________________ 382] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [76-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिकरूप में रहा हुआ जीव, (वहाँ से मर कर) रत्नप्रभापृथ्वी के सिवाय अन्य स्थानों में उत्पन्न हो, और (वहाँ से मर कर) पुनः रत्नप्रभापृथ्वी में नैरयिकरूप से उत्पन्न हो तो उस रत्नप्रभानरयिक-वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? [76-1 उ.] गौतम ! (ऐसे जीव के वैक्रियशरीरप्रयोगबन्ध के) सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। देशबन्ध का अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल-वनस्पतिकाल का होता है। [2] एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं जा जस्स ठिती जहनिया सा सव्वबंधंतरे जहन्नेणं अंतोमहत्तमाहिया कायवा, सेसं तं चेव / [76-2] इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरकपथ्वी तक जानना चाहिए / विशेष इतना है कि सर्वबन्ध का जघन्य अन्तर जिस नैरयिक की जितनी जघन्य (आयु-) स्थिति हो, उससे अन्तमुहूर्त अधिक जानना चाहिए / शेष सर्वकथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / 77. पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साण जहा वाउकाइयाणं / [77] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों और मनुष्यों के सर्वबन्ध का अन्तर वायुकायिक के समान जानना चाहिए। 78. असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सारदेवाणं एएसि जहा रयणप्पभागाणं, नवरं सवबंधंतरे जस्स जा ठिती जहन्निया सा अंतोमुत्तमम्भहिया कायम्बा, सेसं तं चेव / [78] [इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमार यावत् सहस्रारदेवों तक के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि जिसकी जो जघन्य (प्रायु-) स्थिति हो, उसके सर्वबन्ध का अन्तर, उससे अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिए / शेष सारा कथन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / 79. जीवस्स गं भंते ! आणयदेवत्ते नोप्राणय० पुच्छा। गोयमा ! सम्वबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारससागरोबमाई वासपुहत्तममहियाई; उक्कोसेणं प्रणतं कालं, वणस्सइकालो। देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं; उक्कोसेणं प्रणतं कालं, वणस्सइकालो / एवं जाव अच्चुए; नवरं जस्स जा ठिती सा सव्वबंधंतरे अहानेणं वासपुहत्तममहिया कायव्वा, सेसं तं चेव / [76 प्र.] भगवन् ! अानत देवलोक में देवरूप से उत्पन्न कोई देव, (वहाँ से च्यव कर) आनत देवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाए, (फिर वहाँ से मर कर) पुनः प्रानत देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हो, तो उस पानतदेव के वैक्रियशरीर-प्रयोगबन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org