________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीव, चौवीस दण्डक एवं सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से साकारोपयोग-अनाकारोपयोग भाव की अपेक्षा प्रथमत्व-अप्रथमत्वकथन 57. सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता एगत्त-पुहत्तेणं जहा अणाहारए (सु० 12-17) / [57] साकारोपयुक्त और अनाकारोपयुक्त जीव, एकवचन और बहुवचन से (सू. 12-17 में उल्लिखित) अनाहारक जीवों के समान हैं / विवेचन–(११) उपयोगद्वार-प्रस्तुत द्वार (स. 57) में बताया गया है कि साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) तथा अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले जीव, अनाहारक के समान, कथंचित् प्रथम और कथंचित् अप्रथम जानना चाहिए / प्रथम और अप्रथम किस अपेक्षा से? यह जीवपद में सिद्ध जीव की अपेक्षा प्रथम और संसारी जीव की अपेक्षा अप्रथम हैं / अर्थात्-नैरयिक से लेकर वैमानिक दण्डक तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों में संसारीजीवत्व की अपेक्षा से दोनों उपयोग प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा से सिद्धजीवों में ये दोनों उपयोग प्रथम हैं, अप्रथम नहीं। क्योंकि साकारोपयोगअनाकारोपयोग-विशिष्ट सिद्धत्व की प्राप्ति प्रथम ही होती है।' जीव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकवचन और बहुवचन से सवेद-अवेद भाव को अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व अप्रथमत्व निरूपण 58. सवेदगो जाव नपुंसगवेदगो एगत-पुहत्तेणं जहा आहारए (सु० 9-11), नवरं जस्स जो वेदो अस्थि / [58] सवेदक यावत् नपुसकवेदक जीव, एकवचन और बहुवचन से, (सू. 6-11 में उल्लिखित) आहारक जीव के समान हैं। विशेष यह है कि, जिस जीव के जो वेद हो, (वह कहना चाहिए)। 59. अवेदमओ एगत्त-पुहत्तेणं तिसु वि पएसु जहा अकसायी ( सु० 46-50) / [56] एकवचन और बहुवचन से, अवेदक जीव, तीनों पदों अर्थात् जीव, मनुष्य और सिद्ध में (सू. 46-50 में उल्लिखित) अकषायी जीव के समान हैं। विवेचन--(१२) वेद-द्वार-प्रस्तुत द्वार (सू. 58-56) में सवेदक एवं अवेदक जीवों के वेदभाव-अवेदभाव की अपेक्षा से यथायोग्य प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है। सवेदी अप्रथम और अवेदी प्रथम क्यों ?-संसारी जीवों के वेद अनादि होने से वे पाहारक जीव के समान अप्रथम हैं, किन्तु विशेष यही है कि नारक प्रादि जिस जीव का नपुसक प्रादि वेद है, वह कहना चाहिए। अवेदक जीव, जीवपद और मनुष्यपद में, अकषायो की तरह, कदाचित् प्रथम है और कदाचित् अप्रथम है / सिद्धपद में सिद्धत्व की अपेक्षा प्रथम ही है, अप्रथम नहीं।' 1. भगवती, अ. बृत्ति पत्र-७३५ 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र-७३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org