________________ 18] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 42. एवं तेमासियं चाउम्मासियं पंच-छ-सत्तमा० / पढमं सत्तराइंदियं, दोच्चं सत्तराईदियं, तच्चं सत्तरातिदियं, रातिदियं, एगराइयं / [42] इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पंचमासिकी, पाण्मासिकी एवं सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा की यथावत् आराधना की। तत्पश्चात् प्रथम सप्तरात्रि-दिवस की, द्वितीय सप्त रात्रिदिवस की एवं तृतीय सप्तरात्रि-दिवस की फिर एक अहोरात्रि की, तथा एकरात्रि की, इस तरह बारह भिक्षुप्रतिमानों का सूत्रानुसार यावत् प्राज्ञापूर्वक सम्यक् अाराधन किया। 43. तए णं से खंदए अणगारे एगराइयं भिक्खुपडिम प्रहासुत्तं जाव पाराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, 2 समणं भगवं महावीरं जाव नमंसिता एवं वदासी इच्छामि गं भंते ! तुम्भेहि अन्मणुष्णाए समाणे गुगरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध / [43] फिर स्कन्दक अनगार अन्तिम एकरात्रि की भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आकर उन्हें (श्रमण भगवान् महावीर को) वन्दना-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार बोले-'भगवन ! आपकी आज्ञा हो तो मैं 'गुणरत्नसंवत्सर' नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने फरमाया-'तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो; धर्मकार्य में विलम्ब न करो।' 44. तए णं से खंदए अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे जाव नमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तं जहा- पदम मासं चउत्थं चउत्थेणं अणिविखत्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणक्कुडए सूराभिमहे पायावणभूमोए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं प्रवाउडेण य। दोच्चं मासं छट्छटठेणं अणिक्खित्तेण० दिया ठाणुक्कुए सूराभिमुहे पायावणभूमीए मायावेमाणे, रति वीरासणेणं अवाउडेण य / एव तच्चं मासं अट्टमं अट्टमेणं, चउत्थं मासं दसमं दसमेणं, पंचमं मासं बारसमं बारसमेणं, छट्ठ मासं चोद्दसम चोइसमेणं, सत्तम मासं सोलसमं 2, अनुमं मासं अट्ठारसमं 2, नवमं मासं बोसतोमं 2, दसम मास बावीसतिम 2, एक्कारसमं मासं चउन्वीसतिमं 2, बारसमं मासं छन्चीसतिम 2, तेरसमं मासं अट्ठावीसतिमं 2, चोदसमं मासं तीसतिमं 2, पानरसमं मासं बत्तीसतिम 2, सोलसमं मासं चोत्तीसतिमं 2, अनिश्वित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे पायावणभूमीए पायावेमाणे, रत्ति वीरासणेणं अवाउडेणं। [44] तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके यावत् उन्हें वन्दना-नमस्कार करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण स्वीकार करके विचरण करने लगे। जैसे कि-(गुणरत्न संवत्सर तप की विधि) पहले महीने में निरन्तर (लगातार) उपवास (चतुर्थभक्त तपःकर्म) करना, दिन में सूर्य के सम्मुख (मुख) दृष्टि रखकर आतापनाभूमि में उत्कुटुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org