________________ 148 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [20 प्र. भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार विशेषरूप से कहते हैं, इस प्रकार बताते हैं, और इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता (बाँधता) है / वह इस प्रकार--इस भव का आयुष्य और परभव का प्रायुष्य / जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता है, उस समय इहभव का आयुष्य करता है। इस भव का आयुष्य करने से परभव का प्रायुध्य करता है और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो अायुष्य करता है---इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य / भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ? [20 उ.] गौतम ! अन्यतीथिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस भव का प्रायुष्य और परभव का आयुष्य (करता है); उन्होंने जो ऐसा कहा है, वह मिथ्या कहा है। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि-एक जीव एक समय में एक प्रायुष्य करता है और वह या तो इस भव का आयुष्य करता है अथवा परभव का आयुष्य करता है / जिस समय इस भव का श्रायुष्य करता है, उस समय परभव का प्रायुष्य नहीं करता और जिस समय परभव का प्रायुष्य करता है, उस समय इस भव का अायुष्य नहीं करता। तथा इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य नहीं करता / इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है—इस भव का आयुष्य अथवा परभव का आयुष्य / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; ऐसा कहकर भगवान् गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा प्रस्तुत सूत्र में अन्यमतमान्य आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा प्रस्तुत करके भगवान् के द्वारा प्रतिपादित सैद्धान्तिक प्ररूपणा प्रदर्शित की गई है। प्रायुष्य करने का अर्थ- यहाँ आयुष्य बाँधना है। दो आयुष्यबन्ध क्यों नहीं ?-यद्यपि अायुष्यबन्ध के समय जीव इस भव के आयुष्य को वेदता है, और परभव परभव के आयुष्य को बांधता है, किन्तु उत्पन्न होते हो या इसी भव में एक साथ दो अायुष्यों का बंध नहीं करता; अन्यथा, इस भव में किये जाने वाले दान-धर्म आदि सब व्यर्थ हो जाएंगे।' पापित्यीय कालास्यवेषिपुत्र का स्थविरों द्वारा समाधान और हृदयपरिवर्तन 21. [1] तेणं कालेणं तेणं समएणं पासाच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते गाम अणगारे जेगेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं वयासो--थेरा सामाइयं ण जाणंति, थेरा सामाइयत्स अट्ठण याणंति, थेरा पच्चक्खाणं ण याति, थेरा पच्चक्खाणस्स अट्टण याणंति, थेरा संजमं ग याणंति, थेरा संजमस्स अट्टण याति, थेरा संवरं ण याणंति, थेरा संवरस्स अट्र ण याणंति, थेरा विवेगं ण याणंति, थेरा विवेगस्स अट्टण याणंति, थेरा विउस्सगं ण याति, थेरा विउस्सग्गस्स अट्टण याणति / 1. भगवती सूत्र, अ. वृत्ति पत्रांक 98, 99 -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org