________________ [651 अठारहवां शतक : उद्देशक 1] 10. एवं जाव वेमाणिए / [10] इसी प्रकार नै रयिक से लेकर वैमानिक तक जानना चाहिए / 11. पोहत्तिए एवं चेव। [11] बहुवचन में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / 12. अणाहारए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं० पुच्छा। गोयमा ! सिय पढमे, सिय अपढमे। [12 प्र.] भगवन् ! अनाहारक जीव, अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [12 उ.] गौतम ! (प्रनाहारकजोव, अनाहा रकत्व की अपेक्षा से) कदाचित् प्रथम होता है, कदाचित् अप्रथम / 13. नेरतिए णं भंते ! * ? एवं नेरतिए जाव वेमाणिए नो पढमे, अपढमे / [13 प्र.) भगवन् ! नैरपिक जोव, अनाहारकभाव से प्रथम है या अप्रथम ? [13 उ.] गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। इसी प्रकार नैरयिक से लेकर वैमानिक तक (अनाहारकभाव की अपेक्षा मे) प्रथम नहीं, अप्रथम जानना चाहिए। 14. सिद्ध पढमे, नो अपढमे / [14] सिद्धजीव, अनाहारकभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / 15. प्रणाहारगाणं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं० पुच्छा / गोयमा ! पढमा वि, अपढमा वि / [15 प्र.] भगवन् ! अनेक अनाहारकजीव, अनाहारकभाव को अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम? [15 उ.गौतम ! वे प्रथम भी हैं और अप्रथम भी। 16. नेरतिया जाव बेमाणिया णो पढमा, अपठना / [16] इसी प्रकार अनेक नैरयिक जीवों से लेकर अनेक वैमानिकों तक (अनाहारकभाव को अपेक्षा से) प्रथम नहीं, अप्रथम हैं / 17. सिद्धा पढमा, नो अपढमा / एक्केक्के पुच्छा भाणियन्वा / [17] सभी सिद्ध (अनाहारकभाव को अपेक्षा से) प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / इसी प्रकार प्रत्येक दण्डक के विषय में इसी प्रकार पृच्छा (करके समाधान) कहना चाहिए। विवेचन--(२) आहारकद्वार-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 6 से 17 तक) में प्राहारक एवं अनाहारकभाव की अपेक्षा से शंका-समाधान प्रस्तुत किया गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org