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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-१० ] [ 161 एक जीव द्वारा एक समय में ये दो क्रियाएं सम्भव नहीं-जीव जब कषाययुक्त होता है, तो कषायरहित नहीं होता और जब कषायरहित होता है, तो सकषाय नहीं हो सकता / दसवें गुणस्थान तक सकषायदशा है। आगे के गुणस्थानों में प्रकषाय-अवस्था है / ऐर्यापथिको अकषाय-अवस्था को किया है, साम्परायिको कषाय-अवस्था को / अतएव एक ही जीव एक ही समय में इन दोनों क्रियाओं को नहीं कर सकता। नरकादि गतियों में जीवों का उत्पाद-विरहकाल 3. निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उबवातेणं पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं धारस मुहुत्ता / एवं वक्कंतीपदं भाणितव्वं निरवसेसं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरति / // समो उद्देसमो समत्तो॥ // पदम सतं समत्तं // पतत. [3 प्र.] भगवन् ! नरकगति, कितने समय तक उपपात से विरहित रहती है ? [3 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहर्त तक नरकगति उपपात से रहित रहती है / इसी प्रकार यहाँ (प्रज्ञापनासूत्र का सारा) 'व्युत्क्रान्तिपद' कहना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह ऐसा ही है, यह ऐसा ही है, इस प्रकार कहकर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन-नरकादि गतियों तथा चौबीसदण्डकों में उत्पाद-विरहकाल-प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद का अतिदेश करके नरकादि गतियों में जीवों की उत्पत्ति (उपपात = उत्पाद) के विरहकाल की प्ररूपणा की गई है। नरकादि में उत्पाद विरहकाल-प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार विभिन्न गतियों में जोवों के उत्पाद का विरहकाल संक्षेप में इस प्रकार है-पहली नरक में 24 मुहूर्त का, दूसरी में 7 अहोरात्र का, तीसरी में 15 अहोरात्र का, चौथी में 1 मास का, पांचवी में दो मास का, छठी में चार मास का, सातवों में छह मास का विरहकाल होता है। इसी प्रकार तियंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य एवं देवगति में जघन्य एक समय का, उत्कृष्ट 12 मुहूर्त का उत्पादविरहकाल है / पंचस्थावरों में कभी विरह नहीं होता, विकलेन्द्रिय में और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में अन्तर्मुहर्त का तथा संज्ञी-तिर्यञ्च एवं संज्ञी मनुष्य में 12 मुहूर्त का विरह होता है। सिद्ध अवस्था में उत्कृष्ट 6 मास का विरह होता है। इसी प्रकार उद्वर्तना के विरहकाल के विषय में भी जानना चाहिए / ' // प्रथम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / प्रथम शतक सम्पूर्ण 1. भगवतीसूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 106 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 107-108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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