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________________ 192] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ग्रहण करने से पूर्व उतनी अवधि तक उसके अभ्यास करने तथा सबसे क्षमापना करके निःशल्य, निष्कषाय होने का उल्लेख है।' गुणरत्न (गुणरचन) संवत्सर तप-जिस तप में गुणरूप रत्नों वाला सम्पूर्ण वर्ष बिताया जाए वह गुणरत्न संवत्सर तप कहलाता है। अथवा जिस तप को करने में 16 मास तक एक ही प्रकार की निर्जरारूप विशेष गुण की रचना (उत्पत्ति) हो, वह गुणरचन-संवत्सर तप है / इस तप में 16 महीने लगते हैं जिनमें से 407 दिन तपस्या के और 73 दिन पारणे के होते हैं / शेष सब विधि मूलपाठ में है। उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत : तपोविशेषणों की व्याख्या-उदार-लौकिक आशारहित होने से उदार, विपुल–दीर्घकाल तक चलने वाला होने से विपुल, प्रदत्त प्रमाद छोड़कर अप्रमत्ततापूर्वक प्राचरित होने से प्रदत्त तथा प्रगृहीत-बहुमानपूर्वक आचरित होने से प्रगृहीत कहलाता है / उत्तमउत्तम पुरुषसेवित, या तम-अज्ञान से ऊपर / स्कन्दक द्वारा संलेखना-भावना, अनशन-ग्रहण, समाधि-मरण 47. तेणं कालेणं 2 रायगिहे नगरे जाव समोसरणं जाव परिसा पडिगया। [47] उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई / यावत् जनता भगवान् का धर्मोपदेश सुनकर वापिस लौट गई। 48. तए णं तस्स खंदयस्स प्रणगारस्स अण्णया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूबे अज्झस्थिए चितिए जाव (सु. 17) समुप्पज्जिस्था-"एवं खलु अहं इमेणं एयारूवेणं मोरालेणं जाव (सु. 46) किसे धमणिसंतए जाते जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवंजीवेणं चिट्ठामि, जाव गिलामि, जाव (सु. 46) एवामेव अहं पि ससई गच्छामि, ससई चिट्ठामि, तं अस्थि ता मे उटाणे कम्मे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तं जावता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले बौरिए पुरिसक्कारपरक्कमे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहर इ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पल-कमलकोमलुम्मिल्लियम्मि प्रहपंडरे पभाए रत्तासीयपकासकिसुय-सुयमुह-गुजऽद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणय रे तेयसा जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता, समणेणं भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे सयमेव पंच महन्वयाणि आरोवेत्ता, समणा य समणीनो य खामेत्ता, तहारूदेहि थेरेहि कडाईहिं सद्धि विपुलं पन्वयं सणियं दुरूहित्ता, मेघधणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढवोसिलावट्टयं पडिले हित्ता, दम्भसंथारयं संथरित्ता, दब्भसंथारोवगयस्सं संलेहणाझसणाभूसियस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स पायोवगयस्स कालं प्रणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 त्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव पज्जुवासति / 1. (क) दशाशु तस्तकन्ध अ. के अनुसार। (ख) हरिभद्रसूरि रचित पंचाशक, पंचा. 18, गा. 5,7 (ग) विशेषार्थ देखें-ग्रापारदमा 7 (मुनि कन्हैयालालजी कमल) 2. भगवती, अ. बृत्ति, पत्रांक 124-125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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