________________ सप्तम शतक : उद्देशक-२] जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैली से निरूपण--- 36. [1] जीवा णं भंते ! कि सासता? असासता ? गोयमा ! जीवा सिय सासता, सिय प्रसासता। [36-1] भगवन् ! क्या जीव शाश्वत हैं या प्रशाश्वत हैं ? [36-1 उ.] गौतम ! जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं। [2] से केणगुण भंते ! एवं बुच्चइ 'जीवा सिय सासता, सिय प्रसासता ? गोतमा! दवट्ठताए सासता, भावयाए प्रसासता / से तेण?णं गोतमा! एवं वुच्चइ जाव सिय असासता। [36-2 प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं ? [36-2 उ.] गौतम ! द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत हैं, और भाव (पर्याय) की दृष्टि से जीव अशाश्वत हैं / हे गौतम ! इस कारण ऐसा कहा गया है कि जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं। 37. नेरइया णं भंते ! कि सासता? असासता? एवं जहा जोवा तहा नेरइया वि / [37 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत हैं ? [37 उ.] जिस प्रकार (ोधिक) जीवों का कथन किया था, उसी प्रकार नरयिकों का कथन करना चाहिए। 38. एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासता। सेवं भंते ! सेवं भंते / त्तिक / // सत्तम सए : वितिम्रो उद्देसश्रो समत्तो।। [38] इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों के विषय में कथन करना चाहिए कि वे जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित् अशाश्वत हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं'; यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरने लगे। विवेचन-जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैलो से प्ररूपण- प्रस्तुत तीन सूत्रों में जीवों एवं चौवीस दण्डकों के विषय में शाश्वतता-प्रशाश्वतता का विचार स्याद्वादशैली में प्रस्तुत किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org