________________ 126 द्वितीय उद्देशक : जयन्ती (श्रमणोपासिका) जयन्ती श्रमणोपासिका और तत्संबंधित व्यक्तियों का परिचय 126, जयन्ती श्रमणोपासिका : उदयननप-मगावती देवी सहित सपरिवार भगवान् की सेवा में 127, कर्म गुरुत्व-लघुत्व संबंधी जयन्तीप्रश्न और भगवत्समाधान 131, भवसिद्धिक जीवों के विषय में परिचर्चा 131, सुप्तत्व-जागतत्व, सबलत्व-दुर्बलत्व एवं दक्षत्व-पालसित्व के साधुताविषयक प्रश्नोत्तर 133, इन्द्रियवशात जीवों का बन्धादि दुष्परिणाम 137, जयन्ती द्वारा प्रव्रज्याग्रहण और सिद्धि गमन 137. तृतीय उद्देशक : पृथ्वी सात नरक-पृथ्वियाँ–ताम-गोत्रादिवर्णन 139 चतुर्थ उद्देशक : पुद्गल दो परमाण-पुदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 140, तीन परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभागनिरूपण 140, चार परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभागनिरूपण 141, पांच परमाण-पुदगलोंका संयोग-विभाग-निरूपण 141, छह परमाण-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 142, सात परमाणु-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 143, माठ परमाणु-पुद्गलों का संयोगविभाग-निरूपण 144, नौ पदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 145, दस परमाण-पूदगलों का संयोग-विभाग-निरूपण 148, संख्यात परमाण-पुद्गलों का संयोग-विभाग-निरूपण 151, असंख्यात परमाणु-पुद्गलों का संयोग विभाग-तिरूपण 153, अनन्त परमाणु-पुद्गलों के संयोग-विभाग-निष्पन्न भंग-प्ररूपणा 155, परमाण-पद्गलों का पुदगलपरिवर्त्त और उसके प्रकार 157, एकत्वदृष्टि से चौबीस दण्डकों में चौबीस दण्डकवर्ती जीवत्व के रूप में प्रतीतादि सप्तविध पद्गलपरिवर्त प्ररूपणा 161, सप्तविध पद्गल परिवत्तों का निर्वर्तनाकाल-निरूपण 168, सप्तविध पद्गल परिवत्तों के निस्पत्तिकाल का अल्पबहुत्व 168, सप्तविध पुदगल परिवत्र्तों का अल्पबहुत्व 170 पंचम उद्देशक : अतिपात प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-प्ररूपणा 171, अठारह पापस्थान-विरमण में वर्णादि का अभाव 174, चार बुद्धि, अवग्रहादि चार, उत्थानादि पाँच के विषय में वर्णादिप्ररूपणा 175, अवकाशान्तर, तनुवात-घनवात-घनोदधि, पृथ्वी आदि के विषय में वर्णादिप्ररूपणा 176, चौवीस दण्डकों में वर्णादिप्ररूपणा 178, धर्मास्तिकाय से लेकर ग्रद्धाकाल तक में वर्गादिप्ररूपणा 179, गर्भ से प्रागमन के समय जीव में वर्णादिप्ररूपणा 182, कमों से जीव का विविध रूपों में परिणमन 182. 171 183 छठा उद्देशक : राहु राह : स्वरूप, नाम और विमानों के वर्ण तथा उनके द्वारा चन्द्रग्रसन के भ्रम का निराकरण 153, ध्र वराहु और पर्वराहु का स्वरूप एवं दोनों द्वारा चन्द्र को प्रावत-अनावत करने का कार्यकलाप 186, चन्द्र को शशि-सश्री और सूर्य को आदित्य कहने का कारण 188, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org