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________________ 218 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अभिगम करके गए। वे (पांच अभिगम) इस प्रकार हैं-(१) (अपने पास रहे हुए) सचित्त द्रव्यों (फूल, ताम्बूल आदि) का त्याग करना, (2) अचित्त द्रव्यों (सभाप्रवेश योग्य वस्त्रादि) का त्याग न करना–साथ में रखना (अथवा मर्यादित करना); (3) एकशाटिक उत्तरासंग करना (एक पट के बिना सिले हुए वस्त्र-दुपट्टे को (यतनार्थ मुख पर रखना); (4) स्थविर-भगवन्तों को देखते ही दोनों हाथ जोड़ना, तथा (5) मन को एकाग्न करना। __यों पांच प्रकार का अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों के निकट पहुँचे / निकट आकर उन्होंने दाहिनी ओर से तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया यावत् कायिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार से उनकी पर्युपासना करने लगे। वे हाथ-पैरों को सिकोड़ कर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, उनके सम्मुख विनय से हाथ जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं / जो-जो बातें स्थविर भगवान् फरमा रहे थे, उसे सुनकर - 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह तथ्य है, यही सत्य है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह इष्ट है, यह प्रतीष्ट (अभीष्ट) है, हे भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है,' इस प्रकार वाणी से अप्रतिकूल (अनुकल) होकर विनयपूर्वक वाणी से पयू पासना करते हैं तथा मन से (हृदय में) संवेगभाव उत्पन्न करते हए तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह (कलह) और प्रतिकूलता (विरोध) से रहित बुद्धि होकर, मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हुए विनयपूर्वक (मानसिक) उपासना करते हैं। विवेचन-तुगिकानिवासी श्रमणोपासक पार्खापत्यीय स्थविरों की सेवा में--प्रस्तुत दो सूत्रों में शास्त्रकार ने तुगिका के श्रमणोपासकों द्वारा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविरमुनियों के दर्शन, प्रवचन-श्रवण, वन्दन-नमन, विनयभक्ति पर्युपासना आदि को महाकल्याणकारक फलदायक समझकर उनके गुणों से प्राकृष्ट होकर उनके दर्शन, वन्दना, पर्युपासना आदि के लिए पहुँचने का वर्णन किया है / इस वर्णन से भगवान् महावीर के श्रमणोपासकों की गुणग्राहकता, उदारता, नम्रता और शिष्टता का परिचय मिलता है। पाश्र्वनाथतीर्थ के साधनों को भी उन्होंने स्वतीर्थीय साधुनों की तरह ही वन्दना-नमस्कार, विनयभक्ति एवं पर्युपासना की थी। साम्प्रदायिकता को गन्ध तक न याने दी। कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता-दो विशेष अर्थ-(१) उन्होंने दुःस्वप्न आदि के दोष निवारणार्थ कौतुक और मंगलरूप प्रायश्चित्त किया, (2) उन्होंने कौतुक अर्थात् मषी का तिलक और मंगल अर्थात-दही, अक्षत, दुब के अंकुर आदि मांगलिक पदार्थों से मंगल किया और पा पादच्छुप्त = एक प्रकार के पैरों पर लगाने के नेत्र दोष निवारणार्थ तेल का लेपन किया। 15. तए णं ते थेरा भगवंतो तेसि समणोवासयाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति, जहा केसिसामिस्स जाव' समणोवासियत्ताए प्राणाए पाराहगे भवंति जाव धम्मो कहिओ। 1. भगवतीसूत्र टीका नुवाद (पं, बेच रदासजी) खण्ड 1, पृ. 287 2. काजल की टिकी-नजर दोष से बचने के लिए लगाई जाती है। 3. 'जाय' पद से यहाँ निम्नोक्त राजप्रश्नीय सूत्र (पृ. १२०)में उल्लिखित केशीस्वामि-कथित धर्मोपदेशादि का वर्णन समझना चाहिए---'तोसे महतिमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ बेरमणं....""सध्वाओ बहिद्वादाणाओ वेरमणं.......' इत्यादि-भगवती मू. पा. टि. प्र. 103-104 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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