________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [ 183 इंगितमरण-यह भी पण्डितमरण है, किन्तु भक्तप्रत्याख्यानमरण का ही विशिष्ट प्रकार होने से उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया। अपडिक्कम्मे-सपडिक्कम्मे-अप्रतिकर्म और सप्रतिकर्म, ये क्रमश: पादपोपगमन और भक्त. प्रत्याख्यानमरण के ही लक्षणरूप हैं। पादपोपगमनमरण में चारों प्रकार के आहार का त्याग अनिवार्य है, साथ ही वह नियमतः अप्रतिकर्म-शरीरसंस्काररहित होता है ; जबकि भक्तप्रत्याख्यान सप्रतिकर्मशरीर की सारसंभाल करते हुए होता है। _ विघडभोई-वियट्टमोई : तीन अर्थ—(१) विकट-भोजी- अचित्त भोजी, (2) व्यावृत्तभोजी सूर्य के व्यावृत्त--प्रकाशित होने पर भोजनकर्ता-प्रतिदिन दिवसभोजी और (3) व्यावृत्तभोजी = अनेषणीय आहार से निवृत्त अर्थात् एषणीय आहारभोक्ता / ' स्कन्दक द्वारा धर्मकथाश्रवण, प्रतिबोध, प्रवज्याग्रहण और निम्रन्थधर्माचरण ___ 32. [1] एत्थ णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते संबुद्ध समणं भगवं महावीरं वदह नमसइ, 2 एवं वदासी–इच्छामि णं भंते ! तुम्भ अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्म निसामेत्तए / [2] अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [32-2] (भगवान महावीर के इन (पूर्वोक्त) वचनों से समाधान पाकर) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ / उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके यों कहा-'भगवन् ! मैं आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहता है।' [32-2] हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। 33. तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयस्स कच्चायणसगोत्तस्स तोसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ / धम्मकहा माणियव्बा। [33] इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बड़ी परिषद् को धर्मकथा कही। (यहाँ धर्मकथा का वर्णन (औपपातिक सत्र के अनुसार) करना चाहिए।) 34. तए णं से खंदए कच्चायणसगोत्ते समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतु? जाव हियए उट्ठाए उठेइ, 2 समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पद्याहिणं करेइ, 2 एवं वदासी-सहहामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोएमिनं भंते ! निगथं पावयणं, प्रभुठेमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, एवमेयं भंते! , तहमेयं भंते ! , अवितहमेयं भंते !, असंदिद्धमेयं भंते !, इच्छियमेय भंते !, पडिच्छियमेयं भंते !, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते !, से जहेयं तुम्मे वदह त्ति कटु समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, 2 उत्तरपुरस्थिमं दिसोभायं 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्रांक 118, (ख) भगवती. मू. पा. टि. भा. 1, पृ. 81, (ग) भगवती. प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 25. 553 (घ) पाचारांग ध्रु. 1 अ.९ में, उत्तरा. 2 / 4, तथा समवायांग 11 में 'वियड' शब्द का यही अर्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org