________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१] {193 [48 ] तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पिछले पहर में धर्म-जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय. चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस (पूर्वोक्त) प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली तपःकर्म द्वारा शुष्क, रूक्ष यावत् कृश हो गया हूँ / यावत् मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया, मैं केवल आत्मबल से चलता है और खड़ा रहता हूँ। यहाँ तक कि बोलने के बाद, बोलते समय और बोलने से पूर्व भी मुझे ग्लानि--खिन्नता होती है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह चलते और खड़े रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़-खड़ आवाज होती है। अत: जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम है, जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर सुहस्ती (गन्धहस्ती) की तरह (या भव्यों के लिए शुभार्थी होकर) विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेयस्कर है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कोमल उत्पल कमलों को विकसित करने वाले, क्रमशः पाण्डुरप्रभा से रक्त अशोक के समान प्रकाशमान, टेसू के फूल, तोते की चोंच, गुजा के अर्द्ध भाग जैसे लाल, कमलवनों को विकसित करने वाले, सहस्ररश्मि, तथा तेज से जाज्वल्यमान दिनकर सूर्य के उदय होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार यावत् पर्युपासना करके श्रमण भगवान् महावीर की प्राज्ञा प्राप्त करके, स्वयमेव पंचमहाव्रतों का प्रारोपण करके, श्रमण-श्रमणियों के साथ क्षमापना करके कृतादि ( प्रतिलेखना आदि धर्म क्रियाओं में कुशल = 'कृत' या 'कृतयोगी',-'प्रादि पद से धर्मप्रिय, धर्मदढ़, सेवासमर्थ आदि) तथारूप स्थविर साधुओं के साथ विपुलगिरि पर शनैः शनै: चढ़कर, मेघसमूह के समान काले, देवों के अवतरणस्थानरूप पृथ्वो शिलापट्ट की प्रतिलेखना करके, उस पर डाभ (दर्भ) का संथारा (संस्तारक) निछाकर, उस दर्भ संस्तारक पर बैठकर प्रात्मा को संलेखना तथा झोषणा से युक्त करके, आहार-पानी का सर्वथा त्याग (प्रत्याख्यान) करके पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई डाली के समान स्थिर रहकर) संथारा करके, मृत्यु को प्राकांक्षा न करता हुआ विचरण करूं। इस प्रकार का सम्प्रेक्षण (विचार) किया और रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में आकर उन्हें वन्दना-नमस्कार करके यावत् पर्युपासना करने लगे। 46. 'खंदया!' इ समणे भगवं महावीरे खंदयं प्रणगारं एवं वयासी–से नणं तव खंदया ! पुवरत्तावरत जाव (सु. 48) जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव (सु. 17) समुपज्जित्था'एवं खलु अहं इमेणं एयारवेणं पोरालेणं विपुलेणं तं चेव जाव (सु. 48) कालं प्रणवकंखमाणस्त विहरित्तए त्ति कटु' एवं संपेहेसि, 2 कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलते जेणव मम अंतिए तेणेव हत्यमागए / से नूणं खंदया ! अट्ठ सम?? हंता, अस्थि / अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / [46] तत्पश्चात् 'हे स्कन्दक !' यो सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने स्कन्दक अनगार से इस प्रकार कहा- "हे स्कन्दक ! रात्रि के पिछले पहर में धर्म जागरणा करते हुए तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि इस उदार यावत् महाप्रभावशाली तपश्चरण से मेरा शरीर अब कृश हो गया है, यावत् अब मैं संलेखना-संथारा करके मृत्यु की आकांक्षा न करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org