________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [ 115 हता. भवति / एवं खलु गोयमा ! निस्संगताए निरंगणताए गतिपरिणामेणं प्रकम्मस्स गती पण्णायति / तेरा [13-1.] भगवन् ! निःसंगता से, नीरागता से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद होने से, निरिन्धनता से और पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति कैसे होती है ? / [13-1 उ.] गौतम ! जैसे, कोई पुरुष एक छिद्ररहित और निरुपहत (बिना फटे-टूटे) सूखे तुम्बे पर क्रमशः परिकर्म (संस्कार) करता-करता उस पर डाभ (नारियल की जटा) और कुश लपेटे / उन्हें लपेट कर उस पर आठ बार मिट्टी के लेप लगा दे, फिर उसे (सूखने के लिए) धूप में रख दे / बार-बार (धप में देने से) अत्यन्त सखे हए उस तम्बे को अथाह, अतरय न जा सके), पुरुष-प्रमाण से भी अधिक जल में डाल दे, तो हे गौतम ! वह तुम्बा मिट्टी के उन आठ लेपों से अधिक भारी हो जाने से क्या पानी के उपरितल (ऊपरी सतह) को छोड़ कर नीचे पृथ्वीतल पर (पैदे में) जा बैठता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ, भगवन् ! वह तुम्बा नीचे पृथ्वीतल पर जा बैठता है। (भगवान् ने पुनः पूछा-) गौतम ! (पानी में पड़ा रहने के कारण) आठों ही मिट्टी के लेपों के (गलकर) नष्ट हो (उतर) जाने से क्या वह तुम्बा पृथ्वीतल को छोड़ कर पानी के उपरितल पर आ जाता है ? (गौतम स्वामी-) हाँ, भगवन् ! वह पानी के उपरितल पर आ जाता है / (भगवान्-) हे गौतम ! इसी तरह नि:संगता (कर्ममल का लेप हट जाने) से, नीरागता से एवं गतिपरिणाम से कर्मरहित जीव की भी (ऊर्व) गति होती (जानी या मानी) जाती है। [2] कहं णं भते ! बंधणछेदणत्ताए अकम्मस्स गती पण्णता ? गोयमा! से जहानामए कलसिबलिया ति वा, मुग्गसिबलिया तिवा, मासिबलिया ति वा, सिबलिसिबलिया ति बा, एरंडामजिया ति वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी फुडित्ताणं एगंतमंतं गच्छइ एवं खलु गोयमा!। [13-2 प्र.] भगवन् ! बन्धन का छेद हो जाने से अकर्मजीव की गति कैसे होती है ? [13-2 उ.] गौतम ! जैसे कोई मटर की फली, मूग को फली, उड़द की फली, शिम्बलिसेम की फली, और एरण्ड के फल (बीज) को धूप में रख कर सुखाए तो सूख जाने पर वह फटता है और उसमें का बीज उछल कर दूर जा गिरता है, हे गौतम ! इसी प्रकार कर्मरूप बन्धन का छेद हो जाने पर कर्मरहित जीव की गति होती है / [3] कहणं भते / निरिधणताए अकम्मस्स गती ? गोयमा! से जहानामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ड वीससाए निवाघातेणं गतो यवत्तति एवं खलु गोतमा!। - [13-3 प्र.] भगवन् ! इन्धनरहित होने (निरिन्धनता) से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org