________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [33 है–सम्यग्दृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता। मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि तो ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं। सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव आयुष्यकर्म को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते; इस कथन का आशय यह है कि अपूर्वकरणादि सम्यग्दृष्टि जीव आयुष्य को नहीं बांधते, जबकि इनसे भिन्न चतुर्थ आदि गुणस्थानों वाले सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टि जीव पूर्ववत् अायुष्यबन्धकाल में आयुष्य को बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते / सम्यगमिथ्यादष्टि जीवों में (मिश्रदृष्टि अवस्था में) आयुष्य बांधने के अध्यवसाय-स्थानों का अभाव होने से ये प्रायुष्य बांधते ही नहीं हैं। (4) संजीद्वार-मन-पर्याप्ति वाले जीवों को संज्ञी कहते हैं। वीतरागसंज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, जबकि सरागसंज्ञी जीव इसे बांधते हैं, इसीलिए कहा गया है-संज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को कदाचित् बांधता है, कदाचित् नहीं बांधता, किन्तु मनःपर्याप्ति से रहित असंज्ञी जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते ही हैं। नोसंजी-नोअसंज्ञी जीवों के तीन भेद होते हैंसयोगी केवली, अयोगी केवली और सिद्ध भगवान, इनके ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध के कारण न होने से ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते / अयोगीकेवली और सिद्ध भगवान् के सिवाय शेष सभी संज्ञी जीव एवं असंज्ञी जीव वेदनीय कर्म को बांधते हैं। इसलिए यह कहना युक्तिसंगत है कि नोसंज्ञी-नो प्रसंजी जीव वेदनीय कर्म भजना से बांधते हैं। तथा पूर्वोक्त आशयानुसार संज्ञी और असंज्ञो, ये दोनों आयुष्यकर्म को भजना से बांधते हैं / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आयुष्यकर्म को बांधते ही नहीं हैं। (5) भवसिद्धिकद्वार-जो भवसिद्धिक वीतराग होते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, किन्तु जो भवसिद्धिक सराग होते हैं, वे इस कर्म को बांधते हैं, इसीलिए कहा गया है-भवसिद्धिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं। अभवसिद्धिक तो ज्ञानाबरणीय कर्म बाँधते ही हैं, जबकि नोभवसिद्धिक-नोत्रभवसिद्धिक (सिद्ध) जीव ज्ञानावरणीय कर्म एवं आयुष्यकर्मादि को नहीं बाँधते / भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक ये दोनों आयुष्यकर्म को पूर्वोक्त आशयानुसार कदाचित् बाँधते हैं, कदाचित् नहीं बाँधते। (6) दर्शनद्वार-चक्षदर्शनी, अचक्षदर्शनी और अवधिदर्शनी, यदि छमस्थवीतरागी हों तो ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, क्योंकि वे केवल बेदनीयकर्म के बन्धक होते हैं। ये यदि सरागीछद्मस्थ हों तो इसे बांधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ये तीनों ज्ञानाबरणीय कर्म को भजना से बाँधते हैं / भवस्थकेवलीदर्शनी और सिद्धकेवलीदर्शनी, इन दोनों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का हेतु न होने से, ये दोनों इसे नहीं बाँधते / चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनो छद्मस्थ वीतरागी और सरागी वेदनीय कर्म को बाँधते ही हैं। केवलदर्शनियों में जो सयोगी केवली हैं, वे वेदनीयकर्म बाँधते हैं, किन्तु अयोगी केवली नहीं बाँधते / इसलिए कहा गया है कि केवलदर्शनी वेदनीयकर्म को भजना से बाँधते हैं। (7) पर्याप्तकद्वार--जिस जीव ने उत्पन्न होने के बाद अपने योग्य आहार-शरीरादि पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हों, वह पर्याप्तक और जिसने पूर्ण न की हो, वह अपर्याप्तक कहलाता है। अपर्याप्तक जीव ज्ञानावरणीयादि सात कर्म बाँधते हैं। पर्याप्तक जीवों के दो भेद-वीतराग और सराग। इनमें से वीतरागपर्याप्तक ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते, सरागपर्याप्तक बाँधते हैं, इसीलिए कहा गया है कि पर्याप्त भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं। नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org