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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] [189 प्रासन से बैठकर सूर्य की प्रातापना लेना और रात्रि में अपावृत (निर्वस्त्र) होकर वीरासन से बैठना एवं शीत सहन करना। इसी तरह निरन्तर बेले-बेले (छट्ठ-छट्ठ) पारणा करना / दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख रखकर पातापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शोत सहन करना। इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले-तेले पारणा करना। इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौलेचौले (चार-चार उपवास से) पारणा करना / पाँचवें मास में पचौले-पचौले (पांच-पांच उपवास से) पारणा करना / छठे मास में निरन्तर छह-छह उपवास करना। सातवें मास में निरन्तर सात-सात उपवास करना / पाठवे मास में निरन्तर पाठ-पाठ उपवास करना / नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ उपवास करना। दसवें मास में निरन्तर दस-दस उपवास करना / ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारहग्यारह उपवास करना / बारहवें मास में निरन्तर बारह-बारह उपवास करना / तेरहवें मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना / निरन्तर चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास करना / पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना / इन सभी में दिन में उत्कुटुक पासन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में अातापना लेना, रात्रि के समय अपावृत्त (वस्त्ररहित) होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना / 45. तए णं से खंदए प्रणगारे गुणरयणसंबच्छरं तवोकम्मं महासुत्तं महाकप्पं जाव पाराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 समणं भगव महावीरं वंदई नमसइ, 2 बहि चउत्थ-छट्टष्टुम-दसम-दुवालसेहि मासऽद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरति / [45] तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने (उपर्युक्त विधि के अनुसार) गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की। इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया / और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण (मासिक उपवास), अर्द्ध मासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। 46. तए णं से खंदए अणगारे तेणं पोरालेणं, विपुलेणं पयत्तेणं पागहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धणेणं मंगल्लेग सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महागुभागेणं तवोक्कम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मसे अद्विचम्मावणद्ध किजिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था, जीवंजीवेण गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्ठइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाति, भासं भासिस्सामीति गिलाति; से जहा नाम ए कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्ततिलभंडगसगडिया इ वा एरंडकट्टसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिग्णा सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिटुइ, एवामेव खंदए वि अणगारे ससई गच्छइ, ससई चिट्ठइ, उवचिते तवेणं, अवचिए मंस-सोणितेणं, यासणे विव भासरासिपडिच्छन्ने, तवेणं तेएणं तवतेपासरीए प्रतीव 2 उवसोभेमाणे 2 चिटइ।। [46] इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस (पूर्वोक्त प्रकार के) उदार, विपुल, प्रदत्त (या प्रयत्न), प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त (शोभास्पद), उत्तम, उदग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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