________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र यानी सिद्ध जीव ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मों को नहीं बाँधते / पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों आयुष्यबन्ध के काल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है कि ये दोनों प्रायुष्य बन्ध भजना से करते हैं / (8) भाषकद्वार--भाषालब्धि वाले को भाषक और भाषालब्धि से विहीन को 'प्रभाषक' कहते हैं / भाषक के दो भेद-वीतरागभाषक और सरागभाषक / वीतरागभाषक ज्ञानावरणीय कम नहीं बाँधते, सरागभाषक बाँधते हैं / इसीलिए कहा गया कि भाषक जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बाँधते हैं / अभाषक के चार भेद-अयोगी केवली, सिद्ध भगवान्, विग्रहगतिसमापन्न और एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिकादि के जीव / इनमें से आदि के दो तो ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बाँधते, किन्तु पिछले दो बाँधते हैं। प्रादि के दोनों अभाषक वेदनीय कर्म को नहीं बाँधते, जबकि पिछले दोनों वेदनीय कर्म बांधते हैं। इसीलिए कहा गया है कि प्रभाषक जीव ज्ञानावरणीय और वेदनीयकर्म भजना से बाँधते हैं। भाषकजीव (सयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक के भाषक भी) वेदनीय कर्म बाँधते हैं। (6) परित्तद्वार-एक शरीर में एक जीव हो उसे परित्त कहते हैं, अथवा अल्प-सीमित संसार वाले को भी परित्त जीव कहते हैं। परित्त के दो प्रकार-वीतरागपरित्त और सरागपरित्त / वीतरागपरित्त ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधता, सरागपरित्त बाँधता है। इसीलिए कहा गया है कि परित्तजीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है / जो जीव अनन्त जीवों के साथ एक शरीर में रहता है, ऐसे साधारण कायवाले जीव को 'अपरित्त' कहते हैं, अथवा अनन्त संसारी को अपरित्त कहते हैं। दोनों प्रकार के अपरित्त जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। नोपरित्त-नोअपरित्त अर्थात् सिद्ध जीव, ज्ञानावरणीयादि अष्टकर्म नहीं बांधते / परित्त और अपरित्त जीव आयुष्यबन्ध-काल में आयुष्य बांधते हैं, किन्तु दूसरे समय में नहीं, इसीलिए कहा गया है...परित्त और अपरित्त भजना से आयुष्य बांधते हैं। (10) ज्ञानद्वार-प्रथम के चारों ज्ञान वाले वीतराग-अवस्था में ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, सराग अवस्था में बांधते हैं। इसीलिए इन चारों के ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के विषय में भजना कही गई है। प्राभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों वाले वेदनीय कर्म को बांधते हैं, क्योंकि छद्मस्थ वीतराग भी वेदनीय कर्म के बन्धक होते हैं / केवलज्ञानी वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं, क्योंकि सयोगी केवली वेदनीय के बन्धक तथा अयोगी केवली और सिद्ध वेदनीय के प्रबन्धक होते हैं / (11) योगद्वार--मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी, ये तीनों सयोगी जब 11 वें, 12 वें, 13 वें गुणस्थानवर्ती होते हैं, तब ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बाँधते, इनके अतिरिक्त अन्य सभी सयोगी जीव ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं। इसीलिए कहा गया कि सयोगी जीव भजना से ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं / अयोगी के दो भेद-अयोगी केवली और सिद्ध / ये दोनों ज्ञानावरणीय, वेदनीयादि कर्म नहीं बांधते, किन्तु सभी सयोगी जीव वेदनीयकम के बन्धक होते हैं, क्योंकि सयोगी केवली गुणस्थान तक सातावेदनीय का बन्ध होता है / (12) उपयोगद्वार--सयोगी जीव और अयोगी जीव, इन दोनों के साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) ये दोनों उपयोग होते हैं / इन दोनों उपयोगों में वर्तमान सयोगी जीव, ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मप्रकृतियों को यथायोग्य बांधता है और अयोगी जीव नहीं बांधता, क्योंकि अयोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org