________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ ] [ 119 'वोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य-मूलपाठ में जो 'बोच्छिन्ना' शब्द है, उसके 'अनुदित' और 'क्षीण' ये दोनों अर्थ युक्तिसंगत लगते हैं, क्योंकि ऐापथिकी क्रिया ११वें, १२वें और १३वें गणस्थान में पाई जाती है, और 12, १३वें गुणस्थान में कषाय का सर्वथा क्षय हो जाता है / जबकि ११वें गुणस्थान में कषाय का क्षय नहीं होकर उसका उपशम होता है, अर्थात्-कषाय उदयावस्था में नहीं रहता / इस दृष्टि से 'वोच्छिन्न' शब्द के यहाँ 'क्षीण और अनुदित' दोनों अर्थ लेने चाहिए।' 'अहासुतं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ—'अहासुतं का सामान्य अर्थ है- 'सूत्रानुसार', परन्तु यहाँ ऐपिथिक क्रिया की दृष्टि से विचार करते समय 'अहासुत्तं' का अर्थ होगा--यथाख्यात चारित्रपालन की विधि के सूत्रों (नियमों) के अनुसार क्योंकि ११वें से १३वें गुणस्थानवर्ती यथाख्यातचारित्री को ही ऐर्यापथिक क्रिया लगती है। इसलिए यथाख्यातचारित्री अनगार ही 'अहासुत्तं' प्रवृत्ति करने वाले कहे जा सकते हैं / १०वें गुणस्थान तक के अनगार सूक्ष्मसम्परायी (सकषायी) होने के कारण अहासुत्तं (यथाख्यात-क्षायिक चारित्रानुसार) प्रवृत्ति नहीं करते, इसलिए उन्हें क्षयोपशम जन्य चरित्र के अनुसार कषायभावयुक्त प्रवृत्ति करने के कारण साम्परायिक क्रिया लगती है / अत: यहाँ 'उत्सूत्र' का अर्थ श्रुतविरुद्ध प्रवृत्ति करना नहीं, अपितु, यथाख्यात चारित्र के विरुद्ध प्रवृत्ति करना होता है। अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त, तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ 17. अह भंते ! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुद्रुस्स पाणभोयणस्स के प्र? पण्णते? गोयमा ! जे णं निग्गंथे या निग्गंधी या फासुएसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिगाहिता मुच्छिते गिद्ध गढिते प्रज्झोववन्ने प्राहारं प्राहारेति एस णं गोयमा! सइंगाले पाण-भोयणे / जे णं निागथे वा निग्गंथी वा फासुएसणिज्ज असण-पाण-खाइम-साइमं पडिगाहित्ता महयाप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारमाहारेति एस गं गोयमा ! सधूमे पाणमोयणे। जे णं निग्गंथे वा 2 जाव पडिग्गाहित्ता गुणुप्पायणहेतु अन्नदन्वेणं सखि संजोएत्ता प्राहारमाहारेति एस गं गोयमा ! संजोयणादोस? पाण-भोयणे / एस णं गोतमा ! सइंगालस्स सधूमस्स संजोयणादोसदुटुस्स पाण-भोयणस्स अट्ठ पण्णत्ते। __[17. प्र] भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पान-भोजन (अाहारपानी) का क्या अर्थ कहा गया है ? [17 उ.] गौतम! जो निग्रंथ (साधु) अथवा निर्ग्रन्थी (साध्वी) प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप आहार ग्रहण करके उसमें मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त (अध्युपपन्न = मोह में एकाग्रचित्त) होकर आहार करते हैं, हे गौतम ! यह अंगार दोष से दूषित आहार-पानी कहलाता है। जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिमस्वादिम रूप पाहार ग्रहण करके, उसके प्रति अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक, क्रोध से खिन्नता करते हुए आहार 1. भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भाग-३, पृ. 1095 2. श्रीभगवती उपक्रम, पृष्ठ 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org