________________ है। शक्ति परिमाण में परिवर्तन नहीं किन्तु गुण की दृष्टि से परिवर्तनशील है। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय पाकर्षण प्रादि का ह्रास नहीं होता, अपितु वे एक दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं। उत्पाद, धोव्य और व्यय द्रव्यों का यह त्रिविध लक्षण प्रतिक्षण घटित होता रहता है। इस शब्दावली में और जिसे "द्रव्य का नाश होना समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमनमात्र है।" इन शब्दों में कोई अन्तर नहीं है। वस्तु की दृष्टि से इस विश्व में जितने द्रव्य हैं उतने ही द्रव्य सदा अवस्थित रहते हैं। सापेक्षदृष्टि से ही जन्म और मरण है / नवीन पर्याय का उत्पाद जन्म है और पूर्व पर्याय का विनाश मृत्यु है। सांख्यदर्शन ने पुरुष को नित्य और प्रकृति को परिणामीनित्य मानकर नित्यानित्यत्ववाद की संस्थापना की है। नैयायिक और वैशेषिक परमाण, आत्मा प्रभति को नित्य मानते हैं और घट, पट प्रभति को अनित्य मा हैं। इस तरह समूह की दृष्टि से वे परिणामित्व एवं नित्यत्ववाद को स्वीकार करते हैं। पर जैनदर्शन की भाँति द्रव्य मात्र को परिणामी नित्य नहीं मानते। यह भी सत्य तथ्य है कि महर्षि पतञ्जलि और प्राचार्य कुमारिल भट्ट, पार्थसार प्रति मनीषियों ने परिणामोनित्यत्ववाद को स्पष्ट सिद्धान्त के रूप में मान्यता नहीं दी है, तथापि परिणामोनित्यत्ववाद का प्रकारान्तर' से पूर्ण समर्थन किया है। द्रव्य शब्द अनेकार्थक है / सत् तत्त्व और पदार्थपरक प्रर्थ पर हम कुछ चिन्तन कर चुके हैं। सामान्य के लिए भी द्रव्य शब्द व्यवहृत हमा है और विशेष के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। सामान्य भी तिर्यक सामान्य और ऊर्वतासामान्य के रूप में दो प्रकार का है। एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में समानता का होना तिर्यक सामान्य है। जब कालकृत विविध अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय (समानता) विवक्षित हो या एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, वह एकत्वसूचक अंश ऊर्ध्वतासामान्य है / जीव के संसारी और मुक्त इन दो भेदों में रहने वाला जीवत्व या संसारी के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक 5 भेदों में रहा हा संसारी जीवत्व आदि तिर्यक सामान्य हैं। द्रव्याथिक दृष्टि से जीव शाश्वत है, यह जीव का ऊर्ध्वतासामान्य है। गणधर मौतम ने श्रमण भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-'द्रव्य कितने प्रकार का है?' समाधान की भाषा में भगवान ने कहा---'द्रव्य के जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये दो प्रकार हैं। पुन: जिज्ञासा प्रस्तुत की--अजीव द्रव्य कितने प्रकार का है ?' समाधान के रूप में कहा गया-'वह रूपी और प्ररूपी के भेद 291. द्रव्यं नित्यमाकृति रनित्या / सुवर्ण कदाचिदाकृत्या युक्तः पिण्डो भवति पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते / रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका: क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते / पुनरावृतः सुवर्णपिण्डः / ...... प्राकृतिरन्या चान्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव / प्राकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते। -पातञ्जल योगदर्शन वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्राप्तिश्चाप्यूत्तराथिनः / / 1 // हेमाथिनस्तु माध्यस्थं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम् / / 2 / / न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् / स्थित्वा विना न माध्यस्थ्यं, तेन सामान्यनित्यता // 3 // -कुमारिल्ल भट्टः~-मीमांसा श्लोकवार्तिक, पृष्ठ 619 ' [1] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org