________________ 32] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (6) दशमद्वार में-चक्षुदर्शनी,अचक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव ; (7) ग्यारहवें द्वार में - पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव; (8) बारहवें द्वार में भाषक और प्रभाषक जीव, (6) तेरहवें द्वार में परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त जीव, (10) चौदहवें द्वार में-ग्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानो, मन:पर्यायज्ञानी और केवलज्ञानी जीव तथा मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी विभंगज्ञानी जीव; (11) पन्द्रहवे द्वार में-मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीव; (12) सोलहवें द्वार में--साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी जीव; (13) सत्रहवें द्वार में- आहारक और अनाहारक जीव; (14) अठारहवें द्वार में सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर जीव ; और (15) उन्नीसवे द्वार में-चरम और अचरम जीव / ' पन्द्रह द्वारों में प्रतिपादित जीवों के कर्म-बन्ध-प्रबन्धविषयक समाधान का स्पष्टीकरण(१) स्त्रीद्वार--स्त्री, पुरुष और नपुसक ये तीनों ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं। जिस जीव के स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुसकत्व से सम्बन्धित वेद (कामविकार) का उदय नहीं होता, किन्तु केवल स्त्री, पुरुष या नपुसक का शरीर है, उसे अपगतवेद या नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक जीव कहते हैं / वह अनिवृत्ति बादर सम्परायादि गुणस्थानवर्ती होता है। इनमें से अनिवृत्तिबादर सम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बन्धक होता है, क्योंकि वह सात या छह कर्मों का बन्धक होता है। उपशान्तमोहादि गुणस्थानव” (नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म के प्रबन्धक होते हैं, क्योंकि ये चारों (उपशान्तमोह से अयोगीके वली) गुणस्थान वाले जीव केवल एकविध वेदनीय कर्म के बंधक होते हैं। इसीलिए कहा गया है -- नोस्त्री-नोपुरुष-नोनपुसक ज्ञानावरणीय कर्म को भजना (विकल्प) से बांधता है। और यह (वेदरहित) जीव अायुष्यकर्म को तो बांधता ही नहीं है, क्योंकि निवृत्ति-बादरसम्पराय से लेकर अयोगी केवलीगुणस्थान तक में आयुष्यबन्ध का व्यवच्छेद हो जाता है। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुसकवेदी जीव आयुष्यकर्म को एक भव में एक ही बार बांधता है, वह भी आयुष्य का बन्धकाल होता है, तभी आयुष्यकर्म बांधता है / जब मायुष्य-बन्ध काल नहीं होता, तब आयुष्य नहीं बांधता। इसलिए कहा गया है ये तीनों प्रकार के जीव प्रायुष्यकर्म को कदाचित् बांधते हैं, कदाचित् नहीं बांधते / (2) संयतद्वार--सामायिक, छेदोपस्थापनिक, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसम्पराय, इन चार संयमों में रहने वाला संयत जीव ज्ञानावरणीय को बांधता है, किन्तु यथाख्यात संयमवर्ती संयत जीव उपशान्तमोहादि वाला होने से ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधता; इसीलिए कहा गया हैसंयत भजना से ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है, किन्तु असंयत (मिथ्यादृष्टि प्रादि जीव) और संयतासंयत (पंचम गुणस्थानवर्ती देशविरत) जीव, ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं / जबकि नोसंयतनो-असंयत-नोसंयतासंयत (अर्थात्-सिद्ध) जीव न तो ज्ञानावरणीय कर्म बांधते हैं और न ही आयुष्यादि अन्य कर्म। क्योंकि उनके कर्मबंध का कोई कारण नहीं रहता। संयत, असंयत और संयतासंयत, ये तीनों पूर्ववत् अायुष्यबन्धकाल में आयुष्य बांधते हैं, अन्यथा नहीं बांधते / (3) सम्यग्दृष्टिहार—सम्यग्दष्टि के दो भेद हैं सराग-सम्यग्दृष्टि और वीतराग-सम्यग्दृष्टि / जो वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म को नहीं बांधते, क्योंकि वे तो केवल एकविध वेदनीय कर्म के बन्धक हैं, जबकि सरागसम्यग्दृष्टि ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हैं। इसीलिए कहा 1. बियाहपत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 237 से 242 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org