________________ 116] [ व्याख्याप्रशप्तिसूत्र [13-3 उ.] गौतम ! जैसे इन्धन से छूटे (मुक्त) हुए धूए की गति किसी प्रकार की रुकावट (व्याघात) न हो तो स्वाभाविक रूप से (विश्रसा) ऊर्ध्व (ऊपर की ओर) होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मरूप इन्धन से रहित होने से कर्म रहित जीव की गति (ऊपर की ओर) होती है। [4] कहं गं भते ! पुव्यप्पयोगेणं प्रकम्मस्स गती पण्णता ? गोतमा ! से जहानामए कंडस्स को दंडविध्यमुक्कस्स लक्खाभिमुही निवाघातेणं गतो यवत्तति एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए घुध्वप्पयोगेणं अकम्मस्स गती पण्णत्ता। [13-4 प्र.] भगवन् ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? [13-4 उ.] गौतम ! जैसे-धनुष से छूटे हुए बाण की गति बिना किसी रुकावट के लक्ष्याभिमुखी (निशान की ओर) होती है, इसी प्रकार, हे गौतम ! पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है। इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि निःसंगता से नीरागता से यावत् पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की (ऊर्ध्व) गति होती है / विवेचन-निःसंगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव की (ऊर्ध्वगति-प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 11 से 13 तक) में असंगता आदि हेतुओं से दृष्टान्तपूर्वक कर्मरहित मुक्त जीव की गति को प्ररूपणा की गई है। अकर्मजीव की गति के छह कारण-(१) निःसंगता = निर्लेपता / जैसे तुम्बे पर डाभ और कुश को लपेट कर मिट्टी के आठ गाढे लेप लगाने के कारण जल पर तैरने के स्वभाव वाला तुम्बा भी भारी होने से पानी के तले बैठ जाता है किन्तु मिट्टी के लेप हट जाने पर वह तुम्बा पानी के ऊपरी तल पर आ जाता है, वैसे ही प्रात्मा कर्मों के लेप से भारी हो जाने से नरकादि अधोगमन करता रहता है, किन्तु कर्मलेप से रहित हो जाने पर स्वतः ही ऊर्ध्वगति करता है / (2) नीरागता-मोहरहितता। मोह के कारण कर्मयुक्त जीव भारी होने से ऊर्ध्वगति नहीं कर पाता, मोह सर्वथा दूर होते ही वह कर्मरहित होकर ऊर्ध्वगति करता है। (3) गतिपरिणाम-जिस प्रकार तिर्यग्वहन स्वभाव वाले वायु के सम्बन्ध से रहित दीपशिखा स्वभाव से ऊपर की ओर गमन करती है, वैसे ही मुक्त (कर्मरहित) आत्मा भी नानागतिरूप विकार के कारणभूत कर्म का अभाव होने से ऊर्ध्वगति स्वभाव होने से ऊपर की ओर ही गति करता है। (4) बन्धछेद - जिस प्रकार बीजकोष के बन्धन के टूटने से एरण्ड आदि के बीज की ऊर्ध्वगति देखी जाती है, वैसे ही मनुष्यादि भव में वांधे रखने वाले गति-जाति नाम आदि समस्त कर्मों के बन्ध का छेद होने से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति जानी जाती है / (5) निरिन्धनता-जैसे इन्धन से रहित होने से धुआ स्वभावत: ऊपर की ओर गति करता है, वैसे ही कर्मरूप इन्धन से रहित होने से अकर्म जीव की स्वभावतः ऊर्ध्वगति होती है। (6) पूर्वप्रयोग-मूल में धनुष से छूटे हुए बाण की निराबाध लक्ष्याभिमुख गति का दृष्टान्त दिया गया है / दूसरा दृष्टान्त यह भी है जैसे कुम्हार के प्रयोग से किया गया हाथ, दण्ड और चक्र के संयोगपूर्वक जो चाक घूमता है, वह चाक उस प्रयत्न (प्रयोग) के बन्द होने पर भी पूर्वप्रयोगवश संस्कारक्षय होने तक घूमता है, इसी प्रकार संसारस्थित आत्मा ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जो अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org