________________ प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगने का सयुक्तिक निरूपण 118, 'बोच्छिन्ना' शब्द का तात्पर्य 116, 'अहासुत्तं' और 'उस्सुत्तं' का तात्पर्यार्थ 116, अंगारादि दोष से युक्त और मुक्त तथा क्षेत्रातिकान्तादि दोषयुक्त एवं शस्त्रातीतादियुक्त पान-भोजन का अर्थ 116, अंगारादि दोषों का स्वरूप 122, क्षेत्रातिक्रान्त का भावार्थ 123, कुक्कुटी-अण्ड प्रमाण का तात्पर्य 123, शस्त्रातीतादि को शब्दशः व्याख्या 123, नवकोटि-विशुद्ध का अर्थ 123, उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष 123 / द्वितीय उद्देशक-विरति (सूत्र 1-38) 124-136 सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप 124, सप्रत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान का रहस्य 125, प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण 126, प्रत्याख्यान की परिभाषाएँ 127, दशविध सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप 127, अपश्चिम मारणान्तिक संल्लेखना जोषणा-आराधनता की व्याख्या 126, जीव और चौवीस दण्डकों में मूलगुण-उत्तरगुण प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी की वक्तव्यता 126, मूलोत्तर गुणप्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी जीव, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों में अल्पबहुत्व 130, सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा अप्रत्याख्यानी का जीवों तथा चौवीस दण्डकों में अस्तित्व और अल्पबहुत्व 131, जीवों तथा चौवीस दण्डकों में संयत प्रादि तथा प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 133, जीवों को शाश्वतता-प्रशाश्वतता का अनेकान्तशैली से निरूपण 135 / तृतीय उद्देशक-स्थावर (सूत्र 1-24) 137-146 बनस्पतिकायिक जीवों के सर्वाल्पाहार काल एवं सर्व महाकाल की वक्तव्यता 137, प्रावट और वर्षा ऋतु में बनस्पतिकायिक सर्वमहाहारी क्यों? 138, ग्रीष्मऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हुए भी वनस्पतियाँ पत्रित-पुष्पित क्यों ? 138, बनस्पतिकायिक मूल जीवादि से स्पृष्ट मूलादि के पाहार के संबन्ध में सयुक्तिक समाधान 138, वृक्षादि रूप वनस्पति के दस प्रकार 136, मूलादि जीवों से व्याप्त मूलादि द्वारा पाहारग्रहण 136, आलू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व और विभिन्न जीवत्व की प्ररूपणा 136, 'अनन्त जीवा विविहसत्ता' को व्याख्या 136, चौवीस दण्डकों में लेश्या की अपेक्षा अल्पकर्मत्व और महाकर्मत्व की प्ररूपणा 140, सापेक्ष कथन का प्राशय 141, ज्योतिष्क दण्डक में निषेध का कारण 141, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पथक्त्व का निरूपण 141, वेदना और निर्जरा की व्याख्या के अनुसार दोनों के पथक्त्व की सिद्धि 145, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की शाश्वतता-प्रशाश्वतता का निरूपण 146, अव्युच्छित्तिनयार्थता व्युच्छित्तिनयार्थता का अर्थ 146 / चतुर्थ उद्देशक-जीव (सूत्र 1-2) 147-148 षविध संसारसमापन्नक जीवों के सम्बन्ध में वक्तव्यता 147, षडविध संसारसमापनक जीवों के सम्बन्धों में जीवाभिगमसूत्रोक्त तथ्य 148 / पंचम उद्देशक-पक्षी (सूत्र 1-2) खेचर-पंचेन्द्रिय जीवों के योनिसंग्रह आदि तथ्यों का अतिधेशपूर्वक निरूपण 146, खेचरपंचेन्द्रिय जीवों के योनिसंग्रह के प्रकार 150, जीवाभिगमोक्त तथ्य 150 / [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org