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________________ 360] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है / विवेचन--मायो अनगार द्वारा कृत विकुर्वणा का और अमायी द्वारा कृत अविकुर्वणा का फल-प्रस्तुत पन्द्रहवें सूत्र में मायी अनगार द्वारा कुत विकुर्वणारूप दोष का कुफल और अमायी अनगार द्वारा विकुर्वणा न करने का सुफल प्रतिपादित किया है। विकुर्वणा और अभियोग दोनों के प्रयोक्ता मायो--यद्यपि इससे पूर्वसूत्रों में विकुव्वई' के बदले 'अभिजुजई' का प्रयोग किया गया है, और इन दोनों क्रियापदों का अर्थ भिन्न है, किन्तु यहाँ मूलपाठ में विकुर्वणा के सम्बन्ध में प्रश्न करके उत्तर में जो 'फल' बताया गया है, वह अभियोग क्रिया का भी समझना चाहिए, क्योंकि अभियोग भी एक प्रकार की विक्रिया ही है। दोनों के कर्ता मायो (प्रमादी एवं कषायवान्) साधु होते हैं।' माभियोगिक प्रनगार का लक्षण-उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार “जो साधक केवल वैषयिक सुख (साता), स्वादिष्ट भोजन (रस) एवं ऋद्धि को प्राप्त करने हेतु मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र साधना या विद्या आदि की सिद्धि से उपजीविका करता है, जो औषधिसंयोग (योग) करता है, तथा भूति (भस्म) डोरा, धागा, धूल आदि मंत्रित करके प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना करता है।" ऐसी आभियोगिकी भावना वाला साधु आभियोगिक (देवलोक में महद्धिक देवों की आज्ञा एवं अधीनता में रहने वाले दास या मृत्यवर्ग के समान) देवों में उत्पन्न होता है। ये पाभियोगिक देव अच्युत देवलोक तक होते हैं / इसलिए यहाँ 'अण्णयरेसु' (आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक में) शब्द प्रयोग किया गया है। 1. भगवती सूत्र प्र. वृत्ति पत्रांक 191 2. (क) भगवतीसूत्र (टोकानुवाद-टिप्पणयुक्त) खण्ड 2, पृ. 99 (ग) मंताजोगं काउं, भूइकम्मं च जे पउंजंति / / साय-रस-इढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ // --उत्तराध्ययन. अ. 26, गा. 262, क. पा. पृ. 1103 -प्रज्ञापनासूत्र पद 20, पृ. 400-406 / * (ग) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 191 (क) गच्छाचारपइना और वृहत्कल्प वृत्ति में भी इसी प्रकार की गाथा मिलती है / (ङ) “एप्राणि गारवट्ठा कुणमाणो प्राभियोगिअं बंधइ / बीअं गारबरहिरो कुव्वं पाराहगत्तं च // " / इन मन्त्र, प्रायोग और कौतुक आदि का उपयोग, जो गौरव (साता-रस-ऋद्धि) के लिए करता है, वह आभियोगिक देवायुरूप कर्म बांध लेता है। दूसरा-अपवादपद भी है, कि जो निःस्पृह, अतिशय ज्ञानी गौरवहेतु से रहित सिर्फ प्रवचन-प्रभावना के लिए इन कौतुकादि का प्रयोग करता है, वह पाराधकभाव को प्राप्त होता है, उच्चगोत्र कर्म बांधता है। -अभिधान राजेन्द्रकोष, भा. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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