________________ [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [26-1 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदक हैं, उनसे संख्येयगुणा स्त्रीवेदक जीव हैं, उनसे अनन्तगुणा अवेदक हैं और उनसे भी अनन्तगुणा नपुसकवेदक हैं / [2] एतेसि सर्वसि पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयवाई जाव' सम्वत्योवा जीवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // छट्ठसए : तइयो उद्देसो समतो // [29.2] इन (पूर्वोक्त) सर्व पदों (संयतादि से लेकर चरम तक चतुर्दश द्वारों में उक्त पदों) का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। (संयत पद से लेकर) यावत् सबसे थोडे अचरम जीव हैं, और उनसे अनन्तगुणा चरम जीव हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने लगे। विवेचन-पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा-तीसरे उद्देशक के अन्तिम सूत्र में सर्वप्रथम स्त्रीवेदकादि (पंचमद्वार) जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण करके इसी प्रकार से अन्य 14 द्वारों में उक्त चरमादिपर्यन्त जीवों के अलाबहुत्व का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। वेदकों के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण-यहाँ पुरुषवेदक जीवों की अपेक्षा स्त्रीवेदक जीवों को संख्यातगुणा अधिक बताने का कारण यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक हैं, नर मनुष्य की अपेक्षा नारी सत्ताईस गुणी और सत्ताईस अधिक हैं और तिर्यञ्च नर की अपेक्षा तिर्यञ्चनी तीन गुणी और तीन अधिक हैं। स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अवेदकों को अनन्त गुणा बताने का कारण यह है कि अनिवृत्तिबादरसम्परायादि वाले जीव और सिद्ध जीव अनन्त हैं, इसलिए वे स्त्रीवेदकों की अपेक्षा अनन्तगुणा हैं / अवेदकों से नपुसकवेदी अनन्त इसलिए हैं कि सिद्धों की अपेक्षा अनन्तकायिक जीव अनन्तगुणा हैं, जो सब नपुसक हैं। संयतद्वार से चमरद्वार तक का अल्पबहुत्व.---उपयुक्त अल्पबहुत्व की तरह ही संयतद्वार से चरमद्वार तक 14 ही द्वारों का अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र के तृतीय पद में उक्त वर्णन की तरह कहना चाहिए। यहाँ अचरम का अर्थ सिद्ध-अभव्यजीव लिया गया है और चरम का अर्थ भव्य / अतएव अचरम जीवों की अपेक्षा चरम जीव अनन्तगुणित कहे गए हैं। / / छठा शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / / 1. जाव' पद यहाँ 29-1 सू. के प्रश्न की तरह 'संजय से लेकर चरिम-अचरिम तक प्रश्न और उत्तर का ___ संयोजन कर लेने का सूचक है।। 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 260 (ख) प्रज्ञापना. तृतीयपद, 81 से 111 पृ. तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org