________________ प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं, उनमें सर्वप्रथम प्रायश्चित्त है। प्राचार्य भद्रबाहु 1 3 ने लिखा है जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है / पाप-विशुद्धि करने की क्रिया प्रायश्चित्त है। तरवार्थराजवातिक' 33 में लिखा है-अपराध का नाम प्राय: है और चित्त का अर्थ है शोधन / जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। मानव प्रमादवश कभी दोष का सेवन कर लेता है, पर जिसकी आत्मा जागरूक है, धर्म-अधर्म का विवेक रखती है, परलोक सुधार की भावना है, अनुचित आचरण के प्रति जिसके मन में पश्चाताप है, दोष के प्रति बलानि है, बह गुरुजनों के समक्ष दोष को प्रकट कर प्रायश्चित्त की प्रार्थना करता है। गुरु दोषविशुद्धि के लिये तपश्चरण का आदेश देते हैं। यहाँ यह समझना होगा कि प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। दण्ड दिया जाता है और प्रायश्चित्त लिया जाता है। दण्ड अपराधी के मानस को झकझोरता नहीं। दण्ड केवल बाहर अटक कर ही रह जाता है अन्तर्मानस को स्पर्श नहीं करता। दण्ड पाकर भी कदाचित अपराधी अधिक उद्दण्ड होता है, जबकि प्रायश्चित्त में अपराधी के मानस में पश्चात्ताप होता है। भूल करना प्रात्मा का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। जैसे शरीर में फोड़े, फुन्सी हो जाते हैं, वे फोडे, फुन्सी शरीर के विकार हैं, वैसे ही अपराध मानव के अन्तर्मन के विकार हैं। जिन विकारों के कारण मानव अपराध करता है, उन्हें शास्त्रीय भाषा में प्रतिसेवन कहा है। भगवती ३४और स्थानांग: ३५यादि में प्रतिसेवन के दस प्रकार बताये हैं-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, प्रातुर, आपत्ति, शंकित, सहसाकार, भय, प्रद्वेष और विमर्श / प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। 36 आभ्यन्तर तप का दूसरा भेद विनय है। जिसका मानस सरल होता है वही गुरुजनों का विनय करता है / जहाँ अहंकार का प्राधान्य है वहाँ विनय नहीं है। सूत्रकृतांग-टीका में विनय की परिभाषा करते हुए लिखा है-जिसके द्वारा कर्मों का विनयन किया जाता है वह विनय है। 13 0 उत्तराध्ययन'३८ शान्त्याचार्य टोका में लिखा है-जो विशिष्ट एवं विविध प्रकार का नय नीति है, वह विनय है तथा जो विशिष्टता की ओर ले जाता है, वह विनय है। दशवकालिक में विनय को धर्म का मूल कहा गया है। जैन आगम साहित्य में विनय शब्द का प्रयोग हजारों बार हया है। जब हम प्रागम साहित्य का परिशीलन करते हैं तो विनय शब्द तीन अर्थों में व्यवहत मिलता है 1. विनय-अनुशासन, 2. विनय--प्रात्मसंयम (शील, सदाचार), 3. विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार। उत्तराध्ययन में विनय का स्वरूप प्रतिपादित हुमा है। वह मुख्य रूप से अनुशासनात्मक है। गुरुजनों की आज्ञा, इच्छा आदि का ध्यान रखकर नाचरण करना अनुशासनविनय है। 132. पाव छिदति जम्हा, पायच्छित्तं ति भगणते तेणं / -आवश्यक नियुक्ति 1508 133. अपराधो वा प्राय: चित्त---शुद्धि: / प्रायसः चित्तं--प्रायश्चित्तं-अपराधविशुद्धि: ।---राजवातिक 942211 134. भगवती 257 135. स्थानांग 10 136. भगवती शतक 25, उद्देशक 7 137. सूत्रकृतांग टीका 1, पत्र 242 138. उत्तराध्ययन शान्याचार्य टीका, पत्र 19 [48] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org