________________ छठा उद्देशक-आयु (सूत्र 1-37) 151-163 चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आयुष्यबन्ध और आयुष्यवेदन के सम्बन्ध में प्ररूपणा 151. चौवीस दण्डकवी जीवों के महावेदना-अल्पवेदना के सम्बन्ध में प्ररूपणा 152, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में अनाभोगनिर्वतित आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा 154, आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वर्तित आयुष्य 154, समस्त जीवों के कर्कश-अकर्कश वेदनीयकर्मबन्ध का हेतुपूर्वक निरूपण 154, कर्कशवेदनीय और अकर्कशवेदनीय कर्मबन्ध कैसे और कब? 156, चौवीस दण्डक वर्ती जीवों के साताअसातावेदनोय कर्मबन्ध और उनके कारण 156, दुःषम-दुःषमकाल में भारतवर्ष, भारतभमि एवं भारत के मनुष्यों के प्राचार (प्राकार) और भाव का स्वरूप-निरूपण 157, छठे पारे के मनुष्यों के पाहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के प्राचारादि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन 161 / / सप्तम उद्देशक-अनगार (सूत्र 1.28) 164-173 संवत एवं उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को लगने वाली क्रिया की प्ररूपणा 164, विविध पहलुनों से काम-भोग एवं कामी-भोगी के स्वरूप और उनके अल्पबहुत्व को प्ररूपणा 165, क्षीणभोगी छद्मस्थ अधोऽवधिक परमावधिक एवं केवली मनुष्यों में भोगित्व-प्ररूपणा 169, भोग भोगने में असमर्थ होने से हो भोगत्यागी नहीं 170, असंज्ञी और समर्थ (संज्ञी) जीवों द्वारा प्रकामनिकरण और प्रकामनिकरण वेदन का सयुक्तिक निरूपण 171, असंज्ञी और संज्ञी द्वारा प्रकाम-प्रकाम निकरण वेदन क्यों और कैसे ? 173 / अष्टम उद्देशक-छद्भस्थ (सूत्र 1-6) 174-178 संयमादि से छद्मस्थ के सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का निषेध 174, हाथी और कुंथुए के समान जीवत्व की प्ररूपणा 174, राजप्रश्नीयसूत्र में समान जीवत्व की सदृष्टान्त प्ररूपणा 175, चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा कृत पापकर्म दुःखरूप और उसकी निर्जरा सुखरूप 175, संज्ञानों के दस प्रकार–चौवीस दण्डकों में 175, संज्ञा की परिभाषाएँ 176, संज्ञाओं की व्याख्या 176, नैरयिकों को सतत अनुभव होने वाली दस वेदनाएँ 176, हाथी और कुंथुए को समान अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगने की प्ररूपणा 177, प्राधाकर्मसेबी साधु को कर्मबन्धादि निरूपणा 177 ! नवम उद्देशक असंवृत (सूत्र 1-24) 176-164 असंवत अनगार द्वारा इहगत बाह्यपुद्गल ग्रहणपूर्वक विकुर्वण-सामर्थ्य-निरूपण 176 'इहगए' 'तत्थगए' एवं 'अन्नत्थगए' का तात्पर्य 180, महाशिलाकण्टकसंग्राम में जय-पराजय का निर्णय 180, महाशिलाकण्टकसंग्राम के लिये कणिक राजा की तैयारी और अठारह गणराजाओं पर विजय का वर्णन 181 महाशिलाकण्टकसंग्राम उपस्थित होने का कारण 183, महाशिलाकण्टकसंग्राम में कणिक की जीत कसे हुई ? 183, महाशिलाकण्टकसंग्राम के स्वरूप, उसमें मानवविनाश और उनकी मरणोत्तर गति का निरूपण 184, रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का तथा उसमें मृत मनुष्यों की संख्या, गति आदि का निरूपण 185, ऐसे युद्धों में सहायता क्यों? 187, 'संग्राम में मृत मनुष्य देवलोक में जाता है', इस मान्यता का खण्डनपूर्वक स्वसिद्धान्त-मंडन 187, वरुण की देवलोक में और उसके मित्र की मनुष्यलोक में उत्पत्ति और अंत में दोनों की महाविदेह में सिद्धि का निरूपण 163 1 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org