________________ प्रथम शतक : उद्देशक-] [ 147 हंता गोयमा ! कखा-पदोसे खोणे जाव अंतं करेति / [19 प्र.] भगवन ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम (चरम) शरीरी होता है ? अथवा पूर्वावस्था में बहुत मोह वाला होकर विहरण करे और फिर संवृत (संवरयुक्त) होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? | [19 उ.] हाँ, गौतम ! कांक्षाप्रदोष नष्ट हो जाने पर यावन् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन-श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त तथा अन्तकर-प्रस्तुत तीन सूत्रों (17 से 19 तक) में से दो सूत्रों में लाघव आदि श्रमणगुणों को श्रमनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त बताया है, शेष तृतीय सूत्र में कांक्षाप्रदोषक्षीणता एवं संबतता से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सर्वदुःखों का अन्तकर होने का निर्देश किया गया है। लाघव मादि पदों के अर्थ लाघव-शास्त्रमर्यादा से भी अल्प उपधि रखना ! अल्पेच्छाआहारादि में अल्प अभिलाषा रखना / अमूर्छा-अपने पास रही हुई उपधि में भी ममत्व (संरक्षणानुबन्ध) न रखना / अगद्धि-आसक्ति का अभाव / अर्थात्-भोजनादि के परिभोगकाल में अनासक्ति रखना / अप्रतिबद्धता-स्वजनादि या द्रव्य-क्षेत्रादि में स्नेह या राग के बन्धन को काट डालना / कांक्षाप्रदोष-अन्यदर्शनों का आग्रह-आसक्ति, अथवा राग और प्रद्वेष / इसका दूसरा नाम कांक्षाप्रद्वेष भी है। जिसका प्राशय है--जिस बात को पकड़ रखा है, उससे विरुद्ध या भिन्न बात पर द्वेष होना।' आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में अन्यमतीय एवं भगवदीय प्ररूपणा--- 20. अनउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति एवं भाति एवं पण्णवेति एवं परूवेति---"एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं दो पाउयाई पगरेति, तं जहा—इहभवियाउयं च, परभवियाउगं च / जं समयं इहभावियाउगं पकरेति तं समयं परभवियाउगं पकरेति, जं समयं परभविया उगं पकरेति तं समय इहवियाउगं पकरेइ; इहवियाउगस्स पकरणयाए परभवियाउगं पकरेइ, परभवियाउगस्स पगरणताए इहमवियाउयं पकरेति / एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं दो प्राउयाई पकरेति, तं०इहभविया उयं च, परभवियाउयं च / " से कहमेतं भंते ! एव ? / गोयमा ! जणं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंति जाव परभवियाउयं च / जे ते एवमासु मिच्छं ते एबमासु / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाब पवेमि-एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एग पाउगं पकरेति, तं जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा; जं समयं इहवियाउयं पकरेति जो तं समय परभविघाउयं पकरेति, जं समयं परभवियाउयं पकरेइ जो तं समयं इहभवियाउयं पकरेइ; इहवियाउयस्स पकरणताए णो पर भविघाउयं पकरेति, परवियाउयस्स पकरणताए णो इहनवियाउयं पकरेति / एवं खलु एगे जीवे एगणं समएणं एग ग्राउ परेति, तं०-इहमवियाउय बा, परभविधाउयं वा। सेवं भंते ! सेवं भंते! ति भगवंगोयमेज 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org