________________ छठा शतक : उद्देशक-३] [35 जीव पाठों कर्मप्रकृतियों का प्रबन्धक होता है। इसीलिए साकारोपयोगी और निराकारोपयोगी दोनों में प्रष्ट कर्मबन्ध की भजना कही है। (13) आहारकद्वार-आहारक के दो प्रकार-वीतरागी और सरागी। वीतरागी आहारक ज्ञानावरणीय कर्म नहीं बांधते, जबकि सरागी आहारक इसे बांधते हैं / इसी प्रकार अनाहारक के चार भेद होते हैं-विग्रहगति-समापन्न, समुद्घातप्राप्त केवली, अयोगीकेवली और सिद्ध / इनमें से प्रथम बांधते हैं, शेष तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते / इसीलिए कहा गया है-आहारक की तरह अनाहारक भी ज्ञानावरणीय कर्म को भजना से बांधते हैं। प्राहारक जोव (सयोगी केवलो तक) वेदनीय कर्म को बांधते हैं, जबकि अनाहारकों में से विग्रहगतिसमापन और समुद्धातप्राप्त केवली ये दोनों अनाहारक वेदनीय कर्म को बांधते हैं, अयोगी केवली और सिद्ध अनाहारक इसे नहीं बांधते / इसीलिए कहा गया है कि अनाहारकजीव वेदनीयकर्म को भजना से बांधते हैं। सभी प्रकार के अनाहारक जीव आयुष्यकर्म के प्रबंधक हैं, जबकि आहारक जीव प्रायुष्यबन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं बांधते / (14) सूक्ष्मद्वार-सूक्ष्मजीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंधक है। बादर जीवों के दो भेदवीतराग और सराग। वीतराग बादरजीव ज्ञानावरणीयकर्म के प्रबन्धक हैं, जबकि सराग बादर जीव इसके बन्धक हैं। नोसूक्ष्म-नोबादर अर्थात्-सिद्ध ज्ञानावरणीयादि सभी कर्मों के प्रबन्धक हैं। सुक्ष्म और बादर दोनों आयुष्यबन्धकाल में आयुष्यकर्म बांधते हैं, दूसरे समय में नहीं। इसीलिए इनका प्रायुष्य कर्मबन्ध भजना से कहा गया है। (15) चरमद्वार---चरम का अर्थ है-जिसका अन्तिम भव है या होने वाला है। यहाँ 'भव्य' को 'चरम' कहा गया है / अचरम का अर्थ है-जिसका अन्तिम भव नहीं होने वाला है अथवा जिसने भवों का अन्त कर दिया है। इस दष्टि से अभव्य और सिद्ध को यहाँ 'अचरम' कहा गया है। चरम जीव यथायोग्य पाठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है और जब चरमजीव अयोगी-अवस्था में हो, तब नहीं भी बांधता / इसीलिए कहा गया है कि चरमजीव आठों कर्मप्रकृतियों को भजना से बांधता है। जिसका कभी चरमभव नहीं होगा—ऐसा अभव्य-अचरम तो आठों प्रकृतियों को बांधता है, और सिद्ध अचरम (भवों का अन्तकर्ता) तो किसी भी कर्मप्रकृति को नहीं बांधता / इसीलिए कहा गया कि अचरम जीव आठों कर्म प्रकृतियों को भजना से बांधता है।' पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपरणा-- 26. [1] एएसि णं भंते ! जीवाणं इथिवेदगाणं पुरिसवेदाणं नपुसगवेदगाणं अवेदगाण यकयरे 2 प्रापा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थिवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा प्रणतगुणा, नपुसगवेदगा प्रणतगुणा। [29-1 प्र.] हे भगवन् ! स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुसकवेदक और अबेदक ; इन जीवों में से कौन किससे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 256 से 259 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org