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________________ 184 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसून प्रवक्कमह, 2 तिदंड च कुडियं च जाव धातुरत्तानो य एगते एडेह, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेता जाव नमसित्ता एवं वदासी प्रालिस गं भंते ! लोए, पलिते णं भंते ! लोए, प्रालित्तपलिते णं भते ! लोए जराए मरणेण य / से जहानामए केइ गाहावती अगारंसि झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अप्पसारे मोल्लगरुए तं गहाय प्रायाए एगंतमंतं प्रवक्कमई, एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा यहियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सइ / एवामेव देवाणुप्पिया ! मज्झ वि पाया एगे भडे इठे कतै पिए मणन्ने मणामे थेग्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणमए भडकरंडगसमाणे, मा णं सोतं, मा णं उन्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा गं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कटु, एस मे नित्यारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए खमाए नौसेलाए प्राणुगामियत्ताए भविस्सइ। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! सयमेव पवावियं, सयमेव मडावियं, सयमेव सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव प्रायार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण-करण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खिों / [34] तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्म कथा सुनकर एवं हृदय में अवधारण करके अत्यन्त हषित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया / तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान् महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा-"भगवन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मुझे रुचि है, भगवन् ! निम्रन्थ प्रवचन में (प्रवजित होने के लिए) अभ्युद्यत होता हूँ (अथवा निर्गन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूँ)। हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह त्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् !, यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है। हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है।" यों कह कर स्कन्दक परिव्राजक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। ऐसा करके उसने उत्तरपूर्व दिशा-भाग (ईशानकोण) में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका, यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिये। फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा---- 'भगवन् ! वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी अग्नि से यह लोक (संसार) आदीप्त-प्रदीप्त (जल रहा है, विशेष जल रहा) है, वह एकदम जल रहा है और विशेष जल रहा है। जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्प भार (वजन) वाले सामान को पहले बाहर निकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में जाता है। वह यह सोचता है-- (अग्नि में से बचाकर) बाहर निकाला हुआ यह सामान भविष्य में प्रागे-पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप, एवं साथ चलने वाला (अनुगामीरूप) होगा / इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन् ! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड (सामान) रूप है / यह मुझे इष्ट, कान्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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