________________ दसमो उद्देसओ : 'आराहणा' दशम उद्देशक : 'आराधना श्रुत और शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से भगवान् द्वारा अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी 1. [उद्देशक का उपोद्घात] राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से) इस प्रकार पूछा 2. अन्नउत्थिया गं भंते ! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति--एवं खलु सील सेयं 1, सुयं सेयं 2, सुयं सेयं सील सेयं 3, से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जंणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि–एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहासीलसंपन्ने णामं एगे, जो सुयसंपन्ने 1; सुयसंपन्ने नाम एगे, नो सीलसंपन्ने 2; एगे सोलसंपन्ने वि सुयसंपन्ने वि 3, एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने 4 / तत्थ गंजे से पढमे पुरिसजाए से गं पुरिसे सोलवं, असुयवं, उवरए, अविण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं, सुयवं अणुवरए, विण्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं, सुयवं, उवरए, विणायधम्मे, एसणं गोयमा ! मए पुरिसे सम्वाराहए पण्णत्ते / तत्थ गंजे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं, असुतवं अणुवरए, अविण्णायधम्मे एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सम्वविराहए पण्णत्ते। [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, यावत प्ररूपणा करते हैं—(१) शील ही श्रेयस्कर है; (2) श्रुत ही श्रेयस्कर है, (3) (शीलनिरपेक्ष ही) श्रुत श्रेयस्कर है, अथवा (श्रुतनिरपेक्ष ही) शील श्रेयस्कर है; अत: हे भगवन् ! यह किस प्रकार सम्भव है ? [2 उ.] गौतम ! अत्यतीथिक, जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् उन्होंने जो ऐसा कहा है वह मिथ्या कहा है। गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ। मैंने चार प्रकार के पुरुष कहे हैं। वे इस प्रकार १–एक व्यक्ति शीलसम्पन्न है, किन्तु श्रुतसम्पन्न नहीं है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org