________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [185 प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों (या आभूषणों) के पिटारे के समान है। इसलिए इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख-प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचाएँ, इसे डांस और मच्छर न सताएँ, तथा वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोग और आतंक (प्राणघातक रोग) परीषह और उपसर्ग इसे स्पर्श न करें, इसप्रकार मैं इनसे इसकी बराबर रक्षा करता हूँ। पूर्वोक्त विघ्नों से रक्षित किया हुआ मेरा प्रात्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप और अनुगामीरूप होगा। इसलिए भगवन् ! मैं आपके पास स्वयं प्रवजित होना, स्वयं मुण्डित होना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि आप स्वयं मुझे प्रवृजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएँ सिखाएं, सूत्र और अर्थ पढ़ाएँ / मैं चाहता हूँ कि आप मुझे ज्ञानादि आचार, गोचर (भिक्षाचरी), विनय, विनय का फल, चारित्र (व्रतादि) और पिण्ड-विशुद्धि आदि करण तथा संयम यात्रा और संयमयात्रा के निर्वाहक पाहारादि की मात्रा के ग्रहणरूप धर्म को कहें।' 35. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं सयमेव पवावेइ जाव धम्ममाइक्खइ–एवं देवाणुपिया! गंतब्वं, एवं चिट्ठियन्वं, एवं निसीतियध्वं, एवं तुट्टियव्वं, एवं भुजियन्वं, एवं भासियत. एवं उट्ठाय उट्ठाय पाणेहि भूएहि जोवेहि सत्तेहि संजणं संजमियन्व, अस्सि च जं अट्ठ णो किचि वि पमाइयन्व। [35] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्वयंमेव कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को प्रबजित किया, यावत् स्वयमेव धर्म की शिक्षा दी कि हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार (यतना) से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए, इस प्रकार से उठकर सावधानतापूर्वक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करना चाहिये / इस विषय में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। 36. तए णं से खंदए कच्चायणसगोते समणस्स भगवनो महावीरस्स इमं एयारूव धम्मियं उवएसं सम्म संपडिवज्जति, तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयति, तह तुयट्टइ, तह भुजइ, तह भासइ, तह उट्ठाय 2 पाहि भूएहि जोहि सत्तेहिं संजमेणं संजमइ, अस्सि च णं अट्ठ णो पमायइ। [36] तब कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक मुनि ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पूर्वोक्त धार्मिक उपदेश को भलीभांति स्वीकार किया और जिस प्रकार को भगवान महावीर की आज्ञा थी, तदनुसार श्री स्कन्दक मुनि चलने लगे, वैसे ही खड़े रहने लगे, वैसे ही बैठने, सोने, खाने, बोलने आदि की क्रियाएँ करने लगे; तथा तदनुसार ही प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करने लगे / इस विषय में वे जरा-सा भी प्रमाद नहीं करते थे। 37. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते अणगारे जाते इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए पायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिद्वारणियासमिए मणसमिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org