________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५ ] | 217 तिक्खुतो प्रायाहिण-पयाहिणं करेंति, 2 जाव' तिविहाए पन्जुवासणाए पज्जुवासें ति, तं जहाकाइ० वाइ० माण। तत्य काइयाए-संकुचियपाणि-पाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएण पंजलिउडे पज्जुवासंति / वाइयाए-जं जं भगवं वागरेति 'एवमेयं भंते !, तहमेयं भं० !, प्रवित हमेयं भं०!, असंदिद्धमेयं भं० !, इच्छिय मेयं भं० !, पडिच्छियमेयं भ० !, इच्छियपडिच्छियमे यं भ!, बायाए अपडिकूलेमाणा विणएणं पज्जुवासंति / माणसियाए–संवेग जणयंता तिव्वधम्माणुरागरत्ता विगह-विसोत्तियपरिवज्जियमई अन्नस्थ कत्थइ मणं अकुव्वमाणा विणएणं पज्जुवासंति / [14] जब यह बात तुगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हषित और सन्तुष्ट हुए, यावत् परस्पर एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे-हे देवानुप्रियो ! (सुना है कि) भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त, जो कि जातिसम्पन्न आदि विशेषणविशिष्ट हैं, यावत् (यहाँ पधारे हैं) और यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं / हे देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवन्तों के नामगोत्र के श्रवण से भी महाफल होता है, तब फिर उनके सामने जाना, वन्दन-नमस्कार करना, उनका कुशल-मंगल (सुख-साता) पूछना और उनकी पर्युपासना (सेवा) करना, यावत् ......"उनसे प्रश्न पूछ कर अर्थ-ग्रहण करना, इत्यादि बातों के (अवश्य कल्याण रूप) फल का तो कहना ही क्या ? अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब उन स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। ऐसा करना अपने लिए इस भव में तथा परभव में हित-रूप होगा; यावत् परम्परा से (परलोक में कल्याण का) अनुगामी होगा। इस प्रकार बातचीत करके उन्होंने उस बात को एक दुसरे के सामने (परस्पर स्वीकार किया। स्वीकार करके वे सब श्रमणोपासक अपने-अपने घर गए। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म (कौए, कुत्ते, गाय आदि को अन्नादि दिया, अथवा स्नान से सम्बन्धित तिलक, छापा आदि कार्य) किया। (तदनन्तर दुःस्वप्न आदि के फलनाश के लिए) कौतुक और मंगल-रूप प्रायश्चित्त किया / फिर शुद्ध (स्वच्छ), तथा धर्मसभा आदि में प्रवेश करने योग्य (अथवा शुद्ध आत्मानों के पहनने योग्य) एवं श्रेष्ठ वस्त्र पहने / थोड़े-से, (या कम वजन वाले) किन्तु बहुमूल्य आभरणों (प्राभूषणों) से शरीर को विभूषित किया / फिर वे अपने-अपने घरों से निकले, और एक जगह मिले / (तत्पश्चात) वे सम्मिलित होकर पैदल चलते हुए तुगिका नगरी के बीचोबीच होकर निकले और जहाँ पुष्पवतिक चैत्य था, वहाँ आए। (वहाँ) स्थविर भगवन्तों (को दूर से देखते ही, उन) के पास पांच प्रकार के 1. 'जाव' पद से यह पाठ समझना चाहिए-'वंदति णमसंति पच्चासत्ने गाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा।' 2. 'तं जहा' से लेकर 'पज्जुवासंति' तक का पाठ अन्य प्रतियों में नहीं है / औपपातिक सूत्र से उधत किया हुआ प्रतीत होता है।--"तं जहा—काइयाए वाइयाए माणसिपाए। काइयाए ताव संकुइअग्गहस्थ-पाए सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ। वाइयाए जं जं भगवं वागरेइ एवमेयं भंते ! लहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छिअमेअं भंते ! पडिन्छिअमेअंमते ! इच्छियपाहिच्छियमेयं भंते ! से जहेपं तुम्भे वह अपडिकूलमाणे पज्जुवासति / माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिश्वधम्माणुरागरत्तो पज्जुवासइ / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org