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________________ अष्टम शतक : उद्देशक-९] [ 383 [79 उ.] गौतम ! उसके सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध के अंतर का काल जघन्य वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट अनंतकाल-वनस्पतिकाल का होता है। इसी प्रकार यावत् अच्युत देवलोक तक के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर जानना चाहिए / विशेष इतना ही है कि जिसकी जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, सर्वबंधान्तर में उससे वर्षपृथक्त्व-अधिक समझना चाहिए / शेष सारा कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए / 50. गेवेज्जकप्पातीय० पुच्छा। गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमम्भहियाई; उक्कोसेणं प्रणंतं कालं, वणस्सइकालो / देसबंधतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [80 प्र.] भगवन् ! वेयककल्पातीत वैक्रिय-शरीर-प्रयोगबंध का अंतर कितने काल का होता है ? [80 उ.] गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व-अधिक 22 सागरोपम का है और उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्टतः वनस्पतिकाल का होता है। 81. जीवस्स णं भंते ! अणुतरोववातिय० पुच्छा। गोयमा ! सन्वबंधतरं जहन्नेणं एक्कत्तीसं सागरोक्माई वासपुहत्तम हयाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई / देसबंधतरं जहन्नेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई। [81 प्र.] भगवन् ! कोई अनुत्तरोपपातिकदेवरूप में रहा हुअा जीव वहाँ से च्यव कर, अनुत्तरोपपातिकदेवों के अतिरिक्त किन्हीं अन्य स्थानों में उत्पन्न हो, और वहाँ से मरकर पुनः अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हो, तो उसके वैक्रियशरीर-प्रयोगबंध का अंतर कितने काल का होता है ? [81 उ.] गौतम ! उसके सर्वबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व-अधिक इकतीस सागरोपम का और उत्कृष्टतः संख्यातसागरोपम का होता है। उसके देशबंध का अंतर जघन्यतः वर्षपृथक्त्व का और उत्कृष्टत: संख्यात सागरोपम का होता है / 82. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्धियसरीरस्स देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो जाब विसेसाहिया वा? गोयमा ! सवस्थोवा जीवा वे उब्बियसरीरस्स सम्वबंधगा, देसबंधगा प्रसंखेज्जगुणा, प्रबंधगा अणंतगुणा / [82 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर के इन देशबन्धक, सर्वबन्धक और प्रबन्धक जीवों में, कौत किनसे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [82 उ.] गौतम ! इनमें सबसे थोड़े वैक्रियशरीर के सर्वबन्धक जीव हैं; उनसे देशबन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे अबन्धक जीव अनन्तगुणे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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