SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 719
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118 / व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करता है, दु:ख (कर्म) की उदीरणा करता है, वेदन भी करता है / और वह (कर्मवान्) स्वयं ही स्व-दुःख (कर्म) की निर्जरा करता है / अतः अकर्मवान् (अदुःखी-सिद्ध) में ये 5 बातें नहीं होती।' उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण-- 16. [1] अणगारस्स णं भाते ! प्रणाउत्तं गच्छमाणस्स वा, चिट्ठमाणस्स वा, निसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा; अणाउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पावपुछणं गेहमाणस्स वा, निक्खिकमाणस वा, तस्स गं भते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जति ? संपराइया किरिया कज्जति ? गो. ! नो ईरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / [16.1 प्र.] भगवन् ! उपयोगरहित (अनायुक्त) गमन करते हुए, खड़े होते (ठहरते) हुए, बैठते हुए, या सोते (करवट बदलते) हुए, और इसी प्रकार बिना उपयोग के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन (प्रमानिका या रजोहरण) ग्रहण करते (उठाते) हुए या रखते हुए अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया लगती है ? [16-1 उ, गौतम ! ऐसे (पूर्वोक्त) अनगार को ऐपिथिक क्रिया नहीं लगती, साम्परायिक क्रिया लगती है। [2] से के?णं ? गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोमा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जति, नो संपराइया किरिया कज्जति / जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा प्रवोच्छिन्ना भवंति तस्स गं संपराइया किरिया कज्जति, नो इरियावहिया। अहासुत्तं रियं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जति / उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति, से णं उस्सुत्तमेव रियति / से तेण?णं० / [16-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [16.2 उJ गौतम ! जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न (अनुदित उदयावस्थारहित) हो गए, उसी को ऐपिथिको क्रिया लगती है, उसे साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। किन्तु जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ, (ये चारों) व्युच्छिन्न (अनुदित) नहीं हुए, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती / सूत्र (आगम) के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है / उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाला अनगार, सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करता है / हे गौतम ! इस कारण से कहा गया है कि उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है। विवेचन-उपयोगरहित गमनादि-प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण-प्रस्तुत 16 वें सूत्र में उपयोगशून्य होकर गमानादि क्रिया करने वाले अनगार को ऐपिथिकी नहीं, साम्परायिकी क्रिया लगती है, इसका युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है / 1. भगवतोसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 291 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy