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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [191 भिक्षुप्रतिमा की प्राराधना-निर्ग्रन्थ मुनियों के अभिग्रह (प्रतिज्ञा) विशेष को भिक्षुप्रतिमा कहते हैं / ये प्रतिमाएँ बारह होती हैं, जिनकी अवधि का उल्लेख मूल पाठ में किया है / भिक्षुप्रतिमाधारक मुनि अपने शरीर को संस्कारित करने का तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर देता है। वह अदीनतापूर्वक समभाव से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च-सम्बन्धी उपसर्गों को सहता है। जहाँ कोई जानता हो, वहाँ एक रात्रि और कोई न जानता हो, वहाँ दो रात्रि तक रहे, इससे अधिक जितने दिन तक रहे, उतने दिनों के छेद या तप का प्रायश्चित्त ग्रहण करे / प्रतिमाधारी मुनि चार प्रकार की भाषा बोल सकता है-याचनी, पृच्छनी, अनुज्ञापनी (स्थान आदि की आज्ञा लेने हेतु) और पृष्टव्याकरणी (प्रश्न का उत्तर देने हेतु)। उपाश्रय के अतिरिक्त मुख्यतया तीन स्थानों में प्रतिमाधारक निवास करे-(१)अध: आरामगृह (जिसके चारों ओर बाग हो), (2) अधोविकटगृह (जो चारों ओर से खुला हो, किन्तु ऊपर से आच्छादित हो), और (3) वृक्षमूल गृह / तीन प्रकार के संस्तारक ग्रहण कर सकता है -पृथ्वीशिला, काष्ठशिला या उपाश्रय में पहले से बिछा हुआ तृण या दर्भ का संस्तारक / उसे अधिकतर समय स्वाध्याय या ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। कोई व्यक्ति प्राग लगाकर जलाए या वध करे, मारे-पीटे तो प्रतिमाधारी मुनि को आक्रोश या प्रतिप्रहार नहीं करना चाहिए / समभाव से सहना चाहिए। विहार करते समय मार्ग में मदोन्मत्त हाथी, घोड़ा, सांड या भैंसा अथवा सिंह, व्याघ्र, सूअर आदि हिंस्र पशु सामने आ जाए तो प्रतिमाधारक मुनि भय से एक कदम भी पीछे न हटे, किन्त मग आदि कोई प्राणो डरता हो तो चार कदम पीछे हट जाना चाहिए। प्रतिमाधारी मुनि को शीतकाल में शीतनिवारणार्थ ठंडे स्थान से गर्म स्थान में तथा ग्रीष्मकाल में गर्म स्थान से ठंडे स्थान में नहीं जाना चाहिए, जिस स्थान में बैठा हो, वहीं बैठे रहना चाहिए। प्रतिमाधारी साधु को प्रायः अज्ञात कुल से और प्राचारांग एवं दर्शवकालिक में बताई हुई विधि के अनुसार एषणीय कल्पनीय निर्दोष भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। छह प्रकार की गोचरी उसके लिए बताई है --1. पेटा, 2. अर्धपेटा, 3. गोमूत्रिका, 4. पतंगवीथिका, 5. शंखावर्ता और 6. गतप्रत्यागता ! प्रतिमाधारी साधु तीन समय में से किसी एक समय में भिक्षा ग्रहण कर सकता है-(१) दिन के आदिभाग में (2) दिन के मध्यभाग में और (3) दिन के अन्तिम भाग में। पहली प्रतिमा से सातवी प्रतिमा तक उत्तरोत्तर एक-एक मास की अवधि और एक-एक दत्ति आहार और पानी की क्रमश: बढाता जाए / पाठवीं प्रतिमा सात दिनरात्रि की है, इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करके गाँव के बाहर जाकर उत्तानासन या पाश्र्वासन से लेटना या निषद्यासन से बैठकर ध्यान लगाना चाहिए / उपसर्ग के समय दृढ़ रहे / मल-मूत्रादि वेगों को न रोके / सप्त अहोरात्रि की नौवीं प्रतिमा में ग्रामादि के बाहर जाकर दण्डासन या उत्कुटुकासन से बैठना चाहिए / शेष विधि पूर्ववत् है / सप्त अहोरावि की दसवीं प्रतिमा में ग्रामादि से बाहर जाकर गोदोहासन, वीरासन या अम्बकुब्जासन से ध्यान करे / शेष विधि पूर्ववत् / एक अहोरात्रि की ग्यारहवी प्रतिमा (8 प्रहर की) में चौविहार बेला करके ग्रामादि के बाहर जाकर दोनों पैरों को कुछ संकुचित करके हाथों को घुटने तक लम्बे करके कायोत्सर्ग करे / शेषविधि पूर्ववत् / एक रात्रि को बारहवीं प्रतिमा में चौविहार तेला करके ग्रामादि से बाहर जाकर एक पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि स्थिर करके पूर्ववत् कायोत्सर्ग करना होता है / यद्यपि यह प्रतिमा जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक के ज्ञान वाला कर सकता है, तथापि स्कन्दक मुनि ने साक्षात् तीर्थंकर भगवान की प्राज्ञा से ये प्रतिमाएँ ग्रहण की थीं / पंचाशक में प्रतिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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