________________ 384] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन--वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद एवं विभिन्न पहलुओं से उससे सम्बन्धित विचारणा–प्रस्तुत 31 सूत्रों (सू. 52 से 12 तक) में वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के भेद-प्रभेद, इसके कारणभूत कर्मोदयादि, इसका देशबन्धत्व-सर्वबन्धत्व-विचार, इसके प्रयोगबन्धकाल की सीमा, प्रयोगबन्ध का अन्तरकाल, प्रकारान्तर से प्रयोगबन्धान्तर, तथा इनके देश-सर्वबन्धक के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। क्रियशरीरप्रयोगबन्ध के नौ कारण-औदारिकशरीरबन्ध के सवीर्यता, सयोगता आदि आठ कारण तो पहले बतला दिये गए हैं, वे ही 8 कारण वैक्रियशरीरबन्ध के हैं, नौवां कारण हैलब्धि / वैक्रियकरणलब्धि वायुकाय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों की अपेक्षा से कारण बताई गई है। अर्थात्-इन तीनों के वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध नौ कारणों से होता है, जबकि देवों और नारकों के पाठ कारणों से ही वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध होता है; क्योंकि उनका वैक्रियशरीर भवप्रत्ययिक होता है। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के रहने को कालसीमा-बैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध भी दो प्रकार से होता है---देशबन्ध और सर्वबन्ध / वैक्रियशरीरी जीवों में उत्पन्न होता हुअा या लब्धि से वैक्रियशरीर बनाता हुआ कोई जीव प्रथम एक समय तक सर्वबन्धक रहता है। इसलिए सर्वबन्ध जघन्य एक समय तक रहता है। किन्तु कोई औदारिक शरीर वाला जीव वैक्रियशरीर धारण करते समय सर्वबन्धक होकर फिर मर कर देव या नारक हो तो प्रथम समय में वह सर्वबन्ध करता है, इस दृष्टि से वैक्रियशरीर के 'सर्वबन्ध' का उत्कृष्टकाल दो समय का है। औदारिक शरीरी कोई जीव, वैक्रियशरीर करते हुए प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर द्वितीय समय में देशबन्धक होता है और तुरंत ही मरण को प्राप्त हो जाए तो देशबन्ध जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट एक समय कम 33 सागरोपम का है; क्योंकि देवों और नारकों में उत्कृष्टस्थिति में उत्पद्यमान जीव प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर शेष समयों (33 सागरोपम में एक समय कम तक) में वह देशबन्धक ही रहता है। वायुकाय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य के वैक्रियशरीरीय देशबन्ध की स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। नैरयिकों और देवों के वैक्रियशरीरीय देशबन्ध की स्थिति जघन्य तीन समय कम 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम की होती है। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर-प्रौदारिकशरीरी वायुकायिक कोई जीव वैक्रियशरीर का प्रारम्भ करे तथा प्रथम समय में सर्वबन्धक होकर मृत्यु प्राप्त करे, उसके पश्चात् वायुकायिकों में उत्पन्न हो तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वैक्रियशक्ति उत्पन्न नहीं होती। इसलिए वह अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त होकर वैक्रियशरीर करता है, तब सर्वबन्धक होता है। इसलिए सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त होता है। औदारिकशरीरी कोई वायुकायिक जोव वैक्रियशरीर करे, तो उसके प्रथमसमय में वह सर्वबन्धक होता है। इसके बाद देशबन्धक होकर मरण को प्राप्त करे तथा औदारिकशरीरी वायुकायिक में पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल बिता कर अवश्य वैक्रियशरीर करता है / उस समय प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है, इसलिए सर्वबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवां भाग होता है। रत्नप्रभापृथ्वी का दस हजार वर्ष की स्थितिवाला नैरयिक उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है। वहाँ से काल करके गर्भजपंचेन्द्रिय में अन्तर्मुहुर्त रह कर पुनः रत्नप्रभापृथ्वी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org