________________ 190] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (उत्तरोत्तर वृद्धियुक्त), उदात्त (उज्ज्वल), सुन्दर, उदार और महाप्रभावशाली तप:कर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो गए, मांसरहित हो गए, वह (उनका शरीर) केवल हड्डी और चमड़ी से ढका हुमा रह गया / चलते समय हड्डियाँ खड़-खड़ करने लगीं, वे कृश-दुर्बल हो गए, उनको नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं, अब वे केवल जीव (आत्मा) के बल से चलते थे, जोव के बल से खड़े रहते थे, तथा वे इतने दुर्बल हो गए थे कि भाषा बोलने के बाद, भाषा बोलते-बोलते भी और भाषा बोलगा, इस विचार से भी ग्लानि (थकावट) को प्राप्त होते थे, (उन्हें बोलने में भी कष्ट होता था) जैसे कोई सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्ते, तिल और अन्य सूखे सामान से भरी हई गाड़ी हो, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हई गाड़ी हो, या कोयले से भरी हुई गाड़ी हो, सभी गाड़ियाँ (गाड़ियों में भरी सामग्री) धूप में अच्छी तरह सुखाई हुई हों और फिर चलाई जाएँ तो खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती हैं, इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते थे, खड़े रहते थे, तब खड़-खड़ आवाज होती थी। यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गए थे, तथापि बे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और रक्त क्षीण (अत्यन्त कम) हो गए थे, किन्तु राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप और तेज से तथा तप-तेज की शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित हो रहे थे। विवेचन-स्कन्दक द्वारा शास्त्राध्ययन, भिक्षुप्रतिमाऽऽराधन और गुणरत्नादि तपश्चरण-- प्रस्तुत आठ सूत्रों (36 से 46 तक) में निम्रन्थदीक्षा के बाद स्कन्दक अनगार द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना किस-किस प्रकार से की गई थी ?, उसका सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया गया है। इनसे पूर्व के सूत्रों में स्कन्दक द्वारा प्राचरित समिति, गुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, संयम, ब्रह्मचर्य, महाव्रत, आदि चारित्रधर्म के पालन का विवरण प्रस्तुत किया जा चुका है। इसलिए इन सूत्रों में मुख्यतया ज्ञान, दर्शन और तप की आराधना का विवरण दिया गया है। उसका क्रम इस प्रकार है 1. स्कन्दक ने स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / 2. तत्पश्चात् भगवान् की आज्ञा से क्रमशः मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक, षण्मासिक, सप्तमासिक, फिर प्रथम सप्तरात्रिकी, द्वितीय सप्तरात्रिकी, तृतीय सप्तरात्रिको, एक अहोरात्रिकी, एवं एकरात्रिकी, यों द्वादश भिक्षुप्रतिमा का अंगीकार करके उनकी सम्यक पाराधना की। 3. तत्पश्चात् गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का स्वीकार करके यथाविधि सम्यक् आराधना की तथा अन्य विभिन्न तपस्याओं से आत्मा भावित की। 4. इस प्रकार की प्राभ्यन्तर तपश्चरण पूर्वक बाह्य तपस्या से स्कन्दक अनगार का शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, किन्तु आत्मा अत्यन्त तेजस्वी, उज्ज्वल, शुद्ध एवं अत्यन्त लघुकर्मा बन गयो। स्कन्दक का चरित किस वाचना द्वारा अंकित किया गया?–भगवान् महावीर के शासन में 6 वाचनाएँ थीं। पूर्वकाल में उन सभी वाचनात्रों में अन्य चरितों के द्वारा वे अर्थ प्रकट किये जाते थे, जो प्रस्तुत वाचना में स्कन्दक के चरित द्वारा प्रकट किये गए हैं। जब स्कन्दक का चरित घटित हो गया, तो सुधर्मा स्वामी ने वही अर्थ स्कन्दकचरित द्वारा प्रकट किया हो, ऐसा सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org