराज शक्र (उसे देखकर) मुझसे संक्षेप में पाठ प्रश्न पूछ कर शीघ्र ही वन्दना-नमस्कार करके यावत् चला गया। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (8) में शकेन्द्र झटपट प्रश्न पूछ कर वापिस क्यों लौट गया ? गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया गया है।' कठिनशब्दार्थ-मायि-मिच्छादिदिउववन्नए-मायी मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न / अमायिसम्मद्दिट्ठि-उववन्नए-अमायी सम्यग्दृष्टिरूप में उत्पन्न / पडिहणइ-प्रतिहत-पराभूत किया (निरुत्तर किया। दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणेः रहस्य-शकेन्द्र की भगवान के पास से संक्षेप में प्रश्न पूछ कर झटपट चले जाने की अातुरता के पीछे कारण उक्त देव की ऋद्धि, द्युति, प्रभाव, तेज आदि न सह सकना ही प्रतीत होता है। शकेन्द्र का जीव पूर्वभव में कार्तिक नामक अभिनव श्रेष्ठी था और गंगदत्त उससे पहले का (जीर्ण-पुरातन) श्रेष्ठी था / इन दोनों में प्रायः मत्सरभाव रहता था। यही कारण है कि पहले के मात्सर्यभाव के कारण गंगदत्त देव की ऋद्धि प्रादि शकेन्द्र को सहन न हुई।३ सम्यग्दृष्टि गंगदत्त द्वारा मिथ्यावृष्टिदेव को उक्त सिद्धान्तसम्मत तथ्य का भगवान् द्वारा समर्थन, धर्मोपदेश एवं भव्यत्वादि कथन 9. जावं च णं समणे भगवं महावीरे भगवतो गोयमस्स एयम परिकहेति तावं च णं से देवे तं देसं हव्वमागए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) प्र. 756-757 2. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2501 (ख) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 707 3. वही अ. वृत्ति, पत्र 70 Page #1825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560] [व्यख्याप्रज्ञप्तिसूत्रा [6] जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी भगवान् गौतमस्वामी से यह (उपर्युक्त) बात कह रहे थे, इतने में ही वह देव (अमायी सम्यग्दृष्टि देव) शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा / 10. तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमसति, 2 एवं वदासी-"एवं खलु भंते ! महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छद्दिद्विउववन्नए देवे ममं एवं वदासी'परिणममाण पोग्गला नो परिणया, अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया, अपरिणया' / तए णं अहं तं मायिमिच्छद्दिट्टिउववन्नगं देवं एवं वदामि–'परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, परिणमंतीति पोग्गला परिणया, णो अपरिणया। से कहमेयं भंते ! एवं?" [10] उस देव ने पाते ही श्रमण भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन-नमस्कार किया और पूछा--भगवन् ! महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उत्पन्न हुए एक मायी मिथ्यादृष्टि देव ने मुझे इस प्रकार कहा परिणमते हुए पुद्गल अभी 'परिणत' नहीं कहे जा कर अपरिणत कहे जाते हैं, क्योंकि वे पुद्गल अभी परिणम रहे हैं / इसलिए वे 'परिणत' नहीं, अपरिणत ही कहे जाते हैं। तब मैंने (इसके उत्तर में) उस मायी मिथ्यादृष्टि देव से इस प्रकार कहा–'परिणमते हुए पुद्गल 'परिणत' कहलाते हैं, अपरिणत नहीं, क्योंकि वे पुद्गल परिणत हो रहे हैं, इसलिए परिणत कहलाते हैं, अपरिणत नहीं। भगवन् ! इस प्रकार का मेरा कथन कैसा है ?' 11. 'गंगदत्ता !'ई समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वदासी-अहं पि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि० 4 परिणममाणा पोग्गला जाव नो अपरिगया, सच्चमेसे अट्ठ। [11 उ.] 'हे गंगदत्त !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को इस प्रकार कहा-'गगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि परिणमते हुए पुद्गल यावत् अपरिणत नहीं, परिणत हैं / यह अर्थ (सिद्धान्त) सत्य है।' 12. तए णं से गंगदत्त देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियं एयम8 सोचा निसम्म हट्टतुटु० समण भगवं महावीरं वंदति नमसति, 2 नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ / [12] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से यह उत्तर सुनकर और अवधारण करके वह गंगदत्त देव हषित और सन्तुष्ट हुना। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। फिर वह न अतिदूर और न प्रतिनिकट बैठ कर यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगा। 13, तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेति जाव आराहए भवति / [13] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर ने गंगदत्त देव को और महती परिषद् को धर्मकथा कही, यावत्-जिसे सुनकर जीव आराधक बनता है / 14. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवतो महावीरस्स प्रतिये धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० उट्ठाए उट्ठति, उ०२ समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 एवं वदासी–अहं णं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए ? Page #1826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [561 एवं जहा मूरियामो' जाव बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेति, उव० 2 जाव तामेव दिसं पडिगए। [14 प्र.] उस समय गंगदत्त देव श्रमण भगवान महावीर से धर्मदेशना सुनकर और अवधारण करके दृष्ट-तुष्ट हुप्रा और फिर उसने खड़े हो कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! मैं गंगदत्त देव भवसिद्धिक हूँ या प्रभवसिद्धिक ? [14 उ.] हे गंगदत्त ! (राजप्रश्नीय सूत्र के) सूर्याभदेव के समान (यहाँ समग्र कथन समझना / ) फिर गंगदत्त देव ने भी सूर्याभदेववत् बत्तीस प्रकार को नाट्यविधि (नाट्य कला) प्रदशिन की और फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। विवेचन -प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 6 से 14 तक) में गंगदत्त देव द्वारा भगवान् की सेवा में पहुँच कर अपनी पूर्वोक्त शंका का समाधान प्राप्त करके, फिर भगवान् की पर्युपासता करके उनसे धर्मकथा सुनकर तथा अपनी भवसिद्धिकता के विषय में भगवान् से निर्णय प्राप्त करके हृष्टतुष्ट होकर सूर्याभदेववत् नाट्यकला दिखाने का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है / मिथ्यादष्टि और सम्यग्दष्टि देव का कथन-मिथ्यादष्टि देव का कथन था कि-'जो पुद्गल अभी परिणम रहे हैं, उन्हें 'परिणत' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वर्तमानकाल और भूतकाल में परस्पर विरोध है / उन्हें 'अपरिणत' कहना चाहिए।' सम्यग्दृष्टि देव ने उत्तर दिया-परिणमते हुए पुद्गलों को परिणत कहना चाहिए, अपरिणत नहीं, क्योंकि जो परिणमते हैं, उनका अमुक अंश परिणत हो चुका है, अत: वे सर्वथा 'अपरिणत' नहीं रहे। 'परिणमते हैं।' यह कथन उस परिणाम के सद्भाव में ही हो सकता है, असद्भाव में नहीं / जब परिणाम का सद्भाव मान लिया गया हो तो, अमुक अंश में उसकी परिणतता भी अवश्य माननी चाहिए; अन्यथा पुद्गल का अमुक अंश में परिणमन हो जाने पर भी उसको परिणतता का सर्वथा अभाव हो जाएगा / इसीलिए भगवान् ने सम्यग्दृष्टि देव द्वारा कथित तथ्य का समर्थन करते हुए कहा-'सच्चमेसे कठिनशब्दार्थ-जावं जब तक या जिस समय / तावं---तभी / हव्वमागए-शीघ्र पा पहुँचा। जाब शब्द सुचक पाठ---'सम्मादिदी मिच्छादिदी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए, सुलभबोहिए, दुल्न भबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे', इत्यादि / –अ. व. पत्र 708 2. वियाहपण्यत्तिसुत्तं (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 757-758 3. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 777 (ख) भगवनी. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ.' 2542 4. वही, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2545 Page #1827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गंगदत्तदेव की दिव्य ऋद्धि प्रादि के सम्बन्ध में प्रश्न : भगवान द्वारा पूर्वभव-वृत्तान्तपूर्वक विस्तृत समाधान 15. 'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वदासी-गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स सा दिव्या देविट्टी दिव्या देवजुती जाव अणुप्पविट्ठा ? गोयमा! सरीरं गया, सरीरं अणुप्पविट्ठा / कूडागारसालादिद्रुतो जाव सरोरं अणुप्पविट्ठा / अहो ! णं भंते ! गंगदत्ते देवे महिढीए जाब महेसक्खे / [15 प्र.] 'भगवन !' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति यावत् कहाँ गई, कहाँ प्रविष्ट हो गई ?' [15 उ. गौतम ! (गंगदत्त देव की वह दिव्य देवद्धि इत्यादि) यावत् उस गंगदत्त देव के शरीर में गई और शरीर में ही अनुप्रविष्ट हो गई। यहाँ कुटाकारशाला का दृष्टान्त, यावत् वह शरीर में अनुप्रविष्ट हुई, (यहाँ तक समझना चाहिए।). (गौतम-) अहो ! भगवन् ! गंगदत्त देव महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न है ! 16. गंगदत्तेणं भंते ! देवेणं सा दिया देविट्टी दिव्वा देवजुती किण्णा लद्धा जाव जणं गंगदत्तणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमन्तागया? 'गोयमा!" ई समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी--"एवं खलु गोयमा ! "तेणं कालेणं तेणं समयेणं इहेव जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे णाम नगरे होत्था, वण्णओ / सहसंबवणे उज्जाणे, वष्णयो। तत्थ णं हस्थिणापुरे नगरे गंगदत्ते नाम गाहावती परिवसति अड्ढे जाव अपरिभूते।" "तेणं कालेणं तेणं समयेणं मुणिसुध्वए अरहा श्रादिगरे जाव सवण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव पकडिज्जमाणेणं पकड्थिन्जमाणेणं सीसगणसंपरिवुडे पुवाणुपुद्वि चरमाणे गामाणुगामं जाव जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति / परिसा निग्गता जाव पज्जुवासति / " तए णं से गंगदत्ते गाहावती इमीसे कहाए लठे समाणे हद्वतुट्ठ० हाते कतबलिकम्मे जाव सरीरे सातो गिहातो पडिनिक्खमति, 2 पादविहारचारेणं हस्थिणापुर नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव मुणिसुन्धए अरहा तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 मुणिसुव्वयं अरहं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति / " "तए णं मुणिसुन्वए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महति जाव परिसा पडिगता।" "तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुव्वयस्स अरहो अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुद० उढाए उठेति, उ० 2 मुणिसुन्वतं अरहं वंदति नमंसति, वं० 2 एवं वदासी-'सहहामि गं भंते ! निग्गंथ पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह / जे नवरं देवाणुप्पिया ! जेटुपुत्तं कुडुबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुडे जाव पन्वयामि" / 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध। Page #1828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] [ 563 "तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुब्बतेणं अरहया एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ० मुणिसुव्वं अरहं वंदति नमसति, वं० 2 मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणातो पडिनिक्खमति, पडि० 2 जेणेय हस्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 विपुलं असण-पाण० जाव उवक्खडावेह, उव० 2 मित्त-णाति-णियग० जाव पामतेति, आ० 2 ततो पच्छा पहाते जहा पूरणे (स० 3 उ० 2 सु० 19) जाव जेट्टपुत्तं कुडुवे ठावेति, ठा० 2 तं मित्त-णाति० जाव जेट्टपुत्तं च प्रापुच्छति, प्रा० 2 पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहति, पुरिससह० 2 मित्त-णाति-नियग० जाव परिजणेणं जेटुपुत्तेण य समणुगम्ममाणमग्गे सविड्डीए जाव णादितरवेणं हस्थिणापुरं नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 छत्तादिए तित्थगरातिसए पासति, एवं जहा उद्दायणो (स० 13 उ० 6 सु० 30) जाव सयमेव आभरणं ओमुयइ, स० 2 सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, स० 2 जेणेव मुणिसुन्वये अरहा, एवं जहेव उद्दायणो (स० 13 उ० 6 सु० 31) तहेव पन्वइयो। तहेव एक्कारस अंगाई अधिज्जइ जाव मासियाए संलहणाए ट्ठि भत्ताई अणसणाए जाव छेडेति, सदि० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उक्वायसभाए देवसएणिज्जसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने।" "तए णं ते गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छति, तं जहा- आहारपज्जत्तीए जाव भासा-मणपज्जत्तीए।" "एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्या देविड्डी जाव अभिसमन्नागया"। [16 प्र. भगवन ! गंगदत्त देव को वह दिव्य देवद्धि, दिव्य देवद्युति कैसे उपलब्ध हुई ? यावत् जिससे गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि उपलब्ध, प्राप्त और यावत् अभिसमन्वागत (सम्मुख) की? [16 उ.] 'हे गौतम !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहा-"गौतम ! बात ऐसी है कि उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर था / उसका वर्णन पूर्ववत् / वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था / उसका वर्णन भी पूर्ववत् समझना / उस हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त नाम का गाथापति रहता था / वह आढ्य यावत् अपराभूत (अपराजेय) था। उस काल उस समय में धर्म (तीर्थ) की प्रादि (प्रवर्तन) करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी आकाशगत (धर्म) चक्रसहित यावत् देवों द्वारा खींचे जाते हुए धर्मध्वजयुक्त, शिष्यगण से संपरिवृत्त हो कर अनुक्रम से विचरते हुए और ग्रामानुग्राम जाते हुए, यावत् मुनिसुव्रत अर्हन्त थावत् सहस्रा म्रवन उद्यान में पधारे, यावत् यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विचरने लगे। परिषद् वन्दना करने के लिए प्राई यावत् पर्युपासना करने लगी। ___ जब गंगदत्त गाथापति ने भगवान श्रीमुनिसुव्रतस्वामी के पदार्पण की बात सुनी तो वह अतीव हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसने स्नान और बलिकर्म किया यावत् शरीर को अलंकृत करके वह अपने घर से निकला और पैदल चल कर हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ सहस्राम्रवन Page #1829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उद्यान में जहाँ अर्हत् भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचा / तीर्थकर मुनिसुवत प्रभु को तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना विधि से पर्युपासना करने लगा। तत्पश्चात् प्रहन्त मुनिसुव्रतस्वामी ने गंगदत्त गाथापति को और उस महती परिषद् को धर्मकथा कही / धर्मकथा सुनकर यावत् परिषद् लौट गई / तीर्थकर श्रीमुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुनकर और अवधारण करके गंगदत्त गाथापति हृष्टतुष्ट हो कर खड़ा हुआ और भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् आपने जो कुछ कहा, उस पर श्रद्धा करता हूँ। देवानुप्रिय ! विशेष बात यह है कि मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दूगा, फिर ग्राप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित यावत् प्रवजित होना चाहता हूँ।' (श्री मुनिसुव्रतस्वामी ने कहा-) हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो; परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब मत करो। अर्हत् मुनिसुव्रतस्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वह गंगदत्त गाथापति हृष्टतुष्ट हुआ सहस्राम्रवन उद्यान से निकला, और हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था, वहाँ पाया / घर आकर उसने विपुल अशन-पान यावत् तैयार करवाया। फिर अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि को आमंत्रित किया। उसके पश्चात् उसने स्नान किया। फिर (तीसरे शतक के दूसरे उद्देशक सू. 16 में कथित) पूरण सेठ के समान अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब (-कार्य) में स्थापित किया। / तत्पश्चात् अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन आदि तथा ज्येष्ठ पुत्र से अनुमति ले कर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका (पालखी) पर चढ़ा और अपने मित्र, जाति, स्वजन यावत् परिवार एवं ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अनुगमन किया जाता हुआ, सर्वऋद्धि (ठाठबाठ) के साथ यावत् वाद्यों के आघोषपूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में हो कर सहस्राम्रवन उद्यान के निकट पाया। छत्र प्रादि तीर्थकर भगवान् के अतिशय देख कर यावत् (तेरहवें शतक के छठे उद्देशक सू. 30 में कथित) उदायन राजा के समान यावत् स्वयमेव आभूषण उतारे; फिर स्वयमेव पंचमुष्टिक लोच किया। इसके पश्चात् तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के पास जा कर (13 वें शतक, छठे उद्देशक सू. 31 में कथित) उदायन राजा के समान प्रव्रज्या ग्रहण की, यावत् उसी के समान (गंगदत्त अनगार ने) ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत एक मास की संलेखना से साठ-भक्त अनशन का छेदन किया और फिर अालोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त हो कर काल के अवसर में काल करके महाशूक्रकल्प में महासामान्य नामक विमान की उपपातसभा की देवशय्या में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उत्पन्न हुआ ! तत्पश्चात् सद्योजात (तत्काल उत्पन्न) वह गंगदत्त देव पंचविध पर्याप्तियों से पर्याप्त बना / यथा---ग्राहारपर्याप्ति यावत् भाषा-मन:पर्याप्ति / इस प्रकार हे गौतम ! गंगदत्त देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि यावत् पूर्वोक्त प्रकार से उपलब्ध, प्राप्त यावत् अभिमुख की है। विवेचन--गंगदत्त को प्राप्त दिव्य देवद्धि-भगवान् ने गौतम स्वामी के पूछने पर गंगदत्त की दिव्य देवद्धि आदि का कारण पूर्वभव में हस्तिनापुर नगर के सम्पन्न और अपराभूत गंगदत्त नामक Page #1830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 5] गृहस्थ द्वारा भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी का धर्मोपदेश सुन कर संसार से विरक्त होकर मुनिसुव्रतस्वामी के पास श्रमणधर्म में प्रवजिन होकर सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यक् अाराधना करना कहा है / साथ ही अन्तिम समय में एक मास का संलेखना-संथारा गहण करके समाधिपूर्वक मरण प्राप्त करना भी कहा है / इन्हीं कारणों से उसे महाशुक्र देवलोक में इतनी दिध्य देव-ऋद्धि-द्युति आदि प्राप्त हुई / ' कठिनशब्दार्थ-पाङ्गज्जमाणेणं-खीचे जाते हए / कुटुबे ठावेमि-- कौटुम्बिक कार्यभार में स्थापित करूंगा, कुटुम्ब का दायित्व सौंपूगा / उक्खडावेइ—पकवाया, तैयार करवाया। पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त-इसलिए कहा गया है कि देवों में भाषापर्याप्ति और मन:पर्याप्ति सम्मिलित बंधती है। गंगदत्तदेव की स्थिति तथा भविष्य में मोक्षप्राप्ति का निरूपण 17. गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा ! सत्तरससागरोवमाई ठिती पन्नत्ता। [17 प्र.] भगवन् ! गंगदत्त देव की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [17 उ.] गौतम ! उसकी सत्तरह सागरोपम की स्थिति कही है। 18. गंगदत्ते णं भंते ! देवे तानो देवलोगाओ आउक्खएणं जाव० ? महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भते ! ति। // सोलसमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो // 16. 5 // [18 प्र. भगवन् ! गंगदत्त देव उस देवलोक से आयुष्य का क्षय, भव और स्थिति का क्षय होने पर च्यव कर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा? [18 उ.] गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // सोलहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहण्णत्तिसुत्तं, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 74-760 2 भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2547, 2549 Page #1831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टो उद्देसओ : 'सुमिणे छठा उद्देशक : स्वप्न-दर्शन स्वप्न-दर्शन के पांच प्रकार 1. कतिविधे णं भंते ! सुविणदंसणे पन्नते ? गोयमा ! पंचविहे सुविणदसणे पन्नते, तं जहा-प्रहातच्चे पयाणे चितासुविणे तश्विवरीए प्रवत्तदसणे। [1 प्र. भगवन् ! स्वप्न-दर्शन कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! स्वप्नदर्शन पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) यथातथ्य स्वप्नदर्शन (2) प्रतान स्वप्नदर्शन, (3) चिन्ता स्वप्न-दर्शन, (4) तद्विपरीत स्वप्नदर्शन, और (5) अव्यक्त स्वप्न-दर्शन / विवेचन--स्वप्नदर्शन : स्वरूप, प्रकार और लक्षण-सुप्त अवस्था में किसी भो अर्थ के कल्प का प्राणी को जो अनुभव होता है, चलचित्र के देखने का-सा प्रत्यक्ष होता है, वह स्वप्नदर्शन कहलाता है / इसके पांच प्रकार हैं, जिनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं--- (1) अहातच्चे : दो रूप : दो अर्थ - (1) यथातथ्य और (2) यथातत्त्व-स्वप्न में जिस अर्थ को देखा गया, जागृत होने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभाशुभ फल की प्राप्ति होना यथातथ्य-स्वप्नदर्शन है। इसके दो प्रकार हैं-(१) दृष्टार्थाविसंवादी-स्वप्न में देखे हुए अर्थ के अनुसार जागृत अवस्था में घटना घटित होना / जैसे-किसी व्यक्ति ने स्वप्न में देखा कि मेरे हाथ में किसी ने फल दिया। जागत होने पर उसी प्रकार की घटना घटित हो, अर्थात्-कोई उसके हाथ में फल दे दे। (2) फलाविसंवादी-स्वप्न के अनुसार जिसका फल (परिणाम) अक फलाविसंवादी स्वप्नदर्शन है / जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने आपको हाथी प्रादि पर बैठे देखा, जागन होने पर कालान्तर में उसे धनसम्पत्ति प्रादि की प्राप्ति हो। (2) प्रतान-स्वप्नदर्शन--प्रतान का अर्थ है--विस्तार / विस्तारवाला स्वप्न देखना प्रतानस्वप्नदर्शन है, यह सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। (3) चिन्तास्वप्नदर्शन-जागृत अवस्था में जिस वस्तु की चिन्ता रही हो, अथवा जिस अर्थ का चिन्तन किया हो, स्वप्न में उसो को देखना, चिन्ता-स्वप्न-दशन है। (4) तद्विपरीत स्वप्नदर्शन--स्वप्न में जो वस्तू देखो हो, जागत होने पर उसके विपरीत वस्तु को प्राप्ति होना, तदविपरीत स्वप्नदर्शन है। जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने शरीर को विष्टा से लिपटा देखा, किन्तु जागृतावस्था में कोई पुरुष उसके शरीर को शुचि पदार्थ (चंदन आदि) से लिप्त करे। (5) अव्यक्त-स्वप्नदर्शन–स्वप्न में देखो हुई वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना, अव्यक्तस्वप्नदर्शन है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 710 Page #1832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [567 सुप्त-जागृत-अवस्था में स्वप्नदर्शन का निरूपण 2. सुत्ते णं भंते ! सुविणं पासति, जागरे सुविणं पासति, सुत्तजागरे सुविणं पासति ? गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासति, नो जागरे सुविणं पासति, सुत्तजागरे सुविणं पासति / [2 प्र.] भगवन् ! सोता हुग्रा प्राणी स्वप्न देखता है, जागता हुआ देखता है, अथवा सुप्तजागृत (सोता-जागता) प्राणी स्वप्न देखता है ? [2 उ.] गौतम ! सोता हुआ प्राणी स्वप्न नहीं देखता, और न जागता हुप्रा प्राणी स्वप्न देखता है, किन्तु सुप्त-जागत प्राणी स्वप्न देखता है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (2) में स्वप्नदर्शन-सम्बन्धी प्रश्न द्रव्यनिद्रा (द्रव्यतः सुप्त) की अपेक्षा से किया गया है / इस दृष्टि से स्वप्न-दर्शन न तो द्रव्यनिद्रावस्था में होता है, और न द्रव्य जागृतावस्था में, किन्तु द्रव्यत: सुप्तजागत-अवस्था में होता है।' जीवों तथा चौवीस दण्डकों में सुप्त, जागृत एवं सुप्त-जागृत का निरूपण 3. जीवा णं भंते ! कि सुत्ता, जागरा, सुत्तजागरा? गोयमा ! जीवा सुत्ता वि, जागरा वि, सुत्तजागरा वि / [3 प्र.] भगवन् ! जीव सुप्त हैं, जागृत हैं अथवा सुप्त-जागृत हैं ? [3 उ.] गौतम ! जीव सुप्त भी हैं, जागृत भी हैं और सुप्तजागृत भी हैं / 4. नेरतिया णं भंते ! कि सुत्ता० पुच्छा। गोयमा! नेरइया सुत्ता, नो जागरा, नो सुत्तजागरा / [4 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सुप्त हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [4 उ.] गौतम ! नैरयिक सुप्त है, जागृत नहीं है और न वे सुप्तजागृत हैं। 5. एवं जाव चरिदिया। [5 प्र.] इसी प्रकार (भवनपतिदेवों से लेकर) यावत् (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और) चतुरिन्द्रिय तक कहना चाहिए। 6. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि सुत्ता० पुच्छा। गोयमा ! सुत्ता, नो जागरा, सुत्तजागरा वि / [6 प्र.] भगवन् ! पचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव सुप्त हैं, या सुप्त-जागत हैं) इत्यादि [6 उ.] गौतम ! वे सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं, सुप्त-जागृत भी हैं / 7. मणुस्सा जहा जीवा / [7] मनुष्यों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों के समान (तीनों) जानना चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 711 Page #1833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया / [8] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिक जीवों के समान (सुप्त जानना चाहिए। विवेचन -प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 3 से 8 तक) में सामान्य जीवों और चौबीस दण्डकों में भावतः सुप्त, जागृत एवं सुप्तजागृत को दृष्टि से निरूपण किया गया है / द्रव्य और भाव से सुप्त आदि का आशय -सुप्त और जागृत दो प्रकार से कहा जाता हैद्रव्य की अपेक्षा से और भाव की अपेक्षा से / निद्रा लेना द्रव्य से सोना है और विरति-रहित अवस्था भाव से सोना है। स्वप्न सम्बन्धी प्रश्न द्रव्यसुप्त की अपेक्षा से है / प्रस्तुत में सुप्त, जागृत एवं सुप्तजागत-सम्बन्धी प्रश्न विरति (भाव) की अपेक्षा से है। जो जीव सर्वविरति से रहित हैं, वे भावतः सुप्त हैं / जो जोव सर्वविरत हैं, वे भाव से जागृत हैं और जो जीव देशविरत हैं, वे सुप्त-जागृत (भावतः सोते-जागते) हैं।' संवत आदि में तथारूप स्वप्न-दर्शन की तथा इनमें सुप्त आदि की प्ररूपणा 9. संबुडे गं भंते ! सुविणं पासति, असंबुडे सुविणं पासति, संवुडासंवुडे सुविणं पासति ? गोयमा! संबुडे वि सुविणं पासति, असंखुडे वि सुविणं पासति, संवुडासंबुडे वि सुविणं पासति / संबुडे सुविणं पासति-अहातच्चं पासति / असंवुडे सुविणं पासति--तहा तं होज्जा, अन्नहा वा तं होज्जा / संवुडासंवुडे सुविणं पासति एवं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! संवृत जोय स्वप्न देखता है, असंवृत जीव स्वप्न देखता है अथवा संवृतासंवृत जीव स्वप्न देखता है ? [6 उ.] गौतम ! संवृत जीव भी स्वप्न देखता है, असंवृत भी स्वप्न देखता है और संवतासंवत भी स्वप्न देखता है / संवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है / असंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह सत्य (तथ्य) भी हो सकता है और असत्य (अतथ्य) भी हो सकता है। संवृतासंवृत जीव जो स्वप्न देखता है, वह भी असंवृत के समान (सत्य-असत्य दोनों प्रकार का) होता है / 10. जीवा णं भंते ! कि संवुडा, असंवुडा, संखुडासंवुडा ? गोयमा ! जीवा संवुडा वि, असंबुडा वि, संखुडासंधुडा वि / [10 प्र. भगवन् ! जीव संवृत हैं, असंवृत हैं अथवा संवृतासंवृत हैं ? [10 उ.] गौतम ! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं और संवृतासंवृत भी हैं। 11. एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियब्यो / [11] जिस प्रकार सुप्त, (जागृत और सुप्त-जागृत) जीवों का दण्डक (पालापक) कहा, उसी प्रकार इनका भी कहना चाहिए / / 1. (क) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधाऽभावात् सुप्तः, सर्वविरतिरूपप्रवरजागरण-सद्भावात् जाग्रत्, तथा अविरति-विरतिरूपप्रसुप्ति-प्रबुद्धतासद्भावात् सुप्त-जाग्रत इति / -भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 711 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2555 Page #1834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [569 विवेचन --संवृत, असंवृत और संवतासंवृत का स्वरूप और जागृत प्रावि में अन्तर---जिसने माधवनारों का निरोध कर दिया है. वह सर्वविरत श्रमण संवत कहलाता है / जिसने पाश्रवद्वारों का निरोध नही किया है, वह असवृत है और जिसने आंशिक रूप से प्राश्रवद्वारों का निरोध किया है, अांशिक रूप से आश्रवद्वारों का निरोध नहीं किया है, वह संवतासंवत है। संवत और जागत में केवल शाब्दिक अन्तर है, अर्थ की अपेक्षा से नहीं। दोनों सर्वविरत कहलाते हैं। बोध की अपेक्षा से सर्वविरतियुक्त मुनि जागृत कहलाता है, जब कि तथाविध बोध से युक्त मुनि सर्वविरति की अपेक्षा से संवृत कहलाता है / इसी प्रकार असंवृत और अविरत तथा संवृतासंवत और बिरताविरत में भी अर्थ की दृष्टि मे कोई अन्तर नहीं है। संवत शब्द से यहाँ विशिष्टतर संवृतत्वयुक्त मुनि का ग्रहण किया गया है / वह प्राय : कर्मफल के क्षीण होने से तथा देवानुग्रह से युक्त होने से यथार्थ (सत्य) स्वप्न ही देखता है / दूसरे प्रसंवृत और संवृतासंवत जीव तो यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार के स्वप्न देखते हैं।' कठिन शब्दार्थ--संवुडे-संवत मुनि / संवुडासंवुडे-संवतासंवृत-विरताविरत श्रावक / ' संवृत आदि को जागृत आदि से तुलना-भावसुप्त की तरह असंवृत भी भावतः सुप्त होता है, संवृत भावतः जागृत होता है / और संवृतासंवृत भावतः सुप्तजागृत होता है / स्वप्नों और महास्वप्नों को सख्या का निरूपण 12. कति णं भंते ! सुविणा पनत्ता? गोयमा ! बायालीसं सुविणा पन्नत्ता / [12 प्र.] भगवन् ! स्वप्न कितने प्रकार के होते हैं ? 112 उ.] गौतम ! स्वप्न बयालीस प्रकार के कहे गये हैं। 13. कति णं भंते ! महासुविणा पन्नत्ता ? गोयमा ! तीसं महासुविणा पन्नत्ता। [13 प्र.) भगवन् ! महास्वप्न कितने प्रकार के कहे गये हैं ? {13 उ.] गौतम ! महास्वप्न तीस प्रकार के कहे गए हैं। 14. कति णं भंते ! सब्वसुविणा पन्नत्ता ? गोयमा ! बावरि सव्व सुविणा पन्नत्ता। | 14 प्र.] भगवन् ! सभी स्वप्न कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [14 उ.] गौतम ! सभी स्वप्न वहत्तर कहे गए हैं ? विवेचन-विशिष्ट फलसूचक स्वप्नों की संख्या-वैसे तो स्वप्न असंख्य प्रकार के हो सकते हैं, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 711 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2556 2. वही, पृ. 2556 3. वियाहपण्णत्तिसुत्त भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 761-762 Page #1835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 570] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र किन्तु विशिष्ट फलसूचक स्वप्नों की अपेक्षा 42 हैं, तथा महत्तम फलसूचक होने से 30 महास्वप्न बतलाए गए हैं / कुल मिलाकर दोनों प्रकार के स्वप्नों की संख्या 72 बतलाई गई है।' तीर्थंकरादि महापुरुषों की माताओं को गर्भ में तीर्थंकरादि के आने पर दिखाई देने वाले महास्वप्नों की संख्या का निरूपण 15. तित्ययरमायरो णं भंते ! तित्थगरंसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति? गोयमा ! तित्थगरमायरो णं तित्थगरंसि गभं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबझंति, तं जहा-गय-वसभ-सीह जाव सिहि च / [15 प्र.] भगवन् ! तीर्थंकर का जीव जब गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माताएँ कितने महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं ? 15 उ. गौतम ! जब तीर्थंकर का जीव गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माताएँ इन तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न देख कर जागृत होती हैं। यथा-गज, वृषभ, सिंह यावत् अग्नि / 16. चक्फट्टिमायरो णं भंते ! चक्कट्रिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासविणे जाव बज्झति? गोयमा ! चक्कट्टिमायरो चक्कट्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासु० एवं जहा तित्थगरमायरो जाव सिहि च / [16 प्र.] भगवन् ! जब चक्रवर्ती का जीव गर्भ में आता है, तब चक्रवर्ती की माताएँ कितने महास्वानों को देख कर जागृत होती हैं ? [16 उ.] गौतम ! चक्रवर्ती का जीव गर्भ में आता है, तब चक्रवर्ती की माताएं इन (पूर्वोक्त) तीस महास्वप्नों में से तीर्थकर की माताओं के समान चोदह महास्वप्नों को देख कर जागृत होती हैं / यथा-गज यावत् अग्नि / 17. वासुदेवमायरो णं पुच्छा। गोयमा ! वासुदेवमायरो जाव बक्कममाणसि एएसि चोदसण्हं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति। [17 प्र.] भगवन् ! वासुदेव का जीव जब गर्भ में प्राता है, तब वासुदेव को माताएँ कितने महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं ? [17 उ.] गौतम ! वासुदेव का जीव जब गर्भ में आता है, तब बासुदेव की माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई भी सात महास्वप्न देख कर जागृत होती हैं / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 711 Page #1836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [571 18. बलदेवमायरो० पुच्छा / गोयमा ! बलदेवमायरो जाव एएसि चोइसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझति / [18 प्र.] भगवन् ! वलदेव का जीव जब गर्भ में प्राता है, तब बलदेव की माताएँ कितने स्वप्न""इत्यादि पृच्छा ? [18 3. गौतम ! बलदेव की माताएँ, यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देख कर जागृत होती हैं / 19. मंडलियमायरो णं भंते ! मं० पुच्छा। गोयमा ! मंडलियमायरो जाव एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एग महासुविणं जाव पडिबुज्झति / [19 प्र.] भगवन् ! माण्डलिक का जीव गर्भ में आने पर माण्डलिक की माताएँ........ इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [19 उ.] गौतम ! माण्डलिक की माताएँ यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किसी एक महास्वप्न को देख कर जागृत होती हैं / विवेचन--विशिष्ट महापुरुषों के जगत् में आने के संकेत : महास्वप्नों द्वारा-तीर्थकर, चक्रवर्ती ग्रादि श्लाघ्य पुरुष जगत् में जब गर्भ में आते हैं, उनके आने के शुभसंकेत उनकी माताओं को दिखाई देने वाले स्वप्नों से प्राप्त हो जाते हैं। किसकी माता को कितने महास्वप्न दिखाई देते हैं, उनकी यहाँ एक संक्षिप्त तालिका दी जाती है' |१तीर्थकर की माता को 14 2. चक्रवर्ती की माता को 14 3. बासदेव की माता को 7 4. बलदेव की माता को 4 5. माण्डलिक को माता को 1 कठिन शब्दार्थ-पासित्ताणं-देखकर / पडिबुझंति—जागृत होती हैं। महासुविणाणं-महास्वप्नों में से / अन्नयरे-किन्हीं।' विशेष--जब तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती का जीव नरक से निकल कर आता है तो उनको माना 'भवन' देखती है और जब देवलोक से च्यव कर पाता है तो 'विमान' देखती है। 1. वियाहपण्णत्तिसुतं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 762-763 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, प. 2558 3. वही, भा. 5, पृ. 2559 Page #1837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रप्तिसूत्र भगवान महावीर को छद्मस्थावस्था की अन्तिम रात्रि में दिखाई दिये 10 स्वप्न और उनका फल 20. समणे भगवं महावीरे छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध, तं जहा - एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ताणं पडिबुद्ध 1 / एगं च णं महं सुविकलपक्खगं पुंसकोइलं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 2 / एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्खगं पुसकोइलगं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 3 / एगं च णं महं दामदुर्ग सव्वरयणामयं सुविणे पालित्ताणं पडिबुद्ध 4 / एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 5 / एमं च णं महं पउमसरं सम्वतो समंता कुसुमियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 6 / एगं च णं महं सागरं उम्मीवोयीसहस्सकलियं भुयाहि तिण्णं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 7 / एगं च णं महं दिणकरं तेयसा जलंतं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 8 / एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तर पव्वयं सव्वतो समंता प्रावेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 9 / एगं च णं महं मंदरे पब्बए . मंदरचूलियाए उरि सोहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध 10 / [20] श्रमण भगवान् महावीर अपने छद्मस्थ काल की अन्तिम रात्रि में इन दस महास्वप्नों को देख कर जागत हए / वे इस प्रकार हैं-(१) एक महान घोर (भयंकर) और तेजस्वी रूप वाले ताड़वृक्ष के समान लम्बे पिशाच को स्वप्न में पराजित किया, ऐसा स्वप्न देखकर जागृत हुए। (2) श्वेत पाँखों वाले एक महान् पुस्कोकिल (नरजाति के कोयल) को स्वप्न में देखकर जागृत हुए / (3) चित्र-विचित्र पंखों वाले पुस्कोकिल को स्वप्न में देख कर जागृत हुए। (4) स्वप्न में सर्वरत्नमय एक महान् मालायुगल को देख कर जागृत हुए। (5) स्वप्न में श्वेतवर्ण के एक महान् गोवर्ग को देख कर प्रतिबद्ध हए। (6) चारों ओर से पूष्पित एक महान पद्मसरोवर को स्वप्न में देखकर जागत हुए। (7) सहस्रों तरंगों (लहरों) और कल्लोलों से कलित (सुशोभित) एक महासागर को अपनी भजाओं से तिरे,ऐसा स्वप्न देख कर जागत हए।(८) अपने तेज से जाज्वल्यमान एक महान दिवाकर (सूर्य) को स्वप्न में देख कर जागृत हुए। (6) एक महान् (विशाल) मानुषोत्तर पर्वत को नील वैडूर्य मणि के समान अपने अन्तर भाग (प्रान्तों) से चारों ओर से प्रावेष्टित-परिवेष्टित देख कर जागत हुए। (10) महान् मन्दर (सुमेरु पर्वत की मन्दर-चलिका पर श्रेष्ठ सिहासन पर बैठे हुए अपनेआपको देखकर जागृत हुए / 21. जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सविणे पराजियं पा० जाव पडिबुद्ध तं गं समणेणं भगवता महावीरेणं मोहणिज्जे कम्मे मूलओ उग्धातिए 1 / जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं सुविकल जाव पडिबुद्ध तं गं समणे भगवं महावीरे सुक्कज्झाणोवगए विहरति 2 / जंणं समणे भगवं महावीरे एगं महं चित्तविचित्त जाव पडिबुद्ध तं गं समणे भगवं महावीरे विचित्तं ससमय-परसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं प्राघवेति पनवेति परवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तं जहा-आयारं सूयगडं जाव दिट्टिवायं 3 / जं गं समणे भगवं महावीरे एगं महं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्ध तं णं समणे भगवं महावीरे दुविहं धम्मं पनवेति, तं जहा Page #1838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [573 प्रगारधम्म वा अणगारधम्म वा 4 / जंगं समणे भगवं महावीरे एगं महं से यं गोवरगं जाव पडिबुद्ध तं णं समणस्स भगवतो महावीरस्स चाउवण्णाइण्णे समणसंघे, तं जहा–समणा समणीओ सावगा सावियाओ 5 / जे णं समणे भगवं महावीरे एग महं पउमसरं जाव पडिबद्ध तं मं समणे जाव वीरे चविहे देवे पण्णवेति, तं जहा-भवणवासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए 6 / ज णं समणे भगवं महावीरे एगं महं सागरं जाव पडिबुद्ध तं णं समणेणं भगवता महावीरेण अणादीए अणबदग्गे जाव संसारकतारे तिण्णे 7 / ज णं समणे भगवं महावीरे एगं महं दिणकरं जाव पडिबुद्ध त समणस्स भगवतो महावीरस्स अणंते अणुत्तरे जाव' केवलवरनाण-दसणे समुप्पन्न 8 / जं णं समणे जाव वीरे एग महं हरिवलिय जाव पडिबुद्ध तं गं समणस्स भगवतो महावीरस्स ओराला कित्तिवण्णससिलोया सदेवमणुयासुरे लोगे परितुवंति---'इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीर' 9 / जं गं समणे भगवं महावीर मंदरे पन्वते मंदरचलियाए जाव पडिबद्ध तं णं समणे भगवं महावीरे सदेवमणुयासुराए परिसाए मशगए केवली धम्म प्राधवेति जाव उवदंसेति 10 / [21] प्रथम स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर ने जो एक महान भयंकर और तेजस्वी रूप वाले ताइवक्षसम लम्बे पिशाच को पराजित किया हुना देखा, उसका फल यह हुआ कि श्रमण भगवान् महावीर ने मोहनीय कर्म को समूल नष्ट किया / / 1 / / दूसरे स्वप्न में जो श्रमण भगवान महावीर श्वेत पंख वाले एक महान पुस्कोकिल को देखकर जागृत हुए, उसका फल यह कि भगवान् महावीर शुक्लध्यान प्राप्त करके विचरे / / 2 // तीसरे स्वप्न में श्रमण भगवान् महावीर जो चित्र-विचित्र पंखों वाले एक पुस्कोकिल को देख कर जागृत हुए, उसका फल यह हुआ कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्वसमय-परसमय के विविध-विचार-युक्त (चित्र-विचित्र) द्वादशांग गणिपिटक का कथन किया, प्रज्ञप्त किया, प्ररूपित किया, दिखलाया, निदर्शित किया और उपर्शित किया / यथा--प्राचार (प्राचारांग) सूत्रकृत (सूत्रकृतांग) यावत् दृष्टिवाद / / 3 / / चौथे स्वप्न में भगवान महावीर, जो एक सर्वरत्नमय महान मालायुगल को देख कर जागृत हुए, उसका फल यह कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दो प्रकार का धर्म बतलाया। यथा---अगारधर्म और अनगार-धर्म / / 4 / / पाँचवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर एक श्वेत महान् गोवर्ग देख कर जागृत हुए, उसका फल यह कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चातुर्वर्ण्य-युक्त (चार प्रकार का) श्रमण संघ हुआ / यथा-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका // 5 // छठे स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर एक कुसुमित पद्मसरोवर को देख कर जागृत हुए, उसका फल यह कि श्रमण भगवान महावीर ने चार प्रकार के देवों की प्ररूपणा की। यथा-भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / / 6 / / 1. 'जाव' पद-सुनक पाठ-—निवाघाए, निरावरणे कसिणे पडिपूष्णे। Page #1839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सातवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर हजारों तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को अपनी भुजाओं से तिरा हुमा देख कर जागृत हुए, उसका फल यह है कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनादि-अनन्त यावत् संसार-कान्तार को पार कर गए / / 7 / / आठवें स्वप्न में श्रमण भगवान महावीर, तेज से जाज्वल्यमान एक महान् दिवाकर को देख कर जागृत हुए, उसका फल यह कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को अनन्त, अनुत्तर, निरावरण, निर्व्याघात, समप्र, और प्रतिपूर्ण श्रेष्ठ केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ / / 8 / / नौवें स्वप्न में भगवान महावीर स्वामी एक महान् मानुषोत्तर पर्वत को नोल वैडूर्यमणि के समान अपनी प्रांतों से चारों ओर अावेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ देखा, उसका फल यह कि देवलोक असरलोक और मनुष्यलोक में श्रमण भगवान महावीर स्वामी केवलज्ञान-दर्शन के धारक हैं, श्रमण भगवान् महावीर स्वामो ही केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक हैं, इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी उदार कीति, वर्ण (स्तुति), शब्द (सम्मान या प्रशंसा) और श्लोक (यश) को प्राप्त हुए / / / / दसवें स्वप्न में श्रमण भगवान् स्वामी एक महान् मेरुपर्वत की मन्दर-चूलिका पर अपने आपको सिंहासन पर बैठे हुए देख कर जागृत हुए उसका फल यह कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने केवलज्ञानो होकर देवों मनुष्यों और असुरों को परिषद् के मध्य में धर्मोपदेश दिया यावत् (धर्म) उपदर्शित किया / विवेचन - प्रस्तुत दो सूत्रों (20-21) में शास्त्रकार ने भगवान् महाबोर द्वारा छद्माथअवस्था को अन्तिम रात्रि में देखे गए दस स्वप्नों तथा उन दसों के क्रमशः फल का वर्णन किया है / छउमत्थकालियाए अंतिमराइयंसिः--दो अर्थ-इस पाठ के दो अर्थ मिलते हैं -(1) छद्मस्थावस्था की अन्तिम रात्रि में अर्थात-जिस रात्रि में ये स्वप्न देखे थे, उसके पश्चात उसी रात्रि में भगवान् छद्मस्थावस्था से निवृत्त होकर केवलज्ञानो हो गए थे। (2) छद्मस्थावस्था को रात्रि के अन्तिम भाग (पिछले प्रहर) में / यहाँ किसो रात्रिविशेष का निर्देश नहीं किया गया है, किन्तु महापुरुषों द्वारा देखे हुए शुभस्वप्नों का फल तत्काल हो मिला करता है। अतः इन दोनों अर्थों में से पहला अर्थ ही उचित एवं संगत प्रतीत होता है / ' कठिनशब्दार्थ तालपिसायं--ताड़ वृक्ष के समान लम्बा पिशाच / सुक्किलपक्खगं ---सफेद पांखों वाले। पसकोइलं-स्कोकिल-पूरुषजाति का कोयल / दामदुर्ग-माला-युगल / सेयं. श्वेत / उम्मोवीयोसहस्स-कलियं--हजारों तरंगों और बोचियों (छोटी तरंगों) से कलित आवेढियं चारों ओर से वेष्टित / परिवेढियं-बारंबार वेष्टित / तेणं-(१) प्रांतों से, अथवा अन्तरंगभागों से / हरिवेरुलियवण्णाभेणं-हरित (नोल) वैडूर्यमणि के वर्ण के समान / आघवेइसामान्य-विशेष रूप से कथन करते हैं। पनवेइ-सामान्य रूप से प्रशप्त करते हैं। परूवेइ–प्रत्येक सूत्र का अर्थपूर्वक विवेचन करते हैं / दसेइ-उसे सकल नय-युक्तियों से बतलाते हैं। निदंसेइ-अनुकम्पा पूर्वक निश्चित वस्तुम्वरूप का पुनः पुनः कथन करते हैं या उदाहरण पूर्वक समझाते हैं। चाउव 1. (क) 'रात्रे रन्तिमे भागे' -भगवती अ. वृत्ति. पत्र 711 (ख) भगवनी. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2561 Page #1840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [575 ण्णाइण्णे- ज्ञानादिगुणों से प्राकीर्ण (व्याप्त) चातुर्वर्ण्य (चतुर्विध) संघ / उग्घाइए-नष्ट किया / ओराला--उदार / ' एक-दो भव में मुक्त होने वाले व्यक्तियों को दिखाई देने वाले 14 प्रकार के स्वप्नों का संकेत 22. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हयपंति वा गयति वा जाव' उसभपति वा पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरुहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेक बुज्झति, तेणेव भवगहणणं सिझति जाव अंतं करेति / [22] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् अश्वपंक्ति, गजपंक्ति अथवा यावत् वृषभ-पक्ति का अवलोकन करता हुआ देखे, और उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता हुआ चढ़े तथा अपने आपको उस पर चढ़ा हुआ माने ऐसा स्वप्न देख कर तुरन्त जागृत हो. तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 23. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणेते एगं महं दामिणि पाईणपडीणायतं दुहओ समुद्दे पुटु पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेण जाव अंतं करेइ / [23] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, समुद्र को दोनों ओर से छूती हई, पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत एक बड़ी रस्सी (गाय आदि को बांधने की रस्सी) को देखने का प्रयत्न करता हमा देखे, अपने दोनों हाथों से उसे समेटता हना समेटे, फिर अनूभव करे कि मैंने स्वयं रस्सी को समेट लिया है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जागृत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 24. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं रज्जु पाईणपडीणायतं दुहतो लोगते पुढे पासमाणे पासति, छिदमाणे छिदइ, छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव अंतं करेइ / [24] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, दोनों प्रोर लोकान्त को स्पर्श की हुई तथा पूर्व-पश्चिम लम्बी एक बड़ी रस्सी को देखता हुआ देखे, उसे काटने का प्रयत्न करता हा काट डाले / (फिर) मैंने उसे काट दिया, ऐसा स्वयं अनुभव करे, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग जाए तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 25. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं किण्हसुत्तगं वा जाव सुक्किलसुत्तगं वा पासमाणे पासति, उग्गोवेमाणे उम्गोवेइ, उग्गोवितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव जाव अंतं करेति / [25] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, एक बड़े काले सूत को या सफेद सूत को देखता हुआ देखे, और उसके उलझे हुए पिण्ड को सुलझाता हुआ सुलझा देता है और मैंने उसे सुलझाया 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 711 2, 'जाव' यद सूचक पाठ-'नरपंति' बा किन्नर-किंपरिस-महोरग-गंधव्व त्ति / ' Page #1841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576] [আসক্তি है, ऐसा स्वयं को माने, ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र ही जागृत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, . यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 26. इत्यो वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं अपरासि वा तंबरासि वा तउयरासि वा सोसगरासि वा पासमाणे पासति, दुरूहमाणे दुरूहति, दुरूवनिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झइ, दोच्चे भवग्गणे सिज्झति जाव अंतं करेति / [26] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक बड़ी लोहराशि, तांबे को राशि, कथीर शि, अथवा शीशे की राशि देखने का प्रयत्न करता हझा देखे / उस पर चढ़ता हमा चढ़े तथा अपने आपको (उस पर) चढ़ा हुआ माने / ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जागृत हो, तो वह उसी भव में सिद्ध होता है. यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 27. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हिरणसि वा सुवण्णरासि वा रयणरासि वा वइररासि वा पासमाणे पासइ, दुरूहमाणे दुरूहइ, दुरूढमिति प्रप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गणेणं सिज्झति जाव अंतं करेति / [27] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में एक महान् चांदी का ढेर, सोने का ढेर, रत्नों का ढेर अथवा वज़ों (हीरों) का ढेर देखता हुआ देखे, उस पर चढ़ता हुआ चढ़े, अपने पापको उस पर चढ़ा हुया माने, ऐसा स्वप्न देखकर तत्क्षण जागृत हो, तो वह उसो भव में सिद्ध होता है, यावत् सब दुखों का अन्त करता है / 28. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं तणरासि वा जहा तेयनिसग्गे (स० 15 सु० 82) जाव' अवकररासि वा पासमाणे पासति, विविखरमाणे विक्खिरइ, विविखण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव अंतं करेति / [28] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् तृणराशि (घास का ढेर) तथा तेजोनिसर्ग नामक पन्द्रहवें शतक के (सू. 82 के) अनुसार यावत् कचरे का ढेर देखता हुआ देखे, उसे बिखेरता हया बिखेर दे, और मैंने बिखेर दिया है, ऐसा स्वयं को माने, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जागत हो तो वह उसो भव में सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। 26. इत्यो वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं सरथमं था वोरणथंभं वा वंसोमूलभ वा वल्लीमूलमं वा पासमाणे पासति, उम्मूलेमाणे उम्मूलेइ, उम्मूलितमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव अंतं करेति / [26] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् सर-स्तम्भ, वीरण-स्तम्भ, वंशीमूलस्तम्भ अथवा वल्लोमूल-स्तम्भ को देखता हुप्रा देखे, उसे उखाड़ता हुआ उखाड़ फेंके तथा ऐसा माने 1. जाव' पद सूचक पाठ-'पत्तरासीति तयारासीति भसरासीति तुसरासीति वा गोमयरासीति वा........ / ' ---अ. द. पत्र 713 Page #1842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [577 कि मैंने इनको उखाड़ फेंका है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / 30. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं खीरकुभं वा दधिकुंभं वा घयकुभं वा मधुकुभं वा पासमाणे पासति, उप्पाडेमाणे' उप्पाडेति, उपाडितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति / [30] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् क्षीरकुम्भ, दधिकुम्भ, घृतकुम्भ, अथवा मधुकुम्भ देखता हुआ देखे और उसे उठाता हुआ उठाए तथा ऐसा माने कि स्वयं ने उसे उठा लिया है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह व्यक्ति उसी भव में सिद्ध हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / 31. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं सुरावियउकुभं वा सोवीरगवियडकुभं वा तेल्लकुभं वा वसाकुभ वा पासमाणे पासति, भिदमाणे भिदति, भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोच्चेणं भव० जाव अंतं करेति / [31] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् सुरारूप जल का कुम्भ, सौवीर (कांजी) रूप जल कुम्भ, तेलकुम्भ अथवा वसा (चर्बी) का कुम्भ देखता हुआ देखे, फोड़ता हुआ उसे फोड़ डाले तथा मैंने उसे स्वयं फोड़ डाला है, ऐसा माने, ऐसा स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो वह दो भव में मोक्ष जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर डालता है। 32. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति / [32] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, एक महान् कुसुमित पद्मसरोवर को देखता हुआ देखे, उसमें अवगाहन (प्रवेश) करता हुमा अवगाहन करे तथा स्वयं मैंने इसमें अवगाहन किया है, ऐसा अनुभव करे तथा इस प्रकार का स्वप्न देख कर तत्काल जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सब दु:खों का अन्त करता है। 33. इत्थी वा जाव सुविणते एग महं सागरं उम्मी-बीयो जाव कलियं पासमाणे पासति, तरमाणे तरति, तिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव० तेणेव जाव अंतं करेति / [33] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, तरंगों और कल्लोलों से व्याप्त एक महासागर को देखता हुआ देखे, तथा तरता हुअा पार कर ले, एवं मैंने इसे स्वयं पार किया है, ऐसा माने, इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो वह उसी भव में सिद्ध होता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है। 34. इत्थी वा जाव सुविणंते एग महं भवणं सव्वरयणामयं वासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति, अणुष्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति० तेणेव जाव अंतं करेति / 1. पाठान्तर--'उम्घाडेमाणे, उग्घाति, उग्धाडित....' (ढकना खोलता हुया, खोलता है, खोल दिया ...") Page #1843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.76] [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र [34] कोई स्त्री या पुरुष, स्वप्न के अन्त में, सर्वरत्नमय एक महाभवन देखता हुआ देखे, उसमें प्रविष्ट होता हुआ प्रवेश करे. तथा मैं इसमें स्वयं प्रविष्ट हो गया हूँ, ऐसा माने, इस प्रकार का स्वप्न देख कर शीघ्र जाग्रत हो तो, वह उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। 35. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं विमाणं सम्वरयणामयं पाससाणे पासति, दुरूहमाणे दूरूहति, दूरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव जाव अंतं करेति / [35] कोई स्त्री या पुरुष स्वप्न के अन्त में, सर्वरत्नमय एक महान् विमान को देखता हुमा देखता है, उस पर चढ़ता हुआ चढ़ता है, तथा मैं इस पर चढ़ गया हूँ, ऐसा स्वयं अनुभव करता है, ऐसा स्वप्न देख कर तत्क्षण जाग्रत होता है, तो वह व्यक्ति उसो भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन---मोक्षगामी को दिखाई देने वाले स्वप्न प्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 22 से 35) में मोक्षगामी को दिखाई देने वाले 14 प्रकार के स्वप्नों के संकेत दिये हैं। इनमें से लोहराशि आदि तथा सुराजलकुम्भ आदि का स्वप्न में देखने वाला व्यक्ति दूसरे भव में, अर्थात्-मनुष्य सम्बन्धी दूसरे भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है, शेष बारह मूत्रों में कथित पदार्थों को तथारूप से स्वप्न में देखने वाला व्यक्ति उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है।' कठिनशब्दार्थ -सुविणते-स्वप्न के अन्त में, अथवा स्वप्न के एक भाग में। हयपति-घोड़ों को पंक्ति को / पासमाणे पासति--पश्यत्ता (देखने) के गुण से युक्त हो कर देखता है, अर्थात् देखने की मुद्रा से युक्त या प्रयत्नशील हो कर देखता है / दुरूहमाणे दुल्हति ऊपर चढ़ता हुमा चढ़ता है। तक्खणामेव-तत्काल ही / दामिणि---गाय आदि को बांधने की रस्सी / पाईणपडीणायतं-पूर्वपश्चिम-लम्बा / / दुहओ समुद्दे पुढ़-दोनों ओर से समुद्र को छूती हुई। संवेल्लेइ-हाथों से समेटे / किण्हसुत्तर्ग-सुक्किलसुत्तगं-काला सूत, सफेद सूत / उग्गोवेमाणे-सुलझाता हुआ। अयरासिलोहराशि को / विविखरइ–बिखेर देता है। उम्मूलेइ-जड़ से उखाड़ फेंकता है / सुरावियडकुभंसुरा-मदिरा रूप विकट-जल के कुम्भ को। सोवीर--सौवीरक-कांजी। ओगाहति-अवगाहन करता-प्रवेश करता है।' गन्ध के पुद्गल बहते हैं, 36. अह भंते ! कोट्ठपुडाण वा जाव: केयतिपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्जमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिज्जमाणाणं किं को8 वाति जाव केयती वाति ? .- - - 1. भगवनी. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2570 2. (क) वही, भा. 5, पृ. 2566 (ख) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 712-713 3. 'जाव' पर सूचक पाठ-पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वा' इत्यादि / 4. 'जाव' पद-सूत्रक पाठ-'निभिज्जमाणाण वा, उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिज्जमाणाण वा' इत्यादि / ---भगवती. प्र. व. पत्र 713 Page #1844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] [579 गोयमा ! नो कोटे वाति जाव नो केयती वाति घाणसहगया पोग्गला वांति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // सोलसमे सए छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 16-6 / / [36 प्र.] भगवन् ! कोई व्यक्ति यदि कोष्ठपुटों (सुगन्धित द्रव्य के पुड़े) यावत् केतकीपुटों को खोले हुए एक स्थान से दूसरे स्थान लेकर जाता हो और अनुकूल हवा चलती हो तो क्या उसका गन्ध बहता (फैलता) है अथवा कोष्ठपुट यावत् केतकीपुट वायु में बहता है ? __ [36 उ.] गौतम ! कोष्ठपुट यावत् केतकोपुट नहीं बहते, किन्तु प्राण-सहगामी गन्धगुणोपेत पुद्गल बहते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन-कोष्ठपुट आदि बहते हैं या गन्ध-पुद्गल ? --प्रस्तत सूत्र में भगवान् ने यह निर्णय दिया है, कोष्ठपुट आदि सुगन्धित द्रव्य को खोल कर अनुकूल हवा की दिशा में ले जाया जा रहा हो तो कोष्ठपुट आदि नहीं बहते, किन्तु कोष्ठपुट आदि की सुगन्ध के पुद्गल हवा में फैलते (बहते) हैं, और वे घ्राणग्राह्य होते हैं।' कठिन शब्दार्थ- कोटपुडाण-वाससमूह जिस (कोष्ठ) में पकाया जाता हो, वह कोष्ठ कहलाता है / कोष्ठ के पुट अर्थात् पुड़ों को कोष्ठपुट कहते हैं / // सोलहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्ति भा. 2, (मुलपाठ-टिप्पण) पृ. 766-767 2. भगवती. अ. वति, पत्र 713 Page #1845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'उवओग' सप्तम उद्देशक : 'उपयोग' प्रज्ञापनासूत्र-अतिदेशपूर्वक उपयोग-भेद-प्रभेदनिरूपण 1. कतिविधे गं भंते ! उवभोगे पन्नते ? गोयमा ! दुविहे उपयोगे पन्नत्ते, एवं जहा उवयोगपयं पन्नवणाए तहेव निरवसेसं भाणियव्वं पासणयापयं च निरवसेसं नेयव्यं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / सोलसमे सए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो // 16-7 // [1 प्र.] भगवन्! उपयोग कितने प्रकार का कहा है ? [1 उ.) गौतम ! उपयोग दो प्रकार का कहा है। प्रज्ञापनासूत्र के उपयोग पद (26 वें) में जिस प्रकार कहा है, वह सब यहाँ कहना चाहिए / तथा (इसी प्रज्ञापनासूत्र का) तीसवाँ पश्यत्तापद भी यहाँ सम्पूर्ण कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन-उपयोग और पश्यत्ता : स्वरूप, अन्तर और प्रकार-चेतनाशक्ति के व्यापार को उपयोग कहते हैं। उसके दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग / साकारोपयोग के 8 भेद हैं--पांच ज्ञान और तीन अज्ञान / अनाकारोपयोग के चक्षुदर्शन आदि चार भेद हैं। इसका समग्र वर्णन प्रज्ञापना के 26 वें पद से समझना चाहिए। 'पश्यतो भावः पश्यत्ता'। अर्थात्-उत्कृष्ट बोध का परिणाम पश्यत्ता है। इसके भी दो भेद हैं साकार पश्यत्ता और अनाकार पश्यत्ता। साकारपश्यत्ता के 6 भेद हैं, यथा-मतिज्ञान को छोड़ कर 4 ज्ञान और मति-अज्ञान को छोड़ कर दो अज्ञान हैं। अनाकारपश्यत्ता के 3 भेद हैं / यथा- अचक्षुदर्शन को छोड़ कर शेष तीन दर्शन / यद्यपि पश्यत्ता और उपभोग, ये दोनों साकार-अनाकार के भेद से तुल्य हैं, तथापि वर्तमानकालिक स्पष्ट या अस्पष्ट बोध को उपयोग और त्रैकालिक स्पष्ट बोध को पश्यत्ता कहते हैं / यही पश्यत्ता और उपयोग का अन्तर है।' अचक्षुदर्शन अनाकारपश्यत्ता क्यों नहीं ?–पश्यत्ता कहते हैं-प्रकृष्ट ईक्षण (प्रकर्षतायुक्त देखने) को। इस दृष्टि से पश्यत्ता चक्षुदर्शन में घटित हो सकती है, अचक्षुदर्शन में नहीं। क्योंकि प्रकृष्ट ईक्षण चक्षुरिन्द्रिय का ही होता है / 2 / 1. (क) प्रज्ञापना (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, (म. जै. विद्या.) सू. 1908-35 1936-64, पृ. 407-9, 410-12 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 713-714 2. वही, पत्र 714 Page #1846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'लोग' अष्टम उद्देशक : 'लोक' लोक के प्रमाण का तथा लोक के विविध चरमान्तों में जीवाजीवादि का निरूपण 1. केमहालए णं भंते ! लोए पन्नते ? गोयमा ! महतिमहालए जहा बारसमसए (स० 12 उ०७ सु० 2) तहेव जाव असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं / [1 प्र.] भगवन् ! लोक कितना विशाल कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! लोक अत्यन्त विशाल (महातिमहान्) कहा गया है। इसकी समस्त वक्तव्यता) बारहवें शतक (के सातवें उद्देशक सू. 2 में कहे) अनुसार यावत्--उस लोक का परिक्षेप (परिधि) असंख्येय कोटाकोटि योजन है, (यहाँ तक कह्नी चाहिए।) 2. लोगस्स णं भंते ! पुरथिमिल्ले चरिमंते कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपदेसा? गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि / जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे / एवं जहा दसमसए अग्गेयो दिसा (स० 10 उ०१ सु०९) तहेव, नवरं देसेसु अणिदियाणं आदिल्लविरहिओ। जे अरूवी अजीवा ते छबिहा, अद्धासमयो नत्थि / सेसं तं चेव सव्वं / [2 प्र.] भगवन् ! क्या लोक के पूर्वीय चरमान्त में जीव हैं, जीवदेश हैं, जीवप्रदेश हैं, अजीव हैं. अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश हैं ? 2 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं, परन्तु जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं। वहाँ जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का एक देश है। इत्यादि सब भंग दसवें शतक (के प्रथम उद्देशक के सू. 6) में कथित आग्नेयी दिशा की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि 'बहुत देशों के विषय में अनिन्द्रियों से सम्बन्धित प्रथम भंग नहीं कहना चाहिए, तथा वहाँ जो अरूपी अजीव हैं, वे छह प्रकार के कहे गए हैं। वहां काल (अद्धासमय) नहीं है / शेष सभी उसी प्रकार जानना चाहिए / 3. लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमते कि जीवा० ? एवं चेव। Page #1847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र.] भगवन् ! क्या लोक के दक्षिणो चरमान्त में जीव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! (इस विषय में) पूर्वोक्त प्रकार से सब कहना चाहिए / 4. एवं पच्चस्थिमिल्ले वि, उत्तरिल्ले वि। [4] इसी प्रकार पश्चिमी चरमान्त और उत्तरी चरमान्त के विषय में भी कहना चाहिए / 5. लोगस्स णं भंते ! उरिल्ले चरिमंते कि जीवा० पुच्छा। गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव अजोवपएसा वि / जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य, प्रहवा एगेदियदेसा य अणिदियदेसा य बंदियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य अणि दियदेसा य बेइंदियाण य देसा / एवं मजिल्लविरहितो जाय पंचिदियाणं / 'जे जीवप्पएसा ते नियम एगिदियपदेसा य अणिदियप्पएसा य, अहवा एगिदियपदेसा य अणिदियपदेसा य बेइंदियस्स य पदेसा, अहवा एगिदियपदेसा य अणिदियपएसा य बेइंदियाण य पदेसा / एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिदियाणं / अजीवा जहा दसमसए तमाए (स० 10 उ० 1 सु० 17) तहेव निरवसेसं / [5 प्र.] भगवन् ! लोक के उपरिम चरमान्त में जीव हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं, किन्तु जीव के देश हैं, यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं / जो जीव के देश हैं, वे नियमत: एकेन्द्रियों के देश और अनिन्द्रियों के देश हैं। अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश तथा द्वीन्द्रिय का एक देश है, अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश तथा द्वीन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार बीच के भंग को छोड़ कर द्विकसंयोगी सभी भंग यावत् पंचेन्द्रिय तक कहना चाहिए। यहाँ जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं और अनिन्द्रियों के प्रदेश हैं। अयवा एकेन्द्रियों के प्रदेश, अनिन्द्रियों के प्रदेश और एक द्वीन्द्रिय के प्रदेश हैं / अथवा एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश तथा द्वीन्द्रियों के प्रदेश हैं। इस प्रकार प्रथम भंग के अतिरिक्त शेष सभी भंग यावत् पंचेन्द्रियों तक कहना चाहिए / दशवे शतक (के प्रथम उद्देशक सू. 17) में कथित तमादिशा की वक्तव्यता के अनुसार यहाँ पर अजीवों की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 6. लोगस्स णं भंते ! हेट्ठिल्ले चरिमंते कि जीवा० पुच्छा। गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव अजीवप्पएसा वि। जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा, अहवा एगिदियदेसा य बेदियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा। एवं मज्झिल्लविरहियो जाव अणिदियाणं, पदेसा प्रादिल्लविरहिया सव्वेसि जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते तहेव / अजीवा जहा उवरिल्ले चरिमंते तहेव / [6 प्र.] भगवन् ! क्या लोक के अधस्तन (नीचे के) चरमान्त में जीव हैं ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [6 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं, किन्तु जीव के देश हैं, यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रियों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रियों के देश और द्वीन्द्रिय का एक देश है / अथवा एकेन्द्रियों के देश और द्वीन्द्रियों के देश हैं / Page #1848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 8] इस प्रकार वीच के भंग को छोड़ कर शेष भंग, यावत्-अनिन्द्रियों तक कहने चाहिए। सभी प्रदेशों के विषय में आदि के (प्रथम) भंग को छोड़ कर पूर्वीय-चरमान्त की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए / अजीवों के विषय में उपरितन चरमान्त की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए / विवेचन--पूर्वीय चरमान्त में जीवादि के सद्भाव-असद्भाव का निरूपण-लोक को पूर्व दिशा का चरमान्त एक प्रदेश के प्रतररूप है। वहाँ असंख्यप्रदेशावगाही जीव का सद्भाव नहीं हो सकता। इसलिए कहा गया है कि वहाँ जीव नहीं हैं / परन्तु वहाँ जीव के देश आदि का एक प्रदेश में भी अवगाह हो सकता है, इसलिए कहा गया है कि वहाँ जीव-देश, जीव-प्रदेश होते हैं / जो जीव के देश हैं, वे पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों के देश अवश्य होते हैं। यह असंयोगी प्रथम विकल्प है / अथवा द्विकसंयोगी विकल्प इस प्रकार है एकेन्द्रिय जीवों के बहत होने से एकेन्द्रिय जीवों के अनेक देश और द्वीन्द्रिय जीव वहाँ कादाचित्क होने से कदाचित् द्वीन्द्रिय का एक देश होता है / यद्यपि लोक के चरमान्त में द्वीन्द्रिय जीव नहीं होता, तथापि एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने वाला द्वीन्द्रिय जीव, मारणान्तिक समुद्धात द्वारा उत्पत्तिदेश को प्राप्त होता है, इस अपेक्षा से यह विकल्प बनता है। जिस प्रकार दसवें शतक में आग्नेयी दिशा की अपेक्षा से जो विकल्प कहे गए हैं, वे ही यहाँ पूर्व चरमान्त को अपेक्षा से कहने चाहिए। यथा--(१) एकेन्द्रियों के देश और एक द्वीन्द्रिय का देश, (2) अथवा एकेन्द्रियों के देश और द्वीन्द्रियों के देश, (3) अथवा एकेन्द्रिय का देश और त्रीन्द्रिय का एक देश इत्यादि / विशेष यह है कि अनिन्द्रिय-सम्बन्धी देश के विषय में जो तीन भंग दशम शतक के आग्नेयी दिशा के विषय में कहे गए हैं, उनमें से प्रथम भंग-अथवा एकेन्द्रियों के देश और अनिन्द्रिय का देश; नहीं कहना चाहिए, क्योंकि केवली-समुद्धात के समय प्रात्मप्रदेश कपाटाकार आदि अवस्था में होते हैं, तब पूर्व दिशा के चरमान्त में प्रदेशों की वद्धि-हानि होने से लोक के दन्तक (दांतों के समान विषमस्थानों) में अनिन्द्रिय जीव (केवलज्ञानी) के बहुत देशों का सम्भव है, एक देश का नहीं; इसलिए उपर्युक्त भंग अनिन्द्रिय में लागू नहीं होता / अरूपी अजीवों के छह प्रकार-(१) धर्मास्तिकाय-देश, (2) धर्मास्तिकाय-प्रदेश, (3) अधर्मास्तिकाय-देश. (4) अधर्मास्तिकाय-प्रदेश, (5) आकाशास्तिकाय-देश और (6) प्राकाशास्तिकाय-प्रदेश / सातवें श्रद्धासमय (काल) का वहाँ अभाव है, क्योंकि वहाँ समयक्षेत्र नहीं है। इसी तरह धर्मास्तिकाय, अर्धास्तिकाय एवं प्राकाशास्तिकाय का भी आग्नेयी दिशा (लोकान्त) में प्रभाव होने से वहाँ 6 प्रकार के अरूपी अजीवों का सद्भाव है।' पूर्व दिशा के चरमान्त की तरह दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा और उत्तरदिशा के चरमान्त में भी जीवादि के सद्भाव के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 2 उपरितन चरमान्त में जीवादि का सद्भाव- लोक के उपरितन चरमान्त में सिद्ध हैं, इसलिए वहाँ एकेन्द्रिय देश और अनिन्द्रिय देश होते हैं। यहाँ यह एक द्विकसंयोगी विकल्प है, त्रिकसंयोगी दोदो भंग कहने ए। उनमें एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के देश तथा द्वीन्द्रिय के देश इस प्रकार का 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 715 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, 2577 2. (क) वही, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, 2577 (ख) वियाह्पण्णत्तिसुतं भा. 2, पृ. 768 Page #1849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584] [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र मध्यम भंग नहीं होता, क्योंकि द्वीन्द्रिय के देश, वहाँ .असम्भव हैं, कारण द्वीन्द्रिय मारणान्तिक समुद्घात द्वारा मर कर ऊपर के चरमान्त में एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो, तो वहाँ भी उसका एक देश संभावित है, पूर्व चरमान्त के समान अनेक देश संभावित नहीं / क्योंकि वहाँ प्रदेश की हानि-वृद्धि से होने वाला लोकदन्तक (विषम भाग) प्रतररूप नहीं होता। उपरितन चरमान्त की अपेक्षा जीव-प्रदेश प्ररूपणा में-'एकेन्द्रियों के और अनिन्द्रियों के प्रदेश और द्वीन्द्रिय का एक प्रदेश, यह प्रथम भंग नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वहाँ द्वीन्द्रिय का एक प्रदेश असंभव है, क्योंकि केवलीसमुद्घात के समय लोकव्यापक अवस्था के अतिरिक्त जहाँ किसी भी जीव का एक प्रदेश होता है, वहाँ नियमतः उसके असंख्यात प्रदेश होते हैं / अजीवों के 10 भेद होते हैं, यथा-रूपी अजीव के 4 भेद-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल, एवं अरूपी अजीव के 6 भेद-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश, इस प्रकार अजीव के 10 भेद हुए। उपरितन चरमान्त के विषय में अजीब-प्ररूपणा दशवें शतक के प्रथम उद्देशक में उक्त तमादिशा के विषय में अजीवों को वक्तव्यता के समान करनी चाहिए।' अधस्तन चरमान्त-नीचे के चरमान्त में-एकेन्द्रियों के बहुत देश, यह असंयोगी एक भंग तथा द्विकसंयोगो दो भंग-(१) एकेन्द्रियों के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश (2) एकेन्द्रियों के बहुत देश और द्वीन्द्रिय के देश, इस प्रकार का मध्यम भंग यहाँ नहीं घटित होता, क्योंकि वहाँ लोक-दन्तक का अभाव है / इस प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय के साथ दो-दो भंग होते हैं / इस प्रकार जीवदेश की अपेक्षा 11 भंग होते हैं / जीव प्रदेश-पाश्रयी भंग इस प्रकार हैं / यथा-एकेन्द्रियों के प्रदेश एवं द्वीन्द्रिय के प्रदेश, एकेन्द्रिय के प्रदेश और द्वीन्द्रियों के प्रदेश / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय के प्रदेश के विषय में भंग जान लेने जान लेने चाहिए / केवल--- एकेन्द्रियों के बहुत प्रदेश और द्वीन्द्रिय का एक प्रदेश, यह प्रथम भंग असम्भावित होने से घटित नहीं होता ! एकेन्द्रिय के बहुत प्रदेश, इस असंयोगी एक भंग को मिलाने से जीव-प्रदेश-प्राश्रयी कुल 11 भंग होते हैं। उपरितन चरमान्त में कहे अनुसार अधस्तन चरमान्त में भी रूपी अजीव के चार और अरूपी अजीव के छह, ये सब मिल कर अजीवों के दस भेद होते हैं / नरक से लेकर वैमानिक एवं यावत् ईषत्प्रारभार तक पूर्वादि चरमान्तों में जीवाजीवादि का निरूपण 7. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए पुरथिमिल्ले चरिमंते कि जीवा० पुच्छा। गोयमा ! नो जीवा, एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिले उरिल्ले --- --...- . -.. 1. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 715 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2578 2. (क) वही. भा, 5, पृ. 2578 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 716 Page #1850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशाक] [55 जहा दसमसए विमला दिसा (स० 10 उ०१ सु० 16) तहेव निरवसेसं / हेडिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते (सु. 6) तहेव, नवरं देसे पंचेंदिएसु तियभंगो, सेसं तं चेव / / 7 प्र.] भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वीय चरमान्त में जीव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 7 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं। जिस प्रकार लोक के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में यावत् उत्तरीय चरमान्त तक कहना चाहिए। रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त के विषय में, दसवें शतक (उ. 1 सू. 16) में (उक्त) विमला दिशा की वक्तव्यता के समान सम्पूर्ण कहना चाहिए / रत्नप्रभा पृथ्वी के अधस्तन चरमान्त की वक्तव्यता लोक के अधस्तन चरमान्त के समान कहनी चाहिए / विशेषता यह है कि जीवदेश के विषय में पंचेन्द्रियों के तीन भंग कहने चाहिए / शेष सभी कथन उसी प्रकार करना चाहिए / 8. एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया एवं सक्करप्पभाए वि। उवरिमहेडिल्ला जहा रयणपमाए हेडिल्ले / [8] जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार शकराप्रभा पृथ्वी के भी चार चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। तथा रत्नप्रभा पृथ्वी के के अधस्तन चरमान्त के समान, शर्कराप्रभा-पृथ्वी के उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त को वक्तव्यता कहनी चाहिए। 6. एवं जाव अहेसत्तमाए। [6] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। 10. एवं सोहम्मस्स वि जाव अच्चुयस्स / [10] इसी प्रकार सौधर्म देवलोक से लेकर यावत् अच्युत देवलोक तक (के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। 11. गेविजविमाणाणं एवं चेव / नवरं उपरिम-हेटिल्लेसु चरिमंतेसु देसेसु पंचेंदियाण वि मज्झिल्लविरहितो चेब, सेसं तहेव / [11] अवेयक विमानों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें उपरितन और अधस्तन चरमान्तों के विषय में, जीवदेशों के सम्बन्ध में पंचेन्द्रियों में भी बीच का भंग नहीं कहना चाहिए / शेष सभी कथन पूर्ववत् करना चाहिए / 12. एवं जहा गेवेज्जविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिपम्भारा वि। [12] जिस प्रकार वेयकों के चरमान्तों के विषय में कहा गया, उसी प्रकार अनुत्तरविमानों तथा ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी के चरमान्तों के विषय में कहना चाहिए। विवेचन-रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमान्तों से सम्बन्धित व्याख्या--लोक के चार चरमान्तों के समान रत्नप्रभा पृथ्वी के चार चरमान्तों का कथन करना चाहिए। रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन Page #1851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586] [म्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चरमान्त के विषय में दशवें शतक के प्रथम उद्देशक में उक्त विमला दिशा की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए / यथा-वहाँ कोई जीव नहीं है, क्योंकि वह एक प्रदेश के प्रतररूप होने से उसमें जीव नहीं समा सकते परन्तु जीवदेश और जीवप्रदेश रह सकते हैं। उसमें जो जीव के देश हैं वे अवश्य ही एकेन्द्रिय जीव के देश होते हैं / अथवा (1) एकेन्द्रिय के बहुत देश और द्वीन्द्रिय का एक देश, (2) अथवा एकेन्द्रिय के बहुत देश और द्वीन्द्रिय के बहुत देश अथवा (3) एकेन्द्रिय के बहुत देश और द्वीन्द्रियों के बहुत देश / यों तीन भंग होते हैं; क्योंकि रत्नप्रभा में द्वीन्द्रिय होते हैं और वे एकेन्द्रियों की अपेक्षा थोड़े होते हैं, इसलिए इसके उपरितन चरमान्त में द्वीन्द्रिय का एक देश अथवा बहुत देश सम्भवित हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक प्रत्येक के तीन-तीन भंग जीवदेश की अपेक्षा से कहने चाहिए। वहाँ जो जीव के प्रदेश हैं, वे अवश्य ही एकेन्द्रिय के हैं, इसलिए_(8) एकेन्द्रिय के बहत प्रदेश और द्वीन्द्रिय के बहुत प्रदेश हैं। (2) अथवा एकेन्द्रिय जीव के बहुत प्रदेश और द्वीन्द्रियों के बहुत प्रदेश हैं / इस प्रकार त्रीन्द्रिय से लेकर अनिन्द्रिय तक के भी दो-दो भंग जानने चाहिए। वहाँ रूपी अजीव के 4 और अरूपी अजीव के 7 भेद होते हैं, क्योंकि समयक्षेत्र के अन्दर होने से वहाँ अद्धा समय (काल) भी होता है / रत्नप्रभा के चरमान्ताश्रयी देश विषयक भंगों में असंयोगी एक और द्विकसंयोगी पन्द्रह, यों कुल सोलह भंग होते हैं। प्रदेशापेक्षया असंयोगी एक और विकसंयोगी दस, ये कुल ग्यारह भंग होते हैं। रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त का कथन लोक के अधस्तन चरमान्तवत् करना चाहिए / विशेषता यह है कि लोक के नीचे के चरमान्त में जीवदेश सम्बन्धी दो-दो भंग बेइन्द्रिय आदि के ध्यम भंग को छोड़ कर कहे गए हैं। परन्तु यहाँ पंचेन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभा के नीचे के चरमान्त में देवरूप पंचेन्द्रिय जीवों के गमनागमन से पंचेन्द्रिय का एक देश और पंचेन्द्रिय के बहुत देश सम्भवित होते हैं / इसलिए यहाँ पंचेन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिए / द्वीन्द्रिय प्रादि तो रत्नप्रभा के निचले चरमान्त में मरण-समुद्घात से जाते हैं। तभी उनका वहाँ सम्भव होने से वहाँ उनका एक देश ही सम्भवित है, बहुत देश सम्भवित नहीं, क्योंकि रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त का प्रमाण एक प्रतररूप है, इसलिए वहाँ बहुत देशों का समावेश हो नहीं सकता। शर्करादि छह नरकों से ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के चरमान्तों का कथन-इनके पूर्वादि चार चरमान्तों का कथन रत्नप्रभा के पूर्वादि चार चरमान्तों के समान करना चाहिए। जिस प्रकार रत्नप्रभा के नीचे का चरमान्त कहा गया है, उसी प्रकार शर्कराप्रभादि छह नरकों से लेकर अच्युत कल्प तक के ऊपर-नीचे के चरमान्त-सम्बन्धी जीवदेश-पाश्रयी असंयोगी एक, द्विकसंयोगी ग्यारह, यो कुल 12 भंग होते हैं। तथा प्रदेश की अपेक्षा से असंयोगी एक और द्विकसंयोगी दस, यों कुल ग्यारह-ग्यारह भंग होते हैं / अर्थात्-शर्कराप्रभा का उपरितन एवं अधस्तन चरमान्त रत्नप्रभा के अधस्तन चरमान्त के समान जानना चाहिए। यहाँ द्वीन्द्रिय आदि के दो-दो भंग जीव देश की अपेक्षा मध्यम भंगरहित होते हैं तथा पंचेन्द्रिय के तीन भंग होते हैं। जीवप्रदेश की अपेक्षा द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी के प्रथम भंग-रहित शेष दो-दो भंग होते हैं। अजीव पाश्रयी Page #1852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 8] [587 रूपी अजीव के 4 और अरूपो अजीब के 6 भेद होते हैं। शर्कराप्रभा के समान शेष सभी नरकपृश्चियों की तथा सौधर्म से लेकर ईषत्प्रारभारा तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेषता यह है कि जीवदेश को अपेक्षा से अच्युत कल्प तक देवों का गमनागमन सम्भव होने से (वहाँ तक) पचन्द्रिय के तीन भंग और द्वीन्द्रिय ग्रादि के दो-दो भंग होते हैं। नौ ग्रेवेयर तथा अनुत्तर विमानों में तथा ईषत्प्रारभारा पृथ्वी में देवों का गमनागमन न होने से पंचेन्द्रिय के भी दो-दो भंग कहने चाहिए।' ___ कठिन शब्दार्थ---केमहालए--कितना बड़ा / पाइल्ल-आदि (पहले) का / अद्धासमयोकाल / पुरच्छिमिल्ले-पूर्व दिशा का / हेदिल्ले-नीचे का, अधस्तन / दाहिणिल्ले–दक्षिण दिशा का / उरिल्ले-उपरितन, ऊपर का / मज्झिल्लविरहिओ-मध्यम भंग से रहित / परमाणु को एक समय में लोक के पूर्व-पश्चिमादि चरमान्त तक गति-सामर्थ्य 13. परमाणुपोग्गले गं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंतानो पच्चस्थिमिल्ल चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं जाव गच्छति, उत्तरिल्लाओ० दाहिणिल्लं जाव गच्छति, उरिल्लाओ चरिमंताओ हेदिल्लं चरिमंतं एग० जाव गच्छति, हेदिल्लामो चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? हंता, गोयमा ! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरथिमिल्ल० तं चेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं गच्छति / [13 प्र.] भगवन् ! क्या परमाणु-पुदगल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में, पश्चिमीय चरमान्त से पूर्वीय चरमान्त में, दक्षिणी चरमान्त से उत्तरीय चरमान्त में, उत्तरीय चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त में, ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त में और नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है ? 613 उ.] हाँ, गौतम ! परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्वीय चरमान्त से पश्चिमीय चरमान्त में यावत् नीचे के चरमान्त से ऊपर के चरमान्त में जाता है / विवेचन परमाणु पुद्गल एक समय में सभी चरमान्तों तक इधर से उधर गति कर सकता है, यह तथ्य प्रस्तुत सूत्र में प्रस्तुत किया गया है / वृष्टिनिर्णयार्थ करादि संकोचन-प्रसारण में लगने वाली क्रियाएँ 14. पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वा बाहुं वा ऊरुवा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा कति किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा जाव करवा आउंटावेति वा पसारेति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठ / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 715. 716, 117 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2582 2. वही, भा. 5, पृ. 2575 Page #1853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! वर्षा बरस रही है अथवा (वर्षा) नहीं बरस रही है ? ---यह जानने के लिए कोई पुरुष अपने हाथ, पैर, बाहु या ऊरु (जांघ) को सिकोड़े या फैलाए तो उसे कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [14 उ.] गौतम ! वर्षा बरस रही है या नहीं ?, यह जानने के लिए कोई पुरुष अपने हाथ यावत् ऊरु को सिकोड़ता है या फैलाता है तो, उसे कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में वर्षा का पता लगाने के लिए हाथ आदि अवयवों को सिकोड़ने और फैलाने में कायिकी प्राधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातकी, ये पांचों क्रियाएं एक या दूसरे प्रकार से लगती हैं, इस सिद्धान्त की प्ररूपणा की गई है। महद्धिक देव का लोकान्त में रहकर अलोक में अवयव-संकोचन-प्रसारण-असामर्थ्य 15. [1] देवे णं भंते ! महिड्ढोए जाव महेसक्खे लोगते ठिच्चा पभू अलोगसि हत्थं वा माउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? णो इण? सम8। [15-1 प्र.] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न देव लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् ऊरु को सिकोड़ने और पसारने में समर्थ है ? [15-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं / [2] से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चति 'देवे जं महिड्डीए जाव लोगते ठिच्चा णो पभू अलोगसि हत्थं वा जाव पसारेत्तए वा' ? गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलमेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ, अलोए गं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि पोग्गला, से तेण?णं जाव पसारेत्तए वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥सोलसमे सए : अट्ठमो उद्देसमो समत्तो // 16-8 // [15-2 प्र.] भगवन् ! क्या कारण है कि महद्धिक देव लोकान्त में रह कर अलोक में अपने हाथ यावत् ऊरु को सिकोड़ने और पसारने में समर्थ नहीं ? [15-2 उ.] गौतम ! जीवों के अनुगत आहारोपचित पुद्गल, शरीरोपचित पुद्गल और कलेवरोपचित पुद्गल होते हैं तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गतिपर्याय कही गई है / अलोक में न तो जीव हैं और न ही पुद्गल हैं। इसी कारण पूर्वोक्त देव यावत् सिकोड़ने और पसारने में समर्थ नहीं हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। Page #1854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 8] [589 विवेचन-लोक में रह कर अलोक में गति न होने का कारण-जीव के साथ रहे हुए पुद्गल आहाररूप में, शरीररूप में और कलेवररूप में तथा श्वासोच्छ्वास आदि के रूप में उपचित होते हैं / अर्थात् पुद्गल जीवानुगामी स्वभाव वाले होते हैं। जिस क्षेत्र में जीव होते हैं, वहीं पुद्गलों की गति होती है। इसी प्रकार पुद्गलों के आश्रित जीवों का और पुद्गलों का गतिधर्म होता है। यानी जिस क्षेत्र में पूद्गल होते है उसी क्षेत्र में जीवों और पुदगलों को गति होती है। अलोक में धर्मास्किाय न होने से वहां न तो जीव और पुद्गल हैं और न उनकी गति होती है।' // सोलहवां शतक : आठवाँ उद्देशक समाप्त // 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 717 Page #1855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'बलि' नौवाँ उद्देशक : वलि (वैरोचनेन्द्र-सभा) बलि-वैरोचनेन्द्र को सुधर्मासभा से सम्बन्धित वर्णन 1. कहि णं भंते ! बलिस्स बहरोर्याणदस्स वइरोयणरनो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे० जहेव चमरस्स (स०२ उ०८ सु० १)जाव बायालोसंजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स वइरोर्याणदस्स वइरोयणरन्नो रुयगिदे नाम उपाययन्दए पन्नत्ते सत्तरस एकावोसे जोयणसए एवं पमाणं जहेव तिगिछिकूडस्स, पासायवडेंसगस्स वितं चेव पमाण, सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परियारेणं अट्ठो तहेव, नवरं रुगिदपभाई 3 कुमुयाई / सेसं तं चेव जाव बलिचंचाए रायहाणीए अन्नेसि च जाव निच्चे, रुयगिदस्स णं उप्यायपव्ययस्स उत्तरेणं छक्कोडिसए तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स बइरोणिदस्स वइरोयणरन्नो बलिचंचा नाम रायहाणो पन्नता; एग जोयणसयसहस्सं पमाणं तहेव जाव बलिपेढस्स उववातो जाव आयरक्खा सव्वं तहेव निरवसेसं, नवरं सातिरेगं सागरोवमं ठिती पन्नत्ता / सेसं तं चेव जाव बली वरोर्याणदे, बली वइरोयणिदे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // सोलसमे सए : नवमो उद्देसओ समतो // 16.9 / / [1 प्र.] भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचन राज बलि की सुधर्मा सभा कहाँ है ? [1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में तिरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों को उल्लंघ कर इत्यादि, जिस प्रकार (दूसरे शतक के 8 वें उद्देशक सू. 1 में) चमरेन्द्र की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहता; यावत् (अरुणवर द्वीप की बाह्य वेदिका से अरुणवर-द्वीप समुद्र में) बयालीस हजार योजन अवगाहन करने के बाद वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात-पर्वत है। वह उत्पात पर्वत 1721 योजन ऊँचा है। उसका शेष सभो परिमाण तिगिछट पर्वत के समान जानना चाहिए। उसके प्रासादावतंसक का परिमाण उसी प्रकार जानना चाहिए। तथा बलोन्द्र के परिवार सहित सपरिवार सिंहासन का अर्थ भो उसी प्रकार जानना चाहिए / विशेषता यह है कि यहाँ रुचकेन्द्र (रत्नविशेष) को प्रभा वाले कुमुद आदि हैं। शेष सभो उसी प्रकार हैं / यावत वह बलिचचा राजधानी तथा अन्यों का नित्य प्राधिपत्य करताना विचरता है। उस रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत के उत्तर से छह सौ पचपन करोड़ पैंतोस लाख पचास हजार योजन तिरछा जाने पर नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी में पूर्ववत यावत् चालोस हजार योजन जाने के पश्चात् वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की बलिचंचा नामक राजधानी है। उस राजधानो का विष्कम्भ (विस्तार) एक लाख योजन है। शेष सभी प्रमाण पूर्ववत् (जानना चाहिए) यावत् बलिपीठ (तक का परिमाण भो Page #1856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 9] [591 कहना चाहिए।) तथा उपपात से लेकर यावत् आत्मरक्षक तक सभी बातें पूर्ववत् कहनी चाहिए / विशेषता यह है कि (बलि-वैरोचनेन्द्र की) स्थिति सागरोपम से कुछ अधिक की कही गई है। शेष सभी बातें पूर्ववत् जाननी चाहिए। यावत् 'वैरोचनेन्द्र बलि है, वैरोचनेन्द्र बलि है' यहाँ तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-चमरेन्द्र और बलीन्द्र की सधर्मा सभा में प्रायः समानता-जिस प्रकार दूसरे शतक के। पाठवें उद्देशक में चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी बलीन्द्र की सुधर्मा सभा के विषय में कहना चाहिए। वहाँ जिस प्रकार तिगिञ्छकट नामक उत्पात पर्वत का परिमाण कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी रुचकेन्द्र नामक उत्पातपर्वत का परिमाण कहना चाहिए / तिगिञ्छकट पर्वत पर स्थित प्रासादावतंसकों का जो परिमाण कहा गया है, वही परि रुचकेन्द्र उत्पातपर्वत स्थित प्रासादावतंसकों का है। प्रासादावतंसकों के मध्य भाग में बलीन्द्र के सिंहासन तथा उसके परिवार के सिंहासनों का वर्णन भी चमरेन्द्र से सम्बन्धित सिंहासनों के समान जानना शाहिए। विशेष अन्तर यह है कि बलीन्द्र के सामानिक देवों के सिंहासन साठ हजार हैं, जब कि चमरेन्द्र के सामानिक देवों के सिंहासन 64 हजार हैं, तथा प्रात्मरक्षक देवों के आसन प्रत्येक के सामानिकों के सिंहासनों से चौगुने हैं। जिस प्रकार तिगिञ्छकट में तिगिञ्छ रत्नों को प्रभा बाले उत्पलादि होने से उसका अन्वर्थक नाम तिगिञ्छकूट है। उसी प्रकार रुचकेन्द्र में रुचकेन्द्र रत्नों की प्रभा वाले उत्पलादि होने के कारण उसका अन्वर्थक नाम रुचकेन्द्रकट कहा गया है। बलिचंचा नगरी (राजधानी) का परिमाण कहने के पश्चात् उसके प्राकार, द्वार, उपकारिकालयन, (द्वार के ऊपर के गृह) प्रासादावतंसक, सुधर्मा सभा, सिद्धायतन ( चैत्य-भवन) उपपातसभा, ह्रद, अभिषेकसभा, आलंकारिकसभा और व्यवसायसभा आदि का स्वरूप और प्रमाण बलिपीठ के वर्णन तक कहना चाहिए।' // सोलहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 718-719 . (ख) भगवती. (प्रागम प्र. स, ब्यावर) खण्ड 1 श. 2 उ.८ पृ. 235, 237 Page #1857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'ओहो' दसवाँ उद्देशक : 'अवधिज्ञान' प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक अवधिज्ञान का वर्णन 1. कतिविधे गं भंते ! प्रोही पण्णत्ता? गोयमा ! दुविधा मोही पन्नत्ता / ओहोपयं निरवसेसं भाणियव्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / सोलसमे सए : दसमो उद्देसओ समतो // 16-10 // [1 प्र.] भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है। यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का 33 वां अवधिपद सम्पूर्ण कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत विचरते हैं। विवेचन–अवधिज्ञान : स्वरूप और भेद-प्रभेद-रूपी पदार्थों के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा को लिए हुए होने वाला अतीन्द्रिय सम्यग्ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है / अवधिज्ञान, प्रज्ञापनासत्र के 33 3 पद के अनुसार दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपमिक भवप्रत्ययिक अवधि (ज्ञान) दो प्रकार के जीवों को होता है-देवों को और नारकों को। मनुष्यों और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को क्षायोपशमिक अवधि होता है। इसका विशेष विवरण प्रज्ञापना सूत्र के 333 अवधि पद से जान लेना चाहिए।' ॥सोलहवां शतक : दशम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 719 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मू. पा. टिप्पण) सू. 1982-2031 पृ. 415, 418 (श्री महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित) Page #1858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमो उहेसओ : 'दीव' ग्यारहवाँ उद्देशक : द्वीपकुमार सम्बन्धी वर्णन द्वीपकुमार देवों की आहार, श्वासोच्छ वासादि की समानता-असमानता का निरूपण 1. दीवकुमारा णं भंते ! सध्वे समाहारा० निस्सासा? नो इण8 सम? / एवं जहा पढमसए बितियउद्देसए दीवकुमाराणं वत्तन्वया (स० 1 उ० 2 सु० 6) तहेव जाव समाउयास मुस्सासनिस्सासा। [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी द्वीपकुमार समान आहार वाले और समान उच्छ्वासनिःश्वास वाले हैं ? 1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 6) में जिस प्रकार द्वीपकुमारों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार की वक्तव्यता यहाँ भी, यावत् कितने ही सम आयुष्य वाले और सम-उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं, तक कहनी चाहिए / द्वीपकुमारों में लेश्या को तथा लेश्या एवं ऋद्धि के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 2. दीवकुमाराणं भंते ! कति लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा--कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा / [2 प्र.] भगवन् ! द्वीपकुमारों में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [2 उ.] गौतम ! उनमें चार लेश्याएँ कही हैं / यथा-कृष्णलेश्या, यावत् तेजोलेश्या / 3. एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितों जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा, काउलेस्सा प्रसंखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। [3 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर यावत् तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमारों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? 3 उ.] गौतम ! सबसे कम द्वीपकुमार तेजोलेश्या वाले हैं। कापोतलेश्या वाले उनसे असंख्यातगुणे हैं। उनसे नोललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं। 4. एतेसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पिड्डिया वा महिड्डिया वा ? Page #1859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा! कण्हलेस्सेहितो नीललेस्सा महिथिया जाव सध्यमहिलिया तेउलेस्सा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरति / / / सोलसमे सए : एगारसमो उद्देसओ समत्तो॥१६-११॥ [4 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर यावत् तेजोलेश्या बाले द्वीपकुमारों में कौन किससे अल्पद्धिक हैं अथवा महद्धिक हैं ? [4 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या वाले द्वीपकुमारों से नीललेश्या वाले द्वीपकुमार महद्धिक हैं; (इस प्रकार उत्तरोत्तर महद्धिक हैं), यावत् तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमार सभी से महद्धिक हैं / हे भगवन् ! कह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1 से 4 तक) में भवनपति देव निकाय के अन्तर्गत द्वीपकुमार देवों के आहार, उच्छ्वास-निःश्वास, आयुष्य प्रादि की समानता-असमानता तथा उनमें पाई जाने वाली लेश्याएँ, तथा किस लेश्या वाला किससे अल्प, बहुत आदि एवं अल्पद्धिक-महद्धिक है ? इन तथ्यो का निरूपण किया गया है / // सोलहवां शतक : ग्यारहवाँ उद्देशक समाप्त / Page #1860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो उद्देसओ : 'उदही' बारहवाँ उद्देशक : उदधिकुमार-सम्बन्धी वक्तव्यता उदधिकुमारों में आहारादि की समानता-असमानता का निरूपण 1. उदधिकुमारा गं भंते ! सम्वे समाहारा ? एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते !0 / // सोलसमे सए : बारसमो उद्देसओ समत्तो // 16-12 // [1 प्र.] भगवन् ! सभी उदधि कुमार समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! सभी वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥सोलहवां शतक : बारहवाँ उद्देशक समाप्त / Page #1861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो उद्देसओ : 'दिसा' तेरहवां उद्देशक : दिशाकुमार-सम्बन्धी वक्तव्यता दिशाकुमारों में प्राहारादि को समानता-असमानता का निरूपण 1. एवं दिसाकुमारा वि। ॥सोलसमे सए : तेरसमो उद्देसओ समत्तो // 16-13 / / [1] (जिस प्रकार द्वीपकुमारों के विषय में कहा गया था) उसी प्रकार दिशाकुमारों के (आहार, उच्छ्वास निःश्वास, लेश्या आदि के) विषय में भी कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों वह कर यावत् (गौतम स्वामी) विचरते हैं। // सोलहवां शतक : तेरहवाँ उद्देशक समाप्त // Page #1862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउदसमो उद्देसओ : 'थरिणया' चौदहवाँ उद्देशक : स्तनितकुमार-सम्बन्धी वक्तव्यता स्तनितकुमारों में आहारादि की समानता-असमानता का निरूपण 1. एवं थणियकुमारा वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // सोलसमे सए : चउदसमो उद्देसओ समत्तो // 16-14 / / ॥सोलसमं सयं समत्तं // [1] (जिस प्रकार द्वीपकुमारों के विषय में कहा गया था), उसी प्रकार स्तनितकुमारों के (आहार, उच्छ्वास-नि:श्वास, लेश्या आदि के) विषय में भी कहना चाहिए। है भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-चार उद्देशक : समान वक्तव्यता का अतिदेश-ग्यारहवें से लेकर चौदहवें उद्देशक तक सभी वक्तव्यताएँ समान हैं, केवल उन देवों के नामों में अन्तर है। सभी भवनपति जाति के देव हैं। ॥सोलहवां शतक : चौदहवाँ उद्देशक समाप्त / // सोलहवां शतक सम्पूर्ण // Page #1863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं सयं : सत्तरहवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का यह सत्तरहवां शतक है / * इस में भविष्य में मोक्षगामी हाथियों का तथा संयत ग्रादि की धर्म, अधर्म, धर्माधर्म में स्थिति का, शैलेशो अनगार के द्रव्य-भावकम्पन का, क्रियानों का, ईशानेन्द्र सभा का, पांच स्थावरों के उत्पाद एवं पाहारग्रहण में प्राथमिकता का, तथा नागकुमार आदि भवनपतियों में प्राहारदि की समानता-असमानता का 17 उद्देशकों में प्रतिपादन किया गया है। * प्रथम उद्देशक में कुणिक सम्राट् के उदायी और भूतानन्द नामक गजराजों की भावी गति तथा मोक्षगामिता का वर्णन है / तत्पश्चात् ताइफल को हिलाने गिराने तथा सामान्य वृक्ष के मूल, कन्द आदि को हिलाने-गिराने वाले व्यक्ति को, उक्त फलादि के जीव को, वृक्ष को, तथा उसके उपकारक को लगने वाली क्रियाओं की तथा शरीर इन्द्रिय और योग को निष्पन्न करने वाले एक या अनेक पुरुषों को लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है / अन्त में, औयिक प्रादि छह भावों का अनुयोगद्वार के प्रतिदेशपूर्वक वर्णन है / द्वितीय उद्देशक में संयत, असंयत संयतासंयत, सामान्य जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के धर्म, अधर्म या धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा की गई है। तदनन्तर इन्हीं जीवों के बाल, पण्डित या बाल-पण्डित होने की अन्यतीथिकमत की निराकरण पूर्वक विचारणा की गई है। फिर अन्यतीथिक की जीव और जीवात्मा के एकान्त भिन्नत्व को मान्यता का खण्डन करके कथंचित भेदाभेद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। अन्त में, महद्धिक देव द्वारा मूर्त से अमूर्त बनाने अथवा अमूर्त से मूर्त प्रकिार बनाने के सामर्थ्य का निषेध किया गया है / * ततीय उद्देशक में शैलेशो अनगार की निष्प्रकम्पता का प्रतिपादन करके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-माव एजना की तथा शरीर-इन्द्रिय-योग-चलना की चौवीसदण्डकों की अपेक्षा चर्चा की गई है। अन्त में संवेगादि धर्मों के अन्तिम फल-मोक्ष का प्रतिपादन किया गया है / चतुर्थ उद्देशक में जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा प्राणातिपातादि क्रिया स्पर्श करके की जाने की तथा समय, देश, प्रदेश की अपेक्षा से ये ही क्रियाएँ स्पृष्ट से लेकर पानुपूर्वीकृत की जाती हैं, इस तथ्य की प्ररूपणा को गई है / अन्त में, जीवों के दुःख एवं वेदना को वेदन के आत्मकतृत्व की प्ररूपणा की गई है। * पंचम उद्देशक में ईशानेन्द्र को सुधर्मासभा का सांगोपांग वर्णन है / * छठे से लेकर नौवें उद्देशक तक में रत्नप्रभादि नरकवियों में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प से यावत् ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक में पृथ्वीकायादि चार स्थावरों में उत्पन्न होने योग्य Page #1864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [599 सत्तरहवां शतक : प्राथमिक अधोलोकस्थ पृथ्वी कायादि में पहले उत्पन्न होते हैं, पीछे पुद्गल (माहार) ग्रहण करते हैं ? अथवा पहल आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं, पीछे उत्पन्न होते हैं ? इसी प्रकार सौधर्म कल्पादि में मरण-समुदघात करके रत्नप्रभादि सातों नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होने योग्य ऊर्बलोकस्थ पृथ्वीकायादि के भी उत्पन्न होने और आहार (पुद्गल) ग्रहण करने की पहले-पीछे की चर्चा की गई है। * बारहवें उद्देशक में एकेन्द्रियजीवों में पाहार, श्वासोच्छ्वास, आयुष्य शरीर, आदि की समानता असमानता की, तथा उनमें पाई जाने वाली लेश्याओं की और लेश्या वालों के अल्पवहुत्व की विचारणा की गई है। तेरहवे से सत्तरहवें उद्देशक में इसी प्रकार ब्रमशः नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार और अग्निकुमार देवों में आहार, श्वासोच्छ्वास, आयुष्य, शरीर आदि की समानता-असमानना की तथा उनमें पाई जाने वाली लेश्यामों की एवं उक्त लेश्या वालों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की . * इस प्रकार सत्तरह उद्देशकों में कुल मिला कर विभिन्न जीवों से सम्बन्धित अध्यात्मविज्ञान की विशद विचारणा की गई है।' 00 1. बियाहपण्णत्तिसुतं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ.७७३ से 791 तक Page #1865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं सयं : सत्तरहवां शतक सत्तरहवें शतक का मंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए भगवतीए / [1] भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो। विवेचन-श्रुतदेवता का स्वरूप-अावश्यक चूणि में श्रुतदेवता का स्वरूप इस प्रकार है-- जिससे समग्र श्रुतसमुद्र (या जिनप्रवचन) अधिष्ठित है, जो श्रुत की अधिष्ठात्री देवी है, जिसकी कृपा से शास्त्रज्ञान पढ़ा-सीखा है, उस भगवती जिनवाणी या सरस्वती को श्रुतदेवता कहते हैं :' उद्देशकों के नामों को प्ररूपणा 2. कुजर 1 संजय 2 सेलेसि 3 किरिय 4 ईसाण 5 पुढवि 6-7 दग 8-9 वाऊ 10-11 / एगिदिय 12 नाग 13 सुवण्ण 14 विज्ज 15 बाय 16 ऽग्नि 17 सत्तरसे // 1 // [2] (संग्रहणो-गाथार्थ) (सत्तरहवें शतक में) सत्तरह उद्देशक (कहे गये) हैं / (उनके नाम इस प्रकार हैं-)-(१) कुजर, (2) संयत, (3) शैलेशी, (4) क्रिया, (5) ईशान, (6-7) पृथ्त्री, (8-9) उदक, (10-11) वायु, (12) एकेन्द्रिय, (13) नाग, (14) सुवर्ण, (15) विद्युत्, (16) वायुकुमार, और (17) अग्निकुमार। विवेचन-उद्देशकों के नामों के अनुसार प्रतिपाद्य विषय-(१) प्रथम उद्देशक का नाम कुंजर है / कुजर से प्राशय है-श्रेणिक राजा के पुत्र कुणिक राजा के उदायी एवं भूतानन्द नामक हस्तिराज। इसमें इन हस्तिराजों के विषय में प्रतिपादन है--(२) संयत—द्वितीय उद्देशक में संयत आदि के विषय का प्रतिपादन है / (3) शैलेशी-तीसरे उद्देशक में शैलेशी (योगों से रहित निष्कम्प) अवस्था प्राप्त अनगार विषयक कथन है। (4) चौथे किया उद्देशक में क्रिया विषयक वर्णन है / (5) पांचवें ईशानउद्देशक में, ईशानेन्द्र की सुधर्मा-सभा आदि का कथन है। (6-7) छठे-सातवें उद्देशक में पृथ्वीकायविषयक वर्णन है। (-8) पाठवें-नौवें में अप्काय-विषयक वर्णन है। (10-11) दसवें-ग्यारहवें उद्देशक में वायुकाय-विषयक वर्णन है। (12) बारहवें उद्देशक में एकेन्द्रिय जीव-स्वरूप का प्रतिपादन है। (13-17) तेरहवें से लेकर सतरहवें उद्देशक में नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, वायुकुमार और अग्निकुमार से सम्बन्धित वक्तव्यता है / इस प्रकार सत्तरहवें शतक में सत्तरह उद्देशक कहे गए हैं। 1. पावश्यक चूणि अ. 4 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 729 Page #1866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'कुजर' प्रथम उद्देशक : कुजर (प्रादि-सम्बन्धी वक्तव्यता) उदायो और भूतानन्द हस्तिराज के पूर्व और पश्चाद्भवों के निर्देशपूर्वक सिद्धिगमननिरूपरण 3. रायगिहे जाव एवं वदासि[३] राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा४. उदायो णं भंते ! हत्थिराया कओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता उदायिहस्थिरायत्ताए उववन्ने ? गोयमा ! असुरकुमारहितो देवेहितो प्रणतरं उध्वट्टित्ता उदायिहत्थिरायत्ताए उववन्ने / [4 प्र.] भगवन् ! उदायी नामक प्रधान हस्ति राज, किस गति से मर कर बिना अन्तर के (सीधा) यहाँ हस्तिराज के रूप में उत्पन्न हुआ ? [4 उ.] गौतम ! वह असुरकुमार देवों में से मर कर सीधा (निरन्तर) यहाँ उदायी हस्तिराज के रूप में उत्पन्न हुआ है। 5. उदायी णं भंते ! हस्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति, कहि उववन्जिहिति ? गोयमा ! इमोसे णं रतणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति / [5 प्र.] भगवन् ! उदायो हस्तिराज यहाँ से काल के अवसर पर काल करके कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? [5 उ.] गौतम ! वह यहाँ से काल करके इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नरकावास (नरक) में नै रयिक रूप से उत्पन्न होगा। 6. से णं भंते ! ततोहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता कहि गच्छिहिति ? कहि उववजिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति / [6 प्र.] भगवन् ! (फिर वह) वहाँ (रत्नप्रभा पृथ्वी) से अन्तररहित निकल कर कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा? [6 उ.] गौतम ! वह महा विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। Page #1867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. भूयाणंदे णं भंते ! हस्थिराया कतोहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता भूयाणंद० ? एवं जहेव उदायो जाव अंतं काहिति। [7 प्र.] भगवन् ! भूतानन्द नामक हस्तिराज किस गति से मर कर सीधा भूतानन्द हस्तिराज रूप में यहाँ उत्पन्न हुना? [7 उ.] गौतम ! जिस प्रकार उदायी नामक हस्तिराज की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार भूतानन्द हस्तिराज की भी वक्तव्यता, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा, (तक) जाननी चाहिए। विवेचन-उदायो और भूतानन्द के भूत और भविष्य का कठन---उदायी और भूतानन्द श्रेणिक राजा के पुत्र कणिक राजा के प्रधान हस्ती थे। प्रस्तुत 5 सूत्रों (सू. 3 से 7 तक) में इन दोनों के भूतकालीन भव (असुरकुमार देव भव) का और भविष्य में प्रथम नरक का प्रायुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का कथन किया है।' कठिनशब्दार्थ-कमोहितो-कहाँ से-किस गति से ? काहिइ-करेगा / ताइफल को हिलाने-गिराने आदि से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रिया 8. पुरिसे गं भंते ! तालमारुभइ, तालं आरुभित्ता तालानो तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तालमारुभति, तालमारुभित्ता तालाओ तालफलं पचालेइ वा पवाडेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुटु / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो ताले निव्वत्तिए तालफले निस्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा। [8 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष, ताड़ के वक्ष पर चढ़े और फिर उस ताड़ से ताड़ के फल को हिलाए अथवा गिराए तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [8 उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष, ताड़ के वृक्ष पर चढ़ कर, फिर उस ताड़ से ताड़ के फल को हिलाता है अथवा नीचे गिराता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी प्रादि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष और ताड़ का फल उत्पन्न हुआ है, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 9. अहे णं भंते ! से तालफले अप्पणो गरुययाए जाव पच्चोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव जीवियाओ ववरोवेति तएणं भंते ! से पुरिसे कति किरिए ? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे तालफले अप्पणो गरुययाए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चहि किरियाहि पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो ताले निन्वत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव चहि किरियाहिं पुट्ठा। जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो 1. (क) वियाहपथ्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 773-774 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 720 2. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 5, पृ. 2594 न 720 Page #1868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 1] तालफले निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा / जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवतमाणस्स उवगहे वट्टति ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा / [9 प्र.] भगवन् ! यदि (उस पुरुष के द्वारा ताड़ फल को हिलाते और नीचे गिराते समय), वह ताड़फल अपने भार (वजन) के कारण यावत् (स्वयं) नीचे गिरता है और उस ताड़फल के द्वारा जो जीव, यावत् जीवन से रहित हो जाते हैं, तो उससे उस (फल तोड़ने वाले) पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [6 उ.] गौतम ! जब तक वह पुरुष उस फल को तोड़ता है, और वह ताड़फल अपने भार के कारण नीचे गिरता हा जीवों को, यावत् जीवित से रहित करता है, तब तक वह पुरुष कायिकी आदि चार क्रियानों से स्पृष्ट होता है / जिन जीवों के शरीर से ताड़वक्ष निष्पन्न हुआ है, वे जीव भी कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं और जिन जीवों के शरीर से ताड़-फल निष्पन्न हुप्रा है, वे जीव कायिकी आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं / जो जीव नीचे पड़ते हुए ताड़फल के लिए स्वाभाविक रूप से उपकारक (सहायक) होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी प्रादि पांचों क्रियाएं लगती हैं। विवेचन-ताड़वृक्ष को हिलाने और उसके फल को गिराने से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रियाएँ-(१) जो पुरुष ताडवृक्ष को हिलाता है, अथवा उसके फल को नीचे गिराता है, वह ताड़फल के जीवों की और ताड़फल के आश्रित जीवों की प्राणातिपातक्रिया करता है और जो प्राणातिपातक्रिया करता है वह कायिकी आदि प्रारम्भ की चार कियाएँ अवश्य करता है। इस अपेक्षा से उस पुरुष को कायिकी आदि पाँचों प्रियाएँ लगती हैं (2) ताड़वृक्ष और ताड़फल निर्वर्तक जीवों को भी पूर्वोक्त पांचों क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि वे स्पर्शादि द्वारा दूसरे जीवों का विघात करते हैं। (3) जब पुरुष ताड़फल को हिलाता है या तोड़ता है, तत्पश्चात् जब वह फल अपने भार से नीचे गिरता है और उसके द्वारा अन्य जीवों की हिंसा होती है, तब उस पुरुष को चार क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि ताड़फल को हिलाने में साक्षात् वधनिमित्त होते हुए भी ताड़फल के गिरने से होने वाले जीवों के वध में साक्षात् निमित्त नहीं है, परम्प रानिमित्त है। इसलिए उसे प्राणातिपातिकी के अतिरिक्त शेष चार क्रियाएँ लगती हैं। (4) इसी प्रकार ताड़वक्ष निष्पादक जीवों को भी चार क्रियाएँ लगती हैं। (5) ताइफल के निष्पादक जीवों को पांचों त्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि वे प्राणातिपात में साक्षात् निमित्त होते हैं। (6) नीचे गिरते हुए ताड़ फल के जो जीव उपकारक होते हैं, उन्हें भी पांच क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि प्राणिवध में वे प्रायः निमित्त होते हैं। इस प्रकार फल के आश्रित 6 क्रियास्थान कहे गए हैं। इन सूत्रों की विशेष व्याख्या पंचम शतक के छठे उद्देशक में उक्त धनुष फैंकने (चलाने) वाले व्यक्ति के प्रकरण से जान लेनी चाहिए।' ___ कठिनशब्दार्थ-तालमारुभइ-ताड़वृक्ष पर चढ़े। पचालेमाणे—चलाता (हिलाता) हुआ। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 721 (ख) व्याख्याप्रज्ञप्ति खण्ड 1 (प्रागम प्र. समिति) श. 5. उ. 6, सू. 10 से 12, पृ. 470-471 Page #1869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 604] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पवाडेमाणे-नीचे गिराता हुया / णिव्यत्तिए-निष्पन्न (उत्पन्न) हा / गरुयत्ताए–भारीपन से / ववरोवेइ-घात करता है / पवाडेइ-नीचे गिराता है / ' वीससाए-स्वाभाविक रूप से / वृक्ष के मूल, कन्द प्रादि को हिलाने आदि से सम्बन्धित जीवों को लगने वाली क्रिया प्ररूपणा 10. पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेति वा पवाडेति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे / जेसि पि प णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए जाव बीए निवत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा। [10 प्र.] भगवन् ! कोई पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाए या नीचे गिराए तो उसको कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [10 उ. गौतम ! जब तक वह पुरुष वृक्ष के मूल को हिलाता या नीचे गिराता है, तब तक उस पुरुष को कायिकी से लेकर यावत् प्राणातिपातिकी तक पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीरों से मूल यावत् बीज निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 11. अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गल्ययाए जाव जीवियानो ववरोवेति तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से मूले अप्पणो जाव ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चहि किरियाहिं पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निवत्तिए जाव बीए निव्वत्तिए ते वि णं जीवा काइयाए जाव चहिं० पुट्ठा / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिए ते विणं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा / जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोक्यमाणस्स उयग्गहे वति ते वि णं जीवा काइयाए जाव पंहि किरियाहि पुट्ठा। |11 प्र. भगवन् ! यदि वह मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे, तो (ऐसी स्थिति में) उस मूल को हिलाने वाले और नीचे गिराने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [11 उ.] गौतम ! जब तक मूल अपने भारीपन के कारण नीचे गिरता है, यावत् अन्य जीवों का हनन करता है ; तब तक उस पुरुष को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से वह कन्द निष्पन्न हुअा है यावत् बीज निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल निष्पन्न हुआ है, उन जीवों को कायिकी प्रादि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। तथा जो जीव नीचे गिरते हुए मूल के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2597 Page #1870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरहवां शतक : उद्देशक 1] [605 12. पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स कंदं पचालेइ० ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहि पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे' निव्वतिते ते वि णं जीवा जाव पंचहि किरियाहि पुट्ठा।। [12 प्र.] भगवन् ! जब तक वह पुरुष कन्द को हिलाता है या नीचे गिराता है, तब तक उसे कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुआ है, वे जीव भी कायिको आदि पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। 13. अहे णं भंते ! से कंदे अपणो जाव चउहिं० पुढे / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निव्वत्तिते, खंधे निवत्तिते जाव चउहिं० पुट्टा / जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहितो कंदे निव्वत्तिते ते वि णं जाव पंचहि० पुट्ठा / जे वि य से जीवा अहे वीससाए पच्चोवयमाणस्स जाव पंचहि० पुट्टा। [13 प्र.] भगवन् ! यदि वह कन्द अपने भारीपन के कारण नीचे गिरे, यावत् जीवों का हनन करे तो उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [13 उ.] गौतम ! उस पुरुष को कायिको अादि चार क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से मूल, स्कन्ध आदि निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जिन जीवों के शरीर से कन्द निष्पन्न हुए हैं, उन जीवों को कायिकी आदि पांचों क्रियाएँ लगती हैं। जो जीव नीचे गिरते हुए उस कन्द के स्वाभाविक रूप से उपकारक होते हैं, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती हैं। 14. जहा कंदो एवं जाव बीयं / [14] जिस प्रकार कन्द के विषय में आलापक कहा, उसी प्रकार (स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल) यावत् बीज के विषय में भी कहना चाहिए / विवेचन—प्रस्तुत पांचों सूत्रों (सू. 10 से 15 तक) में वृक्ष के मूल और कन्द को हिलातेगिराते समय हिलाने-गिराने वाले पुरुष को, तथा मूल एवं कन्द के जीव, वृक्ष, एवं उपकारक आदि को लगने वाली क्रियाओं का तथा इसी से सम्बन्धित स्कन्ध से बीज तक से सम्बन्धित क्रियाओं का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया है / इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्ष, फल और बीज के विषय में पूर्वोक्त छह क्रियास्थानों का निर्देश समझना चाहिए / शरीर, इन्द्रिय और योग : प्रकार तथा इनके निमित से लगने वाली किया 15. कति णं भंते ! सरोरगा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा-ओरालिए जाव कम्मए / 1. पाठान्तर- ......""मूले निव्वत्तिते जाव बीए.निवत्तिए / 2. वियाहपण्णत्तियुत्तं, भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ, 774-775 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 721 Page #1871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [15 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने कहे गए हैं ? . [15 उ.] गौतम ! शरीर पांच कहे हैं / यथा-प्रौदारिक यावत् कार्मण शरीर / 16. कति गंभंते ! इंदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंच इंदिया पन्नता, तं जहा-सोतिदिए जाव फासिदिए / [16 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [16 उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ पांच कही गई हैं / यथा -श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय / 17. कतिविधे णं भंते ! जोए पन्नते ? गोयमा ! तिविधे जोए पन्नत्ते, तं जहा–मणजोए वइजोए कायजोए / [17 प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार का कहा गया है ? [17 उ.] गौतम ! योग तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-मनोयोग, वचनयोग और काययोग। 18. जीवे णं भंते ! पोरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। [18 प्र. भगवन् ! औदारिक शरीर को निष्पन्न करता (बांधता या बनाता) हया जीव कितनी क्रिया वाला होता है ? [18 उ.] गौतम ! (प्रौदारिक शरीर को बनाता हुअा जीव) कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है / 19. एवं पुढविकाइए वि / 20. एवं जाव मणुस्से / [16-20] इसी प्रकार (औदारिकशरीर निष्पन्नकर्ता) पृथ्वी कायिक (जीव से लेकर) यावत् मनुष्य तक (को लगने वाली क्रियाओं के विषय में समझना चाहिए / ) 21. जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया बि, पंचकिरिया वि / [21 प्र. भगवन् ! औदारिक शरीर को निष्पन्न करते हुए अनेक जीव कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [21 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन, कदाचित् चार और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। 22. एवं पुढविकाइया वि। 23. एवं जाव मणस्सा। [22-23] इसी प्रकार (दण्डकक्रम से) अनेक पृथ्वीकायिकों से लेकर यावत् अनेक मनुष्यों तक पूर्ववत् कथन करना चाहिए। Page #1872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 1] 24. एवं वेउब्वियसरीरेण वि दो दंडगा, नवरं जस्स अस्थि वेउब्वियं / [24] इसी प्रकार वैक्रिय शरीर (निष्पन्नकर्ता) के विषय में भी एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से दो दण्डक कहने चाहिए। किन्तु उन्हीं के विषय में कहना चाहिए, जिन जीवों के वैक्रियशरीर होता है। 25. एवं जाव कम्मगसरीरं / [25] इसी प्रकार (आहारक शरीर, तैजस शरीर) यावत् कार्मण शरीर तक कहना चाहिए। 26. एवं सोतिदियं जाव फासिदियं / [26] इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय से (लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक (के निष्पन्नकर्ता के विषय में) कहना चाहिए। 27. एवं मणजोगं, वइजोगं, कायजोग, जस्स जं अस्थि तंभाणियव्वं / एते एगत्त-पुहत्तेणं छन्वीसं दंडगा। [27] इसी प्रकार मनोयोग, वचनयोग और काययोग के (निष्पन्नकर्ता के विषय में जिसके जो हो, उसके लिए उस विषय में कहना चाहिए। ये सभी मिल कर एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी छन्वीस दण्डक होते हैं / / विवेचनप्रस्तुत 11 सूत्रों (सू. 15 से 25 तक) में शरीर, इन्द्रिय और योग, इनके प्रकार तथा इनमें से प्रत्येक को निष्पन्न करने वाले जीव को एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा लगने वालो क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है / ' षविध भावों का अनुयोगद्वार के अतिदेशपूर्वक निरूपरग 28. कतिविधे णं भंते ! भावे पन्नत्ते? गोयमा! छविहे भावे पन्नत्ते, तं जहा-उदइए उपसमिए जाव सन्निवातिए / [28 प्र.] भगवन् ! भाव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [28 उ.] गौतम ! भाव छह प्रकार के कहे गए हैं। यथा--प्रौदयिक, औषशमिक यावत् सान्निपातिक / 26. से किं तं उदइए भावे ? उदइए भावे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–उदइए य उदयनिष्फन्ने य। एवं एतेणं अभिलावेणं जहा अणुओगद्दारे छन्नामं तहेव निरवसेसं भाणियब्वं जाव से तं सन्निवातिए भावे / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // सत्तरसमे सए : पढ़मो उद्देसओ समत्तो।। 17-1 // 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 775-776 Page #1873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608] [व्याख्यानप्तिसूत्र [26 प्र.] भगवन् ! प्रौदयिक भाव किस प्रकार का कहा गया है ? [29 उ.] गौतम ! औदयिक भाव दो प्रकार का कहा गया है / यथा-उदय और उदयनिष्पन्न / इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा अनुयोगद्वार-सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता, यावत्--यह है वह सान्निपातिकभाव (तक) कहनी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है / भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी) * यावत् विचरते हैं। विवेचन-औदयिक आदि छह भाव-भाव छह प्रकार के हैं--प्रौदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक / इनमें प्रौदयिक का स्वरूप इसके भेदों से स्पष्ट है। वे दो भेद यों हैं---उदय और उदयनिष्पन्न / उदय का अर्थ है-पाठ कर्मप्रकृतियों का फलप्रदान करना / उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं / यथा—जीवोदयनिष्पन्न, और अजीवोदयनिष्पन्न / कर्म के उदय से जीव में होने वाले नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं / कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। जैसे कि औदारिकादि शरीर तथा औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि / ये औदारिकशरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने से 'जीवोदयनिष्यन्न' कहलाते हैं / बाकी पांच भावों का स्वरूप अनुयोगद्वारसूत्र में उक्त षट्नाम की वक्तव्यता से जान लेना चाहिए।' // सत्तरहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2604 देखें--नंदिसुत्तं अणुयोगद्दाराइं च (महावीर जैन विद्यालय-प्रकाशित) सू. 233-59, पृ. 108-16 Page #1874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : संजय द्वितीय उद्देशक : संयत संयत प्रादि जीवों के तथा चौबीस दण्डकों के सयुक्तिक धर्म, अधर्म एवं धर्माधर्म में . स्थित होने की चर्चा-विचारणा 1. से नणं भंते ! संयतविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे धम्मे ठिए ? अस्संजय अविरयसपडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे अधम्मे ठिए ? संजयासंजये धम्माधम्मे ठिए ? हंता, गोयमा ! संजयविरय जाव धम्माधम्मे ठिए / [1 प्र.] भगवन् ! क्या संयत, प्राणातिपातादि से विरत, जिसने पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान किया है, ऐसा जीव धर्म में स्थित है? तथा असंयत, अविरत और पापकर्म का प्रतिपात एवं प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में स्थित है ? एवं संयतासंयत जीव धर्माधर्म में स्थित होता है ? [1 उ.] हाँ, गौतम ! संयत-विरत जीव धर्म में स्थित होता है, यावत् संयतासंयत जीव धमधिर्म में स्थित होता है / 2. एयंसि णं भंते ! धम्मसि वा अहम्मंसि वा धम्माधम्मसि वा चक्किया केयि आसइत्तए वा जाव तुट्टित्तए बा ? णो इण? सम। __ [2 प्र.] भगवन् ! क्या इस धर्म में, अधर्भ में अथवा धर्माधर्म में कोई जीव वैठने या लेटने में समर्थ है ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 3. से केणं खाई अट्टणं भंते ! एवं बच्चइ जाव धम्माधम्मे ठिए ? गोयमा ! संजतविरत जाव पावकम्मे धम्मे ठिए धम्म चेव उवसंपज्जित्ताणं विहरति / अस्संवत जाव पावकम्मे अधम्मे ठिए अधम्म चेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। संजयासंजये धम्माधम्ने ठिए धम्माधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरति, से तेणगं जाव ठिए / [3 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि यावत् धर्माधर्म में ....समर्थ नहीं है ? [3 उ.] गौतम ! संयत, विरत और पापकर्म का प्रतिधात और प्रत्याख्यान करने वाला जीव धर्म में स्थित होता है और धर्म को ही स्वीकार करके विचरता है। असंयत, यावत पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान नहीं करने वाला जीव अधर्म में ही स्थित होता है और अधर्म को ही Page #1875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 610 [व्याख्याप्राप्तिसूत्र स्वीकार करके विचरता है, किन्तु संयतासंयत जीव, धर्माधर्म में स्थित होता है और धर्माधर्म (देशविरति) को स्वीकार करके विचरता है / इसलिए हे गौतम ! उपर्युक्त रूप से कहा गया है / 4. जीवा णं भंते ! कि धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया? गोयमा ! जीवा धम्मे वि ठिया, प्रधम्मे वि ठिया, धम्माधम्मे विठिया। [4 प्र.] भगवन् ! क्या जीव धर्म में स्थित होते हैं, अधर्म में स्थित होते हैं अथवा धर्माधर्म में स्थित होते हैं ?' [4 उ.] गौतम ! जीव, धर्म में भी स्थित होते हैं, अधर्म में भी स्थित होते हैं और धर्माधर्म में भी स्थित होते हैं। 5. नेरतिया गं पुच्छा। गोयमा! रतिया नो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, नो धम्माधम्मे लिया। [5 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव, क्या धर्म में स्थित होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [5 उ.] नैरयिक न तो धर्म में स्थित हैं और न धर्माधर्म में स्थित होते हैं, किन्तु वे अधर्म में स्थित हैं। 6. एवं जाव चरिदियाणं / [6] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक जानना चाहिए / 7. पंचिदियतिरिक्खजोणिया पं० पुच्छा। गोयमा ! पंचिदियतिरिखजोणिया नो धम्मे ठिया, अधम्मे ठिया, धम्माधम्मे विठिया। [7 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव क्या धर्म में स्थित हैं ? ...... इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव धर्म में स्थित नहीं हैं, वे अधर्म में स्थित हैं, और धर्माधर्म में भी स्थित हैं। 8. मणुस्सा जहा जीवा / [8] मनुष्यों के विषय में जीवों (सामान्य जीवों) के समान जानना चाहिए। 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। [9] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नयिकों के समान जानना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 1 से 8 तक) में जीवों के संयत, असंयत एवं संयतासंयत होने की तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के धर्म, अधर्म या धर्माधर्म में स्थित होने की चर्चा-विचारणा की गई है। धर्म-अधर्म आदि पर बैठना, सोना आदि-धर्म, अधर्म और धर्माधर्म, ये तीनों अमूर्त पदार्थ Page #1876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [611 सत्तरहयां शतक : उद्देशक 2] हैं / सोना, बैठना आदि क्रियाएँ मूतं पासन आदि पर हो हो सकती हैं। इसलिए अमृतं धर्म, अधर्म आदि पर सोना-बैठना प्रादि क्रियाएँ अशक्य बताई हैं।' धर्म, अधर्म और धर्माधर्म का विवक्षित प्रर्थ-धर्म शब्द से यहाँ सर्वविरति चारित्रधर्म, अधर्म शब्द से अविरति और धर्माधर्म शब्द से विरति अविरति या देशविरति अर्थ विवक्षित है। दुसरे शब्दों में इन्हें संयम, असंयम और संयमासंयम भी कहा जा सकता है। ____ कठिनशब्दार्थ चक्किया-समर्थ है / आसइत्तए --बैठने में / तुयट्टित्तए-करवट बदलने या लेटने में या सोने में / अन्यतीथिक मत के निराकरणपूर्वक श्रमणादि में, जीवों में तथा चौबीस दण्डकों में बाल, पण्डित और बाल-पण्डित को प्ररूपणा / 10. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेति-'एवं खलु समणा पंडिया, समणोवासया बालपंडिया; जस्स णं एगपाणाए वि दंडे अनिक्खित्ते से णं एगंतबाले त्ति वत्तब्वं सिया' से कहमेयं भंते ! एवं ? __ गोयमा ! जणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव वत्तव्वं सिया, जे ते एवमासु, मिच्छं ते एवमाहंसु / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव पवेमि-एवं खलु समणा पंडिया; समणोवासगा बालपंडिया; जस्स णं एगपाणाए वि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबाले ति बत्तव्य सिया। . [10 प्र.] भगवन् ! अन्यतीधिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि (हमारे मत में) ऐसा है कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं और जिस मनुष्य ने एक भी प्राणी का दण्ड (बध) अनिक्षिप्त (छोड़ा हुया नहीं) है, उसे 'एकान्त बाल' कहना चाहिए; तो हे भगवन् ! अन्यतीथिकों का यह कथन कैसे यथार्थ हो सकता है ? [10 उ.] गौतम ! अन्यतीथिकों ने जो यह कहा है कि 'श्रमण पण्डित हैं' ....... यावत् 'एकान्त वाल कहा जा सकता है, उनका यह कथन मिथ्या है। मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि श्रमण पण्डित हैं, श्रमणोपासक बाल-पण्डित हैं, परन्तु जिस जीव ने एक भी प्राणी के वध को निक्षिप्त किया (त्यागा) है, उसे 'एकान्त बाल' नहीं कहा जा सकता; (अपितु उसे 'बाल-पण्डित' कहा जा स 11. जीवा णं भंते ! कि बाला, पंडिया, बालपंडिया ? गोयमा! जीवा बाला वि, पंडिया वि, बालपंडिया वि / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 723 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2607 2. वही, भा. 5, पृ. 2607 3. (क) वही, भा. 5, पृ, 2606 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 723 Page #1877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11 प्र.] भगवन् ! क्या जीव बाल हैं, पण्डित हैं अथवा बालपण्डित हैं ? [11 उ.] गौतम ! जीव बाल भी हैं, पण्डित भी हैं और बाल-पण्डित भी हैं। 12. नेरइया गं० पुच्छा। गोयमा! नेरइया बाला, नो पंडिया, नो बालपंडिया। [12 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक बाल हैं, पण्डित हैं अथवा बालपण्डित हैं ? [12 उ.] गौतम ! नरयिक बाल हैं, वे पण्डित नहीं हैं और न बाल-पण्डित हैं / 13. एवं जाध चरिंदियाणं / [13] इसी प्रकार (दण्डकक्रम से) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक (कहना चाहिए / ) 14. पंचिदियतिरिक्ख० पुच्छा। गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला, नो पंडिया, बालयंडिया वि। [14 प्र.] भगवन् ! क्या पंचेन्द्रिय तियंग्योनिक जीव बाल हैं ? (इत्यादि पूर्ववत्) प्रश्न / [14 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक बाल हैं और बाल-पण्डित भी हैं, किन्तु पण्डित नहीं हैं। 15. मणुस्सा जहा जीवा। [15] मनुष्य (सामान्य) जीवों के समान हैं। 16. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया / [16] वाण-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (इन तीनों का पालापक) नै रयिकों के समान (कहना चाहिए !) विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों (सू. 10 से 16 तक) में अन्यतीथिकों के मत के निराकरणपूर्वक श्रमणादि में, सामान्य जीवों में तथा नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकों में बाल, पण्डित और बाल-पण्डित की प्ररूपणा की गई है। अन्यतीथिक मत कहाँ तक यथार्थ-प्रयथार्थ ? --'श्रमण सर्वविरति चारित्र वाले होने के कारण 'पण्डित' हैं और श्रमगोपासक देविति चारित्र वाले होने के कारण बाल-पण्डित हैं; यहाँ तक तो अन्यतीथिकों का मत ठीक है, किन्तु वे कहते हैं कि सभी जीवों के वध से विरति वाला होते हए भी जिसने सापराधी आदि या पृथ्वीकायादि में से एक भी जीव का वध खला रक्खा है, अर्थात सब जीवों के वध का त्याग करके भी किसी एक जीव के वध का त्याग नहीं किया है, उसे भी 'एकान्त बाल' कहना चाहिए / श्रमण भगवान महावीर इस मत का निराकरण करते हुए कहते हैं कि अत्यतीथिकों की यह मान्यता मिथ्या है। जिस जीव ने आंशिक रूप में भी प्राणी के वध की 1. वियाह पणत्तिसत्तं, भा. 2, (मूलपाट-टिप्पणयुक्त) पृ. 778-779 Page #1878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] [613 विरति की है, उस जीव को 'एकान्तबाल' न कह कर, 'बाल-पण्डित' कहना चाहिए, क्योंकि वह देशविरत है। जो देशविरत हो, उसे 'एकान्तवाल' कहना यथार्थ नहीं हैं।' कठिन शब्दार्थ- एगपाणाए---एक प्राणी के / दंडे-वध / अनिक्खित्ते-अनिक्षिप्त छोड़ा नहीं है / माहंसु-कहा है। प्राणातिपात प्रादि में वर्तमान जीव और जीवात्मा को भिन्नता के निराकरणपूर्वक जैनसिद्धान्तसम्मत जीव और प्रात्मा की कथंचित् अभिन्नता का प्रतिपादन 17. अन्नउस्थिया णं भंते ! एवमाइपखंति जाव पवेति-"एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस ने जीवे, अन्ने जीवाया। पाणातिवायवेरमणे जाव परिगहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे बढमाणस्स अन्न जीवे, अन्ने जीवाया। उप्पत्तियाए जाव पारिणामियाए बट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया। उग्गहे ईहा-अवाये धारणाए बट्टमाण स्स जाव जीवाता / उट्ठाणे जाव परक्कमे बट्टमाणरस जाव जीवाया। नेरइयत्ते तिरिषखमणुस्स-देवत्ते वट्टमाणस्स जाव जीवाया / नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए बट्टमाणरस जाव जीवाया / एवं क.व्हलेक्साए जाष सुवकलेस्साए, सम्मदिट्टीए 3 / ' एवं चवखुदंसणे 4, प्रामणिबोहियनाणे 55, मतिप्रमाणे 36, आहारसनाए 4 / ' एवं ओरालियसरीरे 5 / एवं मणजोए 3" सागारोवयोगे अणागारोपयोगे यट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाता" से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा जं णं ते अनउस्थिया एषमाइपखंति जाब मिर, ते एवमासु / अहं पुण गोयमा ! एबमाइपखामि जाय परवेमि-'एवं खलु पाणातिवाए जाब मिच्छादसणसल्ले बट्टमाणरस से चेव जीवे, से चेव जीवाता जाव अणागारोवयोगे वट्टमाणस्स से चेव जीवे, से चेव जीवाया। [17 प्र.] भगवन् ! प्रत्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य में प्रवृत्त (वर्त्तते) हुए प्राणी का जीव अन्य है और उस जीव से जीवात्मा अन्य (भिन्न) है। प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण में, क्रोविवेक (ऋोध-त्याग) यावत मिश्यादर्शन-शल्य-त्याग में प्रवर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है। प्रोत्पत्तिकी बुद्धि यावत पारिणामिकी बुद्धि में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और -- - - - -. --... . ... ... ... ... ... ... -... -.. 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 723 2. वही, पत्र 723 3. 3 अंक-सूचित पाठ--'मिच्छद्दिट्टीए सम्मामिच्छट्रिीएं। 4. 4 अंक-सूचित पाठ-'अचवख दसणे ओहिदसणे केवलसणे'। 5. 5 अंक-सूचित पाठ—'सुतनाणे ओहिनाणे मणपज्जवनाणे केवलनाणे'। 6. 3 अंक-सूचित पाठ—'सुतअन्नाणे विभंगनाणे'। 7. 4 अंक-सूचित-पाठ—'भयसन्नाए परिग्गहसन्नाए मेहुणसन्नाए'। 5. 5 अंक-सूचित-पाठ-'उब्वियसरीरे आहारंगसरीरे तेयगसरीरे कम्मगसरीरे'। 9. 3 अंक-सूचित-पाठ—'बइजोए कायजोए'। Page #1879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीवात्मा उस जीव से भिन्न है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है और जीवात्मा उससे भिन्न है। उत्थान यावत् पराक्रम में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा उससे भिन्न है। नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा अन्य है। ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तराय कर्म में वर्तमान प्राणी का जीव अन्य है, जीवात्मा भिन्न है / इसी प्रकार कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या तक में, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-सम्यग-मिथ्यादृष्टि में, इसी प्रकार चक्षुदर्शन आदि चार दर्शनों में, प्राभिनिबोधिक प्रादि पांच ज्ञानों में, मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञानों में, पाहारसंज्ञादि चार संज्ञाओं में, एवं औदारिक शरीरादि पांच शरीरों में, तथा मनोयोग आदि तीन योगों में और साकारोपयोग में एवं निराकारोपयोग में वर्तमान प्राणी का अन्य है और जीवात्मा अन्य है। भगवन ! उनका यह मन्तव्य किस प्रकार सत्य हो सकता 17 उ.] गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् वे मिथ्या कहते हैं / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता है--प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में वर्तमान प्राणी जोव है और वही जीवात्मा है, यावत् अनाकारोपयोग में वर्तमान प्राणी जीव है और वही जीवात्मा है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में अन्यतीथिकों के मत के --प्राणातिपातादि में वर्तमान जीव और जीवात्मा पृथक-पृथक हैं, निराकरण-पूर्वक जैन सिद्धान्तसम्मत मत प्रस्तुत किया गया है। वृत्तिकार ने यहाँ तीन मत जीव और जीवात्मा को पृथक्ता के सम्बन्ध में प्रस्तुत किये हैं--- (1) सांख्यदर्शन का मत-प्रागातिपातादि में वर्तमान प्राणो से जीव अर्थात् प्राणों को धारण करने वाला 'शरीर' सांख्यदर्शन को भाषा में 'प्रकृति' भिन्न है / जीव यानी शरीर का सम्बन्धी-अधिष्ठाता होने से ग्रात्मा-जोवात्मा, सांख्यदर्शन की भाषा में 'पुरुष' भिन्न है। सांख्यमतानुसार प्रकृति कर्ता है, पुरुष अकर्ता तथा भोक्ता है / उसका कहना है कि प्राणातिपातादि में प्रवृत्त होने वाला शरीर प्रत्यक्ष दृश्यमान है, इसलिए शरीर (प्रकृति) ही कर्ता है, अात्मा (पुरुष) नहीं / (2) द्वितोय मत - द्वैतवादी दर्शन–नारकादि पर्याय धारण करके जो जोता है, वह जोव है, वही प्राणातिपातादि में प्रवृत्त होता है, किन्तु जीवात्मा नारकादि सब भेदों का अनुगामी जीवद्रव्य है। द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न भिन्न हैं, दोनों की भिन्नता का तथाविध प्रतिभास घट और पट को तरह होता है। इसलिए जीव और जीवात्मा दोनों भिन्न-भिन्न हैं। (3) तीसरा वेदान्त (औपनिषदिक) मत--जोव (अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य) भिन्न है और जोवात्मा (ब्रह्म) भिन्न है / जीव का ही स्वरूप जीवात्मा है / उनके मतानुसार जीव और ब्रह्म का औपाधिक भेद है। जीव हो प्राणातिपातादि विभिन्न क्रियाएँ करता है, इसलिए वही कर्ता है, किन्तु जीवात्मा (ब्रह्म) प्रकर्ता है। सभी अवस्थाओं में जीव और जोवात्मा का भेद बताने के लिए हो प्राणातिपातादि क्रियाओं का कथन है / ' जैनसिद्धान्त का मन्तव्य --जीव अर्थात् जीव विशिष्ट शरीर और जीवात्मा (जीव), ये कथंचित् एक हैं, इन दोनों में अत्यन्त भेद नहीं है / अत्यन्त भेद मानने पर देह से स्पृष्ट वस्तु का ज्ञान जोव को नहीं हो सकेगा तथा शरीर द्वारा किये हुए कर्मों का वेदन भी आत्मा को नहीं हो सकेगा। दूसरे के द्वारा किये हुए कर्मों का संवेदन दूसरे के द्वारा मानने पर अकृताभ्यागमदोष 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 724 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2612 Page #1880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] 615] आएगा। तथा अत्यन्त प्रभेद मानने पर परलोक का अभाव हो जाएगा। इसलिए जीव और आत्मा में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है / ' रूपी अरूपी नहीं हो सकता, न प्ररूपी रूपी हो सकता है 18. [1] देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्ले पुधामेव रूबी भवित्ता पभू अरूवि विउव्वित्ताणं चिट्ठिलए? जो इण? सम?। [18-1 प्र.] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासुख-सम्पन्न देव, पहले रूपी होकर (मूर्तरूप धारण करके) बाद में अरूपी (अमूर्तरूप) की विक्रिया करने में समर्थ है ? [18-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] से केण?णं भंते ! एवं वच्चद-देवे णं जाब नो पद अरूवि विउवित्ताणं चिद्वित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुजमामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामिमए एयं नायं, मए एवं दिटु, मए एयं बुद्ध, मए एवं अभिसमन्नागयं जं जं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मरस सरागरस सवेयगरस समोहस्स सलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराम्रो अविप्पमुक्करस एवं पण्णायति, तं जहा-कालते वा जाव सुविकलते वा, सुम्भिगंधते वा, दुनिभगंधत्ते वा, तित्तत्ते या जाव महुरत्ते वा, कवखडत्ते वा जाव लवखत्ते वा, से तेण?णं गोयमा ! जाय चिद्वित्तए / [18-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि देव (पहले रूपी होकर). यावत् अरूपीपन की विक्रिया करने में समर्थ नहीं है ? १६-२उ. गौतम ! मैं यह जानता हूँ. मैं यह देखता हैं. मैं यह निश्चित जानता है. मैं यह सर्वथा जानता हूँ; मैंने यह जाना है. मैंने यह देखा है, मैंने यह निश्चित समझ लिया है और मैंने यह पूरी तरह से जाना है कि तथा प्रकार के सरूपी (रूप वाले), सकर्म (कर्म वाले) सराग, सवेद (वेद वाले), समोह (मोहयुक्त) सलेश्य (लेश्या वाले), सशरीर (शरीर वाले) और उस शरीर से अविमुक्त जीव के विषय में ऐसा सम्प्रज्ञात होता है। यथा--उस शरीरयुक्त जीव में कालापन यावत् श्वेतपन, सुगन्धित्व या दुर्गन्धित्व, कटुत्व यावत् मधुरत्व, कर्कशत्व यावत् रूक्षत्व होता है / इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् विक्रिया करके रहने में समर्थ नहीं है / 19. सच्चेव णं भंते ! से जीये पुवामेव अरूवी वित्ता पभू कवि विउविताणं चिद्वित्तए ? जो तिण? समी। जाव चिट्टित्तए ? गेयमा! अहमेयं जाणामि, जाव जणं तहागयरस नीवस्स अविस्स अकम्मरस अरागस्स 1. भग, (हिन्दीविवेचन), भा. 5, पृ. 2612 Page #1881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र अवेवस्स अमोहस्स अलेसम्स असरोरस्स ताओ विष्पमुक्कस्स गो एवं पन्नायति, तं जहाकालत्ते वा जाव लुक्खत्ते बा, से तेण?णं जाय चिद्वित्तए / सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्तिः / // सत्तरसमे सए : बीओ उद्देसमो समत्तो // 17-2 / / [16 प्र.] भगवन् ! क्या वहो जोव पहले अरूपो होकर, फिर रूपी आकार को विकुर्वणा करके रहने में समर्थ है ? [19 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भंते ! क्या कारण है कि वह ""यावत् वैसा करके रहने में समर्थ नहीं है ? उ.] गौतम ! मैं यह जानता हूँ, यावत् कि तया-प्रकार के प्ररूपी, अकर्मी, परागी, अवेदी, अमोहो, अलेश्यी, अशरीरी और उस शरीर से विप्रमुक्त जीव के विषय में ऐसा ज्ञात नहीं होता कि जीव में कालापन यावत् रूक्षपन है। इस कारण, हे गौतम ! वह देव पूर्वोक्त प्रकार से विकुर्वणा करने में समर्थ नहीं है। __हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 18-16) में दो प्रकार के सिद्धान्त को सर्वज्ञ प्रभु महावीर को माक्षी से प्रस्तुत किया गया है-- (1) कोई भी जीव (विशेषतः देव) पहले रूपी होकर फिर विक्रिया से अरूपित्व को प्राप्त करके नहीं रह सकता। (2) कोई भी जोब (विशेषत: देव) पहले अरूपी होकर बाद में विक्रिया से रूपी आकार बना कर नहीं रह सकता।' रूपी अरूपी क्यों नहीं हो सकता?-कोई महद्धिक देव भो पहले रूपो (मूर्त) होकर फिर अरूपी (अमूर्त) कदापि नहीं हो सकता। सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् ने इसी प्रकार इस तत्त्व को अपने केवलज्ञानालोक में देखा है। शरीरयुक्त जोक में ही कर्मपुद्गलों के सम्बन्ध से रूपित्व ग्रादि का ज्ञान सामान्यजन को भी होता है / इसलिए रूपी, अरूपी नहीं हो सकता / अरूपी भी रूपी क्यों नहीं हो सकता ? - कोई भो जोव, भले ही वह महद्धिक देव हो, पहले अरूपी (वर्णादिरहित) होकर फिर रूपी (वर्णादियुक्त) नहीं हो सकता, क्योंकि अरूपी जीव कर्मरहित, कायारहित, जन्ममरणरहित, वर्णादिरहित मुक्त (सिद्ध) होता है, और ऐसे मुक्त जोव को फिर से कर्मबन्ध नहीं होता / कर्मबन्ध के अभाव में शरीर की उत्पत्ति न होने से वर्णादि का अभाव 1. जियाहपण्णतिसुत्तं 'भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 780 Page #1882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 2] [617 होता है / अतः अरूपी होकर जीव फिर रूपी नहीं हो सकता। सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने अपने केवलज्ञानालोक में इस तत्त्व को इसी प्रकार देखा है।' कठिनशब्दार्थ-जाणामि-विशेष रूप से जानता हूँ, पासामि-सामान्य रूप से जानता (देखता) हूँ। बुज्झामि-सम्यक् प्रकार से अवबोध करता हूँ, सम्यग्दर्शनयुक्त निश्चित ही जानता हूँ। अभिसमन्नागच्छामि-समस्त पहलुओं से संगतिपूर्वक सर्वथा जानता हूँ। पण्णाति-सामान्य जन द्वारा भी जाना जाता है / सत्तरहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 725 (ग्व) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2614-2615 . 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 725 Page #1883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'सेलेसी' तृतीय उद्देशक : शैलेशी (अनगार की निष्कम्पता आदि) शैलेशी अवस्थापन्न अनगार में परप्रयोग के विना एजनादिनिषेध 1, सेलेसि पडिवन्नए णं भंते ! अणगारे सदा समियं एयति वेयति जाव तं तं भावं परिणमति? नो इण? सम?, नऽनत्थेगेणं परप्पयोगेणं / [1 प्र.] भगवन् ! शैलेशी-अवस्था-प्राप्त अनगार क्या सदा निरन्तर कांपता है, विशेषरूप से कांपता है, यावत् उन-उन भावों (परिणमनों) में परिणमता है ? [1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / सिवाय एक पर प्रयोग के (शैलेशी-अवस्था में एजनादि सम्भव नहीं।) विवेचन - शैलेशी अवस्था और एजनादि-शैलेश अर्थात् पर्वतराज सुमेरु, उसकी तरह निष्कम्प-निश्चल-अडोल अवस्था को शैलेशी-अवस्था कहते हैं। शैलेशी अवस्था में मन, वचन और काया के योगों का सर्वथा निरोध हो जाता है, इसलिए शैलेशी-अवस्थापन्न अनगार मन-वचन-काया से सर्वथा निष्कम्प रहता है। किन्तु परप्रयोग से अर्थात् कोई शैलेशी-प्रवस्थापन्न अनगार की काया को कम्पित करे तो कम्पन सम्भव है / कुछ व्याख्याकार इसकी व्याख्या यों करते हैं कि "शैलेशी अवस्था में कम्पन होता ही नहीं अर्थात् शैलेशी अवस्था में प्रात्मा अत्यन्त स्थिर रहती है, कम्पित नहीं होती / उस अवस्था में परप्रयोग नहीं होता और परप्रयोग के बिना कम्पन नहीं होता।" तत्त्वं के वलिगम्यम् / ' कठिनशब्दार्थ-समियं : दो अर्थ----(१) सन्तत-निरन्तर, अथवा (2) सम्यक् गत-व्यवस्थित या प्रमाणोपेत / एयति–एजना करता है, कंपित होता है। वेयति--विशेष रूप से कंपित होता है।' एजना के पांच भेद 2. कतिविधा णं भंते ! एयणा पन्नता? गोयमा ! पंचविहा एयणा पनत्ता, तं जहा--दव्वेपणा खेत्तयणा कालेयणा भवेयणा भावेयणा / 1. (क) पाइअसहमहण्णवी में सेलेसी शब्द प्र. 931 (ख) नन्नत्थेगेणं परप्पओगेणं योऽयं निषेधः, सोऽन्य कस्मात परप्रयोगात् / एजनादिकारणेष मध्ये परप्रयोगेण केन शैलेश्यामेजनादि भवति न कारणान्तरेणेति भावः / -- भगवती. अ. बत्ति, पत्र 726 (ग) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2617 2. (क) 'पाइ-सह-महष्णवो' में-समियं, समिअं शब्द पृ. 871 (ख) भगवती, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2616 Page #1884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 3] [619 [2 प्र.] भगवन् ! एजना कितने प्रकार की कही गई है ? [2 उ.] गौतम ! एजना पांच प्रकार की कही गई है। यथा---(१) द्रव्य-एजना, (2) क्षेत्रएजना, (3) काल-एजना, (4) भव-एजना और (5) भाव-एजना / विवेचन--एजना : स्वरूप, प्रकार और अर्थ-योगों द्वारा प्रात्मप्रदेशों का अथवा पुद्गल-द्रव्यों का चलना (कांपना) 'एजना' कहलाती है। एजना के पांच भेद हैं। द्रव्यएजना--मनुष्यादि जीवद्रव्यों का, अथवा मनुष्यादि जीव-सम्पृक्त पुद्गल द्रव्यों का कम्पन / क्षेत्रएजना-मनुष्यादि-क्षेत्र में रहे हुए जीवों का कम्पन / काल-एजना-मनुष्यादि-काल में रहे हुए जीवों का कम्पन / भाव-एजनाप्रौदयिकादि भावों में रहे हुए नारकादि जीवों का, अथवा तद्गत पुद्गल द्रव्यों का कम्पन / भवएजना--मनुष्यादि भव में रहे हुए जीव का कम्पन / ' द्रव्यैजनादि पांच एजनाओं को चारों गतियों की दृष्टि से प्ररूपणा 3. दवेयणा णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता? गोयमा ! चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहानेरतियदब्वेयणा तिरिक्खजोणियदवेयणा मणुस्सदव्वेयणा देवदव्येयणा। [3 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-एजना कितने प्रकार की कही गई है ? 63 उ.] गौतम ! द्रव्य-एजना चार प्रकार की कही गई है / यथा नैरयिकद्रव्यैजना, तिर्यग्योनिकद्रव्येजना, मनुष्यद्रव्यैजना और देवद्रव्यैजना / / 4. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चति नेरतियदम्वेयणा, नेरइयदम्वेयणा? गोयमा ! जंणं नेरतिया नेरतियदन्वे वट्टिसुवा, वट्ट ति वा, वट्टिस्संति वा तेणं तत्थ नेरतिया नेरतियदन्वे वट्टमाणा नेरतियदन्वेयणं एइंसु वा, एयंति वा, एइस्संति वा, से तेण?णं जाव दध्वेयणा / [4 प्र.] भगवन् ! नैरयिक-द्रव्यैजना को नरयिक-द्रव्यैजना क्यों कहा जाता है ? [4 उ.] गौतम ! क्योंकि नैयिक जीव, नैयिकद्रव्य में वर्तित (वर्तमान) थे, वर्तते हैं और वत्तेंगे; इस कारण वहाँ नैरयिक जीवों ने, नैरयिकद्रव्य में वर्तते हुए, नरयिकद्रव्य को एजना पहले भी की थी, अब भी करते हैं और भविष्य में भी करेंगे, इसी कारण से वह नैरयिकद्रव्यैजना कहलाती है। 5. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति तिरिक्खजोणियदम्वेयणा० ? एवं चेव, नवरं 'तिरिक्खजोणियदवे' भागियन्वं / सेसं तं चेव / [5 प्र.] भगवन् ! तिर्यग्योनिकद्रव्य-एजना तिर्यग्योनिकद्रव्य-एजना क्यों कहलाती है ? [5 उ. गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए। विशेष यह है कि 'नरयिकद्रव्य' के स्थान पर 'तिर्यग्योनिक द्रव्य' कहना चाहिए / शेष सभी कथन पूर्ववत् / 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2618 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 726 Page #1885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6. एवं जाव देवव्वेयणा / [6] इसी प्रकार (मनुष्यद्रव्य-एजना) यावत् देवद्रव्य-एजना के विषय में जानना चाहिए / 7. खेतयणा गं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! चउब्विहा पन्नत्ता, तं जहानेरतियखेत्तेयणा जाव देवखेतेयणा ? [7] भगवन् ! क्षेत्र-एजना कितने प्रकार की कही गई है ? [7 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार की कही गई है / यथा-नरयिकक्षेत्र-एजना (से लेकर) यावत् देवक्षेत्रएजना। 8. से केणढणं भंते ! एवं वुच्चति–नेरइयखेत्तेयणा, नेरइयखेत्तयणा ? एवं चेव, नवरं नेरतियखेत्तेयणा भाणितम्या / [- प्र.] भगवन् ! इसे नैरयिकक्षेत्र एजना क्यों कहा जाता है ? [8 उ.] गौतम ! नैरयिकद्रव्यएजना के समान सारा कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि नरयिकद्रव्य-एजना के स्थान पर यहाँ नैरयिकक्षेत्र-एजना कहना चाहिए / 9. एवं जाय देवखेत्तयणा / [9] इसी प्रकार यावत् देव-क्षेत्र-एजना तक पूर्ववत् कहना चाहिए / 10. एवं कालेयणा वि / एवं भवेयणा वि, जाव देवभावेयणा / [10] इसी प्रकार काल-एजना, भव-एजना और भाव-एजना के विषय में समझ लेना चाहिए / और इसी प्रकार नै रयिक कालादि-एजना से लेकर देव-भाव-एजना तक जानना चाहिए / विवेचन- द्रव्यादि एजना : चतुर्विध गतियों की अपेक्षा से-~-नरपिक द्रव्य एजना इसलिए कहते हैं, कि नरयिकजीव नैयिकशरीर में रहते हुए उस शरीर से एजना (हलचल या कम्पन) करते हैं, की है, और भविष्य में करेंगे। इसी प्रकार तिर्यञ्च, मनुष्य और देवसम्बन्धी द्रव्य-एजना भी समझ लेनी चाहिए / और इसी प्रकार क्षेत्रादि-एजना के विषय में समझ लेना चाहिए।' ____ कठिन शब्दों का भावार्थ--वट्टिसु-वर्त्तते थे / चलना और उसके भेद-प्रभेद-निरूपण 11. कतिविहा शं भंते ! चलणा पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा चलणा पन्नत्ता, तं जहा सरीरचलणा इंदियचलणा जोगचलणा / [11 प्र.] भगवन् ! चलना कितने प्रकार की है ? [11 उ.] गौतम ! चलना तीन प्रकार की है, यथा-शरीरचलना, इन्द्रियचलना और योगचलना। 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2617 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 726 Page #1886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 3] [621 12. सरोरचलणा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा ओरालियसरीरचलणा जाव कम्मगसरीरचलणा। [12 प्र.] भगवन् ! शरीरचलना कितने प्रकार की है ? [12 उ.] गौतम ! शरीरचलना पांच प्रकार की है। यथा--औदारिक शरीर चलना, यावत् कार्मणशरीरचलना / 13. इंदियचलणा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा पन्नता, तं जहा--सोतिदियचलणा जाव फासिदियचलगा। [13 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय चलना कितने प्रकार की कही गई है ? [13 उ.] गौतम ! इन्द्रियचलना पांच प्रकार की कही गई है / यथा--श्रोत्रेन्द्रियचलना यावत् स्पर्शेन्द्रिय-चलना। 14. जोगचलणा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा! तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-मणोजोगचलणा वइजोगचलणा कायजोगचलणा। [14 प्र.] भगवन् ! योगचलना कितने प्रकार की कही गई है ? [14 उ.] गौतम ! योगचलना तीन प्रकार की कही गई है। यथा--मनोयोगचलना, वचनयोगचलना और काययोगचलना / विवेचन--त्रिविध चलना और उसके प्रभेद-सामान्य कम्पन या स्पन्दन को 'एजना' कहते हैं और वही एजना विशेष स्पष्ट हो तो उसे चलना कहते हैं। चलना शरीर, इन्द्रिय और योग से होती है, इसलिए इसके मूलभेद तीन कहे गए हैं, और उत्तरभेद 13 हैं—(पांचशरीर, पांच इन्द्रिय और तीन योग)1' शरीरचलना : स्वरूप -शरीर औदारिकादिशरीर की चलना, अर्थात्-उसके योग्य पुद्गलों का तद्र प-परिणमन में जो व्यापार हो, वह शरीर चलना है। इसी प्रकार इन्द्रिय चलना और योग-चलना का भी स्वरूप समझ लेना चाहिए। शरीरादि चलना के स्वरूप का सयुक्तिक निरूपण 15. से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ-ओरालियसरीरचलणा, ओरालियसरीरचलणा? ___ गोयमा ! जं जं जीवा पोरालियसरीरे वट्टमाणा ओरालियसरीरपायोग्गाई दवाई पोरालियसरीरत्ताए परिणामेमाणा ओरालियसरीरचलणं चलिस वा, चलंति वा, चलिस्संति वा, से तेण?णं जाव ओरालियसरीरचलणा, ओरालियसरीरचलणा। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 727 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 619 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 727 Page #1887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [15 प्र. भगवन् ! औदारिकशरीर-चलना को औदारिकशरीर-चलना क्यों कहा जाता है ? (15 उ.] गौतम ! जीवों ने औदारिक शरीर में वर्तते हुए, औदारिक शरीर के योग्य द्रव्यों को, औदारिक शरीर रूप में परिणमाते हुए भूतकाल में औदारिक शरीर की चलना की थी, वर्तमान में चलना करते हैं, और भविष्य में चलना करेंगे, इस कारण से हे गौतम ! औदारिक शरीर से सम्बन्धित चलना को औदारिकशरीर-चलना कहा जाता है / 16. से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ-वे ब्वियसरीरचलणा, वेउब्वियसरीरचलणा? एवं चेव, नवरं वेउम्वियसरोरे वट्टमाणा। 16 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर-चलना को वैक्रियशरीर चलना किस कारण कहा जाता है? 16 उ. पूर्ववत् (औदारिक शरीरचलना के समान) समग्र कथन करना चाहिए। विशेष यह है-औदारिक शरीर के स्थान पर 'वैक्रिय शरीर में वर्तते हुए', कहना चाहिए। 17. एवं जाव कम्मगसरीरचलणा। [17] इसी प्रकार यावत्-कार्मण-शरीर चलना तक कहना चाहिए। 18. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ-सोतिदियचलणा, सोतिदियचलणा? गोयमा ! जं णं जीवा सोतिदिए वट्टमाणा सोतिदियपायोग्गाई दवाई सोतिदियत्ताए परिणामेमाणा सोति दियचलणं चलिसु वा, चलति वा, चलिस्संति वा, से तेण?णं जाव सोतिदियचलणा सोतिदियचलणा। [18 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय-चलना को श्रोत्रेन्दिय-चलना क्यों कहा जाता है ? [18 उ.] गौतम ! चंकि श्रोत्रेन्द्रिय को धारण करते हुए जीवों ने श्रोत्रेन्द्रिय योग्य द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय-रूप में परिणमाते हए श्रोत्रेन्द्रियचलना की थी, वर्तमान में (श्रोत्रेन्द्रियचलना) करते हैं और भविष्य में करेंगे, इसी कारण से श्रोत्रेन्द्रिय-चलना को श्रोत्रेन्द्रिय चलना कहा जाता है। 19. एवं जाव फासिदियचलणा। [19] इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय चलना तक जानना चाहिए। 20. से केपट्टणं भंते ! एवं वृच्चइ-मणजोगचलणा, मणजोगचलणा? गोयमा ! जं णं जीवा मणजोए वट्टमाणा मणजोगप्पायोग्गाई दवाइं मणजोगत्ताए परिणामेमाणा मणचलणं चलिसु वा, चलंति वा, चलिस्संति वा, से तेण?णं जाव मणजोगचलणा, मणजोगचलणा। [20 प्र.) भगवन् ! मनोयोग-चल ना को मनोयोग-चलना क्यों कहा जाता है ? {20 उ.] गौतम ! चंकि मनोयोग को धारण करते हुए जीवों ने मनोयोग के योग्य द्रव्यों को मनोयोग रूप में परिणमाते हुए मनोयोग को चलना की थी, वर्तमान में मनोयोग-चलना करते हैं Page #1888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 3] [623 और भविष्य में भी चलना करेंगे। इसलिए हे गौतम ! मनोयोग से सम्बन्धित चलना को मनोयोगचलना कहा जाता है। 21. एवं वइजोगचलणा वि / एवं कायजोगचलणा वि। [21] इसी प्रकार वचनयोगचलना एवं काययोगचलना के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 15 से 21 तक) में औदारिकादि पाँच शरीरचलनाओं, श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रिय-चलनात्रों एवं मनोयोगादि तीन योगचलनाओं का सहेतुक स्वरूप बताया गया है।' संवेग निर्वेदादि उनचास पदों का अन्तिम फल : सिद्धि 22. अह भंते ! संवेगे निव्वेए गुरु-साधम्मियसुस्सूसणया आलोयणया निंदणया गरणया खमावणया सुयसहायता विमोसमणया, भावे अपडिबद्धया विणिवट्टणया विवित्तसयणासणसेवणया सोतिदियसंवरे जाव फासिदियसंवरे जोगपच्चक्खाणे सरीरपच्चक्खाणे कसायपञ्चवखाणे संभोगपच्चक्खाणे उहिपच्चक्खाणे भत्तपच्चक्खाणे खमा विरागया भावसच्चे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमन्नाहरणया वइसमन्नाहरणया कायसमन्नाहरणया कोहविवेगे जाब मिच्छादसणसल्लविवेगे, गाणसंपन्नया दसणसंपन्नया चरित्तसंपन्नया वेदमअहियासणया मारणतिय ह्यिासणया, एए गं भंते ! पदा फिपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो! ? गोयमा ! संवेगे निम्बेए जाव मारणंतियअहियासणया, एए गं सिद्धिपज्जवसाणफला पन्नत्ता समणाउसो ! / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // सत्तरसमे सए : तइप्रो उद्देसओ समत्तो // 17-3 // [22 प्र.] आयुष्यमन् श्रमण भगवन् ! संवेग, निवेद, गुरु-सार्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गहणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्तना, विविक्तशयनासन-सेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत स्पर्शेन्द्रिय-संवर. योग-प्रत्याख्यान. शरीर-प्रत्याख्यान. कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य, मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण, काय-समन्वाहरण, क्रोध-विवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-सम्पन्नता दर्शन-सम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदनाअध्यासनता, और मारणान्तिक अध्यासनता, इन पदों का अन्तिम फल क्या कहा गया है ? 22 उ.] हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! संवेद, निर्वेद आदि यावत्-मारणान्तिक-अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल सिद्धि (मुक्ति) है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी), यावत् विचरते हैं। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 782-783 Page #1889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-संवेगादि धर्मों का अन्तिम फल-प्रस्तुत सूत्र में संवेग आदि 49 पदों का उल्लेख करके इनके आचरण का अन्तिम फल मोक्ष बताया गया है। कठिनशब्दार्थ-संवेग-मोक्षाभिलाषा, निर्वेद-संसार से विरक्ति, गुरुसार्मिक-शुश्रूषा -- दीक्षादि-प्रदाता प्राचार्य एवं सामिक साधुवर्ग की शुश्रूषा-सेवा / पालोचना-गुरु के समक्ष समस्त दोषों का प्रकाशन करना / निन्दना--अपने द्वारा स्वकीय दोषों के लिए पश्चात्ताप, प्रारमनिन्दा / गहणा-दूसरे (बड़ों या संघ) के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना / क्षमापना-अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगना / अपने प्रति किये गए अपराधों की दूसरों को क्षमा देना / व्युपशमनताउपशान्तता, दूसरों को क्रोध से निवृत्त करते हुए स्वयं क्रोध का त्याग करना / श्रुतसहायता -- शास्त्राध्ययन में सहयोग देना / अथवा जिस साधक के लिए श्रुत ही एकमात्र सहायक हो, उसकी श्रुत-सहायता-भावना। भाव-अप्रतिबद्धता हास्यादि भावों के प्रति प्रासक्ति न रखना / विनिवर्तना--पापों अथवा असंयमस्थानों से विरति। विविक्तशय्यासनसेवनता-स्त्री-पशु-पंडक से असंसक्त शयन आसन-अथवा उपाश्रय का सेवन करना। श्रोत्रादि इन्द्रिय संवर-अपने-अपने विषय में जाती हुई इन्द्रियों को रोकना / योग-प्रत्याख्यान-मन-वचन-काया के अशुभ व्यापारों को रोकना / शरीर. प्रत्याख्यान -शरीर में प्रासक्ति का त्याग करना / कषाय-प्रत्याख्यान-क्रोधादि का त्याग / संभोगप्रत्याख्यान--एक क(पंक्ति मण्डली में बैठकर साधनों का भोजनादि व्यवहार करना 'संभोग' है, जिनकल्पादि साधना या उत्कृष्ट प्रतिमा धारण करके उक्त सम्भोग का त्याग करना / उपधि-प्रत्याख्यानअधिक उपधि का त्याग करना / भक्त-प्रत्याख्यान-संलेखना-संथारा करना अथवा उपवासादि करता / क्षमा-क्षान्ति / विरागता-वीतरागता, रागद्वेषविरतता भावसत्य-शुद्ध अन्तरात्मता रूप पारमार्थिक भावों की यथार्थता / योगसत्य-मन-वचन-काया की एकरूपता। करणसत्य-प्रतिलेखनादि क्रियाएँ यथार्थ रूप से करना / मन, वचन, काया को वश में रखना, क्रमशः मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण और काय-समन्दाहरण है / क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक पापों का त्याग करना क्रोधविवेक यावत मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक है। वेदनाऽध्यासनता- क्षधादि वेदना को समभावपूर्वक सहन करना / मारणान्तिकाध्यासनता-मारणान्तिक कष्ट पाने पर भी सहनशीलता रखना।" / / सत्तरहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, 717 (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिये-उत्तराध्ययनसूत्र अ. 29 तथा उसकी पाई टोका Page #1890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'किरिया' चतुर्थ उद्देशक : क्रिया (प्रादि से सम्बन्धित वक्तव्यता) जीव और चौबीस दण्डकों में प्राणातिपातादि पांच क्रियानों की प्ररूपणा 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासो[१] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् श्रीगौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा-- 2. अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कज्जति ? हंता, अस्थि / [2 प्र.] भगवन् ! क्या जीव प्राणातिपातक्रिया करते हैं ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! करते हैं / 3. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जति, अपुट्ठा कज्जति ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जति, नो अपुट्ठा कज्जति / एवं जहा पढमसए छठ्ठद्देसए (स० 1 उ० 6 सु०७-११) जाब नो अणाणुपुब्बिकडा ति बत्तब्बं सिया। [3 प्र.] भगवन् ! वह (प्राणातिपातक्रिया) स्पृष्ट (ग्रात्मा के द्वारा स्पर्श करके) की जाती है या अस्पृष्ट ? 3 उ.] गौतम ! वह स्पृष्ट की जाती है, अस्पृष्ट नहीं की जाती; इत्यादि समग्र वक्तव्यता प्रथम शतक के छठे उद्देशक (सू. 7-11) में कथित वक्तव्यता के अनुसार, यावत्--'वह क्रिया अनुक्रम से की जाती है, बिना अनुक्रम के नहीं', (यहाँ तक) कहना चाहिए। 4. एवं जाव वेमाणियाणं; नवरं जीवाणं एगिदियाण य निवाघाएणं छदिस; वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि ; सेसाणं नियम छदिसि / [4] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / विशेषता यह है कि (सामान्य) जीव और एकेन्द्रिय निर्याघात की अपेक्षा से, छह दिशा से आए हुए और व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए कर्म करते हैं / शेष सभी जीव छह दिशा से पाए हुए कर्म करते हैं। 5. अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जति ? हंता, अत्थि। [5 प्र.] भगवन् ! क्या जीव मृषावाद क्रिया करते हैं ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! करते हैं / Page #1891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्यानमाप्तिसूत्र 6. सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जति ? जहा पाणातिवाएणं दंडओ एवं मुसाबातेण वि। [6 प्र.] भगवन् ! वह क्रिया स्पृष्ट की जाती है या अस्पृष्ट ? [6 उ.] गौतम ! प्राणातिपात के दण्डक (मालापक) के समान मृषावाद-क्रिया का भी दण्डक कहना चाहिए। 7. एवं अदिण्णादाणेण वि, मेहुणेण वि, परिग्गहेण वि / एवं एए पंच दंडगा। [7] इसी प्रकार प्रदत्तादान, मैथुन और परिग्रह (की क्रिया) के विषय में भी जान लेना चाहिए / इस प्रकार (ये कुल) पांच दण्डक हुए / विवेचन---प्राणातिपातादि पांच क्रियाएँ : स्वरूप तथा विश्लेषण प्रस्तुत प्रकरण में प्राणातिपातादि क्रियाएँ कार्यकरणभावसम्बन्ध की अपेक्षा से कर्म (पापकर्म) अर्थ में हैं। जीव जो भी प्राणातिपातादि क्रिया (कर्म) करते हैं, वह स्पृष्ट अर्थात्-प्रात्मा का स्पर्श होकर की जाती है, अस्पृष्ट नहीं / अगर अात्मा से अस्पृष्ट ये क्रियाएँ की जाने लगे तो अजीव या मृतप्राणी के द्वारा भी की जाने लगेंगी। सभी जीवों की अपेक्षा नियमत: छह दिशा से की जाती हैं, किन्तु पौधिक (सामान्य) जीव दण्डक में और एकेन्द्रिय जीवों में निर्व्याघात की अपेक्षा तो ये क्रियाएँ छहों दिशानों से की जाती हैं। व्याघात की अपेक्षा से जब एकेन्द्रिय जीव, लोक के अन्त में रहे हुए होते हैं, तब ऊपर और आसपास की दिशाओं में अलोक होने से कर्मों के आने की सम्भावना नहीं है। इसलिए वे यथासम्भव कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आए हुए कर्म (उपाजित) करते हैं / शेष जीव लोक के मध्य भाग में होने से नियमतः छह दिशात्रों से आए हुए कर्म उपाजित करते हैं, क्योंकि लोक के मध्य में व्याघात नहीं होता। इस प्रकार प्राणातिपात अादि पांच पापकर्मों (क्रियाओं) के स्पृष्ट और अस्पृष्ट विषयक पांच दण्डक हैं।' 'जाव अणाणुपुत्विकडा' : सूचित पाठ और अर्थ-यहाँ प्रथम शतक, छठे उद्देशक, सू. 7 के अनुसार 'पुढा, कडा, अत्तकडा, प्राणु पुब्धिकडा' (अर्थात्-स्पृष्ट, कृत, आत्मकृत, आनुपूर्वीकृत) ये पांच और पांच इससे विपरीत,-अस्पृष्ट, अकृत, अनात्मकृत, अनानुपूर्विकृत, ये पद सूचित हैं / तथा प्राणातिपात आदि पांच पापकर्मों के साथ प्रत्येक के पांच-पांच दण्डक सूचित किये गए हैं / इसका आशय यह है कि (1) ये क्रियाएँ जीव स्वयं करते हैं, बिना किये ये नहीं होती, (2) ये क्रियाएँ मनवचन-काया से स्पृष्ट होती हैं, (3) ये क्रियाएँ करने से लगती हैं, विना किये नहीं लगती, फिर भले ही ये क्रियाएँ मिथ्यात्व आदि किसी कारण से की जाती हैं। (4) ये क्रियाएँ स्वयं करने से (प्रात्मकृत) लगती हैं, ईश्वर, काल आदि दूसरे के करने से नहीं लगती। (5) ये क्रियाएँ अनुक्रमपूर्वक कृत होती हैं। 1. (क) वियाहाण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 784 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) अ. 5, पृ. 2625 2. भगवती. (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र) खण्ड 1 (श्री प्रागमप्र. समिति), पृ. 110-111 Page #1892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 4] / 627 समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा से जीव और चौवीस दण्डकों में प्राणातिपातादि क्रियाप्ररूपणा 8. जं समयं णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कज्जति सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ, अपुट्ठा कज्जइ ? एवं तहेव जाव वत्तन्वं सिया / जाव वेमाणियाणं / [8 प्र.] भगवन् ! जिस समय जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस समय वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? [8 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से, यावत्-'अनानुपूर्वीकृत नहीं की जाती है', (यहाँ तक) कहना चाहिए / इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए ! 9, एवं जाव परिगहेणं / एते वि पंच दंडगा 10 / [6] इसी प्रकार यावत् पारिग्रहिकी क्रिया तक कहना चाहिए। ये पूर्ववत् पांच दण्डक होते हैं // 5 // 10. जं देसं णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया कज्जइ० ? एवं चेव / जाव परिगहेणं / एवं एते वि पंच दंडगा 15 / [10 प्र. भगवन् ! जिस देश (क्षेत्रविभाग) में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस देश में वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट ? [10 उ.] गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए / यावत् पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए / इसी प्रकार ये (पूर्ववत्) पांच दण्डक होते हैं / / 15 / / 11. जं पदेसं णं भंते ! जीवाणं पाणातिवाएणं किरिया काजइ सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ ? एवं तहेव दंडओ। [11 प्र.] भगवन् ! जिस प्रदेश में जीव प्राणातिपातिकी क्रिया करते हैं, उस प्रदेश में स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया करते हैं ? 12. एवं जाव परिग्गहेणं / एवं एए वीसं दंडगा। [11 उ.] गौतम ! पूर्ववत् दण्डक कहना चाहिए / [12] इस प्रकार यावत् पारिग्रहिकी क्रिया तक जानना चाहिए / यों ये सब मिला कर बीस दण्डक हुए। विवेचन---समय, देश और प्रदेश की अपेक्षा से प्राणातिपातादि क्रिया : व्याख्या-जिस समय में प्राणातिपात से क्रिया (पापकर्म) की जाती है. उस समय में, जिस देश अर्थात्-क्षेत्र विभाग में प्राणातिपात से क्रिया की जाती है, उस देश में, तथा जिस प्रदेश-अर्थात् लघुतम क्षेत्रविभाग में प्राणातिपात से क्रिया की जाती है, उस प्रदेश में, यह इन तीनों सूत्रों का प्राशय है। इसी को व्यक्त Page #1893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करने के लिए यहाँ पाठ है— 'जं समयं जं देसं, 'जं पएस' / प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक की पांचों क्रियाओं सम्बन्धी प्रत्येक के पांच-पांच दण्डक होते हैं / यो सब मिला कर ये 20 दण्डक होते है। जीव और चौवीस दण्डकों में दुःख, दुःखवेदन, वेदना, वेदनावेदन का प्रात्मकृतत्व-निरूपण 13. जीवाणं भंते ! कि अत्तकडे दुक्खे, परकडे दुक्खे, तदुभयकडे दुक्खे ? गोयमा ! अतकडे दुक्खे, नो परकडे दुक्खे, नो तदुभयकडे दुक्खे / [13 प्र. भगवन् ! जीवों का दु:ख यात्मकृत है, परकृत है, अथवा उभयकृत है ? [13 उ.] गौतम ! (जीवों का) दुःख पात्मकृत है, परकृत नहीं, और न उभयकृत है। 14. एवं जाव वेमाणियाणं / [14] इसी प्रकार (नरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। 15. जीवा गं भंते ! कि अत्तकडं दुक्खं वेदेति, परकडं दुयखं वेदेति, तदुभयकडं दुक्खं बेति? गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेति, नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडं दुक्खं वेदेति / [15 प्र.] भगवन् ! जीव, प्रात्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख वेदते हैं या उभयकृत दुःख वेदते हैं ? [15 उ.] गौतम ! जीव, आत्मकृत दुःख वेदते हैं, परकृत दुःख नहीं वेदते और न उभयकृत दुःख वेदते हैं। 16. एवं जाव बेमाणिया / [16] इसी प्रकार (नैरयिक से लेकर) यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए / 17. जीवाणं भंते ! कि अत्तकडा वेधणा, परकडा वेयणा० ? पुच्छर / गोयमा ! अत्तकडा वेयणा, णो परकडा वेयणा, णो तदुभयकडा वेदणा / [17 प्र. भगवन् ! जीवों को जो वेदना होती है, वह प्रात्मकृत है, परकृत है अथवा उभयकृत है ? [17 उ.] गौतम ! जीवों की वेदना प्रात्मकृत है, परकृत नहीं, और न उभयकृत है। 18. एवं जाव वेमाणियाणं। [18] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। 19. जीवा णं भंते ! कि अत्तकडं वेदणं वेदेति, परकडं वेदणं वेदेति, तदुभयकर्डवेयणं वेदेति ? गोयमा ! जीवा अत्तकडं वेदणं वेदेति, नो परकडं वेयणं वेएंति, नो तदुभयकडं वेयणं वेएंति / --. - -- - - - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 728 Page #1894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां शतक : उद्देशक 4] _ [16 प्र.] भगवन् ! जीव, प्रात्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना वेदते है, अथवा उभयकृत वेदना वेदते हैं ? [16 उ.] गौतम ! जीव, प्रात्मकृत वेदना वेदते हैं, परकृत वेदना नहीं वेदते और न उभयकृत वेदना वेदते हैं / 20. एवं जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। // सत्तरसमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो / / 17-4 / / [20] इसी प्रकार (नै रयिक से लेकर) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन--जीवों के दुःख और वेदना से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत में दुःख शब्द से दुःख का अथवा मुख्यतया दुःख के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है। दुःख से सम्बन्धित दोनों प्रश्नों का प्राशय यह है--दुःख के कारणभूत कर्म या कर्म का वेदन (फलभोग) स्वयंकृत होता है या परकृत या उभयकृत ? जैनसिद्धान्त की दृष्टि से इसका उत्तर है-दुःख (कर्म) प्रात्मकृत है / इसी प्रकार वेदना शब्द से सुख और दुःख दोनों का या सुख-दुःख दोनों के हेतुभूत कर्मों का ग्रहण होता है। क्योंकि साता-असाता वेदना भी कर्मजन्य होती है। इसलिए वह एवं वेदना का वेदन दोनों ही आत्मकृत होते हैं। इन प्रश्नों से ईश्वर, देवी-देव या किसी परनिमित्त को दुःख देने या एक के बदले दूसरे के द्वारा दुःख भोग लेने अथवा दूसरे द्वारा वेदना देने या वेदना भोग लेने की अन्य धर्मों की भ्रान्त मान्यता का निराकरण भी हो जाता है / निष्कर्ष यह है कि संसार के समस्त प्राणियों के स्वकर्मजनित दुःख या वेदना है, एवं स्वकृत दुःख आदि का बेदन है'। // सत्तरहवां शतक : चौथा उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 728 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2629 (ख) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् / परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा / --सामायिकपाठ 30 Page #1895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'ईसारण' / पंचम उद्देशक : ईशानेन्द्र (की सुधर्मासभा) ईशानेन्द्र की सुधर्मासभा का स्थानादि की दृष्टि से निरूपण 1. कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविदस्स देवरपणो सभा सुहम्मा पनत्ता? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागाओ उड्ढें चंदिम जहा ठाणपए जाव मज्झे ईसाणव.सए / से गं ईसाणव.सए महाविमाणे अडतेरस जोयणसयसहस्साई एवं जहा बसमसए (स० 10 उ० 6 सु० 1) सक्कविमाणवत्तव्यया, सा इह वि ईसाणस्स निरवसेसा भाणियच्या जाव प्रायरक्ख ति। ठिती सातिरेगाइं दो सागरोवमाई / सेसं तं चेव जाव ईसाणे देविदे देवराया, ईसाणे देविदे देवराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // सत्तरसमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो / / 17-5 // [1 प्र.] भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान को सुधर्मा सभा कहाँ कही गई है ? [1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत के उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र और सूर्य का अतिक्रमण करके आगे जाने पर इत्यादि वर्णन .“यावत् प्रज्ञापना सूत्र के 'स्थान' नामक द्वितीय पद में कथित वक्तव्यता के अनुसार, यावत् - मध्य भाग में ईशानावतंसक विमान है। वह ईशानावतंसक महाविमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा और चौड़ा है, इत्यादि यावत् दशवे शतक (के छठे उद्देशक सू. 1) में कथित शक्रेन्द्र के विमान की वक्तव्यता के अनुसार ईशानेन्द्र से सम्बन्धित समग्र वक्तव्यता यावत् प्रात्मरक्षक देवों को वक्तव्यता तक कना चाहिए। ईशानेन्द्र की स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् यावत् 'यह देवेन्द्र देवराज ईशान है. यह देवेन्द्र देवराज ईशान है', (यहाँ तक जानना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन प्रस्तुत में ईशानेन्द्र की सुधर्मा सभा का वर्णन प्रज्ञापना के स्थानपद एवं भगवती के दशवें शतक के छठे उद्देशक सू. 1 के अतिदेशपूर्वक किया गया है।' कठिनशब्दार्थ-ईसाणवडेंसए—ईशानावतंसक / अद्धतेरस जोयणसय-सहस्साइं--साढ़े बारह लाख योजन / जिरवसेसा // सत्तरहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पद 2, सू. 198 पृ. 71 (श्री महावीर जैन विद्यालय) में देखें। (ख) देखें-- भगवती सूत्र भा. 4 (हिन्दी विवेचन) शतक 10 उ. 6 सू. 1 में 2. भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2630 Page #1896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'पुढवी' छठा उद्देशक : पृथ्वीकायिक (-मरणसमुद्धात) मरण समुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वी कायिक जीवों की उत्पत्ति एवं पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 1. [1] पुढधिकाइए णं भले ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उवज्जित्तए से गं भंते ! कि पुधि उपज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, पुक्ति वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा ?. गोयमा ! पुग्वि वा उवज्जित्ता पच्छा संपाउणेज्जा, पुग्विं वा संपाउणित्ता पच्छा उववज्जेज्जा। 1-1 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वोकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं. अथवा पहले प्रहार ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे पुद्गल ग्रहण करते हैं; अथवा पहले वे पुद्गल ग्रहण करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं / [2] से केण?णं जाव पच्छा उववज्जेज्जा ? गोयमा ! पुढधिकाइयाणं तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्धाए / मारणंतियसमुग्घाएणं समोहण्णमाणे देसेण वा समोहण्णति सब्वेण वा समोहमति, देसेणं समोहनमाणे पुन्वि संपाणित्ता पच्छा उवज्जिज्जा, सम्वेणं समोहणमाणे पुचि उववज्जेत्ता पच्छा संपाउणेज्जा, से तेण?णं जाव उवज्जिज्जा। [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया कि वे पहले...'यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं ? [1-2 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जोवों में तीन समुद्घात कहे गए हैं। यथा-वेदनासमुदघात, कषायसमुदघात और मारणान्तिकसमुदघात / जब पृथ्वीकायिक जीव, मारणान्तिकसमुद्घात करता है, तब वह 'देश से भी समुद्घात करता है और सर्व से भो समुद्घात करता है। जब देश से समुद्घात करता है, तब पहले पुद्गल ग्रहण करता है और पीछे उत्पन्न होता है। जब सर्व से समुद्घात करता है, तब पहले उत्पन्न होता है और पीछे पुद्गल ग्रहण करता है। इस कारण पहले......"यावत् पीछे उत्पन्न होता है / Page #1897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 2. पुढविकाइए गं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव समोहए, समोहग्नित्ता जे भविए ईसाणे कप्पे पुढवि०॥ एवं चेव ईसाणे वि। {2 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्घात करके ईशानकल्प में पृथ्वीकाधिक रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं, वे पहले....? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (सौधर्म के समान) ईशानकल्प में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य जीवों के विषय में जानना चाहिए। 3. एवं जाव प्रच्चुए। [3] इसी प्रकार यावत् अच्युतकल्प के पृथ्वीकायिक के विषय में समझना चाहिए। 4. गैविज्जविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसिपम्भाराए य एवं चेव / [4] ग्रैवेयक विमान, अनुत्तर विमान और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। . 5. पुढविकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए समोहते, समोहन्नित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० / एवं जहा रयणप्पभाए पुढविकाइओ उववातिओ एवं सक्करप्यमापुढविकाइओ वि उववाएयव्यो जाव ईसिपमाराए। [5 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वी कायिक जीव, शर्कराप्रभा पृथ्वी में भरण-समुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है ; इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् ? [5 उ.] जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी के पृथ्वीकायिक जीवों का उत्पाद कहा, उसी प्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वीकायिक जीवों का उत्पाद यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक जानना चाहिए। 6. एवं जहा रयणप्पभाए वत्तव्वता भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए समोहतो ईसिपम्भाराए उपवातेयन्यो / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / / सत्तरसमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 17-6 // [6] जिस प्रकार रत्नप्रभा के पृथ्वीकायिक जीवों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी में मरण-समुद्घात से समवहत जीव का ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिए। भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। Page #1898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 6] विवेचन--मरण-समुद्घात और पुद्गल-ग्रहण-जब जीव मरण-समुद्धात करके, अपने शरीर को सर्वथा छोड़कर, गेंद के समान एक साथ सभी आत्म प्रदेशों के साथ उत्पत्ति-स्थान में जाता है, तब पहले उत्पन्न होता है, पीछे पुद्गल ग्रहण करता है। (ग्राहार करता) है, किन्तु जब मरण. समुद्रघात करके ईलिका गति से उत्पत्ति-स्थान में जाता है, तब पहले पाहार करता है और पीछे उत्पन्न होता है।' कठिनशब्दार्थ-समोहए-समवहत--जिसने (मारणान्तिक) समुद्घात किया है। उबवज्जित्ता--उत्पाद क्षेत्र में जा कर / संपाउणेज्ज--पुदगल ग्रहण करता है / / / सत्तरहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // - -.. - .-.-. 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 730 2. वही, अ. वृत्ति, पत्र 730 Page #1899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ 'पुढवी' सप्तम उद्देशक : पृथ्वीकायिक सौधर्मकल्पादि में मरणसमुद्घात द्वारा सप्तनरकों में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक जीव की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 1. पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कि पुञ्चि० ? / सेसं तं चेव / जहा रयणप्पभापुढधिकाइओ सबक पेसु जाव ईसिपब्भाराए ताव उववातिप्रो एवं सोहम्मपुढविकाइओ वि सत्तसु वि पुढवीसु उववातेयवो जाव अहेसत्तमाए / एवं जहा सोहम्मपुढविकाइओ सम्वपुढवीसु उववातिओ एवं जाव ईसिपब्भारापुढविकाइयो सब पुढवीसु उववातेयव्यो जाव अहेसत्तमाए। सेवं भंते! सेवं भंते ! / // सत्तरसमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो / / 17-7 / / [1 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्मकल्प में मरण-समुद्घात करके इस रत्नप्रभा-पुथ्वी में पृथ्वी कायिक-रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं अथवा पहले अम्हार (पुद्गल)-ग्रहण करते हैं, और पीछे उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार रत्नप्रभा-पृथ्वी के, पृथ्वीकायिक जीवों का सभी कल्पों में यावत् ईषःप्राग्भारा पृथ्वी में उत्पाद कहा गया, उसी प्रकार सौधर्मकल्प के पृथ्वी कायिक जीवों का सातों नरक-पृथ्वियों में ग्रावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिए / इसी प्रकार सौधर्मकल्प के पृथ्वी कायिक जीवों के समान सभी कल्यों में, यावत् ईषत्प्रारभारा पृथ्वी के पृथ्वीकायिक जीवों का सभी पृथ्वियों में, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर (गौतम स्वामी). यावत् विचरते हैं। विवेचन—प्रस्तुत सप्तम उद्देशक में सौधर्म कल्प आदि में मरण-समुद्धात करके रत्नप्रभादि नरकों में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक जीव पहले उत्पन्न होता है फिर प्राहार-पुद्गल ग्रहण करता है अथवा पहले आहार ग्रहण करता है और फिर उत्पन्न होता है ? इसका समाधान पूर्ववत् प्रस्तुत किया गया है। // सत्तरहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // Page #1900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदुमो उद्देसओ' 'दग' अष्टम उद्देशक : (अधस्तन) अष्कायिक सम्बन्धी रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्पादि में उत्पन्न होने योग्य अकायिक जीव को उत्पत्ति और पुद्गल-ग्रहण में पहले क्या, पोछे क्या ? 1. प्राउकाइए णं भंते ! इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए समोहते, समोहन्नित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पाउकाइयत्ताए उवज्जित्तए ? एवं जहा पुढविकाइप्रो तहा आउकाइयो वि सन्चकप्पेसु जाव ईसिपमाराए तहेव उववातेयवो। [1 प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी में मरण-समुद्धात करके सौधर्मकल्प में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं......"इत्यादि प्रश्न ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पृथ्वी कायिक जीवों के विषय में कहा, उसो प्रकार अप्कायिक जीवों के विषय में सभी कल्पों में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक (पूर्ववत्) उत्पाद कहना चाहिए। 2. एवं जहा रयणप्पभश्राउकाइओ उववातिओ तहा जाव अहेसत्तमआउकाइओ उववाएयन्वो जाव ईसिपाभाराए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // सत्तरसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 17-8 / / [2] रत्नप्रभा पृथ्वी के अप्कायिक जीवों के उत्पाद के समान यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के अप्कायिक जीवों तक का यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक उत्पाद जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर ( गौतम स्वामी) यावत् विचरते हैं / / / सत्तरहवाँ शतक : आठवाँ उद्देशक समाप्त // Page #1901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'दग' नौवाँ उद्देशक (ऊर्ध्व लोकस्थ) अप्कायिक (वक्तव्यता) सौधर्मकल्प में मरणसमुाद्घत करके सप्त नरकादि में उत्पन्न होने योग्य अकायिक जीव की उत्पत्ति और पुद्गलग्रहण में पहले क्या, पीछे क्या ? 1. प्राउकाइए णं भते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहन्नित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयेसु आउकाइयत्ताए उत्रवज्जित्तए से णं भंते !? मेस तं चेव / {1 प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म कल्प में मरण-समुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के धनोदधिबलयों में प्रकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य हैं......." इत्यादि प्रश्न ? 11 उ. | गौतम ! शष सभी पूर्ववत्, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिए / . 2. एवं जाद अहेसत्तमाए। जहा सोहम्मआउकाइप्रो एवं जाव ईसिपम्भाराआउकाइओ जाव आहेसत्तमाए उबवातेयन्वो। [2] जिस प्रकार सौधर्मकल्प के प्रकायिक जीवों का नरक-पृथ्वियों में उत्पाद कहा, उसी प्रकार यावत् ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक के अप्कायिक जीवों का उत्पाद यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 / // सत्तरसमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो // 17-1 // भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर, (गौतम स्वामी विचरते हैं। / / सत्तरहवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / . Page #1902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'वाऊ' दसवाँ उद्देशक : वायुकायिक (वक्तव्यता) रत्नप्रभा में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने योग्य वायुकायिक जीव पहले उत्पन्न होते हैं या पहले पुद्गल ग्रहण करते हैं ? 1. बाउकाइए णं भंते ! इमोसे रतणापभाए जाव जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं ? जहा पुढविकाइओ तहा बाउकाइओ वि, नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्धाया पन्नत्ता, त जहा वेदणासमुग्घाए जाव वेउब्वियसमुग्घाए / मारतियसमुग्घाएणं समोहम्णमाणे देसेण वा समो० / सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समोहओ, ईसिपम्भाराए उबवातेयव्यो / सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति० / // सत्तरसमे सए : दसमो उद्दसओ समत्तो // 17.10 // [1 प्र. भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी में मरण-समुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप में उत्पन्न होने के योग्य हैं, इत्यादि प्रश्न / [1 उ.| गौतम ! पृथ्वीकायिकजीवों के समान वायुकायिक जीवों का भी कथन करना चाहिए / विशेषता यह है कि वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात कहे गए हैं। यथा-वेदनासमुद्घात, यावत् वैक्रिय-समुद्घात / वे वायुकायिक जीव मारणान्तिक समुद्धात से समवहत हो कर देश से समुद्घात करते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् यावत् अधःसप्तमपृथ्वी में समुद्घात कर.....) वायुकायिक जीवों का उत्पाद ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी तक जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यो कह कर यावत् (गौतमस्वामी) विचरते हैं। // सत्तरहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त // Page #1903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमो उद्देसओ : 'वाऊ' ग्यारहवाँ उद्देशक : (ऊर्व)-वायुकायिक (वक्तव्यता) सौधर्मकल्प में मरणसमुद्घात करके सप्त नरकादि पृश्वियों में उत्पन्न होने योग्य वायुकाय की उत्पत्ति एवं प्राहारग्रहण में प्रथम क्या ? 1. वाउकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए, समोहन्नित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए घणवाए तणुवाए घणवायवलएसु तणुवायवलएसु वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते !? सेसं तं चेव ! एवं जहा सोहम्मवाउकाइनो सत्तसु वि पुढवीसु उववातिओ एवं जाव ईसिपम्भारावाउकाइओ अहेसत्तमाए जाव उववायेयव्यो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 / // सत्तरसमे सए : एकारसमो उद्देसओ समतो // 17-11 // [1 प्र.] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, सौधर्मकल्प में समुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के धनवात, तनूवात, घनवात-वलय और तनूवातवलयों में वायूकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं।....." इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? {1 उ.] गौतम ! शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। जिस प्रकार सौधर्मकल्प के वायुकायिक जीवों का उत्पाद सातों नरकपृथ्वियों में कहा, उसी प्रकार यावत् ईषत्प्रागभारा पृथ्वी तक के वायुकायिक जीवों का उत्पाद, यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर, (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। // सत्तरहवां शतक : ग्यारहवाँ उद्देशक समाप्त // 17-11 // Page #1904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो उद्देसओ : 'एगिदिय' बारहवाँ उद्देशक : एकेन्द्रिय जीवों के आहारादि की समता-विषमता एकेन्द्रिय जीवों में समाहार आदि सप्त-द्वार-प्ररूपण 1. एगिदिया णं भंते ! सम्वे समाहारा, मब्वे समसरीरा ? एवं जहा पढमसए बितिय उद्देसए पुढविकाइयाणं वत्तव्वया भणिया (स० 1 उ० 2 सु०७) सा चेव एगिदियाणं इहं भाणियवा जाव समाउया समोववन्नगा / न ! क्या सभी एकेन्द्रिय जीव समान आहार वाले हैं? सभी समान शरीर बाले हैं इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 7) में जिस प्रकार पृथ्वी कायिक जीवों की वक्तव्यता कही है, वहीं यहाँ एकेन्द्रिय जीवों के विषय में कहनी चाहिए; यावत् वे न तो समान आयुष्य वाले हैं और न ही एक साथ उत्पन्न हुए हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 5-6-7) में उक्त जीवों के आहार, शरीर, उच्छवासनिःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, आयूष्य एवं साथ उत्पन्न होना इत्यादि 10 बातों के विषय में समानता-असमानता का प्रश्न उठा कर प्रथमशतक द्वितीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक समाधान किया गया है।' एकेन्द्रियों में लेश्या की, तथा लेश्या एवं ऋद्धि को अपेक्षा से अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा 2. एगिदियाणं भंते ! कति लेस्साओ पन्नत्तानो ? गोयमा ! चत्तारि लेस्सानो पन्नत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा। [2 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [2 उ.] गौतम ! चार लेश्याएँ कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या / 3. एतेसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस्साणं जाब बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्बत्थोवा एगिदिया तेउलेस्सा, काउलेस्सा अणंतगुणा, गोललेस्सा विसेसाहिया, कहिलेस्सा विसेसाहिया। 3 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या (से लेकर) यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रियों में कौन किससे अल्प (बहुत, अधिक) यावत् विशेषाधिक हैं ? 1. भगवती. शतक 1, उ. 2, सू. 5 से 7 तक में देखिये / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र खण्ड 1 (प्रा. प्र. समिति) पृ. 44-46 Page #1905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े एकेन्द्रिय जीव तेजोलेश्या वाले हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, और उनसे कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। 4, एएसि णं भंते ! एगिदियाणं कण्हलेस० इड्डो ? जहेव दीवकुमाराणं (स० 16 उ० 11 सु० 4) / सेवं भंते ! सेव भंते ! 0 / सत्तरसमे सए : बारसमो उद्द सो समत्तो / / 17.12 // 4 प्र. भगवन ! इन कृष्णलेश्या वालों से लेकर यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रियों (तक) में कौन अल्प ऋद्धि वाला है, और कौन महाऋद्धि वाला है ? |4 उ., गौतम ! (सोलहवें शतक के 11 वे उद्देशक (सू. 4 में) जिस प्रकार द्वीपकुमारों की ऋद्धि कही गई है, उसी प्रकार यहाँ एकेन्द्रियों में भी कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र 3-4 में पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों में लेश्या, तथा उक्त लेश्याओं वाले एकेन्द्रियों के अल्प बहुत्व आदि की तथा लेश्या की तथा अल्पऋद्धि-महद्धिक की समानताअसमानता का प्रतिपादन अतिदेशपूर्वक किया गया है / // सत्तरहवां शतक : बारहवां उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती, श. 16, उ.१सू, 4 में देखिये। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2641 Page #1906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो उद्देसओ : 'नाग' तेरहवाँ उद्देशक : नागकुमार (सम्बन्धी वक्तव्यता) नागकुमारों में समाहारादि सप्त द्वारों को तथा लेश्या एवं लेश्या की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-प्ररूपणा 1. नागकुमारा णं भंते ! सम्वे समाहारा ? जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्द सए (स० 16 उ० 11 सु० 1.4) तहेव निरवसेसं भाणियध्वं जाव इड्डो। से भंते ! सेवं भंते ! ज // सत्तरसमे सए : तेरसमो उद्देसओ समत्तो // 17-13 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नागकुमार समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जैसे सोलहवें शतक के (11 वें) द्वीपकुमार-उद्देशक में (सूत्र 1-4 में) कहा है, उसी प्रकार सब कथन, यावत् ऋद्धि तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। // सत्तरहवां शतक : तेरहवाँ उद्देशक समाप्त // Page #1907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोदसओ उद्देसओ : 'सुवण्ण' चौदहवाँ उद्देशक : सुवर्णकुमार (सम्बन्धी वक्तव्यता) सुवर्णकुमारों में समाहारादि सप्त द्वारों की तथा लेश्या एवं लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 1. सुवण्णकुमारा णं भंते ! सम्बे समाहारा० ? एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / // सत्तरसमे सए : चोद्दसमो उद्देसनो समतो // 17-14 // [1 प्र.| भगवन् ! क्या सभी सुवर्णकुमार समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! इसकी समस्त वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर (गौतमस्वामी) यावत् विचरते हैं। // सत्तरहवां शतक : चौदहवाँ उद्देशक समाप्त / / Page #1908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमो उद्देसओ : 'विज्जु' पन्द्रहवां उद्देशक : विद्युत्कुपार (सम्बन्धो वक्तव्यता) विद्युत्कुमारों में समाहारादि की तथा लेश्या एवं लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 1. विज्जुकुमारा णं भंते ! सम्वे समाहारा० ? एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / // सत्तरसमे सए : पण्णरसमो उद्देसओ समत्तो // 17-15 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी विद्युत्कुमार देव समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! (विद्युत्कुमार-सम्बन्धी सभी वक्तव्यता) पूर्ववत् (समझना चाहिए / ) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् विचरते हैं / // सत्तरहयाँ शतक : पन्द्रहवाँ उद्देशक समाप्त / / Page #1909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमो उद्देसओ : 'वायु' सोलहवाँ उद्देशक : वायुकुमार-(सम्बन्धी वक्तव्यता) वायुकुमारों में समाहारादि सप्त द्वारों की तथा लेश्या एवं लेश्या की अपेक्षा अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 1. वाउकुमारा णं भंते ! सवे समाहारा ? एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 // // सत्तरसमे सए : सोलसमो उद्दसत्रो समत्तो // 17-16 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी वायुकुमार समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् (समग्र वक्तव्यता समझनी चाहिए।) हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। // सत्तरहवां शतक : सोलहवाँ उद्देशक समाप्त / Page #1910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमो उद्देसओ : 'अग्गि' सत्तरहवाँ उद्देशक : अग्निकुमार-(सम्बन्धी वक्तव्यता) अग्निकुमारों में समाहारादि सप्त द्वार तथा लेश्या एवं अल्पबहुत्वादि-प्ररूपणा 1. अग्गिकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा ? एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / / / सत्तरसमे सए : सत्तरसमो उद्देसनो समत्तो // 17-17 // // सत्तरसमं सयं समत्तं // 17 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी अग्निकुमार समान आहार वाले हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त प्रकार से सभी कथन समझना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् (गौतमस्वामी) विचरते हैं। // ससरहवां शतक : सत्तरहवाँ उद्देशक समाप्त / // सत्तरहवां शतक सम्पूर्ण // Page #1911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं सयं : अठारहवाँ शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति का यह अठारहवां शतक है / इसमें दश उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक का नाम 'प्रथम' है / इसमें 14 द्वारों की अपेक्षा से प्रथम-अप्रथम तथा चरम-अचरम का निरूपण किया गया है / यह उद्देशक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है / जीव को जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, किन्तु पहली बार वह प्राप्त करता है, उसे प्रथम और जो भाव पहले भी प्राप्त हुआ है, वह अप्रथम कहलाता है / इसी प्रकार जिसका कभी अन्त होता है वह 'चरम' और जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह 'अचरम' है / * दूसरे उद्देशक का नाम 'विशाख' है। इसमें भगवान् महावीर की सेवा में विशाखानगरी में उपस्थित देवेन्द्र शक्र के द्वारा सदलबल नाटक प्रदर्शित करने का वर्णन है / तत्पश्चात् शक्रेन्द्र के पूर्वभव का वृत्तान्त कार्तिक सेठ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शकेन्द्र के पूर्वभव के वृत्तान्त से यह स्पष्ट प्रेरणा भी मिलती है कि पूर्वजन्म में निर्ग्रन्थ दीक्षा लेकर निरतिचार महाव्रतादि का पालन करने से ही इतनी उच्च स्थिति अागामी भव में प्राप्त होती है / तीसरे उद्देशक में माकन्दिक पुत्र अनगार द्वारा भगवान् से किये गए निम्नोक्त प्रश्नों का यथोचित समाधान अंकित किया गया है—(१) कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी पृथ्वी अप-वनस्पतिकायिक जीव मर कर अन्तररहित मनुष्यभव से केवली होकर सिद्ध हो सकता है या नहीं ? (2) सर्वकर्मों का वेदन-निर्जरण करते तथा समस्त मरण से मरते हुए आदि विशेषण युक्त भावितात्मा अनगार के चरम निर्जरा के सूक्ष्म पुद्गल क्या समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ? (3) उन चरमनिर्जरा-पुद्गलों को छद्मस्थ, मनुष्य या देव आदि जान सकते हैं या नहीं ? (4) बन्ध के प्रकार तथा भेदाभेद तथा आठों कर्मों के भाव बन्ध-सम्बन्धी प्रश्न हैं / (5) जीव के भूतकालीन तथा भविष्यत् कालीन पाप कर्म में कुछ भेद है या नहीं ? है तो किस कारण से ? (6) आहार रूप से गृहीत पुद्गलों में से नैरयिक कितना भाग ग्रहण करता है, कितना त्यागता है ? तथा उन त्यागे हुए पुद्गलों पर कोई बैठ, उठ या सो सकता है ? * चौथे उद्देशक 'प्राणातिपात' में कुछ प्रश्न हैं, जिनका समाधान किया गया है-(१) प्राणातिपात आदि 48 जीव-अजीवरूप द्रव्यों में से कितने परिभोग्य हैं, कितने अपरिभोग्य ? (2) कषाय और उनसे आठों कर्मों की निर्जरा कैसे होती है ? (3) चार प्रकार के युग्म तथा उनकी परिभाषा क्या है ? नैरयिकादि में किन में कौन-सा युग्म है ? (4) अन्धकह्नि जीव जितने अल्पायु हैं, क्या उतने ही दीर्घायु हैं ? * पंचम 'असुर' उद्देशक में चतुर्विध देवनिकायों में से एक ही निकाय के एक प्रावास में उत्पन्न दो देवों की सुन्दरता आदि में, तथा एक ही नरकाबास में उत्पन्न दो नारकों की वेदना में Page #1912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : प्राथमिक] तारतम्य का कारण बताया गया है / तत्पश्चात् यह बताया गया है कि जो प्राणी जिस गतियोनि में उत्पन्न होने वाला है, वह उसके प्रायुष्य को उदयाभिमुख कर लेता है, वेदन तो वह उसी गति-योनि का करता है, जहाँ वह अभी है / उसके बाद एक ही आवास में उत्पन्न दो देवों में से एक स्वेच्छानुकूल बिकुर्वणा करता और दूसरे स्वेच्छाप्रतिकूल, इसका कारण बताया गया है। * छठे उद्देशक 'गुल' में-गुड़ आदि प्रत्येक वस्तु के वर्णादि का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से निरूपण किया गया है / तत्पश्चात् परमाणु से लेकर सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक में पाए जाने वाले वर्ण गन्धादि विषयक विकल्पों की प्ररूपणा है। * सप्तम उद्देशक केवली' में सर्वप्रथम अन्यतीथिकों की केवली-सम्बन्धी विपरीत मान्यता का निराकरण किया गया है। तत्पश्चात उपधि और परिग्रह के प्रकार तथा किस जीव में कितनी उपधि या परिग्रह पाया जाता है ? इसका निरूपण है। फिर नैरयिकों से वैमानिकों तक में प्रणिधानत्रय की प्ररूपणा है / उसके पश्चात् मद्रक श्रावक द्वारा अन्यतीथिकों के पंचास्तिकाय विषयक समाधान तथा श्रावक व्रत ग्रहण करने का प्रतिपादन है। फिर वैक्रियकृत शरीर का सम्बन्ध एक जीव से है या अनेक जीवों से, तथा कोई उन शरीरों के अन्तराल को छेदन-भेदनादि द्वारा पीड़ा पहुँचा सकता है ? देवासुरसंग्राम में दोनों किन शस्त्रों का प्रयोग करते हैं ? महद्धिक देव लवणसमुद्र धातकीखण्ड आदि के चारों ओर चक्कर लगाकर वापिस शीघ्र श्रा सकते हैं ? इत्यादि प्रश्न हैं। उसके बाद देवों के कर्माशों को क्षय करने का कालमान दिया गया है। पाठवं उद्देशक 'अनगार में भावितात्मा अनगार को साम्परायिक क्रिया क्यों नहीं लगती? इसका समाधान है। फिर अन्यतीर्थिकों के इस प्राक्षेप का--'तूम असंयत, अविरत यावत एकान्त बाल हो', का गौतम स्वामी द्वारा निराकरण किया गया है / तत्पश्चात् छद्मस्थ मनुष्य द्वारा तथा अवधिज्ञानी, परम अवधिज्ञानी एवं केवलज्ञानी द्वारा परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने की शक्ति का वर्णन किया गया है। नौ उद्देशक 'भविए' में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के भव्यद्रव्यत्व का निरूपण किया गया है। भव्यद्रव्य नैरयिकादि की स्थिति का कालमान भी बताया गया है / * वसवें उद्देशक 'सोमिल' में सर्वप्रथम भावितात्मा अनगार की वैकियलब्धि के सामर्थ्य सम्बन्धी 10 प्रश्न हैं / तत्पश्चात् परमाणु पुद्गलादि क्या वायुकाय से स्पृष्ट हैं या वायुकाय परमाणु पुद्गलादि से स्पृष्ट है ? क्या नरकादि के नीचे वर्णादि अन्योन्यबद्ध आदि हैं ? इसके पश्चात् सोमिल द्वारा यात्रा, यापनीय अव्याबाध और प्रासुकविहार सम्बन्धी पूछे गए प्रश्नों तथा सरिसव, मास, कुलत्था के भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी एवं एक-अनेकादि प्रश्नों का समाधान है। तत्पश्चात् सोमिल के प्रबुद्ध होने तथा श्रावकवत अंगीकार करने का वर्णन है / / Page #1913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं सयं : अठारहवाँ शतक अठारहवें शतक के उद्देशकों का नाम-निरूपण 1. पढमा 1 विसाह 2 मार्यदिए य 3 पाणातिवाय 4 असुरे य 5 // गुल 6 केवलि 7 अणगारे 8 भविए 9 तह सोमिलट्ठारसे 10 // 1 // [1] अठारहवें शतक में दस उद्देशक हैं। यथा-(१) प्रथम, (2) विशाखा, (3) माकन्दिक, (4) प्राणातिपात, (5) असुर, (6) गुड़, (7) केवली, (8) अनगार, (6) भविक तथा (10) सोमिल / विवेचन-दस उद्देशकों में प्रतिपाद्य विषय-(१) प्रथम उद्देशक में जीवादि के विषय में विविध पहलुओं से प्रथम-अप्रथम आदि का निरूपण है / (2) द्वितीय उद्देशक में विशाखा नगरी में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित कार्तिक सेठ के पूर्वभव के रूप में शकेन्द्र का वर्णन है / (3) तीसरा उद्देशक-माकन्दीपुत्र अनगार की पृच्छारूप है / (4) चौथा उद्देशक-प्राणातिपात आदि पाप और उनसे निवृत्ति के विषय में है। (5) पांचवें उद्देशक में असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता है / (6) छठे उद्देशक में निश्चय-व्यवहार से गुड़ आदि के वर्णादि का प्रतिपादन है। (7) सातवें उद्देशक में केवली आदि से सम्बन्धित विविध विषयों का प्रतिपादन है। (8) पाठवें उद्देशक में अनगार से सम्बन्धित अन्यतीथिकों के आक्षेपों का निराकरण है। (9) नौवें उद्देशक में भव्य-द्रव्यनैरयिक आदि के विषय में चर्चा है। और (10) दसवें उद्देशक में सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों का समाधान है / इस प्रकार अठारहवें शतक के अन्तर्गत दश उद्देशक हैं। Page #1914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'पढमा' प्रथम उद्देशक : 'प्रथम' प्रथम-अप्रथम जीव, चौबीस दण्डक और सिद्ध में जीवत्व-सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथमत्व अप्रथमत्व निरूपण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासो-' [2] उस काल और उस समय में राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 3. जोवे गं भंते ! जोवभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा ! नो पढमे, अपढमे / [3 प्र.] भगवन् ! जीव, जीवभाव से प्रथम है, अथवा अप्रथम ? [3 उ.] गौतम ! (जीव, जीवभाव को अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम है / 4, एवं नेरइए जाव वेमाणिए / [4] इस प्रकार नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 5. सिद्ध णं भंते ! सिद्ध भावेणं कि पढमे, अपढमे ? गोयमा ! पढमे, नो अपढमे। [5 प्र.] भगवन् ! सिद्ध-जीव, सिद्धभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [5 उ.] गौतम ! (सिद्धजीव, सिद्धत्व को अपेक्षा से) प्रथम है, अप्रथम नहीं / 6. जीवा णं भंते ! जीवभावणं कि पढमा, अपढमा ? गोयमा! नो पढमा, अपढमा / 1. प्रस्तुत उद्देशक के प्रारम्भ में उद्देशक के द्वारों से सम्बन्धित निम्नोक्त गाथा अभयदेववत्ति आदि में अंकित है जीवाहारग-भव-सण्णि-लेसा-दिट्ठी य संजय कसाए। णाणे जोगुवमोगे वेए य सरीर-पज्जत्ती / / अर्थात्---प्रस्तुत उद्देशक में चौदह द्वार है—(१) जीव द्वार, (2) आहारक द्वार, (3) भवी द्वार, (4) संजी द्वार, (5) लेश्या द्वार, (6) दृष्टि द्वार, (7) संयत द्वार, (8) कषाय द्वार, (9) ज्ञान द्वार, (10) योग द्वार, (11) उपयोग द्वार, (12) वेद द्वार, (13) शरीर द्वार, (14) पर्याप्ति द्वार / Page #1915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [6 प्र.] भगवन् ! अनेक जीव, जीवत्व की अपेक्षा से प्रथम हैं अथवा अप्रथम ? [6 उ.] गौतम ! (अनेक जीव, जीवत्व की अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / 7. एवं जाव वेमाणिया। [7] इस प्रकार नैरयिक (से लेकर) यावत् अनेक वैमानिकों तक (जानना चाहिए / ) 8. सिद्धा णं० पुच्छा। गोयमा ! पढमा, नो अपढमा / [8 प्र.] भगवन् ! सभी सिद्ध जीव, सिद्धत्व की अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम ? [8 उ.] गौतम ! वे सिद्धत्व की अपेक्षा से प्रथम है, अप्रथम नहीं / विवेचन–(१) जीवद्वार-प्रस्तुत 7 सूत्रों (सू. 2 से 8 तक) में जीवद्वार में एक जीव, चौवीस दण्डक वर्ती जीव, अनेक जीव, एक सिद्ध जीव और अनेक सिद्ध जीवों के विषय में प्रथमअप्रथम की चर्चा की गई है। प्रथमत्व-अप्रथमत्व का स्पष्टीकरण--प्रथमत्व और अप्रथमत्व की प्रतिपादक गाथा इस प्रकार है "जो जेण पत्तपुब्बो भावो, सो तेण अपढमो होइ / सेसेसु होइ पढमो, अपत्तपुवेसु भावेसु // " अर्थात् —जिस जीव ने जो भाव पहले भी प्राप्त किया है, उसकी अपेक्षा से वह भाव 'अप्रथम' है। जैसे-जीव को जोवत्व (जीवपन) अनादिकाल से प्राप्त होने के कारण जीवत्व की अपेक्षा से जीव अप्रथम है, प्रथम नहीं, किन्तु जो भाव जीव को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है उसे प्राप्त करना, उस भाव की अपेक्षा से 'प्रथम' है। जैसे--सिद्धत्व अनेक या एक सिद्ध की अपेक्षा से प्रथम है; क्योंकि वह (सिद्धभाव) जीव को पहले कदापि प्राप्त नहीं हुग्रा था / द्वितीय प्रश्न का ग्राशय यह है कि जीवत्व पहले नहीं था, और प्रथम यानी पहले-पहल प्राप्त हुअा है, अथवा जीवत्व अप्रथम है, अर्थात्- अनादिकाल से अवस्थित है ?' जीव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में आहारकत्व-प्रनाहारकत्व को अपेक्षा से प्रथमत्वअप्रथमत्व का निरूपण 9. आहारए णं भंते ! जीवे आहारभावेणं किं पढमे, अपढमे ? गोयमा ! नो पढमे, अपढमे / [6 प्र.] भगवन् ! आहारकजीव, प्राहारकभाव से प्रथम है अथवा अप्रथम है ? [6 उ.] गौतम ! वह ग्राहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम नहीं, अप्रथम है। 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 733 Page #1916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [651 अठारहवां शतक : उद्देशक 1] 10. एवं जाव वेमाणिए / [10] इसी प्रकार नै रयिक से लेकर वैमानिक तक जानना चाहिए / 11. पोहत्तिए एवं चेव। [11] बहुवचन में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / 12. अणाहारए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं० पुच्छा। गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। [12 प्र.] भगवन् ! अनाहारक जीव, अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [12 उ.] गौतम ! (प्रनाहारकजोव, अनाहा रकत्व की अपेक्षा से) कदाचित् प्रथम होता है, कदाचित् अप्रथम / 13. नेरतिए णं भंते ! * ? एवं नेरतिए जाव वेमाणिए नो पढमे, अपढमे / [13 प्र.) भगवन् ! नैरपिक जोव, अनाहारकभाव से प्रथम है या अप्रथम ? [13 उ.] गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक (अनाहारकभाव की अपेक्षा मे) प्रथम नहीं, अप्रथम जानना चाहिए। 14. सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [14] सिद्धजीव, अनाहारकभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / 15. प्रणाहारगाणं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं० पुच्छा / गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि / [15 प्र.] भगवन् ! अनेक अनाहारकजीव, अनाहारकभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम? [15 उ.गौतम ! वे प्रथम भी हैं और अप्रथम भी। 16. नेरतिया जाव बेमाणिया णो पढमा, अपठना / [16] इसी प्रकार अनेक नैरयिक जीवों से लेकर अनेक वैमानिकों तक (अनाहारकभाव को अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / 17. सिद्धा पढमा, नो अपढमा / एक्केक्के पुच्छा भाणियन्वा / [17] सभी सिद्ध (अनाहारकभाव को अपेक्षा से) प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / इसी प्रकार प्रत्येक दण्डक के विषय में इसी प्रकार पृच्छा (करके समाधान) कहना चाहिए। विवेचन--(२) आहारकद्वार-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 6 से 17 तक) में प्राहारक एवं अनाहारकभाव की अपेक्षा से शंका-समाधान प्रस्तुत किया गया है / Page #1917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आहारक-अनाहारकमाव की अपेक्षा का आशय- सभी सिद्धजीव सदैव अनाहारक रहते हैं, इसलिए उनके विषय में प्राहारकभाव की अपेक्षा से एकवचन-बहुवचन-परक प्रश्न नहीं किया गया है / संसारी जीव विग्रहगति में अनाहारक रहते हैं, शेष समय में प्राहारक / इसलिए एक या अनेक पाहारकजीव या संसारी सभी जीव आहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम नहीं हैं, क्योंकि अनादिभवों में अनन्त बार उन्होंने आहारकभाव प्राप्त किया है। संसारी जीव विग्रहगति में ही अनाहारक होता है, इसलिए जब एक या अनेक संसारी जीव विग्रहगति में होते हैं, तब वह अप्रथम होते हैं। क्योंकि उन्हें विग्रहगति में अनाहारकपन पहले अनन्त बार प्राप्त हो चुका है। किन्तु जब एक या अनेक संसारी जीव सिद्ध होते हैं. तब अनाहारकभाव की अपेक्षा से उन्हें अनाहारकत्व पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें प्रथम कहा गया है। 12 वें सूत्र में इसी दृष्टि से कहा गया है-सिय पढमे, सिय अपढमे / ', किन्तु नैरयिक से वैमानिक तक के जीव विग्रहगति ति में अनन्त बार अनाहारकत्व प्राप्त कर चुके हैं, इस अपेक्षा से उन्हें अप्रथम कहा गया है / किन्तु एक या अनेक सिद्धजीव अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम होते हैं, क्योंकि उन्हें पहले कभी अनाहारकत्व प्राप्त नहीं हुआ था / ' भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक तथा नोभवसिद्धिक-नोग्रभवसिद्धिक के विषय में भवसिद्धिकत्वादि दृष्टि से प्रथम-अप्रथम प्ररूपण 18. भवसिद्धोए एगत्त-पुहत्तणं जहा पाहारए (सु० 9-11) / [18] भवसिद्धिक जीव (भवसिद्धिकपन की अपेक्षा से) एकत्व-अनेकत्व दोनों प्रकार से (सु. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान प्रथम नहीं, अप्रथम है, इत्यादि कथन करना चाहिए। 19. एवं अभवसिद्धीए वि / [16] इसी प्रकार अभवसिद्धिक एक या अनेक जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए। 20. नोभवसिद्धीए-नोअभवसिद्धीए णं भंते ! जीवे नोभव० पुच्छा। गोयमा ! पढमे, नो अपढमे / 20 प्र. भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-प्रभवसिद्धिक जीव नोभवसिद्धिक-नो-प्रभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [20 उ.] गौतम ! वह प्रथम है, अप्रथम नहीं / 21. णोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीये णं मंते ! सिद्ध नोमव० ? एवं चेव / 21 प्र.] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभव सिद्धिक सिद्धजीव नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम ? __ [21 उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए। 1. भगवतीमूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 734 Page #1918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [653 22. एवं पुहत्तण वि दोण्ह वि / [22] इसी प्रकार (जीव और सिद्ध) दोनों के बहुवचन-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी समझ लेने चाहिए। विवेचन-(३) भवसिद्धिकद्वार- इसमें 5 सूत्रों (सू. 18 से 22 तक) में एक या अनेक भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक जीव तथा एक-अनेक नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक जीव और सिद्ध के विषय में क्रमशः भवसिद्धिकभाव अभवसिद्धिकभाव तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है। परिभाषा-भवसिद्धिक का अर्थ है-भवान्त (संसार का अन्त) करके सिद्धत्व प्राप्त करने के स्वभाव वाला, भव्यजीव / प्रभवसिद्धिक का अर्थ है-अभव्य, जो कदापि संसार का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त नहीं करेगा। नोभवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक का अर्थ है-जो न तो भव्य रहे हैं, न अभव्य, अर्थात् जो सिद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं—सिद्ध जीव / भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक अप्रथम क्यों ?--भवसिद्धिक का भव्यत्व और अभवसिद्धिक का प्रभव्यत्व अनादिसिद्ध पारिणामिक भाव है, इसलिए दोनों क्रमश: भव्यत्व व अभव्यत्व की अपेक्षा से प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। दो सूत्र क्यों ?-जब नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक से सिद्ध जीव का ही कथन है, तब एक ही सूत्र से काम चल जाता, दो सूत्रों में उल्लेख क्यों ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हैं कि यहाँ पहला सूत्र केवल समुच्चय जीव की अपेक्षा से है, नारकादि की अपेक्षा से नहीं, और दूसरा सूत्र सिद्ध की अपेक्षा से है / इसलिए दोनों पृच्छा-सूत्रों के उत्तर के रूप में इनको प्रथम बताया गया है।' जीव, चौबीस दण्डक एवं सिद्धों में संज्ञी-प्रसंज्ञी-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 23. सण्णी णं भंते ! जीवे सण्णिभावेणं कि० पुच्छा। गोयमा ! नो पढमे, प्रपढमे / [23 प्र.] भगवन् ! संज्ञीजीव, संज्ञीभाव को अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [23 उ.] गौतम ! (वह) प्रथम नहीं, अप्रथम है। 24. एवं विलिदियवज्जं जाव वेमाणिए / [24] इसी प्रकार विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। 25. एवं पुहत्तेण वि। [25] इनकी बहुवचन-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार जान लेनी चाहिए / 1. भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 734 Page #1919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 26. असण्णो एवं चेव एगत्त-पुहत्तेणं, नवरं जाव वाणमंतरा। [26] असंज्ञोजीवों को एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए) / विशेष इतना है कि यह कथन वाणव्यन्तरों तक ही (जानना चाहिए)। 27. नोसष्णो नोअसण्णी जोवे मणुस्से सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [27] नोसंजी-नोग्रसंज्ञो जीव, मनुष्य और सिद्ध, नो-संज्ञी-नो-प्रसंज्ञी भाव की अपेक्षा प्रथम है, अप्रथम नहीं। 28. एवं पुहत्तेण वि। [28] इसी प्रकार बहुवचन-सम्बन्धी (वक्तव्यता भी कहनी चाहिए)। विवेचन–(४) संज्ञी-द्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 23 से 28 तक में) संजी, विकलेन्द्रिय को छोड़ कर वैमानिक के जीव, असंज्ञी तथा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में एकवचन-बहुवचन-सम्बन्धी वक्तव्यता क्रमश: संजी-असंज्ञी भाव एवं नो-संज्ञी-नोग्रसंज्ञी भाव की अपेक्षा से कही गई है। फलितार्थ-संज्ञीजीव संज्ञो भाव की अपेक्षा से अप्रथम है, क्योंकि संजीपन अनन्त वार प्राप्त हो चुका है / तथा एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक को छोड़ कर दण्डक क्रम से नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के जोव भी संज्ञो भाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं। प्रसंजीजीव, एक हो या अनेक, असंज्ञो भाव को अपेक्षा से अप्रथम हैं, क्योंकि नैरयिक से लेकर वाणव्यन्तर तक संज्ञी होने पर भी भूतपूर्वगति की अपेक्षा से तथा नारक आदि में उत्पन्न होने पर कुछ देर तक वहाँ (नरकादि में) असंज्ञित्व रहता है। असंज्ञीजोवों का उत्पाद वाण-व्यन्तर तक होता है / पृथ्वोकाय आदि असंज्ञो जीव तो असंजीभाव को अपेक्षा से अप्रथम हैं हो। नोसंज्ञो-नो-प्रसंज्ञो जीव सिद्ध ही होते हैं, परन्तु यहाँ समुच्चय जोव और मनुष्य जो सिद्ध होने वाले हैं, इसलिए उनको भी नोसंज्ञी-नोअसंज्ञित्व की अपेक्षा से प्रथम कहा गया है / क्योंकि यह भाव उन्हें पहले कभी प्राप्त नहीं हना था / / सलेश्यी, कृष्णादिलेश्यी एवं अलेश्यी जीव के विषय में सलेश्यादि भाव को अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 29. सलेसे णं भंते ! 0 पुच्छा / गोयमा ! जहा आहारए। [26 प्र. भगवन् ! सलेश्यी जोव, सलेश्यभाव से प्रथम है, अथवा अप्रथम ? [26 उ.] गौतम ! (सू. 6 में उल्लिखित) आहारकजीव के समान (वह अप्रथम है।) 30. एवं पुहत्तेण वि। [30] बहुवचन की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 734 Page #1920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] / 655 31. कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा एवं वेव, नवरं जस्स जा लेस्सा अस्थि / [31] कृष्णलेश्यी से लेकर यावत् शुक्ललेश्यी तक के विषय में भी इसी प्रकार जानना .. चाहिए / विशेषता यह है कि जिस जीव के जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। 32. अलेसे णं जीव-मणुस्स-सिद्ध जहा नोसण्णीनोनसण्णी (सु० 27) / [32] अलेश्यीजीव, मनुष्य और सिद्ध के सम्बन्ध में (सू. 27 में उल्लिखित) नो-संज्ञी-नोअसंज्ञी के समान (प्रथम) कहना चाहिए। विवेचन-(५) लेश्याद्वार–प्रस्तुतद्वार में (सू. 26 से 32 तक) में सलेश्यी, कृष्णलेश्यी से लेकर शुक्ललेश्यी तक तथा अलेश्यी जीव, मनुष्य सिद्ध आदि के विषय में क्रमश: सलेश्यभाव एवं अलेश्यभाव की अपेक्षा से प्रति देशपूर्वक कथन किया गया है। सम्यग्दष्टि, मिथ्यादष्टि एवं मिश्रदृष्टि जीवों के विषय में, एक बहुवचन से सम्यग्दष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 33. सम्मदिट्ठीए णं भंते ! जीवे सम्मदिन्ठिभावेणं किं पढमे० पुच्छा। गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे / {33 प्र. भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव, सम्यग्दष्टि भाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? (33 उ.] गौतम ! वह कदाचित् प्रथम होता है, और कदाचित् अप्रथम / 34. एवं एगिदियवज्जं जाव बेमाणिए / {34] इसी प्रकार एकेन्द्रियजीवों के सिवाय (नैरयिक से लेकर) यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए। 35. सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [35] सिद्धजीव प्रथम है, अप्रथम नहीं। 36. पुहत्तिया जीवा पढमा वि, अपढमा वि / [36] बहुवचन से सम्यग्दृष्टि जीव (सम्यग्दृष्टित्व की अपेक्षा से) प्रथम भी हैं, अप्रथम 37. एवं जाव वेमाणिया। [37] इसी प्रकार (बहुवचन सम्बन्धी) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 38. सिद्धा पढमा, नो प्रपढमा।। [38] बहुवचन से (सभी) सिद्ध प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / 39. मिच्छादिठिए एगल-पुहत्तणं जहा आहारगा (सु० 9-11) / [39] मिथ्यादृष्टिजीव एकवचन और बहुवचन से, मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. 111 में उल्लिखित) प्राहारक जीवों के समान (अप्रथम कहना चाहिए / ) Page #1921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 40. सम्मामिच्छद्दिट्ठीए एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्महिछो (सु० 33-37), नवरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं / [40] सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव के विषय में एकवचन और बहुवचन से सम्यमिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि जिस जीव के सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो, (उसी के विषय में यह पालापक कहना चाहिए।) विवेचन--(६) दृष्टिद्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 33 से 40 तक) एक या अनेक सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि के विषय में सम्यग्दृष्टिभावादि की अपेक्षा से प्रतिदेश पूर्वक प्रथमत्व-अप्रथमत्व को प्ररूपणा की गई है। सभी सम्यग्दृष्टि जोब प्रथम अप्रथम किस अपेक्षा से ?--कोई सम्यग्दृष्टि जीव, जब, पहली बार सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है तब वह प्रथम है, और कोई सम्यग्दर्शन से गिर कर दूसरी-तीसरी बार पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, तब वह अप्रथम है / एकेन्द्रिय जीवों को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता, इसलिए एकेन्द्रियों के पांच दण्डक छोड़कर शेष 16 दण्डकों के विषय में यहाँ कहा गया है। सिद्धजीव, सम्यग्दृष्टिभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत सम्यक्त्व उन्हें मोक्षगमन के समय ही प्राप्त होता है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव अप्रथम क्यों ? -मिथ्यादर्शन अनादि है, इसलिए सभी मिथ्यादृष्टिजीव मिथ्यादृष्टिभाव की अपेक्षा से अप्रथम हैं। सम्यगमिथ्यादष्टि जीव सम्यग्दृष्टिवत् क्यों ? -जो जोव पहली बार मिश्रदृष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह प्रथम है, और मिश्रदृष्टि से गिरकर दूसरी तीसरी बार पुनः मिश्रदष्टि प्राप्त करता है, उस अपेक्षा से वह अप्रयम है। मिश्रदर्शन नारक आदि के होता है, इसलिए मिश्रदष्टिवाले दण्डकों के विषय में ही यहाँ प्रथमत्व अप्रथमत्व का विचार किया गया है।' जोव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व से संयतभाव को अपेक्षा प्रथमत्वअप्रथमत्व निरूपण 41. संजए जोवे मणुस्से य एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [41] संयत जीव और मनुष्य के विषय में, एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा, सम्यग्दृष्टि जोत्र (की वक्तव्यता सू. 33-37 में उल्लिखित) के समान (जानना चाहिए / ) 42. अस्संजए जहा आहारए (सु० 9-11) / [42] असंयतजीव के विषय में सु. 6-11 में उल्लिखित] प्राहारक जीव के समान (समझना चाहिए।) 1. भगवतीसूत्र अ० वृत्ति, पत्र 734 Page #1922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [657 43. संजयासंजये जीवे पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्सा एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [43] संयतासंयत जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और मनुष्य, (इन तीन पदों) में एकवचन और बहुवचन में (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान (कदाचित् प्रथम और कदाचित् . अप्रथम) समझना चाहिए / ) 44. नोसंजए नोभसंजए नोसंजयासंजये जीवे सिद्ध य एगत्त-पुहत्तेणं पढमे, नो अपढमे / [44] नो-संयत, नो-असंयत और नो-संयतासंयत जीव, तथा सिद्ध, एक वचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / / विवेचन (7) संयतद्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 41 से 44 तक में) एक और अनेक संयत, असंयत, नोसंयत-नोअसंयत, नो-संयतासंयत जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। संयतपद में-जीवपद और मनुष्यपद दो ही पद आते हैं। सम्यग्दृष्टित्व की तरह संयतत्व भी प्रथम और अप्रथम दोनों हैं। प्रथम संयमप्राप्ति की अपेक्षा से प्रथम है और संयम से गिरकर अथवा अनेक बार मनुष्य जन्म में पुनः पुनः प्राप्त होने की अपेक्षा से अप्रथम है / असंयत-एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से अनादि होने के कारण आहारकवत् अप्रथम हैं। संयतासंयत–जीवपद, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपद और मनुष्यपद में ही होता है, अतः एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से यह भी सम्यग्दृष्टिवत् देशविरति को प्राप्ति की दृष्टि से प्रश्रम भी है, अप्रथम भी। नोसंयत-नो असंयत--जीव और सिद्ध होता है, यह भाव एक ही बार आता है, इसलिए प्रथम ही होता है।' जोव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को दृष्टि से यथायोग्य सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 45. सकसायी कोहकसायो जाव लोभकसायो, एए एगत्त-पुत्तहेणं जहा-आहारए (सू० 9.11) / [45] सकषायी, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, ये सब एकवचन और बहुवचन से (सू. 9-11 में उल्लिखित) आहारक के समान जानना चाहिए / 46. अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय अपढमे / [46] (एक) अकषायी जीव कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होता है। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 734-735 Page #1923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 47. एवं मणुस्से वि। [47] इसी प्रकार (एक अकषायो) मनुष्य भी (समझना चाहिए / ) 48. सिद्ध पढमे, नो अपढमे। [48] (अकषायी एक) सिद्ध प्रथम है, अप्रथम नहीं / 49. पुहत्तणं जीवा मणुस्सा वि पढमा वि, अपढमा वि / [46] बहुवचन से अकषायी जीव प्रथम भी हैं, अप्रथम भी। 50. सिद्धा पढमा, नो अपढमा। [50] बहुवचन से अकषायो सिद्धजीव प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / विवेचन-(८) कषायद्वार--प्रस्तुत द्वार में (सू. 45 से 50 तक में) एक अनेक सकषायी और अकषायी जीव, मनुष्य एवं सिद्धों में सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। सकषायो अप्रथम क्यों ? क्योंकि सकपायित्व अनादि है, इसलिए यह प्राहारक वत् अप्रथम है। प्रकषायो जीव, मनुष्य और सिद्ध एक हो या अनेक, यदि यथाख्यात चारित्री हैं, तो वे प्रथम हैं, क्योंकि यह इन्हें पहली बार ही प्राप्त होता है, बार-बार नहीं / किन्तु अकषायी सिद्ध, एक हों या अनेक, वे प्रथम हैं, क्योंकि सिद्धत्वानुगत अकषाय भाव प्रथम बार ही प्राप्त होता है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहवचन से यथायोग्य जानि प्रज्ञानिभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 51. णाणी एगत्त-पुहतेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [51] ज्ञानी जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होते हैं / 52. प्राभिणिवोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी एगत्त-पुहत्तेणं एवं चेव, नवरं जस्स जं अस्थि / [52 आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यायज्ञानी, एकवचन और बहुवचन से, इसी प्रकार हैं। विशेष यह है जिस जीव के जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए / 53. केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्ध य एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा / [53] केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। - - - -- -- -- - -- 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 735 Page #1924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] 54. अन्नाणी, मतिअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी य एगत्त-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु० 9-11) / [54] अज्ञानी जीव, मति-अज्ञानी, श्र त-अज्ञानी और विभंगज्ञानी; ये सब, एकवचन और बहुवचन से (सू. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान (जानने चाहिए।) विवेचन-(९) ज्ञानद्वार-प्रस्तुत द्वार में (स. 51 से 54 तक में) ज्ञानी, मतिज्ञानी प्रादि, तथा केवलज्ञानी जीव, मनुष्य और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से, यथायोग्य प्रथमत्वअप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। ज्ञानी आदि प्रथम-अप्रथम दोनों क्यों ?--ज्ञानद्वार में समुच्चयज्ञानी या चार ज्ञान तक पृथक्-पृथक् या सम्मिलित ज्ञानधारक अकेवलो प्रथम ज्ञानप्राप्ति में प्रथम होते हैं, अन्यथा, पुनः प्राप्ति में अप्रथम किन्तु केवली केवलज्ञान की अपेक्षा प्रथम हैं। ___अज्ञानी प्रथम क्यों ? –अज्ञानी अथवा मति-श्रत-विभंगरूप-अज्ञानी आहारकजीव की तरह अप्रथम हैं, क्योंकि अज्ञान अनादि रूप से और अनन्त बार प्राप्त होते रहते हैं।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को लेकर यथायोग्य सयोगी-अयोगिभाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्व कथन 55. सयोगी, मणयोगी वइजोगी कायजोगी एगत्त-पुहत्तेणं जहा पाहारए (सु० 9-11), नवरं जस्स जो जोगो अस्थि / योगी. मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव, एकवचन और बहवचन से (सू. 9-11 में प्रतिपादित) आहारक जीवों के समान अप्रथम होते हैं। विशेष यह है कि जिस जीव के जो योग हो, वह कहना चाहिए। 56. अजोगी जीव-मणुस्स-सिद्धा एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा / [56] अयोगी जीव, मनुष्य और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम होते हैं, अप्रथम नहीं। विवेचन (10) योगद्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 55-56 में) सभी सयोगी और सभी अयोगी जीवों के सयोगित्व-अयोगित्व की अपेक्षा से अप्रथमत्व एवं प्रथमत्व का प्ररूपण किया गया है। ___ सयोगी अप्रथम और अयोगी प्रथम क्यों?—योग सभी संसारी जीवों के होता ही है, फिर तीनों में से चाहे एक हो, दो हों तीनों हों, अतः अप्रथम होते हैं, क्योंकि ये अनादि काल में, अनन्त बार प्राप्त हुए हैं, होंगे और हैं। किन्तु अयोगी केवली जीव मनुष्य या सिद्ध की प्रयोगावस्था प्रथम बार ही प्राप्त होती है, अतएव उसे प्रथम कहा गया / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 Page #1925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से साकारोपयोग-अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वकथन 57. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तेणं जहा अणाहारए (सु० 12-17) / [57] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, एकवचन और बहुवचन से (सू. 12-17 में उल्लिखित) अनाहारक जीवों के समान हैं / विवेचन–(११) उपयोगद्वार-प्रस्तुत द्वार (स. 57) में बताया गया है कि साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) तथा अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले जीव, अनाहारक के समान, कथंचित् प्रथम और कथंचित् अप्रथम जानना चाहिए / प्रथम और अप्रथम किस अपेक्षा से? यह जीवपद में सिद्ध जीव की अपेक्षा प्रथम और संसारी जीव की अपेक्षा अप्रथम हैं / अर्थात्-नैरयिक से लेकर वैमानिक दण्डक तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों में संसारीजीवत्व की अपेक्षा से दोनों उपयोग प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा से सिद्धजीवों में ये दोनों उपयोग प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। क्योंकि साकारोपयोगअनाकारोपयोग-विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम ही होती है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से सवेद-अवेद भाव को अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व अप्रथमत्व निरूपण 58. सवेदगो जाव नपुंसगवेदगो एगत-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु० 9-11), नवरं जस्स जो वेदो अस्थि / [58] सवेदक यावत् नपुसकवेदक जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि, जिस जीव के जो वेद हो, (वह कहना चाहिए)। 59. अवेदमओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पएसु जहा अकसायी ( सु० 46-50) / [56] एकवचन और बहुवचन से, अवेदक जीव, तीनों पदों अर्थात् जीव, मनुष्य और सिद्ध में (सू. 46-50 में उल्लिखित) अकषायी जीव के समान हैं। विवेचन--(१२) वेद-द्वार-प्रस्तुत द्वार (सू. 58-56) में सवेदक एवं अवेदक जीवों के वेदभाव-अवेदभाव की अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है। सवेदी अप्रथम और अवेदी प्रथम क्यों ?-संसारी जीवों के वेद अनादि होने से वे पाहारक जीव के समान अप्रथम हैं, किन्तु विशेष यही है कि नारक प्रादि जिस जीव का नपुसक प्रादि वेद है, वह कहना चाहिए। अवेदक जीव, जीवपद और मनुष्यपद में, अकषायो की तरह, कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है / सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथम ही है, अप्रथम नहीं।' 1. भगवती, अ. बृत्ति पत्र-७३५ 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र-७३५ Page #1926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [661 जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य सशरीर-शरीर भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 60. ससरीरी जहा आहारए (सु० 6-11) / एवं जाव कम्मगसरीरी, जस्स जं अस्थि सरीरं; नवरं पाहारगसरीरी एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मद्दिट्ठी (सु० 33-37) / [60 सशरीरी जीव, (स. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। इसी प्रकार यावत् कार्मणशरीरी जीव के विषय में भी जान लेना चाहिए। किन्तु आहारक-शरीरी के विषय में, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि जीव के समान कहना चाहिए। 61. प्रसरीरी जीवे सिद्ध एगत्त-पुहत्तेणं पढमा, नो अपढमा / [61] अशरीरी जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / विवेचन–(१३) शरीरद्वार-प्रस्तुत द्वार (सू. 60-61) में समस्त सशरीरी और अशरीरी जीवों के सशरीरत्व-अशरीरत्व की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। सशरीरी जीव-आहारकशरीरी को छोड़कर औदारिकादि शरीरधारी जीव को आहारकजीववत अप्रथम समझना चाहिए। प्राहारक शरीरी एक या अनेक जीव, सम्यग्दृष्टि के समान कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम है / ___ अशरीरी जीव-जीव और सिद्ध एकवचन से हो या बहुवचन से, प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / / जीव, चौबीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से, यथायोग्य पर्याप्त भाव को अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 62. पंचहि पज्जत्तीहि, पंचहि अपज्जत्तोहिं एगत्त-पुहत्तेणं जहा प्राहारए (सु० 9-11) / नवरं जस्स जा अत्थि, जाव वेमाणिया, नो पढमा, अपढमा / [12] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्त जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि जिसके जो पर्याप्ति हो, वह कहनी चाहिए। इस प्रकार नै रयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। अर्थात्- ये सब प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / विवेचन-(१४) पर्याप्तिद्वार–इस द्वार में (सू. 62 में) चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पर्याप्तभाव-अपर्याप्तभाव की अपेक्षा से एकवचन-बहुवचन में आहारकजीवों के अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व अप्रथमत्व का यथायोग्य निरूपण किया गया है। अर्थात्-पर्याप्त और अपर्याप्तक सभी जीव अप्रथम हैं, प्रथम नहीं। 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 735 Page #1927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रथम-अप्रथम-लक्षण निरूपण 63. इमा लक्खणगाहा जो जेण पत्तपुचो भावो सो तेणऽपढमओ होति / सेसेसु होइ पढमो प्रपत्तन्वेसु भावेलु // 1 // [63] यह लक्षण गाथा है (गाथार्थ---) जिस जीव को जो भाव (अवस्था) पूर्व (पहले) से प्राप्त है, (तथा जो अनादिकाल से है), उस भाव की अपेक्षा से वह जीव 'अप्रथम' है, किन्तु जिन्हें जो भात्र पहले कभी प्राप्त नहीं हुअा है, अर्थात्-"जो भाव प्रथम बार ही प्राप्त हुआ है, उस भाव की अपेक्षा से वह जीव प्रथम कहलाता है। विवेचन---सेसेसु : भावार्थ-यहाँ 'शेषेषु का भावार्थ है-जिन्हें जो भाव पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है, अर्थात्- जो भाव जिन्हें प्रथम बार ही प्राप्त हुया है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में, पूर्वोक्त चौवह द्वारों के माध्यम से जीवभावादि की अपेक्षा से, एकवचन-बहुवचन से यथायोग्य चरमत्व-अचरमत्व निरूपण 64. जीवे गं भंते ! जीयमावेणं कि चरिमे, अचरिमे ? गोयमा! नो चरिमे, प्रचरिमे। [64 प्र.] भगवन् ! जीव, जीवभाव (जीवत्व) की अपेक्षा से चरम है या अचरम ? [64 उ.] गौतम ! चरम नहीं, अचरम है / 65. नेरतिए णं भंते ! नेरतियभावेणं० पुच्छा। गोयमा! सिय चरिमे, सिय अचरिमे / [65 प्र. भगवन् ! नरयिक जीव, नैरयिकभाव की अपेक्षा से चरम है या अचरम? [65 उ.] गौतम ! वह (नरयिक भाव से) कदाचित् चरम है, और कदाचित् अचरम है। 66. एवं जाव वेमाणिए / [66] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। 67. सिद्ध जहा जीवे। 667] सिद्ध का कथन जीव के समान जानना चाहिए / 68. जीया पं० पुच्छा। गोयमा! नो चरिमा, अचरिमा। [68 प्र.] अनेक जीवों के विषय में चरम-अचरम-सम्बन्धी प्रश्न ? [68 उ.] गौतम ! बे चरम नहीं, अचरम हैं। 14. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 735 Page #1928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] 66. नेरतिया चरिमा वि, अचरिमा वि। [66] नैरयिकजीव, नैरयिकभाव से, चरम भी हैं, अचरम भी हैं / 70. एवं जाव वेमाणिया। [70] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए / 71. सिद्धा जहा जीवा। [71] सिद्धों का कथन जीवों के समान है / 72. आहारए सव्वस्थ एगत्तेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे / पुहत्तेणं चरिमा वि, अचरिमा वि। [72] आहारकजीव सर्वत्र एकवचन से कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है / बहुवचन से पाहारक चरम भी होते हैं और अचरम भी। 73. प्रणाहारओ जीवो सिद्धो य; एगत्तेण वि पुहत्तेण वि नो चरिमा, अचरिमा। [73] अनाहारक जीव और सिद्ध, एकवचन और बहुवचन से भी चरम नहीं है, अचरम हैं। 74. सेसट्ठाणेसु एगत्त-पुहत्तेणं जहा प्राहारओ (सु० 72) / [74] शेष (नरयिक आदि) स्थानों में (अनाहारक) एकवचन और बहुवचन से, (सू. 72 में उल्लिखित) अाहारक जीव के समान (कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम) जानना चाहिए। 75. भवसिद्धीग्रो जीवपदे एगत्त-पुहत्तेणं चरिमे, नो अचरिमे। [75] भवसिद्धकजीव, जीवपद में, एकवचन और बहुवचन से चरम हैं, अचरम नहीं / 76. सेसटाणेसु जहा पाहारओ। [76] शेष स्थानों में आहारक के समान हैं / 77. अभवसिद्धीनो सम्वत्थ एगल-पुहत्तेणं नो चरिमे, अचरिमे / [77] अभवसिद्धिक सर्वत्र एकवचन और बहुवचन से, चरम नहीं, अचरम हैं / 78. नोभवसिद्धीय-नोग्रभवसिद्धीयजीवा सिद्धा य एगत्त-पुहत्तेणं जहा अभवसिद्धीओ। [78] नो-भव सिद्धिक–नो अभवसिद्धिक जीव और सिद्ध, एक वचन और बहुवचन से अभवसिद्धिक के समान हैं। 79. सण्णी जहा प्राहारओ (सु०७२)। [7] संज्ञी जीव (सू, 72 में उल्लिखित) याहारक जीव के समान हैं / 80. एवं असण्णी वि। [80] इसी प्रकार असंज्ञी भी (आहारक के समान हैं।) Page #1929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 81. नोसनीनोअसन्नी जीवपदे सिद्धपदे य अचरिमो, मणुस्सपदे चरिमो, एगस-पुहत्तेणं / [81] नो-संजी-नो-प्रसंज्ञी जीवपद और सिद्धपद में अचरम है, मनुष्यपद में, एकवचन और बहुवचन से चरम हैं। 82. सलेस्सो जाव सुक्कलेस्सो जहा आहारओ (सु० 72), नवरं जस्स जा अस्थि / [82] सलेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी की वक्तव्यता आहारकजीव (सू. 72 में वर्णित) के समान है / विशेष यह है कि जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। 83. अलेस्सो जहा नोसण्णी-नोप्रसण्णी / [83] अलेश्यी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं / 84. सम्मट्ठिी जहा अगाहारो (सु०७३-७४) / [84] सम्यग्दृष्टि, (सू. 73-74 में उल्लिखित) अनाहारक के समान हैं। 85. मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ (सु० 72) / [85] मिथ्यादृष्टि, (सू. 72 में उल्लिखित) अाहारक के समान हैं। 86. सम्मामिच्छट्टिी एगिदिय-विलिदियवज्जं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। पुहत्तेणं चरिमा वि, अचरिमा वि। __ [86] सम्यग्-मिथ्यादृष्टि, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर (एकवचन से) कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं / बहुवचन से वे चरम भी हैं और अचरम भी। 87. संजनो जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ (सु०७२) / [87] संयत जीव और मनुष्य, (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान हैं / 88. असंजतो वि तहेव। [87] असंयत भी उसी प्रकार है / 89. संजयासंजतो वि तहेव; नवरं जस्स जं अस्थि / [88] संयतासंयत भी उसी प्रकार है / विशेष यह है कि जिसका जो भाव हो, वह कहना चाहिए। 90. नोसंजय-नोअसंजय नोसंजयासंजओ जहा नोभवसिद्धीय-नोप्रभवसिद्धीयो (सु० 78) / [60] नो-संयत-नोप्रसंयत-नोसंयतासंयत, नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक के समान (सू. 78 के अनुसार) जानना चाहिए। 91. सकसायी जाव लोभकसायी सव्वट्ठाणेसु जहा आहारो (सु० 82) / [91] सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में, आहारक के समान (सू. 72 के अनुसार) हैं। Page #1930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [665 अठारहवां शतक : उद्देशक 1] 92. अकसायी जीवपए सिद्ध य नो चरिमो, अचरिमो। मणुस्सपदे सिय चरिमो, सिय अचरिमो। _[12] अकषायी, जीवपद और सिद्धपद में, चरम नहीं, अचरम हैं। मनुष्यपद में, कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम होता है। 93. [1] गाणी जहा सम्मट्टिी (सु० 84) सव्वत्य / [63-1] ज्ञानी सर्वत्र (सू. 84 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान है। [2] आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी जहा आहारओ (सू०७२), जस्स जं अत्थि / [63-2] प्राभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यवज्ञानी (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान हैं / विशेष यह कि जिसके जो ज्ञान हो, वह कहना चाहिए / [3] केवलनाणी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी (सु० 81) / [63-3] केवलज्ञानी (सू. 81 के अनुसार) नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी के समान है / 94. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा प्राहारओ (सु० 72) / [14] अज्ञानी, यावत् विभंगज्ञानी, (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान हैं / 65. सजोगी जाव कायजोगी जहा आहारओ (सु०७२), जस्स जो जोगो प्रस्थि / [15] सयोगी, यावत् काययोगी, (सू. 72 के अनुसार) पाहारक के समान हैं। विशेषजिसके जो योग हो, वह कहना चाहिए / 96. अजोगी जहा नोसण्णी-नोअसण्णी (सु० 81) / [96] अयोगी, (सू. 81 में उल्लिखित) नोसंज्ञो-नोप्रसंज्ञो के समान हैं। 97. सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहारओ (सु०७३-७४) / [17] साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी (सू. 73-74 में उल्लिखित) अनाहारक के समान हैं। 68. सवेदनो जाव नपुंसगवेदश्रो जहा आहारओ (सु. 72) / [98] सवेदक, यावत् नपुंसकवेदक (सू. 72 में उल्लिखित) पाहारक के समान हैं। 99. अवेदओ जहा अकसायो (सु० 92) / [96] प्रवेदक (सू. 62 में उल्लिखित) अकषायी के समान हैं। 100, ससरीरो नाव कम्मगसरीरी जहा आहारओ (सु० 72), नवरं जस्स जं अस्थि / [100] सशरीरी यावत् कार्मणशरीरी, (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान हैं / विशेष यह है कि जिसके जो शरीर हो, वह कहना चाहिए। Page #1931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसुत्र 101. असरीरी जहा नोभवसिद्धीय-नोअभवसिद्धीनो (सु० 78) / [11] अशरीरी के विषय में (सू. 78 में उल्लिखित) नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक के समान (कहना चाहिए।) 102. पंचहि पज्जत्तीहि पंचहि अपज्जत्तीहिं जहा आहारओ (सु०७२) / सम्बत्थ एगत्तपुहत्तेणं दंडगा भाणियन्वा / [102] पांच पर्याप्तियों से पर्याप्तक और पांच अपर्याप्तियों से अपर्याप्तक के विषय में (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान कहना चाहिए / सर्वत्र ( ये पूर्वोक्त चौदह ही) दण्डक, एकवचन और बहुवचन से कहने चाहिए / विवेचन–चरम-अचरम के चौदह द्वार-पूर्वोक्त 14 द्वारों के माध्यम से, उस-उस भाव की अपेक्षा से, एकवचन और बहुवचन से, चरमत्व- अचरमत्व का प्रतिपादन किया गया है / चरम-अचरम का पारिभाषिक अर्थ-जिसका कभी अन्त होता है, वह 'चरम' कहलाता है, और जिसका कभी अन्त नहीं होता, वह अचरम कहलाता है / जैसे-जीवत्वपर्याय की अपेक्षा से जीव का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए वह चरम नहीं, अचरम है। नैरधिकादि उस-उस भाव की अपेक्षा चरम-अचरम दोनों--जो नैरयिक, नरकगति से निकलकर फिर नैरयिकभाव से नरक में न जाए और मोक्ष चला जाए, वह नै रयिक भाव का सदा के लिए अन्त कर देता है, वह 'चरम' कहलाता है, इससे विपरीत अचरम / इसी प्रकार वैमानिक तक 24 दण्डकों में चरम-अचरम दोनों समझने चाहिए। सिद्धत्व---का कभी अन्त (विनाश) नहीं होता, इसलिए वह 'अचरम' है / आहारक आदि सभी पदों में जीव कदाचित चरम होता है, और कदाचित अचरम / जो जीव मोक्ष चला जाता है, वह चरम है, उससे भिन्न प्राहारकादि प्रचरम हैं। अनाहारकत्व जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। भवसिद्धिकादि में चरमाचरमत्व-कथन-'भव्य अवश्यमेव मोक्ष जाता है, यह सिद्धान्तवचन है / मोक्ष प्राप्त होने पर भवसिद्धिकत्व (भव्यत्व) का अन्त हो जाता है। अतः भव्यत्व की अपेक्षा से भवसिद्धिक चरम है। प्रभवसिद्धिक का अन्त नहीं होता, क्योंकि वह कभी मोक्ष नहीं जाता, इसलिए अभवसिद्धिक अचरम है। नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक सिद्ध होते हैं, उनमें सिद्धत्व-पर्याय का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए अभवसिद्धिकवत् वे अचरम हैं। सम्यग्दष्टि आदि में चरमाचरमत्व-कथन- सम्यग्दर्शन जीव और सिद्ध दोनों पदों में होता है। इनमें से जीव अचरम है, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन से गिर कर पुनः सम्यग्दर्शन को अवश्य प्राप्त करता है; किन्तु सिद्ध चरम हैं, क्योंकि वे सम्यग्दर्शन से कभी गिरते ही नहीं / जो सम्यग्दृष्टि नैरयिक आदि, नारकत्वादि के साथ सम्यग्दर्शन को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं। मिथ्यादृष्टिजीव, आहारक की तरह कदाचित् चरम और Page #1932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [667 कदाचित् अचरम होते हैं। जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादष्टि का सदा के लिए अन्त करके मोक्ष में चले जाते हैं वे मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा से चरम हैं और उनसे भिन्न अचरम हैं / मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि जो मिथ्यात्वसहित नैरयिकादिपन पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, उनसे भिन्न अचरम हैं। मिश्रदृष्टि की बक्तव्यता में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों कभी मिश्रदष्टि नहीं होते / सिद्धान्तानुसार एकेन्द्रिय कदापि सम्यक्त्वी-यहाँ तक कि सास्वादन सम्यक्त्वी भी नहीं होते। इसलिए सम्यग्दृष्टि की वक्तव्यता में एकेन्द्रिय का कथन नहीं करना चाहिए / इसी प्रकार जिसमें जो पर्याय सम्भव न हो, उसमें उसका कथन नहीं करना चाहिए / यथा-संज्ञीपद में एकेन्द्रिय का और असंज्ञीपद में ज्योतिष्क आदि का कथन करना संगत संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञो-नोअसंज्ञी में चरमाचरमस्व--संशी समुच्चयजीव 16 दण्डकों में, असंज्ञी समुच्च व 22 दण्डकों में एक जीव की अपेक्षा कदाचित चरम कदाचित अचरम हैं। बहुजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी / नोसंज्ञो-नोअसंज्ञी समुच्चयजीव और सिद्ध एक जीवापेक्षया अथवा बहुजीवापेक्षया अचरम हैं। मनुष्य (केवली की अपेक्षा से) एकवचन-बहुवचन से चरम हैं, अचरम नहीं। __ लेश्या की अपेक्षा से चरमाचरमत्व-कथन-सलेश्यी समुच्चय जीव 24 दण्डक, कृष्ण-नीलकापोतलेश्यी समुच्चयजीव 22 दण्डक, तेजोलेश्यी समुच्चयजीव 18 दण्डक, पद्मलेश्यी शुक्ललेश्यी समुच्चयजीव 3 दण्डक, एकजीवापेक्षया कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं / बहुजीवापेक्षया चरम भी हैं, अचरम भी हैं। अलेश्यी, समुच्चयजीव और सिद्ध, एकजीवापेक्षया-बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं / अलेश्यो मनुष्य, एकजीव-बहुजीवापेक्षया चरम हैं, अचरम नहीं / संयतादि में चरमाचरमत्वकथन-संयत समुच्चयजीव और मनुष्य ये दोनों चरम और अचरम दोनों होते हैं। जिसको पुनः संयम (संयतत्व) प्राप्त नहीं होता, वह चरम है, उससे भिन्न अचरम है / समुच्चयजीवों में भी मनुष्य को संयम प्राप्त होता है, अन्य किसी जीव को नहीं / असंयती समुच्चयजीव (24 दण्डकों में) संयतत्व की अपेक्षा से एक जीव की दृष्टि से कदाचित् चरम, कदाचित् अचरम होता है। बहुजीवों की दृष्टि से चरम भी हैं, अचरम भी / संयतासंयतत्व (देशविरतिपन), जीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, इन तीनों में ही होता है। इसलिए संयतासंयत का कथन भी इसी प्रकार है / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत (सिद्ध) अचरम होते हैं, क्योंकि सिद्धत्व नित्य होता है, इसलिए वह चरम नहीं होता / कषाय को अपेक्षा से चरमाचरमस्व-सकषायी भेदसहित जीवादि स्थानों में कदाचित् चरम होते हैं, कदाचित् अचरम 1 जो जीव मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे चरम हैं शेष अचरम हैं। नैरयिकादि जो नारकादियुक्त सकषायित्व को पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम हैं, शेष अचरम हैं। अकषायी (उपशान्तमोहादि) तीन होते हैं समुच्चयजीव, मनुष्य और सिद्ध / अकषायो जीव और सिद्ध, एकजीव-बहुजीवापेक्षया अचरम हैं, चरम नहीं; क्योंकि जीव का अक्षायित्व से प्रतिपतित होने पर भी मोक्ष अवश्यम्भावी है, सिद्ध Page #1933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कभी प्रतिपातित नहीं होता / अकषायिभाव से युक्त मनुष्यत्व को जो मनुष्य पुनः प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो प्राप्त करेगा, वह अचरम है। ज्ञानद्वार में चरमाचरमत्व-कथन--ज्ञानी, जीव और सिद्ध सम्यग्दृष्टि के समान अचरम हैं, क्योंकि जीव ज्ञानावस्था से गिर भी जाए तो भी वह उसे पुनः अवश्य प्राप्त कर लेता है, अतः अचरम है। सिद्ध सदा ज्ञानावस्था में ही रहते हैं, इसलिए अचरम हैं। शेष जिन जीवों को ज्ञानयुक्त नारकत्वादि की पुनः प्राप्ति नहीं होगी, वे चरम हैं शेष अचरम हैं। सर्वत्र से यहाँ तात्पर्य है, जिन जीवों में 'सम्यग्ज्ञान' सम्भव है, उन सब में अर्थात्-एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष जीवादि पदों में। जो जीव प्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान को केवलज्ञान हो जाने के कारण पुनः प्राप्त नहीं करेंगे, वे चरम है, शेष अचरम हैं। केवल ज्ञानी अचरम होते हैं। अज्ञानी, मतिअज्ञानी आदि कदाचित् चरम और कदाचित अचरम हैं, क्योंकि जो जीव पुन: अज्ञान को प्राप्त नहीं करेगा, वह चरम है, जो अभव्यजीव ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अचरम है। आहारक का अतिदेश–जहाँ-जहाँ आहारक का अतिदेश किया गया है, वहाँ-वहाँ 'कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं', यों कहना चाहिए।' चरम-अचरम-लक्षण-निरूपण 103. इमा लक्खणगाहा--- जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेण प्रचरिमो होह / अच्चंतवियोगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो // 1 // सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 जाव विहरति / अट्ठारसमे सए : पढमो उद्देसमो समत्तो // 18-1 / / [103] यह लक्षण-गाथा (चरम-अचरमस्वरूप प्रतिपादक) है [गाथार्थ-जो जीव, जिस भाव को पुनः प्राप्त करेगा, वह जीव उस भाव की अपेक्षा से 'अचरम' होता है; और जिस जीव का जिस भाव के साथ सर्वथा वियोग हो जाता है; वह जीव उस भाव की अपेक्षा 'चरम' होता है / / 1 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--सू. 103 में चरम और अचरम के लक्षण को स्पष्ट करने वाली गाथा प्रस्तुत की गई है / गाथा का भावार्थ स्पष्ट है। // अठारहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 736-737 Page #1934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्दसओ : 'विसाह' द्वितीय उद्देशक : 'विशाख' विशाखा नगरी में भगवान् का समवसरण 1. तेणं कालेणं तेणं समयेणं विसाहा नाम नगरी होत्था। वनभो। बहुपुत्तिए चेतिए / वण्णओ / सामी समोसढे जाव पज्जुवासति / [1] उस काल एवं उस समय में विशाखा नाम की नगरी थी। उसका वर्णन प्रौपपातिकसूत्र के नगरीवर्णन के समान जानना चाहिए / वहाँ बहुपुत्रिक नामक चैत्य ( उद्यान ) था / उसका वर्णन भी प्रौपपातिक सूत्र से जान लेना चाहिए। एक बार वहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। विवेचन-विशाखा नगरी : विशाखा नगरी आज कहाँ है ? यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता / अाज अान्ध्रप्रदेश में समुद्रतट पर विशाखापट्टनम्' नगर बसा हुआ है / दूसरा 'घसाढ' है, जो उत्तर विहार में मुजफ्फरपुर के निकट है। विशाखानगरी में भगवन् का पदार्पण हुआ था / वहीं इस उद्देशक में वर्णित शक्रेन्द्र के पूर्वभव के सम्बन्ध में संवाद हुआ था। शकेन्द्र का भगवान के सानिध्य में प्रागमन और नाट्य प्रदर्शित करके पुनः प्रतिगमन 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे एवं जहा सोलसमसए बितिए उद्देसए (स० 16 उ० 2 सु० 8) तहेव दिध्वेण जाणविमाणेण आगतो; नवरं एत्थ आभियोगा वि अस्थि, जाव बत्तीसतिविहं नविहिं उवदंसेति, उप० 2 जाव पडिगते। [2] उस काल और उस समय में देवेन्द्र देवराज शक्र, वज्रपाणि, पुरन्दर इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक (सू. 8) में शकेन्द्र का जैसा वर्णन है, उस प्रकार से यावत् वह दिव्य यानविमान में बैठ कर वहाँ पाया / विशेष बात यह थी, यहाँ आभियोगिक देव भी साथ थे; यावत् शकेन्द्र ने बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि प्रदर्शित की। तत्पश्चात् वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया / विवेचन-सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक का अतिदेश-सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक स. 8 में शकेन्द्र का वर्णन है। वहाँ शकेन्द्र जिस तैयारी के साथ, दलबल सहित सजधज कर श्रमण भगवान महावीर के समीप आया था, उसी प्रकार से वह यहाँ (विशाखा में भगवान् के समीप) आया / अन्तर इतना ही है कि वहाँ वह 'पाभियोगिक देवों को साथ लेकर नहीं पाया था, यहाँ याभियोगिक देव भी उसके साथ आए थे। Page #1935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यान-विमान-वैमानिक देवों के विमान दो प्रकार के होते हैं, एक तो उनके सपरिवार आवास करने का होता है, दूसरा सवारो के काम में आने वाला विमान होता है। यहाँ दूसरे प्रकार के विमान का उल्लेख है / नाट्य विधि-नाट्यकला के बत्तीस प्रकारों का विधि-विधानपूर्वक प्रदर्शन / गौतम द्वारा शकेन्द्र के पूर्वभव से सम्बन्धित प्रश्न, भगवान द्वारा कार्तिक श्रेष्ठो के रूप में परिचयात्मक उत्तर 3. [1] 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं वदासी-जहा ततियसते ईसाणस्स (स० 3 उ० 1 सु० 34-35) तहेव कूडागारदिट्टतो, तहेव पुत्वभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागया? गोयमा' ई समणे भगवं महाबोरे भगवं गोतम एवं वदासी-"एवं खलु गोयमा !" "तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे नाम नगरे होत्था / वण्णओ। सहस्संबवणे उज्जाणे / वण्णओ।" / "तत्थ णं हत्यिणापुरे नगरे कत्तिए नामं सेट्ठो परिक्सइ अड्ढे जाव अपरिभूए णेगमपढमासहिए, णेगमट्ठसहस्सस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कोडुबेसु य एवं जहा रायपसेणइज्जे' चित्ते जाय चक्नुभूते, णेगमट्ठसहस्सस्स सयस य कुटुंबस्स प्राहेवच्चं जाव करेमाणे पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरति / [3 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार (सम्बोधित कर) भगवान् गौतम ने, श्रमण भगवान् महावीर से पूछा--जिस प्रकार तृतीय शतक (के प्रथम उद्देशक के सू. 34-35) में ईशानेन्द्र के वर्णन में कूटागारशाला के दृष्टान्त के विषय में तथा (उसके) पूर्वभव के सम्बन्ध में प्रश्न किया है, उसी प्रकार यहाँ भी; यावत् 'यह ऋद्धि कैसे सम्प्राप्त हुई है',-तक (प्रश्न का उल्लेख करना चाहिए / ) [3 उ.] 'गौतम!' इस प्रकार सम्बोधन कर श्रमण भगवान महावीर ने, भगवान् गौतमस्वामी से इस प्रकार कहा हे गौतम ! ऐसा है कि उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामक नगर था / उसका वर्णन (कहना चाहिए)। वहाँ सहवाम्रवन नामक उद्यान था। उसका वर्णन (करना चाहिए / ) / उस हस्तिनापुर नगर में कार्तिक नाम का एक श्रेष्ठो (सेठ) रहता था। जो धनाढ्य यावत् किसी से पराभव न पाने (नहीं दबने) वाला था। उसे वणिकों में अग्रस्थान प्राप्त था / वह उन एक हजार पाठ व्यापारियों (नगमों - वणिकों) के बहुत-से कार्यों में, कारणों में और कौटुम्बिक व्यवहारों में पूछने योग्य था, जिस प्रकार राजप्रसेनीय सूत्र में चित्त सारथि का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी, यावत् चक्षुभूत था, यहाँ तक जानना चाहिए। वह कार्तिक श्रेष्ठी, एक हजार आठ व्यापारियों का प्राधिपत्य करता हुआ, यावत् पालन करता हुआ रहता था। वह जोव-अजोव आदि तत्त्वों का ज्ञाता यावत् श्रमणोपासक था। 1. देखिए रायपसेण इय-सुत्तं (गुर्जरप्रन्थ०) कण्डिका 145, पृ. 277-278 Page #1936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [671 विवेचन-कार्तिक सेठ का सामान्य परिचय-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् ने कार्तिक सेठ का सामान्य परिचय देते हुए कहा कि वह हस्तिनापुरनिवासी था, वह प्राढ्य, दीप्त, वित्त (विज्ञात या विख्यात) यावत् अपराभूत यानी किसी से दबने वाला नहीं था। वह नगर के 1008 व्यापारियों में अग्रगण्य था, मेढी (केन्द्रीय स्तम्भ), प्रमाण, आधार और पालम्बन यावत् चक्षुरूप (नेता) था। 'कन्जेसु' इत्यादि शब्दों का भावार्थ-कज्जेसु-गृहनिर्माण तथा स्वजनसम्मान आदि कार्यों में, कारणेसु-अभीष्ट बातों के कारणों में, कृषि, पशुपालन, वाणिज्यादि अभीष्ट वस्तुओं के विषय में / कोड बेसु-कौटुम्बिक मनुष्यों के विषय में / राजप्रश्नीय पाठ का स्पष्टीकरण मंतेसु--मंत्रणाएँ करने या विचार विमर्श करने में / गुज्झसुलज्जायोग्य गुप्त या गोपनीय बातों के विषय में। रहस्सेसु-सामाजिक या कौटुम्बिक रहस्यमय या एकान्त के योग्य बातों में / ववहारेसु-पारस्परिक व्यवहारों में, लेनदेन में। निच्छएसु-निश्चयों में कई बातों का निर्णय करने में। आपुच्छणिज्जे- एक बार पूछने योग्य / पडिपुच्छणिज्जे-बारबार पूछने योग्य / मेढी : प्राशय-जिस प्रकार भूसे में से धान निकालने के लिए खलिहान के बीच में एक स्तम्भ गाड़ा जाता है, जिसको केन्द्र में रख कर उसके चारों ओर धान्य को गाहने के लिए बैल चक्कर लगाते हैं। इसी प्रकार जिसको केन्द्र में रख कर सभी कुटुम्बीजन और व्यापारीगण, विवेचना करते थे, विचारविमर्श करते थे। पमाण-प्रत्यक्षादि प्रमाणवत् उसकी बात अविरुद्ध (प्रमाणित) होती थी। इसलिए उसको प्रमाणभूत मान कर उचित कार्य में प्रवृत्ति या अनुचित से निवृत्ति की जाती थी। प्राहारे : माधार-जैसे आधार, आधेय का उपकारक होता है, वैसे ही वह आधार लेने वाले लोगों के सर्व कार्यों में उपकारी होता था। आलंबणं-आलम्बन : सहारा,-जैसे रस्सी आदि गिरते हुए के लिए पालम्बन (सहारा) होती है, वैसे ही वह विपत्ति में या पतन के गड्ढे में पड़ते हुए या पड़े हुए के लिए आलम्बन था। चक्ख : चक्षु-नेत्रवत् पथ-प्रदर्शक / जैसे नेत्र विविध कार्यों को या मार्ग को दिखाते हैं, वैसे ही वह प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप विविध कार्यों में पथ-प्रदर्शक था। चक्खुभूए इत्यादि : अभिप्राय---मेढ़ी प्रादि पदों के आगे लगाया हुआ 'भूत' शब्द उपमार्थक है। यानी मेढ़ी के तुल्य यावत् चक्षु के समान / ' गमसहस्सस्स-एक हजार पाठ नैगमों अर्थात् वणिकों का / मुनिसुव्रतस्वामी से धर्मकथा-श्रवण और प्रवज्या ग्रहण की इच्छा 3. [2] तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुन्वये अरहा प्रादिगरे जहा सोलसमसए (स० 16 उ०५ सु० 16) तहेव जाव समोसवे जाव परिसा पज्जुवासति / 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 731 * Page #1937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र "तए णं से कत्तिए सेट्ठी इमोसे कहाए लखट्टे समाणे हटतुटु० एवं जहा एक्कारसमसते सुदंसणे (स० 11 उ० 11 सु० 4) तहेव निम्मो जाव पज्जुवासति / " "तए णं मुणिसुव्वए परहा कत्तियस्स सेहिस्स धम्मकहा जाय परिसा पडिगता।" "तए णं से कत्तिए सेट्ठी मुणिसुव्वय० जाव निसम्म हट्टतुट्ठ० उठाए उठेति, उ० 2 मुणिसुन्वयं जाव एवं वदासी-'एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्भे बदह / जं नवरं देवाणुपिया! नेगमट्ठसहस्सं पापुच्छामि, जेहपुत्तं च कुडुचे ठानि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पश्चयामि' / 'अहासुहं जाव मा पडिबंध' / " [3-2] उस काल उस समय धर्म की आदि करने वाले ग्रहत् श्री मुनिसुक्त तीर्थकर वहाँ (हस्तिनापुर में) पधारे; यावत् समवसरण लगा। इसका समग्न वर्णन जैसे सोलहवें शतक (के पंचम उद्देशक सु. 16) में है। उसी प्रकार (यहाँ समझना; ) यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उसके पश्चात् वह कार्तिक श्रेष्ठो भगवान् के पदार्पण का वृत्तान्त सुन कर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ; इत्यादि / जिस प्रकार ग्यारहवें शतक (उ. 11 के सू. 4) में सुदर्शन-श्रेष्ठो का बन्दनार्थनिर्गमन का वर्णन है, उसी प्रकार वह भी वन्दन के लिए निकला, यावत् पर्युपासना करने लगा। तदनन्तर तीर्थंकर मुनिसुव्रत अर्हत् ने कार्तिक सेठ (तथा उस विशाल परिषद्) को धर्मकथा कही; यावत् परिषद् लौट गई / कार्तिक सेठ, भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुन कर यावत् अवधारण करके अत्यन्त हृष्ट-तुष्ट हुआ, फिर उसने खड़े होकर यावत् सविनय इस प्रकार कहा–'भगवन् ! जैसा आपने कहा, वैसा ही यावत् है / हे देवानुप्रिय प्रभो ! विशेष यह कहना है, मैं एक हजार पाठ व्यापारी मित्रों से पृछंगा और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौपूंगा और तब मैं आप देवानुप्रिय के पास प्रजित होऊँगा / (भगवान्-) देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसा करो, किन्तु (इस कार्य में) विलम्ब मत करो। विवेचन-कातिक श्रेष्ठी द्वारा धर्मकथाश्रवण और प्रवज्याग्रहण को इच्छा प्रस्तुत परिच्छेद में कार्तिक सेठ द्वारा मुनिसुव्रत तीर्थकर से धर्मश्रवण का अतिदेशपूर्वक वर्णन है / उसके मन में भगवान के निकट दीक्षा ग्रहण करने का विचार हुआ, उसका निरूपण है। ___ व्यापारियों से पूछने का आशय --दीक्षा ग्रहण से पूर्व कार्तिक सेठ अपना कौटुम्बिक भार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौंपे और कौटुम्बिक जनों से अनुमति ले, यह तो उचित था, किन्तु अपने एक हजार आठ व्यापारिक मित्रों से पूछे, इसके पीछे प्राशय यह है कि वह इन सभी का अत्यन्त विश्वस्त, प्रामाणिक प्रोर अाधारभूत व्यक्ति था, चुपचाप दीक्षा ले लेने से सबको प्राघात और विश्वासघात लगता, इसलिए उनसे पूछना सेठ ने आवश्यक समझा। Page #1938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 2] एक हजार आठ व्यापारी-मित्रों से परामर्श, तथा उनको भी प्रव्रज्या ग्रहण की तैयारी 3. [3] "तए णं से कत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्खमइ, प०२ जेणेव हत्यिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गमट्ठसहस्सं सहावेइ, स० 2 एवं वयासी—'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए मुणिसुब्बयस्स अरहो अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुयिते / तए णं अहं देवाणुप्पिया ! संसारभयुधिग्गे जाव पव्वयामि / तं तुभे गं देवाणुप्पिया! किं करेह ? कि ववसह ? के भे हिदइच्छिए ? के भे सामत्थे ?" "तए णं तं गमट्टसहस्सं तं कत्तियं सेप्ठि एवं वदासी-'जदि णं देवाणुप्पिया संसारभयुधिग्गा जाव पन्वइस्संति अम्हं देवाणुप्पिया ! कि भन्ने प्रालंबणे वा आहारे वा पडिबंधे का? अम्हे विणं देवाणुप्पिया! संसारभउविग्गा भीता जम्मण-मरणाणं देवाणुप्पिएहि सद्धि मुणिसुब्वयस्स प्ररहयो अंतियं मुडा भवित्ता अगाराओ जाय पव्वयामो' / " "तए णं से कत्तिए सेट्ठी तं नेगमठ्ठसहस्सं एवं वयासी-जदि पं देवाणुप्पिया ! संसारभयुधिग्गा भोया जम्मण-मरणाणं मए सद्धि मुणिसुब्वयस्स जाव पव्वयह, तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सएसु गिहेसु०' जेट्टपुत्ते कुडौंबे ठावेह, जेठ ठा० 22 पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ दुरुहह, पुरिस० दुरु० 23 अकालपरिहोणं चेव मम अंतियं पादुभवह'।" ___ "तए णं तं नेगमट्ठसहस्सं पि कत्तियस्स सेट्ठिस्स एतमट्ट विणएणं पडिसुणेति, प० 2 जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 विपुलं असण जाव उववडावेति, उ० 2 मित्तनाति० जाव तस्सेव मित्तनाति० जाव पुरतो जेट्टपुत्ते कुडुबे ठावेति, जे० ठा० 2 तं मित्तनाति जाव जेट्टपुत्ते य आपुच्छति, आ० 2 पुरिससहस्सवाहिणीओ सोयाओ दुरूहति, पु० दुरू० 2 मित्तणाति० जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा (? गे) सव्विड्डोए जाव रवेणं प्रकालपरिहोणं चेक कत्तियस्स सेद्विस्स अंतियं पाउन्भवति / [3-3] तदनन्तर वह कार्तिक श्रेष्ठी यावत् (उस धर्म-परिषद् से) निकला और वहाँ से हस्तिनापुर नगर में जहाँ अपना घर था वहाँ पाया। फिर उसने उन एक हजार पाठ व्यापारी मित्रों को बुला कर इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! बात ऐसी है कि मैंने अर्हन्त भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी से धर्म सुना। वह धर्म मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा / हे देवानुप्रियो ! उस धर्म को सुनने के पश्चात् मैं संसार (जन्ममरणरूप चातुर्गतिक संसार) के भय से उद्विग्न हो गया हूँ और यावत् मैं तीर्थंकर के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। तो हे देवानुप्रियो ! तुम सब क्या करोगे ? क्या यहाँ कछ प्रतियों में अधिक पाठ मिलता है.... 1. विपुलं असणं उक्खडावेह, मित्तनाइ० जाय पुरओ ..... / ' 2. ... .."मित्तताइ जाव जेट्टपुत्त आपुच्छह आपु० 2..." / ' 3. ....."मित्तलाइ जाव परिजण जेट्रपुत्त हि य समागम्ममाणमग्गा सविडोए जाव रवेणं"।' Page #1939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रवृत्ति करने का विचार है ? तुम्हारे हृदय में क्या इष्ट है ? और तुम्हारी क्या करने की क्षमता (शक्ति) है ?' यह सुन कर उन एक हजार आठ व्यापारी मित्रों ने कार्तिक सेठ से इस प्रकार कहायदि आप संसारभय से उद्विग्न (विरक्त) होकर गृहत्याग कर यावत् प्रवजित होंगे, तो फिर, देवानुप्रिय ! हमारे लिए (आपके सिवाय) दूसरा कौन-सा पालम्बन है ? या कौन-सा आधार है ? अथवा (यहाँ) कौन-सी प्रतिबद्धता रह जाती है ? अतएव, हे देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं, तथा जन्ममरण के चक्र से भयभीत हो चुके हैं। हम भी प्राप देवानुप्रिय के साथ अगारवास का त्याग कर अर्हन्त मुनिसुव्रत स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार-दीक्षा ग्रहण करेंगे। व्यापारी-मित्रों का अभिमत जान कर कार्तिक श्रेष्ठी ने उन 1008 व्यापारी-मित्रों से इस प्रकार कहा–यदि तुम सब देवानुप्रिय संसारभय से उद्विग्न और जन्ममरण से भयभीत होकर मेरे साथ भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समीप प्रवजित होना चाहते हो तो अपने-अपने घर जाओ, प्रचुर प्रशनादि चतुर्विध पाहार तैयार करायो, फिर अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन आदि को बुलानो, यावत् उनके समक्ष अपने) ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप दो। [फिर उन मित्र-ज्ञातिजन यावत् ज्येष्ठपुत्र को इस विषय में पूछ लो] तब एक हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका में बैठ कर [और मार्ग में मित्रादि एवं ज्येष्ठपुत्र द्वारा अनुगमन किये जाते हुए, समस्त ऋद्धि से युक्त यावत् वाद्यों के घोषपूर्वक कालक्षेप (विलम्ब) किये बिना मेरे पास प्रायो।' तदनन्तर कार्तिक सेठ का यह कथन उन एक हजार आठ व्यापारी-मित्रों ने विनयपूर्वक स्वीकार किया और अपने-अपने घर आए। फिर उन्होंने विपुल अशनादि तैयार कराया और अपने मित्र-शातिजन आदि को आमन्त्रित किया। यावत् उन मित्र-ज्ञातिजनादि के समक्ष अपने ज्येष्ठपुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपा। फिर उन मित्र-ज्ञाति-स्वजन यावत् ज्येष्ठपुत्र से (दीक्षाग्रहण करने के विषय में) अनुमति प्राप्त की। फिर हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य (पुरुष-सहस्रवाहिनी) शिविका में बैठे / मार्ग में मित्र ज्ञाति, यावत् परिजनादि एवं ज्येष्ठपुत्र के द्वारा अनुगमन किये जाते हुए यावत् सर्वऋद्धि-सहित, यावत् वाद्यों के निनादपूर्वक अविलम्ब कार्तिक सेठ के समीप उपस्थित हुए। विवेचन प्रस्तुत परिच्छेद (सू. 3-3) में कार्तिक सेठ द्वारा व्यापारी मित्रों से परामर्श, उनकी भी दीक्षा ग्रहण करने की मनःस्थिति एवं तत्परता जान कर उन्हें उसकी तैयारी करने के निर्देश तथा व्यापारीगण द्वारा उस प्रकार की तैयारी के साथ उपस्थित होने का वर्णन है / कठिन शब्दार्थ-उवक्खडावेह- तैयार कराओ। कुडुबे ठावेह-कुटुम्ब के उत्तरदायी के रूप में स्थापित करो- कुटुम्ब का भार सौंपो / रवेणं-वाद्यों के घोषपूर्वक / अकाल-परिहीणं--अधिक समय नष्ट न करके अर्थात् विलम्ब किये बिना पाउब्भवह प्रकट होप्रो-उपस्थित होनो।' एक हजार आठ व्यापारियों सहित दीक्षाग्रहण तथा संयमसाधना [3-4] "तए णं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असण 4 जहा गंगदत्तो (स० 16 उ० 5 सु० 16) जाब मित्तनाति जाव परिजणेणं जेट्टपुत्तेणं णेगमद्वसहस्सेण य समणगम्ममाणमग्गे सन्धिड्डीए जाव 1. भगवती. सूत्र भाग 6 (पं. घेरवचन्द जी सम्पादित) पृ. 2670 Page #1940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 2] 675 रवेणं हस्थिणापुर नगरं मज्झमझेणं जहा गंगदत्तो (स० 16 उ० 5 सु० 16) जाव प्रालित्ते णं भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, जाव प्राणुगामियत्ताए भविस्स ति, तं इच्छामि गं भंते ! गमसहस्सेणं सद्धि सयमेव पन्चावियं जाव धम्ममाइक्खितं / . "तए णं मुणिसुन्वए अरहा कत्तियं सेट्टि गमट्ठसहस्सेणं सद्धि सयमेव पवावेइ जाव धम्ममाइक्खइ--एवं देवाणुपिया! गंतव्वं, एवं चिट्टियन्वं जाव संजमियव्वं / "तए णं से कत्तिए सेट्टी नेगमटुसहस्सेणं सद्धि मणिसुव्वयस्स अरहो इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्म संपडिवज्जति तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमति / / "तए णं से कत्तिए सेट्ठी णेगमट्ठसहस्सेणं सद्धि प्रणगारे जाए इरियासमिए जाव गुत्तबंभचारी / 3-4] तदनन्तर कार्तिक श्रेष्ठी ने (शतक 16 उ. 5 सू. 16 में उल्लिखित) गंगदत्त के समान विपुल अशनादि आहार तैयार करवाया, यावत् मित्र ज्ञाति यावत् परिवार, ज्येष्ठपुत्र एवं एक हजार आठ व्यापारीगण के साथ उनके आगे-आगे समग्र ऋद्धिसहित यावत् वाद्य-निनाद-पूर्वक हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुमा, (शतक 16 उ. 5 सू.१६ में वर्णित) गंगदत्त के समान गृहत्याग करके वह भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास पहुँचा यावत् इस प्रकार बोला-भगवन् ! यह लोक चारों ओर से जल रहा है, भन्ते ! यह संसार अतीव प्रज्वलित हो रहा है; (इसमें धर्म ही एकमात्र इहलोक परलोक के लिए हितकर, श्रेयस्कर, मोक्ष ले जाने में समर्थ, एवं) यावत् परलोक में अनुगामी होगा। अतः मैं (ऐसे प्रज्वलित संसार का त्याग कर) एक हजार पाठ वणिकों सहित आप स्वयं के द्वारा प्रवजित होना और यावत् पाप से धर्म का उपदेश-निर्देश प्राप्त करना चाहता हूँ। इस पर श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर ने एक हजार पाठ वणिक-मित्रों सहित कार्तिक श्रेष्ठी को स्वयं प्रव्रज्या प्रदान की और यावत् धर्म का उपदेश-निर्देश किया कि-देवानुप्रियो ! अब तुम्हें इस प्रकार चलना चाहिए, इस प्रकार खड़े रहना चाहिए आदि, यावत् इस प्रकार संयम का पालन करना चाहिए। एक हजार आठ व्यापारी मित्रों सहित कार्तिक सेठ ने भगवान् मुनिसुव्रत अर्हन्त के इस धार्मिक उपदेश को सम्यक् रूप से स्वीकार किया तथा उन (भगवान्) को प्राज्ञा के अनुसार सम्यक् रूप से चलने लगा, यावत् संयम का पालन करने लगा। - इस प्रकार एक हजार पाठ वणिकों के साथ वह कार्तिक सेठ अनगार बना, तथा ईर्यासमिति प्रादि समितियों से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बना। विवेचन--प्रस्तुत परिच्छेद [3-4] में कार्तिक सेठ द्वारा व्यापारीगण सहित अभिनिष्क्रमण, हस्तिनापुर के बाहर जहाँ भगवान् मुनि = सुव्रत स्वामी विराजमान थे, वहाँ पहुँचने और अपनी संसार से विरक्ति के उद्गारपूर्वक भगवान् से दीक्षा देने तथा मुनि धर्म का निर्देश करने की प्रार्थना, भगवान् द्वारा दिये गए मुनिधर्म में यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने के निर्देश तथा तदनुसार धर्मोपदेश का सम्यक स्वीकार एवं अनगार धर्म की सम्यक् रूप से साधना का वर्णन है। Page #1941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676] (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कार्तिक अनगार द्वारा अध्ययन, तप, संलेखनापूर्वक समाधिमरण एवं सौधर्मेन्द्र के रूप में उत्पत्ति [3-5] "तए णं से कत्तिए अणगारे मुणिसुव्ययस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाइयाइं चोद्दस पुवाई अहिज्जइ, सा० अ० 2 बहूहि चउत्थछट्टद्धम० जाव अप्पाणं मावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणति, ब० पा० 2 भासियाए संलेहणाए अत्ताणं सोसेइ, मा० झो० 2 सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेति, स० छे० 2 आलोइय जाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मव.सए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि जाव सक्के देविदत्ताए उववन्न / "तए गं से सक्के देविदे देवराया अहुणोक्वन"। सेसं जहा गंगदत्तस्स (स० 16 उ० 5 सु. 16) जाव अंतं काहिति, नवरं ठिती दो सागरोवमाई सेसं तं चेव / / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / // अद्वारसमे सए : बीमो उद्देसो समत्तो // 18-2 / / इसके पश्चात् उस कार्तिक अनगार ने तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो तक का अध्ययन किया। साथ ही बहुत से चतुर्थ (उपवास), छ? (बेले), अट्ठम (तेले) आदि तपश्चरण से आत्मा को भावित करते हुए पूरे बारह वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया / अन्त में, उसने एक मास की संल्लेखना द्वारा अपने शरीर को झूषित (कृश) किया, अनशन से साठ भक्त का छेदन किया और बालोचना-प्रतिक्रमण आदि करके प्रात्मशुद्धि की। यावत् काल के समय कालधर्म को प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प देवलोक में, सौधर्मावतंसक विमान में रही हुई उपपात सभा में देवशय्या में यावत् शक्र देवेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। इसी से कहा गया था-'शक देवेन्द्र देवराज अभी-अभी उत्पन्न हुआ है।' शेष वर्णन शतक 16 उ. 5 सू. 16 में प्रतिपादित गंगदत्त के वर्णन के समान यावत-- 'वह सभी दुःखों का अन्त करेगा,' (यहाँ तक जानना चाहिए।) विशेष यह है कि उसकी स्थिति दो सागरोपम की है / शेष सब वर्णन गंगदत्त के (वर्णन के) समान है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्रीगौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-इस परिच्छेद (3.5) में कार्तिक अनगार के अध्ययन, तपश्चरण, तथा श्रामण्यपर्याय के पालन की अवधि एवं अन्त में, एकमासिक संल्लेखना द्वारा अपनी आत्मशुद्धिपूर्वक समाधिमरण का और आगामी (इस) भव में देवेन्द्र शक देवराज के रूप में उत्पन्न होने का तथा उसकी स्थिति का संक्षेप में वर्णन है Page #1942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 2] [ 677 गंगदत्त और कार्तिक श्रेष्ठी-हस्तिनापुर में कार्तिक सेठ तो बाद में श्रेष्ठी हुए, उनसे बहुत पहले से गंगदत्त श्रेष्ठी बने हुए थे। इन दोनों में प्रायः ईयाभाव रहता था। दोनों ने तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। किन्तु श्रमणत्व की साधना में तारतम्य होने से गंगदत्त का जीव सातवें महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुआ, जबकि कार्तिक सेठ का जीव शकेन्द्र बना / ' ___ कठिन शब्दार्थ--उववायसभाए-उपपात सभा (देवों के उत्पन्न होने के सभागार) में / देवसयणिज्जसि-देवशय्या में (जहाँ देव उत्पन्न होते हैं)। पाउणइ—पालन करता है। पहुणोववन्ने तत्काल उत्पन्न हुआ है। // अठारहवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवतीसूत्र भा. 6, (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2674 2. वही, पृ. 2673 Page #1943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : मायदिए तृतीय उद्देशक : माकन्दिक माकन्दोपुत्र द्वारा पूछे गए कापोतलेश्यी पृथ्वी.अप्-वनस्पतिकायिकों को मनुष्य भवानन्तर सिद्धगतिसम्बन्धी प्रश्न के भगवान द्वारा उत्तर-माकन्दी पुत्र द्वारा तथ्य प्रकाशन पर संदिग्ध श्रमनिर्गन्थों का भगवान् द्वारा समाधान उनके द्वारा क्षमापना 1. तेणं कालेणं तेणे समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था ! वण्णओ / गुणसिलए चेतिए / वण्णो / जाव परिसा पडिगया। [1] उस काल और उस समय में राजगह नाम का नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। यावत् परिषद् वन्दना करके बापिस लौट गई। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स नाव अंतेवासो मागंदियपुत्ते नाम अणगारे पगतिमद्दए जहा मंडियपुत्ते (स० 3 उ० 3 सु० 1) जाव' पज्जुवासमाणे एवं वयासी-से नूणं भंते ! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहितो पुढविकाइएहितो अणंतरं उब्यट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लमति, मा० ल० 2 केवलं बोहि बुज्झइ, केव० बु० 2 तो पच्छा सिज्मति जाव' अंतं करेति ? हता, मागंदियपुत्ता! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंत करेति / / (2 प्र.] उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी यावत् प्रकृतिभद्र माकन्दिकपुत्र नामक अनगार ने, (शतक 3, उद्देशक 3 सू. 1 में वणित) मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत् पर्युपासना करते हुए (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा--- 'भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कापोतलेश्यी पृथ्वी कायिकजीवों में से मरकर अन्तररहित (सीधा) मनुष्य शरीर प्राप्त करता है ? फिर (उस मनुष्यभव में ही) केवलज्ञान उपाजित करता है ? तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है ?' [2 उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। 1. 'जाब' पद सूचित पाठ-'पगइ-उवसंते, पगइपयणकोह-माण-माया-लोभे इत्यादि / 2. जाव पद-सूचक पाठ-"बुज्झति, मच्चति सव्वदुक्खाणं...... Page #1944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [679 3. से नणं भंते ! काउलेस्से आउकाइए, काउलेस्सेहितो प्राउकाइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभति, माणुस्सं विग्गहं लभित्ता केवलं बोहि बुज्झति जाय अंतं करेति ? हंता, मागंदियपुत्ता ! जाव अंतं करेति / [3 प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्यी अप्कायिकजीव कापोतलेश्यी अप्कायिकजीवों में से मर कर अन्त र रहित मनुष्यशरीर प्राप्त करता है ? फिर केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? [4 उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह यावत् सब दुःखों का अन्त करता है / 4. से नणं भंते ! काउलेस्से बणस्सइकाइए.? एवं चेव जाव अंतं करेति / [4 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिकजीव के सम्बन्ध में भी वही प्रश्न है ? [4 उ.] हाँ, माकन्दिकपुत्र ! वह भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। 5. 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति मागंदिययुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं जाव नमंसित्ता जेणेव समणे निग्गथे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणे निग्गंथे एवं वदासी–एवं खलु प्रज्जो! काउलेस्से पुढ विकाइए तहेव जाव अंतं करेति / एवं खलु प्रज्जो! काउलेस्से प्राउक्काइए जाव अंतं करेति / एवं खलु प्रज्जो ! काउलेस्से वणस्सतिकाइए जाव अंतं करेति' / [5] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं' यों कह कर माकन्दिकपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर को यावत् वन्दना-नमस्कार करके जहाँ श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहाँ उनके पास आए और उनसे इस प्रकार कहने लगे-पायों ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार, हे पार्यो ! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीब भी यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, और इसी प्रकार कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव भी, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। 6. तए णं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम नो सद्दहति 3, एयमट्ठ असदहमाणा 3 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, ते० उ०२ समण भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० २एवं क्यासी-एवं खल भंते ! मागंदियपुत्ते अणगारे अम्हं एवमाइक्खइ जाव परूवेइ- 'एवं खलु प्रज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एवं वणस्सतिकाइए वि जाव अंतं करेति / से कहमेयं भंते ! एवं' ? 'अज्जो !' ति समणे भगवं महावीरे ते समणे निग्गथे आमंतित्ता एवं वयासी-जं गं अज्जो ! मार्गदियपुत्ते अणगारे तुम्भे एवमाइक्खइ जाव परुवेइएवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए Page #1945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाव अंतं करेति, एवं खलु वणस्सहकातिए वि जाय अंतं करति सच्चे णं एसम?, अहं पिणं अज्जो ! एवमाइक्खामि 4 एवं खलु प्रज्जो ! कण्हलेस्से पुढविकाइए कण्हलेस्सेहितो पुढविकाइएहितो जाव अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! नोललेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्ततिकाइए वि, सच्चे गं एसम?।। [6] तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थों ने माकन्दिकपुत्र अनगार की इस प्रकार की प्ररूपणा, व्याख्या यावत् मान्यता पर श्रद्धा नहीं की, न ही उसे मान्य किया। [प्र.] वे इस मान्यता के प्रति श्रद्धालु बन कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पाए / फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! माकन्दीपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपणा की कि कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, कापोतलेश्यी अप्कायिक और कापोतलेश्यी बनस्पतिकायिक जीव, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है / हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ?' [उ.] आर्यो ! इस प्रकार सम्बोधन करके, श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमण निर्ग्रन्थों से इस प्रकार कहा--'पार्यो ! माकन्दिकपुत्र अनगार ने जो तुमसे कहा है, यावत् प्ररूपणा की है, कि–'आर्यो ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, कापोतलेश्यी प्रकायिक और कापोतलेश्यी वनस्पति. कायिक, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है, यह कथन सत्य है / हे पार्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ। इसी प्रकार कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकजीव, कृष्णलेश्यी पृथ्वीकायिकों में से मर कर, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। इसी प्रकार हे पार्यो ! नीललेश्यी पृथ्वीकायिक भी...' यावत सब दःखों का अन्त करता है, इसी प्रकार कापोतलेश्यी पथ्वीकायिक भी यावत सर्वदःखों का अन्त करता है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक के विषय में कहा है, उसी प्रकार प्रकायिक और वनस्पतिकायिक भी, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करता है / यह कथन सत्य है / 7. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति समणा निगंथा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वं० 2 जेणेव मार्गवियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवा० 2 मागवियपुत्तं अणगारं वदति नभसंति, वं० 2 एयमसम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेंति / [7] हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यों कह कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, और वे जहाँ माकन्दीपुत्र अनगार थे, वहाँ पाए। उन्हें वन्दना-नमस्कार किया। फिर उन्होंने (उनके कथन पर श्रद्धा न करने के कारण) उनसे सम्यक् प्रकार से विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। विवेचन-माकन्दीपुत्र अनगार के प्रश्नों का समाधान-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1 से 4 तक) में माकन्दीपुत्र अनगार द्वारा पूछे गए कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप-वनस्पतिकायिक जीव, अपने-अपने काय से मर कर अन्तररहित मनुष्य शरीर पाकर केवलज्ञानी बन कर सिद्ध हो सकते हैं या नहीं? इन प्रश्नों का स्वीकृतिसुचक समाधान भगवान् द्वारा किया गया है / तत्पश्चात् सू. 5 से 7 तक में माकन्दीपुत्र द्वारा उसी तथ्य का प्ररूपण श्रमणनिर्ग्रन्थों के समक्ष करने, किन्तु उनके द्वारा मान्य Page #1946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [61 न करने और भगवान् महावीर के समक्ष शंका व्यक्त करने पर उसी (पूर्वोक्त) समाधान को सत्य प्रमाणित करने पर श्रमण निन्थों द्वारा माकन्दीपुत्र से क्षमायाचना करने का प्रतिपादन है। फलितार्थ-कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव अपने-अपने काय से निकल कर सीधे मनुष्यभव प्राप्त करके उसी भव में सिद्ध -बुद्ध-मुक्त हो सकता है / तेजस्काय और वायुकाय से निकला हुआ जीव मनुष्यभव प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए यहाँ उनकी अन्तक्रिया सम्बन्धी पृच्छा नहीं की गई है / ' 8. तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उढाए उ8 इ, उ० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासी अणगारस्स णं भते ! भावियप्पणो सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स, सव्वं कम्मं निज्जरेमाणस्स, सव्वं मारं मरमाणस्स, सव्वं सरोरं विष्पजहमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स, चरिमं कम्मं निज्जरेमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स, चरिम सरोरं विष्पजहमाणस्स, मारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्स, मारणंतियं कम्म निज्जरेमाणस्स, मारणंतियं मारं मरमाणस्स, मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निज्जरापोग्गला, सुहमा गं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वं लोग पिगं ते ओगाहित्ताणं चिट्ठति ? हंता, मागंदियपुत्ता! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव प्रोगाहित्ताणं चिट्ठति / [8 प्र.वह माकन्दिकपुत्र अनगार अपने स्थान से उठे और श्रमण भगवान महावीर के पास पाए / उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा - 'भगवन् ! सभी कर्मों को वेदते (भोगते) हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीर को छोड़ते हुए तथा चरम कर्म को बेदते हुए, चरम कर्म की निर्जरा करते हुए, चरम मरण से मरते हुए, चरमशरीर को छोड़ते हुए एवं मारणान्तिक कर्म को वेदते हुए, निर्जरा करते हुए, मारणान्तिक मरण से मरते हुए, मारणान्तिक शरीर को छोड़ते हुए भावितात्मा अनगार के जो चरमनिर्जरा के पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं ? उ.] हाँ, माकन्दिक-पुत्र ! तथाकथित (पूर्वोक्त) भावितात्मा अनगार के यावत् वे चरम निर्जरा के पुद्गल समग्न लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं। विवेचन-भावितात्मा अनगार का अर्थ है—ज्ञानादि से जिसकी आत्मा वासित है / यहाँ केवली से तात्पर्य है / सर्व कर्म-वेदन-निर्जरण, सर्वमार-मरण, सर्वशरीरत्याग का तात्पर्य केवली के सर्व कर्म भवोपनाही चार (वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र) कर्म होते हैं / इन्हीं सर्व कर्मों का वेदन अर्थात् अनुभव करना-भोगना। सभी भवोपनाही कर्मों का निर्जरण अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् होना / सभी आयुष्य के पुद्गलों की अपेक्षा से अन्तिम मरण सर्वमार है। सर्व अर्थात् 1. (क) भगवतीसूत्र, अ. वत्ति, पत्र 740 / (ख) भगवतीसूत्र (पं. घेवरचन्दजी) भाग-६, पृ. 2671 Page #1947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682] :[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औदारिकादि समस्त शरीरों को छोड़ना-सर्वशरीरत्याग है / चरम कर्म-वेदन-निर्जरण, चरममारमरण एवं चरमशरीरत्याग का तात्पर्य-चरमकर्म वेदन एवं निर्जरण का अर्थ है-आयष्य के चरम समय में वेदन करने योग्य कर्म का वेदन एवं चरमकर्मों को आत्मप्रदेश से दूर करता कर्मनिर्जरण है / चरममारगरण का अर्थ है-पायुष्य के पुद्गलों के क्षय की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) मरण से मृत्यु को प्राप्त / चरमशरी रत्याग-चरमावस्था में जो शरीर है, उसे छोड़ना / मारणान्तिक कर्म वेदन एवं निर्जरण-समस्त आयुष्यक्षयरूप मरण के अन्त यानी समीप को मरणान्त कहते हैं, अर्थात्-यायुष्य का चरमसमय / मरणान्त में होने वाला मारणान्तिक, जो भवोपग्राहीत्रयरूप कर्म है, उसका बेदन एवं निर्जरा / मारणान्तिकमार-मृत्यु के अन्तिम क्षणों के प्रायुर्दलिक की अपेक्षा से जो मार अर्थात् मरण हो, वह / मारणान्तिक-शरीरत्याग-प्रायुष्य के अन्तिम समय में जो शरीर हो वह मारणान्तिक शरीर है, उसको छोड़ना मारणान्तिक शरीरत्याग है। चरिमा निज्जरापोग्गला : अर्थ-केवली के सर्वान्तिम जो निर्जीर्ण किये हुए कर्मदलिक हैं, वे चरम निर्जरा-पुद्गल हैं / इन पुद्गलां को भगवान् ने सूक्ष्म कहा है। ये सम्पूर्ण लोक को अभिव्याप्त करके रहते हैं।' [9-1] छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसि निज्जरापोग्गलाणं किंचि आगत्तं वा णाणत्तं वा० ? एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे जाव वेमाणिया जाव तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणंति पासंति प्राहारैति, से तेण?णं निक्खेको माणितन्यो त्ति ण पासंति, आहारैति / -1 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व और नानात्व को जानता-देखता है ? (6-1 उ.] हे माकन्दिकपुत्र ! प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम इन्द्रियोदशक के अनुसार, यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। यावत्-इनमें जो उपयोगयुक्त हैं, वे (उन निर्जरापुद्गलों को) जानते, देखते और आहाररूप में ग्रहण करते हैं, इस कारण से हे माकन्दिकपुत्र ! यह कहा जाता है कि.... यावत् जो उपयोगरहित हैं, वे उन पुद्गलों को जानते देखते नहीं, किन्तु उन्हें बाहरणग्रहण करते हैं, इस प्रकार (यहाँ समग्र) निक्षेप (प्रज्ञापनासूत्र गत वह पाठ) कहना चाहिए / [9-2] गैरइया णं भंते ! णिज्जरापोग्गला ण जाणति, ण पासंति, आहारेंति ? एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं / [6.2 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को नहीं जानते, नहीं देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं ? [9-3 उ.] हाँ, वे उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते नहीं. किन्तु ग्रहण करते हैं, इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक तक जानना चाहिए / 1. भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति. पत्र 741 2. यहां मौलिक सुत्र यहीं तक है। किन्तु वृत्तिकार ने इससे प्रागे का प्रज्ञापनासूत्रीय पाठ मूलवाचना में स्वीकृत किया है। -सं० Page #1948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] 6. [3] मणुस्सा णं भंते ! णिज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति आहारेति, उदाहु ण जाणंति ण पासंति णाहारंति ? गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति 3, अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति, आहारति / [9.3 प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, अथवा वे नहीं जानते-देखते, और नहीं बाहरण करते हैं ? [9-3 उ.] गौतम ! कई मनुष्य उन पुद्गलों को जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं, कई मनुष्य नहीं जानते-देखते, किन्तु उन्हें ग्रहण करते हैं / 9. [4] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चा--'अत्थेगइया जाणंति 3, अत्यगइया न जाणंति, न पासंति, आहारति ? गोयमा ! मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--सण्णीभूया य असणीभूया य / तत्थ णं जे ते असण्णीभूया, ते न जाणंति, न पासंति, आहारैति / तत्थ णं जे ते सण्णीभूया, ते दुविहा प० सं०-- उवउत्ता अणुव उत्ता य / तत्थ णं जे ते अणुवउत्ता, ते न जाणंति, न पासंति, आहारैति / तत्थ णं जे ते उवउत्ता, ते जाणंति 3 / से तेण?णं गोयमा! एवं बुच्चइ--अत्थेगइया ण जाणंति, ण पासंति, आहारेंति, अत्थेगाइया जाणंति 3 / [8-4 प्र.] भगवन् ! आप यह किस कारण से कहते हैं कि कई मनुष्य जानते-देखते और ग्रहण करते हैं, जब कि कई मनुष्य जानते-देखते नहीं, किन्तु ग्रहण करते हैं ? [64 उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा- संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत / उनमें जो असंज्ञीभूत हैं, वे (उन पुद्गलों को) नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। जो संज्ञीभूत मनुष्य हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा--उपयोगयुक्त और उपयोगरहित / उनमें जो उपयोगरहित हैं वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। मगर जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं, और ग्रहण करते हैं। इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कई मनुष्य नहीं जानतेदेखते, किन्तु आहाररूप से ग्रहण करते हैं, तथा कई जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं।' 9. [5] वाणमंतर-जोइसिया जहा गेरइया / [9-5] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्कदेवों का कथन नै रयिकों के समान जानना चाहिए / 9. [6] बेमाणिया णं भंते ! ते णिज्जरा पोग्गले कि जाति 3 ? गोयमा ! जहा मणुस्सा, णवरं वेमाणिया दुविहा प० तं०--माइमिच्छदिदि-उववण्णगा य अमाइसम्मदिट्ठी-उववण्णगा य / तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिद्वि-उववण्णगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, पाहारेति / तत्थ णं जे ते अमाइ-सम्मदिट्ठी-उववण्णगा ते दुविहा 50 तं०--अणंतरोववष्णगा य, परंपरोक्वण्णगा य / तत्थ गंजे ते अणंतरोववण्णगा, ते णं ण जाणंति, ण पासंति, पाहाति / तत्थ णं जे ते परंपरोक्वण्णगा ते दुविहा प० तं०--पज्जत्तगा य अपज्जत्तगाय / तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं ण जाणंति, ण पासंति, आहारेति / तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा ५००--उवउत्ता य Page #1949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अणुवउत्ता य / तत्थ णं जे ते अणुवउत्तगा, ते ण जाणंति, ण पासंति, प्राहारेति / (तस्थ गंजे ते उवउत्ता, ते णं जाणंति, पासंति, प्राहारेंति य)।' [6-6 प्र.] भगवन् ! वैमानिकदेव उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते और उनका आहरण करते हैं या नहीं? [9-6 उ.] गौतम ! मनुष्यों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक देव दो प्रकार के हैं / यथा-मायो-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादष्टि -उपपन्नक हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं, तथा उनमें से जो अमायी-सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं / यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / जो अनन्तरोषपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। तथा जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं। यथा---पर्याप्तक और अपर्याप्तक / उनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे उन पुद्गलों को नहीं जानते-देखते, किन्तु ग्रहण करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं; यथाउपयोगयुक्त और उपयोगरहित। उनमें से जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते-देखते हैं, किन्तु ग्रहण करते हैं / [तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते-देखते हैं और ग्रहण करते हैं। ] विवेचन—निर्जरापुदगलों के जानने-देखने और आहरण करने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-- प्रस्तुत सूत्र का फलितार्थ यह है कि केवली तो उक्त सूक्ष्म निर्जरापुद्गलों को, जो कि समग्रलोक को व्याप्त करके रहते हैं, जानते हैं, देखते हैं, इसलिए उनके विषय में यहाँ प्रश्न नहीं पूछा गया है / प्रश्न पूछा गया है-छद्मस्थ के जानने आदि के विषय में / जिसके लिए प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद के प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक का अतिदेश किया गया है। फलितार्थ--छद्मस्थों में भी जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि-उपयोगयुक्त हैं, वे ही सूक्ष्म कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों को जानते-देखते हैं, परन्तु जो विशिष्ट अवधिज्ञानादि के उपयोग से रहित हैं वे नहीं जानते-देखते / यही कारण है कि नैरयिक से लेकर दश भवनपति, पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक के जीव तथा वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देव विशिष्ट अवधिज्ञानादि उपयोगयुक्त न होने से उक्त सूक्ष्म कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। __ मनुष्यसूत्र में असंज्ञीभूत एवं अनुपयुक्त मनुष्य सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते किन्तु जो मनुष्य संज्ञीभूत हैं, अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञानी हैं, तथा जो उपयोगयुक्त हैं, वे उन निर्जरा-पुद्गलों को जान-देख सकते हैं / वैमानिक सूत्र में जो वैमानिक देव प्रमायी-सम्यग्दृष्टि हैं, परम्परोपपन्नक हैं, पर्याप्तक हैं -..-...- ..--- - .--..-.-.1. यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र का है, किन्तु कई प्रतियों में भगवतीसूत्र के मूलपाठ के रूप में माना गया है / इस सम्बन्ध में दो अभिप्राय वत्तिकार लिखते हैं कि यह पाठ प्रज्ञापनासूत्र से उद्धत किया हुआ है, और प्रज्ञापनासत्र की रचना-शैली प्रायः गौतमस्वामी के प्रश्न और उत्तररूप होने से यहाँ प्रश्नकर्ता माकन्दिकपूत्र होने पर भी श्री गौतमस्वामी को सम्बोधित करके उत्तर दिया गया है। प्रतः ] कोष्ठकान्तर्गत पाठ प्रज्ञापना के उस संलग्न पाठ का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिए। दूसरा मत यह है कि प्रश्नकार मान्दिकपुत्र हैं। अतएव 'गौतम' शब्द से यहाँ 'माकन्दिकपुत्र' का ही ग्रहण समझना चाहिए। --सं० Page #1950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [685 तथा जो विशिष्ट अवधिज्ञानी उपयोगयुक्त हैं, वे ही उन सूक्ष्म कार्मण पुद्गलों को जान-देख सकते हैं / जो मायी-मिथ्यादृष्टि हैं, वे विपरीतद्रष्टा होने से उन पुद्गलों को जान-देख नहीं सकते। आहाररूप से ग्रहण-आहार तीन प्रकार के हैं-ओज आहार, लोम प्राहार और प्रक्षेप पाहार / त्वचा के स्पर्श से लोम आहार होता है, और मुख में डालने से प्रक्षेप-ग्राहार होता है, किन्तु कार्मण शरीर द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करना प्रोज-आहार कहलाता है। यहाँ प्रोज-पाहार का ग्रहण समझना चाहिए, जिसे चौबीस दण्डकवर्ती जीव ग्रहण करते हैं।' आणत्तं णाणत्तं : आशय-प्राणत्तं-अन्यत्व-दो अनगारों सम्बन्धी पुद्गलों की पारस्परिक भिन्नता-पृथक्ता / णाणत्तं-नानात्व-वर्णादिकृत विविधता / बन्ध के मुख्य दो भेदों के भेद-प्रभेदों का तथा चौवीस दण्डकों एवं ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्म की अपेक्षा भावबन्ध के प्रकार का निरूपण 10. कतिविधे णं भंते बंधे पन्नत्ते ? मागंबियपुत्ता! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा--दव्यबंधे य भावबंधे य / [10 प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] माकन्दिकपुत्र ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार है-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध / 11. दव्वबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नते? मागंदियपुत्ता ! दुविधे पश्नत्ते, तं जहा–पयोगबंधे य वीससाबंधे य / [11 प्र.] भगवन् ! द्रव्यबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? / [11 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा प्रयोगबन्ध और वित्रसाबन्ध। 12. वोससाबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुविधे पन्नत्ते, तं जहासादीयवोससाबंधे य अणादीयवीससाबंधे य / [12 प्र.] भगवन् ! विस्रसाबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [11 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह भी दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सादि विस्रसाबन्ध और अनादि विस्त्रसाबन्ध / 13. पयोगबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता ! दुबिहे पन्नत्ते तं जहासिढिलबंधणबंधे य घणियबंधणबंधे य। 1. [-भगवतीसूत्र : अ. वत्ति, पत्र 742 —सरीरेणोयाहारो, तया य फासेण लोम आहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो॥ 2. भगवती; अ. वत्ति, पत्र 742 Page #1951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [13 प्र.] भगवन् ! प्रयोगबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? . [13 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह भी दो प्रकार का कहा गया है। यथा--शिथिल-बन्धन-बन्ध और गाढ़ (धन) बन्धन-बन्ध / 14. भावबंधे णं भंते ! कतिविधे पन्नते ? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पत्नत्ते, तं जहा - मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य / [14 प्र.] भगवन् ! भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [14 उ.] माकन्दिकपुत्र ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध / 15. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे भावबंधे पन्नत्ते? मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य / [15 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीवों का कितने प्रकार का भावबन्ध कहा गया है ? [15 उ.] माकन्दिकपुत्र ! उनका भावबन्ध दो प्रकार का कहा गया है / यथा-मूल-प्रकृत्तिबन्ध और उत्तर-प्रकृति-बन्ध / 16. एवं जाव वेमाणियाणं / [16] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (के भावबन्ध के विषय में कहना चाहिए / ) 17. नाणावरणिज्जस्स गं भंते ! कम्मस्स कतिविहे भावबंधे पन्नत्ते ? मागंदियपुत्ता! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते, तं जहा–मूलपगडिबंधे य उत्तरपडिबंधे य / [1.7 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [17 उ. माकन्दिकपुत्र ! ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध दो प्रकार का कहा गया है / यथा--मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध / 18. नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कतिविधे भावबंधे पण्णत्ते ? मागंदियपुत्ता! दुविहे भावबंधे पन्नत्ते, तं जहा–मूलपगडिबंधे य उत्तरपगडिबंधे य / [18 प्र.] भगवन् ! नरयिक जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [18 उ.) माकन्दिकपुत्र ! उनके ज्ञानावरणीय कर्म का भावबन्ध भी दो प्रकार का कहा गया है / यथा---मूल-प्रकृति-बन्ध और उत्तर-प्रकृति-बन्ध / 19. एवं जाव वेमाणियाणं / 16] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक के ज्ञानावरणीयकर्मजनित भावबन्ध के विषय में कहना चाहिए। Page #1952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [687 20. जहा नाणावरणिज्जेणं दंडनो भणिओ एवं जाव अंतराइएणं भाणियच्चो / [20] जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म-सम्बन्धी दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार अन्तरायकर्म तक (दण्डक) कहना चाहिए / विवेचन-द्रव्यबन्ध, भावबन्ध और उसके भेद-प्रभेद ---- प्रस्तुत 11 सूत्रों (स. 10 से 20 तक) में बन्ध के दो भेद---द्रव्य और भावबन्ध करके उनके भेद-प्रभेद तथा भावबन्धनित प्रकारों का निरूपण किया ग द्रव्यवन्ध : यहाँ कौन-सा ग्राह्य है ? –द्रव्यबन्ध आगम, नोप्रागम आदि के भेद से अनेक प्रकार का है ; किन्तु यहाँ केवल 'उभय-व्यतिरिक्त द्रव्यबन्ध का ग्रहण करना चाहिए / तेल आदि स्निग्ध पदार्थों या रस्सी आदि द्रव्य का परस्पर बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। भावबन्ध : स्वरूप, प्रकार और ग्राह्यभावबन्ध-भाव अर्थात मिथ्यात्व आदि भावों के द्वारा अथवा उपयोग भाव से अतिरिक्त भाव का, जीव के साथ बन्ध होना, भावबन्ध कहलाता है। भावबन्ध के पागमतः और नो-पागमतः, ये दो भेद हैं। यहाँ नो-पागमतः भावबन्ध का ग्रहण विवक्षित है। प्रयोगबन्ध, विस्त्रसाबन्ध : स्वरूप और प्रकार-जीव के प्रयोग से द्रव्यों का बन्ध होना प्रयोगबन्ध है और स्वाभाविक रूप से बन्ध होना विस्रसाबन्ध है। विस्रसाबन्ध के दो भेद हैसादिविस्त्रसाबन्ध और अनादि-विस्रसाबन्ध / बादलों आदि का परस्पर बन्ध होना (मिल जाना— जुड़े जाना) सादिविखसाबन्ध है और धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर बन्ध, अनादि-विस्रसाबन्ध कहलाता है / प्रयोगबन्ध के दो भेद हैं-शिथिलबन्ध और गाढबन्ध / घास के पूले आदि का बन्ध शिथिलबन्ध है और रथचक्रादि का बन्ध गाढबन्ध है। भावबन्ध के भेद-भावबन्ध के दो भेद हैं -मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध / मूलप्रकृतिबन्ध के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय ग्रादि 8 भेद हैं, तथा उत्तरप्रकृतिबन्ध के कुल 148 भेद हैं। उनमें से 120 प्रकृतियों का बन्ध होता है / जिस दण्डक में जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता हो, वह कहना चाहिए / यही भेद नैरयिकों के मूल-उत्तरप्रकृतिबन्ध के समझने चाहिए।' जीव एवं चौबीस दण्डकों द्वारा किये गए, किये जा रहे तथा किये जाने वाले पापकर्मों के नानात्व (विभिन्नत्व) का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण 21. [1] जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे जाव जे य कज्जिस्सइ अस्थि याई तस्स के यि गाणते ? हंता, अस्थि। [21-1 प्र.] भगवन् ! जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा क्या उनमें परस्पर कुछ भेद (नानात्व) है ? 1. (क) भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 743 (ख) भगवती उपक्रम (पं. मुनि श्री जनकरायजी तथा जगदीशमुनिजी म.) पृ. 375 Page #1953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [21-1 उ.] हाँ. माकन्दिकपुत्र ! (उनमें परस्पर भेद) है / [2] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चति 'जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे जाव जे य कन्जिस्सति अस्थि याइं तस्स णाणत्ते ? मागंदियपुत्ता ! से जहानामए-केयि पुरिसे घणु परामुसति, धणुप० 2 उसुपरामुसति, उसुप०२ ठाणं ठाति, ठा० 2 आयतकण्णायतं उसुकरेति, प्रा० क० 2 उड्ड वेहासं उबिहइ / से नूणं मागंदियपुत्ता ! तस्स उसुस्स उड्ड वेहासं उन्वीढस्स समाणस्स एयति विणाणत्तं, जाव तं तं भावं परिणमति वि जाणत्तं?' हता, भगवं! एयति विणाणत्तं, जाव परिणति वि गाणतं / ' से तेण?णं मागंदियपुत्ता ! एवं बुच्चति जाव तं तं भावं परिणति वि णाणत्तं / [21-2 प्र.] भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जीव ने जो पापकर्म किया है, यावत् करेगा, उनमें परस्पर कुछ भेद है ? 21-2 उ.] माकन्दिकपुत्र ! जैसे कोई पुरुष धनुष को (हाथ में) ग्रहण करे, फिर वह बाण को ग्रहण करे और अमुक प्रकार की स्थिति (प्राकृति) में खड़ा रहे, तत्पश्चात् बाण को कान तक खीचे और अन्त में, उस बाण को प्रकाश में ऊँचा फेंके, तो मान्दिकपुत्र! प्राकाश फेंके, तो हे माकन्दिकपुत्र ! आकाश में ऊँचे फके हुए उस बाण के कम्पन में भेद (नानात्व) है, यावत्-वह उस-उस रूप में परिणमन करता है। उसमें भेद है न ? (उत्तर-) हाँ, भगवन् ! उसके कम्पन में, यावत् उसके उस-उस रूप के परिणाम में भी भेद है।' (भगवान् ने कहा-) हे माकन्दिकपुत्र ! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि उस कम के उस-उस रूपादि-परिणाम में भी भेद (नानात्व) है / 22. नेरतियाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे० / एवं चेव। [22 प्र.] भगवन् ! नरयिकों ने (अतीत में) जो पापकर्म किया है, यावत् (भविष्य में) करेंगे, क्या उनमें परस्पर कुछ भेद है ? [22 उ.] (हाँ, माकन्दिकपुत्र ! उनमें परस्पर भेद है / ) वह उसी प्रकार (पूर्ववत् समझना चाहिए / ) 23. एवं जाव वेमाणियाणं / [23] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (जान लेना चाहिए / ) विवेचन----कृत पापकर्म के भूत-वर्तमान भविष्यत्कालिक परिणामों में भेद का दृष्टान्तपूर्वक निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (21-22-23) में जीवों के द्वारा किये गए, किये जा रहे तथा भविष्य में किये जाने वाले पापकर्मों के परिणामों में परस्पर भेद को धनुष-बाण फेंकने के दृष्टान्त द्वारा सिद्ध किया गया है। Page #1954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 3] [689 स्पष्टीकरण-जैसे किसी पुरुष द्वारा धनुष और बाण के अलग-अलग समय में ग्रहण करने, फिर अमुक स्थिति में खड़े रह कर बाण को कान तक खींचने और तत्पश्चात् उसे ऊपर फेंकने के विभिन्न कम्पनों में, उसके प्रयत्न की विशेषता से भेद होता है, इसी प्रकार जीव द्वारा किये हुए भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के कर्मों में भी तीव्रमन्दादि परिणामों के भेद से तदनुरूप कार्य-कारित्व रूप नानात्व-विभिन्नता समझ लेना चाहिए।' कठिन शब्दार्थ-धणु-धनुष / उसु वाण / परामुसई-ग्रहण करता है। ठाणं ठाइअमुक स्थिति (आकृति) में खड़ा होता है। उड्ढे वेहासं-ऊपर आकाश में / उम्विहइ-फेंकता है। णाणतं-नानात्व-विभिन्नत्व, भेद / एयति - कम्पन होता है / चौवीस दण्डकों द्वारा प्राहार रूप में गृहीत पुद्गलों में से भविष्य में ग्रहण एवं त्याग का प्रमाण-निरूपण 24, नेरतिया णं भंते ! जे पोग्गले पाहारत्ताए गेहंति तेसि गंभंते ! पोग्गलाणं सेयकालंसि कतिभागं प्राहारेंति, कतिभागं निज्जरेंति ? मागंदियपुत्ता ! असंखेज्जइभागं पाहाति, अणंतभागं निज्जरेंति / [24 प्र.] भगवन् ! नैरयिक, जिन पुद्गलों को ग्राहार रूप से ग्रहण करते हैं, भगवन् ! उन पुद्गलों का कितना भाग भविष्यकाल में प्राहार रूप से गृहीत होता है और कितना भाग निर्जरता (-त्यागा जाता) है ? [24 उ.] माकन्दिकपुत्र ! (उनके द्वारा आहार रूप से गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण होता है और अनन्त भाग का निर्जरण होता है। 25. चक्किया णं भंते ! केयि तेसु निज्जरापोग्गलेमु प्रासइत्तए वा जाय तुट्टित्तए वा ? नो इण8 सम8, प्रणाहरणमेयं बुइयं समणाउसो ! . [25 प्र.] भगवन् ! क्या कोई जीव (उन निर्जरा पुद्गलों पर बैठने, यावत् सोने (करवट बदलने) में समर्थ है ? [25 उ.] माकन्दिकपुत्र ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / आयुष्मन् श्रमण ! ये निर्जरा पुद्गल अनाधार रूप कहे गए हैं (अर्थात् -- ये कुछ भी धारण करने में असमर्थ हैं।) 26. एवं जाव वेमाणियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / अट्ठारसमे सए : तइप्रो उद्देसओ समतो // 18-3 // 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 743 2. (क) वही, पत्र 743 (ख) भगवती, (विवेचन) (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6. पृ. 2689 Page #1955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 690] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' यों कह कर माकन्दिकपुत्र यावत् विचरण करते हैं। विवेचन प्राहार रूप से गृहीत पुद्गलों के ग्रहण और त्याग एवं उन पुद्गलों को धारणशक्ति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों में इन दो तथ्यों का निरूपण किया गया है। आहार रूप में गृहीत पुद्गलों का कितना भाग ग्राह्य और त्याज्य होता है ?-आहार रूप में गहीत पुदगलों का असंख्यातवा सार भाग ग्रहण किया जाता है और अनन्तवाँ भाग म त्याग दिया जाता है। निर्जरा पुद्गलों का सामर्थ्य-निर्जरा किये हुए पुद्गल अनाधारण रूप होते हैं, अर्थात् वे किसी भी वस्तु को धारण करने में समर्थ नहीं होते।' कठिन शब्दार्थ--सेयकालंसि-भविष्यकाल में अर्थात--ग्रहण करने के अनन्तर काल में / निज्जरेंति-निर्जरण करते हैं---मूत्रादिवत् त्याग करते हैं / चक्किया— शक्य / आसइत्तए-बैठने में / तुट्टित्तए—करवट बदलने या सोने में / // अठारहवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 743 2. (क) वही, पत्र 743 / (ख) भगवती सूत्र भा. 6, (विवेचन-पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2690 Page #1956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'पारणातिवाय' चतुर्थ उद्देशक : 'प्राणातिपात' जीव और अजीव द्रव्यों में से जीवों के लिए परिभोग्य अपरिभोग्य द्रव्यों का निरूपण 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव भगवं गोयमे एवं क्यासि-.. [1] उस काल और उस समय में राजगृह नगर में, यावत् गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से इस प्रकार पूछा 2. [1] अह भंते ! पाणातियाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणे, पुढविकाए जाव वणस्सतिकाये, धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए पागासत्थिकाये जीवे असरीरपडिबद्ध, परमाणुपोग्गले, सेलेसि पडिवन्नए अणगारे, सब्वे य बादरबोंदिधरा कलेवरा; एए णं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्छति ? गोयमा! पाणातिवाए जाव एए णं दुविहा जीवदया य अजीवदव्वा य अत्थेगतिया जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, प्रत्येगतिया जीवाणं जाव नो हन्वमागच्छंति / [2-1 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य और प्राणातिपातविरमण, मृषावाद-विरमण, यावत मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक (त्याग) तथा पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक, एवं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्राकाशास्तिकाय, अशरीर-प्रतिबद्ध (शरीररहित) जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्था प्रतिपन्न अनगार, और सभी स्थूलकाय धारक (स्थूलाकार) कलेवर, ये सब (मिल कर) दो प्रकार के हैं- (इनमें से कुछ) जीवद्रव्य रूप (हैं) और (कुछ) अजीवद्रव्य रूप / प्रश्न यह है कि क्या ये सभी जीवों के परिभोग में आते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! प्राणातिपात से लेकर सर्वस्थूल कायधर कलेवर तक जो जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप हैं, इनमें से कई तो जीवों के परिभोग में आते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं पाते। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति 'पाणाइवाए जाव नो हव्वमागच्छंति ?' गोयमा ! पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पुढविकाइए जाब वणस्सतिकाइए सव्वे य बादरबोंदिधरा कलेवरा, एए णं दुविहा-जीवदव्वा य अजीवदन्वा य, जीवाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, धम्मत्यिकाये अधम्मत्थिकाये जाव Page #1957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 692) [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परमाणुपोग्गले, सेलेसि पडिकन्नए अणगारे, एए गं दुविहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य जीवाणं परिभोगत्ताए नो हन्वमागच्छति / से तेणगुणं जाव नो हव्वमागच्छंति / [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि प्राणातिपातादि जीव-अजीवद्रव्यरूप में से यावत् कई तो जीवों के परिभोग में प्राते हैं और कई जीवों के परिभोग में नहीं आते ? 2-2 उ.] गौतम ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य, पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक और सभी स्थूलाकार कलेवरधारी (द्वीन्द्रियादि जीव); ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्यरूप-दो प्रकार के हैं; ये सब, जीवों के परिभोग में आते हैं। तथा प्राणातिपात-विरमण, यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् परमाणु-पुद्गल एवं शैलेशीअवस्था प्राप्त अनगार, ये सब मिल कर जीवद्रव्यरूप और अजीवद्रव्य रूप-दो प्रकार के हैं / ये सब जीवों के परिभोग में नहीं आते। इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि कई द्रव्य जीवों के परिभोग में पाते हैं और कई द्रव्य परिभोग में नहीं पाते / विवेचन प्राणातिपातादि 48 द्रव्यों में से जीवों के लिए कितने परिमोग्य कितने अपरिभोग्य?—प्राणातिपात आदि 18 पापस्थान, अठारह पापस्थानों का त्याग, पांच स्थावर, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अशरीरी जीव, परमाणु पुद्गल, शैलेशी अवस्थापन्न अनगार, स्थूलाकार वाले त्रसकाय कलेवर, ये 48 द्रव्य सामान्यतया दो प्रकार के हैं। इनमें से कितने ही जीव रूप हैं और कितने ही अजीवरूप हैं, किन्तु प्रत्येक दो प्रकार के नहीं हैं। इनमें से पृथ्वीकायादि जीव द्रव्य हैं और धर्मास्ति कायादि अजीव द्रव्य हैं। प्राणातिपातादि अशुद्ध स्वभावरूप और प्राणातिपातादि-विरमण शुद्धस्वभाव रूप जीव के धर्म हैं। इसलिए ये जोव रूप कहे जा सकते हैं / जब जीव प्राणातिपातादि का प्रवृत्ति रूप से सेवन करता है, तब चारित्रमोहनीय कर्म उदय में आता है / उसके द्वारा चारित्रमोहनीयकर्मदलिक भोग के कारण होने से प्राणातिपात आदि जीव के परिभोग में आते हैं। पृथ्वीकायादि का परिभोग तो गमन-शौचादि द्वारा स्पष्ट ही है / प्राणातिपातविरमणादि जीव के शुद्ध स्वरूप होने से चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के हेतुभूत नहीं होते / बधादि रति-रूप होने से ये प्राणातिपात-बिरमणादि जीव रूप हैं। इसलिए वे जीव के परिभोग में नहीं पाते / धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य अमृत हैं, परमाण सक्षम हैं और शैलेशीप्राप्त अनगार उपदेशादि द्वारा प्रेरणा नहीं करते, इसलिए ये 18+4+1+1=24 द्रव्य अनुपयोगी होने से जीव के परिभोग में नहीं पाते / शेष 24 (अठारह पाप, पांच स्थावर और बादर कलेवर) जीव के परिभोग में पाते हैं।' कठिन शब्दार्थ-जीवे असरीरप्रतिबद्ध-शरीररहित केवल शुद्ध जीव (आत्मा)। बादरबोंदिधरा कलेवरा-स्थूलशरीरधारी जीवों (द्वीन्द्रियादि त्रस जीवों) के कलेवर / 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 745 2. (क) वही, पत्र 745 (ख) भगवती. विवेचन, भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) प्र. 2693 Page #1958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 4] [693 कषाय : प्रकार तथा तत्सम्बद्ध कार्यों का कषायपद के अतिदेशपूर्वक निरूपण 3. कति णं भंते ! कसाया पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा–कसायपयं निरवसेसं भाणियन्वं जाव निज्जरिस्संति लोभेणं / [3 प्र.] भगवन् ! कषाय कितने प्रकार का कहा गया है ? [3 उ.] गौतम ! कषाय चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र का चौदहवाँ समग्र कषाय पद, यावत् लोभ के वेदन द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों की निर्जरा करेंगे, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन-नैरपिकों आदि की चार कषायों से निर्जरा-प्रस्तुत सूत्र 3 में प्रज्ञापना सूत्र के चौदहवें कषाय पद का अतिदेश किया गया है। इसमें सारभूत तथ्य यह है कि नैरयिकादि जीवों के आठों ही कर्मप्रकृतियों की निर्जरा क्रोधादि चार कषायों के वेदन द्वारा होती है, क्योंकि नैरयिकादि जीवों के पाठों ही कर्म उदय में रहते हैं और उदय में आए हुए कर्मों की निर्जरा अवश्य होती है। नैरयिकादि कषाय के उदय वाले हैं। कषाय का उदय होने पर उसके वेदन के पश्चात् कर्मों की निर्जरा होती है / जैसे कि प्रज्ञापना में कहा है-क्रोधादि के द्वारा वैमानिकों आदि के पाठों कर्मों की निर्जरा होती है। युग्म : कृतयुग्मादि चार और स्वरूप 4 [1] कति णं भंते ! जुम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, सं जहा-कडजुम्मे तेयोए दावरजुम्मे कलिओए। [4-1 प्र.] भगवन् ! युग्म (राशियां) कितने कहे गए हैं ? [4-1 उ.गौतम ! युग्म चार कहे गए हैं। यथा-कृतयुग्म, ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति-जाव कलिमोए ? गोयमा ! जे णं रासो चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए से तं कडजुम्मे / जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए से तं तेयोए / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए से तं दावरजुम्मे / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए से तं कलिओये, से तेण?णं गोतमा! एवं बुच्चति जाव कलिओए। [4-2 प्र.] भगवन् ! आप किस कारण से कहते हैं कि यावत् कल्योज-पर्यन्त चार राशियाँ कही गई हैं ? 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 745 (ख) 'वेमाणिया णं भंते ! कइहिं ठाणेहि अट्ठ कम्मपयडीओ निजरिस्संति ?' 'गोयमा ! चहि ठाहि, तं जहा—कोहेणं जाव लोभेणं ति।' -~प्रज्ञापना. पद 14, भा. 1, पृ. 234-236 Page #1959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 694] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4-2 उ.] गौतम ! जिस राशि में से चार-चार निकालने पर, अन्त में चार शेष रहें, वह राशि है-'कृतयुग्म' / जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में तीन शेष रहें, वह राशि 'त्योज' कहलाती है। जिस राशि में से चार-चार निकालने पर अन्त में दो शेष रहें, वह राशि द्वापरयुग्म' कहलाती है। और जिस राशि में से चार-चार निकालते हुए अन्त में एक शेष रहे, वह राशि 'कल्योज' कहलाती है। इस कारण से ये राशियाँ ('कृतयुग्म' से लेकर) यावत् 'कल्योज' कही जाती हैं। विवेचन-युग्म तथा चतुर्विध युग्मों को परिभाषा—गणितशास्त्र की परिभाषा के अनुसार समराशि का नाम युग्म है और विषमराशि का नाम 'प्रोज' है। यहाँ जो राशि (युग्म) के चार भेद कहे गए हैं, उनमें से दो युग्म राशियाँ हैं और दो ओज राशियाँ हैं। तथापि यहाँ युग्म शब्द शास्त्रीय पारिभाषिक होने से युग्म शब्द से चारों प्रकार की राशियाँ विवक्षित हुई हैं। इसलिए चार युग्म अर्थात्-चार राशियाँ कही गई हैं। अगले प्रश्न (4-2) का आशय यह है कि कृतयुग्म आदि ऐसा नाम क्यों रखा गया ? इन चारों पदों का अन्वर्थक नाम किस प्रकार से है ? जिस राशिविशेष में से चार-चार कम करते-करते अन्त में चार ही बचें, उसका नाम कृतयुग्म है। जैसे 16, 32 इत्यादि, इन संख्याओं में से चार-चार कम करने पर अन्त में चार ही बचते हैं। जिस राशि में से चार-चार घटाने पर अन्त में तीन बचते हैं, वह राशि ज्योज है, जैसे 15, 23 इत्यादि संख्याएँ। जिस राशि में से चार-चार कम करने पर अन्त में दो बचते हैं, वह राशि द्वापर-युग्म राशि है, जैसे—६-१० इत्यादि संख्या / जिस राशि में से चार-चार कम करने पर अन्त में एक बचता है, वह राशि 'कल्योज' कहलाती है, जैसे-१३-१७ इत्यादि / कृतयुग्म आदि सब पारिभाषिक नाम हैं / ' चौबीस दण्डक, सिद्ध और स्त्रियों में कृतयुग्मादिराशिप्ररूपणा 5. नेरतिया णं भंते ! कि कडजुम्मा तेयोया दावरजुम्मा कलिओया ? गोयमा ! जहन्नपए कडजुम्मा, उक्कोसपए तेयोया, अजहन्नमणुक्कोंसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोया। [5 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या कृतयुग्म हैं, त्योज हैं, द्वापरयुग्म हैं, अथवा कल्योज हैं ? [5 उ.] गौतम! वे जघन्यपद में कृतयुग्म हैं, उत्कृष्ट-पद में त्योज हैं, तथा अजघन्योत्कृष्ट (मध्यम) पद में कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज हैं। 6. एवं जाव थणियकुमारा। [6] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक (के विषय में भी) (कहना चाहिए।) 7. वणस्सतिकातिया णं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नपदे अपदा, उक्कोसपदे अयदा, अजहन्नमणुक्कोसपदे सिय कडजुम्मा जाव . सिय कलियोगा। 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 745 (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 13, पृ. 17-18 Page #1960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 4] [7 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक कृतयुग्म हैं, (अथवा) यावत् कल्योजरूप हैं ? / [7 उ.] वे जघन्यपद की अपेक्षा अपद हैं, और उत्कृष्टपद की अपेक्षा भी अपद हैं। अजघन्योत्कृष्टपद की अपेक्षा कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज रूप हैं / 8. बेइंदिया पं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नपए कडजुम्मा, उक्कोसपए दावरजुम्मा, अजहन्नमणुक्कोसपए सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। [8 प्र.] भगवन ! द्वीन्द्रियजीवों के विषय में भी इसी प्रकार का प्रश्न है ? [= उ.] गौतम ! (द्वीन्द्रियजीव) जघन्यपद में कृतयुग्म हैं और उत्कृष्ट पद में द्वापरयुग्म हैं, किन्तु अजघन्योत्कृष्ट पद में कदाचित् कृतयुग्म, यावत् कदाचित् कल्योज हैं / 9. एवं जाव चतुरिंदिया। [6] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्यन्त कहना चाहिए। 10. सेसा एगिदिया जहा बेंदिया। [10] शेष एकेन्द्रियों की वक्तव्यता, द्वीन्द्रिय की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए / 11. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जाव बेमाणिया जहा नेरतिया। [11] पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के समान (जानना चाहिए / ) 12. सिद्धा जहा वणस्सतिकाइया / [12] सिद्धों का कथन वनस्पतिकायिकों के समान जानना चाहिए / 13. इत्थीओ णं भंते ! कि कउजुम्माओ० पुच्छा / गोयमा ! जहन्नपदे कडजुम्माओ, उक्कोसपए कङजुम्मायो, अजहन्नमणुषकोसपए सिय कडजुम्मालो जाव सिय कलियोगाओ। [13 प्र.] भगवन् ! क्या स्त्रियाँ कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [13 उ.] गौतम ! वे जघन्यपद में कृतयुग्म हैं और उत्कृष्टपद में भी कृतयुग्म हैं, किन्तु अजघन्योकृष्टपद में कदाचित् कृतयुग्म हैं, और यावत् कदाचित् कल्योज हैं / 14. एवं असुरकुमारिस्थीओ वि जाव थणियकुमारित्थीओ। _ [14] असुरकुमारों की स्त्रियों (देवियों) से लेकर यावत् स्तनितकुमार-स्त्रियों तक इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझना चाहिए।) 15. एवं तिरिक्खजोणिस्यीयो / [15] तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों का कथन भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 16. एवं मणुस्सित्थीयो। [16] मनुष्य-स्त्रियों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / Page #1961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 696] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 17. एवं जाव वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियदेविस्थीमो / [17] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की देवियों के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए।) विवेचन-नारक से वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियों और सिद्धों में कृतयुग्मादि राशिपरिमाण-निरूपण-प्रस्तुत 13 सूत्रों (सू. 5 से 17 तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियों और सिद्धों में कृतयुग्मादिराशि का प्रतिपादन किया गया है। फलितार्थ-प्रश्न का प्राशय यह है कि नारक से वैमानिक तक तथा उनकी स्त्रियाँ क्या कृतयुग्मादि रूप हैं ? अर्थात् इनका परिमाण क्या कृतयुग्म-रूप है या अन्य प्रकार का है ? इसके उत्तर का प्राशय यह है कि जघन्यपद और उत्कृष्टपद, ये दोनों पद निश्चित संख्यारूप होते हैं / इसी से ये दोनों पद नियतसंख्या वाले नारकादि में ही सम्भव हैं: अनियत संख्या वाले वनस्पतिकायिकों एवं सिद्धों में नहीं / इसका एक कारण यह भी है कि नारकादिकों में जघन्यपद और उत्कृष्ट पद कालान्तर में सम्भव है; जब कि वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में कालान्तर में भी जघन्य और उत्कृष्ट पद संभवित नहीं होता। अत: निश्चित संख्या वाले नैरयिक प्रादि की राशि का परिमाण इन पारिभाषिक शब्दों में करते हुए कहते हैं कि जब वे अत्यन्त अल्प होते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं, जब उत्कृष्ट होते हैं तब व्योज होते हैं तथा मध्यमपद में वे चारों राशि वाले होते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-ये सब जघन्यपद में कृतयुग्मराशि-परिमित हैं और उत्कृष्ट पद में त्योजराशि-परिमित हैं। मध्यमपद में कदाचित् कृतयुग्म, कदाचित् योज, कदाचित् द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज हैं। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पृथ्वी-अप तेजो-वायु रूप जीव जघन्यपद में कृतयुग्म रूप एवं उत्कृष्टपद में द्वापरयुग्मपरिमित हैं, मध्यमपद में चारों राशि वाले होते है। वनस्पतिकाय की संख्या निश्चित न होने से उनमें जघन्य और उत्कृष्ट पद घटित नहीं हो सकता, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त यद्यपि जितने जीव परम्परा से मोक्ष में चले जाते हैं, उतने जीव उनमें से घटते ही हैं, तथापि उसका अनन्तत्व कायम रहने से वह राशि अनिश्चित संख्यारूप मानी जाती है। बनस्पतिकाय के समान सिद्धजीवों में भी जघन्यपद और उत्कृष्ट पद सम्भव नहीं होता, क्योंकि सिद्ध जीवों की संख्या बढ़ती जाती है, तथा अनन्त होने से उनका परिमाण अनियत रहता है। ___नारक सभी नपुंसक होने से उनमें स्त्रियाँ सम्भव नहीं हैं / असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक की स्त्रियाँ (देवियाँ), तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ, मनुष्यस्त्रियाँ तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की स्त्रियाँ जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में कृतयुग्म-परिमित हैं। मध्यमपद में कृतयुग्म आदि चारों राशियों वाली हैं।' अन्धकवह्नि जीवों में अल्पबहुत्व परिमाण-निरूपण 18. जावतिया णं भंते ! बरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगहिणो जीवा ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 745 (ख) भगवती. भाग 13, (प्रमेयचन्द्रिका टीका) पृ. 22-23 Page #1962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 4] [697 हंता, गोयमा! जावतिया वरा अंधगवण्हिणो जीवा तावतिया परा अंधगवण्हिणो जीधा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / अट्ठारसमे सए : च उत्थो उद्देसनो समत्तो / / 18-4 / / [18 प्र.] भगवन् ! जितने अल्प आयुष्य वाले अन्धकवह्नि जीव हैं, क्या उतने ही उत्कृष्ट आयुष्य वाले अन्ध कह्निजीव हैं ? [18 उ.] हाँ, गौतम ! जितने अल्पायुष्क अन्धकवह्नि जीव हैं, उतने ही उत्कृष्टायुष्क अन्धकह्नि जीव हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन -अन्धकवह्नि : दो विशेषार्थ--(१) वृत्तिकार के अनुसार-अन्धक की संस्कृत-छाया 'अहिप' होती है, जो वृक्ष का पर्यायवाची शब्द है / अतः अहिप यानी वृक्ष को प्राधित करके रहने वाले अ अंहिपति अर्थात्-बादरतेजस्कायिकजीव / (2) अन्य प्राचार्यों के मतानुसार अन्धक अर्थात् सुक्ष्मनामकर्म के उदय से अप्रकाशक (प्रकाश न करने वाली) वह्नि-अग्नि, अर्थात्-सूक्ष्म अग्निकायिक जीव / ये जितने अल्पायुष्य वाले हैं, उतने ही जीव दीर्घायुष्य वाले हैं। कठिनशब्दार्थ--जावइया--जितने परिमाण में, तावइया—उतने परिमाण में / वरा=अवर यानी आयुष्य की अपेक्षा अर्वाग्भागवर्ती-अल्प आयुवाले / परा-प्रकृष्ट यानी स्थिति से उत्कृष्ट (दीर्घ) पायुष्य वाले // अठारहवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रि 745-746 ' Page #1963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'असुरे' पंचम उद्देशक : 'असुर' एक निकाय के दो देवों में दर्शनीयता-प्रदर्शनीयता आदि के कारणों का निरूपण 1. [1] दो भंते ! असुरकुमारा एगसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमार देवत्ताए उववना / तस्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे, एगे असुरकुमारे देवे से गं नो पासादीए नो दरिसणिज्जे नो अभिरूवे नो पडिरूवे, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-बेउब्वियसरीरा य अवेउब्वियसरीरा य / तत्थ पंजे से वेटिवयसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिस्वेतस्थ णं जे से अवेउध्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से गं नो पासादीए जाव नो पडिरूवे। 11-1 प्र. भगवन् ! दो असुरकुमारदेव, एक ही असुरकुमारावास में असुरकुमारदेवरूप में उत्पन्न हुए / उनमें से एक असुरकुमारदेव प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला (प्रासादीय), दर्शनीय, सुन्दर और मनोरम होता है, जबकि दूसरा असुरकुमार देव न तो प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला होता है, न दर्शनीय, सुन्दर और मनोरम होता है, भगवन् ऐसा क्यों होता है ? [1-1 उ.] गौतम ! असुरकुमारदेव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-वैक्रिय शरीर वाले (विभूषित शरीर वाले) और अवैक्रिय शरीर वाले (अविभूषित शरीर वाले)। उनमें से जो वैक्रिय शरीर वाले असु र कुमार देव होते हैं, वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय सुन्दर और मनोरम होते हैं, किन्तु जो अवैत्रिय शरीर वाले हैं, वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत मनोरम नहीं होते। [2] से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ 'तत्थ णं जे से वेउब्धियसरीरे तं चेव जाव नो पडिस्वे' ? 'गोयमा ! से जहानामए इहं मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति--एगे पुरिसे प्रलंकिय विभूसिए, एगे पुरिसे प्रणलंकियविभूसिए, एएसि णं गोयमा ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासादीए जाव पडिरूवे ? कयरे पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे ? जे वा से पुरिसे अलंकिय विभूसिए, जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए ?' _ 'भगवं ! तत्थ णं जे से पुरिसे अलंकियविभूसिए से गं पुरिसे पासादीये जाय पडिरूवे, तस्थ गंजे से पुरिसे अणलंकियविभूसिए से णं पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे' / से तेण?णं जाव नो पडिरूवे / [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि वैक्रिय शरीर वाले देव प्रसन्नता-उत्पादक यावत् मनोरम होते हैं, अवैक्रिय शरीर वाले नहीं होते ? Page #1964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 5] [699 [1-2 उ.] गौतम ! जैसे, इम मनुष्यलोक में दो पुरुष हों, उनमें से एक पुरुष प्राभूषणों से अलंकृत और विभूषित हो और एक पुरुष अलंकृत और विभूषित न हो, तो हे गौतम ! (यह बतायो कि) उन दोनों पुरुषों में कौन-सा पुरुष प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, यावत् मनोरम्य लगता है और कौन-सा प्रसन्नता उत्पादक यावत् मनोरम्य नहीं लगता? जो पुरुष अलंकृत और विभूषित है, वह अथवा जो पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है वह ? __ (गौतम) भगवन् ! उन दोनों में से जो पुरुष अलंकृत और विभूषित है, वही प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला यावत् मनोरम्य है, और जो पुरुष अलंकृत और विभूषित नहीं है, वह प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, यावत् मनोरम्य नहीं है / (भगवान्—) हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि यावत् (जो अविभूषित शरीर वाले असुरकुमार हैं) वे प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले यावत् मनोरम्य नहीं हैं। 2. दो भते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि० ? एवं चेव / [2 प्र. भगवन् ! दो नागकुमारदेव एक नागकुमारावास में नागकुमाररूप में उत्पन्न हुए / इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? 12 उ.] गौतम ! पूर्वोक्तरूप से समझना चाहिए / 3. एवं जाव थणियकुमारा। [3] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुसार तक (जानना चाहिए / ) 4. वामंतर-जोतिसिय-वेमाणिया एवं चेव / [4] वाण-व्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार (समझना चाहिए।) विवेचन एक ही निकाय के दो देवों में परस्पर अन्तर-प्रस्तुत चार सूत्रों (1-4) में चारों प्रकार के देवों में से एक ही आवास में उत्पन्न होने वाले दो देवों में प्रसन्नता, सुन्दरता और मनोरमता में अन्तर का कारण क्रमश: वैक्रियशरीरसम्पन्नता और अवैक्रियशरीरयुक्तता बताया गया है। वैसे तो प्रत्येक देव के वैक्रियशरीर भवधारणीय (जन्म से) होता है, किन्तु यहाँ अवैक्रियशरीर युक्त कहने का तात्पर्य है-अविभूषित शरीरयुक्त और वैक्रिय शरीरयुक्त कहने का अर्थ है--विभूषित शरीर वाला / प्राशय यह है कि कोई भी देव जब देवशय्या में उत्पन्न होता है, तब सर्वप्रथम वह अलंकार आदि विभूषा से रहित होता है। इसके पश्चात् क्रमशः वह अलंकार आदि धारण करके विभूषित होता है / अतः यहाँ वैक्रिय शरीर का अर्थ विभूषित शरीर है और अवैक्रिय शरीर का अर्थ है-अविभूषित शरीर / ' 1. भगवतीसूत्र विवेचन (पं. घेवरचन्द जी), भा. 4, पृ. 2702 Page #1965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसेत्र चौबीस दण्डकों में स्वदण्डकवर्ती दो जीवों में महाकर्मत्व-प्रत्पकर्मत्वादि के कारणों का निरूपण 5. दो भंते ! नेरइया एगंसि नेरतियावासंसि नेरतियत्ताए उववन्ना / तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव जाब महावेदणतराए चेष, एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव जाव अपवेदणतराए चेव, से कहमेयं भंते ! एवं ? | गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—मायिमिच्छद्दिदिउववनगा य, प्रमायिसम्मद्दिदिउववनगा य / तस्थ णं जे से माथिमिच्छद्दिट्ठिउववन्नए नेरतिए से णं महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव, तत्थ गंजे से प्रमायिसम्महिटिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाब अपवेदणतराए चेव / 65 प्र.] भगवन् ! दो नैरयिक एक ही नरकाबास में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुए। उनमें से एक नैरयिक महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला और एक नैरयिक अल्पकर्मवाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है, तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? [5 उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक और अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / इनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नरयिक है वह महाकर्म बाला यावत् महावेदना बाला है, और उनमें जो अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक नैरयिक है, वह अल्पकर्म वाला यावत् अल्पवेदना वाला होता है / 6. दो भंते ! असुरकुमारा० ? एवं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! दो असुरकुमारों के महाकर्म-अल्पकर्मादि विषयक प्रश्न ? [6 उ.] हे गौतम ! यहां भी उसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना चाहिए। 7. एवं एगिदिय-विलिदियवज्जा जाब वेमाणिया। [7] इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक तक समझना चाहिए। विवेचन--नैरयिक से वैमानिक तक महाकर्मादि एवं अल्पकर्मादि का कारण–महाकर्म प्रादि चार पद हैं / यथा---महाकर्म, महाक्रिया, महा-ग्राश्रव और महावेदना / इन चारों की व्याख्या पहले की जा चुकी है / महाकर्मता आदि का कारण मायी मिथ्यादृष्टित्व है, और अल्पकर्मता आदि का कारण अमायीसम्यग्दृष्टित्व है / एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में इस प्रकार का अन्तर नहीं होता, क्योंकि उनमें एकमात्र मायी मिथ्यादृष्टि ही होते हैं, अमायीसम्यग्दष्टि नहीं / इसलिए उनमें केवल महाकर्म प्रादि वाले ही हैं, अल्पकर्मादि वाले नहीं / इसीलिए यहां एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर सभी दण्डकों में दो-दो प्रकार के जीव बताए हैं।' 1. भगवती, विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) प. 2703 Page #1966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 5] [701 चौबीस दण्डकों में वर्तमानभव और आगामीभव की अपेक्षा प्रायुष्यवेदन का निरूपण 8. नेरइए णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचिदियतिरिक्खाजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कयरं आउयं पडिसंवेदेति ? गोयमा ! नेरइयाउयं पडिसंवेदेति, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाउए से पुरओ कडे चिट्टइ। [8 प्र.) भगवन् ! जो नैयिक मर कर अन्तर-रहित (सीधे) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, भगवन् ! वह किस प्रायुष्य का प्रतिसंवेदन करता है ? [8 उ.] गौतम ! वह नारक नैयिक-ग्रायुष्य का प्रति-संवेदन (अनुभव) करता है, और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के अायुष्य के उदयाभिमुख-(पुर :कृत) करके रहता है। 9. एवं मणुस्सेसु वि, नवरं मणुस्साउए से पुरतो कडे चिट्ठति / [6] इसी प्रकार (अन्तररहित) मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य जीव के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह मनुष्य के प्रायुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है / 10. असुरकुमारे गं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए० पुच्छा। गोयमा ! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति, पुढविकाइयाउए से पुरतो कडे चिट्ठइ / [10 प्र.] भगवन् ! जो असुरकुमार मर कर अन्तररहित पृथ्वी कायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, उसके विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [10 उ.] गौतम ! वह असुरकुमार के प्रायुष्य का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करता है और पृथ्वीकायिक के आयुष्य को उदयाभिमुख करके रहता है / 11. एवं जो जहि भविओ उवधज्जित्तए तस्स तं पुरतो कडं चिट्ठति, जत्थ ठितो तं पडिसंवेदेति जाव वेमाणिए / नवरं पुढविकाइनो पुढविकाइएसु उववज्जंतओ पुढविकाइयाउयं पडिसंवेदेति, अन्न य से पुढविकाइयाउए पुरतो कडे चिट्ठति / एवं जाब मणुस्सो सट्ठाणे उवयातेयब्वो, परट्ठाणे तहेव / [11] इस प्रकार जो जीव जहां उत्पन्न होने के योग्य है, वह उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है, और जहां रहा हुया है, वहां के आयुष्य का वेदन (अनुभव) करता है / इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / विशेष यह है कि जो पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होने योग्य है, वह अपने उसी पृथ्वीकायिक के आयुष्य का वेदन करता है और अन्य पृथ्वीकायिक के प्रायुष्य को उदयाभिमुख (पुरःकृत) करके रहता है। इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक स्वस्थान में उत्पाद के विषय में कहना चाहिए / परस्थान में उत्पाद के विषय में पूर्वोक्तवत् समझना चाहिए। विवेचन-कौन किस प्रायु का वेदन करता है ?--सू. 8 से 11 तक में एक सैद्धान्तिक तथ्य Page #1967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 702] व्याख्याप्रजप्तिसूत्र प्रस्तुत किया गया है कि जो जीव जब तक जिस प्रायु सम्बन्धी शरीर को धारण करके रहा हुमा है, वह तब तक उसी के प्रायुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मर कर जहां उत्पन्न होने के योग्य है उसके आयुष्य को उदयाभिमुख करता है। तथा उस शरीर को छोड़ देने के बाद ही बह जहां उत्पन्न होता है, वहां के आयुष्य का वेदन करता है / जैसे एक नैरयिक जब तक नैरपिक का शरीर धारण किये हुए है, तब तक वह नरक के आयुष्य का वेदन करता है, किन्तु वह मरकर यदि अन्तर रहित पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने योग्य है तो उसके प्रायुष्य को उदयाभिमुख कर रहता है, किन्तु नैरयिक शरीर को छोड़ देने के बाद जब वह तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होता है तो वहां के अायुष्य का वेदन करता है / ' चतुविध देवनिकायों में देवों को स्वेच्छानुसार विकुर्वणाकरण-अकरण-सामर्थ्य के कारणों का निरूपण 12. दो भंते ! असुरकुमारा एगसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवताए उववना। तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुयं विउव्यिस्सामी ति उज्जुयं विउव्वइ, 'वकं विउव्विस्सामो' ति वंक विउव्वइ, जं जहा इच्छति तं तहा विउव्वइ / एगे असुरकुमारे देवे 'उज्जुनं विउविस्तामो' ति वंकं विउठवति, 'वक विउविस्सामो' ति उन्जुयं विउव्यति, जं जहा इच्छति णो तं तहा विउव्वति / से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-मायिमिच्छद्दिविउववनगा य अमायिसम्महि द्विउववनगा य / तत्थ णं जे से मायिमिच्छद्दिहिउवयनए असुरकुमारे देवे से गं 'उज्जुयं विउव्विस्सामो' ति वंक विउव्वति जाव णो तं तहा बिउब्वइ, तत्थ णं जे से प्रमायिसम्मद्दिष्टिउववत्रए असुरकुमारे देवे से 'उज्जुयं विउविस्सामो' ति उज्जुयं विउब्बति जाव तं तहा विउन्वइत्ति। [12 प्र.] भगवन् ! दो असुरकुमार, एक हो असुरकुमारावास में असुरकुमार रूप से उत्पन्न हुए, उनमें से एक असुरकुमार देव यदि वह चाहे कि मैं ऋजु (सरल) रूप से विकुर्वणा करूगा तो वह ऋजु-विकुर्वणा कर सकता है और यदि वह चाहे कि मैं वक्र (टेढे) रूप में विकुर्वगा करूगा, तो वह वक्र-विकुर्वणा कर सकता है। अर्थात् वह जिस रूप को, जिम प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उसी रूप की, उसी प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है, जब कि एक असुरकुमारदेव चाहता है कि मैं ऋजु-विकुर्वणा करू, परन्तु वक्ररूप की विकुर्वणा हो जाती है और वक्ररूप को विकुर्वणा करना चाहता है, तो ऋजुरूप की विकुर्वणा हो जाती है / अर्थात् वह जिस रूप को, जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, वह उस रूप को उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता; तो भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? [12 उ.] गौतम ! असूरकुमार देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-मायि-मिथ्यादष्टिउपपन्नक और अमायि-सम्यग्दष्टि-उपपन्नक / इनमें से जो मायो-मिथ्यादृष्टि-उपरन्त्रक असुरकुमार देव हैं, वह ऋजुरूप की बिकुर्वणा करना चाहे तो वक्ररूप को विकुर्वणा हो जाती है, यावत् जिस रूप 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2705 Page #1968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 5] की, जिस प्रकार से विकर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा नहीं कर पाता किन्तु जो प्रमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक असुरकुमारदेव है, वह ऋजुरूप की विकुर्वणा करना चाहे तो ऋजुरूप को विकुर्वणा कर सकता है, यावत् जिस रूप की जिस प्रकार से विकुर्वणा करना चाहता है, उस रूप की उस प्रकार से विकुर्वणा कर सकता है / 13. दो भंते ! नागकुमारा० ? एवं चेव / [13 प्र. भगवन् ! दो नागकुमारों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न है ? 113 उ.] गौतम ! उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए। 14. एवं जाव थणियकुमारा। [14] इसी प्रकार यावत् स्तनकुमारों तक के विषय में (जानना चाहिए।) 15. वाणमंतरा-जोतितिय-वेमाणिया एवं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // प्रहारसमे सए : पंचम उद्देसओ समत्तो // 18-5 / / [15] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गोतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--स्वेच्छानुसार या स्वेच्छाविपरीत विकुर्वणा करने का कारण-भवनपति, काणन्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवों में से कितने ही देव स्वेच्छानुकूल सीधो या टेढ़ी विकुर्वणा (विक्रिया) कर सकते हैं, इसका कारण यह है कि उन्होंने ऋजुतायुक्त सम्यग्दर्शन निमित्तक तीव्र रस वाले वैक्रिय नामकर्म का बन्ध किया है और जो देव अपनी इच्छानुकल सीधी या टेढ़ी विकुर्वणा नहीं कर सकते, उसका कारण यह है कि उन्होंने माया-मिथ्यादर्शननिमित्तक मन्द रस वाले वैकियनामकर्म का बन्ध किया है। इसलिए प्रस्तुत चार सूत्रों (12 से 15 तक) में यह सिद्धान्त प्ररूपित किया गया है कि अमायी सम्यग्दृष्टिदेव स्वेच्छानुसार रूपों की विकर्षणा कर सकते हैं जब कि मायी-मिथ्यादृष्टिदेव स्वेच्छानुसार रूपों की विकुर्वणा' नहीं कर सकते। / / अठारहवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 747, (ख) भगवती. विवेचना भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2707 Page #1969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : 'गुल' छठा उद्देशक : 'गुड़ (प्रादि के वर्णादि) फाणित-गुड़, भ्रमर, शुक-पिच्छ, रक्षा, मंजीठ आदि पदार्थों में व्यवहार-निश्चयनय की दृष्टि से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्ररूपणा 1. फाणियगुले णं भंते ! कतिवणे कतिगंधे कतिरसे कतिफाये पन्नते ? गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहा–नेच्छयियनए व वावहारियनए य / वावहारियन यस्स गोड्डे फाणियगुले, नेच्छइयनयस्स पंचवणे दुगंधे पंचरसे अट्टफासे पन्नते।। [1 प्र.] भगवन् ! फाणित (गोला) गुड़ कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाला कहा गया है ? 1 उ. गौतम ! इस विषय में दो नयों (का आश्रय लिया जाता है। यथा-नश्चयिक नय और व्यावहारिक नय / व्यावहारिक नय को अपेक्षा से फाणित-गुड़ मधुर (गौल्य) रस वाला कहा गया है और नैश्चयिक नय की दृष्टि से गुड़ पांच वणं, दो गन्ध, पांच रस और पाठ स्पर्श वाला कहा गया है। 2. भमरे णं भंते ! कतिवणे पुच्छ।। गोयमा ! एस्थ दो नया भवंति, तं जहा-नेच्छइयनए य वावहारियनए य / वावहारियन यस्स कालए भमरे, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णे जाव अट्ठफासे पन्नते / [2 प्र.] भगवन् ! भ्रमर कितने वर्ण-गंधादि वाला है ? इत्यादि प्रश्न ? 12 उ.] गौतम ! व्यावहारिक नय से भ्रमर काला है और नैश्चयिक नय से भ्रमर पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रग और पाठ स्पर्श वाला है / 3. सुपिछे णं भंते ! कतिवणे ? एवं चेक, नवरं वावहारियनयस्स नोलए सुपिच्छे, नेच्छइयनयस्स पंचवणे० सेसं तं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! तोते की पांखें कितने वर्ण वाली हैं ? इत्यादि प्रश्न ? [3 उ.गौतम ! व्यावहारिक नय से तोते की पांखें हरे रंग की हैं और नैश्चयिक नय से पांच वर्ण वाली ; इत्यादि पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए। 4. एवं एएणं अभिलावेणं लोहिया मंजिट्ठी पोतिया हलिद्दा, सुक्किलए संखे, सुम्भिगंधे कोठे, दुनिमगंधे मयगसरीरे, तिते निबे, कडुया सुठो, कसाय-तुरए कविठे, अंबा अंबलिया, महुरे खंडे, कक्खडे बइरे, मउए नवणीए, गरुए अये, लहुए उलुयपत्ते, सीए हिमे, उसिणे अगणिकाए, गिद्ध तेल्ले / Page #1970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 6] [705 [4] इसी प्रकार इसी अभिलाप द्वारा, मजीठ लाल है; हल्दी पीली है ; शंख शुक्ल (सफेद) है, कुष्ठ (कुटु)-पटवास (कपड़े में सुगन्ध देने की पत्ती) सुरभिगन्ध (सुगन्ध) है, मृतकशरीर (शव) दुर्गन्धित है, नीम (निम्ब) तिक्त (कड़वा) है, संठ कटुय (तीखी--चरपरी) है, कपित्थ (कविठ) कसैली है, इमली खट्टी है ; खांड (शक्कर) मथुर है; बज्र कर्कश (कठोर) हैं; नवनीत (मक्खन) मृदु (कोमल) है, लोह भारी है; उलुकपत्र (बोरड़ी का पत्ता) हल्का है, हिम (बर्फ) ठण्डा है, अग्निकाय उष्ण (गर्म) है, तेल स्निग्ध (चिकना) है। किन्तु नैश्त्रयिक नय से इन सब में पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श हैं। 5. छारिया णं भंते० पुच्छा। गोयमा ! एत्थ दो नया भवंति, तं जहा–नेच्छइयनए य वावहारियनए य / वावहारियनयस्स लुक्खा छारिया, नेच्छइयनयस्स पंचवण्णा जाव अढ फासा पन्नता। [5 प्र.] भगवन् ! राख कितने वर्ण वाली है ?, इत्यादि प्रश्न ? [5 उ. गौतम ! व्यावहारिक नय से राख रूक्ष स्पर्श वाली है, और नैश्चयिक नय से राख पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और पाठ स्पर्श वाली है। विवेचन-प्रत्येक वस्तु के वर्णादि का व्यावहारिक एवं नैश्चयिक नय की दृष्टि से निरूपणव्यवहारनय लोकव्यवहार का अनुसरण करता है / वस्तुत: व्यवहारनय व्यवहारमात्र को बताने वाला है। वह वस्तु के अनेक अंशों में से उतने ही अंश को ग्रहण करता है, जितने अंश से व्यवहार चलाया जा सकता है, शेष अन्य अंशों के प्रति वह उपेक्षा भाव रखता है / नैश्चयिकनय वस्तुके मूलभूत स्वभाव को स्वीकार करता है / इसी दृष्टि से यहां मुड़, भ्रमर, शुकपिच्छ, राख, तथा मजीठ, हल्दी आदि के विषय में दोनों नयों को अपेक्षा से उत्तर दिया गया है। उदाहरणार्थ भौंरा और हल्दी व्यवहारनय की दृष्टि से काला और पीली है किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से उनमें पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस प्रोर पाठ स्पर्श हैं।' कठिन शब्दार्थ- फाणियगुले = गीला गुड़ = राब / सुपिच्छे-तोते की पांख / छारिया = राख / गोड्डे = गौल्य अर्थात्-गौल्य (मधुर) रस से युक्त / उलयपत्ते = दो रूप दो अर्थ-(१) उलुकपत्र = बेर के पत्ते (2) उलूकपत्र = उल्ल के पत्र यानी पंख / 2 / परमाणु पुद्गल एवं द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शनिरूपरण 6. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कइवण्णे जाव कतिफासे पन्नत्ते ? गोयमा ! एगवण्णे एगगंधे एगरसे दुफासे पन्नत्ते। [6 प्र.] भगवन् ! परमाणुपुद्गल कितने वर्ण वाला यावत् कितने स्पर्शवाला कहा गया है ? [6. उ.] गौतम ! वह एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाला कहा गया है। 1. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 13, 68-71 2. (क) भगवतीसूत्र—विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2709 (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेय चन्द्रिका टोका) भा. 13, पृ. 70 Page #1971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. दुपदेसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे० पुच्छा। गोयमा ! सिय एगवणे सिय दुवण्णे, सिय एगगंधे सिय दुगंधे, सिय एगरसे सिय दुरसे, सिय दुफासे, सिय तिफासे, सिय चउफासे पन्नत्ते। [7 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध कितने वर्ण आदि वाला है ? इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! वह कदाचित् (अथवा कोई-कोई) एक वर्ण, कदाचित् दो वर्ण, कदाचित् एक गन्ध या दो गन्ध, कदाचित् एक रस या दो रस, कदाचित् दो स्पर्श, तीन स्पर्श और कदाचित चार स्पर्श वाला कहा गया है / 8. एवं तिपदेसिए वि, नवरं सिय एगवण्णे, सिय दुवणे, सिय तिवण्णे / एवं रसेसु वि। सेसं जहा दुपदेसियस्स। 8] इसी प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिए / विशेष बात यह है कि वह कदाचित् एक वर्ण, कदाचित् दो वर्ण और कदाचित् तीन वर्ण वाला होता है / इसी प्रकार रस के विषय में भी ; यावत् तीन रस वाला होता है। शेष सब द्विप्रदेशिक स्कन्ध के समान (जानना चाहिए।) 9. एवं चउपदेसिए वि, नवरं सिय एगवणे जाव सिय चउवण्णे / एवं रसेसु वि / सेसं तं चेव। [6] इसी प्रकार चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष यह है कि वह कदाचित् एक वर्ण, यावत् कदाचित् चार वर्ण वाला होता है। इसी प्रकार रस के विषय में भी (जानना चाहिए।) शेष सब पूर्ववत् है / 10. एवं पंचपदेसिए वि, नवरं सिय एगवणे जाव सिय पंचवणे / एवं रसेसु वि। गंधफासा तहेव / [10] इसी प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष यह है कि वह कदाचित् एक वर्ण, यावत् कदाचित् पांच वर्ण वाला होता है। इसी प्रकार रस के विषय में भी (समझना चाहिए / ), गन्ध और स्पर्श के विषय में भी पूर्ववत् (जानना चाहिए।) 11. जहा पंचपएसिओ एवं जाव असंखेज्जपएसिओ। [11] जिस प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक कहना चाहिए। 12. सुहमपरिणए गंभंते ! अणंतपदेसिए खंधे कतिवण्णे ? जहा पंचपदेसिए तहेव निरवसेसं / [12 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपरिणाम वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है ?, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / Page #1972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 6] [707 [12 उ.] जिस प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहा है, उसी प्रकार समग्न (कथन इस विषय में करना चाहिए / ) 13. बादरपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवणे० पुच्छा। गोयमा ! सिय एगवण्णे जाव सिय पंचवण्णे, सिय एगगंधे सिय दुगंधे, सिय एगरसे जाव सिय पंचरसे, सिय चउफासे जाव सिय अटफासे पन्नते / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // अट्ठारसमे सए : छट्ठो उद्देसओ समत्तो // 18-6 / / [13 प्र.] भगवन् ! बादर (स्थूल) परिणाम वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण, गन्ध आदि वाला है ? इत्यादि प्रश्न / _ [13 उ.] गौतम ! वह कदाचित् एक वर्ण, यावत् कदाचित् पांच वर्ण वाला, कदाचित् एक गन्ध या दो गन्ध वाला; कदाचित् एक रस यावत् पांच रस वाला, तथा चार स्पर्श यावत् कदाचित् पाठ स्पर्श वाला होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--परमाणु एवं द्विप्रदेशी प्रादि स्कन्धों में वर्णादि का निरूपण-प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 6 से 13 तक) में परमाणुपुद्गल से लेकर बादर परिणामवाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक वर्ण-गन्धरस-स्पर्श का निरूपण किया गया है। परमाणु में वर्णादि विकल्प-परमाणुपुद्गल में वर्णविषयक 5 विकल्प होते हैं, अर्थात् पांच वर्गों में से कोई एक कृष्ण प्रादि वर्ण होता है / , गन्धविषयक दो विकल्प, या तो सुगन्ध या दुर्गन्ध / रसविषयक पांच विकल्प होते हैं, अर्थात्-पांच रसों में से कोई एक रस होता है / और स्पर्शविषयक चार विकल्प होते हैं। अर्थात्-स्निग्ध, रूक्ष, शोत और उष्ण, इन चार स्पों में से कोई भी दो अविरोधी स्पर्श पाए जाते हैं / यथा--शीत और स्निग्ध, शीत और रूक्ष, उष्ण और स्निग्ध या उष्ण और रूक्ष। विप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि विकल्प-द्विप्रदेशी स्कन्ध में यदि एक वर्ण हो तो पांच विकल्प, और दो वर्ण (अर्थात् प्रत्येक प्रदेश में पृथक्-पृथक् वर्ण) हो तो दस विकल्प होते हैं। इसी प्रकार गन्धादि के विषय में समझ लेना चाहिए। द्विप्रदेशी स्कन्ध जब शीत, स्निग्ध प्रादि दो स्पर्श वाला होता है, तब पूर्वोक्त 4 विकल्प होते हैं / जब तीन स्पर्श वाला होता है, तब भी चार विकल्प होते हैं / यथा-दो प्रदेश शीत हों, वहाँ एक स्निग्ध और दूसरा रूक्ष होता है। इसी प्रकार दो प्रदेश उष्ण हो, तब दूसरा विकल्प होता है। दोनों प्रदेश स्निग्ध हों, तब उनमें एक शोत और एक उष्ण हो, तब तीसरा विकल्प बनता है। इसी प्रकार दोनों प्रदेश रूक्ष हों, तब चतुर्थ विकल्प बनता है। जब द्विप्रदेशो स्कन्ध चार स्पर्श वाला होता है, तब एक विकल्प बनता है। इसी प्रकार तीन प्रदेशी आदि स्कन्धों के विषय में स्वयं ऊहापोह करके घटित कर लेना चाहिए। Page #1973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 708] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रं सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में चार स्पर्श पूर्वोक्त शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, ये चार स्पर्श पाए जाते हैं। बादर अनन्तप्रदेशी एकन्ध में चार से पाठ स्पर्श तक--चार हों तो मदु और कर्कश में से कोई एक, गुरु और लघु में से कोई एक, शीत और उष्ण में से कोई एक और स्निग्ध एवं रूक्ष में से कोई एक, इस प्रकार चार स्पर्श पाए जाते हैं। पांच स्पर्श हों तो चार में से किसी भी युग्म के दो और शेष तीन युग्मों में से एक-एक / छह स्पर्श हों तो दो युग्मों के दो-दो, और शेष दो युग्मों में से एक-एक, यों 6 स्पर्श पाए जाते हैं। सात स्पर्श हों तो तीन युग्मों के दो-दो, और एक युग्म में से एक, और आठ स्पर्श हों तो चारों युग्मों के दो-दो स्पर्श पाए जाते हैं।' // अठारहवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र-७४८-७४९ (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) छठा भाग, पृ. 2713, Page #1974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'केवली' सप्तम उद्देशक : 'केवली' केवली के यक्षाविष्ट होने तथा दो सावध भाषाएँ बोलने के अन्यतीथिक प्राक्षेप का भगवान द्वारा निराकरणपूर्वक यथार्थ समाधान 1. रायगिहे जाव एवं वयासी -- [1] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 2. अन्नउस्थिया णं भंते ! एबमाइक्खंति जाव परुति--एवं खलु केवली जक्खाएसेणं प्राइस्सति, एवं खलु केवली जवखाएसेणं प्राइ8 समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-- मोसं वा सच्चामोसं वा / से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! नं णं ते अन्नउत्थिया जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ४–नो खलु केवली जक्खाएसेणं आइस्सति, नो खलु केवलो जक्खाएलेणं आइट्ठ समाणे आहच्च दो भासाओ भासइ, तं जहा-मोसं वा सच्चामोसं वा / केवली जं असावज्जाओ अपरोवघातियाओ आहच्च दो भासाओ भासति, तं जहा—सच्चं वा प्रसच्चामोसं वा। [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतोथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि केवली यक्षावेश से आविष्ट होते हैं और जब केवली यक्षावेश से पाविष्ट होते हैं तो वे कदाचित् (कभीकभी) दो प्रकार की भाषाएँ बोलते हैं-(१) मृषाभाषा और (2) सत्या-मृषा (मिश्र) भाषा / तो हे भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? 2 उ.] गौतम ! अन्यतीथिकों ने यावत् जो इस प्रकार कहा है, वह उन्होंने मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि केवली यक्षावेश से आविष्ट ही नहीं होते। केवली न तो कदापि यक्षाविष्ट होते हैं, और न ही कभी मृषा और सत्या-मृषा इन दो भाषाओं को बोलते हैं। केवली जब भो बोलते हैं, तो असावद्य और दूसरों का उपघात न करने वाली, ऐसी दो भाषाएँ बोलते हैं / वे इस प्रकार हैं-सत्यभाषा या असत्याभूषा (व्यवहार) भाषा। विवेचन केवली यक्षाविष्ट नहीं होते न सावद्यभाषाएँ बोलते हैं केवली अनन्त-वीर्य-सम्पन्न होने से किसी भी देव के ग्रावेश से आविष्ट नहीं होते। और जब वे कदापि यक्षाविष्ट नहीं होते, तब उनके द्वारा मषा और सत्यामृषा इन दो प्रकार को सावधभाषाएँ बोलने का सवाल ही नहीं उठता / फिर केवली तो राग-द्वेष-मोह से सर्वथा रहित, सदैव अप्रमत्त होते हैं, वे सावद्यभाषा बोल ही नहीं सकते।' 1. (क) भगवती. अ. बृति, पत्र 749 / (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्र (गुजराती अनुवाद), (पं. भगवानदास दोशी) खण्ड 4, पृ. 64 Page #1975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 710] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कठिन शब्दार्थ-जक्खाएसेण-यक्ष के आवेश से / आइ?—ाविष्ट--अधिष्ठित / पाहच्चकदाचित या कभी-कभी / असावज्जाओ.-असावद्य-निरवद्य (पाप-दोष रहित) / अपरोवघातियाओअपरोपघातिक-दूसरों को आघात नहीं पहुँचाने वाली / असच्चामोसं-असत्यामृषा-जो न तो सत्य हो, न मृषा हो, ऐसी प्रादेशादिवाचक व्यवहारभाषा / ' उपधि एवं परिग्रह : प्रकारत्रय तथा नैरयिकादि में उपधि एवं परिग्रह को यथार्थ प्ररूपणा 3. कतिविधे णं भंते ! उवही पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा--कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभंडमत्तोवगरणोवहीं / [3 प्र.] भगवन् ! उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] गौतम ! उपधि तीन प्रकार की कही गई है। यथा—(१) कर्मोपधि, (2) शरीरोपधि और (3) बाह्यभाण्डमात्रोपकरण उपधि / 4. नेरइयाणं भंते ! 0 पुच्छा / गोयमा ! दुविहे उबही पन्नत्ते, तं जहा–कम्मोवही य सरीरोवही य / [4 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितने प्रकार की उपधि होती है ? [4 उ.] गौतम ! उनके दो प्रकार की उपधि कही गई है / वह इस प्रकार-(१) कर्मोपधि और (2) शरीरोपधि / 5. सेसाणं तिविहा उवही एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं। [5] एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक शेष सभी जीवों के (पूर्वोक्त) तीन प्रकार की उपधि होती है / 6. एगिदियाणं दुविहे, तं जहा-कम्मोवही य सरीरोवही य / [6] एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार की उपधि होती है। यथा--कर्मोपधि और शरीरोपधि / 7. कतिविहे णं भंते ! उवही पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा–सच्चित्ते अचित्ते मीसए। [7 प्र.] भगवन् ! (प्रकारान्तर से) उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? 7i उ.] गौतम ! (प्रकारान्तर से) उपधि तीन प्रकार की कही गई है। यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र। 8. एवं नेरइयाण वि। [=] इसी प्रकार नैरयिकों के भी तीन प्रकार की उपधि होती है। 1. भगवती., विवेचन, भाग-६ (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2714 Page #1976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] 711] 9. एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं / [6] इसी प्रकार अवशिष्ट सभी जीवों के, यावत् वैमानिकों तक के तीनों प्रकार की उपधि होती है। 10. कतिविधे णं भंते ! परिग्गहे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे परिग्गहे पन्नते, तं जहा--कम्मपरिग्गहे सरीरपरिग्गहे बाहिरगभंडमत्तोवगरणपरिगहे / [10 प्र.] भगवन् ! परिग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? (10 उ.] गौतम ! परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) कर्म-परिग्रह, (2) शरीर-परिग्रह और (3) बाह्य भाण्ड-मात्रोपकरण-परिग्रह / 11. नेरतियाणं भंते ! 0? एवं जहा उवहिणा दो दंडगा भणिया तहा परिग्गहेण वि दो दंडगा भाणियव्वा / [11 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार का परिग्रह कहा गया है ? [11 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (नै रयिकों आदि की) उपधि के विषय में दो दण्डक कहे गए हैं, उसी प्रकार परिग्रह के विषय में भी दो दण्डक कहने चाहिए। विवेचन--उपधि और परिग्रह : स्वरूप प्रकार और चौबीस दण्डकों में प्ररूपणा-उपधि का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है-उपधीयते-उपष्टभ्यते प्रात्मा येन स उपधिः' अर्थात्-जिससे प्रात्मा शुभाशुभ गतियों में स्थिर की जाती है, वह उपधि है। उपधि की परिभाषा है--जीवननिर्वाह में उपयोगी शरीर, कर्म एवं वस्त्रादि। यह दो प्रकार की है—ग्राभ्यन्तर और बाह्य / कर्म और शरीर आभ्यन्तर उपधि है जबकि वस्त्र पात्रादि वस्तुएँ बाह्य उपधि है। उपधि के तीन भेदों में एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष 16 दण्डकवर्ती जीवों के शरीररूप, कर्मरूप और बाह्य भाण्डमात्रोपकरणरूप उपधि होती है / एकेन्द्रिय के बाह्य-भाण्डमात्रोपकरण-उपधि नहीं होती। नैरयिकादि जीवों के सचित्त उपधि शरीर आदि है, अचित्त उपधि उत्पत्ति-स्थान है, और, मिश्र-उपधि श्वासोच्छ्वासादिपुद्गलों से युक्त शरीर है, जो सचेतन-अचेतन दोनों रूप होने से मिश्रउपधि है / ' उपधि और परिग्रह में अन्तर-इतना ही है कि जीवन-निर्वाह में उपकारक कर्म, शरीर और वस्त्रादि उपधि कहलाते हैं, और वे ही जब ममत्वबुद्धि से गृहीत होते हैं, तब परिग्रह कहलाते हैं / उपधि के सम्बन्ध में जैसी प्ररूपणा की गई है, वैसी ही प्ररूपणा परिग्रह के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 750 (ख) भगवतीसूत्र (गुजराती अनुवाद) (पं. भगवानदास दोशी) खण्ड 4, पृ. 64 2. वही, (पं. भगवानदासजी दोशी) खण्ड 4, प्र. 65 Page #1977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रणिधान : तीन प्रकार तथा नरयिकादि में प्रणिधान की प्ररूपणा 12. कतिविधे णं भंते ! पणिहाणे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा–मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे / [12 प्र.] भगवन् ! प्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? 612 उ.] गौतम ! प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) मन:प्रणिधान, (2) वचन-प्रणिधान और (3) काय-प्रणिधान / 13. नेरतियाणं भंते ! कतिविहे पणिहाणे पन्नत्ते ? एवं चेव। [13 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रणिधान कहे गए हैं ? [13 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) (तीनों प्रणिधान इनमें होते हैं / ) 14. एवं जाव थणियकुमाराणं / [14] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। 15. पुढविकाइयाणं० पुच्छा / गोयमा ! एगे कायपणिहाणे पन्नते। [15 प्र.] भंते ! पृथ्वी कायिक जीवों के प्रणिधान के विषय में प्रश्न ? [15 उ.] गौतम ! इनमें एकमात्र कायप्रणिधान ही होता है। 16. एवं जाव वणस्सतिकाइयाणं / [16] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक जानना चाहिए। 17. बेइंदियाणं० पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पणिहाणे पन्नते, तं जहा-वइपणिहाणे य कायपणिहाणे य। [17 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के विषय में प्रश्न ? [17 उ.] गौतम ! उनमें दो प्रकार का प्रणिधान होता है। यथा-वचन-प्रणिधान और काय-प्रणिधान / 18. एवं जाव चरिदियाणं / [18] इसी प्रकार यावत् चनुरिन्द्रिय जीवों तक कहना चाहिए। 19. सेसाणं तिविहे वि जाव वेमाणियाणं / [16] शेष सभी जीवों के, यावत् वैमानिकों तक के तीनों प्रकार के प्रणिधान होते हैं। Page #1978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] विवेचन-प्रणिधान : स्वरूप, प्रकार एवं जीवों में प्रणिधान की प्ररूपणा--मन, वचन और काययोग को किसी भी एक पदार्थ या निश्चित विषय-ग्रालम्बन में स्थिर करना प्रणिधान है। वह तीन प्रकार का है। एकेन्द्रिय जीवों में एक कायप्रणिधान और विकलेन्द्रियजीवों में दो-वचनप्रणिधान और कायप्रणिधान तथा पंचेन्द्रियजीवों में तीनों--मन-वचन-कायप्रणिधान पाए जाते हैं।' दुष्प्रणिधान एवं सुप्रणिधान के तीन-तीन भेद तथा नरयिकादि में दुष्परिणधान सुप्रणिधानप्ररूपणा 20. कतिविधे णं भंते ! दुप्पणिहाणे पन्नते? गोयमा ! तिविहे दुप्पणिहाणे पन्नत्ते, तं जहा- मणदुप्पणिहाणे जहेव पणिहाणेणं दंडगो भणितो तहेव दुप्पणिहाणेण वि भाणियव्यो। [20 प्र.] भगवन् ! दुष्प्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? [20 उ.] गौतम ! दुष्प्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-मनो-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान और काय-दुष्प्रणिधान / जिस प्रकार प्रणिधान के विषय में दण्डक कहा गया है, उसी प्रकार दुष्प्रणिधान के विषय में भी कहना चाहिए। 21. कतिविधे णं भंते ! सुप्पणिहाणे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविधे सुप्पणिहाणे पनत्ते, तं जहा–मणसुप्पणिहाणे वतिसुप्पणिहाणे कायसुप्पणिहाणे / [21 प्र.] भगवन् ! सुप्रणिधान कितने प्रकार का कहा गया है ? [21 उ.] गौतम ! सुप्रणिधान तीन प्रकार का कहा गया है / यथा-मन:सुप्रणिधान, वचनसुप्रणिधान, और काय-सुप्रणिधान / 22. मणुस्साणं भंते ! कतिविधे सुप्पणिहाणे पन्नत्ते ? एवं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरति / [22 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार का सुप्रणिधान कहा गया है ? [22 उ.] गौतम ! मनुष्यों के तीनों प्रकार का सुप्रणिधान होता है / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन - दुष्प्रणिधान और सुप्रणिधान : स्वरूप, प्रकार और किन जीवों में कितने-कितने ? - मन-वचन-काया की दुष्प्रवृत्ति की एकाग्रता को दुष्प्रणिधान और सुप्रवृत्ति की एकाग्रता को सुप्रणिधान 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 750 प्रकर्पण नियते पालम्बने धान-धरणं मनःप्रभतेरिति प्रणिधानम् / (ख) भगवती. चतुर्थ खण्ड (पं. भगवानदास दोशी), पृ. 65 Page #1979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 714] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कहते हैं। दुष्प्रणिधान तो चौबीस हो दण्डकों में पाया जाता है, किन्तु सुप्रणिधान केवल मनुष्य (संयत-साधु) में ही पाया जाता है।' अन्यतीथिकों द्वारा भगवत्प्ररूपित अस्तिकाय के विषय में पारस्परिक जिज्ञासा 23. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरह। [23] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने यावत् बाह्य जनपदों में विहार किया। 24. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था / वण्णतो / गुणसिलए चेतिए / वण्णओ, जाव पुढविसिलावट्टओ। [24] उस काल उस समय राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ गुणशील नामक उद्यान था। उसका भी वर्णन करना चाहिए। यावत् वहाँ एक पृथ्वीशिलापट्ट था। 25. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसंति, तं जहाकालोदाई सेलोदाई एवं जहा सत्तमसते अन्नउस्थिउद्देसए (स 7 उ० 10 सु० 1--3) जाब से कहमेयं मन्ने एवं? [25] उस गुणशील उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक रहते थे। यथा-कालोदायी, शैलोदायी इत्यादि समग्र वर्णन सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक के (उ. 10 सू. 1-3 में कथित) वर्णन के अनुसार, यावत्-'यह कैसे माना जा सकता है ?' यहाँ तक समझना चाहिए। विवेचन–अन्यतीथिकों की भगवत्प्ररूपित अस्तिकाविषयक-जिज्ञासा--राजगृह नगर के बाहर गुणशील उद्यान के निकट कालोदायी, शैलोदायी शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सेहस्ती नामक अन्यतीथिक रहते थे / एक दिन वे सब एकत्र होकर धर्मचर्चा कर रहे थे कि प्रसंगवश भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित अस्तिकाय को चर्चा छिड़ गई। वह इस प्रकार-ज्ञातपुत्र महावीर पंचास्तिकाय को प्ररूपणा करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय प्रादि / इनमें से जीवास्तिकाय सचेतन है, शेष चार अचेतन हैं। इनमें से पुद्गला स्तिकाय रूपी है, शेष चार अरूपी हैं / ज्ञातपुत्र महावीर के इस मत को कैसे यथार्थ माना जा सकता है ? क्योंकि ये अदृश्य होने के कारण असम्भव हैं। आशय यह है कि इस पंचास्तिकाय को सचेतनाचेतनरूप या रूपी-अरूपी. पादिरूप कैसे माना जा सकता है ? 2 राजगृह में भगवत्पदार्पण सुनकर मद्र कश्रावक का उनके दर्शन वन्दनार्थ प्रस्थान 26. तत्थ णं रायगिहे नगरे मह ए नाम समणोवासए परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए अभिगय० जाव विहरइ। [26] उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से पराभूत न होने वाला, तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, यावत् मद्रक नामक श्रमणोपासक रहता था / 1. भगवती. विवेचन, (पं. घेवरचन्दजी) भाग. 6, पृ. 2720 2. (क) भगवतो. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2726; (ख) भगवती, अ. वृ., पत्र 753 Page #1980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [715 27. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुव्वाणव्धि चरमाणे जाव समोसढे। परिसा जाव पज्जुवासइ / [27] तभी अन्यदा किसी दिन पूर्वानुपूर्वीक्रम से विचरण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर वहाँ पधारे। वे समवसरण में विराजमान हुए / परिषद् यावत् पर्युपासना करने लगी। 28. तए णं मद्द ए समणोबासए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे हद्वतुटु० जाव हिदए हाए जाब सरीरे सानो गिहाओ पडिनिक्खमति, सा०प० 2 पायविहारचारेण रायगिहं नगरं जाव निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता तेसि अन्नउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वोतोक्यति / [28] मद्र क श्रमणोपासक ने जब श्रमण भगवान् महावीर के आगमन का यह वृत्तान्त जाना तो वह हृदय में अतीव हर्षित एवं यावत् सन्तुष्ट हुअा। उसने स्नान किया, यावत् समस्त अलंकारों से विभूषित होकर अपने घर से निकला / उसने पैदल चलते हुए राजगृह नगर के मध्य में होकर प्रस्थान किया / चलते-चलते वह उन अत्यतीथिकों के निकट से होकर जाने लगा। विवेचन-मद्रक श्रमणोपासक और भगवदर्शनार्थ उसकी पदयात्रा--राजगहनिवासी मद्रक श्रमणोपासक केवल धनाढ्य ही नहीं, सामाजिक, एवं धार्मिकजनों में अग्रणी, प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित था, जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, संवर, निर्जरा ग्रादि तत्त्वों का ज्ञाता था, किसी से दबने वाला नहीं था / भगवान् महावीर के प्रति उसकी अनन्य श्रद्धाभक्ति थी। जब उसने सुना कि भगवान मेरे नगर में पधारे हैं तो वह हृष्ट तुष्ट होकर सब प्रकार से सुसज्जित होकर सात्त्विक वेषभूषा में स्वयं पैदल चल कर भगवान के दर्शनों तथा प्रवचनादि श्रवण के लिए घर से निकला। राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर उन अन्यतीथिकों के निवास के निकट होकर जाने लगा, जहाँ वे बैठे धर्मचर्चा कर रहे थे / इस पाठ से मद्रक की धर्मनिष्ठा, तत्त्वज्ञता, सामाजिकता तथा भगवान् के प्रति अनन्यभक्ति परिलक्षित होती है।' मद्र क को भगवद्दर्शनार्थ जाते देख अन्यतीथिकों की उससे पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी चर्चा करने की तैयारी, उनके प्रश्न का मद्र के द्वारा अकाट्य युक्तिपूर्वक उत्तर 29. तए गं ते अन्नउत्थिया मह यं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीयीवयमाणं पासंति, पा० 2 अन्नमन्नं सदाति, अन्नमन्नं सद्दावेत्ता एवं वदासि—एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अवि उपकडा, इमं च णं मद्द ए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं वीयोवयइ, तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं मद्द,यं समणोवासयं एयमट्ठ पुच्छित्तए'त्ति कट्ट, अन्नमन्नस्स अंतियं एयम पडिसुति, अन्नमन्नस्स० प० 2 जेणेव मद्दए समणोवासए तेगेव उवागच्छति, उवा० 2 मद्द,यं समणोवासयं एवं बदासी-एवं खलु मद्दया! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे गायपुत्ते पंच अस्थिकाये परनवेह जहा सत्तमे सते उन्नउस्थिउद्देसए (स० 7 इ० 10 सु०६ [1] जाव से कहमेयं मह या! एवं? 1. वियाहाण्णत्तिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 817-818 के प्राधार से Page #1981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 716] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26 प्र.] तभी उन अन्यतीथिकों ने मद्रक श्रमणोपासक को अपने निकट से जाते हुए देखा। उसे देखते ही उन्होंने एक दूसरे को बुला कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! यह मद्र क श्रमणोपासक हमारे निकट से होकर जा रहा है। हमें यह बात (पंचास्ति कायसम्बन्धी तत्व) अविदित है; अतः देवानुप्रियो ! इस बात को मद्रक श्रमणोपासक से पूछना हमारे लिए श्रेयस्कर है / ऐसा विचार कर वे परस्पर सहमत हुए और सभी एकमत होकर मद्र क श्रमणोपासक के निकट पाए / फिर उन्होंने मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा—हे मद्रक ! बात ऐसी है कि तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकायों को प्ररूपणा करते हैं, इत्यादि सारा कथन सातवें शतक के अन्यतीथिक उद्देशक (उ. 10 सू. 6-1) के समान समझना, यावत्—'हे मद्रक ! यह बात कैसे मानी जाए ?' 30. तए णं से मद्दए समणोवासए ते अन्नउस्थिए एवं वयासि--जति कज्ज कज्जति जाणामो पासामो; ग्रह कज्ज न कज्जति न जाणामो न पासामो / [30 उ.] यह सुन कर मद्रक श्रमणोपासक ने उन अन्यत्तीथिकों से इस प्रकार कहा--यदि वे धर्मास्तिकायादि कार्य करते हैं तभी उस पर से हम उन्हें जानते-देखते हैं; यदि वे कार्य न करते तो कारणरूप में हम उन्हें नहीं जानते-देखते / 31. तए णं ते अन्न उत्थिया मद्द यं समणोवासयं एवं वयासी-केस णं तुमं मह या ! समणोवासगाणं भवसि जेण तुमं एयमट्ठन जाणसि न पाससि ? [31 प्र.) इस पर उन अन्यतीर्थिकों ने (माक्षेपपूर्वक) मद्रक श्रमणोपासक से कहा किहे मद्र क ! तू कैसा श्रमणोपासक है कि तू इस तत्त्व (पंचास्तिकाय) को न तो जानता है और न प्रत्यक्ष देखता है (फिर भी भानता है) ? / ___32. तए णं से मह,ए समणोवासए ते अन्नउथिए एवं वयासि- 'भत्थि ज पाउसो ! वाउयाए वाति? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! वाउयायस्स वायमाणस्स एवं पासह ? 'णो तिण। अस्थि णं आउसो ! धाणसहगया पोग्गला? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह ? जो ति ! अस्थि णं आउसो ! अरणिसहगते अगणिकाए ? हंता, अस्थि / Page #1982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [717 अठारहवां शतक : उद्देशक 7] तुम्भे गं पाउसो ! अरणिसहगयस्स अगणिकायस्स रूवं पासह ? यो ति। अस्थि णं आउसो ! समुदस्स पारगताई रूवाई ? हंता, अस्थि / तुम्भे णं आउसो ! समुदस्स पारगयाई रुवाई पासह ? जो ति / अस्थि णं पाउसो ! देवलोगगयाइं स्वाइं? हंता, अस्थि। तुम्भे णं माउसो ! देवलोगगयाई रूवाई पासह ? जो ति० / एवामेव आउसो ! प्रहं वा तुब्भे वा अन्नो वा छउमत्थो जइ जो जन जाणति न पासति तं सव्वं न भवति एवं भे सुबहुलोए ण भविस्सतीति' कटु ते अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ, एवं प० 2 जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ०२ समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति / [32 उ.] तभी (इस प्राक्षेप का उत्तर देते हुए) मद्र क श्रमणोपासक ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा [प्र.] आयुष्मन् ! यह ठीक है न कि हवा बहती (चलती) है ? [उ.] हाँ, यह ठीक है। [प्र.] हे आयुष्मन् ! क्या तुम बहती (चलती) हुई हवा का रूप देखते हो ? [उ.] यह (वायु का रूप देखना) अर्थ शक्य नहीं है। [प्र.] अायुष्मन् ! नासिका के सहगत गन्ध के पुद्गल हैं न ? [उ.] हाँ, हैं। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुमने उन घ्राण सहगत गन्ध के पुद्गलों का रूप देखा है ? [उ.] यह बात (गन्ध का रूप देखना) भी शक्य नहीं है। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या अरणि की लकड़ों के साथ में रहा हुआ अग्निकाय है ? [उ.] हां, है / [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुम अरणि की लकड़ी में रही हुई उस अग्नि का रूप देखते हो? [उ.] यह बात तो शक्य नहीं है / [प्र.] आयुष्मन् ! समुद्र के उस पार रूपी पदार्थ हैं न ? [उ.] हाँ, हैं / Page #1983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 718] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुम समुद्र के उस पार रहे. हुए पदार्थों के रूप को देखते हो ? [उ.) यह देखना शक्य नहीं है। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या देवलोकों में रूपी पदार्थ हैं ? [उ.] हाँ हैं। [प्र.] आयुष्मन् ! क्या तुम देवलोकगत पदार्थों के रूपों को देखते हो? [उ.] यह बात (देवलोकगत पदार्थों का रूप देखना) शक्य नहीं है / (मद्रक ने कहा-) इसी तरह, हे प्रायुष्मन् ! यदि मैं, तुम, या अन्य कोई भी छद्मस्थ मनुष्य, जिन पदार्थों को नहीं जानता या नहीं देखता, उन सब का अस्तित्व नहीं होता, ऐसा माना जाए तो तुम्हारी मान्यतानुसार लोक में बहुत-से पदार्थों का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, (अर्थात्-उन पदार्थों का अभाव हो जाएगा।); यों कहकर मद्रक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीथिकों को प्रतिहत (हतप्रभ) कर दिया। उन्हें निरुत्तर करके वह गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी जहाँ विराजमान थे, वहां उनके निकट प्राया और पांच प्रकार के अभिगम से श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में पहुंच कर यावत् पर्युपासना करने लगा। विवेचन-मद्रक श्रावक ने अन्यतीथिकों को निरुत्तर किया–मद्र क के समक्ष उन अन्यतीर्थिकों यह शंका प्रस्तुत की कि ज्ञातपुत्र-प्ररूपित पंचास्तिकाय को सचेतन---अचेतन या रूपी-अरूपी कैसे माना जाए, जबकि वह अदृश्यमान होने के कारण अस्तित्वहीन हैं ? क्या तुम धर्मास्तिकायादि को जानते-देखते हो? मद्रक ने कहा—किसी भी पदार्थ को हम उसके कार्य से जान—देख पाते हैं, जो पदार्थ कुछ भी कार्य न करे, निष्क्रिय रहे, उसे हम नहीं जान सकते / इतने पर भी अन्यतीथिकों ने आक्षेप करते हुए कहा--"तुम भला कैसे श्रमणोपासक हो, जो धर्मास्तिकायादि को प्रत्यक्ष जानते-देखते नहीं हो, फिर भी मानते हो ?' इसका मद्रुक ने अकाट्य युक्तियों के साथ उत्तर दिया-अच्छा, आप यह बताइये कि हवा चलती है, परन्तु क्या आप हवा का रूप देखते हैं ? , इसी प्रकार गन्धगत पुद्गल, अरणि में रही हुई अग्नि, समुद्र के उस पार रहे हुए पदार्थ, देवलोक के पदार्थों आदि को क्या आप प्रत्यक्ष जानते-देखते हैं ? नहीं जानते-देखते, फिर भी आप उन पदार्थों को मानते हैं / यदि आपके मतानुसार जिन चीजों को हम, आप या अन्य छद्मस्थ मनुष्य प्रत्यक्ष नहीं जानते-देखते उन्हें न मानें, तब तो संसार के त-से पदार्थों का अभाव हो जाएगा / अतः छद्मस्थ के धर्मास्तिकायादि को प्रत्यक्ष नहीं जाननेदेखने मात्र से उनका अभाव सिद्ध नहीं होता, अपितु धर्मास्तिकायादि के कार्यों पर से (अनुमान प्रमाण से) उनके अस्तित्व को मानना और जानना चाहिए। इस प्रकार उन अन्यतीथियों को हतप्रभ एवं निरुत्तर कर दिया।' कठिन शब्दार्थ-घाणसहगया - घ्राणसहगत-गन्धयुक्त / पडिहणइ-प्रतिहत = निरुत्तर / ----- 1. भगवती. विवेचन, भाग. 6 (पं. घेवरचन्दजी), प. 2727 2. वहीं, भाग 6, पृ. 2723 Page #1984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [719 मद्रुक द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए युक्तिसंगत उत्तर की भगवान् द्वारा प्रशंसा मद्रुक द्वारा धर्मश्रवण करके प्रतिगमन 33. 'मह या !' इ समणे भगवं महाबोरे मह यं समणोवासयं एवं क्यासि--सुट्ठ णं मह,या ! तुम ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, साहु णं मह या! तुमं ते अन्नउत्थिए एवं वयासि, जे णं मह या ! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णातं अदिट्ठ अस्सुतं अमयं प्रविण्णायं बहुजणमाझे आघवेति पण्णवेति जाव उवदंसेति से णं अरहताणं आसायणाए वट्टति, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स प्रासायणाए बट्टति, केवलीणं आसायणाए बट्टति, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स प्रासायणाए वट्टति / तं सुट्ठ णं तुमं मद्दया! ते अन्नउस्थिए एवं क्यासि, साहु णं तुम मद्द या ! जाव एवं वयासि / [33] हे मद्र क ! इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने मद्रक श्रमणोपासक से इस प्रकार कहा-हे मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को जो उत्तर दिया, वह समीचीन है, मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को यथार्थ उत्तर दिया है / हे मद्रक ! जो व्यक्ति बिना जाने, बिना देखे तथा बिना सुने किसी (अमुक) अज्ञात अदृष्ट, अश्रुत, असम्मत एवं अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न या विवेचन (व्याकरण =व्याख्या) का उत्तर बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहता है, बतलाता है यावत् उपदेश देता है, वह अरहन्त भगवन्तों की प्राशातना में प्रवृत्त होता है, वह अहत्प्रज्ञप्त धर्म की प्राशातना करता है, वह केवलियों की प्राशातना करता है, वह केवलि-प्ररूपित धर्म की भी आशातना करता है / हे मद्रक ! तुमने उन अन्यतीथिकों को इस प्रकार का उत्तर देकर बहुत अच्छा कार्य किया है। मद्रक ! तुमने बहुत उत्तम कार्य किया, यावत् इस प्रकार का उत्तर दिया (और अन्यतीथिकों को निरुत्तर कर दिया।) 34. तए णं मह.ए समणोवासए समणेणं भगवया महावीरेण एवं वुत्ते समाणे हट्ट समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 पच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / [34] श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्टतुष्ट यावत् मद्रक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया और न प्रतिनिकट और न अतिदूर बैठकर यावत् पर्युपासना करने लगा / 35. तए णं समणे भगवं महावीरे मद्द यस्स समणोवासगस्स तोसे य जाव परिसा पडिगया। [35] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने मद्र क श्रमणोपासक तथा उस परिषद् को धर्मकथा कही / यावत् परिषद् लोट गई / 36. तए णं मद्द ए समणोवासए समणस्स भगवतो जाव निसम्म हद्वत्तुट्ट० पसिणाई पुच्छति, 50 पु० 2 अट्ठाई परियाइयति, अ० 50 2 उढाए उट्ठति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसइ जाव पडिगए। [36] तत्पश्चात मद्रक श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् धर्मोपदेश सुना, और उसे अवधारण करके अतीव हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ। फिर उसने भगवान से प्रश्न पूछे, अर्थ Page #1985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 720] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाने (ग्रहण किये), और खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को बन्दन-नमस्कार किया यावत् अपने घर लौट गया। विवेचन--भगवान द्वारा मद्रक की प्रशंसा एवं नवसिद्धान्त निरूपण--भगवान् ने मद्रक द्वारा अन्यतीथिकों को दिये गए युक्तिसंगत उत्तर के लिए मद्रक की प्रशंसा की, उसके प्रशंसनीय और धर्मप्रभावक कार्य को प्रोत्साहन दिया, साथ ही एक अभिनव सिद्धान्त का भी प्रतिपादन कर दिया कि जो व्यक्ति बिना जाने-सुने-देखे ही किसी अविज्ञात-अश्रुत-असम्मत अर्थ, हेतु और प्रश्न का उत्तर बहुजन समूह में देता है, वह अर्हन्तों, केवलियों तथा अर्हत्प्ररूपित धर्म की पाशातना करता है / इसका आशय यह है कि बिना जाने सुने मनमाना उत्तर दे देने से कई बार धर्म संघ एवं संघनायक के प्रति लोगों की गलत धारणाएँ हो जाती हैं / वृत्तिकार इस कथन का रहस्य इस प्रकार बताते हैं कि भगवान ने कहा--हे मद्र क ! तुमने अच्छा किया कि अस्तिकाय को प्रत्यक्ष न जानते हुए, 'नहीं जानते', ऐसा सत्य-सत्य कहा / यदि तुमने नहीं जानते हुए भी, 'हम जानते हैं', ऐसा कहा होता तो अहन्त आदि के तुम पाशातनाकर्ता हो जाते।' कठिन शब्दार्थ--अण्णात-अज्ञात / अदिट्ट नहीं देखे हुए। अस्सुतं-नहीं सुने हुए। अमय-असम्मत–अमान्य / अविण्णायं-अविज्ञात / पासायणाए वट्टति--पाशातना करने में प्रवृत्त होता है. आशातना करता है / अढाई परियाइयति-अर्थों को ग्रहण करता है। गौतम द्वारा पूछे गए मद्रुक की प्रव्रज्या एवं मुक्ति से सम्बद्ध प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान 37. 'भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं क्यासिपभू णं भंते ! मदुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव पव्वइत्तए ? णो तिणठे समठे / एवं अहेव संखे (स० 12 उ० 1 सु० 31) तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिति / [37] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित कर, भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और फिर इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! क्या मद्रक श्रमणोपासक अाप देवानुप्रिय के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ है ? / [37 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / इत्यादि सब वर्णन (शतक 12, उ. 1 सू. 31 में वर्णित) शंख श्रमणोपासक के समान समझना चाहिए / यावत्-अरूणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न होकर ; यावत सर्वदुःखों का अन्त करेगा। विवेचन - गौतम स्वामी द्वारा मद्रक को प्रवज्या एवं मुक्ति आदि से सम्बद्ध प्रश्न का 1. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2726 (ख) भगवती, अ. वत्ति, पत्र 753 2. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) मा. 13, पृ. 127-131 3. पाठान्तर----महेसक्खे Page #1986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [721 भगवान द्वारा समाधान-प्रस्तुत सू. 37 में मद्रक श्रमणोपासक द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण में असमर्थ होने पर भी मद्र क के उज्ज्वल भविष्य का कथन किया गया है / महद्धिक देवों द्वारा संग्राम निमित्त सहस्ररूपविकुर्वणासम्बन्धी प्रश्न का समाधान ___38. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महासोक्खे रूवसहस्सं विउस्वित्ता पभू अन्नमन्नेणं सद्धि संगाम संगामित्तए ! हंता, पभू। [38 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुख वाला देव, हजार रूपों को विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है ? [38 उ.] हां, गौतम ! (वह ऐसा करने में) समर्थ है / 39. ताओ णं भंते ! बोंदीओ कि एगजीवफुडाओ, अणेगजीवफुडायो ? गोयमा ! एगजोवफुडाओ, णो अणेगजीवकुडाओ। [36 प्र.] भगवन् ! वैक्रियकृत वे शरीर, एक ही जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, या अनेक जीवों के साथ सम्बद्ध ? _[36 उ.] गौतम ! (वे सभी वैक्रियकृत शरीर) एक ही जीव से सम्बद्ध होते हैं, अनेक जीवों के साथ नहीं। 40. ते णं भंते ! तेति बोंदीणं अंतरा कि एगजोवफुडा अणेगजीवफुडा? गोयमा ! एगजीवफुडा, नो प्रणेगजीवफुडा। [40 प्र.] भगवन् ! उन (वैक्रियकृत) शरीरों के बीच का अन्तराल-भाग क्या एक जीव से सम्बद्ध होता है, या अनेक जीवों से सम्बद्ध ? [40 उ.] गौतम ! उन शरीरों के बीच का अन्तराल भाग एक ही जीव से सम्बद्ध होता है, अनेक जीवों से सम्बद्ध नहीं / विवेचन-महद्धिक देव द्वारा वैक्रियकृत अनेक शरीर : एक जीव से सम्बद्ध-देवों के द्वारा परस्पर संग्राम के निमित्त बैंक्रिय शक्ति से बनाए हुए हजारों शरीर केवल एक ही जीव (वैक्रियकर्ता) से सम्बन्धित होते हैं। कठिन शब्दार्थ-महासोक्खे--महान् सौख्यसम्पन्न / बोंदी-शरीर / एगजीवफुडामओ-एक ही जीव से स्पृष्ट –सम्बद्ध / बोंदीणं अंतरा--विकुर्वित शरीरों के बीच का अन्तराल / ' उन छिन्नशरीरों के अन्तर्गतभाग को शस्त्रादि द्वारा पीडित करने की असमर्थता 41. पुरिसे गं भते ! अंतरे हत्थेण वा ? / ___ एवं जहा अट्ठमसए ततिए उद्देसए ( स० 8 उ० 3 सु० 6 [2] ) जाव नो खलु तस्थ सत्थ कमति / 1. भगवती. (प्रमेय चन्द्रिका टीका) भाग. 13, पृ. 135 Page #1987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 722] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [41 प्र. भगवन् ! कोई पुरुष, उन वैक्रियकृत शरीरों के अन्तरालों को अपने हाथ या पैर से स्पर्श करता हुआ, यावत् तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन करता हुआ कुछ भी पीड़ा उत्पन्न कर सकता है ? [41 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर) आठवें शतक के तृतीय उद्देशक (सू. 6-2 में कथित कथन) के अनुसार समझना; यावत्-उन पर शस्त्र नहीं लग (चल) सकता।। विवेचन—वैक्रियकृतशरीरों के छेदन भेदनादि द्वारा पोड़ा पहुंचाने की असमर्थता-प्रस्तुत सू, 41 में पूर्वोक्त शरीरों के अन्तराल पर हाथ-पैर आदि या शस्त्रादि द्वारा पीड़ा पहुँचाने के सामर्थ्य का अष्टम शतक के तृतीय उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निषेध किया गया है / देवासुर-संग्राम में प्रहरण-विकुर्वणा निरूपण 42. अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामो, देवासुराणं संगामो ? हंता, अस्थि / [42 प्र.] भगवन् क्या देवों और असुरों में (कभी) देवासुर-संग्नाम होता है ? [42 उ.] हाँ, गौतम ! होता है / 43. देवासुरेसुणं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु कि णं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ? गोयमा ! जं गं ते देवा तणं वा क8 चा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तं गं तेसि देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति। [43 प्र.] भगवन् ! देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने (प्रवृत्त हो जाने पर कौन-सी वस्तु, उन देवों के श्रेष्ठ प्रहरण (शस्त्र) के रूप में परिणत होती है ? [43 उ.] गौतम ! वे देव, जिस तृण (तिनका), काष्ठ, पत्ता, या कंकर आदि को स्पर्श करते हैं, वही वस्तु उन देवों के शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है। 44. जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? णो इ8 सम8 / असुरकुमाराणं देवाणं निच्चं विउब्धिया पहरणरयणा पन्नता। [44 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार देवों के लिए कोई भी वस्तु स्पर्शमात्र से शस्त्ररत्न के रूप में परिणत हो जाती है, क्या उसी प्रकार असुरकुमारदेवों (भवनपति-असुरों) के भी होती है ? [44 उ.] गौतम ! उनके लिए यह बात शक्य नहीं है ! क्योंकि असुरकुमारदेवों के तो सदा वैक्रियकृत शस्त्ररत्न होते हैं / विवेचन-देवासुर-संग्राम और उनमें दोनों ओर से प्रयुक्त शस्त्रों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (42 से 44 तक) में देवासुरों के संग्राम से सम्बद्ध चर्चा है / देव और असुर कौन ?—प्रस्तुत में देव शब्द से ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का और असुर शब्द से भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का ग्रहण किया गया है / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 753 (ख) भगवती. (विवेचन) भाग. 6 (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2730 Page #1988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [723 देवासुर-संग्राम क्यों और किन शस्त्रों से ?-वैदिक धर्म के ग्रन्थों में देवासुर संग्राम अथवा देवदानव-संग्राम अत्यन्त प्रसिद्ध है। जैन शास्त्रों में यद्यपि सभी जाति के देवों के लिए 'देव' शब्द ही प्रायः प्रयुक्त है, किन्तु यहाँ असुर शब्द नीची जाति के देवों के लिए प्रयुक्त है। वे ईयां, द्वेष आदि के वश उच्चजातीय देवों के साथ युद्ध करते रहते हैं। संग्राम शस्त्रसाध्य है। इसलिए यहाँ प्रश्न किया गया है कि देवों और असुरों में संग्राम छिड़ जाने पर उनके पास शस्त्र कहाँ से आते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि देवों के अतिशय पुण्य के कारण जिस वस्तु का, यहाँ तक कि तिनके या पत्ते का भी वे शस्त्रबुद्धि से स्पर्श करते हैं, वहीं उनके शस्त्ररूप में परिणत हो जाता है, अर्थात् वही तीक्ष्ण शस्त्र का कार्य करता है। किन्तु उनकी अपेक्षा असुरों (भवनपति वाणव्यन्तर देवों) के मन्दतर पुण्य होने से उनके शस्त्र पहले से नित्य विकुक्ति होते हैं, वे ही काम में आते हैं, अन्य कोई भी वस्तु उनके छूने से शस्त्ररूप में परिणत नहीं होती।' महद्धिक देषों का लवणसमुद्रादि तक चक्कर लगाकर आने का सामर्थ्य-निरूपण 45. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव महासोक्खे पभू लवणसमुदं अगुपरियट्टित्ताणं हन्धमागच्छित्तए? हंता, पभू। [45 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुखसम्पन्न देव लवणसमुद्र के चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र आने (अनुपर्यटन करने में समर्थ हैं ? [45 उ.] हाँ, गौतम ! (वे ऐसा करने में) समर्थ हैं। 1. (क) भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 753 (ख) "वर्तमान में भी कई आध्यात्मिक या दैवीशक्तिसम्पन्न व्यक्ति हैं, जो फल की नाजुक पंखुड़ी या कागज के टुकड़े को भी शस्त्र के रूप में परिणत कर उससे ऑपरेशन कर सकते हैं। रमन बाबा उर्फ रमन बच्चन मुजफ्फरपुर (बिहार) के निवासी हैं। वे अपनी प्राध्यात्मिक शक्ति के प्रभाव से फूल की नाजुक पखुड़ी या फिर कागज के टुकड़े से जिस्म का कोई भी हिस्सा काट कर अॉपरेशन कर सकते हैं। एक 'अलौकिक शक्ति' भगवती द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक शक्ति के जरिये वे इस तरीके से ऑपरेशन करते हैं। रमन बाबा का कहना है कि इस तरीके से उन्होंने लगभग 8000 प्रॉपरेशन किये हैं। और वे भी सिर्फ दस मिनट में / इसमें मरीज को कोई दर्द नहीं हुप्रा और ऑपरेशन का निशान भी कुछ ही देर में गायब हो गया। डॉक्टरों ने जिन्हें लाइलाज कह दिया था, ऐसे कैसर, लकवा, अलसर, ब्रनहेमरेज आदि रोगों से पीड़ित रोगियों को ठीक किया है इस स्त्रीच्युग्रल सर्जरी से।" -नवभारत टाइम्स 3 / 1 / 1985 जब देवी शक्ति सम्पन्न मनुष्य भी प्रॉपरेशन के शस्त्र के रूप में कागज या फल की पंखुड़ी को प्रयुक्त कर सकते हैं, तब अतिशय पुण्यसम्पन्न देवों के लिए तृण, काष्ठ आदि को छूने से शस्त्र बन जाना असम्भव नहीं है / --सं. 2. पाठान्तर-महेसक्खे'। Page #1989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रतिसूत्र 46. देवे णं भंते ! माहिडीए एवं धातइसंडं दीवं जाव / हंता, पभू। [46 प्र.] भगवन् ! महद्धिक यावत् महासुखी देव धातकीखण्ड द्वीप के चारों ओर चक्कर लगा कर शीघ्र पाने में समर्थ हैं ? [46 उ.] हाँ, गौतम ! वे समर्थ हैं। 47. एवं जाव स्थगवरं दीवं जाव ? हंता, पभू / तेण परं वीतीवएज्जा नो चेव गं प्रणुपरियटेज्जा। [47 प्र.] भगवन् ! क्या इसी प्रकार वे देव रुचकवर द्वीप तक चारों ओर चक्कर लगा कर पाने में समर्थ हैं ? [47 उ.] हाँ, गौतम ! समर्थ हैं। किन्तु इससे आगे के द्वीप-समुद्रों तक देव जाता है, किन्तु उसके चारों ओर चक्कर नहीं लगाता / विवेचन–महद्धिक देवों का अनुपर्यटन-सामर्थ्य-महद्धिक देव, लवणसमुद्र धातकीखण्ड, रुचकवरद्वीप आदि के चारों ओर चक्कर लगाकर शीघ्र आ सकते हैं, किन्तु इससे आगे के द्वीपसमुद्रों तक वे जा सकते हैं, मगर उनके चारों ओर चक्कर नहीं लगाते, क्योंकि तथा-विध प्रयोजन का अभाव है।' सभी देवों द्वारा अनन्त कर्माशों को क्षय करने के काल का निरूपण 48. अस्थि णं भंते ! ते देवा जे अगते कम्मसे जहन्नेण एक्केणं वा दोहि वा तोहि वा, उक्कोसेणं पंचहि वाससएहि खवयंति ? हंता, अस्थि / [48 प्र.] भगवन् ! क्या इस प्रकार के भी देव हैं, जो अनन्त (शुभकर्मप्रकृतिरूप) कर्माशों को जघन्य एक सौ, दो सौ या तीन सौ और उत्कृष्ट पांच सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं ?, [48 उ.] हाँ, गौतम ! (ऐसे देव) हैं। 49. अस्थि गं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति ? हंता, अस्थि / [49 प्र.] भगवन् ! क्या ऐसे देव भी हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक हजार, दो हजार या तीन हजार और उत्कृष्ट पांच हजार वर्षों में क्षय कर देते हैं ? [46 उ.] हाँ, गौतम ! (ऐसे देव) हैं। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2. पृ. 821 Page #1990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [725 अठारहवां शतक : उद्देशक 7] 50. अस्थि णं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहन्नेणं एक्केणं वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं पंचहि वाससयसहस्सेहिं खवयंति ? [50 प्र.] भगवन् ! क्या ऐसे देव भी हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक लाख, दो लाख, या तीन लाख वर्षों में और उत्कृष्ट पांच लाख वर्षों में क्षय कर देते हैं ? [50 उ.] हाँ, गौतम ! (ऐसे देव भी) हैं। 51. कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणते कम्मसे जहन्नेणं एक्केणं वा जाव पंचहि वाससतेहि खवयंति ? कयरे णं भंते ! ते देवा जाय पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति ? कयरे णं भंते ! ते देवा जाव पंचहि वाससतसहस्से हि खवयंति ? गोयमा ! वाणमंतरा देवा अणते कम्मंसे एगेणं वाससएणं खवयंति, असुरिंदयज्जिया भवणवासी देवा प्रणते कम्मसे दोहि वाससएहि खवयंति, असुरकुमारा(?रिदा) देवा अणते कम्मसे तोहि वाससएहि खवयंति, गह-नक्खत्त-तारारूवा जोतिसिया देवा अणते कम्मंसे चतुवास जाव खवयंति, चंदिम-सूरिया जोतिसिदा जोतिसरायाणो अणते कम्मंसे पंचहि वाससहि खवयंति / सोहम्मीसाणगा देवा अणते कम्मसे एगेणं वाससहस्सेणं जाव खवयंति, सणंकुमार-माहिदगा देवा अणते कम्मसे दोहि वाससहस्से हि खवयंति, एवं एएणं अभिलावेणं बंभलोग-लंतगा देवा अणते कम्मसे तोहिं वाससहस्सेहि खवयंति, महासुक्क-सहस्सारगा देवा अणते० चउहि वाससह 0, आणय-पाणय-आरण-अच्चुयगा देवा प्रणंते० पंचहि वाससहस्से हि खवयंति / हेडिमगेबेज्जगा देवा अणते कम्मसे एगेणं बाससयसहस्सेणं खवयंति, मज्झिमगेवेज्जगा देवा अणते. दोहि वाससयसहस्सेहि खवयंति, उवरिमोवेज्जगा देवा अणते कम्मंसे तिहि वाससयसह० जाच खवयंति, विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियगा देवा अणते. चहि वास० जाव खवयंति, सम्वसिद्धगा देवा अणते कम्मसे पंचहि वाससयसहस्सेहि खवयंति / एए णं गोयमा! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एक्केण वा दोहि तीहि वा उक्कोसेणं पंचहि वाससएहि खवयंति / एए णं गोयमा ! ते देवा जाव पंचहि वाससहस्सेहि खवयंति / एएणं गोयमा ! ते देवा जाच पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / अद्वारसमे सए : सप्तमो उद्देसओ समत्तो // 18-7 // [51 प्र.] हे भगवन् ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक सौ वर्ष, यावत-पांच सौ वर्षों में क्षय करते हैं ? भगवन ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो यावत् पांच हजार वर्षों में अनन्त कर्माशों का क्षय कर देते हैं ? और हे भगवन् ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को यावत् पांच लाख वर्षों में क्षय कर देते हैं.? [51 उ.] गौतम ! वे वाणव्यन्तर देव हैं, जो अनन्त कर्भाशों को एक-सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं। असरेन्द्र को छोड़ कर शेष सब भवनपति देव अनन्त कर्माशों को दो सौ वर्षों में, तथा Page #1991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মিহাসরিন असुरकुमार देव अनन्त कर्माशों को तीन सौ वर्षों में ; ग्रह, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देव चार सौ वर्षों में और ज्योतिषीन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य अनन्त कर्माशों को पांच सौ वर्षों में क्षय कर देते हैं। सौधर्म और ईशानकल्प के देव अनन्त कर्माशों को यावत् एक हजार वर्षों में खपा देते हैं / सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देव अनन्त कर्माशों को दो हजार वर्षों में खपा देते हैं। इस प्रकार आगे इसी अभिलाप के अनुसार-ब्रह्मलोक और लान्तककल्प के देव अनन्त कर्माशों को तीन हजार वर्षों में खपा देते हैं। महाशुक और सहस्रार देव अनन्त कर्माशों को चार हजार वर्षों में, आनतप्राणत, पारण और अच्युतकल्प के देव अनन्त कर्माशों को पांच हजार वर्षों में क्षय कर देते हैं। अधस्तन अंबेयक त्रय के देव अनन्त कर्माशों को एक लाख वर्ष में, मध्यमवेयकत्रय के देव अनन्त कर्माशों को दो लाख वर्षों में, और उपरिम अवेयकत्रय के देव अनन्त कर्माशों को तीन लाख वर्षों में क्षय करते हैं। विजय, बैजयंत, जयन्त और अपराजित देव अनन्त कर्माशों को चार लाख वर्षों में क्षय कर देते हैं और सर्वार्थसिद्ध देव, अपने अनन्त कर्माशों को पाँच लाख वर्षों में क्षय कर देते हैं / इसीलिए हे गौतम ! ऐसे देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक सौ, दो सौ या तीन सौ वर्षों में, यावत् पांच लाख वर्षों में क्षय करते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। विवेचन—देवों द्वारा अनन्त कर्माशों को क्षय करने का कालमान-प्रस्तुत 4 सूत्रों (48 से 51 तक) में चारों जाति के देवों के द्वारा अनन्त कर्माशों को क्षय करने का कालमान बताया गया है। नीचे इसकी सारिणी दी जाती है कर्मक्षय करने का कालमान . ..-.--- -- ----- ... .. . ... देवों का नाम ..........--. . .. .- 1. वाण व्यन्तर देव 2. असुरकुमार के सिवाय भवनपतिदेव 3. असुरकुमार देव 4. ग्रह-नक्षत्र-तारारूप ज्योतिष्कदेब 5. ज्योतिषीन्द्र चन्द्र-सूर्य 6. सौधर्म-ईशानकल्प के देव 7. सनत्कुमार-माहेन्द्र देव 8. ब्रह्मलोक लान्तक देव 6. महाशुक्र-सहस्रार देव 10. आनत-प्राणत-पारण-अच्युतकल्प देव 11. अधस्तन ग्रेवेयक देव 12. मध्यम प्रैवेयक देव 100 वर्षों में 200 वर्षों में 300 वर्षों में 400 वर्षों में 500 वर्षों में 1000 वर्षों में 2000 वर्षों में 3000 वर्षों में 4000 वर्षों में 5000 वर्षों में एक लाख वर्ष में दो लाख वर्षों में Page #1992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [727 देवों के नाम कर्मक्षय करने का कालमान 13. उपरितन ग्रेवेयक देव 14. विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित देव 15. सर्वार्थसिद्ध देव तीन लाख वर्षों में चार लाख वर्षों में पांच लाख वर्षों में अनन्तकांश क्षय का तात्पर्य यह है कि देवों के पुण्यकर्म प्रकृष्टतर और प्रकष्टतम रस वाले होते हैं / अतः यहाँ अनन्तकर्माशों के क्षय करने का जो कालक्रम बताया है, वह उत्तरोत्तर प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रसवाले कर्मों के क्षय का समझना चाहिए। __ जैसे व्यन्तरों के अनन्तकर्मपुद्गल अल्पानुभागवाले होने से शी .. खप जाते हैं / उनकी अपेक्षा भवनपतियों के अनन्त कर्मपुदगल प्रकृष्ट अनुभाग वाले होने से अधिक काल यानी 200 वर्षों में खपते हैं। 1 / अठारहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 821-822 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 753-754 Page #1993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'अणगारे' आठवाँ उद्देशक : 'अनगार' भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे दबे कुकुटादि के कारण ईर्थापथिक क्रिया का सकारण निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं क्यासी [1 प्र. राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् इस प्रकार पूछा 2. [1] अणगारस्स गं भंते ! भावियप्पणो पुरओ दुहनो जुगमायाए पेहाए पेहाए रोयं रोयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा बट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते ! कि इरियाव हिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? / गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जति, नो संपराइया किरिया कज्जति / [2-1 प्र.] भगवन् ! सम्मुख और दोनों ओर युगमात्र (गाड़ी के जुए प्रमाण) भूमि को देखदेख कर ईर्यापूर्वक गमन करते हुए भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे मुर्गी का बच्चा, बतख (वर्तक) का बच्चा अथवा कुलिंगच्छाय (चींटी जैसा सूक्ष्म जीव) या (या दब) कर मर जाए तो, भगवन् ! उक्त अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिको क्रिया लगती है ? [2-1 उ.] गौतम ! यावत् उस (पूर्वकथित) भावितात्मा अनगार को, यावत् ऐपिथिको क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। [2] से केण?णं भंते ! एवं बुचइ ? जहा सत्तमसए सत्तुद्देसए (स० 7 उ०७ सु०१ [2]) जाव अट्ठो निरिखत्तो / सेवं भंते ! 0 जाव विहरति / [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि पूर्वोक्त भावितात्मा अनगार को यावत् साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? [2-2 उ.] गौतम ! सातवें शतक के सप्तम उद्देशक (के सू. 1-2) के अनुसार जानना चाहिए / यावत् अर्थ का निक्षेप (निगमन) करना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। Page #1994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 8] विवेचन --मावितात्मा अनगार को साम्परायिक क्रिया क्यों नहीं लगती? जिस भावितात्मा अनगार के क्रोधादि कषाय नष्ट हो गये हैं, उसके पैर के नीचे पाकर यदि कोई जन्तु अकस्मात् मर जाता है तो उसे ईपिथिकी क्रिया ही लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं, क्योंकि साम्परायिकी सकपायी जीवों को लगती है, अकषायो को नहीं। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है'सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयो / ' पुरओ दुहमओ : विशेषार्थ : पुरमो प्रागे-सामने, दुहनो-पीठ पीछे और दोनों पार्श्व (अगल बगल) में। भगवान् का जनपद-विहार, राजगृह में पदार्पण और गुणशील चैत्य में निवास 3. तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जाव विहरइ / [3] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बाहर के जनपद में यावत् विहार कर गए / 4. तेगं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पुढविसिलावट्टए।। [4] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर में (गुणशीलक नामक चैत्य था) यावत् पृथ्वी शिलापट्ट था। 5. तस्स णं गुणसिलस्स चेतियस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउत्थिया परिवसति / [5] उस गुणशीलक उद्यान के समीप बहुत-से अन्यतीथिक निवास करते थे। 6. तए णं समणे भगवं महावीरे जाब समोसढे जाव परिसा पडिगता / [6] उन दिनों में (एक बार) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् (धर्मोपदेश श्रवण कर, बन्दना करके) वापिस लौट गई। विवेचन -भगवान का मुख्य रूप से विचरणक्षेत्र, निवासस्थान और पट्ट आदि---भगवान् का मुख्यतया विचरणक्षेत्र उन दिनों राजगृह नगर था। भगवान् वहाँ गुणशीलक उद्यान में निवासकरते थे और मुख्य रूप से पृथ्वीशिला के बने हुए पट्ट पर विराजते थे। देवों द्वारा समवसरण की रचना की जाती थी। भगवान् समवसरण में विराज कर धर्मोपदेश देते थे। अन्यतीथिकों द्वारा श्रमणनिर्ग्रन्थों पर हिंसापरायणता, असंयतता एवं एकान्तबालत्व के प्राक्षेप का गौतमस्वामी द्वारा समाधान, भगवान् द्वारा उक्त यथार्थ उत्तर की प्रशंसा 7. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो महावीरस्स जे? अंतेवासी इंदभूती नामं प्रणगारे जाव उड्ढंजाणू जाब विहरइ / [7] उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी (पट्टशिष्य) 1. (क) भगवती. अ. वति, पत्र 754 (ख) भगवनी. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी) ए. 2736-2737 Page #1995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 730] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र श्री इन्द्रभूति नामक अनगार यावत्, ऊर्ध्वजानु (दोनों घुटने ऊँचे करके) यावत् तप-संयम से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते थे। 8. तए गं ते अन्नउस्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 भगवं गोयमं एवं क्यासि-तुम्भे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला पावि भवह / [8] एक दिन वे अन्यतीर्थिक, श्री गौतम स्वामी के पास आकर कहने लगे-पार्यो ! तुम त्रिविध-त्रिविध से (तीन करण और तीन योग से) असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। 9. तए गं भगवं गोयमे ते अन्नउस्थिए एवं क्यासि-केणं कारेणेणं प्रज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवामो ? .] इस पर भगवान गौतम स्वामी ने उन (प्राक्षेपकर्ता) अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-“हे आर्यो ! किस कारण से हम तीन करण-तीन योग से असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हैं ? 10. तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयमं एवं वदासी-तुम्भे गं अज्जो ! रोवं रीयमाणा पाणे पेच्चेह अभिहणह जाव उबद्दवेह / तए णं तुम्भे पाणे पेम्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यानि भवह। [10 उ.7 तब वे अन्यतीथिक, भगवान गौतम से इस प्रकार कहने लगे हे आर्य ! तुम गमन करते हुए जीवों को आक्रान्त करते (दबाते) हो, मार देते हो, यावत्-उपद्रवित (भयाक्रान्त) कर देते हो। इसलिए प्राणियों को अाक्रान्त यावत् उपद्रत करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत, यावत् एकान्त बाल हो / 11. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं वदासि-नो खलु अज्जो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेच्चेमो जाव उववेमो, अम्हे णं प्रज्जो रोयं रीयमाणा कायं च जोयं च रोयं च पडुच्च दिस्स दिस्स पदिस्स पदिस्स क्यामो। तए णं अम्हे दिस्स दिस्स वयमाणा पदिस्स पदिस्स क्यमाणा णो पाणे पेच्चेमो जाव णो उवहवेमो। तए णं अम्हे पाणे प्रपच्चेमाणा जाव अमोहवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया यावि मधामो / तुम्भे गं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह। [11 उ.] (गौतम स्वामी.) यह सुन कर भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! हम गमन करते हुए न तो प्राणियों को कुचलते हैं, न मारते हैं और न भयाक्रान्त करते हैं, क्योंकि आर्यो! हम गमन करते समय काया (शरीर की शक्ति को), योग को (संयम व्यापार को) और धीमी-धीमी गति को ध्यान में रख कर देख-भाल कर विशेष रूप से निरीक्षण करके चलते / अत: हम देख-देख कर एवं विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए चलते हैं, इसलिए हम प्राणियों को न तो दबाते-कुचलते हैं, यावत् न उपद्रवित करते (पीड़ा पहुँचाते) हैं। इस प्रकार प्राणियों को आक्रान्त न करते हुए, यावत् पीड़ित न करते हुए हम तीन करण और तीन योग से यावत् एकान्त पण्डित हैं / हे प्रायों ! तुम स्वयं ही त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत एकान्त बाल हो। Page #1996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ शतक : उद्देशक 8] [731 12. तए णं ते अन्नउस्थिया भगवं गोयमं एवं वदासि-केणं कारणं अज्जो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो? [12] इस पर वे अन्यतीथिक भगवान् गौतम से इस प्रकार बोले- आर्य ! किस कारण से हम त्रिविध-त्रिविध से यावत् एकान्त बाल हैं ? 13. तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउथिए एवं वयासि-तुम्भे गं अज्जो ! रोयं रोयमाणा पाणे पेच्नेह जाय उवद्दवेह / तए णं तुम्भे पाणे पेच्चेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं जाव एगंतबाला यावि मवह। [13] तब भगवान् गौतम स्वामी ने उन अन्यतोथिको से इस प्रकार कहा-हे अार्यो ! तुम चलते हुए प्राणियों को प्राक्रान्त करते हो, यावत् पोडित करते हो। जोवों को प्राक्रान्त करते हुए यावत् पीडित करते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। 14. तए णं भगवं गोयमे ते अन्न उत्थिए एवं पडिहणइ, प० 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 गच्चासन्ने जाव पज्जुवासति / [14] इस प्रकार गौतम स्वामी ने उन अन्यतोथिकों को निरुत्तर कर दिया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर के समीप पहुँचे और उन्हें वन्दना-नमस्कार करके न तो अत्यन्त दूर और न अतीव निकट यावत् पर्युपासना करने लगे / 15. 'गोयमा !' ई समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासि—सुट्ठ णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउस्थिए एवं वयासि, साहु णं तुमं गोयमा! ते अन्नउत्थिए एवं वदासि, अत्थि णं गोयमा ! ममं बहये अंतेवासी समगा निग्गंथा छउमत्था जे णं नो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए जहा णं तुम, तं सुछ गं तुमं गोयमा ! ते अन्न उत्थिए एवं क्यासि, साहु णं तुमं गोयमा ! ते अन्नउस्थिए एवं वदासि / [15] 'गौतम !' इस नाम से सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार कहा-हे गौतम ! तुमने उन अन्यतोथिकों को अच्छा कहा, तुमने उन अन्यतीथिकों को यथार्थ कहा। गौतम ! मेरे बहुत-से शिष्य श्रमण निर्ग्रन्थ छमस्थ हैं, जो तुम्हारे समान उत्तर देने में समर्थ नहीं हैं। जैसा कि तुमने उन अन्यतीथिकों को ठीक कहा; उन अन्यतीथिकों को बहुत ठीक कहा / विवेचन----'कायं च जोयं च रीयं च पडुच्च विस्स ......"क्यामो' : तात्पर्य-गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथिकों के प्राक्षेप का उत्तर देते हुए कहा कि हम प्राणियों को कुचलते, मारते या पीड़ित करते हुए नहीं चलते, क्योंकि हम (कार्य) शरीर को देख कर चलते हैं, अर्थात्-शरीर स्वस्थ हो, सशक्त हो, चलने में समर्थ हो, तभी चलते हैं, तथा हम नंगे पैर चलते हैं, किसी वाहन का उपयोग नहीं करते, इसलिए किसी भी जोव को कुचलते-दबाते या मारते नहीं। फिर हम योग-अर्थात्संयमयोग को अपेक्षा से ही गमन करते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि के प्रयोजन से ही गमन करते Page #1997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 732] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र हैं, गोचरी आदि जाना हो, ग्रामानुग्राम विहार करना हो, या दया या सेवा का कोई कार्य हो, तभी चलते हैं, विना प्रयोजन गमन नहीं करते। और चलते समय भी चपलता, हड़बड़ी और शीघ्रता से रहित ईर्यापथशोधनपूर्वक दांये-बाए, आगे-पीछे देख कर चलते हैं। कठिन शब्दार्थ पेच्चेह-कुचलते हो, अभिहणह-मारते हो, टकराते हो, उबद्दवेह-पीडित करते हो। दिस्स दिस्स-देख-देख कर / पदिस्त पदिस्स-विशेष रूप से देख कर / छमस्थ मनुष्य द्वारा परमाणु द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध को जानने और देखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा 16. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवता महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हद्वतुट्ठ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 एवं वदासि-छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं कि जाणइ पासइ, उदाहु न जाणइ न पासइ ? गोयमा ! प्रत्थेगतिए जाणति, न पाति; अत्थेगतिए न जाणति, न पासति / 16 प्र.] तत्पश्चात श्रमण भगवान महावीर के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट होकर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को बन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या छमस्थ मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जानता-देखता है अथवा नहीं जानतानहीं देखता? [16 उ.] गौतम ! कोई (छद्मस्थ मनुष्य) जानता है, किन्तु देखता नहीं, और कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। 17. छउमत्थे णं भंते ! मसे दुपएसियं खधं कि जाणति पासइ ? एवं चेव। [17 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य द्विप्रदेशी स्कन्ध को जानता-देखता है, अथवा नहीं जानता, नहीं देखता? [17 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए / 18. एवं जाव असंखेज्जपएसियं / [18] इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक (को जानने देखने के विषय में) कहना चाहिए। 1. (क) भगववती. अ. वत्ति, पत्र 755 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्द जी) भा. 6, पृ. 2740 2. (क) वहीं, भा. 6, पृ. 2738-2739 (ख) भगवती. अ, बत्ति, पत्र 755 . Page #1998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [733 19. छउमस्थे णं भते ! मणूसे अणंतपएसियं खधं कि० पुच्छा? गोयमा ! प्रत्थेगतिए जाणति पासति; अत्थेगतिए जाणति, न पासति ; प्रत्थेगतिए न जाणति, पासति ; अत्थेगतिए न जाणति न पासति / [16 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानता देखता है ? इत्यादि प्रश्न ? [16 उ.] गौतम ! 1. कोई जानता है, और देखता है, 2. कोई जानता है, किन्तु देखता नहीं ; 3. कोई जानता नहीं, किन्तु देखता है, और 4. कोई जानता भी नहीं और देखता भी नहीं। विवेचन--परमाण एवं द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध को जानने-देखने को छद्मस्थ को शक्तिछदास्थ शब्द से यहाँ निरतिशय ज्ञानी (जो अतिशय ज्ञानधारी नहीं है, ऐसा) विवक्षित है / ऐसे छद्मस्थ मनुष्य को परमाणु प्रादि सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान एवं दर्शन होते हैं या नहीं होते ? यह प्रश्न का प्राशय है। इसके उत्तर का प्राशय यह है कि कई छद्मस्थ मनुष्यों को सूक्ष्म पदार्थविषयक ज्ञान तो होता है, किन्तु दर्शन नहीं होता। क्योंकि 'श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुतदर्शनाभावात्'–श्रुतज्ञानी जिन सूक्ष्मादि पदार्थों को श्रुत के बल से जानता है, उन पदार्थों का दर्शन यानी प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभव उसे नहीं होता / इसीलिए यहाँ कहा गया है कि कितने ही छद्मस्थ मनुष्य परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों का ज्ञान तो शास्त्र के आधार से कर लेते हैं, परन्तु उनके साक्षात् दर्शन से रहित होते हैं। श्रतोपयक्तातिरिक्तस्त न जानाति, न पश्यति' इस नियम के अनसार जो छदा श्रत ज्ञानी मनुष्य श्रुतोपयोग से रहित होते हैं, वे सूक्ष्मादि पदार्थों को न तो जान पाते हैं, और न ही देख पाते हैं। इसी प्रकार द्विप्रदेशो स्कन्ध (द्वयणुक अवयव) से लेकर असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध (तीन, चार, पांच, छह, सात और पाठ, नौ, दश और संख्यात-प्रदेशी एवं असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध) तक के विषय में भी समझना चाहिए।' अनन्त प्रदेशो स्कन्ध को जानने-देखने के विषय में चौभंगी-इस विषय में चार भंग बताए गए हैं / यथा--(१) कोई छद्मस्थ मनुष्य स्पर्श आदि से उसे जानता है और चक्षु से देखता है / (2) कोई छमस्थ स्पादि द्वारा उसे जानता तो है, परन्तु नेत्र के अभाव में उसे देख नहीं पाता / (3) कोई छमस्थ मनुष्य स्पर्शादि का अविषय होने से उसे नहीं जान पाता, किन्तु चक्षु से उसे देखता है / यह तृतीय भग है : जैसे दूरस्थ पर्वत आदि को कोई छद्मस्थ मनुष्य चक्षु के द्वारा देखता है, पर स्पर्शादि द्वारा उसे जानता नहीं। (4) तथा इन्द्रियों का अविषय होने से कोई छद्मस्थ मनुष्य न तो जान पाता है, और न ही देख पाता है, जैसे अन्धा मनुष्य / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 755 (ख) भगवती. (प्रमेय चन्द्रिका टोका) भा. 12, पृ. 181 2. (क) वहीं, भाग. 12, पृ. 182 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 756 Page #1999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 734] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अवधिज्ञानी परमावधिज्ञानी और केवली द्वारा परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को जानने-देखने के सामर्थ्य का निरूपण ___ 20. पाहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं० ? जहा छउमत्थे एवं आहोहिए वि जाव प्रणंतपएसियं। [20 प्र.] भगवन् ! क्या प्राधोऽवधिक (अवधिज्ञानो) मनुष्य, परमाणुपुद्गल को जानता देखता है ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] जिस प्रकार छद्मस्थ मनुष्य के विषय में कयन किया है, उसी प्रकार आधोऽवधिक मनुष्य के विषय में समझना चाहिए / इसो प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशो स्कन्ध तक कहना चाहिए / 21. [1] परमाहोहिए गं भंते ! मगूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जागइ तं समयं पासति, जं समयं पासति तं समयं जागति ? णो तिणढे समझें / [21/1 प्र. भगवन् ! क्या परमावधिजानो मनुष्य परमाणु-पुद्गल को जिस समय जानता है, उसो समय देखता है ? और जिस समय देखता है, उसो समय जानता है ? [21-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] से केणठेगं भंते ! एवं कुच्चद-परमाहोहिए णं मणसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणति नो तं समयं पासति, जं समयं पासति नो तं समयं जाणइ ? गोयमा ! सागारे से नाणे भवति, अणागारे से सणे भवति, से तेण?णं जाव नो तं समयं जाणइ। [21-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि परमावधिज्ञानी मनुष्य परमाणुपुद्गल को जिस समय जानता है, उसो समय देखता नहीं है और जिस समय देखता है, उस समय जानता नहीं है ? [21-2 उ.] गौतम ! परमावधिजानी का ज्ञान साकार (विशेष-ग्राहक) होता है, और दर्शन अनाकार (सामान्य-ग्राहक) होता है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि यावत् जिस समय देखता है उस समय जानता नहीं। 22. एवं जाव अणंतपएसियं / [22] इसो प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशो स्कन्ध तक कहना चाहिए / 23. केवलो णं भंते ! मगूसे परमाणुपोग्गलं. ! जहा परमाहोहिए तहा केवलो वि जाव अशंतपएसियं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। अट्ठारसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 18-8 // Page #2000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 8] 7i35 [23 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी जिस समय परमाणुपुद्गल को जानता है, उस समय देखता है ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परमावधिज्ञानी के विषय में कहा है, उसी प्रकार केवलज्ञानी के लिए भी कहना चाहिए। और इसी प्रकार (का कथन) यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (समझना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन–अवधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी के युगपत ज्ञान-दर्शन की शक्ति विषयक प्ररूपणा-आधोऽवधिक का अर्थ है--सामान्य अवधिज्ञानी, परमावधिक का अर्थ है-उत्कृष्ट अवधिज्ञानी / परमावधिक को अन्तर्मुहूर्त में अवश्यमेव केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। परस्पर विरुद्ध दो धर्म वालों का एक ही काल में एक स्थान में होना संभव नहीं होता / तथा ज्ञान और दर्शन दोनों की क्रिया एक ही समय में नहीं होती, क्योंकि समय सुक्ष्मतम काल है, आँख की पलक झा असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं। जैसे कमल के सौ पत्तों को सूई से भेदन की प्रतीति तो एक साथ एक ही काल की होती है, परन्तु कमल के सौ पत्तों के एक साथ भेदन में भी असंख्यात समय लग जाते हैं।' ॥अठारहवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 756 (ख) प्रमाणनयतत्त्वालोक परि. 1 Page #2001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'भविए' नौवाँ उद्देशक : भव्य (द्रव्यने रयिकादि) नरयिकादि चौबीस दण्डकों में भव्य-द्रव्यसम्बन्धित प्रश्न का यथोचित युक्तिपूर्वक समाधान 1. रायगिहे जाव एवं वयासि[१] राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने भगवान महावीर स्वामो से यावत् इस प्रकार पूछा२. [1] अस्थि णं भंते ! भवियादब्वनेरइया, भवियदन्वनेरइया ? हंता, अस्थि / [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या भव्य द्रव्य-नरयिक-'भव्य-द्रव्य-नैरयिक' है ? [2-1 उ.] हाँ, गौतम ! है / [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -मवियदवनेरइया, मवियदन्वनेरइया ? गोयमा ! जे भविए पंचेदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा नेरइएसु उववज्जित्तए, से तेणठेणं / (2.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि भव्य-द्रव्य-नैयिक-'भव्य-द्रव्य नरयिक' है ? 2-2 उ.] गौतम ! जो कोई पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक या मनुष्य, (भविष्य में) नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह भव्य-द्रव्य-नैरयिक कहलाता है / इस कारण से ऐसा यावत् कहा गया है। 3. एवं जाव थणियकुमाराणं / [3] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए / 4. [1] अत्थि णं भंते ! भवियदवपुढविकाइया, भविपदध्वपुढविकाइया ? हंता, अत्थि। [4.1 प्र] भगवन् ! क्या भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक--भव्य-द्रव्य-पृथ्वी का यिक है ? [4-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह ऐसा ही) है। [2] से केणठेणं० ? गोयमा ! जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उवज्जिनए, से तेणठेणं० / [4-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं, कि भव्यद्रव्य-पृथ्वीकायिक—'भव्यद्रव्य पृथ्वीकायिक है। Page #2002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 9] [4-2 उ.] गौतम ! जो तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक कहलाता है / 5. पाउकाइय-वणस्सतिकाइयाणं एवं चेव / [5] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में समझना चाहिए। 6. तेउ-वाउ-बेंदिय-तेइंदिय चरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोगिए वा मणुस्से वा। [6] अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याय में जो कोई तिर्यञ्च या मनुष्य उत्पन्न होने के योग्य हो, वह भव्य-द्रव्य-अग्निकायिकादि कहलाता है / 7. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचेदियतिरिक्खजोणिए वा। [7] जो कोई नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव, अथवा पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक जीव, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह भव्य-द्रव्य-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कहलाता है। 8. एवं मणुस्साण वि। [8] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (समझ लेना चाहिए।) . 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया / [6] वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिए। विवेचन-भव्य और द्रव्य का पारिभाषिक अर्थ-मुख्यतया भविष्यत्काल की पर्याय का जो कारण है. वह 'द्रव्य' कहलाता है। कभी-कभी भूतकाल की पर्याय वाला भी 'द्रव्य' कहलाता है / जैसे-भूतकाल में जो राजा था वर्तमान में नहीं है, फिर भी वह 'राजा' कहलाता है / वह द्रव्य राजा है / इसी प्रकार भविष्य में जो राजा होगा, वर्तमान में नहीं, वह भी 'राजा' के नाम से कहा जाता है / वह भी 'द्रव्य राजा' है / यहाँ मुख्यतया भविष्यकाल की पर्याय के कारण को 'भव्य-द्रव्य' कहा गया है / किन्तु 'भवितु योग्याः भव्याः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भूतपर्याय वाले जीवों को भव्यद्रव्य नहीं कहा गया है / इसलिए भविष्यकाल में जो जीव नारक-पर्याय में उत्पन्न होने वाला है, चाहे वह पंचेन्द्रिय तिर्यच हो, चाहे मनुष्य हो, वह जीव भव्य-द्रव्य-नैरयिक कहलाता है। वर्तमान पर्याय में जो नै रयिक है, वह द्रव्यनै रयिक नहीं, भावनै रयिक है / भव्यद्रव्य तीन प्रकार के होते हैं(१) एकभविक, (2) बद्धायुष्क और (3) अभिमुख-नामगोत्र / जो जीव विवक्षित एक-अमुक भव के अनन्तर ही अमुक दूसरे भव में उत्पन्न होने वाले हैं, वे 'एकभविक' हैं / जिन्होंने पूर्वभव की आयु का तीसरा भाग प्रादि के शेष रहते ही अमुक भव का आयुष्य बांध लिया है, वे 'बद्घायुष्क' हैं / तथा जो पूर्वभव का त्याग करने के अनन्तर, अमुक भव के आयुष्य, नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन करते हैं, वे 'अभिमुख-नामगोत्र' कहलाते हैं।' 1. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 12 पृ. 197-198 Page #2003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 738] [আসেন্ধুি चौबीस दण्डकों में भव्य-द्रव्यनैरयिकादि की स्थिति का निरूपण 10. भविषदन्बनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडी। [10 प्र.] भगवन् ! भव्य-द्रव्य-नै रयिक को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [10 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) पूर्वकोटि वर्ष (करोड़ पूर्व वर्ष) की कही गई है। 11. भवियदव्वप्नसुरकुमारस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं तिन्नि पलिश्रोवमाई। [11 प्र.] भगवन् ! भव्य-द्रव्य-असुरकुमार की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [11 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही गई है। 12. एवं जाव थणियकुमारस्स / [12] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए। 13. भवियदत्वपुढविकाइयस्स णं पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई। [13 प्र.] भगवन् ! भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [13 उ.] गौतम ! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागरोपम की कही गई है। 14. एवं प्राउकाइयस्स वि / [14] इसी प्रकार अप्कायिक की स्थिति (के विषय में कहना चहिए)। 15. तेउ-वाऊ जहा नेरइयस्स / [15] भव्यद्रव्य अग्निकायिक एवं भव्य-द्रव्य-वायुकायिक की स्थिति नैरयिक के समान है। 16. वणस्सइकाइयस्स जहा पुढविकाइयस्स / [16] वनस्पतिकायिक की स्थिति पृथ्वीकायिक के समान समझनी चाहिए / 17. बेईदिय-तेइंदिय-चतुरिदियस्स जहा नेरइयस्स। [17] (भव्यद्रव्य-) द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय की स्थिति भी नैरयिक के समान जाननी चाहिये। 18. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [18] (भव्यद्रव्य-) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक की स्थिति जघन्य अन्तमुहर्त की है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम काल की है। Page #2004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 9] [739 19. एवं मणुस्सस्स वि। [19] (भव्यद्रव्य-) मनुष्य की स्थिति भी इसी प्रकार है / 20. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। __ अट्ठारसमे सए : नवमो उद्देसओ समतो // 18-1 // [20] (भव्यद्रव्य) वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव की स्थिति असुरकुमार के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भव्य-द्रव्य नारकादि को जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति-जो संज्ञी या प्रसंज्ञी अन्तर्मुहूर्त की आय वाला जीव मर कर नरकगति में जाने वाला है, उसकी अपेक्षा भव्य-द्रव्य-नैरयिक की जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त की कही गई है। उत्कृष्ट करोड़ पूर्व की आयु वाला जीव मर कर नरकगति में जाए उसकी अपेक्षा से उत्कृष्ट स्थिति करोड़ पूर्व वर्ष की कही गई है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले मनुष्य या तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की अपेक्षा से भव्यद्रव्य असुरकुमारादि को जघन्य स्थिति जाननी चाहिए / तथा देवकुरु- उत्तर कुरु से यौलिक मनुष्य की अपेक्षा से तीन पल्योपभ को उत्कृष्ट स्थिति समझनी चाहिए। भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति ईशानकल्प (देवलोक) की अपेक्षा कुछ अधिक दो सागरोपम की है। ___भव्य-द्रव्य अग्निकायिक और वायुकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व वर्ष की है, क्योंकि देव और यौगलिक मनुष्य अग्निकाय और वायुकाय में उत्पन्न नहीं होते / भव्यद्रव्यपंचेन्द्रियतिर्यञ्च को उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की बताई है, वह सातवें नरक के नारकों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / और भव्य द्रव्य मनुष्य की 33 सागरोपम की स्थिति सर्वार्थसिद्ध से च्यवकर पाने वाले देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए।' / / अठारहवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त // 1. भगवतो, अ. वृत्ति, पत्र 756-757 Page #2005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'सोमिल' दसवाँ उद्देशक : 'सोमिल' भावितात्मा अनगार के लब्धि-सामर्थ्य से असि-क्षुरधारा-अवगाहनादि का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं वदासि-- [1] राजगृह नगर में भगवान् महावीर स्वामी से, गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा२. [1] अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? हंता, ओगाहेज्जा। [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार (वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से) तलवार की धार पर अथवा उस्तरे की धार पर रह सकता है ? [2-1 उ.] हाँ, गौतम ! (वह) रह सकता है / [2] से गं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज्ज वा ? जो इण? सम8 / णो खलु तत्थ सत्थं कमति / [2-2 प्र.] (भगवन् ! ) क्या वह वहाँ (तलवार या उस्तरे की धार पर) छिन्न या भिन्न होता है ? [2-2 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं। क्योंकि उस (भावितात्मा) पर शस्त्र संक्रमण नहीं करता, (नहीं चलता।) 3. एवं जहा पंचमसते (स० 5 उ०७ सु०६-८) परमाणुपोग्गलबत्तन्यता जाव अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उदावत्तं वा जाव नो खलु तत्थ सत्यं कमति / [3] इत्यादि सब पंचम शतक के सप्तम उद्देशक (के. सू. 6-8) में कही हुई परमाण-पुद्गल की वक्तव्यता, यावत्-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार उदकावर्त (जल के भंवरजाल) में यावत् प्रवेश करता है ? इत्यादि (प्रश्न तक तथा उत्तर में) यावत् वहाँ शस्त्र संक्रमण नहीं करता, (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन-भावितात्मा अनगार का वैकियलब्धि-सामर्थ्य- यहां तीन सूत्रों (1-3) में भावितात्मा अनगार के द्वारा वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से खड्ग आदि शस्त्र पर चलने और प्रवेशादि करने का पंचम शतक के अतिदेशपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। Page #2006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [741 प्रश्नोत्तर-इस प्रकरण में भावितात्मा अनगार के वैक्रियल ब्धि सामर्थ्य से सम्बद्ध निम्नोक्त प्रश्नोत्तर हैं प्रश्न उत्तर हाँ। नहीं। नहीं जलता। 1. तलवार या उस्तरे की धार पर रह सकता है ? 2. क्या वह वहाँ छिन्न भिन्न होता है ? 3. क्या वह अग्निशिखा में से निकल सकता है ? 4. अग्निशिखा से निकलता हुआ जल जाता है ? 5. पुष्कर-संवर्त मेष के बीच में से निकल सकता है ? 6. इसके बीच में से निकलते हुए क्या वह भीग जाता है ? 7. गंगा-सिंधू नदियों के प्रतिस्रोत (उल्टे प्रवाह) में से होकर निकल सकता है? 8. उदकावर्त (पानी के भंवरजाल) में या उदकबिन्दु में प्रवेश कर सकता है ? 6. प्रतिस्रोत में से निकलता हुआ क्या वह स्खलित होता है ? 10. प्रवेश करते हुए क्या उसे जल का शस्त्र लगता है, यानी वह भीग जाता है ? नहीं भीगता। नहीं। नहीं।' परमाणु, द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध तथा वस्ति का वायुकाय से परस्पर स्पर्शास्पर्श निरूपण 4. परमाणुपोग्गले णं भंते ! वाउयाएणं फुडे, वाउयाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुडे ? गोयमा ! परमाणुपोग्गले वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए परमाणुपोग्गलेणं फुडे / [4 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल, वायुकाय से स्पृष्ट (व्याप्त) है, अथवा वायुकाय परमाणु-पुद्गल से स्पृष्ट है ? [4 उ.] गौतम ! परमाणु पुद्गल वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय परमाणु-पुद्गल से स्पृष्ट नहीं है। 5. दुपएसिए णं भंते ! खंधे वाउयाएणं० ? एवं चेव। [5 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक-स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है या वायुकाय द्विप्रदेशिक-स्कन्ध से स्पृष्ट है ? [5 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् जानना चाहिए / ) 6. एवं जाव असंखेज्जपएसिए। [6] इसी प्रकार यावत् असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 757 (ख) भगवती. उपक्रम पृ. 392 . (ग) भगवती सूत्र के थोकड़े छठा भाग. पृ. 37, थोकड़ा नं. 143 Page #2007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 742] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. प्रणंतपएसिए पं भंते ! खंधे वाउ० पुच्छा। . गोयमा! अर्णतपएसिए खंधे वाउयाएणं फुडे, वाउयाए अणंतपएसिएणं खंधेणं सिय फुडे, सिय नो फुडे / [7 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से स्पष्ट है? [7 उ.] गौतग ! अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध वायुकाय से स्पृष्ट है तथा वायुकाय अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता। 8. बत्थी णं भंते ! बाउयाएणं फुडे, वाउयाए बस्थिणा फुडें ? गोयमा ! बत्थी वाउयाएणं फुडे, नो वाउयाए बस्थिणा फुडे / [8 प्र.] भगवन् ! वस्ति (मशक) वायुकाय से स्पृष्ट है, अथवा वायुकाय वस्ति से स्पृष्ट है ? [= उ.] गौतम ! वस्ति वायुकाय से स्पृष्ट है, किन्तु वायुकाय, वस्ति से स्पृष्ट नहीं है। विवेचन परमाणु पुदगल, द्विप्रदेशिकादि स्कन्ध एवं वस्ति वायुकाय से तथा वायुकाय की इनसे स्पृष्टास्पृष्ट होने को प्ररूपणा--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 4 से 8 तक) में परमाणु आदि का वायु से तथा वायु का परमाणु प्रादि से स्पृष्ट (व्याप्त)- अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है। वायु परमाणु-पुद्गल से स्पृष्ट-व्याप्त नहीं है, क्योंकि वायु महान् (बड़ी) है, और परमाणु प्रदेशहित होने से अतिसूक्ष्म है, इसलिए वायु उसमें व्याप्त (बीच में क्षिप्त) नहीं हो सकती, वह उसमें समा नहीं सकती। यही बात द्विप्रदेशी से असंख्य प्रदेशो स्कन्ध के विषय में समझ लेनी चाहिए। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है, क्योंकि वह वायु की अपेक्षा सूक्ष्म है / जब वायुस्कन्ध की अपेक्षा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध महान् होता है, तब वायु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से व्याप्त होती है, अन्यथा नहीं। इसलिए मूलपाठ में कहा गया है कि अनन्तप्रदेशी स्कन्ध वायु से व्याप्त होता है, और वायु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से कदाचित् च्याप्त होती है, कदाचित् नहीं। मशक, वायु से व्याप्त है, वायु मशक से व्याप्त नहीं-मशक में जब हवा भरी जाती है, तब मशक वायु से व्याप्त होती है, क्योंकि वह समग्ररूप से उसके भीतर समाई हुई है। किन्तु वायु काय, मशक से व्याप्त नहीं है / वह वायुकाय के ऊपर चारों ओर परिवेष्टित है। कठिन शब्दार्थ-- फुडे--स्पृष्ट--व्याप्त या मध्य में क्षिप्त / बत्थी—वस्ति---मशक / ' सात नरक, बारह देवलोक, पांच अनुत्तरविमान तथा ईषत्-प्रारभारा पृथ्वी के नोचे परस्पर बद्धादि पुद्गल द्रव्यों का निरूपण 9. अस्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे दव्वाई वण्णओ काल-नील-लोहिय 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 757 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6, (पं. घेवरचंदजी) पृ. 2751-2753 Page #2008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [743 हालिह-सुविकलाई, गंधप्रो सुब्भिगंध-दुखिभगंधाई, रसओ तित्त-कडु-कसाय-अंबिल-महुराई, फासतो कक्खड-मउय-गरुय-लहुय-सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खाई अन्नमन्नबद्धाइं अन्नमनपुट्ठाई जाव' अन्नमनघडत्ताए चिट्ठति ? हंता, अस्थि / [6 प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा-पृथ्वी के नीचे वर्ण से—काला, नीला, पीला, लाल और श्वेत, गन्ध से--सुगन्धित और दुर्गन्धित; रस से--तिक्त, कटुक, कसैला, अम्ल (खट्टा) और मधुर; तथा स्पर्श से--कर्कश (कठोर), मृदु (कोमल), गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष--इन बीस बोलों से युक्त द्रव्य क्या अन्योन्य (परस्पर) बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, यावत् अन्योन्य सम्बद्ध हैं ? [6 उ.] हाँ, गौतम ! (ये द्रव्य इसी प्रकार अन्योन्यबद्ध आदि) हैं। 10. एवं जाव अहेसत्तमाए / [10] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी तक जानना चाहिए। 11. अस्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे ? एवं चेव। [11 प्र.] भगवन् ! सौधर्म-कल्प के नीचे वर्ण से--इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न ? [11 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) उसी प्रकार (पूर्ववत्) है। 12. एवं जाव ईसिपब्भाराए पुढवीए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ / [12] इसी प्रकार यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–चतुःसूत्री द्वारा नरक, देवलोक एवं सिद्धशिला के नोचे के द्रव्यों का विश्लेषण-- सात नरकभूमियों, बारह देवलोकों, नौ अवेयकों एवं पांच अनुत्तर विमानों तथा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे स्थित, तथाकथित वर्णादियुक्त परस्परबद्ध आदि द्रव्यों का निरूपण सू. 6 से 12 तक में किया गया है। कठिन शब्दार्थ--अन्नमन्नबद्धाइं--परस्पर गाढ़ आश्लेष से बद्ध / अन्नमन्न-पढ़ाई--एक दूसरे से स्पृष्ट अर्थात्--चारों ओर से गाढ़ रूप से श्लिष्ट / अन्नमन्न-ओगाढाई-एक क्षेत्राश्रित रहे हुए / अन्नमन्नघडताए-परस्पर सामूहिक रूप से घटित = जुड़े हुए। 1. जाव पद सूचक पाठ- अन्नमन्नओगाढाई.अन्तमन्नसिहपडिबद्धाइं इत्यादि पाठ / 2. विवाहपग्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त पृ. 828 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 758 Page #2009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 744] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाणिज्यग्राम नगरवासी सोमिल ब्राह्मण द्वारा पूछे गए यात्रादि सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान द्वारा समाधान 13. तए णं समणे भगवं महाबीरे जाव बहिया जणक्यविहारं विहरइ। [13] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने यावत् बाहर के जनपदों में विचरण किया। 14. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नगरे होत्था / वण्णओ / दूतिपलासए चेतिए / वष्णओ। [14] उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नाम का उद्यान (चैत्य) था। उसका वर्णन करना चाहिए। 15. तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए रिव्वेद जाव सुपरितिट्ठिए पंचण्हं खंडियसयाणं सयस्स य कुडुबस्स आहेबच्चं जाव विहरइ / [15] उस वाणिज्यग्राम नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण (मान) रहता था। जो माढ्य यावत् अपराभूत था / तथा ऋग्वेद यावत् अथर्ववेद, तथा शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों में निष्णात था। वह पांच-सौ शिष्यों (खण्डिकों) और अपने कुटुम्ब पर आधिपत्य करता हुआ यावत् सुखपूर्वक जीवनयापन करता था। 16. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे / जाव परिसा पज्जुवासइ / [16] उन्हीं दिनों में (वाणिज्य ग्राम के द्युतिपलश नामक उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पधारे / यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी। 17. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमोसे कहाए लद्धदृस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं जाव इहमागए जाव इतिपलासए चेतिए अहापडिरूवं जाव विहरति / तं गच्छामि गं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामि, इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ मे से इमाई एयारूवाई अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति तो गं वंदोहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि / अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव वागरणाई नो वागरेहिति तो णं एतेहि चेव अट्ठहि य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामिति कट्ट, एवं संपेहेइ, ए० सं० 2 हाए जाव सरोरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडि० 2 पादविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धि संपरिडे वाणियग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, नि०२ जेणेव दूतिपलासए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति उवा० 2 समणस्त भगवतो महावीरस्स प्रदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महाबीरं एवं वदासि --जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं अव्वाबाहं फासुयविहारं? सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, अन्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। Page #2010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [17] जब सोमिल ब्राह्मण को भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात मालूम हुई तो उसके मन में इस प्रकार का यावत् विचार उत्पन्न हुआ--पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरण करते हुए तथा ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक पदार्पण करते हुए ज्ञातपुत्र श्रमण (महावीर) यावत् यहाँ आए हैं, यावत् चुतिपलाश उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विराजमान हैं। अतः मैं श्रमण ज्ञातपुत्र के पास जाऊं और वहाँ जाकर इन और ऐसे अर्थ (बातें) यावत् व्याकरण (प्रश्नों के उत्तर) उनसे पूछु / यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों यावत् प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार करूंगा, यावत् उनकी पर्युपासना करूंगा / यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों और प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकेंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों और उत्तरों से निरुत्तर कर दुगा / ' ऐसा विचार किया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, यावत् शरीर को वस्त्र और सभी अलंकारों से विभूषित किया / फिर वह अपने घर से निकला और अपने एक सौ शिष्यों के साथ (घिरा हुआ) पैदल चल कर वाणिज्य ग्राम नगर के मध्य में होकर जहाँ द्युतिपलाश-उद्यान था और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आया और श्रमण भगवान् महाबीर से न अतिदुर, न अतिनिकट खड़े होकर उसने उनसे इस प्रकार पूछा---- [प्र. भंते ! आपके (धर्म में) यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार है ? [उ.] सोमिल ! मेरे (धर्म में) यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्रासुकविहार भी है। 18. कि ते भंते ! जत्ता? सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्माय-माणावस्सगमादीएसु जोएसु जयणा से तं जत्ता। [18 प्र.] भंते ! आपके यहाँ यात्रा कैसी है ? [18 उ.] सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और अावश्यक प्रादि योगों में जो मेरी यतना (प्रवृत्ति) है, वही मेरी यात्रा है।। 19. किं ते भंते ! जयणिज्ज ? सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिज्जे य / [16 प्र.] भगवन् ! आपके यापनीय क्या है ? [16 प्र.] सोमिल ! यापनीय दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है--(१) इन्द्रिय-यापनीय और (2) नो-इन्द्रिययापनीय / 20. से कि तं इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिजे-ज मे सोतिदियचक्खिदिय-घाणिदिय-जिनिदिय-फासिदियाई निरुवहयाई वसे वट्टति, से तं इंदियजवणिज्जे / [20 प्र.] भगवन् ! वह इन्द्रिय-यापतीय क्या है ? [20 उ.] सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये Page #2011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 746] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (मेरी) पांचों इन्द्रियाँ निरुपहत (उपघातरहित) और * वश में (रहती) हैं, यह मेरा इन्द्रिययापनीय है। 21. से कि तं नोइंदियजवणिज्जे ? नोइंदियजवणिज्जे-जं मे कोह-माण-माया-लोमा वोच्छिन्ना, नो उदीरेंति, से तं नोइंदियजधणिज्जे / से तं जवणिज्जे / [21 प्र.] भंते ! वह नोइन्द्रिय-यापनीय क्या है ? [21 उ.] सोमिल ! जो मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय व्युच्छिन्न (नष्ट) हो गए हैं; और उदयप्राप्त नहीं हैं, यह मेरा नोइन्द्रियन्यापनीय है / इस प्रकार मेरे ये यापनीय हैं। 22. कि ते भंते ! अव्वाबाहं ? सोमिला ! जं में वातिय-पित्तिय-सेभिय-सन्निवातिया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा उवसंता, नो उदीरेंति, से तं अव्वाबाहं / [22 प्र.] भगवन् ! आपके अव्याबाध क्या है ? [22 उ.] सोमिल ! मेरे वातज, पित्तज, कफन और सन्निपातजन्य तथा अनेक प्रकार के शरीर सम्बन्धी रोग, अातंक एवं शरीरगत दोष उपशान्त हो गए हैं, वे उदय में नहीं पाते / यही मेरा अव्याबाध है। 23. किं ते भंते ! फासुयविहारं ? सोमिला ! जणं पारामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु समासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिज्ज पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, से तं फासुविहारं / [23 प्र.] भगवन् ! आपके प्रासुकविहार कौन-सा है ? [23 उ.] सोमिल ! पाराम, (बगीचे), उद्यान (बाग), देवकुल (देवालय), सभा और प्रपा (प्याऊ) आदि स्थानों में स्त्री-पशु-नपुंसकर्जित वसतियों (प्रावासस्थानों) में प्रासुक, एषणीय पीठ (पीढा-बाजोट), फलक (तख्ता), शय्या, संस्तारक आदि स्वीकार (ग्रहण) करके मैं विचरता हूँ, यही मेरा प्रासुकविहार है। विवेचन--सोमिल बाह्मण (माहन) के द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के भगवान द्वारा उत्तर–सोमिल ब्राह्मण परीक्षाप्रधान बनकर भगवान् के समीप पहुंचा था। वह यह संकल्प लेकर चला था कि अगर श्रमण ज्ञातपुत्र ने मेरे प्रश्नों के यथार्थ उत्तर दिये तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार एवं पर्युपासना करूंगा, अन्यथा नहीं | उसका अनुमान था कि मैं जिन गम्भीर अर्थ वाले शब्दों के अर्थ पूछंगा, श्रमण ज्ञातपुत्र को उनके अर्थों का ज्ञान नहीं होगा। इसलिए उसने भगवान की योग्यता की परीक्षा करने हेतु यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार के सम्बन्ध में प्रश्न किये थे, जिनके समीचीन उत्तर भगवान् ने दिये / ' 1. भगवती. विवेचन (पं घेवरचन्दजो) भा. 6, पृ. 2759 - - Page #2012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [747 यात्रा आदि की परिभाषा-संयम के विषय में प्रवृत्ति-यात्रा है, मोक्ष की साधना में तत्पर पुरुषों द्वारा, इन्द्रिय आदि की वश्यतारूप धर्म को 'थापनीय' कहते हैं। शारीरिक-मानसिक बाधापीड़ा न होना 'अव्याबाध' है और निर्दोष एवं प्रासुक शयन ग्रासन स्थानादि का ग्रहण-उपभोग करना 'प्रासुकविहार' की परिभाषा है / ' सरिसव-भक्ष्याभक्ष्यविषयक सोमिलप्रश्न का भगवान् द्वारा यथोचित समाधान 24. [1] सरिसवा ते भंते ! कि भक्खया, अभखेया ? सोमिला ! सरिसवा मे भक्खेया वि, प्रभक्खेया वि / [24-1 प्र.] भगवन् ! आपके लिए 'सरिसव' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? [24-1 उ.] सोमिल ! 'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। [2] से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि ? से नणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा सरिसवा पण्णत्ता, तं जहा- मित्तसरिसवा य धनसरिसवा य / तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-सहजायए सहड्डियए सहपंसुकीलियए; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सस्थपरिणया य प्रसस्थपरिणया य। तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अमक्खेया / तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा-एसणिज्जा य प्रणेसणिज्जा य / तस्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–जाइता य प्रजाइया य। तत्थ णं जे ते अजाइता ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया / तत्थ णं जे ते जायिया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-लद्धा य प्रलद्धा य / तत्थ गंजे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गेथाणं अभक्खेया / तत्थ गं जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं मक्खेया। से तेण?णं सोमिला ! एवं वुच्चइ जाव प्रभवखेया वि। [24-2 प्र.] भगवन् ! यह आप कैसे कहते हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी ? [24-2 उ.] सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों (शास्त्रों) में दो प्रकार के 'सरिसव' कहे गए हैं / यथा-(१) मित्र-सरिसव (समान वय वाला मित्र) और धान्य-सरिसव (सर्षप-सरसों) / उनमें से जो मित्र-सरिसव हैं, वह तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-(१) सहजात (एक साथ जन्मे हुए), (2) सहवर्धित (एक साथ बड़े हुए) और सहपांशुक्रो डित (एक साथ धूल में खेले हुए)। ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणों निन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। उनमें से जो धान्यसरिसव हैं, वह भी दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-शस्त्रपरिणत और प्रशस्त्रपरिणत / जो प्रशस्त्रपरिणत हैं. ये श्रमणानिर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / जो शस्त्रपरिणत हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष)। अनेषणीय सरिसव तो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / एषणीय - -.. 1. (क) भगवतीविवेचन, पृ. 2759 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 759 Page #2013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 748] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सरिसव दो प्रकार के हैं, यथा-याचित (मांग कर लिये हुए) और अयाचित (बिना मांगे हुए) / अयाचित श्रमण निम्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। याचित भी दो प्रकार के हैं, यथा--लब्ध (मिले हुए) और अलब्ध (नहीं मिले हुए) / अलब्ध श्रमण निन्थों के लिए अभक्ष्य हैं और जो लब्ध हैं, वह श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भक्ष्य हैं। इस कारण से, हे सोमिल ! ऐसा कहा गया है कि---'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं, और अभक्ष्य भी हैं / विवेचन-'सरिसव' किस दृष्टि से भक्ष्य हैं, किस दृष्टि से अभक्ष्य ? ---प्रस्तुत सू. 24 में सोमिल ब्राह्मण द्वारा छलपूर्वक उपहास करने की दृष्टि से भगवान् से पूछे गए 'सरिसव'-भक्ष्याभक्ष्यविषयक प्रश्न का विभिन्न पहलुओं से दिया गया उत्तर अंकित है। _ 'सरिसव' शब्द का विश्लेषण---'सरिसव' प्राकृतभाषा का श्लिष्ट शब्द है / संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं--(१) सर्षप और (2) सदृशवया / सर्षप का अर्थ है--सरसों (धान्य) और सरिसवया का अर्थ है--समवयस्क--हमजोली मित्र, या सहजात, सहक्रीडित / ये तीनों प्रकार के मित्रसरिसव श्रमणनिम्रन्थ के लिए अभक्ष्य हैं। अब रहे सर्षपधान्य, वे भी प्रशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हों तो श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए अकल्पनीय-अग्राह्य (अग्राह्य) होने से अभक्ष्य हैं, किन्तु जो सर्षप एषणीय, (निर्दोष ), शस्त्रपरिणत, याचित और लब्ध हैं, वे श्रमणनिम्रन्थों के लिए भक्ष्य है। मास एवं कुलत्था के भक्ष्याभक्ष्यविषयक सोमिलप्रश्न का भगवान द्वारा समाधान ___25. [1] मासा ते भंते ! कि भक्खेया, अभयच्या? सोमिला! मासा मे भक्खेया वि, प्रभक्खेया वि। 25-1 प्र. भगवन् ! आपके मत में 'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? [25-1 उ.] सोमिल ! 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। [2] से केण?णं जाव अभक्खेया वि ? से नूणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा मासा पन्नत्ता, तं जहा--दव्वमासा य कालमासा य / तस्थ गं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढपज्जवसाणा दुवालस, तं जहा -सावणे मद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फागुणे चेत्ते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे / ते गं समणाणं निग्गंथाणं अमक्खेया / तत्थ णं जे ते दव्वमासा ते दुविहा पत्नत्ता, तं जहा–अत्थमासा य धण्णमासा य / तत्थ णं जे ते प्रत्थसासा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुवण्णमासा य रुप्पमासा 4; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्य गं जे ते धन्नमासा से दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य / एवं जहा धन्नसरिसवा जाव से तेण?णं जाव अभक्खेया वि। [25-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी ? [25-2 उ.] सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण-नयों (शास्त्रों) में 'मास' दो प्रकार के कहे गए हैं / 1. (क) भगवती, प्र. वृत्ति, पत्र 760 (ख) भगवती, विवेचन भा. 6, (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2761 Page #2014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10 यथा--द्रव्यमास और कालमास / उनमें से जो कालमास हैं, वे श्रावण से लेकर आषाढ़-मास-पर्यन्त बारह हैं। यथा--श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माध, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, और आषाढ़ / ये (बारह मास) श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / द्रव्य-मास दो प्रकार का है। यथा--(१) अर्थमाष और (2) धान्यमाष / उनमें से अर्थमाष (सोना-चांदी तोलने का माशा) दो प्रकार का है यथा--(१) स्वर्णमाष और (2) रौप्यमाष / ये दोनों माष श्रमण निग्रंथों के लिए अभक्ष्य हैं। धान्यमाष दो प्रकार का है--यथा---(१) शस्त्रपरिणत और (2) अशस्त्रपरिणत / इत्यादि सभी पालापक धान्य-सरिसव के समान कहने चाहिए; यावत् इसी कारण से, हे सोमिल ! कहा गया है कि 'मास' भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। 26. [1] कुलत्था ते भंते ! कि भक्खया, अभक्खेया ? सोमिला ! कुलस्था मे भक्खेया वि, अमक्ख्या वि / [26-1 प्र.] भगवन् ! आपके लिए 'कुलत्थ' भक्ष्य हैं अथवा अभक्ष्य हैं ? [26-1 उ.] सोमिल ! 'कुलत्थ' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं / [2] से केण?णं जाव अभक्खेया वि? से नणं सोमिला ! बंमण्णएसु नएसु दुविहा कुलस्था पन्नता, तं जहा-इस्थिकुलस्था य धन्नकुलत्था य / तस्य गं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा---कुलवधू ति वा कुलमाउया ति वा कुलध्या ति वा; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा जाव से तण?णं जाव अमक्या वि / [26-2 प्र.] भगवन् ऐसा क्यों कहते हैं कि कुलत्थं यावत् अभक्ष्य भी हैं / [26-2 उ.] सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मणनयों (शास्त्रों) में कुलत्था दो प्रकार की कही गई हैं। यथा--(१) स्त्रीकुलत्था (कुलस्था--कुलांगना) और (2) धान्यकुलत्था (कुलथी धान)। स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की कही गई है। यथा--(१) कुलवधू या (2) कुलमाता, अथवा (3) कुलकन्या। ये तीनों श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। उनमें से जो धान्यकुलत्था है, उसके सभी पालापक धान्य-सरिसव के समान हैं, यावत्--'हे सोमिल ! इसीलिए कहा गया है कि 'धान्यकुलत्था भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है', यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचन--'मास' और 'कुलस्था' भक्ष्य कैसे और अभक्ष्य कैसे ?--'मास' शब्द का विश्लेषण--'मास' प्राकृतभाषा का श्लिष्ट शब्द है / संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं माष और मास / इन्हें ही दूसरे शब्दों में द्रव्यमाष और कालमास कहा जाता है। कालरूप मास श्रावण से लेकर आषाढ़ तक 12 महीनों का है, वह श्रमणों के लिए अभक्ष्य है। द्रव्यमाष में जो सोना चांदी तोलने का माशा है (12 माशे का एक तोला), वह अभक्ष्य है, किन्तु धान्यरूपमाष (उड़द) शस्त्रपरिणत, एषणोय, याचित और लब्ध हों तो श्रमणों के लिए भक्ष्य हैं, किन्तु जो अशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य-अग्राह्य हैं।' 1. (क) भगवती, अ, वृत्ति, पत्र 760, (ख) भगवती, विवेचन भा. 6, (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2763 Page #2015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 750] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'कुलत्या शब्द का विश्लेषण–'कुलत्था' प्राकृतभाषा का शब्द है, संस्कृत में इसके दो रूप बनते हैं--(१) कुलस्था और (2) कुलत्था / इन्हें ही दूसरे शब्दों में स्त्रीकुलस्था और धान्यकुलत्था कहते हैं / स्त्रीकुलत्था तीन प्रकार की हैं, जो श्रमण के लिए अभक्ष्य हैं। धान्य कुलत्था कुलथी नामक धान को कहते हैं। वह अशस्त्रपरिणत, अनेषणीय, अयाचित और अलब्ध हो तो श्रमणों के लिए अकल्पनीय अग्राह्य (सदोष) होने से अभक्ष्य है। किन्तु यदि वह शस्त्रपरिणत, एषणीय (निर्दोष), याचित और लब्ध हो तो भक्ष्य है।' सोमिल द्वारा पूछे गए एक, दो, अक्षय, अव्यय, अवस्थित तथा अनेक भूत-भाव-भविक आदि तात्त्विक प्रश्नों का समाधान 27. [1] एगे भवं, दुवे भवं, अक्खए भवं, अन्वए भवं, अवट्टिए भवं, प्रणेगभूयमावभविए भवं? सोमिला! एगे वि अहं जाव अगभूयभावभविए वि अहं / 27.1 प्र.] भगवन् ! आप एक हैं, या दो हैं, अथवा अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं अथवा अनेक-भूत-भाव-भविक हैं ? [27-1 उ] सोमिल ! मैं एक भी हूँ, यावत् अनेक-भूत-भाव-भविक (भूत, और भविष्यत्काल के अनेक परिणामों के योग्य) भी हूँ। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जाव भविए विग्रहं ? ____सोमिला ! दवढयाए एगे अहं, नाण-दसणट्टयाए दुविहे अह, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं; उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं / से तेणढणं जाव भविए वि अहं। [27-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि मैं एक भी हूँ यावत् अनेक भूतभाव-भविक भी हूँ? [27-2 उ.] सोमिल ! मैं द्रव्यरूप से (द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से) एक हूँ; ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से दो हूँ। आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, और अवस्थित (कालत्रय स्थायो—नित्य) हूँ; तथा (विविध विषयों के) उपयोग की दृष्टि से मैं अनेकभूत-भावभविक (भूत, और भविष्य के विविध परिणामों के योग्य) भी हूँ। हे सोमिल ! इसी दृष्टि से (कहा था कि मैं एक भी हूँ,) यावत् अनेकभूत-भाव-भविक विवेचन–सोमिल के एक-अनेकादि-विषयक प्रश्न का भगवान द्वारा समाधान--इस सूत्र में छल, उपहास एवं अपमान आदि भाव छोड़ कर सोमिल द्वारा तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से प्रेरित हो कर पूछे गए प्रश्न का समाधान अंकित है। एक हैं या दो?--सोमिल के द्विविधाभरे प्रश्न के उत्तर 5. (क) भगवती अ. वृत्ति, पृ. 2764, (ख) भगवती. न. वृत्ति, पत्र 760 Page #2016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [751 में भगवान् ने स्याद्वादशैली का आश्रय लेकर उत्तर दिया। प्राशय यह है कि मैं जीव (आत्मा) द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ, प्रदेशों की अपेक्षा से नहीं / ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ / एक ही पदार्थ किसी एक स्वभाव की अपेक्षा एक हो सकता है, वही पदार्थ दूसरे दो स्वभावों की अपेक्षा दो हो सकता है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है / जैसे—देवदत्तादि कोई एक पुरुष एक ही समय में उन-उन अपेक्षाओं से पिता, पुत्र, भ्राता, भतीजा, भानजा आदि कहला सकता है / इसीलिए भगवान् ने एक अपेक्षा से स्वयं को एक और दूसरी अपेक्षा से दो कहा / ' अक्षय, अव्यय आदि किस दृष्टि से हैं ?-आत्मा के नित्यत्व अनित्यत्वपक्ष को लेकर सोमिल द्वारा पूछा गया था कि आप अक्षय आदि हैं अथवा यावत् अनेकभूतभाव-भविक हैं ? अक्षय, अव्यय अवस्थित आदि आत्मा के नित्य पक्ष से सम्बन्धित हैं और अनेकभूत-भाव-विक प्रनित्यपक्ष से सम्बन्धित हैं। भगवान् ने दोनों पक्षों को स्वीकार करके स्थावाद शैली से उत्तर दिया है; जिसका प्राशय यह है कि प्रात्मप्रदेशों का सर्वथा क्षय न होने से मैं अक्षय हूँ, तथा आत्मा असंख्यप्रदेशात्मक होने से मैं अक्षत भी हूँ। कतिपयप्रदेशों का व्यय न होने से मैं अव्यय भी हैं। प्रात्मा यद्यपि विविध गतियों एवं योनियों में जाता है, इस अपेक्षा से कथंचित अनित्य मानने पर भी उसकी असंख्यप्रदेशिता कदापि नष्ट नहीं होती, इस दृष्टि से प्रात्मा अवस्थित (कालत्रयस्थायी) है, अर्थात् नित्य है। विविध विषयों के उपयोग वाला होने से प्रात्मा अनेक-भूतभाव-भविक भी है। आशय यह है कि अतीत और अनागतकाल के अनेक विषयों का बोध प्रात्मा से कथंचित् अभिन्न होने से भूत भावी एवं सत्ता के परिणामों (पर्यायों) की अपेक्षा से प्रात्मा का अनित्यपक्ष भी दोषापत्तिजनक सोमिल द्वारा श्रावकधर्म का स्वीकार 28. एस्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्ध समणं भगवं महावीरं जहा खंदक्षो (स० 2 उ०१ सु० 32-34) जाव से जहेयं तुरभे ववह / जहा गं देवाणुप्पियाणं अंतियं बहवे राईसर एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो जाय दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, प० 2 समण भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वं० 2 जाव पडिगए / तए गं से सोमिले माहणे समणोवासए जाव अभिगय० जाव विहरइ / [28] भगवान् की अमृतवाणी सुन कर वह सोमिल ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, इत्यादि सारा वर्णन (द्वितीय शतक, प्रथम उद्देशक के सू. 32-34 में उल्लिखित) स्कन्दक के समान जानना चाहिए; यावत्- उसने कहा-भगवन् ! जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के सान्निध्य में बहुत-से राजा-महाराजा आदि, हिरण्यादि का त्याग करके मुण्डित होकर अगारधर्म से अनगार-धर्म में प्रव्रजित होते हैं, उस प्रकार करने में मैं अभी असमर्थ नहीं हूँ; इत्यादि सारा वृत्तान्त राजप्रश्नीय सूत्र (सूत्र 220 से 222 तक पृ. 142-44, प्रा. प्र. स.) में उल्लिखित चित्त सारथि के समान कहना, यावत्-बाहर प्रकार के श्रावकधर्म को स्वीकार किया। श्रावकधर्म को अंगीकार करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को 1-2. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र, 760 Page #2017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 752] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वन्दन-नमस्कार करके यावत् अपने घर लौट गया। इस प्रकार सोमिल ब्राह्मण श्रमणोपासक हो गया। अब वह जीव-ग्रजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता होकर यावत् विचरने लगा। विवेचन-प्रस्तुत सू. 18 में वर्णन है कि भगवान के द्वारा किये गए समाधान से सन्तुष्ट मोमिल ब्राह्मण प्रतिबुद्ध हुआ। उसने भगवान् से श्रद्धापूर्वक श्रावकधर्म स्वीकार किया। समग्र वृत्तान्त द्वितीय शतक में कथित स्कन्दक एवं राजप्रश्नीय सूत्र में कथित चित्तसारथि के अतिदेशपूर्वक संक्षेप में प्रतिपादित किया गया है / सोमिल के प्रबजित होने आदि के सम्बन्ध में गौतम के प्रश्न का भगवान् द्वारा समाधान 26. 'भंते !' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं. 2 एवं वदासिपभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुपियाणं अंतिय मुंडे भवित्ता ? जहेव संखे (स० 12 उ० 1 सु० 31) तहेव निरवसेसं जाव अंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरति / // अट्ठारसमे सए : दसमो उद्देसओ समतो // 18-10 // || अद्वारसमं सयं समत्तं // 18 // [26 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित कर भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! क्या सोमिल ब्राह्मण आप देवानुप्रिय के पास मुण्डित हो कर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ है ?' इत्यादि / [26 उ. (इसके उत्तर में-) शतक 12 उ. 1. सू. 31 में कथित शंख श्रमणोपासक के समान समग्र वर्णन, यावत्--सर्वदुःखों का अन्त करेगा, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--सोमिल ब्राह्मण के भविष्य में प्रवजित होने इत्यादि के सम्बन्ध में श्री गौतमस्वामी द्वारा पूछे गए प्रश्न का प्रस्तुत सू. 26 में 12 वे शतक के अतिदेशपूर्वक समाधान प्रस्तुत किया गया है। // अठारहवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त / / // अठारहवां शतक सम्पूर्ण // Page #2018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणवीसइमं सयं : उन्नीसवाँ शतक प्राथमिक * भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति) के इस उन्नीसवें शतक में दश उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक का नाम-'लेश्या' है। इसमें प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशानुसार लेश्या का स्वरूप, लेश्या का कारण, लेश्या का प्रभाव, सामर्थ्य तथा सम्बध्यमान लेश्या और अवस्थित लेश्या, इन दोनों लेश्याओं के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है / * द्वितीय उद्देशक का नाम 'गर्भ' है / इसमें बताया गया है कि एक लेश्या वाला दूसरी लेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है। जिस जीव के जितनी लेश्याएं हों, उसके उतनी लेश्याओं में लेश्यान्तर वाले के गर्भ में परिणमन होना बताया है। तृतीय उद्देशक का नाम 'पृथ्वी' है / इसमें सर्वप्रथम स्थात्, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान आदि बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में प्ररूपणा की गई है / तत्पश्चात् अप्-तेजो वायु तथा वनस्पतिकायिकों के साधारण शरीरादि के विषय में पूर्वोक्त 12 द्वारों के माध्यम से कथन किया गया है / फिर पांच स्थावरों की अवगाहना की दृष्टि से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है / तदनन्तर पांच स्थावरों में सूक्ष्म-सूक्ष्मतर तथा बादर-बादरतर का प्रतिपादन है। फिर पृथ्वीकाय के शरीर की महतो अवगाहना का माप दृष्टान्तपूर्वक प्रदर्शित किया गया है। * चतुर्थ उद्देशक 'महासव' है। इसमें नैरयिक, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में महात्रव. महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा इन चारों के 16 भंगों में से पाए जाने वाले भंगों का निरूपण है / पंचम उद्देशक का नाम 'चरम' है। इसमें सर्वप्रथम नैरयिकादि चौबीस दण्डकों में चरमत्व एवं परमत्व की प्ररूपणा है, साथ ही चरम नैरयिक आदि की अपेक्षा से परम नैरयिकादि महास्रवादि चतुष्क वाले हैं, तथा परम नैरयिकादि की अपेक्षा चरम नैरयिकादि अल्पास्रवादि चतुष्क वाले हैं, इत्यादि प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् निदा और अनिदा, ये वेदना के दो प्रकार बता कर इनका चौबीस दण्डकों में प्ररूपण किया गया है / * छठे उद्देशक का नाम द्वीप' है। इसमें जम्बूद्वीप आदि द्वीपों और लवणसमुद्र प्रादि समुद्रों के संस्थान, लम्बाई, चौड़ाई, दूरी, इनमें जीवों की उत्पत्ति प्रादि के सम्बन्ध में जीवाभिगमसूत्र के , प्रतिदेशपूर्वक वर्णन है। सप्तम उद्देशक का नाम 'भवन' है। इसमें चारों प्रकार के देवों में भवनपतियों के भवनावास, वाणव्यन्तरों के भूमिगत नगरावास, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विमानावासों की संख्या, स्वरूप, किम्मयता आदि का संक्षिप्त वर्णन है / Page #2019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 754] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * अष्टम उद्देशक का नाम नित्ति ' है। इसमें जीव, कर्म, शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान, संज्ञा, लेश्या, दष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग इन 16 बोलों की निवृत्ति (निष्पत्ति) के भेद तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में उनकी प्ररूपणा की गई है / नौवाँ उद्देशक 'करण' है। इसमें सर्वप्रथम करण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव ये 5 भेद किये गए हैं / तदनन्तर शरीर, इन्द्रिय, भाषा, मन, कषाय, समुद्घात, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, वेद आदि करणों के भेदों की तथा किस जीव में कौन-सा करण कितनी संख्या में पाया जाता है, इसका लेखाजोखा दिया गया है / तत्पश्चात् पंचविध पुद्गल करण के भेद-प्रभेदों का निरूपण है। * दसवें उद्देशक का नाम वनचरसुर (वाणव्यन्तर देव) है। इसमें वाणव्यन्तर देवों के आहार, शरीर और श्वासोच्छवास की समानता की चर्चा की गई है। तदनन्तर उनमें पाई जाने वाली आदि को चार लेश्याओं को तथा किस लेश्या वाला वाणव्यन्तर किस लेश्या वाले से अल्पद्धिक या महद्धिक है, इत्यादि चर्चा की गई है। * कुल मिला कर इस शतक में जीवों से सम्बन्धित लेश्या, गर्भपरिणमन आदि की ज्ञातव्य चर्चा की गई है। Page #2020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणवीसइमं सयं : उन्नीसवाँ शतक उन्नीसवें शतक के उद्देशकों के नाम 1. लेस्सा य 1 गम्भ 2 पुढवी 3 महासवा 4 चरम 5 दीव 6 भवणा 7 य / निव्वत्ति 8 करण वणचरसुरा 10 य एगूणवीसइमे // 1 // [1. गाथार्थ-] उन्नीसवें शतक में ये दश उद्देशक हैं--(१) लेश्या, (2) गर्भ, (3) पृथ्वी, (3) महाश्रव, (5) चरम, (6) द्वीप, (7) भवन, (8) निर्वृत्ति, (6) करण और (10) वनचर-सुर / विवेचन-दश उद्देशक-उन्नीसवें शतक में 10 उद्देशक इस प्रकार है- (1) प्रथम उद्देशकलेश्या-विषयक है, (2) द्वितीय उद्देशक गर्भविषयक है, (3) तृतीय उद्देशक में पृथ्वीकायिक आदि जीवों के विषय में शरीर-लेश्यादि का वर्णन है। (4) चतुर्थ उद्देशक में महाश्रवादिविषयक वर्णन है / (5) पंचम उद्देशक में जीवों के चरम, परमादि-विषयक वर्णन है। (6) छठे उद्देशक में द्वीपसमुद्र-विषयक वर्णन है। (7) सप्तम उद्देशक में भवन-विमानावासादि का वर्णन है। (8) आठवें उद्वेशक में जीव आदि की निर्वृत्ति का वर्णन है। (6) नौवाँ उद्देशक करण-विषयक है और (10) दशवाँ उद्देशक वनचर-सुर (वाणव्यन्तर देव)-विषयक है।' 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 761 Page #2021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'लेश्या' प्रथम उद्देशक : 'लेश्या' प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेश पूर्वक लेश्यातत्वनिरूपण 2. रायगिहे जाव एवं वदासि [2] राजगृह नगर में (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से गौतम स्वामी ने) यावत् इस प्रकार पूछा 3. कति गं भंते ! लेस्सानो पन्नत्ताओ? गोयमा ! छल्लेस्सामो पन्नत्तानो, तं जहा, एवं पन्नवणाए चउत्थो लेसुद्देसओ भाणियन्वो निरवसेसो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 / // एगणवीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 19-1 / / [3 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? [3 उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-(इत्यादि, इस विषय में) यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के सत्तरहवें पद का चौथा लेश्योद्देशक सम्पूर्ण कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रज्ञापना-निर्दिष्ट लेश्या का तात्त्विक विश्लेषण-कृष्णादि द्रव्य के सम्बन्ध से प्रात्मा का परिणाम-विशेष लेश्या है / लेश्या वस्तुतः योगान्तर्गत द्रव्य रूप है / अर्थात्-मन-वचन-काय के योग के अन्तर्गत शुभाशुभ परिणाम के कारणभूत कृष्णादि वर्ण वाले पुद्गल हो द्रव्यलेश्या है / यह योगान्तर्गत पुद्गलों का ही सामर्थ्य है, जो अात्मा में कषायोदय को बढ़ाते हैं, जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध को वृद्धि होती है / अतः वही द्रव्यलेश्या, जहां तक कषाय है, वहां तक उसके उदय को बढ़ाती है। जब तक योग रहते हैं, तब तक लेश्या रहती है। योग के अभाव में (14 वें गुणस्थान में) लेश्या नहीं होती। यहां विचारणीय यह है कि लेश्या योगान्तर्गत द्रव्यरूप है या योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप है ? यदि इसे योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप मानें तो प्रश्न उठता है कि यह घातीकर्मद्रव्यरूप है या ग्रघातीकर्मद्रव्यरूप ? यदि इसे घातीकर्मद्रव्यरूप मानते हैं तो सयोगीकेवली के घाती कर्म न होते हुए भी लेश्या क्यों होती है ? अतः घातीकर्मद्रव्यरूप तो इसे नहीं माना जा सकता। इसे Page #2022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 1] अधातीकर्मद्रव्य रूप भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि अयोगी के वली के अघाती कर्म होते हुए भी लेश्या नहीं होती / अतः लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्यरूप मानना चाहिए / योग-द्रव्यों के सामर्थ्य के विषय में शंका नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार ब्राह्मी ज्ञानावरण के क्षयोपशम का और मद्यपान ज्ञानावरणोदय का निमित्त होता है; वैसे ही योगनित बाह्य द्रव्य भी कर्म के उदय या क्षयोपशमादि में निमित्त बनें, इसमें किसी शंका को अवकाश नहीं है ? ' सम्बध्यमान लेश्या और अवस्थित लेश्या-कृष्णलेश्यादि-द्रव्य जब नीललेश्यादि द्रव्यों के साथ मिलते हैं, तब वे नीललेश्यादि के स्वभाव रूप में तथा वर्णादि रूप में परिणत हो जाते हैं। जैसे दूध में छाछ डालने से वह दही रूप में तथा वस्त्र को किसी रंग के घोल में डालने से वह उस वर्ण के रूप में परिणत हो जाता है / परन्तु लेश्या का यह परिणाम सिर्फ तिर्यञ्च और मनुष्य की लेश्या की अपेक्षा से जानना चाहिए। देवों और नारकों में स्व-स्व-भव-पर्यन्त लेश्या-द्रव्य अवस्थित होने से अन्य लेश्याद्रव्यों का सम्बन्ध होने पर भी अवस्थित लेश्या अन्य लेश्या के परिणत नहीं होती / अर्थात् अवस्थित लेश्या अन्य लेश्या रूप में बिलकुल परिणत नहीं होती, अपितु अपने मूल वर्णादि स्वभाव को छोड़े बिना अन्य (सम्बध्ययान) लेश्या की छायामात्र धारण करती है। जैसे वैडूर्यमणि में लाल डोरा पिरोने पर वह अपने नीलवर्ण को छोड़े बिना लाल छाया को धारण करती है, इसी प्रकार कृष्णादि द्रव्य, अन्य लेश्याद्रव्यों के सम्बन्ध में आने पर अपने पर अपने मूल स्वभाव या वर्णादि को छोड़े बिना, उसकी छाया (आकारमात्र) को धारण करते हैं।' / / उन्नीसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. इसके विशेष वर्णन के लिए देखिये-प्रज्ञापना. १७वां पद टीका, पत्र 330 2. (क) देखिये-प्रज्ञापना. 17 वा पद, टीका, पत्र 358-368 Page #2023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'गब्भ' द्वितीय उद्देशक : 'गर्भ' एक लेश्या वाले मनुष्य से दूसरी लेश्यावाले गर्भ को उत्पत्ति विषयक निरूपण 1. कति णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्तानो ? एवं जहा पन्नवणाए गम्भुद्द सो सो चेव निरवसेसो भाणियव्यो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ! // एगूणवीसइमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो // 19.2 // [प्र.१] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] इसके विषय में प्रज्ञापनासूत्र के सत्तरहवें पद का छठा समग्र गर्भोद्देशक कहना चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है" यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--किस लेश्या वाला, किस लेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? –प्रज्ञापनानिदिष्ट चिन्तन--प्रस्तुत उद्देशक में बताया गया है कि कृष्णलेश्या वाला जीव कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है, इसी तरह नीललेश्या वाला जीव कृष्णादिलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है / इसी प्रकार कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। इसी तरह कृष्ण लेश्या वाला मनुष्य कृष्णलेश्या वाली स्त्री से कष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है। इस प्रकार समस्त कर्मभूमिक एवं प्रकर्मभूमिक मनुष्यों के सम्बन्ध में जानना चाहिए / केवल इतना ही विशेष है कि अकर्मभूमिक मनुष्य के प्रथम की चार लेश्याएँ होने से चार का ही कथन करना चाहिए।' // उन्नीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. (क) इसके विस्तृत विवरण के लिए देखिये-प्रज्ञापना० पद 17, उ. 5, पृ. 373 (ख) श्रीमद् भगवतीसूत्र, खण्ड 4 (गुज. अनु०) (पं० भगवानदास दोशी) पृ० 80 Page #2024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'पुढवी' तृतीय उद्देशक : पृथ्वी (कायिकादि) बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिकजीव से सम्बन्धित प्ररूपणा 1. रापगिहे जाव एवं क्यासि[१] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 2. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंधंति, एग बं० 2 ततो पच्छा आहारेति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधति ? नो तिण8 सम?, पुढविकाइया णं पत्तेयाहारा, पत्तेयपरिणामा, पत्तेयं सरीरं बंधति 50 बं 2 ततो पच्छा आहारेति वा, पारिणामेंति वा, सरीरं वा बंधंति / [2 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार-पांच पृथ्वीकायिक मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं, बांध कर पीछे पाहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बन्ध (पाहारित एवं परिणत किए गए पुद्गलों से पूर्व-बन्ध की अपेक्षा विशिष्ट बन्ध) करते हैं ? [2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (यथार्थ) नहीं है। क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येकपृथक्-पृथक् पाहार करने वाले हैं और उस आहार को पृथक्-पृथक् परिणत करते हैं; इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं। इसके पश्चात् वे पाहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और फिर शरीर बांधते हैं। 3. तेसि गं भंते ! जीवाणं कति लेस्साम्रो पन्नत्तानो? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्तानो ? तं जहा-- कण्ह० नील० काउ० तेउ० / {3 प्र.] भगवन् ! उन (पृथ्वीकायिक) जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [3 उ.] गौतम ! उनमें चार लेश्याएँ कही गई हैं / यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या कापोतलेश्या और तेजोलेश्या। 4. ते णं भंते ! जीवा कि सम्महिट्ठी, मिच्छट्टिी, सम्मामिच्छट्टिी? गोयमा ! नो सम्महिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? [4 उ.] गौतम ! वे जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, वे सम्यमिथ्यादृष्टि भी नहीं हैं। Page #2025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 760] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. ते णं भंते ! जीवा कि नाणी, अन्नाणी ? . गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी, नियमा दुअन्नाणी, तं जहा–मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य / [5 प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी ? [5 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। उनमें दो अज्ञान निश्चित रूप से पाए जाते हैं-मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान / 6. ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वहजोगी, कायजोगी ? गोयमा! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। [6 प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे न तो मनोयोगी हैं, न वचनयोगी हैं, किन्तु काययोगी हैं। 7. ते णं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। [7 प्र.] भगवन् ! वे जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी। 8. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दवओ अणंतपएसियाई दवाई एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव सव्वाप्पणयाए आहारमाहारैति / [8 प्र.] भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव क्या अाहार करते हैं ? [8 उ.] गौतम! वे द्रव्य से- अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का प्राहार करते हैं, इत्यादि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के (28 वें पद के) प्रथम आहारोद्देशक के अनुसार यावत्-सर्व प्रात्मप्रदेशों से आहार करते हैं, यहाँ तक (जानना चाहिए।) 6. ते णं भंते ! जीवा जमाहारेति तं चिज्जति, जं नो प्राहारेंति तं नो चिज्जइ, चिण्णे वा से उद्दाति पलिसप्पति वा ? हंता, गोयमा ! ते णं जीवा जमाहारेति तं चिज्जति, जं नो जाव पलिसप्पति वा / 19 प्र. भगवन् ! वे जीव जो प्राहार करते हैं, क्या उसका चय होता है, और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता? जिस आहार का चय हुआ है, वह आहार (असारभागरूप में) बाहर निकलता है ? और (साररूप भाग) शरीर-इन्द्रियादि रूप में परिणत होता है ? [प्र.] गौतम ! वे जो पाहार करते हैं, उसका चय होता है, और जिसका पाहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता, यावत् सारभागरूप आहार शरीर, इन्द्रियादिरूप में परिणत होता है। Page #2026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] 10. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणो ति का वई ति वा 'प्रम्हे णं प्राहारमाहारेमो' ? णो तिण8 सम8, प्राहारेंति पुण ते / [10 प्र.] भगवन् ! उन जीवों को-'हम पाहार करते हैं', ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होते हैं ? [10 उ.] हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। अर्थात्--उन जीवों को हम पाहार करते हैं, ऐमी संजा, प्रज्ञा, आदि नहीं होते / फिर भी वे आहार तो करते हैं / 11. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा जाव वयो ति वा अम्हे णं इट्ठाणि8 फासे पडिसंवेदेमो? नो तिण? सम8, पडिसंवेदेति पुण ते। {11 प्र.] भगवन् ! क्या उन जोवों को यह संज्ञा यावत् वचन होता है, कि हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है, फिर भी वे वेदन (अनुभव) तो करते 12. ते णं भंते ! जोवा कि पाणातिवाए उवक्खाइज्जति, मुसावाए अदिग्णा० जाव मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति ? गोयमा ! पाणातिवाए वि उवक्खाइज्जति जाव मिच्छादसणसल्ले नि उवक्खाइज्जति, जेसि पि णं जीवाणं ते जीवा 'एवमाहिज्जति' तेसि पिणं जीवाणं नो विग्णाए नाणते / [12 प्र.] भगवन् ! क्या वे (पृथ्वीकायिक) जीव प्राणातिपात मृषावाद अदत्तादान, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? / [12 उ.] हाँ, गौतम ! वे जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं। तथा वे जीव, दूसरे जिन पृथ्वीकायिकादि जीवों की हिंसादि करते हैं, उन्हें भी, ये जीव हमारी हिंसादि करने वाले हैं, ऐसा भेद ज्ञात नहीं होता। 13. ते गं भंते ! जोया कओहितो उपवज्जति ? कि नेरइएहितो उबवज्जति ? एवं जहा बक्कतोए पुढविकाइयाणं उववातो तहा भाणितव्वो। [13 प्र.] भगवन् ! ये पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या ये नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? [13 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में पृथ्वी कायिक जीवों का उत्पाद कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / 14. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतीमुहतं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। Page #2027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 762] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14 प्र.] भगवन् ! उन पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [14 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है / 15. तेसि गं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा–वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए / [15 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गए हैं ? [15 उ.] गौतम ! उनके तीन समुद्घात कहे गए हैं। यथा--वेदना-समुद्धात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिक-समुद्धात / 16. ते णं भंते ! जीवा मारणतियसमुग्धाएणं कि समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / [16 प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव मारणान्तिक समुद्घात करके मरते हैं या मारणान्तिक समुद्घात किये बिना ही मरते हैं ? [16 उ.] गौतम ! वे मारणान्तिक समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। 17. ते गं भंते ! जीवा अणंतरं उध्वट्टिता कहिं गच्छंति ? कहि उवधज्जति ? एवं उन्वट्टणा जहा वक्तीए। [17 प्र.] भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव मरकर अन्तररहित कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [17 उ.] (गौतम ! ) यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार उनको उद्वर्तना कहनी चाहिए। विवेचन -बारह द्वारों के माध्यम से पृथ्वीकायिकों के विषय में प्ररूपणा–प्रस्तुत 17 सूत्रों (1 से 17 तक) में पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में बारह पहलुओं से प्ररूपणा की गई / वृत्तिकार ने प्रारम्भ में एक गाथा भी बारह द्वारों के नामनिर्देश की सूचित की है सिय-लेस-दिट्ठि-नाणे-जोगुवप्रोगे तहा किमाहारो। पाणाइवाय-उप्पाय-ठिई-समुग्धाय-उवट्टी। / अर्थात्-(१) स्याद्वार, (2) लेश्याद्वार, (3) दृष्टिद्वार, (4) ज्ञानद्वार, (5) योगद्वार, (6) उपयोगद्वार, (7) किमाहारद्वार, (8) प्राणातिपात-द्वार (9) उत्पादद्वार, (10) स्थितिद्वार, (11) समुद्घातद्वार और (12) उद्वर्तना द्वार / स्यारद्वार का स्पष्टीकरण- यहाँ स्याद्वार की अपेक्षा से प्रथम प्रश्न किया गया है कि क्या कदाचित् अनेक पृथ्वी कायिक मिल कर साधारण (एक) शरीर बाँधते हैं ? बाद में प्राहार करते Page #2028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] हैं ? तथा उसका परिणमन करते हैं ? और फिर शरीर का बन्ध करते हैं ? सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो सभी संसारी जीव प्रतिसमय निरन्तर पाहार (पुद्गल) ग्रहण करते हैं, इसलिए प्रथम रबन्ध के समय भी प्राहार तो चालही है। तथापि पहले शरीर बांधने और पीछे आहार करने का जो प्रश्न किया गया है, वह विशेष आहार की अपेक्षा से किया गया है, ऐसा समझना चाहिए। इसका अर्थ है-जीव उत्पत्ति के समय पहले प्रोज-पाहार करता है, फिर शरीर-स्पर्श द्वारा लोम-ग्राहार करता है / तदुपरान्त उसे परिण माता है और उसके बाद विशेष शरीरबन्ध करता है। उत्तर में पृथ्वीकायिक जीवों के साधारण शरीर बांधने का स्पष्ट निषेध किया गया है, क्योंकि वे प्रत्येकशरीरी ही हैं, इसलिए पृथक-पृथक शरीर बांधते हैं, आहार भी पृथक-पृथक करते हैं और पृथक ही परिण माते हैं। इसके बाद वे विशेष आहार, विशेष परिणमन और विशेष शरीरबन्ध करते हैं। किमाहारद्वार—पृथ्वीकायिक जीवों के आहार के विषय में प्रज्ञापनासूत्र के अट्टाईसवें पद के प्रथम प्राहारोद्देशक का अतिदेश किया गया है / उसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-द्रव्य सेअनन्तप्रदेशी द्रव्यों का, क्षेत्र से असंख्यातप्रदेशों में रहे हुए, काल से जघन्य, मध्यम या उत्कृष्टकाल की स्थिति बाले और भाव से—वर्ण गन्ध, रम तथा स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्धों का आहार करते हैं। संज्ञादि का निषेध—पृथ्वीकायिक जीवों में संज्ञा अर्थात् व्यावहारिक अर्थ को ग्रहण करने वाली अवग्रहरूप बुद्धि, प्रज्ञा अर्थात् सूक्ष्म अर्थ को विषय करने वाली बुद्धि, मन (मनोद्रव्यस्वभाव) तथा वाक----(द्रव्यश्रुतरूप) नहीं होती। यही कारण है कि वे इस भेद को नहीं जानते कि हम वध्य (मारे जाने वाले) हैं और ये वधिक (मारने वाले) हैं। परन्तु उनमें प्राणातिपात क्रिया अवश्य होती है। क्योंकि प्राणातिपात से वे विरत नहीं हुए। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि जीवों में वचन का अभाव होने पर भी मृषावाद आदि की अविरति के कारण वे मृषावाद आदि में रहे हुए हैं। उत्पादद्वार में विशेष ज्ञातव्य-यह है कि पृथ्वीकाधिकादि नरयिकों से पाकर उत्पन्न नहीं होते, वे तिर्यञ्च, मनुष्य या देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं। उद्वर्तन भी इसी प्रकार समझना चाहिए।' कठिनशब्दार्थ-चिज्जंति--चय करते हैं। चिण्णे वा से उद्दाइ–चीर्ण यानी आहारित वह पुद्गलसमूह मलवत् नष्ट, (अपद्रव) हो जाता है। इसका सारभाग शरीर, इन्द्रियरूप में परिणत होता है। पलिसम्पति बाहर निकल जाता है, बिखर जाता है। सव्वप्पणयाए सभी प्रात्मप्रदेशों से 1 सण्णा इ-संज्ञा, पण्णा इ-प्रज्ञा / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 763-764 (ख) भगवती. भा.६, विवचन (पं. घेवरचन्दजी) पृ. 2774-2778 (ग) भगवतीसून खण्ड 4 (गुजराती अनुवाद) पं. भगवानदास दोशी, पृ. 22 (घ) प्रज्ञापना (पण्णवणासुत) भा. 1, सू. 650, 669, पृ. 174-76, 180 For Private & Personal use only Page #2029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 764] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पूर्वोक्त बारह द्वारों के माध्यम से अप-तेजो वायु-वनस्पतिकायिकों में प्ररूपणा 18. सिय भंते ! जाप चत्तारि पंच पाउबकाइया एगयनो साहारणसरीरं बंधति, एग० बं० 2 ततो पच्छा पाहारेति ? एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव भाणियन्वो जाव उच्य ति, नवरं ठिती सत्तवाससहस्साई उक्कोसेणं, सेसं तं चेव / 618 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच अप्कायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं और इसके पश्चात् आहार करते हैं ? [18 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों के विषय में जैसा पालापक कहा गया है, वैसा ही यहां भी यावत उद्वर्त्तना-द्वार तक जानना चाहिए। विशेष इतना ही है कि अकायिक जीवों की स्थिति उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है / शेष सब पूर्ववत् / / 19. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउक्काइया० ? एवं चेव, नवरं उववानो ठिती उच्चट्टणा य जहा पन्नवणाए, सेसं तं चेव / [16 प्र.] भगवन् ! कदाचित् दो, तीन, चार या पांच तेजस्कायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! इनके विषय में भी पूर्ववत् समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनका उत्पाद, स्थिति और उद्वर्तना प्रज्ञापना-सूत्र के अनुसार जानना चाहिए। शेष सब बातें पूर्ववत् हैं / 20. वाउकाइयाणं एवं चेव, नाणत्तं नवरं चत्तारि समुग्धाया। [20] वायुकायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों में चार समुद्घात होते हैं / 21. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सतिकाइया० पुच्छा। गोयमा! जो इण? समढे / अणंता वणस्सतिकाइया एगयओ साधारणसरीरं बंधति, एग बं० 2 ततो पच्छा आहारति वा परिणामेंति वा, आ० 502 सेसं जहा तेउक्काइयाणं जाव उव्वति / नवरं पाहारो नियमं छद्दिसि, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं, सेसं तं चेव / [21 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच प्रादि वनस्पतिकायिक जीव एकत्र मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 21 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / अनन्त वनस्पतिकायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं और परिणमाते हैं, इत्यादि सब अग्निकायिकों के समान यावत् उद्वर्तन करते हैं, तक (जानना चाहिए)। विशेष यह है कि उनका आहार नियमत: छह दिशा का होता है। उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। Page #2030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनीसवां शतक : उद्देशक 3] विवेचन-पूर्वोक्त बारह द्वारों के माध्यम से प्रप-तेजो-वाय-वनस्पतिकायिकों के साधारण शरीरादि के विषय में निरूपण-अप्कायिक जीवों के विषय में स्थिति (उत्कृष्ट 7 हजार वर्ष) को छोड़ कर अन्य सब बातें पृथ्वीकायिक जीवों के समान हैं। अग्निकायिक जीवों के विषय में भी उत्पाद स्थिति और उद्वर्तना को छोड़ कर अन्य सब बातें पृथ्वी कायिकवत् हैं। अग्निकायिक जीव तिर्यञ्च और मनुष्य में से आकर उत्पन्न होते हैं। उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र की होती है / अग्निकाय से निकल (उद्वर्तन) कर जीव तिर्यचों में ही उत्पन्न होते हैं। वायुकायिक और अग्निकायिक जीवों की शेष बातें पृथ्वी कायिक वत् हैं। विशेष यह है कि पृथ्वीकायिक जीवों में आदि की चार लेश्याएँ होती हैं, जब कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में आदि की तीन अप्रशस्त लेश्याएँ होती हैं ! पृथ्वीकायिक जीवों में आदि के तीन समुद्घात (वेदना, कषाय और मारणान्तिक) होते हैं. जबकि वायुकाय में वैक्रियशरीर के सम्भव होने से वेदना, कषाय, मारणान्तिक और वैक्रिय, ये चार समुद्घात होते हैं / वनस्पतिकायिकों में अनन्त वनस्पतिकायिक जीव मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं, फिर पाहार करते हैं / यहाँ वनस्पतिकायिक जीवों का प्रहार नियमतः छह दिशाओं का बताया है, वह बादर निगोद (साधारण) वनस्पतिकाय की अपेक्षा सम्भवित है / सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव लोकान्त के निष्कुटों (कोणों) में भी होते हैं, उनके तीन, चार या पांच दिशानों का आहार भी सम्भवित है। बाद र निगोद बनस्पतिकायिक जीव लोकान्त के निष्कुटों में नहीं होते, किन्तु वे लोक के मध्यभाग में होते हैं।' एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना की अपेक्षा अल्प-बहुत्व 22. एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउका० वाउका. वणस्सतिकाइयाणं सुहमाणं बादराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं जाय जहन्नुक्कोसियाए ओगाहणाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सध्यस्थोवा सुहमनिप्रीयस्स अपज्जत्तगास जहग्निया प्रोगाहणा ? सुहमवाउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहग्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 2 / सुहुमतेउकाइयस्स अपज्जत्तस्स जहनिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 3 / सुहुमआउकाइयस्स अपज्जत्तस्स जहन्निया प्रोगाहणा असंखेज्जगुणा 4 // सुहमपुढविका० अपज्जत्तस्स जहस्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 5 / बादरवाउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहग्निया प्रोगाहणा असंखेज्जगुणा 6 / बादरतेउकाइयस्स अपज्जत्लयरस जहन्निया प्रोगाहणा असंखेज्ज गुणा 7 / बादरआउ० अपज्जत्तगस्स महन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 8 / बादरपुढविकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहन्निया प्रोगाहणा असंखेज्जगुणा 9 / पत्तेयसरीरबादरवणस्स इकाइयस्स बादरनिनोयरस य, एएसि णं अपज्जत्तगाणं जहनिया प्रोगाहणा दोन्ह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा 1011 / सुहमानगोयरस पज्जत्तगस्स जहन्निया मोगाहणा असंखेज्जगुणा 12 / तस्सेव अपज्जत्तगस्स उनकोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 13 / तस्स देव पज्जत्तगरस उपकोसिया प्रोगाहणा विसेसाहिया ----- - - - 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 764 / (ख) भगवती. विवेचन (4. घेवरचन्दजी) भा. 6 1. 2780-81 Page #2031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 14 / सुहमवाउकाइयस्स पज्जतगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 15 / तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 16 / तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया० विसेसाहिया 17 / एवं सुहुमतेउकाइपस्स वि 18-19-20 / एवं सुहुमनाउकाइयस्स वि 21-22-23 / एवं सुहमपुढविकाइयस्स वि 24-25-26 / एवं बादरवाउकाइयस्स वि 27-28-29 / एवं बायरते. उकाइयस्स वि 30-31-32 / एवं बादरआउकाइयस्स वि 33-34-35 / एवं बादरपुढविकाइयस्स वि 36-37-38 / सव्धेसि तिविहेणं गमेणं भाणितव्वं / बादरनिगोदस्स पज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 39 / तस्स चेव अपज्जतगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 40 / तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया 41 / पत्तेयसरीरबादरवणस्सतिकाइयस्स पज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 42 / तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 43 / तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा 44 / [22 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म-बादर, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जोवों को जघन्य और उत्कृष्ट प्रवगाहनामों में से किसकी अवगाहना किसको अवगाहना से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होती है ? [22 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प, अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद की जघन्य-अवगाहना है / 2. उससे असंख्य गुणी है- अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक की जघन्य अवगाहना। 3. उससे अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्य गुणो है / 4. उससे अपर्याप्त सूक्ष्म प्रकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्य गुणो है। 5. उससे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वोकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्य गुणो है। 6. उससे अपर्याप्त बादर वायुकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यगुणी है। 7. उससे अपर्याप्त बादर अग्निकायिक को जघन्य अवगाहना असंख्य गुणी है। 8. उससे अपर्याप्त बादर अप्कायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुनी है / 6. उससे अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है / 10.11. उससे अपर्याप्त प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकायिक की और बादर निगोद की जघन्य अवगाहना दोनों को परस्पर तुल्य और असंख्यातगुणी है। 12. उससे पर्याप्त सूक्ष्म निगोद को जघन्य अवगाहना असंख्यात-गुणो है। 13. उससे अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है / 14. उससे पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है / 15. उससे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है / 16. उससे अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। 17. उससे पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है / १८-१६-२०.उससे पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की जघन्य, अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की उत्कृष्ट तथा पर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यात-गुणी एवं विशेषाधिक है। 21-22-23. उससे पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक की जघन्य, अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक को उत्कृष्ट तथा पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुण एवं विशेषाधिक है। 24-25-26. इसी प्रकार उससे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक को जघन्य, उससे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्त्रोकायिक को उत्कृष्ट तथा उससे पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वोकायिक को उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यगणी तथा विशेषाधिक होती है। 27-28-26. उससे पर्याप्त बादर वायुकायिक को जघन्य, अपर्याप्त बादर वायुकायिक को उत्कृष्ट एवं पर्याप्त बादर वायुकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणो Page #2032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [767 तथा विशेषाधिक है / 30-31-32. उससे पर्याप्त बादर अग्निकायिक की जघन्य, अपर्याप्त बादर अग्निकायिक की उत्कृष्ट एवं पर्याप्त बाद र अग्निकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्य गुणी एवं विशेषाधिक है। 33-34-35. इसी प्रकार उससे पर्याप्त बादर अप्कायिक की जघन्य, अपर्याप्त बादर प्रकायिक की उत्कृष्ट एवं पर्याप्त बादर अप्कायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी एवं विशे। धिक है / 36-37-38 उससे पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की जघन्य, अपर्याप्त बादरपृथ्वी कायिक की उत्कृष्ट तथा पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी तथा विशेषाधिक है / 36. उससे पर्याप्त बादर निगोद की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है / 40. अपर्याप्त बादर निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है, और 41. पर्याप्त बादर निगोद की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है / 42. उससे पर्याप्त प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकायिक की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है 43. उससे अपर्याप्त प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतिकायिक की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी है और 44. उससे पर्याप्त प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकायिक की उकृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी है / विवेचन-फलितार्थ-पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और निगोद बनस्पतिकाय, इन पांचों के सूक्ष्म और बादर दो-दो भेद होते हैं। इनमें प्रत्येकशरीरी वनस्पति को मिलाने से ग्यारह भेद होते हैं। इनके प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से 22 भेद हो जाते हैं। इनकी जघन्य अवगाहना और उत्कृष्ट अवगाहना के भेद से 44 भेद होते हैं। इन्हीं 44 स्थावर जीवभेदों की अवगाहना का अल्प-बहुत्व यहाँ (प्रस्तुत सूत्र 22 में) बताया गया है। पृथ्वी आदि की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होने पर भी उसके असंख्येय भेद होते हैं / इसलिए अंगुल के असंख्यातवें भाग की परस्परापेक्षा से असंख्येयगुणत्व में कोई विरोध नहीं आता / प्रत्येकशरीर वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट अवगाहना सहस्र योजन से कुछ अधिक की समझनी चाहिए।' एकेन्द्रिय जीवों में सूक्ष्म सूक्ष्मतरनिरूपण 23. एयरस णं भंते ! पुढविकाइयस्स प्राउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स वणस्सतिकाइयस्स य कयरे काये सन्चमुहुमे ?, कयरे काये सब्यसुहुमतराए ? गोयमा ! वणस्सतिकाए सम्बसुहुमे, वसतिकाए सम्बसुहुमतराए / [23 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, इन पाँचों में कौन-सी काय सब से सूक्ष्म है और कौन-सी सूक्ष्मतर है / [23 उ.] गौतम ! (इन पांचों कायों में से) वनस्पतिकाय सबसे सूक्ष्म है, सबसे सूक्ष्मतर है। 24. एयरस पं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयरस वाउकाइयरस य कयरे काये सव्वसुहमे ?, कयरे काये सध्वसुहुमतराए ? गोयमा ! बाउकाये सव्वसुहुमे, बाउकाये सबसुहुमतराए / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 765 Page #2033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 768] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 24 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक, इन चारों में से कौन-सी काय सबसे सूक्षम है और कौन-सी सूक्ष्मतर है ? [24 उ.] गौतम ! (इन चारों में से) वायुकाय सब-से सूक्ष्म है, वायुकाय हो सबसे सूक्ष्मतर है। 25. एतस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयरस य कयरे कार्य सम्वमुहमे ? कयरे काये सव्वसुहुमतराए ? गोयमा! तेउकाय सन्वसुहमे, तेउकाये सव्वसुहमतराए / [25 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिक, अकायिक और अग्निकायिक, (इन तोनों में से) कोने सी काय सबसे सूक्ष्म है, कौन-सी सूक्ष्मतर है ? [25 उ.] गौतम ! (इन तीनों में से) अग्निकाय सबसे सूक्ष्म है, अग्निकाय हो सर्वसूक्ष्मतर है। 26. एतस्स गं भंते ! पुढविकाइयस्त आउक्काइयस्स य कयरे काये सबसुहमे ?, कयरे काये सव्वसुहुमतराए ? गोयमा! आउकाये सव्वहुमे, आउकाए सव्वसुहुमतराए / [26 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक और अप्कायिक इन दोनों में से कौन-सी काय सबसे सूक्ष्म है, कौन-सी सर्वसूक्ष्मतर है ? [26 उ.] गौतम ! (इन दोनों कायों में से) अप्काय सबसे सूक्ष्म है, और अप्काय हो सर्वसूक्ष्मतर है। विवेचन--फलितार्थ-पृथ्वोकायादि पांचों कायों में सबसे सूक्ष्म वनस्पति काय है। वनस्पति के सिवाय शेष चार कायों में सर्वसूक्ष्म वायुकाय है। वायुकाय को छोड़ कर शेष तोनों कायों में अग्निकाय है प्रो नकाय का छोड़ कर शेष दो कायो में सब सूक्ष्म अकाय है / इस प्रकार सूक्ष्मता का तारतम्य यहाँ बताया गया है।' सव्वसुहुमतराए : अर्थ-सबसे अधिक सूक्ष्म / एकेन्द्रिय जीवों में सर्वबादर सर्वबादरतरनिरूपण 27. एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउ० तेउ० वाउ० वणस्सतिकाइयस्स य कयरे काये सव्यबादरे ?, कपरे काये सन्यबादरतराए ? गोयमा ! वसतिकाये सब्बबादरे, वगस्सतिकाये सब्बवादरतराए / (27 प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक में से कौनसी काय सबसे बादर (स्थूल) है, कौन-सो काय सर्वबादरतर है ? 1. वियाइपाणत्तिसुत भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 837-838 2. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. 6, प. 2786 Page #2034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [27 उ.] गौतम ! (इन पांचों में से) वनस्पतिकाय सर्वबादर है, वनस्पतिकाय ही सबसे अधिक बादर है। 28. एयस्त णं भंते ! पुढविकायस्स आउक्का० तेउका० वाउकायस्स य कयरे काये सम्वबायरे ?, कयरे काये सव्वबादरतराए ? गोयमा ! पुढविकाए सव्वबादरे, पुढविकाए सव्वबादरतराए / [28 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक, इन चारों में से कौन-सी काय सबसे बादर है, कौन-सी बादरतर है ? [28 उ ] गौतम ! (इन चारों में से) पृथ्वीकाय सबसे बादर है, पृथ्वीकाय ही बादरतर है / 29. एयरस णं भंते ! आउकायस्स तेउकायस्स वाउकायस्स य कयरे काये सव्वबायरे ?, कयरे काए सवबादरतराए ? गोयमा ! आउकाये सव्ववायरे, प्राउकाए सम्वबादरतराए। [29 प्र.] भगवन् ! अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय इन तीनों में से कौन-सी काय सर्वबादर है, कौन-सी बादरतर है ? [26 उ.] गौतम ! (इन तीनों में से) प्रकाय सर्वबादर है, अप्काय ही बादरतर है / 30. एयस्स णं भंते ! तेउकायस्स वाउकायस्स य कयरे काये सम्बबादरे ?, कयरे काये सव्वबादरतराए? गोयमा ! तेउकाए सव्वबादरे, तेउकाए सध्वबादरतराए / [30 प्र.] भगवन् ! अग्निकाय और वायुकाय, इन दोनों कायों में से कौन-सी काय सबसे बादर है, कौन-सी बादरतर है ? [30 उ.] गौतम ! इन दोनों में से अग्निकाय सर्वबादर है, अग्निकाय ही बादरतर है। विवेचन-पांच स्थावरों में बादर-बादरतर कौन ?..-पांच स्थावरों में सबसे अधिक बादर प्रत्येक वनस्पति की अपेक्षा वनस्पतिकाय है, वनस्पतिकाय को छोड़ कर शेष चार स्थावरों में सर्वाधिक बादर है—पृथ्वीकाय / फिर पृथ्वीकाय के सिवाय शेष तीन स्थावरों में सर्वाधिक बादर है-अप्काय / और अप्काय को छोड़कर शेष दो स्थावरों में सर्वाधिक बादर है-अग्निकाय / इस प्रकार बादर का तारतम्य बताया गया है।' पृथ्वीशरीर की महाकायता का निरूपण 31. केमहालए णं भंते ! पुढ विसरीरे पन्नत्ते ? गोयमा ! अणंताणं सुहुमयणसतिकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहमवाउसरीरे / असंखेज्जाणं सुहुमवाउसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे / असंखेज्जाणं सुहुमतेउकाइय. 1. वियाहपत्तिसूतं भा. 2, (मूलपाठ-टिपण) प्र.८३८-८३९ Page #2035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 770] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहमे आउसरीरे / असंखेज्जाणं सुहुम ग्राउकाइयसरीराणं जावतिया सरोरा से एगे पुढविसरोरे / असंखेज्जाणं सुहमपुढविकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बायरवाउसरीरे प्रसंखेज्जाणं बादरवाउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बादरतेउसरीरे। प्रसंखेज्जाणं बादरतेउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बायरआउसरोरे / असंखेज्जाणं बादरग्राउकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरपुढविसरोरे, एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरोरे पन्नत्ते / [31 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर कितना बड़ा (महाकाय) कहा गया है ? [31 उ.] गौतम ! अनन्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म वायुकाय का शरीर होता है। असंख्यात सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म अग्तिकाय का शरीर होता है / असंख्य सूक्ष्म अग्निकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सक्ष्म अप्काय का शरीर होता है / असंख्य सूक्ष्म अप्काय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक सूक्ष्म पृथ्वीकाय का शरीर होता है, असंख्यसूक्ष्म पृथ्वीकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर वायुकाय का शरीर होता है। असंख्य बादर वायुकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर अग्निकाय का शरीर होता है। असंख्य बादर अग्निकाय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर अप्काय का शरीर होता है / असंख्य बादर अप्काय के जितने शरीर होते हैं, उतना एक बादर पृथ्वीकाय का शरीर होता है। हे गौतम ! (अप्काय प्रादि अन्य कायों को अपेक्षा) इतना बड़ा (महाकाय) पृथ्वीकाय का शरीर होता है / विवेचन—पृथ्वीकाय के शरीर को महाकायता का माप-प्रस्तुत स. 31 में पृथ्वी काय का शरीर दूसरे अप्कायादि की अपेक्षा कितना बड़ा है ? इसे सदृष्टान्त निरूपण किया गया है / मापकयंत्र-१-असंख्य सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के शरीर-एक सूक्ष्म वायुशरीर २--असंख्य सूक्ष्म वायुकायिक-शरीर-एक सूक्ष्म अग्नि-शरीर 3- असंख्य सूक्ष्म अग्नि-शरीर-एक सूक्ष्म अप्कायशरीर ४-असंख्य सक्ष्म अप्कायशरीर---एक सूक्ष्म पृथ्वीशरीर ५-असंख्य सूक्ष्म पृथ्वीशरीर-एक बादर वायु-शरीर ६-असंख्य बादर वायु-शरीर-एक बादर अग्नि-शरीर 7- असंख्य बादर अग्नि-शरीर-एक बादर अप्कायशरीर ८-असंख्य बादर अप्कायिकशरीर--एक बादर पृथ्वी-शरीर पृथ्वीकाय के शरीर की अवगाहना 32. पुढविकायस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! से जहानामए रन्नो चाउरंतचक्कट्टिस्स वण्णगपेसिया सिया तरुणी बलवं जुगवं जुवाणी अप्पातका, वरुणओ, जाव निउणसिप्पोवगया, नवरं 'चम्मेद्वदुहणमुट्टियसमाहयणिचितगत्तकाया' न भण्णति, सेसं तं चेव जाव निउणसिप्पोवगया, तिक्खाए वइरामईए सहकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकायं जउगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय पडिसाहरिय पडिसंखिविय Page #2036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] पडिसंखिबिय जाव 'इणामेव' त्ति कट्ट, तिसत्तखुत्तो प्रोपोसेज्जा। तत्थ गं गोयमा ! अगइया पुढविकाइया आलिद्धा, अत्थेगइया नो आलिद्धा, अत्थेगइया संघट्टिया, अत्थेगइया नो संघट्टिया, अत्थेगइया परियाविया, अत्थेमइया नो परियाविया, अत्थेगइया उद्दविया, अत्थेगइया नो उद्दविया, अत्थेगइया पिट्ठा, प्रत्थेगइया नो पिट्ठा; पुढविकाइयस्स गं गोयमा! एमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता। [32 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकाय के शरीर की कितनी बड़ी (महती) अवगाहना कही गई है ? [32 उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुणी, बलवती, युगवती, युवावय-प्राप्त, रोगरहित इत्यादि वर्णन-युक्त यावत् कलाकुशल, चातुरन्त (चारों दिशाओं के अन्त तक जिसका राज्य हो, ऐसे) चक्रवर्ती राजा की चन्दन घिसने वाली दासी हो / विशेष यह है कि यहाँ चर्मेष्ट, द्रघण, मौष्टिक आदि व्यायाम-साधनों से सुदृढ़ बने हुए शरीर वाली, इत्यादि विशेषण नहीं कहने चाहिए। (क्योंकि इन व्यायामयोग्य साधनों की प्रवृत्ति स्त्री के लिए अनुचित एवं अयोग्य होती है / ) ऐसी शिल्पनिपुण दासी, चूर्ण पीसने की वज्रमयी कठोर (तीक्ष्ण) शिला पर, वज्रमय तीक्ष्ण (कठोर) लोढ़े (बट्ट) से लाख के गोले के समान, पृथ्वीकाय (मिट्टी) का एक बड़ा पिण्ड लेकर बार-बार इकट्ठा करती और समेटती (संक्षिप्त करती) हुई–'मैं अभी इसे पीस डालती हूँ', यों विचार कर उसे इक्कीस बार पीस दे तो हे गौतम! कई पृथ्वीकायिक जीवों का उस शिला और लोढ़े (शिलापुत्रक) से स्पर्श होता है और कई पृथ्वी कायिक जीवों का स्पर्श नहीं होता। उनमें से कई पृथ्वीकायिक जीवों का घर्षण होता है, और कई पृथ्वीकायिकों का घर्षण नहीं होता। उनमें से कुछ को पीड़। होती है, कुछ को पीड़ा नहीं होती। उनमें से कई मरते (उपद्रवित होते हैं कई नहीं होते तथा कई पोसे जाते हैं और कई नहीं पोसे जाते / गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव के शरीर को इतनी बड़ी (या सूक्ष्म) अवगाहना होती है / विवेचन—पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना-प्रस्तुत सूत्र 32 में जो प्रश्न पूछा गया है, उसका शब्दश: अर्थ होता है-पृथ्वीकायिक जीव की शरीरावगाहना कितनी बड़ी होती है ? इस प्रश्न का समाधान दिया गया है कि चक्रवर्ती की बलिष्ठ एवं सुदृढ़ शरीर वाली तरुणी द्वारा वज्रमय शिला पर पृथ्वी का बड़ा-सा गोला पूरी शक्ति लगा कर 21 वार पीसने पर भी बहुत-से पृथ्वीकण यों के यों रह जाते हैं, शिला पर उनका चूर्ण नहीं होता, वे घर्षणविहीन रह जाते हैं, इत्यादि वर्णन पर से स्पष्ट प्रतीत होता है कि पृथ्वीकाय के जीव अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना वाले होते हैं। कठिनशब्दार्थ-वण्णग-पेसिया- चंदन पीसने वाली दासी / जुगवं-युगवती-उस युग में यानी चौथे बारे में पैदा हुई हो, ऐसी। जुवाणी-युवावस्था-प्राप्त / अप्पातंका-आतंक अर्थात्दुःसाध्य रोग से रहित / निउणसिप्पोवगया-शिल्प में निपुणता प्राप्त / तिक्खाए वइरामइए साहकरणीए-तीक्ष्ण-कठोर बज्रमय पीसने को शिला से। वट्टावरएणं--प्रधान शिलब (शिलापुत्र-लोहे) से / जउगोलासमाणं-लाख के गोले के समान / पडिसाहरिय-बारंबार पिण्डरूप में इकट्ठा करती हुई / पडिसंखिविय-समेटती हुई। ति-सत्तक्खुत्तो—२१ वार / उत्पीसेज्जा-जोर 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 767, (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरनंदजी) भा. 6, पृ. 2791 Page #2037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 772] {व्याख्याप्रशस्तिसूत्र से (पूरी ताकत लगा कर) पीसे / आलिद्धालगते-चिपटते हैं, या स्पर्श करते हैं। संघट्टिया-रगड़े जाते हैं, संषित होते हैं / परियाविया-पीड़ित होते हैं। उद्दविया—मारे जाते हैं या उपद्रवित होते हैं। पिट्ठा--पिस जाते हैं। एमहालिया--इतनी महती-अतिसूक्ष्म / चम्मेढ़-दुहण मुट्ठिय-समाह्यणिचित गत्तकाया-चर्मेष्ट, दूधण और मौष्टिकादि व्यायाम-साधनों से सुदृढ़ हुए शरीरयुक्त / एकेन्द्रिय जीवों की अनिष्टत रवेदनानुभूति का सदृष्टान्त निरूवण 33. पुढविकाइए णं भंते ! अक्कते समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरति ? गोयमा ! से जहानामए केयि पुरिसे तरुणे बलवं जाब निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुग्णं जराजज्जरियदेहं जाव दुब्बलं किलंतं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणिज्जा, से णं गोयमा ! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहए समाणे के रिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ ?' 'अणि समणाउसो!' तस्स णं गोथमा ! पुरिसस्स वेदणाहितो पुढविकाए अक्कते समाणे एत्तो अणिद्वतरियं चेव प्रकंततरियं जात्र प्रमणामतरियं चेव वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ / [33 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव को पाक्रान्त करने (दबाने या पीड़ित करने पर वह कैसी वेदना (पीड़ा) का अनुभव करता है ? [33 उ.] गौतम ! जैसे कोई तरुण, बलिष्ठ यावत् शिल्प में निपुण हो, वह किसी वृद्धावस्था से जीर्ण, जराजर्जरित देह वाले यावत् दुर्बल, ग्लान (क्लान्त) के सिर पर मुष्टि से प्रहार करे (मुक्का मारे) तो उस पुरुष द्वारा मुक्का मारने पर वृद्ध कैसी पीड़ा का अनुभव करता है ? [गौतम--] आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! भगवन् ! वह वृद्ध अत्यन्त अनिष्ट पीड़ा का अनुभव करता है / (भगवान्-) इसी प्रकार, हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव को प्राक्रान्त किया जाने पर, वह उस वृद्धपुरुष को होने वाली वेदना की अपेक्षा अधिक अनिष्टतर (अप्रिय) यावत् अमनामतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) पीड़ा का अनुभव करता है। 34. आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेयणं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? गोयमा ! जहा पुढविकाए एवं चेव / [34 प्र.] भगवन् ! अप्का यिक जीव को स्पर्श या घर्षण (संघट्ट) किये जाने पर वह कैसी वेदना का अनुभव करता है ? पृथ्वीकायिक जीवों के समान अप्काय के जीवों के विषय में समझना चाहिए। 35. एवं तेउयाए वि। [35] इसी प्रकार अग्निकाय के विषय में भी जानना / 36. एवं वाउकाए वि। [36] वायुकायिक जीवों के विषय में भी पूर्ववत् जानना / Page #2038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [773 37. एवं वणस्सतिकाए वि जाव विहरइ / सेवं भंते ! सेवं मंते ! ति० / / एगूणवीसइमे सए : तइओ उद्देसओ समत्तो / / 19-3 / / [37] इसी प्रकार वनस्पतिकाय भी पूर्ववत् यावत् पीड़ा का अनुभव करता है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन --पांच स्थावर जीवों की पीड़ा का सदृष्टान्त निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 33 से 37 तक) में पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों की पीड़ा की बलिष्ठ युवक द्वारा सिर पर मुष्टिप्रहार से पाहत जराजीर्ण अशक्त वृद्ध की पीड़ा से तुलना करके समझाया गया है / वह इसलिए कि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों को किस प्रकार की पीड़ा होती है, यह छद्मस्थ पुरुषों के इन्द्रियगोचर नहीं हो सकता और न उनके ज्ञान का विषय हो सकता है। इसलिए भगवान ने जराजीण वृद्ध पुरुष का दृष्टान्त देकर बतलाया है। वस्तुत: पृथ्वी कायादि के जीव तो उक्त वृद्ध पुरुष को अपेक्षा भी अतीव अनिष्टतर अमनोज्ञ महावेदना का अनुभव करते हैं।' कठिन शब्दार्थ अक्कते-आक्रान्त, अाक्रमण होने पर / जमलपाणिणा-मुष्टि से, दोनों हाथों से / मुद्धाणंसि-मस्तक पर / एत्तोवि-इससे भी।' // उन्नीसवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. विवंचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2793 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 767 2. (क) वही, पत्र 767 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा 6, पृ. 2792 Page #2039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'महासवा' चतुर्थ उद्देशक : 'महानव' नयिकों में महास्रवादि पदों की प्ररूपणा 1. "सिय भंते ! नेरइया महस्सवा, महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? यो इण? सम8 1 / [1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (यथार्थ) नहीं है / 2. सिय भंते ! नेरइया महस्सवा महाकिरिया महावेदणा अप्पनिज्जरा ? हंता, सिया 2 / [2 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव महानव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले [2 उ.] हाँ, गौतम ! ऐसे होते हैं। 3. सिय भंते ! नेरइया महस्सवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा ? जो इण8 सम? 3 / [3 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।' 4. सिय भंते ! नेरइया महस्सवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ? णो इण8 सम४। [4 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक महासव, महात्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? [4 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 5. सिय भंते ! नेरइया महस्सवा अपकिरिया महावेदणा महानिज्जरा? गोयमा ! णो इणटु सम8 5 / हैं 1. अधिक पाठ-उद्देशक के प्रारम्भ में किसी प्रति में इस प्रकार का पाठ है-- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं बयासी' Page #2040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 4] [775 __ [5 प्र.] भगवन् ! क्या नै रयिक महास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं tho [5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 6. सिय भंते ! नेरइया महस्सवा अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिज्जरा ? नो इण? सम? 6 / [6 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक महासव, अल्पक्रिया, महावेदना तथा अल्पनिर्जरा वाले होते हैं ? [6 उ.] यह अर्थ भी समर्थ नहीं है / 7. सिय भंते ! नेरतिया महत्सवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिज्जरा ? नो इण8 सम8७। [7 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक महास्रव अल्पक्रिया, अल्पवेदना एवं महानिर्जरा वाले होते [7 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 8. सिय भंते ! नेरतिया महस्सवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ? नो इण8 सम8८। [8 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक महास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं ? [8 उ.] यह अर्थ भी समर्थ नहीं है / 9. सिय भंते ! नेरइया अप्पस्सवा महाकिरिया महावेदणा महानिज्जरा ? नो इण8 सम8९। [6 प्र.] भगवन् ! क्या नै रयिक अल्पास्रव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं [6 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 10. सिय भंते ! नेरइया अप्पस्सवा महाकिरिया महावेदणा अप्पनिज्जरा? नो इगट्ठ सम8 10 // [10 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक अल्पासव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं {10 उ.] यह अर्थ भी समर्थ नहीं है। 11. सिय भंते ! नेरइया अप्परसवा महाकिरिया अप्पवेपणा महानिज्जरा ? नो इण8 सम8 11 / Page #2041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र [11 प्र.] भगवन् ! क्या नै रयिक अल्पासव, महाक्रिया, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 12. सिय भंते ! नेरइया अप्पस्सवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा ? णो इण8 सम8 12 / [12 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक अल्पासव, महा क्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं ? [12 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 13. सिय भंते ! नेरइया अप्पस्सवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिज्जरा? नो इण8 समदृ 13 / [13 प्र.] भगवन् ! क्या नैरपिक अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं ? [13 उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है / 14. सिय भंते ! नेरतिया अप्पस्सवा अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिज्जरा ? नो इण8 सम8 14 / [14 प्र. भगवन् ! क्या नैरयिक अल्पास्रव, अल्पक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? [14 उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है / 15. सिय भंते ! नेरइया अप्पस्सवा अप्पकिरिया अप्पवेदणा महानिज्जरा? नो इण8 सम? 15 // [15 प्र.) भगवन् ! नैरयिक अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं [15 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 16. सिय भंते ! नेरतिया अस्पस्सवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा? णो इण? सम8 16 / एते सोलस भंगा। [16 प्र.] भगवन् ! नै रयिक कदाचित् अल्पासव, अल्पक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? [16 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / ये सोलह भंग (विकल्प) हैं। Page #2042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [777 विवेचन---महानवादि चतुष्क के सोलह भंगों में नैरपिक का भंग-प्रस्तुत 16 सूत्रों में महास्रवादि चतुष्क के 16 भंग दिये गए हैं। जीवों के शुभाशुभ परिणामों के अनुसार प्रास्रव, क्रिया, वेदना और निर्जरा, ये चार बातें होती हैं। परिणामों की तीव्रता के कारण ये चारों महान् रूप में और परिणामों की मन्दता के कारण ये चारों अल्प रूप में परिणत होती हैं। किन जीवों में किस की महत्ता और किस की अल्पता पाई जाती है? यह बताने हेतु प्रास्त्रवादि चार के सोलह भंग बनते हैं। सुगमता से समझने के लिए रेखाचित्र दे रहे हैं-('म' से महा और 'न' से अल्प समझना / ) 1 म. म. म. म. 5 म. प्र. म. म. हअ. म. म. म. 13 अ.अ.म. म. 2 म. म. म. प्र. 6 म. अ. म. अ. म. अ. 14 अ. अ. म. अ. 3 म. म.अ. म. म. प्र.अ.म. 11 अ. म.अ. भ. 15 अ.अ. अ. म. 4 म, म. प्र.अ. 8 म. अ. अ.न. 12 अ. म.अ. अ. 16 अ. अ. अ. अ. नैरयिकों में इन सोलह भंगों में से दूसरा भंग ही पाया जाता है; क्योंकि नै रयिकों के कर्मों का बन्ध बहुत होता है, इसलिए वे महानवी हैं / उनके कायिकी आदि बहुत क्रियाएँ होती हैं, इसलिए वे महाक्रिया वाले हैं। उनके असातावेदनीय का तीव्र उदय है, इस कारण वे महावेदना वाले हैं / उनमें अविरति परिणामों के होने से सकामनिर्जरा तो होती नहीं, अकामनिर्जरा होती है, पर वह अत्यल्प होती है। इसलिए वे अल्पनिर्जरा वाले हैं। इस प्रकार नैरयिकों में महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा, यह द्वितीय भंग ही पाया जाता है।' असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक में महास्रव आदि चारों पदों को प्ररूपणा 17. सिय भंते ! असुरकुमारा महस्सवा महाकिरिया महायणा महानिज्जरा? णो इण? सम?। एवं चउत्थो भंगो भाणियब्वो / सेसा पण्णरस भंगा खोडेयवा। [17 प्र.] भगवन् ! क्या असु रकुमार महास्रव, महात्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [17 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस प्रकार यहाँ (पूर्वोक्त सोलह भंगों में से) केवल चतुर्थ भंग कहना चाहिए, शेष पन्द्रह भंगों का निषेध करना चाहिए। 18. एवं जाव थणियकुमारा। [18] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए / 19. सिय भंते ! पुढविकाइया महस्सवा महाकिरिया महावेपणा महानिज्जरा? हंता, सिया। 1. (क) भगवतो. प्र. वत्ति, पत्र 767 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, प. 2798-99 Page #2043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 778] [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीका यिक जीव कदाचित् महानव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं? [16 उ.] हाँ, गौतम ! कदाचित् होते हैं / 20. एवं जाव सिय भंते ! पुढविकाइया अप्पस्सवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? हंता, सिया 16 / [20 प्र.] भगवन् ! क्या इसी प्रकार पृथ्वीकायिक यावत् सोलहवें भंग-अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्प वेदना और अल्पनिर्जरा वाले-कदाचित् होते हैं ? [20 3.] हाँ, गौतम ! वे कदाचित् यावत् सोलहवें भंग तक होते हैं / 21. एवं जाव मणुस्सा। [21] इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक जानना चाहिए। 22. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥एगूणवीसइमे सए : चउत्यो उद्देसमो समत्तो // 19-4 // [22] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक महालवादि-प्ररूपणा-सूत्र 17 से 22 तक का फलितार्थ यह है कि भवनपति (असुरकुमारादि दश प्रकार के), बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में—महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा--यह चौथा भंग पाया जाता है, शेष 15 भंग नहीं पाए जाते; क्योंकि ये चारों प्रकार के देव विशिष्ट अविरति से युक्त होने से महानव और महाक्रिया वाले होते हैं, तथा इन चारों में असातावेदनीय का उदय प्रायः नहीं होता, इसलिए वेदना अल्प होती है और निर्जरा भी प्रायः अशुभ परिणाम होने से अल्प होती है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य इन सभी दण्डकों में परिणामानुसार कदाचित पूर्वोक्त 16 ही भंग पाये जाते हैं।' खोडेयच्या निषेध करना चाहिए / ॥उन्नीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) फलितार्थगाथा-भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 768 (ख) 'बीएण उ नेरइया होंति, चउत्थेण सुरगणा सव्वे / ओरालसरीरा पुण सन्वेहि पाहि भणियव्वा // ' 2. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2800 Page #2044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'चरम' पंचम उद्देशक : 'चरम' (परम-वेदनादि) चरम और परम प्राधार पर चौवीस दण्डकों में महाकर्मत्व-अल्पकर्मस्व प्रादि का निरूपण 1. अस्थि णं भंते ! चरमा वि नेरतिया, परमा वि नेरतिया? हंता, अस्थि। | 1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक चरम (अल्पायुष्क) भी हैं और परम (अधिक प्रायुष्य वाले) भी हैं ? [1 उ.] हाँ, गौतम ! (वे चरम भी हैं, परम भी) हैं / 2. [1] से नणं भंते ! चरमे हितो नेरइएहितो परमा नेरतिया महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महस्सवतरा चेव, महावेयणतरा चेव, परभेहितो था नेरइएहितो चरमा नेरतिया अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पस्सयतरा चेव, अप्पवेयणतरा चेव ? हंता, गोयमा ! चरमेहितो नेरइएहितो परमा जाव महावेयणतरा चेव; परमेहितो था नेरइएहितो चरमा नेरइया जाव अप्पवेयणतरा चेव / [2-1 प्र.] भगवन् ! क्या चरम नैरयिकों की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महास्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? तथा परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नै रयिक अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पास्त्रव, और अल्पवेदना वाले हैं ? [2-1 उ.] हाँ, गौतम ! चरम नै रयिकों की अपेक्षा परम नैरयिक यावत् महावेदना वाले हैं और परम नै रयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक यावत् अल्पवेदना वाले हैं। [2] से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चा जाव अप्पवेयणतरा चेव ? गोयमा ! ठिति पडुच्च, से तेण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ जाव अप्पवेयणतरा चेव / [2-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि यावत् परम नैरयिकों की अपेक्षा चरम नैरयिक यावत् अल्पवेदना वाले हैं ? [2-2 उ.] गौतम ! स्थिति (आयुष्य) की अपेक्षा से (ऐसा है / ) इसी कारण, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि "यावत्- 'अल्पवेदना वाले हैं। 3. अस्थि णं भंते ! चरमा वि असुरकुमारा, परमा वि असुरकुमारा ? एवं चेव, नवरं विवरीयं भाणियन्वं-परमा अप्पकम्मा चरमा महाकम्मा, सेसं तं चेव / जाव थणियकुमारा ताव एमेव / Page #2045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 780] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र. भगवन् ! क्या असुरकुमार चरम भी हैं और परम भी हैं ? [3 उ. हाँ, गौतम ! वे दोनों हैं, किन्तु विशेष यह है कि यहाँ (परम एवं चरम के सम्बन्ध में) (पूर्वकथन से) विपरीत कहना चाहिए / (जसे कि-) परम असुरकुमार (अशुभ कर्म की अपेक्षा) अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुर कुमार महाकर्म वाले हैं। शेष पूर्ववत्, यावत्-स्तनितकुमारपर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए / 4. पुढविकाइया जाव मस्सा एए जहा नेरझ्या / [4] पृथ्वी कायिकों से लेकर यावत् मनुष्यों तक नैरयिकों के समान समझना चाहिए / 5. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [5] बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-नैरयिकादि का चरम-परम के आधार पर अल्पकर्मत्वादि का निरूपण---प्रस्तुत 5 सूत्रों (1 से 5 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चरम और परम के आधार पर महाकर्मत्व अल्पकर्मत्व आदि का निरूपण किया गया है / 'चरम' और 'परम की परिभाषा ये दोनों पारिभाषिक शब्द हैं। इनका क्रमशः अर्थ हैअल्प स्थिति (पायुष्य) वाले और दीर्घ स्थिति (लम्बी आयु) वाले।। चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्मादि वाले क्यों ? जित नैरयिकों की स्थिति अल्प होती है, उनकी अपेक्षा दीर्घ स्थिति वाले नैरयिकों के अशुभकर्म अधिक होते हैं, इस कारण उनकी क्रिया, प्रास्त्रव और वेदना भी अधिकतर होती है। इसीलिए कहा गया है कि चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म, महाक्रिया, महास्रव और महावेदना वाले होते हैं। परम की अपेक्षा चरम नैयिक अल्पकर्मादि वाले क्यों ? --परम नैरयिक दीर्घ स्थिति वाले होते हैं, अतः उनको अपेक्षा अल्पस्थिति वाले चरम नै रयिकों के अशुभ कर्मादि अल्प होने से वे अल्पकर्मादि वाले होते हैं / पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्यों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। चारों प्रकार के देवों में इनसे विपरीत भवनपति. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में परम (दीर्घ स्थिति वालों) की अपेक्षा चरम (अल्प स्थिति वाले) देव महाकर्मादि वाले हैं, चरम देवों की अपेक्षा परम देव अल्पकर्मादि वाले हैं, क्योंकि उनके (दीर्घ स्थिति वालों के) असाता वेदनीयादि अशुभकर्म अल्प होते हैं, इस कारण उनमें कायिकी आदि क्रियाएँ भी अल्प होती है, अशुभकर्मों का प्रास्त्रव भी कम होता है और उन्हें पीड़ा अत्यल्प होने से उनके वेदना भी अल्प होती है / चरम (अल्पस्थिति वाले) देव के अशुभ कर्म भी अधिक, क्रिया भी अधिक, पात्रव 1 (क) भगवती. वृत्ति, पत्र 769 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. 6, पृ, 2804 Page #2046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवॉ शतक : उद्देशक 5] [781 और वेदना भी अधिक होती है / इसीलिए कहा गया है-परम की अपेक्षा चरम देव महाकर्मादि वाले होते हैं।' वेदना : दो प्रकार तथा उनका चौबीस दण्डकों में निरूपण 6. कतिविधा णं भंते ! वेयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पन्नत्ता, तं जहा-निदा य अनिदा य।। [6 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [6 उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है / यथा-निदा वेदना और अनिदा वेदना / 7. नेरइया गं भंते ! कि निवायं वेयणं वेएंति, अनिदायं ? जहा पन्नवणाए जाव वेमाणिय त्ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। / / एगूणवीसइमे सए : पंचमो उद्देसओ समत्तो // 19.5 // [7 प्र.] भगवन् ! नैरयिक निदा वेदना वेदते हैं या अनिदा वेदना ? [7 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर) प्रज्ञापना-सूत्र के (पैतीसवें पद में उल्लिखित कथन) के अनुसार यावत्--वैमानिकों तक जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-नैरयिकादि में दो प्रकार की वेदना-प्रस्तुत दो सूत्रों में वेदना के दो प्रकार तथा नैयिकादि में प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक उनकी प्ररूपणा की गई है / निदा और अनिदा वेदना—ये दोनों शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द हैं / निदा के मुख्य अर्थ यहाँ वत्तिकार ने किये हैं..-.(१) निदा-ज्ञान, सम्यगविवेक आभोग, उपयोग, तथा (2) निदा अर्थातजीव का नियत दान यानी शोधन (शुद्धि) / इन दोनों अर्थ वाली निदा से युक्त वेदना भी निदावेदना है / अर्थात् --सम्यगविवेकपूर्वक, ज्ञानपूर्वक या उपयोगपूर्वक (ग्राभोगपूर्वक) वेदी जाने वाली वेदना को निदा वेदना कहते हैं / यही वेदना निश्चित रूप से जीव की शुद्धि करने वाली है / इसके विपरीत अज्ञानपूर्वक अनाभोग—(अनजानपन में) वेदी जाने वाली वेदना को अनिदा वेदना कहते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 769 (ख) से नणं भंते ! चरमेहितो असरकूमारेहितो परमा असुरकूमारा अध्पकम्मतरा चेव अपकिरियतरा. चेवेत्यादि / अ. वृ. पत्र 769 2. (क) भगवती, अ, वृत्ति पत्र 769 (ख) भगवती. खण्ड 4 गुजराती अनुवाद) (पं. भगवानदास दोशी) पृ. 89 Page #2047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 752 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्रज्ञापनानिर्दिष्ट तथ्य का संक्षिप्त निरूपण नैरयिक जीवों को दोनों प्रकार की वेदना होती है। जो संज्ञी जीवों से जाकर उत्पन्न होते हैं, वे निदा वेदना वेदते हैं और असंज्ञी से जाकर उत्पन्न होने वाले अनिदा वेदना वेदते हैं / इसी प्रकार असुरकुमार आदि देवों के विषय में भी जानना चाहिए। पृथ्वी कायिक प्रादि से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक केवल 'अनिदा' वेदना वेदते हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर, ये नैरयिकों के समान दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक भी दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं। किन्तु दूसरों की अपेक्षा उनके कारण में अन्तर है / जो मायी मिथ्यादृष्टि देव हैं, वे अनिदा वेदना वेदते हैं जबकि अमायी सम्यग्दृष्टि देव निदावेदना वेदते हैं।' // उन्नीसवाँ शतक : पञ्चम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र पद-३५, पत्र 556-557 (ख) भगवतीमूत्र, खण्ड 4, (गुजराती अनुवाद) (पं. भगवानदासजी), प. 89 Page #2048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसओ : 'दीव' छठा उद्देशक : द्वीप (-समुद्र-वक्तव्यता) जीवाभिगमसूत्र-निर्दिष्ट द्वीप-समुद्र-सम्बन्धी वक्तव्यता 1. कहि णं भंते ! दीव-समुद्दा ?, केवतिया गं भंते ! दीव-समुद्दा ?, किसंठिया णं भंते ! दीव-समुद्दा ? एवं नहा जीवाभिगमे दीव-समुह / सो सो चेव इह वि जोतिसमंडिउद्देसगवज्जो भाणियन्यो जाव परिणामो जीवउववानो जाव अणंतखुत्तो। सेवं मंते ! सेवं भंते ! ति० / / / एगूणवीसइने सए : छट्ठो उद्दसओ समत्तो // 16-6 // [1 प्र.] भगवन् ! द्वीप और समुद्र कहाँ हैं ? भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने हैं ? भगवन् ! होप-समुद्रों का आकार (संस्थान) कैसा कहा गया है ? [1 उ.] (गौतम ! ) यहाँ जीवाभिगमसत्र को तृतीय प्रतिपत्ति में, ज्योतिष्क-मण्डित उद्देशक को छोड़ कर, द्वीप-समुद्र-उद्देशक (में उल्लिखित वर्णन) यावत् परिणाम, जीवों का उत्पाद और यावत् अनन्त बार तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'-यों कह कर मौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन द्वीप-समुद्र कहाँ, कितने और किस प्रकार के ?-प्रस्तुत उद्देशक में द्वीप-समुद्र सम्बन्धी वक्तव्यता जीवाभिगमसूत्र तृतीय प्रतिपत्ति के अतिदेशपूर्वक प्रतिपादन की गई है / जीवाभिगम में द्वीपसमुद्रोद्देशक में वर्णित 'ज्योतिष्कमण्डित' प्रकरण को छोड़ देना चाहिए / तथा परिणाम और उत्पाद तक का जो वर्णन द्वीपसमुद्र से सम्बन्धित है, वही यहाँ जानना चाहिए / द्वीप समुद्रों का संक्षिप्त परिचय स्वयम्भूरमण समुद्र तक असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं / जम्बूद्वीप इनमें से विशिष्ट द्वीप है, जिसका संस्थान (प्राकार) चन्द्रमा या थाली के समान गोल है / शेष सब द्वीप-समुद्रों का संस्थान चूड़ी के समान वलयाकार गोल है / क्योंकि ये एक दूसरे को चारों ओर से घेरे हुए हैं / इनमें जीव पहले अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं / Page #2049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 784] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिणाम और उपपात से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर-प्र.) (1) भगवन् ! क्या सभी द्वीप-समुद्र पृथ्वी के परिणामरूप हैं ? (2) भगवन् ! क्या द्वीप-समुद्रों में सर्वजीव पहले पृथ्वी कायादिरूप में कई बार उत्पन्न हुए हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान् ने कहा है हाँ, गौतम ! सभी जीव अनेक बार अथवा अनन्त वार उत्पन्न हो चुके हैं।' // उन्नीसवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 769-770 (ख) जीवाभिगम प्रतिपत्ति 3, पत्र 176-273, सू. 123-190 (माग मोदय.) (ग) भगवती. विवेचन (पं. चेवर चन्दजी) भा. 6, पृ. 2006 Page #2050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'भवणा' सप्तम उद्देशक : भवन (-विमानावाससम्बन्धी) चतुविध देवों के अवन-नगर विमानावास-संख्यादि-निरूपण 1. केवतिया गं भंते ! असुरकुमारभवणावाससयहस्सा पन्नता ? गोयमा ! चोयाँढें असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख भवनावास कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! असुरकुमारों के चौसठ लाख भवनावास कहे गए हैं। 2. ते णं भंते ! किमया पन्नत्ता? गोयमा! सत्वरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा घ पोग्गला य वक्कमति विउक्कमति चयंति उववज्जंति, सासया णं ते भवणा वम्बट्ठयाए, वण्णपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहि असासया। [2 प्र.] भगवन् ! वे भवनावास किससे बने हुए हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे भवनावाप्स रत्नमय हैं, स्वच्छ, श्लक्ष्ण (चिकने या कोमल) यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) हैं। उनमें बहुत-से जीव और पुद्गल उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं, च्यवते हैं और पुन: उत्पन्न होते हैं / वे भवन द्रव्यार्थिक रूप से शाश्वत हैं, किन्तु वर्णपर्यायों, यावत् स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से प्रशाश्वत हैं। 3. एवं जाव थपियकुमारावासा / [3] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावासों तक जानना चाहिए / 4. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरभोमेज्जनगरावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [4 प्र. भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के भूमिगत नगरावास कितने लाख कहे गए हैं ? [4 उ.] गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के भूमि के अन्तर्गत असंख्यात लाख नगरावास कहे 5. ते णं भते ! किमया पन्नत्ता? सेसं तं चेव। {5 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तरों के वे नगरावास किससे बने हुए हैं ? [5 उ.] गौतम ! समग्र वक्तव्यता पूर्ववत् समझनी चाहिए / Page #2051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 786] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6. केवतिया णं भंते ! जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा० पुच्छा? गोयमा! असंखेज्जा जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। [6 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने लाख कहे गए हैं ? [6 उ.] गौतम ! (उनके विमानावास) असंख्येय लाख कहे गए हैं। 7. ते गं भंते ! किमया पन्नता? गोयमा ! सवफालिहामया अच्छा, सेसं तं चेव / [7 प्र.] भगवन् ! वे विमानावास किस वस्तु से निर्मित हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे विमानावास सर्वस्फटिकरत्नमय हैं और स्वच्छ हैं; शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। 8. सोहम्मे गं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा० / [8 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? [8 उ.] गौतम ! उसमें बत्तीस लाख विमानावास कहे गए हैं। 9. ते णं भंते ! किमया पन्नत्ता? गोयमा ! सम्वरयणामया अच्छा, सेसं तं चेव / [6. प्र.] भगवन् ! वे विमानावास किस वस्तु के बने हुए हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / 10. एवं जाव अणुत्तरविमाणा, नवरं जाणियव्या जलिया भवणा विमाणा वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / एगूणवीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 19-7 // [10] इसी प्रकार (का वर्णन सौधर्मकल्प से लेकर) यावत्-अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए / विशेष यह कि जहाँ जितने भवन या विमान (शास्त्र-निर्दिष्ट) हों, (उतने कहने चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर गौतम-स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-देवों के भवनावासों और विमानावासों की संख्यादि-प्रस्तुत 10 सूत्रों (सू. 1 से 10 तक) में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के भवनावास, नगरावास एवं विमानावासों की संख्या कितनी-कितनी है ? किस वस्तु से वे निमित ? तथा वे कैसे हैं ? इत्यादि सब वर्णन इस उद्देशक में किया गया है। Page #2052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [767 नीचे लिखे रेखाचित्र से इस उद्देशक का वक्तव्य सरलता से समझ में आ जाएगा--- देव-नाम भवनावास, विमानावास या नगरावास / कथंचित शाश्वत- / . अशाश्वत कैसे ? कितने ? 64 लाख भवनयति देव भवनावास सर्व रत्न मय / स्वच्छ, श्लक्ष्ण, निर्मल कोमल, घृष्ट मष्ट, कान्तिवाणव्यन्तर देव भूमिगत नगरावास सर्व रत्न मय / मय, मलविहीन, उद्योत ज्योतिष्क देव विमानावास सर्व स्फटिक मय सहित, प्रसन्नताजनक वैमानिक सौधर्म कल्प देव | विमानावास सर्व रत्न मय दर्शनीय, अतिरम्य " " " ईशान कल्प सनत्कुमार कल्प माहेन्द्र कल्प ब्रह्मलोक कल्प लान्तक कल्प महाशुक्र कल्प सहस्रार कल्प आणत-प्राणत प्रारण-अच्युत नौ ग्रेवेयक अतुत्तर " " विमान असंख्यात लाख असंख्यात लाख बत्तीस लाख 28 लाख 12 लाख 8 लाख 4 लाख 50 हजार 40 हजार 6 हजार 300 " " क्रमश : 9 और 50 कठिनशब्दार्थ-- दवट्ठयाए-द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से / किमया-किससे बने हैं, कैसे हैं ? सव्वकालिहामया-सर्वस्फटिकरत्नमय / वक्कमति : विशेषार्थ-जो पहले वहाँ कभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे उत्पन्न होते हैं। विउक्कमंतिः -(1) विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, (2) विनष्ट होते हैं / चयंति:-च्यवते हैं, मरते हैं, च्युत होते हैं—निकलते हैं। उववज्जतिः-पुनः उत्पन्न होते हैं / // उन्नीसवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 13, पृ. 412-413 (ख) वियाहपण्णत्ति भा. 2. म. पा. टि. प्र. 845 2. भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घे.), पृ. 2807-8 / (ख) भगवती. भा. 13, (प्र. चं. टीका), पृ. 407 Page #2053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदुमो उद्देसओ : 'निव्वत्ति' आठवाँ उद्देशक : निवृत्ति जीव-निर्वत्ति के भेद-अभेद का निरूपण 1. कतिविधा णं भंते ! जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा जीवनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा—एगिदियजीवनिव्वत्ती जाव पंचिदियजीवनिन्धत्ती। [1 प्र. भगवन् ! जीवनिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [1 उ.] गौतम ! जीवनित्ति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति यावत् पंचेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति। 2. एगिदियजीवनिव्वत्ती णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविधा पन्नत्ता, तं जहा -पुढविकाइयएगिदियजीवनिवत्ती जाव बणस्सइकाइय- . एगिदियजीवनिव्वत्ती। [2 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-जीव-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [2 उ.) गौतम ! वह पांच प्रकार की कहो गई है / यथा-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिवृत्ति यावत् वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वति / 3. पुढविकाइयएगिदियजीवनिवत्ती णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नता, तं जहा -सुहुमपुढयिकाइयएगिवियजीवनिव्वत्ती य बायरपुढवि० : [3 प्र.] भगवन् ! पृवीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [3 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है / यथा--सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति और बादरपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति / 4. एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा बडगबंधे (स० 8 उ० 9 सु० 90-91) तेयगसरीरस्स सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेंदियजीवणिब्धत्ती णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा--पज्जत्तगसबढसिद्धअणुत्तरोववातिय जाय देवपंचेंदियजीवनिव्वत्तीय अपज्जगसव्वदृसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचेंदियजीवनिव्वत्तीय / Page #2054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक ) [789 [4] इस अभिलाप द्वारा पाठवें शतक के नौवें उद्देशक के (सू. 60-91 में) बृहद् बन्धाधिकार में कथित तैजस शरीर के भेदों के समान यहाँ भी जानना चाहिए, यावत् [4 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थ सिद्धअनुत्तरौपपातिकवैमानिक-देव-पंचेन्द्रियजीवनिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [4 उ.] गौतम ! यह निर्वत्ति दो प्रकार की कही गई है। यथा-पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिकवैमानिक-देवपंचेन्द्रियजीवनिर्वृत्ति और अपर्याप्त सर्वार्थ सिद्धअनुत्तरौपपातिकवैमानिकदेवपचेन्द्रियजीवनिर्वति। विवेचन-निवृत्ति और जीवनिर्वृत्ति : स्वरूप और भेद-प्रभेद-नित्ति का अर्थ हैनिष्पत्ति, रचना, बनावट की पूर्णता / जीवों की एकेन्द्रियादि पर्याय रूप से निष्पत्ति या पूर्ण रचना होना जोवनिर्वृत्ति है। एकेन्द्रिय नामकर्म के उदय से पृथ्वीकायिकादि रूप से जीव की निर्वृत्ति होना एकेन्द्रिय-जीवनिर्वृत्ति है / शेष स्पष्ट है / ' कर्म-शरीर-इन्द्रिय आदि 18 बोलों को निर्वृत्ति के भेदसहित चौबीस दण्डकों में निरूपण 5. कतिविधा णं भंते ! कम्मनिव्वत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिव्वत्ती पन्नता, तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मनिव्वत्ती जाव अंतराइयकम्मनिव्यत्ती। [5 प्र.] भगवन् ! कर्मनिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? {5 उ.] गौतम ! कर्मनिवत्ति आठ प्रकार की कही गई है। यथा—ज्ञानावरणीयकर्मनिर्वृत्ति, यावत् अन्तराय-कर्मनिवृत्ति / 6. नेरतियाणं भंते ! कतिविधा कम्मनिव्वत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा-नाणावरणिज्जकम्मनिव्वत्ती, जाव अंतराइयकम्मनिव्वत्ती। [6 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की कर्मनिवृत्ति कही गई है ? [6 उ.] गौतम ! उनको पाठ प्रकार की कर्मनिवृत्ति कही गई है / यथा-ज्ञानावरणीयकर्म निर्वृत्ति, यावत् अन्तरायकर्मनिवृत्ति / 7. एवं जाव वेमाणियाणं / [7] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक की कर्मनिवृत्ति के विषय में जान लेना चाहिए / 8. कतिविधा गं भंते ! सरीरनिव्यत्ती पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविधा सरीरनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा-ओरालियसरीरनिवत्ती जाव कम्मगसरीरनिव्वत्ती। 1. भगवती. हिन्दीविवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2812 Page #2055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 790 व्याख्याप्राप्तसूत्र [8 प्र.] भगवन् ! शरीरनित्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [8 उ.] गौतम ! शरीरनिति पांच प्रकार की कही गई है। यथा---ौदारिकशरीरनिर्वृत्ति यावत् कार्मणशरीरनिर्वृत्ति / 9. नेरतियाणं भंते ! . एवं चेव / [प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की शरीरनिवत्ति कही गई है ? [6 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिए। 10. एवं जाय वेमाणियाणं, नवरं नायव्वं जस्स जति सरीराणि / [10] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष यह कि जिसके जितने शरीर हों, उतनी निवृत्ति कहनी चाहिए / 11. कतिविधिा णं भंते ! सविदियनिवत्ती पन्नता? गोयमा ! पंचविहा सबिदियनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहा-सोतिदिय निवत्ती जाव फासिदियनिव्वत्ती। [11 प्र.] भगवन् ! सर्वेन्द्रियनिति कितने प्रकार की कही गई है ? [11 उ.] गौतम ! सर्वेन्द्रियनिवृत्ति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-श्रोत्रेन्द्रियनिर्वृत्ति यावत् स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति / 12. एवं जाव नेरइया जाव थणिकुमाराणं / [12] इसी प्रकार नरयिकों से लेकर यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त जानना चाहिए / 13. पुढविकाइयाणे पुच्छा। गोयमा ! एगा फासिदियविदियानम्वत्ती पन्नत्ता / [13 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की कितनी इन्द्रियनिर्व त्ति कही गई है ? [13 उ.] गौतम ! उनकी एक मात्र स्पर्शेन्द्रियनिर्वृत्ति कही गई है। 14. एवं जस्स जति इंदियाणि जाव वेमाणियाणं। [14] इसी प्रकार जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी इन्द्रियनिर्वत्ति यावत्-वैमानिकपर्यन्त कहनी चाहिए। 15. कतिविधा णं भंते ! भासानिव्वत्ती पन्नता ? गोयमा ! चउस्विहा भासानिधत्ती पन्नत्ता, तं जहा—सच्चभासानिम्वत्ती, मोसमासानिध्वत्ती, सच्चामोसमासानिव्वत्ती, असच्चामोसमासानिव्वत्ती। [15 प्र.] भगवन् ! भाषानिति कितने प्रकार की कही गई है ? [15 उ.] गौतम ! भाषा-निर्वृत्ति चार प्रकार की कही गई है / यथा---सत्यभाषानिर्वत्ति, मृषाभाषानिर्वृत्ति, सत्यामृषाभाषा-निवृत्ति और असत्याऽमृषा-भाषानिर्वृत्ति / Page #2056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 8] [791 16. एवं एगिदियवज्जं जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं / [16] इस प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत्-वैमानिक तक, जिसके जो भाषा हो, उसके उतनी भाषानिवृत्ति कहनी चाहिए। 17. कतिविहा णं भंते ! मणनिवत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! चउम्विहा मणनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा-सच्चमणनिव्वत्तो जाव असच्चामोसमणतिव्वत्ती। [17 प्र.] भगवन् ! मनोनिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [17 उ.] गौतम ! मनोनिवृत्ति चार प्रकार की कही गई है। यथा-सत्यमनोनिवृत्ति, यावत् असत्यामृषामनोनिवृत्ति / 18. एवं एगिविय-विलिदियवज्ज जाव वेमाणियाणं / [18] इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 19. कतिविहा णं भंते ! कसायनिवत्ती पन्नत्ता? गोयमा! चउविवहा कसायनिव्वती पन्नत्ता, तं जहा-कोहकसायनिव्वत्ती जाव लोभकसायनिवत्ती। [16 प्र.] भगवन् ! कषाय-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? / [16 उ.] गौतम ! कषायनिवृत्ति चार प्रकार की कही गई है। यथा-क्रोधकषायनिवृत्ति यावत् लोभकषायनिर्वृत्ति / 20. एवं जाव वेमाणियागं / [20] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 21. कतिविधा णं भंते ! वण्णनिव्वत्तो पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा वणनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा–कालवण्णनिव्वत्ती जाव सुक्किलवण्णनिव्वत्ती। [21 प्र. भगवन् ! वर्णनिर्वत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [21 उ.] गौतम ! वर्गनिर्वृत्ति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-कृष्णवर्णनिर्वत्ति, यावत् शुक्लवर्णनिर्वृत्ति / 22. एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं / [22] इसी प्रकार ने रयिकों से लेकर यावत् वैमानिक-पर्यन्त समग्र वर्ण निवृत्ति कहनी चाहिए / 23. एवं गंधनिवत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं / [23] इसी प्रकार दो प्रकार की गन्ध-निवृत्ति, यावत् वैमानिकों तक कहनी चाहिए। Page #2057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 24. रसनिव्वत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं। . [24] इसी तरह पांच प्रकार की रस-निर्वृत्ति, यावत् वैमानिकों तक कहनी चाहिए। 25. फासनिव्वत्तो प्रदविहा जाय वेमाणियाणं / [25] आठ प्रकार की स्पर्श-निवृत्ति भी यावत् वैमानिक-पर्यन्त कहनी चाहिए। 26. कतिविधा गं भंते ! संहाणनिवत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! छव्यिहा संठाणनित्यत्ती पन्नत्ता, तं जहा—समचउरंससंठाणनित्यत्ती जाव हुंडसंठागनिव्वत्ती। [26 प्र.] भगवन् ! संस्थान-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [26 उ.] गौतम ! संस्थान-निवृत्ति छह प्रकार की कही गई है। यथा-समचतुरस्रसंस्थान-निवृत्ति यावत् हुण्डक-संस्थान-निवृत्ति / 27. नेरतियाणं पुच्छा। गोयमा ! एगा हुंडसंठाणनिव्वत्तो पन्नत्ता। [27 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के संस्थान-निति कितने प्रकार की कही गई है ? [27 उ.] गौतम ! उनके एकमात्र हुण्डक-संस्थान नित्ति कही गई है। 28. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! एगा समचउरंससंठाणनिव्वत्ती पन्नत्ता। [28 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने प्रकार की संस्थाननिवृत्ति कही गई है ? [28 उ.] गौतम ! उनके एक मात्र समचतुरस्रसंस्थान निवृत्ति कही गई है। 29. एवं जाव थणियकुमाराणं / [26] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त कहना चाहिए। 30. पुढविकाइयाण पुच्छा। गोयमा ! एगा मसूरचंदासंहाणनिव्वती पन्नत्ता। [30 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के संस्थाननिर्वृत्ति कितनी है ? [30 उ.] गौतम ! उनके एकमात्र मसूरचन्द्र-(मसूर की दाल के समान)-संस्थान-निर्वृत्ति कही गई है। 31. एवं जस्स जं संठाणं जाय वेमाणियाणं / [31] इस प्रकार जिसके जो संस्थान हो, तदनुसार निर्वृत्ति, यावत् वैमानिकों तक कहनी चाहिए। 32. कतिविधा गं भंते ! सन्नानिवत्ती पन्नत्ता? Page #2058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 8] ___ गोयमा ! चउन्विहा सन्नाणिव्यत्ती पन्नत्ता, तं जहा--आहारसन्नानिवत्ती जाव परिग्गहसन्नानिवत्ती। [32 प्र.] भगवन् ! संज्ञानिवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [32 उ.] गौतम ! संज्ञा-निर्वृत्ति चार प्रकार की कही गई है, यथा--प्राहारसंज्ञानिर्वृत्ति यावत् परिग्रह-संज्ञानिर्वति / 33. एवं जाव वेमाणियाणं / _ [33] इस प्रकार (नरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक, (संज्ञानिवृत्ति का कथन करना चाहिए।) 34. कतिविधा भंते ! लेस्सानिव्वत्ती पन्नता? गोयमा ! छविहा लेस्सानिवत्ती पन्नत्ता, तं जहा-कण्हलेस्सानिवत्ती जाव सुक्कलेस्सानिब्यत्ती। [34 प्र.] भगवन् ! लेश्यानिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [34 उ.] गौतम ! लेश्यानिर्वत्ति छह प्रकार की कही गई है, यथा---कृष्णलेश्यानिर्वृत्ति यावत् शुक्ल-लेश्यानिवृत्ति / 35. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति लेस्साओ / [35] इस प्रकार (नरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिक-पर्यन्त (लेश्यानिवत्ति यथायोग्य कहनी चाहिए !) परन्तु जिसके जितनी लेश्याएँ हों, उतनी ही लेश्यानिवृत्ति कहनी चाहिए / 36. कतिविधा णं भंते ! दिद्विनिव्वत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! तिथिहा दिट्ठिनिम्वत्ती पन्मत्ता, तं जहा- सम्मििटुनिव्वत्ती, मिच्छाविद्विनिम्वत्ती, सम्मामिच्छादिट्ठिनिम्वत्ती। [36 प्र.] भगवन् ! दृष्टि-निवत्ति कितने प्रकार की कही गई ? [36 उ.] गौतम ! दष्टिनित्ति तीन प्रकार की कही गई है। यथा-सम्यग्दृष्टिनित्ति, मिथ्यादृष्टि निर्वृत्ति और सम्यमिथ्यादृष्टि निर्वृत्ति / 37. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जतिविधा दिट्टी। [37] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त (दृष्टिनित्ति कहनी चाहिए।) परन्तु, जिसके जो दृष्टि हो, (तदनुसार दृष्टि-निर्वृत्ति कहना चाहिए / ) 38. कतिविहा णं भंते ! नाणनिव्वत्तो पन्नत्ता ? गोयमा! पंचविहा नाणनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा--आभिणिवोहियनाणनिव्वत्तो जात केवलनाणनिव्वत्ती। [38 प्र.] भगवन् ! ज्ञाननिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई ? Page #2059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 714] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [38 उ.] गौतम ! ज्ञान-निर्वति पांच प्रकार की कही गई है, यथा-आभिनिबोधिकज्ञान-निवृत्ति, यावत् केवलज्ञान-निर्वृत्ति / 36. एवं एगिदियवज्जं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति नाणा। [39] इस प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर जिसमें जितने ज्ञान हों, तदनुसार उसमें उतनी ज्ञाननिर्वृत्ति (कहनी चाहिए।) 40. कतिविधा णं भंते ! अन्नाणनिवत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा अन्नाणनिवत्ती पन्नत्ता, तं जहा-मइअन्नाणनिव्वत्ती सुयअन्नाणनिव्वत्ती विभंगनाणनिबत्ती / [40 प्र.] गौतम ! अज्ञान-निवृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [40 उ.] गौतम ! अज्ञान-निवृत्ति तीन प्रकार की कही गई है, यथा—मति-अज्ञान-निवृत्ति, श्रुत-अज्ञान-निर्वृत्ति और विभंगज्ञान-निवृत्ति / 41. एवं जस्स जति अन्नाणा जाव वेमाणियाणं / [41] इस प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त, जिसके जितने अज्ञान हों, (तदनुसार अज्ञाननिर्वृत्ति कहनी चाहिए।) 42. कतिविधा णं भंते ! जोगनिवत्ती पन्नत्ता? गोयमा ! तिविहा जोगनिन्धत्ती पन्नत्ता, तं जहा-मणजोगनिव्यत्ती, वइजोगनिम्वत्ती, कायजोगनिव्वत्ती। [42 प्र.] भगवन् ! योग-निवत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [42 उ.] गौतम ! योगनिवृति तीन प्रकार की कही गई है / यथा-मनोयोग-निवृत्ति, वचन-योग-निवृत्ति और काय-योग-निर्वृत्ति / 43. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जतिविधो जोगो। __ [43] इस प्रकार यावत् वैमानिकों तक जिसके जितने योग हों, (तदनुसार उतनी योगनिर्वृत्ति कहनी चाहिए।) 44. कतिविधा णं भंते ! उवयोगनिवत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा उपयोगनिव्वत्ती पन्नत्ता, तं जहा-सागारोवयोगनिव्यत्ती, अणागारोवयोगनिब्वत्ती। [44 प्र.] भगवन् ! उपयोग-निर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? [44 उ.] गौतम ! उपयोग-निर्वृत्त दो प्रकार की कही गई है, यथा-साकारोपयोगनिर्वृत्ति और अनाकारोपयोग-निर्वृत्ति / Page #2060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 8] 7i95 45. एवं जाव वेमाणियाणं / ' सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / ॥एगूणवीसइमे सए : अटुमो उद्देसनो समत्तो // 19-8 // [45] इस प्रकार उपयोग-निर्वृत्ति (का कथन) यावत् वैमानिक-पर्यन्त (करना चाहिए।) _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्म, शरीर आदि 18 बोलों को निर्वृत्ति के भेद तथा चौबीस दण्डकों में पाई जाने वाली उस-उस निर्वत्ति को यथायोग्य प्ररूपणा प्रस्तुत 41 सूत्रों (सू. 5 से 45 तक) में निवृत्ति के कुल 16 बोलों (द्वारों) में से प्रथम बोल-जीवनिर्वत्ति को छोड़ कर शेष निम्नोक्त 18 बोलों की निर्वृत्ति के भेद तथा चौबीस दण्डकों में पाई जाने वाली उस-उस निवृत्ति का संक्षेप में कथन किया गया है। 2. कर्मनिवत्ति—जीव के राग-द्वषादिरूप अशुभभावों से जो कार्मण वर्गणाएँ ज्ञानावरणीयादि रूप परिणाम को प्राप्त होती हैं, उसका नाम कर्मनिवत्ति है। यह कर्मसम्पाचनरूप है और पाठ प्रकार की है; जो चौबीस दण्डकों में होती है। 3. शरीरनिवत्ति-विभिन्न शरीरों की निष्पत्ति शरीरनिवृत्ति है। नारकों और देवों के वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीरों की तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों के (जन्मतः) औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरों की निवृत्ति होती है। 4. सर्वेन्द्रियनिर्वत्ति--समस्त इन्द्रियों की प्राकार के रूप में रचना सर्वेन्द्रिय-निर्वृत्ति है। यह पांच प्रकार की है, जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों में होती है / 5. भाषानिर्वृत्ति एकेन्द्रिय जीव के भाषा नहीं होती, उसके सिवाय जिस जीव के 4 प्रकार की भाषाओं में जो भाषा होती है, उस जीव के उस भाषा की निवृत्ति कहनी चाहिए। 6. मनोनिर्वति–एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष वैमानिकपर्यन्त समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय (समनस्क) जीवों के 4 प्रकार की मनोनित्ति होती है / 1. अधिक पाठ-उद्देशक की परिसमाप्ति पर अन्य प्रतियों में निम्नोक्त दो द्वार-संग्रहणीगाथाएँ मिलती हैं जीवाणं निव्वती कम्मप्पगडी-परीर-निम्बत्ती। सविदिय-निव्वत्तो भासा य मणे कसाया य॥१॥ बण्णे गंधे रसे फासे संठाणविही य होइ बोद्धब्बो। लेसा दिली पाणे उवओगे चेव जोगे य॥२॥ अर्थ-१. जीव, 2. कर्मप्रकृति, 3. शरीर, 4. सर्वेन्द्रिय, 5. भाषा, 6. मन, 7. कषाय, 8, वर्ण, 9. गन्ध 11. रस, 11. स्पर्श, 12. संस्थान, 13. संज्ञा, 14. रेश्या, 15. दष्टि, 16. ज्ञान, 16. प्रज्ञान, 18. योग और 19. उपयोग, इन सबकी निवृत्ति का कथन इस उद्देशक में किया गया है। Page #2061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. कषायनिवृत्ति--यह क्रोधादिचतुष्क कषायनिवृत्ति सभी संसारी जीवों के होती है / 8-6-10-11. वर्णादिचतुष्टयनिर्वृत्ति-ये चारों निवत्तियाँ चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के होती हैं। 12. संस्थान-निवृत्ति--संस्थान अर्थात् शरीर के प्राकारविशेष की निर्वत्ति। यह छ: प्रकार की होती है। जिस जीव के जो संस्थान होता है, उसके वैसी संस्थान-निर्वत्ति होती है / यथा--नारकों और विकलेन्द्रियों के हुण्डक संस्थान होता है, भवनपति आदि चारों प्रकार के देवों के समचतुरस्र संस्थान होता है, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के छहों प्रकार के संस्थान होते हैं / पृथ्वी कायिक जीवों के मसूर की दाल के प्राकार का, अप्कायिक जीवों के जलबुबुदसम, तेजस्कायिक जीवों के सूचीकलाप जैसा, वायु कायिक जीवों के पताका जैसा और वनस्पतिकायिक जीवों के नानाविध संस्थान होता है / तदनुसार उसकी निर्व त्ति समझनी चाहिए। 13. संज्ञानिवृत्ति—अाहारादि संज्ञाचतुष्टय निवृत्ति चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के होती है / 14, लेश्यानिवृत्ति--जिस जीव में जो-जो लेश्याएँ हों उसके उतनी लेश्यानिवृत्ति कहनी चाहिए। 15. दृष्टिनिर्वृत्ति--त्रिविध दृष्टिनित्तियों में से जिन जीवों में जितनी दृष्टियाँ पाई जाती हों उनके उतनी दृष्टिनिर्वृत्ति कहनी चाहिए / 16-17. ज्ञान-प्रज्ञान निर्वृत्ति-आभिनिबोधिकादि रूप से जो ज्ञान की परिणति होती है उसे ज्ञाननित्ति कहते हैं / यों तो एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय नारकों से लेकर वैमानिक तक के सब जीवों में ज्ञाननिर्वृत्ति होती है, परन्तु समस्त ज्ञाननिवत्तियाँ सबको नहीं होती। किसी को एक किसी को दो, तीन या चार ज्ञान तक होते हैं / अत: जिसे जो ज्ञान हो, उसी को निर्वृत्ति उस जीव के होती है / अज्ञाननिर्वृत्ति भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए / 18. योगनिर्वृत्ति-त्रिविध योगों में से जिस जीव के जो योग हो, उसी की निर्वृत्ति होती है। 19. उपयोगनिर्वृत्ति-द्विविध है, जो समस्त संसारी जी बों के होती है। // उन्नीसवां शतक : पाठवाँ उद्देशक समाप्त / 1. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टोका, भाग 13, पृ. 425 से 447 तक के आधार पर। Page #2062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'करण' नौवाँ उद्देशक : करण द्रव्यादि पंचविध करण और नरयिकादि में उनकी प्ररूपणा 1. कतिविधे णं भंते ! करणे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे करणे पन्नते, तं जहा-दव्धकरणे खेत्तकरणे कालकरणे भवकरणे भावकरणे। [1 प्र.] भगवन् ! करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! करण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) द्रव्य-करण (2) क्षेत्रकरण (3) काल-करण (4) भव-करण और (5) भाव-करण / 2. नेरतियाणं भंते ! कतिविधे करणे पन्नते? गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नते, तं जहा-दश्वकरणे जाव भावकरणे / [2 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितने करण कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! उनके पांच प्रकार के करण कहे गए हैं, यथा-द्रव्यकरण, यावत्भावकरण / 3. एवं जाव बेमाणियाणं / [3] (नै रयिकों से लेकर) यावत्-वैमानिकों तक इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए / ) विवेचन-करण : स्वरूप, प्रकार और चौबीस दण्डकों में करणों का निरूपण--प्रस्तुत तीन सूत्रों में करणों के प्रकार और नैरयि कादि में पाए जाने वाले करणों का निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा कोई क्रिया की जाए अथवा क्रिया के साधन को करण कहते हैं / अथवा कार्य या करने रूप क्रिया को भी करण कहते हैं। वैसे तो निर्वृत्ति भी क्रिया रूप है, परन्तु निर्वृत्ति और करण में थोड़ा-सा अन्तर है। क्रिया के प्रारम्भ को करण कहते हैं और क्रिया की निष्पत्ति (समाप्ति--पूर्णता) को निति कहते हैं। द्रव्यकरण-दांतली (हंसिया) और चाक प्रादि द्रव्यरूप करण द्रव्यकरण है। अथवा तणशलाकारों (तिनके की सलाइयों) (द्रव्य) से करण अर्थात् चटाई प्रादि बनाना द्रव्यकरण है। पात्र प्रादि द्रव्य में किसी वस्तु को बनाना भी द्रव्यकरण है / क्षेत्रकरण-क्षेत्ररूप करण (बीज बोने का क्षेत्र-खेत) क्षेत्रकरण है / अथवा शालि आदि धान का क्षेत्र आदि बनाना क्षेत्रकरण है / अथवा किसी क्षेत्र से अथवा क्षेत्रविशेष में स्वाध्यायादि करना भी क्षेत्रकरण है। Page #2063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून कालकरण-कालरूप करण, या काल के द्वारा, अथवा किसी काल में करना, या कालअवसरादि का करना कालकरण है। भवकरण-नारकादि रूप भव करना या नारकादि भव से या भव का अथवा भव में करना भवकरण है। भावकरण--भावरूप करण, अथवा किसी भाव में, भाव से या भाव का करना भावकरण है / चौबीस दण्डकों में ये पांचों ही करण पाए जाते हैं।' शरीरादि करणों के भेद और चौबीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा 4. कतिविधे णं भंते ! सरीरकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे सरीरकरणे पन्नत्ते, तं जहा-पोरालियसरीरकरणे जाव कम्मगसरीरकरणे। [4 प्र.] भगवन् ! शरीर-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! शरीरकरण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा--औदारिक शरीर-करण यावत् कार्मण-शरीर-करण / 5. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति सरीराणि / [5] इसी प्रकार (नरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जिसके जितने शरीर हों उसके उतने शरीर-करण कहने चाहिए। 6. कतिविधेणं भंते ! इंदियकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे इंदियकरणे पन्नत्ते, तं जहा-सोतिदियकरणे जाव फासिदियकरणे / [6 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [6 उ.] गौतम! इन्द्रिय करण पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय-करण यावत् स्पर्शेन्द्रिय-करण। 7. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति इंदियाई। [7] इसी प्रकार (नै रयिकों से लेकर) यावत्--वैमानिकों तक जिसके जितनी इन्द्रियां हों उसके उतने इन्द्रिय-करण कहने चाहिए। 8. एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चम्विहे / मणकरणे चविहे / कसायकरणे चउदिवहे। समुग्धायक रणे सत्तविधे / सण्णाकरणे चउविहे / लेस्साकरणे छविहे / दिट्टिकरणे तिविधे / वेदकरणे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–इस्थिवेदकरणे पुरिसवेयकरणे नपुसगवेयकरणे / एए सव्वे नेरइयाई दंडगा जाव वेमाणियाणं / जस्त जं अस्थि तं तस्स सव्वं भाणियव्वं / [8] इसी प्रकार क्रम से चार प्रकार का भाषाकरण है। चार प्रकार का मनःकरण है। चार प्रकार का कषायकरण है। सात प्रकार का समूदघात-करण है। चार प्रकार का सज्ञाकरण हे। 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 773 Page #2064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक ] [799 छह प्रकार का लेश्या-करण है / तीन प्रकार का दृष्टि-करण है / तीन प्रकार का वेदकरण कहा गया है, यथा---स्त्री-वेद-करण, पुरुष-वेद-करण और नपुंसक-वेद-करण / नैरयिक आदि से लेकर यावत् वैमानिक-पर्यन्त चौबीस दण्डकों में इन सब करणों की प्ररूपणा करनी चाहिए, विशेष यह कि जिसके जो और जितने करण हों, वे सब कहने चाहिए। विवेचन-शरीरादि करणों को प्ररूपणा-शरीर पांच हैं--प्रौदारिक, वैक्रिय, प्राहारक, तैजस और कामण / इन्द्रिय पांच हैं--श्रोत्रेन्द्रिय, चारिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय / चार प्रकार की भाषा-सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और व्यवहारभाषा / चार प्रकार का मन-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, मिथमनोयोग और व्यवहारमनोयोग / चार प्रकार का कषायक्रोध, मान माया, लोभ / चार संज्ञाएँ---माहारसंज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह-संज्ञा / सात प्रकार का समुद्घात-वेदनीय, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और केवली-समुद्घात / छह लेश्याएँ-कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / तीन दृष्टियाँ-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यावृष्टि और मिश्रदृष्टि / तीन वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद / इस प्रकार शरीर से लेकर वेद क रणतक द्रव्यकरण के अन्तर्गत हैं।' प्राणातिपात-करण : पांच भेद, चौबीस दण्डकों में निरूपण 9. कतिविधे णं भंते ! पाणातिवायकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पाणातिवायकरणे पन्नत्ते, तं जहा-एगिदियपाणातिवायकरणे जाय पंचेंदियपाणातिवायकरणे। [प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातकरण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा--एकेन्द्रियप्राणातिपातकरण यावत् पंचेन्द्रिय-प्राणातिपातकरण / 10, एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं / [10] इस प्रकार (नै रयिकों से लेकर) यावत्-वैमानिकों तक (चौबीस दण्डकों में इन सब (पंचविध प्राणातिपात) का कथन करना चाहिए / विवेचन-पंचविध प्राणातिपातकरण--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव पांच प्रकार के हैं, इसलिए इनके प्राणातिपातरूप करण भी पांच प्रकार के बताए हैं। ये पंचविध प्राणातिपातकरण समग्र संसारी-जीवों में पाए जाते हैं। ये भावकरण के अन्तर्गत हैं।' पुद्गलकरण : भेद-प्रभेद-निरूपण 11. कइविधे गं भंते ! पोग्गलकरणे पन्नत्ते? गोयमा ! पंचविधे पोग्गलकरणे पन्नते, तं जहा-वणकरणे गंधकरणे रसकरणे फासकरणे संठाणकरणे। [11 प्र.] भगवन् ! पुद्गल करण कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. भगवती. प्रेमयनन्द्रिका टीका भाग. 13. प. 456-457 2. भगसती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भाग 13, पृ. 462 Page #2065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [11 उ.] गौतम ! पुद्गल-करण पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-वर्णकरण, गन्धकरण, रसकरण, स्पर्श करण और संस्थानकरण / 12. बण्णकरणे गं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-कालवणकरणे जाय सुविकलवण्णकरणे। [12 प्र.] भगवन् ! वर्णकरण कितने प्रकार का कहा गया है ? {12 उ.] गौतम ! वर्णकरण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-कृष्णवर्णकरण यावत् शुक्लवर्ण-करण / 13. एवं भेदो--गंधकरणे दुविधे, रसकरणे पंचविधे, फासकरणे अटुविधे। [13] इसी प्रकार पुद्गलकरण के वर्णादि-भेद (कहने चाहिए / ) (यथा-) दो प्रकार का गन्धकरण, पांच प्रकार का रस-करण एवं पाठ प्रकार का स्पर्शकरण / 14. संठाणकरणे गंभंते ! कतिविधे पन्नते? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा--परिमंडलसंठाणकरणे जाव आयतसंठाणकरणे।' सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // एगूणवीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो // 19-9 // [14 प्र.] भगवन् ! संस्थान-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [14 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-परिमण्डल-संस्थानकरण यावत्-पायत-संस्थान-करण / ___'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन--पुदगलकरण के भेद-प्रभेदों का निरूपण---इन चार सूत्रों में पुद्गलों के 25 भेदों को करण रूप में निरूपित किया गया है। पुद्गल के भेद सुगम हैं। ॥उन्नीसवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. करणभेद-प्रभेद-दशिनीगाथाद्वय नवम-उद्देशक की समाप्ति के बाद मिलती हैं-- दम्वे खेत काले भवे य भावे सरीरकरणे य। इंदियकरणे भासामणे कसाए समुग्याए // 1 // सन्ना लेसा दिट्ठि वेए पाणाइवाय-करणेय / पोग्गलकरणे बन्नेगंधेरसे य फासे य संठाणे // 2 // Page #2066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'वरणचरसुरा" दसवाँ उद्देशक : 'वारणव्यन्तर देव' वाणव्यन्तरों में समाहारादि-द्वार-निरूपण 1. वाणमंतरा णं भंते ! सम्वे समाहारा ? एवं जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसमो (स० 16 उ० 11) जाव अप्पिड्डीय त्ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / // एगूणवीसइमे सए : दसमो उद्देसमो समत्तो // 16-10 // // एगूणवीसइमं सयं समत्तं // 16 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या सभी वाणव्यन्तर देव समान प्राहार वाले होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] (गौतम ! ) (इसका उत्तर) सोलहवें शतक के (11 वें उद्देशक) द्वीप-कुमारोद्देशक के अनुसार यावत्-अल्पद्धिक-पर्यन्त जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन - प्रश्न और उत्तर का स्पष्टीकरण-यहाँ प्रश्न इस प्रकार से है---'क्या सभी वाणव्यन्त र समान ग्राहार वाले, समान शरीर वाले और समान श्वासोच्छ्वास वाले होते हैं ?' इसके उत्तर में 16 वे शतक के 11 वें उद्देशक में कहा गया है-यह अर्थ समर्थ (यथार्थ) नहीं है। इसके पश्चात् इसी उद्देशक में प्रश्न है-वाण व्यन्तर देवों के कितनी लेश्याएँ होती हैं ? उत्तर है...कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या तक चार लेश्याएँ होती हैं। फिर प्रश्न किया गया है-भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक वाले इन वाणव्यन्तर देवों में किस लेश्यावाला व्यन्तर किस लेश्या वाले व्यन्तर से अल्पद्धिक या महद्धिक है ? उत्तर दिया गया है---कृष्णलेश्या वाले वाणव्यन्तरों की अपेक्षा नोल लेश्या वाले वाणव्यन्तर महद्धिक हैं, यावत्-इनमें सबसे अधिक महाऋद्धिवाले तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर हैं। इसी तरह तेजोलेश्यावाले वाणन्यन्तरों से कापोतलेश्या वाले वाणव्यन्तर अल्पद्धिक हैं, कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले और नीललेश्या वालों से कृष्णलेश्या वाले वाण व्यन्तर अल्पद्धिक हैं। इस प्रकार 16 वें शतक के द्वीपकुमारोद्देशक की वक्तव्यता का यहाँ तक ही ग्रहण करना चाहिए।' // उन्नीसवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त // // उन्नीसवां शतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवनी. अ. वृत्ति, पत्र 773 / (ख) भगवती. 'भाग 13, (प्रमेयचन्द्रिका टीका) पृ. 466-470 ----.... www.jainelibrary.ore--- Page #2067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए प्रागमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति प्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य पार्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि--- दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा--उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विजुते, निग्याते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / __ दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा--अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायबुग्गहे, उबस्सयस्स अंतो ओरालिए सरोरगे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निगंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिपाडिवए सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पडिमाते, पच्छिमाते मज्झण्हे, अड्ढ रत्ते / कप्पाइ निग्गंधाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुठवण्हे अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त मूत्रपाठ के अनुसार, दस प्राकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिसका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालम पड़े कि दिशा में प्राग सी लगी है तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए / क्योंकि वह Page #2068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्याय काल [803 गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-- बिना बादल के आकाश में व्यन्त रादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित अाकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः अाकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण को सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुध पड़ती रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चारिए / 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्धात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धलि छा जाती है / जब तक यह घलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डो, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। बत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का प्रस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है / 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण --चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमश: पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #2069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 804] [अनध्यायकाल 15. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूणिमा, कातिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 00 Page #2070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली Mor~ or महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व.श्री सूगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास (K.G.E.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर. 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12 श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकडिया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर 1. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्ध करणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला टोला Page #2071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर * श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 22. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया. 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सूराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी नौपडा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री ताराचन्द जी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, अागरा 24. श्री जंबरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45 श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपूर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजय राजजी रतनलालजी चतर, व्यावर 38 श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #2072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर सदस्य-नामावली ] [807 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री ग्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 2. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 3. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरू दा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री धीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88 श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 60. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी राजनांदगांव 15. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 6.6. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #2073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सदस्य-नामावली 68. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांबला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123, श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113, श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया. मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी ग्रासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #2074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्रीजोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि व्याव्याप्रज्ञप्तिसत्र. / (मूल-उजवाद-विवेचन-टिप्पण-पष्ट्रिाष्ट याक्त) Page #2076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत वाणीभूषण पण्डित श्रीरतनमुनिजी महाराज श्रमणसंघ के युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी महाराज के प्रधानसम्पादकत्व में जैन आगमों के विशुद्ध पाठ, अनुवाद एवं विवेचनयुक्त प्रकाशन का जो ऐतिहासिक कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, वह सम्पूर्ण जैन समाज के लिए गौरव तथा गरिमा का प्रसंग है। अब तक के प्रकाशित आगमों के सभी संस्करणों से इनकी कुछ अलग विशेषता है—न अतिसंक्षेप, न अति विस्तार, न बहुत ही दुर्बोध, न अति साधारण। प्रायः शास्त्रों के अनुवाद बहुत ही भावानुलक्षी हैं। मूल के साथ अनुवाद पढ़ने पर सरलतापूर्वक आगमपाठ का सार समझ में आ जाता है। कठिन व विवेच्य स्थलों पर विवेचन भी उपयोगी और ज्ञानवर्धक है।"..." इन आगमों के स्वाध्याय से अवश्य ही ज्ञानवृद्धि होगी तथा जिनवाणी का हार्द समझने में जिज्ञासुओं को विशेष सहायता मिलेगी। आगमसेवा के इस महान् कार्य में समाज को एकचित्त होकर सह्योग करना चाहिए। आने वाला युग इसका मूल्यांकन करेगा और स्थानकवासी समाज की श्रुत-सेवाओं का शताब्दियों तक इतिहास में नाम अमर लिखा जाएगा। E gon international Page #2077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं बिनागम-पम्पमालाचार 25 [ परमश्रदेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित ] पंचम गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि-प्रणीत पञ्चम अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [भगवतीसूत्र-चतुर्थखण्ड, शतक : 20-41] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त] प्रेरणा 0 उपप्रवतंक शासनसेवी स्व० स्वामी श्रीवजलालजी महाराज आद्यसंयोजक-प्रधानसम्पादक ] (स्व०) पुवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक-सम्पादक / श्री अमरमुनि [भण्डारी श्री पाचन्दजी महाराज के सुशिष्य श्रीचन्द सुराणा 'सरस' मुख्य सम्पादक / पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक D श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ज्यावर (राजस्थान) Page #2078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रम्पमाला : प्रन्या 25 0 निर्देशन अध्यात्मयोगिनी महासती श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' 0 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2512 वि.सं. 2043 ई. सन् 1986 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन-समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक मंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ 0 मूल्य : दकित मूल्य का Page #2079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Compiled by Fifth Gandhara Sadharma Swami Fifth Anga VYAKHYA PRAJNAPTI [Bhagawati Sutra IV Part, Shatak 20-41) [Original Text, with Variant Readings, Hindi Version, Notes, etc.) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj "Madhukar' Translator & Annotator Shri Amar Muni Srichand Surana 'Saras' Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharill Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj) Page #2080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ jinagam Granthmata Publication No. 25 Direction Sadhwi Umrava kunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanbaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill Mapagiog Editor Srichand Surana Saras' O Promoter Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' 0 Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2512 Vikram Samvat 2043; April, 1986 O Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer O Price : ticeboy you 8120 Price: Pau 81 3.63 Page #2081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण विदर्म में जो अपने विशिष्ट वैदुष्य के लिए विख्यात थे, जिन्होंने श्रुत का तलस्पर्शी गहन अध्ययन-अध्यापन किया, अनेक आगमों पर विशद और विस्तृत विवेचन करके जनसाधारण के लिए सुबोध बनाया, उन मधुरभाषी, गरिमामय एवं भव्य व्यक्तित्व से मण्डित, आचार्यवर्य भी आत्मारामजी म. के प्रमुख अन्तेवासी पं. र. मुनिश्री हेमचन्द्रजी म. के कर-कमलों में Page #2082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रागमप्रेमी पाठकों के कर-कमलों में श्रीमदब्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का यह अन्तिम-चतुर्थ खण्ड प्रस्तुत किया जा रहा है। भगवतीसूत्र उपलब्ध समस्त प्रागमों में सबसे विराट्काय पागम है और विविध विषयों की चर्चा से परिव्याप्त है। इसके मुद्रण की सम्पूति अतीव प्रमोद का विषय है। सद्यः उत्तरभारतीय प्रवर्तक पद पर प्रतिष्ठित विद्वद्वर मुनिश्री भण्डारी पद्मचन्द्रजी म. के विद्वान अन्तेवासी श्री अमरमुनिजी म. ने इसका अनुवाद करके आगमप्रकाशन समिति को जो महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है, उसके लिए समिति अत्यन्त प्राभारी है। साहित्यवाचस्पति प्रतिभामूर्ति श्री देवेन्द्रमुनिजी महाराज के अनुपम सहयोग को समिति कदापि विस्मत नहीं कर सकती / अद्यावधि प्रकाशित सभी आगमों पर प्रापने विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाएँ लिखी हैं। यदि यथासमय प्रस्तावनाएं आपने लिखकर उपकृत न किया होता तो प्रस्तुत प्रकाशन अति विलम्बित हो जाता। मगर अस्वस्थता, व्यस्तता एवं बिहार प्रादि के व्यवधानों के होते हए भी आपने प्रस्तावनाएँ लिखकर प्रकाशन के कार्य को द्रुत गति प्रदान की। एतदर्थ आपके प्रति भी हम हृदय से आभारी हैं। इस विराट् प्रायोजन के पुरस्कर्ता श्रद्धेय युवाचार्यश्रीजी के आकस्मिक और असामयिक स्वर्गवास के पश्चात् अध्यात्मयोगिनी महाविदुषी श्री उमरावकुंवरजी महासतीजी का पथप्रदर्शन हमारे लिए अत्यन्त प्रशस्त सिद्ध हो रहा है। किन शब्दों में उनके सहयोग के प्रति कृतज्ञता प्रकट की जाए ? प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में समिति के भूतपूर्व अध्यक्ष, समाज के लिए महान् गौरवस्वरूप, धर्मनिष्ठ समाजनेता पद्मश्री स्व. सेठ मोहनमलजी सा. चोरड़िया का विशिष्ट प्रार्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है / आपके प्रादर्श व्यक्तित्व से समाज भलीभांति परिचित है। आपके जीवन की संक्षिप्त रूपरेखा पृथक् दी जा रही है, जो हमें मद्रास के क्रियाशील उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमान् भवरलालजी साः गोठी के माध्यम से प्राप्त हुई है। सम्पादन-सहयोगी महानुभाव भी जिनकी नामावली अलग दी जा रही है, धन्यवाद के पात्र हैं। अन्त में प्रागमप्रेमी सज्जनों के प्रति निवेदन है कि प्रकाशित आगमों के प्रचार-प्रसार में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करें, जिससे स्व. परमपूज्य युवाचार्य श्रीजी को आगमज्ञान-प्रचार की उदात्त पावन भावना साकार हो सके। भवदीय रतनचंद मोदी सायरमल चोरडिया चांदमल विनायकिया कार्यवाहक अध्यक्ष प्रधानमंत्री मंत्री श्री प्रागमप्रकाशन समिति, ब्यावर Page #2084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसन्त श्री भंडारी पद्मनन्द्रजी महाराज के उत्तरभारतीय प्रवर्तक पह-चावर समारोह के उपलक्ष्य में सम्पादन में उदार अर्थ-सोजन्य 9 श्री भागमल कृष्णलाल बजाज, पद्मपुर मंडी (राज.) // श्री पृथ्वीराज अभयकुमार जैन, पद्मपुर मंडी (राज.) - डॉ. जगमोहन गोयल की धर्मपत्नी श्रीमती निर्मला गोयल, बन्ना (पंजाब) - श्री किशोरचन्द फकीरचन्द जैन बजाज, मानसामंडी - मै. शिवराम प्रेमनाथ पाढती, ३०-ए, न्यू मार्किट, मुजफ्फरनगर (उ. प्र.) 7 पूज्य पिताजी श्री रामचन्द्र जैन की स्मृति में--श्री सुरेशचन्द जैन काशीपुर, नैनीताल (उ.प्र.) Page #2085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रागम-प्रकाशन के विशिष्ट अर्थसहयोगी श्रेष्ठिावर, श्रावकवर्य पद्मश्री मोहनमलजी सा. चोरड़िया [संक्षिप्त जीवन-परिचय] 'मानव जन्म से नहीं अपितु अपने कर्म से महान बनता है।' यह उक्ति स्व. महामना सेठ श्रीमान् मोहनमलजी सा. चोरडिया के सम्बन्ध में एकदम खरी उतरती है। प्रापने तन, मन और धन से देश, समाज व धर्म की सेवा में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, वह जैन समाज के ही नहीं, बल्कि मानव-समाज के इतिहास में एक स्वर्णपृष्ठ के रूप में अमर रहेगा। मद्रास शहर की प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक गतिविधि से प्राप गहराई से जुड़े हुए थे और प्रत्येक क्षेत्र में प्राप हर सम्भव सह्योम देते थे। प्रापका मार्ग दर्शन एवं सहयोग प्राप्त करने के लिए आपके सम्पर्क में प्राने वाला प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होकर ही लौटता था / प्रापका जन्म 28 अगस्त 1902 में नोखा ग्राम (राजस्थान) में सेठ श्रीमान् सिरेमलजी चोरडिया के पुत्र रूप में हुप्रा / सन् 1917 में प्राप श्रीमान् सोहनलालजी के गोद आये और उसी वर्ष आपका विवाह हरसेलाव निवासी श्रीमान् बादलचन्दजी बाफणा की सुपुत्री सद्गुणसम्पन्ना श्रीमती नैनी कॅवरबाई के साथ हुअा। तदनन्तर प्राप मद्रास पधारे। श्रीमान् रतनचन्दजी, पारसमलजी, सरदारमलजी, रणजीतमलजी एवं सम्पतमलजी आपके सुपुत्र हैं। अनेक पौत्र-पौत्री एवं प्रपौत्र-प्रपौत्रियों से भरे-पूरे सुखी परिवार से पाप सम्पन्न थे। बचपन में ही आपके माता-पिता द्वारा प्रदत्त धार्मिक संस्कारों के फलस्वरूप आप में सरलता, सहजता, सौम्यता, उदारता, सहिष्णुता, नम्रता, विनयशीलता आदि अनेक मानवोचित सदगुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान थे। आपका हृदय सागर-सा विशाल था, जिसमें मानवमात्र के लिये ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र के कल्याण की भावना निहित थी। पापकी प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं सुयोग्य नेतृत्व में जन कल्याण एवं समाजकल्याण के अनेकों कार्य सम्पन्न हुए, जिनमें आपने तन, मन, धन से पूर्ण सहयोग दिया। उनकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है / 1. योगदान : शिक्षा के क्षेत्र में समाज में व्याप्त शैक्षणिक प्रभाव को दूर करने एवं समाज में धार्मिक और व्यावहारिक शिक्षण का प्रचार-प्रसार करने की प्रापकी तीव अभिलाषा थी। परिणामस्वरूप सन् 1926 में श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन पाठशाला का शुभारम्भ हुआ / तदुपरान्त व्यावहारिक शिक्षण के प्रचार हेतु जहाँ श्री जैन हिन्दी प्राईमरी स्कूल, अमोलक चन्द गेलड़ा जैन हाई स्कूल, ताराचन्द गेलड़ा जैन हाई स्कूल, श्री गणेशीबाई गेलड़ा जैन गर्स हाई स्कूल, मांगी चन्द भण्डारी जैन हाई स्कूल, बोडिंग होम एवं जैन महिला विद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हई, वहाँ आध्यात्मिक एवं धार्मिक ज्ञान के प्रसार हेतु श्री दक्षिण भारत जैन स्वाध्याय संघ का शुभारम्भ हुआ। Page #2086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर चन्द माममल जैन कॉलेज की स्थापना द्वारा शिक्षाक्षेत्र में प्रापने जो अनुपम एवं महान् योगदान दिया है, वह सदैव चिरस्मरणीय रहेगा / इसके अलावा कुछ हो माह पूर्व मद्रास विश्वविद्यालय में जैन सिद्धांतों पर विशेष शोध हेतु स्वतन्त्र विभाग की स्थापना कराने में भी प्रापने अपना सक्रिय योगदान दिया। इस तरह आपने व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान-ज्योति जलाकर, शिक्षा के प्रभाव को दूर करने की अपनी भावना को साकार मूर्त रूप दिया / 2. योगदान : चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्साक्षेत्र में भी आप अपनी प्रमूल्य सेवाएं अपित करने में कभी पीछे न रहे / सन् 1927 में प्रापने नोखा एवं कुचेरा में नि:शुल्क आयुर्वेदिक औषधालय की स्थापना की। सन् 1940 में कुचेरा प्रौषधालय को विशाल धनराशि के साथ राजस्थान सरकार को समर्पित कर दिया, जो वर्तमान में 'सेठ सोहनलाल चोरड़िया सरकारी औषधालय' के नाम से जनसेवा का उल्लेखनीय कार्य कर रहा है। इस सेवाकार्य के उपलक्ष में राजस्थान सरकार ने प्रापको 'पालकी शिरोमोर' की पदवी से अलंकृत किया। अल्प व्यय में चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध कराने हेतु मद्रास में श्री जैन मेडीकल रिलीफ सोसायटी की स्थापना में सक्रिय योगदान दिया / इसके तत्त्वावधान में सम्प्रति 18 प्रौषधालय, प्रसूतिगृह प्रादि सुचारु रूप से कार्य कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व ही आपने अपनी धर्मपत्नी के नाम से प्रसूतिगृह एवं शिशुकल्याणगह की स्थापना हेतु पांच लाख रुपये की राशि दान की। समय-समय पर आपने नेत्रचिकित्सा-शिविर आदि प्रायोजित करवाकर सराहनीय कार्य किया। इस तरह चिकित्साक्षेत्र में और भी अनेक कार्य करके प्रापने जनता को दुःखमुक्ति हेतु यथाशक्ति प्रयास किया। 3. योगदान : जीवदया के क्षेत्र में मापके हृदय में मानवजगत् के साथ ही पशुजगत् के प्रति भी करुणा का अजन्न स्रोत बहता रहता था। पशुओं के दुःख को भी आपने सदैव अपना दुःख समभा। अतः उनके दुःख और उन पर होने वाले अत्याचार निवारण में सहयोग देने हेतु 'भगवान महावीर अहिंसा प्रचार संघ' की स्थापना कर एक व्यवस्थित कार्य शुरू किया। इस संस्था के माध्यम से जीवों को अभयदान देने एवं अहिंसा-प्रचार का कार्य बड़े सुन्दर ढंग से चल रहा है / आपकी उल्लिखित सेवायों को देखते हुए यदि आपको 'प्राणीमात्र के हितचिन्तक' कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 4. योगदान : धार्मिक क्षेत्र में आपके रोम-रोम में धार्मिकता व्याप्त थी। आप प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधि में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करते थे / जीवन के अन्तिम समय तक आपने जैन श्री संघ मद्रास के संघपति के रूप में अविस्मरणीय सेवाएँ दी। कई वर्षों तक अ. भा. श्वे. स्था. जैन कॉन्फस के अध्यक्ष पद पर रहकर उसके कार्यभार को बड़ी दक्षता के साथ संभाला / पाप अखिल भारतीय जैन समाज के सुप्रतिष्ठित अग्रगण्य नेताओं में से एक थे। माप निष्पक्ष एवं [10] Page #2087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदायवाद से परे एक निराले व्यक्तित्व के धनी थे / इसीलिए समग्र सन्त एवं श्रावकसमाज आपको एक तु. धर्मी श्रावक के रूप में जानता व आदर देता था। आप जैन शास्त्रों एवं तत्वों/सिद्धांतों के ज्ञाता थे। आप सन्त सतियो का चातुर्मास कराने में सदैव अग्रणी रहते थे और उनकी सेवा का लाभ बराबर लेते रहते थे। इस तरह धार्मिक क्षेत्र में आपका अपूर्व योगदान रहा। इसी तरह नेत्रहीन, अपंग, रोगग्रस्त, क्षुधापीडित, आर्थिक स्थिति से कमजोर बन्धुपों को समय-समय पर जाति-पांति के भेदभाव से रहित होकर अर्थ-सहयोग प्रदान किया। इस प्रकार शिक्षणक्षेत्र में, चिकित्साक्षेत्र में, जीवदया के क्षेत्र में, धार्मिकक्षेत्र में एवं मानव-सहायता प्रादि हर सेवा के कार्य में तन-मन-धन से अापने यथासम्भव सहयोग दिया। ऐसे महान् समाजसेवी, मानवता के प्रतीक को खोकर भारत का सम्पूर्ण मानवसमाज दुःख की अनुभूति कर रहा है। आप चिरस्मरणीय बने, जन-जन अापके आदर्श जीवन से प्रेरणा प्राप्त करें, 'प्रापकी आत्मा चिरशांति को प्राप्त करे; हम यही कामना करते हैं / * -मन्त्री * श्रीमान् भंवरलालजी सा, गोठी, मद्रास के सौजन्य से / " [11] Page #2088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भगवतीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म और संस्कृति का जो विराट वृक्ष लहलहाता गगोचर हो रहा है, जिसकी जीवनदायिनी छाया और अमृतोपम फलों से जनजीवन अनुप्राणित हो रहा है, उसका मूल क्या है ? उसका मूल है उन तत्त्वद्रष्टा ऋषि-मुनियों का स्वानुभव, चिन्तन, वाणी और उपदेश / वस्तुतः उन तत्त्वद्रष्टा सत्य के साक्षात्का ऋषि-महषि, अरिहन्त, तीर्थंकर, बुद्ध और अवतारों द्वारा लोककल्याण हेतु व्यक्त कल्याणी वाणी ही इस संस्कृति रूपी महावक्ष का सिंचन संवर्धन करती पाई है। उन महापुरुषों की वह वाणी ही उस-उस परम्परा के अाधारभूत मूल ग्रन्थों के रूप में प्रतिष्ठित हुई है, जैसे वैदिक ऋषियों की वाणी वेद, बुद्ध की वाणी त्रिपिटक और तीर्थंकरों की वाणी आगम रूप में विश्रुत हुई। महात्मा ईसा के उपदेश बाइबिल के रूप में प्राज विद्यमान हैं तो मुहम्मद साहब की वाणी कुरान के रूप में समाहत है। जरथुस्त के उपदेश अवेस्ता में प्रतिष्ठित हैं तो नानकदेव की वाणी गुरुनन्थ साहब के रूप में। निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक धर्म-परम्परा एवं संस्कृति का मूलाधार उसके श्रद्धेय ऋषि-महषियों की वाणी ही है। तीर्थकर, श्रमणसंस्कृति के परम श्रद्धेय, सत्य के साक्षात् द्रष्टा महापुरुष हैं। उनकी वाणी 'आगम' गणिपिटक के रूप में जैन धर्म एवं संस्कृति का मूल आधार है। इन्हीं प्रागमवचनों के दिव्य प्रकाश में युग-मुग से मानव अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। प्रागमवाणी साधकों के लिए प्रकाशस्तम्भ की भांति सदा-सर्वदा मार्गदर्शक रही है। आगम-परिभाषा प्रामम शब्द का प्रयोग जैन परम्परा के आदरणीय ग्रन्थों के लिए हुमा है। प्रागम शब्द का अर्थ ज्ञान है / आचारोग में 'आगमेत्ता आणवेज्जा'१. वाक्य का प्रयोग है, जिसका संस्कृत रूपान्तर है 'झारथा आझाययेत'-- जान कर के आज्ञा करे। 'लाघवं आगममाणे'३ का संस्कृत रूपान्तर है 'लाघवम आगमयन-अवबुध्यमान:' लघता को जानता हुग्रा। व्यवहारभाष्य में प्रागम-व्यवहार पर चितन करते हुए आगम के प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये दो भेद किए हैं। प्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, प्रवधिज्ञान और इन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान को लिया गया है तथा परोक्ष ज्ञान में चतुर्दश पूर्व और उससे न्यून श्रुतज्ञान को लिया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रागम साक्षात् ज्ञान (प्रत्यक्ष 1. आचारांग 1 / 14 2. आचारांग 1 / 6 / 3 / 3. व्यवहारभाष्य, माथा 2011 [12] Page #2089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम) है / साक्षात् ज्ञान के आधार से जो उपदेश प्रदान किया जाता है और उससे श्रोताओं को जो ज्ञान होता है-वह परोक्ष पागम है / यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी परिहन्त के उपदेश को पगेम आगम माना गया है / परोक्ष प्रागम भी दो प्रकार का है-(१) अलौकिक आगम और (2) लौकिक प्रागम / केवलज्ञानी या श्रुतज्ञानी के उपदेशों का जिसमें संकलन हो, वह शास्त्र भी आगम की अभिधा से अभिहित किया जाता है। __ प्रार्य रक्षित ने अनुयोगद्वार में प्रागम शब्द का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में किया है। उन्होने जीव के ज्ञानगुणरूप प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रौपम्य और आगम ये चार प्रकार बताए है, भगवती व स्थानाङ्ग में भी ये भेद पाये हैं। यहाँ पर आगम प्रमाण ज्ञान के अर्थ में ही पाया है। महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों को लोकिक पागम की अभिधा दी गई है तो अरिहन्त द्वारा प्ररूपित द्वादशांग गणिपिटक को लोकोत्तर आगम कहा गया है / लोकोत्तर आगम को भावश्रुत भी कहा है / ग्रन्थ आदि को द्रव्यश्रुत को संज्ञा दी गई है और श्रुतज्ञान को भावभुत कहा गया है / ग्रन्थ प्रादि को उपचार से श्रुत कहा है / द्वादशांगी में जिस श्रुतज्ञान का प्रतिपादन हुअा है, वही सम्यक श्रुत है / इस प्रकार हम देखते हैं कि आगम की दूसरी ही संज्ञा श्रुत है। श्रुत और श्रुति श्रुत और श्रुति ये दो शब्द हैं / श्रुति शब्द का प्रयोग वेदों के लिए मुख्य रूप से होता रहा है। श्रुति वेदों को पुरातन संज्ञा है और श्रुत शब्द जैन आगमों के लिए प्रयुक्त होता रहा है / श्रुति और श्रुत में शब्द और अर्थ की दृष्टि से बहुत अधिक साम्य है / श्रुति और श्रुत दोनों का ही सम्बन्ध श्रवण से है। जो सुनने में आता है वह श्रुत है और वही भाववाचक मात्र श्रवण श्रुति है / श्रुत और श्रुति का वास्तविक अर्थ है-वह शब्द जो यथार्थ हो, प्रमाण रूप हो और जनमंगलकारी हो। चाहे श्रमणपरम्परा हो, चाहे ब्राह्मणपरम्परा हो; दोनों परम्पराओं ने यथार्थ ज्ञाता, वीतराग प्राप्त पुरुषों के यथार्थ तत्त्ववचनों को ही श्रुत और श्रुति कहा है। अतीत काल में गुरु के मुखारविन्द से ही शिष्यगण ज्ञान श्रवण करते थे, इसीलिए वेद को संज्ञा श्रुति है और जैन आगमों की संज्ञा अत है। जैन आगमों के प्रारम्भ में 'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं' वाक्य का प्रयोग है। लम्बे समय तक श्रुत सुन कर के ही स्मृतिपटल पर रखा जाता रहा है। जब स्मृतियां धुधली हुई, तब श्रुत लिखा गया। यही बात वेद और पालीपिटकों के लिए भी है। श्रत के सम्बन्ध में तत्त्वार्थभाष्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार सिद्धसेन गणी ने लिखा है- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ग्रन्थानुसारी विज्ञान श्रुत है' / मागम का पर्यायवाची सूत्र। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रागम के लिए 'सुत्तागमे' शब्द का प्रयोग हुआ है / मागम का अपर नाम सूत्र भी है / एक विशिष्ट प्रकार की शैली में लिखे गए ग्रन्थ सूत्र के नाम से जाने जाते हैं। वैदिक परम्परा में गृह्यसूत्र, धर्मसुत्र प्रादि अनेक धर्मग्रन्थ सूत्र की विधा में लिखे गए हैं। व्याकरण में भी सुत्र शैली को अपनाया गया है। 4. पनुयोगद्वार 5. भगवती, 5211192 / 6. स्थानाङ्ग, 31504 / 7. अनुयोगद्वार, सूत्र 5 / 8. श्रूयते आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः / —विशेषावश्यकभाष्य-मलधारीया वृत्ति 9. वलीहपुरम्मि नयरे, देवढिपमुहेण समणसंघेण / पुत्थइ पागम लिहिलो, नबसय असीमाप्रो वीरानो / / 10. श्रुतं ....."इन्द्रियमनोनिमितं ग्रन्थानुसारि विज्ञानं यत्। - तत्त्वार्थभाष्य टीका श२० [13] Page #2090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रशैली की मुख्य विशेषता यह है कि उसमें कम शब्दों में ऐसी बात कही जाती है जो व्यापक और विराट् अर्थ को लिए हुए हो। इस प्रकार की जो विशिष्ट शब्द रचना है, वह सूत्र कहलाती है / यहाँ पर यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि सूत्र को जो परिभाषा को गई है--जो सूचना दे या संक्षेप में व्यापक अर्थ को बताये वह सूत्र है, तो इस परिभाषा के अनुसार जैन आगमों को सूत्र की संज्ञा देना कहाँ तक उपयुक्त है ? वैदिक परम्परा के गृह्यसूत्र और धर्म सूत्र जो बहुत ही संक्षेप में लिखे हुए हैं, वैसे जैन आगम नहीं लिखे गये हैं। समाधान है—बैदिक परम्परा में बैदिक प्राचार के सम्बन्ध में जो नाना प्रकार के उपदेश है, उन उपदेशों का गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र में संग्रह किया गया है। बिखरे हुए आचार-चिन्तन को सूत्रबद्ध कर सुरक्षित किया गया है, वैसे ही जैन धर्म और दर्शन के आचार और विचार के विभिन्न पहलुओं को ग्रन्थों में आबद्ध कर सुरक्षित करने के कारण ये पागम, सूत्र कहे गये / आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है-तीर्थंकर अर्थ उपदेश देते है और गणधर उसे सूत्रबद्ध करते हैं / द्वादशांगी में दूसरे अग का नाम सूत्रकृतांग है और बौद्ध त्रिपिटकों में द्वितीय पिटक का नाम सूत्तपिटक है। इन दोनों ग्रन्थों में मुत्र शब्द का प्रयोग हमा है, सूत्र शैली में नहीं हैं तथापि इन दोनों ग्रन्थों में जो सूत्र शब्द पाया है, वह सूत्रमनुसरन् रजः अष्टप्रकारं कर्म अपनयति ततः स रणात् सूत्रम् (बृहत्कल्प टीका पृ. 75) जिसके अनुसरण से कर्मों का सरण अपनयन होता है वह सूत्र है / इस अर्थ में है। जैन प्रागमों में विविध प्रकार के अर्थों का बोध कराने की शक्ति रही हुई है, इसलिए भी जन प्राममों को सूत्र कहा गया है / आगम का पर्यायवाची : प्रवचन आगम का एक पर्यायवाची शब्द 'प्रवचन' भी है। सामान्य व्यक्ति की वाणी वचन है और विशिष्ट महापुरुषों के वचन प्रवचन हैं। आगम साहित्य में प्रशस्त और प्रधान श्रुतज्ञान को प्रवचन की संज्ञा ही गई है। प्रागमों में अनेक स्थलों पर निर्गन्ध प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। भगवती में साधकों के जीवन का चित्रण करते हुए कहा है 'जिग्गंथे पावयणे अछे, अयं परमठे, सेसे अणटठे...."निग्गंथे पावयणे निस्संकिया' अर्थात निग्नन्थ प्रवचन अर्थ वाला है, परमार्थ वाला है, शेष अनर्थकारी हैं""निग्रंथप्रवचन में निःशंकित हो . अर्थात् उसकी सम्पूर्ण आस्था निग्रंथ प्रवचन में ही केन्द्रित हो। गणधर गौतम ने एक बार जिज्ञासा प्रस्तुत की-"भगवन् ! प्रवचन, प्रवचन कहलाता है या प्रवचनी, प्रवचन कहलाता है।" समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा-"अरिहन्त प्रवचनी है और द्वादश अंग प्रवचन है।"3 प्राचार्य भद्रबाह ने प्रावश्यकनियुक्ति में लिखा है-तप-नियम-ज्ञान रूप वृक्ष पर पारूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भज्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसूमों की वष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट पर उन कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नियुक्ति में आए हुए प्रवचन शब्द का अर्थ 11. 'अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं' / ---श्राव. नियुक्ति गा० 192 12. भगवती, 2 / 5 / / 13. भगवती, शतक 20, उद्देशक 8 / 14. तब नियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी / तो मुयइ नाटिठ भवियजणविबोहणठाए / तं नुद्धिमएण पडेण गणहरा गिव्हिडं निरबसेसं / तित्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा / / -आवश्यकनियुक्ति गा. 89-90 [14] Page #2091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए लिखा है-'पगयं वयणं पथयणमिह सुयनाणं'........ पश्यणमहवा संघो' अर्थात् प्रकट वचन ही प्रवचन है; दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संघ प्रवचन है / संघ को प्रवचन कहने का कारण यह है कि संघ का जो ज्ञानोपयोग है--बही प्रबचन है। इसलिए संघ और ज्ञान का अभेद मानकर संघ को प्रवचन कहा है। यहाँ पर वचन के आगे जो 'प्र' उपसर्ग लगा है। वह प्रशस्त और प्रधान इन दो अथों में आया है। प्रशस्त बचन प्रवचन है अथवा प्रधान वचनरूप-श्रुतज्ञान प्रवचन है। श्रुतज्ञान में भी द्वादशांगी प्रधान है इसलिए वह द्वादशांगी प्रवचन है।६ प्रवचन के भी शब्द और अर्थ ये दो रूप हैं। शब्द, सूत्र के नाम से जाना जाता है और उस सूत्र के रचयिता हैं-गणधर / जिस अर्थ के आधार पर गणधरों ने सूत्र की रचना की; उस अर्थ के प्ररूपक हैंतीर्थकर।७ यहाँ पर भी एक प्रश्न समुत्पन्न होता है कि तीर्थंकरों ने अर्थ का उपदेश दिया-क्या वह अर्थ का उपदेश बिना शब्द का था ? बिना शब्द के उपदेश देना सम्भव ही नहीं है, तो शब्दों के रचयिता गणधर क्यों माने जाते हैं ? तीर्थकर क्यों नहीं ? इस प्रश्न का समाधान जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस प्रकार किया है-तीर्थंकर भगवान अनुक्रम से. बारह अंगों का यथावत् उपदेशप्रदान नहीं करते किन्तु संक्षेप में सिद्धान्त उपदेश देते हैं / उस संक्षिप्त उपदेश को गणघर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से बारह अंगों में इस प्रकार संग्रथित करते हैं, जिससे सभी सरलता से समझ सकें। इस प्रकार अर्थ के कर्ता तीर्थकर हैं और सूत्र के कर्ता गणधर हैं। संक्षेप में तीर्थंकरों का उपदेश किस प्रकार होता है इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखा है--'उप्पन्ने इ वा, विगमे इवा, धुवे इ वा / इस मातृकापदत्रय का ही उपदेश तीर्थंकर प्रदान करते हैं और उसी का विस्तार गणधर द्वादशांगी के रूप में करते हैं। सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, प्राज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, पागम, 16 प्राप्तवचन, ऐतिह्म, आम्नाय, जिनवचन 20 और श्रुत, ये सभी आगम के ही पर्यायवाची शब्द हैं। अतीत काल में 'श्रत' शब्द का प्रयोग आगम के अर्थ में अधिक होता था 3" / 'श्रुतकेवली', 'श्रुतस्थविर' 23 शब्द का प्रयोग प्रागमों में अनेक स्थलों पर निहारा जा सकता है पर कहीं पर भी 'प्रागमकेवली' या 'मागमस्थविर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। अंग प्रागमों का मौलिक चिन्तन : परमाणु विज्ञान प्राममों का मौलिक विभाग अंग है / उसमें जहाँ पर धर्म और दर्शन की गम्भीर चर्चाएं हैं, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में गहरा विवेचन है, वहाँ अणु के सम्बन्ध में भी तलस्पर्शी वर्णन है। आज के वैज्ञानिक अणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करने में जुटे हुए हैं, किन्तु अणु के सम्बन्ध में जिस सूक्ष्मता से चिन्तन श्रमण भगवान महावीर ने किया है, उतनी सूक्ष्मता से माधुनिक वैज्ञानिक नहीं कर सके हैं। आज का वैज्ञानिक जिसे अणु कहता है; 15. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1192 16. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1068; 1367 17. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1119-1124 / 18. देखिए विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1122 की टीका। 19. (क) सुय-सुत्त-गन्थ-सिद्धत-पवयणे प्राण-वयण-उवएसे / पण्णवण-प्रागमे या एगट्टा पज्जबा सुते / अनुयोगद्वार 4 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गा. 8 / 97 20. तत्त्वार्थभाष्य, 1-20 21. नन्दीसूत्र, 41 22. स्थानांग सूत्र 150 Page #2092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर उसे स्कन्ध कहते हैं। महावीर की रष्टि से अणु बहुत ही सूक्ष्म है। वह स्कन्ध से पृथक् निरंश तस्व है। परमाणपुदगल 23 अविभाज्य है, प्रच्छेद्य है, अभेद्य है, भदाह्य है। ऐसा कोई उपाय, उपचार या उपाधि नहीं जिससे उसका विभाग किया जा सके / किसी भी तीक्ष्णातितीक्ष्ण पास्त्र और अस्त्र से उसका विभाग नहीं हो सकता। जाज्वल्यमान अग्नि उसे जला नहीं सकती। महामेघ उसे आई नहीं बना सकता। यदि वह गंगा नदी के प्रतिस्रोत में प्रविष्ट हो जाए तो वह उसे बहानहीं सकता। परमाणुपुद्गल अनर्थ है, अमध्य है, प्रप्रदेशी है, सार्ध नहीं है, समध्य नहीं है, सम्प्रवेशी नहीं है / 24 परमाण न लम्बा है, न चौड़ा है और न गहरा है / वह इकाई रूप है / सूक्ष्मता के कारण वह स्वयं आदि है, स्वयं मध्य है और स्वयं अन्त है / 25 जिसका ग्रादि-मध्य-अन्त एक ही है, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, अविभागी है, ऐसा द्रव्य परमाण है। जीवविज्ञान परमाणु के सम्बन्ध में ही नहीं जीवविज्ञान के सम्बन्ध में भी भगवान महावीर ने जो रहस्य उद्घाटित किए हैं, वे अद्भुत हैं, अपूर्व हैं। भगवान महावीर ने जीवों को छह निकायों में विभक्त किया है। सनिकाय के जीव प्रत्यक्ष हैं। वनस्पतिनिकाय के जीव भी प्राधुनिक विज्ञान के द्वारा मान्य किए जा चुके है, किन्तु प्राधुनिक विज्ञान पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु---इन चार निकायों में जीव नहीं समझ पाया है। भगवान महावीर ने पथ्वी, पानी, अग्नि और वायू में केवल जीव का अस्तित्व ही नहीं माना है अपितु उनमें प्राहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा और लोकसंज्ञा का भी अस्तित्व माना है। वे जीव श्वासोच्छवास भी लेते हैं। मानव जैसे श्वास के समय प्राणवायु ग्रहण करता है वैसे पृथ्वीकाय, अपकाय, बनस्पतिकाय आदि के जीव श्वास काल में केवल वायु को ही ग्रहण नहीं करते अपितु पृथ्वी, पानी, वायु, वनस्पति और अग्नि, इन सभी के पुदगल द्रव्यों को भी ग्रहण करते हैं / पृथ्वीकाय के जीवों में भी पाहार की इच्छा होती है। वे प्रतिपल, प्रतिक्षण आहार ग्रहण करते रहते हैं। उनमें एक इन्द्रिय होती है और वह है स्पर्श-इन्द्रिय / उसी से उनमें चैतन्य स्पष्ट होता है, अन्य चैतन्य की धाराएं उनमें अस्पष्ट होती हैं / पृथ्वीकायिक जीबों का अल्पतम जीवनकाल अन्तमुहर्त का है और उत्कृष्ट जीवनकाल 22000 वर्ष का है। आधुनिक विज्ञान ने वनस्पति के जीवों के सम्बन्ध में अध्ययन कर उसके सम्बन्ध में अनेक रहस्यों को अनावृत किया है। स्नेहपूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति प्रफुल्लित होती है और पृणापूर्ण व्यवहार से मुरझा जाती है / इस प्रकार की अनेक बातें जीवविज्ञान के सम्बन्ध में पागम साहित्य में आई हैं, जिसे सामान्य बुद्धि ग्रहण नहीं कर पाती। इसी तरह भूगोल और खगोल विद्या के सम्बन्ध में भी जैम पागम साहित्य में पर्याप्त सामग्री है। वैज्ञानिक अभी तक जितना जान पाए हैं, उससे अधिक सामग्री अज्ञात है। केवल पौराणिक चिन्तन कहकर उस सामग्री की उपेक्षा नहीं की जा सकती / अन्वेषणा करने पर अनेक नए तथ्य उजागर हो सकते हैं / वैज्ञानिकों को चिन्तन करने के लिए नई दृष्टि प्रदान कर सकते हैं। 23. भगवती, 57 24. भगवती, 57 25. राजवातिक, 525 // 1 26. सर्वार्थसिद्धि टीका-सूत्र 5 / 25 27. भगवती, 9 / 34 / 253-254 28. भगवती, 111132 [16] Page #2093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रागमों में उस युग की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों का भी यत्र-तत्र चित्रण हया है। समाज और संस्कृति का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों के लिए यह सामग्री बहुत ही दिलचस्प और ज्ञानवर्द्धक है। भाषाविज्ञान और अन्य अनेक दष्टियों से जैन आगमों का अध्ययन चिन्तन की अभिनव सामग्री प्रदान करने में सक्षम है। जैन आगमों का मूल स्रोत वेद नहीं कितने ही पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों का यह अभिमत है कि जैन श्रामम-साहित्य में जो चिन्तन आया है, उसका मूल स्रोत वेद है। क्योंकि वर्तमान में जितना भी साहित्य है, उन सबमें प्राचीनतम साहित्य वेद है / ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है किन्तु प्राधुनिक अन्वेषणा ने उन विज्ञों के मत को निरस्त कर दिया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ध्वंसावशेषों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रार्यों के भारत में आने के पूर्व भारतीय संस्कृति और धर्म पूर्ण रूप से विकसित था ! शोधार्थी मनीषियों का यह मानना है कि जो आर्य भारत में बाहर से प्राए थे, उन आर्यों ने वेदों की रचना की / जब वेदों में भारतीय चिन्तन का सम्मिश्रण हुआ तो वेद जो अभारतीय थे; वे भारतीय चिन्तन के रूप में विज्ञों के द्वारा मान्य किए गए। आर्य भ्रमणशील थे, भ्रमणशील होने के कारण उनकी संस्कृति अच्छी तरह से विकसित नहीं हुई थी जबकि भारत के आद्य निवासियों की संस्कृति स्थिर संस्कृति थी। वे एक स्थान पर ही अवस्थित थे, इस कारण उनकी संस्कृति पार्यों की संस्कृति से अधिक विकसित थी, वह एक प्रकार से नामरिक संस्कृति थी। बाहर से पाने वाले प्रायों की अपेक्षा यहाँ के लोग अधिक सुसंस्कृत थे / जब हम वेदों का संहिता विभाग और ब्राह्मण ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करते हैं तो उन ग्रन्थों में प्रार्यों के संस्कारों का प्राधान्य दग्गोचर होता है, पर उसके पश्चात् लिखे गये प्रारण्यक, उपनिषद्, धर्मशास्त्र, स्मतिशास्त्र मादि जो वैदिक परम्परा का साहित्य है, उसमें काफी परिवर्तम हुआ है। बाहर से आए हुए आर्यों ने भारतीय संस्कारों को इस प्रकार से ग्रहण किया कि वे अभारतीय होने पर भी भारतीय बन गए / इन नये संस्कारों का मूल अवैदिक परम्परा में रहा हा है। वह अवैदिक परम्परा जैन और बौद्ध परम्परा है / अवैदिक परम्परा के प्रभाव के कारण ही जिन विषयों की चर्चा वेदों में नहीं हुई, उनको चर्चा उपनिषद् प्रादि में हुई है। वेदों में आत्मा, पुनर्जन्म, व्रत ग्रादि की चर्चाएं नहीं थी, पर उपनिषदों में इन पर खुलकर चर्चाएं हुई हैं और आचारसंहिता में भी परिवर्तन पाया है। इस परिवर्तन का मूल आधार अवैदिक परम्परा रही है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रन्थ निर्मित हुए उन पर श्रमणसंस्कृति को छाप स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है। वेदों में सृष्टितत्त्व के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है तो श्रमण संस्कृति में संसारतत्त्व पर गहराई से विचार किया गया है / वैदिक दृष्टि से सृष्टि के मूल में एक ही तत्त्व है तो श्रमणसंस्कृति ने संसारतत्त्व के मूल में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व माने हैं। वैदिक परम्परा में सुष्टि कब उत्पन्न हुई ? इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त किया गया है तो श्रमणसंस्कृति की दृष्टि से संसार चक्र अनादि काल से चल रहा है / उसका न तो प्रादि है और न अन्त ही है / वेदों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मवयं और अपरिग्रह इन महाव्रतों की चर्चा नहीं हुई है। यहाँ तक कि हिंसा और परिग्रह पर बल दिया गया है। वाजसनेयीसंहिता30 में पुरुषमेधयज्ञ में 184 पुरुषों के वध 29. Indian Pattern of Life and Thought-A Glimpse of its early phases;--Indo-Asian Culture---Page 47. Publication year 1959.-Dr. R. N. Dandekar. 30. वाजसनेयी संहिता, 30 / [17] Page #2094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संकेत किया गया है। ऋग्वेद,3' विष्णुस्मृति,३२ मनुस्मृति 33 आदि ग्रन्थों में भी यज्ञ-याग के लिए की गई हिंसा को हिंसा नहीं समझा गया है। 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' जैसे गहित सूत्र बनाए गए थे। श्रमणसंस्कृति के दिव्य प्रभाव से ही वेदों के पश्चात् निर्मित साहित्य में यतों की चर्चाएं हुई हैं / डॉ. हरमन जैकोबी का अभिमत है कि जैनों ने अपने ब्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं३४ / ब्राह्मण संन्यासी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सन्तोष और मुक्तता उन महावतों का पालन करते थे जो आगे चलकर जैन महाव्रतों का प्राधार बने, पर जैकोबी की इस कल्पना का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर डॉ. जैकोबी ने जो कल्पना को है, वह सत्य तथ्य से परे है। क्योंकि व्रत का सम्बन्ध संन्यास आश्रम से है / वेदों में संन्यास आश्रम की कोई चर्चा नहीं है / वैदिक युग में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ ये दो ही व्यवस्थाएं थीं / संन्यास की चर्चा उपनिषत्काल में प्रारम्भ हुई / बहदारण्यक में संन्यास का उल्लेख अवश्य हना है 35 | जाबालोपनिषद् में चार पाश्रमों की व्यवस्था प्राप्त है 36 / उपनिषदसाहित्य के पूर्व वैदिक परम्परा में पुत्रषणा, वित्तषणा और लोकैषणा की प्रधानता थी / तैत्तिरीयसंहिता में वर्णन है कि ब्राह्मण तीन ऋणों के साथ जन्म ग्रहण करता है। ऋषियों के ऋण से मुक्त होने के लिए ब्रह्मचर्य है / देवों के ऋण से मुक्त होने के लिए यज्ञ है और पितरों के ऋण से उऋण होने के लिए पुत्रवान् होना पावश्यक है 3 | एक बार वेधस राजा ने नारद ऋषि से पूछा---पुत्र से क्या लाभ ? नारद ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा- यदि पिता अपने पुत्र का मुख देख ले तो पित-ऋण से मुक्त हो जाता है और अमर बन जाता है / इस प्रकार वैदिक परम्परा में पुत्र को प्रधानता रही है। उसे त्राता माना है, जबकि जैनपरम्परा में पुत्र को प्राता नहीं माना है 36 / वैदिक परम्परा में गृहस्थ-आश्रम को सबसे प्रमुख प्राश्रम माना है--जिस प्रकार नदी और नद सागर में प्राक र स्थिर हो जाते हैं, वैसे ही सभी पाश्रम गृहस्थ-पाश्रम में स्थिर होते हैं४० / इससे यह स्पष्ट है कि संन्यास और व्रतकी परम्परा श्रमणधर्म की देन है / श्रमणधर्म से ही वैदिक परम्परा ने व्रत प्रादि को ग्रहण किया है। वेद, ब्राह्मण 31. ऋग्वेद, 10 1901 / 24 / 309 / 3 / 32. सेकेड बुक्स ऑफ द ईस्ट, जिल्द 7,51,61-63 / 33. मनुस्मति 5 / 22 / 29 / 44 / / 34. "It is therefore probable that the Jainas have borrowed their own vows from the Brahmans, Not from the Buddhists" -The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. 35. बृहदारण्यकोपनिषद्, 4 / 4 / 22 / 36. (क) जाबालोपनिषद् 4 / (ख) वशिष्ठ धर्मशास्त्र७।१ / 2 // 37. तैत्तिरीयसंहिता 6 / 3 / 10 / 5 / 38. ऋणमस्मिन सनयत्यमतत्त्वं च गच्छति / पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेज्जीवतो मुखम् / / --ऐतरेय ब्राह्मण, 7 वीं पंचिका, अध्याय 3 39. जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं / -उत्तराध्ययन अ. 14, श्लो. 12 40. गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः / चतुर्णामश्नमाणं तु, गहस्थश्च विशिष्यते / / यथा नदी नदा: सर्वे, समुद्र यान्ति संस्थितिम / एवामाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् / / --बशिष्ठ-धर्मशास्त्र 8 / 14-15 [18] Page #2095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आरण्यक साहित्य में महावतों का उल्लेख नहीं है। जिन उपनिषदों पुराणों और स्मृति ग्रन्थों में महावतों का वर्णन आया है उन पर तीर्थकर भगवान पाश्वनाथ और जैनधर्म का प्रभाव है। इस सत्य को महाकवि दिनकर ने स्वीकार करते हुए लिखा है-हिन्दुत्व और जैनधर्म यापस में घुल-मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दु यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं। अन्य स्वतंत्र चिन्तकों ने भी इस सत्य को बिना संकोच स्वीकार किया है। डॉ. डांडेकर प्रादि का भी यही अभिमत रहा है। वेदों में योग और ध्यान की भी प्रक्रिया नहीं है। ऋग्वेद में योग शब्द मिलता है। वहां पर योग शब्द का अर्थ जोड़ना मात्र है 42 / पर ग्रागे चलकर वही योग शब्द उपनिषदों में पूर्ण रूप से प्राध्यात्मिक अर्थ में आया है।४३ कितने ही उपनिषदों में तो योग और योगसाधना का सविस्तृत वर्णन किया गया है / / 4 योग, योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, कुण्डलिनी यादि का विशद वर्णन है। सिन्धुसंस्कृति के भग्नावशेषों में ध्यानमुद्रा के प्रतीक प्राप्त हुये हैं, जिससे भी इस कथन को बल प्राप्त होता है। संक्षेप में यही सार है कि जैन आगामों का मुल स्रोत वेद नहीं हैं। वेदों से उसने सामग्री ग्रहण नहीं की है। उसकी सामग्री का मूल स्रोत तीर्थकर हैं / केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन समुत्पन्न होने पर सभी जीवों के रक्षा रूप दया के लिए तीर्थंकर पावन प्रवचन करते हैं और वह प्रवचन ही प्रागम है। इस प्रवचन का स्रोत केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन है। इस तरह अंग आगम धमणसंस्कृति के प्रतिनिधि तथा प्राधारभत ग्रन्थ है। ध्याख्याप्रज्ञप्ति द्वादशांगी में व्याख्याप्राप्ति का पांचवां स्थान है / यह आगम प्रश्नोत्तर शैली में लिखा हुग्रा है, इसलिए इसका नाम न्याख्याप्रज्ञप्ति है। समवायाङ्क ५और नन्दी में लिखा है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में 36000 प्रश्नों का --. .-- .-- - .. - - -.-- 41. संस्कृति के चार प्रध्याय,पू. 125 42. (क) स घा नो योग पा भवत् / - ऋग्वेद, 1 / 5 / 3 (ख) स धीनां योगमिन्वति। -ऋग्वेद, 1 / 18 / 7 (ग) कदा योगी वाजिनो रासभस्य / - ऋग्वेद 1 1 34 / 9 (घ) वाजयन्निव न रथान् योगा अग्ने रुपस्तुहि। -ऋग्वेद 2 / 8 / 1 43. (क) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति / --कठोपनिषद् 1 / 2 / 12 (ख) तां योगमितिमन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम / अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ // -कठोपनिषद् 2 / 3 / 11 (ग) तैत्तिरीयोपनिषद् 2 / 14 44. योगराजोपनिषद् अद्वयतारकोपनिषद्, अमृतनादोपनिषद्, त्रिशिख बाहाणोपनिषद्, दर्शनोपनिषद्, ध्यान बिन्दू पनिषद्, हंस, ब्रह्मविद्या, शाण्डिल्य, वाराह, योगणित, योगतत्त्व, योगचूडामणि, महावाक्य, योगकुण्डली, मण्डलब्राह्मण, पाशुपत ब्राह्मण, नादबिन्दु, तेजोविन्दु, अमृतबिन्दु, मुक्तिकोपनिषद् / इन सभी 21 उपनिषदों में योग का वर्णन हुअा है / 45. समवायाङ्ग, सूत्र 93 46. नन्दीसूत्र 65 [19] Page #2096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण है। दिगम्बरपरम्परा के आचार्य प्रकलंकने, आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि ने और प्राचार्य गुणधर४३ ने लिखा है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में 60,000 प्रश्नों का व्याकरण है / उसका प्राकृत नाम 'विहायपण्यत्ति' है। किन्तु प्रतिलिपिकारों ने विवाहपण्णति और वियाहपण्णति ये दोनों नाम भी दिए हैं। नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने वियाहपरगत्ति का अर्थ करते हुए लिखा है-गौतम आदि शिष्यों को उनके प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने श्रेष्ठतम विधि से जो विविध विषयों का विवेचन किया है, वह गणधर आर्य सुधर्मा द्वारा अपने शिष्य जम्बू को प्ररूपित किया गया। जिसमें विशद विवेचन किया गया हो वह व्याख्याप्रज्ञप्ति है 50 / अन्य आगमों की अपेक्षा व्याख्याप्रज्ञप्ति प्रागम अधिक विशाल है। विषयवस्तु की दष्टि से भी इसमें विविधता है / विश्वविद्या की ऐसी कोई भी अभिधा नहीं है, जिसकी प्रस्तुत आगम में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में चर्चा न की गई हो / प्रश्नोत्तरों के द्वारा जैन तत्त्वज्ञान, इतिहास की अनेक घटनाएं, विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन और विवेचन इतना विस्तृत किया गया है कि प्रबुद्ध पाठक सहज ही विशाल ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इस दृष्टि से इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोष कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। इस आगम के प्रति जनमानस में अत्यधिक श्रद्धा रही है / इतिहास के पष्ठ साक्षी हैं, श्रद्धालु श्राद्धगण भक्ति-भावना से विभोर होकर सद्गुरुत्रों के मुख से इस आगम को सुनते थे तो एक-एक प्रश्न पर एक-एक स्वर्ण-मुद्राएं ज्ञान-वृद्धि के लिए दान के रूप में प्रदान करते थे। इस प्रकार 36000 स्वर्ण-मुद्राएं समर्पित कर व्याख्याप्रज्ञप्ति को श्रद्धालुओं ने सुना है। इस प्रकार इस पागम के प्रति जनमानस में अपार श्रद्धा रही है। श्रद्धा के कारण ही व्याख्याप्रज्ञप्ति के पूर्व 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त होने लगा और शताधिक वर्षों से तो 'भगवती' विशेषण न रहकर स्वतंत्र नाम हो गया है। वर्तमान में 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' की अपेक्षा 'भगवती' नाम अधिक प्रचलित है। समवायान में यह बताया गया है कि अनेक देवताओं, राजापों व राजऋषियों ने भगवान महावीर से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे। भगवान ने उन सभी प्रश्नों का विस्तार से उत्तर दिया / इस प्रागम में स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक, अलोक प्रादि की व्याख्या की गई है / प्राचार्य अकलङ्क के मन्तव्यानुसार प्रस्तुत प्रागम में जीव है या नहीं? इस प्रकार के अनेक प्रश्नों का निरूपण किया गया है५३ / प्राचार्य बीरसेन ने बताया है कि . 47. तत्त्वार्थवातिक 120 48. षट्ख डागम, खण्ड 1, पृष्ठ 101 49. कषायपाहुड, प्रथम खण्ड, पृष्ठ 125 50. (क) "वि-विविधा, आ-अभिविधिता, ख्या-ख्यानाति भगवतो महावीरस्य गौतमादीत विनेयान प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्याः, ता: प्रज्ञाप्यन्ते, भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बुनामानमभि यस्याम् / " (ख) विवाह-प्रज्ञप्ति-अर्थात् जिसमें विविध प्रवाहों की प्रज्ञापना की गई है-वह विवाहप्रज्ञप्ति है / (ग) इसी प्रकार 'विवाहपण्णत्ति' शब्द की व्याख्या में लिखा है-'विबाधाप्रज्ञप्ति' अर्थात् जिसमें निर्बाध रूप से अथवा प्रमाण से प्रवाधित निरूपण किया गया है, वह विवाहपण्णत्ति है। 51. महायान बौद्धों में प्रज्ञापारमिता जो ग्रन्थ है उसका अत्यधिक महत्त्व है अतः अष्ट प्राहसिका प्रज्ञापारमिता का अपर नाम भगवती मिलता है। -देखिए-शिक्षा समुच्चय, पृ. 104-112 52. समवायाङ्ग, सूत्र 93 53. तत्त्वार्थवार्तिक, 120 [20] Page #2097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रश्नोत्तरों के साथ हो 96000 छिन्न छेदनयों५४ से ज्ञापनीय शुभ और अशुभ का वर्णन है 55 / प्रस्तुत प्रागम में एक श्रुतस्कन्ध, एक सौ एक अध्ययन, दस हजार उद्दे श नकाल, दस हजार समुद्देशनकाल, छत्तीस हजार प्रश्न और उनके उत्तर, 288000 पद और संख्यात अक्षर हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की वर्णनपरिधि में अनंत गम, अनंत पर्याय, परिमित स और अनन्त स्थावर पाते हैं। प्राचार्य अभयदेव ने पदों की संख्या 288000 बताई है तो समवायाङ्ग में पदों की संख्या 84000 बताई है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन 'शतक' के नाम से विश्रुत हैं। वर्तमान में इसके 138 शतक और 1925 उद्देशक प्राप्त होते हैं। प्रथम 32 शतक पूर्ण स्वतंत्र हैं, तेतीस से उन चालीस तक के सात शतक 12-12 शतकों के समवाय है। चालीसवां शतक 21 शतकों का समवाय है। इकतालीसवाँ यातक स्वतंत्र है। कुल मिलाकर 138 शतक हैं। इनमें 41 मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं। शतकों में उद्देशक तथा अक्षर-परिमाण इस प्रकार है शतक उद्देशक अक्षर-परिमाण शतक उद्देशक अक्षर-परिमाण m our 22443 . 8027 19871 10 पाठ वर्ग 80 छह वर्ग 60 पांच वर्ग 50 38841 23818 36702 -753 25691 18652 24935 48534 45859 1068 NP 9 Mor GICA80 0 / K AWW 100 0 0 GM W00 1 39126 45103 4455 190 694 1027 4764 2344 Mr 32338 32808 21914 39812 x (12)124 (12)124 3089 8964 " 8412 54. वह व्याख्यापद्धति, जिसमें प्रत्येक श्लोक और सूत्र की स्वतंत्र व्याख्या की जाती है और दूसरे श्लोकों और सूत्रों से निरपेक्ष व्याख्या भी की जाती है। वह व्याच्यापद्धति छिन्नछेदनय के नाम से पहचानी जाती है। 55. कषायपाहुड भाग 1, पृ. 125 [21] Page #2098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अक्षर-परिणाम शतक अक्षर-परिणाम उद्देशक (21)231 35 . उद्देशक (12)130 (12)132 (12) 132 (12) 132 (12) 132 731 41 . للی سه للا 138 1923 لله मंगल वर्तमान में द्वादशांगी के ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवां अंग दृष्टिबाद इस समय विछिन्न हो चुका है। ग्यारह अंगों में से केवल भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में ही मंगलवाक्य है। अन्य किसी भी अंग सुत्र में मंगलवाक्य नहीं है। सहज हो जिज्ञासा हो सकती है कि भगवती में ही मंगलवाक्य क्यों है ? इस जिज्ञासा का समाधान दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तर्क की दृष्टि से, दुसरा श्रद्धा की दृष्टि से / ताकिक चिन्तकों का अभिमत है कि ग्रागमयुग में मंगलवाक्य की परम्परा नहीं थी। मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन' ये चारों अनुबन्ध दार्शनिक युग की देन हैं। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि आगम स्वयं ही मंगल हैं / इसलिए उनमें मंगलवाक्य की आवश्यकता नहीं। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य वीरसेन और जिनसेन ने लिखा है कि पागम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परमागम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमत: मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है / 56 अत: भगवती में जो मंगलवाक्य प्राये हैं वे प्रक्षिप्त होने चाहिए। जब यह धारणा चिन्तकों के मस्तिष्क में रूढ हो गई--ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलवाक्य होना चाहिये, तभी से मंगलवाक्य लिखे गये / 57 श्रद्धा की दृष्टि से जब भगवती की रचना हुई तभी से मंगलवाक्य है। मंगल बहुत ही प्रिय शब्द है। अनन्तकाल से प्राणी मंगल की अन्वेषणा कर रहा है / मंगल के लिए गगनचम्बी पर्वतों की यात्राएं कीं; विराटकाय समुद्र को लांघा; बीहड जंगलों को रोंद डाला; रक्त की नदियाँ बहाईं; अपार कष्ट सहन किए; पर मंगल नहीं मिला / कुछ समय के लिए किसी को मंगल समझ भी लिया गया, पर वस्तुतः वह मंगल सिद्ध नहीं हुआ / मंगल शब्द पर चिन्तन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा---जिसमें हित की प्राप्ति हो, वह मंगल है अथवा जो मत्पदवाच्य पात्मा को संसार से अलग करता है वह मंगल है।५८ प्राचार्य मलधारी हेमचन्द का अभिमत है--- जिससे प्रात्मा शोभायमान हो, वह मंगल है या जिससे ग्रानन्द और हर्ष प्राप्त होता है, वह मंगल है। यों भी कह 56. एत्थ पुण णियमो णस्थि, परमागमुवजोगम्मिणियमेण मंगलफलोवलंभादो। -- करायपाहुड, भाग 1, मा.१, पृ.९ 57. तं मंगलमाइए माझे पज्जंतए य सत्थस्स / पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निहिठं / / तरसेवाविम्वत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्मेव / अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइव सस्स || ....विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 13-14 58, 'मङ्गयतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मंगलम'........'मां, गालयति भवादिति मङ्गलं-संसारादपनयति / ' -दशवकालिकटीका [22] Page #2099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते हैं कि जिसके द्वारा आत्मा पूज्य, विश्ववन्द्य होता है वह मंगल है। इस प्रकार इन व्युत्पत्तियों में लोकोत्तर मंगल की अद्वितीय महिमा प्रकट की गई है। महामन्त्र : एक अनुचिन्तन भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में मंगलवाक्य के रूप में "नमो अरिहंताण, नमो सिद्धाण, नमो प्रायरियाण, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहणं" "नमो बंभीए लिवीए"--का प्रयोग हआ है। नमोकार मन्त्र जेनों का एक सार्वभौम और सम्प्रदायातीत मन्त्र है। वैदिकपरम्परा में जो महत्त्व गायत्री मन्त्र को दिया गया है, बौद्ध परम्परा में जो महत्त्व "तिमारन" मन्त्र को दिया गया है, उससे भी अधिक महत्व जैनपरम्परा में इस महामन्त्र का है। इसकी शक्ति प्रमोघ है और प्रभाव अचिन्त्य है। इसकी साधना और आराधना से लौकिक और लोकोत्तर सभी प्रकार की उपलब्धियाँ होती हैं। यह महामन्त्र अनादि और शाश्वत है। सभी तीर्थकर इस महामन्त्र को महत्त्व देते माये हैं। यह जिनागम का सार है। जैसे तिल का सार तेल है; दुध का सार घृत हैं। फूल का सार इत्र है। वैसे ही द्वादशांगी का सार नमोक्कार महामन्त्र है / इस महामन्त्र में समस्त श्रुतज्ञान का सार रहा हुआ है, क्योंकि परमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य थतज्ञान कुछ भी नहीं है। पंच परमेष्ठी अनादि होने के कारण यह महामन्त्र अनादि माना गया है / यह महामन्त्र कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न या कामधेनु के समान फल देने वाला है / यह सत्य है कि जितना हम इस महामन्त्र को मानते हैं उतना इस महामन्त्र के सम्बन्ध में जानते नहीं / मानने के साथ जानना भी आवश्यक है, जिससे इस महामन्त्र के जप में तेजस्विता आती है। 'मननात मन्त्रः' मनन करने के कारण ही मन्त्र नाम पड़ा है। मन्त्र मनन करने को उत्प्रेरित करता है, वह चिन्तन को एकाय करता है, आध्यात्मिक ऊर्जा शक्ति को बढ़ाता है। चिन्तन/मनन कभी अन्धविश्वास नहीं होता, उसके पीछे विवेक का आलोक जगमगाता है। उसका सबसे बड़ा कार्य है-अनादि काल की मुर्छा को तोड़ना; मोह को भंग कर मोहन के दर्शन करना / मन्त्र मूर्छा को नष्ट करने का सर्वोत्तम उपाय है / मुर्छा ऐसा प्राध्यात्मिक रोग है, जो सहसा नष्ट नहीं होता; उसके लिए निरन्तर मन्त्र जप की आवश्यकता होती है / यह महामंत्र साधक के अन्तर्मानस में यह भावना पैदा करता है कि मैं शरीर नहीं है, शरीर से परे है। वह भेदविज्ञान पैदा करता है। मंत्र हृदय की आँख है। मंत्र वह शक्ति है--जो आसक्ति को नष्ट कर अनासक्ति पैदा करती है / नमस्कार महामंत्र का उपयोग जो साधक भासक्ति के लिए करते हैं लक्ष्यभ्रष्ट हैं / लक्ष्यभ्रष्ट तीर का कोई उपयोग नहीं होता, वैसे ही लक्ष्यभ्रष्ट मंत्र का भी कोई उपयोग नहीं है। मन्त्र छोटा होता है। वह ग्रन्थ की तरह बड़ा नहीं होता। हीरा छोटा होता है, चट्टान की तरह बड़ा नहीं होता, पर बड़ी-बड़ी चट्टानों को वह काट देता है / अंकुश छोटा होता है, किन्तु मदोन्मत्त गजराज को अधीन कर लेता है / बीज नन्हा होता है, पर वही बीज विराट् वृक्ष का रूप धारण कर लेता है / वैसे ही नमोक्कार मंत्र में जो प्रक्षर हैं-वे भी बीज की तरह हैं / नमोक्कार मंत्र में 35 अक्षर हैं। 3 में 5 जोड़ने पर 8 होते हैं / जैनदष्टि से कर्म पाठ हैं। इस महामंत्र की साधना से पाठों कर्मों की निर्जरा होती है। ३-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायमूप्ति / ५-पंचमहाव्रत और पंचसमिति का प्रतीक है / जब नमोकार मंत्र के साथ रत्नत्रय ब महाव्रत का सुमेल होता है या अष्टक प्रवचनमाता की साधना भी साथ चलती है तो उस साधना में अभिनव ज्योति पैदा हो जाती है। इस प्रकार यह महामंत्र मन का श्राण करता है। अशुभ विचारों के प्रभाव से मन को मुक्त करता है। 59. 'मंग्यतेऽलंक्रियतेऽनेनेति मंगलम' .......'मोदन्तेऽनेनेति मंगलम्' ...... 'मह्यन्ते-पूज्यन्तेऽनेनेति मंगलम् / ' ----विशेषावश्यकभाष्य [23] Page #2100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोक्कार महामंत्र हमारे प्रसुप्त चित्त को जागत करता है। यह मंत्र शक्ति-जागरण का अग्रदुत है। इस मंत्र के जाप से इन्द्रियों को वल्मा हाथ में आ जाती है, जिससे सहज ही इन्द्रिय-निग्रह हो जाता है। मन्त्र एक ऐसी छनी हे जो विकारों को परतों को काटती है। जब विकार पूर्ण रूप से कट जाते हैं तब प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। महामन्त्र की जप-साधना से साधक अन्तर्मुखी बनता है, पर जप की साधना विधिपूर्वक होनी चाहिये / विधिपूर्वक किया गया कार्य हो सफल होता है। डॉक्टर रुग्ण व्यक्ति का प्रॉपरेशन विधिपूर्वक नहीं करता है तो रुग्ण व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। बिना विधि के जड़ मशीनें भी नहीं चलतीं। सारा विज्ञान विधि पर ही अवलम्बित है। प्रविधिपूर्वक किया गया कार्य निष्फल होता है। यही स्थिति मंत्र-जप की भी है। नमोक्कार महामंत्र में पांच पद हैं / 35 अक्षर हैं। इनमें 11 अक्षर लघु हैं, 24 गुरु हैं, 15 दीर्घ हैं और 20 ह्रस्व हैं, 35 स्वर हैं और 34 व्यंजन हैं। यह एक अद्वितीय बीजसंयोजना है। 'नमो अरिहंताणं' में सात अक्षर हैं, 'नमो सिद्धाणं' में पांच अक्षर हैं, 'नमो पायरियाण' में सात अक्षर हैं, "नमो उवज्झायाण" में सात अक्षर हैं और ''नमो लोए सव्वसाहणं'' में नो अक्षर हैं.-इस प्रकार इस महामंत्र में कुल 35 अक्षर हैं / स्वर और व्यंजन का विश्लेषण करने पर "नमो अरिहंतागं" में 7 स्वर और 6 व्यंजन हैं, 'नमो सिद्धाणं" में 5 स्वर और 6 व्यंजन हैं, "नमो आयरियाणं" में 7 स्वर और 6 व्यंजन हैं, "नमो उवउझायाणं" में 7 स्वर और 7 ही व्यंजन हैं तथा "नमो लोए सबसाहणं" में 2 स्वर तथा 2 व्यंजन हैं -इस प्रकार नमोक्कार महामंत्र में 35 स्वर और 34 व्यंजन हैं ! यह महामंत्र जैन पाराधना और साधना का केन्द्र है, इसकी शक्ति अपरिमेय है। इस महामंत्र के वर्षों के संयोजन पर चिन्तन करें तो यह बड़ा अद्भुत और पूर्ण वैज्ञानिक है। इसके बीजाक्षरों को माधुनिक शब्दविज्ञान को कसौटी पर कसने पर यह पाते हैं कि इसमें विलक्षण ऊर्जा है और शक्ति का भण्डार छिपा हुआ है / प्रत्येक अक्षर का विशिष्ट अर्थ है, प्रयोजन है और ऊर्जा उत्पन्न करने की क्षमता है। जैनधर्म में प्ररिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच महान् प्रात्मा माने गये हैं, जिन्होंने प्राध्यात्मिक गुणों का विकास किया। आध्यात्मिक उत्कर्ष में न वेष बाधक है और न लिग ही। स्त्री हो या पुरुष हो, सभी अपना आध्यात्मिक उत्कर्ष कर सकते हैं। नमोक्कार महामंत्र में अरिहन्तों को नमस्कार किया गया है, किन्तु तीर्थंकरों को नहीं। तीर्थंकर भी अरिहन्त हैं तथापि सभी अरिहन्त तीर्थकर नहीं होते। अरिहन्तो के नमस्कार में तीर्थंकर स्वयं पा जाते हैं। पर तीर्थकर को नमस्कार करने में सभी अरिहन्त नहीं पाते / यहाँ पर तीर्थकरत्व मुख्य नहीं है, मुख्य है-अहंतभाव / जनधर्म की दृष्टि से तीर्थक रत्व प्रौदयिक प्रकृति है, वह एक कर्म के उदय का फल है किन्तु अरिहन्तदशा क्षायिक भाव है। वह कर्म का फल नहीं अपितु कमों की निर्जरा का फल है / तीर्थकरों को भी जो नमस्कार किया जाता है, उसमें भी अहतभाव ही मुख्य रहा हुप्रा है। इस प्रकार नमोक्कार महामंत्र में व्यक्ति विशेष को नहीं, किन्तु गुणों को नमस्कार किया गया है। व्यक्तिपूजा नहीं किन्तु गुणपूजा को महत्त्व दिया गया है / यह कितनी विराट् और भव्य भावना है / प्राचीन ग्रन्थों में नमोक्कार महामंत्र को पंचपरमेष्ठीमंत्र भी कहा है। 'परमे तिष्ठतीति' अर्थात् जो प्रात्माएं परमे---शुद्ध, पवित्र स्वरूप में, वीतराग भाव में ब्ठी-रहते हैं—वे परमेष्ठी हैं। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने के कारण अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु हो पंच परमेष्ठी हैं। यही कारण है कि भोतिक दृष्टि से चरम उत्कर्ष को प्राप्त करने वाले चक्रवर्ती सम्राट् और देवेन्द्र भी इनके चरणों में झुकते हैं। त्याग के प्रतिनिधि-ये पंच परमेष्ठी हैं। पच परमेष्ठी में सर्वप्रथम अरिहन्त है / जिन्होंने पूर्ण रूप से सदा-सदा के लिए राग-द्वेष को नष्ट कर दिया है, बे अरिहन्त हैं, जो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त शक्ति रूप वीर्य के धारक होते हैं, सम्पूर्ण विश्व के ज्ञाता/दष्टा होते हैं, जो सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, प्रभति [24] Page #2101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधी द्वन्द्वों में सदा सम रहते हैं। तीर्थकर और दूसरे प्ररिहन्तों में आत्मविकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं दूसरा पद सिद्ध का है। सिद्ध का अर्थ पूर्ण है / जो द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार के कर्मों से अलिप्त होकर निराकुल आनन्दमय शुद्ध स्वभाव में परिणत हो गये, वे सिद्ध हैं। यह पूर्ण मुक्त दशा है। यहाँ पर न कर्म हैं, न कर्म बन्धन के कारण ही हैं। कर्म और कर्मबन्ध के अभाव के कारण आत्मा वहाँ से पुन: लौटकर नहीं आता / वह लोक के अग्रभाग में ही अवस्थित रहता है। वहाँ केवल विशुद्ध प्रात्मा ही आत्मा है, परद्रव्य और परपरिणति का पूर्ण अभाव है। यह विदेहमुक्त अवस्था है। यह ग्रामविकास की अन्तिम कोटि है। दूसरे पद में उस परमविशुद्ध प्रात्मा को नमस्कार किया गया है। तृतीय पद में प्राचार्य को नमस्कार किया गया है। आचार्य धर्मसंघ का नायक है। वह संघ का संचालनकर्ता है, साधकों के जीवन का निर्माणकर्ता है / जो साधक संयमसाधना से भटक जाते हैं, उन्हें प्राचार्य सही मार्गदर्शन देता है। योग्य प्रायश्चित्त देकर उसकी संशद्धि करता है। वह दीपक की तरह स्वयं ज्योतिर्मान होता है और दूसरों को ज्योति प्रदान करता है। चतुर्थ पद में उपाध्याय को नमस्कार किया गया है / उपाध्याय ज्ञान का मधिष्ठाता होता है। वह स्वयं ज्ञानाराधना करता है और साथ ही सभी को आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करता है। पापाचार से विरत होने के लिए ज्ञान की साधना अनिवार्य है। उपाध्याय ज्ञान की उपासना से संघ में अभिनव चेतना का संचार करता है। पांचवें पद में साधु को नमस्कार किया गया है / जो मोक्षमार्ग की साधना करता है, वह साधु है। साधु सर्वविरति-साधना पथ का पथिक है। वह परस्वभाव का परित्याग कर आत्मस्वभाव में रमण करता है। वह अशूभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोग और शुद्धोपयोग में रमण करता है। उसके जीवन के कण-कण में अहिंसा का आलोक जगमगाता रहता है; सत्य की सुगन्ध महकती रहती है। अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की उदास भावनाएँ अंगड़ाइयाँ लेती रहती हैं। वह मन, वचन और काय से महाव्रतों का पालन करता है। जैनधर्म में मूल तीन तत्त्व माने गए हैं--- देव, गुरु और धर्म / तीनों ही तत्त्व नमोक्कार महामन्त्र में देखे जा सकते हैं। अरिहन्त जीवनमुक्त परमात्मा हैं तो सिद्ध विदेह मुक्त परमात्मा हैं। ये दोनों प्रात्मविकास की दृष्टि से पूर्णत्व को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए इनको परिगणना देवत्व की कोटि में की जाती है। प्राचार्य, उपाध्याय और साधु आत्मविकास की अपूर्ण अवस्था में हैं, पर उनका लक्ष्य निरन्तर पूर्णता की प्रोर बढ़ने का है। इसलिए वे गुरुतत्त्व की कोटि में हैं। पांचों पदों में अहिंसा, सत्य, तप ग्रादि भावों का प्राधान्य है। इसलिए वे धर्म को कोटि में हैं / इस तरह तीनों ही तत्त्व इस महामन्त्र में परिलक्षित होते हैं। नमोक्कार महामन्त्र पर चिन्तन करते हुए प्राचीन प्राचार्यों ने एक अभिनव कल्पना की है और वह कल्पना है रंग की। रंग प्रकृतिनटी की रहस्यपूर्ण प्रतिध्वनियाँ हैं, जो बहुत ही सार्थक हैं। रंगों को अपनी एक भाषा होती है। उसे हर व्यक्ति समझ नहीं सकता, किन्तु वे अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। पाश्चात्य देशों में रंगविज्ञान के सम्बन्ध में गहराई से अन्वेषणा की जा रही है। प्राज रंगचिकित्सा एक स्वतंत्र चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो चुकी है। रंगविज्ञान का नमोक्कार मन्त्र के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। यदि हम उसे जानें तो उससे अधिक लाभान्वित हो सकते हैं। आचार्यों ने अरिहन्तों का रंग श्वेत, सिद्धों का रंग लाल, प्राचार्य का रंग पीला, उपाध्याय का रंग नीला है तथा साधु का रंग काला बताया है। हमारा सारा मूर्त संसार पोद्गलिक [25] Page #2102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पुद्गल में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। वर्ण का हमारे शरीर, हमारे मन, आवेग और कषायों से अत्यधिक सम्बन्ध है / शारीरिक स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, मन का स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, आवेगों की वृद्धि और कमी- ये सभी इन रहस्यों पर प्राधत हैं कि हमारा किन-किन रंगों के प्रति रुझान है तथा हम किन-किन रंगों से प्राषित और विकषित होते हैं। नीला रंग जब शरीर में कम होता है तब क्रोध को मात्रा बढ़ जाती है / नीले रंग की पूर्ति होने पर क्रोध स्वतः ही कम हो जाता है। श्वेत रंग की कमी होने पर स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगता है। लाल रंग की न्यूनता से प्रालस्य और जड़ता बढ़ने लगती है। पीले रंग की कमी से ज्ञानतन्तु निष्क्रिय हो जाते हैं और जब ज्ञानतन्तु निष्क्रिय हो जाते हैं, तब समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। काले रंग की कमी होने पर प्रतिरोध को शक्ति कम हो जाती है। रंगों के साथ मानव के शरीर का कितना गहन सम्बन्ध है, यह इससे स्पष्ट है। 'नमो अरिहंताणं' का ध्यान श्वेत वर्ण के साथ किया जाय / श्वेत वर्ण हमारी आन्तरिक शक्तियों को जागत करने में सक्षम है। वह समूचे ज्ञान का संवाहक है। श्वेत वर्ण स्वास्थ्य का प्रतीक है। हमारे शरीर में रक्त की जो कोशिकाएँ हैं, वे मुख्य रूप से दो रंग की हैं-श्वेत रक्तकणिकाएँ (W. B.C.) और लाल रक्तकणिकाएँ (R. B. C.) / जब भी हमारे शरीर में इन रक्तकणिकानों का संतुलन बिगड़ता है तो शरीर रुग्ण हो जाता है। 'नमो अरिहंताणं' का जाप करने से शरीर में श्वेत रंग की पूर्ति होती है। 'नमो सिचाण' का बाल सूर्य जैसा लाल वर्ण है। हमारी प्रान्तरिक दृष्टि को लाल वर्ण जाग्रत करता है। पीट्यूटरी ग्लेण्डस् के अन को लाल रंग नियन्त्रित करता है। इस रंग से शरीर में सक्रियता प्राती है / 'नमो सिद्धाणं' मन्त्र, लाल वर्ण और दर्शन केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करने से स्फति का संचार होता है। 'नमो आयरिवाण'-इसका रंग पीला है। यह रंग हमारे मन को सक्रिय बनाता है। शरीरशास्त्रियों का मानना है कि थायराइड ग्लेण्ड पावेगों पर नियन्त्रण करता है। इस पन्थि का स्थान कंठ है। प्राचार्य के पीले रंग के साथ विशुद्धि केन्द्र पर 'नमो आयरियाणं' का ध्यान करने से पवित्रता की संवृद्धि होती है। 'नमो उवज्झायाण' का रंग नीला है। शरीर में नीले रंग की पूर्ति इस पद के जप से होती है। यह रंग शान्तिदायक है, एकाग्रता पैदा करता है और कषायों को शान्त करता है। 'नमो उवज्झायाण' के जप से आनन्द केन्द्र सक्रिय होता है। 'नमो लोए सम्बसाहणं' का रंग काला है। काला वर्ण अवशोषक है। शक्तिकेन्द्र पर इस पद का जप करने से शरीर में प्रतिरोध शक्ति बढ़ती है। इस प्रकार वर्गों के साथ नमोक्कार महामन्त्र का जप करने का संकेत मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता आचार्यों ने किया है। अन्य अनेक दृष्टियों से नमस्कार महामन्त्र के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। विस्तार भय से उस सम्बन्ध में हम उन सभी की चर्चा नहीं कर रहे है / जिज्ञासु तत्सम्बन्धी साहित्य का अवलोकन करें तो उन्हें चिन्तन की अभिनव सामग्री प्राप्त होगी और वे नमस्कार महामन्त्र के अदभुत प्रभाव से प्रभावित होंगे। नमस्कार महामन्त्र को आचार्य अभयदेव ने भगवती सूत्र का अंग मानकर व्याख्या की है। प्रावश्यकनियुक्ति में नियुक्तिकार ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है-पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करनी चाहिए / यह पंच-नमस्कार सामायिक का एक अंग है। इससे यह स्पष्ट है कि नमस्कार महामन्त्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र / सामायिक आवश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन है। प्राचार्य देववाचक ने पागमों की सची में आवश्यकसूत्र का उल्लेख किया है। सामायिक के प्रारम्भ में और उसके अन्त में नमस्कार मन्त्र का पाठ किया जाता था / कायोत्सर्ग के प्रारम्भ और अन्त में भी पंचनमस्कार का विधान है। नियुक्ति के अभिमतानुसार नन्दी 60. कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयं ति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य ज सो सेसं अतो वोच्छ / / - अावश्यकनियुक्ति, गाथा 1027 [26] Page #2103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र को प्रारम्भ किया जाता है। प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने पंचनमस्कार महामन्त्र को सर्व सूत्रान्तर्गत माना है। उनके अभिमतानुसार पंचनमस्कार करने के पश्चात ही प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को सामायिक आदि श्रुत पढ़ाते थे / 3 इस तरह नमस्कार महामन्त्र सर्वसूत्रान्तर्गत है। आवश्यकसूत्र गणधरकृत है तो व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) भी गणधरकृत ही है / इस दृष्टि से इस महामन्त्र के प्ररूपक तीर्थंकर हैं और सूत्र में प्रावद्ध करने वाले गणधर हैं / जिन आचार्यों ने महामन्त्र को अनादि कहा है, उसका यह अर्थ है--तत्त्व या अर्थ की दृष्टि से वह अनादि है। ब्राह्मोलिपि नमस्कार महामन्त्र के पश्चात् भगवती में 'नमो बभीए लिवीए' पाठ है। भारत में जितनी लिपियाँ हैं, उन सब में ब्राह्मीलिपि सबसे प्राचीन है। वैदिक दृष्टि से ब्राह्मी शब्द ब्रह्मा से निष्पन्न है। त्रिदेवों में ब्रह्मा विश्व का स्रष्टा है। उसने सम्पूर्ण विश्व की रचना की। उसो से इस लिपि का प्रादुर्भाव हुा / नारद स्मृति में लिखा है-यदि ब्रह्मा लिखित या लेखनकला अथवा लिपिरूप उत्तम नेत्र का सर्जन नहीं करते तो इस जगत् को शुभ गति नहीं होती / / ___ ललितविस्तर बौद्धपरम्परा का संस्कृत भाषा में लिखित एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में 64 लिपियों का उल्लेख है। उनमें कितनी ही लिपियों का आधार देश-विशेष, प्रदेश-विशेष या जाति-विशेष कहा है। उन 64 लिपियों में सर्वप्रथम बाह्मीलिपि का नाम पाता है।६५ उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में वहाँ पर चिन्तन नहीं किया गया है। जैन दष्टि से ब्राह्मीलिपि के सर्जक भगवान् ऋषभदेव थे। भगवान ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को 72 कलाओं की शिक्षा प्रदान की। द्वितीय पुत्र बाहुबली को प्राणीलक्षण का ज्ञान कराया। अपनी पुत्री ब्राह्मी को 18 लिपियों का और द्वितीय पुत्री सुन्दरी को गणित विद्या का परिज्ञान कराया। ब्राह्मी ने उन लिपियों को प्रसारित किया। 18 लिपियों में मुख्य लिपि ब्राह्मी के नाम से विश्रुत है।६६ समवायाङ्ग में ब्राह्मीलिपि के 46 मातृकाक्षर यानी मूल अक्षर बतलाये हैं और 18 प्रकार की लिपियों में प्रथम लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है। प्रज्ञापना६८ में भी 18 लिपियों के नाम मिलते हैं पर समवायाङ्ग से कुछ पृथकता लिए हुए हैं। 61. नंदिमणुओगदारं विहिवदुवघाइयं च नाऊणं / काकण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स // -पावश्यकनियुक्ति, गा. 1026 सो सब्वसुतक्खंधब्भन्तरभूतो जमो ततो तस / आवासयाणुयोगादिगहणगहितोऽणु योगो वि।। -विशेषावश्यकभाष्य, गा. 9 63. आईएँ नमोक्कारो जइ पच्छाऽऽवासयं तम्रो पुवं / तस्स भणिएऽणुओगे जुत्तो आवस्सयस्स तओ।। -विशेषावश्यकभाष्य, गा. 5 64. नाकरिष्यदि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम् / तत्रयमस्य लोकस्य नाभविष्यच्छुभा गतिः / / 65. लेह लिवीविहाणं जिमेण बंभीए दाहिणकरेणं / -प्रावश्यकनियुक्ति, गा. 212 66. भारतीय जैनश्रमण संस्कृति अने लेखनकला / -प्रा. पुण्यविजयजी पृ. 5, 67. बंभीए णं लिबीए छायालीसं माउयक्खरा / -समवायाङ्ग सूत्र, 46 65, प्रज्ञापना 1137 69. समवायाङ्ग, समवाय 18 [27] Page #2104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक, बौद्ध और जैन तीनों ही परम्पराओं में ब्राह्मीलिपि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पृथक-पृथक मत हैं। डॉ. अल्फड मुलर, जेम्स प्रिन्सेप तथा सेनार्ट आदि विद्वानों का अभिमत है कि ब्राह्मी लिपि का उद्गम स्रोत यूनानी लिपि है। सेनार्ट ने इस सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया और यूनानियों के साथ भारतीयों का सम्पर्क हुना। भारतीयों ने यूनानियों से लेखनकला सीखी और उसके आधार से उन्होंने ब्राह्मीलिपि की रचना की। उपयुक्त मत का खण्डन बूलर और डिरिजर नामक विद्वानों ने किया है। उतका मन्तव्य है कि लिपिकला भारत में पहले से ही विकसित थी। यदि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति होती तो उसके पौत्र अशोक के समय बह लिपि इतनी अधिक कैसे विकसित हो सकती थी? फ्रेन्च विद्वान कूपेटी ने ब्राह्मीलिपि के सम्बन्ध में एक विचित्र कल्पना की है। उनका अभिमत है कि ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति चीनी लिपि से हई है। पर लिपिविज्ञान के विशेषज्ञों का यह स्पष्ट अभिमत है कि चीनी और ब्राह्मी लिपि में किसी भी प्रकार का मेल नहीं है। चीनी लिपि में वर्णात्मक और अक्षरात्मक ध्वनियाँ नहीं हैं; उसमें शब्दात्मक ध्वनियों के परिचय के लिए चित्रात्मक चिह्न हैं और वे चिह्न अत्यधिक मात्रा में हैं। जबकि ब्राह्मी लिपि में चित्रात्मक चिह्न नहीं हैं। उसके चिह्न तो अक्षरात्मक ध्वनियों के अभिव्यंजक हैं। यह सत्य है कि चीनी लिपि भी प्राचीन है। प्राचीन होने के कारण उसे ब्राह्मी लिपि के साथ जोड़ना संगत नहीं है। बूलर का अभिमत है कि उत्तरी सेमेटिक लिपि से ब्राह्मी का उद्भव हुआ है। थोड़े बहुत मतभेद के साथ वेबर, बेनफे, वेस्टरगार्ड, विटनी, जॉनसन, विलियम जॉन्स प्रादि ने भी यही विचार व्यक्त किए हैं। बुलर की दृष्टि से ईस्वी सन के लगभग पाठ सौ वर्ष पूर्व सेमेटिक अक्षरों का भारत में प्रवेश हुमा।० कितने ही विद्वानों का यह भी मानना है कि भारत में जब लेखनकला का विकास नहीं हुआ था तब फिनिशिया' में शिक्षा और लेखन का विकास हो चुका था। भारत के व्यापारी जब व्यापार हेतु फिनिशिया जाते थे तब व्यापार की सुविधा हेतु उन्होंने फिनिशियन लिपि का अध्ययन किया और उन व्यापारियों के साथ ही फिनिशियन लिपि भारत में पाई। उस लिपि का संशोधन और परिष्कार कर ब्राह्मणों ने एक लिपि का निर्माण किया / ब्राह्मणों के द्वारा निर्मित होने के कारण उस लिपि का नाम ब्राह्मी हुमा / डॉ. राजबली पाण्डेय ने एक अभिनव कल्पना की है। उनका अभिमत है कि भारत से कुछ व्यक्ति फिनिशिया गये। वे ब्राह्मीलिपि के जानकार थे। वे वहीं पर बस गए। वहां पर बसने के कारण ब्राह्मीलिपि वहाँ के वातावरण से प्रभावित हुई। यही कारण है कि फिनिशियन और ब्राह्मी दोनों ही लिपियों में डॉ. पाण्डेय ने अपने मत को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की 6-51, 14, 61,1 ऋचाएँ प्रस्तुत की हैं। ब्राह्मीलिपि का ही विकास फिनिशियन लिपि है। टेलर, सेथ आदि विज्ञों का अभिमत है कि ब्राह्मी का विकास दक्षिणी सेमेटिक लिपि से हुआ है। तो कितने ही विद्वान दक्षिणी सेमेटिक शाखा अरबी लिपि से ब्राह्मीलिपि का उद्भव मानते हैं। पर गहराई से चिन्तन करने पर दक्षिणी सेमेटिक लिपि या उसकी शाखालिपियों से ब्राह्मी का मेल नहीं बैठता है। यदि यह कहा जाय कि अरबवासियों के साथ भारतवर्ष का सम्पर्क प्रतीत काल से था, इस कारण अरबी से ब्राह्मी की उत्पत्ति हुई, इस कथन में और तर्क में वजन नहीं है। 70. Indian Palacography P. 17 71. प्राचीन काल में एशिया के उत्तर-पश्चिम में स्थित भू-भाग (सीरिया) फिनिशिया कहा जाता था। [28] Page #2105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. राइस देबिड्स का अभिमत है कि एक ऐसी लिपि पहले प्रचलित थी जो सेमेटिक अक्षरों के उद्भव के पूर्व ही यूटिस नदी की घाटी में विकसित सभ्यता में प्रचलित थी। उस पुरानी लिपि से ब्राह्मीलिपि का सीधा सम्बन्ध है। वह लिपि सेमेटिक लिपि को भी जन्म देने वाली है। विद्वानों का ऐसा मन्तव्य है कि इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन की प्रावश्यकता है। एडवर्ड थामस, गोल्ड स्टकर, राजेन्द्रलाल मित्र, लास्सेन, डासन, नियम आदि विज्ञों का मानना है कि बाह्मीलिपि का उद्भवस्थल भारत ही है। पर इनका यह मानना है कि अतीत काल में आर्यभाषी जनता द्वारा किसी चित्रलिपि का प्रयोग किया जाता होगा। सम्भव है उसी से ब्राह्मीलिपि का जन्म हुआ है। बूलर ने इस मन्तव्य का विरोध करते हुए कहा-भारत में चित्रलिपि नहीं थी फिर उससे ब्राह्मी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? डॉ. सुनीति चटर्जी का मन्तव्य है कि भारत की जो लिपियाँ अभी तक पढ़ी जा सकी हैं, उनमें ब्राह्मीलिपि सबसे प्राचीन है। यही भारतीय आर्यभाषानों से सम्बन्धित प्राचीनतम लिपि है / 2 अधुनातम अन्वेषणा से यह निष्कर्ष प्रकट हो चुका है कि ब्राह्मी भारत की लिपि है। लिपिविद्याविशारद डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के शब्दों में ब्राह्मीलिपि अपनी प्रोढ़ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता। इस लिपि के माद्य निर्माता ऋषभदेव रहे हैं। इस कारण भगवती में ब्राह्मीलिपि को नमस्कार कर भगवान् ऋषभदेव को और अक्षरश्रुत को नमस्कार किया गया . है। अक्षरश्रत के रूप में ज्ञान को नमस्कार किया गया है। पञ्च ज्ञानों में श्रुत ज्ञान हो सबसे अधिक व्यवहारयोग्य एवं उपकारक है। इसीलिए 'नमो बंभीए लिवीए' के द्वारा भावभुत को नमस्कार किया गया है। प्रस्तुत आगम में तीसरा नमस्कार 'तमो सुयस्स' के रूप में श्रुत को किया गया है। मतिज्ञान के पश्चात शब्दसंस्पर्शी जो परिपक्व ज्ञान होता है, वह भूतज्ञान है। दूसरे शब्दों में श्रुतज्ञान का अर्थ है-वह ज्ञान जिसका शास्त्र से सम्बन्ध हो। प्राप्तपुरुष द्वारा रचित प्रागम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है-वह श्रुतज्ञान है / श्रतज्ञान के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के 12 भेद हैं।७३ श्रुत वस्तुत: ज्ञानात्मक है। ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहा गया है। श्रत ही भावतीर्थ है। द्वादशांगी के सहारे ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं। इसलिए श्रत को नमस्कार किया गया है। इस नमस्कार से श्रुत की महत्ता प्रदर्शित की गई है। साधकों के अन्तर्मानस में श्रुत के प्रति गहरी निष्ठा उत्पन्न की गई है, जिससे वे श्रुत का सम्मान करें और श्रुत को एकाग्रता से श्रवण करें / गणधर गौतम : एक परिचय भगवतीसूत्र का प्रारम्भ गणधर गौतम की जिज्ञासा से होता है। गौतम जिज्ञासा हैं तो महावीर समाधान हैं। उपनिषतकालीन उद्दालक के समक्ष जो स्थान श्वेतकेतु का है, गीता के उपदिष्टा श्रीकृष्ण के समक्ष जो स्थान अर्जुन का है, तथागत बुद्ध के समक्ष जो स्थान प्रानन्द का है। वही स्थान भगवान् महावीर के समक्ष गणधर गौतम का है। भगवती के प्रारम्भ में सर्वप्रथम बहुत ही संक्षेप में भगवान महावीर के अन्तरंग जीवन का परिचय दिया 72. (क) भारत की भाषाएँ और भाषा सम्बन्धी समस्याएँ, पृ. 170-171 3) विशेष जिज्ञासु, 'मागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन' भाग 2 देखें। 73. श्रुतं मतिपूर्व दयनेकदादशभेदम् / तत्त्वार्थसूत्र 1120 [29] Page #2106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है / उसके पश्चात गणधर गौतन को अन्तरंग और बाह्य छवि चित्रित की गई है। गौतम जितने बड़े तत्त्वज्ञानी शे उतने ही बड़े साधक भी थे। श्रुत और शील की पवित्र धारा से उनकी प्रात्मा सम्पूर्ण रूप से परिप्लावित हो रही थी। एक ओर वे उन और घोर तपस्वी थे तो दूसरी ओर समस्त श्रुत के अधिकृत ज्ञाता भी थे। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि किसी भी व्यक्ति का अन्तरंग दर्शन करने से पहले दर्शक पर उसके बाह्य व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। प्रथम दर्शन में ही व्यक्ति उसके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाता है। यदि व्यक्ति के चेहरे पर भोज है, प्राकृति से सौन्दर्य छलक रहा है, आँखों में अदभत तेज चमक रहा है और मुख पर मुस्कान अठखेलियां कर रही हैं तो आन्तरिक व्यक्तित्व में सौन्दर्य का अभाव होने पर भी बाह्य सौन्दर्य से दर्शक प्रभावित हो जाता है। यदि बाह्य सौन्दर्य के साथ आन्तरिक सौन्दर्य हो तो सोने में सूगन्ध की उक्ति चरितार्थ हो जाती है। यही कारण है कि जितने भी विश्व में महापुरुष हुए हैं, उनका बाह्य व्यक्तित्व प्रायः प्राकर्षक और लुभावना रहा है और साथ ही प्रान्तरिक जीवन तो बाह्य व्यक्तित्व से भी अधिक चित्ताकर्षक रहा है। प्रोपपातिक में भगवान् महावीर के बाह्य व्यक्तित्व का प्रभावोत्पादक चित्रण है७४ तो बुद्धचरित्र में महाकवि अश्वघोष ने बुद्ध के लुभावने शरीर का वर्णन किया है कि उस तेजस्वी मनोहर रूप को जिसने भी देखा, उसकी ही आँखें उसी में बंध गई।७५ उसे निहार कर राजगह की लक्ष्मी भी संक्षग्ध हो गई।७६ जिन व्यक्ति होती है, उनमें शारीरिक सुन्दरता होती है। मणधर गौतम का शरीर भी बहुत सुन्दर था / जहाँ वे सात हाथ ऊँचे कद्दावर थे, वहाँ उनके शरीर का अान्तरिक गठन भी बहुत ही सुदृढ़ था। वे वन-ऋषभ-नाराच-संहननी थे। सुन्दर शारीरिक गठन के साथ ही उनके मुख, नयन, ललाट आदि पर अद्भुत प्रोज और चमक थी। जैसे कसौटी पत्थर पर सोने की रेखा खींच देने से वह उस पर चमकती रहती है, वैसे ही सुनहरी आभा गौतम के मुख पर दमकती रहती थी। उनका वर्ण गौर था। कमल-केसर की भांति उनमें गुलाबी मोहकता भी थी। जब उनके ललाट पर सूर्य की चमचमाती किरणें गिरतीं तो ऐसा प्रतीत होता कि कोई शीशा या पारदर्शी पत्थर चमक रहा है / वे जब चलते तो उनकी दृष्टि सामने के मार्ग पर टिकी होती। वे स्थिर दृष्टि से भूमि को देखते हुए चलते। उनकी गति शान्त, चंचलता रहित और असंभ्रान्त थी जिसे निहार कर दर्शक उनकी स्थितप्रज्ञता का अनुमान लगा सकता था। वे सर्वोत्कृष्ट तपस्वी थे, पूर्ण स्वावलम्बी और ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे। उनके लिए वोर तपस्वी के साथ 'घोरवंभचेरवासी' विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है। साधना के चरमोत्कर्ष पर प.चे हए वे विशिष्ट साधक थे। उन्हें तपोजन्य अनेक लब्धियों और सिद्धियाँ प्राप्त हो चुकी थी। वे चौदह पूर्वी व मनःपर्यव ज्ञानी थे। साथ ही वे बहुत ही सरल और विनम्र थे। उनमें ज्ञान का अहंकार नहीं था और न अपने पद और साधना के प्रति मन में अहं था। वे सच्चे जिज्ञासु थे। गौतम की मनःस्थिति को जताने वाली एक शब्दावली प्रस्तुत आगम में अनेक बार आई है—'जायसङ्डे, जायसंसए, जायकोउहल्ले'। उनके अन्तर्मानस में किसी भी तथ्य को जानने की श्रद्धा, इच्छा पैदा हुई, संशय हुमा, कौतूहल हुआ और वे भगवान् की ओर आगे बढ़े। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि गौतम की वृत्ति में मूल घटक वे ही तत्त्व थे- जो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र की उत्पत्ति में मूल घटक रहे हैं। 74. अवदालियपुंडरीयणयणे ... चन्दद्धसमणिडाले वरमहिस-वराह-सीह-सद्ल-उसभ-नागवरपडिपुणविउल खंधे........। -प्रोपपातिक सूत्र 1 75. यदेव यस्तस्य ददर्श तत्र तदेव तस्याथ बबन्ध चक्षुः। -बुद्धचरित 108 76. ज्वलच्छरीरं शुभजालहस्तम् संचाभे राजगृहस्य लक्ष्मीः। -बुद्धचरित 1019 77. प्रज्ञापना, 23 [30] Page #2107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में यूनानी दर्शन, पश्चिमी दर्शन और भारतीय दर्शन ये तीन मुख्य दर्शन माने जाते हैं। यूनानी वर्तक ओरिस्टोटल है। उसका मन्तव्य है कि दर्शन का जन्म अाश्चर्य से हरा है। यही बात प्लेटो ने भी मानी है। पश्चिम के प्रमुख दार्शनिक डेकार्ट, काण्ट, हेगल प्रादि ने दर्शन का उदभावक तत्त्व संशय माना है। भारतीय दर्शन का जन्म जिज्ञासा से हुना है। यहाँ प्रत्येक दर्शन का प्रारम्भ जिज्ञासा से है,८० चाहे चशेषिक हो, चाहे सांख्य हो, चाहे मीमांसक हो। उपनिषदों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनके मूल में जिज्ञासा तत्व मुखरित हो रहा है। छान्दोग्योपनिषद् 81 में नारद सनत्कुमार के पास जाकर यह प्रार्थना करता है कि मुझे सिखाइये—ात्मा क्या है? कठोपनिषद् में बालक नचिकेता यम से कहता है--जिसके विषय में सभी मानव विचिकित्सा कर रहे हैं, वह तत्व क्या है ? यम भौतिक प्रलोभन देकर उसे टालने का प्रयास करते हैं पर बालक नचिकेता दृढता के साथ कहता है-मुझे धन-वैभव कुछ भी नहीं चाहिये। आप तो मेरे प्रश्न का समाधान कीजिए। मुझे वही इष्ट है।८१ श्रमण भगवान महावीर ने साधना के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग पर जो मुस्तैदी से कदम बढ़ाए, उसमें भी आत्म-जिज्ञासा ही मुख्य थी। प्राचारांग के प्रारम्भ में प्रात्म-जिज्ञासा का ही स्वर झंकृत हो रहा है। साधक सोचता है-मैं कौन है, कहाँ से आया है और यहाँ से कहाँ जाऊँगा? तथागत बुद्ध ने तो साधनामार्ग में प्रवेश करते ही यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि जब तक मैं जन्म-मरण के किनारे का पता नहीं लगा लूंगा, तब तक कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूंगा। इस तरह पाश्चर्य, जिज्ञासा, संशय, कौतूहल ये सभी मानव को दर्शन को ओर उत्प्रेरित करते रहे हैं। सुदर प्रतीत-काल से लेकर वर्तमान तक 'इंटलेक्चुअल क्यूरियॉसिटी' (Intellectual Curiosity), बौद्धिक कौतुहल के कारण ही मानव की ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई है। गणधर गौतम के अन्तर्मानस में बौद्धिक कौतूहल तीव्रतम रूप से दिखलाई देता है। वे आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, कर्म प्रति विषयों में ही नहीं, सामान्य से सामान्य विषय व प्रसंग को देखकर भी उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ललक उठते हैं। उस विषय के तलछट तक पहुँचने के लिए उनके मन में कौतुहल होता है। वे अनन्त-श्रद्धा, संशय और कुतुहल से प्रेरित होकर स्वस्थान से चल कर जहाँ भगवान महावीर विराजित होते हैं, वहाँ पहुंचते हैं, विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रस्तुत करते है.--'कहमेयं भंते'- हे भगवन् ! यह बात कैसे है ? कभी-कभी तो वे विषय को और अधिक स्पष्ट कराने के लिए प्रतिप्रश्न करते हैं—'केणठेणं भंते ! एवं बच्चइ'---ऐसा आप किस हेत से कहते हैं ? दे हेतु तक जाकर तक की दृष्टि से उसका समाधान पाना चाहते हैं। इस प्रकार प्रतिप्रश्न करते हुए तथा कुतुहल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, वे बालक की तरह संकोच-रहित होकर प्रश्न करते हैं। उनकी प्रश्न-शैली तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक है / विज्ञान में 'कथम्' (How), 'कस्मात' 'केन' (Why), इन 78. फिलॉसफी बिगिन्स इन वंडर (Philosophy Begins in Wonders) 79. दर्शन का प्रयोजन, पृष्ठ 29 --डॉ. भगवानदास 80. (क) अथातो धर्म जिज्ञासा -वैशेषिक दर्शन 1 (ख) दुःखत्रयाभिघाताज जिज्ञासा -सांख्यकारिका 1 (ईश्वरकृष्ण) (ग) अथातो धर्मजिज्ञासा -मीमांसासूत्र 1 (जैमिनी) (घ) अथातो धर्मजिज्ञासा --ब्रह्मसूव 11 81. अधीहि भगवन् ! -छान्दोग्य उपनिषद्, अ. 7 82. वरस्तु मे वरणीय एव-कठोपनिषद [31] Page #2108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सूत्रों को पकड़ कर वस्तुस्थिति के अन्तस्तल में प्रवेश किया जाता है और निरीक्षण-परीक्षण कर रहस्यों को उदघाटित किया जाता है। गणधर गौतम भी प्रायः इन दो वाक्यों के आधार पर अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं पर उनकी जिज्ञासा की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे केवल प्रश्न के लिए प्रश्न नहीं करते वरन समाधान के लिए प्रश्न करते हैं। उनकी जिज्ञासा में सत्य की बुभुक्षा है। उनके संशय में समाधान की गूंज है। उनके कुतूहल में विश्व-वैचित्य को समझने की छटपटाहट है। उनकी सच्ची जिज्ञासु वृत्ति को देख कर ही भगवान महावीर प्रत्येक प्रश्न का समाधान करते हैं और समाधान पाकर गणधर गौतम कृतकृत्य हो जाते हैं तथा विनयपूर्वक नम्र नों में निवेदन करते है--सेवं अन्त ! सेवं मन्ते ! तहमेयं भन्ते ! अर्थात हे प्रभो! जैसा आपने कहा है वह पूर्ण सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता हूँ। महावीर के उत्तर पर श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होंने जो अनुगंज की है, वस्तुतः यह प्रश्नोत्तर की आदर्श पद्धति है। उत्तरदाता के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव व्यक्त किया गया है, जो बहत ही प्रावश्यक है / इसमें प्रश्नकर्ता के समाधान की स्वीकृति भी है और हृदय की अनन्त श्रद्धा भी। विषय वर्णन की दृष्टि से भगवतीसूत्र में विविध विषयों का संकलन है। उन सभी विषयों पर प्रस्तावना में लिखना सम्भव ही नहीं है। क्योंकि भगवतीसूत्र अपने आप में स्वयं एक विराट् प्रागम है। इसमें गणधर गौतम के तथा अन्यान्य साधकों के हजारों प्रश्न और समाधान हैं। तथापि विषय वर्णन की दृष्टि से संक्षेप में निम्न खण्डों में इसकी विषयवस्तु को विभक्त कर सकते हैं प्रथम साधना खण्ड में हम उन सभी प्रसंगों को ले सकते हैं जो साधना से सम्बन्धित हैं। साधना का प्रारम्भ होता है---सत्संग से / सर्वप्रथम व्यक्ति सन्त के पास पहुंचता है। सन्त के पास पहुंचने से उसको उपदेश नने को मिलता है। उपदेश सुनकर उसे सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होने पर वह जड़ और चेतन के स्वरूप को समझकर भेदविज्ञान से यह समझता है कि जड़ तस्व पृथक है और चेतन तत्त्व पृथक है। दोनों तत्व पय-पानीवत् मिल चके हैं। भेदविज्ञान से वह दोनों की पृथक सत्ता को समझता है और उनको पृथक-पृथक करने के लिये प्रत्याख्यान स्वीकार करता है। संयम की साधना करता है, जिससे वह माने वाले आश्रव का निहन्धन कर लेता है और जो अन्दर विजातीय तत्त्व रहा हुआ है उसे धीरे-धीरे तपश्चरण द्वारा नष्ट करने से मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का निरुन्धन कर वह आत्मा सिद्धि को वरण करता है।६३ यह है सत्संग की महिमा और गरिमा। सत्, प्रात्मा है / उसका संग ही वस्तुत: सत्संग है / अनन्त काल से आत्मा पर-संग में उलझा रहा। जब आत्मा पर-संग से मुक्त होता है और स्व-संग करता है, तभी वह मुक्त बनता है। मुक्ति का अर्थ है पर-संग से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाना / इस तथ्य को शास्त्रकार ने बहुत ही सरल रूप से प्रस्तुत किया। सत्संग करने वाला साधक ही धर्म मार्ग को स्वीकार करता है। गणधर गौतम ने भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि केवलज्ञानी से या उनके उपासकों से बिना सुने जीव को वास्तविक धर्म का परिज्ञान होता है ? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा---गौतम! किसी जीव को होता है और किसी को नहीं होता। यही बात सम्यग्दर्शन और सम्पचारित्र के सम्बन्ध में भी कही गई है। प्रश्नोत्तरों से यह स्पष्ट है कि धर्म और मुक्ति का प्राधार आन्तरिक विशुद्धि है। जब तक आन्तरिक विशुद्धि नहीं होती तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है। जिनका मानस सम्प्रदायवाद से ग्रसित है उनके लिये प्रस्तुत वर्णन चिन्तन की दिव्य ज्योति प्रदान करेगा। 83. भगवती शतक 2, उद्देशक 5 84. भगवती शतक 9, उद्देशक 29 [32] Page #2109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान और क्रिया जैनधर्म ने न अकेले ज्ञान को महत्व दिया है और न अकेली क्रिया को। साधना की परिपूर्णता के लिये ज्ञान और क्रिया दोनों का समन्वय प्रावश्यक है। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि सुव्रत और कुव्रत में क्या अन्तर है ? समाधान देते हुए भगवान महावीर ने कहा-जो साधक व्रत ग्रहण कर रहा है उसे यदि यह परिज्ञान नहीं है कि यह जीव है या अजीव है ? स है या स्थावर है ? उसके व्रत सुव्रत नहीं हैं। क्योंकि जब तक परिज्ञान नहीं होगा तब तक वह व्रत का सम्यक प्रकार से पालन नहीं कर सकेगा। परिज्ञानवान् व्यक्ति का व्रत ही सुव्रत है। वही पूर्ण रूप से व्रत का पाराधन कर सकता है।६५ गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि शील श्रेष्ठ है तो किन्हीं चिन्तकों का कथन है कि श्रत श्रेष्ठ है। तो तृतीय प्रकार के चिन्तक शील और श्रत दोनों को श्रेष्ठ मानते हैं। प्रापका इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है ? भगवान् महावीर ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा-इस विराट् विश्व में चार प्रकार के पुरुष हैं 1. जो शोलसम्पन्न हैं पर श्रुतसम्पन्न नहीं, वे पुरुष धर्म के मर्म को नहीं जानते, अतः अंश से पाराधक हैं। 2. श्रुतसम्पन्न हैं पर शील सम्पन्न नहीं, वे पुरुष पाप से निवृत्त नहीं हैं पर धर्म को जानते हैं, इसलिये वे अंश से विराधक हैं। ___3. कितने ही शीलसम्पन्न हैं और श्रुतसम्पन्न भी हैं, वे पाप से पूर्ण रूप से बचते हैं, इसलिये वे पूर्ण रूप से आराधक हैं। 4. जो न शीलसम्पन्न हैं और न श्रतसम्पन्न हैं, वे पूर्ण रूप से विराधक हैं। प्रस्तुत संवाद में भी भगवान महावीर ने उस साधक के जीवन को श्रेष्ठ बतलाया है जिसके जीवन में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा रहा हो और साथ ही ज्ञान के अनुरूप जो उत्कृष्ट चा करता हो। भगवान महावीर के युग में अनेक दार्शनिक ज्ञान को ही महत्व दे रहे थे। उनका यह अभिमत था कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है। प्राचरण की कोई आवश्यकता नहीं। कुछ दार्शनिकों का यह बज्राघोष था कि मुक्ति के लिये ज्ञान की नहीं, चारित्रपालन की आवश्यकता है। मिश्री की मधुरता का परिज्ञान न होने पर भी उसकी मिठास का अनुभव मिश्री को मुह में डालने पर होता ही है। यह नहीं होता कि मिश्री के विशेषज्ञ को मिश्री का मिठास अधिक अनुभव होता हो। इसलिये "आचार: प्रथमो धर्म:" है / पर भगवान महावीर ने कहा कि अनन्त आकाश में उड़ान भरने के लिये पक्षी की दोनों पांखें सशक्त चाहिये, वैसे ही साधना की परिपूर्णता के लिये श्रुत और शील दोनों की प्रावश्यकता है। भगवान महावीर ने प्राराधना तीन प्रकार की बताई हैं-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना / जहाँ तीनों में उत्कृष्टता आ जाती है, वह साधक उसी भव में मुक्ति को प्राप्त होता है / एक में भी अपूर्णता होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता / दर्शन की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है। ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है और चारित्र की परिपूर्णता चौदहवें गुणस्थान में। जब तीनों परिपूर्ण होते हैं तब मात्मा मुक्त बनता है।८६ कर्मबन्ध और क्रिया भारतीय दर्शन में बन्ध के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन हुआ है / बन्धन ही दुःख है / समग्न आध्यात्मिक चिन्तन बन्धन से मुक्त होने के लिये है। बन्धन की वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जैनदष्टि से 85. भगवती. शतक 7, उद्देशक 2 86. भगवती. शतक 8, उद्देशक 10 Page #2110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धन विजातीय तत्त्व के सम्बन्ध से होता है। जड़े द्रव्यों में एक पुदगल नामक द्रव्य है। पुदगल के अनेक प्रकार हैं, उनमें कर्मवर्गणा या कर्मपरमाण एक सूक्ष्म भौतिक द्रव्य है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्मद्रव्य से प्रात्मा का सम्बन्धित होना बन्धन है। बन्धन आत्मा का अनात्मा से, जड़ का चेतन से, देह का देही से संयोग है। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में कहा जाय तो कषायभाव के कारण जीव का कर्मपुदगल से आक्रान्त हो जाना बन्ध है। आचार्य देवेन्द्रसरि ने लिखा है कि प्रास्मा जिस शक्ति-विशेष से कर्मपरमाणों को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीवप्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्मपरमाणु और प्रात्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है।८८ जैनदष्टि से बन्ध का कारण प्राश्रव है। आश्रव का अर्थ है कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना। आत्मा की विकारी मनोदशा भावाश्रव कहलाती है और कर्म वर्गणाओं के प्रात्मा में आने की प्रक्रिया को द्रव्याश्रव कहा गया है / भावाश्रव कारण है और द्रव्याश्रय कार्य है। द्रव्याश्रव का कारण भावाश्रव है और द्रव्याश्रव से कर्मबन्धन होता है। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवत्तियाँ ही आश्रव हैं। मानसिक वत्ति के साथ शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी चलती हैं। उन क्रियानों के कारण कर्माश्रव भी होता रहता है। जिन व्यक्तियों का अन्तर्मानस कषाय से कलुषित नहीं है, जिन्होंने कषाय को उपशान्त या क्षीण कर दिया है, उनकी क्रिया के द्वारा जो प्राश्रव होता है, वह ईपिथिक आश्रय कहलाता है / चलते समय मार्ग की धूल के कण वस्त्र पर लगते हैं और दूसरे क्षण वे धूलकण विलग हो जाते हैं। वहीं स्थिति कषायरहित क्रियाओं से होती है। प्रथम क्षण में प्राश्रव होता है तो द्वितीय क्षण में वह निर्जीर्ण हो जाता है। भगवतीसूत्र के तृतीय शतक के तृतीय उद्देशक में भगवान महावीर ने अपने छठे गणधर मण्डितपुत्र की जिज्ञासा पर क्रिया के पांच प्रकार बताये और उन क्रियाओं से बचने का सन्देश भगवान महावीर ने दिया। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि सक्रिय जीव की मुक्ति नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने वाले साधक को निष्क्रिय बनना होगा। जब तक शरीर है तब तक कर्मबन्धन है। अत: सूक्ष्म शरीर से छूट जाना निष्क्रिय बनना है। भगवतीसूत्र शतक सातवें उद्देशक प्रथम में यह स्पष्ट कहा है कि जिन व्यक्तियों में कषाय की प्रधानता है, उनको साम्परायिक क्रिया लगती है और जिनमें कषाय का अभाव है उनको ईपिथिक क्रिया लगती है। एक बार भगवान महावीर गुणशीलक उद्यान में अपने स्थविर शिष्यों के साथ अवस्थित थे। उस उद्यान के सन्निकट ही कुछ अन्य लीथिक रहे हुए थे / उन्होंने उन स्थविरों से कहा कि तुम असंयमी हो, अविरत हो, पापी हो और बाल हो, क्योंकि तुम इधर-उधर परिभ्रमण करते रहते हो, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना होती है। उन स्थविरों ने उनको समझाते हुए कहा कि हम बिना प्रयोजन इधर-उधर नहीं घूमते हैं और यतनापूर्वक चलने के कारण हिंसा नहीं करते, इसीलिये हमारी हलन-चलन आदि क्रिया कर्मबन्धन का कारण नहीं है। पर आप लोग बिना उपयोग के चलते हैं अतः वह कर्मबन्धन का कारण है और वह असंयम बद्धि का भी कारण है 100 शतक अठारहवें, उद्देशक पाठवें में एक मधुर प्रसंग है—गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक संयमो श्रमण अच्छी तरह से 33 हाथ जमीन देख कर चल रहा है। उस समय एक क्षद्र प्राणी अचानक पांव के नीचे आ जाता है और उस श्रमण के पैर से मर जाता है। उस . ईर्यापथिक क्रिया लगती है या साम्परायिक क्रिया ? 87. तत्त्वार्थ सूत्र 8/2-3 88. कर्मग्रन्थ बन्धप्रकरण, 1 89. तत्त्वार्थ सूत्र 6/1-2 90. भगवती. शतक 8, उद्देशक 7-8%; शतक 18, उद्देशक 8 [34] Page #2111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ने समाधान दिया कि उसको ईपिथिक क्रिया ही लगती है, साम्परायिक क्रिया नहीं, क्योंकि उसमें कषाय का अभाव है। इस प्रकार बन्ध और कर्मबन्ध होने को कारण चेष्टा रूप जो किया है, उस सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों के द्वारा मूल प्रागम में प्रकाश डाला गया है, जो ज्ञानवर्द्धक और विवेक को उदबुद्ध करने वाला है। निर्जरा भारतीय चिन्तन में जहाँ बन्ध के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, वहाँ आत्मा से कर्मवर्गणाओं को पृथक करने के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में प्रात्मा से कर्मवर्गणामों का पृथक हो जाना या उन कर्म पुद्गलों को पृथक कर देना निर्जरा है। निर्जरा शब्द का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड़ देना / निर्जरा के दो प्रकार हैं-१. भावनिर्जरा और 2. द्रव्य निर्जरा / प्रात्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसके कारण कर्मपरमाणु प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं, वह भावनिर्जरा है। यही कर्मपरमाणुगों का प्रात्मा से पृथक्करण द्रव्यनिर्जरा है। भावनिर्जरा कारणरूप है और द्रव्य निर्जरा कार्यरूप है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को रूपक की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है.--प्रात्मा सरोवर है, कर्म पानी है। कर्म का आश्रव पानी का आगमन है / उस पानी के प्रागमन के द्वारों को अवरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है / प्रकारान्तर से निर्जरा के सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा, ये दो प्रकार हैं। जिसमें कर्म जितनी कालमर्यादा के साथ बंधा हुना है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक यानी फल देकर प्रात्मा से पृथक हो जाता है, वह अकामनिर्जरा है। इस प्रकामनिर्जरा को यथाकाल निर्जरा, सबिपाक निर्जरा और अनोपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। विपाक-अवधि के आने पर कर्म अपना फल देकर स्वाभाविक रूप से पथक हो जाते हैं, इसमें कर्म को पथक करने के लिये प्रयास की आवश्यकता नहीं होती / इस निर्जरा का महत्व साधना की दृष्टि से नहीं है। क्योंकि कर्मों का बन्ध और इस निर्जरा का क्रम प्रतिपल-प्रतिक्षण चलता रहता है। जब तक नूतन कर्मों का बन्धन अवरुद्ध नहीं होता तब तक सापेक्ष रूप से इस निर्जरा से लाभ नहीं होता / जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने ऋण को चुकाता तो रहता है पर नवीन ऋण भी ग्रहण करता रहता है तो वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं होता। अकामनिर्जरा अनादि काल से करने के बावजूद भी प्रात्मा मुक्त नहीं हो सका / भव-परम्परा को समाप्त करने के लिये सकामनिर्जरा की आवश्यकता है। सकामनिर्जरा वह है, जिसमें तप आदि की साधना के द्वारा कर्मों की कालस्थिति परिपक्व होने के पहले ही प्रदेशोदय के द्वारा उन्हें भोगकर बलात् पृथक कर दिया जाता है। इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता। केवल प्रदेशोदय ही होता है। विपाकोदय और प्रदेशोदय के अन्तर को समझाने के लिये डॉ. सागरमल जैन ने एक उदाहरण दिया है-"जब क्लोरोफार्म संघाकर किसी व्यक्ति को चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दुखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है, लेकिन विषाकोदय नहीं होता है। उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं, लेकिन दुःखद बेदना की अनुभूति नहीं है। इसी प्रकार प्रदेशोदय में कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, किन्तु उसकी फलानुभूति नहीं होती।" इसलिये यह निर्जरा अविपाक निर्जरा या सकाम निर्जरा कहलाती है / इस निर्जरा में कर्मपरमाणुनों को प्रात्मा से पृथक् करने के लिये संकल्प होता है। इसमें प्रयासपूर्वक कर्मवर्गणा के पुदगलों को आत्मा से पथक किया जाता है / 'इसिभासियं' ग्रन्थ में लिखा है कि संसारी आत्मा प्रतिपल-प्रतिक्षण अभिनव कर्मों का बन्ध और पुराने कमों की निर्जरा कर रहा है। पर तप के द्वारा होने वाली निर्जरा का विशेष महत्व है। 91. डॉ. सागरमल जैन; जैन, बौद्ध और गीता के प्राचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृष्ठ 396 92. इसिभासियं 9/10 [ 35 ] Page #2112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगवतीसून (शतक 16, उद्देशक 4) में सकामनिर्जरा के महत्त्व का प्रतिपादन करने वाला एक सुन्दर प्रसंग है / गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक नित्यभोजी श्रमण साधना के द्वारा जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म एक नैरयिक जीव सौ वर्ष में अपार वेदना सहन कर नष्ट कर सकता है ? समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा...नहीं / पुनः गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक उपवास करने वाला श्रमण जितने कर्मों को नष्ट करता है, उतने कर्म एक हजार वर्ष तक असह्य वेदना सहन कर नरक का जीव नष्ट कर सकता है ? भगवान् ने समाधान दिया-नहीं। गौतम ने पुनः पूछा-भगवन् ! आप किस दृष्टि से ऐसा कहते हैं ? भगवान् ने कहा- जैसे एक वृद्ध, जिसका शरीर जर्जरित हो चुका है, जिसके दांत गिर चके हैं, जो अनेक दिनों से भूखा है, वह वृद्ध परशु लेकर एक विराटु वृक्ष को काटना चाहता है और इसके लिये वह मुंह से जोर का शब्द भी करता है, तथापि वह उस वक्ष को काट नहीं पाता / बैसे ही नरयिक जीव तीव्र कर्मों को भयंकर वेदना सहन करने पर भी नष्ट नहीं कर पाता / पर जैसे उस विराट वक्ष को एक युवक देखते-देखते काट देता है, वैसे ही श्रमरण निग्रन्थ सकामनिर्जरा से कर्मों को शीघ्र नष्ट कर देते हैं। इसी तथ्य को भगवतीसूत्र के शतक 6, उद्देशक 1 में स्पष्ट किया है कि नरयिक जीव महावेदना का अनुभव करने पर भी महानिर्जरा नहीं कर पाता जबकि श्रमण निर्ग्रन्थ अल्पवेदना का अनुभव करके भी महानिर्जरा करता है। जैसे मजदूर अधिक श्रम करने पर भी कम अर्थलाभ प्राप्त करता है और कारीगर कम श्रम करके अधिक अर्थलाभ प्राप्त करता है। संत जीवन की महिमा और प्रकार जैन साहित्य में सन्त की महिमा और गरिमा का यत्र-तत्र उल्लेख हुआ है / सन्त का जीवन एक अनूठा जीवन होता है। वह संसार में रहकर भी संसार के विषय-विकारों से अलिप्त रहता है। अलिप्त रहने से उसके जीवन में सुख का सागर लहराता रहता है। गणधर गौतम के अन्तर्मानस में यह जिज्ञासा उदबुद्ध हई कि श्रमण के जीवन में सुख की मात्रा कितनी है ? देवगण परम सुखी कहलाते हैं तो क्या श्रमण का सुख देवताओं के सूख से कम है या ज्यादा? उन्होंने अपनी जिज्ञासा भगवान महावीर के सामने प्रस्तुत की। महावीर ने गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा–तराज के एक पलड़े में जिस श्रमण की दीक्षापर्याय एक मास की हई हो, उसके जीवन में जो सुख है उसको रखा जाये और दूसरे पलड़े में वाणव्यन्तर देवों के सुख को रखा जाये तो वाणव्यन्तर की अपेक्षा उस श्रमण के सुख का पलड़ा भारी रहेगा। इसी प्रकार दो मास के श्रमण के सुख के सामने भवनवासी देवों का सुख नगण्य है। इस तरह बारह मास की दीक्षापर्याय वाले श्रमण को जो सुख है, वह सुख अनुत्तरोपपातिक देवों को भी नहीं है। प्राध्यात्मिक सूख के सामने भोतिक सूख कितना तुच्छ है, यह स्पष्ट किया गया है। अनुत्तर विमानवासी देवों का सुख भी, जो श्रमण प्रात्मस्थ हैं, उनके सामने नगण्य है। भगवतीसत्र में श्रमण निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से चिन्तन किया है। गौतम ने जिज्ञासा प्रकट की कि भगवन् ! निर्गन्थ कितने प्रकार के हैं ? भगवान् ने निर्ग्रन्थों के पुलाक, अकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक-ये पांच प्रकार बताये और प्रत्येक के पांच-पांच अन्य प्रकार भी बताये हैं। 4 गौतम ने यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की कि संयमी के कितने प्रकार 93. भगवती. शतक 14, उद्देशक 9 94. भगवती. शतक 25, उद्देशक 6 Page #2113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं ? भगवान् ने सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्ध संयत, सूक्ष्मसम्पराय संयत और यथास्यात संयत, ये पांच प्रकार बताये और उनके भी भेदोपभेदों का कथन किया है / 5 श्रमण केवल वेशपरिवर्तन करने से ही नहीं होता / उसके जीवन में आगमोक्त सद्गुणों का प्राधान्य होना चाहिये / श्रमण के जीवन में जिन गुणों की अपेक्षा है उसकी चर्चा भगवतीसूत्र, शतक 1, उद्देशक 9 में इस प्रकार को है-श्रमण को नम्र होना चाहिये / उसकी इच्छायें अल्प हों, पदार्थों के प्रति मूर्छा का अभाव हो, अनासक्त हो और अप्रतिबद्धविहारी हो। श्रमण को क्रोधादि कषायों से भी मुक्त रहना चाहिये। जो श्रमण रागद्वेष से मुक्त होता है, वही श्रमण परिनिर्वाण को प्राप्त कर सकता है। भगवतीसूत्र शतक 1, उद्देशक 1 में संवृत और असंवृत अनगार के चर्चा के प्रसंग में यह बताया है कि असंवत अनगार जो राग-द्वेष से ग्रसित है, वह तीन कर्म का बन्धन करता है और संसार में परिभ्रमण करता है और संवत अन मार जो राग-द्वेष से मुक्त है, वही सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करता है। इससे स्पष्ट है कि श्रमण-जीवन का लक्ष्य कषाय से मुक्त होना है / इस प्रकार विविध प्रसंग श्रमण-जीवन की महत्ता को उजागर करते हैं। श्रमण अनगार होता है / वह अपना जीवन निर्दोष भिक्षा ग्रहण कर यापन करता है। उसकी भिक्षा एक विशुद्ध भिक्षा है / भगवतीसूव में भिक्षा के सम्बन्ध में यत्र-तत्र चर्चा है / उस युग में जनमानस में यह प्रश्न उबुद्ध हो रहा था कि श्रमणों या ब्राह्मणों को भिक्षा देने से पाप होता है या पुण्य होता है या निर्जरा होती है ? गणधर गौतम ने जनमानस में पनपती हुई यह शंका भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की कि उत्तम श्रमण या ब्राह्मण का निर्जीव और दोषरहित अन्न-पानी आदि के द्वारा एक श्रमणोपासक सत्कार करता है तो उसे क्या प्राप्त होता है ? भगवान महावीर ने कहा श्रमणोपासक अन्न-पानी आदि से श्रमण और ब्राह्मण को समाधि उत्पन्न करता है, इसलिये वह समाधि प्राप्त करता है। वह जीवननिर्वाह योग्य वस्तु प्रदान कर दुर्लभ सम्यक्त्यरत्न की विधि को प्राप्त करता है / वह निर्जरा करता है, पर पापकर्म नहीं करता। श्रमण बहुत ही जागरूक होता है। भिक्षा ग्रहण करते समय और भिक्षा का उपयोग करते समय उसकी जागरूकता सतत बनी रहती है / आगम साहित्य में यत्र-तत्र भिक्षा सम्बन्धी दोष बताये गये हैं और आहार ग्रहण करने के दोष भी प्रतिपादित हैं। भगवतीसूत्र शतक 7 के प्रथम उद्देशक में प्रस्तुत प्रसंग इस प्रकार प्राया है-गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष, संयोजनदोष प्रभृति से आहार किस प्रकार दूषित होता है ? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-कोई श्रमण निर्ग्रन्थ निर्दोष, प्रासुक पाहार को बहुत ही मुच्छित, लब्ध और प्रासक्त बन के खाता है, वह अंगारदोष सहित पाहार कहलाता है। प्राहार: अन्तर्मानस में क्रोध की आग सुलग रही हो तो वह पाहार धूमदोष सहित कहलाता है और स्वाद उत्पन्न करने के लिए एक दूसरे पदार्थ का संयोजन किया जाये, वह संयोजनादोष है। श्रमण क्षेत्रातिकान्त, कालातिकान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पाहार आदि ग्रहण न करे पर नवकोटि विशुद्ध पाहार ग्रहण करे। 6 श्रमण का आहार संयम साधना की अभिवृद्धि के लिये होता है। ग्राहार के सम्बन्ध में भगवती में अनेक स्थलों पर 95. भगवती. शतक 25, उद्देशक 7 96. भगवती, शतक 7, उद्देश्य 1 [ 37 ] Page #2114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन प्रस्तुत किया है / 7 दशवकालिक, पिण्डनियुक्ति प्रति आगम ग्रन्थों में भी भिक्षाचर्या पर विस्तार से विश्लेषण किया गया है। पाप : एक चिन्तन भारतीय मनीषियों ने पाप के सम्बन्ध में भी अपना स्पष्ट चिन्तन प्रस्तुत किया है। पाप की परिभाषा करते हुए लिखा है, जो आत्मा को बन्धन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द का शोषण करे और प्रात्मशक्तियों का क्षय करे, बह पाप है / 100 उत्तराध्ययनणि '01 में लिखा है--जो आत्मा को बांधता है वह पाप है। स्थानांगटीका 02 में प्राचार्य अभय देव ने लिखा है--जो नीचे गिराता है, वह पाप है; जो आत्मा के प्रानन्दरस का क्षय करता है, वह पाप है। जिस विचार और प्राचार से अपना और पर का अहित हो और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति होती हो, वह पाप है। भगवतीसुत्र शतक 1, उद्देशक 8 में पाप के विषय में चिन्तन करते हुए लिखा है कि एक शिकारी अपनी आजीविका चलाने के लिये हरिण का शिकार करने हेतु जंगल में खड्ढे खोदता है और उसमें जाल बिछाता हो, उस शिकारी को किस प्रकार की क्रिया लगती है ? भगवान ने कहा कि वह शिकारी जाल को थामे हुए है पर जाल में मृग को फंसाता नहीं है, बाण से उसे मारता नहीं है, उस शिकारी को कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी ये तीन क्रियाएं लगती हैं। जब वह मृग को बांधता है पर मारता नहीं है तब उसे इन तीन क्रियानो के अतिरिक्त एक परितापनिकी चतुर्थ क्रिया भी लगती है और जब वह मृग को मार देता है तो उपर्य क्त चार क्रियाओं के अतिरिक्त उसे पांचवीं प्रापातिपात क्रिया भी लगती है। भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 6 में गणधर गौतम ने प्रश्न किया कि एक व्यक्ति आकाश में बाण फेंकता है, वह बाण आकाश में अनेक प्राणियों के, भूतों के, जीवों के और सत्वों के प्राणों का अपहरण करता है। उस व्यक्ति को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? भगवान् महावीर ने कहा-उस व्यक्ति को पांचों क्रियाएं लगती हैं। भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 10 में कालोदायो ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि दो ब्यक्तियों में से एक मग्नि को जलाता है और दूसरा अग्नि को बुझाता है। दोनों में से अधिक पाप कौन करता है? भगवान ने समाधान दिया कि जो अग्नि को प्रज्वलित करता है, वह अधिक कर्मयुक्त, अधिक क्रियायुक्त, अधिक पाश्रवयुक्त और अधिक वेदनायुक्त कमों का बन्धन करता है / उसको अपेक्षा बुझाने वाला व्यक्ति कम पाप करता है। अग्नि प्रज्वलित करने वाला पृथ्वीकायिक, अग्निकारिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और सकायिक सभी की हिंसा करता है, जबकि बुझाने वाला उससे कम हिंसा करता है। 97. भगवती. शतक 1, उद्देशक 9; शतक 5, उद्देशक 6; शतक 8, उद्देशक 6 98. दशवकालिक, अ. 3, अ. 5 91. पिण्डनियुक्ति 100. अभिधानराजेन्द्र कोश, खण्ड 5, पृष्ठ 876 101. पासयति पातयति वा पापम् / -उत्तराध्ययनचूणि पृ. 152 102. पाशयति---गुण्डयत्यात्मानं पातयति चात्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् / -स्थामांगटीका, पृ. 16 [38] Page #2115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र शतक 8, उद्देशक 6 में गणधर गौतम ने पूछा-एक श्रमण भिक्षा के लिये गृहस्थ के यहाँ गया / वहाँ पर उसे कुछ दोष लग गया। वह श्रमण सोचने लगा कि मैं स्थान पर पहुँच कर स्थविर मुनियों के पास पालोचना करूगा और विधिवत प्रायश्चित्त लूंगा। वह स्थविरों की सेवा में पहुंचा। पर उसके पूर्व ही स्थविर रुग्ण हो गये तथा उनकी वाणी बन्द हो गई। वह श्रमण प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं सका तो वह पाराधक है या विराधक ? भगवान् ने कहा-वह पाराधक है, क्योंकि उसके मन में पाप की आलोचना करने की भावना थी / यदि वह श्रमण स्वयं भी मूक हो जाता, पाप को प्रकट नहीं कर पाता तो भी वह आराधक था। क्योंकि उसके अन्तर्मानस में आलोचना कर पाप से मुक्त होने की भावना थी। पाप का सम्बन्ध भावना पर अधिक प्रवलम्बित है। ___ इस प्रकार भगवती में विविध प्रश्न पाप से निवृत्त होने के सम्बन्ध में पूछे गये। उन सभी प्रश्नों का सटीक समाधान भगवान महावीर ने प्रदान किया है। पाप की उत्पत्ति मुख्य रूप से राग-द्वेष और मोह के कारण होती है। जितनी-जितनी उनकी प्रधानता होगी, उतना-उतना पाप का अनुबन्धन तीन और तीव्रतर होगा / जैनधर्म में पाप के प्राणातियात, मृषावाद, अदत्तादान प्रादि अठारह प्रकार बताये हैं। बौद्धधर्म में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर पाप या अकुशल कर्म के दस प्रकार प्रतिपादित हैं। 03 (1) कायिक पाप-१. प्राणातिपात (हिंसा), 2. अदत्तादान (चोरी), 3. कामेसुमिच्छाचार (कामभोग सम्बन्धी दुराचार)। (2) वाचिक पाप-४. मुसावाद (असत्य भाषण), 5. पिसुना वाचा (पिशुन वचन), 6. फरसा वाचा (कठोर वचन), 7. सम्फलाप (व्यर्थ पालाप) / (3) मानसिक पाप-८. अभिज्जा (लोभ), 9. व्यापाद (मानसिक हिंसा या अहित चिन्तन), 10. मिच्छादिट्ठी (मिथ्यादृष्टि)। अभिधम्मत्थसंगहो'०४ नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी चौदह अकुशल चैतसिक पापों का निरूपण हुआ है। वे इस प्रकार है 1. मोहमूढ़ता, 2. अहिरीक (निर्लज्जता), 3. अनोतप्पं अभीरुता (पापकर्म में भय न मानना) 4. उद्धच्चं--उद्धतपन (चंचलता), 5. लोभो (तृष्णा), 6. दिट्ठी-मिथ्यादृष्टि, 7. मानो-अहंकार, 8. दोसो-द्वेष, 9. इस्सा-ईया, 10. मच्छरियं-मात्सर्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्च-कोकृत्य (कृत-अकृत के बारे में पश्चात्ताप), 12. थीनं, 13. मिद्धं, 14. विचिकिच्छाविचिकित्सा (संशय)। इसी प्रकार वैदिकपरम्परा के ग्रन्थ मनुस्मृति'०५ में भी पापाचरण के दस प्रकार प्रतिपादित हैं-- (क) कायिक-१. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्यभिचार , 103. बौद्धधर्मदर्शन, भाग 1, पृष्ठ 480, ले. भरतसिंह उपाध्याय 104. अभिधम्मत्थसंगहो पृ. 19, 20 105. मनुस्मृति 12/5-7 [ 39] Page #2116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) वाचिक-४. मिथ्या (असत्य), 5. ताना मारना, 6. कटुवचन, 7. असंगत वाणी, (ग) मानसिक-८. परद्रव्य की अभिलाषा, 9. अहितचिन्तन, 10. व्यर्थ प्राग्रह / इस प्रकार सभी मनीषियों ने पाप से मुक्त होने का संदेश दिया है / आध्यात्मिक शक्ति आज का मानव भौतिक विज्ञान की शक्ति से न्यूनाधिक रूप में भलीभांति परिचित है। विज्ञान की शक्ति से मानव आकाश में पक्षी की भांति उड़ान भर रहा है, मछली की भांति अनन्त जलराशि पर तैर रहा है और द्रत गति से भूमि पर दौड़ रहा है। टेलीफोन, टेलीविजन, रेडियो प्रादि के आविष्कार से विश्व सिमट गया है / अणु बम, न्यूट्रोन बम और विविध प्रकार की गैसों के आविष्कार से विश्व को विज्ञान ने विनाश की भूमिका पर भी पहुँचा दिया है / पर अतीत काल में भौतिक अनुसन्धान का प्रभाव था। उस समय प्राध्यात्मिक साधना के द्वारा उन साधकों ने वह अपूर्व शक्ति अजित की थी जिससे वे किसी के अन्तर्मानस के विचारों को जान सकते थे, विविध रूपों का सृजन कर सकते थे / जंघाचारण, विद्याचारण लब्धियों से अनन्त आकाश को कुछ ही क्षणों में नाप लेते ये / भगवतीसूत्र में इस प्रकार की आध्यात्मिक शक्तियों को उजागर करने वाले अनेक प्रसंग आये हैं। भगवतीसूत्र शतक 3, उद्देशक 5 में एक प्रसंग है-गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा कि एक श्रमण विराटकाय स्त्री का रूप बना सकता है ? यदि बना सकता है तो कितनी स्त्रियों का रूप बना सकता है ? भगवान ने कहा--क्रियलब्धिधारी श्रमण में इतना अधिक सामर्थ्य है कि वह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को स्त्रियों के रूपों से भर सकता है, पर निर्माण करने की शक्ति होने पर भी वह इस प्रकार स्त्रियों का निर्माण नहीं करता। भगवती सूत्र शतक 3, उद्देशक 4 में गौतम ने पूछा-बक्रिय शक्ति का प्रयोग प्रमत्त श्रमण करता है या अप्रमत्त श्रमण करता है ? भगवान महावीर ने कहा- क्रियलब्धि का प्रयोग प्रमत्त श्रमण करता है, अप्रमत्त श्रमण नहीं करता। शतक 7, उद्देशक 9 में यह भी बताया है कि प्रमत्त श्रमण ही विविध प्रकार के विविध रंग के रूप बना सकता है / वह चाहे जिस रूप में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में परिवर्तन कर सकता है। भगवतीसूत्र शतक 20, उद्देशक 9 में गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् ने कहा-आकाश में गमन करने की शक्ति चारणलब्धि में रही हई है। वह चारणलब्धि जंघाचारण और विद्याचारण के रूप में दो प्रकार की है। विद्याचा रणलब्धि निरन्तर बेले की तपस्या से और पूर्व नामक विद्या से प्राप्त होती है / इस लब्धि से मुनि तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन परिधि वाले जम्बूद्वीप की तीन बार प्रदक्षिणा कर लेता है। जंघाचारणलब्धि तीन-तीन उपवास की निरन्तर साधना करने पर प्राप्त होती है और इस लब्धि की शक्ति से तीन बार चटकी बजाये इतने समय में इक्कीस बार जम्बूद्वीप की प्रदक्षिणा कर लेता है / इस द्रुत गति के सामने अाधुनिक युग के राकेट की गति भी कितनी कम है ! इसी तरह अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान के द्वारा अन्तर्मानस में रहे हुए विचारों को साधक किस प्रकार जानता है ? शतक 3, उद्देशक 4 तथा शतक 14, उद्देशक 10; शतक 5, उद्देशक 4 प्रादि में इस विषय का विस्तार से निरूपण है। प्राध्यात्मिक शक्ति जब जाग जाती है तब हस्तामलकवत् चाहे रूपी पदार्थ हो या प्ररूपी पदार्थ हो, उसे वह सहज ही जान लेता है / उससे कोई भी वस्त छिपी नहीं रह पाती। [40] Page #2117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र शतक 15 में तेजोलन्धि का भी निरूपण है / तेजोल ब्धि वह लब्धि है, जिससे साढ़े सोलह देश भस्म किये जा सकते थे। वह शक्ति आधुनिक उद्जन बम की तरह थी। भौतिक शक्ति की अपेक्षा प्राध्यात्मिक शक्ति अधिक प्रबल होती है, यह प्रस्तुत प्रसंगों से स्पष्ट है / जैन परम्परा की तरह बौद्ध और वैदिक परम्परा में भी तपोजन्य लब्धियों का उल्लेख हुआ है / योगदर्शन में प्राचार्य पतञ्जलि ने योग का प्रभाव प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि योगी को अणिमा, महिमा, लघिमा प्रभृति पाठ महाविभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इससे योगी अणु को विराट और विराट को अणु बना सकता है। जिसे जैन परम्परा में लब्धि कहा है उसे ही योगदर्शन में विभूतियां कहा है। आगमकार ने यह सुचित किया है कि लब्धि होना अलग चीज है और उसका प्रयोग करना अलग चीज है। लब्धि सहज ही पर लब्धि का प्रयोग प्रमत्त दशा में ही होता है। छटठे गूणस्थान तक ही साधक लब्धि का प्रयोग करता है। अप्रमत्त साधक लब्धि का प्रयोग नहीं करता है। लब्धिप्रयोग प्रमत्त भाव है। प्रमाद कर्मबन्धन का कारण है। इसीलिए भगवती के बीसवें शतक, नौवें उद्देशक में स्पष्ट कहा है-जो साधक लब्धि का प्रयोग कर प्रमादसेवना कर पुन: उसकी आलोचना नहीं करता है; अनालोचना की दशा में ही काल प्राप्त कर जाता है तो वह धर्म की आराधना से युक्त हो जाता है। “नत्थि तस्स पा राहणा" अर्थात् वह विराधक हो जाता है। यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि लब्धिप्रयोग प्रमाद क्यों है ? उत्तर है कि उसमें उत्सुकता, कुतूहल , प्रदर्शन, यश और प्रतिष्ठा की भावना रहती है। लब्धिप्रयोग करने वाले के अन्तर्मानस में कभी यह दिनार पनपता है कि जनमानस पर मेरा प्रभाव गिरे / कभी-कभी वह क्रोध के कारण दूसरे व्यक्ति का अनिष्ट करने के लिये लब्धि का प्रयोग करता है, इसलिये उसमें प्रमाद रहा हुआ है। जैनसाधना में चमत्कार को नहीं सदाचार को महत्त्व दिया है। जिस प्रकार भगवान महावीर ने लब्धिप्रयोग का निषेध किया वैसे ही तथागत बुद्ध ने चमत्कारप्रदर्शन को ठीक नहीं माना / संयुक्तनिकाय में भिक्ष मौदगल्यायन का वर्णन है जो लब्धिधारी और ऋद्धिबल सम्पन्न था* / समय-समय पर वह चमत्कारप्रदर्शन भी करता था / अत: बुद्ध समय-समय पर चमत्कारप्रदर्शन का निषेध करते रहे / प्रत्याख्यान : एक चिन्तन इच्छाओं के निरोध के लिये प्रत्याख्यान आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवत्ति को मर्यादित और सीमित करता / ' प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में लिखा है कि अप्रमत्त भाव को जगाने के लिये जो मर्यादापूर्वक संकल्प किया जाता है वह प्रत्याख्यान है। 100 साधक प्रात्मशुद्धि हेतु यथाशक्ति प्रतिदिन कुछ न कुछ त्याग करता है / त्याग करने से उसके जीवन में अनासक्ति की भव्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने लगती है और तुरुणा मंद से मंदतर होती चली जाती है। प्रत्याख्यान के भी दो प्रकार हैं-१. द्रव्यप्रत्याख्यान और 2. भावप्रत्याख्यान / द्रव्यप्रत्याख्यान में आहार, वस्त्र प्रभृति पदार्थों को छोड़ना होता है और भावप्रत्याख्यान में रागद्वेष, कषाय प्रभृति अशुभ वृत्तियों का परित्याग करना होता है / ___ आवश्यकनियुक्ति 108 में आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है-प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन होता है *देखिए धम्मपद अट्ठकथा 4-44 (ख) अंगृतरनिकाय 1-14 106. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ. 104 107. प्रमादप्राति कल्येन मर्यादया स्यानं-कथनं प्रत्याख्यानम / --स्थानांगटीका प्र.४१ 108. प्रावश्यकनियुक्ति, 1594 [ 41 Page #2118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आस्रव-निरुधन से तरुणा का क्षय होता है / जैन दृष्टि से असद-आचरण नहीं करने वाला व्यक्ति भी जब तक प्रतिज्ञा नहीं लेता है तब तक वह उस असदाचरण से मुक्त नहीं हो पाता / परिस्थितिवश वह असदाचरण नहीं करता पर असदाचरण न करने की प्रतिज्ञा के प्रभाव में वह परिस्थितिवश असदाचरण कर सकता है। जब तक प्रतिज्ञा नहीं करता तब तक वह असदाचरण के दोष से मुक्त नहीं हो सकता। प्रत्याख्यान में असदाचरण से निवृत्त होने के लिये दृढ़-संकल्प की आवश्यकता है। भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 2 में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है। प्रायश्चित्त : एक चिन्तन साधक प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहता है किन्तु जागरूक रहते पर भी और न चाहते हुए भी कभीकभी प्रमाद आदि के कारण स्खलनाएं हो जाती हैं / दोष लगना उतना बुरा नहीं है, जितना बुरा है दोष को दोष ने समझना और उसकी शुद्धि के लिये प्रस्तुत न होना। जो दोष लग जाते हैं, उन दोषों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त में सर्वप्रथम आलोचना है। जो भी स्खलना हो, उस स्खलना को बालक को तरह गुरु के समक्ष सरलता के साथ प्रस्तुत कर देना आलोचना है। भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 7 में इस सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया गया है, सर्वप्रथम गणधर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! किन कारणों से साधना में स्खलनाएं होती हैं ? भगवान महावीर ने समाधान देते हुए कहा कि दस कारणों से साधना में स्खलनाएँ होती हैं। वे इस प्रकार हैं-१. दर्प (अहंकार से) 2. प्रमाद से 3. अनाभोग (अज्ञान से) 4. अातुरता 5. आपत्ति से 6. संकीर्णता 7. सहसाकार (आकस्मिक क्रिया से) 8. भय से 9. प्रद्वेष (क्रोध आदि कषाय से) 10. वि परीक्षा करने से)। इन दस कारणों से स्खलना होती है। स्खलना होने पर उन स्खलनाओं के परिष्कार के लिये साधक गुरु के समक्ष पहुँचता है पर दोष को प्रकट करते समय उन दोषों को इस प्रकार प्रकट करना जिससे गुरुजन मूके कम प्रायश्चित्त दें, यह दोष है / पालोचना के दस दोष प्रस्तुत पागम में हैं तथा अन्य स्थलों पर भी उन दस दोषों का निरूपण हुआ है। वे दोष इस प्रकार हैं-१. गुरु को यदि मैंने प्रसन्न कर लिया तो वे मुझे कम प्रायश्चित्त देंगे अत: उनकी सेवा कर उनके अन्तर्मानस को प्रसन्न कर फिर आलोचना करना। 2. बहुत अल्प अपराध को बताना जिससे कि कम प्रायश्चित्त मिले। 3. जो अपराध आचार्य प्रादि ने देखा हो उसी की आलोचना करना। 4. केवल बड़े अतिचारों की ही पालोचना करना / 5. केवल सूक्ष्म दोषों की ही मालोचना करना जिससे कि आचार्य को यह आत्मविश्वास हो जाये कि यह इतनी सूक्ष्म बातों की आलोचना कर रहा है तो स्थल दोषों की तो की ही होगी / 6. इस प्रकार अालोचना करना जिससे कि याचार्य सुन न सके / 7. दूसरों को सुनाने के लिये जोर-जोर से आलोचना करना / 8. एक ही दोष की पुनः-पुन: आलोचना करना / 9. जिनके सामने आलोचना की जाय वह अगीतार्थ हों। 10. उस दोष की आलोचना की जाय जिस दोष का सेवन उस आचार्य ने कर रखा हो-ये दस आलोचना के दोष हैं / पालोचना करने वाले के दस गुण भी बताए गये हैं तथा जिस प्राचार्य या गुरु के सामने पालोचना करनी हो उनके पाठ गुण भी पागम में प्रतिपादित हैं। वर्तमान युग में आलोचना शब्द अन्य अर्थ में व्यवहत हैकिसी को नुक्ता-चीनी करना, टीका-टिप्पणी करना या किसी के गुण-दोष की चर्चा करना / पर प्रस्तुत प्रागम में जो शब्द आया है, वह दूसरों के गुण-दोषों के सम्बन्ध में नहीं है पर अात्मनिन्दा के अर्थ में है। प्रात्मनिन्दा करना सरल नहीं, कठिन और कठिनतर है। परनिन्दा करना, दूसरे के दोषों को निहारता सरल है। प्रात्म [42] Page #2119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बुला मालोचना वही व्यक्ति कर माता है जिसमें सरलता हो, किसी भी प्रकार का छिपाव न हो, जिसका जीवन खुली पुस्तक की तरह हो / व्यक्ति पाप करके भी यह सोचता है कि मैं पाप को स्वीकार करूंगा तो मेरी कीति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी। वह पाप करके भी पाप को छिपाना चाहता है। जिसे स्वास्थ्य की चिन्ता है, वह पहले से ही सावधान रहता है। यदि रोग हो गया है, उसके बाद यह सोचे कि मैं डॉक्टर के पास जाऊंगा और लोगों को यह पता चल जायेगा कि मैं रोगी हूँ। इस प्रकार विचार कर वह अपना रोग छिपाता है तो वह व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीवन में पवित्रता तभी रहेगी जब दोष को प्रकट कर उसका यथोचित प्रायश्चित्त किया जाय / आलोचना करने से साधक माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप तीन पात्यों को अन्तर्मानस से निकाल दूर कर देता है / कांटा निकलने से हृदय में सुखानुभूति होती है, वैसे ही पाप को प्रकट करने से भी जीवन नि:शल्प बन जाता है। जो साधक पाप करके भी आलोचना नहीं करता है, उसकी सारी आध्यात्मिक क्रियाएं बेकार हो जाती हैं। कोई माधक यह सोचे कि मुझे तो सभी शास्त्रों का परिज्ञान है अत: मुझे किसी के पास जाकर पालोचना करने की क्या आवश्यकता है? पर यह सोचना ठीक नहीं है / जिस प्रकार निपुण वैद्य भी अपनी चिकित्सा दूसरों से करवाता है, दूसरे वैद्य के कथनानुसार कार्य करता है, वैसे ही आचार्य को भी यदि दोष लग जाता है तो दोष की विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिये / इस प्रकार करने से हृदय की सरलता प्रकट होती है और दूसरों को भी सरल और विशुद्ध बनाया जा सकता है। पालोचना किसके पास करनी चाहिये ? इस प्रश्न का समाधान व्यवहारसूत्र में मिलता है। सर्वप्रथम पालोचना प्राचार्य और उपाध्याय के समक्ष करनी चाहिये / उनके अभाव में साम्भोगिक बहश्रत श्रमण के पास करनी चाहिये। उनके अभाव में समान रूप वाले बहुश्रुत साधु के पास। उनके अभाव में जिसने पूर्व में संयम पाला हो और जिसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान हो उस पडिवाई (संयमच्युत) श्रावक के पास। उसका भी अभाव होने पर जिनभक्त यक्ष आदि के पास / इनमें से सभी का अभाव हो तो ग्राम या तगर के बाहर पूर्व-उत्तर दिशा में मंह कर विनीत मुद्रा में अपने अपराधों और दोषों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिये और अरिहन्त-सिद्ध की साक्षी से स्वतः ही शुद्ध हो जाना चाहिये / 106 तप : एक विश्लेषण तप भारतीय साधना का प्राणतत्त्व है। जैसे शरीर में ऊष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है वैसे ही साधना में तग उसके दिव्य अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है / तप के बिना न निग्रह होता है, न अभिग्रह होता है। तप दमन नहीं, शमन है। तप केवल आहार का ही त्याग नहीं, वासना का भी त्याग है / तप अन्तर्मानस में पनपते हए विकारों को जला कर भस्म कर देता है और साथ ही अन्तर्मानस में रहे हुए सघन अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिये तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है / तप जीवन को सौम्य, सात्विक और सा तप की साधना से आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है / तप ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्रछाया में साधना के अमृतफल प्राप्त होते हैं। तप से जीवन श्रोजस्वी, तेजस्वी और प्रभावशाली बनता है। तप के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 7 में निरूपण है। वहाँ पर तप के दो मुख्य प्रकार बताये हैं—१. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तर तप / बाह्य तप के छह प्रकार बताये हैं और प्राभ्यन्तर तप के भी छह प्रकार हैं। जो तप बाहर दिखलाई दे, वह बाह्य तप है। बाह्य तप में देह या इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। बाह्य तप में बाहा द्रव्यों की अपेक्षा रहती है जबकि प्राभ्यन्तर तप में मन्तःकरण के व्यापारों की प्रधानता होती है। यह जो वर्गीकरण है 109. व्यवहारसुत्र, उद्देशकः 1, बोल 34 से 39 [ 43 } Page #2120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह तप की प्रक्रिया और स्थिति को समझाने के लिए किया गया है / तप का प्रारम्भ होता है बाह्य तप से और उसकी पूर्णता होती है आभ्यन्तर तप से / तप का एक छोर बाह्य है और दूसरा छोर आभ्यन्तर है / आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप में पूर्णता नहीं पाती / बाह्य तप से जब साधक का अन्तर्मन और तन उत्तप्त हो जाता है तो अन्तर में रही हई मलीनता को नष्ट करने के लिये साधक प्रस्तुत होता है / और वह अन्त मखी बनकर आभ्यन्तर साधक में लीन हो जाता है। बाह्य तप के प्रकार निम्नानुसार हैं 1. अनशन-बाह्य तप में इसका प्रथम स्थान है। यह तप अधिक कठोर और दुर्घर्ष है / भूख पर विजय शन तप का मूल उद्देश्य है। अनशन तप में भूख को जीतना और मन को निग्रह करना आवश्यक है। अनशन से तन की ही नहीं मन की भी शुद्धि होती है। अनशन केवल देहदण्ड ही नहीं अपितु आध्यात्मिक गुणों की उपलब्धि का महान उद्देश्य भी उस में सन्निहित है ! भगवद्गीता'१० में भी लिखा है कि आहार का परित्याग करने से इन्द्रियों के विषय-विकार दूर हो जाते हैं और मन भी पवित्र हो जाता है। महषि ने मंत्रायणी आरण्यक में लिखा है कि अनशन से बड़ा कोई तप नहीं है / साधारण मानव के लिये यह तप बड़ा ही दुर्घर्ष है। उसे सहन और वहन करना कठिन ही नहीं कठिनतर है / 11. अनशन तप के भी दो प्रकार हैं। एक इत्वरिक और दूसरा यावत्कालिक / इत्वरिक तप में एक निश्चित समयावधि होती है। एक दिन से लगाकर छह मास तक का यह तप होता है। दुसरा प्रकार यावत्कालिक तप जीवन पर्यन्त के लिये किया जाता है / यावत्कालिक अनशन के पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान-ये दो भेद हैं। भक्तप्रत्याख्यान में प्राहार के परित्याग के साथ ही निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, प्रात्मचिन्तन में समय व्यतीत किया जाता है। पादपोगमन में टूटे हुए वृक्ष की टहनी की भांति अचंचल, चेष्टारहित एक ही स्थान पर जिस मुद्रा में प्रारम्भ में स्थिर हुआ, अन्तिम क्षण तक उसी मुद्रा में अवस्थित रहना होता है। यदि नेत्र खुले हैं तो बन्द नहीं करना / यदि बन्द हैं तो खोलना नहीं है / जिसका वज्र ऋषभनाराच संहनन हो वहीं पादपोपगमन संथारा कर सकता है / चौदह पूर्वो का जब विच्छेद होता है तभी पादयोपगमन अनशन का भी विच्छेद हो जाता है। पादपोपगमन के निरहारिम और अनिरहारिम ये दो प्रकार हैं। तप का दूसरा प्रकार ऊनोदरी है / ऊनोदरी का शब्दार्थ है-ऊन-कम एवं उदर-पेट अर्थात् भूख से कम खाना ऊनोदरी है। कहीं-कहीं पर ऊनोदरी को अवसौदर्य भी कहा गया है / इसे अल्प पाहार या परिमित आहार भी कह सकते हैं। आहार के समान कषाय, उपकरण आदि की भी ऊनोदरी की जाती है। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि उपवास करना तो तप है क्योंकि उसमें पूर्ण रूप से आहार का त्याग होता है, पर ऊनोदरी तप में तो भोजन किया जाता है फिर इसे तप किस प्रकार कहा जाये ? समाधान है-भोजन का पूर्ण रूप से त्याग करना तो तप होता ही है पर भोजन के लिये प्रस्तुत होकर भूख से कम खाना, भोजन करते हुए रसना पर संयम करना, सुस्वाद भोजन को बीच में ही छोड़ देना भी अत्यन्त दुष्कर है। आत्मसंयम और दढ़ मनोबल के बिना यह तप सम्भव नहीं है। निराहार रहने की अपेक्षा पाहार करते हुए पेट को खाली रखना कठिन और कठिनतर है / अनशन तप स्वस्थ व्यक्ति कर सकता है पर ऊनोदरी तप रोगी और दुर्बल व्यक्ति भी कर सकता है। ऊनोदरी तप से अनेक -- - ---- ----- --... 110. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। --भगवद्गीता, 2/59 111. मंत्रायणी आरण्यक, 10/62 112. पढमंमि प्र संघयणे क्तो सेलकुट्ट समाणो / तेसि पि अबच्छेग्रो च उद्दसपुवीण बुच्छए।। --उववाई सूत्र, तप अधिकार [ 44 ] Page #2121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के रोग भी मिट जाते हैं। ऊनोदरी तप के दो भेद बताये हैं--१. द्रव्य ऊलोदरी और 2. भाब ऊनोदरी। उत्तराध्ययन में ऊनोदरी के पांच प्रकार भी बताये हैं। वे इस प्रकार है 1. द्रव्य ऊनोदरी-माहार की मात्रा से कम खाना और आवश्यकता से कम वस्त्रादि रखना। 2. क्षेत्र ऊनोदरी-भिक्षा के लिये किसी स्थान आदि को निशिचत कर वहाँ से भिक्षा ग्रहण करना / 3. काल ऊमोदरी-भिक्षा के लिये काल यानी समय निश्चित कर कि अमुक समय भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा नहीं तो नहीं / 4. भाव ऊनोदरी-भिक्षा के समय अभिग्रह आदि धारण करना / 5. पर्याय ऊनोदरी-इन चारों भेदों को क्रिया रूप में परिणत करते रहना। द्रव्य ऊनोदरी के अन्य अनेक अवान्तर भेद हैं / द्रव्य ऊनोदरी से साधक का जीवन बाहर से हल्का, स्वस्थ और प्रसन्न रहता है। भाव ऊनोदरी में साधक क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को कम करता है। वह कम बोलता है, कलह आदि से बचता है। भाव ऊनोदरी से अन्तरग जीवन में प्रसन्नता पैदा होती है और सदगुणों का विकास होता है। तप का ततीय प्रकार भिक्षाचरी है। विविध प्रकार के अभिग्रह को ग्रहण कर भिक्षा की अन्वेषणा करना भिक्षाचरी है / भिक्षा का सामान्य अर्थ मांगना है पर सिर्फ मांगना ही तप नहीं है / आचार्य हरिभद्र'' ने भिक्षा के तीन प्रकार बताये हैं---दोनवति, पौरुषघ्नी और सर्वसम्पत करी। जो अनाथ, अपंग या प्रापद्ग्रस्त दरिद्र व्यक्ति मांग कर खाते हैं उनकी दीनवृत्ति भिक्षा है। जो श्रम करने में समर्थ होकर भी काम से जी चुराकर कमाने की शक्ति होने पर भी मांग कर खाते हैं, उनकी पौरुषनी भिक्षा है। वह भिक्षा पुरुषार्थ का नाश करती है। जो त्यागी, अहिंसक श्रमण अपने उदरनिर्वाह के लिये माधुकरी वृत्ति से गृहस्थ के घर में सहज भाव से निर्मित निर्दोष विधि से भिक्षा ग्रहण करते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी है। इस प्रकार की भिक्षा देने वाला और ग्रहण करने वाला, दोनों ही सद्वति को प्राप्त होते हैं / सर्वसम्पत्करी भिक्षा हो वस्तुतः कल्याणकारी भिक्षा है। भिक्षाचरी के अनेक भेद-प्रभेदों का उल्लेख उत्तराध्ययन,' 14 स्थानांग,११५ प्रौपपातिक 116 आदि में हया है। उत्तराध्ययन पिण्डनियुक्ति आदि में भिक्षुक को अनेक दोषों से बच कर भिक्षा लेने, का विधान है / '17 तप का चतुर्थ प्रकार रसपरित्याग है। इस का अर्थ है-प्रीति बढ़ाने वाला "रसम प्रीति विवर्द्धकम"। ग भोजन में प्रीति समुत्पन्न होती हो वह रस है / भोजन के छह रस माने गये हैं-कटु, मधुर, आम्ल, तिक्त, काषाय एवं लवण / इन रसों के कारण भोजन स्वादिष्ट बनता है। सरस भोजन को मानव भूख से भी अधिक खा जाता है। रसयुक्त भोजन स्वादिष्ट, गरिष्ठ और पौष्टिक होता है। रस से सुपच भोजन भी दुष्पच बन जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र 118 में कहा है--रस प्राय: दीप्ति अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। इसलिये 113. सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा / बत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञ रिति भिक्षा विधोदिता / --अष्टक प्रकरण 511 114. उत्तराध्ययन 30/25 115. स्थानांग 6 116. प्रौपपातिकसूत्र, पृष्ठ 38, 2 117. (क) उत्तराध्ययन 24/11-12 (ख) पिण्डनियुक्ति, 92-93 118. पायं रसा दित्तिकरा नराणं.... -उत्तराध्ययन 32/10 [45 ] Page #2122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन रसों को विकृति कहा है / आचार्य सिद्धसेन ने विकृति की परिभाषा करते हुए लिखा है---घी ग्रादि पदार्थ खाने से मन में विकार पैदा होते हैं / विकार उत्पन्न होने से मानव संयम से भ्रष्ट होकर दुर्गति में जाता है / अतः इन पदार्थों का सेवन करने वाले की विकृति और विगति दोनों होती हैं। इस कारण इन्हें विगयी (विकृति और विगति) कहा है।'१६ पांच इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने कहा- "सर्व जितं जिते रसे"--जिसने रसनेन्द्रिय को जीत लिया उसने संसार के सभी रमों को जीत लिया। यही कारण है, भगवती में साधक के लिये स्पष्ट निर्देश दिया है कि चाहे सरस पाहार हो या नीरस, लोलुपता रहित होकर ऐसे खाए जैसे बिल में सांप घुस रहा हो।' 20 साधक को आहार का निषेध नहीं है पर स्वाद का निषेध है / आचारांग में उल्लेख है कि श्रमण को स्वादवृत्ति से बचने के लिए ग्रास को बायीं दाढ़ से दाहिनी दाढ़ की ओर भी नहीं ले जाना चाहिये। वह स्वादवत्ति रहित होकर खाए। इससे कमों का हल्कापन होता है। ऐसा साधक आहार करता हुग्रा भी तपस्या करता है / 191 इस प्रकार साधु पाहार करता हुआ कर्मों के बन्धन को ढीले करता है। यहाँ तक कि केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। यदि आसक्त होकर आहार करता है तो कर्मबन्धन कर लेता है / अतः रसपरित्याग को तप माना है। तप का पांचवां प्रकार कायक्लेश है। कायक्लेश का अर्थ शरीर को काष्ट देना है। कष्ट, एक स्वकृत होता है और दुसरा परकृत होता है। कितने ही कष्ट न चाहने पर भी प्राते हैं। देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी से कष्ट जो स्वत: पा जाते हैं और दूसरे कष्ट उदीरणा करके बुलाये जाते हैं। जैसे प्रासन करना, ध्यान लगा कर स्थिर हो जाना, भयंकर जंगल में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा होना, केश लुच्चन करना आदि / जैसे मेहमान को निमंत्रण देकर बुलाया जाता है वैसे ही साधक अपने धैर्य, साहम वद्धि के हेतु कष्टों को निमंत्रण देता है। भगवतीसत्र 23 में जहाँ कायक्लेश तप का उल्लेख है, वहाँ पर 22 परी पहों का भी वर्णन है। कायक्लेश और परीषह में जरा अन्तर है। कायक्लेश का अर्थ है--अपनी ओर से कष्टों को स्वीकार करना। कर्मनिर्जरा के हेतु अनेक प्रकार के ध्यान, प्रतिमा, केश लुञ्चन, शरीर मोह का त्याग आदि के द्वार स्वीकार करता है। यह विशेष तप कायक्लेश कहलाता है। कायक्लेश में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता अपितु श्रमण जीवन के नियमों का परिपालन करते हए प्राकस्मिक रूप से यदि कोई कष्ट उपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है। आवश्यकचणि 23 में लिखा है, जो सहन किये जाते हैं, वे परीषह हैं। कायक्लेश हमारे जीवन को निखारता है। उसकी साधना के अनेक रूप प्रागम साहित्य में प्राप्त है। 119. (क) तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगति हेतुत्वाद् वा विकृतयो, विगतयो। --प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (प्रत्या. द्वार) (ख) मनसो विकृति हेतुत्वाद् विकृतयः। योगशास्त्र, 3 प्रकाशवृत्ति 122. भगवतोसूत्र 7/1 121. प्रवचन मार 3327 122. भगवतीसूत्र शतक 8, उद्देशक 123. परिसहिज्जते इति परीसहा / -पावश्यकणि 2, पृ. 139 Page #2123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग' 24 में कायक्लेश तप के सात प्रकार बताये हैं-कायोत्सर्ग करना, उत्कुटुक प्रासन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना. वीरासन करना. निषद्या-स्वाध्याय प्रभति के लिये पालयी मारकर खड़े रहकर ध्यान करना लगण्डशायित्व / प्रोपपातिकसूत्र'१५ में कायक्लेश तप के चौदह प्रकार प्रतिपादित हैं 1. ठाणदिइए-कायोत्सर्ग करे। 2. ठाणइए–एक स्थान पर स्थित रहे। 3. उक्कुडु पासणिए-उत्कुटुक आसन से रहे / 4. पडिमट्ठाई—प्रतिमा धारण करे / 5. वीरासणिए-वीरासन करे। 6. नेसिज्जे पालथी लगाकर स्थिर बैठे। 7. दंडायए---दंडे की भाँति सीधा सोया या बैठा रहे। 8. लगडसाई (लगण्डशायी) लक्कड़ (वक काष्ठ) की तरह सोता रहे / 9. आयावए-आतापना लेवे / / 10. अवाउडए वस्त्र आदि का त्याग करे। 11. प्रकंडुयाए-शरीर पर खुजली न करे / 12. अणिरठ्ठहए-थूक भी न थूके / 13. मबगायपरिकम्मे-सर्व शरीर की देखभाल (परिकर्म) से रहित रहे / 14, विभूसाविप्पमुक्के-विभूषा से रहित रहे। तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीया वृत्ति'२६ मूलाराधना, 27 भगवतीयाराधना, 28 वृहत्कल्पभाष्य' 26 प्रभति ग्रन्थों में कायक्लेश के गमन, स्थान, प्रासन, शयन और अपरिकर्म प्रादि भेदोपभेदों का वर्णन है 1 दिगम्बर परम्परा के अनुसार कुछ कायक्लेश तप गृहस्थ श्रावकों को नहीं करना चाहिये। 30 तप का छठा प्रकार प्रतिसलीनता है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-ग्रात्मलीनता। पर भाव में लीन आत्मा को स्व-भाव में लीन बनाने की प्रक्रिया हो वस्तुत: संलीनता है। इन्द्रियों को, कषायों को, मन, वचन, काया के योगों को बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना संलीनता है। प्रतिसंलीनता तप के चार प्रकार हैं--- इन्द्रियप्रतिमलीलता, कयायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसं लीनता, विविक्तशयनासनसेवना।'' तप के ये छह प्रकार बाह्य तप के अन्तर्गत हैं। 124. स्थानांग, 7 / सूत्र 554 125. औपपातिक, समवसरण अधिकार 126. तस्वार्थ सूत्र, श्रुतसागरीया वृत्ति 9 / 19 127. मूलाराधना, 31222-225 / 128. भगवती आराधना, 221-225 129. वृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, गाथा 5953 130. दिणपडिम-वीरचरिया-तियाल जोगेसू गस्थि अहियारो। सिद्धतरहसाणवि अज्झयण देशविरदाणं // -वसुनन्दि श्रावकाचार, 312 131. भगवतीसूत्र 257 [47 ] Page #2124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं, उनमें सर्वप्रथम प्रायश्चित्त है। प्राचार्य भद्रबाहु 1 3 ने लिखा है जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है / पाप-विशुद्धि करने की क्रिया प्रायश्चित्त है। तरवार्थराजवातिक' 33 में लिखा है-अपराध का नाम प्राय: है और चित्त का अर्थ है शोधन / जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। मानव प्रमादवश कभी दोष का सेवन कर लेता है, पर जिसकी आत्मा जागरूक है, धर्म-अधर्म का विवेक रखती है, परलोक सुधार की भावना है, अनुचित आचरण के प्रति जिसके मन में पश्चाताप है, दोष के प्रति बलानि है, बह गुरुजनों के समक्ष दोष को प्रकट कर प्रायश्चित्त की प्रार्थना करता है। गुरु दोषविशुद्धि के लिये तपश्चरण का आदेश देते हैं। यहाँ यह समझना होगा कि प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। दण्ड दिया जाता है और प्रायश्चित्त लिया जाता है। दण्ड अपराधी के मानस को झकझोरता नहीं। दण्ड केवल बाहर अटक कर ही रह जाता है अन्तर्मानस को स्पर्श नहीं करता। दण्ड पाकर भी कदाचित अपराधी अधिक उद्दण्ड होता है, जबकि प्रायश्चित्त में अपराधी के मानस में पश्चात्ताप होता है। भूल करना प्रात्मा का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। जैसे शरीर में फोड़े, फुन्सी हो जाते हैं, वे फोडे, फुन्सी शरीर के विकार हैं, वैसे ही अपराध मानव के अन्तर्मन के विकार हैं। जिन विकारों के कारण मानव अपराध करता है, उन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रतिसेवन कहा है। भगवती ३४और स्थानांग: ३५यादि में प्रतिसेवन के दस प्रकार बताये हैं-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, प्रातुर, आपत्ति, शंकित, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श / प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। 36 आभ्यन्तर तप का दूसरा भेद विनय है। जिसका मानस सरल होता है वही गुरुजनों का विनय करता है / जहाँ अहंकार का प्राधान्य है वहाँ विनय नहीं है। सूत्रकृतांग-टीका में विनय की परिभाषा करते हुए लिखा है-जिसके द्वारा कर्मों का विनयन किया जाता है वह विनय है। 13 0 उत्तराध्ययन'३८ शान्त्याचार्य टोका में लिखा है-जो विशिष्ट एवं विविध प्रकार का नय नीति है, वह विनय है तथा जो विशिष्टता की ओर ले जाता है, वह विनय है। दशवकालिक में विनय को धर्म का मूल कहा गया है। जैन आगम साहित्य में विनय शब्द का प्रयोग हजारों बार हया है। जब हम प्रागम साहित्य का परिशीलन करते हैं तो विनय शब्द तीन अर्थों में व्यवहत मिलता है 1. विनय-अनुशासन, 2. विनय--प्रात्मसंयम (शील, सदाचार), 3. विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार। उत्तराध्ययन में विनय का स्वरूप प्रतिपादित हुमा है। वह मुख्य रूप से अनुशासनात्मक है। गुरुजनों की आज्ञा, इच्छा आदि का ध्यान रखकर नाचरण करना अनुशासनविनय है। 132. पाव छिदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भगणते तेणं / -आवश्यक नियुक्ति 1508 133. अपराधो वा प्राय: चित्त---शुद्धि: / प्रायसः चित्तं--प्रायश्चित्तं-अपराधविशुद्धि: ।---राजवातिक 942211 134. भगवती 257 135. स्थानांग 10 136. भगवती शतक 25, उद्देशक 7 137. सूत्रकृतांग टीका 1, पत्र 242 138. उत्तराध्ययन शान्याचार्य टीका, पत्र 19 [48] Page #2125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनीत व्यक्ति असदाचरण से सदा भयभीत रहता है। उसका मन प्रात्मसंयम में लीन रहता है। अविनीत व्यक्ति सड़े कानों वाली कुतिया की तरह दर-दर ठोकरें खाता है। लोग उसके व्यवहार से घृणा करते हैं। विनीत गुरुजनों के समक्ष सभ्यतापूर्वक बैठता है / वह कम बोलता है। बिना पूछे नहीं बोलता। इस प्रकार वह आत्मसंयम और सदाचार का पालन करता है। विनय का तीसरा अर्थ नम्रता और सव्यवहार है। दशवकालिक 35 में लिखा है-गुरुजनों के समक्ष शयन या आसन उनसे कुछ नीचा रखना चाहिये। नमस्कार करते समय उनके चरणों का स्पर्श कर वन्दना करे / उसके किसी भी व्यवहार में अहंकार न झलके। जब गुरुजन उसे बुलायें, उस समय आसन पर न बैठा रहे। उस समय अंजलिबद्ध होकर बन्दन की मुद्रा में पूछे-क्या आज्ञा है ? गुरुजनों की पाशातना न करे। भगवती'४० में विनय के सात प्रकार बताये हैं-१. ज्ञानविनय, 2. दर्शनविनय, 3. चारित्रविनय, 4. मनोविनय, 5. वचनविनय, 6. काय विनय, 7. लोकोपचारविनय / जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य'४' में लिखा है कि विनय कई प्रकार से लोग करते हैं। उन्होंने विनय के पांच उद्देश्य बताये हैं--- 1. लोकोपचार-लोकव्यवहार के लिये माता-पिता. अध्यापक प्रादि का विनय करना। 2. अर्थविनय-अर्थ के लोभ से सेठ आदि की सेवा-विनय करना। 3. कामविनय-कामवासना की पूर्ति के लिये स्त्री आदि की प्रशंसा करना / 4. भयविनय--अपराध होने पर न्यायाधीश, कोतवाल आदि का विनय करना / 5. मोक्षविनय--आत्मकल्याण के लिये गुरु आदि का विनय करना / विनय के जो चार उद्देश्य हैं, वे जब तक सीमा के अन्तर्गत हैं तब तक उचित हैं। सीमा का उल्लंघन करने पर वह विनय नहीं चापलसी है। चापलसो एक दोष है तो विनय एक सद्गुण है। विनय में सद्गुणों की प्राप्ति और गुणीजनों का सम्मान मुख्य होता है, जबकि चापलसी में दूसरों को ठगने की भावना प्रमुख रूप से रहती है। चीता शिकार पर जब हमला करता है तो पहले अकता है पर उसका झुकना विनय नहीं है / उसमें कपट की भावना रही हुई है। उसका झुकना उसके कर्मबन्धन का कारण है। आभ्यन्तर तप का तृतीय प्रकार यावत्य अर्थ है-धर्मसाधना में सहयोग करने वाली प्राहार आदि वस्तुओं से सेवा-शुश्रुषा करना। वै गवत्य से तीर्थकरनाम गोत्र कर्म का उपार्जन हो सकता है।* तीर्थकर आध्यात्मिक वैभव को दृष्टि से विश्व के अद्वितीय पुरुष हैं। वे अनन्त बली होते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास उनके जीवन में होता है / देवेन्द्र, नरेन्द्र भी उनके चरणों में नत होते हैं / एक जैनाचार्य ने लिखा है कि एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक साधक प्रापको सेवा करता है और एक साधक रोगी, वद्ध प्रादि श्रमणों की सेवा करता है, उन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? आप किसे धन्यवाद प्रदान करेंगे? 139. दशवकालिक 9 / 2 / 17 140. भगवती 257 141. विशेषावश्यकभाष्य 310 * उत्तराध्ययन 29/3 Page #2126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ने कहा-'जे गिलाणं पडियरह से धन्ने' अर्थात जो रोगी की सेवा करता है, वही वस्तुतः धन्यवाद का पात्र है। गणधर गौतम इस उत्तर को सुनकर आश्चर्यान्वित हो गये। वे सोचने लगे- कहाँ एक ओर अनन्तज्ञानी लोकोत्तम पुरुष भगवान की सेवा और दूसरी ओर एक सामान्य श्रमण की परिचर्या ! दोनों में जमीन-पासमान की तरह अन्तर है। तथापि भगवान अपनी भक्ति से भी बढ़कर हरण श्रमण की सेवा को महत्त्व दे रहे हैं। अत: गणधर गौतम ने पुन: जिज्ञासा प्रकट की तो भगवान महावीर ने कह सेवा का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है मेरी माज्ञा की आराधना करने का / "आणाराहणं ख जिजाण"..-- जिनेश्वरों की प्राज्ञा का पालन करना ही सबसे बड़ी सेवा है। स्थानांगसूत्र में भगवान महावीर प्रभु ने पाठ शिक्षाएँ प्रदान की हैं। उनमें से दो शिक्षा सेवा से सम्बन्धित हैं / जो अनाश्रित हैं, असहाय हैं, जिनका कोई आधार नहीं है, उनको सहायता-सहयोग एवं आश्रय देने को सदा तत्पर रहना चाहिये तथा दूसरी शिक्षा है रोगी की सेवा करने के लिये अग्लान भाव से सदा तत्पर रहना चाहिये।'४० स्थानांग और भगवती में वयावत्य के दस प्रकार बताये हैं-१. आचार्य को सेवा, 2. उपाध्याय की सेवा, 3. स्थविर की सेवा, 4. तपस्वी की सेवा, 5. रोगी की सेवा, 6. नवदीक्षित मुनि की सेवा, 7. कुल की सेवा (एक प्राचार्य के शिष्यों का समुदाय-कुल), 8. गण की सेवा, 9. संघ की सेवा, 10. सार्धा सेवा करते समय विवेक को भी आवश्यकता है। सेवा करने वाले को यह ध्यान में रहना चाहिये कि अवसर के अनुसार सेवा की जाए। व्यवहारभाष्य में लिखा है कि प्रावश्यकता होने पर भोजन देना, पानी देता, सोने के लिये बिस्तर आदि देना, गुरुजनों के वस्त्रादि का प्रतिलेखन कर देना, पांव पौंछना, रुग्ण हो तो दवा मादि का प्रबन्ध करना, रास्ते में डगमगा रहे हों तो सहारा देना, राजा आदि के ऋद्ध होने पर प्राचार्य, संघ आदि को रक्षा करना, चोर आदि से बचाना, यदि किसी ने दोष का सेवन किया है तो उसको स्नेहपूर्वक समझा कर उसकी विशुद्धि करवाना, रुग्ण हो तो उसकी दवा-पथ्यादि का ध्यान रखना, रोगी के प्रति घृणा या ग्लानि न कर अग्लान भाव से सेवा करना / आभ्यन्तर तप का चतुर्थ प्रकार स्वाध्याय है / 'सुष्ठु-या मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः।१४३ सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक प्रोर विधिसहित अध्ययन करना स्वाध्याय है / दूसरी व्युत्पत्ति है- स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायःप्रध्ययनम-स्वाध्यायः / अपना अपने ही भीतर अध्ययन, अात्मचिन्तन मनन स्वाध्याय है। जैसे शरीर के विकास के लिये व्यायाम आवश्यक है, वैसे ही बुद्धि के विकास के लिये स्वाध्याय है। स्वाध्याय से नया विचार और नया चिन्तन उदबुद्ध होता है। गलत पाहार स्वास्थ्य के लिये अहितकर है, वैसे ही विकारोत्तेजक पुस्तकों का वाचन भी मन को दूषित करता है। अध्ययन वही उपयोगी है जो सद्विचारों को उबुद्ध करे। इसीलिये भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा कि स्वाध्याय समस्त दुःखों से मुक्ति दिलाता है / ' 44 अनेक भवों के संचित कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं। '45 स्वाध्याय अपने-आप में महान तप है / तैत्तिरीय आरण्यक में 142. प्रसंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अन्भुट्टेयध्वं भवइ, गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भठ्यब्वं भवइ। स्थानांगसूत्र 8 143. स्थानांग टीका 5 / 3 / 465 144, उत्तराध्ययन 26 / 10 145. चन्द्रप्रज्ञप्ति 91 [50] Page #2127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक ऋषि ने कहा-तपो हि स्वाध्यायः ४.-स्वाध्याय स्वयं एक तप है। उसकी साधना-आराधना में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये / इसलिये तैत्तिरीय उपनिषद् में भी कहा है-स्वाध्यायान मा प्रमद / 147 स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। फर्श की ज्यों-ज्यों घटाई होती है, त्यों-त्यों वह चिकना होता है। उसमें प्रतिबिम्ब छलकने लगता है, वैसे ही स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है। प्रागमों के गम्भीर रहस्य उसमें प्रतिविम्बित होने लगते हैं। प्राचार्य पतञ्जलि ने योगदर्शन में लिखा है कि स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होने लगता है। '48 एक चिन्तक ने लिखा है कि स्वाध्याय से चार बातों की उपलब्धि होती है, स्वाध्याय से जीवन में सदविचार आते हैं, मन में सत्संस्कार जागत होते हैं। स्वाध्याय से अतीत के महापुरुषों की दीर्घकालीन साधना के अनुभवों की थाती प्राप्त होती है। स्वाध्याय से मनोरंजन के साथ मानन्द भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय से मन एकाग्र और स्थिर होता है। जैसे अग्निस्नान करने से स्वर्ण मलमुक्त हो जाता है वैसे ही स्वाध्याय से मन का मल नष्ट होता है / अतः नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। भगवतीसूत्र,१४६ स्थानांग,१५० औपपातिक 51 प्रभति पागम साहित्य में स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये हैं। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा तथा इनके भी अवान्तर भेद किये गये हैं। स्वाध्याय से ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है। अन्तरंग तप का पांचवां प्रकार ध्यान है। मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि कोष में लिखा है-अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।'५२ आचार्य भद्रबाहू ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है--चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर करना, ध्यान है।'५3 जिज्ञासा हो सकती है कि मन का किसी भी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो लोभी व्यक्ति का ध्यान सदा धन कमाने में लगा रहता है, चोर का ध्यान वस्तु को चुराने में लगा रहता है, कामी का ध्यान वासना की पूर्ति में लगा रहता है, क्या वह भी ध्यान है ? समाधान है कि पापात्मक चिन्तन की एकाग्रता भी ध्यान है। भारत के तत्वदर्शी मनीषियों ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है—एक शुभ ध्यान है और दूसरा अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है तो अशुभ ध्यान नरक और तिर्यञ्च का कारण है। अशुभ ध्यान प्रधोमुखी होता है तो शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है। अशुभ ध्यान अप्रशस्त है, शुभ ध्यान प्रशस्त है। इसीलिये स्थानांग प्रादि में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं--प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यात प्रौर शुक्लध्यान / इन चार प्रकारों में दो प्रकार अशुभ ध्यान के हैं। वे दोनों प्रकार तप की कोटि में नहीं आते / अत: प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान की परिभाषा इस प्रकार की है—शुभ और पवित्र मालम्बन पर एकाग्र होला ध्यान है।५४ 146. तैत्तिरीय प्रारण्यक 2 / 14 147. तैत्तिरीय उपनिषद् 11111 148. स्वाध्यायादिष्ट देवतासंप्रयोगः। -योगदर्शन 2144 149. भगवती, 2517 150. स्थानांग.५ 151. औपपातिक. समवसरण, तप अधिकार / 152. ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंततिः। प्राभिधान राजेन्द्र कोष 148 153. चित्तस्सेमागया हवई झाणं। -आवश्यकनियुक्ति 1456 154. शुभकप्रत्ययो ध्यानम् / द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 18111 [51] Page #2128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन की अन्तर्मुखता, अन्तलीनता शुभ ध्यान है। मन स्वभावतः चंचल है / वह लम्बे समय तक एक वस्तु पर स्थिर नहीं रह सकता। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि छमस्थ का मन अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक यानी 48 मिनिट तक एक पालम्बन पर स्थिर रह सकता है, उससे अधिक नहीं / पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो प्रात्मा का आत्मा के द्वारा प्रात्मा के विषय में सोचना, चिन्तन करना धर्मध्यान है। भगवती, स्थानांग आदि में धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विषाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार कहे हैं। धर्मध्यान के आज्ञारुचि, निसर्गरुधि, सूत्ररुचि और अबगाढ़रुचि---ये चार लक्षण हैं। इसी प्रकार धर्मध्यान को सुस्थिर रखने के लिये धर्म ध्यान के चार आलम्बन भी बताये गये हैं-१. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परिवर्तना और 4. धर्मकथा। धर्मध्यान के समय जो चिन्तन तल्लीनता प्रदान करता है, उस चिन्तन को हम अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनुप्रेक्षा के भी चार प्रकार हैं-१. एकत्वानुप्रेक्षा, 2. अनित्यानुप्रेक्षा, 3. अशरणानुप्रेक्षा एवं 4, संसारानुप्रेक्षा। इन चारों भावनाओं से मन में बैराग्य भावना तरंगित होती है। भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण न्यून हो जाता है। धर्म-ध्यान से जीवन में मानन्द का सागर ठाठे मारने लगता है। धर्मध्यान में मुख्य तीन अंग हैं-ध्यान, ध्याता और ध्येय / ध्यान का अधिकारी ध्याता कहलाता है। एकाग्रता ध्यान है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है। चंचल मन बाला व्यक्ति ध्यान नहीं कर सकता। जहाँ प्रासन की स्थिरता ध्यान में अपेक्षित है, वहाँ मन की स्थिरता भी बहुत अपेक्षित है। इसीलिये ज्ञानार्णव में लिखा है, जिसका चित्त स्थिर हो गया है, वही वस्तुत: ध्यान का अधिकारी है। ध्येय के सम्बन्ध में तीन बातें हैं-एक परावलम्बन, जिसमें दूसरी वस्तुओं का अबलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है / श्रमण भगवान महावीर अपने साधनाकाल में एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित करके ध्यानमुद्रा में खड़े रहे थे / 55 जब एक पुदगल पर दृष्टि केन्द्रित होती है तो मन स्थिर हो जाता है। इसे त्राटक भी कह सकते हैं। ध्यान का दूसरा प्रकार स्वरूपाबलम्बन है, इसमें बाहर से दष्टि हटाकर नेत्रों को बन्द कर विविध प्रकार की कल्पनाओं से यह ध्यान किया जाता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में, प्राचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत जो ध्यान के प्रकार और उनकी धारणानों के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया है, वह सब स्वरूपावलम्बन ध्यान के अन्तर्गत ही है। हमने 'जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखा है। जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें। तीसरा प्रकार है-निराबलम्बन / इसमें किसी भी प्रकार का कोई आलम्बन नहीं होता / मन विचार, विकार और विकल्पों से शून्य होता है / प्राचार्य हेमचन्द्र ने जो रूपातीत ध्यान प्रतिपादित किया है वह यही है। इसमें निरंजन, निराकार सिद्ध स्वरूप का ध्यान किया जाता है और प्रात्मा स्वयं कर्म-मल से मुक्त होने का अभ्यास करता है / ' 56 इस ध्यान में साधक यह समझता है कि मैं अलग हूं और इन्द्रियाँ व मन अलग हैं / साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। रूप से अरूप की ओर बढ़ने के लिये अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता है। रूपातीत ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब भेदरेखा स्वतः ही समाप्त हो जाती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान-तीनों एकाकार 155. एमपोग्गलनिविददिदिए / -भगवतीसूत्र 3/2 156. निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूपवजितम् / -योगशास्त्र 10/1 [52 ] Page #2129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाते हैं / जैसे सागर में नदियां मिलकर एकाकार हो जाती हैं। तत्त्वार्थ सूत्र एवं उसकी विभिन्न टीकाओं में ध्यान का सारगर्भित प्रतिपादन किया गया है / ' 57 ध्यान का चतुर्थ प्रकार शुक्लध्यान है। यह ध्यान की परम विशुद्ध अवस्था है। जब साधक के अन्तर्मानस से कषाय की मलीनता मिट जाती है, तब निर्मल मन से जो ध्यान किया जाता है, वह शुक्लध्यान है। शुक्ल. ध्यानी का अन्तर्मानस वैराग्य से सराबोर होता है। उसके तन पर यदि कोई प्रहार करता है, उसका छेदन या भेदन करता है तो भी उसको संक्लेश नहीं होता। देह में रहकर भी वह देहातीत स्थिति में रहता है। शुक्लध्यान के शुक्ल और परमशुक्ल ये दो भेद हैं। चतुर्दश पूर्वधर तक का ध्यान शुक्लध्यान है और केवलज्ञानी का ध्यान परमशुक्लध्यान है। '58 स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार प्रकार भगवती, 5 स्थानांग, 10 समवायांग'६' आदि में बताये हैं 1. पृथक्त्ववितर्कसविचार--पृथक्त्व का अर्थ है-~-भेद और बितर्क का तात्पर्य है-श्रुत / प्रस्तुत ध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर पदार्थ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन किया जाता है। द्रव्य, गुण, पर्याय पर चिन्तन करते हुए द्रव्य से पर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन किया जाता है। इस ध्यान में भेदप्रधान चिन्तन होता है। 2. एकत्ववितर्क अविचार-जब भेदप्रधान चिन्तन में साधक का अन्तर्मानस स्थिर हो जाता है तब वह अभेदप्रधान चिन्तन की ओर कदम बढ़ाता है। वह किसी एक पर्यायरूप अर्थ पर चिन्तन करता है तो उसी पर्याय पर उसका चिन्तन स्थिर रहेगा। जिस स्थान पर तेज हवा का प्रभाव होता है, वहाँ पर दीपक की लौ इधर-उधर डोलती नहीं है / उस दीपक को मंद हवा मिलती रहती है, वैसे ही प्रस्तुत ध्यान में साधक सर्वथा निविचार नहीं होता किन्तु एक ही वस्तु पर उसके विचार केन्द्रित होते हैं। 3. सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिशति-यह ध्यान बहुत ही सूक्ष्म क्रिया पर चलता है। इस ध्यान में अवस्थित होने पर योगी पुनः ध्यान से विचलित नहीं होता, इस कारण इस ध्यान को सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति कहा है। यह ध्यान केवल वीतरागी प्रात्मा को ही होता है। जब केवलज्ञानी का प्रायुष्य केवल अन्तर्गहर्त अवशेष रहता है, उस समय योगनिरोध का क्रम प्रारम्भ होता है। मनोयोग और वचनयोग का पूर्ण निरोध हो जाने पर जब केवल सूक्ष्म काययोग से श्वासोच्छ्वास ही अवशेष रह जाता है, उस समय का ध्यान ही सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति ध्यान है। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही आत्मा अयोगी बन जाता है / 4. समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति--जब प्रात्मा सम्पूर्ण रूप से योगों का निरुन्धन कर लेता है तो समस्त * यौगिक चंचलता समाप्त हो जाती है। आत्मप्रदेश सम्पूर्ण रूप से निष्कम्प बन जाते हैं। सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाति ध्यान में श्वासोच्छ्वास की क्रिया जो शेष रहती है, वह भी इस भूमिका पर पहुंचने पर समाप्त हो जाती है। यह परम निष्कम्प और सम्पूर्ण क्रिया-योग से मुक्त ध्यान की अवस्था है / यह अवस्था प्राप्त होने पर पुनः आत्मा पीछे 157. धर्ममप्रमत्तसंयतस्य-तत्त्वार्थ सूत्र 9/37-38 158. तत्त्वार्थ सूत्र 9/39-40 159. भगवती 25/7 160. स्थानांग 4/10 16.. समवायांग 4 [3] Page #2130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा A नहीं हटता इसीलिए इसका नाम समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति शुक्लध्यान दिया है। इस ध्यान के दिव्य प्रभाव से वेदनीयकर्म, नामकर्म, मोत्रकर्म और आयुष्यकर्म नष्ट हो जाते हैं और अरिहन्त, सिद्ध बन जाते हैं। शुक्लध्यान के प्रारम्भ के दो प्रकार सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते है। तीसरा प्रकार तेरहवें गुणस्थान में होता है और चौथा प्रकार चौदहवें गूणस्थान में / प्रथम के दो ध्यानों में श्रत का पालम्बन होता है। अन्तिम दो प्रकारों में आलम्बन नहीं होता / ये दोनों ध्यान निरवलम्ब हैं। शुक्लध्यानी आत्मा के चार चिह्न बताये गये हैं, जिससे शुक्लध्यानी की पहचान होती है। वे हैं१. अव्यथ-.-भयंकर से भयंकर उपसर्गों में भी विचलित-व्यथित नहीं होता। 2. असम्मोह--सूक्ष्म तात्त्विक विषयों में अथवा देवाधिकृत माया से सम्मोहित नहीं होता। उसकी / रूप से अडोल होती है। , 3. विवेक----प्रात्मा और देह, ये दोनों पृथक् हैं- इसका सही परिज्ञान उसको होता है। वह पूर्ण रूप से जागरूक होता है। 4. व्युत्सर्ग-वह सम्पूर्ण प्रासक्तियों से मुक्त होता है। वह प्रतिपल प्रतिक्षण वीतराग भाव की ओर गतिशील होता है। भगवती'१२और स्थानांग 3में शुक्लध्यान के क्षमा, मार्दव, प्रार्जव और मुक्ति ये चार पालम्बन बतलाए हैं। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं भी पागम साहित्य में प्रतिपादित हैं, वे इस प्रकार हैं 1. अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा--अनन्त भव-परम्परा के सम्बन्ध में चिन्तन करना। 2. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तु प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, शुभ पुद्गल अशुभ में बदल जाते हैं, इत्यादि चिन्तन / 3. अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर चिन्तन करने से उन पदार्थों के प्रति प्रासक्ति समाप्त होती है और मन में निर्वेद भाव पैदा होता है। 4. अपायानुप्रेक्षा---पाप के आचरण से अशभ कर्मों का बन्धन होता है, जिससे प्रात्मा को विविध मतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है, अतः उनके कटु परिणाम पर चिन्तन करना। .ये चारों अनुप्रेक्षाएं शुक्लध्यान की प्रारम्भिक अवस्थाओं में होती हैं, जब धीरे-धीरे स्थिरता मा जाती है तो स्वतः ही बाह्योन्मुखता समाप्त हो जाती है। आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार व्युत्सर्ग है। इस तप की साधना से जीवन में निर्ममत्व, निस्पहता, अनासक्ति और निर्भयता की भव्य भावना लहराने लगती है। व्युत्सर्ग में 'वि' उपसर्ग है। 'वि' का अर्थ है--विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग 1 पाशा और ममत्व आदि का परित्याग ही न्युत्सर्ग है। दिगम्बर आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थ राजवातिक 164 में व्युत्सर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है--निस्संगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग उत्सर्ग है। आत्मसाधना के लिये अपने-आप का उत्सर्ग करना न्युत्सर्ग है। प्राचार्य 65 ने व्युत्सर्ग करने वाले साधक के अन्तर्मानस का चित्रण करते हुए लिखा है-यह शरीर अन्य है 262. भगवती सूत्र 25/7 163. स्थानांगसूत्र 3/1 164. नि:संग-निर्भयत्व-जीविताशा-व्युदासाद्यर्थो व्युत्सर्गः / 165. आवश्यकनियुक्ति, 1552 -तत्त्वार्थ राजवातिक 9/26/10 [54] Page #2131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मेरा मात्मा अन्य है। शरीर नाशवान है, पात्मा शाश्वत है। व्युत्सर्ग करने वाला साधक स्व के यानी प्रात्मा के निकट से निकटतर होता चला जाता है और पर की ममता से मुक्त होता है। उत्तराध्ययन 56 में व्यत्सर्ग के अर्थ में ही कायोत्सर्ग का प्रयोग हआ है। कायोत्सर्ग व्यूत्सर्ग है, पर भगवती में व्युत्सर्ग तप के दो भेद बताये हैं-१ द्रव्य व्युत्सर्ग और 2. भाव व्युत्सर्ग / द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-१. गण व्युत्सर्ग 2. शरीर व्युत्सर्ग 3. उपधि व्युत्सर्ग 4. भक्तपाण व्युत्सर्ग। इसी प्रकार भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं-१. कषाय व्युत्सर्ग 2. संसार व्युत्सर्ग और 3. कर्म व्युत्सर्ग / साधक पहले द्रव्य व्युत्सर्ग करता है / द्रव्य व्युत्सर्ग से वह पाहार, वस्त्र, पात्र और शरीर पर के ममत्व को कम करता है। व्युत्सर्ग में सबसे प्रमुख कायोत्सर्ग है। काया को धारण करते हुए भी काया की अनुभूति व ममता से मुक्त हो जाना एक बड़ी साधना है / एतदर्थ ही 'वोसट्टकाए, वोसटुचत्तदेहे' जैसे विशेषण साधक के लिये प्रयुक्त हुए हैं। जिसने कायोत्सर्ग सिद्ध कर लिया, वह अन्य व्युत्सर्ग भी सहज रूप से कर लेता है। यह स्मरण रखना होगा कि जैन तप:साधना का जो पवित्र पथ है, उसमें हठयोग नहीं है। उस तप में किसी भी प्रकार का तन और मन के साथ बलात्कार नहीं होता अपित धीरे-धीरे तन और जाता है और प्रसन्नता के साथ तप की आराधना की जाती है। जैनदष्टि से तप का संलक्ष्य आत्मतत्त्व की उपलब्धि है 1 तप से साधक का अन्तिम लक्ष्य जो मोक्ष है, उसकी उपलब्धि होती है। तप के सम्बन्ध में वैदिक परम्परा में भी चिन्तन किया है। वैदिक ऋषियों ने लिखा है कि तप से ही वेद उत्पन्न हसा है।'६८ तप से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए हैं।६६ तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है। '70 तप से ही मृत्यु पर विजय-बैजयन्ती फहराई जा सकती है / 171 तप से हो लोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है। प्राचार्य मनु ने लिखा है---जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर इस संसार में है वह सब तपस्या से ही प्राप्य है। तप की शक्ति को कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।७३ इस तरह वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में तप की महिमा और गरिमा का उटंकण हुआ है। बौद्धपरम्परा में भी तप का वर्णन है। सुत्तनिपात के महामंगलसुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा-तप, ब्रह्मचर्य, प्रार्य सत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल है / 174 सूत्तनिपात के काशीभारद्वाज सुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा---मैं श्रद्धा का बीज वपन करता है, उस पर तपश्चर्या की वर्षा होती है, शरीर और 166. उत्तराध्ययन, 30/36 167. भगवतीसूत्र, 25/7 168. मनुस्मृति 11, 243 169. ऋग्वेद 10, 190, 1. 170. मुण्डक 1, 1,8 171. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत-वेद 172. शतपथब्राह्मण 3, 4, 4, 27 / 173. यद् दुस्तरं यद् दुरापं दुर्ग यच्च दुष्करम् / सर्व तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् // 174. महामंगलसुत्त, सुत्तनिपात 16/10 -मनुस्मृति 11, 237 [ 55 ] Page #2132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणी से संयम रखता हूँ और पाहार से नियमित रहकर सत्य से मन के दोषों की गोडाई करता हूँ। 75 अंगुत्तरनिकाय दिट्रवज्जसुत्त में तथागत ने कहा कि किसी तप या व्रत को करने से किसी के कुशल धर्म की अभिवद्धि होती है और अकुशल धर्म नष्ट होते हैं तो उसे वह तप अादि अवश्य करना चाहिये / '76 तथागत बुद्ध ने स्वयं कठिनतम तप तपा था। 177 उनका तपोमय जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रतीक है कि बौद्धसाधना में तप का विशिष्ट स्थान रहा है। बुद्ध मध्यममार्गी थे। इस कारण उनके द्वारा प्रतिपादित तप भी मध्यममार्गी ही रहा / उसमें उतनी कठोरता नहीं पा पाई / विस्तार भय से हम अन्य ग्राजीवक प्रभृति परम्परा में जो तप का स्वरूप रहा और विभिन्न परम्पराओं ने तप का विविध दष्टियों से जो वर्गीकरण किया, उस पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं / हम संक्षेप में यही बताना चाहते हैं कि जैनपरम्परा ने जो तप का विश्लेषण किया है उस तप का उद्देश्य एकान्त प्राध्यात्मिक उत्कर्ष करना है। प्राध्यात्मिक उत्कर्ष के लिये उसने ज्ञानसमन्वित तप को महत्त्व दिया है। जिस तप के पीछे समत्व की साधना नहीं है, भेद-विज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा नहीं रहा है वह तप नहीं ताप है/संताप है/परिताप है। श्रमण भगवान महावीर ने कहा-एक अज्ञानी साधक एक-एक महीने की तपस्या करता है और उस तप की परिसमाप्ति पर कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करता है। वह साधक ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नहीं करता।'७८तप का प्रयोजन आत्म-परिशोधन है, न कि देह-दण्डन / जब हमें घी को तपाना होता है तो उसे पात्र में डालकर ही तपाया जा सकता है, इसीलिये घत के साथ-साथ पात्र भी तप जाता है, जबकि हमारा हेतु तो घृत तपाना ही होता है। उसी प्रकार जब कोई तपस्वी साधक तपश्चर्या में तल्लीन होता है तो उसकी तपस्या का हेतु होता है--प्रात्मा को शोधना, किन्तु प्रात्मा को तपाने / शोधने को इस प्रक्रिया में शरीर स्वतः ही तप जाता है। चेष्टा प्रात्मशोधन की है किन्तु शरीर आत्मा का भाजन/पात्र होने से तपता है। जिस तप में मानसिक संक्लेश हो, पीड़ा हो वह तप नहीं है / तप में प्रात्मा को प्राकुलता नहीं होती, क्योंकि तप तो आत्मा का आनन्द है / तप जागृत प्रात्मा की अनुभूति है। इससे मन की मलीनता नष्ट होती है, वासनाएं शिथिल होती हैं; चेतना में नये प्रानन्द का आयाम खुल जाता है और नित्य नतन अनुभूति होने लगती है। यह है तप का जीवन्त, जागत और शाश्वत स्वरूप / तप एक ऐसी उष्मा है, जो विकार को नष्ट कर आत्मा को वीतराग बनाती है। परिषह : एक चिन्तन भगवतीसूत्र शतक 8 उद्देशक 5 में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने परिषह के 22 प्रकार बताये हैं। परीषह का अर्थ है-कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना / परीषह में जो कष्ट सहन किये जाते हैं वे स्वेच्छा से नहीं अपितु श्रमणजीवन की प्राचार संहिता का पालन करते हुए अाकस्मिक रूप से यदि 175. कासिभारद्वाजसुत्त, सुत्तनिपात 4/2 176. दिट्ठवज्जसुत्त-अंगुत्तरनिकाय 177. भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कोसाम्बी) 1068-70 178. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि // तुलनेयमासे मासे कुसग्गेन बालो भुजेथ भोजनं / न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलसि // --उत्तराध्ययन, 9/44 -धम्मपद, 70 [ 56 ] Page #2133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी प्रकार का कोई संकट समुपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है। किन्तु तपस्या में जो कष्ट सहन किया जाता है, वह स्वेच्छा से किया जाता है। कण्ट श्रमणजीवन को निखारने के लिये पाता है / श्रमण को कष्टसहिष्णु होना चाहिए, जिससे वह साधना-पथ से विचलित न हो सके। भगवती में जिस प्रकार परीषद के बाईस प्रकार बताये हैं वैसे ही उत्तराध्ययन' और समवायाङ८० सूत्र में भी बाईस परीषर-प्रकारों को बताया है / संख्या की दृष्टि से समानता होने पर भी ऋम की दृष्टि से कुछ अन्तर है। अंगुत्तरनिकाय'' में तथागत बुद्ध ने कहा है-भिक्षु को दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकल, बुरी, शारीरिक वेदनाएं हों, उन्हें सहन करने का प्रयास करना चाहिए। भिक्षुओं को समभावपूर्वक कष्ट सहन करने का सन्देश देते हुए सुत्तनिपात 182 में भी बुद्ध ने कहा है-धीर, स्मृतिमान् संयत आचरण वाला भिक्षु डसने वाली मक्खियों से, सपो से, पापियों द्वारा दी जाने वाली पीड़ा से मोर पशुओं से भयभीत न हो, सभी कष्टों का सामना करे / बीमारी के कष्ट को, क्षुधा की वेदना को, शीत और उष्ण को सहन करे / सुत्तनिपात'८३ में कष्टसहिष्णुता के लिए परिषह शब्द का प्रयोग हुना है, पर जैनपरम्परा में और बौद्धपरम्परा में परीषह के सम्बन्ध में कुछ पृथक्-पृथक् चिन्तन है। जनदृष्टि से परीषह को सहन करना मुक्ति मार्ग के लिये साधक है, जबकि बोद्धपरम्परा में परीषह निर्वाणमार्ग के लिये बाधक है और उस बाधक तत्त्व को दूर करने का सन्देश दिया है।१६४ तथागत बुद्ध परीषह को सहन करने की अपेक्षा परीषह को दूर करना श्रेयस्कर समझते थे। दोनों परम्परायों में परीषह का मूल मन्तव्य एक होने पर भी दृष्टिकोण में अन्तर है। जैन और बौद्ध परम्परा में जिस प्रकार परीषह का निरूपण हुआ है और मुनियों के लिये कष्टसहिष्णु होना आवश्यक माना है वैसे ही वैदिक परम्परा में भी संन्यासियों में लिये कष्टसहिष्णु होना प्रावश्यक माना गया है। वहाँ पर यह भी प्रतिपादित किया गया है कि संन्यासियों को कष्टों को निमंत्रित करना चाहिए। प्राचार्य मन् ने लिखा है--वानप्रस्थी को पंचाग्नि के मध्य खड़े होकर, वर्षा में खुले में खड़े रहकर और शीत धारण करने चाहिये / / 85 उसे खले ग्राकाश के नीचे सोना चाहिये और शरीर में रोग पैदा होने पर भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये / इस तरह कष्ट को स्वेच्छापूर्वक निमंत्रण देने की प्रेरणा दी है। किन कर्मप्रकुतियों के कारण कौन से परीषह होते हैं, उस पर भी प्रकाश डालते हुए बताया हैज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय के कारण परीषह उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार साधनाखण्ड में विविध प्रकार की जिज्ञासाएं हैं और सटीक समाधान भी हैं। अत्यधिक विस्तार न हो जाये इस दृष्टि से हमने संक्षेप में ही कुछ सूचन किया है। भगवती शतक 25, उद्देशक 4 में संक्षिप्त में द्वादशांगी का भी परिचय दिया है। उसका अधिक विस्तार समवायांग और नन्दीसूत्र में मिलता है। ......... . .. .... 179. उत्तराध्ययन, अध्ययन 2 180. समवायांग, 22 / 1 181. अंगुत्तरनिकाय, 3 / 49 182. सुत्तनिपात 54 / 10-12 183, सुत्तनिपात 5416 184. सुत्तनिपात 5416; 15 185. मनुस्मृति 6123, 34 देखिये-जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, खण्ड-२, पृ. 362-363 Page #2134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र में जहाँ साधना के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन हया है, उसके विविध भेद-प्रभेद निरूपित हैं; वहाँ पर धर्मकथाओं का भी उपयोग हुग्रा है। विविध व्यक्तियों के पवित्र चरित्र की विभिन्न गाथाएँ उकित हैं / भगवान् महावीर के युग में श्रावस्ती नगरी के सन्निकट कृतंगला नामक एक नगर था, जिसे कयंगला भी कहा गया है / बौद्धसाहित्य के आधार से कितने ही विज्ञ संथाल जिले में अबस्थित कंकजोल को ही कतंगला (कयंगला) मानते हैं। मुनिश्री इन्द्रविजयजी का मन्तब्य है कि कयंगला मध्य देश की पूर्वी सीमा पर थी जिसका उल्लेख रायपालचरित में हना है / यह स्थान राजमहल जिले में है। यह कायंगला श्रावस्ती की कयंगला से पृथक है।'८६ भगवान महावीर के युग में परिव्राजकों की संख्या विपुल मात्रा में थी। परिव्राजक ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित संन्यासी होते थे। विशिष्टधमंसूत्र में वर्णन है कि परिव्राजक को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिये। एक वस्त्र या धर्मखण्ड धारण करना चाहिये / गायों द्वारा उखाड़ी गई पास से अपने शरीर को पाच्छादित करना चाहिये और उन्हें जमीन पर ही सोना चाहिये।'८७ परिव्राजक आवसथ (अवसह) में रहते थे तथा दर्शनशास्त्र पर और वैदिक आचारसंहिता पर शास्त्रार्थ करने हेतु भारत के विविध अञ्चलों में पहँचते थे। निशीथणि में लिखा है-परिव्राजक लोग गेरुमा वस्त्र धारण करते थे, इसलिये वे गेरु और गैरिक भी कहलाते थे। 86 परिमाजक भिक्षा से भाजीविका करते थे / ' प्रोपपातिक सूत्र,180 सूत्रकृतांगनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति,६३ बहत्कल्पभाष्य,४३ निशीथसूत्र सभाष्य,१६४ आवश्यकचूणि,६५ धम्मपदप्रट्टकथा, 16 दीघनिकायअट्ठकथा, ललितविस्तर 8 प्रादि में परिव्राजक, तापस, संन्यासी आदि अनेक प्रकार के साधकों का विस्तृत वर्णन है। प्रार्य स्कन्दक का वर्णन भगवती के शतक 2 उद्देशक 1 में विस्तार से पाया है। वह एक महामनीषी परिव्राजक था। उससे पिंगल नामक निर्ग्रन्थ वैशाली श्रावक ने लोक सान्त है या अनन्त है, जीव सान्त है या अनन्त, सिद्धि सान्त है या अनन्त है, किस प्रकार का मरण पाकर जीव संसार को घटाता है और बढ़ाता है-- इन प्रश्नों का उत्तर चाहा / प्रश्न सूनकर आर्य स्कन्दक सकपका गये। वे भगवान महावीर के चरणों में पहुंचे। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्कन्दक को सम्बोधित कर कहा--उपर्युक्त प्रश्न पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे पूछे और उनका सही समाधान पाने के लिये तुम मेरे पास उपस्थित हुए हो / उनका समाधान इस प्रकार है 186. तीर्थंकर महावीर, भाग 1, पृ. 198 187. (क) डिक्शनरी ऑव पाली प्रोपर नेम्स, मलालसेकर, II पृ. 159 (ख) महाभारत 12 / 19013 188. निशीथचणि 13, 4420 189. निरुक्त 1514 वैदिककोष 190. प्रोपपातिकसूत्र, 38 पृ. 172 से 176 191. सूत्रकृतांगनियुक्ति 3, 4, 2, 3, 4 पृ, 94 से 95 992. पिण्डनियुक्ति गाथा 314 / / 193. बृहत्कल्पभाष्य भाग 4, पृ. 1170 194. निशीथसूत्र सभाष्य चणि, भाग 2 195. आवश्यकचूणि पृ. 278 196. धम्मपद अट्ठकथा 2, पृ. 209 197. दीघनिकायग्रट्ठकथा 1, पृ. 270 198. ललितविस्तर पृ. 248 [ 58] Page #2135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से लोक चार प्रकार का है / द्रव्यं की अपेक्षा वह एक और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटा-कोटि योजन है, इसका अन्त है। काल की अपेक्षा यह किसी दिन नहीं था ऐसा नहीं है, किसी दिन नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है / वह तीनों कालों में रहेगा और इसका अन्त नहीं है / भाव को अपेक्षा यह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पर्यव रूप है। अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु पर्यव और अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। द्रव्य और क्षेत्र को अपेक्षा लोक सान्त है, काल और भाव की अपेक्षा वह अनन्त है। इस प्रकार लोक सान्त है और अनन्त भी। जीव के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन किया जाय तो द्रव्य की दृष्टि से जीव एक और सान्त है, क्षेत्र की दृष्टि से वह असंख्यात प्रदेशी और सान्त है। काल की दृष्टि से वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा अत: नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं। भाव की दृष्टि से वह अनन्त ज्ञान पर्यव रूप है, अनन्त दर्शन पर्यव रूप है यायत् अनन्त अगुरुलधु पर्यव रूप है। इसका अन्त नहीं है / इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव अन्तयुक्त है। काल और भाव की दृष्टि से अन्तरहित है / मोक्ष के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जानना होगा। द्रव्य की दृष्टि से मोक्ष एक है और सान्त है / क्षेत्र की दृष्टि से पैतालीस लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है और इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। इसका अन्त है। काल की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा। भाव की अपेक्षा से यह अन्तरहित है / द्रव्य और क्षेत्र को अपेक्षा से मोक्ष अन्तयुक्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अन्तरहित है। इसी तरह सिद्ध अन्तयुक्त है या अन्तरहित है ? इसके उत्तर हैं-द्रव्य की रष्टि से सिद्ध एक है और अन्तयुक्त है / क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध असंख्य प्रदेश-अवगाढ होने पर भी अन्तयुक्त है। काल की दृष्टि से सिद्ध की आदि तो है पर अन्त नहीं है। भाव की दृष्टि से सिद्ध ज्ञानदर्शन पर्यव रूप है और उसका अन्त नहीं है। इसी तरह भगवान् महावीर ने मरण के भी दो प्रकार बताये-१. बालमरण और 2. पण्डितमरण / बालमरण के बारह प्रकार हैं। बालमरण से मर कर जीव चतुर्गत्यात्मक संसार की अभिवृद्धि करता है और पण्डितमरण से मर कर जीव दीर्घ संसार को सीमित कर देते हैं। इन प्रश्नों का विस्तार से उत्तर सुनकर आर्य स्कन्दक अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने भगवान् महावीर के पास आई ती दीक्षा ग्रहण की। जब हम महावीरयुग का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उस युग में इस प्रकार के प्रश्न दार्शनिकों के मस्तिष्क को झकझोर रहे थे और वे यथार्थ समाधान पाने के लिये मूर्धन्य मनीषियों के पास पहुँचते थे / तथागत बुद्ध के पास भी इस प्रकार के प्रश्न लेकर अनेक जिज्ञासु पहुँचते रहे, पर तथागत बुद्ध उन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टालते रहते थे। मज्झिमनिकाय'" में जिन प्रश्नों को तथागत ने अन्याकृत कहा था, वे ये हैं 1. क्या लोक शाश्वत है ? 2. क्या लोक प्रशाश्वत है ? 3. क्या लोक अन्तमान है ? 4. क्या लोक अनन्त है? 5. क्या जीव और शरीर एक है ? 6. क्या जीव और शरीर भिन्न है ? 7. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? 8. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ? 9. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ? , इन प्रश्नों के उत्तर में विधान के रूप में बुद्ध ने कुछ भी नहीं कहा है। उनके मन में सम्भवतः यह 199. मझिमनिकाय, चुलमालुंक्यसुत्त, 63 [ 59] Page #2136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार रहा होगा कि यदि मैं लोक और जीव को नित्य कहता हूँ तो उपनिषद् का शाश्वत वाद मुझं मानना पड़ेगा। यदि मैं अनित्य कहता है तो चार्वाक का भौतिकवाद स्वीकार करना पड़ेगा। उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों पसन्द नहीं थे, इसीलिये ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त कह दिया कि लोक अशाश्वत हो या शाश्वत, जन्म है ही, मरण है हो। मैं तो इन्हीं जन्म-मरण के विधात को बताता है। यही मेरा व्याकृत है और इसी में तुम्हारा हित है। इस तरह बुद्ध ने प्रशाश्वतानुच्छेदवाद स्वीकार किया है / इसका भी यह कारण था कि उस युग में जो वाद थे उन वादों में उनको दोष दृग्गोचर हुए, अतएव किसी वाद का अनुयायी होना उन्हें श्रेयस्कर नहीं लगा / 200 पर महावीर ने उन वादों के गुण और दोष दोनों देखें। जिस वाद में जितनी सचाई थी उतनी मात्रा में स्वीकार कर, सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। तथागत बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप में देना पसन्द नहीं करते थे, उन सभी प्रश्नों का उत्तर भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद के रूप में प्रदान किये / प्रत्येक वाद के पीछे क्या दृष्टिकोण रहा हुआ है, उस बाद की मर्यादा क्या है ? इस बात को नयबाद के रूप में दर्शनिकों के सामने प्रस्तुत किया। तथागत बुद्ध ने लोक की सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा है, जब कि भगवान महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त अपेक्षाभेद से बताया। इसी तरह लोक शाश्वत है या प्रशाश्वत है ? यह प्रश्न भगवतीसूत्र, शतक 9, उद्देशक 6 में गणधर गौतम ने जमाली को पूछा / प्रश्न सुनकर जमाली सकपका गये। तब भगवान महावीर ने कहा---लोक शाश्वत है और प्रशाश्वत भी है। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूप में न हो। अत: वह शाश्वत है। लोक हमेशा एक रूप नहीं रहता है। प्रवसपिणी और उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। इसलिये वह प्रशाश्वत भी है। भगवान महावीर ने लोक को पंचास्तिकाय रूप माना। जीव और शरीर के भेदाभेद पर भी अनेकान्तवाद की दष्टि से जो समाधान किया है, वह भी अपूर्व है। उन्होंने आत्मा को शरीर से भिन्त और अभिन्न दोनों कहा है। किन्तु बुद्ध इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट नहीं हो सके। उनका अभिमत था कि यदि शरीर को आत्मा से भिन्न मानते हैं तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, यदि अभिन्न मानते हैं तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं। इसलिये दोनों अन्तों को छोड़कर उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया / 20' तथागत बुद्ध का यह चिन्तन था कि यदि प्रारमा शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये तो फिर. उसे कायकृत कर्मों का फल नहीं मिलना चाहिये। अत्यन्त भेद मानने पर अकृतागम दोष की अापत्ति है। यदि अत्यन्त अभिन्न माने तो जब शरीर को जला कर नष्ट कर देते हैं तो आत्मा भी नष्ट हो जायेगा / जब प्रात्मा नष्ट हो गया है तो परलोक सम्भव नहीं है। इस तरह कृतप्रणाश दोष की प्रापत्ति होगी। इन दोषों से बचने के लिये उन्होंने भेद और अभेद दोनों पक्ष ठीक नहीं माने। पर महावीर ने इन दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया / एकान्त भेद मोर एकान्त अभेद मानने पर जिन दोषों की सम्भावना थी, वे दोष उभयवाद मानने पर नहीं होते। जीव मौर शरीर का भेद मानने का कारण यही है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में रहती है / सिद्धावस्था में जो प्रात्मा है, वह शरीरमुक्त है। प्रात्मा और शरीर का जो प्रभेद माना गया है, उसका कारण है कि संसार-प्रवस्था में प्रात्मा नीर-क्षीर-वत रहता है। इसलिये शरीर से किसी 200. आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. 60-61 201. "तं जीवं तं सरीरं ति भिक्खु, दिदिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति / अञ्ज जीवं अन सरीरं ति वा भिक्खु, दिटिया सति ब्रह्मचरियबासो न होति / एते ते भिक्खु, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्म देसेति...." -संयुत्त XII 135 [60 Page #2137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी वस्तु का संस्पर्श होने पर प्रात्मा में भी संवेदन होता है और कायकर्म का विपाक प्रात्मा में होता है। 202 चार्वाक दर्शन शरीर को ही प्रात्मा मानता था तो उपनिषद् काल के ऋषिगण प्रात्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे। पर महावीर ने उन दोनों भेद और अभेद पक्षों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय कर दार्शनिकों के सामने समन्वय का मार्ग प्रस्तुत किया। इसी प्रकार जीव की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न पर भी बुद्ध का मन्तव्य स्पष्ट नहीं था / यदि काल की दृष्टि से सान्तता और अनन्तता का प्रश्न हो तो अव्या कृत मत से समाधान हो जाता है पर द्रव्य या क्षेत्र की दष्टि से जीव की सान्तता और निरन्तता के विषय में उनके क्या विचार थे, इस सम्बन्ध में त्रिपिटक साहित्य मौन है, जबकि भगवान महावीर ने जीव की सान्तता, निरन्तता के सम्बन्ध में अपने स्पष्ट विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अभिमतानुसार जीव एक स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में है। वह द्रव्य से सान्त है, क्षेत्र से सान्त है, काल से अनन्त है और भाव से अनन्त है। इस तरह जीव सान्त भी है, अनन्त भी है / काल की दृष्टि से और पर्यायों की अपेक्षा से उसका कोई अन्त नहीं पर वह द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है। - उपनिषद का प्रात्मा के सम्बन्ध के 'अणोरणीयान महतो महीयान' के मन्तव्य का भगवान महावीर ने निराकरण किया है। क्षेत्र की दष्टि से आत्मा की व्यापकता को भगवान महावीर ने स्वीकार नहीं किया है और एक ही आत्मद्रव्य सब कुछ है, यह भी भगवान महावीर का मन्तब्य नहीं है। उनका मन्तव्य है कि आत्मद्रव्य और उसका क्षेत्र मर्यादित है। उन्होंने क्षेत्र की दष्टि से प्रात्मा को सान्त कहते हुए भी काल की दष्टि से आत्मा को अनन्त कहा है। भाव की दष्टि से भी आत्मा अनन्त है क्योंकि जीव की जानपर्यायों का कोई अन्त नहीं है और न दर्शन और चारित्र पर्यायों का ही कोई अन्त है। प्रतिपल-प्रतिक्षण नई-नई पर्यायों का भाविर्भाव होता रहता है और पूर्व पर्याय नष्ट होते रहते हैं। इसी प्रकार सिद्धि के सम्बन्ध में भी भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से उत्तर देकर एक गम्भोर दार्शनिक समस्या का सहन समाधान किया है। मृत्य: एक कला मृत्यु एक कला है। इस कला के सम्बन्ध में जन मनीषियों ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जैन मनीषियों ने मरण के दो प्रकार बताये-बालमरण और पण्डितमरण / दूसरे शब्दों में उसे प्रसमाधिमरण और समाधिमरण भी कह सकते हैं। एक ज्ञानी की मृत्यु है, दूसरी अज्ञानी को मृत्यु है। अज्ञानी विषयासक्त होता है। वह मृत्यु से कांपता है। उससे बचने के लिए वह अहनिश प्रयास करता है, पर मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। पर ज्ञानी मृत्यु का प्रालिंगन करने के लिये सदा तत्पर रहता है। उसकी शरीर के प्रति आसक्ति नहीं होती / वह समभाव से मृत्यु को वरण करता है। उस मरण में किचिमात्र भी कषाय नहीं होता। जब साधक देखता है कि प्रव शरीर साधना करने में सक्षम नहीं रहा है तब वह निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करता है। बालमरण के प्रस्तुत आगम में जो बारह प्रकार प्रतिपादित हैं उनमें कषाय की मात्रा को प्रधानता है। क्रोध, अहंकार मादि के कारण ही वह मृत्यु को स्वीकार करता है। उस मृत्यु को स्वीकार करने पर भी मृत्यु की परम्परा समाप्त नहीं होती प्रत्युत वह परम्परा लम्बी होती चली जाती है। पण्डितमरण में साधक समस्त प्राणियों में साथ सर्वप्रथम क्षमायाचना करता है। ग्रहीत व्रतों में यदि असावधानीवश स्खलनाएं हुई हों तो उन दोषों की पालोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। पापस्थानकों का परित्याग 202. भागम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. 66-67 Page #2138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर प्रसन्नतापूर्वक वह मरण स्वीकार किया जाता है। मरण काल में साधक चाहे कितने ही कष्ट पाएँ, उनको समभावपूर्वक सहन करता है / यह पण्डितमरण अात्महत्या नहीं है पर मृत्यु को वरण करने की श्रेष्ठ कला है। संयुत्तनिकाय में असाध्य रोग से संत्रस्त भिक्ष वक्कलि कुलपुत्र 20 3 व भिक्षु छन्न 20 ने आत्महत्या की। तथागत बुद्ध ने उन दोनों भिक्षों को निर्दोष कहा और यह बताया कि दोनों भिक्ष परिनिर्वाण को प्राप्त हए हैं। जापान में रहने वाले बौद्धों में हरीकरी की प्रथा आज भी प्रचलित है। पर जैनपरम्परा और बौद्ध परम्परा के मृत्यु-वरण में अन्तर है। बौद्धपरम्परा में शस्त्रवध से तत्काल या उसी क्षण मृत्यु प्राप्त करना श्रेष्ठ माना है, जबकि जैनपरम्परा में इस प्रकार मृत्यु को वरण करना उचित नहीं माना गया है। वैदिकपरम्परा में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को सर्वश्रेष्ठ माना है। मनुस्मृति,२०५ याज्ञवल्क्यस्मृति,२०६ गौतम स्मृति,२०७ वशिष्ठधर्मसूत्र 208 और पापस्तम्बसूत्र 208 आदि के अनुसार प्रायश्चित्त के निमित्त मृत्यू को वरण करना चाहिए / महाभारत के अनुशासनपर्व,२७० वनपर्व,"" और मत्स्यपुराण 12 श्रादि के अनुसार अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या अनशन आदि के द्वारा देहत्याग किया जाता है तो ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा ने जो विविध साधन मृत्युवरण के बताये हैं वहाँ पर जैन परम्परा में उपवास आदि से ही मृत्यु को वरण करना श्रेयस्कर माना है। ब्रह्मचर्य आदि की सुरक्षा के लिये तात्कालिक मृत्युवरण के कुछ प्रसंग जैन साहित्य में आये हैं, पर मुख्य रूप से इस प्रकार के मरण को प्रात्महत्या ही माना है और उसकी आलोचना भी जैन मनीषियों ने यत्र-तत्र की है / जैन परम्परा में जीवन की आशा और मृत्यु की प्राशा दोनों को ही अनुचित माना है। समाधिमरण में न तो मरण की आकांक्षा होती है और न आत्महत्या ही होती है। प्रात्महत्या या तो क्रोध के कारण या सम्मान अथवा अपने हित पर गहरा आघात लगता है तब व्यक्ति निराशा के झूले में झूलने लगता है और वह आत्महत्या के लिये प्रस्तुत होता है। समाधिमरण में आहारादि के त्याग से देह-पोषण का त्याग किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम है पर उसमें मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। जिस प्रकार फोड़े की चीर-फाड़ से बेदना अवश्य होती है पर वेदना की आकांक्षा नहीं होती। समाधिमरण की क्रिया मरण के लिए न होकर उसके प्रतीकार के लिए है, जैसे व्रण का चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतीकार के लिए है। यही समाधिमरण और प्रात्महत्या में अन्तर है। समाधिमरण में भगोड़े की तरह भागना नहीं है अपितु संयम की ओर अग्रसर होना है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है पर समाधिमरण में मृत्यु से भय नहीं होता। प्रात्महत्या प्रसमय में मृत्यु का आमंत्रण है किन्तु समाधिमरण में मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष स्वागत है / आत्महत्या के पीछे भय या कामना रही हुई होती है जबकि समाधिमरण में भय और कामना का अभाव रहता है। 203. संयुत्तनिकाय, 2112 / 4 / 5 204. संयुतनिकाय, 3412 / 414 205. मनुस्मृति, 11/90-91 206. याज्ञवल्क्यस्मृति, 3/253 207. गोतमस्मृति, 23/1 208. वशिष्ठ धर्मसूत्र 20/22, 13/14 209. आपस्तम्ब सूत्र, 119 / 25 / 1-3, 6 210. महाभारत, अनुशासनपर्व, 25 / 62-64 211. महाभारत, वनपर्व, 8583 212. मत्स्यपुराण, 186 / 34135 [2] Page #2139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितने ही पालोचक जैनदर्शन की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि जैनदर्शन जीवन से इकरार नहीं अपितु इनकार करता है। पर उनकी यह पालोचना भ्रान्त है। जैनदर्शन ने जीवन के मिथ्यामोह से इनकार किया है। जो जीवन स्व और पर की साधना में उपयोगी है वही जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। क्योंकि जीवन का लक्ष्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि करना है। यदि मरण से भी ज्ञानादि की सिद्धि है तो वह शिरसा श्लाघनीय है। इस प्रकार प्रस्तुत कथानक में गम्भीर विषय की चर्चा प्रस्तुत की गई है। आर्य स्कन्दक जिज्ञासा का समाधान होने पर भगवान महावीर के पास आईती दीक्षा ग्रहण कर समाधिमरण प्राप्त कर अच्युत कल्प में देव बने और वहाँ से वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्त होंगे / ईशानेन्द्र भगवतीसूत्र, शतक 3, उद्देशक 1 में देवराज ईशानेन्द्र का मधुर प्रसंग पाया है। ईशानेन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना कि भगवान् महावीर प्रभु राजगह में पधारे हैं। वह भगवान के दर्शन के लिये पहुंचा और उसने 32 प्रकार के नाटक किये। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि यह दिव्य देवऋद्धि ईशानेन्द्र को किस प्रकार प्राप्त हुई है ? भगवान् ने समाधान किया कि यह पूर्वभव में ताम्रलिप्ति नगर में तामली मौर्यवंशी गृहस्थ था / उसने प्राणामा नाम की दीक्षा ग्रहण की और निरन्तर छठ-छठ तप के साथ सूर्य के सामने आतापना ग्रहण करता और पारणे के दिन लकड़ी का पात्र लेकर पके हुए चावल लाता है और 21 बार उन्हें धोकर ग्रहण करता। वह सभी को नमस्कार करता / उसकी चिरकाल तक यह साधना चलती रही। अन्त में दो महीने का अनशन किया / जब उसका अनशन व्रत चल रहा था तब असुरकुमार देवों ने विविध रूप बनाकर उसे अपना इन्द्र बनने का संकल्प करने के लिये प्रेरित किया पर वह तपस्वी विचलित नहीं हुमा और वहाँ से मरकर ईशानेन्द्र हुया है। प्राचीन ग्रन्थकारों ने लिखा है कि तामली तापस ने साठ हजार वर्ष तक तप की आराधना की थी। पर वह साधना विवेक के आलोक में नहीं हई थी। यदि उतनी साधना एक विवेकी साधक करता तो उतनी साधना से सात जीव मोक्ष में चले जाते। पर वह ईशानेन्द्र ही हुआ। प्रस्तुत प्रकरण में 32 प्रकार के नाटय बताये हैं। नाटक के सम्बन्ध में हम राजप्रश्नीयसूत्र की प्रस्तावना में विस्तार से लिख चुके हैं। चमरेन्द्र भगवतीसूत्र, शतक 3, उद्देशक 2 में असुरराज चमरेन्द्र का उल्लेख है जो भगवान महावीर की शरण लेकर प्रथम सौधर्म देवलोक में पहुँचा और शकेन्द्र ने उस पर बज का प्रयोग किया। यह दस पाश्चयों में एक प्राश्चर्य रहा। शिवराजषि भगवतीसूत्र, शतक 11, उद्देशक 9 में शिवराजर्षि का वर्णन है। वे जीवन के उषाकाल में दिशाप्रोक्षक तापस बने थे। निरन्तर षष्ठ भक्त यानी बेले की तपस्या करते थे। उनके तापस जीवन की आचारसंहिता का निरूपण प्रस्तुत आगम में विस्तार के साथ हुआ है। दिक्चक्रवाल तप से शिवराजर्षि को विभंगज्ञान हुप्रा जिससे वे सात द्वीप पौर सात समुद्रों को निहारने लगे। उन्होंने यह उद्घोषणा की कि सात समुद्र और सात द्वीप ही इस विराट् विश्व में हैं। उसकी यह चर्चा सर्वत्र प्रसारित हो गई। गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा 213. जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन II, पृ. 440-41 [63 ] Page #2140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत की। भगवान महावीर ने कहा-असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। जब भगवान महावीर की यह बात शिवराजषि ने सुनी तो विस्मित हुए। उनका अशान का पर्दा हट गया। उन्होंने भगवान महावीर के पास पाहतो दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को महान् बनाया / प्रस्तुत कथानक में सात द्वीप और सात समुद्र की मान्यता का उल्लेख हुआ है। यह मान्यता उस युग में अनेक व्यक्तियों की थी। इस मिथ्या मान्यता का निरसन भगवान महावीर ने किया और यह स्थापना की कि असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं और अन्तिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। स्वयंभूरमण समुद्र का अन्तिम छोर प्रलोक के प्रारम्भ तक है। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि स्कन्दक परिव्राजक, पुद्गल परिव्राजक और शिवराजर्षि ये तीनों बैदिकपरम्परा के परिव्राजक थे उन्होंने श्रमण परम्परा को ग्रहण किया। साथ ही उस युग में जो ज्वलंत प्रश्न जनमानस में घूम रहे थे, उन प्रश्नों को सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्पष्ट समाधान कर दार्शनिक जगत को एक नई दृष्टि प्रदान की। कालद्रव्य : एक चिन्तन ___भगवतीसूत्र, शतक 11, उद्देशक 11 में सुदर्शन सेठ का वर्णन है / वह वाणिज्यग्राम का रहने वाला था। उसने भगवान महावीर से पूछा कि काल कितने प्रकार का है ? भगवान् ने कहा कि काल के चार प्रकार हैं-प्रमाणकाल, यथायुरनिवृत्तिकाल, मरणकाल और श्रद्धाकाल / इन चार प्रकारों में प्रमाण काल के दिवसप्रमाण काल और रात्रिप्रमाण काल ये दो प्रकार हैं। इस काल में भी दक्षिणायन और उत्तरायन होने पर दिन-रात्रि का समय कम-ज्यादा होता रहता है। दूसरा काल है, यथायुरनिवृत्ति काल अर्थात् नरक, मनुष्य, देव, और तिर्यञ्च, ने जैसा प्रायुष्य बांधा है उसका पालन करना। तीसरा काल है-मरण काल। शरीर से जोव का पृथक होता मरणकाल है। चतुर्थ काल है-प्रद्धाकाल / वह एक समय से लेकर शोषप्रहेलिका तक संख्यात काल है और उसके बाद जिसको बताने के लिये उपमा आदि का प्रयोग किया जाय जैसे-पल्योपम, सागरोपम आदि वह असंख्यात काल है। जिसको उपमा के द्वारा भी न कहा जा सके, वह अनन्त है। ___ काल के सम्बन्ध में जैनसाहित्य में विस्तार से विवेचन है। वहाँ पर विभिन्न नयापेक्षया दो मत हैं। एक मत के अनुसार काल एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। काल जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह है / इस दृष्टि से जीव और अजीव द्रव्य का पर्यायपरिणमन ही उपचार से काल कहलाता है। इसलिये जीव और अजीव द्रव्य को ही काल द्रव्य जानना चाहिये। द्वितीय मतानुसार जीव और पुद्गल जिस प्रकार स्वतन्त्र द्रव्य हैं, वैसे ही काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है। भगवती..१४ उत्तराध्ययन,२१५ जीवाजीवाभियम,२१६ प्रज्ञापना.२१७ आदि में काल सम्बन्धी दोनों मान्यताओं का उल्लेख है। उसके पश्चात आचार्य उमास्वाति,२१८ सिद्धसेन दिवाकर,२१६ जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण,२२० हरिभद्रसूरि, 22" प्राचार्य हेमचन्द्र, 222 उपाध्याय यशोविजय जी,२२३ विनय२१४. भगवती 25 / 4 / 734 215. उत्तराध्ययन, 2817-8 216. जीवाभिगम, 217. प्रज्ञापना पद 1, सूत्र 3 218. तत्त्वार्थसूत्र 5 / 38-39 देखें भाष्य व्याख्या सिद्धसेन कृत 219. द्वात्रिशिका 220. विशेषावश्यकभाष्य 126 और 2068 221. धर्मसंग्रहणी गाथा 32, मलयगिरि टीका 222. योगशास्त्र 223. द्रव्यगुणपर्याय रास, देखें प्रकरण रत्नाकर भा. 1, गा. 10 Page #2141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय जी,२३४ देवचन्द्र जी२२५ आदि श्वेताम्बर विज्ञों ने दोनों पक्षों का उल्लेख किया है किन्तु दिगम्बर प्राचार्य कुन्दकन्द,२२६ पूज्यपाद, 27 भदारक अकलंकदेव, 228 विद्यानन्द स्वामी 226 ग्रादि ने केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है। वे काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं / प्रथम मत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल-साध्य हैं वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, यह जीव-अजीद की क्रिया-विशेष है जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के विना होती है, अर्थात जीव-अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वतः ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीवप्रजीव के पर्याय-पुञ्ज को ही काल कहना चाहिए / काल अपने-पाप में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है / 230 द्वितीय मत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्तकारण रूप काल द्रव्य को मानना चाहिए / उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है / उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति आदि के लिए होता है। निश्चय दृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की प्रावश्यकता नहीं है। उसे जीव और अजीव के पर्यायरूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार की दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है और उसे पृथक द्रव्य गिनाया गया है एवं उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। 33 वेद व उपनिषदों में काल शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुमा है, किन्तु वैदिक महर्षियों का काल के सम्बन्ध में क्या मन्तव्य है. यह स्पष्ट नहीं होता। वैशेषिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि काल दुव्य है. नित्य है, एक है और सम्पणं कायों का निमित्त है।३४ न्यायदर्शन में काल के सम्बन्ध में वैशेषिकवर्शन का ही 224. लोकप्रकाश 225. नयचक्रसार और आगमसार ग्रन्थ देखें 226. प्रवचनसार प्र. 2, गाथा 46-47 227. तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि 138-39 228. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 5 / 38-39 229. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, 5138-39 230. दर्शन और चिन्तन, पृ. 331, पं. सुखलाल जी 231. दर्शन और चिन्तन, पृ. 332 पं. सुखलाल जी 232. (क) भगवती 2 / 10 / 120; 111111424; 13 / 4 / 483 इत्यादि (ख) प्रज्ञापनापद 1 (ग) उत्तराध्ययन 28 / 10 233. स्थानाङ्गसूत्र 95 234. वैशेषिकदर्शन 2016 से 9 [65) Page #2142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसरण किया गया है / 35 पूर्वमीमांसा के प्रणेता जैमिनि ने काल तत्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है तथापि पूर्वमीमांसा के समर्थ व्याख्याकार पार्थसारथी मिश्र की शास्त्रदीपिका पर युक्तिस्नेहपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका*38 में पण्डित रामकृष्ण ने काल तत्त्व सम्बन्धी मीमांसक मत का प्रतिपादन करते हुए वैशेषिकदर्शन की काल की मान्यता को स्वीकार किया है, पर अन्तर यह है कि वैशेषिकदर्शन काल को परोक्ष मानता है तो मीमांसकदर्शन काल को प्रत्यक्ष मानता है। इस तरह वैशेषिक, न्याय, पूर्वमीमांसा काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सांख्यदर्शन ने प्रकृति और पुरुष को ही मूल तत्त्व माना है और आकाश, दिशा, मन आदि को प्रकृति का विकार माना है / 137 सांख्यदर्शन में काल नामक कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है पर एक प्राकृतिक परिणमन है। प्रकृति नित्य होने पर भी परिणमनशील है, यह स्थूल और सूक्ष्म जड़ प्रकृति का ही विकार है। योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन में कहीं भी काल तत्त्व के सम्बन्ध में सूचन नहीं किया है। पर योगदर्शन के भाष्यकार व्यास ने तृतीय पाद के बावनवे सूत्र पर भाष्य करते हुए काल तत्त्व का स्पष्ट उल्लेख किया है। वे लिखते हैं-मुहर्त, प्रहर, दिवस आदि लौकिक कालव्यवहार बुद्धि कृत और काल्पनिक है। कल्पना से बुद्धि कृत छोटे और बड़े विभाग किये जाते हैं। वे सभी क्षण पर अवलंबित हैं। क्षण ही वास्तविक है परन्तु वह मूल तत्त्व के रूप में नहीं है। किसी भी मूल तत्त्व के परिणाम रूप में वह सत्य है। जिस परिणाम का बुद्धि से विभाग न हो सके वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिणाम क्षण है। उस क्षण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए बताया है कि एक परमाणु को अपना क्षेत्र छोड़कर दूसरा क्षेत्र प्राप्त करने में जितना समय व्यतीत होता है उसे क्षण कहते हैं। यह क्रिया के अविभाज्य अंश का संकेत है। योगदर्शन में सांख्यदर्शनसम्मत जड़ प्रकृति तत्व को ही क्रियाशील माना है। उसकी क्रियाशीलता स्वाभाविक है, अतः उसे क्रिया करने में अन्य तत्त्व को अपेक्षा नहीं है। उससे योगदर्शन और सांख्यदर्शन क्रिया के निमित्त कारण रूप में वैशेषिकदर्शन के समान काल तत्त्व को प्रकृति से भिन्न या स्वतन्त्र नहीं मानता / 38 उत्तरमीमांसादर्शन वेदान्तदर्शन और प्रौपनिषदिक दर्शन के नाम से विश्रत है। इस दर्शन के प्रणेता बादरायण ने कहीं भी अपने ग्रन्थ में कालतत्त्व के सम्बन्ध में वर्णन नहीं किया है, किन्तु प्रस्तुत दर्शन के समर्थ भाष्यकार प्राचार्य शंकर ने मात्र ब्रह्म को ही मूल और स्वतन्त्र तत्त्व स्वीकार किया है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या / ' इस सिद्धान्त के अनुसार तो आकाश, परमाणु प्रादि किसी भी तत्त्व को स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया गया है। यह स्मरण रखना चाहिये कि वेदान्तदर्शन के अन्य व्याख्याकार रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ मादि कितने ही मुख्य विषयों में आचार्य शंकर से अलग विचारधारा रखते हैं। उनकी पृथक विचारधारा का केन्द्र आत्मा का स्वरूप, विश्व की सत्यता और असत्यता है। पर किसी ने भी कालतत्त्व को स्वतन्त्र नहीं माना है। इसमें सभी वेदान्तदर्शन के व्याख्याकार एक मत हैं / इस प्रकार सांख्य, योग और उत्तरमीमांसा ये अस्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं। जैनदर्शन में जैसे काल तत्त्व के सम्बन्ध में दो विचारधाराएं हैं वैसे ही वैदिक दर्शन में भी एक स्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं तो दूसरे अस्वतन्त्र कालतत्त्ववादी हैं / 235. पंचाध्यायी 211123 236. युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका 12515 237. सांख्यप्रवचन 2112 238. (क) दर्शन अने चिन्तन, भाग 2, पृष्ठ 1028, पं. सुखलाल संघबी (ख) योगदर्शन पा. 3, सूत्र 52 का भाष्य Page #2143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में काल केवल व्यवहार के लिये कल्पित है। काल कोई स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है, प्राप्ति मात्र है किन्तु अतीत, अनागत प्रौर वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य काल के बिना नहीं हो सकते / जैसे कि बालक में शेर का उपचार मुख्य शेर के सद्भाव में ही होता है, वैसे ही सम्पूर्ण कालिक व्यवहार मुख्य कालद्रव्य के बिना नहीं हो सकते। पौषध : एक चिन्तन भगवतीसूत्र शतक 12 उद्देशक 1 में शंख श्रावक का वर्णन है / वह श्रावस्ती का रहने वाला था तथा जीव आदि तत्त्वों का गम्भीर ज्ञाता था / उत्पला उसकी धर्मपत्नी थी। उसने भगवान महावीर से अनेक जिज्ञासाएं की / समाधान पाकर वह परम संतुष्ट हुमा / अन्य प्रमुख श्रावकों के साथ वह श्रावस्ती की पोर लोट रहा था। उसने अन्य श्रमणोपासकों से कहा कि भोजन तैयार करें और हम भोजन करके फिर पाक्षिक पौषध आदि करेंगे। उसके पश्चात शंख श्रावक ने ब्रह्मचर्य पूर्वक चन्दनविलेपन आदि को छोड़कर पौषधशाला में पौषध स्वीकार किया / पोषध का अर्थ है अपने निकट रहना / पर-स्वरूप से हटकर स्व-स्वरूप में स्थित होना। साधक दिन भर उपासनागह में अवस्थित होकर धर्मसाधना करता है। यह साधना दिन-रात की होती है। उस समय सभी प्रकार के अन्न-जल-मुखवास-मेवा आदि चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है, कामभोग का त्याग तथा रजत-स्वर्ण, मणि-मुक्ता आदि बहुमूल्य प्राभूषणों का त्याग, माल्य-गंध धारण का त्याग, हिंसक उपकरणों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। जैन परम्परा में इस व्रत की आराधना व्रती श्रमणोपासक प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को करता है। बौद्ध परम्परा में भी गृहस्थ उपासक के लिये उपोसथ व्रत आवश्यक माना गया है। सुत्तनिपात में लिखा है कि प्रत्येक पक्ष की चतुर्दशी, पूणिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को इस अष्टांग उपोसथ का श्रद्धापूर्वक सम्यक रूप से पालन करना चाहिये 240 सुत्तनिपात में उपोसथ के नियम बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं:-१. प्राणीवधन करे, 2. चोरी न करे, 3. असत्य न बोले, 4. मादक द्रव्य का सेवन न करे, 5, मथन से विरत रहे, 6. रात्रि में, विकाल में भोजन न करे, 7. माल्य एवं गंध का सेवन न करे, 8. उच्च शय्या का परित्याग कर जमीन पर शयन करे। ये आठ नियम उपोसथ-शील कहे जाते हैं / 41 तुलनात्मक रष्टि से जब हम इन नियमों का अध्ययन करते हैं तो दोनों ही परम्परामों में बहुत कुछ समानता है। जैन परम्परा में भोजन सहित जो पोषध किया जाता है, उसे देशावकाशिक व्रत कहा है। बौद्ध परम्परा में उपोसथ में विकाल भोजन का परित्याग है जबकि जैन परम्परा में सभी प्रकार के आहार न करने का विधान है। अन्य जो बातें हैं, वे प्रायः समान है। पौषधव्रत के पीछे एक विचारष्टि रही है, वह यह कि गृहस्थ साधक जिसका जीवन अहनिश प्रपञ्चों से घिरा हुमा है वह कुछ समय निकाल कर धर्म-आराधना करे / ईसा मसीह ने दस आदेशों में एक आदेश यह दिया है कि सात दिन में एक दिन विश्राम लेकर पवित्र अाचरण करना चाहिये,२४२ सम्भव है यह प्रादेश एक दिन उपोसथ या पौषध की तरह ही रहा हो पर आज उसमें विकृति आ गई है। तथागत बुद्ध ने उपोसथ का आदर्श अहत्त्व की उपलब्धि बताया है। उन्होंने अंगुत्तरनिकाय में स्पष्ट शब्दों में कहा है-क्षीण पाश्रव अर्हत का यह कथन उचित है कि जो मेरे समान बनना चाहते हैं वे पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी और प्रतिहार्य पक्ष को अष्टांगशील 239. अट्ठशालिनी 133 / 16 240. सुत्तनिपात 2628 241. सुत्तनिपात 26 // 25-27 242. बाइबल अोल्ड टेस्टामेंट, निर्गमन 20 [67 ] Page #2144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त उपोसथ व्रत का पाचरण करें।२४३ पण्डित सुखलालजी संपवी का यह अभिमत था कि उपासथ व्रत आजीवक सम्प्रदाय और वेदान्त परम्परा में प्रकारान्तर से प्रचलित रहा है। 244 प्रस्तुत प्रकरण में पोषध के दोनों रूप उजागर हुए हैं / एक खा-पी कर पौषध करने का और दूसरा बिना खाए-पीए ब्रह्मचर्य की माराधनासाधना करते हुए पौषध करने का। विभज्यवाद : अनेकान्तवाब भगवत्ती सूत्र शतक 12 उद्देशक 2 में जयन्ती श्रमणोपासिका का वर्णन है। उसके भवनों में सन्तभगवन्त ठहरा करते थे। इसलिए वह शय्यातर के रूप में विश्रुत थी। जैनदर्शन का उसे गम्भीर परिज्ञान था / उसने भगवान् महावीर से जीवन सम्बन्धी गम्भीर प्रश्न किये / भगवान् महावीर ने उन प्रश्नों के उत्तर स्याद्वाद की भाषा में प्रदान किये / सूत्रकृतांग में यह पूछा गया कि भिक्षु किस प्रकार की भाषा का प्रयोग करे? इस प्रसंग में कहा गया है कि वह विभज्यवाद का प्रयोग करे / 245 विभज्यवाद क्या है, इसका समाधान जैन टीकाकारों ने किया है स्याद्वाद या अनेकान्तवाद / नयबाद, अपेक्षावाद, पृथक्करण करके या विभाजन करके किसी तत्त्व का विवेचन करना / मज्झिमनिकाय में शुभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में तथागत बुद्ध ने कहाहे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी है, एकांशवादी नहीं / 246 माणवक ने तथागत से पूछा था कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवजित आराधक नहीं होता, इस पर आपकी क्या सम्मति है ? इस प्रश्न का उत्तर हो या ना में न देकर बुद्ध ने कहा-गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्ग का पाराधक नहीं हो सकता / यदि त्यागी भी मिथ्यात्वी है तो वह भी अाराधक नहीं है। वे दोनों यदि सम्यक प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं। इस प्रकार के उत्तर देने के कारण ही तथागत अपने आप को विभज्यवादी कहते थे / क्योंकि यदि वे ऐसा कहते कि गृहस्थ पाराधक नहीं होता केवल त्यागी ही पाराधक होता है तो उनका वह उत्तर एकांशवाद होता, पर उन्होंने त्यागी या गृहस्थ की आराधना और अनाराधना का उत्तर विभाग कर के दिया इसलिए यह स्मरण रखना चाहिए कि बुद्ध ने सभी प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद के आधार से नहीं दिये हैं। कुछ ही प्रश्नों के उत्तर उन्होंने विभज्यवाद को आधार बनाकर दिये हैं / तथागत बुद्ध का विभज्यवाद बहुत ही सीमित क्षेत्र में रहा पर महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा / आगे चलकर बुद्ध का विभज्यवाद एकान्तवाद में परिणत हो गया तो महावीर का विभज्यवाद व्यापक होता चला गया और वह अनेकान्तवाद के रूप में विकसित हा / 24. तथागत के विभज्यवाद की तरह महावीर का विभज्यवाद भगबती में अनेक स्थलों पर पाया है। जयन्ती के प्रश्नोत्तर विभज्यवाद के रूप को स्पष्ट करते हैं। अतः हम कुछ प्रश्नोत्तर दे रहे हैं जयंती-भते ! सोना अच्छा है या जागना ? महावीर-कितनेक जीवों का सोना अच्छा है और कितनेक जीवों का जागना अच्छा है। 243. अंगुत्तरनिकाय 3/37 244. दर्शन और चिन्तन, भाग-२, पृ.१०५ 245. "भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा" -सूत्रकृतांग 1/14/22 246. दीघनिकाय 33, संगितिपरियाय सुत्त में चार प्रश्नव्याकरण 247. आगमयुग का जनदर्शन, प.५४, पं. दलसुख मालबणिया Page #2145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयंती -इसका क्या कारण है ? महावीर-जो जीव अधर्मी हैं, सानुगामी हैं, अमिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, वे सोते रहें यही अच्छा है। क्योंकि जब वे सोते होंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। वे स्व, पर प्रोर उभय को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगायेंगे। इसलिये उनका सोना श्रेष्ठ है / पर जो जीब धार्मिक हैं, धर्मानुगामी हैं, यावत्धामिक वत्ति वाले हैं, उनका तो जागना ही अच्छा है। क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। वे स्व, पर और उभय को धार्मिक अनुष्ठानों में लगाते हैं। प्रतः उनका जागना अच्छा है। जयंती -भन्ते ! बलवान् होना अच्छा या दुर्बल होना ? महावीर---जयंती ! कुछ जीवों का बलवान् होना अच्छा है तो कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है / जयंती ---इसका क्या कारण है ? महावीर-जो अधामिक हैं या अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका दुर्बल होना अच्छा है। वे यदि बलवान होंगे तो अनेक जीवों को दुःख देंगे। जो धार्मिक हैं, धार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका सबल होना अच्छा है। वे सबल होकर अनेक जीवों को सुख पहुँचायेंगे / इस प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर विभाग करके भगवान् ने प्रदान किये। विभज्यवाद का मूल प्राधार विभाग करके उत्तर देना है। दो विरोधी बातों का स्वीकार एक सामान्य में करके उसी एक को विभक्त करके दोनों विभागों में दो विरोधी धर्मों को संगत बताना यह विभज्यवाद का फलितार्थ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि दो विरोधी धर्म एक काल में किसी एक व्यक्ति के नहीं बल्कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हैं। भगवान् महावीर ने विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक बनाया। उन्होंने अनेक विरोधी धर्मों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया जिससे विभज्यवाद आगे चल कर अनेकान्तवाद के रूप में विश्रुत हुआ। अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। विभज्यवाद का मूलाधार है, जो विशेष व्यक्ति हों उन्हीं में, तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से विरोधी धर्म को स्वीकार करना। अनेकान्तवाद का मूलाधार है, तिर्यक और ऊर्वता दोनों प्रकार के सामान्य पर्यायों में विरोधी धर्मों को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना / उवायन राजा भगवतीसूत्र शतक 13 उद्देशक 6 में राजा उदायन का वर्णन है / उदायन ने भगवान महावीर के पास आहती दीक्षा ग्रहण की / दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उसने अपने पुत्र अभीचि कुमार को राज्य इसलिये नहीं दिया कि यह राज्य के मोह में मुग्ध होकर नरक प्रादि गतियों में दारुण वेदना का अनुभव करेगा। उसने अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य दिया। अभीचि कुमार के अन्तर्मानस में पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने अपना अपमान समझा। वह राज्य छोड़कर चल दिया। राजा उदायन तप की माराधना कर मोक्ष गये। पर अभीचि कुमार श्रावक बनने पर भी शल्य से मुक्त नहीं हो सका, जिससे वह असुर कुमार बना। राजा उदायन का जीवनप्रसंग पावश्यकणि आदि में विशेष रूप से आया है। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट तप की आराधना करने से, रूक्ष और नीरस आहार ग्रहण करने से शरीर में व्याधि उत्पन्न हई। वैद्य के परामर्श से उपचार हेतु वीतभय मगर के बज में रहे, जहाँ दही सहज में उपलब्ध था / दुष्ट मन्त्री ने राजा केशी को बताया कि भिक्षुजीबन से पीड़ित होकर ये राज्य के लोभ से यहाँ पाये हैं और आपका राज्य छीन लेंगे / राज्यलोभी केशी राजा ने एक [ 69] Page #2146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वाले को दही में विष मिलाकर देने हेतु कहा। उसने वैसा ही किया। नगररक्षक देवों ने कुपित होकर धूल की भयंकर वर्षा की जिससे सारा नगर धूल के नीचे दब गया।२४८ राजा उदायन के सम्बन्ध में हमने विस्तार से धर्मकथानुयोग की प्रस्तावना में लिखा है, अतः जिज्ञासु पाठकगण उसका अवलोकन करें। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय : चिन्तन भगवती शतक 18 उद्देशक 7 में मद्रुक श्रमणोपासक का वर्णन है। वह राजगह नगर का निवासी था। राजगह के बाहर गुणशील नामक एक चैत्य था / उसके सन्निकट ही कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अत्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती, अन्यतोथिक सदगृहस्थ रहते थे। वे परस्पर यह चर्चा करने लगे कि भगवान् महावीर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन पंचास्तिकायों में एक को जीव और शेष को अजीव मानते हैं। पुदगलास्तिकाय को रूपी और शेष को अरूपी मानते हैं। क्या इस प्रकार का कथन उचित है ? यह बात उन्होंने मन कसे कही। मद्रक ने कहाजो कोई बस्तु कार्य करती है, आप उसे कार्य के द्वारा जानते हैं / यदि वह वस्तु कार्य न करे तो आप उसे नहीं जान सकते / ठुमक-ठुमक कर पवन चल रहा है पर आप उसके रूप को नहीं देख सकते। गन्धयुक्त पुद्गल की सौरभ हमें आती है पर हम उस गन्ध को देखते कहाँ है ? अरणि की लकड़ी में अग्नि होने पर भी हम नहीं देखते / समुद्र के परले किनारे पदार्थ पड़े हुए हैं पर हम उन्हें देख नहीं पाते / यदि उन वस्तुओं को कोई नहीं देखता है तो वस्तु का प्रभाव नहीं हो जाता, वैसे ही आप जिन वस्तुओं को नहीं देखते, उनका अस्तित्व नहीं है, यह कहना उचित नहीं है। मद्रुक के अकाट्य तकौ से अन्यतीथिक विस्मित हुए। मद्रक ने भी भगवान के चरणों में पहुँचकर श्रमणधर्म को स्वीकार किया और अपने जीवन को पावन बनाया। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का निरूपण भारत के अन्य दार्शनिक साहित्य में नहीं हुआ है। यह जनदर्शन की मौलिक देन है। जहाँ अन्य दर्शनों में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के अर्थ में किया गया है, वहाँ जैनदर्शन में बह गतिसहायक तत्त्व और स्थितिसहायक तत्त्व के अर्थ में भी व्यवहृत है / धर्म एक द्रव्य है। वह समग्र लोक में व्याप्त है, शाश्वत है। वर्ण, गंध रस और स्पर्श से रहित है। वह जीव और पुदगल की गति में सहायक है। यहाँ तक कि जीवों का प्रागमन, गमन, वार्तालाप, उन्मेष, मानसिक, वाचिक और कायिक आदि जितनी भी स्पन्दनात्मक प्रवत्तियाँ हैं, वे धर्मास्तिकाय से ही होती हैं। उसके असंख्य प्रदेश हैं / वह नित्य व अनित्य है, अवस्थित है और अरूपी है। नित्य का अर्थ तद्भावाव्यय है, गति क्रिया में सहायता देने रूप भाव से कदापि च्युत न होना धर्म का तद्भावाव्यय कहलाता है। अवस्थिति का अर्थ हैजितने असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का कम और ज्यादा न होना किन्तु हमेशा असंख्यात ही बने रहना / वर्ण, गंध, रस आदि का प्रभाव होने से धर्मास्तिकाय अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है। वह जीव प्रादि के समान पृथक् रूप से नहीं रहता, अपितु अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है एवं सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है / लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर धर्म द्रव्य का प्रभाव हो। सम्पूर्ण लोकव्यापी होने से पर जाने की आवश्यकता नहीं होती / गति का तात्पर्य है-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया। धर्मास्तिकाय गति क्रिया में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है, पर उसकी गति में पानी सहायक होता है। तैरने की शक्ति 248. प्रावश्यकचूर्णि, पृष्ठ 537 से 538 [70 ] Page #2147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने पर भी पानी के अभाव में मछली तर नहीं सकती। जब मछली तैरना चाहती है तभी उसे पानी की सहायता लेनी पड़ती है। वैसे ही जीव और पुदगल जब गति करता है, तभी धर्मास्तिकाय या धर्म द्रव्य की सहायता ली जाती है। जीव और पुदगल में गति और स्थिति ये दोनों क्रियाएं सहज रूप में होती हैं। इनका स्वभाव न केवल गति करना और न केवल स्थिति करना ही है। किसी समय किसी में गति होती है तो किसी समय किसी में स्थिति होती है। धर्म और अधर्म को मानना इसलिये आवश्यक है कि वह गति और स्थिति में निमित्त द्रव्य है। उसीसे लोक और अलोक का विभाजन होता है। गति और स्थिति का उपादानकारण जीव और पुदगल स्वयं है और निमित्तकारण धर्म और अधर्म द्रव्य है। भगवतीसूत्र शतक 13 उद्देशक 4 में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! गतिसहायक तत्त्व से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान दिया कि-गौतम ! गति का सहायक नहीं होता तो कोन आता और कौन जाता? शब्द की तरंगें किस प्रकार फैलती हैं ? आँख किस प्रकार खुलती है ? कौन मनन करता है ? कौन बोलता है ? कौन हिलता, डोलता है ? यह विश्व अचल ही होता। जो चल है उन सब का मालम्बन तत्व गतिसहायक तत्त्व ही है। गणधर गौतम ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत को-भगवन् ! स्थिति का सहायक तत्त्व (अधर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा--गौतम ! स्थिति का सहायक नहीं होता तो कौन खड़ा होता, कौन बैठता? किस प्रकार से सो सकता? कौन मन को एकाग्र करता? कौन मौन करता ? कौन निष्पंद बनता ? निमेष कैसे होता ? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर है उस सबका आलम्बन स्थितिसहायक तत्त्व ही है / अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों में गति को तो यथार्थ माना गया है किन्तु गति के माध्यम के रूप में 'धर्म' जैसे किसी विशेष तत्व की प्रावश्यकता अनुभव नहीं की गई / आधुनिक भौतिक विज्ञान ने 'ईथर' के रूप में गति-सहायक एक ऐसा तत्व माना है जिसका कार्य धर्म द्रव्य से मिलता-जुलता है। ईथर आधुनिक भौतिक विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण शोध है। ईथर के सम्बन्ध में भौतिकविज्ञानवेत्ता डॉ. ए. एस. एडिग्टन लिखते हैं-आज यह स्वीकार कर लिया गया है कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है, भौतिक की अपेक्षा उसकी प्रकृति भिन्न है, भूत में प्राप्त पिण्डत्व और धनत्व गुणों का ईथर में अभाव होगा परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे........ईथर का अभौतिक सागर / अलबर्ट आइन्सटीन के अपेक्षाबाद के सिद्धान्तानुसार 'ईथर' अभौतिक, अपरिमाणविक, अविभाज्य, प्रखण्ड, आकाश के समान व्यापक, प्ररूप, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है। धर्मद्रव्य और ईथर पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करते हुए प्रोफेसर जी. प्रार. जैन लिखते हैं कि यह प्रमाणित हो गया है कि जैन दर्शनकार व प्राधनिक वैज्ञानिक यहाँ तक एक हैं कि धर्मद्रव्य या ईथर प्रभौतिक, अपरिमाणविक, अविभाज्य, प्रखण्ड, आकाश के समान व्यापक, अरूप, गति का माध्यम और अपनेआप में स्थिर है। धर्म और अधर्म के बिना लोक की व्यवस्था नहीं होती। गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य से लोक-ग्रलोक का विभाजन होता है। प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त दोनों कारणों की आवश्यकता है। जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं। गति के उपादानकारण जीव और पुदगल स्वयं हैं। धर्म, अधर्म ये दोनों गति और स्थिति में सहायक हैं। इसलिए निमित्तकारण है। हवा स्वयं गतिशील है। पृथ्वी, पानी Page #2148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादि सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं है पर गति और स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। अतः धर्म-अधर्म की सहज प्रावश्यकता है / यह सत्य है कि लोक है, क्योंकि वह ज्ञान गोचर है। पर प्रलोक इन्द्रियातीत है / यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अलोक है या नहीं ? पर जब हम लोक का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो सहज ही प्रलोक का अस्तित्व भी स्वीकार हो जाता है। जिसमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव, पुद्गल दव्य होते हैं वह लोक है। इसके विपरीत प्रलोक में केवल आकाश द्रव्य ही है। धर्म और अधर्म द्रव्य के प्रभाव में अलोक में जीव और पुदगल भी नहीं हैं। काल की तो वहाँ अवस्थिति है ही नहीं। प्रस्तुत प्रसंग से यह सहज परिज्ञात होता है कि महावीर युग में भगवान महावीर के श्रमणोपासक तत्त्वविद् थे / वे अन्य तीथिकों को जैनदर्शन के मुरु-गम्भीर रहस्यों को समझाने में समर्थ थे / आज भी पावश्यकता है कि श्रमणोपासक श्रावक तत्त्वविद् बनें। जैनदर्शन के गम्भीर रहस्यों का अध्ययन कर स्वयं के जीवन को महान बनाएँ तथा अन्य दार्शनिकों को भी जनदर्शन का सही एवं विशुद्ध रूप बतायें / पाप और उसका फल भगवतीसूत्र शतक 7 उद्देशक 10 में कालोदाई अन्यतीथिक ने गणधर गौतम से जिज्ञासा व्यक्त की थी। वही कालोदाई जब भगवान के समोसरण में पहुँचा तो भगवान महावीर ने पञ्चास्तिकाय का विस्तार से निरूपण कर उसके संशय को नष्ट किया। कालोदाई, स्कन्धक की भाँति श्रमण भगवान महावीर के पास प्रवजित होते हैं। ग्यारह अंगों का अध्ययन कर जीवन की सांध्यवेला में संथारा कर मुक्त होते हैं। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कालोदाई ने भगवान महावीर से यह भी जिज्ञासा प्रस्तुत की थी कि पाप कर्म अशुभ फल वाला क्यों है ? भगवान महावीर ने समाधान दिया था कि कोई व्यक्ति सुन्दर सुसज्जित थाली में 18 प्रकार के शाक आदि से युक्त विष-मिश्रित भोजन करता है। वह विष-मिश्रित भोजन प्रारम्भ में सुस्वादु होने के कारण अच्छा लगता है पर उसका परिणाम ठीक नहीं होता। वैसे ही पाप कर्म का प्रारम्भ अच्छा लगता है परन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। दूसरा व्यक्ति विविध प्रकार की औषधियों से युक्त भोजन करता है। पौषधियों के कारण वह भोजन कट होता है पर वह भोजन स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। वैसे ही शुभ कर्म प्रारम्भ में कठिन होते हैं पर उसका फल श्रेयस्कर होता है। इस प्रकार इस कथानक में जीवन के लिए चिन्तनीय सामग्री प्रस्तुत की गई है। सोमिल ब्राह्मण के विचित्र प्रश्न भगवतीसूत्र शतक 18 उद्देशक 10 में सोमिल ब्राह्मण का वर्णन है। वह वैदिक परम्परा का महान् ज्ञाता था / उसके अन्तर्मानस में जिगीषु वृत्ति पनप रही थी। वह चाहता था कि मैं शब्दजाल में भगवान् महावीर को उलझा कर निरुत्तर कर दूं। इसी भावना से उसने भगवान महावीर के सामने अपने प्रश्न प्रस्तुत किए—"क्या आप यात्रा, यापनीय, अव्यावाध और प्रासुक विहार करते हैं ? आपकी यात्रा आदि क्या है ?" उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-तप, यम, संयम, स्वाध्याय और ध्यान आदि में रमण करता है, यही मेरी यात्रा है। यापनीय के दो प्रकार हैं-इन्द्रिययापनीय, नोइन्द्रिययापनीय / पांचों इन्द्रियाँ मेरे प्राधीन हैं और क्रोध, मान आदि कषाय मैंने विच्छिन्न कर दिए हैं, इसलिए वे उदय में नहीं आते। इसलिए मैं इन्द्रिय और नो-इन्द्रिययापनीय हूँ। वात, पित्त, कफ, ये शरीर सम्बन्धी दोष मेरे उपशान्त हैं, वे उदय में नहीं पाते। इसलिए मुझे अव्यावाध भी है / मैं पाराम, उद्यान, देवकुल, सभास्थल, प्रति स्थलों पर जहाँ स्त्री, पशु और [72] Page #2149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुंसक का अभाव हो, ऐसे निर्दोष स्थान पर प्राज्ञा ग्रहण कर विहार करता हूँ, यह मेरा प्रासुक (निर्दोष) विहार है। सोमिल ने पुन: पूछा-'सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष ? भगवान महावीर ने समाधान दिया-सरिसवया शब्द के दो अर्थ हैं-सदृश वयस समवयस्क तथा दूसरा सरसों। सवय के तीन प्रकार हैं-एक साथ जन्मे हुए, एक साथ पालित-पोषित हुए और एक साथ क्रीड़ा किए हुए / ये तीनों श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभभ्य हैं और धान्य सरिसव भी दो प्रकार के हैं-शस्त्रपरिणत और अशरबपरिणत, शस्त्रपरिणत भी दो प्रकार के हैं ---एषणीय और अनेषणीय। अनेषणीय अभक्ष्य हैं। एपणीय भी याचित और अयाचित रूप से दो प्रकार के हैं। याचित भक्ष्य हैं और अयाचित अभक्ष्य हैं। सोमिल ने पुन: शब्दजाल फैलाते हए कहा--'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? भगवान् ने समाधान की भाषा में कहा-मास याने महीना, और माष याने सोना-चाँदी आदि तोलने का माप। ये दोनों प्रभक्ष्य हैं और माप याती उड़द, जो शस्त्रपरिणत हों, याचित हों, वे श्रमण के लिए भक्ष्य हैं। सोमिल ने पुन: प्रछा-'कूलत्या' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ? भगवान ने फरमाया----कुलत्था शब्द के भी दो अर्थ हैं-एक कलीन स्त्री (कुलस्था) और दूसरा अर्थ है धान्यविशेष (कूलस्थ)। जो धान्यविशेष कुलत्था हैं वह शस्त्रपरिणत एवं याचित हैं तो भक्ष्य हैं / कुलीन स्त्री अभक्ष्य है। सोमिल ने देखा कि महाबीर शब्द-जाल में फंस नहीं रहे हैं, अतः उसने एकता और अनेकता का प्रश्न उपस्थित किया कि आप एक हैं या दो हैं ? अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, अतीत, वर्तमान और भविष्य में परिणमन के योग्य हैं ? भगवान महावीर ने एकता और अनेकता का समन्वय करते हुए अनेकान्त दृष्टि से कहा--सोमिल ! मैं द्रव्यदष्टि से एक है। ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों के प्राधान्य से दो भी हैं। सोमिल ! उपयोग स्वभाव को दष्टि से मैं प्रतेक है। इस प्रकार अपेक्षा भेद से एकत्व और अनेकत्व का समन्वय कर सोमिल को विस्मित कर दिया / वह चरणों में झक पड़ा तथा श्रावक के 12 व्रतों को ग्रहण कर भगवान महावीर का अनुयायी बना। इस कथाप्रसंग से भगवान महावीर की सर्वज्ञता का स्पष्ट निदर्शन होता है। प्रागमयुग की अनेकान्त इष्टि भी इसमें स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है। तीसरी बात इसमें 'मास' शब्द का प्रयोग हसा है जो महीने के अर्थ में है / बह श्रावण महीने से प्रारम्भ होकर प्राषाढ़ पूणिमा में समाप्त होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रावण प्रथम मास था और आषाढ़ वर्ष का प्रन्तिम मास था। प्रस्तुत प्रसंग में 'जवनिज्ज-यापनीय' शब्द का प्रयोग हुया है। दिगम्बरपरम्परा में यापनीय नामक एक संध है जिसके प्रमुख आचार्य शाकटायन थे / मधन्य मनीषियों को इस सम्बन्ध में अन्वेषणा करनी चाहिए कि क्या यापनीय संघ का सम्बन्ध 'जवनिज्ज' से था ? पंडित वेचरदासजी दोशी ने लिखा है कि "जवनिज्ज'का यमनीय रूप अधिक अर्थयुक्त एवं संगत है, जिसका सम्बन्ध पांच यमों के साथ स्थापित होता है। यापनीय शब्द से इस प्रकार का अर्थ नहीं निकलता, यद्यपि 'जयनिज्ज' शब्द वर्तमान युग में नया और अपरिचित-सा लग रहा है पर खारवेल के शिलालेख में 'जवनिज्ज' शब्द का प्रयोग हा है जो इस शब्द की प्राचीनता और प्रचलितता को अभिव्यक्त करता है / 25. 251. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग पहला, पृष्ठ 211 - Page #2150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि अतिमुक्तकुमार भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 4 में अतिमुक्तकुमार श्रमण का उल्लेख है। जैन साहित्य में अतिमुक्तकुमार नामक दो श्रमण हुए हैं-एक भगवान् अरिष्टनेमि के युग में, जो कंस के लघुभ्राता थे; दूसरे प्रतिमुक्तकुमार भगवान महावीर के युग में हुए हैं, जिनका उल्लेख अन्तकृशांग में है। आचार्य अभयदेव के अनुसार अतिमुक्तकुमार ने भगवान महावीर के पास छह 52 वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। सामान्य नियम है कि आठ वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को प्रव्रज्या न दी जावे / 2 5.3 / अतिमुक्तकुमार भगवान महावीर के शासन में सबसे लघु श्रमण थे। भगवान महावीर ने अतिमुक्तकुमार के प्रायुष्य को नहीं पर उनमें रही हुई तेजस्विता को निहारा था, बालक में भी सहज प्रतिभा रही हुई होती है। वह भी अपना उत्कर्ष कर सकता है यह प्रस्तुत कथानक से स्पष्ट है। प्रस्तुत आगम में बालमुनि अतिमुक्तकुमार ने पानी में पात्र तिराया यह भी उल्लेख है जो उनके सरल जीवन का प्रमाण है। नौका के माध्यम से वे उस समय अपनी जीवन-नौका को तिराने की कमनीय कल्पना किए हुए थे / प्रात्मविकास का बाधक : मोह भगवतीसूत्र शतक 14, उद्देशक 7 में गणधर मौतम का एक सुनहरा प्रसंग है / गणधर मौतम अपने सामने ही प्रजित मुनियों को मुक्त होते और केवलज्ञान प्राप्त करते हुए देखकर विचार में पड़ गए कि मैं अभी तक मुक्त क्यों नहीं बना हूँ! मुझे केवलज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त क्यों नहीं हुआ है ! जब उनका विचार चिन्ता में परिवर्तित हो गया तब भगवान महावीर ने रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा- वत्स! तेरा जो स्नेह मेरे प्रति है वहीं इसमें बाधक हो रहा है। प्रसंग में यह भी बताया है कि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध अाज का नहीं बहुत पुराना है। प्राचीन टीकाकारों ने बताया, भगवान महावीर का जीव जव मरीचि के रूप में था तब गौतम का जीव उनका शिष्य कपिल था। भगवान महावीर का जीव जब त्रिपृष्ट वासुदेव था तब गौतम का जीव उनका मारथी था। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव के युग से लेकर महावीर युग तक गणधर गौतम के जीवन का महावीर के साथ सम्बन्ध रहा है। प्रस्तुत प्रसंग से यह बात स्पष्ट है कि जरा-सा मोह भी मोहन (भगवान) बनने में अन्तरायभूत होता है। __ भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 9 में भगवान महावीर के युग में हुए महाशिलाकंटक संग्राम का उल्लेख है। युद्ध का लोमहर्षक वर्णन पढ़कर लगता है कि अाधुनिक वैज्ञानिक साधनों की तरह उस युग में भी तीक्ष्ण और संहारकारी साधन थे। इस युद्ध का, जिसे जैनपरम्परा में महाशिलाकंटक युद्ध कहा है तो बौद्ध साहित्य के दीघनिकाय की महापरिनिव्वाणसुत्त तथा उसकी अट्ठकथा में बज्जीविजय नाम से वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा में युद्ध के कारण युद्ध की प्रक्रिया और युद्ध की निष्पत्ति आदि भिन्न-भिन्न मिलती है तथापि दोनों का सार यही है कि वैशाली, जो गणतन्त्र की राजधानी थी, उस पर राजतन्त्र की राजधानी मगध की ऐतिहासिक विजय हुई थी। जैनपरम्परा में चेटक सम्राट् लिच्छवियों के नायक हैं तो बौद्धपरम्परा 252, (1) छन्वरिसो पच्वाइयो-भगवती टीका 5-3 (2) अन्तकृद्दशांग, 6-14 / 253. "कुमारसमणे" ति षड्वर्यजातस्य तस्य प्रवजित्वात् , प्राह च--"छन्वरिसो पब्वाइनो निग्गथं रोइऊण पावयण'' ति, एतदेव आश्चर्यमिह अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति / -भगवती सटीक प्र. भाग, श. 5, उद्दे 4, सूत्र 188, पत्र 219-2 [ 74 ] Page #2151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल बज्जी संघ (लिच्छवो संघ) को प्रस्तुत करती है / ऐतिहासिक दृष्टि से राजा कणिक की 33 करोड़ सेना और सम्राट चेटक की 59 करोड़ सेना प्रादि का जो वर्णन है वह चिन्तनीय है। इस संख्या के सम्बन्ध में मनीषीगण अपना मोलिक चिन्तन और समाधान प्रस्तुत करें, यह अपेक्षित है। हमने प्रस्तुत प्रसंग को बहुत ही विस्तार के साथ धर्मकथानुयोग को प्रस्तावना में लिखा है / जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें। वैदिक परम्परा में देवासुरसंग्राम का जैसा उल्लेख और वर्णन है, वह वर्णन प्रस्तुत आगम के महाशिलाकंटक और रथमूसल संग्राम को पढ़ते हुए स्मरण हो पाता है / देवानन्दा ब्राह्मणी भगवतीमूत्र शतक 5, उद्देशक 33 में देवानन्दा ब्राह्मणो का उल्लेख है। भगवान महावीर एक वार ब्राह्मण कुण्ड ग्राम में पधारे। वहाँ ऋषभदत अपनी पत्नी देवानन्दा के साथ दर्शन के लिए पहुँचा / देवानन्दा महावीर को देखकर रोमाञ्चित हो जाती है। उसका वक्ष उभरने लगता है एवं आँखों से हर्ष के प्राँसू उमड़ते लगते हैं। उसकी कंचुकी टूटने लगी और स्तनों से दूध की धारा प्रवाहित होने लगी। गणधर गौतम ने जिज्ञासा व्यक्त की कि देवानन्दा ब्राह्मणी इतनी रोमाञ्चित क्यों हई है ? उसके स्तनों से दूध की धारा क्यों प्रवाहित हुई है ? भगवान महावीर ने कहा--देवानन्दा मेरी माता है / पुत्रस्नेह के कारण ही यह रोमाञ्चित हुई है। भगवान महावीर ने गर्भ-परिवर्तन की अज्ञात घटना बताई। ऋषभदत्त और देवानन्दा के हर्ष का पार नहीं रहा / उन्होंने प्रवज्या ग्रहण की। गर्भ-परिवर्तन की घटना को जनपरम्परा में एक आश्चर्य के रूप में लिया है। प्राचारांग, 254 समवायांग,२५५ स्थानांगरे 56 अावश्यकनियुक्ति,२५७ प्रभृति में स्पष्ट वर्णन है कि श्रमण भगवान महावीर 82 रात्रि दिवस व्यतीत होने पर एक गर्भ से दुसरे गर्भ में ले जाए गए। जैनागमों की तरह वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों में भी गर्भपरिवर्तन का वर्णन प्राप्त है। जब कंस वसुदेव की सन्तानों को समाप्त कर देता था तब विश्वात्मा ने योगमाया को यह आदेश दिया कि वह देवकी का गर्भ रोहिणी के उदर में रखे। विश्वात्मा के आदेश व निर्देश से योगमाया देवकी का गर्भ रोहिणी के उदर में रख देती है। तब पुरवासी अत्यन्त दु:ख के साथ कहने लगे-हाय ! देवकी का गर्भ नष्ट हो गया ! 258 आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने अनेक स्थानों पर परीक्षण करके यह प्रमाणित कर दिया है कि गर्भपरिवर्तन असंभव नहीं है। जमाली भगवतीसूत्र शतक 9, उद्देशक 33 में जमाली और प्रियदर्शना का वर्णन है / विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार जमाली महावीर की बहिन सुदर्शना का पुत्र था, अतः उनका भानेज था और महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का पति था। इस कारण उनका जामाता भी था / जब भगवान महावीर क्षत्रियकुंड नगर में पधारे तब भगवान् महावीर के पावन प्रवचन को श्रवण कर जमाली अन्य 500 शत्रिय कुमारों के साथ महावीर के संघ में दीशित हुए 254. प्राचारांग द्वि. श्रुतस्कन्ध, पन्ना 388-1-2 255. समवायांग 83, पत्र 83-2 256. स्थानांगसूत्र 411 स्था. 5, पन्ना 309 257. आवश्यकनियुक्ति पृष्ठ 80 से 83 258. गर्ने प्रणीते देवक्या रोहिणी योगनिद्रया / अहो विस्र सितो गर्भ इति पीरा विचक्रशुः / / 15 / श्रीमद्भागवत स्कन्ध 10, पृष्ट 122-123 [75 ] Page #2152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जमाली की पत्नी प्रियदर्शना भी एक सहस्र स्त्रियों के साथ दीक्षित हुई। जमाली के विरोधी होने का इतिहास प्रस्तुत प्रकरण में दिया गया है। एक बार जमाली भगवान महावीर की बिना अनुमति प्राप्त किए हो 500 श्रमणों के साथ पृथक् प्रस्थान कर गए। उन तप एवं नीरस आहार से उनके शरीर में पित्तज्वर हो गया। वे पीड़ा से प्राकुल-व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने अपने सहवर्ती श्रमणों को शय्या संस्तारक करने का आदेश दिया। पीड़ा के कारण एक क्षण का विलम्ब भी उन्हें सह्य नहीं था। उन्होंने पूछा- शय्या संस्तारक कर दिया है ? साधुओं ने निवेदन किया-जी हाँ, कर दिया है / जमाली सोचने लगे कि भगवान महावीर क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित कहते हैं जो गलत है। जब तक शय्या संस्तारक पूरा विछ नहीं जाता जब तक उसे विछा हुअा कैसे कहा जा सकता है ? उन्होंने अपने विचार श्रमणों के सामने प्रस्तुत किए। कुछ श्रमणों ने उनकी बात को स्वीकार किया और कुछ ने स्वीकार नहीं किया / जिन्होंने स्वीकार किया / बे उनके साथ रहे और जिन्होंने स्वीकार नह वे भगवान् महावीर के पास लौट आए। जब जमाली स्वस्थ हुए तब वे भगवान् महावीर के पास पहुंचे और कहने लगे-पापके अनेक शिष्य छदमस्थ हैं, केवलज्ञानी नहीं। पर मैं तो केवलज्ञान-दर्शन से युक्त अर्हत जिन और केवली के रूप में विचरण कर रहा है। गणधर गौतम ने जमाली का प्रतिवाद किया। उन्होंने पूछा कि यदि आप केवलज्ञानी हैं तो बताएँ कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? जमाली गौतम के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके / तब भगवान महावीर ने कहा-जमाती ! मेरे अनेक शिष्य इन प्रश्नों का समाधान कर सकते हैं. तथापि वे अपने-आपको जिन व केवली नहीं कहते हैं। जमाली के पास इसका कोई उत्तर नहीं था, वर्षों तक असत्य प्ररूपणा करते रहे। अन्त में अनशन किया पर पाप की आलोचना नहीं की। जिससे वे लान्तक देवलोक में किल्बिषिक देव के रूप में उत्पन्न हुए। विशेषावश्यकभाष्य 56 में वर्णन है कि जमाली को विद्यमानता में ही प्रियदर्शना भी जमाली की विचारधारा में प्रवाहित हो गई थी और महावीर संघ को छोड़कर जमाली के संघ में मिल गई थी। एकदा अपने साध्वीपरिवार के साथ श्रावस्ती में ढंक कुभकार की शाला में ठहरी / ढंक महावीर का परम भक्त था। उसने प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए उसकी साड़ी में आग लगा दी। साड़ी जलने लगी। प्रियदर्शना के मुंह से शब्द निकले 'संघाटो जल गई"। ढंक ने कहा-ग्राफ मिथ्या संभाषण कर रही हैं। संधाटी जली नहीं जल रही है। प्रियदर्शना प्रबुद्ध हुई। उसे अपनी भूल परिज्ञात हुई / भूल का प्रायश्चित्त कर वह पुनः साध्वीसमूह के साथ महावीर के साध्वी-परिवार में सम्मिलित हो गई। भगवतीसूत्र शतक 15 में गोशालक का ऐतिहासिक निरूपण हुआ है। गोशालक भगवान महावीर की छदमस्थ अवस्था में ही भगवान् महावीर की तपःपूत साधना को निहारकर उनका शिष्य बनने के लिए लालायित था। उसने भगवान महावीर से शिष्य बनाने की प्रार्थना की और चिरकाल तक भगवान् के साथ रहा भी। इसका सविस्तृत वर्णन प्रस्तुत प्रकरण में पाया है। गोशालक मंख कर्म करने वाले मखली नामक व्यक्ति का पूत्र था। 'गोसाले मंखलीपुत्ते" शब्द का प्रयोग भगवती, उपासकदशांग प्रादि मागमों में अनेक स्थलों पर हमा है। मंख का अर्थ कहीं पर चित्रकार 260 प्रौर कहीं पर चित्रविक्रेता२६ ' मिलता है। प्राचार्य अभयदेव ने अपनी टीका में लिखा है "चित्रफल के हस्ते गतं यस्य स तथा' अर्थात् जो चित्रपट्टक हाथ में रखकर आजीविका 259. विशेषावश्कभाष्य, गाथा 2324 से 2332 260. Indological Studies, Vol. II, Page 254 261. Dictionary of Pali Proper Names Vol. II, Page 400 Page #2153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है। मंख नाम की एक जाति थी / उस जाति के लोग पट्टक हाथ में रखकर अपनी प्राजीविका चलाते थे। जैसे प्राज डाकोत लोग शनिदेव की मूर्ति या चित्र हाथ में रख कर अपनी जीविका चलाते हैं। धम्मपद प्रतकथा,२१२ मज्झिमनिकाय3 अटकथा में मंखलि गोशालक के संबंध में प्रकाश डालते हुए उसका नामकरण किस तरह से हुआ, इस पर एक कथा दी है। उनके मतानुसार गोशालक दास था। एक वार वह तैल-पात्र लेकर अपने स्वामी के आगे-मागे चल रहा था--फिसलन की भूमि आई। स्वामी ने उसे कहा-'तात ! मा खलि तात ! मा खलि'- अरे स्खलित मत होना। पर गोशाखक स्खलित हो गया और सारा तेल जमीन पर फैल गया। स्वामी के भय से भीत बनकर वह भागने का प्रयास करने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह उस बस्त्र को छोड़कर नंगा ही वहाँ से चल दिया / इस प्रकार दह नग्न साधु हो गया और मंखलि के नाम से विश्रुत हुआ। प्रस्तुत कथानक एक किंवदन्ती की तरह ही है और यह बहत ही उत्तरकालिक है, इसलिए ऐतिहासिक रष्टि से चिन्तनीय है। प्राचार्य पाणिनि ने मस्करी शब्द का अर्थ परिव्राजक किया है। 264 आचार्य पतञ्जलि ने पातञ्जल महाभाष्य में लिखा है-मस्करी वह साधु नहीं है जो अपने हाथ में मस्कर या बांस को लाठी लेकर चलता है। मस्करी वह है जो उपदेश देता है...-कर्म मत करो, शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है।६५ प्राचार्य पाणिनि और आचार्य पतञ्जलि के अनुसार गोशालक परिव्राजक था और कर्म मत करो' इस मत की संस्थापना करने वाली संस्था का संस्थापक था। जनसाहित्य की दृष्टि से वह मंखली का पुत्र था और गोशाला में उसका जन्म हुमा था। इस तथ्य की प्रामाणिकता पाणिनि 66 और आचार्य बुद्धघोष 167 के द्वारा भी होती है। जैन आगम में गोशालक को आजीविक लिखा है तो त्रिपिटक साहित्य में ग्राजीवक लिखा है / प्राजीविक तथा प्राजीवक इन दोनों शब्दों का अभिप्राय है प्राजीविका के लिए तपश्चर्या श्रादि करने वाला। गोशालक मत की दृष्टि से इस शब्द का क्या अर्थ उस समय व्यवहृत था, उसको जानने के लिए हमारे पास कोई अन्य नहीं है / जैन और बौद्ध साहित्य की दृष्टि से गोशालक के भिक्षाचरी आदि के नियम कठोर थे। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों के आधार से यह सिद्ध है कि गोशालक नग्न रहता था तथा उसकी भिक्षाचरी कठिन थी। प्राजीविक परम्परा के साधु कुछ एक दो घरों के अन्तर से, कुछ एक तीन घरों के अन्तर से यावत् सात घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करते थे। 266 भगवतीसूत्र शतक 8 उद्देशक 5 में आजीविक उपासकों के आचार-विचार का वर्णन इस प्रकार प्राप्त है—वे गोशालक को अरिहन्त मानते हैं। माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं / गूलर, बड, बोर, अजीर, पिलखु इन पांच प्रकार के फलों का भक्षण नहीं करते / प्याज, लहसुन 262. धम्मपद अट्टकथा, प्राचार्य बुद्धघोष 1-143 263. मज्झिमनिकाय अटकथा, प्राचार्य बृद्धघोष 1-422 264. मस्करं मस्करिणी वेण परिव्राजकयोः। -पाणिनिव्याकरण 6-1-154 265. न वै मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिव्राजकः / कि तहि / मा कृत कर्माणि मा कृत कर्माणि शान्तिर्व: श्रेयसीत्याहतो मस्करी परिव्राजक:। --पातञ्जलमहाभाष्य 6-1-154 266. गोशालाया जात: गौशाल / 4.3-35 267. सुमगल विलासनी दोनिकाय अटकथा, पृष्ठ 143-144 268. महासच्चक सुत्त 1-4-6 269. अभिधानराजेन्द्र कोष, भाग 2, पृष्ठ 116, [77] -- - Page #2154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादि कन्दमूल का भक्षण नहीं करते / बैलों को निःलंछण नहीं कराते / उनके नाक, कान का, छेदन नहीं कराते। वे त्रस प्राणियों की हिंसा हो ऐसा व्यापार भी नहीं करते / गोशालक के सम्बन्ध में पाश्चात्य और पौर्वात्य विज्ञों ने शोध प्रारम्भ की है / कुछ विज्ञ शोध के नाम पर नवीन स्थापना करना चाहते हैं पर प्राचीन साक्षियों को भूलकर नूतन कल्पना करना अनुचित है। कितने ही विद्वान् गोशालक सम्बन्धी इतिहास को सर्वथा परिवर्तित करना चाहते हैं। डॉ. वेणीमाधव बरुमा ने इसी प्रकार का प्रयास किया है,२७० जो उचित नहीं है। 'आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन' ग्रन्थ में मुनि श्री नगराजजी डी. लिट् ने इस संबंध में विस्तार से ऊहापोह किया है। जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्य का अवलोकन कर सकते हैं / 271 यह सत्य है कि गोशालक अपने युग का एक ख्यातिप्राप्त धर्मनायक था। उसका संघ भगवान् महावीर के संघ से बड़ा था। भगवान महावीर के श्रावकों की संख्या 159000 थी तो गोशालक के श्रावकों की संख्या 1161000 थी जो उसके प्रभाव को भी व्यक्त करती है। यही कारण है कि तथागत बुद्ध ने गोशालक के लिए कहा कि वह मछलियों की तरह लोगों को अपने जाल में फंसाता है 272 / इसके तीन मूल कारण थे। 1. निमित्तसंभाषण 2. तप की साधना 3. शिथिल प्राचारसंहिता, जबकि महावीर 273 और बुद्ध 274 के संघ में निमित्त भाषण वयं रहा और भगवान महावीर की तो आचारसंहिता भी कठोर रही। भगवती के अतिरिक्त प्रावश्यकनियुक्ति,२७५ प्रावश्यकणि,२७६ प्रावश्यक मलया गिरिवृत्ति,७७ विषष्टिशलाका पूरुषवरित,७८ महावीरचरियं प्रभति ग्रन्थों में गोशालक के जीवन के अन्य अनेक प्रसंग हैं / पर विस्तारभय से हम उन प्रसंगों को यहाँ नहीं दे रहे हैं। दिगम्बराचार्य देवसेन ने भावसंग्रह ग्रन्थ में गोशालक का परिचय कुछ अन्य रूप से दिया है। उनके अभिनतानुसार गो गालक भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के एक श्रमण थे / वे महाबीर-परम्परा में प्राकर गणधर पद प्राप्त करना चाहते थे पर जब उनकी गणधर पद पर नियुक्ति नहीं हुई तो वे श्रावस्ती में पहुँचे और ग्राजीवक सम्प्रदाय के नेता व अपने-आपको तीर्थङ्कर उद्घोषित करने लगे / वे इस प्रकार उपदेश देने लगे-ज्ञान से मोश नहीं होता, अज्ञान से ही मोक्ष होता है / देव या ईश्वर कोई नहीं है / अतः प्रानी इच्छा के अनुसार शुन्य का ध्यान करना चाहिए / 80 त्रिपिटक साहित्य में भी पाजीवक संघ और गोशाला का वर्णन प्राप्त है। तथागत बुद्ध के समय जितने मत और मतप्रवर्तक थे, उन सभी मतों एवं मत 270. The AjivikaJ. D. L. Vol. II. 1920, pp. 17-18 271. आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, प्रकाशक जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा कलकत्ता, खण्ड १,पृष्ठ 44 272. अंगुत्तरनिकाय 1-18-4-5 273. (क) निशीथसूत्र उ. 13-66 (ख) दशवकालिक सूत्र अ. 8, गा. 5 274. विनयपिटक चुल्लवग्ग 5-6-2 275. आवश्यकनियुक्ति गाथा 474 से 478 276. प्रावश्यकचणि प्रथम भाग, पत्र 283 से 287 277. प्रावश्यक मलयगिरिवृत्ति, पत्र 277 से 279 278. त्रिषष्टि शलाका चरित्र, पर्व 10 सर्ग 4 279. महावीरचरियं आचार्य नेमिचन्द्रमरि 280. भावसंग्रह, गाथा 176 से 179 [78] Page #2155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रर्वतकों में से गोशालक को तथागत बुद्ध सबसे अधिक निकृष्ट मानते थे। तथागत बुद्ध ने सत्पुरुष और असत्पुरुष का वर्णन करते हुए कहा- कोई व्यक्ति ऐसा होता है जो बहुत जनों के अलाभ के लिए होता है। बहुत जनों की हानि के लिए होता है। बहुत जनों के दुःख के लिए होता है। वह देवों के लिए भी अलाभकर और हानिकारक है, जैसे मंखलि-गोशालक / 28' दूसरे स्थान पर उन्होंने यह भी बताया कि श्रमण धर्मों में सबसे निकृष्ट और जघन्य मान्यता गोशालक की है, जैसे कि सभी प्रकार के वस्त्रों में 'के शकम्बल' 282 / यह कम्बल शीतकाल में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुध, दुःस्पर्श वाला होता है। वैसे ही जीवन व्यवहार में निरुपयोगी गोशालक का नियतिवाद है / 83 इन अवतरणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक और उसके मत के प्रति बुद्ध का विद्रोह स्पष्ट था। सूत्रकृताङ्क में आर्द्र कुमार का प्रकरण आया है। उस प्रकरण में आर्द्र कुमार ने आजीवक भिक्षत्रों के अब्रह्मसेवन का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मज्झिमनिकाय 84 प्रादि में भी प्राजीवकों के प्रब्रह्मसेवन का वर्णन मिलता है। मज्झिमनिकाय में निन्थपरम्परा को ब्रह्मचर्य वास में और आजीवकपरम्परा को ब्रह्मचर्यबास में लिया है / 85 इतिहासवेत्ता डा. सत्यकेतू 28 के अभिमतानुसार धमण भगवान महावीर और गोशालक में तीन बातों का मतभेद था। उन तीनों बातों में एक स्त्रीसहवास भी है। इन सत्र अवतारणों से यह स्पष्ट है कि गोशालक की मान्यता में स्त्रीसहवास पर प्रतिबन्ध नहीं था / तथापि उसका मत इतना अधिक क्यों व्यापक बना, इस सम्बन्ध में हम पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं 1 शोधाथियों को तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए और प्रमाणपुरस्सर चिन्तन देना चाहिए, जिससे सत्य तथ्य समुदघाटित हो सके। इस प्रकार भगवती सूत्र में विविध व्यक्तियों के चरित्र पाए हैं जो ज्ञातव्य हैं और जिनसे अन्य अनेक दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाया गया है। हम अब भगवती सूत्र में पाए हुए सैद्धांतिक विषयों पर चिन्तन करेगे, जो जनदर्शन का हृदय है / भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 2 में द्रव्य-विषयक चिन्तन है। यहाँ हमें सर्वप्रथम यह चिन्तन करना है कि द्रव्य किसे कहते हैं ? सुत्रकृताङ्ग८० चणि में आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने द्रव्य की परिभाषा करते हए लिखा है-जो विशेष-पर्यायों को प्राप्त करता है वह द्रव्य है / अन्य जैनाचार्यों ने लिखा है--जो पर्यायों के लय और विलय से जाना जाता है वह द्रव्य है / 288 दूसरे प्राचार्य ने लिखा है जो भिन्न-भिन्न अवस्थानों को प्राप्त हुना, हो रहा है और होगा बह द्रव्य है। वह विभिन्न अवस्थानों का उत्पाद और विनाश होने पर भी सदा ध्र व रहता है। क्योकि ध्रौव्य के अभाव में पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं का सम्बन्ध नहीं हो सकता, अत: पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है / जो द्रव्य है वह सत् है / प्राचार्य उमास्वाति ने सत् 281. अंगुत्तरनिकाय 1-18-4, 5 282. यह कम्बल मानव के केशों से निमित होता था ऐसा टीका साहित्य में उल्लेख है। 283. The Book of Gradual Saying, Vol. I, Page 286 284. मडिभ.मनिकाय भाग 1, पृष्ठ 514; Fncyclopaedia of Religion and Ethics, Dr. Hocrule P. 261. 285. मझिमनिकाय सन्दक सुत्त 2-3-6 286. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृष्ठ 163 287. द्रवलि-गच्छति तांस्तान पर्यायविशेषानितियद्रव्यम (सू. चु. 1, पृष्ठ 5) 288. दति-स्वपर्यायान प्राप्नोति क्षरति च, यते गम्यते तस्तैः पत्य रिति द्रव्यम् / Page #2156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उत्पाद, न्यय और प्रौव्ययुक्त माना है / 28. उन्होंने द्रव्य की परिभाषा करते हुए गुण और पर्याय वाले को द्रव्य कहा है। 260 द्रव्य में परिणमन होता है / उत्पाद और व्यय होने पर भी उसका मूल स्वरूप नष्ट नहीं होता / द्रव्य के प्रत्येक अंश में प्रतिपल प्रतिक्षण जो परिवर्तन होता है वह पर्व रूप से विलक्षण नहीं होता---परिव समानता रहती है तो कुछ असमानता भी हो जाती है। पूर्व परिणाम और उत्तर परिणाम में जो द्रव्य है। इस दष्टि से द्रव्य न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। वह अनुस्यूत रूप हो वस्तु की हर एक अवस्था को प्रभावित करता है। उदाहरण के रूप में माला के प्रत्येक मोती में धागा अनुस्यूत रहता है। पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती परिणमन में जो असमानता है वह पर्याय कही जाती है। इस दृष्टि से द्रव्य की उत्पत्ति भी मानी जाती है तथा विनाश भी। इस कारण द्रव्य में उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता-इन तीनों अवस्थानों का उल्लेख है / द्रव्य रूप में वह स्थिर है तो पर्याय रूप में उत्पन्न एवं नष्ट भी होता रहता है। सारांश यह है कि कोई भी वस्तु न सर्वधा नित्य है न सर्वथा अनित्य है किन्तु वह परिणामी नित्य है। आगम के शब्दों में कहा जाय तो जो गुण का आश्रय या अनन्त गुणों का प्रखण्ड पिण्ड है वह द्रव्य है। इसमें प्रथम परिभाषा द्रव्य का स्वरूपात्मक रूप प्रस्तुत करती है तो दूसरी परिभाषा अवस्थ करती है। दोनों में समन्वय होने से द्रव्य गुण-पर्यायवत् कहा जाता है तथा उसका परिणामी नित्यस्वरूप बतलाता है। द्रव्य में सहभावी (गुण) और क्रमभावी (पर्याय) ये दो प्रकार के धर्म होते हैं। बौद्धदर्शन ने सत्-द्रव्य को एकान्त अनित्य माना है अर्थात् निरन्वय क्षणिक, केवल उत्पाद-विनाशस्वभाव वाला माना है तो वेदान्तदर्शन ने सत् पदार्थ (ब्रह्म) को एकान्त नित्य माना है। बौद्धदर्शन परिवर्तनवादी है तो वेदान्तदर्शन नित्य सत्तावादी / पर जैनदर्शन ने इन दोनों दर्शनों की विचारधारा को समन्वय की तुला पर तोल कर परिणामी नित्यत्ववाद की संस्थापना की है। इसका तात्पर्य है कि द्रव्य की सत्ता है, परिवर्तन भी है, द्रव्य उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी और इस परिवर्तन में उसका अस्तित्व भी सदा सुरक्षित रहता है। उत्पाद और विनाश के मध्य कोई स्थिर आधार नहीं हो तो सजातीयता का अनुभव नहीं हो सकता। 'यह वह ही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता। यदि हम द्रव्य को निर्विकार मानें तो विश्व में जो विविधता है, उसकी संगति नहीं हो सकती। परिणामीनित्यत्ववाद जैनदर्शन को अपनी मौलिक देन है। इसकी तुलना रासायनिक विज्ञान के द्रव्याक्षरत्ववाद से कर सकते हैं। इस वाद की संस्थापना सन 1789 में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक 'लेबोसियर' ने की थी। इस बाद का सार है-इस अनन्त विश्व में द्रव्य का परिणाम सदा सर्वदा समान रहता है। उसमें किसी प्रकार की कमी-वेशी नहीं होती, न किसी वर्तमान द्रव्य का पूर्ण नाश होता है और न किसी नए द्रव्य को पूर्ण रूप से उत्पत्ति होती है। हम जिसे द्रव्य का नाश समझते हैं वह उसका रूपान्तर है। जैसे एक कोयला जलकर राख बन जाता है; पर वह नष्ट नहीं होता / वायुमण्डल के प्रॉक्सीजन अंश के साथ मिलकर काबोनिक एसिड गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है, वैसे ही शक्कर या नमक आदि पानी में मिलकर नष्ट नहीं होते पर ठोस रूप को बदल कर द्रव रूप में परिणत हो जाते हैं। जहाँ कहीं भी नूतन वस्तु उत्पन्न होती हुई दिखलाई देती है, पर सत्य तथ्य यह है कि वह किसी पूर्ववर्ती वस्तु का हो रूपान्तर है। किसी लोहे की वस्तु में जग लग जाता है। वहाँ पर जंग नामक कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ, पर धातु की ऊपरी सतह पर पानी और वायुमण्डल के ऑनसोजन के संयोग से लोहे के प्रोक्सीहाईड्रेट के रूप में परिणत हो गई। भौतिकवाद पदार्थों के गुणात्मक अन्तर को परिमाणात्मक अन्तर में परिवर्तित कर देता 289. तत्त्वार्थसूत्र 529 290. तत्त्वार्थसूत्र 5137 [80] Page #2157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। शक्ति परिमाण में परिवर्तन नहीं किन्तु गुण की दृष्टि से परिवर्तनशील है। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय पाकर्षण प्रादि का ह्रास नहीं होता, अपितु वे एक दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं। उत्पाद, धोव्य और व्यय द्रव्यों का यह त्रिविध लक्षण प्रतिक्षण घटित होता रहता है। इस शब्दावली में और जिसे "द्रव्य का नाश होना समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमनमात्र है।" इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तु की दृष्टि से इस विश्व में जितने द्रव्य हैं उतने ही द्रव्य सदा अवस्थित रहते हैं। सापेक्षदृष्टि से ही जन्म और मरण है / नवीन पर्याय का उत्पाद जन्म है और पूर्व पर्याय का विनाश मृत्यु है। सांख्यदर्शन ने पुरुष को नित्य और प्रकृति को परिणामीनित्य मानकर नित्यानित्यत्ववाद की संस्थापना की है। नैयायिक और वैशेषिक परमाण, आत्मा प्रभति को नित्य मानते हैं और घट, पट प्रभति को अनित्य मा हैं। इस तरह समूह की दृष्टि से वे परिणामित्व एवं नित्यत्ववाद को स्वीकार करते हैं। पर जैनदर्शन की भाँति द्रव्य मात्र को परिणामी नित्य नहीं मानते। यह भी सत्य तथ्य है कि महर्षि पतञ्जलि और प्राचार्य कुमारिल भट्ट, पार्थसार प्रति मनीषियों ने परिणामोनित्यत्ववाद को स्पष्ट सिद्धान्त के रूप में मान्यता नहीं दी है, तथापि परिणामोनित्यत्ववाद का प्रकारान्तर' से पूर्ण समर्थन किया है। द्रव्य शब्द अनेकार्थक है / सत् तत्त्व और पदार्थपरक प्रर्थ पर हम कुछ चिन्तन कर चुके हैं। सामान्य के लिए भी द्रव्य शब्द व्यवहृत हमा है और विशेष के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। सामान्य भी तिर्यक सामान्य और ऊर्वतासामान्य के रूप में दो प्रकार का है। एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में समानता का होना तिर्यक सामान्य है। जब कालकृत विविध अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय (समानता) विवक्षित हो या एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, वह एकत्वसूचक अंश ऊर्ध्वतासामान्य है / जीव के संसारी और मुक्त इन दो भेदों में रहने वाला जीवत्व या संसारी के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक 5 भेदों में रहा हा संसारी जीवत्व आदि तिर्यक सामान्य हैं। द्रव्याथिक दृष्टि से जीव शाश्वत है, यह जीव का ऊर्ध्वतासामान्य है। गणधर मौतम ने श्रमण भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-'द्रव्य कितने प्रकार का है?' समाधान की भाषा में भगवान ने कहा---'द्रव्य के जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये दो प्रकार हैं। पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत की--अजीव द्रव्य कितने प्रकार का है ?' समाधान के रूप में कहा गया-'वह रूपी और प्ररूपी के भेद 291. द्रव्यं नित्यमाकृति रनित्या / सुवर्ण कदाचिदाकृत्या युक्तः पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते / रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका: क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते / पुनरावृतः सुवर्णपिण्डः / ...... प्राकृतिरन्या चान्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव / प्राकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते। -पातञ्जल योगदर्शन वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्राप्तिश्चाप्यूत्तराथिनः / / 1 // हेमाथिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम् / / 2 / / न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् / स्थित्वा विना न माध्यस्थ्यं, तेन सामान्यनित्यता // 3 // -कुमारिल्ल भट्टः~-मीमांसा श्लोकवार्तिक, पृष्ठ 619 ' [1] Page #2158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से दो प्रकार का है।' पुनः जिज्ञासा उभरी-'अजीव द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?' समाधान दिया गया---'वे अनन्त हैं, चूंकि परमाण पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं। उसी तरह जीव द्रव्य के सम्बन्ध में भी गौतम ने पृच्छा की कि वह संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? समाधान दिया गया--जीव अनन्त हैं, क्योंकि नै रयिक, चार स्थावर, तीन विकले न्द्रिय, तिर्यच पंचेन्द्रिय, असंशो मनुथ्य तथा देव ये सभी प्रत्येक पृथक-पृथक असंख्यात हैं। संज्ञी मनुष्य संख्यात हैं। वनस्पतिकायिक जीव और सिद्ध अनन्त हैं। अतः समस्त जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त हैं। इसी प्रकार भगवती सूत्र शतक 14, उद्देशक 4 में जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। शतक 17, उद्देशक 2 में जीव और जीवात्मा ये दोनों पृथक नहीं हैं, ऐसा स्पष्ट किया गया है, शतक 7, उद्देशक 8 में हाथी और कुंथा दोनों की काया में अन्तर है तो क्या उनके जीव समान है या असमान है ? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया कि दोनों में जीय समान है, जैसे दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार छोटा और बड़ा होता है वैसे ही शरीर के अनुसार प्रात्मप्रदेश संकुचित और विस्तृत होते हैं। शतक 1, उद्देशक 2 में जीव स्वयंकृत कर्म का वेदन करते हैं या परकृत कर्म का वेदन करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने बतलाया कि जीव स्वकृत कर्म का ही वेदन करता है, परकृत कर्म का नहीं / जैन आगमसाहित्य का गहराई से पर्यवेक्षण करने पर सहज परिज्ञात होता है कि उसने अद्वैतवादियों की भांति जगत को वस्तु अवस्तु अर्थात् माया में विभक्त नहीं किया है अपितु यह प्रतिपादित किया है कि संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित हैं। वस्तु का स्वभाव वह है जो परनिरपेक्ष हो और विभाव वह है जो परसापेक्ष हो / आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख प्रभति का जो मूल रूप है वह उसका स्वभाव है और अजीब का स्वभाव है जड़ता। आत्मा की मनुष्य , देव आदि गति रूप जो स्थिति है वह विभाव दशा है। स्वभाव और विभाव दोनो अपनेआप में सत्य हैं। हाँ, तविषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव / तत में अतत का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व को संभावना रहती है / 262 विज्ञानवादी बौद्धों का यह मन्तव्य है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक है और उसके अतिरिक्त जितना की ज्ञान है वह अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और प्रसाक्षात्कारात्मक है / जवकि जैन आगमसाहित्य में प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहा है जो इन्द्रियनिरपेक्ष हो और आत्मसापेक्ष हो तथा साक्षात्कारात्मक हो / परोक्ष उसे कहा है जो ज्ञान इन्द्रिय और मनसापेक्ष हो तथा असाक्षात्कारात्मक हो। प्रत्यक्षज्ञान सही स्वभाव और विभाव का सही परिज्ञान हो सकता है। जो ज्ञान इन्द्रियसापेक्ष है उससे वस्तु के स्वभाव और विभाव का स्पष्ट और सही परिज्ञान नहीं होता। पर इसका यह तात्पर्य नहीं कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है / विज्ञानवादी वौद्ध परोक्ष ज्ञान को अवस्तुग्राहक होने के कारण भ्रम मानते हैं पर जैनदर्शन ऐसा नहीं मानता। उसका यह अभिमत है कि विभाव वस्तु का परिणाम है / यह वस्तु का एक रूप है / अतः उसके ग्राहकज्ञान को हम भ्रम नहीं कह सकते। जैन आगमसाहित्य में ज्ञान के सम्बन्ध में यत्र-तत्र विस्तार से निरूपण किया गया है। ज्ञान के विविध भेद-प्रभेदों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। आगमयुग के पश्चात् जैनदार्शनिक मनीषी भी ज्ञान के सम्बन्ध में चिन्तन करते रहे हैं। विस्तारभय से हम उस चिन्तन को यहाँ प्रस्तुत न कर यह बताना चाहेंगे कि ज्ञान प्रात्मा का निज स्वरूप है, ज्ञान एक ऐसा गुण है जिसके बिना आत्मा आत्मा नहीं रहता। निगोद अवस्था में भी, जहाँ यात्मा 292. प्रागमयुग का जैनदर्शन पृ. 127-128, पं. दलसुखमालवणिया [2] Page #2159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अंसख्यात प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म से प्राच्छन्न होते हैं, मूल 8 रुचक प्रदेश सदा ज्ञानावरणीय कर्म से अलिप्त रहते हैं। भगवतीमूत्र में भी ज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन प्राप्त है। जिज्ञासु पाठक भगवतीसूत्र शतक 8. उद्देशक 2 का गहराई से अवलोकन करें / शतक 1, उद्देशक 1 में गणधर गौतम और भगवान महावीर का एक मुन्दर संवाद है, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र वर्तमान भव तक सीमित रहता है परन्तु ज्ञान इस लोक, परलोक तथा तदुभयलोक में भी रह सकता है। जैन अागमों में जहाँ ज्ञानचर्चा की गई है वहाँ प्रमाणचर्चा भी की गई है। ज्ञान को प्रामाणिकता देने के लिए सम्यक्त्व और मिथ्यात्व पर चिन्तन करते हए यह प्रतिपादित किया कि सम्यग्दर्शी का ज्ञान ज्ञान है और वही ज्ञान मिथ्यादी के लिए अज्ञान है / ज्ञान के 5 और प्रज्ञान के 3 भेद प्रतिपादित किए गए हैं। प्रागमसाहित्य में नैयायिकदर्शन की तरह कहीं पर चार प्रमाणों का उल्लेख है तो कहीं तीन प्रमाणों का उल्लेख है। स्थानांगसूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान पर हेतु शब्द का प्रयोग किया है / ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष, अनुमान प्रादि को हेतु शब्द से व्यवहत किया है / 26 3 निक्षेप दष्टि से स्थानांग में द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण कालप्रमाण और भावप्रमाण ये चार भेद किये हैं। 64 स्थानांग में प्रमाण के तीन भेद भी प्राप्त होते हैं। वहां पर प्रमाण के स्थान पर व्यवसाय' शब्द का प्रयोग हुआ। व्यवसाय का अर्थ 'निश्चय' है / व्यवसाय के प्रत्यक्ष, प्रत्ययिक और आनुगामिक ये तीन प्रकार हैं। 5 जैन आगमसाहित्य में ही नहीं, अन्य दर्शनों में भी प्रमाण के तीन और चार प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं। सांख्यदर्शन में तीन प्रमाणों का निरूपण है, तो न्यायदर्शन में चार प्रमाण प्रतिपादित हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाण के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार के साथ चर्चा है। भारतीय दार्शनिकों में प्रमाण की संख्या के सम्बन्ध में एक मत नहीं रहा है। चार्वाकदर्शन केवल इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है / वैशेषिकदर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो को प्रमाण मानता है। सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गये हैं। न्यायदर्शन ने प्रत्यक्ष , अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने हैं। प्रभाकरमीमांसक ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति ये पांच प्रमाण माने हैं। भादृमीमांसादर्शन ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और प्रभाव, ये छह प्रमाण माने हैं। बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने हैं। जैन दार्शनिक विज्ञों ने प्रमाण के तीन और भेद माने हैं। आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष, अनुमान और ग्रागम ये तीन प्रमाण माने हैं२६ तो उमास्वाति ने, वादी देवसुरि१८ ने और प्राचार्य हेमचन्द्र 20 ने प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण स्वीकार किये हैं। मगर यह वस्तुतः विवक्षाभेद है। इसमें मौलिक अन्तर नहीं है। 293. स्थानांग 4/335 294. स्थानांग 4/321 295. स्थानांग 3/185 216. न्यायावतार 28 297. तत्त्वार्थ सूत्र 298. प्रमाणनयतत्त्वालोक 2/91 299. प्रमाणमीमांसा 1/9,10 [ 83 ] Page #2160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 4 में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और पागम ये चार प्रकार माने हैं / प्रत्यक्ष प्रमाण के इन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष-ये दो भेद किये हैं। अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधम्र्यवत-ये तीन प्रकार प्रतिपादित किये हैं। उपमान प्रमाण के भेद-प्रभेद नहीं हैं। प्रागम प्रमाण के लौकिक और लोकोत्तर—ये दो भेद बताकर लौकिक में भारत, रामायण प्रादि ग्रन्थों का सूचन किया है तो लोकोत्तर आगम में द्वादशांगी का निरूपण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में प्रमाण के सम्बन्ध में चिन्तन है। यह चिन्तन अनयोगद्वारसूत्र में और अधिक विस्तार से प्रतिपादित है। भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 4 में जीबों के विविध भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया गया है। जीवविज्ञान जैन दर्शन की अपनी देन है। जितना गहराई से जनदर्शन ने जीवों के भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया है, उतना सूक्ष्म चिन्तन अन्य पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिक नहीं कर सके हैं। वेदों में पृथ्वी देवता, मापो देवता आदि के द्वारा यह कहा गया है कि वे एक-एक हैं, पर जनदर्शन ने पृथ्वी आदि में अनेक जीव माने हैं, यहाँ तक कि मिट्टी के कण, जल की बंद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। उनका एक शरीर दश्य नहीं होता, अनेक शरीरों का पिण्ड ही हमें दिखलाई देता है। 300 जीव का मुख्य गुण चेतना है। चेतना सभी जीवों में उपलब्ध है। जिसमें चेतना है वह जीव है / फिर भले ही वह सिद्ध हो या सांसारिक। चेतना सिद्ध में भी है और संसारी जीव में भी है। चेतना की दृष्टि से सिद्ध और संसारी जीव में भेद नहीं है। आगमिक दृष्टि से जीव के बोधरूप व्यापार को चेतना कहा है। वह बोधरूप व्यापार सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार का है। जब चेतना वस्तु के विशेष धर्मों को गौण कर सामान्य धर्म को ग्रहण करती है तब दर्शनचेतना कहलाती है और जो चेतना सामान्य धर्मों को गौण करके वस्तु के विशेष धर्मों को मुख्य रूप से ग्रहण करती है, वह ज्ञानचेतना कहलाती है। ज्ञानचेतना ही विशेष बोधरूप व्यापार कहलाती है। एक ही चेतना कभी सामान्य रूप में तो कभी विशेषात्मक होती है।। दार्शनिकों ने चेतना के ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलनेतना-ये तीन प्रकार भी माने हैं। किसी भी वस्तु-तत्व को जानने के लिए चेतना का जो ज्ञानरूप परिणाम है, वह ज्ञानचेतना है, कषाय के उदय से क्रोध, मान, माया, लोभ रूप जो परिणाम है, वह कर्मचेतना है। शुभ और अशुभ कर्म के उदय से जो सुख और दुःखरूप परिणाम होता है, वह कर्मफलचेतना है। दार्शनिकों ने इन तीनों प्रकार की चेतनाओं को अन्य रूप से कहा है। प्रागमकारों ने संसारी जीवों की दष्टि से अस और स्थावर-ये दो भेद किये हैं। जिस जीव को बस नामकर्म का उदय है वह त्रस जीव है और जिस जीव को स्थावर नामकर्म का उदय है वह स्थावर जीव है। गतित्रस और लब्धित्रस ये त्रस के दो प्रकार हैं। जिनमें स्वतन्त्र रूप से गमन करने की शक्तिविशेष हो, वह गति त्रस है और जो सुख-दुःख की इच्छा से गमन करते हैं, वे लब्धित्रस हैं। तेजस्काय और वायुकाय को गति त्रस तथा बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को लब्धिवस माना गया है / इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने बस और स्थावर शब्दों का अर्थ दो प्रकार से किया है। एक क्रिया की दृष्टि से तो दुसरा कर्म के उदय की दष्टि से। 300. (क) दशवकालिकसूत्र, अगस्त्यसिंहचूणि, पृष्ठ 74 (ख) दशवकालिकसूत्र, जिनदासचूणि, पृष्ठ 136 [84] Page #2161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के उदय की दृष्टि से तेजस्काय और वायुकाय भी स्थावर ही हैं। इस दृष्टि से स्थावर के 5 भेद प्रतिपादित है। बस के द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-ये चार प्रकार हैं। संसार के जितने भी जीव हैं वे बस और स्थावर में समाविष्ट हो जाते हैं। गति की दष्टि से संसारी जीवों को चार भागों में विभक्त किया गया है--नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव / नारक गति के जीवों के परिणाम और लेश्या अशुभ और अशुभतर होती है। जब पापों का पुंज अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है तब जीव नरक में जाकर उत्पन्न होता है। नरक में भयंकर शीत, ताप, क्षुधा, तृषा प्रति वेदनाएँ होती हैं। नरकभूमियों में वर्षा, गन्ध, रस और स्पर्श आदि अशुभ होते हैं / उनके शरीर अशुचिकर और बीभत्स होते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है तथापि उसमें अशुचिता की ही प्रधानता होती है। नरक के जी व मर कर पुन: नरक में पैदा नहीं होते / मनुष्य और तिर्यञ्च ही मर कर नरक में उत्पन्न होते हैं।। नारक, मनुष्य और देव को छोड़कर इस बिराट विश्व में जितने भी जीव हैं, वे सभी तिर्यच है / तिर्यच एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं / तिर्यञ्चों में पाँच स्थावर (एकेन्द्रिय), द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सभी होते हैं। पंचेन्द्रिय में जलचर-स्थलचर-खेचर-उरचर और भुजचर जीवों का समावेश है / तिर्यञ्च जीवों का विस्तार बहुत है / वे अनन्त हैं। मूल आगमों में एक-एक के विविध प्रकार प्रतिपादित हैं / मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जीव को मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। प्रात्मविकास की परिपूर्णता मानव ही कर सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने मानवगति की महिमा गाई है। मानवों को आर्य और अनार्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है। जो हिंसा आदि दुष्कृत्यों से दूर रहता है वह प्रार्य है और इसके विपरीत व्यक्ति अनार्य है। पार्यों के भी ऋद्धिप्राप्त आर्य और अन ऋद्धिप्राप्त आर्य-ये दो प्रकार हैं। ऋद्धिप्राप्त आर्यों में तीर्थकर, 'चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, विद्याधर और चारण लन्धिधारी मुनि श्रादि हैं। पार्यों के भी क्षेत्रमार्य, जाति आर्य, कुल प्रार्य, कर्मप्राय, शिल्पग्रार्य, भाषाआर्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रप्रायं, ये नौ प्रकार किये गये हैं / इन भेदों का मूल आधार गुण और कर्म हैं। अन्यान्य आधारों पर भी मनुष्यों के भेदों का निरूपण किया गया है। भौतिक सुख और समृद्धि की अपेक्षा मानवगति से देवगति श्रेष्ठ है / देवगति में पुण्य का प्रकर्ष होता है / उस में लेश्याएं प्रशस्त होती हैं। बैंक्रिय शरीर होता है, जिसके कारण वे चाहे जसा रूप बना लेते हैं। देवों के भी चार प्रकार हैं (1) भवन पति, (2) वाणव्यन्तर, (3) ज्योतिष्क और (4) वैमानिक / भवनों में रहने वाले देव भवनपति कहलाते हैं / असुर कुमार, नागकुमार आदि भवनपति देवों के दस प्रकार हैं। इन भवनपति देवों का आवास नीचे लोक में है। विविध प्रकार के प्रदेशों में एवं शून्य प्रान्तों में रहने वालों को वाणव्यन्तर देव कहते हैं। भूत, पिशाच श्रादि व्यत्तर देव हैं। ये देव मध्यलोक में रहते हैं / ज्योतिष्क देवो के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा, ये पांच भेद हैं। ये अढाई द्वीप में चर हैं और अढाई द्वीप के बाहर अचर यानी स्थिर हैं। ज्योतिडक देव मध्यलोक में ही हैं। विमानों में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं / वैमानिक देव ऊँचे लोक में रहते हैं। उनके कल्पोपपन्न और कल्पातीत, ये दो प्रकार हैं ! कल्पोपपन्नों में स्वामी-सेवक भाव रहता है पर कल्पातीतों में इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता। कल्पोपपन्नों के बारह प्रकार हैं और कल्पातीत के वेयकवासी और अनुत्तरविमानवासी ये दो प्रकार हैं। वेयक देवों के नौ प्रकार हैं। अनुत्तरविमानबासी विजय, वैजयन्त आदि पांच प्रकार के हैं। बारह देवलोकों में प्रथम पाठ देवलोकों का आधिपत्य एक-एक इन्द्र के [25] Page #2162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ में है। नवमें दसवें का एक इन्द्र है। ग्यारहवें, बारहवें का भी एक इन्द्र है। इस प्रकार बारह देवलोकों के दस इन्द्र हैं। देवगति का प्रायु पूर्ण कर कोई भी देव पुन: देव नहीं बनता / पागम में देवों के द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव प्रादि भेद किये हैं। भविष्य में देवरूप में उत्पन्न होने वाला जीव द्रव्यदेव है। चक्रवर्ती नरदेव है। साधु धर्मदेव है। तीर्थंकर देवाधिदेव हैं और देवों के चार निकाय भावदेव हैं। प्रात्मा के पाठ प्रकार भगवतीसूत्र शतक बारह, उद्देशक दस में प्रात्मा के पाठ प्रकार बताये हैं। प्रात्मा एक चेतनावान् पदार्थ है। चेतना उसका धर्म है और उपयोग प्रात्मा का लक्षण है। चेतना सदा सर्वदा एक सदश नहीं रहती। उसमें रूपान्तरण होता रहता है। रूपान्तरण को ही जनदर्शन में पर्याय-परिवर्तन कहा गया है / जो भी द्रव्य होता है वह बिना गुण और पर्याय के नहीं होता, गुण सर्वदा साथ होता है तो पर्याय प्रतिपल प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। आत्मा एक द्रव्य है, तथापि पर्यायभेद की दृष्टि से उसके अनेक रूप दम्मोचर होते हैं। द्रव्य-पात्मा वह है जो चेतनामय, असंख्य अविभाज्य प्रदेशों-अवयवों का अखण्ड समूह है। इसमें केवल विशुद्ध आत्मद्रव्य की ही विवक्षा की गई हैं। पर्यायों की सत्ता होने पर भी उन्हें गौण कर दिया गया है। यह प्रात्मा का कालिक सत्य है, तथ्य है, जिसके कारण से नात्मद्रव्य अनात्मद्रव्य नहीं बनता। द्रव्य-मात्मा शुद्ध चेतना है। क्रोध-मान-माया-लोम से रंजित होने पर आत्मा कषाय-प्रात्मा के रूप में पहचाना जाता है। प्रात्मा की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे योग द्वारा होती हैं। इसलिए आत्मा को भी योग-प्रात्मा के नाम से पहचान कराई गई है। चेतना जब व्याप्त होती है तब वह उपयोग-प्रात्मा है / ज्ञानात्मक और दर्शनात्मक चेतना को क्रमश: ज्ञान-ग्रात्मा और दर्शन-प्रात्मा कहा गया है। प्रात्मा की विशिष्ट संयममूलक अवस्था चरित्र-प्रात्मा के रूप में विश्रुत है / प्रात्मा की शक्ति वीर्यप्रात्मा के रूप में जानी और पहचानी जाती है / आत्मा के ये जो पाठ प्रकार बताये हैं वे अपेक्षा दृष्टि से बतलाये गये हैं। बात्मा का जो पर्यायान्तरण होता है, वह केवल इन पाठ बिन्दुओं तक ही सीमित नहीं है। प्रात्मा के जितने पर्यायान्तरण हैं उतनी ही प्रात्मायें हो सकती हैं। इस रष्टि से प्रात्मा के अनंत भेद भी हो सकते हैं / प्रस्तुत मागम में इन आठों प्रात्माओं के प्रकारों का अल्पबहत्व भी दिया है। जीव के चौदह भेद भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देश्यक 1 में संसारी जीव के चौदह भेद बताये हैं / एकेन्द्रिय जीव के चार भेद, पञ्चेन्द्रिय जीव के चार भेद और विकलेन्द्रिय जीव के छः भेद हैं। एकेन्द्रिय जीव के सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार प्रकार हैं। सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर नर्मचक्ष से निहारा नहीं जा सकता बे सूक्ष्मएकेन्द्रिय जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुपमाण सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं। लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर ये जीवन हों। ये जीव इतने सूक्ष्म हैं कि पर्वत की कठोर चट्टान को चीरकर भी प्रार-पार हो जाते हैं। किसी के मारने से नहीं मरते / विश्व की कोई भी वस्तु उनका घात-प्रतिघात नहीं कर सकती। साधारण वनस्पति के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्मनिगोद भी कहते हैं / साधारण वनस्पतिकाय का शरीर निगोद कहलाता है। इस विश्व में असंख्य गोलक हैं। एक एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं और एक एक निगोद में अनन्त जीव हैं। इनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त होता है / बादरनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्ष से देखा जा सके, वे बादर-एकेन्द्रिय जीव हैं। बादर-एकेन्द्रिय जीव लोक के लियत क्षेत्र में ही प्राप्त होते हैं। पांच स्थावर के भेद से बादर-एकेन्द्रिय के पांच [86 ] Page #2163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद हैं। बादरवनस्पतिकाय के प्रत्येक और साधारण ये दो भेद हैं। बादर साधारण वनस्पतिकाय निगोद के नाम से भी जानी-पहचानी जाती है। इनमें भी अनन्त जीव होते हैं। इन जीवों में केवल एक इन्द्रिय होती है और वह स्पर्शन इन्द्रिय है। सामान्य रूप से पर्याप्त का अर्थ पूर्ण और अपर्याप्त का अर्थ अपूर्ण है। पर्याप्त और अपर्याप्त ये दोनों शब्द जनदर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। जन्म के प्रारम्भ में जीवनयापन के लिये आवश्यक पोद्गलिक शक्ति के निर्माण का नाम पर्याप्ति है। याहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छह प्रकार की शक्तियाँ हैं / इस शक्ति-विशेष को प्राणी उस समय ग्रहण करता है जब एक स्थल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थल शरीर को धारण करता है / पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है और पूर्णता ऋमिक रूप से / आहार पर्याप्ति की पूर्णता एक समय में हो जाती है पर शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त का समय लगता है। एकेन्द्रिय जीवों में चार पर्याप्तियां होती हैं—ाहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छवास / विकलेन्द्रिय जीवों के और असंज्ञीपचेन्द्रिय जीवो के पांच पर्याप्तियां होती हैं-ग्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा / संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के मन अधिक होने से छह पर्याप्तियां होती हैं / पहली तीन श्राहार, शरीर और इन्द्रिय को प्रत्येक जीव पूर्ण करता है। तीनों पर्याप्तियां पूर्ण करके ही जीव अगले भव का प्रायुध्य बांध सकता है। स्वयोग्य पर्याप्ति जो पूर्ण करे वह पर्याप्त है और जो पूर्ण न करे वह अपर्याप्त है / एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्तियाँ चार हैं। जो एकेन्द्रिय जीव चार पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है, वह पर्याप्त बहलाता है और जो पूर्ण नहीं करता वह अपर्याप्त है / पर्याप्त के भी लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त ये दो भेद हैं। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है पर जो पूर्ण अवश्य करेगा। दृष्टि से--लब्धिपर्याप्त है और जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर लिया है वह करण की अपेक्षा से करणपर्याप्त है। करण का अर्थ इन्द्रिय है / जिस जीव ने इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण कर ली है वह करणपर्याप्त है। इस तरह जो लब्धिपर्याप्त है वह करणपर्याप्त होकर ही मृत्यु को प्राप्त करता है। जिस जीव ने स्वयोन्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किया है और न करेगा वह लब्ध्यपर्याप्तक है / जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया है पर करेगा वह करणअपर्याप्त है। यहाँ पर यह स्मरण रखना है—देव और नारक लन्ध्यपर्याप्त नहीं होने पर करण-अपर्याप्त होते हैं। मनुष्य और तियंञ्च जीव दोनों ही प्रकार के अपर्याप्तक होते हैं। विकलेन्द्रियों के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये तीन प्रकार हैं। जिन जीवों के सम्पूर्ण इन्द्रियां नहीं होती हैं वे विकलेन्द्रिय कहलाते हैं। दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव विकलेन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के है-संज्ञी और असंज्ञी। समनरक को संज्ञी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उदबुद्ध होता है कि समनस्क और संज्ञी इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है या भिन्न-भिन्न ? उत्तर में निवेदन है-संज्ञी और समनस्क ये दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। क्योंकि जो जीव संज्ञी है वह मन वाला अवश्य होगा / आगम साहित्य में संज्ञी शब्द का प्रयोग अधिक मात्रा में हमा है तो दार्शनिक साहित्य में समनरक शब्द का। जब दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है तो दार्शनिकों ने समनस्क शब्द का व्यवहार क्यों किया है ? हमारी शष्टि से संज्ञा शब्द अनेक अर्थों को व्यक्त करता है / संज्ञा का सामान्य अर्थ है---चेतना या ज्ञान / चेतना और ज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी हैं। पर वे संज्ञी नहीं हैं। पर यहाँ पर संज्ञी से ज्ञानसंज्ञा वाले जीवों को ग्रहण नहीं किया है / अनुभवसंज्ञा के भी पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा ये चार प्रकार हैं। आहारसंज्ञा वेदनीयकर्म का उदय है और शेष तीनों संज्ञा मोहनीयकर्म के उदय का फल हैं / अनुभवसंज्ञा भी सभी संसारी जीवों में होती है। - [ 87 ] Page #2164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागम साहित्य में संज्ञा के दस प्रकार भी बताये हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और प्रोघसंज्ञा। ये दस संज्ञायें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में होती हैं। ये दस संज्ञाएं भी अनुभव रूप ही हैं। इस प्रकार ज्ञान रूप और अनुभवरूप संज्ञा के आधार पर संज्ञी नहीं कहा जा सकता। जिस संज्ञा के अाधार पर संज्ञी शब्द व्यवहत हमा है, वह संज्ञा तीन प्रकार की है-दीर्घकालिकी, हेतुवादिकी और दृष्टिवादिकी। जिसमें दीर्घकालिकी संज्ञा हो वह संज्ञो है / दीर्घकालि की संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में घटने वाली घटनाओं पर चिन्तन होता है। दीर्घकालिको संज्ञा को संप्रधारणसंज्ञा भी कहा है। ऐसे संज्ञी को समनस्क कहा हैं। देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च और गर्भज मनुष्य ये सभी संजी हैं। इस प्रकार संसारी जीव के चौदह प्रकार हैं। __ प्रस्तुत पागम में अनेक दृष्टियों से और अनेक प्रश्नों के माध्यम से जीव और जीव के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है / शरीर भगवतीसूत्र शतक सोलहवें, उद्देशक पहले में तथा अन्य स्थलों पर भी शरीर के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं प्रस्तुत की हैं। भगवान् महावीर ने शरीर के प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण ये पांच प्रकार बताये हैं। पारमा अरूप है, अशब्द है, अगन्ध है, अरस है और अस्पर्श है। इस कारण वह अश्य है / पर मूर्त शरीर से बन्धने के कारण वह दुग्गोचर होता है। आत्मा जब तक संसार में रहेगा वह स्थल या सूक्ष्म शरीर के आधार से ही रहेगा। जीव की जितनी भी प्रवृत्तियां हैं वे प्रायः सभी शरीर के द्वारा होती हैं / औदारिक शरीर की निष्पत्ति स्थल पुदगलों के द्वारा होती है। उस शरीर का छेदन-भेदन भी होता है और मोक्ष की उपलब्धि भी इसी शरीर के द्वारा होती है / वैक्रिय शरीर के द्वारा विविध रूप निर्मित किये जा सकते हैं / मृत्यु के पश्चात् इस शरीर की अवस्थिति नहीं रहती। वह कपूर की तरह उड़ जाता है। नारक और देवों में यह शरीर सहज होता है, मनुष्य और तिर्यञ्च में यह शरीर लब्धि से प्राप्त होता है। विशिष्ट योगशक्तिसम्मन चतुर्दशर्वी मुनि किसी विशिष्ट प्रयोजन से जिस शरीर की संरचना करते हैं वह पाहारक शरीर है। जो शरीर दीप्ति का कारण है और जिसमें आहार प्रादि पचाने की क्षमता है वह तैजस शरीर है। इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते और पूर्ववर्ती तीनों शरीरों से यह शरीर सुक्ष्म होता है। जो शरीर चारों प्रकार के शरीरों का कारण है और जिस शरीर का निर्माण ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ प्रकार के कर्मपुदगलों से होता है वह कामण शरीर है। तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ रहते हैं। इन दोनों शरीरों के छटते ही प्रात्मा मुक्त बन जाता है। इन्द्रियाँ भगवतीसूत्र शतक दो, उद्देशक चार में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान महावीर ने इन्द्रियों के पांच प्रकार बताये हैं / एक निश्चित विषय का ज्ञान कराने वाली प्रात्म-चेतना इन्द्रिय है। ज्ञान प्रात्मा का गुण है, वह चेतना का अभिन्न अंग है। इसलिए प्रात्मा और ज्ञान के बीच में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं रहता। पर जो आत्मा कर्म पुद्गलों से आबद्ध है, उसका ज्ञान पावत हो जाता है / उस ज्ञान को प्रकट करने का माध्यम इन्द्रियाँ हैं / इन्द्रियों के भी दो प्रकार हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / इन्द्रियों का आकार विशेष द्रव्येन्द्रिय है। यह आकार संरचना पौद्गलिक है इसलिए द्रव्येन्द्रिय के भी निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय ये दो प्रकार हैं / यहाँ पर निवृत्ति का अर्थ प्राकार-रचना है / यह प्राकार-रचना बाह्य और प्राभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है। बाह्य [88] Page #2165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकार प्रत्येक जीव का पृथक-पृथक होता है, पर सभी का आभ्यन्तर आकार एक सदश होता है / द्रव्येन्द्रिय का दूसरा प्रकार उपकरणदपेन्द्रिय है। इन्द्रिय की प्राभ्यन्तर निबत्ति में स्व-स्व विषय को ग्रहण करने की जो शक्तिविशेष है, वह उपकरणद्रव्येन्द्रिय है। उपकरणद्रव्येन्द्रिय के क्षतिग्रस्त हो जाने पर नित्तिद्रव्येन्द्रिय कार्य नहीं कर पाती। भावन्द्रिप के भी लब्धिभावेन्द्रिय और उपयोगभावेन्द्रिय ये दो प्रकार हैं / ज्ञान करने की क्षमता लब्धिभावेन्द्रिय है। यह शक्ति ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपणम से प्राप्त होती है। शक्ति प्राप्त होने पर भी वह शक्ति तब तक कार्यकारिणो नहीं होती जब तब उसका उपयोग न हो / अतः ज्ञान करने की शक्ति और उस शक्ति को काम में लेने के साधन उपलब्ध करने पर भी उपयोगभावेन्द्रिय के अभाव में सारी उपलब्धियाँ निरर्थक हो जाती हैं। भाषा भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में भाषा के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भाषावर्गणा के पुदगल किस प्रकार ग्रहण किये जाते हैं, प्रादि के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। वैशेषिक और नैयायिक दर्शन की तरह जैन दर्शन शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता, पर वह भाषावर्गणा के पुदगलों का एक प्रकार का विशिष्ट परिणाम मानता है। जो शब्द आत्मा के प्रयास से समुत्पन्न होते हैं वे प्रयोगज हैं और बिना प्रयास के जो समुत्पन्न होते हैं वे वैधसिक हैं, जैसे बादल की गर्जना। भाषा रूपी है या अरूपी है ? इसके उत्तर में कहा गया-भाषा रूपी है, अरूपी नहीं। गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीवों की भाषा होती है या अजीत्रों की ? भगवान ने समाधान दिया-जीव ही भाषा बोलते हैं, अजीव नहीं और जो बोली जाती है वही भाषा है। भाषा के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र की प्रस्तावना में हमने विस्तार से लिखा है। अत: जिज्ञासु उसका अवलोकन करें। मन और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में गणधर गौतम ने मन के सम्बन्ध में जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की हैं। प्रागम साहित्य में मन के लिए 'अनिन्द्रिय' और 'नोइन्द्रिय' शब्दों का प्रयोग हुप्रा है। मन इन्द्रिय तो नहीं है पर इन्द्रिय सदृश है / वह भी इन्द्रियों के समान विषयों को ग्रहण करता है। मन के भी यमन और भावमन ये दो प्रकार हैं। द्रव्यमान पुद्गल रूप होने से जड़ है तो भावमन ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रूप होने से चेतनस्वरूप है / भावमन सभी जीवों के होता है पर द्रब्धमन सभी के नहीं होता। प्रस्तुत प्रागम में द्रव्यमन के सम्बन्ध में ही जिज्ञासा की गयी है कि मन आत्मा है या अन्य ? भगवान् महावीर ने कहा-मन प्रात्मा नहीं पर पुद्गलस्वरूप है। मन पुद्गलस्वरूप है तो वह रूपी है या ग्ररूपी है। समाधान दिया गया--मन रूपी है। पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत को-मन जोब के होता है या अजीव के ? समाधान-मन जीव के होता है अजीव के नहीं और उस मन के सत्यमन, असत्यमन, मिश्रमन और व्यवहारमन, ये चार प्रकार हैं। दिगम्बरपरम्परा के अनुमार मन का स्थान हृदय में है, उन्होंने मन का प्राकार आठ पंखुडी वाले कमल के सदृश माना है, पर श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है। 'यत्र पवनस्तत्र मनः' शरीर में जहां-जहाँ पर पवन है, वहाँवहाँ पर मन है। जैसे पवन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है वैसे मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। भाव और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सत्रह, उद्देशक पहले में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! भाव के कितने प्रकार हैं ? भगवान महावीर ने समाधान दिया-भाव के पांच प्रकार हैं। भाव का अर्थ है-कमों के . [ 89] Page #2166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोग या वियोग से होने वाली जीव की अवस्था-विशेष / संसारी जीव अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त नहीं है। अनादिकाल से वह कर्म मल से लिप्त है। जब तक कर्ममल नष्ट नहीं होता तब तक बन्ध, उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम प्रभति से होने वाली नाना प्रकार को परिणतियों में वह परिणत होता रहता है। कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था प्रौदयिक भाव है। इसे अपर शब्दों में उदयनिष्पन्न भाव भी कह सकते हैं। यह आठों कर्मों का होता है। जब मोहकर्म का उपशम होता है तब आत्मा की जो अवस्था होती है वह औपमिक भाव है / उदय पाठों कर्मों का होता है पर उपशम केवल मोहनीयकर्म का ही होता है। उपशम काल में मोह पूर्ण रूप से प्रभावहीन हो जाता है, पर उपशम स्थिति केवल अन्तमहर्तमात्र की है। अतः जीव को पुनः पुनः प्रयत्न करना पड़ता है। कर्मों के क्षय से होने वाली प्रात्मा की अवस्था क्षायिक या क्षयनिष्पन्न भाव है। कर्मो का क्षय हो जाने से पुन: किसी कर्म का बन्ध नहीं होता। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धाति कर्मों के हलकेपन से प्रात्मा की जो अवस्था होती है वह क्षायोपशामिक या क्षयोपशमनिष्पन्न भाव कहलाता है / जितना पारमा पुरुषार्थ करता है उतना ही वह कर्म के भार से हल कापन अनुभव करता है। यह हलकापन ही क्षायोपशमिक भाव है। उपशम और क्षयोपशम भाव में विपाक रूप में उदयाभाव की स्थिति एक सदृश होती है। प्रोपमिक भाव में प्रदेशरूप में उदय नहीं होता, पर क्षायोपशमिक भाव में प्रतिपल प्रतिक्षण कर्म का उदय, बेदन और क्षय होता रहता है। इस कर्मक्षय के साथ ही भविष्यकाल में उदयप्राप्त कर्मों का उपशमन होता है। इसलिए यह भाव क्षयोपशमनिष्पन्न भाव कहलाता है। कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावत: जीव में जो परिणतियां होती हैं, वह पारिणामिक भाव है। इस प्रकार भाव के सम्बन्ध में अनेक जिज्ञासाएँ गणधर गौतम के द्वारा प्रस्तुत की गई और भगवान ने 'उन जिज्ञासामों का समाधान दिया। योग और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सोलह, उद्देशक तीन में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की—योग कितने प्रकार का है ? भगवान् ने योग के तीन प्रकार बतलाये—मन, वचन और काय / योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है, पर वर्तमान में मुख्य रूप से योग शब्द दो अर्थ में व्यवहृत है--मिलन और समाधि / आज साधनापद्धति और प्रासन आदि के अर्थ में उसका अधिक प्रचार है। पर जैनपरिभाषा में योग का अर्थ मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति है। योग एक प्रकार का स्पन्दन है जो प्रात्मा और पुद्गलवर्गमा के संयोग से होता है / वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम व नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय वर्गणा के संयोग से जो मात्मा की प्रवृत्ति होती है वह योग है / इन तीन योगों में काययोग संसार के प्रत्येक प्राणी में होता है / स्थावरों में केवल काययोग होता है। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों में काययोग और बचन योग होते है / संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्चों में तीनों योग होते हैं। भगवतीसूत्र शतक पच्चीस, उद्देशक पहले में इन तीनों योगों के विस्तार से पन्द्रह प्रकार भी बताये हैं। कषाय भगवतीसूत्र शतक अठारह, उद्देशक चार में भगवान् ने कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकार बताये हैं। कषाय शब्द भी जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कष और आय इन दो शब्दों के मेल से बना है। कष् का अर्थ संसार, कर्म और जन्म-मरण है / जिसके द्वारा प्राणी कर्मो से बांधा जाता है या जिससे जीव जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। कषाय ऐसी मनोवत्तियाँ हैं जो कलुषित हैं, इसी कारण कषाय को संसार का मूल कहा है। [ 90 ] Page #2167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सोलह, उद्देशक सात में उपयोग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भगवान् ने उपयोग के साकार और निराकार ये दो भेद किये और साकार उपयोग में ज्ञान और निराकार उपयोग में दर्शन को लिया है। साकार उपयोग के पाठ प्रकार और निराकार उपयोग यानी दर्शन के चार प्रकार बताये हैं। ज्ञान और दर्शन-रूप चेतना का जो व्यापार यानी प्रवत्ति है, वह उपयोग है। उपयोग को जीव का लक्षण माना है। इसलिए प्रत्येक प्राणी में उपयोग है, पर अविकसित प्राणियों का उपयोग अव्यक्त होता है और विकसित प्राणियों का व्यक्त होता है। उपयोग की प्रबलता का कारण है ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म का क्षय और क्षयोपशम / जितना अधिक क्षयोपशम होगा उतना ही अधिक उपयोग निर्मल होगा / ज्ञानोपयोग में ज्ञेय पदार्थ को भिन्न-भिन्न आकृतियों की प्रतीति होती है तो दर्शनोपयोग में एकाकार प्रतीति होती है। उसमें ज्ञेय पदार्थ के अस्तित्व का ही बोध होता है। इसलिए उसमें आकार नहीं बनता। ज्ञान के जो पांच और अज्ञान के जो तीन प्रकार बताये हैं, उसका कारण सम्यक्त्व और मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण ज्ञान भी अज्ञान में बदल जाता है। मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान विशिष्ट साधकों को ही होते हैं इसलिए वे ज्ञान ही हैं, प्रज्ञान नहीं। यहाँ यह भी जिज्ञासा हो सकती है ज्ञान के पांच और दर्शन के चार ही भेद क्यों बताये ? मनःपर्यव को दर्शन क्यों नहीं कहा? उत्तर है-मनःपर्यवज्ञान में मन की विविध प्राकृतियों को जीव ज्ञान से पकड़ता है, इसलिए वह ज्ञान है / दर्शन का विषय निराकार है / इसलिए मनःपर्यव दर्शन नहीं है। लेश्या : एक चिन्तन वतीसूत्र शतक एक, उद्देशक दो में गणधर गौतम ने लेश्या के सम्बन्ध में भगवान् महावीर से पूछाभगवन् ! लेश्या के कितने प्रकार हैं ? भगवान महावीर ने लेश्या के छ: प्रकार बताये। वे हैं--कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / इन छः लेश्यानों में तीन प्रशस्त और तीन अप्रशस्त हैं। लेश्या शब्द भी जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है--जो प्रात्मा को कों से लिप्त करती है, जिसके द्वारा प्रात्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है, वह लेश्या है। लेश्या के भी दो प्रकार हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या / द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिकी तत्त्वों से निर्मित वह आंगिक संरचना है जो हमारे मनोभावों और तज्जनित कर्मों का सापेक्षरूप में कारण या कार्य बनती है। उत्तराध्ययन की टोका के अनुसार लेश्याद्रव्य कर्मवर्गणा से तिमित हैं। प्राचार्य बादीवैताल शान्तिसूरि के अभिमतानुसार लेश्याद्रव्य बध्यमान कर्मप्रभारूप है। प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार लेश्या योगपरिणाम है, जो शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का परिणाम है 10. भावलेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्तःकरण की वृत्ति है। पं. सुखलालजी संघवी के शब्दों में कहा जाय तो भावलेश्या आत्मा का मनोभाव-विशेष है जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीनतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम प्रभति अनेक भेद होने से लेश्या के भी अनेक प्रकार हैं। मनोभाव या संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं अपितु वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं। संकल्प हो कर्म में रूपान्तरित होता है। अतः जैनमनीषियों ने जब लेण्यापरिणाम की चर्चा की तो वे केवल मनोदशानों के चित्रण तक ही आबद्ध नहीं रहे अपितु उन्होंने उस मनोदशा से समुत्पन्न जोबन के कर्मक्षेत्र में होने वाले व्यवहारों की भी चर्चा की है। इस तरह लेश्या का विध वर्गीकरण किया गया है और उनके द्वारा जो विचारप्रवाह प्रवाहित होता है उस सम्बन्ध में भो आगमकारों ने प्रकाश डाला है / किन जीवों में कितनी 301. (क) दर्शन और चिन्तन, भाग 2, पृष्ठ 297 (ख) अभिधानराजेन्द्र कोष, खण्ड 6, पृष्ठ 675 [ 91] Page #2168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याएँ होती हैं, इस पर भी चिन्तन किया है। यह वर्णन बहत ही महत्व है / विस्तार भय से हम इस पर तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से विचार नहीं कर पा रहे हैं। शतक एक, उद्देशक चार में गणधर गौतम ने मोक्ष के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मोक्ष कौन प्राप्त करता है ? भगवान् ने कहा-जो चरम शरीरी है, जिसने केवलज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त किया है वही प्रात्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। कर्ममल के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है / साधक का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। इस प्रकार जीव के सम्बन्ध में विभिन्न दष्टियों से चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन इतना व्यापक है कि उस सम्पूर्ण चिन्तन को यहाँ पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। अत: मैं जिज्ञासु पाठकों को यह नम्र निवेदन करना चाहंगा कि वे मूल आगम का पारायण करें, जिससे जैन दर्शन के जीवविज्ञान का सम्यकपरिज्ञान हो सकेगा। कर्म : एक चिन्तन जिस प्रकार जीवविज्ञान के सम्बन्ध में विस्तत चिन्तन है उसी तरह कमविज्ञान के सम्बन्ध में भी विविध जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं। प्राचार्य देवचन्द्र ने कर्म की परिभाषा करते हुए लिखा है-जीव की क्रिया का जो हेत, वह कम है। पं सुख लालजी ने लिखा है-मिथ्यात्व, कषाय प्रभति कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। कर्म के भी द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं / आत्मा के मानसिक विचार भावकम हैं और वे मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं या जो उनका प्रेरक है वह द्रव्यकर्म है। प्राचार्य नेमिचन्द्र के शब्दों में कहा जाय तो पुदगलपिण्ड द्रव्यकर्म हैं और चेतना को प्रभावित करने वाले भावक.म हैं / आचार्य विद्यानन्दि ने प्रष्टसहस्री में द्रव्य कर्म को प्रावरण और भावकर्म को दोष के नाम से सूचित किया है। क्योंकि द्रव्यकर्म प्रात्मशक्तियों के प्रकट होने में बाधक है। इसलिए उसे प्रावरण कहा और भावकर्म स्वयं प्रात्मा की विभाव अवस्था है, अत: दोष है। भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भाबकर्म निमित्त है। दोनों का परस्पर में बीजांकुर की तरह कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। जनष्टि से द्रव्यकर्म पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। कारण से कार्य का अनुमान होता है, वैसे ही कार्य से भी कारण का अनुमान होता है / इस दष्टि से शरीर प्रभात कार्य मूर्त हैं तो उनका कारण कर्म भी मूर्त होना चाहिए / कर्म की मूर्तता को सिद्ध करने के लिए मनीषियों ने कुछ तर्क इस प्रकार दिए हैं-कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनसे सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है, जैसे आहार से / कर्म मूर्त है क्योकि उनसे वेदना होती है, जिस प्रकार अग्नि से / यदि कर्म अमुर्त होते तो उनके कारण सुख-दु:ख प्रादि की वेदना नहीं हो सकती थी। जिज्ञासा हो सकती है कि यदि कर्म मृत हैं तो फिर अमुर्त आत्मा पर कर्म का प्रभाव किस प्रकार गिरता है ? वायु और अग्नि मूतं हैं तो उनका अमूर्त आकाश पर प्रभाव नहीं होता / वैसे ही अमूर्त श्रात्मा पर मूर्तकर्म का प्रभाव नहीं होना चाहिए / उत्तर में निवेदन है कि ज्ञान गुण अमूर्त है, उस अमूर्त गुण पर मदिरा आदि मूर्त वस्तुओं का असर होता है / वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त अनादिकालिक कर्मसंयोग के कारण प्रात्मा कथंचित् मूर्त है। अनादि काल से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध रहा हुआ होने से स्वरूप से अमूर्त होने पर भी कथंचित वह मूर्त है। इस दृष्टि से मूतं कर्म का प्रात्मा पर प्रभाव पड़ता है। जब तक आत्मा कार्मण शरीर से मुक्त नहीं होता तब तक कर्म अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। जन मनीषियों ने प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध 'नीर-क्षीरवत' या 'अग्नि-लोह पिण्डवत' माना है / यहां पर यह भी प्रश्न समुत्पन्न हो सकता है-कर्म जड़ हैं। वे चेतन को प्रभावित करते हैं तो फिर मुक्तावस्था में भी [ 92 ] Page #2169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे आत्मा को प्रभावित करेंगे / फिर मुक्ति का अर्थ क्या रहा ? यदि वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते हैं तो फिर बन्ध की प्रक्रिया कैसे होगी? इस प्रश्न का उत्तर 'समयसार' ग्रन्थ में30२ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार दिया है--सोना कीचड़ में रहता है तो भी उस पर जंग नहीं लगता, जब कि लोहे पर जंग या जाता है। शुद्धात्मा कर्मपरमाणुओं के बीच में रह कर भी वह विकारी नहीं बनता। कर्मपरमाणु उसी आत्मा को प्रभावित करते हैं, जो पूर्व रागद्वेष से ग्रसित हैं। जब रागादि भाव कर्म होते हैं तभी द्रव्यकों को प्रात्मा ग्रहण करता है। भावार्म के कारण ही द्रव्यकर्म का आस्रव होता है और वही द्रव्यकर्म समय आने पर भावकर्म का कारण बन जाता है / इस प्रकार का कर्मप्रवाह सतत चलता रहता है। कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कबसे हुआ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए पूर्वाचायों ने कहा है कि एक कर्म-विशेष की अपेक्षा कर्म सादि है और कर्मप्रवाह की दृष्टि से वह अनादि है। यह नहीं कि आत्मा पहले कर्म मुक्त था, बाद में कर्म से प्राबद्ध हुया / कर्म अनादि हैं, अनादि काल से चले आ रहे हैं और जब तक रागद्वेषरूपी कर्मवीज जल नहीं जाता है तब तक कर्मप्रवाह-परम्परा भी समाप्त नहीं होती। भगवतीसूत्र शतक 1, उद्देशक 2 में गणधर गौतम ने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि प्राणी स्वकृत सुख और दुःख को भोगता है या परकृत सुख और दु:ख को भोगता है ? भगवान महावीर ने यह स्पष्ट किया कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख को भोगता है, पर कृत सुख-दुःख को नहीं। भगवतीसूत्र शतक 6, उद्देशक 9 में और शतक 8, उद्देशक 10 में कर्म की पाठ प्रकृतियां बताई हैं और उनके अल्प-बहत्व पर भी चिन्तन किया है और शतक 6, उद्देशक 3 में प्राठों कर्मों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला है। शतक 6, उद्देशक 3 में कर्म कौन बांधता है ? इसके उत्तर में कहा है कि तीनों वेद वाले कर्म बांधते हैं / असंयत, संयत, संयतासंयत, सभी कर्म बाँधते हैं किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत यानी सिद्ध कर्म नहीं बाँधते हैं। इसी प्रकार संशी, भवसिद्धिक, चक्षुदर्शनी, पर्याप्त और अपर्याप्त, परीत, अपरीत मनयोगी, बचन योगी, काययोगी, आहारक, अनाहारक कौन कर्म बांधते हैं, इस पर भी गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। शतक 18, उद्देशक 3 में माकन्दीपुत्र ने भगवान से पूछा- एक जीव ने पापकर्म किया है या अब करेगा, इन दोनों में क्या अन्तर है ? भगवान् ने बाण के रूपक द्वारा इस प्रश्न का समाधान दिया। शतक 1, उद्देशक 3 में गणधर गौतम ने पूछा- जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधता है ? इस प्रश्न के समाधान में भगवान ने बांधने की सारी प्रक्रिया प्रस्तुत की। इस तरह विविध प्रश्न बम के सम्बन्ध में विभिन्न जिज्ञासुमों ने भगवान महावीर के सामने रखे और उन प्रश्नों का सटीक समाधान प्रस्तुत किया। वस्तुत: जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त बहुत ही अनठा और अद्भुत है। आगमसाहित्य में आये हुए कर्मसिद्धान्त के बीजसुत्रों को परवर्ती आचार्यप्रबरों ने इतना अधिक विस्तत किया कि आज लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण श्वेताम्बर कर्म साहित्य है, तो दो लाख श्लोकप्रमाण दिगम्बर मनीषियों द्वारा लिखा हुआ कर्म साहित्य है। पुद्गल : एक चिन्त पुदगल जैनदर्शन का पारिभाषिक शन्द रहा है जिसे आधुनिक विज्ञान ने मैटर (Matter) और न्याय-वैशेषिक दर्शनों ने भौतिक तत्व कहा है, उसे ही जैन दार्शनिकों ने पुद्गल कहा है। बौद्ध दर्शन में पुद्गल -------- __.. - - 302. समयसार 218, 219 [ 93 ] Page #2170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द का व्यवहार 'पालय-विज्ञान' या 'चेतना-संतति' रहा है। पर जैनदर्शन में पुद्गल शब्द मूर्त्तद्रव्य के अर्थ में है। केवल भगवतीसूत्र शतक क, उद्देशक 10 में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को भी पुद्गल कहा है / पर शेष सभी स्थलों पर पुद्गल को पूरणगलनधर्मी कहा है। 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक,303 सिद्धसेनीया 'तत्त्वार्थवृत्ति',30४ धवला30" और हरिवंशपुराण,30६ आदि अनेक ग्रन्थों में गलन-मिलन स्वभाव वाले पदार्थ को पुद्गल कहा है। पुद्गल वह है जिसका स्पर्श किया जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके, जिसको गन्ध ली जा सके और जिसे निहारा जा सके। पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों अनिवार्य रूप से पाये त भगवतीसूत्र शतक 2, उह शक 10 में स्पष्ट की गई है। भगवतीसत्र शतक 2, उद्देशक 10 में पुद्गल के चार प्रकार बताये हैं। (1) स्कन्ध, (2) देश, (3) प्रदेश और (4) परमाणु300 / दो से लेकर अनन्त परमाणुयों का एकीभाव स्कन्ध है। कम से कम दो परमाणु पुद्गल के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है / द्विप्रदेशी स्कन्ध का जब भेद होता है तो वे दोनों परमाणु बन जाते हैं। तीन परमाणुओं के मिलने से त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है और उनके पथक् होने पर दो विकल्प हो सकते हैं-एक तीन . . . परमाणु या एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध / इसी प्रकार अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है 30% कन्ध का निर्माण तीन प्रकार से होता हैभेदपूर्वक, संघातपूर्वक, भेद और संघातपूर्वक / स्कन्ध एक इकाई है। उस इकाई का बुद्धिकल्पित एक विभाग स्कन्धदेश कहलाता है / हम जिसे देश कहते हैं वह स्कन्ध से पृथक् नहीं है। यदि पृथक् हो जाय तो वह स्वतन्त्र स्कन्ध बन जायेगा / स्कन्धप्रदेश स्कन्ध से अपृथक्भूत अविभाज्य अंश है। अर्थात् परमाणु जब तक स्कन्धगत है तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है। वह अविभागी अंश सूक्ष्मतम है, जिसका पुनः अंश नहीं बनता / जब तक वह स्कन्धमत है वह प्रदेश है और अपनी पृथक अवस्था में वह परमाणु है। भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 7 में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि परमाणुपुद्गल अविभाज्य है, अछेद्य है, अभेद्य है, प्रदाह्य है और अग्राह्य है / वह तलवार की तीक्ष्ण धार पर भी रह सकता है। तलवार उस का छेदन-भेदन नहीं कर सकती और न जाज्वल्यमान अग्नि उसको जला सकती है / प्रदेश और परमाणु में केवल स्कन्ध से अपृथक्भाव और पृथक्भाव का अन्तर है। अनुसंधान से यह निश्चित हो चुका है कि परमाणुवाद की चर्चा सर्वप्रथम भारत में हुई और उसका श्रेय जैन मनीषियों को है। 308 भगवतीसूत्र शतक आठ, उद्देशक पहले में जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति को लेकर पुद्गल के तीन भेद किये हैं-१. प्रयोगपरिणत-जो पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये गए हैं वे प्रयोगपरिणत हैं, जैसेइन्द्रियाँ, शरीर आदि के पुद्गल / २.-मिश्रपरिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा मुक्त होकर पुनः परिणत हो 303. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 5 / 1 / 1 / 24 304. (क) तत्त्वार्थवृत्ति 5 / 1 (ख) न्यायकोष पृष्ठ 520 305. छबिहसंठाणं बहुविहि देहेहि पूरदित्ति गलदित्ति पोग्गला / 306. हरिवंशपुराण 7 / 36 , 307. (क) भगवती. 2 / 10 (ख) उत्तराध्ययन 36 / 10 308. तत्त्वार्थसूत्र 5 / 26 309. देखिए-जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण में पुद्गल का लेख –देवेन्द्र मुनि [ 94] Page #2171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चके हैं, जैसे- मल-मूत्र, श्लेष्म-केश आदि। 3. विस्त्रसापरिणत-ऐसे पुदगल जिनके परिणमन में जीव की सहायता नहीं होती / वे स्वयं ही परिणत होते हैं, जैसे- बादल, इन्द्रधनुष आदि / शतक 14, उद्देशक 4 मे यह बताया है कि पुद्गल शाश्वत भी हैं और प्रशाश्वत भी हैं। वे द्रव्यरूप से शाश्वत और पर्याय रूप से प्रशाश्वत है। परमाणु संघात (कंछ) रूप में परिणत होकर पुन: परमाणु हो जाता है। इस कारण से वह द्रव्य की रष्टि से चरम नहीं है किन्तु क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से वह चरम भी है और अचरम भी है। भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 8 में बताया है कि परमाणु, परमाणु के रूप में कम से कम रहे तो एक समय और अधिक से अधिक समय तक रहे तो असंख्यात काल तक रहता है। इसी प्रकार रूप में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक रहता है। इसके बाद अनिवार्य रूप से उस में परिवर्तन होता है। एक परमाण स्कन्धरूप में परिणत होकर पुनः परमाणु हो जाय तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक असंख्यात काल लग सकता है। द्वयणुक-ग्रादि द व्यणुक-त्रादि स्कन्धरूप में परिणत होने के बाद व परमाणु पुन: परमाणु रूप में पाये तो कम से कम एक समय और अधिक से अधिक अनन्त काल लग सकता है। एक परमाणु या स्कन्ध किसी आकाशप्रदेश में अवस्थित है / वह किसी कारण-विशेष से वहाँ से चल देता है और पुनः उसी आकाशप्रदेश में कम से कम एक समय में और अधिक से अधिक अनन्तकाल के पश्चात प्राता है। परमाण द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से अप्रदेशी है। काल की दृष्टि से एक समय की स्थिति वाला परमाणु प्रप्रदेशी है और उससे अधिक समय की स्थिति बाला सप्रदेशी है। भाव को दृष्टि से एक गुण वाला प्रप्रदेशी है और अधिक गूण वाला सप्रदेशी है। इस प्रकार प्रप्रदेशित्व और सप्रदेशित्व के सम्बन्ध में भी वहाँ विस्तार से चर्चा है। पुद्गल जड़ होने पर भी गतिशील है। भगवती सूत्र शतक 16, उद्देशक 8 में कहा है-पुदगल का गतिपरिणाम स्वाभाविक धर्म है। धर्मास्तिकाय उसका प्रेरक नहीं पर सहायक है। प्रपन है-परमाणु में गति स्वतः होती है या जीव के द्वारा प्रेरणा देने पर होती है ? उत्तर है-परमाण में जीवनिमित्तक कोई भी क्रिया या गति नहीं होती, क्योंकि परमाणु जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता और पुदगण को ग्रहण किये बिना पुदगल में परिणमन कराने को जोव में सामर्थ्य नहीं है। भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 7 में कहा गया है-परमाण सकम्प भी होता है और अकम्प भी होता है / कदाचित् वह चंचल भी होता है, नहीं भी होता / उसमें निरन्तर कम्पनभाव रहता हो हो यह बात भी नहीं है और निरन्तर अकम्पनभाव रहता हो यह बात भी नहीं है। द्वयणुक स्कन्ध में कदाचित् कम्पन और कदाचित अकम्पन दोनों होते हैं। उनके द्वय श होने से उनमें देशकम्पन और देश अकम्पन दोनों प्रकार की स्थिति होती है। त्रिप्रदेशी स्काध में भी द्विप्रदेशी स्कन्ध के सदश कम्प और अकम्प की स्थिति होती है। केवल देशकम्प में एकवचन और द्विवचन सम्बन्धी विकल्पों में अन्तर होता है। जैसे एक देश में कम्प होता है, देश में कम्प नहीं होता। देश में कम्प होता है, देशों में कम्प नहीं होता। देशो में कम्प होता है देश में कम्प नहीं होता। इस प्रकार चत:प्रदेशी स्वन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक समझना चाहिए। भगवतीसूत्र शतक 2, उद्देशक 1 में पुद्गल परमाणु की मुख्य पाठ वर्गणाएँ मानी हैं [ 95 ] - Page #2172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) औदारिकवर्गणा :--स्थूल पुद्गलमय है। इस वर्गणा से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और बस जीवों के शरीर का निर्माण होता है। (2) वैक्रियवर्गणाः-लघ, विराट, हल्का, भारी, दृश्य; अदृश्य विभिन्न क्रियाएँ करने में सशक्त शरीर के योग्य पुद्गलों का समुह / (3) प्राहारकवर्गणा:-योगशक्तिजन्य शरीर के योग्य पुदगलसमूह / (4) तेजसवर्गणा:-तेजस शरीर के योग्य पुदगलों का समूह / (5) कार्मणवर्गणा:-ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों का समूह, जिनसे कार्मण नामक सूक्ष्म शरीर बनता है। (6) श्वासोच्छवासवर्गणा:-पान-प्राण के योग्य पुदगलों का समूह / (7) वचनवर्गणा:-भाषा के योग्य पुद्गलों का समूह / (8) मनोवर्गणा:--चिन्तन में सहायक होने वाला पुद्गल-समूह / यहाँ पर वर्गणा से तात्पर्य है एक जाति के पुद्गलों का समूह / पुद्गलों में इस प्रकार की अनन्त जातियां हैं, पर यहाँ पर प्रमुख रूप से आठ जातियों का ही निर्देश किया है। इन वर्गणाओं के अवयव क्रमशः सूक्ष्म और अतिप्रचय वाले होते हैं / एक पौगलिक पदार्थ अन्य पोद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तित हो जाता है / प्रौदारिक, वैकिप, आहारक और तेजा ये चार वर्गणाएँ अष्टस्पर्शी हैं। वे हल्की, भारी, मृदु और कठोर भी होती हैं। कार्मण, भाषा और मन ये तीन वर्गणाएँ चतु:स्पी हैं। सूक्ष्मस्कन्ध हैं। इनमें शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष ये चार स्पर्श होते हैं। श्वासोच्छवासवर्गणा चतुःस्पर्शी और अष्टस्पर्शी दोनों प्रकार की होती है। भगवती सूत्र शतक 18, उद्देशक 10 में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्व भाग से पश्चिम भाग में या पश्चिम के अन्त भाग से पूर्व के अन्त भाग में, दक्षिण के अन्त से उत्तर के अन्त भाग में, उत्तर से दक्षिण के अन्त भाग में या नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे जाने में समर्थ है ? भगवान ने कहा-हाँ गौतम! समर्थ है और वह सारे लोक को एक समय में लांध सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि परमाणु पुद्गल में कितना सामर्थ्य रहा हुअा है। इस प्रकार भगवतीसूत्र में अनेक प्रश्न पुद्गल के संबंध में आये हैं। जिस प्रकार घुद्गलास्तिकाय के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं हैं, वैसे ही अन्य अस्तिकायों के सम्बन्ध में यत्र-तत्र जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं / वैशेषिक, न्याय, सांख्य प्रति दर्शनों ने जीब, आकाश और पुदगल ये तत्त्व माने हैं। उन्होंने पुदगलास्तिकाय के स्थान पर प्रकृति, परमाणु प्रादि शब्दों का उपयोग किया है / सभी द्रव्यों का स्थान आकाश है किन्तु जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हो गति और स्थिति शोल हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य सम्पूर्ण आकाश में नहीं कुछ ही भाग में हैं। वे जितने भाग में हैं उस भाग को लोकाकाश कहा है / लोकाकाश के चारों ओर अनन्त आकाश है / वह पाकाश अलोकाकाश के नाम से विश्रुत है। भगवतीसूत्र में विविध प्रश्नों के द्वारा इस विषय पर बहत ही गहराई से चिन्तन किया गया है। जहाँ पर धर्म-अधर्म, जीव-पुदगल आदि की अवस्थिति होती है, वह लोक कहलाता है। लोक और अलोक की चर्चा भो भगवती में विस्तार से पाई है। लोक और प्रलोक दोनों शाश्वत हैं। लोक के द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक आदि भेद भगवतीसूत्र शतक 2, उद्देशक 1 में किये गये हैं। भगवती. शतक 12 उद्देशक 7 में लोक कितना विराद है, इस पर प्रकाश डाला है। Page #2173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती शतक 7, उद्देशक 1 में लोक के प्राकार पर भी चिन्तन किया गया है / शतक 13, उद्देशक 4 में लोक के मध्य भाग के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। शतक 11, उद्देशक 10 में अधोलोक, तिर्यकलोक, ऊध्र्वलोक का विस्तार से निरूपण है / शतक 5, उद्देशक 2 में लवणसमुद्र आदि के प्राकार पर विचार किया गया है / इस प्रकार लोक के सम्बन्ध में भी अनेक जिज्ञासाएं और समाधान हैं। अन्य दर्शनों के साथ लोक के स्वरूप पर और वर्णन पर तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन किया जा सकता है, पर विस्तारभय से हम यहाँ उस सम्बन्ध में जिज्ञासु पाठकों को लेखक का 'जनदर्शन, स्वरूप और विश्लेषण' देखने की प्रेरणा देते हैं। समवसरण भगवान महावीर के युग में अनेक मत प्रचलित थे। अनेक दार्शनिक अपने-अपने चिन्तन का प्रचार कर रहे थे। प्रागम की भाषा में मत या दर्शन को समवसरण कहा है / जो समवसरण उस युग में प्रचलित थे, उन सभी को चार भागों में विभक्त किया है-क्रियावादी, प्रक्रियावादी, प्रज्ञानवादी और विनयवादी / (1) क्रियावादी की विभिन्न परिभाषाएं मिलती हैं। प्रथम परिभाषा है कर्ता के बिना क्रिया नहीं होती। इसलिए क्रिया का कर्ता आत्मा है। आत्मा के अस्तित्व को जो स्वीकार करता है वह क्रियावादी है। दूसरी परिभाषा है-क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान का उतना मुल्य नहीं, इस प्रकार की विचारधारा बाले क्रियावादी हैं / ततीय परिभाषा है-जीव-अजीव, आदि पदार्थों का जो अस्तित्व मानते हैं वे क्रियावादी हैं / क्रियावादियों के एक सौ अस्सी प्रकार बताये हैं। (2) अक्रियावादी का यह मन्तव्य था कि चित्तशुद्धि की ही अावश्यकता है। इस प्रकार की विचारधारा वाले अक्रियावादी हैं अथया जीव मादि पदार्थों को जो नहीं मानते हैं वे प्रक्रियावादी हैं / प्रक्रियावादो के चौरासी प्रकार हैं। (3) अज्ञानवादी-अज्ञान ही श्रेय रूप है। ज्ञान से तीव्र कर्म का बन्धन होता है। अज्ञानी व्यक्ति को कर्मबन्धन नहीं होता / इस प्रकार की विचारधारा वाले अज्ञानवादी हैं। उनके सड़सठ , (4) विनयवादी-स्वर्ग, मोक्ष प्रादि विनय से ही प्राप्त हो सकते हैं। जिनका निश्चित कोई भी प्राचारशास्त्र नहीं, सभी को नमस्कार करना ही जिन का लक्ष्य रहा है वे विनयवादी हैं / विनयवादी के 32 प्रकार हैं। ये चारों समवसरण मिथ्यावादियों के ही बताये गये हैं / तथापि जीव आदि तत्त्वों को स्वीकार करने के कारण क्रियावादी सम्यम्हष्टि भी हैं। शतक 30, उद्देशक 1 में इन चारों समवसरणों पर विस्तार से विवेचन किया है। भगवती शतक 4, उद्देशक 5 में जम्बूद्वीप के अवसपिणीकाल में जो सात कुलकर हुए हैं, उनके नाम विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशोमान, अभिचन्द्र, प्रसेनजित, मरुदेव और नाभि / कुलकरों के सम्बन्ध में जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना में हम विस्तार से लिख चके हैं / कालास्यवेशी भगवतीसूत्र शतक 1, उद्देशक 9 में भगवान् पाशवनाथ की परम्परा के कालास्यवेशी अनगार ने भगवान् महावीर के स्थविरों से पूछा--सामायिक क्या है ? प्रत्याख्यान क्या है ? संयम क्या है ? संवर क्या है ? विवेक क्या है ? व्युत्मर्ग क्या है ? क्या प्राप इनको जानते हैं ? इनके अर्थ को जानते हैं ? स्थविरों ने एक ही शब्द में उत्तर दिया--आत्मा ही सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम आदि है और आत्मा ही उसका अर्थ है। इससे स्पष्ट है कि जैनदर्शन की जो साधना है वह सब साधना प्रात्मा के लिए ही है। [ 97 ] ? Page #2174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन: कालास्यवेशी ने जिज्ञासा प्रस्तुत की--प्रात्मा सामायिक मादि है तो फिर आप क्रोध, मान, माया, लोभ प्रादि की निन्दा, गहीं क्यों करते हैं? क्योंकि निन्दा तो असंयम है / स्थविरों ने कहा-आत्मनिन्दा असंयम नहीं है। यात्मनिन्दा करने से दोषों से बचा जाता है और आत्मा संयम में संस्थापित होता है। पर-निन्दा असंयम है / वह पीठ के मांस खाने के समान निन्दनीय है। पर स्व-निन्दा वही व्यक्ति कर सकता है जिसे अपने दोषों का परिज्ञान है। इसीलिए आगमसाहित्य में साधक के लिए 'निन्दामि, गरिहामि' ग्रादि शब्द प्रयुक्त भगवतीसूत्र शतक एक, उद्देशक 10 में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है-ईपिथिकी ये दोनों क्रियाएं साथ-साथ होती हैं ? भगवान ने समाधान दिया-प्रस्तुत कथन मिथ्या है, क्योंकि जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है। ईर्यापथिकी क्रिया कषायमुक्त स्थिति में होती है तो साम्परायिकी क्रिया कषाययुक्त स्थिति में होती है। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। भगवती में विविध प्रकार की वनस्पतियों का भी उल्लेख है / वनस्पतिविज्ञान पर प्रज्ञापना में भी विस्तार से वर्णन है / वनस्पति अन्य जीवो की तरह श्वास ग्रहण करती है, नि:श्वास छोड़ती है / ग्राहार आदि ग्रहण करती है। इनके शरीर में भी चय-उपचय, हानि-वद्धि, सुख-दुःखात्मक अनुभूति होती है। सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बोस ने अपने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि वनस्पति में क्रोध भी पैदा होता है, और वह प्रेम भी प्रदर्शित करती है। प्रेम-पूर्ण सद्व्यवहार से वनस्पति पुलकित हो जाती है और घणापूर्ण व्यवहार से मुर्भा जाती है / बोस के प्रस्तुत परीक्षण ने समस्त बैज्ञानिक जगत् को एक अभिनव प्रेरणा प्रदान की है। जिस प्रकार वनस्पति के संबंध में वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उसमें जीवन है, इसी प्रकार सुप्रसिद्ध भूगर्भ-वैज्ञानिक फ्रान्सिस ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "Ten years under earth' में लिखा--- मैंने अपनी विभिन्न यात्रानों के दौरान पृथ्वी के ऐसे-ऐसे विचित्र स्वरूप देखें हैं-जो अाधुनिक पदार्थविज्ञान के विपरीत है / उस स्वरूप को वर्तमान वैज्ञानिक अपने आधुनिक नियमों से समभा नहीं सकते / मुझे ऐसा लगता है, प्राचीन मनीषियों ने पृथ्वी में जो जीवत्व शक्ति की कल्पना की है वह अधिक यथार्थ है, सत्य है / भगवतीसूत्र में तेजोलेश्या की अपरिमेय शक्ति प्रतिपादित की है। वह अंग, बंग, कलिग आदि सोलह जनपदों को नष्ट कर सकती है। वह शक्ति अतीत काल में साधना द्वारा उपलब्ध होती थी तो याज विज्ञान ने एटम बम आदि अणु शक्ति को विज्ञान के द्वारा सिद्ध कर दिया है कि पुदगल की शक्ति कितनी महान होती है / इस प्रकार भगवतीसूत्र में सहस्रों विषयों पर गहराई से चिन्तन हुअा है / यह चिन्तन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। इस पागम में स्वयं श्रमण भगवान महावीर के जीवन के और उनके शिष्यों के एवं गहस्थ उपासकों के व अन्यतीथिक संन्यासियों के और उनकी मान्यताओं के विस्तृत प्रसंग पाये हैं। प्राजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक गोशालक के सम्बन्ध में जितनी विस्तृत सामग्री प्रस्तुत प्रागम में है, उतनी अन्य भागमों में नहीं है। ऐतिहासिक तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ और उनके अनुयायियों का तथा उनके चातुर्याम धर्म के सम्बन्ध में प्रस्तुत आगम में पर्याप्त जानकारी है। प्रस्तुत प्रागम से यह सिद्ध है कि भगवान महावीर के समय में भगवान् पार्श्वनाथ के सैकड़ों श्रमण थे। उन श्रमणों ने भगवान् महावीर के अनुयायियों से और उनके शिष्यों से चर्चाएं की। वे भगवान महावीर के ज्ञान से प्रभावित हुए। उन्होंने चातुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार किया। इस अागम में महाराजा कूणिक और महाराजा चेटक के बीच जो महाशिलाकण्टक और [98 ] Page #2175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथमूसल संग्राम हए थे, उन यूद्धों का मार्मिक वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है। इन युद्धों में क्रमशः चौरासी लाख और छियानवें लाख वीर योद्धानों का संहार हुआ था। युद्ध कितना संहारकारी होता है, देश की सम्पत्ति भी विपत्ति के रूप में किस प्रकार परिवर्तित हो जाती है ! युद्ध में उन शक्तियों का संहार हुप्रा जो देश की अनमोल निधि थी। इसलिए युद्ध की भयंकरता बताकर उससे बचने का संकेत भी प्रस्तुत प्रागम में है। इक्कीसवें शतक से लेकर तेईसवें शतक तक वनस्पतियों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह बहुत ही दिलचस्प है। इस वर्णन को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि जैनमनीषी-गण वनस्पति के सम्बन्ध में व्यापक जानकारी रखते थे। वनस्पतिकाय के जीव किस ऋतु में अधिक आहार करते हैं और किस ऋतु में कम आहार करते हैं, इस पर भी प्रकाश डाला है। वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से यह प्रसंग चिन्तनीय है। प्रस्तुत आगम में 'पालअ' शब्द का प्रयोग अनन्तजीव वाली वनस्पति में हुआ है। यह 'पाल' अथवा 'पालुक' वनस्पति वर्तमान में प्रचलित "मालू" से भिन्न प्रकार की थी या यही है ? भारत में पहले पालू की खेती होती थी या नहीं, यह भी अन्वेषणीय है। प्रस्थ प्रस्तुत आगम में इतिहास, भूगोल, खगोल, समाज और संस्कृति, धर्म और दर्शन और उस युग की राजनीति आदि पर जो विश्लेषण किया गया है वह शोधाथियों के लिए अद्भुत है, अनूठा है / प्रश्नोत्तरों के माध्यम से जो आध्यात्मिक गुरु गंभीर तत्त्व समुद्घाटित हुए हैं, वह बोधप्रद हैं / प्रस्तुत आगम में आजीवक संघ के प्राचार्य मंलि गोशालक, जमाली, शिवराजषि, स्कन्धक संन्यासी आदि के प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उस युग में वर्तमान युग की तरह संकीर्ण सम्प्रदायवाद नहीं था। उस युग के संन्यासी सत्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते थे। यही कारण है कि स्कन्धक संन्यासी जिज्ञासु बनकर भगवान् महावीर के पास पहुंचे और जब उनको जिज्ञासाओं का समाधान हो गया तो सम्प्रदाय. वाद सत्य को स्वीकार करने में बाधक नहीं बना / तत्त्व-चर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्रमणोपासिका, मद्दुक श्रमगोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, कालास्यवेशीयुत्त और तुंगिया नगरी के श्रावकों के प्रश्न मननीय हैं। प्रस्तुत पागम में साधु, श्रावक और श्राविका के द्वारा किए गए प्रश्न आये हैं, पर किसी भी साध्वी के प्रश्न नहीं पाये हैं / क्यों नहीं साध्वियों ने जिज्ञासाएं व्यक्त की ? वे समवसरण में उपस्थित होती थीं, उनके अन्तर्मानस में भी जिज्ञासाओं का सागर उमड़ता होगा, पर वे मौन क्यों रहीं? यह विचारणीय है। प्रस्तुत प्रागम में जहाँ प्राजीवक, वैदिक परम्परा के तापस और परिव्राजक भगवान पार्श्वनाथ के श्रमण और भगवान् महावीर के चतुर्विध संघ का इसमें निर्देश है। तथागत बुद्ध महावीर के समकालीन थे और दोनों का विहरणक्षेत्र भी बिहार आदि प्रदेश थे। पर न तो स्वयं बुद्ध का भगवान महावीर से साक्षात्कार हुआ और न किसी भिक्षु का ही। ऐसा क्यों ? यह भी विचारणीय है। इसके अतिरिक्त पूर्ण काश्यप, अजितकेशकम्बल, प्रबुद्ध कात्यायन, संजयवे लट्ठीपुत्त, आदि जो अपने आपको जिन मानते थे तथा तीर्थंकर कहते थे, वे भी भगवान् महावीर से नहीं मिले हैं। यह भी चिन्तनीय है। गणित की दृष्टि से पावपित्यीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर अत्यन्त मूल्यवान् हैं। भगवतीसूत्र का पर्यवेक्षण करने से यह भी पता चलता है कि भगवान महावीर ने साध्वाचार के सम्बन्ध में एक विशेष क्रान्ति की थी और उस क्रान्ति से भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण अपरिचित थे / भगवान् महावीर ने स्त्रीत्याग और रात्रिभोजनविरमण रूप दो नियम बढाये। उत्तराध्ययन में केशो-गौतम संवाद से [ 99] Page #2176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि महावीर ने पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित रंग-बिरंगे वस्त्रों के स्थान पर श्वेत वस्त्रों का उपयोग श्रमण के लिए प्रावश्यक माना / प्रतिक्रमण वर्षावास प्रादि रूप में भी परिष्कार किया। पापित्य स्थविरों को यह भी पता नहीं था कि भगवान महावीर तीर्थकर हैं। इसीलिए. वे पहले वन्दन नमस्कार नहीं करते और न किसी प्रकार का विनयभाव ही दिखलाते हैं। वे सहज जिज्ञासा प्रस्तुत कर देते हैं। जब वे समाधान सुनते हैं तो उन्हें प्रात्मविश्वास हो जाता है कि भगवान महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। तीर्थकर हैं। तभी वे नमस्कार करते हैं और चातुर्याम धर्म को छोड़कर पंच महाव्रत धर्म को स्वीकार करते हैं। प्रस्तुत प्रागम में देवेन्द्र शक्र से भयभीत बना हुअा असुरेन्द्र चमर भगवान् महावीर की शरण में प्राकर बच जाता है। भौतिक वैभवसम्पन्न शक्ति भी जब कषाय से उत्प्रेरित होती है तो वह पागल प्राणी की तरह आचरण करने लगती है। स्वर्ग के देवों का महत्व भौतिक दृष्टि से भले ही रहा हो पर प्राध्यात्मिक दृष्टि से वे तिर्य च से भी एक कदम पीछे है / स्वर्गप्राप्ति का कारण है उत्कृष्ट क्रियाकाण्ड का प्राचरण / यही कारण है कि जैन श्रमण वेशधारी साधक जो मिथ्यात्वी है, वह भी नवग्रं वेयक तक पहुँच जाता है, जबकि अन्य तापस आदि उस स्थान पर नहीं पहुँच पाते / हमारी दृष्टि से इसका यही कारण हो सकता कि जैन श्रमणों का प्राचार अहिंसाप्रधान था। इसमें हिंसा प्रादि से पूर्ण रूप से बचा जाता है। जबकि अन्य तापस आदि उत्कृष्ट कठोर साधना तो करते थे, पर साथ ही कन्दमूल फलों का आहार भी करते, यज्ञ आदि भी करते / स्नान आदि के द्वारा षट्काय के जीवों की विराधना भी करते / इस हिंसा आदि के कारण ही वे उतनी उत्क्रान्ति नहीं कर पाते थे। दोनों ही मिथ्यादृष्टि होने पर भी हिसा के कारण ही ऊँचे स्वर्ग को प्राप्त नहीं कर सकते। भगवान महावीर के समय यह मान्यता प्रचलित थी कि युद्ध में मरने वाले स्वर्ग में जाते हैं। इस मान्यता का निरसन भी प्रस्तुत प्रागम में किया गया है। युद्ध से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता अपितु न्यायपूर्वक युद्ध करने के पश्चात् युद्धकर्ता अपने दुष्कृत्यों पर अन्तर्हदय से पश्चात्ताप करता है। उस पश्चात्ताप से यात्मा की शुद्धि होती है और वह स्वर्ग में जाता है। गीता के "हतो बा प्राप्स्यसि स्वर्ग" के रहस्य का उद्घाटन बहुत ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत पागम में हुआ है। प्रस्तुत आगम में कितनी ही बातें पुन:-पुनः आई हैं। इसका कारण पिष्टपेषण नहीं, अपितु स्थानभेद, पृच्छक भेद और कालभेद है। प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण जिज्ञासु को समझाने के लिए उसको पृष्ठभूमि बताना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य होता है। जैसा प्रश्न कार का प्रश्न, फिर उत्तर में उसी प्रश्न का पुनरुच्चारण करना और उपसंहार में उस प्रश्न को पुनः दोहराना / कितने ही समालोचकों का यह भी कहना है कि अन्य आगमों की तरह भगवती का विवेचन विषयबद्ध, क्रमबद्ध और व्यवस्थित नहीं है। प्रश्नों का संकलन भी क्रमबद्ध नहीं हुआ है। उसके लिए मेरा नम्र निवेदन है कि यह इस प्रागम की अपनी महत्ता है, प्रामाणिकता है। गणधर गौतम के या अन्य जिस किसी के भी अन्तर्मानस में जिज्ञासाएं उदबुद्ध हुई, उन्होंने भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की और भगवान् ने उनका समाधान किया। संकलनकर्ता गणधर सुधर्मा स्वामी ने उस क्रम में अपनी ओर से कोई परिवर्तन नहीं किया और उन प्रश्नों को उसी रूप में रहने दिया। यह दोष नहीं किन्तु पागम की प्रामाणिकता को ही पुष्ट करता है। कुछ समालोचक यह भी आक्षेप करते हैं कि प्रस्तुत प्रागम में राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, प्रश्न व्याकरण और नन्दी सूत्र में वर्णित विषयों के अवलोकन का सूचन किया गया है। इसलिए भगवती की रचना इन पागमों की रचना के बाद में होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में भी यह निवेदन है कि यह जो सुचन है बह आगम-लेखन के काल का है। आचार्य देवद्धिगणि क्षमाक्षमण ने जब आगमों का लेखन किया [ 100 ] Page #2177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब क्रमशः आगम नहीं लिखे / पूर्व लिखित आगमों में जो विषयवर्णन आ चुका था, उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए पूर्व लिखित प्राममों का निर्देश किया है। यह सत्य है कि भगवतीसूत्र के अर्थ के प्ररूपक स्वयं भगवान् महावीर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर सुधर्मा हैं। प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। इसमें शौरसेनी के प्रयोग भी कहीं-वहीं पर प्राप्त होते हैं / किन्तु देशी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। भाषा सरल व सरस है। अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गये हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है / मुख्य रूप से यह पागम गद्यशैली में लिखा हा है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथानों के रूप में पद्य भाग भी प्राप्त होता है। कहीं-वहीं पर स्वतन्त्र रूप से प्रश्नोत्तर हैं, तो कहीं पर घटनाओं के पश्चात् प्रश्नोत्तर आये हैं। जैन आगमों की भाषा को कुछ मनीषी आर्ष प्राकृत कहते हैं। यह सत्य है कि जैन ग्राममों में भाषा को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना भावों को दिया है। जैन मनीषियों का यह मानना रहा है कि भाषा ग्रात्म-शूद्धि या आत्म-विकास का कारण नहीं है। वह केवल विचारों का वाहन है। मंगलाचरण प्रस्तुत आगम में प्रथम मंगलाचरण नमस्कार महामंत्र से और उसके पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए' 'नमो सुयस्स' के रूप में किया है। उसके पश्चात् 15 बें, 17 वें, 23 वें और 26 वें शतक के प्रारम्भ में भी "नमो सुयदेवयाए भगवईए" इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इस प्रकार 6 स्थानों पर मंगलाचरण है, जबकि अन्य आगमों में एक स्थान पर भी मंगलाचरण नहीं मिलता है। प्रस्तुत आगम के उपसंहार में "इक्कचत्तालीसइमं रासीजुम्मसयं समत्तं" यह समाप्तिसूचक पद उपलब्ध है। इस पद में यह बताया गया है कि इसमें 101 शतक थे। पर वर्तमान में केवल 41 शतक ही उपलब्ध होते हैं। समाप्तिसूचक इस पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि-"सव्वाए भगवईए अठ्तीसं सयं सयाणं (138) उद्देस गाणं 1925" इन शतकों की संख्या अर्थात् अवान्तर शतकों को मिलाकर कुल शतक 138 है और उद्देशक 1925 है। प्रथम शतक से बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तर शतक नहीं हैं। तेतीसवें शतक से उनचालीसवें शतक तक जो सात शतक हैं, उनमें बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। चालीसवें शतक में इक्कीस अवान्तर शतक हैं। अत: इन आठ शतकों की परिगणना 105 अवान्तर शतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तर शतक रहित तेतीस शतकों और 105 अवान्तर शतक वाले आठ शतकों को मिलाकर 138 शतक बताये गये हैं। किन्तु संग्रहणी पद में जो उद्देशकों की संख्या 'एक हजार नौ सौ पच्चीस' बताई गई है, उसका अाधार अन्वेषणा करने पर भी प्राप्त नहीं होता। प्रस्तुत प्रागम के मूल पाठ में इसके शतकों और अवान्तर शतको की उद्देशकों की संख्या दी गई है। उसमें चालीसवें शतक के इक्कीस प्रवान्तर शतकों में से अन्तिम सोलह से इक्कीस अवान्तर शतकों के उद्देशकों की संख्या स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है, किन्तु जैसे इस शतक से, पहले पन्द्रहवें अवान्तर शतक से पहले प्रत्येक की उद्देशक संख्या ग्यारह बताई है, उसी तरह शेष अवान्तर शतकों में से प्रत्येक की उद्देशकसंख्या ग्यारह-ग्यारह मान लें तो व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुल उद्देशकों की संख्या "एक हजार आठ सौ तेरासी" होती है। कितनी प्रतियों में "उद्देसगाण" इतना ही पाठ प्राप्त होता है। संख्या का निर्देश नहीं किया गया है। इसके बाद एक गाथा है, जिसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति की पदसंख्या चौरासी लाख बताई है। आचार्य अभय देव ने इस गाथा की "विशिष्ट सम्प्रदायगम्यानि" कह कर व्याख्या की है। इसके बाद की गाथा में संघ की समुद्र के साथ तुलना की है और गौतम प्रति गणधरों को व भगवती प्रति [ 101 ] Page #2178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगी रूप मगिपिटक को नमस्कार किया है। अन्त में शान्तिकर श्रुतदेवता का स्मरण किया गया है / साथ ही कुम्भधर ब्रह्म शान्ति यक्ष "वैरोटया विद्यादेवी और अन्त हुण्डी" नामक देवी को स्मरण किया है। प्राचार्य अभयदेव का मन्तव्य है कि जितने भी नमस्कारपरक उल्लेख हैं, वे सभी लिपिकार और प्रतिलिपिकार द्वारा किये गये हैं। मूर्धन्य मनीषियों का मानना है कि नमोक्कार महामंत्र प्रथम बार इस अंग में लिपिबद्ध हुमा है। ___ यह आगम प्रश्नोत्तर शैली में प्राबद्ध है। गौतम की जिज्ञासाओं का श्रमण भगवान महावीर के द्वारा सटीक समाधान दिया गया है। इस अंग में दर्शन सम्बन्धी, प्राचार सम्बन्धी, लोक-परलोक सम्बन्धी प्रादि अनेक विषयों की चर्चाएं हुई हैं। प्रश्नोत्तरशैली शास्त्ररचना की प्राचीनतम शैली है। इस शैली के दर्शन वैदिक परम्परा के मान्य उपनिषद् ग्रन्थों में भी होते हैं। यह पागम ज्ञान का महासागर है। कुछ बातें ऐसी भी हैं जो सामान्य पाठकों की समझ में नहीं आतीं। उस सम्बन्ध में वत्तिकार प्राचार्य अभयदेव भी मौन रहे हैं। मनीषियों को उस पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। व्याख्यासाहित्य भगवतीसूत्र मूल में ही इतना विस्तृत रहा कि इस पर मनीषी आचार्यों ने व्याख्याएँ कम लिखी हैं। इस पर न नियुक्ति लिखी गयी, न भाष्य लिखा गया और न विस्तार से चणि ही लिखी गयी / यो ए चूणि प्रस्तुत प्रागम पर है, पर वह भो अप्रकाशित है। उसके लेखक कौन रहे हैं, यह विज्ञों के लिए अन्वेषणीय है। सर्वप्रथम भगवतीसूत्र पर नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति के नाम से एक वृत्ति लिखी है जो वृत्ति मूलानुसारी है। यह वृत्ति बहुत ही संक्षिप्त और शब्दार्थ प्रधान है। इस वृत्ति में जहाँ-तहाँ अनेक उद्धरण दिये गये हैं। इन उद्धरणों से प्रागम के गम्भीर रहस्यों को समझने में सहायता प्राप्त होती है। आचार्य प्रभयदेव ने अपनी वत्ति में अनेक पाठान्तर भी दिये हैं और व्यास्याभेद भी दिये हैं, जो अपने आप में बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। व्याख्या में सर्वप्रथम प्राचार्य ने जिनेश्वर किया है। उसके पश्चात् भगवान महावीर, गणधर सुधर्मा और अनुयोगवृद्धजनों को व सर्वज्ञप्रवचन को श्रद्धास्निग्ध शब्दों में नमस्कार किया है। उसके पश्चात प्राचार्य ने व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राचीन टीका और चूणि तथा जीवाजीवाभिगम आदि की वत्तियों को सहायता से प्रस्तुत प्रागम पर विवेचन करने का संकल्प किया है। पत्तिकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति के विविध दष्टियों से दस अर्थ भी बताये हैं, जो उनको प्रखर प्रतिभा के स्पष्ट परिचायक हैं। व्याख्या में यत्र-तत्र अर्थवैविध्य दृग्गोचर होता है। मनीषियों का यह मानना है कि आचार्य अभयदेव ने जो प्राचीन टीका का उल्लेख किया है वह टीका आचार्य शोलांक को होनी चाहिए, पर वह टीका याज अनुपलब्ध है। आचार्य अभय देव ने कहीं पर भी उस प्राचीन टोकाकार का नाम निर्देश नहीं किया है। अनुश्रुति है कि प्राचार्य शीलांक ने नौ अंगों पर टीका लिखी थी। वर्तमान में आचारांग और सुयगडांग पर ही उनकी टीकाएं प्राप्त हैं शेष सात आगमों पर नहीं। प्राचार्य शीलांक के अतिरिक्त अन्य किसी भी 1. नत्वा श्री वर्धमानाय श्रीमते च सुधम्र्मणे / सर्वानयोगवद्धेभ्यो वाण्यै सर्वविदस्तथा / / एतट्टीका चूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशां च / संयोज्य पञ्चमाङ्ग विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् / / -व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका 2,3 [102] Page #2179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ने व्याख्या लिखी हो यह उल्लेख प्राचीन साहित्य में नहीं है। स्वयं प्राचार्य अभयदेव ने अपनी वत्ति के प्रारम्भ में चणि का उल्लेख किया है, अत: प्राचीन टीका, चणि नहीं हो सकती / वह अन्य वत्ति ही होगी। प्रत्येक शतक की वत्ति के अन्त में प्राचार्य अभयदेव ने वत्तिसमाप्तिसूचक एक-एक श्लोक दिया है। वृत्ति के अन्त में प्राचार्य ने अपनी गुरुपरम्परा बताते हुए लिखा है-विक्रम संवत् 1128 में अणहिल पाटण नगर में प्रस्तुत वत्ति लिखी गई / इस वत्ति का श्लोकप्रमाण अठारह हजार छः सो सोलह है। व्याख्याप्रज्ञप्ति पर दूसरी वत्ति आचार्य मलयगिरि की है। यह वत्ति द्वितीय शतक बत्ति के रूप में विश्रुत है, जिसका इलोकप्रमाण तीन हजार सात सौ पचास है। विक्रम संवत् 1583 में हर्षकुल ने भगवती पर एक टीका लिखी। दानशेखर ने व्यापाप्रज्ञप्ति लघवति लिखी है। भावसागर ने और पासून्दर मणि ने भी व्याख्याएं लिखी है। बीसवीं सदी में स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री घासीलालजी म. ने भी भगवती पर व्याख्या लिखी है। इन सभी वृत्तियों की भाषा संस्कृत रही। जब संस्कृत प्राकृत भाषानों में टोकाओं की संख्या अत्यधिक बढ़ गई और उन टीकानों में दार्शनिक चर्चाएं चरम सीमा पर पहुँच गईं, जनसाधारण के लिए उन टीकाओं को समझना जब बहुत ही कठिन हो गया तब जनहित की दृष्टि से आगमों की शब्दार्थप्रधान संक्षिप्त टीकाएँ निमित हुई। ये टीकाएं बहुत संक्षिप्त लोकभाषानों में सरल और सुबोध शैली में लिखी गयीं / विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में स्थानकवासी प्राचार्य मुनि धर्मसिंहजी ने रब्बाओं का निर्माण किया। कहा जाता है कि उन्होंने सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे थे / उसमें एक टब्बा व्याख्याप्रज्ञप्ति पर था / धर्म सिंह मुनि ने भगवती का एक यन्त्र भी लिखा था। टब्बा के पश्चात् अनुवाद प्रारम्भ हुआ। मुख्य रूप से प्रागम साहित्य का अनुवाद तीन भाषामों में उपलब्ध है-अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी। भगवती सूत्र के 14 वें शतक का अनुवाद Hcernle Appendix ने किया और गुजराती अनुवाद पं. भगवानदास दोशी, पं. बेचरदास दोशी, गोपालदास जीवाभाई पटेल और घासीलालजी म. आदि ने किया। हिन्दी अनुवाद प्राचार्य अमोलकऋषिजी, मदनकुमार मेहता, पं. घेवरचन्दजी - बांठिया ग्रादि ने किया है। अद्यावधि मुद्रित भगवतीसूत्र सन् 1918-21 में व्याख्याप्रज्ञप्ति अभय देव वृत्ति सहित घनपतसिंह रायबहादुर द्वारा बनारस से प्रकाशित हुई जो 14 शतक तक ही मुद्रित हुई थी। सन् 1918 से 1921 में अभयदेववत्ति सहित प्रागमोदय समिति बम्बई से व्याख्याप्रज्ञप्ति प्रकाशित हुई है। सन् 1937-40 में ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था रतलाम से अभय देववत्ति सहित चौदह शतक प्रकाशित हुए / विक्रम संवत् 1974-1979 में छठ शतक तक अभयदेववृत्ति ब गुजराती अनुवाद के साथ पं. बेचरदास दोशी का अनुवाद जिनागम प्रकाशन सभा, बम्बई से प्रकाशित हा और विक्रम संवत् 1985 में भगवती शतक सातब से पन्द्रहवें शतक तक मूल व गुजराती अनुवाद के साथ भगवानदास दोशी ने गुजराज विद्यापीठ प्रहमदाबाद से प्रकाशित किया। 1988 में जैन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट अहमदाबाद से मूल व गुजराती अनुवाद प्रकाश में आया / सन् 1938 में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने भगवती का संक्षेप में सार गुजराती छायानुवाद के साथ जैन साहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से प्रकाशित करवाया। प्राचार्य प्रमोलक ऋषिजी म. ने बत्तीस आगमों के हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत प्रागम का भी हिन्दी अनुवाद हैदराबाद से प्रकाशित करवाया। Page #2180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. 2011 में मदनकुमार मेहता ने भगवतीसूत्र शतक एक से बीस तक हिन्दी में विषयानुवाद श्रुतप्रकाशन मन्दिर कलकत्ता से प्रकाशित करवाया। सन 1935 में भगवती विशेष पद व्याख्या दानशेखर द्वारा विरचित ऋषभदेवजी केशरीमल जी जैन श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुई है। सन 1961 में हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ पूज्य घामोलालजी म. द्वारा विरचित संस्कृत व्याख्या जैम शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से अनेक भागों में प्रकाशित हुई। विक्रम संवत 1914 में पंडित बेचरदास जीवराज दोशी द्वारा सम्पादित "विवाहपण्णत्तिसुतं" प्रकाशित हुमा / सन् 1974 से "विवाहपण्णात्तिसुतं' के तीन भाग महावीर जैन विद्यालय बम्बई से मूल रूप में प्रकाशित हुए हैं। इस प्रकाशन को अपनी मौलिक विशेषता है। इसका मूल पाठ प्राचीनतम प्रतियों के प्राधार से तैयार किया गया है। पाठान्तर और शोधपूर्ण परिशिष्ट भी दिये गये हैं। शोधार्थियों के लिए प्रस्तुत प्रागम अत्यन्त उपयोगी है। विक्रम संवत 2021 में मुनि नथमलजी द्वारा सम्पादित भगवई सूत्र का मूल पाठ जैन विश्वभारती लाइन से प्रकाशित हुप्रा है। इस प्रति की यह विशेषता है कि इसमें जाव शब्द की पूर्ति की गई है। "सुत्तागमे" में मनि पूफ्फभिक्खजी ने 32 आगमों के साथ भगवती का मूल पाठ भी प्रकाशित किया है। संस्कृतिरक्षकसंघ सैलाना से 'अंग सुत्ताणि" के भागों में भी मूल रूप में भगवतीसूत्र प्रकाशित है। भगवतीसूत्र का हिन्दी अनुवाद विवेचन के साथ पंडित घेवरचन्दजी बांठिया द्वारा सम्पादित 7 भाग "साधुमार्गी संस्कृति रक्षक संघ सैलाना' से प्रकाशित हए। विवेचन संक्षिप्त में और सारपूर्ण है। भगवतीसूत्र पर प्राचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा. और सागरानन्द सूरीश्वरजी के भी प्रवचनों के अनेक भाग प्रकाशित हुए हैं। पर वे प्रवचन सम्पूर्ण भगवतीसूत्र पर नहीं है। एक लेखक ने भगवती पर शोधप्रबन्ध भी अंग्रेजी में प्रकाशित किया है और तेरापंथी आचार्य जीतमलजी ने भगवती को जोड़ लिखी थी, उसका भी प्रथम भाग लाइन से प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत आगम स्वर्गीय महामहिम युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी महाराज के कुशल नेतृत्व में आगमबत्तीसी का कार्य प्रारम्भ हप्रा / वह कार्य अनेक मूर्धन्य मनीषियों के सहयोग से शीघ्रातिशीघ्र सम्पादित कर पाठकों के कर-कमलों में पचाने का निर्णय लिया गया / पण्डिसवर मधुरवक्ता बहुश्रुत श्री अमरमुनिजी ने यह अनुवाद किया है। श्री अमरमुनिजी महाराज एक प्रतिभासम्पन्न संतरत्न हैं। आप आचार्य सम्राट अात्मारामजी महाराज के पौत्र शिष्य हैं और भण्डारी श्री पद्मचन्द्रजी महाराज के सुशिष्य हैं। श्री अमरमुनिजी एक सफल प्रवक्ता भी हैं। उनकी विमल वाणी में प्रेरणा है / प्रकृति से उनकी वाणी में सहज मधुरता है। जब वे प्रवचन करते हैं तो श्रोता मानन्द से झम उठते हैं। जब उनकी संगीत की स्वरलहरियां झनझनाती हैं तो धोलानों के हृदयकमल खिल उठते हैं। यही कारण है कि साप 'वाणी के जादुगर' के रूप में विश्रत हैं। पापने लघु वय में संयमसाधना की ओर कदम बढ़ाये और गुरु-चरणों में बैठकर आगमों का अध्ययन किया। आपकी प्रतिभा को निहार कर स्वर्गीय उपाध्याय श्री फूलचन्दजी महाराज ने आपको 'श्रतवारिधि' की उपाधि से समलंकृत किया। आपकी प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर पंजाब, हरियाणा और देहली प्रादि में यत्र-तत्र धर्मस्थानक और विद्यालयों की स्थापना हुई। आपके प्रवचनों में जैन और अजैन सभी विशाल संख्या में समुपस्थित होते हैं। इसीलिए विश्वसन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. ने मेरठ में प्रापको 'उत्तरभारत केसरी' की उपाधि प्रदान की। आपसे समाज को बहत कुछ प्राशा है। [ 104 ] Page #2181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ पाप प्रवचनकार है, कवि हैं, गायक हैं, वहाँ आप एक कुशल सम्पादक भी हैं। आपने प्राचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी महाराज द्वारा लिखित "जनतत्त्वकलिका" और जैनागमों में अष्टांग योग पर लिखित जैनयोग: साधना और सिद्धान्त ग्रन्थों का सुन्दर सम्पादन किया है। "व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र" में आपने बहुत सुन्दर सम्पादनकला का चमत्कार प्रदर्शित किया है। आपने प्रस्तुत आगम के प्रत्येक शतक में सर्वप्रथम संक्षेप में सार दिया है, जिससे पाठक उस शतक में आए हुए विषय को सहज रूप में समझ सकता है। भावानुवाद के साथ यत्र-तत्र विवेचन भी किया है। विवेचन विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए बहुत उपयोगी है। यह विवेचन न अति संक्षिप्त है और न अधिक विस्तृत ही। इस विवेचन में प्राचीन टीकरणों का भी यत्र-तत्र उपयोग किया गया है। इस प्रकार इस पागम का विवेचन प्रबुद्ध पाठकों के लिए अतीव उपयोगी है। इसके स्वाध्याय से पाठकगण अपने जीवन को उज्ज्वल और समुज्ज्वल बनायेंगे। जहाँ अमरमुनिजी की प्रतिभा ने अपना विद्ध रूप प्रस्तुत किया है वहाँ श्री श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' की प्रतिभा भी सर्वत्र मुखरित हुई है। संपादनकलामर्मज्ञ पंडित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने तीक्ष्ण दृष्टि से यत्र-तत्र परिष्कार और परिमार्जन भी किया जो अपने आप में अनठा है। विद्वर्य पं. मुनि श्री नेमिचन्दजो का निष्ठापूर्वक किया गया श्रम भी इसके साथ जुड़ा हुआ है। __ मैं प्रस्तुत आगम पर बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। जब प्रस्तुत आगम का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ उस समय मेरा स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ था। इसलिए प्रथम भाग में प्रस्तावना न जा सकी। अब अन्तिम चतुर्थ भाग में प्रस्तावना दी जा रही है। समयाभाव, निरन्तर विहार तथा अन्य अनेक व्यवधानों के कारण मैं चाहते हुए भी प्रस्तावना को विस्तृत न लिख सका। जिस रूप में मैंने प्रस्तावना लिखने का उपक्रम प्रारम्भ किया था अतिशीघ्रता के कारण बाद के विषयों पर जो मैं तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। इसका स्वयं मेरे मन में मलाल है। यदि कभी समय मिला तो इस विराट्काय प्रागम पर विस्तार के साथ लिखने का प्रयास करूंगा। यह पागम ऐसा आगम है जिस पर जितना लिखा जाय उतना ही कम है। युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी महाराज ने जीवन को साध्य वेला में इस भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और अनेक प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों के द्वारा इस कार्य को शीघ्र संपादन करने के लिए उत्प्रेरित किया। पर अत्यन्त परिताप है कि क्रूर काल ने असमय में ही उनको हमारे से छीन लिया। उनके जीवनकाल में सम्पूर्ण आगम साहित्य का प्रकाशन नहीं हो सका। तथापि उनकी पावन पुण्यस्मृति में संपादन का कार्य प्रगति पर रहा जिसके फलस्वरूप यह आगममाला प्रकाशित हो रही है / महामहिम विश्वसन्त उपाध्याय अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज श्रमण संघ के एक ज्योतिर्धर सन्तरत्न हैं, जो युवाचार्यश्री के सहपाठी रहे हैं। श्रद्धेय सदगुरुवर्य की असीम कृपा से ही मैं प्रस्तावना की कुछ पंक्तियाँ लिख गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्य आगमों की भांति प्रस्तुत आगम का स्वाध्याय भी श्रद्धालुगण कर अपने जीवन को पावन और पवित्र बनायेंगे / लाल भवन - देवेन्द्र मुनि जयपुर दि. 28-2.86 [105] Page #2182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियाहपण्णत्तिसुत्तं (भगवईसुत्तं) विषय-सूची वीसवां शतक प्राथमिक वीसवें शतक के उद्देशकों का नाम-निरूपण प्रथम उद्देशक विकलेन्द्रिय जीवों में स्यात्, लेश्यादि द्वारों का निरूपण 6, पंचेन्द्रिय जीवों में स्यात् लेश्यादि द्वारों का निरूपण 7, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का अल्पबहत्व 9 / द्वितीय उद्देशक अाकाशास्तिकाय के भेद, स्वरूप तथा पंचास्तिकायों का प्रमाण 11, अधोलोक आदि में धर्मास्तिकायादि की अवगाहना-प्ररूपणा 12, धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 12, अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 13, आकाशास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 14, जीवास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 15, पुदगलास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 16 / तृतीय उद्देशक आत्मा में प्राणातिपात से लेकर अनाकारोपयोग धर्म तक का परिणमन 17, गर्भ में उत्पन्न होते हए जीव में वर्णादि प्ररूपणा 18 चतुर्थ उद्देशक इन्द्रियोपचय के भेदादि की प्ररूपणा पंचम उद्देशक परमाण पुदगल में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की प्ररूपणा 20, द्विप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की प्ररूपणा 20, त्रिप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की प्ररूपणा 22, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में वर्ण-गध-रस-स्पर्श की प्ररूपणा 25, पंचप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि की प्ररूपणा 29, षटप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 30, सप्तप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि भंगों का निरूपण 32, अष्टप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि भंगों का निरूपण 34, नवप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 36, दसप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 37, बादर परिणामी अनन्त प्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि प्ररूपणा 38 / [ 106 ] Page #2183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा उद्देशक सौधर्मादि कल्प से ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक की दो-दो प्रध्वियों के बीच में मरणसमुदघात करके सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक द्वारा पूर्व-पश्चात् पाहार-उत्पाद निरूपण 46, सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक के बीच में मरणसमुदघात करके रत्नप्रभा से अधःसप्तम पृथ्वी तक पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक की पूर्व-पश्चात् आहार-उत्पाद-प्ररूपणा 47, पृथ्वीकायिक विषयक सूत्रों के अतिदेशपूर्वक अप्कायिक विषयक पूर्व-पश्चात् आहार-उत्पाद निरूपण 49, पृथ्वीकायिक-विषयक सूत्रों के अतिदेशपूर्वक अप्कायिक जीवविषयक (विशिष्ट परिस्थिति में) पूर्व-पश्चात् माहारउत्पाद निरूपण 50, सत्तरहवें शतक के दसवें उद्देशक के अनुसार वायुकायिक जीवों के विषय में पूर्व-पश्चात आहार-उत्पाद विषयक प्ररूपणा 51 / सप्तम उद्देशक बंध के तीन भेद और चौवीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा 52, अष्टविध कर्मों में त्रिविध बन्ध एवं उनकी चौवीस दण्डकों में प्ररूपणा 53, पाठों कमों के उदयकाल में प्राप्त होने वाले बंधत्रय का चौवीस दण्डकों में निरूपण 53. वेदत्रय तथा दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय में त्रिविध बन्ध प्ररूपणा 54, शरीर, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान एवं ज्ञानाज्ञान विषयों में त्रिविधबंध प्ररूपणा 55 / आठवाँ उद्देशक कर्मभमियों और अकर्मभूमियों की संख्या का निरूपण 58, अकर्मभूमि और कर्मभूमि के विविध क्षेत्रों में उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के सद्भाव-प्रभाव का निरूपण 59, अरहंतों द्वारा महाविदेह और भरतऐवत क्षेत्र में कौन-कौन से धर्म का निरूपण ? 60, भरतक्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी काल में चौवीस तीर्थकरों के नाम 60, चौवीस तीर्थंकरों के अंतर तथा तेईस जिनान्तरों में कालिकत के व्यवच्छेद-अव्यवच्छेद का निरूपण 61, भ. महावीर और शेष तीर्थकरों के समय में पूर्वश्रुति की अविच्छिन्नता की कालावधि 62, भगवान महावीर और भावी तीर्थकरों में अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ की अविच्छिन्नता की कालावधि 62, तीर्थ और प्रवचन क्या और कौन ? 64, निर्ग्रन्थ-धर्म में प्रविष्ट उग्रादि क्षत्रियों द्वारा रत्नत्रय साधना से सिद्धगति या देवगति में गमन तथा चतुर्विध देवलोक-निरूपण 64 / नौवाँ उद्देशक चारणमुनि के दो प्रकार : विद्याचारण और जंघाचारण 66, विद्याचारण लब्धि समुत्पन्न होने से विद्याचारण कहलाता है 66, विद्याचारण की शीघ्र, तिर्यग एवं ऊर्ध्वगति-सामर्थ्य तथा विषय 67, जंघाचारण का स्वरूप 69, जंघाचारण की शीघ्र, तिर्यक और ऊर्ध्वगति का सामर्थ्य और विषय 70 / दसवाँ उद्देशक चौवीस दण्डकों में सोपक्रम एवं निरुपक्रम आयुष्य की प्ररूपणो 72, चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति और उद्वर्तना की आत्मोपक्रम-परोपक्रम आदि विभिन्न पहलुओं से प्ररूपणा 73, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कति-अकति-प्रवक्तव्य-संचित पदों का यथायोग्य निरूपण 75, कति-प्रकति-अवक्तव्य-संचित यथायोग्य चौबीस दण्डकों और सिद्धों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 78, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में षट्क-समजित प्रादि पांच विकल्पों का यथायोग्य निरूपण 79, षटक-सजित आदि से विशिष्ट चौवीस दण्डकों और सिद्धों के अल्पबहत्व - [107 ] Page #2184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का यथायोग्य निरूपण 81, चौबीस दण्डकों और सिद्धों में द्वादश, नोद्वादश आदि पदों का यथायोग्य निरूपण 82, द्वादश, नोद्वादश आदि से समजित चौवीस दण्डकों तथा सिद्धों का अल्पवहत्व 84, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में चतुरर्दशीति-समजित आदि पदों का यथायोग्य निरूपण 85, चतुर्दशीति-नोचतुर्दशीति इत्यादि से सजित चौवीस दण्डकों और सिद्धों का अल्पबहुत्व निरूपण 87 / इक्कीसवें बाईसवें और तेईसवें शतक का प्राथमिक इक्कीसवां शतक इक्कीसवें शतक के पाठ वगों के नाम तथा अस्सी उद्देशकों का निरूपण प्रथम वर्ग : प्रथम उद्देशक मूलरूप में उत्पन्न होने वाले शालि आदि जीवों के उत्पाद-संख्या-शरीरावगाहना-कम-बंध-वेद-उदय-उदीरणादष्टि आदि पदों की प्ररूपणा प्रथम 'शालिवर्ग' : शेष नौ उद्देशक द्वितीय 'कलवर्ग' : दश उद्देशक प्रथम शालिवर्गानुसार द्वितीय कलवर्ग का निरूपण तृतीय 'अतसी' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम शालिवर्गानुसार तृतीय अतसी वर्ग का निरूपण चतुर्थ 'वंश' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम शालिवर्ग के अनुसार चतुर्थ वंशवर्ग का निरूपण पंचम 'इक्षु' वर्ग : दस उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार पंचम इक्षुवर्ग का निरूपण छठा दर्भ वर्ग : दस उद्देशक चतुर्थ वणवर्गानुसार छठे दर्भवर्ग का निरूपण सप्तम 'अ' वर्ग : दस उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार सप्तम अभ्रवर्ग का निरूपण अष्टम तुलसी वर्ग : दस उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार अष्टम तुलसीवर्ग का निरूपण बाईसवाँ शतक बाईसवें शतक के छह वर्गों के नाम, उसके पाठ उद्देशकों का निरूपण Page #2185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 109 110 प्रथम तालवर्ग : दस उद्देशक द्वितीय 'एकास्थिक' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार द्वितीय एकास्थिकवर्ग का निरूपण तृतीय 'बहुबीजक' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार तृतीय बहुबीजकवर्ग का निरूपण चतुर्थ 'गुच्छ' वर्ग : दस उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थ वर्गानुसार गुच्छवर्ग का निरूपण पंचम 'गुल्म' वर्ग : दस उद्देशक इक्कीसवे शतक के प्रथम वर्गानुसार पंचम गुल्मवर्ग का निरूपण छठा 'वल्ली' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार छठे वल्लीवर्ग का निरूपण 112 तेईसवाँ शतक तेईसवें शतक का मंगलाचरण 115, तेईसवें शतक के पांच वर्गों के नाम तथा उसके पचास उद्दे शकों का निरूपण 115 116 प्रथम 'आलुक' वर्ग : दस उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थ वर्गानुसार प्रथम पालकवर्ग का निरूपण द्वितीय 'लोही वर्ग : दस उद्देशक प्रथम वर्गानुसार द्वितीय लोहीवर्ग का निरूपण तृतीय 'अवक' वर्ग: दस उद्देशक प्रथम वर्गानुसार तृतीय अवकवर्ग का निरूपण 118 चतुर्थ 'पाठा' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम वर्गानुसार चतुर्थ पाठावर्ग का निरूपण 119 पंचम 'माषपर्णी' वर्ग : दस उद्देशक प्रथम वर्गानुसार माषपर्णी नामक पंचम वर्ग का निरूपण 120 चौवीसवां शतक 122 प्राथमिक चौवीसवे शतक के चौवीस दण्डकीय चौवीस उद्देशकों में उपपात प्रादि बीस द्वारों का निरूपण 124 [ 109] e Page #2186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उद्देशक गति की अपेक्षा से नैरथिकादि-उपपात-निरूपण 125, प्रथम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त प्रसंशीपंचेन्द्रिय-तियंच के विषय में उपपात आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 127, नरक में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्षायूष्क पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों की उपपात-प्ररूपणा 139, शर्कराप्रभा से तम:प्रभा नरक तक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच के उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 148, सप्तम नरक पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यच के उत्पादपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 150, पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों की समुच्चय रूप से सातों नरकों में उपपात आदि प्ररूपणा 153, रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क मनुष्य में उपपातपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 155, शर्कराप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त मनुष्य में उपपात-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा 158, बाल का-पंक-धम-तमःप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क संजी मनुष्य में उपपात-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा 161, सप्तम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपात-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा 161 / द्वितीय उद्देशक गति की अपेक्षा से असरकुमारों के उपपात की प्ररूपणा 164, असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले पर्याप्तअसंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक की उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 164, संख्येय वर्षायुष्क-प्रसंख्येय युष्क संजी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक की असुरकुमारों में उपयातप्ररूपणा 165, असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले असंख्येय वर्षायुष्क मंशी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक की उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 166, असुरकुमार में उत्पन्न होने वाले संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक में उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 170, संख्येयवर्षायुष्क, असंख्येयवर्षायुष्क संजो मनुष्यों को असुरकुमारों में उत्पत्ति का निरूपण 171, असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 173 / तृतीय उद्देशक गति की अपेक्षा से नागकुमारों की उत्पत्ति का निरूपण 175, नागकुमार में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 175, नागकुमारों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 176, नागकुमार में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक में उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 178, नागकुमार में उत्पन्न होने वाले असंख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 179, नागकुमार में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपात आदि प्ररूपणा 180 / चतुर्थ से ग्यारह उद्देशक सुवर्णकुमार से स्तनितकुमार तक चौथे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक की समग्र वक्तव्यता : तृतीय नागकुमारउद्देशकानुसार 181 / [ 110 ] Page #2187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ उद्देशक गति की अपेक्षा से पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति प्ररूपणा 182, पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक सम्बन्धी उत्पत्ति-परिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 183, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले अप्कायिकों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 187, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले तेजस्कायिकों में उपपातपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 189, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले वनस्पतिकायिकों में उपपातपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 190, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले हीन्द्रिय जीवों में उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 191 / पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले वीन्द्रिय में उपपात-परिमाण आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 194, पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले चतुरिन्द्रिय जीवों के उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 195, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्ति निरूपण 196, पृथ्वीकाथिक में उत्पन्न होने वाले प्रसज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक के उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 197, पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंञ्चों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 198, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले असंजी-संज्ञोसंख्येयवर्षायुष्क पर्याप्तक-अपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पादादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 191 / देवों से प्राकर पृथ्वीकायिकों में उत्पाद का निरूपण 202, भवनवासी देवों की अपेक्षा पृथ्वीकायिकों में उत्पत्ति-निरूपण 202, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले असुर कुमार में उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 203, पृथ्वीकाधिकों में उत्पन्न होने वाले नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनवासी देवों में उत्पत्ति-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 205, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले वाणव्यन्तर देवों में उत्पादपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 206, पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले ज्योतिष्क देवों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 207, वैमानिक देवों को अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्ति-निरूपण 208 / तेरहवां उद्देशक तेरहवें उद्देशक के प्रारम्भ में मध्य मंगलाचरण 211, अप्कायिकों में उत्पन्न होने वाले चौवीस दण्डकों में उत्पादादि प्ररूपणा 211 चौदहवाँ उद्देशक तेजस्नायिकों में उत्पन्न होने वाले दण्डकों में बारहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यता-निर्देश 214 पन्द्रहवाँ उद्देशक वायुकायिकों में उत्पन्न होने वाले दण्डकों में चौदहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यता-निर्देश सोलहवाँ उद्देशक वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने वाले चौवीस दण्डकों के बारहवें उद्देशकानुसार वक्तव्यता सत्तरहया उद्देशक द्वीन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले दण्डकों में उपपात-परिमाणादि बीसद्वारों की प्ररूपणा 217 . [ 111 ] . Page #2188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ उद्देशक त्रीन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले दण्डकों में सत्रहवें उद्देशकानुसार वक्तव्यता-निर्देश 219 उन्नीसवाँ उद्देशक चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले दण्डकों में उपपात-परिमाण आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 221 बीसवां उद्देशक नरक पृथ्वियों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पत्ति-निरूपण 222, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सात नरकों के नैरयिकों के उत्पाद-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपणा 222, पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों के उपपात-परिमाणादि की प्ररूपणा 227, पंचेन्द्रिय-तियंचों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 228, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 232, मनुष्य की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्थच-योनिकों में उत्पत्ति निरूपण 235, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी मनुष्य के उत्पाद-परिमाण प्रादि द्वार 236, देवों से पंचेन्द्रिय तियंचों के उत्पत्ति का निरूपण 239, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले भवनवासी देवों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 240, पंचेन्द्रिय तियंचों में उत्पन्न होने वाले वाणब्यन्तर देवों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 241, पंचेन्द्रिय-तिर्यचों में उत्पन्न होने वाले ज्योतिष्क देवों में उपपातपरिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 241, वैमानिक देवों को पंचेन्द्रिय तिथंचों में उत्पत्ति निरूपण 242, पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न होने वाले सौधर्म से सहस्रार देव पर्यन्त के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 243 / इक्कीसवाँ उद्देशक गति की अपेक्षा मनुष्यों के उपपात का निरूपण 245, मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले रत्नप्रभा से तमःप्रभा तक के नैरयिकों में उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 245, मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले अग्नि-वायुकाय के सिवाय एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच मनुष्यों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 246, देवों को अपेक्षा मनुष्यों की उत्पत्ति-प्ररूपणा 248, मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भवनवासी आदि चारों प्रकार के देवों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 249 / बाईसवाँ उद्देशक वागव्यन्तरों में उत्पन्न होने वाले प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उपपात-परिमाणादि का नागकुमार उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निर्देश 255, वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के उत्पाद-परिमाण आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 255, वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के उत्पाद-परिमाण आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 257 / तेईसवाँ उद्देशक गति की अपेक्षा ज्योतिष्क देवों के उपपात का निरूपण 258, ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क संशी पंचेन्द्रिय तिर्यचों के उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 259, ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्षायुष्क संज्ञो-पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उपपातादि बीस द्वारों का निरूपण 261, ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों में उपपात आदि बीस द्वारों की प्ररूपणा 262 / [ 112] Page #2189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवाँ उद्देशक गति को लेकर सौधर्म-देव के उपपात का निरूपण 264, सौधर्म-देव में उत्पन्न होने वाले असंख्येय-संख्येयवर्षायुष्क संजो मनुष्यों में उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 267, ईशान से सहस्रार देव तक में उत्पन्न होने वाले तियचों व मनुष्यों के उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 268, प्रानत से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 270 / 274 पच्चीसवां शतक प्राथमिक पच्चीसवें शतक के उद्देशकों का नाम 278 प्रथम उद्देशक लेश्यायों के भेद, अल्पबहत्व आदि का अतिदेशपूर्वक निरूपण 279, संसारी जीवों के चौदह भेदों का निरूपण 279, जघन्य और उत्कृष्ट योग को लेकर संसारी जीवों का अल्पबहुत्व निरूपण 280, प्रथम समयोत्पन्नक चतुविशति दण्डकवर्ती दो जीवों का समयोगित्व-विषमयोगित्व निरूपण 282, योग के पन्द्रह भेदों का निरूपण 284, पन्द्रह प्रकार के योगों में जघन्य-उत्कृष्ट योगों का प्रल्पबहुत्व 285 / द्वितीय उद्देशक द्रव्यों के भेद-प्रभेद तथा दोनों प्रकार के द्रव्यों की अनन्तता की प्ररूपणा 287, जीव और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अजीवद्रव्य परिभोगतानिरूपण 288, असंख्येय लोक में अनन्त द्रव्यों की स्थिति 289, लोक के एक प्रदेश में पुद्गलों के चय-छेद-उपचय-प्रपचय निरूपण 290, शरीरादि के रूप में स्थित प्रस्थित द्रव्य-ग्रहण प्ररूपणा 291 / तृतीय उद्देशक संस्थान के छह भेदों का निरूपण 295, छह संस्थानों की द्रव्यार्थ तथा प्रदेशार्थ रूप से अनन्तता प्ररूपणा 295, छह संस्थानों का द्रव्यादि रूप से अल्पबहुत्व 296, संस्थानों के पांच भेद और उनकी अनन्तता का निरूपण 297, यबमध्यगत परिमण्डलादि संस्थानों की परस्पर अनन्तता की प्ररूपणा 299, सप्त नरकपृथ्वियों से लेकर ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी तक में पांचों यवमध्य संस्थानों में परस्पर अनन्तता-प्ररूपणा 300, पांच संस्थानों में प्रदेशतः अवगाहना-निरूपण 302, पंच संस्थानों में एकत्व-बहुत्व दृष्टि से द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थता की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण 307, पांच संस्थानों में यथायोग्य कृतयुग्मादि प्रदेशावायह प्ररूपणा 309, परिमण्डलादि संस्थानों में कुत युग्मादि समय स्थिति को प्ररूपणा 312, पांच संस्थानों में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श की अपेक्षा कृतयुग्मादि प्ररूपणा 312, श्रेणियों तथा लोक-प्रलोकाकाश श्रेणियों में प्रदेशार्थ से यथायोग्य संख्यातादि प्ररूपणा 315, सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाश श्रेणियों में यथायोग्य सादि-सान्तादि प्ररूपणा 316, सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाश श्रेणियों में द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कृतयुग्मादि प्ररूपणा 318, श्रेणी के प्रकारान्तर से सात भेद 320, परमाणु-पुदगल तथा द्विप्रदेशिकादि स्कन्धों की चौवीस दण्डकों में अनश्रेणि गति प्ररूपणा 321, चौवीस दण्डकों की ग्रावास-संख्या प्ररूपणा 322, द्वादशविध गणिपिटकों का अतिदेशपूर्वक निर्देश 322, नैरयिकादि सेन्द्रियादि सकायिकादि, आयुष्य बन्धक-प्रबन्धकों के अल्पबहत्व की प्ररूपणा 322 / [ 113 ] Page #2190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशक चार युग्म और उनके अस्तित्व का कारण 326, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में युग्मभेद निरूपण 326, षद्रव्य और उनमें द्रव्यार्थ तथा प्रदेशार्थ रूप से युग्मभेद निरूपण 328, धर्मास्तिकायादि षद्रव्यों में अल्प-बहुत्व का प्रज्ञापनासूत्रातिदेशपूर्वक निरूपण 329, धर्मास्तिकायादि में यथायोग्य अवगाढ-अनवगाढ प्ररूपणा 329, जीव एवं चौवीस दण्डकों में एकत्व-बहत्व की अपेक्षा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ रूप यूग्मभेद निरूपण 331, सामान्य जीव एवं चोवीस दण्डकों में अवगाहनापेक्षया कृतयुग्मादि प्ररूपणा 333, जीव एवं चौवीस दण्डकों में कृतयुग्मादि समयस्थिति की प्ररूपणा 334, सामान्य जीव एवं चौवीस दण्डकों में वर्णादि पर्यायापेक्षया कृतयुग्मादि प्ररूपणा 336, जीव, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में ज्ञान-प्रज्ञान-दर्शन पर्यायों की अपेक्षा एकत्व-बहत्व दृष्टि से कृतयुग्मादि प्ररूपणा 337, प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक शरीर सम्बन्धी विवरण 332, जीव तथा चौवीस दण्डकों में सकम्प-निष्कम्प तथा देशकम्प-सर्व कम्प प्ररूपणा 340, परमाण-पूदगलों से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक की प्ररूपणा 342, एक प्रदेशावगाह से असंख्येय प्रदेशावगाढ पुदगलों की प्ररूपणा 342, एक समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले पुदगलों की अनन्तता 342, वर्णगन्धादि वाले पुदगलों की अनन्तता 343, परमाणु-पुद्गल से अनन्त प्रदेशी स्कन्धों तक की द्रध्य-प्रदेशार्थ से यथायोग्य बहत्व प्ररूपणा 343, एक गुण काले आदि वर्ण तथा गन्ध-रस-स्पर्श वाले पुद्गलों की वक्तव्यता 346, एकादिगुण कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों की द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से विशेषाधिकतादि प्ररूपणा 347, एक-संख्येय-असंख्येय-प्रदेशी पूदगलों की अवगाहना एवं स्थिति को लेकर अल्पवहत्व चर्चा 348, एक-संख्येय-असंख्येय-अनन्तगण-वर्णनान्धादि वाले पूदगलों की द्रव्याथ प्रदेशार्थ रूप से प्रत्पबहत्व चर्चा 350, अवगाहना, स्थिति, वर्णगन्धादि पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि प्ररूपणा 354, परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक यथायोग्य-सार्द्ध-अनर्द्ध प्ररूपणा 358, परमाण से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सकम्पता निष्कम्पता-प्ररूपणा 360, परमाण से अनन्तप्रदेशी सकम्प-निष्कम्प स्कन्ध तक के अल्पबहुत्व की चर्चा 364, परमाण से अनन्तप्रदेशी सकम्प-निष्कम्प स्कन्धों की द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ द्रव्यप्रदेशार्थ से अल्पबहत्व को चर्चा 364, परमाण से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक देशकम्प-सर्वकम्प-निष्कम्पता की प्ररूपणा 366, परमाणु से अनन्तप्रदेशी देशकम्प-सर्वकम्प-निष्कम्प स्कन्धों की स्थिति एवं कालान्तर की प्ररूपणा 367, सर्व-देश कम्पक. निष्कम्पक परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का अल्पबहुत्व 371, सर्व-देश-निष्कम्प परमाणुनों से अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक के अल्पबहुत्व की चर्चा 372, धर्मास्तिकायादि के मध्यप्रदेशों की संख्या का निरूपण 374, जीवास्तिकाय-मध्यप्रदेश तथा आकाशास्तिकाय प्रदेशों की अवगाहना की प्ररूपणा 375 // पंचम उद्देशक पर्यव-भेद एवं उसके विशिष्ट पहलनों के विषय में पर्यवपद : अतिदेश 376, मानप्राणादि कालों में एकत्व-बहत्व की अपेक्षा से प्रावलिका : संख्या-प्ररूपणा 378, स्तोकादि कालों में एकत्व-बहत्व दृष्टि से पानप्राणादि से शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त संख्या निरूपण 380, सागरोपमादि कालों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से पल्योपम-संख्या निरूपण 381, उत्सर्पिणी प्रादि कालों में एकत्व-बहत्व की अपेक्षा से सागरोपम-संख्या निरूपण 382, पुद्गल परिवर्तनादि कालों में एकत्व-बहुत्व दृष्टि से अवसर्पिणी-उत्सपिणी काल की संख्या की प्ररूपणा 382, भूत-भविष्यत् तथा सर्वकाल में पुदगल परिवर्तन की अनन्तता 383, अनागत काल की अतीतकाल से समयाधिकता 383, सर्वाद्धा का प्रतीत तथा अनागत काल के समय से न्यूनाधिकता 384, निगोद के भेद-प्रभेदों का निरूपण 385, मौदपिकादि छह भावों का अतिदेशपूर्वक प्ररूपण 386 / [ 114 ] Page #2191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छछा उद्देशक छठे उद्देशक की छत्तीस द्वार निरूपक गाथा 387, प्रथम प्रज्ञापनाद्वार : निर्ग्रन्थों के भेद-प्रभेद 387, द्वितीय क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्त्रीवेदादि प्ररूपप्णा 391, तृतीय रागद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में सरागत्व वीतरागत्व प्ररूपणा 393, चतुर्थ कल्पद्वार पंचविध निर्ग्रन्थों में स्थितिकल्पादि-जिनकल्पादि-प्ररूपणा 394, पंचम चारित्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में चारित्र प्ररूपणा 396, छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में मूलउत्तरगुण प्रतिसेवन-अप्रतिसेवन-प्ररूपणा 397, सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में ज्ञान और श्रुताध्ययन की प्ररूपणा 398, पाठवाँ तीर्थद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में तीर्थ-अतीर्थ प्ररूपणा 400, नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्वलिंग-प्रलिंग-गृहीलिंग-प्ररूपणा 401, दसवाँ शरीरद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में शरीर-भेद-प्ररूपणा 402, ग्यारहवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कर्मभूमि-प्रकर्मभूमिप्ररूपणा 403, बारहवाँ कालद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अवसर्पिणी-उत्सपिणीकालादि-प्ररूपणा 404, तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों की गति, पदवी तथा स्थिति की प्ररूपणा 408, चौदहवाँ संयमद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों के संयमस्थान और उनका अल्पबहत्व 411, पन्द्रहवाँ निकर्ष (सनिकर्ष) द्वार : पांचों प्रकार के निग्रन्थों में अनन्त चारित्र पर्याय 412, पंचविध निर्ग्रन्थों के जघन्य-उत्कृष्ट चारित्र पर्यायों का अल्पबहत्व 416, सोलहवां योगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थो में योगों की प्ररूपणा 420, सत्तरहवा उपयोगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में उपयोग-प्ररूपणा 420, अठारहवाँ करायद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कषायप्ररूपणा 421, उन्नीसवा लेश्याद्वार : लेश्याओं को प्ररूपणा 422, बीसवाँ परिणामद्वार : वर्धमानादि परिणामों की प्ररूपणा 424, इक्कीसवाँ द्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति-बंध-अरूपणा 427, बाईसवाँ द्वार : निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति-वेदन-निरूपण 428, तेईसवाँ कर्मोदीरणाद्वार : कर्मप्रकृति-उदीरणा-प्ररूपणा 429, चौवीसा उपसम्पद्-जह्द्-द्वार : स्वस्थानत्याग-परस्थान-सम्प्राप्ति निरूपण 431, पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में संज्ञाओं की प्ररूपणा 432, छब्बीसवाँ आहारद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में याहारक-अनाहारक-निरूपण 433, सत्ताईसवाँ भवद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में भवग्रहण-प्ररूपणा 434, अदाईसवी आकर्षद्वार : एकभव-नानाभव ग्रहणीय आकर्ष-प्ररूपणा 435, उनतीसवाँ कालद्वार : पंचविध निम्रन्थों में स्थितिकाल-निरूपण 437, तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में काल के अन्तर का निरूपण 438, इकतीसवाँ समूदधातद्वार : समुदघातों की प्ररूपपा 440, बत्तीसवाँ क्षेत्रद्वार : परविध निर्ग्रन्थों में अवगाहना क्षेत्र-प्ररूपण 441, तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार: पंचविध निर्ग्रन्थों में क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपणा 442, चौतीसवाँ भावद्वार : औपशमिकादि भावों का निरूपण 442, पंतीसवाँ परिमाणद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों का एक समय का परिमाण 443, छत्तीसवाँ अल्पबहत्वद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अल्पबहुत्व प्ररूपण 445 / सप्तम उद्देशक प्रथम प्रज्ञापनाद्वार : संयतों के भेद-प्रभेद का निरूपण 447, संयत-स्वरूप 448, द्वितीय वेदद्वार: पंचविध संयतों में सवेदी-प्रवेदी प्ररूपणा 450, तृतीय रागद्वार : पंचविध संयतों में सरागता-वीतरागता-निरूपण 450, चतुर्थ कल्पद्वार : पंचविध संयतों में स्थितकल्पादि प्ररूपणा 451, पंचम चारित्रद्वार : पंचविध संयतों में पुलाकादि प्ररूपणा 452, छठा प्रतिसेबनाद्वार : पंचविध संयतों में प्रतिसेवन-अप्रतिसेवन प्ररूपणा 453, सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध संयतों में ज्ञान और श्रताध्ययन की प्ररूपणा 453, अष्टम तीर्थद्वार : पंचविध संयतों में तीर्थअतीर्थ प्ररूपणा 455, नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध संयतों में स्व-अन्य गहिलिंग प्ररूपणा 455, दसवां शरीरद्वार: . [115 ] Page #2192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविध संयतों में शरीर भेद-प्ररूपणा 456, ग्यारहवां क्षेत्रद्वार: पंचविध संयतों में कर्म-अकर्मभूमि की प्ररूपणां 456, बारहवाँ कालद्वार : पंचविध संयतों में अवसर्पिणी कालादि की प्ररूपणा 457, तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध संयतों में गतिप्ररूपणादि 458, चौदहवाँ संयतद्वार : पंचविध संयतों में अल्पबहत्ब सहित संयम-स्थान प्ररूपण 460, पन्द्रहवां निकर्ष (चारित्रपर्यव) द्वार : चारित्रपर्यव-प्ररूपणा 462, पंचविध संयतों में स्वस्थान-परस्थानबारित्रपर्यवों की अपेक्षा हीन-तुल्य-अधिक प्ररूपणा 462, सोलहवां योगद्वार : पंचविध संयतों में योग-प्ररूपणा 465' सत्तरहवौं उपयोगद्वार : पंचविध संयतों में उपयोग-निरूपण 465, अठारहवाँ कषायद्वार : पंचविध संयतों में कषाय-प्ररूपणा 465, उन्नीसवाँ लेश्याद्वार : पंचविध संयतों में लेश्या-प्ररूपणा 466, बीसवाँ परिणामद्वार : वर्द्ध मानादि-परिणाम-प्ररूपणा 467, इक्कीसवाँ बन्धद्वार : कर्म-प्रकृति-बंध-प्ररूपणा 469, वाईसवाँ वेदनद्वार : कर्म-प्रकृति वेदन की प्ररूपणा 470, तेईसवाँ कर्मोदी रणद्वार : कर्मों की उदीरणा की प्ररूपणा 470, चौवीसवाँ हान-उपसम्पद्वार : पंचविध संयतों के स्वस्थान-त्याग-परस्थान-प्राप्ति प्ररूपणा 471, पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध संयतों में संज्ञा की प्ररूपणा 473, छब्बीसवाँ आहारद्वार : पंचविध संयतों में आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा 474, सत्ताईसवाँ भवद्वार 474, अट्ठाईसा आकर्षद्वार : पंचविध संयतों के एक भव एवं नाना भवों की अपेक्षा माकर्ष की प्ररूपणा 475, उनतीसवाँ काल-(स्थिति)-द्वार : एकवचन और बहुवचन में स्थिति-प्ररूपणा 477, तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध संयतों में काल का अन्तर 479, इकतीसवाँ समूदधातद्वार : पंचविध संयतों में समुद्घात की प्ररूपणा 481, बत्तीसवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध संयतों के अवगाहन क्षेत्र की प्ररूपणा 481, तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध संयतों की क्षेत्र-स्पर्शना प्ररूपणा 482, चौतीसवाँ भावद्वार : पंचविध संयतों में औपशमिकादि भावों की प्ररूपणा 482, पैतीसवाँ परिमाणद्वार : पंचविध संयतों के एक समयवर्ती परिमाण की प्ररूपणा 482, छत्तीसवा अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध संयतों का अल्पबहुत्व 484, प्रतिसेवना-दोषालोचनादि छहद्वार 484, प्रथम प्रतिसेवनाद्वार : प्रतिसेवना के दस भेद 485, द्वितीय पालोचनाद्वार : पालोचना के दस दोष 485, तृतीय मालोचनाद्वार:पालोचना करने तथा सुनने योग्य साधकों के गुण 486, चतुर्थ समाचारीद्वार : समाचारी के दस भेद 488, पंचम प्रायश्चित्तद्वार : प्रायश्चित्त के दस भेद 489, छठा तपोद्वार : तप के भेद-प्रभेद 491, अनशन तप के भेद-प्रभेद 491. प्रवमौदर्य तप के भेद-भेदों की प्ररूपणा 493. भिक्षाचर्या. रसपरित्याग ए कायक्लेश तप की प्ररूपणा 495, प्रतिसंलीनता तप के भेद एवं स्वरूप का निरूपण 496, षविध माभ्यन्तर तप के नाम निर्देश 499, प्रायश्चित्त तप के दस भेद 499, विनय तप के भेद-प्रभेदों का निरूपण 500, वैयावृत्य और स्वाध्याय तप का निरूपण 505, ध्यान : प्रकार और भेद-प्रभेद 506, व्यूत्सर्ग के भेद-प्रभेदों का निरूपण अष्टम उद्देशक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति का विविध पहलुप्रों से निरूपण नौवों उद्देशक चौवीस दण्डकगत भन्यजीवों की उत्पत्ति का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण दसवां उद्देशक चौवीस दण्डकगत अभव्य जीवों की उत्पत्ति का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण प्यारहवां उद्देशक चौवीस दण्डकगत सम्यग्दष्टि जीवों की उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपण 520 521 [116 ] Page #2193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां उद्देशक चौवीस दण्डकगत मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपण 522 छब्बीसवां शतक छब्बीसवे शतक का मंगलाचरण 526, छब्बीसवे शतक के ग्यारह उद्देशकों में ग्यारह द्वारों का निरूपण 526 प्रथम उद्देशक प्रथम स्थान : जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपण 527. द्वितीय स्थान : मलेश्व-प्रलेश्य जोवों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-निरूपण 528, तृतीय स्थान : कृष्ण-शुक्लपाक्षिक को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा 529, चतुर्थ स्थान : सम्यक-मिथ्या-मिश्रदष्टि जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-निरूपण 530, छठा स्थान : अज्ञानी जीव की अपेक्षा पोपकर्मबन्ध-निरूपण 531, सप्तम स्थान : पाहारादि संज्ञी की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 531, अष्टम स्थान : सवेदक-प्रवेदक जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 531, नवम स्थान : सकषायी-अकषायी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 532, दसवां स्थान : सयोगी-प्रमोगी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 533, ग्यारहवाँ स्थान : साकार-अनाकारोपयुक्त जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 533, चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध की चातुर्भगिक प्ररूपणा 533, जीव और चौवीस दण्डकों में ज्ञातावरणीय से लेकर मोहनीय कर्मबन्ध तक की चतुर्भगीय प्ररूपणा ग्यारह स्थानों में 535, जीव और चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यकर्म की अपेक्षा चतुर्भगीय-प्ररूपणा ग्यारह स्थानों में 538, जीव और चौवीस दण्डकों में नाम, गोत्र और अंतराय कर्म की अपेक्षा ग्यारह स्थानों में चतुभंगी प्ररूपणा 544 द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक नारकादि चौवीस दण्डकों में पापकर्मबन्ध की अपेक्षा ग्यारह स्थानों की प्ररूपणा तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध को लेकर ग्यारह स्थानों की निरूपणा चतुर्थ उद्देशक अनन्तरावगाढ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादि-बन्ध प्ररूपणा पांचवा उद्देशक परम्परावगाढ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 552 553 छठा उद्देशक अनन्तराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा सातवां उद्देशक परम्पराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा आठवां उद्देशक अनन्तरपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा [ 117 ] Page #2194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां उद्देशक परम्परपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 556 दसवाँ उद्देशक चरम चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा ग्यारहवाँ उद्देशक अचरम चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिवन्ध-प्ररूपणा 558, प्रचरम चौवीस दण्डकों में जानवरणीयादि कर्मबन्ध-प्ररूपणा 559 सत्ताईसवाँ शतक प्रथम से लेकर ग्यारह उद्देशक तक छब्बीसवे शतक की वक्तव्यतानुसार ज्ञानावरणीयादि पापकर्मकरण-प्ररूपणा 563 अट्ठाईसवाँ शतक प्रथम उद्देशक छब्बीसवें शतक में निर्दिष्ट ग्यारह स्थानों से जीवादि के पापकर्म-समर्जन एवं समाचरण का निरूपण द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में छब्बीसवें शतकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपणा 565 तीसरे से ग्यारह उद्देशक छब्बीसवें शतक के तृतीय से ग्यारहवें उद्देशकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपणा 570 उनतीसवाँ शतक प्रथम उद्देशक जीव और चौवीस दण्डकों में समकाल-विषमकाल की अपेक्षा पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का निरूपण 571 द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपत्रक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा समकाल-विषमकाल को लेकर पापकर्मवेदन ग्रादि की प्ररूपणा तीसरे से ग्यारह उद्देशक छन्वीसवें शतक के तीसरे से ग्यारहवें उद्देशकानुसार सम-विषम-कर्म प्रारम्भ एवं कर्मान्त का निरूपण तीसवां शतक प्राथमिक 577 प्रथम उद्देशक समवसरण और उसके चार भेद 579 Page #2195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादिता आदि प्ररूपणा चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादी समवसरण-प्ररूपणा क्रियावादादि चतुर्विध समवसरणगत जीवों की ग्यारह स्थानों में प्रायुष्यबन्ध-प्ररूपणा चौवीस दण्डकवर्ती क्रियावादी आदि जीवों की ग्यारह स्थानों में आयुष्यबन्ध-प्ररूपणा क्रियावादी आदि चारों में जीव और चौवीस दण्डकों की ग्यारह स्थानों द्वारा भन्याभव्य-प्ररूपणा 582 584 586 596 द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादादि-प्ररूपणा क्रियावादी आदि चारों में अनन्त रोषपन्नक चौवीस दण्डकों की ग्यारह स्थानों द्वारा भव्याभव्य-प्ररूपणा तृतीय उद्देशक परम्परोपपत्रक चौवीस दण्डकीय जीवों में ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादादि-निरूपण चतुर्थ से ग्यारहवाँ उद्देशक छन्वीसवें शतक के क्रम से 4-11 वें उद्देशक तक की प्ररूपणा इकतीसवाँ-बत्तीसवाँ शतक प्राथमिक 605 इकतीसवाँ शतक 607 प्रथम उद्देशक क्षुद्रयुग्म : नाम और प्रकार चतुर्विध क्षुद्रयुग्म नैरयिकों के उपपात के सम्बन्ध में विभिन्न प्ररूपणा द्वितीय उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-कृष्णलेश्यो नैरयिकों के उत्पात को लेकर विविध प्ररूपणा तृतीय उद्देशक चतुविध क्षुद्रयुग्मविशिष्ट नीललेश्यी नरयिको सम्बन्धी प्ररूपणा चतुर्थ उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म कापोतलेश्यी नै रयिकों को लेकर विविध प्ररूपणा पंचम उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-भवसिद्धिक नैरयिकों की उपपात सम्बन्धी विविध प्ररूपणा षष्ठ उद्देशक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक नारकों की उपपात सम्बन्धी प्ररूपणा 614 Page #2196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उद्देशक नीललेश्या वाले भवसिद्धिक नारकों की प्ररूपणा अष्टम उद्देशक चतुर्विध क्षद्वयुग्म कापोतलेश्यी भवसिद्धिक नैरयिकों की उपपात-प्ररूपणा नवम से बारह उद्देशक अभव्य नरयिकों सम्बन्धी वक्तव्यता तेरह से सोलह उद्देशक लेश्यायुक्त सम्यग्दष्टि नारकों को वक्तव्यता सत्तरह से बीस उद्देशक मिथ्यादृष्टि नारक सम्बन्धी चार उद्देशक इक्कीस से चौवीस उद्देशक कृष्णपाक्षिक नारक सम्बन्धी पच्चीस से अट्ठाईस उद्देशक शुक्लपाक्षिक नरयिकों सम्बन्धी कथन 622 623 624 बत्तीसवाँ शतक प्रथम उद्देशक नारकों की उद्वर्तना दूसरे से अट्ठाईस उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म कृष्णलेश्यी नरयिकों की उद्वर्तना सम्बन्धी प्ररूपणा तेतीसवां प्रथम एकेन्द्रिय शतक प्राथमिक प्रथम उद्देशक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद एकेन्द्रिय जीवों की कर्मप्रकृतियाँ, उनका बन्ध्र और वेदन द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनमें कर्म प्रकृतियाँ, उनके बन्ध और वेदन का निरूपण तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें कर्मप्रकृतियाँ, उनका बन्ध और वेदन N 635 [ 120 Page #2197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ से ग्यारहवाँ उद्देशक एकेन्द्रिय सम्बन्धी विविध अतिदेश द्वितीय से बारहवाँ एकेन्द्रियशतक विविध दष्टियों से एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में प्ररूपणा चौतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रियशतक प्राथमिक बारह एकेन्द्रिय श्रेणीशतक 638 654 पतीस से चालीसवाँ शतक प्राथमिक पैतीसवाँ शतक एकेन्द्रिय महायुग्मशतक अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों-सम्बन्धी प्ररूपणा 687 छत्तीसवां शतक बारह द्वीन्द्रिय महायुग्मशतक-द्वीन्द्रिय जीवों-सम्बन्धी विविध द्वारों से प्ररूपणा संतीसवां शतक द्वीन्द्रिय महायुग्मशतक के प्रतिदेशपूर्वक बारह त्रीन्द्रिय महायुग्मशतक अड़तीसवां शतक द्वादश चतुरिन्द्रिय महायुग्मशतक-चतुरिन्द्रिय जीवों-सम्बन्धी प्ररूपणा उनचालीसवां शतक असंजीपंचेन्द्रियमहायुग्म शतक-प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों-सम्बन्धी प्ररूपणा 721 722 चालीसवाँ शतक इक्कीस संजीपंचेन्द्रिय महायुग्मशतक-संज्ञी पंचेन्द्रिय-सम्बन्धी उत्पादादि की प्ररूपणा-इक्कीस अवान्तर शतक इकतालीसवां शतक प्राथमिक 741 प्रथम उद्देशक राशियुग्म : भेद और स्वरूप 742, राशियुग्म : कृतयुग्मराशि वाले चौवीस दण्डकों में उपपातादि वक्तव्यता 742 [ 121 / Page #2198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक राशियुग्म : न्योजराशि वाले चौवीस दण्डकों में उपपातादि वक्तव्यता 750 752 756 758 तृतीय उद्देशक राशियुग्म : द्वापरयुग्मराशि वाले चौवीस दण्डकों में उपपातादि प्ररूपणा चतुर्थ उद्देशक राशियुग्म : कल्योजराशिरूप चौवीस दण्डकों में उपपातादि प्ररूपणा पांच से आठ उद्देशक कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म में कृतयुग्मादिरूप चौवीस दण्डकों में उपपातादि प्ररूपणा नौ से अट्ठाईस उद्देशक नीलादि लेश्यानों के आधार से नारकादि के उपपातादि का निरूपण उनतीस से छप्पन्न उद्देशक पूर्व के अट्ठाईस उद्देशकों के प्रतिदेशपूर्वक भवसिद्धिक सम्बन्धो अट्ठाईस उद्देशक सत्तावन से चौरासी उद्देशक पूर्व के अट्ठाईस उद्देशकों के अनुसार प्रभवसिद्धिक-सम्बन्धी अट्टाईल उद्देशक पचासी से एकसौ बारह उद्देशक सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी अट्ठाईस उद्देशक एकसौ तेरह से एकसौ चालीस उद्देशक मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अट्ठाईस उद्देशकों का निर्देश एकसौ इकतालीस से एकसौ अड़सठ उद्देशक कृष्णपाक्षिक की अपेक्षा पूर्ववत् अट्ठाईस उद्देशक एकसौ उनहत्तर से एकसौ छियानवे उद्देशक शुक्लपाक्षिक के प्राश्रित पूर्ववत् अट्ठाईस उद्देशक उपसंहार व्याख्याप्रज्ञप्ति के शतक, उद्देशक और पदों का परिमाण अन्तिम मंगल: श्रीसंघ-जयवाद पुस्तक-लिपिकार द्वारा किया गया नमस्कार भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति की उद्देशविधि 762 763 765 765 Page #2199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं पंचमं अंग वियाहपण्णत्तिसुत्तं [भगवई] चतुर्थ खण्ड पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं पञ्चमाङ्गम व्याख्याप्रज्ञप्तिसूलम् [भगवती ___ Page #2200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #2201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमं सयं : वीसवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का यह वीसवाँ शतक है / इसके दस उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक : 'द्वीन्द्रिय' में द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरबन्ध, पाहार, लेश्या, दृष्टि, योग, ज्ञान-प्रज्ञान, संवेदन, संज्ञा-प्रज्ञा, मन, वचन, प्राणातिपात आदि का भाव, समुद्घात, उत्पत्ति एवं स्थिति कितनी होती है ? एवं कौन किससे अल्प या अधिकादि है ? इसकी चर्चा की गई है। * द्वितीय उद्देशक : 'माकाश' में आकाश के प्रकार, धर्मास्तिकायादि शेष अस्तिकायों की जीव रूपता-अजीवरूपता, सीमा तथा धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक के विविध अभिवचनों (पर्यायवाचक शब्दों) की प्ररूपणा की गई है। तृतीय उद्देशक : 'प्राणवध' में प्रतिपादित किया गया है कि प्राणातिपात श्रादि 18 पापस्थान, चार प्रकार की बुद्धियाँ, अवग्रहादि चार मतिज्ञान, उत्थानादि पांच, नारकत्व, देवत्व, मनुष्यत्व आदि, अष्टविध कर्म, छह लेश्या, पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार दर्शन, चार संज्ञा, पांच शरीर, दो उपयोग आदि धर्म आत्मरूप हैं, ये प्रात्मा से अन्यत्र परिणत नहीं होते। चतुर्थ उद्देशक : 'उपचय' में प्रज्ञापनासूत्र के इन्द्रियपद के अतिदेशपूर्वक पांच इन्द्रियों के उपचय का निरूपण किया गया है। पांचवाँ उद्देशक : परमाणु है / परमाणु पुदगल से लेकर द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी यावत् दशप्रदेशी तथा संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में पाये जाने वाले वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के विविध विकल्पों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-विषयक परमाणु चतुष्टय के विविध प्रकारों का वर्णन है / छठा उद्देशक : अन्तर है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि पृथ्वीकायिक प्रादि पांच स्थावर जीव रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा आदि नरकश्चियों में मरणसमुद्घात करके सौधर्म, ईशान आदि से लेकर ईषत्प्राग्भारपृथ्वी में पृथ्वीकायिकादि के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं या विपरीत रूप से करते हैं ? इसके पश्चात् उन्हीं स्थावरादि के विषय में पूछा गया है कि सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभादि नारकपृथ्वियों में पृथ्वीकायादिरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे भी पहले अाहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं या पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं ? इसका समाधान किया गया है कि दोनों प्रकार से करते हैं। Page #2202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | [মাত্রায়ননি * सप्तम उद्देशक : बन्ध में सर्वप्रथम जीवप्रयोगादि तीन प्रकार के बन्ध का निरूपण करने के बाद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के त्रिविध बन्ध का और चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों का त्रिविधबन्ध-निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों में उदयप्राप्त ज्ञानावरणीयादि के बन्ध का, स्त्री-पुरुष-नपुंसक वेद के बन्ध का, फिर औदारिक शरीर, चार संज्ञा, छह लेश्या, तीन दुष्टि, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, इन सब 11 बोलों के यथायोग्य बन्ध का निरूपण किया गया है / 'बन्ध' शब्द से यहाँ कर्मयुद्गलों का बन्ध विवक्षित नहीं है, किन्तु सम्बन्धमात्र को बन्ध कहा गया है / अष्टम उद्देशक : भूमि है / इसमें पहले कर्मभूमि और अकर्मभूमि के प्रकार तथा इनमें एवं 5 भरत, 5 ऐरवत एवं 5 महाविदेह क्षेत्रों में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तथा सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत रूप धर्म का उपदेश है या नहीं ? इसका निरूपण किया गया है / तत्पश्चात् जम्बुद्वीपीय भरतक्षेत्र में हुए चौबीस तीर्थंकरों के नाम, इनमें हुए जिनान्तरों का तथा जिनान्तरों के समय कालिक श्रुत के विच्छेद का कथन किया गया है। फिर भगवान् के तीर्थ की अविच्छिन्नता की कालावधि तथा तीर्थ और तीर्थंकर की भिन्नता-अभिन्नता का एवं उग्र, भोग, राजन्यादि क्षत्रियकुल के व्यक्तियों की धर्म प्रवेश की तथा मोक्षप्राप्ति या देवलोकप्राप्ति की सम्भावना का निरूपण किया गया है। * नौवाँ उद्देशक : चारण है / इसमें जंघाचारण और विद्याचारण, यों चारणमूनि के दो भेद करके, दोनों का स्वरूप तथा इन दोनों प्रकार के चारणमुनियों के उत्पात का सामर्थ्य तथा गति की तीव्रता का सामर्थ्य एवं गति का विषय तथा दोनों की प्राराधना-विराधना का रहस्य बताया गया है / साथ ही जंघाचरण को जंघाचारणलब्धि की उत्पत्ति का रहस्य भी प्रतिपादित किया गया है। * दसवाँ उद्देशक : सोपक्रम जीव है / आयुष्य के दो भेद-सोपक्रम और निरुपक्रम करके, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उनका निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों के जीव आत्मोपक्रम, परोपक्रम एवं निरुपक्रम तथा आत्मऋद्धि-परऋद्धि, आत्मकर्म-परकर्म, प्रात्मप्रयोगपरप्रयोग, इनमें से किस रूप में उद्वर्तन (मृत्यु) करते हैं या उत्पन्न होते हैं ? इसका निरूपण है। फिर चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कतिसंचित, अकतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित की प्ररूपणा की गई है / तत्पश्चात् चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कौन-कौन षट्क-सजित, नोषट्क सोजत एवं अनेक षट्कसजित तथा द्वादशसजित, नोद्वादशसजित एवं अनेक द्वादशसजित हैं तथा इनमें से कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई है। * कुल मिला कर समस्त जीवों के विषय में विविध पहलुओं से सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। इससे धर्माचरण, संयमपालन एवं अप्रमाद सादि अनेक प्रकार की प्रेरणा मिलती है। 30 Page #2203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीस इमं सयं : वीसवाँ शतक वीसवें शतक के उद्देशकों का नाम-निरूपरण 1. बेइंदिय 1 मागासे 2 पाणवहे 3 उवचए 4 य परमाणू 5 / अंतर 6 बंधे, भूमी 8 चारण 6 सोवक्कमा जोवा 10 // 1 // [1. गाथार्थ-] (इस शतक में दश उद्देशक इस प्रकार हैं--) (1) द्वीन्द्रिय, (2) आकाश, (3) प्राणवध, (4) उपचय, (5) परमाणु, (6) अन्तर, (7) बन्ध, (8) भूमि, (9) चारण और (10) सोपक्रम जीव / विवेचन–दश उद्देशकों में प्रतिपाद्य विषय- (1) द्वीन्द्रियादि की वक्तव्यता-विषयक प्रथम उद्देशक है। (2) द्वितीय उद्देशक-आकाशादि-अर्थ-विषयक है। (3) ततीय उद्देशक में प्राणातिपातादि सभी प्रात्मविषयक तथ्यों को प्ररूपणा है। (4) चतुर्थ उद्देशक में श्रोत्रेन्द्रिय आदि के उपचय का वर्णन है। (5) पंचम उद्देशक में परमाणु-सम्बन्धी वक्तव्यता है। (6) छठा उद्देशक रत्नप्रभादि नरकभूमियों के अन्तराल-विषयक है। (7) सप्तम उद्देशक-जीव-प्रयोगादिबन्ध के विषय में है। (8) अष्टम उद्देशक में कर्मभूमि-अकर्मभूमि आदि का प्रतिपादन है। (6) नौवें उद्देशक में विद्याचारण आदि का वर्णन है और (10) दसवें उद्देशक में जीवों के सोपक्रम-निरूपक्रम होने का निरूपण है। 1. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 774 Page #2204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'बेइंदिय' प्रथम उद्देशक : द्वीन्द्रियादि विषयक विकलेन्द्रिय जीवों में स्यात्, लेश्यादि द्वारों का निरूपण 2. रायगिहे जाव एवं वयासि[२] 'भगवन् !' राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-- 3. सिय' भंते जाव चत्तारि पंच बेदिया एगयत्रो साधारणसरीरं बंधति, एग० बं० 2 ततो पच्छा प्राहारेति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधंति ? नो तिणठे समझें, बेंदिया षं पत्तेयाहारा य पत्तेयपरिणामा पत्तयसरीरं बंधति, प० बं० 2 ततो पच्छा आहारैति वा परिणामति वा सरीरं वा बंधति / [3 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच द्वीन्द्रिय जीव मिलकर एक साधारण शरीर बांधते हैं, इसके पश्चात् पाहार करते हैं ? अथवा आहार को परिणमाते हैं, फिर विशिष्ट शरीर को बांधते हैं ? [3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (यथार्थ) नहीं है, क्योंकि द्वीन्द्रिय जीव पृथक-पृथक आहार करने वाले और उसका पृथक-पृथक् परिणमन करने वाले होते हैं। इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं, फिर पाहार करते हैं तथा उसका परिणमन करते हैं और विशिष्ट शरीर बांधते हैं। 4. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! तओ लेस्सायो पन्नत्तानो, तं जहा- कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा, एवं जहा एगूणवीसतिमे सए तेउकाइयाणं (स० 16 उ०३ सु०१६) जाव उव्वटंति, नवरं सम्मट्ठिी वि, मिच्छट्टिी वि, नो सम्मामिच्छाविट्ठी; दो नाणा, दो अन्नाणा नियम; नो मणजोगी, वयजोगी वि, कायजोगी वि; प्राहारो नियम छद्दिसि / [4 प्र.] भगवन् ! उन (द्वीन्द्रिय) जीवों के कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? (4 उ.] गौतम ! उनके तीन लेश्याएं कही गई हैं / यथा कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या / इस प्रकार समग्र वर्णन, जो उन्नीसवें शतक (के तीसरे उद्देशक के सू. 19) में अग्निकायिक जीवों के विषय में कहा गया है, वह यहाँ भी यावत्-उर्तित होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि ये द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दष्टि भी होते हैं, मिथ्यादष्टि भी होते हैं, पर सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं / उनके नियमत: दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं / वे मनोयोगी 1. सिय-लेस्सा आदि द्वारों को जानने के लिए देखें 19 वे शतक के तृतीय उद्देशक के सू. 2 से 17 तक / Page #2205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 1] नहीं होते, वचनयोगी भी होते हैं और काययोगी भी। वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते-पुद्गल ग्रहण करते हैं। 5. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणे ति वा वयो ति वा 'अम्हे णं इट्ठाणिठे रसे इट्ठाणिठे फासे पडिसंवेदेमो' ? जो तिणठे समठे, पडिसंवेदेति पुण ते। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई / सेसं तं चेव। [5 प्र.] क्या उन जीवों को-'हम इष्ट और अनिष्ट रस तथा इष्ट-अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करते हैं', ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है ? [5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वे रसादि का संवेदन करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य अन्तम हर्त की है और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। शेष सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 6. एवं तेइंदिया वि। एवं चरिंदिया वि। नाणतं इंदिएसु ठितीए य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पन्नवणाए। [6] इसी प्रकार (द्वीन्द्रिय की तरह) त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। किन्तु इनकी इन्द्रियों में और स्थिति में अन्तर है। शेष सब बातें पूर्ववत् हैं। इनकी स्थिति प्रज्ञापनासूत्र (चौथे पद) के अनुसार जाननी चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियादि जीवों के स्यात, शरीर, लेश्यादि-निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 2 से 6 तक) में उन्नीसवें शतक में निर्दिष्ट स्यात्-शरीर-लेश्यादि का निरूपण किया गया है / त्रीन्द्रिय जीवों में विशेष—इन के तीन इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट 49 अहोरात्र की होती है / ___ चतुरिन्द्रिय जीवों में विशेष--इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं ! इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट छह महीनों की होती है।' पंचेन्द्रिय जीवों में स्यात् लेश्यादि द्वारों का निरूपण 7. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पंचेंदिया एगयो साहारण / एवं जहा बिंदियाणं (सु० 3-5), नवरं छ लेसासो, विट्ठी तिबिहा वि; चत्तारि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए; तिविहो जोगो। [7 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि पंचेन्द्रिय मिल कर एक साधारणशरीर बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / - - - 1. श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति को जानने के लिए देखें-प्रज्ञापनासूत्र, चतुर्थ पद सू. 370-71 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 774 Page #2206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [7 उ.] गौतम ! (इसका समाधान) पूर्ववत् द्वीन्द्रियजीवों के समान (जानना चाहिए।) विशेष यह है कि इनके छहों लेश्याएँ और तीनों दृष्टियाँ होती हैं / इनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। तीनों योग होते हैं। 8. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सत्रा ति वा पण्णा ति वा जाव वती ति वा 'अम्हे णं प्राहारमाहारेमो' ? गोयमा ! प्रत्थेगइयाणं एवं सम्णा ति वा पण्णा ति वा मणो ति वा वती तिवा 'अम्हे णं पाहारमाहारेमो', अत्थेगइयाणं नो एवं सन्ना ति वा जाव वती ति वा 'अम्हे णं आहारमाहारेमो', पाहारेंति पुण ते। 8 प्र.] भगवन् ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि 'हम आहार ग्रहण करते हैं ?' [8 उ.] गौतम ! कितने ही (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि 'हम पाहार ग्रहण करते हैं, जबकि कई (असंज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता कि हम आहार ग्रहण करते हैं, परन्तु वे आहार तो करते ही हैं / 6. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा जाव वती ति वा 'अम्हे णं इट्ठाणिठे सद्दे, इट्ठाणिठे रूवे, इटाणिछे गंधे, इट्टाणिठे रसे, इट्टाणिठे फासे पडिसंवेदेमो' ? गोयमा! अत्थेगइयाणं एवं सन्ना ति वा जाव वयो ति वा 'अम्हे णं इट्टाणिठे सहे जाव इटाणिठे फासे पडिसंवेदैमो', अस्थगइयाणं नो एवं सण्णा ति वा जाव वती इ चा 'अम्हे णं इट्टाणिठे सद्दे जाब इटाणिठे फासे पडिसंवेदेमो', पडिसंवेदेति पुण ते।। [9 प्र. भगवन् ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट शब्द, इष्ट या अनिष्ट रूप, इष्ट या अनिष्ट गन्ध, इष्ट या अनिष्ट रस अथवा इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव (प्रतिसंवेदन) करते हैं ? [.. उ. गौतम ! कतिपय (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, यावत् वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट शब्द यावत् इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं / किसी-किसी (असंज्ञी) को ऐसी संज्ञा नहीं होती है / परन्तु वे (शब्द आदि का) संवेदन (अनुभव) तो करते ही हैं / 10. ते णं भंते ! जीवा किं पाणातिवाए उवक्खाइज्जति० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिया पाणातिवाए वि उवक्खाइज्जंति जाव मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइज्जति; अत्थेगतिया नो पाणातिवाए उवक्खाइज्जंति, नो मुसावादे जाव नो मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति / जेसि पि णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जति तेसि पि णं जीवाणं अत्थेगइयाणं बिनाए नाणते, अत्थेगइयाणं नो विनाए नाणते / उववातो सवतो जाव सव्वट्ठसिद्धाओ। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। छस्समुग्धाया केवलिवज्जा। उन्वट्टणा सम्वत्थ गच्छंति जाव सम्वट्ठसिद्धं ति / सेसं जहा बेंदियाणं। [10 प्र.] भगवन् ! क्या ऐसा कहा जाता है कि वे (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? इत्यादि प्रश्न / Page #2207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक-१] Te {10 उ.] गौतम ! उनमें से कई (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है और कई जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में नहीं रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है। जिन जीवों के प्रति वे प्राणातिपात आदि (का व्यवहार) करते हैं, उन जोवों में से कई जीवों को-'हम मारे जाते हैं, और ये हमें मारने वाले हैं। इस प्रकार का विज्ञान होता है और कई जोवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता। उन जीवों का उत्पाद सर्व जीवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध से भी होता है / उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्टः तेतीस सागरोपम की होती है। उनमें केवली समुद्घात को छोड़ कर (शेष) छह समुद्धात होते हैं। वे मर कर सर्वत्र यावत् सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं। शेष सब बातें द्वीन्द्रियजीवों के समान जाननी चाहिए / विवेचन-पंचेन्द्रियजीवों में स्यात् आदि द्वारों की प्ररूपणा –पूर्ववत् स्यात् आदि द्वारों का पंचेन्द्रियजीवों में निरूपण किया गया है / संजी और असंजो पंचेन्द्रियजीवों में अन्तर-संज्ञी पंचेन्द्रियजीवों को ऐसा ज्ञान हया करता है कि हम अाहार कर रहे हैं, अथवा हम इष्ट या अनिष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध या स्पर्श का अनुभव कर रहे हैं, इसी प्रकार वे वध्य और घातक के भेदज्ञान से युक्त होते हैं कि हम इनके द्वारा मारे जा रहे हैं और ये हमें मारने वाले हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रियजीवों को न तो इष्ट रसादि का बिबेक होता है और न वध्य-घातक का भेदज्ञान होता है। द्वीन्द्रियजीवों से पंचेन्द्रियजीवों में अन्तर-द्वीन्द्रियजीवों में आदि की तीन ही लेश्याएं होती हैं, जब कि पंचेन्द्रियजीवों में छहों लेश्याएं होती हैं। द्वीन्द्रियजीवों में सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि ये दो ही दृष्टियां पाई जाती हैं, जब कि पंचेन्द्रियजीवों में तीसरी सम्यगमिथ्यादृष्टि भी पाई जाती है / वहाँ मति और श्रुतज्ञान होता है, जबकि यहाँ मत्यादि चार ज्ञान भजना से कहे गए हैं / जिसे केवलज्ञान होता है, उसके एक ही ज्ञान होता है। इसमें तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं, नियम से नहीं। द्वीन्द्रियजीवों में ववनयोग और काययोग ही होते हैं, जबकि पंचेन्द्रिय में तीनों योग होते हैं / इनको उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है और उत्पाद सर्वार्थसिद्ध तक सर्वत्र होता है / 'प्राणातिपात' प्रादि से रहित कौन, सहित कौन ?- असंयतजीव प्राणातिपात यावत मिथ्यादर्शन शल्य वाले होते हैं जबकि संयतजीव इनसे रहित होते हैं / कठिन शब्दार्थ-- उवक्साइज्जंति: दो अर्थ---(१) उपस्थित रहते हैं, (2) कहते हैं। बिकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियजीवों का अल्प-बहुत्व 11. एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं जाव पंचेंदियाण य कयरे जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदिया, चरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // वीसइमे सए : पढमो उद्देसमो समत्तो // 20.1 // Page #2208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [11 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? [11 उ. गौतम ! सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं और उनसे द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // वीसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / Page #2209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'आगासे द्वितीय उद्देशक : आकाश [प्रादि पंचास्तिकायसम्बन्धो] प्राकाशास्तिकाय के भेद, स्वरूप तथा पंचास्तिकायों का प्रमाण 1. कतिविधे णं भंते ! अागासे पन्नते? गोयमा ! बुविधे प्रागासे पन्नत्ते, तं जहा–लोयागासे य प्रलोयागासे य / [1 प्र.] भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है / यथा--लोकाकाश और अलोकाकाश / 2. लोयागासे णं भंते ! कि जीवा, जीवदेसा ? एवं जहा बितियसए अस्थिउद्देसे (स०२ उ०१० सु० 11-13) तह चेव इह वि भाणियन्वं, नवरं अभिलायो जाव धम्मस्थिकाए णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते ? गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयपमाणे लोयफुडे लोयं चेव प्रोगाहित्ताणं चिट्ठइ / एवं जाव पोग्गल स्थिकाए। [2 प्र. भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश-रूप है ? इत्यादि प्रश्न ? 2 उ.] गौतम ! द्वितीय शतक के दशवें अस्ति-उद्देशक (सू. 11-13) में जिस प्रकार का कथन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। विशेष में यह अभिलाप भी यावत् धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए [प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? [उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय लोक, लोकमात्र, लोक-प्रमाण, लोक-स्पृष्ट और लोक को अवगाढ करके रहा हुआ है, इस प्रकार यावत् पुद्गलास्तिकाय तक कहना चाहिए। विवेचन-एक अखण्ड प्राकाश के ये दो भेद ?-आकाशद्रव्य मूलत: एक ही है, फिर भी उसके ये जो दो भेद किये गए हैं, वे जीव-अजीव आदि द्रव्यों के आधारभूत आकाश की अपेक्षा से किये गए हैं। अर्थात् जीवादि द्रव्य आकाश के जितने भाग में पाए जाते हैं, वह लोकाकाश है और इससे अतिरिक्त भाग अलोकाकाश है।' प्रमिलाप का अतिदेश-विशेष प्रस्तुत सूत्र (2) में द्वितीय शतक के जिस अभिलाप-विशेष का अतिदेश किया गया है, वहाँ चार बातें विशेष रूप से समझ लेनी चाहिए-(१) 'लोयं चेव फुसित्ता गं चिट्टई' के स्थान में 'लोयं चेव प्रोगाहित्ताणं चिट्ठइ', समझना, (2) यह अभिलाप 'जाव धम्मास्थिकाय' से लेकर 'अलोयागासे पं भंते !' इत्यादि समग्र अलोकाकाश-सूत्र यहां कहना चाहिए, 1. भगवती. प्रमेयचंन्द्रिका टीका, भाग 13, पृ. 499 Page #2210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (3) लोकाकाश जीवरूप भी है, जीवदेशरूप भी और जीवप्रदेशरूप भी है इत्यादि समस्त कथन / (4) धर्मास्तिकायादि पांचों अस्तिकाय लोक को छूते हैं और लोक को व्याप्त करके ठहरे हुए हैं।' अधोलोक आदि में धर्मास्तिकायादि को अवगाहना-प्ररूपणा 3. अहेलोए णं भंते ! धम्मस्थिकायस्स केवतियं ओगा ? ___ गोयमा ! सातिरेगं अलु अोगाढे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा बितियसए (स० 2 उ० 10 सु० 15-21) जाव ईसिपन्भारा णं भंते ! पुढवी लोयागासस्स कि संखेज्जइभागं प्रोगाढा ? पुच्छा / गोयमा ! नो संखेजतिभागं प्रोगाढा; असंखेज्जतिभागं प्रोगाढा; नो संखेज्जे भागे, नो असंखेज्जे भागे, नो सव्वलोयं प्रोगाढा / सेसं तं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को प्रवगाढ करके रहा हुआ है ? 3 उ.[ गौतम ! बह कुछ अधिक अद्ध भाग को अवगाढ कर रहा हुआ है / इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा दुसरे शतक के दशवें उद्देशक (सु. 15-21) में कथित वर्णन यहाँ भी समझना चाहिए; यावत् [प्र. भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित करके रही हुई है अथवा असंख्यातवें भाग आदि को? (उ.। गौतम ! वह लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित नहीं की हुई है, किन्तु असंख्यातवें भाग को अवगाहित की हुई है, (वह लोक के) संख्यात भागों को अथवा असंख्यात भागों को भी व्याप्त करके स्थित नहीं है और न समग्र लोक को व्याप्त करके स्थित है। शेष सब पूर्ववत् / विवेचन-इस पंक्ति का फलितार्थ यह है कि ईषत्ताग्भारा पृथ्वी अर्थात् सिद्धशिला न तो समग्र लोक को व्याप्त करके स्थित है, न ही लोक के संख्यात-असंख्यात भागों को, न संख्यातवें भाग को, किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग को ही व्याप्त करके स्थित है। धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 4. धम्मस्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पत्ता ? गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-धम्मे ति वा, धम्मस्थिकाये ति वा, पाणातिवायवेरमणे ति बा, मुसावायवेरमणे ति वा एवं जाव परिग्गहबेरमणे तिवा, कोहविवेगे ति वा जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे ति बा, इरियासमिती ति वा, भासास० एसणास० प्रादाणभंडमत्तनिक्खेवणस० उच्चार-पासवणखेल-सिंघाण-पारिद्वावणियासमिती ति वा, मणगुत्ती ति वा, यइगुत्ती ति वा, कायगुत्ती ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा सत्वे ते धम्मत्यिकायस्स अभिवयणा / [4 प्र.] भगवन् धर्मास्तिकाव के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? 1. भगवती. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भाग 13, पृ. 500-501 .2 भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भाग 13, पृ. 502 - - - -... -. Page #2211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 2] [13 [4 उ.] गौतम ! इसके अनेक अभिवचन (पर्यायवाची शब्द) कहे गए हैं / यथा--धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, यावत् परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध-विवेक, यावत्-मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, अथवा ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, प्रादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवणखेलजल्लसिंघाणपरिष्ठपनिकासमिति, अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं, वे धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। विवेचन अभिवचन अर्थात पर्यायवाची शब्द / धर्मास्तिकाय के ये पर्यायवाची शब्द : क्यों और कैसे ? धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची मुख्यतया दो शब्द हैं--(१) धर्म और (2) धर्मास्तिकाय / धर्मशब्द भी इन दोनों अर्थों का अभिधायक इस प्रकार है-(१) जो उत्तम सुख (मोक्ष) में धरता-रखता है, अथवा दुर्गति में गिरते हुए आत्मा को धारण करके सुगति में रखता है, वह धर्म है / वह सामान्यधर्म और विशेषधर्म के रूप में दो प्रकार का है। यह धर्म शब्द सामान्यधर्मप्रतिपादक है / श्रुत-चारित्रधर्म विशेषधर्म-प्रतिपादक है। इसी प्रकार प्राणातिपातविरमण आदि से कायप्ति तक जितने भी शब्द हैं अथवा और भी इस प्रकार के चारित्रधर्म से सम्बन्धित जो शब्द है, वे सब चारित्रधर्म के अन्तर्गत विशेषधर्म के प्रतिपादक हैं। (2) धर्मास्तिकाय द्रव्य भी धर्म का पर्यायवाची शब्द है / इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--जो जीव और पुदगलों की गति और पर्याय को धारण करता है, वह धर्म का दूसरा नाम धमोस्तिकाय है, जिसका निवेचन इस प्रकार है-धर्मरूप अस्तिकाय अर्थात प्रदेशराशि-धर्मास्तिकाय है। प्राशय यह है कि धर्म शब्द के साधार्य से अस्तिकायरूप धर्म के प्राणातिपात-विरमणादि चारित्रधर्म भी पर्यायवाची है।' जे यावन्न तहप्पगारा का आशय ये और अन्य भी तथाप्रकार के जो चारित्रधर्माभिधायक सामान्य-विशेषधर्मप्रतिपादक शब्द हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द हैं / 2 अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 5. अधम्मस्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पन्नत्ता? गोयमा ! अणेगा अभिवयमा पन्नत्ता, तं जहा--अधम्मे ति वा, अधम्मस्थिकाये ति वा, पाणातिवाए ति बा जाव मिच्छादसणसल्ले ति वा, इरियाअस्समिती ति वा जाव उच्चार-पासवण जाव पारिद्वावणियाअस्समिती ति वा, मणअगुत्ती ति वा, वइअगुत्ती ति वा, कायप्रगुत्ती ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते अधम्मस्थिकायस्स अभिवयणा। [5 प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [5 उ.] गौतम ! (उसके) अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ईर्यासम्बन्धी असमिति, यावत् उच्चार-प्रस्रवण१. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2840 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 776 2. वही, पत्र 776 द्रव्य Page #2212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र खेल-जल्ल-सिंधाण-परिष्ठापनिकासम्बन्धी प्रसमिति; अथवा मन-अगुप्ति, वचन-अगुप्ति और काय-अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं / __विवेचन-धर्मास्तिकाय के विपरीत शब्द : अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची--पूर्वोक्त लक्षण वाले धर्म से विपरीत अधर्म शब्द है, जो जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक है / शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए।' आकाशास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 6. आगासस्थिकायस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-पागासे ति वा, आगासस्थिकाये ति वा, गगणे ति वा, नमे ति का, समे ति वा, विसमे ति का, खहे ति वा, विहे ति वा, वीयी ति वा, विवरे ति वा, अंबरे ति वा, अंबरसे ति वा, छिड्डे ति वा, झुसिरे ति वा, मग्गे ति वा, विमुहे ति वा, अद्दे ति वा, वियद्दे ति वा, आधारे ति वा, वोमे ति वा, भायणे ति वा, अंतरिक्खे ति वा, सामे ति वा, प्रोवासंतरे ति वा, अगमे ति वा, फलिहे ति बा, अणते ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते मागासस्थिकायस्स अभिवयणा / [6. प्र.] भगवन् ! प्राकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [6. उ.] गौतम ! (आकाशास्तिकाय के) अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा--माकाश, आकाशास्तिकाय, अथवा गगन, नभ, अथवा सम, विषम, खह (ख), विहायस, वीचि, विवर, अम्बर, अम्ब रस, छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द,प्राधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम,स्फटिक ओर अनन्त ; ये सब तथा इनके समान और भी अनेक अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं। विवेचन - "प्राकाश' शब्द का निर्वचन--प्रा-मर्यादापूर्वक अथवा अभिविधिपूर्वक सभी अर्थ जहाँ काश को यानी अपने-अपने स्वभाव को प्राप्त हों, वह 'आकाश' है / गगनादि कठिन शब्दों के निर्वचन-गन-जिसमें गमन का अतिशय विषय (प्रदेश) है / नभ-जिसमें भा अर्थात् दीप्ति न हो। सम-जिसमें निम्न-नीची और उन्नत-ऊंची ऊबड़खाबड़ जगह का अभाव हो, वह सम है। विषम-जहाँ पहुँचना दुर्गम हो, वह विषम है / खह-खनन करने और हान---त्याग करने (छोड़ने) पर भी जो रहता है, वह खह / विहायस —विशेषतया जिसका हान-त्याग किया जाता हो / विवर-वरण-आवरण से रहित (विगत)। वोचि-जिसका विविक्त, पृथक् या एकान्त स्वभाव हो / अम्बर--अम्बा (माता) की तरह जननसामर्थ्यशील, अम्बा-जल / उसका दान (राण) देने वाला / अम्बरस-अम्बा-जलरूप रस जिसमें से गिरता हो / छिद्र-छिदछेदन होने पर भी जिसका अस्तित्व रहे वह छिद्र / शुषिर-समुद्रादि से जल शोष कर पुन: दान कर देता हो, उसे शुषिर कहते हैं / मग्गे--मार्ग-आकाश स्वयं पथरूप होने से मार्ग है / विमुख—जिसका कोई मुख-आदि (--सिरा) न हो / अर्द पर्द-जिस पर अर्दन-गमन, विशेषरूप से गमन किया जाए / व्योम-विशेषरूप से पक्षियों एवं मनुष्यों का जिससे अवन-रक्षण होता हो / भाजन-संसार 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 776. Page #2213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 2] 15 का आश्रयदाता होने से / अन्तरिक्ष-अन्तः-मध्य में जिसकी ईक्षा-दर्शन हो; वह अन्तरिक्ष / श्यामवर्ण होने से वह श्याम भी कहलाता है / जहाँ विशेषादिरूप (अवकाशरूप) अन्तर न हो; वह अवकाशान्तर है / गम-गमनक्रिया से रहित होने से वह प्रगम है। स्फटिक के समान स्वच्छ होने से स्फटिक भी कहलाता है / अनन्त-अन्त (सीमा) से रहित होने से अनन्त--जिसका अन्त न हो।' जीवास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 7. जीवस्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा० पुच्छा / गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-जीवे ति बा, जीवस्थिकाये ति बा, पाणे ति वा, भूते ति वा, सत्ते ति वा, विष्णू ति वा, चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणे ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, माणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतू ति वा, जोणी ति बा, सयंभू ति वा, ससरीरी ति वा, नायये ति वा, अंतरप्पा ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते जीवअभिवयणा। [7. प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [7. उ.] गौतम ! उसके अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा-जीव, जीवास्तिकाय, या प्राण, भूत, सत्त्व, अथवा विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, रंगण, हिण्डुक, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, योनि, स्वयम्भू, सशरीरी, नायक, एवं अन्तरात्मा ये सब और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन जीब के हैं। विवेचन--जीव के विविध अभिवचनों के व्युत्पत्यर्थ—जीव-जो प्राणधारण करता है-जीता है, आयुष्यकर्म और जीवत्व का अनुभव करता है, इसलिए वह जीव कहलाता है / वैसे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, ये जैनशास्त्रों में जीव के चार पारिभाषिक शब्द भी हैं। वहाँ द्वीद्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों को 'प्राण' वनस्पतिकाय को 'भूत', पंचेन्द्रियप्राणियों को जीव और चार स्थावरजीवों को 'सत्व' कहते हैं / प्राणवायु को भीतर खींचने और बाहर छोड़ने (श्वासोच्छ्वास लेने) के कारण भी जीव को 'प्राण' कहते हैं / जीव शुभाशुभ कर्मों के साथ सम्बद्ध है, अच्छे-बुरे कार्य करने में समर्थ है, अथवा सत्ता वाला है, इसलिए इसे शक्त, सक्त या सत्व कहते हैं / कड़वे, कसैले, खट्टे-मीठे आदि रसों को जानता है, इसलिए इसे विज्ञ कहते हैं / सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए 'वेद' कहते हैं / चेता-पुद्गलों का चयनकर्ता होने से चेता है। जेता-कर्मरिपुओं का विजेता होने से / प्रात्मानाना गतियों में सतत अतन-गमन (परिभ्रमण) करता है / रंगण-रागयुक्त है / नाना गतियों में हिण्डन-भ्रमण करता है, इसलिए इसे 'हिण्डक' कहते हैं। पुदगल--शरीरों के पुरण-गलन होने से पुद्गल है / मा+नव—जो नवीन न हो, अनादि (प्राचीन) हो, वह मानव है / कर्ता-कर्मों का कर्ता। विकर्ता-विविधरूप से कर्मों का कर्ता-विकर्ता अथवा विच्छदेक / जगत्-अतिशयगमनशील (विविधगतियों में) होने से / जन्तु-जो जन्म ग्रहण करता है / योनि-दूसरों को उत्पन्न करने वाला। स्वयंम्भू-स्वयं (अपने कर्मों के फलस्वरूप) होने वाला / सशरीरी शरीरयुक्त होने के कारण जगत्, 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 776 Page #2214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सशरीरी / नायक-कर्मों का नेता / अन्तरात्मा--जो अन्तः अर्थात् मध्यरूप आत्मा हो, शरीररूप न हो, वह / ये सब जीव के पर्यायवाची शब्द हैं।' पुदगलास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 8. पोग्गलस्थिकायस्स णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-पोग्गले ति वा, पोग्गलत्थिकाये ति वा, परमाणुपोग्गले ति वा, दुपदेसिए ति वा, तिपदेसिए ति वा जाव असंखेज्जपदेसिए ति वा अणंतपवेसिए ति वा खंधे, जे यावन्ने तहप्पकारा सम्वे ते पोग्गलस्थिकायस्स अभिवयणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥चीसइमे सएः बीओ उद्देसओ समत्तो॥२०-२॥ [8 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [8 उ.] गौतम ! (उसके ) अनेक अभिवचन कहे गए हैं / यथा—पुद्गल, पुद्गलास्तिकाय, परमाणु-पुद्गल, अथवा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशीस्कन्ध; ये और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन पुद्गल के हैं / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। // वीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 776-777 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 2840-41 (ग) प्राणा: द्वि-त्रि-चतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः / जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ता: शेपाः सत्त्वा उदीरिताः / / Page #2215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : 'पाणवहे तृतीय उद्देशक : प्राणवध (प्रादि-विषयक) आत्मा में प्राणातिपात से लेकर अनाकारोपयोग धर्म तक का परिणमन 1. अह भंते ! पाणातिवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसल्ले, पाणातिवायवेरमणे नाव मिच्छदसणसल्लविवेगे, उम्पत्तिया जाव पारिणामिया, उग्गहे जाव धारणा, उहाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, नेरइयत्ते, असुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते, नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा, सम्मदिट्ठी 3+ चक्खुदंसणे 4,x भाभिणिबोहियणाणे जाव विभंगनाणे, आहारसन्ना 4, // प्रोरालियसरीरे 5,* मणोजोए 3, सागारोवयोगे प्रणागारोवयोगे, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते णऽनत्य आताए परिणमंति? हंता, गोयमा ! पाणातिवाए जाव ते णऽन्नत्थ प्राताए परिणमंति। [1 प्र.] भगवन् ? प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शन-शल्य, प्रौत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बद्धि, अवग्रह यावत धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रमः नरयिकत्व, असुरकुमारत्व यावत् बैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यम्-मिश्यावृष्टि, चक्षुदर्शन यावत् केवलदर्शन, प्राभिनिबोधिकज्ञान यावत् विभंगज्ञान, प्राहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा, औदारिक शरीर यावत् कार्मण शरीर, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग; ये सब और इनके जैसे अन्य धर्म; क्या प्रात्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते? [1 उ.] हाँ, गौतम ! प्राणातिपात से लेकर यावत् प्रनाकारोपयोग तक सब धर्म, प्रात्मा के सिवाय अन्यत्र परिणमन नहीं करते। विवेचन-प्राणातिपात प्रादि प्रात्मा में परिणत होते हैं या अन्यत्र ?-प्राणातिपात प्रादि सभी आत्मा के पर्याय होने से प्रात्मा को छोड़ कर अन्यत्र परिणमन नहीं करते; क्योंकि --- - + 3 का अंक शेष दो दृष्टियों-मिथ्याष्टि एवं सम्यगमिथ्यादृष्टि का सूचक है। x 4 का अंक शेष तीन दर्शन-प्रचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल दर्शन का सूचक है। D'जाव' पद से यहाँ 'सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे, केवलनाणे, मतिअनाणे, सुयअनाणे' यह पाठ समझना चाहिए। // 4 का अंक शेष सीन–'निहासना, भयसन्ना मेहुणसन्त्रा' का सूचक है। * 5 का अंक 'वेउठिबयसरीरे, आहारगसरीरे, तेयगसरीरे, कम्मगसरीरे' पाठ का सूचक है। का अंक-'बइजोगे कायजोगे' इस पाठ का सूचक है। Page #2216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पर्याय पर्यायी के साथ कथञ्चित् एक रूप होते हैं, इसलिए ये सब पर्याय आत्मरूप ही हैं, आत्मा से भिन्न पदार्थ में ये परिणत नहीं होते।' गर्भ में उत्पन्न होते हुए जीव में वर्णादिप्ररूपणा 2. जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे कतिवणं कतिगंध ? एवं जहा बारसमसए पंचमुद्देसे (स० 12 उ०५ सु० 36-37) जाव कम्मनो णं जए, णो अकम्मो विभत्तिभावं परिणमति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // वीसइमे सए : तइनो उद्देसओ समत्तो // 20-3 // [2 प्र.] भगवन् ? गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले परिणामों से युक्त होता है ? [2 उ.] गौतम ! बारहवें शतक के पंचम उद्देशक (सू. 36-37) में जैसा कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्---कर्म से जगत् है, कर्म के बिना जीव में विविध (रूप से जगत् का) परिणाम नहीं होता, यहाँ तक (जानना चाहिए / ) 'हे भगवन् ? यह इसी प्रकार है, भगवन् ? यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत प्रश्न किस हेतु से उठाया गया है ? यह जानना आवश्यक है, क्योंकि आत्मा (जीव) स्वभावतः अमूर्त है, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, तो फिर वह वर्णादि परिणाम से कैसे परिणमित हो सकता है ? इस शंका का समाधान यह है कि गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव तेजस एवं कार्मण शरीर से युक्त होता है, तभी बह औदारिक आदि शरीर को ग्रहण करता है शरीर पुद्गलमय है। वह वर्णादियुक्त होता है। इसलिए संसारी जीव वर्णादिविशिष्ट शरीर से कथञ्चित् अभिन्न माना गया है, ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि शरीररूप धर्म से कथंचित् प्रभिन्न जीवरूपी धर्मी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पों वाला होता है ? __ इसके उत्तर में भगवान का उत्तर बारहवें शतक के पंचम उद्देशक में कथित है कि पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श के परिणामों से परिणत शरीर के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध वाला जीव गर्भ में उत्पन्न होता है।" कम्मो णं जए. : तात्पर्य--इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि कर्म से ही जगत् यानी संसार की प्राप्ति होती है / कर्म के अभाव में जीव में विविधरूप से जगत् परिणत नहीं होता 13 // वीसवाँ शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 777 2. भगवती, प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 13, पृ. 532 3. वही, पृ. 533 Page #2217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : 'उवचए' चतुर्थ उद्देशक : 'उपचय' इन्द्रियोपचय के भेदादि की प्ररूपणा 1. कतिविधे णं भंते ! इंदियोवचये पन्नते? गोयमा ! पंचविहे इंदियोवचये पन्नत्ते, तं जहा--सोतिदियउवचए एवं बितियो इंदियउद्देसमो निरवसेसो भाणियब्यो जहा पलवणाए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे जाव विहरइ / // वीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥२०-४॥ [1 प्र. भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.गौतम ! इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-श्रोत्रेन्द्रियोपचय इत्यादि सब वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के (पन्द्रहवें पद के) द्वितीय इन्द्रियोदशक के समान कहना चाहिए। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-इन्द्रियोपचय : स्वरूप और प्रकार-उपचय का अर्थ है-बढ़ना, वृद्धि होना / इन्द्रियाँ पांच हैं, इसलिए उनका उपचय भी पांच प्रकार का है। यह समग्र वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के 15 वें पद के द्वितीय उद्दशक में विस्तृत रूप से किया गया है।' // वीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, सू. 1006-67, पृ. 249.60 (म. जै. विद्या.) (ख) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 13, पृ. 536 Page #2218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'परमाणू' पंचम उद्देशक : परमाणु (प्रादि-विषयक) परमाणु-पुद्गल में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-प्ररूपणा 1. परमाणपोग्गले णं भंते ! कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नसे ? गोयमा ! एगवण्णे एगगंधे एगरसे दुफासे पन्नत्ते। जति एगवण्णे--सिय कालए, सिय नोलए, सिय लोहियए, सिय हालिद्दए, सिय सुक्किलए / जति एगगंधे---सिय सुम्भिगंधे, सिय दुन्भिगंधे / जति एगरसे--सिय तित्ते, सिय कडुए, सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे / जति दुफासे--सिय सोए य मिटे य 1, सिय सीते य लुक्खे य 2, सिय उसिणे य निदेय 3; सिय उसिणे य लुक्खे य 4 / [1 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल कितने वर्ण, गन्ध, रस पौर स्पर्श वाला कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! (वह) एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाला कहा गया है / यथा-यदि एक वर्ण वाला हो तो 1. कदाचित् काला, 2. कदाचित् नीला, 3. कदाचित् लाल, 4. कदाचित् पीला और 5. कदाचित् श्वेत होता है। यदि एक गन्ध वाला होता है तो 6. कदाचित् सुरभिगन्ध और 7. कदाचित् दुरभिगन्ध वाला होता है। यदि एक रस वाला होता है तो 8. कदाचित् तीखा, 6, कदाचित् कटुक, 10. कदाचित् कसैला, 11. कदाचित् खट्टा और 12. कदाचित् मीठा (मधुर) होता है। यदि दो स्पर्श वाला होता है तो 13. कदाचित् शीत और स्निग्ध, 14. कदाचित् शीत और रूक्ष, 15. कदाचित् उष्ण और स्निग्ध पौर 16. कदाचित् उष्ण और रूक्ष होता है। [इस प्रकार परमाणु-पुद्गल में वर्ण के पांच, गन्ध के दो, रस के पांच और स्पर्श के चार, यों कुल मिला कर सोलह भंग पाए जाते हैं।] विवेचन–परमाणु-पुद्गल में प्रविरोधी दो स्पर्श-इसमें शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष, इन चार स्पर्शों में से दो अविरोधी स्पर्श पाये जाते हैं। शेष स्पर्श बादर पुद्गल में ही होते हैं। परमाणु-पुद्गल में नहीं।' द्विप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श को प्ररूपणा 2. दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णे / एवं जहा अट्ठारसमसए छठ्ठद्दसए (स० 18 उ० 6 सु० 7) जाव सिय चउफासे पन्नते। जति एगवण्णे-सिय कालए जाव सिय सुक्किलए। जति दुवणे-सिय कालए य नौलए य 1, सिय 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 782 Page #2219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5] [21 कालए य लोहियए य 2, सिय कालए य हालिद्दए य 3, सिय कालए य सुक्किलए य 4, सिय नीलए य लोहिए य 5, सिय नोलए य हालिद्दए य 6, सिय नीलए य सुविकलए य 7, सिय लोहियए य हालिदए य 8, सिय लोहियए य सुक्किलए य 6, सिय हालिद्दए य, सुश्किलए य १०--एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा। जति एगगंधे-सिय सुम्भिगंधे 1, सिय दुम्भिगंधे 2 / जति दुगंधे-सुन्भिगंधे य दुखिभगंधे य / रसेसु जहा वण्णेसु। जति दुफासे-सिय सीए य निद्धे य-एवं जहेव परमाणुपोग्गले 4 / जति तिफासे-सव्वे सीए, देसे निद्धे, देसे लुक्खे 1; सब्वे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 2; सम्वे निद्ध, देसे सीए, देसे उसिणे 3; सव्वे लुक्खे, देसे सीए, देसे उसिणे 4 / जति चउकासे-देसे सीए, देसे उसिणे, असे निदे, से लुक्खे 1 / 4+4+1= / एते नव भंगा फासेसु / [२प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण, (गन्ध, रस और स्पर्ण) आदि वाला होता है? [2 उ.] गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक (सू. 7) में कथित वर्णन के अनुसार यहाँ भी, यावत् कदाचित् चार स्पर्श वाला तक कहना चाहिए। यदि वह एक वर्ण वाला होता है तो (1-5) कदाचित् काला यावत् श्वेत होता है / यदि वह दो वर्ण वाला होता है तो (6) कदाचित् काला और नीला, (7) कदाचित् काला और लाल, (8) कदाचित् काला और पीला, (9) कदाचित् काला और श्वेत, (10) कदाचित् नीला और लाल, (11) कदाचित् नीला और पीला, (12) कदाचित् नीला और श्वेत, (13) कदाचित् लाल और पीला, (14) कदाचित् लाल और श्वेत और (15) कदाचित् पीला और श्वेत होता है / (इस प्रकार द्विकसंयोगी दस भंग होते हैं / ) यदि वह एक गन्ध वाला होता है तो (16) कदाचित् सुरभिगन्ध, (17) कदाचित् दुरभिगन्ध वाला होता है / यदि दो गन्ध वाला है तो (18) दोनों सुरभिगन्ध मौर दुरभिगन्ध वाला होता है / (19 से 33) जिस प्रकार वर्ण के भंग कहे हैं, उसी प्रकार रस-सम्बन्धी पन्द्रह (असंयोगी 5, द्विकसंयोगी 10) भंग होते हैं। यदि दो स्पर्श वाला होता है तो (34-37) शीत और स्निग्ध इत्यादि चार भंग परमाणुपुद्गल के समान जानना चाहिए। यदि वह तीन स्पर्श वाला होता है तो (38) सर्व शीत होता है, उसका एक देश (यांशिक) स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है, (36) सर्व उष्ण होता है, उसका एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है, (40) (अथवा) सर्व स्निग्ध होता है, उसका एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है, (41) अथवा सर्व रूक्ष होता है, उसका एक देश शीत और एक देश उष्ण होता है, (42) यदि वह चार स्पर्श वाला होता है तो उसका एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है / इस प्रकार स्पर्श के (4+4+1=9) नौ भंग होते हैं। Page #2220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन---द्विप्रदेशी स्कन्ध के बयालीस भंग---द्विप्रदेशी स्कन्ध के जब दोनों प्रदेश एक.वर्ण वाले होते हैं, तब असंयोगी 5 भंग होते हैं। जब दोनों प्रदेश भिन्न वर्ण वाले होते हैं, तब द्विकसंयोगी दस भंग होते हैं / इसी प्रकार जब दोनों प्रदेश एक गन्ध वाले होते हैं, तब असंयोगी दो भंग होते हैं और जब दोनों प्रदेश दो गन्ध वाले होते हैं, तब द्विकसंयोगी एक भंग होता है। इसी प्रकार जब दोनों प्रदेश एक रस वाले हों तो असंयोगी 5 भंग होते हैं और जब दोनों प्रदेश भिन्न-भिन्न दो रस वाले हों तब दस भंग होते हैं / इसी प्रकार स्पर्श के द्विकसंयोगी 4 भंग और त्रिसंयोगी 4 भंग तथा चतुःसंयोगी 1 भंग होता है / इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध में वर्ग के 15, गन्ध के 3, रस के 15, और स्पर्श के 9, ये सब मिला कर 42 भंग होते हैं।' त्रिप्रदेशीस्कन्ध में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श की प्ररूपरणा ___3. तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे० ? जहा अट्ठारसमसए (स० 18 उ० 6 सु० 8) जाव चउफासे पन्नते / जति एगवण्णे-सिय कालए जाव सुक्किलए 5 / जति दुवणे-सिय कालए य नीलए य 1, सिय कालए य नीलगा य 2, सिय कालगा य नीलए य 3; सिय कालए य लोहियए य 1, सिय कालए य लोहियगा य 2, सिय कालगा य लोहियए य 3; एवं हालिइएण वि समं३; एवं सुक्किलएण वि समं 3, सिय नीलए य, लोयिहए य एत्थ वि भंगा 3, एवं हालिद्दएण वि भंगा 3, एवं सुक्किल एण वि समं भंगा 3; सिय लोयिहए य हालिद्दए य, भंगा 3; एवं सुक्किलएण वि समं 3; सिय हालिहए य सुक्किलए य भंगा 3 / एवं सम्वेते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवंति / जति तिवण्णे-सिय कालए य नीलए य लोहियए य 1, सिय कालए य नीलए य हालिद्दए य 2, सिय कालए य नीलए य सुक्किलए य 3, सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य 4, सिय कालए य लोहियए य सुविकलए य 5, सिय कालए य हालिद्दए य सुक्किलए य 6, सिय नीलए य लोहियए य हालिहए य 7, सिय नीलए य लोहियए य मुक्किलए य 8, सिय नीलए य हालिद्दए य सुक्किलए य 6, सिय लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य 10, एवं एए दस तिया संयोगे भंगा / जति एगगंधे--सिय सुम्भिगंधे 1, सिय दुब्भिगंधे 2; जति दुगंधे-- सिय सुभिगंधे य, दुन्भिगंधे य, भंगा 3 / रसा जहा वण्णा। जदि दुफासे--सिय सीए य निद्धे य / एवं जहेव दुपएसियस तहेव चत्तारि भंगा 4 / जति तिफासे-सव्ये सीए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 1; सव्वे सीए, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2; सम्वे सोते, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 3; सव्वे उसिणे, देसे निद्ध, से लुक्खे, एत्थ वि भंगा तिनि 3; सम्वे निद्ध, देसे सोते, देसे उसिणे--भंगा तिनि 3; सब्वे लुक्खे, देसे सोए, देसे उसिणे--भंगा तिन्नि, [12] / जति चउफासे--देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निबे, देसे लक्खे 1; देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2, देसे सीए, वेसे उसिणे, देसा निद्धा, देसे लक्खे 3; देसे सोए, देसा उसिणा, देसे निद्ध, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 782-783 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन (पं. घेरवचन्दजी), भा. 6, पृ. 2847-2848 Page #2221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 5] देसे लुक्खे 4; देसे सीए, देसा उसिणा, देसे निद्धे, देसा लुक्खा 5, देसे सोए, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसे लक्खे 6, देसा सीता, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे 7; देसा सोया, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 8; देसा सीया, देसे उसिणे, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 6 / एवं एए तिपदेसिए फासेसु पणवीसं भंगा। [3 प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाला कहा गया है ? [3 उ.] गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के सू. 8 में कथित वर्णन के अनुसार यावत्-'कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है' तक कहना चाहिए / यदि एक वर्ण वाला होता है तो (5) कदाचित् काला होता है, यावत् श्वेत होता है। यदि ला होता है तो12) उसका एक अंश कदाचित काला और एक अंश नीला होता है, अथवा (2) उसका एक अंश काला और दो अंश नीले होते हैं, या (3) उसके दो अंश काले और एक अंश नीला होता है, अथवा (4) एक अंश काला और एक अंश लाल होता है, या (5) एक देश काला और दो देश लाल होते हैं, अथवा (6) दो देश काले और एक देश लाल होता है। इसी प्रकार काले वर्ण के पीले वर्ण के साथ तीन भंग (पूर्ववत्) जानने चाहिए। तथा काले वर्ण के साथ श्वेत वर्ण के भी तीन भंग जानने चाहिए। इसी प्रकार नीले वर्ण के लाल वर्ण के साथ पूर्ववत तीन भंग कहने चाहिए / इसी प्रकार नीले वर्ण के तीन भंग पीले के साथ और तीन भंग श्वेत वर्ण के साथ जानना चाहिए / तथैव लाल और पीले के भी तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार लाल वर्ण के तीन भंग श्वेत के साथ जानना चाहिए। पीले और श्वेत के भी तीन भंग जानने चाहिए। ये सब दस द्विसंयोगी मिल कर तीस भंग होते हैं। यदि त्रिप्रदेशी स्कन्ध तीन वर्ण वाला होता है तो (1) कदाचित् काला, नीला और लाल होता है, (2) अथवा कदाचित् काला, नीला और पीला होता है, अथवा (3) कदाचित् काला, नीला और श्वेत होता है, या (4) कदाचित् काला, लाल और पीला होता है, अथवा (5) कदाचित् काला, लाल और श्वेत होता है, या (6) कदाचित् काला, पीला और श्वेत होता है, अथवा (7) कदाचित् नीला, लाल और पीला होता है, या (8) कदाचित् नीला, लाल और श्वेत होता है, या (9) कदाचित् नीला, पीला और श्वेत होता है, अथवा (10) कदाचित् लाल, पीला और श्वेत होता है / इस प्रकार ये दस त्रिकसंयोगी भंग होते हैं। यदि एक गन्ध वाला होता है तो (1) कदाचित् सुगन्धित होता है, या (2) कदाचित् दुर्गन्धित होता है। यदि दो गन्ध वाला होता है तो सुगन्धित और दुर्गन्धित के (एक अंश = एकवचन और अनेक अंश - बहुवचन की अपेक्षा से पूर्ववत्) तीन भंग होते हैं। जिस प्रकार वर्ण के (45 भंग होते हैं, उसी प्रकार रस के भी (45 भंग) (कहने चाहिए / ) (त्रिप्रदेशी स्कन्ध) यदि दो स्पर्श वाला होता है, तो कदाचित शीत और स्निग्ध, इत्यादि चार भंग जिस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध के कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भो (4 भंग) समझने चाहिए। जब वह तीन स्पर्श वाला होता है तो (1) सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है, (2) अथवा-सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होता है, अथवा (3) सर्वशीत Page #2222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [ग्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है, या (4) सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। यहाँ भी पूर्ववत् तीन भंग (4-5-6) होते हैं। अथवा कदाचित् सर्व स्निग्ध, एक देश शीत और एक देश उष्ण, यहाँ भी पूर्ववत् तीन भंग कहने चाहिए। अथवा सर्वरूक्ष, एक देश शीत और एक देश उष्ण, इसके भी पूर्ववत् तीन भंग होते हैं। कुल मिला कर त्रिकसंयोगी त्रिस्पर्शी के (3+3+3+3= 12) बारह भंग होते हैं / यदि त्रिप्रदेशीस्कन्ध चार स्पर्श वाला होता है, तो (1) एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा (2) एक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं / अथवा (3) एक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। अथवा (4) एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। या (5) एक देश शीत, अनेक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं / अथवा (6) एक देश शीत अनेक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। या (7) अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष / (4) अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रू न। (8) अथवा अनेक देश शीत, एक देश उष्ण, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है। इस प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्ध में स्पर्श के कुल (4+12+1=25) पच्चीस भंग होते हैं / विवेचन-त्रिप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के एक सौ बीस भंग-त्रिप्रदेशी स्कन्ध में तीन परमाणु (प्रदेश) होते हैं, तथापि तथाविध परिणाम के कारण वे तीनों एक-प्रदेशावगाही, द्विप्रदेशावगाही और त्रिप्रदेशावगाही होते हैं। जब वे एकप्रदेशावगाही होते हैं, तब उनमें अंश की कल्पना नहीं हो सकती। जब वे द्विप्रदेशावगाही होते हैं, तब उनमें दो अंशों की और जब त्रिप्रदेशावगाही होते हैं, तब तीन अंशों की कल्पना हो सकती है। जब तीनों ही प्रदेश काला आदि एक वर्ण-रूप परिणाम वाले होते हैं, तब उनके पांच विकल्प होते हैं। जब दो वर्ण रूप परिणाम होता है, तब एक प्रदेश काला और दो प्रदेश एक प्राकाशप्रदेशावगाही होने से एक अंश नीला होता है, इस प्रकार द्विक-संयोगी प्रथम भंग होता है / अथवा एक प्रदेश काला होता है और दो प्रदेश भिन्न-भिन्न दो आकाश प्रदेशावगाही होने से दो अंश नीले हों, ऐसी विवक्षा हो सकती है। इस प्रकार दूसरा भंग हुमा / इसी प्रकार दो अंश काले हों, और एक अंश नीला हो, इस प्रकार एक द्विकसंयोगी के तीन-तीन भंग होने के कारण दस द्विकसंयोग के तीस भंग होते हैं। गन्ध के एक गन्ध-परिणाम हो, तब दो भंग होते हैं / जब दो गन्ध-परिणाम वाला होता है, तब एक अंश और अनेक अंश की कल्पना से पूर्ववत् तीन भंग होते हैं। वर्ण के समान ही रस-सम्बन्धी द्विकसंयोगी 30 भंग, त्रिसंयोगी 10 भंग और असंयोगी 5 भंग, यों कुल मिलाकर 45 भंग होते हैं / जब त्रिप्रदेशी स्कन्ध के दो स्पर्श होते हैं, तब द्विप्रदेशी के समान चार भंग होते हैं / जब तीन स्पर्श होते हैं तब तीनों प्रदेश शीत होने से सर्वशीत, एक-प्रदेशात्मक एक देश स्निग्ध और द्विप्रदेशात्मक एक देश रूक्ष होता है / यह प्रथम भंग है। इसी प्रकार सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और Page #2223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 5] [25 अनेकदेश रूक्ष, यह दूसरा भंग है / तथा सर्वशीत, अनेकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष, यह तीसरा भंग है / इस प्रकार तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार सर्वउष्ण, सर्वस्निग्ध और सर्वरूक्ष के साथ भी तीन-तीन भंग जानने चाहिए / त्रिप्रदेशी स्कन्ध के चार स्पर्श के सर्व-अंश एकवचन में हों, तब प्रथम भंग बनता है। जैसे—एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष / इनमें से अन्तिम रूक्ष पद को अनेकवचन में रखने पर दूसरा भंग बनता है, अर्थात्--दो परमाणुरूप एकदेश शीत और परमाणुरूप एकदेश उष्ण, फिर दो शीतपरमाणुओं में एक परमाणु स्निग्ध और दूसरा शीत, परमाणुओं में से एक परमाणु तथा उष्ण परमाणुरूप एकदेश, ये दो अंश रूक्ष / जब तीसरे 'स्निग्ध' पद को अनेकवचन में रखा जाय, तब तीसरा भंग बनता है। यथा-एक परमाणुरूप देश शीत, दो परमाणुरूप दो उष्ण, और जो शीत है, वह परमाणु और दो उष्ण परमाणुओं में से एक परमाणु, ये दोनों स्निग्ध तथा जो एक उष्ण है, वह रूक्ष होता है। दूसरे 'उष्ण' पद में अनेकवचन रखने पर चौथा भंग बनता है / यथा-स्निग्ध दो परमाणुरूप एकदेश शीत और एक परमाणुरूप दूसरा अंश रूक्ष, स्निग्ध दो परमाणों में से एक परमाणरूप अश तथा रूक्ष अंश, ये दोनों उष्ण होते है। पांचवाँ भंग इस प्रकार है-एक अंश शीत और स्निग्ध तथा दूसरे दो अंश उष्ण और रूक्ष / छठा भंग इस प्रकार है---एक अंश शीत और रूक्ष तथा दूसरे दो अंश-उष्ण और स्निग्ध / सातवाँ भंग इस प्रकार है-स्निग्धरूप दो परमाणुओं में से एक और दूसरा एक, इस प्रकार दो अंश शीत और शेष एक अंश उष्ण तथा एक अंश स्निग्ध और रूक्ष होता है। पाठवाँ भंग यों है-दो अंश शीत और रूक्ष तथा एक अंश उष्ण और स्निग्ध / नौवाँ भंग इस प्रकार है--भिन्न देशवर्ती दो परमाणु शीत और स्निग्ध, तथा एक अंश उष्ण और रूक्ष होता है। इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध के स्पर्श-सम्बन्धी पच्चीस भंग होते हैं / इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण के 45, गन्ध के 5, रस के 45 और स्पर्श के 25, ये सब मिल कर 120 भंग होते हैं। चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श की प्ररूपणा 4. चउपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे ? जहा प्रद्वारसमसए (स०८ उ०६ सु० 6) जाव सिय चउफासे पन्नत्ते / जति एगवण्णे--- सिय कालए य जाव सुक्किलए 5 / जति दुवष्णे-सिय कालए य, नीलए य 1; सिय कालए य, नीलगाय 2; सिय कालगा य, नीलए य 3; सिय कालगा य, नीलगा य 4; सिय कालए य, लोहियए य, एत्थ वि चत्तारि भंगा 4; सिय कालए य, हालिहए य 4; सिय कालए य, सुक्किलए य 4; सिय नीलए य, लोहियए य 4; सिय नीलए य, हालिद्दए य 4; सिय नीलए य, सुक्किलए य 4; सिय लोहियए य, हालिद्दए य 4; सिय लोहियए य, सुविकलए य 4; सिय हालिद्दए य, 3. (क) भगवती. चतुर्थ खण्ड (गु. अनुवाद) (पं. भगवानदासजी) पृ. 101 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) (पं. घेवरचन्दजी) भा. 1, पृ. 2852-53 Page #2224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सुक्किलए य 4; एवं एए दस दुयासंजोगा, भंगा पुण चत्तालीसं 40 / जति तिवण्णे-सिय कालए य, नोलए य, लोहियए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य 2; सिय कालए य, नीलगा य लोहियए य, 3; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य 4; एए भंगा 4 / एवं काल-नीलहालिद्दएहि भंगा 4; काल-नील-सुविकल० 4; काल-लोहिय-हालिह० 4; काल-लोहिय-सुक्किल. 4; काल-हालिद्द-सुक्किल० 4; नील-लोहिय-हालिहगाणं भंगा 4; नील-लोहिय-सुक्किल० 4; नील-हालिद्द-सुक्किल० 4; लोहिय-हालिद्द-सुक्किलगाणं भंगा 4; एवं एए दस तियगसंजोगा, एक्केक्के संजोए चत्तररि भंगा, सन्वेते चत्तालीसं भंगा 40 / जति चउवण्णे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, सुक्किलए य 2; सिय कालए य, नीलए य, हालिद्दए य, सुक्किलए य 3; सिय कालए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलए य 4; सिय नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुषिकलए य; एवमेते चउक्कगसंयोए पंच भंगा। एए सब्वे नउभंगा। ___ जदि एगगंधे--सिय सुन्भिगंधे 1, सिय दुन्भिगंधे 2 / जदि दुगंधे-सिय सुन्भिगंधे य, सिय दुखिभगंधे य। रसा जहा वण्णा। जइ दुफासे—जहेव परमाणुपोग्गले 4 / जइ तिफासे–सम्वे सीते, देसे निद्धे, देसे लुषखे 1; सव्वे लोए, देसे निद्धे, देसा लुक्खा 2; सव्वे सीए, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 3; सव्वे सीए, देसा निद्धा देसा लुक्खा 4 / सन्वे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुबखे, एवं भंगा४। सम्वे निद्धे, देसे सीए, देसे उसिणे 4 / सच्चे लुक्खे, देसे सीए, देसे उसिणे 4 / एए तिफासे सोलसभंगा। जति चउफासे-देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे 1; देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसा लुक्खा 2; देसे सीए, देसे उसिणे, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 3; देसे सीए, देसे उसिणे, देसा निद्धा, देसा लुक्खा 4; देसे सोए, देसा उसिणा देसे निद्ध, देसे लुक्खे 5; देसे सीए, देसा उसिणा, देसे निद्धे, देसा लुक्खा 6; देसे सीए, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 7; देसे सीए, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसा लुक्खा 8 / देसा सोया, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे :---एवं एए चउफासे सोलस भंगा भाणियव्वा जाव देसा सीया, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसा लुक्खा। सम्वेते फासेसु छत्तीसं भंगा। [4 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? [4 उ.] गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशकवत् यावत्-'वह कदाचित् चार स्पर्श वाला है', तक कहना चाहिए / यदि वह एक वर्ण बाला होता है तो कदाचित् काला, यावत् श्वेत होता है। जब दो वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् उसका एक अंश काला और एक अंश नीला होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला और अनेकदेश नीले होते हैं, (3) कदाचित् अनेकदेश काले और एकदेश नीला होता है, (4) कदाचित अनेक देश काले और अनेक देश नीले होते हैं। (5-8) अथवा Page #2225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 5 [27 कदाचित एक देश काला और देश लाल होता है; यहाँ भी पूर्ववत् चार भंग कहने चाहिए। (9-12) अथवा कदाचित् एक देश काला और एक देश पीला; इत्यादि पूर्ववत् चार भंग कहने चाहिए / इसी तरह (13-16) अथवा कदाचित् एक अंश काला और एक अंश श्वेत, इत्यादि पूर्ववत् चार भंग कहने चाहिए। (17-20) अथवा कदाचित् एक अंश नीला और एक अंश लाल आदि पूर्ववत् चार भंग / (21-24) कदाचित् नीला और पीला के पूर्ववत् चार भंग। (25-28) कदाचित् नीला और श्वेत के पूर्ववत् चार भंग। फिर (29-32) कदाचित् लाल और पीला के पूर्ववत् चार भंग / (33-36) कदाचित् लाल और श्वेत के पूर्ववत् चार भंग / इसी प्रकार (37-40) अथवा कदाचित् पीला और श्वेत के भी चार भंग कहने चाहिए / यों इन दस द्विकसंयोग के 40 भंग होते हैं। यदि वह तीन वर्ण वाला होता है तो-(१) कदाचित् काला, नीला और लाल होता है, अथवा (2) कदाचित् एक अंश काला, एक अंश नीला और अनेक अंश लाल होते हैं, अथवा (3) कदाचित् एक देश काला, अनेक देश नीला और एक देश लाल होता है / अथवा (4) कदाचित् अनेक देश काले, एक देश नीला और एक देश लाल होता है। इस प्रकार प्रथम त्रिकसंयोग के चार भंग होते हैं। (5-8) इसी प्रकार द्वितीय त्रिकसंयोग-काला, नीला और पीला वर्ण के चार भंग, (6-12) तृतीय त्रिकसंयोग–काला, नीला और श्वेत वर्ण के चार भंग, (13-16) काला, लाल और पीला वर्ण के चार भंग, (17-20) काला, लाल और श्वेत वर्ण के चार भंग, (21-24) अथवा काला, पीला और श्वेत वर्ण के चार भंग, (25-28) अथवा नीला, लाल और पीला वर्ग के चार भंग, (26-32) या नीला, लाल और श्वेत वर्ण के चार भंग; (33-36) अथवा नीला, पीला और श्वेत वर्ण के चार भंग, (37-40) अथवा कदाचित् लाल, पीला और श्वेत वर्ण के चार भंग होते हैं। इस प्रकार 10 त्रिकसंयोगों के प्रत्येक के चार-चार भंग होने से सब मिला कर 40 भंग हुए। यदि वह चार वर्ण वाला है तो (1) कदाचित् काला, नीला, लाल और पीला होता है, (2) कदाचित काला, लाल, नीला और श्वेत होता है, (3) कदाचित् काला, नीला, पीला और श्वेत होता है, (4) अथवा कदाचित काला, लाल, पीला और श्वेत होता है, (5) अथवा कदाचित् नीला, लाल पीला और श्वेत होता है / इस प्रकार चतुःसंयोगी के कुल पांच भंग होते हैं। इस प्रकार चतुःप्रदेशी स्कन्ध के एक वर्ण के असंयोगी 5, दो वर्ण के द्विकसंयोगी 40, तीन वर्ण के त्रिकसंयोगी के 40 और चार वर्ण के चतु:संयोगी 5 भंग हुए / कुल मिलाकर वर्णसम्बन्धी 90 भंग हुए। यदि वह चतुःप्रदेशी स्कन्ध एक गन्ध बाला होता है तो (1) कदाचित् सुरभिगन्ध और (2) कदाचित् दुरभिगन्ध वाला होता है। यदि वह दो गन्ध वाला होता है तो कदाचित् सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध वाला होता है, इसके (एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा से) चार भंग होते हैं / इस प्रकार गन्ध-सम्बन्धी कुल 6 भंग होते हैं / जिस प्रकार वर्ण सम्बन्धी (60 भंग कहे गए हैं) उसी प्रकार रस-सम्बन्धी (60 भंग कहने चाहिए)। यदि वह (चतुष्प्रदेशी स्कन्ध) दो स्पर्श वाला होता है, तो उसके परमाणपुद्गल के समान चार भंग कहने चाहिए। यदि वह तीन स्पर्श वाला होता है तो, (1) सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और Page #2226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] ( তাসসির एक देश रूक्ष होता है, (2) अथवा सर्वशीत, एक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं, (3) अथवा सर्वशीत, अनेक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष होता है, अथवा (4) सर्वशीत, अनेक देश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष होते हैं / (इस प्रकार ये सर्वशीत के 4 भंग हुए / ) इसी प्रकार सर्व उष्ण, एक देश स्निग्ध और एक देश रूक्ष इत्यादि चार भंग होते हैं / तथा सर्व स्निग्ध, एक देश शीत और एक देश उष्ण, इत्यादि के चार भंग होते हैं, अथवा सर्वरूक्ष, एक देश शीत और एक देश उष्ण, इत्यादि के भी चार भंग होते हैं। कुल मिला कर तीन स्पर्श के त्रिसंयोगी 16 भंग होते हैं। यदि वह चार स्पर्श वाला हो तो (1) उसका एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। (2) अथवा एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं। (3) अथवा एकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। अथवा (4) एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होता है। (5) अथवा एकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। अथवा (6) एकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं। अथवा (7) एकदेश शीत, अनेक देश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। अथवा (8) एकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं। अथवा (8) अनेकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। इस प्रकार चार स्पर्श के सोलह भंग, यावत्-अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं, (यहाँ तक कहने चाहिए)। इस प्रकार द्विक-संयोगी 4, त्रिकसंयोगी 16 और चतु:संयोगी 16, ये सब मिल कर स्पर्श सम्बन्धी 36 भंग होते हैं। विवेचन-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के वर्णादि-सम्बन्धी दो सौ बाईस भंग-प्रस्तुत सूत्र में चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के 60, गन्ध के 6, रस के 90 और स्पर्श के 36, ये सब मिलकर 222 भंग होते हैं। चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के रससम्बन्धी 60 भंग-रस के द्विकसंयोगी और त्रिकसंयोगी दस-दस भंग होते हैं और एक-एक संयोग में एकवचन और अनेक वचन द्वारा चतुर्भगी होने से 10x2 =20 को चार गुना (2044) करने से इसके कुल 80 भंग होते हैं। चतु:संयोगी भंग के अंक क्रम से 5 भंग निम्नोक्त रेखाचित्र के अनुसार जानना१ तीखा, 2 कडुया, 3 कसैला, 4 खट्टा, 5 मीठा इस प्रकार चतुःसंयोगी 5 भंग और असंयोगी 5 भाग मिलाने से रस के कुल 10+10x4 = 80+5+5= 60 भंग होते हैं। चार स्पर्श के 16 भंग-चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में चार स्पर्श वाले 16 भंग होते हैं। उनमें से है भंग तो मूलपाठ में कहे गए हैं। शेष 7 भंग इस प्रकार हैं-(१०) अनेकदेश शीत, एकदेश, उष्ण, एक देश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष / (11) अनेकदेश शीत, एकदेश उष्ण, अनेकदेश स्तिग्ध और एकदेश रूक्ष / (12) अथवा अनेकदेश शीत, एकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष / (13) अथवा अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध, एकदेश रूक्ष / (14) अथवा अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष, (15) अथवा अनेकदेश शीत, | ا ل ا لله أني | Page #2227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5] [29 अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष / अथवा (16) अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेक देश रूक्ष / 4 . पंध-प्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि की प्ररूपरणा ५.पंचपदेसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे ? जहा प्रद्वारसमसए (स० 18 उ० 6 सु०१०) जाव सिय चउकासे पन्नत्ते / जति एगवणे, एगवण्णदुवण्णा जहेब चउपदेसिए / जति तिवाणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य 1; सिय कालए य, नोलए य, लोहियगा य 2; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियए य 3; सिय कालए य; नीलगा य, लोहिगा य 4; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य 5; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगा य 6; सिय कालगा य, नीलगा य, लोहियए य 7 / सिय कालए य, नीलए य, हालिद्दए य, एत्थ वि सत्त भंगा 7 / एवं कालग-नीलग-सुक्किलएसु सत्त भंगा 7; कालग-लोहिय-हालिद्देसु 7, कालगलोहिय-सुविकलेसु 7, कालग-हालिह-सुक्किलेसु 7, नीलग-लोहिय-हालिद्देसु 7, नीलग-लोहियसुक्किलेसु सत्त भंगा 7; नीलग-लोलिद्द-सुविकलेसु 7; लोहिय-हालिद्द-सुक्किलेसु वि सत्त भंगा 7; एवमेते तियासंजोएण सत्तरि भंगा / जति चउवणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिहए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दगा य 2; सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य, हालिहगे य 3; सिय कालए य, नीलगाय, लोहियगे य, हालिद्दए य 4; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगे य, हालिद्दए य ५--एए पंच भंगा; सिय कालए य, नोलए य, लोहियए य, सुविकलए य-एत्थ वि पंच भंगा; एवं कालग-नीलग-हालिद्द-सुविकलेसु वि पंच भंगा; कालग-लोहिय-हालिद्दसुक्किलएसु वि पंच भंगा 5; नीलग-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलेसु वि पंच भंगा; एवमेते चउक्कगसंजोएणं पणुवीसं भंगा। जति पंचवण्णे-कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुकिल्लए यसम्वमेते एक्कग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएणं ईयालं भंगसयं भवति / गंधा जहा चउपएसियस्त / रसा जहा वण्णा। फासा जहा चउपदेसियरस / [5 प्र०] भगवन् ! पंचप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला है; इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् ? [5 उ०] गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक के अनुसार, यावत् --'बह कदाचित् चार स्पर्श वाला कहा गया है'; तक जानना चाहिए। यदि वह एक वर्ण वाला या दो वर्ण वाला होता है, तो चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान (उसके 5 और 40 भंग क्रमशः जानना चाहिए)। जब वह तीन वर्ण वाला होता है तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला और एकदेश लाल होता है; (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला 4 (क) भगवती. चतुर्थ खण्ड (गु. अनुवाद) (पं. भगवानदासजी) पृ. 103-104 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 6 (पं घेवरचंदजी) पृ. 2858 Page #2228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और अनेकदेश लाल होता है, (3) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला और एकदेश लाल होता है; (4) कदाचित एकदेश काला, अनेकदेश नीला और अनेकदेश लाल होते हैं, (5) अथवा कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला और एकदेश लाल होता है। (6) अथवा अनेकदेश काला एकदेश नीला और अनेकदेश लाल होते हैं / (7) अथवा अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला और एकदेश लाल होता है / (8-14), अथवा कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला और एकदेश पीला होता है। इस त्रिक-संयोग से भी सात भंग होते हैं। (15-21) इसी प्रकार काला, नीला और श्वेत के भी सात भंग होते हैं। (22-28) (इसी प्रकार) काला, लाल और पीला के भी सात भंग होते हैं / (26-35) काला, लाल और श्वेत के सात भंग होते हैं / अथवा (36-42) काला, पीला और श्वेत के भी सात भंग होते हैं / अथवा (43-49) नीला, लाल और पीला के भी सात भंग होते हैं ! अथवा (50-56) नीला, लाल और श्वेत के सात भंग होते हैं / अथवा (57-63) नीला, पीला और श्वेत के सात भंग होते हैं / अथवा (64-70) लाल, पीला और श्वेत के सात भंग होते हैं / इस प्रकार दस त्रिक-संयोगों के प्रत्येक के सात-सात भंग होने से 70 भंग होते हैं। यदि वह चार वर्ण वाला हो तो, (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है / (2) अथवा एकदेश काला, नीला और लाल तथा अनेकदेश पीला होता है / (3) अथवा कदाचित् एकदेश काला, नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है / (4) अथवा एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है। (5) अथवा अनेकदेश काला, एकदेश नीला एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है। इस प्रकार चतुःसंयोगी पांच भंग होते हैं / इसी प्रकार (6-10) कदाचित् एकदेश काला, नीला, लाल और श्वेत के भी पांच भंग (पूर्ववत्) होते हैं / (11-15) तथैव एकदेश काला, नीला, पीला और श्वेत के भी पांच भंग होते हैं। इसी प्रकार (16-20) अथवा काला, लाल, पीला और श्वेत के होते हैं / अथवा (21-25) नीला. लाल पीला और श्वेत के पांच भंग होते हैं। इस प्रकार चतुःसंयोगी पच्चीस भंग होते हैं / यदि वह पांच वर्ण वाला हो तो काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत होता है / इस प्रकार असंयोगी 5, द्विकसंयोगी 40, त्रिकसंयोगी 70, चतु:संयोगी 25, और पंचसंयोगी एक, इस प्रकार सब मिल कर वर्ण के 141 भंग होते हैं। गन्ध के चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान यहाँ भी 6 भंग होते हैं / वर्ण के समान रस के भी 141 भंग होते हैं / स्पर्श के 36 भंग चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान होते हैं। विवेचन-पञ्चप्रदेशो स्कन्ध के वर्णादि-सम्बन्धी तीन सौ चौबीस भंग-~-पंचप्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के 141, गन्ध के 6, रस के 141, और स्पर्श के 36, ये कुल मिला कर 324 भंग होते हैं। षट्प्रदेशी-स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 6. छप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवण्णे० ? एवं जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे पन्नत्ते / जदि एगवण्णे, एगवण्ण-दुवण्णा जहा पंचपदेसियस्स / जति तिवणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य-एवं जहेब पंच पएसियस्स Page #2229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 5] [31 सत्त भंगा जाब सिय कालगाय, नीलगाय, लोहियए य 7; सिय कालगा य, नीलगा य, लोहियगा य 8, एए अट्ठ भंगा; एवमेते दस तियासंजोगा, एक्केक्के संजोगे अट्ठ भंगा; एवं सब्वे वि तियगसंजोगे असीतिभंगा। जति चउवण्णे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दगा य 2; सिय कालए य, नीलए य, लोहिगा य, हालिद्दए य 3 सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दगा य, 4; सिय कालए य नीलया य, लोहियए य, हालिद्दए य 5; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियए य, हालिहगा य६; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियगा य, हालिद्दए य 7; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य 8; सिय कासगा य, नीलए य, लोहियए य, हालिहगा य; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगा य, हालिइए य 10; सिय कालगा य, नीलगाय, लोहियए य, हालिद्दए य 11; एए एक्कारस भंगा। एवमेए पंच चउक्का संजोगा कायव्वा, एक्केक्के संजोए एक्कारस भंगा, सव्वेते चउक्कगसंजोएणं पणपन्नं भंगा / जति पंचवणे--सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुविकलए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलगा य 2; सिय कालए य नीलए घ लोहियए य हालिद्दगा य सुविकलए य 3; सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुक्किलए य 4; सिय कालए य नीलगा य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलए य 5; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगे य, हालिद्दए य, सुश्किलए य 6; एवं एए छन्भंगा भाणियन्या। एवमेते सव्वे वि एक्कगदुयग-तियग-चउक्कग-पंचग-संजोएसु छासीयं भंगसयं भवति / गंधा जहा पंचपएसियस्स। रसा जहा एयरसेव वण्णा। फासा जहा चउप्यएसियस्त / [6 प्र०] भगवन् ! षट्-प्रदेशिक स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है; इत्यादि पूर्ववत प्रश्न ? [6 उ०] गौतम ! जिस प्रकार पंचप्रदेशी स्कन्ध के (वर्णादि के विषय में कहा है, उसी प्रकार (यहाँ भी) यावत्-कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है, तक (जानना चाहिए।) यदि वह एक वर्ण और दो वर्ण वाला है तो एक वर्ण के 5 और दो वर्ण के 4 भंग पंच-प्रदेशी स्कन्ध के समान होते हैं। यदि वह तीन वर्ण वाला हो तो कदाचित काला, नीला और लाल होता है, इत्यादि, जिस प्रकार पंच-प्रदेशिक स्कन्ध के, यावत-'कदाचित अनेकदेश काला, अ और एकदेश लाल होता है, तक सात मंग कहे हैं, वे उसी प्रकार समझने चाहिए, आठवाँ भंग इस प्रकार है-(८) कदाचित् अनेकदेश काला, नीला और लाल होते हैं / इस प्रकार ये दस त्रिकसंयोग होते हैं। प्रत्येक त्रिकसंयोग में 8 भंग होते हैं। अतएव सभी त्रिकसंयोगों के कुल मिला कर (8 x 10 = ) 80 भंग होते हैं / यदि वह चार वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल Page #2230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र और अनेकदेश पीला होता है (3) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (4) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है, (5) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (6) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है, (7) कदाचित् एकदेश काला अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है। (8) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है; (6) कदाचित अनेकदेश काला. एकदेश नीला, एकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता अथवा (10) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, अथवा (11) कदाचित् अनेकदेश काला अनेकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है / इस प्रकार ये चतुःसंयोगी ग्यारह भंग होते हैं / यों पांच चतुःसंयोग कहने चाहिए। प्रत्येक चतुःसंयोग में ग्यारह-ग्यारह भंग होते हैं / सब मिलकर ये 1145 = 55 भंग होते हैं। यदि वह पांच वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (2) कदाचित एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (3) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (4) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (5) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, अथवा (6) कदाचित् अनेकदैश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है / इस प्रकार ये छह भंग कहने चाहिए। इस प्रकार असंयोगी 5, द्विक संयोगी 40, त्रिक-संयोगी 80, चतुःसंयोगी 55 और पंचसंयोगी 6, यो सब मिला कर वर्णसम्बन्धी 186 भंग होते हैं। गन्धसम्बन्धी छह भंग पंचप्रदेशी स्कन्ध के समान (समझने चाहिए।) रससम्बन्धी 186 भंग इसी के वर्णसम्बन्धी भंग के समान (कहने चाहिए।) स्पर्शसम्बन्धी 36 भंग चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान जानने चाहिए। विवेचन --षट्प्रदेशी-स्कन्ध के वर्णादिविषयक चार-सौ चौदह भंग-पट-प्रदेशीस्कन्ध के वर्ण के 186, गन्ध के 6, रस के 186, और स्पर्श के 36, यों कुल मिलाकर 414 भंग होते हैं। सप्तप्रदेशी-स्कन्ध में वर्णादि भंगों का निरूपण 7. सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे ? जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे पन्नत्ते / जति एगवण्णे, एवं एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्णा जहा छप्पएसियस्स / जइ चउवणे --सिय कालए य, नीलए य, लोहियए, य, हालिद्दए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिहगा य 2; सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दए य 3; एवमेते चउक्कगसंजोएणं पन्नरस भंगा भाणियन्या जाव सिय कालगाय, नीलगाय, लोहियगा य, हालिद्दए य 15 / एवमेते पंच चउक्का संजोगा नेयव्वा; एक्केक्के संजोए पन्नरस भंगा-सवमेते पंचसत्तरि भंगा भवंति / जति पंचवणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, Page #2231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोसवां शतक : उद्देशक 5] [33 सुक्किलगा य 2; सिय कालए ब, नोलए य, लोहियए य, हालिगा य, सुक्किलए य 3; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दगा य, सुकिल्लगा य 4; सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुक्किलए य 5; सिय कालए य, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुक्किलगा य 6; सिय कालए य, नोलए य, लोहियगा य, हालिहंगा य, सुक्किलए य 7; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियगे य, हालिदए य, सुक्किलए य 8; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलगाय; सिय कालए य, नीलगा य, लोहियए य, हालिद्दगा य, सुक्किलए य 10; सिय कालए य, नीलगाय, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुविकलए य 11; सिय कालगाय, नीलए य, लोहियए य, हालिहए य, सुक्किलए य 12; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलगा य 13; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य, हालिहंगा य, सुषिकलए य 14; सिय कालगाय, नीलगे य, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुक्किलए य, 15; सिय कालगाय, नीलगा य, लोहियए य, हालिहए य, सुक्किलए य 16, एए सोलस भंगा / एवं सबमेते एक्कग-दुयगतियग-चउक्कग-पंचग-संजोगेणं दो सोला भंगसता भवंति / गंधा जहा चउप्पएसियस्स / रसा जहा एयरस चेव वण्णा / फासा जहा चउप्पएसियरस / [7 प्र.] भगवन् ! सप्त-प्रदेशी-स्कन्ध कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का होता है, इत्यादि प्रश्न ? 7 उ.] गोतम ! पंच-प्रदेशिक-स्कन्ध के समान, यावत् 'कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है' तक कहना चाहिए। यदि वह एक बर्ण, दो वर्ण अथवा तीन वर्ग वाला हो तो षट्प्रदेशी स्कन्ध के एक वर्ण, दो वर्ण एवं तीन वर्ण के भंगों के समान जानना चाहिए। यदि वह चार वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और प्रनेकदेश पीला होता है, (3) कदाचित एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (4) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है। इस प्रकार चतुष्क-संयोग में यावत् कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, तक ये पन्द्रह भंग होते हैं। इस प्रकार पांच चतुःसंयोगी भंग होते हैं। एक-एक चतुष्कसंयोग में पन्द्रह-पन्द्रह भंग होते हैं। सब मिल कर ये 75 भंग होते हैं। यदि वह पाँच वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (3) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (4) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (5) कदाचित् एकदेश Page #2232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] व्याख्याप्राप्तिसूत्र काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और. एकदेश श्वेत होता है, (6) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल और एकदेश पीला तथा अनेकदेश श्वेत होता है, (7) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, अतेकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (8) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (9) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (10) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश शुक्ल होता है, (11) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एक देश श्वेत होता है, (12) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (13) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (14) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (15) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (16) कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश शुक्ल होता है / इस प्रकार सोलह भंग होते हैं / अर्थात्-असंयोगी 5, द्विकसंयोगी 40, त्रिसंयोगी 80, चतु:संयोगी 75 और पंचसंयोगी 16 भंग होते हैं / कुल मिलाकर वर्ण के 216 भंग होते हैं / गन्ध के छह भंग चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान होते हैं। रस के 216 भंग इसी के वर्ण के समान कहने चाहिए। स्पर्श के भंग 36 चतुःप्रदेशी स्कन्ध के समान कहने चाहिये। विवेचन--सप्त-प्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि-विषयक चार सौ चौहत्तर भंग-सप्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के 216, गन्ध के 6, रस के 216 और स्पर्श के 36, यों कुल मिला कर 474 भंग होते हैं। पष्टप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि-भंगों का निरूपण 8. अट्ठपदेसियरस णं भंते ! खंधे० पुच्छा। गोयमा ! सिय एगवणे जहा सत्तपदेसियस्स जाव सिय चतुफासे पन्नत्ते। जति एगवण्णे, एवं एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्णा जहेव सत्तपएसिए / जति चउवणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य१; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिहगा य 2; एवं जहेव सत्तपदेसिए जाव सिय कालगा य, नीलगा य, लोहियगा य, हालिद्दगे य 15, सिय कालगा य, नीलगाय, लोहियगा य, हालिद्दगा य 16; एए सोलस भंगा। एवमेते पंच चउक्कगसंजोगा; सत्यमेते असीति भंगा 80 / जति पंचवण्णे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलए य१, सिय कालगे य, नीलो य, लोहियगे य, हालिदए य, सुक्किलगा य 2; एवं एएणं कमेणं भंगा चारेयव्या जाव सिय कालए य, नीलगा य, लोहियगा य, हालिद्दगा य, सुक्किलगे य 15-- एसो पन्नरसमो भंगो; सिय कालगाय, नोलए य, लोहियए य, हालिइए य, सुक्किलए य 16, सिय कालगा. य, नीलए य, लोहियए य, हालिद्दए य, सुक्किलगा य 17; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियए य हालिद्दगा य, मुक्किलए य 18; सिय कालगा य, नीलगे य, लोहियए य, हालिद्दगा य, सृषिकलगा Page #2233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसका शतक : ग्हेशक 5] य१९; सिय कालगाय, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुविकलए य 20; सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुक्किलगा य 21, सिय कालगा य, नीलए य, लोहियगाय, हालिद्दगा य, सुश्किलए य 22; सिय कालगा य, नीलगाय, लोहियगे य, हालिद्दए य, सुश्किलगे य 23; सिय कालगाय, नीलगाय, लोहियए य, हालिदए य, सुक्किलगा य 24; सिय कालगा य, नीलगाय, लोहियए य, हालिद्दगा य, सुक्किलए य 25, सिय कालगाय, नीलगाय, लोहियगा य, हालिद्दए य, सुक्किलए य 26; एए पंचगसंजोएणं छन्वीसं भंगा भवंति। एवामेव संपुटवावरेणं एक्कग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएहिं दो एक्कतीसं भंगसया भवंति। गंधा जहा सत्तपएसियस्स / रसा जहा एयस्स चेव वण्णा। फासा जहा चउपएसियस्स। [8 प्र.] भगवन् ! अष्टप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है ? इत्यादि प्रश्न ! [8 उ.] गौतम ! जब वह एक वर्ण वाला होता है, इत्यादि वर्णन सप्तप्रदेशी स्कन्ध के समान यावत्--कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है, इत्यादि कहना चाहिए। यदि एक वर्ण, दो वर्ण या तीन वर्ण वाला हो तो सप्तप्रदेशी स्कन्ध के एक वर्ण, द्विवर्ण एवं त्रिवर्ण के समान भंग कहने चाहिए। यदि वह चार वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और एकदेश पीला होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है; इस प्रकार सप्तप्रदेशी स्कन्ध के समान पन्द्रह भंग यावत्--(पन्द्रहवाँ भंग), कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल एवं एकदेश पीला, तथा गोलहवां भंग) कदाचित अनेकदेश काला. अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है; तक जानना चाहिए / एक चतुःसंयोग में सोलह भंग होते हैं। इस प्रकार इन पांच चतु:संयोगों के प्रत्येक के सोलह-सोलह भंग होने से 5416-80 भंग होते हैं। ___ यदि वह पाँच वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है। इस प्रकार इस क्रम से यावत्-(१५) कदाचित् एकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल और अनेकदेश पीला होता है, इस पन्द्रहवें भंग तक कहना चाहिए। (16) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (17) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (18) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल और अनेकदेश पीला तथा एकदेश श्वेत होता है, (19) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (20) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (21) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (22) कदाचित् अनेकदेश काला, एकदेश नीला, अनेकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (23) कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता Page #2234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याशाप्रजाप्तिसूत्र है, (24) कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है, (25) कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, एकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, अथवा (26) कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है / इस प्रकार पंचसंयोगी छब्बीस भंग होते हैं। इसी प्रकार कुल मिला कर वर्ण के क्रमश:-असंयोगी 5, द्विक-संयोगी 40, त्रिक-संयोगी 80, चतु:संयोगी 80 और पंच-संयोगी 26, यों वर्णसम्बन्धी कुल 231 भंग होते हैं / गन्ध के सप्तप्रदेशी स्कन्ध के समान 6 भंग होते हैं। रस के इसी स्कन्ध के वर्ण के समान 231 भंग होते हैं। स्पर्श के चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के 36 भंग होते हैं। विवेचन-अष्टप्रदेशी स्कन्ध के वर्णादिविषयक पांच सौ बार भंग–अष्टप्रदेशीय स्कन्ध के विषय में वर्ण के 231, गन्ध के 6, रस के 231 प्रौर स्पर्श के 36, ये कुल मिला कर 504 भंग होते हैं। नवप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 6. नवपदेसियस्स० पुच्छा। गोयमा ! सिय एगवणे जहा अट्ठपएसिए नाव सिय चउफासे पन्नते। जति एगवणे, एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्ण-चउवण्णा जहेव भट्ठपएसियस्स / जति पंचवणे-सिय कालए य, नीलए य, लोहियए प, हालिद्दए य, सुक्किलए य 1; सिय कालए य, नीलए य, लोहियए य, हालिदए य, सुक्किलगा य 2; एवं परिवाडीए एक्कतीसं भंगा भाणियव्वा जाव सिय कालगाय, नीलगाय, लोहियगा य, हालिद्दगा य, सुक्किलए य; एए एक्कत्तीसं भंगा / एवं एक्कग-वुयग-तियगचउक्कग-पंचगसंजोएहि दो छत्तीसा भंगसया भवति / गंधा जहा अट्ठपएसियस्स। रसा जहा एयस्स चेव वण्णा। फासा जहा चउप्पएसियस्स / [प्र.] भगवन् ! नव-प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है ? इत्यादि प्रश्न ? [6 उ.] गौतम ! अष्टप्रदेशी स्कन्ध के समान, कदाचित् एकवर्ण (से लेकर) यावत्--- कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है; तक कहना चाहिए। यदि वह एक वर्ण, दो वर्ण, तीन वर्ण अथवा चार वर्ण वाला हो तो उसके भंग अष्टप्रदेशी स्कन्ध के (एक वर्ण, दो वर्ण, तीन वर्ण और चार वर्ण के) समान (कहने चाहिए / ) यदि वह पांच वर्ण वाला होता है, तो (1) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (2) कदाचित् एकदेश काला, एकदेश नीला, एकदेश लाल, एकदेश पीला और अनेकदेश श्वेत होता है। इस प्रकार इस क्रम से यावत्-कदाचित् अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश लाल, अनेकदेश पीला और एकदेश श्वेत होता है, (यहाँ तक) इकतीस भंग कहने चाहिए / इस प्रकार पांच वर्ण के 31 भंग होते हैं / Page #2235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5 यों वर्ण की अपेक्षा असंयोगी 5, द्विक-संयोगी 40, त्रिक-संयोगी 80, चतुःसंयोगी 80 और पंच-संयोगी 31, ये सब मिलाकर वर्णसम्बन्धी 236 भंग होते हैं / गन्ध-विषयक 6 भंग अष्टप्रदेशी के समान होते हैं। रस-विषयक 236 भंग इसी (अष्टप्रदेशी) के वर्ण के समान 236 भंग कहने चाहिए। स्पर्श के 36 भंग चतुष्प्रदेशी के समान समझने चाहिए। विवेचन-नवप्रदेशी स्कन्ध के वर्णादि-विषयक पांच सौ चौदह भंग-प्रस्तुत नौ प्रदेशी स्कन्ध के विषय में वर्ण के 236, गन्ध के 6, रस के 236 और स्पर्श के 36, ये कुल गिला कर 514 भंग होते हैं। दश-प्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि के भंगों का निरूपण 10. दसपदेसिए णं भंते ! खंधे० पुच्छा। गोयमा ! सिय एगवणे जहा नवपदेसिए माव सिय चउफासे पन्नत्ते / जति एगवणे, एगवण्ण-दुवण्ण-तिवण्ण-चउवण्णा जहेव नवपएसियस्स / पंचवण्णे वि तहेव, नवरं बत्तीसतिमो वि भंगो भण्णति / एवमेते एक्कग-दुयग-तियग-चउक्कग-पंचगसंजोएस दोन्नि सत्तत्तोसा भंगसया भवति / गंधा जहा नवपएसियस्स। रसा जहा एयस्स चेव बण्णा। फासा जहा चउप्पएसियस्स। [10. प्र.] भगवन् ! दश-प्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? [10. उ.] गौतम ! नव-प्रदेशिक स्कन्ध के समान यावत्-कदाचित् चार स्पर्श वाला होता है-तक कहना चाहिए। यदि एकवर्णादि वाला हो तो नव-प्रदेशिक स्कन्ध के एक वर्ण, दो वर्ण, तीन वर्ण और चार वर्ण-(सम्बन्धी भंग) के समान कहना चाहिए। यदि वह पांच वर्ण वाला हो तो नव-प्रदेशी के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ अनेकदेश काला, अनेकदेश नीला, अनेकदेश पीला और अनेकप्रदेश श्वेत होता है / यह बत्तीसवाँ भंग अधिक कहना चाहिए। इस प्रकार असंयोगी 5, द्विकसयोगी 40, त्रिकसंयोगी 80, चतुष्कसंयोगी 80 मोर पंचसंयोगी 32, ये सब मिला कर वर्ण के 237 भंग होते हैं / गन्ध के 6 भंग नव-प्रदेशी-सम्बन्धी के समान हैं। रस के 237 भंग इसी के वर्ण के समान होते हैं। स्पर्शसम्बन्धी 36 भंग चतुष्प्रदेशी के समान होते हैं / 11. जहा दसपएसियो एवं संखेज्जपएसिनो वि। [11] दशप्रदेशी स्कन्ध के समान संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध (के) भी (वर्णादिसम्बन्धी भंग कहने चाहिए।) 12. एवं असंखेज्जपएसिओ वि / [12] इसी प्रकार असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी समझना चाहिए। Page #2236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1] [ग्याल्याप्रज्ञप्तितूब 13. सुहमपरिणओ अणंतपएसियो वि एवं चेव / [13] सूक्ष्मपरिणाम वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी इसी प्रकार भंग कहने चाहिए। विवेचन-दशप्रदेशी स्कन्ध के वर्णादि-विषयक भंग-दशप्रदेशी स्कन्ध में वर्ण के 237, गन्ध के 6, रस के 237, स्पर्श के 36, ये सब मिलाकर 516 भंग होते हैं। ___ इसी प्रकार संख्यात-प्रदेशी, असंख्यात-प्रदेशी और सूक्ष्मपरिणाम वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में भी इसी के समान भंग कहने चाहिए। बादरपरिणामी अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में वर्णादि-प्ररूपण 14. बादरपरिणए णं भंते ! प्रणंतपएसिए खंधे कतिवणे ? एवं जहां अट्ठारसमसए जाव सिय अट्ठफासे पन्नते। वण्ण-गंध-रसा जहा दसपएसियस्स। जति चउफासे-सव्वे कक्खडे, सय्वे गरुए, सव्वे सीए, सम्वे निद्ध 1; सब्वे कक्खडे, सव्वे गरुए, सब्वे सोए, सत्वे लुक्खे 2; सब्वे कक्खडे, सव्वे गरुए, सव्वे उसिणे, सब्बे निद्ध 3; सम्वे कवखरे, सवे गरुए, सब्वे उसिणे, सब्वे लुक्खे 4; सव्वे कक्खडे, सम्वे लहुए, सव्वे सीए, सव्वे निद्धे 5; सब्वे कक्खडे, सव्वे लहुए, सब्वे सोए, सब्वे लुक्खे 6; सव्वे कक्खडे, सव्वे लहुए, सध्वे उसिणे, सब्वे निद्ध 7; सन्वे कवखडे, सब्वे लहुए, सम्वे उसिणे, सम्वे लुक्खे 8; सर्व मउए, सव्वे गरुए, सम्वे सीए, सव्वे निद्ध ; सब्वे मउए, सवे गरुए, सब्बे सीए, सव्वे लुक्खे 10; सम्वे मउए, सब्वे गरुए, सम्वे उसिणे, सम्वे निद्ध 11; सव्वे मउए, सव्वे गरुए, सव्वे उसिणे, सव्वे लुक्खे 12; सब्वे मउए, सव्वे लहुए, सच्चे सीए, सब्वे निद्ध 13; सव्वे मउए, सब्वे लहुए, सब्वे सीए, सम्बे लुक्खे 14; सव्वे मउए, सब्वे लहुए, सब्वे उसिणे, सव्वे निद्ध 15; सव्वे मउए, सके लहुए, सब्वे उसिणे, सव्वे लुक्खे 16; एए सोलस भंगा। जह पंचफासे-सव कक्खडे, सव्वे गरुए, सव्वे सीए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 1; सव्वे कक्खडे, सम्वे गरुए, सम्वे सीए, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2; सम्वे कक्खडे, सम्वे गरुए, सव्वे सीए, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 3; सव्वे कक्खडे, सव्वे गरुए, सम्वे सीए, देसा निद्धा, देसा लुक्खा 4 / सव्वे कक्खडे, सच्चे गरुए, सम्बे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे० 4; सव्वे कक्खडे, सव्ये लहुए, सव्वे सीए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे० 4; सम्वे कक्खडे, सन्चे लहुए, सब्वे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे० 4; एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा। सव्वे मउए, सवे गरुए, सव्वे सीए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे० 4; एवं मउरण वि सोलस भंगा। एवं बत्तीसं भंगा / सम्वे कक्खडे, सज्वे गरुए, सम्वे निद्ध, देसे सीए, देसे उसिणे० 4; सम्वे कक्खडे, सम्बे गरुए, सब्वे लुक्खे, देसे सोए, वेसे उसिणे 4; 0 एए बत्तीसं भंगा। सब्वे कक्खडे, सव्वे सीए, सव्वे निद्ध, देसे गरुए, इसे लहुए 4; एत्थ वि बत्तीसं भंगा। सम्वे गरुए, सव्वे सीए, सम्वे निद्ध, देसे कक्खडे, देसे मउए 40 एस्थ वि बत्तीसं भंगा। एवं सम्वेते पंचफासे अट्ठावीसं भंगसयं भवति / Page #2237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसवां शतक : उद्देशक 5] जदि छफासे-सव्वे कक्खडे, सव्वे गरुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुबले 1 सब्वे कक्खडे, सवे गरुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2; एवं जाव सव्वे कक्खडे, सम्वे गरुए, देसा सीता, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसा लुक्खा 16; एए सोलस भंगा। सब्वे कक्खडे, सव्वे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे; एत्थ वि सोलस भंगा। सव्वे मउए, सव्वे गरुए, देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे; एत्थ वि सोलस भंगा / सन्वे मजए, सम्वे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे, एत्थ वि सोलस भंगा 16 / एए चट्टि भंगा। सव्वे कक्खडे, सव्वे सीए, देसे गरुए, देसे लहुए; देसे निद्ध, देसे लुक्खे; एवं जाव सम्वे मउए, सम्वे उसिणे, देसा गरा, देसा लहुया, देसा णिद्धा, देसा लुक्खा; एत्थ वि चउट्ठि भंगा। सच्चे कक्खडे, सव्वे निद्ध, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे जाव सम्वे मउए, सम्वे लुक्खे, देसा गरुया, देसा लहुया, देसा सीया, देसा उसिणा 16; एए चउट्ठि भंगा। सम्बे गहए, सम्वे सीए, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे ; एवं जाव सन्चे लहुए, सव्वे उसिणे, देसा कक्खडा, देसा मउया, देसा निद्धा, देसा लुक्खा; एए चउढि भंगा। सम्वे निद्ध, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे सोए, देसे उसिणे, जाव सव्वे लहुए, सवे लुक्खे, देसा कक्खडा, देसा मउया, देसा सीता, बेसा उसिणा; एए चउद्धि भंगा / सवे सीए, सव्वे निद्ध, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसं लहुए; जाव सम्वे उसिणे, सव्वे लुक्खे, देसा कक्खडा, देसा मउया, देसा गरुया, देसा लहुया; एए चउट्टि भंगा / सव्वेते छफासे तिन्नि चउरासीया भंगसता भवंति 384 / जति सत्तफासे सव्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसे लहए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे नि, देसे लुक्खे 1; सम्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 4, सव्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीते, देसा उसिणा, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; सब्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसे लहुए, देसा सीता, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; सव्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसे लहुए, देसा सीता, देसा उसिणा, देसे निद्धे, देसे लुक्खे 4; सम्वते सोलस भंगा। सव्वे कक्खडे, देसे गरुए, देसा लहुया, देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे, एवं गरुएणं एगत्तएणं, लहुएणं पुहत्तएणं एए वि सोलस भंगा / सम्वे कक्खडे, देसा गरुया, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे, एए वि सोलस भंगा भाणियन्वा / सन्वे कक्खडे, देसा गरुया, वेसा लहुया, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे; एए वि सोलस भंगा भाणियन्वा / एवमेए चउट्टि भंगा कक्खडेण समं / सव्वे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निखे, देसे लुक्खे; एवं मउएण वि समं चउसटुिं भंगा भाणियवा। सब्वे गरुए, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे सोए, देसे - उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे; एवं गरुएण वि समं चउट्टि भंगा कायव्वा / सव्वे लहुए, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्धे, देसे लुक्खे; एवं लहुएण वि समं चउट्टि भंगा कायव्वा / सम्वे सीए, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे निद्धे, देसे लुक्ले; एवं सीएण वि समं चउट्टि भंगा कायब्वा। सम्वे उसिणे, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे Page #2238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गरुए, देसे लहुए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे; एवं उसिणेणं वि समं चउट्टि भंगा कायवा। सव्वे निद्ध, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे; एवं निद्धण वि समं चउसद्धिं भंगा कायन्वा / सम्वे लुक्खे, देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे; एवं लुक्खेण वि समं चउद्धि भंगा कायव्वा जाव सव्वे लुक्खे, देसा कक्खडा, देसा मउया, देसा गरुया, देसा लहुया, देसा सीया, देसा उसिणा। एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसता भवति। जति अट्ठफासे–देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सीते, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसे सोते, देसा उसिणा, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; देसे कक्खडे, देसे महुए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसा सीता, देसे उसिणा, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसे लहुए, देसा सीता, देसा उसिणा, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; एए चत्तारि चउक्का सोलस भंगा। देसे कक्खडे, देसे मउए, देसे गरुए, देसा लहुया, देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे; एवं एए गरुएणं एगत्तएणं, लहएणं पोहत्तएणं सोलस भंगा कायव्वा / देसे कक्खडे, देसे मउए, देसा गरुया, देसे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 4; एए वि सोलस भंगा कायव्वा / देसे कक्खडे, देसे मउए, देसा गरुया, देसा लहुया, देसे सोए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसे लुपखे; एए वि सोलस भंगा कायव्वा / सव्वेते चउढि भंगा कक्खड-मउएहिं एगत्तएहि / ताहे कक्खडेणं एगतएणं, मउएणं पुहत्तएणं एए चेव चउस िभंगा कायव्वा / ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं, मउएणं एगत्तएणं चउढि भंगा कायव्वा / ताहे एतेहिं चेव दोहि वि पुहत्तएहि चउटुिं भंगा कायव्वा जाव देसा कक्खडा, देसा मउया, देसा गरुया, देसा लहुया, देसा सीता, देसा उसिणा, देसा निद्धा, देसा लुक्खा-एसो अपच्छिमो भंगो / सव्वेते अट्ठफासे दो छप्पण्णा भंगसया भवंति। एवं एए बादरपरिणए अणंतपएसिए खंधे सव्वेसु संजोएसु वारस छण्णउया भंगसया भवंति। __ [14 प्र.] भगवन् ! बादर-परिणाम वाला (स्थूल) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कितने वर्ण वाला होता है, इत्यादि प्रश्न ? [14 उ.] गौतम ! अठारहवें शतक के छठे उद्देशक में कथित निरूपण के समान यावत्'कदाचित् आठ स्पर्श वाला कहा गया है,' (यहाँ तक) जानना चाहिए। अनन्तप्रदेशी बादर परिणामी स्कन्ध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भंग, दशप्रदेशी स्कन्ध के समान कहने चाहिए। यदि वह चार स्पर्श वाला होता है, तो (1) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत और सर्वस्निग्ध होता है, (2) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत और सर्वरूक्ष होता है, (3) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्व उष्ण और सर्वस्निग्ध होता है, (4) कदाचित् सर्वगुरु, सर्व उष्ण और सर्वरूक्ष Page #2239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5] [41 होता है। (5) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु (हलका), सर्वशीत और सर्वस्निग्ध होता है / (6) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, सर्वशीत, और सर्वरूक्ष होता है। (7) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, सर्वउष्ण और सर्वस्निग्ध होता है। (8) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, सर्व उष्ण और सर्वरूक्ष होता है / (9) कदाचित् सर्वमृदु (कोमल), सर्वगुरु, सर्वशीत और सर्वस्निग्ध होता है / (10) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वगुरु, सर्वशीत और सर्वरूक्ष होता है / (11) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वगुरु, सर्वउष्ण और सर्वस्निग्ध होता है / (12) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वगुरु, सर्वउष्ण और सर्वरूक्ष होता है / (13) कदाचित् सर्वमृदु सर्वलघु सर्वशीत और सर्वस्निग्ध होता है / (14) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वलघु, सर्वशीत और सर्वरूक्ष होता है / (15) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वलधु, सर्व उष्ण और सर्वस्निध होता है / (16) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वलघु, सर्व उष्ण और सर्वरूक्ष होता है / इस प्रकार ये सोलह भंग होते हैं। यदि पांच स्पर्श वाला होता है, तो (1) सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष होता है। (2) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत, एकदेश-स्निग्ध और अनेकदेश-रूक्ष होता है। (3) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत, अनेकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष होता है / (4) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वशीत, अनेकदेश-स्निग्ध और अनेकदेश-रूक्ष होता है। (5-8) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वउष्ण, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष होता है, इनके चार भंग / (9-12) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, सर्वशीत, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष होते हैं, इनके भी चार भंग। (13-16) अथवा कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, सर्वउष्ण, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष इसके भी पूर्ववत् चार भंग। इस प्रकार कर्कश के साथ सोलह भंग होते हैं / (1-4) अथवा सर्वमृदु सर्वगुरु, सर्वशीत, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है, इस (मृदु) के भी पूर्ववत् चार भंग होते हैं। पहले के 16 और ये 16 भंग मिल कर कुल 32 भंग होते हैं। (1-16) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वस्निग्ध, एकदेश-शीत और एकदेश-उष्ण के भी 16 भंग होते हैं / (1-16) अथवा सर्वकर्कश, सर्वगुरु, सर्वरूक्ष, एकदेश-शीत और एकदेश-उष्ण के 16 भंग; दोनों (16+16 = 32) मिला कर बत्तीस भंग होते हैं। अथवा (1-32) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वशीत, सर्वस्निग्ध, एकदेश गुरु और एकदेश लघु; के पूर्ववत् बत्तीस भंग होते हैं / अथवा (1-32) कदाचित् सर्वगुरु, सर्वशीत, सर्व-स्निग्ध, एकदेश-कर्कश और एकदेश-मृदु के भी पूर्ववत् बत्तीस भंग होते हैं / इस प्रकार सब मिला कर पांच स्पर्श वाले 128 भंग हुए। यदि छह स्पर्श वाला होता है, तो (1) सर्वकर्कश, सर्वगुरु, एकदेश-शीत, एकदेश-उष्ण, एकदेशस्निग्ध और एकदेश-रूक्ष होता है; कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वगुरु, एकदेश-शीत, एकदेश-उष्ण, एकदेशस्निाध और अनेकदेश-रूक्ष ; इस प्रकार यावत्-सर्वकर्कश, सर्वलघु, अनेकदेश-शीत, अनेकदेश-उष्ण अनेकदेश-स्निग्ध और अनेकदेश-रूक्ष; इम प्रकार सोलहवें भंग तक कहना चाहिए / इस प्रकार ये 16 भंग हुए। (2) कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वलघु, एकदेश-शीत, एकदेश-उष्ण, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष; यहाँ भी (पूर्ववत् सब मिलकर) सोलह भंग होते हैं / (3) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वगुरु, एकदेश-शीत, एकदेश-उष्ण, एकदेश-स्निग्ध और एकदेश-रूक्ष, यहाँ भी सब मिल कर सोलह भंग Page #2240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होते हैं / (4) कदाचित् सर्वमृदु, सर्वलघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष यहां भी कुल सोलह भंग होते हैं / ये सब मिल कर 16+1+1+16 =64 भंग होते हैं। [1-64] अथवा कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वशीत, एकदेश-गुरु, एकदेश-लघु, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है; इस प्रकार यावत्स र्वमृदु सर्व उष्ण, अनेकदेशलघु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं; यह चौसठवा भंग है। इस प्रकार यहाँ भी चौसठ भंग होते हैं। [1-64] अथवा कदाचित् सर्वकर्कश, सर्वस्निग्ध, एकदेश गुरु, एकदेश लघ, एकदेश शीत और एकदेश-उष्ण होता है; यावत् कदाचित् सर्वमृदु, सर्वरूक्ष, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, अनेकदेश शीत और अनेकदेश-उष्ण होता है। यह चौसठवाँ भंग है। इस प्रकार यहाँ भी 16 +16+16+ 16=64 भंग होते हैं। कदाचित् सर्वगुरु, सर्वशीत, एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश उष्ण होता है, इस प्रकार यावत्-सर्वलघु, सर्व उष्ण, अनेकदेश कर्कश, अनेकदेश मृदु, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष होते हैं; यह चौसठवाँ भंग है / यहाँ भी चौसठ भंग होते हैं / [1-64] कदाचित् सर्वगुरु, सर्वस्निग्ध, एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश शीत और एकदेश उष्ण होता है; यावत् कदचित् सर्वलघु, सर्वरूक्ष अनेकदेश कर्कश, अनेकदेश मृदु, अनेकदेश शीत और अनेकदेश उष्ण होते हैं; यह चौसठवाँ भंग है। इस प्रकार यहाँ भी 64 भंग होते हैं / [1-64] कदाचित् सर्वशीत, सर्वस्तिग्ध, एकदेश कर्कश, एकदेश मृद्, एकदेश गुरु और एकदेश लघु होता है; यावत् कदाचित् सर्वउष्ण, सर्वरूक्ष, अनेकदेश कर्कश, अनेकदेशमृदु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु होता है / यह चौसठवाँ भंग है / इस प्रकार यहाँ भी चौसठ भंग होते हैं / षट्-स्पर्श-सम्बन्धी ये सब 6446 = 384 भंग होते हैं। - यदि वह सात स्पर्श वाला होता है तो (1) कदाचित् सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। (2-3-4) कदाचित् सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध, और अनेकदेश रूक्ष होते हैं (इस प्रकार चार भंग होते हैं। ), (2) कदाचित् सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रुक्ष होता है, इत्यादि चार भंग। (3) कदाचित् सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, एकदेश लघ, अनेकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एक देश रूक्ष, इत्यादि चार भंग तथा (4) कदाचित् सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष इत्यादि चार भंग; ये सब मिलाकर 444-16 भंग होते हैं / अथवा कदाचित् (2) सर्वकर्कश, एकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है। इस प्रकार 'गुरु' पद को एकवचन में और 'लधु' पद को अनेक (बहु-) वचन में रखकर पूर्ववत् यहाँ भी सोलह भंग कहने चाहिये / अथवा कदाचित् 3. सर्वकर्कश, अनेकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध एवं एकदेश रूक्ष, इत्यादि, ये भी सोलह भंग कहने चाहिये। (4) अथवा कदाचित् सर्वकर्कश, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष, ये सब मिलकर सोलह भंग कहने चाहिये / इस प्रकार ये 1644-64 भंग 'सर्वकर्कश' के साथ होते हैं / Page #2241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 51 (2) अथवा कदाचित् सर्वमृदु, एकदेशगुरु, एकदेशलघु, एकदेशशीत, एकदेशउष्ण, एकदेशस्निग्ध और एकदेशलक्ष होता है / रूक्ष की तरह 'मृदु' शब्द के साथ भी पूर्ववत् 1644 = 64 भंग होते हैं / (3) अथवा कदाचित् सर्वगुरु, एकदेशकर्कश, एकदेशमृदु, एकदेशशीत, एकदेशउष्ण, एकदेशस्निग्ध, और एकदेशरूक्ष, इस प्रकार 'गुरु' के साथ भी पूर्ववत् 16x4-64 भंग कहने चाहिए / (4) अथवा कदाचित् सर्वलघु, एकदेशकर्कश, एकदेशमृदु, एकदेशशीत, एकदेशउष्ण, एकदेशस्निग्ध, एकदेशरूक्ष, इस प्रकार 'लघु' के साथ भी पूर्ववत् 16 x 4 = 64 भंग कर्ने चाहिये। (5) कदाचित् सर्वशीत, एकदेशकर्कश, एकदेशमृदु, एकदेशगुरु, एकदेशलघु, एकदेश स्निग्ध और एकदेशरूक्ष, इस प्रकार 'शीत' के साथ भी 64 भंग कहने चाहिये। (6) कदाचित् सर्वउष्ण, एकदेश कर्कश, एकदेशमृदु , एकदेशगुरु, एकदेश लघु, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष; इस प्रकार 'उष्ण' के साथ भी 64 भंग कहने चाहिये / (7) कदाचित् सर्वस्निग्ध, एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत और एकदेश उष्ण होता है; इस प्रकार 'स्निग्ध' के साथ भी 64 भंग होते हैं। (8) कदाचित् सर्वरूक्ष, एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत और एकदेश उष्ण; इस प्रकार 'रूक्ष' के साथ भी 64 भंग कहने चाहिए। यावत् सर्वरूक्ष, अनेकदेश कर्कश, अनेकदेश मृदु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, अनेकदेश शीत और अनेकदेश उष्ण होता है। इस प्रकार ये सब मिलकर 8464 = 512 भंग सप्तस्पर्शी (बादरपरिणामी अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) के होते हैं।। यदि वह पाठ स्पर्शवाला होता है, तो (1. I) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष होता है (इत्यादि, इसके) चार भंग (कहने चाहिए)। (II) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, एकदेश शीत और अनेकदेश उष्ण तथा एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष, इत्यादि चार भंग कहने चाहिये। (HI) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, अनेकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष; इत्यादि चार भंग। (iv) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, एकदेश लघु, अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष, ये चार भंग / इस प्रकार इन चार चतुष्कों के 16 भंग होते हैं / अथवा (2) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, एकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष; इस प्रकार 'गुरु' पद को एकवचन में और 'लघु पद को बहुवचन में रखकर पूर्ववत् 16 भंग कहने चाहिये / (3) कदाचित एकदेश कर्कश, एकदेश मद, अनेकदेश गरु, एकदेश लघ, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष, इसके भी 16 भंग (पूर्ववत्) होते हैं / (4) कदाचित् एकदेश कर्कश, एकदेश मृदु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, एकदेश शीत, एकदेश उष्ण, एकदेश स्निग्ध और एकदेश रूक्ष; इसके भी पूर्ववत् 16 भंग कहने चाहिये / Page #2242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ये सब मिलाकर (1644 =64) चौसठ भंग 'कर्कश' और 'मृदु' को एकवचन में रखने से होते हैं। इन्हीं भंगों में 'कर्कश' को एकवचन में और 'मृदु' को बहुवचन में रखकर 64 भंग कहने चाहिए। अथवा उन्हीं भंगों में 'कर्कश' को बहुवचन में और 'मृदु' को एकवचन में रखकर पूर्ववत् 64 भंग कहने चाहिये / अथवा 'कर्कश' और मृदु दोनों को बहुवचन में रख कर फिर 64 भंग कहने चाहिये; यावत् अनेकदेश कर्कश, अनेकदेश मृदु, अनेकदेश गुरु, अनेकदेश लघु, अनेकदेश शीत, अनेकदेश उष्ण, अनेकदेश स्निग्ध और अनेकदेश रूक्ष; यह अन्तिम भंग है। ये सब मिला कर अष्टस्पर्शी भंग 256 होते हैं। ___ इस प्रकार बादर परिणाम वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के सर्वसंयोगों के कुल 1266 भंग होते हैं। विवेचन बादर परिणामी अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के स्पर्श सम्बन्धी एक हजार दो सौ छियानवे भंग....इसके स्पर्श-सम्बन्धी चतु:संयोगी 16, पंचसंयोगी 128, पटसंयोगी 384, सप्तसंयोगी 512, और अष्टसंयोगी 256, ये सब मिला कर बादर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के स्पर्श के 1266 भंग होते हैं। एक परमाणु से लेकर सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक स्पर्श सम्बन्धी 268 भंग होते हैं ।परमाणु से लेकर बादर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के कुल 6470 भंग होते हैं, जो पहले गिना दिये हैं।' 15. कतिविधे णं भंते ! परमाण पन्नत्त? गोयमा! चउबिहे परमाणू पन्नते, तं जहा–दव्वपरमाणू खेत्तपरमाणू कालपरमाणू भावपरमाणू। [15 प्र.] भगवन् ! परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [15 उ.] गौतम ! परमाण चार प्रकार का कहा गया है / यथा द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु / 16. दव्वपरमाणू णं भंते ! कतिविधे पन्नते? गोयमा ! चउब्विहे पन्नते, तं जहा---प्रच्छेज्जे अभेज्जे अडझे अमेज्झे / [16 प्र.] भगवन् ! द्रव्यपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [16 उ.] गौतम ! (द्रव्यपरमाणु) चार प्रकार का कहा गया है / यथा अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य। 17. खेत्तपरमाणू णं भंते ! कतिविधे पन्नते? गोयमा ! चउन्विहे पन्नत्ते, तं जहा-अगड्ढे अमझे अपएसे अविभाइमे। 617 प्र.] भगवन् ! क्षेत्रपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? (17 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है। यथा अनर्द्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य। 1. वियाहपण्णत्ति सुत्त भा. 2, पृ. 869-70 Page #2243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5] 18. कालपरमाणू० पुच्छा। गोयमा ! चउविधे पन्नत्ते, तं जहा–अवणे अगंधे अरसे अफासे / [18 प्र.] भगवन् ! कालपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [18 उ.] गौतम ! कालपरमाणु चार प्रकार का कहा गया है। यथा-अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श / 16. भावपरमाणु णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउम्विधे पन्नते, तं जहा---वण्णमंते गंधमते रसमंते फासमंते / सेव भंते ! सेव भंते ! ति जाव विहरति / ॥वोसइमे सए : पंचमो उद्देसमो समत्तो॥ 20-5 // [16 प्र.] भगवन् ! भावपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [19 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है / यथा-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-परमाणु : द्रव्यादि की अपेक्षा से क्या है, क्या नहीं ?-प्रस्तुत पांच सूत्रों (15 से 19 सू. तक) में परमाणु के स्वरूप का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विश्लेषण किया गया है। द्रव्यपरमाण : स्वरूप-वर्णादिधर्म की विवक्षा किये बिना एक परमाणु को द्रव्यपरमाणु कहते हैं / क्योंकि यहाँ केवल द्रव्य की ही विवक्षा की गई है। अच्छेद्य-द्रव्यपरमाणु का शस्त्रादि द्वारा छेदन नहीं हो सकता, इसलिये वह अच्छेद्य है / अभेद्य उसका सूई आदि द्वारा भेदन नहीं हो सकता, इसलिये अभेद्य है / अदाह्य-वह अग्नि आदि से जलाया नहीं जा सकता, इसलिये अदाह्य है। अग्राह्य-उसे हाथ आदि से पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिये अग्राह्य है / क्षेत्रपरमाणु : स्वरूप-एक प्राकाशप्रदेश को क्षेत्रपरमाणु कहते हैं। अनर्द्ध-परमाणु के सम-संख्यावाले अवयव नहीं होते, इसलिये वह अनर्द्ध कहलाता है / अमध्य-विषम संख्या वाले अवयव नहीं हैं, इसलिये अमध्य कहलाता है। अप्रदेश-~-इसके प्रदेश (अवयव) नहीं अप्रदेश है। अविभाज्य–परमाणु का विभाजन या विभाग नहीं हो सकता, इसलिए वह अविभाग या अविभाज्य है। कालपरमाणु : स्वरूप-एक समय को कालपरमाणु कहते हैं / इसलिये एक समय में उसके लिये वर्णादि की विवक्षा नहीं होती। ___ भावपरमाणु : स्वरूप-वर्णादिधर्म की प्रधानता की विवक्षापूर्वक परमाणु को भावपरमाणु कहते हैं। भावपरमाणु-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होता है।' ॥वीसवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 788 . (ख) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2887 लिए Page #2244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठो उद्देसओ : 'अन्तर' छठा उद्देशक : 'अन्तर' प्रथम से सप्तम नरकपृथ्वी तक की दो-दो पृश्वियों के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक द्वारा पूर्व-पश्चात् अाहार-उत्पाद-निरूपण 1. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए 4 पुढवीए अंतरा समोहए, समोहण्णित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कि पुड़िय उववज्जित्ता पच्छा प्राहारेज्जा, पुब्धि आहारेता पच्छा उबवज्जेज्जा ? गोयमा ! पुग्वि वा उववज्जित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठदेसे (स० 17 उ० 6 सु० 1) जाव से तेणठेणं गोयमा! एवं बच्चइ पुग्वि वा जाव उववज्जेज्जा, नवरं तहिं संपाउणणा, इमेहि माहारो भण्णइ, सेसं तं चेव / 1 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं? [1 उ.] गौतम ! वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवें शतक के छठे उद्देशक के (सू. 1 के) अनुसार यावत्-हे गौतम ! इसलिए ऐसा कहा जाता है कि यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं; (यहाँ तक कहना चाहिए।) विशेष यह है कि वहाँ पृथ्वीकायिक 'सम्प्राप्त करते हैं--पुद्गल-ग्रहण करते हैं-ऐसा कहा है, और यहाँ 'आहार करते हैं'--ऐसा कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् / 2. पुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए. जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? एवं चेव। [प्र.) भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके ईशानकल्प में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न हो कर पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) Page #2245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोसवां शतक : उद्देशक 6] 3. एवजाव ईसिपम्भाराए उववातेयव्यो। [3] इस प्रकार (सनत्कुमार से लेकर) यावत् ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक (उपपात पालापक) कहना चाहिए। 4. पुढविकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए वालयप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समो० 2 जे भविए सोहम्मे कप्पे जाव ईसिपम्भाराए• ? एवं। [4 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वी कायिकजीव शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, या पहले पाहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] ये (सब पालापक) पूर्ववत् कहने चाहिए। 5. एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए सोहम्मे जाव ईसिपब्भाराए उववाएयव्यो / [5] इसी क्रम से यावत् तमःप्रभा और अधःसप्तम पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके (पृथ्वीकायिक जीवों में) सौधर्मकल्प (से लेकर) यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में (पूर्ववत्) उपपात (आलापक) कहने चाहिए / - विवेचन—प्रस्तुत सूत्रों (सू. 1 से 5 तक) में पृथ्वीकायिक जीव, जो रत्नप्रभादि दो-दो नरकपृथ्वियों के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प से लेकर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में, पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, उनका पहले उत्पाद होकर पोछे पाहार होता है, अथवा पहले आहार होकर पीछे उत्पाद होता है ? यह चर्चा की गई। पहले उत्पाद और पीछे आहार या पहले प्राहार और पीछे उत्पाद का तात्पर्य जो जीव गेंद के समान समुद्घातगामी होता है, वह मर कर पहले उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होता है, अर्थात् उत्पत्तिस्थान में जाता है। तत्पश्चात् साहार करता है, अर्थात्-पाहार-प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। किन्तु जो जीव ईलिका की गति के समान समुद्घातगामी (समुद्घात करके उत्पत्तिक्षेत्र में उत्पन्न होने हेतु जाने वाला) होता है, वह पहले आहार करता है, अर्थात् उत्पत्तिक्षेत्र में प्रदेशप्रक्षेप (पहुँचाए हुए प्रदेशों) के द्वारा आहार ग्रहण करता है और इसके पश्चात्-पूर्व शरीर में रहे हुए प्रदेशों को उत्पत्तिक्षेत्र में खींचता है।' सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के बीच में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभा से अधःसप्तम पृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक को पूर्व-पश्चात् पाहार-उत्पाद-प्ररूपरणा 6. पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 790 Page #2246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समो० 2 जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढवियाइयत्ताए उक्वज्जित्तए से गं भंते ! कि पुचि उववज्जित्ता पच्छा प्राहारेज्जा? सेसं तं चेव जाव सेतेण→णं जाव णिक्खेवओ। __ [6 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के मध्य में मरणसमुद्धात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करता है, अथवा पहले आहार करके फिर उत्पन्न होता है / [6 उ.] गौतम ! इसका उत्तर पूर्ववत समझना चाहिए। यावत् इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है, इत्यादि उपसंहार तक कहना चाहिए / 7. पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मोसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए, स० 2 जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए? एवं चेव / [7 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभा पृथ्वी में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले यावत् पीछे उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 8. एवं जाव आहेसत्तमाए उववातेतव्यो। [8] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक उपपात (पालापक) (कहने चाहिए।) एवं सणंकुमार-माहिंदाणं बंभलोगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समो० 2 पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयन्वो। [ ] इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य में मरणसमुद्धात करके पुनः रत्नप्रभा से लेकर यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उपपात (पालापक) कहने चाहिए। 10. एवं बंभलोगस्स लंतगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए. पुणरवि जाव आहेसत्तमाए। [10] इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक पुन: (रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 11. एवं लंतगस्स महासुक्कस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए, समोहणित्ता पुणरवि जाव अहेसत्तमाए। [11] इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्रकल्प के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। 12. एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य कप्पस्स अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए। [12] इसी प्रकार महाशुक्र और सहस्रार कल्प के अन्तराल में मरणसमुद्घात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। Page #2247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसवां शतक : उद्देशक 6] 13. एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए। [13] इसी प्रकार सहनार और अानत-प्राणत कल्प के बीच में मरणसमुद्धात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। 14. एवं प्राणय-पाणयाणं श्रारणऽच्चुयाण य कप्पाणं अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए / [14] इसी प्रकार आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्प के बीच में मरणसमुद्घात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। 15. एवं आरणऽच्चुताणं गेवेज्जविमाणाण य अंतरा० जाव अहेसत्तमाए / [15] इसी प्रकार आरण-अच्युत और ग्रे वेयक विमानों के अन्तराल में, मरणसमुद्धात करके पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक / 16. एवं गेवेज्जविमाणाण अनुत्तर विमाणाण य अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए / [16] इसी प्रकार अवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों के अन्तराल में (मरणसमुद्घातपूर्वक) पुनः यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक / 17. एवं अणुत्तरविमाणाणं ईसि दबभाराए य अंतरा० पुणरवि जाव अहेसत्तमाए उववाएयब्वो। [17] इसी प्रकार अनुत्तरविमानों और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी के अन्तराल में (मरणसमुद्घात. पूर्वक) पुन: यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक। विवेचन-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 6 से 17 तक) में पहले से विपरीत निरूपण है। अर्थात पहले के आलापकों में सात नरकपृथ्वियों में से दो-दो के मध्य में मरणसमुद्घात का निरूपण था, इन आलापकों में सौधर्मदेवलोक से ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी तक में से चार, तीन या अधिक देवलोकों के बीच में मरणसमुद्धात करने का वर्णन है। वहाँ सौधर्म से लेकर ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक विशेषण तथा यहाँ उसके स्थान पर रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक का विशेषण है। पृथ्वीकायिकविषयक सूत्रों के अतिदेश-पूर्वक अकायिकविषयक पूर्व-पश्चात् आहारउत्पाद-निरूपण 18. श्राउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समो० 2 जे भविए सोहम्मे कप्पे पाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए ? सेसं जहा पुढ विकाइयस्स जाव से तेणढेणं० / 618 प्र.] भगवन् ! जो अकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में प्रकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह पहले उत्पन्न होकर पीछे पाहार करता है या पहले पाहार करके पीछे उत्पन्न होता है ? [19 उ.] गौतम ! (अप्कायिक नाम के सिवाय) शेष समग्न (समाधान) पृथ्वीकायिक (इसी उद्देश्य के सू. 1) के समान जानना चहिये; यावत् इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि इत्यादि / Page #2248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र 16. एवं पढम-दोच्चाणं अंतरा समोहयो जाव ईसिपम्भाराए य उववातेयव्यो। [19] इसी प्रकार पहली और दूसरी पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक उपपात (आलापक) जानना चाहिए। 20. एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा० समोहए, समो० 2 जाव इसिपब्भाराए उववातेयन्वो पाउक्काइयत्ताए। [20] इसी प्रकार इसी क्रम से यावत तमःप्रभा और अधःसप्तमा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घातपूर्वक अप्कायिक जीवों का यावत् ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक अप्कायिक रूप से उपपात जानना चाहिए। विवेचन --प्रस्तुत तीन अप्कायिक-विषयक सूत्रों (18 से 20 तक) में पृथ्वीकायिक जीव विषयक पांच सूत्रों (सू. 1 से 5 तक) के अतिदेशपूर्वक अपकायिक जीवों के विषय में निरूपण किया गया है। पृथ्वीकायिक-विषयक सूत्रों के अतिदेशपूर्वक अप्कायिक जीवविषयक (विशिष्ट परिस्थिति में) पूर्व-पश्चात् पाहार-उत्पाद-प्ररूपणा 21. आउयाए णं भंते ! सोहम्मोसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहते, समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए' घणोदधिवलएसु पाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए ? सेसं तं चेव / 21 प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव, सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के बीच में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभा-पृथ्वी में (घनोदधि और) घनोदधि-वलयों में अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है ; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? [21 उ.] गौतम ! 'अप्कायिक' इस शब्दोच्चार के सिवाय) शेष सब (निरूपण) पृथ्वीकायिक के समान (सू. 6 के उल्लेखानुसार) जानना चाहिए। 22. एवं एएहिं चेव अंतरा समोहयग्रो जाद अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववाएयवो। [22] इस प्रकार इन (पूर्वोक्त) अन्तरालों में मरणसमुद्घात को प्राप्त अप्कायिक जीवों का अधःसप्तमपृथ्वी तक के (घनोदधि और) घनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उपपात कहना चाहिए। 23. एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिपम्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए जाव अहेसत्तमाए घणोदधिवलएसु उववातेयन्त्रो / [23] इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमान और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बीच मरणसमुद्घात प्राप्त अप्कायिक जीवों का यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक के (घनोदध्रि और) धनोदधिवलयों में अप्कायिक के रूप में उपपात जानना चाहिए / 1. पाठभेद--यहाँ 'घणोदधि-घणोदधिबलएसु' इस प्रकार का पाठभेद है। Page #2249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 6) विवेचन प्रस्तुत तीन अप्कायिक-विषयक सूत्रों (21 से 23 तक) में पृथ्वीकायिक-विषयक 12 सूत्रों (6 से 17 सू. तक) के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। विशेष यह है कि यहाँ धनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उत्पाद का निरूपण है। सत्तरहवें शतक के दसवें उद्देशक के अनुसार वायुकायिक जीवों के विषय में पूर्व-पश्चात् पाहार-उत्पाद-विषयक-प्ररूपरणा 24. वाउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? ___ एवं जहा सत्तरसमसए वाउकाइयउद्देसए (स० 17 उ० 10 सु०१)तहा इह वि, नवरं अंतरेसु समोहणावेयव्वो, सेसं तं चैव जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोह० 2 जे भविए अहेसत्तमाए घणवात-तणुवाते घणवातवलएसु तणुवायवलएसु वाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, सेसं तं चेव, से तेण?णं जाव उववज्जेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।' // वोसइमे सए : छट्ठो उद्देसमो समतो // 20-6 // [24 प्र.] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? [24 उ.] गौतम ! जिस प्रकार सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक (के सूत्र 1) में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अन्तरालों में मरणसमुद्घातपूर्वक कहना चाहिये / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इस प्रकार यावत अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमृदयात करके जो वायुकायिक जीव अधःसप्तमपृथ्वी में घनवात और तनुवात तथा घनवातवलयों और तनुवातवलयों में वायुकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, इत्यादि सब कथन पूर्ववत जानना चाहिए, यावत्---'इस कारण उत्पन्न होते हैं।' ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र 24 में सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक के प्रतिदेशपूर्वक वायुकायिक जीव-विषयक निरूपण किया गया है / सभी आलापक पूर्ववत् ही हैं, किन्तु विशेष इतना ही है कि वायुकायिक जीव के विशेषण के रूप में घनवात-तनुवात तथा घनवात-तनुवात-वलयों में उत्पन्न होने योग्य-ऐसा निरूपण किया गया है / // वीसवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // 1. तीन उद्देशक-दूसरी वाचना के अभिप्रायानुसार यहाँ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायकायिक विषयक पृथक्-पृथक उद्देशक माने गए हैं। - अ. वृ. Page #2250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'बंधे' सप्तम उद्देशक : बन्ध बन्ध के तीन भेद और चौवीस दण्डकों में उनकी प्ररूपरणा 1. कतिविधे णं भंते ! बंधे पन्नते? गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-जीवप्पयोगबंधे अणंतरबंधे परंपरबंधे। [1 प्र. भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है / यथा--जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध / 2. नेरतियाणं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नते? एवं चेव / 62 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीवों के बन्ध कितने प्रकार के हैं ? [2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (तीनों प्रकार के) हैं। 3. एवं जाव वेमाणियाणं / [3] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (के बन्ध के विषय में जानना चाहिए / ) विवेचन-बन्ध के प्रकार, एवं चौबीस दण्डकों में बन्ध-निरूपण- प्रस्तुत तीन सूत्रों में बन्ध, उसके प्रकार एवं नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के जीवों के बन्ध के विषय में निरूपण किया गया है। बन्ध का स्वरूप-आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। उसके तीन प्रकार हैं। जीवप्रयोगबन्ध—जीव के प्रयोग से अर्थात् मन-वचन-काया के व्यापार से यात्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का सम्बन्ध होना अर्थात्-आत्मप्रदेशों में संश्लेष होना जीवप्रयोगबन्ध कहलाता है। अनन्तरबन्ध-जिन पुदगलों का बन्ध हुए अनन्तर-अव्यवहित समय है-दो-तीन आदि समय नहीं हुए, उनका बन्ध अनन्तरबन्ध कहलाता है और जिनके बन्ध को दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, उनका बन्ध परस्परबन्ध कहा जाता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 791 (ख) भगवती-उपक्रम, पृ. 458 Page #2251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसवां शतक : उद्देशक अष्टविध कर्मों के त्रिविधबन्ध एवं उनकी चौवीस दण्डको में प्ररूपणा 4. नाणावरणिज्जस्स गं भंते ! कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नते? . गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-जीवप्पयोगबंधे प्रणतरबंधे परंपरबंधे / [4 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! वह बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है। यथा जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध / / 5. नेरइयाणं भंते ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नते ? एवं चेव। [5 प्र.] भगवन् ! नयिकों के ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (त्रिविध बन्ध होता है / ) 6. एवं जाव वेमाणियाणं / [6] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त (बन्धनिरूपण समझना चाहिए / ) . 7. एवं जाव अंतराइयस्स / [7] इसी प्रकार (दर्शनावरणीय से लेकर) यावत् अन्तराय कर्म तक के (बन्ध के विषय में जानना चाहिए / ) विवेचन-ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध : जीवों से सम्बद्ध या असम्बद्ध ?-- प्रस्तुत सूत्र 4 में ज्ञानावरणीय कर्म का तीन प्रकार का बन्ध कहा है, परन्तु वह जीव से सम्बद्ध हुए बिना हो नहीं सकता, इसलिए जीव (आत्मा) के साथ ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलों के सम्बन्ध की अपेक्षा से ही जीवप्रयोगबन्ध आदि वन्धत्रय घटित हो सकते हैं / यही कारण है कि अगले दो सूत्रों में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के प्रकार की प्ररूपणा की गई है। पाठों कर्मों के उदयकाल में प्राप्त होने वाले बन्धत्रय का 24 दण्डकों में निरूपरण 8. णाणावरणिज्जोदयस्स गं भंते ! कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे बंधे पन्नत्ते / एवं चेव / [8 प्र.] भगवन् ! उदयप्राप्त ज्ञानाबरणीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह पूर्ववत् तीन प्रकार का कहा गया है / 6, एवं नेरइयाण वि। [6] इसी प्रकार नैरयिकों के भी (उदयप्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध-प्रकार के विषय में जान लेना चाहिए।) . 10. एवं जाव वेमाणियाणं। [10] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (के उदयप्राप्त.."1) Page #2252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 11. एवं जाव अंतराइनोवयस्स। [11] और इसी प्रकार (उदयप्राप्त दर्शनावरणीय से लेकर) यावत् अनन्तराय कर्म तक के (बन्ध-प्रकार के विषय में कहना चाहिए।) विवेचन--णाणावरणिज्जोदयस्स : तीन व्याख्याएँ-वृत्तिकार ने प्रस्तुत सू. 8 की इस पंक्ति की तीन व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं--(१) ज्ञानावरणीय के उदयरूप कर्म का, अर्थात्--उदय-प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध, यह बन्ध भूतभाव (पूर्वकाल) की अपेक्षा से समझना चाहिए। (2) अथवा ज्ञानावरणीय रूप में जिस कर्म का उदय है, ऐसे कर्म का बन्ध समझना चाहिए, क्योंकि ज्ञानावरणीयादि कर्म ज्ञानादि का आवारक रूप होने से कुछ विपाक से और कुछ प्रदेश से बेदा जाता है, अत: विपाकोदय से वेदे जाने योग्य उदय को ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध समझना चाहिए। (3) अथवा ज्ञानावरणीय के उदय में जो ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है अथवा वेदा जाता है, वह भी ज्ञानावरणीय कर्म का उदय ही है / उस कर्म का बन्ध समझना / ' वेदत्रय तथा दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय में त्रिविधबन्ध-प्ररूपरणा 12. इस्थिवेदस्स णं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नते ? गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नत्ते / एवं चेव / [12 प्र.] भगवन् ! स्त्रीवेद का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [12 उ.] गौतम ! उसका पूर्ववत् तीन प्रकार का बन्ध कहा गया है / 13. असुरकुमाराणं भंते ! इस्थिवेदस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? एवं चेव। [13 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के स्त्रीवेद का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [13 उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् (तीन प्रकार का है / ) 14. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स इस्थिवेदो अस्थि / [14] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष यह कि जिसके स्त्रीवेद है, (उसके लिए ही यह जानना चाहिए / ) 15. एवं पुरिसवेदस्स वि; एवं नपुंसगवेदस्स वि; जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जो अस्थि वेदो। [15] इसी प्रकार पुरुषवेद एवं नपुसकवेद के (बन्ध के) विषय में भी जानना चाहिए। यावत् वैमानिकों तक कथन करना चाहिए। विशेष यही है कि जिसके जो वेद हो, वही जानना चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 791 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 6, पृ. 2899 Page #2253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक } 16. दंसणमोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविधे बंधे पन्नते ? एवं चेव / {16 प्र.] भगवन् ! दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? 1 16 उ.] गौतम ! (वह भी) पूर्ववत् (तीन प्रकार का है / ) 17. [एवं] निरंतरं जाव वेमाणियाणं। [17] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त अन्तर-रहित (बन्ध-कथन करना चाहिए / ) 16. एवं चरितमोहणिज्जस्स वि जाव वेमाणियाणं। [18] इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में भी यावत् वैमानिकों तक (जानना चाहिए।) विवेचन--स्त्रीवेद प्रादि के त्रिविध बन्ध का आशय-वेद के त्रिविध बन्ध का यहाँ आशय है-स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुसकवेद के उदय होने पर जो बन्ध हो, उदयप्राप्त स्त्री वेदादि का बन्ध / दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय के बन्ध के विषय में स्पष्टीकरण- केवल दर्शन-चारित्रमोहनीय के जो बन्धत्रय बताए हैं वे जीव की अपेक्षा से बताए हैं, क्योंकि जीव के साथ कर्मपुद्गलों (दर्शनचारित्रमोहनीय कर्म के पुद्गलों) का सम्बन्ध होने पर ही बन्ध होता है / शरीर, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, प्रज्ञान एवं ज्ञानाज्ञानविषयों में विविधबन्धप्ररूपरणा 16. एवं एएणं कमेणं पोरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स, आहार-सण्णाए जाव परिग्गहसग्णाए, कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए, सम्मट्ठिीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादिट्टीए, श्राभिणिबोहियणाणस्स जाव केवलनाणस्स, मतिअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्य विभंगनाणस्स / [16] इस प्रकार इसो क्रम से औदारिक शरीर, यावत् कार्मण शरीर के ग्राहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा के, कृष्णले श्या यावत् शुक्ललेश्या के, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यमिथ्यादृष्टि के, प्राभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान के, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान तथा विभंगज्ञान के पूर्ववत् (त्रिविधबन्ध समझना चाहिए।) 20. एवं प्राभिनिबोहियनाणविसयस्स णं भंते ! कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? जाव केवलनाणविसयरस, मतिमन्नाणविसयस्स, सुयअन्नाणविसयस्स, विभगनाणविसयरस; एएसि सन्वेसि पयाणं तिविधे बंधे पन्नत्ते / [20 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञान के विषय का बन्ध कितने प्रकार का है ? [20 उ.] गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान के विषय से लेकर यावत केवलज्ञान के विषय, मति. अज्ञान के विषय, श्रुत-अज्ञान के विषय और विभंगज्ञान के विषय, इन सब पदों के तीन-तीन प्रकार का बन्ध कहा गया है। 21. सम्वेते चउवीसं दंडगा भाणियन्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जं अत्थि; जाव बेमाणियाणं भंते ! विभंगणाणविसयस्स कतिविधे बंधे पन्नत्ते ? Page #2254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [व्याख्या प्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! तिविधे बंधे पन्नते, तं जहा-जीवप्पयोगबंधे अणंतरबंधे परंपरबंधे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो // 20-7 // [21] इन सब पदों का चौवीस दण्डकों के विषय में (बन्ध-विषयक) कथन करना चाहिए। इतना विशेष है कि जिसके जो हो, वही जानना चाहिए / यावत्-(निम्नोक्त प्रश्नोत्तर तक / ) [प्र.] भगवन् ! वैमानिकों के विभंगज्ञान-विषय का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (उनके इसका) बन्ध तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है ;' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन---दष्टि, ज्ञान प्रादि के साथ बन्ध कैसे ?-यह तो पहले कहा जा चुका है कि आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं, परन्तु यहाँ यदि कर्मपुद्गलों या अन्य पुदगलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध माना जाए तो औदारिकादि शरीर, अष्टविध कर्मपुद्गल, आहारादि संज्ञाजनक कर्म और कृष्णादि लेश्याओं के पुद्गलों का बन्ध तो घटित हो सकता है, परन्तु दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान और तविषयक बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि ये सब अपौद्गलिक (आत्मिक) हैं ? / इसका समाधान यह है कि यहाँ बन्ध शब्द से केवल कर्मपूदगलों का बन्ध ही विवक्षित नहीं है, अपितु सम्बन्धमात्र को यहाँ बन्ध्र माना गया है और ऐसा बन्ध दृष्टि आदि धर्मों के साथ जीव का है ही, फिर बन्ध जीव के वीर्य से जनित होने के कारण उनके लिए जीवप्रयोगबन्ध आदि का व्यपदेश किया गया है। ज्ञेय के साथ ज्ञान के सम्बन्ध की विवक्षा के कारण प्राभिनिबोधिकज्ञान के विषय आदि के भी त्रिविध बन्ध घटित हो जाते हैं।' पचपन बोलों में से किसमें कितने ?--8 कर्मप्रकृति, 8 कर्मोदय, 3 वेद, 1 दर्शनमोहनीय, 1 चारित्रमोहनीय, 5 शरीर, 4 संज्ञा, 6 लेश्या, 3 दृष्टि, 5 ज्ञान, 3 अज्ञान और 8 ज्ञान-प्रज्ञान के विषय. यों कल 55 बोल होते हैं। नारकों में 44 बोल पाए जाते हैं (उपर्युक्त 55 में से 2 वेद, 2 शरीर, 3 लेश्या, 2 ज्ञान तथा 2 प्रज्ञान के विषय-ये 11 बोल कम हए)। भवनपति और बाणव्यन्तर देवों में 46 बोल, उपयुक्त 44 में से एक नपुसंक वेद कम तथा 2 वेद और 1 लेश्या अधिक)। ज्योतिष्क देवों में 43 बोल (उपर्युक्त 46 में से 3 लेश्या कम), वैमानिक देवों में 45 बोल (उपयुक्त 43 में दो लेश्याएँ अधिक) / पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में 35 बोल (8 कर्म, 8 कर्मोदय, 1 वेद, 1 दर्शनमोह, 1 चारित्रमोह, 3 शरीर, 4 संज्ञा, 4 लेश्या, 1 दृष्टि, 2 अज्ञान, 2 अज्ञान के विषय, यों कुल 35) / अग्निकाय में 34 बोल(उपर्युक्त 35 में से 1 लेश्या कम) / वायुकाय में 35 बोल (उपर्युक्त 34 में 1 शरीर बढ़ा)। तीन विकलेन्द्रिय में 36 बोल, (उपर्युक्त 34 में 1 दृष्टि, 2 ज्ञान और दो ज्ञान के विषय बढ़े)। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में 50 बोल, (55 में से 1 शरीर, 2 ज्ञान, 2 ज्ञान के विषय 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 721, (ख) भगवती. खण्ड 4 (पं भगवानदास दोशी), पृ. 115 Page #2255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 7] कम हुए) तथा मनुष्य में 55 बोल पाए जाते हैं / 24 दण्डकों में 55 में जितने-जितने बोल पाए जाते है, उनमें से प्रत्येक में त्रिविध बन्ध होते हैं।' // वीसवाँ शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती उपक्रम पृ. 459 पगड़ी 8 उदये 8 वेए 3 दसणमोहे चरिते य / ओरालिय-वेउविय-आहारग-तेय-कम्मए चेव // 12 // सन्ना 4 लेस्सा 6 दिट्ठी 3 जाणाऽणाणेसु 5+3, तम्चिसए 8 / जीवप्पयोगबंधे अणतर-परंपरेच बोद्धन्वे / 1 // 2 // अ. व. Page #2256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'भूमी' आठवाँ उद्देशक : (कर्म-अकर्म) भूमि (आदि-सम्बन्धी) कर्मभूमियों और अकर्मभूमियों की संख्या का निरूपण 1. कति णं भंते ! कम्मभूमीनो पन्नत्तानो ? गोयमा ! पन्नरस कम्मभूमीनो पन्नत्तानो, तं जहा--पंच भरहाई, पंच एरवताई, पंच महाविदेहाई। [1 प्र.] भगवन् ! कर्मभूमियां कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! कर्मभूमियां पन्द्रह कही गई हैं। यथा-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह। 2. कति णं भंते ! अकम्मभूमीओ पन्नत्तानो ? गोयमा ! तीसं अकम्मभूमीप्रो पन्नत्तानो, तं जहा-पंच हेमवयाई, पंच हेरण्णवयाई, पंच हरिवासाई, पंच रम्मगवासाई, पंच देवकुरूश्रो, पंच उत्तरकुरूयो। [2 प्र.] भगवन् ! अकर्मभूमियां कितनी कही गई हैं ? |2 उ. | गौतम! अकर्मभूमियां तीस कही गई हैं। यथा-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु, और पांच उत्तरकुरु / / विवेचन-कर्मभूमि और अकर्मभूमि-जिन क्षेत्रों में असि (शस्त्रास्त्र और युद्धविद्या,) मसि (लेखन और अध्ययन-अध्यापनादि) तथा कृषि (खेतीबाड़ी तथा आजीविका के अन्य उपाय) रूप कर्म (व्यवसाय) हों, उन्हें 'कर्मभूमि' कहते हैं / जहाँ असि, मषि, कृषि आदि न हों, किन्तु कल्पवृक्षों से निर्वाह होता हो, उन्हें 'अकर्मभूमि' कहते हैं। ___ कर्मभूमियां कहाँ-कहाँ?—जम्बूद्वीप में एक भरत, एक ऐरवत और एक महाविदेह है। धातकीखण्डद्वीप में दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह हैं / अर्धपुष्करद्वीप में दो भरत, दो ऐरवत और दो महाविदेह हैं / इस प्रकार कुल 15 कर्मभूमियां हैं। तीस अकर्मभूमियां कहाँ-कहाँ ?–तीस अकर्मभूमियों में से एक हैमवत, एक हैरण्यवत, एक हरिवर्ष, एक रम्यकवर्ष, एक देवकुरु और एक उत्तरकुरु, ये छह क्षेत्र जम्बूद्वीप में हैं और इनसे दुगुने-बारह क्षेत्र धातकीखण्डद्वीप में और बारह क्षेत्र अर्धपुष्करद्वीप में हैं।' 1. भगवती, विवेचन (पं. घेवरचन्द जी) भा. 6, पृ. 2901 Page #2257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसमा शतक : उद्देशक 8] प्रकर्मभूमि और कर्मभूमि के विविध क्षेत्रों में उत्सपिणो और अवसपिरणी काल के सद भाव-प्रभाव का निरूपण 3. एयासु णं भंते ! तीसासु अकम्मभूमीसु अस्थि प्रोस प्पिणी ति वा, उस्सप्पिणी ति वा ? को तिणट्ठ सम। 3 प्र. भगवन् ! इन (उपर्युक्त) तीस अकर्मभूमियों में क्या उत्सर्पिणी और अवपिणीरूप काल हैं ? | 3 उ.] (गौतम! ) यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। 4. एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएस, अस्थि प्रोसप्पिणी ति वा, उस्सप्पिणी ति वा? हंता, अस्थि / [4 प्र. भगवन् ! इन पांच भरत और पांच ऐरवत (क्षेत्रों) में क्या उत्सर्पिणी और अवपिणी रूप काल है ? [4 उ.] हाँ, (गौतम!) है / 5. एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु० ? णेवत्थि प्रोसप्पिणी, नेवत्थि उस्सप्पिणी, अवढिए णं तत्थ काले पन्नत्ते समणाउसो ! [5 प्र.| भगवन् ! इन (उपर्युक्त) पांच महाविदेह क्षेत्रों में क्या उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणी रूप काल है ? [5 उ.] अायुष्मन् श्रमण ! वहाँ न तो उत्सर्पिणीकाल है और न अवपिणीकाल है। वहाँ (एकमात्र) अवस्थित काल कहा गया है। विवेचन-उत्सपिणी और अवसपिणी काल का स्वरूप-- जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान उत्तरोत्तर अधिकाधिक शुभ होते चले जाएँ, आयु और अवगाहना उत्तरोत्तर बढ़ती जाए तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम को भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाए, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं। इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी क्रमशः शुभ, शुभतर होते जाते हैं / अर्थात -अशुभतम, अशुभतर और अशुभ भाव क्रमश:-क्रमश: शुभ, शुभतर और शुभतम हो जाते हैं। इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते क्रमश: उच्चतम अवस्था आ जाती है / उत्सपिणीकाल का कालमान दस कोडाकोडी सागरोपमवर्ष का होता है। जिस काल में संहनन और संस्थान क्रमश: अधिकाधिक होन होते जाएँ, प्रायु और अवगाहना भी उत्तरोत्तर घटती चली जाए तथा उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम का क्रमश: ह्रास होता जाए, उसे 'अवसर्पिणीकाल' कहते हैं। अवपिणीकाल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन, हीनतर होते जाते हैं। शुभभाव घटते जाते हैं, अशुभभाव बढ़ते जाते हैं। अवसर्पिणीकाल का कालमान भी दस कोडाकोड़ी सागरोपम वर्ष का होता है।' 1. भगवती. विवेचन (पं. घेवर चन्दजी) भा. 6, पृ. 2902 Page #2258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] অ্যাসঙ্গি अरहंतों द्वारा महाविदेह और भरत-ऐरवतक्षेत्र में कौन-कौन से धर्म का निरूपण ? 6. एएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु परहंता भगवंतो पंचमहन्वतियं सपडिक्कमणं धम्म पण्णवयंति? णो तिण? सम? / एएसु णं पंचसु भरहेसु, पंचसु एरवएसु पुरिम-पच्छिमगा दुवे प्ररहता भगवंतो पंचमहन्वतियं (पंचाणुब्वइयं) सपडिक्कमणं धम्मं पण्णवयंति, प्रवसेसा णं प्ररहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति / एएसु णं पंचसु महाविदेहेसु प्ररहंता भगवंतो चाउज्जामं धम्म पण्णवयंति। [6 प्र.] भगवन् ! इन ( उपर्युक्त ) पांच महाविदेह क्षेत्रों में अरहन्त भगवन्त क्या सप्रतिक्रमण पंच-महाव्रत वाले धर्म का उपदेश करते हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। इन (उपर्युक्त) पांच भरत क्षेत्रों में तथा पांच ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम ये दो अरहन्त भगवन्त सप्रतिक्रमण पांच महावतों वाले धर्म का उपदेश करते हैं। शेष (बाईस) अरहन्त भगवन्त चातुर्याम (चार यामरूप) धर्म का उपदेश करते हैं और पांच महाविदेह क्षेत्रों में भी अरिहन्त भगवन्त चातुर्याम-धर्म का उपदेश करते हैं। विवेचन-फलितार्थ-पांच भरत और ऐरवत क्षेत्रों में प्रथम और अन्तिम तीर्थकर भगवान् प्रतिक्रमण-सहित पंचमहावतरूप धर्म की प्ररूपणा करते हैं, शेष बाईस तीर्थकर भगवान् तथा पांच महाविदेह क्षेत्र में होने वाले तीर्थंकर भगवान् चातुर्याम-धर्म की प्ररूपणा करते हैं / भरतक्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणीकाल में चौवीस तीर्थंकरों के नाम 7. जंबुद्दोवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए कति तित्थयरा पन्नत्ता? गोयमा ! चउवीसं तित्थयरा पन्नत्ता, तं जहा-उसभ-अजिय-संभव-अभिनंदण-सुमति-सुप्पभसुपास-ससि-पुष्पदंत-सोयल-सेज्जंस-वासुपुज्ज-विमल-अणंतइ-धम्म-संति-कुथु-अर-मल्लि - मुणिसुव्वयनमि-नेमि-पास-वद्धमाणा। [7 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र (भारतवर्ष) में इस अवपिणी काल में कितने तीर्थकर हुए हैं ? [7 उ.] गौतम ! चौवीस तीर्थंकर हए हैं। यथा-१. ऋषभ, 2. अजित, 3. सम्भव, 4. अभिनन्दन, 5. सुमति, 6. सुप्रभ (पद्मप्रभ), 7. सुपार्श्व, 8. शशी (चन्द्रप्रभ), 6. पुष्पदन्त (सुविधि), 10. शीतल, 11. श्रेयांस, 12. वासुपूज्य, 13. विमल, 14. अनन्त, 15. धर्म, 16. शान्ति, 17. कुन्थु 18. अर, 19. मल्लि, 20. मुनिसुव्रत, 21. नमि, 22. नेमि, 23. पार्श्व और 24. वर्द्धमान (महावीर)। विवेचन-कतिपय तीर्थंकरों के नामान्तर-प्रस्तुत सूत्र में कितने ही तीथंकरों के दूसरे नाम का उल्लेख किया गया है / यथा-पद्मप्रभ का सुप्रभ, चन्द्रप्रभ का शशी, सुविधिनाथ का पुष्पदन्त, अरिष्टनेमि का नेमि और महावीर का वर्द्धमान नाम से उल्लेख किया गया है। Page #2259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 8] [61 चौवीस तीर्थकरों के अन्तर तथा तेईस जिनान्तरों में कालिकश्रुत के व्यवच्छेद-अव्यवच्छेद का निरूपण 8. एएसिणं भंते ! चउबीसाए तित्थयराणं कति जिणंतरा पन्नत्ता? गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा पन्नत्ता। 8 प्र.] भगवन् ! इन चौवीस तीर्थंकरों के कितने जिनान्तर (तीर्थंकरों के व्यवधान) कहे गए हैं ? [8 उ.] गौतम ! इनके तेईस अन्तर कहे गए हैं / 6. एएसु णं भंते ! तेवीसाए जिणंतरेसु कस्स कहि कालियसुयस्स बोच्छेदे पन्नते? गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिम-पच्छिमएसु अट्ठसु असु जिणंतरेसु, एत्थ णं कालियसुयस्स अवोच्छेदे पश्नत्त, मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स बोच्छेदे पन्नत्ते, सम्वत्थ वि णं वोच्छिन्ने दिट्ठिवाए। [प्र.] भगवन् ! इन तेईस जिनान्तरों में किस जिन के अन्तर में कब कालिकश्रुत (सूत्र) का विच्छेद (लोप) कहा गया है ? [6 उ.] गौतम ! इन तेईस जिनान्तरों में से पहले और पीछे के पाठ-आठ जिनान्तरों (के समय) में कालिकश्रुत (सूत्र) का अव्यवच्छेद (लोप नहीं) कहा गया है और मध्य के पाठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का व्यवच्छेद कहा गया है; किन्तु दृष्टिवाद का व्यवच्छेद सो सभी जिनान्तरों (के समय) में हुआ है। विवेचन–कालिकश्रुत और अकालिकश्रुत का स्वरूप-जिन सूत्रों (शास्त्रों) का स्वाध्याय दिन और रात्रि के पहले और अन्तिम पहर में ही किया जाता हो, उन्हें कालिकश्रुत कहते हैं। जैसे-आचारांग आदि 23 सूत्र, (11 अंगशास्त्र, निरयावलिका आदि 5 सूत्र, चार छेदसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और उत्तराध्ययनसूत्र) / जिन सूत्रों का स्वाध्याय (अस्वाध्याय के समय या परिस्थिति को छोड़कर) सभी समय किया जा सकता हो, उन्हें उत्कालिकश्रुत कहते हैं। जैसे दशवैकालिक आदि 9 सूत्र (दशवकालिक, नन्दीसूत्र, अनुयोगद्वार, औपपातिकसूत्र, राजप्रश्नीय, सूर्यप्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, प्रज्ञापना और आवश्यकसूत्र। कालिकश्रु त का विच्छेद कब और कितने काल तक? नौवें तीर्थंकर श्रीसुविधिनाथ से ले कर सोलहवें तीर्थकर श्रीशान्तिनाथ भगवान तक सात अन्तरों (मध्यकाल) में कालिकश्रुत का विच्छेद (लोप) हो गया था और दृष्टिवाद का विच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ और होता है। सात जिनान्तरों में कालिकश्रुत का विच्छेदकाल इस प्रकार है-सुविधिनाथ और शीतलनाथ के बीच में पल्योपम के चतुर्थ भाग तक, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के बीच में पल्योपम के चतुर्थभाग तक, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य स्वामी के बीच में पल्योपम के तीन चौथाई भाग (पौन पल्योपम) तक, वासुपूज्य और विमलनाथ के मध्य में एक पल्योपम तक, विमलनाथ और अनन्तनाथ के मध्य में Page #2260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पल्योपम के तीन चौथाई भाग, अनन्तनाथ और धर्मनाथ के मध्य में पल्योपम के चतुर्थभाग तक तथा धर्मनाथ और शान्तिनाथ के मध्य में पल्योपम के चतुर्थ भाग तक कालिकश्रुत त का विच्छेद हो गया था। इसकी एक संग्रहणीगाशा इस प्रकार है "चउभागो 1 चउभागो 2 तिणि य, चउभाग 3 पलियमेगं च 4 / तिण्णव चउभागा 5 चउत्थभागो य 6 चउभागो 7 / ' भ. महावीर और शेष तीर्थकरों के समय में पूर्वश्रुत की अविच्छिन्नता की कालावधि 10. जंबुद्दोवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमोसे श्रोसप्पिणीए देवाणुपियाणं के वितियं कालं पुध्वगए अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुवंगए अणुसज्जिस्सति / [10 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष (भरतक्षेत्र) में इस अवपिणीकाल में प्राप देवानुप्रिय का पूर्वगतश्रुत कितने काल तक (स्थायी) रहेगा ? [10 उ. गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवपिणी काल में मेरा पूर्वगतश्रुत एक हजार वर्ष तक (अविच्छिन्न) रहेगा। 11. जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए देवाणुपियाणं एग वाससहस्सं पुम्वगए अणुसज्जिस्सति तहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए अवसेसाणं तित्थगराणं केवतियं कालं पुव्वगए अणुसज्जित्था ? गोयमा ! अत्थेगइयाणं संखेज्जं कालं, अत्थेगइयाणं असंखेज्जं कालं / (11 प्र.] भगवन् ! जिस प्रकार इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, इस अवसपिणीकाल में, प्राप देवानुप्रिय का पूर्वगतश्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा, भगवन् ! उसो प्रकार जम्बुद्वीप के भारतवर्ष में, इस अवपिणीकाल में अवशिष्ट अन्य तीर्थंकरों का पूर्वगतश्रुत कितने काल तक (अविच्छिन्न) रहा था? |11 उ.] गौतम ! कितने ही तीर्थकरों का पूर्वगतश्रुत संख्यात काल तक रहा और कितने ही तीर्थंकरों का असंख्यात काल तक रहा / भगवान महावीर और भावी तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ को अविच्छिन्नता की कालावधि 12. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए देवाणुपियाणं केवतियं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 793 (ख) भगवती. विवेचन, भाग 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2105 ----- --- Page #2261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 8] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए मम एक्कवीसं बाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति / 12 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ कितने काल तक (अविच्छिन्न) रहेगा ? [12 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक (अविच्छिन्न) रहेगा। 13. जहा णं भंते जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए देवाणुपियाणं एक्कवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति तहा भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे प्रागमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतियं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जावतिए णं उसभस्स परहनो कोसलियस्स जिणपरियाए तावतियाई संखेज्जाइं प्रागमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स तित्थे अणुसज्जिस्सति / [13 प्र. भगवन् ! जिस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय. का तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा, हे भगवन् ! उसी प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ कितने काल तक अविच्छिन्न रहेगा? [13 उ. गौतम ! कौलिक (कौशलदेशोत्पन्न) ऋषभदेव अरहन्त का जितना जिनपर्याय है, उतने (एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व) वर्ष तक भावी तीर्थकारों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ रहेगा। विवेचन--पूर्वश्रुत और तीर्थ : स्वरूप और अविच्छिन्नत्व की कालावधि---पूर्वश्रुत वह है, जो अतिप्राचीन है / इन सभी शास्त्रों से बहुत पहले का है, विशिष्ट श्रुतज्ञानी अथवा अतिशयज्ञानी हो जिसकी वाचना दे सकते हैं / वह पूर्वश्रुत 14 प्रकार का है। यथा-उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व प्रादि / तीर्थ का यहाँ अर्थ है--धर्मतीर्थ धर्मसंघ या धर्ममयशासन / प्रत्येक तीर्थकर नये तीर्थ (संघ) की स्थापना करता है। यहां बताया गया है कि भगवान महावीर का पूर्वगतश्रुत एक हजार वर्ष तक अविच्छिन्न रहेगा, जबकि अन्य तीर्थंकरों में से कई तीर्थंकरों (पार्श्वनाथ आदि) का पूर्वश्रुत संख्यात काल तक रहा था और कई (ऋषभदेव आदि) तीर्थंकरों का पूर्वश्रुत असंख्यात काल तक रहा था। इसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर का तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा, जबकि पश्चानुपूर्वी के कम से पार्श्वनाथ आदि तीर्थकरों का तीर्थ संख्यात काल तक रहा था और ऋषभदेव आदि का तीर्थ' असंख्यात काल तक रहा था। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 793 (ख) भगवती विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 29017 Page #2262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तीर्थ और प्रवचन क्या और कौन ? 14. तित्थं भंते ! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ? गोयमा ! परहा ताव नियमं तित्थगरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णो समणसंघो, तंजहासमणा समणोमो सावगा साविगाम्रो / [14 प्र.] भगवन ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं अथवा तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं ? [14 उ.] गौतम ! अर्हन (अरिहन्त) तो अवश्य (नियम से) तीर्थकर हैं, (तीर्थ नहीं), किन्तु तीर्थ चार प्रकार के वर्णी (वर्गों) से युक्त श्रमणसंघ है। यथा-श्रमण, श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएँ। 15. पवयणं भंते ! पवयणं, पावयणी पवयणं? गोयमा ! अरहा ताव नियम पावयणी, पवयणं पुण दुवालसंगे गणिपिडगे, तंजहा-पायारो जाव दिदिवाओ। {15 प्र.] भगवन् ! प्रवचन को ही प्रवचन कहते हैं, अथवा प्रवचनी को प्रवचन कहते हैं ? [15 उ.] गौतम ! अरिहन्त तो अवश्य (निश्चितरूप से) प्रवचनी हैं (प्रवचन नहीं), किन्तु द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन हैं। यथा-आचारांग यावत् दृष्टिवाद। विवेचन-तीर्थ क्या है और क्या नहीं ? संघ को तीर्थ कहते हैं / वह ज्ञानादिगुणों से युक्त होता है / तीर्थंकर स्वय तीर्थ नहीं होते, वे तीर्थ के प्रवर्तक-संस्थापक होते हैं / चाउवण्णाइण्णे : विशेषार्थ-जिसमें श्रमणादि चार वर्ण (वर्ग) हों, वह चतुर्वर्ण, उसके गुणों, क्षमादि तथा ज्ञानादि आचरणों से आकीर्ण-व्याप्त श्रमणसंघ है / चतुर्वर्ण से यहाँ ब्राह्मणादि चार वर्ण नहीं, किन्तु श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्वर्ण समझना चाहिए / __ प्रवचन क्या है, क्या नहीं ? प्रवचन का अर्थ है जो वचन प्रकर्ष रूप से कहा जाए अर्थात् जो मुक्तिमार्ग का प्रदर्शक हो, प्रात्महितकारी हो, अबाधित हो उसे प्रवचन कहते हैं / उसका दूसरा नाम 'पागम' है / तीर्थंकर प्रवचनों के प्रणेता- प्रवचनी होते हैं, प्रवचन नहीं।' निर्ग्रन्थ-धर्म में प्रविष्ट उग्रादि क्षत्रियों द्वारा रत्नत्रयसाधना से सिद्धगति या देवति में गमन तथा चतुर्विध देवलोक-निरूपरण 16. जे इमे भंते ! उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा नाया कोरब्वा, एए णं अस्सि धम्मे प्रोगाहंति, अस्सि अट्टविहं कम्मरयमलं पवाहेति, अढ० पवा० 2 ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेंति ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 793 (ख) प्रकर्षणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनम् ----ग्रागमः / . (ग) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचंदजी), पृ.२९०८ Page #2263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्द शक 8] हता, गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा० तं चेव जाव अंतं करेंति। अत्थेगइया अनयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववत्तारो भवंति / [16 प्र.] भगवन् ! जो ये उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरव्यकुल हैं, वे (इन कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय) क्या इस धर्म में प्रवेश करते हैं और प्रवेश करके अष्टविध कर्मरूपी रज-मैल को धोते हैं और नष्ट करते हैं ? तत्पश्चात् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ? [16 उ.] हाँ गौतम ! जो ये उन ग्रादि कुलों में उत्पन्न क्षत्रिय हैं, वे यावत् सर्व दु:खों का अन्त करते हैं; अथवा कितने ही किन्हीं देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं / 17. कतिविधा णं भंते ! देवलोया पन्नत्ता? गोयमा! चउन्विहा देवलोगा पन्नत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोतिसिया वेमाणिया। सेवं भंते ! सवं भंते ! तिः / // वीसइमे सए : अट्ठमो उद्द सओ समत्तो॥२०-८॥ [17 प्र.] भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे हैं ? [17 उ.] गौतम ! देवलोक चार प्रकार के कहे हैं। यथा-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। __ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-किन उग्रादि क्षत्रियों की सिद्धगति या देवगति ? जो क्षत्रिय निरर्थक या राज्यलिप्सावश भयंकर नरसंहार करते हैं, महारम्भी-महापरिग्रही या निदानकर्ता आदि हैं उन्हें स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त नहीं होता, किन्तु जो निम्रन्थधर्म (मुनिधर्म) में प्रविष्ट होते हैं, ज्ञानादि की उत्कृष्ट साधना करके अष्टकर्म क्षय करते हैं, वे ही मुक्त होते हैं, शेष देवलोक में जाते हैं / यही इस सूत्र का आशय है। ॥वीसौं शतक : अष्टम उद्देशक समाप्त / / Page #2264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : 'चारण' नौवाँ उद्देशक : चारण (-मुनि सम्बन्धी) चारण मुनि के दो प्रकार : विद्याचारग और जंघाचरण 1. कतिविधा णं भंते ! चारणा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा चारणा पन्नत्ता, तं जहा-विज्जाचारणा य जंघाचारणा य / [1 प्र.] भगवन् ! चारण कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! चारण दो प्रकार के कहे हैं, यथा-- विद्याचारण और जंधाचारण / विवेचन-चारण मुनि : स्वरूप और प्रकार लब्धि के प्रभाव से आकाश में अतिशय गमन करने की शक्ति वाले मुनि को 'चारण' कहते हैं। चारण मुनि दो प्रकार के होते हैं—विद्याचारण और जंघाचारण। पूर्वगत श्रुत (शास्त्रज्ञान) से तीन गमन करने की लब्धि को प्राप्त मुनि 'विद्याचारण' कहलाते हैं और जंघा के व्यापार से गमन करने की लब्धि बाले मुनिराज को जंघाचारण कहते हैं।' विद्याचारपलब्धि समुत्पन्न होने से विद्याचारण कहलाता है 2. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति--विज्जाचारणे विज्जाचारणे? गोयमा ! तस्स णं छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं विज्जाए उत्तरगुणाद्ध खममाणस्स विजाचारणलद्धी नाम लद्धी समुपज्जति, सेतेणठेणं जाव विज्जाचारणे विज्जाचारणे / [2 प्र.] भगवन् ! विद्याचारण मुनि को 'विद्याचारण' क्यों कहते हैं ? [2 उ.] अन्तर-(व्यवधान) रहित छ?-छ? (बेले-बेले) के तपश्चरणपूर्वक पूर्वश्रुतरूप विद्या द्वारा उत्तरगुणलब्धि (तपोलब्धि)को प्राप्त मुनि को विद्याचारणलब्धि नाम की लब्धि उत्पन्न होती है। इस कारण से यावत् वे विद्याचारण कहलाते हैं। विवेचन-विद्याचारणलब्धि की प्राप्ति का उपाय--विद्याचारणलब्धि की प्राप्ति उसी मुनि को होती है, जिसने पूर्वो का विधिवत अध्ययन किया हो तथा जिसने बीच में व्यवधान किये बिना लगातार बेले-बेले की तपस्या को हो एवं जिसे उत्तरगुण अर्थात् पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरगुणों में 1. (क) चरणं--गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्तीति चारणाः। विद्या-श्रुत, तरूच पूर्वगतं, तत्कृतोपकाराप्रचारणा विद्याचारणाः / जंधाव्यापारकृतोपकाराश्चारणा जंघाचारणाः / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 794 (ख) 'अइसय-चरण-समत्था, जंधा-विज्जाहिं चारणा मुणग्रो। . जंघाहि जाइ पढमो, निस्सं काउं रविकरे वि // 1 // ' -प्र. वृत्ति, पत्र 794 Page #2265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 9) पराक्रम करने से उत्तरगुणलब्धि, अर्थात्-तपोलब्धि प्राप्त हो गई हो / यही विद्याचारणलब्धि है, जिसके प्रभाव से वह मुनि आकाश में शीघ्रगति से गमन कर सकता है।' खममाणस्स-सहने वाले-तपश्चर्या करने वाले को / विद्याचारण को शीघ्र, तिर्यक एवं ऊर्ध्वगति-सामर्थ्य तथा विषय 3. विज्जाचारणस्स णं भंते ! कहं सोहा गती ? कहं सोहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दोवे दीवे सव्वदीव० जाव किनिविसेसाहिए परिक्खयेणं, देवे णं महिड्डीए जाव महेसक्खे जाव 'इणामेव इणामेव' त्ति कटु केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहि अच्छरानिवाएहि तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हबमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स णं गोयमा! तहा सोहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नते। |3. प्र. भगवन् ! विद्याचारण की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उसका गति-विषय कितना शीघ्र होता है ? [3 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप, जो सर्वद्वीपों में (आभ्यन्तर है,) यावत् जिसकी परिधि (तीन लाख सोलह हजार दो सो सत्ताईस योजन से) कुछ विशेषाधिक है, उस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के चारों ओर कोई महद्धिक यावत् महासौख्य-सम्पन्न देव यावत्--- 'यह चक्कर लगा कर आता हूँ' यों कहकर तीन चुटकी बजाए उतने समय में, तीन वार चक्कर लगा कर पा जाए, ऐसी शीघ्र गति विद्याचारण की है। उसका इस प्रकार का शीघ्रगति का विषय कहा है। 4. विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से णं इप्रो एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति, माणु० क०२ तहि चेतियाइं वंदति, तहिं० 0 2 बितिएणं उप्याएणं नंदिस्सरवरे दोबे समोसरणं करेति, नंदि० क० 2 तहिं चेतियाइं वंदति, तहि. वं० 2 तो पडिनियत्तति, त० प० 2 इहमागच्छति, इहमा०२ इहं चेतियाई वंदइ / विज्जाचारणस्स णं गोयमा! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते। [4 प्र.] भगवन् ! विद्याचारण की तिरछी (तिर्यग्) गति का विषय कितना कहा है ? [4 उ.] गौतम ! वह (विद्याचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात (उड़ान) से मानुषोत्तरपर्वत पर समवसरण करता है (अर्थात् वहाँ जा कर ठहरता है)। फिर वहाँ चैत्यों (ज्ञानियों) की स्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से दूसरे उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण (स्थिति) करता है, फिर वहाँ चैत्यों की वन्दना (स्तुति) करता है, तत्पश्चात् वहाँ से (एक ही उत्पात में) वापस लौटता है और यहाँ पा जाता है। यहाँ आकर चैत्यवन्दन करता है। गौतम विद्याचरण ! मुनि की 'तिरछी गति का विषय ऐसा कहा गया है / 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 795 (ख) भगवती. उपक्रम, पृ. 463 Page #2266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. विज्जाचारणस्स णं भंते ! उड्ढं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरणं करेति, नं० क० 2 तहिं चेतियाई वंदह, तहि वं०२ बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेइ, पंक०२ तहि चेतियाइं बंदति, तहि बं० 2 तओ पडिनियत्तति, तमो० प० 2 इहमागच्छति, इहमा० 2 इहं चेतियाइं बंदइ / विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढ़ एवतिए गतिविसए पन्नते। से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेति, नस्थि तस्स पाराहणा; से णं तस्स ठाणस्स प्रालोइयपडिक्कते कालं करेति, अस्थि तस्स आराहणा। [5 प्र.] भगवन् ! विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कितना कहा है ? [5 उ.] गौतम ! वह (विद्याचारण) यहाँ से एक उत्पात से नन्दनवन में समवसरण (स्थिति) करता है। वहाँ ठहर कर वह चैत्यों की वन्दना करता है। फिर वहाँ से दूसरे उत्पात से पण्डकवन में समवसरण करता है, वहाँ भी वह चैत्यों की वन्दना करता है। फिर वहाँ से वह लौटता है और वापस यहाँ प्रा जाता है। यहाँ पाकर वह चैत्यों की वन्दना करता है / हे गौतम ! विद्याचारण मुनि की ऊर्ध्वगति का विषय ऐसा कहा गया है। यदि वह विद्याचारण मुनि (लब्धि का प्रयोग करने सम्बन्धी) उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये विना ही काल कर (मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो उसकी (चारित्र.) आराधना नहीं होती और यदि वह विद्याचारण मुनि उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी (चारित्र-आराधना होती है। विवेचन-विद्याचारण की शीघ्रगति का परिमाण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (3-4-5) में से प्रथम सूत्र में विद्याचारण मुनि का सार्वत्रिक (सर्व दिशागत) गमनक्रिया की तीव्रता का परिमाण तीन चुटकी बजाने जितने समय में एक महद्धिक देव द्वारा तीन बार सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का चक्कर लगा कर आने जितना बताया गया है। द्वितीय और तृतीय सूत्र में क्रमशः उसकी तिर्यम्गति और ऊर्ध्वगति के विषय (क्षेत्र) का प्रतिपादन है। कठिन शब्दार्थ-सीहा--शीघ्र / उपाएण-उत्पातउड़ान से / विद्याचारण की तिर्यक् और ऊर्ध्व गति का विषय-प्रस्तुत सूत्रद्वय मे कहा गया है कि विद्याचारण का गमन दो उत्पात से और आगमन एक उत्पात से होता है। इसका कारण उक्त लब्धि का स्वभाव समझना चाहिए। किन्हीं प्राचार्यों का मत है कि विद्याचारण की विद्या प्राते समय विशेष अभ्यास वाली हो जाती है, किन्तु गमन के समय में वैसी अभ्यास बाली नहीं होती। इस कारण आते समय वह एक ही उत्पात में यहाँ पा जाता है, किन्तु जाते समय दो उत्पात से वहाँ पहुँचता है।' मानुषोत्तरपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप, नन्दनवन एवं पण्डकवन में समवसरण एवं चत्यवन्दन : विशेष संगत अर्थ और भ्रान्तिनिवारण प्रस्तुत में समवसरण का अर्थ-धर्मसभा नहीं, किन्तु सम्यक रूप से अवसरण-अवस्थान यानी ठहरना या स्थित होना है / यहाँ समवसरण का धर्मसभा अर्थ 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 Page #2267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 9) संगत नहीं हो सकता, क्योंकि एक तो समवसरण तीर्थंकरों के लिए देवों द्वारा रचित धर्मसभास्थल होता है, वह विद्याचारण या जंघाचारण जैसे मुनियों के लिए नहीं होता। दूसरे समवसरण अर्थात् धर्मसभा की रचना करने का वहां कोई औचित्य नहीं, क्योंकि वहाँ कोई श्रोता उनका धर्मोपदेश सुनने नहीं पाता / इसलिए 'समवसरणं करेति' यह वाक्यप्रयोग स्पष्ट करता है कि वहाँ चारणमुनि उतरता है-ठहरता है। 'चेतिपाइं वदति'- में चैत्य का अर्थ मन्दिर' किया जाए तो यह अर्थ यहाँ संगत नहीं होता, क्योंकि न तो मानुषोत्तरपर्वत पर मन्दिर का वर्णन है और न ही स्वस्थान अर्थात्-जहाँ से उन्होंने उत्पात (उड़ान) किया है, वहाँ भी मन्दिर है / अतः चैत्य का अर्थ मन्दिर या मूर्ति करना संगत नहीं है, अपितु 'चिति संज्ञाने' धातु से निष्पन्न 'चैत्य' शब्द का अर्थ---विशिष्ट सम्यक्ज्ञानी है तथा 'वंदइ' का अर्थ-स्तुति करना है, अभिवादन करना है, क्योंकि 'वदि अभिवादन-स्तुत्योः' के अनुसार यहाँ प्रसंगसंगत अर्थ 'स्तुति करना है। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत आदि पर अभिवादन करने योग्य कोई पुरुष नहीं रहता है, अतः वे उन-उन पर्वत, द्वीप एवं वनों में शीघ्रगति से पहुंचते हैं, वहाँ चैत्यवन्दन करते हैं, अर्थात्-विशिष्ट सम्यग्ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन जैसा उन विशिष्ट ज्ञानियों या आगमों से जाना था,' वैसा ही रचना को साक्षात् देखते हैं तब वे (चारणलब्धिधारक) उन विशिष्ट ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। गतिविषय का तात्पर्य-गतिविषय का अर्थ-तिगोचर होता है, किन्तु उसका तात्पर्य वृत्तिकार ने बताया है कि वे भले ही उन क्षेत्रों में गमन न करे, फिर भी उनका शीघ्रगति का विषयभूत क्षेत्र अमुक-अमुक है / 2 विद्याचारण : कब विराधक, कब प्राराधक ?-लब्धि का प्रयोग करना प्रमाद है / लब्धि का प्रयोग करने के बाद अन्तिम समय में पालोचना न की जाने पर चारित्र की आराधना नहीं होती, किन्त विराधना होती है। अर्थात् यदि लब्धि का प्रयोग बात यदि लब्धि का प्रयोग करने के बाद चारणलब्धिसम्पन्न साधक मरणकाल में उक्त प्रमादस्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण नहीं करता, तो वह चारित्र का विराधक होने से चारित्र की आराधना का फल नहीं पाता। इसके विपरीत यदि लब्धिप्रयोग करने के बाद चारणलब्धिसम्पन्न मुनि उस प्रमादस्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर लेता है तो वह चारित्राराधक होता है और आराधनाफल भी पाता है। जंघाचारण का स्वरूप 6. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जंघाचारणे जंघाचारणे ? गोयमा ! तस्सणं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जा / सेतेणठेणं जाव जंघाचारणे जंघाचारणे / 1. (क) भगवती. विवेचन, भाग. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2917 (ख) वियाहपण्णत्ति-सुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 880 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 3. (क) वही, पत्र 795 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6, (पं. पे.), पृ. 2916 Page #2268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रशस्तिसूत्र 6 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण को जंघाचारण क्यों कहते हैं ? [6 उ.] गौतम ! अन्तररहित (लगातार) अटुम-पट्टम (तेले-तेले) के तपश्चरण-पूर्वक प्रात्मा को भावित करते हुए मुनि को 'जंघाचारण' नामक लब्धि उत्पन्न होती है, इस कारण उसे 'जंघाचारण' कहते हैं। विवेचन-जंघाचारण का स्वरूप --पूर्वोक्त विधिपूर्वक तेले-तेले की तपश्चर्या करने वाले मुनि को जघाचारण-लब्धि प्राप्त होती है। विद्याचारण की अपेक्षा जंघाचारण की गति मात गुणी अधिक शीघ्र होती है।' जंघाचारण की शीघ्र, तिर्यक् और ऊर्ध्वगति का सामर्थ्य और विषय 7. जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सोहा गीत ? कहं सीहे गतिविसए पन्नत्ते ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे एवं जहेव विज्जाचारणस्स, नवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा। जंधाचारणस्स णं गोयमा! तहा सीहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नत्ते / सेसं तं चेव / 17 प्र. भगवन् ! जंघाचारण की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उसकी शीघ्रगति का विषय कितना होता है ? [7 उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप, यावत् (जिसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन से कुछ) विशेषाधिक है, इत्यादि समग्न वर्णन विद्याचारणवत् (जानना चाहिए)। विशेष यह है कि (कोई महद्धिक यावत् तीन चुटकी बजाए, उतने समय में इस समग्र जम्बुद्वीप की) इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र वापस लौटकर आ जाता है। हे गोतम ! जंघाचारण की इतनी शीघ्रगति और इतना शीघ्रगति-विषय कहा है / शेष कथन सब पूर्ववत् है / 8. जंघाचारणस्स गं भंते ! तिरिय केवतिए गतिविसए पन्नत्ते? गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति, रुय० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि वं० 2 ततो पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरदीवे समोसरणं करेति, नं० के० 2 तहि चेतियाई वंदति, हि० व 2 इहमागच्छति, इहमा० 2 इह चेतियाई वंदति / जंघाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते / / [8 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की तिर्थी गति का विषय कितना कहा है ? - उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात से रुचकवरद्वीप में समवसरण करता है, फिर वहाँ ठहर कर वह चैत्य-वन्दना करता है। चैत्यों की स्तुति करके लौटते समय दूसरे उत्पात से नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण करता है तथा वहाँ स्थित हो कर चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से लौटकर यहाँ पाता है। यहाँ पा कर वह चैत्य-स्तुति करता है / हे गौतम ! जंघाचारण की तिर्की गति का ऐसा (शीघ्र) गतिविषय कहा गया है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 (ख) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2916 Page #2269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोसवां शतक : उद्देशक 9] 7i1 ___E. जंघाचारणस्स णं भंते ! उड्ढ़ केवतिए गतिविसए पन्नते ? गोयमा ! से गं इप्रो एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति, स० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि वं० 2 ततो पडिनियतमाणे बितिएणं उप्पारणं नंदणवणे समोसरणं करेति, नं० क० 2 तहि चेतियाई वंदति, तहि० व 2 इहमागच्छति, इहमा० 2 इहं चेतियाई बंबइ / जंघाचारणस्स णं गोयमा ! उड्ढं एवतिए गतिविसए पन्नत्ते / से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेति, नस्थि तस्स प्राराहणा; से णं तस्स ठाणस्स पालोइयपडिक्कते कालं करेति, अस्थि तस्स पाराहणा। सेव भंते ! जाव विहरति / ॥वीसइमे सए : नवमो उद्देसओ समत्तो // 20 // [9 प्र.] भगवन् ! जंघाचारण की ऊर्ध्व-गति का विषय कितना कहा गया है ? (9 उ.] गौतम ! वह (जंघाचारण मुनि) यहाँ से एक उत्पात में पण्डकवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ ठहर कर चैत्यस्तुति करता है। फिर वहाँ से लौटते हुए दूसरे उत्पात से नन्दनवन में समवसरण करता है। फिर वहाँ चैत्यस्तुति करता है। तत्पश्चात् वहाँ से वापस यहाँ ग्रा जाता है। यहाँ पाकर चैत्यस्तुति करता है / इसीलिए हे गौतम ! जंघाचारण का ऐसा ऊर्ध्वगति का विषय कहा गया है। वह जंघाचारण उस (लब्धिप्रयोग-सम्बन्धी प्रमाद-) स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जावे तो उसकी (चरित्र.) अाराधना नहीं होती। (इसके विपरीत) यदि वह जंधाचारण उस प्रमादस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है तो उसकी अाराधना होती है। __ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--जंघाचारण का शीघ्रतर गति-सामर्थ्य-तीन चुटकी बजाने जितने समय में जंघाचारण 21 वार समग्र जम्बूद्वीप के चक्कर लगाकर लौट पाता है / यह गति विद्याचारण से सात गुणी अधिक शोघ्र है। जंघाचारण को लब्धि का ज्यों-ज्यों प्रयोग होता है, त्यों-त्यों वह अल्प सामर्थ्य वाली हो जाती है, इसलिए वह जाते समय तो एक ही उत्पात में वहाँ पहुंच जाता है, किन्तु लौटते समय दो उत्पात से पहुंचता है।' // वीसवाँ शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, 795-796 Page #2270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'सोवक्कमा जीवा' दसवाँ उद्देशक : 'सोपक्रम जीव' चौवीस दण्डकों में सोपक्रम एवं निरुपक्रम आयुष्य की प्ररूपणा 1. जीवा गं भंते ! कि सोवस्कमाउया, निस्वक्कमाउया ? गोयमा ! जीवा सोवक्कमाउया वि निरुवक्कमाउया वि। [1 प्र.] भगवन् ! जीव सोपक्रम आयुष्य वाले होते हैं या निरुपक्रम आयुष्य वाले होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जीव सोपक्रम आयुष्य वाले भी होते हैं और निरुपक्रम आयु वाले भी। 2. नेरतिया णं० पुच्छा। गोयमा ! नेरतिया नो सोवक्कमाउया, निरुवक्कमाउया। [2 प्र.] भगवन् ! नै रयिक सोपक्रम आयुष्य वाले होते हैं, अथवा निरुपक्रम आयुष्य वाले ? [2 उ.] गौतम ! नैरयिक जीव सोपक्रम आयुष्य वाले नहीं होते, वे निरुपक्रम आयुष्य वाले होते हैं / 3. एवं जाव थपियकुमारा। [3] इसी प्रकार (नै रयिकों के समान) यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त (जानना चाहिए)। 4. पुढविकाइया जहा जीवा / [4] पृथ्वीकायिकों का आयुष्य औधिक जीवों के (सू. 1 के अनुसार) जानना चाहिए / 5. एवं जाव मणुस्सा। [5] इसी प्रकार यावत् मनुष्य-पर्यन्त कहना चाहिए। 6. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। [6] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का (आयुष्यसम्बन्धी कथन) नैरयिकों के समान है। विवेचन-सोपक्रम और निरुपक्रम प्रायुष्य वालों का लक्षण सोपक्रम और निरुपक्रम, ये दोनों जैनपारिभाषिक शब्द हैं। उपक्रम कहते हैं-(व्यवहार से) अप्राप्तकाल (असमय) में ही आयुष्य के समाप्त हो जाने को। जिन जीवों का आयुष्य उपक्रम सहित है, वे सोपक्रमायुष्क कहलाते हैं, इसके विपरीत जिन जीवों का आयुष्य बीच में टूटता नहीं है, असमय में समाप्त नहीं होता, वे निरुपक्रम कहलाते हैं।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 795 (ख) भगवती. विवेचन, भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2921 Page #2271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसवां शतक : उद्देशक 10] फलितार्थ-चारों जाति के देव और नारक निरुपक्रमायुष्क होते हैं। शेष संसारी जीवों में दोनों ही प्रकार की आयु वाले जीव होते हैं। मनुष्यों और तिर्यञ्चों में असंख्यात वर्ष की आयु वाले तथा चरमशरीरी मनुष्य और उत्तमपुरुष निरुपक्रमायुष्क होते हैं / शेष मनुष्य, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों का दोनों ही प्रकार का प्रायुष्य होता है -सोपक्रम भी, निरुपक्रम भी / ' चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति और उद वर्तना की प्रात्मोपक्रम-परोपक्रम आदि विभिन्न पहलुओं से प्ररूपरणा 7. नेरतिया णं भंते ! कि प्रानोवक्कमेण उववज्जति, परोवक्कमेणं उववज्जति, निरुवक्कमेणं उववति ? गोयमा! आतोवक्कमेण वि उववज्जति, परोवक्कमेण वि उववज्जंति, निरुवक्कमेण वि उवयजति / [7 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जीव, प्रात्मोपक्रम से, परोक्रम से या निरुपक्रम से उत्पन्न होते हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे प्रात्मोपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं, परोपक्रम से भी और निरुपक्रम से भी उत्पन्न होते हैं। 8. एवं जाव वेमाणिया। [8] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 1. नेरतिया णं भते ! कि आरोवक्कमेणं उग्वीति, परोवक्कमेणं उध्वटंति, निरुवक्कमेणं उम्वति ? गोयमा ! नो प्रापोवक्कमेणं उध्वति, नो परोवक्कमेणं उन्वटेंति, निरुवक्कमेणं उम्वति। [9 प्र.] भगवन् ! नैरयिक आत्मोपक्रम से उद्वर्त्तते (मरते) हैं अथवा परोपक्रम से या निरुपक्रम से उद्वर्तते हैं ? [9 उ.] गौतम ! वे न तो आत्मोपक्रम से उद्वर्त्तते हैं और न परोपक्रम से; किन्तु निरुपक्रम से उद्वतित होते हैं। 10. एवं जाव थणियकुमारा। [10] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारपर्यन्त कहना चाहिए। 1. 'वेवा नेर इया विय, असंखवासाउया य तिरि-मणुआ। उत्तमपुरिसा य तहा चरिमसरोरा निरुवक्कमा // 1 // सेसा संसारत्था हवेज, सोवक्कमा उ इयरे य। सोवक्कम-मिरवक्कम-भेओ, भणिओ समासेणं // 2 // ' ---भगवती. अ. ब. पत्र 795 Page #2272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 11. पुढविकाइया जाव मणुस्सा तिसु उच्चति / [11] पृथ्वीकायिकों से लेकर यावत् मनुष्यों तक का उद्वर्तन (उपर्युक्त) तीनों ही उपक्रमों से होता है। 12. सेसा जहा नेरइया, नवरं जोतिसिय-वैमाणिया चयंति / [12] शेष सब जीवों का उद्वर्तन नै रयिकों के समान कहना चाहिए। विशेष यह है, कि ज्योतिष्क एवं वैमानिक के लिए ('उद्वर्त्तन करते हैं' के बदले) च्यवन करते हैं, (कहना चाहिए / ) 13 नेरतिया गं भंते ! कि प्रातिडीए उववज्जति, परिड्डीए उववज्जति ? गोयमा ! आतिड्डीए उववज्जति, नो परिडीए उववति / [13 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव प्रात्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं या परऋद्धि से उत्पन्न होते हैं ? [13 उ.] गौतम ! वे आत्मऋद्धि से उत्पन्न होते हैं. परऋद्धि से उत्पन्न नहीं होते। 14. एवजाव वेमाणिया। [14] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / 15. नेरतिया भंते ! कि आतिडीए उन्बट्टति, परिडीए उव्वति ? गोयमा ! प्रातिड्ढोए उबटेंति, नो परिड्डीए उम्पटेति / [15 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव प्रात्मऋद्धि से उत्तित होते हैं या पर ऋद्धि से उद्वतित होते (मरते) हैं ? [15 उ.] गौतम ! वे (नरयिक) प्रात्मऋद्धि से उद्वर्तित होते हैं, किन्तु पर ऋद्धि से उद्वर्तित नहीं होते। 16. एवं जाव वेमाणिया, नवरं जोतिसिय-वेमाणिया चयंतीति अभिलावो। [16] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक के लिए ('उद्वर्तन' के बदले) 'च्यवन' (कहना चाहिए / ) 17. नेरइया णं भंते ! कि आयकम्मुणा उबवज्जति, परकम्मणा उववज्जति ? गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति, नो परकम्मुणा उववज्जंति / [17 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अपने कर्म से उत्पन्न होते हैं या परकर्म से उत्पन्न होते हैं ? {17 उ.] गौतम ! वे प्रात्मकर्म से उत्पन्न होते हैं, परकर्म से नहीं। 18. एवं जाव वेमाणिया। [18] इसी प्रकार यावत् वैमानिक (तक कहना चाहिए)। 16. एवं उव्वट्टणादंडनो वि / [16] इसी प्रकार उद्वर्तना-दण्डक भी कहना चाहिए / Page #2273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसो शतक : उद्देशक 10] [75 20. नेरइया णं भंते ! कि आयप्पयोगेणं उववज्जंति, परप्पयोगेणं उववज्जति ? गोयमा ! प्रायप्पयोगेणं उववज्जति, नो परप्पयोगेणं उववज्जंति / [20 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अात्मप्रयोग से उत्पन्न होते है, अथवा परप्रयोग से उत्पन्न होते हैं ? 20 उ.] गौतम ! वे प्रात्मप्रयोग से उत्पन्न होते है, पर प्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। 21. एवं जाव वेमाणिया। [21] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त (कहना चाहिए / 22. एवं उन्वट्टणादंडओ वि। [22] इसी प्रकार उद्वर्त्तना-दण्डक भी (कहना चाहिए)। विवेचन-प्रस्तुत 16 सूत्रों (7 से 22 तक) में नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पत्ति और उद्वर्तना (मृत्यु) के विषय में प्रात्मोपक्रम-परोपक्रम-निरूपक्रम, आत्मऋद्धि-परऋद्धि, प्रात्मकर्म-पर कर्म, आत्मप्रयोग-परप्रयोग आदि विभिन्न पहलयों से चर्चा की गई है।' आत्मोपक्रम-परोपक्रम-निरुपक्रम का स्वरूप प्रात्मोपक्रम-व्यवहार दृष्टि से आयुष्य को स्वयमेव घटा देना / यथा---श्रेणिक नरेश / परोपकम-~अन्य के द्वारा श्रायुष्य का घटाया जाना अर्थात् अन्य के द्वारा प्रायुष्य घटाने से मरना / यथा-कोणिक सम्राट् / निरुपक्रम-उपक्रम के अभाव में मरना। यथाकालसौकरिक / प्रातिडिए-पात्मऋद्धि अर्थात् अपने सामर्थ्य से, दूसरे (ईश्वरादि) के सामर्थ्य से नहीं। प्रायकम्मुणा-प्रात्मकर्म से अर्थात् स्वकृत प्रायुष्य प्रादि कर्मों से। प्रायपोगेण-अपने ही व्यापार से / ' चौवीस दण्डकों और सिद्धों में कति-अकति-प्रवक्तव्य-संचित पदों का यथायोग्य निरूपण 23. [1] नेरइया णं भते ! कि कतिसंचिता, अकतिसंचिता, अन्चत्तम्वगसंचिता? गोयमा ! नेरइया कतिसंचिया वि, अकतिसंचिता वि, अवत्तब्वगसंचिता वि। [23-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कतिसंचित हैं, अकतिसंचित हैं अथवा प्रवक्तव्यसंचित हैं ? [23-1 उ.] गौतम ! नैरयिक कतिसंचित भी हैं, अकतिसंचित भी हैं और अवक्तव्यसंचित [2] से केणठेणं जाव अवत्तम्बगसंचिता वि? गोयमा ! जे गं नेरइया संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया कतिसंचिता, जे गं 1. वियाहाण्णतिसुत्तं भा. 2, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 882-883 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 796 3. वही, पत्र 796 Page #2274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रशप्तिसूत्र नेरइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया अतिसंचिया, जे गं नेरइया एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया प्रवत्तव्वगसंचिता; सेतेणठेणं गोयमा ! जाय अवत्तव्यगसंचिता वि। [23-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया कि (नरयिक कतिसंचित भी हैं) यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं ? [23-2 उ.] गौतम ! जो नै रयिक (नरकगति में एक साथ) संख्यात प्रवेश करते (उत्पन्न होते) हैं, वे कतिसंचित हैं, जो नैरपिक (एक साथ) असंख्यात प्रवेश करते हैं, वे अकतिसंचित हैं और जो नै रयिक एक-एक (करके) प्रवेश करते हैं, वे अवक्तव्यसंचित हैं। हे गौतम ! इसी कारण कहा गया है कि (नै रयिक कतिसंचित भी हैं,) यावत् अवक्तव्यसंचित भी हैं। 24. एवं जाव थणियकुमारा। [24] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (के विषय में कहना चाहिए। 25. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढ विकाइया तो कतिसंचिता, अतिसंचिता, नो प्रवत्तव्यगसंचिता। [25-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक कतिसंचित हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? |25-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव कतिसंचित भी नहीं और प्रवक्तव्यसंचित भी नहीं किन्तु अकतिसंचित हैं। [2] से केणठेणं जाव नो प्रवत्तम्वगसंचिता? गोयमा ! पुढविकाइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति; सेतेणठेणं जाव नो प्रवत्तध्वगसंचिता। [25.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक जीव) यावत् प्रवक्तव्यसंचित नहीं हैं ? [25-2 उ.| गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव एक साथ असंख्य प्रवेशनक से प्रवेश करते (उत्पन्न होते हैं. इसलिए कहा जाता है कि वे अकतिसंचित हैं, किन्तु कतिसंचित नहीं हैं और प्रवक्तव्यसंचित भी नहीं हैं। 26. एवं जाव वणस्सतिकाइय / [26] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक (जानना चाहिए)। 27. बेदिया जाव बेमाणिया जहा नेरइया / [27] द्वीन्द्रियों से लेकर यावत् वैमानिक-पर्यन्त नैरयिकों के समान (कहना चाहिए)। 28. [1] सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा! सिद्धा कतिसंचिता. नो प्रकतिसंचिता, अवसव्वगसंचिता वि। Page #2275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमवां शतक : उद्देशक 10] [77 [28-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध कतिसंचित हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [28-1 उ.] गौतम ! सिद्ध कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित हैं, किन्तु अकतिसंचित नहीं हैं। [2] से केणठेणं जाव अवतव्वगसंचिता वि ? गोयमा! जे णं सिद्धा संखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण सिद्धा कतिसंचिता, जे गं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा प्रवत्तव्वगसंचिता; सेतेणठेणं जाव अवत्तव्वगसंचिता वि / [28-2 प्र.) भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि सिद्ध कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित भी हैं, किन्तु अतिसंचित नहीं हैं ? 282 उ.] गौतम ! जो सिद्ध संख्यातप्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे कतिसंचित हैं और जो सिद्ध एक-एक करके प्रवेश करते हैं, वे प्रवक्तव्यसंचित हैं। इसीलिए कहा गया है कि सिद्ध यावत् प्रवक्तव्यसंचित भी हैं। विवेचन--कतिसंचित प्रादि की परिभाषा--जो जीव दूसरी जाति में से पाकर एक समय में एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं, वे कतिसंचित कहलाते हैं। अर्थात् दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या वालों को यहाँ कतिसंचित (संख्यात) कहा गया है / जो एक समय में एक साथ असंख्यात उत्पन्न होते हैं, (जिनकी संख्या न की जा सके) उन्हें प्रकतिसंचित (असंख्यात) कहते हैं और जिसे न संख्यात कहा जा सकता हो, न असंख्यात, किन्तु एक समय में सिर्फ एक जीव उत्पन्न हो, उसे प्रवक्तव्यसंचित कहते हैं।' फलितार्थ---पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों और सिद्धों को छोड़कर शेष समस्त जीव तीनों ही प्रकार के हैं। जैसे-नरयिक जीव एक-एक करके भी उत्पन्न होते हैं, दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक संख्यात भी उत्पन्न होते हैं और असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं / पृथ्वीकायादि पांच स्थावर अकतिसंचित हैं, क्योंकि वे एक समय में एक साथ एक, दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक नहीं, किन्तु असंख्यात उत्पन्न होते हैं / यद्यपि वनस्पतिकायिक जीव एक साथ एक समय में अनन्त उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे अनन्त तो स्वजातीय-वनस्पतिजीव ही वनस्पति (स्व) जाति में उत्पन्न होते हैं, विजातीय जीवों में से पाकर वनस्पतिकायिक के रूप में उत्पन्न होने वाले जीव तो असंख्यात ही होते हैं / इसी की यहां विवक्षा है। सिद्ध भगवान अतिसंचित नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष जाने वाले जीव एक समय में एक से लेकर संख्यात (108 तक) ही होते हैं। असंख्यात जीव एक साथ सिद्ध नहीं होते। जब एक जीव सिद्ध होता है, तब वह प्रवक्तव्यसंचित कहलाता है किन्तु जब दो से लेकर 108 जीव तक सिद्ध होते हैं, तब वे 'कतिसंचित' कहलाते हैं। 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 799 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचदजी) भा. 6, पृ. 2925 2. (क) वही, पृ. 2925 (ख) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 799 Page #2276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [म्याख्याप्राप्तिसूत्र कति-अकति-प्रवक्तव्य-संचित यथायोग्य चौवीस दण्डकों और सिद्धों के अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा 26. एएसि गं भंते ! नेरइयाणं कतिसंचिताणं प्रकतिसंचियाणं अवत्तवगसंचिताण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? सम्वत्थोवा नेरइया अवत्तव्वगसंचिता, कतिसंचिया संखेज्जगुणा, प्रकतिसंचिता असंखेज्जगुणा। [29 प्र.] भगवन् ! इन कतिसंचित, अकतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित नैरयिकों में से कौन किससे (अल्प, अधिक, तुल्य अथवा) यावत् विशेषाधिक हैं ? [29 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े प्रवक्तव्यसंचित नैरयिक हैं, उनसे कतिसंचित नरयिक संख्यातगुणे हैं और अकतिसंचित उनसे असंख्यातगुणे हैं / 30. एवं एगिदियवज्जाणं जाव वेमाणियाणं अप्पाबहुगं, एगिदियाणं नस्थि प्रप्पावहगं। [30 | एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय यावत् वैमानिकों तक का इसी प्रकार (नैरयिकवत्) अल्पबहुत्व कहना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व नहीं है। 31. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं कतिसंचियाणं, प्रवत्तव्वगसंचिताण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा कतिसंचिता, प्रवत्तम्वगसंचिता संखेज्जगुणा / [31 प्र.] भगवन् ! कतिसंचित और प्रवक्तव्यसंचित सिद्धों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [31 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े कतिसंचित सिद्ध होते हैं, उनसे प्रवक्तव्यसंचित सिद्ध संख्यातगुण हैं। विवेचन--कतिसंचितादि का अल्पबहुत्व-एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष समस्त संसारी जीवों में सबसे थोड़े जो प्रवक्तव्यसंचित बतलाए हैं, वे इसलिए कि अवक्तव्यस्थान एक ही है। उनसे कतिसंचित संख्यातगणे हैं, क्योंकि उनके संख्यात स्थान हैं और उनसे प्रकतिसंचित असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनके असंख्यात स्थान हैं। प्रश्न होता है, फिर सिद्धों में कतिसंचित सिद्ध सबसे थोड़े क्यों बतलाए हैं ? कुछ प्राचार्य इसका समाधान यों देते हैं कि इस (अल्पबहुत्व) में स्थान की अल्पता कारण नहीं है, वस्तुस्वभाव ही ऐसा है। कतिसंचित स्थान प्रवक्तव्यसंचित स्थान से बहुत होने पर भी सिद्धों में कतिसंचित सिद्ध सबसे थोड़े बताए हैं और अवक्तव्यसंचित स्थान एक होने पर भी प्रवक्तव्यसंचित सिद्ध उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं; क्योंकि दो आदि रूप से केवली अल्पसंख्या में सिद्ध होते हैं। अतः वस्तुस्वभाव और लोकस्वभाव ऐसा ही है, यह मानना चाहिए।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 799 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. 6, पृ. 2925 Page #2277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [79 बोसवां शतक : उद्देशक 10] चौवीस दण्डकों और सिद्धों में षट्क-सजित प्रादि पांच विकल्पों का यथायोग्य निरूपण 32. [1] नेरइया णं भंते ! कि छक्कसमज्जिया, नोछक्कसमज्जिया, छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया, छक्केहि समज्जिया, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया? गोयमा ! नेरइया छक्कसमज्जिया वि, नोछक्कसमज्जिया वि, छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया वि, छक्केहि समज्जिया वि, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि। [32-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक षट्क-समर्जित हैं, नो-षट्क-समजित हैं, (एक) षट्क और नोषट्क-सजित हैं, अथवा अनेक षट्क-समजित हैं या अनेक षटक-समजित-एक नो-षटकसमजित हैं ? [32-1 उ.] गौतम ! नै रयिक षट्क-समजित भी हैं, नो-षट्क-समजित भी हैं, और एक षट्क तथा एक नोषट्क-समर्जित भी हैं, अनेक षट्क-सजित और एक नोषट्क-समजित भी हैं। [2] से केणद्वेणं भंते एवं बुच्चइ–नेरइया छक्कसमज्जिया विजाव छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि? गोयमा ! जे णं नेरइया छक्कएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया छक्कसमज्जिता। जे ण नेरइया जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहि वा, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया नोछक्कसमज्जिया / जे णं नेरइया एगेणं छक्कएणं; अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तोहि था, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते शं नेरइया छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया जे णं नेरइया णेगेहि छक्कएहि पवेसणगं पविसंति ते णं नेरइया छक्केहि समज्जिया। जेणं नेरइया गेहि छक्कएहि अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहिं वा, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसति ते णं नेरइया छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया। सेतेणठे तं चेव जाव समज्जिया वि। 32-2 प्र. भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि नैरयिक षट्क-समजित भी हैं, यावत् अनेक षटक-सजित तथा एक नो-षटक सजित भी हैं ? 32-2 उ.] गौतम ! जो नैरपिक (एक समय में एक साथ) छह की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक 'षट्क-समजित' (कहलाते) हैं / जो नैरयिक (एक साथ) जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नो-षट्क-सजित (कहलाते) हैं। जो नैरयिक एक षट्क संख्या से और अन्य जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट पांच की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे 'षटक और नो-षटक-समजित' (कहलाते हैं। जो नैरयिक अनेक षटक संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक अनेक षटक-समजित (कहलाते) हैं। जो नैरयिक अनेक षट्क तथा जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या में प्रवेश करते हैं, वे नैरयिक 'अनेक षट्क और एक नो-षट्क-सजित' (कहलाते) हैं। इसलिए हे गौतम ! इस प्रकार कहा गया है कि यावत् अनेक षट्क और एक नो-षट्क-समजित भी होते हैं / 33. एवं जाव थणियकुमारा। , [33] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए। Page #2278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 34. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढ विकाइया नो छक्कसमज्जिया, नो नोछक्क समज्जिया, नो छक्केण य नोछक्केण य समज्जिया, छक्केहि समज्जिया वि, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया वि। [34-1 प्र. भगवन् ! पृथ्वी कायिक जीव षट्क-समर्जित हैं ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [34-1 उ.! मौतम ! पृथ्वीकायिक जीव न तो षट्क-समजित हैं, न नो-षट्क-सजित हैं और न एक षट्क और एक नो-षट्क से समजित हैं; किन्तु अनेक षट्क-समजित हैं तथा अनेक षटक और एक नो-षट्क से समजित भी हैं। [2] से केणठेणं जाव समज्जिता वि ? गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहि छक्करहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविकाइया छक्केहि समज्जिया / जे णं पुढविकाइया णेगेहि छक्कएहि; अन्नेणं य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तिहि वा, उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढ विकाइया छक्केहि य नोमकेण य समज्जिया। से तेणठेणं जाव समज्जिया वि / [34-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक जीव यावत् अनेक षटक-समजित हैं तथा अनेक षटक और एक नो-षटक-) समजित भी हैं ? 134-2 उ.] गौतम ! जो पृथ्वीकायिक जीव अनेक पटक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक-पटकसमर्जित हैं तथा जो पृथ्वीकायिक अनेक षट्क से तथा जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट पांच संख्या में प्रवेश करते हैं, वे अनेक-पटक और एक नो-षट्क-समर्जित कहलाते हैं / हे गौतम ! इसीलिए कहा गया है कि पृथ्वीकायिक जीव यावत् एक नो-षट्क-समर्जित हैं / 35. एवं जाव वणस्सइकाइया, बेइंदिया जाव वेमाणिया। [35] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक समझना चाहिए। द्वीन्द्रिय से ले कर यावत् वैमानिकों तक पूर्ववत् / 36. सिद्धा जहा नेरइया / [36] सिद्धों का कथन नै रयिकों के समान है / विवेचन--षटक-समजित प्रादि की परिभाषा–जिसका छह का परिमाण हो, उसे षट्क कहते हैं। षट्क से यानी छह के समूह से जो समजित हों अर्थात ----पिण्डित–एकत्रित हों, वह षट्क-समजित हैं / भाव यह है कि एक समय में एक साथ जो उत्पन्न होते हैं, यदि उनकी राशि छह हो तो वे षट्क-समजित कहलाते हैं। जो एक साथ एक समय में एक, दो, तीन, चार या पांच उत्पन्न हुए हों, वे नोषट्क-समजित कहलाते हैं। जो एक समय में एक साथ एक षट्क के रूप में (छह) उत्पन्न हुए हों, साथ ही एक साथ एक समय में एक से लेकर पांच तक यानी सात, आठ, नौ, दस और ग्यारह तक उत्पन्न हुए हों, वे एक षट्क, एक नो-षट्क-समजित कहलाते हैं। जो एक समय में, एक साथ छह-छह के अनेक समूहों के रूप में उत्पन्न हुए हों, वे अनेकषट्क-समजित कहलाते हैं / जो Page #2279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवां शतक : उद्देशक 10] [1 एक समय में अनेक षट्क-समुदायरूप से और एकादि (एक से लेकर पांच तक) अधिक रूप से उत्पन्न हुए हों, वे अनेकषट्क और एक नोषटक-समजित कहलाते हैं।' किन में कितने भंगों की प्राप्ति ? नैरयिकों में ये पांचों भंग पाए जाते हैं, क्योंकि नैरयिकों में एक समय में एक से लेकर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं। असंख्यातों में भी ज्ञानीजनों के ज्ञान से षट्क आदि की व्यवस्था बन जाती है। एकेन्द्रिय जीवों में एक समय में एक साथ असंख्यात उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें अनेक षट्क-समजित तथा अनेकषट्क-एक नोषट्क-सजित, ये दो भंग ही पाए जाते हैं। शेष सब संसारी जीवों में पूर्वोक्त पांचों ही भंग पाए जाते हैं।' षट्कसजित प्रादि से विशिष्ट चौवीस दण्डकों और सिद्धों के अल्पबहत्व का यथायोग्य निरूपण 37. एएसि णं भंते ! नेरतियाणं छक्कसमज्जियाणं, नोछक्कसमज्जिताणं, छक्केण य नोछक्केण य समज्जियाणं, छक्केहि समज्जियाणं, छक्के हि य नोछक्केण य समज्जियाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! सन्वत्थोवा नेरइया छक्कसमज्जिया, नोछक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा, छक्केण य नो छक्केण ,य समज्जिया संखेज्जगुणा, छक्केहि समज्जिया असंखेज्जगुणा, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा।। [37 प्र.) भगवन् ! 1. षट्कसमजित, 2. नो-षट् कसजित 3. एक षटक एक नोषट्कसमजित 4. अनेक षट्कसमजित तथा 5. अनेक षट्क एक नोषट्क-समजित नैरयिकों में कौन किन से (अल्प, बहुत, तुल्य) यावत् विशेषाधिक है ? [37 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम एक पटक-समजित नैरयिक हैं, . . नो-षटक-समजित नैरयिक उनसे संख्यातगुणे हैं, 3. एक षटक और नो-पटक समजित नैरयिक उनसे संख्यातगुणे हैं, 4. अनेक पटक समजित नरयिक उनसे असंख्यातमुण हैं, और 5. अनेक घटक और एक नो- षट्कसमजित नै रथिक उनमे संख्यातगुणे हैं। 38. एवं जाव थणियकुमारा। [38] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक (का अल्प बहुत्व समझना चाहिए / ) 39. एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं छक्केहि समज्जिताणं, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जियाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया छक्केहि समज्जिया, छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया संखेज्जगुणा। 1. (क) भगवती. विवेचन मा. 6 (घेवरचन्दजी), पृ. 2931 (ख) भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 799-80. 2. वही, पत्र 800 . ... ... ......- ..- -.-- Page #2280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र __ [36 प्र.] भगवन् ! अनेक षट्क-समर्जित और अनेक षटक तथा नो-षट्क-समजित पृथ्वीकायिकों में कौन किससे (अल्प, बहुत, तुल्य) यावत् विशेषांधिक हैं ? [36 उ.] गौतम ! सबसे अल्प अनेक षट् कसजित पृथ्वीकायिक हैं / अनेक षट्क और नोषट्क-समजित पृथ्वीकायिक उनसे संख्यातगुणे हैं / 40. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / [40] इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक (जानना चाहिए)। 41. बेइंदियाणं जाव बेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [41] द्वीन्द्रियों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (का अल्पबहुत्व) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए। 42. एएसि णं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमज्जियाणं, नोछक्कसमज्जियाण जाव छक्केहि य नोछक्केण य समज्जियाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? ___गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया, छक्केहि समन्जिया संखेज्जगुणा, छक्केण य नोछपकेण य समज्जिया संखेज्जगुणा, छक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा, नोछक्कसमज्जिया संखेज्जगुणा / [42 प्र.] भगवन् ! इन षट्कसमजित, नो-षटकसमजित, यावत् अनेक षटक और एक नोषट्क-सर्जित सिद्धों में कौन किन-से अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? [42 उ.] गौतम ! अनेक षट्क और नोषट्क से समजित सिद्ध सबसे थोड़े हैं। उनसे अनेक. षट्क-समजित सिद्ध संख्यातगुणे हैं। उनसे एक षट्क और नो-पटकसमजित सिद्ध संख्यातगुणे हैं। उनसे षट्कसमजित सिद्ध संख्यातगुणे हैं और उनसे भी नो-षट्क-समजित सिद्ध संख्यातगुणे हैं। विवेचन--षदक-समजित आदि से विशिष्ट चौवीस दण्डकों और सिद्धों का अल्पबहुत्वप्रस्तुत छह सूत्रों (37 से 42 तक) में जो षटक-सजित आदि से विशिष्ट जीवों का अल्पबहुत्व बताया गया है, वह स्थान के अल्पत्व एवं बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्य प्राचार्यों का कहना है कि वस्तु-स्वभाव ही ऐसा है / ' चौबीस दण्डकों और सिद्धों में द्वादश, नोद्वादश प्रादि पदों का यथायोग्य निरूपण 43. [1] नेरइया णं भंते ! कि बारससमज्जिता, नोबारससमज्जिया, बारसरण य नोबारसएण य समज्जिया, बारसएहि समज्जिया, बारसएहि य नोवारसएण य समज्जिया? गोयमा ! नेरइया बारससमज्जिया वि जाव बारसएहि य नोबारसएण य समज्जिया वि / [43-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव क्या द्वादश-सजित हैं, या नो-द्वादश-समजित हैं, अथवा द्वादश-नो-द्वादश-समजित हैं, या अनेक द्वादश और नो-द्वादश-समर्जित हैं ? 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 800 Page #2281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसा शतक : उद्देशक 10 [43-1 उ.] गौतम ! नैरयिक द्वादश-समजित भी हैं और यावत् अनेक द्वादश और नोद्वादश-समजित भी हैं / [2] से केणठेणं जाव समज्जिया वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया बारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरइया बारससमज्जिया। जे णं नेरइया जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहि वा, उक्कोसणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं रइया नोबारससमज्जिया / जे णं नेरइया बारसएणं; अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तोहि बा, उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया बारसएण य नोबारसएण य समज्जिया। जे णं नेरइया गेहि बारसएहि पवेसणगं पविसंति ते णं रतिया बारसहि समज्जिया। जे णं नेरइया णेगेहि बारसहि; अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं एक्कारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया बारसएहि य नोबारसएण य समज्जिया। सेतेणठेणं जाव समज्जिया वि। [43-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि नै रयिक द्वादश-समजित भी हैं, यावत् अनेकद्वादश और नो-द्वादश-समर्जित भी हैं ? [43-2 उ.] गौतम ! जो नैरयिक (एक समय में एक साथ) बारह की संख्या में (नरक में जाकर) प्रवेश करते हैं, वे द्वादश-सजित हैं / जो नै रयिक जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, वे नो-द्वादश-समजित हैं। जो नैरयिक एक समय में बारह तथा जघन्य एक, दो, तीन तथा उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, वे द्वादश-नोद्वादश-सजित हैं। जो नैरयिक एक समय में अनेक बारह-बारह की संख्या में प्रवेश करते हैं, वे अनेक द्वादश-समजित हैं। जो नै रयिक एक समय में अनेक-बारह-बारह की संख्या में तथा जघन्य एक-दो-तीन और उत्कृष्ट ग्यारह तक प्रवेश करते हैं, वे अनेक द्वादश-नो-द्वादश-समजित हैं। हे गौतम ! इस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक द्वादश-समजित यावत् अनेक-द्वादश तथा नोहादश-सजित कहलाते हैं / 44. एवं जाव थणियकूमारा। [44] इसी प्रकार (पांचों विकल्प) यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 45. [1] पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढ विकाइया नो बारसयसमज्जिया, नो नोबारसयसमज्जिया, नो बारसरण य नोबारसएण य समज्जिया, बारसहि समज्जिया वि, बारसएहि य नोबारसएण य समज्जिया वि। [45-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक क्या द्वादश-समजित हैं, इत्यादि पूर्ववत प्रश्न ? [45-1 उ.] गौतम ! पृथ्वी कायिक न तो द्वादश-समर्जित हैं, न नो-द्वादश-सजित हैं और न ही वे द्वादश-समजित-नोद्वादश-सजित हैं, किन्तु वे अनेक-द्वादश-समजित भी हैं और अनेक द्वादशनो-द्वादश-सजित भी हैं। Page #2282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [2] सेकेणठेणं जाप समज्जिया वि! गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहि बारसहि पवेसणगं पविसंति ते गं पुढविकाइया बारसएहिं समज्जिया / जे णं पुढविकाइया णेगेहि बारसहि। अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहि वा, उक्कोसेणं एक्कारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया बारसएहि य नोवारसरण य समज्जिया / सेतेणठेणं जाव समज्जिया वि। 45.2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (पृथ्वीकायिक"यावत अनेक-द्वादशसजित भी हैं और अनेक द्वादश-नोद्वादश) समजित भी हैं ? 45.2 उ. गौतम ! जो पृथ्वीकायिक जीव (एक समय में एक साथ) अनेक द्वादश-द्वादश की संख्या में प्रवेश करते हैं. वे अनेक-द्वादश-समजित हैं और जो पृथ्वीकायिक जीव अनेक द्वादश तथा जघन्य एक, दो, तीन एवं उत्कृष्ट ग्यारह प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं, वे अनेक-द्वादश और एक नोद्वादश-सजित हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐमा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक यावत् अनेक बादश-नो-द्वादश-समजित भी हैं / 46. एवं जाव वणस्सइकाइया। {46] इसी प्रकार (के अभिलाप) यावत् वनस्पतिकायिक तक (कहने चाहिए। 47. बेइंदिया जाव सिद्धा जहा नेरइया / [47] द्वीन्द्रियों जीवों से लेकर यावत् सिद्धों तक नै रयिकों के समान समझना चाहिए। विवेचन-द्वादश-समजित आदि का स्वरूप जो जीव एक समय में एक साथ बारह की संख्या में सामूहिक रूप से उत्पन्न हों उन्हें द्वादश-सजित कहते हैं तथा जो जीव एक से लेकर ग्यारह तक एक साथ उत्पन्न हों, उन्हें नो-द्वादश-मजित कहते हैं। शेष कथन पटक-समजित के समान समझना चाहिए।' द्वादश, नोद्वादश आदि से सजित चौवीस दण्डकों तथा सिद्धों का अल्पबहत्त्व एएसि णं भंते ! नेरइयाणं बारससमज्जियाणं० / सम्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं, नवरं बारसाभिलायो, सेस तं चेव / [48 प्र.] भगवन् ! इन द्वादश-सजित यावत् अनेक-द्वादश-नो-द्वादश-सजित नैरयिकों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? 146 उ.] गौतम ! जिस प्रकार षट्क-सजित आदि जीवों का अल्प बहुत्व कहा, उसी प्रकार द्वादश-सजित आदि सभी जीवों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि 'षट्क' के स्थान में 'द्वादश', ऐसा अभिलाप करना (कहना) चाहिए / शेष सब पूर्ववत् है। विवेचन द्वादशसमजित प्रादि का अल्पबहुत्व षट्कसमजित आदि के समान ही है। केवल षट्क के बदले द्वादश शब्द का प्रयोग करना चाहिए। 1. भगवतो. विवचन भा. 6 (पं. घेवरचंदजी), पृ. 2934 Page #2283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोसवां शतक : उद्देशक 10] [85 चौवीस दण्डकों और सिद्धों में चतुरशोति-समजित आदि पदों का यथायोग्य निरूपण 46. [1] नेरतिया णं भंते ! कि चुलसीतिसमज्जिया, नोचुलसीतिसमज्जिया, चुलसीतीए घनोचलसोतोते य समज्जिया, चुलसीतीहि समज्जिया, चुलसीतीहि य नोचुलसोतीए य समज्जिया? ____ गोयमा ! नेतिया चुलसीतिसमज्जिया वि जाव चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया वि। [46-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव चतुरशीति (चौरासी)- समजित हैं या नो-चतुरशीतिसमजित हैं, अथवा चतुरशोति-नो-चतुरशीति समजित हैं, या वे अनेक चतुरशीति-समजित हैं, अथवा अनेक-चतुरशीति-नो-चतुरशीति-समजित हैं ? [49-1 उ.] गौतम ! नैरयिक चतुरशीति-समजित भी हैं, यावत् अनेक-चतुरशीति-नोचतुरशीति-समजित भी हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चद जाव समज्जिया वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया चुलसोतोएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया चुलसीतिसमज्जिया। जे णं नेरइया जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तीहि वा, उक्कोसेणं तेसोतिपवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया नोचुलसीतिसमज्जिया। जे नेरइया चुलसीतीएणं; अन्नण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहिं बा, उक्कोसेणं तेसोतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरतिया चुलसीतीए य नोचुलसीतीए समज्जिया / जे णं नेरइया गेहि चुलसीतीएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं नेरतिया चुलसीतीहिं समज्जिया। जे णं नेरइया गेगेहि चुलसीतोएहि, अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा जाव उक्कोसेणं तेसीयएणं जाव पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरतिया चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया; सेतेणठेणं जाव समज्जिया वि। [46.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि (नैरपिक) यावत् (अनेक-चतुरशीतिनो-चतुरशीति-) समजित भी हैं ? [46-2 उ.] गौतम ! जो नैरयिक (एक समय में एक साथ) चौरासी प्रवेशनक से (84 संख्या में) प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीति-समजित हैं / जो नैरयिक जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट तेयासी (83) (एक साथ) प्रवेश करते हैं, वे नो-चतुरशीति-समजित हैं। जो नैरयिक एक साथ, एक समय में चौरासी तथा जघन्य एक, दो, तीन, यावत् उत्कृष्ट तेयासी प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीतिनो-चतुरशीति-सजित हैं। जो नैरयिक एक साथ एक समय में अनेक चौरासी प्रवेश करते हैं, वे अनेक चतुरशीति-समजित हैं और जो नैरयिक एक-एक समय में अनेक चौरासी तथा जघन्य एकदो-तीन उत्कृष्ट तेयासी प्रवेश करते हैं. वे अनेक चतरशीति-तो-चतरशीति-सर्मा / हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि नैरयिक चतुरशीति-समजित भी हैं, यावत् अनेक चतुरशीति-नोचतुरशीति-समजित भी हैं। 50. एवं जाव थणियकुमारा। [50] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए। Page #2284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म्यास्याप्राप्तिसूत्र 51. पुढविकाइया तहेव पच्छिल्लएहि दोहि, नवरं अभिलायो चुलसीतिईप्रो। [51] पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में अनेक चतुरशीति-समजित और अनेक चतुरशीतिनो-चतुरशीति-समजित, ये दो पिछले भंग समझने चाहिए। विशेष यह कि यहाँ 'चौरासी' ऐसा कहना चाहिए। 52. एवं जाव वणस्सतिकाइया। [52] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक (पूर्वोक्त दो भंग) जानने चाहिए। 53. बेइंदिया जाव वेमाणिया जहा नेरइया। (53] द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर यावत् वैमानिकों तक नैरयिकों के समान (आलापक कहने चाहिए)। 54. [1] सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा चुलसीतिसमज्जिता वि, नोचुलसीतिसमज्जिया वि, चुलसीतीए म नोचुलसीतीए व समज्जिया कि, नो चुलसीतीहि समज्जिया, नो चुलसीतोहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया। [54-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध चतुरशीति-सजित हैं, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? [54-1 उ.] गौतम ! सिद्ध भगवान् चतुरशीति-समजित भी हैं तथा नो-चतुरशीतिसमजित भी हैं तथा चतुरशीति-नो-चतुरशीति-समजित भी हैं, किन्तु बे अनेक चतुरशीति-सजित नहीं हैं, और न ही वे अनेक चतुरशीति-नो-चतुरशीति-समजित हैं। [2] से केणठेणं जाव समज्जिया ? गोयमा ! जे णं सिद्धा चुलसीतिएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं सिद्धा चुलसीतिसमज्जिया। जे गंसिद्धा जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तोहिं वा, उक्कोसेणं तेसोतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं सिद्धा नोचुलसीतिसमज्जिया / जे णं सिद्धा चुलसीतएणं; अन्नेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहि वा तोहिं वा, उक्कोसेणं तेसीतएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जिया। सेतेणठेणं जाव समज्जिता / [54-2 प्र.] भगवन् ! उपर्युक्त कथन का कारण क्या है ? [54-2 उ.] गौतम! जो सिद्ध एक साथ, एक समय में चौरासी संख्या में प्रवेश करते हैं वे चतुरशीति-सजित हैं। जो सिद्ध एक समय में, जघन्य एक-दो-तीन और उत्कृष्ट तेयासी तक प्रवेश करते हैं, वे नो-चतुरशीति-सजित हैं / जो सिद्ध एक समय में एक साथ चौरासी और साथ ही जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट तयासी तक प्रवेश करते हैं, वे चतुरशीति-सजित और नोचतुरशीति-सजित हैं। इसी कारण हे गौतम ! सिद्ध भगवान् यावत् चतुरशीति-नो-चतुरशीतिसजित कहे जाते हैं। विवेचन-चतुरशीति-समजित आदि शब्दों का भावार्थ-जो जीव एक समय में एक साथ चौरासी संख्या में सामूहिकरूप से उत्पन्न हों वे चतुरशीति-समर्जित कहलाते हैं। जो एक से लेकर Page #2285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां शतक : उद्देशक 10] [87 तेयासी तक एक साथ उत्पन्न हों, के नो-चतुरशीति-सजित कहलाते हैं। शेष शब्दों का अर्थ सुगम है।' सिद्धों में प्रारम्भ के तीन भंग क्यों और कैसे ? सिद्ध भगवान् एक समय में 108 से अधिक मुक्त नहीं होते, इसलिए पिछले दो भंग-~-अनेक चतुरशीति-समर्जित, एवं अनेक चतुरशीति-नोचतुरशीति-साजत नहीं पाए जाते / प्रारम्भ के पूर्वोक्त तीन भंग पाए जाते हैं। परन्तु तीसरे भंग-(चतुरशीति-नोचतुरशीति-समजित) में 'नो-चतुरशीति' में एक से लेकर चौबीस तक ही लेने चाहिए, क्योंकि सिद्ध भगवान् एक समय में एक साथ अधिक से अधिक 108 ही सिद्ध होते हैं, इसलिए चौरासी में 24 संख्या को जोड़ने से 108 हो जाते हैं। अत: यहाँ नोचतुरशीति में उत्कृष्ट संख्या 83 न लेकर 24 तक ही लेनी चाहिए। चतुरशीति-नोचतुरशोति इत्यादि से समजित चौवीस वण्डकों और सिद्धों का अल्पबहुत्व निरूपण 55. एएसि णं भंते ! नेरतियाणं चुलसीतिसमज्जियाणं नोचुलसीतिसमज्जियाणं ? सन्वेसि अप्पाबहुगं जहा छक्कसमज्जियाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं अभिलाबो चुलसीतयो / [55 प्र] भगवन् ! चतुरशीति-समजित आदि नैरयिकों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? [55 उ.] गोतम ! चतुरशीति-समजित नोचतुरशीति-समजित इत्यादि-विशिष्ट नैरयिकों का अल्प-बहुत्व षट्क सजित आदि के समान समझना चाहिए। यावत् वैमानिक-पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ 'षट्क' के स्थान में 'चतुरशीति' शब्द कहना चाहिए। 56. एएसि गं भंते ! सिद्धाणं चलसीतिसमज्जियाणं, नोचलसीतिसमज्जियाणं, चुलसीतीए य नोचुलसीतीए य समज्जियाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? | गोयमा ! सम्वत्थोवा सिद्धा चुलसीतोए य नोचुलसोतीए य समज्जिया, त्रुलसीतिसमज्जिया अणंतगुणा, नोचुलसीतिसमज्जिया अणंतगुणा।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / / / वीसइमे सए : दसमो उद्देसनो समत्तो।।२०-१०॥ // वीसइमं सयं समत्तं // 20 // [56 प्र.] भगवन् ! चतुरशीति-समजित, नो-चतुरशीति-समजित तथा चतुरशीति-नोचतुरशीति-समजित सिद्धों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? 1. भगवती. विवेचन (6. घेवरचंदजी), पृ. 2939 2. वही, पृ. 2939 Page #2286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [56 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े चतुरशीति-नो-चतुशीति-समजित सिद्ध हैं, उनसे चतुरशीतिसमजित सिद्ध अनन्तगुणे हैं, उनसे नो-चतुरशीति सिद्ध अनन्तगुणे हैं / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत्-गौतम स्वामी विचरते हैं। // वीसवाँ शतक : दशम उद्देशक समाप्त // / वीसवां शतक सम्पूर्ण / Page #2287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं बावीसइमं तेवीसइमं य सयं इक्कीसवां, बाईसवाँ और तेईसवाँ शतक प्राथमिक * ये व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के क्रमश: इक्कीसवाँ, बाईसवाँ और तेईसवाँ तीन शतक हैं / इन तीनों शतकों का वर्ण्यविषय प्राय: एक सरीखा है और एक दूसरे से सम्बन्धित है / इन तीनों शनकों में विभिन्न जाति की बनस्पतियों के विविध वर्गों के मूल से लेकर बीज तक दस प्रकारों के विषय में निम्नोक्त पहलुओं से चर्चा की गई है-- (1) उनके मूल आदि दसों में उत्पन्न होने वाले जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? (2) बे जीव एक समय में कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ? (3) उनका अपहार कितने काल में होता है ? (4) उनके शरीर की अवगाहना कितनी होती है ? (5) वे जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध, वेदन, उदय और उदोरणा करते हैं या नहीं ? (6) वे जीव कितनी लेश्या वाले हैं ? उनमें लेश्या के किनने भंग पाए जाते हैं ? (7) उनमें दृष्टियाँ कितनी पाई जाती हैं ? (8) उनमें योग कितने हैं, उपयोग कितने होते हैं ? (6) उनमें ज्ञान, अज्ञान कितने है ? (10) उनमें इन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? (11) उनको भवस्थिति कितनी है ? कितने काल तक गति-प्रागति करते हैं ? अर्थात् गमनागमन की स्थिति कितनी है ? (12) उनकी काय स्थिति कितने काल तक की होती है ? (13) वे कितनी दिशामों से क्या आहार लेते हैं ? (14) उन जीवों में कितने समुद्घात होते हैं, वे समुद्घात करके मरते हैं या समुद्घात किये बिना ही मरते हैं ? (15) वे मूलादि के जीव के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं या नहीं ? इन सब प्रश्नों का सामान्यतया समाधान इक्कीसवें शतक के प्रथम वर्ग के प्रथम (मूल) उद्देशक में किया गया है / इनमें से कई प्रश्नों का समाधान ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोद्देशक के अतिदेशपूर्वक किया गया है / प्रागे के शतकों में उल्लिग्वित वर्गों में निर्दिष्ट मूलादि दस-दस उद्देशकों में इसी वर्ग के अनुसार समाधान सूचित किया गया है / Page #2288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * इन तीनों शतकों के प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक इस प्रकार हैं—(१) मूल, (2) कन्द, (3) स्कन्ध, (4) त्वचा (छाल), (5) शाखा, (6) प्रवाल, (7) पत्र, (8) पुष्प, (9) फल और (10) बीज। * इक्कीसवें शतक में 8 वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के 10-10 उद्देशक होने से आठ वर्गों के कुल 80 उद्देशक होते हैं / बाईसवें शतक के 6 वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक होने से 60 उद्देशक होते हैं / तेईसवें शतक के 5 वर्ग हैं / प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक होने से 50 उद्देशक होते हैं। * इन तीनों शतकों में प्रतिपाद्य विषयों के पूर्वोक्त उत्पत्ति प्रादि द्वारों की चर्चा में प्राय: इक्कीसवें शतक के प्रथम वर्ग या चतुर्थ वर्ग अथवा बाईसवें शतक के प्रथम वर्ग का अथवा पालक वर्ग का अतिदेश किया गया है।' 1. वियाहपण्णत्तिसूत्तं भा, 2 (मूलपाठ-टिएणयुक्त), पृ. 890 से 903 तक Page #2289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसतिमं सयं : इक्कीसवाँ शतक इक्कीसवें शतक के आठ वर्गों के नाम तथा 80 उद्देशकों का निरूपण 1. सालि 1 कल 2 प्रयसि 3 से 4 उक्खू 5 दम्भे 6 य अब्भ 7 तुलसी 8 य / अद्वैते दसवागा असोति पुण होंति उद्देसा // 1 // [1. गाथार्थ-] (1) शालि, (2) कलाय, (3) अलसी, (4) बांस, (5) इक्षु, (6) दर्भ (डाभ), (7) अभ्र (वनस्पति), (8) तुलसी, इस प्रकार इक्कीसवें शतक में ये आठ वर्ग हैं / प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक हैं / इस प्रकार पाठ वर्गों में कुल 80 उद्देशक हैं। विवेचन –अाठ वर्गों में प्रतिपाद्य-विषय-इक्कीसवें शतक में कुल आठ वर्ग हैं। जिनमें मुख्यतया प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार हैं-(१) शालि—इस वर्ग में शालि आदि धान्यों की उत्पत्ति आदि के विषय में वर्णन है / (2) कलाय मटर आदि दालों (धान्यों) की उत्पत्ति आदि से सम्बन्धित निरूपण है / (3) अलसी--इस वर्ग में अलसी आदि तिलहनों से सम्बन्धित वर्णन है। (4) वंस-इसमें बांस आदि वनस्पतियों का वर्णन है। (5) इक्ष-इसमें गन्ना आदि पर्ववाली वनस्पति से सम्बन्धित वर्णन है। (6) दर्भ-डाभ आदि तण के विषय में वर्णन है। (7) अभ्रइस वर्ग में अभ्र नामक वनस्पति के समान अनेक वनस्पतियों सम्बन्धी वर्णन है / (8) तुलसी- इस वर्ग में तुलसी आदि वनस्पतियों से सम्बन्धित वर्णन है।' प्रत्येक वर्ग में दस-दस उद्देशक--इस प्रकार हैं-(१) मूल, (2) कन्द, (3) स्कन्ध, (4) त्वचा, (5) शाखा, (6) प्रवाल (कोमल पत्ते), (7) पत्र, (8) पुष्प, (6) फल और (10) बीज / इस तरह प्रत्येक वर्ग में ये दस उद्देशक हैं / 1. भगवती. विवेचन भाग 6 (पं. घेवरचंदजी), प्र. 2930 2. मूले 1. कंदे 2. खंधे 3. तया 4. य साले 5. पवाल 6. पत्ते य 7 / पुप्फे फल 8-9 बीए 10 वि य एक्केक्को होइ उद्देसो // 1 // -भगवती. अ. वृत्ति, पृ. 800 Page #2290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे 'सालिवम्गे' पढमो उद्देसओ : 'मूल' प्रथम वर्ग : शालि (आदि), प्रथम उद्देशक : 'मूल' मूल-रूप में उत्पन्न होने वाले शालि प्रादि जीवों के उत्पाद-संख्या-शरीरावगाहना-कर्मबन्ध-वेद-उदय-उदीरणा-दृष्टि आदि पदों की प्ररूपणा 2. रायगिहे जाव एवं वयासि---. [2] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-- 3. ग्रह भंते ! साली-वीही-गोधम-जव-जवजवाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए क्वकर्मति ते गं भंते ! जीवा कमोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो उववज्जंति, तिरि० मणु० देव० / जहा वक्कंतीए तहेव उववातो, नवरं देववज्ज / [3 प्र.] भगवन् ! अब (प्रश्न यह है कि)--शालि, व्रीहि, गेहूँ (गोधूम) (यावत्) जौ, जवजव, इन सब धान्यों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आ कर उत्पन्न होते हैं, अथवा तिर्यञ्चों, मनुष्यों या देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्ति-पद में कथित प्ररूपणा के अनुसार इनका उपपात समझना चाहिए। विशेष यह है कि देवगति से आ कर ये मूलरूप में उत्पन्न नहीं होते / 4. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जति / अवहारो जहा उप्पलुसे (स० 11 उ० 1 सु० 7) / [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन, उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इनका अपहार (ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पल-उद्देशक (के सूत्र 7) के अनुसार (जानना चाहिए।) 5. एतेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पत्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं धगुपुहत्तं / __[5 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त शालि आदि) जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? Page #2291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां शतक : उद्देशक 1) [5 उ.] गौतम ! (इनके शरीर की अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुष-गृथक्त्व (दो से नौ धनुष तक) की कही गई है। 6. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा, प्रबंधगा ? तहेव जहा उप्पलुइसे (स० 11 उ० 1 सु०१)। [6 प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक हैं या प्रबन्धक ? [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (ग्यारहवं शतक के प्रथम) उत्पल-उद्देशक (के सू. 6) में कहा गया है, उसके समान (जानना चाहिए)। 7. एवं वेदे वि, उदए वि, उदीरणाए वि। [7] इसी प्रकार (कों के) वेदन, उदय और उदीरणा के विषय में भो (जानना चाहिए। 8. ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेस्सा नील काउ० ? छन्वीसं भंगा। [8 प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी या कापोत लेश्यी होते हैं ? [8 उ.] गौतम ! (यहाँ तीन लेश्या-सम्बन्धी) छब्बीस भंग कहने चाहिए। 6. दिट्ठी जाव इंदिया जहा उप्पलुद्देसे (स०११ उ० 1 सु०१५-३०)। [] दृष्टि से ले कर यावत् इन्द्रियों के विषय में (ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पलोद्देशक के अनुसार (प्ररूपणा समझनी चाहिए।) 10. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-[? / जव-] जवजवगमूलगजीवे कालमो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं,उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं / [10 प्र.] भगवन् ! शालि, बीहि, गेहूं, यावत् जौ, जवजव आदि, (इन सब धान्यों) के मूल का जीव कितने काल तक रहता है ? [10 उ.] गौतम ! (वह मूल का जीव) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक रहता है। 11. से णं भंते ! साली-वीही-गोधूम-[? + जब-] जवजवगमूलगजीवे पुढविजीवे पुणरवि सालो-वीही जाव जवजवगमूलगजीवे केवतियं काल सेवेज्जा ?, केवतियं कालं गतिराति करिज्जा? एवं जहा उप्पलुद्देसे (स० 11 उ०१ सु० 32) / [11 प्र.] भगवन् ! शालि, वीहि, गोधूम, जौ, (यावत्) जवजव (आदि धान्यों) के मूल का जीव, यदि पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पुनः शालि, व्रीहि यावत् जौ, जवजव आदि 0+ [?] पाठान्तर--- जाव Page #2292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र धान्यों के मूल रूप में उत्पन्न हो, तो इस रूप में वह कितने काल तक सेवन करता (रहता) है ? तथा कितने काल तक गति-पागनि (गमनागमन) करता रहता है ? [11 उ,] हे गौतम ! (इसका समाधान ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पल-उद्देशक के अनुसार (जानना चाहिए। 12. एएणं अभिलावेणं जाव मणुस्सजीवे / [12] इस अभिलाप से (लेकर) यावत्-मनुष्य एवं सामान्य जीव के (अभिलाप तक कहना चाहिए)। 13. पाहारो जहा उप्पलुद्देसे (स० 11 उ० 1 सु० 21) / [13] आहार (सम्बन्धी निरूपण) भी (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के समान है / 14. ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं / [14] (इन जीवों की) स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व (दो वर्ष से ले कर नौ वर्ष तक) की है। 15. समुग्घायसमोहया य उध्वट्टणा य जहा उप्पलुद्द से (स० 11 उ०१ सु० 42-44) / [15] समुद्घात-समवहत (समुद्घात की प्राप्ति) और उद्वर्तना (पूर्वोक्त) उत्पलोद्देशक के अनुसार है / 16. अह भंते ! सव्वपाणा जाव सब्वसत्ता साली वीही जाव जवजवगमूलगजीवत्ताए उववन्नपूव्वा? हंता, गोयमा ! अति अदुवा प्रणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / // एगवीसतिमे सए : पढमे बग्गे पढमो उद्देसनो समत्तो // 21-1-1 // [16 प्र. भगवन् ! क्या सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व शालि, व्रीहि, यावत् जवजव मूल के जीव रूप में इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं ? / [16 उ.] हाँ, गौतम ! (वे इससे पूर्व मूल के जीवरूप में) अनेक बार अथवा अनन्त बार (उत्पन्न हो चुके हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत प्रथम उद्देशक के 15 सूत्रों (सू. 2 से 16 तक) में शालि आदि के मूल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों को उत्पत्ति, संख्या, आदि के विषय में प्रायः प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के प्रथम उत्पलोद्देशक के अतिदेश-पूर्वक प्ररूपणा की गई है। Page #2293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां शतक : उद्देशक 1] देवों की उत्पत्ति मूल में क्यों नहीं ?-प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में वनस्पति में देवों की उत्पत्ति बतलाई गई है, किन्तु यहाँ शालि प्रादि वनस्पति के मूल में देवों की उत्पत्ति का निषेध इसलिए किया गया है कि देव वनस्पति के पुष्प आदि शुभ अंगों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु उसके मूल आदि अशुभ अंगों में नहीं / इसलिए मूलपाठ में कहा गया है-'णवरं देववज्ज / ' अर्थात् देव देवगति से प्राकर शालि आदि के मूल आदि में उत्पन्न नहीं होते। वनस्पति में जघन्य एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन कैसे? - यद्यपि वनस्पति में सामान्यतया प्रतिसमय अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं, किन्तु शालि आदि प्रत्येकशरीरी होने से इनमें जघन्यतः एक, दो आदि की उत्पत्ति का कथन सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है / अपहारः-उन शालि आदि के जीवों का प्रतिसमय अपहार किया जाए (एक-एक करके निकाला जाए), तो असंख्य उत्सपिणी-अवपिणी बीत जाने पर भी वे पूरी तरह निकाले नहीं जा सकते। (यद्यपि ऐसा किसी ने कभी किया नहीं और किया भी नहीं जा सकता)। कर्मबन्धक-शालि आदि के जीव ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्धक हैं, अबन्धक नहीं। लेश्या सम्बन्धी छब्बीस भंग कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्याओं के एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित असंयोगी तीन-तीन भंग होने से छह भंग असंयोगी होते हैं / कृष्ण-नील, कृष्ण-कापोत, और नील-कापोत, यों द्विकसंयोगी तीन भंग होते हैं। इनके प्रत्येक के एकवचन और न से सम्बन्धित चार-चार भंग होने से कुल 12 भंग द्विकसंयोगी हए / त्रिकसंयोगी एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी पाठ भंग होते हैं। इस प्रकार ये कुल 6+ 12+8=26 भंग होते हैं / दो प्रकार की स्थिति-भव की अपेक्षा इनकी गमनागमन की स्थिति जघन्य दो भव की और उत्कृष्ट असंख्यात भव तक की है, जबकि काल की अपेक्षा स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक की है। समुद्घात-प्राप्ति-शालि आदि जीवों में वेदना, कषाय और मरण, ये तीन समुद्घात होते हैं / ये समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। मर कर ये मनुष्य और तिर्यञ्च गति में जाते हैं, इत्यादि वर्णन ग्यारहवें शतक के प्रथम उद्देशक के अनुसार जान लेना चाहिए। दृष्टि आदि-मिथ्यादृष्टि हैं, अज्ञानी हैं, काययोगी हैं, द्विविध उपयोगी हैं, इत्यादि सब उत्पलोद्देशक के अनुसार कहना चाहिए।' // इक्कीसवां शतक : प्रथमवर्ग, प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र८०१ (ख) 'गोयमा ! नो अबंधगा, बंधए वा बंधगा वा / ...-उत्पलोहेशक शतक 11, 3.1. (ग) भगवती. विवेचन भा.६. (6. घेवरचन्दजी), पृ. 2945 Page #2294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे सालिवग्गे : सेसा नव उद्देसगा प्रथम 'शालि' वर्ग : शेष नौ उद्देशक कन्द प्रादि के रूप में उत्पन्न शालि आदि जीवों का प्रथमोद्देशकानुसार निरूपण 2-1. अह भंते ! साली वोही जाव जवजवाणं, एएसि णं जे जीवा कंदत्ताए वक्कमति ते गं भंते ! जोवा कमोहितो उववज्जति ? एवं कंदाहिगारेण सो चेव मूलुद्देसो अपरिसेसो भाणियब्वो जाव असति अदुवा अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / [उ. 2, सू. 1 प्र. भगवन ! शालि, वीहि, यावत् जवजव, इन सबके 'कन्द' रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [उ. 2, सू. 1 उ. (गौतम !) 'कन्द' के विषय में, वही (पूर्वोक्त) मूल का समग्र उद्देशक, यावत्-- ‘अनेक बार या अनन्त बार इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं, (यहाँ तक) कहना चाहिए। (विशेष यह है कि यहाँ 'मूल' के स्थान में 'कन्द' पाठ कहना चाहिए / ) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे। 3-1. एवं खंधे वि उद्देसओ नेतब्वो। [उ. 3, सू. 1] इसी प्रकार (प्रथम उद्देशकवत्) स्कन्ध का (तृतीय) उद्देशक भी जानना चाहिए। 4-1. एवं तयाए वि उद्देसो भाणितव्यो। [उ. 4, सू. 1] इसी प्रकार (प्रथम उद्देशकवत्) 'स्वचा' का (चतुर्थ) उद्देशक भी कहना चाहिए। 5.1. साले वि उद्देसो भाणियम्वो। [उ. 5, सू. 1] शाखा (शाल) के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र पंचम) उद्देशक कहना चाहिए। 6-1. पवाले वि उद्देसो भाणियन्यो / [उ. 6, सू. 1] प्रवाल (कोंपल) के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र छठा) उद्देशक कहना चाहिए। 7-1. पत्ते वि उद्देसो भाणियो / एए सत्त वि उद्देसगा अपरिसेसं जहा मूले तहा नेयव्वा / Page #2295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां शतक : प्रथम वर्ग] [97 [उ. 7, मू. 1 पत्र के विषय में भी (पूर्ववत् समग्र सप्तम) उद्देशक कहना चाहिए / ये सातों ही उद्देशक समरूप से 'मूल' शक के समान जाने च / 8-1. एवं घुप्फे वि उद्देस, नवरं देवो उवचन / जहा . (स० 11 उ०१ सु०५)। चत्तारि लेस्माो , अस ति भंगा। प्रोगाणा जह नण अंगुलरस अस जतिभाग, उयकोसेणं अंगुलपुहतं / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / [उ. 8, मु. 1] 'ए' के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्वान गमन मा . उदहारः कहना चाहिए / विशेष यह है कि बुटव' के रूप में देव (अकर) 3 है। .. के प्रथम उत्पलोहशक में जिस प्रकार च र ले और उनके अम्मी भाग है. प्र... र यहाँ भी कहने चाहिए। इसके अगहना जवन्ध अंगुल के असं मालव भाग का प्रो र उ अल-थरत्व की होती है। शेष सब पूर्ववत् है / हे भगवन् ! यह इस प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गतम स्वामी यावत् विचरने लगे। 6-1. जहा पुप्फे एवं फले वि उद्देसनो अपरिसेसो भाणियब्यो। (उ. 6, भू. 1 जिस प्रकार पुष्प' के विएय में कहा है, उसी प्रकार 'फल' के विषय में भी समग्र (नौवा) उद्देशक कहना चाहिए / 10-1. एवं बोए वि उद्देसनो। एए दस उद्देसगा। / पढमो धागो समत्तो।। [उ. 10, सू. 1] 'बीज' के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत् दसवाँ) उद्देशक कहना चाहिए / इस प्रकार प्रथम वर्ग के ये दस उद्देशक पूर्ण हुए। विवेचन–इन नौ उद्देशकों को नौ सूत्रों में दूसरे से दसवें उद्देशक के रूप में 'मूल उद्देशक के अतिदेशपूर्वक (कुछ बातों में अन्तर के सिवाय) क्रमशः कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज नाम से समग्र एक-एक उद्देशक कहा गया है। देवों की उत्पत्ति--मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र, इन सात में देव उत्पन्न नहीं होते, वे पुष्प, फल और बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं। पुष्पादि में चार लेश्याएं, अस्सी भंग-पुष्प, फल और बीज में चार लेश्याएँ होती हैं, क्योंकि इनमें देव पाकर उत्पन्न होते हैं। कुष्ण, नल, कापोत और तेजोले श्वानों के एक वचन और बहवनन की अपेक्षा से असंयोगी चार-चार भग गिनने से आठ भंग हाले हैं। दिशामायामा छर विकल्प होते हैं, उनके प्रत्येक के एकवचन आर बहुवचन ला प्रोक्षा चार-चार भंग होने से 6 - 400 4 भंग होते हैं। त्रिकसंयोगी चार विकल्प होते हैं। एक-एक विकाग के प्रार-पाठ भंग होने से 4 - 8 - 32 भंग Page #2296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होते हैं / चतु:संयोगी सोलह भंग होते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर +24+32+16-80 भंग होते हैं।' इन दसों को अवगाहना-एक गाथा के अनुसार मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र, इन सातों को अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुष-पृथक्त्व की है / पुष्प, फल और बीज, इन तीनों की जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अंगुलपृथक्त्व की है। // इक्कीसवाँ शतक : प्रथम वर्ग : शेष नौ उद्देशक समाप्त // // प्रथम वर्ग सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 802 (ख) भगवती. विवेचन, भाग 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2947 2. मूले कंद खंधे तया य साले पवाल-पत्ते य / सत्तसु वि धणु-पुहत्त, अंगुलिमो पुप्फ-फल-बीए // -भगवती. अ. वृ., पत्र 802 Page #2297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बितिए 'कल' वग्गे : दस उद्देसगा द्वितीय 'कल' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम शालिवर्गानुसार द्वितीय कलवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! कल-मसूर-तिल * मुग्ग-मास-निष्फाव-कुलत्थ-प्रालिसंदग-सडिण-पलिमंथगाणं, एएसि णं जे जोवा मूलत्ताए वक्कमति ते गं भंते ! जीवा कओहितो उधवजंति ? एवं मूलाईया दस उद्देसगा भाणियव्वा जहेव सालोणं निरवसेसं तहेव / // एगवीसइमे सए : बितियो वग्गो समत्तो // 21-2 // [1 प्र. भगवन् ! कलाय (मटर), मसूर, तिल, मूग, उड़द (माष), निष्पाव (वल्लवालोर नामक धान्य), कुलथ, पालिसंदक, सटिन और पलिमंथक (चना); इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार शालि आदि के विषय में मूल आदि दस उद्देशक कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भो मूल प्रादि समग्र दस उद्देशक कहने चाहिए। // द्वितीय वर्ग समाप्त // Page #2298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिए 'अयसि' वग्गे : दस उद्देसगा तृतीय 'अतसो' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम शालिवर्गानुसार तृतीय अतमी वर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! अघसि-कुसुभ-कोदव-कंगु-रालग-तुवरी- कोसा -सण सरिसव-मूलगबीयाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते ण भंते ! जीवा कमोहितो उववज्जति ? एवं एत्व वि भूलाईया दस उद्देसगा जहेच सालोणं निरवसेसं तहेव भाणियन्वं / // एगवीसइमे सए : तइओ वग्गो समत्तो / / 21-3 // | प्रभगवन् ! अलसी. कुटुम्ब, कोद्रव, कांग, गल, तर, कोसा, सग और सर्षप (सरसों) तथा मूलक बीज. इन वनस्पतियों के मुल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ. (गौतम ! ) 'शालि' प्रादि के (प्रथम वर्ग के) दस उद्देशकों के समान यहां भी समग्ररूप से मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। // तृतीय वर्ग समाप्त // Page #2299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे 'वंस' वग्गे : दस उद्देसगा चतुर्थ 'वंश' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम शालिवर्ग के अनुसार चतुर्थ वंशवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! वंस-वेणु-कणग-कक्कावंस-चारुवंस-उडाकुडा'-विमा कंडा-वेणुया-कल्लाणीणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? एवं एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा जहेव सालीणं, नवरं देवो सव्वस्थ वि न उववज्जति / तिनि लेसाओ। सम्वत्थ वि छव्वीसं भंगा। सेसं तं चेव / // एगवोसइमे सए : चउत्थो वग्गो समत्तो // 21-4 // [1 प्र.] भगवन् ! बांस, वेणु, कनक, कविंश, चारुवंश, उड़ा (दण्डा), कुडा, विमा, कण्डा, वेणुका और कल्याणी, इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से प्रा कर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] (गौतम ! ) यहाँ भी पूर्ववत् शालि-वर्ग के समान मूल आदि दश उद्देशक कहने चाहिए / विशेष यह है कि देव यहाँ किसी स्थान में उत्पन्न नहीं होते / अतः सर्वत्र तीन लेश्याएँ और उनके छब्बीस भंग जानने चाहिए। शेष सब पूर्ववत् / // चतुर्थ वर्ग समाप्त / 1. पाठान्तर-'दंडा' Page #2300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे 'उक्खु' वग्गे : दस उद्देसगा पंचम 'इक्षु' वर्ग : दश उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार पंचम इक्षुवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! उक्खु - उक्खुवाडिया - वोरण-इक्कड-भमास-सुठि-सर-वेत्त-तिमिर-सतबोरगनलाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए बक्कमंति० ? एवं जहेव बंसवग्गो तहेब एस्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा नवरं खंधुद्देसे देवो उववज्जति / चत्तारि लेसानो। सेसं तं चेव / ॥एगवीसइमे सए : पंचमो वग्गो समत्तो॥ 21-5 // [1 प्र.] भगवन् ! इक्षु (गन्ना), इक्षुवाटिका, वीरण, इक्कड़, भमास, सुंठि, शर, वेत्र (बेंत), तिमिर, सतबोरग, (शतपर्वक) और नल, इन सब वनस्पतियों के मूल रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से पा कर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] जिस प्रकार वंशवर्ग (चतुर्थ) के मूलादि दस उद्देशक कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए / विशेष यह है कि स्कन्धोद्देशक में देव भी उत्पन्न होते है, अतः उनके चार लेश्याएँ होती हैं (इत्यादि कहना चाहिए ) / शेष पूर्ववत् / // पंचम 'इक्षु' वर्ग समाप्त // Page #2301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे 'दब्भ' वग्गे : दस उद्देसगा छठा 'दर्भ' वर्ग : दश उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार छठे दर्भवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! सेडिय-भंतिय -कोतिय-दम्भ-कुस-पव्वग-पोदइल-अज्जुण-आसाढग-रोहियंसमुतव-खीर-भुस-एरंड-कुरुकुद-करकर-सुठ-विभंगु-महुरयण-थुरग-सिप्पिय-सुकलितणाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? एवं एत्थ वि दस उद्दे सगा निरवसेसं जहेव वंसवग्गो / // एगवीसइमे सए : छट्ठो वग्गो समत्तो॥२१.६ // [1 प्र.] भगवन् ! सेडिय (संडिय), भंतिय (भण्डिय), कौन्तिय, दर्भ-कुश, पर्वक, पोदेइल (पोदीना), अर्जुन, आषाढक, रोहितक (रोहितांश), मुतअ, खीर (समू, अवखीर या तवखीर), भुस, एरण्ड, कुरुकुन्द, करकर, (करवर), सूठ, विभंगु, मधुरयण (मधुवयण), थुरग, शिल्पिक और सुकलितृण, इन सब वनस्पतियों के मूलरूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? / 1 उ.] गौतम ! यहाँ भी चतुर्थ वंशवर्ग के समान समग्र मूल आदि दश उद्देशक कहने चाहिए। ॥छठा वर्ग समाप्त // पाठान्तर-१. मंडिय-कोतिय-दभ-कुस-दभग-योदइल-अंजुण 2. वयण Page #2302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमे 'अब्भ वग्गे : दस उद्देसगा सप्तम 'अभ्र' वर्ग : दश उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार सप्तम अभ्रवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! अब्भरुह-वायाण'-हरितग-तंदुलेज्जग-तण-वत्थुल-बोरग-मज्जार- पाइ-विल्लिपालक्क-दगदिष्पलिय-दन्वि-सोस्थिक-सायमंडुक्कि-मूलग-सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलc ? एवं एस्थ वि दस उद्देसगा जहेव वंसवग्गो // ॥एगवीसइमे सए : सत्तमो वग्गो समत्तो // 21-7 // [1 प्र.] भगवन् ! अभ्ररुह, वायाण (वोयाण), हरीतक (हरड़), तंदुलेय्यक (चंदलिया), तृण, वत्थुल (बथुआ), बोरक (बेर, पोरक), मार्जारक, पाई, बिल्ली (चिल्ली), पालक, दगपिप्पली, दर्वी, स्वस्तिक, शाकमण्डकी, मूलक, सर्वप (सरसों), अम्बिलशाक, जीयन्तक (जीवन्तक), इन सब वनस्पतियों के मूल रूप में जो जात्र उम्पन्न होते हैं, वे कहाँ से श्राकर उत्पन्न ह / है ? [1 उ.] (गोतम ! ) यहाँ भी चतुर्थ वशवर्ग के समान समग्ररूप में भूलादि दश उद्देशक कहने चाहिए। विवेचन-अभ्रवृक्ष का स्वरूप-एक वक्ष में दूसरी जाति के वृक्ष के उग जाने को अनवृक्ष कहते हैं / यथा नीम के वृक्ष में पीपल के वृक्ष का उग जाना या बड़ में पीपल का उग जाना। // दश उद्देशक सहित सप्तम वर्ग समाप्त // 3. जिवंतगा"। 1. वोयाण। 2. मज्जारयाईचिल्लियालक्क""। 4. भगवती. विवेचन (. धेवरचंद जी) भा. 6, पृ. 2954 Page #2303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमै 'तुलसी' वग्गे : दस उद्देसगा अष्टम तुलसी वर्ग : दश उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार अष्टम तुलसीवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! तुलसी-कण्हदराल-फणेज्जा-अज्जा-भूयणा'-चोरा-जीरा-दमणा-मरुया-इंदीवरसयपुष्फाणं, एतेसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? एत्य वि दस उद्देसगा निरवसेसं जहा बंसाणं / ____ एवं एएसु असु बग्गेसु असीति उद्देसगा भवंति / // एगवीसतिमे सए : अट्ठमो वग्गो समत्तो // 21-8 // / / एगवीसतिमं सयं समत्तं // 21 // 12 प्र.] भगवन् ! तुलसी, कृष्णदराल, फणेज्जा, अज्जा, भूयणा (च्यणा), चोरा, जीरा, दमणा, मरुया, इन्दीवर और शतपुष्प, इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] (गौतम ! ) चौथे वंशवर्ग के समान यहाँ भी समग्र रूप से मूलादि दश उद्देशक कहने चाहिए। इस प्रकार इन आठ वर्गों में अस्सी उद्देशक होते हैं / विवेचन -इन आठों ही वर्गों में जिन-जिन वनस्पतियों का उल्लेख किया है, उनमें से अधिकांश वनस्पतियाँ अप्रसिद्ध है / उनकी जानकारी 'निघण्टु' प्रादि से कर लेनी चाहिए। आठों ही वर्गों में प्रथम शालिवर्ग का प्रतिदेश किया गया है। इसलिए प्रथम वर्ग में किये गए दसों उद्देशकों के विवेचन के अनुसार सभी वर्गों का विवेचन समझ लेना चाहिए / / / अष्टम वर्ग समाप्त // इक्कीसवां शतक सम्पूर्ण ..-..- -.-...-.. . 1. अज्जायणा Page #2304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमं सयं : बाईसवाँ शतक वाईसवें शतक के छह वर्गों के नाम : इनके पाठ उद्देशकों का निरूपरण 1. तालेगट्ठिय 1-2 बहुबीयगा 3 य गुच्छा 4 य गुम्म 5 वल्ली 6 य / छहसवग्गा. एए सर्टि पुण होंति उद्देसा // 1 // [1 गाथार्थ--] इस शतक में दस-दस उद्देशकों के छह वर्ग इस प्रकार हैं--(१) ताल, (2) अगस्तिक (या एकास्थिक), (3) बहुबीजक, (4) गुच्छ, (5) गुल्म और (6) वल्लि (बेल)। प्रत्येक वर्ग के 10-10 उद्देशक होने से, सब मिला कर साठ उद्देशक होते हैं। विवेचन-वाईसवें शतक के वर्गों में प्रतिपाद्य विषय-(१) प्रथम वर्ग ताल-इसमें ताल, तमाल आदि वृक्षों के विषय में दश उद्देशक हैं / (2) द्वितीय वर्ग एकास्थिक—जिसमें एक गुठली हो, ऐसे नीम, पाम, जामुन आदि का इसमें वर्णन है / (3) तृतीय वर्ग-बहुबीजक-इसमें बहुत बीज वाली अस्थिक, तिन्दुक आदि वनस्पतियों का वर्णन है / (4) चौथा वर्ग-गुच्छ-इसमें गुच्छ वाली बैंगन आदि वनस्पतियों का वर्णन है। (5) पंचम वर्ग-गुल्म-इसमें नवमालिका, सिरियक आदि वनस्पतियों से सम्बन्धित वर्णन है और (6) छठा वर्ग-वल्ली-इसमें बेलों से सम्बन्धित निरूपण है / प्रत्येक वर्ग के मूल आदि दस-दस उद्देशक पूर्ववत् हैं।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 997 Page #2305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे तालवग्गे : दस उद्देसगा प्रथम 'ताल' वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के प्रथमवर्गानुसार प्रथम तालवर्ग का निरूपरण 2. रायगिहे जाव एवं क्यासि[२] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 3. अह भंते ! ताल-तमाल-तक्कलि-तेतलि-साल-सरलासारगल्लाणं जाव केयति-कलिकदलि-चम्मरुक्ख-गुतरुक्ख-हिंगुरुक्ख-लवंगरुक्ख-पूयफलि-खज्जूरि-नालिएरोणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! जीवा कमोहितो उववज्जति ? 0 एवं एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा जहेव सालोणं (स० 21 व० 1 उ० 1-10), नवरं इमं नाणतं-मूले कंदे खंधे तयाए साले य, एएसु पंचसु उद्देसगेसु देवो न उववज्जति; तिण्णि लेसाप्रो; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दसवाससहस्साई; उरिल्लेसु पंचसु उद्देसएसु देवो उववज्जति; चत्तारि लेसानो; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बासपुहत्तं; प्रोगाहणा मूले कंदे धणुपुहत्तं, खंधे तयाए साले य गाउयपुहत्तं, पवाले पत्ते य धणुपुहत्तं, पुप्फे हत्थपुहत्तं, फले बीए य अंगुलपुहत्तं, सव्वेसि जहन्नेणं अंगुलस्स प्रसंखेज्जइभागं / सेसं जहा सालोणं / __ एवं एए दस उद्देसगा। // बावीसइमे सए : पढमो बग्गो समत्तो // 22-1 // [3 प्र.] भगवन् ! ताल (ताड़), तमाल, तक्कली, तेतली, शाल, सरल (देवदार), सारगल्ल, यावत्-केतकी (केवड़ा), कदली (केला), चर्मवृक्ष, गुन्दवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफल (सुपारी), खजर और नारियल, इन सबके मुल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] (गौतम ! ) (इक्कीसवें शतक व. 1 उ. 1 सू. 1-10 में अंकित) शालिवर्ग के दश उद्देशकों के समान यहाँ भी वर्णन समझना चाहिए / विशेष यह है कि इन वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा और शाखा, इन पांचों अवयवों में देव आकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इन पांचों में तीन लेश्याएँ होती हैं, शेष पांच में देव उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें चार लेश्याएँ होती हैं। पूर्वोक्त पांच की स्थिति जघन्य अन्तर्महत की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है, अन्तिम पांच की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व की होती है। मुल और कन्द की अवगाहना धनुष-पृथक्त्व की और स्कन्ध, त्वचा एवं शाखा की गव्यूति (गाऊ-दो कोस)-पृथक्त्व की Page #2306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10) [ग्याच्याप्राप्तिसूत्र होती है। प्रवाल और पत्र को अवगाहना धनुष-पृथक्त्व की होती है / पुष्प की अवगाहना हस्तपृथक्त्व की और फल तथा बीज को उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल-पृथक्त्व की होती है। इन सबकी जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातव भाग की होती है / शेष सब कथन शालिवर्ग के समान जानना चाहिए। इस प्रकार ये दश उद्देशक विवेचन----शालिवर्ग के अतिदेशपूर्वक दश उद्देशक--इस शतक के वर्गों और उद्देशकों का प्रतिपाद्य विषय और व्याख्या प्रायः पूर्वोक्त इक्कीसवें शतक के समान है / प्राचीन प्राचार्यों द्वारा निरूपित गाथा-देवों में से प्राकर किन-किन में उत्पत्ति होती है, किन में नहीं ? इसके लिए एक गाथा है 'पत्त-पवाले पुष्फे फले य बोए य होइ उववाओ। रुवखेसु सुरगणाणं पसत्थ-रस-वन्न-गंधेसु / ' अर्थात--इनमें से प्रशस्त रस वर्ण और गन्ध वाले पत्र, प्रवाल, पूष्प, फल और बीज में देव पाकर उत्पन्न होते हैं।' // बाईसौं शतक : प्रथम वर्ग समाप्त / .00 1. भगवती. भ. वृत्ति, पत्र 804 Page #2307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीए ‘एगट्ठिय' वग्गे : दस उद्देसगा द्वितीय एकास्थिक' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार द्वितीय एकास्थिक वर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! निबंब-जंबु-कोसंब-ताल-अंकोल्ल-पीलु-सेलु-सल्लइ-मोयइ-मालुय-बउलपलास-करंज-पुत्तंजीवग-ऽरिट्ट-विहेलग-हरियग भल्लाय-उंबरिय'. खीरणि-धायइ-पियाल-पूइय-णिवागसेण्हण-पासिय-सीसव-अयसि-पुत्राग-नागरुवख-सीवण्णि-असोगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति०? एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा निरवसेस जहा तालवागे / बावीसइमे सए : बितिमो वग्गो समत्तो // 22-2 // [1 प्र.] भगवन् ! नीम, आम्र, जम्बू (जामुन), कोशम्ब, ताल, अंकोल्ल, पीलु, सेलु, सल्लकी, मोचकी, मालुक, बकुल, पलाश, करंज, पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा), बहेड़ा, हरितक (ह.), भिल्लामा, उम्बरिय (उम्बभरिक), क्षीरणी (खिरनी), धातकी (धावड़ी), प्रियाल (चारोली), पूतिक, निवाग (नीपाक), सेण्हक, पासिय, शीशम, अतसी, पुन्नाग (नागकेसर), नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक, इन सब वृक्षों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी तालवर्ग के समान समग्र रूप से मूल आदि दस उद्देशक कहने चाहिए। // बाईसवें शतक का द्वितीय वर्ग समाप्त / - - - -- - - --- पाठान्तर-१. उंबभरिय Page #2308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए 'बहुबीयग' वग्गे : दस उद्देसगा तृतीय ‘बहुबोजक' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार तृतीय बहुबीजकवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! अत्थिय-तेंदुय-बोर-कवि?,अंबाडग-माउलुग'-बिल्ल-मामलग-फणस-दाडिमपासोट-उंबर-वड-णग्गोह-नंदिरुक्ख- पिप्पलि-सतर-पिलक्खुरुक्ख - काउंबरिय- कुत्थं भरिय- देवदालितिलग-लउय-छत्तोह-सिरीस-सत्तिवण्ण-दधिवण्ण-लोद्ध-धव-चंदण-अज्जुण-णीव-कुडग-कलंबाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ते णं भंते ! 0? एवं एत्य वि मूलाईया दस उद्देसगा तालवग्गसरिसा नेयव्वा जाव बीयं / ॥बावीसइमे सए : तइप्रो वग्गो समत्तो // 22-3 // [1 प्र.] भगवन् ! अगस्तिक, तिन्दुक, बोर, कवीठ, अम्बाडक, बिजौरा, बिल्व (बेल), आमलक (आँवला), फणस (अनन्नास), दाडिम (अनार), अश्वत्थ (पीपल), उंबर (उदुम्बर), बड़, न्यग्रोध, नन्दिवृक्ष, पिप्पली (पीपर), सतर, प्लक्षवृक्ष (ढाक का पेड़), काकोदुम्बरी, कुस्तुम्भरी, देवदालि, तिलक, लकुच (लीची), छत्रौष, शिरीष, सप्तपर्ण (सादड़), दधिपर्ण, लोध्रक (लोद), धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुटज और कदम्ब, इन सब वृक्षों के मूलरूप से जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी प्रथम तालवर्ग के सदृश मूल आदि (मूल से लेकर) यावत् बीज तक दस उद्देशक कहने चाहिए। // बाईसवे शतक का तृतीय वर्ग समाप्त / / 1. माउलिंग 2. आसत्थ Page #2309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे ‘गुच्छ' वग्गे : दस उद्देसगा चतुर्थ 'गुच्छ' वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थवर्गानुसार चतुर्थ गुच्छवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! बाइंगणि-अल्लइ-बोंडइ० एवं जहा पण्णवणाए गाहाणुसारेणं' यध्वं जाव गंजपाडला-दासि-अंकोल्लाणं, एएसिगं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ? एवं एत्थ वि मूलादीया दस उद्देसगारे जाव बीयं ति निरवसेसं जहा वंसवग्गो (स० 21 व० 4) / // बावीसइमे सए : चउत्थो वग्गो समत्तो॥ 22-4 // [1 प्र. भगवन् ! बैंगन, अल्लइ, बोंडइ (पोंडइ) इत्यादि वृक्षों के नाम प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद की गाथा के अनुसार जानना चाहिए, यावत् गंजपाटला, दासि (वासी) अंकोल्ल तक, इन सभी वृक्षों (पौधों) के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी मूल से लेकर यावत् बीज तक समग्नरूप से मूलादि दस उद्देशक (इक्कीसवें शतक चतुर्थ) वंशवर्ग के समान जानने चाहिए। // बाईसवे शतक का चतुर्थ वर्ग समाप्त / On 1. देखिय प्रज्ञापनासूत्र की ये गाथाएँ वाइंगणि-सल्लइन्थडइ य तह कत्थरी य जीभुमणा / रूवी आढईणीली तुलसी तह मालिंगी य / / 18 / / इत्यादि यावत् - जीवइ केयइ तह गंजपाइला दा (वा) सि अंकोले / / 22 / / -प्रज्ञापना. पद 1, पत्र 32-2 2. अधिकपाठ तालवम्गा-सरिसा नेयम्वा'' '' Page #2310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे 'गुम्म' वग्गे : दस उद्देसगा पंचम 'गुल्म' वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के प्रथम वर्गानुसार पंचम गुल्मवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! सिरियक-णवमालिय-कोरंटग-बंधुजीवग-मणोज्जा, जहा पण्णवणाए पढमपए,' गाहाणुसारेणं जाव नलणीय-कुद-महाजातीणं, एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति? एवं एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा सालोणं (स० 21 20 1 उ० 1-10) / // बावीसइमे सए : पंचमो वग्गो समत्तो // 22-5 // [1 प्र. भगवन् ! सिरियक, नवमालिक, कोरंटक, बन्धुजीवक, मणोज्ज, इत्यादि सब नाम प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद की गाथा के अनुसार, यावत् नलिनी, कुन्द और महाजाति (तक जानने चाहिए;) इन सब पौधों के मूलरूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी मूलादि समग्र दश उद्देशक (इक्कीसवें शतक के प्रथम) शालिवर्ग के समान (जानने चाहिए ) / // बाईसवें शतक का पंचम वर्ग समाप्त // 1. देखिये प्रज्ञापना पद 1 की वे गाथाएँ सेण (सिरि) यए गोमालिय कोरटय-बंधुजीबग-मणोज्जे / पिइयं पाणं कशयर कुजय तह सिद्वारे य // 23 / / जाई-मोग्गर तह जहिया य तह मल्लिया य वासंती। वत्थल कत्थल से बाल गंठी मगदंतिया चेव / / 24 / / चंपक-जी (जा) ई पोइया कुदो तहा महाजाई / / —प्रज्ञापना पद 1, प.। 32-2 . Page #2311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे 'वल्ली' वग्गे : दस उद्देसगा छठा 'वल्ली' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम तालवर्गानुसार छठे वल्लिवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! पुसफलि-कालिंगी-तुबी-तउसी-एला-वालुकी एवं पदाणि छिदियवाणि पण्णवणागाहाणुसारेणं जहा तालवग्गे जाव दधिफोल्लइ-काकलि-सोक्कलि-अक्कबोंदीणं, एएसि गं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमति ? एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा जहा तालबग्गे। नवरं फलउद्देसे, अोगाहणाए जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं धणुपुहत्तं ठिती सध्वत्थ जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं वासपुहत्तं / सेसं तं चेव। एवं छसु वि बग्गेसु दि उद्देसगा भवति / // बावीसइमे सए : छट्ठो वग्गो समत्तो / / 22-6 // // बावीसतिमं सयं समत्तं 22 // [1 प्र.] भगवन् ! पूस फलिका, कालिंगी (तरबूज की बेल), तुम्बी, वपुषी (ककड़ी), एला (इलायची), बालु की, इत्यादि वल्लीवाचक पद (नाम) प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद की गाथा के अनुसार अलग कर लेने चाहिए, फिर तालवर्ग के समान, यावत् दधिफोल्लइ, काकली (कागणी), सोक्कली और अर्कबोन्दी, इन सब बल्लियों (बेलों-लताओं) के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं / ऐसा प्रश्न समझना चाहिए। [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी तालवर्ग के समान मूल आदि दस उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि फलोद्देशक में फल की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुष-पृथक्त्व की होती है / सब जगह स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट वर्ष-पृथक्त्व की है। शेष सर्व पूर्ववत् है। पाठान्तर--१ 'दहफूल्लइ कागणि-मोगली' 2. 'फलहसओ' Page #2312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-यहाँ वल्लियों के नाम-निर्देश प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद की छब्बीसवीं गाथा से लेकर तीसवीं गाथा तक में इस प्रकार हैं पुसफली कालिंगी तुंबी तउसी य एलवालुंकी। घोसाडइ पंडोला, पंचंगुली प्रायणीली य / / 26 / / यावत् दधिफोल्लइ कागली सोगली य तह अक्कबोंदी य / / 30 / / '. इस प्रकार इन छह वर्गों में सब मिलाकर साठ उद्देशक होते हैं / / बाईसवें शतक का छठा वर्ग समाप्त // // बाईसवाँ शतक सम्पूर्ण // 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र पद 1, पत्र 33/1 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजो), भा. 6, पृ.२९६५ Page #2313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसइमं सयं : तेईसवाँ शतक तेईसवे शतक का मंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए भगवतीए।' [1] भगवद्वाणीरूप श्रुतदेवता भगवती को नमस्कार हो / विवेचन-यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का मध्य-मंगलाचरण प्रतीत होता है। तेईसवें शतक के पांच वर्गों के नाम तथा उसके पचास उद्देशकों का निरूपण 2. प्रालय 1 लोही 2 अवए 3 पाढा 4 तह मासवणि वल्ली य 5 / पंचेते दसवग्गा पण्णासं होंति उद्देसा // 1 // 2 गाथार्थ---] तेईसवें शतक में दस-दस उद्देशकों के पांच वर्ग ये हैं-(१) पालक, (2) लोही, (3) अवक, (4) पाठा और (5) माषपर्णी वल्ली। इस प्रकार पांच वर्गों के पचास उद्देशक होते हैं / / 1 / / विवेचन-पांच वर्गों का संक्षिप्त परिचय- (1) प्रथम वर्ग : पालुक में पाल, मूला, पाक, हल्दी आदि साधारण वनस्पति के प्रकार सम्बन्धी मूलादि 10 उद्देशक हैं / (2) द्वितीय वर्ग : लोही में लोही, नोहू, थीहू आदि अनन्तकायिक वनस्पति से सम्बन्धित दस उद्देशक हैं। (3) तृतीय वर्ग: प्राय में अवक आदि वनस्पति सम्बन्धी दस उद्देशक हैं / (४)चतुर्थ वर्ग : पाठा में पाठा, मृगवालु की प्रादि वनस्पति सम्बन्धी दस उद्देशक हैं और (5) पंचम वर्ग : माषपर्णी आदि वनस्पतियों से सम्बन्धित दश उद्देशात्मक है। प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक होने से इस शतक में पांचों वर्गों के 50 उद्देशक होते हैं।' 1. भगवतीसूत्र चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवाद, पं. भगवानदासजी सम्पादित) प्रति में (पृ. 136) यह मंगलाचरण पाठ नहीं है / —सं. 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 805 Page #2314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे 'आलय' वग्गे : दस उद्देसगा प्रथम पालक वर्ग : दश उद्देशक इक्कीसवें शतक के चतुर्थवर्गानुसार प्रथम पालुकवर्ग का निरूपण 3. रायगिहे जाब एवं वयासि.... 3] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-- - 4. मह भंते ! पालुय-मूलग-सिंगबेर-हलिद्द-रुरु-कंडरिय-जारु-छोरबिरालि-किट्ठि-कुदुकण्हकडसु-मधुपयल इ-मसिगि-णेरुहा-सप्पसुगंधा-छिन्नरहा-बीयरुहाणं, एएसि णं जे जीवा मूलत्ताए वक्कमंति० ? एवं मूलाईया दस उद्देसगा कायव्वा वंसवग्ग (स० 21 व० 4) सरिसा, नवरं परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति; अवहारो-गोयमा ! ते णं अणंता समये समये अवहीरमाणा अवहीरमाणा अणंताहि ओसप्पिणि-. उस्स प्पिणोहि एवतिकालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया; ठिती जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / सेसं तं चेव / // तेवीसहमे सए : पढमो वग्गो समत्तो / / 23-1 // [4 प्र. भगवन् ! आल, मूला, अदरक (शृगबेर), हल्दी, रुरु, कंडरिक, जीरु, क्षीरविराली (क्षीर विदारीकन्द), किट्ठि, कुन्दु, कृष्णकडसु, मधु, पयलइ, मधुशृगी, निरुहा, सर्पसुगन्धा, छिन्नम्हा और बीजरुहा, इन सब (साधारण) वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! यहाँ (इक्कीसवें शतक के चतुर्थ) वंशवर्ग के (दश उद्देशकों के) समान मूलादि दस उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनके मूल के रूप में जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त जीव पाकर उत्पन्न होते हैं। हे गौतम ! यदि एक-एक समय में, एक-एक जीव का अपहार किया जाए तो अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक किये जाने पर भी उनका अपहार नहीं हो सकता; (यद्यपि ऐसा किसी ने किया नहीं और कोई कर भी नहीं सकता); क्योंकि उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। शेष सब पूर्ववत् / // तेईसवें शतक का प्रथम वर्ग समाप्त // Page #2315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए 'लोही'वग्गे : दस उद्देसगा द्वितीय 'लोही'वर्ग : दश उद्देशक प्रथम वर्गानुसार द्वितीय लोहीवर्ग का निरूपरण 1. प्रह भंते ! 'लोही-णीहू-धीह-थीभगा-अस्सकण्णी-सीहकरणी-सीठी-मुसुठीणं, एएसि णं जे जीवा मूल० ? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव पालुवागे, णवरं प्रोगाणा तालवासरिसा, सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // बितियो वग्गो समत्तो // 23-2 // [1 प्र.] भगवन् ! लोही, नीह, थीह, थीभगा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सी उंढी और मुसुंढी इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पालकवर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक (कहने चाहिए)। - विशेष यह है कि इनकी अवगाहना तालवर्ग के समान है / शेष (सब कथन) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। // तेईसवे शतक का द्वितीय वर्ग समाप्त / / 0 2. पाच अचार वर्षद बाल साहित्या, महत्यिहत्यिभागा.. 1. पाठभेद-प्रज्ञापनासूत्र में कुछ पदों में पाठभेद है। यथा अवए पणए सेवाल लोहिणी, मिहूस्थिहस्थिभागा / असकण्णी सीहकाणी सिढि तत्तो मुसुढीय // 43 // ... -प्रज्ञापना पद 1, पत्र 34-2 Page #2316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए 'अवय' वग्गे : दस उद्देसगा तृतीय अवकवर्ग : दश उद्देशक प्रथम वर्गानुसार तृतीय अवकवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! प्राय'-काय-कुहुण'-कुदुक्क'-उल्वेहलिय-सफा-सज्झा-छत्ता-वंसाणियकुराणं", एएसिणं जे जीवा मूलत्ताए० ? एवं एत्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा निरवसेसं जहा आलुबग्गे।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥ततिओ वग्गो समत्तो॥ 23-3 // [1 प्र.] भगवन् ! आय, काय, कुहणा, कुन्दुक्क, उन्वेहलिय, सफा, सज्मा, छत्ता, वंशानिका और कुरा (अथवा कुमारी); इन वनस्पतियों के मूल रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी आलु-वर्ग के मूलादि समग्र दस उद्देशक कहने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि / // तेईसवें शतक का तृतीय वर्ग समाप्त // 00 पाठान्तर-१. अवय कवय / 2. 'कुहणा अणेगबिहा प.तं...-आए काए कुहणे कुणक्के दब्यहलिया, सफाए सज्झाए छत्तोए वंसीण हिताकुरए।' -प्रज्ञापना. प. 1, पत्र 33-2 3. कुदुरुक्क तथा कुहुक्क 4. सज्जा 5. कुमाराणं 6. अधिकपाठ-नवरं ओगाहणा तालवग्गसरिसा / सेसं तं चेव / Page #2317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे 'पाठा' वग्गे : दस उद्देसगा चतुर्थ 'पाठा'वर्ग : दश उद्देशक प्रथम वर्गानुसार चतुर्थ पाठावर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! पाढा-मियवालुकि-मधुररस-रायवल्लि-पउम-मोढरि-वंति-चंडीणं', एएसि णं जे जीवा मूल०? एवं एस्थ वि मूलाईया दस उद्देसगा आलुयवग्गसरिसा, नवरं ओगाहणा जहा वल्लीणं, सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // तेवीसइमे सए : चउत्थो वग्गो समत्तो // 23-4 // [1 प्र.] भगवन् ! पाठा, मृगवालंकी, मधुररसा, राजवल्ली; पद्मा, मोढरी, दन्ती और चण्डी, इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इस विषय में भी पालवर्ग के समान मूलादि दश उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनकी अवगाहना (22 वें शतक के छठे) बल्लीवर्ग के समान समझनी चाहिए / शेष सब वर्णन पूर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' इत्यादि / // तेईसवें शतक का चतुर्थ वर्ग समाप्त / / 17 1. देखिये प्रज्ञापना. में-पाढा मियवालुकी महुररसा चेव रायबत्ती (ल्ली) य / पउमा माढरि दंतीति चंडीक्ट्रिी ति यावरा / -----प्रज्ञापना प. 1, पत्र 34-2 Page #2318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे 'मासपण्णी' वग्गे : दस उद्देसगा पंचम 'माषपर्णो' वर्ग : दश उद्देशक प्रथम वर्गानुसार माषपर्णी नामक पंचमवर्ग का निरूपण / 1. अह भंते ! मासपण्णी-मुग्गपण्णी-जीवग-सरिसव-करेणुया-काओलि-खीरकाम्रोलि-भंगिणहि-किमिरासि-भद्दमुत्थ-णंगलइ-'पयुयकिण्णा-पयोयलया-देहरेणुया-लोहीणं, एएसि णं जे जीवा मूल०? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा निरवसेसं पालुयवग्गसरिसा / // तेवीसइमे सए : पंचमो वग्गो समत्तो // 23-5 // [1 प्र.] भगवन् ! माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवक, सरसव, करेणुका, काकोली, क्षीरकाकोली, भंगी, णही, कृमिराशि, भद्रमुस्ता, लाँगली, पयोदकिण्णा, पयोदलता, (पाढहढ) हरेणुका और लोही, इन सब वनस्पतियों के मूलरूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? _[1 उ.] (गौतम ! ) यहाँ अालुकवर्ग के समान मूलादि दश उद्देशक समग्ररूप से कहने चाहिए / __ एवं एएतु पंचसु वि वग्गेसु पण्णासं उद्देसगा भाणियव्य त्ति / सव्वस्थ देवा ण उववति / तिमि लेसायो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥तेवीसतिम सयं समत्तं // 23 // इस प्रकार इन पांचों वर्गों के कुल मिला कर (मुलादि) पचास उद्देशक कहने चाहिए। विशेष है कि इन पांचों वर्गों में कथित वनस्पतियों के सभी स्थानों में देव पाकर उत्पन्न नहीं होते; इसलिए इन सब में तीन लेश्याएँ जाननी चाहिए। 1. तुलना कीजिए-मासपरिण मुग्गपण्णी जीवय (व) रसहे य रेणुया चेव / कानोली खीरकापोली तहा भंगी नही इय / / 47 / / किमिरासी भद्दमुच्छा णं गलइ पेलुया इय। किण्ह पडले य हढे हरतण्या चेव लोयाणी // 48 / / कण्हे कंदे वज्जे सूरणकंदे तहेद खल्लूरे / हुए अणतजीवा जे यावन्ने तहाविहा / / 49 / / 2. पाठान्तर-पग्रोयकिण्णा पहल पाढे-हरेण या " / ' प्रज्ञापना. पद 1, पत्र 34-2 : Page #2319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां शतक : उद्देशक 5] [121 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--पांचों वर्गों में बतलाई हुई वनस्पतियाँ प्रायः अप्रसिद्ध हैं। प्रज्ञापना के प्रथमपद में इनका विस्तृत वर्णन तथा विवेचन है / जिज्ञासुओं को वहीं देखना चाहिए / // तेईसवां शतक सम्पूर्ण // Page #2320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसइमं सयं : चौवीसवाँ शतक प्राथमिक * यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का चौवीसवां शतक है / * कतिपय दर्शनों का अभिमत है कि ईश्वर से प्रेरित होकर जीव स्वर्ग या नरक में जाता है / वह चाहे तो जीव को कठोर दण्ड दे सकता है, जीव की गति-मति बदल सकता है। वही सांसारिक जीवों का कर्ता-धर्ता-हर्ता है। परन्तु जैनदर्शन कहता है कि सभी जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति या योनि में जाता है; उसको शरीर, इन्द्रिय, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, वेद, सुख-दुःख-वेदन, आयुष्य, अध्यवसाय तथा अन्य साधन अपनेअपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार मिलते हैं / अवतार या तीर्थंकर कहलाने वाले महापुरुष भी पूर्वकृत कर्मों को भोगे बिना छूट नहीं सकते। बड़े-बड़े सत्ताधारी, धनपति, विद्यावान्, बलवान् भी कर्मों के चक्कर से छूट नहीं सकते। यह बात दूसरी है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष कर्मों का फल भोगते समय समभाव से भोगते हैं, पुराने कर्मों का क्षय करते हैं, नये कर्मों को पाने से या बंधने से रोकते हैं / परन्तु जब तक कर्मों का विशेषतः घातीकर्मों का क्षय नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति संसार में चारों गतियों, विविध योनियों में भ्रमण करता रहता है / प्राणिमात्र के प्रति परमवत्सल भगवान महावीर ने यही तथ्य समझाने के लिए चौवीस उद्देशकों से युक्त यह शतक प्ररूपित किया है। गणधर श्री गौतम स्वामी को लक्ष्य करके समस्त संसारी जीवों को, विशेषत: मनुष्यों को परोक्ष रूप से यह सबोध दिया है कि अगर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना हो, उपपात आदि वीस बोलों से छुटकारा पाना हो तो इन सबके मूल शुभ-अशुभ कर्मों से मुक्त होने और ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप द्वारा प्रात्मशुद्धि करने तथा आत्मस्वरूप में रमण करने का प्रयत्न करो। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत शतक में चौवीस दण्डकवर्ती समस्त सांसारिक जीवों को लेकर 20 द्वारों के माध्यम से शुभाशुभ कर्मजन्य वीस बोलों का निरूपण किया गया है। प्रत्येक दण्डक के अनुसार एक-एक उद्देशक की रचना की गई है। प्रत्येक दण्डकवर्ती जीव के साथ 20 बोलों का कथन किया गया है। निःसंदेह अात्महितैषी मुमुक्षु जीवों के लिए प्रत्येक उद्देशक मननीय है / जब तक शरीर है, तब तक कुछ शुभ तत्व इनमें से कथंचित् उपादेय भी हैं / * वीस द्वार इस प्रकार हैं--(१) उपपात, (2) परिमाण, (3) संहनन, (4) ऊँचाई (अवगाहना), .... (5) संस्थान, (6) लेश्या, (7) दृष्टि, 1(8) ज्ञान, अज्ञान, (6) योग, (10) उपयोग / (11) Page #2321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {12 // गौमीसा शतक : प्राथमिक] संज्ञा, (12) कषाय, (13) इन्द्रिय, (14) समुद्घात, (15) वेदना, (16) वेद, (17) आयुष्य, (18) अध्यवसाय, (19) अनुबन्ध और (20) कायसंवेध / ' * चौवीस दण्डक इस प्रकार हैं---(१) सात नरक पृथ्वियों का एक दण्डक, (2-11) असुरकुमार आदि 10 भवनपति देवों के 10 दण्डक, (12-16) पांच स्थावरों के पांच दण्डक, (17-16) तीन विकलेन्द्रियों के तीन दण्डक, (20) तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का एक दण्डक, (21) मनुष्य का एक दण्डक, (22) वाणव्यन्तर देव का एक दण्डक, (23) ज्योतिष्क देव का एक दण्डक और (24) वैमानिक देव का एक दण्डक / ' उपपात का अर्थ है- नैरयिकादि कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? परिमाण का अर्थ-नैरयिकादि में उत्पन्न होने वाले जीवों की संख्या। संहनन का अर्थ है--- शरीर की अस्थियों आदि की रचना। संस्थान प्राकृति, डीलडौल। उच्चत्व -शरीर की ऊँचाई। लेश्या-कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से प्रात्मा में उत्पन्न हुआ शुभाशुभ परिणाम / अथवा एक प्रकार की दीप्ति (ोरा)। दृष्टि का अर्थ है-दर्शन (सम्यक् या मिथ्या बुद्धि) ज्ञान, अज्ञान, इन्द्रिय वेदना आदि प्रसिद्ध हैं / योग-मन-वचन-काया का व्यापार (प्रवृत्ति)। उपयोग-ज्ञानदर्शनरूप व्यापार (या ध्यान)। संज्ञा-आहार आदि की अभिलाषा या बुद्धि / कषायक्रोध-मान-माया-लोभरूप वृत्ति, क्रोधादि का रस-विशेष / समुद्घात का अर्थ है-जिस समय प्रात्मा वेदना, कषाय आदि से परिणत होता है, उस समय वह अपने कतिपय प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल करके उन प्रदेशों से वेदनीय-कषायादि कर्मप्रदेशों की जो निर्जरा करता है, वह / वेद का अर्थ है-मोहनीयकर्म का एक भेद, जिसके उदय से मैथुन की इच्छा होती है। आयुष्य का अर्थ है--किसी पर्याय में जीवित रहने का कारणभूत कर्म / अध्यवसाय का अर्थ है, मा का शभाशभ परिणाम, विचार या मानसिक संकल्प / अनुबन्ध का अर्थ है-विवक्षित पर्याय से अविच्छिन्न रहना / कायसंवेध का अर्थ है--विवक्षित काय से कायान्तर (दूसरी काय) या तुल्यकाय में जाकर पुनः यथासम्भव उसी काया में पाना। निष्कर्ष यह है कि ये सब जीव के शरीर, मन, वचन आदि से सम्बद्ध एवं कर्मजन्य विविध परिणतियाँ हैं, जो जन्म मरण के साथ लगी हुई हैं। * कुल मिलाकर इसमें प्राध्यात्मिक तत्त्वज्ञान का सार भरा हुआ है, जिससे प्रेरणा लेकर मुमुक्षु भव्य साधक अपने प्रात्मकल्याण का पथ आसानी से पकड़ है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, प्र. 904 से 968 2. दण्डकप्रकरण। Page #2322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसतिमं सयं : चौवीसवां शतक चौवीसवें शतक के चौवीसदण्डकीय चौवीस उद्देशकों में उपपात प्रादि वीस द्वारों का निरूपण 1. उववाय 1 परीमाणं 2 संघयणुच्चत्तमेव 3-4 संठाणं 5 / लेस्सा 6 दिट्ठो 7 गाणे अण्णाणे 8 जोग : उवनोगे 10 // 1 // सण्णा 11 कसाय 12 इंदिय 13 समुग्धाए 14 वेदणा 15 य वेवे 16 / प्रासं 17 प्रज्झवसाणा 18 अणुबंधो 16 कायसंवेहो 20 // 2 // जीबपए जीवपए जीवाणं दंडगम्मि उद्देसो। चउवीसतिमम्मि सए चउवीसं होति उद्देसा // 3 // 61 गाथार्थ-] चौवीसवें शतक में चौवीस उद्देशक इस प्रकार हैं--(१) उपपात, (2) परिमाण, (3) संहनन, (4) उच्चता (ऊँचाई), (5) संस्थान, (6) लेश्या, (7) दृष्टि, [8] ज्ञान, अज्ञान, (9) योग, (10) उपयोग, (11) संज्ञा, (12) कषाय, (13) इन्द्रिय, (14) समुद्घात, (15) वेदना, (16) वेद, (17) आयुष्य, (18) अध्यवसाय, (16) अनुवन्ध, (20) काय-संवेध / / 1-2 // [ये बीस द्वार हैं। यह सब विषय चौवीस दण्डक में से प्रत्येक जीवपद में कहे जायेंगे / [अर्थात्-प्रत्येक दण्डक पर ये वीस द्वार कहे जायेंगे / इस प्रकार चौवीसवें शतक में चौवीस दण्डक-सम्बन्धी चौवीस उद्देशक कहे जायेंगे। विवेचन-उपपात आदि वीस द्वारों का अर्थ-(१) उपपात-नरयिक आदि कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, (2) परिमाण--नै रयिकादि में जो जीव उत्पन्न होते हैं, उन में उत्पद्यमान जीवों का परिमाण (गणना), (3 से 18 तक) संहनन से लेकर अध्यवसाय तक का अर्थ स्पष्ट है। (16) अनुबन्ध-विवक्षित पर्याय से अविच्छिन्न रहना। (20) कायसंवेध-विवक्षित काया से कायान्तर (दूसरी काया) में अथवा तुल्यकाया में जाकर पुनः यथासम्भव उसी काया में आना / ' इन वीस द्वारों में से पहला-दूसरा द्वार तो जीव जहाँ उत्पन्न होता है, उस स्थान की अपेक्षा से है। तीसरे से उन्नीसवें तक सत्रह द्वार, उत्पन्न होने वाले जीव के उस भव-सम्बन्धी हैं और वीसवाँ द्वार दोनों भव-सम्बन्धी सम्मिलित है।' 1. [क] भगवतो. म. वृत्ति, पत्र 808 [ख] भगवती. विवेचन [पं घेवरचन्दजी] भा. 6, पृ. 2975 2. वही, भाग 6, पृ. 2975 Page #2323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो नेरइय - उद्देसओ प्रथम उद्देशक : नैरयिक का उपपात गति की अपेक्षा से नैरयिकादि-उपपात-निरूपण 2. रायगिहे जाव एवं वदासि-- [2] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा___३. [1] नेरइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, मणुस्सेहितो उववति, देवेहितो उबवज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति, मणुस्सेहितो वि उववज्जति, नो देवेहितो उववज्जति / [3-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों से उत्पन्न होते हैं ? , या तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, अथवा देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? | [3-1 उ.] गौतम ! वे रयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं, (परन्तु) देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। [2] जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्ख जोणिएहितो उववज्जति, बेइंदियतिरिक्ख०, तेइंदियतिरिक्ख०, चरिदियतिरिक्ख०, पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, नो बेइंदिय०, नो तेइंदिय०, नो परिदिय०, पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति / [3-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (नैरयिकजीव) तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, या द्वीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से, श्रीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनियों से, चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से, अथवा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? 3-2 उ.] गौतम ! वे न तो एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं और न दीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से, न त्रीन्द्रिय तिर्थञ्चयोनिकों से और न चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते है। Page #2324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] व्याख्याप्राप्तिसूत्र [3] जति पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उपवज्जति, असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा! सन्निपचेदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति, असग्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति / [3-3 प्र.) भगवन् ! यदि वे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं तो क्या संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, या असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं। [3-3 उ. गौतम ! वे संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी पाकर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / [4] जति सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति कि जलचरेहितो उववज्जति, थलचरेहितो उबवन्जंति, खहचहितो उववज्जंति ? गोयमा! जलचरेहितो वि उववज्जंति, थलचरेहितो वि उववज्जंति, खहचरोहितो वि उववज्जति। [3-4 प्र.] भगवन् ! यदि वे [नै रयिक संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से उत्पन्न होते हैं, या स्थलचरों से अथवा खेचरों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [3-4 उ.] गौतम ! वे जलचरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, स्थलचरों से भी तथा खेचरों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं / [5] जति जलचर-थलचर-खहचरेहितो उववजंति कि पज्जत्तएहितो उववज्जंति, अपज्जत्तएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववज्जति ? [3-5 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्त (जलचरादि) से अथवा अपर्याप्त (जलचरादि) से आकर उत्पन्न होते हैं ? [3-5 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त (जलचरादि) से (आकर) उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्त (जलचरादि) से (पाकर) उत्पन्न नहीं होते। विवेचन-निष्कर्ष-द्वितीय सूत्र में पूछा गया है कि क्या नैरयिक जीव चार गतियों में से पाकर (नरक में) उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है कि वे तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति से आकर उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात् तीसरे सूत्र के पांच विभागों के प्रश्नों का उत्तर है-वे तिर्यञ्चगति में से पाकर उत्पन्न होते हैं तो सिर्फ पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकों से और उनमें भी जलचर, स्थलचर और खेचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं।' 3. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2. पृ. 904-905 Page #2325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 1] [127 प्रथम नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त-असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तियं च के विषय में उपपात प्रादि वीस द्वारों की प्ररूपणा 4. पज्जत्तानसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए गंभंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसु पुढवीसु उववज्जेज्जा। गोयमा ! एगाए रयणप्पभाए पुढवीए उववज्जेज्जा। [4 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त प्रसंज्ञी पंचेन्द्रियतियंञ्चयोनिक जीव, जो नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितनी नरक-पृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? [4 उ.] गौतम ! वह एक रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है / 5. पज्जत्ताप्रसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोगिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साहितीएसु, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [5 प्र. भगवन् ! पर्याप्त-प्रसंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, जो रत्तप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [5 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति बाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 6. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहानेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। [6 प्र.] भगवन् ! वे (पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) जीव (रत्नप्रभापृथ्वी में) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे (एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 7. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंघयणा पन्नत्ता? गोयमा ! सेवट्टसंघयणा पन्नत्ता। [7 प्र. भगवन् ! उनके शरीर किससंहनन वाले होते हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं / 8. तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / [प्र.! भगवन् ! उन जीवों के शरीर को अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? Page #2326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8 उ.] गौतम ! (उनके शरीर की अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है / 9. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता। [6 प्र.] भगवन् ! उनके शरीर का संस्थान कौन-सा कहा गया है ? [9 उ.] गौतम ! उनके हुण्डकसंस्थान होता है। 10. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्सायो पन्नत्तानो ? गोयमा ! तिन्नि लेस्सानो पन्नत्ताओ, तं जहा-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा। [10 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [10 उ] गौतम ! उनके (अादि की) तीन लेश्याएँ कही गई हैं-कृष्ण, नील, कापोत / 11. ते णं भंते ! जीवा कि सम्महिटी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिदी ? गोयमा ! नो सम्माहिटी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छद्दिही। ..[11 प्र.] भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं अथवा सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं ? . [11 उ.] गौतम ! वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि होते हैं, किन्तु सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते। 12. ते णं भंते जीवा कि नाणी, अन्नाणी ? गोयमा ! नो नाणी, अन्नाणी, नियमं दुअन्नाणी, तं जहा–मतिप्रश्नाणी य सुयप्राणी य / [12 प्र.] भगवन् ! वे जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [12 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी नहीं होते; अज्ञानी होते हैं, उनके अवश्य दो अज्ञान होते हैं, यथा-मतिप्रज्ञान और श्रुतप्रज्ञान / / 13. ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, वइजोगी वि, कायजोगी वि / [13 प्र.] भगवन् ! वे जीव मनोयोगी होते हैं, या वचनयोगी अथवा काययोगी होते हैं ? [13 उ.] गौतम ! वे मनोयोगी नहीं, (किन्तु) वचनयोगी और काययोगी होते हैं। 14. ते णं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता, प्रणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि / [14 प्र.] भगवन् ! वे जीव साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग-युक्त हैं ? [14 उ.] गौतम ! वे साकारोपयोग-युक्त भी होते हैं और अनाकारोपयोग-युक्त भी होते हैं / 15. सेसि णं भंते ! जीवाणं कति सन्नानो पन्नत्तानो ? Page #2327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [129 गोयमा ! चत्तारि सन्नायो पन्नताओ, तं जहा-पाहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिगहसण्णा। [15 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितनी संज्ञाएं कही गई हैं ? [15 उ.] गौतम ! उनके चार संज्ञाएं कहो गई हैं / यथा-पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। 16. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा–कोहकसाये माणकसाये मायाकसाये लोभकसाये / [16 प्र. भगवन् ! उन जीवों के कितने कषाय होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! उनके चार कषाय होते हैं / यथा--क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय / 17. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति इंदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच इंदिया पन्नत्ता, तं जहा --सोतिदिए चक्खिदिए जाव फासिदिए / [17 प्र. भगवन् ! उन जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [17 उ.] गौतम ! उनके पांच इन्द्रियाँ कही हैं। यथा-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, यावत् स्पर्शेन्द्रिय / 18. तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्याया पन्नत्ता? गोयमा ! तभी समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्धाए / [18 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [18 उ.] गौतम ! उनके तीन समुद्घात कहे हैं / यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात / 19. ते णं भंते जीवा कि सायावेदगा, असायावेदगा? गोयमा ! सायावेदगा वि, असाताबेदगा वि / [19 प्र.] भगवन् ! वे जीव साता-वेदक हैं या असाता-वेदक ? [16 उ. गौतम ! वे सातावेदक भी हैं और असातावेदक भी / 20. ते णं भंते ! जीवा कि इथिवेदगा, पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा? गोयमा ! नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा। [20 प्र.] भगवन् ! वे जीव स्त्रीवेदक है, पुरुषवेदक हैं या नपुसकवेदक हैं ? [20 उ.] गौतम ! वे न तो स्त्रीवेदक होते हैं और न ही पुरुषवेदक होते हैं, किन्तु नपुंसकवेदक हैं। 21. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। Page #2328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [21 प्र. भगवन् ! उन जीवों के कितने काल की स्थिति कही है ? [21 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है। 22. तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता? गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नता। [22 प्र. भगवन् ! उनके अध्यवसाय-स्थान कितने कहे हैं ? [22 उ.] गौतम ! उनके अध्यवसाय-स्थान असंख्यात है ? 23. ते णं भंते ! कि पसस्था, अप्पसत्था ? गोयमा! पसत्था बि, अप्पसत्था वि / [23 प्र.] भगवन् ! उनके वे अध्यवसाय-स्थान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? [23 उ.] गौतम ! वे प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। 24. से णं भंते ! 'पज्जत्तानसनिपंचेंदियतिरिक्खजोणिये' इति कालो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडो। [24 प्र.] भगवन् ! वे जीव पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकरूप में कितने काल तक रहते हैं ? [24 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पूर्वकोटि तक (उस अवस्था में) रहते हैं। 25. से णं भंते ! 'पज्जत्तात्रसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए रयणप्पभापुढविनेरइए पुणरवि 'पज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए' ति केवतियं कालं सेवेन्जा?, केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं पुवकोडिअमहियं; एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा / [सु० 5-25 पढमो गमत्रो]। [25 प्र.] भगवन् ! वे जीव पर्याप्त-प्रसंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव हों, फिर रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिकरूप से उत्पन्न हों, और पुनः (उसी) पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हों, यों कितना काल सेवन (व्यतीत) करते हैं और कितने काल तक गति-प्रागति (गमनागमन) करते हैं? [25 उ.] गौतम ! वे भवादेश (भव की अपेक्षा) से दो भव और कालादेश (काल को अपेक्षा) से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, इतना काल सेवन (व्यतीत) करते हैं और इतने काल तक गमनागमन करते रहते हैं। [सू. 5 से 25 तक प्रथम गमक] Page #2329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवोसवां शतक : गद्देशक 1] [131 26. पज्जत्ताअसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जहन्नकाल द्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सट्टितीएसु, उक्कोसेण वि बसवाससहस्सद्वितीयेसु उवदज्जेज्जा। . |26 प्र. भगवन् ! पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो जघन्यकाल-स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हों, तो हे भगवन् ! वे कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? [26 उ.] गौतम ! वे जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। 27. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? एवं स च्चेव वत्तव्यता निरवसेसा भाणियव्वा जाव अणुबंधो ति / [27 प्र.] भगवन् ! वे (असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 27 उ.] गौतम ! पूर्वकथित समग्र वक्तव्यता, यावत् अनुबन्ध (सू. 5 से 24) तक इसी प्रकार (पूर्ववत्) कह देनी चाहिए। 28. से गं भंते ! पज्जत्ताप्रसन्त्रिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नकालद्वितीयरयणप्पभापुढविणेरइए, पुणरवि [जहण्णकाल०] पज्जत्तानसण्णि जाव गतिरागति करेज्जा ? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं पुत्वकोडी दसहि वाससहसहि अब्भहिया, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा / [सु० 26-28 बोओ गमो] / 28 प्र. भगवन् ! वे जीव पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तियंञ्चयोनिक हों, फिर जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हों और पुनः पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हों तो यावत् (कितना काल सेवन व्यतीत करते हैं और) कितने काल तक गतिप्रागति (गमनागमन) करते हैं ? [28 उ.] गौतम ! वे भवादेश (भव की अपेक्षा) से दो भव-ग्रहण करते हैं, और कालादेश (काल की अपेक्षा) से जघन्य अन्तमुहर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि काल सेवन करते हैं और इतने काल तक गमनागमन करते हैं। [सू. 26 से 28 तक द्वितीय गमक] 26. पज्जत्ताप्रसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए गं भंते ! जे भविए उक्कोसकाल द्वितीयेसु रतणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! फेवतिकालद्वितीएसु उवयज्जेज्जा? ___गोयमा ! जहन्नेणं पलिग्रोवमस्स, प्रसंखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेण वि पलिप्रोवमस्स असंखेज्जतिभागट्टितीएसु उववज्जेज्जा। Page #2330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र 29 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त प्रसजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, रत्नप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यात भाग की स्थिति वाले नैरयिका में उत्पन्न होता है। 30. ते गं भंते ! जीवा? प्रवसेभं तं चेव जाव अणबंधो। [30 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [30. उ.] गौतम ! पूर्ववत् (सू. 6 से 24 तक के समान) समग्र वक्तव्यता यावत् अनुबन्धपर्यन्त जानना चाहिए। 31. से णं भंते ! पज्जत्ताप्रसनियंचेदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयणप्पभापुढविनेरइए [उक्कोस०] ' पुणरवि पज्जत्ता० जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालादेसेणं जहन्नेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागं पुवकोडिअमहियं; एवतियं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गतिरागति करेज्जा। [सु० 26-31 तइनो गमयो] / [31 अ.] भगवन् ! वह जीव, पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो, फिर उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, और पुन: पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो तो वह यावत् (कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक) गमनागमन करता रहता है ? 31 उ.] गौतम ! भवादेश से (भवापेक्षया) दो भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहर्त्त अधिक पत्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग; इतना काल सेवन करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है / [सू. 21 से 31 तक तृतीय गमक] 32. जहन्नकालद्वितीयपज्जत्ताप्रसन्निपंचेदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसणं पलिग्रोवमस्स असखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [32 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? 1. [ ] इस कोष्ठक के अन्तर्गत पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है। --सं. Page #2331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उदं शक 1] [133 [32 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 33. [1] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केव० ? प्रवसेसं तं चेव, णवरं इमाइं तिनि जाणत्ताई-आउं अज्झवसाणा अणुबंधो य / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [33-1 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [33-1 उ.] गौतम ! (यहाँ से लेकर अनुबन्ध तक) समस्त (आलापक) पूर्ववत् समझना चाहिए / विशेषत: आयु (स्थिति), अध्यवसाय और अनुबन्ध, इन तीन बातों में अन्तर है / यथास्थिति (प्रायुष्य) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की है। [2] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता। [33-2 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के अध्यवसाय कितने कहे हैं ? [33-2 उ.] गौतम ! उनके अध्यवसाय असंख्यात कहे हैं / [3] ते णं भंते ! कि पसत्था, अप्पसत्था ? गोयमा!नो पसत्था, अप्पसस्था। [33-3 प्र.] भगवन् ! (उनके) वे (अध्यवसाय) प्रशस्त होते हैं, या अप्रशस्त ? [33-3 उ.] गौतम ! वे प्रशस्त नहीं होते, अप्रशस्त होते हैं। [4] अणुबंधो अंतोमुहत्तं / सेसं तं चेव / [33-4 उ.] उनका अनुबन्ध (जघन्यकाल स्थिति वाले, पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक रूप में) अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / शेष सब कथन पूर्ववत् / 34. से णं भंते ! जहन्नकाल द्वितीयपज्जत्ताअसन्निपंचेंदिय० रयणप्पभा० जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाइं; कालादेसणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुसअमहियाई, उक्कोसेणं पलिश्रोवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमभहियं, एवतियं कालं सेविज्जा जाव करेजा। [सु० 32-34 चउत्थो गमो] / [34 प्र.] भगवन् ! वह जीव, जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, (फिर) रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् (नैरयिकरूप से उत्पन्न हो, और पुनः जघन्यकाल की स्थिति बाला पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक रूप में उत्पन्न हो, तो वह कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन) करता रहता है ? [34 उ.] गौतम ! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त-अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त-अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग Page #2332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [व्याख्याप्रशक्तिसूत्र काल सेवन करता है, यावत् (इतने काल तक गमनागमन) करता है। [सू. 32 से 34 तक चतुर्थ गमक] 35. जहनकाल द्वितीयपज्जत्तात्रसन्निपंचेदियतिरिवखजोणिए णं भंते ! जे भविए जहनकालद्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? . गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [35 प्र.] भगवन्! जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंझीपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक जो जीव जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, भगवन् ! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [35 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 36. ते णं भंते ! जीवा० ? सेसं तं चेव / ताई चेव तिनि गाणत्ताई जाव-(अणुबंधो)। [36 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [36 उ.] (गौतम ! ) यहाँ से लेकर अनुबन्ध तक पूर्ववत् (सू. 6 से 24 तक) समझना चाहिए। विशेषतः उन्हीं (पूर्वोक्त) तीन बातों (प्रायु-स्थिति, प्रध्यवसाय और मनुबन्ध) में अन्तर है। (जिसे पूर्वकथित) यावत् (अनुबन्ध तक सू. 33/1-2-3-4 सूत्रवत् जानना चाहिए / ) 37. से गं भंते ! जहनकालटुितीयपज्जत्ता० जाय जोणिए जहाकालद्वितीयरयणप्पभापुढवि० पुणरवि जाव? ___ गोयमा ! भवाएसेणं दो भवरगहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेण वि दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई; एवइयं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 35-- 37 पंचमो गमत्रो]। [37 प्र. भगवन् ! जो जीव, जघन्यकाल की स्थिति बाला, पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो, फिर वह जघन्यस्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, और पुनः वह पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो तो, कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है रहता? [37 उ.] गौतम ! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष, और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष, काल सेवन करता है, यावत् (और इतने काल तक गमनागमन) करता है। [सू. 35 से 37 तक पंचम गमक] Page #2333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीसवां शतक : उद्देशक 1] [135 38. जहन्नकाल द्वितीयपजसा० नाव तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीएसु रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? __ गोयमा ! जहन्नेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागट्टितीएसु उववज्जेज्जा। [38 प्र. भगवन ! जधन्यकाल की स्थिति वाले, पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो रत्नप्रभापृथ्वी के उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [38 उ.] गौतम ! वह जघन्य पत्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति बाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 39. ते गं भंते जीवा? अवसेसं तं चेव / ताई चेव तिन्नि नाणत्ताई जाव-(अणुबंधो) / [36 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {39 उ.] गौतम ! (यह सब सु. 6 से 24 तक के समान) पूर्ववत् / विशेषतः उन्हीं (पूर्वोक्त) तीन बातों (आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध) में अन्तर है। (जिसे पूर्वकथित) यावत् (अनुबन्ध तक सूत्र 33/1-2-3-4 के समान जानना चाहिए / ) 40. से णं भंते ! जहन्नकाल द्वितीयपज्जत्ता जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालहितोपरयण० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवगहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमम्भहियं; उक्कोसेण वि पलिप्रोवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमम्भहियं, एवतियं कालं जाव करेज्जा। [सु० 38-40 छट्ठो गमओ] / [40 प्र.] भगवन् ! वह जीव, जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक हो, फिर वह उत्कृष्ट काल की स्थिति बाले रत्नप्रभापृथ्वी के नरयिकों में यावत् उत्पन्न हो और पुनः पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो तो, वह कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन करता है ? [40 उ.] गौतम ! भवादेश से (वह) दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, काल यावत् (सेवन करता है और इतने काल तक गमनागमन) करता है / [सू. 38 से 40 तक छठा गमक 41. उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्तानसनिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालं जाव उववज्जेज्जा? ___ गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सहितीएसु, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागं जाव उववज्जेज्जा। Page #2334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [व्याख्याप्राप्तिसूब [41 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जो जीव, रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, भंते ! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? 41 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नरयिकों में) उत्पन्न होता है, (और) उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। 42. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? अवसेसं जहेब प्रोहियगमए तहेव अणुगंतब्व, नवरं इमाई दोन्नि नाणत्ताई-ठिती जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुचकोडी। एवं अणुबंधी वि / अवसेसं तं चेव / [42 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? (इत्यादि प्रश्न / ) 42 उ.] गौतम ! सारी वक्तव्यता पूर्वोक्त औधिक (सामान्य) (सु. 6 से 25 तक) के अनुसार जाननी चाहिए। विशेषतः इन दो बातों (स्थिति और अनुबन्ध) में अन्तर है। (यथा--) स्थिति-जघन्य पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि वर्ष की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी है / शेष सब पूर्ववत् (जानना चाहिए / ) 43. से णं भंते ! उक्कोसकालद्वितीयपज्जत्ताअसनि० जाव तिरिक्खजोणिए रलणप्पभा० ? भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं पुन्वकोडी दसहि वाससहस्सेहि अमहिया, उक्कोसेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागं पुवकोडीए अभहियं; एवतियं जाव करेजा। [सु० 41 - 43 सत्तमो गमो]। [43 प्र.] भगवन् ! वह जीव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञी०-यावत् (पंचेन्द्रिय-) तिर्यञ्चयोनिक हो; (फिर) रत्नप्रभापृथ्वी (के नरयिकों में उत्पन्न हो, और पुनः उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हो तो वह वहाँ कितने काल तक यावत् (सेवन एवं गमनागमन करता है ?) [43 उ.] गौतम ! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 41 से 43 तक सप्तम गमक] 44. उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्ता० तिरिक्खजोगिए. भंते ! जे भविए जहन्नकाल द्वितीएसु रयण जाव उववज्जित्तए से गं भंते ! केवति जाव उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेजा। [44 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जो जीव जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? Page #2335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [137 [44 उ.] गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। 45. ते णं भंते ! .? सेसं तं चेव जहा–सत्तमगमे जाव-~-(अणुबंधो)। [45 प्र. भगवन् ! वे जीव एकसमय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [45 उ.] गौतम ! जैसे सप्तम गमक में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् अनुबन्ध तक (जानना चाहिए।) 46. से गं भंते ! उक्कोसकालद्विती० जाव तिरिक्खजोणिए जहन्नकाल द्वितीयरयणप्पभा० जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी दहि वाससहस्सेहि अब्भहिया, उक्कोसेण वि पुव्वकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अमहिया; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 44-46 अट्ठमो गमओ] / [46 प्र.] भगवन् ! जो जीव उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, फिर वह जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो और पुनः यावत् वही पर्याप्त० हो यावत् तो वह कितना काल सेवन तथा गमनागमन करता है ? [46 उ.] गौतम ! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [सू. 44 से 46 तक अष्टम गमक 47. उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्ता० जाव तिरिक्खजोगिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीएसु रयण जाव उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल. जाव उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखज्जतिभागद्वितीएसु, उक्कोसेण वि पलिप्रोवमस्स असंखेज्जतिभागद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [47 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त यावत् तिर्यञ्चयोनिक जो जीव, रत्नप्रभापृथ्वी के उत्कृष्टस्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो तो भगवन् ! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [47 उ.] गौतम ! वह जघन्य पल्लोयम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग को स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है / 48. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं ? सेसं जहा सत्तमगमए जाव-(अणुबंधो)। [48 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? Page #2336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून [48 उ.] गौतम ! पूर्ववत् यावत् (अनुबन्ध तक) सभी (आलापक) सप्तम गमक के अनुसार (समझने चाहिए।) 46. से णं भंते ! उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्ता. जाव तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयणप्पभा० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं पलिमोवमस्स असंखेज्जतिभागं पुवकोडोए अन्भहियं, उक्कोसेण वि पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागं पुवकोडिमन्भहिय; एवतियं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा / [सु० 47-46 नवमो गमयो]। [49 प्र.] भगवन् ! वह जीव, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त यावत् (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चयोनिक हो, फिर वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में (उत्पन्न हो और पुन:) यावत् उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पर्याप्त-असंज्ञीपचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में हो तो (कितना काल सेवन एवं गमनागमन) करता है ? [49 उ.] गौतम ! भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से जघन्य पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, इतना काल सेवन (व्यतीत करता है) यावत् (गमनागमन) करता है। सू. 47 से 46 तक नौवां गमका 50. एवं एए ओहिया तिणि गमगा, जहन्नकाल द्वितीएसु तिन्नि गमगा, उक्कोसकालट्टितीएसु तिन्नि गमगा; सम्वेते नव गमा भवंति / [50] इस प्रकार (पूर्वोक्त गमकों में से) ये तीन गमक भौधिक (सामान्य) हैं, तीन गमक जघन्यकाल की स्थिति वालों (में उत्पत्ति) के हैं और तीन गमक उत्कृष्टकाल की स्थिति वालों (में उत्पत्ति) के हैं / ये सब मिला कर नौ गमक होते हैं। विवेचन - नौ गमकों का स्पष्टीकरण-(१) पर्याप्त-असजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव का रत्नप्रभापृथ्वी के नै रयिकों में उत्पन्न होना, यह पहला गमक है; (2) जघन्य काल-स्थिति वाले प्रथम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह दूसरा गमक है; (3) उत्कृष्टस्थिति वाले प्रथम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न होना, यह तीसरा गमक है ! इस प्रकार पर्याप्त-असंज्ञीपचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के साथ किसी प्रकार का विशेषण लगाये बिना तीन गमक होते हैं / तत्पश्चात् जघन्य स्थिति वाले पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तियंञ्चयोनिक जीव से सम्बन्धित पूर्ववत् तीन गमक होते हैं, तथा उत्कृष्टस्थिति वाले पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव से सम्बन्धित भी पूर्ववत् तीन गमक होते हैं। इस प्रकार ये नौ गमक (पालापक) होते हैं।' पर्याप्त-असंज्ञीतिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव के विषय में वीस द्वार-सूत्र 4 से लेकर 25 वे तक पर्याप्त-असंज्ञीतिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव के विषय में 20 द्वार हैं। विवरण इस प्रकार है (क) भगवती (हिन्दी विवेचन, पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2998 (ख) भगवती. म. वत्ति, पत्र 801 Page #2337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौबीसवां शतक : उद्देशक 1] उपपात (उत्पत्ति)--के विषय में दो प्रश्न किये गए हैं—(१) पर्याप्त-असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यचयोनिक कितनो नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? , और (2) कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? उत्तर स्पष्ट है-वह एकमात्र रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होता है, रत्नप्रभा के नैरयिकों की जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की है। किन्तु पर्याप्त-असंज्ञो पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जो नरक में जाता है, वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों तक ही उत्पन्न होता है, इससे आगे नहीं। इसलिए यहाँ उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले प्रथम नरकीय नारकों तक ही उत्पन्न होना बताया है।' अन्य द्वारों का स्पष्टीकरण- यहाँ से आगे अनुबन्ध तक प्रायः सभी द्वार स्पष्ट हैं / दृष्टिद्वार में इन्हें केवल मिथ्यादष्टि तथा ज्ञान-अज्ञानद्वार में इन्हें अज्ञानी बताया गया है, परन्तु श्रेणिक महाराज का जीव जो प्रथम नरक में गया है, वह तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि तथा ज्ञानी था / इसका समाधान यह है कि यहाँ पर्याप्त-असंज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में से मर कर जो प्रथम नरक में जाता है, उसका कथन है, मनुष्य में से मर कर प्रथम नरक में जाने वाले का कथन नहीं / इसलिए इस है। असंज्ञी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त की होती है, नरक में जाने वाले के अध्यवसायस्थान प्रशस्त होते हैं, किन्तु आयुष्य को दीर्घस्थिति हो, तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय हो सकते हैं। अनुबन्ध आयुष्य के समान ही होता है किन्तु कायसंवेध नैरयिक और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों स्थितियों को मिला कर जानना चाहिए।' कायसंवेध के विषय में स्पष्टीकरण-कायसंबंध का पर भव और काल दोनों अपेक्षाओं से विचार किया गया है। भव की अपेक्षा से दो भव का कायसं वेध इसलिए बताया है कि जो जीव पूर्वभव में असंज्ञी तिर्य चपंचेन्द्रिय हो और वहाँ से मर कर नरक में उत्पन्न हो तो वह नरक से निकल कर फिर असंज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय नहीं होता, वह अवश्य ही संज्ञीपन प्राप्त कर लेता है। ___ काल की अपेक्षा से प्रसंज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय का कायसंवेध-जघन्यतः अन्तमुहर्त प्रायुष्यसहित, प्रथम नरक की जघन्य 10 हजार वर्ष की स्थिति वाला होता है, इसलिए जघन्य कायसंवेध अन्तमुहर्त अधिक दस हजार वर्ष का बताया है / उत्कृष्ट कायसवेध-असंज्ञी के पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अायुष्यसहित प्रथम नरक (रत्नप्रभा) में उसका उत्कृष्ट प्रायुष्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसलिए इन दोनों के आयुष्य को मिला कर असंज्ञी तिर्यंचपंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट कायसंवेध पूर्वकोटि वर्ष अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण बताया गया है / नरक में उत्पन्न होनेवाले संख्यातवर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की उपयात-प्ररूपरणा 51. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति कि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, प्रसंखेज्जवासाउयसन्निपंचेदियतिरिक्ख० जाव उववज्जति ? 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2979 2. (क) वियाहपण्णत्ति सुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणीयुक्त) पृ. 906 तथा 165 (ख) भगवती. (हिन्दी पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2999 3. (क) वही. भा. 6, पृ. 2986 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 809 Page #2338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14.] [ध्याल्याप्राप्तिसूत्र गोयमा! संखेज्जवासाउयसण्णिपंचेंदिय० जाव उघवज्जंति, नो प्रसंखेज्जवासाउय० जाव सपवज्जति। वन ! यदि नैरयिक संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संजी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यात वर्ष की प्राय वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [51 उ.] गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रियतियंचयोनिकों में से पाकर उत्पन्न नहीं होते। 52. जदि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय जाव उववज्जति कि जलचरेहितो उवधज्जति ? 0 पुच्छा / गोयमा ! जलचरेहितो उववज्जति जहा प्रसन्नी जाव पज्जत्तएहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववज्जति / [52 प्र.] भगवन् ! यदि नैरयिक संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में से पाकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे जलचरों में से आकर उत्पन्न होते हैं, स्थलचरों में से अथवा खेचरों में से आकर उत्पन्न होते हैं ? [52 उ.] गौतम ! वे जलचरों में से प्राकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि सब असंज्ञी के समान, यावत् पर्याप्तकों में से पाकर उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तकों में से नहीं; (यहाँ तक कहना चाहिए।) 53. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसनिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए नेरइएस उवयज्जित्तए से णं भंते ! कतिसु पुढवीसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! सत्तसु पुढवीसु उववज्जेज्जा, तं जहा-रयणप्पभाए जाव अहेसत्तमाए / [53 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संजीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जो जीव, नरकवियों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितनी नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? [53 उ.] गौतम ! वह सातों ही नरकवियों में उत्पन्न होता है / यथा-रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। विवेचन-निष्कर्ष-उपर्युक्त तीन प्रश्नों (51 से 53 तक) के उत्तर का सार यह है कि जो नैरयिक संज्ञी पंचेन्द्रियतियंञ्चयोनिकों में से पाते हैं, वे संख्यातवर्ष की प्राय वाले, पर्याप्तक, जलचर, स्थलचर, खेचर तीनों से आकर उत्पन्न होते हैं / ' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण-युक्त) भा. 2, पृ. 911 Page #2339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [141 रत्नप्रभानरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-संख्यातवर्षायुष्क-संज्ञी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उपपात-परिमारणादि वीस द्वार-प्ररूपरणा 54. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए गं भंते ! जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववन्जित्तए से गं भंते ! केवतिकालद्वितोएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। [54 प्र.] भगवन ! पर्याप्त संख्यात-वर्षायष्क संज्ञी पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [54 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है। 55. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उवबज्जति ? जहेव प्रसन्नी। [55 प्र. भगवन् ! वे जीव (संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [55 उ.] गौतम ! (पूर्ववत्) असंज्ञी के समान समझना / 56. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंघयणी पन्नता ? गोयमा ! छविहसंघयणी पन्नत्ता, तं जहा–वइरोसभनारायसंघयणी उसभमारायसंघयणी जाव सेवट्टसंघयणी। [56 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर क्रिस संहनन वाले होते हैं ? [56 उ.] गौतम ! उनके शरीर छहों प्रकार के संहनन वाले हैं / यथा-वे वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, ऋषभनाराचसंहनन वाले यावत् से वार्तसंहनन वाले होते हैं / 57. सरीरोगाहणा जहेव प्रसन्नीणं / ' [57] (उनके) शरीर की अवगाहना असंज्ञी के समान जानना / 58. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किंसंठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! छव्विहसंठिया पन्नत्ता, तं जहा-समचतुरंस० नग्गोह० जाव हुंडा० / [58 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? [58. उ.] गौतम ! वे छहों प्रकार के संस्थान वाले होते हैं / यथा--समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल यावत् हुण्डक संस्थान / 1. अधिकपाठ--'जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / ' (अर्थात--जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन)। Page #2340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143] [च्याश्याप्राप्तिसूत्र 56. [1] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्सागो पन्नत्तानो ? गोयमा ! छल्लेसानो पन्नत्तानो, तं जहा--कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [59-1 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [56-1 उ. | गौतम ! उनके छहों लेश्याएँ कही गई हैं / यथा-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। [2] दिट्ठी तिविहा वि / तिन्नि नाणा, तिन्नि प्रमाणा भयणाए / जोगो तिविहो वि / सेसं जहा असण्णीणं जाव अणुबंधो। नवरं पंच समुग्धाया आदिल्लगा। वेदो तिविहो वि, अवसेसं तं चेव नाव [59-2] (उनमें) दृष्टियाँ तीनों ही होती हैं। तीन ज्ञान तथा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। योग तीनों ही होते हैं। शेष सब यावत् अनुबन्ध तक असंज्ञी के समान समझना। 'विशेष यह है कि समुद्घात आदि के पांच होते हैं तथा वेद तीनों ही होते हैं। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् 60. से णं भंते ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभ० जाव करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई। कालाएसेण महन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चउहि पुवकोडीहि मम्भहियाई / एवतियं कालं सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 54 ~60 पढमो गमओ]। 60 प्र.] भगवन् ! वह पर्याप्त संख्येयवर्षायष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, रत्नप्रभापृथ्वी में नारकरूप में उत्पन्न हो और फिर संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, तो वह कितने काल तक यावत् गमनागमन करता है ? [60 उ. गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव तक ग्रहण करता है तथा काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक सेवन (व्यतीत) करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है / [सू. 54 से 60 तक प्रथम गमक] 61. पज्जत्तसंखेज्ज जाव जे भविए जहन्नकाल जाव से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु . उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं वि दसवाससहस्सद्वितीएसु जाव उववज्जेज्जा। [61 प्र.] भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी में जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [61 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नैरयिकों) में उत्पन्न होता है। Page #2341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसां शतक : उद्देशक 1] [143 62. ते णं भंते ! जीवा? एवं सो चेव पढमगमत्रो निरवसेसो नेयवो जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडोओ चत्तालीसाए वाससहस्सेहि अभहियानो एवतियं कालं सेवेज्जा० / ' [सु० 61-62 बोनो गमनो] / [62 प्र.] भगवन ! वे जीव एक समय के कितने उत्पन्न होते हैं ? [62 उ.] गौतम ! पूर्ववत् प्रथम गमक (सू. 54 से 60 तक) पूरा, यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तमु हत्तं अधिक दस हजार वर्ष और चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि काल तक सेवन (व्यतीत) करता है और इतने ही काल तक गमनागमन करता है। [सू. 61-62 द्वितीय गमक] 63. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टितोएसु उववज्जेज्जा। अवसेसो परिमाणादीओ भवादेसपज्जवसाणो सो चेव पढमगमो नेयव्वो जाव कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चरहिं पुवकोडीहिं अभहियाई; एवतियं कालं सेविज्जा० / [सु० 63 तइयो गमओ] / [63] यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति में उत्पन्न हो तो जघन्य एक सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट भी एक सागरोपम की स्थिति वाले (नै रयिकों) में उत्पन्न होता है / शेष परिमाणादि से लेकर भवादेश-पर्यन्त कथन उसी पूर्वोक्त प्रथम गमक के समान, यावत् काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक सेवन करता है तथा इतने ही काल तक गमनागमन करता है। ऐसा समझना चाहिए / [सू. 63 तृतीय गमक] 64. जहन्नकालद्वितीयपज्जत्तसंखेज्जवासाउयसग्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए रयणप्पभपुढवि जाव उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीएसु उबवज्जेज्जा। [64 प्र.] भगवन ! जघन्यकाल की स्थिति बाला, पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिकरूप में उत्पन्न होने वाला हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [64 उ. गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों) में उत्पन्न होता है। 65. ते गं भंते ! जीवा ? अवसेसो सो चेव गमयो। नवरं इमाई अट्ट जाणत्ताई–सरीरोगाहणा जहन्नेणं ग्रंमुलस्स भसंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं धणुयुहत्तं 1 / लेस्सानो तिणि आदिल्लायो 2 / नो सम्महिट्ठी, 1. 'एबतियं कालं गतिसति करेज्जा / ' Page #2342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र मिच्छट्ठिी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी 3 / दो अन्नाणा णियम 4 / समुग्घाया आदिल्ला तिन्नि 5 / प्राउं 6, अज्झवसाणा 7, अणुबंधो 8 य जहेव प्रसन्नीणं / प्रवसेसं जहा पढमे गमए जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई; उक्कोसेणं चत्तारि सागरोक्माई चहिं अंतोमुहुर्तेहि अग्भहियाई; एवतियं कालं जाव करेज्जा। [सु० 64-65 चउत्यो गमओ] / [65 प्र.] भगवन ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / ) [65 उ.] गौतम ! यह सब वक्तव्यता उसी (प्रथम) गमक के समान (जाननी चाहिए।) विशेषता इन आठ विषयों में है। यथा-(१) (इनके) शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) की होती है। (2) इनमें प्रथम को तीन लेश्याएं होती हैं। (3) वे सम्यग्दृष्टि नहीं होते, और न ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं, एकमात्र मिथ्यादृष्टि होते हैं। (4) इनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं / (5) इनमें प्रथम के तीन समुद्धात होते हैं। (6-7-8) इनके अायुष्य, अध्यवसाय और अनुबन्ध का कथन असंज्ञी के समान समझना चाहिए। शेष सब प्रथम गमक के समान, यावत् काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्महुर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् इतने काल तक गमनागमन करते हैं / [सू. 64-65 चतुर्थ गमक] 66. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि वसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [66] जघन्य काल की स्थिति वाला, वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) जीव, (रत्नप्रभापृथ्वी में) जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले तथा उत्कृष्ट भी दस हजार वर्ष की स्थिति वाले (नै रयिकों) में उत्पन्न होता है / 67. ते णं भंते! ? एवं सो चेव चउत्थो गमश्रो निरवसेसो भाणियन्वो जाव कालाएसेणं जहन्नेणं दसयाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई चहि अंतोमुत्तेहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 66-67 पंचमो गमयो] / [67 प्र.] भगवन ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / [67 उ.] गौतम ! यहाँ सम्पूर्ण कथन पूर्वोक्त चतुर्थ गमक (सू. 64-65) के समान समझना चाहिए; यावत्-काल की अपेक्षा से - जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चालीस हजार वर्ष तक कालयापन करते हैं तथा इतने ही काल तक गमनागमन करता है। [66-67 पंचम गमक] 68. सो च्चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु उवबज्जेज्जा, उक्कोसेण वि सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा / [68] वही (जघन्य स्थिति वाला यावत् संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च रत्नप्रभा में) उत्कृष्ट स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट भी सागरोपम स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। Page #2343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदोसवां शतक : उद्देशक 1] [145 64. ते णं भंते ! एवं सो चेव चउत्थो गमो निरवसेसो भाणियम्बो जाव कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवर्म अंतोमुत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहिं अंतोमुत्तेहिं अन्भहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 68 66 छ8ो गमयो] / [69 प्र. भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 69 उ.] यहाँ पूर्ववत् सम्पूर्ण चतुर्थ गमक, यावत् ---काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहर्त्त अधिक सागरोपमोर उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है : (यहाँ नक) कहना चाहिए। [68-69 छठा गमक] 70. उक्कोसकालद्वितीयपज्जत्तसंखेज्जवासा जाब तिरिक्खजोणिए णं भंते ! जाव जे भविए रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जित्तए, से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। 70 प्र.] भगवन ! उत्कृष्ट स्थिति वाला पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संजी-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरपिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल को स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? 170 उ.] गौतम ! वह जघन्यतः दस हजार वर्ष की और उत्कृष्टतः एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है / 71. ते णं भंते ! जीवा०? अवसेसो परिमाणादीपो भवादेसपज्जवसाणो एतेसि चेव पढ़मगमत्रो तवो, नवरं ठिसी जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडो। एवं अणुबंधो वि / सेसं तं चेव / कालादेसेणं जहन्नेणं पुवकोडी दहि बाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोबमाई चहिं पुश्वकोडोहिं अभहियाई; एवतियं कालं जाव करेज्जा / [सु० 70 71 सत्तमो गमो] / 15. | भगवन / वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 71 उ. गौतम ! परिमाण प्रादि से लेकर भबादेश तक की वक्तव्यता के लिए इनका (संज्ञी-पंचेन्द्रियत्तियंञ्चों का) प्रथम गमक जानना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्व कोटि वर्ष की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् समझना तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोगम --इतना काल यावत् गमनागमन करता है। सू. 70-71 सप्तम गमक] 72. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेगं दसवाससहस्सद्वितोएसु, उक्कोसेण वि दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [7] यदि वह (उत्कृष्ट * संज्ञी-पंचेन्द्रियतियंञ्च) जघन्यस्थिति वाले (रत्नप्रभापृथ्वी Page #2344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के नैरयिकों) में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 73. ते णं भंते ! जीवा० ? - सो चेव सत्तमो गमलो निरक्सेसो भाणियन्वो जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहानेणं पुवकोडी दसहि वाससहस्सेहि अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्वकोडीनो चत्तालीसाए वाससहसेहिं अब्भहिमानो; एवतियं जाव करेज्जा। [सु०७२–७३ अदुमो गमश्रो]। [73 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [73 उ.] गौतम ! (परिमाण से लेकर भवादेशपर्यन्त) सम्पूर्ण सप्तम गमक कहना चाहिए / काल की अपेक्षा से, जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 72-73 अष्टम गमक] 74. उक्कोसकाल द्वितीयपज्जत्ता जाव तिरिक्ख जोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोसकालद्वितीय जाव उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि सागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [74 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त यावत........." तिर्यञ्चयोनिक, जो उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [74 उ.] गौतम ! बह जघन्य और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 75. ते णं भंते ! जीवा ? सो चेव सत्तमगमत्रो निरवसेसो भाणियन्वो जाव भवादेसो त्ति। कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं पुत्वकोडीए अभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहि पुवकोडीहिं अभहियाई; एवइयं जाव करेज्जा। [सु०७४-७५ नवमो गमओ]। [75 प्र.] भगवन् ! वे जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ) इत्यादि प्रश्न / [75 उ.] गौतम ! परिमाण से लेकर भवादेश तक के लिए वही पूर्वोक्त सप्तम गमक सम्पूर्ण कहना चाहिये / काल की अपेक्षा से जघन्य पूर्वकोटि अधिक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है / [74-75 नौवाँ गमक] 76. एवं एते नव गमगा उक्खेवनिक्खेवभो नवसु वि जहेव असन्नीणं / [76] इस प्रकार ये नौ गमक होते हैं; और इन नौ ही गमकों का प्रारम्भ और उपसंहार (उत्क्षेप और निक्षेप) असंज्ञी जीवों के समान (कहना चाहिए।) विवेचन-नौ गमक—यहाँ पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक की अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति-सम्बन्धी नौ गमक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) औधिक (सामान्य) संज्ञी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय का, औधिक नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप प्रथम गमक है। (2) जघन्य स्थिति वाले नै रयिकों में उत्पन्न होने रूप दूसरा गमक है। (3) उत्कृष्ट स्थिात वाले Page #2345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्दशक 1] [147 नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप तीसरा गमक है। (4) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने रूप चौथा गमक है। (5) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति (10 हजार वर्ष) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों में उत्पन्न होने रूप पंचम गमक है। (6) जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप छठा गमक है। (7) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी पचेन्द्रियतिर्यञ्च का रत्नप्रभा-नारकों में उत्पन्न होने रूम सप्तम गमक है / (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले संजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति वाले रत्नप्रभा-नै रयिको में उत्पन्न होने रूप पाठवाँ गमक है और (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञीपंचेन्द्रियतिञ्च का उत्कृष्ट स्थिति वाले रत्नप्रभा-नैरयिकों में उत्पन्न होने रूप नौवाँ गमक है।' नौ गमकों के परिमाणादि द्वारों में अन्तर-(१) प्रथम गमक में विशेष एक समय में उत्पत्ति-संख्या, शरीरावगाहना तथा उपयोग से लेकर अनुबन्ध (आयु, अध्यवसाय और अनुबन्ध) तक के द्वार असंज्ञी के समान वताए गए हैं। उनमें छहों संहनन, छहों संस्थान, छहों लेश्याएँ, तीनों दृष्टि यां तथा तीनों ही योग एवं वेद होते हैं। नरक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान विकल्प से पाये जाते हैं। अर्थात किसी में दो या तीन ज्ञान और किसी में दो या तीन अज्ञान होते हैं। असंजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के तीन समुद्घात होते हैं और नरक में जाने वाले संजी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आदि के पांच समुद्घात होते हैं। अर्थात- उनमें अन्तिम दो (ग्राहार और केवली) समुद्घात नहीं होते, क्योंकि ये दोनों समुद्धात मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों में नहीं होते। संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च प्रथम नरक में उत्पन्न होकर पुन: उसी (सं ति. प.) भव में उत्पन्न हो, तो भव की अपेक्षा जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव करता है / अर्थात्---वह पहले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में उत्पन्न होता है, वहाँ से निकल कर पुनः नरक में उत्पन्न होता है, फिर मनुष्य में, यों अधिकृत कायसंवेध में दो भव जघन्यतः होते हैं। पाठ भव इस प्रकार होते हैं--प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, फिर संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, फिर नारक, तदनन्तर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, फिर नारक, तत्पश्चात् संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और फिर उसी नरकपृथ्वी में नारक; इस प्रकार वह आठ वार उत्पन्न होता है / नौवें भव में मनुष्य होता है। चौथे गमक में आठ नानात्व (अन्तर) हैं-(१) अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व की है, (2) लेश्या आदि की तीन, (3) दृष्टि सिर्फ मिथ्याष्टि, (4) अज्ञान दो, (5) प्रथम के तीन समुद्घात, (6) आयुष्य अन्तर्मुहूर्त, (7) अध्यवसायस्थान अप्रशस्त, (अशुभ) और अनुबन्ध आयुष्यानुसार होता है / शेष कथन संज्ञी के प्रथम गमक के समान है। सातवें गमक में अन्तर-इसका प्रायुष्य और अनुबन्ध पूर्वकोटिवर्ष का होता है।' पारिभाषिक शब्दों के अर्थ उत्क्षेप प्रारम्भवाक्य (प्रस्तावना) रूप होता है और निक्षेप समाप्तिवाक्य रूप होता है / निक्षेप का दूसरा नाम निगमन या उपसंहार है।' 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्र 811.812 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3011 2. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 811-812 (ख) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3011 3. भगवती. अ. वति, पत्र 812 Page #2346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र शर्कराप्रभा से तमःप्रभा नरक तक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उपपात-परिपारगादि वीस द्वारों की प्ररूपरणा 77. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसणिपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए रइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएम, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्टितोएसु उववज्जेज्जा। |77 प्र. भगवन् ! पर्याप्त-संख्येव वर्षायूष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो शर्कराप्रभापृथ्वी में नरयिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो. वह कितने काल की स्थिति वाले ने रयिकों में उत्पन्न होता है ? |77 उ. गौतम ! बह जघन्य एक सागरोपम की स्थिति बाले और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले ने रयिकों में उत्पन्न होता है। 78. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? एवं ज च्चेव रयणप्पभाए उववज्जतगस्स लद्धी सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा जाय भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चहि पुग्यकोडोहिं अभहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [78 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [78 उ.] गौतम ! रत्नप्रभा नरक में उत्पन्न होने वाले पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की समग्र वक्तव्यता यहां भवादेश पर्यन्त कहनी चाहिए तथा काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त पौर उत्कृष्ट चार पूर्वकाटि अधिक बारह सागरोपम, इतने काल तक यावत गमनागमन करता है। 76. एवं रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव वि गमगा भाणियटया, नवरं सव्वगमएसु वि नेरइयद्विती-संवेहेसु सागरोवमा भाणितव्वा / [76] इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी के गमक के समान नौ ही गमक जानने चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि सभी नरकों में नयिकों की स्थिति और संवेध के सम्बन्ध में ‘सागरोपम' कहने चाहिए। 80. एवं जाव छट्ठपुढवि ति, णवर नेरइयठिती जा जत्थ पुढवीए जहन्नुक्कोसिया सा तेणं वेव कमेणं चउग्गुणा कायव्वा, वालुयप्पभाए अट्ठावीस सागरोवमा चउग्गुणिया भवति, पंकप्पभाए चत्तालीस, धूमप्पभाए अट्ठसट्टि, तमाए अट्ठासीति / संघयणाई वालुयप्पभाए पंचविहसंधयणी, तं जहा-वइरोसभनाराय जाव खीलियासंघयणी। पंकप्पभाए चउविहसंघयणी / धूमप्पभाए तिविहसंघयणी / तमाए दुविहसंघयणी, तं जहा-वइरोसभनारायणी य उसभनारायसंघयणी य। सेसं तं चेव / 80 इसी प्रकार यावत् छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु जिस नरकपृथ्वी Page #2347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 1 [149 में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति जितने काल की हो, उसे उसी क्रम से चार गुणी करनी चाहिए। जैसे—बालुकाप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की है; उसे चार गुणा करने से अट्ठाईस सागरोपम होती है। इसी प्रकार पंकप्रभा में चालीस सागरोपम की, धूमप्रभा में अड़सठ सागरोपम को और तमःप्रभा में 88 सागरोपम की स्थिति होती है / संहनन के विषय में बालुकाप्रभा में बज्रऋषभनाराच से कोलिका सहनन तक पांच संहनन वाले जाते हैं। पंकप्रभा में आदि के चार संहनन वाले, धूमप्रभा में प्रथम के तीन संहनन, तमः प्रभा में प्रथम के दो संहनन वाले नैरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं। यथा -वजऋपभनाराच और ऋषभनाराच संहनन वाले / शेप सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। विवेचन-शर्कराप्रभा सम्बन्धी बक्तव्यता--परिमाण, संहनन आदि की जो वक्तव्यता रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले ने रयिक को कही गई है। वहीं शर्कराप्रभा के सम्बन्ध में जाननी चाहिए। स्थिति सम्बन्धी कथन में अन्तर---शर्कराप्रभा में संजी जीव की अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति 12 मागरोपम की कही गई है, क्योंकि शर्कराप्रभा में उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की हैं, उसे चार से गुणा करने पर बारह सागरोपम होती है। रत्नप्रभा में जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की तथा उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है। शर्कराप्रभा आदि नरकपृथ्वियों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः 3, 7, 10, 13, 22 और 33 सागरोपम की है। पूर्व-पूर्व की नरकपृथ्वियों में जो उत्कृष्ट स्थिति होती है. वही आगे-आगे की नरकपृथ्वियों में जघन्य स्थिति होती है। अत: शर्कराप्रभा प्रादि में स्थिति और कायसंवेध के विषय में 'सागरोपम' कहना चाहिए। _ छठी नरकपृथ्वी तक नौ ही गमकों की वक्तव्यता रत्नप्रभानरकपृथ्वी के गमकों के समान है। जिस नरक की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उसका उत्कृष्ट कायसवेध उससे चार गुणा है। जैसे-बालुकाप्रभा नरकपृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति 7 सागरोपम की है। उसे चार से गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम उत्कृष्ट कायसंवेध होता है। इसी तरह आगे-आगे की नरकगृध्वियों में समझना चाहिए।' छठी नरक तक संहननादि विशेष---पहली और दूसरी नरकपृथ्वी में छहों संहनन वाले जीव जाते हैं। तत्पश्चात् आगे-मागे की नरकवियों में एक-एक संहनन कम होता जाता है। इस दृष्टि से तीसरी नरकपृथ्वी में पांच संहनन वाले, चौथी में चार संहनन वाले, पांचवीं में तीन संहनन वाले और छठी नरकपृथ्वी में दो संहनन वाले जीव जाते हैं।' 1. भगवती. (हिन्दी विवेचनयुक्त) भाग 6, पृ. 3019 2. वही, पृ. 3019 Page #2348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क संजो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के उत्पाद-परिमारणादि वीस द्वारों को प्ररूपरणा 21. पज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव तिरिक्खजोगिए णं भंते ! जे भविए महेसत्तमपुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं बावीससागरोवमट्टितीए, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [81 प्र. भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, जो सप्तमनरकपृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [81 उ.] गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 82. ते णं भंते ! जीवा० ? एवं जहेव रयणप्पभाए णव गमका, लद्धी वि स च्चेव; णवरं वइरोसभनारायसंघयणी, इस्थिवेदगा न उववज्जति / सेसं तं चेव जाव अणुबंधो ति। संवेहो भवाएसेणं जहन्नेणं तिणि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोक्माई चाँह पुन्यकोडीहि अमहियाई; एवतियं नाव करेज्जा 1 / [सु० 81-82 पढमो गमओ]। [82 प्र.| भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [82 उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के समान इसके भी नौ गमक और अन्य सब वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वहाँ वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला ही उत्पन्न होता है, स्त्री वेद वाले जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते। शेष समग्र कथन यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त जानना चाहिए | संवेध--भव की सपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक वाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है / [81-82 प्रथम गमक] 83. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति / कालाएसेणं महन्नेणं० कालादेसो वि तहेव जाव चरहिं पुन्वकोडीहि अम्भहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 83 बोयो गमओ] / [83] वे (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं; इत्यादि सब वक्तव्यता यावत् भवादेश तक पूर्वोक्त रूप से जानना। कालादेश से भी जघन्यतः उसी प्रकार यावत् चार पूर्वकोटि अधिक (66 सागरो गरोपम), इतने काल तक यावत गमनागमन करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [सू. 83 द्वितीय गमक] 64. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति, भवाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई Page #2349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [151 दोहि अंतोमुत्तेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं छावाट्ट सागरोवमाइं तिहि पुवकोडीहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 84 तइनो गमओ / [4] वह जीव उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न हो, इत्यादि सब वक्तव्यता, यावत् अनुवन्ध तक पूर्ववत् जानना / भव की अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव ग्रहण करता है / काल की अपेक्षा से--जघन्य दो अन्तमुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 84 तृतीय गमक] ___85. सो चैव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, स च्चेव रयणप्पभपुढविजहन्नकालद्वितीयवत्तव्वता भाणियव्वा जाब भवादेसो त्ति। नवरं पढम संघयणं; नो इथिवेदगा; भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाई, उषकोसेणं सत्त भवग्गहणाइं; कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहि अंतोमुहुतेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई चहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाई; एवतियं जाव करेज्जा / [सु० 85 चउत्थो गमो]। [85] बही (संज्ञी पंचेन्द्रियतियंञ्च) जीव स्वयं जघन्य स्थिति वाला हो और वह सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तत्सम्बन्धी समस्त वक्तव्यता रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य जघन्य स्थिति वाले (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) की वक्तव्यता के अनुसार यावत् भवादेश तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि वह (सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होने वाला) प्रथम संहननी होता है, वह स्त्रीवेदी नहीं होता। भव को अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त प्रधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 66 सागरोपम इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। सू. 85 चतुर्थ गमक] 86. सो चेव जहनकालद्वितीएसु उक्वन्नो, एवं सो चेव चउत्थगमनो निरवसेसो भाणियन्दो जाव कालादेसो त्ति / [सु० 86 पंचमो गमो] / [86] वही (जघन्य स्थिति बाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यच्चयोनिक जीव) जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नरयिकों में उत्पन्न हो तो उस सम्बन्ध में समग्र चतुर्थ गमक यावत् कालादेश तक कहना चाहिए / [सू. 86 पंचम गमक] 87. सो चैव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धो जाव अणुबंधो त्ति / भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाइं, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं अंतोमुहुत्तेहि प्रभहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोवमाई तिहिं अंतोमुत्तेहि प्रभाहियाई, एवतियं कालं जाव करेज्जा / [सु० 87 छट्टो गमओ] / 87] वही (जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो, इस सम्बन्ध में, यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / भव की अपेक्षा से-जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पाँच भव ग्रहण करता है तथा काल को अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहूर्त अधिक 66 सागरोपम; काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 87 छठा गमक] Page #2350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [অসমলিঙ্গ 88. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो, जहन्नेणं बावीससागरोवमट्टितोएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोदमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। [88] वही स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला (संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो तो जघन्य बाईस सागरोपम की अोर उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 86. ते णं भंते ! ? अवसेसा स च्चेव सत्तमपुढविपढमगमगवत्तन्वया भाणियन्वा जाव भवादेसो ति, नवरं ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी। सेसं तं चैव। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई दोहिं पुन्वकोडोहि अन्भहियाई, उक्कोसेणं छाढेि सागरोवमाई चहिं पुवकोडोहि अब्भहियाई, एवतियं जाव करेजा। [सु० 88-89 सत्तमो गमयो] / [86 प्र.] भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [86 उ.] इस विषय में समग्र वक्तव्यता सप्तम नरकपृथ्वी के गमक के समान, यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जयन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् / संवेध-काल की अपेक्षा से -जघन्य दो पूर्वको टि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 88-86 सप्तम गमक] 60. सो चैव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव लद्धी, संवेहो वि तहेव सत्तमगमगसरिसो। [सु० 60 अट्ठमो गमओ] / [20] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव) जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो उसके सम्बन्ध में वही वक्तव्यता और वही संवेध सप्तम गमक के सदृश कहना चाहिए / [सू. 60 अष्टम गमक] 61. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति / भवाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहिं पुवकोडोहिं अमहियाई, उक्कोसेणं छाट्ठि सागरोवमाई तिहिं पुश्वकोडोहि अब्भहियाई, एवतियं काल सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 61 नवमो गमयो] [1] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति बाला संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव) उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरक के नैरयिकों में उत्पन्न हो तो, वही पूर्वोक्त वक्तव्यता, यावत् अनुबन्ध तक (जाननी चाहिए 1) संवेध—भव की अपेक्षा से जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव, तथा काल की अपेक्षा से जघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम इतने काल तक वह यावत् गमनागमन करता है / सू. 61 नौवाँ गमक | विवेचन- सप्तम नरक भूमि में उत्पत्ति प्रादि सम्बन्धी गमक--यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के 6 गमकों की तरह सारी बक्तव्यता समझनी चाहिए, विशेष अन्तर यह है कि सप्तम नरकपृथ्वी में Page #2351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [153 एक (वज्रऋषभनाराच) संहनन वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं तथा स्त्रीवेद वाले जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते / क्योंकि स्त्रीवेदी जीवों की उत्पत्ति छठे नरक तक ही होती है। भवादेश से जघन्य तीन भव सातवें नरक में कहे गए हैं। वह इस प्रकार होते हैं--प्रथम भव मत्स्य का, द्वितीय भव नारक का और तृतीय भव मत्स्य का, इस क्रम से दो भव मत्स्यों के और एक भब नारक का होता है तथा उत्कृष्टत: सात भव इस प्रकार से होते हैं--प्रथम भव मत्स्य का, द्वितीय भव सप्तम पृथ्वी के नारक का, तृतीय भव पुनः मत्स्य का, चौथा भव पुन: सप्तम पृथ्वी के नारक का, पांचवाँ भव मत्स्य का, छठा भव सप्तम पृथ्वी के नारक का और सातवाँ भव पुन: मत्स्य का / इस प्रकार से उत्कृष्टतः 7 भव वे ग्रहण करते हैं तथा काल की अपेक्षा से जो दो अन्तर्मुहूर्त अधिक 22 सागरोपम कहा गया है, वह इस प्रकार है--सातवें नरक को भव सम्बन्धी जघन्य स्थिति 22 सागरोपम की है / इस अपेक्षा से 22 सागरोपम और तृतीय मत्स्यभव-सम्बन्धी दो अन्तम् हर्त समझने चाहिए तथा उत्कृष्ट 66 सागरोपम कहा है। वह यों समझना चाहिए कि सातवी नरकपृथ्वी में 22 सागरोपम की स्थिति से तीन बार उत्पन्न होता है, इस दृष्टि से 66 सागरोपम हो जाते हैं तथा 4 पूर्वकोटि की अधिकता जो कही गई है, वह नारक भवों से अन्तरित चार मत्स्यभवों की अपेक्षा से होती है। फलितार्थ यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में जघन्य स्थिति बाले नैरयिकों में उत्कृष्टतः तीन वार ही उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से 66 सागरोपम घटित हो जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो उपर्युक्त परिमाण घटित नहीं हो सकता / यहाँ उत्कृष्ट काल की विवक्षा है। इसलिए जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में 3 वार उत्पन्न होने का कथन किया गया है तथा चार मत्स्यभवों की अग पूर्वकोटि का कथन किया गया है। उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में दो बार के उत्पाद से 66 सागरोपम का प्रमाण लभ्य होता है और तीन मत्स्यभवों की अपेक्षा से तीन पूर्वकोटि का कथन किया गया है / यह प्रथम गमक है। जघन्यकाल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने का दूसरा गमक है / उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पाद-सम्बन्धी तृतीय गमक है। इसमें उत्कृष्टतः पांच भव-ग्रहण का कथन है, जिनमें तीन मत्स्यभव और दो नारकभव समझने चाहिए / इनसे यह निश्चित हो जाता है कि सातवें नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में दो ही वार उत्पत्ति होती है। जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पादसम्बन्धी मक है / इसकी वक्तव्यता रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे गमक के तुल्य है। अन्तर केवल इतना ही है कि रत्नप्रभा में 6 संहनन और 3 वेद कहे गए हैं, किन्तु सातवें नरक के चौथे गमक में केवल एक वज्रऋषभनाराचसंहनन का कथन और स्त्रोवेद का निषेध करना चाहिए। शेष गमकों का कथन स्पष्ट हो है।' पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों को समुच्चयरूप से सातों नरकों में उत्पाद प्रादि प्ररूपरणा 62. जइ मणुस्सेहितो उववज्जति कि सन्निमणुस्सेहितो उपयज्जति, प्रसन्निमणुस्सेहितो उववज्जति? गोयमा ! सन्निमणुस्सेहितो उववजंति, नो असनिमणुस्सेहितो उपवति / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 812 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भाग 14, पृ. 476 से 487 Page #2352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [92 प्र. भगवन् ! यदि वह नैरयिक, मनुष्यों में से आकर उत्पन्न होता है, तो क्या वह संज्ञी मनुष्यों में से उत्पन्न होता है या असंज्ञी मनुष्यों में से ? [12 उ.] गौतम ! वह संज्ञी मनुष्यों में से उत्पन्न होता है, असंज्ञी मनुष्यों में से नहीं। 13. जति सत्रिमणुस्सेहितो उववज्जति कि संखेज्जवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववति, असंखेज्जवा० जाव उववज्जति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयसन्निमणु, नो असंखेज्जवासाउय जाव उववति / [63 प्र.] भगवन् ! यदि वह संज्ञी मनुष्यों में से पा कर उत्पन्न होता है तो क्या संख्येय वर्ष की आयु वाले संज्ञो मनुष्यों में से उत्पन्न होता है, अथवा असंख्येय वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों में से ? [93 उ.] गौतम ! वह संख्येय वर्ष की आयु वाले संजी मनुष्यों में से उत्पन्न होता है, असंख्येय वर्ष की आयु वाले संज्ञो मनुष्यों में से नहीं / 14. जदि संखेज्जवासा० जाव उववज्जति कि पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, अपज्जत्तसंखेज्जवासाउय? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, नो अपज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव उववति / [E4 प्र.] भगवन् ! यदि वह संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में से पाकर उत्पन्न होता है, तो क्या वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में से उत्पन्न होता है, या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में से ? [94 उ.] गौतम ! वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में से उत्पन्न होता है, अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में से नहीं / 15. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसणिमणुस्से भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! कतिसु पुढवीसु उववज्जेज्जा? गोयमा! सत्तसु पुढवीसु उववज्जेज्जा, तं जहा-रयणप्पभाए जाब आहेसत्तमाए। [95 प्र.] भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त मनुष्य, जो नरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितनी नरकपृथ्वियों में उत्पन्न होता है ? [95 उ.] गौतम ! वह सातों ही नरकश्वियों में उत्पन्न होता है। यथा-रत्नप्रभा में, यावत् अधःसप्तम नरकपृथ्वी में / विवेचन–निष्कर्ष-संख्यात वर्ष की आयु वाला, पर्याप्त संज्ञी मनुष्य सातों ही नरकपृथ्वियों में से किसी में भी उत्पन्न हो सकता है।' 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 917-918 Page #2353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 1] [155 रत्नप्रभानरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क मनुष्य में उपपात-परिमारणादि वोस द्वारों को प्ररूपरणा 66. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से णं भंते ! जे भविए रतणप्पभपुढविनेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? / गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सागरोवमट्टितीएसु उववज्जेज्जा। [96 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञो मनुष्य जो रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? [96 उ, गौतम ! बह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है / / 67. ते गं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / संघयणा छ / सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई / एवं सेसं जहा सन्निपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जाव भवादेसो ति, नवरं चत्तारि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए, छ समुग्घाया केवलिवज्जा; ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं मासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी / सेसं तं चैव / कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई मासपुहत्तमन्महियाई, उषकोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चहिं पुन्चकोडीहि अहियाई, एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 66-67 पढमो गमो] / [97 प्र.] भगवन् ! वे जीव (संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [97 उ.] गौतम ! वे जीव जघन्य एक, दो या तीन, और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं / उनमें छहों संहनन होते हैं / उनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) की और उत्कृष्ट पांच सो धनुष की होती है। शेष सब कथन यावत् भवादेश तक, संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के समान है। विशेष यह है, कि उनमें चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान विकल्प से होते हैं / केवलिसमुद्घात को छोड़कर शेष छह समुद्घात होते हैं। उनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि होता है / शेष सब पूर्ववत् / संवेधकाल की अपेक्षा से जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 66-67 प्रथम गमक] 18. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उक्वन्नो, एसा चेव वत्तवया, नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दस बाससहस्साई मासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पुष्वकोडोप्रो चत्तालीसाए वाससहस्से हिं अन्भहियाओ, एवतियं० / [सु०६८ बोनो गमनो] / [18] यदि वह मनुष्य, जघन्यकाल.की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो उपर्युक्त सर्ववक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य मास Page #2354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] व्याख्याज्ञप्तिसूत्र पृषकत्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चालीस हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 98 द्वितीय गमक] 66. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववश्नो, एसा घेव वत्तव्वता, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं मासपुहत्तमभहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोयमाई चउहि पुत्वकोडीहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 66 तइओ गमओ] / [6] यदि वह मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति घाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिको में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त सर्व वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से---जघन्य मासपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम, काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 66 तृतीय गमक] 100. सो चेव प्रपणा जहन्नकालद्वितीयो जाओ, एसा व वत्तव्यता, नवरं इमाइं पंच नाणताई-सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेण वि अंगुलपुहत्तं 1, तिनि नाणा, तिन्नि अन्नाणा भयणाए 2, पंच समुग्घाया आदिल्ला 3, ठितो 4 अणुबंधो 5 य जहन्नेणं मासपुहत्तं, उषकोसेण वि मासपुहतं / सेसं तं चेव जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई भासपुहत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहि मासपुहत्तेहि प्रभहियाई, एवतियं नाप करेज्जा। [सु० 100 चउत्यो गमो] / [100] यदि वह मनुष्य स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और रत्नप्रभापृथ्वी के नयिकों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / इसमें इन पाँच बातों में विशेषता है-(१) उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल-पृथक्त्व होती है। (2) उनके तीन ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प (भजना) से होते हैं। (3) उनके आदि के पांच समुद्घात होते हैं। (4-5) उनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट मासपृथक्त्व होता है / शेष सब भवादेश तक पूर्ववत् जानना चाहिए / काल की अपेक्षा से~-जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत गमनागमन करता है। स. 100 चतुर्थ गमक 101. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव बत्तध्वया चउत्थगमगसरिसा, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई मासपुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई पउहि मासपुहत्तेहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 101 पंचमो गमो] / 201! यदि वह मनुष्य स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और रत्नप्रभापथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त चतुर्थगमक के समान इसको वक्तव्यता समझना / विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से--जघन्य मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चालीस हजार वर्ष काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 101 पंचम गमक] 102. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव गमगो, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं मासपुहत्तमभहिय, उक्कोसेणं चत्तारिसागरोवमाइं चहि मासपुहत्तेहि अन्भहियाई, एवतियं नाव करेजा। [सु० 102 छट्टो गमयो] / Page #2355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक ) [157 |102] यदि वह जघन्य कालस्थिति वाला मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो पूर्वोक्त गमक के समान जानना / विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से ---जघन्य मासपथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार मासपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। सू. 102 छठा गमक] 103. सो चेव प्रपणा उक्कोसकाल द्वितीयो जातो, सो चेव पढमगमओ नेतन्वो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठितो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुष्वकोडो; एवं अणुबंधो वि, कालाएसेणं जहन्नेणं पुश्वकोडी दहि वाससहसेहि अमहिया, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहि पुवकोडोहि अब्भहियाई, एवतियं कालं जाव करेज्जा। [सु० 103 सत्तमो गमश्रो] / |103] यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और (रत्नप्रभापथ्वी के नैरयिकों में) उत्पन्न हो, तो उसके विषय में प्रथम गमक के समान समझना / विशेषता यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट भी पाँच सौ धनुष की होती है / उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है एवं अनुबन्ध भी उसी प्रकार जानना / काल की अपेक्षा से---जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / मू. 103 सप्तम गमक] 104. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, स च्चेव सत्तमगमगवत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी दसहि वाससहस्सेहि अब्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुव्यकोडोप्रो चत्तालोसाए वाससहस्सैहि अवनहियाओ, एवतियं कालं जाव करेज्जा / [सु० 104 अट्ठमो गमओ] / [104] यदि वही (उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला) मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले (रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरियकों) में उत्पन्न हो, तो उसकी वक्तव्यता सप्तम गमक के समान जानना। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चालीस हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 104 अष्टम गमक] 105. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववन्नो, सा चेव सत्तमगमगवत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं पुचकोडीए अमहियं, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहिं पुन्यकोडीहि पहियाई, एवतियं काल सेवेज्जा जाव करेज्जा। [सु० 105 नवमो गमो] / [105] र्याद वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला मनुष्य, उत्कृष्ट स्थिति बाले (रत्नप्रभापृथ्वी के नरयिकों) में उत्पन्न हो तो उसी पूर्वोक्त सप्तम गमक के समान बक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य पूर्वकोटि अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 105 नौवां गमक] विवेचन–रत्नप्रभा के नैरयिकों में उत्पत्ति-परिमाणादि-विचार-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य पर्याप्तक, संख्यात वर्ष की आयु वाले और संज्ञी होते हैं, क्योंकि संज्ञी मनुष्य सदा संख्यात ही होते हैं, इसलिए उत्कृष्ट रूप से इनकी उत्पत्ति संख्यात ही होती है।' 1. भगवती. म. वृत्ति, पत्र 816-817 Page #2356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] भ्यास्याप्रप्तिसूत्र ज्ञान-प्रज्ञान-नरक में उत्पन्न होने वाले गर्भज मनुष्य में चार ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से कहे गए हैं, चूर्णिकार द्वारा इसका समाधान किया गया है कि जो मनुष्य अवधिज्ञान, मनःपर्यायजान और आहारक शरीर प्राप्त करके वहाँ से गिर कर नरक में उत्पन्न होता है, उस मनुष्य में अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और आहारक शरीर उसकी पूर्वावस्था को लेकर समझना चाहिए। इस दष्टि से उक्त मनुष्य में 4 ज्ञान और तीन अज्ञान विकल्प से बताये गए हैं।' जघन्य स्थिति मासपृथक्त्व : कैसे ?---सिद्धान्त यह है कि दो मास से कम आयुष्य (स्थिति) वाला मनुष्य नरकगति में नहीं जाता, इसलिए नरकगति में जाने वाले मनुष्य की जघन्य प्रायु (स्थिति) मासपृथक्त्व होती है।' संवेधकाल-मनुष्यभव की अपेक्षा-मनुष्य होकर यदि नरकगति में उत्पन्न हो तो एक नरकपृथ्वी में चार बार उत्पन्न होता है, उसके पश्चात् वह निश्चय ही तिर्यञ्च होता है / इसलिए मनुष्यभवसम्बन्धी संवेधकाल चार पूर्वकोटि भधिक चार सागरोपम का कहा गया है / चौथे गमक में पांच विशेष बातें-जघन्य स्थिति वाले मनुष्य की नरकोत्पत्ति सम्बन्धी चतुर्थ गमक में पांच नानात्व (विशेषताएँ) पाए जाते हैं—(१) यहाँ शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुलपथक्त्व बताई गई है, जबकि प्रथम गमक में जघन्य अंगूलपथक्त्व और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की बताई गई है / (2) प्रथम गमक में 4 ज्ञान और 3 अज्ञान भजना से बताए गए हैं, परन्तु यहां 3 ज्ञान और 3 प्रज्ञान भजना से बतलाए गए है; क्योंकि जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में इन्हीं का सदभाव होता है / (3) प्रथम गमक में 6 समूदधात बतलाये गए हैं, जबकि यहाँ जघन्य स्थिति वाले मनष्य में प्राहारकसमदघात नहीं पाया जाता। (4-5) प्रथम गमक में स्थिति और अनुबन्ध जघन्य मासपृथक्त्व, उत्कृष्ट पूर्वकोटि बतलाया गया है, जबकि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट मास पृथक्त्व ही बतलाया गया है। शेष गमकों का कथन स्पष्ट है, स्वयमेव चिन्तन कर लेना चाहिए। शर्कराप्रभानरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपातपरिमारणादि द्वारों की प्ररूपणा 106. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसनिमगुस्से गं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइएसु जाव उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति जाव उववजेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमट्टितीएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमठितीएसु उववज्जेज्जा। [106 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य, जो शर्कराप्रभापृथ्वी के नै रयिकों में उत्पन्न होने योग्य हो; वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? . - .. .------ 1. (क) ओहिनाण-मणपज्जवनाण-आहारय-शरीराणि लद्धणं परिसाडित्ता उववज्जति ।'–भगवती. चणि (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 817 2. वहीं, पत्र 817 3. बहो, पत्र 817 4. वही, पत्र 817 . Page #2357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 1] [159 [106 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की स्थिति वाले शर्कराप्रभानरयिकों में उत्पन्न होता है / 107. ते णं भंते ! ? एवं सो चेव रयणप्पभपुढविगमो नेयचो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रणिपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी; एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चैव जाव भवादेसो त्ति; कालाएसेणं जहन्नेणं सागरोवमं वासपुहत्तमन्भहियं, उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई चहि पुत्वकोडोहिं अब्भहियाई, एवतियं जाव करेज्जा। [107 प्र.] भगवन् ! वे जीव वहाँ एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [107 उ.] गौतम ! उनके विषय में रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान गमक जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से लेकर नौ हाथ तक) और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष होती है। उनकी स्थिति जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना चाहिए / शेष सब कथन या तक पूर्ववत् समझना / काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक बारह सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 108. एवं एसा प्रोहिएसु तिसु गमएसु मणूसस्स लद्धी, नाणतं नेरइयद्विति कालाएसेणं संवेहं च जाणेज्जा। [सु० 106-8 पढम-बीय-तइयगमा] / [108] इस प्रकार प्रोधिक के तीनों गमक (प्रोधिक का औधिक में उत्पन्न होना, प्रौधिक का जघन्य स्थिति वाले शर्कराप्रभा-नरयिकों में उत्पन्न होना और प्रोधिक का उत्कृष्ट स्थिति वाले शर्कराप्रभा-नरयिकों में उत्पन्न होना) मनुष्य की वक्तव्यता के समान जानना / विशेषता नै रयिक की स्थिति और कालादेश से संवेध जान लेना चाहिए। [सू. 106-107-108 प्रथम-द्वितीय-तृतीय गमक] 106. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जानो, तस्स वि तिसु गमएसु एसा चेव लद्धी; नवरं सरोरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहत्तं, उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं; ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहत्तं; एवं अणुबंधो वि / सेसं जहा प्रोहियाणं / संवेहो उबजुजिऊण भाणियब्यो। [सु० 106 चउत्थ-पंचम-छट्ठगमा] / . [106 यदि वह स्वयं जघन्य स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य, शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों (शर्कराप्रभा नयिकों में जघन्यकाल की स्थिति वाले श. प्र. नैरयिकों में और उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले श. प्र. नैरयिकों में उत्पन्न होने से सम्बन्धित गमक) में पूर्वोक्त वही वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी रलिपथक्त्व होती है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है। शेष सब कथन औधिक गमक के समान जानना / संवेध भी उपयोगपूर्वक समझ लेना चाहिए। सू. 106 चार-पांच-छह गमक] - Page #2358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] fাহামৱস্থি 110. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो, तस्स वि तिसु वि गमएम इमं णाणत्तंसरीरोगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं पुन्वकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी; एवं अणुबंधो वि / सेसं जहा पढमगमए, नवरं नेरइयठिति कायसंवेहं च जाणेज्जा [सु० 110 सत्तम-अट्ठम-नवमगमा] / [110] यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरपिकों में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों (शर्कराप्रभापृथ्वीनै रयिकों में, जघन्य स्थिति बाले श. प्र. नरयिकों में और उत्कृष्ट स्थिति वाले श. प्र. नैरयिकों में उत्पन्न होने सम्बन्धी गमक) में विशेषता इस प्रकार है उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है। उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की होती है / इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना। शेष सब प्रथम गमक के समान है। विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और कायसंवेध तदनुकूल जानना चाहिए / [सू. 110 सातवां-पाठवाँ-नौवाँ गमक] विवेचन-शर्कराप्रभापृथ्वी में उत्पत्ति आदि सम्बन्धी प्रश्नोत्तर-दो रत्नि (हाथ) से कम की अवगाहना वाले और दो वर्ष से कम आयुष्य वाले मनुष्य दूसरी शर्कराप्रभापृथ्वी में उत्पन्न नहीं होते। प्रथम-द्वितीय-तृतीय गमक में नानात्व कथन- (1) प्रोधिक मनुष्य की औधिक नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी प्रथम गमक में स्थिति आदि का निर्देश मूल पाठ में कर दिया है। (2) प्रौघिक मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले नरयिकों में उत्पत्तिसम्बन्धी द्वितीय गमक में नरयिक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम होती है। काल की अपेक्षा से संवेध-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम होता है / (3) औधिक मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पत्ति सम्बन्धी तृतीय गमक में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु इसका कालत: संवेध जघन्य तीन सागरोपम और उत्कृष्ट बारह सागरोपम होता है। चार-पांच-छह गमक में विशेष कथन--(४) जघन्य स्थिति वाले मनुष्य की औधिक नरक में उत्पत्तिसम्बन्धी चतुर्थ गमक में काल की अपेक्षा संवेध वर्षपथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार वर्षपृथक्त्व अधिक बारह सागरोपम होता है, (5) जघन्य स्थिति वाले मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले न रयिकों में उत्पत्ति सम्बन्धी पंचम गमक में कायसंवैध काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक एक सागरोपम और उत्कृष्ट चार वर्षपृथक्त्व अधिक चार सागरोपम होता है / इसी प्रकार (6) छठा गमक भी उपयोग-पूर्वक जानना चाहिए। सप्तम-अष्टम-नवम गमक में विशेष कथन-(७) उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य की प्राधिक नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी सप्तम गमक, (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी अष्टम गमक एवं (8) उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी नवम गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। इसी प्रकार दूसरे नानात्व भी समझ लेने चाहिए। तिर्यञ्च की स्थिति जघन्य अन्तमुंहूर्त्त की कही गई थी, लेकिन मनुष्यगमकों में मनुष्य स्थिति कहनी चाहिए। किन्तु शर्करा Page #2359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [161 प्रभादि नरकों में जाने वाले मनुष्यों की स्थिति जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को होती है / बालुका-पंक-धूम-तमःप्रभा नरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संजी-मनुष्य में उपपात-परिमारणादि द्वारों को प्ररूपणा 111. एवं जाव छट्ठपुढबी, नवरं तच्चाए आढवेत्ता एक्केक्कं संघयणं परिहायति जहेव तिरिक्खजोणियाणं; कालादेसो वि तहेव, नवरं मणुस्सट्टिती जाणियन्वा / [111] इसी प्रकार यावत् छठी नरकपृथ्वी-पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि तीसरी नरकपृथ्वी से लेकर आगे तियंञ्चयोनिक के समान एक-एक संहनन कम होता है / कालादेश भी इसी प्रकार कहना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यों की स्थिति जाननी चाहिए। विवेचन प्रस्तुत 111 वें सूत्र में तीसरी से छठी नरकपथ्वी तक उत्पत्ति ग्रादि के कथन का पूर्ववत् अतिदेश किया गया है / जो विशेषताएँ हैं वे मूल पाठ में स्पष्ट हैं / सप्तमनरक में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संज्ञो मनुष्य में उपपातपरिमारणादि द्वारों को प्ररूपणा 112. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से णं भंते ! जे भधिए अहेसत्तमपुठधिनेर इएसु उपवज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं बावीससागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमद्वितीएसु उवबज्जेज्जा। [112 प्र.] भगवन ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी मनुष्य, जो सप्तमपृथ्वी के नरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नरयिकों में उत्पन्न होता है ? [112 उ.] गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति बाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 113. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं ? अवसेसो सो चेव सक्करप्पभापुढविगमश्रो नेयब्धो, नवरं परमं संघयणं, इस्थिवेक्षगा न उववज्जंति / सेसं तं चैव जाव अणुबंधो त्ति / भवादेसणं दो भवागहणाई; कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुटवकोडीए अम्महियाई, एवतियं जाव करेज्जा। [सु० 112--13 पठमो गमयो] / [113 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में (कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / ) [113 उ.] (गौतम ! ) इसकी सभी वक्तव्यता पूर्ववत् शर्कराप्रभापृथ्वी के गमक के समान समझनी चाहिए / विशेष यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 817 , Page #2360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वहाँ स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते। शेष समग्र कथन यावत् अनुवन्ध तक पूर्ववत जानना चाहिए / भव की अपेक्षा से—दो भव ग्रहण और काल की अपेक्षा से जघन्य बर्ष पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तैतीस सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 112-113 प्रथम गमक] 114. सो चेव जहन्नकालद्वितोएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं नेरइयट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [सु० 114 बीनो गमो] / [114] यदि वही मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी-नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही (पूर्वोक्त)वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ नैरपिक की स्थिति और संबंध स्वयं विचार करके कहना चाहिए / [114 द्वितीय गमक 115. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएमु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं संवेहं जाणेज्जा। [सु० 115 तइयो गमो] / _ [115] यदि वही मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध स्वयं जान लेना चाहिए। [115 तृतीय गमक] 116. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव वत्तव्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहत्तं; उक्कोसेण वि रयणिपुहत्तं, ठिती जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेण वि वासपुहत्तं; एवं अणुबंधो वि; संवेहो उखजुजिऊण भाणियन्वो / [सु०.११६ चउत्थ-पंचम-छट्ठगमा] / {116] यदि वही (पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों (जघन्य स्थिति वाले संज्ञी मनुष्य की सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी चतुर्थ गमक, इसी मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्ति-सम्बन्धी पंचम गमक और इसी मनुष्य की उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पत्ति सम्बन्धी छठे गमक) में यही वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है / उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है / संवेध के विषय में उपयोग पूर्वक कहना चाहिए / [सू. 116 चतुर्थ-पंचम-षष्ठ गमक] 117. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु एसा चेव वत्तब्वया, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठिती जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी; एवं अणुबंधो वि। नवसु वि एएसु गमएसु नेरइयट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सम्वत्थ भवग्गहणाई दोन्नि जाव नवमगमए कालादेसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अमहियाई उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाइं पुधकोडीए अमहियाई, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिराति:करेज्जा / [सु० 117 सत्तम-अट्ठम-नवमगमा] / Page #2361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] (163 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥चउवीसइम सते : पढमो उद्देसनो समत्तो // 24-1 / / [117] यदि वह संजी मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में (उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी मनुष्य की सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी सप्तम गमक, ऐसे ही मनुष्य की जघन्य स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी अष्टम गमक, और ऐसे ही मनुष्य को, उत्कृष्ट स्थिति वाले सप्तम नरक के नारकों में उत्पत्तिसम्बन्धी नवम गमक यही (पूर्वोक्त) वक्तव्यता समझना चाहिए। विशेष इतना ही है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की है। इसी प्रकार अनबन्ध भी जानना चाहिए / इन (उपर्युक्त) नौ ही गमकों में नैरयिकों की स्थिति और संवेध स्वयं विचार कर जान लेना चाहिए। यावत नौवें गम वें गमक तक दो ही भवग्रहण होता है; काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतना काल सेवन (यापन) करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है / सू. 117 सप्तमअष्टम-नवम-गमक 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–सप्तम नरकपश्ची में कायसंवेध-सप्तम नरकपृथ्वीसम्बन्धी प्रथम गमक में कायसंवेध उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है, क्योंकि सातवें नरक से निकला हुआ जीव मनुष्य रूप से उत्पन्न नहीं होता। अतः प्रथम मनुष्य का भव और दूसरा सप्तम नरक का भव, इन दो भवों में कायसंवेध इतने ही काल का होता है। नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से संज्ञी मनुष्य दो भव ही ग्रहण करता है। शेष कथन स्पष्ट ही है।' ॥चौवीसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 817 (ख) वियाहपत्तिमुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणी) प्र. 921 Page #2362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ : असुरकुमारुदेसओ द्वितीय उद्देशक : असुरकुमारों का उपपात गति की अपेक्षा से असुरकुमारों के उपपात को प्ररूपणा 1. रायगिहे जाव एवं वयासि[१] राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 2. असुरकुमारा णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? कि नेहरहितो रववज्जति, तिरिमग-देवेहितो उववज्जति ? / गोयमा ! णो णेरतिएहितो उववति, तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति, मणुस्सेहितो एयवज्जति, नो देवेहितो उथवज्जति। [2 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार कहां से-किस गति से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से भाकर उत्पन्न होते हैं या तिर्यञ्चों से, मनुष्यों से अथवा देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गोतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। विवेचन-असुरकुमारों की उत्पत्ति-वे नारकों और देवों से उत्पन्न नहीं होते, या तो वे तिर्यञ्चों से अथवा मनुष्यों से मरण करके उत्पन्न होते हैं। असुरकुमार में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-असंज्ञो-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक की उपपातपरिमारणादि वीस द्वारों की प्ररूपरणा 3. एवं जहेव नेरइयउद्देसए जाव पज्जत्तप्रसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुकुरमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीयेसु, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा। 3 प्र.] जिस प्रकार नैरयिक उद्देशक में प्रश्न है, इसी प्रकार (यहाँ भी प्रश्न है.---) भगवन् ! पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [3 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उकृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है / Page #2363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसका शतक : रद्देशक 2] [165 4. ते णं भंते ! जीवा० ? एवं रयणप्पभागमगसरिसा नव वि गमा भाणियव्वा, नवरं जाहे अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो भवति साहे अज्झवसाणा पसत्था, नो अप्पसत्था तिसु वि गमएसु / अवसेसं तं चेव / [गमा 1-6] / [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 4 उ.] (गौतम ! ) यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के गमकों के समान सभी नौ ही गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि यदि वह स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो, तो तीनों गमकों में अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं होते। शेष सब कथन पूर्ववत् जानना। [गमक 1 से 6 तक विवेचन-उत्कृष्ट स्थिति के समकक्ष मान-यहाँ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग बतलाई है, यह कालमान पूर्वकोटिरूप समझना चाहिए, क्योंकि सम्मूच्छिम तिर्यञ्च का उत्कृष्ट प्रायुध्य पूर्वकोटिपरिमाण होता है और वह अपने आयुष्य के समान हो उत्कृष्ट देवायु बांधता है / चूर्णिकार भी इसी तथ्य का समर्थन करते हैं 'उक्कोसेणं स तुल्लपुवकोडो पाउयत्तं णिवत्तेइ ण य सम्मुच्छिमो पुवकोडी-पाउयत्ताओ परो प्रथि।' अर्थात् समूच्छिम तिर्यञ्च का पायुष्य पूर्वकोटि से अधिक नहीं होता। इसलिये वह देवभव में भी उत्कृष्टत: पूर्वकोटि-परिणाम ही आयुष्य बांधता है, अधिक नहीं।' अध्यवसाय : प्रशस्त या अप्रशस्त ? –पर्याप्त असंज्ञी तिर्थञ्च पंचेन्द्रिय के चौथे, पाँचवें और छठे गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं, अप्रशस्त अध्यवसाय नहीं / संख्येयवर्षायुष्क-असंख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक को असुरकुमारों में उपपात-प्ररूपरगा 5. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जंति कि संखेज्जवासाउयसग्निः जाव उववज्जति, असंखेज्जवासाउय० जाव उववज्जंति? गोयमा ! संखेज्जवासाउय० जाव उववज्जंति, असंखेज्जवासाउय० जाव उववज्जति। [5 प्र.] भगवन ! यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव असुरकुमारों में उत्पन्न हो तो क्या वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होता है, अथवा असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न होता है ? 5 उ.] गौतम ! वह संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले दोनों प्रकार के तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होता है / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 820 2. वही, पत्र 820 Page #2364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [स्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-निष्कर्ष--जो संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय असुरकुमारों में आकर उत्पन्न होते हैं, वे दोनों प्रकार के होते हैं-संख्यात वर्ष को आयु वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले / ' असुरकुमार में उत्पन्न होनेवाले असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक की उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 6. असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जितए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएस उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिपलिग्रोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [6 प्र.] भगवन् ! असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले मसुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [6 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है / 7. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिम्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / वयरोसभनारायसंघयणी। प्रोगाहणा जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं छग्गाउयाई। समचउरंससंठाणसंठिया पन्नत्ता। चत्तारि लेस्साओ प्रादिल्लायो। नो सम्माहिटी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी / नो भाणी, अनाणी, नियमं दुअण्णाणी, तं जहा–मतिप्रन्नाणी, सुयअन्नाणी य / जोगो तिविहो वि। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णाश्रो। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। तिन्नि समुग्घाया प्रादिल्लगा। समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / वेयणा दुविहा वि। इत्थिवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेदगा। ठितो जहन्नेणं सातिरेगा पुवकोडी, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई। अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि / अणुबंधो जहेव ठिती। कायसंवेहो भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुन्चकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई, एवतियं जाव करेज्जा। [पढमो गमत्रो]। [7 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [7 ल.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उकृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। वे वनऋषभनाराचसंहनन वाले होते हैं। उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व की और उत्कृष्ट छह गाऊ (गव्यूति दो कोस) की होती है। वे समचतुरस्त्रसंस्थान वाले होते हैं। उनमें प्रारम्भ की चार लेश्याएं होती हैं। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं / वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं-मति-अज्ञान और श्रत-अज्ञान / उनमें योग तीनों ही पाये जाते हैं। उपयोग भी दोनों प्रकार के होते हैं। उनमें चार 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 922 Page #2365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 2] [167 संज्ञा, चार कषाय, पांच इन्द्रियाँ तथा आदि के तीन समुद्घात होते हैं। वे समुद्घात करके भी मरते हैं और समुद्घात किये बिना भी मरते हैं। उनमें साता और असाता दोनों प्रकार की वेदना होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं, नपुंसकवेदी नहीं। उनकी स्थिति जघन्य कुछ अधिक (सातिरेक) पूर्वकोटि वर्ष की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। उनके अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। उनका अनुबन्ध स्थिति के तुल्य होता है, कायसंवेध--भव की अपेक्षा से-दो भव ग्रहण करते हैं, काल की अपेक्षा से-जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट छह पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं। सू. 6-7 प्रथम गमक] 8. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएस उववन्नो, एसा चेव दत्तव्वया, नवरं असुरकुमार द्धिति संवेहं च जाणेज्जा / [बीअो गमओ] / [8] यदि वह (असंख्यातवर्षायुष्क पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) जीव जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो तो इसकी वक्तव्यता पूर्वोक्तानुसार जाननी चाहिए। विशेष असुरकुमारों की स्थिति और संवेध स्वयं जान लेना चाहिए / [सू. 8 द्वितीय गमक] ___9. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिनोवमद्वितीएस, उक्कोसेण वि तिपलिश्रोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। एसा चेव वत्तन्वया, नवरं ठिती से जहन्नेणं तिण्णि पलिग्रोवमाइं, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिप्रोवमाई। एवं अणुबंधो वि, कालाएसेणं जहन्नेणं छप्पलिओवमाइं, एवतियं० सेसं तं चेव / [तइनो गमत्रो] / [9] यदि वह उकृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना / विशेष यह है कि उसकी स्थिति अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम होता है / काल की अपेक्षा से-जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / शेष सब कथन पूर्ववत् जानना / (सू. 9 तृतीय गमक 10. सो चेव अपणा जहन्नकालद्वितीयो जामो, जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसणं सातिरेगपुवकोडिआउएसु उबवज्जेज्जा। [10] यदि वह (असंख्यातवर्षायुष्क संझी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है। 11. ते णं भंते ! 0? अवसेसं तं चेव जाव भवाएसो त्ति, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं धणुपुहतं, उक्कोसेणं सातिरेगं धणुसहस्सं / ठितो जहन्नेणं सातिरेगा पुन्वकोडी, उक्कोसेण वि सातिरेगा पुत्वकोडी, एवं अणुबंधो वि। कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुन्वकोडी दसहि वाससहसेंहिं अब्भहिया, उक्कोसेणं सातिरेगानो दो पुवकोडीओ, एवतियं० / [चउत्थो गमत्रो] / [11 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / Page #2366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] व्याख्याप्राप्तिसूत्र [11 उ.] (गौतम ! ) शेष सब कथन, यावत् भवादेश तक उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना / विशेष यह है कि उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार धनुष / उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटि की जानना / अनुबन्ध भी इसी प्रकार है। काल की अपेक्षा से-जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट सातिरेक दो पूर्वकोटि, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / सू. 11 चतुर्थ गमक] 12. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीएस उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं असुरकुमारद्विति संवेहं च जाणेज्जा / [पंचमो गमो] / [12] यदि वह जघन्य काल की स्थिति वाले असूकुमारों में उत्पन्न हो तो उसके विषय में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ असुरकुमारों की स्थिति और संवेध के विषय में विचार कर स्वयं जान लेना / [सू. 12 पंचम गमक] 13. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं सातिरेगपुवकोडिआउएसु, उक्कोसेण वि सातिरेगपुवकोडिआउएसु उववज्जेज्जा। सेसं तं चेव, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगायो दो पुवकोडीओ, उक्कोसेण वि सातिरेगानो दो पुवकोडीओ, एवतियं कालं सेवेज्जा० / [छट्ठो गमत्रो]. [13] यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है / शेष सब पूर्वकथित वक्तव्यतानुसार जानना ! विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक (कुछ अधिक) दो पूर्वकोटिवर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 13 छठा गमक] 14. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो, सो चेव पढमगमत्रो भाणियबो,नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिग्रोवमाइं, उक्कोसेग वि तिनि पलिनोवमाई। एवं अणुबंधो वि। कालाएसेणं जहन्नेणं तिन्नि पलिग्रोवमाइं दसहि वाससहस्सेहि अब्भहियाई, उक्कोसेणं छ पलितोवमाइं, एवतियं० [समत्तो गमत्रो]। [14] वही जीव स्वयं उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला हो और असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये वही प्रथम गमक कहना चाहिए। विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है तथा उसका अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना / काल की अपेक्षा सेजघन्य दस हजार वर्ष अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट छह पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 14 सप्तम गमक 15. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएस उववन्नो, एसा चैव बत्तन्वया, नवरं असुरकुमारद्विति संवेहं च जाणिज्जा / [अट्ठमो गमो] / [15] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति वाला संजी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जघन्य काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेष Page #2367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 2] [169 यह है कि असुरकुमारों की स्थिति और संवेध का कथन यहाँ विचारपूर्वक जान लेना चाहिए। [सू. 15 अष्टम गमक] 16. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएस उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिग्रोवमं, उक्कोसेण वि तिपलिनोवमं / एसा चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं छप्पलिनोवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिमोचमाई, एबतिय० / [नवमोगमन्नो] / [16] यदि वह (उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है; इत्यादि वहीं पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [मू. 16 नौवाँ गमक] विवेचन - असुरकुमारों में संज्ञो तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की उत्पत्ति प्रादि से सम्बन्धित कुछ स्पष्टीकरण -(1) असंख्यातवर्ष की प्रायु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च की जो उत्कष्ट स्थिति तीन पल्योपम की वतलाई गई है, वह देवकुर आदि के युगलिक तिर्यञ्चों की अपेक्षा से समझनी चाहिए; क्योंकि उनकी तीन पल्योपमरूप असंख्यात वर्ष की आयु होती है और वे उत्कृष्ट अपनी आयु के तुल्य ही देवायु का बन्ध करते हैं। वे उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्च, मनुष्यक्षेत्रवर्ती ही होने से सदा संख्यात ही होते हैं, असंख्यात कदापि नहीं होते।' __ उनके संहनन प्रादि-उनमें एकमात्र वज्रऋषभनाराच संहनन ही पाया जाता है; क्योंकि असंख्यात वर्षायुष्कों में यही संहनन होता है / उनको अवगाहना जो धनुषपृथक्त्व कही गई है, वह पक्षियों की अपेक्षा समझनी चाहिए / उनकी आयु पल्योपम के असंख्यावें भाग परिमाण होने से वे असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं / उत्कृष्ट अवगाहना, जो छह गाऊ की बताई गई है, वह देवकुरु ग्रादि में उत्पन्न हाथी आदि को अपेक्षा से समझनी चाहिए / असंख्यातवर्ष की आयु वाले नपुंसकवेदी नहीं होते, वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं / उत्कृष्ट छह पल्योपम की स्थिति बतलाई गई है, वह तीन पल्योपम तो तिर्यञ्च-भव-सम्बन्धी और तीन पल्योपम असुरकुमार-भव-सम्बन्धी समझनी चाहिए। जीव, देवभव से निकल कर फिर असंख्यातवर्ष की आयुष्य वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते। जघन्य काल की स्थिति रूप चतुर्थ गमक के विषय में कुछ स्पष्टीकरण--- जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि की कही है, वह पक्षी आदि के लिए समझनी चाहिए। उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि की बतलाई गई है, उसका आशय यह है कि असंख्यात वर्ष की आयु वाले पक्षी आदि की स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि की होती है और वह अपनी उत्कृष्ट प्रायु के बराबर ही देवायु का बन्ध करता है। उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक एक हजार धनुष की बतलाई गई है, वह सातवें कुलकर से पहले होने वाले हस्ती आदि की अपेक्षा से समझनी 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र, 820 2. वही, पत्र 820 Page #2368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [াসনিক चाहिए; क्योंकि यहाँ जघन्य स्थिति वाले असंख्यात वर्षायुष्क तिर्यञ्च का प्रकरण चल रहा है। उसकी आयु सातिरेक पूर्वकोटि की होती है। इस प्रकार का हस्ती आदि सातवें कुलकर के समय में या उससे पहले पाया जाता है / सातवें कुलकर की अवगाहना तो 500 धनुष होती है, उससे पहले होने वाले कुलकरों की अवगाहना उससे अधिक होती है और उसके समय में होने वाले हरती आदि की अवगाहना उससे दुगुनी होती है। अत: सप्तम कुलकर अथवा उससे पहले होने वाले असंख्यात वर्ष की आयु वाले हस्ती आदि में ही उपर्युक्त अवगाहना-प्रमाण पाया जाता है।' चौथे गमक में जो सातिरेक दो पूर्वकोटि की स्थिति बताई गई है उसमें एक सातिरेक पूर्वकोटि तो तिर्यञ्च-भव-सम्बन्धी जाननी चाहिए और एक सातिरेकपूर्वकोटि असुरकुमार-भवसम्बन्धी समझनी चाहिए / असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की होती है और उनका संवेध सातिरेक पूर्वकोटि सहित दस हजार वर्ष का होता है। शेष गमकों के विषय में स्वयमेव विचार कर लेना चाहिए / असुरकुमार में उत्पन्न होनेवाले संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक में उपपातादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 17. जत्ति संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय० जाव उववज्जति कि जलचर एवं जाव पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निपंचेदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमद्वितीएम उववज्जेज्जा। [17 प्र.] भगवन् ! यदि असुरकुमार, संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यकचों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि यावत--पर्याप्त संख्येयवर्षायुप्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चयोनिक जीव जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले असुर कुमारों में उत्पन्न होता है ? [17 उ. गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट सातिरेक एक सागरोपम की स्थिति वाले (असुरकुमारों) में उत्पन्न होता है / 18. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? एवं एएसि रयणप्पभपुढविगमगसरिसा नव गमगा नेयव्वा, नवरं जाहे अपणा जहन्नकालद्वितीयो भवति ताहे तिसु वि गमएसु इमं नाणत्तं-चत्तारि लेस्सायो; अज्झवसाणा पसत्था, नो अप्यसत्था / सेसं तं चेव / संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायध्यो। [1-6 गमगा / |18 प्र. भगवन ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? |18 उ.] (गौतम !) इनके सम्बन्ध में रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में वर्णित नौ गमकों के 1. बही, पत्र 820 2. वही, पत्र 820 Page #2369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 2] [171 सदृश यहाँ भी नौ गमक जानने चाहिए। विशेष यह है कि जब वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला होता है, तब तीनों ही गमकों (4-5-6) में यह अन्तर जानना चाहिए - इनमें चार लेश्याएँ होती हैं। इनके अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं / शेष सब कथन पूर्ववत् / संवेध सातिरेक मागरोपम से कहना चाहिए / [सू. 17-18, एक से नौ गमक तक] विवेचन--निष्कर्ष--(१) असुरकुमारों में पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव उत्पन्न होते हैं। (2) विशेषतया वे जघन्य 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट सातिरेक एक सागरोपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं / (3) इसके नौ गमक रत्नप्रभा के गमकसदश होते हैं / (4) कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं-जघन्यकालिक स्थिति वाले तीनों (4-5-6) गमकों में लेश्याएँ चार, अध्यवसाय प्रशस्त और संवेध सातिरेक सागरोपम से / ' उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पत्ति का कथन बलीन्द्रनिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए। ___ अन्य विशेषताओं का स्पष्टीकरण-(१) जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने योग्य तिर्यञ्चों के चौथे, पाँचवें और छठे गमक में तीन लेश्याएँ--(कृष्ण, नील, कापोत) कही गई हैं, किन्तु यहाँ इन्हीं तीन गमकों में चार लेश्याएँ कही गई हैं, इसका कारण यह है कि असुरकुमारों में तेजोलेश्या वाले जीव भी उत्पन्न होते हैं / (2) रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति के तिर्यञ्चों के अध्यवसायस्थान अप्रशस्त कहे गए हैं, किन्तु यहाँ असुरकुमारों में प्रशस्त बताए हैं, दीर्घकालिक स्थिति वालों में तो प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों अध्यवसायस्थान होते हैं, किन्तु जघन्य स्थिति वालों में अप्रशस्त नहीं होते, क्योंकि काल अल्प होता है। (3) रत्नप्रभापृथ्वी के गमकों में संवेध एक सागरोपम से बताया गया है, जबकि यहाँ असुरकुमार-गमकों में सातिरेक (कुछ अधिक) एक सागरोपम बतलाया गया है। यह भी बलीन्द्रनिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए / संख्येयवर्षायुष्क-असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञो मनुष्यों को असुरकुमारों में उत्पत्ति का निरूपण 16. जदि मणुस्सेहितो उववज्जति कि सन्निमणुस्सेहितो, असन्निमणुस्सेहितो? गोयमा ! सन्निमणुस्सेहितो, नो असनिमणुस्सेहितो उववज्जति / 16 प्र. भगवन् ! यदि वे (असुरकुमार) मनुष्यों से पा कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? [19 उ.] गौतम ! वे संज्ञी मनुष्यों से आ कर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञो मनुष्यों से नहीं / 20. जदि सन्निमणुस्सेहितो उववज्जति कि संखेज्जवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववज्जंति, असंखेज्जवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववजंति ? ____ गोयमा ! संखेज्जवासाउय० जाव उववज्जति, असंखेज्जवासाउय० जाव उक्वजंति / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 925 2. भगवती. अ. वृति, पत्र 820 3. वही, पत्र 821 ---..-- Page #2370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 20 प्र.] भगवन् ! यदि वे संज्ञी मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यात वर्ष की, प्रायु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? / [20 उ.] गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयु वाले (संज्ञी मनुष्यों से प्राकर) भी उत्पन्न होते हैं और असंख्यात वर्ष की आयु वाले (संज्ञी मनुष्यों) से (अाकर) भी। विवेचन-निष्कर्ष-असुरकुमार संख्यातवर्ष की और असंख्यातवर्ष की आयु वाले भी संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं / असुरकुमारों में उत्पन्न होनेवाले असंख्येय वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपात-परिमाणादि बोस द्वारों की प्ररूपरणा 21. असंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से णं भंते ! जे भविए प्रसुरकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं वसधाससहस्सद्वितीएसु, उसकोसेणं तिपलिनोवमट्टितीएलु रखवज्जेज्जा। [21 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [21 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले (असुरकुमारों) में उत्पन्न होता है। 22. एवं असंखेज्जवासाउयतिरिक्खजोणियसरिसा आदिल्ला तिन्नि गमगा नेयव्या, नवरं सरीरोगाहणा पढम-बितिएसु गमएसु जहन्नेणं सातिरेगाई पंच धणुसयाई, उक्कोसेणं तिन्ति गाउयाई। सेसं तं चेव / ततियगमे श्रोगाणा जहन्नेणं तिनि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिण्णि गाउयाई / सेसं जहेब तिरिक्खजोणियाणं / [1-3 गमगा] / [22] इस प्रकार पूर्वोक्त असुरकुमारों की उत्पत्ति के प्रथम के तीनों गमक (1-2-3) असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चयोनिक जीवों के गमक के समान जानने चाहिए। विशेषता यह है कि प्रथम और द्वितीय गमक में शरीरावगाहना जघन्य सातिरेक पांच सौ धनुष की और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है। शेष सब कथन पूर्ववत् / तृतीय गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ की समझनी चाहिए / शेष सब कथन तिर्यञ्चयोनिकों के समान है। [सू. 21-22, गमक 1-2-3] 23. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जानो, तस्स वि जहन्नकालद्वितीयतिरिक्खजोणियसरिसा गमगा भाणियब्धा, नवरं सरीरोगाणा तिसु विगमएस जहन्नेणं सातिरेगाइं पंच धणुसयाई / सेसं तं चेव। [4--6 गमगा] / [23] यदि वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और असुरकुमारों में Page #2371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 2] [173 उत्पन्न हो तो उसके भी तीनों गमक जघन्यकाल की स्थिति वाले तिर्यञ्चयोनिक के समान कहने चाहिए / विशेषता यह है कि तीनों ही गमकों में शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक पांच सौ धनुष की होती है। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / [सू. 23, गमक 4-5-6] 24. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीयो जामो, तस्स वि ते चेव पच्छिल्लगा तिन्नि गमगा भाणियव्वा, नवरं सरीरोगाणा तिसु वि गमएस जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिग्नि गाउयाई / अवसेसं तं चैव। [7-6 गमगा] / [24] यदि वह स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो तो उसके विषय में भी पूर्वोक्त अन्तिम तीनों गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि तीनों गमकों में शरीरावगाहना जधन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है / शेष सब कथन पूर्ववत् है। सू. 24, गमक 7-8-6] विवेचन कुछ स्पष्टीकरण --(1) असंख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों की तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पत्ति का कथन देवकुरु आदि के यौगलिक मनुष्यों की अपेक्षा से हिए; क्योंकि वे ही अपनी आयु के सदृश देवायु का उत्कृष्ट बन्ध करते हैं / (2) प्रादि के तीनों गमकों में अवगाहना-सम्बन्धी-शरीरावगाहना के विषय में औधिक मनुष्य का औधिक असरकमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी प्रथम गमक है और औधिक मनुष्य का जघन्य स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी द्वितीय गमक है / इनमें से औधिक असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य की जघन्य सातिरेक 500 धनुष की अवगाहना होती है, यह सातवे कुलकर या उससे पहले होने वाले यौगलिक मनुष्य की अपेक्षा से समझनी चाहिए तथा उसकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन गाऊ की होती है, जो देवकुरु आदि के योगलिक मनुष्य की अपेक्षा से समझनी चाहिए। यह प्रथम गमक में होता है, 1 दूसरे गमक में भी इसी तरह दोनों प्रकार की अवगाहना समझनी चाहिए। तीसरे गमक में अवगाहना तीन गाऊ की बताई है, क्योंकि यही तीन पल्योपमरूप उत्कृष्ट स्थिति में उत्पन्न होता है और वह अपनी उत्कृष्ट अायु के समान ही देवायु का बन्धक होता है।' असुरकुमारों में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त-असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य में उपपातपरिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 25. जइ संखेज्जवासाउयसन्निमणुस्सेहितो उववज्जइ कि पज्जत्तसंखेज्जवासाउय० अपज्जतसंखेज्जवासाउय? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्ज०, नो अपज्जत्तसंखेज्ज० / [25 प्र.] भगवन् ! यदि वह (असुरकुमार) संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से माकर उत्पन्न होता है, तो क्या वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होता है, अथवा अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से ? [25 उ.] गौतम ! वह पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है, अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से नहीं। 1. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 3051 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 821 Page #2372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] व्याख्याप्राप्तिसूत्र 26. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिमणुस्से णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसेणं सातिरेगसागरोवमद्वितीएस उववज्जेज्जा। [26 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्य, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थितिवाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम काल की स्थिति वाले मसुरकुमारों में उत्पन्न होता है। 27. ते णं भंते ! जीवा ? एवं जहेव एएसि रयणप्पभाए उक्वज्जमाणाणं नव गमका तहेव इह वि नव गमगा भाणियब्वा, णवरं संवेहो सातिरेगेण सागरोवमेण कायग्वो, सेसं तं चेव / [1-9 गमगा] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०॥ // चतुरवीसइमे सए : विइओ उद्देसमो समत्तो / / 24-2 / / 27 प्र.) भगवन् ! वे जीव (मसुरकुमार) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [27 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के नौ गमक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इसका संवेध सातिरेक सागरोपम से कहना चाहिए / शेष समग्र कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है; भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-संज्ञी मनुष्य के नौ ही गमकों का कथन पूर्वोक्त रत्नप्रभा-गमकों के समान समझना चाहिए। विशेषता सिर्फ इतनी है कि इनका संवेध सातिरेक सागरोषम से समझना चाहिये।' ॥चौवीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 821 Page #2373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ नागकुमारुद्देसओ तृतीय उद्देशक : नागकुमार-(उत्पादादि-प्ररूपणा) गति को अपेक्षा से नागकुमारों की उत्पत्ति का निरूपण 1. रायगिहे जाब एवं क्यासि-- [1] राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा 2. नागकुमारा णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? किं नेरइएहितो उववज्जति, तिरि-मणुदेवेहितो उववजंति ? गोयमा ! नो रइएहितो उववति, तिरिक्खजोणिय-मगुस्सेहितो उववज्जति, नो देवहितो उववज्जति। [2 प्र.] भगवन् ! नागकुमार कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरयिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, अथवा तिर्यञ्चयोनिकों से, मनुष्यों से या देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे न तो नैरयिकों से और न देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, वे तिर्यञ्चयोनिकों से या मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन—निष्कर्ष नागकुमार न तो नैरपिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं और न ही देवों से; वे तिर्यञ्चों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। नागकुमार में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त असंज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उपपातपरिमारणादि वीस द्वारों को प्ररूपणा 3. जदि तिरिवख० ? एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया (उ० 2 स०३) तहा एतेसि पि जाव असण्णि ति। [3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (नागकुमार) तिर्यञ्चों से आते हैं, तो इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [3 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार (उ. 2 सू. 3 में) असुरकुमारों को वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार इनकी भी वक्तव्यता, यावत् असंज्ञी-पर्यन्त कहनी चाहिए / संख्येयवर्षायुष्क-प्रसंख्येयवर्षायुधक संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों की नागकुमारों में उत्पत्ति की प्ररूपणा 4. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो० कि संखेज्जवासाउय०, असंखेज्जवासाउय० ? गोयमा! संखेज्जवासाउय०, असंखेज्जवासायउ० जाव उववज्जति / Page #2374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र.] भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, या असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से ? [4 उ.] गौतम ! वे संख्येयवर्षायुष्क एवं असंख्येयवर्षायुष्क (दोनों प्रकार के) संशी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं / __विवेचन --निष्कर्ष-नागकुमार, असुर कुमार की तरह संख्यातवर्ष की और असंख्यातवर्ष की आयु वाले दोनों प्रकार के संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं / नागकुमारों में उत्पन्न होनेवाले असंख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उपपात-परिमारणादि वीस द्वारों की प्ररूपरगा 5. असंखिज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए नागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्विती० ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसेणं देसूणदुपलिनोवमट्टितोएसु उववज्जेज्जा। [5 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? [5 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है। 6. ते णं भंते ! जीवा०? अवसेसो सो चेव असरकुमारेस् उववज्जमाणस्स गभगो भाणियन्वो जाव भवाएसो त्ति; कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पृथ्वकोडी दहि वाससहस्सेहि अभहिया, उक्कोसेणं देसूणाई पंच पलिओवमाइं, एवतियं० जाव करेज्जा। [पढमो गमयो] / [6 प्र.] भगवन् ! बे जीव (नागकुमार) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के समान यहाँ भी भवादेश तक गमक कहना चाहिए / काल की अपेक्षा से-जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटिवर्ष और उत्कृष्ट देशोन पांच पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 5-6 प्रथम गमक] 7. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एसा चेव वत्तव्वया, नवरं नागकुमारदिति संवेहं च जाणेज्जा / [बीमो गमयो / [7] यदि वह जघन्यकाल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिये भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए। [सू. 7, द्वितीय गमक] Page #2375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौधोमवां शतक : उष्ट्शक ] [177 8. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उपधन्नो, तस्स बि एस चेव वत्तव्वया, नवरं ठिती जहन्नेणं देसूणाई दो पलिप्रोवमाई, उक्कोसेणं तिनि पलिश्रोवमाई। सेसं तं चेव जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं देसूणाई चत्तारि पलिनोवमाई, उक्कोसेणं देसूणाई पंच पलिग्रोवमाई, एवतियं कालं० / [तइओ गमओ]। [=] यदि वह उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य देशोन दो पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पत्योपम की होती है / शेष सब पूर्ववत् यावत् भवादेश तक / काल की अपेक्षा से जघन्य देशोन चार पल्योपम और उत्कृष्ट देशोन पांच पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 8, तृतीय गमक] ___E. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु जहेब असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स जहन्नकालाद्वतीयस्स तहेव निरवसेसं / [4-~6 गमगा] / [6] यदि वह स्वयं जघन्य काल को स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हुआ हो तो उसके भी तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले जघन्य काल की स्थिति के पसंख्यातवर्षायुष्क संज्ञी तिर्यञ्च के तीनों गमकों के समान समग्र कथन जानना जाहिए। [सू. 6, 4-5-6 गमक] 10. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीयो जानो, तस्स वि तहेव तिनि गमका जहा असुरफुमारेसु उववज्जमाणस्स, नवरं नागकुमारट्टिति संवेहं च जाणेज्जा। सेसं तं चेव जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स / [7-- गमगा] / [10] यदि वह स्वयं उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न हुआ हो, तो उसके भी तीनों गमक, असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्चयोनिक के तीनों गमकों के समान कहने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ नागकुमार की स्थिति और संवेध जानना चाहिए / शेष सब वर्णन असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्चयोनिक के समान जानना चाहिए। [सू. 10, 7-8-6 गमक] विवेचम-मागकुमारों की उत्पत्तिविषयक स्पष्टीकरण-(१) 'उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वालों में उत्पन्न होता है'; यह कथन उत्तरदिशा के नागकुमारनिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि उन्हीं में देशोन दो पल्योपम की उत्कृष्ट प्रायु होती है / (2) उत्कृष्ट संवेधपद में जो देशोन पांच पल्योपम कहे गए हैं, वे असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले तिर्यञ्च सम्बन्धी सीन पल्योपम और नागकुमार सम्बन्धी देशान दो पल्योपम, इस प्रकार देशोन पांच पल्योपम समझना चाहिए। (3) दूसरे गमक में नागकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की बताई है। संवेधकाल की अपेक्षा से-जघन्य सातिरेक पूर्वकोटि सहित दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तीन पल्योपम सहित दस हजार वर्ष समझना चाहिए। (4) तीसरे गमक में देशोन दो पल्योपम की स्थिति वालों में उत्पत्ति समझनी चाहिए / जघन्य देशोन दो पल्योपम की जो स्थिति कही है, वह अवसर्पिणीकाल के सुषमा नामक दूसरे आरे का कुछ भाग बीत जाने पर असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों की Page #2376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अपेक्षा से समझनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं में इतना अायुष्य हो सकता है और वे ही अपनी उत्कृष्ट आयु के समान देवायु का बन्ध करके उत्कृष्ट स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होते हैं। (5) तीन पल्योपम की जो स्थिति कही गई है, वह देवकुरु आदि के असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यञ्चों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / तीन पल्योपम की आयु वाले भी नागकुमारों में देशोन दो पल्योपम की आयु बांधते हैं, क्योंकि वे अपनी आयु के बराबर अथवा उससे कम आयु तो बांध लेते हैं, परन्तु अधिक देवायु नहीं बांधते / / नागकुमार में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उपपातादि बोस द्वारों की प्ररूपरणा 11. जदि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय० जाव किं पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, अपज्जत्तसंखे? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवासाउय०, नो अपज्जत्तसंखेज्जवासाउय० / जाव 11 प्र. भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यचों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [11 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से नहीं। 12. पज्जत्तसंखेज्जवासाउय० जाव जे भविए णागकुमारेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलितोवमाई। एवं जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स बत्तव्वया तहेव इह वि नवसु वि गमएसु, गवरं नागकुमारदिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तं चेव / [1-- गमगा] / [12 प्र.] भगवन् ! यदि पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? [12 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पत्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है; इत्यादि जिस प्रकार असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ नौ ही गमकों में कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना / [1-9 गमक] 1. (क) कहा है-दाहिण-'दिवड्ढपलियं दो देसूणुत्तरिल्लाणं' (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 823 (ग) भगवती. (हिन्दी विवेचन पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 3057 Page #2377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीसका शतक : उद्देशक ] [179 नागकुमार में उत्पन्न होनेवाले असंख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों में उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपया 13. जइ मणुस्सेहितो उववज्जंति कि सनिमणु०, प्रसिण्णमणु० ? गोयमा ! सनिमणु०, नो असन्निमणु० जहा असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स जाव-- [13 प्र.] भगवन् ! यदि वे (नागकुमार) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो वे संजी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, या असंज्ञी मनुष्यों से ? [13 उ.] गौतम ! वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंज्ञी मनुष्यों से नहीं इत्यादि जैसे असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य मनुष्यों की वक्तव्यता कही है, वैसे ही यहाँ कहनी चाहिए / यावत् 14. असंखेज्जवासाउयसनिमगुस्से णं भंते ! जे भविए नागकुमारेसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उववज्जइ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्स०, उक्कोसेणं देसूणदुपलिनोवमः / एवं जहेव असंखेज्जवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं नागकुमारेसु श्रादिल्ला तिम्णि गमका तहेव इमस्स वि, नवरं पढमबितिएसु गमएसु सरीरोगाहणा जहन्नेणं सातिरेगाई पंच धणुसयाई, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई, ततियगमे ओगाहणा जहन्नेणं देसूणाई दो गाउयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। सेसं तं चेव / [1-3 गमगा। [14 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो नागकुमारों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होता है ? / [14 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति वाले गकुमारों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार असंख्यात वर्ष की आय वाले तिर्यञ्चों का नागकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी प्रथम के तीन गमक जानने चाहिए। परन्तु पहले और दूसरे गमक में शरीर की अवगाहना जघन्य सातिरेक पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है। तीसरे गमक में अवगाहना जघन्य देशोन दो गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है। शेष सब पूर्ववत् / [गमक 1-2-3] 15. सो चेव अप्पणा जहनकालद्वितीयो जाओ, तस्स वि तिसु वि गमएसु जहा तस्स चेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स तहेब निरवसेसं / [4-6 गमगा] / [15] यदि वह स्वयं (नागकुमार), जघन्य काल की स्थिति वाला हो, तो उसके भी तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले संजी मनुष्य के समान समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए / [गमक 4-5-6] 16. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जानो तस्स तिसु वि गमएसु जहा तस्स चेव उक्कोसकाल द्वितीयस्स असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स, नवरं नागकुमारद्धिति संवेहं च जाणेज्जा। सेसं तं चेव / [7-6 गमगा] / [16] यदि वह (नागकुमार) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो उसके सम्बन्ध में भी तीनों गमकों में असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असंख्यातवर्षीय Page #2378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ब्याख्याप्रमाप्तिसून संशी मनुष्य के समान वक्तव्यता जाननी चाहिए / परन्तु विशेष मह है कि यहाँ नागकुमारों की स्थिति और संवेध जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना / [गमक 7-8-9] नागकुमार में उत्पन्न होनेवाले पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी-मनुष्य में उपपात प्रावि प्ररूपणा 17. जदि संखेज्जवासाउयसनिमणु० किं पज्जत्तासंखेज्ज०, अपज्जत्तासं० ? पोयमा ! पज्जत्तासंखे०, नो अपज्जत्तासंखे० / [17 प्र.] भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं तो पर्याप्त मा अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आते हैं ? [17 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त संख्यात वर्ष की भायु वाले संज्ञी मनुष्यों से माले हैं, पपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से नहीं। 18. पज्जत्तासंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से गं भंते ! जे भयिए नागकुमारेसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवति? पोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्त०, उक्कोसेणं देसूणदोपलिओवमट्टिती० / एवं जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स स च्चेव लखी निरवसेसा नवसु गमएसु, नवरं नागकुमारदिति संघेहं। भाणेज्जा / [1-6 गमगा] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥पउवोसतिमे सए : ततिओ उद्देसगो समसो // 24-3 // [18 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य नागकुमारों में उत्पन्न हो तो कितनी काल की स्थिति वालों में उत्पन्न होता है ? [18 उ.] गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की स्थिति के नागकुमारों में उत्पन्न होता है, इत्यादि असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य की वक्तव्यता के समान किन्तु स्थिति और संवेध नागकुमारों के समान जानना चाहिए। [१-६-गमक] 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतम स्वामी, यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--निष्कर्ष--(१) नागकुमार पर्याप्त संख्यात अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर नागकुमारों में उत्पन्न होते हैं। (2) वे जघन्य 10 हजार वर्ष और उत्कृष्ट कुछ न्यून दो पल्योपम की स्थिति वाले नागकुमारों में उत्पन्न होते हैं। (3) नागकुमारों में उत्पन्न होने सम्बन्धी नौ ही गमकों की वक्तव्यता प्रायः असुरकुमारों के समान है / जहाँ-जहाँ कुछ अन्तर है, वहाँ मूलपाठ में ही वह बता दिया गया है।' ॥चौवीसवां शतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भाग 2, (मूलपाठ-टिप्पण्युक्त) पृ. 128-929 (ख) भगवती० (हिन्दी विवेचन) भाग 6, पृ. 3061 Page #2379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थाइ-एगारस-पज्जंता सुवण्णकुमाराइ-थणियकुमार पज्जंता उद्देसगा चतुर्थ से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक : सुवर्णकुमार से स्तनितकुमार तक चौथे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक की समग्र वक्तव्यता : तृतीय नागकुमार-उद्देशकानुसार 1. प्रवसेसा सुवण्णकुमारादी नाव पणियकुमारा, एए पट्ट वि उद्देसगा जहेव नागकुमाराणं तहेव निरक्सेसा भाणियन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥चउवोसतिमे सए : चउत्थाइ-एगारसपज्जंता उद्देसगा समत्ता // 24-4-11 // [1] सुवर्णकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक अवशिष्ट पाठ भवनपति देवों के थे पाठ सद्देशक भी नागकुमारों के समान समग्र वक्तव्यता-युक्त कहने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है;' यों कह कर गौतमस्वामी बाबत् विचरते हैं। // चौवीसवां शतक : चार से ग्यारह उद्देशक तक सम्पूर्ण // Page #2380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो : पुढविकाइय उद्देसओ बारहवाँ उद्देशक : पृथ्वीकायिक (उपपातादि प्ररूपणा) गति की अपेक्षा से पृथ्वीकायिकों की उत्पत्तिप्ररूपणा 1. [1] पुढविकाइया गं भंते ! कमोहिओ उववज्जति? किं नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्ख-मणुस्स-देवेहितो उववज्जति ? गोयमा! नो नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्ख-मणुस्स-देवेहितो उववज्जति / [1-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? या तिर्यञ्चों, मनुष्यों या देवों से उत्पन्न होते हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! वे नैरयिकों से नहीं, किन्तु तिर्यञ्चों, मनुष्यों या देवों से उत्पन्न होते हैं / [2] जदि तिरिक्खजोणि किं एगिदियतिरिक्खजोणि०, ? एवं जहा वक्कंतीए उववातो जाव [1-2 प्र.] यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव) तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या एकेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1-2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के (छठे) व्युत्क्रान्ति पद में कहा गया है, तदनुसार यहाँ भी उपपात कहना चाहिए / यावत् [3] जदि बादरपुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति किं पज्जत्ताबायर० जाव उववज्जंति, अपज्जत्ताबादरपुढवि० ? गोयमा ! पज्जत्ताबायरपुढवि०, अपज्जत्ताबादरपुढवि जाव उववज्जति / 12-3 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव) बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक से? [1-3 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के बादर पृथ्वीकायिक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।) विवेचन-दो निष्कर्ष-(१) पृथ्वीकायिक जीव नारकों से नहीं पाते, वे तिर्यञ्चों, मनुष्यों या देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / (2) तिर्यञ्चयोनिकों में भी वे पर्याप्त और अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं।' 1. वियाहपण्यत्तिसुत्तं भा.२, (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 930 Page #2381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [183 प्रज्ञापनासूत्र का अतिदेश-प्रश्न 1-2 में प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्ति नामक छठे पद का अतिदेश किया गया है। वहाँ के पाठ का भावार्थ इस प्रकार है--(प्र.) 'भगवन् ! वे एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? (उ.) गौतम ! वे एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं।'' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले पृथ्वीकायिक संबंधी उत्पत्ति-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 2. पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [2 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति बाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है / 3. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जति / सेवदृसंघयणो, सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं / मसूराचंदासंठिया। चत्तारि लेस्सायो / नो सम्मट्टिी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो अन्नाणा नियम / नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णायो। चत्तारि कसाया। एगे फासिदिए पन्नते। तिणि समुग्धाया। वेपणा दुविहा / नो इस्थिवेयगा, नो पुरिसवेयगा, नपुसगवेयगा। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। अझवसाणा पसत्था वि, अपसत्था वि / अणुबंधो जहा ठिती। [3 प्र.] भगवन् ! बे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! वे प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात उत्पन्न होते हैं। वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। उनका संस्थान (आकार) मसूर की दाल जैसा होता है / उनमें चार लेश्याएँ होती हैं / सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि नहीं होते, मिथ्यादष्टि ही होते हैं / वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी ही होते हैं। उनमें दो अज्ञान (मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान) नियम से होते हैं / वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, काययोगी ही होते हैं। उनमें साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं। उनमें चारों संज्ञाएँ, चारों कषाय और एकमात्र स्पर्शेन्द्रिय होती हैं। उनमें प्रथम के तीन समुद्घात होते हैं, साता और असातादोनों वेदना होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, नपुंसकवेदी ही होते हैं। उनकी स्थिति --- - ------.'-" - - - 1. देखो-पण्णवणासुत्तं भा.१, छठा व्युत्क्रान्तिपद सू. 650, पृ. 174 (महा. वि. प्रकाशन) Page #2382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [व्याख्याप्राप्तिसूब जघन्य अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है / उनके अध्यवसाय प्रशस्त और अप्रशस्त, दोनों प्रकार के होते हैं / अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है / ___4. से णं भंते ! पुढविकाइए पुणरवि 'पुढविकाइए' त्ति केवतियं काल सेवेज्जा? केवतियं कालं गतिराति करेज्जा? __ गोयमा ! भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाई भवग्गहणाई। कालावेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं, एवतियं जाव करेज्जा। [पढमो गमओ] / [4 प्र.] भगवन् ! वह पृथ्वीकायिक मर कर पुनः पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न हो तो इस प्रकार कितने काल तक सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन करता रहता है ? [4 उ.] गौतम ! भव की अपेक्षा से---वह जघन्य दो भव एवं उत्कृष्ट असंख्यात भव ग्रहण करता है और काल की अपेक्षा से-वह जघन्य दो अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता रहता है। [मू. 2-3-4 प्रथम गमक] 5. सो चेव जहन्नकालढिलोएसु उववन्नो, जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तद्वितीएसु / एवं चेव वत्तवया निरवसेसा। [बीनो गमओ] / [5] यदि वह (पृथ्वी कायिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है / इस प्रकार समग्न वक्तव्यता जाननी चाहिए / [सू. 5 द्वितीय गमक 6. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववस्रो, जहन्नेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएस, उक्कोसेण वि बावीसवाससहस्सद्वितीएसु / सेसं चेव जाव अणुबंधो ति, णवरं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अटु भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं कालं जाव करेज्जा / [तइओ गमओ] / [6] यदि वह (पृथ्वीकायिक) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। शेष सब कथन यावत् अनुबन्ध तक पूर्वोक्त प्रकार से जानना / विशेष यह है कि वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है तथा काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तम हुर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार (176000) वर्ष इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [सू. 6, तृतीय गमक 7. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीओ जानो, सो चेव पढमिल्लयो गमत्रो भाणियम्यो, नवरं लेस्सायो तिन्नि; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं; अप्पसस्था प्रभवसाणा; अणुबंधो जहा ठिती / सेसं तं चेव / [चउत्थो गमो] / Page #2383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसयां शतक : उद्देशक 12] [185 [7] यदि वह (पृथ्वीकायिक) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो उसके सम्बन्ध में पूर्वोक्त प्रथम गमक के समान कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि उसमें लेश्याएँ तीन होती हैं। उसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है / उसका अध्यवसाय अप्रशस्त और अनुबन्ध स्थिति के समान होता है / शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। [सू. 7, चतुर्थ गमक 8. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, सच्चेव चतुत्थगमकवत्तव्वता भाणियब्वा / [पंचमो गमओ]। [8] यदि वह (जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पश्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो उसके सम्बन्ध में पूर्वोक्त चतुर्थ गमक के अनुसार वक्तव्यता कहनी चाहिए / [सू. 8, पंचम गमक] 6. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव क्त्तव्बता, नवरं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा जाव भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई चहि अंतोमुत्तेहिं अब्भहियाई, एवतियं० / [छट्ठो गमत्रो]। [6] यदि वह (जघन्य स्थिति बाला पृथ्वीकायिक) उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो, तो यही वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि वह जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं / यावत् भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा से..-जघन्य अन्तमहर्त अधिक बाईस हजार वर्ष, और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 88 हजार वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / सू. 6. छठा गमक] 10. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितोमो जातो, एवं तइयगमगसरिसो निरवसेसो भाणियम्वो, नवरं अप्पणा से ठितो जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई, उक्कोसेण वि बाबीसं वाससहस्साई। [सत्तमो गमत्रो] 1 [10] यदि वह (पृथ्वीकायिक) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में तृतीय गमक के समान समग्र गमक कहना चाहिए / विशेष यह है कि उसकी स्वयं की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है / [सू. 10, सप्तम गमक | 11. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / एवं जहा सत्तमगमगो जाव भवादेसो। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासोति वाससहस्साई चाहिं अंतोमुत्तेहि अमहियाई, एवतियं० / [अट्ठमो गमयो] / [11] यदि वह (उत्कृष्ट काल को स्थिति वाला पृथ्वीकायिक) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों Page #2384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में उत्पन्न होता है / इस प्रकार यहाँ सातवें गमक की वक्तव्यता यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए। काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 88 हजार वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [सू. 11, अष्टम गमक] 12. सो चेव उक्कोसकाल द्वितीएसु उववन्नो जहन्नेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेण वि बावीसवाससहस्सद्वितीएसु / एस चैव सत्तमगमकवत्तन्वया जाव भवादेसो ति। कालाएसेणं जहन्नेणं चोयालीसं वाससहस्साई, उक्कोसेणं छावत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० / [नवमो गमयो] / [12] यदि वही (उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पृथ्वीकायिक जीव) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न हो तो जघन्य और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पथ्वी. कायिकों में उत्पन्न होता है। यहाँ सप्तम गमक की समग्र वक्तव्यता यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए / काल की अपेक्षा से---जघन्य 44 हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख छिहत्तर हजार वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सू. 12, नौवाँ गमक] विवेचन-पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ स्पष्टीकरण-ततीय गमक में उत्पत्ति-परिमाण-तृतीय गमक में उत्कष्ट काल की स्थिति बाले पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति के विषय में जो यह कहा गया है कि वे एक, दो या तीन उत्पन्न होते हैं इसका आशय यह है कि प्रथम और द्वितीय गमक में उत्पन्न होने वाले बहुत होने से असंख्यात ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु तृतीय गमक में उत्कृष्ट स्थिति वाले एक आदि से लेकर असंख्यात तक उत्पन्न होते हैं / क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले कम होने से वे एक ग्रादि रूप में भी उत्पन्न हो सकते हैं।' तृतीय गमक के आठ भवों का स्पष्टीकरण-तृतीय गमक में पृथ्वीकायिकों के उत्कृष्ट 8 भव बताए गए हैं, उसका कारण यह है कि जिस संवेध में दोनों पक्षों में, अथवा दोनों पक्षों में से किसी एक पक्ष में, अर्थात्-उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक जीव की अथवा जिसमें उत्पन्न होता है, उन पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति उत्कृष्ट हो तो अधिक से अधिक पाठ भव की कायस्थिति होती है / इससे भिन्न (जघन्य और मध्यम स्थिति हो तो) असंख्यात भवों की कायस्थिति होती है / अतः यहाँ उत्पत्ति के विषयभूत (जिनमें उत्पन्न होता है, उन) जीवों की उत्कष्ट स्थिति होने से पाठ भव कहे गए हैं / इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेना चाहिए। एक भव की उत्कृष्ट स्थिति बाईस हजार वर्ष की होती है। इस दृष्टि से आठ भवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख छिहत्तर हजार (176000) वर्ष की होती है।' चौथे गमक में तीन लेश्याएँ : क्यों और कैसे ?- चौथे गमक में तीन लेश्याएँ कही गई हैं, इसका कारण यह है कि जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में जीव, देवों से च्यव कर उत्पन्न नहीं होता, अतः उसमें (जघन्यकाल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में) तेजोलेश्या नहीं होती। 1. भगवती. अ. दत्ति, पत्र 825 2. वही, पत्र 825 3. वही, पत्र 825 Page #2385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [187 छठे गमक में उत्कृष्ट काल कितना और क्यों ?- छठे गमक में चार अन्तर्महुर्त अधिक 88 हजार वर्ष काल कहा गया है, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले की चार-चार बार उत्पत्ति होती है। एक बार की उत्पत्ति का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल बाईस हजार वर्ष है, अत: चार बार उत्पत्ति होने में इतना काल होता है / नौवें गमक में जघन्य काल कितना और क्यों ?–नौवें गमक में जघन्य 44 हजार वर्ष कहे गए हैं। वह इस दृष्टि से कहा गया है कि बाईस हजार वर्ष रूप उत्कृष्ट स्थिति के दो भव करने से 44 हजार वर्ष होते हैं।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले अप्कायिकों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपरगा 13. जति पाउकाइयएंगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति किं सुहुमनाउ० बादराउ० एवं चउक्को भेदो भाणियव्वो जहा पुढविकाइयाणं / [13 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वह (पृथ्वीकायिक जीव) अप्कायिक-एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होता है, तो क्या सूक्ष्म अप्कायिक० से आकर उत्पन्न होता है, या बादर अप्कायिक से? [13 उ.] (गौतम ! ) पृथ्वीकायिक जीवों के समान यहाँ भी (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये) चार भेद कहने चाहिए। 14. प्राउकाइए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जिज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु / एवं पुढविकाइमगमगसरिसा नव गमगा भाणियव्वा / नवरं थिबुगाबिंदुसंठिते / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई / एवं अणुबंधो वि। एवं तिसु गमएसु / ठिती संवेहो तइय-छट्ठ-सत्तमऽट्ठम-नवमेसु गमएसु भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई सेसेसु च उसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई। तइयगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं / छठे गमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासोति वाससहस्साई चहि अंतोमुहुहि अब्भहियाई, एवतियं / सत्तमगमए कालाएसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं सोलसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० / अट्टमे गमए कालाएसेणं जहन्नेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं वाससहस्साई चहि अंतोमुहहि अन्भहियाई, एवतिय० / नवमे गमए भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं 6. भगवती. अ. वृति, पत्र 825 Page #2386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] | সিফাসিরুল अह भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं एकूणतीसं वाससहस्साई, उक्कोसेणं सोलसुसरं वाससयसहस्सं, एथतियं० / एवं नवसु वि गमएसु पाउकाइयठिई जाणियव्वा / [1-- गमगा] / 14 प्र.] भगवन् ! जो अप्कायिक जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होता है ? [14 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्त महूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होता है / इस प्रकार पृथ्वीकायिक के समान अकायिक के भी नौ गमक जानना चाहिए / विशेष यह है कि अप्कायिक का संस्थान स्तिबुक (-बुलबुले) के आकार का होता है / स्थिति और अनुबन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष है। इसी प्रकार तीनों गमकों में जानना चाहिए / तीसरे, छठे, सातवें, आठवें और नौवें गमक में संवेध-भव की अपेक्षा से जघन्य भव होते हैं। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / छठे गमक में काल की अपेक्षा से---जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 88 हजार वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / सातवें गमक मे काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तमहत अधिक सात हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। आठवें गमक में काल की अपेक्षा से -जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त अधिक सात हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 28 हजार वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है। नौवें गमक में भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है तथा काल की अपेक्षा से-जघन्य उनतीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख सोलह हजार वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / इस प्रकार नौ ही गमकों में अप्कायिक की स्थिति जाननी चाहिए। (गमक 1 से 9 तक) विवेचन-अकाय के भेद-सूक्ष्म और बादर अप्काय में से प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार प्रकार होते हैं। भवादेश से संवेध का कथन-भव की अपेक्षा से सभी गमकों में जघन्यतः दो भवग्रहण प्रसिद्ध है, किन्तु उत्कृष्ट में विशेषता है / यथा तीसरे, छठे, सातवें, आठवें और नौवें गमक में उत्कृष्टतः संवेध पाठ भवग्रहण करते हैं। शेष पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं; क्योंकि इन चार गमकों में किसी भी पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति नहीं है।' कालादेश से कथन-काल की अपेक्षा से-- तीसरे गमक में जघन्य 22,000 वर्ष कहे गए हैं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही है और अन्त हर्त्त जो अधिक कहा गया है, वह वहाँ पृथ्वीकायिक वाले अकायिक की जघन्यकाल-स्थिति की विवक्षा से कहा गया है। इसी गमक में कालापेक्षया उत्कृष्ट 1,16,000 वर्ष कहे गए हैं / यहाँ उत्कृष्ट स्थिति बाले पृथ्वीकायिकों के चार भवों के 88,000 वर्ष होते हैं, इसी प्रकार औधिक में उत्कृष्ट स्थिति वाले अप्कायिक जीवों के चार भवों के 28,000 वर्ष होते हैं। इन दोनों को मिलाने से कुल एक लाख सोलह हजार वर्ष होते हैं / 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 825 Page #2387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [189 छठे गमक में जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पत्ति बतलाई गई है। इसलिए दोनों के चार भवों के चार अन्तमहत अधिक 88,000 वर्ष होते हैं / सातवें और पाठवें गमक का संवेध भी इसी प्रकार जानना चाहिए। नौवें गमक में जघन्यतः पृथ्वीका यिक और अप्कायिक की उत्कृष्ट स्थिति मिलाने से 26,000 वर्ष होते हैं तथा उत्कृष्टत: पूर्वोक्त दृष्टि से एक लाख सोलह हजार वर्ष होते हैं / अन्य सब बातें मूलपाठ में स्पष्ट हैं।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले तेजस्कायिकों में उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 15. जति तेउक्काइएहितो उवव० ? ते उक्काइयाण वि एस चेव वत्तव्वया, नवरं नवसु वि गमएसु तिनि लेस्साप्रो / तेउकाइयाण सूयोकलावसंठिया / ठिती जाणियव्वा / तइयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति बाससहस्साई बारसहिं रातिदिएहिं अमहियाई, एवतियं० / एवं संबेहो उवजंजिऊण भाणियव्यो। [1-1 गमगा] / [15 प्र.] भगवन् ! यदि वह तेजस्कायिक (अग्निकायिक) से आकर उत्पन्न होता हो तो? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] तेजस्कायिकों के विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि नौ ही गमकों में तीन लेण्याएँ होती हैं। तेजस्काय का संस्थान सचीकलाप (सइयों के देर के समान होता है। इसकी स्थिति (तीन अहोरात्र की जाननी चाहिए। तीसरे गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बारह अहोरात्र अधिक 88,000 वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / इसी प्रकार संवेध भी उपयोग (ध्यान) रख कर कहना चाहिए / [गमक 1 से 9 तक ] विवेचन-कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) तीन लेश्याएँ क्यों?-अप्काय में देवों की उत्पत्ति होती है, इसलिए चार लेश्याएँ कही गई हैं, जबकि तेजस्काय में देवों की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए इसके नौ ही ममकों में तीन लेश्याएँ कही गई हैं। (2) स्थिति -तेजस्काय की स्थिति जघन्य अन्तर्महत की और उत्कष्ट तीन अहोरात्र की है। (3) तृतीय गमक में तेजर उत्पत्ति--उत्कष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में इसकी उत्पत्ति होती है, तब एक पक्ष उत्कष्ट स्थिति वाला होने से पृथ्वीकायिक के चार भवों को उत्कृष्ट स्थिति 88,000 वर्ष की होती है तथा तेजस्काय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह अहोरात्र होती है / (4) संवेध-छठे से नौवें गमक तक में भव की अपेक्षा से—आठ भव होते हैं और काल को अपेक्षा उपयोगपूर्वक कहना चाहिए / शेष गमकों में उत्कृष्ट असंख्यात भव होते हैं और काल भी असंख्यात होता है / - --- - 1. भगवतो. प्र. वृत्ति, पत्र 826 2. वही, पत्र 826 Page #2388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1901 [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले वायुकायिकों में उपपाल-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 16. जति काउकाइएहितो. ? बाउकाइयाण वि एवं चेव नव गमगा जहेव तेउकाइयाणं, नवरं पडागासंठिया पन्नत्ता, संवेहो बाससहस्सेहिं कायव्वो, तइयगमए कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं एमं वाससयसहस्सं, एवतियं० / एवं संवेहो उवजुजिऊण भाणियन्वो / [1- गमगा / [16 प्र. (भगवन् ! ) यदि वे वायुकायिकों से आकर उत्पन्न हों तो ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] दायुकायिकों के विषय में तेजस्कायिकों की तरह नौ ही गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि वायुकाय का संस्थान पताका के आकार का होता है। संवेध हजारों वर्षो से कहना चाहिए। तीसरे गमक में काल को अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध कहना चाहिए / | गमक 1 से 6 तक) विवेचन--कुछ स्पष्टीकरण-(१) वायुकायिक जीवों का संवेध-हजारों से कहना चाहिए, इस कथन का प्राशय यह है कि तेजस्काय के अधिकार में तीन अहोरात्र से संवेध किया गया था, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र की होती है, जबकि वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन हजार वर्ष की होती है, इसलिए इनका संवेध तीन हजार वर्षों से कहना चाहिए। (2) तीसरे गमक में उत्कृष्ट पाठ भव बताए हैं, उनमें से पृथ्वीकायिक के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88000 वर्ष की होती है और वायुकायिक जीवों के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 12000 वर्ष की होती है। इन दोनों को मिलाने से संवेध एक लाख वर्ष का होता है। इस प्रकार जहाँ उत्कृष्ट स्थिति का गमक हो, वहाँ उत्कृष्ट पाठ भव और तदनुसार काल कहना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरे गमकों में असंख्यात भव और तदनुसार असंख्यात काल कहना चाहिए।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले बनस्पतिकायिकों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 17. जति वणस्सतिकाइएहितो०? वणस्सइकाइयाणं पाउकाइयगमगसरिसा नव गमगा भाणियब्वा, नवरं नाणासंठिया। सरोरोगाहणा पत्रता-पढमएस पच्छिल्लएसु य तिसु गमएस जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, मझिल्लएसु तिसु तहेव जहा पुढविकाइयाई / संवेहो ठिती य जाणितव्वा / ततिए गमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसुत्तरं वाससयसहस्सं, एवतियं० / एवं संवेहो उवजुजिऊण भाणियच्चो / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 826 Page #2389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [191 [17 प्र.] भगवन् ! यदि वे वनस्पतिकायिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो ? इत्यादि प्रश्न / [17 उ.] अप्कायिकों के गमकों के समान वनस्पतिकायिकों के नौ गमक कहने चाहिए / वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनेक प्रकार का होता है। उनके शरीर की अवगाहना इस प्रकार कही गई है-प्रथम के तीन गमकों और अन्तिम तीन गमकों में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के तीन गमकों में अवगाहना पृथ्वीकायिकों के समान समझनी चाहिए / इसकी संवेध और स्थिति (जो भिन्न है) जान लेनी चाहिए। तृतीय गमक में काल की अपेक्षा से---जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष, उत्कृष्ट एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार उपयोगपूर्वक संवेध भी कहना चाहिए। विवेचन-वनस्पतिकायिकों के नौ गमकों का स्पष्टीकरण--(१) बनस्पतिकायिक के नौ गमकों के लिए अप्कायिक-गमकों का प्रतिदेश किया गया है। (2) विशेषताएँ इस प्रकार हैं-वनस्पतिकाय का संस्थान नाना प्रकार का है। वनस्पतिकाय के प्रथम तीन औधिक गमकों में और अन्तिम तीन (7-8-6) गमकों में अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की होती है। जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सातिरेक एक हजार योजन की होती है। बीच के (4-5-6) तीन गमकों में जघन्य और उत्कष्ट अवगाहना अंगल के असंख्यतावें भाग की होती है। व नस्पतिकाय की स्थिति जघन्य अन्तर्म हर्त्त की और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की होती है। इसके अनुसार संवेध भी जानना चाहिए। किसी भी पक्ष में उत्कृष्ट स्थिति के गमकों में उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। उनमें से पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88,000 वर्ष होती है और बनस्पतिकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 40,000 वर्ष होती है। दोनों को मिलाने से एक लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का संवेधकाल होता है।' पृथ्वोकायिकों में उत्पन्न होनेवाले द्वीन्द्रिय जीवों में उपपातादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 18. जवि बेइंदिएहितोउववज्जति कि पज्जत्तबेइंदिरहितो उववज्जंति, अपज्जत्तबेइंदिएहितो ? गोयमा ! पज्जत्तबेइंदिरहितो उवव०, अपज्जत्तबेइंदिरहितो वि उववज्जति / [18 प्र.] भगवन् ! यदि वे द्वीन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न हों तो क्या पर्याप्त द्वीन्द्रियजीवों से पाकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों से ? [18 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी तथा अपर्याप्त द्वीन्द्रियों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं। 16. बेइंदिए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु। [19 प्र.] भगवन् ! जो द्वीन्द्रिय जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? 1. भगवती. भ. वृत्ति, पण 826 Page #2390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [19 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्त महूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं। 20. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। सेवसंघयणी। ओगाणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। हुंडसंठिता। तिनि लेसाओ। सम्मट्ठिी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो णाणा, दो अन्नाणा नियमं / नो मणजोगी, वइजोगी वि, कायजोगी वि / उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णायो। चत्तारि कसाया। दो इंदिया पन्नत्ता, तं जहा—जिभिदिए य फासिदिए य। तिन्नि समुग्धाया। सेसं जहा पुढविकाइयाणं, नवरं ठितो जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं। एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, एवतियं० / [पढमो गमओ] / [20 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] गौतम ! वे (एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात याअसंख्यात उत्पन्न होते हैं / वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। उनकी अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यातव भाग को और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है। उनका संस्थान हुंडक होता है। उनमें लेश्याएँ तीन और दृष्टियाँ दो--सम्यग्दष्टि और मिथ्यादष्टि होती है। सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होती। उनमें दो ज्ञान या दो अज्ञान अवश्य होते हैं। वे मनोयोगी नहीं होते, बचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें दो उपयोग, चार संज्ञाएँ और चार कषाय होते हैं। उनके जिहन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। उनमें तीन समुद्घात होते हैं। शेष सभी बातें पृथ्वीकायिकों के समान जाननी चाहिए ! विशेष- उनकी स्थिति जघन्य अन्तमहर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। शेष सब पूर्ववत् समझना। भव की अपेक्षा से-वे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट संख्यात भव ग्रहण करते हैं। काल की अपेक्षा से- वे जघन्य दो अन्तमहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / [प्रथम गमक] 21. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तब्वया सव्वा / [बीओ गमओ] / [21] यदि वह (द्वीन्द्रिय) जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो पूर्वोक्त सभी वक्तव्यता समझनी चाहिए। [द्वितीय गमक 22. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव बेंदियस्स लद्धी, नवरं भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवरमहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहि अमहियाई, एवतियं० / [तइओ गमओ] / Page #2391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्दशक 12] [193 [22] यदि वह (द्वीन्द्रिय), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो भी पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस हजार वर्ष और उत्कृष्ट 48 वर्ष अधिक 88,000 वर्ष तक यावत् गमनागमन करता है / तृतीय गमक] 23. सो चेव अप्पणा जहन्नकालट्रितीओ जाओ, तस्स वि एस चेव वत्तव्वता तिसु वि गमएस, नवरं इमाइं सत्त नाणत्ताई सरीरोगाहणा जहा पुढविकाइयाणं; नो सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्टी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी; दो अन्नाणा णियमं; नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं; अज्झवसाणा अप्पसत्था; अणुबंधो जहा ठिती / संवेहो तहेव आदिल्लेसु दोसु गमएसु, ततियगमए भवादेसो तहेव अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साइं अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई चहि अंतोमुत्तेहि अहियाई / [4-6 गमगा] / [23] यदि वह (द्वीन्द्रिय) स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यहाँ सात नानात्व (भेद) हैं। यथा-(१) शरीर की अवगाहना पृथ्वीकायिकों के समान (अंगुल के असंख्यातवाँ भाग) है, (2) वह सम्यग्दष्टि और सम्यगमिथ्यादष्टि नहीं होता, किन्त मिथ्यादष्टि होता है, (3) इसमें दो अज्ञान नियम से होते हैं, (4) वह मनोयोगी और वचनयोगी नहीं किन्तु काययोगी होता है, (5) उसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहुर्त की होती है, (6) उसके अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और (7) अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। दूसरे त्रिक के पहले के दो गमकों (चौथे और पांचवें गमक) में संवेध भी इसी प्रकार समझना चाहिए। (दूसरे त्रिक के तृतीय गमक) छठे गमक में भवादेश भी उसी प्रकार पाठ भव जानने चाहिए / कालादेश-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 88,000 वर्ष तक यावत् गमागमन करता है / [गमक 4-5-6] 24. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जानो, एयस्स वि ओहियगमगसरिसा तिग्नि गमगा भाणियव्वा, नवरं तिसु वि गमएसु ठिती जहन्नेणं बारस संबच्छराई, उक्कोसेण वि बारस संवच्छराई। एवं अणुबंधो वि। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेणं उवयुज्जिऊण भाणियव्वं जाव नवने गमए जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई बारसहि संबच्छरेहि अब्भहियाइं, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालोसाए संबच्छरेहि अब्भहियाई, एवतिय० / [७–गमगा] / [24] यदि वह (द्वीन्द्रिय जीव), स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो उसके भी तीनों गमक (7-8-6) औधिक गमकों (1-2-3) के समान कहने चाहिए / विशेष यह है कि इन (अन्तिम) तीनों गमकों में स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए / भव की अपेक्षा से-जधन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है / काल की अपेक्षा से-विचार करके संवेध कहना चाहिए, यावत् नौवें गमक में जघन्य Page #2392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बारह वर्ष अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट 48 वर्ष अधिक 88,000 वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [गमक 7-8-9] विवेचन-द्वीन्द्रिय में उत्पत्ति-सम्बन्धी नौ गमकों के विषय में स्पष्टीकरण-(१) अव. गाहना-द्वीन्द्रियों की उत्कृष्ट अवगाहना जो बारह योजन की बताई गई है, वह शंख आदि की अपेक्षा से समझनी चाहिए / कहा गया है-'संखो पुण बारस जोयणाई।' (2) सम्यग्दृष्टित्व-औधिक द्वीन्द्रिय का औधिक पृथ्वीकायिकों में उत्पत्तिरूप प्रथम गमक में जो सम्यग्दृष्टित्व कहा गया है, वह सास्वादन-सम्यक्त्व की अपेक्षा से समझना चाहिए। (3) भवादेश और कालादेश---द्वीन्द्रिय सम्बन्धी तृतीय गमक में भवादेश से उत्कृष्ट 8 भव बतलाए हैं, क्योंकि यहाँ एक पक्ष उत्कृष्ट स्थिति वाला है। कालादेश से द्वीन्द्रिय के चार भवों को उत्कृष्ट स्थिति 48 वर्ष होती है और पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88,000 वर्ष होती है। दोनों मिलाकर 48 वर्ष अधिक 88,000 वर्ष बताए गए हैं। (4) द्वीन्द्रिय के मध्यमत्रिक में सात बातों का अन्तर–प्रथम त्रिक (तीनों गमक) में उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन बताई गई थी, किन्तु यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग बताई गई है / प्रथम के तीन गमकों में सम्यग्दृष्टि बताया गया है, किन्तु इन (मध्यम के) तीन गमकों में सम्यग्दृष्टित्व का अभाव है, क्योंकि जघन्य स्थिति होने से इनमें सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इनमें दो अज्ञान ही पाये जाते हैं, ज्ञान नहीं। योगद्वार में जघन्य स्थिति होने के कारण अपर्याप्तक होने से इनमें वचनयोग नहीं पाया जाता। इनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। जबकि पहले 12 वर्ष की बतलाई थी। अल्प स्थिति होने से अध्यवसाय भी अप्रशस्त होते हैं / सातवाँ नानात्व अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है।' (5) संवेध-चौथे और पांचवें गमक में भवादेश से उत्कृष्ट संख्यात भव होते हैं और कालादेश से संख्यातकाल होता है। छठे गमक का संवेध भवादेश से आठ भव तथा कालादेश से अन्तर्मुहूर्त अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक 88,000 होता है। सातवें गमक का संवेध भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव / कालादेश से 88 वर्ष प्रधिक 88,000 वर्ष / पाठवें गमक में चार अन्तर्मुहुर्त अधिक 48 वर्ष / नौवें गमक का संवेध 12 वर्ष अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट 48 वर्ष अधिक 88,000 वर्ष का होता है। अत इस प्रकार सर्वत्र उपयोग पूर्वक जघन्य और उत्कृष्ट संवेध कहना चाहिए / पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले त्रीन्द्रिय में उपपात-परिमाण आदि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 25. जति तेइंदिएहितो उववज्जइ० ? एवं चैव नव गमका भाणियन्वा / नवरं प्रादिल्लेसु तिसु वि गमएसु सरीरोगाहणा जहन्नेण 1. भगवती. म. वृत्ति, पत्र 829 2. वही, पन 829 Page #2393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चीवीसवां शतक : उद्देशक 12 अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई / तिनि इंदियाई / ठिती जहन्नेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं एकूणपण्णं रातिदियाई / ततियगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासोति वाससहस्साई छग्णउयरातिदियसतमभहियाई, एवतियं / मज्झिमा तिनि गमगा तहेव / पच्छिमा वि तिग्णि गमगा तहेव, नवरं ठिती जहन्नेणं एकूणपण्णं राइंदियाई, उक्कोसेण वि एकूणपण्णं राइंदियाई। संवेहो उवजुजिऊण भाणितब्बो। [1-6 गमगा। [25 प्र.] यदि वह पृथ्वीकायिक त्रीन्द्रिय जीवों से प्राकर उत्पन्न होता हो, तो ? इत्यादि प्रश्न / [25 उ. | यहाँ भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) नौ गमक कहना चाहिए। प्रथम के तीन गमकों में शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है। इनके तीन इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट 46 अहोरात्र की होती है। तृतीय गमक में काल की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट 166 अहोरात्र अधिक 88,000 वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / बीच के तीन (4-5-6) गमकों का कथन उसी प्रकार (पूर्वोक्त द्वीन्द्रिय के समान) जानना चाहिए। अन्तिम तीन (7-8-9) ममकों की वक्तव्यता भी पूर्ववत् जानना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट 46 रात्रि-दिवस की होती है / इनका संवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। [गमक 1 से 6 तक] / विवेचन--त्रीन्द्रिय-उत्पत्ति-सम्बन्धी नौ गमकों में विशेषता का स्पष्टीकरण-(१) श्रीन्द्रिय के तृतीय गमक में उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। उनमें से त्रीन्द्रिय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 166 अहोरात्र और पृथ्वीकाय के चार भवों की उत्कृष्ट स्थिति 88 हजार वर्ष होती है। दोनों को मिलाने से कुल 196 रात्रि-दिवस अधिक 88 हजार वर्ष होते हैं / (2) चौथे, पांचवें और छठे गमक की तथा सातवें, पाठवें, और नौवें गमक की वक्तव्यता द्वीन्द्रिय के समान है। परन्तु सातवें, आठवें और नौवें गमक का संवेध-भवादेश से प्रत्येक के 8 भव तथा कालादेश से सातवें और नौवें गमक में उत्कृष्ट 196 रात्रि-दिन अधिक 88 हजार वर्ष होते हैं। आठवें गमक में चार अन्तर्मुहर्त अधिक 196 रात्रि-दिवस होते हैं। शेष विषय मूलपाठ से ही स्पष्ट हैं।' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले चतुरिन्द्रिय जीवों के उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 26. जति चरिदिएहितो उबव० ? एवं चेव चरिदियाण वि नव गमगा भाणियब्वा, नवरं एएसु चेव ठाणेसु नाणता भाणितम्वा सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा। एवं अणुबंधो वि। चत्तारि इंदिया। सेसं तहेव जाव 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 829 Page #2394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र नवमगमए कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई छहि मासेहि अहियाई, उधकोसेणं अट्ठासीति बाससहस्साई चउवीसाए मासेहिं अमहियाई, एवतिय० / [1-6 गमगा] / _ [26 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे पृथ्वीकायिक जीव चतुरिन्द्रिय जीवों से आकर उत्पन्न हों, तो? इत्यादि प्रश्न / 26 उ.] चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार / पूर्वोक्त त्रीन्द्रिय के समान) नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इन (कुछ) स्थानों में नानात्व कहना चाहिए-इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट चार गाऊ की होती है / इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट छह माह की होती है। अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है / इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य छह मास अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चौवीस मास अधिक 88,000 वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [ गमक 1 से 8 तक] विवेचन–चतुरिन्द्रिय-उत्पत्तिविषयक विशेषता चतुरिन्द्रिय के नौ ही गमकों का कथन त्रीन्द्रिय के समान है। किन्तु संवेध में कुछ विशेषता है, वह मूल पाठ में स्पष्ट कर दी गई है / जिसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है, उसे स्वयं उपयोग लगाकर यथायोग्य जान लेनी चाहिए।' पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्तिनिरूपण 27. जइ पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति असन्निपंचेंदियतिरिक्खजो० ? गोयमा ! सन्निपंचेंदिय०, असन्निपंचेंदिय० / [27 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (पृथ्वीकायिक) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से ? [27 उ.] गौतम ! वे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं और असंही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / 28. जई असण्णिपंचिदिय० कि जलचरेहितो उवव० जाव कि पज्जत्तएहितो उववज्जंति अपज्जत्तएहितो उव.? गोयमा ! पज्जत्तरहितो वि उवव०, अपज्जत्तएहितो वि उववज्जति / [28 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे जल चरों से उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् क्या पर्याप्तकों से या अपर्याप्तकों से ? [28 उ.] गौतम ! वे यावत् सभी के पर्याप्तकों से भी प्राते हैं और अपर्याप्तकों से भी। 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 829 Page #2395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवा शतक : उद्देशक 12] 1197 विवेचन—निष्कर्ष -- पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से तथा उनमें भी जलचरादि पाँचों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से पाकर उत्पन्न होते हैं / ' पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक के उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 26. असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त० उक्कोसेणं बावीसवाससह / [26 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [26 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्महुर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। 30. ते णं भंते ! जीवा०? एवं जहेव बेइंदियस्स प्रोहियगमए लद्धी तहेव, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जति०, उक्कोसेणं जोधणसहस्सं / पंच इंदिया। ठिती अणुवंधो जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी / सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवरगहणाई / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीओ अट्टासोतीए वाससहस्सेहि प्रभहियायो, एवतियं० / नवसु वि गमएसु कायसंवेहो भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। कालाएसेगं उवजुज्जिऊण भाणितन्वं, नवरं मज्झिमएसु तिसु गमएसु-जहेव बेइंदियस्स मझिल्लएसु तिसु गमएसु। पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहा एयस्स चेव पढमगमए, नवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुन्चकोडी। सेसं तहेव जाव नवमगमए जहन्नेणं पुवकोडी बावीसाए वाससहस्सेहिं अभहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडोप्रो अट्ठासीतीए वाससहस्सेहिं अन्भहियानो, एवतियं कालं से विज्जा० / [१-गमगा] / [30 प्र.] भगवन् ! वे जीव (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / |30 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय के औधिक गमक में जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष का है। शेष सब पूर्वोक्तानुसार जानना / भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। काल की अपेक्षा से जघन्य दो अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट 88 हजार वर्ष अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 9. वियाहपण्यत्तिसुतं, भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 936 . Page #2396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 [व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र नो ही गमकों में कायसंवेध-भव को अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं / काल की अपेक्षा से कायसंवेध उपयोगपूर्वक कहना चाहिए। विशेष यह है कि तीनों (चौथेपाँच-छठे) गमकों में द्वीन्द्रिय के मध्य के तीनों गमकों के समान कहना चाहिए। पिछले तीन गमकों (सातवें-पाठवें-नौवें) का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान समझना चाहिए। यह स्थिति। अनुबन्ध जघन्य तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि समझना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना, यावत्-नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि-अधिक 22,000 वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि-अधिक 88,000 वर्ष; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [गमक 1 से 1 तक] विवेचन-निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों की स्थिति तथा नौ ही गमकों में जो विशेष अन्तर है, वह मूलपाठ में अंकित है। इसलिए स्पष्टीकरण की यावश्यकता नहीं है।' पृथ्वीकाय में उत्पन्न होनेवाले संज्ञो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उपपात-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 31. जदि सन्निपंचेवियतिरिक्खजोगिए कि संखेज्जवासाउय०, असंखेज्जवासाउय० ? गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय० / [31 प्र. भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक), संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यातवर्ष की आयुवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पं. ति. से ? 131 उ.] गौतम ! वे संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से नहीं / 32. जदि संखेज्जवासाउय० कि जलचरेहितो० ? सेसं जहा असण्णीणं जाव-- / 32 प्र.] यदि वे पृथ्वीकायिक संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 132 उ. यहाँ समग्र बक्तव्यता असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च योनिकों के समान जाननी चाहिए। यावत्-- 33. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उबवज्जति ? एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमासस्स सन्निस्स तहेव इह वि, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। सेसं तहेव जाव कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडोयो अटासोतीए वाससहस्सेहि अभहियाओ, एवतियं० / एवं संवेहो णवसु वि गमएसु जहा असण्णोणं तहेव निरवसेसं / लद्धी से प्रादिल्लएसु तिसु वि गमएसु 1. बियाहपण्णत्तिसुत्त, भा. 2 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 936-937 Page #2397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवोसवां शतक : उद्देशक 12]] [199 एस चेव, मझिल्लएस वि तिसु गमएस एस चैव / नवरं इमाई नव नाणत्ताई-प्रोगाहणा जहानेणं अंगुलस्स असंखेज्जति०, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जति। तिनि लेस्साओ, मिच्छादिट्ठी, दो अन्नाणा, कायजोगी, तिन्नि समुग्घाया; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं; अप्पसत्या अज्झवसाणा, अणुबंधो जहा ठिती। सेसं तं चैव / पच्छिल्लएस तिस गमएसु जहेव पढमगमए, नवरं ठितो अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुन्बकोडी / सेसं तं चैव / [1-- 6 गमगा]। [33 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ; इत्यादि प्रश्न / [33 उ.] (गौतम ! ) जंसी रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की वक्तव्यता कही है, वैसी यहाँ भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट हजार योजन की होती है / शेष सब उसी प्रकार जानना चाहिए / यावत् कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट 88 हजार वर्ष अधिक चार पूर्व कोटि, इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं। इसी प्रकार नौ ही गमकों में संवेध भी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च की तरह कहना चाहिए / प्रथम के तीन (1-2-3) गमकों और मध्य के तीन (4-5-6) गमकों में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिए ! परन्तु मध्य के तीन (4-5.6) गमकों में नौ नानात्व हैं / यथा-(१) शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल का असंख्यातवाँ भाग होती है / (2) लेश्याएँ तीन होती हैं। (3) वे मिथ्यादृष्टि होते हैं / (4) उनमें दो अज्ञान होते हैं / (5) काययोगी होते हैं। (6) तीन समुद्घात होते हैं / (7) स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होती है / (8) अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं और (9) अनुबन्ध भी स्थिति के अनुसार होता है। शेष सब पूर्वोक्त कथनानुसार कहना चाहिए / अन्तिम तीन (7-8-9) गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है। शेष सब पूर्ववत् / विवेचन निष्कर्ष--पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पर्वकोटि की होती है। इनके प्रथम तीन गमकों का कथन रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के प्रथम, द्वितीय और तृतीय गमक के समान ही है / चौथे, पांचवें और छठे गमक का कथन भी इसी प्रकार है / किन्तु नौ विषयों में अन्तर है, जो मूलपाठ में बनाया गया है। अन्तिम तीन गमकों का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि का होता है।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी-संज्ञो-संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्तक-अपर्याप्तक मनुष्यों के उत्पादादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 34. जदि मणुस्सेहितो उववज्जति कि सन्निमणुस्सेहितो उवव०, असनिमणुस्सेहितो० ? गोयमा ! सनिमणुस्सेहितो०, असण्णिमणुस्सेहितो वि उववति / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 829 Page #2398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [34 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (पृथ्वी कायिक) मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञो मनुष्यों से ? [34 उ.] गौतम ! वे संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होते हैं। 35. असग्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएस० से णं भंते ! केवतिकाल.? एवं जहा असन्निपंचेदियतिरिक्खस्स जहन्नकाल द्वितीयस्स तिन्नि गमगा तहा एतरस वि प्रोहिया तिनि गमगा भाणियध्वा तहेव निरवसेसं / सेसा छ न भण्णंति / [1-3 गमगा] / [34 प्र.] भगवन् ! यदि असंज्ञी मनुष्य, जो पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने योग्य है, कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [35 उ.] जिस प्रकार जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक के विषय में तीन गमक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी औधिक तीन गमक सम्पूर्ण कहने चाहिए। शेष गमक नहीं कहने चाहिए। [गमक 1 से 3 तक 36. जइ सन्निमणुस्से हितो उववज्जति कि संखेज्जवासाउय०, असंखेज्जवासाउय० ? गोयमा! संखेज्जवासाउय०, णो असंखेज्जवासाउय० / [36 प्र.] यदि वे (पृथ्वीकायिक) संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की आयु वाले संजी मनुष्यों से ? [36 उ.] गौतम ! वे संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, प्रसंख्यात वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। 37. जदि संखेज्जवासाउय० कि पज्जत्त०, अपज्जत्त० ? गोयमा ! पज्जत्तसंखे०, अपज्जत्तसंखेज्जवासा / | 37 प्र. भगवन् ! यदि वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से ? 37 उ.] गौतम ! वे पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होते हैं। 38. सन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उवव०, से णं भंते ! केवितकाल० ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्वितीएसु। . [38 प्र.] भगवन् ! संख्येयवर्षायुष्क पर्याप्त संज्ञी मनुष्य जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [38 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है। Page #2399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 12] [201 39. ते णं भंते ! जीवा० ? एवं जहेव रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स तहेव तिसु वि गमएसु लद्धी / नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जइभागं, उक्कोसेणं पंच धणुसताई; ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। एवं अणुबंधो। संवेहो नवसु गमएस जहेव सन्निपंचेंदियस्स / मन्भिल्लएस तिसु गमएस लद्धी-जहेव सन्निपंचेंदियस्स मज्झिल्लएस तिस / सेसं तं चेव निरवसेसं / पच्छिल्ला तिनि गमगा जहा एयस्स चेव ओहिया गमगा, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं पंच घणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई; ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी। सेसं तहेव, नवरं पच्छिल्लएसु गमएसु संखेज्जा उववजंति, नो असंखेज्जा उवव० / [1-6 गमगा] / [39 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [36 उ.] गौतम ! रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य मनुष्य की जो वक्तव्यता पहले कही है, वही यहाँ तीनों गमकों में कहनी चाहिए। विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है; स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना चाहिए / संवेध-जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च का कहा है, वैसे ही यहाँ नौ ही गमकों में कहना चाहिए / बीच के तीन गमकों (4-5-6) में संज्ञी पंचेन्द्रिय के मध्यम तीन गमकों की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए / शेष सब पूर्वोक्त प्रकार से जानना / पिछले तीन गमकों (7-8.6) का कथन इसी के प्रथम तीन औधिक गमकों के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है; स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के होते हैं। शेष सब पूर्ववत् / विशेषता यह है कि पिछले तीन गमकों (7-8-9) में संख्यात ही उत्पन्न होते हैं, असंख्यात नहीं। [ गमक 1 से ह तक ] विवेचन-मनुष्यों को पध्वीकायिकादि में उत्पत्ति प्रादि से सम्बद्ध गमकों में विशेषता(१) निष्कर्ष—पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी और असंज्ञी, संख्यात वर्ष की आयु वाले, पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। (2) कितने काल की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न का समाधान यह है कि जिस प्रकार जघन्य काल की स्थिति वाले असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के विषय में तीन गमक कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ असंज्ञी मनुष्यों के भी आदि के औधिक तीनों समग्र गमक समझने चाहिए / शेष छह गमक सम्मूच्छिम (असंज्ञी) मनुष्यों में सम्भव नहीं हैं, इसलिए यहाँ शेष छह गमकों का निषेध किया गया है / (3) संज्ञी मनुष्यों के नौ गमकों में विशेष ज्ञातव्य-जिस प्रकार रत्नप्रभा में उत्पन्न होने योग्य संजी मनुष्य के गमक कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने योग्य संज्ञी मनुष्य के छह गमकों (प्रथम, द्वितीय, तृतीय और सप्तम, अष्टम और नवम गमक) का कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्य की अवगाहना जघन्य अंगूल-पृथक्त्व की और स्थिति जघन्य मास-पृथक्त्व कही थी, किन्तु यहाँ अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त की है / संवेध .....नौ गमकों में पृथ्वी कायिकों में आकर उत्पन्न होने वाले संज्ञी. पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के समान है, क्योंकि पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्च की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि Page #2400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की होती है / मध्य के तीन गमकों का कथन संज्ञी-पंचेन्द्रिय के मध्य के तीनों गमकों के समान है। प्रथम के तीन सौधिक गमकों में जो अवगाहना और स्थिति कही गई है वह अन्तिम तीन गमकों में नहीं होती, किन्तु इनमें अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की और स्थिति तथा अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के हैं।' देवों से पाकर पृथ्वीकायिकों में उत्पाद-निरूपण 40. जति देवेहितो उववज्जति किं भवणवासिदेवेहितो उबवति, वाणमंतर०, जोतिसियदेवेहितो उवव०, वेमाणियदेवेहितो उववज्जति ? ___ गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति जाव वेमाणियदेवेहितो वि उववज्जति / 40 प्र. भगवन् ! यदि बे (पृथ्वीकायिक) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? 40 उ.] गौतम ! वे भवनवासी देवों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं, यावत् वैमानिक देवों से भी पाकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक जीवों में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, चारों निकायों के देव उत्पन्न हो सकते हैं / भवनवासी देवों की अपेक्षा पृथ्वीकायिकों में उत्पत्ति-निरूपण 41. जइ भवणवासिदेवेहितो उववन्जंति किं असुरकुमारभवणवासिदेवेहितो उधवज्जति जाव थणियकुमारभवणवासिदेवेहितो० ? गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति जाव थाणियकुमारभवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति / [41 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव) भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे असुरकुमार-भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् स्तनितकुमारभवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? {41 उ.] गौतम ! वे असुरकुमार-भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन--निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक जीव दसों प्रकार के भवनपति देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / दस प्रकार के भवनपति देवों के नाम इस प्रकार हैं--(१) असुरकुमार, (2) नागकुमार, 1. (क) वियाह्पणत्तिसुत्तं, भाग 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 938-139 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 832 Page #2401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 12] [203 (3) सुपर्णकुमार, (4) विद्युत् कुमार, (5) अग्निकुमार, (6) वायुकुमार, (7) उदधिकुमार, (8) द्वीपकुमार, (9) दिक्कुमार और (10) स्तनितकुमार / ' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले असुरकुमार में उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 42. असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं बावीसवाससहस्सद्विती० // [42 प्र.] भगवन् ! जो असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? {42 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है / 43. ते णं भंते ! जीवा० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि या, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उवव० / [43 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [43 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 44. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंघयणी पन्नत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी जाव परिणमंति / [44 प्र.] भगवन् ! उन जीवों (पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले भवनपति देवो) के शरीर किस प्रकार के संहनन वाले कहे गए हैं ? [44 उ.] गौतम ! उनके शरीर छहों प्रकार के संहननों से रहित होते हैं, (क्योंकि उनके अस्थि, शिरा, स्नायु इत्यादि नहीं होते; परन्तु जो इष्ट, कान्त और मनोज्ञ पुद्गल हैं, वे शरीरसंघातरूप से) यावत् परिणत होते हैं। 45. तेसि ण भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा० ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा---भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउम्विया य / तत्थ गंजा सा 1. (क) वियाहपणत्तिसुतं, भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 939 (ख) भवनवासिनोऽसुर-नाग-सुपर्ण-विद्युदग्नि-वात-स्त नितोदधि-द्वीप-दिक्कुमारा: / --तत्त्वार्थ सूत्र प्र. 4, मू. 11 2. 'जाव' पद से सूचितपाठ-"वद्रोणेव छिरा नेव म्हारू नेव संघयणमस्थि / जे पोग्गला इट्टा कंता पिया मणणा मणामा ते तेसि सरीरसंघायत्ताए ति।" अ. 3, पत्र 932 Page #2402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सत्त रयणीयो / तत्थ गं जा सा उत्तरवेउविवया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। [45 प्र. भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? [45 उ.] गौतम ! (उनके शरीर की अवगाहना) दो प्रकार की कही गई है। यथाभवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सप्त रत्ति (हाथ) की है तथा उनमें जो उत्तरवैक्रिया अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। 46. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरोरगा किसंठिता पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा--- भवधारणिज्जा य, उत्तरवेउम्विया य / तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते समचतुरंससंठिया पन्नत्ता। तत्थ गंजे ते उत्तरबेउग्विया ते नाणासंठिया पन्नता। लेस्सायो चत्तारि / दिट्ठी तिविहा वि। तिपिण गाणा निययं, तिणि अण्णाणा भयणाए। जोगो तिविहो वि। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सग्णाओ। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। पंच समुग्धाया / वेयणा दुविहा वि। इस्थिवेदगा वि, पुरिसवेदगा बि, नो नपुसगवेयगा। ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / अज्झवसाणा असंखेज्जा, पसत्था वि अप्पसत्था वि / अणबंधो जहा ठिती। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिं अभहियं, एवतियं० / एवं गव वि गमा नेयम्वा, नवरं मझिल्लएसु पच्छिल्लएसु य तिसु गमएसु असुरकुमाराणं ठितिविसेसो जाणियो। सेसा प्रोहिया चेव लद्धी कायसंवेहं च जाणेज्जा। सम्वत्थ दो भवग्गहणा जाव णवभगमए कालादेसेणं जहन्नेणं सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहिमभहियं, उक्कोसेण वि सातिरेगं सागरोवमं बावीसाए वाससहस्सेहि अन्भहियं, एवतियं० / [1-6 गमगा] / [46 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौन-सा कहा गया है ? (इत्यादि प्रश्न) [46 उ.] गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं--भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें जो भवधारणीय शरीर हैं, वे समचतुरस्रसंस्थान वाले कहे गए हैं तथा जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं, वे अनेक प्रकार के संस्थान वाले कहे गए हैं। उनके चार लेश्याएं, तीन दृष्टियाँ, नियमत: तीन ज्ञान, तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से, योग तीन, उपयोग दो, संज्ञाएं चार, कषाय चार, इन्द्रियां पांच, समुद्घात पांच और वेदना दो प्रकार की होती है। वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी होते हैं, नपुंसकवेदी नहीं होते। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम की होती है। उनके अध्यवसाय असंख्यात प्रकार के प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। अनुबन्ध स्थिति के अनुसार होता है। (संवेध) भवादेश से वह दो भव ग्रहण करता है। कालादेश से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक सातिरेक सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इस प्रकार नौ ही गमक जानने चाहिए / विशेष यह है कि Page #2403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 12] [205 मध्यम और अन्तिम तीन-तीन गमकों में असुरकुमारों की स्थिति-विषयक विशेषता जान लनी चाहिए। शेष औधिक वक्तव्यता और काय-संवेध जानना चाहिए। संबंध में सर्वत्र दो भव जानने चाहिए। इस प्रकार यावत् नौवें गमक में कालादेश से जघन्य बाईस हजार वर्ष अधिक साधिक सागरोपम काल तक यावत् गमनागमन करता है / [गमक 1 से 6 तक | विवेचन-पृथ्वीकायिक में असरकुमारों की उत्पत्तिसम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण- (1) प्रसर. कुमारों का संहनन-सिद्धान्तत: देवों का शरीर संहनन वाला नहीं होता, उनके शरीर में हड्डी, शिरा (नसें) तथा स्नायु आदि नहीं होते, किन्तु इष्ट, कान्त, प्रिय, एवं मनोज्ञ पुद्गल संघातरूप से परिणत हो जाते हैं / (2) अवगाहना-उत्पत्ति के समय देवों के भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है, जबकि उत्तरवैक्रिय अवगाहना प्राभोग (उपयोग)-जनित होने ले जघन्य अंगुल के संख्यातवे भाग होती है; भवधारणीय अवगाहना के समान के असंख्यातवें भाग अवगाहना नहीं कर सकते। उत्तरवैक्रिय अवगाहना इच्छानुसार होने से उत्कृष्ट एक लाख योजन तक की की जा सकती है / (3) संस्थान इसी प्रकार उत्तरवैक्रिय संस्थान अपनी इच्छानुसार बनाया जाता है, इसलिए वह नाना प्रकार का होता है। (4) अज्ञान–इनमें तीन अज्ञान भजना से कहे गए हैं, इसका कारण यह है कि जो असुरकुमार असंज्ञी जीवों से आते हैं, उनमें अपर्याप्त-अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता। शेष में होता है / इसलिए अज्ञान के विषय में भजना कही गई है। (5) संवेध–जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दस हजार वर्ष का जो कहा गया है, उसमें, पृथ्वीकायिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और असुरकुमारों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की, दोनों को मिला कर कहा गया है। इसी प्रकार उत्कृष्ट के विषय में समझना चाहिए कि पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट स्थिति 22,000 वर्ष की है और असुरकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम है। इन दोनों को मिला कर उत्कृष्ट संवेध कहा गया है। इसका संवेधकाल भी इतना ही है, क्योंकि असुरकुमारादि से निकल कर पृथ्वीकाय में आते हैं किन्तु पृथ्वीकाय से निकल कर असुरकूमारादि में नहीं पाते। मध्य के तीन गमकों में असु की स्थिति दस हजार वर्ष की तथा अन्तिम तीन गमकों में सातिरेक सागरोपम की समझनी चाहिए।' पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपति देवों में उत्पत्ति-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 47. नागकुमारे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु० ? एस चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति / णवरं ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं वेसूणाई दो पलितोवमाइं। एवं अणुबंधो वि, कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिग्रोवमाई बावीसाए वाससहस्सेहि अमहियाई / एवं णव दिगमगा असुरकुमारगमगसरिसा, नवरं ठिति कालाएसं च जाणेज्जा / एवं जाव णियकुमाराणं। 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 832 / / (ख) भगबती. हिन्दी विवेचन भा.६, पृ. 3097-3098 Page #2404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्यानातसूत्र / 47 प्र. भगवन् ! जो नागकुमार देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितन काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [47 उ.] गौतम! यहाँ असुरकुमार देव की पूर्वोक्त समस्त वक्तव्यता यावत्-भवादेश तक कहनी चाहिए / विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए। (संवेध) कालादेश से--जघन्य अन्तमहतं अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक देशोन दो पल्योपम, (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है।) इस प्रकार नौ ही गमक असुरकुमार के गमको के समान जानना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि यहाँ स्थिति और कालादेश इनको (भिन्न) जानना / इसी प्रकार (सुपर्णकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए / विवेचन--नागकुमार से स्तनितकुमार तक में उत्पन्न होने सम्बन्धी द्वार-कुछ बातों को छोड़कर प्रायः सभी गमक असुरकुमार के गमकों की तरह हैं / तीन बातों में भिन्नता है—स्थिति, अनुबन्ध और संवेध (कालादेश), जिनका उल्लेख मूलपाठ में किया गया है। पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले वारणव्यन्तर देवों में उत्पाद-परिमारणादि बीस द्वारों की प्ररूपमा 48, जति वाणमंतरेहितो उववज्जति कि पिसायवाणमंतर० जाय गंधयवाणमंतर०? गोयमा ! पिसायवाणमंतर० जाव गंधव्यवाणमंतर० / |48 प्र. भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव), वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे पिशाच वाणव्यन्तरों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् गन्धर्व वाणव्यन्तरों से आकर उत्पन्न होते हैं ? 48 उ.] गौतम ! वे पिशाच वाणव्यन्तरों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं, यावत् गन्धर्व वाणव्यन्तरों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। 46. वाणमंतरवेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइए? एएसि पि असुरकुमारगमगसरिसा नव गमगा भाणियव्वा / नवरं ठिति कालादेसं च जाणेज्जा / ठिती जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिश्रोवमं / सेसं तहेव / 46 प्र.] भगवन ! जो वाणव्यन्तर देव, पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? ........इत्यादि प्रश्न / 149 उ.] गौतम ! इनके भी नौ गमक असुरकुमार के नौ गमकों के सदश कहने चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि यहाँ स्थिति और कालादेश (भिन्न) जानना चाहिए / इनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक पल्योपम की होती है / शेष सब उसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना चाहिए। [गमक 1 से 6 तक] विवेचन-निष्कर्ष-(१) वाणव्यन्तर देवों से आकर पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाले पिशाचादि सभी प्रकार के वाणव्यन्तर देव होते हैं / वाणव्यन्तर देवों के 8 भेद इस प्रकार हैं--- Page #2405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 12] [207 (1) किन्नर, (2) किम्पुरुष, (3) महोरग, (4) गान्धर्व, (5) यक्ष, (6) भूत (प्रेत आदि) (7) राक्षस, (8) पिशाच / ' (2) इनके नौ ही गमक स्थिति और कालादेश को छोड़ कर असुरकुमार के नौ ही गमकों के समान समझना चाहिए / पथ्वीकायिकों में उत्पन्न होनेवाले ज्योतिष्कदेवों में उपपात-परिमारणादि बोस द्वारों को प्ररूपणा 50. जति जोतिसियदेवेहितो उवव० कि चंदविमाणजोतिसियदेहितो उववज्जति जाव ताराबिमाणजोतिसियदेवेहितो उववज्जति ? / गोयमा ! चंदविमाण जाव ताराविमाण / [50 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक) ज्योतिष्क देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवों से आकर उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् ताराविमान-ज्योतिष्क देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [50 उ.] गौतम ! वे चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, यावत ताराविमान-ज्योतिष्कदेवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। 51. जोतिसियदेवे णं भंते ! भविए पुढविकाइए? लखी जहा असुरकुमाराणं / णवरं एगा तेउलेस्सा पन्नता। तिन्नि नाणा, तिनि अन्नाणा नियमं / ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिग्रोवम, उक्कोसेणं पलिअोवमं वाससयसहस्समभहियं, एवं अणुबंधो वि। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिश्रोवमं अंतोमुहुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससयसहस्सेणं बावीसाए वाससहस्सेहिं अमहियं, एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियन्वा, नवरं ठिति कालाएसं च जागेज्जा। [51 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देव जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? [51 उ. (गौतम ! ) इनके विषय में उत्पत्ति-परिमाणादि की लब्धि प्राप्ति) असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनके एकमात्र तेजोलेश्या होती है / इनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं। इनकी स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना चाहिए / (संवेध) काल की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम तथा एक लाख वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी कहने चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और कालादेश (पूर्वापेक्षया भिन्न) समझने चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं, भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पणपुक्त), पृ. 941 62. बियाहपण्णत्तिसत्त, भा. 2 (मूलपाट-टिप्पणयुक्त), पृ. 941 Page #2406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207] [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन- कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) ज्योतिष्क देवों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से कहे गए हैं, इसका कारण यह है कि इनमें असंज्ञी जीव नहीं आते, जो सम्यग्दृष्टि संज्ञी जीव पाते हैं, उनके उत्पत्ति के समय ही मतिज्ञान आदि तीन ज्ञान होते हैं और जो मिथ्यादष्टि संज्ञी आते हैं, उनके मति-अज्ञान आदि तीन अज्ञान होते हैं / (2) पल्योपम के आठवें भाग (6) की जो जघन्य स्थिति कही गई है, वह तारा-विमानवासी देवी-देवों की अपेक्षा समझनी चाहिए तथा एक लाख वर्ष अधिक एक पत्योपम की उत्कष्ट स्थिति कही गई है. बद्र चन्द-विमानवासी देवों की चाहिए।' (3) पृथ्वी कायिक जीवों में पांचों प्रकार के ज्योतिष्क देव आकर उत्पन्न होते हैं। ज्योतिष्क देवों के 5 भेद इस प्रकार हैं--(१) चन्द्र, (2) सूर्य, (3) ग्रह, (4) नक्षत्र और (5) तारा रे वैमानिक देवों की अपेक्षा पृथ्वीकायिक-उत्पत्ति-निरूपण 52. जई वेमाणियदेवेहितो उपवज्जति कि कप्पोवगवेमाणिय० कप्पातीयवेमाणिय ? गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, नो कप्पातीयवेमाणिय० / (52 प्र.] भगवन् ! यदि वे (पृथ्वीकायिक जीव), वैमानिक देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं अथवा कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [52 उ.] गौतम ! वे कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं, कल्पातीत से नहीं। 53. जदि कम्पोवगवेमाणिय कि सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय० जाव प्रच्चयकापोवगवेमा० ? गोयमा! सोहम्मकप्पोक्गवेमाणिय०, ईसाणकप्पोवगवेमाणिय०, नो सणंकुमारकप्पोवगवेमाणिय० जाव नो अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय० / [53 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (पृथ्वीकायिक) कल्पोपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे सौधर्म-कल्पोपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अच्युतकल्पोपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [53 उ.] गौतम ! वे सौधर्म-कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से तथा ईशान-कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु सनत्कुमार-वैमानिकदेवों से लेकर यावत् अच्युत-कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। विवेचननिष्कर्ष-(१) सौधर्म देवलोक से लेकर अच्युत देवलोक तक के देव 'कल्पोपक' या 'कल्पोपपन्न' कहलाते हैं। इनसे आगे के नौ वेयक एवं पांच अनुत्तर विमानवासी देव 'कल्पातीत' कहलाते हैं / कल्पातीत देव वहाँ से च्यवन करके पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न नहीं होते / अब रहे कल्पो. पपन्नक, उनमें से सौधर्म और ईशान कल्प के देव ही च्यव कर पृथ्वीकायिक प्रादि में उत्पन्न हो सकते --- --.-- 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, प० 831 (ख) जघन्या त्वष्टभागः / ज्योतिषकाणामधिकम् / 2. ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसौ-ग्रह-नक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च / तत्त्वार्थ सूत्र अ. 4, सू. 51,48 ----तत्वार्थसूत्र अ. 4, सू. 13 Page #2407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 12] [209 हैं, इनके आगे सनत्कुमारकल्प से लेकर अच्युतकल्प के देव च्यवन करके पृथ्वीकायादि में उत्पन्न नहीं होते।' 54. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पुढविकाइएसु उवव० से णं भंते ! केवति ? एवं जहा जोतिसियस्स गमगो। णवरं ठिती अणुबंधो य जहन्नेणं पलिप्रोवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई। कालादेसेणं जहण्णेणं पलिप्रोवम अंतोमुत्तमम्भहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं बावीसाए वाससहस्सेहिं अभहियाई, एवतियं कालं / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियन्वा, णवरं ठिति कालाएसं च जाणेज्जा। [1-6 गमगा] / [54 प्र.] भगवन ! सौधर्म कल्पोपपन्न वैमानिक देव, जो पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [54 उ.] गौतम ! ज्योतिष्क देवों के गमक के समान (यहाँ भी प्रथम गमक) कहना चाहिए / विशेषता यह है कि इनकी स्थिति और अनुबन्ध जघन्य एक पल्योपम और उत्कृष्ट दो सागरोपम है / (संवेध) कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष अधिक दो सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी जानने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ स्थिति और कालादेश (पहले की अपेक्षा भिन्न) समझने चाहिए / गमक 1 से 6 तक] 55. ईसाणदेवे गं भंते ! जे भविए. ? एवं ईसाणदेवेण वि नव गमगा भाणियब्वा, नवरं ठिती अणुबंधो जहन्नेणं सातिरेगं पलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // चउवीसहमे सते : बारसमो उद्देसनो समत्तो // 24-12 // [55 प्र.] भगवन् ! ईशानदेव, जो पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, कितने काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उसकी उत्पत्ति होती है ? [55 उ.] (गौतम ! ) इस (ईशानदेव के) सम्बन्ध में पूर्वोक्त नौ ही गमक इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध जघन्य सातिरेक एक पल्योपम और उत्कृष्ट सातिरेक दो सागरोपम होता है / शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए। 1. (क) भगवती. हिन्दीविवेचन, भा. 7, पृ. 3102 (ख) वैमानिकाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च / सौधर्मशान-सानकमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्रसहनारेब्वानत-प्राणतयोरारणाच्युतयोर्न वसु वेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्धच / --तत्त्वार्थ सूत्र अ. 4, सू. 17, 18, 20 / (ग) दिवाहपत्तिमुक्त, भा. 2 (मू. पाटि.), पृ. 941-942 Page #2408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, इस प्रकार कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---- इन सब गमकों की व्याख्या पूर्ववत् जाननी चाहिए। // चौवीसवां शतक : बारहवाँ उद्देशक समाप्त // Page #2409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमो : आउकाइय-उद्देसओ तेरहवाँ उद्देशक : अप्कायिकों की उत्पत्ति आदि सम्बन्धी तेरहवें उद्देशक के प्रारम्भ में मध्य भंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए। [1] श्रुत-देवता को नमस्कार हो / विवेचन-यह मध्य-मंगलाचरण है। आदि-मंगलाचरण करने के बाद अब शास्त्रकार शास्त्र की निविघ्न समाप्ति के लिए शास्त्र के मध्य में अर्थात् चौवीसवें शतक के तेरहवें उद्देशक के आदि में मंगलाचरण करते हैं / अप्कायिकों में उत्पन्न होनेवाले चौबीस दण्डकों में उत्पादादि प्ररूपणा 2. प्राउकाइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? एवं जहेव पुढविकाइयउद्देसए जाव पुढविकाइये गं भंते ! जे भविए प्राउकाइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं सत्तवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [2 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक-उद्देशक (बारहवें) में कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना / यावत् [प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो अकायिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले अप्कायिक में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की स्थिति वाले अप्कायिकों में उत्पन्न होता है / 3. एवं पुढविकाइयउद्देसगसरिसो भाणियन्वो, वरं ठिई संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // चउबीसमे सते : तेरसमो उद्देसमो समत्तो / / 24-13 / / [3] इस प्रकार यह समग्र उद्देशक (नौ गमकों सहित) पृथ्वीकायिक के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि इसकी स्थिति और संवेध (के विषय में यथायोग्य) जान लेना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना / Page #2410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [व्याण्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गोतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-निष्कर्ष स्थिति और संवेध के सिवाय अप्कायिक का समग्र वर्णन पृथ्वीकायिकउद्देशक (पूर्वोक्त बारहवें उद्देशक) के समान समझना चाहिए। // चौवीसवां शतक : तेरहवाँ उद्देशक समाप्त // Page #2411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद्दसमो : तेउक्काइय-उद्देसओ चौदहवाँ उद्देशक : तेजस्कायिक (को उत्पत्ति प्रावि-सम्बन्धी) तेजस्कायिकों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में बारहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यतानिर्देश 1. तेउक्काइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ?. एवं पुढविकाइयउद्देसगसरिसो उद्देसो भाणितव्वो, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। देवेहितो न उववज्जति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरति / ॥चउवीसइमे सए : चतुद्दसमो उद्देसमो समत्तो // 24-14 // [1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] यह उद्देशक भी पृथ्वीकायिक-उद्देशक की तरह कहना चाहिए। विशेष यह है कि इसकी स्थिति और संवेध (पहले से भिन्न) समझने चाहिये। तेजस्कायिक जीव देवों से पा कर उत्पन्न नहीं होते। शेष सब पूर्ववत् जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-स्थिति और संवेध को छोड़ कर समग्न तेजस्कायिक-उद्देशक भी पृथ्वीकायिक उद्देशक के समान कहना चाहिए। विशेष—कोई भी देव च्यव कर तेजस्काय जीवों में उत्पन्न नहीं होता। तेजस्काय की स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन अहोरात्र है।' चौवीसवां शतक : चौदहवां उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) वियाहपण्णत्ति सुत्तं भा. 2, पृ. 943 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 833 Page #2412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णरसमो : वाउकाइय-उद्देसओ पन्द्रहवाँ उद्देशक : वायुकायिक की उत्पत्ति प्रादि-सम्बन्धी वायुकायिकों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में चौदहवें उद्देशक के अनुसार वक्तव्यतानिर्देश 1. वाउकाइया णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? एवं जहेव तेउक्काइयउद्देसओ तहेव, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चउवीसइमे सते : पनरसमो उद्देसनो समत्तो // 24-15 / / [1 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] तेजस्कायिक-उद्देशक के समान इसकी समग्र वक्तव्यता है। स्थिति और संवेध तेजस्कायिक से भिन्न समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर श्रीगौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष स्थिति और संवेध के अतिरिक्त वायुकायिक-सम्बन्धी समग्र वक्तव्य तेजस्कायिक-उद्देशक के समान कहना चाहिए। देवों से च्यव कर पाया हुआ जीव वायुकायिकों में उत्पन्न नहीं होता / वायुकायिक की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है। ॥चौवीसवाँ शतक : पन्द्रहवाँ उद्देशक समाप्त / / Page #2413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमो : वणस्सइकाइय-उद्देसओ सोलहवाँ उद्देशक : वनस्पतिकायिक (की उत्पत्ति प्रादि-सम्बन्धी) वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होनेवाले चौबीस दण्डकों में बारहवें उद्देशकानुसार वक्तव्यता 1. वणस्सतिकाइया णं भंते ! कोहितो उपवज्जति ?. एवं पुढविकाइयसरिसो उद्देसो, नवरं जाहे वणस्सतिकाइओ वणस्सतिकाइएसु उववज्जति ताहे पढम-बितिय-चतुत्थ-पंचमेसु गमएसु परिमाणं अणुसमयं अविरहियं अणंता उववज्जंति; भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्हणाई, उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं अणंतं कालं; एवतिय० / सेसा पंच गमा अट्ठभवग्गहणिया तहेव; नवरं ठिति संवेहं च जाणज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ति। // चउथीसइमे सए : सोलसमो उद्देसओ समत्तो // 24-16 // [1 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] यह उद्देशक पृथ्वीकायिक-उद्देशक के समान है। विशेष यह है कि जब वनस्पतिकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं, तब पहले, चौथे और पांचवें गमक में परिमाण यह है कि प्रतिसमय निरन्तर वे अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं।' भव की अपेक्षा से-वे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट अनन्त भव ग्रहण करते हैं, तथा काल की अपेक्षा से-जघन्य दो अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / शेष पांच गमकों में उसी प्रकार आठ भव जानने चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और संवेध पहले से भिन्न जानना चाहिए। विवेचन-(१) वनस्पतिकाय के जीवों का वनस्पतिकाय में उद्वर्तन और उत्पाद अनन्त है, दूसरी कायों का नहीं, क्योंकि दूसरी सभी कायों के जीव असंख्यात ही हैं / इसलिए उनका उद्वर्तन और उत्पाद असंख्यात का ही होता है, अनन्त का नहीं। (2) वनस्पतिकाय के प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम गमक की स्थिति उत्कृष्ट नहीं होने से अनन्त उत्पन्न होते हैं / शेष पांच गमकों की उत्कृष्ट स्थिति होने से उनमें एक, दो या तीन, इत्यादि रूप से भी उत्पन्न होते हैं / पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक की स्थिति उत्कृष्ट न होने के कारण ही उनमें भवादेश से उत्कृष्ट अनन्तभव और कालादेश से अनन्तकाल है। शेष पांच गमकों में उत्कृष्ट स्थिति होने से भवादेश से उत्कृष्ट आठ र कालादेश से उत्कृष्ट 80 हजार वर्ष है सर्वगमकों में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रतीत है। अर्थात्-जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट 10 हजार वर्ष है। संवेध-तीसरे और सातवें गमक Page #2414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक 10 हजार वर्ष और उत्कृष्ट आठ भव की अपेक्षा 80 हजार वर्ष है / छठे और पाठवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक 10 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 4 अन्तर्मुहर्त अधिक 40 हजार वर्ष है। नौवें गमक में जघन्य 20 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 80 हजार वर्ष है।' // चौवीसवां शतक : सोलहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ. वृत्ति पत्र 833 Page #2415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमो : बेइंदिय-उद्देसओ सत्तरहवाँ उद्देशक : द्वीन्द्रियों में उत्पादादि सम्बन्धी दीन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में उपपात-परिमारणादि बोस द्वारों की प्ररूपणा 1. बेइंदिया णं भंते ! कोहितो उववज्जति ? 0 जाव पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए बेइंदिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? स च्चेव पुढविकाइयस्स लद्धी जाव कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई; एवतियं० / [1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि, यावत्---हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो द्वीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो कितने काल की स्थिति वाले द्वीन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ पूर्वोक्त (पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य) पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता के समान, यावत् कालावेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात भव, इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / ___2. एवं लेसु चेव चउसु गमएसु संवेहो, सेसेसु पंचसु तहेव प्रट्ठ भया / एवं जाव चतुरिदिएणं समं चउसु संखेज्जा भवा, पंचसु अटु भवा, पंचेंदियतिरिक्खाजोणिय-मणुस्सेसु समं तहेव अट्ठभवा / देवेसु न चेव उववज्जति, ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // चउवीसइमे सए : सत्तरसमो उद्देसओ समत्तो॥ 24-17 // [2] जिस प्रकार (पृथ्वीकायिक के साथ द्वीन्द्रिय का संवेध कहा गया है,) इसी प्रकार पहला, दूसरा, चौथा और पाँचवाँ इन चार गमकों में संवेध जानना चाहिए। शेष पांच गमकों में उसी प्रकार आठ भव होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों और मनुष्यों के साथ पूर्वोक्त आठ भव जानना चाहिए / देवों से च्यव कर आया हुआ जीव द्वीन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता। यहाँ स्थिति और संवेध पहले से भिन्न है। ___भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्पष्टीकरण-पृथ्वीकायिक जीव के पृथ्वीकायिक जीव में ही उत्पन्न होने की वक्तव्यता के समान द्वीन्द्रिय में उत्पन्न होने के विषय में भी जानना चाहिए तथा पृथ्वीकायिक जीव Page #2416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र का बेइन्द्रिय के साथ जो संवेध कहा गया है, वही अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के साथ कहना चाहिए। अर्थात्-पहले, दूसरे, चौथे और पांचवें गमक में उत्कृष्ट संख्यात भव और शेष पांच गमकों में उत्कृष्ट पाठ भव जानने चाहिए। कालादेश से पृथ्वीकायिकादि की जो स्थिति हो, उसे द्वीन्द्रिय की स्थिति के साथ जोड़ कर संवेध जानना चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के साथ द्वीन्द्रिय के पूर्वोक्तवत् सभी गमकों में उत्कृष्ट पाठ-पाठ भव होते हैं।' // चौबीसवां शतक : सत्रहवां उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती, श्र. वृत्ति, पत्र 834 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3110 Page #2417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमो : तेइंदिय-उद्देसओ. अठारहवाँ उद्देशक : ब्रोन्द्रिय की उत्पादादि-प्ररूपणा त्रीन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में सत्रहवें उद्देशकानुसार वक्तव्यता-निर्देश 1. तेइंदिया णं भंते ! कमोहितो उबवज्जति?. एवं तेइंदियाणं जहेव बंदियाणं उद्देसो, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / तेउकाइएसु समं तलियगमे उक्कोसेणं अठ्ठत्तराई बे राइंदियसयाई। बेइंदिरहि समं ततियगमे उक्कोसेणं अडयालीसं संवच्छराई छण्णउयराइंदियसयमन्भहियाई। तेइंदिरहि समं ततियगमे उक्कोसेणं बाणउयाई तिन्नि राइंदियसयाई / एवं सम्वत्थ जाणेज्जा जाव सनिमणुस्स त्ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चउवीसइमे सए : अट्ठारसमो उद्देसओ समत्तो // 24-18 // [1 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? ; इत्यदि प्रश्न / [1 उ.] द्वीन्द्रिय-उद्देशक के समान त्रीन्द्रियों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और संवेध (द्वीन्द्रिय से भिन्न) समझना चाहिए / तेजस्कायिकों के साथ (श्रीन्द्रियों का संवेध) तीसरे गमक में उत्कृष्ट 208 रात्रि-दिवस का और द्वीन्द्रियों के साथ तीसरे गमक में उत्कृष्ट दवस अधिक 48 वर्ष होता है। त्रीन्द्रियों के साथ तीसरे गमक में उत्कृष्ट 362 रात्रि दिवस होता है / इस प्रकार यावत्-संज्ञी मनुष्य तक सर्वत्र जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--त्रीन्द्रियजीवों के स्थिति और संवेध-विशेषता का स्पष्टीकरण-(१) श्रीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने वाले जीवों की स्थिति और त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति को मिला कर संवेध कहना चाहिए / यथा--त्रीन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले तेजस्कायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन रात्रि-दिवस है, उसे चार भवों के साथ गुणा करने पर बारह रात्रि-दिवस होते हैं / तथा त्रीन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति 49 रात्रि-दिवस की हैं / उसे चार भवों के साथ गुणा करने पर 196 रात्रि-दिवस होते हैं। इन दोनों राशियों को जोड़ने से 208 रात्रिदिवस होते हैं। यही तेजस्कायिक का त्रीन्द्रिय के तीसरे गमक का संवेध-काल है / (2) द्वीन्द्रिय का संवेध चार भवों की अपेक्षा 48 वर्ष होते हैं और त्रीन्द्रिय के चार भवों का संवेध 196 रात्रि-दिवस होता है। दोनों को मिलाने से 196 रात्रि-दिवस अधिक 48 वर्ष, द्वीन्द्रिय के साथ त्रीन्द्रिय का तीसरे गमक का संवेधकाल होता है। श्रीन्द्रिय का त्रीन्द्रिय के साथ Page #2418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आठ भवों का संवेधकाल 392 रात्रि-दिवस होता है। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यञ्च, संज्ञीतिर्यंच, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञी मनुष्य के साथ तीसरे गमक का संवेधकाल जानना चाहिए / (3) तीसरे गमक का संवेध-काल बताया गया है, इसलिए तदनुसार छठे आदि गमकों का संवेधकाल सूचित हुआ समझना चाहिए। क्योंकि उनमें भी पाठ भव होते हैं। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के साथ प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और पंचम-इन चार गमकों का संवेध भवादेश से संख्यात भव और कालादेश से संख्यातकाल जानना चाहिए।' / चौवीसवां शतक : अठारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 834 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 6, पृ. 3111,3112 Page #2419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणवीसइमो : चरिंदिय-उद्देसओ उन्नीसवाँ उद्देशक : चतुरिन्द्रिय (जीवों की उत्पत्ति प्रादि सम्बधी) चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में उपपात-परिमाण आदि बोस द्वारों की प्ररूपणा 1. चरिदिया णं भंते ! कओहिलो उववज्जति ? 0 जहा तेइंदियाणं उद्देसओ तहा चरिदियाण वि, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // चउवीसइमे सए : एगणवीसइमो उद्देसनो समत्तो॥२४-१९ // [1 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] जिस प्रकार त्रीन्द्रिय-उद्देशक कहा है, उसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए / विशेष—स्थिति और संवेध (त्रीन्द्रिय से भिन्न) जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-स्थिति और संवेध के सिवाय चतुरिन्द्रिय-सम्बन्धी समग्र उद्देशक श्रीन्द्रियउद्देशक के समान जानना चाहिए। / / चौवीसवां शतक : उन्नीसवाँ उद्देशक समाप्त / Page #2420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमो : पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिय-उद्देसओ वीसवाँ उद्देशक : पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-सम्बन्धी 1. पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कमोहितो उपवज्जति ? कि नेरतिएहितो उपय०, तिरिक्ख-मणुस्स-देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइएहितो वि उवव०, तिरिक्ख-मणुएहितो वि उववजंति, देवेहितो वा उववज्जति। [1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या तियंञ्चों, मनुष्यों अथवा देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? 1 उ.] गौतम ! वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चों, मनुष्यों तथा देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन--निष्कर्ष-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक जीव, नारकों, तिर्यञ्चों, मनुष्यों एवं देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / नरक-पश्वियों की अपेक्षा पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पत्ति-निरूपण 2. जइ नेरइएहितो उबवज्जति कि रयणप्पभपुढविनेरइएहितो उवबज्जति जाव अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उववज्जंति ? गोयमा ! रयणप्पभपुढविनेरइएहितो वि उवव० जाव आहेसत्तमपुढविनेरइएहितो वि० / [2 प्र. भगवन् ! यदि वे (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक,) नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् वे अधःसप्तम-पृथ्वी के नैरयिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे रत्नप्रभा-पृथ्वी के नै रयिकों से, यावत् अधःसप्तम-पृथ्वी के नैरयिकों से प्राकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, प्रथम से लेकर सप्तम नरक के नैरयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं / पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले सात नरकों के नैरयिकों के उत्पाद-परिमाणादि द्वारों की प्ररूपरणा ___3. रयणप्पभपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल द्वितीएसु उवव० ? Page #2421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [223 गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुषकोडीआउएसु उपयज्जेज्जा। |3 प्र. भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी का नैरयिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों) में उत्पन्न होता है ? 13 उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तमहत्तं की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है / 4. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उबव० ? एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया / नवरं संघयणे पोग्गला अणिद्वा अकंता जाव परिणमंति / ओगाहणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-भवधारिज्जा य उत्तरवेउब्धिया य। तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सत्त धणई तिन्नि रयणीयो छच्च अंगुलाई / तत्थ णं जा सा उत्तरबेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं पन्नरस धणूई अड्डातिज्जाप्रो य रयणीयो। [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [4 उ. जैसे असुरकूमारों की वक्तव्यता कही है, वैसे यहां भो कहनी चाहिए / विशेष यह है कि (रत्नप्रभा नैरयिकों के) संहनन में अनिष्ट और प्रकान्त (अप्रिय) पुद्गल यावत् परिणमन करते हैं। उनकी अवगाहना दो प्रकार की कही गई है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें से जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्नि (हाथ) और छह अंगुल की होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढाई हाथ (रत्नि) की होती है। 5. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंठिया पन्नता? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउम्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पन्नत्ता। तत्य णं जे ते उत्तरवेउम्विया ते वि इंडसंठिया पन्नत्ता। एगा काउलेस्सा पन्नत्ता। समुग्धाया चत्तारि / नो इथिवेदगा, नो पुरिसवेदगा; नपुसगवेदगा। ठिती जन्नणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोवर्म। एवं अणुबंधो वि। सेसं तहेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवगहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवम्गहणाई कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहिं पुवकोडीहि अमहियाई, एवतियं० / [पढ़मो गमप्रो]। [5 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? ; इत्यादि प्रश्न / [5 उ. गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं—भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / दोनों प्रकार के शरीर केवल हुण्डक-संस्थान वाले होते हैं / उनमें एक मात्र कापोतलेश्या होती है / चार समुद्घात होते हैं / वे स्त्रीवेदी तथा पुरुषवेदी नहीं होते, केवल नपुसकवेदी होते हैं / उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार Page #2422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होता है। शेष सब पूर्वोक्त प्रकार से जानना / भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट पाठ भव तथा काल की अपेक्षा से---जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / (प्रथम गमक] 6. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु उववन्नो, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तद्वितीएसु उववन्नो। प्रवसेसं तहेव, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तहेव, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं चहिं अंतोमुहुत्तेहि अन्भहियाई; एवतियं कालं० / [बोनो गमनो] / [6] यदि वह (रत्नप्रभा-नरयिक) जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। शेष सब पूर्ववत् कहना / विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से पूर्वोक्त अनुसार और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [द्वितीय गमक] 7. एवं सेसा वि सत्त गमगा भाणियव्वा जहेव नेरइयउद्देसए सन्निपंचेंदिएहि समं रइयाणं / मज्झिमएसु य तिसु गमएसु पच्छिमएसु य तितु गमएसु ठितिनाणत्तं भवति / सेसं तं चेव / सव्वत्थ ठिति संवेहं च जाणेज्जा / [3-6 गमगा] / _[7] इसी प्रकार शेष सात गमक, नैरयिक-उद्देशक में संज्ञी पंचेन्द्रियों के साथ बतलाए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए / बीच के तीन गमकों (4-5-6) में तथा अन्तिम तीन गमकों (7-8-9) में स्थिति की विशेषता है / शेष सब पूर्ववत् जानना / सर्वत्र स्थिति और संवेध उपयोगपूर्वक जान लेना चाहिए। [गमक 3 से 1 तक] 8. सक्करप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए.? एवं जहा रयणप्पभाए नव गमगा तहेव सक्करप्पभाए वि, नवरं सरीरोगाहणा जहा प्रोगाहणसंठाणे; तिनि अन्नाणा नियम। ठिति-अणुबंधा पुव्वभणिया। एवं नव वि गमगा उवर्जु जिऊण भाणियन्वा / [8 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है (वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? ) इत्यादि प्रश्न / . [8 उ.] जैसे रत्नप्रभा के सम्बन्ध में नौ गमक कहे हैं, वैसे यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए / विशेष यह है कि शरीर की अवगाहना, (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना / उनमें तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियम से होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध पहले कहा गया है / इस प्रकार नौ ही गमक उपयोग-पूर्वक कहने चाहिए / 6. एवं जाव छट्ठपुढवी, नवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिति-अणुबंधा संवेहा य जाणियव्वा / [8] इसी प्रकार यावत् छठी नरक पृथ्वी तक जानना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ अवगाहना, लेश्या, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध (यथायोग्य भिन्न-भिन्न) जानने चाहिए। 10. अहेसत्तमपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए• ? एवं चेव णव गमगा, नवरं ओगाहणा-लेस्सा-ठिति-अणुबंधा जाणियब्बा। संबहे भवाएसेणं Page #2423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [225 जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहि अन्भहियाई; एवतियं० / आदिल्लएसु छसु गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गणाई, उक्कोसेणं छ भदग्गहणाई।पच्छिल्लएसुतिसुगमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवग्गहणाई। लद्धी नवसु वि गमएसु जहा पढमगमए, नवरं ठितिविसेसो कालाएसो य--बितियगमए जहन्नेणं वावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाई तिहिं अंतोमुत्तेहि अमहियाई; एवतियं कालं० / ततियगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अभहियाई, उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई तिहिं पुवकोडीहि अमहियाई / चउत्थगमे जहन्नेणं बाबीसं सागरोचमाई अंतोमुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडीहिं अभहियाई। पंचमगमए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाइं तिहिं अंतोमुहत्तेहि अमहियाई / छट्ठगमए जहन्नेणं बावोसं सागरोवमाई पुटवकोडीए अभहियाई, उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाई तिहिं पुवकोडोहिं अहियाई / सत्तमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाई दोहि पुम्बकोडीहि अब्भहियाई। अटुमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई दोहि अंतोमुहुत्तेहि प्रभाहियाई / णवमगमए जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुष्यकोडीए अभहियाई, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाइं दोहि पुव्वकोडीहिं अभहियाई, एवतियं० / [1-6 गमगा / [10 प्र.] भगवान् ! अधःसप्तम-पृथ्वी का नैरयिक, जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ?, इत्यादि प्रश्न / [10 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार इसके भी नौ गमक कहने चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ अवगाहना, लेश्या, स्थिति और अनुबन्ध भिन्न-भिन्न जानने चाहिए / संवेध-भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव, तथा कात की अपेक्षा से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। प्रथम के छह गमकों (1 से 6 तक) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव तथा अन्तिम तीन गमकों (7-8-9) में जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव जानने चाहिए / नौ ही गमकों में प्रथम गमक के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए / परन्तु दूसरे गमक में स्थिति की विशेषता है तथा काल की अपेक्षा से---जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तर्मुहर्त यधिक 66 सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। तीसरे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि-अधिक 66 सागरोपम, चौथे गमक में जघन्य अन्तमहत अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक छासठ सागरोपम, पाँचवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक 22 सागरोपम और उत्कृष्ट तीन अन्तमुहूर्त अधिक छासठ सागरोपम, छठे गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम, तथा सातवें गमक में जघन्य अन्तमुहर्त अधिक 33 सागरोपम और Page #2424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक 36 सागरोपम, आठवें गमक में जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक 33 सागरोपम और उत्कृष्ट दो अन्तमुहर्त अधिक 66 सागरोपम, तथा नौवें गमक में जघन्य पूर्वकोटि अधिक 33 सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि-अधिक 66 सागरोयम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / गमक 1 से 6 तक] विवेचन--कुछ स्पष्टीकरण-(१) नरक से निकले हुए जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्च आदि में आकर उत्पन्न नहीं होते। वे पूर्वकोटि तक को आयु वाले से आकर उत्पन्न होते हैं। (2) पृथ्वीकायिक जीवों में आने वाले असुरकुमार के परिमाण आदि की जो बक्तव्यता कही गई है, वही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में आने वाले नैरयिक के विषय में जाननो चाहिए / (3) उत्पत्ति के समय नैरपिक की अवगाहना जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग होती है / (4) प्रथम से सप्तम नरक तक के नारकों की अवगाहना--प्रथम नरक में उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल कही है, वह तेरहवें प्रस्तट (पाथड़े) की अपेक्षा समझनी चाहिए। प्रथम प्रस्तटादि में अवगाहना का क्रम इस प्रका "रयणाइ पढम-पयरे, हत्थतियं देह-उस्सयं भणियं / छप्पन्न गुलसड्ढा, पयरे-पयरे य बुड्ढोयो / ' अर्थात–रत्नप्रभा-पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में तीन हाथ की अवगाहना होती है / आगे के प्रत्येक प्रस्तट में साढ़े छप्पन अंगुल की वृद्धि होती जाती है / इस क्रम से तेरहवें प्रस्तट के नैरयिक को अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल होती है। यह भवधारणीय अवगाहना है / नैरयिक में जितनी भवधारणीय अवगाहना होती है, उससे दुगुनी उत्तरवैक्रिय अवगाहना होती है। सात नरकों की अवगाहवा का कथन प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें पद में इस प्रकार है सत्त घणु तिणि रयणी, छच्चेव अंगुलाई उच्चत्तं / पढमाए पुढवीए विउणा विउणं च सेसासु // अर्थात्-प्रथम नरक में नारकों की अवगाहना सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल की होती है / आगे दूसरे आदि नरकों में क्रमश: दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है।' (5) यहाँ मूल में दो गमकों में स्थिति आदि का कथन किया गया है। इससे आगे सात गमकों में स्थिति आदि का कथन इसी शतक के प्रथम उद्देशक में संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के साथ नैरयिक जीवों के समान है। (6) दूसरे आदि नरकों में संज्ञी जीव ही उत्पन्न होते हैं / इसलिए उनमें तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियम से होते हैं। (7) सप्तम पृथ्वी के नारक का संवेध– यहाँ तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम का जो कथन किया गया है, वह भव और काल की बहुलता की विवक्षा से किया गया है। यह संवेध जघन्य 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 840 (ख) पगणवणासुतं (महावीरविद्यालय द्वारा प्रकाशित) भा-१, सू. 1529/3, पृ. 340 Page #2425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20) [227 स्थिति वाले सप्तम पृथ्वी के नैरयिक में पाया जाता है, क्योंकि सप्तम नरक में तीन भवों की जघन्य स्थिति 66 सागरोपम की होती है, और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीन भवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि की होती है / यदि उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की ग्रायु वाला नैरयिक हो, और पूर्वकोटि की प्राथु वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में आकर उत्पन्न हो तो इस प्रकार दो बार ही उत्पत्ति होती है। इससे दो पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम ही स्थिति होती है। तिर्यञ्चभवसम्बन्धी पूर्वकोटि नहीं होती। इस प्रकार भव और काल की उत्कृष्टता नहीं होती। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रियों के उपपात-परिमाणादि को प्ररूपणा 11. जति तिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति कि एगिवियतिरिक्सजोणिएहितो० ? एवं उववानो जहा पुढविकाइयउद्देसए जाव [11 प्र.] यदि वह (संज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) तियंञ्चयोनिकों से प्राकर उत्पन्न होता है तो क्या एकेन्द्रिय-तिर्यञ्च योनिकों से पाकर उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [11 उ.] पृथ्वीकायिक उद्देशक में कहे अनुसार यहाँ उपपात समझना चाहिए / यावत्-- 12. पुढविकाइए गं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुष्वकोडिआउएसु उववज्जति / [12 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों) में उत्पन्न होता है ? |12 उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तियंञ्चों) में उत्पन्न होता है / 13. ते णं भंते ! जीवा०? एवं परिमाणाईया अणुबंधपज्जवसाणा जा चेव प्रप्पणो सट्टाणे बत्तम्बया सा चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस्स भाणियन्वा, नवरं नवसु वि गमएसु परिमाणे जहन्नेणं एकको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववज्जति / भवादेसेण वि नवसु वि गमएसु-भवाएसेणं जहनेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। सेसं तं चेव / कालाएसेणं उभो ठिति करेज्जा। 13 प्र.] भगवन् ! वे पृथ्वीकायिक जीव (एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / ) 13 उ. यहाँ परिमाण से ले कर अनुबन्ध तक, अपने-अपने स्वस्थान में जो वक्तव्यता कही है, तदनुसार ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि नौ ही 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 840 Page #2426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र गमकों में परिमाण-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं, ऐसा जानना। (संवेध-) नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करते हैं। शेष पूर्ववत् / कालादेश से--दोनों पक्षों की स्थिति को जोड़ने से (काल) सवेध जानना चाहिए। 14. दि पाउकाइएहितो उवव० ? एवं प्राउकाइयाण वि। [14 प्र. भगवन् ! यदि वह (पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) अप्कायिक जीवों से पाकर उत्पन्न हो तो? इत्यादि प्रश्न / [14 उ.] पूर्ववत् अप्काय के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 15. एवं जाव चरिदिया उववाएयव्वा, नवरं सव्वत्थ अपणो लद्धी भाणियवा। नवसु वि गमएसु भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई / कालाएसेणं उभयो ठिति करेज्जा / सव्वेसि सव्वगमएसु जहेव पुढविकाइएसु उववज्जमाणाणं लद्धी तहेव / सम्वत्थ ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [15] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक उपपात कहना चाहिए; परन्तु सर्वत्र अपनी-अपनी वक्तव्यता कहनी चाहिए / नौ ही गमकों में भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव, और उत्कृष्ट पाठ भव तथा कालादेश से दोनों की स्थिति को जोड़ना चाहिए। जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार सभी गमकों में सभी जीवों के सम्बन्ध में कहनी चाहिए। सर्वत्र स्थिति और संवेध यथायोग्य भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। विवेचन कुछ स्पष्टीकरण : एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-सम्बन्धी—(१) पृथ्वीकायिक जीव, यदि पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हो तो प्रतिसमय असंख्यात उत्पन्न होते हैं, किन्तु यदि पृथ्वीकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न हो तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / (2) संवेध-भव की अपेक्षा से नौ ही गमकों में उत्कृष्ट आठ भव होते हैं। (3) अप्कायिक से लेकर चतुरिन्द्रिय तक से निकल कर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होने में परिमाणादि की वक्तव्यता सर्वत्र अपनी अपनी कहनी चाहिए। पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले असंजीपंचेन्द्रिय तियंचों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 16. जदि पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, असलिपंदियतिरिक्खजोणि ? गोयमा ! सन्निपंचेंदिय०, असन्निपंचेंदिय० / भेदो जहेव पुढविकाइएसु उववज्जमाणस्स जाव 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 840 Page #2427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवा शतक : उद्दशक 20 [16 प्र.] भगवन ! यदि ( वे पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च,) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संज्ञो-पचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से० ? 16 उ.] गौतम ! वे संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से भी आकर उत्पन्न होते हैं; इत्यादि; पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्चों के भेद कहे हैं, तदनुसार यहाँ भी कहने चाहिए। यावत् 17. असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए पंचेदियतिरिक्खजोणिएस उववज्जित्तए से णं भंते ! केवतिकाल ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्त०, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभाग द्वितीए उवव० / [17 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वह कितने काल की स्थिति वाले पंवेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? 17 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पत्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। 18. ते णं भंते.!? अवसेसं जहेव पुढ विकाइएसु उववज्जमाणस्स असन्निल्स तहेव निरवसेसं जाव भवाएसो ति। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं पलिओवमस्स प्रसंज्जतिभागं पुन्चकोडिपुहत्तमभहियं; एवतियं० / [पढमो गमग्रो] [18 प्र.] भगवन् ! वे (असंजी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होत हैं ? इत्यादि प्रश्न / 18 उ.] इस सम्बन्ध में पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंजी-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों की जो वक्तव्यता कही है, तदनुसार यावत् भवादेश तक कहनी चाहिए। कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] 16. बितियगमए एस चेव लद्धी, णवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चहि अंतोमुत्तेहि अब्भहियाओ; एवतियं० / [बीयो गमयो] / [16] द्वितीय गमक में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। द्वितीय गमक] 20. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जतिभागट्ठितीएसु, उक्कोसेण वि पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागट्टितीएसु उवव० / 120] यदि वह (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय Page #2428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | व्याख्याप्रमस्तिसूत्र तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले संजी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। 21. ते णं भंते ! जीवा ? एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स असन्निस्स तहेव निरवसेसं जाव कालादेसो ति, नवरं परिमाणे-जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / सेसं तं चैव / तइयो गमओ] [21 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [21 उ.] जैसे रत्नप्रभा-पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार की वक्तव्यता यहाँ यावत-कालादेश तक कहनी चाहिए। परन्त परिमाण के सम्बन्ध में विशेष यह है कि वह जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना ! [ तृतीय गमक ] 22. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएस, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उवव० / [22] यदि वह स्वयं (असंज्ञी पं. तिर्यञ्च) जघन्यकाल की स्थिति वाला हो, तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले सं. पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। 23. ते णं भंते !? प्रवसेसं जहा एयस्स पुढविकाइएसु उथवज्जमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु तहा इह वि मज्झिमेसु तिसु गमएलु जाव अणुबंधो ति। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीनो चहि अंतोमुहहिं अमहियाओ। [चउत्थो गमत्रो] / [23 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति के असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के बिचले तीन गमकों (4-5-6) में जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार यहां भी तीनों ही गमकों में यावत् अनुबन्ध तक सब कहना चाहिए। भवादेश से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है, तथा कालादेश से--जघन्य दो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्व कोटि वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / चतुर्थ गमक ] 24. सो चेव जहन्नकाल ट्रितीएस उववन्नो, एस चेव वत्तब्वया, नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं अट्ठ अंतोमुत्ता; एवतियं / [पंचमो गमयो / [24] यदि वह (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति बाले सं. पंचेन्द्रियतिरंञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि Page #2429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20] [231 कालादेश से जघन्य दो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट आठ अन्तमुहूर्त; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [ पंचम गमक ] 25. सो चैव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं पुश्वकोडीग्राउएस, उक्कोसेण वि पुन्यकोडीआउएसु उवव० / एस चेक वत्तव्यया, नवरं कालाएसेणं जाणेज्जा। [छट्ठो गमओ] / / [25] यदि वह (प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले सं. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में उत्पन्न होता है / यहाँ यही पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ कालादेश (भिन्न) समझना चाहिए। [छठा गमक] 26. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीयो जानो, सच्चेव पढमगमगवत्तम्बया, नवरं ठिती से जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि युवकोडी। सेसं तं चैव / कालाएसेणं जहन्नेणं युवकोडी अंतोमुहत्तमन्भहिया, उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभाग पुयकोडीपुहत्तमलमाहियं; एवतियं० / [सत्तमो गमओ] / [26] यदि वह (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो यम गमक के अनसार उसकी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पर्वकोटिवर्ष की होती है। शेष पूर्ववत जानना / काल की अपेक्षा से .. जघन्य अन्तर्मुहर्त्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सप्तम गमक] 26. सो चेव जहन्नकालाहितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वता जहा सत्तभगमे, नवरं कालाए. सेणं जहन्नेणं पुच्चकोडी अंतोमुत्तमम्भहिया, उफ्कोसेणं चत्तारि पुचकोडीयो चहि अंतोमुहुर्तेहि अब्भहियानो; एवतियं० / [अट्ठमो गमो] / [27] यदि वह (उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला असंज्ञी पं. तिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न हो, तो भी यही सातवें गमक की वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि कालादेश से- जघन्य अन्तर्मुहुर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि, इतने काल तक (यावत् गमनागमन करता है / ) [आठवाँ गमक] 28. सो चेव उक्कोसकालदिईएस उधवन्नो, जहन्नेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणवि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं / एवं जहा रयणप्यभाए उववज्जमाणस्स असन्निस्स नवमगमए तहेव निरवसेसं जाव कालादेसो त्ति, नवरं परिमाणं जहा एयस्सेव ततियगमे / सेसं तं चेव / [नवमो गमयो / [28] यदि वही (असंज्ञी पं. ति.), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संजी पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है; इत्यादि समग्र वक्तव्यता, रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चसम्बन्धी नवम गमक की वक्तव्यता के अनुसार यावत् कालादेश तक कहनी चाहिए / परन्तु परिमाण Page #2430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জায়ােসালিম में विशेष यह है कि वह इसके तीसरे गमक में कहे अनुसार कहना। शेष पूर्ववत् जानना। नौवां गमक] विवेचन-कुछ स्पष्टीकरण ---(1) प्रसंज्ञी पंचेन्द्रितिर्यञ्च, जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है, वह प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च से निकल कर असंख्यात वर्ष की आयु वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न हो सकता है। इसलिए कहा गया है. उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जभागठिईएत्ति / अर्थात् वह उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यज्यों में उत्पन्न होता है। (2) परिमाणादि द्वारों का कथन जिस प्रकार पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी के पृथ्वीकायिक उद्देशक में परिमाणादि द्वारों का कथन किया गया है उसी प्रकार यहाँ भी पंचेन्द्रियतियंञ्चों में होने वाले असंज्ञी का भी करना चाहिए / (3) इसका उत्कृष्ट कालादेश-पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योषम का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है. वह इस कारण से है कि पर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाला असंज्ञी, पूर्वकोटि की आयुवाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में सात बार उत्पन्न हातां है, इसलिए सात भवग्रहण करने में सात पूर्वकोटिवर्ष हुए। आठवें भव में पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले यौगलिक तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त कालादेश बनता है / (3) असंख्यात वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यात उत्पन्न नहीं होते वे संख्या ही उत्पन्न होते हैं; क्योंकि वे संख्यात ही होते हैं। (4) जघन्य स्थिति वाला असंजी, संख्यात वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में ही उत्पन्न होता है / इसीलिए चौथे गमक में कहा गया है उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में ही उत्पन्न होता है / इस प्रकार नौ गमकों का कथन विचारपूर्वक करना चाहिए। (5) असंज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की परिमाणादि अवशिष्ट विषयों की वक्तव्यता तीनों मध्यम गमों अर्थात् जघन्य स्थिति वाले तीनों (4-5-6) गमों में अनुबन्धपर्यन्त (पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले के तीनों मध्यम गमकों के अनुसार) कहनी चाहिए।' पंचेन्द्रियतिर्यचों में उत्पन्न होने वाले संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यचों के उत्पाद-परिमारणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा 26. जदि सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि संखेज्जवासा०, असंखेज्ज ? गोयमा ! संखेज्ज०, नो असंखेज्ज० / | 26 प्र] यदि वे (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च), संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों से प्रा कर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से पा कर उत्पन्न होते हैं या असंख्यात वर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों से ? [26 उ.] गौतम ! बे संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आ कर उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों से नहीं / 30. जदि संखेज्ज० जाव कि पज्जत्तासंखेज्ज, अपज्जत्तासंखेज्ज ? दोसु वि। 1. (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 8.41 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 6, पृ. 3134 Page #2431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [233 [30 प्र.] भगवन् ! यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च) संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों से ? [30 उ.] गौतम ! वे दोनों (पर्याप्तक और अपर्याप्तक सं. पं. ति.) से आकर उत्पन्न होते हैं। 31. संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं घेतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिपलिओवमद्वितीएसु उववज्जिज्जा। [31 प्र.] भगवन् ! यदि संख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? {31 उ.] गौतम! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संशी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। 32. ते णं भंते ! अवसेसं जहा एयस्स चेव सन्निस्स रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स पढमगमए, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उषकोसेणं जोयणसहस्सं, सेसं तं चेव जाव भवादेसो त्ति / कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं तिन्नि पलिनोवमाई पुवकोडिपुहत्तमन्भहियाई; एवतियं / [पढमो गमनो]। [32 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [32 उ.] (गौतम ! ) रत्नप्रभापृथ्वी में उत्पन्न होने वाले इस संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के प्रथम गमक के समान सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है। शेष सब कथन यावत् भवादेश तक पूर्ववत जानना। काल की अपेक्षा से-जघन्य दो अन्तमूहर्त्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] 33, सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीनो चहिं अंतोमुत्तेहि अहियाप्रो। [बोप्रो गमओ] / [33] यदि वही (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जीव, जघन्य काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो. तो वही पर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष कालादेश अन्तर्म हत और उत्कृष्ट चार अन्तम हर्त अधिक चार पूर्वकोटि, (इतने काल तक यावत गमनागमन करता है / ) [द्वितीय गमक] ____34. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववण्णो, जहन्नेणं तिपलिप्रोवमट्टितोएसु, उक्कोसेण वि तिपलिनोवमद्वितीएसु उवव० / एस चेव वत्तव्वया, नवरं परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि Page #2432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / सेसं तं चेव जाव अणुबंधो ति। भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहन्नेणं तिण्णि पलिओषमाई अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाइं पुवकोडीए अमहियाई / [सइमो गमो ] / [34] यदि वह (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सं. पं. तिथंचों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है, इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यतानुसार कहना चाहिए। परन्तु परिमाण में विशेष यह है कि वह जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं / (उसके शरीर की) अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातथे भाग की और उत्कृष्ट एक हजार योजन की होती है। शेष पूर्ववत् यावत् मनुबन्ध तक जानना / भवादेश से--दो भव और कालादेश से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत गमनागमन करता है। [तृतीय गमक] 35. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जाओ, जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडियाउएसु उवव० / लद्धी से जहा एयस्स चेव सन्निपंचेंदियस्स पुढविकाइएस उववज्जमाणस्स मभिल्लएस तिसु गमएस सच्चेव इह वि मज्झिमएस तिसु गमएसु कायव्वा / संवेहो जहेव एत्थ चैव असन्निस्स मज्झिमएसु तिसु गमएसु / [4-6 गमगा] / [35] यदि वह (संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च), स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला हो और (संज्ञी पं. तिर्यञ्चों में) उत्पन्न हो, तो वह जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-वर्ष की स्थितिवाले सं. पंचे. तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है। इस विषय में पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न होने वाले इसी सज्ञी पंचेन्द्रिय की वक्तव्यता के अनुसार मध्य के तीन (4-5-6) गमक जानने चाहिए तथा पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय के बीच के तीन गमकों (4-5-6) में जो संवेध कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए / [गमक 4-5-6] 36. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीओ जामो, जहा पढमगमओ, गवरं ठिती अणुबंथो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी। कालाएसेणं जहन्नेणं पुरुषकोडी अंतोमुत्तमम्भहिया, उक्कोसेणं तिन्नि पलिमोबमाई पुनकोडिपुत्तमम्भहियाइं। [सत्तमो गमो] / [36] यदि वह (संज्ञी पं. तिर्यञ्च) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो, तो उसके विषय में प्रथम गमक के समान कहना चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और अनबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष कहना चाहिए। कालादेश से-जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [सप्तम गमक] 37. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी अंतोमुत्तमन्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुध्धकोडीनो चहि अंतोमुत्तेहि अमहियाश्रो, [अटुमो गमओ] / Page #2433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20] [235 37/ यदि वही (उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पं. तिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि कालादेश से-जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि, इतने काल तक यावत् गति-प्रागति करता रहता है। [अष्टम गमक] 38. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिनोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि तिपलिग्रोवमट्टितीएसु / अवसेसं तं चेव, नवरं परिमाणं प्रोगाणा य जहा एयरसेव ततियगमए / भवाएसेणं दो भवगहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तिणि पलिओवमाइं पुत्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुवकोडीए अन्भहियाई; एवतियं० / [नवमो गमत्रो]। [38] यदि वह (उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला सं. पं. ति.), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। शेष सब पूर्वोक्त कथनानुसार जानना / विशेष यह है कि परिमाण और अवगाहना इसी के तीसरे गमक में कहे अनुसार समझना। भवादेश से-दो भव, और कालादेश से-जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गतिआगति करता रहता है। [नौवाँ गमक विवेचन-विशेष तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) संजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, संख्यात-वर्ष की आयु वाले पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं / (2) वह तीन पल्योपम की स्थिति तक में उत्पन्न हो सकते हैं। (3) संख्यात ही क्यों ?---उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च असंख्यात वर्ष के आय वाले ही होते हैं और वे (परिमाण में संख्यात होने से उत्कृष्ट रूप से भी संख्यात ही उत्पन्न होते हैं। (4) अवगाहना--सं. पं. तिर्यञ्च में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिथंचों को अवगाहना, रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले संज्ञी ति, पं. के समान नहीं होती, क्योंकि वहाँ संज्ञो ति. पं. की अवगाहना केवल सात धनुष की बतलाई गई है, जबकि यहाँ उत्कृष्टत: एक हजार योजन की है, यह मत्स्य प्रादि को अपेक्षा से कही गई है। (5) संजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च से प्राता हो तो भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए / पहले और सातवें गमक में कालादेश सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम होता है। तीसरे और नौवें गमक में उत्कृष्ट संख्यात ही उत्पन्न होते हैं और भत्र भी दो ही होते हैं / अतः दो भवों का ही कालादेश कहना चाहिए। शेष गमकों में यौगलिक पं. तिर्यञ्च नहीं होते / अतः उनकी स्थिति का आकलन विचारपूर्वक करना चाहिए।' मनुष्य की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों में उत्पत्तिनिरूपण 36. जदि मणुस्सेहितो उववज्जति कि सण्णिमगु०, असण्णिमणु० ? गोयमा ! सण्णिमणु०, असण्णिमणु / [36 प्र.] भगवन् ! यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 841 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 6, पृ. 3134 / Page #2434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [36 उ.] गौतम ! वे संज्ञी और असंज्ञी-दोनों प्रकार के मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन-निष्कर्ष- संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, संज्ञी और असंज्ञी- दोनों प्रकार के मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रियतिथंचों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी मनुष्यों में उत्पादादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 40. असन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्ख० उवव० से णं भंते ! केवतिकाल.? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुत्वकोडिआउएसु उववज्जति / लद्धी से तिसु वि गमएसु जहेव पुढविकाइएसु उववज्जमाणस्स, संवेहो जहा एस्थ चेव असन्निस्स पंचेंदियस्स मन्भिमेसु तिसु गमएसु तहेव निरवसेसो भाणियध्वो / [40 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी मनुष्य, जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है ? / 40 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न होने वाले असंज्ञी मनुष्य की प्रथम के तीन गमकों में जो वक्तव्यता कही है, उसके अनुसार यहाँ भी प्रथम के तीन गमकों में कहनी चाहिए। जिस प्रकार असंज्ञीपंचेन्द्रिय के मध्यम तीन गमकों में संवेध कहा है, उसी प्रकार सब कहना चाहिए। विवेचन-असंज्ञी मनुष्यों में आद्य तीन ही गमक-असंज्ञी मनुष्य के विषय में नौ गमकों में से प्रथम के तीन गमक ही सम्भव हैं, क्योंकि असंज्ञी मनुष्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होने से ये तीन ही गम हो सकते हैं, शेष छह गम नहीं होते।' पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले संजो मनुष्य के उत्पाद-परिमाण प्रादि द्वार 41. जइ सणिमणुस्स० कि संखेज्जवासाउयसणिमणुस्स०, असंखेज्जवासाउयसरिणमणुस्स०? गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय० / [41 प्र.] भगवन् ! यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च) संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है तो, क्या वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञो मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है या असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञो मनुष्यों से ? 41 उ.] गौतम ! वह संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है, असंख्यात वर्ष की आयु वाले सं. म. से नहीं / 42. जदि संखेज्ज० किं पज्जत्ता०, अपज्जत्ता० ? गोयमा ! पज्जत्त०, अपज्जत्त० / [42 प्र.] भगवन् ! यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च) संख्यात-वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 841 Page #2435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20] / 237 से प्राकर उत्पन्न होता है, तो क्या वह पर्याप्तक संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होता है या अपर्याप्तक मंत्री मनुष्यों से? [42 उ.] गौतम ! वह पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के संज्ञी मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होता है। 43. संखेज्जवासाउयसन्निमणुस्से णं भंते ! जे भविए पंचिदियतिरिक्ख० उबज्जित्तए से गं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त०, उक्कोसेणं तिपलिग्रोवमद्वितीएसु उवव० / [43 प्र.] भगवन् ! संख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यच्चों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? 643 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है / 44. ते णं भंते ! 0? लद्धी से जहा एयस्सेव सन्निमणुस्सस्स पुढविकाइएसु उववज्जमाणस्स पढमगमए जाव भवादेसो त्ति / कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं तिन्नि पलिनोवमाइं पुवकोडिपुहत्तमभहियाइं० / [पढमो गमत्रो]। [44 प्र.) भगवन् ! वे जीव (संज्ञी मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? : इत्यादि प्रश्न / [44 उ.] (गौतम ! ) पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले इसी संज्ञी मनुष्य की प्रथम गमक में कही हुई वक्तव्यता, यावत्-भवादेश तक कहनी चाहिए। कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व अधिक तीन पत्योपम, (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / ) [प्रथम गमक 45. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ चहिं अंतोमुहुर्तेहि अन्भहियानो०। [बोसो गमो ] / [45] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) जघन्यकाल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु कालादेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि वर्ष, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [द्वितीय गमक] 46. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिओवमट्टिईएसु, उक्कोसेण वि तिपलिनोवमट्ठिईएसु / एसा चेव जत्तम्बया, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहत्तं, उक्कोसेणं पंच अणुसयाई / ठितो जहन्नेणं मासपुहत्तं, उक्कोसेणं पुन्वकोडी। एवं अणुबंधो वि। भवावेसेणं दो Page #2436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 [व्याख्यांप्रज्ञप्तिसूत्र भवाहणाई। कालादे सेणं जहन्नेगं तिणि पलिग्रोवमाई मासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई पुवकोडीए अब्भहियाई; एवतियं / तइयो गमो] / [46] यदि वही (संज्ञो मनुष्य), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है / यहाँ भी वही पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि उसकी अवगाहना जघन्य अंगुलपृथक्त्व और उत्कृष्ट पांच-सौ धनुष की होती है। स्थिति जघन्य मास-पृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की होती है / इसी प्रकार अनुबन्ध भी जान लेना। भवादेश से-जघन्य दो भव तथा कालादेश से--जघन्य मासपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। तृतीय गमक] 47. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जात्रो, जहा सन्निस्स पंचेंदियतिरिवखजोणियस्स पंचेंदियतिरिक्खजोगिएस उववज्जमाणस मज्झिमेस तिस् गमएस वत्तव्वया भणिया सच्चेव एतत्स वि मज्झिमेसु तिसु गमएस निरवसेसा भाणियव्वा, नवरं परिमाणं उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / सेसं तं चेव। [4-6 गमगा] / [47] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सं.पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो जिस प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की बीच के तीन गमकों (4-5-6) में वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार इसके भी बीच के तीन गमकों को समस्त वक्तव्यता यावत्-भवादेश तक कहनी चाहिए / परन्तु विशेषता परिमाण के विषय में यह है कि वे उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष पूर्वोक्तवत् कहना चाहिए। (4-5-6 48. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितोश्रो जाओ, सच्चेव पढमगमगवत्तम्बया, नवरं ओगाणा जहन्नेणं पंच धणुलयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई / ठिती अणुबंधो जहन्नेणं पुवकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी / सेसं तहेव जाव भवाएसो त्ति / कालाएसेणं जहन्नेणं पुत्वकोडी अंतोमुहुत्तमन्भहिया, उक्कोसेणं तिनि पलिश्रोवमाइं पुवकोडिपुहत्तमभहियाई; एवलियं० / [सत्तमो गमो ] / [48] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके लिए प्रथम गमक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष-शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच-सौ धनुष की होती है। स्थिति और अनुबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष का है / शेष पूर्ववत् यावत भवादेश तक / कालादेश से-जधन्य अन्तमुहूर्त अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपथक्त्व अधिक तीन पल्योषम, (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। सप्तम गमक] 46. सो चेव जहन्नकाल द्वित्तीएसु उववन्नो, एसा चेव दत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं पुवकोडी अंतोमुत्तममहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पुश्वकोडीओ चहिं अंतोमुहुतेहि अन्भहियानो० / [अट्ठमो गमयो] / Page #2437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [239 |46] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) जघन्यकाल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्च में उत्पन्न हो नो भी यही (पूर्ववत् वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वकोटि वर्ष और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहुर्त अधिक चार पूर्वकोटि, (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / ) [अष्टम गमक] 50. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिग्रोवमा, उक्कोसेण वि तिपलिग्रोवमा। एस चेव लद्धी जहेव सत्तमगमे। भवाएसेणं दो भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तिनि पलिग्रोवमाइं पुवकोडीए अमहियाई; उक्कोसेणं वि तिणि पलिग्रोवमाई पुवकोडीए अम्भहियाई, एबतियं० / [नवमो गमओ] / 50] यदि (संज्ञी मनुष्य) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो तो जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सं. पं. ति. में उत्पन्न होता है। यहाँ पुर्वोक्त सप्तम गमक की वक्तव्यता कहनी चाहिए / भवादेश से-जघन्य दो भव ग्रहण करता है तथा कालादेश से-जघन्य पूर्वकोटि-अधिक तीन पल्योपम और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम, . इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / | नौवां गमक | विवेचन--स्पष्टीकरण-(१) असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य देव में ही उत्पन्न होते हैं, तिर्यच्च आदि में नहीं। (2) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च के तीसरे गमक में अवगाहना और स्थिति के विषय में जो विशेषता बताई गई है, उससे स्पष्ट है कि अंगुलपृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) से कम अबगाहना वाला और मासपथक्त्व (दो मास से नौ मास तक) से कम स्थिति वाला मनुष्य, उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न नहीं होता। (3) संज्ञी मनुष्य के मध्य के तीन गमक के परिमाण में उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, क्योंकि संज्ञी मनुष्य संख्यात ही हैं इसलिए वे उत्कृष्ट रूप से भी संख्यात ही उत्पन्न होते हैं / ' देवों से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पत्ति का निरूपण 51. जदि देवेहितो उवव० किं भवणवासिदेवेहितो उवव०, वाणमंतर०, जोतिसिय०, वेमाणियदेवेहितो? गोयमा ! भवणवासिदेवे० जाव वेमाणियदेवे० / 51 प्र.] यदि देवों से पाकर वे (सं. पं. तिर्यञ्च) उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, वाणव्यंतर., ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [51 उ.] गौतम ! वे भवनवासी देवों से, यावत् वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन--निष्कर्ष संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिप्क एवं वैमानिक, चारों प्रकार के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3140 Page #2438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले भवनवासी देवों के उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 52. जदि भवणवासि० कि असुरकुमारभवण जाव थणियकुमारभवण ? गोयमा ! असुरफुमार० जाव थणियकुमारभवणः / {52 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च) भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे असुरकुमार अथवा यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [52 उ.] गौतम ! वे असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देवों से भी पाकर उत्पन्न होते हैं। 53. असुरकुमारे णं भंते ! जे भनिए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुत्वकोडिअाउएसु उवव० / असुरकुमाराणं लद्धी नवसु वि गमएसु जहा पुढविकाइएसु उववज्जमाणस्स एवं जाय ईसाणदेवस्स तहेव लद्धी। भवाएसेणं सम्वत्थ अट्ठ भवग्गहणाई उक्कोसेणं, जहन्नेणं दोन्नि भव० / ठिति संवेहं च सव्वस्थ जाणेज्जा। [53 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, जो पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? {53 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तमुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। उसके नौ ही गमकों में जो वक्तव्यता पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले असुरकुमारों की कही है, वैसी ही वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए। इसी प्रकार यावत् ईशान देवलोक पर्यन्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। भवादेश से सर्वत्र उत्कृष्टत: आठ भव और जघन्यतः दो भव ग्रहण करता है / सर्वत्र स्थिति और संवेध भिन्न भिन्न समझना चाहिए / 54. नागकुमारे णं भंते ! जे भविए ? एस चेव वत्तव्वया, नवरं ठिति संवेधं च जाणेज्जा। |54 प्र.| भगवन् ! नागकुमार, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (सं. पं. तिर्यञ्चों) में उत्पन्न होता है ? [54 उ.] गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त समस्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु विशेष यह है कि स्थिति और संवेध भिन्न जानना / 55. एवं जाव थणियकुमारे। [55] इसी प्रकार (सुपर्णकुमार से ले कर) यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। विवेचन...स्पष्टीकरण----पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न होने वाले असुरकमारादि देवों के लिए वक्तव्यता में पृथ्वी कायिकों में उत्पन्न होने वाले देव यावत् ईशान देवलोक तक के देवों का अतिदेश Page #2439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [241 किया गया है, इसका कारण यह है कि ईशान देवलोक तक के देव ही पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होते हैं।' पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होनेवाले वाणव्यन्तर देवों के उत्पाद-परिमारणादि बीस द्वारों को प्ररूपणा 56. जदि वाणमंतरे० कि पिसाय० ? तहेव जाव [56 प्र.] भगवन् ! यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च), वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे पिशाच वाणव्यन्तर देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [56 उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए, यावत्५७. वाणमंतरे णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्ख० ? एवं चेव, नवरं ठिति सवेहं च जाणेज्जा। [57 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देव, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? / 57 उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना / स्थिति और संवेध उससे भिन्न जानना चाहिए। विवेचन-निष्कर्ष-संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में सभी प्रकार के वाणव्यन्तर जाति के देव आ कर उत्पन्न होते हैं तथा वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले ज्योतिष्क देवों में उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 58. जदि जोतिसिय०? उक्वातो तहेव जाव--- [58 प्र.] यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च) ज्योतिष्क देवों से पाकर उत्पन्न होता है, तो? इत्यादि प्रश्न / [58 उ.] उसका उपपात पूर्वोक्त कथनानुसार (पृथ्वीकायिक में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के उपपात के समान) कहना चाहिए / यावत् 56. जोतिसिए णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्ख० ? एस चेव वत्तम्बया जहा पुढविकाइयउद्देसए। भवग्गहणाई नबसु वि गमएसु अट्ठ जाव कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठभागपलिनोवमं अंतोमुत्तमब्भहियं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई चहिं पुवकोडीहि चउहि य वाससयसहस्सेहि अन्भहियाई; एवतियं० / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 842 . Page #2440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 56 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देव, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / 56 उ.] गौतम ! यही पूर्वोक्त वक्तव्यता जो पृथ्वीकायिक-उद्देशक में कही है, तदनुसार कहनी चाहिए। नौ ही गमकों में भवादेश से आठ भव जानना: यावत का अन्तमुहर्त अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि और चार लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 60. एवं नवसु वि गमएसु, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। 160, इसी प्रकार नौ ही गमकों के विषय में जानना चाहिए / किन्तु यहाँ स्थिति और सबंध भिन्न (विशेष) जानना चाहिए / [गमक 1 से 9 तक] वैमानिक देवों की पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पत्तिनिरूपरगा 61. जदि वेमाणियदेवे कि कप्पोवग०, कप्पातीतवेमाणिय ? गोयमा ! कप्पोवगवेमाणिय०, नो कप्पातीतवेमा० / {61 प्र. यदि वे (सं. पं. तिर्यञ्च) वैमानिक देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, या कल्पातीत-वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [61 उ.] गौतम ! वे कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, कल्पातीत वैमानिक देवों से नहीं। 62. जदि कप्पोवग० ? जाव सहस्सारकप्पोबगवेमाणियदेवेहितो वि उववज्जंति, नो प्राणय जाव नो अच्चयकप्पोवगवेमा०। [62 प्र.] भगवन् ! यदि वे कल्पोपपन्न देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं तो (कौन-से कल्प से)? इत्यादि प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! वे (सौधर्म-क. वै. देव से ले कर) यावत् सहस्रार कल्पोपपन्न-वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु प्रानत (से लेकर) यावत् अच्युत कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से प्राकर उत्पन्न नहीं होते। विवेचन ---निष्कर्ष--संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तथा कल्पोपपन्न में भी सौधर्मकल्प से लेकर सहस्रारकल्प तक के देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, ग्रागे के पानत से लेकर अच्युतकल्प के देवों से नहीं।' 1. बियापण्णत्तिसुत्तं, भा. 2 (मूलपाठटिप्पणयुक्त), पृ. 955 Page #2441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उदशक 20 1241 पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले सौधर्म से सहलारदेव पर्यन्त के उत्पाद-परिमारणादि वोस द्वारों को प्ररूपणा 63. सोहम्मदेवे णं भंते ! जे भविए पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्त०, उक्कोसेणं पुवकोडिअाउएसु / सेसं जहेव पुढविकाइयउद्देसए नवसु वि गमएसु, नवरं * नवसु वि गमएसु जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवागहणाई / ठिति कालादेसं च जाणेज्जा। [63 प्र. भगवन् ! सौधर्म देव जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (सं. पं. तियंञ्चों) में उत्पन्न होता है ? [63 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को स्थिति वाले (सं. पं. सिर्यञ्चों) में उत्पन्न होता है। शेष सब नौ ही गमकों से सम्बन्धित वक्तव्यता पृथ्वीकायिक-उद्देशक में कहे अनुसार जानना / परन्तु विशेष यह है कि नौ ही गमकों में (संवेध)-भवादेश से जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव होते हैं / स्थिति और कालादेश भी भिन्न-भिन्न समझना चाहिए। 64. एवं ईसाणदेवे वि। [64] इसी प्रकार ईशान देव के विषय में भी जानना चाहिए। 65. एवं एएणं कमेणं अवसेसा वि जाव सहस्सारदेवेसु उववातेयव्वा, नवरं प्रोगाहणा जहा प्रोगाहणसंठाणे / लेस्सा सणंकुमार-माहिद-बंभलोएसु एगा पम्हलेस्सा, सेसाणं एगा सुक्कलेस्सा। वेवे-नो इत्यिवेवगा, पुरिसवेदगा, नो नपुंसगवेदगा। आउ-अणुबंधा जहा ठितिपदे। सेसं जहेव ईसाणगाणं / कायसंवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चउवीसहमे सए : बीसतिमो उद्देसनो समत्तो // 24-20 // [65] इसी क्रम से शेष सब देवों का-सहस्रारकल्प पर्यन्त के देवों का- उपपात कहना चाहिए। परन्तु अवगाहना, (प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें) अवगाहना-संस्थान-पद के अनुसार जानना / लेश्या (इस प्रकार है)-सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में एक पद्मलेश्या तथा लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार में एक शुक्ललेश्या होती है। वेद-ये स्त्रीवेद और नपुसकवेदी नहीं होते, केवल पुरुषवेदी होते हैं / (प्रज्ञापनासूत्र के चतुर्थ) स्थितिपद के अनुसार आयु (स्थिति) और अनुबन्ध जानना चाहिए। शेष सब ईशानदेव के समान कहना चाहिए। कायसंवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे। Page #2442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन स्पष्टीकरण-(१) पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में आठवें देवलोक से आकर उत्पन्न होते हैं। इनके परिणाम, संहनन आदि की वक्तव्यता पूर्ववत् समझना चाहिए। भवादेश आदि के लिए भी पूर्ववत् अतिदेश किया गया है।' (2) अवगाहना-प्रज्ञापनासूत्र के 21 वें पद के अनुसार इस प्रकार है 'भवण-वण-जोइ-सोहम्मोसाणे सत्त हुँति रयणीओ। एक्केक्क-हाणि सेसे दुदुगे य दुगे चउक्के य॥' अर्थात-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीय अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट सात रत्लि (हाथ) है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में 6 रत्नि है। ब्रह्मलोक और लान्तक में 5 रत्नि, महाशुक्र और सहस्रार में 4 रत्नि तथा मानत, प्राणत, पारण और अच्युत में तीन रत्नि की अवगाहना होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है। (3) स्थिति सभी की भिन्न-भिन्न है, जिसका निर्देश अन्यत्र किया जा चुका है। स्थिति के अनुसार उपयोग पूर्वक संवेध जान लेना चाहिए / // चौवीसवां शतक : वीसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 842 2. (क) बही, पत्र 842 (ख) पण्णवणासुत्तं, भा. 1 सू. 1532/5, पृ. 341 (महावीरविद्यालय प्रकाशन) Page #2443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कवीसइमो : मणुस्स-उद्देसओ इक्कीसवां उद्देशक : मनुष्य (को उत्पादादिप्ररूपणा) गति की अपेक्षा मनुष्यों के उपपात का निरूपण 1. मणुस्सा णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? कि नेरइरहितो उववज्जति जाव देवेहितो उवव० ? गोयमा ! नेरइएहितो वि उववज्जंति, एवं उववानो जहा पंचेदियतिरिक्खजोणियउद्देसए (उ० 20 सु० 1---2) जाव तमापुढविनेरइएहितो वि उववज्जंति, नो अहेसत्तमपुढविनेरइएहितो उवव० / [1 प्र.] भगवन् ! मनुष्य कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं। क्या वे नैरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों, तिर्यञ्चों अथवा देवों से आकर होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! नैरयिकों से भी पाकर उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यहाँ 'पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-उद्देशक' (उ. 20, सू. 1-2) में कहे अनुसार, यावत्-तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु अधःसप्तम-पृथ्वी के नरयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, यहाँ तक उपपात का कथन करना चाहिए। विवेचन निष्कर्ष-मनुष्य, चारों गतियों से आकर उत्पन्न होते हैं। यदि वे नरकगति से उत्पन्न होते हैं तो छठे नरक तक से आकर होते हैं, सप्तम नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते।' मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले रत्नप्रभा से तमःप्रभा तक के नैरयिकों में उत्पाद-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 2. रयणप्पभपुढविनेरइए णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते ! केवतिकाल ? गोयमा ! जहन्नेणं मासपुहत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुत्वकोडिआउएसु। [2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। [2 उ.] गौतम ! वह जवन्य मासपृथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले (मनुष्यों में उत्पन्न होता है / ) 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठटिप्पणयुक्त), पृ. 956 Page #2444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्रतिसूत्र 3. अवसेसा वत्तव्यया जहा पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जतस्स तहेव, नवरं परिमाणे जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति, जहा तहि अंतोमुहहि तहा इहं मासपुहत्तेहिं संवेहं करेज्जा / सेसं तं चेव / 3| शेष वक्तव्यता पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चयोनिक में उत्पन्न होने वाले रत्नप्रभा के नरयिक के समान जानना चाहिए। परिमाण में विशेष यह है कि वे जघन्य एक, दो या तीन, अथवा उत्कृष्ट मख्यात उत्पन्न होते हैं। वहाँ तो अन्तमुहूर्त के साथ संवेध किया था, किन्तु यहाँ मासपथक्त्व के साथ संवेध करना चाहिए / शेष पूर्व-कथित अनुसार जानना चाहिए / 4. जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि वत्तब्वया, नवरं जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुवकोडि० / प्रोगाहणा-लेस्सा-नाण-ट्ठिति-अणुबंध-संवेहनाणत्तं च जाणेज्जा जहेव तिरिक्खजोणियउद्देसए (उ० 20 सु० 8-6) एवं जाव तमापुढविनेरइए। 4] रत्नप्रभा की वक्तव्यता के समान शर्कराप्रभा की भी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि यह जघन्य वर्षपृथक्त्व की तथा उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। अवगाहना, लेश्या, ज्ञान, स्थिति, अनुबन्ध और संवेध का नानात्व (विशेषता) तिर्यंचयोनिक-उद्देशक (उ. 20, सू. 8-6) में कहे अनुसार जानना / इस प्रकार यावत् तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक तक जानना चाहिए / विवेचन--मनष्यों में उत्पन्न होने वाले नारकों के सम्बन्ध में--(१) रत्नप्रभाध्वी के नारक यदि मनुष्यायु का बन्ध करते हैं, तो वे मासपृथक्त्व (दो महीने से नौ महीने तक) से कम आयु का बन्ध नहीं करते, क्योंकि उनमें तथाविध परिणाम का अभाव होता है / इसी प्रकार अन्यत्र भी (आगे की नरक पृध्वियों में भी) यही कारण समझना चाहिए / (2) परिमाणद्वार में विशेष--नारक, सम्मूच्छिम मनुष्यों में नहीं उत्पन्न होते हैं / गर्भज संख्यात हैं, इसलिए वे (नारक) संख्यात ही उत्पन्न होते हैं। (3) रत्नप्रभापृथ्वी से प्राकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में उत्पन्न होने वालों की जघन्य स्थिति पंचेन्द्रियतिर्यञ्च-उद्देशक (20 वें उद्देशक) में अन्तर्मुहूर्त बताई है, अतः अन्तर्मुहर्त के साथ संवेध किया है, किन्तु यहाँ मनुष्य-उद्देशक (उ. 21) में मनुष्यों की जघन्य स्थिति को लेकर मासपृथक्त्व के साथ संवेध किया है, क्योंकि काल की अपेक्षा से जघन्य संवेध मासपृथक्त्व अधिक दस हजार वर्ष है। (4) शर्कराप्रभा आदि की समग्र वक्तव्यता पंचेन्द्रियतिर्यञ्च-उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिए।' मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले अग्नि-वायुकाय के सिवाय एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय-पंचेन्द्रियतिर्यंच-मनुष्यों के उत्पाद-परिमाणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा 5. जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, जाव पंचेदियतिरिक्खजोणिएहितो उवव० ? ---......- - . -.. 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 845 Page #2445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 21] [247 गोयमा! एगिदियतिरिक्ख० भेदो जहा पंचेदियतिरिक्खजोणिउद्देसए (उ०२० सु०११) नवर सेउ-बाऊ पडिसेहेयध्वा / सेसं तं चेव जाय.... 5 प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य), तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या वे एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, या यावत् पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! वे एकेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि वक्तव्यता पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-उद्देशक (उ. 20, सू. 11) में कहे अनुसार जाननी चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि इस विषय में तेजस्काय और वायकाय का निषेध करना चाहिए क्योंकि इन दोनों मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता)। शेष समग्न कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / यावत्-- 6. पुढविकाइए णं भंते जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुवकोडिअाउएसु उवव०।। [6 प्र. भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक, मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल को स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? 16 उ.} गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। 7. ते णं भंते ! जीवा०? एवं जा चेव पंचें दियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जमाणस पुढविकाइयस्स बत्तवया सा चेव इह वि उववज्जमाणस्स भाणियन्वा नवसु वि गमएसु, नवरं ततिय-छट्ठ-णवमेसु गमएस परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिग्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / 7 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 17 उ.] जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने वाले पथ्वीकायिक की वक्तव्यता है, वही यहाँ मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता नौ गमकों में कहनी चाहिए / विशेष यह है कि तीसरे, छठे और नौवें गमक में परिमाण जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, (ऐसा कहना चाहिए)। . 8. जाहे अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो भवति ताहे पढमगमए अझवसाणा पसत्था वि अप्पसत्या वि, बितियगमए अप्पसत्था, ततिए गमए पसस्था भवंति / सेसं तं चैव निरवसेसं / [8] जब स्वयं (पृथ्वीकायिक) जघन्यकाल की स्थिति वाला होता है, तब मध्य के तीन गमकों में से प्रथम (चौथे) गमक में अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी। द्वितीय (पाँचवें) गमक में अप्रशस्त और तृतीय (छठे) गमक में प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना। 6. जति पाउकाइए० एवं प्राउकाइयाण वि। [6 प्र.] यदि वे अप्कायिकों से आकर उत्पन्न हो तो। [6 उ.] अप्कायिकों के लिए भी (पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए / ) Page #2446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [ब्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 10. एवं वणस्सतिकाइयाण वि। [10] इसी प्रकार वनस्पतिकायिकों के लिए भी (पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / ) 11. एवं जाव चरिदियाणं / [11] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय-पर्यन्त जानना / 12. अग्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिया असन्निमणुस्सा सन्निमणुस्सा य, एए सव्वे वि जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणिउद्देसए तहेव भाणितव्वा, नवरं एताणि चेव परिमाण-प्रभवसाणणाणत्ताणि जाणिज्जा पुढविकाइयस्स एस्थ चेव उद्देसए भणियाणि / सेसं तहेव निरवसेसं। [12] असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, असंज्ञी मनुष्य और संज्ञी मनुष्य, इन सभी के विषय में पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहे अनुसार कहना चाहिए / परन्तु विशेषता यह है कि इन सबके परिणाम और अध्यवसायों को भिन्नता पृथ्वीकायिक के इसी उद्देशक में कहे अनुसार समझनी चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना। विवेचन--स्पष्टीकरण-(१) यहाँ पृथ्वीकाय से उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की जो वक्तव्यता कही है, वही पृथ्वीकाय से उत्पन्न होने वाले मनुष्य के लिए भी जाननी चाहिए। (2) तृतीय गमक में पृथ्वीकायिक से निकल कर उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में जो उत्पन्न होते हैं, वे उत्कृष्ट संख्यात होते हैं / यद्यपि यहाँ सामान्य रूप (औधिकरूप) से मनुष्य का ग्रहण होने से सम्मूच्छिम मनुष्यों का भी ग्रहण हो जाता है और वे असंख्यात हैं, तथापि उत्कृष्ट स्थिति में पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य संख्यात ही होते हैं, जबकि पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च असंख्यात हो जाते हैं। छठे और नौवें गमक में भी यही कथन समझना चाहिए। (3) मध्यत्रिक के प्रथम (अर्थात् चौथे) गमक में जघन्य स्थिति वाले पृथ्वी कायिक का मनुष्य में अधिक उत्पाद होता है / उस समय पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में उत्पत्ति होतो है, तब उसके अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं और जब उसी गमक में जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में उत्पत्ति होती है तब अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं। इसलिए चौथे गमक में दोनों प्रकार के अध्यवसाय बताए हैं। मध्यत्रिक में दूसरे (अर्थात् पाँचवें) गमक में जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक जब जघन्य स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है, तब उसके अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं। क्योंकि जघन्य स्थिति में प्रशस्त अध्यवसायों से उत्पत्ति नहीं होती। मध्यत्रिक के तीसरे (यानी छठे) गमक में जब जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक, उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्य में उत्पन्न होता है, तब उसके अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं।' देवों की अपेक्षा मनुष्यों में उत्पत्ति-प्ररूपरणा 13. जदि देवेहितो उवव० कि भवणवासिदेवेहितो उवव०, वाणमंतरजोतिसिय वेमाणियदेवेहितो उवध ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 845 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 6, पृ. 3151-52 Page #2447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 21] [249 गोयमा ! भवणवासि० जाव वेमाणिय० / [13 प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य) देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो भवनवासी देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, या वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [13 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य) भवनवासी यावत् वैमानिक देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-मनुष्य भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक, इन चारों प्रकार के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भवनवासी प्रादि चारों प्रकार के देवों के उत्पाद-परिमारणादि वीस द्वारों की प्ररूपणा 14. जदि भवण किं असुर० जाव थणिय० ? गोयमा ! असुर० जाव थगिय० / [14 प्र. भगवन् ! यदि वे (मनुष्य), भवनवासी देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे असुरकुमार-भवनवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् स्तनितकुमार भ० देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [14 उ.] गौतम ! वे असुरकुमार. यावत् स्तनितकुमार भ. देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / 15. असुरकुमारे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं मासयुहत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुन्वकोडिगाउएस, उबवज्जेज्जा। एवं जच्चेव पंचेंदियतिरिक्खजोणिउद्देसयवत्तध्वया सा चेव एत्थ वि भाणियव्वा, नवरं जहा तहिं जहन्नगं अंतोमुत्तद्वितीएसु तहा इहं मासपुहत्तट्टिईएसु, परिमाणं जहन्नेणं एक्को वा दो बा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / सेसं तं चेव जाव ईसाणदेवो ति / एयाणि चेव णाणत्ताणि सणंकुमारादीया जाव सहस्सारो त्ति, जहेव पंचेंदियतिरिक्खजोणिउद्देसए नवरं परिमाणे जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति। उववानो जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुवकोडिपाउएसु उवव० / सेसं तं चेव / संवेहं वासपुहत्तपुव्वकोडोसु करेज्जा। [15 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार भ० देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? [15 उ.] गौतम ! वह (असुर०) जघन्य मासपृथक्त्व वौर उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता यहाँ भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि जिस प्रकार वहाँ जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले तिर्यच में उत्पन्न होने का कहा है, उसी प्रकार यहाँ मासपृथक्त्व की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होने का कथन करना चाहिए। इसके परिमाण में विशेष-जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं, शेष सब पूर्वकथितानुसार जानना चाहिए। इस प्रकार यावत् ईशान देव तक वक्तव्यता कहनी चाहिए तथा ये (उपर्युक्त) विशेषताएँ भी जाननी चाहिए / जैसे पंचेन्द्रिय Page #2448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [ध्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र तिर्यञ्चयोनिक उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार सनत्कुमार से लेकर यावत् सहस्रार तक के देव के सम्बन्ध में कहना चाहिए / परन्तु विशेष यह है कि उनका परिमाण-~-जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। उनकी उत्पत्ति जघन्य वर्षपथक्त्व और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में होती है। शेष सब पूर्व-कथनानुसार जानना चाहिए / संवेध-(जघन्य) वर्गपृथक्त्व (और उत्कृष्ट) पूर्वकोटि वर्ष से करना चाहिए / 16. सणंकुमारे ठिती चउग्गुणिया अट्ठावीसं सागरोवमा भवंति / माहिदे ताणि चेव सातिरेगाणि / बंभलोए चत्तालीसं / लतए छप्पण्यं / महासुक्के प्रवादि / सहस्सारे बावरि सागरोवमाई / एसा उपकोसा ठितो भणिया, जहन्नदिति पि चउगुणेज्जा। [16] सनत्कुमार में (संवेध) स्वयं की उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर अट्ठाईस सागरोपम होता है। माहेन्द्र में (संवेध) कुछ अधिक अट्ठाईस सागरोपम होता है / (इसी प्रकार स्वयं को उत्कृष्ट स्थिति को चार गुणा करने पर) ब्रह्मलोक में 40 सागरोपम, लान्तक में छप्पन सागरोपम, महाशुक्र में अड़सठ सागरोपम तथा सहस्रार में बहत्तर सागरोपम होता है / यह उत्कृष्ट स्थिति कही गई है / जघन्य स्थिति को भी चार गुणी करनी चाहिए। (यों कायसंवेध कहना चाहिए।) [गमक 1 से 6 तक] 17. प्राणयदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएस उवव०, उक्कोसेणं पुवकोडिद्वितीएस। [17 प्र.] भगवन् ! प्रानतदेव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? [17 उ.] गौतम ! वह (मानतदेव), जघन्य वर्षपृथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है / 18, ते णं भंते ! o? एवं जहेव सहस्सारदेवाणं वत्तव्यया, नवरं ओगाहणा-ठिति-अणुबंधे य जाणेज्जा। सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवगहणाई, उक्कोसेणं छ भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोबमाई वासपुहत्तमहियाई, उक्कोसेणं सत्तावण्णं सागरोवमाइं तिहिं पुवकोडोहि अब्भहियाई; एवतियं कालं० / एवं नव वि गमा, नवरं ठिति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा। [18 प्र.] भगवन् ! बे (मनुष्य) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] (गौतम ! जिस प्रकार सहस्रारदेवों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए / परन्तु इनकी अवगाहना, स्थिति और अनुबन्ध के विषय में भिन्नता जाननी चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना / भव की अपेक्षा से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट छह भव ग्रहण करते हैं तथा काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। इसी प्रकार नौ ही गमकों में जानना चाहिए। विशेष यह है कि इनकी स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। Page #2449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 21] [256 16. एवं जाव अच्चुयदेवो, नवरं ठिति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा / पाणयदेवस्स ठिती तिउणा-सद्धि सागरोवमाई, पारणगस्स तेवद्धि सागरोवमाई, अच्चुयदेवस्स छाढि सागरोषमाई। [19] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेव तक जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी स्थिति, अनुबन्ध और संवेध, भिन्न-भिन्न जानने चाहिए। प्राणतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर साठ सागरोपम, आरणदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर तिरेसठ (63) सागरोपम और अच्युतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर छासठ (66) सागरोपम की हो जाती है। 20. जदि कप्पातीतवेमाणियदेवेहितो उक्व० कि गेवेज्जकप्पातीत०, अगुत्तरोववातियकप्पातीत०? गोयमा ! गेवेज्ज० अणुत्तरोववा० / / 20 प्र. भगवन् ! यदि वे मनुष्य कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या देयक-कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा अनुत्तरौपपातिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [20 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य) में वेयक और अनुत्तरौपपातिक दोनों प्रकार के कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। 21. जइ गेवेज्ज० कि हेछिमहेटिमगेवेज्जकापातीत० जाव उवरिमउधरिभगेवेन्ज.? गोयमा ! हेद्विमहेट्टिमगेवेज्ज० जाव उवरिमउरिम०। [21 प्र.] यदि वे (मनुष्य), ग्रे वेयक-कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे अधस्तन-अधस्तन (सबसे नीचे के) गं बेयक-कल्पा० देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत उपरितन-उपरितन (सबसे ऊपर के) ग्रे कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [21 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य), अधस्तन-अधस्तन यावत् उपरितन-उपरितन ग्रं. कल्पा. देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं ! 22. गेवेज्जगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उपज्जित्तए से णं भंते ! केवतिका ? __ गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएस, उक्कोसेणं पुवकोडि० / अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तव्वया, नवरं प्रोगाणा, गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरए से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं दो रयणीयो। संठाणं गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरए से समचउरंससंठिते पन्नते। पंच समुग्घाया पन्नता, तं जहा -वेयणासमुग्घाए जाव तेथगसमु०, नो चेव गं वेउन्विय-तेयगसमुग्धाएहि समोहन्निसु वा, समोहन्नंति का, समोह णिस्संति बा, ठिति-अणुबंधा जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एक्कतोसं सागरोवमाई। सेसं तं चेव / कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं बासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेणउति सागरोवमाइं तिहिं पुष्वकोडोहिं प्रभहियाई; एवतियं० / एवं सेसेसु वि अटुगमएसु, नवरं ठिति सवेहं च जाणज्जा। 22 प्र.] भगवन् ! वेयक देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? Page #2450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूब 22 उ.] गौतम! वह जघन्य वर्षपथक्त्व की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिवर्ष की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है / शेष वक्तव्यता अानतदेव की बक्तव्यता के समान जाननी चाहिए। विशेष यह है कि हे गौतम ! उसके एकमात्र भवधारणीय शरीर होता है / उसकी अवगाहना---जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो रत्लि (हाथ) की होती है / उसका केवल भवधारणीय शरीर समचतुरस्रसंस्थान से युक्त कहा गया है। उसमें पाँच समुद्घात पाये जाते हैं / यथा-वेदना-समुद्घात यावत् तेजस-समुद्धात / किन्तु उन्होंने बैंक्रिय-समुद्घात और तेजस-समुद्घात कभी किये नहीं, करते भी नहीं, और करेंगे भी नहीं / उनको स्थिति और अनुबन्ध जघन्य बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम होता है। शेष पूर्ववत् जानना। कालादेश से-जघन्य वर्षपृथकत्व-अधिक बाईस सागरोपम और उत्कष्ट तीन पूर्वकोटि-अधिक तिरानवे (93) सागरोपम, इतने काल तक यावत गतिप्रागति करता है / (यह प्रथम गमक हुग्रा), शेष पाठों ही गमकों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / परन्तु स्थिति और संवेध भिन्न समझना चाहिए। 23. जदि अणुत्तरोववातियकप्पातीतवेमाणि० किं विजयअणुत्तरोववातिय० वेजयंतअणुत्तरोववातिय० जाव सवट्ठसिद्ध ? गोयमा! विजयप्रणुत्तरोववातिय० जाव सब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियः। [23 प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य), अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे विजय, वैजयन्त, जयन्त, अथवा यावत् सर्वार्थ सिद्ध वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [23 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य), विजय, बैजयन्त, जयंत, अपराजित और सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तर विमानवासी देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। 24. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजितदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उवव० से णं भंते ! केवति? एवं जहेब गेवेज्जगदेवाणं, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्त असंखेज्जतिभागं, उक्कोसणं एगा रयणी / सम्माहिटी, नो मिच्छादिदी, नो सम्मामिच्छादिट्टी, गाणी, णो अण्णाणी, नियम तिनाणी, तं जहा-प्राभिणिबोहिय० सुय० प्रोहिणाणी। ठिती जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। सेसं तं चेव / भवाएसणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं चत्तारि भवरगहणाई / कालाएसेणं जहन्नेणं एक्कत्तीस सागरोवमाई वासपुहत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं छावट्टि सागरोवमाई दोहिं पुवकोडिहिं अमहियाई; एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियच्या, नवरं ठिति अणुबंधं च जाणेज्जा / सेसं एवं चेव / [24 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे कितने काल की स्थितिवाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। . [24 उ.] गौतम ! ग्रे वैयक देवों के अनुसार वक्तव्यता कहनी चाहिए / उनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक रत्लि (हाथ) की होती है / वे सम्यग्दृष्टि होते हैं, Page #2451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 21) [253 किन्तु मिथ्यादृष्टि और सम्यगमिथ्यादटि नहीं होते / वे ज्ञानी होते है, अज्ञानी नहीं / उनके नियम से तीन ज्ञान होते हैं / यथा-आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान / उनकी स्थिति जघन्य इकतीस सागरोपम की और उत्कष्ट 33 सागरोपम की होती है। शेष पूर्ववत् जानना। भवादेश से-बे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट चार भव ग्रहण करते हैं। कालादेश से-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक इकतीस सागरोपम और उत्कष्ट दो पूर्वकोट अधिक छयासठ सागरोपम, इतने काल तक यावत गमनागमन करते हैं। (यह प्रथम गमक हमा।) इसी प्रकार शेष पाठ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनके स्थिति, अनुबन्ध और संवेध भिन्न-भिन्न जानने चाहिए / शेष सब इसी प्रकार है। [गमक 1 से 6 तक) 25. सबसिद्धगदेवेणं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उववज्जित्तए.? सा चेव विजयादिदेववत्तव्वया भाणियन्वा, गवरं ठिती अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चेव / भवाएसेणं दो भवग्गहणाई, कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीस सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अभहियाई, एवतियं० / [पढमो गमओ] / [25 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य हैं, कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? [25 उ.] (गौतम !) वही विजयादि-देव-सम्बन्धी वक्तव्यता इनके विषय में कहनी चाहिए। इनकी स्थिति अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् / भवादेश से—दो भव तथा कालादेश से-जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी इतने ही काल तक यावत् गमनागमन करता है। [प्रथम गमक] 26. सो चेव जहलकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तवया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमन्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई; एवतियं / [बीमो गमओ] / [26] यदि वह सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव, जघन्य काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न हो तो उसके विषय में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए / कालादेश के सम्बन्ध में विशेष यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व-अधिक तेतीस सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [द्वितीय गमक] 27. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चैव वत्तम्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुवकोडीए अबभहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीसं सागरोवमा पुश्वकोडीए अमहियाई; एवतियं० / [तइओ गमओ] / एए चेव तिणि गमगा, सेसा न भण्णंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // चउवीसइमे सए : इक्कवीसइमो उद्देसो समत्तो / / 24-21 // Page #2452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 27 यदि वह (सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव) उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न हो तो, उसके सम्बन्ध में यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि कालादेश से-- जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-अधिक तेतीस सागरोपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / तृतीय गमक] / यहाँ ये तीन ही गमक कहने चाहिए। शेष छह गमक नहीं कहे जाते, (क्योंकि ये बनते नहीं)। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--विशिष्ट तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले असुरकुमार देव से लेकर ईशानदेव तक की बक्तव्यता के लिए यहाँ पंचेन्द्रिय-तियञ्च-उद्देशक का अतिदेश किया गया है, क्योंकि दोनों की वक्तव्यता समान है। (2) सनत्कुमार आदि की वक्तव्यता में भिन्नता है, अतः उनका कथन पृथक् किया गया है। (3) संवेध का मापदण्ड ---जब औधिक या उत्कृष्ट स्थिति के देव. औधिक आदि मनुष्य में उत्पन्न होते हैं, तब उत्कृष्ट स्थिति और संवेध का कथन करने के लिए चार मनुष्यभव की तथा चार देवभव की स्थिति को जोड़ना चाहिए / प्रानत अदि देवों में उत्कृष्ट 6 भव होते हैं / इसलिए तीन मनुष्य के भवों और तीन देव के भवों की स्थिति को जोड़ कर संवेध करना चाहिए। (4) कल्पातीत देवों में अक्रिय समुद्घात-कल्पातीत देवों में लब्धि की अपेक्षा 5 समुद्घात पाये जाते हैं, किन्तु उनमें दो समुद्घात वैक्रिय और तैजस–अक्रिय रहते हैं। ये दोनों समुद्घात वे कभी करते नहीं, करेंगे भी नहीं और किये भी नहीं / क्योंकि उनको इनसे कोई मतलब नहीं है। (5) प्रथम प्रवयक में जघन्य स्थिति बाईस और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की है। आगे क्रमशः प्रत्येक ग्रे वेयक में क्रमशः एक-एक सागरोपम की वृद्धि होती है / नौवें वेयक में उत्कृष्ट स्थिति 31 सागरोपम की है। वहाँ भवादेश से उत्कृष्ट छह भव होते हैं। इसलिए तीन मनुष्यभव की उत्कष्ट स्थिति तीन पूर्वकोटि और तीन ग्रे वेयकभव की उत्कृष्ट स्थिति 63 सागरोपम की होती है / यह कालादेश से उत्कृष्ट संवेध है। (6) गमक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देवों में प्रथम के तीन गमक ही सम्भव होते हैं, क्योंकि उनकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम की होती है / जघन्य स्थिति न होने से चतुर्थ, पंचम और षष्ठ (छठा), ये तीन गमक नहीं बनते तथा उत्कृष्ट स्थिति न होने से सप्तम, अष्टम और नवम, ये तीन गमक भी नहीं बनते / (7) दष्टि–अनुत्तरौपपातिक देव मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते, सम्यग्दष्टि ही होते हैं, जबकि नौ नौवेयक देवों में तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं / // चौवीसवां शतक : इक्कीसवां उद्देशक सम्पूर्ण // 1. भगवतीमत्र प्रवृत्ति, पत्राक 245-846 Page #2453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमो : वाणमंतरुद्देसओ बाईसवाँ : वाणव्यन्तर-उद्देशक वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होनेवाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उपपात-परिमाणादि का नागकुमार-उद्देशक के अतिदेशपूर्वक निर्देश 1. वाणमंतरा णं भंते कमोहितो उववज्जति, कि नेरइएहितो उववज्जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति० ? एवं जहेव णागकुमारदेसए असण्णी तहेब निरवसेसं / [1 प्र.] भगवन ! वाणव्यन्तर देव कहाँ से उत्पन्न होते है ? क्या वे नेरयिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? या तिर्यंचयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 11 उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार नागकुमार-उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यावत् असंज्ञी तक सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए / विवेचन—निष्कर्ष-वाणव्यन्तर देव, मनुष्य और तिर्यञ्च गतियों से प्राकर उत्पन्न होते है, दवों और नारकों से आकर उत्पन्न नहीं होते। शेष परिमाणादि बातों के लिए अतिदेश किया गया है / वाराव्यन्तर देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के उत्पाद-परिमारण प्रादि वीस द्वारों की प्ररूपणा 2. जदि सन्निपंचेंदिय० जाव असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय० जे भविए वाणमंतर० से णं भंते ! केवति ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु, उक्कोसेणं पलिओवमद्वितीएसु। सेसं तं चेव जहा नागकुमारउद्देसए जाव कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुन्वकोडी दसहि बाससहस्सेहि अम्भहिया, उक्कोसेणं चत्तारि पलिपोवमाई; एवतियं० / [पढमो गमओ] / - 2 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाला यावत् संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जो वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होने योग्य है, यह कितने काल की स्थिति वाले वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होता है। शेष सब नागकुमार-उद्देशक में कहा है, उसी के अनुसार जानना / यावत् कालादेश से जघन्य दस हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। प्रथम गमक] - Page #2454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. सो चेव जहनकालद्वितीएसु उववन्नो, जहेव णागकुमाराणं बितियगमे बत्तव्वया। [बोलो गमो]। __[3] यदि वह जघन्य काल की स्थिति वाले वाणव्यन्तर में उत्पन्न होता है, तो नागकुमार के दूसरे गमक में कही हुई वक्तव्यता जाननी चाहिए। [द्वितीय गमक 4. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं पलिग्रोवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि पलिअोवमद्वितीएसु / एस चैव वत्तम्वया, नवरं ठिती जहन्नेणं पलिओवम, उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई। संवेहो जहन्नेणं दो पलिओवमाई, उषकोसेणं चत्तारि पलिनोवमाइं; एवतियं० / [तइयो गमो]। [4] यदि वह उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले वाणव्यन्तरों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम की स्थिति वाले वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होता है, इत्यादि वक्तव्यता पूर्ववत् जानना। स्थिति जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की जाननी चाहिए। संवेध-जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट चार पल्योपम, इतने काल तक यावत् गंमनागमन करता है। [तृतीय गमक] 5. मज्झिमगमगा तिन्नि वि जहेब नागकुमारेसु / [4-6 गमगा। 5] मध्य के तीन गमक नागकुमार के तीन मध्य गमकों के समान कहने चाहिए। [4-5-6] 6. पच्छिमेसु तिसु गमएसुतं चेव जहा नागकुमारईसए, नबरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [७-६गमगा] : [6] अन्तिम तीन गमक भी नागकुमार-उद्देशक में कहे अनुसार कहने चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और संवैध भिन्न-भिन्न जानना चाहिए। [गमक 7-8-6] 7. संखेज्जवासाउय० तहेव, नवरं ठिती अणुबंधो, संवेहं च उभो ठितीए जाणेज्जा। [1-- गमगा]। [7] संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों की वक्तव्यता भी उसी प्रकार जाननी चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और अनुबन्ध भिन्न है तथा संवेध, दोनों की स्थिति को मिलाकर कहना चाहिए / गमक 1 से 6 तक] विवेचन-कुछ स्पष्टीकरण-(१) वाणव्यन्तर देवों के प्रकरण में असंख्येय वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रियों के अधिकार में उत्कृष्ट चार पल्योपम का जो कथन किया गया है, वह संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम और बाणव्यन्तर देव की एक पल्योपम, इस प्रकार दोनों की स्थिति को मिलाकर चार पल्योपम का संवेध जानना चाहिए / (2) नागकुमार के दूसरे गमक की वक्तव्यता प्रथम गमक के समान है। परन्तु यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति दस हजार वर्ष की जाननी चाहिए। (3) संवेध-कालादेश से जघन्य 10 हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष अधिक तीन पल्योपम का जानना चाहिए।' 1 भगवती. अ. वत्ति, पत्र 846 Page #2455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 22] [257 वारपध्यन्तर देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के उत्पाद-परिमाण प्रादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 8. जदि मणुस्से० असंखेज्जवासाउयाणं जहेव नागकुमाराणं उद्देसे तहेव वत्तव्यया, नवरं ततियगमए ठिती जहन्नेणं पलिनोवमं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाइं / प्रोगाहणा जहन्नेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई / सेसं तहेव / संवेहो से जहा एस्थ चैव उद्देसए असंखेज्जवासाउयसन्निचिदियाणं। [8] यदि वे (वाणव्यन्तर देव), मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो उनकी वक्तव्यता नागकुमार-उद्देशक में कहे अनुसार असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों के समान कहना चाहिए। विशेष यह है कि तीसरे गमक में स्थिति जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की जाननी चाहिए / अवगाहना जघन्य एक गाऊ की और उत्कृष्ट तीन गाऊ की होती है। शेष सब पूर्ववत् जानना / इसका संवेध इसी उद्देशक में जैसे असंख्यात वर्ष की प्राय वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च का कहा गया है, वैसे ही कहना चाहिए। 6. संखेज्जवासाउयसग्निमणुस्सा जहेव नागकुमारुद्देसए, नवरं वाणमंतर-ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥चउवीसइमे सए : बावीसइमो उद्देसो समत्तो // 24-22 // [9] जिस प्रकार नागकुमार उद्देशक में कहा गया है, उसी प्रकार संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों की वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु वाणव्यन्तर देवों की स्थिति और संवैध उससे भिन्न जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं / विवेचन-स्थितिसम्बन्धी स्पष्टीकरण-यहाँ तीसरे गमक में जघन्य स्थिति पल्योपम की बताई गई है। यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की जघन्य स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि वर्ष की होती है, तथापि यहाँ पल्योपम की बताई गई है, इसका कारण यह है कि वह पल्योपम की आयु वाले वाणव्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वाला है और असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्च अपनी आयु से अधिक आयु वाले देवों में उत्पन्न नहीं होते, यह बात पहले कही जा चुकी है। अवगाहना—जिनकी पल्योपमप्रमाण आयु है, उनकी अवगाहना सुषम-दुःषम आरे में एक गाऊ की होती है। ॥चौवीसवाँ शतक : बाईसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 846-847 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3166 Page #2456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसइमो : जोतिसिय-उददेसओ तेईसवाँ : ज्योतिष्क-उद्देशक गति की अपेक्षा ज्योतिष्क देवों के उपपात का निरूपरण 1. जोतिसिया णं भंते ! कमोहितो उधज्जिति ? कि नेरइए.? भेदो जाव सन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति, नो असन्निपंचिदियतिरिक्खजोगिएहितो उपय० / {1 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नै रयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ. गौतम ! (वे नारकों और देवों से नहीं, किन्तु तिर्यञ्चों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, अत: तिर्यञ्च के) भेद कहना, यावत्-वे संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते। 2. जदि सन्नि कि सखंज्जे०, असंखेज्ज ? गोयमा ! संखेज्जवासाउय, असंखेज्जवासाउय० / [2 प्र.] भगवन् ! यदि वे (ज्योतिष्क देव) संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यब्चों से पाकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे संख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यातवर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों से ? 2 उ.] गौतम ! वे संख्यातवर्ष की और असंख्यातवर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं। विवेचन--ज्योतिष्कों की उत्पत्ति का निष्कर्ष-(१) ज्योतिप्क देव कहाँ से पाकर ज्योतिष्करूप में उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार अन्यत्र कहते हैं-वे नारकों और देवों से प्राकर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु तिर्यञ्चों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। तिर्यञ्चों में भी वे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु संख्यातवर्ष की तथा असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं।' 1, भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भाग-१५, पृ.४३३-४३४ Page #2457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उह शक 23] [259 ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होनेवाले असंख्येयवर्षायुष्क संजी पंचेन्द्रिय-तियंचों के उपपातादि बीस द्वारों की प्ररूपरगा 3. असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए जोतिसिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति ? __ गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमद्वितीएसु, उक्कोसेणं पलिश्रोवमवाससहस्सट्टितीएसु उवव० / अवसेसं जहा असुरकुमारुद्देसए, नवरं ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिनोवम, उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं। एवं अणुबंधो वि / सेसं तहेव, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो अट्ठभागपलिनोवमाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाइं वाससयसहस्समन्भहियाइं; एवतियं० / [पढमो गमनो] / [3 प्र.] भगवन् असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? [3 उ.] गौतम ! वह जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति वाले ज्योतिष्कों में उत्पन्न होता है। शेष असुरकुमार उद्देशक के अनुसार जानना / विशेष यह है कि उसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है / शेष पूर्ववत् / विशेष यह है कि काल की अपेक्षा से जघन्य दो पाठवें भाग (3) भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] 4. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमट्टितीएसु, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिपोवमट्टितीएसु / एस चेव वत्तन्वया, नवरं कालाएसं जाणेज्जा। [बोनो गमत्रो]। [4] यदि वह (संज्ञी पं. तिर्यञ्च), जघन्य काल की स्थिति वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृट पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले ज्योतिष्कों में उत्पन्न होता है, इत्यादि वही पूर्वोक्त वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ कालादेश (भिन्न) जानना चाहिए। [द्वितीय गमक] . 5. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववण्णो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं ठिती जहन्नेणं पलिनोवमं वाससयसहस्समन्भहियं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिनोवमाई। एवं अणुबंधो वि / कालाएसेणं जहन्नेणं दो पलिग्रोवमाई दोहि वाससयसहस्सेहि अग्भहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि पलिनोबमाई वाससयसहस्समन्भहियाई० / [तइओ गमयो] / [5] यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्योतिष्क देवों उत्पन्न हो, तो यही (पूर्वोक्त वक्तव्यता) कहनी चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति जघन्य एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है / इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना, काला. देश से-जघन्य दो लाख वर्ष अधिक दो पल्योपम और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम (इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है।) तृतीय गमक] Page #2458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जाओ, जहन्नेणं अट्ठभागपलिनोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिनोवमट्टितोएसु उवव० / [6] यदि वह (सं. पं. तिर्यञ्च) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले ज्योतिष्कों में उत्पन्न होता है / [चतुर्थ गमक 7. ते गं भंते ! जीवा एग०? एस चेव वत्तव्वया, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाइं अट्ठारस धणुसयाइं / ठिती जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिनोवमं / एवं अणुबंधो वि / सेसं तहेव / कालाएसेणं जहन्नेणं दो अट्ठभागपलिओवमाई, उक्कोसेण धि दो अट्ठभागपलिनोवमाई, एवतियं० / जहन्नकालद्वितीयस्स एस चेव एक्को गमगो। [चउत्थो गमो] / [7 प्र.] भगवन् ! वे जीव (असंख्यात-वर्षायु एक सं. पं. ति.) एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्वोक्त वक्तव्यता जानना / विशेष यह है कि उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट सातिरेक अठारह सौ धनुष की होती है। स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग की होती है। अनबन्ध भी इसी प्रकार समझना / शेष / कालादेश से-जघन्य और उत्कृष्ट पत्योपम के दो आठवें (3) भाग, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / जघन्यकाल की स्थिति वाले के लिए यह एक ही गमक होता है। [चतुर्थ गमक] 8. सो चेव अप्पणा उक्कोसकालद्वितीयो जाओ, सा चेव प्रोहिया वत्तव्यया, नवरं ठिती जहानेणं तिन्नि पलिप्रोवमाई, उक्कोसेण वि तिन्नि पलिश्रोवमाइं। एवं अणुबंधो वि / सेसं तं चेव / एवं पच्छिमा तिष्णि गमगा नेयन्वा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। एते सत्त गमगा। [7-8-6 गमगा] / [8] यदि वह (असंख्यात-वर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्च) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो और ज्योतिष्कों में उत्पन्न हो, तो औधिक (सामान्य) गमक के समान वक्तव्यता जानना / विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना / शेष सब पूर्ववत् / इसी प्रकार अन्तिम तीन गमक [7-8-6] जानने चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और संवेध (भिन्न) समझना चाहिए / ये कुल सात गमक हुए। [गमक 7-8-9] विवेचन--स्पष्टीकरण-(१) प्रथम गमक में जो पल्योपम का भाग जघन्य कालादेश कहा है, उसमें से एक तो असंख्यातवर्षायुष्क-सम्बन्धी है और दूसरा तारा-ज्योतिष्क-सम्बन्धी है तथा उत्कृष्ट जो एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम बताए हैं, उनमें से तीन पल्योपम तो असंख्यात. वर्षायुष्क-सम्बन्धी हैं और सातिरेक एक पल्योपम चन्द्र-विमानवासी ज्योतिष्क-सम्बन्धी है / (2) तीसरे गमक में स्थिति जघन्य एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम की कही है, इस विषय में यद्यपि असंख्यात वर्ष की आयु वालों की जघन्य स्थिति सातिरेक पूर्वकोटि होती है, तथापि यहाँ एक Page #2459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 23] [261 लाख वर्ष अधिक पल्योपम कहा है, इसका कारण यह है कि वह इतनी ही स्थिति वाले ज्योतिष्क देव में उत्पन्न होने वाला है, क्योंकि असंख्यात वर्ष की आय वाले जीव अपने से अधिक आयुवाले देवों में उत्पन्न नहीं होते। यह पहले भी कहा जा चुका है। (3) चौथे गमक में जघन्य काल की स्थिति वाले को उत्पत्ति औधिक ज्योतिष्क में बताई है, सो असंख्यात वर्ष की आयु वाला जीव तो पल्योपम के आठवें भाग से कम जघन्य प्राय वाला हो सकता है, किन्तु ज्योतिष्कदेवों में इससे कम आयु नहीं है। असंख्येयवर्षायुष्क अपनी आय के समान उत्कृष्ट देवायुबन्धक होते हैं। इसलिए जघन्य स्थिति वाले वे पल्योपम के आठवें भाग की स्थिति वाले होते हैं / प्रथम कुलकर विमलवाहन के पूर्वकाल में होने वाले हस्ती आदि की यह स्थिति थी / इसी प्रकार प्रोधिक ज्योतिष्कदेव भी उस उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होते हैं। (4) अवगाहना-विषयक-यहां जो अवगाहना धनुषपृथक्त्व को कही है, वह भी विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले पल्योपम के आठवें (E) भाग की स्थिति वाले हस्ती आदि से भिन्न क्षुद्रकाय चतुष्पदों की अपेक्षा जाननी चाहिए और उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक 1800 धनुष की कही है, वह विमलवाहन कुलकर से पूर्व होने वाले हस्त्यादि की अपेक्षा से जाननी चाहिए, क्योंकि विमलवाहन कुलकर की अवगाहना 600 धनुष की थी और उस समय में होने वाले हस्ती आदि की अवगाहना उससे दुगुनी थी तथा उससे पहले समय में होने वाले हस्ती आदि को अवगाहना सातिरेक 1800 धनुष को थी। (5) चौथे गमक की जो वक्तव्यता है, उसी में पांचवें और छठे गमक का अन्तर्भाव कर दिया गया है / क्योंकि पल्योपम के आठवें भाग की प्रायुवाले यौगलिक तिर्यञ्चों की पांचवें और छठे गमक में भी पल्योपम के आठवें भाग की ही आयु होती है / (6) सप्तम आदि गमकों में तिर्यञ्चों की तीन पल्योपम की स्थिति होती है, जो उत्कृष्ट ही है / ज्योतिष्कदेव की सातवें गमक में जघन्य और उत्कृष्ट, यह दो प्रकार की स्थिति होती है। (7) आठवें गमक में स्थिति पल्योपम के ८वे (6) भाग तथा नौवें गमक में सातिरेक पल्योपम होती है। (8) इसी के अनुसार संवेध करना चाहिए / (8) इस प्रकार पहला-दूसरा-तीसरा, ये तीन गमक, मध्य में तीन गमकों के स्थान में एक ही गमक और अन्तिम तीन गमक, यों कुल मिलाकर ये सात' गमक होते हैं। ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होनेवाले संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उपपातादि बीस द्वारों का निरूपण 6. जइ संखेज्जवासाउयसनिपंचेंदिय० ? संखेज्जवासाउयाणं जहेब असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव नव वि गमगा भाणियव्वा, नवरं जोतिसिठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव निरवसेसं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 846 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 6, पृ. 3173-3174 Page #2460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [9 प्र.] भगवन् ! यदि वह (ज्योतिष्कदेव) संख्यात वर्ष की प्रायु वाले स. पं. तिर्यञ्च से आकर उत्पन्न हो तो? 9 उ.] यहाँ असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की प्रायू वाले संज्ञी पं. तिर्यञ्चों के समान नौ ही गमक जानने चाहिए.। विशेष यह है कि ज्योतिष्क की स्थिति और संवेध भिन्न जानना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् समझना। [गमक 1 से 6 तक] विवेचन---संख्येय-वर्षायुष्क तिर्यञ्च-सम्बन्धी अतिदेश-यहाँ संख्यात वर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होने वाले ज्योतिष्कदेवों के नौ गमकों के लिए असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संजो पं. तिर्यञ्चों के नौ गमकों का अतिदेश किया गया है / केवल स्थिति और संवेध में अन्तर है।' ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों में उपपात प्रादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 10. जदि मणुसैहितो उववज्जति ? भेदो तहेव जाव-- [10 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (ज्योतिष्क देव) मनुष्यों से आकर उत्पन्न हों तो ? (इत्यादि प्रश्न / ) [10 उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के समान जानना चाहिए। पूर्ववत् मनुष्यों के भेदों का उल्लेख करना चाहिए। 11. असंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से गं भंते ! जे भविए जोतिसिएसु उक्वज्जितए से णं भंते ! 0? एवं जहा असंखेज्जवासाउयसग्निपंच दियस्स जोतिसिएसु चेव उववज्जमाणस्स सत्त गमगा तहेव मणुस्साण वि, नवरं प्रोगाहणाक्सेिसो-पढमेसु तिसु गमएसु ओगाहणा जहन्नेणं सातिरेगाई नव धणुसयाई, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई। मज्झिमगमए जहन्नेणं सातिरेगाई नव घणुसयाई, उक्कोसेण वि सातिरेगाइं नव धणुसयाई / पच्छिमेसु तिसु गमएसु जहन्नेणं तिनि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिनि गाउयाई / सेसं तहेब निरवसेसं जाव संवेहो त्ति / 11 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? 11 उ. (गौतम ! ) जिस प्रकार ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायूष्क संजी पं. तिर्यञ्च के सात गमक कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ मनुष्य के विषय में भी समझना। प्रथम के तीन गमकों में अवगाहना की विशेषता है। उनकी अवगाहता जघन्य सातिरेक नौ उत्कृष्ट तीन गाऊ को होती है। मध्य के तीन गमक में जघन्य और उत्कृष्ट सातिरेक नौ सौ धनुष होती है तथा अन्तिम तीन गमकों में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ होतो है / शेष, यावत् संवेध तक पूर्ववत् जानना चाहिए। .... --- 1. विवाहपण्पत्तिसुत्तं (मूल पाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 963 Page #2461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 23] | 12. जदि संखेज्जवासाउयसन्त्रिमणुस्से० ? संखेज्जवासाउयाणं जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणाणं तहेव नव गमगा भाणियन्वा, नवरं जोतिसियठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // चउवीसइमे सते : तेवीसइमो उद्देसो समत्तो॥ 24-23 // [12 प्र.] यदि वह संख्यात वर्ष की प्रायु वाले संज्ञी मनुष्य से ग्राकर उत्पन्न होता है, तो ? इत्यादि प्रश्न। [12 उ.] असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्यों के गमकों के समान यहाँ नौ गमक कहने चाहिए। किन्तु ज्योतिष्क देवों की स्थिति और संवेध (भिन्न) जानना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-सातिरेक नौ सौ धनुष को अवगाहना कैसे असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य के अधिकार में अवगाहना, जो सातिरेक नौ सौ धनुष की बताई गई है, वह विमलवाहन कुलकर के पूर्वकालीन मनुष्यों की अपेक्षा से समझनी चाहिए और तीन गाऊ की अवगाहना सुषम-सुषमा नामक प्रथम बारे में होने वाले यौगलिकों की अपेक्षा से समझनी चाहिए। पूर्वोक्त दृष्टि से मनुष्य के विषय में भी यहाँ सात ही गमक बताये गए हैं।' // चौवीसवां शतक : तेईसवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 842 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3174 Page #2462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसइमो : वेमाणिय-उद्देसओ चौवीसवाँ : वैमानिक-उद्देशक गति को लेकर सौधर्म-देव के उपपात का निरूपरण 1. सोहम्मगदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? कि नेरतिएहितो उववज्जति ? भेदो जहा जोतिसियउद्देसए। [1 प्र. भगवन् ! सौधर्म-देव, किस गति से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यञ्चों से, मनुष्यों से या देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] (पूर्वोक्त) ज्योतिष्क-उद्देशक के अनुसार भेद जानना चाहिए / विवेचन- ज्योतिष्क-उद्देशक के अनुसार भेद का रहस्य-सौधर्म-देव नैरयिकों एवं देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं / तिर्यञ्चों में भी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय-लियंञ्चों से पाकर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं। संजी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में भी संख्यात वर्ष की तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न होते हैं।' सौधर्म-देव में उत्पन्न होनेवाले असंख्येय-संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के उपपातादि बोस द्वारों की प्ररूपणा 2. असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सोहम्मगदेवेसु उक्वज्जित्तए से गं भंते ! केवतिकाल.? गोयमा ! जहन्नेणं पलिनोवमद्वितीएसु, उक्कोसेणं तिपलिप्रोवमद्वितीएसु उवव० // [2 प्र. भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो सौधर्मदेवों में उत्पन्न होने योग्य है, कितने काल की स्थिति वाले सौधर्म देवों में उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! वह जघन्य पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म-देवों में उत्पन्न होता है। 3. ते णं भंते !, अवसेसं जहा जोतिसिएसु उववज्जमाणस्स, नवरं सम्मट्ठिी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी; नाणी वि, अन्नाणी वि, दो नाणा, दो अन्नाणा नियम; ठिती जहन्नेणं दो 1. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिकाटोका-सहित) भा. 15, पृ. 436-464 Page #2463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 24] [265 पलिओवमाई, उक्कोसेणं तिनि पलिनोवमाई। एवं अणुबंधो वि। सेसं तहेव / कालाएसेणं जहण्णेणं दो पलिओवमाई, उक्कोसेणं छ पलिग्रोवमाइं; एवतियं / [पढमो गमो] / [3 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] (गौतम ! ) जैसी वक्तव्यता ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्चों की कही गई है, वैसी ही वक्तव्यता यहाँ (सौधर्म-देवों के लिए) भी कहनी चाहिए। विशेषता (भिन्नता) यह है कि वे सम्यग्दृष्टि और मिश्यादृष्टि होते हैं, सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं, वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी। उनमें दो ज्ञान या अज्ञान नियम से होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दो पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार जानना। शेष पूर्ववत् / कालादेश से-जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट छह पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / [प्रथम गमक] ___4. सो चेव जहन्नकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तव्वया, नवरं कालाएसेणं जहन्नेणं दो पलिनोवमाइं, उक्कोसेणं चत्तारि पलिओवमाई; एवतियं० / [बीओ गमश्रो] / [4] यदि वह (असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं.तिर्यञ्च), जघन्यकाल की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न हो, तो उसके सम्बन्ध में भी यही वक्तव्यता है / विशेष यह है कि कालादेश से---जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट चार पल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [द्वितीय गमक] 5. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिनोवम०, उक्कोसेण वि तिपलिओबमः / एस चेव बत्तव्यया, नवरं ठिती जहन्नेणं तिन्नि पलिनोवमाई, उपकोसेण वि तिन्नि पलिनोवमाई / सेसं तहेव / कालाएसेणं जहन्नेणं छ पलिग्रोवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिनोवमाई / [तइनो गमो ] / [5] यदि वह (असंख्येयवर्षायुष्क सं. पं. ति.), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न हो तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्मदेवों में उत्पन्न होता है, इत्यादि वहीं पूर्वोक्त वक्तव्यता यहाँ कहना / विशेष यह है कि स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम / शेष पूर्ववत् / कालादेश से-जघन्य और उत्कृष्ट छह पल्योपम / इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। 6. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जानो, जहन्नेणं पलिग्रोवद्वितीएसु, उक्कोसेण वि पलिप्रोवमट्टितीएसु / एस चेव वत्तव्वया, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं धणपुहत्तं, उक्कोसेणं दो गाउयाई। ठिती जहन्नेणं पलिओवम, उक्कोसेण वि पलिओवमं / सेसं तहेव / कालाएसेणं जहन्नेणं दो पलिग्रोवमाई, उक्कोसेण वि दो पलिप्रोवमाई; एवतियं० / [4-6 गमगा] / [6] यदि वह (असंख्ये. सं. पं. तिर्यञ्च) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सौधर्म देवों में उत्पन्न हो, जघन्य और उत्कृष्ट एक पल्योपम की स्थिति वाले सौधर्म देवों में उत्पन्न होता है, इत्यादि सब वक्तव्यता पूर्वोक्त कथनानुसार / विशेष इतना है कि अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाऊ / स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम की होती है / शेष पूर्ववत् / कालादेशसे जघन्य और उत्कृष्ट दो फ्ल्योपम, इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [गमक 4-5-6] Page #2464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 7. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीयो जानो, प्रादिल्लगमगसरिसा तिनि गमगा नेयव्या, नवरं ठिति कालादेसं च जाणेज्जा। [7-8-6 गमगा] / ' [7] यदि वह (असंख्ये. सं. पं. तिर्यञ्च) स्वयं उत्कृष्ट काल को स्थिति वाला हो और सौधर्मदेवों में उत्पन्न हो, तो उसके अन्तिम तीन गमकों (7-8-6) का कथन प्रथम के तीन गमकों के समान जानना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति और कालादेश (भिन्न) जानना चाहिए। [गमक 7-8-6 8. जदि संखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदिय० ? संखेज्जवासाउयस्स जहेव असुरकुमारेसु उववज्जमाणस्स तहेव नव वि गमा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। जाहे य अप्पणा जहनकाल द्वितीयो भवति ताहे तिसु वि गमएसु समट्ठिी वि, मिच्छद्दिद्वी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो नाणा, दो अन्नाणा नियमं / सेसं तं चेव / [8 प्र.] यदि वह सौधर्मदेव, संख्यात वर्ष की आयु वाले सं. पं. तिर्यञ्चों से आकर उत्पन्न हो तो? इत्यादि प्रश्न / [8 उ. असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्येयवर्षायुष्क सं. पं. तिर्यञ्च के समान ही इस के नौ ही गमक जानने चाहिए। किन्तु यहाँ स्थिति और संवेध (भिन्न) समझना चाहिए। जब वह स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो तो तीनों गमकों में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यावृष्टि होता है, किन्तु सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होता। इसमें दो ज्ञान या दो अज्ञान नियम से होते हैं / शेष पूर्ववत् / विवेचन-स्थिति एवं अवगाहना प्रादि के विषय में स्पष्टीकरण-(१) सौधर्म देवलोक में जघन्य स्थिति पल्योपम से कम की नहीं होती, इसलिए वहाँ उत्पन्न होने वाला जीव, जघन्य पल्योपम की तथा उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति में उत्पन्न होता है / यद्यपि सौधर्म देवलोक में इससे भी बहुत अधिक स्थिति है, तथापि यौगलिक तिर्यञ्च उत्कृष्ट तीन पल्योपम की आयु वाले ही होते हैं / अतः वे इससे अधिक देवायु का बन्ध नहीं करते। दो पल्योपम का जो कथन किया है, उसमें से एक पल्योपम तिर्यञ्चभव-सम्बन्धी और एक पल्योपम देवभव-सम्बन्धी समझना चाहिए तथा उत्कृष्ट 6 पल्योपम का जो कथन है, उसमें तीन पल्योपम तिर्यञ्चभव और तीन पल्योपम देवभव के समझने चाहिए। (2) जघन्य अवगाहना जो धनुष पृथक्त्व कही है, वह क्षुद्रकाय चौपाये (छोटे शरीर वाले चतुष्पाद) की अपेक्षा समझनी चाहिए और उत्कृष्ट दो गाऊ की कही है, वह जिस काल और जिस क्षेत्र में एक गाऊ के मनुष्य होते हैं, उस क्षेत्र के हाथी आदि की अपेक्षा समझनी चाहिए। (3) संख्येय. वर्षायुष्क सं. पंचे. तिर्यञ्च के अधिकार में मिश्रदृष्टि का निषेध किया है, क्योंकि जघन्य स्थिति वाले में मिश्रदष्टि नहीं होती। उत्कृष्ट स्थिति वालों में तीनों दृष्टियाँ होती हैं। यही तथ्य ज्ञान और अज्ञान के विषय में समझना चाहिए।' यौगलिक तिर्यञ्च और मनुष्य (जो सौधर्म देवों में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क हैं), उनमें भी दो ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं। किन्तु भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क में उत्पन्न होने वाले यौगलिक मनुष्य और तिर्यञ्च में सिर्फ एक मिथ्यादृष्टि ही बताई है तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च एकमात्र वैमानिक देव की आयु का बन्ध करते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 651 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3181-3182 Page #2465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 24] [267 सौधर्मदेव में उत्पन्न होनेवाले असंख्येय-संख्येय-वर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों के उपपातादि बोस द्वारों की प्ररूपणा 6. जदि मणुस्सेहितो उपवज्जति०? भेदो जहेब जोतिसिएसु उववज्जमाणस जाव[६ प्र.] यदि वह (सौधर्मदेव) मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न हो तो ? [9 उ.] ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को वक्तव्यता के समान यहाँ भी कह्नी चाहिए। 10. असंखेज्जवासाउयसनिमणुस्से गं भंते ! जे भविए सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जित्तए.? एवं जहेव असंखेज्जवासाउयस्स सग्निपंचेंदियतिरिक्खजोगियरस सोहम्मे कप्पे उववज्जमाणस्स तहेव सत्त गमगा, नवरं प्रादिल्लएसु दोसु गमएसु प्रोगाहणा जहन्नेणं गाउयं, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई / ततियगमे जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिन्नि गाउयाइं। चउत्थगमए जहन्नेणं गाउयं, उक्कोसेण वि गाउयं / पच्छिमेसु गमएसु जहन्नेणं तिनि गाउयाई, उक्कोसेण वि तिनि गाउयाई / सेसं तहेव निरवसेसं। [1-6 गमगा]। 10 प्र.] भगवन् ! असंख्यात वर्ष की आयु वाला संज्ञी मनुष्य, जो सौधर्मकल्प में देवरूप से उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले सौधर्मकल्प के देवों में उत्पन्न होता है ? [10 उ.] सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने वाले असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के समान सातों ही गमक जानने चाहिए / विशेष यह है कि प्रथम के दो गमकों में अवगाहना जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ होती है / तीसरे गमक में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ, चौथे गमक में जघन्य और उत्कृष्ट एक गाऊ और अन्तिम तीन गमकों में जघन्य और उत्कृष्ट तीन गाऊ की अवगाहना होती है / शेष पूर्ववत् / [1-9 गमक] 11. जदि संखेन्जवासाउयसनिमणुस्से हितो० ? एवं संखेज्जवासाउयसग्निमणुस्साणं जहेव असुरकुमारेस उववजमाणाणं तहेव नव गमगा भाणियव्वा, नवरं सोहम्मदेवट्ठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तं चेव। {11 प्र.} यदि वह (सौधर्मदेव) संख्यातवर्ष की आयु वाले संशी मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होता है तो ? (इत्यादि प्रश्न / ) [11 उ.] असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाले संख्यातवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों के समान नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सौधर्मदेव की स्थिति और संवेध (उससे भिन्न) समझना चाहिए ! विवेचन-सौधर्मदेवों में उत्पन्न मनुष्यों की वक्तव्यता का निष्कर्ष-सौधर्मदेवों में उत्पद्यमान मनुष्यों को वक्तव्यता इस प्रकार है-(१) वे संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंजी Page #2466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] व्याख्याप्रज्ञप्तिसून मनुष्यों से नहीं, संज्ञी मनुष्यों में भी असंख्यात वर्ष एवं संख्यात वर्ष दोनों प्रकार की आयु वालों से आकर उत्पन्न होते हैं / ' अवगाहना-विषयक स्पष्टीकरण-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च के अधिकार में प्रथम के दो गमकों में जघन्य अवगाहना धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट छह गाऊ की कही है, किन्तु यहाँ मनुष्य के प्रकरण में पहले और दूसरे गमक में अवगाहना जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ की कही है / तिर्यञ्च के तीसरे गमक में जघन्य, उत्कृष्ट अवगाहना 6 गाऊ की कही है, किन्तु यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट 3 गाऊ की कही है। चौथे गमक में तिर्यञ्च में जघन्य धनुषपृथक्त्व और उत्कृष्ट दो गाऊ कही है जबकि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट एक गाऊ की अवगाहना कही है। ईशान से सहस्रार देव तक में उत्पन्न होनेवाले तिर्यञ्चों व मनुष्यों के उपपातादि बीस द्वारों को प्ररूपरणा 12. ईसाणा देवा णं भंते ! करो० उववज्जति ?. ईसाणदेवाणं एस चेव सोहम्मगदेवसरिसा वत्तव्वया, नवरं असंखेज्जवासाउयसमिपंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जेसु ठाणेसु सोहम्मे उववज्जमाणस्स पलिप्रोवमठितीएसु ठाणेसु इहं सातिरेगं पलिप्रोवमं कायव्वं / चउत्थगमे प्रोगाहणा जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो गाउयाई। सेसं तहेव / [12 प्र.] भगवन् ! ईशानदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, इत्यादि प्रश्न / [12 उ.] ईशानदेव की यह वक्तव्यता सौधर्मदेवों के समान है। विशेष यह है कि सौधर्मदेवों में उत्पन्न होने वाले जिन स्थानों में असंख्या तवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की स्थिति एक पल्योपम की कही है, वहाँ सातिरेक पल्योपम की जाननी चाहिए। चतुर्थ गमक में अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व, उत्कृष्ट सातिरेक दो गाऊ की होती है / शेष पूर्ववत् / 13. असंखेज्जवासाउयसनिमणसस्स वि तहेव ठितो जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स असंखेज्जवासाउयस्स, ओगाहणा वि जेसु ठाणेसु गाउयं तेसु ठाणेसु इहं सातिरेगं गाउयं / सेसं तहेव / [13] असंख्यात वर्ष की आयु वाले संज्ञी मनुष्य की स्थिति, 'असंख्य वर्ष की आयु वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के समान जाननी चाहिए। अवगाहना जहाँ एक गाऊ को कही है वहाँ सातिरेक गाऊ की जानना / शेष पूर्ववत् / / 14. संखेज्जवासाउयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहेब सोहम्मे उववज्जमाणाणं तहेव निरवसेसं णव वि गमगा, नवरं ईसाणे ठिति संवेहं च जाणेज्जा। [14] सौधर्मदेवों में उत्पन्न होने वाले संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यञ्चों और मनुष्यों के विषय में जो नौ गमक कहे हैं, वे ही ईशानदेव के विषय में समझने चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति और संवेध ईशानदेवों के जानने चाहिए / 1. भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 15, पृ. 476-477 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 6, पृ. 3182 Page #2467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोवीसवां शतक : उद्देशक 24] [269 15. सणंकुमारगदेवा गं भंते ! कतोहितो उवव० ? उबवातो जहा सक्करप्पभपुढविनेरइयाणं जाव[१५ प्र.] भगवन् ! सनत्कुमारदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [15 उ.] इनका उपपात शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के समान जानना चाहिए / 16. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सणंकुमारदेवेस उववज्जित्तए ? अवसेसा परिमाणादीया भवाएसपज्जवसाणा सच्चेव वत्तस्यया भाणियन्वा जहा सोहम्मे उववज्जमाणस्स, नवरं सणंकुमारदिति संवेहं च जाणेज्जा / जाहे य अप्पणा जहन्नकाल द्वितीओ भवति ताहे तिसु वि गमएसु पंच लेस्सागो प्रादिल्लाओ कायन्वानो। सेसं तं चेव। [16 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, जो सनत्कुमार. देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले सनत्कुमारदेवों में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] परिमाण से लेकर भवादेश तक की संभी वक्तव्यता, सौधर्मकल्प में उत्पन्न होने वाले (संख्येय-वर्षायुष्य सं. पं. तिर्यञ्च) के समान कहनी चाहिए / परन्तु सनत्कुमार की स्थिति और संवेध (उससे भिन्न) जानना / जब वह स्वयं जघन्य काल की स्थिति वाला होता है, तब तीनों ही गमकों में प्रथम की पांच लेश्याएँ होती हैं / शेष पूर्ववत् / 17. जदि मणुस्सहिंतो उवव० ? मणुस्साणं जहेव सक्करप्पभाए उववज्जमाणाणं तहेव णव वि गमगा भाणियव्या, नवरं सणंकुमार द्विति संवेहं च जाणेज्जा। [17 प्र. यदि सनत्कुमारदेव, मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो तो? इत्यादि प्रश्न / [17 उ.] शर्कराप्रभा में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के समान यहाँ भी नौ गमक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सनत्कुमारदेवों की स्थिति और संवेध (उससे भिन्न) कहना चाहिए। 18. माहिंदगदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? जहा सणंकुमारगदेवाणं वत्तम्वया तहा माहिंदगदेवाण वि भाणियव्वा, नवरं माहिदगदेवाणं ठिती सातिरेगा भाणियव्वा सा चय। [18 प्र. भगवन् ! माहेन्द्रदेव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [18 उ.] जिस प्रकार सनत्कुमारदेव की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार माहेन्द्रदेव की भी जाननी चाहिए / किन्तु माहेन्द्रदेव की स्थिति सनत्कुमारदेव से सातिरेक कहनी चाहिए / 19. एवं बंभलोगदेवाण वि वत्तम्बया, नवरं बंभलोगद्विति संवेहं जाणेज्जा / एवं जाव सहस्सारो, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा। Page #2468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 } व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र |19| इसी प्रकार ब्रह्मलोकदवों की भी वक्तव्यता जाननी चाहिए। किन्तु ब्रह्मलोकदेव की स्थिति और संवेध (भित्र) जानना चाहिए / इसी प्रकार यावत् सहस्रारदेव तक पूर्ववत् वक्तव्यता जाननी चाहिए / किन्तु स्थिति और संवेध अपना-अपना जानना चाहिए। 20. लंतगाईणं जहन्नकालद्वितीयस्स तिरिक्खमोणियस्स तिसु वि गमएसु छप्पि लेस्साम्रो कायवाओ। संघयणाई बंभलोग-लंतएसु पंच प्रादिल्लगाणि, महासुक्क-सहस्सारेसु चत्तारि, तिरिक्खजोणियाण वि मणुस्साण नि / सेसं तं चेव / 20] लान्तक आदि (लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार) देवों में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चयोनिक के तीनों ही गमकों में छहों लेश्याएँ कहनी चाहिए / ब्रह्मलोक और लान्तक देवों में प्रथम के पांच संहनन, महाशुक्र और सहस्रार में आदि के चार संहनन तथा लियञ्चयोनिकों तथा मनुष्यों में भी यही जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् / विवेचन-लेश्या-संहननादि के विषय में स्पष्टीकरण-(१) सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में प्रथम की पांच लेश्याएँ कही हैं। क्योंकि सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न होने वाला जघन्य स्थिति का तिर्यञ्च अपनी जघन्य स्थिति के कारण कृष्णादि चार लेश्यानों में से किसी एक लेश्या में परिणत होकर मरण के समय में पद्मलेश्या को प्राप्त कर मरता है, तब उस देवलोक में उत्पन्न होता है, क्योंकि अगले भव की लेश्या में परिणत हो कर ही जीव परभव में जाता है, ऐसा सैद्धान्तिक नियम है / अतः इसके पांच लेश्याएं होती हैं / इसी प्रकार माहेन्द्र एवं ब्रह्मलोक के विषय में भी समझना चाहिए। (2) देवलोक में उत्पन्न होने वाले के संहननों के विषय में यह नियम है छेवट्टेण उ गम्मइ चत्तारि उ जाव अाइमा कप्पा / बढेज कप्पजुयलं संघयणे कीलियाईए।। अर्थात्--प्रथम के चार देवलोकों में छह संहनन वाला जाता है। पांचवें और छठे में पांच संहनन वाला, सातवें आठवें में चार संहनन वाला; नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें में तीन संहनन वाला, नौ बेयक में दो संहनन वाला और पांच अनुत्तर विमान में एक संहनन वाला जाता है।' प्रानत से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपरणा 21. प्राणयदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति ?. उबवानो जहा सहस्सारदेवाणं, णवरं तिरिक्खजोणिया खोडेयव्या जाव--- | 21 प्र.) भगवन् ! प्रानतदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 851 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 6, पृ. 3190 Page #2469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 24] [271 [21 उ. (गौतम ! ) सहस्रारदेवों के समान यहाँ उपपात (उत्पत्ति) कहना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ तिर्यञ्च की उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए / यावत्-- 22. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयस निमणुस्से णं भंते ! जे भविए प्राणयदेवेसु उबबज्जित्तए ? मणुस्साण य वसव्वया जहेव सहस्सारे उववज्जमाणाणं, णवरं तिन्नि संघयणाणि / सेसं तहेव, जाव अणुबंधो। भवाएसेणं जहन्नेणं तिणि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं सत्त भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाई दोहि वासपुहतेहिं अभहियाई, उक्कोसेणं सत्ताबण्णं सागरोवमाई चउहि पुवकोडीहि अमहियाई; एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियब्वा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / सेसं तहेव / 22 प्र. भगवन् ! संख्यात वर्ष की प्रायु वाला पर्याप्त संज्ञी मनुष्य, जो आनतदेवों में उत्पन्न होने योग्य है; वह कितने काल की स्थिति वाले अानतदेवों में उत्पन्न होता है ? 22 उ. (गौतम ! ) सहस्रारदेवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की वक्तव्यता के समान यहाँ भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि इसमें प्रथम के तीन संहनन होते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् अनुबन्धपर्यन्त / भवादेश से... जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करता है / कालादेश सेजघन्य दो वर्षपृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट चार पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। (यह प्रथम गमक है / ) इसी प्रकार शेष पाठ गमक भी कहने चाहिए / परन्तु स्थिति और संवेध (अपना-अपना पृथक-पृथक्) जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् / [गमक 1 से 1 तक] 23. एवं जाव अच्चुयदेवा, नवरं ठित संवेहं च जाणेज्जा। चउसु वि संघयणा तिन्नि आणयादिसु / 23] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेव-पर्यन्त जानना चाहिए। किन्तु स्थिति और संवेध (भिन्न-भिन्न) कहना चाहिए / आनतादि चार देवलोकों में प्रथम के तीन संहनन वाले उत्पन्न होते हैं। 24. गेवेज्जगदेवा गं भंते ! कत्रो० उचवज्जति ? एस चेव वत्तब्धया, नवरं संघयणा दो। ठिति संवेहं च जाणेज्जा। |24 प्र. भगवन् ! बेयकदेव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [24 उ.] यही (पूर्वोक्त) वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष—इनमें प्रथम के दो संहनन वाले उत्पन्न होते हैं तथा स्थिति और संवेध, (इनका अपना-अपना) समझना चाहिए। 25. विजय-वेजयंत जयंत-अपराजियदेवा गं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? 0 एस व वत्तवता निरवसेसा जाव अणुबंधो ति, नवरं पढमं संघयणं, सेसं तहेव / भवाएसेणं जहन्नेणं तिनि भवग्गहणाई, उक्कोसेणं पंच भवग्महणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोक्माइं दोहि वासपुहत्तेहि अब्भहियाई, उक्कोसेणं छावटि सागरोवमाई तिहि पुस्वकोडोहिं Page #2470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] ष्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अग्भहियाई; एवतियं० / एवं सेसा वि अट्ठ गमगा भाणियम्वा, नवरं ठिति संवेहं च जाणेज्जा / मणूसलद्धी नवसु वि गमएसु जहा गेवेज्जेसु उववज्जमाणस्स, नवरं पढमसंघयणं / [25 प्र. भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव, कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [25 उ.] पूर्वोक्त सारी वक्तव्यता यावत् अनुबन्ध तक जानता / विशेष—इनमें प्रथम संहनन वाले उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् / भवादेश से-जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट पांच भव तथा कालादेश से-जघन्य दो वर्ष पृथक्त्व-अधिक 31 सागरोपम और उत्कृष्ट तीन पूर्वकोटि अधिक 66 सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। शेष आठ गमक भी इसी प्रकार कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनमें स्थिति और संवेध (अपना-अपना भिन्न-भिन्न) जान लेना चाहिए। मनुष्य के नौ ही गमकों में (उत्पत्ति आदि), गवेयेक में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों के गमकों के समान कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि विजय आदि (चारों वैमानिक देवों) में प्रथम संहनन वाला ही उत्पन्न होता है। 26. सम्वदृसिद्धगदेवा णं भंते ! कत्रो० उववज्जति ? उववालो जहेब विजयाईणं जाव|२६ प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देव कहाँ से आकर उत्पन्न होता है ? :26 उ.) इसका उपपात (उत्पत्ति) आदि विजय आदि के समान है / यावत्२७. से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं तेत्तीससागरोवमदिति० उक्कोसेण वि तेत्तीससागरोवमट्टितीएसु उवव० / अवसेसा जहा विजयादिसु उववज्जंताणं, नवरं भवाएसेणं तिन्नि भवगहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीसं सागरोवमाई दोहि वासपुहत्तेहि अमहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहि पुत्वकोडोहि अमहियाई; एवतियं० / [पढमो गमयो] / [.27 प्र.] भगवन् ! वे (संज्ञी मनुष्य) कितने काल की स्थिति वाले सर्वार्थसिद्धदेवों में उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / / 27 उ.] गौतम ! वे जघन्य और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वार्थ सिद्धदेवों में उत्पन्न होते हैं। शेष वक्तव्यता विजयादि देवों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य के समान है। विशेषता यह है कि भवादेश से-तीन भवों का ग्रहण होता है, कालादेश से-जघन्य दो वर्षपृथक्त्व-अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है। [प्रथम गमक) 28. सो चेव अप्पणा जहन्नकाल द्वितीयो जाओ, एस चेव वत्तव्वया, नवरं ओगाहणा-ठितीनो रयणिपुहत्त-वासपुहत्ताणि / सेसं तहेव / संवेहं च जाणेज्जा। [बीनो गमो] / [28] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सर्वार्थसिद्धदेवों में उत्पन्न हो, तो भी यही पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेषता यह है कि इसकी अवगाहना Page #2471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 24] [273 रत्निपृथक्त्व और स्थिति वर्षपृथक्त्व होती है / शेष पूर्ववत् / संवेध (इसका अपना) जानना चाहिए / [द्वितीय गमक] 26. सो चेव अप्पणा उक्कोसकाल द्वितीयो जानो, एस चेव वत्तव्यता, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं पंच धणुसयाई, उक्कोसेण वि पंच धणुसयाई। ठिती जहन्नेणं पुश्वकोडी, उक्कोसेण बि पुवकोडी। सेसं तहेव जाव भवाएसो ति। कालाएसेणं जहन्नेणं तेत्तीस सागरोबमाई दोहि पुवकोडोहिं अन्भहियाई, उक्कोसेण वि तेत्तीस सागरोवमाई दोहि पुश्वकोडोहि अभहियाइं; एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। [तइनो गमयो] / एते तिनि गमगा सम्वटुसिद्धगदेवाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे जाव विहरइ / ॥चउवोसतिमे सए : चउवीसतिमो उद्देसो समत्तो // 24-24 / / ॥समत्तं च चउवीसतिमं सयं // 24 // [26] यदि वह (संज्ञी मनुष्य) स्वयं उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला हो तो यही पूर्वोक्त वक्तव्यता जाननी चाहिए। किन्तु इसकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष है / इसकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। शेष सब पूर्ववत् यावत् भवादेश तक / काल की अपेक्षा सेजघन्य दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम और उत्कृष्ट भी दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतना काल सेवन (यापन) करता है और इतने काल तक गमनागमन करता है / [तीसरा गमक सर्वार्थसिद्धदेवों में ये तीन ही गमक होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचनानत से सर्वार्थसिद्धि तक गमकों को प्ररूपणा--(१) अानतदेव तिर्यञ्चों में आकर उत्पन्न नहीं होता / (2) विजय आदि जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात भव ग्रहण करते हैं / आनतादि देव मनुष्य से आकर ही उत्पन्न होते हैं। वहाँ से च्यवकर भी मनुष्य गति में आते है / इस प्रकार जघन्य तीन भव और उत्कृष्ट प्रानत से अच्युत एवं वेयक तक 7 भव करता है, विजयादि में जघन्य 3 और उत्कृष्ट 5 भव ग्रहण करता है तथा सर्वार्थसिद्धदेव में तीन भव ग्रहण करता है। (2) आनतादि का संवेध-प्रानत से अच्युत देव तक में संज्ञी मनुष्य के 4 भवसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति चार पूर्वकोटि और आनतदेव की तीन भव सम्बन्धी उत्कृष्ट स्थिति 57 सागरोपम की होती है। आनतदेव का उत्कृष्ट संवेध चार पूर्वकोटि अधिक 57 सागरोपम का होता है / इसी प्रकार आगे के देवलोकों की स्थिति का विचार कर संवेध जानना चाहिए।' // चौवीसवाँ शतक : चौवीसवाँ उद्देशक समाप्त // चौवीसवां शतक - - -- --.. ... 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 851 Page #2472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसइमं सयं : पच्चीसवाँ शतक प्राथमिक * भगवती सूत्र के पच्चीसवें शतक के बारह उद्देशक हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं-(१) लेश्या, (2) द्रव्य, (3) संस्थान, (4) युग्म, (5) पर्यव, (6) निर्ग्रन्थ, (7) श्रमण, (8) प्रोघ, (9) भव्य, (10) अभव्य, (11) सम्यक्त्वी और (12) मिथ्यात्वी।। मनुष्य चेतनावान् है / वह अनन्त ज्ञान-दर्शन का धनी है, फिर भी वह स्वयं को अज्ञानग्रस्त एवं हीन मानता है। वह अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा होते हुए भी स्वयं को शक्तिहीन समझता है / वह स्वभावतः वीतराग और परम आत्मा होते हुए भी स्वयं को राग-द्वष से लिप्त, कषाययुक्त और अपरम आत्मा मानता है। वह अपनी शक्तियों एवं उ अपरिचित है / असीम और अनन्त होते हुए भी स्वयं को ससीम और सान्त समझता है / कौन-से ऐसे बाधक तत्त्व हैं, जो साधक की शक्ति और उपलब्धि को सीमित कर देते हैं ? कौनसे ऐसे बाधक तत्त्व हैं, जो शरीर के भीतर बैठे हुए अनन्त चैतन्य को प्रकट नहीं होने देते? आत्मा की शुद्धता-उज्ज्वलता तथा परमात्मसम्पन्नता को रोके हए हैं ? तथा किन तत्त्वों ने उसे मोक्ष-प्राप्ति के लक्ष्य से दूर भटका दिया है और संसार के जन्म-मरण के बन्धनों में उसे बांध रखा है ? उनसे कैसे छुटकारा मिल सकता है ? और कैसे साधक अपने चरम लक्ष्य---मोक्ष को प्राप्त कर सकता है ? आत्मा को उज्ज्वल, शुद्ध और कर्ममुक्त बना सकता है ? ये और इन्हीं प्रश्नों का समाधान इस शतक में निहित है। प्रथम उद्देशक में लेश्यायों का प्रतिपादन किया है, जो कषाय से अनुरंजित होने के कारण मनुष्य को लक्ष्य से भटका देती हैं, संसारसागर से पार होने में बाधक बनती हैं। यद्यपि आत्मा अपने आप में परम शुद्ध है, तथापि लेश्या, चाहे वह शूक्ललेश्या ही क्यों न हो, जब तक रहती है, तब तक वह मोक्ष नहीं कर सकता, वह संसारी बना रहता है / इसलिए इसी उद्देशक में संसार-समापन्नक जीवों की सूची दे दी है, ताकि मुमुक्षु जीव यह समझ सके कि जब तक लेश्या, योग आदि हैं, तब तक वह संसारी ही कहूलाएगा, साथ ही पन्द्रह प्रकार के योगों का तारतम्य एवं अल्पबहुत्व बताया गया है, ताकि साधक अपने योगों का नापतौल कर सके / इस पाठ से यह भी ध्वनित कर दिया है कि साधक अपनी आत्मशक्तियों का विकास कर ले तो योगों के कम्पनों के प्रभाव को रोक सकता है / दूसरे उद्देशक में द्रव्यों की चर्चा की है / मनुष्य जीव द्रव्य में है और चेतनाहीन द्रव्य अजीब हैं / इनमें किसकी संख्या अधिक है ? कौन किसको प्रभावित करता है ? अथवा जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में आते हैं या अजीव द्रव्य जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं ? इसका Page #2473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : प्राथमिक [275 रहस्य खोलते हुए इस उद्देशक में शास्त्रकार ने जीव की शक्ति को अनन्त और प्रबल बताते हुए कहा है कि जीव द्रव्य अजीव द्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं, अजीव द्रव्य ही जीव द्रव्य के परिभोग में आते हैं। फिर यह प्रश्न भी उठाया गया है कि असंख्यातप्रदेशात्मक लोकाकाश में जीव और अजीव रूप अनन्त द्रव्य कैसे समा सकते हैं ? साथ ही यह भी बताया गया है कि जीव जिस आकाशप्रदेश में रहा हुआ है, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए पुद्गल स्थितद्रव्य हैं, उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल अस्थितद्रव्य हैं। उन्हें जीव वहाँ से खींच कर ग्रहण करता है द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से भी तथा वह (जीव) पांच शरीर, पांच इन्द्रिय, तीन योग और श्वासोच्छ्वास ; इन चौदह के रूप में यथायोग्य ग्रहण भी करता है। इन्हीं से फिर कर्मबन्ध और उनसे जन्म-मरण-परम्परा को बढ़ाता है। साधक को इनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है। तीसरे उद्देशक में बताया गया है कि जिस प्रकार जीव के छह संस्थान होते हैं, उसी प्रकार अजीव द्रव्य के भी परिमण्डल आदि छह संस्थान होते हैं। उनका अल्पबहुत्व एवं संख्यापरिमाण भी यहाँ बताया है तथा रत्नप्रभादि पृध्वियों में कौन से संस्थान कितने हैं ? कौन-सा संस्थान कितने प्रदेश का तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ़ है? वे कृतयुग्म हैं या व्योज, द्वापरयुग्म या कल्योजरूप हैं ? अन्त में लोकाकाश और अलोकाकाश की श्रेणियों की चर्चा की गई है। साथ ही जीवों और पुद्गलों की अनुश्रेणि गति और विश्रेणि गति का प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात् इस उद्देशक में इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान के प्रदाता गणिपिटक (द्वादशांग) का भी उल्लेख किया है, जिससे साधक सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त कर सके। अन्त में चारों गतियों के तथा सिद्ध गति के जीवों के एवं सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय एवं अनिन्द्रिय जीवों के तथा जीवों और पुद्गलों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार के सूक्ष्म सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोजन यह है कि साधक आत्मा की व्यापकता, अनन्त शक्तिमत्ता एवं अवगाहन-क्षमता आदि को जान सके तथा प्रायु आदि कर्मों के बन्ध से बच सके। चतुर्थ उद्देशक में नरयिक से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कृतयुग्म आदि की चर्चा करके फिर धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों में भी उसी की चर्चा की है / तत्पश्चात द्रव्यार्थ से और प्रदेशार्थ से सभी जीवों के कृतयुग्मादि की, कृतयुग्मप्रदेशावगाढ़ आदि की तथा कृतयुग्मादि समय की स्थिति की तथा आत्मप्रदेशों और शरीरप्रदेशों की अपेक्षा से कृतयुग्मादि की प्ररूपणा की है। फिर मतिज्ञान प्रादि पांच ज्ञानों के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म आदि की प्ररूपणा की है। इसके पश्चात् जीवों की सकम्पता-निष्कम्पता तथा देशकम्पकता, सर्वकम्पकता की चर्चा की गई है तथा परमाणु पुद्गल, एकप्रदेशावमाढ़, एकसमयस्थितिक तथा एकगुणकाले आदि से लेकर संख्यात, असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है, जो मुमुक्षु आत्माओं के लिए श्रद्धापूर्वक ज्ञेय है। एक परमाणु से अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक के Page #2474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कृतयुग्मादि की पूर्ववत चर्चा की गई है। परमाण से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सार्द्ध-अनर्द्ध की भी सूक्ष्म चर्चा है / जीवों के समान परमाणु प्रादि की सकम्पता-निष्कपता तथा कियत्काल-स्थायिता, कियत्काल का अन्तर एवं उनकी सकम्पता, निष्कम्पता व अल्पबहुत्व का निरूपण भी किया गया है। अन्त में धर्मास्तिकाय से लेकर जीवास्तिकाय तक के मध्यप्रदेशों की भी चर्चा है। पंचम उद्देशक में जीव और अजीव के पर्यवों की प्ररूपणा से प्रारम्भ करके प्रावलिका से लेकर पुद्गल-परिवर्तन तक के कालसम्बन्धी परिमाण की चर्चा की है। इस चर्चा का उद्देश्य यही संभावित है कि मुमुक्ष साधक अपने अतीत के अनन्तकालिक भवों के लक्ष्यहीन अज्ञानग्रस्त जीवन पर विचार करके भविष्यत्काल को सुधार सके, उज्ज्वल बना सके / इस उद्देशक के अन्त में द्विविध निगोद जीवों तथा औदयिक आदि पांच भावों का निरूपण भी किया गया है * छठे उद्देशक में मोक्षलक्ष्यी पंचविध निर्ग्रन्थ साधक के मार्ग में कौन-कौन से अवरोध या बाधक तत्त्व प्रा जाते हैं, जो उसकी मोक्ष की ओर की गति को मन्द कर देते हैं ? किन साधक तत्त्वों से वह गति बढ़ सकती है ? इस पर 36 द्वारों के माध्यम से विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है। वस्तुतः पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों के आध्यात्मिक विकास के लिए यह तत्त्वज्ञान बहुत ही उपयोगी एवं अनिवार्य हैं। सातवें उद्देशक में सामायिक से लेकर यथाख्यात तक पांच प्रकार के संयतों का यथार्थ स्वरूप प्रथम प्रज्ञापनद्वार के माध्यम से बताकर उनके मोक्षमार्ग में बाधक-साधक तत्वों का भी पूर्वोक्त उद्देशक में कथित 36 द्वारों के माध्यम से सांगोपांग निरूपण किया गया है / इसके पश्चात् पंचविध निर्गन्थों तथा पंचविध संयतों को संयम में लगे हुए या लगने वाले दोषों की शुद्धि करके आत्मा को विशुद्ध, उज्ज्वल, स्वरूपस्थ, निजगुणलीन बनाने हेतु प्रतिसेवना, आलोचनादोष, आलोचना-योग्य, आलोचना (सुनकर प्रायश्चित्त) देने योग्य गुरु, समाचारी प्रायश्चित्त और बाह्य-प्राभ्यन्तर द्वादशविध तप, इन सात विषयों का विशद वर्णन किया गया है। * पाठ उद्देशक में जीवों के आगामी भव में उत्पन्न होने का प्रकार तथा उनकी शीघ्र गति एवं गतिविषय की चर्चा की गई है। जीव परभव की आयु किस प्रकार बांधते हैं ? जीवों की गति क्यों और कैसे होती है ? तथा जीव प्रात्मऋद्धि से, स्वकर्मों से, प्रात्मप्रयोग (व्यापार) से उत्पन्न होते हैं या परऋद्धि, परकर्म या पर-प्रयोग से ? इसकी कर्मसिद्धान्तानुसार प्ररूपणा की गई है। * नौवें उद्देशक में भी इसी प्रकार भवसिद्धिक (नरयिकों से वैमानिकों तक के) जीवों की उत्पत्ति, शीघ्रगति, गति-विषय, गति-कारण, आयुबन्ध, स्वऋद्धि-स्वकर्म-स्वप्रयोग से उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा की गई है। दशवे उद्देशक में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति आदि के विषय में पूर्ववत् प्ररूपणा की Page #2475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : प्राथमिक * ग्यारहवें उद्देशक में सम्यग्दृष्टि नैरयिकों से वैमानिकों तक के जीवों की (एकेन्द्रिय को छोड़___ कर) उत्पत्ति प्रादि की पूर्ववत् चर्चा की है / * बारहवे उद्देशक में मिथ्यादृष्टि नैरयिक आदि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति आदि की पूर्ववत् चर्चा की है। इन उद्देशकों में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान से मुमुक्ष साधक कर्मसिद्धान्त पर सम्यक अद्धा करके जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने के लिए स्वकृत कर्मों को स्वयं काटने के लिए पुरुषार्थ करता है / कुल मिलाकर पच्चीसवें शतक के बारह उद्देशकों में यात्मिक विकास में साधक-बाधक तत्त्वों की गहन चर्चा है। Page #2476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसइम सयं पच्चीसवां शतक पच्चीसवें शतक के उद्देशकों का नाम निरूपण 1. लेसा य 1 दव्व 2 संठाण 3 जुम्म 4 पज्जव 5 नियंठ 6 समणा य 7 / पोहे 8 भवियाऽभविए 6-10 सम्मा 11 मिच्छे य 12 उद्देसा // 1 // [1 गाथार्थ] पच्चीसवें शतक के ये बारह उद्देशक हैं--(१) लेश्या, (2) द्रव्य, (3) संस्थान, (4) युग्म, (5) पर्यव, (6) निर्गन्थ, (7) श्रमण, (8) अोष, (6) भव्य, (10) अभव्य, (11) सम्यग्दृष्टि और (12) मिथ्यादृष्टि / विवेचन---उद्देशकों का विशेषार्थ-पच्चीसवें शतक में बारह उद्देशक हैं, जिनके विशेषार्थ इस प्रकार हैं-(१) लेश्या-लेश्या आदि के सम्बन्ध में प्रथम उद्देशक है। (2) द्रव्य-जीवद्रव्य, अजीवद्रव्य से सम्बन्धित द्वितीय उद्देशक है। (3) संस्थान--परिमण्डल, वृत्त प्रादि छह संस्थानों के विषय में तृतीय उद्देशक है / (4) युग्म-कृतयुग्म आदि चार युग्मों (राशियों) के विषय में चतुर्थ उद्देशक है / (5) पर्यव-जीव-अजीव-पर्यव आदि से सम्बद्ध विवेचन वाला पंचम उद्देशक है / (6) निर्ग्रन्थ-पुलाकादि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों का 36 द्वारों के माध्यम से विवेचनयुक्त छठा उद्देशक हैं। (7) श्रमण-सामायिक आदि पांच प्रकार के संयतों का विविध पहलुगों से विवरणयुक्त सप्तम उद्देशक है। (8) अोघ-सामान्य नारकादि जीवों की उत्पत्ति से सम्बन्धित आठवा उद्देशक है। (8) भव्य-चातुर्गतिक भव्य जीवों की उत्पत्ति आदि से सम्बद्ध नौवाँ उद्देशक है / (10) अभव्य--अभव्य जीवों की उत्पत्ति-सम्बन्धी दसवाँ उद्देशक है। (11) सम्यग्दष्टि-चातुर्गतिक सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति से सम्बन्धित 11 वाँ उद्देशक है और (12) मिथ्यादृष्टि-चातुर्गतिक मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति सम्बन्धी चारहवाँ उद्देशक है। इस प्रकार पच्चीसवें शतक में बारह उद्देशकों की वक्तव्यता है।' DO 1. (क) वियाहपणत्तिसुत्तं भा. 2 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 969 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्र, पंचम अंग, चतुर्थ खण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 185 Page #2477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : लेसा प्रथम उद्देशक : लेश्या प्रादि का वर्णन लेश्याओं के भेद, अल्पबहुत्व प्रादि का अतिदेशपूर्वक निरूपण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी[२] उस काल और उस समय में श्री गौतम स्वामी ने राजगृह में यावत् इस प्रकार पूछा३. कति णं भंते ! लेस्सानो पनत्तायो ? गोयमा! छल्लेसानो पन्नत्तायो, तं जहा कण्हलेस्सा जहा पढमसए बितिउद्देसए (स० 1 उ० 2 सु० 13) तहेब लेस्साविभागो अप्पाबहुगं च जाव चविहाणं देवाणं चउठिवहाणं देवोणं मोसगं अप्पाबहुगंति। [3 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? [3 उ.] गौतम ! छह लेश्याएँ कही गई हैं / यथा कृष्णलेश्या आदि ! शेष वर्णन इसी शास्त्र के प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (श. 1, उ. 2, सू. 13) में जिस प्रकार किया गया है, तदनुसार यहाँ भी लेश्याओं का विभाग, उनका अल्पबहुत्व, यावत् चार प्रकार के देव और चार प्रकार की देवियों के मिश्रित (सम्मिलित) अल्पबहुत्व-पर्यन्त जानना चाहिए / विवेचन-लेश्याओं का पुनः वर्णन क्यों प्रश्न होता है कि प्रथम शतक में लेश्यागों के स्वरूप, प्रकार आदि का वर्णन किया गया है, फिर इस शतक के प्रथम उद्देशक में उसका पुनः वर्णन क्यों किया गया है ? वृत्तिकार समाधान करते हैं कि अन्य प्रकरण के साथ इस (लेश्या) का सम्बन्ध होने से उस प्रकरण के साथ लेश्या और उनके अल्पबहुत्व का कथन पुन: किया गया है / प्रज्ञापनासूत्र में भी इसी प्रकार का वर्णन मिलता है / ' संसारी जीवों के चौदह भेदों का निरूपण 4. कतिविधा णं भंते ! संसारसमावनगा जीया पन्नत्ता? गोयमा ! चोद्दसविहा संसारसमावनगा जीवा पन्नत्ता, तं जहा- सुहमा अपज्जत्तगा 1 सुहमा पज्जतगा 2 बायरा अपज्जत्तगा 3 बादरा पज्जत्तगा 4 बेइंदिया अपज्जत्तगा 5 बेइंदिया पज्जत्तगा 6 एवं तेइंदिया 7-8 एवं चरिदिया 9-10 असनियंचे दिया अपज्जत्तगा 11 असन्निपंचेंदिया पज्जत्तगा 12 सन्निपंचिदिया अपज्जत्तगा 13 सन्निपंचिदिया पज्जत्तगा 14 / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 852 (ख) श्रीमद् भगवतीसूत्र खण्ड 1, शतक 1, उ. 2, सूत्र. 13, पृ. 104 (ग) प्रज्ञापनासूत्र पद 17, 3. 2, पत्र 243-349 Page #2478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [च्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4 प्र. भगवन् ! संसारसमापनक (संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [4 उ.] गौतम ! (संसारसमापनक जीव) चौदह प्रकार के कहे गए हैं / यथा—(१) सूक्ष्म अपर्याप्तक, (2) सूक्ष्म पर्याप्तक, (3) बादर अपर्याप्तक, (4) बादर पर्याप्तक, (5) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, (6) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, (7) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, (8) श्रीन्द्रिय पर्याप्तक, (6-10) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक-पर्याप्तक, (11) प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, (12) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, (13) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक और (14) संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक / विवेचन-सूक्ष्म और बादर का स्वरूप और विशेषार्थ-सूक्ष्म-सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म हो, अर्थात् असंख्य शरीर एकत्रित होने पर भी जो चक्षुरिन्द्रिय का विषय न हो, उसे सूक्ष्मशरीर कहते हैं। बादर-बादरनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर बादर अर्थात् स्थूल हो, उन्हें बादर कहते हैं। पर्याप्तक-अपर्याप्तक-लक्षण–पर्याप्तकजिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं, जब वह उतनी पर्याप्तियां पूर्ण कर लेता है, तब उसे 'पर्याप्तक' कहते हैं / स्पष्ट शब्दों में कहें तो एकेन्द्रिय (पृथ्वी काय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय) जीव आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास-इन चार- पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेने पर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय उक्त चार पर्याप्तियाँ और पांचवी भाषापर्याप्ति पूरी कर लेने पर तथा संज्ञी-पंचेन्द्रिय उपर्युक्त पाँच पर्याप्तियाँ तथा छठी मनपर्याप्ति पूर्ण कर लेने पर 'पर्याप्तक' कहलाते हैं। जिस जीव की पर्याप्तियाँ पूरी न हो पाई हों, अथवा जो स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी होने से पहले ही मरने वाला हो, वह अपर्याप्तक कहलाता है / अपर्याप्त अवस्था में मरने वाला जीव तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करके चौथी श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति अधूरी रहने पर ही मरता है, पहले नहीं, क्योंकि सभी सांसारिक जीव आगामी भव की आयु बांध कर ही मृत्यु प्राप्त करते हैं तथा आयुष्य का बन्ध भी उन्हीं जीवों के होता है, जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय पर्याप्तियां पूरी कर ली हों। एकेन्द्रिय के चार भेद-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्त, ये चार भेद एकेन्द्रियों के होते हैं। द्वीन्द्रियादि के दो-दो भेद-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुररिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक रूप से दो-दो भेद होते हैं / इस प्रकार 14 भेद सांसारिक जीवों के जघन्य और उत्कृष्ट योग को लेकर संसारी जीवों का अल्पबहुत्व-निरूपण 5. एतेसि णं भंते ! चोद्दसविहाणं संसारसमावनगाणं जीवाणं जहन्नुषकोसगस्स जोगस्स कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवे सुहमस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नए जोए 1, बादरस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 2, बेंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 3, एवं तेइंदियस्स०४, 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3193-3194 (ख) भगवती. अ. पति, पत्रांक 853 Page #2479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 1] [281 एवं चरिदियस्स० 5, असनिस्स पंचेंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 6, सनिस्स पंचेंदियस्स अपज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 7, सुहमस्स पज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 8, बादरस्स पज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे, सुहमस्स अपज्जत्तगस्स उपकोसए जोए असंखेज्जगुणे 10, बायरस्स अपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 11, सुहुमस्स पज्जतगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 12, बादरस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 13, बेंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 14, एवं तेंदियस्स 15, एवं जाव सनिस्स पंचेंदियस्स पज्जत्तगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 16-18, बंदियस्स अपज्जत्तगए उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 16, एवं तेदियस्स वि 20, एवं जाव सण्णिपंचेंदियस्स अपज्जतगस्स उपकोसए जोए असंखेज्जगुणे 21-23, बेदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 24, एवं तेइंदियस्स वि पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगणे 25, चरिंदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 26, असग्निपंचिदियपज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 27, एवं सणिस्स पंचिदियस्स पज्जत्तगस्स उक्कोसए जोए प्रसंखेज्जगुणे 28 / [5 प्र.] भगवन् ! इन चौदह प्रकार के संसार-समापनक जीवों में जघन्य और उत्कृष्ट योग की अपेक्षा से, कौन जीव, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [5 उ.] गौतम ! 1. अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग सबसे अल्प है, 2. बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय का जघन्य योग उससे असंख्यातगुना है, 3. उससे अपर्याप्त द्वीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है. 4. उससे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 5. उससे अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 6. उससे अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 7. उससे अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 8. उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 9. उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, 10. उससे अपर्याप्तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 11. उससे अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 12. उससे पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 13. उससे पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 14. उससे पर्याप्त द्वीन्द्रिय का जघन्य योग असंख्यातगुना है, (15-16-1718) उससे पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और पयोप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का जघन्य का योग उत्तरोत्तर असंख्यातगूना है, 19. उससे अपर्याप्त द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, (20-21-22-23) इसी प्रकार उससे अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त संझी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यातगुना है, 24. उससे पर्याप्त द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 25. इसी प्रकार पर्याप्त त्रीन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 26. उससे पर्याप्त चतुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुना है, 27. उससे पर्याप्त प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुता है, और 28. उससे भी पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है / विवेचन--जघन्य योग, उत्कृष्ट योग तथा अल्पबहुत्व-प्रात्मप्रदेशों के परिस्पन्दन (हलचल Page #2480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 289] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र या कम्पन) को 'योग' कहते हैं। वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशमादि की विचित्रता के कारण योग के पन्द्रह भेद होते हैं, जिनका विवेचन आगे सू. 8 में किया जाएगा। किसी-किसी जीव का योग, दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। जीवों के उपर्युक्त चौदह भेदों से सम्बन्धित प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट योग होने से 28 भेद होते हैं / यहाँ जीवों का अल्पबहुत्व न कह कर योगों के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। इनमें सबसे अल्प, सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रिय का जघन्य-योग हैं, क्योंकि उन जीवों का शरीर सूक्ष्म और अपर्याप्त (अपूर्ण) होने के कारण दूसरे सभी जीवों के योगों की अपेक्षा उनका योग सबसे अल्प होता है और वह भी कार्मण शरीर द्वारा औदारिक शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय में ही होता है। तत्पश्चात् समय-समय पर योग में वृद्धि होती है, जो उत्तरोत्तर उत्कृष्ट योग तक बढ़ता है / पूर्वोक्त - सूक्ष्म अपर्याप्त की अपेक्षा अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग असंख्यातगुण होता है। बादर होने के कारण उसका योग असंख्यातगुण बड़ा होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए।' ___ यद्यपि पर्याप्त त्रीन्द्रिय की उत्कृष्ट काया की अपेक्षा पर्याप्तक द्वीन्द्रियों की काया तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट काया, संख्यात योजन होने से संख्यातगुण ही होती है, तथापि यहाँ परिस्पन्दनरूप योग की विवक्षा होने से तथा क्षयोपशम-विशेष की सामर्थ्य से असंख्यातगुण होने का कथन विरुद्ध नहीं है, क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प हो और महाकाय वाले का परिस्पन्दन बहुत हो, क्योंकि इससे विपरीत भी दृष्टिगोचर होता है। अल्पकाय वाले का परिस्पन्दन महान् भी होता है और महाकाय वाले का परिस्पन्दन प्रल्प भी होता है।' आगे हम जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र भी दे रहे हैं, जिससे स्पष्ट प्रतीत हो जाएगा कि महाकाय वाले का परिस्पन्दन अल्प और अल्पकाय वाले का महान् परिस्पन्द भी होता है / प्रथम समयोत्पन्नक चतुविशति दण्डकवर्ती दो जीवों का समयोगित्व-विषमयोगित्वनिरूपण 6. [1] दो भंते नेरतिया पलमसमयोववनगा कि समजोगी, विसमजोगी ? गोयमा ! सिय समजोगी, सिय विसमजोगी। [6-1 प्र.] भगवन् / प्रथम समय में उत्पन्न दो नैरयिक समयोगी होते हैं या विषमयोगी ? [6-1 उ.] गौतम ! कदाचित् समयोगी होते हैं और कदाचित् विषमयोगी होते हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति—सिय समजोगी, सिय विसमजोगी ? गोयमा ! पाहारयानो वा से अणाहारए, प्रणाहारयाओ वा से प्राहारए सिय होणे, सिय तुल्ले, 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3201 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 853-854 2. वही, पत्र 853 Page #2481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उदृ शक 1 283 जघन्य और उत्कृष्ट योग के अल्पबहुत्व का यंत्र सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त | बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त द्वीन्द्रिय अपर्याप्त द्वीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय अपर्याप्त | श्रीन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त | संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जघन्य जघन्य जघन्य जघन्य | जघन्य जघन्य जघन्य उत्कृष्ट ! जघन्य जघन्य | जघन्य 204 उत्कृष्ट | जघन्य / उत्कृष्ट उत्कृष्ट | उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट 27 उत्कृष्ट 23 28 उत्कृष्ट hea | जघन्य 12 29€აგ सिय अभहिए / जवि होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहोणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे वा / अह अम्महिए असंखेज्जतिभागमभहिए वा संखेज्जतिभागमभहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा / सेतेणट्टेणं जाव सिय विसमजोगी। [6-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी होते हैं ? f6-2 उ.] गौतम ! आहारक नारक से अनाहारक नारक और अनाहारक नारक से आहारक नारक कदाचित् हीनयोगी, कदाचित् तुल्ययोगी और कदाचित् अधिकयोगी होता है। (अर्थात्आहारक नारक से अनाहारक नारक हीन योग वाला, अनाहारक से आहारक नारक अधिक योग वाला और दोनों नों अहारक या दोनों अनाहारक नारक परस्पर तुल्य योग वाले होते हैं।) यदि वह हीन योग वाला होता है तो असंख्यातवें भागहीन, संख्यातवें भागहीन, संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है / यदि अधिक योग वाला होता है तो असंख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातवाँ भाग अधिक, संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होता है। इस कारण से कहा गया है कि कदाचित् समयोगी और कदाचित् विषमयोगी भी होता है। 1. श्रीमद् भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती मनुवादसहित), पृ. 199 Page #2482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 [ সাল্লখ 7. एवं जाव वेमाणियाणं / [7] इस प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। विवेचन प्रथम समयोत्पन्नक नरकक्षेत्र में प्रथम समय में उत्पन्न नैरयिक 'प्रथम समयोत्पन्नक' कहलाता है। इस प्रकार के दो नारक, जिनकी उत्पत्ति विग्रहगति से, अथवा ऋजुगति से प्राकर, अथवा एक की विग्रहगति से और दूसरे की ऋजुगति से आकर हुई है , वे भी 'प्रथमसमयोत्पन्नक' कहलाते हैं।' समयोगी-विषमयोगी--जिन दो जीवों के योग समान हों, वे 'समयोगी' और जिनके विषम हों, वे 'विषमयोगी' कहलाते हैं।" हीनयोगी, अधिकयोगी और तुल्ययोगी: कौन और कैसे?—आहारक नारक की अपेक्षा अनाहारक नारक हीन योग वाला होता है, क्योंकि जो नारक ऋजुगति से प्राकर आहारक रूप से उत्पन्न होता है, वह निरन्तर आहारक होने के कारण पुद्गलों से उपचित (वृद्धिंगत) होता है, इस कारण अधिक योग वाला होता है। जो नारक विग्रहगति से आकर अनाहारक रूप से उत्पन्न होता है, वह अनाहारक होने से पुद्गलों से अनुपचित होता है, अतः हीनयोग बाला होता है / जो समान समय की विग्रहगति से आकर अनाहारकरूप से उत्पन्न होते हैं अथवा ऋजुगति से आकर प्राहारकरूप से उत्पन्न होते हैं, वे दोनों एक दूसरे की अपेक्षा तुल्ययोग वाले होते हैं। जो ऋजुगति से आकर आहारक उत्पन्न हुअा है, और दूसरा विग्रहगति से आकर अनाहारक उत्पन्न हुप्रा है, वह उसकी अपेक्षा उपचित होने से 'अत्यधिक विषमयोगी' होता है। सूत्र में हीनता और अधिकता का कथन किया गया है, वह सापेक्ष है। समानधर्मतारूप तुल्यता प्रसिद्ध होने से उसका पृथक् कथन नहीं किया गया है। किन्तु यह ध्यान रहे कि यहाँ परिस्पन्दन रूप योग की ही विवक्षा की गई है। योग के पन्द्रह भेदों का निरूपरण 8. कतिविधे णं भंते ! जोए पनते ? गोयमा! पन्नरसविधे जोए पन्नत्ते तं जहा-सच्चमणजोए मोसमणजोए सच्चामोसमणजोए प्रसच्चामोसमणजोए, सच्चवइजोए मोसवइजोए सच्चामोसवइजोए असच्चामोसवइजोए, पोरालियसरीरकायजोए ओरालियमोसासरीरकायजोए वेउस्वियसरीरकायजोए वेउन्वियमीसासरीरकायजोए पाहारगसरीरकायजोए आहारगमीसासरीरकायजोगे, कम्मासरीरकायजोए 15 / 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3201 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 854 2. बही, पत्र 854 3. (क) वही, पत्र 854 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3201-3202 Page #2483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 1) 285 [8 प्र.] भगवन् ! योग कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! योग पन्द्रह प्रकार का कहा गया है / यथा--(१) सत्य-मनोयोग, (2) मृषामनोयोग, (3) सत्यमृषा-मनोयोग, (4) असत्यामृषा-मनोयोग, (5) सत्य-वचन योग, (6) मृषावचनयोग, (7) सत्यमृषा-वचनयोग, (8) असत्यामृषा-वचनयोग, (9) औदारिकशरीर-काययोग, (10) औदारिकमिश्रशरोर-काययोग, (11) वैक्रियशरीर-काययोग, (12) वैक्रियमिथ-शरीरकाययोग, (13) आहारकशरीर-काययोग, (14) आहारकमिश्रशरीर-काययोग और (15) कार्मण-शरीरकाययोग। विवेचन-योग : परिभाषा और प्रकार—पूर्व सूत्रों में प्रयुक्त 'योग' शब्द परिस्पन्दन (हलचल) अर्थ में है, जबकि यहाँ 'योग' पारिभाषिक शब्द है, जो मन, वचन और काया से होने वाली चेष्टा (व्यापार) या प्रवृत्ति के अर्थ में है। ये योग 4 मन के निमित्त से, 4 वचन के निमित्त से और 7 काय के निमित्त से होते हैं, इसलिए वे 15 प्रकार के कहे गये हैं। पन्द्रह प्रकार के योगों में जघन्य-उत्कृष्ट योगों का अल्पबहुत्व 6. एयस्स णं भंते ! पनरसविहस्स जहन्नुक्कोसगस्स जोगस्स कयरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवे कम्मगसरीरस्स जहन्नए जोए 1, ओरालियमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 2, वेउविषयमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 3, पोरालियसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 4, वेउब्वियसरीरस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 5, कम्मगसरीरस्स उक्कोसए जोए प्रसंखेज्जगुणे 6, पाहारगमीसगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 7, तस्स चेव उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 8, प्रोलियमीसगस्स वेउन्विमीसगस्स य एएसि णं उक्कोसए जोए दोण्ह वि तुल्ले असंखेज्जगुणे 6-10, प्रसच्चामोसमणजोगस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 11, आहाररासरीरस्स जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 12; तिविहस्स मणजोगस्स, चम्विहस्स वइजोगस्स, एएसि णं सत्तण्ह वि तुल्ले जहन्नए जोए असंखेज्जगुणे 13-16 पाहारगसरीरस्स उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 20; ओरालियसरीरस्स वेउब्वियसरीरस्स चम्विहस्स य मणजोगस्स, चउम्विहस्स य वइजोगस्स, एएसिणं दसह वि तुल्ले उक्कोसए जोए असंखेज्जगुणे 21-30 / __ सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति / // पंचवीसइमे सते : पढमो उद्देसो समत्तो // 25-1 // [प्र.] भगवन् ! इन पन्द्रह प्रकार के योगों में, कौन किस योग से, जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [9 उ.] गौतम ! (1) कार्मण शरीर का जघन्य काययोग सबसे अल्प है, (2) उससे औदा 1. (क) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 363 (ब) वियाहपण्णत्तिसृत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 971 Page #2484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रिकमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, (3) उससे वैक्रिय मिश्र का जघन्य योग असंख्यात. गुणा है, (4) उससे औदारिकशरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, (5) उससे वैक्रियशरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, (6) उससे कार्मणशरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, (7) उससे आहारकमिश्र का जघन्य योग असंख्यातगुणा है, (8) उससे आहारकशरीर का उत्कृष्ट योग असंख्येयगुण है, (9-10) उससे औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र इन दोनों का उत्कृष्ट योग असंख्यातगृणा है, और दोनों परस्पर तुल्य हैं। (11) उससे असत्यामृषामनोयोग का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। (12) आहारकशरीर का जघन्य योग असंख्यातगुणा है। (13 से 16 तक) उससे तीन प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचनयोग, इन सातों का जघन्य योग असंख्यातगुणा है और परस्पर तुल्य है। (20) उससे आहारकशरीर का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है, 21 से 30 तक) उससे औदारिकशरीर, वैक्रिय शरीर, चार प्रकार का मनोयोग और चार प्रकार का वचनयोग, इन दस का उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है और परस्पर तुल्य है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है.' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। // पच्चीसवां शतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण / Page #2485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : 'दव्व' द्वितीय उद्देशक : 'द्रव्य' द्रव्यों के भेद-प्रभेव तथा दोनों प्रकार के द्रव्यों की अनन्तता की प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! दव्वा पन्नत्ता? __ गोयमा! दुविहा दव्वा पन्नत्ता, तं जहा–जीवदध्वा य अजोवदन्वा य / [1 प्र. भगवन् ! द्रव्य कितने प्रकार के कहे गए गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! द्रव्य दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-(१)-जीवद्रव्य और (2) अजीव 2. अजोवदन्वा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-रूविधजीवदवा य, अरूविधजीवदवा य / एवं एएणं अभिलावेणं जहा अजीवपज्जवा जाव से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चति-ते णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [2 प्र. भगवन् ! अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-(१) रूपी अजीवद्रव्य और (2) अरूपी अजीबद्रव्य / इस प्रकार इस अभिलाप (सूत्रपाठ) द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद में कथित अजीव-पर्यवों के अनुसार, यावत्-हे गौतम ! इस कारण से कहा जाता है, कि अजीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं, तक जानना चाहिए। 3. [1] जीववस्वा भंते ! कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अर्णता? गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। |3-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवद्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [3-1 उ.] गौतम ! जीवद्रव्य संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं / गोयमा! असंखेज्जा नेरइया जाव असंखेज्जा वाउकाइया, अणंता वणस्सतिकाइया, प्रसंखिज्जा बेदिया, एवं जाव वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से तेण→णं जाव अणंता। [3-2 प्र.] भगवन् ! यह क्यों कहते हैं कि जीवद्रव्य संख्यात, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं ? [3-2 उ.] गौतम ! नैरयिक असंख्यात हैं, यावत् वायुकायिक असंख्यात हैं और वनस्पति Page #2486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कायिक अनन्त हैं, द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक असंख्यात हैं तथा सिद्ध अनन्त हैं। इस कारण कहा जाता है कि " यावत् जीवद्रव्य अनन्त हैं। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र का प्रतिदेश- यहाँ जो प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद का अतिदेश किया गया है, वहाँ पांचवें पद में जीवपर्यव के पाठ हैं, वैसे अजीवपर्यव के पाठ भी हैं। यथा(प्र.) भगवन् ! अरूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गए हैं / यथा--धर्मास्तिकाय"इत्यादि तथा (प्र.) रूपी अजीवद्रव्य कितने प्रकार के कहे गए हैं ? (उ.) गौतम ! वे चार प्रकार के कहे गए हैं / यथा स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु / (प्र.) भगवन् ! अजीवद्रव्य क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? (उ.) गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं / (प्र.) भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि रूपी अजीवद्रव्य संख्यात, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं ? (उ.) गौतम ! परमाणु अनन्त हैं, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, इसलिए / ' जीव और चौवीसदण्डगवर्ती जीवों की अजीवद्रव्य परिभोगतानिरूपण 4. [1] जीवदव्वाणं भंते ! अजीवदव्या परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, अजीवदवाणं जीवदव्या परिभोगत्ताए हन्वमागच्छंति ? गोयमा ! जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदवाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हन्वमागच्छति / [4-1 प्र.] भगवन् ! अजीव-द्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, अथवा जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? 4-1 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य, जीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति जाव हठवमागच्छति ? गोयमा ! जीवदम्वा गं अजीवदव्वे परियादियंति, अजीवदव्वे परियादिइत्ता ओरालियं वेउब्वियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोतिदिय जाव फासिदिय मणजोग वइजोग कायजोग प्राणापाणुत्तं च निव्वत्तयंति, से तेणठेणं जाव हव्वमागच्छंति / 4.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से प्राप ऐसा कहते हैं कि यावत्-(जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग के रूप में) नहीं आते ? [4-2 उ.] गौतम ! जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके औदारिक, वैक्रिप, आहारक, तैजस और कार्मण-इन पांच शरीरों के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-- इन पांच इन्द्रियों के रूप में, मनोयोग, वचनयोग और काययोग तथा श्वासोच्छवास के रूप में परिणमाते (निष्पन्न करते) हैं / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि अजीवद्रव्य, जीव. द्रव्यों के परिभोग में आते हैं, किन्तु जीवद्रव्य, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते हैं / 1 (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 855-56 (ख) प्रज्ञापनापद 5. सू. 501-3, पृ. 151 (मा. वि. प्रकाशन) Page #2487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 2] [289 5. [1] नेरतियाणं भंते ! अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हन्वमागच्छंति, अजीवदव्वाणं नेरतिया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा! नेरतियाणं अजीवदव्वा जाव हब्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं नेरतिया जाव हन्वमागच्छति / [5-1 प्र.] भगवन् ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं अथवा नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में आते हैं ? [5-1 उ.] गौतम ! अजीवद्रव्य, नैरयिकों के परिभोग में आते हैं, किन्तु नैरयिक, अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं आते। [2] से केणोणं० ? गोयमा ! नेरतिया अजीवदव्वे परियादियंति, अजीवदव्वे परियादिइत्ता विय-तेयगकम्मग-सोति दिय जाव फासिदिय जाव आणापाणुतं च निव्वत्तयंति / से तेगट्ठणं गोतमा! एवं बुच्चइ०। [5-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है कि यावत् नैरयिक अजीवद्रव्यों के परिभोग में नहीं पाते) ? [5-2 उ.] गौतम ! नरयिक, अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं। ग्रहण करके वैक्रिय, तैजस, कार्मणशरीर के रूप में, श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा यावत् श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं / हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा गया है। 6. एवं जाव वेमाणिया, नवरं सरीर-इंदिय-जोगा भाणियव्वा जस्स जे अस्थि / [6] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह हैं कि जिसके जितने शरीर, इन्द्रियां तथा योग हों, उतने यथायोग्य कहने चाहिए। विवेचन-जीवद्रव्य अजीवद्रव्यों का परिभोग करते हैं, क्यों और कैसे ?--जीवद्रव्य सचेतन हैं और अजीवद्रव्य अचेतन हैं, इसलिए जीवद्रव्य, पहले अजीवद्रव्यों को ग्रहण करते हैं, फिर उनको अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करते हैं। यही उनका परिभोग है। अतः जीवद्रव्य या नैरयिकादि विशिष्ट जीवद्रव्य, परिभोक्ता है और अजीवद्रव्य परिभोग्य हैं / इस प्रकार जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों में भोक्तृ-भोग्यभाव है / ' असंख्येय लोक में अनन्त द्रव्यों की स्थिति 7. से नणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणताई दवाइं आगासे भइयव्वाइं? हंता, गोयमा ! असंखेज्जे लोए जाव भइयव्वाई। [7 प्र.] भगवन् ! असंख्य लोकाकाश (लोक) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं ? [7 उ.] हाँ गौतम ! असंख्यप्रदेशात्मक लोक (लोकाकाश) में अनन्त द्रव्य रह सकते हैं। 1 (क) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3206 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 856 . Page #2488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29.] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन असंख्यलोकाकाश में अनन्त द्रव्यों का समावेश कैसे--प्रश्नकार का प्राशय यह है कि असंख्यप्रदेशात्मक लोका काश में अनन्तद्रव्य कैसे समा सकते हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे एक कमरा एक दीपक के प्रकाश के पुदगलों से भरा हना है। उसमें दो, चार, दस. बीस प्रादि दीपक रख देने पर भी उनके प्रकाश के पुद्गलों का समावेश उसी में हो जाता है, उसके लिए अलग कमरे या स्थान की आवश्यकता नहीं रहती। पुद्गल परिणमन की ऐसी विचित्रता है। इसी प्रकार असंख्यप्रदेशात्मक लोकाकाश में द्रव्यों के तथाविध परिणामवश अनन्तद्रव्य समा जाते हैं / इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है और न उनमें परस्पर संघर्ष होता है। अत: असंख्यप्रदेशात्मक लोक में अनन्तद्रव्यों का अवस्थान हो सकता है।' लोक के एक प्रदेश में पुद्गलों के चय-छेद-उपचय-अपचय का निरूपण 8. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कतिदिसि पोग्गला चिज्जति ? __गोयमा ! निवाघातेणं छदिसि; बाघातं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि / [प्र. भगवन् ! लोक के एक ग्राकाशप्रदेश में कितनी दिशाबो से पाकर पुदगल एकत्रित होते हैं ? 8 उ. गौतम ! निर्व्याघात से (व्याघात = प्रतिबन्ध न हो तो) छहों दिशाओं से तथा व्याघात की अपेक्षा—कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से (पुद्गल पाकर एकत्रित होते हैं।) 6. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि भागासपएसे कतिदिसि पोग्गला छिज्जति ? एवं चेव / [प्र.] भगवन् ! लोक से एक आकाश प्रदेश में एकत्रित पुद्गल कितनी दिशाओं से पृथक होते हैं ? [9 उ.] गौतम ! यह भी पूर्व कथनानुसार समझना चाहिए। 10. एवं उचिचंति, एवं अवचिज्जति / |10| इसी प्रकार (अन्य पुद्गलों के मिलने से) स्कन्ध के रूप में पुद्गल उपचित होते (बढ़ते) हैं और (पुद्गलों के अलग-अलग होने पर) अपचित होते (घटते) हैं। विवेचन--चय, छेद, उपचय और अपचय का लक्षण--चय-- बहुत-सी दिशानों से प्राकर एक स्थान पर (एक नाकाशप्रदेश में) इकट्ठा होना- समा जाना / छेद-एक प्राकाशप्रदेश में एकत्रित पुद्गलों का पृथक हो जाना / उपचय-स्कन्धरूप पुद्गलों का दूसरे पुद्गलों के सम्पर्क से बढ़ जाना / अपचय- स्कन्धरूप पुद्गलों में से प्रदेशों के पृथक हो जाने से उस स्कन्ध का कम हो जाना। 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3207 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 856 Page #2489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 2] [291 इन्हीं चार बातों के लिए शास्त्रकार ने चार शब्दों का उल्लेख किया है-चिज्जति, छिज्जति उवचिज्जति, अवचिज्जति / ' शरीरादि के रूप में स्थित-अस्थित द्रव्य-ग्रहरण-प्ररूपणा 11. जोवे णं भंते ! जाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गेण्हइ ताई कि ठियाई गेण्हइ, अठियाइं गेण्हति ? गोयमा ! ठियाई पि गेहइ, अठियाई पि गेण्हइ / [11 प्र.] भगवन् ! जीव जिन युद्गलद्रव्यों को औदारिक शरीर के रूप में ग्रह्ण करता है, क्या वह उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को? [11 उ.] गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी / 12. ताई भंते ! कि दब्बो गेण्हइ, खेत्तओ गेहइ, कालो गेण्हइ, भावतो गेण्हइ ? गोयमा ! दवओ वि गेण्हति, खेत्तनो वि गेण्हइ, कालो वि गेण्हइ, भावतो वि गेव्हाइ। ताई दव्वतो अणंतपएसियाई दव्वाई, खेत्ततो असंखेज्जपएसोगाढाई, एवं जहा पण्णवणाए पढमे आहारुद्देसए जाव निव्वाधाएणं दिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चदिसि, सिय पंचदिसि / [12 प्र.] भगवन् ! (जीव) उन द्रव्यों को, द्रव्य से ग्रहण करता है या क्षेत्र से, काल से या भाव से ग्रहण करता है ? 12 उ.] गौतम ! वह उन द्रव्यों को, द्रव्य से भी ग्रहण करता है, क्षेत्र से भी, काल से भी और भाव से भी ग्रहण करता है। द्रव्य से वह अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्षेत्र से-- असंख्येय-प्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि, जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम आहारउद्देशक में कहा है, तदनुसार यहाँ भी यावत्-नियाधात से छहों दिशानों से और व्याघात हो तो कदाचित् तोन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से पाए हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए।) 13. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं वेउब्वियसरीरत्ताए गेहइ ताई कि ठियाइं गेहति, अठियाई गेहति ? एवं चेव, नवरं नियम छद्दिसि / 13 प्र. | भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता है, तो क्या वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित द्रव्यों को? [13 उ. गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् समझना / विशेष यह है कि जिन द्रव्यों को वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण करता है, वे नियम से छहों दिशाओं से आए हुए होते हैं। 14. एवं आहारगसरीरत्ताए वि / [14] ग्राहारक शरीर के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 856-857 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3207-3208 Page #2490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 15. जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाई तेयगसरोरत्ताए गिण्हति० पुच्छा। गोयमा ! ठियाइं गेण्हइ, नो अठियाई गेहइ / सेसं जहा पोरालियसरीरस्स / [15 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को तैजसशरीर के रूप में ग्रहण करता है ? (इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा) [15 उ.] गौतम ! वह (तैजसशरीर के) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को 16. कम्मगसरीरे एवं चेव जाव भावओ वि गिण्हति / [16] कार्मणशरीर के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए; यावत् भाव से भी ग्रहण करता है। 17. जाई दवाई दव्यतो गेण्हति ताई कि एगपएसियाई गेण्हति, दुपएसियाई गेहइ० ? एवं जहा भासापदे जाव आणुपुर्दिव गेण्हइ, नो प्रणाणुयुवि गेहति / [17] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को द्रव्य से ग्रहण करता है, वे एक प्रदेश वाले ग्रहण करता है या दो प्रदेश वाले ग्रहण करता है ? इत्यादि प्रश्न / [17 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के ग्यारहवें भाषापद में कहा गया है, तदनुसार यावत् प्रानुपूर्वी से (क्रमपूर्वक) ग्रहण करता है या अनानुपूर्वी से (क्रमरहित) नहीं; यहाँ तक कहना। 18. ताई भंते ! कतिदिसि गेण्हति ? गोयमा ! निवाघातेणं० जहा पोरालियस्स / [18 प्र.] भगवन् ! जीव कितनी दिशाओं से आए हुए द्रव्य ग्रहण करता है ? [18 उ.] गौतम ! निर्व्याघात हो तो छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इत्यादि औदारिकशरीर से सम्बन्धित वक्तव्यानुसार कहना। 16. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं सोइंदियत्ताए गेण्हइ० ? जहा वेउब्वियसरीरं। [19 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय रूप में ग्रहण करता है.... ? (इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [16 उ.] गौतम ! वैक्रियशरीर-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान / 20. एवं जाव जिभिदियत्ताए। [20] इसी प्रकार यावत् जिह्वन्द्रिय-पर्यन्त जानना। 21. फासिदियत्ताए जहा ओरालियसरीरं / [21] स्पर्शेन्द्रिय के विषय में औदारिकशरीर के समान समझना चाहिए। Page #2491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 2) 22. मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं, नवरं नियम छद्दिसि / [22] कार्मणशरीर की वक्तव्यता के समान मनोयोग की वक्तव्यता समझनी चाहिए तथा नियम से छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है / 23. एवं वइजोगत्ताए वि। [23] इसी प्रकार वचनयोग के द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए / 24. कायजोगत्ताए जहा पोरालियसरीरस्स। [24] काययोग के रूप में ग्रहण का कथन औदारिकशरीर विषयक कथनवत् है। 25. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं प्राणापाणुत्ताए गेहइ? जहेव ओरालियसरीरत्ताए जाव सिय पंचदिसि / [25 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है....? इत्यादि प्रश्न / [25 उ.] गौतम ! औदारिकशरीर-सम्बन्धी कथन के समान इस विषय में कहना चाहिए, यावत् कदाचित् चार तथा कदाचित् पांच दिशा से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। 26. केयि चउवीसदंडएणं एयाणि पयाणि भणंति, जस्स जं अस्थि / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥पंचवीसइमे सए : बितिम्रो उद्देसो समत्तो // 25.2 // [26] कई प्राचार्य चौबीस दण्डकों पर इन पदों को कहते हैं, किन्तु जिसके जो (शरीर, इन्द्रिय, योग आदि) हो, वही उसके लिए यथायोग्य कना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्थितद्रव्य : अस्थितद्रव्य : परिभाषा स्थितद्रव्य-जीव जितने आकाशक्षेत्र में रहा हुआ है, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए जो पुद्गलद्रव्य हैं, वे स्थितद्रव्य हैं, और उस क्षेत्र से बाहर रहे हुए द्रव्य अस्थितद्रव्य कहलाते हैं। वहाँ से आकर्षित करके जीव उन्हें ग्रहण करता है। इस विषय में किन्हीं आचार्यों का मत है कि गतिरहित द्रव्य स्थितद्रव्य और गतिसहित द्रव्य अस्थित द्रव्य कहलाते हैं।' वैक्रियशरीर द्वारा कितनी दिशाओं से द्रव्य-ग्रहण-वैक्रियशरीरी जीव वैक्रियशरीर के योग्य छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इस कथन का आशय यह है कि उपयोगपूर्वक वैक्रियशरीर धारण करने वाला जीव प्रायः पंचेन्द्रिय ही होता है और वह असनाड़ी के मध्यभाग में होता है। इसलिए उसके छहों दिशाओं का आहार सम्भव है। कुछ प्राचार्यों के 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 857 Page #2492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मतानुसार—सनाड़ी के बाहर भी वायुकाय के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु अप्रधानता के कारण उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। कुछ प्राचार्यों का मत है कि तथाविध लोकान्त के निष्कुटों (कोणों) में वैक्रियशरीरी वायु नहीं होती।' तेजसशरीर जीव के द्वारा अवगाढ क्षेत्र के भीतर रहे हए द्रव्यों को ग्रहण करता है, उससे बाहर रहे हुए द्रव्यों को नहीं, क्योंकि उन्हें खींचने का स्वभाव उसमें नहीं है / अथवा वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं, क्योंकि उसका स्वभाव इसी प्रकार का होता है।' चौदह दण्डक : चौदह पद—यहाँ पांच शरीर, पांच इन्द्रियाँ, तीन योग और श्वासोच्छ्वास; ये 14 पद हैं / इन चौदह पद-सम्बन्धी 14 दण्डक हैं, जिनका कथन यथायोग्य रूप से किया ग इसीलिए यहाँ कहा गया है-'केयि चउबीसदडारणं / ' 3 // पच्चीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण / / 1. भगवनी. अ. वत्ति, पत्र 857 2. वही, पत्र 858 3. यही पत्र 858 Page #2493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीओ उद्देसओ : 'संठाण' ___ तृतीय उद्देशक : 'संस्थान' संस्थान के 6 भेदों का निरूपण 1. कति णं भंते ! संठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! छ संठाणा पन्नत्ता, तं जहा--परिमंडले वट्टे से चउरले प्रायते अणित्थंथे। / 1 प्र.] भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ? | 1 उ. | गौतम ! संस्थान छह प्रकार के कहे गए हैं। यथा--(१) परिमण्डल, (2) वृत्त, (3) त्र्यम्र, (4) चतुरस्र, (5) आयत और (6) अनित्थंस्थ। विवेचन--संस्थान : प्रकार और स्वरूप-संस्थान का अर्थ है आकार / जीव के जैसे छह संस्थान होते हैं, वैसे अजीवद्रव्य के भी छह संस्थान होते हैं। प्रस्तुत में अजीवसम्बन्धी छह संस्थानों का निरूपण है / परिमण्डल--चूड़ी सरीखा गोलाकार / कृत्त-कुम्हार के चाक जैसा गोल आकार / यस्त्र-सिंघाड़े सरीखा त्रिकोण आकार / चतुरस्त्र--बाजोट-सा चतुष्कोण प्राकार / आयत--लकड़ी जैसा लम्बा आकार / अनित्थंस्थ--अनियत प्राकार यानी परिमण्डल आदि से भिन्न विचित्र प्रकार की आकृति / ' छह संस्थानों की द्रव्यार्थ तथा प्रदेशार्थ रूप से अनन्तता-प्ररूपरणा 2. परिमंडला णं भंते ! संठाणा दव्वट्ठयाए कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता / [2 प्र. भगवन् ! परिमण्डल संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [2 उ.| गौतम! वे संख्यात नहीं हैं, असंख्यात भी नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं / 3. बट्टा णं भंते ! संठाणा ? एवं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! वृत्त संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यात है, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [3 उ. गौतम ! ये भी पूर्ववत् (अनन्त) हैं / 4. एवं जाव अणित्थंथा। [4] इसी प्रकार यावत् अनित्थंस्थ संस्थान-पर्यन्त जानना चाहिए / 5. एवं पदेसटुताए वि, एवं दवट्ठ-पदेसट्टताए वि। 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3216 Page #2494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [াম লিৰ [5] इसी प्रकार प्रदेशार्थरूप से भी जानना चाहिए तथा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से भी / विवेचन–निष्कर्ष-सभी प्रकार के संस्थान द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ तथा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ (उभय) रूप से अनन्त हैं। छह संस्थानों का द्रव्यार्थादि रूप से अल्पबहुत्व 6. एएसि णं भंते! परिमंडल-वट्ट-तंस-चतुरंस-आयत-प्रणित्थंथाणं संठाणाणं दवट्ठयाए पएसट्ठताए दव्वट्ठ-पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा परिमंडला संठाणा दबट्टयाए, बट्टा संठाणा दम्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, चउरसा संठाणा दग्वटुयाए संखेज्जगुणा, तंसा संठाणा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, आयता संठाणा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, अणित्थंथा संठाणा दवट्टयाए असंखेज्जगुणा। पएसट्ठताए-सव्वत्थोवा परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए, वट्टा संठाणा पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, जहा दम्वट्ठयाए तहा पएसट्टताए वि जाव अणित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा।। ___ दवट्ठपएसट्टयाएसम्वत्थोवा परिमंडला संठाणा दग्वट्ठयाए, सो चेव दन्वटुतागमओ भाणियब्वो जाव अणित्थंथा संठाणा दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा। अणित्थंथेहितो संठाणेहितो दव्वट्टयाए, परिमंडला संठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा; बट्टा संठाणा पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, सो चेव पएसट्टयाए गमओ भाणियन्वो जाव अगित्थंथा संठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा। [6 प्र.] भगवन् ! इन परिमण्डल, वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र आयत और अनित्यंस्थ संस्थानों में द्रव्यार्थरूप से, प्रदेशार्थरूप से और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से कौन संस्थान किन संस्थानों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [6 उ.] गौतम ! (1) द्रव्यार्थरूप से परिमण्डल-संस्थान सबसे अल्प हैं, (2) उनसे वृत्तसंस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यातगुणा हैं, (3) उनसे चतुरस्त्र-संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यातगुणा हैं, (4) उनसे त्र्यस्त्र-संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यातगुणा हैं, (5) उनसे आयत-संस्थान द्रव्यार्थरूप से संख्यातगुणा हैं और (6) उनसे अनित्थंस्थ-संस्थान द्रव्यार्थरूप से असंख्यातगुणा हैं। प्रदेशार्थरूप से—(१) परिमण्डल-संस्थान प्रदेशार्थरूप से सबसे अल्प हैं, (2) उनसे वृत्तसंस्थान प्रदेशार्थरूप से संख्यातगुणा हैं, इत्यादि / जिस प्रकार द्रव्यार्थरूप से कहा गया है, उसी प्रकार प्रदेशार्थरूप से भी यावत्-'अनित्थंस्थ-संस्थान प्रदेशार्थरूप से असंख्यातगुणा हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से परिमण्डल-संस्थान द्रव्यार्थरूप से सबसे अल्प हैं, इत्यादि जो पाठ द्रव्यार्थ सम्बन्धी हैं, वहीं यहाँ द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से जानना चाहिए; यावत्-अनित्थंस्थ-संस्थान द्रव्यार्थरूप से असंख्यातगुणा हैं। द्रव्यार्थरूप अनित्थंस्थ-संस्थानों से, प्रदेशार्थरूप से परिमण्डलसंस्थान असंख्यातगुणा हैं; उनसे वृत्त-संस्थान प्रदेशार्थरूप से संख्यातगुणा हैं; इत्यादि, पूर्वोक्त प्रदेशार्थरूप का गमक, यावत् अनित्थंस्थ-संस्थान प्रदेशार्थरूप से असंख्यातगुणा हैं; यहाँ तक कहना चाहिए। Page #2495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [297 विवेचन-संस्थानों को अवगाहना के अल्पबहत्व का विचार-जो संस्थान जिस संस्थान की अपेक्षा बहुप्रदेशावगाही होता है, वह स्वाभाविकरूप से थोड़ा होता है। परिमण्डलसंस्थान जघन्य बीस प्रदेश की अवगाहना वाला होता है और वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र और प्रायत संस्थान जघन्यतः अनुक्रम से पाँच, चार, तीन और दो प्रदेशावगाही होता है। इसलिए परिमण्डलसंस्थान बहुतरप्रदेशावगाही होने से सबसे कम हैं, उनसे वृत्तादि संस्थान अल्प-अल्प प्रदेशावगाही होने से संख्यातगुण अधिक-अधिक होते हैं। अनित्थंस्थसंस्थान वाले पदार्थ, परिमण्डलादि द्वयादि-संयोगी होने से उनसे बहुत अधिक हैं / इसलिए ये उन सबसे असंख्यातगुणा अधिक हैं।। प्रदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्व भी इसी प्रकार है, क्योंकि प्रदेश द्रव्यों के अनुसार होते हैं और इसी प्रकार द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ-रूप से भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए। किन्तु द्रव्यार्थरूप के अनित्थंस्थसंस्थान से परिमण्डलसंस्थान प्रदेशार्थरूप से असंख्यातगुणा हैं।' कठिनशब्दार्थ-दवट्ठयाए-द्रव्यरूप अर्थ की अपेक्षा से। पएसट्टयाए-प्रदेशरूप अर्थ की अपेक्षा से। संस्थानों के पांच भेद और उनकी अनन्तता का निरूपरण 7, कति णं भंते ! संठाणा पन्नता? गोयमा ! पंच संठाणा पन्नत्ता, तंजहा-परिमंडले जाव प्रायते। [7 प्र.] भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [7 उ.] गौतम ! संस्थान पांच प्रकार के कहे गए हैं / यथा-परिमण्डल (से लेकर) यावत् प्रायत तक। 8. परिमंडला णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [8 प्र. भगवन ! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? [8 उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं / 6. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव। [6 प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् (अनन्त) हैं / 10. एवं जाव आयता। [10] इसी प्रकार यावत् आयतसंस्थान तक जानना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 858 2, वही, पत्र 858 Page #2496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [व्यायाप्रप्तिसूत्र विवेचन-संस्थान के पांच ही भेद क्यों? –इससे पूर्व संस्थान के छह भेदों की प्ररूपणा की गई है, किन्तु यहाँ रत्नप्रभादि के विषय में संस्थानों की प्ररूपणा करने की इच्छा से पुनः संस्थान सम्बन्धी प्रश्न किया गया है / छठा अनित्थंस्थसंस्थान अन्य संस्थानों के संयोग से होता है। इसलिए यहाँ छठे अनित्थंस्थसंस्थान की विवक्षा न होने से पांच ही संस्थान कहे हैं।' संस्थानों की अनन्तता-पांचों ही संस्थान अनन्त हैं, संख्यातअसंख्यात नहीं / 11. इमोसे पं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा, प्रसंखेज्जा, प्रणंता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, प्रणंता। [11 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं? [11 उ. गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त है / 22. वट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा ? एवं चेव / [12 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी में वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं? [12 उ.] वे भी पूर्ववत् समझना। 13. एवं जाव प्रायता। [13] इसी प्रकार यावत् आयत तक समझना / 14. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा० ? एवं चेव / [14 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [14 उ.] इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना। 15. एवं जाव आयता। [15] इसी प्रकार प्रागे यावत् अायत पर्यन्त (समझना चाहिए / ) 16. एवं जाव अहेसत्तमाए। [16] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक समझना चाहिए। 17. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा ? एवं चेव / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 859 2. बियाहपषणत्ति सुत्तं (मलपाठ आदि), पृ. 976 Page #2497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 299 पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3) {17 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [17 उ.] पूर्ववत् समझना। 18. एवं जाव अच्चुते / [18] (ईशान से लेकर) अच्युत तक इसी प्रकार कहना / 19. गेविज्जविमाणाणं भंते ! परिमंडला संठाणा ? एवं चेव / [16 प्र.] भगवन् ! ग्रे वेयक विमानों में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् जानना। 20. एवं अणुत्तरविमाणेसु / {20] इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों के विषय में भी कहना चाहिए। 21. एवं ईसिपब्भाराए वि। [21] इसी प्रकार यावत् ईषत्प्रारभारापृथ्वी के विषय में भी पूर्ववत् जानना ! विवेचन-निष्कर्ष-रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक में परिमण्डलादि पांचों संस्थान अनन्त होते हैं, संख्यात, असंख्यात नहीं।' यवमध्यगत परिमण्डलादि संस्थानों की परस्पर अनन्तता की प्ररूपणा 22. जत्य णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [22 प्र. भगवन् ! जहाँ एक यवाकार (जौ के आकार) परिमण्डलसंस्थान है, वहाँ अन्य परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, प्रसंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [22 उ.] गौतम ! ये संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 23. पट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा, प्रसंखेज्जा०? एवं चेव। [23 प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [23 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। 24. एवं जाव आयता। [24 प्र.] इसी प्रकार यावत् आयतसंस्थान तक जानना / 1. बियाहपष्णत्तिसुत भा. 2, पृ. 977 Page #2498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 25. जत्थ णं भंते ! एगे वट्टे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा० ? एवं चेव; वट्टा संठाणा० ? / एवं चेव। [25 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है, वहाँ परिमण्डलसंस्थान कितने हैं ? [25 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना / [प्र.] जहाँ यवाकार अनेक वृत्तसंस्थान हों, वहाँ परिमण्डलसंस्थान कितने हैं ? [उ.] पूर्ववत् समझना चाहिए / 26. एवं जाव आयता। [26] इसी प्रकार वृत्तसंस्थान (से लेकर) यावत् अायतसंस्थान भी अनन्त हैं / 27. एवं एक्कक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेयब्वा / {27] इसी प्रकार एक-एक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों के सम्बन्ध का विचार करना चाहिए। सप्त नरकपृथ्वियों से लेकर ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक में पांचों यवमध्य संस्थानों में परस्पर अनन्तता-प्ररूपरणा 28. जत्थ शं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले संठाणे जयमझे तत्व परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा० पुच्छा / गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [28 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ एक यवमध्य (यवाकार) परिमण्डल (यवाकृति निष्पादक-परिमण्डल के सिवाय) परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [28 उ.] गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात नहीं हैं, किन्तु अनन्त हैं / 26. वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा ? एवं चेव। [29 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [29 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 30. एवं जाव प्रायता। [30] इसी प्रकार यावत् आयत-पर्यन्त समझना। 31. जत्थ गं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे बढ़े संठाणे जवमझे तत्थ णं परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेन्जा, नो असंखेज्जा, मणंता / संस्थान Page #2499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [31 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में जहाँ यवाकार एक वृत्तसंस्थान है, वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [31 उ.] गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 32. बट्टा संठाणा? एवं चेव। [32 प्र.] भगवन् ! जहाँ यवाकर अनेक वृत्तस्थान हैं, वहाँ परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [32 उ.] गोतम ! पूर्ववत् जानना / 33. एवं जाव प्रायता। [33] इसी प्रकार यावत प्रायत तक जानना / 34. एवं पुणरवि एक्केक्केणं संठाणेणं पंच वि चारेतव्वा जहेव हेछिल्ला जाव आयतेणं / [34] यहाँ फिर पूर्ववत् प्रत्येक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों का प्रायतसंस्थान तक विचार करना चाहिए। 35. एवं जाव आहेसत्तमाए।' [35] इसी प्रकार (आगे शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। 36. एवं कप्पेसु वि जाव ईसोपभाराए पुढवीए / [36] इसी प्रकार कल्पों (देवलोकों) यावत् ईषत्प्राम्भारापृथ्वी-पर्यन्त के विषय में जानना चाहिए / विवेचन परिमण्डलसंस्थान विषयक विश्लेषण-यह समन लोक परिमण्डलसंस्थान वाले पुद्गलस्कन्धों से निरंतर व्याप्त है। उनमें से तुल्यप्रदेशवाले, तुल्यप्रदेशावगाही और तुल्यवर्णादि पर्याय वाले जो-जो परिमण्डल द्रव्य हों, उन सबको कल्पना से एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए / उसके ऊपर और नीचे एक-एक जाति वाले परिमण्डलद्रव्यों को एक-एक पंक्ति में स्थापित करना चाहिए / इस प्रकार इनमें अल्पबहुत्व होने से परिमण्डलसंस्थान का समुदाय यवाकार बनता है / इनमें जघन्य-प्रदेशिक द्रव्य स्वभावतः अल्प होने से प्रथम पंक्ति छोटी होती है और उसके बाद की पंक्तियां अधिक-अधिकतर प्रदेश वाली होने से क्रमशः बड़ी और अधिक बड़ी होती हैं। इसके पश्चात् क्रमशः घटते-घटते अन्त में उत्कृष्ट प्रदेश वाले द्रव्य अत्यन्त अल्प होने से अंतिम पंक्ति अत्यन्त छोटी होती है / इस प्रकार तुल्यप्रदेश वाले और उससे भिन्न परिमण्डल द्रव्यों द्वारा यवाकार क्षेत्र बनता है। 1. पाठान्तर-[प्र. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमंडला संठाणा ? [उ.] एवं चेव / एवं जाव-प्रायया / एवं जाब अहेसत्तमाए / 2. [प्र. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमंडला संठाणा ? [उ.] एवं चेव / एवं जाव--प्रमुए / [प्र.] गेवेज्जविमाणाणं भंते ! परिमंडलसंठाया.? [उ.1 एवं चेव / एवं प्रणतरविमाणेसू वि / एवं ईसिप्पभाराए वि // -श्रीमदभगवतीसव खण्ड 4, 5, 205 Page #2500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 व्याख्यानप्तिसूत्र जहाँ एक यवाकृतिनिष्पादक परिमण्डलसंस्थान-समुदाय होता है, उस क्षेत्र में यवाकारनिष्पादक परिमण्डल के सिवाय दूसरे परिमण्डलसंस्थान कितने होते हैं ? यह प्रश्न किया गया है, जिसका उत्तर दिया गया है-वे परिमण्डलसंस्थान अनन्त-अनन्त होते हैं। इसी प्रकार वृत्तादि संस्थानों के विषय में भी समझना चाहिए।' कठिन शब्दार्थ-जवमज्भे-यवमध्ययवाकार / पांच संस्थानों में प्रदेशतः अवगाहना-निरूपण 37. बट्टे णं भंते ! संठाणे कतिपएसिए, कतिपएसोगाढे पन्नते ? गोयमा ! बट्टे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-घणवढे य, पयरवट्टे य / तत्थ गंजे से पयरवटे से दुविधे पन्नते, तं जहा--ओयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / सत्य णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पंचपएसिए, पंचपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए, प्रसंखेज्जपएसोगाडे / तत्थ णं जे जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बारसपएसिए, बारसपएसोगाढे; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपदेसोगाढे / तत्थ णं जे से घणवढे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-प्रोयपएसिए य जुम्मपएसिए य / तत्थ गंजे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं सत्तपएसिए, सत्तपएसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसेणं अणंतपएसिए, प्रसंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बत्तीसपएसिए, बत्तीसपएसोगाठे पन्नत्ते; उक्कोसेणं प्रणतपसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। |37 प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान कितने प्रदेश वाला है और कितने प्रकाशप्रदेशों में अवगाढरहा हुअा है ? [37 उ.] गौतम ! वृत्तसंस्थान दो प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार--घनवृत्त और प्रतरवृत्त / इनमें जो प्रतरवृत्त है, वह दो प्रकार का कहा है। यथा--प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / इनमें से प्रोज-प्रदेशिक प्रतरवृत्त जघन्य पंच-प्रदेशिक और पांच आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ है और जो युग्मप्रदेशिक प्रतरवृत्त है, वह जघन्य बारह प्रदेश वाला और बारह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशिक और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। ___ घनवृत्तसंस्थान दो प्रकार का कहा गया है। यथा--प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / प्रोज-प्रदेशिक जघन्य सात प्रदेश वाला और सात प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। युगम-प्रदेशिक घनवृत्तसंस्थान जघन्य बत्तीस प्रदेशों वाला और बत्तीस आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है। 38. तसे गं भंते ! संठाणे कतिपएसिए कतिपएसोगाढे पन्नते ? गोयमा ! तंसे णं संठाणे दुविहे पन्नते, तं जहा-घणतंसे य पयरतंसे य। तस्थ णं जे से 1. श्रीमद्भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 205 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3219 Page #2501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानीसवां शतक : उद्देशक 3] पयरतंसे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-पोयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ जे जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए, तिपएसोगाढे पन्नत्ते उपकोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए, छप्पएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-ओयपदेसिए य, जुम्मपएसिए य। तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं पणतीसपएसिए पणतीसपएसोगाढे; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तं चेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउप्पएसिए चउप्पदेसोगाढ पन्नते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तं चेव / [38 प्र.] भगवन् ! यस्रसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ कहा गया है ? [38 उ.] गौतम ! यस्रसंस्थान दो प्रकार का कहा है / यथा-घनश्यस्र और प्रतरत्र्यस्त्र / उनमें से जो प्रतरत्र्यन है, वह दो प्रकार का कहा है। यथा-प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / धन्य तीन प्रदेश वाला और तीन अाकाशप्रदेशों में अबगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशों वाला और असंख्यात आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। उनमें से जो घनश्यत्र है। वह दो प्रकार का कहा है। यथा-प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / ओज-प्रदेशिक घनश्यत्र जघन्य पैंतीस प्रदेशों वाला और पैंतीस अाकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशिक और असंख्यात प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है / यूग्म-प्रदेशिक घनश्यत्र जघन्य चार प्रदेशों वाला और चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्यात अाकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है। 39. चउरंसे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए० पुच्छा। गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे पन्नत्ते, भेदो जहेव बट्टस्स जाव तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं नवपएसिए, नवपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नते। तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउपएसिए, चउपएसोगाढे पन्नते; उक्कोसेणं प्रणंतपएसिए, तं चेव / तत्थ पंजे से घणचउरसे से दुविहे पत्नत्ते, तं जहा–ओयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं सत्तावीसतिपएसिए, सत्तावीसतिपएसोगाढे; उक्कोसेणं प्रणंतपएसिए, तहेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं अट्ठपएसिए, अट्ठपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तहेव / स्रसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने अाकाश-प्रदेशों में अवगाढ होता है ? [36 उ.] गौतम ! चतुरस्रसंस्थान दो प्रकार का कहा है। यथा---घन-चतुरस्र और प्रतरचतुरस्त्र, इत्यादि, वृत्तसंस्थान के समान, उनमें से प्रतर-चतुरस्र के दो भेद प्रोज-प्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक कहना / यावत् अोज-प्रदेशिक प्रतर चतुरस्त्र जघन्य नो प्रदेश वाला और नौ आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है / युग्म-प्रदेशिक Page #2502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] [व्यास्याप्रज्ञप्तिसून प्रतरचतुरस्र जघन्य चार प्रदेश वाला और चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ होता है / घन-चतुरस दो प्रकार का कहा है / यथा--प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / श्रोज-प्रदेशिक घन-चतुरस्र जघन्य सत्ताईस प्रदेशों वाला और सत्ताईस आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। युग्म-प्रदेशिक घन-चतुरस्र जघन्य पाठ प्रदेशों वाला और आठ आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। 40. प्रायते णं भंते ! संठाणे कतिपएसिए कतिपदेसोगाढे पन्नते? गोयमा ! प्रायते णं संठाणे तिविधे पन्नत्ते, तं जहा-सेहिआयते, पयरायते, घणायते। तत्थ गंजे से सेढिआयते से दुविहे पन्नत्ते, तं जहा--प्रोयपदेसिए म जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए, तिपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए, तं चेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं दुपएसिए दुपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंत० तहेव / तत्थ णं जे से पयरायते से बुबिहे पन्नत्ते, तं जहा–प्रोयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ गंजे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं पन्नरसपएसिए, पन्नरसपएसोगा; उक्कोसेणं अणंत० तहेव / तत्थ गं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए, छप्पएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंत० तहेव। तत्थ णं जे से घणायते से दुविधे पन्नते, तं जहा-प्रोयपएसिए य, जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से प्रोयपएसिए से जहन्नेणं पणयालीसपदेसिए पणयालीसपदेसोगाढे पन्नत्ते, उक्कोसणं अत० तहेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं वारसपएसिए बारसपएसोगाढे, उक्कोसेणं प्रणंत तहेव / [40 प्र.] भगवन् ! प्रायतसंस्थान कितने प्रदेश वाला और कितने प्रकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है ? [40 उ.] गौतम ! अायतसंस्थान तीन प्रकार का कहा है। यथा--श्रेणीपायत, प्रतरायत और घनायत / श्रेणीमायत दो प्रकार का कहा है। यथा-~-प्रोज-प्रदेशिक और युग्म-प्रदेशिक / उनमें से जो प्रोज-प्रदेशिक है, वह जघन्य तीन प्रदेशों वाला और तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्यात आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। जो युग्म-प्रदेशिक है, वह जघन्य दो प्रदेश वाला और दो आकाशप्रदेशों में अव गाढ होता है, तथा उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशिक और असंख्यात-प्रदेशावगाढ होता है। उनमें से जो प्रतरायत होता है, वह दो कार का कहा है। यथा-प्रोज-प्रदेशिक और यग्म-प्रदेशिक / जो प्रोज-प्रदेशिक है, वह जघन्य पन्द्रह आकाश-प्रदेशों में अवगाढ होता है। तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है / जो युग्म-प्रदेशिक है, वह जघन्य छह प्रदेश वाला और छह आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाश-प्रदेशों में अवगाढ होता है / उनमें से जो घनायत है, वह दो प्रकार का कहा है / यथा-ओजप्रदेशिक और युग्मप्रदेशिक / जो प्रोजप्रदेशिक है, वह जघन्य पैंतालीस प्रदेशों वाला और पैंतालीस आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, तथा उत्कृष्ट अनन्त-प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवमाढ होता है / जो Page #2503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [305 युग्म-प्रदेशिक है, वह जघन्य बारह प्रदेशों वाला और बारह अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय प्रदेशों में अवगाढ होता है। 41. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कतिपएसिए० पुच्छा। गोयमा! परिमंडले णं संठाणे दुविहे पन्नते, तं जहा-घणपरिमंडले य पयरपरिमंडले य। तत्थ णं जे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसतिपएसिए वीसतिपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपए तहेव / तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेणं चत्तालीसतिपएसिए, चत्तालीसतिपएसोगाढे पन्नत्ते; उक्कोसेणं अणंतपएसिए, असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ते। [41 प्र. भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कितने प्रदेशों वाला है और कितने आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है ? [41 उ.] गौतम ! परिमण्डल-संस्थान दो प्रकार का कहा है / यथा-घन-परिमण्डल और प्रतर-परिमण्डल / उनमें जो प्रतर-परिमण्डल है, वह जघन्य बीस प्रदेश वाला और बीस अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्येय आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। उनमें जो धन-परिमण्डल है, वह जघन्य चालीस प्रदेशों वाला और चालीस प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है तथा उत्कृष्ट अनन्त प्रदेशिक और असंख्यात अाकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है। विवेचन-परिमण्डल का कथन पहले क्यों नहीं पांच संस्थानों में प्रथम परिमण्डल संस्थान है, उसका कथन पहले किया जाना चाहिए, किन्तु यहाँ परिमण्डल को छोड़कर 'वृत्त', 'छ्यस्त्र' आदि क्रम से कथन किया गया है / उसका कारण यह है कि इन चारों में सम-प्रदेशों और विषम-प्रदेशों का कथन होने से सभी में प्रायः समानता है / इसलिए पहले इनका कथन और बाद में परिमण्डल का कथन किया गया है / अथवा सूत्र का क्रम विचित्र होने से इस प्रकार का कथन किया है / ' ___ ओज और युग्म की परिभाषा–एक, तीन, पांच आदि विषम (एकीवाली) संख्या को 'ओज' कहते हैं और दो, चार, छः आदि सम (बेकी वाली-जोड़े वाली) संख्या को 'युग्म' कहते हैं / घनवृत्त और प्रतरवृत्त का स्वरूप लड्डू अथवा गेंद के समान जो गोल हो, उसे 'घनवृत्त' कहते हैं, और भण्डक-(पकाया हुआ एक प्रकार का अन्न) के समान, जो गोल होने पर भी मोटाई में कम हो, उसे 'प्रतरवृत्त' कहते हैं। प्रतरवृत्त और घनवृत्त का रेखाचित्र-प्रोजप्रवेशी प्रतरवृत्त में दो प्रदेश ऊपर, एक प्रदेश बीच में और दो प्रदेश नीचे होते हैं / यथा युग्मप्रदेशो प्रतरवृत्त-में बारह प्रदेश होते हैं, जिनमें दो प्रदेश ऊपर, उससे नीचे चार प्रदेश, उसके नीचे फिर चार प्रदेश और उसके नीचे दो प्रदेश होते हैं यथा-- 10 00 0 0 00 00 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 861 Page #2504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 000 प्रोजप्रदेशी घनवत्त-में सात प्रदेश होते हैं। एक मध्य परमाणु के ऊपर एक परमाणु और नीचे भी एक परमाणु तथा उसके चारों ओर चार परमाणु होते हैं / युग्मप्रदेशी धनबत्त--में बत्तीस प्रदेश होते हैं। उनमें से / 0 0 / दो ऊपर, चार नीचे, फिर चार नीचे और उनके नीचे दो प्रदेश |deg deg deg deg स्थापित करने चाहिए। उसके ऊपर इसी प्रकार का बारह प्रदेशों . . / का दूसरा प्रतर रखना चाहिए और दोनों प्रतरों के मध्यभाग के चार प्रदेशों के ऊपर दूसरे चार प्रदेश ऊपर और चार प्रदेश नीचे 24|4/2 रखना चाहिए। प्रोज-प्रदेशिक घनत्र्यत्र-यह पैंतीस प्रदेशों का होता है। उसमें प्रथम इस प्रकार 15 प्रदेशों के प्रतर पर ... दूसरे दस प्रदेशों का प्रतर पर तीसरे छह, प्रदेशों का प्रतर 22 2442 "... -..-उस पर चौथा तीन प्रदेशों का प्रतर degdeg और उस पर एक परमाणु (प्रदेश) * रखना चाहिए / घनश्यत्र के चार भेदों में से तीसरे भेद का यह आकार दिया है। शेष तीन भेदों का कथन अर्थ में दे दिया गया है / चित्र संख्या (1) ओजप्रदेशी घनश्यस्र का समुच्चय में प्राकार इस प्रकार है / चित्र संख्या (2) युग्मप्रदेशी घनश्यत्र / चित्र संख्या (3) प्रोजप्रदेशी प्रतरत्र्यत्र / चित्र संख्या (4) युग्मप्रदेशी प्रतरत्र्यस्र। R32R/ चित्र 4. चित्र 1. चित्र 2. चित्र 3. प्रोजप्रदेशी घनचतुरस्त्र आदि चार भेद--ओ. प्र. घनचतुरन 27 प्रदेशों का होता है / नौ प्रदेशों का प्रतर रखकर उस पर उसी प्रकार के दो प्रतर और रखने चाहिए। युग्मप्रदेशी घनचतुरस्त्र 8 प्रदेशों का है जो चतुष्प्रदेशी प्रतर के ऊपर दूसरा चतुष्प्रदेशी प्रतर रखने से होता है / इनके ऊपर न रखने से क्रमश: प्रो. प्र. प्रतरचतुरस्र और यु. प्र. प्रतर चतुरस्र संस्थान क्रमश: 6 और 4 प्रदेशों का होता है। यथा-- र 2.2. / 1000 3001 तथा 100 Page #2505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 000 / पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [307 श्रेणी-प्रायत संस्थान प्रदेशों की लम्बी श्रेणी को श्रेणी-पायत कहते हैं। जघन्य प्रोजप्रदेशी श्रेणी-प्रायत संस्थान तीन प्रदेशात्मक होता है-००० तथा युग्मप्रदेश श्रेणी-पायत द्विप्रदेशिक होता है-००। प्रतर-आयत : द्विविध--दो, तीन इत्यादि विष्कम्भ-श्रेणिरूप प्रतर-प्रायत कहलाता है / प्रोजप्रदेशिक प्रतर-आयत-जघन्य 15 प्रदेशों का है, यथा-:::::। और युग्मप्रदेशी प्रतर पायत 6 प्रदेशों का होता है---::। घन-आयत : द्विविध-मोटाई और विष्कम्भसहित अनेक श्रेणियों को घन-पायत कहते हैं / प्रोजप्रदेशिक घन-आयत पन्द्रह प्रकार के पूर्वोक्त प्रतर-आयत पर दूसरे दो उसी प्रकार के प्रतर-आयत रखने से जघन्य 45 प्रदेशों का प्रोजप्रदेशिक घनआयत होता है / यथा युग्मप्रदेशिक घन-प्रायत-छह प्रदेशों के युग्म प्रदेशिक प्रतर-पायत के ऊपर उसी प्रकार का दूसरा प्रतर-प्रायत रखने से 12 प्रदेशों का युग्मप्रदेशिक घन-पायत होता है परिमण्डल-संस्थान : द्विविध-युग्म-प्रदेशिक --- परिमण्डल-संस्थान केवल युग्म-प्रदेशिक होता है / इनमें से प्रतर-परिमण्डल जघन्य 20 प्रदेशों का होता है / यथा उसके ऊपर दूसरा प्रतर-परिमण्डल रखने से जघन्य 40 प्रदेशों का घन-परिमण्डल होता है।' यथापंच संस्थानों में एकत्व-बहुत्वदृष्टि से द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थता की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपरण 42. परिमंडले गं भंते ! संठाणे वन्वट्ठताए कि कडजुम्मे, तेयोए, दावरजुम्मे, कलियोए ? गोयमा ! नो कडजुम्मे, णो तेयोए, णो वावरजुम्मे, कलियोए / [42 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म है, योज है, द्वापरयुग्म है अथवा कल्योज है ? [42 उ. | गौतम ! वह कृतयुग्म नहीं, योज नहीं, द्वापरयुग्म भी नहीं, किन्तु कल्योज है। 43. बट्टे णं भंते ! संठाणे दव्वटुताए ? एवं चेव। 1 (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 861.862 (ख) भगवती. (हिन्दी विये वन) भा. ७,पृ. 3228-3229 (ग) भगवती. उपक्रम (परिशिष्ट) पृ. 560-561 . Page #2506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [43 प्र.] भगवन् ! वृत्त-संस्थान द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [43 उ.] गौतम ! (इसका कथन भी) पूर्ववत् जानना। 44. एवं जाव प्रायते / [44 ] इसी प्रकार यावत् आयत-संस्थान पर्यन्त जानना / 45. परिमंडला णं भंते ! संठाणां दवद्वताए कि कडजुम्मा, तेयोगा० पुच्छा। गोयमा ! अोघाएसेणं सिय कडजुम्मा, सिय तेयोगा, सिय दाबरजुम्मा, सिथ कलियोगा। विहाणावेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलिगोगा। [45 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिमण्डल-संस्थान द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं, योज हैं या कल्योज हैं ? [45 उ.] गौतम ! अोधादेश से--(सामान्यतः सर्वसमुदितरूप से) कदाचित् कृतयुग्म, कदाचित् योज, कदाचित् द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज होते हैं। विधानादेश से-(प्रत्येक की अपेक्षा से) कृतयुग्म नहीं, त्र्योज नहीं, द्वापरयुग्म नहीं, किन्तु कल्योज हैं। 46. एवं जाव आयता। [46] इसी प्रकार यावत् (अनेक) आयत-संस्थान तक जानना चाहिए / 47. परिमंडले णं भंते ! संठाणे पदेसटुताए कि कडजुम्मे पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे, सिय तेयोगे, सिय दावरजुम्मे, सिय कलियोगे। [47 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [47 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, कदाचित् त्र्योज है, कदाचित् द्वापरयुग्म है, और कदाचित् कल्योज है / 48. एवं जाव आयते। [48] इसी प्रकार यावत् आयत-संस्थान पर्यन्त जानना चाहिए। 46. परिमंडला णं भंते ! संठाणा पदेसटुताए कि कडजुम्मा० पुच्छा। गोयमा ! ओधादेखणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा। विहाणादेसेणं काजुम्मा वि, तेयोगा वि, दावरजुम्मा वि, कलियोगा वि / [46 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिमण्डल-संस्थान प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [46 उ.] गौतम ! अोघादेश से-वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज होते हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म भी हैं, त्र्योज भी हैं, द्वापरयुग्म भी हैं और और कल्योज भी हैं / 50. एवं जाव प्रायता। {50] इसी प्रकार यावत् (अनेक) आयत-संस्थान तक जानना चाहिए। . Page #2507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] विवेचन-परिमण्डलादि संस्थान का द्रव्यरूप से विचार–परिमण्डल-संस्थान द्रव्यरूप से एक है और एक वस्तु का चार-चार से अपहार (भाग) नहीं होता / इस कारण एकत्व के विचार करने में कृतयुग्मादि का व्यपदेश नहीं होता, क्योंकि एक ही शेष रहता है, अतः वह कल्योजरूप है। इसी प्रकार वृत्तादि संस्थान के विषय में भी समझना चाहिए / सामान्य रूप से परिमण्डलादि संस्थान का विचार सामान्य रूप से यदि सभी परिमण्डल आदि संस्थानों का विचार करते हैं तब उनका चार-चार से अपहार करते हुए किसी समय कुछ भी बाकी नहीं रहता, कदाचित् तीन, कदाचित् दो और कदाचित् एक शेष रहता है / इसलिए कदाचित् कृतयुग्म होते हैं, यावत् कदाचित् कल्योज भी होते हैं / जब विधानादेश से-अर्थात्विशेष दृष्टि से समुदित संस्थानों में से एक-एक संस्थान का विचार किया जाता है, तब चार से अपहार न होने के कारण एक ही शेष रहता है / अतः वह कल्योज रूप होता है।' प्रदेशार्थरूप से परिमण्डलादि संस्थान का विचार-जब परिमण्डलादि संस्थान का प्रदेशार्थ रूप से विचार किया जाता है, तब बीस आदि क्षेत्रप्रदेशों में जो प्रदेश परिमण्डलादि संस्थानरूप से व्यवस्थित होते हैं, उनकी अपेक्षा से बीस आदि प्रदेशों का कथन किया जाता है। उन प्रदेशों में चारचार का अपहार करते हुए जब चार शेष रहते हैं, तब कृतयुग्म होते हैं। जब तीन शेष रहते हैं, तब योज होते हैं, दो शेष रहने पर द्वापरयुग्म और एक शेष रहने पर कल्योज होता है, क्योंकि एक प्रदेश पर भी बहुत से अणु अवगाढ होते हैं / कठिन शब्दार्थ--प्रोपावेसेणं-ओघादेश से सामान्यतया सर्वसमुदित रूप से / विहाणादेसेणंविधानादेश से-एक-एक की अपेक्षा से / पांच संस्थानों में यथायोग्य कृतयुग्मादि प्रदेशावगाह-प्ररूपणा 51. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कि कडजुम्मपएसोगाढे जाव कलियोगपएसोगाढे ? गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, नो तेयोगपदेसोगाढे, नो दावरजुम्मपएसोगाढे, नो कलियोगपएसोगाढे। [51 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है, त्र्योज-प्रदेशावगाढ है, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ है, अथवा कल्योज-प्रदेशावगाढ है ? [51 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है किन्तु न तो योज-प्रदेशावगाढ है, न ही द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ है और न कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 52. बट्टे णं भंते ! संठाणे कि कडजुम्म० पुच्छा / गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे, सिय तेयोगपएसोगाढे, नो दावरजुम्मपदेसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे। 1, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 863 2. (क) वही, पत्र 863 (ख) भगवती (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3221 3. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 863 Page #2508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 [व्याख्याप्रजप्तिसूत्र 152 प्र. भगवन् ! वृत्त-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / [52 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है, कदाचित योज-प्रदेशावगाद है और कदाचित् कल्योज-प्रदेशावगाढ़ है, किन्तु द्वापरयुग्म-प्रदेशादगाढ नहीं होता। 53. तसे गं भंते ! संठाणे० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे, सिय तेयोगपदेसोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, नो कलियोगपएसोगा। 53 प्र.] भगवन् ! त्र्यस्त्र-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / | 53 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयग्म-प्रदेशावगाढ, कदाचित् योज-प्रदेशावगाढ और कदाचित् द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ होता है, किन्तु कल्योज-प्रदेशावगाढ नहीं होता। 54. चउरंसे गं भंते ! संठाणे०, ? जहा बट्टे तहा चतुरंसे वि। {54 प्र.] भगवन् ! चतुरस्र-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / |54 उ.] गौतम ! जिस प्रकार वृत्त-संस्थान के विषय में कहा है, उसी प्रकार चतुरस्त्र-संस्थान के विषय में भी जानना चाहिए। 55. आयते णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलियोगपएसोगाढे / [55 प्र.] भगवन् ! आयत-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / [55 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होता है और यावत् कदाचित् कल्योज-प्रदेशावगाढ होता है। 56. परिमंडला णं भंते ! संठाणा कि कडजुम्मपएसोगाढा, तेयोगपएसोगाढा पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणावेसेण वि कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपदेसोगाढा / [56 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं, त्र्योजप्रदेशावगाढ होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [56 उ. j गौतम! वे अोघादेश से तथा विधानादेश से भी कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं, किन्तु न तो व्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं, न द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और न कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं / 57. बट्टा गं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढा० पुच्छा / / गोयमा ! ओधाएसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि तेयोगपएसोगाढा वि, नो दावरजुम्म. पएसोगाढा, कलियोगपएसोगाढा वि। Page #2509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [311 [57 प्र.] भगवन् ! (अनेक) वृत्त-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ? इत्यादि पृच्छा। [57 उ.] गौतम ! वे अोघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ या कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ भी हैं, ज्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं, किन्तु द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं हैं, हाँ, कल्योज-प्रदेशावगाढ हैं। 58. तंसा णं भंते ! संठाणा कि कडजुम्म० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मयदेसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा कि, तेयोगपएसोगाढा वि, नो दावरजुम्मपएसोगादर, कलियोगपएसोगाढा वि। [58 प्र.] भगवन् ! (अनेक) त्र्यस्त्र-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [58 उ.] गौतम ! भोघादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं किन्तु न तो योज-प्रदेशावगाढ होते हैं, न द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं और न ही कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं / 56. चउरंसा जहा वट्टा / [56] चतुरस्त्र-संस्थानों के विषय में वृत्त-संस्थानों के समान कहना चाहिए / 60. प्रायता णं भंते ! संठाणा० पुच्छा। गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा, नो तेयोगपदेसोगाढा, नो दावरजुम्मपदेसोगाढा, नो कलिनोगपदेसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपदेसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि। [60 प्र.] भगवन् ! (अनेक) आयत-संस्थान कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं ?, इत्यादि प्रश्न / [60 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं किन्तु न तो त्र्योजप्रदेशावगाढ होते हैं, न ही द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं और न कल्योज-प्रदेशावगाढ होते हैं / विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ भी होते हैं, यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी होते हैं। विवेचन-परिमण्डलादि संस्थानों का अवगाहनसम्बन्धी निरूपण -अवगाह के विषय में कथन करते हुए परिमण्डल-संस्थान बीस प्रदेशावगाढ बताया गया है। बीस में चार का अपहार करते हुए चार शेष रहते हैं, अत: वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होता है। इसी प्रकार आगे भी कृतयुग्मप्रदेशावगाढ, व्योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कल्योज-प्रदेशावगाढ के विषय में भी यथायोग्य समझना चाहिए / परिमण्डल आदि संस्थानों का पहले एकवचन-सम्बन्धी विचार किया गया है, बाद में बहुवचन-सम्बन्धी निरूपण है। उसमें भी अोघादेश और विधानादेश—ये दो भेद किये गए हैं / सामान्यतः सर्व-समुदायरूप कथन 'प्रोधादेश' है और पृथक-पृथक् विचार 'विधानादेश' है / इसके कथन में जो कृतयुग्म आदि का परिमाण बनता है, वह वस्तुस्वरूप होने से उस-उस प्रकार का कृतयुग्म, योज आदि परिमाण बनता है।' -..---.-.-. -.--. ......-- ----- --... 1. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भाग 7, पृ. 3237-38 Page #2510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इस प्रकरण के सू. 51 से 60 तक में एकवचन-बहुवचन की अपेक्षा से पंच संस्थानों का क्षेत्र सम्बन्धी विचार किया गया है। परिमण्डलादि संस्थानों में कृतयुग्मादि समयस्थिति की प्ररूपणा 61. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कि कडजुम्मसमय द्वितीए, तेयोगसमयहितीए, दावरजुम्मसमयद्वितीए, कलियोगसमयहितीए ? गोयमा ! सिय कडजुम्मसमय द्वितीए जाव सिय कलियोगसमयद्वितीए / [61 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, व्योज-समय की स्थिति वाला है, द्वापरयुग्म-समय की स्थिति वाला है या कल्योज-समय की स्थिति वाला है ? [61 उ.] गौतम ! कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, यावत् कदाचित् कल्योजसमय की स्थिति वाला है। 62. एवं जाव आयते। [62] इस प्रकार यावत् अायत-संस्थान पर्यन्त जानना / 63. परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमयद्वितीया० पुच्छा / गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमद्वितीया जाय सिय कलियोगसमय द्वितीया; विहाणावेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया विजाव कलियोगसमयद्वितीया वि। [63 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिमण्डल-संस्थान कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं ? इत्यादि प्रश्न? [63 उ. गौतम ! वे अोघादेश से कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं यावत् कदाचित् कल्योज- समय की स्थिति वाले हैं। विधानादेश से कृतयुग्म-समय की स्थिति बाले भी हैं, यावन् कल्योज-समय की स्थिति वाले भी हैं। 64. एवं जाव प्रायता। [64] इसी प्रकार यावत् आयत-संस्थान तक जानना चाहिए / विवेचन परिमण्डलादि संस्थानों का काल की अपेक्षा विचार--आशय यह है कि परिमण्डलादि संस्थानों से परिणत स्कन्ध कितने काल तक ठहरते हैं और उन समयों में चतुष्कादि का अपहार करने पर कितने शेष बचते है, जिससे वे कृतयुग्मादि संख्या वाले बनते हैं।' पांच संस्थानों में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श की अपेक्षा कृतयुग्मादिप्ररूपणा 65. परिमंडले गं भंते ! संठाणे कालवण्णपज्जवेहि कि कडजुम्मे जाव कलियोगे? गोयमा ! सिय कडजुम्मे, एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ठितीए / [65 प्र.] भगवन् ! परिमण्डल-संस्थान के काले वर्ण के पर्याय क्या कृतयुग्म हैं, यावत् कल्योज रूप हैं ? 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3238 Page #2511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [313 [65 उ.] गौतम ! वे कदाचित् कृतयुग्मरूप होते हैं, इत्यादि जिस प्रकार पूर्वोक्त पाठ से स्थिति के सम्बन्ध में कहा है, उसी प्रकार यहाँ कहना / 66. एवं नीलवण्णपज्जवेहि वि। [66] इसी प्रकार नीले वर्ण के पर्यायों के विषय में समझना चाहिए / 67. एवं पंचहि वणेहि, दोहिं गंधेहि, पंचाह रसेहि, अहिं फासेहिं जाव लुक्खफासपज्जवेहि। [67] इसी प्रकार पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श के विषय में, यावत् रूक्षस्पर्शपर्याय तक कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत दो सूत्रों (65-66) में पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श, इन बीस बोलों की अपेक्षा से कृतयुग्म आदि का विचार किया गया है / विविध दिग्वर्ती श्रेणियों की द्रव्यार्थ से यथायोग्य संख्यात-असंख्यात-अनन्तता को प्ररूपणा 66. सेढीयो णं भंते ! दबट्टयाए कि संखेज्जानो, असंखेज्जाओ, अणतातो? गोयमा ! नो संखेज्जायो, नो असंखेज्जामो, अणंतायो / [68 प्र.] भगवन् ! (आकाश-प्रदेश की) श्रेणियां द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [68 इ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 66. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! सेढोमो दन्यद्वयाए• ? एवं चेव / [69 प्र.] भगवन् ! पूर्व और पश्चिम दिशा में लम्बी श्रेणियां द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [69 उ.] गौतम ! वे पूर्ववत् (अनन्त) हैं / 70. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / {70] इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिए / 71. एवं उड्डमहायताप्रो वि / [71] इसी प्रकार ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिए। 72. लोयामाससेढीनो णं भंते ! दध्वटुताए कि संखेन्जानो, असंखेज्जानो, अणंताओ? गोयमा ! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंतायो / [72 प्र.] भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [72 उ] गौतम ! वे संख्यात नहीं, अनन्त भी नहीं, किन्तु असंख्यात हैं / Page #2512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 73. पाईणपडोणायतानो णं भंते ! लोयागाससेढोनो दवद्वताए कि संखेज्जामो०? एवं चेव। [73 प्र.] भगवन् ! पूर्व और पश्चिम में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [73 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (असंख्यात) हैं। 74. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियों के विषय में समझना चाहिए ? 75. एवं उड्ढमहायतामो वि। [75] इसी प्रकार ऊर्ध्व और अधो दिशा में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियों के सम्बन्ध में जानना। 76. अलोयागाससेडीओ णं भंते ! दवद्वताए कि संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्नामो, नो असंखेज्जानो, अणंताओ। [76 प्र.] भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात है या अनन्त हैं ? [76 उ.] गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं / 77. एवं पाईणपडोणायतानो वि। [77] इसी प्रकार पूर्व और पश्चिम में लम्बी अलोकाकाकाश-श्रेणियों के विषय में भी समझना चाहिए। 78. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / [78] दक्षिण और उत्तर में लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियों सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार है / 76. एवं उड्डमहायतानो वि। [76] ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं / विवेचन-श्रेणी : स्वरूप, प्रकार और संख्यातादि निरूपण-यद्यपि श्रेणी पंक्तिमात्र को कहते हैं, तथापि यहाँ श्रेणी शब्द से आकाशप्रदेश की पंक्तियाँ विवक्षित हैं / श्रेणी के सामान्यतया यहाँ चार प्रकार बताए हैं--(१) लोकाकाश या अलोकाकाश की विवक्षा किये बिना सामान्य श्रेणी (2) पूर्व और पश्चिम में, दक्षिण और उत्तर में तथा ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी श्रेणी, (3) लोकाकाशसम्बन्धी पूर्वोक्त चार श्रेणियाँ और (4) प्रलोकाकाश-सम्बन्धी पूर्वोक्त चार प्रकार की श्रेणियाँ / द्रव्यार्थरूप से सामान्य आकाशप्रदेश की श्रेणियाँ अनन्त हैं। लोकाकाश की श्रेणियाँ असंख्यात हैं, Page #2513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [315 क्योंकि लोकाकाश असंख्यात-प्रदेशात्मक ही है / प्रलोकाकाश को श्रेणियाँ अनन्त हैं, क्योंकि अलोकाकाश अनन्त-प्रदेशात्मक है।' श्रेरिगयों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेणियों में प्रदेशार्थ से यथायोग्य संख्यातादि प्ररूपणा 80. सेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जायो ? जहा दस्वट्ठयाए तहा पदेसट्टयाए वि जाव उड्डमहायताओ, सव्वाओ अणंताओ। 100 प्र.| भगवन् ! आकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [80 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थता की वक्तव्यता के समान प्रदेशार्थता की वक्तव्यता; यावत् ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी सभी श्रेणियाँ अनन्त हैं; यहाँ तक कहना चाहिए / 81. लोयागाससेढीयो णं भंते ! पदेसट्टयाए कि संखेज्जायो पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जानो, सिय असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। [81 प्र. | भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [81 उ. ] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त नहीं हैं। 52. एवं पादीणपडीणायताओ वि, दाहिणुत्तरायताओ वि। [82] पूर्व और पश्चिम में लम्बी श्रेणियाँ तथा उत्तर और दक्षिण में लम्बी श्रेणियां भी इसी प्रकार हैं। 83. उड्वमहायतानो नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो प्रणंतानो। [83] ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ संख्यात नहीं और अनन्त भौ नहीं, किन्तु असंख्यात है।। 84. प्रलोयागाससेढीयो गं भंते ! पएसटुताए० पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंतानो। [84 प्र. भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [84 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं और कदाचित् अनन्त हैं। 85. पाईणपडीणायताओ णं भंते ! प्रलोयागाससेढोओ० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जानो, नो असंखेज्जाओ, अणंतायो। [85 प्र.] भगवन् ! पूर्व और पश्चिम में लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ (प्रदेशार्थ रूप से) संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [85 उ. गौतम ! वे संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं / 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 865 Page #2514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] কাসকিন 86. एवं वाहिणुत्तरायतानो वि / [86] इसी प्रकार दक्षिण और उत्तर में लम्बी (अलोकाकाश श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से) समझनी चाहिए। 87. उड्डमहायताओ० पुच्छा। गोयमा! सिय संखेज्जानो, सिय असंखेज्जायो, सिय अणंतानो। [87 प्र. भगवन् ! ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी (अलोकाकाश-श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से) संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [87 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं और कदाचित् अनन्त हैं। विवेचन-प्रदेशार्थ रूप से श्रेणियों के प्रदेश-सू. 81-82 में पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण में लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से संख्यात तथा असंख्यात हैं, इस विषय में चूर्णिकार का आशय यह है कि वृत्ताकार लोक के दन्तक, जो अलोक में गए हुए हैं, उनकी श्रेणियाँ संख्यातप्रदेशात्मक हैं तथा अन्य श्रेणियाँ असंख्यात-प्रदेशात्मक हैं। प्राचीन टीकाकार का कथन है कि लोकाकाश वृत्ताकार होने से पर्यन्तवर्ती श्रेणियाँ संख्यात-प्रदेश की होती हैं / वे अनन्त नहीं, क्योंकि लोकाकाश के प्रदेश अनन्त नहीं हैं। लोकाकाश की ऊर्ध्वलोक से अधोलोक-पर्यन्त ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणी असंख्यातप्रदेश की है, किन्तु संख्यात या अनन्त प्रदेश की नहीं हैं। अधोलोक के कोण से या ब्रह्मदेवलोक के तिरछे प्रान्तभाग से जो श्रेणियाँ निकलती हैं, वे भी इस सूत्र के कथनानुसार संख्यात प्रदेश की नहीं होती किन्तु असंख्यात प्रदेश की ही होती हैं / प्रलोकाकाश की संख्यात और असंख्यात प्रदेश की जो श्रेणियाँ कही हैं, वे लोकमध्यवर्ती क्षुल्लक प्रतर के निकट आई हुई, ऊर्ध्व-अधो लम्बी अधोलोक की श्रेणियों की अपेक्षा से समझनी चाहिए / इनमें से जो प्रारम्भ में आई हुई श्रेणियाँ हैं, वे संख्यात-प्रदेशी हैं और उसके पश्चात् पाई हुई श्रेणियां असंख्यात-प्रदेशी हैं। तिरछी लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ तो अनन्तप्रदेशात्मक ही होती हैं।' सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेरिणयों में यथायोग्य सादि-सान्तादिप्ररूपणा 88. सेढीप्रोणं भंते ! कि सादीयाओ सपज्जवसियानो, सादीयाओअपज्जवसिताओ, अणादीयाओ सपज्जवसियाओ, अणादीयानो अपज्जवसियाओ? गोयमा! नो सादीयानो सपज्जवसियओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियानो, नो अणादीयाओ सपज्जवसियानो, प्रणादीयानो अपज्जवसियानो। 88 प्र.] भगवन् ! क्या श्रेणियाँ सादि-सपर्यवसित (पादि और अन्त-सहित) हैं, अथवा सादि-अपर्यवसित (आदि-सहित और अन्त-रहित) हैं या वे अनादि-सपर्यवसित (आदि-रहित और अन्तसहित) हैं, अथवा अनादि-अपर्यवसित ( आदि और अन्त से रहित) हैं। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 965 (ख) श्रीमद्भगवती सूत्रम् (गुज. अनु.) खण्ड 4, पृ. 211-12 Page #2515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3) [315 [88 उ.] गौतम ! वे न तो सादि-सपर्यवसित हैं, न सादि-अपर्यवसित हैं और न अनादिसपर्यवसित हैं, किन्तु अनादि-अपर्यवसित हैं / 86. एवं जाव उट्टमहायताओ। [86] इसी प्रकार का कथन यावत् ऊर्ध्व और अधोदिशा में लम्बी श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिए। 60. लोयागाससेढोनो भंते ! कि सादीयाओ सपज्जवसियाओ० पुच्छा। गोयमा! सादीयानो सपज्जवसियाओ, नो सादीयाओ अपज्जवसियानो, नो प्रणादीयानो सपज्जवसियाओ, नो अणादीयानो अपज्जवसियानो। [60 प्र.] भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ सादि-सपर्यवसित हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [60 उ.] गौतम ! वे सादि-सपर्यवसित (आदि-अन्त सहित) हैं, किन्तु न तो सादि-अपर्यवसित हैं, न अनादि-सपर्यवसित हैं और न ही अनादि-अपर्यवसित हैं / 61. एवं जाव उद्यमहायतायो। [11] इसी प्रकार का कथन यावत ऊर्ध्व और अधो लंबी लोकाकाश-श्रेणियों के विषय में समझना चाहिए। 62. अलोयागाससेढीयो णं भंते ! कि सादीयाप्रो० पुच्छा। गोयमा ! सिय सादीयानो सपज्जवसियाओ, सिय सादीयानो अपज्जवसियानो, सिय प्रणादीयाओ सपज्जवसियानो, सिय अणावीयानो अपज्जवसियाओ। [62 प्र.] भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ सादि-सपर्यवसित हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! वे कदाचित् सादि-सपर्यवसित हैं, कदाचित् सादि-अपर्यवसित हैं, कदाचित् अनादि-सपर्यवसित हैं और कदाचित् अनादि-अपर्यवसित हैं / 63, पाईणपडोणायतानो दाहिणुत्तरायतानो य एवं चेव, नवरं नो सादीयानो सपज्जवसियानो, सिय सादीयाओ अपज्जवसियानो, सेसं तं चेव / [93] पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा दक्षिण-उत्तर लम्बी अलोकाकाश-श्रेणियाँ भी इसी प्रकार समझनी चाहिए / किन्तु इनमें विशेषता यह है कि ये सादि-सपर्यवसित नहीं हैं और कदाचित् सादिअपर्यवसित हैं / शेष सब पूर्ववत् है / 64. उड्डमहायताप्रो जहा प्रोहियाप्रो तहेव चउभंगो। [14] ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों के औधिक श्रेणियों के समान चार भंग जानने चाहिए। विवेचन श्रेणियों में सादि-अनादित्व प्ररूपणा-किसी भी प्रकार के विशेषण से रहित सामान्य श्रेणियों में चार भंगों में से अनादि-अपर्यवसित भंग पाया जाता है, शेष तीन भंग नहीं पाए जाते / लोकाकाश की श्रेणियों में 'सादि-सपर्यवसित' भंग पाया जाता है, क्योंकि लोकाकाश परिमित Page #2516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 [भ्याख्यामाप्तसूत्र है। अलोकाकाश की श्रेणियों में चारों भंगों का सद्भाव बताया गया है। वह यो घटित हो सकता है-मध्यलोकवर्ती क्षुल्लकप्रतर के समीप आई हुई ऊर्ध्व-अधो लम्बी श्रेणियों की अपेक्षा प्रथम भंग--'सादि-सान्त' बनता है। लोकान्त से प्रारम्भ होकर चारों ओर जाती हुई श्रेणियों की अपेक्षा द्वितीय भंग-'सादि-अनन्त' बनता है। लोकान्त के निकट सभी श्रेणियों का अन्त होने से उनकी अपेक्षा तृतीय भंग---'अनादि-सान्त' घटित होता है। लोक को छोड़कर जो श्रेणियाँ हैं, उनकी अपेक्षा चतुर्थ भंग-'अनादि-अनन्त' घटित होता है / ' अलोक में तिरछी श्रेणियों का सादित्व होने पर भी सपर्यवसितत्व (सान्त) न होने से प्रथम भंग घटित नहीं होता, शेष तीन भंग घटित होते हैं। सामान्य श्रेणियों तथा लोक-अलोकाकाशश्रेणियों में द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कृतयुग्मादि-प्ररूपणा 65. सेढीनो णं भंते ! दवट्टयाए कि कडजुम्मानो, तेसोयाओ० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्माओ, नो तेयोयाश्रो, नो दावरजुम्मानो, नो कलियोगायो। [65 प्र.] भगवन् ! अाकाश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं, त्र्योज हैं, द्वापरयुग्म हैं अथवा कल्योज रूप हैं ? [95 उ.] गौतम ! वे कृतयुग्म हैं, किन्तु न तो योज हैं, न द्वापरयुग्म हैं और न ही कल्योज रूप हैं। 66. एवं जाव उड्डमहायताओ। [96] इसी प्रकार यावत् ऊर्ध्व और अधो लम्बी श्रेणियों तक के विषय में कहना चाहिए। 17. लोयागाससेढीओ एवं चेव / [97] लोकाकाश की श्रेणियाँ भी इसी प्रकार समझनी चाहिए / 68. एवं अलोयागाससेढीयो वि। [18] इसी प्रकार अलोकाकाश की श्रेणियों के विषय में भी जानना चाहिए। RE. सेढीनो णं भंते ! पएसट्टयाए कि कडजुम्माओ० ? एवं चेव / [66 प्र. भगवन् ! आकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [66 उ.] पूर्ववत् जानना चाहिए। 100. एवं जाव उड्डमहायतायो। 6100 इसी प्रकार यावत् ऊध्र्व और अधो लम्बी श्रेणियों तक के विषय में कहना चाहिए / 101. लोयागाससेढीयो णं भंते ! पएसटुताए. पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मायो, नो तेयोयानो, सिय दावरजुम्मायो, नो कलिप्रोयानो। 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 866 Page #2517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसा शतक : उद्देशक 3] [319 [101 प्र.] भगवन् ! लोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [101 उ.] गौतम ! वे कदाचित् कृतयुग्म हैं और कदाचित् द्वापरयुग्म हैं, किन्तु न तो योज हैं और न कल्योज रूप ही हैं। 102. एवं पावीणपडीणायताश्रो वि, दाहिणुत्तरायताओ वि / चम लम्बी तथा दक्षिण-उत्तर लम्बी लोकाकाशकी श्रेणियों के विषय में भी समझना चाहिए / 103. उड्डमहायताप्रो णं० पुच्छा / गोयमा ! कडजुम्मानो, नो तेयोगाओ, नो दावर जुम्मानो, नो कलियोगानो। [103 प्र.] भगवन् ! ऊर्ध्व और अधो लम्बी लोकाकाश की श्रेणियाँ कृतयुग्म हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [103 उ.] गौतम ! वे कृतयुग्म हैं, किन्तु न तो व्योज हैं, न द्वापरयुग्म हैं और न ही कल्योज रूप हैं। 104. अलोयागाससेढीयो णं भंते ! पदेसट्ठताए० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्माश्रो जाय सिय कलियोयायो। [104 प्र.[ भगवन् ! अलोकाकाश की श्रेणियाँ प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि पूर्ववत प्रश्न / [104 उ.] गौतम ! वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज रूप हैं / 105. एवं पाईणपडीणायतानो वि / [105] इसी प्रकार पूर्व-पश्चिम लम्बी अलोकाकाश श्रेणियों के विषय में समझना चाहिए / 106. एवं दाहिणुत्तरायतानो वि / [106] दक्षिण-उत्तर लम्बी श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं। 107. उड्डमहायतानो वि एवं चेव, नवरं नो कलियोयानो, सेसं तं चेव / [107] ऊर्ध्व और अधो लम्बी अलोकाकाश श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं किन्तु वे कल्योज रूप नहीं हैं, शेष सब पूर्ववत् है। विवेचन श्रेणियों में कृतयुग्मादि प्ररूपणा-रुचक प्रदेशों से प्रारम्भ होकर जो पूर्व और दक्षिण गोलार्द्ध है, वह पश्चिम और उत्तर गोलार्द्ध के बराबर है। इसलिए पूर्व-पश्चिम श्रेणियाँ और दक्षिण-उत्तर श्रेणियाँ समसंख्यक प्रदेशों वाली हैं। उनमें से कोई कृतयुग्म प्रदेशों वाली हैं तथा कोई द्वापरयुग्म प्रदेशों वाली हैं, किन्तु त्र्योज और कल्योज प्रदेशों वाली नहीं हैं। इसके लिए प्रदेशों की असद्भाव-स्थापना बता कर इसी बात को स्पष्ट कर दिया है / Page #2518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] {व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अलोकाकाश की श्रेणियों के प्रदेशों में कृतयुग्मादि चारों भेद पाए जाते हैं / इसमें वस्तुस्वभाव ही मुख्य हैं।' श्रेणी के प्रकारएन्तर से सात भेद 108. कति णं भंते ! सेढोनो पन्नत्तानो ? गोयमा ! सत्त सेढीओ पन्नत्तानो, तं जहा उज्जुप्रायता, एगतोवंका, दुहतोयंका, एगोखहा, बुहतोखहा, चक्कवाला, प्रद्धचक्कवाला। [108 प्र.] भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही हैं ? [108 उ.] गौतम ! श्रेणियाँ सात कही हैं / यथा-(१) ऋज्वायता, (2) एकतोवक्रा, (3) उभयतोवक्रा, (4) एकतःखा, (5) उभयतःखा, (6) चक्रवाल और (7) अर्द्धचक्रकाल / / विवेचन–श्रेणी : उसके प्रकार और स्वरूप- श्रेणियों का वर्णन इससे पूर्व किया जा चुका है। किन्तु यहाँ प्रकारान्तर से श्रेणियों का वर्णन किया गया है। यहाँ उनके सात भेद बताए हैं। जिसके अनुसार जीव और पुद्गलों की गति होती हैं, उस अाकाशप्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं / जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान श्रेणी के अनुसार ही जाते हैं, विश्रेणी (विरुद्ध श्रेणी) से गति नहीं होती। 1. ऋज्वायता—जिस श्रेणी से जीव ऊर्ध्वलोक आदि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे ऋज्वायता श्रेणी कहा जाता है / इस श्रेणी से जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है / रेखाचित्र [-] इस प्रकार है। 2. एकतोवक्रा-जिस श्रेणी से जीव पहले सीधा जाए और फिर वक्तगति प्राप्त करके दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे, उसे एकतोवका कहते हैं। इस श्रेणी से जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं / रेखाचित्र / इस प्रकार है। 3. उभयतोवका-जिस श्रेणी से जाने वाला जीव दो बार वक्रगति करे, उसे उभयतोवक्रा कहते हैं। इस श्रेणी से गति करने वाले जीव को तीन समय लगते हैं। यह श्रेणी ऊर्ध्वलोक की आग्नेयी ( पूर्व और दक्षिण के मध्य कोण ) विदिशा से अधोलोक की वायव्य ( उत्तर-पश्चिम-कोण ) विदिशा में उत्पन्न होने वाले जीव की होती है / यह पहले समय में आग्नेयी विदिशा से तिरछा पश्चिम की ओर दक्षिण दिशा के नैऋत्य कोण की ओर जाता है। फिर दूसरे समय में वहाँ से तिरछा होकर उत्तर-पश्चिम वायव्य कोण की ओर जाता है और तीसरे समय में नीचे वायव्यकोण की ओर जाता है / यह तीन समय की गति सनाडी अथवा उससे बाहर के भाग में होती है / 4. एकतः खा--जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल त्रसनाडी के बाँए पक्ष से सनाडी में प्रविष्ट होते हैं, फिर सनाडी से जाकर उसके बांयी ओर वाले भाग में उत्पन्न होते हैं उसे एकत.खा श्रेणी कहा जाता है / इस श्रेणी के एक ओर असनाडी के बाहर का 'ख' अर्थात् प्राकाश प्राया हुआ होता 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 867 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3247 Page #2519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] [321 है, इसलिये इसे एकतःखा कहते हैं / इस श्रेणी में दो, तीन अथवा चार समय की वक्रगति होने पर भी क्षेत्र की दृष्टि से इसे पृथक् कहा गया है / रेखाचित्र इस प्रकार है 5. उभयतः खा-जिस श्रेणी से जीव, त्रसनाडी के बाहर से बाँये पक्ष में प्रविष्ट हो कर असनाडी से जाते हए दाहिने पक्ष में उत्पन्न होते हैं, उस श्रेणी को उभयतःखा कहते हैं, क्योंकि इस श्रेणी को सनाडी के बाहर बाई और दाहिती अोर के आकाश का स्पर्श होता है। रेखाचित्र इस प्रकार है 6. चक्रवाल-जिस श्रेणी से परमाणु अादि गोल चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे चक्रवाल-श्रेणी कहते हैं / रेखाचित्र इस प्रकार है-0. 7. श्रद्धचक्रवाल-जिस श्रेणी से परमाणु आदि आधा चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे अर्द्ध-चक्रवाल श्रेणी कहते हैं।' रेखाचित्र यों हैपरमाणु-पुद्गल तथा द्विप्रदेशिकादि स्कन्धों की चौबीस दण्डकों में अनुश्रेरिण-गतिप्ररूपरणा 106, परमाणुपोग्गलाणं भंते ! कि अणुसेढि गती पवत्तति, विसेदि गती पवत्तति ? गोयमा! अणुसेढि गती पवत्तति, नो विसेदि गती पवत्तति / [106 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गलों की गति अनुश्रेणि (-आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के अनुसार) होती है या विश्रेणि (--आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के विपरीत) होती है ? [109 उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गलों की गति अनुश्रेणी (-श्रेणी के अनुसार) होती है, विश्रेणि गति (-श्रेणी के बिना) नहीं होती। 110. दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं कि अणुसेढि गती पवत्तति, विसेदि गती पवत्तति ? एवं चेव। [110 प्र.] भंते ! द्विप्रदेशिक स्कन्धों की गति अनुश्रेणि होती है या विश्रेणि (श्रेणी के बिना) होती है ? [110 उ.] पूर्वोक्त कथनानुसार जानना / 111. एवं जाव अणंतयएसियाणं खंधाणं। [111] इसी प्रकार यावत् अनन्त-प्रदेशिक स्कन्ध-पर्यन्त जानना ! 112. नेरइयाणं भंते ! कि अणुसेढि गती पवत्तति, विसे ढिं गती पवत्तति ? एवं चेव / [112 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को गति अनुश्रेणि होती है या विश्रेणि ? [112 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना। 1. (क) भगवती अ. बृत्ति, पत्र 868 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3249-3250 e Page #2520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [ज्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 113. एवं जाव वेमाणियाणं। [113] इसी प्रकार यावत् वैमानिक-पर्यन्त जानना। विवेचन-श्रेणि और विश्रेणि—जीव और पद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान में श्रेणी के अनुसार (अनुश्रेणि) ही जाते हैं, विश्रेणी से (श्रेणी के विपरीत) नहीं। वृत्तिकार के अनुसार अनुकूल यानी पूर्वादि दिशा के अभिमुख प्राकाशप्रदेश की श्रेणि को अनुश्रेणि और विरुद्ध यानी विदिशा के आश्रित जो श्रेणि हो उसे विश्रेणि कहते हैं।' चौवीस दण्डकों की आवाससंख्या प्ररूपणा 114. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नता / एवं जहा पढमसते पंचमुद्देसए (स० 1 उ० 5 सु०२-५) जाव अणुत्तरविमाण ति। [114 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे हैं ? [114 उ.] गौतम ! उसमें तीस लाख नरकादास कहे हैं, इत्यादि प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक (के सू. 2 से 5 तक) में कहे अनुसार यावत् अनुत्तर-विमान तक जानना चाहिए। द्वादशविध गणिपिटकों का अतिदेश पूर्वक निर्देश 115. कतिविधे णं भंते ! गणिपिडए पन्नत्ते? गोयमा ! दुवालसंगे गणिपिडए पन्नत्ते, तं जहा-पायारो जाव दिद्विवानो। [115 प्र.भगवन् ! गणिपिटक कितने प्रकार का कहा है ? [115 उ.] गौतम ! गणिपिटक बारह-अंगरूप (द्वादशांग रूप) कहा है / यथा-आचारांग यावत् दृष्टिवाद / 116. से कि तं मायारो? प्रायारे णं समणाणं निग्गंथाणं पायारगो० एवं अंगपरूवणा भाणियव्वा जहा नंदीए / जाव सुत्तत्थो खलु पढमो बीनो निजुत्तिमीसम्रो भणियो। तइयो य निरवसेसो एस विही होइ अणुयोगे // 1 // [116 प्र.] भगवन् ! श्राचारांग किसे कहते हैं ? [116 उ.] आचारांग-सूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्राचार, गोचर-विधि (भिक्षाविधि) आदि चारित्र-धर्म की प्ररूपणा की गई है। नन्दीसूत्र के अनुसार सभी अंग-सूत्रों का वर्णन जानना चाहिए, यावत् --- सुत्तत्थो खलु पढमो (गाथार्थ--) सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ कहना चाहिए / दूसरे में नियुक्तिमिश्रित अर्थ कहना चाहिए और फिर तीसरे में निरवशेष अर्थात्- सम्पूर्ण अर्थ का कथन करना चाहिए / यह अनुयोग (सूत्रानुसार अर्थ प्रदान करने की विधि है / / 1 / / 1. (क) श्रीमद् भगवतीसूत्रम्, खण्ड 4, पृ. 214 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 868 Page #2521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसो शतक : उद्देशक 3] विवेचन -गणिपिटक : स्वरूप और अंग-णि अर्थात् प्राचार्य के लिए, जो पिटक अर्थात् रत्नों के करण्डक के समान पिटारा हो, उसे 'गणिपिटक' कहते हैं। गणिपिटक के प्राचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक बारह अंगरूप भेद कहे हैं / नन्दीसूत्र में आचारांग आदि में वणित विषयों का कथन है। जैसे कि --आचारांगसूत्र में श्रमण-निर्ग्रन्थों के अनेकविध आचार, गोचर (भिक्षाविधि) विनय, विनयफल, ग्रहणशिक्षा, प्रासेवनशिक्षा आदि का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य अंगशास्त्रों का वर्णन भी नन्दीसूत्र से जान लेना चाहिए।' नन्दीसूत्र-वणित अनुयोगविधि–यहाँ मूलपाठ में 'सुत्तत्थो खलु पढमो' इत्यादि गाथा द्वारा नन्दीसूत्र में वर्णित अनुयोगविधि अर्थात्-गुरुदेव द्वारा शिष्य को दी जाने वाली वाचना की विधि बताई गई है / वह इस प्रकार है-(१) सर्वप्रथम मूलसूत्र और उसका अर्थ मात्र कहना चाहिए। नवदीक्षित या नवागत शिष्यों को मतिविभ्रम न हो जाए, इसलिए पहले-पहल उन्हें विस्तृत विवेचन न करके केवल सूत्रार्थमात्र कहना उचित है। (2) इसके पश्चात् सूत्रस्पशिक (सुत्रानुसारिणी) नियुक्ति (टीका आदि व्याख्या) सहित अर्थ कहना चाहिए। यह द्वितीय अनुयोग है / (3) तदनन्तर प्रसंगान प्रसंग के कथन से समग्र व्याख्या कहनी चाहिए। यह तृतीय अनुयोग है। मूलसूत्र को अनुकूल अर्थ के साथ संयोजित करना 'अनयोग' है। अनयोग की यह विधि है। नरयिकादि सेन्द्रियादि, सकायिकादि, आयुष्य-बन्धक-प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 117. एएसि णं भंते ! नेरतियाणं जाय देवाणं सिद्धाण य पंचगतिसमासेणं कयरे कतरेहितो० पुच्छा। गोयमा ! अप्पाबहुयं जहा बहुवत्तव्वताए अट्ठगइसमासऽप्पाबहुगं च / [117 प्र.] भगवन् ! नैरयिक यावत् देव और सिद्ध इन पांचों गतियों (गति-समूह) के जीवों में कौन जीव किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? [117 उ. गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता-पद के अनुसार तथा पाठ गतियों के समुदाय का भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए। 118. एएसि गं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं जाव अणिवियाण य कतरे कतरेहितो. ? एवं पि जहा बहुवत्तव्ययाए तहेव प्रोहियं पयं भाणितव्वं / |118 प्र.) भगवन् ! सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय यावत् अनिन्द्रिय जीवों में कौन जीव, किन जीवों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [118 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता-पद के अनुसार भौधिक पद कहना चाहिए। 116. सकाइयप्रप्पाबहुगं तहेव प्रोहियं भाणितव्वं / [119] सकायिक जीवों का अल्पबहुत्व भी औधिक पद के अनुसार जानना चाहिए। 1. भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3262 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 869 Page #2522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 120. एएसि गं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं जाब सन्वपज्जवाण य कतरे कतरेहितो० ? जहा बहुवत्तव्वयाए। [120 प्र.] भगवन् ! इन जीवों और पुद्गलों, यावत् सर्वपर्यायों में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [120 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय बहुवक्तव्यता पद के अनुसार जानना चाहिए / 121. एएसि णं भंते ! जीवाणं पाउयस्स कम्मगस्स बंधगाणं अबंधगाणं? जहा बहुवत्तव्बयाए जाव प्राउयस्स कम्मरस अबंधगा विसेसाहिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // पंचवीसहमे सए : ततिओ उद्देसो समत्तो।। [121 प्र.] भगवन् ! आयुकर्म के बन्धक और अबन्धक जीवों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [121 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे बहुवक्तव्यता पद के अनुसार, यावत्-पायुकर्म के प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं तक कहना चाहिए / विवेचन-पांच के अल्पबहुत्व का अतिदेश नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और सिद्ध, इन पांचों के अल्पबहुत्व के लिए यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया गया है। प्रज्ञापनाकथित वक्तव्यता का संक्षिप्त सार निम्नोक्त गाथा में बताया गया है नर-नेरइया देवा सिद्धा, तिरिया कमेण इय होती। थोवमसंख-असंखा, अणंतगुणिया अणंतगुणा // ' अर्थात्- सबसे थोड़े मनुष्य हैं / उनसे नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे देव असंख्यातगुणे हैं, और उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं, तथा उनसे तिर्यञ्च अनन्तगुणे हैं।' - आठ गतियाँ और उनका अल्पबहुत्व-आठ गतियों के नाम एक गाथा के अनुसार इस प्रकार हैं नरकगतिस्तथातिर्यक नरामरगतयः। स्त्री-पुरुषभेदाद्वधा सिद्धिगतिश्चेत्यष्टौ / अर्थात्- (1) नरकगति, (2) पुरुष-तिर्यञ्च, (3) स्त्री-तिर्यञ्च, (तिर्यञ्चनी) (4) पुरुष-मनुष्यगति, (5) स्त्री-मनुष्यगति, (6) पुरुष-देवगति, (7) स्त्री-देवगति और (8) सिद्धगति / __इन पाठों गतियों का अल्पबहुत्व इस प्रकार है-सबसे अल्प मनुष्यिनी (स्त्रियां) हैं, उनसे मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, उनसे नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, उनसे तिर्यचिनी असंख्यातगुणे हैं, उनसे 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 869 Page #2523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3] 325 देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे देवियों संख्यातगुणी हैं, उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं और उनसे तिर्यञ्च अनन्तगुणे हैं / ' सइन्द्रिय प्रादि का अल्पबहुत्व-सइन्द्रिय, एकेन्द्रिय आदि का अल्पबहुत्व एक गाथा में बताया गया है। इसके लिए भी प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे पद का अतिदेश किया है / उसका सारांश इस प्रकार है पण-चउ-ति-दुय-अणिंदिय-एगिदि-सइंदिया कमा हुंति / थोवा तिणि य अहिया, दो गंतगुणा विसेसाहिया // अर्थात सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुणे हैं, उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुणे हैं और उनसे सइन्द्रिय विशेषाधिक है / सकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-सकायिक जीवों का अल्पबहुत्व भी प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेश पूर्वक बताया गया है / उसका सारांश इस प्रकार है तस-तेउ-पुढवि-जल-वाउ-काय-काय-वणस्सइ-सकाया। थोव असंख्यातगुणाहिय तिण्णि उ दो गंतगुण अहिया // अर्थात्-सबसे अल्प त्रसकायिक हैं, उनसे तेजस्कायिक जीव असंख्यातगणे हैं, उनसे पथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक, उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे अकायिक अनन्तगणे हैं, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं और उनसे सकायिक विशेषाधिक हैं।३। जीव, पुद्गल आदि का अल्पबहुत्व-अन्त में जीव, पुद्गल, अद्धा-समय, सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश ओर सर्व-पर्यायों का अल्पबहुत्व बताया गया है / वह संक्षेप में इस प्रकार है- जीया पोग्गल-समया, दव्व-पएसा य पज्जवा चेव / थोवा णंताणता विसेसा अहिया दुवेऽणंता॥ अर्थात सबसे थोड़े जीव हैं, उनसे पुद्गल अनन्तगुणे हैं, उनसे अद्धा समय अनन्तगुणे हैं, उससे सर्वद्रव्य विशेषाधिक हैं, उनसे सर्वप्रदेश अनन्तगुणे हैं और उनसे सर्व-पर्याय अनन्तगणे हैं। आयुकर्म के बंधक-अबंधक आदि का अल्पबहुत्व-इसके पश्चात् सबसे अन्त में बन्धक, प्रबन्धक, पर्याप्त-अपर्याप्त, सुप्त-जाग्रत, समवहत-(समुद्धात को प्राप्त)-असमबहत, सातावेदकअसातावेदक, इन्द्रियोपयोगयुक्त (इन्द्रियों के उपयोग वाले)- नो इन्द्रियोपयोगयुक्त, साकारोपयुक्तअनाकारोपयुक्त, इन जीवों के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है / इसके लिए भी प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद का अतिदेश किया गया है।" // पच्चीसवां शतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 869 2. वही, पत्र 869 3. वही, पत्र 869 4. वही, पत्र 869 5. वही, पत्र 870 Page #2524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : जुम्म चतुर्थ उद्देशक : युग्म-प्ररूपणा चार युग्म और उनके अस्तित्व का कारण 1. [1] कति णं भंते ! जुम्मा पन्नता? गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मे जाव कलियोए / [१-१प्र.] भगवन् ! युग्म कितने कहे हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! युग्म चार प्रकार के कहे हैं / यथा-कृतयुग्म यावत् कल्योज / [2] से केणछैणं भंते ! एवं बुच्चइ-चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता तंजहा काजुम्मे० ? जहा अट्ठारसमसते चउत्थे उद्देसए (स० 18 उ० 4 सु० [2]) तहेव जाव से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ / [1-2 प्र. भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि युग्म चार हैं, कृतयुग्म (से लेकर) यावत् कल्योज / [1-2 उ.] गौतम ! अठारहवें शतक के चतुर्थ उद्देशक (के सू. 4-2) में कहे अनुसार यहाँ जानना, यावत् इसीलिए हे गौतम ! इस प्रकार कहा है / विवेचन-कृतयुग्म प्रावि का स्वरूप-राशि अथवा संख्या को युग्म कहते हैं / जिस राशि में से चार-चार का अपहार करने पर अन्त में चार बाकी रहें, उस राशि को 'कृतयुग्म' कहते हैं, तीन शेष रहें, उसे 'योज', दो शेष रहें, उसे 'द्वापरयुग्म' और एक शेष रहे, उसे 'कल्योज' कहते हैं।' चौवोस दण्डकों और सिद्धों में युग्मभेद-निरूपण 2. [1] नेरतियाणं भंते ! कति जुम्मा० ? गोयमा चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, तंजहा–कउजुम्मे जाव कलियोए। (2-1 प्र.] भगवन् ! नरयिकों में कितने युग्म कहे हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! उनमें चार युग्म कहे हैं / यथा-कृतयुग्म यावत् कल्योज / [2] से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नेरतियाणं चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता, संजहाकरजुम्मे०? ___ अट्ठो तहेव। 1 श्रीमद् भगवतीसूत्र, खण्ड 4, पृ. 215 Page #2525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिकों में चार युग्म होते हैं, यथा--कृतयुग्म इत्यादि / [2-2 उ.] वही पूर्वोक्त कारण यहां कहना चाहिए / 3. एवं जाव वाउकाइयाणं / [3] इसी प्रकार यावत् वायुकायिक पर्यन्त जानना / 4. [1] वणस्सतिकाहयाणं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! वणस्सतिकाइया सिय कडजुम्मा, सिय तेयोया, सिय दावरजुम्मा, सिय कलियोया ? [4-1 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिकों में कितने युग्म कहे हैं ? [4-1 उ.] गौतम ! वनस्पतिकायिक कदाचित् कृतयुग्म होते हैं, कदाचित् त्र्योज होते हैं, कदाचित् द्वापरयुग्म और कदाचित् कल्योज होते हैं ? [2] से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-वणस्सइकाइया जाव कलियोगा? गोयमा / उपवायं पड़च्च, से तेणट्टेणं०, तं चेव / [4-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि वनस्पतिकायिक कदाचित् कृतयुग्म यावत् कल्योज होते हैं ? [4.2 उ.] गौतम ! उपपात (जन्म) की अपेक्षा ऐसा कहा है कि वनस्पतिकायिक कदाचित कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज होते हैं / 5. बेदियाणं जहा नेरतियाणं / [5] द्वीन्द्रिय जीवों की वक्तव्यता नैरयिकों के समान है। 6. एवं जाय बेमाणियाणं। [6] इसी प्रकार (श्रीन्द्रिय से लेकर) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 7. सिद्धाणं जहा वणस्सतिकाइयाणं / [7] सिद्धों का कथन वनस्पतिकायिकों के समान है। विवेचन-निष्कर्ष और कारण-वनस्पतिकायिकों और सिद्धों को छोड़कर शेष सर्व जीवों में कृतयुग्म आदि चारों युग्म पाये जाते हैं / बनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं, इसलिए वे स्वाभाविक रूप से कृतयुग्म ही होते हैं / तथापि दूसरी गति से आकर उनमें एक-दो इत्यादि जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिए वे जीव कृतयुग्म आदि चारों राशि रूप कहे गए हैं / इसी कारण से यहां कहा गया है कि "वणस्सइकाइया सियकडजुम्मा उववायं पडुच्च"। यद्यपि वनस्पतिकायिक जीव मरण की अपेक्षा भी कृतयुग्मादि चारों राशि रूप होते हैं, किन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है।' 1. (क) वियाहपण्णत्ति सुत्त भा. 2 (मू. पा. टि.), पृ. 988 (ख) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 873 Page #2526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र षट् द्रव्य और उनमें द्रव्यार्थ तथा प्रदेशार्थ रूप से युग्मभेद निरूपण 8. कतिविधा णं भंते ! सम्वदव्या पन्नत्ता? गोयमा ! छठिवहा सन्धदव्वा पन्नता, तं जहा–धम्मत्थिकाये अधम्मस्थिकाये जाव अखासमये। [8 प्र.] भगवन् ! सर्व द्रव्य कितने प्रकार के कहे हैं ? [8 उ.] गौतम ! सर्व द्रव्य छह प्रकार के कहे हैं / यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् प्रद्धासमय (काल)। 6. धम्मस्थिकाये णं भंते ! दवट्टयाए कि कडजुम्मे जाव कलियोगे? गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलियोए। [6 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय क्या द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म यावत् कल्योज रूप है ? [6 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म नहीं, व्योज भी नहीं है और द्वापरयुग्म भी नहीं है, किन्तु कल्योज रूप है / 10. एवं अधम्मत्थिकाये वि। [10] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में समझना चाहिए / 11. एवं प्रागासत्यिकाये वि / [11] आकाशास्तिकाय विषयक कथन भी इसी प्रकार है। 12. जीवस्थिकाए णं० पुच्छा। गोयमा ! कडजम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, नो कलियोए / {12 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! वह द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं है। 13. पोग्गलत्थिकार्य णं भंते !0 पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे, जाव सिय कलियोए। [13 प्र. भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [13 उ.] गौतम ! वह द्रव्यार्थ रूप से कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज रूप है। 14. अद्धासमये जहा जीवत्थिकाये। [14] प्रद्धा-समय (काल) का कथन जीवास्तिकाय के समान है / 15. धम्मत्थिकाये णं भंते ! पएसट्ठताए कि कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे। Page #2527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवाँ शतक : उद्देशक 4] [329 [15 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! (वह प्रदेशार्थरूप से) कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है। 16. एवं जाव अद्धासमये / [16] इसी प्रकार यावत् अद्धा-समय तक जानना चाहिए। विवेचन -निष्कर्ष और विश्लेषण-धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यरूप से एक-एक हैं। इसलिए उनमें चार-चार का अपहार नहीं होता, केवल एक ही अवस्थित रहता है / इसलिये ये तीनों कल्योजरूप हैं। जीवास्तिकाय अनन्त होने से कृतयुग्म है / पुद्गलास्तिकाय यद्यपि अनन्त है, तथापि उसके संघात (मिलने) और भेद (पृथक होने) के कारण उसकी अनन्तता अनवस्थित है, इसलिए वह कृतयुग्मादि चारों राशिरूप होता है। प्रद्धासमय (काल) में अतीत-अनागतकाल में अवस्थित अनन्तता होने से कृतयुग्मता है। प्रदेशार्थरूप से सभी द्रव्य कृतयुग्म हैं, क्योंकि इनमें यथायोग्य असंख्यातता और अनन्तता अवस्थित है।' धर्मास्तिकायादि षद्रव्यों में अल्पबहुत्व का प्रज्ञापनासूत्रातिदेशपूर्वक निरूपण 17. एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्यिकाय जाव श्रद्धासमयाणं दध्वट्ठयाए ? एएसि अप्पाबहुगं जहा बहुवतव्वयाए तहेव निरवसेसं / [17 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् प्रद्धासमय, इन षट् द्रव्यों में द्रव्यार्थरूप से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य तथा विशेषाधिक है ? [17 उ.] गौतम ! इन सबका अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय बहुवक्तव्यतापद के अनुसार समझना चाहिए। विवेचन-बहुवक्तव्यतापद का प्रतिदेश-प्रज्ञापनासूत्र के बहुवक्तव्यतापद के अनुसार द्रव्यों का अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना-धर्मास्तिकायादि तीन एक-एक द्रव्य होने से द्रव्यार्थरूप से तुल्य हैं और दूसरे द्रव्यों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय अनन्तगुण है। उनसे पुद्गलास्तिकाय और श्रद्धासमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं / प्रदेशार्थरूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं, वे परस्पर तुल्य हैं और दूसरे प्रदेशों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे जीवास्तिकाय, पुद्गला स्तिकाय, अद्धासमय और आकाशास्तिकाय के उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं।" धर्मास्तिकायादि में यथायोग्य अवगाढ-अनवगाढ प्ररूपणा 15. धम्मस्थिकाय गं भंते ! कि प्रोगावे, अणोगा? गोयमा ! प्रोगाढे, नो अणोगाढे। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 873, 874 2. प्रज्ञापता, तृतीय पद, सू. 270-73 [पण्णवणासुत्तं भा. 1, 1. 100 (मूलपाठ-टिप्पण)] Page #2528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याखयाप्रजस्तिसूत्र [18 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय अवगाढ है या अनवगाढ है ? [18 उ.] गौतम ! वह अवगाढ है, अनवगाढ नहीं / 16. अदि प्रोगाढे कि संखेज्जपएसोगाढे, असंखेज्जपएसोगाढे, प्रणंतपएसोगाढे ? गोयमा ! नो संखेज्जपएसोगाढे, असंखेज्जपएसोगाढे, नो अणंतपएसोगाढे। [16 प्र.] भगवन् ! यदि वह (धर्मास्तिकाय) अवगाढ है, तो संख्यात-प्रदेशावगाढ है, असंख्यात-प्रदेशावगाढ है अथवा अनन्त-प्रदेशावगाठ है ? 616 उ.] गौतम ! वह संख्यात-प्रदेशावगाढ नहीं और अनन्त-प्रदेशावगाढ भी नहीं, किन्तु असंख्यातप्र-देशावगाढ़ है। 20. जदि प्रसंखेज्जपएसोगा कि कडजुम्मपदेसोगाढे० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मपएसोगाढे, नो तेयोग०, नो दावरजुम्म०, नो कलियोगपएसोगाढे / [20 प्र. भगवन् ! यदि वह असंख्यात-प्रदेशावगाढ है, तो क्या कृतयुग्म प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है, किन्तु न तो योज-प्रदेशावगाढ है, न द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ है और न कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 21. एवं अधम्मस्थिकाये वि। [21] इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में समझना चाहिए। 22. एवं प्रागासस्थिकाये वि। [22] अाकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 23. जीवत्थिकाये पोग्गलस्थिकाये अद्धासमये एवं चेव / [23] जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय (काल) के विषय में भी यही वक्तव्यता है। 24. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढयो कि प्रोगाढा, अणोगाढा ? जहेव धम्मस्थिकाये। {24 प्र. भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी अवगाढ है या अनवगाढ ? [24 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय के समान इसकी वक्तव्यता कहनी चाहिए। 25. एवं जाव अहेसत्तमा। [25] इसी प्रकार (शर्कराप्रभा से ले कर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। 26. सोहम्मे एवं चेव। [26] सौधर्म देवलोक के विषय में भी यही कथन करना चाहिए। Page #2529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उ शक) [131 27. एवं जाव ईसिपब्भारा पुढयो / |27] इसी प्रकार [ईशान देवलोक से लेकर] यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी तक के विषय में समझना चाहिए। विवेचन धर्मास्तिकाय आदि की कृतयुग्मता-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि सभी आस्तिकाय लोकप्रमाण होने से वे लोकाकाश के असंख्यात-प्रदेशों में प्रवगाढ हैं / लोक असंख्यातप्रदेशों में अवस्थित हैं, इसलिए इन सबमें कृतयग्मता ही घटित होती है। इसी प्रकार दूसरे सभी अस्तिकाय भी लोकप्रमाण होने से उनमें भी कृतयुग्मता है, किन्तु आकाशास्तिकाय के अवस्थित अनन्तप्रदेश होने से तथा प्रात्मावगाही होने से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढता है तथा अद्धासमय अवस्थित असंख्येय-प्रदेशात्मक मनुष्यक्षेत्रावगाही होने से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है / ' जीव एवं चौवीस दण्डकों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप युग्मभेदनिरूपण 28. जीवे गं भंते ! दवट्ठयाए कि कडजुम्मे पुच्छा। गोयमा ! नो कडजम्मे, नो तेयोए, नो दावरजुम्मे, कलियोए। [28 प्र. भगवन् ! (एक) जीव द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / {28 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म, व्योज या द्वापरयुग्म नहीं, किन्तु कल्योजरूप है। 26. एवं नेरइए वि। [26] इसी प्रकार (एक) नै रयिक के विषय में जानना चाहिए / 30. एवं जाव सिद्ध। [30] इसी प्रकार यावत् सिद्ध-पर्यन्त जानना / 31. जीवा गं भंते ! दवट्टयाए कि कडजुम्मा० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावर०, नो कलियोगा; विहाणावेसेणं नो कङजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। | 31 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [31 उ, गौतम ! वे अोधादेश से (सामान्यतः) कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म या कल्योजरूप नहीं हैं / विधानादेश (प्रत्येक की अपेक्षा) से वे कृतयुग्म, योज तथा द्वापरयुग्म नहीं हैं, किन्तु कल्योजरूप हैं। 32. नेरइया णं भंते ! दवद्वताए० पुच्छा। गोयमा ! श्रोधावेसेणं सिय कडजुम्मा, जाव सिय कलियोगा; विहाणावेसेणं नो कउजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, कलियोगा। [32 प्र. भगवन् ! (अनेक) नरयिक द्रव्यार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / 1. भगवती प्र. कृत्ति, पत्र 874 Page #2530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र [32 उ.] गौतम ! वे अोघादेश (सामान्य की अपेक्षा) से कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं, विधानादेश (प्रत्येक की अपेक्षा) से वे न तो कृतयुग्म हैं, न योज हैं और न द्वापरयुग्म हैं, किन्तु कल्योज हैं। 33. एवं जाव सिद्धा। [33] इसी प्रकार यावत् सिद्धपर्यन्त जानना चाहिए। 34. जीवे णं भंते ! पएसट्टताए कि कड० पुच्छा / / गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावर०, नो कलियोगे; सरीरपएसे पच्च सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे।। [34 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म है ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न / [34 उ.] गौतम ! जीव प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है, व्योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं है। शरीरप्रदेशों की अपेक्षा जीव कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज भी होता है / 35. एवं जाव वेमाणिए। [35] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक जानना / 36. सिद्ध णं भंते ! पएसटुताए कि कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! कउजम्मे, नो तेयोगे, नो दावरजुम्मे, नो कलियोगे। __ [36 प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवान् प्रदेशार्थरूप (आत्मप्रदेशों की अपेक्षा) से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि पृच्छा। [36 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म हैं, किन्तु त्र्योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं / 37. जीवा णं भंते ! पदेसट्टताए कि कडजुम्मा० पुच्छर।। गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च ओघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा; सरीरपएसे पडुच्च ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि / [37 प्र.] भगवन् जीवप्रदेशों की अपेक्षा क्या कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [37 उ.) गौतम ! (अनेक) जीव आत्मप्रदेशों की अपेक्षा प्रोधादेश और विधानादेश से भी कृतयुग्म हैं, किन्तु श्योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं हैं। शरीरप्रदेशों की अपेक्षा जीव प्रोधादेश से कदाचित् कृतयुग्म यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्योज भी हैं। 38. एवं नेरइया वि। [38] इसी प्रकार नरयिक भी जानना चाहिए। 36. एवं जाव वेमाणिया। [36] यावत् वैमानिक तक इसी प्रकार जानना / Page #2531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक ; उद्देशक 4 | 40. सिद्धा णं भंते !0 पुच्छा। गोयमा ! श्रोधादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। [40 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सिद्ध प्रात्मप्रदेशों की अपेक्षा से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [40 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से और विधानादेश से भी कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं हैं। विवेचन--जीव का कृतयुग्मादि निरूपण-जीव द्रव्यरूप से एक द्रव्य है, इसलिए वह कल्योज है, किन्तु समस्त जीव द्रव्यरूप से अनन्त अवस्थित होने से कृतयुग्म हैं और विधानादेश से, अर्थात् प्रत्येक की अपेक्षा वे कल्योज हैं। प्रात्मप्रदेशों की अपेक्षा समस्त जीवों के प्रदेश असंख्यात होने से चार-चार का अपहार करने पर अन्त में चार ही शेष रहते हैं, अतः कृतयुग्म होते हैं / शरीरप्रदेशों की अपेक्षा--सामान्यतः सभी जीवों के शरीरप्रदेश संघात और भेद से अनवस्थित अनन्त होने से भिन्न-भिन्न समय में उनमें कृतयुग्मादि चारों राशियाँ बन सकती हैं। विशेष में प्रत्येक जीव शरीर के प्रदेशों में एक समय में भी चारों राशि पाई जा सकती हैं, क्योंकि किसी जीवशरीर के प्रदेश कृतयुग्म होते हैं तो किसी अन्य जीवशरीर के प्रदेश त्र्योजादि राशि होते हैं। इस प्रकार चारों राशियाँ पाई जाती हैं।' सामान्य जीव एवं चौवीस दण्डकों में अवगाहनापेक्षया कृतयुग्मादि-प्ररूपणा 41. जीवे णं भंते ! किं कडजम्मपएसोगाढे० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलियोगपएसोगाढे / [41 प्र.] भगवन् ! जीव कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / [41 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होता है, यावत् कदाचित् कल्योजप्रदेशावगाढ होता है। 42. एवं जाव सिद्धे। [42] इसी प्रकार यावत् (एक) सिद्धपर्यन्त जानना चाहिए / 43. जीवा णं भंते ! कि कडजुम्मपएसोगाढा० पुच्छा। गोयमा! अोघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि। [43 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [43 उ.] गौतम ! वे अोघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, किन्तु ज्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज प्रदेशावगाढ नहीं हैं / विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ यावत् कल्योज-प्रवेशावगाद हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 875 Page #2532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 44. नेरतिया पं० पुच्छा। गोयमा ! प्रोघादेसेणं सिय कडजम्मपएसोगाढा जाव सिय कलियोगपएसोगाढा; विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि / 44 प्र. भगवन् ! (अनेक) नैरयिक कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [44 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ यावत् कदाचित् कल्योजप्रदेशावगाढ हैं / विधानादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं. यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं। 45. एवं एगिदिय-सिद्धवज्जा सव्वे वि / |45| एकेन्द्रिय जीवों और सिद्धों को छोड़ कर शेष सभी (असुरकुमार से लेकर वैमानिकों तक के) जीव इसी प्रकार नै रयिक के समान कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाह आदि होते हैं / 46. सिद्धा एगिदिया य जहा जीवा। [46] सिद्धों और एकेन्द्रिय जीवों का कथन सामान्य जीवों के समान है। विवेचन-कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ आदि की प्ररूपणा-सामान्यतया एक जीव की अपेक्षा तथा नैरयिक से लेकर सिद्ध जीव तक कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ कदाचित् व्योज-प्रदेशावगाढ भी होता है, कदाचित् द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ भी होता है, कदाचित् कल्योज-प्रदेशावगाढ होता है, इस प्रकार के कथन का कारण औदारिक आदि शरीरों की विचित्र अवमाना है। सामान्य जीव के कथन के समान ही नैरयिक से लेकर सिद्ध पर्यन्त जानना चाहिए। अनेक जीव सामान्यतः कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, क्योंकि समस्त जीवों द्वारा अवगाढ प्रदेशों के लोक-प्रमाण अवस्थित असंख्यात होने से उनमें कृतयुग्मता होती है, ज्योजादि नहीं। विधान (एक-एक) की अपेक्षा से जो एक काल में चारों प्रकार के होने का कथन किया गया है, उसका कारण अवगाहना की विचित्रता है।' जीव एवं चौवीस दण्डकों में कृतयुग्मादि समय-स्थिति की प्ररूपरणा 47. जीवे णं भंते ! कि कडजुम्मसमद्वितीए० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मसमद्वितीए, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोगसमयहितीये। [47 प्र.[ भगवन् ! (एक) जीव कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है ? इत्यादि प्रश्न / [47 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, किन्तु योज-समय, द्वापरयुग्मसमय अथवा कल्योज-समय की स्थिति वाला नहीं है / 48. नेरइए णं भंते ! * पुच्छा / गीयमा ! सिय कडजुम्मसमयद्वितीये जाव सिय कलियोगसमयटितीए। [48 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है ? इत्यादि प्रश्न / 1. भगवतो. प्रमेय चन्द्रिका टीका, भा. 15, पृ. 770 Page #2533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [335 [48 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, यावत् कदाचित् कल्योज-समय की स्थिति वाला है। 46. एवं जाव बेमाणिए / [49] इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए / 50. सिद्धे जहा जीवे / [50 सिद्ध का कथन (ौघिक) जीव के समान है / 51. जीवाणं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! अोघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मसमय द्वितीया, नो तेयोग०, नो दावर०, नो कलियोग। [51 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं ? इत्यादि प्रश्न / [51 उ.] गौतम ! वे ओघादेश से तथा विधानादेश से भी कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले है, किन्तु योज-समय, द्वापरयुग्म-समय अथवा कल्योज-समय की स्थिति वाले नहीं हैं। 52. नेरइया णं. पुच्छा / गोयमा ! ओघावेसेणं सिय कडजम्मसमय द्वितीया जाब सिय कलियोगसमय द्वितीया; विहाणावेसेणं कडजुम्मसमय द्वितीया वि जाव कलियोगसमयद्वितीया वि। [52 प्र. भगवन् ! (अनेक) तैरयिक कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं ? इत्यादि प्रश्न 1 [52 उ.] गौतम! अोघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं, यावत् कदाचित् कल्योज-समय की स्थिति वाले हैं। विधानादेश से कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं, यावत् कल्योज-समय की स्थिति वाले हैं। 53. एवं जाव वेमाणिया। [53] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक इसी प्रकार जानना चाहिए। 54. सिद्धा जहा जीवा। [54] सिद्धों का कथन सामान्य जीवों के समान है। विवेचन-जीव-स्थिति : कृतयुग्मादि समय रूपों में सामान्य जीव की स्थिति सर्व-काल में शाश्वत और सर्व-काल-नियत, अनन्त समयात्मक होने से 'जीव' (सामान्य) कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है / नैरयिक से लेकर वैमानिक तक की स्थिति भिन्न-भिन्न होने से किसी समय कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला होता है तो किसी समय यावत् कल्योज-समय की स्थिति वाला होता है। सामान्यादेश और विधानादेश से जीवों की स्थिति अनादि-अनन्त काल की होने से वे कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं। Page #2534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रप्तिसूत्र सभी नैरयिकादि जीवों की स्थिति के समयों को एकत्रित किया जाय और उनमें से चारचार का अपहार किया जाए तो सभी नैरयिक सामान्यादेश से कृतयुग्म-समय यावत् कल्योज-समय की स्थिति वाले होते हैं और विशेषादेश से एक समय में कृतयुग्मादि चारों प्रकार के हैं।' सामान्य जीव एवं चौबीस दण्डकों में वर्णादि पर्यायापेक्षया कृतयुग्मादि प्ररूपणा 55. जीवे णं भंते ! कालवण्णपज्जवेहि कि कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! जीवपएसे पडुच्च नो कडजुम्मे जाव नो कलियोगे; सरीरपएसे पडुच्च सिय कडजुम्मे जाब सिय कलियोगे। [55 प्र. भगवन् ! जीव काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि पृच्छा। [55 उ.] गौतम ! जीव (सात्म-) प्रदेशों की अपेक्षा न तो कृतयुग्म है और यावत् न कल्योज है, किन्तु शरीरप्रदेशों की अपेक्षा कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है / 56. एवं जाव बेमाणिए। [56] (यहाँ से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिए। 57. सिद्धो ण चेव पुच्छिज्जति / [57] यहाँ सिद्ध के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे अरूपी हैं) / 58. जीवा णं भंते ! कालवणपज्जवेहि० पुच्छा। गोयमा! जीवपएसे पडुच्च प्रोधादेसेण वि विहाणादेसेण वि नो कङजुम्मा जाब नो कलियोगा; सरीरपएसे पडुच्च श्रोधादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि / [58 प्र. भगवन् ! (अनेक) जीव काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [58 उ.] गौतम ! जीव-(प्रात्म-) प्रदेशों की अपेक्षा प्रोपादेश से भी और विधानादेश से भी न तो कृतयुग हैं यावत् न कल्योज हैं। शरीरप्रदेशों की अपेक्षा प्रोधादेश से कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं, विधानादेश से वे कृतयुग्म भी हैं, यावत् कल्योज भी हैं। 56. एवं जाव वेमाणिया / [56] (यहाँ से लेकर) यावत् वैमानिकों तक इसी प्रकार का कथन समझना चाहिए। 60. एवं नीलवण्णपज्जवेहि वि दंडयो भाणियब्वो एगत्त-पुहत्तणं / [60] इसी प्रकार एकवचन और बहुवचन से नीले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा भी वक्तव्यता कहनी चाहिए। 1. भगवती अ. बत्ति, पत्र 875-76 Page #2535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [337 61. एवं जाव लुक्खफासपज्जवेहिं / [61] इसी प्रकार (शेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के) यावत् रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए। विवेचन-वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-जीव-प्रदेश अमूर्त-अरूपी होते हैं, इसलिए उनमें कालादि वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्याय नहीं होते, परन्तु शरीर-विशिष्ट जीव का ग्रहण होने से शरीर के वर्णादि की अपेक्षा सामान्य एवं विशिष्ट जीव में कृत-युग्मादि चारों प्रकार की राशियों का व्यवहार हो सकता है। यहाँ सिद्ध-जीव के विषय में कृतयुग्मादि प्रश्न का निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि सिद्ध अमूर्त-अरूपी हैं। अतएव उनमें वर्णादि चारों होते ही नहीं हैं / ' जीव, चौवीस दण्डकों और सिद्धों में ज्ञान-प्रज्ञान-दर्शनपर्यायों की अपेक्षा एकत्वबहुत्वदृष्टि से कृतयुग्मादि प्ररूपरणा 62. जोवे णं भंते ! प्राभिणिबोहियनाणपज्जवेहि कि कडजुम्मे पुच्छा / गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे। [62 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है / 63. एवं एगिदियवज्ज जाव वेमाणिए। [63] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / 64. जीवा णं भंते ! आभिणिबोहियणाणपज्जवेहि० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कउजुम्मा वि जाव कलियोगा वि। ___ [64 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [64 उ.] गौतम ! अोघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं, यावत् कल्योज भी हैं। 65. एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिया। [65] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। 66. एवं सुयनाणपज्जवेहि वि। [66] इसी प्रकार श्रुतज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा भी कथन करना चाहिए / 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 876 Page #2536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 67. प्रोहिनाणपज्जवेहि वि एवं चेव, नवरं विगलिदियाणं नस्थि प्रोहिनाणं / 67] अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों में अवधिज्ञान नहीं होता। 68. मणपज्जवनाणं पि एवं चेव, नवरं जीवाणं मणुस्साण य, सेसाणं नस्थि / [68] मन:पर्थवज्ञान के पर्यायों के विषय में भी यही कथन करना चाहिए, किन्तु वह औधिक जीवों और मनुष्यों को ही होता है, शेष दण्डकों में नहीं पाया जाता। 69. जीवे णं भंते ! केबलनाणपज्जवेहि कि कडजुम्मे० पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दायरजुम्मे, णो कलियोए। [69 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [66 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं है। 70. एवं मणुस्से वि। [70] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना / 71. एवं सिद्धे वि। [71] सिद्ध के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 72. जीवा णं भंते ! केवलनाण० पुच्छा। गोयमा ! अोघादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावर०, नो कलियोगा। [72 प्र.| भगवन् ! (अनेक) जीव केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [72 उ.] गौतम ! अोघादेश से और विधानादेश से भी वे कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं। 73. एवं मणुस्सा वि। [73] इसी प्रकार (अनेक) मनुष्यों के विषय में भी समझना चाहिए / 74. एवं सिद्धा वि। [74] इसी प्रकार सिद्धों के विषय में कहना चाहिए। 75. जोवे णं भंते ! मतिअन्नाणपज्जवेहि कि कडजुम्मे ? जहा प्राभिणिबोहियनाणपज्जवेहि तहेव दो दंडगा। [75 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव मतिअज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [75 उ.] आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों के समान यहाँ भी दो दण्डक कहने चाहिए। Page #2537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] 339 76. एवं सुयअन्नाणपज्जवेहि वि / 176J इसी प्रकार श्रुतप्रज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए / 77. एवं विभंगनाणपज्जवेहि वि / | 77] विभंगज्ञान के पर्यायों का कथन भी इसी प्रकार है / 78, चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-प्रोहिदसणपज्जवेहि वि एवं चेव, नवरं जस्स जे अस्थि तं भाणियध्वं / ७८चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु श्रुतप्रज्ञानादि में से जिसमें जो पाया जाता है, वह कहना चाहिए। 76. केवलदसणपज्जवेहिं जहा केवलनाणपज्जवेहिं / [76] केवलदर्शन के पर्यायों का कथन केवलज्ञान के पर्यायों के समान जानना चाहिए। विवेचन-ज्ञान, प्रज्ञान और दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि निरूपण-आवरण के क्षयोपशम की विचित्रता के कारण प्राभिनिबोधिकज्ञान की विशेषताओं को तथा उसके सूक्ष्म अविभाज्य अंशों को 'पाभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय' कहते हैं। वे अनन्त हैं, किन्तु क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उनका अनन्तत्व अवस्थित नहीं है। अतएव भिन्न-भिन्न समय की अपेक्षा वे चारों राशि रूप होते हैं। यही बात अन्य ज्ञान. अज्ञान और दर्शन के विषय में जाननी चाहिए। एकेन्द्रिय जीव में सम्यक्त्व न होने से उनमें आभिनिबोधिक, श्रुत एवं अवधिज्ञान नहीं होता, न विकलेन्द्रियों में अवधिज्ञान होता है। इसलिए प्राभिनिबोधिक एवं श्रुतज्ञान के विषय में एकेन्द्रिय का और अवधिज्ञान के विषय में विकलेन्द्रिय का निषेध किया गया है। सभी जीवों की अपेक्षा आभिनिबोधिकज्ञान के सभी पर्यायों को एकत्रित किया जाए तो सामान्यादेश से भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा वे चारों राशिरूप होते हैं, क्योंकि क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उसके पर्याय अनन्त होने पर भी अवस्थित होते हैं। विशेषादेश से एक काल में भी चारों राशिरूप होते हैं। केवलज्ञान के पर्यायों का अनन्तत्व अवस्थित होने से वे कृतयुग्म-राशिरूप ही होते हैं। केवलज्ञान के पर्याय अविभाग-परिच्छेद (अविभाज्य-अंश) रूप होते हैं। इसलिए वे एक ही प्रकार के हैं। उनमें विशेषता नहीं होती।' प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक शरीर सम्बन्धी विवरण 80. कति णं भंते ! सरीरमा पन्नता ? गोयमा ! पंच सरोरगा पन्नत्ता, तं जहा--ओरालिय जाव कम्मए। एत्थ सरीरगपदं निरवसेसं भाणियव्वं जहा पण्णवणाए / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 876, 877 2. पणवणासुत्तं भाग 1, सू. 901-24, पृ. 223-28 (श्री महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित) Page #2538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [80 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे हैं ? [80 उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे हैं, यथा-औदारिक, वैक्रिय, यावत् कार्मणशरीर / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का बारह्वां शरीरपद समग्र कहना चाहिए। जीव तथा चौवीस दण्डकों में सकम्प-निष्कम्प तथा देशकम्प-सर्वकम्प प्ररूपणा 81. [1] जीवा णं भंते ! कि सेया, निरेया ? गोयमा ! जीवा सेया वि, निरेया वि। [81-1 प्र.] भगवन् ! जीव सैज (सकम्प) हैं अथवा निरेज (निष्कम्प) हैं ? [81-1 उ.] गौतम ! जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी हैं। [2] से केणछैणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा सेया वि, निरेया वि ? गोयमा ! जीवा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—संसारसमावनगा य, असंसारसमावनगा य / तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–अणंतरसिद्धा य, परंपरसिद्धा य, तत्थ णं जे ते परंपरसिद्धा ते णं निरेया। तत्थ णं जे ते अणंतरसिद्धा ते णं सेवा। [81-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी हैं ? [81-2 उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे हैं यथा-संसार-समापन्नक और असंसारसमापन्नक / उनमें से जो असंसार-समापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं। सिद्ध जीव दो प्रकार के कहे हैं / यथा-अनन्तर-सिद्ध और परम्पर-सिद्ध / जो परम्पर-सिद्ध हैं, वे निष्कम्प हैं और जो अनन्तर-सिद्ध है, वे सकम्प हैं। 82. ते णं भंते ! कि देसेया, सम्वेया ? गोयमा! नो देसेया, सम्वेया। [82 प्र.] भगवन् ! (अनन्तरसिद्ध, जो सकम्प हैं) वे देशकम्पक हैं या सर्व-कम्पक हैं ? [82 उ.] गौतम ! वे देशकम्पक नहीं, सर्व-कम्पक हैं / 83. तत्थ णं जे ते संसारसमावनगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा सेलेसिपडिवनगा य, असेलेसिपडिवनगा य / तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवनगा ते णं निरेया। तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवनगा ते णं सेया। [83] जो संसार-समापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा-शैलेशी-प्रतिपन्नक और अशैलेशो-प्रतिपन्नक / जो शैलेशी-प्रतिपन्नक हैं, वे निष्कम्प हैं, किन्तु जो अशैलेशी-प्रतिपन्नक हैं, वे सकम्प हैं। 84. ते णं भंते ! कि देसेया, सब्वेया? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि / से तेणठेणं जाव निरेया वि। Page #2539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4) [84 प्र.] भगवन् ! बे (अशैलेशी-प्रतिपन्नक) देशकम्पक हैं या सर्वकम्पक ? [84 उ.] गौतम ! वे देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। इस कारण से हे गौतम ! यावत् वे निष्कम्प भी हैं, यह कहा गया है। 55. [1] नेरइया णं भंते ! कि देसेया, सक्वेया ? गोयमा ! देसेया वि, सव्वेया वि। [85-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक देशकम्पक हैं या सर्वकम्पक ? [85-1 उ.] गौतम ! वे देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। [2] से केणठेणं जाव सन्वेया वि? गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा--विग्गहगतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावनगा य / तत्थ णं जे ते विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं सब्वेया, तत्थ णं जे ते अविग्गहगतिसमावन्नगा ते गं देसेया, से तेणद्रेणं जाव सम्वेया वि। [85-2 प्र.! भगवन् ! किस कारण से कहा जाता है कि नैरयिक देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं ? [85-2 उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं। यथा--विग्रहगति-समापन्नक और अविग्रहगति-समापन्नक / उनमें से जो विग्रहगति-समापन्नक हैं, वे सर्वकम्पक हैं और जो अविग्रहगति-समापन्नक हैं, वे देशकम्पक हैं / इस कारण से यह कहा जाता है कि नैरयिक देशकम्पक भी हैं और सर्वकम्पक भी हैं। 86. एवं जाव वेमाणिया। [83] इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जानना चाहिए। विवेचन-जीवों और चौवीस दण्डकों में सकम्पता-निष्कम्पता-सिद्धत्व-प्राप्ति के प्रथम समयवर्ती जीव 'अनन्तर-सिद्ध' कहलाते हैं, क्योंकि उस समय एक समय का भी अन्तर नहीं होता, अतएव सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमान सिद्धजीवों में कम्पन होता है। उसका कारण यह है कि सिद्धिगमन का और सिद्धत्व-प्राप्ति का समय एक ही होने से और सिद्धिगमन के समय गमनक्रिया होने सं वे सकम्प होते हैं। जिन्हें सिद्धत्व प्राप्ति के पश्चात् दो-तीन आदि समय का अन्तर पड़ जाता है, वे 'परम्पर-सिद्ध' कहलाते हैं / वे सर्वथा निष्कम्प होते हैं। मोक्षगमन के पूर्व जो जीव शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं, वे योगों का सर्वथा निरोध कर देते हैं, अतः उस समय वे निष्कम्प होते हैं। जो जीव मर कर ईलिका-गति से उत्पत्तिस्थान में जाते हैं, वे देशतः सकम्प होते हैं, क्योंकि उनका पूर्वशरीर में रहा हुआ अंश गतिक्रिया-रहित होने से निष्कम्प (निश्चल) होता है और जो अंश गतिक्रिया-सहित है, वह सकम्प है। इस कारण वह देशत: सकम्प कहा गया है। विग्रहगति को प्राप्त जो जीवत अर्थात मर कर अन्य गति में (उत्पत्तिस्थान को) जाता हुया जीव गेंद की गति के समान सर्वप्रदेशों से उत्पन्न होता है, वह सर्वतः सकम्प होता है / जो Page #2540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीव विग्रहर्गात को प्राप्त नहीं हैं, वदा प्रकार के हैं, यथा---ऋज गति वाल और अवस्थित / यहा केवल अवस्थित ही ग्रहण किये हैं, ऐसा सम्भावित है। शरीर में रहते हुए मरणसमुद्घात करके ईलिकागति से उत्पत्ति-क्षेत्र को अंशत: स्पर्श करते हैं, इसलिए वे देशत: कम्पक होते हैं। अथवा स्वक्षेत्र में रहे हुए जीव अपने हाथ-पैर प्रादि अवयवों को इधर-उधर चलाते हैं, इस कारण वे देशतः सकम्पक हैं।' कठिन शब्दार्थ-सेय-चलन-कम्पन के सहित- सैज / निरेय-निश्चल--निष्कम्प / परमाणु-पुद्गलों से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की अनन्तता 87, परमाणुपोग्गला भंते ! कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता / 187 प्र. भगवन् ! परमाणु-पुद्गल संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? | 87 उ.] गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 88. एवं जाव प्रणंतपदेसिया खंधा। [88] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानना / एक प्रदेशावगाढ से असंख्येय प्रदेशावगाढ पुद्गलों को अनन्तता 86. एगपएसोगाढा णं भंते ! पोग्गला कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणता? एवं चेव / [86 प्र.] भगवन् ! प्राकाश के एक प्रदेश में रहे हुए पुद्गल संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [89 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (अनन्त) हैं / 60. एवं जाव असंखज्जपदेसोगाढा। {60] इसी प्रकार यावत् असंख्येय प्रदेशों में रहे हुए पुद्गलों तक जानना चाहिए। एक समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों की अनन्तता 61. एगसमयद्वितीया णं भंते ! पोग्गला कि संखेज्जा, असंखेज्जा० ? एवं चेव। [61 प्र.] भगवन् ! एक समय की स्थिति वाले पुद्गल संख्यात है, असंख्यात है या अनन्त हैं ? [61 उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना / 62. एवं जाव असंखेज्जसमयट्टितीया। |92] इसी प्रकार यावत् असंख्यात-समय की स्थिति वाले पुद्गलों के विषय में भी कहना चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 877 Page #2541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [343 वर्णगन्धादि वाले पुद्गलों की अनन्तता 63. एगगुणकालगा गं भंते ! पोग्गला फि संखेज्जा ? एवं चेव। [93 प्र | भगवन् ! एकगुण काले पुद्गल संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [63 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना / 64. एवं जाव अणंतगुणकालगा। | 94] इसी प्रकार यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों के विषय में जानना / 65. एवं अवसेसा वि वण्ण-गंध-रस-फासा नेयव्वा जाव अणंतगुणलुक्ख त्ति / [95] इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों के विषय में भी यावत् अनन्तगुण रूक्ष पर्यन्त जानना / परमाणु-पुद्गल से अनन्तप्रदेशी स्कन्धों तक को द्रव्य-प्रदेशार्थ से यथायोग्य बहुत्व प्ररूपणा 66. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाण य खंधाणं दव्यद्वयाए कमरे कयरेहितो बहुया? गोयमा ! दुपदेसिएहितो खंधेहितो परमाणुपोग्गला दब्वट्ठयाए बहुगा। [66 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल और द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? {66 उ.) गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्धों से परमाणु पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं / 67. एएसि णं भंते ! दुपएसियाणं तिपएसियाण य खंधाणं दव्वद्वताए कयरे कयरेहितो बहुगा? गोयमा ! तिपएसिएहितो खंहितो दुपएसिया खंधा दवट्ठयाए बहुगा। [67 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशी और त्रिप्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [97 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध से द्विप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं। 18. एवं एएणं गमएणं जाव बसपएसिएहितो खंहितो नवपएसिया खंधा दबट्टयाए वहुया / [18] इस गमक (पाठ) के अनुसार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों से नवप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं। 66. एएसि णं भंते ! दसपदे० पुच्छा। गोयमा ! दसपदेसिएहितो खंहितो संखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया / Page #2542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [RE प्र.भगवन् ! दशप्रदेशी स्कन्धों और संख्यातप्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [66 उ. गौतम ! दशप्रदेशिक स्कन्धों से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं। 100. एएसि णं संखज्ज० पुच्छा। गोयमा ! संखेज्जपएसिएहितो खंहितो असंखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया। [100 प्र.] भगवन् ! इन संख्यातप्रदेशी स्कन्धों और असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ से कोन किससे० ? इत्यादि प्रश्न / / [100 उ.] गौतम ! संख्यातप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं / 101. एएसि णं भंते ! असंखेज्ज० पुच्छा। गोयमा ! अणंतपएसिएहितो खंहितो असंखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए बहुया / | 101 प्र. भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ से कौन किससे ? इत्यादि प्रश्न / [101 उः गौतम ! अनन्तप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से बहुत हैं। 102. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं दुपएसियाण य खंधाणं पएसट्टयाए कयरे कयरेहितो बहुया ? गोयमा ! परमाणुपोग्गलेहितो दुपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया। [102 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल और द्विप्रदेशी स्कन्धों में प्रदेशार्थरूप से कौन किसमें बहुत हैं ? [102 उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गलों से द्विप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से बहुत हैं। 103. एवं एएणं गमएणं जाव नवपएसिएहितो खंहितो दसपएसिया खंधा पएसट्टयाए बहुया। _ [103] इस प्रकार इस गमक (पाठ) के अनुसार यावत् नवप्रदेशी स्कन्धों से दशप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से बहुत हैं। 104. एवं सम्वत्थ पुच्छियन्वं / वसपएसिहितो खंहितो संखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया / संखेज्जपएसिएहितो असंखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया। [104] इस प्रकार सर्वत्र प्रश्न करना चाहिए / दशप्रदेशी स्कन्धों से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से बहुत हैं / संख्यातप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध्र प्रदेशार्थरूप से बहुत हैं / 105, एएसि णं भंते ! असंखेज्जपएसियाणं० पुच्छा। गोयमा ! अणंतपएसिएहितो खंहितो असंखेन्जपएसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया। [105 प्र. | भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों में कौन किससे बहुत हैं ? Page #2543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [345 [105 उ.] गौतम ! अनन्तप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ रूप से बहुत हैं। विवेचन-परमाणु-पुदगलों से अनन्तप्रदेशी स्कन्धों तक का अल्पबहुत्व-द्वयणुकों से परमाणु सूक्ष्म तथा एक होने के कारण बहुत हैं और द्विप्रदेशी स्कन्ध परमाणुओं से स्थूल होने से थोड़े हैं, इसी प्रकार आगे-मागे के सूत्रों के विषय में जानना चाहिए। पूर्व-पूर्व की संख्या बहुत है और पीछे-पीछे की संख्या थोड़ी है। दशप्रदेशी स्कन्धों से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध बहुत हैं, क्योंकि संख्यात के स्थान बहुत हैं / संख्यातप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध बहुत हैं, क्योंकि संख्यातप्रदेशी स्कन्धों की अपेक्षा असंख्यात के स्थान बहुत हैं, परन्तु असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अल्प हैं, क्योंकि उनका तथाविध सूक्ष्म-परिणाम होता है। प्रदेशार्थ से विचार करते हुए बताया गया है कि परमाणुओं से द्विप्रदेशी स्कन्ध बहुत हैं / कल्पना करो कि द्रव्यरूप से परमाणु सौ और द्विप्रदेशी स्कन्ध साठ हैं; तो प्रदेशार्थरूप से परमाणु तो सौ ही हैं, परन्तु यणुक 120 हैं / इस प्रकार घणुक बहुत हैं / यही विचारणा आगे भी समझनी चाहिए।' 106. एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दव्वट्ठयाए कयरे कयरेहितो विसेसाहिया ? ____ गोयमा ! दुपएसोगाहितो पोग्गलहितो एगपएसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए विसेसाहिया। [106 प्र.] भगवन् ! एकप्रदेशावगाढ और द्विप्रदेशावगाढ पुद्गलों में, द्रव्यार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [106 उ.] गौतम ! द्विप्रदेशावगाढ पुद्गलों से एक प्रवेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं। 107. एवं एएणं गमएणं तिपएसोगाःहितो पोग्गलेहितो दुपएसोगाढा पोग्गला दबद्वयाए विसेसाहिया जाव दसपएसोगाढेहितो पोग्गलेहितो नवपएसोगाढा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया। दसपएसोगाढेहितो पोग्गलहितो संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए बहुया। संखेज्जपएसोगा।हितो पोग्गलेहितो असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दन्वयाए बहुया / पुच्छा सन्वत्थ भाणियव्वा / [107] इसी गमक (पाठ) के अनुसार त्रिप्रदेशावगाढ पुद्गलों से द्विप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं, यावत् दशप्रदेशावगाढ पुद्गलों से नवप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से विशेषाधिक हैं / दशप्रदेशावगाढ पुद्गलों से संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं / संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गलों से असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से बहुत हैं। पृच्छा सर्वत्र समझ लेनी चाहिए। 108. एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं दुपएसोगाढाण य पोग्गलाणं पएसट्टयाए कयरे कयरेहितो बिसेसाहिया ? गोयमा! एगपएसोगाढहितो पोग्गलेहितो दुपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए बिसेसाहिया / 1 (क) भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 879 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3285 Page #2544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [108 प्र.] भगवन् ! एकप्रदेशावगाढ और द्विप्रदेशावगाढ पुद्गलों में प्रदेशार्थ-रूप से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [108 उ.] गौतम ! एकप्रदेशावगाढ पुद्गलो से द्विप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थरूप से विशेषाधिक हैं। 106. एवं जाव नवपएसोगाहितो पोग्गलहितो दसपएसोगाढा पोग्गला पएसटुताए विसेसाहिया। दसपदेसोगाढेहितो पोग्गलेहितो संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए बहुया / संखेज्जपएसोगाढेहितो पोग्गलेहितो असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए बहुया। [109] इसी प्रकार यावत् नवप्रदेशावगाढ पुद्गलों से दशप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से विशेषाधिक हैं। दशप्रदेशावगाढ पुद्गलों से संख्यात प्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से बहुत हैं। संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गलों से असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से बहुत हैं। 110. एएसि णं भंते ! एगसमयद्वितीयाणं दुसमय द्वितीयाण य पोग्गलाणं दवद्वताए ? जहा प्रोगाहणाए बत्तम्वया एवं ठितीए वि। [110 प्र.] भगवन् ! एक समय की स्थिति वाले और दो समय की स्थिति वाले पुद्गलों में द्रव्यार्थरूप से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [110 उ.] गौतम ! अवगाहना की वक्तव्यता के अनुसार स्थिति की वक्तव्यता जाननी चाहिए। विवेचन—एकप्रदेशावगाढ--परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक एकप्रदेशावगाढ होते हैं / द्विप्रदेशावगाढ-द्वयणुक से लेकर अनन्त-अणुकस्कन्ध तक द्विप्रदेशावगाढ होते हैं / त्रिप्रदेशावगाह-त्रिप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक त्रिप्रदेशावगाढ होते हैं। इस प्रकार चतुष्प्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्ध तक जान लेना चाहिए।' एक गुण काले प्रादि वर्ण तथा गन्ध-रस-स्पर्श वाले पुद्गलों की वक्तव्यता 111. एएसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं दुगुणकालगाण य पोग्गलाणं दत्वद्वताए.? एएसि जहा परमाणुपोग्गलादीणं तहेव वत्तव्वया निरवसेसा। [111 प्र.] भगवन् ! एकगुण काले और द्विगुण काले पुद्गलों में द्रव्यार्थरूप से कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? [111 उ.] गौतम ! परमाणुपुद्गल आदि की वक्तव्यता के अनुसार इनकी सम्पूर्ण वक्तव्यता जाननी चाहिए। 112. एवं सन्वेसि वण्ण-गंध-रसाणं। [112] इसी प्रकार सभी वर्गों, गन्धों और रसों के विषय में वक्तव्यता जाननी चाहिए। 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 879 ... (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3285 Page #2545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] एकादिगुण कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों को द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ से विशेषाधिकतादि प्ररूपरणा 113. एएसि णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं दुगुणकक्खडाण य पोग्गलाणं दवट्ठयाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया ? | गोयमा ! एगगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहितो दुगुणकक्खडा पोग्गला दबट्टयाए विसेसाहिया / [113 प्र.] भगवन् ! एकगुण कर्कश और द्विगुण कर्कश पुद्गलों में द्रव्यार्थरूप से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [113 उ.] गौतम ! एकगुण कर्कश पुद्गलों से द्विगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थरूप से विशेषाधिक हैं। 114. एवं जाब नवगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहितो दसगुणकक्खडा पोग्गला दन्वयाए विसेसाहिया। दसगुणकक्ख.हितो पोग्गलेहितो संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दवट्टयाए बहुया। संखेज्जगुणकवखहितो पोग्गलहितो असंखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए बहुया। असंखेज्जगुणकक्खडेहितो पोग्गलेहितो अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्ठयाए बहुया / [114 | इसी प्रकार यावत् नवगुण-कर्कश पुद्गलों से दशगुण-कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थरूप से विशेषाधिक हैं / दशगुण-कर्कश पुद्गलों से संख्यात गुण-कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ रूप से बहुत हैं / संख्यातगुण-कर्कश पुद्गलों से असंख्यातगुण-कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थरूप से बहुत हैं। असंख्यातगुण-कर्कश पुद्गलों से अनन्तगुण-कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थरूप से बहुत हैं। 115. एवं पएसटुताए वि / सम्वत्थ पुच्छा भाणियब्वा / [115] प्रदेशार्थरूप से समग्र वक्तव्यता भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। सर्वत्र प्रश्न करना चाहिए। 116. जहा कक्खडा एवं मउय-गरुय-लहुया वि। [116] कर्कश स्पर्श सम्बन्धी वक्तव्यता के अनुसार मृदु (कोमल), गुरु (भारी) और लघु (हलके) स्पर्श के विषय में समझना चाहिए / 117. सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा / र रूक्ष स्पर्श के विषय में वर्णों की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिए। विवेचन स्पर्श-विशिष्ट पुद्गलों में अल्पबहुत्व-वर्णादिभावविशिष्ट पुद्गलों के अल्पबहुत्व की विचारणा के सन्दर्भ में कर्कशादि चार स्पों से युक्त पुद्गलों में पूर्व-पूर्व से उत्तर-उत्तर वाले पुद्गल द्रव्यार्थरूप से तथाविध स्वभाव के कारण बहुत कहने चाहिए। शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पों से युक्त पुद्गलों में काले प्रादि वर्णविशेषों के समान दश गुणों तक उत्तर-उत्तर वालों से पूर्व-पूर्व बाले बहुत कहने चाहिए।' शेष मूल पाठ से स्पष्ट है। 1. भगवती. भ. वृत्ति, पत्र 879 Page #2546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 118. एएसि गं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, संखेज्जपदेसियाणं असंखज्जपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं दवट्टयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्ठयाएं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा चवद्वयाए, परमाणुपोग्गला दन्वट्ठयाए अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेन्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा / पएसट्टयाए–सम्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा पएसटुताए, परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा पएसट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा / दव्वद्रुपएसट्टयाए-सच्चत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला दब्वट्ठनपएसट्टयाए अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दम्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा। [118 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल, संख्यात-प्रदेशी, असंख्यात-प्रदेशी और अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थरूप से, प्रदेशार्थरूप से तथा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ-रूप से कौन-से पुद्गल-स्कन्ध किन पुद्गल-स्कन्धों से यावत् विशेषाधिक हैं ? [118 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थरूप से सबसे अल्प अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हैं, उनसे द्रव्यार्थ से परमाणु-पुद्गल अनन्तगुणे हैं। उनसे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध संख्यातगुणे हैं, उनसे द्रव्यार्थरूप से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध असंख्यातगणे हैं। प्रदेशार्थरूप से---सबसे थोडे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हैं। उनसे अप्रदेशार्थरूप से परमाणु-पुद्गल अनन्तगुणे हैं / उनसे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशी-स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से असंख्यात-गुणे हैं / द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से--सबसे अल्प अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से हैं। इनसे अनन्तप्रदेशी स्कंध प्रदेशार्थ से अनन्तगुण हैं / उनसे परमाणुपुद्गल द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थ से अनन्तगुण हैं। उनसे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यातगुण हैं / उनसे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं / उनसे असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुणे हैं। विवेचन–परमाणु को प्रप्रदेशार्थता का प्राशय-प्रदेशार्थता के प्रकरण में परमाणु के लिए जो 'अप्रदेशार्थता' कही है, उसका आशय यह है कि परमाणु के प्रदेश नहीं होते। इसलिए अप्रदेशार्थरूप से परमाणु को अनन्तगुण कहा है। द्रव्य को विवक्षा में परमाणु द्रव्य है और प्रदेश की विवक्षा में उसके प्रदेश नहीं होने से अप्रदेश है। इस प्रकार परमाणु की द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थता कही है।' एक-संख्येय-असंख्येय-प्रदेशी पुद्गलों को अवगाहना एवं स्थिति को लेकर अल्पबहुत्वचर्चा 119. एएसि णं भंते ! एगपएसोगाढाणं संखेज्जपएसोगाढाणं असंखेज्जपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दवट्टयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए, संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दब्वट्टयाए असंखेज्जगुणा / पएसट्टयाए--- 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 880 Page #2547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उदृ शक 4 / सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला अपएसट्टयाए, संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा / दध्वटुपएसट्टयाए --सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठअपदेसद्वयाए, संखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दवट्टयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा। __ [116 प्र.] भगवन् ! एकप्रदेशावगाढ, संख्यातप्रदेशावगाढ, और असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गलों में, द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से कौन-से पुद्गल किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? [119 उ.] गौतम ! द्रव्यार्थ से एकप्रदेशावगाढ पुद्गल सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यातगुण हैं। प्रदेशार्थ से एक-प्रदेशावगाढ पुद्गल अप्रदेशार्थ से सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण हैं। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से-एकप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थ से सबसे अल्प हैं। उनसे संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्याथ से असंख्यातगुण हैं। उनसे असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण हैं / __ 120. एएसि पं भंते ! एगसमयद्वितीयाण संखेज्जसमद्वितीयाणं असंखेज्जसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं? जहा प्रोगाहणाए तहा ठितीए वि भाणियव्वं अप्पाबहुगं / 120 प्र. भगवन् ! एकसमय की स्थिति वाले, संख्यातसमय की स्थिति वाले और असंख्यातसमय की स्थिति वाले पुद्गलों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? [120 उ.] गौतम ! अवगाहना के अल्पबहुत्व के समान स्थिति का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विवेचन क्षेत्रावगाढ पुद्गलों का अल्पबहुत्व----क्षेत्राधिकार में क्षेत्र की प्रधानता है / अतएव परमाणु पुद्गल तथा द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी किसी विवक्षित एक क्षेत्र में अवगाढ कहे जाते हैं। यहाँ आधार और प्राधेय में अभेद की विवक्षा करने से वे एकप्रदेशावगाढ कहे जाते हैं / इसलिए एकप्रदेशावगाढ पुद्गल द्रव्यार्थ से सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण ही हैं। कोई भी ऐसा आकाशप्रदेश नहीं है, जो एक प्रदेशावगाही परमाण अवकाश-प्रदानरूप परिणाम से परिणत न हो। इसी प्रकार आगे संख्यात-प्रदेशावगाढ आदि पुद्गलों के विषय में भी विचार कर लेना चाहिए।' दि को 1. भगवती. अ. वृत्ति, पन्न 80 Page #2548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35.] [ ঘায়োলম্বি एक-संख्येय-असंख्येय-अनन्तगुण वर्ण-गन्धादि वाले पुद्गलों को द्रव्यार्थ प्रदेशार्थरूप से अल्पबहुत्वचर्चा 121. एएसि गं भंते ! एगगुणकालगाणं संखेज्जगुणकालगाणं असंखेज्जगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं दवट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए० ? एएसि जहा परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबहुगं तहा एतेसि पि अप्पाबहुगं। [121 प्र. भगवन् ! एकगुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला और अनन्तगुण काला, इन पुद्गलों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल किन पुद्गलों से यावत् विशेषाधिक हैं ? [121 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परमाण-पुदगलों का अल्पबहुत्व बताया गया है, उसी प्रकार इनका भी अल्पबहुत्व जानना चाहिए / 122. एवं सेसाण वि वण्ण-गंध-रसाणं / | 122] इसी प्रकार शेष वर्ण, गन्ध और रस सम्बन्धी अल्पबहुत्व के विषय में कहना चाहिए। 123. एएसि णं भंते ! एगगुणकक्खडाणं संखेज्जगुणकक्खडाणं असंखेज्जगुणकक्खडाणं अणंतगुणकक्खडाण य पोग्गलाणं दवट्टयाए पएसट्टयाए दवटुपएसट्ठयाए कयरे कयरेहितो जाय विसेसाहिया वा ? गोयमा! सम्वत्थोषा एगगुणकक्खडा पोग्गला दब्वट्ठयाए, संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दन्वट्टयाए संखेन्जगुणा, असंखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दबट्टयाए अणंतगुणा। पएसट्ठयाए एवं चेव, नवरं संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला पएसद्वयाए असंखज्जगुणा, सेसं तं चेव। दवट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवा एगगुणकक्खडा पोग्गला दब्वटुपएसट्टयाए, संखेज्जगुणकक्खडा पोग्गला दवट्टयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जगुणकक्खडा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा / अणंतगुणकक्खडा दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा / [123 प्र.] भगवन् ! एकगुण कर्कश, संख्यातगुण कर्कश, असंख्यातगुण कर्कश और अनन्तगुण कर्कश पुद्गलों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल किन पुद्गलों से यावत् विशेषाधिक हैं ? [123 उ.] गौतम ! एकगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यातगुण हैं / उनसे असंख्यातगुण कर्कश पुदगल द्रव्यार्थ से असंख्यात गुण हैं / उनसे अनन्तगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से अनन्तगुण हैं। प्रदेशार्थ से भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि संख्यातगुण कर्कष-पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण है। शेष कथन पूर्ववत् / द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से-एक गुणकर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुण कर्कश Page #2549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [351 पुद्गल द्रव्यार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे संख्यातगुण कर्कश पुद्गल प्रदेशार्थ से संख्यातगुण हैं। उनसे असंख्यातगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यातगुण हैं / उनसे असंख्यातगुण कर्कश पुद्गल प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण हैं। उनसे अनन्तगुण कर्कश पुद्गल द्रव्यार्थ से अनन्तगुण हैं। इसी प्रकार उनसे अनन्तगुण कर्कश पुद्गल प्रदेशार्थ से अनन्तगुण हैं। 124. एवं मध्य-गरुय-लहुयाण वि अप्पाबहुयं / [124) इसी प्रकार मृदु, गुरु और लघु स्पर्श के अल्पवहुत्व के विषय में कहना चाहिए / 125. सोय-उसिण-निद्ध-लुक्खाणं जहा वण्णाणं तहेव / [125] शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शी-सम्बन्धी अल्पबहुत्व वर्षों के अल्पबहुत्व के समान है। विवेचन-वर्णादि चारों का द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से अल्पबहुत्व-एक-गुण काले आदि वर्षों से लेकर रूक्षस्पर्श वाले पुद्गलों तक का द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ एवं द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ रूप से अल्पबहुत्व का यथोचित तथा क्रमश: कथन किया गया है।' 126. परमाणुपोग्गले णं भंते ! दव्य?ताए कि कउजुम्मे, तेयोए, वावर०, कलियोगे ? गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावर०, कलियोए। [126 प्र.] भगवन् ! एक परमाणु पुद्गल द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है, योज द्वापरयुग्म है या कल्योज है ? [126 उ.] गौतम ! वह न तो कृतयुग्म है, न व्योज है और न द्वापरयुग्म है, किन्तु कल्योज है / 127. एवं जाव अणंतपएसिए खंधे / [127] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए। 128, परमाणुपोग्गला णं भंते ! दन्वट्ठयाए कि कउजुम्मा० पुच्छा। गोयमा ! प्रोपादेसेणं सिय कउजुम्मा जाय सिय कलियोगा। विहाणावेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोगा, नो दावर०, कलियोगा। [128 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणुपुद्गल द्रव्यार्थ से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [128 उ.] गौतम ! प्रोधादेश से कदाचित् कृतयुग्म, यावत् कल्योज है; किन्तु विधानादेश से कृतयुग्म, योज या द्वापरयुग्म नहीं हैं, कल्योज हैं। 129 एवं जाव अणंतपएसिया खंधा। [126] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों पर्यन्त जानना चाहिये / 130. परमाणुपोग्गले णं भंते ! पदेसट्टयाए कि कउजुम्मे पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मे, नो तेयोगे, नो दावर०, कलियोए। 1. वियाहपतिसुत्त भा. 2, पृ. 1000 Page #2550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [130 प्र.] भगवन् ! परमाणु पुद्गल प्रदेशार्थ से कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [130 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म नहीं, योज नहीं तथा द्वापरयुग्म भी नहीं है, किन्तु कल्योज है। 131. दुपएसिए पुच्छा। गोयमा ! नो कड०, नो तेयोए, दावर०, नो कलियोगे। [131 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशी स्कन्ध ? [131 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म, योज या कल्योज नहीं है, किन्तु द्वापरयुग्म है। 132. तिपएसिए पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मे, तेयोए, नो दावर०, नो कलियोए। [132 प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध ? | 132 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है, किन्तु श्योज है। 133. चउप्पएसिए पुच्छा। गोयमा ! कडजुम्मे, नो तेयोए, नो दावर०, नो कलियोए / [133 प्र.) भगवन् ! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध ? [133 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म है, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं है / 124. पंचपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले / [134] पंचप्रदेशी स्कन्ध की वक्तव्यता परमाणु पुद्गल के कथन के समान जानना / 135. छप्पदेसिए जहा दुपदेसिए। [135] षट्प्रदेशी की वक्तव्यता द्विप्रदेशीस्कन्ध के समान जानना / 136. सत्तपदेसिए जहा तिपदेसिए / [136] सप्तप्रदेशी स्कन्ध का कथन त्रिप्रदेशी स्कन्ध के समान है / 137. अपएसिए जहा चउपदेसिए / [137] अष्टप्रदेशी स्कन्ध का कथन परमाणु युद्गल के समान जानना चाहिए। 138. नवपदेसिए जहा परमाणुपोग्गले / [138] नवप्रदेशी स्कन्ध का कथन परमाणु पुद्गल के समान जानना चाहिए। 136. दसपदेसिए जहा दुपदेसिए / [139) दशप्रदेशी स्कन्ध का कथन द्विप्रदेशिक के समान है / 140. संखेज्जपएसिए णं भंते ! पोग्गले० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे, जाव सिय कलियोगे / Page #2551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [353 [140 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी पुद्गल ? {140 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है। 141. एवं असंखेज्जपदेसिए वि, अणंतपदेसिए वि। [141] इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी जानना चाहिए / 142. परमाणुपोग्गला गं भंते ! पएसटुताए कि कड़० पुच्छा। गोयमा ! अोघादेसेणं सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोया, नो दावर०, कलियोगा। - [142 प्र.] ! भगवन् (बहुत) परमाणुपुद्गल प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / {142 उ.] गौतम ! प्रोधादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं / विधानादेश से कृतयुग्म, व्योज और द्वापरयुग्म नहीं हैं, किन्तु कल्योज हैं। 143. दुप्पएसिया णं० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं सिय कडजुम्मा, नो तेयोया, सिय दावरजुम्मा, नो कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा, नो तेयोया, दावरजुम्मा, नो कलियोगा। [143 प्र.] भगवन् ! (अनेक) द्विप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / / [143 उ.] गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म हैं, कदाचित् द्वापरयुग्म है, किन्तु व्योज और कल्योज नहीं हैं। 144. तिपएसिया पं० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्भा जाव सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं नो कउजुम्मा, तेयोगा, नो दावरजुम्मा, नो कलियोगा। [144 प्र.] भगवन् ! (अनेक) त्रिप्रदेशी स्कन्ध, प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [144 उ. | गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म, द्वापरयुग्म या कल्योज नहीं हैं, किन्तु ज्योज हैं। 145. चउप्पएसिया णं० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेण वि विहाणादेसेण वि कडजुम्मा, नो तेयोगा नो दावर०, नो कलियोगा। [145 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध, प्रदेशार्थ रूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [145 उ.] गौतम ! अोघादेश से और विधानादेश से भी वे कृतयुग्म हैं, किन्तु योज, द्वापरयुग्म और कल्योज नहीं हैं। 146. पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गला। [146] पंचप्रदेशी स्कन्धों की वक्तव्यता परमाणुपुद्गल के समान हैं / Page #2552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (व्याख्याप्रज्ञप्तिमा 147. छप्पएसिया जहा दुपएसिया। [147] षट्प्रदेशी स्कन्धों का कथन द्विप्रदेशी स्कन्धों के समान है / 148. सत्तपएसिया जहा तिपएसिया। {148] सप्तप्रदेशी स्कन्ध बिप्रदेशी स्कन्धवत् जानना चाहिए / 146. अट्ठपएसिया जहा चउपएसिया। [146] अष्टप्रदेशी स्कन्ध की वक्तव्यता चतुष्प्रदेशी स्कन्ध के समान है। 150. नवपएसिया जहा परमाणुपोग्गला / [150] नवप्रदेशी स्कन्ध का कथन परमाणु-पुद्गलों के समान है। 151. दसपएसिया जहा दुपएसिया। 6151] दशप्रदेशी स्कन्ध की वक्तव्यता द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना / 152. संखेज्जपएसिया पं० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मर जाव सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगादि। [152 प्र.] भगवन् (अनेक) संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थरूप से कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / 152 उ.] गौतम ! ओघादेश से कदाचित् कृतयुग्म हैं, यावत् कदाचित् कल्योज हैं। विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं यावत् कल्योज भी हैं। 153. एवं असंखेज्जपएसिया वि, अणंतपएसिया वि। [153] इसी प्रकार (अनेक) असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की वक्तव्यता जानना / विवेचन--परमाण-पुद्गलों में कृतयुग्मादि-परमाणु-पुद्गल अनन्त होने पर भी उनमें संघात और भेद के कारण अनवस्थित-स्वरूप होने से वे अोघादेश से कृतयुग्मादि होते हैं। विधानादेश से अर्थात् प्रत्येक की अपेक्षा तो वे कल्योज ही होते हैं। इसी प्रकार आगे के सूत्रों में कृतयुग्मादि संख्या को स्वयमेव घटित कर लेना चाहिए।' अवगाहना, स्थिति, वर्णगन्धादि पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्मादि प्ररूपणा 154. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि कङजुम्मपएसोगाढे० पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मपएसोगाढे, नो तेयोय०, नो दावरजुम्म०, कलियोगपएसोगाढे / [154 प्र.! भगवन् ! (एक) परमाणु-पुद्गल कृतयुग्मप्रदेशावगाढ है ? इत्यादि पृच्छा / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 882 Page #2553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [355 [154 उ. | गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावमाद, व्योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं है, किन्तु कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 155. दुपएसिए पं० पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मपएसोगाढे, जो तेयोग०, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलियोग. पएसोगाढे। |155 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशीस्कन्ध कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है ? इत्यादि प्रश्न / 1.155 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं है, योज-प्रदेशावमाढ भी नहीं है, कदाचित् द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कदाचित् कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 156. तिपएसिए णं० पुच्छा। गोयमा ! नो कडजुम्मपएसोगाढे, सिय तेयोगपएसोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे / [156 प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशी स्कन्ध ? [156 उ.] गौतम ! वह कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं है, किन्तु कदाचित् योज-प्रदेशावमाढ, कदाचित द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कदाचित कल्योज-प्रदेशावगाढ है। 157. चउपएसिए पं० पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलियोगपएसोगाढे / {157 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशी स्कन्ध ? [157 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ है, यावत् कदाचित् कल्योजप्रदेशावगाढ है। 158. एवं जाव प्रणंतपएसिए / [158] इसी प्रकार (यहाँ से लेकर) अनन्तप्रदेशी स्कन्धावगाढ तक जानना चाहिए। 156. परमाणुपोग्गलाणं भंते ! कि कड० पुच्छा। गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोय०, नो दावर०, नो कलियोग; विहाणा. देसेणं नो कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेयोग०, नो दावर०, कलियोगपएसोगाढा। [156 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [156 उ.] गौतम ! अोघादेश से (वे) कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कल्योज-प्रदेशावगाढ नहीं हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ, श्योज-प्रदेशावगाढ तथा द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं हैं, किन्तु कल्योज-प्रदेशावगाढ है / 160. दुपएसिया पं० पुच्छा। गोयमा! प्रोपावेसेणं कहजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोग०, नो वावर०, नो कलिओग०; Page #2554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] মায়াসলনি विहाणावेसेणं नो कडजुम्मपएसोगाढा, नो योगपएसोगाढा, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलियोगपएसोगाढा वि। [160 प्र.] भगवन् ! (बहुत) द्विप्रदेशीस्कन्ध कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [160 उ.] गौतम ! ओघादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ अथवा कल्योज-प्रदेशावगाढ नहीं हैं। विधानादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ तथा योज-प्रदेशावगाढ नहीं हैं, किन्तु द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ एवं कल्योज-प्रदेशावगाढ हैं / 161. तिपएसिया गं० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोय० नो दावर०, नो कलि०; विहाणादेसेणं नो कडजुम्मपएसोगाढा, तेयोगपएसोगाढा वि, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलियोगपएसोगाढा वि। [161 प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशीस्कन्ध कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [161 उ.] गौतम ! अोघादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ और कल्योज-प्रदेशावगाद नहीं हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ नहीं हैं किन्तु योज-प्रदेशावगाढ भी हैं, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ भी हैं और कल्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं। 162. चउपएसिया पं० पुच्छा। गोयमा ! ओघादेसेणं काजुम्मपएसोगाढा, नो तेयोय० नो दावर, नो कलिलोग०, विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा वि जाव कलियोगपएसोगाढा वि / [162 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशीस्कन्ध कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं ? इत्यादि प्रश्न / [162 उ.] गौतम ! वे अोघादेश से कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ हैं, किन्तु योज-प्रदेशावगाढ, द्वापरयुग्म-प्रदेशावगाढ तथा कल्योज-प्रदेशावगाढ नहीं हैं। विधानादेश से वे कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ भी हैं, यावत् कल्योज-प्रदेशावगाढ भी हैं। 163. एवं जाव अणंतपएसिया। [163] इसी प्रकार (पंचेप्रदेशीस्कन्ध से लेकर) यावत् अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक जानना चाहिए। 164. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि कडजुम्मसमद्वितीए• पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मसमय द्वितीए जाव सिय कलियोगसमयद्वितीए / [164 प्र.] भगवन् ! (एक) परमाणु-पुद्गल कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है ? इत्यादि प्रश्न / [164 उ.] गौतम ! वह कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाला है, यावत् कदाचित् / कल्योज-समय की स्थिति वाला है। 165. एवं जाव प्रणंतपएसिए। [165] (द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर) यावत् अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक इसी प्रकार जानना। Page #2555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] 166. परमाणुपोग्गला गं भंते ! कि कडजुम्मसमर्याद्वितीया० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं सिय कडजुम्मसमय द्वितीया जाव सिय कलियोगसमय द्वितीया विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयद्वितीया वि जाव कलियोगसमद्वितीया वि। [166 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं ? इत्यादि प्रश्न / 6166 उ.] गौतम ! अोघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले हैं, यावत् कदाचित् कल्योज-समय की स्थिति वाले हैं, विधानादेश से भी वे कृतयुग्म-समय की स्थिति वाले भी हैं, यावत् कल्योज-समय की स्थिति वाले भी हैं / 167. एवं जाव अणंतपएसिया। [167] इसी प्रकार यावत् अनन्त प्रदेशोस्कन्ध तक जानना चाहिए। 168. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालवण्णपज्जवेहि कि कडजुम्मे, तेयोगे ? जहा ठितीए वत्तव्वया एवं वष्णेसु वि सन्वेसु, गंधेसु वि / [168 प्र.] भगवन् ! (एक) परमाणु-पुद्गल काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है अथवा त्र्योज है ? इत्यादि प्रश्न / [168 उ.] गौतम ! जिस प्रकार स्थिति-सम्बन्धी वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार वर्णों एवं सभी गन्धों की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 166. एवं चेव रसेसु विजाव महुरो रसो ति। [166] इसी प्रकार सभी रसों की यावत् मधुररस तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। 170. अणंतपएसिए० गं भंते ! खंधे कक्खडफासपज्जवेहि किं कडजुम्मे पुच्छा। गोयमा ! सिय कडजुम्मे जाव सिय कलियोगे। [170 प्र.] भगवन् ! (एक) अनन्तप्रदेशीस्कन्ध कर्कशस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म है ? इत्यादि प्रश्न / [170 उ.] वह कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज है / 171. अणंतपएसिया णं भंते ! खंधा कक्खडफासपज्जवेहि कि कडजुम्मा० पुच्छा। गोयमा ! प्रोधादेसेणं सिया कडजुम्मा जाब सिय कलियोगा; विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि जाव कलियोगा वि। [171 प्र.] भगवन् ! (अनेक) अनन्तप्रदेशीस्कन्ध कर्कशस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा कृतयुग्म हैं ? इत्यादि प्रश्न / [171 उ.] गौतम ! ओघादेश से वे कदाचित् कृतयुग्म है, यावत् कदाचित् कल्योज हैं तथा विधानादेश से कृतयुग्म भी हैं, यावत् कल्योज भी हैं। Page #2556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 172. एवं मउय-गल्य-लहुया वि भाणियल्वा / [172] इसी प्रकार मृदु (कोमल), गुरु (भारी) एवं लघु (हलके) स्पर्श के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। 173. सोय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा / [173) शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों की वक्तव्यता वर्णों के समान है। विवेचन-क्षेत्रापेक्षया पुद्गलचिन्तन-परमाणु कल्योजप्रदेशावगाढ ही होता है, क्योंकि वह एक होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध परिणाम विशेष के कारण कभी द्वापरयग्म-प्रदेशावगाढ होता है, कभी कल्योज-प्रदेशावगाढ होता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी स्वयं चिन्तन कर लेना चाहिए / बहुत से परमाणु ओघतः (सामान्यापेक्षा) सकल लोकव्यापी होने के कारण कृतयुग्म-प्रदेशावगाढ होते हैं। सकल लोक के प्रदेश असंख्यात हैं और वे अवस्थित हैं, इसलिए उनमें चतुरग्रता घटित होती हैं। विधानतः (एक-एक परमाणु की अपेक्षा) सभी परमाणु एक-एक प्राकाशप्रदेश में अवगाढ होने से कल्योज-प्रदेशावगाढ़ हैं। द्विप्रदेशावगाढ स्कन्ध सामान्यत: पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार चतुरन (कृतयुग्म) हैं। विधान (प्रत्येक) की अपेक्षा जो द्विप्रदेशावगाढ हैं, वे द्वापरयुग्म हैं और जो एक प्रदेशावगाढ हैं, वे कल्योज हैं / इस प्रकार अन्यत्र भी विचार कर लेना चाहिए।' स्पर्शविषयक प्रतिदेश का प्राशय-यहाँ कर्कशस्पर्श के अधिकार में अनन्तप्रदेशोस्कन्ध के विषय में ही कृतयग्मादि-सम्बन्धी प्रश्न किया गया है. इसका कारण यह है कि कि बादर-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हो कर्कश आदि चार स्पर्शों वाला होता है, परमाणु पुद्गल आदि नहीं। शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के विषय में जो वर्णों का अतिदेश किया गया है, उसका कारण यह है कि परमाणु आदि भी शीत-स्पादि वाले होते हैं। इसीलिए मूलपाठ में कहा गया है--'सीय-उसिण-निद्ध-लुक्खा जहा वण्णा / ' परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक यथायोग्य सार्द्ध-अनद्ध प्ररूपरणा 174. परमाणुपोग्गले णं भते ! कि सड्ढे अणड्ढे ? गोयमा ! नो, सड्ढे अणड्ढे / [174 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल सार्द्ध (प्राधे भाग-सहित) है या अनर्द्ध (माधे भाग से रहित)? [174 उ.] गौतम ! वह सार्द्ध नहीं है, अनर्द्ध है / 175. दुपएसिए० पुच्छा० / गोयमा! सड्ढे, नो अणड्ढे / [175 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध सार्द्ध है या अनर्द्ध ? [175 उ.] गौतम ! वह सार्द्ध है, अनर्द्ध नहीं / 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 883 2. वही, म. वृत्ति, पत्र 803 Page #2557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एबीसवां शतक : उद्देशक 4] 176. तिपएसिए जहा परमाणुपोग्गले / [176] त्रिप्रदेशीस्कन्ध का कथन परमाणु-पुद्गल के समान है / 177. चउपएसिए जहा दुपएसिए। [177] चतुष्प्रदेशीस्कन्ध-सम्बन्धी कथन द्विप्रदेशीस्कन्ध के समान है। 178. पंचपएसिए जहा तिपएसिए / {178] पंचप्रदेशी स्कन्ध की वक्तव्यता त्रिप्रदेशी स्कन्धवत् है / 176. छप्पएसिए जहा दुपएसिए। [176] षट्प्रदेशी स्कन्ध-विषयक कथन द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान जानना / 10. सत्तपएसिए जहा तिपएसिए / [180] सप्तप्रदेशी स्कन्ध सम्बन्धी कथन त्रिप्रदेशी स्कन्ध के समान है / 181. अट्ठपएसिए जहा दुपएसिए। [181] अष्टप्रदेशी स्कन्ध-विषयक वक्तव्यता द्विप्रदेशी स्कन्ध जैसी है / 182. नवपएसिए जहा तिपएसिए। [182] नवप्रदेशी स्कन्ध का कथन त्रिप्रदेशी स्कन्ध जैसा है। 183. दसपएसिए जहा दुपएसिए। [183] दशप्रदेशी स्कन्ध-सम्बन्धी कथन द्विप्रदेशी के समान जानना चाहिए / 184. संखेज्जपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! सिय सड्ढे, सिय अणड्ढे / |184 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी स्कन्ध सार्द्ध है या अनर्द्ध ? [184 उ.गौतम ! कदाचित् सार्द्ध है और कदाचित् अनर्द्ध है / 185. एवं असंखेज्जपएसिए वि / [185] इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध के विषय में कहना चाहिए / 186. एवं प्रणंतपएसिए वि। [186] अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का कथन भी इसी प्रकार है / 187. परमाणुपोग्गला गं भंते ! कि सड्ढा, अणड्डा ? गोयमा ! सड्ढा बा अणड्ढा वा / [187 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परमाणु-पुद्गल सार्द्ध हैं या अनर्द्ध ? [187 उ.] गौतम ! वे सार्द्ध भी हैं और अनर्द्ध भी हैं। Page #2558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 188. एवं जाव अणंतपएसिया। [188] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए / विवेचन-पुद्गलों को सार्द्धता-अनीता का रहस्य-समसंख्या वाले (परमाणों) प्रदेशों के जो स्कन्ध होते हैं, वे सार्द्ध होते हैं, उनके बराबर दो भाग हो सकते हैं और विषमसंख्या वाले प्रदेशों के जो स्कन्ध होते हैं, वे अनर्द्व होते हैं, क्योंकि उनके दो बराबर भाग नहीं हो सकते। जब बहुत-से परमाणु समसंख्या वाले होते हैं, तब सार्द्ध होते हैं और जब बे विषमसंख्या वाले होते हैं, तब अनर्द्ध होते हैं, क्योंकि संघात (मिलने) और भेद (पृथक् होने) से उनकी संख्या अवस्थित नहीं होती। इसलिए वे सार्द्ध और अनर्द्ध दोनों प्रकार के होते हैं।' परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक सकम्पता-निष्कम्पता प्ररूपरणा 186. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि सेए, निरेए ? गोयमा! सिय सेए, सिय निरेए। [186 प्र.] भगवन् ! (एक) परमाणु-पुद्गल सैज (सकम्प) होता है या निरेज (निष्कम्प)? [189 उ.] गौतम ! वह कदाचित् सकम्प होता है और कदाचित् निष्कम्प होता है / 160. एवं जाव अणंतपएसिए। [160] इसी प्रकार (द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर) यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धपर्यन्त जानना चाहिए। 161. परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि सेया, निरेया ? गोयमा ! सेया वि, निरेया वि / [191 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल सकम्प होते हैं या निष्कम्प ? [191 उ.] गौतम ! वे सकम्प होते हैं और निष्कम्प भी / 162. एवं जाव अणंतपएसिया। [192] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए। क्वेिचन--सैज और निरेज का आशय-सैज का अर्थ है--- कम्पन, स्पन्दन या चलनादि धर्म युक्त तथा निरेज का अर्थ है-कम्पन, स्पन्दन या चलनादि धर्म से रहित / परमाणु की प्रायः निष्कम्पदशा होती है, उसकी सकम्पदशा कादाचित्क होती है, सदा नहीं। इसी प्राशय से परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को सकम्प और निष्कम्प दोनों बताया है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 883 2. (क) भगवती. अ. वति, पत्र 886 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, प. 3325 (ग) भगवती. प्रमेय चन्द्रिकाटीका, भाग 15, पृ. 895 Page #2559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] सकम्प निष्कम्प परमाणु-पुद्गल से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की स्थिति तथा कालान्तर प्ररूपरगा 193. परमाणपुग्गले णं भंते ! सेए कालतो केवचिरं होति ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंज्जइभागं / [163 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल सकम्प कितने काल तक रहता है ? [163 उ.] गौतम ? वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग तक सकम्प रहता है। 164. परमाणपोग्गले णं भंते ! निरेए कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / {164 प्र.] भगवन् ! परमाण-पुद्गल निष्कम्प कितने काल तक रहता है ? [194 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निष्कम्प रहता है। 165. एवं जाव अणंतपएसिए। [165] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक जानना त्राहिए। 196. परमाणुपोग्गला गं भंते ! सेया कालो केवचिरं होंति ? गोयमा ! सम्बद्धं / [196 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल कितने काल तक सकम्प रहते हैं ? [196 उ.] गौतम ! वे सर्वाद्धा (सदा काल) सकम्प रहते हैं / 167. परमाणपोग्गलाणं भंते ! निरेया कालश्रो केचिरं होंति ? गोयमा ! सम्वद्धं / [197 प्र.] भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल कितने काल तक निष्कम्प रहते हैं ? {167 उ.] गौतम ! वे सदा काल निष्कम्प रहते हैं। 198. एवं जाव अणंतपएसिया / [198] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (सकम्प-निष्कम्प-विषयक काल) जानना चाहिए। 196. परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! सेयस्त केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं; परद्वाणंतरं पडुमच जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / [196 प्र.] भगवन् ! (एक) सकम्प परमाणु-पुद्गल का कितने काल का अन्तर होता है ? [166 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्येय काल का तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता . Page #2560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362] [ध्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र 200. निरेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोपमा ! सट्टाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं; परट्ठाणतरं पञ्च्च जहन्नेणं एक्कं समय, उषकोसेणं असंखेज्जं कालं / [200 प्र] भगवन् ! निष्कम्प परमाणु-पुद्गल का कितने काल तक का अन्तर होता है ? [200 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रालिका के असंख्यात भाग का अन्तर होता है तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता है। 201. दुपएसियस्स णं भंते ! खंधस्स सेयस्स० पुच्छा। गोयमा ! सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसणं असंखेज्ज कालं; परट्ठाणतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं। 201 प्र.] भगवन् ! सकाप द्विप्रदेशी स्कन्ध का कितने काल का अन्तर होता है। [201 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता है तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अनन्त काल का अन्तर होता है। 202. निरेयस्स केवतियं कालं अंतर होह ? गोयमा ! सट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभाग; परहाणंतरं पड़च्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं / [202 प्र. भगवन् ! निष्कम्प द्विप्रदेशी स्कन्ध का कितने काल का अन्तर होता है ? [202 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग का अन्तर होता है तथा परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अनन्त काल का अन्तर होता है। 203. एवं जाव प्रणंतपएसियस्स। [203] इसी प्रकार यावत् (सकम्प और निष्कम्प) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के (काल का) अन्तर समझन 204. परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सेयाणं केवतियं कालं अंतर होइ? गोयमा! नत्यंतरं। / 204 प्र.] भगवन् ! सकम्प (बहुत) परमाण-पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? [204 उ.] गौतम ! उनमें अन्तर नहीं होता / 205. निरेयाणं केवतियं कालं अंतर होइ ? नत्थंतरं। Page #2561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] (205 प्र. भगवन् ! निष्कम्प परमाणु-पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? |205 उ.] गौतम ! उनका भी अन्तर नहीं होता ! 206. एवं जाब अणंतपएसियाणं खंधाणं / [206] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का अन्तर समझ लेना चाहिए। विवेचन–परमाणु को सकम्प निष्कम्प दशा-परमाणु को निष्कम्पदशा प्रौत्सर्गिक (स्वाभाविक) है। इसलिए उसका उत्कृष्ट (स्थायित्व) काल असंख्यात है। उसकी सकम्पदशा आपवादिक (अस्वाभाविक) है, कभी-कभी होने वाली है। इसलिए वह उत्कृष्टतः प्रावलिका के असंख्यातवें भाग मात्र काल-पर्यन्त ही रहती है / बहुत से परमाणुओं की अपेक्षा सकम्पदशा सर्वकाल रहती है, क्योंकि भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में कोई भी ऐसा समय न था, न है और न होगा, जिसमें सभी परमाणु निष्कम्प रहते हों / यही बात (अनेक परमाणों की) निष्कम्प दशा के लिए जाननी चाहिए / सभी परमाणु सदा काल के लिए निष्कम्प रहते हों, ऐसी बात भी नहीं है / कोई न कोई परमाणु उस समय सकम्प रहता ही है।' स्वस्थान और परस्थान को अपेक्षा अन्तर का आशय-अन्तर के विषय में जो स्वस्थान और परस्थान का कथन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि जब परमाणु, परमाणु-अवस्था में स्कन्ध से पृथक रहता है, तब वह 'स्वस्थान' में कहलाता है और स्कन्ध-अवस्था में होता है तब 'परस्थान में कहलाता है। एक परमाणु एक समय तक चलन-क्रिया से रुक कर फिर चलता है, तब स्वस्थान की अपेक्षा अन्तर जघन्य एक समय का होता है और उत्कृष्टतः वही परमाणु असंख्यातकाल तक किसी स्थान में स्थित रह कर फिर चलता है, तब अन्तर असंख्यात काल का होता है। जब परमाणु द्वि-प्रदेशादि स्कन्ध के अन्तर्गत होता है और जघन्यतः एक समय चलन-क्रिया से निवृत्त रह कर फिर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का अन्तर होता है। परन्तु जब वह परमाण असंख्यातकाल तक द्वि-प्रदेशादि स्कन्धरूप में रह कर पुनः उस स्कन्ध से पृथक होकर चलित होता है, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्टतः अन्तर असंख्यातकाल का होता है / __जब परमाणु निश्चल (स्थिर) होकर एक समय तक परिस्पन्दन करके पुनः स्थिर होता है और उत्कृष्टतः पावलिका के असंख्यातवें भागरूप काल (असंख्य समय) तक परिस्पन्दन करके पुनः स्थिर होता है, तब स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग का अन्तर होता है। परमाणु निश्चल होकर स्वस्थान से चलित होता है और जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक द्वि-प्रदेश आदि स्कन्ध के रूप में रह कर पुन: निश्चल हो जाता है या उससे पृथक होकर स्थिर हो जाता है, तब वह अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट होता है। द्वि-प्रदेशी स्कन्ध चलित होकर अनन्तकाल तक उत्तरोत्तर अन्य अनन्त-पुदगलों के साथ सम्बद्ध होता हुआ और पुनः उसी परमाणु के साथ सम्बद्ध होकर पुनः चलित हो, तब परस्थान की अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल का होता है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 886-887 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3325 Page #2562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सकम्प परमाणु-पुद्गल लोक में सदैव पाये जाते हैं / इसलिए उनका अन्तर नहीं होता।' परमाणु से अनन्तप्रदेशी सकम्प-निष्कम्प स्कन्ध तक के अल्पबहत्व को चर्चा 207. एएसि गं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सेयाणं निरेयाण य कयरे कयरेहितो जाव बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सेया, निरेया असंखेज्जगुणा। [207 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) सकम्प और निष्कम्प परमाणु पुद्गलों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक होते हैं ? [207 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सकम्प परमाणु पुद्गल होते हैं ! उनसे निष्कम्प परमाणुपुद्गल असंख्यातगुण हैं / 208. एवं जाव असंखिज्जपएसियाणं खंधाणं। [208] इसी प्रकार यावत् असंख्यात-प्रदेशी स्कन्धों के अल्पबहुत्व के विषय में जानना चाहिए। 206. एएसि णं भंते ! अणंतपएसियाणं खंधाणं सेयाणं निरेयाण य कयरे कयरेहितो जाव विससाहिया वा? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा निरेया, सेया अणंतगुणा / [209 प्र.] भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) अनन्त-प्रदेशी सकम्प और निष्कम्प स्कन्धों में कौन किन से यावत् विशेषाधिक होते हैं ? [209 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े अनन्त-प्रदेशी निष्कम्प स्कन्ध हैं। उनसे सकम्प अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्तगुण हैं / विवेचन सकम्प परमाणु-पुद्गल सबसे कम हैं, उनसे असंख्यातगुणे निष्कम्प परमाणु-पुद्गल हैं तथा सबसे अल्प अनन्तप्रदेशी निष्कम्प स्कन्ध हैं, उनसे अनन्तगुणे सकम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध हैं। परमाणु से अनन्तप्रदेशी सकम्प-निष्कम्प स्कन्धों की द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ, द्रव्यप्रदेशार्थ से अल्पबहुत्व की चर्चा 210. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, संखेज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं सेयाणं निरेयाण य दम्बयाए पएसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा निरेया दव्वट्ठयाए 1, अणंतपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए अणंतगुणा 2, परमाणुपोग्गला सेया दवट्ठयाए अणंतगुणा 3, संखेज्जपएसिया खंधा सेया दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 4, असंखेज्जपएसिया खंधा सेया दबट्ठयाए असंखेज्जगुणा 5, परमाणु१. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3326 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 886-887 Page #2563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [365 पोग्गला निरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 6, संखेज्जपएसिया खंधा निरेया दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा 7, असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा 8 / पएसठ्ठयाए एवं चेव, नवरं परमाणुपोग्गला अपएसठ्ठयाए भाणियव्वा / संखेज्जपएसिया खंधा निरेया पएसट्ठयाए असंज्जगुणा, सेसं तं चैव / दम्बठ्ठपएसठ्ठयाए -- सम्वत्थोबा अणंतपएसिया खंधा निरेया दम्बठ्ठयाए 1, ते चेव पएसठ्ठयाए अणंतगुणा 2, अणंतपएसिया खंधा सेया दव्वयाए प्रणंतगुणा 3, ते चेव पएसठ्ठयाए प्रणतगुणा 4, परमाणुपोग्गला सेया दम्वट्ठअपएसठ्ठयाए अणंतगुणा 5, संखेज्जपएसिया खंधा सेया दध्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 6, ते चेव पएसठ्ठयाए असंखेज्जगुणा 7, असंखेज्जपएसिया खंधा सेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 8, ते चेव पएसठ्ठयाए असंखेज्जगुणा 6, परमाणुपोग्गला निरेया दवट्ठअपएसट्ठयाए असंखेज्जगुणा 10, संखेज्जपएसिया खंधा निरेया बबट्ट्याए प्रसंखेज्जगुणा 11, ते चैव पएसट्टयाए असंखेन्जगुणा 12, असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवठ्ठयाए असंखेज्जगुणा 13, ते चैव पएसट्ठयाए असंखेज्जगुणा 14 / 210 प्र.] भगवन ! सकम्प और निष्कम्प परमाण-पुदगल, संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध, असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध और अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों में द्रव्यार्थ, प्रदेशार्थ और द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कौन पुद्गल, किन पुद्गलों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? / [210 उ.] गौतम ! (1) निष्कम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सबसे अल्प हैं / (2) उनसे सकम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं / (3) उनसे सकम्प परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं। (4) उनसे सकम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुणे हैं ! (5) उनसे सकम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुणे हैं। (6) उनसे निष्कम्प परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुण हैं। (7) उनसे निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात-गुणे हैं (8) और उनसे निष्कम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असख्यात-गुणे हैं / जिस प्रकार द्रव्यार्थ से उपर्युक्त आठ बोल कहे हैं, उसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी पाठ बोल जानने चाहिए, किन्तु परमाणु-पुद्गल में प्रदेशार्थ के बदले 'अप्रदेशार्थ' कहना चाहिए तथा निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुणे जानने चाहिए / शेष सब पूर्ववत् / अध्यार्थ-प्रदेशार्थ से - (1) निष्कम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सबसे अल्प हैं / (2) उनसे निष्कम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्तगुणे हैं। (3) सकम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं / (4) उनसे सकम्प अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्तगुणे हैं। (5) उनसे सकम्प परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से अप्रदेशार्थरूप से अनन्तगुण हैं। (6) उनसे सकम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुणे हैं। (7) उनसे सकम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ सं असख्यात-गुण हैं। (8) उनसं सकम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थसं असंख्यात-गुण हैं। (8) उनसे सकम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध्र प्रदेशार्थ से असंख्यात-गणे हैं। (10) उनसे निष्कम्प परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ-प्रप्रदेशार्थ रूप से असंख्यात-गुगे हैं। (11) उनसे निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्या-गुणे हैं। (12) उनसे निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असं Page #2564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ख्यात-गुण हैं / (13) उनसे निष्कम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यात-गुणे हैं और (14) उनसे निष्कम्प असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात-गुणे हैं। विवेचन-पुद्गलों के अल्पबहुत्व की भीमांसा-परमाणु-पुद्गल तथा संख्यात-प्रदेशी, असंख्याल-प्रदेशी और अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों की सकम्पता और अकम्पता को लेकर द्रव्यार्थ से अल्पबहुत्व के आठ पद होते हैं / इसी प्रकार प्रदेशार्थ से भी पाठ पद होते हैं, किन्तु द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से उभयपक्ष में चौदह पद होते हैं, क्योंकि सकम्प और निष्कम्प परमाणु-पुद्गलों के द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता इन दो पदों के स्थान में 'द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थता' यह एक ही पद कहना चाहिए / इसलिए यहाँ 16 बोलों के बदले 14 बोल ही होते हैं।" द्रव्यार्थता सूत्र में निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध, निष्कम्प परमाणुओं से संख्यात-गुण कहे गए हैं और प्रदेशार्थ सूत्र में वे परमाणुओं से असंख्यात-गुणे कहे गए हैं, क्योंकि निष्कम्प परमाणुओं से निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यात-गुण होते हैं। उनमें से बहुत से स्कन्धों में उत्कृष्ट संख्या वाले प्रदेश होने से वे निष्कम्प परमाणुगों से प्रदेशार्थ से असंख्यात-गुण होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट संख्या में एक संख्या की वृद्धि होने पर वे असंख्यात हो जाते हैं / परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक देशकम्प-सर्वकम्प-निष्कम्पता को प्ररूपणा 211. परमाणुयोग्गले गं भंते ! कि देसेए, सव्वेए, निरेए ? गोयमा ! नो देसेए, सिय सव्धेए, सिय निरेये। [211 प्र.] भगवन् ! परमाणु-पुद्गल देशकम्पक (कुछ अश में कम्पित होने वाला) है, सर्वकम्पक (पूर्णतया कम्पित होने वाला) है या निष्कम्पक है ? [211 उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गल देशकम्पक नहीं है, वह कदाचित् सर्वकम्पक है, कदाचित् निष्कम्पक है। 212. दुपदेसिए णं भंते ! खंधे० पुच्छा। गोयमा ! सिय देसेए, सिय सम्वेए, सिय निरेये। |212 प्र. भगवन् ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध देशकम्पक है, सर्वकम्पक है या निष्कम्पक है ? 1212 उ.] गौतम ! वह कदाचित् देशकम्पक, कदाचित् सर्वकम्पक और कदाचित् निष्कम्पक होता है। 213. एवं जाव अणंतपदेसिए / [213] इसी प्रकार यावत् अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक जानना चाहिए। 214. परमाणुपोग्गला गं भंते ! किं वेसेया, सम्वेया, निरेया? गोयमा ! नो देसया, सम्वेया वि, निरेया वि। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 887 2. वही, पत्र 887 Page #2565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] 1214 प्र. भगवन् ! (बहुत) परमाणु-पुद्गल देशकम्पक है, सर्वकम्पक हैं या निष्कम्पक हैं ? |214 उ. गौतम ! वे देशकम्पक नहीं हैं, किन्तु सर्वकम्पक हैं और निष्कम्पक भी हैं। 215. दुपदेसिया णं भंते ! खंधा० पुच्छा। गोयमा ! देसेया वि, सम्वेया वि, निरेया वि। [215 प्र. भगवन् ! (बहुत) द्विप्रदेशी-स्कन्ध देशकम्पक हैं, सर्वकम्पक हैं या निष्कम्पक [215 उ.) गौतम ! वे देशकम्पक भी हैं, सर्वकम्पक भी है और निष्कम्पक भी हैं। 216. एवं जाव अणंतपएसिया। [216] इसी प्रकार यावत् (बहुत ) अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों (की देशकम्पकता आदि) के विषय में जानना चाहिए। विवेचन-परमाणु-पुद्गल (एक हो या बहुत) देशकम्पक नहीं होते, परन्तु द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध कदाचित देशकम्पक, कदाचित सर्वकम्पक और कदाचित निष्कम्पक भी होते हैं। परमाणु से अनन्त-प्रदेशो देशकम्प-सर्वकम्प-निष्कम्प स्कन्धों को स्थिति एवं कालान्तर की प्ररूपणा 217. परमाणुपोग्गले गं भंते ! सव्वेए कालतो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं / [217 प्र.] भगवन् ! (एक) परमाणु पुद्गल सर्वकम्पक कितने काल तक रहता है ? [217 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग तक (सर्वकम्पक रहता है।) 218. निरये कालतो केचिरं होति ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं। [218 प्र. भगवन् ! (एक) परमाणु-पुद्गल निष्कम्पक कितने काल तक रहता है / [218 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यात काल निष्कम्प तक रहता है। 216. दुपएसिए णं भंते ! खंधे सेए कालतो केवचिरं होति ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए असंखेज्जतिभागं / {219 प्र. भगवन् ! द्विप्रदेशी-स्कन्ध देशकम्पक कितने काल तक रहता है ? [216 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवें भाग तक देशकम्पक रहता है। Page #2566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्राप्तिसूत्र 220. सम्वेए कालतो केवचिरं होति ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं / |220 प्र.] भगवन् ! (द्वि-प्रदेशी स्कन्ध) सर्वकम्पक कितने काल तक रहता है ? 220 उ.] बह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग तक सर्वकम्पक रहता है। 221. निरेए कालतो केचिरं होति ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं / 221 प्र.] भगवन् ! (द्वि-प्रदेशी स्कन्ध) निष्कम्पक कितने काल तक रहता है ? [221 उ.} गौतम ! वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निष्कम्पक रहता है। 222. एवं जाय अणंतपदेसिए। [222] इसी प्रकार यावत् अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक (के कम्पनादि-काल के विषय में जानना।) 223. परमाणुपोग्गला गं भंते ! सम्वेया कालतो केवचिर होति ? गोयमा ! सम्वद्धं / [223 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परमाणु-पुद्गल सर्वकम्पक कितने काल तक रहते हैं ? [223 उ.] गौतम ! (वे) सदा काल (सर्वकम्पक रहते हैं / ) 224. निरेया कालतो केचिरं? सम्बद्धं। (224 प्र.] भगवन् ! (अनेक परमाणु-पुद्गल) निष्कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? {224 उ.] गौतम ! (वे) सदा काल (निष्कम्पक रहते हैं / ) 225. दुप्पदेसिया णं भंते ! खंधा देसेया कालतो केवचिरं होंति ? सम्वद्ध। 225 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशो स्कन्ध देश कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? 225 उ.] गौतम ! (वे) सर्वकाल (देशकम्पक रहते हैं / ) / 226. सव्वेया कालतो केचिरं ? सम्वद्धं / [226 प्र. भगवन् ! वे कितने काल तक सर्वकम्पक रहते हैं ? [226 उ.] गौतम ! (बे) सदा काल (सर्वकम्पक रहते हैं।) Page #2567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नीसवां शतक : उद्देशक 4] 227. निरेया कालतो केवचिरं ? सव्यर्छ। [227 प्र.] भगवन् ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध) निष्कम्पक कितने काल तक रहते हैं ? [227 उ.] सदा काल / 228. एवं जाव अणंतपरेसिया। 228] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक का कालमान जानना चाहिए / 226. परमाणपोग्गलस्स णं भंते सब्वेयस्स केवतियं कालं अंतरं होति ? सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्नं कालं; परढाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं एवं चेव / [226 प्र.] भगवन् ! सर्वकम्पक परमाणु-पुद्गल का अन्तर कितने काल का होता है ? [226 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्टतः असंख्यात काल का अन्तर होता है / परस्थान की अपेक्षा भी जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यातकाल का अन्तर होता है। 230. निरेयस्स केवतियं अंतरं होइ ? सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभाग; परटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं / [230 प्र.] भगवन् ! निष्कम्पक (परमाणु-पुद्गल) का अन्तर कितने काल का होता है ? [230 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रावलिका के प्रसंख्यातवें भाग का अन्तर होता है। परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का अन्तर होता है। 231. दुपएसियस्स णं भंते ! खंधस्स देसेयस्स केवतियं कालं अंतरं होइ ? सट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं; परट्ठाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं / |231 प्र. भगवन् ! देशकम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [231 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यातकाल का होता है। 232. सब्वेयस्स केवतियं कालं ? एवं चेव जहा देसेयस्स। {232 प्र. भगवन् ! सर्वकम्पक (द्विप्रदेशी स्कन्ध) का अन्तर कितने काल का होता है ? [232 उ.] गौतम ! जिस प्रकार देशकम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध का अन्तर कहा है, उसी प्रकार सर्वकम्पक का भी जानना चाहिए / Page #2568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूब 233. निरेयस्स केवतियं० ? सटाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभाग; परढाणंतरं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं / [233 प्र.) भगवन् ! निष्कम्पक (द्विप्रदेशी स्कन्ध) का अन्तर कितने काल का होता है ? 233 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग का अन्तर होता है। परस्थान की अपेक्षा जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर होता है। 234. एवं जाय अणंतपएसियस्स / [234] इसी प्रकार यावत् अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध तक के अन्तर के विषय में जानना ___ चाहिए / 235. परमाणुपोग्गलाणं भंते ! सध्येयाणं केवतियं कालं अंतर होइ ? नत्यंतरं। [235 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सर्वकम्पक परमाणु-पुद्गलों का अन्तर कितने काल का होता है ? [235 उ.] गौतम ! (उनका) अन्तर नहीं होता। 236. निरयाणं केवतियं० ? नत्यंतरं। [236 प्र.] भगवन् ! निष्कम्प (परमाण-पुद्गलों) का अन्तर कितने काल का होता है ? [236 उ.] गौतम ! (उनका भी) अन्तर नहीं होता। 237. दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं देसेयाणं केवतियं कालं ? नत्थंतरं। [237 प्र. भगवन् ! (बहुत-से) देशकम्पक द्विप्रदेशी स्कन्धों का अन्तर कितने काल का होता है ? [237 उ.] गौतम ! (उनका) अन्तर नहीं होता। 238. सव्वेयाणं केवतियं कालं० ? नत्यंतरं / [238 प्र.] भगवन् ! सर्वकम्पक (द्विप्रदेशी स्कन्धों) का अन्तर कितने काल का होता है ?) [238 उ.] गौतम ! (उनका) अन्तर नहीं होता। 236. निरेयाणं केवतियं कालं ? नत्यंतरं। [236 प्र.] भगवन् ! निष्कम्प (द्विप्रदेशी स्कन्धों) का अन्तर कितने काल का होता है ? Page #2569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] [371 1239 उ.! गौतम ! (उनका) अन्तर नहीं होता। 240. एवं जाव अणंतपएसियाणं / [240] इसी प्रकार यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों तक के अन्तर का कथन जानना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत 24 सूत्रों (217 से 240 तक) में परमाणु-पुद्गल से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा देशकम्प, सर्वकम्प और निष्कम्प की दृष्टि से जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति तथा अन्तर दोनों की प्ररूपणा की गई है।' सर्व-देशकम्पक-निष्कम्पक परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का अल्पबहुत्व 241. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं सव्वेयाणं निरेयाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा परमाणुपोग्गला सम्वेया, निरेया असंखेज्जगुणा / [241 प्र. भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) सर्वकम्पक और निष्कम्पक परमाणु-पुद्गलों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? [241 उ. गौतम ! सबसे धोड़े सर्वकम्पक परमाणु-पद्गल होते हैं। उनसे निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल असंख्यातगुणे हैं / 242. एएसि णं भंते ! दुपएसियाणं खंधाणं देसेयाणं सटवेयाणं निरेयाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा दुपएसिया खंधा सम्वेया, देसेया असंखेज्जगुणा, निरेया असंखेज्जगुणा / 1242 प्र.] भगवन् ! देशकम्पक, सर्वकम्पक और निष्कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्धों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? (242 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सर्वकम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध हैं, उनसे देशकम्पक और और उनसे निष्कम्पक द्विप्रदेशी स्कन्ध उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यात-असंख्यातगुण हैं। 243. एवं जाव असंखेज्जपएसियाणं खंधाणं / [243] इसी प्रकार यावत् असंख्यात-प्रदेशी स्कन्धों तक अल्पबहुत्व के विषय में जानना चाहिए। 244. एएसि णं भंते ! अणंतपएसियाणं खंधाणं देसेयाणं सम्वेषाणं निरेयाण य कयरे कयरहितो नाव विसेसाहिया वा ? गोयमा! सध्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सम्वेया निरेया अणंतगुणा, देसेया अणंतगुणा / [244 प्र.] भगवन् ! देशकम्पक, सर्वकम्पक और निष्कम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में कौन किनसे यावत् विशेषाधिक हैं ? 1. वियाहमणतिसुत्तं, भाग 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 1008-9 Page #2570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372) [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र _ [244 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सर्वकम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हैं / उनसे निष्कम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्तगुण हैं और देशकम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्तगुण हैं। विवेचन-निष्कर्ष सर्वकम्पक परमाणु-पुद्गल सबसे अल्प हैं, उनसे निष्कम्पक परमाणुपुद्गल असंख्यातगुण हैं / द्विप्रदेशी स्कन्धों से असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों तक में सर्वकम्पक सबसे अल्प हैं, उनसे देशकम्पक असंख्यातगण हैं, उनसे निष्कम्पक असंख्यातगुण हैं। अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में सर्वकम्पक सबसे अल्प हैं, निष्कम्प अनन्तगुण हैं और उनसे देशकम्पक अनन्तगुण हैं / सर्व-देश-निष्कम्प परमाणों से अनन्त प्रदेशीस्कन्ध तक के अल्पबहत्व की चर्चा 245. एएणि गं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं, संखेज्जपएसियाणं असंखेज्जपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं देसेयाणं सव्वेयाणं निरेयाणं दवट्टयाए पएसद्वयाए दवट्टपएसद्वयाए कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाह्यिा वा ? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सम्वेया दम्वट्ठयाए 1, अणंतपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए अणंतगुणा 2, अणंतपएसिया खंधा देसेया दवट्ठयाए अणंतगुणा 3, असंखेज्जपएसिया खंधा सम्वेया दवढयाए अणंतगुणा 4, संखेज्जपएसिया खंधा सम्वेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, 5, परमाणुपोग्गला सव्वेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा 6, संखेज्जपएसिया खंधा देसेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा 7, प्रसंखेज्जपएसिया खंधा देसेया दवट्टयाए असंखेज्जगुणा 8, परमाणुपोग्गला निरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा &, संखेज्जपएसिया खंधा निरेया दबट्टयाए संखेन्जगुणा 10, असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 11 // पदेसट्टयाए - सव्वत्थोवा अणंतपदेसिया। एवं पएसट्टयाए वि, नवरं परमाणुपोग्गला अपएसट्टयाए भाणियव्वा / संखिज्जपएसिया खंधा निरेया पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा सेसं तं चेव। दन्यट्ठपएसट्टयाए-सब्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा सम्वेया दवट्ठयाए 1, ते चेव पएसट्टयाए अणंतगुणा 2, प्रणंतपएसिया खंधा निरेया दम्वट्ठयाए अणंतगुणा 3, ते चेव पएसट्ठयाए प्रणंतगुणा 4, अणंतपएसिया खंधा देसेया दम्वट्टयाए अणंतगुणा 5, ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा 6, असंखेज्जपएसिया खंधा सम्बया दवट्ठयाए अणंतगुणा 7, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा 8, संखेज्जपएसिया खंधा सम्वेया दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 6, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा 10, परमाणुपोग्गला सब्वेया दध्वटुअपएसट्टयाए असंखेज्जगुणा 11, संखेज्जपएसिया खंधा देसेया दब्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा 12, ते चैव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा 13, असंखेज्जपएसिया खंधा देसेया दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा 14, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा 15, परमाणुपोग्गला निरेया दवट्ठअपएसट्टयाए असंखेज्जगुणा 16, संखेज्जपएसिया खंधा निरेया दवट्ठयाए संखेज्जगुणा 17, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा 18, असंखेज्जपएसिया खंधा निरेया दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा 16, ते चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगणा 20 / Page #2571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसका शतक : उद्देशक 4j [245 प्र.] भगवन् ! इन देशकम्पक, सर्वकम्पक और निष्कम्पक परमाणु-पुद्गलों, संख्यातप्रदेशी, असंख्यात-प्रदेशी और अनन्त-प्रदेशी स्कन्धों में, द्रव्यार्थ से, प्रदेशार्थ तथा द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ से कौन किससे यावत् विशेषाधिक हैं ? 245 उ.] गौतम ! (1) सर्वकम्पक अनन्त-पदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सबसे थोड़े हैं, (2) उनसे निष्कम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं, (3) उनसे देशकम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुण हैं, (4) उनसे सर्वकम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं / (5) उनसे सर्वकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगणे हैं, (6) उनसे सर्वकम्पक परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं, (7) देशकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगणे हैं। (8) उनसे देशकम्पक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं / (6) उनसे निष्कम्पक परमाणु-पुद्गल द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (10) उनसे निष्कम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यातगुणे हैं और (11) उनसे निष्कम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशार्थरूप से सबसे थोड़े (सर्वकम्पक) अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध हैं। इस प्रकार प्रदेशार्थ से भी (पूर्ववत्) अल्पबहुत्व जानना चाहिए / विशेष यह है कि परमाणु-पुद्गल के लिए 'प्रप्रदेशार्थ' कहना चाहिये तथा निष्कम्प संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध, प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण है, यह कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत्। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थरूप से--(१) सर्वकम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से सबसे थोड़े हैं। (2) उनसे सर्वकम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्तगुणे हैं। (3) उनसे निष्कम्पक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं। (4) उनसे निष्कम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्तगुणे हैं। (5) उनसे देशकम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से अनन्तगुणे हैं। (6) उनसे देशकम्पक अनन्त-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से अनन्तगुणे हैं, (7) उनसे सर्वकम्पक असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (8) उनसे सर्वकम्पक असंख्यात-प्रदेशो स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (9) उनसे सर्वकम्पक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं / (10) उनसे सर्वकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण हैं / (11) उनसे देशकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (12) उनसे देशकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (13) उनसे देशकम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुणे हैं। (14) उनसे देशकम्पक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं / (15) उनसे देशकम्पक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यातगुण हैं / (16) उनसे निष्कम्पक परमाणुपुद्गल द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थ रूप से असंख्यात गुणे हैं। (17) उनसे निष्कम्पक संख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से संख्यातगुणे हैं। (18) उनसे निष्कम्पक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से संख्यातगुणे हैं। (16) उनसे निष्कम्पक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध द्रव्यार्थ से असंख्यातगुणे हैं और (20) उनसे निष्कम्पक असंख्यात-प्रदेशी स्कन्ध प्रदेशार्थ से असंख्यात-गुणे हैं। विवेचन-परमाणु-पुद्गल आदि सभी के अल्पबहुत्व अधिकार में द्रव्यार्थ की विचारणा में परमाणु-पद्गल के साथ सर्वकम्पक और निष्कम्पक ये दो विशेषण लगाए गए हैं, जबकि संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी इन तीन स्कन्धों के साथ देशकम्पक, सर्वकम्पक और Page #2572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र निष्कम्पक, ये तीन विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं / इस प्रकार ये 11 पद होते हैं। प्रदेशार्थविषयक विचारणा में भी ये ही 11 पद होते हैं। किन्तु द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ उभय की विचारणा में बाईस पद न बताकर बीस ही पद बताए गए हैं। इसका कारण यह है कि सकम्प और निष्कम्प परमाणुओं के द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ, इन दो पक्षों के बदले द्रव्यार्थ-अप्रदेशार्थ, यह एक ही पद बनता है। इस प्रकार द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ इस उभयपक्ष के बीस ही पद घटित होते हैं / ' धर्मास्तिकायादि के मध्यप्रदेशों की संख्या का निरूपण 246. कति णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स मज्भपएसा पन्नत्ता? गोयमा ! अट्ठ धम्मस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता। [246 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे हैं ? / 246 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश पाठ कहे हैं। 247. कति णं भंते ! अधम्मस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नता ? एवं चेव / [247 प्र. भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे हैं ? [247 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) आठ कहे हैं। 248. कति णं भंते ! आगासस्थिकायस्स मज्भपएसा पन्नत्ता? एवं चेव। [248 प्र. भगवन् ! आकाशास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे हैं ? [248 उ.] गौतम ! पूर्ववत् पाठ कहे हैं। 246. कति णं भंते ! जीवस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता ? . गोयमा ! अट्ठ जीवस्थिकायस्स मज्झपएसा पन्नत्ता। | 246 प्र. भगवन् ! जीवास्तिकाय के मध्य-प्रदेश कितने कहे हैं ? [246 उ. गौतम ! जीवास्तिकाय के मध्य-प्रदेश पाठ कहे हैं। विवेचन-मध्य-प्रदेश आठ ही क्यों और कहाँ-कहाँ--चूर्णिकार के मतानुसार धर्मास्तिकाय के पाठ मध्य (बीच के) प्रदेश पाठ रुचक-प्रदेशवर्ती होते हैं / यद्यपि धर्मातिकाय आदि तीनों लोकप्रमाण होने से उनका मध्य-भाग रुचक-प्रदेशों से असंख्यात-योजन दूर रत्नप्रभा-पृथ्वी के अवकाशान्तर में अवस्थित है, ठीक रुचकवर्ती नहीं है, तथापि रुचकप्रदेश दिशाओं और विदिशाओं के उत्पत्ति स्थान होने से उनकी धर्मास्तिकाय प्रादि के मध्यरूप से विवक्षा हो, ऐसा सम्भव है। प्रत्येक जीव के आठ रुचक-प्रदेश होते हैं / वे उस जीव के शरीर की सर्व-अवगाहना के ठीक मध्यवर्ती भाग में होते हैं / इसलिए उन्हें मध्यप्रदेश कहते हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 887 2, भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 287 Page #2573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 4] जीवास्तिकाय-मध्यप्रदेश तथा प्राकाशास्तिकायप्रदेशों की अवगाहना को प्ररूपणा __ 250. एए णं भंते ! अट्ट जीवत्थिकायस्स मज्भपएसा कतिसु आगासपएसेसु प्रोगार्हति ? / गोयमा ! जहन्नेणं एक्कसि या दोहि वा तोहि वा चहि वा पंचर्चाह वा छहि वा, उक्कोसेणं अट्ठसु, नो चेव णं सत्तसु। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // पंचवीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो // 25-4 / / [250 प्र. भगवन् ! जीवास्तिकाय के ये आठ मध्य-प्रदेश कितने आकाशप्रदेशों को अवगाहित कर (..."में समा) सकते हैं ? 250 उ. गौतम ! वे जघन्य एक, दो, तीन, चार, पांच या छह तथा उत्कृष्ट पाठ आकाशप्रदेशों में अवगाहित हो (समा) सकते हैं, किन्तु सात प्रदेशों में नहीं समाते / ____ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-मध्यप्रदेशों का अवगाहन-जीव (आत्म-) प्रदेशों का धर्म संकोच और विकास (विस्तार) होने से उनके पाठ मध्य-प्रदेश एक आकाशप्रदेश से लेकर अाठ आकाशप्रदेशों में रह (समा) सकते हैं, किन्तु सात आकाशप्रदेशों में नहीं रहते (समाते); क्योंकि वस्तुस्वभाव ही कुछ ऐसा है।' // पच्चीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण // LOD 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 887 Page #2574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : 'पज्जव' पंचम उद्देशक : 'पर्यव' (आदि) पर्यव-भेद एवं उसके विशिष्ट पहलुओं के विषय में पर्यवपद : अतिदेश 1. कतिविहाणं भंते ! पज्जवा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पन्नत्ता, तं जहा-जीवपज्जवा य अजीचपज्जवा य / पज्जवपयं निरवसेसं भाणितत्वं जहा पण्णवणाए। [ 1 प्र.] भगवन् ! पर्यव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! पर्यव दो प्रकार के कहे हैं। यथा--जीवपर्यव और अजीवपर्यव / यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का पांचवां पर्यव पद कहना चाहिए। विवेचन-पर्यव के एकार्थक शब्द-पर्यव, गुण, धर्म, विशेष, पर्यय और पर्याय, ये सब पर्यव शब्द के पर्यायवाची (समानार्थक) शब्द हैं। जीवपर्यव और अजीवपर्यव के लिये प्रज्ञापनासूत्र के पांचवें पद का यहाँ अतिदेश किया गया है / जीव के अनन्त पर्यव होते हैं और अजीब के भी सब मिलाकर अनन्त पर्यव होते हैं।' आवलिका से लेकर सर्वकालपर्यन्त कालभेदों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा समयसंख्या प्ररूपणा 2. आवलिया णं भंते ! कि संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, अणंता समया ? गोयमा ! नो संखज्जा समया, असंखेज्जा समया, नो अर्णता समया। [2 प्र.] भगवन् ! क्या प्रावलिका संख्यात समय की, असंख्यात समय की या अनन्त समय की होती है ? [2 उ.] गौतम ! वह न तो संख्यात समय की होती है और न अनन्त समय की होती है, किन्तु असंख्यात समय की होती है। 3. आणापाणू णं भंते ! कि संखेज्जा ? एवं चेव / [3 प्र.] भगवन् ! आनप्राण (श्वासोच्छ्वास) संख्यात समय का होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (असंख्यात समय का) होता है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 889 Page #2575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 5] 4. थोवे णं भंते ! कि संखेज्जा ? एवं चेव / |4 प्र. भगवन् ! स्तोक संख्यात समय का होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [4 उ ] गौतम ! पूर्ववत् (असंख्यात समय का) जानना चाहिए / 5. एवं लवे वि, मुहत्ते वि / एवं अहोरत्ते / एवं पक्खे मासे उडू अयणे संवच्छरे जुगे वाससते वाससहस्से वाससयसहस्से पुन्वंगे पुवे, तुडियंगे तुडिए, अडडंगे अडडे, अववंगे अववे, हूहुयंगे हूहुए, उप्पलंगे उप्पले, पउमंगे पउमे, नलिणंगे नलिणे, अत्थनिऊरंगे अथानिऊरे, अउयंगे अउये, नउयंगे नउए, पउयंगे पउए, चूलियंगे, चूलिए, सीसपहेलियंगे, सोसपहेलिया, पलिप्रोवमे, सागरोवमे, प्रोसप्पिणी एवं उस्सप्पिणी वि। [5] इसी प्रकार लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत (सौ वर्ष), वर्षसहस्र (हजार वर्ष), वर्ष शत-सहस्र (लाख वर्ष), पूर्वाग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, अटट, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षनिपूरांग, अक्षनिपूर, अयुतांग, अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसपिणी और उत्सपिणी, इन सबके भी (पूर्वोक्त कथनानुसार) जानने चाहिए / अर्थात् इनमें से प्रत्येक के असंख्यात समय होते हैं / 6. पोग्गलपरियट्टे णं भंते ! कि संखेज्जा समया असंखेज्जा समया० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जा समया, नो असंखेज्जा समया, अणंता समया। [6 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तन संख्यात समय का होता है, असंख्यात समय का या अनन्त समय का होता है ? 6 उ.] गौतम ! वह संख्यात समय का या असंख्यात समय का नहीं होता, किन्तु अनन्त समय का होता है। 7. एवं तीतद्ध-प्रणागयद्ध-सव्वद्धा। [7] इसी प्रकार भूतकाल, भविष्यत्काल तथा सर्वकाल भी समझना चाहिए / 8. आवलियाओ णं भंते ! कि संखेज्जा समया० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जा समया, सिय असंखेज्जा समया, सिय अणंता समया। [8 प्र. भगवन् ! क्या (बहुत) पावलिकाएँ संख्यात समय की होती हैं ? इत्यादि प्रश्न / 18 उ.] गौतम ! वह संख्यात समय की नहीं होती, किन्तु कदाचित् असंख्यात समय की और कदाचित् अनन्त समय की होती हैं। 6. आणापाणू णं भंते ! कि संखेज्जा समया०? एवं चेव। Page #2576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [6 प्र.] भगवन् ! क्या (अनेक) पानप्राण (श्वासोच्छ्वास) संख्यात समय के होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए / 10. थोवा णं भंते ! कि संखेज्जा समया० ? एवं चेव / [10 प्र.] भगवन् ! (अनेक) स्तोक संख्यात समयरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [10 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना / 11. एवं जाय उस्सप्पिणीयो ति। [11] इसी प्रकार (लव से लेकर) यावत् अवसर्पिणीकाल तक समझना चाहिए। 12. पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संखेज्जा समया० पुच्छा। गोयमा ! नो खंखेज्जा समया, नो प्रसंखेज्जा समया, अणंता समया। [12 प्र.] भगवन् ! क्या पुद्गल-परिवर्तन संख्यातसमय के होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! वह संख्यात समय के या असंख्यात समय के नहीं होते, किन्तु अनन्त समय के होते हैं। विवेचन--कालमान-प्ररूपणा समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक 46 भेद हैं। यहाँ तक का काल-परिमाण गणना के योग्य है। शीर्षप्रहेलिका में 164 अंकों की संख्या पाती है / कालपरिमाण तो इसके आगे भी बताया गया है, परन्तु वह उपमेयकाल है, गणनीय काल नहीं। समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक की संख्या का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। इसी प्रकार पल्योपम, सागरोपम आदि उपमाकाल का अर्थ भी पहले अंकित किया जा चुका है।। प्रावलिका से पुदगलपरिवर्तन तक का समयगत कालमान- प्रावलिका से उत्सपिणी तक का कालमान संख्यात और अनन्त समय का नहीं अपितु असंख्यात समय का है। किन्तु पुद्गलपरिवर्तन या भूत, भविष्य या सर्वकाल का मान अनन्त समय का बताया गया है / प्रावलिकाएँ, आनप्राण, स्तोक से लेकर अवसर्पिणियों (बहुवचन) तक कदाचित् असंख्यात समय की और कदाचित् अनन्त समय की हैं / परन्तु पुद्गलपरिवर्तन (बहुवचन) अनन्त समय के हैं। ___ इसमें दूसरे से लेकर सातवें सूत्र तक एकवचनपरक सूत्र हैं और पाठवें से बारहवें सूत्र तक बहुवचनपरक सूत्र हैं।' प्रानप्राणादि कालों में एकत्व-बहुत्व को अपेक्षा से प्रावलिका : संख्या-प्ररूपणा 13. आणापाण णं भंते ! कि संखेज्जायो प्रावलियाओ० पुच्छा। गोयमा ! संखेज्जाओ प्रावलियानो, नो असंखेज्जाओ आवलियाओ, नो प्रणंतानो मावलियाओ। 1. भगवती (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3341 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा 2. पृ. 1012-13 Page #2577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 5] {13 प्र. भगवन् ! आनप्राण क्या संख्यात प्रावलिकारूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [13 उ.] गौतम ! (मानप्राण) संख्यात पावलिकारूप हैं, किन्तु असंख्यात पावलिकारूप या अनन्त प्रावलिकारूप नहीं हैं। 14. एवं थोबे वि। [14] इसी प्रकार स्तोक के सम्बन्ध में जानना / 15. एवं जाव सोसपहेलिय ति। 15. यावत्---शीर्षप्रहेलिका तक भी इसी प्रकार जानना चाहिए / 16. पलिओवमे णं भंते !कि संखेज्जामो० पुच्छा। गोयमा! नो संखेज्जानो आवलियानो, असंखेज्जानो प्रावलियाओ, नो अणंतानो प्रावलियानो। 16 प्र.] भगवन् ! पल्योपम संख्यात पावलिकारूप है ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] गौतम ! वह संख्यात पावलिकारूप अथवा अनन्त प्रावलिकारूप नहीं है, किन्तु असंख्यात अावलिकारूप है। 17. एवं सागरोवमे वि। [17] इसी प्रकार सागरोपम के सम्बन्ध में जानना / 15. एवं प्रोसप्पिणीए वि, उस्सप्पिणीए वि। [18] इसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / 19. पोग्गलपरियट्टे पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जापो. आवलियाओ, नो प्रसंखेज्जाओ प्रावलियानो, प्रणतायो प्रावलियाप्रो। [16 प्र. (भगवन् ! ) पुद्गलपरिवर्तन संख्यात पावलिकारूप है ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] गौतम ! वह न तो संख्यात पावलिकारूप है और न असंख्यात पावलिकारूप है, किन्तु अनन्त पावलिकारूप है / 20. एवं जाव सम्वद्धा। [20] इसी प्रकार यावत् सर्वकाल (सर्वाद्धा) तक जानना चाहिए / 21. प्राणापाणू [ ? प्रो] णं भंते ! कि संखेज्जायो प्रावलियानो० पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जाम्रो प्रावलियानो, सिय असंखेज्जाओ, सिय अणंताओ। [21 प्र.] भगवन् ! क्या (बहुत) आनप्राण संख्यात प्रावलिकारूप हैं ? इत्यादि प्रश्न ! [21 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात प्रावलिकारूप हैं, कदाचित् असंख्यात प्रावलिकारूप हैं और कदाचित् अनन्त प्रावलिकारूप हैं। / ' Page #2578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 22. एवं जाव सोसपहेलियाओ। [22] इस प्रकार यावत् शीर्षप्रहेलिका तक जानना / 23. पलिप्रोवमा गं० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जायो आवलियानो, सिय असंखेज्जानो प्रावलियानो, सिय प्रणतायो आवलियारो। [23 प्र.] भगवन् ! क्या पल्योपम संख्यात पावलिकारूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] गौतम ! वे संख्यात प्रावलिकारूप नहीं हैं, किन्तु कदाचित् असंख्यात प्रावलिकारूप हैं और कदाचित् अनन्त प्रावलिकारूप हैं। 24. एवं जाव उस्सप्पिणीयो। [24] इस प्रकार यावत् उत्सर्पिणी पर्यन्त समझना चाहिए / 25. पोग्गलपरियडाणं० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जानो आवलियानो, नो असंखेज्जास्रो प्रावलियाओ, अणंतानो प्रावलियानो। [25 प्र.] भगवन् ! क्या पुद्गलपरिवर्तन संख्यात प्रालिकारूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [25 उ.] गौतम ! वे न तो संख्यात प्रावलिकारूप हैं और न ही असंख्यात ग्रावलिकारूप हैं, किन्तु अनन्त प्रावलिकारूप हैं। विवेचन-पानप्राण से लेकर पुद्गलपरिवर्तन तक आवलिकागत कालमान----पानप्राण से शीर्षप्रहेलिका तक कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त श्रावलिकरूप हैं। पल्योपम से लेकर उत्सपिणी तक संख्यात पावलिकरूप नहीं, किन्तु कदाचित असंख्यात पावलिकारूप और कदाचित् अनन्त श्रावलिकारूप हैं तथा पुद्गलपरिवर्तन संख्यात-असंख्यात आवलिकारूप नहीं, किन्तु अनन्त प्रावलिकारूप हैं / यह काल संख्या बहुत्व की अपेक्षा से है।' स्तोकादि कालों में एकत्व-बहुत्वदृष्टि से पानप्राणादि से शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त संख्यानिरूपण 26. थोवे णं भंते ! कि संखेज्जानो० प्राणापाणूओ, असंखेज्जायो ? जहा प्रावलियाए वत्तव्वया एवं प्राणापाणूनो वि निरवसेसा। [26 प्र.] भगवन् ! स्तोक क्या संख्यात अानप्राणरूप हैं या असंख्यात अानप्राणरूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [26 उ.] जिस प्रकार आवलिका के सम्बन्ध में वक्तव्यता है, उसी प्रकार प्रानप्राण से सम्बन्धित समग्र वक्तव्यता कहती चाहिए / 27. एवं एएणं गमएणं जाव सोसपहेलिया भाणियन्वा / [27] इस प्रकार पूर्वोक्त (इस) गम (पाठ) के अनुसार यावत् शीर्षप्रहेलिका तक कहना चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं [मूलपाठ-टिप्पणयुक्त] पृ 1013-1014 Page #2579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसयां शतक : उद्देशक 5 विवेचन-पानप्राणरूप कालमान से लेकर शीर्षप्रहेलिकारूप कालमान तक-प्रस्तुत दो सूत्रो में आवलिकारूप कालमान के अतिदेशपूर्वक स्तोक प्रादि का आनप्राण से शीर्षप्रहेलिका तक के कालमान की प्ररूपणा की गई है / सागरोपमादि कालों में एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से पल्योपम-संख्या निरूपण 28. सागरोवमे णं भंते ! कि संखेज्जा पलिग्रोवमा० पुच्छा। गोयमा ! संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा पलिनोवमा, नो अणंता पलिओवमा। [28 प्र.] भगवन् ! सागरोपम क्या संख्यात पल्योपमरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [28 उ.] गौतम ! वह संख्यात पल्योपमरूप है, किन्तु असंख्यात पल्योपमरूप या अनन्त पल्योपमरूप नहीं है। 26. एवं प्रोसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि। |26] इसी प्रकार अवपिणी और उत्सपिणी के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / 30. पोग्गलपरियट्टे णं० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जा पलिग्रोवमा, नो असंखेज्जा पलिओवमा, अणंता पलिओवमा। [30 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तन क्या संख्यात पल्योपमरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [30 उ.] गौतम ! वह संख्यात पल्योपमरूप नहीं है और न असंख्यात पल्योपमरूप है, किन्तु अनन्त पत्योपमरूप है। 31. एवं जाव सव्वद्धा। |31] इसी प्रकार यावत् सर्वकाल (सर्वाद्धा) तक जानना / 32. सागरोवमा णं भंते ! कि संखेज्जा पलिओवमा० पुच्छा। गोयमा ! सिय संखेज्जा पलिश्रोवमा, सिय असंखेज्जा पलिनोवमा, सिय अणंता पलिप्रोवमा। [32 प्र.] भगवन् ! सागरोपम क्या संख्यात पल्योपमरूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [32 उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात पल्योपमरूप हैं, कदाचित् असंख्यात पल्योपमरूप हैं और कदाचित् अनन्त पल्योपमरूप हैं / / 33. एवं जाव प्रोसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि। [33] इसी प्रकार यावत् अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल (तक) के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। 34. पोग्गलपरियट्टा पं० पुच्छा। गोयमा! नो संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा पलिनोवमा, अणंता पलिग्रोवमा। [34 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तन क्या संख्यात पल्योपमरूप होते है ? इत्यादि प्रश्न / Page #2580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 34 उ.] गौतम ! वे संख्यात पल्योपमरूप अथवा असंख्यात पल्योपमरूप नहीं है किन्तु अनन्त पल्योपमरूप हैं। विवेचन-सागरोपम से सर्वकाल तक एकत्व-बहत्व की अपेक्षा से पल्योपमरूप कालमानएकवचन की दृष्टि से सागरोपम से उत्सर्पिणीकाल तक संख्यात पल्योपमरूप है। पुद्गलपरिवर्तन से सर्वाद्धा (सर्वकाल) तक अनन्त पल्योपमरूप है। बहुवचन की दृष्टि से सागरोपम से लेकर उत्सपिणी तक कदाचित् संख्यात, असंख्यात या अनन्त पल्योपम रूप हैं, किन्तु पुद्गलपरिवर्तन अनन्तपल्योपम रूप हैं। उत्सपिरणी आदि कालों में एकत्व-बहुत्व को अपेक्षा से सागरोपम-संख्या-प्ररूपरगा 35. ओसप्पिणो णं भंते ! कि संखेज्जा सागरोवमा० ? जहा पलिग्रोवमस्स बत्तव्वया तहा सागरोवमस्स वि। [35 प्र.) भगवन् ! अवसर्पिणी क्या संख्यात सागरोपम रूप है ? इत्यादि प्रश्न / [35 उ.] गौतम ! जैसे पल्योपम की वक्तव्यता कही थी, वैसे सागरोपम की वक्तव्यता कहनी चाहिए। पुदगलपरिवर्तनादि कालों में एकत्व-बहुत्व दृष्टि से अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की संख्या की प्ररूपणा 36. पोग्गलपरियट्टे णं भंते ! कि संखेज्जाम्रो प्रोसप्पिणि-उस्सप्पिणीयो० पुच्छा। ___गोयमा ! नो संखेज्जानो ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीग्रो, नो असंखिज्जानो, अणंतानो प्रोसप्पिणिउस्सप्पिणीओ। [36 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तन क्या संख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [36 उ.] गौतम ! वह न तो संख्यात अवपिणी-उत्सपिणीरूप है और न ही असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप है, किन्तु अनन्त अवसर्पिणी-उर्पिणीरूप है / 37. एवं जाव सव्वदा। [37] इसी प्रकार यावत् सर्वाता (सर्वकाल) तक जानना चाहिए / 38. पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संखेज्जाओ प्रोसप्पिणि-उस्सपिणीयो० पुच्छा। गोयमा! नो संखेज्जाओ ओसपिणि-उस्सप्पिणीओ, नो असंखेज्जायो, अणंतानो ओसप्पिणिउस्स प्पिणीयो। [38 प्र.] भगवन् ! पुद्गलपरिवर्तन क्या संख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप हैं ? इत्यादि प्रश्न / [38 उ.] गौतम ! वे संख्यात या असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणीरूप नहीं हैं किन्तु अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप हैं। Page #2581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 5] [383 विवेचन--पुद्गलपरिवर्तन से सर्वाद्धा तक एकत्व-बहुत्वदष्टि से अवपिणी-उत्सपिणीरूप कालमान-पुद्गलपरिवर्तन आदि एक हों या अनेक, वे अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीरूप हैं। भूत-भविष्यत् तथा सर्वकाल में पुद्गलपरिवर्तन की अनन्तता 36. तीतद्धा णं भंते ! कि संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा० पुच्छा। गोयमा! नो संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, नो प्रसंखेज्जा, अणंता पोग्गलपरियट्टा / [36 प्र.] भगवन् ! अतीताद्धा (भूतकाल) क्या संख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [39 उ. | गौतम ! न तो वह संख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप है और न असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनरूप है, किन्तु अनन्त पुद्गलपरिवर्तनरूप है / 40. एवं प्रणागतद्धा वि / [40] इसी प्रकार अनागताद्धा (भविष्यकाल) के सम्बन्ध में जानना चाहिए। 41. एवं सम्बद्धा वि। [41] इसी प्रकार सर्वाद्धा (सर्वकाल) के विषय में जानना / विवेचन-निष्कर्ष-भूतकाल, भविष्यत्काल और सर्वकाल तीनों अनन्त पुद्गलपरिवर्तनरूप हैं। अनागतकाल की अतीतकाल से समयाधिकता 42. अणागतद्धा णं भंते ! कि संखेज्जायो तीतद्धाओ, असंखेज्जाओ, अणतायो ? गोयमा ! नो संखेज्जानो तीतद्धानो, नो असंखेज्जाओ तीतद्धानो, नो अणंतानो तीतद्धाओ, मणागयडर णं तीतद्धाश्रो समयाहिया; तीतद्धा णं प्रणागयद्धामो समयूणा। [42 प्र.] भगवन् ! अनागतकाल क्या संख्यात अतीतकालरूप है अथवा असंख्यात या अनन्त अतीतकालरूप है ? [42 उ.) गौतम ! वह न तो संख्यात प्रतीतकालरूप है, न असंख्यात और अनन्त प्रतीतकालरूप है, किन्तु अतीताद्धाकाल से अनागताद्धाकाल एक समय अधिक है और अनागताद्धाकाल से अतीताद्धाकाल एक समय न्यून है / विवेचन--अनागतकाल का भूतकालरूप कालमान–प्रस्तुत सूत्र (42) में बताया गया है कि अनागतकाल संख्यात-असंख्यात-अनन्त अतीतकालरूप नहीं है. किन्त वह अतीतकाल से एक अधिक है / अर्थात् भूतकाल से भविष्यत्काल एक समय अधिक है, क्योंकि भूतकाल और भविष्यकाल दोनों अनादित्व और अनन्तत्व की दृष्टि से समान हैं। इसके बीच में श्री गौतमस्वामी के प्रश्न का समय है / वह अविनष्ट होने से भूतकाल में समाविष्ट नहीं किया जा सकता; किन्तु अविनष्ट्र धर्म की Page #2582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र साधर्म्यता से उसका समावेश भविष्यकाल में होता है। इसलिए भविष्यत्काल, भूतकाल से एक समय अधिक है और भूतकाल, भविष्यकाल से एक समय न्यून है / ' सर्वाद्धी का प्रतीत तथा अनागतकाल के समय से न्यूनाधिकता 43. सव्वद्धा गं भंते ! कि संखेज्जायो तीतद्धामो० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जायो तीतद्धाओ, नो असंखेज्जायो, णो अणंतानो तीतद्धानो, सम्वद्धा णं तीयद्धाओ सातिरेगदुगुणा, तीतद्धा णं सव्वद्वानो थोवूणए अद्ध / [43 प्र.] भगवन् ! सर्वाद्धा (सर्वकाल) क्या संख्यात अतीताद्धाकालरूप है ? इत्यादि प्रश्न / [43 उ.] गौतम ! वह संख्यात-असंख्यात-अनन्त अतीताद्धाकालरूप नहीं है, किन्तु अतीताद्धाकाल से सर्वाद्धा (सर्वकाल) कुछ अधिक द्विगुण है और प्रतीताद्धाकाल, सर्वाता से कुछ कम अर्द्धभाग है। 44. सन्वद्धा णं भंते ! कि संखेज्जायो प्रणागयद्धानो० पुच्छा। गोयमा ! नो संखेज्जाम्रो अणागयतामो, नो असंखेज्जाओ अणागयद्धाओ, नो अणंतामो अणागयद्धाश्रो, सम्वद्धा गं प्रणागयद्धानो थोवणगदुगुणा, अणागयद्धा णं सम्वद्धातो सातिरेगे अद्धे / [44 प्र. भगवन् ! सर्वाद्धा (सर्वकाल)क्या संख्यात अनागताद्धाकालरूप है ? इत्यादि प्रश्न / |44 उ.] गौतम ! वह संख्यात-असंख्यात-अनन्त अनागताद्धाकालरूप नहीं, किन्तु सर्वाद्धा, अनागत-अद्वाकाल से कुछ कम दुगुना है और अनागताहाकाल सद्धिा से सातिरेक (कुछ अधिक) अर्द्धभाग है। विवेचन–सर्वकाल से अतीत और अनागतकाल की न्यूनाधिकता का परिमाण-सर्वाद्धा अर्थात् सर्वकाल, भूतकाल से वर्तमान (एक) समय अधिक दुगुना है और भूतकाल, सद्धिाकाल से एक समय कम अर्धभागरूप है। इसी प्रकार सर्वाद्धाकाल अनागतकाल से कुछ कम दुगुना है और अनागतकाल सर्वाद्धाकाल से सातिरेक अर्द्धभागरूप है।' शंका-समाधान-इस सम्बन्ध में कोई प्राचार्य कहते हैं भूतकाल से भविष्यत्काल अनन्तगुणा है / जैसा कि कहा है तेऽणता तोश्रद्धा, अणागयद्धा प्रणतगुणा।" ___अर्थात्-प्रतीताद्धा (भूतकाल) अनन्त पुद्गलपरावर्तनरूप है। उससे अनन्तगुणा अनागताद्धा (भविष्यत्काल) है। शंका ---यदि वर्तमान समय में भूतकाल और भविष्यत्काल दोनों समान हों तो वर्तमान समय व्यतीत हो जाने पर भविष्यत्काल एक समय कम हो जाएगा तथा इसके बाद दो, तीन, चार इत्यादि 1. (क) विवाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 1015 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 881 2. बियाहपष्णत्तित्तं भाग 2, पृ. 1716 Page #2583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 5] [385 समय कम हो जाने पर भूतकाल और भविष्यत्काल की समानता नहीं रहेगी। इसलिए ये दोनों काल समान नहीं हैं, परन्तु भूतकाल से भविष्यत्काल अनन्तगुणा है, क्योंकि अनन्तकाल व्यतीत हो जाने पर भी उसका क्षय नहीं होता / ऐसी स्थिति में शंका होती है कि अतीत और अनागत, दोनों की समानता पूर्वोक्त कथनानुसार कहाँ रही ? समाधान-इसका समाधान यह है कि अतीत और अनागतकाल की जो समानता बताई जाती है, वह अनादित्व और अनन्तत्व की अपेक्षा से है / इसका अर्थ यह हुआ कि जिस प्रकार अतीतकाल की आदि नहीं है, वह अनादि है, इसी प्रकार भविष्यत्काल का भी अन्त नहीं है, वह भी अनन्त है। अत: अनादित्व और अनन्तत्व की अपेक्षा अतीतकाल और अनागतकाल की समानता विवक्षित है।' निगोद के भेद-प्रभेदों का निरूपण 45. कतिविधा णं भंते ! जिओदा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा णिोदा पन्नत्ता, तं जहा-णिओया य णिओयजीवा य / [45 प्र.] भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [45 उ.] गौतम ! निगोद दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-निगोद और निगोदजीव / 46. णियोदा णं भंते ! कतिविधा पन्नत्ता ? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुहुमनिगोदा य, बायरनियोया य। एवं नियोया भाणियन्वा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं / [46 प्र.] भगवन् ! ये निगोद कितने प्रकार के कहे हैं ? [46 उ. | गौतम ! ये दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-सूक्ष्म निगोद और बादरनिगोद / इस प्रकार निगोद के विषय में समग्र वक्तव्यता जीवाभिगमसूत्र के अनुसार कहनी चाहिए। विवेचन-निगोद : स्वरूप और प्रकार-अनन्तकायिक जीवों के शरीर को 'निगोद' और अनन्तकायिक जीवों को 'निमोद के जीव' कहते हैं। निगोद दो प्रकार के होते हैं—सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद। जिनके असंख्य शरीर एकत्रित होने पर चर्मचक्षुओं से दिखाई दे सकें, वे बादरनिगोद कहलाते हैं और कितने ही शरीर इकट्ठ होने पर भी जो चर्मचारों से दिखाई न दें, उन्हें सूक्ष्मनिगोद कहते हैं / निगोदजीव साधारणनामकर्म-उदयवर्ती कहलाते हैं। जीवाभिगम के अतिदेश से सूचित किया गया है कि सूक्ष्मनिगोद दो प्रकार के कहे हैं / यथा--पर्याप्तक और अपर्याप्तक इत्यादि / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 889 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 7, पृ. 3341 (ग) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् खण्ड 4 (पं. भगवानदासजी कृत गुजराती अनुवाद), पृ. 238 / 2. (क) भगवती (हिन्दीविवेचन) भाग 7, पृ. 3342 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (चतुर्थ खण्ड) गुजराती अनुवाद, पृ. 239 (ग) भगवती प्र. वृत्ति, पत्र 890 (प्र.) सुहुम निगोदा णं भंते ! कतिविहा पण्णता? (उ.) गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं--पज्जत्तगा य अपज्जतगा य इत्यादि। (घ) जीवाभिगमसूत्र, प्रतिपत्ति 5, उ. 2, सू. 238-39, पत्र 423/2 Page #2584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र औदयिकादि छह भावों का अतिदेशपूर्वक प्ररूपण . . 47. कतिविधे णं भंते ! णामे पन्नत्ते ? गोयमा ! छविहे नामे पन्नत्ते, तं जहा–उदइए जाव सन्निवातिए / [47 प्र.] भगवन् ! नाम (भाव) कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [47 उ.) गौतम ! नाम छह प्रकार के कहे गए हैं। यथा---प्रौदयिक (से लेकर) यावत् सानिपातिक। 48. से कि तं उदइए नामे ? उदइए गामे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-उदए य, उदयनिष्फन्ने य। एवं जहा सत्तरसमसते पढमे उद्देसए (स० 17 उ०१ सु० 26) भावो तहेव इह वि, नवरं इमं नामनाणतं / सेसं तहेव जाव सन्निवातिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिक / // पंचवीसहमे सए : पंचमो उद्देसनो समत्तो // 25-5 // [48 प्र.] भगवन् ! वह औदयिक नाम (भाव) किस (कितने) प्रकार का है ? [48 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा है / यथा----उदय और उदयनिष्पन्न / सत्रहवें शतक के प्रथम उद्देशक (सू. 26) में जैसे भाव के सम्बन्ध में कहा है, वैसे ही यहाँ कहना / विशेष यही है कि वहाँ 'भाव' के सम्बन्ध में कहा है, जबकि यहाँ 'नाम' के विषय में है / शेष सब यावत् सानिपातिक-पर्यन्त उसी प्रकार कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरते हैं। विवेचन-औदयिकादि छह भावों को अतिदेशपूर्वक प्ररूपणा--नमन, नाम, परिणाम, भाव आदि शब्द एकार्थक (पर्यायवाची) हैं। भाव 6 हैं--(१) प्रौदयिक, (2) प्रौपशमिक, (3) क्षायोपशमिक, (5) पारिणामिक और (6) सान्निपातिक / वहाँ भाव, यहाँ नाम-भगवतीसूत्र के ही १७वें शतक, प्रथम उद्देशक के २६वें सूत्र में औदयिक प्रादि का 'भाव' शब्द से वर्णन है, जबकि यहाँ 'नाम' शब्द के रूप में। वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है।' // पच्चीसवाँ शतक : पंचम उद्देशक // 1. (क) भगवती. शतक 17, उ. 1, सू. 29, पृ. 32 (गुजराती अनुवाद) (ख) भगवती. अ. वति, पत्र 890 Page #2585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : नियंठ छठा उद्देशक : निर्ग्रन्थों के छत्तीस द्वार छठे उद्देशक को छत्तीस द्वार-निरूपक गाथाएँ 1. पण्णवण 1 वेद 2 रागे 3 कप 4 चरित्त 5 पडिसेवणा 6 णाणे 7 // तित्थे 8 लिग 6 सरीरे 10 खत्ते 11 काल 12 गति 13 संजम 14 निकासे 15 // 1 // जोगुवोग 16-17 कसाए 18 लेस्सा 16 परिणाम 20 बंध 21 वेए य 22 / कम्मोदीरण 23 उपसंपजहण 24 सन्ना य 25 प्राहारे 26 // 2 // भव 27 प्रागरिसे 28 कालंतरे य 26-30 समुघाय 31 खत्त 32 फुसणा य 33 / भावे 34 परिमाणे 35 खलु अप्पाबहुयं 36 नियंठाणं // 3 // [1 गाथार्थ-] (छठं उद्देशक में) निर्ग्रन्थों के विषय में 36 द्वार हैं / यथा-(१) प्रज्ञापन, (2) वेद, (3) राग, (4) कल्प, (5) चारित्र, (6) प्रतिसेवना, (7) ज्ञान, (8) तीर्थ, (9) लिंग, (10) शरीर, (11) क्षेत्र, (12) काल, (13) गति, (14) संयम, (15) निकाशर्ष (सनिकर्ष-पुलाकादि का परस्पर संयोजन), (16) योग, (17) उपयोग, (18) कषाय, (16) लेश्या, (20) परिणाम, (21) बन्ध, (22) वेद, (वेदन), (23) कर्मों की उदोरणा, (24) उपसंपत्-हान, (25) संज्ञा, (26) माहार, (27) भव, (28) आकर्ष, (29) काल, (30) अन्तर, (31) समुद्घात, (32) क्षेत्र, (33) स्पर्शना, (34) भाव, (35) परिमाण और (36) अल्पबहुत्व / विवेचना-बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-परिग्रह से रहित को निर्ग्रन्थ, श्रमण या साधु कहते हैं। निर्ग्रन्थों के प्रकार, उनमें वेद, राग, कल्प, चारित्र आदि कितने और किस प्रकार के पाए जाते हैं ? इत्यादि 36 पहलुओं से निर्ग्रन्थों के जीवन का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया गया है।' प्रथम प्रज्ञापनाद्वार : निर्ग्रन्थों के भेद-प्रभेद 2. रायगिहे जाव एवं वयासी - |2) राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा --- 3. कति णं भंते ! नियंठा पन्नत्ता? गोयमा ! पंच नियंठा पन्नत्ता, तं जहा–पुलाए बउसे कुसीले नियंठे सिणाए। [3 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने प्रकार के कहे हैं ? 3 उ.] गौतम ! निम्रन्थ पांच प्रकार के बताए हैं। यथा-(१) पुलाक, (2) बकुश, (3) कुशील, (4) निम्रन्थ और (1) स्नातक / 1. भगवती-उपक्रम (संयोजक --पं. मुनि श्री जनकरायजी म.) पृ. 601 Page #2586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 4. पुलाए गं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-नाणपुलाए दंसणपुलाए चरित्तपुलाए लिंगपुलाए अहासुहमपुलाए नाम पंचमे।। [4 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने प्रकार के कहे हैं ? [4 उ.] गौतम ! पुलाक पांच प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) ज्ञानपुलाक, (2) दर्शनपुलाक, (3) चारित्रपुलाक, (4) लिंगपुलाक (5) यथासूक्ष्मपुलाक / बउसे णं भंते ! कतिविधे पन्नते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-आभोगबउसे, अणाभोगबउसे संवडबउसे असंवुडबउसे अहासुहुमबउसे नामं पंचमे / [5 प्र.] भगवन् ! बकुश कितने प्रकार के कहे हैं ? [5 उ.] गौतम ! बे पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-(१) प्राभोगबकुश, (2) अनाभोगबकुश, (3) संवृतबकुश, (4) असंवृतबकुश और (5) यथासूक्ष्मबकुश / 6. कुसीले णं भंते ! कतिविधे प्रश्नत्ते? गोयमा ! दुविधे पन्नत्ते, तं जहा-पडिसेवणाकुसीले य, कसायकुसीले य / [6 प्र.] भगवन् ! कुशील कितने प्रकार के कहे हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के होते हैं / यथा-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशीला / 7. पडिसेवणाकुसोले णं भंते ! कतिविध पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-नाणपडिसेवणाकुसीले दंसणपडिसेवणाकुसोले चरित्तपडिसेवणाकुसोले लिंगपडिसेवणाकुसोले अहासुहमपडिसेवणाकुसीले णामं पंचमे / [7 प्र] भगवन् ! प्रतिसेवनाकुशील कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [7 उ.] गौतम ! प्रतिसेवनाकुशील पांच प्रकार के कहे गये हैं / यथा--(१) ज्ञानप्रतिसेवनाकुशील, (2) दर्शनप्रतिसेवनाकुशील, (3) चारित्रप्रतिसेवनाकुशील, (4) लिंगप्रतिसेवना. कुशील और पांचवें (5) यथासूक्ष्मप्रतिसेवनाकुशील / / 8. कसायकुसीले गं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा नाणकसायकुसोले दसणकसायकुसीले चरित्तकसायकुसोले लिंगकसायकुसोले, अहासुहमकसायकुसीले णामं पंचमे। [8 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील कितने प्रकार के कहे हैं ? [8 उ.] गौतम ! कषायकुशील भी पांच प्रकार के कहे हैं। यथा--(१) ज्ञानकषायकुशील, (2) दर्शनकषायकुशील, (3) चारित्रकषायकुशील, (4) लिंगकषायकुशील और पांचवें (5) यथा सूक्ष्मकषायकुशील / Page #2587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवा शतक : उद्देशक 6] 6. नियंठे भंते ! कतिविधे पन्नते? गोयमा ! पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-पढमसमयनियंठे अपढमसमयनियंठे चरिमसमयनियंठे प्रचरिमसमयनियंठे अहासुहुमनियंठे णामं पंचमे / [6 प्र. भगवन् ! निम्रन्थ कितने प्रकार के कहे है ? [6 उ.} गौतम ! वे पाँच प्रकार के कहे हैं / यथा---(१) प्रथम-समय-निम्रन्थ, (2) अप्रथमसमय-निर्गन्थ, (3) चरम-समग-निग्रंथ (4) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ और पांचवें (5) यथासूक्ष्मनिर्गन्थ / 10. सिणाए गं भंते ! कतिविधे पन्नते ? गोयमा ! पंचविधे पन्नते, तं जहा-अच्छवी 1 असबले 2 अकम्मसे 3 संसुद्धनाण-वंसणधरे अरहा जिणे केवली 4 अपरिस्सावी 5 / [दारं 1] / [10 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने प्रकार के कहे हैं ? 10 उ.] गौतम ! स्नातक पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-(१) अच्छवि, (2) असबल, (3) अकर्माश, (4) संशुद्ध-ज्ञान-दर्शनधर प्रहन्त जिन केवली एवं (5) अपरिस्रावी / / द्विार-१] विवेचन-निग्नन्थ : प्रकार स्वरूप और भेद---सभी निग्नन्थ यद्यपि सर्वविरति चारित्र अंगीकार किये हुए होते हैं, तथापि चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम की विभिन्नता-विचित्रता के कारण निम्रन्थ के मूलतः 5 प्रकार होते हैं / यथा -पुलाक, बकुश, कुशील, निम्रन्थ और स्नातक / पुलाक का लक्षण–पुलाक का अर्थ है निःसार धान्यकण / पुलाक की तरह संयम-साररहित को यहाँ पुलाकश्रमण कहा जाता है। संयमवान् होते हुए भी वह किसी छोटे-से दोष के कारण संयम को किंचित असार कर देता है, इस कारण वह पुलाक कहलाता है। पूलाक के मुख्यतया दो भेद हैंलब्धिपुलाक और आसेवनापुलाक। लब्धिपुलाक लब्धिविशेष का धनी होता है। संघ आदि के विशेष कार्य के निमित्त से अथवा कोई चक्रवर्ती आदि जिनशासन तथा साधु-साध्वियों की प्राशातना करे, ऐसी स्थिति में उसकी सेना आदि को दण्ड देने हेतु लब्धिप्रयोग करे, वह लब्धिपुलाक कहलाता है। कुछ प्राचार्यों का मत है कि जो ज्ञानपुलाक होता है, उसी को ऐसी लब्धि होती है, अतः वही लब्धिपुलाक होता है। उसके सिवाय अन्य कोई लब्धिपुलाक नहीं होता / परन्तु यहाँ मूल में प्रासेवनापुलाक के ही भेदों का प्रतिपादन किया गया है / ज्ञानपुलाक वह है, जो स्खलना, विस्मरणा, विराधना, आशातना आदि दूषणों से ज्ञान की किचित् विराधना करता है / दर्शनपुलाक वह है, जो शंकादि दूषणों से सम्यक्त्व की विराधना करता है। मूल-उत्तर-गुण की विराधना से जो चारित्र को दूषित करता है, वह चारित्रपुलाक कहलाता है। जो साधक अकारण ही अन्य लिंग धारण कर लेता है, वह लिंगपुलाक है। जो साधक आकल्पित सेवन करने के अयोग्य दोषों का मन से सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मपुलाक कहलाता है / यहाँ पुलाक साधक संयम को निस्सार कर देता है, वह समय की अपेक्षा से थोड़े समय के लिए करता है। बकुश का लक्षण-बकुश कहते हैं शबल या कर्बु र, अर्थात् चितकबरे को। बकुश की तरह संयम भी जिसका चितकबरा हो गया हो। इसके मुख्यतया दो भेद हैं-उपकरणबकुश और शरीर Page #2588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390) [च्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बकुश। जो वस्त्र-पात्रादि उपकरणों को विभूषित-शृगारित करने के स्वभाववाला हो, वह उपकरणबकुश होता है तथा जो हाथ-पैर, मुंह, नख आदि शरीर के अंगोपांगों को सुशोभित किया करता है, वह शरीरबकुश होता है। दोनों प्रकार के बकुशों के पांच भेद हैं--(१) आभोगवकुश-- साधुओं के लिए शरीर, उपकरण आदि को सुशोभित करना अयोग्य है, यों जानते हुए भी जो दोष लगाता है / (2) अनाभोगबकुश-जो न जानते हुए दोष लगाता हो, वह अनाभोगबकुश है / (3) मूल और उत्तर गुणों में प्रकट रूप से दोष लगाए, वह असंवृतबकुश है। (4) जो छिपकर या गुप्त रूप से दोष लगाता है, वह संवृतबकुश है / (5) जो हाथ मुह धोता है, आँखों में अंजन लगाता है, वह यथासूक्ष्मबकुश है। ___ कुशील : लक्षण और प्रकार---जिसका शील अर्थात् चारित्र कुत्सित हो, वह कुशील कहलाता है / इसके मुख्य दो भेद हैं--प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील / सेवना का अर्थ है- सम्यक आराधना, उसका प्रतिपक्ष है-प्रतिसेवना / उसके कारण जो साधक कुशोल हो, वह प्रतिसेवना. कुशील है / कषायों के कारण जिसका शील (चारित्र) कुत्सित हो गया हो, वह कषायकुशील श्रमण है। जो साधक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लिंग को लेकर आजीविका करता हो, वह क्रमशः ज्ञानप्रतिसेवना-कुशोल, दर्शनप्रतिसेवना-कुशील, चारित्रप्रतिसेवना-कुशील एवं लिंगप्रतिसेवना-कुशील कहलाता है / यह तपस्वी है, क्रियापात्र हैं' इत्यादि प्रकार की प्रशंसा से प्रसन्न होता है तथा तपस्या आदि के फल की इच्छा करता है और देवादि-पद की वांछा करता है वह यथासूक्ष्मप्रतिसे कुशील निर्गन्थ है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र को लेकर जो क्रोध, मान आदि कषायों के उदय से ऊँचनीच परिणाम लाए और ज्ञानादि में दोष लगाए अथवा ज्ञानादि का क्रोधादि कषायों में उपयोग करे वह क्रमशः ज्ञानकषायकुशील, दर्शनकषायकुशील एवं चारित्रकषायकुशील है / जो कषायपूर्वक वेष-परिवर्तन करता है, वह लिगकषायकुशील है। जो कषायवश किसी को शाप देता है, वह भी चारित्रकषायकुशील है तथा जो मन से क्रोधादि कषाय का सेवन करता है, वह यथासूक्ष्मकषायकुशील है। निग्रन्थ : प्रकार और स्वरूप-निग्रंथ के पांच प्रकार हैं-(१) प्रथम-समय-निग्रन्थ-दसवें गुणस्थान से प्रागे 11 वें उपशान्त मोह अथवा 12 वें क्षीणमोहगुणस्थान के काल (जो कि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है) के प्रथम समय में वर्तमान हो। (2) अप्रथम-समय-निग्रन्थ--११ वें या 12 वें मुणस्थान में जिसे दो समय से अधिक हो गया हो, वह। (3) चरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छदमस्थता केवल एक समय की बाकी रही हो / (4) अचरम-समय-निर्ग्रन्थ-जिसकी छद्मस्थता दो समय से अधिक बाकी रही हो / (5) यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ--जो सामान्य निर्ग्रन्थ, प्रथम प्रादि समय की विवक्षा से भिन्न हो। स्नातक : पांच प्रकार और स्वरूप-~-पूर्णतया शुद्ध, अखण्ड एवं सुगन्धित चावल के समान शुद्ध अखण्ड चारित्रवाले निर्गन्थ स्नातक कहलाते हैं। स्नातक के पांच प्रकार हैं--(१) अच्छविछवि अर्थात् शरीर, इस दृष्टि से अच्छवि का अर्थ होता है-योग के निरोध के कारण जिसमें छवि (शरीर) भाव बिलकुल न हो वह / अथवा घातिकर्मचतुष्टयक्षपण के बाद कोई क्षपण शेष न रहा हो, वह अक्षपी होता है / (2) अशबल-एकान्तविशुद्धचारित्र वाला, अर्थात् —जिसमें अतिचाररूपी पंक बिलकुल न हो। (3) अकम्माश-घातिकर्मों से रहित / (4) संशुद्ध-विशुद्ध ज्ञान-दर्शनधारक, केवलज्ञान-दर्शनधारक अर्हन, जिन, केवली आदि और (5) अपरिस्रावी-कर्मबन्ध के प्रवाह से Page #2589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [391 रहित / सम्पूर्ण काययोग का सर्वथा निरोध कर लेने पर स्नातक सर्वथा निष्कम्प एवं क्रियाहित हो जाता है, अत: उसके कर्मबन्ध का प्रवाह सर्वथा रुक जाता है। इस कारण वह अपरिस्रावी होता है। किसी भी वृत्तिकार ने स्नातक के इन अवस्थाकृत भेदों की व्याख्या नहीं की है, इसलिए सम्भव है कि इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि के समान इन के ये भेद केवल शब्दकृत हैं।' द्वितीय वेदद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्त्रीवेदादि प्ररूपरणा 11. [1] पुलाए णं भंते ! कि सवेयए होज्जा ? गोयमा ! सवेयए होज्जा, नो अवेयए होज्जा। |11-1 प्र.] भगवन् ! पुलाक सवेदी होता है, अथवा अवेदी ? / 11-1 उ.] गौतम ! वह सवेदी होता है, अवेदी नहीं / [2] जइ सवेयए होज्जा कि इथिवेयए होज्जा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसनपुंगवेयए होज्जा?। गोयमा! नो इस्थिवेयए होज्जा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिसनपुससगवेयए वा होज्जा। [11-2 प्र.] भगवन् ! यदि पुलाक सवेदी होता है, तो क्या वह स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है या पुरुष-नपुंसकवेदी होता है ? [11-2 उ.] गौतम ! वह स्त्रीवेदी नहीं होता, या तो वह पुरुषवेदी होता है, या पुरुषनपुंसकवेदी होता है। 12. [1] बउसे गं भंते ! कि सवेयए होज्जा, अवेयए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो अवेदए होज्जा। {12-1 प्र.] भगवन् ! बकुश सवेदी होता है, या अवेदी ? [12-1 उ.] गौतम ! बकुश सवेदी होता है, अवेदी नहीं। [2] जइ सबेयए होज्जा कि इथिवेयए होज्जा, पुरिसधेयए होज्जा, पुरिसनपुसगवेयए होज्जा ? गोयमा ! इस्थिवेदए वा होज्जा, पुरिसवेयए वा होज्जा, पुरिसनपुंसगवेयए वा होज्जा। [12-2 प्र. भगवन् ! यदि बकुश सवेदी होता है तो क्या वह स्त्रीवेदी होता है, पुरुषवेदी होता है, अथवा पुरुष-नपुंसकवेदी होता है ? _ [12-2 उ.] गौतम ! वह स्त्रीवेदी भी होता है, पुरुषवेदी भी अथवा पुरुष-नपुंसकवेदी भी होता है। 13. एवं पडिसेवणाकुसोले वि। [13] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में जानना चाहिए / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 891-892 (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् नतुर्थ खण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 240-241 (ग) भगवती-उपक्रम, पृ. 601, 602, 603 Page #2590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 14. [1] कसायफुसीले णं भंते ! कि सवेयए० पुच्छा। गोयमा ! सवेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा। {14-1 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील सबेदी होता है, या अवेदी? [14-1 उ.] गौतम ! वह सवेदी भी होता है और अवेदी भी। [2] जइ अवेयए कि उवसंतवेयए, खीणवेयए होज्जा ? गोयमा ! उवसंतवेयए वा, खीणवेयए बा होज्जा। __ [14-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह अवेदी होता है तो क्या वह उपशान्तवेदी होता है, अथवा क्षीणवेदी। [14-2 उ.] गौतम ! वह उपशान्तवेदी भी होता है और क्षीणवेदी भी। [3] जति सवेयए होज्जा कि इत्थिवेदए होज्जा० पुच्छा। गोयमा ! तिसु वि जहा बउसो। [14-3 प्र. भगवन् ! यदि वह सवेदी होता है तो क्या स्त्रीवेदी होता है ? इत्यादि (पूर्ववत्) प्रश्न। [14-3 उ.] गोतम ! बकुश के समान तीनों ही वेदों में होते हैं / 15. [1] णियंठे गं भंते ! कि सवेयए० पुच्छा / गोयमा ! नो सवेयए होज्जा, अवेदए होज्जा। [15-1 प्र.] भगवन ! निम्रन्थ सवेदी होता है, या अवेदी ? | 15-1 उ.। गौतम ! वह सवेदी नहीं होता, किन्तु अवेदी होता है। . [2] जइ प्रवेयए होज्जा कि उवसंत० पुच्छा। गोयमा ! उवसंतवेयए वा होज्जा, खीणवेयए वा होज्जा। [15-2 प्र.] भगवन् ! यदि निर्ग्रन्थ अवेदी होता है, तो क्या वह उपशान्तवेदी होता है, या क्षीणवेदी? (15-2 उ.] गौतम ! वह उपशान्तवेदी भी होता है और क्षीणवेदी भी / 16. सिणाए णं भंते ! कि सवेयए होज्जा० ? जहा नियंठे तहा सिणाए वि, नवरं नो उवसंतवेयए होज्जा, खीणवेयए होज्जा। [दारं 2] / [16 प्र.| भगवन् ! स्नातक सवेदी होता है, या अवेदी ? इत्यादि (पूर्ववत् दोनों) प्रश्न / {16 उ.] गौतम ! निर्ग्रन्थ के समान स्नातक भी अवेदो होता है; किन्तु वह उपशान्तवेदी नहीं होता, क्षीणवेदी होता है। [द्वितीय द्वार] विवेचन-पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों में वेद का विचार-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील में उपशमथेणी या क्षपकश्रेणी नहीं होती इसलिए वे अवेदी नहीं होते / पुलाकलब्धि स्त्री को नहीं होती, Page #2591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [393 पुरुष को या पुरुष-नपुंसक साधक को होती है। कषायकुशील सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान तक होते हैं। प्रतः वे प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान में सवेदी होते हैं तथा अनिवृत्तिबादर एवं सक्ष्मसम्पराय गणस्थान में वेद का उपशम या क्षय होने से अवेदी होते हैं। निर्ग्रन्थ उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी दोनों में होते हैं। अत: वे उपशान्तवेदी या क्षीणवेदी होते हैं, किन्तु स्नातक क्षपकश्रेणी में ही होते हैं, इसलिए वे क्षीणवेदी ही होते हैं, उपशान्तवेदी नहीं। पुरुष-नपुंसकवेदक–पुरुष होते हुए भी जो लिंग-छेद आदि के कारण नपुंसकवेदक हो जाता है, ऐसे कृत्रिमनपुंसक को यहाँ पुरुष-नपंसक कहा है, स्वरूपतः अर्थात् जो जन्म से नपुंसकवेदी है, उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है / ' तृतीय रागद्वार : पंचविधनिर्ग्रन्थों में सरागत्व-वीतरागत्व-प्ररूपणा 17. पुलाए णं भंते ! कि सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा ? गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा। [17 प्र.] भगवन् ! पुलाक सराग होता है या वीतराग? [17 उ.] गौतम ! वह सराग होता है, वीतराग नहीं। 18. एवं जाच कसायकुसोले / [18] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना / 16. [1] णियंठे णं भंते ! कि सरागे होज्जा० पुच्छा / गोयमा ! नो सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा। [19-1 प्र.] भगवन् ! निम्रन्थ सराग होता है या वीतराग ? [16-1 उ.] गौतम ! वह सरांग नहीं होता, अपितु वीतराग होता है / [श जइ वीयरागे होज्जा कि उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे० ? गोयमा ! उवसंतकसायवीतरागे वा होज्जा, खीणकसायवीतरागे वा होज्जा / [16-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वह वीतराग होता है तो क्या उपशान्तकषायवीतराग होता है या क्षीणकषायवीतराग? [16-2 उ.] गौतम ! वह उपशान्तकषायवीतराग भी होता है और क्षीणकषायवीतराग भी। 20. सिणाए एवं चेव, नवरं नो उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, खोणकसायवीयरागे होज्जा। [दारं 3] / [20] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु वह उपशान्तकषायवीतराग नहीं होता किन्तु क्षीणकषायवीतराग होता है / [तृतीय द्वार] 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 893 " Page #2592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394] [ध्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन- - पंचविध निग्रन्थों में तीन सराग, दो वीतराग-सराग का अर्थ है---सकषाय / कषाय दसवें गुणस्थान तक रहता है। इसलिए आदि के पुलाक, बकुश और कुशील (प्रतिसेवनाकुशील तथा कषायकुशील), ये तीन प्रकार के निर्गन्थ सराग होते हैं, बीतराग नहीं / शेष निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों प्रकार के निर्ग्रन्थ वीतराग होते हैं। निर्गन्थ में उपशान्तकषायवीतरागता एवं क्षीणकषायवीतरागता दोनों होती है, जबकि स्नातक में एकमात्र क्षीणकषाय वीतरागता होती है।' पंचविध निर्ग्रन्थों में स्थितकल्पादि-जिनकल्पादि-प्ररूपणा : चतुर्थ कल्पद्वार 21. पुलाए णं भंते ! कि ठियकप्पे होज्जा, अठियकप्पे होज्जा ? गोयमा ! ठियकप्पे वा होज्जा, अठियकप्पे वा होज्जा। [21 प्र.] भगवन् ! पुलाक स्थितकल्प में होता है, अथवा अस्थितकल्प में ? [21 उ.] गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थितकल्प में भी। 22. एवं जाब सिणाए। [22] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक जानना / 23. पुलाए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातोते होज्जा? गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, नो कम्पातीते होज्जा। [23 प्र.! भगवन् ! पुलाक जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है अथवा कल्पातीत में होता है ? [23 उ.] गौतम ! वह न तो जिनकल्प में होता है और न कल्पातीत होता है, किन्तु स्थविरकल्प में होता है। 24. बउसे णं० पुच्छा। गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, नो कपातीते होज्जा। [24 प्र.] भगवन् ! बकुश जिनकल्प में होता है ? इत्यादि पृच्छ। / [24 उ. ] गौतम ! वह जिनकल्प में भी होता है, स्थविरकल्प में भी होता है, किन्तु कल्पातीत में नहीं होता। 25. एवं पडिसेवणाकुसोले वि / [25] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए। 26. कसायकुसीले गं० पुच्छा। गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा होज्जा। [26 प्र. भगवन् ! कषायकुशील जिनकल्प में होता है ? इत्यादि प्रश्न ! 1. (क) भरवती. अ. वृति, पत्र 894 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाग 2 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 1020 Page #2593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवा शतक : उद्देशक 6] |26 उ. | गौतम ! वह जिनकल्प में भी होता है, स्थविरकल्प में भी और कल्पातीत में भी होता है। 27. नियंठे गं० पुच्छा। गोयमा ! नो जिणकप्पे होज्जा, नो थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा। [27 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में या कल्पातीत होता है ? [27 उ.] गौतम ! वह न तो जिनकल्प में होता है और न ही स्थविरकल्प में; किन्तु वह कल्पातीत होता है। 28. एवं सिणाए वि / [दारं 4] / [28] इसी प्रकार स्नातक के विषय में भी जानना चाहिए / चतुर्थ द्वार] विवेचन--स्थितकल्प और अस्थितकल्प ? क्या और किनमें कल्प कहते हैं--मर्यादा, अथवा साधना को मौलिक आचारसीमा को। ये कल्प शास्त्र में दस प्रकार के बताए हैं--(१) ग्राचेलक, (2) प्रौद्देशिक, (3) राजपिण्ड, (4) शय्यातर, (5) मासकल्प, (6) चातुर्मासिक, (7) व्रत, (8) प्रतिक्रमण, (6) कृतिकर्म और (10) पुरुष-ज्येष्ठ / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु-साध्वी दस कल्प में स्थित होते हैं, क्योंकि इन दस कल्पों का पालन उनके लिए अनिवार्य होता है / इस कारण उनका कल्प स्थितकल्प कहलाता है। शेष 22 तीर्थकरों के शासन में अस्थितकल्प होता है / क्योंकि मध्यगत तीर्थंकरों के साधुवर्ग में अस्थितकल्प होता है, क्योंकि वे कभी कल्प में स्थित होते हैं, कभी नहीं होते, क्योंकि उपर्युक्त सभी कल्पों का पालन उनके लिए आवश्यक नहीं होता / उपर्युक्त दस कल्पों में से 4, 7, 9, 10 ये चार स्थितकल्प हैं और 1, 2, 3, 5, 6, 8 ये 6 कल्प अस्थिककल्प हैं / मध्यम के 22 तीर्थंकरों के साधुनों में अस्थितकल्य होता है / पुलाक आदि में दोनों प्रकार के कल्प होते हैं।' जिनकल्प, स्थविरकल्प और कल्पातीत क्या और किनमें ? -दुसरी अपेक्षा से कल्प के दो भेद किये गए हैं जिनकल्प और स्थविरकल्प / जिनकल्प का पालन करने वाले संघ में नहीं रहते, न ही किसी को दीक्षा देते या शिष्य बनाते हैं / वे एकाकी बन में या पर्वतीय गुफा आदि में रहते हैं, निर्भय, निर्द्वन्द्व और निश्चिन्त होते हैं। वे जघन्य दो और उत्कृष्ट 12 उपकरण रखते हैं / स्थविरकल्पी संघ में, उपाश्रयादि में रहते हैं, शिष्य बनाते हैं, दीक्षा देते हैं, साधु प्रायः कम से कम दो और साध्वी कम से कम तीन साथ-साथ विचरण करते हैं। वे शास्त्रोक्त मर्यादानुसार प्रमाणोपेत वस्त्र-पात्रादि रखते हैं / कल्पातीत वे होते हैं, जो इन दोनों से परे होते हैं / ऐसे कल्पातीत केवलज्ञानी, तीर्थकर, मन:पर्यवज्ञानो, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वधर, श्रुतकेवली एवं जातिस्मरणशानी होते हैं / पुलाक तो केवल स्थविरकल्पी होते हैं, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील जिनकल्पी और स्थविरकल्पी दोनों होते हैं / कषायकुशील जिनकल्पी, स्थविरकल्पी और कल्पातीत भी होते हैं / 1. (क) भगवती-उपक्रम, पृ. 604 (ख) भगवती. अ. बत्ति पत्र 194 Page #2594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ध्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र क्योंकि छद्मस्थ तीर्थकर सकषायी होने से कल्पातीत होने से हए भी कषायकशील होते हैं। निर्ग्रन्थ और स्नातक ये दोनों कल्पातीत ही होते हैं, उनमें जिनकल्प या स्थविरकल्पधर्म नहीं होते / ' पंचम चारित्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में चारित्र-प्ररूपरणा 26. पुलाए गं भंसे ! कि सामाइयसंजमे होज्जा, छेदोवढावणियसंजमे होज्जा, परिहारविसुद्धियसंजमे होज्जा, सुहमसंपरायसंजमे होज्जा, अहक्खायसंजमे होज्जा ? गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होज्जा, छेदोवट्ठावणियसंजमे वा होज्जा, नो परिहारविसुद्धिसंजमे होज्जा, नो सुहमसंपरायसंजमे होज्जा, नो अहक्खायसंजमे होज्जा। [26 प्र.] भगवन् ! पुलाक सामायिकसयम में, छेदोपस्थापनिकसंयम, परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम में अथवा यथाख्यातसंयम में होता है ! [29 उ.] गौतम ! वह सामायिकसंयम में या छेदोपस्थापनिकसंयम में होता है, किन्तु परिहारविशुद्धिसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम या यथाख्यातसंयम में नहीं होता। 30. एवं बउसे वि। [30] बकुश के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / 31. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। [31] और इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए। 32. कसायकुसीले गं० पुच्छा। गोयमा ! सामाइयसंजमे वा होज्जा जाब सुहमसंपरायसंजमे वा होज्जा, नो प्रहक्खायसंजमे होज्जा। [32 प्र. भगवन् ! कषायकुशील पांच संयमों में से किन-किन संयमों में होता है ? [32 उ.] गौतम ! वह सामायिक से लेकर यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयम तक में होता है; किन्तु यथाख्यातसंयम में नहीं होता। 33. नियंठे णं० पुच्छा। गोयमा ! गो सामाइयसंजमे होज्जा जाव णो सुहमसंपरायसंजमे होज्जा, अहयखायसंजमे [33 प्र. भगवन् ! निर्ग्रन्थ किस संयम में होता है ? [33 उ.] गौतम ! वह सामायिकसंयम (से लेकर) यावत् सूक्ष्मसम्पराय तक में नहीं होता, एकमात्र यथाख्यातसंयम में होता है / 34. एवं सिणाए वि / [दारं 5] / [34] इसी प्रकार स्नातक के विषय में समझना चाहिए / [पंचम द्वार] 1. (क) भगवती-उपक्रम, पृ. 604 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3357-3358 . Page #2595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसदा शतक : उ शक! विवेचन--किसमें कौन-सा संयम ?--पांच प्रकार के निग्रन्थों में से पुलाक, बकुश एवं कषायकुशील सामायिक और छेदोपस्थापनिक इन दो प्रकार के संयम ( चारित्र ) में, कषावकुशील सामायिक से लेकर सूक्ष्मसम्पराय तक में, निर्गन्थ एवं स्नातक दोनों एकमात्र यथाख्यातसंयम (चारित्र) में होते हैं।' छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में मूल-उत्तरगुरणप्रतिसेवन-अप्रतिसेवन-प्ररूपरणा 35. [1] पुलाए णं भंते ! कि पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा? गोयमा ! पडिसेवए होज्जा, नो अपडिसेवए होज्जा। [35-1 प्र.। भगवन् ! पुलाक प्रतिसेवी ( दोषों का सेवन करने वाला ) होता है या अप्रतिसेवी? [35-1 उ.] गौतम ! पुलाक प्रतिसेवी होता है, अप्रतिसेवी नहीं। [2] जदि पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? गोयमा ! मूलगुणपडिसेवए वा होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए वा होज्जा। मूलगुणपडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा, उत्तरगुणपडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अन्नयर पडिसेवेज्जा। [35-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है, तो क्या वह मूलगुण-प्रतिसेवी होता है, या उत्तरगुण-प्रतिसेवी? [35-2 उ.] गौतम ! वह मूलगुण-प्रतिसेवी भी होता है, उत्तरगुण-प्रतिसेवी भी। यदि वह मूलगुणों का प्रतिसेवी होता है तो पांच प्रकार के प्राश्रवों में से किसी एक आश्रव का प्रतिसेवन करता है और उत्तरगुणों का प्रतिसेवी होता है तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिसेवन करता है। 36. [1] बउसे पं० पुच्छा। गोयमा ! परिसेवए होज्जा, नो अपडिसेवए होज्जा। [36-1 प्र.] भगवन् ! बकुश प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी ? [36-1 उ.] गौतम ! वह प्रतिसेवी होता है, अप्रतिसेवी नहीं / [2] जइ पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा ? गोयमा ! नो मूलगुणपडिसेवए होज्जा, उत्तरगुणपडिसेवए होज्जा / उत्तरगुणपउिसेवमाणे दसविहस्स पच्चक्खाणस्स अन्नयरं पडिसेवेज्जा / [36-2 प्र.] भगवन् ! यदि बह प्रतिसेवी होता है, तो क्या मूलगुण-प्रतिसेवी होता है या उत्तरगुण-प्रतिसेवी ? [36-2 उ.] गौतम ! वह मूलगुणों का प्रतिसेवी नहीं होता, किन्तु उत्तरगुण-प्रतिसेवी होता 1. वियाहपण्णत्तिमुत्तं ( मू. पा. टि.) भा. 2, पृ. 1021 Page #2596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र है / जब वह उत्तरगुणा का प्रतिसवी होता है तो दस प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का प्रतिसेबी होता है। 37. पडिसेवणाकुसोले जहा पुलाए। [37] प्रतिसेवनाकुशील का कथन पुलाक के समान जानना चाहिए / 38. कसायकुसोले० पुच्छा। गोयमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा / [38 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी? 138 उ. ] गौतम ! वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। 36. एवं नियंठे वि। | 36] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में जानना चाहिए / 40. एवं सिणाए वि / [दारं 6] / [40] इसी प्रकार स्नातक-सम्बन्धी वक्तव्यता समझना चाहिए / [ छठा द्वार विवेचनप्रतिसेवी-अप्रतिसेवी : लक्षण--संज्वलनकषाय के उदय से जो सयम विरुद्ध पाचरण करता है, वह प्रतिसेवी (प्रतिसेवक) है और जो किसी भी दोष का सेवन नहीं करता, वह अप्रतिसेवी है। मूलगुण-उत्तरगुण-~-प्राणातिपात विरमणादिरूप पांच महाव्रत साधुवर्ग के लिए मूलगुण कहलाते हैं और अनागत, अतिक्रान्त, कोटि सहित, इत्यादि इस प्रकार के प्रत्याख्यान एवं उपलक्षण से पिण्डविशुद्धि, नौकारसी, पौरसी आदि उत्तरगुण कहलाते हैं / इनमें दोष लगाने वाला साधुवर्ग क्रमश: मूलगुणप्रतिसेवी और उत्तर गुणप्रतिसेवी कहलाता है।' निष्कर्ष-पुलाक और प्रतिसेवनाकुशील मूल-उत्तरगुणप्रतिसेवी, बकुश उत्तरगुणप्रतिसेवी तथा कषाय कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक अप्रतिसेवी होते हैं / सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में ज्ञान और श्रुताध्ययन की प्ररूपणा 41. पुलाए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा होज्जा। दोसु होमाणे दोसु आभिणिबोहियनाण-सुयनाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे तिसु भाभिनिबोहियनाण-सुधनाण-प्रोहिनाणेसु होज्जा। [41 प्र.] भगवन् ! पुलाक में कितने ज्ञान होते हैं ? 41 उ.] गौतम ! पुलाक में दो या तीन ज्ञान होते हैं / यदि दो ज्ञान हों तो आभिनिबोधिक 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 894 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3361 2. वियापण्णत्तिसुत्तं भा. 2 ( मू. पा. टि.) पृ. 1022 Page #2597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] ज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। यदि तीन ज्ञान हों तो प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं। 42. एवं बउसे वि। [42] इसी प्रकार बकुश के विषय में जानना चाहिए। 43. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। |43] प्रतिसेवनाकुशील के विषय में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिए। 44. कसायकुसीले णं० पुच्छा / ___ गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा होज्जा। दोसु होमाणे दोसु आभिनिबोहियनाणसुयनाणेसु होज्जा। तिसु होमाणे तिसु प्राभिनिवोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु अहवा तिसु प्राभिनिबोहियनाण-सुयनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा / चउसु होमाणे चउसु आभिनिबोहियनाणसुयनाण-ओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा। [44 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील में कितने ज्ञान होते हैं ? 44 उ.] गौतम ! कषायशील में दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं। यदि दो ज्ञान हों तो प्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, तीन ज्ञान हों तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं / अथवा आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्यवज्ञान होते हैं। यदि चार ज्ञान हों तो प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान होते हैं। 45. एवं नियंठे वि। [45] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में जानना चाहिए / 46. सिणाए णं० पुच्छा। गोयमा ! एगम्मि केवलनाणे होज्जा। [46 प्र.] भगवन ! स्नातक में कितने ज्ञान होते हैं ? [46 उ.] गौतम ! स्नातक में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है / 47. पुलाए णं भंते ! केवतियं सुर्य अहिज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुण्यस्स ततियं आयारवत्थु, उषकोसेणं नव पुस्वाइं अहिज्जेज्जा। [47 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? [47 उ.] गौतम ! वह जघन्यत: नौवें पूर्व की तृतीय प्राचारवस्तु तक का और उत्कृष्टत: पुर्ण नौ पूवों का अध्ययन करता है। 48. बउसे० पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेमं दस पुवाई अहिज्जेज्जा / [48 प्र.] भगवन् ! बकुश कितने श्रुत पढ़ता है ? Page #2598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [48 उ.] गौतम ! वह जघन्यत: अष्ट प्रवचनमाता का और उत्कृष्ट दस पूर्व तक का अध्ययन करता है। 46. एवं पडिसेवणाकुसीले वि / |46] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए। 50. कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायानो, उक्कोसेणं चोइस पुवाई अहिज्जेज्जा। [50 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? [50 उ.] गौतम ! वह जघन्य अष्ट प्रवचनमाता का और उत्कृष्ट चौदह पूर्वो का अध्ययन करता है। 51. एवं नियंठे वि। [51] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में भी जानना चाहिए। 52. सिणाये० पुच्छा। गोयमा ! सुयतिरित्ते होज्जा / [दारं 7] / [52 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? [52 उ.] गौतम ! स्नातक श्रुतव्यतिरिक्त होते हैं / [सप्तम द्वार विवेचन-किसमें कितने ज्ञान, कितना श्रुताध्ययन ? पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील में दो या तीन ज्ञान तथा कषायकुशील और निर्ग्रन्थ में उत्कृष्ट चार ज्ञान तक पाए जाते हैं / स्नातक में एक केवलज्ञान ही होता है। श्रुत भी ज्ञान विशेषतः श्रुतज्ञान के अन्तर्गत होने से इसी (सप्तम) द्वार के अन्तर्गत उसकी चर्चा की गई है / स्नातक में परिपूर्ण ज्ञान-केवलज्ञान होने से वे श्रुतव्यतिरिक्त कहलाते हैं। वे श्रुतज्ञानी नहीं होते।' प्रवचनमाता का अध्ययन : क्या और क्यों ? पांच समिति और तीन गुप्ति ये पाठ प्रवचनमाताएँ कहलाती हैं। इनके पालन के रूप में चारित्र होता है। इसलिए चारित्र का पालन करने वाले को कम से कम प्रष्ट प्रबचनमाता का अध्ययन करना तथा ज्ञान प्राप्त करना अत्यावश्यक है। क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए बकुश को कम से कम (जघन्यतः) इतना श्रुतज्ञान तो अवश्य होना चाहिए, शेष स्पष्ट है / पाठवाँ तीर्थद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में तीर्थ-अतीर्थ-प्ररूपणा 53. पुलाए णं भंते ! कि तित्थे होज्जा, अतित्थे होज्जा ? गोयमा ! तित्थे होज्जा, नो अतित्थे होज्जा। -- -.-..--. .... - - - -- -... . 1. भगवती (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, 5. 3362 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 894 Page #2599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [401 - C [53 प्र.] भगवन् ! पुलाक तीर्थ में होता है या अतीर्थ में ? {53 उ.] गौतम ! वह तीर्थ में होता है, अतीर्थ में नहीं / 54. एवं बउसे वि, पडिसेवणाकुसीले वि / [54] इसी प्रकार बकुश एवं प्रतिसेवनाकुशील का कथन भी समझ लेना चाहिए। 55. [1] कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा / [55-1 प्र.] भगवन् ! कषाय कुशील तीर्थ में होता है या अतीर्थ में ? [55-1 उ.] गौतम ! वह तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी होता है। [2] जति अतित्थे होज्जा कि तित्थयरे होज्जा, पत्तेयबुद्धे होज्जा ? गोयमा ! तित्थगरे वा होज्जा पत्तेयबुद्धे वा होज्जा। [55-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतीर्थ में होता है तो क्या तीर्थकर होता है या प्रत्येकबुद्ध होता है ? [55-2 उ.] गौतम ! वह तीर्थंकर होता है या प्रत्येकबुद्ध होता है। 56. एवं नियंठे वि। [56] इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के विषय में भी जानना चाहिए। 57. एवं सिणाए वि। [दारं 8] / [57] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार समझना / [अष्टम द्वार] विवेचन–कषायकुशील अतीर्थ में क्यों और कैसे ? तीर्थकर जब छमस्थ अवस्था में होते हैं, तब कषायकुशील होते हैं; इस अपेक्षा से यहां कहा गया है कि कषायकुशील अतीर्थ में भी होते हैं, अथवा जब तीर्थ का विच्छेद हो जाता है, तब दूसरे तीर्थ (अतीर्थ-स्वतीर्थ के अतिरिक्त तीर्थ) में भी अन्यतीर्थीय साधु भी कषायकुशील होता है / इस अपेक्षा से कषायकुशील का अतीर्थ में होना बतलाया गया है।' नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्वलिंग-अन्यलिंग-गृहीलिंग-प्ररूपणा 58. पुलाए णं भंते ! कि सलिगे होज्जा, अन्नलिगे होज्जा, गिहिलिगे होज्जा ? गोयमा ! दवलिंगं पडुच्च सलिगे वा होज्जा, अन्नलिंगे वा होज्जा, गिहिलिंगे वा होज्जा। भावलिगं पडुच्च नियम सलिगे होज्जा। [58 प्र.] भगवन् ! पुलाक स्वलिंग में होता है, अन्यलिंग में या गृहीलिंग में होता है ? ___ [58 उ.] गौतम ! द्रव्यलिंग की अपेक्षा वह स्वलिंग में, अन्यलिंग में या गृहीलिंग में होता है, किन्तु भावलिंग की अपेक्षा नियम से स्वलिंग में होता है। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 894 Page #2600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 56. एवं जाप सिणाए / [वारं] / [56] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक कहना चाहिए / [नौवाँ द्वार] विवेचन--लिंग : प्रकार और लक्षण-लिग दो प्रकार के होते हैं---द्रव्यलिंग और भावलिंग / सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भावलिंग है / यह भावलिंग आहतधर्म (केवलिप्ररूपित धर्म) का पालन करने वालों में ही होता है / इस कारण वह (इस अपेक्षा से) स्वलिग कहलाता है / द्रव्यलिंग के दो भेद हैं स्वलिंग और अन्य (पर) लिंग। रजोहरणादि रखना इत्यादि द्रव्य से स्वलिंग है / परलिंग के दो भेद हैं-कुतीथिकलिंग और गृहस्थलिग / पुलाक में तीनों प्रकार के लिंग पाए जा सकते हैं, क्योंकि चारित्र का परिणाम किसी एक ही द्रव्यलिंग की अपेक्षा नहीं रखता।' रसधा शरीरद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में शरीर-भेद-प्ररूपरणा 60. पुलाए णं भंते ! कतिसु सरीरेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु पोरालिय-तेया-कम्मएसु होज्जा। [60 प्र. भगवन् ! पुलाक कितने शरीरों में होता है ? 60 उ.) गौतम ! वह औदारिक, तेजस और कार्मण, इन तीन शरीरों में होता है। 61. बउसे गं भंते !* पुच्छा। गोयमा ! तिसु वा चतुसु वा होज्जा। ति होमाणे तिसु पोरालिय-तेया-कम्मएसु होज्जा, बउसु होमाणे चउसु पोरालिय-वेउब्विय-तेया-कम्मएसु होज्जा। [61 प्र.] भगवन् ! बकुश कितने शरीरों में होता है ? [61 उ.] गौतम ! वह तीन या चार शरीरों में होता है / यदि तीन शरीरों में हो तो औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर में होता है, और चार शरीरों में हो तो औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीरों में होता है। 62. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। [62] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए / 63. कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! तिसु वा चतुसु वा पंचसु वा होज्जा। तिसु होमाणे तिसु पोरालिय-तेया-कम्मएसु होज्जा, चउसु होमाणे चउसु ओरालिय-वेउब्बिय-तेया-फम्मएसु होज्जा, पंचसु होमाणे पंचसु मोरालिय-उन्विय-प्राहारग-तेयग-कम्मएसु होज्जा। [63 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील कितने शरीरों में होता है ? [63 उ.] गौतम ! वह तीन, चार या पांच शरीरों में होता है / यदि तीन शरीरों में हो तो औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर में होता है, चार शरीरों में हो तो औदारिक, बैक्रिय, तेजस 1. श्रीमद्भगवती सूत्रम् खण्ड 4, पृ. 245 (गुजराती अनुवाद सहित) Page #2601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 16.3 और कार्मण शरीर में होता है और पांच शरीरों में हो तो औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर में होता है। 64. णियंठे सिणाते य जहा पुलाओ। [दारं 10] / [64] निर्ग्रन्थ और स्नातक का शरीरविषयक कथन पुलाक के समान जानना चाहिए। [दसवाँ द्वार] विवेचन-शरीर : किसमें कितने ? प्रस्तुत शरीरद्वार में, पुलाक में तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक में औदारिकादि तीन शरीर, बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील में तीन या चार शरीर (वैक्रिय अधिक) तथा कषायकुशील में तीन, चार या पांच (आहारकशरीर अधिक) शरीर होते हैं।' ग्यारहवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कर्मभूमि-अकर्मभूमि-प्ररूपणा 65. पुलाए णं भंते ! कि कम्मभूमीए होज्जा, अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, नो अकम्मभूमीए होज्जा। [65 प्र. भगवन् ! पुलाक कर्मभूमि में होता है या अकर्मभूमि में ? [65 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव (अस्तित्व) की अपेक्षा कर्मभूमि में होता है, अकर्मभूमि में नहीं। 66. बउसे पं० पुच्छा। गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमोए होज्जा, नो प्रकम्मभूमीए होज्जा / साहरणं पञ्चच कम्मभूमीए बा होज्जा, अकम्मभूमीए वा होज्जा। [66 प्र.] बकुश के विषय में पृच्छा ? [66 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव से कर्मभूमि में होता है, अकर्मभूमि में नहीं / संहरण की अपेक्षा कर्मभूमि में भी और अकर्मभूमि में भी होता है। 67. एवं जाव सिणाए / [दारं 11] / [67] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक कहना चाहिए / [ग्यारहवाँ द्वार विवेचन–जहाँ असि, मसि और कृषि द्वारा आजीविका की जाती हो तथा जहाँ तप, संयम आदि आध्यात्मिक अनुष्ठान होते हैं, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं, तथा जहाँ असि, मसि, कृषि प्रादि द्वारा जीविकोपार्जन न किया जाता हो और जहाँ तप, संयमादि प्राध्यात्मिक साधना न की जाती हो, उसे अकर्मभूमि कहते हैं / पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, ये 15 क्षेत्र कर्मभूमिक हैं और 5 हैमवत, 5 हिरण्यवत, 5 हरिवर्ष, 5 रम्यक्वर्ष, 5 देवकुरु और 5 उत्तरकुरु ये कुल तीस क्षेत्र अकर्मभुमिक हैं। इनमें असि, मसि प्रादि व्यापार नहीं होता। इन क्षेत्रों में 10 प्रकार के कल्पवृक्षों से जीवननिर्वाह होता है / आजीविका के लिए कृषि प्रादि कर्म न करने से और कल्पवृक्षों द्वारा भोग प्राप्त होने से इन क्षेत्रों को भोगभूमि भी कहते हैं / यहाँ के मनुष्यों को 'भोगभूमिज' तथा जोड़े से जन्म लेने के कारण यौगलिक (जुगलिया) कहते हैं।' 1. विवाहपष्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 1024 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3369 Page #2602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [व्याख्याज्ञप्तिसूब जन्म, सद्भाव और संहरण-जन्म और सद्भाव (चारित्रभाव के अस्तित्व) की अपेक्षा पुलाक कर्मभूमि में होते हैं, अर्थात् पुलाक की उत्पत्ति कर्मभूमि में ही होती है और चारित्र अंगीकार करके वह यहीं विचरता है। वह अकर्मभूमि में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वहाँ पैदा हुए मनुष्य को चारित्र (संयम) की प्राप्ति नहीं होती। अतएव वहाँ उसका सद्भाव (चारित्र का अस्तित्व) भी नहीं होता / संहरण (देवादि द्वारा एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान पर ले जाने) की अपेक्षा भी वह अकर्मभूमि में नहीं होता, क्योकि पुलाकलब्धि वाले का देवादि कोई भी संहरण नहीं कर सकते / बकुश अकर्मभूमि में जन्म से नहीं होता, न ही स्वकृतविहार से होता है, परकृत विहार (संहरण) की अपेक्षा वह कर्मभूमि में भी होता है, अकर्मभूमि में भी।' बारहवाँ कालद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अवपिरणो-उत्सर्पिणीकालादि-प्ररूपणा 68. [1] पुलाए णं भंते ! कि प्रोसप्पिणिकाले होज्जा, उस्सप्पिणिकाले होज्जा, नोमोसप्पिणिनोउस्सरिपणिकाले होज्जा? गोयमा ! ओसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणिकाले वा होज्जा, नोनोसप्पिणिनोउस्सप्पिणिकाले वा होज्जा। [68-1 प्र.] भगवन् ! पुलाक अवपिणीकाल में होता है, उत्सपिणीकाल में होता है, अथवा नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल में होता है ? [68-1 उ.] गौतम ! पुलाक अवसर्पिणीकाल में होता है, उत्सर्पिणीकाल में भी होता है तथा नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल में भी होता है। [2] जदि प्रोसप्पिणिकाले होज्जा कि सुसमसुसमाकाले होज्जा, सुसमाकाले होज्जा, सुसमदुस्समाकाले होज्जा, दुस्समसुसमाकाले होज्जा, दुस्समाकाले होज्जा, दुस्समदुस्समाकाले होज्जा? गोयमा ! जम्मणं दडुच्च नो सुसमसुसमाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, दुस्समससमाकाले वा होज्जा, नो दुस्समाकाले होज्जा, नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा। संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, दुस्समाकाले वा होज्जा, नो दूसमदूसमाकाले होज्जा। 668-2 प्र.] यदि पुलाक अवसर्पिणीकाल में होता है, तो क्या वह सुषम-सुषमाकाल में होता है अथवा सुषमाकाल में, सुषम-दुःषमाकाल में. दुःषम-सुषमाकाल में, दुःषमकाल में होता है अथवा दुःषम-दुःषभाकाल में होता है ? 68-2 उ.] गौतम! (पुलाक) जन्म की अपेक्षा सुषम-सुषमा और सुषमाकाल में नहीं होता, किन्तु सुषम-दुःषमा और दुःषम-सुषमाकाल में होता है तथा दुःषमाकाल एवं दुःषम-दुःषमाकाल में वह नहीं होता। सद्भाव की अपेक्षा वह सुषम-सुषमा, सुषमा तथा दुःषम-दुःषमाकाल में नहीं होता, किन्तु सुषम-दुःषमा, दुःषम-सुषमा एवं दुःषमाकाल में होता है। 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 896 Page #2603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्दपक 6] 64.5 [3] जदि उस्सप्पिणिकाले होज्जा कि दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, दुस्समाकाले होजा, दुस्समसुसमाकाले होज्जा, सुसमादुस्समाकाले होज्जा, सुसमाकाले होज्जा, सुसमसुसमाकाले होज्जा ? ___ गोयमा ! जम्मणं पडुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, दुस्समाकाले वा होज्जा, दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, नो सुसमसुसमाकाले होज्जा / संतिभावं पडुच्च नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, नो दुस्समाकाले होज्जा, दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, नो सुसमसुसमाकाले होज्जा। [68-3 प्र.] भगवन् ! यदि पुलाक उत्सपिणी काल में होता है, तो क्या दुःषम-दुःषमाकाल में होता है अथवा दुःषमाकाल में, दुःषम-सुषमाकाल में, सुषम-दुःषमाकाल में, सुषमाकाल में या सुषम-सुषमाकाल में होता है ? [65-3 उ.] गौतम ! जन्म की अपेक्षा (पुलाक) दुःषम-दुषमाकाल में नहीं होता, वह दुःषमाकाल में, दुःषम-सुषमाकाल में या सुषम-दु:षमाकाल में होता है, किन्तु सुषमाकाल में तथा सुषम-सुषमाकाल में नहीं होता। सद्भाव की अपेक्षा वह दुःषम-दुःषमाकाल में, दु:षमाकाल में, सुषमाकाल में तथा सुषम-सुषमाकाल में नहीं होता, किन्तु दुःधम-सुषमाकाल में या सुषम-दुःषमाकाल में होता है। [4] जति नोमोसप्पिणिनोउस्सप्पिणिकाले होज्जा कि सुसमसुसमापलिभागे होज्ना, सुसमापलिभागे होज्जा, सुसमदुस्समापलिभागे होज्जा, दुस्समसुसमापलिभागे होज्जा ? गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमापलिभागे होज्जा, नो सुसमापलिभागे होज्जा, नो सुसमदुस्समापलिभागे होज्जा, दुस्समसुसमापलिभागे होन्जा। [68-4 प्र.] भगवन् ! यदि (पुलाक) नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल में होता है तो क्या वह सुषम-सुषमा-समानकाल में, सुषमा-समानकाल में, सुषम-दुःषमा-समानकाल में या दुःषमसुषमा-समान काल में होता है ? [68-4 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा वह सुषम-सुषमा-समानकाल में, सुषमा-समानकाल में तथा सुषम-दुःषमा-समानकाल में नहीं होता, किन्तु दु:षम-सुषमा-समानकाल में होता है। 69. [1] बउसे गं० पुच्छा / गोयमा! ओसप्पिणिकाले वा होज्ना, उस्सप्पिणिकाले वा होज्जा, नोयोसप्पिणिनोउस्सप्पिणिकाले वा होज्जा। [66-1 प्र.] भगवन् ! बकुश (अवसर्पिणी आदि में से) किस काल में होता है ? [66-1 उ.] गौतम ! वह अवसर्पिणीकाल में, उत्सर्पिणीकाल में अथवा नो अवसपिणीनोउत्सर्पिणीकाल में होता है।। [2] जति प्रोसप्पिणिकाले होज्जा कि सुसमसुसमाकाले होज्जा० पुच्छा। गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमाकाले होज्जा, नो सुसमाकाले होज्जा, Page #2604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406) ' म्याख्याप्रज्ञप्तिमूत्र सुसमदुस्समाकाले वा होज्जा, दुस्समसुसमाकाले वा होज्जा, दुस्समाकाले वा होज्जा, नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा / साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होज्जा। [69-2 प्र.] भगवन् ! यदि बकुश अवसर्पिणीकाल में होता है तो क्या सुषम-सुषमाकाल में होता है ? इत्यादि प्रश्न / 66-2 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा (वह) सुषम-सुषमाकाल में, सुषमाकाल में तथा दुःषम-दुःषमाकाल में नहीं होता, किन्तु सुषम-दुःषमाकाल में, दुःषम-सुषमाकाल में या दुःषमाकाल में होता है / सहरण की अपेक्षा (वह इनमें से किसी भी (आरे के ) काल में होता है। [3] जति उस्सप्पिणिकाले होज्जा कि दुस्समदुस्समाकाले होज्जा० पुच्छा। गोयमा ! जम्मणं पडुच्च नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा जहेव पुलाए / संतिभावं पडुच्च नो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा०; एवं संतिभावेण वि जहा पुलाए जाव नो सुसमसुसमाकाले होज्जा। साहरणं पडुच्च अन्नयरे समाकाले होज्जा। [69-3 प्र.] भगवन् ! यदि ( बकुश ) उत्सर्पिणीकाल में होता है तो क्या दुःषमदुःषमाकाल में होता है ? इत्यादि प्रश्न। {66-3 उ.] गौतम ! जन्म को अपेक्षा वह दुःषम-दुःषमाकाल में नहीं होता (इत्यादि सब कथन) पुलाक के समान जानना। सद्भाव की अपेक्षा वह दुःषम-दुःषमाकाल में नहीं होता, इत्यादि समग्र वक्तव्यता पुलाक के समान यावत् सुषम-सुषमाकाल में नहीं होता, यहाँ तक कहनी चाहिए / संहरण की अपेक्षा (वह इन आरों में से किसी भी काल में होता है। [4] जदि नोमोसप्पिणिनोउस्सप्पिणिकाले होज्जा० पुच्छा। गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च नो सुसमसुसमापलिभागे होज्जा, जहेव पुलाए जाब दुस्समसुसमापलिभागे होज्जा / साहरणं पड़च्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा जहा बउसे / [66-4 प्र.] भगवन् ! यदि बकुश नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल में होता है तो (छह आरों में से किस आरे में होता है ? [66-4.] गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा (वह) सुषम-सुषमा-समानकाल में नहीं होता, इत्यादि सब पुलाक के समान यावत् दु:षम-सुषमा-समानकाल में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए। 70. एवं पडिसेवणाकुसोले वि। [70] इसी प्रकार (बकुश के समान) प्रतिसेवनाकुशील के विषय में कहना चाहिए / 71. एवं कसायकुसीले वि। [71] कषायकुशील के विषय में भी (यही वक्तव्यता है / ) 72. नियंठो सिणातो य महा पुलाए, नवरं एएसि अम्भहियं साहरणं भाणियध्वं / सेसं तं देव / [वारं 12] / Page #2605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहीसवां शतक : उद्देशक 6] [4.7 [72] निग्रन्थ और स्नातक का कथन भी पुलाक के समान है। विशेष यह है कि इनका संहरण अधिक कहना चाहिए, अर्थात् संहरण की अपेक्षा ये सर्वकाल में होते हैं / शेष पूर्ववत् / बारहवाँ द्वार विवेचन-तीन काल : स्वरूप, प्रकार और प्रवस्थिति-जैनदृष्टि से काल के तीन पारिभाषिक विभाग हैं-(१) अवसर्पिणीकाल, (2) उत्सर्पिणीकाल और (3) नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल। जिस काल में जीवों के प्रायुष्य, बल, शरीर आदि का उत्तरोत्तर ह्रास होता जाए, उसे अवसपिणीकाल कहते हैं। जिस काल में जीवों के प्रायष्य, बल. शरीर ग्रादि की उत्तरोत्तर वद्धि ती जाए, उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं / अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दोनों में से प्रत्येक काल दस कोटाकोटि सागरोपम का होता है / यह दोनों प्रकार का काल पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र में होता है / जिस काल में भावों की हानि-वृद्धि न होती हो, सदा एक-से परिणाम रहते हों, उस काल को नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल कहते हैं। यह काल पांच महाविदेह तथा पांच हैमवत आदि यौगलिक क्षेत्रों में होता है। अवसर्पिणीकाल के 6 आरे होते हैं। यथा-(१) सुषम-सुषमा, (2) सुषमा, (3) सुषमदुःषमा, (4) दुःषम-सुषमा, (5) दुःषमा और (6) दुःषम-दुःषमा / उत्सर्पिणीकाल के भी विपरीत क्रम से ये ही 6 आरे होते हैं--(१) दुःषम-दुषमा, (2) दुःषमा, (3) दुःषम-सुषमा, (4) सुषम-दुःषमा, (5) सुषमा और (6) सुषम-सुषमा / ' पुलाक-जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणीकाल के तीसरे और चौथे बारे में तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में होता है। तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव दोनों होते हैं तथा इनमें से जो चौथे बारे में जन्मा हुआ है, उसका सद्भाव (चारित्र-परिणाम) पांचवें आरे में भी होता है। उत्सर्पिणीकाल में जन्म की अपेक्षा पुलाक दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में होता है। अर्थात् दूसरे आरे के अन्त में जन्म होता है और तीसरे बारे में वह चारित्र कार करता है। अतः तीसरे और चौथे पार में जन्म और सदभाव दोनों होते हैं। अर्थात सद्भाव की अपेक्षा पुलाक तीसरे और चौथे आरे में ही होता है, क्योंकि इन्हीं प्रारों में चारित्र की प्रतिपत्ति (अंगीकार) होती है। देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषम-सुषमा के समान काल होता है। हरिवर्ष और रम्पकवर्ष क्षेत्रों में सुषमा के समान काल होता है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में सुषम-दुःषमा के समान काल होता है और महाविदेहक्षेत्र में दुःषम-सुषमा के समान काल होता है। पुलाक का संहरण नहीं होता, जबकि निर्गन्थ और स्नातक का संहरण हो सकता है / इसलिए संहरण की अपेक्षा निर्गन्थ और स्नातक का सद्भाव सर्वकाल में होता है। तात्पर्य यह है कि पहले संहरण किये हुए मनुष्य को निर्गन्थ और स्नातकत्व की प्राप्ति होती है, क्योंकि निर्गन्थ और स्नातक वेदरहित होते हैं और वेदरहित होते मुनियों का संहरण नहीं होता है / जैसा एक प्राचीन गाथा में कहा गया है समणीमवगयवेयं परिहार-पुलायमप्पमत्तं च / चोहसपुटिव पाहारयं च, ग य कोइ संहरइ // 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3374 (ख) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 897 Page #2606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [এমবি अर्थात्-श्रमणी (साध्वी), वेदरहित, परिहार-विशुद्धि-चारित्री, पुलाक, अप्रमत्त-संयत (सप्तम-गुणस्थानवर्ती), चौदह पूर्वधारी और आहारक-लब्धिमान, इनका कोई संहरण नहीं करता। कठिन-शब्दार्थ-पलिभागे-समानकाल में / अभहियं-अधिक अत्यधिक / ' तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध निग्रन्थों की गति, पदवी तथा स्थिति की प्ररूपणा 73. [1] पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे कं गतिं गच्छति ? गोयमा ! देवर्गात गच्छति / [73-1 प्र.} भगवन ! पुलाक मरण पाकर किस गति में जाता है ? [73-1 उ.] गौतम ! वह देवगति में जाता है। [2] देवति गच्छमाणे कि भवणवासीसु उववज्जेज्जा, वाणमंतरेसु उववज्जेज्जा, जोतिसवेमाणिएसु उववज्जेज्जा? | गोयमा ! नो भवणवासोसु, नो वाणमंतरेसु, नो जोतिसेसु वेमाणिएसु, उववज्जेज्जा / वेमाणिएसु उववज्जमाणे जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे, उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे उववज्जेज्जा। [73-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह देवगति में जाता है तो क्या भवनपतियों में उत्पन्न होता है या वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है ? [73-2 उ. गौतम ! वह भवनपतियों, वाणव्यन्तरों तथा ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है / वैमानिक देवों में उत्पन्न होता हुआ पुलाक जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में उत्पन्न होता है / 74. बउसे णं०? . एवं चेव, नवरं उक्कोसेणं अच्चए कप्पे। [74] बकुश के विषय में भी इसी प्रकार जानना ; किन्तु वह उत्कृष्टत: अच्युत देवलोक में उत्पन्न होता है। 75. पडिसेवणाकुसोले जहा बउसे। 175] प्रतिसेवना-कुशील को वक्तव्यता भी बकुश के समान जाननी चाहिए। 76. कसायकुसोले जहा पुलाए, नवरं उक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु। [76] कषायकुशील की वक्तव्यता पुलाक के समान है, विशेष यह है कि वह उत्कृष्टतः अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होता है / 77. णियंठे णं भंते ! 0 ? एवं चेव जाव वेमाणिएसु उववज्जमाणे अजहन्नमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उक्वज्जेज्जा। [77 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ मर कर किस गति में जाता है ? 1. (क) वही, पत्र 897 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा.७, 5, 3375 --. ---. . . Page #2607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [409 [77 उ.] गौतम ! इसका कथन भी पूर्ववत् यावत् वैमानिकों में उत्पन्न होता हया अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होता है, यहाँ तक कहना चाहिए / 78. सिणाए णं भंते ! कालगते समाणे के गति गच्छति ? गोयमा ! सिद्धिगति गच्छई। 78 प्र.] भगवन् ! स्नातक मृत्यु प्राप्त कर किस गति में जाता है ? [78 उ.] गौतम ! वह सिद्धिति में जाता है। 76. पुलाए णं भंते ! देवेसु उववज्जमाणे किं इंदत्ताए उववज्जेज्जा, सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा, तायत्तीसगत्ताए उववज्जेज्जा, लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा, अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा? गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए उववज्जेज्जा, सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा, तायत्तीसगत्ताए उववज्जेज्जा, लोगयालगताए उववज्जेज्जा, नो अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा। [76 प्र.] भगवन् ! देवों में उत्पन्न होता हुआ पुलाक क्या इन्द्ररूप में उत्पन्न होता है या सामानिकदेवरूप में, त्रास्त्रिशरूप में लोकपालरूप में, अथवा अहमिन्द्ररूप में उत्पन्न होता है ? [76 उ.] गौतम ! अविराधना की अपेक्षा वह इन्द्ररूप में, सामानिकरूप में, बायस्त्रिशरूप में अथवा लोकपाल के रूप में उत्पन्न होता है, किन्तु अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न नहीं होता / विराधना की अपेक्षा अन्यतर देव में (अर्थात् भवनपति आदि किसी भी देव में) उत्पन्न होता है / 80. एवं बउसे वि। [80] इसी प्रकार बकुश के विषय में समझना चाहिए। 81. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार जानना। 82. कसायकुसोले० पुच्छा। गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इंदत्ताए वा उववज्जेज्जा जाव अहमिदत्ताए वा उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा। [82 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील क्या इन्द्ररूप में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [82 उ.] गौतम ! अविराधना की अपेक्षा वह इन्द्ररूप में उत्पन्न होता है यावत् अहमिन्द्ररूप में उत्पन्न होता है / विराधना की अपेक्षा अन्यतरदेव (किसी भी देव) में उत्पन्न होता है। 83. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! अविराहणं पडुच्च नो इंदत्ताए उववज्जेज्जा जाव नो लोगपालत्ताए उववज्जेज्जा, अहमिवत्ताए उनबज्जेज्जा / विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उबवज्जेज्जा। [83 प्र.] भगवन् ! निम्रन्थ क्या इन्द्ररूप में उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / Page #2608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 83 उ.] गौतम ! अविराधना को अपेक्षा वह इन्द्ररूप में यावत् लोकपालरूप में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु (एकमात्र) अहमिन्द्र रूप में उत्पन्न होता है / विराधना की अपेक्षा वह किसी भी देवरूप में उत्पन्न होता है। 84. पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई / [84 प्र.] भगवन् ! देवलोकों में उत्पन्न होते हुए पुलाक की स्थिति कितने काल की कही है ? 84 उ.] गौतम ! पुलाक की स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व को और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की है। 85. बउसस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं। [85 प्र.] भगवन् ! (देवलोक में उत्पन्न होते हुए) बकुश की स्थिति कितने काल की कही है ? [85 उ.] गौतम ! बकुश की स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व की और उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है। 86. एवं पडिसेवणाकुसोलस्स वि। [86] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में जानना / 87. कसायकुसीलस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं पलियोवमपुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [87 प्र.] भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए कषायकुशील की स्थिति कितने काल की है ? [87 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य पल्योपमपृथक्त्व की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। 88. णियंठस्स० पुच्छा। गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोसेणा तेत्तीसं सागरोवमाई। [दारं 13] / [88 प्र.] भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए निर्ग्रन्थ की स्थिति कितने काल की होती है ? [88 उ.] गोतम ! उसकी स्थिति अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है / [तेरहवाँ द्वार] Page #2609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [411 विवेचन-पंचविध निर्ग्रन्थों में पुलाकादि चार प्रकार के निग्रन्थ वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं / उक्त चारों जघन्यत: सौधर्मदेवलोक में, उत्कृष्टतः क्रमशः सहस्रार, अच्युत, अच्युत, अनुत्तरविमान एवं अजघन्यानुत्कृष्ट अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते हैं। स्नातक सीधे सिद्धगति में जाते हैं।' पदों का प्रश्न - इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश, लोकपाल और अहमिन्द्र, इन पांच पदों में से पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकशील अविराधना की अपेक्षा अहमिन्द्र को छोड़कर इन्द्रादि शेष चार पदों में उत्पन्न होता है / कबायकु शोल एकमात्र अहमिन्द्र के रूप में उत्पन्न होता है / स्नातक को तो केवल सिद्धति है, अतः वहाँ इन्द्रादि पदों का प्रश्न ही नहीं है / पुलाक आदि के विषयों में इन्द्रादि देवपदवी का जो प्रतिपादन किया है वह ज्ञानादि की विराधना और लब्धि का प्रयोग न करने वाले पुलाकादि की ग्रोक्षा समझना चाहिये / अविराधक ही इन्द्रादि के रूप में उत्पन्न होता है। विराधना करके तो पुलाक यादि भवनपति आदि देवों में भी उत्पन्न होते हैं। पहले पुलाकादि की देवोत्पत्ति के विषय में किये गए प्रश्न के उत्तर में जो एकमात्र वैमानिकों में उत्पाद कहा है, वह संयम की अविराधना की अपेक्षा से जानना चाहिए, क्योंकि संयमादि की विराधना करने वालों का उत्पाद तो भवनपति आदि में ही होता है, वैमानिकों में नहीं। यह भी ध्यान रहे कि यहाँ पुलाकादि पांच का जो देवों में उत्पाद बताया है, वह देवलोक-विषयक प्रश्न होने से देवों में उत्पन्न होने का बताया है, अन्यथा विराधक पुलाक आदि तो चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं। स्नातक के विषय में गति, पदवी एवं स्थिति का प्रश्न नहीं किया गया है, क्योंकि उसकी एकमात्र मोक्षगति है। जहाँ प्रत्येक मुक्तजीव की स्थिति ‘सादि-अनन्त' होती है / ' चौदहवाँ संयमद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों के संयमस्थान और उनका अल्पबहुत्व 86. पुलागस्स णं भंते ! केवतिया संजमठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा संजमठाणा पन्नत्ता। [86 प्र.] भगवन् ! पुलाक के संयमस्थान कितने कहे हैं ? [86 उ.] गौतम ! उसके संयमस्थान असंख्यात कहे हैं / 60. एवं जाव कसायकुसीलस्स। [60] इसी प्रकार यावत् कषाय कुशील तक कहना चाहिए / 61. नियंठस्स णं भंते ! केवतिया संजमठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमठाणे पन्नते। [61 प्र. भगवन् ! निर्गन्थ के संयमस्थान कितने कहे हैं ? [91 उ.] गौतम ! उसके एक ही अजधन्य-अनुत्कृष्ट संयमस्थान कहा है। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 (म. पा. टि.), पृ. 1926-27 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, प. 3380 (ख) विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिये-भगवती उपक्रम, परिशिष्ट नं. 3, पृ. 622 Page #2610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 62. एवं सिणायस्स वि। [62] इसी प्रकार स्नातक के विषय में समझना चाहिए / 63. एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणा-कसायकुसील-नियंठ-सिणायाणं संजमठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवे नियंठस्स सिणाय स्स य एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमठाणे / पुलागस्स संजमठाणा असंखेज्जगुणा / बउसस्स संजमठाणा असंखेज्जगुणा। पडिसेवणाकुसोलस्स संजमठाणा असंखेज्जगुणा / कसायकुसीलस्स संजमठाणा असंखेज्जगुणा। [दारं 14] / [63 प्र.] भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके संयमस्थानों में, किसके संयमस्थान किसके संयमस्थानों से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [63 उ.] गौतम ! निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान अजघन्य-अनुत्कृष्ट एक ही है और सबसे अल्प है। उनसे पुलाक के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं, उनसे बकुश के संयमस्थान असंख्यातगुणा हैं, उनसे प्रतिसेवनाकुशील के संयमस्थान असंख्येयगुणा हैं और उनसे कषायकुशील के संयमस्थान असंख्येयगुणा हैं। [चौदहवाँ द्वार विवेचन-संयमस्थानों की गणना और अल्पबहुत्व-पुलाक, बकुश, प्रतिसे बनाकुशील और कषायकुशील के संयमस्थान असंख्यात हैं। संयमस्थान कहते हैं-- चारित्र के स्थान अर्थात् शुद्धि की प्रकर्षता-अप्रकर्षता-कुत भेद को। वे असंख्य होते हैं। उनमें प्रत्येक संयमस्थान के समस्त आकाशप्रदेशों को सर्व प्राकाशप्रदेशों से गुणा करने पर जितने अनन्तानन्त पर्याय (अश) होते हैं, उतने एक संयमस्थान के पर्याय होते हैं / पुलाक के ऐसे संयमस्थान असंख्य होते हैं, क्योंकि चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम विचित्र होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के संयमस्थानों के विषय में भी जानना चाहिए। निम्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान तो एक ही होता है, क्योंकि कषाय का परिपूर्ण क्षय या उपशम एक ही प्रकार का होता है / अत: उसकी शुद्धि भी एक ही प्रकार की होती है / एक होने के कारण ही उसका संयमस्थान भी एक ही होता है। अतः संयमस्थानों के अल्पबहुत्व-सूत्र में कहा गया है कि निर्ग्रन्थ और स्नातक का संयमस्थान एक ही होने से सबसे अल्प है / पुलाक आदि के संयमस्थान क्रमशः क्षयोपशम की विचित्रता के कारण उत्तरोत्तर असंख्य-असंख्यगुणे होते है / ' पन्द्रहवाँ निकर्ष (सन्निकर्ष) द्वार : पांचों प्रकार के निर्ग्रन्थों में अनन्तचारित्रपर्याय 64. पुलागस्स णं भंते ! केवतिया चरित्तपज्जवा पन्नत्ता? गोयमा ! अणंता चरितपज्जवा पन्नत्ता। [64 प्र.] भगवन् ! पुलाक के चारित्र-पर्यव कितने होते हैं ? [64 उ.] गौतम ! पुलाक के चारित्र-पर्यव अनन्त होते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 898 Page #2611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसा शनक : उशक 6) 65. एवं जाव सिणायस्स / [95] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक कहना चाहिए। विवेचन-चारित्र-पर्याय : क्या और कितने ? चारित्र अर्थात् सर्वविरतिरूप परिणाम, उसके पर्यव या पर्याय अर्थात् तरतमताजनित भेद या अंश को चारित्र-पर्याय कहते हैं। वे बुद्धिकृत या विषयकृत अविभागपरिच्छेद रूप (जिसके फिर विभाग न हो सक) होते हैं। ऐसे चारित्र-पर्याय अनन्त होते हैं / पुलाक से स्नातक तक के चारित्र-पर्याय अनन्त होते हैं / पंचविध निर्ग्रन्थों के स्व-पर-स्थान-सन्निकर्ष चारित्रपर्यायों से हीनत्वादि प्ररूपणा 66. पुलाए णं भंते ! पुलागस्स सटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अब्भहिए ? गोयमा ! सिय होणे, सिय तुल्ले, सिय अभहिए / जदि होणे अणंतभागहोणे वा असंखेज्जतिभागहोणे वा, संखेज्जइभागहीणे वा, संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे वा, अणंतगुणहोणे वा / अह अन्भहिए अणंतभागमभहिए वा, असंखेज्जतिभागमभहिए वा, संखेज्जलिभागमभहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वा, असंखेज्जगुणमन्भहिए वा, अणंतगुणमब्भहिए वा। [96 प्र.] भगवन् ! एक पुलाक, दूसरे पुलाक के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? / . [96 उ.] गौतम ! वह कदाचित् हीन होता है, कदाचित् तुल्य और कदाचित अधिक होता है / यदि हीन हो तो अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन तथा संख्यातभागहीन होता है एवं संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन होता है। यदि अधिक हो तो अनन्तभाग-अधिक असंख्यातभाग अधिक और संख्यातभाग-प्रधिक होता है, तथैव संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण-अधिक और अनन्तगुण-अधिक होता है / 17. पुलाए गं भंते ! बउसस्स परटुरणसग्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अभहिए ? गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहोणे / [67 प्र.] भगवन् ! पलाक अपने चारित्र-पर्यायों से, बकुश के परस्थान-सन्निकर्ष (विजातीय चारित्र-पर्यायों के परस्पर संयोजन) की अपेक्षा हीन हैं, तुल्य हैं या अधिक हैं ? [97 उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, तुल्य या अधिक नहीं होते / अनन्तगुणहीन होते हैं / 68. एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि / [98] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में कहना चाहिए। 66. कसायकुसीलेण समं अट्ठाणपडिए जहेब सट्ठाणे। [99] कषायकशील से पुलाक के स्वस्थान के समान षस्थानपतित कहना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 900 Page #2612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414) [व्यास्याप्रप्तिसूत्र 100. नियंठस्स जहा बउसस्स। |100] बकुश के समान निर्ग्रन्थ के विषय में भी कहना चाहिए / 101. एवं सिणायस्स वि / [101] स्नातक का कथन भी बकुश के समान है / 102. बउसे गं भंते ! पुलागस्स पराणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि किं होणे, तुल्ले, अब्भहिए? गोयमा ! नो होणे, नो तुल्ले, अमहिए; प्रगतगुणमभहिए। [102 प्र. भगवन् ! बकुश, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों की अपेक्षा हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [102 उ.] गौतम ? वह हीन भी नहीं और तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक है; अनन्तगुणअधिक है। 103. बउसे णं भंते ! बउसस्स सटाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं० पुच्छा। गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अब्भहिए / जदि होणे छट्ठाणवडिए / [103 प्र.] भगवन् ! बकुश, दूसरे बकुश के स्वस्थान-सन्निकर्ष से (सजातीय-पर्यायों से) चारित्रपर्यायों ( की अपेक्षा ) से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [103 उ. | गौतम वह कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो (' यावत् ) षट्स्थान-पतित होता है। 104. बउसे गं भंते ! पडिसेवणाकुसोलस्स परट्ठाणसग्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे० ? छट्ठाणवडिए। [104 प्र.] भगवन् ! बकुश, प्रतिसेवनाकुशील के परस्थान-सन्निकर्ष से, चारित्र-पर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [104 उ.] गौतम ! वह षट्स्थानपतित होता है। 105. एवं कसायकुसीलस्स वि। [105] इसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा से भी जान लेना चाहिए। 106. बउसे गं भंते ! नियंठस्स परढाणसन्निकासेणं चरित्तपज्जवेहि पुच्छा। गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहीणे। [106 प्र.! भगवन् ! बकुश निर्ग्रन्थ के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक होते हैं ? 106 उ.] गौतम ! वे हीन होते हैं, न तो तुल्य होते हैं और न अधिक होते हैं / अनन्तगुण-हीन होते हैं। Page #2613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [415 107. एवं सिणायस्स वि। / 107 / इसी प्रकार स्नातक की अपेक्षा भी जानना चाहिए / 108. पडिसेवणाकुसोलस्स एवं चेव बउसवत्तध्वया भाणियध्वा / [108 प्रतिसेवनाकुशील के लिये भी इसी प्रकार बकुश की बक्तव्यता कहनी चाहिए / 106. कसायकुसोलस्स एस चेव बउसवत्तब्धया, नवरं पुलाएण वि समं बढाणपडिते। [109] कषायकुशील के लिए भी यही बकुश की वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि पुलाक के साथ (तदपेक्षया) षट्स्थानपतित कहना चाहिए। 110. णियंठे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि० पुच्छा / गोयमा ! नो होणे, नो तुल्ले, प्रभाहिए; अणंतगुणमहिए। |110 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ, पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से, चारित्रपर्यायों से हीन है, तुल्य है या अधिक है ? [110 उ.] गौतम ! वह हीन नहीं, तुल्य भी नहीं, किन्तु अधिक है, अनन्तगुण-अधिक है। 111. एवं जाव कसायकुसीलस्स / [111] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील की अपेक्षा से भी जान लेना चाहिए / 112. नियंठे णं भंते ! नियंठस्स सट्टाणसन्निगासेणं० पुच्छा। गोयमा ! नो होणे, तुल्ले, नो अब्भहिए। [112 प्र. भगवन् ! एक निर्ग्रन्थ, दूसरे निर्ग्रन्थ के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन है या अधिक है ? [112 उ.] गौतम ! वह होन नहीं और अधिक भी नहीं, किन्तु तुल्य होता है। 113. एवं सिणायस्स वि / [113] इसी प्रकार स्नातक के साथ भी जानना चाहिए / 114. सिणाए णं भंते ! पुलागस्स परटुाणसन्नि ? एवं जहा नियंठस्स वत्तम्बया तहा सिणायस्स वि भाणियब्वा जाव [114 प्र.] भगवन् ! स्नातक पुलाक के परस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य अथवा अधिक है ? [114 उ.] गौतम ! जिस प्रकार निर्गन्थ की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार स्नातक की वक्तव्यता भी जाननी चाहिए। 115. सिणाए णं भंते ! सिणायस्स सट्ठाणसन्निगासेणं० पुच्छा / गोयमा ! नो होणे, तुल्ले, नो अब्भहिए। Page #2614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [115 प्र.) भगवन् ! एक स्नातक दूसरे स्नातक के स्वस्थान-सन्निकर्ष से चारित्र-पर्यायों से हीन, तुल्य या अधिक है ? |115 उ.] गौतम ! वह न तो होन है और न अधिक है, किन्तु तुल्य है। पंचविध निर्ग्रन्थों के जघन्य-उत्कृष्ट चारित्रपर्यायों का अल्पबहुत्व 116. एएसि गं भंते ! पुलाग-बकुस-पडिसेवणाकुसोल-कसायफुसील-नियंठ-सिणायाणं जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? __ गोयमा ! पुलागस्स कसायकुसोलस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोन्ह वि तुल्ला सम्वत्थोवा / पुलागस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / बउसस्स पडिसेवणाकुसीलस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अणंतगुणा / बउसस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा प्रणंतगुणा। पडिसेवणाकुसीलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / कसायकुसोलस्स उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / नियंठस्स सिणायस्स य एएसि णं अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला अर्णतगुणा / [दारं 15] / [116 प्र.] भगवन ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकूशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक, इनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्र-पर्यायों में किसके चारित्र-पर्याय किनके चारिव-पर्यायों से अल्प , बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? 116 उ.] गौतम ! (1) पुलाक और कषायकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र-पर्याय परस्पर तुल्य हैं और सबसे अल्प है। (2) उनसे पुलाक के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण हैं। (3) उनसे बकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन दोनों के जघन्य चारित्र-पर्याय परस्पर तुल्य हैं और अनन्तगुणे हैं। (4) उनसे बकुश के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुणे हैं। (5) उनसे प्रतिसेवनाकुशील के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण हैं / (6) उनसे कषायकुशील के उत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण हैं और (7) उनसे निर्ग्रन्थ और स्नातक, इन दोनों के अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्र-पर्याय अनन्तगुण हैं और परस्पर तुल्य हैं। पन्द्रहवाँ द्वार] विवेचन--स्वस्थान-सन्निकर्ष और परस्थान-सनिकर्ष-पुलाक प्रादि का पुलाक आदि स्व-स्व के साथ सन्निकर्ष---संयोजन को 'स्वस्थान-सन्निकर्ष' कहते हैं। पुलाक का बकुश आदि पर के साथ सन्निकर्ष को परस्थान-सन्निकर्ष कहते हैं।' चारित्र-पर्याय : हीन, तुल्य और अधिक-विशुद्ध संयम सम्बन्धी विशुद्धतर (चारित्र) पर्यायों की अपेक्षा अविशुद्ध संयम सम्बन्धी अविशुद्धतर (चारित्र) पर्याय होन' कहलाते हैं। गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध से उन न्यून पर्यायों वाला साधु भी 'हीन' कहलाता है। शुद्ध पर्यायों की -."-- - -- - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 900 Page #2615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [417 समानता के कारण चारित्रपर्याय परस्पर 'तल्य' कहलाते हैं। और विशद्धतर पर्यायों के सम्बन्ध से 'अधिक' (चारित्रपर्याय) कहलाते हैं।' सजातीय चारित्रपर्यायों से षट्स्थानपतित : कैसे और क्यों ?–एक पुलाक, दूसरे पुलाक के साथ सजातीय चारित्र-पर्यायों से षट्स्थानपतित होता है। षट्स्थानहीन यथा-(१) अनन्तभागहीन (2) असंख्यातभागहीन, (3) संख्यातभागहीन, (4) संख्येयगुणहीन, (5) असंख्येय गुणहीन और (6) अनन्तगुणहीन / इसी प्रकार अधिक के भी षट्स्थानपतित होते हैं / यथा (1) अनन्तभाग-अधिक (2) असंख्यातभाग-अधिक, (3) संख्यातभाग-अधिक, (4) संख्येयगुण-अधिक, (5) असंख्येयगुणअधिक और (6) अनन्तगुण-अधिक / - इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--प्रत्येक चारित्र के अनन्त पर्याय होते हैं / एक ही चारित्र का पालन करने वाले अनेक व्यक्ति होते हैं / यथाख्यातचारित्र के सिवाय दूसरे चारित्र के पालन करने वाले साधुनों के परिणामों में समानता और असमानता--दोनों ही हो सकती है / असमानता के स्वरूप को समझाने के लिए षड्गुणहानि-वृद्धि की प्ररूपणा की गई है / यथा (1) अनन्तवाँ भाग-हीन-चारित्र पालने वाले दो साधुओं में एक के जो चारित्र-पर्याय हैं, उनके अनन्त विभाग किये जाएँ, उनसे दूसरे साधु के चारित्रपर्याय एक विभाग कम हैं तो वह कमी (न्यूनता) अनन्तवें भाग-हीन कहलाती है।। (2) असंख्यातवा भाग-हीन- इसी प्रकार चारित्रपालक दो साधुओं में से एक साधु के चारित्र के असंख्येय विभाग किए जाएँ, उससे यदि दूसरे साधुओं का चारित्र-पर्याय एक भाग कम हो तो वह कमी असंख्येयभाग-हीन मानी जाती है / (3) संख्यातवें भाग-हीन--उपर्युक्त रीति से एक मुनि के चारित्र के संख्यात भाग किये जाएँ, उससे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो तो वह 'संख्यातवाँ भाग-हीन' कहलाता है / (4) संख्यातगुण-हीन--उपर्युक्त रीति से एक साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको संख्यातगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो सके तो उस दूसरे साधु का चारित्र संख्यातगुण-हीन होता है। (5) असंख्यातगुण-हीन—दो साधुओं में से दुसरे साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं , उन्हें असंख्यातगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो तो उसका चारित्र असंख्यातगुण-हीन कहा जाता है। (6) अनन्तगुण-हीन दो साधुओं में से दूसरे साधु के जितने चारित्र-पर्याय हैं, उनको मनन्तगुणा किया जाए, तब वह पहले साधु के बराबर हो, तो वह अनन्तमुण-हीन कहलाता है। इसी प्रकार वृद्धि (अधिक) के भी षट्स्थानपतित का क्रम समझना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 9.. Page #2616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [स्माल्याप्रप्तिसूत्र चारित्र-पर्याय की न्यूनाधिकता का मापदण्ड-सामायिक चारित्र के अनन्त पर्याय हैं / किसी के सामायिक चारित्र के अनन्त पर्याय अधिक हैं और किसी के कम हैं, परन्तु सभी सामायिक चारित्र के पालने वालों के अनन्त पर्याय हैं ही। इनको समझाने के लिए जिसके सामायिक चारित्र के सबसे अधिक पर्याय हैं, वे भी हैं तो अनन्त ही और सभी आकाश-प्रदेशों से अनन्तगुण अधिक हैं / असत्कल्पना से उदाहरण द्वारा समझाने के लिए सर्वाधिक संयम-पर्याय वाले संयमी के अनन्त पर्यायों को दस हजार के रूप में मान लिया जाय / लोक में जीव भी अनन्त हैं, किन्तु असत्कल्पना से सभी जीवों को एक सौ मान लिया जाए, लोकाकाश के प्रदेश असंख्य है, उन्हें असत्कल्पना से पचास मान लिया जाए और उत्कृष्ट संख्यात-राशि को असत्कल्पना से दस मान लिया जाए। जैसे कि सामायिक चारित्र के सबसे अधिक पर्याय अनन्त हैं। असत्कल्पना से उन्हें 1000 मान लिया जाए। जीव अनन्त हैं। उन्हें असत्कल्पना से 100 मान लिया जाए / १-अनन्तभाग-हीन अब 10000 में 100 का भाग दिया जाए, क्योंकि एक तो पूर्ण पर्याय वाला है और दूसरा अनन्त वाँ भाग हीन है / अतः 10000 में 100 का भाग देने पर लब्धांक 100 प्राते हैं / अर्थात्१००००-.-१०० = 9600 उसके चारित्र-पर्याय हैं / यह 100 पर्याय (अनन्तवों भाग-हीन) ही अनन्तवाँ भाग होता हैं। २-असंख्यातभाग-हीन-एक के तो पूर्ण अनन्तपर्याय हैं, जिन्हें असत्कल्पना से 10000 माना है / दुसरे साधु के चारित्र-पर्याय उससे असंख्यातवाँ भाग-हीन हैं। असंख्यात को असत्कल्पना से 50 माना है / 10000 में 50 का भाग देने पर लब्धांक 200 आते हैं। इस प्रकार 10000200 - 6800 पर्याय हैं / यह 200 पर्याय असंख्यातवाँ भाग-हीन हैं / ३-संख्यातभाग-हीन-एक साधु के तो पूर्ण चारित्रपर्याय अनन्त हैं, जिन्हें असत्कल्पना से 10000 मान लीजिए / दूसरे साधक के चारित्र-पर्याय उससे संख्यातवाँ भाग हीन हैं / असत्कल्पना से संख्यात को 10 माना है / 10000 में 10 का भाग देने पर लब्धांक 1000 पाते हैं / अतः उसके 10000 में से 1000 शेष निकालने पर 6000 पर्याय शेष रहते हैं। पहले से इसके 1000 पर्याय {संख्यातभाग) हीन हैं। ४--संख्यातगुण-हीन-जो संख्यातगुण-हीन है, उसके 1000 पर्याय हैं। संख्यात को असत्कल्पना से 10 माना है / पहले के चारित्र-पर्याय अनन्त हैं, दूसरे के 1000 पर्याय को संख्यातगुण-~-यानी 10 से गुणा करने पर वह पहले वाले (अर्थात् जिसके अनन्त पर्याय हैं और जिन्हें असत्कल्पना से 10000 माना है) के बराबर होता है / ५--असंख्यातगुण-होन-जो असंख्यातगुण-हीन है; जिसके 200 पर्याय हैं। पहले के तो अनन्तपर्याय हैं (जिन्हें असत्कल्पना से 10000 माना है) / अतः 200 पर्याय को असत्कल्पना से ५०वाँ भाग माना है / अत: 200 को 50 से गुणा करें तब वह पहले के बराबर होता है / / ६-अनन्तगण-हीन-जिसके अनन्तगुण-हीन पर्याय हैं, उसके 100 पर्याय माने हैं। पहले के तो अनन्त पर्याय अर्थात् असत्कल्पित 10000 पर्याय हैं / अतः इसके 100 पर्यायों को 100 से गुणा किया जाए तब वह पहले वाले के बराबर होता है। अतः इसके पर्याय अनन्तगुण-हीन हैं। Page #2617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पायोसा शतक : उद्दशक 3] इसका रेखाचित्र इस प्रकार है .... पूर्ण पर्याय पालने वाले अपूर्ण पर्याय पालने वाले 10000 प्रतियोगी 6600 अनन्तवाँ भाग हीन 10000 प्रतियोगी 1800 असंख्यातवा भाग हीन 10000 प्रतियोगी 6000 संख्यातवा भाग हीन 10000 प्रतियोगी 1000 संख्यातगुण-हीन 10000 प्रतियोगी 200 असंख्यातगुण-हीन 10000 प्रतियोगी 100 अनन्तगुण-हीन जिस प्रकार षट् स्थानपतित हीन का निरूपण किया गया है, उसी प्रकार षट्स्थानपतित अधिक (वृद्धि) का भी समझना चाहिए। यह सामायिक चारित्र-पर्याय के षट्स्थानपतित का उदाहरण है। इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय ग्रादि चारित्रों पर तथा पुलाक आदि निम्रन्थों पर घटित कर लेना चाहिए।' परस्थान के साथ षट्स्थानपतित-परस्थान का अर्थ है--विजातीय / जैसे कि पुलाक, पुलाक के साथ तो सजातीय है, किन्तु बकुश आदि के साथ विजातीय है। पुलाक तथाविध विशुद्धि के अभाव से बकुश से हीन है। जिस प्रकार पुलाक को पुलाक के साथ षट्स्थानपतित कहा है, उसी प्रकार कषायकुशील की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित समझना चाहिए / पुलाक, कषाय कुशील से अविशुद्ध संयमस्थान में रहने के कारण कदाचित् हीन भी होता है। समान-संयमस्थान में रहने पर कदाचित् समान भी होता है / अथवा शुद्धतर संयमस्थान में रहने पर कदाचित् अधिक भी होता है। पुलाक और कषायकुशील के सर्वजघन्य संयमस्थान सबसे नीचे हैं / वहाँ से वे दोनों प्रसंख्य संयमस्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, क्योंकि वहाँ तक उन दोनों के समान प्रध्यवसाय होते हैं। तत्पश्चात् पुलाक हीनपरिणाम वाला होने से प्रागे के संयमस्थानों में नहीं जाता, किन्तु वहाँ रुक जाता है। तत्पश्चात कषायकुशील असंख्य संयमस्थानों तक ऊपर जाता है। वहाँ से कषायकशील. प्रतिसेवनाकशील और बकुश, ये तीनों साथ-साथ असंख्यसयमस्थानों तक फिर वहाँ बकुश रुक जाता है। इसके बाद प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील, ये दोनों असंख्य संयमस्थानों तक जाते हैं / वहाँ जाकर प्रतिसेवनाकुशील रुक जाता है / फिर कषायकुशील उससे मागे असंख्य संयमस्थानों तक जाता है। फिर वहाँ जाकर वह भी रुक जाता है। तदनन्तर निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों उससे आगे एक संयमस्थान तक जाते हैं। इस प्रकार पुलाक एवं कषायकुशील के अतिरिक्त शेष सभी निग्रंथों के चारित्र-पर्यायों से अनन्तगुणहीन होता है / बकुश, पुलाक से विशुद्धतर परिणाम वाला होने से अनन्तगुण अधिक होता है। बकुश, बकुश के साथ विचित्र परिणामवाला होने से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील से भी इसी प्रकार होनादि होता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक से तो वह हीन ही होता है। प्रतिसेवनाकुशोल की वक्तव्यता बकुश के समान है। कषायकुशील 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 900.901 Page #2618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र भी बकुश के समान है। पुलाक से बकुश अधिक कहा है, किन्तु यहाँ पर कषायकुशील, पुलाक के साथ हीनादि षट्स्थानपतित कहना चाहिए। क्योंकि उसके परिणाम पुलाक की अपेक्षा हीन, तुल्य और अधिक होते हैं।' सोलहवाँ योगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में योगों की प्ररूपणा 117. पुलाए णं भंते ! कि सजोगो होज्जा, अजोगी होज्जा ? गोयमा! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा। [117 प्र.] भगवन् ! पुलाक सयोगी होता है या अयोगी ? [117 उ.] गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं। 116. जति सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा ? गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा। [118 प्र.] भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है तो क्या वह मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? [118 उ.] गौतम ! वह मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है, काययोगी भी होता है / 116, एवं जाव नियंठे। [116] इसी प्रकार यावत् निर्ग्रन्थ तक जानना चाहिए / 120. सिणाए गं० पुच्छा। गोयमा ! सजोगी वा होज्जा, अजोगी वा होज्जा। [120 प्र.] भगवन् ! स्नातक सयोगी होता है या अयोगी ? [120 उ.] गौतम ! वह सयोगी भी होता है और अयोगी भी होता है / 121. जदि सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा ? सेसं जहा पुलागस्स / [वारं 16] / [121 प्र.] भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है तो क्या मनोयोगी होता है ? इत्यादि प्रश्न / [121 उ.] इसका समाधान पुलाक के समान है / [सोलहवां द्वार] विवेचन-निष्कर्ष-पुलाक से लेकर निम्रन्थ तक सयोगी--विशेषतः तीनों योग वाले होते हैं, जबकि स्नातक सयोगी और अयोगी दोनों प्रकार के होते हैं। शैलेशी अवस्था के पहले तक वे सयोगी होते हैं तथा शैलेशी अवस्था में प्रयोगी बन जाते हैं। सत्तरहवा उपयोगद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में उपयोग-प्ररूपरणा 122. पुलाए गं भंते ! कि सागारोवउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते होज्जा ? गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 901 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) बही, भा. 7, पृ. 3393 -..-. Page #2619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6 ] 1122 प्र. भगवन् ! पुलाक साकारोपयोगयुक्त होता है या अनाकारोपयोगयुक्त ? [122 उ.] गौतम ! वह साकारोपयोगयुक्त भी होता है और अनाकारोपयोगयुक्त भी होता है। 123. एवं जाव सिणाए / [दारं 17] / [123] इसी प्रकार यावत् स्नातक तक कहना चाहिए / [सत्तरहवाँ द्वार अठारहवाँ कषायद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कषाय-प्ररूपरगा 124. पुलाए णं भंते कि सकसायी होज्जा, अकसायी होना ? गोयमा ! सफसायो होज्जा, नो अकसायी होज्जा। [124 प्र.] भगवन् ! पुलाक सकषाय होता है या अकषाय ? [124 उ.] गौतम ! वह सकषाय होता है, अकषाय नहीं। 125. जइ सकसायी से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा ? गोयमा ! चउसु, कोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा / [125 प्र.] भगवन् ! यदि वह सकषाय होता है, तो कितने कषायों में होता है ? . [125 उ.] गौतम ! वह क्रोध, मान, माया और लोभ, इन चारों कषायों में होता है / 126. एवं बउसे वि। [126] इसी प्रकार बकुश के विषय में भी जानना चाहिए / 127. एवं पडिसेवणाकुत्तीले वि। [127] यही कथन प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए / 128. कसायकुसीले पं० पुच्छा। गोयमा! सकसायी होज्जा, नो प्रकसायी होज्जा / 1128 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील सकषाय होता है या अकषाय ? (128 उ. गौतम ! वह सकषाय होता है, अकषाय नहीं / 126. जति सकसायी होज्जा से गं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा? गोयमा! चउसु वा, तिसु वा, दोसुवा, एगम्मि वा होज्जा। चउसु होमाणे चउसु संजलणकोह-माण-माया-लोभेसु होज्जा, तिसु होमाणे तिसु संजलणमाण-माया-लोभेसु होज्जा, दोसु होमाणे संजलणमाया-लोभेसु होज्जा, एगम्मि होमाणे एगम्मि संजलणे लोभे होज्जा। [129 प्र. भगवन् ! यदि बह सकषाय होता है, तो कितने कषायों में होता है ? [126 उ.] गौतम ! वह चार, तीन, दो या एक कषाय में होता है। चार कषायों में होने पर संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ में होता है। तीन कषाय में होने पर संज्वलन के मान, माया और लोभ में होता है। दो कषायों में होने पर संज्वलन के माया और लोभ में होता है और एक कषाय में होने पर संज्वलन लोभ में होता है। Page #2620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42) व्याख्याप्राप्त सूत्र 130. नियंठे णं. पुच्छा। गोयमा ! नो सकसायी होज्जा, अफसायो होज्जा। {130 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ सकषाय होता है या अकषाय ? [130 उ.] गौतम ! वह सकषाय नहीं होता, किन्तु अपाय होता है। 131. जदि अकसायी होज्जा कि उवसंतकसायी होज्जा, खोकसायी होज्जा ? गोयमा ! उवसंतकसायी बा होज्जा, खोणकसायी वा होज्जा / [131 प्र.] भगवन् ! यदि निर्गन्थ अकषाय होता है तो क्या उपशान्तकषाय होता है, मथवा क्षीणकषाय ? [131 उ.] गौतम ! वह उपशान्तकपाय भी होता है और क्षीणकषाय भी। 132. सिणाए एवं चेव, नवरं नो उबसंतकसायी होज्जा, खीणकसायो होज्जा। [वारं 18] / 132] स्नातक के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष यह है कि वह उपशान्तकषाय नहीं होता, किन्तु क्षीणकषाय होता है / [अठारहवाँ द्वार] विवेचन-सकषाय या प्रकषाय ?--पुलाक से लेकर प्रतिसेवनाकुशील तक क्रोधादि चारों होते हैं, क्योंकि उनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं होता। कषायकुशील में जो चार, तीन, दो और एक कषाय का कथन किया है, उसका तात्पर्य यह है कि जब वह चार कषाय में होता है, तब उसके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चारों कषाय होते हैं। उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी में जब संज्वलन क्रोध का उपशम या क्षय हो जाता है, तब उसके तीन कषाय होते हैं। जब संज्वलन मान का उपशम या क्षय हो जाता है तब दो कषाय होते हैं और जब संज्वलन माया का उपशम या क्षय हो जाता है, तब सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में एक मात्र संज्वलन लोभ ही शेष रह जाता है। निर्ग्रन्थ और स्नातक दोनों अकषाय होते हैं।' उन्नीसवाँ लेश्याद्वार : लेश्याओं की प्ररूपरणा 133. पुलाए गं भंते ! कि सलेस्से होज्जा, मलेस्से होज्जा ? गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा / {133 प्र.] भगवन् ! पुलाक सलेश्य होता है या अलेश्य ? 1133 उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है अलेश्य नहीं / 134. जदि सलेस्से होज्जा से गं भंते ! कतिसु लेसासु होज्जा ? गोयमा ! तिसु विसुखलेसासु होज्जा, तं जहा-तेउलेसाए, पम्हलेसाए, सुक्कलेसाए / [134 प्र. भगवन् ! यदि वह सलेश्य होता है तो कितनी लेश्यामों में होता है ? 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 901 / / (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3356 . .. . Page #2621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [134 उ.] गौतम ! वह तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है, यथा-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या में। 135. एवं बउसस्स वि। 1135] इसी प्रकार बकुश के विषय में भी कहना चाहिए / 136. एवं पडिसेवणाकुसोले वि। |136] प्रतिसेवनाकुशील के विषय में भी यही वक्तव्यता जाननी चाहिए / 137. कसायकुसोले० पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो प्रलेस्से होज्जा। [137 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील सलेश्य होता है, अथवा अलेश्य ? [137 उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है, अलेश्य नहीं / 138. जति सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु होज्जा ? गोयमा ! छसु लेसासु होज्जा, तं जहा-कण्हलेसाए जाव सुक्कलेसाए / [138 प्र. भगवन् ! यदि वह सलेश्य होता है तो कितनी लेश्याओं में होता है ? [138 उ.] गौतम ! वह छहों लेश्याओं में होता है। यथा--कृष्णलेश्या यावत् शुक्लले श्या में। 136. नियंठे णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से होज्जा, नो अलेस्से होज्जा / (139 प्र.] भगवन् ! निग्रन्थ सलेश्य होता है या अलेश्य ? [139 उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है, अलेश्य नहीं। 140. जदि सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु होज्जा? गोयमा ! एक्काए सुक्कलेसाए होज्जा। [140 प्र.] भगवन् ! यदि निम्रन्थ सलेश्य होता है, तो कितनी लेश्याएँ पाई जाती हैं ? [140 उ.] गौतम ! निग्रन्थ एकमात्र शुक्ल लेश्या में होता है ? 141. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! सलेस्से वा होज्जा, अलेस्से वा होज्जा। [141 प्र. भगवन् ! स्नातक सलेश्य होता है अथवा अलेश्य होता है ? [ 141 उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है, अलेश्य नहीं। 142. जति सलेस्से होज्जा से णं भंते ! कतिसु लेसासु होज्जा ? गोयमा ! एगाए परमसुक्काए लेसाए होज्जा / [दारं 16] / [142 प्र.] भगवन् ! यदि स्नातक सलेश्य होता है, तो वह कितनी लेश्याओं में होता है ? [142 उ.] गौतम ! वह एक परम शुक्ललेश्या में होता है / [उन्नीसवाँ द्वार Page #2622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] प्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन --पंचविध निग्रन्थों में लेश्या का रहस्य-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील, ये तीनों तीन विशुद्ध लेश्याओं में होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि भावलेश्या की अपेक्षा ये तीनों तीन प्रशस्त लेश्याओं (तेजो, पद्म और शुक्ल) में होते हैं। कषायकुशील के विषय में मूलपाठ में छह लेश्याएं बताई हैं / वृत्तिकार का मन्तव्य इस सम्बन्ध में यह है कि इनमें कृष्णादि तीन लेश्याएँ तो मात्र द्रव्यलेश्याएँ हैं, किन्तु इनमें द्रव्यलेश्या भी छह और भावलेश्या भी छह समझनी चाहिए। इनमें द्रव्य और भावरूप छहों लेश्याएँ किस प्रकार घटित होती हैं, इसका स्पष्टीकरण भगवती. प्रथम शतक के प्रथम और द्वितीय उद्देशक के विवेचन में किया गया है। स्नातक में एकमात्र परम शुक्लध्यान बताया गया है, उसका आशय यह है कि शुक्लध्यान के तीसरे भेद के समय ही एक परम शुक्ललेश्या होती है, दूसरे समय में तो उसमें शुक्ललेश्या ही होती है, किन्तु वह शुक्ललेश्वा दूसरे जीवों की शुक्ललेश्या की अपेक्षा परम शुक्ललेश्या होती है / बोसवाँ परिणामद्वार : वर्धमानादि परिणामों की प्ररूपणा 143. पुलाए णं भंते ! कि बड़माणपरिणामे होज्जा, हायमाणपरिणामे होज्जा, प्रवट्टियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! बड्डमाणपरिणामे वा होज्जा, हायमाणपारिणामे वा होज्मा, प्रवट्टियपरिणामे वा होज्जा। [143 प्र. भगवन् ! पुलाक, वर्द्धमान-परिणामी होता है, होयमान-परिणामी होता है अथवा अवस्थित-परिणामी होता है ? [143 उ.] वह वर्द्धमानपरिणामी भी होता है, हीयमाणपरिणामी भी अवस्थितपरिणामी भी होता है ? 144. एवं जाव कसायकुसीले / [144] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना चाहिए / 145. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! वष्टमाणपरिणामे होज्जा, नो हायमाणपरिणामे होज्जा, अवट्टियपरिणामे वा होज्जा। [145 प्र.] भगवन् ! निग्रन्थ किस परिणाम वाला होता है ? इत्यादि पृच्छा / {145 उ.] गौतम ! वह वर्द्धमान और अवस्थित परिणाम वाला होता है, किन्तु होयमानपरिणामी नहीं होता। ---- 1. भगवतो. अ. वत्ति, पत्र 902 Page #2623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीस शतक : उद्देशक 6] [425 146. एवं सिणाए वि। [146] इसी प्रकार स्नातक के विषय में भी जानना चाहिए। 147. [1] पुलाए णं भंते ! केवतियं कालं वडमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / (147-1 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने काल तक वर्द्धमानपरिणाम में होता है ? [147-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमानपरिणामी होता है। [2] केवतियं कालं हायमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [147-2 प्र.] भगवन् ! वह कितने काल तक होयमानपरिणामी होता है ? [147-2 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक / [3] केवइयं कालं अवढियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं सत्त समया। 1147-3 प्र.] भगवन् ! वह कितने काल तक अवस्थितपरिणामी होता है ? [147-3 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सात समय तक होता है / 148. एवं जाव कसायकुसोले। | 148] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक पूर्ववत् जानना चाहिए। . 146. [1] नियंठे णं भंते ! केवतियं कालं वट्टमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / | 146-1 प्र.! भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितने काल तक वर्द्धमानपरिणामी होता है ? [146-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (बर्द्धमानपरिणामी होता है / ) [2] केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुतं / [149-2 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ वितने काल तक अवस्थित-परिणामी होता है ? [146-2 उ.| गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अवस्थितपरिणामी रहता है / 150. [1] सिणाए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [150-1 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने काल तक वर्द्धमानपरिणामी होता है ? Page #2624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रजप्तिसूत्र [1.50-1 रु.] गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक ( वर्द्धमानपरिणामी रहता है।) [2] केवतिवं कालं पट्टियपरिणामे होजा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वेसूणा पुज्य कोडी। [दारं 20] / [150-2 प्र. भगवन् ! स्नातक कितने काल तक अवस्थित-परिणामी रहता है ? [150-2 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक अवस्थित-परिणामी रहता है। [बीसवां द्वार] विवेचन परिणाम : प्रकार, स्वरूप मौर कालावधि-चारित्रसम्बन्धी भावों को यहाँ 'परिणाम' कहा गया है / वे तीन प्रकार के माने जाते हैं--(१) वर्द्धमानपरिणाम, (2) हीयमानपरिणाम और (3) अवस्थितपरिणाम। वर्द्धमानपरिणाम का अर्थ है संयमशुद्धि की उत्कर्षता (वृद्धि) होना! हीयमानपरिणाम का प्राशय है-संयमशुद्धि की अपकर्षता (हीनता) होना और अवस्थितपरिणाम उसे कहते हैं, जिसमें संयमशुद्धि स्थिर रहे, उसमें न्यूनाधिकता (घट-बढ़) न हो। पुलाक से लेकर कषाय कुशील तक तीनों ही प्रकार के परिणाम पाए जाते हैं / निर्ग्रन्थ और स्नातक, ये दोनों हीयमानपरिणाम वाले नहीं होते। निग्रंथ के परिणामों में हीनता आती है तो वह 'कषायकुशील' कहलाता है / स्नातक के परिणामों में हीनता होने का कारण ही नहीं है, क्योकि वहाँ राग, द्वेष, मोह और घातिकर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है / पूलाक के परिणाम वद्धिंगत हो रहे हों, तब यदि वे कषाय से बाधित हो जाएँ तो वह एकादि समय तक वर्द्धमानपरिणाम का अनुभव करता है, इसलिए उसका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवनाकुशील एवं कषाय कुशील के विषय में समझना चाहिए | बकशादि के जघन्य एक समय बर्द्धमानपरिणाम मरण की अपेक्षा भी घटित हो सकते हैं. लेकिन पलाकपने में मरण नहीं होता / मरण के समय पलाक, कषायकशीलादि रूप में परिणत हो जाता है। पूर्वसूत्र में पुलाक के मरण का कथन किया, वह भुतभाव की अपेक्षा से समझना चाहिए / निग्रंथ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है तब उसके परिणामान्तर हो जाते हैं। निर्ग्रन्थ के अवस्थितपरिणाम जघन्य एक समय, मरण की अपेक्षा घटिल हो सकते हैं / स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमहतं तक वर्द्धमानपरिणाम वाला होता है, क्योंकि शैलेशी अवस्था में वर्द्धमानपरिणाम अन्तर्महतं तक होते हैं / स्नातक के अवस्थितपरिणाम का काल भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद वह अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित परि. णाम वाला होकर फिर शैलेशी अवस्था को स्वीकार करता है, इस अपेक्षा से यह काल घटित हो सकता है / अवस्थितपरिणाम का उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिवर्ष इसलिए होता है कि पूर्वकोटिवर्ष की आयुवाले पुरुष को जन्म से जघन्य नौ वर्ष बीत जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो तो नौ वर्ष न्यून Page #2625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6 ] पूर्वकोटिवष-पर्यन्त अवस्थितपरिणाम वाला होकर शैलेशो-अवस्था की प्राप्ति-पर्यन्त विचरण करता है और शैलेशी अवस्था में वह वर्द्ध मानपरिणामी हो जाता है।' इक्कीसवाँ द्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति-बंध-प्ररूपणा 151. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीमो बंधति ? गोयमा ! पाउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीयो बंधति / [151 प्र.| भगवन् ! पुलाक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है |151 उ. गौतम ! वह आयुष्यकर्म को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियाँ बांधता है। 152. ब उसे० पुच्छा। गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, प्रविहबंधए वा। सत्त बंधमाणे माउयवज्जाबो सत्त कम्मम्पगडीअो बंधति, अट्ठ बंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ठ कम्मप्पगडोमो बंधति / 152 प्र. भगवन् ! बकुश कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? 6152 उ. गौतम ! वह सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधता है / यदि सात कर्मप्रकृतियाँ बांधता है, तो अायुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियां बांधता है और यदि ग्रायुष्यकर्म बांधता है तो सम्पूर्ण आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है / 153. एवं पडिसेवणाकुसीले वि / [153] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में भी समझना चाहिए / 154. कसायकुसोले० पुच्छा / गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अटविहबंधए वा, छरिवहबंधए था / सत्त बंधमाणे आउयधज्जाम्रो सत्त कम्मध्पगडीओ बंधति, अट्ठ बंधमाणे पडिपुण्णाओ अट्ट कम्मप्पगडीओ बंधति, छबंधमाणे पाउपमोहणिज्जवज्जाप्रो छ कम्मप्पगडोश्रो बंधति / 1154 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है ? [154 उ.] गौतम ! वह सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियां बांधता है / सात बांधता हुआ आयुष्य के अतिरिक्त शेष सात कर्मप्रकृतियाँ बांधता है। पाठ बांधता हुआ (आयूष्यकर्मसहित) परिपूर्ण पाठ कर्मप्रकृतियाँ बांधता है और छह बांधता हुअा अायुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष छह कर्मप्रकृतियाँ बांधता हैं / 155. नियंठे० पुज्छा। गोयमा ! एगं वेदणिज्ज कम्मं बंधति / [155 प्र.] भगवन् ! निम्रन्थ कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है। [155 उ.] गौतम ! वह एकमात्र वेदनीयकर्म बांधता है। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 902-903 . (ब) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् चतुर्थखण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 253-54 Page #2626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 156. सिणाए० पुच्छा / गोयमा ! एगविहबंधए वा, प्रबंधए वा। एगं बंधमाणे एगं वेदणिज्जं कम्मं बंधति / [दारं 21] / 1156 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है। [156 उ. गोतम ! वह एक कर्मप्रकृति बांधता है अथवा प्रवन्धक होता है। एक कर्मप्रकृति बांधता है तो वेदनीय कर्म बांधता है। [इक्कीसवाँ द्वार] विवेचन-निष्कर्ष-कर्मप्रकृतियाँ पाठ हैं - (1) ज्ञानावरणीय, (2) दर्शनावरणीय, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) अायुष्य. (6) नाम, (7) गोत्र और (8) अन्तराय / पुलाक अवस्था में आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होता, क्योंकि उस अवस्था में उसके प्रायुष्यकर्म बन्ध के योग्य अध्यवसाय नहीं होते। पायुष्य के दो भाग बीत जाने पर तीसरे भाग में आयुष्य का बन्ध होता है, इसलिए आयुष्य के पहले के दो भागों में आयुष्य का बन्ध नहीं होता। अतएव बकुश आदि सात या आठ कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं / कषायकशील सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में प्रायुष्य नहीं बाँधता है, क्योंकि आयुष्य का बंध सातवें अप्रमत्त गुणस्थान तक ही होता है / कषायकुशील में बादरकषायों के उदय का अभाव होने से वह मोहनीयकर्म नहीं बांधता / इस दृष्टि से कहा गया है कि कषायकुशील आयु और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष छह कर्मप्रकृतियाँ बांधता है / निर्गन्थ योगनिमित्तक एकमात्र वेदनीयकर्म को ही बांधता है, क्योंकि कर्मबन्ध के हेतुओं में उसके केवल योग का ही सद्भाव होता है / स्नातक के अयोगी गुणस्थान में कर्मबन्ध के हेतु का अभाव होने से वह प्रबन्धक होता है।' बाईसवाँ द्वार : निर्ग्रन्थों में कर्मप्रकृति-वेदन-निरूपण 157. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! नियमं अट्ठ कम्मप्पगडीनो वेदेति / [157 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [157 उ.] गौतम ! वह नियम से पाठों कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। 158. एवं जाव कसायकुसीले। [158] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक कहना चाहिए / 156. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! मोहणिज्जवज्जानो सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेति / [156 प्र.] भगवन् ! निर्गन्थ कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [156 उ.] गौतम ! वह मोहनीयकर्म को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। 1 (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 903-904 (ख) श्रीमद्भगवती सूत्रम् (गुजराती अनुवाद) चतुर्थखण्ड, पृ. 254 Page #2627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्वीसका मत : उद्देशक 160. सिणाए णं भंते ! * पुच्छा / गोयमा ! वेदणिज्जाउय-नाम-गोयानो चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेति / [दार 22] / [16. प्र. | भगवन् ! स्नातक कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? 1160 उ.] गौतम ! वह वेदनीय, प्रायुष्य, नाम और गोत्र, इन चार कर्मप्रकृतियों का बेदन करता है। बाईसवाँ द्वार विवेचन-निष्कर्ष --- पुलाक से लेकर कषायकशील तक पाठों कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। निर्ग्रन्थ मोहनीय को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, क्योंकि उनका मोहनीय या तो उपशान्त हो जाता है या क्षीण हो जाता है / चार घातिको का क्षय हो जाने से स्नातक वेदनीयादि चार अघातिकर्मों का ही वेदन करते हैं।' तेईसवाँ कर्मोदीरणाद्वार : कर्मप्रकृति-उदोरणा-प्ररूपणा 161. पुलाए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेइ ? गोयमा ! पाउय-बेयणिज्जवज्जानो छ कम्मपगडीमो उदीरेइ / [161 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितनी कर्मप्रकृतियों की उदी रणा करता है ? [161 उ.] गौतम ! वह आयुष्य और वेदनीय के सिवाय शेष छह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। 162. बउसे० पुच्छा। गोयमा ! सत्तविधउदीरए बा, प्रदविहउदीरए वा, छविहउदीरए वा / सत्त उदीरेमाणे प्राउयवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडोश्रो उदीरेइ, अट्ट उदीरेमाणे पडिपुण्णाश्रो अट्ठ कम्मष्पगडीयो उदीरेइ, छ उदोरेमाणे प्राउय-वेयणिज्जबज्जाश्रो छ कम्मध्पगडीओ उदोरेति / [162 प्र. भगवन् ! बकुश कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ? [162 उ.] गौतम ! वह सात, पाठ या छह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है / सात की उदीरणा करता हुआ आयुष्य को छोड़कर सात कर्म प्रकृतियों को उदीरता है, पाठ की उदीरणा करता है तो परिपूर्ण पाठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है तथा छह की उदीरणा करता है तो आयुष्य और वेदनीय को छोड़कर छह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करना है। 163. पउिसेवणाकुसोले एवं चेव / [163] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में जानना चाहिए। 164. कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा, अट्टविहउदीरए वा छरिवहउदीरए वा, पंचविहउदोरए वा। सस उदीरेमाणे पाउयवज्जाश्रो सत्त कम्मप्पगडोत्रो उदीरेइ, अट्ट उदीरेमाणे परिपुण्णाओ अट्ट 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3406 Page #2628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिमून कम्मप्पगडीनो उदोरेइ, छ उदोरेमाणे आउय-वेयणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीयो उदीरेइ, पंच उदोरेमाणे प्राज्य-वेयणिज्ज-मोहणिज्जवज्जाओ पंच कम्मप्पगडोयो उदीरेइ / ल की उदीरणा के विषय में प्रश्न / [164 उ. गौतम ! वह सात, आठ, छह या पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। सात की उदीरणा करता है तो पायष्य को छोड़कर सात कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है, पाठ की उदीरणा करता है तो परिपूर्ण पाठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है और छह की उदीरणा करता है तो प्रायुष्य और वेदनीय को छोड़कर शेष छह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है तथा पांच की उदीरणा करता है तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़कर, शेष पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। 165. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! पंचविहउदीरए वा, दुविहउदीरए वा। पंच उदीरेमाणे पाउय-वेयणिज्जमोहणिज्जवज्जाश्रो पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेइ, दो उदोरेमाणे नामं च गोयं च उदीरेइ / [165 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ? [165 उ.] गौतम ! वह या तो पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है, अथवा दो कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है / जब वह पांच की उदोरणा करता है तब अायुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों की उदी रण करता है / दो की उदी रणा करता है तो नाम और गोत्र कर्म को उदोरणा करता है / 166. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! दुविहउदीरए वा, अणुदीरए वा। दो उदोरेमाणे नामं च गोयं च उदोरेइ / [बार 23] / {166 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितनी कर्मप्रकृतियों की उदी रणा करता है ? [166 उ.] गौतम ! या तो वह दो की उदोरणा करता है अथवा बिलकुल उदीरणा नहीं करता / जब दो की उदीरणा करता है तो नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा करता है / [तेईसवाँ द्वार विवेचन--कौन कितने कर्मों की उदोरणा करता है ? पुलाक प्रायुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा नहीं करता, क्योंकि उसके उदीरणा करने योग्य तथाविध अध्यवसाय नहीं होते, किन्तु पहले वह इन दोनों कर्मों की उदीरणा करके बाद में पुलाकत्व को प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगे जिन-जिन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा का निषेध किया गया है, उन-उन कर्मप्रकृतियों की पहले उदीरणा करके पीछे बकुशादित्व को प्राप्त करता है / स्नातक सयोगी अवस्था में नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा करता है तथा आयुष्य और वेदनीय कर्म की उदीरणा तो सातवें गुणस्थान में ही बन्द हो जाती है / अयोगी अवस्था में तो वह अनुदीरक ही होता है।' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 904 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, प. 3409 Page #2629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] चौवीसवाँ उपसम्पद-जहद द्वार : स्वस्थानत्याग-परस्थानसम्प्राप्ति-निरूपण 167. पुलाए णं भंते ! पुलायत जहमाणे किं जहति ? कि उवसंपज्जइ ? गोयमा ! पुलायत्तं जहति; कसायकुसोलं वा असंजमं वा उवसंपज्जा / [167 प्र.] भगवन् ! पुलाक, पलाकपन को छोड़ता हुमा क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है ? [167 उ.] गौतम ! वह पूलाकपन का त्याग करता है और कषायकुशीलपन या असंयम को प्राप्त करता है। 168. बउसे गं भंते ! बउसतं जहमाणे किं जहति ? कि उपसंपज्जइ ? गोयमा ! बउसत्तं जहति; पडिसेवणाकुसोलं वा, कसायकुसीलं वा, असंजमं वा, संजमासंजमं वा उपसंपज्जइ। [168 प्र.] भगवन् ! बकुश बकुशत्व का त्याग करता हुआ क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है ? [168 उ.] गौतम ! वह बकुशत्व का त्याग करता है और प्रतिसेवनाकुशीलत्व, कषायकुशीलत्व, असंयम या संयमासंयम को प्राप्त करता है। 166. पउिसेवणाकुसोले णं भंते ! पडिसेवणाकुसोलत्तं जहमाणे० पुच्छा। गोयमा ! पडिसेवणाकुसीलत्तं जहति; बउस बा, कसायकुसीलं वा, असंजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपज्जा / [166 प्र.] भगवन् ! प्रतिसेवनाकुशील प्रतिसेवनाकुशीलत्व को छोड़ता हुआ क्या छोड़ता है और क्या पाता है ? [166 उ.] गौतम ! वह प्रतिसेवनाकुशीलत्व को छोड़ता है, और बकुशत्व, कषायकुशीलत्व, असंयम या संयमासंयम को पाता है। 170. कसायकुसीले० पुच्छा। गोयमा ! कसायकुसोलतं जहइ; पुलायं था, बउसं वा, पडिसेवणाकुसीलं का, नियंठं या, प्रस्संजमं वा, संजमासंजमं वा उवसंपज्जइ / 170 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील, कषायकुशीलत्व को छोड़ता हुआ क्या त्यागता है और क्या पाता है ? [170 उ.] गौतम ! वह कषायकुशीलत्व को छोड़ता है और पुलाकत्व, बकुशत्व, प्रतिसेवनाकुशीलत्व, निर्ग्रन्थत्व, असंयम अथवा संयमासंयम को प्राप्त करता है / 171. णियंठे० पुच्छा। गोयमा ! नियंठत्तं जहति; कसायकुसीलं वा, सिणायं वा, अस्संजमं वा, उवसंपज्जइ / [171 प्र.] भगवन् ! निर्गन्थ, निग्रंथता का त्याग करता हुआ क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है? . Page #2630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [म्याल्याप्रजप्तिसूत्र (171 उ.] गौतम ! वह निर्गन्थता को छोड़ता है और कषायकुशीलत्व, स्नातकत्व या असंयम को प्राप्त करता है / 172. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! सिणायत्तं जहति; सिद्धिति उवसंपन्जा / दारं 24] / [172 प्र. भगवन् ! स्नातक स्नातकत्व का त्याग करता हुअा क्या छोड़ता है और क्या प्राप्त करता है ? [172 उ.] गौतम ! स्नातक, स्नातकत्व को छोड़ता है और सिद्धिगति को प्राप्त करता है। [चौबीसवाँ द्वार विवेचन-कौन क्या त्यागता है, क्या प्राप्त करता है ? पुलाक पुलाकत्व को छोड़कर उसके तुल्य संयमस्थानों के सद्भाव से कषायकशीलत्व को प्राप्त करता है। इसी प्रकार जिस संयत के जैसे संयमस्थान होते हैं, वह उसी भाव को प्राप्त होता है, किन्तु कषायकुशील अपने समान संयमस्थानभूत पुलाकादि भावों को प्राप्त करते हैं और अविद्यमान समान संयमस्थान रूप निर्गन्थभाव को प्राप्त करते हैं। निर्ग्रन्थ कषाय कुशीलभाव या स्नातकभाव को प्राप्त करते हैं और स्नातक तो सिद्धगति को ही प्राप्त करते हैं / निर्ग्रन्थ उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी करते हैं। उपशमश्रेणी करने वाले निर्ग्रन्थ श्रेणी से गिरते हुए कषायकशीलता प्राप्त करते हैं और श्रेणी के शिखर पर मरण कर देवरूप से उत्पन्न होते हुए असंयत होते हैं, किन्तु संयतासंयत (देशविरत) नहीं होते। क्योंकि देवों में संयतासंयतत्व नहीं होता / यद्यपि निर्ग्रन्थ श्रेणी से गिरकर संयतासंयत भी होते हैं, परन्तु यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की , क्योंकि श्रेणी से गिर कर वह सीधा संयतासंयत नहीं होता। किन्त कषायकशील होकर संयतासंयत होता है / स्नातक स्नातकत्व को छोड़कर सीधे मोक्ष में हो जाते हैं / पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध निन्थों में संज्ञाओं की प्ररूपणा 473. पुलाए णं भंते ! कि सण्णोबउले होज्जा, नोसण्णोवउत्ते होज्जा। गोयमा ! पोसण्णोवउत्ते होज्जा। [173 प्र.] भगवन् ! पुलाक संज्ञोपयुक्त (आहारादि संज्ञायुक्त) होता है अथवा नो-संज्ञोपयुक्त (पाहारादि-संज्ञा से रहित) होता है ? [173 उ.] गौतम ! वह संज्ञोपयुक्त नहीं होता, नोसंज्ञोपयुक्त होता है। 174. बउसे गं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! सन्नोवउत्ते वा होज्जा, नोसण्णोवउत्ते वा होज्जा / |174 प्र.] भगवन ! बकश संज्ञोपयुक्त होता है अथवा नो-संजोपयुक्त होता है ? [174 उ.] गौतम ! वह संज्ञोपयुक्त भी होता है और नो-संज्ञोपयुक्त भी होता है। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 904 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3411-12 Page #2631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] 175. एवं पडिसेवणाकुसीले वि / {175] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में भी समझना चाहिए। 176. एवं कसायकुसीले वि। [176] कषायकुशील के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार जानना चाहिए। 177. नियंठे सिगाए य जहा पुलाए। [दारं 25] / 177] निर्ग्रन्थ और स्नातक को पुलाक के समान नो-संज्ञोपयुक्त कहना चाहिए / [पच्चीसवां द्वार _ विवेचन-संज्ञोपयुक्त-नो-संज्ञोपयुक्त : स्वरूप और विश्लेषण-संज्ञा का अर्थ यहाँ प्राहार-भयमैथुन-परिग्रह संज्ञा है, उसमें उपयुक्त अर्थात् पाहारादि में प्रासक्ति वाला संज्ञोपयुक्त होता है, जबकि अाहारादि का उपभोग करने पर भी उनमें आसक्ति-रहित जीव नो-संज्ञोपयुक्त कहलाता है / पुलाक, निम्रन्थ और स्नातक नो-संज्ञोपयुक्त होते हैं, क्योंकि उनकी आहारादि में प्रासक्ति नहीं होती / बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील दोनों ही प्रकार के होते हैं। यहाँ शंका होती है कि निम्रन्थ और स्नातक तो वीतराग होने से नो-संज्ञोपयुक्त ही होते हैं, किन्तु पुलाक सराग होने से नो-संज्ञोपयक्त कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि सराग होने पर भी आसक्तिरहितता सर्वथा नहीं होती, ऐसी बात नहीं है / बकुशादि सराग होने पर भी संज्ञा (आसक्ति)-रहित बताये गए हैं / चूणिकार के मतानुसार नो-संज्ञा का अर्थ है- ज्ञानसंज्ञा / इस दृष्टि से पुलाक, निम्रन्थ और स्नातक नोसंज्ञोपयुक्त हैं, अर्थात् ज्ञानप्रधान उपयोग वाले हैं, किन्तु पाहारादि संज्ञोपयुक्त नहीं होते / बकुशादि तो नो-संज्ञोपयुक्त और संज्ञोपयुक्त, दोनों प्रकार के होते हैं, क्योंकि उनके इसी प्रकार के संयमस्थानों का सद्भाव होता है।' छवीसवाँ ग्राहारद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में प्राहारक-अनाहारक-निरूपण 178. पुलाए णं भंते ! कि आहारए होज्जा, प्रणाहारए होज्जा। गोयमा ! आहारए होज्जा, नो प्रणाहारए होज्जा / [178 प्र.] भगवन् ! पुलाक आहारक होता है, अथवा अनाहारक होता है ? (178 उ.] गौतम ! वह ग्राहारक होता है, अनाहारक नहीं / 176. एवं जाव नियंठे। [179] इसी प्रकार यावत् निम्रन्थ तक कहना चाहिए। 180. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! आहारए वा होज्जा, प्रणाहारए वा होज्जा। [दारं 26] / [180 प्र. भगवन् ! स्नातक ग्राहारक होता है, अथवा अनाहारक ? [180 उ.] गौतम ! वह आहारक भी होता है और अनाहारक भी। [छठवीसवाँ द्वार] 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 905 Page #2632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (আগ্রাসঙ্গি विवेचन----आहारक कौन, अनाहारक कौन? पुलाक से लेकर निर्गन्थ तक मुनियों के विग्रहगति आदि अनाहारकपन के कारण का अभाव होने से वे पाहारक ही होते हैं / स्नातक केवलिसमुद्घात के तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में तथा अयोगी अवस्था में अनाहारक होते हैं, शेष समय में प्राहारक होते हैं।' सत्ताईसवाँ भवद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में भवग्रहरण-प्ररूपणा 181. पुलाए गं भंते ! कति भवग्रहणाई होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं उक्कोसेणं तिन्नि। {181 प्र.] भगवन् ! पुलाक कितने भव ग्रहण करता है ? [181 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करता है / 182. बउसे० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं, उक्कोसेणं अट्ठ। {182 प्र.] भगवन् ! बकुश कितने भव ग्रहण करता है ? [152 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है / 123. एवं पडिसेवणाकुसीले वि। [183] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील का कथन है / 184. एवं कसायकुसीले वि। [184] कषायकुशील की वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। . 185. नियंठे जहा पुलाए। [185] निर्ग्रन्थ का कथन पुलाक के समान है। 186. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! एक्कं / [दारं 27] / [186 प्र.] भगवन् ! स्नातक कितने भव ग्रहण करता है / [186 उ.] गौतम ! वह एक भव ग्रहण करता है। [सत्ताईसवाँ द्वार] विवेचन-कौन कितने भव ग्रहण करता है ?पुलाक जघन्यतः एक भव में पुलाक हो कर कषायकुशील आदि किसी भी संयतत्व को एक बार या अनेक बार उसी भव में या अन्य भव में करके सिद्ध होता है और उत्कृष्ट देवादिभव से अन्तरित (बीच में देवादि भव) करते हुए तीसरे भव में पुलाकत्व को प्राप्त कर सकता है। बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के लिये जघन्य एक भव और उत्कृष्ट आठ भव कहे हैं, इसका आशय यह है कि कोई साधक एक भव में बकुशत्व, प्रतिसेवनाकुशीलत्व या कषायकुशीलत्व को प्राप्त करके सिद्ध होता है और कोई साधक एक भव में बकुशादित्व प्राप्त करके भवान्तर में बकुशादित्व को प्राप्त किये बिना ही सिद्ध होता 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 905 Page #2633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6) 435 है / अत: बकुश आदि के लिए जघन्य एक भव और उत्कृष्ट पाठ भव कहे हैं, क्योंकि उत्कृष्टतः आठ भवों तक चारित्र की प्राप्ति होती है। इनमें से कोई साधक तो आठ भव बकुशपन और उनमें अन्तिम भव सकषायत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और कोई प्रत्येक भव प्रतिसेवनाकुशीलत्वादियुक्त बकुशपन से पूरा करता है और फिर उसी भव में मोक्ष चला जाता है।' अट्ठाईसवाँ आकर्षद्वार : एकभव-नानाभवग्रहरणीय आकर्ष-प्ररूपणा 187. पुलागस्स गं भंते ! एगभवागहणिया केवतिया भागरिसा पन्नता? गोयमा ! जहन्नेणं एकको, उक्कोसेणं तिण्णि / [187 प्र.] भगवन् ! पुलाक के एक भव-ग्रहण-सम्बन्धी प्राकर्ष (चारित्र-प्राप्ति) कितने कहे हैं ? [187 उ.] गौतम ! उसके जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन अाकर्ष होते हैं। 188. बउसस्स गं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं सयग्गसो। [188 प्र.] भगवन् ! बकुश के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [18 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट सैकड़ों (शत-पृथक्त्व) आकर्ष होते हैं / 16. एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि। [189] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील के विषय में भी जानना चाहिए। 190. णियंठस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उपकोसेणं वोनि / [190 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के एक भव में कितने पाकर्ष होते हैं ? [160 उ.] गोतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट दो अाकर्ष होते हैं। 161. सिणायस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! एक्को। 161 प्र.] भगवन् ! स्नातक के एक भव में कितने प्राकर्ष होते हैं ? 1161 उ.] गौतम ! उसके एक ही पाकर्ष होता है / / 162. पुलागस्स णं भंते ! नाणाभवागहणिया केवतिया प्रागरिमा पन्नता ? गोयमा ! जहन्नेणं दोण्णि, उक्कोसेणं सत्त / [162 प्र.) भगवन् ! पुलाक के नाना-भव-ग्रहण-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते है ? [192 उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 905 Page #2634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति 193. बउसस्स० पुच्छा / गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सहस्ससो। [163 प्र.] भगवन् ! बकुश के अनेक-भव-ग्रहण-सम्बन्धी प्राकर्ष कितने होते हैं ? [163 उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट सहस्रो (सहस्र-पृथक्त्व) पाकर्ष होते हैं / 194. एवं जाव कसायकुसीलस्स / [164] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक कहना चाहिए / 165. नियंठस्स पं० पुन्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दोनि, उक्कोसेणं पंच / [165 प्र.] भगवन् ! निर्ग्रन्थ के नाना-भव-सम्वन्धी कितने प्राकर्ष होते हैं ? [165 उ.] गौतम ! जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच पाकर्ष होते हैं / 166. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! नस्थि एक्को वि। [दारं 28] / [196 प्र.] भगवन् ! स्नातक के अनेक-भव-सम्बन्धी आकर्ष कितने होते हैं ? [166 उ.] गौतम ! एक भी आकर्ष नहीं होता / [अट्ठाईसवाँ द्वार] विवेचन-एकभवीय और अनेकभवीय आकर्ष-आकर्ष यहाँ पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है-चारित्र की प्राप्ति / प्रश्नों का प्राशय यह है कि पुलाकादि के एक भव या अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं, अर्थात्-एक भव या अनेक भवों में पुलाक प्रादि संयम (चारित्र) कितनी बार आ सकता है ? पुलाक के जघन्य एक, उत्कृष्ट तीन आकर्ष कहे हैं, अर्थात् एक भव में पुलाकचारित्र तीन बार आ सकता है। बकुश के जघन्य एक और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं / निर्ग्रन्थ के एक भव में जघन्य एक आकर्ष और दो बार उपशमश्रेणी करने से उत्कृष्ट दो आकर्ष होते हैं / पुलाक के एक भव में एक और दूसरे भव में पुन: एक, इस प्रकार अनेक भवों में जघन्य दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट सात आकर्ष होते हैं। इनमें से एक भव में उत्कृष्ट तीन अाकर्ष होते हैं। प्रथम भव में एक प्राकर्ष और दूसरे दो भवों में तीन-तीन आकर्ष होते हैं / इत्यादि विकल्प से सात आकर्ष होते हैं। बकुशपन के उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। इनमें से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। जबकि आठ भवों में से प्रत्येक भव में उत्कृष्ट नौ सौ-नौ सौ आकर्ष हों तो उनको आठगुणा करने पर 7200 आकर्ष होते हैं। इस प्रकार बकुश के अनेकभव की अपेक्षा सहस्त्र-पृथक्त्व आकर्ष हो सकते हैं। ___ निर्गन्थपन के उत्कृष्ट तीन भव होते हैं। उनमें से प्रथम भव में दो आकर्ष और दूसरे भव में दो और तीसरे भव में एक प्राकर्ष, यों पांच पाकर्ष होते हैं। क्षपक निर्गन्थपन का आकर्ष करके सिद्ध होता है। इस प्रकार अनेक भवों में निर्ग्रन्थपन के पांच पाकर्ष होते हैं। स्नातक तो उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं / इसलिए उनके अनेक भव और आकर्ष नहीं होते।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 905-906 Page #2635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंसोमवां शतक : उद्देशक 6 कठिन शब्दार्थ ...आगरिसा आकर्ष- चारित्रप्राप्ति / सयग्गसो-सकड़ों, शत-पृथक्त्व / सहस्तगसो सहस्रों, सहस्रपृथक्त्व / ' उनतीसवाँ कालद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में स्थितिकाल-निरूपण 167. पुलाए णं भंते ! कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [197 प्र.] भगवन् ! पुलाकत्व काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता है। [ 167 उ. गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त तक रहता है। 198. बउसे० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा पुठनकोडो। [198 प्र.] भगवन् ! बकुशत्व कितने काल तक रहता है ? [198 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि वर्ष तक रहता है। 199. एवं पडिसेवणाकुसीले वि, कसायकुसीले वि। [196] इसी प्रकार प्रतिसेवनाशील और कषायकुशील के विषय में भी समझना चाहिए। 200. नियंठे पुच्छा। गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [200 प्र.] भगवन् ! निर्गन्थत्व कितने काल तक रहता है ? [200 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। 201. सिणाए० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी। [201 प्र.] भगवन् ! स्नातकत्व कितने काल तक रहता है ? [201 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक रहता है। 202. पुलाया णं भंते ! कालमो केवचिरं होंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहतं / [202 प्र.] भगवन् ! पुलाक (बहुत) कितने काल तक रहते हैं ? [202 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त तक रहते हैं। 203. बउसा णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! सम्बद्धं / 1203 प्र.] भगवन् ! बकुश (बहुत) कितने काल तक रहते हैं ? [203 उ.] गौतम ! वे सर्वाद्धा-सर्वकाल रहते हैं। 1. भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3415-16 Page #2636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 204. एवं जाव कसायकुसीला / {204] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना चाहिए / 205. नियंठा जहा पुलागा। [205] निर्ग्रन्थों का कथन पुलाकों के समान जानना चाहिए। 206. सिणाया जहा बउसा। [दारं 26] / 206] स्नातकों की वक्तव्यता बकुशों के समान है। [उनतीसवाँ द्वार विवेचन--पुलाकादि भाव कितने काल तक ? --पुलाकत्व को प्राप्त मुनि एक अन्तर्महत पूर्ण न हो, तब तक न तो पुलाकत्व से मरते हैं और न गिरते हैं / अर्थात्-कषायकुशीलपन में अन्तर्मुहूर्त से पहले जाते नहीं और पुलाकपन में मरते ही नहीं हैं / इसलिए उनका काल अन्तर्मुहूर्त का ही होता है। बकुशपन की प्राप्ति होने के साथ ही तुरंत मरण सम्भव होने से जघन्य एक समय तक बकुशपन रहता है / यदि पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला सातिरेक आठ वर्ष की वय में संयम स्वीकार करे तो उसका अपेक्षा उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि वर्ष होता है / निग्रन्थ का जघन्यकाल एक समय है, क्योंकि उपशान्तमोहगुणस्थानवर्ती निन्थ प्रथम समय में भी मरण को प्राप्त हो सकते हैं / निर्ग्रन्थ का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का है, क्योंकि निर्ग्रन्थपन इतने काल तक ही रहता है / स्नातक का जघन्यकाल अन्तर्मुहर्त इसलिए है कि आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में केवलशान उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त के बाद वे मोक्ष में जा सकते हैं / उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटिवर्ष है। ___ काल-परिमाण : एकत्व-बहुत्व सम्बन्धी--पुलाक आदि का एकवचन और बहुवचन सम्बन्धी काल-परिमाण इन सूत्रों में बताया गया है / एक पुलाक अपने अन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में वर्तमान है, उसी समय में दूसरा मुनि पुलाकपन को प्राप्त करे तब दोनों पुलाकों का एक समय में सद्भाव होता। इस प्रकार अनेक पुलाकों (दो पुलाक हों तो भी वे भी अनेक कहलाते हैं) में जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त होता है, क्योंकि पुलाक एक समय में उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) हो सकते है। बहुत हों तो भी उनका काल अन्तमुहूर्त होता है / किन्तु एक पुलाक की स्थिति के अन्तम हर्त्त से अनेक पुलाकों की स्थिति का अन्तर्महत बड़ा होता हैं / बकुशादि का स्थितिकाल तो सर्वकाल होता है, क्योंकि वे सदैव रहते हैं।' तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में काल के अन्तर का निरूपण 207. पुलागस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंतामो ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीयो कालो, खेतमो अवडं पोग्गलपरियट देसूणं / [207 प्र.] भगवन् ! (एक) पुलाक का अन्तर कितने काल का होता है ? 1. भगवती अ, वृत्ति, पत्र 906 Page #2637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 6] [439 207 उ. | गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का होता है / (अर्थात्) काल की अपेक्षा -अनन्त अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल का और क्षेत्र की अपेक्षा देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का अन्तर होता है। 208. एवं जाव नियंठस्स / [208] इसी प्रकार यावत् निम्रन्थ तक आनना। 206. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! नत्यंतरं। [206 प्र.] भगवन् ! स्नातक का अन्तर कितने काल का होता है ? [206 उ.] गौतम ! उसका अन्तर नहीं होता। 210. पुलागाणं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासाई। [210 प्र. भगवन् ! (अनेक) पुलाकों का अन्तर कितने काल का होता है ? [210 उ.] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों का होता है। 211. बउसाणं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! नत्थंतरं। [211 प्र. भगवन् ! बकुशों का अन्तर कितने काल का होता है ? [211 उ.] गौतम ! उनका अन्तर नहीं होता। 212. एवं जाव कसायकुसोलाणं / [212] इसी प्रकार यावत् कषायकुशोलों तक का कथन जानना चाहिए / 213. नियंठाणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा। 213 प्र.] भगवन् ! निम्रन्थों का अन्तर कितने काल का होता है ? [213 उ.] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट छह मास का होता है / 214. सिणायाणं जहा बउसाणं / [दारं 30] / [214/ स्नातकों के अन्तर का कथन बकुशों के कथन के समान जानना चाहिए। [तीसवाँ द्वार] विवेचन - अन्तर : काल और क्षेत्र की अपेक्षा से--अन्तर का स्वरूप यह है कि पुलाक आदि पुनः कितने काल पश्चात् पुनः पुलाकत्व को प्राप्त होता हैं होते हैं ? पुलाक, तलाकत्व को छोड़ कर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त में पुनः पुलाक हो सकता है और उत्कृष्टत: अनन्तकाल में पुलाकत्व Page #2638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [ध्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र को प्राप्त होता है / वह कालतः अनन्तकाल अनन्त अवसर्पिणी-उन्सपिणीरूप अन्तर समझना चाहिए तथा क्षेत्रत: देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन का अन्तर जानना चाहिए। क्षेत्रतः पुद्गलपरावर्तन का स्वरूप-कोई जीव आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर मृत्यु को प्राप्त हो। इस प्रकार मरण से जितने काल में समस्त लोक को व्याप्त करे, उतना काल 'क्षेत्र-पुद्गलपरावर्तन कहलाता है / यहाँ पुलाक आदि का अन्तर देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन काल बतलाया है / ___बकुश से लेकर कषायकुशील तक एवं स्नातक का अन्तर नहीं होता, क्योंकि इनका पतन नहीं होता, इसलिए इनका अन्तर नहीं पड़ता।' इकतीसवाँ समुद्घातद्वार : समुद्घातों की प्ररूपरणा 215. पुलागस्स णं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! तिनि समुग्घाया पन्नत्ता, सं जहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्धाए / [215 प्र. भगवन् ! पुलाक के कितने समुद्घात कहे हैं ? [215 उ.] गौतम ! उसके तीन समुद्घात कहे हैं। यथा-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणान्तिकसमुद्घात / 216. बउसस्स गं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! पंच समुग्धाता पन्नता, तं जहा-वेयणासमुग्धाए जाव तेयासमुग्धाए / [216 प्र.] भगवन् ! बकुश के कितने समुद्घात कहे हैं ? [216 उ.] गौतम ! उसमें पांच समुद्घात कहे हैं। यथा--वेदनासमुद्धात से लेकर यावत् तैजससमुद्घात तक। 217. एवं पडिसेषणाकुसीले वि। [217] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में समझना चाहिए / 218. कसायकुसीलस्स० पुच्छा / गोयमा ! छ समुग्धाया पन्नत्ता, तं जहा वेयणासमुग्घाए जाव प्राहारगसमुग्धाए / [218 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील के कितने समुद्घात कहे हैं ? [218 उ.] गौतम ! उसमें छह समुद्घात कहे हैं / यथा-वेदनासमुद्घात से लेकर यावत् पाहारकसमुद्घात तक। 219. नियंठस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! नस्थि एक्को वि / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 906 Page #2639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसथां गतक : उद्देशक 6] [441 [216 प्र.] भगवन् ! निर्गन्थ के कितने समुद्घात कहे हैं ? [219 उ.] गौतम ! उसमें एक भी समुद्घात नहीं होता। 220. सिणायस्स० पुच्छा। गोयमा ! एगे केवलिसमुग्धाते पन्नत्ते / [दारं 31] / [220 प्र.] भगवन् ! स्नातक के कितने समुद्घात कहे हैं ? [220 उ.] गौतम ! उसमें केवल एक केवलिसमुद्घात होता है। [इकतीसवाँ द्वार] / विवेचन-किसमें कितने समुद्घात और क्यों ? सात समुद्घातों में से पुलाक में तीन समुद्घात होते हैं। मुनियों में संज्वलनकषाय के उदय से कषायसमुद्घात पाया जाता है। इस कारण पुलाक में वेदनासमुद्घात के बाद कषायसमुद्घात भी सम्भव है / यद्यपि पुलाक-अवस्था में मरण नहीं होता, तथापि पुलाक में मारणान्तिकसमुद्घात होता है; क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात से निवृत्त होने पर कषायकुशीलत्वादि परिणाम के सद्भाव में उसका मरण होता है / अतः पुलाक में मारणान्तिकसमुद्घात का सद्भाव कहा गया है / निग्रन्थ में एक भी समुद्घात नहीं होता; क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है। पहले समुद्घात किया हुआ हो तो वह निर्गन्थपने में प्राकर काल कर सकता है / स्नातक केवली होने से उनमें केवलिसमुद्घात ही पाया जाता है।' बत्तीसवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अवगाहनाक्षेत्र-प्ररूपरण 221. पुलाए गं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिभागे होज्जा, असंखेज्जतिभागे होज्जा, संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, सव्वलोए होज्जा ? गोयमा ! नो संखेज्जतिभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो प्रसंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, नो सव्वलोए होज्जा। {221 प्र.] भगवन् ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग में होते हैं, असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्यातभागों में होते हैं, असंख्यातभागों में होते हैं या सम्पूर्ण लोक में होते हैं ? (221 उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होते, किन्तु असंख्यातवें भाग में होते हैं, संख्यातभागों में, असंख्यातभागों में या सम्पूर्ण लोक में नहीं होते हैं ? 222. एवं जाव नियंठे। [222] इसी प्रकार यावत् निर्ग्रन्थ तक समझ लेना चाहिए। 223. सिणाए णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! णो संखेज्जतिभागे होज्जा, असंखेज्जतिभागे होज्जा, नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, सवलोए वा होज्जा। [दारं 32] / [223 प्र.] भगवन् ! स्नातक लोक के संख्यातवें भाग में होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3425 (ख) भगवती. अ, बत्ति, पत्र 907 Page #2640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [ध्याल्याप्राप्तिसूब [223 उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में और संख्यातभागों में नहीं होता, किन्तु असंख्यातवें भाग में, प्रसंख्यात भागों में या सर्वलोक में होता है। बत्तीसवाँ द्वार] विवेचन-क्षेत्रद्वार का अर्थ और क्षेत्रावगाहन कितना और क्यों ?-क्षेत्रद्वार में क्षेत्र का अर्थ यहाँ अवगाहना-क्षेत्र है। प्रश्न का प्राशय यह है कि पुलाक आदि का शरीर लोक के कितने भाग (प्रदेश) को प्रवगाहित करता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि पुलाक से लेकर निग्रन्थ तक का शरीर लोक के असंख्यातवें भाग को अवगाहित करता है। स्नातक केवलिसमुद्घात-अवस्था में जब शरीरस्थ होता है या दण्ड-कपाटकरण-अवस्था में होता है, तब लोक के असंख्यातवें भाग में रहता है / क्योंकि केवली भगवान का शरीर इतने क्षेत्र-परिमाण ही होता है / मन्थानक-काल में केवली भगवान् के प्रदेशों से लोक का अधिकांश भाग व्याप्त हो जाता है और थोड़ा-सा भाग अव्याप्त रहता है। अत: वह उस समय लोक के असंख्यात-भागों में रहता है। जब वह समग्रलोक को व्याप्त कर लेता है, तब सम्पूर्श लोक में होता है।' तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपरण 224. पुलाए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिमागं फुसति, असंखेज्जतिमागं फुसइ० ? एवं जहा प्रोगाहणा भणिया तहा फुसणा वि भाणियम्वा जाब सिणाये। [दारं 33] / [224 प्र.] भगवन् ! पुलाक लोक के संख्यातवें भाग को स्पर्श करता है या असंख्यातवें भाग को? इत्यादि (क्षेत्रावगाहनावत्) प्रश्न / / [224 उ.] (गौतम !) जिस प्रकार अवगाहना का कथन किया है, उसी प्रकार स्पर्शना के विषय में भी यावत् स्नातक तक जानना चाहिए। तेतीसवाँ द्वार] विवेचन क्षेत्रावगाहनाद्वार और क्षेत्र-स्पर्शनाद्वार में प्रत्तर-(क्षेत्र) स्पर्शद्वार में कहा गया है कि यह द्वार क्षेत्रावगाहनाद्वार के समान है / प्रश्न होता है कि जब दोनों द्वार एक-सरीखे हैं, तब ये पृथक्-पृथक् क्यों कहे गए? इसका समाधान यह है कि जितने प्रदेशों को शरीर अवगाहित करके रहता है, उतने क्षेत्र को क्षेत्रावगाहना कहते हैं तथा अवगाढ़ क्षेत्र (अर्थात् शरीर जितने क्षेत्र को अवगाहित करके रहा हुआ है, वह क्षेत्र) और उसका पार्ववर्ती क्षेत्र जिसके साथ शरीरप्रदेशों का स्पर्श हो रहा है, वह क्षेत्र भी स्पर्शनाक्षेत्र कहलाता है। यह क्षेत्रावगाहना और क्षेत्र-स्पर्शना में अन्तर है। चौतीसवां भावद्वार : प्रौपशमिकादि भावों का निरूपण 225. पुलाए णं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खयोवसमिए भावे होज्जा। [225 प्र.] भगवन् ! पुलाक किस भाव में होता है ? [225 उ.] गौतम ! वह क्षायोपशमिक भाव में होता है / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 907 2. (क) भगवती. भ. वृत्ति, पत्र 908 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3427 Page #2641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचीसवां शतक : उद्दशक 6) 226. एवं जाव कसायकुसीले। [226 प्र.] इसी प्रकार यावत् कषायकुशील तक जानना / 227. नियंठे० पुच्छा। गोयमा ! अोयसमिए वा खइए वा भावे होज्जा। [227 प्र.] भगवन् ! निम्रन्थ किस भाव में होता है ? .. [227 उ.] गौतम ! वह औपशमिक या क्षायिक भाव में होता है / 228, सिणाये० पुच्छा / गोयमा ! खइए भावे होज्जा। [दारं 34] / [228 प्र.] भगवन् ! स्नातक किस भाव में होता है ? [228 उ.] गोतम ! वह क्षायिक भाव में होता है / [चौतीसवाँ द्वार] विवेचन–निष्कर्ष-पुलाक से लेकर कषायकुशील तक क्षायोपशमिक भाव में होते हैं, निम्रन्थ औपशमिक अथवा क्षायिक भाव में और स्नातक एकमात्र क्षायिक भाव में होते हैं।' पैतीसवाँ परिमाणद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों का एक समय का परिमाण 226. पुलाया गं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ? गोयमा! परिवजमाणए पडच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जति प्रतिष महन्नेणं एक्को वा दो वा तिलि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं / पुण्यपडिवानए पडच्च सिय अस्थि, सिय स्थिति प्रत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सहस्सयुहत्तं / [226 प्र.] भगवन् ! पुलाक एक समय में कितने होते हैं ? [229 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान (पुलाकत्व को प्राप्त होते हुए) की अपेक्षा पुलाक कदाचित् होते हैं और कदाचित नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न (पहले ही उस अवस्था को प्राप्त किये हुए) की अपेक्षा भी पुलाक कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथकत्व होते हैं / 230. बसा गं भंते ! एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि / जदिपस्थि जहानेणं एक्को वापो का तिनि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं। पुब्धपडियनए पच्च जहन्ने कोस्सियपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं / [230 प्र.] भगवन् ! बकुश एक समय में कितने होते हैं ? (230 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा बकुश कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपश्न की अपेक्षा बकुश जघन्य और उत्कृष्ट कोटिशतपृथक्त्व होते हैं। 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3428 Page #2642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444) व्यायाप्रज्ञप्तिसूब 231. एवं पडिसेवणाकुसीला वि। [231] इसी प्रकार प्रतिसेवनाकुशील के विषय में भी जानना चाहिए। 232. कसायकुसीला णं पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिथ नस्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेगं सहस्सपुहत्तं / पुवपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिसहस्सपुहनं, उपकोसेण वि कोडिसहस्सपुहत्तं। [232 प्र.] भगवन् ! कषायकुशील एक समय में कितने होते हैं ? [232 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कषायकुशील कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं भी होते / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा कषायकुशील जघन्य और उत्कृष्ट कोटिसहस्रपथक्त्व (दो हजार करोड़ से नौहजार करोड़ तक) होते हैं। 233. नियंठा गं० पुच्छा। गोयमा ! पडिबज्जमाणए पडच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जदि प्रत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं बावट्ठ सयं-अटुसतं खवगाणं, चउप्पण्णं उवसामगाणं / पुस्वपडिवानए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जति अस्थि जहन्नेणं एक्को वा वो वा तिन्नि था, उक्कोसेणं सयपहत्तं। [233 अ.] भगवन् ! निम्रन्थ एक समय में कितने होते हैं ? [233 उ.] गौतम प्रतिपद्यमान की अपेक्षा कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं भी होते / यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ बासठ होते हैं / उनमें से क्षपकश्रेणी वाले 108 और उपशमश्रेणी बाले 54, यों दोनों मिलाकर 162 होते हैं / पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा निर्ग्रन्थ कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व होते हैं / 234. सिणाया पं० पुच्छा। गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि बा, उक्कोसेणं अट्ठसयं / युवडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपहत्तं / [दारं 35] / [234 प्र.] भगवन् ! स्नातक एक समय में कितने होते है ? [234 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक सौ पाठ होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं। पैतीसवाँ द्वार] Page #2643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्द शक 6) विवेचन-शंका-समाधान-सुनते हैं, सर्व संयतों (साधुओं) का परिमाण (संख्या) कोटिसहस्र-पृथक्त्व है और यहाँ तो शास्त्रकार ने केवल कषाय कुशील मुनियों का ही इतना (कोटि-सहस्रपृथक्त्व) परिमाण बताया है, उनमें पुलाक आदि की संख्या को मिलाने से तो कोटि-सहस्र-पृथक्त्व से अधिक संख्या हो जाएगी तो क्या यह पूर्वोक्त परिमाण से विरोध नहीं ? इसका समाधान यह है कि कषायकुशील संयतों का जो कोटि-सहस्र-पृथक्त्व परिमाण बताया है, वह दो, तीन कोटि सहस्र-पृथक्त्वरूप जानना चाहिए। उसमें पुलाक, बकुशादि की संख्या को मिला देने पर भी समस्त संयतों की जो संख्या बतायी है, उससे अधिक नहीं होगी / अर्थात् सर्व संयतों का परिमाण भी कोटिसहस्र-पृथक्त्व ही होगा।' छत्तीसवाँ अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में अल्पबहुत्व प्ररूपण ___ 235. एएसि णं भंते ! पुलाग-बउस-पडिसेवणाकसील-कसायकसील-नियंठ-सिणायाणं कयरे कयरेहितो जाय विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा नियंठा, पुलागा संखेज्जगुणा, सिणाया संखेज्जगणा, बउसा संखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसोला संखेज्जगुणा, कसायकसोला संखेन्जगुणा। [दारं 36] / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरह। // पंचवीसइमे सए : छटो उद्देसओ समत्तो॥ / 235 प्र.] भगवन् ! पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निम्रन्थ और स्नातक, इनमें से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [235 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े निम्रन्थ हैं, उनसे पुलाक संख्यात-गुणे हैं, उनसे स्नातक संख्यात-गुणे हैं, उनसे बकुश संख्यात-गुणे हैं, उनसे प्रतिसेवनाकुशील संख्यात-गुणे हैं और उनसे कपायकुशील संख्यात-गुणे हैं। [छत्तीसवाँ द्वार] हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है। यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रल्पबहुत्व की संगति-निर्ग्रन्थ सबसे अल्पसंख्यक हैं, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट संख्या शत-पृथक्त्व है। उनसे पुलाक और स्नातक क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुण हैं; क्योंकि इन दोनों की उत्कृष्ट संख्या क्रमशः सहस्रपृथक्त्व और कोटिपृथक्त्व है। उनसे बकुश और प्रतिसेवनाकुशील दोनों क्रमश: उत्तरोत्तर संख्यातगुण हैं, क्योंकि इन दोनों की उत्कृष्ट संख्या कोटिशतपृथक्त्व है और प्रतिसेवनाकुशील से कषायकुशील की संख्या संख्यातगुणी है, क्योंकि कषायकुशील की उत्कृष्ट संख्या कोटिसहस्रपृथक्त्व है। शंका-समाधान--पूर्वसूत्रों में बकुश और प्रतिसेवनाकुशील, इन दोनों का परिमाण एक-सा कोटिशतपृथक्त्वरूप कहा है, जबकि यहां अल्पबहुत्व में बकुश से प्रतिसेवनाकुशील को संख्यातगुणा 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 907 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3431 Page #2644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग्याख्याप्रशप्तिसून अधिक बताया है, ऐसी स्थिति में यहाँ मूलपाठ के साथ कैसे संगति होगी? इस शंका का समाधान यह है कि बकुश का परिमाण जो कोटिशतपृथक्त्व कहा है, वह तीन कोटिशतरूप जानना चाहिए और प्रतिसेवनाकुशील का जो कोटिशतपृथक्त्व परिमाण बताया है, वह चार-छह कोटिरूप जानना चाहिए। इस प्रकार पूर्वोक्त अल्पबहुत्व में किसी प्रकार का परस्पर विरोध नहीं पाता / ' // पच्चीसवां शतक : छठा उद्देशक सम्पूर्ण // 1. भगवती. म. पत्ति, पत्र 909 Page #2645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : 'समणा' सप्तम उद्देशक : 'श्रमण' (संयत सम्बन्धी) प्रथम प्रज्ञापनाद्वार : संयतों के भेद-प्रभेद का निरूपण 1. कति णं भंते ! संजया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच संजया पन्नत्ता तं नहा- सामाइयसंजए दोषट्ठावणियसंजए परिहारविसुधियसंजए मुहमसंपरायसंजए प्रहक्खायसंजए / 1.] भगवन् ! संयत कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! संयत पांच प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) सामायिक-संयत, (2) छेदोपस्थापनिक-संयत (3) परिहारविशुद्धि-संयत (4) सूक्ष्मसम्पराय-संयत और (5) यथाख्यात-संयत / 2. सामाइयसंजए णं भंते ! कति विधे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-इत्तिरिए य, प्रावकाहिए य / 2.] भगवन ! सामायिक-संयत कितने प्रकार का कहा है ? [2 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा-इत्वरिक और यावत्कथिक / 3. छेदोवट्ठावणियसंजए गं० पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पन्नत्से, सं जहा–सातियारे य, निरतियारे य / 13 प्र.! भगवन ! छेदोपस्थापनिक-संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? [3 उ.1 गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-~-सातिचार और निरतिचार / 4. परिहारविसुद्धियसंजए. पच्छा। गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा–णिविसमाणए य, निग्विटुकाइए य / / (4 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिक-संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.) गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा--निर्विशमानक और निविष्टकायिक / 5. सुहमसंपराग० पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पन्नते, तं जहा--संफिलिस्समाणए य, विसुज्भमाणए य / 15 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्पराय-संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? [5 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा संक्लिश्यमानक और विशुद्धधमानक / 6. अहक्खायसंजए. पुच्छा। . गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा---छउमरथे य, केवली य / Page #2646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्याल्याप्रकाप्तिसूक [6 प्र.] भगवन् ! यथारूयात-संयत कितने प्रकार का कहा गया है ? [6 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-छद्मस्थ और केवली / संयत-स्वरूप 7. सामाइयम्मि उ कए चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म / तिविहेण फासयंतो सामाइयसंजयो स खलु // 1 // 8. छेत्तूण य परियागं पोराणं जो ठवेइ प्रप्पाणं / धम्मम्मि पंचनामे छेदोवट्ठावणो स खलु // 2 // 1. परिहरति जो विसुद्धं तु पंचजामं प्रणुत्तरं धम्म। तिविहेण फासयंतो परिहारियसंजयो स खलु // 3 // 10. लोभाणु वेदेतो जो खलु उवसामग्रो व खवनो वा। सो सुहमसंपराओ अहखाया ऊणो किंचि // 4 // 11. उबसंते खोणम्मि व जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि। छउमस्थो व जिणो वा अहलाओ संजो स खलु // 5 // [दारं 1] / सामायिक-चारित्र को अंगीकार करने के पश्चात् चातुर्याम-(चार महावत-) रूप अनुत्तर (प्रधान) धर्म का जो मन, बचन और काया से विविध (तीन करण से) पालन करता है, वह 'सामायिक-संयत' कहलाता है / / 1 / / प्राचीन (पूर्व) पर्याय को छेद करके जो अपनी आत्मा को पंचयाम-(पंचमहानत-) रूप धर्म में स्थापित करता है, वह 'छेदोपस्थापनीय-संयत' कहलाता है / / 2 / / ____ जो पंचमहाव्रतरूप अनुत्तर धर्म को मन, वचन और काया से विविध पालन करता हुअा (अमुक) प्रात्म-विशुद्धि (कारक तपश्चर्या) धारण करता है, वह परिहारविशुद्धिक-संयत कहलाता है / / 3 / / जो सूक्ष्म लोभ का वेदन करता हुआ (चारित्रमोहनीय कर्म का) उपशमक (उपशमकर्ता) होता है, अथवा क्षपक (क्षयकर्ता) होता है, वह सूक्ष्मसम्पराय-संयत होता है / यह यथाख्यात-संयत से कुछ हीन होता है / / 4 / / मोहनीय कर्म के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर जो छद्मस्थ या जिन होता है, वह यथाख्यातसंयत कहलाता है / / 5 / / प्रथम द्वार] विवेचन-पंचविध संयत : स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण--शास्त्र में चारित्र के सामायिक आदि 5 भेद बताए हैं / अत: जो सामायिक प्रादि चारित्रों के पालक है, वे सामायिक आदि ‘संयत' कहलाते हैं / सामायिक का प्रस्तुत में अर्थ है---सामायिक नामक चारित्र-विशेष, उससे युक्त अथवा वह जिसमें प्रधान रूप से है, वह संयमी पुरुष सामायिकसंयत कहलाता है / सामायिकचारित्री दो प्रकार के होते हैं-इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वर का अर्थ है-अल्पकाल / चारित्र (दीक्षा) ग्रहण करने के बाद भविष्य में उक्त (नव) दीक्षित साधु में जब तक महाव्रतों का प्रारोपण नहीं होता तब तक तथा Page #2647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 1 [449 छेदोपस्थापनीय संयतत्व का व्यवहार किया जाता है, अर्थात् उसे इत्वरिक सामायिक-संयत कहते हैं / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासन (तीर्थ) में उक्त नवदीक्षित साधु के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिए। परम्परा से यह जघन्य 7 दिन, मध्यम 4 मास और उत्कृष्ट 6 मास को (कच्ची दीक्षा) होती है। यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर भगवान से अतिरिक्त मध्य के 22 तीर्थंकरों एवं महाविदेह क्षेत्र के 20 विहरमान तीर्थंकरों के तीर्थ में सामायिक चारित्र लेने के पश्चात् पुनः दूसरा व्यपदेश नहीं होता / अतएव वे यावत्कथिक सामायिक-संयत ही कहलाते हैं। जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद और महावतों का उपस्थापन (ग्रारोपण) होता है, उसे छेदोषस्थापनीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है / मध्यवर्ती तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता। इसके दो भेद हैंसातिचार और निरतिचार / इत्वर-सामायिक वाले साधु के तथा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले साधु के जो महावतों का आरोपण होता है, वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है / मूलगुणों का घात करने वाले साधु का पुनः महाव्रतों में प्रारोपण होता है, वह सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र है। जिस चारित्र में परिहार (तप-विशेष) से कर्मनिर्जरारूप शुद्धि होती है, उसे 'परिहारविशुद्धि चारित्र' कहते हैं / इसे अंगीकार करने वाले साधुगण 'परिहारविशुद्धिक-संयत' कहलाते हैं। नौ साधनों का गण गरु-प्राज्ञा से प्रात्मशद्धि के हेत परिहारविशुद्धि चारित्र अंगीकार करता है। उन नौ साधुओं में से चार साधु 6 मास तक तप करते हैं, चार साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं और एक साधु व्याख्यान बांचता है। दूसरे छह मास में 4 वैयावच्ची मुनि तप करते हैं और तप करने वाले वैयावृत्य करते हैं तथा एक साधु व्याख्यान वांचता है / तीसरे छह मास में उक्त व्याख्यानी साधु तप करता है, एक व्याख्यान वांचता है और सात साधु सबकी वैयावृत्य करते हैं / तपश्चर्या में ग्रीष्मऋतु में एकान्तर उपवास, शीतऋतु में छ?-छ? (बेले-बेले) उपवास और चौमासे में अट्ठम-अटुम (तेले-तेले) उपवास करते हैं / इस प्रकार 18 मास तप करके जिनकल्पी बन जाते हैं अथवा पुनः गुरुकुलवास स्वीकार करते हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय (संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश) ही शेष रहता है, उसे सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहते हैं / इसके संक्लिश्यमानक और विशुद्धयमानक, ये दो भेद हैं। उपशमश्रेणी से गिरते हुए मुनि के परिणाम संक्लेशसहित होते हैं, इसलिए उसका चारित्र संक्लिश्यमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणी पर आरूढ होने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध रहने से उसका चारित्र विशुद्धयमान-सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। ऐसे चारित्र से युक्त मुनि को 'सूक्ष्मसम्परायसंयत' कहते हैं। कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार-रहित पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र यथाख्यातचारित्र अथवा अकषायी साधु का निरतिचार यथार्थ चारित्र यथाख्यातचारित्र कहलाता है। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 909. (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ.३४३६ 2. (क) वही, भा. 3537 Page #2648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याल्याप्राप्तिसूत्र यथाख्यातचारित्र के छदमस्थ और केवली ये दो भेद हैं / छद्मस्थ यथाख्यातचारित्र के उपशान्तमोह और क्षीण मोह अथवा प्रतिपाती और अप्रतिपाती, ये दो भेद होते हैं। केवली-यथाख्यातचारित्र के दो भेद हैं-सयोगीकेवली का और अयोगीकेवली का / यथाख्यातचारित्र से युक्त साधु यथाख्यातसंयत कहलाता है।' द्वितीय वेदद्वार : पंचविध संयतों में सवेदी-अवेदी प्ररूपणा 12. सामाइयसंजये णं भंते ! कि सवेयए होज्जा, अवेयए होज्जा ? गोयमा [ सधेयए वा होज्जा, अवेयए वा होज्जा। अति सवेयए एवं जहा कसायकुसीले (70 6 0 24) तहेव निरक्सेसं / (12 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत सवेदी होता है या अवेदी ? (12 उ.] गौतम ! वह सवेदी भी होता है, अवेदी भी। यदि वह सवेदी होता है, आदि सभी कथन (उ. 6, सू. 14 में कथित ) कषायकुशील की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए / 13. एवं छेदोवट्ठावणियसंजए वि। [13] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी जानना चाहिए। 14. परिहार विसुद्धियसंजनो जहा पुलाश्रो (उ० 6 सु० 11) / [14] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. 6 सू. 11 में उक्त) पुलाक के समान है / 15. सुहमसंपरायसंजो प्रहक्खायसंजओ य जहा नियंठो (उ० 6 सु०१५)। [दारं 2] / [15] सक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6 सू. 15 में उक्त) निर्गन्थ के समान है। [द्वितीय द्वार] विवेचन--पंचविध संयतों में सवेदी-प्रवेदी-सामायिकसंयत सवेदी भी होते हैं और अवेदी भी / सामायिक चारित्र नौवें गुणस्थान पर्यन्त होता है / नौवें गुणस्थान में तो वेद का उपशम या क्षय हो जाता है, इसलिए वहाँ सामायिक चारित्री अवेदी होता है। या तो वह उपशान्तवेदी होता है या फिर क्षीणवेदी। नौवें गुणस्थान से पूर्व वह सवेदी होता है। उसमें तीनों ही वेद पाये जाते हैं / छेदोपस्थापनीयसंयत में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयत, पुलाक के समान पुरुषवेदो या पुरुष-नपुसकवेदी होता है। किन्तु सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत, दोनों ही क्रमशः उपशान्तवेदी एवं क्षीणवेदी होने से अवेदी होते हैं। तृतीय रागद्वार : पंचविध संयतों में सरागता-वीतरागता-निरूपण 16. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सरागे होज्जा, बीयरागे होज्जा? गोयमा ! सरागे होज्जा, नो वीयरागे होज्जा। [16 प्र. भगवन् ! सामायिकसयत सराग होता है या वीतराग ? [16 उ.] गौतम ! वह सराग होता है, वीतराग नहीं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 910 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3436 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 911 Page #2649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [451 17. एवं सुहमसंपरायसंजए। . [17] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसयत-पर्यन्त कहना चाहिए। 18. अहक्खायसंजए जहा नियंठे (उ०६ सु० 16) / [दारं 3] / [18] यथाख्यात संयत का कथन (उ. 6 सू. 19 में कथित) निर्ग्रन्थ के समान जानना चाहिए। [तृतीय द्वार विवेचन--निष्कर्ष- सामायिकसयत आदि चार प्रकार के संयत सरागी होते हैं, अन्तिम यथाख्यातसंयत वीतरागी होता है। चतुर्थ कल्पद्वार : पंचविध संयतों में स्थितकल्पादि प्ररूपरणा 16. सामाइयसंजए णं भंते ! कि ठियकप्पे होज्जा, अठियकप्पे होला ? गोयमा ! ठियकप्ये वा होज्जा, अठियकप्पे वा होज्जा। [19 प्र.| भगवन् ! सामायिकसंयत स्थितकल्प में होता है या प्रस्थितकल्प में ? {16 उ.] गौतम ! वह स्थितकल्प में भी होता है और अस्थित कल्प में भी। 20. छेदोवट्ठावणियसंजए० पुच्छा / गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा, नो अठियकप्पे होज्जा। 120 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनिकसंयत स्थितकल्प में होता है या अस्थितकल्प में ? [20 उ. गौतम ! वह स्थितकल्प में होता है, अस्थित कल्प में नहीं। 21. एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि। [21] इसी प्रकार परिहारविशुद्धिकसंयत के विषय में भी समझना चाहिए। 22. सेसा जहा सामाइयसंजए। [22] शेष दो--सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन सामायिकसयत के समान जानना चाहिए / 23. सामाइयसंजए णं भंते ! कि जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होज्जा ? गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसाय कुसोले (उ०६ सु० 26) तहेव निरवसेस / 123 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत जिनकल्प में होता है, स्थविरकल्प में होता है या कल्पातीत में होता है ? [23 उ.] गौतम ! वह जिनकल्प में होता है, इत्यादि समग्र कथन (उ. 6 सू. 26 में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिए / 24. छेदोवट्ठावणिनो परिहारविसुखिनो य जहा बउसो (उ० 6 सु० 24) / [24) छेदोषस्थापनिक और परिहार-विशुद्धिक-संयत में सम्बन्ध में (उ. 6, सू. 24 में उक्त) बकुश के समान वक्तव्यता जानना। Page #2650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] (व्याख्याप्रमप्तिसूत्र 25. सेसा जहा नियंठे (उ० 6 सु० 27) [दारं 4] / [25] शेष दो--सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन (उ.६, सू. 27 में उक्त) 'निर्गन्थ' के समान समझना चाहिए। (चतुर्थ द्वार] विवेचन-अस्थितकल्प और स्थितकल्प-मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में और महाविदेह क्षेत्र के तीर्थकरों के तीर्थ में अस्थितकल्प होता है / वहाँ छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिचारित्र नहीं होता, इसलिए छेदोपस्थापनीयसंयत और परिहारविशुद्धिकसंयत अस्थितकल्प में नहीं होते / ' पंचम चारित्रद्वार : पंचविध संयतों में पुलाकादि-प्ररूपणा 26. सामाइयसंजए णं भंते ! कि पुलाए होज्जा, बउसे जाव सिणाए होज्जा ? गोयमा ! पुलाए वा होज्जा, बउसे जाव कसायकुसीले वा होज्जा, नो नियंठे होज्जा, नो सिणाए होज्जा। [26 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत पलाक होता है, अथवा बकुश, यावत् स्नातक होता है ? [26 उ.} गौतम ! वह पुलाक, बकुश यावत् कषायकुशील होता है, किन्तु न तो 'निर्ग्रन्य' होता है, और न स्नातक / 27. एवं छेदोवढावणिए वि। [27] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय के विषय में जानना चाहिए। 28. परिहार विसुद्धियसंजते णं भंते !* पुच्छा। गोयमा ! नो पुलाए, नो बउसे, नो पडिसेवणाकुसोले होज्जा, कसायकुसीले होज्जा, नो नियंठे होज्जा, नो सिणाए होज्जा। [28 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत क्या पुलाक होता है, यावत् स्नातक होता है ? [28 उ.] गौतम ! वह पुलाक, बकुश प्रतिसेवनाकुशील, निर्ग्रन्थ या स्नातक नहीं होता, किन्तु कषायकुशील होता है / 26. एवं सुहमसंपराए वि। [26] इसी प्रकार सूक्ष्मसम्परायसंयत के विषय में भी समझना चाहिए। 30. अहक्खायसंजए० पुच्छा। गोयमा ! नो पुलाए होज्जा, जाव नो कसायकुसोले होज्जा, नियंठे वा होज्जा, सिणाए वा होज्जा / [दारं 5] / [30 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत क्या पुलाक यावत् स्नातक होता है ? [30 उ.] गौतम ! वह पुलाक यावत् कषायकुशील नहीं होता, किन्तु निन्थ या स्नातक होता है / [पंचमद्वार 1. (क) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 911 Page #2651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसीसचा मालक : उई शक ) [456 विवेचन-चारित्रद्वार में पुलाकादि का कथन क्यों? -सामायिक से लेकर यथाख्यात तक अपने आप में चारित्र ही है, किन्तु पुलाकादि का कथन चारित्रद्वार में करने का कारण यह है कि पुलाक आदि का परिणाम चारित्ररूप ही है / ' छठा प्रतिसेवनाद्वार : पंचविध संयतों में प्रतिसेवन-अप्रतिसेवनप्ररूपणा 31. [1] सामाइयसंजए णं भंते ! कि पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा? गोयमा ! पडिसेवए वा होज्जा, अपडिसेवए वा होज्जा। [31-1 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी ? 131-1 उ.] गौतम ! बह प्रतिसेवी भी होता है और अप्रतिसेवी भी। [2] जइ पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेवए होज्जा ? सैसं जहा पुलागस्स (उ० 6 सु० 35 [2]) / [31-2 प्र.] भगवन् ! यदि वह प्रतिसेवी होता है तो क्या मुलगुणप्रतिसेवी होता है ? इत्यादि प्रश्न / [31-2 उ.] गौतम ! इस विषय में अवशिष्ट समग्र कथन (उ. 6, सु. 35-2 में उक्त) पुलाक ने समान जानना चाहिए / 32. जहा सामाइयसंजए एवं छेदोवढावणिए वि। [32] सामायिकसंयत के समान छेदोपस्थापनिकसंयत का कथन जानना चाहिए / 33. परिहारविसुद्धियसंजए० पुच्छा। गोतमा ! नो पडिसेवए होज्जा, अपडिसेवए होज्जा। [33 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेवी ? [33 उ. गौतम ! वह प्रतिसेवी नहीं होता, अप्रतिसेवी होता है। 34. एवं जाव अहक्खायसंजए। [वारं 6] / [34] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातसंयत तक कहना चाहिए। [छठा द्वार] विवेचन--सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत प्रतिसेवी भी होते हैं और अप्रतिसेवी भी, किन्तु परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत अप्रतिसेवी ही होते हैं / सप्तम ज्ञानद्वार : पंचविध संयतों में ज्ञान और श्रताध्ययन की प्ररूपणा 35. सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा? गोयमा ! दोसु वा, तिसु था, चतुसु वा नाणेसु होज्जा / एवं जहा कसायकुसीलस्स (उ० 6 सु० 44) तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए। 1. भगवती. भ. पत्ति, पत्र 911 Page #2652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [प्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 135 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत में कितने ज्ञान होते हैं ? [35 उ.] गौतम ! उसमें दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं। इस प्रकार जैसे (उ. 6, सू. 44 में उक्त) कषायकुशील में कहा है, वैसे ही यहाँ चार ज्ञान भजना (विकल्प) से समझने चाहिए। 36. एवं जाव सुहमसंपराए। [36] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसयत तक जानना चाहिए। 37. अहक्खायसंजतस्स पंच नाणाई भयणाए जहा नाणुद्देसए (स० 8 उ०२ सु० 106) / / 37] यथाख्यातसंयत में ज्ञानोद्देशक (शतक 8, उ. 2) के अनुसार पांच ज्ञान विकल्प (भजना) से होते हैं। 38. सामाइयसंजते णं भंते ! केवतियं सुयं अहिज्जेज्जा ? गोयमा जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायानो जहा कसायकुसोले (उ० 6 सु० 50) / (38 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? [38 उ.] गौतम ! वह जघन्य आठ प्रवचनमाता का अध्ययन करता है, इत्यादि (उ. 6, सू. 50 में उक्त) कषायकुशील के वर्णन के समान जानना चाहिए। 36. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। [39] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसयत के विषय में भी कहना चाहिए / 40. परिहारविसुद्धियसंजए० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुवस्स तइयं प्रायारवत्थु, उक्कोसेणं असंपुण्णाई दस पुधाई अहिज्जेज्जा। [40 प्र.भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? [40 उ.] गौतम ! वह जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचारवस्तु तक तथा उत्कृष्ट दस पूर्व असम्पूर्ण तक अध्ययन करता है / 41. सुहुमसंपरायसंजए जहा सामाइयसंजए। 141] सूक्ष्मसम्परायसंयत की वक्तव्यता सामायिकसयत के समान जानना / 42. अहक्खायसंजए० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पक्ष्यणमायाप्रो, उक्कोसेणं चोद्दसपुत्वाई अहिज्जेज्जा, सुतयतिरित्ते वा होज्जा / [दारं 7] / [42 प्र. भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितने श्रुत का अध्ययन करता है ? {42 उ.] गौतम ! वह जघन्य अष्ट प्रवचनमाता का और उत्कृष्ट चौदहपूर्व तक का अध्ययन करता है अथवा वह श्रुतव्यतिरिक्त (केवली) होता है। [सप्तम द्वार] Page #2653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [455 विवेचन-यथाख्यातसंयत में पांच ज्ञान विकल्प से : क्यों और कैसे ? ..यथाख्यातसंयत में पांच ज्ञान भजना से इसलिए कहे गए हैं कि यथाख्यातसंयत दो प्रकार के होते हैं--केवली और छद्मस्थ / केवलो यथाख्यातसंयत में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है। किन्तु छद्मस्थ यथाख्यातसंयत में दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं। इसके लिए पाठवें शतक के द्वितीय उद्देशक (के सू. 106) का प्रतिदेश किया गया है।' यथाख्यातसंयत का श्रुताध्ययन-- -यथाख्यातसयत यदि 'निर्ग्रन्थ' होते हैं तो उनके जघन्य अष्ट प्रवचनमाता का और उष्कृष्ट चौदह पूर्व का श्रुत पढ़ा हुआ होता है / यदि वे स्नातक होते हैं तो वे श्रुतातीत-केवली होते हैं / 2 अष्टम तीर्थद्वार : पंचविध संयतों में तीर्थ-अतीर्थ-प्ररूपणा 43. सामाइयसंजए णं भंते ! कि तित्थे होज्जा, अतिस्थे होज्जा? गोयमा ! तित्थे वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा जहा कसायकुसीले (उ० 6 सु० 55) / 143 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत तीर्थ में होता है अथवा अतीर्थ में ? |43 उ.] गौतम ! वह तीर्थ में भी होता है और अतीर्थ में भी, इत्यादि सब वर्णन (उ. 6, सू. 55 में कथित) कषायकुशील के समान कहना चाहिए / 44. छेदोवट्ठावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए (उ० 6 सु०५३) / १४४छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. 6, सू. 53 में उक्त) पुलाक के समान जानना चाहिए / 45. सेसा जहा सामाइयसंजए। [दारं / 145] शेष सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत की वक्तव्यता सामायिकसंयत के समान जानना जाहिए / [पाठवाँ द्वार) विवेचन--सामायिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत तीर्थ और प्रतीर्थ दोनों में होते हैं। तीर्थंकर के तीर्थ का विच्छेद हो जाने पर दूसरे साधु अतीर्थ में होते हैं तथा कई तीर्थंकर या प्रत्येक बुद्ध तीर्थ के बिना सामायिकचारित्र का पालन करते हैं। वे भी अतीर्थ में होते हैं। छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिक संयत तीर्थ में होते हैं। नौवाँ लिंगद्वार : पंचविध संयतों में स्व-अन्य-गृहिलिंग-प्ररूपरणा 46. सामाइयसंजए णं भंते [ कि सलिगे होज्जा, अन्नलिंगे होज्जा, गिहिलिगे होज्जा ? जहा पुलाए (उ० 6 सु० 58) / [46 प्र. ] भगवन् ! सामायिकसंयत स्वलिंग में होता है, अन्य लिंग में या गृहलिंग में होता है ? 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 911 2. वही, पत्र 911 Page #2654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ হাসমি ( 46 उ.] गौतम ! इसका सभी कथन ( उ. 6. सू. 48 में उक्त) पुलाक के समान जानना / 47. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। [47] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी जानना चाहिए / 48. परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! कि० पुच्छा। गोयमा ! दलिगं पि भालिगं पि पडुच्च सलिगे होज्जा, नो अनलिगे होज्जा, नो गिहिलिगे होज्जा। [48 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत स्वलिंग में होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ! [48 उ.] गौतम ! वह द्रव्यलिंग और भावलिंग की अपेक्षा स्वलिंग में ही होता है, अन्यलिंग या गृहस्थलिंग में नहीं होता। 46, सेसा जहा सामाझ्यसंजए / [दारं] / [49] शेष ( सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत का) कथन मामायिकसंयत के समान जानना चाहिए / नौवाँ द्वार] विवेचन--सामायिकसंयत, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत सम्बन्धी लिंग-विषयक प्रश्न में पुलाक का अनिदेश किया गया है, परिहारविशुद्धिकसंयत द्रव्य-भावलिंग की अपेक्षा स्वलिंग में ही होता है। दसवाँ शरीरद्वार : पंचविध संयतों में शरीरभेद-प्ररूपणा 50. सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु सरीरेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा चतुसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले (उ० 6 सु० 63) / / 50 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत कितने शरीरों में होता है ? [50 उ.] गौतम ! वह तीन, चार या पांच शरीरों में होता है, इत्यादि सब कथन (उ, 6, सू. 63 में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिये। 51. एवं छेदोवढावणिए वि। | 51] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत के विषय में भी जानना चाहिए / 52. सेसा जहा पुलाए (उ० 6 सु०६०)। [वार 10] / [52] शेष परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराम और यथाख्यात संयत का शरीर-विषयक कथन (उ. 6 मू. 60 में कथित) पुलाक के समान जानना / दसवाँ द्वार] ग्यारहवाँ क्षेत्रवार : पंचविध संयतों में कर्म-अकर्मभूमि की प्ररूपरणा 53. सामाइयसंजए गं भंते ! कि कम्मभूमीए होज्जा, अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयमा ! जम्मणं संतिभावं च पडच्च जहा बउसे (उ० 6 सु०६६)। [53 प्र. ] भगवन् ! सामायिकसंयत कर्मभूमि में होता है या अकर्मभूमि में ? Page #2655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [457 [53 उ. ] गौतम ! जन्म और सद्भाव की अपेक्षा से (वह कर्मभूमि में होता है, अकर्मभूमि में नहीं, इत्यादि सब कथन उ. 6, सू. 66 में कथित) बकुश के समान जानना चाहिए / 54, एवं छेदोवद्वावणिए वि। [54] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय संयत का कथन है / 55. परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए (उ० 6 सु० 65) / [55] परिहारविशुद्धिक संयत के विषय में (उ. 6, सू. 65 में उक्त) पुलाक के समान जानना। 56. सेसा जहा सामाइयसंजए। [वारं 11] / [56] शेष (सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत) के विषय में सामायिकसंयत के समान जानना / [ग्यारहवाँ द्वार] बारहवाँ कालद्वार : पंचविध संयतों में अक्सपिरणीकालादि की प्ररूपरणा 57. सामाइयसंजए णं भंते ! कि प्रोसप्पिणिकाले होज्जा, उस्सप्पिणिकाले होज्जा, नोमोसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले होज्जा ? गोयमा ! ओसप्पिणिकाले जहा बउसे (उ० 6 सु० 66) / [57 प्र.) भगवन् / सामायिकसंयत अवपिणीकाल में होता है, उत्सपिणीकाल में होता है, या नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणीकाल में होता है ? [57 उ.] गौतम ! वह अवसर्पिणीकाल में होता है, इत्यादि सब कथन (उ. 6 सू. 69 में उक्त) बकुश के समान है। 58. एवं छेदोवट्ठावणिए वि, नवरं जम्मण-संतिभावं पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नत्थि, साहरणं पडुच्च अन्नयरे पलिभागे होज्जा / सेसं तं चेव / [58] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी समझना चाहिए / विशेष यह है कि जन्म और सदभाव की अपेक्षा चारों पलिभागों (सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दु:षमा और दुःषमसुषमा) में नहीं होता, संहरण की अपेक्षा किसी भी पालिभाग में होता है / शेष पूर्ववत् है / 56. [1] परिहारविसद्धिए० पुच्छा। गोयमा ! प्रोसप्पिणिकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणिकाले वा होज्जा, नोओसप्पिणि-नोउस्सप्पिणिकाले नो होज्जा। [59-1 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत अवसर्पिणीकाल में होता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [56-1 उ.) गौतम ! वह अवसर्पिणीकाल में होता है, उत्सर्पिणीकाल में भी होता है, किन्तु नोअवसर्पिणी-नोउत्सर्पिणोकाल में नहीं होता। Page #2656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2] जदि प्रोसप्पिणिकाले होज्जा जहा पुलानो (उ० 6 सु० 68 [2]) / [59-2] यदि अवसर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. 6, सूत्र 68.2 में कहे अनुसार) पुलाक के समान होता है। [3] उस्सप्पिणिकाले वि जहा पुलानो (उ० 6 सु० 68 [3]) / [59-3] उत्सर्पिणीकाल में होता है, तो (उ. 6, सू. 68-3 में कहे अनुसार) पुलाक के समान होता है। 60. सुहमसंपरानो जहा नियंठो (उ० 6 सु० 72) / [60] सूक्ष्मसम्परायसंयत का कथन (उ. 6, सू. 72 के अनुसार) निग्रन्थ के समान समझना चाहिए। 61. एवं अहक्खायो वि [दारं 12] / [61] इसी प्रकार यथाख्यातसंयत का (काल-विषयक कथन) निर्ग्रन्थ के समान जानना / विवेचन--स्पष्टीकरण सामायिकसंयत का काल बकुश के समान बताया गया है / अर्थात् प्रवसर्पिणीकाल के तीसरे, चौथे और पांचवें आरे में उसका जन्म और सद्भाव (संयम-विचरण) होता है तथा उत्सर्पिणीकाल के दूसरे, तीसरे और चौथे में उसका जन्म और तीसरे, चौथे पारे में उसका सद्भाव होता है। महाविदेहक्षेत्र में भी होता है। संहरण की अपेक्षा अन्य क्षेत्र (30 अकर्मभूमियों) में भी होता है। छेदोपस्थापनीयसंयत, सामायिकसंयतवत् जानना, किन्तु महाविदेहक्षेत्र में वह नहीं होता / परिहारविशुद्धिकसंयत का अवसर्पिणीकाल के तीसरे-चौथे आरे में एवं उत्सर्पिणीकाल के दूसरे-तीसरे आरे में जन्म और तीसरे-चौथे बारे में सद्भाव होता है / सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत का अवसपिणी के तीसरे-चौथे बारे में जन्म और सदभाव तथा उत्सपिणीकाल के दूसरे-तीसरे-चौथे बारे में जन्म और तीसरे, चौथे बारे में सद्भाव होता है / यह महाविदेहक्षेत्र में भी होता है तथा इसका संहरण अन्यत्र भी होता है।' सामायिकसंयत का नोअवसर्पिणी-नोउत्सपिणी के सुषमादि-समान तीन प्रकार के काल में (देवकरु अादि में बकश के समान जन्म और सदभाव का निषेध किया है तथा दुःषम-दःषमा-समान काल में (महाविदेह क्षेत्र में) सद्भाव कहा है। छेदोपस्थापनीयसंयत का चारों पलिभाग में (अर्थात देवकुरु आदि में) तथा महाविदेह क्षेत्र में निषेध किया है / तेरहवाँ गतिद्वार : पंचविध संयतों में गतिप्ररूपणादि 62. [1] सामाझ्यसंजए णं भंते ! कालगते समाणे कंगति गच्छति ? गोयमा ! देवगति गच्छति / [62-1 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कालधर्म (मृत्यु) प्राप्त कर किस गति में जाता है ? [62-1 उ.] गौतम ! वह देवगति में जाता है। 1. भगवती, उपक्रम, पृष्ठ 635 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 913 Page #2657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक ) [2] देवति गच्छमाणे कि भवणवासीसु उयवज्जेज्जा जाव वेमागिएस उयवज्जेग्जा? गोयमा ! नो भवणवासीसु उववज्जेज्जा जहा कसायकुसीले (उ० 6 सु० 76) [62-2 प्र.] भगवन् ! वह देवगति में जाता हुअा (सामायिकसंयत) भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में से किन देवों में उत्पन्न होता है ? [62-2 उ.) गौतम ! वह (उ. 6, सू.७६ में कथित) कषायकुशील के समान भवनपति में उत्पन्न नहीं होता, इत्यादि सब कहना। 63. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। [63] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी समझना चाहिए / 64. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए (उ० 6 सु०७३)। [64] परिहारविशुद्धि कसंयत की गति (उ. 6, सू. 73 में उल्लिखित) पुलाक के समान जानना चाहिए। 65. सुहुमसंपराए जहा नियंठे (उ० 6 सु०७६) / [65] सूक्ष्मसम्परायसंयत की गति (उ. 6, सू. 77 में कथित) निर्ग्रन्थ के समान जानना चाहिए। 66. अहक्खाते० पुच्छा। गोयमा ! एवं प्रहक्खायसंजए वि जाव प्रजहन्नमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेज्जा, प्रत्थेगइए सिज्झति जाव अंतं करेति / [66 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कालधर्म प्राप्त कर किस गति में जाता है ? [66 उ. गौतम ! यथाख्यातसंयत भी पूर्वकथनानुसार अजघन्यानुस्कृष्ट अनुत्तरविमान में उत्पन्न होता है और कोई सिद्ध हो जाता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। 67. सामाइयसंजए णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणे कि इंदत्ताए उववज्जति० पुच्छा। गोयमा ! अविराहणं पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले (उ० 6 सु० 82) / [67 प्र. भगवन् ! देवलोकों में उत्पन्न होता हुआ सामायिकसंयत क्या इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? इत्यादि प्रश्न / [67 उ.] गौतम ! अविराधना की अपेक्षा (उ. 6, सू. 82 में कथित) कषायकुशील के समान जानना। 68. एवं छेदोबट्टायणिए वि। 168] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में जानना / 66. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए (उ० 6 सु० 79) / [66] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन पुलाक के समान जानना चाहिए। . Page #2658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 70. सेसा जहा नियंठे (उ० 6 सं०८३)। [70] शेष (सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत) के विषय में निर्ग्रन्थ के समान (उ. 6, सू. 63 के अनुसार) जानना। 71. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स केवतियं कालं ठिती पन्नता? गोयमा ! जहन्नेणं दो पलियोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोकमाई / [71 प्र.) भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए सामायिकसयत की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [71 उ.] गौतम ! जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है / 72. एवं छेदोवट्ठावणिए वि / [72] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत की स्थिति भी समझना चाहिए / 73. परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं दो पलिप्रोवमाइं, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई। [73 प्र.] भगवन् ! देवलोक में उत्पन्न होते हुए परिहारविशुद्धिकसंयत की स्थिति कितने काल की होती है ? [73 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम की होती है। 74. सेसाणं जहा नियंठस्स (उ० 6 सु० 88) / [वारं 13] / [74] शेष दो संयतों (सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत) की स्थिति (उ.६, सू. 88 में कथित) निग्रंन्थ के समान जानना चाहिए / [तेरहवाँ द्वार] विवेचन-गति, उत्पत्ति और स्थिति सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयत देवगति में वैमानिक देवों में जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अनुत्तरविमान में उत्पन्न होते हैं तथा इन दोनों संयतों की स्थिति जघन्य दो पल्योपम और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। परिहारविशद्धिसंयत देवगति में, वैमानिक देवों में जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सहस्रार देवलोक में उत्पन्न होता है / सूक्ष्मसम्पराय देवगति में, वैमानिक देवों में अजघन्यानुत्कृष्ट अनुत्तरमविमान में उत्पन्न होते हैं, जिनकी स्थिति अजघन्यानुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है। यथाख्यातसंयत देवगति में वैमानिक देवों में अजघन्यानुष्कृष्ट अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होते हैं, कोई-कोई सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं।' चौदहवाँ संयमद्वार : पंचविध संयतों में अल्पबहुत्वसहित संयमस्थानप्ररूपण 75, सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवतिया संजमठाणा पन्नत्ता? गोयमा! असंखेज्जा संजमठाणा पन्नत्ता। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मू. पा. टि.) भा. 2, पृ. 1047-1048 Page #2659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7 [75 प्र.] भगवत् ! सामायिकसयत के कितने संयमस्थान कहे हैं ? [75 उ.] गौतम ! उसके असंख्येय संयमस्थान कहे हैं। 76. एवं जाव परिहारविसुद्धियस्स / [76] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत तक के संयमस्थान होते हैं / 77. सुहुमसंपरायसंजयस्स० पुच्छा / गोयमा ! असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजमठाणा पन्नत्ता। [77 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत के कितने संयमस्थान कहे हैं ? [77 उ.| गोतम ! उनके असंख्येय अन्तर्मुहूर्त के समय बराबर सयमस्थान कहे हैं ? 78. प्रहक्खायसंजयस्स० पुच्छा। गोयमा ! एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमठाणे। [78 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत के संयमस्थान कितने कहे हैं ? [78 उ.] गौतम ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट एक ही संयमस्थान कहा है / 76. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहार विसुद्धिय-सुहमसंपराय-अहक्खायसंजयाणं संजमठाणाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे प्रहक्खायसंजयस्स एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमट्ठाणे, सुहमसंपरागसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमठाणा असंखेज्जगुणा, परिहार विसुद्धियसंजयस्स संजमठाणा असंखेज्जगुणा, सामाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं संजमठाणा दोण्ह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा। [दारं 14] / [79 प्र.] भगवन् ! सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयत, इनके संयमस्थानों में किसके संयमस्थान किस-किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [79 उ.गौतम ! इनमें से यथाख्यातसंयत का एक अजघन्यानुत्कृष्ट संयमस्थान है और वही सबसे अल्प है, उससे सूक्ष्मसम्परायसंयत के अन्तर्मुहूर्त-सम्बन्धी संयमस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे परिहारविशुद्धिसंयत के संयमस्थान असंख्येयगुणे हैं / उनसे सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत (इन दोनों के) संयमस्थान तुल्य हैं और असंख्येयगुणे हैं। [चौदहवां द्वार विवेचन–संयमस्थान के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण---सूक्ष्मसम्परायसयत की स्थिति अन्तमुहूर्तप्रमाण है। उसके चारित्रविशुद्धि के परिणाम समय-समय में विशिष्ट-विशिष्ट होने से असंख्यात होते हैं, किन्तु यथाख्यातसंयत का संयमस्थान तो एक ही होता है / संयमस्थान के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण इस प्रकार है असद्भावस्थापन से सभी संयमस्थान यदि 21 मान लिये जाएँ तो उनमें से सर्वोपरि जो एक है, वह यथाख्यातसंयत का संयमस्थान है। उसके पश्चात् सूक्ष्मसम्परायसंयत के 4 संयमस्थान हैं। वे उस एक की अपेक्षा असंख्येयगुणे समझने चाहिए। तदनन्तर परिहारविशुद्धिकसंयत के संयमस्थान Page #2660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 8 हैं। वे पहले वाले से असंख्यातगुणे समझने चाहिए / उसके बाद पाते हैं सामायिक और छेदोषस्थापनीय संयत के संयमस्थान, वे चार-चार समझने चाहिए, ओ परस्पर तुल्य हैं और पूर्व से असंख्येयगुणे हैं।' पन्द्रहवाँ निकर्ष (चारित्रपर्यव) द्वार : चारित्रपर्यव-प्ररूपणा 80. सामाइयसंजतस्स णं भंते ! केवतिया चरित्तपज्जया पन्नत्ता? गोयमा ! अणंता चरितपज्जवा पन्नता। [80 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत के चारित्रपर्यव कितने कहे हैं ? [80 उ.] गौतम ! उसके अनन्त चारित्रपर्यव कहे हैं / 81. एवं जाव अहक्खायसंजयस्स / [81] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातसंयत तक के चारित्रपर्यव के विषय में जानना चाहिए। पंचविध संयतों में स्वस्थान-परस्थान-चारित्रपर्यवों की अपेक्षा हीन-तुल्य-अधिक प्ररूपणा 82. सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्टाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहि कि होणे, तुल्ले, अभहिए? गोयमा ! सिय होणे०, छट्ठाणवडिए। [82 प्र.] भगवन् ! एक सामायिकसंयत, दूसरे सामायिकसयत के स्वस्थानसन्निकर्ष (सजातीय चारित्रपर्यवों) की अपेक्षा क्या हीन होता है, तुल्य होता है अथवा अधिक होता है ? [82 उ.] गौतम ! वह कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। वह हीनाधिकता में षट्स्थानपतित होता है / 83. सामाइयसंजए णं भंते ! छेदोवट्ठावणियसंजयस्स पराठाणसनिगासेणं चरित्तपज्जवेहिक पुच्छा / गोयमा ! सिय होणे, छट्ठाणवडिए / [83 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनीयसयत के परस्थानसन्निकर्ष (विजातीय चारित्रपर्यवों) की अपेक्षा क्या हीन, तुल्य या अधिक होता है। [83 उ. गौतम ! वह भी कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। वह भी होनाधिकता में षट्स्थानपतित होता है / 84. एवं परिहारविसुद्धियस्स वि। {84] इसी प्रकार परिहारविशुद्धिकसंयत के विषय में जानना चाहिए / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 913 Page #2661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] 85. सामाइयसंजए णं भंते ! सुहमसंपरायसंजयस्स परढाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवे० पुच्छा / गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अम्महिए; अणंतगुणहीणे / [85 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत के परस्थानसन्निकर्ष की अपेक्षा क्या हीन, तुल्य या अधिक होता है ? [85 उ.] गौतम ! वह हीन होता है, किन्तु तुल्य या अधिक नहीं होता। वह अनन्तगुणहीन होता है। 86. एवं अहक्खायसंजयस्स वि / [86] इसी प्रकार यथाख्यातसंयत के विषय में जानना / 87. एवं छेदोवढावणिए वि / हेडिल्लेसु तिसु वि समं छट्ठाणवडिए, उरिल्लेस दोसु सहेव होणे। 87] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत भी नीचे के तीनों संयतों (परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात) के साथ षट्स्थानपतित होता है और ऊपर के दो संयतों के साथ उसी प्रकार अनन्तगुणहीन होता है / 88. जहा छेदोवट्ठावणिए तहा परिहारबिसुद्धिए वि / [88] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन छेदोपस्थापनीयसंयत के समान जानना चाहिए / 86. सहुमसंपरागसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स परद्वाण पुच्छा। गोयमा ! नो होणे, नो तुल्ले, अब्भहिए--अणंतगुणमम्भाहिए। [89 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत, सामायिकसंयत के परस्थानसन्निकर्ष (विजातीय चारित्रपर्यवों) की अपेक्षा हीन, तुल्य या अधिक होता है ? [86 उ.] गौतम ! वह हीन और तुल्य नहीं, किन्तु अधिक होता है, अनन्तगुण अधिक होता है। ___60. एवं छेदोवट्ठावणिय परिहारविसुद्धिएसु वि समं / सट्ठाणे सिय होणे, नो तुल्ले, सिय अहिए / जदि होणे अणंतगुणहोणे / अह अभहिए अणंतगुणमभहिए। [60] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धिकसंयत के साथ भी जानना / स्वस्थानसन्निकर्ष (अपने सजातीय चारित्रपर्यायों) की अपेक्षा से कदाचित् हीन और कदाचित् अधिक होते हैं, किन्तु तुल्य नहीं होते / यदि होन होते हैं तो अनन्तगुण हीन और अधिक होते हैं तो अनन्तगुण अधिक होते / 61. सुहमसंपरायसंजयस्स प्रहक्खायसंजयस्स य परहाण पुच्छा / गोयमा ! होणे, नो तुल्ले, नो अब्भहिए; अणंतगुणहोणे / Page #2662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [61 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत, सामायिकसंयत के परस्थानसन्निकर्ष (विजातीय चारित्रपर्यवों) को अपेक्षा क्या होन, तुल्य अथवा अधिक होता है ? 61 उ.] गौतम ! वह हीन होता है, किन्तु तुल्य या अधिक नहीं होता। वह अनन्तगुण हीन होता है। ____. अहक्खाते हेढिल्लाणं चउण्ह वि नो होणे, मो तुल्ले, अम्भहिए-अणंतगुणमभहिए / सट्टाणे नो होणे, तुल्ले, नो प्रभाहिए। [2] यथाख्यातसंयत नीचे के चार संयतों की अपेक्षा हीन भी नहीं तथा तुल्य भी नहीं; किन्तु अधिक होता है / वह अनन्तगुण अधिक होता है / स्वस्थानसन्निकर्ष ( सजातीय) चारित्रपर्यवों की अपेक्षा वह हीन भी नहीं और अधिक भी नहीं, किन्तु तुल्य होता है। 3. एएसि गं भंते ! सामाइय-छेदोवढावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहुमसंपराय-प्रहक्खायसंजयाणं जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? / गोयमा ! सामाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला सम्वत्थोवा, परिहारविसुद्धियसंजयस्य जहन्नगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपउजवा प्रणतगुणा / सामाइयसंजयस्स छेप्रोवट्ठावणियसंजयस्स य, एएसि गं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला प्रणंतगुणा / सुहमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरिपज्जवा प्रणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा / प्रहक्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा प्रणंतगुणा। [दारं 15] / [63 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनीयसंयत परिहारविशुद्धिकसंयत, सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत ; उनके जघन्य और उत्कृष्ट चारित्रपर्यवों में से किसके चारित्रपर्यव किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [96 उ.] गौतम ! सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत, इन दोनों के जघन्य चारित्रपर्यव परस्पर तुल्य और सबसे अल्प हैं। उनसे परिहारविशुद्धिकसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं / उनसे परिहारविशुद्धिक संयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं / उनसे सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनीयसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं और परस्पर तुल्य हैं। उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के जघन्य चारित्रपर्यव अनन्तगुणे हैं: उनसे सूक्ष्मसम्परायसंयत के उत्कृष्ट चारित्रपर्यंब अनन्तगणे हैं। उनसे यथाख्यातसंयत के अजघन्य-अनत्कृष्ट चारित्रपर्यव अनन्तगुण हैं / पन्द्रहवाँ द्वार] विवेचन-चारित्रपर्यवों को होनाधिक-तुल्यता का कारण--सामायिकसंयत के संयमस्थान असंख्यात होते हैं। उनमें से जब एक संयत हीन शुद्धि वाला होता है और दूसरा संयत कुछ अधिक शुद्धि वाला होता है, तब उन दोनों सामायिकसंयतों में से एक (चारित्रपर्यवों से) हीन और दूसरा (चारित्रपर्यवों से) अधिक कहलाता है / इस हीनाधिकता में षट्स्थान-पतितता होती है / जब दोनों के संयमस्थान समान होते हैं तब तुल्यता होती है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 913 Page #2663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [465 सोलहवाँ योगद्वार : पंचविध संयतों में योग-प्ररूपणा 64. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा ? गोयमा ! सजोगी जहा पुलाए (उ० 6 सु० 117) / [94 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत सयोगी होता है अथवा अयोगी ? [94 उ.] गौतम ! वह सयोगी होता है; इत्यादि सब कथन (उ. 6, सू. 117 में उक्त) पुलाक के समान जानना चाहिए। 65. एवं जाव सुहुमसंपरयसंजए। [65] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयत तक समझना चाहिए / 66. अहक्खाए जहा सिणाए। (उ०६ सु० 120) [दारं 16] / |.96] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 120 में कथित) स्नातक के समान है / | सोलहवाँ द्वार] सत्तरहवाँ उपयोगद्वार : पंचविध संयतों में उपयोग-निरूपण 67. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सागारोवउत्ते होज्जा, अणागारोवउत्ते होज्जा? गोयमा ! सागारोवउत्ते जहा पुलाए (उ० 6 सु० 122) / [97 प्र.] भगवन् ! समायिकसंयत, साकारोपयोगयुक्त होता है अथवा अनाकारोपयोगयुक्त ? [97 उ.] गौतम ! वह साकारोपयोगयुक्त होता है, इत्यादि कथन पुलाक के समान जानना। . 68. एवं जाव प्रहक्खाए, नवरं सुहमसंपराए सागारोवउत्ते होज्जा, नो प्रणागारोवउत्ते होज्जा [दारं 17] / [98] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातसंयत-पर्यन्त कहना चाहिए; किन्तु सूक्ष्मसम्पराय केवल साकारोपयोग-युक्त हो होता है, अनाकारोपयोग-युक्त नहीं। [सत्तरहवाँ द्वार] विवेचन-उपयोग : किसमें कौन सा ?--सामायिक अादि चार संयतों में साकारोपयोग और अनाकारोपयोग दोनों ही उपयोग होते हैं, किन्तु सक्ष्मसम्परायसंयत में एकमात्र साकारोपयोग ही होता है। क्योंकि सक्षमसम्परायसंयत साकारोपयोग में ही दसवें गणस्थान में प्रविष्ट होता है और साकारोपयोग का समय पूर्ण होने से पूर्व ही वह दसवें गुणस्थान को छोड़ देता है / इस गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है / ' अठारहवाँ कषायद्वार : पंचविध संयतों में कषाय-प्ररूपणा 66. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सकसायी होज्जा, प्रकसायी होज्जा ? गोयमा! सकसायी होज्जा, नो अकसायो होज्जा, जहा कसायकुसोले (उ० 6 सु० 126) / 14. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 214 Page #2664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [66 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत सकषायी होता है अथवा अकषायी ? [66 उ.] गौतम ! वह सकषाय होता है, अकषाय नहीं; इत्यादि (उ. 6, सू. 126 में कथित) कषायकुशील के समान जानना चाहिए। 100. एवं छेदोवट्ठावणिये वि / [१००इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय भी समझना / 101. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए (उ० 6 सु० 124) / [101] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. 6, सू. 124 में उक्त) पुलाक के समान है। 102. सुहुमसंपरागसंजए० पुच्छा। गोयमा! सकसायी होज्जा, नो अकसायी होज्जा / [102 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत सकषाय होता है अथवा अकषाय ? {102 उ.] गौतम ! वह सकषाय होता है, किन्तु अकषाय नहीं होता / 103. जदि सकसायी होज्जा, से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होज्जा? गोयमा ! एगंसि संजलणे लोभे होज्जा। [103 प्र.] भगवन् ! यदि वह सकषाय होता है तो उसमें कितने कषाय होते हैं ? [103 उ.] गौतम ! उसमें एकमात्र संज्वलनलोभ होता है। 104. अहक्खायसंजए जहा नियंठे (उ० 6 सु० 130) / [दारं 18] / [104] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 130 में उक्त) निर्ग्रन्थ के समान है। [अठारहवां द्वार] विवेचन-निष्कर्ष-यथाख्यातसंयत के सिवाय सभी संयत सकषाय होते हैं। सूक्ष्मसम्परायसंयत सकषाय तो होता है किन्तु उसमें एकमात्र संज्वलन लोभ होता है। यथाख्यातसंयत अकषाय होता है / उनमें कई उपशान्तकषाय होते हैं; कई क्षीणकषाय होते हैं।' उन्नीसवाँ लेश्याद्वार : पंचविध संयतों में लेश्याप्ररूपण 105. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सलेस्से होज्जा, अलेस्ले होज्जा? गोयमा ! सलेस्से होज्जा, जहा कसायकुसीले (उ० 6 सु० 137) / [105 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत सलेश्य होता है अथवा अलेश्य ? [105 उ.] गौतम ! वह सलेश्य होता है, इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 137 में कथित) कषायकुशील के समान जानना / 106. एवं छेदोवट्ठावणिए वि / 6106J इसी प्रकार छेदोपस्थापनीसंयत के विषय में कहना चाहिए। 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं ( मू. पा. टि.), पृ. 1051 Page #2665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7 ] 107. परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए (उ० 6 सु० 133) / [107] परिहारविशुद्धि कसंयत का कथन (उ. 6, सू.१३३ में उल्लिखित) पुलाक के समान 108. सुहमसंपराए जहा नियंठे (उ० 6 सु० 136) / {108] सूक्ष्म सम्परायसंयत की वक्तव्यता (उ. 6, सू. 136 में कथित) निर्ग्रन्थ के समान है / 106. अहक्खाए जहा सिणाए (उ० 6 सु० 141), नवरं जइ सलेस्से होज्जा एमाए सुक्कलेसाए होज्जा / [दारं 16] / [109] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 141 में कथित) स्नातक के समान है / किन्तु यदि वह सलेश्य होता है तो एकमात्र शुक्ललेश्यी होता है / [उन्नीसवाँ द्वार] विवेचन-निष्कर्ष सामायिक से लेकर छेदोपस्थापनीयसंयत तक सलेश्यी होते हैं। परिहारविशुद्धिक पुलाकवत् तथा सूक्ष्मसम्पराय निम्रन्थ के समान होते हैं। यथाख्यातसंयत का कथन स्नातक के समान है / वह सलेश्य भी होता है, अलेश्य भी। यदि सलेश्य होता है तो स्नातक परमशुक्ललेश्यायुक्त होता है, किन्तु यथाख्यातसंयत शुक्ललेश्या वाला ही होता है।' बीसवाँ परिणामद्वार : वर्द्धमानादि-परिणाम-प्ररूपणा 110. सामाइयसंजए णं भंते ! कि बड्डमाणपरिणामे होज्जा, हायमाणपरिणामे, अवट्टियपरिणामे ? ___ गोयमा ! वड्डमाणपरिणामे, जहा पुलाए (उ० 6 सु० 143) / [110 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत वर्द्धमान परिणाम वाला होता है, होयमान परिणाम वाला होता है, अथवा अवस्थित परिणाम वाला होता है ? [110 उ.] गौतम ! वह वर्द्धमान परिणाम वाला होता है; इत्यादि वर्णन (उ.६, सू. 134 में कथित) पुलाक के समान जानना / 111. एवं जहा परिहारविसुद्धिए। [111] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत पर्यन्त कहना / 112. सुहमसंपराय० पुच्छा। गोयमा ! वड्डमाणपरिणामे वा होज्जा, हायमाणपरिणामे वा होज्जा, नो अवट्ठियपरिणामे होज्जा। / 112 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत वर्द्धमान परिणाम वाला होता है ? इत्यादि प्रश्न / [112 उ.] गौतम ! वह वर्द्धमान परिणाम वाला होता है या हीयमान परिमाण वाला होता है, किन्तु अवस्थित परिणाम वाला नहीं होता। - ---- ---- -- -- 1. वियाहपण्णत्तिसुतं भा. 2 (मू. पा. टिप्पण युक्त), पृ. 1051 Page #2666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468] [व्याण्याप्रज्ञप्तिसूत्र 113. अहक्खाते जहा नियंठे (उ० 6 सु० 145) / {113] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 145 में कथित ) निर्ग्रन्थ के समान है। 114. सामाइयसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणाम होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, जहा पुलाए (उ० 6 सु० 147) / [114 प्र. ] भगवन् ! सामायिकसंयत कितने काल तक वर्द्धमान परिणामयुक्त रहता है ? [114 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय तक (वर्द्धमान परिणामयुक्त) रहता है, इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 147 में कथित) पुलाक के समान है। 115. एवं जाव परिहारविसुद्धिए / [115] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत तक कहना चाहिए। 116. [1] सुहमसंपरागसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्लेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [116-1 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत कितने काल तक बर्द्धमान परिणामयुक्त रहता है [116-1 उ.) गौतम ! वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला रहता है। [2] केवतियं कालं हायमाणपरिणामे ? एवं चेव। [116-2 प्र.] भगवन् ! वह कितने काल तक हीयमान परिणाम वाला रहता है ? [116-2 उ.} गौतम ! वह पूर्ववत् (जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त तक) जानना चाहिए। 117. [1] प्रहक्खातसंजए णं भंते ! केवतियं कालं बडमाणपरिणामे होज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [117-1 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितने काल वर्द्धमान परिणाम वाला रहता है ? [117-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत्तं तक (वर्द्धमान परिणामी रहता [2] केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्फोसेणं देसूणा पुन्वकोडी। [दारं 20] / [117-2 प्र.] वह कितने काल तक अवस्थितपरिणाम वाला होता है ? [117-2 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटिवर्ष तक (अवस्थितपरिणामी रहता है।) [बीसवाँ द्वार] Page #2667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्दशक 7] विवेचन--सूक्ष्मसम्परायसंयत के परिणाम-सूक्ष्मसम्परायसंयत जब श्रेणी चढ़ते हैं लब वर्द्धमान परिणाम वाले होते हैं और जब श्रेणी से गिरते हैं तब हीयमान परिणाम बाले होते हैं / इस गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा होता है कि उसमें अवस्थित परिणाम नहीं होते। सूक्ष्मसम्परायसंयत का वर्द्धमान परिणाम जघन्य एक समय मृत्यु की अपेक्षा से होता है। वर्द्धमान परिणाम को प्राप्त करने के एक समय बाद ही उसका मरण हो जाए तो उसका जघन्य परिणाम होता है तथा उत्कृष्ट अन्तमुहर्त वर्द्धमान परिणाम तो उम गुणस्थान की स्थिति ही है। इसी प्रकार ही यमान परिणाम के विषय में समझना चाहिए। यथाख्यातसंयत के परिणाम-जो यथाख्यातसंयन केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं उनका वर्द्धमान परिणाम जपत्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है / उसके बाद उसका व्यवच्ट्रेद हो जाता है / अवस्थित परिणाम जघन्य एक समय का उस अपेक्षा से घटित होता है, जबकि उपशम अवस्था की प्राप्ति के प्रथम समय के बाद ही उसका उत्कृष्ट अवस्थित परिणाम देशोन पूर्वकोटि उस अपेक्षा से घटित होता है, जबकि पूर्वकोटिवर्ष की प्राय वाला सातिरेक आठ वर्ष की आयु में संयम अंगीकार करके शीघ्र ही केवलज्ञान प्राप्त कर ले / ' इक्कीसवाँ बन्धद्वार : कर्म-प्रकृति-बन्ध-प्ररूपणा 118. सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मपगडीमो बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अविहबंधए वा, एवं जहा बउसे (उ० 6 सु० 152) / [118 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [118 उ.] गौतम ! वह सात या आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है; इत्यादि (उ. 6, सू. 152 में उल्लिखित) बकुश के समान जानना / 116. एवं जाव परिहारविसुद्धिए / [119] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसयत पर्यन्त कहना चाहिए / 120. सुहमसंपरागसंजए० पुच्छा। गोयमा ! आउय-मोहणिज्जबज्जानो छ कम्मष्पगडीअो बंधइ / [120 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है ? [120 उ.] गौतम ! वह आयुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियाँ बांधता है। 121. प्रहक्लायसंजए जहा सिणाए (उ० 6 सु० 156) / [दारं 21] / [121] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 156 में सूचित) स्नातक के समान है। [इक्कीसवाँ द्वार] विवेचन--सूक्ष्मसम्परायसंयत के 6 कर्मों का ही बन्ध क्यों ? --आयुष्यकर्म का बन्ध सातवें अप्रमत्त-गुणस्थान तक होता है। सूक्ष्मसम्परायसंयत दसवें गुणस्थानवर्ती होते हैं। इसलिए वे प्रायुष्य१. भगवती. म. वृत्ति, पत्र 914 Page #2668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470) [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्म का बन्ध नहीं करते तथा बादर कषाय का उदय न होने से मोहनीयकर्म का बन्ध भी नहीं करते / अतः इन दो के अतिरिक्त शेष छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है।' 122. सामाइयसंजए णं भंते [ कति कम्मप्पगडीयो वेदेति ? गोयमा ! नियम अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेति / [122 प्र. भगवन् ! सामायिकसंयत कितनी कमप्रकृतियों का वेदन करता है ? [122 उ.] गौतम ! वह नियम से पाठ कर्मप्रकृतियों का बेदन करता है। 123. एवं जाव सुहुमसंपरागे / [123] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयत के विषय में जानना / बाईसवाँ वेदनद्वार : कर्मप्रकृतिवेदन की प्ररूपरणा 124. प्रहक्खाए पुच्छा। गोयमा ! सत्तविहवेदए वा, चउविहवेदए वा। सत्त वेदेमाणे मोहणिज्जवज्जानो सत्त कम्मप्पगडीनो वेदेति / चत्तारि वेदेमाणे वेदणिज्जाऽऽउय-नाम-गोयानो चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेति / [दारं 22] / [124 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [124 उ.] गौतम ! वह या तो सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है या फिर चार का वेदन करता है। यदि सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है तो मोहनीयकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। यदि चार का वेदन करता है तो बेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है / [बाईसवाँ द्वार] विवेचन-यथाख्यातसंयत के कर्मप्रकृतियों का वेदन--यथाख्यातसंयत के निर्ग्रन्थदशा में मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम हो जाने से बह मोहनीय को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है और स्नातक अवस्था में चार घाती कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का क्षय हो जाने से वह शेष चार प्रघाती कर्मों का ही बेदन करता है। तेईसवाँ कर्मोदीरणद्वार : कर्मों की उदीरणा की प्ररूपणा 125. सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मपगडीओ उदीरेति ? गोयमा ! सत्तविह० जहा बउसो (उ० 6 सु० 162) / [125 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ? [125 उ.] गौतम ! वह सात कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ; इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 162 में कथित) बकुश के समान जानना / 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 915 2. भगवती. म. वृत्ति, पत्र 915 Page #2669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [471 126. एवं जाव परिहारविसुद्धिए। [126] इसी प्रकार यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत पर्यन्त कहना चाहिए / 127. सुहमसंपराए० पुच्छा। गोयमा ! छविहउदीरए वा, पंचविहउदीरए वा। छ उदीरेमाणे पाउय-वेदणिज्जवज्जाम्रो छ कम्मप्पगडीप्रो उदोरेइ / पंच उदीरमाणे पाउय-वेणिज्ज-मोहणिज्जवज्जाश्रो पंच कम्मघ्पगडीयो उदोरेति। [127 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है ? {127 3.] गौतम ! वह छह या पांच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है। यदि छह की उदीरणा करता है तो आयुष्य और वेदनीय को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों को उदीरता है; यदि वह पांच की उदीरणा करता है तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों को उदीरता है। 128. अहक्खातसंजए० पुच्छा / गोयमा ! पंचविहउदीरए वा, दुविहउदीरए वा, अणुदीरए वा। पंच उदोरेमाणे पाउयवेदणिज्ज-मोहणिज्जवज्जानो पंच उदीरेति / सेसं जहा नियंठस्स (उ० 6 सु० 165) / [दारं 23] / [128 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत कितनी कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा करता है ? [128 उ.] गौतम ! वह पांच या दो कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करता है या अनुदीरक होता है / यदि वह पांच की उदीरणा करता है तो आयुष्य, वेदनीय और मोहनीय को छोड़ कर शेष पांच कर्मप्रकृतियों को उदीरता है, इत्यादि शेष वर्णन (उ. 6 सू. 165 के कथित) निर्गन्थ के समान जानना चाहिए। [तेईसवाँ द्वार] विवेचन-सामायिक से लेकर परिहारविशुद्धिकसंयत तक बकुश की तरह सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है / सात में आयुष्यकर्म को छोड़ कर और छह में प्रायुष्य और वेदनीय को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है। सूक्ष्मसम्परायसयत छह या पांच का उदीरक होता है, यह मूल में स्पष्ट है / यथाख्यातसंयत आयु, वेदनीय और मोहनीय, इन तीन को छोड़ कर शेष पांच का उदीरक होता है अथवा नाम और गोत्र इन दो कर्मप्रकृतियों का उदीरक होता है अथवा किसी का भी उदीरक नहीं होता / ' चौवीसवाँ हान-उपसम्पद-द्वार : पंचविध संयतों के स्वस्थान-त्याग परस्थान-प्राप्ति-प्ररूपणा 126. सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे कि जहति ? कि उवसंपज्जइ ? गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति; छेदोवडावणियसंजयं वा सुहमसंपरायसंजयं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जति / 1. भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका, भा. 16, पृ. 316-317 Page #2670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [126 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत, सामायिकसंयतत्व त्यागते हुए किसको छोड़ता है और किसे ग्रहण करता है ? [126 उ.] गौतम ! वह सामायिकसयतत्व (संयम) को छोड़ता है और छेदोपस्थापनीयसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम, असंयम अथवा संयमासंयम को ग्रहण करता है / 130. छेदोवट्ठावगिए० पुच्छा। गोयमा ! छेदोवढावणियसंजयत्तं जहति; सामाइयसंजमं वा परिहारविसुद्धियसंजमं वा प्रसंजमं वा संजमासंजमं वा उवसंपज्जति / [130 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत छेदोपस्थापनीय संयतत्व को छोड़ते हुए किसे छोड़ता है और किसे ग्रहण करता है ? [130 उ.] गौतम ! वह छेदोपस्थापनीयसंयतत्व का त्याग करता है और सामायिकसंयम, परिहारविशुद्धिकसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम, असंयम या संयमासंयम को प्राप्त करता है / 131. परिहारविसुद्धिए पुच्छा। गोयमा ! परिहार विसुद्धियसंजयत्तं जहति; छेदोवट्ठावणियसंजमं वा असंजमं वा उपसंपज्जा / [131 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत परिहारविशुद्धिकसंयतत्व को छोड़ता हुआ किसका त्याग करता है और किसको ग्रहण करता है ? [131 उ.] गौतम ! वह परिहारविशुद्धिकसंयतत्व का त्याग करता है और छेदोपस्थापनीयसंयम या असंयम को ग्रहण करता है। 132. सुहमसंपराए० पुच्छा। गोयमा ! सुहमसंपरागसंजयत्तं जहति; सामाइयसंजमं वा छेदोवट्ठावणियसंजमं वा अहक्खायसंजमं वा असंजमं वा उवसंपज्जा / [132 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत सूक्ष्मसम्परायसंयतत्व को छोड़ता हुप्रा किसका त्याग करता है और किसको ग्रहण करता है ? [132 उ. गौतम ! वह सूक्ष्मसम्परायसंयतत्व को छोड़ता है और सामायिकसंयम, छेदोपस्थापनीयसंयम, सूक्ष्मसम्परायसंयम, असंयम अथवा संयमासंयम को ग्रहण करता है। 133. अहक्लायसंजए. पुच्छा / गोयमा ! अहक्खायसंजयत्तं जहति; सुहमसंपरागसंजमं वा अस्संजमं वा सिद्धिगति वा उपसंपज्जति / [दारं 24] / 133 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत यथाख्यातसंयतत्व को त्याग कर किसे त्यागता यावत् किसे प्राप्त करता है ? इत्यादि प्रश्न / [133 उ.] गौतम ! वह यथाख्यातसयतत्व का त्याग करता है और सूक्ष्मसम्परायसंयम, असंयम या सिद्धिगति को प्राप्त करता है / [चौवीसवाँ द्वार] Page #2671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] विवेचन-पांचोंप्रकार के संयतों द्वारा त्याग और ग्रहण : एक विश्लेषण-(१) सामायिकसंयत सामायिकसंयम को छोड़ कर छेदोपस्थापनीयसंयम तब ग्रहण करता है जब या तो वह तेईसवें तीर्थकर के तीर्थ से चौवीसवें तीर्थकर के शासन (तीर्थ) में प्राता है, तब वह चातुर्याम धर्म से पंच-महावतरूप धर्म का स्वीकार करता है अथवा जब प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर का शासनवर्ती शिष्य शिष्यअवस्था से महाव्रतारोपण-अवस्था में प्रवेश करता है तब भी वह सामायिकसंयम से छेदोपस्थापनीय संयम प्राप्त करता है और जब श्रेणी पर प्रारोहण करता है तब सामायिकसंयम से आगे बढ़कर सम्परायसंयम प्राप्त करता है अथवा जब संयम के परिणामों से गिर जाने से संयमासंयम अथवा असंयम-अवस्था को प्राप्त करता है। (2) छेदोपस्थानीयसंयत अपना संयम छोड़ते हुए सामायिकसंयम स्वीकार करता है, उदाहरणार्थ-प्रथम तीर्थकर का शासनवर्ती साधु, दूसरे तीर्थंकर के शासन को स्वीकार करते समय छेदोपस्थापनीयसंयम को छोड़कर सामायिकसंयम स्वीकार करता है / अथवा छेदोपस्थापनीयसंयम को छोड़ते हुए साधु परिहारविशुद्धिकसंयम स्वीकार करते हैं, क्योंकि छेदोपस्थापनीयसंयत ही परिहारविशुद्धिकसंयम स्वीकार करने के योग्य होते हैं, इत्यादि / (3) परिहारविशुद्धिकसंयत परिहारविशुद्धिकसंयम को छोड़ कर पुनः गच्छ (संघ) में आने के कारण छेदोपस्थापनीयसंयम स्वीकार करता है अथवा उस अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हो जाए तो वह देवों में उत्पन्न होने के कारण असंयम को प्राप्त करता है। (4) सूक्ष्मसम्परायसंयत श्रेणी से गिरते हुए सूक्ष्मसम्परायसंयम को छोड़ कर यदि वह पहले सामायिकसंयत हो तो सामायिकसंयम प्राप्त करता है और यदि वह पहले छेदोपस्थापनीयसंयत हो तो छेदोपस्थापनीयसंयम प्राप्त करता है / यदि श्रेणी ऊपर चढ़े तो यथाख्यातसंयम प्राप्त करता है और यदि वह काल करे तो देव होकर असंयम को प्राप्त होता है / (5) उपशमश्रेणी पर आरूढ होने वाला यथाख्यातसंयत, श्रेणी से प्रतिपतित हो तो यथाख्यातसंयम को छोड़ता हुआ सूक्ष्मसम्परायसंयम को प्राप्त करता है और उस समय उसकी मत्य हो जाए तो देवों में उत्पन्न होने के कारण असंयम को प्राप्त करता है और यदि वह स्नातक हो तो सिद्धिगति को प्राप्त करता है।' पच्चीसवाँ संज्ञाद्वार : पंचविध संयतों में संज्ञा की प्ररूपणा 134. सामाइयसंजए णं भंते ! कि सम्णोवउत्ते होज्जा, नोसण्णोवउत्ते होज्जा ? गोयमा ! सण्णोवउत्ते जहा बउसो (उ० 6 सु० 174) / [134 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंवत संज्ञोपयुक्त (पाहारादि संज्ञा में आसक्त) होता है या नो-संज्ञोपयुक्त होता है ? / [134 उ.] गौतम ! वह संज्ञोपयुक्त होता है, इत्यादि सब कथन (उ. 6, सू. 174 में लिखित) बकुश के समान जानना / 1. (क) भगवती. अ. वृति, पत्र 915 (ख) भगवती, (हिन्दी-विवेचन), प्र. 7 पृ. 3469-70 Page #2672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र 135. एवं जाव परिहारविसुद्धिए। [135] इसी प्रकार का कथन यावत् परिहारविशुद्धिकसंयत पर्यन्त जानना जाहिए। 136. सुहमसंपराए प्रहक्खाए य जहा पुलाए (उ० 6 सु० 173) / [दारं 25] / [136] सूक्ष्मसम्परायसंयत और यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 173 में उक्त) पुलाक के समान जानना चाहिए / [पच्चीसवाँ द्वार छब्बीसवाँ आहारद्वार : पंचविध संयतों में आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा 137. सामाइयसंजए गं भंते ! कि आहारए होज्जा ? जहा पुलाए (उ० 6 सु० 178) / [137 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत आहारक होता है या अनाहारक ? [137 उ.] गौतम ! इसके विषय में (उ. 6, सू. 178 में उक्त) पुलाक के समान जानना / 138. एवं जाव सुहमसंपराए / [138] इसी प्रकार यावत् सूक्ष्मसम्परायसयत तक जानना / 136. अहक्खाए जहा सिणाए (उ० 6 सु० 180) / [दारं 26] / [136] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 180 में कथित) स्नातक के समान जानना / (छब्बीसवाँ द्वार] 140. सामाइयसंजए णं भंते ! कति भवग्गहणाई होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं, उक्कोसेणं अट्ठ / [140 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितने भव ग्रहण करता है ? (अर्थात् कितने भवों में सामायिकसंयम आता है ?) [140 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक भव और उत्कृष्ट पाठ भव ग्रहण करता है / 141. एवं छेदोवट्ठावणिए वि। [141] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी जानना / 142. परिहार विसुद्धिए. पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्क, उक्कोसेणं तिनि / |142 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत कितने भव ग्रहण करता है ? [142 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करता है। 143. एवं जाव अहक्खाते / [दारं 27] / [143] इसी प्रकार यावत् यथाख्यातसंयत तक कहना चाहिए / [सत्ताईसवाँ द्वार] विवेचन-भवग्रहण-सामायिक और छेदोपस्थापनीयसंयत जघन्य एक और उत्कृष्ट आठ Page #2673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7 ] भव तथा परिहारविशुद्धिकसंयत से यथाख्यातसंयत तक जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन भव ग्रहण करते हैं। अट्ठाईसवां आकर्षद्वार : पंचविध संयतों के एक भव एवं नाना भवों की अपेक्षा प्राकर्ष की प्ररूपणा 144. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणिया केवतिया प्रागरिसा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं० जहा बउसस्स (उ० 6 सु. 188) / [144 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत के एक भव में कितने प्रकर्ष ( चारित्रग्रहण ) होते हैं ? __ [144 उ.] गौतम ! उसके जघन्य और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं; इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 188 में उक्त) बकुश के समान जानना / 145. छेदोवट्ठश्वणियस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं बीसपुहत्तं / [145 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [145 उ.] गौतम ! उसके जघन्य एक और उत्कृष्ट बीस-पृथक्त्व (दो बीसी से छह बीसी तक) आकर्ष होते हैं। 146. परिहारविसुद्धियस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं तिन्नि / [146 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [146 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट तीन आकर्ष होते हैं। 147. सुहमसंपरायस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं चत्तारि। [147 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मसम्परायसंयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? [147 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट चार आकर्ष होते हैं। 148. अहक्खायस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को, उक्कोसेणं दोन्नि / [148 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसयत के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? {148 उ.] गौतम ! जघन्य एक और उत्कृष्ट दो पाकर्ष होते हैं / 146. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! नाणाभवग्गहणिया केवतिया प्रागरिमा पन्नत्ता? गोयमा ! जहा बउसे (उ० 6 सु० 163) / [146 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत के अनेक भवों में कितने प्राकर्ष होते हैं ? Page #2674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সিনি [146 उ.] गौतम ! (उ, 6, सू. 163 में उक्त) बकुश के समान उसके आकर्ष होते हैं। 150. छेदोवट्ठावणियस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं उरि नवण्हं सयाणं अंतोसहस्सस्स / [150 प्र.] भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत के अनेक भवों में कितने आकर्ष होते हैं ? [150 उ.] गौतम ! उसके जघन्य दो और उत्कृष्ट नौ सौ से ऊपर और एक हजार के अन्दर प्राकर्ष होते हैं। 151. परिहार विसुद्धियरस जहन्नेणं दोनि, उक्कोसेणं सत्त। [151] परिहारविशुद्धिकसंयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट सात आकर्ष कहे हैं। 152. सुहुमसंपरागस्स जहन्नेणं दोनि, उक्कोसेणं नव / [152] सूक्ष्मसम्परायसंयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट नौ प्राकर्ष होते हैं / 153. अहमखायस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं पंच / [दारं 28] / [153] यथाख्यातसंयत के जघन्य दो और उत्कृष्ट पांच आकर्ष होते हैं। [अट्ठाईसवाँ द्वार विवेचन-पंचविध संयतों के आकर्ष--आकर्ष का यहाँ अर्थ है- चारित्र (संयम) की प्राप्ति / अर्थात् एक भव में या अनेक भवों में अमुक संयत कितनी बार उक्त संयम को प्राप्त कर सकता है ? यह प्रश्न का आशय है / कतिपय संयतों के विषय में कथन स्पष्ट है / छेदोपस्थापनीयसंयत के उत्कृष्ट प्राकर्ष एक भव में बीस पृथक्त्व कहे हैं, उसका मतलब हैछह बीसी यानी 120 बार उक्त चारित्र प्राप्त होता है। परिहारविशुद्धिकसंयम एक भव में उत्कृष्ट तीन बार प्राप्त हो सकता है। सूक्ष्मसाम्परायसंयत के एक भव में दो बार उपशमश्रेणी की सम्भावना होने से तथा प्रत्येक श्रेणी में संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान ये दो प्रकार होने से, एक भव में उत्कृष्ट चार बार सूक्ष्मसम्परायत्व की प्राप्ति घटित होती है। यथाख्यातसंयत के दो बार उपशमश्रेणी की सम्भावना होने से दो आकर्ष (दो बार चारित्र-प्राप्ति) हो सकते हैं। छेदोपस्थापनीयसंयत के अनेक भवों में उत्कृष्ट नौ सौ से ऊपर और एक हजार से कम आकर्ष होते हैं। वे इस प्रकार घटित होते हैं--छेदोपस्थापनीयसंयत के उत्कृष्ट पाठ भव होते हैं। उसके एक भव में छह बीसी (अर्थात् 120 बार) आकर्ष होते हैं / इस दृष्टि से आठ भवों में 12048 - 960 आकर्ष हो जाते हैं। यह अपेक्षा सम्भावना-मात्र की अपेक्षा से बताई गई है। इसके अतिरिक्त अन्य रीति से 600 से ऊपर संख्या घटित हो जाए, इस प्रकार घटित कर लेना चाहिए। परिहारविशुद्धिकसंयत के एक भव में उत्कृष्ट तीन बार परिहारविशुद्धिकसंयम की प्राप्ति हो सकती है। यह संयम (चारित्र) तीन भव तक प्राप्त हो सकता है। इसलिए एक भव में तीन बार, दूसरे भव में दो बार और तीसरे भव में दो बार, इत्यादि विकल्प से उसके अनेक भव में सात आकर्ष घटित होते हैं। Page #2675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [47 सूक्ष्मसम्पराय के एक भव में चार अाकर्ष होते हैं और उसकी प्राप्ति तीन भव तक हो सकती है / इस दृष्टि से उसके एक भव में चार बार, दूसरे भव में चार बार और तीसरे भव में एक बार, इस प्रकार अनेक भवों में नौ पाकर्ष होते हैं / यथाख्यात संयत के एक भव में दो, दूसरे भव में दो और तीसरे भव में एक आकर्ष होने से तीन भवों में पांच पाकर्ष होते हैं / ' उनतीसवाँ काल-(स्थिति)-द्वार : एकवचन और बहुवचन से स्थिति-प्ररूपरणा 154. सामाइयसंजए णं भंते ! कालतो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहि नहिं वासेहिं ऊणिया पुवकोडी। [154 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत कितने काल तक रहता है ? (अर्थात् उसकी स्थिति कितनी है ?) 154 उ.] गौतम ! वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त रहता है। 155. एवं छेदोवद्वावणिए वि। [155] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी कहना चाहिए / 156. परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणएहि एक्कूणतीसाए वासेहि ऊणिया पुन्धकोडी। [156] परिहारविशुद्धिकसंयत जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन 26 वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष पर्यन्त रहता है। 157. सुहमसंपराए जहा नियंठे (उ० 6 सु० 200) / [157] सूक्ष्मसम्परायसंयत के विषय में (उ. 6, सु. 202 में उक्त) निर्ग्रन्थ के अनुसार कहना चाहिए। 158. अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। [158] यथाख्यातसंयत का कथन सामायिकसंयत के समान जानना / 156. सामाइयसंजया णं भंते ! कालतो केवचिरं होंति ? गोयमा ! सव्वद्ध। [156 प्र. भगवन् ! (अनेक) सामायिकसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [156 उ.] गौतम ! वे सर्वाद्धा (सदाकाल) रहते हैं / 160. छेदोवडावणिएस पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अड्डाइज्जाइं वाससयाई, उक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई। - .. - 1. (क) भयवती. अ. वृत्ति, पत्र 916 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3474-3475 Page #2676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र [160 प्र.] भगवन् ! (अनेक) छेदोपस्थापनीयसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [160 उ.] गौतम ! जघन्य अढाई सौ वर्ष और उत्कृष्ट पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होते हैं 161. परिहारविसुद्धिए पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो बाससयाई, उक्कोसेणं देसूणानो दो पुवकोडीयो। [161 प्र.] भगवन् ! (अनेक) परिहारविशुद्धिकसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [161 उ.] गौतम ! वह जघन्य देशोन दो सौ वर्ष और उत्कृष्ट देशोन दो पूर्वकोटिवर्ष तक होते हैं। 162. सुहुमसंपरागसंजया० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [162 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सूक्ष्मसम्परायसंयत कितने काल तक रहते हैं ? [162 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्महूर्त तक रहते हैं / 163. अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया। [दारं 26] / [163] (बहुत) यथाख्यातसंयतों का कथन (सू. 156 में उक्त) सामायिकसंयतों के समान जानना चाहिए। विवेचन-सामायिक प्रादि संयतों की स्थिति : स्पष्टीकरण-सामायिकचारित्र (संयम) की प्राप्ति के बाद तुरन्त ही मृत्यु हो जाए तो उसकी अपेक्षा से सामायिक संयत का काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट देशोन नौ वर्ष कम पूर्वकोटिवर्ष होता है। यह काल गर्भ के समय से गिनना चाहिए। परिहार विशुद्धिकसंयत का जघन्यकाल एक समय मरण की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट देशोन उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होता है। क्योंकि पूर्वकोटिवर्ष की आयु वाला कोई मनुष्य यदि देशोन नौ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण करता है तो वह बीस वर्ष की दीक्षापर्याय होने पर दष्टिवाद का ज्ञान प्राप्त करके पश्चात् परिहारविशुद्धिकसंयम (चारित्र) को अंगीकार कर सकता है / यद्यपि परिहारविशुद्धिचारित्र का कालपरिमाण अठारह मास का है तथापि उन्हीं अविच्छिन्न परिणामों से वह उसे जीवनपर्यन्त पाले तो उनतीस वर्ष कम पूर्वकोटिवर्षपर्यन्त रहता है। यथाख्यातसंयत का कालपरिमाण उपशम अवस्था में मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय तथा स्नातक अवस्था वाले संयत की अपेक्षा देशोन पूर्वकोटिवर्ष है। उत्सपिणीकाल में प्रथम तीर्थकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ (शासन) अढाई सौ वर्ष चलता है। इसलिए छेदोपस्थापनीय संयतों का काल जघन्य अढाई सौ वर्ष होता है / अवसपिणीकाल में प्रथम तीर्थकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है और उनका तीर्थ पचास लाख करोड़ सागरोपम तक होता है। इसलिए उत्कृष्ट इतने काल तक छेदोपस्थापनीयसंयत होते हैं / Page #2677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक ] [479 परिहारविशुद्धिकसंयतों का काल जघन्य अदावन वर्ष कम, देशोन दो सौ वर्ष होता है। यथा-उत्सर्पिणीकाल में प्रथम तीर्थंकर के समीप सौ वर्ष की प्रायु वाले कोई मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे और उसके जीवन के अन्त में उसके पास सौ वर्ष की आयु वाला दूसरा कोई मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे, परन्तु उनके पास फिर कोई तीसरा मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार नहीं करता। इस प्रकार दो सौ वर्ष होते हैं / परन्तु परिहारविशुद्धिसंयम अंगीकार करने बाला 29 वर्ष की आयु हो जाने पर ही यह चारित्र अंगीकार कर सकता है / इस प्रकार दो व्यक्तियों के 58 वर्ष कम दो सौ वर्ष होते हैं, अर्थात् जघन्यकाल 142 वर्ष होता है। वत्तिकार की इस व्याख्या के अनुसार ही चणिकार ने भी इस प्रकार की व्याख्य तु वह अवसर्पिणीकाल के अन्तिम तीर्थंकर की अपेक्षा से की है। दोनों व्याख्याओं की संगति एक ही प्रकार से है / उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्वकोटिवर्ष होता है। जैसे कि-प्रवपिणीकाल के प्रथम तीर्थंकर के समीप पूर्वकोटिवर्ष आयु वाला मुनि परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करे और उसके जीवन के अन्त में उतनी ही प्रायु वाला दुसरा मुनि इसी चारित्र को अंगीकार करे। इस प्रकार दो पूर्व कोटिवर्ष होते हैं। उनमें से उक्त दोनों मुनियों की 26-26 वर्ष की आयु कम करने पर 58 वर्ष कम देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष होते हैं।' तीसवाँ अन्तरद्वार : पंचविध संयतों में काल का अन्तर 164. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं० जहा पुलागस्स (उ०६ सु० 207) / [164 प्र.] भगवन् ! (एक) सामायिकसंयत का अन्तर कितने काल का होता है ? [164 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्महूर्त इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 207 में उक्त) पुलाक के समान जानना। 165. एवं जाव अहक्खायसंजयस्स। [165] इसी प्रकार का कथन यावत् यथाख्यातसंयत तक समझना चाहिए। 166. सामाइयसंजयाणं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! नत्थंतरं। 6166 प्र.] भगवन् ! (अनेक) सामायिकसंयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? [166 उ.] गौतम ! उनका अन्तर नहीं होता। 167. छेदोवट्ठावणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं तेवढि वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ। [167 प्र.] भगवन् ! ( अनेक) छेदोपस्थापनीय संयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? [167 उ] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य तिरेमठ हजार वर्ष और उत्कृष्ट (कुछ कम) अठारह कोडाकोडी सागरोपम काल का होता है / 1. (क) भगवती. म. वृत्ति, पत्र 916-918 . (ख) भगवती.(हिन्दी विवेचन) अ. 7, पृ. 3878 Page #2678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [ध्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 168. परिहारविसुद्धियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीति वाससहस्साई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीयो। [168 प्र.] भगवन् ! परिहारविशुद्धिकसंयतों का अन्तर कितने काल का होता है ? [168 उ.] गौतम ! उनका अन्तर जघन्य चौरासी हजार वर्ष और उत्कृष्ट (देशोन) अठारह कोडाकोडी सागरोपम का हे / . 166. सुहुमसंपरागाणं जहा नियंठाणं (उ० 6 सु० 213) / [166] सूक्ष्मसम्परायसंयतों का अन्तर (उ. 6 सू. 213 के उक्त) निर्ग्रन्थों के समान है। 170. अहक्खायाणं जहा सामाइयसंजयाणं। [दारं 30] / [170 ] यथाख्यातसयतों का अन्तर सामायिकसंयतों के समान है। [तीसवाँ द्वार] विवेचन-संयतों का अन्तरकाल : छेदोपस्थापनीयसंयत एवं संयतों का अन्तर-अन्तरद्वार में छेदोपस्थापनोयसंयत का जो अन्तरकाल बताया है, उसे यों समझना चाहिए कि अवसर्पिणीकाल के दुःषमा नामक पंचम आरे तक छेदोपस्थापनीयचारित्र रहता है। उसके बाद दुःषम-दुःषमा नामक इक्कीस हजार वर्ष के छठे बारे में तथा उत्सर्पिणीकाल के इक्कीस हजार वर्ष-परिमित प्रथम बारे में तथा इक्कीस हजार वर्ष-परिमित द्वितीय पारे में छेदोपस्थापनीयचारित्र का अभाव होता है। इस प्रकार 21+-21+21 = 63000 वर्ष का जघन्य अन्तरकाल छेदोपस्थापनीयसंयतों का होता है। और इसी का उत्कृष्ट अन्तरकाल अठारह कोटाकोटि सागरोपम का होता है / वह इस प्रकार हैउत्सर्पिणीकाल के चौबीसवें तीर्थंकर के तीर्थ तक छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है। उसके बाद दो कोटाकोटि-प्रमाण चतुर्थ ारे में, तीन कोटाकोटि-प्रमाण पंचम पारे में और चार कोटाकोटि-प्रमाण छठे बारे में तथा इसी प्रकार अवपिणीकाल के चार कोटाकोटि-सागरोपम-प्रमाण प्रथ कोटाकोटि सागरोपम-प्रमाण दूसरे आरे में और दो कोटाकोटि-सागरोपम-प्रमाण तीसरे आरे में छेदोपस्थापनीयचारित्र नहीं होता। परन्तु उसके पश्चात् अवसर्पिणीकाल के तृतीय आरे के पिछले भाग में प्रथम तीर्थकर के तीर्थ में छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है। से छेदोपस्थापनीय संयतों का उत्कृष्ट अन्तरकाल 18 कोटाकोटि सागरोपम होता है / इसमें थोड़ा-सा काल कम रहता है और जघन्य अन्तर में थोड़ा काल बढ़ता है, परन्तु वह अत्यल्प होने से उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है। अवसर्पिणीकाल के पांचवें और छठे बारे तथा उत्सपिणीकाल का पहला और दूसरा पारा इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष का होता है। इन चारों में परिहारविशुद्धिचारित्र नहीं होता। इसलिए परिहारविशुद्धिकसंयतों का जघन्य अन्तरकाल चौरासी हजार वर्ष का है। यहाँ अन्तिम तीर्थंकर के पश्चात् पांचवें आरे में परिहारविशुद्धि कचारित्र का काल कुछ अधिक और अवसर्पिणीकाल के तीसरे बारे में परिहारविशुद्धिचारित्र अंगीकार करने से पूर्व का काल अल्प होने से उसकी यहाँ क्विक्षा नहीं की गई है। परिहारविशुद्धिचारित्र का उत्कृष्ट अन्तर 18 कोटाकोटि सागरोपम का होता है। उसकी संगति छेदोपस्थापनीयचारित्र के समान जाननी चाहिए।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 918 Page #2679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [481 इकतीसवाँ समुद्घातद्वार : पंचविध संयतों में समुद्घात को प्ररूपणा 171. सामाइयसंजयस्स णं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! छ समुग्घाया पन्नत्ता, जहा कसायकुसीलस्स (उ० 6 सु० 218) / [171 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत के कितने समुद्घात कहे हैं ? [171 उ.] गौतम ! छह समुद्घात कहे हैं, इत्यादि वर्णन (उ. 6, सू. 218 में उक्त) कषायकुशील के समान समझना / 172. एवं छेदोवढावणियस्स वि / [172] इसी प्रकार छेदोपस्थापनीयसंयत के विषय में भी जानना। 173. परिहारबिसुद्धियस्स जहा पुलागस्स (उ० 6 सु० 215) / [173] परिहारविशुद्धिकसंयत का कथन (उ. 6, सू. 215 में उक्त) पुलाक के समान जानना। 174. सुहमसंपरायस्स जहा नियंठस्स (उ० 6 सु० 216) / [174] सूक्ष्मसम्परायसंयत का कथन (उ. 6, सू. 216 में उक्त) निर्ग्रन्थ के समान जानना / 175. प्रहक्खातस्स जहा सिणायस्स (उ० 6 सु० 220) / [दारं 31] / [175] यथाख्यातसंयत की बक्तव्यता (उ. 6, सू. 220 में उक्त) स्नातक के समान जानना / [इकतीसवाँ द्वार] बत्तीसवाँ क्षेत्रद्वार : पंच विध संयतों के अवगाहन क्षेत्र की प्ररूपणा 176. सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिभागे होज्जा, असंखेज्जइभागे० पुच्छा / गोयमा ! नो संखेज्जति० जहा पुलाए (उ० 6 सु० 221) / [176 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत लोक के संख्यातवें भाग में होता है या असंख्यातवें भाग में होता है ? [176 उ.] गौतम ! वह लोक के संख्यातवें भाग में नहीं होता; इत्यादि कथन (उ. 6, सू. 221 में कथित) पुलाक के समान जानना चाहिए। 177. एवं जाव सुहुमसंपराए / [177] इसी प्रकार का कथन यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयत तक जानना चाहिए। 178, अहक्खायसंजते जहा सिणाए (उ० 6 सु० 223) / [दारं 32] / [178] यथाख्यातसंयत का कथन (उ. 6, सू. 223 में उक्त) स्नातक के अनुसार जानना चाहिए / [बत्तीसवाँ द्वार Page #2680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] [स्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तेतीसवाँ स्पर्शनाद्वार : पंचविध संयतों को क्षेत्रस्पर्शना-प्ररूपणा 176. सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स कि संखेज्जतिभागं फुसति ? जहेव होज्जा तहेव फुसति वि। [दारं 33] / [176 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करता है ? इत्यादि प्रश्न / [179 उ.] गौतम ! जिस प्रकार क्षेत्र-अवगाहना कही है, उसी प्रकार क्षेत्र-स्पर्शना भी जाननी चाहिए। तेतीसवाँ द्वार] चौतीसवाँ भावद्वार पंचविध संयतों में औपशमिकादि भावों की प्ररूपणा 160. सामाइयसंजए णं भंते ! कयरम्मि भावे होज्जा ? गोयमा ! खग्रोवसमिए भावे होज्जा। [180 प्र.] भगवन् ! सामायिकसयत किस-किस भाव में होता है ? [180 उ.] गौतम ! वह क्षायोपशमिक भाव में होता है / 181. एवं जाव सुहमसंपराए / [181] इसी प्रकार का कथन यावत् सूक्ष्मसम्परायसंयत तक जानना चाहिए / 12. अहक्खायसंजए० पुच्छा। गोयमा ! प्रोवसमिए वा खइए वा भावे होज्जा ।[दारं 34] / [182 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत किस-किस भाव में होता है ? [182 उ.] गौतम ! वह औपशमिक भाव या क्षायिक भाव में होता है / [चौतीसवाँ द्वार] विवेचन---अतिदेशसमुदघातद्वार से लेकर भावद्वार तक (लोकस्पर्श, क्षेत्रद्वार, स्पर्शनाद्वार एवं भावद्वार आदि) के लिए छठे उद्देशक में उक्त पुलाक आदि का अतिदेश किया है, जिसे वहाँ से समझ लेना चाहिए। पैतीसवाँ परिमारणद्वार : पंचविध संयतों के एक समयवर्ती परिमारण की प्ररूपणा 183. सामाइयसंजया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा ? गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च जहा कसायकुसीला (उ० 6 सु० 232) तहेव निरवसेसं। [183 प्र.] भगवन् ! सामायिकसंयत एक समय में कितने होते हैं ? [183 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा समग्र कथन (उ. 6, सू. 232 में उक्त) कषायकुशील के समान जानना चाहिए / 184. छेदोबट्ठावणिया० पुच्छा। गोयमा! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय प्रथि, सिय नस्थि / जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयपुहत्तं / पुवपडिवनए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नस्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं कोडिसयपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिसयपुहत्तं / Page #2681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [483 |184 प्र.| भगवन् ! छेदोपस्थापनीयसंयत एक समय में कितने होते हैं ? {184 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न कदाचित नहीं भी होते। यदि होते हैं तब जघन्य कोटिशतपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट भी कोटिशतपृथक्त्व होते हैं। 185. परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा (उ० 6 सु० 226) / [185] परिहारविशुद्धिकसंयतों की संख्या (उ. 6, सू. 226 में उक्त) पुलाक के समान है। 186. सुहमसंपरागा जहा नियंठा (उ० 6 सु० 233) / [186] सूक्ष्मसम्परायसंयतों की संख्या (उ. 6, सू. 233 में उक्त) निर्गन्थों के अनुसार होती है। 187. अहमखायसंजता णं० पुच्छा। - गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि, सिय नत्थि / जदि अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि बा, उक्कोसेणं बावट्ठ सयं-अठ्ठत्तरसयं खवगाणं, चउप्पन्न उवसामगाणं / पुवपडिवनए पडुच्च जहन्नेणं कोडिपुहत्तं, उक्कोसेण वि कोडिपुहत्तं / [दारं 35] / [187 प्र.] भगवन् ! यथाख्यातसंयत एक समय में कितने होते हैं ? [187 उ.] गौतम ! प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वे कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट 162 ( एक सौ बासठ) होते हैं। जिनमें से 108 क्षपक और 54 उपशमक होते हैं। पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कोटिपृथक्त्व होते हैं। विवेचन-संयतों को संख्या-विषयक स्पष्टीकरण–परिमाणद्वार में छेदोपस्थापनीयसंयतों का जो उत्कृष्ट परिमाण बताया है, वह प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ की अपेक्षा सम्भवित होता है। किन्तु जघन्य परिमाण यथार्थरूप से समझ में नहीं आता, क्योंकि पंचम पारे के अन्त में भरतादि दस क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में दो-दो संयत होने से जघन्य बीस छेदोपस्थापनीयसंयत होते हैं / किसी प्राचार्य का मत है कि जधन्य परिमाण भी प्रथम तीर्थंकर की अपेक्षा से समझना चाहिए, ऐसा टीकाकारों का अभिप्राय है / जघन्य परिमाण यहाँ जो कोटिशतपृथक्त्व बताया है उसका परिमाण अल्प है और जो उत्कृष्ट कोटिशतपृथक्त्व परिमाण बताया है उसका परिमाण अधिक समझना चाहिए / प्रतिपद्यमान यथाख्यातसंयत एक समय में उत्कृष्ट 162 होते है, उनमें से १०८क्षपक होते हैं। क्षपकश्रेणी वाले सभी मोक्ष जाते हैं, एक समय में 108 से अधिक मोक्ष नहीं जा सकते और एक समय में क्षपक यथाख्यातसंयतों की उत्कृष्ट संख्या 108 ही होती है। उसी समय उपशमक यथाख्यातसंयतों की संख्या 54 होती है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है / इस प्रकार एक समय में यथाख्यातसंयतों की उत्कृष्ट संख्या 162 घटित होती है।' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 918 Page #2682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र छत्तीसवाँ अल्पबहुत्वद्वार : पंचविध संयतों का अल्पबहुत्व 188. एएसि णं भंते ! सामाइय-छेदोवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धिय-सुहमसंपरायअहक्खायसंजयाणं कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहुमसंपरायसंजया, परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा, अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा, छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा, सामाइयसंजया संखेज्जगुणा / [दारं 36] / [188 प्र.] भगवन् ! इन सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धिक, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात संयतों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? / [188 उ.] गौतम ! सूक्ष्मसम्परायसंयत सबसे थोड़े होते हैं; उनसे परिहारविशुद्धिकसयत संख्यातगुणे हैं, उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, उनसे छेदोपस्थापनीयसयत संख्यातगुणे हैं और उनसे सामायिकसंयत संख्यातगुणे हैं / [छत्तीसवाँ द्वार विवेचन-संयतों का अल्पबहुत्व : स्पष्टीकरण-अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सूक्ष्मसम्परायसंयत बताए हैं, क्योंकि उनका काल अत्यल्प है और वे निग्रन्थ के तुल्य होने से एक समय में शतपथक्त्व होते हैं / उनसे परिहारविशद्धिकसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका काल सूक्ष्मसम्परायसंयतों से अधिक है और वे पुलाक के समान सहस्रपृथक्त्व होते हैं। उनसे यथाख्यातसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिपृथक्त्व है / उनसे छेदोपस्थापनीयसंयत संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका परिमाण कोटिशतपृथक्त्व होता है। उनसे सामायिकसयत संख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि उनका परिमाण कषायकुशील के समान कोटिसहस्रपृथक्त्व होता है।' प्रतिसेवना-दोषालोचनादि छह द्वार 186. पडिसेवण 1 दोसालोयण य पालोयणारिहे 3 चेव / तत्तो सामायारी 4 पायच्छित्ते 5 तवे 6 चेव // 6 // [186. माथार्थ] (1) प्रतिसेवना, (2) दोषालोचना, (6) आलोचनाह, (4) समाचारी, (5) प्रायश्चित्त और (6) तप / / 6 // विवेचन-विशेषार्थ-ये छह द्वार प्रायः प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है / प्रथम प्रतिसेवनाद्वार में यह देखा जाता है कि किया गया दोष किस प्रकार का है ? द्वितीयद्वार है-पालोचना के दोष। उसका आशय यह है कि लगे हुए दोषों को पालोचना शुद्ध है या किसी दोष से युक्त है ? यदि दोषयुक्त है तो किस प्रकार के दोष से युक्त है ? तृतीयद्वार में आलोचना करने वाले और सुनने वाले दोनों के गुणों का प्रतिपादन है। चतर्थद्वार है- समाचारी / उसका आशय यह है कि साधु को किस प्रकार की समाचारी से युक्त होना चाहिए, ताकि संयम में दोष न लगे। पचमद्वार है-प्रायश्चित्त / जिसका प्राशय यह है कि आलोचना के बाद दोषसेवन करने वाले साधु को किस प्रकार का प्रायश्चित्त प्राता है ? इसका निर्णय करना चाहिए / छठा द्वार है-तप / प्रायश्चित्त में अमुक तप-विशेष भी दिया जाता है, इसलिए तप का 12 भेदों सहित वर्णन किया गया है / - - - 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 918-919 --- Page #2683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक [485 प्रथम प्रतिसेवनाद्वार : प्रतिसेवना के दस भेद 160. दसविहा पडिसेवणा पन्नत्ता, तं जहा दाप 1 पमाद-ऽणाभोगे 2-3 पाउरे 4 आवती 5 ति य / संकिणे 6 सहसक्कारे 7 भय 8 प्पदोसा 6 य वोमंसा 10 // 7 // [दारं 1] / [160] प्रतिसेवना दस प्रकार की कही है। यथा [गाथार्थ --(1) दर्पप्रतिसेवना, (2) प्रमादप्रतिसेवना, (3) अनाभोगप्रतिसेवना, (4) आतुरप्रतिसेवना, (5) आपत्प्रतिसेवना, (6) संकीर्णप्रतिसेवना, (7) सहसाकारप्रतिसेवना, (8) भयप्रतिसेवना, (6) प्रदुषप्रतिसेवना और (10) विमर्शप्रतिसेवना / / 7 / / [प्रथम द्वार] विवेचन–प्रतिसेवना के प्रकार और स्वरूप-पाप या दोषों के सेवन से होने वाली चारित्र की विराधना को 'प्रतिसेवना' कहते हैं। उसके मुख्य दस भेद हैं-(१) दर्पप्रतिसेवना-अभिमान (अहंकार) पूर्वक होने वाली संयम की विराधना / (2) प्रमादप्रतिसेवना-अष्टविध मदजनित या मद्य, विषय. कषाय, निद्रा और विकथा आदि प्रमादों के सेवन से होने वाली संयमविराधना। (3) अनाभोगप्रतिसेवनाअनजान में हो जाने वाली संयमविराधना / (4) प्रातुरप्रतिसेवना-भूख, प्यास, रोग-व्याधि आदि किसी पीड़ा से व्याकुलतावश को गई संयम की स्खलना / (5) अापत्प्रतिसेवना-किसी प्राफत, सकट या विपत्ति के प्राते पर की गई संयम की विराधना। आपत्ति चार प्रकार की होती है। द्रव्य-आपत्ति-प्रासुक, दोषरहित अाहारादि न मिलना। क्षेत्र-ग्रापत्ति--मार्ग भूल जाने से भयंकर अटवी आदि में भटक जाना, अथवा उक्त क्षेत्र में दुर्भिक्ष, भूकम्प, या अन्य क्षेत्रीय संकट आ पड़ना / काल-आपत्ति-दुभिक्ष, दुदिन आदि और भाव-आपत्ति-रोगातंक से शरीर अस्वस्थ-अशक्त हो जाना। (6) संकीणप्रतिसेवना-स्वपक्ष और परपक्ष से होने वाली स्थान की तंगी के कारण संयम मर्यादा का अतिक्रमण करना / अर्थात् छोटे-छोटे क्षेत्रों में साधु, साध्वियों तथा भिक्षाचरों के अधिक संख्या में इकट्ठहो जाने से संयम में दोष लगना / शंकितप्रतिसेवनाग्रहणयोग्य आहारादि में किसी दोष की आशंका होने पर भी उसे लेना / अथवा निशीथसूत्रानुसार पाहारादि के न मिलने पर खेदपूर्वक वचन बोलना तितिणप्रतिसेवना है। (7) सहसाकारप्रतिसेवना--- हठात या अकस्मात पहले से बिना सोचे-विचारे, अथवा विना प्रतिलेखना किये कोई दोषयुक्त प्रवृत्ति करना / यथा--पहले बिना देख सहसा भूमि पर पैर आदि रखना और पीछे देखना / (8) भयप्रतिसेवना-सिंह आदि के भय से संयम की विराधना करना / (8) प्रद्वेषप्रतिसेवनाकिसी के प्रति द्वेष, ईर्ष्या या क्रोधादिकषाय के वश संयम की विराधना करना और (10) विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा आदि के लिए विचारपूर्वक की गई संयम इन दस कारणों में से किसी भी कारण से संयम की विराधना की जाती या हो जाती है / आलोचना करते समय गुरु इसका निर्णय करते हैं।' द्वितीय पालोचनाद्वार : आलोचना के दस दोष 161. दस पालोयणादोसा पन्नत्ता, तं जहा१. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 919 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृष्ठ 3486-3487 Page #2684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र प्राकपड़ता 1 अणुमाणहत्ता 2 ज दिळं 3 बायरं व 4 सुहुमं वा 5 / छन्नं 6 सद्दाउलयं 7 बहुजण 8 अंवत्त 6 तस्सेवी 10 // 8 // [दारं 2] / [191] आलोचना के दस दोष कहे हैं। वे इस प्रकार हैं--यथा-[गाथार्थ] (1) प्राकम्प्य. (2) अनुमान्य, (3) दृष्ट, (4) बादर, (5) सूक्ष्म, (6) छन्न-प्रच्छन्न, (7) शब्दाकुल, (8) बहुजन, (6) अव्यक्त और (10) तत्सेवी।। 8 / / [द्वितीय द्वार] विवेचन-अालोचना के दस दोष-जाने या अनजाने लगे हुए दोषों का पहले स्वयं मन में विचार करना, फिर उचित प्रायश्चित्त कर लेने के लिए गुरु, प्राचार्य या बडे (गीतार्थ) साधू के समक्ष निवेदन करना 'मालोचना' है। वैसे सामान्यतया आलोचना का अर्थ है-अपने दोषों को भलीभांति देखना / पालोचना के दस दोष हैं / साधक को उनका त्याग करके शुद्ध हृदय से आलोचना करनी चाहिए। वे दोष इस प्रकार हैं (1) अांकयित्ता-आकम्प्य–प्रसन्न होने पर गुरुदेव मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा सोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर आलोचना करना। अथवा कांपते हुए मालोचना करना, ताकि गुरुदेव समझे कि यह दोष का नाम लेते हुए कांपता है, मन में दोष न करने का खटका है / यह अर्थ भी सम्भव है। (2) अणमाणइत्ता-अनुमान्य या अणमान्य-बिलकल छोटा अपराध बताने से गुरुदेव मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा अनुमान करके अपने अपराध को बहुत ही छोटा (अणु) करके बताना / (3) विट्ठ (दृष्ट)---जिस दोष को गुरु आदि ने सेवन करते देख लिया, उसी की आलोचना करना / (4) बायर (बादर)-केवल बड़े-बड़े अपराधों की लोचना करना और छोटे अपराधों की मालोचना न करना बादर दोष है / (5) सूहम---सूक्ष्म-जो अपने छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करता है, वह बड़े-बड़े अपराधों को पालोचना करना कसे छोड़ सकता है ? इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न कराने हेतु केवल छोटे-छोटे अपराधों की आलोचना करना / (6) छष्ण--छन्न-अधिक लज्जा के कारण अलोचना के समय अव्यक्त-शब्द बोलते हुए इस प्रकार से आलोचना करना कि जिसके पास आलोचना करे वह भी सुन न सके / (7) सद्दाउलयंशब्दाकुल होकर दूसरे अगीतार्थ व्यक्तिगण सुन सके, इस प्रकार से उच्च स्वर में बोलना / (8) बहुजणं-बहुजन--एक ही दोष या अतिचार की अनेक साधुओं के पास पालोचना करना / (6) अव्वत्तं (अव्यक्त).अगीतार्थ (जिस साधु को पूरा ज्ञान नहीं है कि किस अपराध का, कैसी परिस्थिति में किए हुए दोष का कितना प्रायश्चित्त दिया जाता है) के समक्ष आलोचना करना / १०-तस्सेवी (तत्सेवी)--जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसे उसी दोष के सेवन करने वाले प्राचार्य या बड़े साधु के समक्ष आलोचना करना। ये पालोचना के दस दोष हैं, जिन्हें त्याज्य समझना चाहिए।' तृतीय पालोचनाद्वार : पालोचना करने तथा सुनने योग्य साधकों के गुरण 162. दसहि ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति प्रत्तदोसं पालोएत्तए, तं जहाजातिसंपन्ने 1 कुलसंपन्ने 2 विणयसंपन्ने 3 गाणसंपन्ने 4 सणसंपन्ने 5 चरित्तसंपन्ने 6 खंते 7 दंते 8 अमायो अपच्छाणुतावी 10 / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 919-920 (ख) भगवती. (हिन्दी-विवेचन) भा. 7, पृ. 3458 Page #2685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [487 [162] दस गुणों से युक्त अनगार अपने दोषों की अालोचना करने योग्य होता है। यथा(१) जातिसम्पन्न, (2) कुलसम्पन्न, (3) विनयसम्पन्न, (4) ज्ञानसम्पन्न, (5) दर्शनसम्पन्न, (6) चारित्रसम्पन्न, (7) क्षान्त (क्षमाशील), (8) दान्त, (6) अमायी और (10) अपश्चात्तापी / 193. अहिं ठाणेहि संपन्ने अणगारे अरिहति पालोयणं पडिच्छित्तए, तं जहाअायारवं 1 आहारवं 2 ववहारवं 3 उन्वीलए 4 पकुठवए 5 अपरिस्सावी 6 निज्जवए 7 अवायदंसी 8 / [दारं 3] / {163] पाठ गुणों से सम्पन्न अनगार आलोचना देने (सुनने और सुनकर प्रायश्चित्त देने) के योग्य होते हैं / यथा-(१) प्राचारवान्, (2) प्राधारवान्, (3) व्यवहारवान्, (4) अपव्रीडक, (5) प्रकुर्वक. (6) अपरिस्राबी, (7) निर्यापक और (8) अपायदर्शी / तृतीय द्वार] विवेचन–पालोचना करने योग्य प्रनगार : दस गणों से सम्पन्न-(१) जातिसम्पन्न--मातपक्ष के कुल को जाति कहते हैं। उत्तम जाति (मातकुल) वाला बुरा कार्य नहीं करता। कदाचित उससे भूल हो भी जाती है तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है। (2) कुलसम्पन्न--(पितवंश) को कुल कहते हैं। उत्तम कुल (पितृवंश) में पैदा हुआ व्यक्ति स्वीकृत प्रायश्चित्त, को सम्यक प्रकार पूर्ण करता है / (3) विनयसम्पन्न-बिनयवान् साधु, बड़ों की बात मानकर पवित्र हृदय से आलोचना करता है / (4) ज्ञानसम्पन्न- सम्यग्ज्ञानवान् साधु मोक्षमार्ग की प्राराधना करने के लिए क्या करना उचित है और क्या नहीं ? इस बात को भलीभांति समझ कर आलोचना करता है। (5) दर्शनसम्पन्न--श्रद्धावान् साधक भगवान के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त से होने वाली शुद्धि को मानता और श्रद्धापूर्वक आलोचना करता है। (6) चारित्रसम्पन्न उत्तम अथवा विशुद्ध चारित्र पालन करने वाला साधक चारित्र को शुद्ध रखने के लिए दोषों की आलोचना करता है / (7) क्षान्त --क्षमावान् / किसी दोष के कारण गुरु से उपालम्भ आदि मिलने पर वह क्रोध नहीं करता, और सहिष्णुतापूर्वक समभाव से दिया हुआ प्रायश्चित्त सहन करता है, अपना दोष स्वीकार करके आलोचना करता है। (8) दान्त --इन्द्रियों को वश में रखने वाला। इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्त साधक कठोर से कठोर प्रायश्चित्त को स्वीकार कर लेता है / वह पापों की आलोचना भी शुद्ध चित्त से करता है। (6) अमायो–छल-कपट और दम्भ से रहित / अपने पाप को बिना छिपाए वह स्वच्छ हृदय से पालोचना करता है। (10) अपश्चात्तापी आलोचना करने के बाद पश्चात्ताप नहीं करने वाला साधक / ऐसा व्यक्ति आराधक होता है। आलोचना सुनने (सुनकर योग्य प्रायश्चित्त देने) योग्य अनगार-पाठ गुणों से युक्त होते हैं / यथा- (1) प्राचारवान्--ज्ञानादि पांच प्रकार के प्राचार से युक्त, (2) प्राधारवान्-बताए हुए अतिचारों (दोषों) को मन में धारण करने वाले, (3) व्यवहारवान्-अागमव्यवहार, श्रुतव्यवहार, धारणाव्यवहार, जीतव्यवहार आदि पांच प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता। (४)अपनीडक--- लज्जा से अपने दोषों को छिपाने वाले शिष्य की लज्जा मीठे वचनों से दूर करके भलीभाँति अालोचना कराने वाले / (5) प्रकुर्वक -यालोचना किये हुए दोष का योग्य प्रायश्चित्त देकर अतिचारों की शुद्धि कराने में समर्थ। (6) अपरिनाको-पालोचना करने वाले के दोषों को दूसरे के समक्ष प्रकाशित नहीं करने वाले। (7) निर्यापक --प्रशक्ति या किसी अन्य कारण से एक साथ पूरा प्रायश्चित्त Page #2686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .48.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र लेने में असमर्थ साधु को थोड़ा-थोड़ा प्रायश्चित्त देकर निर्वाह कराने वाले। (8) अपायदर्शीआलोचना नहीं लेने से परलोक का भय तथा दूसरे दोष बताकर भलीभांति पालोचना कराने वाले। आलोचना सुनने वाले के यहाँ उपर्युक्त आठ गुण बताये हैं, किन्तु स्थानांगसूत्र में दस गुण बताए हैं, जिनमें (8) प्रियधर्मी और (10) दृढधर्मी-ये दो गुण अधिक हैं / ' चतुर्थ समाचारीद्वार : समाचारी के 10 भेद 164. दसविहा सामायारी पन्नत्ता, तं जहा इच्छा 1 मिच्छा 2 तहक्कारो 3 आवस्सिया य 4 निसीहिया 5 / प्रापुच्छणा य 6 पडिपुच्छा 7 छंदणा य 8 निमंतणा / उपसंपया य काले 10, सामायारी भवे दसहा / / 6 // [दारं 4] / [164] समाचारी दस प्रकार की कही है। यथा-[गाथार्थ] (1) इच्छाकार, (2) मिथ्याकार, (3) तथाकार, (4) अावश्यकी, (5) नैषेधिकी, (6) आपृच्छना, (7) प्रतिपृच्छना, (8) छन्दना, (6) निमंत्रणा और (10) उपसम्पदा / / 6 / [चतुर्थ द्वार] विवेचन-इच्छाकार आदि को परिभाषा--(१) इच्छाकार-'यदि आपकी इच्छा हो, तो आप मेरा अमुक कार्य करें,' अथवा 'आपकी प्राज्ञा हो, तो मैं आपका यह कार्य करू'--इस प्रकार पूछना 'इच्छाकार' है। इस समाचारी से किसी भी कार्य में किसी की विवशता नहीं रहती / इस समाचारी के अनुसार एक साधु, दुमरे साधु से उसकी इच्छा जान कर ही कार्य करे, अथवा दूसरा साधु अपने गुरु या बड़े साधु की इच्छा जान कर स्वयं वह कार्य करे। (2) मिथ्याकार-संयमपालन करते हुए कोई विपरीत आचरण हो गया हो, तो उस पाप के लिए पश्चात्ताप करता हुआ साधु स्वयं यह उद्गार निकालता है कि 'मिच्या मि दुक्कडं'-- अर्थात् मेरा यह दुष्कृत-पाप मिथ्या (निष्फल) हो, इसे मिथ्याकार-समाचारी कहते हैं। . (3) तथाकार -सूत्रादि अागम-वाचना या व्याख्या के मध्य गुरु से कुछ पूछने पर जब वे उत्तर दें तब अथवा व्याख्यान दें तब तहत्ति' अर्थात् आप कहते हैं, वह यथार्थ है; कहना 'तथाकार' समाचारी है। (4) आवश्यकी-यावश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर निकलते समय 'ग्रावस्सइप्रावस्सई' कहे / अर्थात मै आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता है, ऐसा कहना 'आवश्यकी' समाचारी है। (5) नषेधिको बाहर से लौट कर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहि-निसी हि' कहे / अर्थात् जिस कार्य के लिए मैं बाहर गया था, उस कार्य से निवृत्त होकर आ गया हूँ, इस प्रकार उस कार्य का निषेध करना 'नधिको समाचारी है / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3489-3490 Page #2687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [489 (6) प्रापृच्छना-किसी कार्य में प्रवृत्त होने से पूर्व गुरुदेव से पूछना---'भगवन् ! मैं यह कार्य करू?' यह 'आपृच्छना' समाचारी है। (7) प्रतिपच्छना-गुरुमहाराज ने पहले जिस कार्य का निषेध किया, उसी कार्य में आवश्यकतानुसार प्रवृत्त होना हो तो गुरुदेव से पूछना--'भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के लिए निषेध किया था, किन्तु अब यह कार्य करना आवश्यक है। अाप अनुज्ञा दें तो करू" इस प्रकार पुनः पूछना 'प्रतिपृच्छना' समाचारी है / (क) छन्दना-- लाये हुए आहार के लिए दूसरे साधुओं को आमंत्रण देना कि यदि आपके उपयोग में आ सके तो इस आहार को ग्रहण कीजिए, इत्यादि 'छन्दना' समाचारी है / (8) निमंत्रणा--आहार लाने के लिए दूसरे साधुओं को निमंत्रण देना या उनसे पूछना कि क्या आपके लिए आहार लाऊँ ? यह निमंत्रणा' समाचारी है / (10) उपसम्पदा-ज्ञानादि प्राप्त करने के लिए गुरु की आज्ञा प्राप्त कर अपना गण छोड़ कर किसी विशेष आगमज्ञ गुरु के या प्राचार्य के सान्निध्य में रहना, 'उपसम्पद' समाचारी है। __यह दस प्रकार की समाचारी साधु के संमय-पालन में उपयोगी आचार-पद्धति है।' पंचम प्रायश्चित्तद्वार : प्रायश्चित्त के दस भेद 165. दसविहे पायच्छिते पन्नत्ते, तं जहा–पालोयणारिहे 1 पडिक्कमणारिहे 2 तदुभयारिहे 3 विवेगारिहे 4 विउसग्गारिहे 5 तवारिहे 6 छेदारिहे 7 मूलारिहे 8 अणवठ्ठप्पारिहे | पारंचियारिहे 10 / [दारं 5] / [195] दस प्रकार का प्रायश्चित्त कहा है। यथा-(१) पालोचनाह, (2) प्रतिक्रमणाह, (3) तदुभयाई, (4) विवेगाह, (5) व्युत्साह, (6) तपार्ह, (7) छेदाह, (8) मूलाहे, (6) अनवस्थाप्याई और (10) पाराचिकाई / [पंचम द्वार] विवेचन-प्रायश्चित्त और उसके दस भेदों का स्वरूप --यहाँ प्रायः शब्द अपराध या पाप अथवा अति चार अर्थ में और चित्त शब्द उसकी विशुद्धि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पाप-दोषों की विशुद्धि या प्रात्मशृद्धि के लिए गुरु या विश्वस्त प्राचार्य के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना और उनके द्वारा प्रदत्त आलोचनादि रूप प्रायश्चित्त को स्वीकार करना प्रायश्चित्त का हार्द है। प्रायश्चित्त दर प्रकार का है, जो गुरु प्रादि द्वारा दोषी साधु को स्वेच्छा से पालोचनादि करने पर दिया जाता है। (1) पालोचनाह-संयम में लगे हुए दोष को गुरु आदि के समक्ष स्पष्ट वचनों से सरलतापूर्वक प्रकट करना 'अालोचना' है / ऐसा दोष जिसकी शुद्धि आलोचना-मात्र से हो जाए, उसे आलोचनाह प्रायश्चित्त कहते हैं। 1. (क) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 16, पृ. 415-16 (स) भगवती. (हिन्दी विवेचन ) भा. 7, पृ. 3491-92 Page #2688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) प्रतिक्रमणाह-प्रतिक्रमण के योग्य / अर्थात्---जिस पाप या दोष की शुद्धि केवल प्रतिक्रमण से हो जाए। प्रतिक्रमणाह प्रायश्चित्त में गुरु के समक्ष प्रालोचना करने की आवश्यकता नहीं रहती। (3) तदुभयाह-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य / जिस दोष की शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो उसे तदुभयाई प्रायश्चित्त कहते हैं / (4) विवेकाह-अशुद्ध आहारादि पा गया हो तो उसे पृथक कर देने से अथवा प्राधाकर्मादि दोषयुक्त आहारादि का विवेक यानी त्याग कर देने से जिस दोष की शुद्धि हो उसे 'विवेकाह प्रायश्चित्त कहते हैं। (5) व्युत्सहि-कायोत्सर्ग के योग्य / शरीर की चेष्टा को रोक कर ध्येय बस्तु में उपयोग लगाने से जिस दोष की शुद्धि होती हो, उसे 'व्युत्सर्गाह प्रायश्चित्त' कहते हैं / (6) तपाई-जिस दोष की शुद्धि तप से हो, उसे 'तपार्ह प्रायश्चित्त' कहते हैं / (7) छेदाह-दीक्षापर्याय में छेद यानी कटौती करने के योग्य / जिस अपराध की शुद्धि दीक्षापर्याय का छेद करने से हो, उसे छेदाई' प्रायश्चित कहते हैं। (8) मूलाह-मूल अर्थात् मूलगुणों-महाव्रतों को पुनः ग्रहण करने यानी फिर से दीक्षा लेने से दोषशुद्धि होने योग्य / ऐसा प्रबल दोष, जिसके सेवन करने पर पूर्वगृहीत संयम छोड़ कर दूसरी बार नई दीक्षा लेनी पड़े, वह 'मूलाई प्रायश्चित्त है। मूलाह-प्रायश्चित्त में पहले का संयम बिलकुल नहीं गिना जाता, दोषी को उस समय से पहले दीक्षित सभी साधुओं को वन्दना करनी पड़ती है। (E) अनवस्थाप्यारी--अमुक प्रकार का विशिष्ट तप न कर ले, तब तक महादोषी साधु वेष या महाव्रतों में रखने योग्य नहीं होता, इस प्रकार का अनवस्थान अर्थात् अनिश्चित काल तक साधुजीवन में स्थापित न करने के कारण, ऐसा प्रायश्चित्त 'अनवस्थाप्य' कहलाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में दोषी को अमुक निश्चित तप करने तथा गृहस्थ का वेष पहनाने के बाद दूसरी बार दीक्षा देने के बाद ही शुद्धि होती है। (10) पारांचिकाह-जिस गम्भीर दोष के सेवन करने पर साधु को गच्छ से बाहर निकलने तथा स्वक्षेत्र-त्याग करने योग्य प्रायश्चित्त दिया जाए, उसे पोराचिकाई प्रायश्चि प्रायश्चित्त रानी या साध्वी आदि का शील-भंग या किसी विशिष्ट व्यक्ति की हत्या प्रादि महादोष सेवन करने पर दिया जाता है। इस प्रायश्चित्त में दोषी को साधुवेष और स्वक्षेत्र का त्याग करके जिनकल्पी के समान महातप का आचरण करना पड़ता है। ऐसी पारम्परिक धारणा है कि पारांचिकाई प्रायश्चित्त महासत्त्वशाली प्राचार्य को ही दिया जाता है / इस प्रायश्चित्त द्वारा दोषशुद्धि के लिए छह महीने से लेकर बारह वर्ष तक गच्छ छोड़ कर जिनकल्पी के समान कठोर तपश्चरण करना पड़ता है। उपाध्याय के लिए नौवें प्रायश्चित्त तक का है और सामान्य साधू के लिए पाठवें मूलाई तक का विधान है। जहाँ तक चतुर्दशपूर्वधारी और वज्रऋषभनाराचसंहननी होते हैं, वहीं तक दसों प्रायश्चित्त होते हैं। उनका विच्छेद होने के पश्चात् मूलाह तक आठों ही प्रायश्चित्त होते हैं। ह Page #2689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उट्ट शक 7 [491 अन्य आगमों में प्राचार्य, उपाध्याय के अतिरिक्त दूसरे साधुओं के लिए भी दसों प्रायश्चित्तों का विधान मिलता है। छठा तपोद्वार : तप के भेद-प्रभेद 166. दुविधे तवे पन्नते, तं जहा-बाहिरए य, अभितरए य / | 196] तप दो प्रकार का कहा गया है / यथा-बाह्य और आभ्यन्तर / 167. से कि तंबाहिरए तवे? बाहिरए तवे छविधे पन्नत्ते, तं जहा-अणसणमोमोरिया 1-2 भिक्खायरिया 3 य रसपरिच्चाप्रो 4 / कायकिलेसो 5 पडिसंलोणया 6 / [167 प्र. (भगवन् ! ) वह बाह्य तप किस प्रकार का है ? [167 उ. (गौतम ! ) बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है--(१) अनशन, (2) अवमौदर्य, (3) भिक्षाचर्या, (4) रसपरित्याग, (5) कायक्लेश और (6) प्रतिसंलीनता / विवेचन --तप और उसके भेद-शरीर, आत्मा, कर्म या विकारों को जिससे तपाया जाए, उसे तप कहते हैं। जैसे-अग्नि में तप्त होकर सोना विशुद्ध और मलरहित हो जाता है, वैसे ही तपस्या रूपी अग्नि में तपी हुई अात्मा कर्ममल, विकार या पाप आदि से रहित होकर निर्मल और विशुद्ध हो जाती है / वह तप दो प्रकार का है-बाह्य और प्राभ्यन्तर / बाह्य तप शरीर और इन्द्रियों प्रादि से विशेष सम्बन्ध रखता है, जबकि प्राभ्यन्तर तप मन और आत्मा से सम्बद्ध है / इनके प्रत्येक के छह-छह भेद हैं / अनशन तप के भेद-प्रभेद 198. से कि तं प्रणसणे? अणसणे दुविधे पन्नते, तं जहा-इत्तरिए य प्रावकहिए य / [168 प्र. भगवन् ! अनशन कितने प्रकार का है ? [198 उ.] गौतम ! अनशन दो प्रकार का कहा है, यथा--इत्वरिक और यावत्कथिक / 166. से कि तं इत्तरिए ? इत्तरिए अणेगविधे पन्नत्ते, तं जहाच उत्थे भत्ते, छठे भत्ते, अट्ठमे भत्ते, दसमे भत्ते, दुवालसमे भत्ते, चोइसमे भत्ते, अद्धमासिए भत्ते, मासिए भत्ते, दोमासिए भत्ते। जाव छम्मासिए भत्ते / से तं इत्तरिए। [166 प्र.] भगवन् ! इत्वरिक अनशन कितने प्रकार का कहा है ? 166 उ.J इत्वरिक अनशन अनेक प्रकार का कहा गया है / यथा-चतुर्थभक्त (उपवास), 1. (क) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिकाटीका) भा. 16, पृ. 424-425 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, 1.3413-14 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3495 Page #2690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492] ( মোসাদেমু षष्ठभक्त (बेला), अष्टम-भक्त (तेला), दशम-भक्त (चौला), द्वादशभक्त (पचौला), चतुर्दशभक्त (छहउपवास), अर्द्धमासिक (15 दिन के उपवास), मासिकभक्त (मासखमण---एक महीने के उपवास)द्विमासिकभक्त, त्रिमासिक भक्त यावत् पाण्मासिक भक्त / यह इत्वरिक अनशन है / 200. से कि तं प्रावकाहिए ? आवकहिए दुविधे पन्नत्ते तं जहा-पाग्रोवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य / 200 प्र. भगवन् ! यावत्कथिक अनशन कितने प्रकार का कहा गया है ? [270 उ.] गौतम ! बह दो प्रकार का कहा गया है / यथा--पादोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान / 201. से किं तं पापोवगमणे? पानोवगमणे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-नीहारिमे य, अनीहारिमे य, नियम अपडिकम्मे / से तं पाओवगमणे। [201 प्र.] भगवन् ! पादोपगमन कितने प्रकार का कहा गया है ? [201 उ.] गौतम ! पादपोपगमन दो प्रकार का कहा गया है। यथा-निर्झरिम और अनिर्हारिम / ये दोनों नियम से अप्रतिकर्म होते हैं / यह है---पादपोषगमन / 202. से किं तं भत्तपच्चक्खाणे? भत्तपच्चक्खाणे दुविधे पन्नत्ते, तं जहा-नीहारिमे य, अनीहारिमे य, नियमं सपडिक्कम्मे / से तं प्रावकहिए / से तं अणसणे / [202 प्र.] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान अनशन क्या है ? [202 उ.] भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-निर्झरिम और अनिर्झरिम / यह नियम से सप्रतिकर्म होता है / इस प्रकार यावत्कथिक अनशन और साथ ही अनशन का निरूपण पूरा हुआ। विवेचन--अनशन के कतिपय प्रकारों की संज्ञा और उनके विशेषार्थ-अनशन का सामान्यतया अर्थ है-पाहार का त्याग करना / इसके दो भेदों में इत्वरिक अनशन का अर्थ है-अल्पकाल के लिए किया जाने वाला अनशन / प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक वर्ष, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास और अन्तिम तीर्थंकर के शासन में उत्कृष्ट 6 मास तक का इत्वरिक अनशन होता है / इसके चतुर्थभक्त आदि अनेक भेद हैं / चतुर्थभक्त उपवास की, षष्ठभक्त बेले की, मभक्त तेले की (तीन उपवास की) संज्ञा है / इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए / यावत्कथिक अनशन यावज्जीवन का होता है। उसके दो भेद हैं—पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान / पादोपगमन का अर्थ है-कटे हुए वृक्ष की तरह अथवा वृक्ष की कटी डाली के समान शरीर के किसी भी अंग को किन्चित मात्र भी नहीं हिलाते हए अशन-पान-खादिम-र प्रकार के आहार का त्याग करके निश्चलरूप से संथारा करना। Page #2691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उह शक 7 पादपोपगमन अनशन में हाथ-पैर हिलाने का भी प्रागार नहीं है / साधक संथारा करके जिस स्थान में जिस रूप में एक बार लेट जाता है, फिर उसी स्थान में उसी स्थिति में लेटे रहना और अन्तिम समय तक निश्चल होकर मृत्यु का सद्भावना से वरण करना पादपोषगमन है। तीनों या चारों प्रकार के आहार का त्याग करके जो संथारा किया जाता है, उसे भक्तप्रत्याख्यान अनशन कहते हैं, इसे 'भक्तपरिज्ञा' भी कहते हैं। पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान के निर्झरिम और अनियरिम, ऐसे दो-दो भेद होते हैं। जिस साधक का संथारा ग्राम आदि में रहते हुए हुअा हो और उसके मृतशरीर को ग्रामादि से बाहर ले जाया जाए, उसे निर्हारिम' क ते हैं और ग्रामादि से बाहर किसी पर्वत की गुफा आदि में जो संथारा (अनशन) किया जाए, उसे 'अनिर्हारिम' कहते हैं। पादपोषगमन अप्रतिकर्म होता है, उसमें संथारे की स्थिति में किसी दूसरे प्रति से किसी प्रकार को सेवा नहीं ली जाती। भक्तप्रत्याख्यान अनशन सप्रतिकर्म होता है। इसमें दूसरे मुनियों से सेवा कराई जा सकती है / ' अवमौदर्य तप के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा 203. से कि तं ओमोदरिया ? ओमोदरिया दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा–दव्योमोदरिया य भावोमोदरिया य / [203 प्र.] भगवन् ! अवमोदरिका (ऊनोदरी) तप कितने प्रकार का है ? 203 उ.] गौतम ! अवमोदरिका तप दो प्रकार का कहा गया है / यथा-द्रव्य-अवमोदरिका और भाव-अवमोदरिका / 204. से कि तं दव्वोमोदरिया ? दबोमोदरिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-उवगरणदश्वोमोदरिया य, भत्तपाणदव्वोमोयरिया य। [204 प्र.] भगवन् ! द्रव्य-अवमोदरिका कितने प्रकार का कहा है ? (204 उ.] गौतम ! द्रव्य-अवमोदरिका दो प्रकार का कहा है। यथा-उपकरणद्रव्यअवमोदरिका और भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका / 205. से कि तं उवगरणदव्योमोदरिया ? उवगरणदव्योमोयरिया-एगे वत्थे एगे पादे चियत्तोवगरणसातिज्जणया। से तं उक्गरणदब्योमोयरिया। 205 प्र. भगवन् ! उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका कितने प्रकार का कहा है ? [205 उ.] गौतम ! उपकरणद्रव्य-अवमोदरिका (तीन प्रकार का है, यथा---) एक वस्त्र, एक पात्र और त्यक्तोपकरण-स्वादनता / यह हुमा उपकरणद्रव्य-प्रबमोदरिका / 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, प. 3497-3498 Page #2692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र 206. से कि तं भत्त-पाणदब्वोमोदरिया? भत्त-पाणदव्योमोदरिया अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं पाहारेमाणस्स अप्पाहारे, दुवालस० जहा सत्तमसए पढमुद्देसए (स० 7 0 1 सु० 16) जाव नो पकामरसभोती ति वत्तब्ध सिया / से तं भत्त-पाणदश्वोमोदरिया / से तं दव्वोमोदरिया। 206 प्र.] भगवन् ! भक्तपानद्रव्य-अवमोदरिका कितने प्रकार का है ? 206 उ.] गौतम ! (मुर्गी) के अण्डे के प्रमाण के पाठ कवल पाहार करना अल्पाहारअवमोदरिका है तथा बारह कवल प्रमाण पाहार करना अवडढ-अवमोदरिका है, इत्यादि वर्णन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक के (सू. 16 के अनुसार यावत् वह प्रकाम-रसभोजी नहीं होता, ऐसा कहा जा सकता है, यहाँ तक जानना चाहिए / यह भक्तपान-अवमोदरिका का वर्णन हुया / इस प्रकार द्रव्य-अवमोदरिका का वर्णन पूर्ण हुआ। 207. से कि तं भावोमोदरिया ? भावोमोदरिया अणेगविहा पन्नता, तं जहा–अप्पकोहे, जाव अप्पलोभे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे, अप्पतुमंतुमे, से तं भावोमोदरिया। से तं प्रोमोयरिया। [207 प्र.] भगवन् ! भाव-अवमोदरिका कितने प्रकार का है ? [207 उ.] गौतम ! भाव-अवमोदरिका अनेक प्रकार का कहा है / यथा--..-अल्प क्रोध यावत् अल्पलोभ, अल्पशब्द, अल्पझंझा (थोड़ी झंझट) और अल्प तुमन्तुमा / यह हुई भाव-अवमोदरिका / इस प्रकार अवमोदरिका का वर्णन पूर्ण हुप्रा / विवेचन-अवमोदरिका : लक्षण, प्रकार और स्वरूप-अवमोदरिका का दूसरा प्रचलित नाम ऊनोदरी है। भोजन, वस्त्र, उपकरण आदि का तथा क्रोधादि भावों का आवेश कम करना 'ऊनोदरी' तप है। इसके दो भेद हैं-द्रव्य-ऊनोदरो और भाव-ऊनोदरो। भण्ड-उपकरण और आहारादि का जो परिमाण शास्त्रों में साधुवर्ग के लिए बताया है, उसमें कमी करना अर्थात् कम से कम उपकरणादि का उपयोग करना तथा सरस और पौष्टिक आहार का त्याग करना द्रव्य-ऊनोदरी है। द्रव्य ऊनोदरी के मुख्य दो भेद हैं। यथा--उपकरण-द्रव्य-ऊनोदरी और भक्त-पान-द्रव्य ऊनोदरी / उपकरण-द्रव्य-ऊनोदरी के तीन भेद हैं-एकपात्र, एकवस्त्र और जीर्ण उपधि / शास्त्र में चार पात्र तक रखने का विधान है। उससे कम रखना पात्र-ऊनोदरी है। इसी प्रकार शास्त्र में साधु को 72 हाथ (चौरस) और साध्वी के लिए 66 हाथ वस्त्र रखने का विधान है। इससे कम रखना वस्त्र-ऊनोदरी है। तीसरा भेद है-चियत्तोवगरणसातिज्जणया-जिसका संस्कृत रूपान्तर होता है-त्यक्तोपकरणस्वदनता / त्यक्त अर्थात् संयतों के त्यागे हुए उपकरणों की स्वदनता अर्थात परिभोग करना / यह अर्थ वृत्तिकार-सम्मत है / चूर्णिकार ने अर्थ किया है–साधु के पास जो वस्त्र हों, उन पर ममत्वभाव न रखे, दूसरा कोई (सांभोगिक) साधु मांगे तो उसे उदारतापूर्वक दे दे / ये सभी ऊनोदरी के विशेषार्थ हैं, जो अवमोदरिका के अर्थ में घटित होते हैं। भक्तपानद्रव्य-ऊनोदरी के सामान्यतया 5 भेद हैं। यथा-पाठ कवल (कौर)-प्रमाण आहार करना अल्पाहार-ऊनोदरी है, बारह कौर-प्रमाण आहारकरना अपार्द्ध ऊनोदरी है, सोलह कवल-प्रमाण पाहार करना अर्द्ध-ऊनोदरी है / चौबीस कवल Page #2693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [495 प्रमाण पाहार करना 'प्राप्त ऊनोदरी' है / अर्थात् चार विभाग में से तीन विभाग आहार है और एक भाग ऊनोदरी है ! इकतीस कवल-प्रमाण पाहार करना किंचित ऊनोदरी' है और पूरे बत्तीस कवल प्रमाण पाहार करना 'प्रमाणोपेत ऊनोदरी' है / पूर्ण आहार तप नहीं माना जाता / उस में से एक कौर भी आहार कम करे वहाँ तक थोड़ा तप अवश्य है। इस प्रकार ऊनोदरी तप करने वाला साधु 'प्रकामरस भोजी' नहीं है, ऐसा कहा जाता है / इस ऊनोदरी तप का विशेष विवेचन सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में किया गया है। भाव-ऊनोदरी के अनेक भेद कहे हैं / क्रोध, मान, माया और लोभ के आदेश को कम करना, अल्प वचन बोलना, क्रोध के वश यद्वा-तद्वा न बोलना (झंझा न करना) तथा हृदयस्थ कषाय (तुमन्तुम) को शान्त करना (मन में कुढ़ना-चिढ़ना नहीं) 'भाव-ऊनोदरी' है / ' भिक्षाचर्या, रसपरित्याग एवं कायक्लेश तप की प्ररूपणा 208. से किं तं भिक्खायरिया ? भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तं जहा–दस्वाभिग्गहचरए, खेताभिग्गहचरए, जहा उववातिए जाव सुद्धसणिए, संखादत्तिए / से तं भिक्खायरिया / [208 प्र.] भगवन् ! भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? [208 उ.] गौतम ! भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही है / यथा—द्रव्याभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, क्षेत्राभिग्रहचरक भिक्षाचर्या, इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार यावत् शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक, यहाँ तक कहना / यह भिक्षाचर्या का वर्णन हुआ। 206. से कि तं रसपरिच्चाए ? रसपरिच्चाए अणेगविधे पन्नते, तं जहा--निम्पितिए, पणोतरसविवज्जए जहा उववाइए जाव लहाहारे / से तं रसपरिच्चाए / [206 प्र. भगवन् ! रस-परित्याग के कितने प्रकार हैं ? [206 उ.] गौतम ! रस-परित्याग अनेक प्रकार का कहा गया है / यथा-निविकृतिक, प्रणीतरस-विवर्जक, इत्यादि औषपातिकसूत्र में कथित वर्णन के अनुसार यावत् रूक्षाहार-पर्यन्त कहना चाहिए। 210. से कितं कायकिलेसे ? ___ कायकिलेसे अणेगविधे पन्नते, तं जहा–ठाणावीए, उक्कुडुयासहिए, जहा उववातिए जाव सम्वगायपडिकम्मविप्पमुक्के / से तं कायकिलेसे / [210 प्र.] भगवन् ! कायक्लेश तप कितने प्रकार का है ? 210 उ.] गौतम ! कायक्लेश तप अनेक प्रकार का कहा है / यथा-स्थानातिग, उत्कुटुकासनिक इत्यादि औषपातिकसूत्र के अनुसार यावत् सर्वगात्रप्रतिकर्मविप्रमुक्त तक कहना चाहिए। 1. (क) भवगती. अ. वत्ति, पत्र 928 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3500-3501 Page #2694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--भिक्षाचर्या का स्वरूप और प्रकार--विविध प्रकार के अभिग्रह लेकर द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव से भिक्षा संकोच करते हुए चर्या (अटन) करना-भिक्षाचर्या-तप कहलाता है। अभिग्रहपूर्वक भिक्षाचरी करने से वृत्ति-संकोच होता है, इसलिए इसे 'वृत्तिसंक्षेप' कहते हैं। औपपातिकसूत्र में द्रव्याभिग्रहबरक, क्षेत्राभिग्रहचरक, कालाभिग्रहच रक, भावाभिग्रहचरक इत्यादि कई भेद किये हैं। शुद्ध एषणा, अर्थात् शंकितादि दोषों का परित्याग करते हुए शुद्ध पिण्ड ग्रहण करना शुद्धषणिकभिक्षा है तथा पांच, छह अथवा सात प्रादि दत्तियों की गणनापूर्वक भिक्षा करना संख्यादत्तिक भिक्षा है / इसके अतिरिक्त भिक्षा के आचाम्ल (आयंबिल), आयाम-सिक्थभोजी, अरसाहार इत्यादि अनेक भेद प्रौषपातिकसूत्र में बताए हैं / ' रसपरित्याग : स्वरूप और प्रकार--दुग्ध, दधि, घत, तेल और मिष्ठान्न ये पांचों रस विकृतिजनक होने से इन्हें विकृति (विगई) कहा जाता है / इन पांचों विकृतिजनक रसों (विकृतियों) का तथा प्रणीत, स्निग्ध, गरिष्ठ एवं स्वादिष्ट खाद्य-पेय वस्तुयों के रम (स्वाद) का त्याग करना रसपरित्याग कहलाता है। यह एक प्रकार का अस्वादवत है / इसमें छहों रसों (तिक्त, कटु, मधुर, कसैला, खट्टा आदि) का तथा विकृतिजनक पदार्थों का त्याग किया जाता है। इसीलिए इसके निर्विकृतिक, प्रणीतरसविवर्जक, रूक्षाहारक आदि अनेक भेद औपपातिकसूत्र में वर्णित हैं।' कायक्लेश : परिभाषा तथा प्रकार-प्राध्यात्मिक तप, जप. संयम आदि की साधना एवं धर्मपालन के लिए काय यानी शरीर को शास्त्रसम्मत-रीति से समभाव पूर्वक क्लेश (कष्ट) पहुँचाना कायक्लेशतप है / इसके वीरासन, उत्कटुकासन, दण्डासन आदि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा-शुश्रूषा-शृगारादि परिकर्म का त्याग करना इत्यादि अनेक प्रकार औपपातिकसूत्र में बताए हैं / इसके स्थान-स्थितिक, स्थानातिग, प्रतिमास्थायी, नैषधिक इत्यादि और भी अनेक प्रतिसंलीनता तप के भेद एवं स्वरूप का निरूपरण 211. से कि तं पडिसलीणया? / पडिसंलोणया चउविहा पन्नत्ता, तं जहा-इंदियपडिसंलोणया कसायडिसंलोणया जोगपडिसंलोणया विवित्तसयणासणसेवणया। |211 प्र.] (भगवन् !) प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही है ? [211 उ.] (गौतम ! ) प्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही है / यथा--(१) इन्द्रियतिसंलीनता, (2) कषायप्रतिसंलीनता, (3) योगप्रतिसलीनता और (4) विविक्तशय्यासनप्रतिसलीनता / 1. (क) 'भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 924 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3501 2. (क) वहीं, भा. 7, पृ. 3502 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 924 3. (क) वही, पत्र 924 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, प. 3503 Page #2695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [497 212. से कि तं इंदियपडिसंलोणया ? इंदियपडिसंलोणया पंचबिहा पन्नत्ता, तंजहा-सोइंदिय विसयपयारणिरोहो वा, सोति दियविसयपत्तेसु वा प्रत्येसु राग-दोस विणिग्गहो; चक्खि दियविसय०, एवं जाब फासिदिय विसयपयारणिरोहो वा, फासिदियविसयप्यत्तेसु वा अत्थेसु राग-द्दोस विणिग्गहो / से तं इंदियपडिसंलोणया। [212 प्र. भगवन् ! इन्द्रियप्रतिसलीनता कितने प्रकार की है ? [212 उ. गौतम ! इन्द्रियप्रतिसंलीनता पांच प्रकार की कही है। यथा--(१) श्रोत्रेन्द्रियविषय-प्रचारनिरोध अथवा श्रोत्रेन्द्रियविषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेषविनिग्रह, (2) चक्षुरिन्द्रियविषयप्रचारनिरोध अथवा चक्षरिन्द्रियविषयप्राप्त अर्थों में रागद्वेषविनिग्रह, इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रियविपयप्रचारनिरोध अथवा स्पर्शनेन्द्रियविषयप्राप्त अर्थों में रागद्वषविनिग्रह / यह इन्द्रियप्रतिसंलोनता-तप का वर्णन हया। 213. से कि तं कसायपडिसलीणया? कसायपडिसंलोणया चउम्विहा पन्नत्ता, तंजहा–कोहोदयनिरोहो बा, उदयप्पत्तस्स वा कोहस्स विफलीकरणं; एवं जाव लोभोदयनिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोभस्स विफलीकरणं / से तं कसायपडिसंलोणया। [213 प्र.] भगवन् ! कषायप्रतिसंलीनता कितने प्रकार की है ? 1213 उ. गौतम ! कपायप्रतिसंलीनता चार प्रकार की कही है। यथा--(१) क्रोधोदयनिरोध अथवा उदयप्राप्त क्रोध का विफलीकरण, यावत् (4) लोभोदयनिरोध अथवा उदयप्राप्त लोभ का विफलीकरण / यह हुआ कषायप्रतिसंलीनता का वर्णन / 214. से कि तं जोगडिसंलोणया? जोगपडिसंलोणया तिविहा पन्नता, तं जहा.-अकुसलमणनिरोहो वा, कुसलमणउदीरणं वा, मणस्स वा एमत्तीभावकरणं; प्रकुसलवइनिरोहो वा, कुसलवइ उदीरणं वा, वईए वा एगत्तीभावकरणं / [214 प्र.] भगवन् ! योगप्रतिसलीनता कितने प्रकार की है ? [214 उ.] गौतम ! योगप्रतिसलीनता तीन प्रकार की कही है। यथा--(१) मनोयोगप्रतिसंलीनता, (2) वचनयोगप्रतिसंलीनता और (3) काययोगप्रतिसलीनता / [प्र.) मनोयोगप्रतिसंलीनता किस प्रकार की है ? [उ.] मनोयोगप्रतिसंलीनता इस प्रकार की है-अकुशल मन का निरोध, कुशलमन की उदी. रणा और मन को एकाग्र करना। 1. अन्य प्रतियों में अधिक पाठ उपलब्ध होता है --- मणजोगडिसलोणया वइजोगपडिसंलीणथा कायजोगपडि संलोणया य / से कि सं मणजोगडिसलीणया ? मणजोगपडिसंलोणया--अकुसलमणनिरोहो वा, कुसलमणउदीरणं वा, मणरस वा एगत्तीभावकरणं / से त मणजोगपडिसलीगया। से कितं वइजोगपरिसलीगया? यइजोगपडिसलीणया / Page #2696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (प्र.] वचनयोगप्रतिसंलीनता किस प्रकार की है ? [उ.] वचनयोगप्रतिसंलीनता इस प्रकार की है.--- अकुशल वचन का निरोध, कुशल वचन की उदीरणा और वचन की एकाग्रता करना / 215. से कि तं कायपडिसलीणया ? कायपडिसंलोणया जं गं सुसमाहियपसंतसाहरियपाणि-पाए कुम्मो इव गुत्तिदिए अल्लोणे पल्लोणे चिट्ठइ / से तं कायपडिसंलोणया / से तं जोगपडिसंलोणया। [215 प्र.] कायप्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? [215 उ.] कायप्रतिसंलीनता है-सम्यक् प्रकार से समाधिपूर्वक प्रशान्तभाव से हाथ-पैरों को संकुचित करना (सिकोड़ना), कछुए के समान इन्द्रियों का गोपन करके आलीन-प्रलीन (स्थिर) होना / यह हुआ योगप्रतिसंलीनता का वर्णन / 216. से कि तं विवित्तसयणासणसेवणता? विवित्तसयणासणसेवणया जं गं पारामेसु वा उज्जाणेसु वा जहा सोमिलुद्देसए (स० 18 उ० 10 सु० 23) जाव सेज्जासंथारगं उपसंपज्जित्ताणं विहरति / सेत्तं विवित्तसयणासणसेवणया / से तं पडिसंलोणया / से तं बाहिरए तवे। - [216 प्र.] विविक्तशय्यासनसेवनता किसे कहते हैं ? [216 उ.] विविक्त (स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित) स्थान में, अर्थात्--पाराम (बगीचों) अथवा उद्यानों आदि में, (अठारहवें शतक के दसवें सोमिल-उद्देश क के सू. 23) के अनुसार, यावत् निर्दोष शय्यासंस्तारक आदि उपकरण लेकर रहना (यहाँ तक) विविक्तशय्यासनसेवनता है। यह हुई विविक्तशय्यासनसेवनता / इस प्रकार प्रतिसंलीनता का वर्णन पूर्ण हुना। साथ ही बाह्यतप का वर्णन पूर्ण हुआ। विवेचन--प्रतिसंलीनता :विशेषार्थ, उद्देश्य और प्रकार--प्रतिसलीनता का सामान्य अर्थ है-- गोपन करना अथवा तल्लीन हो जाना / इसका विशेषार्थ है-इन्द्रिय, कषाय और योगों की अशभ प्रवृत्ति को रोकना, शुभ योग में प्रवृत्त होना, शुभ योग में एकाग्र होना / मुख्यरूप से इसके चार भेद हैं-इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता और विविक्तशय्यासनसेवनता। इन्द्रियप्रतिसलीनता के पांच, कषायप्रतिसंलीनता के चार और योगप्रतिसंलीनता के तीन भेद; ये कुल बारह और तेरहवाँ विविक्तशय्यासनसेवनता; ये सभी मिलाने से तेरह भेद होते हैं / इनके विशेषार्थ मूलपाठ में स्पष्ट हैं / इन प्रतिसंलीनताओं के उद्देश्य भी मूल में स्पष्ट हैं।' ये बाह्यतप क्यों और किससिए ? ---अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, ये छह बाह्यतप कहलाते हैं / ये बाह्य द्रव्यादि की अपेक्षा रखते हैं और प्रायः बाह्य१. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 923 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2 की टिप्पणी ( मू. पा. टि.), पृ. 1053 (ग) भगवतो. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3506 / Page #2697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक ) शरीर को नपाते हैं, अर्थात --शरीर पर इनका अधिक प्रभाव पड़ता है। इन तपश्चर्याों को करने वाला लोकव्यवहार में 'तपस्वी' के रूप में प्रसिद्ध हो जाता है। अन्यतीथिकजन भी स्वाभिप्रायानुसार इन तपश्चर्यायों को अपनाते हैं। इन और ऐसे कारणों से ये तपश्चरण बाह्यतप कहलाते हैं / ये बाह्यतप मोक्षप्राप्ति के बाह्य अंग हैं।" षविध आभ्यन्तर तप के नाम-निर्देश 217. से कि तं भितरए तवे ? अम्भितरए तवे छविहे पन्नत्ते, तंजहा-पायच्छित्तं 1 विणलो 2 वेयावच्चं 3 सज्झायो 4 झाणं 5 विप्रोसग्गो 6 / . [216 प्र.। (भगवन् ! ) वह आभ्यन्तर तप कितने प्रकार का है ? {217 उ. (गौतम ! ) आभ्यन्तर तप छह प्रकार का कहा है / यथा---(१) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्य, (4) स्वाध्याय, (5) ध्यान और (6) व्युत्सर्ग / विवेचन--प्राभ्यन्तर तप का स्वरूप--जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों (आन्तरिक परिणामों) के साथ हो, उसे पाभ्यन्तर तप कहा गया है / उपर्युक्त छह आभ्यन्तर तपों का आत्मा के परिणामों के साथ सीधा सम्बन्ध है। प्रायश्चित्त तप के दश भेद 218. से कि तं पायच्छित्ते? पायच्छित्ते दसविधे पन्नत्ते, लं जहा--पालोयणारिहे जाव पारंचियारिहे। से तं पायर्याच्छत्ते। [218 प्र.] (भगवन् ! ) प्रायश्चित्त कितने प्रकार का है ? [218 उ.] (गौतम ! ) प्रायश्चित्त दस प्रकार का कहा है / यथा---पालोचनाह (से लेकर) यावत् पाराचिकाई / यह हुआ प्रायश्चित्त तप / / विवेचन-प्रायश्चित : स्वरूप और तविषयक 50 बोल-मूलगुण और उत्तरगुण-विषयक अतिचारों से मलिन हुई आत्मा जिस अनुष्ठान से शुद्ध हो, अथवा जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। कहा भी है-- 'प्रायः पापं विजानीयात, चित्तं तस्य विशोधनम् / ' प्रायः का अर्थ है—पाप और चित्त का अर्थ है,--उसकी विशुद्धि / प्रायश्चित्त से सम्बन्धित पचास बोल इस प्रकार हैं--पालोचनाह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, आकम्ध्य आदि आलोचना के दस दोष, दर्प, प्रमाद आदि प्रायश्चित्त-सेवन के दस कारण, फिर प्रायश्चित्त देने वाले के आचारवान प्रादि दस गुण और प्रायश्चित्त लेने वाले के जातिसम्पन्नता, कुलसम्पन्नता आदि दस गुण, इस प्रकार कुल मिला कर प्रायश्चित्त सम्बन्धी पचास बोल होते हैं / ' 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 35051 . 2. वही, भा. 7, . 3508 Page #2698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विनय तप के भेद-प्रभेदों का निरूपरण 219. से कि तं विणए ? विणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा- नाणविणए 1 दंसणविणए 2 चरित्तविणए 3 मणविणए 4 बइविणए 5 कायविणए 6 लोगोवयारविणए 7 / [219 प्र.} (भगवन् ! ) विनय कितने प्रकार का है ? [216 उ.] (गौतम ! ) विनय सात प्रकार का कहा है / यथा---(१) ज्ञानविनय, (2) दर्शनविनय, (3) चारित्रविनय, (4) मनविनय, (5) वचन विनय, (6) कायविनय और (7) लोकोपचार विनय। 220. से कि तं नाणविणए ? नाणविणए पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा प्राभिनिबोहियनाणविणए जाव केवलनाणविणए / से तं नाणविणए। [220 प्र.] (भगवन् ! ) ज्ञानविनय कितने प्रकार का है ? [220 उ.] (गौतम !) ज्ञानविनय पाँच प्रकार का कहा है / यथा-आभिनिबोधिकज्ञानविनय यावत् केवलज्ञानविनय / यह है ज्ञानविनय / 221. से कि तं दंसणविणए ? दसणविणए दुविधे पन्नते, तं जहा—सुस्सूसणाविणए य प्रणच्चासायणाविणए य / [221 प्र.] (भगवन् ! ) दर्शनविनय कितने प्रकार का है ? / [221 उ.] (गौतम!) दर्शनविनय दो प्रकार का कहा है / यथा-शुश्रूषाविनय और अनाशातनाविनय। 222. से कि तं सुस्सूसणाविणए ? सुस्सूसणाविणए प्रणेगविधे पन्नत्ते, तं जहा-सक्कारेति वा सम्माणेति वा जहा चोहसमसए ततिए उद्देसए (स० 14 उ० 3 सु० 4) जाव पडिसंसाहणया / से तं सुस्सूसणाविणए / [222 प्र.] (भगवन् ! ) शुश्रूषाविनय कितने प्रकार का है ? [222 उ.] (गौतम ! ) शुश्रूषाविनय अनेक प्रकार का कहा है। यथा---सत्कार, सम्मान इत्यादि सब वर्णन चौदहवें शतक के तीसरे उद्देशक (के सूत्र 4) के अनुसार यावत् प्रतिसंसाधनता तक जानना चाहिए। 223. से कि तं अणच्चासादणाविणए ? अणच्चासादणाविणए पणयालीसतिविधे पन्नत्ते, तं जहा–अरहंताणं अणच्चासादणया, परहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया 2 प्रायरियाणं अणच्चासादणया 3 उवज्झायाणं अणच्चासायणया 4 थेराणं प्रणच्चासायणया 5 कुलस्स अणच्चासायणया 6 गणस्स प्रणच्चासायगया 7 संघस्स अणच्चासादणया 8 किरियाए अणच्चासायणया 6 संभोगस्स अणच्चासायणया 10 Page #2699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 1 (501 प्राभिनि इस प्रणच्चासायणया 11 जाव केवलनाणस्स प्रणच्चासायणया 12-13-14-15, एएसि चेव भत्तिबहुमाणे गं 15, एएसि चेव वणसंजलगया 15, - 45 / से तं प्रणच्चासायणाविणए / से तं दसणविगए। [223 प्र. (भगवन् ! ) अनाशातनाविनय कितने प्रकार का है ? 223 उ.J (गोतम ! ) अनाशातनाविनय पैतालीस प्रकार का कहा है / यथा--(१) अरिहन्तों की अनाशातना, (2) अरिहन्तप्रज्ञप्त धर्म की अनाशातना, (3) प्राचार्यों की अनाशातना, (4) उपाध्यायों की अनाशातना, (5) स्थविरों की अनाशातना, (6) कुल की अनाशातना, (7) गण की अनाशातना, (8) संघ की अनाशातना, (8) क्रिया की अनाशातना, (10) साम्भोगिक (सार्मिक साधु-साध्वीगण) की अनाशातना, (11 से 15 तक) आभिनिबोधिक ज्ञान से लेकर केवलज्ञान तक की अनाशातना / इन पन्द्रह की (1) भक्ति करना, (2) बहुमान करना और (3) इनका गुण-कीर्तन करना, इस प्रकार कुल 154 3-45 भेद अनाशातनाविनय के हुए। यह हुआ अनाशातनाविनय का वर्णन / साथ ही दर्शनविनय का वर्णन भी पूर्ण हुआ। 224. से कितं चरित्तविणए ? चरित्तविणए पंचविधे पन्नत्ते, तं जहा-सामाइयचरित्तविणए जाव प्रहक्खायचरित्तविणए। से तं चरित्तविणए। [224 प्र.] (भगवन् ! ) चारित्रविनय कितने प्रकार का है / {224 उ. (गौतम ! ) चारित्रविनय पांच प्रकार का कहा है। यथा-सामायिक चारित्रविनय (से लेकर) यावत् यथाख्यातचारित्रविनय / इस प्रकार चारित्रविनय का वर्णन हुआ / 225. से कि तं मणविणए ? मणविणए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-पसत्थमणविणए य अप्पसत्यमणविणए य / [225 प्र.] वह मनोविनय कितने प्रकार का है ? 1225 उ.] मनोविनय दो प्रकार का कहा है। यथा--प्रशस्तमनोविनय और अप्रशस्तमनोविनय / 226. से कि तं पसत्थमणविणए ? पसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-अपाबए, असावज्जे, अकिरिए, निरुवक्केसे, अणण्हयकरे, अच्छविकरे, प्रभूयाभिसंकणे / से तं पसत्थमणविणए। [226 प्र.] वह प्रशस्त मनोविनय कितने प्रकार का है / 226 उ.] प्रशस्तमनोविनय सात प्रकार का बताया है। यथा--(१) अपापक (पापरहित), (2) असावद्य (क्रोधादि सावध - पापों से रहित), (3) अक्रिय (कायिकी आदि क्रियानों से रहित), (4) निरुपक्लेश-(शोकादि उपक्लेशों से रहित), (5) अनावकर (पाश्रवों से रहित), (6) अच्छविकर (स्वपर को पीड़ा न देने वाला) और (7) अभूताभिशंकित (जीवों को शंकित या भयभीत न करने वाला) . . Page #2700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 227. से कि तं अध्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-पावए सावज्जे सकिरिए सउधक्के से अण्हयकरे छविकरे भूयाभिसंकणे / से तं अप्पसस्थमणविणए / से तं मणविणए / | 227 प्र.] अप्रशस्तमनोविनय कितने प्रकार का है ? | 227 उ. (गौतम ! ) अप्रशस्तमनोविनय भी सात प्रकार का कहा है। यथा--पापक (पापकारी), सावद्य, सक्रिय (कायिकी प्रादि क्रियाओं से युक्त), सोपक्लेश, प्राश्रवकारी, छविकारी (प्राणियों को या स्वपर को पीड़ा उत्पन्न करने वाला) और भूताभिशंकित (प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाला)। यह हुआ अप्रशस्तमनोविनय का वर्णन / 228. से कि तं वइविणए ? वह विणए दुविधे पन्नते, तं जहा--पसस्थवविणए य अप्पसत्थवइविणए य / [228 प्र.] (भगवन् ! ) वचनविनय कितने प्रकार का है ? [228 उ.] (गौतम ! ) वचनविनय दो प्रकार का कहा है। यथा--प्रशस्तवचनविनय और अप्रशस्तवचनविनय / 229. से कि तं पसत्थवइविणए ? पसत्थवइविणए सत्तविधेपन्नत्ते, तंजहा–अपावए जाव अभूयाभिसंकणे / से तं पसत्थवइविणए / [226 प्र.] वह प्रशस्तवचनविनय कितने प्रकार का है ? / [226 उ.] (गौतम ! ) प्रशस्तवचनविनय सात प्रकार का कहा है। यथा-अपापक (पापरहित), असावद्य यावत् अभूताभिशंकित / 230. से कि तं अप्पसत्थवइविणए ? अप्पसत्थवइविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा--पावए सावज्जे जाव भूयाभिसंकणे / से त्तं अप्पसत्थवइविणए / से तं वइविणए / [230 प्र.J (भगवन् ! ) अप्रशस्तवचोविनय कितने प्रकार का है ? [230 उ.] (गौतम ! ) अप्रशस्त वचोविनय सात प्रकार का कहा है / यथा-पापक, सावद्य यावत् भूताभिशंकित / 231. से कि तं कायविणए ? कायविणए दुविधे पन्नत्ते, तं जहा-पसस्थकायविणए य अप्पसत्यकायविणए य / [231 प्र.] (भगवन् ! ) कायविनय कितने प्रकार का है ? [231 उ. (गौतम ! ) कायविनय दो प्रकार का कहा है। यधा-प्रशस्तकायविनय और अप्रशस्तकायविनय / Page #2701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) 232. से कि तं पसत्थकायविणए? पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-आउत्तं गमणं, माउत्तं ठाणं, आउत्तं निसीयणं, आउत्तं तुयट्टणं, पाउत्तं उल्लंघणं, पाउत्तं पल्लंघणं, पाउत्तं सन्विदियजोगजुजणया। से तं पसस्थकायविणए। [232 प्र.] (भगवन् ! ) प्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ? [232 उ.] (गौतम ! ) प्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है / यथा--प्रायुक्त गमन (यतनापूर्वक गमन), आयुक्त स्थान (यतनापूर्वक ठहरना या खड़े रहना), आयुक्त निषीदन (सावधानी पूर्वक करवट बदलना, लेटना या सोना), प्रायुक्त उल्लंघन (सावधानीपूर्वक लांघना), आयुक्त प्रलपन (सावधानी से बार-बार या जोर से लाँघना) और आयुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुजनता (सभी इन्द्रियों और योगों को सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना) / यह हुमा प्रशस्तकायविनय का वर्णन / . 233. से कितं अध्पसस्थकायविणए ? अप्पसत्थकायविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-प्रणाउत्तं गमणं, जाव प्रणाउत्तं सबिदियजोगजुजणया। से तं अप्पसत्थकाविणए / से तं कायविणए / 233 प्र.। (भगवन् ! ) अप्रशस्त कायविनय कितने प्रकार का है ? (233 उ. (गौतम ! ) अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का कहा है। यथा—अनायुक्त गमन यावत् अनायुक्त सर्वेन्द्रिययोगयुंजनता (असावधानी से सभी इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति करना ) / यह हुआ अप्रशस्तकायविनय का वर्णन / साथ ही कायविनय का वर्णन पूर्ण हुआ / 234. से कि तं लोगोवयारविणए ? लोयोवयारविणए सत्तविधे पन्नत्ते, तं जहा-अब्भासवत्तियं, परछंदाणुवत्तियं, कज्जहेतु, कयपडिकतया, अत्तगवेसणया, देसकालण्णया, सम्वत्थेसु अपडिलोमया। से तं लोगोवयारविणए। से तं विणए। [234 प्र.] (भगवन् ! ) लोकोपचारविनय के कितने प्रकार हैं ? [234 उ.] (गौतम !) लोकोपचारविनय सात प्रकार का कहा गया है। यथा--- (1) अभ्याशवृत्तिता (गुरु ग्रादि के सानिध्य में रहना, अथवा अभ्यास (अध्ययन) में चित्तवृत्ति को एकान करना), (2) परच्छन्दानुवतिता (गुरु आदि बड़ों के अधीनस्थ (आज्ञापरायण) होकर कार्य करना), (3) कार्य हेतु (गुरु प्रादि द्वारा किये हुए ज्ञानदानादि कार्य के लिए उन्हें विशेष मानना तथा उन्हें ग्राहारादि लाकर देना), (4) कृत-प्रतिक्रिया (अपने पर किये हुए उपकार के बदले प्रत्युपकार करना (बदला चुकाना) अथवा आहारादि द्वारा गुरु की सेवा-शुश्रूषा करने से वे प्रसन्न होंगे और उससे वे मुझे ज्ञान सिखायेंगे, ऐसा समझ कर उनकी विनय-भक्ति करना), (5) आर्तगवेषणता (रुग्ण, अशक्त एवं पीड़ित साधुनों की सार-संभाल करना), (6) देश-कालज्ञता (देश और काल देख कर कार्य करना) और (7) सर्वार्थ-अप्रतिलोमता (सभी कार्यों में गुरुदेव के अनुकूल प्रवत्ति करना ) / Page #2702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचम-विनय के भेद-प्रभेद और स्वरूप --जिसके द्वारा ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का विनयन-विनाश हो, उसे 'विनय' कहते हैं / लोकव्यवहार में अपने से बड़े और गुरुजनों का देश-काल के अनुसार सत्कार सम्मान एवं भक्ति-बहुमान करना 'विनय' कहलाता है / कहा है 'कर्मणां दाग विनयनाद, विनयो विदुषां मतः।' अपवर्ग-फलाढ्यस्य, मूलं धर्मतरोरयम् / / अर्थात ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का शीघ्र विनाशक होने से यह 'विनय' कहलाता है। विद्वानों का मत है कि मोक्ष-रूपी फल से समृद्ध धर्मतरु का यह मूल है। सामान्यतया विनय के 7 भेद हैं. जिनका उल्लेख मल में किया गया है। इन सातों के अवान्तरभेद 13. | सातों के अवान्तरभेद 134 होते हैं / जैसेज्ञानविनय के 5 भेद, दर्शनविनय के 55 भेद, चारित्रविनय के 5 भेद, मनविनय के 24, वचनविनय के 24 और कायविनय के 14 भेद तथा लोकोपचारविनय के 7 भेद; यों कुल मिला कर 134 भेद हुए। १ज्ञानविनय---ज्ञान और ज्ञानी के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना, उनके प्रति बहुमान दिखाना, पित तत्त्वों पर सम्यक चिन्तन-मनन करना तथा विधिपूर्वक नम्र होकर ज्ञान ग्रहण करना, शास्त्रीय तथा तात्त्विक ज्ञान का अभ्यास करना 'ज्ञान-विनय है / इसके 5 भेद हैं-(१) मतिज्ञानविनय, (2) श्रुतज्ञानविनय, (3) अवधिज्ञानविनय, (4) मनःपर्यवज्ञानविनय और (5) केवलज्ञान विनय / २–दर्शनविनय-अरिहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और केवलिभाषित सद्धर्म, इन तीन तत्त्वों पर श्रद्धा रखना दर्शनविनय है / अथवा सम्यग्दर्शन-गुण में अधिक ( आगे बढ़े हुए) साधकों की शुश्रूषादि करना तथा सम्यग्दर्शन के प्रति विनय-भक्ति और श्रद्धा रखना दर्शनविनय है। दर्शनविनय के सामान्यतया दो भेद हैं-शुश्रुषा-विनय और अनाशातना-विनय / शुश्रूषा-विनय के दस भेद हैं, यथा-(१) अभ्युत्थान-गुरुदेव या अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ रत्नाधिक सन्त पधार रहे हों, तब उन्हें देखते ही खड़े हो जाना, (2) आसनाभिग्रह- उन्हें इस प्रकार प्रासन-ग्रहण के लिए आमंत्रित करना कि पधारिये, आसन पर विराजिये, (3) आसन-प्रदान-बैठने के लिए प्रासन देना, (4) सत्कार, (5) सम्मान, (6) कीर्ति-कर्म- उनके गुणगान करना, (7) अंजलि - उन्हें करबद्ध हो कर प्रणाम करना, (8) अनुगमनता-लौटते समय कुछ दूर तक पहुँचाने जाना, (6) पर्युपासनता-उनकी पर्युपासना (सेवा) करना और (10) प्रतिसंसाधनता- उनके वचन को शिरोधार्य करना / (1) अरिहन्त, (2) अरिहन्त-प्ररूपिन धर्म, (3) प्राचार्य, (4) उपाध्याय, (5) स्थविर, (6) कुल, (7) गण, (8) संघ, (6) क्रिया और (10) मार्मिक का विनय, प्रकारान्तर से शुश्रूषाविनय के ये दस भेद भी किये गये हैं। प्रात्मा, परलोक, मोक्ष आदि हैं, ऐसी प्ररूपणा करना क्रियाविनय है / अनाशातना-दर्शनविनय- सम्यग्दर्शन और सम्यादर्शनी की आशातना न करना, अनाशातना-विनय है / इसके 45 भेद हैं। अरिहन्त भगवान्, अर्हत्प्ररूपित धर्म, प्राचार्य, उपाध्याय प्रादि पन्द्रह की प्राशातना न करना, अर्थात (1) इनकी विनय करना, (2) भक्ति करना और (3) गुणगान करना, पूर्वोक्त 15 के प्रति तीन कार्यों के करने से 45 भेद होते हैं / हाथ जोड़ना आदि बाह्य आचारों को भक्ति', हृदय में श्रद्धा और प्रीति रखने को 'बहुमान' तथा गुणकीर्तन करने या गुण-ग्रहण करने को 'गुणानुवाद' (वर्ण वाद) कहते हैं / Page #2703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [505 चारित्रविनय-चारित्र और चारित्रवानों का विनय करना / चारित्रविनय के पांच भेद मुत्रपाठ में बता दिये गए हैं / ___ मनोविनय एवं वचनविनय-आचार्य का मन से बिनय करना, मन के अशुभ व्यापारों को गेकना, उसे शुभ प्रवृत्ति में लगाना मनोविनय है / इसके प्रशस्त और अप्रशस्त, ये दो भेद किये हैं। मन में प्रशस्तभाव लाना 'प्रशस्तमनोविनय' है और अप्रशस्त मनोभावों को मन में न आने देना 'अत्रशस्तमनोविनय' है। मनोविनय के समान वचनविनय के भी चौवीस भेद हैं। आचार्य प्रादि का वचन से विनय करना, वचन की अशुभ-प्रवृत्ति को रोकना तथा शुभ-प्रवृत्ति में लगाना 'वचनविनय' है। कायविनय-प्राचार्य प्रादि का काया से विनय करना, काया की अशुभ प्रवृत्ति रोकना और शुभ प्रवृत्ति करना काय विनय है / इसके भी प्रास्त और अप्रशस्त, इस प्रकार दो भेद बताए हैं / यतनापूर्वक गमन करना, खड़े रहना, बैठना, सोना, उल्लंघन एवं प्रलंघन करना तथा इन्द्रियों और योगों की प्रवृत्ति सावधानी से करना 'प्रशस्त कायविनय' है तथा उपर्युक्त क्रियाओं में अप्रशस्तता-. अमावधानो को रोकना 'अप्रशस्त कायविनय' है। इस प्रकार कार्यावनय के 7+7= 14 भेद हुए। लोकोपचारविनय : विशेषार्थ एवं भेद-दूसरे सार्मिकों को सुख-शान्ति प्राप्त हो, इस प्रकार का व्यवहार एवं बाह्य चेष्टाएँ करना 'लोकोपचारविनय' है। इसके 7 भेद हैं, जिनका उल्लेख भूलपाठ में किया गया है / इस प्रकार विनय के कुल मिला कर 134 भेद होते हैं। प्रकारान्तर से बाबन भेद-अन्यत्र विनय के 52 भेद भी किये गए हैं। वे इस प्रकार हैंतोर्थकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर और गणी, इन तेरह की-(१) आशातना न करना, (2) भक्ति करना, (3) बहुमान करना (इनके प्रति पूज्यभाव रखना) और (4) इनके गुणों की प्रशंसा करना / इन चार प्रकारों से इन तेरह का विनय करना; यो 1344 = 52 भेद विनय के होते हैं।' वैयावत्य और स्वाध्याय तप का निरूपण 235. से किं तं वेयावच्चे ? वेयावच्चे दसविधे पन्नत्ते, तंजहा-आयरियवेयावच्चे उवझायवे यावच्चे थेरवेयावच्चे तवस्सिवेयावच्चे गिलाणवेयावच्चे सेहवेयावच्चे कुलवेयावच्चे संघवेयावच्चे साहम्मियवेयावच्चे। से तं वेयावच्चे। [235 प्र.] (भगवन् ! ) वैयावृत्य कितने प्रकार का है ? [235 उ.] (गौतम ! ) वैयावृत्य दस प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) प्राचार्यवैयावृत्य, (2) उपाध्यायवैयावृत्य, (3) स्थविरक्यावृत्य, (4) तपस्वीवैयावृत्य, (5) ग्लानवैयावृत्य, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 924-925 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3516-17-18 (ग) भगवती. प्रमेयचन्द्रिकाटीका, भा. 16, पृ. 453 से 468 तक Page #2704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) शैक्ष (नव-दीक्षित)-वैयावृत्य, (7) कुलक्यावृत्य, (8) गणवैयावृत्य, (6) संघयावत्य और (10) सामिक वयावत्य / यह वैयावृत्य का वर्णन है। 236. से कि तं सज्झाए ? __ सज्झाए पंचविधे पन्नत्ते, तंजहा-बायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा। सेतं सज्झाए। [236 प्र. (भगवन् ! ) स्वाध्याय कितने प्रकार का है ? [236 उ.] (गौतम !) स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) वाचना. (2) प्रतिपृच्छना, (3) परिवर्तना, (4) अनुप्रेक्षा और (5) धर्मकथा / यह हुआ स्वाध्याय का वर्णन / विवेचन--वैयावत्य :प्रकार और स्वरूप-वैयावृत्य जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है / . यह मुख्यतया सेवा-शुश्रूषा या परिचर्या के अर्थ में प्रयुक्त होता है / प्रस्तुत में वैयावृत्य के उत्तम पात्रों के अनुसार 10 भेद किये हैं। आचार्य (गुरु), तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित ग्रादि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना, परिचर्या करना, सेवा करना आदि वैयावृत्य है।' स्वाध्याय : स्वरूप और प्रकार-अस्वाध्याय-काल को या अस्वाध्याय-दशा को छोड़ कर मर्यादा-पर्वक शास्त्रों का अध्ययन. वाचन या अध्यापन करना स्वाध्याय है। म हैं-(२)वाचना-शिष्य को या जिज्ञास साधक को शास्त्र और उनका अर्थ पढाना, वाचना देनामा स्वयं वाचना करना / (2) पच्छना-वाचना करने या वाचना लेने के बाद उसमें सन्देह होने पर या समझ में न आने पर अथवा पहले सीखे हुए शास्त्रीय ज्ञान या तात्त्विक ज्ञान में शंका होने पर योग्य अधिकारी से प्रश्न करना--पूछना पृच्छना है। (3) परिवर्तना--पढ़ा या सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसकी बार-बार आत्ति करना / (4) अनुप्रेक्षा...सीखे हए शास्त्र का अर्थ विस्मृत न हो जाए, इसलिए उसका बार-बार मनन-चिन्तन एवं स्मरण करना / (5) धर्मकथा चारों प्रकार से शास्त्रों का अच्छा अध्ययन हो जाने पर योताओं को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना, प्रवचन करना / 2 / ध्यान : प्रकार और भेद-प्रभेद 237. से कि तं भाणे? झाणे चउदिवधे पन्नत्ते, तं जहा-पट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे / [237 प्र.) (भगवन् !) ध्यान किसने प्रकार का है ? [237 उ.] (गौतम ! ) ध्यान चार प्रकार का कहा है। यथा--(2) पार्न ध्यान (:: रौद्रध्यान, (3) धर्मध्यान और (4) शुक्रलध्यान / 1. (क) विवाहपत्तिसुतं, भा. 2 (म. पा. टि.), इ. 1066 (ख) भगवती मूत्र (हिन्दी विवेचन ) मा. 2, पृ. 3516 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3. पृ. 3519 (1) तत्त्वार्थ मुत्र अ. 1, सू. 28-25 Page #2705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चोमत्रां शतक : उद्देशक 7] [507 238. अट्टे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-अमणुण्यसंपयोगसंप उत्ते तस्स विप्पयोगरुतिसमन्नागते यावि भवति 1, मणुग्णसंयोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 2, आयंकसंपयोगसंपउत्ते तस्स विपयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 3, परिझुसियकामभोगसंपउत्ते तस्स अविप्पयोगसतिसमन्नागते यावि भवति 4 / 238] प्रार्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) अमनोज्ञ वस्तुओं की प्राप्ति होने पर उनके वियोग की चिन्ता करना, (2) मनोज्ञ वस्तुओं को प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना, (3) अातंक (रोग-विपत्ति आदि कष्ट) प्राप्त होने पर उसके वियोग की चिन्ता करना पोर (4) परिसेवित या प्रीति-उत्पादक कामभोगों आदि की प्राप्ति होने पर उनके अवियोग की चिन्ता करना। 236. अट्टस्स णं माणस्स चत्तारि लक्खणा पत्रत्ता, तं जहा-कंदणया सोयणया तिप्पणया परिदेवगया। [236] ग्रानध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) क्रन्दनना (ना), (2) सोचनता (चिन्ता या शोक करना), (3) तपनता (बार-बार अश्रुपात करना) और (4) परिदेवन ता (विलाप मना)। 240. रोद्दे झाणे च उविधे पन्नत्ते, तं जहा--हिसाणुबंधी, मोसाणबंधी, तेयाणुबंधी, सारखणाणुबंधी। [240] रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा है। यथा-(१) हिंसानुबन्धी, (2) मृपानुवन्धी, (3) स्तेयानुवन्धी और (4) संरक्षणाऽनुबन्धी / 241. रोहस्स झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा-उस्सन्नदोसे बहुदोसे अण्णाणदोसे भामरणंतदोसे / . [241] रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) प्रोसन्नदोप, (2) बहुलदोप, (3) जानदोष और (4) अामरणान्तदोप। 242. धम्मे झाणे चउबिहे चउपडोयारे पन्नत्ते, तं जहा-आणाविजये, अवायविजये विवागविजये संठाणविजये। [242] धर्मध्यान चार प्रकार का और चतुष्प्रत्यवतार कहा है। बथा-(2) आजाविचय, {7) अपायविचय, (3) विपाकविचय और (4) संस्थानविचय / 243. धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा--प्राणारयी निसग्गरुयी मुत्तरुयी ओगाढरुयो। [243) धर्मध्यान के चार लक्षण बताए हैं / यथा—(2) अाज्ञानि, (2) निसर्गरुचि, (3) त्रात्रि और (4) अवगाहरुचि / Page #2706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 244. धम्मस्स गं माणस्स चत्तारि प्रालंबणा पन्नत्ता, तं जहा-वायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा धम्मकहा। [244] धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे हैं / यथा--(१) वाचना, (2) प्रतिपृच्छना, (3) परिवर्तना और (4) धर्मकथा / 245. धम्मस्स णं माणस्स चत्तारि अणुपेहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-एगत्ताणुपेहा अणिच्चाणुपेहा असरणाणुपेहा संसाराणुपेहा / 245 } धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं। यथा--(१) एकत्वानुप्रेक्षा, (2) अनित्यानुप्रेक्षा, (3) अशरणानुप्रेक्षा और (4) संसारानुप्रेक्षा / / 246. सक्के झाणे चउध्विधे चउपडोयारे पन्नत्ते, तं जहा-पुहत्तवियक्के सवियारी, एमत्तवियव प्रदियारी, सुहमकिरिए अनियट्टी, समोछिन्नकिरिए अप्पडिवाई। [246 शुक्लध्यान चार प्रकार का है और चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है। यथा--(१) पृथक्त्ववितर्क-सविचार, (2) एकत्ववितर्क-अविचार, (3) सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती और (4) समुच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपाती। 247. सुक्कस्स गं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा-खंती मुत्ती प्रज्जवे महवे / [244, शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे हैं / यथा-(१) क्षान्ति(क्षमा), (2) मुक्ति (निर्लोभता या अनासक्ति), (3) आर्जव (सरलता) और (4) मार्दव ( मृदुता या नम्रता) / 248. सुक्कस्स गं माणस्स चत्तारि प्रालंबणा पन्नत्ता, तं जहा-अवहे असम्मोहे विवेगे विप्रोसगे। [248] शुक्लध्यान के चार आलम्बन कहे गए हैं / यथा--(१) अन्यथा, (2) असम्मोह, (3) विवेक और (4) व्युत्सर्ग / 246. सुक्कस्स णं झागरस अत्तारि अणुहायो पन्नत्ताश्रो, तं जहा- अणंतवत्तियाणुणेहा विप्परिणामाणुप्पेहा असुभाणपेहा प्रवायाणुपेहा / से तं झाणे। [246] शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही हैं। यथा--(१) अनन्ततितानुप्रेक्षा, (2) विपरिणामानुप्रेक्षा, (3) अशुभाऽनुप्रेक्षा और (4) अपायानुप्रेक्षा। यह हुआ ध्यान का समग्र वर्णन / विवेचन-ध्यान : स्वरूप और प्रकार--मन को किसी एक वस्तु में एकाग्र करना ध्यान है / छाग्थों का ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक का होता है / उत्तम संहनन वालों का ध्यान अन्तर्मुहुर्त से अधिक रह सकता है / एक वस्तु से दूसरी वस्तु में ध्यान के संक्रमण होने पर तो ध्यान का प्रवाह चिरकाल तक भी रह सकता है। अर्हन्तों के लिए तो योगों का निरोध करना ही ध्यानरूप हो जाता है। ध्यान के 4 प्रकार हैं / Page #2707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] आर्तध्यान : प्रकार और स्वरूप--दुःख या पीड़ा अथवा अत्यधिक चिन्ता के निमित्त से होने वाला दुःखी प्राणी का निरन्तर चिन्तन प्रार्तध्यान कहलाता है। मनोज्ञ वस्तु के वियोग और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग आदि कारणों से चित्त चिन्ताकुल हो जाता है, तब आर्तध्यान होता है / अथवा मोहवश राज्य, शय्या, प्रासन, वस्त्राभूषण, रत्न, पंचेन्द्रिय सम्बन्धी मनोज्ञ विषय अथवा स्त्री, पुत्र आदि स्वजनों के प्रति अत्यधिक इच्छा, तृष्णा, लालसा एवं ग्रासक्ति होने से भी प्रार्तध्यान होता है / प्रार्तध्यान के 4 भेद हैं अमनोज्ञ-वियोगचिन्ता, मनोज्ञ-अवियोगचिन्ता, रोगादि-वियोगचिन्ता एवं भोगों का निदान / इनमें से पहले और तीसरे आर्तध्यान का कारण द्वेष है और दूसरे व चौथे का कारण राग है / आर्तध्यान का मूल कारण अज्ञान है / ज्ञानी तो कर्मबन्धन को काटने का ही सदा उपाय करता है / वह कर्मबन्धन को गाढ करने के कारण को नहीं अपनाता। प्रार्तध्यान संसार को बढ़ाने वाला है और सामान्यतया तिर्यञ्चगति में ले जाता है। मूलपाठ में प्रार्तध्यान के क्रन्दनता आदि जो चार लक्षण बताए हैं, वे इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग और वेदना के निमित्त से होते हैं / रौद्रध्यान : स्वरूप और प्रकार-हिंसा, असत्य, चोरी तथा धन आदि की रक्षा में अहर्निश चित्त को जोड़ना रौद्रध्यान' है। रौद्रध्यान में हिंसा आदि के प्रति क्रूर परिणाम होते हैं। अथवा हिंसा में प्रवृत्त प्रात्मा द्वारा दूसरों को रुलाने या पीड़ित करने वाले व्यापार का चिन्तन करना भी रौद्रध्यान है। अथवा छेदन, भेदन, काटना, मारना, पीटना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना इत्यादि ऋर कार्यों में जो राग रखता है, जिसमें अनुकम्पाभाव नहीं है, उस व्यक्ति का ध्यान भी रौद्र ध्यान कहलाता है / रौद्रध्यान के हिसानुबन्धी आदि चार भेद हैं / हिसानुबन्धी-प्राणियों पर चाबुक आदि से प्रहार करना, नाक-कान आदि को कील से बीध देना, रस्सी, लोहे की शृखला (सांकल) आदि से बाँधना, आग में झौंक देना, डाम लगाना, शस्त्रादि से प्राणवध करना, अंगभंग कर देना आदि तथा इनके जैसे क्रूर कर्म करते हुए अथवा न करते हुए भी क्रोधवश होकर निर्दयतापूर्वक ऐसे हिंसाजनक कुकृत्यों का सतत चिन्तन करना तथा हिंसाकारी योजनाएँ मन में बनाते रहना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है / मषानबन्धी-दसरों को छलने. ठगने. धोखा एवं चकमा देने तथा छिप कर पापाचरण करने. झूठा प्रचार करने, झूठी अफवाहें फैलाने, मिथ्या-दोषारोपण करने की योजना बनाते रहना, ऐसे पापाचरणी को अनिष्टसूचक वचन, असभ्य वचन, असत् अर्थ का प्रकाशन, सत्य अर्थ का अपलाप, एक के बदले दूसरे पदार्थ आदि के कथनरूप असत्य वचन बोलने तथा प्राणियों का उपघात करने वाले वचन कहने का निरन्तर चिन्तन करना मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है / स्तेयानुबन्धी (चौर्यानुबन्धी)-तीव्र लोभ एवं तीव्र काम, क्रोध से ब्याप्त चित्त वाले पुरुष की प्राणियों के उपघातक, परनारीहरण तथा परद्रव्यहरण आदि कुकृत्यों में निरन्तर चित्तवृत्ति का होना, स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान है। संरक्षणानुबन्धी-शब्दादि पांच विषयों के साधनभूत धन की रक्षा करने की चिन्ता करना और 'न मालूम दूसरा क्या करेगा?' इस आशंका से दूसरों का उपघात करने की कषाययुक्त चित्तवृत्ति रखना संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान है / रागद्वेष से व्याकुल अज्ञानी जीव के उपर्युक्त चारों प्रकार का रौद्रध्यान होता है। यह कुध्यान संसार को बढ़ाने वाला और प्रायः नरकगति में ले जाने वाला होता है। Page #2708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं। प्रोसन्नदोष-हिंसा आदि से निवृत्त न होने के कारण रौद्रध्यानी बहुधा हिसादि में से किसी एक में प्रवृत्ति करता है / बहुलदोष-रौद्रध्यानी हिंसादि सभी दोषों में प्रवृत्त होता है / अज्ञानदोष-प्रज्ञानवश या कुशास्त्रों के संस्कारवश नरकादि के कारणभूत अधर्मस्वरूप हिसादि में धर्मबुद्धि से उन्नति के लिए प्रवृत्ति करना 'अज्ञानदोष' है / अथवा 'नानादोष'-हिंसादि के विविध उपायों में अनेक बार प्रवृत्ति करना 'नानादोष' है। ग्रामरणान्तदोष-मरणपर्यन्त हिंसादि ऋर कार्यों में अनुताप (पश्चात्ताप) न होना तथा हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना पामरणान्तदोष है। जैसे--कालसौकरिक (कसाई) / जो रौद्रध्यानी कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है, वह दूसरे के दुःख, कष्ट एवं संकट में तथा पापकार्य करने में प्रसन्न होता है, उसे इहलोक-परलोक का भत्र नहीं होता, उसके मन में दयाभाव बिलकुल नहीं होता। कुकृत्य करने का पछतावा भी नहीं होना / धर्म और शुक्ल ध्यान को चतुष्प्रत्यवतार कहा गया है, जिसका अर्थ है-भेद, लक्षण, बालम्बन और अनुप्रेक्षा, इन चार लक्षणों से जिसका विचार किया जाए / धर्मध्यान-श्रत-चारित्ररूप धर्मसहित ध्यान धर्मध्यान है अथवा धर्म अर्थात् जिनाज्ञायुक्त पदार्थ के स्वरूपपर्यालोचन में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है या सुत्रार्थ की साधना करने, महाबतादि को ग्रहण करने, बन्ध-मोक्ष, गति-प्रागति प्रादि हेतुनों के विचार करने में चित्त को एकाग्र करना तथा पंचेन्द्रिय-विषयों से निवृत्ति एवं प्राणियों के प्रति अनुकम्पाभाव प्रादि धर्मों में मन को एकाग्र करना धर्मध्यान है / इसके 4 भेद हैं। आज्ञाविचय-जिनाज्ञा को सत्य मानकर उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखना, जिनोक्त शास्त्रों में मरूपित तत्त्वों का चिन्तन-मनन करना, वीतराग-प्रशप्त कोई तत्व समझ में न आए तो भी यह विचार करे कि चाहे मुझे मंदबुद्धिवश समझ में न आए, किन्तु वीतराग सर्वज्ञ कथित होने से यह वचन सर्वथा सत्य ही है, इसके असत्य होने का कोई कारण नहीं है। इस प्रकार वीतराग वचनों का सतत चिन्तन-मनन करना, संदेहरहित होकर मन को उनमें एकाग्र करना प्राज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है। अपायविचय-राग-द्वप, कषाय, विषयासक्ति, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, अशुभयोग और क्रियाओं आदि से होने वाली इहलौकिक-पारलौकिक हानियों तथा कुपरिणामों का विनार एवं चिन्तन करना अपायविचय है / इन अपायों-दोषों से होने वाले दुष्परिणामों का चिन्तन करने वाला जीव इनसे अपनी आत्मा की रक्षा करने में तत्पर रहता है, इनसे दूर रह कर स्वपरकल्याण साधना करता है। विपाकवित्रय-शुद्ध पात्मा ज्ञान-दर्शन और मुखादिरूप है, किन्तु कर्मों के कारण प्रात्मा के ये निजगुण दवे हुए हैं / कर्मों के वशीभूत होकर जीव चारों गतियों में भ्रमण करती है। सुख-दुःख नौभाग्य-दुर्भाग्य, सम्पत्ति-विपत्ति आदि जीवों के पूर्वकृत कर्मों के ही फल हैं। अपने द्वारा उपाजित कर्मों के सिवाय जीव को दूसरा कोई भी सुख-दुःख देने वाला नहीं है / इस प्रकार कर्म विषयक चिन्तन में मन को एकाग्र करना विपाकविचय धर्मध्यान है।। ___ संस्थानविचय--धर्म स्तिकायादि 6 द्रव्य, उनको पर्याय, जीव-अजीव के प्राकार, उत्पादव्यय-ध्रौव्य, लोकस्वरूप, पृथ्वी, द्वीप, सागर, नरक, वर्ग प्रादि का प्राकार, लोकस्थिति, Page #2709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] [511 जीव की गति-प्रागति, जीवन-मरण आदि शास्त्रोक्त पदार्थों का चिन्तन-मनन करना तथा इस अनादिअनन्त जन्म-मरणप्रवाहरूप संसार-सागर से पार करने वाली ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अथवा सवर'निर्जरारूप धर्मनौका का विचार करना, ऐसे धर्मचिन्तन में मन को एकाग्र करना संस्थानविचय धर्मध्यान है / धर्मध्यान के प्राज्ञारुचि प्रादि 4 लक्षण हैं। रुचि का अर्थ श्रद्धा है। अवगाढरुचि को दूसरे शब्दों में उपदेशरुचि भी कह सकते हैं / अथवा द्वादशांगी के विस्तारपूर्वक ज्ञान करने से जिनोक्त तत्त्वों पर जो श्रद्धा होती है, वह भी अवगाढरुचि है / अथवा साधु-माध्वियों के शास्त्रानुकल उपदेश से जो श्रद्धा होती, वह भी अवगाढ़रुचि है। वस्तुत: देव-गुरु-धर्म के गुणों का कथन करने, उनकी भक्तिपूर्वक प्रशंसा एवं स्तुति करने तथा गुरु आदि का विनय करने से एवं श्रुत, शील, संयम एवं तप में अनुराग रखने से धर्मध्यानी पहचाना जाता है। वाचनादि चार अवलम्बन धर्मध्यान के हैं / एकत्व, अनित्यत्व, अधरणत्व एवं संसार, ये चारों धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएँ हैं। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान भी धर्मध्यान के अन्तर्गत हैं। शुक्लध्यान : स्वरूप और प्रकार-परावलम्बनरहित शुक्ल यानी निर्मल अात्मस्वरूप का तन्मयतापूर्वक चिन्तन करना शक्ल ध्यान है। इसमें पूर्वादि-विषयक श्रत के आधार से मन अत्यन्त स्थिर होकर योगों का निरोध हो जाता है / इस ध्यान में विषयों का इन्द्रियों एवं मन से सम्बन्ध होने पर भी वैराग्याबल से चित्त बाह्यविषयों की ओर नहीं जाता. शरीर का छेदन-भदनादि होने पर भी चित्त ध्यान से जरा भी नहीं हटता। यह ध्यान इष्टवियोग-निष्ट संयोगजनित शोक को जरा भी फटकने नहीं देता, इसीलिए इसे शुक्लध्यान कहते हैं। प्रात्मा पर लगे हुए अप्टविध कर्ममल को दूर करके उसे शक्ल-उज्ज्वल बनाता है, इस कारण भी यह शुक्लध्यान कहलाता है। इसके चार प्रकार हैं। 1. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार---एकद्रव्यविषयक अनेक पर्यायों का पृथक-पृथक विश्लेषणपूर्वक विस्तार से तथा पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्याथिक पर्यायाथिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्व-वितर्क-सविचार शुक्ल ध्यान है। यह ध्यान विचारमहित होता है। विचार का विशेषार्थ यहाँ है --अर्थ. व्यञ्जन (शब्द) और योगों में संक्रमण / इस ध्यान में शब्द से शब्द से शब्द में, अर्थ से अर्थ में एवं एक योग से दूसरे योग में संक्रमण होना / प्रायः यह ध्यानपूर्वधारी को होता है, किन्तु मरुदेवी माता के समान जो पूर्वधारी नहीं हैं, उन्हें भी प्रर्थ, व्यञ्जन और योगों में संक्रमणरूप यह शुक्लध्यान होता है। यह ध्यान तीनों योग वाले को होता है / 2. एकत्व-वितर्क-अविचार–पूर्वगत श्रुत का आधार लेकर उत्पाद आदि पर्यायों के एकत्व रूप से किसी एक पदार्थ या पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना एकत्व-वितर्क-विचार शुक्लध्यान है। यह विचार रहित (अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों के संक्रमण से रहित) होता है / जिस प्रकार एकान्त निर्वात स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस ध्यान में चिन निर्विचार एवं स्थिर रहता है / यह ध्यान किसी एक ही योग में होता है / Page #2710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 3. सूक्ष्मनिया-अनिवर्ती--मोक्षगमन से पूर्व केवली भगवान् मन और वचन इन दो योगों का तथा अदकाययोग का भी निरोध करते हैं। उस समय केवली के उच्छ्वास आदि कायिकी सूक्ष्मक्रिया ही रहती है / विशेष चढ़ते परिणाम रहने के कारण केवलज्ञानी भगवान् उससे पीछे नहीं हटते / यह नृतीय 'सूक्ष्म क्रिष-अनिवर्ती' शुक्लध्यान है / यह केवल काययोग में होता है। 4. समुच्छिन्नक्रिया-प्रप्रतिपाती-शैलेगी अवस्था को प्राप्त केवली भगवान् सभी योगों का निरोध कर देते हैं / योगों के निरोध से सभी क्रियाओं का अभाव हो जाता है। इस ध्यान में लेशमात्र भी क्रिया शेष नहीं रहती, इसलिए इसे समुच्छिन्नक्रिय-अप्रनिपाती शुक्लध्यान कहते हैं / यह ध्यान अयोगी अवस्था में ही होता है / शुक्लध्यान के चार लक्षणों का स्वरूप इस प्रकार है-प्रथम लक्षण क्षान्ति है अर्थात् क्रोध न करना और उदय में अाए हुए क्रोध को विफल कर देना, इस प्रकार क्रोध का त्याग करना क्षमा (क्षान्ति) है। दूसरा लक्षण मुक्ति लोभ का त्याग है। उदय में पाए हुए लोभ को विफल कर देना मुक्ति है / तोसरा लक्षण है-पार्जव (सरलता)। माया को उदय में नहीं आने देना एवं उदय में आई हुई माया को विफल कर देना आर्जव है। चौथा लक्षण है—मार्दव (कोमलता)। मान न करना, उदय में लाए हुए मान को निष्फल कर देना, मान का त्याग करना मार्दव है / / शुक्लध्यान के चार अवलम्बन-(१) अव्यय-शुक्लध्यानी परिषहों और उपसर्गों से डर कर ध्यान से विचलित नहीं होता। (2) असम्मोहशुक्लध्यानी को देवादिकृत माया में अथवा अत्यन्त गहन सूक्ष्म विषयों में सम्मोह नहीं होता। (2) विवेक-शुक्लध्यानी शरीर से प्रात्मा को भिन्न तथा शरीर-सम्बन्धित सभो संयोगों को प्रात्मा से भित्र समझना है / (4) व्युत्सर्ग-वह अनासक्तभाव से देह और सभी संयोगों को प्रात्मा से भिन्न समझता है / शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ—(१) अनन्ततितानु प्रेक्षा-अनन्त-भवपरम्परा का अनुप्रेक्षण (अनुचिन्तन) करना। जैसे यह जीव अनादिकाल से संसाररूपी अटवी में परिभ्रमण कर रहा है / इस संसाररूपी महासागर से पार होना अत्यन्त दुष्कर हो रहा है। यह जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव भवों में एक के बाद दूसरे में सतत अविरत परिभ्रमण कर रहा है। इस प्रकार की भावना से शुक्लध्यानी संसार से शीघ्र छूटने का तीव्रता से उपाय करता है। (2) विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुओं के विपरिणमन पर विचार करना / जैसे सभी स्थान अशाश्वत हैं, परिणमित होते रहते हैं। मनुष्यलोक एवं देवलोक के स्थान तथा यहाँ और वहाँ की ऋद्धियाँ एवं सुखभोग सभी अस्थायी हैं / इस प्रकार की भावना विपरिणामानुप्रेक्षा है। (3) अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ-स्वरूप या देह के घिनौने रूप पर विचार करना / जैसे धिक्कार है इस संसार को, जिसमें सून्दर रूपवान अभिमानी मानव मर कर अपने ही मृत देह में कृमिरूप में पैदा हो जाता है। यह शरीर कितना अशुचि से भरा है, जिस पर अभिमान करके मनुष्य नाना पापकर्म करता है, इत्यादि भावना करना अशुभानुप्रेक्षा है। (4) अपायानुप्रेक्षा--जीव जिन कारणों से दुःखी होता है, उन अपायों का चिन्तन करना / जैसे-वश में नहीं किये हुए क्रोध और मान तथा वृद्धिंगत माया और लोभ संसार के मूल को सींचने Page #2711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7] और बढ़ाने वाले हैं। इन्हीं से जीव विविध प्रकार के दुःख भोगता है, इत्यादि पाश्रवों से होने वाले अपायों का चिन्तन करना, 'अपायानुप्रेक्षा' है / ध्यान के भेद तथा प्रशस्त-अप्रशस्त-विवेक इस प्रकार चारों ध्यानों के कुल मिलाकर 48 भेद होते हैं। आर्तध्यान के 8, रौद्रध्यान के 8, धर्मध्यान के 16 और शुक्लध्यान के 16, यो कुल मिलाकर 48 भेद हुए। चारों ध्यानों में धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त हैं, शुभ हैं, निर्जरा के कारण हैं तथा प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं अशुभ हैं, कर्मबन्ध अोर संसार की वृद्धि के कारण हैं, अतः त्याज्य हैं। तप के प्रकरण में दो अप्रशस्त ध्यानों का वर्णन करने का कारण यह है कि प्रशस्त ध्यानों का आसेवन करने से और अप्रशस्त ध्यानों को छोड़ने से तप होता है। इसलिए त्याज्य होते हए भी वर्णन किया गया है। व्युत्सर्ग के भेद-प्रभेदों का निरूपण 250. से कि तं विप्रोसागे? विओसग्गे दुविधे पन्नत्ते, तं जहा-दवविप्रोसग्गे य भावविओसग्गे य / [250 प्र.] (भंते ! ) व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [250 उ. (गौतम ! ) व्युत्सर्ग दो प्रकार का है / यथा-द्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग / 251. से कि तं दव्वविप्रोसम्गे? दव्वविप्रोसग्गे चउम्विधे पन्नत्ते, तं जहा -गणविप्रोसग्गे सरीरविप्रोसग्गे उवधिविप्रोसग्गे भत्त-पाणविप्रोसग्गे / से तं दवविभोसग्गे। [251 प्र.] (भगवन् ! ) द्रव्य व्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [251 उ. (गौतम !) द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा है / यथा—गणव्युत्सर्ग, शरीरव्युत्सर्ग, उपधिव्युत्सर्ग और भक्तपानव्युत्सर्ग / यह द्रव्यव्युत्सर्ग का वर्णन हुआ। 252. से कि तं भावविभोसणे? भावविभोसग्गे तिविहे पन्नते, तं जहा-फसायविओसगे संसारविओसग्गे कम्मविप्रोसग्गे। [252 प्र.] (भगवन् ! ) भावव्युत्सर्ग कितने प्रकार का कहा है ? 252 उ. (गौतम ! ) भावव्युत्सर्ग तीन प्रकार का कहा गया है / यथा---(१) कषायव्युत्सर्ग, (2) संसारव्युत्सर्ग और (3) कर्मव्युत्सर्ग। 253. से कितं कसायविप्रोसग्गे? कसायविओसग्गे चउविधे पन्नत्ते, तं जहा-कोहविप्रोसग्गे माणविओसग्गे मायाविनोसम्गे लोभविप्रोसग्गे / से तं कसायविनोसग्गे / 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3520 से 3531 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 16, . 475 से 490 Page #2712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [253 प्र.] (भगवन् ! ) कषायव्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [253 3.] (गौतम ! ) कषायव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा गया है। यथा-क्रोधव्युत्सर्ग, मानव्युत्सर्ग, मायाव्युत्सर्ग और लोभव्युत्सर्ग / यह है कषायव्युत्सर्ग का वर्णन / 254. से किं तं संसारविप्रोसग्गे ? संसारविओसग्गे चउम्विधे पन्नत्ते, तं जहा--नेरइयसंसारविश्रोसग्गे जाव देवसंसारविप्रोसग्गे / से तं संसारवियोसगे। [254 प्र.] (भगवन् ! ) संसारव्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [254 उ.] (गौतम !) संसारव्युत्सर्ग चार प्रकार का कहा है। यथा-नैरयिकसंसार. व्युत्सर्ग यावत् देवसंसारव्युत्सर्ग / यह हुआ संसारव्युत्सर्ग का वर्णन / 255. से कितं कम्मविभोसग्गे ? कम्मविश्नोसग्गे अट्टविधे पन्नत्ते, तं जहा--णाणावरणिज्जकम्मविनोसग्गे जाव अंतराइयकम्मविश्नोसग्गे / से तं कम्मविप्रोसग्गे / से तं भावविभोसग्गे / से तं अम्भितरए तवे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ॥पणवीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 25-7 // [255 प्र.] (भगवन् ! ) कर्मव्युत्सर्ग कितने प्रकार का है ? [255 उ. (गौतम ! ) कर्मव्युत्सर्ग पाठ प्रकार का कहा गया है / यथा-ज्ञानावरणीयकर्मव्युत्सर्ग यावत् अन्तरायकर्मव्युत्सर्ग / यह कर्मव्युत्सर्ग हुआ। साथ ही भावव्युत्सर्ग का वर्णन भी पूर्ण हुआ। इस प्रकार प्राभ्यन्तर तप का वर्णन पूर्ण हुआ। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामो यावत् विचरण करते हैं। विवेचन व्युत्सर्ग : स्वरूप और प्रकार किसी वस्तु पर से ममत्व का त्याग करना अथवा परभावों या विभावों का त्याग करना भी व्युत्सर्ग है। सामान्यतया व्युत्सर्ग दो प्रकार का हैद्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग / द्रव्यव्युत्सर्ग के चार भेदों का स्वरूप इस प्रकार है (1) शरीरव्युत्सर्ग-ममत्व रहित होकर शरीर का त्याग करना अथवा शरीर पर आसक्ति या मूर्छा को त्यागना। (2) गणव्युत्सर्ग-अपने गण का त्याग करके 'जिनकल्प' अवस्था स्वीकार करना। (3) उपधिव्युत्सर्ग-किसी कल्पविशेष में उपधि (भण्डोपकरण) का भी त्याग करना / (4) भक्तपानव्युत्सर्ग-सदोष आहारपानी का या यावज्जीव अनशन करके चतुविध आहार का त्याग करना। ... भावव्युत्सर्ग के तीन भेदों का स्वरूप इस प्रकार है Page #2713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 7) [515 (1) कषायव्युत्सर्ग-क्रोधादि कषायों का त्याग करना / (2) संसारव्युत्सर्ग-नरकादि-आयुबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व आदि का त्याग करना / (3) कर्मन्युसर्ग-कर्मबन्ध के कारणों का त्याग करना। कहीं-कहीं भावव्युत्सर्ग के चार भेद बताए हैं। वहाँ चौथा भेद बताया है-योगव्युत्सर्ग / योगव्युत्सर्ग के मनोयोगव्युत्सर्ग, वचनयोगव्युत्सर्ग और काययोगव्युत्सर्ग, ये तीन भेद हैं।' प्राभ्यन्तर तप का प्रभाव-मोक्षप्राप्ति का अन्तरंग कारण आभ्यन्तर तप है। अन्तर्दष्टि आत्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक ही पाभ्यन्तर तप को अपनाता है और वही इन्हें तयरूप से श्रद्धापूर्वक मानता है / इस तप का प्रभाव बाह्य शरीर पर नहीं पड़ता, किन्तु अन्तरंग राग-द्वेष, कषाय आदि पर पड़ता है। ॥पच्चीसवाँ शतक : सप्तम उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 927 . (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3533-34 2. वही भा. 7, पृ. 3534 Page #2714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'ओहे' अष्टम उद्देशक : 'प्रोध' चौबीस दण्डकवर्ती जीवों को उत्पत्ति का विविध पहलुत्रों से निरूपण 1. रायगिहे जाव एवं बयासी--- [1] राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा--- 2. नेरतिया णं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहाणामए पवए पवमाणे अज्झवसानिव्वत्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं ठाणं विप्पजहिता पुरिमं ठाणं उपसंपज्जित्ताणं विहरति, एवामेव ते वि जीवा पवओ विव पवमाणा प्रझवसाणनिव्वत्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं भवं विप्पजहित्ता पुरिमं भवं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति / [2 प्र.] भगवन् ! नरयिक जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? [2 उ. गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ अध्यवसायनिर्वतित (निष्पन्न) क्रियासाधन द्वारा उस स्थान को छोड़ कर भविष्यत्काल में अगले स्थान को प्राप्त होता है, वैसे ही जीव भी कूदने वाले की तरह कूदते हुए अध्यवसायनिर्वतित क्रियासाधन द्वारा अर्थात् कमों द्वारा उस (पूर्व) भव को छोड़ कर भविष्यकाल में उत्पन्न होने योग्य (आगामी) भव को प्राप्त होकर उत्पन्न होते हैं। 3. तेसि णं भंते ! जीवाणं कह सोहा गती ? कहं सोहे गतिविसए पन्नते ? गोयमा ! से जहानामए केई पुरिसे तरुणे बलवं एवं जहा चोदसमसए पढमुद्देसए (स० 14 उ०१ सु०६) जाव तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति। तेसि णं जीवाणं तहा सीहा गती, तहा सोहे गतिविसए पन्नते। [3 प्र.] भगवन् ! उन (नारक) जीवों की शीघ्रगति और शीघ्रगति का विषय कैसा होता है ? [3 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष तरुण और बलवान् हो, इत्यादि चौदहवें शतक के पहले उद्देशक [के सू. 6] के अनुसार यावत् तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं। उन जीवों की वैसी शीघ्र गति और वैसा शीघ्रगति का विषय होता है। 4. ते णं भंते ! जीवा कहं परभवियाउयं पकरेंति ? गोयमा ! अज्भवसाणजोगनिम्नत्तिएणं करणोवाएणं एवं खलु ते जीवा परभवियाउयं पकरति / Page #2715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 8] [57 [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव परभव की आयु किस प्रकार बांधते हैं ? [4 उ.] गौतम ! वे जीव अपने अध्यवसाय योग (अध्यवसायरूप मन आदि के व्यापार) से निष्पन्न करणोपाय (कर्मबन्ध के हेतु) द्वारा परभव की आयु बांधते हैं। 5. तेसि णं भंते ! जीवाणं कहं गती पवत्तइ ? गोयमा ! आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं; एवं खलु तेसि जीवाणं गती पवत्तति / [5 प्र.] भगवन् ! उन जीवों की गति किस कारण से प्रवृत्त होती है ? / [5 उ.] गौतम! उन जीवों की आयु के क्षय होने से, भव का क्षय होने से और स्थिति का क्षय होने से उनकी गति प्रवृत्त होती है। 6. ते णं भंते ! जीवा कि प्रातिडीए उववज्जंति, परिड्ढीए उववज्जति ? गोयमा ! प्रातिड्ढीए उववज्जंति, नो परिड्ढीए उववज्जति / [6 प्र.] भगवन् ! वे जीव आत्म-ऋद्धि (अपनी शक्ति) से उत्पन्न होते हैं या पर की ऋद्धि (दूसरों की शक्ति ) से? [6 उ.] गौतम ! वे जीव आत्म-ऋद्धि से उत्पन्न होते हैं, पर-ऋद्धि से नहीं। 7. ते गं भंते ! जीवा कि प्रायकम्मुणा उववज्जंति, परकम्मुणा उववज्जति ? गोयमा ! आयकम्मुणा उववज्जति नो परकम्मुणा उववज्जति / / 7 प्र.] भगवन् ! वे जीव अपने कर्मों से उत्पन्न होते हैं या दूसरों के कर्मों से ? [7 उ.] गौतम ! वे जीव अपने कर्मो से उत्पन्न होते हैं, दूसरों के कर्मों से नहीं। 8. ते णं भंते ! जीवा कि प्रायप्पयोगणं उववज्जति, परप्पयोगेणं उववज्जति ? गोयमा ! प्रायप्पयोगणं उववज्जंति, नो परप्पयोगेणं उववज्जति / [8 प्र.] भगवन् ! वे जीव अपने प्रयोग से उत्पन्न होते हैं या परप्रयोग से ? [8 उ.] गौतम ! वे अपने प्रयोग (व्यापार) से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं / 6. असुरकुमारा णं भंते ! कहं उवबज्जति ? जहा नेरतिया तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति / [9 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार कैसे उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [6 उ.] गौतम ! जिस प्रकार नैरयिकों (के उत्पन्न होने पादि) का कहा, उसी प्रकार यहाँ यावत् 'यात्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं', यहाँ तक कहना चाहिए / 10. एवं एगिदियवज्जा जाय वेमाणिया। एंगिदिया एवं चेव, नवरं चउसमइनो विगहो। सेसं संवेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // पंचवीसहमे सए : अट्ठमो उद्देसमो समतो // 25-8 // Page #2716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518] | ঘামাসঙ্গি 10] इसी प्रकार एकेन्द्रिय से अतिरिक्त, यावत् वैमानिक तक, (सभी जीवों के विषय में जानना)। एकेन्द्रियों के विषय में भी उसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि उनकी विग्रहगति उत्कृष्ट चार समय की होती है / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-पाठवें उद्देशक में 10 सूत्रों द्वारा चौवीस दण्डकगत जीवों की उत्पत्ति, शीघ्रगति, गति का विषय, परभवायुष्यबन्ध, गति का कारण, प्रात्मकर्म एवं प्रात्मप्रयोग से उत्पत्ति आदि की प्ररूपणा की गई है। प्रतिदेश--जीवों की उत्पत्ति, शीघ्र गति एवं शीघ्र गति के विषय में श. 14, उ. 1, सू. 6 में विस्तृत विवेचन है, तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिए।' कठिन शब्दार्थ सेयकाले भविष्यकाल में / करणोवाएणं-क्रियाविशेषरूप उपाय अथवा कर्मरूपसाधन (हेतु) द्वारा पुरिमं भवं--प्राप्तव्य भव / पथए-प्लवक-कूदने वाला। पवमाणेकूदता हुआ। // पच्चीसवां शतक : आठवा उद्देशक सम्पूर्ण / 20 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 928 (ख) वियाहपण्णत्तिसुत्तं भाः 2, पृ. 1069 - Page #2717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : भविए नौवां उद्देशक : भव्यों की उत्पत्ति चौवीस दण्डकगत भव्य जीवों की उत्पत्ति का प्रतिदेशपूर्वक निरूपण 1. भवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उवयजति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे०, प्रवसेसं तं चेव जाव माहिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। // पंचवीसइमे सते : नवमो उद्देसनो समत्तो / / 25-6 // [1 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ ..... इत्यादि अवशिष्ट (समस्त वर्णन) पूर्ववत् यावत वैमानिक पर्यन्त (कहना चाहिए)। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // पच्चीसवां शतक : नौवा उद्देशक समाप्त // Page #2718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : 'अभविए' दसवाँ उद्देशक : प्रभव्य जीवों की उत्पत्ति चौवीस दण्डकगत प्रभव्य जीवों को उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपण 1. प्रभवसिद्धियनेरइया णं भंते ! कहं उववज्जंति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे०, अयसेसं तं चेक जाच येमाणिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥पंचवीसइमे सते : दसमो उद्देसनो समत्तो // 25-10 // [1 प्र.] भगवन् ! प्रभवसिद्धिक (अभव्य) नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि [1 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने बाला पुरुष कूदता हुआ, इत्यादि अवशिष्ट (समस्त वर्णन) पूर्ववत् यावत् वैमानिक पर्यन्त (कहना चाहिए)। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // पच्चीसवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त / / Page #2719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमो उद्देसओ : 'सम्म' ग्यारहवाँ उद्देशक : सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति चौवीस दण्डकगत सम्यग्दष्टि जीवों की उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपण 1. सम्मदिट्टिनेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! जहानामए पवए पवमाणे०, अवसेसं तं चेव / 2. एगिदियवज्जं जाव बेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // पंचवीसइमे सले : एगारसमो उद्देसनो समत्तो / / 25-11 // [1-2 प्र. भगवन् ! सम्यग्दष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ ... इत्यादि, अवशिष्ट (सबवर्णन) एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // पच्चीसवां शतक : ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // Page #2720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमो उद्देसओ : 'मिच्छे बारहवां उद्देशक : मिथ्याष्टि की उत्पत्ति चौवीस दण्डकगत मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति का अतिदेशपूर्वक निरूपरण 1. मिच्छदिद्विनेरइया णं भंते ! कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पबमाणे०, अबसेसं तं चेव / [1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादृष्टि नैरयिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला पुरुष कूदता हुआ इत्यादि अवशिष्ट (सब वर्णन) पूर्ववत् जानना। 2. एवं जाव वेमाणिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥पंचवीसहमे सते : बारसमो उद्देसनो समत्तो // 25-12 // // पंचवीसतिमं सतं समतं // [2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पूर्वोक्त चारों उद्देशकों (9-10-11-12) का वर्णन प्राय: समान है, किन्तु भव्य , अभव्य, सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि इन चार विशेषणों से युक्त चौवीस दण्डकों की उत्पत्ति के विषय में आठवें उद्देशक में वर्णित समस्त वर्णन का अतिदेश किया है। सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति में एकेन्द्रिय को छोड़ कर कहा गया है, वह इसलिए कि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं / / / पच्चीसवां शतक : बारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / // पच्चीसवाँ शतक समाप्त / Page #2721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्वीसइमाइ-एगणतीसइमाइं चउ-सयाई छव्वीसवें से उनतीसवें तक चार शतक [प्राथमिक] * भगवतीसूत्र के छठवीसवें से लेकर उनतीसवें तक चार शतकों का प्रतिपाद्य विषय प्रायः समान होने से चारों का प्राथमिक एक साथ दिया जा रहा है / * इन शतकों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं--- १–बंधिसय (छबीसवां शतक), २-करिसुसयं (सत्ताईसवां शतक), ३-कम्म-समज्जण-सयं (अट्ठाईसवाँ शतक), ४-कम्म-पट्टवण-सयं (उनतीसवां शतक)। * इनके प्रतिपाद्य विषय ही इनके अर्थ को सूचित करते हैं--(१) बंधीशतक में कालिक पापकर्म बन्ध और ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्मबन्ध का, जीव आदि ग्यारह स्थानों (द्वारों) के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में प्ररूपण है। (2) 'करिसुशतक' में भी त्रैकालिक पापकर्म (क्रिया), करण और ज्ञानावरणीयादि कर्मकरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है / (3) कर्मसमर्जनशतक में त्रैकालिक पापकर्म, अष्टविध कर्मों के समर्जन एवं समाचरण का पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों के माध्यम से ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है। (4) कर्मप्रस्थापनशतक में जीव और चौवीस दण्डकों में सम-विषमकाल की अपेक्षा पापकर्म एवं अष्टविधकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का ग्यारह उद्देशकों में निरूपण है / * चारों शतकों में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा चार भंगों के रूप में हुई है। * ग्यारह स्थान (द्वार) इस प्रकार हैं-(१) जीव, (2) लेश्या, (3) पाक्षिक (शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक), (4) दृष्टि, (5) अज्ञान, (6) ज्ञान, (7) संज्ञा, (8) वेद, (6) कषाय, (10) योग और (11) उपयोग / प्रत्येक शतक में ये ग्यारह उद्देशक हैं। * छन्वीसवे शतक के प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव तथा लेश्यादि-विशिष्ट जीव के कालिक पापकर्मबन्ध का तथा सामान्य नारक आदि तथा लेश्यादिविशिष्ट नारक आदि का अष्टविध कर्मबन्ध का चार भंगों के रूप में निरूपण है / * दूसरे उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक नरयिक आदि में पूर्ववत् ग्यारह स्थानों के माध्यम से पापकर्म बन्ध व कर्मबन्ध की चतुर्भगी की प्ररूपणा है / तीसरे उद्देशक में परम्परोपपत्रक ने रयिकादि में चतुर्भगी की प्ररूपणा है। For Private Personal Use Only Page #2722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524] व्याण्याप्रज्ञप्तिसून चतुर्थ उद्देशक में अनन्तरावगाढ नैरयिकादि में, पंचम उद्देशक में परम्परावगाढ नैरथिकादि में, छठे उद्देशक में अनन्तराहारक नैरयिकादि में, सातवें उद्देशक में परम्पराहारक नैरयिकादि में, पाठवें उद्देशक में अनन्तरपर्याप्तक नैरयिकादि में, नौवें उद्देशक में परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि में, दसवें उद्देशक में चरम नैरयिकादि में, और ग्यारहवें उद्देशक में अचरम नैरथिकादि में पूर्ववत् ग्यारह स्थानों के माध्यम से पापकर्म एवं अष्टविधकर्म के बन्ध की चतुर्भगी के रूप में प्ररूपणा है / * इन्हीं ग्यारह स्थानों के माध्यम से 27 वें शतक के ग्यारह उद्देशकों में त्रैकालिक पापकमकरण की चतुर्भगी के रूप में प्ररूपणा है। * अट्ठाईसवें शतक के प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव (एक और अनेक) तथा नैयिक से वैमानिक गति-योनि तक में नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में से पापकर्म एवं अष्टकर्म का समर्जन और समार्जन एवं समाचरण किया था, यह वर्णन है। * द्वितीय उद्देशक में इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादि में पापकर्म एवं अष्टविधकर्म के समर्जन एवं समाचरण का लेखाजोखा चतुर्विध भंगों के रूप में है। * तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक में पूर्ववत् अचरम तक के ग्यारह स्थानों के माध्यम से निरूपण है / * उनतीसवाँ कर्म-प्रस्थापन शतक है, जिसका अर्थ होता है पापकर्म या अष्टविधकर्म के वेदन का सम-विषमरूप से प्रारम्भ तथा अन्त / इसका प्ररूपण पूर्ववत् ग्यारह उद्देशकों में है। * कुल मिलाकर चारों शतकों में कर्मबन्ध से लेकर कर्मफलभोग तक का विविध विशिष्ट जीवों सम्बन्धी प्ररूपण है। कर्मसिद्धान्त का इतनी सूक्ष्मता से विविध पहलुओं से सांगोपांग प्ररूपण किया गया है कि अल्पशिक्षित व्यक्ति भी इतना तो स्पष्टता से समझ सकता है कि जीव विभिन्न गतियों, योनियों तथा लेश्या आदि से युक्त होकर स्वयमेव कर्म करता है, स्वयं ही शुभाशुभ कर्मबन्ध करता है, स्वयं ही उन शुभाशुभकृत कमों का फल भोगता है। कोई जीव किसी रूप में तो कोई किसी रूप में फलभोग देर या सवेर से करता है, ईश्वर, देवी, देव या कोई अन्य व्यक्ति न तो उसके बदले में शुभ या अशुभ कर्म कर सकता है, न ही कर्मों का बन्ध कर सकता है और न ही एक के बदले दूसरा कर्मफलभोग कर सकता है और न ही अपना शुभ फल या अशुभ फल दूसरे को दे सकता है। कुछ लोगों की यह मान्यता थी / है कि ईश्वर या कोई अन्य शक्ति किसी के आयुष्य को बढ़ाने-घटाने में समर्थ है, अल्पायु को अधिक प्रायु दी जा सकती है, अथवा आयुष्य की अदलाबदली हो सकती है, परन्तु जैनशास्त्रों में प्रतिपादित इस प्रकाटय सिद्धान्त से इस बात का खण्डन हो जाता है / * इन चारों शतकों से यह तथ्य भी प्रकट होता है कि अगर किसी जोव के कर्म निकाचितरूप से न बंधे हों और पापकर्म या अशुभकर्म का वेदन समभाव से करे तो वह स्वयं के अशुभ या पाप Page #2723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवें से उनतीसवें शतक : प्राथमिक] [525 कर्म को शुभ या पुण्यकर्म में परिणत कर सकता है / समिति, गुप्ति, व्रताचरण, तपश्चर्या आदि द्वारा शुभ या अशुभ कर्मों को क्षीण कर सकता है। चतुर्भगी बताने का एक उद्देश्य यह भी प्रतीत होता है कि कोई सम्यग्दृष्टि साधक चाहे तो तृतीय या चतुर्थ भंग का (मोक्ष का) अधिकारी भी हो सकता है तथा अशुभ या पापकर्म करे तो नरकगति या तिर्यंचगति का पथिक भी हो सकता है। * अट्ठाईसवें शतक के प्रथम उद्देशक के वर्णन से यह भी फलित होता है कि जीव ने पापकर्म का समर्जन या आचरण एक गति में अज्ञानवश कर लिया हो तो दूसरी शुभगति में उत्पन्न होकर और विवेकपूर्वक कृत पापाचरण की शुद्धि करना चाहे तो कर सकता है। * इन चारों शतकों की मुख्य प्रेरणा का स्वर यही है कि जीव को अपनी प्रात्मा की विशुद्धि एवं पवित्रता के लिए कर्मबन्ध, चाहे किसी भी रूप में हो, स्वयमेव समभाव से भोग कर छुटकारा पा लेना चाहिए। * ग्यारह स्थानों में से कई स्थान, (यथा-लेश्या, योग, अज्ञान, कषाय, वेद, संज्ञा, मिथ्यादष्टि आदि) ऐसे हैं जो कर्मबन्ध के साक्षात् या परम्परा से कारण हैं, उन पर मनन-पालोचन करके उनको त्यागने का प्रयत्न करना चाहिए और अलेश्यत्व, अकषायत्व, अयोगित्व, अवेदकत्व, असंज्ञित्व प्रादि प्राप्त करके आत्मा को निज-शुद्धस्वरूप में रमण कराने का प्रयत्न करना चाहिए। * कुल मिला कर ये चारों शतक एक दूसरे से सापेक्ष हैं, प्रात्मशुद्धि के प्रेरक हैं, जीवन की उच्चता-आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त कराने में मार्गद Page #2724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छव्वीस इमं सयं : बंधिसय छन्वीसवां शतक : बन्धीशतक छन्वीसवे शतक का मंगलाचरण 1. नमो सुयदेवयाए भगवतीए / 11] भगवती श्रुतदेवता को नमस्कार हो / विवेचन--मध्य-मंगलाचरण-भगवतीसूत्र का यह मध्य-मंगलाचरण-सूत्र है, जिसमें भगवती श्रुतदेवता (दूसरे शब्दों में जिनवाणो) को नमस्कार किया गया है, ताकि यह महाशास्त्र निर्विघ्न परिपूर्ण हो / छब्बीसवें शतक के ग्यारह-उद्देशकों में ग्यारह द्वारों का निरूपण 1. जीवा 1 य लेस 2 पक्खिय 3 दिट्ठी 4 अन्नाण 5 नाण 6 सप्तामो 7 // वेय 8 कसाए 6 उपयोग 10 योग 11 एक्कारस दि ठाणा // 1 // [2 गाथार्थ] इस शतक में ग्यारह उद्देशक हैं और (इसके प्रत्येक उद्देशक में) (1) जीव, (2) लेश्याएँ, (3) पाक्षिक (शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक), (4) दृष्टि, (5) अज्ञान, (6) ज्ञान, (7) संज्ञाएँ, (8) वेद, (6) कषाय, (10) उपयोग और (11) योग, ये ग्यारह स्थान (विषय) हैं, जिनको लेकर बन्ध की वक्तव्यता कही जाएगी। विवेचन-ग्यारह स्थान ही ग्यारह द्वार-(१) प्रथम : जीवद्वार, (2) द्वितीय : लेण्याद्वार, (3) तृतीय : शुक्लपाक्षिक और कृष्णपाक्षिक द्वार, (4) चौथा : दृष्टिद्वार, (5) पंचम : अज्ञानविषयकद्वार, (6) छठा : ज्ञानद्वार, (7) सप्तम : संज्ञाद्वार, (8) अष्टम : स्त्री-पुरुष आदि वेदविषयकद्वार, (9) नौवाँ : कषायद्वार, (10) दसवाँ : उपयोगद्वार तथा (11) ग्यारहवां : योगद्वार / प्रस्तुत शतक के 11 उद्देशकों में से प्रत्येक उद्देशक में इन म्यारह स्थानों, अर्थात् द्वारों से बन्ध-सम्बन्धी वक्तव्यता कही गई है।' 1. भगवती सूत्र प्रमेयचन्द्रिकाटीका, भा. 16, पृ. 517-18 Page #2725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमो उद्देसओ : 'जीवादि-बंध' __ प्रथम उद्देशक : जीवादि के बन्धसम्बन्धी प्रथम स्थान : जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपरण 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं बयासी-- [3] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा--- 4. जीवे णं भंते ! पावं कम्मं कि बंधी, बंधति, बंधिस्सति; बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, बंधिस्सति; बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति ? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; अत्यंगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सइ प्रत्यंगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [4 प्र.] भगवन् ! (1) क्या जीव ने (भूतकाल में) पापकर्म बांधा था, (वर्तमान में) बांधता है और (भविष्य में) बांधेगा? (2) (अथवा क्या जीव ने पापकर्म) बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा ? (3) (या जीव ने पापकर्म) बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा? (4) अथवा बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा ? [4 उ.] गौतम ! (1) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा / (2) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है, किन्तु मागे नहीं बांधेगा। (3) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है, किन्तु पागे बांधेगा / (4) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, अभी नहीं बांधता है आगे भी नहीं बांधेगा। विवेचन-जीव के पापकर्मबन्धसम्बन्धी चतुर्भगी-(१) इन चार भंगों में से प्रथम भंग'पापकर्म बांधा था, बांधता है, बांधेगा', -अभव्य जीव की अपेक्षा से है। (2) 'बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा' यह द्वित्तीय भंग क्षपक-अवस्था को प्राप्त होने वाले भव्य जीव की अपेक्षा से है। (3) 'बांधा था, नहीं बांधता है, किन्तु आगे बांधेगा'; यह तृतीय भंग जिस जीव ने मोहनीय कर्म का उपशम किया है, उस भव्य जीव की अपेक्षा से है और (4) 'बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा; यह चतुर्थ भंग क्षीण-मोहनीय जीव की अपेक्षा से है। शंका-समाधान-कोई यह शंका करे कि जिस प्रकार 'बांधा था' के चार भंग बनते हैं, उसी प्रकार 'नहीं बांधा था' के भी चार भंग क्यों नहीं बन सकते ? इसका समाधान यह है कि कोई भी जीव ऐसा नहीं है जिसने भूतकाल में पापकर्म नहीं बांधा था। इसलिए नहीं बांधा था' ऐसा मूल भंग ही नहीं बनता तो फिर चार भंग बनने का तो प्रश्न ही नहीं है / ' 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3549 Page #2726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र द्वितीय-स्थान : सलेश्य-अलेश्य जीवों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-निरूपण __5. सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्म कि बंधी, बंधिस्सति; बंधी, बंधति, न बंधिस्सति० पुच्छा / गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति ; प्रत्यैगतिए०, चउभंगो। [5 प्र.] भगवन् ! सलेश्य जीव ने क्या पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? अथवा बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा? इत्यादि चारों प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! किसी लेश्या वाले जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा; इत्यादि चारों भंग जानने चाहिए / 6. काहलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं कि बंधी०, पुच्छा। गोयमा ! अस्थगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति ; प्रत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति / [6 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्यी जीव पहले पापकर्म बांधता था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि चारों प्रश्न / [6 उ.] गौतम ! कोई (कृष्णलेश्यी जीव) पापकर्म बांधता था, बांधता है और बांधेगा; तथा कोई (कृष्णले श्यी) जीव (पापकर्म) बांधता था, बांधता है, किन्तु आगे नहीं बांधेगा। 7. एवं जाव पम्हलेस्से / सम्वत्थ पढम-बितिया भंगा। [7] इसी प्रकार (नीललेश्यी से लेकर) यावत् पद्मलेश्या वाले जीव तक समझना चाहिए। सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग जानना / / 8. सुक्कलेस्से जहा सलेस्से तहेव चउभंगो। [8] शुक्ललेश्यी के सम्बन्ध में सलेश्यजीव के समान चारों भंग कहने चाहिए। 9. अलेस्से णं भंते जीवे पावं कम्म कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [9 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव ने क्या पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [9 उ.] गौतम ! उस जीव ने पूर्व में पापकर्म बांधा था, किन्तु वर्तमान में नहीं बांधता और बांधेगा भी नहीं। विवेचन--स्पष्टीकरण–सलेश्य, कृष्णादिलेश्यायुक्त और अलेश्य इन तीनों प्रकार के जीवों के सम्बन्ध में कालिक पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी वक्तव्यता इस द्वार में है। सलेश्यी जीव में चारों भंग पाए जाते हैं, क्योंकि शुक्ललेश्यी जीव भी पापकर्म का बन्धक होता है / कृष्णादि पांच लेश्या वाले जीवों में पहला और दूसरा, ये दो भंग ही पाए जाते हैं, क्योंकि उन जीवों के वर्तमानकाल में मोहनीयरूप पापकर्म का क्षय या उपशम नहीं है, इसलिए Page #2727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] [529 अन्तिम दो (तीसरा, चौथा) भंग उनमें नहीं पाया जाता। कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवों में दूसरा भंग (बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा) इसलिए सम्भव है कि कालान्तर में क्षपकदशा प्राप्त होने पर वह नहीं बांधेगा / अलेश्यी जोब में सिर्फ एक चौथा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि जीव अयोगीकेवली-अवस्था में अयोगी होता है तथा लेश्या के अभाव में (अलेश्यी) जीव प्रबन्धक (पुण्य-पापकर्म का बन्ध न करने वाला) होता है / ' तृतीय स्थान : कृष्ण-शुक्लपाक्षिक को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा 10. कण्हपक्खिए णं भंते ! जीवे पावं कम्म० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी०, पढम-बितिया भंगा। [10 प्र. भगवन् ! क्या कृष्णपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि प्रश्न / [10 उ.] गौतम ! किसी जीव ने पापकर्म बंधा था; इत्यादि पहला और दूसरा भंग (इस विषय में जानना चाहिए। 11. सुक्कपक्खिए णं भंते ! जोवे० पुच्छा। गोयमा ! चउभंगो भाणियम्वो। [11 प्र] भगवन् ! क्या शुक्लपाक्षिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि प्रश्न / [11 उ.] गौतम ! (इस विषय में) चारों ही भंग जानने चाहिए। विवेचन-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक को परिभाषा जिन जीवों का संसार-परिभ्रमणकाल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन-काल से अधिक है, वे कृष्णपाक्षिक कहलाते हैं और जिन जीवों का संसार-परिभ्रमण-काल अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन-काल से अधिक नहीं है; जो अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन-काल के भीतर ही मोक्ष चले जाएँगे, वे शुक्लपाक्षिक कहलाते हैं। कृष्णपाक्षिक जीवों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग पाए जाते हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में उन जीवों में पापकर्म को प्रबन्धकता नहीं है, इसलिए भविष्यकाल में भी उनके बंध तो चाल रहेगा। प्रश्न होता है--कृष्णपाक्षिक जीवों में 'बांधेगे नहीं', यह अंश असम्भव प्रतीत होता है तथा शुक्ल नोवो में 'बांधगे नहीं इस अश का अवश्य सम्भव होने से बांधगे इस अश से यूक्त प्रथम भंग क्यों नहीं घटित होता? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि शुक्लपाक्षिक जीवों में प्रश्न-समय के अनन्तर (तुरन्त पश्चात्) समय की अपेक्षा प्रथम भंग है तथा कृष्णपाक्षिक जीवों में शेष समयों की अपेक्षा दूसरा भंग घटित होता है। इस दृष्टि से शुक्लपाक्षिक जीवों में चारों ही भंगों की सम्भावना बताई गई है। प्रथम भंग तो प्रश्न-समय के अनन्तर तात्कालिक (प्रासन) भविष्यत्काल की अपेक्षा घटित होता है / दूसरा भंग भविष्यकाल में क्षपक- अवस्था को प्राप्ति की अपेक्षा घटित होता है। तीसरा भंग उन शुक्लपाक्षिक 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3549 Page #2728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीवों में घटित होता है, जो मोहनीयकर्म का उपशम करके पीछे गिरने वाले हैं और चौथा भंग क्षपक-अवस्था की प्राप्ति की अपेक्षा घटित होता है / ' चतुर्थ स्थान : सम्यक-मिथ्या-मिश्रदृष्टि जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 12. सम्मट्ठिीणं चत्तारि भंगा। [12] सम्यग्दृष्टि जीवों में चारों भंग जानना चाहिए / 13. मिच्छादिट्ठीणं पढम-बितिया। [13] मिथ्यादृष्टि जीवों में पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए / 14. सम्मामिच्छट्टिोणं एवं चेव / [14] सम्यग्-मिथ्यादृष्टि जीवों में भी इसी प्रकार पहला और दूसरा दो भंग जानने चाहिए। विवेचन--सम्यादष्टि प्रादि जीवों में चतुभंगी प्ररूपणा-सम्यग्दृष्टि जीवों में शुक्लपाक्षिक के समान चारों ही भंग पाये जाते हैं। मिथ्यादष्टि और मिश्रष्टि जीवों में पहला और दूसरा, ये दो भंग पाये जाते हैं। उनके मोहनीय कर्म का बन्ध होने से अन्तिम दोनों भंग उनमें घटित नहीं होते / / पंचम स्थान : ज्ञानी जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 15. नाणीणं चत्तारि भंगा। [15] ज्ञानी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 16. प्राभिणिबोहियनाणीणं जाव मणपज्जवणाणोणं चत्तारि भंगा। [16] आभिनिबोधिक ज्ञानी से (लेकर) यावत् मनःपर्यवज्ञानी जोवों में भी चारों ही भंग जानने चाहिए। 17. केवलनाणोणं चरिमो भंगो जहा अलेस्साणं / [17] केवलज्ञानी जीवों में अन्तिम (चतुर्थ) एक भंग अलेश्य जीवों के समान पाया जाता है। विवेचन--ज्ञानी जीवों में चतुर्भगी प्ररूपणा-सामान्य ज्ञानी और ग्राभिनिबोधिक ज्ञानी से लेकर मनःपर्यवज्ञानी तक छद्मस्थ होने से मोहकर्मबन्ध होने के कारण पहले के दो भंग घटित होते हैं, शेष दो भंग भी शुक्लपाक्षिक जीवों के समान इनमें भी घटित होते हैं। 1. (क): भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 929 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3550 2. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 930 Page #2729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] केवलज्ञानी जीवों के वर्तमान में तथा भविष्य में पापकर्म का बन्ध न होने से उनमें एकमात्र चतुर्थ भंग ही होता है / ' छठा स्थान : अज्ञानी जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध निरूपण 18. अन्नाणीणं पढम-बितिया। [18] अज्ञानी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है / 16. एवं मतिअन्नाणोणं, सुयसन्नाणीणं, विभंगनाणीण वि। [16] इसी प्रकार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी में भी पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए। विवेचन -अज्ञानी जीवों में दो भंग ही क्यों ? अज्ञानी जीवों तथा मति-अज्ञानी आदि तीनों में प्रथम और द्वितीय ये दो भंग ही पाए जाते हैं, क्योंकि उनके मोहनीयकर्म का बन्ध होने से अन्तिम दो भंग घटित नहीं होते। सप्तम स्थान : पाहारादि संज्ञी को अपेक्षा पापकर्मबन्ध प्ररूपरणा 20. प्राहारसनोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोधउत्ताणं पढम-वितिया। [20] आहार-संज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रह-संज्ञोपयुक्त जीवों में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। 21. नोसण्णोव उत्ताणं चत्तारि। [21] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। विवेचन-आहारादि संज्ञा वाले जीवों में चतुभंगी-प्ररूपणा-पाहारादि चारों संज्ञाओं वाले जीवों में क्षपकत्व और उपशमकत्व नहीं होने से पहला और दूसरा दो भंग ही होते हैं। नोसंज्ञा अर्थात् साहारादि की आसक्ति से रहित जीवों के मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम सम्भव होने से उनमें चारों ही भंग पाये जाते हैं। अष्टम स्थान : सवेदक-अवेदक जीव को लेकर पापकर्मबन्ध प्ररूपणा 22. सवेयगाणं पढम-बितिया। एवं इत्थिवेयग-पुरिसवेयग-नपुंसगवेदगाण वि / 122] सवेदक जीवों में पहला और दूसरा भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी में भी प्रथम और द्वितीय भंग पाये जाते हैं। 23. अवेयगाणं चत्तारि / [23] अवेदक जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 3. भगवती. अ. पत्ति, पत्र 930 Page #2730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532] [व्याशाप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-सवेदी-अवेदो में चतुभंगी की चर्चा-जब तक वेदोदय रहता है, तब तक जीव मोहनीयकर्म का क्षय और उपशम नहीं कर सकता, इसलिए पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / अवेदी जीवों में स्ववेद उपशान्त हो, किन्तु सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान की प्राप्ति न हो, तब तक बे मोहनीयकर्म को बांधते हैं और बांधेगे अथवा वहाँ से गिर कर भी बांधेगे। वेद क्षीण हो जाने पर पापकर्म बांधता है, किन्त सक्ष्मसम्परायादि अवस्था में नहीं बांधता / उपशान्तवेदी जीव सूक्ष्मसम्परायादि अवस्था में पापकर्म नहीं बांधता, किन्तु वहाँ से गिरने के बाद वांधता है / वेद का क्षय हो जाने पर सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में पापकर्म नहीं बांधता और आगे भी नहीं बांधेगा।' नवम स्थान : सकषायी-अकषायी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपरणा 24. सकसाईणं चत्तारि। [24] सकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं / 25. कोहकसायीणं पढम-बितिया। [25] कोधकषायी जीवों में पहला और दूसरा भंग पाये जाते हैं / 26. एवं माणकसायिस्स वि, मायाकसायिस्स वि / [26] इसी प्रकार मानकषायी तथा मायाकषायी जीबों में भी ये दोनों भंग पाये जाते हैं। 27. लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा। [27] लोभकषायी जीवों में चारों भंग पाये जाते हैं। 28. अकसायी गं भंते ! नीचे पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्भेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / प्रत्येगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति। 28 प्र.] भगवन् ! क्या अकषायी जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि प्रश्न / [28 उ.] गौतम ! किसी प्रकषायी जीव ने (भूतकाल में पापकर्म) बांधा था, किन्तु अभी नहीं बांधता है, मगर भविष्य में बांधेगा तथा किसी जीव ने बांधा था, किन्तु अभी तक नहीं बांधता है और आगे भी नहीं बांधेगा / विवेचन-सकषायो-अकषायी जीवों में चतुर्भगो चर्चा सकषायी जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं। उनमें से प्रथम भंग अभव्यजीव की अपेक्षा से है। दूसरा भंग उस भव्य जीव की अपेक्षा से है, जिसका मोहनीयकर्म क्षय होने वाला है तथा उपशमक सूक्ष्मसम्पराय जीव की अपेक्षा से तीसरा भंग है और चौथा भंग क्षपक सूक्ष्मसम्परायी जीव की अपेक्षा से है। इसी प्रकार लोभकषायी जीवों के विषय में भी पूर्वोक्त अपेक्षा से इन चारों भंगों की संभावना समझनी चाहिए। क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीवों में पहला और दूसरा ये दो ही भंग पाये जाते हैं, 1. भगवती अ. वृत्ति, पत्र 930 Page #2731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] [533 पहला भंग अभव्य को अपेक्षा से है और दूसरा भंग भव्य विशेष की अपेक्षा से है। उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, क्योंकि क्रोधादि के उदय में प्रबन्धकता नहीं होती। अकषायी जीवों में तीसरा और चौथा, ये दो भंग पाए जाते हैं। तीसरा भंग उपशमक अकषायी में और चौथा भंग क्षपक अकषायी में पाया जाता है।' दसवां स्थान : सयोगी-अयोगी जीव को लेकर पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 26. सजोगिस्स चउभंगो। [29] सयोगी जीवों में चारों भंग घटित होते हैं / 30. एवं मणजोगिस्स वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि / [30] इसी प्रकार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव में चारों भंग पाये जाते हैं / 31. प्रजोगिस्स चरिमो। [31] अयोगी जीव में अन्तिम एक भंग पाया जाता है / विवेचन–सयोगी, त्रियोगी एवं अयोगी चातुर्भगिक चर्चा--सयोगी में भव्य, भव्य-विशेष, उपशमक और क्षपक की अपेक्षा क्रमश: चारों भंग पाये जाते हैं / अयोगी के वर्तमान में पापकर्म का बंध नहीं होता और न भविष्य में होगा, इस दृष्टि से उसमें एकमात्र चौथा भंग ही पाया जाता है। ग्यारहवां स्थान : साकार-अनाकारोपयुक्त जीव की अपेक्षा पापकर्मबन्ध-प्ररूपणा 32. सागारोवउत्ते चत्तारि / [32] साकारोपयुक्त जीव में चारों ही भंग पाये जाते हैं / 33. अणागारोवउत्ते वि चत्तारि भंगा। [33] अनाकारोपयुक्त जीव में भी उक्त चारों भंग होते हैं। विवेचन साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीवों में चतुर्भगी-इन दोनों प्रकार के उपयोग वाले जीवों में पूर्वोक्त चारों भंग पाये जाते हैं / इसका स्पष्टीकरण पूर्ववत् जानना चाहिए।' चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा पापकर्मबन्ध की चातुभंगिक-प्ररूपणा 34. नेरतिए णं भंते ! पावं कम्मं कि बंधो, बंधति, बंधिस्सति० ? गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० पढम-बितिया। [34 प्र.| भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि (चतुर्भुगोयुक्त प्रश्न !) |34 उ. गौतम ! किसी नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा, इस प्रकार पहला और (पूर्ववत्) दूसरा भंग जानना चाहिए। 1. भगवती. प्र. वत्ति, पत्र 930 2. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 930 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 930 Page #2732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञाप्तसूत्र 35. सलेस्से णं भंते ! नेरतिए पावं कम्म? एवं चेव। 135 प्र.) भगवन् ! क्या सलश्य नैरयिक जीव ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि चतुर्भगी. युक्त प्रश्न / [35 उ.] गौतम ! यहाँ भी पूर्ववत् पहला और दूसरा भंग जानना / 36. एवं कण्हलेस्से बि, नीललेस्से वि, काउलेस्से वि। [36] इसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले जीव में भी प्रथम और द्वितीय भंग पाया जाता है / ____37. एवं कण्हपक्खिए, सुक्कपक्खिए; सम्मट्टिी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी; नाणी, प्राभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, प्रोहिनाणी; अन्नाणी, मतिमन्नाणी, सुयअन्नाणी, विभंगनाणी; पाहारसन्नोवउत्ते जाव परिग्गहसन्नो वउत्ते; सवेयए, नपुसकवेयए; सकसायी जाव लोभकसायी; सजोगी, मणजोगी, वडजोगी, कायजोगी: सागरोवउत्ते अणागारोवउत्ते। एएस सन्वेस पढ़मवितिया भंगा भाणियवा। 37 इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि, ज्ञानी, प्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त, सवेदी, नपुंसकवेदी, सकषायी यावत् लोभकषायी, सयोगी, मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी, साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त, इन सब पदों में प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए। 38. एवं असुरकुमारस्स वि वत्तव्वया भाणियव्वा / नयरं तेउलेस्सा, इस्थिवेयग-पुरिसवेयगा य प्रभहिया, नपुसगवेयगा न भण्णंति / सेसं तं चेव / सम्वत्थ पढम-बितिया भंगा। [38] असुर कुमारों के विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इनमें तेजोलेश्या वाले स्त्रीवेदक और पुरुषवेदक अधिक कहने चाहिए। शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इन सबमें पहला और दूसरा भंग जानना चाहिए। 36. एवं जाव थणियकुमारस्स। [36] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / 40. एवं पुढविकाइयस्स वि, उकाइयस्स वि जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स वि, सम्वत्थ वि पढ़म-बितिया भंगा। नवरं जस्स जा लेस्सा, दिट्ठी, नाणं, अन्नाणं, वेदो, जोगो य, जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियध्वं / सेसं तहेव / [40] इसी प्रकार पृथ्वीकायिक, अप्कायिक यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक भी सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि जहाँ जिसमें जो लेश्या, जो दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, वेद और योग हों, उसमें वही कहना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् है। Page #2733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्योसमां शतक : उद्देशक ] 41. मणूसस्स जच्चेव जीवपए वत्तत्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियब्वा / [41] मनुष्य के विषय में जीवपद में जो वक्तव्यता है, वहीं समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। 42. वाणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स। [42] वाणव्यन्तरों का कथन असुरकुमारों के कथन के समान है। 43. जोतिसिय-क्षेमाणियस्स एवं चेव, नवरं लेस्साओ जाणियन्यानो, सेसं तहेव भाणियन्वं / [43] ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी कथन इसी प्रकार है, किन्तु जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए / शेष सब पूर्ववत् समझना / विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कालिक पापकर्मबन्ध---नैरयिक जीव में उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी नहीं होती, इसलिए उनमें तीसरा और चौथा भंग नहीं पाया जाता, केवल पहला और दूसरा भंग ही पाया जाता है / सलेश्य इत्यादि विशेषणयुक्त नैरयिकादि में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / असुरकुमारादि में भी इसी प्रकार प्रारम्भ के दो भंग पाये जाते हैं / औधिक जीव और सलेपय आदि विशेषणयुक्त जीव के लिए जो चतुभंगी आदि वक्तव्यता कही है, मनुष्य के लिए भी वह उसी प्रकार कहनी चाहिए, क्योंकि जीव और मनुष्य दोनों समानधर्मा जीव और चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीय से लेकर मोहनीय-कर्मबन्ध तक को चतुर्भगीयप्ररूपरणा ग्यारह स्थानों में 44. जीवे णं भंते ! नाणावरणिज्ज कम्म कि बंधी, बंधति, बंधिस्सति० ? एवं जहेव पावत्स कम्मस्स बत्तन्वया भणिया तहेव नाणावरणिज्जस्स वि भाणियव्वा, नवरं जीवपए मणुस्सपए य सकसायिम्मि जाव लोभकसाइम्मि य पढम-बितिया भंगा / अवसेसं तं चेव जाब वेमाणिए / [44 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि चातुभंगिक प्रश्न / [44 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्म की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की वक्तव्यता कहनी चाहिए। परन्तु (ौधिक) जीवपद और मनुष्यपद में सकषायो (से लेकर) यावत् लोभकषायी में प्रथम और द्वितीय भंग ही कहना चाहिए। शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 45. एवं दरिसणावरणिज्जेण वि दंडगो भाणियव्वो निरवसेसं / [45] शानावरणीय कर्म के समान दर्शनावरणीय कर्म के विषय में भी समग्र दण्डक कहने चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 931 Page #2734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 46. जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं कि बंधी० पुच्छा / गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; प्रत्यंगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [46 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने वेदनीयकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [46 उ.] गौतम ! (1) किसी जीव ने (वेदनीय कर्म) बांधा था, बांधता है और बांधेगा, (2) किसी जीव ने बांधा था, बांधता है और नहीं बांधेगा तथा (3) किसी जीव ने (वेदनीय कर्म) बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा। 47. सलेस्से वि एवं चेव ततियविहूणा भंगा। [47] सलेश्य जीव में भी तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। 48. कण्हलेस्से जाव पम्हलेस्से पढम-बितिया भंगा। [48] कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् पद्मलेश्या वाले जीव तक में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है। 46. सुक्कलेस्से ततियविहणा भंगा। [49] शुक्ललेश्या वाले में तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं / 50. प्रलेस्से चरिमो। [50] अलेश्यजीव में अन्तिम (चतुर्थ) भंग पाया जाता है। 51. कण्हपक्खिए पढम-बितिया। [51] कृष्णपाक्षिक में प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। 52. सुक्कयक्खिए ततियविहूणा। [52] शुक्लपाक्षिक में तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीनों भंग पाये जाते हैं / 53. एवं सम्माहिटिस्स वि। [53] इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि में भी ये ही तीनों भंग जानने चाहिए। 54. मिच्छद्दिहिस्स सम्मामिच्छादिष्टिस्स य पढम-बितिया / [54] मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यांदृष्टि में प्रथम और द्वितीय भंग जानना / 55. गाणिस्स ततियविहूणा। [55] ज्ञानी में तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीनों भंग समझने चाहिए। 56. आभिनिवोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी पढम-वितिया। [56] आभिनिबोधिक ज्ञानी (से लेकर) यावत् मनःपर्यवज्ञानी तक में प्रथम और द्वितीय भंग जानना / Page #2735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 1] 57. केवलनाणो ततिविहूणा। [17] केवलज्ञानी में तृतीय भंग के सिवाय शेष तीनों भंग पाये जाते हैं। 58, एवं नोसन्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी, सागरोवउत्ते, अणागारोवउत्ते, एएसु ततियविहणा। [५८इसी प्रकार नो-संज्ञोपयुक्त में, अवेदी में, अकषायी में, साकारोपयुक्त एवं अनाकारोपयुक्त में भी तृतीय भंग को छोड़ कर शेष तीनों भंग पाये जाते हैं / 56. अजोगिम्मि य चरिमो। [56] अयोगी में अन्तिम (चतुर्थ) भंग जानना चाहिए / 60. सेसेसु पढम-वितिया / [60] शेष सभी में प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। 61. नेरइए पं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं कि बंधी, बंधइ० ? एवं नेरइयाइया जाव वेमाणिय त्ति, जस्स जं प्रस्थि / सव्वत्थ वि पढम-बितिया, नवरं मणुस्से जहा जीवे / [61 प्र. भगवन् ! क्या नै रयिक जीव ने वेदनीय कर्म बांधा, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि (चातुभंगिक प्रश्न / ) 61 उ] इसी प्रकार नै रयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक जिसके जो लेश्यादि हों, वे कहने चाहिए / इन सभी में पहला और दूसरा भंग पाया जाता है / विशेष यह है कि मनुष्य की वक्तव्यता सामान्य जीव के समान है। 62. जीवे णं भंते ! मोहणिज्जं कम्मं कि बंधी, बंधति ? जहेव पावं कम्मं तहेव मोहणिज्ज पि निरवसेसं जाव वेमाणिए। [62 प्र.] भगवन् ! क्या जीव ने मोहनीय कर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [62 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार समग्र कथन मोहनीयकर्मबन्ध के विषय में यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। विवेचन-ज्ञानावरणीय से मोहनीयकर्मबन्ध तक चतुर्भगोचर्चा-जिस प्रकार औधिक जीव सहित पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहे, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मबन्ध-सम्बन्धी पच्चीस दण्डक कहने चाहिए। किन्तु पापकर्मबन्ध के दण्डक में जीवपद और मनुष्यपद में सकषाय और लोभकषाय की अपेक्षा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवर्ती जीव मोहनीयकर्मरूप पापकर्म का प्रबन्धक होता है, इसलिए चारों भंग कहे थे, क्योंकि सकषायी जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय का बन्धक अवश्य होता है, प्रबन्धक नहीं होता। वेदनीयकर्मबन्धसम्बन्धी चर्चा-वेदनीयकर्म के बन्धक में पहला भग अभव्यजीव की अपेक्षा से है, दूसरा भंग--- भविष्य में मोक्ष जाने वाले भव्यजीव की अपेक्षा से है, तीसरा भंग यहाँ घटित Page #2736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538] [व्याख्याज्ञप्तिसूत्र नहीं होता, क्योंकि जो जीव वेदनीयकर्म का प्रबन्धक हो जाता है, वह फिर वेदनीयकर्म का बन्ध नहीं करता / चौथा भंग अयोगीकेवली की अपेक्षा से है / इस प्रकार वेदनीयकर्मबन्ध में तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग घटित होते हैं। सलेश्यीजीव में यहाँ तीसरे भंग को छोड़कर शेष तीन भंग बताए हैं, किन्तु उसमें चौथा भंग (वेदनीयकर्म बांधा था, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा) कैसे घटित होना सम्भव है, क्योंकि लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है / अतः वहाँ तक सलेश्यीजीव वेदनीयकर्म का बन्धक होता है, तब फिर अबन्धक कैसे हो सकता है ? कतिपय प्राचार्य इसका समाधान यों करते हैं इस सूत्र के प्रमाण (वचन) के अनुसार अयोगी-अवस्था के प्रथम समय में 'घंटालालान्यायेन' परम शूक्ललेश्या होती है, इसलिए सलेश्यी में भी चतुर्थ भंग घटित हो सकता है / तत्त्व केवलिगम्य है / कृष्णादि पांच लेश्या वाले जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से वेदनीयकर्म के प्रबन्धक नहीं होते / अतएव उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / शुक्ललेश्यी जीव में सलेश्या के समान पूर्वोक्त तीन भंग ही होते हैं। अलेश्यीजीव तो केवली और सिद्ध होते हैं, अत: उनमें केवल चतुर्थ भंग ही पाया जाता है / कृष्णपाक्षिक जीवों में अयोगीपन का प्रभाव होने से उनमें अन्तिम दो भंग नहीं पाये जाते, प्रथम और द्वितीय, ये दो भंग ही पाये जाते हैं। शुक्लपाक्षिक जीव अयोगी भी होता है, इसलिए उसमें तीसरे भंग के सिवाय शेष तीनों भंग पाए जाते हैं। सम्यग्दृष्टिजीव में अयोगीपन सम्भव होने से उसमें तीसरे भंग को छोड़कर शेष तीनों भंग होते हैं / मिथ्यादष्टि और मिश्रदृष्टि में अयोगीपन का अभाव होने से वे वेदनीयकर्म के प्रबन्धक नहीं होते / अतएव उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं। ज्ञानी और केवलज्ञानी में अयोगी-अवस्था में चौथा भंग पाया जाता है, अतः उनमें तीसरे भंग के अतिरिक्त शेष तीनों भंग पाए जाते हैं। ग्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान वाले जीवों में अयोगीपन का अभाव होने से उनमें चौथा भंग नहीं पाया जाता। उनमें पहले के दो भंग ही पाये जाते हैं / इस प्रकार सभी स्थानों में यह समझ लेना चाहिए कि जहाँ अयोगी-अवस्था सम्भव है, वहाँ-वहाँ तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग पाए जाते हैं और जहाँ-जहाँ अयोगी-अवस्था सम्भव नहीं है, वहाँ-वहाँ पहला और दूसरा, ये दो भंग ही पाए जाते हैं। मोहनीयकर्मबन्ध-सम्बन्धी-मोहनीयकर्म एक प्रकार से पाप (अशुभ) कर्म ही है, इसलिए इसके ग्यारह स्थानों के वैमानिक देव-पर्यन्त चौवीस दण्डकों में पापकर्म के समान सभी पालापक कहने चाहिए।' जीव और:चौवीस दण्डकों में प्रायुष्यकर्म की अपेक्षा चतुर्भगीय-प्ररूपणा ग्यारह स्थानों में 63, जीवेणं भंते: आउयं कम्म कि बंधी बंधति० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए बंधी० चउभंगो। [63 प्र.] भगवन ! क्या जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था, बांधता है और बाधेगा? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. (क) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3554-3556 (ख) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 931-932 Page #2737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवीसवां शतक : उद्देशक 1 [539 163 उ.] गौतम ! किसी जीव ने (मायुष्यकर्म) बांधा था, इत्यादि चारों भंग पाये जाते हैं। 64. सलेस्से जाव सुक्कलेस्से चत्तारि भंगा। [64] सले श्यी से लेकर यावत् शुक्लले श्यी जीवों तक में चारों भंग पाए जाते हैं / 65. अलेस्से चरिमो। [65] अलेश्यी जीवों में एकमात्र अन्तिम भंग होता है / 66. कण्हपक्खिए गं० पुच्छा। गोयमा ! अत्यंगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति / प्रत्यंगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / [66 प्र.] भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जोव ने (आयुष्यकर्म) बांधा था, इत्यादि प्रश्न / [66 उ.] गौतम ! (1) किसी जीव ने (आयुष्यकर्म) बांधा था, बांधता है और बांधेगा तथा (2) किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा, ये दो भंग पाये जाते हैं / 67. सुक्कपक्खिए सम्मद्दिट्ठी मिच्छादिट्ठी चत्तारि भंगा। [67] शुक्लपाक्षिक सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में चारों भंग पाये जाते हैं / 66. सम्मामिच्छादिट्ठी० पुच्छा। गोयमा! अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [68 प्र.] भगवन् ! सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव ने आयुष्यकम बांधा था? इत्यादि प्रश्न / [68 उ.] गौतम ! किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा तथा किसी जीव ने बांधा था, नहीं बांधता और नहीं बांधेगा, ये (तीसरा और चौथा) दो भंग पाये जाते हैं। 66. नाणी जाव प्रोहिनाणी चत्तारि भंगा। 169] ज्ञानी (से लेकर) यावत् अवधिज्ञानी तक में चारों भंग पाये जाते हैं। 70. मणपज्जवनाणी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति प्रत्थेगतिए बंधी, न बंधति, न बंधिस्सति / [70 प्र. भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी जीव ने प्रायुष्यकर्म बांधा था? इत्यादि (चातुर्भगिक प्रश्न)। 70 उ. गौतम ! किसी मनःपर्यवज्ञानी ने आयुष्यकर्म बांधा था, बांधता है और बांधेगा; किसी मन:पर्थवज्ञानो ने आयुष्यकर्म बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा तथा किसो मन पर्यवज्ञानी ने बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा, ये तीन भंग पाये जाते हैं। Page #2738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाते हैं। 54.] [व्याख्याप्रजाप्तमूत्र 71. केवलनाणे चरिमो भंगी। [71] केवलज्ञानी में एकमात्र चौथा भंग पाया जाता है / 72. एवं एएणं कमेणं नोसनोवउत्ते बितियविहूणा जहेव मणपज्जवनाणे / [72] इसी प्रकार इस क्रम से नोसंज्ञोपयुक्त जीव में द्वितीय भंग के अतिरिक्त तीन भंग मन:पर्यवज्ञानी के समान होते हैं / 73. अवेयए अकसाई य ततिय-चउत्था जहेव सम्मामिच्छत्ते / [73] अवेदी और अकषायी में सम्य मिथ्यादृष्टि के समान तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है। 74. अजोगिम्मि चरिमो। [74] अयोगी केवली जीव में एकमात्र चौथा (अन्तिम) भंग पाया जाता है / 75. सेसेसु पएसु चत्तारि भंगा जाव प्रणागारोवउत्ते। [75] शेष पदों में यावत् अनाकारोपयुक्त तक में चारों भंग पाये जाते हैं / 76. नेरतिए णं भंते ! पाउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगतिए० चत्तारि भंगा। एवं सम्वत्थ वि नेरइयाणं चत्तारि भंगा, नवरं कण्हलेस्से कण्हपक्खिए य पढम-ततिया भंगा, सम्मामिच्छत्ते ततिय-चउत्था / [76 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव ने आयुष्यकर्म बांधा था ? इत्यादि चातुर्भगिक प्रश्न / [76 उ.] गौतम ! किसी नैरयिक ने आयुष्यकर्म बांधा था इत्यादि चारों भंग पाये जाते हैं। इसी प्रकार सभी स्थानों में नैरयिक के चार भंग कहने चाहिए, किन्तु कृष्णलेश्यी एवं कृष्णपाक्षिक नैरयिक जीव में पहला तथा तीसरा भंग तथा सम्यगमिथ्यादृष्टि में तृतीय और चतुर्थ भंग होता है। 77. असुरकुमारे एवं चेव, नवरं कण्हलेस्से वि चत्तारि भंगा भाणियन्वा / सेसं जहा नेरतियाणं। [77] असुरकुमार में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु कृष्णलेश्यी असुरकुमार में पूर्वोक्त चारों भंग कहने चाहिए / शेष सभी नै रयिकों के समान कहना चाहिए / 78. एवं जाव थणियकुमाराणं / [78] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / 76. पुढविकाइयाणं सवत्थ वि चत्तारि भंगा, नवरं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा। [6] पृथ्वीकायिकों में सभी स्थानों में चारों भंग होते हैं / किन्तु कृष्णपाक्षिक पृथ्वीकायिक में पूर्वोक्त चार भंगों में से पहला और तीसरा भंग पाया जाता है / Page #2739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छव्वीसवां शतक : उद्देशक 1) 151 80. तेउलेस्से० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / 160 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्यी पृथ्वी कायिक जीव ने प्रायुष्यकर्म बांधा था? इत्यादि प्रश्न। {80 उ.] गौतम ! (तेजो० पृ० ने) बांधा था, बांधता नहीं है और बांधेगा, यह केवल तृतीय भंग पाया जाता है। 21. सेसेसु सम्वेतु चत्तारि भंगा। | 81] शेष सभी स्थानों में चार-चार भंग कहने चाहिए / 82. एवं प्राउकाइय-वणस्सइकाइयाण वि निरवसेसं / [82] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के विषय में भी सब कहना चाहिए। 83. तेउकाइय-वाउकाइयाणं सम्वत्थ वि पढम-ततिया भंगा। [83] तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भग होते हैं। 54. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं पि सम्वत्थ वि पढम-ततिया भंगा, नवरं सम्मत्ते नाणे प्राभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ततियो भंगो। [4] द्वीन्द्रिय, तृतीय और चतुरिन्द्रिय जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग होते हैं। विशेष यह है कि इनके सम्यक्त्व, ज्ञान, ग्राभिनिबोधिज्ञान और श्रुतज्ञान में एकमात्र तृतीय भंग होता है। 85. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हपक्खिए पढम-ततिया भंगा। सम्मामिच्छत्ते ततियचउत्था भंगा। सम्मत्ते नाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे ओहिनाणे, एएसु पंचसु वि पएसु बितियविहूणा भंगा। सेसेसु चत्तारि भंगा। [85] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक में तथा कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग पाये जाते हैं। सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव में तृतीय और चतुर्थ भंग होते हैं / सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान, इन पांचों पदों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं / शेष सभी पूर्ववत् (चार भंग) जानना। 86. मणुस्साणं जहा जीवाणं, नवरं सम्मत्ते, प्रोहिए नाणे, प्राभिनिबोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, एएसु बितियविहूणा भंगा सेसं तं चेव / Page #2740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्यान सप्तिसू 86] मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान जानना / किन्तु इनके सम्यक्त्व, प्रौघिकज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन पदों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं / शेष सब पूर्ववत् जानना / / 87, वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। 87 वाणव्यन्त र, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन असुरकुमारों के समान है। विवेचन-प्रायुष्यकर्मबन्ध की अपेक्षा से चतुर्भगीय चर्चा-सामान्यजीव द्वारा आयुष्यकर्मबन्ध के विषय में चार भंग बताये हैं। उनमें प्रथम भंग तो अभव्यजीव की अपेक्षा से है / जो जीव चरमशरीरी होगा, उसको अपेक्षा द्वितीय भंग है / तृतीय भंग उपशमक की अपेक्षा से है, क्योंकि उसने पहले आयु बांधा था, वर्तमानकाल में उपशम-अवस्था में प्रायु नहीं बांधता और उपशम-अवस्था से गिरने पर फिर प्रायु बांधेगा। चतुर्थ भंग क्षपक की अपेक्षा से है, उसने भूतकाल में (जन्मान्तर में) आयुष्य बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और न ही भविष्यकाल में आयुष्य बांधेगा। सलेश्वी से लेकर शुक्ललेश्यी जीत तक में चार भंग बताए हैं। उनमें से प्रथम भंग उसकी अपेक्षा से है जो निर्वाण को प्राप्त नहीं होगा। जो चरमशरीरीरूप से उत्पन्न होगा, उसकी अपेक्षा द्वितीय भंग है / अबन्ध-समय की अपेक्षा तृतीय भंग है और जो चरमशरीरी है, उसकी अपेक्षा चतुर्थ भंग है। इस प्रकार अन्य स्थानों में भी यथायोग्य रूप से घटित कर लेना चाहिए। शैलेशी-अवस्था को प्राप्त जीव तथा सिद्ध भगवान् अलेश्यी होते हैं। उनमें एकमात्र चतुर्थ भंग ही पाया जाता है, क्योंकि वे वर्तमान में आयुष्य का बन्ध नहीं करते और भविष्यत्काल में भी नहीं करेंगे / कृष्णपाक्षिक जीव में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है, क्योंकि अभव्यजीव की अपेक्षा से प्रथम भंग और अबन्धकाल की अपेक्षा तृतीय भंग है, क्योंकि वह वर्तमानकाल में आयुष्यकर्म नहीं बांधता, किन्तु भविष्यत्काल में बांधेगा। तृतीय और चतुर्थ भंग कृष्णपाक्षिक में नहीं होते, क्योंकि उसमें आयुष्यबन्ध का सर्वथा अभाव नहीं होता। शूक्लपाक्षिक और सम्यग्दृष्टि में चार भंग होते हैं, क्योंकि उसने पहले आयुष्य बांधा था, बन्धनकाल में बांधता है और प्रबन्धकाल के बाद फिर बांधेगा। इस अपेक्षा से यहाँ प्रथम भंग घटित होता है। चरमशरीरजीव की अपेक्षा द्वितीय, उपशम अवस्था की अपेक्षा तृतीय और क्षपकअवस्था की अपेक्षा चौथा भंग होता है। मिथ्यादृष्टि में चार भंग बताए हैं, अभव्य की अपेक्षा पहला भंग, भविष्य में चरमशरीर की प्राप्ति होने पर नहीं बांधेगा, अत: दूसरा भंग है / अबन्धकाल की अपेक्षा तीसरा भंग और चरमशरीरी की अपेक्षा चौथा भंग है है। सम्यगमिथ्यादष्टि (मिथदष्टि)जीव सम्यगमिथ्यादष्टि-अवस्था में आयू नहीं बांधता और कोई जीव चरमशरीरी हो जाए तो आयुष्य बांधेगा भी नहीं। इसलिए इसमें तीसरा और चौथा भंग घटित होता है। ज्ञानी जीवों में चार भंग पाए जाते हैं, जिन्हें पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिए / मन:पर्यवज्ञानी में दूसरे भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। उसने पहले प्रायु बांधा था, वर्तमान में Page #2741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छव्वीसवां शतक : उद्देशक 1] देवायु बांधता है और भविष्यकाल में मनुष्यायु बांधेगा। इस अपेक्षा से प्रथम भंग घटित होता है। दूसरा भंग यहाँ संभव नहीं है, क्योंकि देवभव में मनुष्यायु का बन्ध अवश्य करेगा 1 उपशमअवस्था की अपेक्षा तीसरा भंग और क्षपक-अवस्था की अपेक्षा चौथा भंग होता है, क्योंकि क्षपक और केवलज्ञानी न तो प्रायु बांधते है, और न ही बांधेगे, इसलिए इनमें एक ही (चौथा) भंग पाया जाता है। नो-संज्ञोपयुक्त जीव में भी मनःपर्यवज्ञानी के समान तीन भंग घटित कर लेने चाहिए / अवेदक और अकषायी जीव में उपशम और क्षपक अवस्था की अपेक्षा तृतीय और चतुर्थ भंग पाया जाता है। मति प्रादि तीन अज्ञान वाले, आहारादि चार संज्ञोपयुक्त, सवेदक (स्त्री-पुरुषादि तीन वेदों से युक्त), सकषाय (क्रोधादि चार कषायों से युक्त), सयोगी (मन-वचन-काया के तीन योगों सहित) तथा साकारोपयुक्त एवं अनाकारोपयुक्त इन सभी जीवों में चार-चार भंग पाये जाते हैं / नैरयिक जीवों में चार भंग कहे हैं, क्योंकि नैरयिक जीव ने आयुष्य बांधा था, बन्धनकाल में वर्तमान में बांधता है और भवान्तर में बांधेगा, इस प्रकार प्रथम भंग घटित होता है। जो नैरयिक मोक्ष को प्राप्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से दूसरा भंग घटित होता है / बन्धनकाल के अभाव तथा भावी बन्धनकाल की अपेक्षा तृतीय भंग है / जिस नैरयिक ने परभव का (मनुष्यायुष्य) बांध लिया और जिसका आयुष्य बांधा है, वही उसका चरम भव है, उसकी अपेक्षा से चौथा भंग है। इस प्रकार सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए। कृष्णलेश्यो नैरयिक में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है। प्रथम भंग तो प्रतीत ही है। उष्णलेश्यी नैरयिक में दसरा भग नहीं होता. क्योंकि कृष्णलेश्यी नारक, तिर्यञ्च में अथवा अचरमशरीरी मनुष्य में उत्पन्न होता है। कृष्णलेश्या पांचवी नरकपृथ्वी आदि में होती है, वहाँ से निकला हुया केवली या चरमशरीरी नहीं होता। इसलिए वहाँ से निकला हुया नैरयिक अचरमशरीरी होने से फिर आयुष्य बांधेगा। कृष्णलेश्यी नैरयिक प्रवन्धकाल में आयुष्य नहीं बांधता, बन्धनकाल में आयुष्य बांधेगा, इस दृष्टि से उसमें तृतीय भंग घटित होता है। वह प्रायु का प्रबन्धक नहीं होता, इसलिए उसमें चौथा भंग घटित नहीं होता। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक नै रयिक के विषय में भी पहला और तीसरा भंग घटित कर लेना चाहिए। सम्यगमिथ्यादष्टि नैरयिकजीव प्रायु नहीं बांधता, इसलिए उसमें तीसरा और चौथा भंम होता है। कृष्णलेश्यी असुरकुमार में चारों भंग पाये जाते हैं, क्योंकि वहाँ से निकल कर मनुष्यगति में आकर वह सिद्ध हो सकता है / इस अपेक्षा से उसमें दूसरा और चौथा भंग घटित होता है / पृथ्वीकायिक जीवों में सभी स्थानों में चार भंग पाये जाते हैं। किन्तु कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग ही होता है। तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक में एकमात्र तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि जो तेजोलेश्यी देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, वह अपर्याप्त अवस्था में तेजोले श्यी होता है तथा तेजोलेश्या का समय व्यतीत हो जाने के बाद आयुष्य बांधता है। अतः तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक ने पूर्वभव में आयुष्य बांधा था, वह तेजोलेश्या के समय आयुष्य बन्ध नहीं करता, किन्तु तेजोलेश्या का समय बीत जाने पर प्रायुप्य बांधेगा, इस दृष्टि से तेजोलेश्यी पृथ्वीकायिक में तीसरा भंग घटित हाता है। Page #2742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544] व्याख्याप्राप्तिसूत्र इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है तथा इनमें तेजोलेश्यायुक्त में तीसरा भंग होता है / दूसरे स्थानों में चार भंग होते हैं / तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में सभी स्थानों में पहला और तीसरा भंग ही होता है, क्योंकि वहाँ से निकल कर उनकी उत्पत्ति मनुष्यों में न होने से सिद्धिगमन का उनमें अभाव है। अतः दूसरा और चौथा भंग उनमें नहीं होता। विकले न्द्रिय जीवों में सभी स्थानों में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है, क्योंकि इनमें से निकले हुए मनुष्य तो हो सकते हैं, किन्तु मोक्ष नहीं पा सकते। इसलिए वे अवश्य ही अायु का बन्ध्र करेंगे। इस कारण उनमें प्रायुष्यबन्ध का अभाव न होने से दूसरा और चौथा भंग घटित नहीं होता। विकलेन्द्रियों में इतने स्थानों में विशेषता है--(१) सम्यक्त्व, (2) ज्ञान, (3) आभिनिबोधिकज्ञान, (4) श्रुतज्ञान। इन स्थानों में केवल तृतीय भंग ही पाया जाता है, क्योंकि इनमें सम्यक्त्व प्रादि सास्वादनभाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। इनके चले जाने पर आयुष्य का बन्ध होता है / इस दृष्टि से इन्होंने पूर्वभव में प्रायुष्य वांधा था, वर्तमान में सम्यक्त्व आदि अवस्था में नहीं बांधते, किन्तु उसके बाद प्रायुष्य बाधेगे, इस प्रकार इनमें एक मात्र तृतीय भंग ही घटित होता है। __पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में कृष्णपाक्षिक पद में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है, क्योंकि कृष्णपाक्षिक आयु बांधे या न बांधे उसका प्रबन्धक अनन्तर ही होता है और मोक्ष में जाने के लिए अयोग्य होता है / सम्यगमिथ्यादष्टि तियंञ्चपंचेन्द्रिय में प्रायुष्यबन्ध का अभाव होने से तीसरा और चौथा भंग भी घटित होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में सम्यक्त्व ,ज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रतज्ञान और अवधिज्ञान, इन पांच स्थानों में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टियुक्त पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मर कर देवों में ही उत्पन्न होता है। वहाँ वह आयुष्य बांधेगा, इसलिए दूसरा भंग घटित नहीं होता / प्रथम और तृतीय भंग पूर्ववत् घटित कर लेने चाहिए। चौथा भग इस प्रकार घटित होता है - जैसे कि किसी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ने मनुष्यायु का बंध कर लिया, इसके पश्चात् उसे सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हुई, इसके बाद पूर्व प्राप्त मनुष्यभव में ही वह मोक्ष चला जाए तो प्रायुष्य का बन्ध वह नहीं करेगा। इस प्रकार चौथा भंग घटित हो जाता है / मनुष्य के लिए भी सम्यक्त्व आदि पूर्वोक्त पांच पदों में भी इन तीन भंगों को इसी रीति से घटित कर लेना चाहिए।' जीव और चौवीस दण्डकों में नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म की अपेक्षा ग्यारह स्थानों में चतुभंगी प्ररूपणा 88, नाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा नाणावरणिज्जं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥छव्वीसइमे बंधिसए : पढमो उद्देसमो समत्तो // 26-1 // 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 932 मे 934 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, इ. 3561 से 3564 Page #2743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवीसा शतक : उद्देशक ) [88] नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म का (बन्ध-सम्बन्धी कथन) ज्ञानावरणीयकर्म के समान समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---उ. 1, सू. 44 में ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध की जिस प्रकार सभी स्थानों में चतुर्भंगी की चर्चा की है, उसी प्रकार इन तीनों कर्मों के बन्ध के विषय में भी समझ लेना चाहिए / // छव्वीसवां शतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण // Page #2744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक को पापकर्मादिबन्ध अनन्तरोपपन्नक नारकादि चौवीस दण्डकों में पापकर्मबन्ध की अपेक्षा ग्यारह स्थानों को प्ररूपणा 1. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा तहेव / गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी० पढम-बितिया भंगा। [1 प्र.] भगवन क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! किसी (प्र. नं.) ने पापकर्म बांधा था, इत्यादि प्रथम और द्वितीय भंग होता है। 2. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरतिए पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा। गोयमा ! पढम-बितिया भंगा, नवरं कण्हपक्खिए ततियो। [2 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [2 उ.] गौतम ! इनमें सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग पाया जाता है। किन्तु कृष्णपाक्षिक (म. नै.) में तृतीय भंग पाया जाता है / ___3. एवं सम्बत्य पढम-बितिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्तं मणजोगो वइजोगो य न पुच्छिज्जइ। [3] इस प्रकार सभी पदों में पहला और दूसरा भंग कहना चाहिए, किन्तु विशेष यह है कि सम्यमिथ्यात्व, मनोयोग और वचनयोग के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / 4. एवं जाव थणियकुमाराणं / [4] स्तनितकुमार पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिए। 5. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं वइजोगो न भण्णति / [5] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में वचनयोग नहीं कहना चाहिए। 6. पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पि सम्मामिच्छत्तं ओहिनाणं विभंगनाणं मणजोगो वइजोगो, एयाणि पंच ण भण्णंति / Page #2745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छुव्वीसवां शतक : उद्देशक 2j [547 [6] पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिकों में भी सम्यगमिथ्यात्व, अवधिज्ञान, विभंगज्ञान, मनोयोग और वचनयोग, ये पांच पद नहीं कहने चाहिए। 7. मस्साणं अलेस्स-सम्मामिच्छत्त-मणपज्जवनाण-केवलनाण-विभंगनाण-नोसण्णोवउत्तअवेयग-अकसायि-मणजोग-वइजोग-अजोगि, एयाणि एक्कारस पयाणि ण भण्णंति / [7] मनुष्यों में अले श्यत्व, सम्यमिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदक, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगी ये ग्यारह पद नहीं कहने चाहिए। 8. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरतियाणं तहेव तिणि न भण्णं ति / सम्वेसि जाणि सेसाणि ठाणाणि सव्वत्य पढम-बितिया भंगा। [8] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों को वक्तव्यता के समान पूर्वोक्त तीन पद (सम्यगमिथ्यात्व, मनोयोग और बचनयोग) नहीं कहने चाहिए। इन सबके जो शेष स्थान हैं, उनमें सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। है. एगिदियाणं सम्बत्थ पढम-बितिया भंगा। [9] एकेन्द्रिय जीवों के सभी स्थानों में प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए। विवेचन-अनन्तरोपपत्रक : स्वरूप और दण्डक—'अनन्तरोपपन्नक' उसे कहते हैं, जिसकी उत्पत्ति का प्रथम समय ही हो। इस दूसरे उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस ही दण्डकों में उपर्युक्त ग्यारह द्वारों में पापकर्म आदि के बन्ध की चातुभंगिक दृष्टि से प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में प्रोधिक जीव और नारक आदि चौवीस, इस प्रकार पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस द्वितीय उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस दण्डक ही कहने चाहिए, क्योंकि पौधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक प्रादि विशेषण नहीं लगाये जा सकते। ___ अनन्तरोपपन्नक में पच्छा के अयोग्यपद-अनन्तरोपपत्रक ने रयिक मादि में प्रथम और द्वितीय, ये दो भंग ही पाये जाते हैं, क्योंकि उसमें मोहरूप पापकर्म के प्रबन्धक का अभाव है। प्रबन्धकत्व सूक्ष्मसम्परायादि गुणस्थानों में होता है और वे गुणस्थान नैरयिक आदि के नहीं होते / लेश्यादि पद सामान्यतया नैरयिक आदि में होते हैं। जो पद यद्यपि नारकों में उक्त सम्यग्मिथ्यात्व आदि तीनों पद होते हैं, किन्तु अनन्तरोपपन्नक नै रयिक प्रादि में अपर्याप्त होने के कारण नहीं होते, अतः उनके विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए, यह कथन मूलपाठ में यत्र-तत्र किया गया है / वे पद ये हैं-मिश्रदष्टि, मनोयोग, वचनयोग / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च में इन तीनों के अतिरिक्त अवधिज्ञान और विभंगज्ञान, ये दो पद भी अप्रष्टव्य हैं। मनुष्यों में अलेश्यत्व, सम्यगमिथ्यात्व, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, विभंगज्ञान, नोसंज्ञोपयुक्त, अवेदी, अकषायी, मनोयोग, वचनयोग और अयोगित्व, इन ग्यारह पदों के विषय में नहीं कहा जाता / पर्याप्तक होने के बाद ये होते हैं / ' 1. (क) भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 935 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3567 Page #2746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मबन्ध की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की प्ररूपणा 10. जहा पावे एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ। [10] जिस प्रकार पापकर्म के विषय में कहा है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के विषय में भी (अनन्तरोपपन्नक-प्राश्रित) दण्डक कना चाहिए। 11. एवं पाउयवज्जेसु जाव अंतराइए दंडयो। [11] इसी प्रकार प्रायुष्यकर्म को छोड़ कर यावत् अन्त रायकर्म तक दण्डक कहना चाहिए। 12. अणंतरोववन्नए णं भंते ! नेरतिए पाउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / [12 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक ने आयुष्य कर्म बांधा था, बांधता है और बांगा? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न / [12 उ.] गौतम ! (उसमें केवल तृतीय भंग ही पाया जाता है, अर्थात्---) उसने (पहले आयुष्यकर्म) बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और भविष्य में बांधेगा। 13. सलेस्से णं भंते ! अणंतरोववन्नए नेरतिए पाउयं कम्म कि बंधी० ? एवं चेव ततिम्रो भंगो। [13 प्र.] भगवन् ! सलेश्य अनन्त रोपपत्रक नै रयिक ने क्या आयुष्यकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / {13 उ.] गौतम ! उसी प्रकार (पूर्ववत्) तृतीय भंग होता है। 14. एवं जाव अणागारोवउत्ते / सम्वत्थ वि ततिम्रो भंगो। [14] इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त पद तक सर्वत्र तृतीय भंग समझना चाहिए। 15. एवं मणुस्सवज्जं जाव वेमाणियाणं / [15] इसी प्रकार मनुष्यों के अतिरिक्त यावत् वैमानिकों तक तृतीय भंग होता है। 16. मणुस्साणं सब्वत्थ ततिय-चउत्था भंगा, नवरं कण्हपक्खिएसु ततिम्रो भंगो / सम्वेसि णाणत्ताई ताई चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // छब्बीसइमे बंधिसए : बितिम्रो उद्देसओ समत्तो // 26-2 // [16/ मनुष्यों में सभी स्थानों में तृतीय और चतुर्थ भंग कहना चाहिए, किन्तु कृष्णपाक्षिक मनुष्यों में तृतीय भंग ही होता है। सभी स्थानों में नानात्व (भिन्नता) पूर्ववत् वही समझनी चाहिए। Page #2747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्बोसवां शतक : उद्दशक 2] [549 _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरोपपन्नक को प्रायुष्यकर्मबन्ध-विषयक चतुर्भगी चर्चा-अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में प्रायुष्यकर्म के विषय में सभी स्थानों में तीसरा और चौथा भंग पाया जाता है, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक मनुष्य आयुष्य नहीं बांधता, वह बाद में बांधेगा, इस अपेक्षा से उसमें तृतीय भंग घटित होता है / यदि मनुष्य चरमशरीरी हो तो वर्तमान में आयुष्य कर्म नहीं बांधता और न भविष्य में बांधेगा / इस प्रकार चतुर्थ भंग घटित होता है / कृष्णपाक्षिक अनन्तरोपपन्नक मनुष्य में केवल तीसरा भंग ही होता है / प्राशय यह है कि प्रायुष्य कर्म की पृच्छा में मनुष्य के अतिरिक्त शेष तेईस दण्डकों में एकमात्र तृतीय भंग ही बताया गया है। मनुष्यों में भी कृष्णपाक्षिक को छोड़ कर शेष अनन्तरोपपन्नक मनुष्यों में पाये जाने वाले 35 बोलों में तीसरा और चौथा भंग बताया गया है। सभी नैरयिक जीवों में पापकर्मदण्डक में जो भिन्नताएँ कही हैं, वे सभी आयुष्यदण्डक में भी कहनी चाहिए।' // छन्वीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 935 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3568 Page #2748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततिओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक का पापकर्मादिबन्ध-सम्बन्धी परम्परोपपन्नक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध को लेकर ग्यारह स्थानों को निरूपणा 1. परंपरोववन्नए णं भंते ! नेतिए पावं कम्म कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगतिए०, पढम बितिया। [1 प्र.] भगवन् ! क्या परम्परोपपन्नक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न / [1 उ. गौतम ! किसी (प.. नं.) ने पापकर्म बांधा था. इत्यादि प्रथम और द्वितीय भंग जानना चाहिए। 2. एवं जहेब पढमो उद्देसओ तहेव परंपरोक्क्न्नएहि वि उद्देसप्रो भाणियम्वो नेरइयाइओ तहेव नवदंडगसंगहितो / अढण्ह वि कम्मपगडीणं जा जस्स कम्मस्स बत्तव्वया सा तस्स ग्रहोणमतिरित्ता नेयवा जाव वेमाणिया अणागारोवउत्ता। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥छव्वीसइमे सए : ततिओ उद्देसनो समत्तो // 26-3 // [2] जिस प्रकार प्रथम उद्देशक कहा, उसी प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिक आदि के विषय में पापकर्मादि नौ दण्डक सहित यह ततीय उद्देशक भी कहना चाहिए। आठ कर्मप्रक्रतियों में से जिसके लिए जिस कर्म की वक्तव्यता कही है, उसके लिए उस कर्म की वक्तव्यता यावत् अनाकारोपयुक्त वैमानिकों तक अन्यूनाधिकरूप से कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रथम उद्देशक का अतिदेश तथा विशेष—जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में जीव और नैरयिकादि के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार यह तीसरा उद्देशक भी कहना चाहिए, किन्तु इतना विशेष है कि प्रथम उद्देशक में सामान्य जीव एवं नैरयिकादि मिला कर पच्चीस दण्डक कहे हैं, किन्तु इस (तृतीय) उद्देशक में नैरयिक आदि चौवीस दण्डक ही कहने चाहिये / क्योंकि औधिक जीव के साथ अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक आदि विशेषण नहीं लग सकते / पापकर्म का यह पहला सामान्य दण्डक और पाठ कर्मों के पाठ दण्डक, यों नौ दण्डक प्रथम उद्देशक में कहे हैं, वे ही नौ दण्डक इस उद्देशक में कहने चाहिए।' // वीसवां शतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण // 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3570 Page #2749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक अनन्तरावगाढ नैरयिकादि के पापकर्मादिबन्ध-सम्बन्धी अनन्तरावगाढ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादि-बन्ध प्ररूपणा 1. अणंतरोगाढए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिए, एवं जहेव अणंतरोक्वन्नएहि नवदंडगसंगहितो उद्देसो भणितो तहेव प्रणतरोगाढएहि वि अहीणमतिरित्तो भाणियम्वो नेरइयाईए जाव वेमाणिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // छब्धीसइमे सए : चउत्थो उद्देसओ समत्तो // 26-4 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्त रावगाढ नैरयिक ने पापकर्म बांधा था० ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगीय प्रश्न / [1 उ. गौतम ! किसी (अन. नैर.) ने पापकर्म बांधा था, इत्यादि कम से जिस प्रकार अनन्तरोपपन्नक के नौ दण्डकों सहित (द्वितीय) उद्देशक कहा है, उसी प्रकार अनन्तरावगाढ नैरयिक आदि (से लेकर) यावत् वैमानिक तक उन्हीं नौ दण्डकों सहित इस उद्देशक को अन्यूनाधिकरूप से कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अनन्तरावगाढ : स्वरूप--जो जीव एक भी समय के अन्तर के बिना उत्पत्तिस्थान को अवलम्बित होकर रहता है, वह 'अनन्तरावगाढ' कहलाता है। परन्तु कुछ प्राचार्यों के मतानुसार ऐसा अर्थ करने से अनन्तरोपपन्नक और अनन्तरावगाढ के अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहता। अत: इसका यह अर्थ करना चाहिए ---उत्पत्ति के एक समय बाद, फिर एक भी समय के अन्तर बिना उत्पत्तिस्थान की अपेक्षा करके जो रहता है, वह 'अनन्त राबगाढ' कहलाता है तथा उसके पश्चात् एक प्रादि समय का अन्तर हो, वह 'परम्परावगाढ' कहलाता है / दूसरे शब्दों में कहें तो - उत्पत्ति के द्वितीय समयवर्ती अनन्तरावगाढ कहलाता है और उत्पत्ति के तृतीयादि समयवर्ती ‘परम्परावगाढ' कहलाता है, यही इन दोनों में अन्तर है।' ॥छव्वीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र (ख) भगवतो. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3572 Page #2750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसओ : पांचवाँ उद्देशक परम्परावगाढ नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्परावगाढ चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 1. परंपरोगाढए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्म कि बंधी? जहेव परंपरोववनरहि उद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // छब्बीसइमे सए : पंचमो उद्देसमो समत्तो / / 26-5 // [1 प्र. भगवन् ! क्या परम्परावगाढ नै रयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगीय प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार अनन्तरोपपन्नक के विषय में उद्देशक कहा है, उसी प्रकार परम्परावगाढ (नै रयिकादि) के विषय में यह समग्र उद्देशक अन्यूनाधिक रूप से कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। / छध्वीसवाँ शतक : पंचम उद्देशक समाप्त / / Page #2751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : छठा उद्देशक अनन्तराहारक नरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अनन्तराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपरणा 1. अणंतराहारए णं भंते ! नेरइए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। एवं जहेव अणंतरोववन्नएहि उद्देसो तहेच निरवसेस / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // छन्वीसइमे सए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो // 26-6 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तराहारक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भगात्मक प्रश्न / [1 उ.] मौतम ! जिस प्रकार (पहले) अनन्तरोपपन्नक (द्वितीय) उद्देशक कहा गया था, उसी प्रकार यह अनन्तराहारक उद्देशक भी सारा कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अनन्तराहारक का स्वरूप --- पाहारकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तराहारक कहते हैं। // छब्बीसवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त / Page #2752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : सातवाँ उद्देशक परम्पराहारक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्पराहारक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध की प्ररूपणा 1. परंपराहारए णं भंते / नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा! एवं जहेव परंपरोक्वन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियग्यो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥छध्वीसइमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 26-7 // 11 प्र.] भगवन् ! क्या परम्पराहारक नैरयिक ने पापकर्म का बन्ध किया था ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न / 1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिकादि-सम्बन्धी उद्देशक कहा था, उसी प्रकार समग्र परम्पराहारक उद्देशक कहना चाहिए। "हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-परम्पराहारक का स्वरूप-आहारकत्व के द्वितीय प्रादि समयवर्ती को परम्पराहारक कहते हैं। ॥छव्वीसां: शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // Page #2753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : आठवाँ उद्देशक अनन्तरपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अनन्तरपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पाकर्मादिबन्ध को प्ररूपणा 1. प्रणतरपज्जत्तए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा / गोयमा ! एवं जहेव प्रणंतरोववन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // छन्वीसइमे सए : अट्ठमो उद्देसनो समत्तो // 26-8 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुर्भंगात्मक प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक (नैरयिकादिसम्बन्धी) उद्देशक के समान यह सारा उद्देशक कहना चाहिए। __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरपर्याप्तक का स्वरूप--पर्याप्तकत्व के प्रथम समयवर्ती को अनन्तरपर्याप्तक कहते हैं। ॥छन्बीसवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त / / Page #2754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसओ : नौवाँ उद्देशक परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध परम्परपर्याप्तक चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 1. परंपरपज्जत्तए णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा ? गोयमा! एवं जहेव परंपरोक्वन्नएहि उद्देसो तहेव निरवसेसो भाणियब्बो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ / ॥छन्वीसइमे सए : नवमो उद्देसनो समत्तो // 26-6 / / [1 प्र.] भगवन् ! क्या परम्परपर्याप्तक नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपत्रक (नरयिकादि के पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी) उद्देशक कहा था, उसी प्रकार परम्परपर्याप्तक नैरयिकादि के पापकर्मादि-सम्बन्धी उद्देशक समग्ररूप से कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥छन्वीसवां शतक : नौवाँ उद्देशक समाप्त // Page #2755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसओ : दसवाँ उद्देशक चरम नैरयिकादि को पापकर्मादिबन्ध चरम चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 1. चरिमे णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव परंपरोववन्नएहिं उद्देसो तहेब चरिमेहि वि निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / ॥छश्वीसइमे सए : बसमो उद्देसनो समत्तो।। 26-10 // [1 प्र.] भगवन् ! क्या चरम नै रयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न। [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परम्परोपपन्नक उद्देशक कहा था, उसी प्रकार चरम नैरयिकादि के सम्बन्ध में यह समग्र उद्देशक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन चरम नै रयिक : स्वरूप और समाधान- जिसका नरकभव चरम-अन्तिम है, अर्थात् जो नरक से निकल कर मनुष्यादि गति में जाकर मोक्ष प्राप्त करेगा, किन्तु पुनः लौटकर नरक में नहीं जाएगा, वह 'चरम नै रयिक' कहलाता है। प्रस्तुत में चरम नैरयिक के लिए परम्परोपपन्नक उद्देशक का अतिदेश किया है और परम्परोद्देशक के लिए प्रथम उद्देशक का अतिदेश किया है। फिर भी मनुष्यपद की अपेक्षा प्रायष्यकर्मबन्ध के विषय में यह विशेषता है कि प्रथम उद्देशक से प्रायष्यकर्मबन्ध के सामान्यतः चार भंग कहे हैं, परन्तु चरम मनुष्य के सम्बन्ध में केवल चौथा भंग ही घटित होता है, क्योंकि जो चरम मनुष्य है, उसने पहले (पूर्वभव में) आयुष्य बांधा था, वर्तमान समय में नहीं बांधता है और भविष्यत्काल में भी नहीं बांधेगा। यदि ऐसा न हो तो उसकी चरमता ही घटित नहीं हो सकती। बत्तिकार का यह कथन है। किन्तु यह मनुष्यभव की अपेक्षा चरम है। इसलिए वह नरक, तिर्यञ्च और देवगति में तो नहीं जाएगा, किन्तु मनुष्य के उत्कृष्ट पाठ भव तक करते हुए भी मनुष्य का चरमपन कायम रहता है और ऐसा होने पर उसको आयुष्य की अपेक्षा चारों भंग घटित हो सकते हैं। // छवोसवां शतक : दसवाँ उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 937 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग, 7, पृ. 3577-3578 Page #2756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगारसमो उद्देसओ : ग्यारहवाँ उद्देशक अचरम नैरयिकादि को पापकर्मादि-बन्ध अचरम चौवीस दण्डकों में पापकर्मादिबन्ध-प्ररूपणा 1. अचरिमे णं भंते ! नेरतिए पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए०, एवं जहेव पढमुद्देसए तहेव पढम-बितिया भंगा भाणियव्वा सम्वत्थ जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं / (1 प्र.] भगवन् ! क्या अचरम नैरयिक ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न / 1 उ. गौतम ! किसी ने पापकर्म बांधा था, इत्यादि प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार यहाँ भी सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक पर्यन्त कहना चाहिए। 2. अचरिमे गं भंते ! मणुस्से पावं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगतिए बंधी, बंधति, बंधिस्सति; अत्थेगतिए बंधी, बंधति, न बंधिस्सति; प्रत्थेगतिए बंधी, न बंधति, बंधिस्सति / [2 प्र.] भगवन् ! क्या अचरम मनुष्य ने पापकर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न / 2 उ.] गौतम ! (1) किसी मनुष्य ने बांधा था, बांधता है और बांधेगा, (2) किसी ने बांधा था. बांधता है और आगे नहीं बांधेगा. (3) किसी मनुष्य ने बांधा था, नहीं बांधता है और प्रागे बांधेगा / (इसी प्रकार अचरम मनुष्य में ये तीन भंग होते हैं / ) 3. सलेस्से गं भंते ! अचरिमे मणुस्से पावं कम्मं कि बंधी० ? / एवं चेव तिमि भंगा चरिमविहणा भाणियम्वा एवं जहेव पढमुद्देसए, नवरं जेसु तत्थ वीससु पवेसु चत्तारि भंगा तेसु इहं प्रादिल्ला तिप्नि भंगा भाणियध्वा चरिमभंगबज्जा; अलेस्से केवल नाणी य अजोगी य, एए तिन्नि वि न पुचिछज्जति / सेसं तहेव ! 3 प्र. भगवन् ! क्या सलेश्यी अचरम मनुष्य ने पापकर्म बांधा था? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! पूर्ववत् अन्तिम भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग प्रथम उद्देशक के समान यहां कहने चाहिए / विशेष यह है कि जिन बीस पदों में वहाँ चार भंग कहे हैं उन पदों में से यहाँ अन्तिम भंग को छोड़ कर आदि के तीन भंग कहने चाहिए। Page #2757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 11] 559 यहाँ प्रलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। शेष स्थानों में पूर्ववत् जानना चाहिए। 4. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरतिए / [4] वाणयन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिक के समान कथन करना चाहिए। विवेचन-अचरम : स्वरूप और भंगों की प्राप्ति का विश्लेषण--जो जीव जिस भव में वर्तमान है, उस भव को पुन: कभी प्राप्त करेगा, वह भव की अपेक्षा 'अचरम' कहलाता है / अचरम उद्देशक में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तक के पदों में पापकर्म की अपेक्षा प्रथम और द्वितीय भंग कहा गया है / मनुष्य में अन्तिम भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग होते हैं। मनुष्य में चौथा भंग इसलिए नहीं बताया कि यहाँ अचरम का प्रकरण है और चौथा भंग चरमशरोरी मनुष्य में पाया जाता है / जिन बीस पदों में, पहले उद्देशक में चार भंग बताए थे, उनमें यहाँ अन्तिम भंग को छोड़ कर प्रथम के शेष तीन भंग कहने चाहिए। वे बीस पद ये हैं-जीव, सलेश्यी, शुक्ललेश्यी, शुक्लपाक्षिक, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, मतिज्ञानी आदि चार, नोसंजोपयुक्त, सवेदी, सकषायी, लोभकषायो, सयोगी, मनोयोगी आदि तीन, साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त / इनमें सामान्यतया चार भंग ही होते हैं, किन्तु जब ये बीस पद अचरम मनुष्य के साथ हों, तब चौथा भंग इनमें नहीं होता, क्योंकि चौथा भंग चरम मनुष्य में ही होता है / अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी, ये तीन पद चरम में ही होते हैं, अचरम के साथ इनका प्रश्न सम्भव ही नहीं है, इस कारण इनके विषय में अचरम-सम्बन्धी प्रश्न करने का निषेध किया गया है।' अचरम चौवीस दण्डकों में ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध-प्ररूपरणा 5. अचरिमे णं भंते ! नेरइए नाणावरणिज्जं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! एवं जहेव पावं, नवरं मणुस्सेसु सकसाईसु लोभकसायीसु य पढम-बितिया भंगा, सेता अट्ठारस चरिमविहूणा / [5 प्र.] भगवन् ! क्या अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् चतुभंगात्मक प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि सकषायी और लोभकषायी मनुष्यों में प्रथम और द्वितीय भंग कहने चाहिए। शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिए / 6. सेसं तहेव जाव वेमाणियाणं / [6] शेष सर्वत्र यावत् वैमानिक पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए / 1. (क) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3582 (ख): भगवती. अ. वृत्ति. पत्र 937 Page #2758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रजाप्तिसूत्र 7. दरिसणावरणिज्जं पि एवं चेव निरवसेसं। {7] दर्शनावरणीय कर्म के विषय में समग्र कथन इंसी प्रकार समझना चाहिए। 8. वेदणिज्जे सम्वत्थ वि पढम-बितिया भंगा जाव वेमाणियाणं, नवरं मणुस्सेसु अलेस्से केवली अजोगी य नत्थि / [4] वेदनीय कर्म के विषय में सभी स्थानों में यावत् वैमानिक तक प्रथम और द्वितीय भंग कहना चाहिए / विशेष यह है कि अचरम मनुष्यों में अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी नहीं होते। 6. अचरिमे णं भंते ! नेरइए मोहणिज्ज कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! जहेव पावं तहेव निरवसेसं जाव वेमाणिए। [प्र.] भगवन् ! अचरम नैरयिक ने क्या मोहनीय कर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / FE उ.] गौतम ! जिस प्रकार पापकर्मबन्ध के विषय में कहा था, उसी प्रकार यहाँ भी अचरम नैरपिक के विषय में पापकर्म-सम्बन्धी समस्त कथन यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए / 10. प्रचरिमे गं भंते ! नेरतिए आउयं कम्मं कि बंधी० पुच्छा। गोयमा ! पढम-ततिया भंगा / [10 प्र.] भगवन् ! क्या अचरम नैरयिक ने प्रायुष्य कर्म बांधा था ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [10 उ.] गौतम ! प्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिए। 11. एवं सव्वपएसु वि नेरइयाणं पढम-तलिया भंगा, नवरं सम्मामिच्छत्ते तइयो भंगो / F11/ इसी प्रकार नैरयिकों के बहुवचन-सम्बन्धी समस्त पदों में पहला और तीसरा नंग कहना चाहिए / किन्तु सम्यमिथ्यात्व में केवल तीसरा भंग कहना चाहिए। 12. एवं जाव थणियकुमाराणं / [12] इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 13. पुढविकाइय-प्राउकाइय-वणस्सइकाइयाणं तेउलेसाए ततियो भंगो। सेसपएसु सन्वस्थ पढम-ततिया भंगा। [13] पृथ्वी कायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और तेजोलेश्या, इन सबमें तृतीय भंग होता है। शेष पदों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए। 14. तेउकाइय-वाउकाइयाणं सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [14] तेजस्कायिक और वायुकायिक के सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग कहना चाहिए। 15. बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदियाणं एवं चेव, नवरं सम्मत्ते प्रोहिनाणे प्राभिणिबोहियनाणे सुयनाणे, एएसु चउसु वि ठाणेसु ततियो भंगो। [15] द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / Page #2759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां शतक : उद्देशक 11] [561 विशेष यह है कि सम्यक्त्व, अवधिज्ञान, प्राभिनिबोधिकज्ञान, और श्रुतज्ञान इन चार स्थानों में केवल तृतीय भंग कहना चाहिए / 16. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मामिच्छत्ते ततियो भंगो / सेसपएसु सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [16] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में सम्यगमिथ्यात्व में तीसरा भंग पाया जाता है। शेष पदों में सर्वप्रथम और तृतीय भंग जानना चाहिए। 17. मणुस्साणं सम्मामिच्छत्ते अवेयए अकसायिम्मि य ततियो भंगो, अलेस्स-केवलनाणअजोगी य न पुच्छिज्जति, सेसपएसु सम्वत्थ पढम-ततिया भंगा। [17] मनुष्यों में सम्यगमिथ्यात्व, अवेदक और अकषाय में तृतीय भंग ही कहना चाहिए / अलेश्यी, केवलज्ञानी और अयोगी के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / शेष पदों में सभी स्थानों में प्रथम और तृतीय भंग होता है / 18. वाणमंतर-जोति सिय-वेमाणिया जहा नेरतिया। [18] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 16. नामं गोयं अंतराइयं च जहेव नाणावरणिज्जं तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // छब्बीसइमे सए : एगारसमो उद्देसनो समत्तो / / 26-11 // // छब्बीसइमं बंधिसयं समत्तं // 26 // [16] नाम, गोत्र और अन्तराय, इन तीन कर्मों का बन्ध ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के समान समग्ररूप से कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन –स्पष्टीकरण ---ज्ञानाबरणीय कर्मबन्धक का दण्डक पापकर्मबन्ध के दण्डक के समान है, किन्तु पापकर्मदण्डक में सकषाय और लोभकषाय में प्रथम के तीन भंग कहे हैं, जबकि यहाँ प्रथम के दो भग (पहला और दूसरा) ही कहने चाहिए, क्योंकि ये ज्ञानावरणीय कर्म को बांधे बिना उसके पुनर्बन्धक नहीं होते, और सकषायी जीव सदैव ज्ञानावरणीय कर्म के बन्धक होते ही हैं / अचरम होने से इनमें चौथा भंग नहीं होता। वेदनीयकर्म में सर्वत्र प्रथम और द्वितीय भंग ही होता है। इसमें तीसरा और चौथा भंग घटित नहीं हो सकता, क्योंकि जो एक बार वेदनीय कर्म का प्रबन्धक हो जाता है, वह फिर वेदनीयकर्म कदापि नहीं बांधता। चौथा भंग अयोगी अवस्था में होता है, इसलिए वह अचरम में नहीं बनता। Page #2760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पायुकर्म-बन्ध के विषय में नैरयिक में पहला और तीसरा भंग पाया जाता है। प्रथम भंग का घटित होना स्पष्ट है। तीसरे भंग की घटना इस प्रकार है-उसने आयुकर्म बांधा था, वर्तमान में (अबन्धकाल में) नहीं बांधता, परन्तु भविष्य में बन्धकाल में बांधेगा, क्योंकि यह अचरम है। इसमें दूसरा और चौथा भंग घटित नहीं हो सकता, क्योंकि अचरम होने से आयु का बन्ध अवश्य करेगा, इसलिए दूसरा भंग नहीं बनता अन्यथा उसका अचरमत्व ही नहीं हो सकता और इसी यूक्ति से चौथा भंग भी घटित नहीं होता। शेष पदों की घटना पूर्ववत् कर लेनी चाहिए।' // छन्वीसवां शतक : ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // ॥छन्वीसवाँ बन्धीशतक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 937-938 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3583 Page #2761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमं सयं : करिंसु सयं सत्ताईसवां शतक : "किया था' इत्यादि शतक प्रथम से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक छब्बीसवें शतक की वक्तव्यतानुसार ज्ञानावरणोयादि पापकर्मकरण-प्ररूपणा 1. जीवे णं भंते ! पावं कम्मं किं करिसु, करेति, करिस्सति; करिसु, करेति, न करेस्सति; करिसु, न करेइ, करिस्सति; करिसु, न करेइ, न करेस्सइ ? / गोयमा ! प्रत्यंगतिए करिसु, करेति, करिस्सति; अत्थेगतिए करिसु, करेति, न करिस्सति; अत्थेगतिए करितु, न करेति, करेस्सति; प्रथेगतिए करिसु, न करेति, न करेस्सति / [1 प्र.] भगवन् ! (1) क्या जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा? (2) अथवा किया था, करता है और नहीं करेगा ? या (3) किया था नहीं करता और करेगा? (4) अथवा किया था, नहीं करता और नहीं करेगा ? [1 उ.] गौतम ! (1) किसी जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा। (2) किसी जीव ने किया था, करता है और नहीं करेगा / (3) किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और करेगा। (4) किसी जीव ने किया था, नहीं करता है और नहीं करेगा। 2. सलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्म? एवं एएणं अभिलावेणं जच्चेव बंधिसते वत्तव्वया सच्चेव निरवसेसा भाणियध्वा, सह चेक नवदंडगसंगहिया एक्कारस उद्देसगा भाणितम्वा / // सत्तावीसइमस्स सयस्स एक्कारस-उद्देसगा समत्ता / / 27 / 1-11 // // सत्तावीसइमं सयं : कारसुसयं समत्तं // 27 // [2 प्र] भगवन् ! सलेश्य जीव ने पापकर्म किया था ? इत्यादि पूर्वोक्त बन्धिशतकानुसार सभी प्रश्न / [2 उ.] (गौतम ! ) बन्धीशतक (छब्बीसवें शतक) में जो वक्तव्यता इस (पूर्वोक्त) अभिलाप (पाठ) द्वारा कही थी, वह सभी यहाँ कहनी चाहिए तथा उसी प्रकार नौ दण्डकसहित ग्यारह उद्देशक भी यहाँ कहने चाहिए। विवेचन-छव्वीसवें और सत्ताईसवें शतक में अन्तर—जिस प्रकार छव्वीसवें शतक में प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में 'बंधी' शब्द का प्रयोग किया गया होने से वह 'बंधीशतक' कहलाता है, किन्तु Page #2762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इस सत्ताईसवें शतक में प्रत्येक प्रश्न के प्रारम्भ में 'करिसु' पद प्रयुक्त हुआ है, इसलिए इसे 'करिसुशतक' कहते हैं। सत्ताईसवें शतक के सभी प्रश्न और उनके उत्तर छवीसवें शतक के समान हैंविषय में थोड़ा अन्तर है. छब्बीसवें में त्रैकालिक पापकर्मबन्ध-सम्बन्धी' प्रश्न हैं, जबकि सत्ताईसवें शतक में अकालिक पापकर्मकरण-सम्बन्धी प्रश्न हैं। शंका -छव्वीसवें शतक में प्रयुक्त 'बन्ध' और सत्ताईसवें शतक में प्रयुक्त 'करण' में क्या अन्तर है ? समाधान–यद्यपि 'बन्ध' और 'करण' में कोई अन्तर नहीं है, तथापि यहाँ पृथक शतक के रूप में कथन करने का कारण यह है कि शास्त्रकार इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करना चाहते हैं कि जीव की जो कर्मबन्ध-क्रिया है, वह जीवकृत ही है, अर्थात्-वह कर्मबन्ध-किया जीव के द्वारा ही हुई है, ईश्वरादिकृत नहीं। अथवा-'बन्ध' का अर्थ है - सामान्यरूप से कर्म को बांधना, जबकि 'करण' का अर्थ है-कर्मों को निधत्तादिरूप से बांधना, जिससे विपाकादिरूप से उनका फल अवश्य भोगना पड़े, इत्यादि तथ्यों को व्यक्त करने के लिए 'बन्ध' और 'करण' का पृथक्-पृथक कथन किया है। // सत्ताईसवाँ 'करिसु' शतक सम्पूर्ण / 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3585 2. (क) वही (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3585-3586 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 938 Page #2763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं सयं : कम्मसमज्जणसयं अट्ठाईसवाँ शतक : कर्मसमर्जक-शतक पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक छन्वीसवें शतक में निर्दिष्ट ग्यारह स्थानों से जीवादि के पापकर्म-समर्जन एवं समाचरण का निरूपण 1. जीवा णं भंते ! पावं कम्मं कहि समजिणिसु ? कहिं समारिसु ? गोयमा ! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा 1, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य होज्जा 2, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणस्सेसु य होज्जा 3, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य देवेसु य होज्जा 4, अहवा तिरिक्खजोणिएस य नेरइएसु य मणुस्सेसु य होज्जा 5, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएस य देवेसु य होज्जा 6, अहवा तिरिक्खजोणिएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा 7, प्रहवा तिरिक्खजोणिएसु य नेरइएसु य मणुस्सेसु य देवेसु य होज्जा / . [1 प्र. भगवन् ! जीवों ने किस गति में पापकर्म का समर्जन (ग्रहण) किया था और किस गति में प्राचरण किया था ? [1 उ.] गौतम : (1) सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे (2) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिकों और नैरयिकों में थे, (3) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में थे, (4) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिकों और देवों में थे, (5) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिकों, नरयिकों और मनुष्यों में थे, (6) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिकों, नैरयिकों और देवों में थे, (7) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिको, मनुष्यों और देवों में थे, (8) अथवा (सभी जीव) तिर्यञ्चयोनिको, नैयिकों, मनुष्यों और देवों में थे। (अर्थात्-उन-उन गतियों-योनियों में उन्होंने पापकर्म का समर्जन और समाचरण किया था / ) 2. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म कहिं समजिणिसु ? कहि समारिसु ? एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी जीव ने किस गति में पापकर्म का समर्जन और किस गति में समाचरण किया था? [2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (यहाँ सभी भंग पाये जाते हैं / ) 3. एवं कण्हलेस्सा जाब प्रलेस्सा। [3] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी जीवों (से लेकर) यावत् अलेश्यी जीवों तक के विषय में भी कहना चाहिए। Page #2764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___4. कण्हपक्खिया, सुक्कयक्खिया एवं जाव प्रणागारोवउत्ता। [4] कृष्णपाक्षिक, शुक्लपाक्षिक (से लेकर) अनाकारोपयुक्त तक इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। 5. नेरतिया णं भंते ! पावं कम्म कहि समजिणि ? कहि समायरिंसु ? गोयमा! सव्वे वि ताव तिरिक्खजोणिएसु होज्जा, एवं चेव अट्ट भंगा भाणियव्वा / [5 प्र.] भगवन् ! नरयिकों ने कहाँ (किस गति या योनि में) पापकर्म का समर्जन और कहाँ समाचरण किया था? [5 उ.] गौतम ! सभी जीव तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्ववत् पाठों भंग यहाँ कहने चाहिए। 6. एवं सम्वत्थ अट्ट भंगा जाव प्रणागारोवउत्ता। [6] इसी प्रकार सर्वत्र यावत् अनाकारोपयुक्त तक पाठ-अाठ भंग कहने चाहिए। 7. एवं जाव वेमाणियाणं / [0] इसी प्रकार (दण्डक के क्रम से) यावत् वैमानिक पर्यन्त प्रत्येक के पाठ-पाठ भंग जानने चाहिए। 8. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडो। [8] इसी प्रकार ज्ञानावरणीय के विषय में भी 8 भंग समझने चाहिए। 6. एवं जाव अंतराइएणं। [6] (दर्शनावरणीय से लेकर) यावत् अन्तरायिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए। 10. एवं एते जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा नव दंडगा भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / ॥अदावोसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 28-1 // [10] इस प्रकार जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त ये नौ दण्डक होते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचनः-समर्जन और समाचरण का विशेषार्थ-समर्जन का विशेषार्थ है---पापकर्मों का समर्जन अर्थात् --उपार्जन और समाचरण का विशेषार्थ है—पापकर्म के हेतुभूत पापक्रिया का प्राचरण या उसके विपाक का अनुभव / यहाँ प्रश्न का प्राशय यह है कि जीव ने पापक्रिया के समाचरण द्वारा किस गति में पापकर्म का उपार्जन किया था ? अथवा समर्जन और समाचरण ये दोनों एकार्थक (पर्यायवाची) शब्द हैं / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 939 Page #2765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्राईसवां शतक : उद्देशक 1] [567 पाठ भंगों का स्पष्टीकरण---इन पाठ भंगों में प्रथम भंग लियञ्चगति का ही है। दूसरा, तीसरा और चौथा, ये तीन भंग द्विकसंयोगी बनते हैं। यथा-तिर्यञ्च और नैरयिक, तिर्यञ्च और मनुष्य तथा तिर्यञ्च और देव / पांचवां, छठा और सातवाँ, ये तीन भंग त्रिकसंयोगी बनते हैं। यथा-तिर्यञ्च, नैरयिक और मनुष्य, तिर्यञ्च, नैरयिक और देव तथा तिर्यञ्च, मनुष्य और देव / अाठवाँ भंग-तिर्यञ्च, नैरयिक, मनुष्य और देव, इस प्रकार चतु:संयोगी बनता है।' ___तिर्यञ्चयोनि अधिक जीवों को आश्रयभूत होने से सभी जीवों की मातृरूपा है। इसलिए अन्य नारकादि सभी जीव कदाचित् तिर्यञ्च से पाकर उत्पन्न हुए हों, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वे सभी तिर्यञ्चयोनि में थे।' इसका प्राशय यह है कि किसी विवक्षित काल में जो नैरयिक आदि थे, वे अल्पसंख्यक होने से, मोक्ष चले जाने के कारण अथवा तिर्यञ्चगति में प्रविष्ट हो जाने से उन विवक्षित नैरयिकों की अपेक्षा नरकगति निलेप (खाली) हो गई हो, परन्तु तिर्यञ्चगति अनन्त होने से कदापि खाली नहीं हो सकती। अतः उन तिर्यञ्चों में से निकल कर उन विवक्षित नैरयिकों के स्थान में नैरयिकरूप से उत्पन्न हुए हों, उनकी अपेक्षा यह कहा जा सकता है कि उन सभी ने तिर्यञ्चगति में (रहते) नरकगति आदि के हेतुभूत पापकर्मों का उपार्जन किया था। यह प्रथम भंग है। अथवा विवक्षित समय में जो मनुष्य और देव थे, वे निर्लेपरूप से वहाँ से निकल गए और उनके स्थानों में तिर्यञ्चगति और नरकगति से आकर जो जीव उत्पन्न हो गए, उनकी अपेक्षा से दूसरा भंग बनता है कि विवक्षित सभी जीव तिर्यञ्चयोनि और नैरयिकों में थे, जो जहाँ थे वहीं पर उन्होंने पापकर्मों का उपार्जन किया / अथवा विवक्षित समय में जो नैरयिक और देव थे, वे उसी प्रकार वहाँ से निर्लेपरूप से निकल गए और उनके स्थानों में तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति से प्राकर दूसरे जीव उत्पन्न हो गए, उनकी अपेक्षा यह तीसरा भंग बनता है कि वे सभी तिर्यञ्चों और मनुष्यों में थे, जो जहाँ थे वहीं पर उन्होंने पापकर्म उपाजित किये। इस प्रकार क्रमशः आठों भंगों के विषय में समझ लेना चाहिए / // अट्ठाईसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 939 2. वही, पत्र 939 Page #2766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक जीवों द्वारा कर्मसमर्जन अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में छन्वीसवें शतकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपरणा 1. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया पावं कम्म कहिं समज्जिणिसु ? कहि समारिसु ? गोयमा ! सन्चे वि ताव तिरिक्खजोणिएस होज्जा / एवं एस्थ वि अट्ठ भंगा। [1 प्र.] भगवन ! अनन्तरोपपत्रक नै रयिकों ने किस गति में पापकर्मों का समर्जन किया था, कहाँ आचरण किया था ? _ [1 उ.] गौतम ! वे सभी तिर्यञ्चयोनिकों में थे, इत्यादि पूर्वोक्त आठों भंगों का यहाँ कथन कहना चाहिए। 2. एवं प्रणतरोधवनगाणं नेरइयाईणं जस्स जं अस्थि लेस्साईयं प्रणागारोवयोगपज्जवसाणं तं सव्वं एयाए भयणाए भाणियव्वं जाव वेमाणियाणं / नवरं अणंतरेसु जे परिहरियव्वा ते जहा बंधिसते तहा इहं पि। 2] अनन्त रोषपन्नक नैर यिकों की अपेक्षा लेश्या आदि से लेकर यावत् अनाकारोपयोगपर्यन्त भंगों में से जिसमें जो भंग पाया जाता हो, वह सब विकल्प (भजना) से यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। परन्तु अनन्त रोपपत्रक नैरयिकों के जो-जो बोल छोड़ने (परिहार करने योग्य (मिश्रदृष्टि मनोयोग, वचनयोगादि) हैं, उन-उन बोलों को बन्धीशतक के अनुसार यहाँ भी छोड़ देना चाहिए। 3. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ। 4. एवं जाव अंतराइएणं निरवसेसं / एस वि नवदंडगसंगहिरो उद्देसश्रो भाणियन्वो / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। // अट्ठावीसइमे सए : बीओ उद्देसनो समत्तो // 28-2 / / [3-4] इसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म से लेकर यावत् अन्तरायकर्म तक नौ दण्डकसहित यह सारा उद्देशक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रनन्तरोपपन्नकों में ये बोल परिहरणीय- अनन्तरोपपन्नक नैरयिक में सम्यगमिथ्यात्व, मनोयोग, वचनयोगादि कतिपय पद संभावित नहीं हैं, इसलिए जैसे बन्धीशतक में उस विषय के प्रश्न नहीं किये गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी नहीं करने चाहिए। Page #2767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां शतक : उद्देशक 2] शंका : समाधान-प्रथम भंग में कहा गया है सभी तिर्यञ्चयोनिक से पाकर उत्पन्न हुए, किन्तु सिद्धान्तानुसार तिर्यञ्च तो पाठवें देवलोक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं, तब फिर तिर्यञ्च से निकले हुए पानतादि देवों में कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? तथा तिर्यञ्च से निकले हुए तीर्थकरादि उत्तम पुरुष भी नहीं होते, ऐसी शंका द्वितीय प्रादि भंगों में होती है। इसका समाधान वृत्तिकार ने यह किया है कि वृद्ध-प्राचार्यों को धारणानुसार ये भंग वाहुल्य को लेकर समझने चाहिए।' // अट्ठाईसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // - 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 941 Page #2768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयादि-एगारसम-पज्जंता उद्देसगा तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त छब्बीसवें शतक के तृतीय से ग्यारहवें उद्देशकानुसार पापकर्मसमर्जन-प्ररूपरणा 1. एवं एएणं कमेणं जहेव बंधिसते उद्देस गाणं परिवाडी तहेव इहं पि अट्टस भंगेस नेयम्वा / मवरं जाणियव्वं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्वं जाय अचरिमुद्देसो। सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / // अट्ठावीसइमे सए : तझ्याइ-एक्कारस-उद्देसगा समत्ता / / 28 / 3-11 // // अट्ठावीसइमं पापकम्म-समज्जण-सयं समत्तं // [2] जिस प्रकार 'बन्धीशतक' में उद्देशकों की परिपाटी कही है, उसी क्रम से, उसी प्रकार यहाँ भी पाठों ही भंगों में जाननी चाहिए / विशेष यह है कि जिसमें जो बोल सम्भव हों, उसमें वे ही बोल यावत् अचरम उद्देशक तक कहने चाहिए / इस प्रकार ये सब ग्यारह उद्देशक (पूर्ववत्) हुए / __हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-ग्यारह उद्देशक तक बन्धीशतक का अतिदेश-बन्धी शतक में तीसरे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक जिस क्रम से जो भी प्रश्नोत्तर अंकित हुए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक कहना चाहिए। इतना अवश्य विवेक करना चाहिए कि जिसमें जो बोल सम्भव हो, वही कहना चाहिए, अन्य नहीं। // अट्ठाईसौं शतक : तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण / / / अट्ठाईसवाँ शतक समाप्त / / Page #2769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणतीसइमं सयं : कम्मपट्ठवण-सयं उनतीसवां शतक : कर्मप्रस्थापनशतक पढमो उद्देसमो : प्रथम उद्देशक जीव और चौवीस दण्डकों में समकाल-विषमकाल की अपेक्षा पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का निरूपण 1. [1] जीवा णं भंते ! पावं कम्म कि समायं पटुविसु समायं निविसु, समायं पट्टविसु विसमायं निर्विसु; विसमायं पविसु समायं निट्ठविसु; विसमायं पटुविसु विसमायं निट्ठविसु ? गोयमा ! अत्थेगइया समायं पविसु, समायं निर्विसु, जाव प्रत्थेगतिया विसमायं पट्टविस, विसमायं निविसु / 1-1 प्र.] भगवन् ! (1) जीव पापकर्म का बेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं ? (2) अथवा एक साथ प्रारम्भ करते हैं और भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं ? या (3) भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं ? (4) अथवा भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं ? 1-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीव (पापकर्मवेदन) एक साथ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं यावत् कितने ही जीव विभिन्न समय में प्रारम्भ करते और विभिन्न समय में समाप्त करते हैं। [2] से केणटुणं भंते ! एवं बुच्च–अत्थेगइया समायं० ?' तं चेव / गोयमा! जीवा चउन्विहा पन्नत्ता, तं जहा–प्रत्थेगइया समाउया समोक्वनगा, प्रत्थेगइया समाउया विसमोववनगा, अत्थेगइया विसमाउया समोववनगा, प्रत्येगइया विसमाउया विसमोववनगा / तस्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं पावं कम्मं समायं पविस, समायं निविस / तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं पावं कम्मं समायं पटुविसु, विसमायं निविस / तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववनगा ते णं पावं कम्मं विसमायं पाविस, समायं निद्रावस / तत्थ पंजे ते विसमाउया विसमोववन्नगा तेणं पावं कम्म विसमायं पट्टविस, विसमायं नियुविसु / से तेणठेणं गोयमा ! 0, तं चेव / / [1-2 प्र.] भगवन ! ऐसा क्यों कहा कि कितने ही जीव पापकर्मों का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं, इत्यादि ? 1-2 उ.] गौतम ! जीव चार प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) कई जीव समान प्रायु वाले हैं और समान (एक साथ) उत्पन्न होते हैं, (2) कई जीव समान आयु वाले हैं, किन्तु विषम भिन्न-भिन्न) Page #2770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572] (গ্রাসন समय में उत्पन्न होते हैं, (3) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और सम (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और (4) कितने ही जीव विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न-भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं / इनमें से जो (1) समान प्रायु वाले और समान (एक साथ) उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन (भोग) एक साथ प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही समाप्त करते हैं, (2) जो समान प्रायु वाले हैं, किन्तु विषम समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन एक साथ प्रारम्भ करते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न समय में समाप्त करते हैं, (3) जो विषम आयु वाले हैं और समान समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का भोग (वेदन) भिन्न-भिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और एक साथ अन्त करते हैं और (4) जो विषम आयु वाले हैं और विषम (भिन्न) समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म का वेदन भी भिन्नभिन्न समय में प्रारम्भ करते हैं और अन्त भी विभिन्न समय में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार का कथन किया है / 2. सलेस्सा णं भंते ! जीवा पावं कम्म० ? एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी (लेश्या वाले) जीव पापकर्म का वेदन एक काल में (एक साथ) करते हैं ? इत्यादि (पूर्वोक्त प्रकार से) प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! इसका समाधान पूर्ववत् समझना / 3. एवं सन्यट्ठाणेसु वि जाव अणागारोवउत्ता, एते सम्वे वि पया एयाए वत्तवयाए भाणितम्या। _ [3] इसी प्रकार सभी स्थानों में यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जानना चाहिए / इन सभी पदों में यही बक्तव्यता कहनी चाहिए / 4. नेरइया णं भंते ! पावं कम्मं कि समायं पट्टविसु, समायं निविसु० पुच्छा। गोयमा! अत्थेगइया समायं पट्टविस०, एवं जहेव जीवाणं तहेव भाणितन्वं जाव प्रणागारोवउत्ता। [4 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक पापकर्म भोगने का प्रारम्भ एक साथ (एक काल में) करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ करते हैं ? 14 उ.] गौतम ! कई नैरयिक एक साथ पापकर्म भोगने का प्रारम्भ करते हैं और एक साथ ही उसका अन्त करते हैं, इत्यादि सब (पूर्वोक्त चतुर्भगी का) कथन सामान्य जीवों की वक्तव्यता के समान यावत् अनाकारोपयुक्त तक नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। 5. एवं जाव वेमाणियाणं / जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणियध्वं / [5] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जिस में जो बोल पाये जाते हों, उन्हें इसी क्रम से कहना चाहिए। Page #2771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां शतक : उद्देशक 1] 6. जहा पावेण दंडो, एएणं कमेणं अट्टसु वि कम्मप्पगडीस अट्ट दंडगा भाणियग्वा जीवाईया वेमाणियपज्जवसाणा / एसो नवदंडगसंगहिरो पढमो उद्देसओ भाणियन्वो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // एगणतीसइमे सए : पढमो उद्देसश्रो समत्तो // 26-1 // [6] जिस प्रकार पापकर्म के सम्बन्ध में दण्डक कहा, इसी प्रकार इसी क्रम से सामान्य जीव से लेकर वैमानिकों तक आठों कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में आठ दण्डक कहने चाहिए। इस रीति से नौ दण्डकसहित यह प्रथम उद्देशक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त की चौभंगी का स्पष्टीकरण-~-पापकर्म को भोगने के प्रारम्भ और अन्त के लिए प्रस्तुत शतक में कथित चतुर्भगी, समकाल और विषमकाल की अपेक्षा से कही गई है। यह चतुर्भगी सम और विषम (एक काल और विभिन्न काल) तथा सम (एक काल में) उत्पत्ति और विषम (विभिन्न काल में) उत्पत्ति वाले जीवों की अपेक्षा से घटित होती है। शंका : समाधान--प्रश्न होता है कि यह चतुभंगी आयुकर्म की अपेक्षा तो घटित हो सकती है, किन्तु पापकर्मवेदन की अपेक्षा कैसे घटित होगी, क्योंकि पापकर्म का प्रायुकर्म की अपेक्षा न तो प्रारम्भ होता है और न ही उसका अन्त होता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ कर्मों का उदय और क्षय भव की अपेक्षा से विवक्षित है / इसी अपेक्षा से प्रायुकर्म की समानता(समकालिक कर्मवेदन) और विषमता तथा विवक्षित आयुष्यकर्म का क्षय होने पर भव में उत्पत्ति की समानता और विषमता को लेकर पापकर्मवेदन के प्रारम्भ और अन्त का कथन किया है / अतएव पापकर्मवेदन सेसम्बन्धित यह चौभगी घटित हो जाती है।' कठिन शब्दार्थ-समाय-एक साथ एक काल में, पट्टविसु प्रस्थापित हुए---प्राथमिकरूप से वेदन करना प्रारम्भ किया, निर्विसु-निष्ठा को प्राप्त किया, अन्त--समाप्त किया। / उनतीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 940-941 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3598 2, भगवती अ. वृत्ति, पत्र 940 Page #2772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक नैयिकादि के पापकर्मवेदन सम्बन्धी अनन्तरोपपन्नक चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा समकाल-विषमकाल को लेकर पापकर्मवेदन प्रादि को प्ररूपरगा 1. [1] अणंतरोक्वनगा गं भंते ! नेरतिया पावं कम्म कि समायं पट्टविस, समायं निविसु० पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइया समायं पटुविसु समायं निविस; अत्थेगइया समायं पट्टविसु विसमायं निविसु / [1-1 प्र.] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक एक काल में (एक साथ) पापकर्म वेदन करते हैं तथा एक साथ ही उसका अन्त करते हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! कई (अनन्तरोपपन्नक नैरयिक) पापकर्म को एक साथ (समकाल में) भोगते हैं और एक साथ अन्त करते हैं तथा कितने ही (अन. नैर.) एक साथ पापकर्म को भोगते हैं, किन्तु उनका अन्त विभिन्न समय में करते हैं। [2] से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगइया समायं पटुविसु० तं चेव / गोयमा ! अणंतरोववन्नगा नेरतिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा--अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया समाउया विसमोवबन्नगा / तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु समायं निविसु / तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविसु विसमायं निविसु / से तेणठेणं० तं चेव / [1-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कई "एक साथ भोगते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? [1-2 उ.] गौतम! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं / यथा-कई (प्र. नं.) समकाल के ग्रायुष्य वाले और समकाल में ही उत्पन्न होते हैं तथा कतिपय (अ. नै. ) सम य वाले. किन्त पथक-पथक काल में उत्पन्न हुए होते हैं। उनमें से जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं तथा एक साथ उत्पन्न होते हैं, वे एक काल में (एक साथ) पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ करते हैं तथा उसका अन्त भी एक काल में (एक साथ) करते हैं और जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ तो एक साथ (एक काल में) करते हैं, किन्तु उसका अन्त पृथक्-पृथक् काल में करते हैं, इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है....।। Page #2773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसबां शतक : उद्देशक 2] [575 2. सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववनगा ने रतिया पावं ? एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! क्या लेश्या वाले (सलेश्यी) अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न / [2 उ. गौतम ! इस विषय में सारा कथन पूर्ववत् समझना / 3. एवं जाव प्रणागारोवयुत्ता। [3] इसी प्रकार की वक्तव्यता यावत् अनाकारोपयुक्त तक समझना चाहिए / 4. एवं असुरकुमारा वि, एवं जाव येमाणिया / [4] असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 5. नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणितब्वं / [5] विशेष यह है कि जिस में जो बोल पाया जाता हो, वही कहना चाहिए। 6. एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडनो। [6] इसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के सम्बन्ध में भी दण्डक कहना चाहिए। 7. एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ / // एगणतीसइमे सए : बीओ उद्देसओ समत्तो / / 26-2 // [7] और इसी प्रकार यावत् अन्तरायकर्म तक समग्र पाठ कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे। विवेचन--अनन्तरोपपन्नक, समोपपन्नक, समायुष्क और विषमोपपन्नक के विशेषार्थ-पायुष्य के उदय के प्रथम समयवर्ती (तुरंत उत्पन्न हुए) जीव 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं। उनके आयुष्य का उदय समकाल में ही होता है अन्यथा उनका अनन्तरोपपन्नकत्व ही नहीं रह सकता। मरण के पश्चात् परभव की उत्पत्ति की अपेक्षा 'समोपपन्नक' कहलाते हैं तथा मरणकाल में भूतपूर्व गति की अपेक्षा से भी वे जीव अनन्तरोपपत्रक होते हैं / इस प्रकार यह प्रथम भंग बनता है। दुसरे भंगवर्ती जीवों का समकाल में आयु का उदय होने से वे समायुरुक कहलाते हैं तथा मरणसमय की विषमता (विभिन्न काल में मृत्यु) के कारण वे 'विषमोपपत्रक' कहलाते हैं। इस प्रकार यह दूसरा भंग बनता है। ये अनन्तरोपपन्नक हैं, इसलिए इनमें विषमायु-सम्बन्धी तृतीय और चतुर्थ भंग घटित नहीं / उनतीसवाँ शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 941 (ख) भगवती, (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3600 होता। Page #2774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक तक छव्वीसवें शतक के तीसरे से ग्यारहवें उद्देशकानुसार सम-विषम-कर्मप्रारम्भ एवं कर्मान्त का निरूपण 1. एवं एतेणं गमएणं जच्चेव बंधिसए उद्देसग-परिवाडी सच्चेव इह वि भाणियव्वा जाव अचरिमोत्ति / अणंतर-उद्देसगाणं चउण्ह वि एक्का वत्तब्वया, सेसाणं सत्ताह एक्का। ॥एगणतोसइमे सए : तइयाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 26-3.11 // // एगणतोसइमं कम्म-पट्ठवणसयं समत्तं // 26 // [2] बन्धीशतक (26 वें शतक) में उद्देशकों की जो परिपाटी कही है, यहाँ भी इस पाठ से समग्र उद्देशकों की वह परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए / अनन्तर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यता कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-दो प्रकार की वक्तव्यताओं का अतिदेश-यहाँ दो प्रकार की वक्तव्यताओं का अतिदेश किया गया है। अनन्तरोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक, इन चार उद्देशकों की वक्तव्यता एक समान है और वह बन्धीशतक के अनन्तरसम्बन्धी चार उद्देशकों के समान कहनी चाहिए। शेष जो सात उद्देशक हैं, उनकी वक्तव्यता भी एक समान है और वह 26 वें शतक में उक्त वक्तव्यतानुसार कहनी चाहिए।' // उनतीसवां शतक : तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक सम्पूर्ण // // उनतीसवाँ : कर्मप्रस्थापनशतक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 942 Page #2775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं सयं : तीसवाँ शतक प्राथमिक भगवतीसूत्र का यह तीसत्रां समवसरणशतक है। यहाँ समवसरण का अर्थ 'तीर्थकर भगवान की धर्मसभा' नहीं, किन्तु क्रयचित् समानता के कारण विभिन्न परिणाम वाले जीवों का एकत्र अवतरण समवसरण है। वास्तव में प्रस्तुत शतक में विभिन्न मतों या दर्शनों के अर्थ में समवसरण शब्द प्रयुक्त किया गया है / * प्राचीनकाल में भारतवर्ष में विभिन्न मत, वाद, दर्शन, मान्यता या परम्पराएँ प्रचलित थीं ! परस्पर सहिष्णुता और समन्वयदृष्टि न होने के कारण विभिन्न दर्शन एवं मत के अनुगामियों का संघर्ष हो जाता था / वह राग-द्वेषवर्द्धक या कषायवर्द्धक बन जाता था / उससे सत्य की तह में पहुंचने की अपेक्षा विभिन्न मतवादी कलह, विवाद और ईर्ष्या की आग भड़काते रहते थे। श्रमण भगवान् महावीर अनेकान्तदृष्टि से अथवा सापेक्षदृष्टि से विभिन्न मतों और वादों में निहित सत्य को ग्रहण करते थे। उनका उपदेश भी यही था कि प्रत्येक वस्तु को विभिन्न पहलुओं से जांचो-परखो और एकान्तवाद, हठाग्रह या पूर्वाग्रह छोड़ कर सत्य को पकड़ो। इससे रागद्वेष या कषाय का भी शमन होगा, यात्मिक शान्ति का प्रादुर्भाव होगा और नमता की साधना में तेजस्विता पाएगी / 3 इसी दृष्टिकोण से श्रमण भगवान् महावीर ने 'समवसरण' का प्रतिपादन इस शतक में किया है। * नमवसरण के वैसे तो अनेक भेद हो सकते हैं, परन्तु भ. महावीर ने यहाँ मुख्यतया चार भेद किये हैं—क्रियावादी, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। 1 मा प्रतीत होता है कि श्रमण भगवान् महावीर के युग में जो-जो मत या वाद प्रचलित थे, उन सबका पूर्वोक्तचार प्रकारों में समावेश किया गया है / यथा-ग्रात्मा-परमात्मा, स्वर्गनरक, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को मानने वाले सभी दर्शन क्रियावादियों में परिगणित किये जा सकते हैं, उसी प्रकार आत्मा को न मानने वाले चार्वाक या उसे क्षणिक मानने वाले बौद्ध आदि दर्शन प्रक्रियावादी कहे जा सकते हैं। * सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवें समवसरण अध्ययन में इन मतों का संक्षिप्त वर्णन है / आचारांग-मूत्र (अ. 1 उ. 1) की शीलांकाचार्यत्ति में उनके भेद-प्रभेदों का वर्णन है / परन्तु उस पर से यह स्पष्ट नहीं जाना जा सकता कि उन सबकी क्या मान्यता थी? * प्रायः प्रागमों में अनेक स्थलों पर इन चारों वादियों को एकान्तवादी होने से मिथ्यादष्टि कहा है / क्रियावादी एकान्तरूप से जीवादिपदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं, प्रक्रियावादी इनका अस्तित्व ही नहीं मानते, अज्ञानवादी अजान को एवं विनयवादी विनय को ही एकान्त Page #2776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र रूप से श्रेयस्कर मानते हैं, इसलिए मिथ्यादृष्टि हैं। परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में क्रियावादी को सम्यग्दृष्टि माना है। प्रक्रियावादी, विनयवादी एवं अज्ञानबादी दोनों ही प्रकार के माने गए हैं। किन्तु अज्ञानवादी एवं विनयवादी प्राय: मिथ्यादृष्टि दृष्टि हैं। * इस शतक में ग्यारह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समवसरण के क्रियावादी आदि चार भेद तथा पूर्वोक्त ग्यारह स्थानों से विशेपित चौवीस दण्डकवती जीवों में क्रियावादिन आदि की प्ररूपणा की गई है। * इसके पश्चात् त्रियावादी प्रादि चारों ही प्रकार के जीवों के प्रायुष्यबन्ध का कथन किया गया है। * तृतीय दण्डक में क्रियावादी आदि औधिक तथा विशेषणयुक्त जीवों के भव्यत्व-अभव्यत्व का निर्णय किया गया है। * द्वितीय उद्देशक के अनन्तरोपपन्नक नैरयिक प्रादि के क्रियावादित्व-प्रक्रियावादित्व की चर्चा की गई है। साथ ही इनके आयुष्यबन्ध तथा भव्याभव्यत्व की भी चर्चा पूर्ववत् की गई है। * तृतीय उद्देशक में परम्परोपपन्नक नै रयिक आदि के क्रियावादित्व-अक्रियावादित्व की चर्चा की गई है। साथ ही प्रायुष्यबन्ध तथा भध्याभध्यत्व को चचो / * चौथे से ग्यारहवें उद्देशक में छब्बीसवें शतक के अतिदेशपूर्वक क्रमशः 8 उद्देशकों की प्ररूपणा की गई है। क्रम इस प्रकार है-अनन्तरावगाढ, परम्परावगाट, अनन्तराहारक-परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक, परम्पर-पर्याप्तक, चरम और अचरम / * कुल मिलाकर ग्यारह उद्देशकों के द्वारा विभिन्न पहलुओं से क्रियावादी आदि का सांगोपांग निरूपण किया गया है। Page #2777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं सयं : समवसरण-सयं तीसवां शतक : समवसरण-शतक पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक समवसरण और उसके चार भेद 1. कति णं भंते ! समोसरणा पन्नता? गोयमा चत्तारि समोसरणा पन्नता, तं जहा-किरियावादी अकिरियावादी प्रनाणियवादी वेणइयवादी। [1 प्र.] भगवन् ! समवसरण कितने कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! समवसरण चार कहे हैं। यथा-१. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. अज्ञानवादी और 4. विनयवादी। विवेचन समवसरण का स्वरूप --कथञ्चित् तुल्यता के कारण नाना परिणाम वाले जीव जिसमें (जिस विषय में) रहते हैं-समवसृत (जहाँ एकत्रित) होते हैं, उसे अर्थात्-भिन्नभिन्न मतों या दर्शनों को समवसरण कहते हैं। अथवा परस्पर भिन्न क्रियावाद आदि मतों में, कथञ्चित् समानता होने से कहीं-कहीं वादियों का अवतरण समवसरण कहलाता है।' समवसरण के चार भेद हैं -क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी। इन मतों के सम्बन्ध में विस्तृत तथ्य प्राप्त नहीं होते / 2 / क्रियावादी आदि को पुरातन और प्रस्तुत व्याख्या-(१) क्रियावादी-कर्ता के बिना क्रिया सम्भव नहीं। इसलिए क्रिया का जो कर्ता-अात्मा है, उसके अस्तित्व को मानने वाले क्रियावादी 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 944 (1) समवसरन्ति नानापरिणामा जीवा: कञ्चित्तुल्यतया येषु मतेषु तानि ममवसरणानि / (2) समयमृतयो वाऽन्योऽन्यभिन्नेषु क्रियावादादिमतेषु कञ्चित्तुल्यत्वेन क्वचिद् केपांचित् बादिनामवतारा: समवसरणानि / 2. (क) श्रीमद् भगवतीसूत्र, चतुर्थ खण्ड (गुजराती अनुवाद), पृ. 302 (ख) प्राचारांगवत्ति अ.१, उ. 1, पत्र 16 . Page #2778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हैं / अथवा त्रिया ही प्रधान है, ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसी क्रिया-प्राधान्य की मान्यता वाले क्रियावादी कहलाते हैं। तीसरी व्याख्या के अनुसार एकान्तरूप से जो जीव, अजीव आदि पदार्थों के अस्तित्व को मानते हैं, वे क्रियावादी हैं। इनके 180 भेद हैं / यथा--जीब, अजीव, आश्रब, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन नौ पदों के स्व और पर के भेद से अठारह भेद होते हैं। इन 18 भेदों के नित्य और अनित्य रूप से 36 भेद होते हैं। इनमें से प्रत्येक के काल, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पांच-पांच भेद करने से 180 भेद होते हैं। यथा--जीव स्वस्वरूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। जीव पररूप से काल की अपेक्षा नित्य भी है और अनित्य भी है। इस प्रकार काल की अपेक्षा से 4 भद होते हैं। इसी प्रकार निर्यात, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा भी जीव के चार-चार भेद होते हैं। इस प्रकार जीव प्रादि नौ तत्त्वों के प्रत्येक के बीस-बीस भेद होने से कुल 180 भेद हुए। (2) अक्रियावादी-इसकी भी अनेक व्याख्याएँ हैं। यथा-(१) किसी भी अनवस्थित पदार्थ में क्रिया नहीं होती। यदि पदार्थ में क्रिया हो तो उसकी अनस्थिति नहीं होगी। इस प्रकार पदार्थों को अनवस्थित मान कर उनमें क्रिया का प्रभाव मानने वाले अक्रियावादी हैं। (2) अथवा क्रिया की क्या आवश्यकता है ? केवल चित्त की शुद्धि चाहिए। ऐसी मान्यता बाले (बौद्ध आदि) प्रक्रियावादी कहलाते हैं। (3) अथवा जीवादि के अस्तित्व को न मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। इनके 84 भेद हैं। यथा—जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इन सात तत्त्वों के स्व और पर के भेद से चौदह भेद होते हैं। काल, यदच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और प्रात्मा; इन 6 की अपेक्षा पूर्वोक्त 14 भेदों का वर्णन करने से 1446 = 84 भेद होते हैं। जैसे किजीव स्वत: काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं है। इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद होते हैं, इसी प्रकार यदच्छा, नियति आदि की अपेक्षा से भी जीव के दो-दो भद होने से कुल बारह भेद जीव के हुए / जीव के समान शेष 6 तत्त्वों के भी बारह-बारह भेद होते हैं / यो कुल 124 84 भेद हुए। (3) अज्ञानवादी-जीवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई नहीं है और न ही उनके जानने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ज्ञानी और अजानी–दोनों का समान अपराध होने पर ज्ञानी का दोष अधिक माना जाता है, अज्ञानी का कम / इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है / इस प्रकार की मान्यता वाले अज्ञानवादी कहलाते हैं। इनके 67 भेद हैं / यथा-जीव, अजीव, आश्रक, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर. निर्जरा और मोक्ष, इन नौ तत्त्वों के सत्, असत्. सदसत्, प्रवक्तव्य, सद्-प्रवक्तव्य, असद्-ग्रवक्तव्य और सद्-असद्-अवक्तव्य इन सात से गुणन करने पर 647 =63 भेद होते हैं। उत्पत्ति के सद, असद्, सदसत् और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भेद होते हैं। जैसे कि-सत् जीव की उत्पत्ति होती है, यह कौन जानता है ? और इसके जानने से क्या लाभ है ? इत्यादि / (4) विनयवादी-स्वर्ग, अप वर्ग आदि श्रेय का कारण बिनय है। इसलिए विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को ही एकान्तरूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं। इन विनयवादियों का कोई लिंग (वेप या चिह्न), प्राचार या शास्त्र नहीं होता। इसके बत्तीस भेद हैं। यथा-देव, Page #2779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] [581 राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता; इन आठों का मन, वचन, काय पोर दान, इन चार प्रकार से विनय करना चाहिए / यों 8 को 4 से गुणा करने पर 32 भेद हुए।' / चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्दृष्टि ?-- प्रायः शास्त्रों में अनेक स्थलों पर इन चारों वादियों को मिथ्याद क्रियावादी जीवादि पदार्थों के अस्तित्व को ही मानते हैं। इस प्रकार एकान्त अस्तित्व को मानने से इनके मत में पररूप की अपेक्षा से नास्तित्व नहीं माना जाता / पररूप की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व न मानने से वस्तु में स्वरूप के समान पररूप का भी अस्तित्व रहेगा। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सभी वस्तुओं का अस्तित्व रहने से एक ही वस्तु सर्वरूप हो जाएगी, जो कि प्रत्यक्ष-वाचित है। इस प्रकार क्रियावादियों का मत मिथ्यात्वपूर्ण है। अक्रियावादी जीवादि पदार्थों का अस्तित्व नहीं मानते, इस कारण वे असद्भूत अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। जीव के अस्तित्व का एकान्तरूप से निषेध करने के कारण वे भी मिथ्याष्टि हैं। जीव के अस्तित्व का निषेध करने से उनके मतानुसार निषेधकर्ता का भी प्रभाव सिद्ध जो प्रत्यक्ष-बाधित है / निषेधकर्ता का अभाव हो जाने से सभी का अस्तित्व स्वत: सिद्ध हो जाता है / अज्ञानवादी–अज्ञान को ही श्रेयस्कर मानते हैं। इसलिए वे भी मिथ्यादृष्टि हैं और उनका कथन स्ववचन-बाधित है। क्योंकि 'अज्ञान ही श्रेयस्कर है' इस बात को वे बिना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं और ज्ञान के अभाव में वे अपने मत का समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? इस प्रकार अज्ञान को श्रेयस्कर मानने पर भी उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है। विनयवादी-विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष प्रादि कल्याण को पाने की इच्छा रखने वाले विनयवादी मिथ्यादष्टि हैं; क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अकेले ज्ञान से या अकेली क्रिया से नहीं / ज्ञान को छोड़ कर एकान्तरूप से क्रिया के केवल एक अंग का प्राश्रय लेने से वे सत्यमार्ग से दूर हैं। इस प्रकार से चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं। यह मत अन्य शास्त्रों में प्रतिपादित है। परन्तु प्रस्तुत शतक (तीसवें) में उपर्युक्त क्रियावादी का ग्रहण नहीं किया गया है। यहाँ 'क्रियावादी' शब्द से सम्यग्दष्टि का ग्रहण किया गया है, जो जीव-प्रजीव ग्रादि का अस्तित्व मानने के साथ-साथ आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य-पाप आदि के अस्तित्व को दृढ़तापूर्वक मानते हैं / सर्वज्ञवचनों पर श्रद्धा रख कर चलते हैं / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 944 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3307 (म) अस्थित्ति किरियवाई वयंति, नस्थित्तिऽकिरयकाईओ। अन्नाणिय अन्नाणं, वेणइया विणयवायंति // 1 // --भ. अ. व. प. 944 2. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3608. (ख) एते च सर्वेऽप्यन्यत्र यद्यपि मिथ्यारष्टयोऽभिहितास्तथापीहाद्याः सम्यग्दृष्टयो ग्राह्या:, सम्यगस्तित्व वादिनामेव तेषां समाश्रयणात् / -भगवती. अ. व., पत्र 944 (ग) विशेष जानकारी के लिये देखिये----याचारांग वत्ति अ. 1, उ.१, पत्र 16 Page #2780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 582] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र * जोवों की ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादिता आदि प्ररूपरणा 2. जोवा णं भंते ! कि किरियावादी, अकिरियावादी, अनाणियवादी, वेणइयवादो ? गोयमा! जोवा किरियावादी वि, अकिरियावादो वि, अन्नागियवादी वि, वेणइयवादी वि / [2 प्र. भगवन् ! जीव क्रियावादी हैं, अक्रियावादी हैं, अज्ञानवादी हैं अथवा विनयवादी हैं ? {2 उ.] मौतम ! जीव क्रियावादी भी हैं, प्रक्रियावादी भी हैं, अज्ञानवादी भो हैं और विनयवादी भी हैं। 3. सलेस्सा णं भंते ! जीवा कि किरियावादी० पुच्छा। गोयमा ! किरियावादी वि जाव वेणइयवादी वि। [3 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी (लेश्यावाले) जीव क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 13 उ.] गौतम ! सलेश्यी जीव क्रियावादी भी हैं यावत् विनयवादी भी हैं / 4. एवं जाव सुक्कलेस्सा। [4] इसी प्रकार (कृष्णलेश्या बाले से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या वाले जीव पर्यन्त जानना / 5. अलेस्सा णं भंते ! जीवा० पुच्छा। गोयमा ! किरियावादी, नो प्रकिरियावादी, नो अन्नाणियवादी, नो वेणइयवादी / [5 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव कियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! वे क्रियावादी हैं, किन्तु प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी या विनयवादी नहीं हैं। 6. कण्हपक्खिया पं भंते ! जीवा कि किरियावादी० पुच्छा। गोयमा ! नो किरियावादी, अकिरियावादी वि, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। 66 प्र.] भगवन् ! कृष्णपाक्षिक जीव क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / / [6 उ.] गौतम ! कृष्णपाक्षिक जीव क्रियावादी नहीं हैं, अपितु प्रक्रियावादी हैं, अज्ञानवादी भी हैं और विनयवादी भी हैं। 7. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। [7] शुक्लपाक्षिक जीवों (का कथन) सलेश्यी जीवों के समान जानना चाहिए / 8. सम्मट्टिी जहा अलेस्सा। [=] सम्यग्दृष्टि जीव, अलेश्यो जीव के समान हैं / 1. मिच्छादिट्ठी जहा कण्हपक्खिया / [9] मिथ्यादृष्टि जीव, कृष्णपाक्षिक जीवों के समान हैं। 10. सम्मामिच्छट्ठिी गं० पुच्छा। गोयमा! नो किरियावादी, नो अकिरियावादी, अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। Page #2781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीसवां शतक : उद्देशक 1] [583 [10 प्र.] भगवन् ! सम्यमिथ्या (मिश्र) दृष्टि जीव क्रियावादी हैं ! इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [10 उ.] गौतम ! वे न तो क्रियावादी हैं और न ही प्रक्रियावादी हैं, किन्तु वे अज्ञानवादी हैं और विनयवादी भी हैं। 11. पाणी जाय केवलनाणी जहा अलेस्सा। [11] ज्ञानी (से लेकर) यावत् केवलज्ञानी जीव, अलेश्यी जीवों के तुल्य हैं। 12. अण्णाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया। [12] अज्ञानी (से लेकर) यावत् विभंगज्ञानी जीव, कृष्णपाक्षिक जीवों के समान हैं। 13. प्राहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसणोवउत्ता जहा सलेस्सा। [13] प्राहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त जीव सलेश्यी जीवों के समान हैं / 14. नोसपणोवउत्ता जहा अलेस्सा। [14] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों का कथन अलश्यी जीवों के समान है / 15. सवेयगा जाव नसगवेयगा जहा सलेस्सा। [15] सवेदी (से लेकर) यावत् नपुंसकवेदी जीव तक सले श्यी जीवों के सदृश हैं / 16. अवेयगा जहा अलेस्सा। [16] अवेदी जीवों का कथन अलेश्यी जीवों के तुल्य है। 17. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। [17] सकषायी (से लेकर) यावत् लोभकषायी जीवों का कथन सलेश्यी जीवों के समान है। 18. अकसायी जहा प्रलेस्सा। [18] अकषायी जीवों का कथन अलेपयी जीवों के सदृश है। 16. सजोगी जाव काययोगी जहा सलेस्सा। [19] सयोगी (से लेकर) यावत् काययोगी पर्यन्त जीवों का कथन सलेश्यी जीवों के समान है / 20. अजोगी जहा अलेस्सा। [20] अयोगी जीव, अलेश्यी जीवों के समान हैं। 21. सागारोबउत्ता अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा। [21] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, सलेश्यी जीवों के तुल्य हैं। विवेचन-क्रियावादी प्रादि चारों में से कौन क्या है ? क्रियावादी का अर्थ सम्यग्दष्टि होने से यहां उन्हें अलेश्यी जीवों के समान बताया है। अलेश्यी जीव अयोगी (मन-वचन-काया के योगों से रहित) एवं सिद्ध होता है / वे क्रियावाद के कारणभूत द्रव्य और पर्याय के यथार्थ ज्ञान से युक्त होने Page #2782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ] {व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से क्रियावादी हैं। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि के योग्य अलेश्यी, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी यावत् केवलज्ञानी, नोसंजोपयुक्त, अवेदी, अकषायी और अयोगी को यहाँ क्रियावादी कहा है तथा मिथ्यादष्टि के योग्य कृष्णपाक्षिक, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, यावत् विभंगज्ञानी अादि स्थानों का प्रक्रियावाद आदि तीन समवसरणों में समावेश किया गया है। मिश्रदृष्टि साधारण परिणाम वाला होने से उसकी गणना न तो क्रियावादी (ग्रास्तिक) में होती है और न ही अक्रियावादी (नास्तिक) में किन्तु वे अज्ञानवादी और विनयवादी ही होते हैं। इनके अतिरिक्त शेष सबकी गणना (मिश्रदृष्टि वाले को छोड़ कर) तीनों समवसरणों में होती है।' चौवीस दण्डकों में ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादादिसमवसरण-प्ररूपरणा 22. नेरइया णं भंते ! कि किरियावादी० पुच्छा / गोयमा! किरियावादी वि जाव वेणइयवादी वि / 22 प्र.] भगवन् ! नैरधिक क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 22 उ. गौतम ! वे क्रियावादी भी होते हैं, प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी भी। 23. सलेस्सा णं भंते ! नेरइया कि किरियावादी० ? एवं चेव / (23 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी नैरयिक क्रियावादी होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र प्रश्न / 23 उ.] गौतम ! के क्रियावादी भी यावत् विनयवादी भी हैं। 24. एवं जाव काउलेस्सा। [24] इसी प्रकार यावत् कापोतलेश्यो नै रयिकों तक पूर्ववत जानना चाहिए / 25. कण्हपक्खिया किरियाविज्जिया। [25] कृष्णपाक्षिक नैरयिक क्रियावादी नहीं हैं। 26. एवं एएणं कमेणं जहेव जच्चेव जोवाण वत्तवया सच्चेव नेरइयाण वि जाव प्रणागारोव उत्ता, नवरं जं अस्थि तं भाणियव्वं, सेसं न भण्णति / [26] इसी प्रकार और इसो क्रम से जिस प्रकार सामान्य जीवों के सम्बन्ध में वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार और उसी क्रम से यहाँ भी यावत् अनाकारोपयुक्त तक वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि जिसके जो हो, वही कहना चाहिए, शेष (न हो उसे) नहीं कहना चाहिए। 27. जहा नेरतिया एवं जाव थणियकुमारा। 627] जिस प्रकार नै रयिकों का कथन किया है, उसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कथन करना चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 944 (1) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7.6609 Page #2783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोसवां शतक : उद्देशक 1] [555 28. पुढविकाइया णं भंते ! कि किरियवादी० पुच्छा / गोयमा ! नो किरियावादी, अकिरियावादो वि अन्नाणियवादी वि, नो वेणइयवादी / एवं पुढविकाइयाणं जं अस्थि तत्थ सम्वत्थ वि एयाइं दो मझिल्लाइं समोसरणाइं जाव अणागारोवउत्त त्ति। [28 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वोकायिक क्रियावादी होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [28 उ.] गोतम ! वे क्रियावादी नहीं हैं, वे प्रक्रियावादी भो हैं, अज्ञानवादी भी हैं, किन्तु वे विनयवादी नहीं है। इसी प्रकार पृथ्वी कायिक आदि जीवों में जो पद संभावित हों, उन सभी पदों में (इन चारों में से) ये जो दो मध्यम समवसरण (अक्रियावादी और अज्ञानवादी) हैं, ये ही यावत् अनाकारोपयुक्त' पृथ्वीकायिक पर्यन्त होते हैं। 26. एवं जाव चरिदियाणं, सम्बहाणेसु एयाई चेव मझिल्लगाई दो समोसरणाई। सम्मत-नाणेहि वि एयाणि चेव मज्झिल्लगाई दो समोसरणाई। [26] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जोवों तक सभी पदों में मध्य के दो समवसरण होते हैं / इनके सम्यक्त्व और ज्ञान में भी ये दो मध्यम समवसरण जानने चाहिए। 30. पंचेंदियतिरिक्खजोगिया जहा जोवा, नवरं जं अस्थि तं भाणियत्वं / [30] पञ्वेन्द्रियतिर्यवयोनिक जीवों का कथन ओधिक जीवों के समान है, किन्तु इनमें भी जिसके जो पद हों, वे कहने चाहिए। 31. मणुस्सा जहा जीवा तहेव निरवसेसं / [31] मनुष्यों का समग्र कथन औधिक जीवों के सदृश है। 32. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [32] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। विवेचन स्पष्टीकरण-(१) पृथ्वोकायिक प्रादि जोव मिथ्यादष्टि होने से वे प्रक्रियावादी अज्ञानवादी होते हैं। यद्यपि उनमें वचन (वाणो) का अभाव होने से वाद नहीं होता, तथापि उस-उस वाद के योग्य परिणाम होने से वे अक्रियावादी और अज्ञानवादी कहे गए हैं। उनमें विनय. वाद के योग्य परिणाम न होने से वे विनयवादी नहीं होते / (2) पृथ्वीकायिकादि के योग्य सलेश्यत्व, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेण्या तथा कृष्णपाक्षिकत्वादि जो स्थान हैं, उन सभी में प्रक्रियावादी और अज्ञानवादी समवसरण होते हैं। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय कार चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए किन्त यहाँ इतना समझना आवश्यक है कि क्रियावाद और विनयवाद विशिष्ट सम्यक्त्वादि परिणाम के सद्भाव में होते हैं। इसलिए यद्यपि द्वीन्द्रिय प्रादि जीवों में सास्वादनगुणस्थान को प्राप्ति के समय सम्यक्त्व और ज्ञान का अंश होने से उनमें क्रियावादिता युक्तियुक्त है, तथापि थे क्रियावादी और विनयवादी नहीं कहलाते / Page #2784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (3) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में अलश्यत्व, अकषायत्व प्रादि की पृच्छा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ये स्थान इनमें नहीं होते / अन्य सब बातें स्पष्ट हैं।' क्रियावादादि चतुर्विध समवसरणगत जीवों की ग्यारह स्थानों में आयुष्यबन्ध-प्ररूपणा 33. [1] किरियावादी णं भंते ! जीवा कि नेरतियाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरिवखजोणियाउयं पकरेंति, मस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति। [33-1 प्र.] भगवन् ! क्रियावादी जीव नारकायु बांधते है, तिर्यञ्चायु वांधते हैं, मतृप्यायु बांधते हैं अथवा देवायु बांधते है ? [33-1 उ.] गौतम ! क्रियावादी जीव नरयिक और तिर्यञ्चयोनिक का प्रायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्यायु और देवायू बांधते हैं / [2] जति देवाउयं पकरेंति कि भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, जाब वेमाणियदेवाज्यं पकरेंति? गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतरदेवाउयं पकरेंति, नो जोतिसियदेवाउयं पकरेंति, वेमाणियदेवाउयं पकरेंलि / __ [33-2 प्र. भगवन् ! यदि क्रियावादी जीव देवायुष्य बांधते हैं तो क्या वे भवनवासीदेवायुष्य बांधते हैं, वाणन्यन्त र-देवायुष्य बांधते हैं, ज्योतिएक-देवायुप्य बांधते हैं अथवा वैमानिकदेवायूष्य बांधते हैं ? [33-2 उ.] गौतम ! वे न तो भवनवामी-देवायुय्य बांधते हैं. न वाणव्यन्तर-देवायुष्य बांधते हैं और न ही ज्योतिष्क-देवायुप्य बांधते हैं. किन्तु वैमानिक-देवायुप्य बांधते हैं। 34. अकरियावाई गं भंते ! जीवा कि नेरतियाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति, जाव देवाउयं पि पक रेति / [34 प्र.] भगवन् ! अक्रियावादी जीव नैरयिकायुप्य बांधते हैं, तिर्यञ्चायुष्य बांधते हैं. मनुष्यायुष्य बांधते हैं, अथवा देवायुप्य वाधते हैं ? [34 उ.] गौतम ! वे नैरयिकायुप्य भी बांधते हैं, तिर्यञ्चायुष्य भी बांधते है. मनुष्यायुष्य भी बांधते हैं और देवायुष्य भी। 35. एवं अन्नाणियवादी वि, बेणइयवादी वि / [35] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी जीवों के प्रायुप्य-वन्ध्र के विषय में भी समझना चाहिए। 1. (क) भगवती, अ, वृत्ति, पत्र 945 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3609 Page #2785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] 36. सलेस्सा णं भंते ! जोवा किरियावादी कि रतियाउयं पकरेंति० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं०, एवं जहेव जोवा तहेव सलेस्सा वि चउहि वि समोसरणेहि भाणियवा। [36 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी क्रियावादी जीव नारकायुष्य बांधता है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [36 उ.] गौतम ! वे नै रयिकायुष्य नहीं बांधते इत्यादि सब प्रोधिक जीव (के आयुष्यबन्धकथन) के समान सलेश्यी में चारों समवसरणों का (आयुष्यबन्ध) कथन करना चाहिए। 37. काहलेस्सा गं भंते ! जोवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेति० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख जोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति। [37 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी क्रियावादी जीव, नैरयिक का प्रायुष्य वांधते हैं? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 37 उ.] गौतम ! वे नैरयिकायुष्य, तिर्यञ्चायुष्य और देवायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्यायुष्य बांधते हैं। 38. अकिरिया-अन्नाणिय-वेणइयवादो चत्तारि वि पाउयाई पकरेंति / / [38] कृष्णलेश्यो प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी जीव, नैरयिक प्रादि चारों प्रकार का आयुष्य बांधते है / 36. एवं नीललेस्सा काउलेस्सा वि। J36] इसी प्रकार नीललेश्यी और कापोतलेश्यी क्रियावादी, (अक्रियावादी, अज्ञातवादी और विनयवादी जीवों के आयष्यवन्ध) के विषय में भी जानना चाहिए। 40. [1] तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि नेरइयाउयं पकरेंति० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणि 2, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पिपकरेंति। [४०-१प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्यी क्रियावादी जोव नारकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न। [40-1 उ.] गौतम ! वे नैरयिकायुष्य एवं तिर्थञ्चायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्यायुष्य बांधते हैं और देवायुष्य भी बांधते हैं। [2] जइ देवाउयं पकरेंति० / तहेव / [40.2 प्र.] भगवन् ! यदि वे (तेजोलेश्यी क्रियावादी जीव) देवायुष्य बांधते हैं तो क्या भवनवासी-देवायुष्य बांधते हैं, यावत् वैमानिक देवायुष्य वांधते हैं ? [40-2 उ.] पूर्ववत् अायुष्य-बन्ध करते हैं। Page #2786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 41. तेउलेस्सा णं भंते ! जीवा अकिरियावादी कि नेरइयाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, तिरिवन मोणियाउयं पि पकरेति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाज्यं पि पकरेंति / [41 प्र. भगवन् ! तेजोलेश्यी प्रक्रियावादी जीव नै रयिकायुप्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [41 उ.] गौतम ! वे नैरयिकायाय नहीं बांधते, किन्तु तिर्यञ्चायुप्य बांधते हैं, मनुप्यायुष्य और देवायुष्य भी बांधते हैं / 42. एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवादी वि। [42] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी के आयुष्य-बन्ध के विषय में जानना चाहिए / 43. जहा तेउलेस्सा एवं पम्हलेस्सा वि, सुक्कलेस्सा वि नेयत्वा / [43] जिस प्रकार तेजोलेश्यी के आयुष्य-बन्ध का कथन किया, उसी प्रकार पद्मल श्यी और शुक्ललेश्यी के आयुष्य बन्ध के विषय में जानना चाहिए। 44. अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि रतियाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरि०, नो मणु०, नो देवाज्यं पकरेंति / [44 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी क्रियावादी जीव नै रयिकायुप्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत प्रश्न / [44 उ.] गौतम ! नरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, किसी का श्रायुष्य नहीं बांधते / 45. काहपविखया णं भंते ! जीवा अकिरियावाई कि नेरतियाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति, एवं चम्विहं पि। [45 प्र.] भगवन् ! कृष्णपाक्षिक प्रक्रियावादी जीव नेर यि कायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [45 उ.] गौतम ! बे नै र यिक, तिर्यञ्च प्रादि चारों प्रकार का प्रायुष्य बांधते हैं / 46. एवं प्रणाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। [46] इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक अज्ञानवादी और विनयवादी जीवों के आयुष्यबन्ध के विषय में जानना चाहिए। 47. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। [47] शुक्लपाक्षिक जीव सले श्यी जीवों के समान आयुष्यबन्ध करते हैं। 48. सम्मट्ठिी णं भंते ! जीवा किरियाबाई कि नेइयाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, नो तिरिव खजोणियाउयं, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति / Page #2787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] [589 [48 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि क्रियावादी जीव नैरयिकायुष्यबन्ध करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [48 उ.] गौतम ! वे नैरयिकायुष्य एवं तिर्यञ्चायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का आयुष्य बांधते। 46. मिच्छट्ठिी जहा कण्हपक्खिया। [46] मिथ्यादृष्टि क्रियावादी जीव का अायुप्यबन्ध कृष्णपाक्षिक के समान है। 50. सम्मामिच्छट्ठिी णं भंते ! जीवा प्रनाणियवादी कि नेरइयाउयं० ? महा अलेस्सा। [50 प्र.] भगवन् ! सम्यगमिथ्यादृष्टि प्रज्ञानवादी जीव नैरयिकायुप्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [50 उ.} गौतम ! अलेश्यी जीव के समान कथन जानना / 51. एवं वेणइयवादी वि। {51] इसी प्रकार विनयवादी जीवों का प्रायुष्यबन्ध जानना चाहिए। 52. गाणो, प्राभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य मोहिनाणी य जहा सम्मट्टिी। [52] ज्ञानी, प्राभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अबधिज्ञानी के प्रायुष्यबन्ध का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है। 53. [1] मणपज्जवनाणी णं भंते !0 पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरिक्ख०, नो मणुस्स०, देवाउयं पकरेंति / [53-1 प्र.] भगवन् ! मन:पर्यवज्ञानी नैरयिकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [53-1 उ.] गौतम ! वे नै रचिक, तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य नहीं बांधते, किन्तु देव का आयुष्य बांधते हैं। [2] जदि देवाउयं पकरेंति किं भवणवासि० पुच्छा। गोयमा ! नो भवणवासिदेवाउयं पकरेंति, नो वाणमंतर०, नो जोतिसिय०, माणियदेवाउयं० / [53-2 प्र. भगवन् ! यदि वे देवायुष्य बांधते हैं. तो क्या भवनवासी देवायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [53-2 उ.] गौतम ! वे भवनवासी, वाणध्यन्त र अथवा ज्योतिाक का देवायुध्य नहीं बांधते, किन्तु वैमानिकदेव का प्रायुष्य वांधते हैं। 54. केवलनाणी जहा प्रलेस्सा। [54] केवलज्ञानी के विषय में अलेश्यी के समान वक्तव्यता जाननी चाहिए। Page #2788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 590] [व्याख्याप्राप्तिसूत्र 55. अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया। [55/ अज्ञानी (से लेकर) यावत् विभंगज्ञानी तक का आयुष्यबन्ध कृष्णपाक्षिक के समान समझना चाहिए। 56. सन्नासु च उसु वि जहा सलेस्सा। [56] अाहारादि चारों संज्ञाओं वाले जीवों का आयुष्यबन्ध सलेश्यो जोवों के समान है। 57. नोसन्नोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणो। [57] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों का प्रायुष्यबन्ध मनःपर्यवज्ञानी के सदृश है / 58. सवेयगा जाव नपुसगवेयगा जहा सलेस्सा। [58] सवेदी (से लेकर) यावत् नपुंसकवेदी तक (आयुष्यबन्ध) सलेश्यो जोवों के समान है। 56. अवेयगा जहा अलेस्सा। [56] अवेदो जीवों का प्रायुष्यबन्ध अलेश्यी जीवों के समान है। 60. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्ता / [30] सकषायो (से लेकर) यावत् लोभकषायी तक का सलेश्यी जीवों के समान प्रायुष्यबन्ध जानना। 61. प्रकसायी जहा अलेस्सा। [61] अकपायी जीवों के विषय में अलेश्यी के समान जानना। 62. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। [62] सयोगी (से लेकर) यावत् काययोगो तक मलेश्यी जीवों के समान प्रायुष्यबन्ध समझना चाहिए। 63. अजोगी जहा प्रलेस्सा। [63] अयोगी जोवों के विषय में अलेश्यो के समान कहना चाहिए / 64. सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ता य जहा सलेस्सा। [64] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त के विषय में सलेश्यो जीवों के समान जानना चाहिए। विवेचन--क्रियावादी जोवों के प्रायुष्यबन्ध का विवरण --प्रस्तुत 33-1 सू. में जो यह कहा गया है कि प्रौधिक क्रियावादी जीव नारक और तिर्यञ्च का अायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य और देव का प्रायुष्य बांधते हैं; उसका आशय यह है कि जो नैरयिक और देव क्रियावादी हैं, वे मनुष्य का ग्रायुष्य बांधते हैं तथा जो मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च क्रियावादी हैं, वे देव का प्रायुष्य वांधते हैं / Page #2789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] [591 कृष्णलेश्यी क्रियावादी जीव का प्रायुष्यबन्ध-इनके विषय में जो यह कहा गया है कि कृष्णलेश्यी क्रियावादी जीव नै रयिक, तिर्यञ्च और देव का प्रायुष्य वन्ध नहीं करते, किन्तु मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं, वह कथन नैरयिक और असुरकुमारादि की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि जो कृष्णलेश्यी सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च हैं, वे तो मनुष्य का प्रायुष्य वांधते ही नहीं हैं, वे केवल वैमानिक देव का ही आयुष्य वांधते हैं। अलेश्यी प्रादि जीव प्रायुष्य ही नहीं बांधते—अलेश्यी, अकपायी, अयोगी और केवलज्ञानी आदि जीव जन्म-मरण से मुक्त, सिद्ध होते हैं / अत: वे किसी प्रकार का प्रायुध्य नहीं बांधते। सम्यगमिथ्यादष्टि जीव का कथन अलेश्यी के समान कहा गया है, उसका आशय यह है कि अलेश्यी जीव, जो सिद्ध हैं. वे तो कृतकृत्य होने से एवं कर्मों का समूल नाश करने के कारण प्रायुष्यबन्ध नहीं करते तथा अयोगी जीव भी उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, इसलिए वे भी कोई प्रायष्य नहीं बांधते / किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यगमिथ्यादृष्टि-अवस्था में तथाविध स्वभाव-विशेप से किसी प्रकार का आयुष्यबन्ध नहीं करते।' चौवीस दण्डकवर्ती क्रियावादी आदि जीवों को ग्यारह स्थानों में प्रायुष्यबन्ध-प्ररूपणा 65. किरियावाई णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं० पुच्छा / / गोयमा! नो नेरइयाउयं०, नो तिरिवख०, मणुस्साउयं पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति / 165 प्र.] भगवन् ! क्रियावादी नैरयिक जीव नैर यिकायुप्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [65 उ.] गौतम ! वे नारक, तिर्यञ्च और देव का प्रायुष्य नहीं बांधते, किन्तु मनुष्य का अायुष्य बांधते हैं। 66. अकिरियावाई णं भंते ! नेरइया० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं, तिरिवखजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पक रेंति, नो देवाउयं पक रेति / 66 प्र.] भगवन् ! अक्रियावादी नै रयिक जीव नैरयिक का आयप्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [66 उ.] गौतम ! वे नै रयिक और देव का प्रायुप्य नहीं बांधते, किन्तु तिर्यञ्च और मनुष्य का प्रायुष्य बांधते हैं। 67. एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। [67] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी नैयिक के प्रायस्यबन्ध के विषय में समझना चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 945 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3616 Page #2790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र 68. सलेस्सा णं भंते ! नेरतिया किरियावादी कि नेरइयाउयं? एवं सम्वे वि नेरइया जे किरियावादी ते मणुस्साउयं एगं पकरेंति, जे अकिरियावादी अण्णाणियवादी वेणइयवादी ते सव्वदाणेसु वि नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाज्यं पकरेंति; नवरं सम्मामिच्छत्त उवरिल्लेहिं दोहि वि समोसरणेहि न किचि वि पकरेंति जहेव जीवपदे। [68 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी क्रियावादी नरयिक, नैरयिकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [68 उ.] गौतम ! सभी नैरयिक, जो क्रियावादी हैं, वे एकमात्र मनुष्यायुष्य ही बांधते हैं तथा जो प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी नैरपिक हैं, वे सभी स्थानों में नैरयिक और देव का आयुष्य नहीं बांधते, किन्तु तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्य बांधते हैं / विशेष यह है कि सम्यग्मिथ्यादष्टि अज्ञानवादी और विनयवादी इन दो समवसरणों में जीवपद के समान किसी भी प्रकार के आयुष्य का वन्ध नहीं करते / 66. एवं जाव थणियकुमारा जहेव नेरतिया। [69] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक के अायुष्यबन्ध का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। 70. अकिरियावाई गं भंते ! पुढविकाइया० पुच्छा / गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं०, मणुस्साउयं०, नो देवाउयं पकरेंति। 70 प्र.] भगवन् ! प्रक्रियावादी पृथ्वीकायिक जीव नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 70 उ.] गोतम ! वे भी नैरयिक और देव का प्रायुष्यबन्ध नहीं करते, किन्तु तिर्यञ्च और मनुष्य का आयुष्यबन्ध करते हैं। 71. एवं अन्नाणियवादी वि। [71] इसी प्रकार प्रज्ञानवादी (पृथ्वी०) जीवों का प्रायुष्यबन्ध समझना चाहिए / 72. सलेस्सा णं भंते !0 / एवं जं जं पयं प्रस्थि पुढविकाइयाणं तहि तहि मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु एवं चेव दुविहं आउयं पकरेंति, नवरं तेउलेस्साए न कि पि पकरेंति / [72 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी प्रक्रियावादी पृथ्वीकायिक जीव नैरयिक का प्रायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [72 उ.] गौतम ! जो-जो पद पृथ्वीकायिक जीवों के होते हैं, उन-उन में अक्रियावादी और Page #2791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] [593 अजानवादी, इन दो समवसरणों में इसी प्रकार (पूर्वकथनानुसार) मनुष्य और तिर्यञ्च, दो प्रकार का आयुष्य बांधते हैं। किन्तु तेजोलेश्या में तो किसी भी प्रकार का आयुष्यबन्ध नहीं होता। 73. [1] एवं प्राउक्काइयाण वि, वणस्सतिकाइयाण वि। [73-1 | इसी प्रकार अप्कायिक और बनस्पतिकायिक जीवों के आयुष्य-बन्ध के विषय में जानना चाहिए। [2] तेउकाइया०, वाउकाइया०, सब्वट्ठाणेसु मज्झिमेसु दोसु समोसरणेसु नो नेरइयाउयं पक०, तिरिक्खजोणिधाउयं पकरेति, नो मणुयाउयं पकरेंति, नो देवाज्यं पकरेंति / [73-2] तेजस्कायिक और वायुकायिक जोत्र, सभी स्थानों में अक्रियावादी और अज्ञानवादो, इन दो मध्यम समवसरणों में, नैरयिक, मनुष्य और देव का आयुष्य नहीं बांधते / एकमात्र निर्यञ्च का अायुष्य बांधते हैं। 74. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जहा पुढविकाइयाणं, नवरं सम्मत्तनाणेसु न एक्कं पि पाउयं पकरति / 74 | द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का प्रायुष्यबन्ध पृथ्वीकायिक जीवों के तुल्य है। परन्तु सम्यक्त्व और ज्ञान में वे किसी भी आयुष्य का बन्ध नहीं करते। 75. किरियावाई णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया कि नेरइयाउयं पकरेंति० पुच्छा। गोयमा ! जहा मणपज्जवनाणी। [75 प्र.] भगवन् ! क्रियावादी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा / / 75 उ.] गौतम ! इनका आयुष्यबन्ध मनःपर्यवज्ञानी के समान है। 76. अकिरियाबादी अन्नाणियवादी वेणइयवादी य चउठिवह पि पफरेंति / [76 प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीव) चारों प्रकार का प्रायुष्य बांधते हैं / 77. जहा प्रोहिया तहा सलेस्सा वि। [77| सलेश्यो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) जोवों का निरूपण औधिक जीव के सदृश है / 78. कण्हलेस्सा ण भंते ! किरियावादी पंचिदियतिरिक्खजोणिया कि नेरइयाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं०. नो मणुस्साउयं०, नो देवाउयं पकरेंति। [78 प्र.] भगवन ! कृष्णलेश्यी क्रियावादी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नैरपिक का प्रायव्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [78 उ.] गौतम ! वे नै रयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव किसी का भी आयुष्य नहीं बांधते / Page #2792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 594] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 76. अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई चम्विहं पि पकरेंति / [79] अभियावादी, प्रशानबादी और विनयवादी (कृष्णलेश्यी) चारों प्रकार का आयुष्यबन्ध करते हैं। 80. जहा कण्हलेस्सा एवं मोललेस्सा वि, काउलेस्सा वि। [80] नीललेश्यी और कापोतलेश्यी का आयुष्यबन्ध भी कृष्णलेपयी के समान है। 81. तेउलेस्सा जहा सलेस्सा, नवरं प्रकिरियावादी अनाणियवादी घेणइयवादी य नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पि पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, देवाउयं पि पकरेंति / 81] तेजोलेश्यो का प्रायुष्यबन्ध सलेश्या के समान है। परन्तु अक्रियावादी, अज्ञानवादी पौर विनयवादी जीव नैरयिक का प्रायुष्य नहीं बांधते, वे तिर्यञ्च, मनुष्य और देव का आयुष्य बांधते हैं। 82. एवं पम्हलेस्सा वि, सुक्कलेस्सा वि भाणियल्वा / [82) इसी प्रकार पद्मलेश्यी और शुक्ललेश्यी जीवों के प्रायुष्यबन्ध के विषय में कहना चाहिए। 53. कण्हपक्खिया तिहि समोसरणेहिं चउब्धिहं पि पाउयं पकरेंति / [83] कृष्णपाक्षिक प्रक्रियावादी, प्रज्ञानवादी और विनयवादी (इन तीनों समवसरणों के) जीव चारों ही प्रकार का प्रायुष्यबन्ध करते हैं / 84. सुक्कपक्खिया जहा सलेस्सा। [84] शुक्लपाक्षिकों का कथन सलेश्यी के समान है / 85. सम्मद्दिट्ठी जहा मणपज्जवनाणी तहेव वेमाणियाउयं पकरेंति / [85] सम्यग्दृष्टि जीव मनःपर्यवज्ञानी के सदृश वैमानिक देवों का प्रायुष्यबन्ध करते हैं / 86. मिच्छट्टिी जहा कण्हपक्खिया। [86] मिथ्यादृष्टि का प्रायष्यबन्ध कृष्णपाक्षिक के समान है। 87. सम्मामिच्छट्ठिी ण एक्कं पि पकरेंति जहेव नेरतिया। [7] सम्यगमिथ्यादष्टि जीव एक भी प्रकार का प्रायुष्यबन्ध नहीं करते। उनमें नैरयिकों के समान दो समवसरण होते हैं / 18. नाणी जाव ओहिनाणी जहा सम्मट्टिी। [88] ज्ञानी (से लेकर) यावत् अवधिज्ञानी तक के जीवों का आयुष्यबन्ध सम्यग्दृष्टि जीवों के समान जानना। 86. अन्नाणी जाव विभंगनाणो जहा कण्हपक्खिया। [8] अज्ञानी (से लेकर) यावत् विभंगज्ञानी तक के जीवों का आयुष्यबन्ध कृष्णपाक्षिकों के समान है। Page #2793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] 10. सेसा जाव अणागारोवउता सत्वे जहा सलेस्सा तहेव भाणियव्वा / [60] शेष सभी यावत् अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जीवों का आयुष्यबन्ध सलेश्यी जीवों के समान कहना चाहिए। 61. जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तव्वया भणिया एवं मणुस्साण वि भाणियव्वा, नवरं मणपज्जवनाणी नोसनोवउत्ता य जहा सम्मट्टिी तिरिक्खजोणिया तहेव भाणियन्वा / 95] जिस प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार मनुष्यों (के प्रायुष्यबन्ध) की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि मनःपर्यवज्ञानी और नोसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों का प्रायुष्यबन्ध-कथन सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चयोनिक के समान है / 62. अलेस्सा, केवलनाणी, अवेदका, असायी, प्रजोगी य, एएन एग पि आउयं पकरेंति जहा प्रोहिया जीवा, सेसं तहेव / [92/ अलेश्यी, केवलज्ञानी, अवेदी, अकषायी और अयोगी, ये औधिक जीवों के समान किसी भी प्रकार का आयुष्यबन्ध नहीं करते / शेष सब पूर्ववत् है / 63. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [93] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों का (आयुष्यबन्ध) कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए / ___ विवेचन-क्रियावादी प्रादि नैरयिकों का प्रायुष्यबन्ध नारकभव के स्वभाव के कारण क्रियावादी नै रयिक नरकायु और देवायु का बन्ध नहीं करते तथा क्रियावादी होने के कारण वे तिर्यञ्चायु भी नहीं बांधते / वे एकमात्र मनुष्यायु का बन्ध करते हैं। प्रक्रियावादी आदि तीनों समवसरणों के नैरयिक जीव सभी स्थानों में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु का बन्ध करते हैं / सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरपिक अज्ञानवादी और विनयवादी ही होते हैं। वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान में रहते हुए किसी भी प्रकार का अायुष्य नहीं बांधते, क्योंकि सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वभाव ही ऐसा है। पृथ्वीकायिकों का तेजोलेश्या में प्रायुष्यबन्ध क्यों नहीं ? पृथ्वीकायिक जीवों में अपर्याप्त अवस्था में इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के पूर्व ही तेजोलेश्या होती है और वे इन्द्रियपर्याप्ति पूरी होने पर ही परभव का आयुष्य बांधते हैं। अतएव तेजोलेश्या के अभाव में ही उनके पायुष्य का बन्ध होता है, तेजोलेश्या के रहते नहीं। इसीलिए कहा गया है—'तेउलेस्साए न कि पि पकरेंति / / द्वीन्द्रियादि जीवों में सम्यक्त्व और शान के रहते आयुष्यबन्ध क्यों नहीं ? द्वीन्द्रिय आदि जीवों म्यक्त्व होने से उनमें सम्यक्त्व और ज्ञान तो होता है, किन्तु उनका काल अत्यल्प होने से उतने समय में प्रायष्य का बन्ध संभव नहीं है। इसीलिए कहा गया है इनमें सम्यक्त्व और ज्ञान के रहते एक भी प्रकार का प्रायुष्यबन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियतियंञ्च कव और कौन-सा प्रायुष्यबन्ध करते हैं ? जब सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च कृष्ण प्रादि अशुभ लेश्या के परिणाम वाले होते हैं, तब किसी भी प्रकार के Page #2794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 596 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्व आयष्य का बन्ध नहीं करते। जब वे तेजोलेश्यादिरूप शुभ परिणाम वाले होते हैं, तब एकमात्र वैमानिकदेव का प्रायुष्य बांधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि 'सम्मदिट्ठी मणपज्जवनाणी तहेव धेमाणियाउयं पकरेंति।' तेजोलेश्यो जीवों का प्रायुष्यबन्ध-तेजोलेश्या वाले जीव के आयुष्य का बन्ध सलेश्यी जीवों के समान बताया है। इसका आशय यह है कि क्रियावादी केवल वैमानिक का आयुष्य बांधते हैं / शेष तीन समवसरण वाले जीव चारों प्रकार का प्रायुष्य बांधते हैं, क्योंकि सलेश्यी जीव में इसी प्रकार के आयुष्य का बन्ध कहा है 1' क्रियावादी आदि चारों में जीव और चौवीस दण्डकों को ग्यारह स्थानों द्वारा भव्याभव्यत्व-प्ररूपणा 64. किरियावादी गं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीया, अभवसिद्धीया? गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया। (64 प्र.] भगवन् ! क्रियावादी जीव भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? [64 उ.] गौतम ! वे अभवसिद्धिक नहीं, भवसिद्धिक हैं। 65. अकिरियावादी णं भंते ! जीवा किं भवसिद्धीया० पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धीया वि, प्रभवसिद्धीया वि। [65 प्र.) भगवन ! प्रक्रियावादी जीव भवसिद्धिक हैं या अभव सिद्धिक ? [95 उ. गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी। 66. एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि। 186] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। 17. सलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि भव० पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धीया, नो अभवसिद्धीया। [67 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी क्रियावादी जीव भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? [67 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक हैं, प्रभवसिद्धिक नहीं। 18. सलेस्सा गं भंते ! जीवा अकिरियावादी कि भव० पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धीया वि, प्रभवसिद्धीया वि। [98 प्र. भगवन् ! सलेश्यी प्रक्रियावादी जीव भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? [68 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी। 66. एवं अन्नाणियवादी वि, वेणइयवादी वि / [RE] इसी प्रकार अज्ञानवादी और विनयवादी भी (सलेश्यो के समान) जानना / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 947 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3622 Page #2795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवा शतक : उद्देशक ) 597 100. जहा सलेस्सा, एवं जाव सुक्कलेस्सा। [100] कृष्णलेश्यो (से लेकर) यावत् शुक्ललेश्यो पर्यन्त सलेश्यी के समान जानना। 101. अलेस्सा णं भंते ! जीवा किरियावादी कि भव० पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया। |101 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी क्रियावादी जीव भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? [101 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। 102. एवं एएणं अभिलावेणं कण्हपक्खिया तिसु वि समोसरणेसु भयणाए। [102] इस अभिलाप से कृष्णपाक्षिक तीनों समवसरणों (अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी) में भजना (विकल्प) से भवसिद्धिक हैं / 103. सुक्कपक्खिया चतुसु वि समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया। [103] शुक्लपाक्षिक जीव चारों समवसरणों में भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं। 104. सम्मट्ठिी जहा अलेस्सा। [104] सम्यग्दृष्टि अलेश्यी जीवों के समान हैं / 105. मिच्छट्ठिी जहा कण्हपक्खिया। [105] मिथ्यादृष्टि जीव कृष्णपाक्षिक के सदृश हैं / 106. सम्मामिच्छद्दिट्ठी दोसु वि समोसरणेसु जहा अलेस्सा। | 106] सम्यमिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानवादी और विनयवादी, इन दोनों समवसरणों में अलेश्यी जीवों के समान भवसिद्धिक हैं / 107. नाणी जाव केवलनाणी भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया। {107] ज्ञानी (से लेकर) यावत् केवलज्ञानी तक भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। 108. अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा कण्हपक्खिया। { 108] अज्ञानी (से लेकर) यावत् विभंगज्ञानी तक कृष्णपाक्षिकों के सदृश हैं। 106. सणासु चउसु वि जहा सलेस्सा / [106] चारों संज्ञाओं से युक्त जीवों का कथन सलेश्यी जीवों के समान है / 110. नोसण्णोवउत्ता जहा सम्मविट्ठी। [110] नोसंज्ञोपयुक्त जीवों का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है। 111. सवेयगा जाव नपुसगवेयगा जहा सलेस्सा / [111] सवेदी (से लेकर) यावत् नपुसकवेदी जीव (तक) का कथन सलेश्यी जीवों के सदश है / Page #2796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 112. अवेयगा जहा सम्मबिटो। [112] अवेदी जीवों का कथन सम्यग्दृष्टि के समान है / 113. सकसायी जाव लोभकसायी जहा सलेस्सा। [113] सकषायी यावत् लोभकषायी, सलेश्या के समान जानना / 114. अकसायी जहा सम्मट्टिी। [114] अकषायी जीव सम्यग्दृष्टि के समान जानना / 115. सजोगी जाव कायजोगी जहा सलेस्सा। [115] सयोगी यावत् काययोगी जीव सलेश्यी के समान है। 116. अजोगी जहा सम्मद्दिट्ठी। [196] अयोगी जीव सम्यग्दृष्टि के सदृश हैं / 117. सागारोवउत्ता प्रणागारोवउत्ता जहा सलेस्सा। [117] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव सलेश्यी जीवों के सदृश जानना / 118, एवं नेरतिया वि भाणियव्वा, नवरं नायन्वं जं अस्थि / [118] इसी प्रकार नरयिकों के विषय में कहना चाहिए, किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, वे कहने चाहिए। 116. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [116] इसी प्रकार असुरकुमार (से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक के विषय में जानना चाहिए। 120. पुढविकाइया सव्वट्ठाणेसु वि मझिल्लेस दोसु बि समोसरणेसु भवसिद्धीया वि, प्रभवसिद्धीया वि। [12. पृथ्वीकायिक जीव सभी स्थानों में मध्य के दोनों समवसरणों (अक्रियावादी और अज्ञानवादी) में भवसिद्धिक भी होते हैं और प्रभवसिद्धिक भी होते हैं / 121. एवं जाव वणस्ततिकाइय ति। [121] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए / 122. बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिया एवं चेव, नवरं सम्मत्ते, श्रोहिए नाणे, प्राभिणिबोहियनाणे, सुयनाणे, एएस चेव दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया, सेसं तं चेव / [122] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / विशेष यह है कि सम्यक्त्व, प्रोधिक ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इनके मध्य Page #2797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] के दोनों समवसरणों (प्रक्रियावादी एवं अज्ञानवादी) में भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। शेष सब पूर्ववत् जानना / 123. पंचेंदियतिरिवखजोणिया जहा नेरइया, नवरं जं अस्थि / [123] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव नैरयिकों के सदृश (जानना,) किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, (वे सब कहने चाहिए)। 124. मणुस्सा जहा प्रोहिया जीवा / {124! मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान है / 125. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // तीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 30-1 // [125) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का निरूपण असुरकुमारों के समान जानना / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भवसिद्धिक एवं प्रभवसिद्धिक का निरूपण-प्रस्तुत 32 सूत्रों (64 से 125 तक) में क्रियावादी आदि चारों तथा लेश्या प्रादि 11 स्थानों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक की चर्चा की गई है / सभी सूत्र स्पष्ट हैं / भवसिद्धिक और प्रभवसिद्धिक का अर्थ भव्य और अभव्य है। / तीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // . Page #2798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक (अनन्तरोपपन्नक क्रियावादी आदि सम्बन्धी) अनन्तरोपपन्न चौवीस दण्डकवी जीवों में ग्यारह स्थानों द्वारा क्रियावादादि-प्ररूपणा 1. अगंतरोववनगा णं भंते ! नेरइया कि किरियावादी० पुच्छा / गोयमा ! किरियावाई वि जाव वेणइयवाई वि। [1 प्र. भगवन् ! क्या अनन्तरोपपत्त्नक नैयिक क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! वे क्रियावादी भी हैं, यावत् विनयवादी भी हैं। 2. सलेस्सा णं भंते ! अणंतरोववनगा नेरतिया कि किरियावादी ? एवं चेव / {2 प्र.) भगवन् ! क्या सलेश्यी अनन्त रोपपन्नक नैरयिक क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना चाहिए / 3. एवं जहेव पढमुद्देसे नेरइयाणं क्त्तन्वया तहेब इह वि भाणियटवा, नवरं जं जस्स प्रस्थि अणंतरोववनगाणं नेरइयाणं तं तस्स भाणियन्वं / [3] जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में नै रयिकों की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि अनन्त रोपपन्न नैरयिकों में से जिसमें जो बोल सम्भव हों, वही कहने चाहिए। 4. एवं सम्वजीवाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं अणतरोववनगाणं हि जं अस्थि तहि तं भाणियग्वं / [4] इसी प्रकार सर्व जीवों की, यावत् वैमानिकों (तक) की वक्तव्यता कहनी चाहिए, किन्तु अनन्तरोपपन्नक जीवों में जहाँ जो सम्भव हो, वहाँ वह कहना चाहिए / विवेचन–अनन्तरोपपन्नक नरयिकादि को चर्चा---प्रस्तुत चार सूत्रों में अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादि चौवीस दण्डकीय जीवों में ग्यारह स्थानों की अपेक्षा से क्रियावादी आदि का निरूपण किया गया है। 'तत्काल उत्पन्न हुअा जीव "अनन्तरोपपन्नक" कहलाता है।' 5. किरियावाई णं भंते ! प्रणतरोक्वनगा नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति० पुच्छा। गोयमा! नो नेरतियाउयं पकरेंति, नो तिरि०,नो मण०, नो देखाउयं पकरेंति। Page #2799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां शतक : उद्देशक 2] [6.1 5 प्र.) भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नै रयिक, नैरयिक का आयुष्य बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! वे नारक,तिर्यञ्च, मनुष्य और देव का आयुष्य नहीं बांधते / 6. एवं प्रकिरियावाई वि, अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। [6] इसी प्रकार प्रक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी अनन्तरोपपन्नक नैरयिक के विषय में समझना चाहिए / 7. सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववनगा नेरइया कि नेरइयाउयं० पुच्छा। गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, जाव नो देवाउयं पकरेंति / [7 प्र.] भगवन् ! सलेश्यी क्रियावादी अनन्त रोपपन्नक नैरयिक नारकायुष्य बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 17 उ. | गौतम ! वे नैरयिकायुष्य यावत् देवायुष्य नहीं बांधते / 8. एवं जाव वेमाणिया। | 8 | इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए / 6. एवं सब्वट्ठाणेसु वि अणंतरोववन्नगा नेरइया न किंचि वि पाउयं पकरेंति जाव अणागारोवउत्त ति। [9] इसी प्रकार सभी स्थानों में अनन्त रोपपन्नक नै रयिक यावत् अनाकारोपयुक्त जीवों तक किसी भी प्रकार का प्रायुष्यबन्ध नहीं करते / 10. एवं जाव वेमाणिया, नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्यं / 10] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए; किन्तु जिसमें जो बोल सम्भव हो, वह उसमें कहना चाहिए / विवेचन-अनन्तरोपपन्नक नैरयिकादि चौवीस दण्डकों का प्रायष्यबन्ध----प्रस्तुत प्रकरण आयुष्यबन्ध का है / अनन्त रोपपन्नक किसी भी विशेषण से युक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार का आयुष्य नहीं बंधता / क्रियावादी आदि चारों में अनन्तरोपपन्न चौवीस दण्डकों की ग्यारह स्थानों द्वारा भव्याभव्यत्व-प्ररूपणा 11. किरियावाई णं भंते / अणंतरोववनगा नेरइया कि भवसिद्धीया प्रभवसिद्धीया ? गोयमा ! भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया। [11 प्र. भगवन् ! क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नरयिक भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? [11 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं / Page #2800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602] মিয়াসলিমুল 12. अकिरियावाई पं० पुच्छा। गोयमा ! भवसिद्धीया वि, प्रभवसिद्धीया वि / {12 प्र.] भगवन् ! अक्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नै रयिक भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक ? 12 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी। 13. एवं अन्नाणियवाई वि, वेणइयवाई वि। [13] इसी प्रकार प्रज्ञानवादी और विनयवादी भी समझने चाहिए / 14, सलेस्सा णं भंते ! किरियावाई अणंतरोववन्नमा नेरइया कि भवसिद्धीया, प्रभवसिद्धीया? गोयमा ! भवसिद्धीया, नो प्रभवसिद्धीया। [14 प्र. भगवन् ! सलेश्यी क्रियावादी अनन्तरोपपन्नक नेरयिक भवसिद्धिक हैं अथवा अभवसिद्धिक ? [14 उ.] गौतम ! वे भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। 15. एवं एएणं अभिलावेणं जहेब प्रोहिए उद्देसए नेरइयाणं वत्तन्वया भणिया तहेव इह वि भाणियव्वा जाव प्रणागारोवउत्त त्ति / [15] इसी प्रकार इस अभिलाप से जिस प्रकार औधिक उद्देशक में नरयिकों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् अनाकारपयुक्त तक कहनी चाहिए। 16. एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणितन्वं / इमं से लक्षणं-जे किरियावादी सुक्कक्खिया सम्मामिच्छट्ठिी य एए सम्वे भवसिद्धोया, नो प्रभवसिद्धीया / सेसा सम्वे भवसिद्धीया वि, अभवसिद्धीया वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / / तीसइमे सए : बीयो उद्देसश्रो समत्तो॥ 30-2 // [16] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए; किन्तु जिसमें जो बोल हो उसके सम्बन्ध में वह कहना चाहिए। उनका लक्षण यह है कि क्रियावादी, शुक्लपाक्षिक और सम्यग-मिथ्यादष्टि, ये सब भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। शेष सब भवसिद्धिक भी हैं और अभवसिद्धिक भी हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--अनन्तरोपपन्नकों की भवसिद्धिक प्रभवसिद्धिक चर्चा : निष्कर्ष --अनन्त रोपपन्नकों में नरयिकों से वैमानिकों तक जो क्रियावादी हों, शुक्लपाक्षिक हों, सम्यग्मिथ्यादृष्टि हों, वे सब भवसिद्धिक हैं, इसके अतिरिक्त शेष सब दोनों प्रकार के हैं // तीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // Page #2801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक नैरयिकादि-सम्बन्धी परम्परोपपन्नक चौवीस दण्डकीय जीवों में ग्यारह स्थानों के द्वारा क्रियावादादिनिरूपण 1. परंपरोववनगाणं भंते नेरइया फिरियावादी०? एवं जहेव ओहियो उद्देसश्रो तहेव परंपरोववन्नएसु वि नेरइयाईयो तहेव निरवसेसं भाणियव्वं, तहेव तियदंडगसंगहिओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरइ / ॥तीसइमे सए : तइनो उद्देसनो समत्तो // 30-3 / / 12 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक नैरयिक क्रियावादी हैं ? इत्यादि पूर्ववत प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! औधिक उद्देशकानुसार परम्परोपपन्नक नैरयिक आदि (नारक से वैमानिक तक) हैं और उसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त समग्न उद्देशक तीन दण्डक सहित कहना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत विचरते हैं / विवेचन----ौधिक उद्देशक का प्रतिदेश-प्रस्तुत उद्देशक में जिन जीवों को उत्पन्न हुए एक समय से अधिक काल हो गया है, ऐसे परम्परोपपन्नक जीवों में क्रियावादित्वादि के निरूपण के लिए औधिक उद्देशक का अतिदेश किया गया है। तीन दण्डक : तीन पाठ---(१) क्रियावादित्व प्रादि की प्ररूपणा एकदण्डक, (2) उनके प्रायष्यबन्ध की प्ररूपणा करना दुसरा दण्डक है और (3) भवसिद्विकत्व-प्रभवसिद्धिकत्व की प्ररूपणा करना नृतीय दण्डक है / ' / तीसौं शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / - .. ----. 1. (क) भगवती, अ. बत्ति, पत्र 948 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. ७,पृ.३६३२ Page #2802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरत्थाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा चतुर्थ से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक छब्बीसवें शतक के क्रम से चौथे से ग्यारहवे उद्देशक तक की प्ररूपणा 1. एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इहं पि जाव अचरिमो उद्देसो, नवरं प्रणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा। परंपरा चत्तारि वि एक्कगमएणं / एवं चरिमा वि, अचरिमा वि एवं चेव, नवरं अलेस्सो केवली प्रजोगी य भण्णति / सेसं तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / एते एक्कारस उद्देसगा। ॥तीसइमे सए : चउत्थाइ-एक्कारस-पज्जता उद्देसगा समता // 30 / 4-11 // ॥तीसइमं समवसरणसयं समत्तं // 30 // [1] इसी प्रकार और इसी क्रम से बन्धीशतक में उद्देशकों की जो परिपाटी है, वही परिपाटी यहाँ भी यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त समझनी चाहिए। विशेष यह है कि 'अनन्तर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एक गम (समान पाठ) वाले हैं ? 'परम्पर' शब्द से विशेषित चार उद्देशक एक गम वाले हैं। इसी प्रकार 'चरम' और 'अचरम' विशेषणयुक्त उद्देशकों के विषय में भी समझना चाहिए, किन्त अलेश्यी. केवली और अयोगी का कथन यहाँ (अचरम उद्देशक में) नहीं करना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए। विवेचन-जो जीव अचरम हैं, वे अलेश्यी, अयोगी या केवलीज्ञानी नहीं हो सकते, इसलिए अचरम उद्देशक में इनका कथन नहीं करना चाहिए।' ॥तीसवाँ शतक : चौथे से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त / // तीसवाँ समवसरण-शतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 148 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, 3633 Page #2803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं उववायसयं, बत्तीस इमं उव्वट्टणासयं इकतीसवाँ उपपातशतक और बत्तीसवाँ उद्वर्तनशतक प्राथमिक * भगवतीसूत्र के यह इकतीसवाँ और बत्तीसवां शतक हैं। * इकतीसवें शतक का नाम उपपातशतक है और बत्तीसवें शतक का नाम उद्वर्तनशतक है। * ये दोनों शतक जीवों के जन्ममरण से सम्बन्धित हैं। उपपात का अर्थ है-उत्पत्ति या जन्म और उद्वर्तन का अर्थ है-मरण या उक्तभव (या शरीर) से निकलना / * संसार में प्राणियों के लिए उत्पत्ति भी दुःखदायी है और मृत्यु या उद्वर्तना भी दुःखदायी है / जिसकी उत्पत्ति होगी, उस सांसारिक जीव की उद्वर्त्तना (मृत्यु) निश्चित है, अवश्यम्भावी है / परन्तु सामान्य प्राणी अथवा प्रज्ञजन इसे दृष्टि से अोझल कर देते हैं। वे जन्म को तो महत्त्व पूर्ण मानते हैं, मरण को दु:खद / * भगवान महावीर ने तो दोनों को अपने प्रवचन में दुःखदायी कहा है "जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा या मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारे, तस्थ किस्संति जंतवो // " अर्थात -जन्म, जरा, रोग प्रौर मरण ये सब दुःखमय हैं। यह संसार ही दुःखरूप है, किन्तु अज्ञानी प्राणी इसमें मोहवश फंसकर क्लेश पाते हैं। ये दोनों शतक साधक की आँखों को खोल देने वाले है। इकतीसवें शतक में बताया गया है कि जीव किस-किस गति और योनि से आकर वर्तमान भव में उत्पन्न होता है ? एक समय में कितने जीवों का और किस-किस प्रकार से उत्पाद होता है ? लेश्या आदि अमुक विशेषणों से युक्त जीव कहाँ से, कितनी संख्या में और कैसे-कैसे उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि तथ्य इकतीसवें शतक में प्रकट किए हैं। * बत्तीसवें शतक में इकतीसवें शतक के क्रम से ही उद्वर्तन (मरण) की चर्चा की गई है कि अमुक जीव अपने वर्तमान भव से मर कर तुरंत कहाँ, किस योनि-गति में और कैसे जाता है ? इत्यादि। * दोनों ही शतकों में क्षुद्रयुग्म के माध्यम से चर्चा-विचारणा की गई हैं / * दोनों शतकों में से इकतीसव तथा बत्तीसवें में प्रत्येक में 28-28 उद्देशक है, जिनकी परिगणना शास्त्रकार ने की है। Page #2804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं सयं-उववायसयं इकतीसवां शतक-उपपातशतक पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक क्षुद्रयुग्म-सम्बन्धी क्षुद्रयुग्म : नाम और प्रकार 1. रायगिहे जाव एवं वयासो-~[१] राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-- 2. [1] कति णं भंते खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा - कडजुम्मे, तेयोए, दावरजुम्मे, कलियोए। [2-1 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रयुग्म कितने कहे हैं ? [2.1 उ.] गौतम ! क्षुद्रयुग्म चार कहे हैं / यथा--कृतयुग्म, योज, द्वापरयुग्म और कल्योज / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–चत्तारि खुड्डा जुम्मा पन्नत्ता, तं जहा कडजुम्मे जाव कलियोगे? गोयमा ! जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे चउपज्जवसिए से तं खुड्डागकडजुम्मे / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए से तं खुड्डागतेयोगे। जे णं रासो चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए से तं खुड्डागदावरजुम्मे / जे णं रासो चउक्कएणं अवहारेणं प्रवहीरमाणे एगपज्जवसिए से तं खुड्डागकलियोगे / से तेणठेणं जाक कलियोगे। [2-2 प्र.] भगवन् ! यह क्यों कहा जाता है कि क्षुद्र युग्म चार हैं, यथा-कृतयुग्म यावत् कल्योज? [2-2 उ.] गौतम ! जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार रहें, उसे क्षुद्र कृतयुग्म कहते हैं / जिस राशि में चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में तीन शेष रहे, उसे क्षद्रत्र्योज कहते हैं। जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में दो शेष रहें, उसे क्षद्वापर युग्म कहते हैं और जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में एक ही शेष रहे, उसे क्षुद्रकल्योज कहते हैं / इस कारण से हे गौतम ! यावत् कल्योज कहा है। Page #2805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां शतक : उद्देशक 1] [607 विवेचन-क्षद्रयुग्म : स्वरूप और प्रकार-लघुसंख्या (अल्पसंख्या) वाली राशि-विशेष को क्षुद्रयुग्म कहते हैं। इनमें से चार, पाठ, बारह आदि संख्या वाली राशि को 'क्षुद्रकृतयुग्म' कहते हैं / तीन, साल, ग्यारह आदि संख्या वाली राशि को 'क्षुद्रश्योज' कहते हैं। दो, छह, दस आदि संख्या वाली राशि को 'क्षुद्रद्वापरयुग्म' कहते हैं और एक, पांच, नौ ग्रादि संख्या वाली राशि को 'क्षुद्र कल्योज' कहते हैं।' चतुर्विध क्षुद्रयुग्म नैरयिकों के उपपात के सम्बन्ध में विविध प्ररूपणा 3. खुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उबवज्जति ? कि नेरइएहितो उवधज्जति, तिरिक्ख० पुच्छर / ___गोयमा ! नो नेरइहितो उववज्जति, एवं नेरतियाणं उववातो जहा वक्कंतीए तहा भाणितम्वो। [3 प्र.] भगवन् ! क्षद्रकृतयुग्म-राशिपरिमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यञ्चयोनिकों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! वे नै रयिकों से आकर उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं।) इत्यादि प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में कथित नैरयिकों के उपपात के अनुसार यहाँ कहना चाहिए / 4. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! चत्तारि वा, श्र? वा, बारस बा, सोलस वा, संखेज्जावा, असंखेज्जा वा उववज्जति। 14 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! वे चार, पाठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 5. ते पं भंते ! जीवा कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे अज्झवसाण एवं जहा पंचवीसतिमे सते अट्ठमुद्देसए नेरइयाणं वत्तवया तहेव इह वि भाणियन्वा (स० 25 उ०८ सु०२-८) जाव प्रायप्पयोगेण उववज्जंति, नो परप्पयोगेण उववज्जति / [5 प्र.] भगवन् ! वे जीव किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कोई कूदने वाला, कूदता-कदता अपने पूर्वस्थान को छोड़ कर आगे के स्थान को प्राप्त करता है, इसी प्रकार नै रयिक भी पूर्ववर्ती भव को छोड़ कर अध्यवसायरूप कारण से आगामी भव को प्राप्त करते है। इत्यादि पच्चीसवें शतक के आठवें 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 950 (ख) श्रीमद्भगवती सूत्रम् खण्ड 4 (गुजराती-अनुवाद) पृ. 311 Page #2806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608] [स्यात्याप्रज्ञप्तिसूत्र उद्देशक (सू. 2 से 8 तक) में उक्त नयिक-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान यहाँ भी कहना चाहिए यावत् वे प्रात्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं / 6. रतणप्पभपुढविखुडडागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ? एवं जहा ओहियनेरइयाणं वत्तव्वया सच्चेव रयणप्पभाए वि भाणियन्वा जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति / [6 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म-राशिप्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 16 उ.] गौतम ! औधिक नै रयिकों की जो वक्तव्यता कही है, वही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के लिए कहनी चाहिए यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते, यहाँ तक जानना / 7. एवं सक्करप्पभाए वि / 8. एवं जाव आहेसत्तमाए / एवं उववानो जहा वक्कंतीए / अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा ततिय पक्खी। गाहा (पण्णवणासुतं सु० 647 -- 48, गा० 183-84) / एवं उववातेयत्वा / सेसं तहेव / 7-8] इसी प्रकार शर्कराप्रभा (से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार यहाँ भी उपपात जानना चाहिए / यावत् असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप (भुजपरिसर्प) द्वितीय नरक तक और पक्षी तृतीय नरक तक उत्पन्न होते हैं, इत्यादि (प्रज्ञापनासूत्र सू. 647-48, गाथा-१८३-८४ के अनुसार उपपात जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् समझना / 6. खड्डातेयोगनेरतिया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? कि नेरइएहितो ? उववातो जहा वक्कतोए / प्र. भगवन् ! क्षद्रव्योज-राशिप्रमाण नै रयिक कहाँसे प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न। [6 उ. इनका उपपात भी प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना चाहिए / 10. ते गं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उक्वज्जति ? गोयमा ! तिन्नि वा, सत्त बा, एक्कारस वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववति / सेसं जहा कडजुम्मस्स / [10 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे एक समय में तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संन्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष सभी कृतयुग्म नै रयिक के समान जानना चाहिए। 11. एवं जाव अहेसत्तमाए / [11] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक समझना चाहिए / Page #2807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां शतक : उद्देशक 1] 12. खुड्डागदावरजुम्मनेरतिया णं भंते ! को उववज्जति ? एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे, नवरं परिमाणं दो वा, छ वा, दस वा, चोद्दस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा / सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए / [12 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रद्वापरयुग्म-राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [12 उ.] गौतम ! क्षुद्रकृतयुग्मराशि के अनुसार इनका उत्पाद जानना चाहिए / किन्तु ये परिमाण में-दो, छह, दस, चौदह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना / 13. खुड्डागकलियोगनेरतिया गं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं जहेव खुड्डागकडजुम्मे, नवरं परिमाणं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति / सेसं तं चेव / [13 प्र.] भगवन् ! अद्रकल्योज-राशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [13 उ.] गौतम ! क्षुद्रकृतयुग्मराशि के अनुसार इनकी उत्पत्ति जाननी चाहिए। किन्तु ये परिमाण में-एक, पांच, नो, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष पूर्ववत् / 14. एवं जाव आहेसत्तमाए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // इकतीसइमे सए : पढमो उद्देसनो समत्तो / / 31-1 // [14] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / Page #2808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक चतुर्विधक्षद्रयुग्म-कृष्णलेश्यी नैरयिकों के उपपात को लेकर विविध प्ररूपणा 1. कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ? 0 एवं चेव जहा प्रोहियगमो जाव नो परप्पयोगेण उववज्जंति, नवरं उववातो जहा वक्तीए धूमप्पभपुढविनेरइयाणं / सेसं तं चेव / [१प्र. भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यी नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! प्रोधिकगम के अनुसार समझना चाहिए यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। विशेष यह है कि धूमप्रभापृथ्वी के नै रयिकों का उपपात प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार कहना चाहिए। शेष सब कथन (प्रश्न और उत्तर) पूर्ववत् जानना चाहिए / 2. धूमप्पभपुढविकण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जंति ? एवं चेव निरवसेसं। [2 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण कृष्णलेश्यी नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! इनके विषय में पूर्ववत् जानना। 3. एवं तमाए वि, अहेसत्तमाए वि, नवरं उववातो सम्वत्थ जहा वक्कतोए / [3] इसी प्रकार तम:प्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त कहना चाहिए। किन्तु उपपात सर्वत्र (सभी स्थानों में प्रज्ञापनासूत्र के छठे) व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना चाहिए। 4. कण्हलेस्सखुड्डागतयोगनेरइया णं भंते ! कसो उचवज्जंति? . एवं चेव, नवरं तिन्नि वा, सत बा, एक्कारस वा, पष्णरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा बा। सेसं तं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रत्र्योजराशिप्रमाण धूम्रप्रभापृथ्वी के कृष्णलक्ष्यी नैयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। विशेष यह है कि ये तीन. सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष पूर्ववत् है / 5. एवं जाव अहेसत्तमाए वि। [5] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक जानना चाहिए। Page #2809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकत्तीसवां शतक : उद्देशक 2] [611 6. कण्हलेस्सखुड्डागदावरजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ?. एवं चेव, नवरं दो वा, छ वा, दस वा, चोद्दस वा / सेसं तं चेव / [6 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी क्षुद्रद्वापरयुग्मराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) समझना। किन्तु दो, छह, दस या चोदह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष पूर्ववत् / 7. एवं धूमध्यभाए वि जाव अहेसत्तमाए। [7] इसी प्रकार धूमप्रभा यावत् अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए। 8. कण्हलेस्सखुड्डागकलियोगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ?0 एवं चेव, नवरं एकको वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा। सेसं तं चेव / [प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकल्योजराशिपरिमाण कृष्णलेश्या वाले नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [8 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। किन्तु परिमाण में वे एक, पांच, नौ, तेरह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / शेष पूर्ववत् / / 6. एवं धूमप्पभाए वि, तमाए वि, अहेसत्तमाए वि। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / ॥इक्कतीसइमे सए : बितिम्रो उद्देसनो समतो // 31.2 // [6] इसी प्रकार धूमप्रभा, तम:प्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी पर्यन्त समझना / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कृष्णलेश्यो नरयिकों के विषय में प्रस्तुत प्रकरण में कृष्णलेश्या वाले नयिकों के सम्बन्ध में विविध पहलुनों से उत्पत्ति का कथन किया है। यह लेश्या पांचवीं, छठी और सातवीं नरकपृथ्वी के नैरयिकों में होती है। यहाँ सामान्यदण्डक नया नरकत्रय-सम्बन्धी तीन दण्डक, यों कुल चार दण्डक होते हैं। इनका उपपात (उत्पाद) प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार है। इनमें असंज्ञी, सरीसृप, पक्षी और सिंह (आदि सभी चतुष्पदों) को छोड़ कर अन्य तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और गर्भज उत्पन्न होते हैं।' // इक्कतीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3642 (ख) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 150 Page #2810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-विशिष्ट नीललेश्यो नरयिकों सम्बधी प्ररूपरणा 1. नीललेस्सखुड्डागाउजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं जहेव कण्हलेस्सखुड्डागकडजुम्मा, नवरं उववातो जो वालुयप्पभाए / सेसं तं चेव / [1 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्म-प्रमाण नीललेश्यी नै रयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यो क्षुद्रकृतयुग्म नैरयिक के समान / किन्तु इनका उपपात बालुकाप्रभापृथ्वी के समान है / शेष पूर्ववत् / 2. बालुयप्पभपुढविनीललेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरइया० ? एवं चेव / [2 प्र. भगवन् ! नीललेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण बालुकाप्रभापृथ्वी के ने रयिक कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना। 3. एवं पंकप्पभाए वि, एवं धूमप्पभाए वि / [3] इसी प्रकार पकप्रभा और धूमप्रभा वाले क्षुद्रकृतयुग्म नीललेश्यों के विषय में समझना चाहिए। 4. एवं चउसु वि जुम्मे तु, नवरं परिमाणं जाणियध्वं, परिमाणं जहा कण्हलेस्सउद्देसए / सेसं तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः। // इक्कतीसइमे सए : ततिम्रो उद्देसओ समतो // 31-3 // {4} इसी प्रकार चारों युग्मों के विषय में समझना। परन्तु विशेष यह है कि जिस प्रकार कुष्णलेश्या के उद्देशक में परिमाण बताया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना / शेष सब पूर्वकथितानुसार जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। Page #2811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां शतक : उद्देशक 3] [613 विवेचन-नीललेश्यी नैरयिक सम्बन्धी-इस तृतीय उद्देशक में नीललेण्या वाले नैरयिकों की प्ररूपणा की गई है। नीललेश्या तृतीय, चतुर्थ और पंचम नरकपृथ्वी में होती है / इसलिए एक सामान्य दण्डक तथा तीन नरक-सम्बन्धी तीन दण्डक, यों चार दण्डक कहे हैं। यहाँ नीललेश्या का प्रकरण है / नीललेश्या बालुकाप्रभा में होती है, इस अपेक्षा से इसमें जिन जीवों की उत्पत्ति होती है, उन्हीं की उत्पत्ति जाननी चाहिए। इसमें असंजी और सरीसृप के सिवाय शेष तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य उत्पन्न होते हैं।' // इकतीसवां शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त। 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 950 Page #2812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म कपोतलेश्यो नरयिकों को लेकर विविध प्ररूपणा 1. काउलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरतिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? * एवं जहेव कण्हलेस्सखुडागकडजुम्म०, नवरं उववातो जो रयणप्पभाए / सेसं तं चैव / [1 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमित नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इनका उपपात कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिकों के समान जानना / विशेष यह है कि इनका उपयात रत्नप्रभा में होता है / शेष पूर्ववत् / 2. रयणप्पभपुढविकाउलेस्सखुड्डागकडजुम्मनेरतिया गं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं चेव / [2 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! इस सम्बन्ध में पूर्ववत् जानना / 3. एवं सस्करप्पभाए वि, एवं वालुयप्पभाए वि / [3] इसी प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में भी निरूपण करना चाहिए / 4. एवं चउसु वि जुम्मेसु, नवरं परिमाणं जाणियन्वं, परिमाणं जहा काहलेस्सउद्देसए / सेसं एवं चव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // इक्कतोसइमे सए : चउत्थो उद्देसनो समत्तो। 31-4 / / [4] इनमें चारों युग्मों का निरूपण करना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि इन सबका परिमाण जानना चाहिए / परिमाण कृष्णलेश्या वाले उद्देशक के अनुसार कहना चाहिए / शेष मव पूर्ववत् जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह इसी प्रकार हैं', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। Page #2813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवां शतक : उद्देशक 4] विवेचन-कापोतलेश्या-सम्बन्धी नरयिकोत्पत्ति- इस चतुर्थ उद्देशक में कापोतलेश्या वाले नैरयिकों की उत्पत्ति का निरूपण है। कापोतलेश्या प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरक में होती है। इसलिए एक सामान्यदण्डक और इन तीनों के तीन अन्य दण्डक, यों इस उद्देशक में चार दण्डक हैं / सामान्यदण्डक में रत्नप्रभापृथ्वी के समान उपपात जानना चाहिए।' // इकतीसवाँ शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 950 Page #2814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उदेसओ : पंचम उद्देशक चतुर्विध क्षद्रयुग्म-भवसिद्धिक नैरयिकों की उपपात-सम्बन्धी विविध प्ररूपणा 1. भवसिद्धीयखुड्डागकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कसो उववज्जति ? कि नेरहए ? एवं जहेव प्रोहियो गमलो तहेव निरवसेसं जाव नो परप्पयोगेणं उववति / 61 प्र. भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमित भवसिद्धक नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों से ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! इनका सारा कथन प्रोधिक गमक के समान जानना चाहिए यावत् ये परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते। 2. रतणप्पभपुढविभवसिद्धोयखुड्डागकडजुम्मनेरतिया f0 ? एवं चेव निरवसेसं। [2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमित भवसिद्धिक नरपिक कहां ने आकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! इनका समग्र कथन पूर्ववत् जानना / 3. एवं जाव अहेसत्तमाए / [3] इसी प्रकार यावत् अवःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए / 4. एवं भवसिद्धोयखुड्डातेयोगनेरइया वि, एवं जाव कलियोगो ति, नवरं परिमाण जाणियध्वं, परिमाणं पुश्वभणियं जहा पढमुद्देसए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // इक्कतोसइमे सए : पंचमो उद्देसओ समतो।। 31.5 // [4] इसी प्रकार भवसिद्धिक क्षुद्रव्योजराशिप्रमाण नैरयिक के विषय में भो, तथा यावत् ..."कल्योज पर्यन्त जानना चाहिए / किन्तु इनका परिमाण जान लेना चाहिए / परिमाण पूर्वकथित प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामो यावत् विचरते हैं / // इकलीसवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // Page #2815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसओ : छठा उद्देशक कृष्णलेश्यो भवसिद्धिक नारकों की उपपात-सम्बन्धी प्ररूपरणा 1. कण्हलेस्सभवसिद्धीयखुड्डाकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कसो उववज्जति ? एवं जहेव ओहिनो कण्हलेस्सउद्देसनो तहेव निरवसेसं / चउसु वि जुम्मेसु भाणियव्यो जाब [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्मप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार औधिक कृष्णलेश्या के उद्देशक में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ सब कथन करना चाहिए। चारों युग्मों में इसका कथन करना चाहिए / 2. अहेसत्तमपुढविकण्हलेस्सखुड्डाकलियोगनेरइया णं भंते ! कसो उधवजंति ? . तहेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // इक्कतोसइमे सए : छट्ठो उद्देसनो समत्तो // 31.6 // 2 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के कृष्णलेश्यी क्षुद्र कल्योजराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] पूर्ववत् कथन करना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवाँ शतक : छठा उद्देशक समाप्त // Page #2816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसओ : सप्तम उद्देशक 1. मोललेस्सभवसिद्धीय० चउसु वि जुम्मेसु तहेव भाणियध्वा जहा प्रोहियनीललेस्सउद्देसए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // इक्कतीसइमे सए : सत्तमो उद्देसनो समत्तो // 31-7 // [1] नीललेश्या वाले भवसिद्धिक नैरयिक के चारों युग्मों का कथन औधिक नीललेश्यासम्बन्धी उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसौं शतक : साता उद्देशक समाप्त / Page #2817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसओ : आठवाँ उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-कापोतलेश्यो भवसिद्धिक नैरयिकों की उपपात-सम्बन्धी प्ररूपणा 1. काउलेस्सभवसिद्धीय० चउसु वि जुम्मेसु तहेव उववातेयचा नहेव ओहिए काउलेस्सउद्देसए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति / // इक्कतीसइमे सए : अट्ठमो उद्देसनो समत्तो // 31.8 / / [1] कापोतलेश्यी भवसिद्धिक नै रयिक के चारों ही युग्मों का कथन औधिक नीललेश्यासम्बन्धी उद्देशक के अनुसार कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवां शतक : पाठवा उद्देशक समाप्त // : Page #2818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाइ-बारसम-पज्जंता उद्देसगा नौवें से बारहवे उद्देशक तक भव्यनरयिकों के समान अभव्यनयिकों सम्बन्धी वक्तव्यता 1. जहा भवसिद्धोएहि चत्तारि उद्देसगा भणिया एवं अभवसिद्धीएहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियब्वा जाव काउलेस्सउद्देसओ ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // इक्कतीसइमे सए : नवमाइ-बारसम-पज्जता उद्देसगा समत्ता / / [1] जिस प्रकार भवसिद्धिक-सम्बन्धी चार उद्देशक कहे, उसी प्रकार प्रभवसिद्धिक-सम्बन्धी चारों उद्देशक यावत् कापोतलेश्या-सम्बन्धी उद्देशकों तक कहने चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। ॥इकतीसयां शतक : नौवें से बारहमें उद्देशक तक सम्पूर्ण // Page #2819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमाइ-सोलसम-पज्जंता उद्देसगा तेरहवें से सोलहवें उद्देशक पर्यन्त लेश्यायुक्त सम्यग्दष्टि नारकों की वक्तव्यता के चार उद्देशक 1. एवं सम्मविट्ठीहि बि लेस्सासंजुत्तेहि चत्तारि उद्देसगा कायम्बा, नवरं सम्मट्ठिी पठमबितिएसु दोसु वि उद्देसएसु अहेसत्तमपुढवीए न उववातेयत्रो / सेसं तं चेव / _सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // इक्कतीसइमे सए : तेरसमाइ-सोलसमपज्जता उद्देसगा समत्ता // [1] इसी प्रकार लेश्या सहित सम्यग्दृष्टि के चार उद्देशक कहने चाहिए। विशेष यह है कि सम्यग्दृष्टि का प्रथम और द्वितीय, इन दो उद्देशकों में कथन है। पहले और दूसरे उद्देशक में अधःसप्तम नरकपृथ्वी तक सम्यग्दृष्टि का उपपात नहीं कहना वाहिए। _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसा शतक : तेरहवें से सोलहवें उद्देशक जक समाप्त / / Page #2820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमाइ-वीसइम-पज्जंता उद्देसगा सत्रहवें से लेकर बोस उद्देशक तक मिथ्यादृष्टि नारक सम्बन्धी चार उद्देशक 1. मिच्छाविट्ठीहि वि चत्तारि उद्देसमा कायव्वा जहा भवसिद्धीयाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / // इक्कतीसइमे सए : सत्तरसमाइ-धीसहम-पज्जंता उद्देसमा समता // [1] मिथ्यादृष्टि के भी भवसिद्धिकों के समान चार उद्देशक कहने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवां शतक : सत्रहवें से बीसवे उद्देशक तक समाप्त // Page #2821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसमाइ-चउव्वीसइम-पज्जंता उद्देसगा इक्कीसवें से चौबीसवे उद्देशक-पर्यन्त कृष्णपाक्षिक नारक-सम्बन्धी 1. एवं कण्हपक्खिएहि वि लेस्सासंजुत्ता चत्तारि उद्देसगा कायया जहेव भवसिद्धोएहि / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥इकतीसइमे सए : एगवोसमाइ-चउथ्योसइमपज्जंता उद्देसगा समत्ता / / [1] इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक के लेश्याओं सहित चार उद्देशक भवसिद्धिकों के उद्देशकों के समान कहने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतीसवां शतक : इक्कीसवें से चौवीसवें उद्देशक तक समाप्त // Page #2822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसइमाइ-अट्ठावीसइम-पज्जंता उद्देसगा पच्चीसवें से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक शुक्लपाक्षिक नैरयिक सम्बन्धी चार उद्देशकों का अतिदेश 1. सुक्कपक्खिएहि एवं चेव चत्तारि उद्देसगा भाणियन्या जावयालुयप्पभपुढ विकाउलेस्ससुक्कपक्खिखुड्डाकलियोगनेरतिया णं भंते ! कतो उववज्जति ?0 तहेव जाव नो परप्पयोगेणं उखबज्जति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। सन्चे वि एए अट्ठावीसं उद्देसगा। // इक्कतीसहमे सए : पंचवीसइमाइ-अट्ठावीसहम-पज्जता उद्देसगा समत्ता // 31-28 / / ॥इक्कतोसइमे उववायसयं समत्तं // 31 // [1] इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक के भी लेश्या-सहित चार उद्देशक कहने चाहिए। [प्र.] यावत् भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी के कापोतलेश्या वाले शुक्लपाक्षिक क्षुद्रकल्योजराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [उ.] गौतम ! पूर्वकथनवत् समझना चाहिए / यावत् वे परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे / ये सब मिला कर अट्ठाईस उद्देशक हुए। विवेचन-निष्कर्ष-नौवें से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक चार-चार उद्देशकों का सम्मिलित निरूपण किया गया है / // इकतीसवां शतक : पच्चीसवें से अट्ठाईसर्वे उद्देशक तक समाप्त // // इकतीसवाँ : उपपातशतक सम्पूर्ण / / Page #2823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं सयं : उव्वट्टणा-सयं बत्तीसवाँ : उद्वर्तना-शतक पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक चतुर्विध क्षुद्रयुग्म-नैरयिकों के उदवर्तन को लेकर विविध प्ररूपणा 1. खुड्डाकडजुम्मनेरझ्या णं भंते ! अणंतरं उबवट्टिता कहिं गच्छति ? कहिं उपवज्जति ? कि नेरइएसु उववज्जति ? कि तिरिक्खजोणिएसु उवव० ? उबचट्टणा जहा वक्कंतीए / [1 प्र.] भगवन् ! क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से उद्वतित होकर (निकलमर कर) तुरन्त कहाँ जाते हैं और कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं या तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं अथवा मनुष्यों में या देवों में उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इनका उद्वर्तन प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिक पद के अनुसार जानना। 2. से णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उध्वटति ? गोयमा ! चत्तारि वा, अट्ठ वा, बारस वा, सोलस वा, संखेज्जा वा, अखेसंज्जा वा, उध्वति / [२प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्तित होते (मरते) हैं ? 2 उ.] गौतम ! (वे एक समय में) चार, पाठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्तित होते हैं। 3. ते णं भंते ! जीवा कहं उध्वटंति? गोयमा ! से जहानामए पवए०, एवं तहेव (स० 25 उ० 8 सु० 2.8) / एवं सो चेव गमत्रो जाव आयप्पयोगेणं उन्वटेंति, नो परप्पयोगेणं उन्बति / [3 प्र. भगवन् ! वे जीव किस प्रकार उत्तित होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कोई कूदने वाला इत्यादि सब कथन पूर्ववत् (श. 25 उ. 8 सू. 2.8 के अनुसार) जानना; यावत् वे प्रात्मप्रयोग से उत्तिल होते हैं, परप्रयोग से नहीं। 4. रयणप्पभापुढविखुड्डाकड ? एवं रयणप्पभाए बि। [4 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभाथ्वी के क्षुद्र-कृतयुग्म-राशि-प्रमाण नैरयिक, कहाँ से उद्वर्तित होकर तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? Page #2824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्राप्तिसूत्र [4 उ. गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक को उद्वर्तना के समान इनकी उद्वर्तना आदि जानना। 5. एवं जाव आहेसत्तमाए। [5] इसी प्रकार (शर्कराप्रभा के नैरयिक से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी तक उद्वर्तना जानना / 6. एवं खुड्डातेयोग-खुड्डादावरजुम्मखुड्डाकलियोग०, नवरं परिमाणं जाणियव्वं / सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥बत्तीसइमे सए : पढमो उद्देसमो समतो॥३१-१॥ [6] इस प्रकार क्षुद्रश्योज, क्षुद्रद्वापरयुग्म और क्षुद्रकल्योज के विषय में भी जानना चाहिए / परन्तु इनका परिमाण पूर्ववत् अपना-अपना पृथक्-पृथक् कहना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // बसीसौं शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / Page #2825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीइयाइ-अट्ठावीसइम-पज्जंता उद्देसगा द्वितीय से लेकर अट्ठाईसवें उद्देशक तक चतुविध क्षुद्रयुग्म-कृष्णलेश्यी नैरयिकों की उद्वर्तना-सम्बन्धी प्ररूपणा 1. कण्हलेस्सखुड्डाकडजुम्मनेरइया ? एवं एएणं कमेणं जहेव उववायसए (स० 31) अट्ठावीसं उद्देसगा भणिया तहेव उबट्टणासए वि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियन्वा निरबसेसा, नवरं 'उम्वति' ति अभिलाखो भाणियन्वो / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ / बत्तीसइमे सए : बीइयाइ-अट्ठावोसइम-पज्जंता उसगा समत्ता // 32-2-28 / / // बत्तीसइमं उन्बट्टणासयं समत्तं // 32 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले क्षुद्रकृतयुग्मराशिप्रमाण नैरयिक कहाँ से निकल कर (उद्वत्तित होकर) तुरन्त कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] इसी प्रकार उपपातशतक के अट्ठाईस उद्देशकों के समान उद्वर्तनाशतक के भी अट्ठाईस उद्देशक जानना चाहिए / विशेष यह है कि 'उत्पन्न होते हैं के स्थान पर 'उत्तित होते हैं कहना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। ___हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---उत्पत्ति के समान उद्वर्तना के अट्ठाईस उद्देशक-इकतीसवें शतक में नारकों की उत्पत्ति की प्ररूपणा की थी, उसी प्रकार यहाँ उनकी उद्वर्तना अट्ठाईस उद्देशकों में क्रमश: कहनी चाहिए।' प्रथम उद्देशक में कहा गया है--'उज्वट्टणा जहा वक्कंतीए।' प्रज्ञापनासूत्र के व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार नैरयिकों की उद्वर्तना कहनी चाहिए / वहाँ संक्षेप में कहा गया है.--'नरगानो उम्वदा गम्मे पज्जत्त-संखजीवीसु' अर्थात् नरक से निकल कर जीव पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं ?' // बत्तीसरा शतक : दूसरे से लेकर मट्ठाईसवें उद्देशक तक सम्पूर्ण / // बत्तीसवाँ : उद्धर्तनाशतक समाप्त / / 1. वियाहपपणत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 3, पृ. 1113 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 951 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (पष्णवणासुत्तं) भा. 1, सू. 666-67. पृ. 178-79 (महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित) Page #2826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं सयं : बारस एगिदियसयाणि तेतीसवां शतक : बारह अवान्तर एकेन्द्रियशतक प्राथमिक * यह भगवतीसूत्र का तेतीसवाँ शतंक है। इसका नाम एकेन्द्रियशतक है। इस शतक के अन्तर्गत बारह अवान्तर शतके हैं। इसका एकेन्द्रियशतक नाम रखने का कारण यह है कि इसमें एकेन्द्रियों के समस्त भेद-प्रभेद तथा अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ-परम्परावगाढ, अनन्तराहारक-परम्पराहारक. अनन्तरपर्याप्तक-परम्परपर्याप्तक. चरम-अचरम इत्यादि विशेषणों से युक्त एकेन्द्रियजीव में कर्मप्रकृतियों की सत्ता, बन्ध, वेदन ग्रादि का विश्लेषण युक्तिपूर्वक किया गया है / * साथ ही इसके अन्य अवान्तरशतकों में कृष्णलेश्याविशिष्ट, नीललेश्याविशिष्ट, कापोतलेश्या विशिष्ट, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिकताविशिष्ट तथा भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक भेद-प्रभेद युक्त एकेन्द्रियों की कृष्ण-नीलादिलेश्याविशिष्ट तथा अनन्तरोपपन्नक-परम्परोपपन्नक आदि से युक्त कृष्णलेश्यादिविशिष्ट एकेन्द्रियजीवों की सांगोपांग प्ररूपणा की है। * इस प्रकार बारह एकेन्द्रिय अवान्तरशतकों में भिन्न-भिन्न पहलुओं से कर्मबन्धादि का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। यह सारा प्रतिपादन उन लोगों की आँखों को खोल देने वाला है, जो यह मानते हैं कि 'पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव (आत्मा) नहीं है / ये जड़ हैं / इनमें अव्यक्त चेतना होती है। सभी भावेन्द्रियाँ होती हैं, जिनसे इन्हें सुख-दुःख का वेदन होता है, जिनसे राग-द्वेष कषाय, लेश्या आदि का जत्था बढ़ता जाता है। इन्हें जड़ माना जाए तो इनके कर्मबन्धादि क्यों हों और क्यों ये जन्म-मरण करें ? बाहर से अपरिग्रही, अहिंसक, ब्रह्मचारी आदि दिखाई देने वाले एकेन्द्रिय जीवों में वर्तमान युग के विश्लेषण के अनुसार यह सिद्ध हो गया है कि ये परिग्रह, हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य आदि से मुक्त नहीं हैं। इनमें क्रोधादिकषाय, आहारादिसंज्ञा इत्यादि होते हैं। न तो ये सम्यक्त्वी होते हैं और न ही सम्याज्ञान से युक्त या हिंसादि से विरत होते हैं / यही प्ररूपणा शास्त्रकारों ने इस शतक में की है। 1. अन्तःप्रज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः, शारीरजः कर्म दोषः यान्ति स्थावरता नराः / -मनुस्मृति / Page #2827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं सयं : बारस एगिदियसयाणि तेतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रियशतक पढमे एगिदियसए : पढमो उद्देसओ प्रथम एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेदों का निरूपण 1. कतिविधा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा एगिदिया पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया। [1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / 2. पुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-सुहमपुढविकायिया य, बायरपुढ विकाइया य / [2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकाधिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं, यथा--सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक / 3. सुहमपुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नता, तं जहा–पज्जत्ता सुहमयुद्धविकाइया य, अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइया य। [3 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [3 उ.] गौतम ! के दो प्रकार के कहे हैं। यथा-पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक। 4. बायरपुढविकाइया गं भंते ! कति विहा पन्नत्ता ? एवं चेव / [4 प्र.] भगवन् ! बादरपथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [4 उ.] गौतम ! वे भी पूर्ववत् दो प्रकार के हैं / 5. एवं प्राउकाइया वि चउपकरणं भेएणं तम्या / [5] इसी प्रकार प्रकायिक जीवों के चार भेद जानने चाहिए। Page #2828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रे 6. एवं जाव वणस्सतिकाइया। [6] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव-पर्यन्त जानना / विवेचन-एकेन्द्रिय जीवों का परिवार-प्रस्तुत 6 सूत्रों (1 से 6 तक) में एकेन्द्रिय जीवों के मुख्य 5 भेद बताकर, फिर पृथ्वीकायिक आदि पांचों के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार-चार भेद बताए हैं / इस प्रकार पांचों प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के कुल 544-20 भेद हुए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, इन पांचों एकेन्द्रिय जीवों में जीवत्व (आत्मा) की सिद्धि प्रागम, वृत्ति एवं जीवविज्ञान से सिद्ध है / एकेन्द्रिय जीवों को कर्मप्रकृतियां, उनके बन्ध और वेदन का निरूपण 7. अपज्जत्तासुहमपुढ विकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीयो पन्नतातो ? गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पन्नत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतरायियं / [7 प्र. भगवन् ! अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितने कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? 7 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं / यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म / 8. पज्जत्तासुहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीयो पन्नताप्रो ? गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पनत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्ज जाव अंतरायियं / 8.] भगवन् ! पर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [8 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्म-प्रकृतियाँ कही हैं / यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकम। 6. अपज्जत्ताबायरपुढधिकायियाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नातायो? एवं चेव। [प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तबादरपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही हैं ? [9 उ.] गौतम ! उनके भी पूर्ववत् पाठ कर्मप्रकृतियाँ हैं / 10. पज्जत्ताबायरपुढविकायियाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ० ? एवं चेव / [10 प्र. भगवन् ! पर्याप्तबादरपथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [10 उ.] गौतम ! उनके भी पूर्ववत् आठ कर्मप्रकृतियाँ हैं / 11. एवं एएणं कमेणं जाय बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ति। [11] इसी प्रकार इसी क्रम से (अपर्याप्तसूक्ष्मअप्कायिक से लेकर) यावत् पर्याप्सबादर वनस्पतिकायिक जीवों की कर्मप्रकृतियों का कथन करना चाहिए। 12. अपज्जत्तासुहमपुढविकायिया णं भंते ! कति कम्मरपाडोमो बंधति ? Page #2829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीतयो शतक : उद्देशक 1] गोयमा! सत्तविहबंधगा वि, अविहबंधगा वि। सत्त बंधमाणा आउयवज्जाश्रो सत्त कम्मप्पगडीयो बंधंति / अट्ठ बंधमाणा पडिपुण्णाश्रो अट्ट कम्मप्पगडीओ बंधति / / [12 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? / [12 उ.] गौतम ! वे सात कर्मप्रकृतियाँ भी बांधते हैं और पाठ भी बांधते हैं। सात बांधते हुए पायुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं तथा आठ बांधते हुए सम्पूर्ण पाठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं। 13. पज्जत्तासुहमपुटविकायिया णं भंते ! कति कम्म? एवं चेव। [13 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [13 उ.] गौतम ! (ये भी) पूर्ववत् (सात या पाठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं / ) 14. एवं सम्बे जाय-पज्जत्तावायरवणस्सतिकायिया गं भंते ! कति कम्मपगडीयो बंधति ? एवं चेव। [14 प्र. भगवन् ! इसी प्रकार शेष सभी (भेद-प्रभेद सहित एकेन्द्रिय जीव) यावत्-पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिक जीव-पर्यन्त कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [14 उ.] गौतम ! (ये सभी यावत् पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिक-पर्यन्त) पूर्ववत् (सात या आठ कर्मप्रकृतियां बांधते हैं / ) 15. अपज्जत्तासुहमपुढविकाइया गं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! चोद्दस कम्मप्पगडीयो वेदेति, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं, सोतिरिययभं चक्खिदियवझ घाणिदियवझ निम्भिदियवझ इस्थिधेदवझ पुरिसवेदवज्झ / [15 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को वेदन करते (भोगते) हैं। [15 उ.] गौतम ! वे चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते (भोगते) हैं / यथा--(१-८) ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, (6) श्रोत्रेन्द्रियवध्य (श्रोत्रेन्द्रियावरण), (10) चक्षुरिन्द्रियावरण, (11) घाणेन्द्रियावरण, (12) जिह्वन्द्रियावरण, (13) स्त्रीवेदावरण और (14) पुरुषवेदावरण ! 16. एवं चउक्कएणं भेएणं जाव-पज्जत्ताबायरवणस्सतिकाइया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीयो वेदेति ? एवं चैव चोहस। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेत्तीसइमे सए : पढमे एगिदियसए : पढमो उद्देसनो समत्तो / / 33-1 / 1 // Page #2830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] इसी प्रकार (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त) इन चारों भेदों सहित, यावत्हे भगवन् ! पर्याप्तबादरवनस्पतिकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ? [16 उ.] गौतम ! पूर्ववत् चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--एकेन्द्रिय में कर्मप्रकृतियों को सत्ता, बन्ध और वेदन--सभी प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में पाठ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। वे सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं तथा चौदह कर्म प्रकृतियाँ वेदते (भोगते) हैं। 14 में से 8 तो मूल कर्मप्रकृतियाँ हैं, 6 उत्तरप्रकृतियाँ हैं। चार इन्द्रियों के क्रमशः प्रावरण तथा स्त्रीवेदावरण एवं पुरुषवेदावरण / श्रोत्रेन्द्रियावरण प्रादि 4 मतिज्ञानावरणीय के प्रकार हैं तथा स्त्रीवेदावरण एवं पुरुषवेदावरण मोहनीयकर्म के प्रकार हैं। चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन क्यों और कैसे ? –समस्त प्रकार के एकेन्द्रिय जीव 14 कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, उनमें से आठ तो प्रसिद्ध हैं। शेष 6 उनके विशेषभूत हैं। प्राशय यह है कि एकेन्द्रिय जीवों को सिर्फ स्पर्शन्द्रिय और नपुंसकवेद प्राप्त होता है, उनको शेष चार इन्द्रियाँ उपलब्ध नहीं होतीं, उनका ज्ञान भी आवृत रहता है तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी उन्हें प्राप्त नहीं होते। सोइंदियवझ प्रादि का विशेषार्थ-जिसका श्रोत्रेन्द्रिय वध्य-हननीय हो, वह श्रोत्रेन्द्रियवध्य है, इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के साथ तथा वेद के साथ 'वध्य' शब्द लगा है, उसका भावार्थ है-~-श्रोत्रेन्द्रिय आदि मतिज्ञान विशेष आवृत होते हैं, उन्हें प्राप्त नहीं।' तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) श्रीमद्भगवतीसूत्रम्, खण्ड 4 (गुजराती अनुवाद) पृ. 318 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 954 Page #2831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : बीओ उद्देसओ प्रथम एकेन्द्रिय शतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनमें कर्मप्रकृतियाँ, उनके बन्ध और वेदन का निरूपण 1. कतिविधा गं भंते ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा! पंचविहा अणंतरोववनगर एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा–पुढविकाइया जाव घणस्सइकाइया। [1 प्र.] भगवन् ! अनन्त रोपपन्नक (तत्कालोत्पन्न) एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! अनन्त रोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं / यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / 2. अणंतरोववनगा भंते ! पुढविकाइया कतिविहा पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा---सुहुमपुढविकाइयिया य बादरपुढविकायिया य। [2 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? {2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-सूक्ष्म अ० पृथ्वीकायिक और बादरअ० पृथ्वीकायिक। 3. एवं दुपएणं भेएणं जाय वणस्सतिकाइया। [3] इसी प्रकार (प्रत्येक एकेन्द्रिय के) दो-दो भेद-यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त समझना। 4. प्रणतरोववन्नगसुहमपुढधिकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीनी पन्नत्ताओ? गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पन्नत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [4 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही [4 उ.] गौतम ! उनके आठ कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्त रायकर्म / 5. अणंतरोववनगबावरपुढविकायियाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीनो पम्नत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पयडीओ पन्नत्तानो, तं जहा-नाणावरणिज्ज जाव अंतराइयं / [5 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपन्नकबादरपृथ्वीकायिक के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं ? Page #2832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {াগুয়ানি 5 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म। 6. एवं भाव प्रणंतरोषवानगबादरवणस्सइकायियाणं ति / [6] इसी प्रकार यावन् अनन्त रोपपनकबादरवनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना। 7. अणंतरोववनगसुहमपुढविकायिया णं भंते ! कति कम्मप्पगडीनो बंधति ? गोयमा! आउयवज्जास्रो सत्त कम्मप्पगडीओ बंधति / [7 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [7 उ.] गौतम ! वे प्रायुकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं। 5. एवं जाव अणंतरोववन्नगवायरवणस्सहकायिय त्ति। [8] इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नकबादरवनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना / 6. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकायिया णं भंते ! कति कम्मप्पगडोश्रो वेति ? गोयमा ! चोइस कम्मपगडीओ वेदेति, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव पुरिसवेदवझं। [प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं ? [6 उ.] गौतम ! वे (पूर्वोक्त) चौदह कर्मप्रकृतियाँ वेदते हैं। यथा-पूर्वोक्त प्रकार से ज्ञानावरणीय यावत् पुरुषवेदवध्य (पुरुषवेदाबरण) वेदते हैं / 10. एवं जाव अणंतरोववन्नगवायरवणस्सतिकाइय ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // तेत्तीसइमे सए : पढमे एगिदियसए : विइनो उद्देसनो समत्तो / / 33 / 1 / 2 // [10] इसी प्रकार यावत् अनन्तरोपपन्नकबादरवनस्पतिकायिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में यत्किचित-प्रस्तुत उद्देशक में अनन्तरोपपन्नक जीवों के पांच भेद तथा उनके प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद करके उनमें कर्मप्रकृतियों तथा उनके बन्ध और वेदन का निरूपण किया गया है। प्रथम उद्देशक से इस द्वितीय उद्देशक में यही अन्तर है कि वहां सामान्य एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में निरूपण है, जबकि इसमें अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों का है। प्रथम उद्देशक में पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, यों चार-चार भेद किये हैं, जबकि यहाँ अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय में पर्याप्त और अपर्याप्त का अभाव होने से सिर्फ दो भेद किये हैं। ये सभी अपर्याप्त ही होते हैं / कर्मबन्ध आयुष्य को छोड़ कर सात प्रकृतियों का होता है। शेष सब प्ररूपण पूर्ववत् ही है / ' // तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 954 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3665 Page #2833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : तइओ उद्देसओ प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें कर्मप्रकृतियाँ, उनका बंध और वेदन 1. कतिविधा णं भंते ! परंपरोववन्नगा एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा! पंचविहा परंपरोववन्नगा एगिदिया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया०। एवं चउक्कओ भेदो जहा ओहिउद्देसए। [1 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.गौतम! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथापृथ्वीकायिक इत्यादि / इसी प्रकार औधिक उद्देशक के चार-चार भेद कहने चाहिए। .. 2. परंपरोववन्नगअपज्जत्तसुहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्यगडीयो पन्नत्तानो ? एवं एतेणं अभिलावेणं जहा ओहिउद्देसए तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव चोद्दस वेदेति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / . // तेतीसइमे सए : पढमे एगिदियसए : ततिओ उद्देसनो समत्तो // 33-1-3 // [2 प्र] भगवन् ! परम्परोपपत्रक अपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं ? [2 उ. गौतम ! इस अभिलाप से औधिक (प्रथम) उद्देशक के अनुसार यावत् चौदह कर्म. प्रकृतियाँ वेदते हैं; (यहाँ तक) समग्न पाठ पूर्ववत् (इसी प्रकार) कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन---प्रथम उद्देशक का प्रतिदेश--इस परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय उद्देशक में समग्र वक्तव्यता प्रथम (प्रोधिक) उद्देशक के अनुसार प्रतिपादित की गई है। तत्काल उत्पन्न हुए जीव को 'अनन्तरोपपत्रक' और जिसको उत्पन्न हुए दो-तीन आदि समय हो चुके हैं, उसे परम्परोपपन्नक कहते हैं / परम्परोपपन्नक में पृथ्वीकायिक आदि प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव के प्रथम उद्देशक में कहे अनुसार चार-चार भेद होते हैं।' // तेतीसवाँ शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक सम्पूर्ण // 1. (क) वियापण्णतिसुत्तं, भा. 3 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 1116-1117 (ख). भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3665 Page #2834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : चउत्थाइ- एक्का रस पज्जता उद्देसगा प्रथम एकेन्द्रियशतक : चौथे से लेकर ग्यारहवें उद्देशकपर्यन्त 1. अणंतरोगाढा जहा अणंतरोववन्नगा // 33-1-4 // [1] अनन्तरावगाढ एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान कना चाहिए // 333114 // 2. परंपरोगाढा जहा परंपरोववन्नगा / / 33-1-5 // [2] परम्परावगाढ एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के समान जानना चाहिए / / 33 / 1 / 5 / / 3. प्रणंतराहारगा जहा अणंतरोवबन्नगा॥ 33-1-6 / / [3] अनन्तराहारक एकेन्द्रिय का कथन अनन्तरोपपत्रक उद्देशक के अनुसार जानना // 33 // 16 // 4. परंपराहारगा जहा परंपरोववनगा // 33-1-7 // [4] परम्पराहारक एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए / / 33111711 5. प्रणंतरपज्जत्तगा जहा अणंतरोववन्नगा / / 33-1-8 / / [5] अनन्तरपर्याप्तक एकेन्द्रिय की वक्तव्यता अनन्तरोपपत्रक के समान जाननी चाहिए // 33 // 18 // 6. परंपरपज्जत्तगा जहा परंपरोववनगा // 33-1-6 // [6] परम्परपर्याप्तक एकेन्द्रिय को वक्तव्यता परम्परोपपन्नक के समान जाननी चाहिए, // 33 / 11 / / 7. चरिमा वि जहा परंपरोववन्नगा // 33-1-10 / / [7] चरम एकेन्द्रिय का कथन परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए // 33 // 1 // 10 // 8. एवं प्रचरिमा वि एवं एते एक्कारस उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति // 33-1-11 / / // तेतीसहमे सए : उत्थाइ-एगारस-पज्जंता उद्देसगा समसा / / / / तेतीसइमे सए : पढमं एगिदियसयं समत्तं // 33-1 // Page #2835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवां शतक : उद्देशक 4-11] [=] इसी प्रकार अचरम एकेन्द्रिय-सम्बन्धी वक्तव्यता भी जान लेनी चाहिए। ये सभी ग्यारह उद्देशक हुए / / 33 / 1-11 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-अलिदेशपूर्वक आठ उद्देशक-चतुर्थ उद्देशक से लेकर ग्यारहवे उद्देशक तक पाठ उद्देशकों में प्रतिपाद्य विषय का अतिदेश चौथे से नौवें उद्देशक तक अनन्तरविशिष्ट एकेन्द्रिय का अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार और परम्परविशिष्ट एकेन्द्रिय का परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार तथा चरम और अचरम एकेन्द्रिय का अतिदेश परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार किया गया है।' // तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें तक के उद्देशक सम्पूर्ण // तेतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक समाप्त // 1. वियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 3., पृ. 1117-1115 Page #2836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिईए एगिदियसए : पढमे उद्देसओ द्वितीय एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय-भेद-प्रभेद उनकी कर्मप्रकृतियां, उनके बंध और बेदन की प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा--पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया। [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा--पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त / 2. कण्हलेस्सा णं भंते ! पुढविकाइया कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा—सुहमपुढविकाइया य बादरपुढविकाइया य / [2 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। 3. कण्हलेस्सा णं भंते ! सुहमपुढविकायिया कतिविहा पन्नत्ता ? एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कओ भेदो जहेव ओहिउद्देसए। [3 प्र.] भगवन् ! (कृष्णलेश्यी) सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [3 उ. गौतम ! जिस प्रकार औधिक उद्देशक में प्रत्येक एकेन्द्रिय के चार-चार भेद कहे हैं उसी अभिलाप (पाठ) के अनुसार यहाँ भी पूर्ववत् प्रत्येक एकेन्द्रिय के चार-चार भेद कहने चाहिए। 4. कण्हलेस्सअपज्जत्तसुहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? एवं एएणं अभिलावणं जहेब मोहिउद्देसए तहेव पन्नताओ। [4 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [4 उ.] गौतम ! प्रोधिक उद्देशक के अनुसार इसी अभिलाप (पाठ) से कर्मप्रकृतियाँ कहनी चाहिए। 5. तहेव बंधति / [5] उसी प्रकार वे (कर्मप्रकृतियाँ ) बांधते हैं। .. Page #2837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवां शतक : उद्देशक 1] 6. तहेव वेदेति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेतीसइमे सए : विइए एगिदिय-सए : पढमो उद्देसनो समत्तो // 33 // 2 // 1 // 16] उसी प्रकार वे (कर्मप्रकृतियाँ) वेदते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय के लिए औधिक उद्देशक का प्रतिदेश-प्रस्तुत प्रकरण में कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, उनमें पाई जाने वाली कर्मप्रकृतियाँ तथा उनके बन्ध और वेदन के समग्र कथन का प्रथम अवान्तरशतक के प्रथम (औधिक) उद्देशक के अनुसार अतिदेश किया गया है।' // तेतीसवाँ शतक : दूसरा अवान्तर एकेन्द्रियशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // -..---.-- - 1. वियाहपण्णन्तिसुत्तं, भा. 3, पृ. 1119 Page #2838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए एगिदियसए : बिईओ उद्देसओ द्वितीय एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय भेद-प्रभेद, उनकी कर्म प्रकृतियाँ, बंध तथा बेदन को प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! अणंतरोक्वनगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा एगिदिया० / एवं एएणं प्रभिलावेणं तहेव दुपनो भेदो जाव वणस्सतिकाइय ति। [1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपत्रककृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव (पूर्ववत्) पांच प्रकार के कहे हैं / इस अभिलाप से (अ. कृ. एके. पृथ्वीकायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त (पूर्ववत् प्रत्येक के) दो-दो भेद होते हैं। 2. अणंतरोववनगाहलेस्ससुहमपुढ विकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीयो पन्नत्तानो ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा प्रोहिओ प्रणतरोववनगाणं उद्देसनो तहेव जाव बेति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेतीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : बिइओ उद्देसनो समत्तो // 33-2-2 // [2 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? _ [2 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक अनन्तरोपपन्नक के अनुसार यावत्-'वेदते हैं', यहाँ तक समग्र कथन कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-औधिक अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के अनुसार---यहाँ कृष्णलेश्याविशिष्ट अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के मूल पांच भेद तथा पाठ कर्मप्रकृतियाँ, बन्ध तथा वेदन का निरूपण किया गया है / अन्तर केवल इतना ही है कि यहाँ पृथ्वीकायिक आदि पांचों के चार भेद के बदले केवल दो भेद ही होते हैं-सूक्ष्म और बादर ! // तेतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // Page #2839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए एगिदियसए : तइओ उद्देसओ द्वितीय एकेन्द्रिय-शतक : तृतीय उद्देशक परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रियजीवों के भेद-प्रभेद, कर्मप्रकृतियाँ, बंध और वेदन की प्ररूपरणा 1. कतिविधा णं भंते ! परंपरोक्वनगा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा परंपरोववनगा० एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया०, एवं एएणं अभिलावेणं चउक्कानो भेदो जाब बणस्सतिकाइय ति। [1 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं / यथापृथ्वीकायिक इत्यादि / इस प्रकार इसी अभिलाप से (पृथ्वीकायादि प्रत्येक के) यावत् बनस्पतिकायिक-पर्यन्त चार-चार भेद कहने चाहिए। 2. परंपरोववन्नगकण्हलेस्सअपज्जत्तसुहमपुविकाइयाणं भंते ! कति कम्मम्पगडीओ पन्नत्तानो ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव प्रोहियो परंपरोववन्नगउद्देसओ तहेव जाव वेदेति / // तेतीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : तइयो उद्देसमो समत्तो // 33-2-3 // [2 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [2 उ.] गौतम ! औधिक परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार (कर्मप्रकृतियों से लेकर) यावत 'वेदते हैं तक समग्र कथन कहना चाहिए / विवेचन--निष्कर्ष कृष्णलेश्याविशिष्ट परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद, कर्मप्रकृत्तियाँ, बन्ध और वेदन का समग्र कथन औधिक परम्परोपपन्नक के समान है। / तेतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : ततीय उद्देशक समाप्त // Page #2840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए एगिदियसए : चउत्थाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा द्वितीय एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें उद्देशक-पर्यन्त परम्परोपपन्नक कृष्ण. एके. के चौथे से ग्यारहवें शतक तक की वक्तव्यता 1. एवं एएणं अभिलावेणं जहेब ओहिए एगिदियसए एक्कारस उद्देसगा भणिया तहेव कण्हलेस्ससते वि भाणियव्वा जाव प्रचारमकण्हलेस्सा एगिदिया। ॥तेत्तीसइमे सए : बिइए एगिदियसए : चउत्थाइ-एक्कारसम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता॥ [1] औधिक एकेन्द्रियशतक में जिस प्रकार ग्यारह उद्देशक कहे, उसी प्रकार इस अभिलाप से यावत् अचरम और चरम कृष्णलंश्यी एकेन्द्रिय पर्यन्त कृष्णलेश्यीशतक में भी कहने चाहिए। ॥तेतीसवाँ शतक : द्वितीय एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक समाप्त // Page #2841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए एगिदियसए पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा तृतीय एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक द्वितीय एकेन्द्रियशतकानुसार तृतीय नीललेश्यी एकेन्द्रियशतक-वक्तव्यता 1. जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्से हि वि सयं भाणितत्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // तेत्तीसइमे : तलिए एंगिदियसए पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता / // तेतीसइमे सए : ततियं एगिदियसयं समत्तं // 36-3 // [1] जैसे कृष्णलेश्यो एकेन्द्रियविषयक शतक कहा, वैसे ही नीललेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के विषय में भी समग्र शतक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // तेतीसवां शतक : तृतीय एकेन्द्रिय शतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक-पर्यन्त समाप्त / // तेतीसवां शतक : ततीय एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण // 33-3 / / Page #2842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा चतुर्थ एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक द्वितीय एकेन्द्रियशतकानुसार कापोतलेश्यो एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. एवं काउलेस्से हि वि सयं भाणितन्वं, नवरं 'काउलेस्स' त्ति अभिलावो। // चउत्थे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 4-1-11 / / ॥तेत्तीसइमे सए : चउत्थं एगिदियसयं समत्तं // 33-4 / / कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) शतक कहना चाहिए, किन्तु 'कापोतलेश्या', ऐसा पाठ कहना चाहिए / / तेतीसवां शतक : चतुर्थ एकेन्द्रिय शतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त सम्पूर्ण // // तेतीसवां शतक : चतुर्थ एकेन्द्रियशलक समाप्त // 33 // 4 // Page #2843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा पांचवाँ एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त प्रथम एकेन्द्रियशतकानुसार भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. कतिविहा णं भंते ! भवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया। भेदो चउक्कओ जाव वणस्सतिकाइय ति / [1 प्र. भगवन् ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं / यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / इनके चार-चार भेद (आदि समस्त वक्तव्यता) यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए। 2. भवसिद्धीयअपज्जत्तसहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ? एवं एतेणं अभिलावेणं जहेव पढ मिल्लं एगिदियसयं तहेव भवसिद्धीयसयं पि भाणियध्वं / उद्देसगपरिवाडी तहेव जाव अचरिम त्ति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥पंचमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 5 // 1-11 / / // तेतीसइमे सए : पंचमं एगिदियसयं समत्तं / / 33-5 // ___ [2 प्र. भगवन् ! भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? . [2 उ.] गौतम ! प्रथम एकेन्द्रियशतक के समान भवसिद्धिकशतक भी कहना चाहिए। उद्देशकों की परिपाटी भी उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् अचरम उद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए। . 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। पांचवाँ एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त सम्पूर्ण / / // तेतीसवां शतक : पंचम एकेन्द्रियशतक समाप्त / / Page #2844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ8 एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उदैसगा छठा एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें पर्यन्त उद्देशक प्रथम एकेन्द्रियशतकानुसार कृष्णलेश्यो भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. कत्तिविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता, पुढविकाइया जाव वणस्सतिकाइया / [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यावान् भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गाए हैं / यथा-पृथ्वी कायिक यावत् वनस्पतिकायिक / 2. काहलेस्सभवसिद्धीयपुढ विकाइया णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा- सुहुमयुढविकाइया य, बायरपुढविकाइया य / {2 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा--सूक्ष्मपृथ्वी कायिक और बादरपृथ्वीकायिक / 3. कण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहमपुढ विकायिया णं भंते ! कतिविहा पन्नता? गोयमा ! दुविहा पन्नता, तं जहा-पज्जतगा य अपज्जसगा य / [3 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? [3 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा---पर्याप्तक और अपर्याप्तक / 4. एवं बायरा वि। [4] इसी प्रकार बादरपृथ्वीकायिकों के भी दो भेद हैं / 5. एवं एतेणं अभिलावेणं तहेव चउक्कओ मेदो भाणियव्यो। [5] इसी अभिलाप से उसी प्रकार प्रत्येक के चार-चार भेद कहने चाहिए ! 6. कण्हलेस्सभवसिद्धीयअपज्जतासुहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीयो पत्रसामो? एवं एएणं अभिलावणं जहेब मोहिउद्देसए तहेव जाव वेदेति त्ति / 16 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनो कर्मप्रकृतियां कही हैं ? Page #2845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसा शतक : उद्देशक 1-11] [6 उ.] गौतम ! इसी अभिलाप से औधिक उद्देशक के समान 'वेदते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 7. कतिविधा णं भंते अणंतरोववनगा कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नता ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नगा जाव वणस्सतिकाइया / नन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [7 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के कहे हैं / यथा--पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / 8. अणंतरोक्वनगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविकाइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सुहमपुढविकाइया य, बायरपुढविकाइया य / [8 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? पृथ्वीकायिक [8 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादर 6. एवं दुपयो भेदो। [[] इसी प्रकार अप्कायिक प्रादि के भी दो-दो भेद कहने चाहिए। 10. अणंतरोक्वन्नगकण्हलेस्सभव सिद्धोयसुहमढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीओ पन्नत्तामो? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिरो अणंतरोववन्नो उद्देसनो तहेव जाव वेदेति / [10 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [10 उ.] गौतम ! यहाँ भी इसी अभिलाप से अनन्तरोपपन्नक के औधिक उद्देशक के अनुसार, यावत् 'वेदते हैं। यहाँ तक कहना चाहिए / 11. एवं एतेणं अभिलावणं एक्कारस वि उद्देसगा तहेव भाणियन्वा जहा ओहियसए जाव प्रचरिमो ति। // छठे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 6 // 1.11 // ॥तेत्तीसइमे सए : छठें एंगिदियसतं समत्तं // 33-6 // [11] इसी प्रकार इसी अभिलाप से, औधिक शतक के अनुसार, पूर्ववत् ग्यारह ही उद्देशक यावत् 'अचरमउद्देशक' पर्यन्त कहने चाहिए। ॥छठा एकेन्द्रियशतक : एक से लेकर ग्यारह उद्देशक-पर्यन्त समाप्त / / // तेतीसवां शतक : छठा एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण / / Page #2846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा सप्तम एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त छठे एकेन्द्रियशतकानुसार नीललेश्यी-भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-कथन-निर्देश 1. जहा कण्हलेस्सभवसिद्धीए सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धीएहि बि सयं भाणियब्वं / // सत्तमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जता उद्देसगा समत्ता // 711-11 / / // तेत्तीसइमे सए : सत्तमं एगिदियसतं समत्तं // 33-7 // !i जिस प्रकार कृष्णले श्यो भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक कहा, उसी प्रकार नोललेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी कहना चाहिए / // सप्तम एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त / / // तेतीसवाँ शतक : सप्तम एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण / / Page #2847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा पाठयाँ एकेद्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक-पर्यन्त छठे एकेन्द्रिय-शतकानुसार : कापोतलेश्यी-भवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. एवं काउलेस्सभवसिद्धीएहि वि सयं / // अट्ठमे एगिदियसए : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 8 / 1-11 // // तेतीसइमेसए : अट्टम एगिदियसयं समत्तं // 33-8 // _[1] कापोतलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) कहना चाहिए। ॥पाठवा एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक सम्पूर्ण / // तेतीसवां शतक : अष्टम एकेन्द्रियशतक समाप्त / / Page #2848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा नौवा एकेद्रियशतक : पहले से नौवें उद्देशक तक / पंचम एकेन्द्रियशतक के नौ उद्देशकानुसार : प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. कतिविधा गं भंते ! प्रभवसिद्धीया एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा अभवसिखोया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव वणस्सतिकापिया। [1 प्र.] भगवन् ! प्रभवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1 उ.] गौतम ! अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पृथ्वीकायिक (से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक / 2. एवं जहेव भवसिद्धीयसयं, नवरं नव उद्देसगा, चरिम-प्रचरिमउद्देसकवज्जं / सेसं तहेव / // नवमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 6 // 1-11 // ॥तेतीसइमे सए : नवमं एगिदियसयं समत्तं / / 33-6 // [2] जिस प्रकार भवसिद्धिकशतक कहा, उसी प्रकार अभवसिद्धिकशतक भी कहना चाहिए; किन्तु 'चरम' पोर 'प्रचरम' इन दो उद्देशकों को छोड़ कर (इनके) शेष नौ उद्देशक कहने चाहिए। शेष सब पूर्ववत् है / / // मवम एकेन्द्रियशतक : पहले से मौवें उद्देशक-पर्यन्त समाप्त // ॥तेतीसवां शतक : मौवाँ एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण / / Page #2849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा दसवाँ एकेन्दियशतक : पहले से नौवें उद्देशक-पर्यन्त छठे एकेन्द्रियशतकानुसार : कृष्णलेश्यी-अभवसिद्धिक-एकेन्द्रिय-वक्तव्यता-निर्देश 1. एवं कण्हलेस्सप्रभवसिद्धीयसयं पि। ॥दसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 10 // 16 // // तेतीसइमे सए : दसमं एगिदियसयं समत्तं // 33-10 // [1] इसी प्रकार (पूर्ववत्) कृष्णलेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी कहना चाहिए। // दसवा एकेन्द्रियशतक : पहले से नौवें उद्देशक तक समाप्त // // तेतीसवाँ शतक : दसवां एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण // Page #2850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जता उद्देसगा ग्यारहवां एकेन्दियशतक : पहले से नौवें पर्यन्त उद्देशक सप्तम एकेन्द्रियशतकानुसार : नीललेश्यी-अभवसिद्धिक-एकेन्द्रियशतक-निर्देश 1. नीललेस्सप्रभवसिद्धीपएगिदिएहि वि सयं। // सेतीसइमे सए : एक्कारसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जता उद्देसगा समत्ता॥३३॥११॥१६ / / [1] इसी प्रकार नीललेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी जानना चाहिए। // ग्यारहवाँ एकेन्द्रियशतक : पहले से नौवें उद्देशक तक समाप्त / / ॥सेतीसवां शतक : ग्यारहवाँ एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण // Page #2851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा बारहवाँ एकेन्द्रियशतक : पहले से नौवे उद्देशक-पर्यन्त अष्टम एकेन्द्रियशतकानुसार कापोतलेश्यी अभवसिद्धिक-एकेन्द्रियशतक-निर्देश 1. काउलेस्सप्रभवसिद्धीएहि वि सयं / [1] कापोतलेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय का शतक भी इसी प्रकार कहना चाहिए / 2. एवं चत्तारि [6-12] वि अभवसिद्धीयसताणि, नव नव उद्देसगा भवंति / [2] इस प्रकार (नौवें से बारहवें तक) चार अभवसिद्धिक (अवान्तर.) शतक हैं। इनमें से प्रत्येक के नौ-नौ उद्देशक हैं। 3. एवं एयाणि बारस एगिदियसयाणि भवंति / // तेतीसइमे सए : बारसमे एगिदियसए : पढमाइ-नवम-पज्जंता उद्देसगा समत्ता // 33 // 12 // 1.6 // [3] इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों के (कुल मिला कर) ये बारह शतक होते हैं। / बारहवां एकेन्द्रियशतक : पहले से नौवें उद्देशक तक समाप्त / / // तेतीसवां शतक : बारहवाँ एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण // // तेतीसवां शतक समाप्त। Page #2852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोत्तीसइमं सयं : बारस एगिदिय-सेढि-सयाई चौतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रिय-श्रेणीशतक प्राथमिक * यह भगवतीसूत्र का चौतीसवाँ श्रेणीशतक या एकेन्द्रिय श्रेणीशतक है / इसके भी पूर्व शतक के समान बारह अवान्तर शतक हैं / इस शतक में एकेन्द्रियजीव से ही सम्बन्धित चर्चा की गई है, किन्तु पृथ्वीकायिक (भेद-प्रभेद सहित) से लेकर वनस्पतिकायिक तक के समस्त एकेन्द्रिय जीवों का जब मरण होता है तब उन्हें जिस गति-योनि में जाना होता है, वहाँ वे एक समय की विग्रहगति से जाते हैं अथवा दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से ? इत्यादि चर्चा मुख्य रूप से पूर्वशतक में उक्त विभिन्न विशेषणों से युक्त एकेन्द्रिय को लेकर की गई है। साथ ही एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से ही वे क्यों उत्पन्न होते हैं ? इसका भी विश्लेषण किया गया है। * ऋज्वायता, एकतोवका आदि सात श्रेणियों का प्रतिपादन किया गया है। ये प्राकाशप्रदेश में पहले से निश्चित या अंकित नहीं हैं / जीव अपनी स्वाभाविक गति से अनुश्रेणी, विश्रेणी प्रादि से जाता है, तब सात श्रेणियों में से जिस श्रेणी से जाता है, उसी के अनुसार उसकी विग्रहगति का समयमान निश्चित किया जाता है / * इसी प्रकार एक दिशा के चरमान्त से दूसरी दिशा के चरमान्त में तथा उसी दिशा के अमुक क्षेत्र में कौन-सा एकेन्द्रिय कितने समय की विग्रहगति से जाता है ? इसका भी परिमाण बताया सातों श्रेणियों का स्वरूप भी वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है / अधिकांश दार्शनिक तो एकेन्द्रिय जीवों के जन्म, मरण को ही नहीं मानते / जो मानते हैं, उनमें से कई कहते हैं कि एकेन्द्रिय मरकर एकेन्द्रिय ही बनता है अथवा शरीर नष्ट होने के साथ ही वह सदा के लिए मर जाता है, फिर जन्मता नहीं। इस प्रकार की असंगत धारणाओं का निराकरण भी तथा मरणोत्तरदशा एवं भावी गति-योनि में उत्पत्ति होने से पूर्व की ऋज्वायता आदि सात श्रेणियों से गमन भी बता दिया है। * निष्कर्ष यह है कि मरने के बाद एकेन्द्रिय जीव भी अधिक से अधिक चार समय में स्वगन्तव्य स्थान में पहुंच जाता है / मरण के पश्चात् इतनी तीव्रगति से वह जाता है / 00 Page #2853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोत्तीसइमं सयं : बारस एगिदिय-सेढि-सयाई चौतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक एकेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद का निरूपरण 1. कतिविहा णं भंते ! एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचयिहा एगिदिया पन्नता, सं जहा-पुदविकाइया जाव वणस्सतिकाइया / एवमेते वि चउक्कएणं भेएणं भाणियम्वा जाव वणस्सइकाइया / [1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? / [1 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा -- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / इस प्रकार इनके भी प्रत्येक के चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त कहने चाहिए। विवेचन--एकेन्द्रिय भेद-प्रभेद को पुनरुक्ति क्यों ? —यहाँ इस शतक में एकेन्द्रिय जीवों की श्रेणी में विषय में निरूपण करने के लिए एकेन्द्रिय के भेद-प्रभेदों का पुन: कथन किया गया है। एकेन्द्रियों की विग्रहगति का विविध दिशात्रों की अपेक्षा समय-निरूपण 2. [1] अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले धरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिल्ले चरिमते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उवज्जित्तए, से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। [2-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमीय घरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [2-1 उ.] गौतम वह ! एक समय की, दो समय की अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-एगसमइएण वा दुसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्तामओ, तं जहा उज्जुयायता सेढी 1, एगओवंका 2, बुहतोवंका 3, एगतोखहा 4, दुहओखहा 5, चक्कवाला 6, प्रद्धचक्कवाला 7 / उज्जुयायताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, एगओधकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उथवज्जेज्जा, दुहतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। से तेणढ़ेणं गोयमा ! जाय उववज्जेज्जा।१। Page #2854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656} [व्याख्याप्राप्तिसूत्र 2-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [2-2 उ.] हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं / यथा-(१) ऋज्वायता, (2) एकतोवा, (3) उभयतोवक्रा, (4) एकतः खा, (5) उभयत: खा, (6) चक्रवाल और (7) अर्द्धचक्रवाल / ____ जो पृथ्वीकायिक जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह एक समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, जो एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, जो उभयतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि वह एक, दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / / 1 / / 3. अपज्जत्तसुहमपुड विकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोह णित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चथिमिले चरिमंते पज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा ? / गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा, सेसं तं चैव जाव सेतेणठेणं आव विगहेणं उववज्जेज्ना / / [3 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के पर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम दिशा के चरमान्त में पर्याप्त सक्ष्मपृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [3 उ.] गौतम ! वह एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, इत्यादि शेष सब पर्ववत कहना यावत इस कारण......"तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है. यहाँ तक कहना चाहिए। / / 2 / / 4. एवं अपज्जत्तसुहमपुढविकाइनो पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते बायरपुढविकाइएसु प्रपज्जत्तएसु उधवातेयव्यो।३। [4] इसी प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव का पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात से मृत्यु प्राप्त कर पश्चिम दिशा के चरमान्त में बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक-रूप से उपपात कहना चाहिए / / 3 / / 5. ताहे तेसु चेव पज्जत्तएसु / 4 / [5] और वहीं (पूर्ववत् ) पर्याप्त रूप से उपपात कहना चाहिए // 4 / / 6. एवं प्राउकाइएसु वि चत्तारि पालावगा-सुहमेहि अपज्जत्तएहि 1, ताहे पज्जत्तएहि 2, बादरेहि अपज्जत्तएहिं 3, ताहे पज्जत्तरहि उववातेयन्यो 4 / [6] इसी प्रकार अप्कायिक जीव के भी चार आलापक कहने चाहिए। यथा---(१) सूक्ष्म Page #2855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [657 अपर्याप्तक का, (2) उन्हीं (सूक्ष्म) के पर्याप्तक का, (3) बादर-अपर्याप्तक का तथा (4) उन्हीं (बादर) के पर्याप्तक का उपपात कहना चाहिए / 7. एवं चेव सुहमतेउकाइएहि वि अपज्जत्तहि 1, ताहे पज्जत्तएहि उववातेयव्यो 2 / [7] और इसी प्रकार सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक और उसी के पर्याप्तक का उपपात कहना चाहिए। 8. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोह णित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? सेसं तं चेव३ / [8 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव, जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमान्त में मरण समुद्घात करके मनुष्य-क्षेत्र में अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [8 उ.] गौतम ! (इस सम्बन्ध में) सब वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए / 9. एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववातेयव्यो 4 / [6] इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक रूप से उपपात का कथन करना चाहिए / 10. वाउकाइए सुहुम-बायरेसु जहा आउकाइएसु उववातियो तहा उववातेयच्यो 4 / 1.] जिस प्रकार सूक्ष्म और बादर अप्कायिक का उपपात कहा, उसी प्रकार सूक्ष्म और बादर वायुकायिक का उपपात कहना चाहिए। 11. एवं वणस्सतिकाइएसु वि 4, 20 // [11] इसी प्रकार (सुक्ष्म और बादर) वनस्पति कायिक जीवों के उपपात के विषय में भी कहना चाहिए / / 20 // 12. पज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए० ? एवं पज्जत्तसुहमपुद विकाइनो वि पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उक्वातेयन्वो जाव बायरवणस्सतिकाइएसु पज्जत्तएसु ति / 40 / {12 प्र. भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी कायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? [12 उ.] गौतम ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव भी रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व दिशा के चरमान्त में मरण समुद्घात से मर कर क्रमशः इन बोस स्थानों में यावत् बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक तक, उपपात कहना चाहिए / / = 40 / / 13. एवं अपज्जतबायरपुढविकाइओ वि / 60 / {13] इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पथ्वीकायिक का उपपात भी कहना चाहिए। / / =60 / / Page #2856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 14. एवं पज्जत्तमायरपुढविकाइओ वि।२०। [14] इसी प्रकार पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के उपपात का कथन जानना चाहिए। "-80 // 15. एवं प्राउकाइयो वि चउसु वि गमएसु पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए एयाए चेय वत्तम्बयाए एएसु चैव वीसाए ठाणेसु उववातेयब्वो। 160 / [15] इसी प्रकार प्रकायिक जीवों के चार गमकों द्वारा पूर्व-चरमान्त में मरण समुद्घातपूर्वक भरकर इन्हीं पूर्वोक्त बीस स्थानों में पूर्ववत् वक्तव्यता से उपपात का कथन करना चाहिए / // -160 11 16. सुहुमतेउकाइओ वि अपज्जत्तनो पाजसओ य एएसु चेव घोसाए ठाणेसु उववातेयव्यो 40-200 / [16] अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक जीवों का भी इन्हीं बीस स्थानों में पूर्वोक्तरूप से उपपात कहना चाहिए // = +40-200 / / 17. अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणिता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? सेसं तहेव जाव से सेणठेणं० / 1=201 [17 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त पृथ्वीकायिक-रूप से उत्पन्न होने योग्य है, है भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [17 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समग्र वक्तव्यता यावत् 'इस कारण से वह..... तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है', यहाँ तक कहनी चाहिए // +1+201 / / 18. एवं पुढविकाइएसु चउविहेसु वि उयवातेयव्यो / 3 = 204 / [18] इसी प्रकार चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में भी पूर्ववत् उपपात कहना चाहिए / +3+204 / / 16. एवं आउकाइएसु चउविहेसु वि / 4 = 208 / [16] चार प्रकार के अप्कायिकों में भी इसी प्रकार उपपात कहना चाहिए / / +4+208 11 20. तेउकाइएसु सुहमेसु अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य एवं चैव उववातयन्वो। 2- 210 / [20] सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के पर्याप्तक और अपर्याप्तक में भी इसी प्रकार उपपात कहना चाहिए। +208+2+210 // 21. अपज्जत्तबादरतेउकाइए णं भंते ! मणुस्सखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए, से णं भंते ! कतिसम० ? Page #2857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उई शक 1) [659 सेसं तं चेव / 1-211 / 21 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव, जो मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [21 उ.] गौतम ! (इसका उपपात) पूर्ववत् कहता चाहिए / / + 1 =-211 / 22. एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए वि उ वाएयव्वो। 1-212 / [22] इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उपपात का भी कथन करना चाहिए। + 1 = 212 / / 23. वाउकाइयत्ताए य, वणस्सतिकाइयत्ताए य जहा पुढविकाइएसु तहेब चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। 5-220 / [23] जिस प्रकार (चार प्रकार के) पृथ्वीकायिक जीवों के उपपात के विषय में कहा, उसो प्रकार चार भेदों से, वायुकायिक रूप से तथा वनस्पतिकायिक रूप से उपपात का कथन करना चाहिए।+८-२२० / / 24. एवं पज्जत्तबायरतेउकाइयो वि समयखेते समोहणावेत्ता एएसु चेव बोसाए ठाणेसु उववातेयवो जहेव अपज्जत्तओ उववातिओ। 20 / [24] इसी प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक का भी समय (मनुष्य-) क्षेत्र में समुद्घात करके इन्हीं (पूर्वोक्त) बीस स्थानों में उपपात का कथन करना चाहिए / / 20 / / 25. एवं सम्वत्थ वि बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा पज्जसगा य समयखेत्ते उववातेयख्वा, समोहणावेयब्वा वि - 240 / [25] जिस प्रकार अपर्याप्त का उपपात कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त-वादर तेजस्कायिक के मनुष्यक्षेत्र में समुद्धात और उपपात का कथन करना चाहिए / = 240 / / 26. बाउकाइया, वणस्ततिकाइया य महा पुढविकाइया तहेव चउक्कएणं भेएणं उपवातेयम्बा जाय। पज्जत्तबायरवणस्सइकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणेत्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए० पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते पज्जत्तबायरवणस्सतिकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसम ? सेसं तहेव जाव से तेणठेणं० / 80-5-20 = 400 / [26] पृथ्वी कायिक-उपपात के समान चार-चार भेद से वायुकायिक और वनस्पतिकायिक . जीवों का उपपात कहना चाहिए; यावत् [प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वीय-चरमान्त में Page #2858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र मरणसमुद्धात करके इस रत्नप्रभापथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में बादर वनस्पतिकायिक रूप में उत्पन्न होने योग्य हो तो, हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? . __[उ.] पूर्ववत् सब कथन यावत्-'इस कारण से ऐसा कहा जाता है', तक करना चाहिए / 240+80 +80 = 400 / 27. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए गं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समोहणित्ता जे भविए इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कइसमइएणं० ? सेसं तहेव निरवसेसं। [27 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में समुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वीय चरमान्त में अपर्याप्त सक्ष्म पृथ्वी कायिक-रूप से उत्पन्न हो तो कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? . [27 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समस्त कथन करना चाहिए / 28. एवं जहेब पुरथिमिल्ले चरिमंते सव्वपदेसु वि समोया पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववातिया, जे य समयखेत्ते समोया परथिमिल्ले चरिमंते समयखेले य उववातिया, एवं एएणं चैव कमेणं पच्चथिमिले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया पुरथिमिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववालयव्वा तेणेव गभएणं / 400 - 800 / [28] जिस प्रकार पूर्वीय-चरमान्त के सभी पदों में समुद्घात करके पश्चिम-च रमान्त में और मनुष्यक्षेत्र में और जिनका मनुष्यक्षेत्र में समुद्घातपूर्वक पश्चिम-चरमान्त में और मनुष्यक्षेत्र में उपपात कहा, उसी प्रकार उसी क्रम से पश्चिम-चरमान्त में मनुष्यक्षेत्र में समुद्धातपूर्वक पूर्वीयचरमान्त में और मनुष्यक्षेत्र के उसी गमक से उपपात होता है। +400 = 800 / / 29. एवं एतेणं गमएणं दाहिणिल्ले चरिमंते समोहयाणं समयखेत्ते य, उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववाो / 400 = 1200 / [26] और इसी गमक से दक्षिण के चरमान्त में समुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में और उत्तर के चरमान्त में तथा मनुष्यक्षेत्र में उपपात कहना चाहिए। +400-1200 / / 30. एवं चेव उत्तरिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य समोहया, दाहिणिल्ले चरिमंते समयखेत्ते य उववातेयव्वा तेणेव गमएणं / 400 = 1600 / [30] इसी प्रकार उत्तरी-चरमान्त में और मनुष्यक्षेत्र में समुद्घात करके दक्षिणी-चरमान्त में और मनुष्यक्षेत्र में उपपात कहना चाहिए / +400 = 1600 / 31. अपज्जत्तसुहमपुढ विकाइए णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए सक्करप्पभाए पुढबीए पच्चथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उवव० ? एवं जहेब रयणप्पभाए जाव से तेणठेणं / Page #2859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उदै शक 1) [661 31 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जाव शक राप्रभापश्वी के पूर्वीय-चरमान्त में मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभापथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सक्ष्म पृथ्वी कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? 631 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) रत्नप्रभापृथ्वी-सम्बन्धी कथनानुसार यावत् 'इस कारण से ऐसा कहा है', यहाँ तक कहना चाहिए। 32. एवं एएणं कमेणं जाव पज्जत्तएसु सुहुमतेउकाइएसु / [32] एवं इसी क्रम से यावत् पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्यन्त कहना चाहिए। 33. [1] अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए ण भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उवज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइ० पुच्छा। गोयमा ! दुसमहएण वा तिसमइएण वा विगहेण उवज्जिज्जा। [33-1 प्र. भगवन ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव शर्कराप्रभाषथ्वी के पूर्व चरमान्त में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र के अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हो, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? (33-1 उ.] गौतम ! वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं० ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीओ पन्नत्तानो, तंजहा उज्जुयायता जाव अद्धचक्कवाला। एगतोवंकाए सेढोए उववज्जमाणे दुसभइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, दुहनोवकरए सेढोए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणठेणं० / 133-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते है कि वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [33-2 उ.) गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं / यथा--ऋज्वायता (से लेकर) यावत् अर्द्धचक्रवाल पर्यन्त / जो एकतोव का श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और जो उभयतोब का श्रेणी से उत्पन्न होता है वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / इस कारण से मैंने पूर्वोक्त बात कही है। 34. एवं पज्जत्तएसु वि बायरतेउकाइएसु / सेसं जहा रतणप्पभाए / [34 | इस प्रकार पर्याप्त बादर तेजस्कायिक-रूप से (उत्पन्न होने योग्य का उपपात कहना चाहिए / ) शेष सब कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान कहना चाहिए / 35. जे वि बायरतेउकाइया अपज्जतगा य पज्जत्तगा य समयखेत्ते समोहया, समोहणित्ता दोच्चाए पुढवीए पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते पुढविकाइएसु चउम्विहेसु, पाउकाइएसु चउन्बिहेसु, Page #2860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्राप्तिसूत्र तेजकाइएसु दुविहेसु, याउकाइएसु चउशिवहेसु, बणस्सतिकाइएसु बउविधेसु उववज्जति ते वि एवं वेव दुसमइएण वा विगहेण उवधातेयवा।। [35] जो बादरतेजस्कायिक अपर्याप्त और पर्याप्त जीव मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके शर्कराप्रभापृथ्वी के पश्चिम-चरमान्त में, चारों प्रकार के पृथ्वीकायिक जीवों में, चारों प्रकार के अप्कायिक जीवों में, दो प्रकार के तेजस्कायिक जीवों में और चार प्रकार के वायुकायिक जीवों में तथा चार प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं, उनका भी दो या तीन समय की विग्रहगति से उपपात कहना चाहिए। 36. बायरतेउकाइया अपज्जत्तगा पज्जत्तगा य जाहे तेसु चेय उववज्जति ताहे जहेव रयणप्पभाए तहेव एगसमइय-दुसमइय-तिसमइया विग्गहा भाणियन्वा, सेसं जहेव रयणप्पभाए तहेव निरवसेसं। [36] जब पर्याप्त और अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीव उन्हीं में उत्पन्न होते हैं, तब उनके सम्बन्ध में रत्नप्रभापृथ्वी-सम्बन्धी कथन के अनुसार एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति कहनी चाहिए / शेष सब कथन रत्नप्रभापृथ्वी-सम्बन्धी कथन के अनुसार जानना चाहिए। 37. जहा सक्करप्पभाए क्त्तव्वया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए भाणियस्वा / [37] जिस प्रकार शर्कराप्रभा-सम्बन्धी वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-पर्यन्त कहनी चाहिए। विवेचन--विग्रहगति एवं श्रेणी का लक्षण-एक स्थान में मरण करके दूसरे स्थान पर जाते हुए जीव की जो गति होती है. उसे विग्रहगति कहते हैं / वह श्रेणी के अनुसार होती है। जिससे जीव और पुद्गलों को गति होती है, ऐसी प्राकाश-प्रदेश की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। जीव और पुद्गल एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रेणी के अनुसार ही जा सकते हैं। वे श्रेणियाँ सात हैं, जिनक मूलपाठ में किया गया है। वे इस प्रकार हैं 1. ऋज्वायता—जिस श्रेणी के द्वारा जीव ऊर्ध्वलोक प्रादि से अधोलोक आदि में सीधे चले जाते हैं, उसे 'ऋज्वायताश्रेणी' कहते हैं। इस श्रेणी के अनुसार जाने वाला जीव एक ही समय में गन्तव्य स्थान पर पहँच जाता है। 2. एकतोवका-जिस श्रेणी से जीव सीधा जाकर एक ओर वक्तगति पाये, अर्थात् मोड़ खाए या दूसरी श्रेणी में प्रवेश करे उसे 'एकतोवाश्रेणी' कहते हैं। इस श्रेणी से जाने वाले जीव को दो समय लगते हैं। 3. उभयतोवका-जिस श्रेणी से जाता हा जीव दो बार वक्रगति करे, अर्थात् दो बार दूसरी श्रेणी को प्राप्त करे, उसे 'उभयतोवक्रा श्रेणी' कहते हैं। इस श्रेणी से जाते में जीव को तीन समय लगते हैं। यह श्रेणी प्राग्नेयी (पूर्व-दक्षिण) दिशा से अधोलोक की वायव्यी ( उत्तर-पश्चिम ) दिशा में उत्पन्न होने वाले जीव की होती है। पहले समय में वह आग्नेयीदिशा से तिर्छा पश्चिम की ओर दक्षिणदिशा के कोण अर्थात् नैऋत्य दिशा की ओर जाता है / फिर दूसरे समय में वहाँ से तिर्छा होकर उत्तर-पश्चिम कोण अर्थात् वायव्यीदिशा की ओर जाता है। तदनन्तर तीसरे समय में नीचे Page #2861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्दे शक 1] वायव्योदिशा की ओर जाता है। तोन समय की यह विग्रहगति असनाडो अथवा उससे बाहर के भाग में होती है। 4. एकतःखा-'ख' आकाश को कहते हैं। इस श्रेणी के एक ओर त्रसनाडी के बाहर का आकाश आया हुआ है, इसलिए इसे 'एकताखा श्रेणी' कहते हैं। प्राशय यह है कि जिस श्रेणी से जीव या पुद्गल अस नाडी के बायें पक्ष से सनाडी में प्रवेश करे और फिर सनाडी से जाकर उसके बांयीं ओर वाले भाग में उत्पन्न हो, उसे 'एकतःखा श्रेणी' कहते हैं। इस श्रेणी में एक, दो, तीन या चार समय की बक्रगति होने पर भी क्षेत्र की अपेक्षा उसे पृथक् कहा है। 5. उभयतःखा-सनाडी से बाहर में बायें पक्ष में प्रवेश करके सनाडी से जाते हुए जिस श्रेणी से दाहिने पक्ष में उत्पन्न होते हैं, उसे 'उभयतःखा (दोनों ओर आकाश वाली) श्रेणी कहते हैं / 6. चक्रवाल-...जिस श्रेणी के माध्यम से परमाणु प्रादि गोल चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'चक्रवाल' कहते हैं। 7. अर्द्धचक्रवाल-जिस श्रेणी से आधा चक्कर लगा कर उत्पन्न होते हैं, उसे 'अर्द्धचक्रवाल श्रेणी' कहते हैं। बावर तेजस्कायिक की उत्पत्ति ... बादर तेजस्काय मनुष्यक्षेत्र में ही संभव है, उसके बाहर उसकी उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए उसके प्रश्नोत्तरों में 'मनुष्यक्षेत्र' (समयक्षेत्र) कहा है / / __रत्नाप्रभा आदि पृथ्वियों के सोलह सौ गमक-पृथ्वी कायिक आदि प्रत्येक एकेन्द्रिय के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार-चार भेद होने से 5 x 4 = 20 भेद होते हैं / इनमें प्रत्येक जीवस्थान में बीस-बीस गमक होते हैं। इस प्रकार पूर्व दिशा के चरमान्त की अपेक्षा 20x20 - 400 गम होते हैं / इस दृष्टि से चारों दिशाओं के चरमान्त की अपेक्षा रत्नप्रभापथ्वी के 1600 गम हए / इसी प्रकार प्रत्येक तरकपृथ्वी के सोलह-सौ, सोलह-सौ गम होते हैं। शर्कराप्रभा-सम्बन्धी विग्रहगति--शर्कराप्रभा के पूर्वीय-चरमान्त से मनुष्यक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जीव की समश्रेणी नहीं होती / इसलिए उसमें एक समय की विग्रहगति नहीं होती, अपितु दो या तीन समय की होती है / बावर तेजस्काय के दो भेद क्यों ? ... रत्नप्रभा के पश्चिम-चरमान्त में बादर तेजस्काय न होने से सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो भेद ही कहे हैं। बादर तेजस्कायिक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद मनुष्यक्षेत्र की अपेक्षा से कहे हैं।' 38. [1] अपजत्तसुहमपुढविकाइए गं भंते ! पहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उडलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसहमपदविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा ! तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। 1. (क) भगवती. अ. वत्ति पत्र 956-957 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3689.90 (ग) 'अनुश्रेणि गति:'.---तत्त्वार्थ सूत्र प्र. 2, Page #2862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [38-1 प्र.) भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जोब अधोलोक क्षत्र की त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके ऊर्ध्व लोक की त्रसनाड़ी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-रूप से उत्पन्न होने योग्य है तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? 638-1 उ.] गौतम ! वह तीन समय या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति-तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा? गोयमा ! अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं अहेलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोयखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहमपढविकाइयत्ताए एगपयरम्मि अणुसे दि उवज्जित्तए से गं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से णं च उसमइएणं विग्गहेणं उबवज्जेज्जा / से तणठेणं नाव उववज्जेज्जा / [38-2 प्र. भगवन् ! एंमा कहने का क्या कारण है कि वह जीव तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? (38.2 उ.] गौतम ! जो अपर्याप्त सूक्ष्म पथ्वीकायिक जीव अधोलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके ऊर्ध्वलोकक्षेत्र की सनाडी के बाहर क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के रूप में एक प्रतर में अनुश्रेणी (ममश्रेणी) में उत्पन्न होने योग्य है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और जो विश्रेणी में उत्पन्न होने योग्य है, वह चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा है कि यावत् वह तीन या चार समय को विग्रहगति से उत्पन्न होता है। 39. एवं पज्जत्तसुहमपुढ विकाइयत्ताए वि। [36] इसी प्रकार जो पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-रूप से उत्पन्न होता है, उसके विषय में भी समझना चाहिए। 40. जाव पज्जत्तसुहुमतेउकाइयत्ताए / [40] इसी भांति जो पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक-रूप से यावत् उत्पन्न होता है, उसके विषय में भी जानना चाहिए / 41. [1] अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! अहेलोग जाव समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गणं उववज्जेज्जा? गोयमा! दुसमइएण वा, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा। 41-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अधोलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्यदोत्र में अपर्याप्त बादर तेजस्काथिक-प से उत्पन्न होने योग्य हो तो भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? / Page #2863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [41-1 उ.] गौतम ! वह दो या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं० ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्ताश्रो, तं जहा-उज्जुमायता जाव श्रद्धचक्कवाला / एगतोयंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, दुहतोवंकाए सेढीए उवयज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, से तेणठेणं० / [41-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है, कि वह दो या तीन समय की ? इत्यादि प्रश्न / [41-2 उ.] गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कही हैं। यथा---ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाल / यदि वह जीव एकलोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है, तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है, यदि वह उभयतोव काश्रेणी से उत्पन्न होता है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / इसी कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है / 42. एवं पज्जत्तएसु वि, बायरतेउकाइएसु वि उववातेयम्वो। बाउकाइय-वणस्सतिकाइयत्ताए चउक्कएणं भेएणं जहा पाउकाइयत्ताए तहेव उववातेयव्यो। [42] इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव में भी उपपात जानना चाहिए। जिस प्रकार अप्कायिक-रूप में उत्पन्न होने की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक रूप में भी चार-चार भेद से उत्पन्न होने की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 43. एवं जहा अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयस्त गमओ भणियो एवं पज्जत्समुहुमपुढविकाइयस्स वि भाणियन्वो, तहेव वीसाए ठाणेसु उववातेयन्वो। [43] जिस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का गमक कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का गमक भी कहना चाहिए और उसी प्रकार (पूर्वोक्त) बीस स्थानों में उपपात कहना चाहिए। 44. अहेलोयखेतमालीए बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयनो एवं बायरपुढविकाइयस्स वि अपज्जत्तगस्स पज्जत्तगस्स य भाणियरवं / [44] जिस प्रकार अधोलोकक्षेत्र की बसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्धात करके यावत् विग्रहगति में उपपात कहा है, उसी प्रकार पर्याप्त और अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक के उपपात का भो कथन करना चाहिए। 45. एवं अाउकाइयस्स चउन्विहस्स वि भाणियव्वं / [45] चारों प्रकार के अप्कायिक जीवों का कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। 46. सुहुमतेउकाइयस्स दुविहस्स वि एवं चेव / [46] पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक जीव के उपपात का कथन भी इसी प्रकार है। Page #2864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून 47. [1] अपज्जत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहते, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कइसमइएणं विग्गणं उबवज्जेज्जा? गोयमा ! दुसमइएण या, तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जेज्जा / [47-1 प्र. भगवन् ! यदि अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके ऊर्ध्व लोकक्षेत्र की त्रसनाडी से बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप से उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [47-1 उ.] गौतम ! वह दो समय या तीन समय (अथवा चार समय) की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं? अट्ठो तहेव सत्त सेढीयो। [47-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया है कि वह दो या तीन (या चार) समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [47-2 उ.] इसका कथन पूर्वोक्त प्रकार से ही समझना चाहिए यावत् सप्तश्रेणी तक / 48. एवं जाव अपाजत्तबायरतेउकाइए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए उड्ढलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते पज्जत्तसुहुमतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! * सेसं तं चेव। [48 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार यावत् जो अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके अवलोकक्षेत्र की प्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक-रूप में उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से? [48 उ.] गौतम ! इसका कथन भी पूर्वोक्त प्रकार से ही जानना चाहिए / 46. [1] अपज्जत्तवायरतेउकाहए णं भंते ! समयखेत्ते समोहए, समोहणित्ता जे भविए समयखेत्ते अपज्जत्तबायरतेउकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उपवज्जेज्जा? गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण या विग्गहेणं उववज्जेज्जा। [49-1 प्र.] भगवन् ! यदि अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव मनुष्यक्षेत्र में मरणसमुद्घात करके मनुष्यक्षेत्र में अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है तो भगवन् ! वह कितने समय को विग्रहाति से उत्पन्न होता है ? [46-1 उ.] गौतम! वह एक समय, दो समय या तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केपट्टेणं०? अट्ठो जहेव रयणप्पभाए तहेव सत्त सेढीओ। Page #2865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] (667 [49-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि यावत् वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [49-2 उ.] गौतम ! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी में सप्तश्रेणीरूप हेतु कहा, वही हेतु यहाँ जानना चाहिए। 50. एवं पज्जत्तबादरतेउकाइयत्ताए वि। [50, इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक-रूप में उपपात का भी कथन करना चाहिए / 51. वाउकाइएसु, वणस्सतिकाइएसु य जहा पुढविकाइएसु उववातिओ तहेव चउक्कएणं भेएणं उववाएयव्यो। [51] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक का चारों भेदों सहित उपपात कहा, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक का भी चार-चार भेद सहित उपपात कहना चाहिए। 52. एवं पज्जत्तवापरतेउकाइयो वि एएसु चेव ठाणेसु उवधातेयवो। [52] इसी प्रकार पर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव का उपपात भी इन्हीं स्थानों में जानना चाहिए / 53. वाउकाइय-वणस्सतिकाइयाणं जहेव पुढविकाइयत्ते उववातिम्रो तहेव भाणियन्यो। [53] जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उपपात का कथन किया, उसी प्रकार वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के उपपात का कथन करना चाहिए। 54. अपज्जत्तसुहमपढविकाइए णं भंते ! उड्ढलोकखेत०'जे भयिए अहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते अपज्जत्तसुहमकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिस०? एवं उड्ढलोगखेतनालीए वि बाहिरिल्ले खेत्ते समोहयाणं आहेलोगखेत्तनालीए बाहिरिल्ले खेत्ते उववज्जताणं सो चेव गमो निरवसेसो भाणियम्वो जाव बायरवणस्सतिकाइओ पज्जत्तो बादरवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु उववातियो। [54 प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्वलोकक्षेत्रीय सनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्घात करके, अधोलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है तो भंते ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [54 उ.] गौतम ! ऊर्ध्वलोकक्षेत्रीय त्रसनाडी के बाहर के क्षेत्र में मरणसमुद्धात करके अधोलोकक्षेत्रीय असनाडी के बाहर के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिकादि के लिए भी वहीं समग्र पूर्वोक्त गमक यावत् पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव का पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकरूप में उपपात तक कथन यहाँ करना चाहिए। 55. [1] अपज्जतसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहते, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से गं भंते ! कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा? Page #2866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ___ गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसभइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विगहेणं उववज्जेज्जा। [55-1 प्र. भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्वीय-चरमान्त में मरणसमदघात करके लोक के पूर्वीय-चरमान्त में अपर्याप्त सक्षमपश्वी कायिक-रूप पूर्वीय-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपश्वी कायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [55-1 उ.] गौतम ! वह एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / [2] से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति--एगसमइएण वा जाव उववज्जेज्जा ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्ताश्रो, तं जहा-उज्जुायता जाब प्रद्धचक्कवाला / उन्जुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उबबज्जेज्जा; एगतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा; दुहओवंकाए सेढोए उववज्जमाणे जे भविए एगयरंसि अणुसेढिं उववज्जित्तए से गं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा, जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से णं चउसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा; से तेणठेणं जाव उववज्जेज्जा। [55-2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह एक समय की यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [55-2 उ.] गौतम ! मैंने सात श्रेणियां बताई हैं / यथा- ऋज्वायता यावत् अर्द्धचक्रवाला। यदि ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है तो एक समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / यदि एकतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। यदि उभयतोवका श्रेणी से उत्पन्न होता है तो जो एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) से उत्पन्न होने योग्य है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि वह बिश्रेणी से उत्पन्न होने योग्य है तो वह चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। इसी कारण से हे गौतम ! पूर्वोक्त कथन किया गया है कि वह एक समय की यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / 56. एवं अपज्जत्तओ सुहुमपुढविकाइनो लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहतो लोगस्स पुरस्थिमिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य सुहुमपुढविकाइएसु, अपज्जत्तएस पज्जत्तएसु य सुहमनाउकाइएसु, अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य सहुमतेउक्काइएसु, अपज्जत्तएसु पज्जत्तएसु य सहमवाउकाइएसु, अपज्जत्तएस पज्जत्तएसु य बायरवाउकाइएस, अपज्जत्तएस पज्जत्तएस य सुहुमवणस्सतिकाइएसु,अपन्जत्तएसु पज्जसएस य बारसम वि ठाणेस एएणं चेव कमेणं भाणियन्वो। [56] इसी प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव का लोक के पूर्वीय-चरमान्त में (मरण)समुद्घात करके लोक के पूर्वीय-चरमान्त में ही अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों में, अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्मअप्कायिक जीवों में, अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्मतेजस्कायिक जीवों में, अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्मवायुकायिक जीवों में, अपर्याप्त और पर्याप्त बादरवायुकायिक जीवों में तथा अपर्याप्त और पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों में, इस प्रकार इन अपर्याप्त और पर्याप्त-रूप बारह ही स्थानों में इसी क्रम से उपपात कहना चाहिए / Page #2867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] 57. सुहमपुढविकाइयो पज्जत्तओ एवं चेव निरवसेसो बारससु वि ठाणेसु उववायव्यो। [57] पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के उपपात का कथन भी इसी प्रकार पूर्वोक्त बारह स्थानों में करना चाहिए / 58. एवं एएणं गमएणं जाव सुहुमवणस्सतिकाइयो पज्जत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पज्जत्तएसु चेव भाणितव्यो। [58] इसी प्रकार इस गमक (पाठ) से यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक तक पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों में उपपात का कथन करना चाहिए। 56. [1] प्रपज्जत्तसहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहमपुढविकाइएसु उववज्जित्तए से गं भंते ! कतिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा ? गोयमा दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जिज्जा / [59-1 प्र.) भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव लोक के पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के दक्षिण-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [59-1 उ.] गौतम ! वह दो समय, तीन समय या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? एवं खलु गोयमा ! मए सत्त सेढीयो पन्नत्तानो, तं जहा-उज्जुआयता जाव प्रवचकवाला / एगतोयंकाए सेढीए उक्वज्जमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा; दुहतोवंकाए सेढीए उववज्जमाणे जे भविए एगपयरंसि अणुसेदि उववज्जित्तए से णं तिसमइएणं विगहेणं उववज्जेज्जा, जे भविए विसेदि उववज्जित्तए से णं चउसमडएणं विम्गहेणं उववज्जेज्जा; से तेणठेणं गोयमा !0 / _ [59.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वह दो समय यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [59-2 उ.] गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ बताई हैं। यथा-ऋज्वायता यावत् ता। यदि वह जीव एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है तो दो समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। यदि वह उभयतोवका श्रेणी से एक प्रतर में अनुश्रेणी (समश्रेणी) से उत्पन्न होने योग्य है, तो तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है और यदि वह विश्रेणी से उत्पन्न होने योग्य है तो चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है / हे गौतम ! इसी कारण से मैंने कहा कि वह दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। 60. एवं एएणं गमएणं पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहतो दाहिणिल्ले चरिमंते उववातयन्वो। जाव सहुमवणस्सतिकाइओ पज्जत्तओ सुहुभवणस्सतिकाइएसु पज्जत्तएस चैव, सम्वेसिं दुसमइयो, तिसमहओ, चउसमइओ विग्गही भाणियन्वो / Page #2868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [60] इसी प्रकार इसी गमक से पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों में भी उपपात का कथन करना चाहिए / इन सभी में यथायोग्य दो समय, तीन समय या चार समय की विग्रहगति कहनी चाहिए। 61. [1] अपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणिता जे भविए लोगस्स पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसहमपुढ विकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कतिसमइएणं विगहेणं उववज्जेम्जा ? गोयमा ! एगसमइएण वा, दुसमइएण वा, तिसमइएण वा, चउसमइएण वा विगहेणं उववज्जेज्जा। [61-1 प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्वीय चरमान्त में समुद्घात करके लोक के पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [61-1 उ.] गौतम ! वह एक, दो, तीन अथवा चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। [2] से केणठेणं० ? एवं जहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पुरथिमिल्ले चेव चरिमते उववातिता तहेव पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहया पच्चथिमिल्ले चरिमंते उववातेयव्वा सव्वे / [61-2 प्र. भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि वह यावत् चार समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [61-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत्, जैसे पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वीय-चरमान्त में ही उपपात का कथन किया, वैसे ही पूर्वीय चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम-चरमान्त में सभी के उपपात का कथन कर 62. अपज्जत्तसहमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स पुरथिमिल्ले चरिमते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स उत्तरिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते !.? एवं जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते समोहम्रो दाहिणिल्ले चरिमते उववातिओ तहा पुरथिमिल्ले. समोहम्रो उत्तरिल्ले चरिमंते उववातेयत्वो। [62 प्र.] भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपथ्वीकायिक जीव, लोक के पूर्वीय-चरमान्त में समुद्धात करके लोक के उत्तर-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव में उत्पन्न होने योग्य है तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [62 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में . Page #2869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [671 उपपात का कथन किया, उसी प्रकार पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उपपात का कथन करना चाहिए। 63. अपज्जत्तसुहमपुढधिकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपज्जत्तसहमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए? एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उववालियो तहा दाहिणिल्ले समोहो दाहिणिल्ले चैव उववातेयम्वो। तहेव निरवसेसं जाव सुहुमवणस्सतिकाइयो पज्जत्तनो सुहुमवणस्सइकाइएसु चेव पज्जत्तएस दाहिणिल्ले चरिमंते उबयातिप्रो।। [63 प्र. भगवन् ! जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव लोक के दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके लोक के दक्षिण-चरमान्त में ही अपर्याप्त सक्ष्मपृथ्वीकायिक-रूप में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [63 उ.] गौतम ! जिस प्रकार पूर्वीय-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वीय-चरमान्त में ही उपपात का कथन किया, उसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके दक्षिण-चरमान्त में ही उत्पन्न होने योग्य का उपपात कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक का, पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकाथिकों में दक्षिण-चरमान्त तक उपपात कहना चाहिए। 64. एवं दाहिणिल्ले समोहयो पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते उववातेयचो, नवरं दुसमइयतिसमइय-च उसमइयो विग्गहो / सेसं तहेव / 664] इसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम-चरमान्त में उपपात का कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि इनमें दो, तीन या चार समय की विग्रहगति होती है / शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। 65. एवं दाहिणिल्ले समोहयओ उत्तरिल्ले उबवातेयत्रो जहेव सटाणे तहेव एगसमइयदुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो। [65] जिस प्रकार स्वस्थान में उपपात का कथन किया, उसी प्रकार दक्षिण-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उपपात का तथा एक, दो, तीन या चार समय की विग्रहगति का कथन करना चाहिए। 66. पुरथिमिल्ले जहा पच्चस्थिमिल्ले तहेव दुसमइय-तिसमइय-चउसमइय० / 666] पश्चिम-चरमान्त में उपपात के समान पूर्वीय-चरमान्त में भी दो, तीन या चार समय की विग्रहगति से उपपात का कथन करना चाहिए। 67. पच्चस्थिमिल्ले चरिमते समोहताणं पच्चथिमिल्ले चेव चरिमंते उववज्जमाणाणं जहा सट्टाणे। उत्तरिल्ले उववज्जमाणाणं एमसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव / पुरथिमिले जहा सटाणे / दाहिणिल्ले एगसमइनो विग्गहो नत्थि, सेसं तं चैव / Page #2870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [67] पश्चिम-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम चरमान्त में ही उत्पन्न होने वाले पृथ्वीकायिक के लिए स्वस्थान में उपपात के अनुसार कथन करना चाहिए। उत्तर-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव के एक समय की विग्रहगति नहीं होती। शेष सब पूर्ववत् / पूर्वीय-चरमान्त में उपपात का कथन स्वस्थान में उपपात के समान है / दक्षिण-चरमान्त में उपपात में एक समय की विग्रगति नहीं होती। शेष सब पूर्ववत् है / 68. उत्तरिल्ले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववन्जमाणाणं जहा सटाणे / उत्तरिल्ले समोहयाणं पुरस्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एवं चेव, नवरं एगसमइनो विग्गहो नथि / उत्तरिल्ले समोहताणं दाहिणिल्ले उक्वज्जमाणाणं जहा सट्टाणे / उत्तरिल्ले समोहयाणं पच्चथिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइयो विग्गहो नत्थि, सेसं तहेब जाव सुहमवणस्सतिकाइनो पज्जत्तओ सुहुमवणस्सतिकाइएसु पज्जत्तएसु चेव। [68] उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके उत्तर-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीव का कथन स्वस्थान में उपपात के समान जानना चाहिए / इसी प्रकार उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके पूर्वीयचरमान्त में उत्पन्न होने वाले पृथ्वी कायिकादि जीवों के उपपात का कथन समझना किन्तु इनमें एक समय की विग्रहगति नहीं होती / उत्तर-चरमान्त में समुद्धात करके दक्षिण-चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों का कथन भी स्वस्थान के समान है। उत्तर-चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिमचरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के एक समय की विग्रहगति नहीं होती। शेष पूर्ववत् यावत् पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक का पर्याप्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीवों तक में उपपात का कथन जानना चाहिए। विवेचन-तीन या चार समय की विग्रहगति क्यों और कहाँ-जब कोई स्थावर अधोलोकक्षेत्र की नाडी के बाहर पूर्वादि दिशा में मर कर प्रथम समय में सनाडी में प्रवेश करता है, दूसरे समय में ऊपर जाता है और तत्पश्चात् एक प्रतर में पूर्व या पश्चिम में उसकी उत्पत्ति होती है, तब अनुश्रेणी में जाकर तीसरे समय में उत्पन्न होता है / इस प्रकार तीन समय की विग्रहगति होती है।। जब कोई जीव त्रसनाडी के बाहर वायव्यादि विदिशा में मृत्यु को प्राप्त होता है, तब एक समय में पश्चिम या उत्तर दिशा में जाता है, दूसरे समय में त्रसनाडी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊँचा जाता है और चौथे समय में अनुश्रेणी में जाकर पूर्वादि दिशा में उत्पन्न होता है। यहाँ चार समय की विग्रहगति होती है। __दो या तीन समय को विग्रहगति कब और क्यों? –जब अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक जीव ऊर्ध्वलोक की असनाडी के बाहर उत्पन्न होता है, तब दो या तीन समय की विग्रहगति होती है। इसका कारण यह है कि बादरतेजस्काय मनुष्यक्षेत्र में ही होता है। इसलिए एक समय में मनुष्यक्षेत्र से ऊपर जाता है तथा दूसरे समय में सनाडी से बाहर रहे हुए उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होता है / इस प्रकार यह दो समय को विग्रहगति होती है / अथवा एक समय में मनुष्यक्षेत्र से ऊपर जाता है, दूसरे समय में त्रसनाडी से बाहर पूर्वादि दिशा में जाता है और तीसरे समय विदिशा में रहे हुए उत्पत्तिग्थान को प्राप्त होता है। लोक के चरमान्त में बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक जीव Page #2871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक : उद्देशक 1] [673 नहीं होते, किन्तु सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि पांचों होते हैं तथा बादर वायुकाय भी होता है। इन छह के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से बारह भेद होते हैं / लोक के पूर्वीय-चरमान्त से पूर्व-चरमान्त में ही उत्पन्न होने वाले जीव की एक समय से लेकर चार समय तक की विग्रहगति होती है, क्योंकि उसमें अनुश्रेणी और विश्रेणी दोनों गतियाँ होती हैं / पूर्वचरमान्त से दक्षिण-चरमान्त में उत्पन्न होने बाले जीव की दो, तीन या चार समय की ही विग्रहगति होती है। वहाँ अनुश्रेणी न होने से एक समय की विग्रहगति नहीं होती / अतएव विश्रेणीगमन में दो प्रादि समय की विग्रहगति का कथन किया गया है।' एकेन्द्रिय जीवों में स्थान-कर्मप्रकृतिबन्ध-वेदन, उपपात समुद्घातादि की अपेक्षा प्ररूपणा 66. कहिं णं भंते ! बायरपुढविकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु जहा ठाणपए जाव सुहुमवणस्सतिकाइया जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सव्वलोगपरियावन्ना पण्णत्ता समणाउसो ! [66 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [66 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा पाठ पृथ्वियाँ हैं, इत्यादि सब कथन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार यावत् पर्याप्त और अपर्याप्त सभी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के हैं / इनमें कुछ भी विशेषता या भिन्नता नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (सूक्ष्म) सर्व लोक में व्याप्त हैं। 70. अपज्जत्तसहमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडोश्रो पन्नत्ताओ? गोयमा ! प्रट्ठ कम्मप्पगडीयो पन्नताओ, तं जहा-नाणावरणिज्जं नाव अंतराइयं / एवं चउक्कएणं भेएणं जहेव एगिदियसएसु (स० 33-1-1 सु०७-११) जाव बायरवणस्सतिकाइयाणं पज्जत्तगाणं। [70 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [70 उ.] गौतम ! पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। इस प्रकार प्रत्येक के चार-चार भेदों से एकेन्द्रिय शतक के (33 श. 1-1, 7-11 सू. के) अनुसार यावत्-पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिए। 71. अपज्जत्तसुहमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मपगडीयो बंधंति ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्टविहबंधगा वि जहा एगिदियसएसु (स० 33-1-1 सु० 12-14) जाव पज्जत्तबायरवणस्सतिकाइया। [71 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [71 उ.] गौतम ! वे सात या आठ कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं / यहाँ भी एकेन्द्रियशतक के अनुसार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक तक का कथन करना चाहिए। 2. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 960-961 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3005-3706 Page #2872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674] [भ्याल्याप्राप्तिसूब 72. अपज्जत्तसहमपुढविकाइया णं भंते ! कति कम्मपगडीओ एंति ? गोयमा! चोद्दस कम्मपगडोप्रो एंति, तं जहा-नाणावरणिज्जं. जहा एगिदियसएस (स० 33-1-1 सु० 15) जाब पुरिसवेयवज्ज। [72 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। [72 उ.] गौतम ! वे चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / यथा--ज्ञानावरणीय आदि / शेष सब वर्णन एकेन्द्रियशतक के अनुसार यावत् पुरुषवेदवध्य कर्मप्रकृति-पर्यन्त कहना चाहिए / 73. एवं जाव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं / [73] इसी प्रकार यावत् पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना चाहिए / 74. एगिदिया णं भंते ! को उवधज्जति ? कि नेरइएहितो. ? जहा वक्कंतीए पुढविकाइयाणं उववातो। [74 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [74 उ.] गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद में उक्त पृथ्वीकायिक जीव के / उपपात के समान इनका भी उपपात कहना चाहिए। 75. एगिदियाणं भंते ! कति समुग्धाया पन्नत्ता? गोयमा ! चत्तारि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्घाए जाव वेउब्वियसमुग्घाए / [75 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [75 उ.] गौतम ! उनके चार समुद्घात कहे हैं। यथा-वेदनासमुद्धात यावत् वैक्रियसमुद्घात / 76. [1] एगिदिया णं भंते ! कि तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तुल्ल द्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, वेमायद्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? गोयमा ! अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया तुल्ल विसेसाहियं कम्म पकाति, अत्थेगइया तुल्लाद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, प्रत्थेगइया वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, अत्थेगइया वेमायद्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / [76-1 प्र.] भगवन् ! 1. तुल्य (समान) स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य और विशेषाधिककर्म का बन्ध करते हैं ? 2. अथवा तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? 3. अथवा भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? या 4. भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [76-1 उ.] गौतम ! तुल्य स्थिति वाले कई एकेन्द्रिय जीव तुल्य और विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, तुल्य स्थिति वाले कतिपय एकेन्द्रिय जीव भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं, कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और कई भिन्न-भिन्न स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। Page #2873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां शतक / उद्देशक 1] [675 [2] से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति अत्यंगइया तुल्लद्वितीया जाव वेमायविसेसाहियं कम्म पकरेंति ? ___ गोयमा ! एगिदिया चउन्विहा पनत्ता, तं जहा-प्रत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, प्रत्येगइया समाउया विसमोववनगा, प्रत्येगइया विसमाउया समोववन्नगा, अत्थेगइया विसमाउया विसमोववनगा / तत्थ णं जे ते समाउया समोववन्नगा ते गं तुल्ल द्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया समोववन्नगा ते णं वेमायद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति, तत्थ णं जे ते विसमाउया विसमोववानगा ते णं वेमायद्वितीया बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / से तेणठेणं गोयमा ! जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ / ॥चोतीसइमं सयं : पढमे अवांतरसए, पढमो उद्देसमो समत्तो // 34 // 11 // [76.2 प्र.) भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि कई तुल्यस्थिति वालेयावत् भिन्न-भिन्न विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [76-2 उ.] गौतम ! एकेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) कई जीव समान आयु वाले और साथ उत्पन्न हए होते हैं, (2) कई जीव समान प्रायू वाले और विषम उत्पन्न हए होते हैं, (3) कई विषम प्रायु वाले और साथ उत्पन्न हुए होते हैं तथा (4) कितने ही जीव विषम प्रायु वाले और विषम उत्पन्न हुए होते हैं। इनमें से जो समान प्रायु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले तथा तुल्य एवं विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्रा विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। जो जीव विषम आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो विषम आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे विमात्रा स्थिति वाले, विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / इसी कारण से यह कहा गया है कि यावत् विमात्रा-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्वस्थान, अविशेष और नानात्व-बादर पृथ्वोकायादि जीव जिस स्थान पर रहता है, वह उसका 'स्वस्थान' कहलाता है। जहाँ पर्याप्तक-अपर्याप्तक के भेद की विवक्षा न हो, वह अविशेष कहलाता है / जिनमें परस्पर नानात्व = अन्तर न हो, उन्हें अनानात्व कहते हैं। वैक्रियसमुद्घात---एकेन्द्रिय में जो वैक्रियसमुद्घात कहा है, वह वायुकाय की अपेक्षा से है। स्थिति और उत्पत्ति की भंगचतुष्टयो-स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रिय के 4 भंग कहे हैं और इन्हीं 4 भंगों की अपेक्षा चार प्रकार का कर्मबन्ध कहा है।' // चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक का प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. (क) भगवती. अ.वृत्ति, पत्र 961 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3711 Page #2874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : बिइओ उद्देसओ पहला एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के प्रकारों की तथा अन्य प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! अणंतरोक्वनगा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नणा एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया०, दुयाभेदो जहा एगिदियसतेसु जाव बायरवणस्सइकाइया। [1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? / [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / फिर प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहने चाहिए। 2. कहि णं भंते ! अणंत रोक्वन्नगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तं जहा-रयणप्पभा जहा ठाणपए जाव दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं अणंतरोववनगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता, उववातेण सव्वलोए, समुग्घाएणं सम्वलोए, सटाणणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, अणंतरोधक्नगसुहमपुढविकाइया गं एगविहा अविसेसमणाणत्ता सवलोगपरियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो!। [2 प्र. भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में हैं। यथा--रत्नप्रभा इत्यादि / प्रज्ञापनासुत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार-यावत् द्वीपों में तथा समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहे हैं। उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं। स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं / अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक सभी जीव एक प्रकार के हैं तथा विशेषता और भिन्नता रहित है तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। 3. एवं एतेणं कमेणं सब्वे एगिदिया भाणियवा। सटाणाई सन्वेसि जहा ठाणपए / एतेसि पज्जत्तगाणं बायराणं उववाय-समुग्घाय-सट्टाणाणि जहा तेसि चेव अपज्जत्तगाणं बायराणं, सुहमाणं सर्वेसि जहा पुढविकाइयाणं भणिया तहेव भाणियन्वा जाव वणस्सइकाइय ति। [3] इसी क्रम से सभी एकेन्द्रिय-सम्बन्धी कथन करना चाहिए। उन सभी के स्वस्थान प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार हैं। इन पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के भी उपपातादि जानने चाहिए तथा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव यावत् बनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। Page #2875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसर्वा शतक : उद्देशक 2] [677 4. अणंतरोववन्नगसुहुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीनो पन्नत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्तानो। एवं जहा एगिदियसतेसु अणंतरोववन्नगउद्देसए (स० 33-1-2 सु० 4-6) तहेव पन्नत्ताओ, तहेव (स० 33-1-2 सु० 7-8) बंधेति, तहेव (स० 31-1-2 सु०६) वेदेति जाव अणंतरोववनगा बायरवणस्सतिकाइया। [4 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [4 उ.] गौतम ! उनके पाठ कर्म प्रकृतियाँ कही हैं, इत्यादि एकेन्द्रियशतक में उक्त अनन्तरोपपन्नक उद्देशक के समान यावत् उसी प्रकार बांधते हैं और वेदते हैं, यहाँ तक यावत् इसी प्रकार अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानना चाहिए। 5. अणंतरोववन्नगएगिदिया णं भंते ! को उवधज्जति ? जहेव मोहिए उद्देसनो भणियो। [5 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [5 उ.] गौतम ! यह भी प्रोधिक उद्देशक के अनुसार कहना चाहिए। 6. अणंतरोववन्नगएगिदियाणं भंते ! कति समुग्घाया पन्नत्ता? गोयमा ! दोन्नि समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्धाए य कसायसमुग्घाए य / [6 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [6 उ.] गौतम ! उनके दो समुद्घात कहे हैं / यथा-वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात / 7. [1] अणंतरोववन्नगगिदिया गं भंते ! कि तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति० पुच्छा तहेव / / __ गोयमा ! अत्थेगइया तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्म पकरेंति, अत्थेगइया तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / [7-1 प्र.] भगवन् ! क्या तुल्यस्थिति वाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव परस्पर तुल्य, विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / / [7-1 उ.] गौतम ! कई तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव तुल्य-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और कई तुल्यस्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव विमान-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / _ [2] से केणठेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ? गोयमा ! अणंतरोववन्नगा एगिदिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-प्रत्थेगइया समाउया समोववन्नगा, प्रत्येगइया समाउया विसमोववन्नगा। तत्थ णं जे ते समाउया समोववनगा ते णं तुल्लद्वितीया तुल्लविसेसाहियं कम्मं पकरेंति। तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववनगा ते णं तुल्ल द्वितीया वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / से तेणछेणं जाव बेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति / Page #2876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 678] মিথামলিগ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // चोतीसइमे सए : पढमे अवांतरसए : बिडी उद्देसनो समतो // 34 // 1 // 2 // [7-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् भिन्न-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं ? [7-2 उ. गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं / यथा कई जीव समान प्राय और समान उत्पत्ति वाले होते हैं, जबकि कई जीव समान प्राय और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं। इनमें से जो समान आयु और समान उत्पत्ति बाले हैं, वे तुल्यस्थिति वाले परस्पर तुल्यविशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान अायु और विषम उत्पत्ति वाले हैं वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि""यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-~पहले उद्देशक में उत्पत्ति और स्थिति की अपेक्षा 4 भंग कहे थे / उनमें से विषम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम दो भंग अनन्तरोपपन्नक जीव में नही पाए जाते, क्योंकि अनन्तरोपपन्नक में विषम स्थिति का अभाव है।' ॥चौतीसवाँ शतक : प्रथम अवान्तरशतक : द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण / 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 956 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3715 Page #2877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : तइओ उद्देसओ प्रथम एकेन्द्रियशतक : तृतीय उद्देशक 1. कतिविधा णं भंते ! परंपरोवपन्नगा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा परंपरोक्वन्नगा एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया० भेदो घउक्कमो जाव वणस्सतिकातिय ति / [1 प्र. भगवन् ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ.] गौतम ! परम्परोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं / यथा---पृथ्वीकायिक इत्यादि / उनके चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहने चाहिए / 2. परंपरोववनगनपज्जत्तसुहमपुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए पुरस्थिमिले चरिमंते समोहए, समोहणिता जे भविए इमीसे रतणप्पभाए पुढवीए जाव पच्चस्थिमिल्ले चरिमंते अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव पढमो उद्देसनो जाव लोगचरिमंतो त्ति। [2 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्व-चरमान्त में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् पश्चिम-चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! इस अभिलाप से प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् लोक के चरमान्त पर्यन्त कहना / 3. कहि गंभंते ! परंपरोवपन्नगपज्जत्तगवायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सट्ठाणेणं असु वि पुढवीसु / एवं एएणं अभिलावणं जहा पढमे उद्देसए जाव तुल्लाद्वितीय ति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥चोतीसइमे सए : पढमे अवांतरसए : तइनो उद्देसनो समत्तो // 3411 // 3 // [3 प्र.] भगवन् ! परम्परोपपन्नक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ है ? [3 उ.) गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा वे पाठ पृथ्वियों में हैं। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार प्रथम उद्देशक में उक्त कथनानुसार यावत् तुल्य-स्थिति तक कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // चौतीसवां शतक : प्रथम अवान्तरशतक : तृतीय उद्देशक समाप्त // Page #2878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियसए : चउत्थाइ-एक्कारसमपज्जंता उद्देसगा प्रथम एकेन्द्रियशतक : चौथे से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त चौथे से ग्यारहवें उद्देशक तक प्ररूपणा 1. एवं सेसा वि अट्ट उद्देसगा जाव अचरिमो त्ति / नवरं अणंतरा० अणंतरसरिसा, परंपरा० परंपरसरिसा / चरिमा य, प्रचारमा य एवं चेव / एवं एते एक्कारस उद्देसगा। // पढम एगिदियसे ढिसयं समत्तं // 34-1 // [1] इसी प्रकार शेष आठ उद्देशक भी यावत् 'अचरम' तक जानने चाहिए। विशेष यह है कि अनन्तर-उद्देशक अनन्तर के समान और परम्पर-उद्देशक परम्पर के समान कहना चाहिए। चरम और अचरम सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है / इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हुए। // प्रथम एकेन्द्रियशतक : चार से ग्यारह उद्देशक पर्यन्त समाप्त // // चौतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियशतक सम्पूर्ण // Page #2879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए एगिदियसेढिसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय एकेन्द्रिय श्रेणीशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यो एकेन्द्रिय : प्रकार तथा अन्य प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिदिया पन्नत्ता, भेदो चउवकओ जहा कण्हलेस्सएगिदियसए जाव वणस्सतिकाइय ति / |1 प्र. भगवन् ! कृष्णले प्यो एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [? उ. गौतम ! कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे गये हैं / उनके चार-चार भेद एकेन्द्रियशतक के अनुमार यावत् बनस्पतिकायिक-पर्यन्त जानने चाहिए। 2. कण्हलेस्सअपज्जत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले०? एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसनो जाव लोगचरिमंले ति / सम्वत्थ कण्हलेस्सेसु चेव उयवातेयन्वो। [2 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वचरमान्त में समुद्धात करके पश्चिमी-चरमान्त में उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [2 उ.] गौतम ! प्रोधिक उद्देशक के अनुसार यावत् लोक के चरमान्त तक सर्वत्र कृष्णलेश्या वालों में उपपात कहना चाहिए। 3. कहि णं भंते ! कण्हलेस्सप्रपज्जत्तबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा आहिउद्देसओ जाव तुल्ल द्वितीय त्ति / सेवं भंते ! सेवं भो ! ति० / // चोत्तीसइमे सए : बिइए अवांतरसए : पढमो उद्देसनो समत्तो // 34 // 2 // 1 // {3 प्र.! भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले अपर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे [3 उ.] गौतम ! औधिक उद्देशक के इस अभिलाप के अनुसार 'तुल्य स्थिति वाले' पर्यन्त कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। पहले से ग्यारह उद्देशक तक समाप्त // चौतीसवाँ शतक : द्वितीय अवान्तरशतक सम्पूर्ण / Page #2880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयाइपंचमसयपज्जंता सया : पढमाइ-एक्कारस-पज्जंता उद्देसगा तीसरे से पांचवा एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त 1. एवं एएणं अभिलावणं जहेच पढम सेढिसयं तहेव एक्कारस उद्देसगा भाणियम्वा / इसी प्रकार जैसा प्रथम श्रेणीशतक कहा है, उसी प्रकार यहाँ ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए / [1] एवं नीललेस्से हि वि सयं। [1] इसी प्रकार नीललेश्या वाले एकेन्द्रिय जीव के विषय में तृतीय अवान्तरशतक है। [2] काउलेस्सेहि वि सयं एवं चेव / [2] कापोतलेश्यो एकेन्द्रिय के लिए भी इसी प्रकार चतुर्थ शतक है। [3] भवसिद्धियएगिदियेहि सयं / चोत्तीसइमे सए : तइयाइ-पंचमपज्जता सया समत्ता // 34 / 3-5 / / [3] तथा भवसिद्धिक-एकेन्द्रियविषयक पंचम शतक भी समझना चाहिए। // तृतीय से पंचम शतक तक : प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक समाप्त // Page #2881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्टे एगिदियसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा छठा एकेन्द्रियशतक : पहले से ग्यारहवे उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय-प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! कण्हलेस्सा भवसिद्धीया एगिदिया पन्नसा? जहेव प्रोहिउद्देसनो। 11 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? [1 उ. गौतम ! औधिक उद्देश कानुसार जानना चाहिए। 2. कति विधा णं भंते ! अणंतरोववना कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पलत्ता ? जहेब अणंतरोववण्णाउद्देसको प्रोहिओ तहेव / [2 प्र. भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक-भवसिद्धिक-कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक-सम्बन्धी प्रोधिक उद्देशक के अनुसार जानना / 3. कति विहा णं भंते ! परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? गोयमा ! पंचविहा परंपरोक्वन्नकण्हलेस्सभवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता। भेदो चउक्कयो जाव वणस्सतिकाइयत्ति / [3 प्र. भगवन् ! परम्परोपपन्नक-कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक कितने प्रकार के कहे हैं ? 13 उ. गौतम ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव पांच प्रकार के कहे हैं / इसी प्रकार यहाँ प्रत्येक के प्रौधिक चार-चार भेद यावत् वनस्पतिकायिक-पर्यन्त समझने चाहिए। 4. परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धीयअपज्जत्तसहमपुढ विकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुहवीए. ? ___ एवं एएणं अभिलावेणं जहेव प्रोहिया उद्देसमो जाव लोयचरमंते त्ति। सम्वत्थ कण्हलेस्सेसु भवसिद्धिएसु उववातेयव्यो / [4 प्र. भगवन् ! जो परम्परोपन्नक-कृष्णले श्यी-भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभापृथ्वी के पर्वीय-चरमान्त में मरणसमुदधात करके पश्चिम-चरमान्त में उत्पन्न हो तो वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? [4 उ.] गौतम ! पूर्ववत् जानना / इस अभिलाप से प्रोधिक उद्देशक के अनुसार यावत् लोक के चरमान्त तक यहाँ सर्वत्र कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक में उपपात कहना चाहिए। Page #2882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684] [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. कहिणं भंते ! परंपरोववन्नकण्हलेस्सभवसिद्धियपज्जत्तबायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? एवं एएणं अभिलावेणं जहेब प्रोहिओ उद्देसओ जाव तुल्लद्वितीय त्ति। 5 प्र. भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यीभवसिद्धिक पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [5 उ.] गौतम ! इसी प्रकार इस अभिलाप से पोषिक उद्देशक. याव तुल्य स्थिति-पर्यन्त जानना चाहिए। 6. एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्सभवसिद्धियएंगिदिएहि वि तहेव / // एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं छठें सतं समत्तं // 34-6 // 6] इसी प्रकार इस अभिलाप से कृष्णलेश्यीभवसिद्धिक के सम्बन्ध में भी ग्यारह उद्देशकसहित छठा शतक कहना चाहिए। ॥चौतीसवां शतक: छठा अवान्तरशतक समाप्त। Page #2883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमाइ बारसमसयपज्जतेसु : उद्देसगा सातवें से बारहवें शतक तक : 1-11 उद्देशक 1. नीललेस्सभवसिद्धियएगिदिएस सयं / 1] नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में सातवां शतक कहना चाहिए। 2. एवं काउलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि सयं / [2] इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव-सम्बन्धो पाठवां शतक कहना चाहिए। 3. जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाणि एवं प्रभवसिद्धीएहि वि चत्तारि सयाणि भाणियवाणि, नवरं चरिम-प्रचरिमवज्जा नवउद्देसगा भाणियव्वा / सेसं तं चेव / एवं एयाइं बारस एगिदियसे ढिसयाई / सेवं भंते ! सेवं ! भंते ! ति जाव विहरइ / चउतीसइमे सए एगिदियसेढिसयाई समत्ताई // 34-1-12 // एगिदियसेढिससेयं चउत्तीसइमं // 34 // 3] भवसिद्धिक जीव के चार शतकों के अनुसार अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव के भी चार शतक कहने चाहिए। विशेष यह है कि चरम और अचरम को छोड़कर इनमें नौ उद्देशक ही कहने चाहिए। शेष पूर्ववत् जानना / इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रिय-श्रेणी-शतक कहे हैं / __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है. भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-इसमें ऋज्वायता प्रादि श्रेणियों की मुख्यता होने से इस शतक का नाम 'श्रेणीशतक प्रसिद्ध हो गया। // चौतीसवाँ शतक : सातवें से बारहवें अवान्तर शतक तक समाप्त / / // चौतीसवाँ श्रेणी-शतक सम्पूर्ण / / Page #2884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीसइमसयाओ चत्तालीसइमसयपज्जंता सया पैतीसवें से लेकर चालीसवें शतक पर्यन्त छह महायुग्मशतक प्राथमिक * ये भगवतीसूत्र के छह महायुग्म शतक हैं--पैंतीसाँ, छत्तीसवाँ, सैतीसवाँ, अड़तीसवाँ, उनचाली सवाँ और चालीसवाँ। * इनमें एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी-पंचेन्द्रिय तक के महायुग्मों की उत्पत्ति (कहाँ से ?), प्रायु, गति, प्रागति, परिमाण, अपहार, अवगाहना, कर्मप्रकृतिबन्धक-अवन्धक, वेदक-अवेदक, उदयवानअनुदयवान्, उदीरक-अनुदीरक, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, वर्णादि चार, श्वासोच्छ्वास, आहारक-मनाहारक, विरत-अविरत, क्रियायुक्त-क्रियारहित प्रादि पदों का 16 प्रकार के महायुग्मों की दृष्टि से विश्लेषण किया गया है / * पैतीसवाँ एकेन्द्रिय महायुग्म शतक है, जिसमें 16 महायुग्म और उनके स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। इनकी जघन्य और उत्कृष्ट संख्या का भी निरूपण किया गया है। इस प्रकार पैतीसवें शतक के 12 अवान्तर शतकों में से प्रत्येक के ग्यारह उद्देशकों सहित विविध पहलुओं से एकेन्द्रिय जीवों का सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसमें पूर्वशतकद्वय के समान अनन्तर-परम्पर, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक, चरम-अचरम तथा लेश्यादि विशेषणों से यक्त एकेन्द्रिय के माध्यम से भी प्ररूपणा की गई है। * छत्तीसवें शतक के अन्तर्गत 12 अवान्तरशतकों में भी प्रत्येक के ग्यारह-ग्यारह उद्देशकों में एकेन्द्रिय जीवों के विषय में प्ररूपणाक्रम के समान द्वीन्द्रिय जीवों की भी विविध पहलुओं से चर्चा की गई है। * संतीसवें शतक में भी 12 अवान्तरशतकों और प्रत्येक के 11-11 उद्देशकों में अतिदेशपूर्वक त्रीन्द्रिय महायुग्मों की प्ररूपणा है। अड़तीसवें शतक में पूर्ववत् चतुरिन्द्रियमहायुग्मों की प्ररूपणा है / * उनचालीसवे शतक में भी पूर्वशतकानुसार अवगाहना और स्थिति को छोड़कर शेष सब कथन प्राय: द्वीन्द्रिय शतक के समान असंज्ञीपंचेन्द्रिय महायुग्म के विषय में प्ररूपणा की है। * चालीसवें शतक में इक्कीस अवान्तर शतकों में संज्ञी-पंचेन्द्रिय के षोडश महायुग्मों के माध्यम से उनकी उत्पत्ति आदि का सांगोपांग वर्णन है। * संक्षेप में समस्त जीवों को विविधतानों वौर विशेषतानों का सूक्ष्म विवेचन है / Page #2885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीसइमं सयं : बारस एगिदिय-महाजुम्म-सयाणि पैतीसवाँ शतक : बारह एकेन्द्रिय-महायुग्मशतक पढमे एगिदियमहाजुम्मसए : पढमो उद्देसओ प्रथम एकेन्द्रिय-महायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक 1. [1] कति णं भंते ! महाजुम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता, तं जहा—कजुम्मकउजुम्मे 1, कडपतेयोगे 2, कडजुम्मदावरजुम्मे 3, कडजुम्मकलियोगे 4, तेयोगकडजुम्मे 5, तेयोगतेयोए 6, तेप्रोयदावरजुम्मे 7, तेयोगकलियोए , दावरजुम्मकडजुम्मे 6, दावरजुम्मतेस्रोए 10, दावरजुम्मदावरजुम्मे 11, दावर. जुम्मकलियोगे 12, कलिओगकडजुम्मे 13, कलियोगलेओये 14, कलियोगदावरजुम्मे 15, कलि. योगकलिनोगे 16 // [1-1 प्र.] भगवन् ! महायुग्म कितने बताए गए हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! सोलह महायुग्म कहे गए हैं / यथा--(१) कृतयुग्मकृतयुग्म, (2) कृतयुग्मत्र्योज, (3) कृतयुग्मद्वापरयुग्म, (4) कृतयुग्मकल्योज, (5) व्योजकृतयुग्म, (6) योजत्र्योज, (7) योजद्वापरयुग्म, (8) त्र्योजकल्योज, (6) द्वापरयुग्मकृतयुग्म, (10) द्वापरयुग्मयोज, (11) द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म, (12) द्वापरयुग्मकल्योज, (13) कल्योजकृतयुग्म, (14) कल्योजच्योज, (15) कल्योजद्वापरयुग्म और (16) कल्योजकल्योज / [2] से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चइ--सोलस महाजुम्मा पन्नत्ता, तं जहा- कडजुम्मकडजुम्मे जाव कलियोगकलियोगे? गोयमा ! जे णं रासो चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मकडजुम्मे 1 / जेणं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मतेयोए 2 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मदावरजम्मे 3 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया कडजुम्मा, से तं कडजुम्मकलियोगे 4 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोगा, से तं तेयोगकडजुम्मे 5 / जे णं रासो चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे गं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोया से तं तेयोयतेयोगे 6 / जे गं रासो चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोगा, से तं तेप्रोयदावरजुम्मे 7 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अव Page #2886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र होरमाणे एगपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया तेयोया, से तं तेयोयलियोए 8 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावरजुम्मकडजुम्मे 6 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावरजुम्मतयोए 10 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जेणं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावरजुम्मदावर जुम्मे 11 / जे णं रासी चउपकरणं प्रवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे थं तस्स रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से त्तं दावरजुम्मकलियोए 12 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे च उपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, से तं कलियोगकाजुम्मे 13 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोया, से त्तं कलियोयतंयोए 14 / जे गं रासो चउक्कएणं प्रवहारेणं अवहोरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अबहारसमया कलियोगा, से तं कलियोगदावरजुम्मे 15 / जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अबहीरमाणे एगपज्जवसिए, जे तस्स रासिस्स अवहारसमया कलियोगा, सेत्तं कलियोयकलियोए 16 / से तणठेणं जाव कलियोगकलियोगे / [1-2 प्र.] भगवन् ! क्या कारण है कि महायुग्म सोलह कहे गए हैं, यथा-कृल युग्मकृतयुग्म से लेकर यावत् कल्योजकल्योज तक ? [1-2 उ.] गौतम ! (1) जिस राशि में से चार संख्या का अपहार करते हुए चार शेष रहें और उस राशि के अपहारसमय भी कृतयुग्म (चार) हों तो वह राशि कृतयुग्मकृतयुग्म कहलाती है, (2) जिस राशि में से चार संख्या का अपहार करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि के अपहारसमय भी कृतयुग्म हों तो वह राशि कृतयुग्मयोज कहलाती है / (3) जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए दो शेष रहें और उस राशि के अपहारसमय भी कृतयुग्म हों तो वह राशि कृतयुग्मद्वापरयुग्म कहलाती है, (4) जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए एक शेष रहे और उस राशि के अपहारसमय भी कृतयुग्म हों तो वह राशि कृतयुग्मकल्योज कहलाती है, (5) जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहत करते हुए चार शेष स राशि के अपहारसमय भी योज हों तो वह राशि ज्योजकृतयग्म कहलाती है। (6) जिस राशि में से चार के अपहार से अपहृत करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि के अपहारसमय भी त्र्योज (तीन) हों तो वह राशि जोजव्योज कहलाती है, (7) जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए दो बचें और उस राशि के अपहारसमय व्योज हों तो वह राशि योजद्वापरयुग्म कहलाती है, (8) जिस राशि में से चार से अपहृत करते हुए एक बचे और उस राशि के अपहारसमय त्र्योज हों तो वह राशि व्योजकल्योज कहलाती है, (9) जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए चार शेष रहें और उस राशि के अपहारसमय द्वापरयुग्म (दो) हों तो वह राशि द्वापरयुग्म कृतयुग्म कहलाती है, (10) जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए तीन शप रहें और उस राशि के अपहारसमय द्वापरयुग्म हो तो वह राशि द्वापरयुग्मत्र्योज कहलाती है / (11) जिस राशि में से चार संख्या से अपहृत करते हुए दो बचें और उस राशि के अपहारसमय भी द्वापरयुग्म हों तो वह राशि द्वापरयुग्म द्वापरयुग्म कहलाती है / (12) जिस राशि में से चार संख्या के Page #2887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीसवां शतक : उद्देशक 1] [689 अपहार से अपहन करते हुए एक शंष रहे और उस राशि के अपहार-समय द्वापरयुग्म हों, तो वह राशि द्वापरयुग्मकल्योज कहलाती है, (13) जिस राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए चार शेप रहें और उस राशि का अपहार-समय कल्योज (एक) हो तो वह राशि कल्योजकृतयुग्म कहलाती है, (14) जिम राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए तीन शेष रहें और उस राशि का अपहार-समय कल्योज हो तो वह राशि कल्योजयोज कहलाती है। (15) जिम राशि में से चार संख्या के अपहार से अपहृत करते हुए दो बचें और उस राशि का अपहार समय कल्योज हो तो वह राशि कल्योजद्वापरयुग्म कहलाती है, और (16) जिस राशि में से चार से अपहत करते हए एक शेष रहे और उस राशि का अपहार-समय कल्योज हो तो वह राशि कल्योजकल्योज कहलाती है। इसी कारण से हे गौतम ! (कृतयुग्मकृतयुग्म से लेकर) यावत् कल्योजकल्योज तक कहा गया है। विवेचन–महायुग्म : स्वरूप प्रकार और जघन्य संख्या--'युग्म' राशिविशेष को कहते हैं और वे युग्म क्षुल्लक (छोटे) भी होते हैं और महान् (बड़े) भी होते हैं। क्षुल्लकयुग्मों का वर्णन पहले किया जा चुका है / उनसे इनका अन्तर बताने हेतु इस शतक में 'महायुग्म' का वर्णन प्रारम्भ किया जाता है / महायुग्म सोलह हैं, जिनका नाम और संक्षिप्त स्वरूप मूलपाठ में ही बता दिया गया है। उदाहरणार्थ सर्वप्रथम महायुग्म का नाम 'कृतयुग्मकृतयुग्म' है / यह राशि कृतयुग्मकृतयुग्म इसलिए कहलाती है कि जिस राशि में से प्रतिसमय चार-चार के अपहार से अपहृत करते हुए अन्त में चार शेष रहें और अपहार-समय भी चार हों, क्योंकि जिस द्रव्य में से अपहरण किया जाता है, वह द्रव्य भी कृतयुग्म है और अपहरण के समय भी कृतयुग्म (चार) हैं। अत: ऐसी राशि कृतयुग्मकृतयुग्म कहलाती है। इसी प्रकार अन्य राशियों का स्वरूप भो शब्दार्थ से जान लेना चाहिए। यथा--१६ की संख्या जघन्य कृतयुग्मकृतयुग्म-राशिरूप है, क्योंकि उसमें से चार संख्या से अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहते हैं और अपहारसमय भी चार होते हैं। कृतयुग्मयोज इस प्रकार है-जधन्य 16 की संख्या में से प्रतिसमय चार का अपहार करते हुए अन्त में तीन शेष रहते हैं और अपहार-समय चार शेष होते हैं / इस प्रकार अपहरण किये जाने वाले द्रव्य की अपेक्षा वह राशि व्योज है और अपहारसमय की अपेक्षा 'कृतयुग्म' है। अतएव इस राशि को कृतयुग्मयोज कहा जाता है। यहाँ सर्वत्र अपहारक समय की अपेक्षा पहला पद है और अपहार किये जाने वाले द्रव्य की अपेक्षा दुसरा पद है / इन सोलह महायुग्मों की जघन्य संख्या इस प्रकार है-(१) सोलह प्रादि, (2) उन्नोस आदि, (3) अठारह आदि, (4) सत्रह आदि, (5) बारह आदि, (6) पन्द्रह आदि, (7) चौदह आदि, (8) तेरह आदि, (9) आठ आदि, (10) ग्यारह प्रादि, (11) दस आदि, (12) नौ आदि, (13) चार प्रादि, (14) सात प्रादि, (15) छह आदि और (16) पांच आदि / ' कृतयुग्म-कृतयुग्म-राशियुक्त एकेन्द्रियमहायुग्मों में उपपातादि बत्तोस द्वारों की प्ररूपणा 2. कडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कसो उवधज्जति ? कि नेरइय० ? जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ० 1 सु० 5) तहा उववातो। [2 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्दिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों के प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. भगवतो. अ. वृत्ति, पत्र 965-966 Page #2888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69.] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र [2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (भ. शतक 11, उ. 1, सू. 5) उत्पलोद्देशक में उपपात कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी उपपात कहना चाहिए / 3. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! सोलस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति / [3 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! वे एक समय में सोलह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। 4. ते णं भंते ! जीवा समए समए० पुच्छा। गोयमा ! ते णं अणंता समए समए अबहीरमाणा अबहीरमाणा अणताहि प्रोसस्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया लिया। [4 प्र. भगवन् ! वे अनन्त जीव समय-समय में एक-एक अपहृत किये जाएं तो कितने काल में अपहृत (रिक्त) होते हैं ? [4 उ.] गौतम ! यदि वे अनन्त जीव समय-समय में अपहृत किये जाएँ और ऐसा करते हुए अनन्त अवसपिणी और उत्सपिणी बीत जाएँ तो भी वे अपहृत (रिक्त, खाली) नहीं हो पाते / (किन्तु ऐसा किसी ने किया नहीं)। 5. उच्चत्तं जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ० 1 सु० 8) / [5] इनकी ऊँचाई उत्पलोद्देशक (श. 11, उ. 1, सू. 8) के अनुसार जानना चाहिए। 6. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधगा, प्रबंधगा ? गोयमा ! बंधगा, नो अबंधगा / [6 प्र.] भगवन् ! वे एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं या प्रवन्धक ? [6 उ.] गौतम ! वे जीव ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक हैं, प्रबन्धक नहीं / 7. एवं सम्वेसि श्राउयवज्जाणं, आउयस्स बंधगा वा, अबंधगा वा। [7] इसी प्रकार वे जीव आयुष्यकर्म को छोड़ कर शेप सभी कमों के बन्धक है / प्रायुष्य कर्म के वे बन्धक भी हैं और अबन्धक भी। 8. ते गं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स० पुच्छा। गोयमा ! वेदगा, नो अवेदगा। [8 प्र.] भगवन ! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बेदक हैं या अवेदक ? [8 उ.] गौतम ! वे ज्ञानावरणीयकर्म के वेदक हैं, अबेदक नहीं। 6. एवं सब्वेसि। [1] इसी प्रकार सभी कर्मों के विषय में जानना चाहिए। Page #2889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 1] 10. ते णं भंते ! जीवा कि सातावेदगा० पुच्छा। गोयमा ! सातावेयगा वा असातावेयगा वा / एवं उप्पलुद्देसगपरिवाडी (स० 11 उ० 1 सु० 12-13) --सन्वेसि कम्माणं उदई, नो अणुदई / छण्हं कम्माणं उदीरगा, नो अणुदीरगा। वेयणिज्जा-ऽऽउयाणं उदोरगा वा, अणुदोरगा वा। [10 प्र. भगवन् ! वे जीव माता के बेदक हैं अथवा असाता के वेदक हैं ? [10 उ.] गौतम ! वे मातावेदक होते हैं, अथवा असातावेदक भी एवं उत्पलोद्देशक (श. 11, उ. 11, सू. 12-13) की परिपाटी के अनुसार बे सभी कर्मों के उदय वाले हैं, अनुदयी नहीं / वे छह कर्मों के उदोरक हैं, अनुदीरक नहीं नथा वेदनीय और आयुष्यकर्म के उदीरक भी हैं और अनुदीरक भी। 11. ते णं भंते जीवा कि कण्ह० पुच्छा। गोयमा ! कण्हलेस्सा वा नोललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा / नो सम्मट्टिी, मिच्छविट्ठी, नो सम्मामिच्छद्दिट्ठी। नो नाणी, अन्नाणो; नियमं दुमन्नाणो, तं जहा–मतिअन्नाणी य, सुयअन्नाणी य / नो मणजोगी, नो वइजोगो, कायजोगी। सागारोवउत्ता वा, अणागारोव-उत्तावा / [11 प्र.] भगवन् ! वे एकेन्द्रिय जीव क्या कृष्णलेश्या वाले होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / 11 उ.] गौतम ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यो, कापोतलेश्यी अथवा तेजोलेश्यी होते हैं / वे सम्पगदष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते, मिथ्यादृष्टि होते हैं। वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं / वे नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं। यथामतिअज्ञानी और श्रुत अज्ञानी / वे मनोयोगी और वचनयोगी नहीं होते, केवल काययोगी होते हैं। वे साकारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाकारोपयोग वाले भी। 12. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरोरगा कतिवण्णा ? जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ०१ सु० 19-30) सम्वत्थ पुच्छा। गोयमा ! जहा उप्पलुद्देसए / ऊसासमा बा, नीसासगा वा, नो ऊसासगनोसासगा। आहारगा वा, अणाहारगा वा। नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया। सकिरिया, नो अकिरिया। सत्तविहबंधगा वा, अविहबंधगावा। श्राहारसनोवउत्ता वा जाव परिग्गहसन्नोव उत्ता वा। कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा। नो इत्थवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदगा। इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेदबंधगा वा, नपुंसगवेदबंधगा वा / नो सणो, असम्णो / सइंदिया, नो अणि दिया। 12 प्र. भगवन् ! उन एकेन्द्रिय जीवों के शरीर कितने वर्ण के होते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न (श. 11, उ. 1) उत्पलोद्देशक (भू. 16 से 30 तक) के अनुसार / / [12 उ.] गौतम ! उत्पलोद्देशक के अनुसार, उनके शरीर पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और पाठ स्पर्श वाले होते हैं। वे उच्छवास वाले या निःश्वास वाले अथवा नो-उच्छ्वास-नि:श्वास वाले होते हैं। वे ग्राहारक या अनाहारक होते हैं। वे विरत (सर्वविरत) और विरत) नहीं होते, किन्तु अविरत होते हैं। वे क्रियायुक्त होते हैं, क्रियारहित नहीं। वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं। बे आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा वाले होते हैं / वे क्रोधकषायी Page #2890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 692] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यावत् लोभकषायी होते हैं। वे स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी नहीं होते, किन्तु नसकवेदी होते हैं। वे स्त्रीवेदबन्धक पुरुषवेद-बन्धक या नपुंसकवेद-बन्धक होते हैं। वे सजी नहीं होते, असंज्ञी होते हैं। वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते / 13. ते णं भंते ! 'कडजुम्मकडजुम्मगिदिय' त्ति कालो केवचिरं होंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एषकं समयं, उनकोसेणं अणंतं कालं' -अणंतो वणस्सतिकालो। संवेहो न भण्णइ अाहारो जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ०१ सु०४०), नवरं निग्वाघाएणं छसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चतुर्दिसि, सिय पंचदिसि / सेसं तहेव / ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, (अंतोमुत्तं), उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई / समुग्घाया आइल्ला चत्तारि, मारतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / उच्वट्टणा जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ० 1 सु० 44) / [13 प्र.] भगवन् ! वे कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? [13 उ. गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल—अनन्त (उत्सपिणी अव. सर्पिणीरूप) बनस्पतिकाल-पर्यन्त होते हैं / यहाँ संवेध का कथन नहीं किया जाता। इनका आहार उत्पलोद्देशक (श. 11, उ. 1, सू. 40) के अनुसार जानना, किन्तु वे व्याघात रहित छह दिशा का और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, चार या पांच दिशा से आहार लेते हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है / इनमें आदि (पहले) के चार समुद्घात पाये जाते हैं / ये मारणान्तिक समुद्घात से समवहत अथवा असमवहत होकर मरते हैं। इनकी उद्वर्तना उत्पलोद्देशक के अनुसार जाननी चाहिए। 14. अह भंते ! सध्वपाणा जाव सध्वसत्ता कडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववन्नपुवा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। [14 प्र.] भगवन् ! समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्व क्या कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रियरूप से पहले उत्पन्न हुए हैं ? [14 उ.] हाँ, गौतम ! वे अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। विवेचन–कृतयुग्म-कृतयुग्म-एकेन्द्रिय जीवों के विषय में कुछ स्पष्टीकरण--जिन एकेन्द्रिय जीवों में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार बचें और अपहार-समय भी चार हों, वे कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय कहलाते हैं / यहाँ प्रायः ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पलोद्देशक का अतिदेश किया गया है। एकेन्द्रिय जीवों में संवेध असम्भव क्यों ?-उत्पलोद्देशक में उत्पल यानी कमल के जीव की उत्पत्ति विवक्षित हो और वह पृथ्वीकायादि दूसरी काय में जाए और फिर उत्पल में प्राकर उत्पन्न हो तब उसका संवेध संभावित होता है, किन्तु प्रस्तुत में कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय का प्रकरण है और एकेन्द्रिय तो अनन्त उत्पन्न होते हैं। उनमें से निकल कर वे विजातीयकाय में उत्पन्न हों और 1. अधिकपाठ-किसी किसी प्रति में यहाँ इतना पाठ अधिक है-'अयंता ओस प्पिणि-उत्सपिणीओ.......।' Page #2891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 1] पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न हों तब उनका संवेध हो सकता है, किन्तु वहां से उनका निकलना असम्भव होने से सवेध नहीं हो सकता ! यहाँ जो सोलह कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप उत्पाद कहा है, वह प्रसकाय से आकर उत्पन्न होने वाले जीव की अपेक्षा से है, वह वास्तविक उत्पाद नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय में प्रतिसमय अनन्त जीवों का उत्पाद होता है। इसलिए यहाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा से संवेध असम्भवित होने से उसका निषेध किया गया है।' कृतयुग्म-त्र्योज-एकेन्द्रिय से लेकर कल्योज-कल्योज-एकेन्द्रिय तक का उत्पादादि निरूपण 15. कडजुम्मतेयोयएमि दिया णं भंते ! को उववज्जति ? उववातो तहेव। |15 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-त्र्योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [15 उ.] गौतम ! उनका उपपात पूर्ववत् कहना चाहिए / 16. ते णं भंते ! जीवा एगसमए० पुच्छा / गोयमा ! एक्कणवीसा वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उक्वज्जति / सेसं जहा कडजुम्मकडजुम्माणं (सु. 4--14) जाव अणंतखुत्तो। [16 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [16 उ.] गौतम ! ये एक समय में उन्नीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं। शेष पूर्ववत् कृतयुग्म-कृतयुग्मरा शिरूप एकेन्द्रिय के पाठ (सू. 4 से 14 तक) के अनुसार यावत् पहले अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 17. कडजुम्मदावर जुम्मएगिदिया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? उववातो तहेव। [17 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-द्वापरयुग्मरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / {17 उ.] गौतम ! इनका उपपात पूर्ववत् जानना चाहिए / 18. ते णं भंते ! एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा ! अद्वारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, प्रणेता वा उववज्जति / सेसं तहेव (सु० 4-14) जाव अणंतखुत्तो। [18 प्र. भगवन् ! वे (पूर्वोक्त एकेन्द्रिय) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [18 उ.] गौतम ! वे एक समय में अठारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं / शेष सब पूर्ववत् (सू. 4 से 14 तक कृतयुग्मएकेन्द्रिय के अनुसार) यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 19. कडजुम्मकलियोगएगिदिया णं भंते ! कओ उवय ? 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 967 Page #2892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 694] व्याख्याज्ञप्तिसूत्र .. उववातो तहेव / परिमाणं सत्तरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणता वा / सेसं तहेव (सु० 4-14) जाब अणंतखुत्तो। [16 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कल्योजरूप एकेन्द्रिय कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] गौतम ! इनका उपपात पूर्ववत् समझना चाहिए / इनका परिमाण है--सत्रह, संड्यात, असंख्यात या अनन्त / शेष (सू. 4 मे 14 तक के अनुसार) पूर्ववत् यावत् अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 20. तेयोगकडजुम्मएगिदिया ण भंते ! करो उववज्जति ? उववातो तहेव / परिमाणं-वारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जंति / सेसं तहेव (सु० 4-14) जाव अणतखुत्तो। [20 प्र.] भगवन् ! योज-कृतयुग्म राशिरून एकेन्द्रिय जोब कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] गौतम ! इनका उपपात भी पूर्ववत् जानना। इनके प्रति समय उत्पाद का परिमाण है-वारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त / शेष (मू. 4 से 14 तक के अनुसार) पूर्ववत् यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / 21. तेयोयतयोयएगिदिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? उववातो तहेब / परिमाणं-पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा / सेसं तहेव (सु० 4-14) जाब अणंतखुत्तो। [21 प्र.] भगवन् ! योज-योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से ग्राकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [21 उ.] गौतम ! इनका उपपात भी पूर्ववत् है। इनके प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण है-पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त / शेष सब (सू. 4 से 14 के अनुसार) पूर्वबत यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक जानना चाहिए। 22. एवं एएसु सोलससु महाजुम्मेसु एक्को गमलो, नवरं परिमाणे नाणत्तं-तेयोयदावरजुम्मेसु परिमाणं चोट्स वा, संखेज्जा बा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उबवज्जंति / तेयोगकलियोगेसु तेरस वा, संखेज्जा बा, असंखेजना वा, अगंता वा उज्जति / दावरजुम्मकडजुम्मेसु अट्ट वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा अणंता वा उववज्जति / दावरजुम्मतेयोगेसु एक्कारस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणता वा उववज्जति / दावरजुम्मदावरजुम्मेसु दस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववजंति / दावरजुम्मकलियोगेसु नव वा, संखेन्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जंति / कलियोगकडजुम्मेसु चत्तारि वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति / कलियोगतेयोगेसु सत्त वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा ,अगंता वा उववज्जति / कलियोगदावरजुम्मे छ वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जंति / Page #2893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीसवां शतक : उद्देशक 1) 22) इस प्रकार इन सोलह महायुग्मों का एक ही प्रकार का कथन (गमक) समझना चाहिए / किन्तु इनके परिमाण में भिन्नता है / जैसे कि-त्र्योजद्वापरयुग्म का प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण चौदह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। योजकल्योज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण है-तेरह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त / द्वापरयुग्मकृतयुग्म का उत्पाद-परिमाण आठ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है / द्वापरयुग्मयोज का प्रतिसमय उत्पाद-परिमाण ग्यारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म में प्रतिसमय में दस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं / द्वापरयुग्मकल्योज में प्रति समय उत्पाद-परिमाण नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। कल्योजकृतयुग्म में प्रति समय उत्पाद-परिमाण चार, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है / कल्योजयोज में प्रतिसमय उत्पत्ति-परिमाण सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है और कल्योजद्वापर यग्म में प्रतिसमय में उत्पाद का परिमाण छह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। 23. कलियोगलियोगएगिदिया णं भंते ! कसो उववज्जति ? उववातो तहेव / परिमाणं पंच वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववज्जति सेसं तहेव (सु० 4-14) जाव अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // पणतीसइमे सए : पढमे एगिदिय-महाजुम्मसए : पढमो उद्देसनो समत्तो / / 35 // 11 // 23 प्र. भगव ! कल्योज-कल्योजराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? 23 उ.] गौतम ! इनका उपपात भी पूर्ववत् कहना चाहिए / इनका प्रतिसमय उत्पाद का परिमाण पांच, संख्यात, असंख्यात या अनन्त है। शेष सब पूर्ववत् (सू. 4 से 14 तक के अनुसार, यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन—निष्कर्ष इस प्रकरण में कृतयुग्म-त्र्योजरूप एक न्द्रिय से लेकर कल्योज-कल्योज एकेन्द्रिय तक के जीवों के उत्पाद आदि का कथन पूर्वोक्त कृतयुग्म-कृमयुग्म एकेन्द्रिय के (स. 4 से 14 तक के अनुसार) अतिदेशपूर्वक किया गया है / किन्तु इन सोलह ही महायुग्मों के प्रतिसमयोत्पत्ति के जघन्य परिमाण में अत्तर है, जिसे मूलपाठ में स्पष्ट कर दिया गया है।' . / पैतीसवां शतक : प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपणत्तिसुत्तं भा. 3 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 1145-46 .-. - - -.. Page #2894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियमहाजुम्मसए : बिइओ उद्देसगो प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : द्वितीय उद्देशक 1. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कसो उक्वन्जंति ? गोयमा ! तहेव / [1 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए / 2. एवं जहेव पढमो उद्देसयो तहेव सोलसखुत्तो वितियो वि भाणियब्वो। तहेव सव्वं / नवरं इमाणि दस नाणताणि--ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / पाउयकम्मस्स नो बंधगा, अबंधगा। पाउयस्स नो उदोरगा, अणुदोरगा। नो उस्सासगा, नो निस्सासमा, नो उस्सासनिस्सासगा / सत्तविहवंधगा, नो अविहबंधगा। [2] इसी प्रकार जैसे प्रथम उद्देशक में (उत्पाद-परिमाण) कहा है, वैसे द्वितीय उद्देशक में भी उत्पाद-परिमाण सोलह बार कहना चाहिए / अन्य सब कथन पूर्ववत् ही है / किन्तु इन दस बातों में भिन्नता (नानात्व) है। यथा--(१) अवगाहना--जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग है / (2-3) आयुष्यकर्म के बन्धक नहीं, प्रबन्धक होते हैं / (4-5) आयुष्य कर्म के ये उदोरक नहीं, अनुदोरक होते हैं / (6-7-8) ये उच्छवास, निःश्वास तथा उच्छ्वास-निःश्वास से युक्त नहीं होते और (9-10) ये सात प्रकार के कर्मों के बन्धक होते हैं, अष्टविधकर्मों के बन्धक नहीं होते / 3. ते णं भंते ! पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' ति कालतो केवचिरं० ? गोयमा! एक्कं समयं / [3 प्र.] भगवन् ! वे प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्म राशिरूप एके न्द्रिय जीव काल की ___ अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? {3 उ.] गौतम ! वे एक समय तक होते हैं / 4. एवं ठितो वि / समुग्धाया आइल्ला दोन्नि / समोहया न पुच्छिज्जति / उब्वट्टणा न पुच्छिज्जइ / सेसं तहेव सव्वं निरवसेसं सोलससु वि गमएसु जाव अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // पढमे एगिदिय-महाजुम्मसए : विइयो उद्देसओ समतो // 3512 // Page #2895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतीसवां शतक : उद्देशक 2] [4] उनकी स्थिति भी इतनी ही (इसी प्रकार) है। उनमें प्रादि (पहले) के दो समुद्घात होते हैं। उनमें समवहत एवं उद्वर्तना नहीं होने से, इन दोनों की पृच्छा नहीं करनी चाहिए। शेष सब बातें सोलह ही महायुग्मों में यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक उसी प्रकार (प्रथम उद्देशक के अनुसार) कहनी चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--स्वरूप और भिन्नताएँ–एकेन्द्रियरूप में उत्पन्न हुए, जिनको अभी एक समय ही हुआ है और जो कृतयुग्म-कृतयुग्म राशिरूप हैं, ऐसे एकेन्द्रिय को प्रथमसमयकृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहते हैं / ये जीव प्रथमसमयोत्पन्न हैं, इसलिए इनमें जो बातें सम्भव नहीं, उन बातों का अभाव होने से प्रथम-उद्देशक-कधित दस बातों से इन में भिन्नता है।' // पैतीसवाँ शतक : प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 968 Page #2896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे एगिदियमहाजुम्मसए : तइयाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त 1. अपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिविया णं भंते ! को उववज्जंति ? एसो जहा पढमुद्देसो सोलसहि वि जुम्मेसु तहेव नेयवो जाव कलियोगकलियोगत्ताए जाव अणंतखुत्तो॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥३५॥१॥३॥ [1 प्र.] भगवन् ! अप्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथम उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार इस उद्देशक में भी सोलह महायुग्मों के पाठ द्वारा यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / / 1-3 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है.' इत्यादि पूर्ववत् / 2. चरिमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं जहेव पढमसमयउद्देसमो, नवरं देवा न उववज्जति, तेउलेस्सा न पुच्छिज्जति / सेसं तहेव / सेवं भंते! सेवं भंते ! सि० // 35 // 1 // 4 // [2 प्र.] भगवन् ! चरमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रथमसमय उद्देशक कहा है, उसी प्रकार यह उद्देशक भी कहना चाहिए। किन्तु इनमें देव उत्पन्न नहीं होते तथा तेजोलेश्या के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / शेष सब बातें पूर्ववत् हैं / / 1-4 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है० 2', इत्यादि पूर्ववत् / 3. प्रचरिमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया जं भंते ! कसो उववज्जति ? जहा अपढमसमयउद्देसको तहेव भाणियग्यो निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! // 35 // 1 // 5 // [3 प्र.] भगवन् ! अचरमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] गौतम ! इस उद्देशक का समग्र कथन अप्रथमसमय उद्देशक (तीन) के अनुसार कहना चाहिए // 1-5 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है० 2', इत्यादि पूर्ववत् / Page #2897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [699 पैतीसा शतक : उद्देशक 3-11] 4. पढभपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएंगिदिया णं भंते ! को उववज्जति ? जहा पढमसमयउद्देसमो तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरइ // 35 // 1 // 6 // [4 प्र.] भगवन् ! प्रथमप्रथमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्म राशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [4 उ.] गौतम ! प्रथमसमय के उद्देशक के अनुसार समग्र कथन करना चाहिए / / 1-6 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। 5. पढम-अपढमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कसो उववज्जंति ? जहा पढमसमयउद्देसो तहेव भाणियन्वो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 35 // 17 // [5 प्र.] भगवन् ! प्रथम-अप्रथमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [5 उ.] गौतम ! इसका समग्र कथन प्रथमसमय के उद्देशकानुसार करना चाहिए // 1-7 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है 0 2', यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / 6. पढम-चरिमसमयकङजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! को उबवज्जति ? जहा चरिमुद्देसनो तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35 // 18 // [6 प्र.] भगवन् ! प्रथम-चरमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! इनका समस्त निरूपण चरमउद्देशक के अनुसार जानना चाहिए // 18 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है० 2', यों कह कर श्री गौतम-स्वामी यावत् विचरते हैं / 7. पढम-प्रचरिमसमयकउजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कतो उववज्जंति ? जहा बीओ उद्देसनो तहेव निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ // 35 // 16 // [7 प्र.] भगवन् ! प्रथम-अचरमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [7 उ.] गौतम ! इनका समस्त निरूपण दूसरे उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए // 1-9 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / . चरिम-चरिमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया गं भंते ! को उबवज्जति ? जहा चतुत्थो उद्देसनो तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 35 // 1 // 10 // Page #2898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8 प्र.] भगवन् ! चरम-चरमसमय के कृतयुग्म कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [8 उ.] गौतम ! इनका समग्र निरूपण चौथे उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए / / 1-10 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'०, इत्यादि पूर्ववत् / 6. चरिम-अचरिमसमयकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! को उववज्जति ? जहा पढमसमय उद्देसमो तहेव निरवसेसं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइ // 35 // 1 // 11 // एवं एए एक्कारस उद्देसगा। पढमो ततियो पंचमओ य सरिसगमगा, सेसा अट्ट सरिसगमगा, नवरं चउत्थे अट्टमे दसमे य देवा न उववज्जंति, तेउलेसा नत्थि / // पंचतीसइमे सए : पढमं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं / / 35-1 // [प्र.] भगवन् ! चरम-अचरमसमय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? / [9 उ.] गौतम ! इनका समस्त कथन प्रथमसमयउद्देशक के अनुसार करना चाहिए / / 1-11 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि कथन पूर्ववत् / इस प्रकार ये ग्यारह उद्देशक हैं। इनमें से पहले, तीसरे और पांचवें उद्देशक के पाठ एकसमान हैं। शेष पाठ उद्देशक एकसमान पाठ वाले हैं। किन्तु चौथे, (छठे), पाठवें और दसवें उद्देशक में देवों का उपपात तथा तेजोलेश्या का कथन नहीं करना चाहिए। विवेचन-निष्कर्ष और आशय प्रस्तुत प्रकरण में अप्रथमसमय से लेकर चरम-अचरमसमय तक कुल दस उद्देशक कहे गए हैं। प्रथम उद्देशक का निरूपण पहले किया जा चुका है। ये ग्यारह उद्देशक कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय के हैं, परन्तु विभिन्न विशेषणों से युक्त हैं यथा-(१) प्रथमसमय, (2) अप्रथमसमय, (3) चरमसमय, (4) अचरमसमय, (5) प्रथम-प्रथमसमय, (6) प्रथमअप्रथम-समय, (7) प्रथम-चरम-समय, (8) प्रथम-अचरम-समय, (6) चरम-चरम-समय, (10) चरम-अचरम-समय / यहाँ अप्रथम-समय से चरम-अचरम-समय तक (तीसरे से। का निरूपण किया ग अप्रथमसमय०--जिनको उत्पन्न हुए द्वितीयादि समय हो गए हैं और जो संख्या में कृतयुग्मकृतयुग्म हैं, ऐसे एकेन्द्रिय जीवों को 'अप्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है। इनका कथन सामान्य एकेन्द्रियों के समान है, इसी कारण यहाँ प्रथम उद्देशक का प्रतिदेश किया गया है / ___ चरमसमय०-चरमसमय शब्द यहाँ एकेन्द्रियों के मरणसमय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उस (चरम) समय में रहे हुए कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रियों का कथन प्रथमसमय के एकेन्द्रियोद्देशक के समान है, उनमें जो दस बोलों की भिन्नता बताई गई है, वह यहाँ भी समझनी चाहिए। इनमें एक विशेषता यह है कि इनमें देव आकर उत्पन्न नहीं होते। इसलिए इस उद्देशकान्तार्गत इनमें तेजोलेश्या का कथन नहीं करना चाहिए। एकेन्द्रियों में तेजोलेश्या तभी पाई जाती है जब उनमें देव उत्पन्न होते हैं। 1. अधिकपाठ-यहाँ 'चउत्थे' के बाद 'छठे' अधिकपाठ मिलता है। ---सं. Page #2899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवां शतक : उद्देशक 3-11] [705 अचरमसमय०--जिस एकेन्द्रिय जीवों का 'चरमसमय नहीं है, वे 'अचरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्म-ए केन्द्रिय' कहे गए हैं। प्रथम-प्रथमसमय०--जो एकेन्द्रिय जीव प्रथमसमयोत्पन्न हों और कृतयुग्म-कृतयुग्मत्व के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान हों, वे प्रथम-प्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं / प्रथम-अप्रथमसमय-प्रथमसमयोत्पन्न होते हुए भी जिन एकेन्द्रिय जीवों ने कृतयुग्मकृतयुग्म राशि का पूर्वभव में अनुभव किया हुआ हो, वे एकेन्द्रिय जीव (जिनका सप्तम उद्देशक में वर्णन है ), प्रथम-अप्रथमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय कहलाते हैं। यहाँ उत्पत्ति के प्रथमसमय में एकेन्द्रियत्व में वर्तमान तथा पूर्वभव में कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिसंख्या का अनुभव किया हुआ होने से इन्हें प्रथम-अप्रथम-समयवर्ती कहा गया है। प्रथम-चरम-समय०--कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के प्रथम-समयवर्ती और चरमसमय अर्थात् मरणसमयवर्ती होने से इन्हें 'प्रथम-चरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, जिनका कथन आठवें उद्देशक में किया गया है / प्रथम-अचरमसमय०—कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के प्रथमसमय में वर्तमान तथा अचरम अर्थात् एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती एकेन्द्रिय जीवों को 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्मकृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, क्योंकि इनमें चरमत्व का निषेध है / यदि ऐसा न हो तो द्वितीय उद्देशक में कही हुई अवगाहना आदि की सदृशता इनमें घटित नहीं हो सकती। इसलिए नौवे उद्देशक में 'प्रथम-अचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' का कथन किया गया है / चरम-चरमसमय-जो कृतयुग्म-कृतयुग्मसंख्या के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम समय में वर्तमान हों तथा जो चरमसमय, अर्थात् मरणसमयवर्ती हों, उन एकेन्द्रिय जीवों को 'चरमचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहा गया है, जिनका कथन दसवें उद्देशक में किया गया है। चरम-अचरमसमय०-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि के अनुभव के चरम अर्थात् अन्तिम-समय में वर्तमान और अचरमसमय अर्थात एकेन्द्रियोत्पत्ति के प्रथमसमयवर्ती जो एकेन्द्रिय हैं, उन्हें 'चरमअचरमसमय-कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय' कहते हैं, जिनका कथन ग्यारहवें उद्देशक में किया गया है / सारांश-प्रथम, तृतीय और पंचम इन तीन उद्देशकों का कथन समान है, क्योंकि इनमें अवगाहना आदि की भिन्नता का कथन नहीं है / शेष पाठ उद्देशकों का कथन एक समान है, उनमें अवगाहना आदि दस बोलों की भिन्नता है। किन्तु चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवोत्पत्ति और तेजोलेश्या की संभावना न होने से उनका कथन नहीं करना चाहिए।' // पैंतीसवें शतक में प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक के तीसरे से ग्यारहवाँ उद्देशक संपूर्ण / ॥प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // 1. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3745-46 Page #2900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त 1. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! को उववज्जति ? गोयमा ! उववातो तहेव / एवं जहा प्रोहिउद्देसए (स० 35-1 उ० 1), नवरं इमं नाणतं [1 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्यी-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहां से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! इनका उपपात (श. 3511 के उ. 1) औधिक उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए / किन्तु इन बातों में भिन्नता है / 2. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता, कण्हलेस्सा। [2 प्र. भगवन् ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। 3. ते णं भंते ! 'कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिय' त्ति कालमो केव चिरं होंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / 63 प्र.] भगवन् ! वे कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ? {3 उ.] गौतम ! वे जघन्य एकसमय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं / 4. एवं ठिती वि। [4] उनकी स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए / 5. सेसं तहेव-जाव अणंतखुत्तो। [5] शेष सब बातें पूर्ववत् यावत् अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहनी चाहिए / 6. एवं सोलस वि जम्मा भाणियव्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35 // 2 // 1 // [6] इसी प्रकार क्रमशः सोलह महायुग्मों सम्बन्धी कथन पूर्ववत् करना चाहिए / 35 // 2 // 1 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। Page #2901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीसवां शतक : उद्देशक 1-11] 7. पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? जहा पढमसमयउद्देसनो, नवरं [7 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमय-कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! इसका समग्र कथन प्रथमसमयउद्देशक (अवान्तर शतक 1 उ. 2) के समान जानना / विशेष यह है 8. ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? हंता, कण्हलेस्सा। सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35 // 2 // 2 // [8 प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [- उ.] हाँ, गौतम! वे कृष्णलेश्या वाले हैं। शेष समग्र कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 352 / 2 / / 6. एवं जहा प्रोहियसते एक्कारस उद्देसगा भणिया तहा कण्हलेस्ससए वि एक्कारस उद्देसगा भाणियव्वा / पढमो, ततिओ, पंचमो य सरिसगमा / सेसा अट्ट वि सरिसगमा, नवरं० चउत्थ'-अट्ठमदसमेसु उववातो नस्थि देवस्स। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥३५२॥३-११ / // पंचतीसइमे सते : बितियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं // 35.2 // [6] औधिकशतक के ग्यारह उद्देशकों के समान कृष्णलेश्याविशिष्ट (एकेन्द्रिय) शतक के भी ग्यारह उद्देशक कहने चाहिए / प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक के पाठ एक समान हैं / शेष पाठ उद्देशकों के पाठ सदृश हैं / किन्तु इनमें से चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में देवों की उत्पत्ति का कथन नहीं करना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 35 / 2 / 3-11 / / // द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त // // पैंतीसवां शतक : द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // 1. यहाँ भी 'चउत्थ' के पश्चात 'छद्र पाठ अधिक मिलता है। -सं. Page #2902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जता उद्देसगा तृतीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्याविशिष्टशलक के अतिदेशपूर्वक नीललेश्याशतक-प्ररूपणा 1. एवं नीललेस्सेहि वि कण्हलेस्ससयसरिसं, एक्कारस उद्देसगा तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 // 35 // 331-11 // // पंचतीसइमे सए : ततियं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं // 35-3 // [1] नीललेश्या वाले एकेन्द्रियों का शतक भी कृष्णलेश्यावाले एकेन्द्रियों के शतक के समान कहना चाहिए। इसके भी ग्यारह उद्देशकों का कथन उसी प्रकार है / __ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // तृतीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त // // पैंतीसवां शतक : तृतीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतक सम्पूर्ण / Page #2903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक का निर्देश 1. एवं काउलेस्सेहि वि सयं कण्हलेस्ससयसरिसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35 / 4 / 1-11 // // पंचतीसइमे सए / चउत्थं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं // 35-4 // [1] इसी प्रकार कापोतलेश्या-सम्बन्धी शतक भी कृष्णलेश्याविशिष्ट शतक के समान जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / 35 / 4 / 1-11 // // चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक समाप्त // // पंतोसवां शतक : चतुर्थ एकेन्द्रियमहायुग्मशतक सम्पूर्ण / / Page #2904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा पंचम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त प्रथम एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार पंचम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक का निर्देश 1. भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? जहा प्रोहियसयं तहेव, नवरं एक्कारससु वि उद्देसएसु / अह भंते ! सम्वपाणा जाव सव्वसत्ता भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उपवनपुरावा? गोयमा ! जो इणठे समझें / सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 35 / 5 / 1-11 // पंचतीसइमे सए : पंचमं एगिदिपमहाजुम्मसयं समत्तं // 35 // 5 // [1 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इनका समन कवन पौधिकशतक के समान जानना चाहिए। इनके ग्यारह ही उद्देशकों में विशेष बात यह है-- [प्र.] भगवन् ! सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म विशिष्ट एकेन्द्रिय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / इसके अतिरिक्त शेष सब कथन पूर्वोक्त प्रौधिक शतकवत् समझना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे / 351511-11 // // पंचम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक सम्पूर्ण / / ॥पैतीसवाँ शतक : पंचम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // Page #2905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा छठा एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार छठे एकेन्द्रियमहायुग्मशतक का कथननिर्देश 1. कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कसो उववज्जति ? एवं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि सयं बितियसयकण्हलेस्ससरिसं भाणियव्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 35-6 / 1-11 // // पंचतीसइमे सए : छठें एगिदियमहाजुम्मसयं समतं // 35-6 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप एकेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों से सम्बन्धित समग्र शतक का कथन कृष्णलेश्या-सम्बन्धी द्वितीय शतक के समान करना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं, यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 351661-11 // // छठा एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक सम्पूर्ण // // पैतीसवां शतक : छठा एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त / / Page #2906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमे एगिदियमहाजुम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा सप्तम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवे उद्देशक पर्यन्त द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार सप्तम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक-निरूपण 1. एवं नीललेस्सभवसिद्धियगिदियेहि वि सयं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 3517 / 1-11 // पंचतीसइमे सए : सत्तमं एगिदियमहाजुम्मसयं समत्तं // 35-7 // [1] इसी प्रकार नीललेश्या वाले भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मएकेन्द्रिय शतक का कथन भी नीललेश्या-सम्बन्धी तृतीय शतक के समान जानना चाहिए। 'हे भगवन् यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं // 35 // 7 / 1-11 // // सप्तम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक सम्पूर्ण // // पैंतीसवां शतक : सप्तम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // Page #2907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमे एगिदियमहाजम्मसए : पढमाइ-एक्कारसपज्जंता उद्देसगा अष्टम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त द्वितीय एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार अष्टम एकेन्द्रिय महायुग्मशतक-प्ररूपणा 1. एवं काउलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव एक्कारसउद्देसगसंजत्तं सयं / 2. एवं एयाणि चत्तारि भवसिद्धिएसु सयाणि, चउसु वि सएसु 'सव्वपाणा जाव उववन्नपुव्वा ? नो इणठे समझें। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 3 // 8 / 1-11 // // पंचतीसइमे सए : अट्ठमं एगिदियमहाजुम्मसतं सभत्तं // 35.8 // [1-2] इसी प्रकार कापोतलेश्यीभवसिद्धिक ( कृतयुग्म-कृतयुग्मरूप ) एकेन्द्रियों के भी ग्यारह उद्देशकों सहित यह शतक पूर्वोक्त कापोतलेश्या-सम्बन्धी चतुर्थ शतक के समान) जानना चाहिए / इस प्रकार ये चार (पांचवा, छठा, सातवाँ और पाठवाँ) शतक भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के हैं। इन चारों शतकों में-- [प्र.] क्या सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है / इतना विशेष जानना चाहिए / // अष्टम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक सम्पूर्ण / // पैतीसवां शतक : अष्टम एकेन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // Page #2908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाइबारसमपज्जतेसु एगिदियमहाजुम्मसएसु पढमाइ एक्कारसपज्जता उद्देसगा नौवें से बारहवां शतक : सबमें पहले से ग्यारह उद्देशक पर्यन्त पंचम से अष्ट अवान्तरशतकवत् नौवें से बारहवे तक अभवसिद्धिकशतकचतुष्टय-निर्देश 1. जहा भवसिद्धिएहि चत्तारि सयाई भणियाई एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि लेसासंजुत्ताणि भाणियवाणि / सव्वपाणा.? तहेव, नो इणठे समझें। एवं एयाइं बारस एगिदियमहाजुम्मसयाई भवंति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः। // पंचतीसइमे सए : नवमाइ-बारसम-पज्जताई सयाई समत्ताई // // पंचतीसइमं सयं समत्तं // 35 // [1] जिस प्रकार भवसिद्धिक-सम्बन्धी चार शतक कहे, उसी प्रकार अभवसिद्धिकएकेन्द्रिय के लेश्या-सहित चार शतक कहने चाहिए / (इन चारों शतकों में भी) [प्र.] भगवन् ! सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] पूर्वत् / यह अर्थ समर्थ नहीं है / (इतना विशेष जानना चाहिए / ) इस प्रकार ये बारह एकेन्द्रियमहायुग्मशतक हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 3516-12 / 1-11 // // पैंतीसवां शतक : नौवें से बारहवें अवान्तरशतक तक सम्पूर्ण // // पैतीसवां शतक समाप्त / / 35 // Page #2909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं सयं : बारस बेइंदियमहाजम्मसयाई छत्तीसवां शतक : द्वादश द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक सोलह द्वीन्द्रियमहायुग्मशतकों में उपपात आदि बत्तीस द्वारों की प्ररूपणा 1. कडजुम्मकडजुम्मबंदिया णं भंते ! को उववज्जति ? उववातो जहा वक्कतीए। परिमाणं-सोलस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा, उववजंति / अवहारो जहा उप्पलुद्देसए (स० 11 उ० १सु०७) / प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमुद्देसए तहेव; नवरं तिन्नि लेस्साश्रो; देवा न उवयजति; सम्मट्ठिी वा, मिच्छट्ठिी वा, नो सम्मामिच्छाविट्ठी; नाणी वा, अन्नाणी वा; नो मणयोगी, वइयोगी वा, कायजोगी वा। [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! इनका उपपात (उत्पत्ति) प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना / परिमाण-एक समय में सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। इनका अपहार (ग्यारहवें शतक के प्रथम) उत्पलोद्देशक (के सूत्र 7) के अनुसार जानना। इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है। एकेन्द्रियमहायुग्मराशि के प्रथम उद्देशक के समान समझना / विशेष यह है कि इनमें तीन लेश्याएँ होती हैं। इनमें देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते / ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यावृष्टि भी, किन्तु सम्यमिथ्यावष्टि नहीं होते। ये ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं / ये मनोयोगी नहीं होते, वचनयोगी और काययोगी होते हैं / 2. ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मबंदिया कालतो केचिरं होंति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं। [2 प्र.] भगवन् ! वे कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं। [2 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक होते हैं / 3. ठिती जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई। आहारो नियम छद्दिसि / तिन्नि समुग्धाया। सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। [3] उनकी स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। वे नियमतः Page #2910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712] [व्याख्याप्रशप्तिसूत्र छह दिशा का आहार लेते हैं। उनमें (पहले के) तीन समुद्घात होते हैं। शेष पूर्ववत् यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक जानना / 4. एवं सोलससु वि जुम्मसु / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥पढमे बेदियमहाजुम्मसते : पढमो उद्देसनो समत्तो // 36-1-1 // [4] इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों के सोलह महायुग्मों में कहना चाहिए।' 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // छत्तीसवां शतक : प्रथम अवान्तरशतक : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण // 1. द्वीन्द्रिय जीवों के 16 महायुग्मों को 32 द्वारों द्वारा प्ररूपित किया गया है। 32 द्वारों के लिए देखिए...भगवतीसूत्र शतक 11 का द्वितीयसूत्र / —वियाहपणत्तिसुत्तं भा. 3 (मू. पा. टि.), पृ. 1155 Page #2911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे बेइंदियमहाजुम्मसए : बिइओ उद्देसओ प्रथम द्वीन्द्रिय शतक : द्वितीय उद्देशक एकेन्द्रिय महायुग्मशतक के अतिदेशपूर्वक प्रथमसमय-द्वीन्द्रियमहायुग्मवक्तव्यता 1. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मāदिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं जहा एगिदियमहाजुम्माणं पढमसमयुद्देसए दस नाणत्ताई ताई चेव दस इह वि / एक्कारसम इमं नाणतं-नो मणजोगी, नो बइजोगी, कायजोगी। सेसं जहा एगिदियाणं चेव पढमुद्देसए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। छतीसइमे सए : पढम बेइंदियमहाजुम्मसए : बिइप्रो उद्देसनो समत्तो // 36-112 // [1 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार एकेन्द्रियमहायुग्मों का प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक कहा गया है, उसी प्रकार इनके विषय में भी जानना / वहाँ दस बातों का अन्तर बताया है, यहाँ भी उन दस वातों का अन्तर समझना / ग्यारहवीं विशेषता यह है कि ये मनयोगी और वचनयोगी नहीं होते, सिर्फ काययोगी होते हैं / शेष सब बातें एकेन्द्रियमहायुग्मों के प्रथम उद्देशक के समान जानना / _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-निष्कर्ष-प्रस्तुत द्वितीय उद्देशक में प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रियमहायुग्म-सम्बन्धी वतीस द्वारों को प्ररूपणा एकेन्द्रियमहायुग्म के प्रथमसमय-सम्बन्धी उद्देशक के अतिदेशपूर्वक को गई है। एकेन्द्रियमहायुग्म में उक्त 10 बातों का अन्तर इनमें भी है। ग्यारहवीं विशेषता है ये मात्र काययोगी होते हैं। // छत्तीसवें शतक में प्रथम द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक का द्वितीय उद्देशक समाप्त // Page #2912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे बेइंदियमहाजुम्मसए : तइयाइएक्कारसमपज्जंता उद्देसगा प्रथम द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक : तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त कुछ विशेषताओं के साथ तीसरे से ग्यारहवें उद्देशक-पर्यन्त प्ररूपणा 1. एवं एए वि जहा एगिदियमहाजुम्मेसु एक्कारस उद्देसगा तहेव भाणियच्या, नवरं च उत्थ'अट्ठम-दसमेसु सम्मत्त-नाणाणि न भण्णंति / जहेव एगिदिएसु; पढमो ततिम्रो पंचमो य एक्कगमा, सेसा अट्ट एक्कगमा। // छत्तीसइमे सए : पढम-बेइंदियमहाजुम्मसए तइयाइएक्कारसमपज्जंता उद्देसगा समत्ता // // 36.113.11 / / // पढमं दियमहाजुम्मसयं / / 36-1 // [1] एकेन्द्रियमहायग्म-सम्बन्धी ग्यारह उद्देशकों के समान यहाँ भी कहना चाहिए। किन्तु यहाँ चौथे, (छ)' पाठवें और दसवें उद्देशकों में सम्यक्त्व और ज्ञान का कथन नहीं होता। एकेन्द्रिय के समान प्रथम, तृतीय और पंचम, इन तीन उद्देशकों के एकसरीखे पाठ हैं, शेष पाठ उद्देशक एक समान हैं। // छत्तीसवें शतक में प्रथम द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के तीसरे से ग्यारह उद्देशक तक सम्पूर्ण / // प्रथम द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त / 1. यहाँ किसी प्रति में 'चउत्थ' शब्द के बाद 'छट्ट' शब्द मिलता है। इस दृष्टि से चौथे, छठे, प्राटवे और दसवें उद्देशकों में सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता, ऐसा अर्थ किया गया है। -सं. Page #2913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए बेइंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक 1. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मबंदिया णं भंते ! कतो उबवज्जति ? एवं चेव / कण्हलेस्सेसु वि एक्कारस उद्देसगसंजुत्तं सयं, नवरं लेसा, संचिगुणा' जहा एगिदियकण्हलेस्साणं / // छत्तीसइमे सए : बिइए बेइंदियमहाजुम्मसए पढमाइ-एक्कारस-पज्जता उद्देसगा समत्ता // // बितियं बंदियसयं समत्तं // 36-2 // [1 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इस विषय में पूर्ववत् जानना चाहिए। कृष्णलेश्यी जीवों का भी शतक ग्यारह उद्देशक-युक्त जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी लेश्या और संचिट्ठणा (कास्थिति) स्थिति (भवस्थिति), कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीवों के समान होती है / विवेचन-प्रस्तुत ग्यारह उद्देशकों में कृष्णलेश्याविशिष्ट द्वीन्द्रियमहायुग्म जीवों के सम्बन्ध में लेश्या, कायस्थिति आदि के अतिरिक्त शेष सर्वकथन एकेन्द्रियजीवों के समान बताया गया है। / / छत्तीसवां शतक : द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के ग्यारह उद्देशक सम्पूर्ण // / द्वितीय द्वीन्द्रियशतक समाप्त / / 1. किमी किसी प्रति में संचिढणा' के ग्रागे "ठिई' शब्द मिलता है। वहाँ स्थिति' से भवस्थिति अर्थ समझना चाहिए। –सं. Page #2914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए बेइंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जता उद्देसगा तृतीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवे उद्देशक पर्यन्त द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के अनुसार नीललेश्यी द्वीन्द्रियशतकनिर्देश 1. एवं नीललेस्सेहि वि सयं / [ // 36-2-1-11 // ] // छत्तीसइमे सए : ततियं सतं समत्तं / / 36-3 / / [1] इसी प्रकार नीललेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का ग्यारह उद्देशक-सहित शतक है / // छत्तीसवां शतक : तृतीय द्वीन्द्रियशतक समाप्त // Page #2915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थे बेइंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा चतुर्थ द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त द्वितीय द्वीन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार कापोतलेश्यो द्वीन्द्रियशतकनिर्देश 1. एवं काउलेस्सेहि वि सयं / [ // 36-4-1-11 // ] // छत्तीसइमे सए : चउत्थं सतं समत्तं / / 36-4 / / [1] इसी प्रकार कापोतलेश्यी द्वीन्द्रिय जीवों का (ग्यारह उद्देशक-राहित) शतक है। // छत्तीसवां शतक : चतुर्थ द्वीन्द्रियशतक समाप्त / / Page #2916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाइअट्ठमपज्जतेसु बेइंदियमहाजुम्मसएस पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा पाँचवें से आठवें द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक पर्यन्त : पहले से ग्यारहवें उद्देशक तक पांचवें से आठवें शतक तक एकेन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार निर्देश 1. भवसिद्धियक डजुम्मकडजुम्मबेइंदिया णं भंते ! * ? एवं भवसिद्धियसया वि चत्तारि तेणेव पुत्वगमएणं नेतव्वा, नवरं 'सवपाणा० ? णो इणठे समठे / ' सेसं जहेव प्रोहियसयाणि चत्तारि / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। [ // 36.5.8 // ] // छत्तीसतिमे सए : अट्ठमं सयं समतं // 36-8 / / [1 प्र.! भगवन् ! भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त पाठ के अनुसार भवसिद्धिक महायुग्मीन्द्रिय जीवों के चार शतक जानने चाहिए / विशेष यह है कि [प्रश्न] सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यावत् अनन्त बार उत्पन्न हुए ? [उत्तर] यह बात शक्य नहीं है / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए / ये चार ओधिकशतक हुए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // छत्तीसवां शतक : पांचवें से पाठवें शतक पर्यन्त सम्पूर्ण / / Page #2917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाइबारसमपज्जतेसु बेइंदियमहाजम्मसएसु पढमाइएक्कारसपज्जता उद्देसगा नौवें से बारहवें द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के पहले से ग्यारहवें उद्देशक पर्यन्त नौवें से बारहवें द्वीन्द्रियमहायग्मशतक तक पूर्वशतकानुसार निर्देश 1. जहा भवसिद्धियसया चत्तारि एवं प्रभवसिद्धियसया वि चत्तारि भाणियव्वा, नवरं सम्मत्त-नाणाणि सव्वेहि नस्थि / सेसं तं चेव / [2] जिस प्रकार भवसिद्धिक (द्वीन्द्रिय जीवों) के चार शतक कहे, उसी प्रकार अभवसिद्धिक (द्वी. जी.) के भी चार शतक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इन सबमें सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होते है / शेप सब पूर्ववत् ही है। 2 एवं एयाणि बारस बेदियमहाजुम्मसयाणि भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / / बंदियमहाजुम्मसया समत्ता / / 36-12 / / // छत्तीसतिम सयं समत्तं // 36 // [2] इस प्रकार ये बारह द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक होते हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // छत्तीसवां शतक : बारह द्वीन्द्रिय महायुग्मशतक समाप्त // / / छत्तीसवाँ शतक सम्पूर्ण / / Page #2918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ततीसइमं सयं : बारस तेइंदियमहाजुम्मसयाई संतीसवाँ शतक : बारह त्रीन्द्रियमहायुग्मशतक द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के अतिदेशपूर्वक बारह त्रीन्द्रियमहायुग्मशतक 1. कडजुम्मकडजुम्मतेदिया णं भंते ! को उववज्जति० ? एवं तेइंदिएसु वि बारस सया कायव्वा बेंदियसयस रिसा, नवरं प्रोगाणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिनि गाउयाई; ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं एकूणवन्नरातिदियाई / सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / // सत्ततोसइमे सए : तेइंदियमहाजम्मसया समत्ता / / 37-1-12 // // सत्ततीसइमं सतं समत्तं // 37 // [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशि वाले त्रीन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.! गौतम ! द्वीन्द्रियशतक के समान त्रीन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक करने चाहिए। विशेष यह है कि इनकी (त्रीन्द्रिय को) अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट तीन गाऊ (गव्यूति) की है तथा स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट उनपचास (49) अहोरात्रि की है। शेष सब कथन पूर्ववत् है / भगवन ! यह इसी प्रकार है, भगवन ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतस्वाम यावत विचरते हैं। विवेचन-दोन्द्रियशतक का अतिदेश–कृतयुग्म-कृतयुग्मविशिष्ट त्रीन्द्रिय जीवों की अवगाहना और स्थिति को छोड़ कर, उत्पत्ति प्रादि का शेष समग्र कथन द्वीन्द्रियशतक के अतिदेशपूर्वक किया गया है। // संतीसवाँ शतक : द्वादश त्रीन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त / / / सैंतीसवां शतक सम्पूर्ण / . Page #2919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठतीसइमं सयं : बारस चउरिदियमहाजुम्मसयाई अड़तीसवां शतक : द्वादश चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतक द्वीन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार द्वादश चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतक-निरूपण 1. चरिदिएहि वि एवं चेव बारस सया कायन्वा, नवरं प्रोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं; ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / सेसं जहादियाणं / सेवं भंते ! से भंते ! ति। // अद्वतीसइमे सए : बारस चारिदियमहाजुम्मसया समत्ता // 38 // 1-12 / / ॥अद्वतीसहमं सयं समत्तं / / 38 // [1] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों के बारह शतक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट चार गाऊ की है तथा स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट छह महीने की है। शेष सब कथन द्वीन्द्रिय जीवों के शतक के समान है। ___'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन द्वीन्द्रियमहायुग्मशतकानुसार वक्तव्यता-इन बारह चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतकों की समग्न वक्तव्यता भी अवगाहना और स्थिति के अतिरिक्त द्वीन्द्रियमहायुग्मशतक के अनुसार बताई / / अड़तीसवां शतक : द्वादश चतुरिन्द्रियमहायुग्मशतक समाप्त // // अड़तीसवां शतक सम्पूर्ण // Page #2920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणयालीसइमं सयं : बारस असन्निपंचिंदियमहाजुम्मसयाई उनचालीसवां शतक : द्वादश असंज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक द्वीन्द्रिय-महायुग्म-शतकानुसार द्वादश प्रसंज्ञीपंचेन्द्रिय महायुग्मशतक-निरूपरण 1. कडजुम्मकडजुम्मप्रसन्निपंचेंदिया पं भंते ! कसो उववज्जति ? जहा बेंदियाणं तहेव प्रसन्नीसु वि बारस सया कायवा, नवरं ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जहभाग, उक्कोसेणं जोयणसहस्स; संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं पुवकोडीपुहत्तं; ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं पुन्चकोडी / सेसं बहा दियाणं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥असणिपंचेंदियमहाजुम्मसया समता // 36-1-12 // ॥एगणयालीसइमं सयं समत्तं // 36 // [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिप्रमाण असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रियशतक के समान असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के भी बारह शतक करने चाहिए। विशेष यह है कि इनकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है तथा कायस्थिति (संचिट्ठणा) जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व की है एवं भवस्थिति (स्थिति) जघन्य एकसमय की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है। शेष पूर्ववत् द्वीन्द्रिय जीवों के समान है / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-द्वीन्द्रियशतक के समान-अवगाहना, कास्थिति और भवस्थिति के सिवाय असंज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्म के 12 शतकों का शेष समग्र कथन द्वीन्द्रियशतक के समान प्रस्तुत शतक में बताया गया है। // उनचालीसवां शतक : द्वादश प्रसंज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक सम्पूर्ण // // उनचालीसवां शतक समाप्त // 36 // Page #2921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तालीसइमं सयं : एक्कवीसं सन्निपंचिदियमहाजुम्मसयाई चालीसवां शतक : इक्कीस संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक पढमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : पढमो उद्देसओ प्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : प्रथम उद्देशक संजीपंचेन्द्रिय के उपपातादि की प्ररूपरणा 1. कडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कत्रो डववज्जति ? . उववातो चउसु वि गतीसु / संखेज्जवासाउय-असंखेज्जवासाउय-पज्जत्त-अपज्जत्तएसु य / न कतो वि पडिसेहो जाव अगुत्तरविमाण त्ति / परिमाणं, प्रवहारो, प्रोगाहणा य जहा असष्णिपंचेंदियाणं / वेयणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं पगडीणं बंधगा वा प्रबंधगा वा वेयणिज्जस्स बंधगा, नो प्रबंधगा। मोहणिज्जस्स वेयगा वा, अवेयगा वा। सेसाणं सत्ताह वि वेयगा, नो अवेयगा। सायाधेयगा वा असायावेयगा वा / मोहणिज्जस्स उदई बा, अणुदई वा; सेसाणं सत्ताह वि उदई, नो अणुदई / नामस्स गोयस्स य उदीरगा, नो अणुदोरगा; सेसाणं छह वि उदीरगा वा, अणुदीरगा वा। कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। सम्मद्दिट्टी वा, मिच्छादिट्ठी, वा, सम्मामिच्छट्टिी वा। गाणी वा अण्णाणी या / मणजोगी वा, वइजोगी वा, कायजोगी वा। उवयोगो, वनमाई, उस्सासगा, पाहारगा य जहा एगिदियाणं / विरया वा अविरया वा, विरयाविरया वा। सकिरिया, मो प्रकिरिया। [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशिरूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहाँ से प्राकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! इनका उपपात चारों गतियों से होता है। ये संख्यात वर्ष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों से आते हैं। यावत् अनुत्तरविमान तक किसी भी गति से आने का निषेध नहीं है। इनका परिमाण, अपहार और अवगाहना असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के समान है। ये जीव बेदनीयकर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक अथवा प्रबन्धक होते है / वेदनीयकर्म के तो बन्धक ही होते हैं, अबन्धक नहीं / मोहनीयकम के वेदक या अवेदक होते हैं। शेष सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं। वे सातावेदक अथवा असातावेदक होते हैं। मोहनीयकर्म के उदयी अथवा अनुदयी होते हैं। शेष सात कर्मप्रकृतियों के उदयी होते हैं, अनुदयी गोत्र कर्म के वे उदीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं। शेष छह कर्मप्रकृतियों के उदीरक या अनुदीरक होते हैं। वे कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यम्- / मिथ्यादृष्टि होते हैं। ज्ञानी अथवा अज्ञानी होते हैं। वे मनोयोगी, बचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें उपयोग, वर्णादि चार, उच्छ्वास-निःश्वास और आहारक (-अनाहारक) का कथन Page #2922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 724] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसुत्र एकेन्द्रिय जीवों के समान है / वे विरत, अविरत या विरताविरत होते हैं। वे सक्रिय (क्रिया वाले) होते हैं, अक्रिय (क्रियारहित) नहीं। 2. ते णं भंते ! जीवा कि सत्तविहबंधगा, अविहबंधगा, छविहबंधगा, एगविहबंधगा ? गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा। [2 प्र.] भगवन् ! वे जीव सप्तविध- (कर्म-)बन्धक, अष्टविधकर्मबन्धक, षड्विधकर्मबन्धक या एकविधकर्मबन्धक होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे सप्तविधकर्मबन्धक भी होते हैं, यावत् एकविधकर्मबन्धक भी होते हैं। 3. ते णं भंते ! जीवा कि पाहारसम्णोवउत्ता जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता, नोसण्णोवउत्ता ? गोयमा ! पाहारसन्नोवउत्ता वा जाव नोसन्नोवउत्ता वा। [3 प्र.] भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं अथवा वे नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! पाहारसंज्ञोपयुक्त यावत् नोसंज्ञोपयुक्त होते हैं / 4. सम्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा / कोहकसाई वा जाव लोभकसाई वा, अकसायी वा। इस्थिवेयगा वा, पुरिसवेयगा वा, नपुसगवेयगा वा, अवेदगा वा / इस्थिवेदबंधगा वा, पुरिसवेयबंधगा वा, नपुसगवेदबंधगा वा, प्रबंधगा वा। सण्णी, नो असण्णी। सइंदिया, नो अणिदिया / संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं सागरोक्मसयपुहत्तं सातिरेगं / आहारो तहेव जाव नियमं छदिसि / ठिती जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। छ समुग्धाता आदिल्लगा। मारणंतियसमुग्धातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / उत्वट्टणा जहेव उववातो, न कत्थइ पडिसेहो जाव अणुत्तरविमाण त्ति / [4] इसी प्रकार सर्वत्र प्रश्नोत्तर की योजना करनी चाहिए। (यथा-) वे क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं। वे स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुंसकवेदक या अवेदक होते हैं। वे स्त्रीवेद-बन्धक, पुरुषवेद-बन्धक, नपुसकवेद-बन्धक या प्रबन्धक होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। इनका संचिट्ठणाकाल (संस्थितिकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट सातिरेक सागरोपम-शतपृथक्त्व होता है। इनका आहार पूर्ववत् यावत् नियम से छह दिशा का होता है। इनकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इनमें प्रथम के छह समुद्धात पाये जाते हैं। ये मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत भी मरते हैं। इनकी उद्वर्तना का कथन उपपात के समान है। किसी भी विषय में निषेध यावत् अनुत्तरविमान तक, नहीं है। 5. अह भंते ! सन्वपाणा? जाव अणंतखुत्तो। Page #2923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [725 चालीसवां शतक : उद्देशक 1] [5 प्र.] भगवन् ! सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ, पहले (इससे पूर्व) उत्पन्न हुए हैं ? __[5 उ.] गौतम ! वे इससे पूर्व अनेक वार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं। 6. एवं सोलससु बि जुम्मेसु भाणियव्वं जाव प्रणतखुत्तो, नवरं परिमाणं जहा बेइंदियाणं, सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०॥ 40 // 11 // [6] इसी प्रकार सोलह युग्मों में यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / इनका परिमाण द्वीन्द्रिय जीवों के समान है / शेष सब पूर्ववत् है। __'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 40 / 1 / 1 / / 7. पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कतो उववज्जंति ? उववातो, परिमाणं, अवहारो' जहा एतेसि चेव पढमे उद्देसए। ओगाहणा, बंधो, वेदो, वेयणा, उदयी, उदीरगा य जहा बेंदियाणं पढमसमइयाणं तहेव / कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा। सेसं जहा बंदियाणं पढमसमइयाणं जाव अणंतखुत्तो, नवरं इथिवेदमा वा, पुरिसवेदगा वा, नपुसगवेदगा वा; सणिणो, नो असणिणो। सेसं तहेव / एवं सोलससु वि जुम्मेसु परिमाण तहेव सव्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 1 // 2 // _ [7 प्र.] भगवन् ! प्रथम समय के कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [7 उ.] गौतम ! इनका उपपात, परिमाण, अपहार (आहार) प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना। इनकी अवगाहना, बन्ध, वेद, वेदना, उदयी और उदीरक द्वीन्द्रिय जीवों के समान समझना। ये कृष्णलेश्यी यावत् शुक्ललेश्यी होते हैं। शेष प्रथमसमयोत्पन्न द्वीन्द्रिय के समान यावत् इससे पूर्व अनेक बार या अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक जानना। वे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी होते हैं। वे संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। शेष पूर्ववत् / इसी प्रकार सोलह ही युग्मों में परिमाण प्रादि की वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है'०, इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 1 / 2 / / ___8. एवं एस्थ वि एक्कारस उद्देसगा तहेव / पढमो, ततिम्रो, पंचमो य सरिसगमा / सेसा अट्ठ वि सरिसगमा / चउत्थ-अटुम-दसमेसु नस्थि विसेसो कोयि वि। सेवं भंते ! भंते ! त्ति० // 40-13-11 // // चत्तालीसइमे सते पढमं सन्निपंदियमहाजुम्मसयं समतं // 40-1 / / 1. पाठान्तर-आहारो' Page #2924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 726] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [8] यहाँ (इस प्रथम अवान्तर शतक में) भी ग्यारह उद्देशक पूर्ववत् हैं। प्रथम, तृतीय और पंचम उद्देशक एक समान हैं और शेष पाठ उद्देशक एक. समान हैं तथा चौथे, (छठे), आठवें और दसवें उद्देशक में कोई विशेष बात नहीं है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 13-11 // विवेचन-विशिष्टसंजीपंचेन्द्रिय जीवों के विषय में-उपशान्तमोहादि जीव वेदनीय के अतिरिक्त 7 कर्मों के प्रबन्धक होते हैं। शेष जीव यथासम्भव बन्धक होते हैं। केवलो अवस्था से पूर्व सभी संज्ञी जीव संज्ञीपंचेन्द्रिय कहलाते हैं और वहाँ तक वे अवश्य ही वेदनीय कर्म के बन्धकही होते है, प्रबन्धक नहीं। इनमें से सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान तक सज्ञापचेन्द्रिय मोहनायकम के वेदक होते हैं तथा उपशान्तमोहादि जीव अवेदक होते हैं / उपशान्तमोहादि जो संजीपंचेन्द्रिय होते हैं, वे मोहनीय के अतिरिक्त सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, अवेदक नहीं। यद्यपि केवलज्ञानी चार अघाती कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, परन्तु वे इन्द्रियों के उपयोग-रहित होने से पंचेन्द्रिय और संजी नहीं कहलाते, वे अनिन्द्रिय और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं। सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक जीव मोहनीयकर्म के उदय वाले होते हैं और उपशान्तमोहादिविशिष्ट जीव अनुदय वाले होते हैं। वेदकत्व और उदय, इन दोनों में अन्तर यह है कि अनुक्रम से और उदीरणाकरणी के द्वारा उदय में आए हुए (फलोन्मुख) कर्म का अनुभव करना वेदकत्व है और केवल अनुक्रम से उदय में आए हुए कर्म का अनुभव करना उदय है / अकषाय अर्थात् क्षीणमोहगुणस्थान तक सभी संजीपंचेन्द्रिय नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं और शेष छह कर्मप्रकृतियों के यथासम्भव उदीरक और अनुदीरक होते हैं। उदीरणा का क्रम इस प्रकार है-छठे प्रमत्त गुणस्थान तक सामान्य रूप से सभी जीव आठों कर्मों के उदीरक होते हैं। जब आयुष्य प्रावलिका मात्र शेष रह जाता है, तब वे प्रायु के अतिरिक्त सात कर्मों के उदीरक होते हैं / अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानवर्ती जीव वेदनीय और प्राय के अतिरिक्त छह कर्मों के उदीरक होते हैं। जब सूक्ष्मसम्पराय आवलिकामात्र शेष रह जाता है तब मोहनीय, वेदनीय और आयु के अतिरिक्त पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। उपशान्तमोहगूणस्थानवी जीव इन्हीं पांच कर्मों के उदीरक होते हैं। क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव का काल आवलिकामात्र शेष रहता है, तब वे नामकर्म और गोत्रकर्म के उदीरक होते हैं। सयोगीगुणस्थानवर्ती जीव भी इसी प्रकार उदीरक होते हैं और अयोगीगुणस्थानवी जीव अनुदीरक होते हैं। कृतय गम-कृतयुग्मराशि वाले संजीपंचेन्द्रिय जीवों का अवस्थितिकाल जघन्य एक समय का है, क्योंकि एक समय के बाद संख्यान्तर होना संभव है और उत्कृष्ट सातिरेक-सागरोपम-शत-पृथक्त्व है, क्योंकि इसके बाद संजीपंचेन्द्रिय नहीं होते। संज्ञीपंचेन्द्रियों में पहले के छह समुद्घात होते हैं / सातवां केवलीसमुद्घात तो केवलज्ञानियों में होता है और वे अनिन्द्रिय होते हैं।' चालीसा शतक : प्रथम प्रवान्तरशतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 970 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3767-3768 Page #2925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइए सन्निपंचेंदियमहाजुम्मसए : पढमाइएक्कारसपज्जंता उद्देसगा द्वितीय संजीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : पहले से ग्यारहवे उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्याविशिष्ट संज्ञीपंचेन्द्रियों के उपपातादि की प्ररूपरणा 1. कण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेदिया णं भंते ! कत्रो उववज्जंति ? तहेव जहा पढमुद्देसनो सन्नीणं, नवरं बंधो, वेनो, उदई, उदोरणा, लेस्सा, बंधगा, सण्णा, कसाय, वेदबंधगा य एयाणि जहा बंदियाणं काहलेस्साणं। वेदो तिविहो, प्रवेयगा नथि / संचिढणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमम्भहियाइं / एवं ठिती वि, नवरं ठितीए 'अंतोमुत्तमम्भहियाई' न भण्णंति / सेसं जहा एएसि चेव पढमे उद्देसए जाव अणंतखुत्तो। एवं सोलससु वि जुम्मेसु। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 40.2 // 1 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! संजी के प्रथम उद्देशक के अनुसार इनकी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विशेष यह है कि बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेदबंधक, इन सभी का कथन द्वीन्द्रियजीव-सम्बन्धी कथन के समान है। कृष्णलेश्यी संज्ञी के तीनों वेद होते हैं, वे अवेदी नहीं होते / उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तम हर्त अधिक तेतीस सागरोपम की होती है और उनकी स्थिति भी इसी प्रकार होती है। स्थिति में अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए। शेष प्रथम उद्देशक के अनुसार यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। इसी प्रकार सोलह युग्मों का कथन समझ लेना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 2 / 1 2. पढमसमयकाहलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसग्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? 0 जहा सन्निपंचेंदियपढमसमयुद्देसए तहेव निरवसेसं। नवरं ते गं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ? हंता, कण्हलेस्सा / सेसं तं चेव / एवं सोलससु वि जुम्मेसु / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥४०२॥२॥ 2 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न कृष्णलेश्यायुक्त कृतयुग्म-कृतयुग्म राशि वाले संज्ञीपंचे. न्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! इनकी वक्तव्यता प्रथमसमयोत्पन्न संज्ञीपंचेन्द्रियों के उद्देशक के अनुसार जाननी चाहिए / विशेष यह है कि-- [प्र.] भगवन् ! क्या वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [उ.] हाँ, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं / शेष पूर्ववत् / Page #2926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 728] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इसी प्रकार सोलह ही युग्मों में कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 3. एवं एए वि एक्कारस उद्देसगा कण्हलेस्ससए / पढम-ततिय-पंचमा सरिसगमा / सेसा अट्ठ वि सरिसगमा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 2 // 3-11 // // चत्तालीसइमे सए : बितियं सयं समत्तं / / 40-2 // [3] इस प्रकार इस कृष्णले श्याशतक में ग्यारह उद्देशक हैं। प्रथम, तृतीय और पंचम, ये तीनों उद्देशक एक समान हैं / शेष पाठ उद्देशक एक समान हैं / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 4012 // 3-11 // विवेचन स्पष्टीकरण- यहाँ कृष्णलेश्यीकृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञीपंचेन्द्रिय सातवीं नरकपृथ्वी के नैरयिक की उत्कृष्ट स्थिति और पूर्वभव के अन्तिम परिणाम की अपेक्षा अन्तर्मुहर्त मिलाकर अन्तमहत अधिक तेतीस सागरोपम होता है / ' // चालीसवां शतक : द्वितीय अवान्तरशतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 970 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3770 Page #2927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइए सन्निपंचिंदियमहाजुम्मसए : एक्का रस उद्देसगा तृतीय संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक नीललेश्यी संजीपंचेन्द्रिय की वक्तव्यता 1. एवं नीललेस्सेतु वि सयं / नवरं संचिट्ठणा जहन्नेणं एक्के समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागममहियाई; एवं ठिती वि। एवं तिसु उद्देसएसु / सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 40 / 3 / 1-11 // चित्तालीसडमे सते ततियं सयं समत्तं / / 40-3 // |1] नोललेश्या वाले संज्ञी की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। विशेष यह है कि इसका संचिटुणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए / इसी प्रकार पहले, तीसरे, पांचवें इन तीन उद्देशकों के विषय में जानना चाहिए / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-नीललेश्याविशिष्ट संज्ञी. पं. की आयु.-पांचवीं नरकपृथ्वी के ऊपर के प्रतर में पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का उत्कृष्ट अायुष्य है और वहाँ तक नीललेश्या है। यहाँ पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त का पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही समाविष्ट कर दिया है, इस कारण उस अन्तमहत का कथन नहीं किया गया है।' // चालीसवां शतक : तृतीय अवान्तरशतक सम्पूर्ण // 1. (क) भगवती अ. वत्ति, पत्र 975 (ख) भगवनी. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3771 [729 Page #2928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरत्थे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा चतुर्थ संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक कापोतलेश्यी संजीपंचेन्द्रिय को वक्तव्यता 1. एवं काउलेस्ससयं पि, नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिन्नि सागरोवमाई पलियोवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई; एवं ठिती वि / एवं तिसु वि उद्देसएसु / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 4 // 1-11 // // चत्तालीसइमें सते चउत्थं सयं // 40-4 // {2} इसी प्रकार कापोतलेश्याशतक के विपय में समझना चाहिए। विशेष-संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम है। स्थिति भी इसी प्रकार है तथा इसी प्रकार तीनों उद्देशक जानना / शेष पूर्ववत् / - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-तृतीय नरक पृथ्वी के ऊपरी प्रतर में रहने वाले नारक की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम की है और वहीं तक कापोतलेश्या है / इसलिए पूर्वोक्त स्थिति ही युक्तियुक्त है। / चालीसवां शतक : चतुर्थ अवान्तरशतक सम्पूर्ण / / Page #2929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा पंचम संजीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक तेजोलेश्यो संज्ञोपंचेन्द्रिय को वक्तव्यता 1. एवं तेउलेस्सेसु वि सयं / नवरं संचिट्टणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई पलियोवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई; एवं ठिती वि, नवरं नोसण्णोवउत्ता वा। एवं तिसु वि गम(? उद्देस) एसु / सेस तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०॥४०॥५॥१-११॥ ॥चत्तालीसइमे सते पंचमं सयं / / 40-5 // [1] तेजोलेश्याविशिष्ट (सं. पं.) का शतक भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम है / स्थिति भी इसी प्रकार है। किन्तु यहाँ नोसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार तीनों उद्देशकों के विषय में समझना चाहिए / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन --यहाँ तेजोलेश्या विशिष्ट जीवों की जो उत्कृष्ट स्थिति कही है, वह ईशान देवलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा है। // चालीसवां शतक :पंचम अवान्तरशतक सम्पूर्ण / / Page #2930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे सन्निपंचिदियमहाजम्मसए : एक्कारस उद्देसगा छठा संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक पद्मलेश्यो संज्ञोपंचेन्द्रिय की वक्तव्यता 1. जहा तेउलेसासयं तहा पम्हलेसासयं पि / नवरं संचिट्ठणा जहानेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुत्तमदहियाई; एवं टिती वि, नवरं अंतोमुहत्तं न भष्णइ / सेसं तं चेव / एवं एएसु पंचसु सएसु जहा कण्हलेसासए गमो तहा नेयव्यो जाव अणंतखुतो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / / 40 / 6 / 1-11 // // चत्तालीसइमे सते छठं सयं समत्तं // 40-6 / / [1] तेजोले श्याशतक के समान पद्मलेश्याशतक है। विशय----संचिट्ठणाकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्त महतं अधिक दस सागरोपम है। स्थिति भी इतनी ही है, किन्तु इसमें अन्तर्मुहूर्त अधिक नहीं कहना चाहिए / शेष पूर्ववत् / इस प्रकार इन पांचों शतकों में कृष्णले श्याशतक के समान गमक यावन् पहले अनन्त बार उत्पन्न हो चुके हैं, यहाँ तक जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन--पद्मलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मलोक के देवों की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त-सहित दस सागरोपम कही है। // चालीसवां शतक : छठा अवान्तरशतक सम्पूर्ण // Page #2931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमे सन्निपंचिदियमहाजम्मसए : एक्कारस उद्देसगा सप्तम संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुम्मशतक : ग्यारह उद्देशक 1. सुक्कलेस्ससयं जहा ओहिय सयं, नवरं संचिटणा ठिती य जहा कण्हलेस्ससते / सेसं तहेव जाव अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति० // 401711-11 // // चत्तालीसइमे सए : सत्तमं सयं समत्तं // 40-7 // . [श शुक्ललेश्याशतक भी पौधिक शतक के समान है। इनका संचिटणाकाल और स्थिति कृष्णलेश्याशतक के समान है। शेष पूर्ववत्, यावत् पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-शुक्ललेश्यी की स्थिति पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहर्त-सहित अनुत्तरदेवों की उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति की अपेक्षा समझनी चाहिए। // चालीसवां शतक : सातवाँ अवान्तरशतक सम्पूर्ण // Page #2932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा अष्टम संज्ञीपंचेन्द्रिय महायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक भवसिद्धिक संज्ञीपंचेन्द्रिय महायुग्मशतकवक्तव्यता-निर्देश 1. भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कओ उवधज्जति ? 0 जहा पढम सन्निसयं तहा नेयब्धं भवसिद्धियाभिलावेणं, नवरं 'सव्वपाणाo? णो तिणठे समठे।' सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति०। 40 / 8 / 1-11 // ॥चतालीसइमे सए : अट्टमं सयं / / 40-8 // [1 प्र.] भगवन् ! कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त भवसिद्धि कसंज्ञोपचेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! प्रथम संजीशतक के अनुसार भवसिद्धिक के पालापक से यह शतक जानना चाहिए। विशेष में--- [प्र.] भगवन् ! क्या सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व यहाँ पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शेष पूर्ववत् जानना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' इत्यादि पूर्ववत् / // चालीसवां शतक : अष्टम अवान्तरशतक सम्पूर्ण / Page #2933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाइचोद्दसमपज्जता सया : पत्तेयं एक्कारस उद्देसगा नौवें से चौदहवें शतक पर्यन्त : प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक 1. कण्हलेस्सभवसिद्धियक उजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! को उवबज्जति ? . एवं एएणं अभिलावेणं जहा प्रोहियकण्हलेस्ससयं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 406 / 1-11 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी-भव सिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म राशियुक्त संज्ञीपचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि समग्र प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी औधिकशतक के अनुसार इसी अभिलाप से यह शतक कहना / 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 2. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि सतं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! 0 // 40 / 10 / 1-11 // [2] नील लेश्यीभवसिद्धिकशतक भी इसी प्रकार जानना। 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 3. एवं जहा प्रोहियाणि सन्निपंचेंदियाणं सत्त सथाणि भणियाणि एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायवाणि, नवरं सत्तसु वि सएसु 'सध्वपाणा जाव णो इणठे समठे। सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते !0 / // भवसिद्धियसया समत्ता // 40-8-14 // // चत्तालीसइमे सते चोद्दसमं सयं समत्तं // 40-14 // [3] संजीपंचेन्द्रिय जीवों के सात औधिकशतक कहे हैं, उसी प्रकार भवसिद्धिक सम्बन्धी सातों शतक कहने चाहिए / विशेष यह है-- [प्र.] सातों शतकों में क्या इससे पूर्व सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्व उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन--प्रस्तुत में कृष्णले श्यी भवसिद्धिक आदि नौवें से चौदहवें शतक तक का औधिक अतिदेश पूर्वक कथन किया गया है / // चालीसवां शतक : नौवें से चौदहवें अवान्तरशतक तक सम्पूर्ण / / Page #2934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नरसमे सन्निपंचिदियमहाजुम्मसए : एक्कारस उद्देसगा पन्द्रहवाँ संज्ञीपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक 1. अभवसिद्धियकडजुम्मकड जुम्मसन्निपंचेंदिया ण भंते ! कसो उववज्जति ? 0 उववातो तहेव अणुत्तरविमाणवज्जो / परिमाणं, अवहारो, उच्चत्तं, बंधो, वेदो, वेयणं, उदयो, उदोरणा, य जहा कण्हलेससते / कण्हलेस्सा वा जाव सुक्कलेस्सा वा / नो सम्मट्टिी, मिच्छद्दिवी नो सम्मामिच्छादिट्ठी। नो नाणो, अन्नाणो / एवं जहा काहलेस्ससए, नवरं नो विरया, अविरया, नो विरयाविरया / संचिटणा, ठिती य जहा मोहिउद्देसए। समुग्धाया आइल्लगा पंच / उबट्टणा तहेव अणुत्तरविमाणवज्जं / 'सव्वपाणा० ? णो इणठे सम8 / ' सेसं जहा कण्हलेस्ससए जाव अणंतखुत्तो। [5 प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धि क-कृत युग्म-कृतयुग्म राशि-संज्ञीपचेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! अनुत्तरविमानों को छोड़ कर शेप सभी स्थानों में पूर्ववत् उपपात जानना चाहिए। इनका परिमाण, अपहार, ऊँचाई, बन्ध, वेद, वेदन, उदय और उदीरणा कृष्णलेश्याशतक के समान है। वे कृष्णलेश्यी से लेकर यावत् शुक्ल ले दयी होते हैं। वे सम्यग्दष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते केवल मिथ्यादष्टि होते हैं / बे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं। इसी प्रकार सब कृष्ण लेश्याशतक के समान है। विशेष यह है कि वे विरत और विरताविरत नहीं होते, मात्र अविरत होते हैं। इनका संचिट्ठणाकाल और स्थिति औधिक उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए। इनमें प्रथम के पांच समुद्धात पाये जाते हैं। उद्वर्तना अनुत्त रविमानों को छोड़कर पूर्ववत् जानना चाहिए / तथा [प्र.] क्या सभी प्राण यावत् सत्त्व पहले इनमें उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं। शेष कृष्णलेश्याशतक के समान यावत् पहले अनन्त वार उत्पन्न हुए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / 2. एवं सोलससु वि जुम्मेसु / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 15 // 1 // [2] इसी प्रकार सोलह ही युग्मों के विषय में जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 40 / 15 // 1 // 3. पढमसमयप्रभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपं दिया ण भंते ! को उबवज्जंति ?0 जहा सन्नीणं पढमसमयुद्देसए तहेव, नवरं सम्मत्तं, सम्मामिच्छत्तं, नाणं च सव्वत्थ नस्थि / सेसं तहेव / Page #2935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालीसवां शतक : उद्देशक 1] [737 सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 1 // 2 // [3 प्र.] भगवन् ! प्रथमसमयोत्पन्न अभवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / / [3 उ.] गौतम ! प्रथमसमय के संजी-उद्देशक के अनुसार सर्वत्र जानना चाहिए, विशेष में-सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और ज्ञान सर्वत्र नहीं होता। शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 15 / 2 / / 4. एवं एस्थ वि एक्कारस उद्देसगा कायब्वा, पदम-ततिय-पंचमा एक्कगमा / सेसा अट्ठ वि एक्कगमा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 1 // 3-11 // ॥चत्तालीसइमे सते : पन्नरसमं सयं समत्तं // 40-15 // [4] इस प्रकार इस शतक में भी ग्यारह उद्देशक होते हैं। इनमें से प्रथम, तृतीय एवं पंचम, ये तीनों उद्देशक समान पाठ वाले हैं तथा शेष आठ उद्देशक भी एक समान हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् / / 40 / 15 / 3-11 // // चालीसवां शतक : पन्द्रहवाँ अवान्तरशतक समाप्त / Page #2936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमे सन्निपंचिदियमहाजम्मसए : एक्कारस उद्देसगा सोलहवां संज्ञोपंचेन्द्रियमहायुग्मशतक : ग्यारह उद्देशक 1. कण्हलेस्सप्रभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचेंदिया णं भंते ! कतो उपवजंति ?. जहा एएसि चेव प्रोहियसतं तहा कण्हलेस्ससयं पि, नवरं 'ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा? इंता, काहलेस्सा।' ठिती, संचिट्ठणा य जहा कण्हलेस्ससए / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 40 // 16 // 1-11 // // चत्तालीस इमे सते: सोलसमं सतं समत्तं // 40-16 // [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी-अभवसिद्धिक-कृतयुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! जिस प्रकार इनका औधिक शतक है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या-शतक जानना चाहिए / विशेष--- [प्र.] भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले हैं ? [उ.] 'हां, गौतम ! वे कृष्णलेश्या वाले हैं।' इनकी स्थिति और संचिट्ठणाकाल कृष्णलेश्याशतक में उक्त कथन के समान है। शेष पूर्ववत् है। 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यात् विचरते हैं / / 40 / 16 / 1-11 // // चालीसवाँ शतक : सोलहवाँ अवान्तरशतक समाप्त / Page #2937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमाइएक्कवीसइमपज्जताई सयाई : पत्तयं एक्कारस उद्देसगा सत्रहवें से इक्कीसवें शतक पर्यन्त : प्रत्येक के ग्यारह उद्देशक 1. एवं छहि वि लेसाहि छ सया कायन्वा जहा कण्हलेस्ससयं, नवरं संचिटणा, ठिती य जहेव प्रोहिएसु तहेव भागियवा; नवरं सुक्कलेसाए उक्कोसेणं एकत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तमम्भहियाई; ठिती एवं चेव, नवरं अंतोमुत्तो नत्थि, जहन्नगं तहेव; सम्वत्थ सम्मत्तं नाणाणि नस्थि / विरती, विरयाविरई, अणुत्तरविमाणोववत्ती, एयाणि नथि। सव्वपाणा ? णो इणठे समठे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। [1] जिस प्रकार कृष्णलेश्या-सम्बन्धी शतक कहा, उसी प्रकार छहों लेश्या-सम्बन्धी छह शतक कहने चाहिए। विशेष—संचिगुणाकाल और स्थिति का कथन औधिक शतक के समान है, किन्तु शुक्ललेश्यी का उत्कृष्ट संचिढणाकाल अन्तर्मुहुर्त अधिक इकतीस सागरोपम होता है और स्थिति भी पूर्वोक्त ही होती है, किन्तु उत्कृष्ट और अन्तर्महर्स अधिक नहीं कहना चाहिए। इनमें सर्वत्र सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होता तथा इनमें विरति, विरताविरति तथा अनुसरविमानोत्पसि नहीं होती। इसके पश्चात् [प्र.] भगवन् ! सभी प्राण यावत् सत्त्व यहाँ पहले उत्पन्न हुए हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' इत्यादि पूर्ववत् / 2. एवं एताणि सत्त (40-15-21) अभवसिद्धीयमहाजुम्मसयाणि भवति / सेवं भंते ! सेवं भंते! ति० // 40 // 17-21 // [2] इस प्रकार ये सात अभवसिद्धिकमहायुग्म (40 / 15-21) शतक होते हैं / / 40 / 17-21 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। 3. एवं एयाणि एक्कवीसं सन्निमहाजुम्मसयाणि / [3] इस प्रकार ये इक्कीस (अवान्तर) महायुग्मशतक संशिपचेन्द्रिय के हुए। 4. सम्वाणि वि एक्कासीति महाजुम्मसताणि / // अवांतर महाजुम्मसता समत्ता // // चत्तालीसतिम सयं समत्तं // 40 // Page #2938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [4] सभी मिला करं महायुग्म-सम्बन्धी 81 शतक सम्पूर्ण हुए। विवेचन-शुक्ललेश्यी अभव्य की स्थिति-अभव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय की शुक्लले श्या की स्थिति अन्तमुहर्त-अधिक इकतीस सागरोपम की कही है, वह पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहर्त्त-सहित नौवें अवेयक की 31 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा जाननी चाहिए, क्योंकि अभव्य जीव उत्कृष्ट नौवें अवेयक तक जाता है तथा वहाँ शुक्ललेश्या होती है। 21 महायुग्मशतक-पैतीसवें से उनचालीसवें शतक तक प्रत्येक के 12-12 अवान्तर शतक हैं तथा इस चालीसवें शतक के कुल 21 अवान्तरशतक हैं, इस प्रकार कुल शतक 60+21 81 हुए / // चालीसवाँ शतक : अवान्तरमहायुग्मशतक समाप्त / / // चालीसवां शतक सम्पूर्ण / Page #2939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचत्तालीसइमं सयं-रासीजुम्मसयं इकतालीसवां शतक : राशियुग्मशतक * भगवतीसूत्र का यह इकतालीसवां शतक है / इसका नाम राशियुग्मशतक है / युग्म का अर्थ यहाँ युगल है, अर्थात् युगलरूपराशि / इसके भी पूर्ववत् कृतयुग्मादि चार भेद कहे हैं / इस शतक में राशियग्म-कृतयुग्मादि-विशिष्ट, कृष्णादि षटलेश्या-विशिष्ट तथा कृष्णादि लेश्यायुक्त भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, कृष्णपाक्षिक-शुक्लपाक्षिक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से विचार किया गया है / जैनदर्शन अथवा तीर्थंकरोपदिष्ट सिद्धान्त का चरम लक्ष्य मनुष्य को, विशेषतः साधक को जन्ममरण से तथा सर्वदुःखों से सदा के लिए मुक्ति पाने की प्रेरणा रही है। इसी दृष्टिकोण से शास्त्रकार ने इस शतक का प्रतिपादन किया है। जब तक व्यक्ति जन्म-मरण से मुक्त नहीं होता, तब तक वह अनेकानेक दुःखों, संकटों, चिन्ताओं, भय-आशंका, संज्ञा, कषाय, अज्ञान, मिथ्यादृष्टित्व आदि अनेक विकारों से घिरा रहता है। उसे प्राय: यह भाव ही नहीं रहता कि मैं कहाँ से आया हूँ, कैसे और क्यों यहाँ आया हूँ, यहाँ से मर कर कहाँ जाऊँगा? ये और ऐसे प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में उद्भूत ही नहीं होते हैं। कई मत या दर्शन उसे बहका भी देते हैं कि मनुष्य मर कर दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता, वह मनुष्य ही बनता है / अथवा यहाँ शरीर भस्म होने के बाद कहीं जाना-माना नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है, अथवा मनुष्य कभी सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो ही नहीं सकता, वह अधिक से अधिक स्वर्ग जा सकता है, स्वर्गीय सुख ही उसके लिए अन्तिम लक्ष्य है, इत्यादि / * ये और ऐसी ही भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करने हेतु शास्त्रकार इस शतक में निम्नोक्त प्रश्न उठा कर यथोचित समाधान करते हैं-(१) ये जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, (2) एक समय में कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ?, (3) सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?, (4) किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ?, (5) वे प्रात्म-यश से उत्पन्न होते हैं या आत्म-अयश से ?, (6) वे अपना जीवन निर्वाह प्रात्म-यश से करते हैं या आत्म-अयश से ?, (7) आत्म-यश से या आत्म-अयश से जीवन निर्वाह करने वाले सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी ?, (8) वे क्रियायुक्त होते हैं या क्रियारहित ? और (9) वे एक भव करके जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं अथवा मुक्त नहीं हो पाते? इन प्रश्नों का समाधान ही जन्म-मरण से मुक्ति पाने की ओर अंगुलिनिर्देश करता है / * कुल मिला कर 196 उद्देशकों में विविध पहलुओं से प्रात्मलक्षी चर्चा है / Page #2940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचत्तालीसइमं सयं : रासीजम्मसयं ___इकतालीसवां शतक : राशियुग्मशतक पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक राशियुग्म : भेद और स्वरूप 1. [1] कति णं भंते ! रासीजुम्मा पन्नत्ता ? गोयमा ! चत्तारि रासीजुम्मा पन्नत्ता, तंजहा-कडजुम्मे जाव कलियोगे / [1-1 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म कितने कहे गए हैं ? [1-1 उ.] गौतम ! राशियुग्म चार कहे हैं, यथा-कृतयुग्म, व्योज, द्वापरयुग्म और कल्योज। [2] से केणोणं भंते ! एवं वुच्चइ-चत्तारि रासीजुम्मा पन्नत्ता, तंजहा जाव कलियोगे ? गोयमा जे गं रासी चउक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे चउपज्जवसिए से तं रासीजुम्मकडजम्मे, एवं जाव जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं० एगपज्जवसिए से तं रासीजम्मकलियोगे, सेतेण→णं जाव कलियोगे। [1-2 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म चार कहे हैं, यथा—कृतयुग्म यावत् कल्योज, ऐसा किस कारण से कहते हैं ? [1-2 उ.] गौतम ! जिस राशि में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में 4 शेष रहें, उस राशियुग्म को कृतयुग्म कहते है। यावत् जिस राशि में से चार-चार अपहार करते हुए अन्त में एक शेष रहे, उस राशियुग्म को 'कल्योज' कहते हैं। इसी कारण से हे गौतम ! यावत् कल्योज कहलाता है, (यह कहा गया है।) विवेचन राशियुग्म-कृतयुग्म क्या और क्यों ?. -'युग्म' शब्द युगल (दो) का पर्यायवाची भी है। प्रतः उसके साथ 'राशि' विशेषण लगाया गया है / जो राशियुग्म हो और कृतयुग्म-परिमाण हो, उसे राशियुग्म-कृतयुग्म कहते हैं / ' राशियुग्म कृतयुग्मराशि वाले चौबीस दण्डकों में उपपातादि वक्तव्यता 2. रासोजुम्मकडजुम्मनेरतिया णं भंते ! कतो उववज्जति ? उववातो जहा वक्कंतीए। {2 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-कृतयुग्मरूप नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] इनका उपपात (उत्पत्ति) प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार जानना चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 978 (ब) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 7, पृ. 3790 Page #2941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसातीसवां शतक : ज्देशक 1) [74 3. ते गं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! बत्तारि वा, अट्ठ वा, बारस वा, सोलस या, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उवयजति / [3 प्र.] भगवन् ! वे (पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट) जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! वे एक समय में चार, आठ, बारह, सोलह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 4. ते णं भंते ! जीवा कि संतरं उववज्जति, निरंतरं उववज्जति ? गोयमा! संतरं पिउववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / संतरं उवयज्जमाणा जहन्नेणं एक्कं समयं, उस्कोसेणं असंखेज्जे समये अंतरं कटु उववज्जंति; निरंतरं उववज्जमाणा जहन्नेणं दो समया, उक्कोसेणं असंखेज्जा समया अणुसमयं अविरहियं निरंतरं उववज्जति / [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? / [4 उ.] गौतम ! वे जीव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी / जो सान्तर उत्पन्न होते हैं, वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रसंख्यात समय का अन्तर करके उत्पन्न होते हैं। जो निरन्तर उत्पन्न होते हैं, वे जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक निरन्तर प्रतिसमय अविरहितरूप से उत्पन्न होते हैं / 5. [1] ते णं भंते ! जोवा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोगा, अं समयं तेयोगा तं समयं कहनुम्मा? णो इणठे समझें। [5-1 प्र.] भगवन ! वे जीव जिस समय कृतयुग्म राशिरूप होते हैं, क्या उसी समय योजराशिरूप होते हैं और जिस समय योजराशियुक्त होते हैं, उसी समय कृतयुग्मराशिरूप होते हैं ? [5-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / [2] जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणठे समठे। [5-2 प्र.] भगवन् ! जिस समय वे जीव कृतयुग्मरूप होते हैं, क्या उस समय द्वापरयुग्मरूप होते हैं तथा जिस समय वे द्वापरयुग्मरूप होते हैं, उसी समय कृतयुग्मरूप होते हैं ? {5-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [3] जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा, जं समयं कलियोगा तं समयं कडजुम्मा ? णो इणठे समझें। [5-3 प्र.] भगवन् ! जिस समय वे कृतयुग्म होते हैं, क्या उस समय कल्योज होते हैं तथा जिस समय कल्योज होते हैं, उस समय कृतयुग्मराशि होते हैं ? [5-3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / Page #2942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 744]] [व्याल्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6. ते णं भंते ! जीवा कहं उववज्जति ? गोयमा ! से जहानामए पवए पवमाणे एवं जहा उबवायसए (स० 25 उ०८ सु०२-८) जाव नो परप्पयोगेणं उववज्जति / [6 प्र.] भगवन् ! वे जीव (तथाकथित नारक) कैसे उत्पन्न होते हैं ? [6 उ.] गौतम ! जैसे कोई कूदने वाला (कूदता हुया अपने पूर्वस्थान को छोड़ कर आगे के स्थान को प्राप्त करता है, इसी प्रकार) इत्यादि उपपातशतक (श० 25, उ० 8, सू० 2-8 में उक्त उपपात-कथन) के अनुसार यावत् वे प्रात्मप्रयोग से उत्पन्न होते हैं, परप्रयोग से नहीं, यहाँ तक कहना चाहिए। 7. [1] ते णं भंते ! जीवा कि प्रायजसेणं उववज्जंति, प्रायजसेणं उक्वज्जति ? गोयमा ! नो प्रायजसेणं उववज्जति, प्रायजसेणं उववज्जति / [7-1 प्र.। भगवन ! वे जीव आत्म-यश (प्रात्म-संयम) से उत्पन्न होते हैं अथवा आत्मअयश (आत्म-असंयम) से उत्पन्न होते हैं ? [7-1 उ.] गौतम ! वे आत्म-यश से उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं। [2] जति प्रायजसेणं उववज्जति कि प्रायजसं उवजीवंति, प्रायअजसं उपजीवंति ? गोयमा ! नो आयजसं उवजीवंति, प्रायजसं उवजीवंति। [7-2 प्र.] भगवन् ! यदि वे जीव प्रात्म-अयश से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे आत्म-यश से जीवन चलाते हैं अथवा आत्म-अयश से जीवननिर्वाह करते हैं ? [7-2 उ.] गौतम ! वे आत्म-यश से जीवननिर्वाह नहीं करते, किन्तु प्रात्म-अयश से करते हैं। [3] जति आयनजसं उवजीवंति कि सलेस्सा, अलेस्सा? गोयमा ! सलेस्सा, नो प्रलेस्सा। [7-3 प्र.] भगवन् ! यदि वे आत्म-अयश से अपना जीवन चलाते हैं, तो वे सलेश्यी होते हैं अथवा अलेश्यी? [7-3 उ.] गौतम ! वे सलेश्यी होते हैं, अलेश्यी नहीं। [4] जति सलेस्सा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया। [7-4 प्र.] भगवन् ! यदि वे सलेश्यी होते हैं तो सक्रिय (क्रियासहित) होते हैं या प्रक्रिय (क्रियारहित) होते हैं ? [7-4 उ.] गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं। [5] जति सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति ? णो इणठे समठे। Page #2943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 1] [745 [7-5 प्र.] भगवन् ! यदि वे सक्रिय होते हैं तो क्या उसी भव को ग्रहण करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? [7-5 उ.] गौतम ! उनके लिए यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / 8. रासोजुम्मकडजुम्मनसुरकुमारा णं भंते ! को उववज्जति ? जहेव नेरतिया तहेव निरवसेसं / [8 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-कृतयुग्मराशिरूप असुरकुमार (आदि) कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [8 उ.] जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया है, उसी प्रकार सभी कथन करना चाहिए। ___6. एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया, नवरं वणस्सतिकाइया जाव असंखेज्जा वा अणंता वा उपवज्जति / सेसं एवं चेव / [6] यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक सारी वक्तव्यता इसी प्रकार कहनी चाहिए, विशेष--- वनस्पतिकायिक जीव यावत् असंख्यात या अनन्त उत्पन्न होते हैं, (यह कहना चाहिए / ) शेष सब पूर्वोक्त कथन के समान है। 10. [1] मणुस्सा वि एवं चेव जाव नो प्रायजसेणं उववज्जति, प्रायजसेणं उववज्जति / [10-1] मनुष्यों से सम्बन्धित कथन भी इसी प्रकार यावत् वे आत्म-यश से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु प्रात्म-अयश से उत्पन्न होते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। [2] जति प्रायजसेणं उववज्जंति कि प्रायजसं उवजीवंति, आयनजसं उबजीवंति ? गोयमा ! प्रायजसं पि उवजीवंति, प्रायजसं पि उबजीवंति / [10-2 प्र.] भगवन् ! यदि वे (मनुष्य) आत्म-अयश से उत्पन्न होते हैं तो क्या प्रात्म-यश से जीवन- निर्वाह करते हैं या यात्म-अयश से जीवन चलाते हैं? [10-2 उ.] गौतम ! अात्म-यश से भी जीवन चलाते हैं और प्रात्म-अयश से भी। [3] जति प्रायजसं उवजीयंति कि सलेस्सा, अलेस्सा? गोयमा ! सलेस्सा वि, प्रलेस्सा वि / [10-3 प्र.] भगवन् ! यदि वे प्रात्मयश से जीवन-निर्वाह करते हैं तो सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी? [10-3 उ.] गौतम ! वे सले श्यी भी होते हैं और अलेश्यी भी। [4] जति प्रलेस्सा कि सकिरिया, प्रकिरिया ? गोयमा ! नो सकिरिया, अकिरिया। [10-4 प्र.] भगवन् ! यदि वे अलेश्यी होते हैं तो सक्रिय होते हैं या अक्रिय होते हैं ? [10-4 उ.] गौतम ! वे सक्रिय नहीं होते, किन्तु अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं / Page #2944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5] जति अकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझति जाव अंतं करेंति ? हंता, सिझंति जाव अंतं करेंति / [10-5 प्र.) भगवन् ! यदि वे अक्रिय होते हैं तो क्या उसी भव को ग्रहण करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ? [10-5 उ.] हाँ, गौतम ! वे उसी भव में सिद्ध यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। [6] अदि सलेस्सा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो अकिरिया / [10-6 प्र.] भगवन् ! यदि वे (तथाकथिक मनुष्य) सलेश्यी हैं तो सक्रिय होते हैं या अक्रिय होते हैं ? [10-6 उ.] गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं। [7] अदि सकिरिया तेणेव भवग्गहणेणं सिझति जाव अंतं करेंति ? गोयमा ! प्रत्येगइया तेणेव भवगहणणं सिझति जाव अंतं करेंति, अत्यंगइया नो तेणेव भवग्गहणणं सिझंति जाव अंतं करेंति / [10-7 प्र.] भगवन् ! वे सक्रिय होते हैं तो क्या उसी भव को ग्रहण करके सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं ? [10-7 उ.] गौतम ! कितने ही (मनुष्य) इसी भव में सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त कर देते हैं और कितने ही (मानव) उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होते, यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं कर पाते। [+] अति प्रायजसं उत्रजीवंति कि सलेस्सा, अलेस्सा ? गोयमा ! सलेस्सा, नो अलेस्सा। [10-8 प्र.] भगवन् ! यदि वे प्रात्म-अयश से जीवन चलाते हैं तो वे सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी होते हैं ? [10-8 उ.] गौतम ! वे सलेश्यी होते हैं, अलेश्यी नहीं। [6] अदि सलेस्सा कि सकिरिया, अकिरिया ? गोयमा ! सकिरिया, नो प्रकिरिया / [10-9 प्र.] भगवन् ! यदि वे सलेश्यी होते हैं तो सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय होते हैं ? [10-9 उ.] गौतम ! वे सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं। [10] जदि सकिरिया तेणेव भवागहणणं सिझति जाव अंतं करेंति ? नो इणढे समठे। [10-10 प्र.] भगवन् ! यदि वे सक्रिय होते हैं तो क्या उसी भव को ग्रहण करके सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त कर देते हैं ? {10-10 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / Page #2945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 1] [747 11. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। / एगचत्तालीसइमे सए : रासीजुम्मसते पढमो उद्देसश्रो // 41-1 // [11] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-सम्बन्धी (पूर्वोक्त) कथन नैरयिक-सम्बन्धी कथन के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--विविध पहलुओं से जीवों की उत्पत्ति-सम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत 10 सूत्रों (सू. 2 से 11 तक) में राशियुग्म कृतयुग्मरूप जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निम्नोक्त पहलुओं से विचार किया गया है-(१) ये जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? (2) कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं ? (3) सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर? (4) किस प्रकार से उत्पन्न होते हैं ? (5) प्रात्म-यश से उत्पन्न होते हैं अथवा आत्म-अयश से ? (6) आत्म-यश से जीवन चलाते हैं या आत्म-अयश से? (7) आत्म-यश या आत्म-अयश से जीवन चलाने वाले सलेश्यी होते हैं या अलेश्यी? () सक्रिय होते हैं या प्रक्रिय? (8) एक भव करके जन्म-मरण का अन्त कर देते हैं अथवा नहीं कर पाते ? आत्म-यश तथा आत्म-अयश का भावार्थ-यश का हेतु संयम है। इसलिए यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके 'संयम' के अर्थ में 'यश' शब्द का प्रयोग किया गया है / अतः 'यश' का अर्थ यहाँ संयम है और अयश का अर्थ है-असंयम / सभी जीवों की उत्पत्ति प्रात्म-अयश से अर्थात् आत्म-प्रसंयम से होती है, क्योंकि उत्पत्ति में सभी जीव अबिरत (असंयमी) होते हैं / 2 // इकतालीसा शतक : राशियुग्मशतक में प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण-युक्त) भा. 3, पृ. 1174 2. भगवती, प्र. वृत्ति, पत्र 978-979 Page #2946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक राशियुग्म-योजराशिवाले चौबीस दण्डकों में उपपातादि-वक्तव्यता 1. रासीजुम्मतयोयनेरयिया णं भंते ! को उववज्जति ? एवं चेव उद्देसनो भाणियम्वो, नवरं परिमाणं तिन्नि बा, सत्त बा, एक्कारस वा, पन्नरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जंति / संतरं तहेव / [1 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-ज्योजराशि-परिमित नै रयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पूर्ववत् इस उद्देशक का कथन करना चाहिए। इनका परिमाण--ये तीन, सात, ग्यारह, पन्द्रह, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / सान्तर पूर्ववत् / 2. [1] ते णं भंते ! जीवा जं समयं तेयोया तं समयं कडजुम्मा जं समयं कडजुम्मा तं समयं तेयोया? णो इणठे समठे। [2-1 प्र.] भगवन् ! वे जीव जिस समय ज्योजराशि होते हैं, क्या उस समय कृतयुग्मराशि होते हैं, तथा जिस समय कृतयुग्मराशि होते हैं, क्या उस समय त्र्योजराशि होते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] जं समयं तेयोया तं समयं दावरजुम्मा, जं समयं दावरजुम्मा तं समयं तेयोया ? णो इणढ़े समठे। [2-2 प्र.] भगवन् ! जिस समय वे जीव त्र्योजराशि होते हैं, क्या उस समय द्वापरयुग्मराशि होते हैं तथा जिस समय वे द्वापरयुग्मराशि होते हैं, क्या उस समय वे ज्योजराशि होते हैं ? [2-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [3] एवं कलियोगेण वि समं / [2-3] कल्योजराशि के साथ कृतयुग्मादिराशि-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। 3. सेसं तं चेव जाव वेमाणिया, नवरं उववातो सव्वेसि जहा वक्कंतीए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // इकचत्तालीसइमे सए : विइग्रो उद्देसनो समस्तो / / 41 / 1 / 2 // [3] शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् वैमानिक दण्डक-पर्यन्त जानना चाहिए किन्तु सभी का उपपात प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्कान्तिपद के अनुसार समझना चाहिए। Page #2947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 2] [749 ____ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-राशियुग्म-योजराशिविशिष्ट जीवों की उत्पत्ति आदि सम्बन्धी प्रस्तुत 3 सूत्रों में राशियुग्म-योजराशियुक्त जीवों के उपपात आदि के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं से पूर्व उद्देशक के अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। // इकतालीसवां शतक : द्वितीय उद्देशक समाप्त // Page #2948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसओ : तृतीय उद्देशक राशियुग्म-द्वापरयुग्मराशिवाले चौबीस दण्डकों में उपपातादि-प्ररूपणा 1. रासीजुम्मदावरजुम्मनेरतिया णं भंते ! कसो उववज्जति ? / एवं चेव उद्देसओ, नवरं परिमाणं दो वा, छ वा, दस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति / / [1 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-द्वापरयुग्मराशि वाले नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यह उद्देशक भी पूर्ववत् जानना चाहिए, किन्तु इनका परिमाण-ये दो, छह, दस, संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / (संवेध भी जानना चाहिए।) 2. [1] ते णं भंते ! जीवा जं समयं दावरजुम्मा तं समयं कडजुम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं दावरजुम्मा? णो इणठे समझें। [2-1 प्र.] भगवन् ! वे जीव जिस समय द्वापरयुग्म होते हैं. क्या उस समय कृतयुग्म होते हैं, अथवा जिस समय कृतयुग्म होते हैं, क्या उस समय द्वापरयुग्म होते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] एवं तयोएण वि समं / [2-2] इसी प्रकार योजराशि के साथ भी कृतयुग्मादि सम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए / ) [3] एवं कलियोगेण वि समं। [2-3] कल्योजराशि के साथ भी कृतयुग्मादि-सम्बन्धी वक्तव्यता इसी प्रकार है। 3. सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / ॥इकचत्तालीसइमे सए : तइनो उद्देसो समत्तो॥ 41-3 // [3] शेष सब कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार, यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरने लगे। विवेचन राशियुग्म-द्वापरयुग्मराशि वाले जीवों की उत्पत्ति-सम्बन्धी प्रस्तुत तीन सूत्रों में राशियुग्म-द्वापरयुग्मराशि वाले नरथिकादि के उपपात, परिमाण आदि की वक्तव्यता कही गई है। // इकतालीसा शतक : तीसरा उद्देशक समाप्त / / 1. अधिक पाठ-यहाँ 'संवेहो' अधिक पाठ है। Page #2949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसओ : चतुर्थ उद्देशक राशियुग्म-कल्योजराशिरूप चौबीस दण्डकों में उपपातादि प्ररूपणा 1. रासीजुम्मकलियोगनेरयिया गं भंते ! कओ उववज्जत्ति ? एवं चेव, नवरं परिमाणं एक्को वा, पंच वा, नव वा, तेरस वा, संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा० / [1 प्र.] भगवन् ! राशियुग्म-कल्योजराशि नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! सब कथन पूर्ववत् है / विशेष इनका परिमाण-~-ये एक, पांच, नौ, तेरह संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 2. [1] ते णं भंते ! जोया जं समयं कलियोगा तं समयं कडजम्मा, जं समयं कडजुम्मा तं समयं कलियोगा? नो इणछे समठे। [2-1 प्र.] भगवन् ! वे जीव जिस समय कल्योज होते हैं, क्या उस समय कृतयुग्म होते हैं अथवा जिस समय कृतयुग्म होते हैं, क्या उस समय कल्योज होते हैं ? [2-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] एवं तेयोयेण वि समं / [2-2] इसी प्रकार ज्योज के साथ कृतयुग्मादि-सम्बन्धी कथन भी जानना चाहिए। [3] एवं दावरजुम्मेण वि समं / [2-3] द्वापरयुग्म के साथ कृतयुग्मादि-सम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 3. सेसं जहा पढमुद्देसए जाव वेमाणिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ! // इकचतालोसइमे सए : चउत्थो उद्देसनो समत्तो॥ [3] शेष सब प्रथम उद्देशक के समान यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-राशियुग्म-कल्योजराशिरूप जीवों की उत्पत्ति प्रादि का कथन प्रस्तुत 3 सूत्रों में राशियुग्म एवं कल्योजरूप जीवों का उत्पत्ति-सम्बन्धी अतिदेशपूर्वक कथन किया गया है। / / इकतालीसवाँ शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / Page #2950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाइअट्ठमउद्देसगपज्जंता उद्देसगा पाँचवें से पाठवें उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यावाले राशियुग्म में कृतयुग्मादिरूप चौबीस दण्डकों में उपपातादि-प्ररूपणा 1. कण्हलेस्सरासोजुम्मकडजुम्मनेरइया गं भंते ! कतो उबवज्जति ? 0 उववातो जहा धूमप्पभाए / सेसं जहा पढमुद्देसए। [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म-कृतयुग्मराशिरूप नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] इनका उपपात धूमप्रभापृथ्वी (के नैरयिक) के समान है। शेष सब कथन प्रथम उद्देशक के अनुसार जानना चाहिए / 2. असुरकुमाराणं तहेव, एवं जाव वाणमंतराणं / [2] असुरकुमारों के विषय में भी इसी प्रकार यावत् वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए / 3. मणुस्साण वि जहेव नेरइयाणं / प्राय [? अ] जसं उवजीवति / अलेस्सा, प्रकिरिया, तेणेव भवग्गणेणं सिझंति एवं न भाणियध्वं / सेसं जहा पढमुद्देसए / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41-5 // [3] मनुष्यों के विषय में भी नरयिकों के समान कथन करना चाहिए / वे आत्म(अ)यशपूर्वक जीवन-निर्वाह करते हैं। (इनके विषय में) अलेश्यी, अक्रिय तथा उसी भव में सिद्ध होने का कथन नहीं करना चाहिए / शेष सब प्रथमोद्देशक के समान है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 41-5 / / 4. कण्हलेस्सतेयोएहि वि एवं चेव उद्देसओ। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 41-6 // [4] कृष्णलेश्या वाले राशियुग्म में त्र्योजराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है // 41-6 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 5. कण्हलेस्सदावरजुम्मे हि वि एवं चेव उद्देसनो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41-7 // [5] कृष्णलेश्या वाले द्वापरयुग्मराशि नरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है।॥४१-७॥ Page #2951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 5-8] [753 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। 6. कण्हलेस्सकलिओएहि वि एवं चेव उद्देसमो। परिमाणं संवेहो य जहा प्रोहिए उद्देसएसु। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 41-8 // // इकचत्तालोसइमे सए : पंचमाइ अट्ठम-उद्देसगपज्जंता उद्देसगा समत्ता // 41 / 5.8 // [6] कृष्णलेश्या वाले कल्योजराशि नैरयिक का उद्देशक भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना / किन्तु इनका परिमाण और संवेध प्रौधिक उद्देशक के अनुसार समझना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-प्रस्तुत पंचम उद्देशक से अष्टम उद्देशक पर्यन्त कृष्णलेश्यी राशियुग्म वाले कृतयुग्म, व्योज, द्वापरयुग्म और कल्योजराशिरूप जीवों के उपपात आदि का कथन प्रथमोद्देशक के अतिदेशपूर्वक किया गया है। // इकतालीसवां शतक : पंचम से अष्टम उद्देशक समाप्त // Page #2952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमाइअट्ठावीसइमपज्जंता उद्देसगा नौवें से अट्ठाईसवे उद्देशक पर्यन्त 1. जहा कण्हलेस्सेहिं एवं नीललेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा भाणियन्वा निरवसेसा, नवरं नेरइयाणं उववातो जहा वालुयप्पभाए / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / 41 / 9-12 // [1] कृष्णलेश्या वाले जीवों के अनुसार नीललेश्यायुक्त जीवों के भी पूर्ण चार उद्देशक कहने चाहिए / विशेष में, नैरयिकों के उपपात का कथन वालुकाप्रभा के समान जानना चाहिए / शेष सब पर्ववत् है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 419-12 / / 2. काउलेस्सेहि वि एवं चेव अत्तारि उद्देसगा कायम्या, नवरं नेरयियाणं उववातो जहा रयणप्पभाए / सेसंत चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०॥४१ / 13-16 // [2] इसी प्रकार कापोतलेश्या-सम्बन्धी भी चार उद्देशक कहने चाहिए / विशेष नैरयिकों का उपपात रत्नप्रभापृथ्वी के समान जानना चाहिए। शेष पूर्ववत् / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं', इत्यादि पूर्ववत् / / 41 / 13-16 // 3. तेउलेस्सरासीजुम्मकडजुम्मनसुरकुमारा गं भंते ! कतो उववज्जति ? एवं चेव, नवरं जेसु तेउलेस्सा अस्थि तेसु भाणियन्वं / एवं एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि उद्देसगा कायस्वा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41 / 17-20 / / [3 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाले राशियुग्म-कृतयुग्मरूप असुरकुमार कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) जानना, किन्तु जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती हो, उन्हीं के जानना / इस प्रकार ये भी कृष्ण लेश्या-सम्बन्धी चार उद्देशक कहना चाहिए। ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं / / 41 / 17-20 / / 4. एवं पम्हलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा / पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं वेमाणियाण य एतेसि पम्हलेस्सा, सेसाणं नस्थि / सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति० // 41 / 21.24 // Page #2953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 9-28] [755 [4] इसी प्रकार पद्मलेश्या के भी चार उद्देशक जानने चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और वैमानिकदेव, इनमें पद्मलेश्या होती है, शेष में नहीं होती / / 41121-24 / / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 5. जहा पम्हलेस्साए एवं सुक्कलेस्साए वि चत्तारि उद्देसगा कायवा, नवरं मणुस्साणं गमत्रो जहा प्रोहिउद्देसएसु / सेसं तं चेव / [5] पद्मलेश्या के अनुसार शुक्ल लेश्या के भी चार उद्देशक जानने चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्यों के लिए प्रोधिक उद्देशक के अनुसार पाठ जानना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् / / 6. एवं एए छसु लेस्सासु चउवीसं उद्देसगा। ओहिया चत्तारि। सव्वेए अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० // 41 / 25-28 // // इकचत्तालीसइमे सए : नवमाइअट्ठावीसइमपज्जंता उद्देसगा समता // [6] इस प्रकार इन छह लेण्यानों-सम्बन्धी चौबीस उद्देशक होते हैं तथा चार प्रौधिक उद्देशक हैं / ये सभी मिल कर अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / / 41 / 25-28 / / // इकतालीसवां शतक : नौवें से अट्ठाईसवें उद्देशक तक समाप्त / Page #2954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसइमाइछप्पन्नइमपज्जंता उद्देसगा उनतीसवें से छप्पनवे उद्देशक पर्यन्त प्रथम के अट्ठाईस उद्देशकों के अतिदेशपूर्वक भवसिद्धिकसम्बन्धी अट्ठाईस उद्देशक 1. भवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति ? जहा प्रोहिया पढमगा चत्तारि उद्देसगा तहेव निरवसेसं एए चत्तारि उद्देसगा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / 41 / 26-32 // [1 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक राशियुग्म-कृतयुग्मराशि नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पहले के चार प्रौधिक उद्देशकों के अनुसार (इनके विषय में भी) सम्पूर्ण चारों उद्देशक जानने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' इत्यादि पूर्ववत् / / 41 / 26-32 / / 2. कण्हलेसभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कत्रो उववज्जति ? जहा कण्हलेसाए चत्तारि उद्देसगा तहा इमे वि भवसिद्धियकण्हलेस्सेहि चत्तारि उद्देसगा कायया // 41 // 33-36 // {2 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक राशियुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [2 उ.] गौतम ! जिस प्रकार कृष्णलेश्या-सम्बन्धी चार उद्देशक कहे हैं, उसी प्रकार भवसिद्धिक कृष्णलेश्यी जीवों के भी चार उद्देशक कहने चाहिए // 41 // 33-36 / / 3. एवं नीललेस्सभवसिद्धिएहि वि चत्तारि // 41 // 37-40 // [3] इसी प्रकार नीललेश्यी भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक कहने चाहिए // 41 // 37-40 / / 4. एवं काउलेस्सेहि चत्तारि उद्देसगा // 41341-44 // [4] इसी प्रकार कापोतलेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक कहने चाहिए // 41 // 41-44 / / 5. तेउलेस्तेहि वि चत्तारि उद्देसगा ओहियसरिसा // 41345-48 / / [5] तेजोलेश्यायुक्त भवसिद्धिक जीवों के भी औधिक के सदृश चार उद्देशक समझने चाहिए // 41 // 45.48 / / 6. पम्हलेस्से हि वि चत्तारि उद्देसगा // 41646-52 // [6] पालेश्या वाले भवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानने चाहिए / / 41 / 46-52 / / Page #2955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 29-56] ( ও 7. सुक्कलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा प्रोहियसरिसा // 4153-56 / / [7] शुक्ललेण्या-विशिष्ट भवसिद्धिक जीवों के भी औधिक के सदृश चार उद्देशक कहने चाहिए // 41153-56 / / 8. एवं एए वि भवसिद्धिएहिं अट्ठावीसं उद्देसगा भवंति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 41 / 26-56 // // इकचत्तालीस इमे सए : एगुणतोसइमाइछप्पनइमपज्जंता उद्देसमा समत्ता॥ [8] इस प्रकार भवसिद्धिकजीव-सम्बन्धी अट्ठाईस उद्देशक होते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / विवेचन-भवसिद्धिक-सम्बन्धी अट्ठाईस उद्देशक- उद्देशक 26 से लेकर 56 तक भवसिद्धिकजीव-सम्बन्धी 28 उद्देशक इस प्रकार हैं--(१) भवसिद्धिक सामान्य के 4 उद्देशक, (2) कृष्णलेश्यादि 6 लेश्याओं से युक्त भवसिद्धिक के प्रत्येक के चार-चार उद्देशक के हिसाब से 644 = 24 उद्देशक होते हैं / इस प्रकार 4+ 24 = 28 उद्देशक होते हैं / // इकतालीसवां शतक : उनतीसवें से छप्पन उद्देशक पर्यन्त समाप्त // Page #2956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावण्णइमाइचुलसीइमपज्जंता उद्देसगा सत्तावनवे से लेकर चौरासीबें उद्देशक पर्यन्त प्रथम अट्ठाईस उद्देशकों के अनुसार अभवसिद्धिकसम्बन्धी अट्ठाईस उद्देशक-निरूपण 1. अभवसिद्धियरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ? जहा पढमो उद्देसगो, नवरं मणुस्सा नेरइया य सरिसा भाणियव्वा / सेसं तहेव / सेवं भंते ! सेवं भले ! ति० / [1 प्र.} भगवन् ! अभवसिद्धिक-राशियुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! प्रथम उद्देशक के समान इस उद्देशक का कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि मनुष्यों और नैरयिकों की वक्तव्यता समान जाननी चाहिए। शेष पूर्ववत् / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / 2. एवं चउसु वि जुम्मेसु चत्तारि उद्दे सगा / / 41157-60 // [2] इसी प्रकार चार युग्मों (कृतयुग्म से कल्योज तक) के चार उद्देशक कहने चाहिए // 41157-60 // 3. काहलेस्सप्रभवसिद्धियरासोजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जंति ? एवं चेव चत्तारि उद्देसगा // 41 / 61-64 // [3 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्यी-अभवसिद्धिक-राशियुग्म-कृतयुग्मराशिरूप नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [3 उ.] इनके भी पूर्ववत् चार उद्देशक कहने चाहिए // 41161-64 / / 4. एवं नीललेस्सअभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्दे सगा।॥ 41165-68 // [4] इसी प्रकार नीललेश्या वाले अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक जानने चाहिए // 41 // 65-68 // 5. एवं काउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा // 41 // 69-72 // [5] इसी प्रकार कापोतलेश्यायुक्त प्रभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक होते हैं // 41466-72 / / 6. एवं तेउलेस्सेहि वि चत्तारि उद्देसगा।। 41173-76 // [6] तेजोलेश्यी अभवसिद्धिक जीवों के भी इसी प्रकार चार उद्देशक कहने चाहिए / / 4173-76 // 7. पम्हलेसेहि वि चत्तारि उद्दे सगा // 4177-80 // Page #2957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतालीसवां शतक : उद्देशक 57-64] [759 [7] पद्मलेश्यी प्रभवसिद्धिक-सम्बन्धी भी चार उद्देशक होते हैं / / 4177-80 / / 8. सुक्कलेस्सप्रभवसिद्धिएहि वि चत्तारि उद्दे सगा।॥ 4181-84 / / [=] शुक्ललेश्यायुक्त अभवसिद्धिक जीवों के भी चार उद्देशक होते हैं / / 41181-84 / / 6. एवं एएसु अट्ठावीसाए (57.84 ) वि प्रभवसिद्धियउद्दसएसु मणुस्सा नेरइयगमेणं नेतवा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। ॥इकचत्तालीसइमे सए : सत्तावण्णइमाइचुलसीइमपज्जंता उद्देसगा समता / / 42157-84 / / [9] इस प्रकार इन अट्ठाईस (57 से 84 तक) अभवसिद्धिक उद्देशकों में मनुष्यों-सम्बन्धी कथन नैरपिकों के पालापक के समान जानना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतालीसौं शतक : सत्तावन से चौरासी उद्देशक पर्यन्त सम्पूर्ण / Page #2958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचासीइमाइबारसुत्तरसयतमपज्जंता उद्देसगा पचासीवें से एकसौ बारहवें उद्देशक पर्यन्त सम्यग्दृष्टिसम्बन्धी पूर्वोक्तानुसार अट्ठाईस उद्देशक 1. सम्महि द्विरासीजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कसो उववज्जति ? . एवं जहा पढमो उद्देसओ। [1 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि-राशियुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त नै रयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] प्रथम उद्देशक के समान यह उद्देशक जानना चाहिए। 2. एधं चउसु बि जुम्मेसु चत्तारि उद्देसगा भवसिद्धियसरिसा कायन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० // 41185-88 // [2] इसी प्रकार चारों युग्मों में भवसिद्धिक के समान चार उद्देशक कहने चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है', इत्यादि पूर्ववत् / / 41185-88 / / 3. कण्हलेस्ससम्मद्दिट्टिरासीजम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एए वि कण्हलेस्ससरिसा चत्तारि उद्देसगा कातवा // 41186-62 // [3 प्र.] भगवन् ! कृष्णले श्यी सम्यग्दृष्टि राशियुग्म-कृतयुग्मराशि नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [3 उ.] यहाँ भी कृष्णलेश्या-सम्बन्धी (चार उद्देशकों) के समान चार उद्देशक कहने चाहिए // 4186-62 // 4. एवं सम्मट्ठिीसु वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायन्वा // 41163-112 // सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ / // इकचत्तालीसइमे सए : पंचासीइमाइबारसुत्तरसयतमपज्जंता उद्देसगा समत्ता // 41185-112 // [4] इस प्रकार (नीललेश्यादि पंचविध) सम्यग्दृष्टि जीवों के भी भवसिद्धिक जीवों के समान (प्रत्येक लेश्या सम्बन्धी चार-चार उद्देशक होने से इनके 20 उद्देशक मिलने से कुल) अट्ठाईस उद्देशक कहने चाहिए / / 41 / 93-112 // 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--सम्यग्दृष्टि-राशियुग्म-कृतयुग्मादि नैरयिक के 28 उद्देशक-ये 28 उद्देशक इस प्रकार हैं- (1) सम्यग्दृष्टि राशियुरम में कृतयुग्म आदि चारों युग्मों के चार उद्देशक, (2) कृष्णलेश्यायुक्त सम्यग्दृष्टि-राशियुग्म-कृतयुग्मादि चारों युग्मों के चार उद्देशक तथा (3) शेष नीललेश्यादि पांच लेश्याओं से युक्त राशियुग्म-कृतयुग्मादि चतुष्टयरूप सम्यग्दृष्टि जीवों के 544 = 20 उद्देशक, यों कुल 4+4+20 = 28 उद्देशक होते हैं / // इकतालीसवां शतक : पच्चासी से एकसौ बारह उद्देशक समाप्त / / Page #2959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसुत्तरसयतमाइचत्तालीसुत्तरसयतमपज्जंता उद्देसगा एकसौ तेरह से एकसौ चालीस उद्देशक पर्यन्त मिथ्यादृष्टि को अपेक्षा अट्ठाईस उद्देशकों का निर्देश 1. मिच्छदिदिरासीजुम्मकडजम्मनेरइया णं भंते ! को उबवज्जति ? एवं एस्थ वि मिच्छादिष्टुिअभिलावेणं अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसका कायन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // इकचतालीसइमे सए : तेरसुत्तरसयतमाइचत्तालोसुत्तरसयतमपज्जता उद्देसगा समत्ता // // 41 / 113-140 // [1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादष्टि-राशियुग्म-कृतयुग्मराशियुक्त नैरयिक जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] मिथ्यादृष्टि के अभिलाप से यहाँ भी अभवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक कहने चाहिए / / 41 / 113-140 / / ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतालीसवां शतक : एकसौ तेरह से एकसौ चालीस उद्देशक पर्यन्त समाप्त // Page #2960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगचत्तालीसुत्तरसयतमाइअडसठिउत्तरसयतमपज्जता उद्देसगा एकसौ इकतालीस से एकसौ अड़सठ उद्देशक पर्यन्त कृष्णपाक्षिक की अपेक्षा पूर्ववत् अट्ठाईस उद्देशकों का निर्देश 1. कण्हपक्खियरासीजुम्मकडजम्मनेरइया णं भंते ! कसो उववज्जति ? एवं एत्थ वि अभवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा कायन्वा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / // इकचत्तालीसइमे सए : एगचत्तालीसुत्तरसयतमाइअडसटिउत्तरसयतमपज्जता उदेसगा समत्ता॥ // 415141-168 / / [1 प्र.] भगवन् ! कृष्णपाक्षिक-राशियुग्म-कृतयुग्मराशिविशिष्ट नैरयिक कहाँ से पाकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी अभवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्टाईस उद्देशक कहने चाहिए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। // इकतालीसवां शतक : एकसौ इकतालीस से एकसौ अड़सठ उद्देशक पर्यन्त सम्पूर्ण // Page #2961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणसत्तरिउत्तरसयतमाइछन्नउइउत्तरसयतमपज्जंता उद्देसगा एकसौ उनहत्तर से एकसौ छियानवै उद्देशक पर्यन्त शुक्लपाक्षिक के आश्रित पूर्ववत् अट्ठाईस उद्देशकों का निर्देश 1. सुक्कपविखयरासोजुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते ! को उववज्जति ? एवं एत्थ वि भवसिद्धियसरिसा अट्ठावीसं उद्देसगा भवति / [2 प्र.] भगवन् ! शुक्लपाक्षिक-रागियुग्म-कृतयुग्मराशि-विशिष्ट नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1 उ.] गौतम ! यहाँ भी भवसिद्धिक उद्देशकों के समान अट्ठाईस उद्देशक होते हैं / 2. एवं एए सव्वे वि छण्णउर्य उदेसगसयं भवति रासीजुम्मसतं / जाव मुक्कलेस्ससुक्कपक्खियरासीजुम्मकडजुम्मकलियोगवेमाणिया जाव-जति सकिरिया तेणेव भवगहणणं सिझति जाव अंतं करेति ? नो इणठे समठे। 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिगफ्याहिणं करेति, तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेत्ता वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि-एवमेयं भंते !, तहमयं भंते ! , अवितहमतं भते !, असंदिद्धमेयं भंते !, इच्छियमेयं भंते !, पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !, सच्चे णं एसमठे ज णं तुन्भे वदह, त्ति कटु 'अपुववयणा' खलु अरहंता भगवंतो' समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [2] इस प्रकार यह (41 वां) राशियुग्मशतक इन सबको मिला कर 166 (एक सौ छियानवै) उद्देशकों का है यावत् [प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाले शुक्लपाक्षिक राशियुग्म-कृतयुग्म-कल्योजराशिविशिष्ट वैमानिक यावत् यदि सक्रिय हैं तो क्या उस भव को ग्रहण करके सिद्ध हो जाते हैं यावत् सब दुःखों का अन्न कर देते हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, (यहाँ तक जानना चाहिए / ) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कह कर भगवान् गौतमस्वामी, श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिण (दाहिनी अोर से) प्रदक्षिणा करते हैं, यों र प्रादक्षिण-प्रदक्षिणा करके वे उन्हें वन्दन-नमस्कार करते हैं। तत्पश्चात इस प्रकार बोलते हैं-'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह अवितथ-सत्य है, 1- पाठान्तर-'अपूइवयणा,' अर्थ होता है पवित्र वचन वाले / Page #2962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स्याल्याप्रप्तिसूत्र भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भंते ! यह इच्छित (इष्ट) है, भंते ! यह प्रतीच्छित--विशेष रूप से इच्छित (स्वीकृत) है, भंते ! यह इच्छित-प्रतीच्छित है, भगवन् ! यह अर्थ सत्य है, जैसा आप कहते हैं, क्योंकि अरहन्त भगवन्त अपूर्व (अथवा पवित्र) वचन वाले होते हैं', यों कहकर वे श्रमण भगवान् महावीर को पुनः वन्दन-नमस्कार करते हैं। तत्पश्चात् तप और संयम से अपनी प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। विवेचन-अपुववयणा : भावार्थ-अरिहन्त भगवन्तों की वाणी अपूर्व होती है। - // इकतालीसवां शतक : एकसौ उनहत्तर से एकसौ छियानवे उद्देशक पर्यन्त समाप्त / / // इकतालीसवाँ राशियुग्मशतक सम्पूर्ण / / Page #2963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसंहारो : उपसंहार व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के शतक, उद्देशक और पदों का परिमाण-निरूपण 1. सध्याए भगवतीए पट्टत्तीस सयं सयाणं 138 / उद्देसगाणं 1925 // [1] सम्पूर्ण भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र के कुल 138 शतक हैं और 1925 (एक हजार नौ सौ पच्चीस) उद्देशक हैं। 2. चुलसीतिसयसहस्सा पयाण पवरवरणाण-दंसीहि / भावाभावमणंता पण्णता एत्थमंगम्मि // 1 // [2] प्रवर (सर्वश्रेष्ठ) ज्ञान और दर्शन के धारक महापुरुषों ने इस अंगसूत्र में 84 लाख पद कहे हैं तथा विधि-निषेधरूप भात्र तो अनन्त (अपरिमित) कहे हैं // 1 // अन्तिम मंगल : श्रीसंघ-जयवाद 3. तव-नियम-विणयवेलो जयति सया नाणविमलवियुलजलो। हेउसयविउलवेगो संघसमुद्दो गुणविसालो // 2 // [3] गुणों से विशाल संघरूपी समुद्र सदैव विजयी होता है, जो ज्ञानरूपी विमल और विपुल जल से परिपूर्ण है, जिसकी तप, नियम और विनयरूपी वेला है और जो सैकड़ों हेतुओं-रूप प्रबल वेग वाला है // 2 // पुस्तक लिपिकार द्वारा किया गया नमस्कार [नमो गोयमादीण गणहराणं / नमो भगवतीए विवाहपन्नत्तीए / नमो दुवालसंगस्स गणिपिडगस्स // 1 // गौतम ग्रादि गणधरों को नमस्कार हो। भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति को नमस्कार हो तथा द्वादशांग-गणिपिटक को नमस्कार हो / / 1 // ] कुमुयसुसंठियचलणा, अमलियकोरेविटसंकासा। सुयदेवया भगवती मम मतितिमिरं पणासेउ // 2 // कच्छप के समान संस्थित चरण वाली तथा अम्लान (नहीं मुर्भाई हुई) कोरंट की कली के समान, भगवती श्रुतदेवी मेरे मति-(बुद्धि के अथवा मति-अज्ञानरूपी) अन्धकार को विनष्ट करे / / 2 / / भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति को उद्देश-विधि परणसीए आदिमाणं अट्टाहं सयाणं दो दो उदेसया उद्दिसिज्जंति, गवरं चउत्थसए पढम दिवसे अट्ट, बितियदिवसे दो उद्देसगा उद्दिसिज्जति [1-8] / Page #2964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 766] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ के पाठ शतकों के दो-दो उद्देशकों का उद्देश (उपदेश या वाचना) एक-एक दिन में दिया जाता है, किन्तु चतुर्थ शतक के आठ उद्देशकों का उद्देश पहले दिन किया जाता है, जबकि दूसरे दिन दो उद्देशों का किया जाता है / (1-8) नवमायो सयाओ आरद्धं जावतियं ठाइ तावइयं उद्दिसिज्जइ, उक्कोसेणं सयं पि एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ, मज्झिमेणं दोहि दिवसेहि सयं, जहन्नेणं तिहिं दिवसेहि सतं / एवं जाय वोसइमं सतं / णवरं गोसालो एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ; जति ठियो एगेण चेव आयंबिलेणं अणुण्णब्वइ, ग्रहण ठियो आयंबिलछठेणं अणुण्णव्वति [9-20] / नौवें शतक से लेकर भागे यावत् बीसवें शतक तक जितना-जितना शिष्य की बुद्धि में स्थिर हो सके, उतना-उतना एक दिन में उपदिष्ट किया जाता है / उत्कृष्टतः एक दिन में एक शतक का भी उद्देश (बाचन) दिया जा सकता है, मध्यम दो दिन में और जघन्य तीन दिन में एक शतक का पाठ दिया जा सकता है / किन्तु ऐसा बीसवें शतक तक किया जा सकता है / विशेष यह है कि इनमें से पन्द्रहवें गोशालकशतक का एक ही दिन में वाचन करना चाहिए। यदि शेष रह जाए तो दूसरे दिन आयंबिल करके वाचन करना चाहिए। फिर भी शेष रह जाए तो तीसरे दिन प्रायम्बिल का छ? (बेला) करके वाचन करना चाहिए / [6-20] एक्कवीस-बावीस-तेवीसतिमाई सयाई एक्केक्कदिवसेणं उद्दिसिज्जति [21-23] / इक्कीसवें, बाईसवें और तेईसवें शतक का एक-एक दिन में उद्देश करना चाहिए [21-23] / चवीसतिमं चहि दिवसेहि-छ छ उद्देसगा [24] / चौबीसवें शतक के छल्-छह उद्देशकों का प्रतिदिन पाठ करके चार दिनों में पूर्ण करता चाहिए [24] / पंचवीसतिमं दोहि दिवसेहि छ छ उद्देसगा [25] / पच्चीसवें शतक के प्रतिदिन छह-छह उद्देशक बांच कर दो दिनों में पूर्ण करना चाहिए [25] / पमियाणं आदिमाई सत्त सयाई एक्केक्कदिवसेण उद्दिसिज्जति [26-32] / ' एगिदियसताई बारस एगेण दिवसेण [33] / सेढिसयाई बारस एयेगं० [34] / एगिदियमहाजुम्मसताई बारस एगेणं० [35] / एक समान पाठ वाले बन्धीशतक आदि सात (26 से ३२वें) शतक (आठ शतक--२६ से 33 तक) का पाठवाचन एक दिन में, बारह एकेन्द्रियशतकों का वाचन एक दिन में (33), बारह श्रेणीशतकों का वाचन एक दिन में (34) तथा एकेन्द्रिय के बारह महायुग्मशतकों का बाचन एक ही दिन में करना चाहिए / [35] - - ----- -- - --- - - - ------ - 1. पाठान्तर-'बंधिसयाई अद्रसपाइं एगेणं दिवमेणं... / ' Page #2965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र का उपसंहार] [767 एवं बेंदियाणं बारस [36], तेंदियाणं बारस [37], चरिदियाणं बारस [38], असन्निपंचेंदियाणं बारस [36], सनिपंचेंदियमहाजुम्मसयाई एक्कवीसं [40], एगदिवसेणं उद्दिसिज्जंति / ___ इसी प्रकार द्वीन्द्रिय के बारह (36), त्रीन्द्रिय के बारह (37), चतुरिन्द्रिय के बारह (38), असंज्ञीपंचेन्द्रिय के बारह (36) शतकों का तथा इक्कीस संजीपंचेन्द्रियमहायुग्म शतकों (40) का वाचन एक-एक दिन में करना चाहिए / रासोजुम्मसयं एगदिवसेणं उद्दिसिज्जइ / [41] / इकतालीसवें राशियुग्म शतक की वाचना भी एक दिन में दी जानी चाहिए [41] / विसियअरविद करा नासितिमिरा सुयाहिया देवी। मझ पि देउ मेहं बहविब्रहणमंसिया णिच्चं // 1 // जिसके हाथ में विकसित कमल है, जिसने अन्नानान्धकार का नाश किया है, जिसको बुध (पण्डित) और विबुधों (देवों) ने सदा नमस्कार किया है, ऐसी श्रुताधिष्ठात्री देवी मुझे भी बुद्धि (मेधा) प्रदान करे।।१।। सुयदेवयाए णमिमो जीए पसाएण सिक्खियं नाणं / अण्णं पवयणदेवी संतिकरी तं नमसामि // 2 // जिसकी कृपा से ज्ञान सीखा है, उम श्रुतदेवता को प्रणाम करता हूँ तथा शान्ति करने वाली उस प्रबचनदेवी को नमस्कार करता हूँ / / 2 / / सुयदेवया य जक्खो कुभधरो बंभसंति वेरोट्टा। विज्जा य अंतहुंडी देउ अविग्धं लिहंतस्स // 1 // // समत्ता य भगवती। // वियाह-पण्णत्तिसुत्तं समत्तं // श्रुतदेवता, कुम्भधर यक्ष, ब्रह्मगान्ति, वैरोटयादेवी, विद्या और अन्नहंडी, लेखक के लिए अविघ्न (निविघ्नता) प्रदान करे / / 3 // विवेचन-उपसंहार-गत विषय-(१) शतकादि का परिमाण-सर्वप्रथम सू. 1 और 2 में भगवतीसूत्र के शतक, उद्देशक, पद और भावों की संख्या बताई है। शतकों के प्रारम्भ में अंकित संग्रहणीगाथाओं के अनुसार तो भगवतीसूत्र के कुल उद्देशकों की संख्या 1623 ही होती है, किन्तु यहाँ इस गाथा में 1925 बताई है। 20 वे शतक के 12 उद्देशक गिने जाते हैं, किन्तु प्रस्तुत वाचना में पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय इन तीनों का एक सम्मिलित (छठा) उद्देशक ही उपलब्ध होने से दस ही उद्देशक होते हैं / इस प्रकार दो उद्देशक कम हो जाने से गणनानुसार उद्देशकों की संख्या 1623 होती है। शतकों का परिमाण इस प्रकार है-पहले से लेकर बत्तीसवें शतक तक किसी भी शतक में अवान्तर शतक नहीं है। तेतीसवें शतक से लेकर उनतालीसवें शतक तक सात शतकों में प्रत्येक में Page #2966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 768] {भ्याल्याप्रज्ञप्तिसून बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। इस प्रकार ये कल 1247 = 84 शतक हुए। चालीसवें शतक में 21 अवान्तर शतक हैं / इकतालीसवें शतक में अवान्तर-शतक नहीं है। इन सभी शतकों को मिलाने से सभी 32+84+21+1 - 138 शतक होते हैं। समग्र भगवतीसूत्र में पदों की संख्या 84 लाख बताई है। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार का मन्तव्य यह है कि पदों की गणना किस प्रकार से की गई है. इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता / पदों की यह गणना विशिष्ट-सम्प्रदाय-परम्परागम्य प्रतीत होती है। (2) संघ का जयवाद-इसके पश्चात् दुसरी गाथा (सूत्र 3) में संघ को समुद्र को उपमा देकर उसका जयवाद किया गया है / (3) लिपिकार द्वारा नमस्कारमंगल-इसके पश्चात् लिपिकार द्वारा गौतमगणरादि, भगवतीसूत्र एवं द्वादशांग गणिपिटक को नमस्कारमंगल किया गया है / (4) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को उद्देशविधि तदनन्तर व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की उद्देश-(वाचना) विधि का संक्षेप से निरूपण है / (5) श्रुतदेवी की स्तुति और प्रार्थना-फिर अन्तिम तोन गाथाओं द्वारा श्रुतदेवो (जिनवाणी) आदि देवियों को नमस्कारपूर्वक स्तुति करते हुए ग्रन्थ को निर्विघ्न ममाप्ति को उनसे प्रार्थना की गई है।' // भगवती व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पूर्ण। 1. (क) वियाहपण्णत्तिमुत्तं (मूलपाठटिप्पण) भा. 2, पृ. 11-3-25 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 979-980 (ग) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, प, 3805 Page #2967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 व्यक्तिनामानुक्रमणिका [सूचना-पहला अंक शतक का सूचक है, दूसरा उद्देशक का और तीसरा सूत्रसंख्या का। उदाहरणतः अग्गिभूति (अग्निभूति गणघर) तीसरा शतक, प्रथम उद्देशक और सूत्र संख्या 3 / जहाँ उद्देशक नहीं है, वहाँ शून्य दिया गया है। अग्गिभूति (गणधर) 3 / 1 / 3, 3 / 118, 3 / 16, 150 / 62, 1510 / 65, 1510 / 66, 1510 / 3.1110,311 / 13,3114, 311115 अग्गिवेसायण (पार्श्वस्थ भिक्षु) 151016 आणंद (गाथापति) 151031, 15 / 0 / 32 अच्छिद्द (पार्श्वस्थ भिक्षु) 15106 आणंदरक्खिय (पार्श्वनाथ भगवान् के स्थविर) अजिय (तीर्थंकर) 2017 2 / 2 / 17 अज्जचंदणा (भ. महावीर की शिष्या श्रमणी) इसिभद्दपुत्र (श्रमणोपासक) 1111217-14, 12 / 6 / 33 / 18, 6 / 33 / 16, 9 / 33 / 20 1131 अज्जुण (पार्श्वस्थ भिक्षु) 150 / 6 . इंदभूति (गौतम गणधर) 11113, 2 / 5 / 21, अज्जुण (गोशालक द्वारा कल्पित व्यक्ति विशेष) 51143, 54116, 7 / 10 / 5, 10 // 4 // 2, 15 // 1010168 0112, 18187 अणंतइ (तीर्थकर] 2017 उदय (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 अणुवालय (आजीवकोपासक) 815 / 11 उदय (अन्य यूथिक मुनि) 71012 अतिमुत्त (भगवान् महावीर के शिष्य-श्रमण) उदयण (कौशांबी का राजा) 12 / 2 / 2-5, 12 / 2 / 5.41 6, 12 / 2 / 12 अन्नवालय (अन्ययूथिक मुनि) 7 / 10 / 2 उदाइ (हाथी का नाम) 7 / 9 / 6, 7, 8 अभिनन्दण (तीर्थकर) 2017 उदाई (गोशालक का परिवर्तित-कल्पित नाम) अभीय (कुमार) (राजपुत्र) 1316114,131622, 151068 1316 / 24, 13 / 6 / 32 उदायण (वीतिभयनगर का राजा) 13.6 / 6-33, अम्मड (परिव्राजक) 11111158, 14 / 8 / 21, 16 / 5 / 16 14 / 8 / 22 उप्पला (श्रमणोपासिका) 12 / 114, 12 / 1 / 12, अयंपुवुल (आजीवकोपासक)८।५।११, 150 / 66, 12 / 1 / 15 151067, 15 / 018, 1510196, 1510 / उब्बिह (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 100, 1510 / 101, 15 / 01102, 150 / उसभ (तीर्थंकर) 2017, 2018 / 13 105, 1500 / 106, 150 / 107 ) 63312-17, 6.33182, अर (तीर्थकर) 2017 11 / 6 / 32, 12 / 27 अवविह (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 कणंद (पार्श्वस्थ भिक्षु) 152016 आणंद (भगवान् महावीर के शिष्य-स्थविर) कणियार (पार्श्वस्थ भिक्षु) 15 / 016 उसभर Page #2968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 770] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कत्तिय (श्रेष्ठी) 181213 गोसाल (आजीदक) 152015-23,28,40-65, कायरय (आजीवकोपासक 8 / 5 / 11 कालासवेसियपुत्त (पावपित्यीय निर्ग्रन्थ) 2 / 6 / 21- चित्त (श्रमणोपासक) 18 / 2 / 3,18 / 10 / 28 24, 7 / 10 / 22, 6 / 32 / 56 चेडग (राजा) 12 / 2 / 2 कालियपुत्त (पाश्र्वापत्यीय निर्ग्रन्थ स्थविर) 2 / 5 / 17 जमालि (क्षत्रियकुमार-निर्ग्रन्थ- निव) 6 / 33 / कालोदाई (अन्ययूथिक मुनि-बाद में निम्रन्थ) 22-112, 11 / 6 / 6,11111152,55,57; 7 / 10 / 2, 7, 8, 9, 7110112, 16, 18, 13 / 6 / 28 19, 21, 22, 18 / 7 / 25 जयंती (राजकुमारी-श्रमणोपासिका-श्रमणी) कासव (पार्वापत्यीय स्थविर) 2 / 5 / 16 11 / 1 / 1, 12 / 2 / 2-22 कासव (भगवान् महावीर का दूसरा नाम-गोत्र) णम्मुदय (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 15 / 068, 15 / 074 णागनत्तुय (वरुण नाम का श्रमणोपासक) ७।६।कुरुदत्तपुत्त (भ. महावीर का शिष्य) 3 / 1120, 20-23 णात (य) पुत्त (तीर्थकर महावीर) ७।१०।३,कुन्थ (तीर्थकर) 201817 1817 / 26,18 / 10 / 17 कूणिय (राजा) 7 / 6 / 6-15,7 / 9 / 20, 6 / 33 / 77, णामुदय (आजीवकोपासक) 7 / 10 / 2 12 / 2 / 6, 13 / 6 / 21 / 13 / 6 / 32 तामलि (गृहस्थ तापस) 311135,36,36-47; - केसी (कुमार) (उदायन राजा का भागिनेय) 312 / 16, 11 / 6 / 6,11 13 / 6 / 15, 1316 / 24-32 ताल (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 केसी सामि (भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर) 215 // तालपलंब (आजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 15, 11 / 11 / 53, 55 / / तीसग (अ) (भगवान महावीर का शिष्य-श्रमण) कोणिय (राजा) 116, 12 / 2 / 6 3 / 1116,17,65 कोसलग (कोशल राजा) 7 / 9 / 5, 7 / 6 / 10 दढप्पतिण्ण (गोशालक के अंतिम भव का नाम) खंदन (ग) (य) (परिव्राजक निर्ग्रन्थ)२।१।१२-५४, 1111145, 1510 / 146 7 / 9 / 20, 7 / 10 / 12, 6 / 33 / 2, 9133 / 16, देवसेण (राजा-गोशालक के आगामी जन्म का 11 / / 32, 11110 / 27, 11 / 12 / 24, 12 नाम) 150 / 132, 1125, 1317 / 41, 1510 / 114, 16:115, देवाणंदा (ब्राह्मणी-निर्ग्रन्थी) 6 / 33 / 5-20, 18/10/28 12 / 2 / 8 गदभाल (परिव्राजक) 261 / 12, 211118(3) गंगदत्त (श्रमणोपासक निम्रन्थ देव) 165 / 13 धम्म (तीर्थंकर धर्मनाथ) 2017 18, 18 / 2 / 3 धम्मघोस (निर्ग्रन्थ) 1510 / 132 गंगेय (पाश्र्वापत्यीय निग्रंथ) 6 / 32 / 1-56 धारिणी (शिवराजा की रानी) 11 / 6 / 4-5 गाहावइ (अन्ययूथिक मुनि) 7.10 / 2 नमि (तीर्थकर) 20 / 87 गोबहुल (ब्राह्मण) 15 / 0 / 16, 17, 16 नम्मुदय (अन्ययूथिक मुनि) 7 / 10 / 2 गोयम (निर्ग्रन्थ-गणधर) 1 / 114-6 नागनत्तुय (वरुण नाम का श्रमणोपासक) ७।६।गोयमसामि (निर्ग्रन्थ-गणधर) 10 / 5 / 3, 150 20(5) (7),(11), (12) (13),14; 9 / 7 / 21 122, 127 नामुदय (प्राजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 Page #2969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [771 नायपुत्त (तीर्थकर भगवान् महावीर का नाम) 5-8, 10, 12-15, 17-18, 21 15 / 065,67 माणिभद्द (देव) 15 / 0 / 132 नारयपुत्त (भ० महावीर का शिष्य) 5 / 8 / 3-9 मायंदिय (निर्ग्रन्थ) 18 / 1 / 1 नियंठपुत्त (भ० महावीर का शिष्य) 5 / 8 / 3-6 मिगा (या) वती (कौशाम्बी के शतानीक राजा की नेमि (तीर्थकर) 2017 रानी) 12 / 2 / 2-4, 7-13 पउमावती (उदायण राजा की रानी) 13 / 6 / 12,- मुणिसुव्वय (तीर्थकर) 16 / 5 / 16, 1812 / 3, 20 // 21, 29, 30, 87 पभावती (हस्तिनापुरनरेश बल राजा की रानी) मेहिल (पापित्यीय स्थविर) 215 // 17 11 / 11 / 22-26,26, 32, 33, (3), 33(4), मोग्गल (परिव्राजक) 11612 / 16-18 34-26,44 मोरियपुत्त (तामलि नाम का गृहस्थ-तापस) 31 // पभावती (उदायण राजा की रानी) 13 / 6 / 13,32 35, 36, 39-45 पास (तीर्थंकर पार्श्वनाथ) 59 / 14 (2), 18, रेवती (श्रमणोपासिका) 1500 / 113, 121-127 9 // 32 // 51 (2) 2068 / 7 रोह (भ. महावीर का शिष्य) 116 / 12, 13, १६पिंगलय (निर्ग्रन्थ) 2 / 1113-16, 20, 23 18, 24,10 / 4 / 3 पुण्णभद्द (देव) 150 / 132 लेच्छइ (गणराजा) 7 / 6 / 5, 10, 14, पुप्फदंत (तीर्थकर) 201817 वद्धमाण (तीर्थंकर महावीर) 2017 पूरण (गृहस्थ-तापस) 3 / 2 / 19-23,16 // 5 // वरुण (श्रमणोपासक) 7 / 6 / 20 वाउ (यु) भूति (गणधर) 3 / 117, 8-12, 14, पोक्खलि (श्रमणोपासक) 12114,14-18 16,30 वासुपुज्ज (तीर्थकर) 2017 बल (हस्तिनापुर का राजा) 11 / 11 / 21,22, विदेहपत्त (राजा कणिक) 75 24-27,26-33 (1), 34, 35, 39-44, विमल (तीर्थंकर) 11111153,55; 15101132, 201817 बहुल (ब्राह्मण) 15036-36, 41 विमलवाहण (राजा-गोशालक का जीव) 1 // भद्दा (मंख-भार्या-गोशालक की माता) 1510 / 14, 0 / 132 17,18 वेसालिय (लीय) (भ. महावीर) 2 / 1 / 13, 14, भूतानंद (हाथी) 7 / 9 / 15 15, 16, 20 (1), 23; 12 / 2 / 4 मद्द य (श्रमणोपासक) 18 / 7 / 26, 28-36 वेसियायण (तापस) 15 / 0141-54 मल्लइ (गणराजा) 7 / 6 / 5, 10, 14 सम्मुति (राजा) 15 / 0 / 132 मल्लि (तीर्थंकर) 2017 सयाणीय (राजा, कौशांबीनरेश) 12 / 2 / 2, 3, 4, महब्बल (राजपुत्र-निर्ग्रन्थ) 11111144-52, 55- सब्वाणभुइ (ति) (भ. महावीर का शिष्य-श्रमण) 56, 58, 12 / 6 / 8 1510171-74, 126, 132 महसेण (राजा) 13 / 6 / 16, 25 ससि (तीर्थंकर–चन्द्रप्रभ भगवान)२०१७ महाप उम (गोशालक के आगामी भव का नाम) सहस्साणीय (राजा) 12 / 2 / 2, 3, 4 15 / 0 / 132 संख (श्रमणोपासक) 121 // 3.31 मागंदियपुत्त (भ. महावीर का शिष्य) 18 / 3 / 2-3, संखवालय (प्राजीवकोपासक) 8 / 5 / 11 Page #2970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र संति (तीर्थकर शांतिनाथ) 201817 सुनक्खत्त (भगवान् महावीर का शिष्य) 15 / 074, संभव (तीर्थंकर) 2017 75, 76, 130, 132 संविह (आजीवकोपासक) 8.5 / 11 सुपास (तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ) 2017 सामहत्थि (भ. महावीर का शिष्य-निर्ग्रन्थ) 10 / सुप्पभ (तीर्थंकर पद्मप्रभ) 2087 413-5 सुमति (तीर्थंकर) 20 / 8 / 7 सामि (तीर्थंकर महावीर) 21112, 5 / 1 / 2, 9 / 11 सुमंगल (निर्ग्रन्थ) 1510 / 132, 133, 134, 135 2, 9 / 32 // 1, 6 / 3334, 10 / 4 / 1, १शक्षा सुहत्थि (अन्ययूथिक मुनि) 7/1012 16, 11 / 11 / 3, 11 / 12 / 20, 12 / 1 / 6, 12 // सूरियत (राजपुत्र) 11 / 6 / 5 215, 1510111, 16652, 18 / 2 / 1 सेज्जंस (तीर्थंकर श्रेयांसनाथ) 2017 सिव (हस्तिनापुरनरेश--राजषि) 1116 / 3, 4, 5, सेयणय (हाथी) 1510188 6, 7, 9, 11-18, 20.21, 27-32; 11 // सेलवालय (अन्ययूथिक मुनि) 7 / 10 / 2 11144, 11 / 12 / 17, 24; 1500 / 59 सेलोदाइ (अन्ययूथिक मुनि) 7 / 1012, 187425 सिवभद्द (शिव राजा (राषि) का पुत्र-राजा) सेवालोदाइ (अन्ययूथिक मुनि) 7 / 10 / 2 11 / 6 / 5, 7, 6, 10, 11, 11111157, सोण (पावपित्यीय भिक्षु) 15 / 016, 58 13 / 6 / 14, 25 सोमिल (ब्राह्मण) 18 / 10 / 15, 17-19, 22, सीयल (तीर्थकर शीतलनाथ) 20187 23, 24 (2), 25 (2), 26 (2), 27 (2), सीह (भ. महावीर का शिष्य--अनगार) 150 / 28, 26 116.127 हालाहला (कुम्भकारी) 1510 / 4, 61, 62, 63, सुणंद (गृहस्थ) 15 / 0 / 33 64, 66, 68, 86, 88, 66, 68,101, सुदंसण (श्रेष्ठी-निर्ग्रन्थ) 11.11 / 2,4-7, 6-11, 13, 16 (2), 17, 20, 56, 60, 61; 18 / 2 / 3 Page #2971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 विशिष्टस्थान-नामानुक्रमणिका [विशेष-पहला अंक शतक का सूचक है, दूसरा अंक उद्देशक का सूचन करता है और तीसरा अंक सूत्र संख्या के लिए प्रयुक्त हुआ है। यथा---अच्छ (जनपदविशेष) 1500187 अर्थात् शतक 15, उद्देशक 0, सूत्र 87 / जहाँ उद्देशक नहीं है, वहाँ शून्य का अंक उद्देशक के स्थान पर रख दिया गया है। अच्छ (जनपद) 151087 कुम्मग्गाम (ग्राम) 1500 / 46, 47, 55 अट्ठियगाम (ग्राम) 150 / 21 कोटु (जनपद) 15 / 0 / 87 अद्धभरह (क्षेत्र) 82 / 3 कोटग (य) (चैत्य) 6 / 33188, 6 / 33168, 12 / अरुणवर (द्वीप) 2 / 8 / 1,6 / 5 / 2 12, 12 / 1 / 9, 150 / 3, 1500 / 66, 15 // अरुणोदग (य) (समुद्र) 2 / 8 / 1, 6.52, 131605 068, 150 / 81, 1510186, 150 / 111 अंग (जनपद) 1500 / 87 कोल्लाग (य) (सन्निवेश) 15 / 0 / 35, 36, 38, अंगमंदिर (चैत्य) 1510 / 68 40, 41, 42 आलभिया (नगरी) 11 / 12 / 1, 11 / 12 / 2, 11 / कोसल (जनपद) 150174, 156087, 1510 / 130 12 / 15, 11 / 12 / 16,11 / 12 / 18,11 / 12 / कोसंबी (नगरी) 12 // 211-4, 6 16, 11112124, 12 / 1 / 26, 1510 / 68 खत्तियकुड (ग्राम) 6 / 33 / 21-31, 46, 75 उत्तरकुरु (क्षेत्र) 6177, 6 / 7 / 6, 20 / 8 / 2 गंगा (नदी) 578, 716 / 34, 11 / 6 / 12, 15 / / उद्दण्डपुर (नगर) 150 / 68 0168 उल्लुयतीर (नगर) 16 / 3 / 6-7, 16 / 5 / 1, 16 / गंधावइ (पर्वत) 9 // 31 // 30 58 गुणसिल (य) (चैत्य) उपोद्घाता४, 211110, एगजंबुय (चैत्य) 16 / 3 / 7, 16 // 5 // 1, 16 / 5 / 8 215110, 211125 (1), 7 / 10 / 1, 4, 6 एगोरुयदीव (द्वीप) 9 / 3012, 107.1 (2), 13, 8 / 7 / 1,10 / 5 / 1, 13367, 16 / एरण्णवत (क्षेत्र) 677 315, 18 / 3.1, 18 / 7 / 24, 181815 एरवत (क्षेत्र) 2018 / 1. 2018 / 6 गोत्थुम (पर्वत) 2 / 8 / 1 कयंगला (नगरी) 2 / 1 / 11, 2 / 1 / 12, 211 / 17, चंदोरयण (चैत्य) 1510 / 68 1138 चंदोवतरण (चैत्य) 12 / 2 / 1 कंडियायणिय (चैत्य) 1500 / 68 चपा (नगरी) 5152, 5 / 10 / 1, 6 / 33 / 86, 68, कंपिल्लपुर (नगर) 14 / 8 / 23 10 / 4 / 12, 13 / 6 / 8, 16, 32; 153068 काममहावण (चैत्य) 150 / 68 छत्तपलासय (चैत्य) 201 / 11, 17, 38 कायंदी (नगरी) 1014 / 5 जंबुद्दीव (द्वीप)२।८।१, 2 / 9 / 1, 3 / 113, 4, 15, कालोद (समुद्र) 511 / 26 16, 20, 22 (1), 24, 35, 41; 3 / 2 / कासी (जनपद) 7 / 6 / 5, 7 / 6 / 10 19, 28; 31513 (1), 3 / 74 (1) (5), Page #2972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 774] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 6 (3), 7 (3); 4 / 1-414, 51114-23, पुण्णभद्दे (चैत्य) 5112,6133186, 67,68,131 61552, 5, 67 / 6, 6 / 10 / 1 (2), 7 // 6 // 668, 16 31, 81215, 818 / 35-45, 6 / 1 / 3, 6 / 2 / 2, पुप्फवतिन (वईय) (वतीअ) (वतीय) (चैत्य) / 6 / 312, 1014 / 5 (2), 8 (2), 11 (2); // 11, 12, 14, 18, 19, 24, 25 (1) 1016 / 1, 11 / 6 / 21, 22; 11 / 10 / 5, 26; पुव्वविदेह (क्षेत्र) 61717 12:5 / 18, 13 / 4 / 15, 13 / 6 / 5, 14 / 8 / 16 पुड (जनपद) 1510 / 132 (1), 1510 / 132, 15101138, 1628, बहुपुत्तिय (चैत्य) 1812 / 1 1665 / 8, 16; 16 / 6 / 1, 171511, 18 / 2 / बहुसाल (य) (चैत्य) 6 / 33 / 1, 5, 11, 23, 25, 3, 2018 / 7, 10, 11, 12, 13, 2016 / 3, 28, 31, 75, 77, 87 बेभेल (सन्निवेश) 3 / 2 / 16, 20, 21, 150 / णंदणवण (वन) 116 / 2 णालंदा (राजगृह नगर का एक उपनगर) 150 / भरह (भरत) (क्षेत्र) 67 / 6, 7 / 6 / 31, 32, 24, 30, 35, 40 33; दा२।३, 4; 1501132, 20 / 8 / 1, तामलिलि (नगरी) 311135-46 4, 6, 7, 10, 11, 12, 13 तिगिछकूड (पर्वत) 2 / 8 / 1, 3 / 2 / 28, 13 / 65 भारह (क्षेत्र) 3 / 1135, 41, 46, 312116, 28 तुगिया (नगरो) 25311-14, 19, 24, 25, 76 / 31-33; 10 / 4 / 5 (2), 8 (2), 11 (2); 14 / 8 / 16 (1), 20 (1); 15 / / दूतिपलास (य) (चैत्य) 6 // 32 // 1, 1014 / 1, 11 132, 138, 16 / 5 / 8, 16; 18 // 2 // 3, 1111, 18.10.14, 17 201817, 10-12 देवकुरु (क्षेत्र) 6717, 20182 मगहा (जनपद) 151087 धाय (त) इसंड (द्वीप) 5 / 1 / 23-25, 27; 6 / मलय (जनपद) 1510187 2 / 4, 11 / 6 / 24, 1817146 महातवोवतीरप्पभव (ह्रद) 215 / 27 नंदण (चैत्य) 331131 महाविदेह (क्षेत्र) 211154, 3 / 1154, 64; 3 / नंदणवण (वन) 2016 / 5, 6 2 / 44, 7 / 6 / 22, 24; 1316 / 37, 148 / नंदिस्सर (दीसर) वर (द्वीप) 3 / 2 / 6-10, 2016 15101126, 134,148; 16 // 6 / 18, 17 / 2 / 6, 20 / 8 / 1, 5, 6 नालंदा (राजगृह का उपनगर) 15 / 0 / 22, 31 महेसरी (नगरी) 14 / 8 / 16 (1) पत्तकालग (चैत्य) 151068 माणिभद्द (चंत्य) 6 / 1 / 2 / / पंडगवण (वन) 6 / 31130, 2016 / 5, 6 माणुसुत्तर पचय (पर्वत) 8.46, 47; 11 // पाई (यो) ण (जनपद) 15 / 0 / 71, 129 10 / 27, 16 / 6 / 20, 2016 / 4 पाडलिपुत्त (नगर) 14 / 8 / 20 (1) मालवग (जनपद) 15/087 पाढ (जनपद) 1510 / 87 मालवंत (पर्वत) 6 / 31 / 30 पुक्खरद्ध (द्वीप) 51126, 27 माहणकुण्ड (ग्राम) 613311, 2, 11, 21, 23, पुक्खरद्ध (रोद) (समुद्र) 6 / 2 / 5 25, 28, 75, 77 पुक्खरवर (द्वीप) हा२।४ मियवण (उद्यान) 1336 / 10, 18, 23 Page #2973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2] [775 मिहिला (नगरी) 6 / 1 / 2 वाणारसी (नगरी) 3 / 6 / 1,3,4,5 (2),6,7,(2), में ढियग्गाम (ग्राम) 1510 / 112-114, 121, 127 वाणियग्गाम (ग्राम)।३२११, १०१४११,१११११।मोया (नगरी) 3 / 1 / 2, 31, 65 1,2,56, 18 / 10 / 14 मोलि (जनपद) 1510 / 87 वाराणसी (नगरी) 1510 / 68 रम्मगवास (क्षेत्र) 67 / 7, 20182 वालाय (सन्निवेश) 10 / 4 / 11 (2) रायगिह (नगर) 15152, 4; 112 / 1, 2 / 1 / 2, विपुल (पर्वत) 23148,52 10, 47; 2 / 5 / 10, 20, 22, 23, 24, विभेल (सन्निवेश) 1014 / 8 (2) वियडावइ (पर्वत)।३१।३० 25 (1), 27, 3 / 1132, 3 / 2 / 1, 3 / 3 / 1, 3 / 4 / 17, 3 / 6 / 1, 2 (2), 3, 4, 5 (2), विसाहा (नगरी) 18 / 2 / 1 7 (2), 8, 9, 10 (2); 31811, 3 / 6 / 1, विझ (पर्वत) 3 / 2 / 16, 14 / 8 / 16 (1), 15 / / 3 / 10 / 1,4 / 1 / 2,52 / 1,612 / 1,611011 (1), 7 / 4 / 1, 7 / 5 / 1, 7 / 6 / 1, 7 / 10 / 1, वातीभय (नगर) 13 / 6 / 9-13, 16, 18, 19-- 5, 13, 14, 81411, 8 / 5 / 1, 87 / 1, 21, 23, 24, 32 81811, 8 / 10 / 1, 11,6 / 31. 9 // 31 // वेभार (पर्वत) 25527 1, 9 / 34 / 1, 10 / 112,10/211, 10 / 3.1, वेभेल (सन्निवेश) 10 // 4 // 8 (2) 10 // 5 // 1, 111113, 1111011, 12 / 311, वेयढ (पर्वत) 716 / 31,33 12 / 4 / 1, 12 // 5 // 1, 12 / 6 / 1, 13 / 12, बेसाली (नगरी) 6 / 9 / 20 (2) 13 / 6 / 1, 1317 / 1, 1319 / 1, 14/112, 0 / 132 - 14 / 6 / 1, 14 / 7 / 1, 14 / 8 / 18 (1), 15 // सद्दावइ (पर्वत) 6 / 31 / 30 0 / 23, 150 / 30, 15 / 0168, 1510 / 138, सयंभुरमण (समुद्र) 6 / 8135, 11 / 6 / 21, 25, 16 / 1 / 2, 16 // 2 // 1, 16 / 3 / 1, 161411, 11 / 10 / 5, 12 / 5 / 18 18 / 112, 1863 / 1, 181411, 1871, सरवण (सन्निवेश) 15 / 0 / 15, 16, 17 187 / 24, 26, 28; 188 / 1, 4; सहसं (स्स) बवण (उद्यान) 11 / 6 / 2, 30, 16 / 1819 / 1, 201102, 21 / 1 / 2, 2211 / 5 / 16, 18 / 2 / 3 2, 23 / 1 / 3, 24 / 1 / 2, 24 / 2 / 1, 24 / 3 / 1, संखवण (चैत्य) 11 / 1211, 16 2512, 25 // 6 // 2, 2518 / 1 साणकोट्ठय (चैत्य) 110 / 112, 114, 119 रुयगवर (द्वीप) 187147, 2016 / 8, 120, 122 रुयांगद (पर्वत) 3 / 1 / 41 सावत्थी (नगरी) 211 / 12, 17, 18 (3), 23, लवणसमुद्द (समुद्र) 5 / 1 / 22, 26; 51216 (2); 6 / 33188, 98; 121112, 5, 6, 12, 13, 6 / 8 / 35, 6 / 2 / 3; 11 / 6 / 21,23 14, 18, 20, 1510 / 1, 2, 3, 6, 10, वच्छ (जनपद) 1510187 60, 66, 68, 81, 86,66,68, 101, वज्ज (जनपद) 15 / 0187 108, 106, 110 वट्टवेयड्ढ (पर्वत) 6 / 31 / 30 सिद्धत्थगाम (ग्राम) 1510146, 55 बंग (जनपद) 1507 सिन्धु (नदी) 7 / 6 / 31, 34 Page #2974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 776] सिन्धुसोवीर (जनपद) 13 / 6 / 6, 16, 16, 25 सुद्धदंतदीव (द्वीप) 61312, 1034 / 1 सुभूमिभाग (उद्यान) 1510 / 132 सुसुमारपुर (नगर) 3 / 2 / 22, 28 सोमणस (वन) 9 / 31 / 30 हत्थिणापुर (नगर) 11 / 6 / 1-3, 6, 6, 17, 18, [भ्याख्याप्रशप्तिसूत्र 21, 27, 30; 11 / 11 / 20, 21, 30, 31. 40; 1665 / 16, 181213 हरिवास (क्षेत्र)६७७, 2018 / 2 हेमवत (क्षेत्र) 6177, 20 / 8 / 2 हेरण्णवय (क्षेत्र) 20182 Page #2975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 भगवतीनिर्दिष्ट शास्त्र-नामानुक्रमणिका [विशेष—पहला अंक शतक का सूचक है और दूसरा अंक उद्दे शक का सूचन करता है तथा तीसरा अंक सूत्र संख्या के लिए प्रयुक्त हुआ है। जहाँ उद्देशक नहीं है, वहाँ उद्देशक के स्थान पर शून्य का अंक रख दिया गया है। अणुओ (यो) गद्दार (जैनागराम) 5 / 4 / 26, 17 / पद) 11167,66, 71, 8626, 8652, श२६ 816184, 8669, 1011116, 24 // 2018, अथव्वणवेद (वेदग्रन्थ) 2 / 1 / 12, 6 / 33 / 2 24 / 20165, अंतकिरियापद (प्रज्ञापनासूत्र का बीसवां पद) अोहीपय (प्रज्ञापनासुत्र का तेतीसवां पद) 16 // 1 / 2 / 18 आयार (आचारांग-द्वादशांगी का प्रथम अंगसूत्र) कप्प (शास्त्र) 21112 16 / 6 / 21, 2018 / 15, 25 / 3 / 115, 256 कम्मपगडि (प्रज्ञापनासूत्र का तेईसवां पद) 141 कायट्ठिति (प्रज्ञापनासूत्र का अठारहवां पद) आवस्सय (आवश्यकसूत्र) 6 / 33 / 43 दा२११५३ पाहारुदेस (प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाइस पद का किरियापद (प्रज्ञापनासूत्र का बाईसवां पद) 8 / 4 / 2 प्रथम उद्देशक) 62 / 1,1111140, 16318 खंदय (व्याख्याप्रज्ञप्तिसुत्र के द्वितीय शतक का प्रथमं उद्देशक) 5 / 2 / 13 इतिहास (गास्त्र) 2 / 1 / 12 गइप्पवाय (जैन आगम) 87 / 24 इंदियउद्देसय (प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद का गब्भुईसय (प्रज्ञापनासूत्र के सत्रहवें पद का छठा प्रथम उद्देशक) 214 / 1 उद्देशक) 1621 उवप्रोगपय (प्रज्ञापनासूत्र का उन्नीसवां पद) 5) चरिमपद (प्रज्ञापनासूत्र का दशवाँ पद) 828 161711 छंद (शास्त्र) 2 / 1 / 12 उबवाइ (ति) य (ोपपातिक सूत्र) 767,8 जजुब्वेद (वेद ग्रन्थ) 211112, 6 / 33 / 2 8; 8|30133123, 24, 28; 8|33 / 46;7/ जंबुद्दीवपण्णत्ति (जैन आगम) 7 / 1 / 3 33172,7133177,11 / 6 / 6,11 / 6 / 9, 11. जीवाभिगम (जैन नागम) 1311, 21712, 26 6 / 30,111 / 33, 11111126, 111111, 1, 3 / 6 / 1, 5 / 6 / 14, 618135, 7 / 4 / 2, 50,13 / 6 / 21,14/8/21, 22; 15/01148, 8 / 2 / 154, 818146,47, 6 / 2 / 2.6 / 312, 25 / 7 / 208 10 / 5 / 27, 10 / 7 / 1, 11 / 9 / 21, 12 / 313, ऊसासपद (प्रज्ञापनासूत्र का सातवां पद) 11116 12 / 6 / 33, 13 / 4 / 10, 14 / 3 / 17, 16 / 6 / 1, एयणु देस (भगवती के पांचवें शतक का सातवां 25 // 5 // 46 उद्देशक) 592 जोणीपय (प्रज्ञापनासूत्र का नवा पद) 10214 ओगाणसंठाण (प्रज्ञापनासूत्र का इक्कीसवां जोतिसामयण (शास्त्र) 2 / 1 / 12 Page #2976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 778] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जोतिसियउद्देस (य) (जीवाभिगमसूत्र का ज्योति- बहुवत्तव्यता (व्वया) प्रज्ञापना सूत्र का तीसरा कोद्देशक) 3 / 6 / 1, 105 / 27 पद) दा२।१५५, 25 / 3 / 117, 118, 120, ठाणपद (य) (प्रज्ञापनासूत्र का दूसरा पद) 2 / 7 / 2, / 121, 25 / 4 / 17 / 1510168, 17 / 5 / 1 बंधुद्देसय (प्रज्ञापनासूत्र का चौवीसवाँ पद) 6 / 9 / 1, ठितिपद (प्रज्ञापना सूत्र का चौथा पद) 111111 बंभण्णय (शास्त्र) 211112 18, 24 / 2065 बंभी (लिपि) 1111 दसा (जैन आगम) 102 / 6 भावणा (प्राचारांगसूत्र के द्वितीय श्रृतस्कंध के दिट्टिवाय (जैन आगम) 16 / 6 / 21, 2018 / 6, पन्द्रह अध्ययन 1500 / 21 15, 25 / 3 / 115 भासापद (प्रज्ञापनासूत्र का ग्यारहवाँ पद) 2 / 611, 252 / 17 दुस्समाउद्देसय (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के सातवें शतक यजुवेद (वेद ग्रन्थ) 11112 / 16 छठा उद्देशक) 89101 रायप्प सेणइज्ज (जैन आगम) 3 / 1133, 3 / 6 / 14, नंदो (जैन आगम-नंदीसूत्र) 8 / 2 / 27, 146, 8 / 2 / 23 (2), 9 / 33 / 49, 55; 10 / 6 / 1, 25 / 3 / 116 निघंटु (शास्त्र) 211112 11 / 11 / 48, 50, 13 / 4 / 66(2), 131616, नियंठ्ठद्देसय (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के दूसरे शतक 18 / 2 / 3, 48 / 10 / 28 / ___ का पांचवां उद्देशक) 7 / 10 / 5, 6 (2) रिउव्वेद (रिजुब्वेद)(रिब्वेद) (वेदग्रन्थ) 2 / 1 / 12, 9 / 33 / 2, 11 / 12 / 16, 1510 / 16, 36; निरुत्त (शास्त्र) 2 / 1112 18 / 10 / 15 नेरइयउद्देशय (प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें पद का लेसुद्देसय (प्रज्ञापनासूत्र के सत्रह पद का चौथा है पहला उद्देशक 13 / 5 / 1 उद्देशक) 19 / 2 / 3 नेरइयउद्देसय (जीवाभिगम सूत्र का उद्देशक) लेस्सापद (प्रज्ञापना सूत्र का सत्रहवां पद) 4 / 6 / 1, 12 / 3 / 3, 13 / 4 / 10, 14 / 3 / 17 4 / 1011 पण्णवणा (जैन ग्रागम) 112 (5), 4 / 9 / 1,4 वक्कंति (पद) (प्रज्ञापनासूत्र का छठा पद) 110 // 1011, 6 / 2 / 1, 661,7 / 2 / 28, 8 / 1148, 3, 11 / 115, 44; 12 / 6 / 7, 11, 25; 22 / वर्ग 4 / 1, 22 / वर्ग 5 / 1, 25 / 2 / 12, 16 / 3 / 43, 21 / 1 / 3, 24 / 12 / 1 (2), 2514180, 2551 वागरण (शास्त्र) 211.12 पन्नवणा (जैन आगम-प्रज्ञापनासूत्र) 131811, वेद (वेदग्रन्थ) 2 / 1 / 12, 8 / 2 / 27 13 / 10 / 1, 16 // 314, 16 // 13, 19 / 2 / 1, वेदणापद (प्रज्ञापनासत्र का पच्चीसवाँ पद) 10 / 16 / 3 / 8, 16; 16057,201116,20 / 4 / 1, पयोगपय (प्रज्ञापनासूत्र का सोलहवाँ पद)८७।२५, वेमाणियुद्देसे (जीवाभिगमसूत्र का उद्देशक)२।७।२ 15 / 0 / 63 सट्टितंत (शास्त्र) 2 / 1 / 12 परिणामपद (प्रज्ञापनासूत्र का तेरहवाँ पद) 14 / समुग्घायपद(प्रज्ञापनासूत्र का छत्तीसवाँ पद) 212 / 1 4 / 10 संखाण (शास्त्र) 2 / 1 / 12 परियारणापद (प्रज्ञापनासूत्र का चौंतीसवाँ पद) सामवेद (वेद ग्रन्थ)२।१।१२, 9 / 3312 13 / 3 / 1 सिक्खा (शास्त्र) 2 / 1 / 12 पासणयापय (प्रज्ञापनासूत्र का तीसवाँ पद) 16 / / सुविणसत्थ (शास्त्र) 11111133 (2), 34 सूयगड (सूत्रकृतांगसूत्र-जैन आगम) 166 / 21 7/1 Page #2977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 कतिपय विशिष्ट शब्दसूची अद्धमागहा (भाषा) 5 / 4 / 24 इक्खाग (इक्ष्वाकुवंश) 2018 / 16 उग्ग (उग्रकुल-वंश) 20 / 8 / 16 कच्चायण (गोत्र) 21112, 14, 18, 23, 211134-37 कोरव्व (वंश) 20 / 8 / 16 गोतम (गोत्र) 3 / 1 / 3 नाय (वंश) 2018 / 16 भोग (वंश) 2018 / 16 महासिलाकंटय (संग्राम) 7 / 9 / 5, 6, 10, 11, 12, 15 / 088 रहमुसल (संग्राम) 7 / 6 / 14-17, 20 (6), 20 (7), 20 (11), 20 (12), राइण्ण (वंश) 2018116 Page #2978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल स्वि० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धत] स्वाध्याय के लिए पागमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का चयाय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है / मनुस्मृति ग्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है / वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनन्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण . इन बा भी पागधों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिविखते असभाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदा, गज्जिन, बिजुते, निग्घाते, जुबते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रय उग्धाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, त जहा--अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसा पलामते, चंदोवराते, सूरोवराते, पड़ने, रायबुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो पोरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निम्गंथाण वा, निम्गंथी ण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, नं जहाप्रासाढपाडिवए. इंदमहापाडिवए, कत्तिनपाडिवए सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निम्गंथाण वा निग्गीण वा, चहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते मज्झण्हे, अड्ढ रत्ते / कप्पइ निगाणं वा निग्गंथीण बा, चाउनकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुबण्हे अवरण्हे, पनोने, पच्चूसे ! -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस प्राकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनभ्याय माने गए हैं, जिसका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुना है तो एक प्रहर पर्वन्न शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालम पड़े कि दिशा में ग्राम सी लगो है तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 3. गजित-बादलों के गजन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #2979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [781 गर्जन पोर रिश्रुत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः प्राी से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-विना बादल के ग्राकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों महिा प्राकान में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को बूक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकादा होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तत्र नाक म्याध्याय नहीं करना चाहिए / 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्रवर्ण को सूक्ष्म जलरूप थुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुध पड़ती रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 1. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है। जब तक बह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज-उद्घात --बायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि कली -हती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण अाकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डो, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार अास-वाम के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धो अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तोन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचिमल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-इमशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमश: आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #2980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782] [अनध्यायकाल 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दुसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. प्रौदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेबर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूणिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमानों के पश्चात् पाने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक धड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 10 Page #2981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा. पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी खराजजी शिशोदिया. ब्यावर 4. श्री शा० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलाल जी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादल चन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.E.) जाड़न 15. श्री प्रार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर ड़िया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूब चन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फते चन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास . 16. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 1. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #2982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 784] [सदस्य-नामावली Y x mm m 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजो मुकनचन्दजो बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी वाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपरामजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरोमनजी जंबरीलालजी तलेसरा, पालो 11. श्री मोहनलालजी मंगलचदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलाल जो लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजो बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजो गौतमवन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गूणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सूजानमल जी संचेती, जोधपुर 15. श्री मुलचन्दजी पारख, जोधपुर 30 श्री मो, अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्रा सुमेरमलजी मेड़निया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मुलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गमशमलजा नेमानन्द जो टाटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लाल चंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजा पुखराजजी बट, कानपुर 34. श्री होरीलालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दर बाई गोठी W/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री धेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजो सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्रा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजो कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी ही 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, व्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजो धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरणजी रिखबचंदजी लोढा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45 श्री सुरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड क०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजो कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेडतिया, जोधपूर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #2983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली ] [ 785 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री अोक चंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्लीराजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजो बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालाल जी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर / 47. श्री भवरलालजी मुथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंबरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली / 76. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री पास करणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा. ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महाबीर चंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल. 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया,भैरूदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मड़ता काठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजो एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर / 61, श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर , 60. श्री इन्द्रचन्दजो मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 1. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा / 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी राजनांदगांव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन / 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #2984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 786] [ सदस्य-नामावली 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवो व निर्मलादेवी, मद्रास बूलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजो मांगीलालजो बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #2985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत म. म. डॉक्टर ब्रह्ममित्र अवस्थी, पूर्व मानद वाइस चांसलर गुरुकुल अयोध्या (फैजाबाद) सन् 1918 से लेकर अब तक व्याख्या अथवा अनुवादपूर्वक इस विशाल ग्रन्थ-व्याख्याप्रज्ञप्ति के प्रकाशन के लिए प्रायः पाठ प्रयत्न हुए हैं, किन्तु उन प्रयासों में या तो यह ग्रन्थ पूर्णतया प्रकाशित नहीं हो सका या केवल मूल अर्धमागधी के रूप में प्रकाशित हुआ, अथवा सम्पादन में शुद्ध पाठ का सम्यक निर्धारण नहीं हो सका, अथवा व्याख्या से या तो वह अतिविस्तीर्ण हो गया या विषय का भली प्रकार स्पष्टीकरण न हो सका / जबकि प्रस्तुत संस्करण में इन सब न्यूनताओं को दूर करने का पूर्ण प्रयास हुआ है। इसमें मूल पाठ को यथासंभव पूर्ण शुद्धता के साथ प्रस्तुत करते हुए पाठान्तर, पादटिप्पण,सूत्रसंख्या एवं विशेषार्थ के द्वारा सर्वजनउपयोगी एवं विद्वज्जनग्नाह्य बना दिया गया है। इस संस्करण में प्रत्येक शतक, उद्देशक, प्रश्नोत्तर को उपयुक्त शीर्षकों से अलंकृत कर दिया गया है, जिससे पाठकों को विशेष सुविधा हो सके / ....... Page #2986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सूत्र मूल्य ग्रन्थांक नाम 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 3. उपासकदशांगसूत्र पृष्ठ 426 508 250 35) 25) 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 640 248 6. अनुत्तरोववाइयसूत्र 120 824 7. स्थानांगसूत्र 8. समवायांगसूत्र 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 11. विपाकसूत्र 562 280 200 25) 12. नन्दीसूत्र 252 अनुवादक-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' श्रीचन्द सुराना 'सरस' डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम. ए., पी-एच. डी.) पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल साध्वी दिव्यप्रभा, (एम. ए., पी-एच. डी.) साध्वी मुक्तिप्रभा, (एम. ए., पी-एच. डी.) पं० हीरालाल शास्त्री पं० हीरालाल शास्त्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' श्रीचन्द सुराना 'सरस' अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अनु. साध्वी उमरावकुवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. डॉ. छगनलाल शास्त्री अमरमुनि रतनमुनि वाणीभूषण ज्ञानमुनि जैनभूषण अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अमरमुनि राजेन्द्र मुनि शास्त्री ज्ञानमुनि जैनभूषण देवकुमार जैन अमरमुनि महासती पुष्पवती महासती सुप्रभा, एम. ए., शास्त्री अमरमुनि 28) 25) 50) 13. औपपातिकसूत्र 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 15. राजप्रश्नीयसूत्र 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 242 568 284 568 356 45) 35) 45) 8y जासत्र 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 666 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 21. निरयावलिकासूत्र 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृतीय भाग] 836 23. दशवकालिकसूत्र 532 24. आवश्यकसूत्र 188 25. व्याख्याप्रज्ञप्ति [चतुर्थ भाग] 6 . 45) 25) .