________________ 186] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभचारी चाई लज्ज धण्णे खंतिखमे जितिदिए सोहिए अणियाणे अप्पुस्सुए प्रबहिल्लेस्से सुसामण्णरए दंते इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरो काउंविइरह। [37] अब वह कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक अनगार हो गए। वह अब ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति, एवं मन:समिति, वचनसमिति और कायसमिति, इन आठ समितियों का सम्यक रूप से सावधानतापूर्वक पालन करने लगे। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति से गुप्त रहने लगे, अर्थात्-मन, वचन और काया को वश में रखने लगे। वे सबको वश में रखने वाले (गुप्त) इन्द्रियों को गुप्त (सुरक्षित = वश में) रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जावान् (संयमी = सरल) धन्य (पुण्यवान् या धर्भधनवान्), क्षमावान्, जितेन्द्रिय, व्रतों आदि के शोधक (शुद्धिपूर्वक श्राचरणकर्ता) निदानरहित (नियाणा न करने वाले), आकांक्षारहित, उतावल से दूर, संयम से बाहर चित्त न रखने वाले, श्रेष्ठ साधुव्रतों में लीन, दान्त स्कन्दक मुनि इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को सम्मुख रखकर विचरण करने लगे, (अर्थात्--निर्ग्रन्थप्रवचनानुसार सब क्रियाएँ करने लगे)। विवेचन–स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रव्रज्याग्रहण एवं निर्गन्य धर्माचरणप्रस्तुत छह सूत्रों (32 से 37 तक) में शास्त्रकार ने स्कन्दक परिव्राजक के द्वारा धर्मकथाश्रवण से लेकर प्रवजित होकर निर्ग्रन्थ धर्माचरण तक का विवरण प्रस्तुत किया है / यहाँ पूर्वापर सम्बद्ध विषय क्रम इस प्रकार है-स्कन्दक की धर्म-श्रवण की इच्छा, भगवान् द्वारा धर्मोपदेश, निम्रन्थ प्रवचन के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति, प्रतिबोध, संसार से विरक्ति, निग्रंथ धर्म में प्रवजित करने के लिए निवेदन, भगवान द्वारा निर्गन्थधर्मदीक्षा, तत्पश्चात् निर्मन्थधर्माचरण से सम्बन्धित समिति-गुप्ति आदि की शिक्षा, आज्ञानुसार शास्त्रोक्त साध्वाचारपूर्वक विचरण इत्यादि / कठिन शब्दों की व्याख्या-पायार-गोयरं =ज्ञानादि प्राचार और गोचर (भिक्षाटन) वेणइयविनय का आचरण या विनयोत्पन्न चारित्र / जाया-मायावत्तियं संयमयात्रा, और आहारादि की मात्रादि वृत्ति, चरण = चारित्र, करण = पिण्डविशुद्धि / अप्पुस्सुए = उत्सुकतारहित / लज्जू = लज्जावान् या रज्जू (रस्सी) की तरह सरल-अवक्र।' 38. तए णं समणे भगवं महावीरे कयंगलामो नयरीनो छत्तपलासाओ वेइयानो पडिनिक्खमइ, 2 बहिया जणवयविहारं विहरति / [38] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से निकले और बाहर (अन्य) जनपदों (देशों) में विचरण करने लगे / स्कन्दक द्वारा शास्त्राध्ययन भिक्षुप्रतिमाऽऽराधन और गुणरत्नादि तपश्चरण-- 36. तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, 2 जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक 122, (ख) भगवती टोकानुवाद (प. बंचर.) ण्ड 1, पृ. 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org