________________ विनीत व्यक्ति असदाचरण से सदा भयभीत रहता है। उसका मन प्रात्मसंयम में लीन रहता है। अविनीत व्यक्ति सड़े कानों वाली कुतिया की तरह दर-दर ठोकरें खाता है। लोग उसके व्यवहार से घृणा करते हैं। विनीत गुरुजनों के समक्ष सभ्यतापूर्वक बैठता है / वह कम बोलता है। बिना पूछे नहीं बोलता। इस प्रकार वह आत्मसंयम और सदाचार का पालन करता है। विनय का तीसरा अर्थ नम्रता और सव्यवहार है। दशवकालिक 35 में लिखा है-गुरुजनों के समक्ष शयन या आसन उनसे कुछ नीचा रखना चाहिये। नमस्कार करते समय उनके चरणों का स्पर्श कर वन्दना करे / उसके किसी भी व्यवहार में अहंकार न झलके। जब गुरुजन उसे बुलायें, उस समय आसन पर न बैठा रहे। उस समय अंजलिबद्ध होकर बन्दन की मुद्रा में पूछे-क्या आज्ञा है ? गुरुजनों की पाशातना न करे। भगवती'४० में विनय के सात प्रकार बताये हैं-१. ज्ञानविनय, 2. दर्शनविनय, 3. चारित्रविनय, 4. मनोविनय, 5. वचनविनय, 6. काय विनय, 7. लोकोपचारविनय / जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य'४' में लिखा है कि विनय कई प्रकार से लोग करते हैं। उन्होंने विनय के पांच उद्देश्य बताये हैं--- 1. लोकोपचार-लोकव्यवहार के लिये माता-पिता. अध्यापक प्रादि का विनय करना। 2. अर्थविनय-अर्थ के लोभ से सेठ आदि की सेवा-विनय करना। 3. कामविनय-कामवासना की पूर्ति के लिये स्त्री आदि की प्रशंसा करना / 4. भयविनय--अपराध होने पर न्यायाधीश, कोतवाल आदि का विनय करना / 5. मोक्षविनय--आत्मकल्याण के लिये गुरु आदि का विनय करना / विनय के जो चार उद्देश्य हैं, वे जब तक सीमा के अन्तर्गत हैं तब तक उचित हैं। सीमा का उल्लंघन करने पर वह विनय नहीं चापलसी है। चापलसो एक दोष है तो विनय एक सद्गुण है। विनय में सद्गुणों की प्राप्ति और गुणीजनों का सम्मान मुख्य होता है, जबकि चापलसी में दूसरों को ठगने की भावना प्रमुख रूप से रहती है। चीता शिकार पर जब हमला करता है तो पहले अकता है पर उसका झुकना विनय नहीं है / उसमें कपट की भावना रही हुई है। उसका झुकना उसके कर्मबन्धन का कारण है। आभ्यन्तर तप का तृतीय प्रकार यावत्य अर्थ है-धर्मसाधना में सहयोग करने वाली प्राहार आदि वस्तुओं से सेवा-शुश्रुषा करना। वै गवत्य से तीर्थकरनाम गोत्र कर्म का उपार्जन हो सकता है।* तीर्थकर आध्यात्मिक वैभव को दृष्टि से विश्व के अद्वितीय पुरुष हैं। वे अनन्त बली होते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास उनके जीवन में होता है / देवेन्द्र, नरेन्द्र भी उनके चरणों में नत होते हैं / एक जैनाचार्य ने लिखा है कि एक बार गणधर गौतम ने भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक साधक प्रापको सेवा करता है और एक साधक रोगी, वद्ध प्रादि श्रमणों की सेवा करता है, उन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? आप किसे धन्यवाद प्रदान करेंगे? 139. दशवकालिक 9 / 2 / 17 140. भगवती 257 141. विशेषावश्यकभाष्य 310 * उत्तराध्ययन 29/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org