________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [509 ऋषभदत्त ब्राह्मणधर्मानुयायी था या श्रमणधर्मानुयायो ?—इस वर्णन से ज्ञात होता है कि ऋषभदत्त पहले ब्राह्मण-संस्कृति का अनुगामी था, इसी कारण उसे चारों वेदों का ज्ञाता तथा अन्य अनेक ब्राह्मणग्रन्थों का विद्वान् बताया है। किन्तु बाद में भगवान पार्श्वनाथ के सन्तानीय मुनियों के सम्पर्क से वह श्रमणोपासक बना / श्रमणधर्म का तत्त्वज्ञ हुआ / ' ___कठिन शब्दों का अर्थ परिवसइ = निवास करता था, रहता था। वित्त प्रसिद्ध / अपरिभूएअपरिभूत = किसी से नहीं दबने वाला, दबंग / बंभण्णएसुब्राह्मण-संस्कृति की नीति (धर्म) में। सुपरिणिहिए = परिपक्व, मॅजा हुया / भगवान को सेवा में बन्दना-पर्युपासनादि के लिए जाने का निश्चय 4. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामो समोसढे / परिसा जाव पज्जुवासति / [4] उस काल और उस समय में (श्रमण भगवान् महावीर) स्वामी वहाँ पधारे / समवसरण लगा / परिषद् यावत पर्युपासना करने लगी। 5. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमोसे कहाए लद्धछे समाणे हट जाव हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवाणदं माहणि एवं क्यासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्ण सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केण जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे जाव बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरति / तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नाम-गोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सबणयाए किमंग पुण विउलस्स अटुस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो जाव पज्जुबासामो। एयं गं इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणगामियत्ताए भविस्सइ / [5] तदनन्तर इस (श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पदार्पण को) बात को सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुअा, यावत् हृदय में उल्लसित हुया और जहाँ देवानन्दा ब्राह्मणी थी, वहाँ पाया और उसके पास आकर इस प्रकार बोला हे देवानुप्रिये ! धर्म की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर प्राकाश में रहे हुए चक्र से युक्त यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं, यावत् बहुशालक नामक चैत्य (उद्यान) में योग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचरण करते हैं। हे देवानुप्रिये ! उन तथारू, अरिहन्त भगवान् के नाम-गोत्र के श्रवण से भी महाफल प्राप्त होता है, तो उनके सम्मुख जाते, वन्दन-नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और पर्युपासना करने आदि से होने वाले फल के विषय में तो कहना ही क्या ! एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महान् फल होता है, तो फिर विपुल अर्थ को ग्रहण करने से महाफल हो, इसमें तो कहना ही क्या है ! इसलिए हे देवानुप्रिये ! हम चलें और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमन करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। यह कार्य हमारे लिए इस भव में तथा परभव में 1. भगवतीसूत्र : अर्थागम (हिन्दी) द्वितीय खण्ड पृ. 839 2. भगवती. भा. 4 (पं. घेवरचन्दी ) पृ. 1690 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org