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________________ 182] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनि रिम / यह दोनों प्रकार का भक्तप्रत्याख्यान-मरण नियम से सप्रतिकर्म होता है / यह है-भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप / 30. इच्चेतेणं खंदया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणतेहि नेरइयमवग्गहणेहि अप्पाणं विसंजोएइ जाव बीईवयति / से तं मरमाणे हायइ हायइ / से तं पंडियमरणे / [30] हे स्कन्दक ! इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हा जीव नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता: यावत... संसाररूपी अटवी को उल्लंघन (पार कर जाता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है। यह है-पण्डितमरण का स्वरूप ! 31. इच्चेएणं खंदया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जोवे बड्ढइ वा हायति वा / [31] हे स्कन्दक ! इन दो प्रकार (बालमरण और पण्डितमरण) के भरणों से मरते हुए जीव का संसार (क्रमश:) बढ़ता और घटता है / विवेचन-भगवान द्वारा स्कन्दक की मनोगत शंकानों का समाधान प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (21 से 31 तक) में स्कन्दक परिव्राजक के भगवान महावीर के पास जाने से लेकर भगवान् द्वारा उसकी मनोगत शंकाओं का विश्लेषणपूर्वक यथार्थ समाधान पर्यन्त का विवरण प्रस्तुत किया गया है / उसका क्रम इस प्रकार है (1) प्रथम दर्शन में ही स्कन्दक का भगवान के अतीव तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित, चित्त में हर्षित एवं सन्तुष्ट होना तथा भगवान् के प्रति प्रीति उत्पन्न होना। उसके द्वारा भगवान की प्रदक्षिणा, वन्दना, यावत् पर्युपासना करना / (2) भगवान् द्वारा स्कन्दक के समक्ष उसकी मनोगत बातें प्रकट करना; (3) तत्पश्चात् एक-एक करके स्कन्दक की पूर्वोक्त पांचों मनोगत शंकाओं को अभिव्यक्त करते हुए भगवान् द्वारा विश्लेषणपूर्वक अनेकान्त दृष्टि से समाधान करना / __ भगवान् द्वारा किये गये समाधान का निष्कर्ष-(१) लोक द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा सान्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा अनन्त है। (2) जीव भी इसी प्रकार है / (3-4) यही समाधान सिद्धि और सिद्ध के विषय में है / (5) मरण दो प्रकार के हैं—बालमरण और पण्डितमरण / विविध बालमरणों से जीव संसार बढ़ाता है और द्विविध पण्डितमरणों से घटाता है। ___ नीहारिमे-अनीहारिम-निर्धारिम और अनियरिम, ये दोनों भेद पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान इन दोनों के हैं / निहार शब्द का अर्थ है--बाहर निकलना / निर्हार से जो निष्पन्न हो, वह निर्दारिम है। अर्थात् जो साधु उपाश्रय में ही (पूर्वोक्त दोनों पण्डितमरणों में से किसी एक से) मरण पाता है-अपना शरीर छोड़ता है। ऐसी स्थिति में उस साधु के शव को उपाश्रय से बाहर निकालकर संस्कारित किया जाता है, अतएव उस साधु का उक्त पण्डितमरण 'निहींरिम' कहलाता है / जो साधु अरण्य आदि में ही अपने शरीर को छोड़ता है-पण्डितमरण पाता है। उसके शरीर (शव) को कहीं बाहर नहीं निकाला जाता, अतः उक्त साधु का वैसा पण्डितमरण 'अनिर्झरिम' कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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