________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [117 वार प्रणिधान किया है, उसका अभाव होने पर भी उसके आवेशपूर्वक मुक्त (कर्मरहित) जीव का गमन निश्चित होता है।' दुःखी को दुःख को स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपरणा 14. दुक्खी मते ! दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे / [14 प्र.] भगवन् ! क्या दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट (बद्ध या व्याप्त) होता है अथवा अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है ? [14 उ.] गौतम ! दुःखी जीव ही दुःख से स्पृष्ट होता है, किन्तु अदु:खी (दुःखरहित) जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। 15. [1] दुषखी मते ! नेरतिए दुक्खेणं फुडे ? अदुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे ? गोयमा ! दुक्खी नेरतिए दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी नेरतिए दुखणं फुडे / [14-1 प्र. भगवन् ! क्या दु:खी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट होता है ? [15-1 उ.] गौतम ! दुःखी नैरयिक हो दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी नैरयिक दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। [2] एवं दंडमो जाव वेमाणियाणं / [15-2] इसी तरह वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। [3] एवं पंच दंडगा नेयव्वा-दुक्खी दुक्खेणं फुडे 1 दुक्खी दुक्खं परियादिति 2 दुक्खी दुक्खं उदीरेति 3 दुक्खी दुक्खं वेदेति 4 दुक्खी दुक्खं निज्जरेति 5 / [15-3] इसी प्रकार के पांच दण्डक (आलापक) कहने चाहिए यथा-(१) दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है, (2) दुःखी दुःख का परिग्रहण करता है, (3) दुःखी दुःख को उदीरणा करता है, (4) दुःखी दुःख का वेदन करता है और (5) दुःखी दुःख की निर्जरा करता है। विवेचन-दुःखी को दुःख की स्पष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्रद्वय में दुःखी जीव ही दुःख का स्पर्श, ग्रहण, उदीरण, वेदन और निर्जरण करता है, अदुःखी नहीं, इस सिद्धान्त की मीमांसा की गई है। दुःखी और अदुःखी की मीमांसा--यहाँ दु:ख के कारणभूत कर्म को दुःख कहा गया है। इस दृष्टि से कर्मवान जीव को दुःखी और अकर्मवान् (सिद्ध भगवान्) को अदु:खी कहा गया है / अतः जो दुःखी (कर्मयुक्त) है, वही दुःख (कर्म) से स्पृष्ट-बद्ध होता है, वही दुःख (कर्म) को ग्रहण (निधत्त) 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 290, (ख) तत्त्वार्थभाष्य, अ. 10, सू. 6 पृ. 228-229 (ग) 'पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः। तत्वार्थ-सर्वार्थसिद्धि, अ. 10, सू 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org