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________________ 160 ] [ न्यास्याप्रज्ञप्तिसून ऐर्यापथिकी और साम्परायिको क्रियासम्बन्धी चर्चा 2. अन्नउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव–एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियानो पकरेति, तं जहा–इरियावहियं च संपराइयं च / जं समयं इरियावहियं पकरेइ तं समय संपराइयं पकरेइ०, परउत्थियवत्तव्वं' नेयव्वं / / ससमयवत्तव्वयाए नेयव्वं जाव' इरियावहियं वा संपराइयं वा / [2 प्र.] भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि एक जीक एक समय में दो क्रियाएँ करता है। वह इस प्रकार - ऐपिथिकी और साम्परायिकी। जिस समय (जीव) एपिथिकी क्रिया करता है, उस समय साम्परायिकी क्रिया करता है और जिस समय साम्परायिकी क्रिया करता है, उस समय ऐपिथिको क्रिया करता है / ऐपिथिकी क्रिया करने से साम्परायिकी क्रिया करता है और साम्परायिकी क्रिया करने से ऐपिथिकी क्रिया करता है। इस प्रकार एक जीव, एक समय में दो क्रियाएँ करता है-एक ऐपिथिकी और दूसरी साम्परायिकी। हे भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ? 2 उ.] गौतम ! जो अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं, यावत्--उन्होंने ऐसा जो कहा है, सो मिथ्या कहा है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ कि एक जीव एक समय में एक क्रिया करता है। यहाँ परतीथिकों का तथा स्वसिद्धान्त का वक्तव्य कहना चाहिए। यावत् ऐर्यापथिकी अथवा साम्परायिकी क्रिया करता है। विवेचन-ऐ-पथिको और साम्परायिकी क्रियासम्बन्धी चर्चा---प्रस्तुत (सू० 2) सूत्र में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी, दोनों क्रियाएँ एक समय में होती हैं, या नहीं; इसकी चर्चा अन्यतीथिकों का पूर्वपक्ष देकर प्रस्तुत की गई है। __ ऐपिथिकी-जिस क्रिया में केवल योग का निमित्त हो, ऐसी कषायरहित-वीतरागपुरुष की क्रिया / साम्परायिकी-जिस क्रिया में योग का निमित्त होते हुए भी कषाय की प्रधानता हो ऐसी सकषाय जोव को क्रिया / यही क्रिया संसार-परिभ्रमण का कारण है / पच्चीस क्रियायों में से चौबीस क्रियाएँ साम्परायिकी हैं, सिर्फ एक ऐपिथिकी है / 1. पर उत्यियवत्त -अन्यतीथिकवक्तव्य का पाठ इस प्रकार है " समयं संपराइयं पकरेइत समयं इरियावहियं पकरेइ इरियावहियापकरणताए संपराइयं पकरेह, संपराइययकरणयाए इरियावहियं पकरेइ; एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेति, तं जहा इरियावहियं च संपराइयं च ।"-भगवती अ. वृति. 2. स्वसमयवक्तव्यता के सन्दर्भ में 'जान' पदसूचक पाठ "से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा! "जं णं ते अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव संपराइयं च, जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमाहंसु; अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि 4-- एवं खलु एगे जोवे एगणं समएणं एगं किरियं पकरेइ, तं जहा" -भगवती. अ. वृति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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