________________ विशेषित 12 दण्डकों की व्याख्या 86, लवणादि असंख्यात द्वीप-समुद्रों का स्वरूप और प्रमाण 89, लवणसमुद्र का स्वरूप 60, अढाई द्वीप और दो समुद्रों से बाहर के समुद्र 60, द्वीप-समुद्रों के शुभ नामों का निर्देश 61, ये द्वीप-समुद्र उद्धार, परिमाण और उत्पाद वाले 61 / / नवम उद्देशक-कर्म (सूत्र 1-13) 62--68 ज्ञानावरणीयबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्ध-प्ररूपणा 62, बाह्य पुद्गलों के ग्रहणपूर्वक महद्धिकादि देव की एक वर्णादि के पुद्गलों को अन्य वर्णादि में विकुर्वण एवं परिणमन-सामर्थ्य 6.2, विभिन्न वर्णादि के 25 पालापक सुत्र 65, पांच वर्गों के 10 द्विकसंयोगी पालापक सत्र 65. दो गंध का एक पालापक 65, पांच रस के दस पालापक सूत्र 95, आठ स्पर्श के चार आलापक सूत्र 65, अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या युक्त देवों द्वारा अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले देवादि को जानने-देखने की प्ररूपणा 65, तीन पदों के बारह विकल्प 67 / दशम उद्देशक-अन्यतीर्थी (सूत्र 1-15) 91-105 ___ अन्यतीथिक-मतनिराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्व जीवों के सुख-दुःख को अणमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपणा 66, दृष्टान्त द्वारा स्वमत-स्थापना 100, जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बन्ध में अनेकान्तशैली में प्रश्नोत्तर 100, दो बार जीव शब्दप्रयोग का तात्पर्य 102, जीव कदाचित् जीता है, कदाचित् नहीं जीता, इसका तात्पर्य 102, एकान्त दुःखवेदन रूप अन्यतीथिक मत निराकरणपूर्वक अनेकान्तशैली से सुख-दुःखादि वेदन-प्ररूपणा 102, समाधान का स्पष्टीकरण 103, चौबीस दण्डकों में प्रात्म-शरीरक्षेत्रावगाढ़ पुद्गलाहार प्ररूपणा 104, केवली भगवान् का आत्मा द्वारा ज्ञान-दर्शन सामर्थ्य 104, दसवें उद्देशक की संग्रहणी गाथा 105 / सप्तम शतक 106-204 प्राथमिक 106 __सप्तम शतकगत दस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय सप्तम शतक की संग्रहणी गाथा 108 प्रथमउद्देशक आहार (सूत्र 2-20) 108-123 जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपणा 108, परभवगमनकाल में आहारकअनाहारक रहस्य 106, सल्पिाहारता : दो समय में 106. लोक के संस्थान का निरूपण 110, लोक का संस्थान 110, श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को लगने वाली क्रिया 111, साम्परायिक क्रिया लगने का कारण 111. श्रमणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान 111, अहिंसावत में अतिचार नहीं लगता 112, श्रमण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को लाभ 112, चयति क्रिया के विशेष अर्थ 113, दानविशेष से बोधि और सिद्धि की प्राप्ति 114, निःसंगतादि कारणों से कर्म रहित (मुक्त) जीव की (ऊर्व) गति-प्ररूपणा 114, अकर्म जीव की गति के छह कारण 116, दुःखी को दुःख की स्पृष्टता आदि सिद्धान्तों की प्ररूपणा 117, दुःखी और अदु:खी की मीमांसा 117, उपयोगरहित गमनादि [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org