________________ 31, पन्द्रह द्वारों में प्रतिपादित जीवों के कर्मबन्ध-प्रबन्ध विषयक समाधान का स्पष्टीकरण 32, पन्द्रह द्वारों में उक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 35, वेदकों के अल्प बहुत्व का स्पष्टीकरण 36, संयतद्वार से चरमद्वार तक का अल्पबहुत्व 36 / चतुर्थ उद्देशक–सप्रदेश (सूत्र 1-25) 37-52 कालादेश से चौवीस दण्डक के एक-अनेक जीवों की सप्रदेशता-अप्रदेशता का निरूपण 37, आहारक आदि से विशेषित जीवों में सप्रदेश-अप्रदेश-वक्तव्यता 38, सप्रदेश आदि चौदह द्वार 42, कालादेश की अपेक्षा जीवों के भंग 42, समस्त जीवों में प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान के होने, जानते, करने तथा आयुष्यबन्ध के सम्बन्ध में प्ररूपणा 50, प्रत्याख्यान-ज्ञानसूत्र का प्राशय 52, प्रत्याख्यान-करणसूत्र का प्राशय 52, प्रत्याख्यानादि निर्वर्तित प्रायुष्यबंध का आशय 52. प्रत्याख्यानादि से सम्बन्धित संग्रहणी गाथा 52 / पंचम उद्देशक-तमस्काय (सूत्र 1-43) तमस्काय के सम्बन्ध में विविध पहलुत्रों से प्रश्नोत्तर 53, तमस्काय की संक्षिप्त रूपरेखा 57, कठिन शब्दों की व्याख्या 58, विविध पहलुओं से कृष्णराजियों के प्रश्नोत्तर 58, तमस्काय और कृष्णराजि के प्रश्नोत्तरों में कहाँ सादृश्य, कहाँ अन्तर ? 62, कृष्णराजियों के आठ नामों की व्याख्या 63, लोकान्तिक देवों से सम्बन्धित विमान, देव-स्वामी, परिवार, संस्थान, स्थिति, दूरी आदि का विचार 63, विमानों का अवस्थान 66, लोकान्तिक देवों का स्वरूप 66, लोकान्तिक विमानों का संक्षिप्त निरूपण 67 / छठा उद्देशक-भव्य (सूत्र 1-8) 68-72 चौवीस दण्डकों के प्रावास, विमान आदि की संख्या का निरूपण 68, चौवीस दण्डकों के समुद्घात-समवहत जीव की आहारादि प्ररूपणा 66, कठिन शब्दों के अर्थ 72 / सप्तम उद्देशक-शालि (सूत्र 1-6) कोठे आदि में रखे हुए शालि आदि विविध धान्यों की योनिस्थिति-प्ररूपणा *73, कठिन शब्दों के अर्थ 74, मुहूर्त से लेकर शीर्षप्रहेलिका-पर्यन्त गणितयोग्य काल-परिमाण 74, गणनीय काल 75, पल्योपम, सागरोपम आदि औपमिक काल का स्वरूप और परिमाण 76, पल्यापम का स्वरूप और प्रकार (उद्धारपल्योपम, अद्धापल्योपम, क्षेत्रफल्योपम) 78, सागरोपम के प्रकार * (उद्धारसागरोपम, अद्धासागरोपम, क्षेत्रसागरोपम) 76, सुषमसुषमाकालीन भारतवर्ष के भाव. आविर्भाव का निरूपण 80 / अष्टम उद्देशक-पृथ्वी (सूत्र 1-36) रत्नप्रभादि पृथ्वियों तथा सर्व देवलोकों में गृह-ग्राम-मेघादि के अस्तित्व और कर्तृत्व की प्ररूपणा 82, वायुकाय, अग्निकाय आदि का अस्तित्व कहाँ है, कहां नहीं ? 86, महामेघ-सस्वेदनवर्षणादि कहाँ कौन करते हैं ? 86, जीवों के प्रायुष्यबन्ध के प्रकार एवं जाति-नाम-निधत्तादि बारह दण्डकों की चौवीस दण्डकीय जीवों में प्ररूपणा 86, षविध आयुष्यबन्ध की व्याख्या 88, आयुष्य जात्यादि नामकर्म से विशेषित क्यों ? 88, आयुष्य और बन्ध दोनों में अभेद 86, नामकर्म से [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org